निर्णय: भाग 1 वक्त के दोहराये पर खड़ी सोनू की मां

रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर जब वह टैक्सी लेने लगी तो पलभर के लिए उस का मन हुआ कि घर न जा कर वह कहीं भाग जाए सोनू को ले कर. फिर उतनी ही त्वरित गति से उस की आंखों के सामने उस की अपनी तीनों मासूम बेटियों का चेहरा घूम गया. अपना घर, पति, बच्चे एक स्त्री का संपूर्ण संसार तो बस इन्हीं तानोंबानों में जकड़ा होता है. भाग सकने की गुंजाइश ही कहां छोड़ता है स्त्री का अपना मन. नहीं, हार मानने से नहीं चलेगा. स्त्री जब एक बार मातृत्व के गुरुगंभीर पद पर आसीन हो जाती है तो उस पद की रक्षा करने का दुर्दम्य साहस भी स्वयमेव ही चला आता है. अपनी सुषुप्त शक्ति को पहचानने भर की देर होती है, बस. नहीं, वह हार नहीं मानेगी.

भीतर ही भीतर स्वयं को दृढ़ता का पाठ पढ़ाती, तौलती, परखती वह टैक्सी में जा बैठी, रामबाग, अपने घर का पता बता कर उस ने सोनू को सीट पर बिठा दिया. बैग आगे की खाली सीट पर रख दिया. पर्स  से उस ने सोनू के दूध की बोतल निकाली और उसे पकड़ा दी. सोनू उस से टिक कर अधलेटा हो गया. खुद को उस ने सीट पर ढीला छोड़ दिया तथा आंखें बंद कर लीं. अपने 3 दिन के ससुराल प्रवास की एकएक बात उस के सिर पर हथौडे़ सी बज रही थी. विदा लेते समय छोटी ननद सरिता ने भावावेग में उस का हाथ कस कर पकड़ लिया था. उस ने कहा था, ‘अपनाया है तो रिश्तों को ईमानदारी से निभाओ. सचाइयों से घबरा कर संबंधों के प्रति बेईमान नहीं हुआ जा सकता, फिर मांबच्चे का संबंध किसी भी सहमति का मुहताज नहीं होता.’

‘ईमानदारी से भी अधिक जरूरी साहस है इस रिश्ते में.’ अपनी भर्राई हुई टूटती आवाज में कह कर वह कार में बैठ गई थी. सरिता वहीं, घर के गेट पर खड़ी उसे जाता हुआ देखती रही थी. वापसी के पूरे सफर में सरिता की कही बातें उस के दिमाग में घूमती रही थीं. वह रोना चाहती थी, चिल्लाचिल्ला कर अपने भीतर का सारा आक्रोश निकाल देना चाहती थी. क्यों उस के आसपास के सारे लोग इतने स्वार्थी हो कर सोच रहे हैं. क्यों सरिता के सिवा किसी अन्य को उस का दर्द दिखाई नहीं देता. इतना निर्मम तथा कठोर कैसे हो सकता है कोई. यों तो वह जब भी ससुराल से लौटी है, कभी खाली नहीं लौटी. मां तथा बड़ी ननद, सुषमा जिज्जी की तीखीकड़वी बातों से भरा दुखी, हताश दिलदिमाग ले कर ही लौटी है. पर डेढ़ साल पहले जब पहली बार नन्हे से सोनू को गोद में लिए ससुराल आई थी तो इन्हीं मां तथा जिज्जी ने हम दोनों को जैसे पलकों पर उठा लिया था. पोते को गोद में उठाए दादी पूरे महल्ले में घूम आई थीं. रोज शाम के वक्त उस की नजर उतारती थीं…और अब? एक सच ने मानो ममता, प्रेम, वात्सल्य सब पर डाका ही डाल दिया था. आने से पहले उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था कि वहां ये सब हो जाएगा. अनमनी अवश्य थी, पहली बार अकेले जा रही थी, जबकि लड़कियों की परीक्षाएं सिर पर थीं. बूआ के पोते के नामकरण पर जाना कोई इतना जरूरी तो नहीं था, पर नीलाभ नहीं माने. दरअसल, उस का ससुराल और नीलाभ की बूआ का घर एक ही महल्ले में है. इसीलिए उन का तर्क था कि बूआ के घर की खुशी में सम्मिलित होने के बहाने वह अपने ससुराल वालों से भी मिल आएगी. साथ ही, सारी बिरादरी से भी मेलमुलाकात हो जाएगी. एक तरह से नीलाभ ने उसे जबरन ठेलठाल कर भेजा था.

उसे चिढ़ हो रही थी नीलाभ की बचकानी जिद पर. वह उस के पीछे छिपी उन की मंशा को भांप नहीं पाई थी. ट्रेन  4 घंटे लेट थी. ससुराल का ड्राइवर स्टेशन पर उस का इंतजार कर रहा था. घर पहुंची तो वहां की हवा में उसे कुछ भारीपन सा लगा था. मां व जिज्जी दोनों ही कुछ उखड़ीउखड़ी लग रही थीं. सोनू को भी दोनों में से किसी ने हुलस कर पहले की भांति गोद में उठा कर लाड़प्यार की बौछार नहीं की थी. उस का जी तो उसी समय हुड़क गया था. जेठानी प्रभा औपचारिक नमस्ते के बाद रसोई में जा घुसी थीं. कुछ देर बाद चायनाश्ता व सोनू का दूध रख कर फिर गायब  हो गई थीं. नौकर से कह कर मां ने उस का सामान ऊपर वाले छोटे कमरे में रखवा दिया था. शाम 5 बजे बूआ के घर के लिए निकलने व अभी ऊपर जा कर आराम करने की हिदायत दे कर दोनों उसे बैठक में अकेला छोड़ कर निकल गई थीं. उस का व सोनू का खाना भी जिज्जी ने ऊपर ही भिजवा दिया था, जिस का एक निवाला तक उस के गले नहीं उतरा था.

4 साढ़े 4 बजे वह नीचे आई तो देखा, मां ने पूरी तैयारी कर रखी है. अपनी ननद के घर जोजो नेग ले कर जाने हैं वे सब पलंग पर फैला रखे थे. उसे सब दिखाती हुई मां बोलीं, ‘छोरियां चाहे बूढ़ी ही क्यों न हों, रहेंगी छोरियां ही न घर की. माई, बापू और भाई का साया सिर पर से उठ गया तो क्या हुआ, भौजी तो जिंदा है न अभी. मेरे होते कभी मायके की कमी न अखरेगी तुम्हारी बूआ को. इतने दिनों के बाद आई है उस के घर में खुशी, सारी बिरादरी देखेगी, इसीलिए करना पड़े है ये सब.’ लहूलुहान कलेजे के बावजूद हंसी ने एक हिलोर ले ली थी, जिसे उस ने भीतर ही दबा लिया. दोहरी बातें करने में पारंगत हैं मां. तोहफे तो उस के पास भी थे. नीलाभ ने अपनी मां, जिज्जी, भाई, भाभी तथा बच्चों के लिए अलगअलग उपहार भेजे थे. सब ज्यों के त्यों रखे थे बैग में. जब बैग खोला तो सारे उपहार मुंह चिढ़ाते से लगे थे उसे. ये जो सब मिल कर उस की भावनाओं की, ममता की हत्या करने पर तुले हुए हैं, उन्हें किस कलेजे से जा कर थमाए उपहार.

फिर पता नहीं क्या सोच कर वह उठी और अपनी तरफ से बूआ को देने लाए हुए उपहार निकाल लाई. बूआ तथा उन की बहू की साड़ी व नवजात पोते के लिए चांदी के तार में काले मोतियों वाले कड़े लाई थी वह. मां को दिखा कर ये सामान भी  उस ने अन्य वस्तुओं के साथ पलंग पर रख दिया. कुछ भी हो, बिरादरी के सामने तो घर की बातों को ढक कर ही रखना पड़ता है. बहू हो कर वह अलग से कैसे करेगी लेनदेन.

मन की कड़वाहट मन में ही दबा ली थी उस ने इस समय. कुछ ही देर पहले तो मां ने छोरियां जनने वाली डायन कहा था उसे. ‘मुझे तो पहले से ही शक था कि यह इस का अपना जाया नहीं है,’ जिज्जी बोली थीं. दोनों आंगन में चारपाई डाले साग बीन रही थीं. उन्हें पता नहीं था कि वह आंगन के ठीक ऊपर लगे लोहे के जाल की मुंडेर पर खड़ी सुन रही है. अभी नहा कर निकली थी वह. सफर में पहने अपने व सोनू के कपड़े धो डाले थे उस ने. तार पर सूखने को डाल रही थी. ‘इस औरत ने पता नहीं क्या जादू कर रखा है. अपना नीलाभ तो ऐसा कभी नहीं था. इतने साल भनक तक न लगने दी सचाई की. अब जो भी है, इस अपाहिज से पीछा तो छुड़ाना ही होगा भाई का,’ जिज्जी की जहरीली फुफकार से उस का रोमरोम जल उठा था. कोई स्त्री इतनी कठोर कैसे हो सकती है. मां कहती हैं, उन का बेटा उस के बहकावे में आ गया है. बेशक, अलग गृहस्थी बसा कर बैठी है, पर बहू है घर की, बहू बन कर रहे. सिर पर चढ़ कर नाचने न देंगे. नीलाभ अनाथ नहीं है, उस के सिर पर मां का साया है अभी. बहू हो कर इतना बड़ा निर्णय लेने का उस अकेली को कोई हक नहीं.’

महकती विदाई: क्या था अंजू का राज

अम्मां की नजरों में शारीरिक सुंदरता का कोई मोल नहीं था इसीलिए उन्होंने बेटे राज के लिए अंजू जैसी साधारण लड़की को चुना. खाने का डब्बा और कपड़ों का बैग उठाए हुए अंजू ने तेज कदमों से अस्पताल का बरामदा पार किया. वह जल्द से जल्द अम्मां के पास पहुंचना चाहती थी. उस की सास जिन्हें वह प्यार से अम्मां कह कर बुलाती है, अस्पताल के आई.सी.यू. में पड़ी जिंदगी और मौत से जूझ रही थीं. एक साल पहले उन्हें कैंसर हुआ था और धीरेधीरे वह उन के पूरे शरीर को ही खोखला बना गया था. अब तो डाक्टरों ने भी उम्मीद छोड़ दी थी.

आज जब वह डा. वर्मा से मिली तो वह बोले, ‘‘आप रोगी को घर ले जा सकती हैं. जितनी सांसें बाकी हैं उन्हें आराम से लेने दो.’’

पापा मानने को तैयार नहीं थे. वह बोले, ‘‘डाक्टर साहब, आप इन का इलाज जारी रखें. शायद कोई चमत्कार हो ही जाए.’’

‘‘अब किसी चमत्कार की आशा नहीं है,’’ डा. वर्मा बोले, ‘‘लाइफ सपोर्ट सिस्टम उतारते ही शायद उन्हें अपनी तकलीफों से मुक्ति मिल जाए.’’

पिछले 2 माह में अम्मां का अस्पताल का यह चौथा चक्कर था. हर बार उन्हें आई.सी.यू. में भरती किया जाता और 3-4 दिन बाद उन्हें घर लौटा दिया जाता. डाक्टर के कहने पर अम्मां की फिर से घर लौटने की व्यवस्था की गई लेकिन इस बार रास्ते में ही अम्मां के प्राणपखेरू अलविदा कह गए.

घर आने पर अम्मां के शव की अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू हुई. वह सुहागन थीं इसलिए उन के शव को दुलहन की तरह सजाया गया. अंजू ने अम्मां के खूबसूरत चेहरे का इतना शृंगार किया कि सब देखते ही रह गए.

अंजू जानती थी कि अम्मां को सजनासंवरना कितना अच्छा लगता था. वह अपने रूप के प्रति हमेशा ही सजग रही थीं. बीमारी की अवस्था में भी उन्हें अपने चेहरे की बहुत चिंता रहती थी.

उस दिन तो हद ही हो गई जब अम्मां को 4 दिन तक अस्पताल में रहना पड़ा था. कैंसर ब्रेन तक फैल चुका था इसलिए वह ठीक से बोल नहीं पाती थीं. अंजू जब उन के कमरे में पहुंची तो नर्स ने मुसकरा कर कहा, ‘दीदी, आप की अम्मां मुझ से कह रही थीं कि मैं पार्लर वाली लड़की को बुला कर लाऊं. पहले तो मुझे समझ में नहीं आया, फिर उन्होंने लिख कर बताया तो मुझे समझ में आया. आंटी मरने वाली हैं फिर भी पार्लर वाली को बुलाना चाहती हैं.’

यह बता कर नर्स कमरे से चली गई तो अंजू ने पूछा, ‘अम्मां, क्या चाहिए?’

अम्मां ने इशारे से बताया कि थ्रेडिंग करवानी है. जब से उन की कीमोथेरैपी हुई थी उन के सिर के बाल तो खत्म हो गए थे पर दाढ़ीमूंछ उगनी शुरू हो गई थी. घर में थीं तो वह अंजू से प्लकिंग करवाती रहती थीं पर अस्पताल जा कर उन्होंने महसूस किया कि 4-5 बाल चेहरे पर उग आए हैं इसलिए वह पार्लर वाली लड़की को बुलाना चाहती थीं.

अम्मां की तीव्र इच्छा को देख कर अंजू ने ही उन की थे्रडिंग कर दी थी. फिर उन के कहने पर भवों को भी तराश दिया था. एक संतोष की आभा उन के चेहरे पर फैल गई थी और थक कर वह सो गई थीं.

नर्स जब दोबारा आई तो उस ने अम्मां के चेहरे को देखा और मुसकरा दी. उस ने पहले तो अम्मां को गौर से देखा फिर एक भरपूर नजर अंजू पर डाल कर बोली, ‘दीदी, आप की लवमैरिज हुई थी क्या?’

‘नहीं.’

‘ऐसा नहीं हो सकता,’ नर्स बोली, ‘अम्मां तो इतनी गोरी और सुंदर हैं फिर आप जैसी साउथ इंडियन लगने वाली लड़की को उन्होंने कैसे अपनी बहू बनाया?’

ऐसे प्रश्न का सामना अंजू अब तक हजारों बार कर चुकी थी. सासबहू की जोड़ी को एकसाथ जिस किसी ने देखा उस ने ही यह प्रश्न किया कि क्या उस का प्रेमविवाह था?

यह तो आज तक अंजू भी नहीं जान पाई थी कि अम्मां ने उसे अपने बेटे राज के लिए कैसे पसंद कर लिया था. जितना दमकता हुआ रूप अम्मां का था वैसा ही राज का भी था, यानी राज अम्मां की प्रतिमूर्ति था. जब अंजू को देखने अम्मां अपने पति और बेटे के साथ पहुंची थीं तो उन्हें देखते ही अंजू और उस के मातापिता ने सोच लिया था कि यहां से ‘ना’ ही होने वाली है पर उन के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा था जब दूसरे दिन फोन पर अम्मां ने अंजू के लिए ‘हां’ कह दी थी.

अम्मां कुंडली के मिलान पर भरोसा रखती थीं और परिवार के ज्योतिषी ने अम्मां को इतना भरोसा दिला दिया था कि अंजू के साथ राज की कुंडली मिल रही है. लड़की परिवार के लिए शुभ है.

अंजू कुंडली में विश्वास नहीं रखती थी. हां, कर्तव्य पालन की भावना उस के मन में कूटकूट कर भरी थी इसीलिए वह अम्मां के लिए उन की बेटी भी थी, बहू भी और सहेली भी. सच है कि दोनों ही एकदूसरे की पूरक बन गई थीं. उन के मधुर संबंधों के कारण परिवार में हमेशा ही खुशहाली रही.

अम्मां के रूप को देख कर अंजू के मन में कभी भी ईर्ष्या उत्पन्न नहीं हुई थी. कहीं पार्टी में जाना होता तो अम्मां, अंजू की सलाह से ही तैयार होतीं और अंजू को भी उन को सजाने में बड़ा आनंद आता था. अंजू खुद भी बहुत अच्छी तरह से तैयार होती थी. उस की सजावट में सादगी का समावेश होता था. अंजू की सरलता, सौम्यता और आत्म- विश्वास से भरा व्यवहार जल्दी ही सब को अपनी ओर खींच लेता था.

घर में भी अंजू ने अपनी सेवा से अम्मां को वशीभूत कर रखा था. जबजब अम्मां को कोई कष्ट हुआतबतब अंजू ने तनमन से उन की सेवा की. 10 साल पहले जब अम्मां का पांव टूट गया था और वह घर में कैदी बन गई थीं, ऐसे में अंजू 3 सप्ताह तक जैसे अम्मां की परछाई ही बन गई थी.

उन्हीं दिनों अम्मां एक दिन बहुत भावुक हो गईं और उन की आंखों में अंजू ने पहली बार आंसू देखे थे. उन को दुखी देख कर अंजू ने पूछा था, ‘अम्मां क्या बात है? क्या मुझ से कोई गलती हो गई है?’

‘नहींनहीं, तेरे जैसी लड़की से कोई गलती हो ही नहीं सकती है. मैं तो अपने बीते दिनों को याद कर के रो रही हूं.’

‘अम्मां, जितने सुंदर आप के पति हैं, उतना ही सुंदर और आज्ञाकारी आप का बेटा भी है. घर में कोई आर्थिक तंगी भी नहीं है फिर आप के जीवन में दुख कैसे आया?’

‘अंजू, दूर के ढोल सुहाने लगते हैं, यह कहावत तो तुम ने भी सुनी होगी. मेरी ओर देख कर सभी सोचते हैं कि मैं सब से सुखी औरत हूं. मेरे पास सबकुछ है. शोहरत है, पैसा है और एक भरापूरा परिवार भी है.’

‘अम्मां, साफसाफ बताओ न क्या बात है?’

‘आज तेरे सामने ही मैं ने अपना दिल खोला है. इस राज को राज ही बना रहने देना.’

‘हां, अम्मां, आप बताओ. यह राज मेरे दिल में दफन हो जाएगा.’

‘जानना चाहती है तो सुन. राज के पापा की बहुत सारी महिला दोस्त हैं जिन पर वे तन और धन दोनों से ही न्यौछावर रहते हैं.’

‘आप जैसी सुंदर पत्नी के होते हुए भी?’ अंजु हैरानी से बोली.

‘हां, मेरा रूप भी उस आवारा इनसान को बांध नहीं पाया. यही मेरी तकदीर है.’

‘आप को कैसे पता लगा?’

‘खुद उन्होंने ही बताया. शादी के 2 साल बाद जब एक रात बहुत देर से घर लौटे तो पूछने पर बोले, ‘राज की मां, औरतें मेरी कमजोरी हैं. पर तुम्हें कभी कोई कमी नहीं आएगी. लड़नेझगड़ने या धमकियां देने के बदले यदि तुम इस सच को स्वीकार कर लोगी तो इसी में हम दोनों की भलाई है.’

‘और जल्दी ही यह सचाई मुझे समझ में आ गई. मैं ने अपने इस दुख को कभी दुनिया के सामने जाहिर नहीं किया. आज पहली बार तुम को बता रही हूं. मैं उसी दिन समझ गई थी कि शारीरिक सुंदरता महत्त्वपूर्ण नहीं है इसीलिए जब तुम्हें देखा तो न जाने तुम्हारे साधारण रंगरूप ने भी मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं तुम्हें बहू बना कर घर ले आई. राज भी इस सच को शायद जानता है इसीलिए उस ने भी तुम्हें स्वीकार कर लिया. यह बेहद अच्छी बात है कि बाप की कोई भी बुरी आदत उस में नहीं है.’

अम्मां की आपबीती सुन कर अंजू को इस घर की बहू बनने का रहस्य समझ में आ गया. राज अपनी मां से भावनात्मक रूप से इतना अधिक जुड़ा हुआ था कि उस की मां की पसंद ही उस की पसंद थी.

‘अरे, तू क्यों रो रही है पगली. इन्हीं विसंगतियों का नाम तो जीवन है. हर इनसान पूर्ण सुखी नहीं है. परिस्थितियों को जान कर उन्हें मान लेना ही जीवन है.’

‘अम्मां, आप ने यह सब क्यों बरदाश्त किया? छोड़ कर चली जातीं.’

‘सच जानने के बाद मैं ने अपने जीवन को अपने हाथों में ले लिया था. अपने दुखों के ऊपर रोते रहने के बदले मैं ने अपने सुखों में हंसना सीख लिया. मैं ने अपना ध्यान अपनी कला में लगा दिया. कला का शौक मुझे बचपन से था. मैं ने अपने चित्रों की प्रदर्शनियां लगानी शुरू कर दीं. जरूरतमंद कलाकारों को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया. कला और सेवा ने मेरे जीवन को बदल दिया.’

‘सच, अम्मां, आप ने सही कदम उठाया. मुझे आप पर गर्व है.’

‘मुझे स्वयं पर भी गर्व है कि एक आदमी के पीछे मैं ने अपना जीवन नरक नहीं बनाया,’ अम्मां बोलीं, ‘ऐसी बात नहीं थी कि वह मुझ से प्यार नहीं करते थे. जब एक बार मुझे टायफाइड और मलेरिया एकसाथ हुआ तो वे मेरे पास ही रहे. जैसे आज तुम मेरी सेवा कर रही हो वैसे ही 21 दिन इन्होंने दिनरात मेरी सेवा की थी.’

अब जब से अम्मां को कैंसर हुआ था तब से पापा ही दिनरात अम्मां की सेवा में लगे थे. आज उन की मृत्यु पर वे ही सब से ज्यादा रो रहे थे. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. अम्मां के अंतिम दर्शन पर वे बोले, ‘‘अंजू बेटा, तुम ने अपनी मां को सजा तो दिया है पर एक बात तुम बिलकुल भूल गई हो.’’

‘‘पापा, क्या बात?’’

‘‘परफ्यूम लगाना भूल गई हो. वह बिना परफ्यूम लगाए कभी बाहर नहीं जाती थीं. आज तो लंबी यात्रा पर जा रही हैं. उन के लिए एक बढि़या परफ्यूम लाओ और उन पर छिड़क दो. मेरे लिए उन की यही पहचान थी. जब भी किसी बढि़या परफ्यूम की खुशबू आती तो मैं बिना देखे ही समझ जाता था कि मेरी पत्नी यहां से गुजरी है. आज भी जब वह जाए तो बढि़या परफ्यूम की खुशबू मुझ तक पहुंचे. मैं इसी महक के सहारे बाकी के बचे हुए दिन निकाल लूंगा,’’ इतना कह कर पापा फफकफफक कर रो पड़े. अंजू ने परफ्यूम की सारी शीशी अम्मां के शव पर छिड़क दी और 4 लोग उन की अर्थी को उठा कर अंतिम मुकाम की ओर बढ़ चले.

फ्लर्ट: क्यों परेशान थी मीता अपने पति से

नैना,माहा और दलजीत तीनों शैतान लड़कियों की आंखों में हंसतेहंसते पानी आ गया था. थोड़ी देर पहले तीनों चुपचाप अपनेअपने लैपटौप पर बिजी थीं. तीनों मुंबई के वाशी एरिया की इस सोसायटी में टू बैडरूम शेयर करती हैं. एक ही औफिस में हैं, बस से ही औफिस आतीजाती थीं पर अब तो ज्यादातर घर से ही काम कर रही हैं. तीनों बहुत ही बोल्ड ऐंड ब्यूटीफुल टाइप लड़कियां हैं, ‘वीरे दी वेडिंग’ मूवी की लड़कियों जैसी. खूब सम?ादार हैं, कोई इन्हें जल्दी बेवकूफ नहीं बना सकता.

इन के बौस अनिलजी भी यहीं रहते हैं. उन्होंने ही इन तीनों को यह फ्लैट दिलवा दिया था. थोड़े रसिक टाइप हैं. उन्होंने सोचा कि 3 हसीनाएं उन के अंडर में काम करती ही हैं, घर भी पास में हो जाएगा तो थोड़ीबहुत फ्लर्टिंग करता रहूंगा. असल में अनिलजी हर लड़की को प्यार कर सकते हैं. हर लड़की को यह यकीन दिला सकते हैं कि वही इस दुनिया की सब से खूबसूरत लड़की है और किसी भी लड़की से उन का बात करने का जो ढंग है, वह ऐसा कि लगता है जैसे डायलाग मारने की कहीं से ट्रेनिंग ली है.

कई लोगों को अनिलजी पर इस बात पर भी गुस्सा आता है कि ये सोसाइटी के सैक्रेटरी हैं और जरा भी अपनी जिम्मेदारी नहीं सम?ाते. इधरउधर खुद ही गंदा करते रहते हैं. कभी सिगरेट के टोटे रोड पर फेंकते हुए चलेंगे, कभी यों ही इधरउधर थूक देंगे और उन्हें लगता है कि उन्हें सब बहुत पसंद करते हैं.

पता है अनिलजी की सब से बड़ी खासीयत क्या है? फ्लर्ट करते हैं और सामने वाली लड़की को यह पता भी नहीं लग सकता कि फ्लर्टिंग हो रही है. एक तो उम्र में बड़े हैं ही, औफिस में भी सीनियर हैं. किसी भी लड़की से बात करते हैं तो इतनी ग्रेसफुली करते हैं कि तेज से तेज लड़की भी पकड़ नहीं सकती कि अनिलजी फ्लर्ट कर रहे हैं. उलटीसीधी बातें करते भी नहीं हैं.

‘‘आज आप को काम ज्यादा तो नहीं है? देर हो जाएगी तो मेरी कार में ही चलना. एक ही सोसाइटी में तो जाना है. मैं तो कहता हूं रोज मेरे साथ आ जा सकती हो.’’

‘‘मैं तो आज जो भी कुछ हूं, अपनी वाइफ की ही सपोर्ट से हूं. मेरी वाइफ बहुत अच्छी है.’’

‘‘आज आप बहुत अच्छी लग रही हैं, यह कलर आप को सूट करता है.’’

‘‘यह औफिस नहीं है, एक फैमिली है. आप को जब भी कोई प्रौब्लम हो तो मु?ो कह सकती हैं.’’

अब ऐसी बातों पर क्या औब्जैक्शन हो सकता है. असल में अनिलजी को

लड़कियों से बातें करने का, उन्हें जोक्स, कोई मैसेज फौरवर्ड करने का बहुत शौक है. अभी तक तीनों लड़कियों में से किसी ने आपस में उन के बारे में कुछ भी यह सोच कर नहीं बोला कि जाने दो, बौस हैं. शायद मु?ो स्पैशल सम?ाते हैं, इसलिए मु?ो जरा ज्यादा मानते हैं, इसलिए थोड़े स्पैशल नजरिए से देखते हैं, क्या बुरा है. कोई नुकसान तो पहुंचा नहीं रहे हैं. अब जो ये तीनों लड़कियां बुरी तरह हंस रही हैं न. वह इसलिए कि अभीअभी अपने फोन में अनिलजी का मैसेज देखते हुए दलजीत बोल पड़ी थी, ‘‘यार, अनिलजी कोरोना पौजिटिव हो गए हैं, हौस्पिटल में एडमिट हो गए हैं, इन के बच्चे तो विदेश में हैं, बेचारी वाइफ अकेली है.’’

नैना और माहा के हाथ में भी अपनाअपना फोन थे, दोनों ने एकसाथ कहा, ‘‘क्या, तुम्हें भी मैसेज भेजा? मु?ो भी भेजा और साथ में सैड इमोजी भी. है न?’’

नैना हंस पड़ी, ‘‘मतलब सब को फौरवर्ड कर दिया. और मैं सम?ाती थी कि मु?ो ज्यादा अटैंशन देते हैं. अरे, सुनो, सच्चीसच्ची बताना तुम लोगों को भी मैसेज भेजते रहते हैं क्या अनिलजी.’’

दोनों जोरजोर से हंस पड़ीं, ‘‘लो भई, ये तो सब को प्यार बांटते चलते हैं और हम सम?ा रही थीं कि हम ही स्पैशल हैं.’’

फिर तो तीनों अपनेअपने मैसेज एकदूसरी को बताने लगीं और अब इन की हंसी नहीं रुक रही है.

माहा ने कहा, ‘‘देखो, एक आइडिया है.’’

‘‘क्या? बोलोबोलो.’’

‘‘ये जो हम सब के साथ फ्लर्ट करते घूम रहे हैं यह आदत छुड़ाने की कोशिश करनी चाहिए न.’’

दलजीत ने कहा, ‘‘अरे, छोड़ो यार, हमें इन से क्या मतलब. मु?ो तो अपने हैरी से मतलब है. बस वह मु?ो और मैं उसे सच्चा प्यार करते हैं, इतना बहुत है.’’

माहा ने घुड़की मारी, ‘‘फिर शुरू कर दिया हैरी पुराण. आपस में प्यारव्यार करने को कौन मना कर रहा है, लौकडाउन है, घर में बोर हो रहे हैं, अनिलजी के साथ थोड़ा खेल नहीं सकते क्या?’’

दलजीत फिर मिनमिनाई, ‘‘हैरी सुनेगा तो उसे अच्छा नहीं लगेगा.’’

हैरी. कोई अंगरेज… न, न, तीनों लड़कियों ने अच्छेभले हरविंदर को हैरी बना दिया है. दलजीत का मंगेतर है.

दलजीत उस पर जिंदा है, कहती है, ‘‘मेरा हैरी तो सनी देओल लगता है बिलकुल.’’

यह अलग बात है कि नैना और माहा इस बात से तनिक सहमत नहीं.

हमेशा की तरह दलजीत को दोनों शैतान लड़कियों ने इस शरारत में शामिल कर ही लिया. अब इतने दिन से घर में बंद हैं, कितना काम करें. कितना कोरियन शोज देखें. आजकल तीनों पर कोरियन शोज देखने का भूत चढ़ा है. हां, तो बाकायदा मजेदार प्लानिंग हुई. अब अनिलजी जैसे चालू पुरजे के साथ थोड़ी मस्ती करना इन का भी तो हक है. यह क्या. सीधे बनबन कर क्या सिर्फ अनिलजी ही अपना टाइम पास करते रहें.

अनिलजी की पत्नी मीता इतनी सीधी भी कभी नहीं लगी जितनी अनिलजी बताते हैं. बढि़या टाइट रखती हैं इन्हें. चेहरे से ही रोब टपकता है. सब के फ्लैट में इंटरकौम है ही, माहा ने मीता को इंटरकौम पर फोन किया,

हालचाल पूछे, फिर कहा, ‘‘अनिलजी का मैसेज आया था, हौस्पिटल में हैं, तो भी मेरा कितना ध्यान रखते हैं. सर बहुत ही अच्छे हैं, इस बीमारी में भी दूसरों की चिंता करते हैं,’’ और बहुत सी शुभकामनाएं दे कर माहा ने फोन रख दिया.

मीता को ये शुभकामनाएं कुछ खास पसंद नहीं आईं. मन तो हुआ कि पति को फोन करे और कहे कि हौस्पिटल में हो, पहले कोरोना संभाल लो अपना, फिर दूसरों की चिंता कर लेना, पर इस समय तो पति को कुछ कहना पत्नी धर्म के खिलाफ हो जाता, घर आने दो, फिर देख लूंगी, सोच कर दिल को सम?ा लिया.

तीनों लड़कियां अनिलजी के हालचाल पूछ रही थीं. उन के मैसेज एकदूसरे को पढ़वा कर अपना अच्छा टाइम पास कर रही थीं. अनिलजी अपनी उखड़ती सांसों के साथ भी फ्लर्टिंग का यह मौका छोड़ना नहीं चाह रहे थे.

सोच रहे थे कि तीनों लड़कियां कितनी बेवकूफ हैं. मैं तो इन तीनों को ही क्या, जानपहचान की हर लड़की को ऐसे मैसेज कर रहा हूं और ये बेवकूफ अपने को खास सम?ा रही हैं. कभी इन की फेसबुक फ्रैंड्स की लिस्ट देखिए, 5 हजार दोस्त होंगे इन के, जिन में से 4 हजार महिलाएं ही होंगी. गजब रसिया टाइप बंदा है. औफिस की सारी लड़कियां, उन की सहेलियां, सहेलियों की सहेलियां, सब क फोटो और कमैंट देखते ही ऐसे लपक कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजते हैं कि लड़कियों को पहले तो सम?ा नहीं आता कि कौन है, फिर बेचारी कौमन फ्रैंड्स को देख कर इन की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर लेती हैं, सोचती हैं कि जाने दो, कोई उम्रदराज सीनियर है, क्या नुकसान पहुंचाएगा. बस यहीं भूल कर जाती हैं भोली लड़कियां. फिर तो उन की पोस्ट पर लाइक और कमैंट सब से पहले अनिलजी का ही आता है. एक और खास बात. जितनी सुंदर लड़की, उतना बड़ा कमैंट लिखते हैं.

मीता को सोशल मीडिया में इतना इंटरैस्ट है नहीं तो उन्हें पता ही नहीं चलता कि पति क्या कर रहा है. अनिलजी के बच्चे पिता की ऐक्टिविटीज को टाइम पास सम?ा कर इग्नोर कर देते हैं.

हां, तो अगले दिन मिनमिनाती दलजीत के कंधे पर जैसे बंदूक रख कर माहा और नैना ने दलजीत को स्क्रिप्ट लिख कर दी और बताया कि क्या बोलना है तो दलजीत ने मीता को फोन किया, कहा, ‘‘मैडम, अब कैसे हैं सर. उन के बीमार होने से हम तो परेशान हो गए. आतेजाते पूछ लेते थे कि मार्केट से तो कुछ नहीं चाहिए. इस लौकडाउन में तो उन्होंने हमारा बहुत ही ध्यान रखा है. बस अब जल्दी से ठीक हो कर आएं तो हमें भी कुछ आराम हो. अभी तो मैसेज पर ही उन से बात हो रही है. आप ठीक हैं न?’’

मीता का मन हुआ कि हौस्पिटल जा कर अभी पति से फोन छीन ले. पति की नसनस जानती थी पर अनिलजी भी तो चतुर, चालाक हैं, सीधेसीधे कभी कोई ऐसी हरकत नहीं की कि कोई उन के चरित्र पर एंगली उठा दे.

सरेआम पत्नी की तारीफ करते घूमते. कई बार तो इतनी तारीफ कर देते कि मीता भी हैरान रह जातीं कि क्या सचमुच मैं एक सर्वगुणसंपन्न पत्नी हूं.

अगले दिन नैना का नंबर था. मीता से सीधे पूछा, ‘‘अरे, मैडम सर कैसे हैं?

ठीक तो हैं न? सुबह से कोई मैसेज नहीं आया है उन का. चिंता हो रही है, अब तक तो गुडमौर्निंग के दसियों मैसेज आ जाते थे.’’

‘‘ठीक हैं, काफी ठीक हैं. घर आने ही वाले हैं.’’

‘‘शुक्र है… उन के मैसेज की इतनी आदत हो चुकी है कि क्या बताऊं. सारा दिन टच में रहते हैं. हम तो यहां अकेली पड़ी हैं. इतना बिजी होने के बाद भी वे हर समय हालचाल पूछते रहते हैं तो अच्छा लगता है.’’

अनिलजी घर आ गए हैं, उन्हें कमजोरी है, मीता उन का ध्यान रख रही हैं. अच्छी तरह से क्लास भी ले चुकी हैं. टीचर रही हैं. बिगड़े बच्चों को सुधारना उन्हें खूब आता है. और यहां तो बात पति की थी, पति को तो एक आम औरत भी सुधारने का दम रखती है. सब ठीक हो गया है. तीनों शैतान एकदूसरे से पूछती रहती हैं, बौस का कोई मैसेज आया क्या? जवाब हर बार ‘न’ में होता है अब.

उतरन: क्यों बड़े भाई की उतरन पर जी रहा था प्रकाश

लेखिका- रेखा विनायक नाबर

भैया अमेरिका जाने वाले हैं, यह जान कर मैं फूला न समाया. भैया से भी ज्यादा खुशी मुझे हुई थी. जानते हो क्यों? अब मुझे उन के पुराने कपड़े, जूते नहीं पहनने पड़ेंगे. बस, यह सोच कर ही मैं बेहद खुश था. आज तक मैं हमेशा उन के पुराने कपड़े, जूते, यहां तक कि किताबें भी इस्तेमाल करता आया था. बस, एक दीवाली ही थी जब मुझे नए कपड़े मिलते थे. पुरानी चीजों का इस्तेमाल करकर के मैं ऊब गया था.

मां से मैं हमेशा शिकायत करता था, ‘मां, मैं क्या जिंदगीभर पुरानी चीजें इस्तेमाल करूं?’

‘बेटे, वह तुम से 2 साल ही तो बड़ा है. तुम बेटे भी न जल्दीजल्दी बड़े हो जाते हो. अभी उसे तो एक साल में कपड़े छोटे होते हैं. उसे नए सिलवा देती हूं. लेकिन ये कपड़े मैं अच्छे से धो कर रखती हूं, देखो न, बिलकुल नए जैसे दिखते हैं. तो क्या हर्ज है? जूतों का भी ऐसे ही है. अब किताबों का पूछोगे तो हर साल कहां सिलेबस बदलता है. उस की किताबें भी तुम्हारे काम आ जाती हैं. देखो बेटे, बाइंडिंग कर के अच्छा कवर लगा कर देती हूं तुम्हें. क्यों फुजूल खर्च करना. मेरा अच्छा बेटा. तेरे लिए भी नई चीजें लाएंगे,’ मां शहद में घुली मीठी जबान से समझती थीं और मैं चुप हो जाता था.

मुझे कभी भी नई चीजें नहीं मिलती थीं. स्कूल के पहले दिन दोस्तों की नईर् किताबें, यूनिफौर्म, उन की एक अलग गंध, इन सब से मैं प्रभावित होता था. साथ ही बहुत दुख होता था. क्या इस खुशी से मैं हमेशा के लिए वंचित रहूंगा? ऐसा सवाल मन में आता था. पुरानी किताबें इस्तेमाल कर के मैं इतना ऊब गया था कि 10वीं कक्षा पास होने के बाद मैं ने साइंस में ऐडमिशन लिया. भैया तब 12वीं कौमर्स में थे. 11वीं कक्षा में मुझे पहली बार नई किताबें मिलीं. कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल में मुझे चक्कर आने लगे. बदन पर धब्बे आने लगे. कुछ घर के उपाय करने के बाद पिताजी डाक्टर के पास ले गए.

‘अरे, इसे तो कैमिकल की एलर्जी है. कैमिस्ट्री नहीं होगी इस से.’

‘इस का मतलब यह साइंस नहीं पढ़ पाएगा?’

‘बिलकुल नहीं.’

डाक्टर के साथ इस बातचीत के बाद पिताजी सोच में पड़ गए. आर्ट्स का तो स्कोप नहीं. फिर क्या, मेरा भी ऐडमिशन कौमर्स में कराया गया, और फिर से उसी स्थिति में आ गया. भैया की वही पुरानी किताबें, गाइड्स. घर में सब से छोटा करने के लिए मैं मन ही मन मम्मीपापा को कोसता रहा. भैया ने बीकौम के बाद एमबीए किया और मैं सीए पूरा करने में जुट गया. सोचा, चलो पुरानी किताबों का झमेला तो खत्म हुआ. एमबीए पूरा होने के बाद भैया कैंपस इंटरव्यू में एक विख्यात मल्टीनैशल कंपनी में चुने गए. यही कंपनी उन्हें अमेरिका भेज रही थी. भैया भी जोरशोर से तैयारी में जुटे थे और मैं भी मदद कर रहा था. वे अमेरिका चले गए. समय के साथ मेरा भी सीए पूरा हुआ. इंटरव्यू कौल्स आने लगे.

‘‘मां, इंटरव्यू कौल्स आ रहे हैं, सोचता हूं कुछ नए कपड़े सिलवाऊं.’’

मां ने भैया की अलमारी खोल कर दिखाई, ‘‘देखो, भैया कितने सारे कपड़े छोड़ गया है. शायद तुम्हारे लिए ही हैं. नए ही दिख रहे हैं. सूट भी हैं. ऐसे लग रहे हैं जैसे अभीअभी खरीदे हैं. फिर भी तुम्हें लगता हो, तो लौंड्री में दे देना.’’

मां क्या कह रही हैं, मैं समझ गया. मैं पहले ही इंटरव्यू में पास हो गया. मां खुश हुईं और बोलीं, ‘‘देखो, भैया के कपड़े की वजह से पहले ही इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. वह बड़ा खुश होगा.’’ एक तो पुराने कपड़े पहन कर मैं ऊब गया था और मां जले पर नमक छिड़क रही थीं. क्या मेरी गुणवत्ता का कोई मोल नहीं? मां का भैया की ओर झकाव मुझे दिल ही दिल में खाए जा रहा था. पहली सैलरी में कुछ अच्छे कपड़े खरीद कर मैं ने इस चक्रव्यूह को तोड़ा था. भैया के कपड़े मैं ने अलमारी में लौक कर डाले. मैं अपने लिए नईनई चीजें खरीदने लगा.

भैया अमेरिका में सैटल हो गए. अब उन्हें शादी के लिए उच्चशिक्षित, संपन्न रिश्ते आ रहे थे. भैया के कहेअनुसार हम लड़की देखने जा रहे थे. आखिरकार हम ने भैया के लिए 4 लड़कियां चुनीं. एक महीने बाद भैया इंडिया लौटे. सब लड़कियों से मिले और शर्मिला के साथ रिश्ता पक्का किया. शर्मिला ने बीकौम किया था, मांबाप की वह इकलौती लड़की थी. उस के पिता देशमुख का स्पेयरपार्ट का कारखाना था. शर्मिला सुंदर व सुशील थी.

‘‘क्यों पक्या, भाभी पसंद आई तुझे?’’ भैया ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं, शर्मिला टैगोर भी मात खाएगी, इतनी सुंदर और शालीन मेरी भाभी हैं. ऐसी भाभी किस को अच्छी नहीं लगेंगी. जोड़ी तो खूब जंच रही है आप की.’’

जल्दी ही सगाई हुई और 3 हफ्ते बाद शादी की तारीख तय हुई. बाद में एक महीने बाद दोनों अमेरिका जाने वाले थे. यह सब भैया ने ही तय किया था. दोनों साथसाथ घूमने लगे थे. सब खुशी में मशगूल थे. दोनों ओर शादी की शौपिंग चल रही थी.

‘‘चल पक्या, मेरे साथ शौपिंग को. सूट लेना है मुझे.’’

‘‘मैं? सूट तो आप को लेना है. तो भाभी को ले कर जाओ न.’’

‘‘भाभी? ओह शर्मिला, ये क्या पुराने लोगों जैसा भाभी बुलाते हो. शर्मिला बुलाओ, इतना अच्छा नाम है.’’

‘‘तो उन्हें बताइए मुझे प्रकाश नाम से बुलाए.’’

‘‘ओफ्फो, तुम दोनों भी न…बताता हूं उसे, लेकिन हम दोनों आज शौपिंग करने जा रहे हैं. नो मोर डिस्कशन.’’

हम शौपिंग करने गए. उन्होंने मेरे लिए भी अपने जैसा सूट खरीदा. यह मेरे लिए सरप्राइज था. शादी के दिन पहनने की शेरवानी भी दोनों की एकजैसी थी.

‘‘भैया शादी तुम्हारी है. मेरे लिए इन सब की क्या जरूरत थी?’’

‘‘अरे तेरी भी तो जल्दी शादी होगी. उस वक्त जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए.’’

‘‘लगता है जेब गरम है आप की.’’

‘‘पूरी तैयारी के साथ आया हूं. शर्मिला के लिए अमेरिकन डायमंड का सैट भी ले कर आया हूं. मम्मीडैडी को भी शौपिंग करवाने वाला हूं. मेरे पुराने कपड़े तुझे पहनने पड़ते थे. चल, आज तुझे खुश कर देता हूं.’’

हमें कहां मालूम था कि यह खुशी दो पल की ही है. भैया के लिए मेरे मन में कृतज्ञता थी. कितने बड़े दिल के हैं भैया. उन्हें पूरा सहकार्य देने का मैं ने मन ही मन प्रण कर लिया. हम सब खुशी के 7वें आसमान पर थे, तब नियति हम पर हंस रही थी.

शादी का नजारा तो पूछो ही मत. शर्मिला सोलह सिंगार कर के मंडप में आई थी. सब की नजरें उस पर ही टिकी थीं. लड़की वालों ने शादी में किसी बात की कमी नहीं की. हम सब खुशी की लहर पर सवार थे.

ऐसे में बूआ ने मां को सलाह दी, ‘‘भाभी, प्रसाद के लिए शर्मिला तो ले आईं, अब प्रकाश के लिए उर्मिला ले आओ.’’ मैं ने तय किया अपनी पत्नी का नाम मैं उर्मिला ही रखूंगा, शर्मिला की मैचिंग. शादी की रस्में चल रही थीं. बीचबीच में दोनों की कानाफूसी चल रही थी. शर्मिला की मुसकराहट देख कर लग रहा था मानो दोनों मेड फौर ईच अदर हैं.’’ शर्मिला के आने से घर में एक अजीब सी सुगंध फैल गई. बहुत ही कम समय में वह सारे घर में घुलमिल गई. शादी के बाद सब रस्में पूरी कर नवविवाहित जोड़ा हनीमून के लिए बेंगलुरु रवाना हुआ. वे दोनों एक हफ्ते बाद लौटने वाले थे. उस के 2 हफ्ते बाद वे अमेरिका जाने वाले थे. भैया ने ही यह सारा प्रोग्राम तय किया था.

‘‘देखो न, कितनी जल्दी दिल जीत लिया. 8 दिनों के लिए गईर् तो घर सूनासूना लग रहा है. हमेशा के लिए गई, तो क्या हाल होगा? मां ने फोन पर भैया को कहा?’’ मगर मां घर तो नहीं रख सकते हैं न,’’ भैया बोले. उस के बाद 2 दिन दोनों लगातार फोन पर संपर्क में थे. लेकिन फिर वह काला दिन आया. छुट्टी का दिन था, इसलिए मैं घर पर ही था. दोपहर 3 बजे मेरा मोबाइल बजा.

‘‘हैलो मैं…मैं…शर्मिला, प्रकाश, एक भयंकर घटना घटी है,’’ वह रोतेरोते बोल रही थी. घबराईर् लग रही थी. मैं भी सहम सा गया.

‘‘शर्मिला, शांत हो जाओ, रोना बंद करो. क्या हुआ, ठीक से बताओ. भैया कैसे हैं? आप कहां से बोल रही हो?’’

‘‘प्रसाद नहीं हैं.’’

वह सिसकसिसक कर रोने लगी. तनाव और डर से मैं अपना संयम खो बैठा और जोर से चिल्लाया.

‘‘नहीं हैं, मतलब? हुआ क्या है? प्लीज, जल्दी बताओ. मेरी टैंशन बढ़ती जा रही है. पहले रोना बंद करो.’’

अब तक कुछ विचित्र हुआ है, यह मांबाबूजी के ध्यान में आ गया था. वे भी हक्केबक्के रह गए थे.

‘‘प्रकाश, प्रसाद अमेरिका चले गए.’’

‘‘कुछ भी क्या बोल रही हो, आप को छोड़ कर कैसे गए? और आप ने जाने कैसे दिया? सब डिटेल में बताओ. कुछ तो सौल्यूशन निकालेंगे. हम सब तुम्हारे साथ हैं. चिंता मत करो. मगर हुआ क्या है यह तो बताओ. खुद को संभालो और बताओ, क्या हुआ?’’

वह धीरज के साथ बोली, ‘‘प्रसाद सुबह 10 बजे कोडाइकनाल की टिकटें निकालने के लिए बाहर गए. 2 दिन उधर रह कर मुंबई वापस आने का प्लान था. अगर उन्हें आने में देर हुई तो खाना खाने को कह गए थे. मैं ने 2 बजे तक उन का इंतजार किया. उन का मोबाइल स्विचऔफ है. खाना खाने का सोच ही रही थी तो रूमबौय एक लिफाफा ले कर आया. मुझे लगा बिल होगा. खोल कर देखा तो ‘मैं अमेरिका जा रहा हूं’ ऐसा चिट्ठी में लिखा था और प्रसाद ने नीचे साइन किया था. मेरे ऊपर मानो आसमान टूट पड़ा. बेहोश ही होना बाकी था. जैसेतैसे हिम्मत जुटाई. बाद में देखा तो मेरे गहने भी नहीं थे जो रात को मैं ने अलमारी में रखे थे. मेरे पास पैसे भी नहीं हैं. मैं बहुत असहाय हूं. क्या करूं मैं अब पिताजी को भी नहीं बताया है.’’

वह फिर से रोने लगी. मैं भी अंदर से पूरा हिल गया. खुद को संभाल कर उसे धीरज देना आवश्यक था. ‘‘आप ने अपने पिताजी को नहीं बताया, यह अच्छा किया. शर्मिला, रोओ मत. आप अकेली नहीं हो. आप के पिताजी को कैसे बताना है, यह मैं देखता हूं. बहुत कठिन परिस्थिति है, लेकिन कोई न कोईर् हल जरूर निकालेंगे. आप होटल में ही रुको. कुछ खा लो. मैं सब से बात कर के उधर आप को लेने आता हूं. आज रात नहीं तो सुबह तक हम लोग पहुंच जाएंगे. फोन रखता हूं.’’

मां-बाबूजी को सारी कहानी सुनाई. बाबूजी बहुत शर्मिंदा थे. मां तो फूटफूट कर रोने लगीं.

‘‘मांबाबूजी, शर्मिला के पिता को कुछ नहीं मालूम. उन्हें बताना चाहिए. मैं खुद जा कर बताता हूं.’’

‘‘मैं भी आता हूं.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मां अभी आने की स्थिति में नहीं हैं. उन्हें अकेला भी छोड़ना ठीक नहीं. मैं अकेले ही हो आता हूं. कठिन लग रहा है, लेकिन यह घड़ी मुझे ही संभालनी होगी.’’

मैं दबेपांव भाभी के घर गया.

‘‘आओ बेटा, और प्रसाद कब आ रहे हैं?’’

‘‘नहीं, मैं किसी और काम से आप के यहां आया हूं.’’

‘‘हांहां, बोलो, कुछ प्रौब्लम है क्या?’’

‘‘हां…हां, बहुत कठिन समस्या है. भैया अमेरिका चले गए.’’

‘‘क्या? लेकिन कल रात ही शमु का फोन आया था, उस ने तो कुछ नहीं कहा. यों अचानक कैसे तय किया?’’

‘‘नहीं, वे अकेले ही चले गए.’’

‘‘और शमु?’’

फिर मैं ने उन्हें सारी हकीकत बयान की. वे क्रोध से लाल हो गए. क्रोध से उन का शरीर कांप रहा था. उन्हें भी मैं ने गहनों के बारे में कुछ नहीं बताया.

‘‘हरामखोर, मेरी इकलौती बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. सामने होता तो गोली से उड़ा देता. मैं छोड़ं ूगा नहीं उसे.’’

उन को संभालने के लिए शर्मिला की मां आगे आईं, ‘‘आप शांत हो जाइए. यह लीजिए पानी पीजिए. संकट की घड़ी है. हमें पहले शमु को संभालना चाहिए. यह कैसा पहाड़ टूट पड़ा मेरी बेटी पर. है कहां है वह?’’

‘‘वे बेंगलुरु में होटल में हैं, मैं उन्हें लेने जा रहा हूं.’’

‘‘नहीं, हम दोनों उसे ले कर आते हैं. शमु से एक बार बात कर लेते हैं.’’

मैं ने शर्मिला के मोबाइल पर फोन लगाया.

‘‘मैं प्रकाश बोल रहा हूं, आप के घर से. आप कैसी हो? लो, बात करो उन से.’’

‘‘शमु, रो मत, धीरज रख. देख मैं उस के साथ ऐसा खेल खेलूंगा कि उसे फूटफूट कर रोना पड़ेगा. हम दोनों आ रहे हैं तुझे लेने. आखिरी फ्लाइट से निकलते हैं. तब तक खुद का ध्यान रख,’’ शर्मिला के पिताजी बोले.

क्रोध की जगह करुणा ने ले ली. शर्मिला की आंखों से आंसू छलक रहे थे. शर्मिला की मां भी व्याकुल थीं, लेकिन झठमूठ का धीरज दे रही थीं. मेरी मां ने तो बिस्तर पकड़ लिया था. उन के आंसू थम नहीं रहे थे. सब को इतने बड़े दुख में धकेलने वाले निर्दयी भैया से मुझे घृणा आने लगी. शर्मिला के अपने घर आने पर हम वहां पहुंचे.

‘‘शर्मिला, यह क्या हुआ बेटा,’’ यह बोल कर मां बेहोश हो गईं. बाबूजी शर्मिंदा हो कर उस के सामने हाथ जोड़ रहे थे.

‘‘हम आप के कुसूरवार हैं. ऐसा कुलक्षणी बेटा जना, मुझे शर्म आती है.’’

शर्मिला के पापा अब तक शांत हो गए थे.

शर्मिला की मां और शर्मिला मेरी मां को समझ रहे थे.

‘‘हम सब को यह दुख भोगना था शायद, लेकिन आप खुद को कुसूरवार न समझें. मैं उसे पाताल से भी ढूंढ़ कर लाऊंगा और सजा दूंगा. प्रकाश उसे अमेरिका में संपर्क करने का कोई रास्ता है क्या?’’ ‘‘हां पापा, प्रसाद का औफिस का नंबर तो नहीं है पर जहां रहता है वहां का नंबर ट्रेर्स करता हूं.’’

‘‘फोन लगाया था तो पता चला भैया 3 महीने पहले ही अपार्टमैंट छोड़ चुके थे.’’

‘‘हरामखोर, पहले से ही प्लान कर चुका था. उस ने मेरी बेटी की जिंदगी बरबाद कर दी. नया बिजनैस शुरू करने के बहाने मेरे पास से 5 लाख रुपए ले गया था.’’

‘‘हां, मुझे भी यही कारण बता कर पैसे मांगे, मैं ने पीएफ से 2 लाख रुपए निकाल कर दिए, शर्मिला के गहने भी गायब हुए हैं.’’ मैं ने बताया.

‘‘नीच अमानुष. अब मैं यह हकीकत अखबार में छपवाने वाला हूं. अमेरिका में मेरे कुछ रिश्तेदार हैं, उन को भी खबर दूंगा. सब जगह उस की बदनामी करूंगा.’’

अब बदनामी होगी, इस कारण बाबूजी डर गए.

‘‘देखिए, हमारे बेटे से अक्षम्य अपराध हुआ है. लेकिन जरा धीरज से काम लीजिए. ऐसी घड़ी में सोचविचार कर के निर्णय लीजिए, आप देख ही रहे हो हालात कितने नाजुक हैं और शर्मिला के भविष्य की दृष्टि से भी सोचना चाहिए. बस, एक हफ्ते का समय दीजिए हमें. देखते हैं कुछ हल निकलता है क्या. नहीं तो मानहानि सहने के सिवा और कोई चारा नहीं.’’

वे एक हफ्ता रुकने को राजी हो गए. बड़ी कृपा हुई थी हम पर. गए हफ्ते खुशी की तरंगों पर तैरने वाले हम, आज दुख के सागर में डूब चुके थे. केवल भैया की इस घिनौनी हरकत की वजह से फूल जैसी शर्मिला मुरझ कर सांवली पड़ गईर् थी. उस ने जैसे न बोलने का प्रण लिया था. हम दोनों सहारा बने, इसलिए मां थोड़ी संभल गईं, वरना उन के लिए सदमा असहनीय था.

‘‘कलमुंहा, बच्ची की जिंदगी की होली कर डाली.’’

‘‘सही कहती हो आप. हम उस के अपराधी हैं. कभी न भरने वाला जख्म है यह.’’ शर्मिला मां से मिल कर गई. आश्चर्य यह था कि दोनों संयम से काम ले रही थीं. एक दिन मैं औफिस से आया तो मांबाबूजी अभीअभी शर्मिला के घर से लौटे थे.

‘‘बाबूजी, उन्होंने बुलाया था क्या?’’

‘‘नहीं, ऐसे ही मिल कर आए, काफी दिन हुए, मिले नहीं थे. शर्मिला को भी देखने को दिल कर रहा था.’’

‘‘सब कुछ ठीक है न?’’

‘‘हां, ठीक ही कहना चाहिए, लेकिन भविष्य के बारे में सोचना जरूरी है.’’

‘‘प्रकाश अभीअभी आए हो न? हाथपांव धो आओ. मैं चाय बनाती हूं. कुछ खा भी लो.’’ मुझे मां का यह बरताव अजीब लगा.

चायनाश्ता हो गया. हम तीनों वहीं बैठे बातें कर रहे थे. मां मुझ से कुछ कहना चाहती हैं, ऐसा मैं महसूस कर रहा था. वे बहुत टैंशन में लग रही थीं.

‘‘मां, क्या हुआ, कुछ कहना है क्या, टैंशन में लग रही हो. बताओ अभी, क्यों टैंशन बढ़ा रही हो?’’

‘‘प्रकाश, देखो…हमें ऐसा लगता है, इसलिए सुझाव दे रही हूं. लेकिन सोच कर ही बताना.’’

‘‘क्या सोचना है? क्या सुझाव  दे रही हो? और ऐसे हकला कर क्यों बोल रही हो?’’

आखिरकार बाबूजी ने बड़ी हिम्मत कर बोल ही दिया, ‘‘प्रकाश, हमें लगता है कि तुम शर्मिला को पत्नी के रूप में स्वीकार करो.’’

ऐसे लग रहा था मानो सारे बदन में बिजली दौड़ रही है. मैं जोर से चिल्लाया. ‘‘यह कैसे हो सकता है? भाभी और पत्नी? नहीं, मैं सोच भी नहीं सकता. आप मुझे  ऐसा सुझाव कैसे दे सकते हो?’’

‘‘प्रकाश बेटे, यह कहते हुए हमें भी अच्छा नहीं लग रहा. हम जानते हैं कि तुम्हारे भी अपने वैवाहिक जीवन के कुछ सपने होंगे. तुम अच्छे पढ़ेलिखे हो, अच्छी तनख्वाह मिलती है तुम्हें. तुम्हें अच्छी लड़की मिल सकती है. लेकिन, हमें शर्मिला के बारे में भी तो सोचना चाहिए. उस की कोई गलती न होते हुए भी उस की जिंदगी यों बरबाद हो गई, और हमें यह देखना पड़ रहा है. अनजाने में हम ही इस के जिम्मेदार हैं न?’’

मां फिर से सिसकसिसक कर रोने लगीं.

‘‘मां, मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. यही बोलने के लिए आप उन के यहां हो आए? क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘हम ने बात की उन से. कुछ कहा नहीं उन्होंने. उन्हें भी वक्त चाहिए. फोन करेंगे वे. तुम्हारा कहना क्या है, यह पूछने को कहा है.’’

मेरे पांवतले जमीन खिसक रही थी. जेहन ने काम करना बंद कर दिया था.

‘‘मैं जरा घूम कर आता हूं.’’

‘‘इस वक्त?’’

‘‘हां.’’

दूर बगीचे तक घूम कर आया. तब कहीं थोड़ा सुकून महसूस हुआ. मेरे लौटने तक मांबाबूजी चिंता कर रहे थे. खाना गले के नीचे नहीं उतर रहा था. उठ कर बिस्तर पर लेटा. नींद आने का सवाल ही नहीं था. मेरी वैवाहिक जिंदगी शुरू होते ही खत्म होने वाली थी. भैया के पुराने कपड़े, किताबें इस्तेमाल करने वाला मैं अब उन की त्यागी पत्नी… नहीं, यह नहीं हो सकता. इस प्रस्ताव को नकारना चाहिए. मैं बहुत बेचैन था. लेकिन आंखों के सामने आंसू निगलती मां, शर्मिंदा बाबूजी, क्रोधित शर्मिला के पिता, उन को संभालने की कोशिश करती हुई शर्मिला की मां और जिंदगी के वीरान रेगिस्तान की बालू की तरह शुष्क शर्मिला दिखने लगी. इन सब की नजरें बड़ी आशा से मुझे  देख रही हैं, ऐसा लगने लगा. फिर से एक बार मेरे नसीब में उतरन ही आईर् थी. इस कल्पना से दिल जख्मी हो रहा था. ऐसी स्थिति में मुझे बचपन की एक घटना याद आई.

भैया की ड्राइंग अच्छी थी, वे बहुत अच्छे चित्र बनाते थे, और पूरे होने के बाद दोस्तों को दिखाने जाते थे. सारा सामान वैसे ही रखते थे. घर साफ होना चाहिए, इस पर बाबूजी का ध्यान रहता था. फिर मां मुझे मनाती थीं, ‘प्रकाश, ये सामान जरा उठा कर रख बेटे. वो देखेंगे तो बिगड़ेंगे. मैं ने लड्डू बनाए हैं. मैं लाती हूं तेरे लिए.’

‘मां भैया अपना सामान क्यों खुद नहीं रखते? लड्डू का लालच दे कर आप मुझे  से काम करवाती हो. भैया बिगाड़ेंगे और मैं संवारूंगा, यह अलिखित नियम बनाया है क्या आप ने.’

मां का यह अलिखित नियम मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था. जिंदगी के इस मोड़ पर उस के किए अक्षम्य अपराध को मुझे ही सही करना था, मुझे ही अब शर्मिला से शादी करनी थी.

क्यों, क्योंकि वह सिर्फ मेरा बड़ा भाई है, इसलिए.

कल्पवृक्ष: भाग 1- विवाह के समय सभी व्यंग क्यों कर रहे थे?

छोटी ननद की शादी की बात वैसे तो कई जगह चल रही थी, किंतु एक जगह की बात व संबंध सभी को पसंद आई. लड़की देख ली गई और पसंद भी कर ली गई. परंतु लेनदेन पर आ कर बात अटक गई. नकदी की लंबीचौड़ी राशि मांगी गई और महंगी वस्तुओं की फरमाइश ने तो जैसे छक्के छुड़ा दिए. घर पर कई दिनों से इसी बात पर बहस छिड़ी हुई थी. सब परेशान से बैठे थे. पिता सहित तीनों भाई, दोनों भाभियां तरहतरह के आरोपों से जैसे व्यंग्य कस रहे थे.

लड़का कोई बड़ा अधिकारी भी नहीं था. उन्हीं लोगों के समान मध्यम श्रेणी का विक्रय कर लिपिक था, परंतु मांग इतनी जैसे कहीं का उच्चायुक्त हो. कई लाख रुपए नकद, साथ ही सारा सामान, जैसे स्कूटर, फ्रिज, वाश्ंिग मशीन, रंगीन टैलीविजन, गैस चूल्हा, मशीन, वीसीआर और न जाने क्या क्या.

‘‘बाबूजी, यह संबंध छोडि़ए, कहीं और देखिए,’’ बड़े बेटे मुकेश ने तो साफ बात कह दी. बड़ी बहू ने भी इनकार ही में राय दी. म झले अखिलेश व उस की पत्नी ने भी यही कहा. छोटा निखिलेश तो जैसे तिलमिला ही गया. वह बोला, ‘‘ऐसे लालचियों के यहां लड़की नहीं देनी चाहिए. अपनी विभा किस बात में कम है. हम ने भी तो उस की शिक्षा में पैसे लगाए हैं. शुरू से अंत तक प्रथम आ रही है परीक्षाओं में, और देखना, एमएससी में टौप करेगी, तो क्या वह नौकरी नहीं कर सकेगी कहीं?’’

‘‘ये सब तो बाद की बातें हैं निखिल. अभी तो जो है उस पर गौर करो. कहीं भी बात चलाओ, मांग में कमी होगी क्या. एक यही घर तो सब को सही लगा है. और जगह बात कर लो, मांग तो होगी ही. आजकल नौकरीपेशा लड़के के जैसे सुरखाब के पर निकल आते हैं. यह लड़का सुंदर है, विभा के साथ जोड़ी जंचेगी. परिवार छोटा है, 2 भाईबहन, बहन का विवाह हो गया. बड़ा भाई भी विवाहित है. छोटा होने से छोटे पर अधिक दायित्वभार नहीं होगा. बहन सुखी रहेगी तुम्हारी,’’ पिताजी दृढ़ स्वर में बोले.

‘‘यह तो ठीक है बाबूजी. 2 लाख रुपए नकद, फिर इतना साजोसामान हम कहां से दे सकेंगे. आभा के विवाह से निबटे 2 ही बरस तो हुए हैं, वहां इतनी मांग भी नहीं थी,’’ अनिल बोला.

‘‘अब सब एक से तो नहीं हो सकते. 2 बरस में समय का अंतर तो आ ही गया है. सामान कम कर दें, तो शायद बात बन जाए. रुपए भी एक लाख तक दे सकते हैं. यदि सामान खरीदना न पड़े तो कुछ निखिल की ससुराल का नया रखा है. अभी 6 माह ही तो विवाह को हुए हैं,’’ बाबूजी बोले.

‘‘तो क्या छोटी बहू को बुरा नहीं लगेगा कि उस के मायके का सामान कैसे दे रहे हैं? कई स्त्रियों को मायके का एक तिनका भी प्रिय होता है,’’ बड़ा बेटा मुकेश बोला.

‘‘नहीं.’’ ‘‘बिलकुल नहीं, बाबूजी, फालतू का तनाव न पैदा करें. बहुओं में बड़ी और म झली क्या दे देगी अपना कुछ सामान. कोई नहीं देने वाला है, जानते तो हैं आप, जब छोटी का दहेज देंगे तो क्या वह नहीं चाहेगी कि ये दोनों भी कुछ दें, अपने मायके का कौन देगा, टीवी, फ्रिज, अन्य सामान?’’ अखिल बोला.

‘‘न भैया, मैं खुद नहीं चाहता कि मधु के मायके का सामान दें. जब हमें मिला है तो हम कैसे न उस का उपयोग कर पाएं, यह कहां की शराफत की बात हुई? फिर बड़ी व म झली भाभियों का नया सामान है कहां कि वह दिया जा सके,’’ निखिल उत्तेजित हो खीझ कर बोला.

‘‘रहने दो भैया. कोई कुछ मत दो. मना कर दो कि हम इतने बड़े रईस नहीं हैं, न धन्ना सेठ कि उन की इतनी लंबीचौड़ी फरमाइश पूरी कर सकें. हमें नहीं देनी ऐसी कोई चीज जो बहुओं के मायके की हो. कौन सुनेगा जनमभर ताने और ठेने? इसी से आभा को किसी का कुछ नहीं दिया,’’ मां सरोज बोलीं.

‘‘तब और बात थी. मुकेश की मां, अब रिटायर हो चुका हूं मैं. बेटी क्या, बेटोें के विवाह में भी तो लगती है रकम, और लागत लगाई तो है मैं ने. तीनों बेटों के विवाह में हम ने इतना बड़ा दानदहेज कब मांगा था, बेटों की ससुराल वालों से? अपने बेटे भी तो नौकरचाकर थे. हां, छोटे निखिल के समय अवश्य थोड़ाबहुत मुंह खोला था, परंतु इतना नहीं कि सुन कर देने वाले की कमर ही टूट जाए,’’ बाबूजी गर्व से बोले.

‘‘तो ऐसा करो, छोड़ो सर्विस वाला लड़का, कोई बिजनैस वाला ढूंढ़ो, जो इतना मुंह न फाड़े कि हम पैसे दे न सकें,’’ मां बोलीं.

‘‘लो, अभी तक कहती थीं कि लड़का नौकरीपेशा चाहिए. अब कहती हो कि व्यापारी ढूंढ़ो. लड़की की उम्र 21 बरस पार कर गई है. व्यापारी या कैसा भी ढूंढ़तेढूंढ़ते अधिया जाएगी. समय जाते देर लगती है क्या?’’

‘‘तो कर्ज ले लो कहीं से.’’

बाबूजी खिसिया कर बोले, ‘‘कर्ज ले लो. कौन चुकाएगा कर्ज? तुम चुकाओगी?’’

‘‘मैं चुकाऊंगी, क्या भीख मांगूंगी,’’ वे रोंआसी हो कर बोलीं.

‘‘तुम लोग कितनाकितना दे पाओगे तीनों,’’ वे तीनों बेटों की ओर देख कर बोले.

बाबूजी, आप जानते तो हैं कि क्लर्क, शिक्षकों की तनख्वाह होती कितनी है. तीनों ही भाईर् लगभग एक ही श्रेणी में तो हैं, वादा क्या करें. निखिल को छोड़ तीनों पर 3-3 बच्चों का भार है. पढ़ाईलिखाई आदि से ले कर क्या बचता है, आप जानते तो हैं क्या दे पाएंगे. हिसाब लगाया कहां है. पर जितना बन पड़ेगा देंगे ही. आप अभी तो उन्हीं को साफ लिख दें कि हम केवल 50 हजार नकद और यह सामान दे सकेंगे, यदि उन्हें मंजूर है तो ठीक, वरना मजबूरी है. एक लाख तो नकद किसी प्रकार नहीं दे पाएंगे, न इतना सामान ही,’’ मुकेश ने कहा तो जैसे दोनों भाइयों ने सहमति से सिर हिला दिया. बड़ी व म झली बहू कब से कमरे में घुसी खुसरफुसर कर रही थीं. छोटी मधु रसोई में थी, चारों जनों को गरमगरम रोटियां सेंक कर खिला रही थी. 6 माह हुए जब वह ब्याह कर आई थी. तब से वह रसोई की जैसे इंचार्ज बन गई थी. बच्चों सहित पूरे घर को परोस कर खिलाने में उसे न जाने कितना सुख मिलता था.

उस से छोटी हमउम्र विभा जैसे उस की सगी छोटी बहन सी ही थी. गहरा लगाव था दोनों में. विभा विज्ञान ले कर इस बरस स्नातक होने जा रही थी. घर वालों की अनुमति ले कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी, जो विषय उस का था पहले वही ननद विभा का था. इस से वह उसे खुद पढ़ाती, बताती रहती. पूरा घर उस पर जैसे जान छिड़कता.

जब से वह आई थी, बड़ी और म झली की  झड़पें कम हो गईर् थीं. सासननद का मानसम्मान जैसे बढ़ गया था. बातबात पर उत्तेजित होने वाले तीनों भाई शांत पड़ चले थे. रोब गांठने वाले ससुरजी का स्वर धीमा पड़ गया था. सासुमां की ममता बहुओं पर बेटियों के समान लहरालहरा उठती. कटु वाक्यों के शब्द अतीत में खोते चले जा रहे थे. क्रोध तो जैसे उफन चुके दूध सा बैठ गया था.

‘‘छोटी बहू, यह बाबूजी की दूधरोटी का कटोरा लगता है, मेरे आगे भूल से रख गई हो, यह रखा है.’’

‘‘अरे, मेरे पास तो रखा है, शायद भूल गई.’’

तभी मधु गरम रोटी सेंक कर म झले जेठ के लिए लाई, बोली, ‘‘बड़े दादा, यह दूधरोटी आप ही के लिए है.’’

‘‘परंतु मेरे तो अभी पूरे दांत हैं, बहू.’’

‘‘तो क्या हुआ, बिना दांत वाले ही दूधरोटी खा सकते हैं. देखते नहीं हैं, आप कितने दुबले होते जा रहे हैं. अब तो रोज बाबूजी की ही भांति खाना पड़ेगा. तभी तो आप बाबूजी जैसे हो पाएंगे और देखिए न, बाल कैसे सफेद हो चले हैं अभी से.’’

वे जोर से हंसते चले गए. फिर स्नेह से छलके आंसू पोंछ कर बोले, ‘‘पगली कहीं की. यह किस ने कहा कि दूधरोटी खाने से मोटे होते हैं व बाल सफेद नहीं होते.’’

‘‘बाबूजी को देखिए न. उन के तो न बाल इतने सफेद हैं न वे आप जैसे दुबले ही हैं.’’

‘‘तब तो मधु, मु झे भी दूधरोटी देनी होगी. बाल तो मेरे भी सफेद हो रहे हैं,’’ म झला अखिल बोला.

‘‘म झले भैया, आप को कुछ साल बाद दूंगी.’’

‘‘पर छोटी बहू, बच्चों को तो पूरा नहीं पड़ता, तू मु झे देगी तो वहां कटौती

न होगी.’’

‘‘नहीं, बड़े भैया. मैं चाय में से बचा कर दूंगी आप को. अब केवल 2 बार चाय बना करेगी. पहले हम सब दोपहर में पीते थे. फिर शाम को आप सब के साथ. अब हम सब की भी साथ ही बनेगी और आप चुपचाप रोज बाबूजी की तरह ही खाएंगे.’’

आगे पढ़ें- विभा की परीक्षाएं भी हो गईं. फिर सगाई की…

परिचय: वंदना को क्यों मिला था भरोसे के बदले धोखा

कहानी- नंदिनी मल्होत्रा

मैंअपने केबिन में बैठी मुंशीजी से पेपर्स टाइप करवा रही थी. मन काम में नहीं लग रहा था. पिछले 1 घंटे से मैं कई बार घड़ी देख चुकी थी, जो लंच होने की सूचना शीघ्र ही देने वाली थी. दरअसल, मुझे वंदना का इंतजार था. पूरी वकील बिरादरी में एक वही तो थी, जिस से मैं हर बात कर सकती थी. इधर घड़ी ने 1 बजाया,

उधर वंदना अपना काला कोट कंधे पर टांगे और अपने चेहरे को रूमाल से पोंछती हुई अंदर दाखिल हुई. मेरे चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. ‘‘बहुत गरमी है आज,’’ कहती हुई वंदना कुरसी खींच कर बैठ गई. मुंशीजी खाना खाने चले गए. मेरा चेहरा फिर गंभीर हो गया. वंदना एक अच्छी वकील होने के साथ ही मन की थाह पा लेने वाली कुशाग्रबुद्धि महिला भी है.

‘‘आज फिर किसी केस में उलझ गई हैं श्रीमती सुनंदिता सिन्हा,’’ उस ने प्रश्नसूचक दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘इस ‘नहीं तो’ में कोई दम नहीं है. तुम कोई बात छिपाते वक्त शायद यह भूल जाती हो कि हम पिछले 3 साल से साथ हैं और अच्छी दोस्त भी हैं.’’

मैं उत्तर में केवल मुसकरा दी.

‘‘चलो, चल कर लंच करें, मुझे बहुत भूख लगी है,’’ वंदना बोली.

‘‘नहीं वंदना, यहीं बैठ जाओ. एक दिलचस्प केस पर काम कर रही हूं मैं.’’

‘‘किस केस पर काम चल रहा है भई?’’ वह उतावली हो कर बोली.

मैं उसे नम्रता के बारे में बताने लगी.

‘‘आज नम्रता मेरे पास आई थी. वह सुंदर, मासूम, भोलीभाली, बुद्धिमान युवती है. 4 साल पहले उस की शादी मुकुल दवे के साथ हुई थी. दोनों खुश भी थे. किंतु शादी के तकरीबन 2 साल बाद उस का परिचय एक अन्य लड़की के साथ हुआ. उन दोनों के बारे में नम्रता को कुछ ही दिन पहले पता चला है. मुकुल, जो एक 3 साल के बेटे का पिता है, उस ने गुपचुप ढंग से उस लड़की से 2 साल पहले विवाह कर रखा है. लड़की उसी के महल्ले में रहती थी. अजीब बात है.’’

‘‘ऐसा तो हर रोज कहीं न कहीं होता रहता है. तुम और मैं, वर्षों से देख रहे हैं. इस में अजीब बात क्या है?’’ वंदना बोली.

‘‘अजीब यह है कि लड़की उसी महल्ले में रहती थी, जिस में नम्रता. बल्कि नम्रता उस लड़की को जानती थी. हैरानी तो इस बात की है कि उन दोनों के पास रहते हुए भी वह यह कैसे नहीं जान पाई कि उस के पति के इस औरत के साथ संबंध हैं.’’

वंदना मेरी इस बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘भई, मुकुल क्या नम्रता को यह बता कर जाता था कि वह फलां लड़की से मिलने जा रहा है और वह उसे रंगे हाथों आ कर पकड़ ले. वैसे नम्रता को उस के बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘उस बेचारी को खुद मुकुल ने बताया कि वह उसे तलाक देना चाहता है. नम्रता उसे तलाक देना नहीं चाहती. उस का उस के पति के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है. कोई प्रोफेशनल टे्रनिंग भी नहीं है उस के पास कि वह आत्मनिर्भर हो सके,’’ मैं ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘क्या वह दूसरी औरत छोड़ने के लिए तैयार  होगा? तुम तो जानती हो ऐसे संबंधों को साबित करना कितना कठिन होता है,’’ वंदना घड़ी देख उठती हुई बोली.

‘‘मुश्किल तो है, लेकिन लड़ना तो होगा. साहस से लड़ेंगे तो जरूर जीतेंगे,’’ मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास था.

‘‘अच्छा चलती हूं,’’ कह कर वंदना चली गई.

मैं दिन भर कचहरी के कामों में उलझी रही. शाम 5 बजे के लगभग घर लौटी तो शांतनु लौन में मेघा के साथ खेल रहे थे. मेरी गाड़ी घर में दाखिल होते ही मेघा मम्मीमम्मी कह कर मेरी तरफ दौड़ी. मैं मेघा को गोद में उठाने को लपकी. शांतनु हमें देख मंदमंद मुसकरा रहे थे. उन्होंने झट से एक खूबसूरत गुलाब तोड़ कर मेरे बालों में लगा दिया.

‘‘कब आए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आधा घंटा हो गया जनाब,’’ कह कर शांतनु मेरे लिए चाय कप में उड़ेलने लगे.

‘‘अरे अरे, मैं बना लेती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम थक कर लौटी हो, तुम्हारे लिए चाय मैं बनाता हूं,’’ वह मुसकरा कर बोले. तभी फोन की घंटी बजी और अंदर चले गए. मैं आंखें मूंदे वहीं कुरसी पर आराम करने लगी.

शांतनु का यही स्नेह, यही प्यार तो मेरे जीवन का सहारा रहा है. घर आते ही शांतनु और मेघा के अथाह प्रेम से दिन भर की थकान सुकून में बदल जाती है. अगर शांतनु का साथ न होता तो शायद मैं कभी भी इतनी कामयाब वकील न होती कि लोग मुझे देख कर रश्क कर सकें.

दिन बीतते गए. यही दिनचर्या, यही क्रम. पता नहीं क्यों मैं नम्रता के केस में अधिक ही दिलचस्पी लेने लगी थी और हर कीमत पर उस के पति को सबक सिखाना चाहती थी, जो अपनी  पत्नी को छोड़ किसी अन्य पर रीझ गया था.

मुझे नम्रता के केस में उलझे हुए लगभग 1 साल बीत गया. दिन भर की व्यस्तता में वंदना की मुसकराहट मानसिक तनाव को कम कर देती थी. उस दिन भी कोर्ट में नम्रता के केस की तारीख थी. मैं जीजान से जुटी थी. आखिर फैसला हो ही गया.

मुकुल दवे सिर झुकाए कोर्ट में खड़ा था. उस ने जज साहब के सामने नम्रता से माफी मांगी और जिंदगी भर उस लड़की से न मिलने का वादा किया. नम्रता की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं भी बहुत खुश थी. घर लौट कर यही खुशखबरी मैं शांतनु को सुनाना चाहती थी.

उस दिन शांतनु पहली बार लौन में नहीं बल्कि अपने कमरे में मेरा इंतजार कर रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती वह बोले, ‘‘बैठो सुनंदिता, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

उन की मुखमुद्रा गंभीर थी. मैं कुरसी खींच कर पास बैठ गई. मैं ने आज तक उन्हें इतना गंभीर नहीं देखा था.

वह बोले, ‘‘हमारी शादी को 6 साल हो गए हैं सुनंदिता और इन 6 सालों में मैं ने यह महसूस किया है कि तुम एक संपूर्ण स्त्री नहीं हो, जो मुझे पूर्णता प्रदान कर सके. तुम में कुछ अधूरा है, जो मुझे पूर्ण होने नहीं देता.’’

मैं अवाक् रह गई. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग गया.

वह आगे बोले, ‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है सुनंदिता. तुम एक चरित्रवान पत्नी, अच्छी मां और अच्छी महिला भी हो. मगर कहीं कुछ है जो नहीं है.’’

शब्द मेरे गले में घुटते चले गए, ‘‘तो इतना बता दो शांतनु, वह कौन  है, जिस के तुम्हारे जीवन में आने से मैं अधूरी लगने लगी हूं?’’

‘‘तुम चाहो तो मेघा को साथ रख सकती हो. उसे मां की जरूरत है.’’

‘‘मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो, शांतनु, कौन है वह?’’

वह खिड़की के पास जा कर खड़े हो गए और अचानक बोले, ‘‘वंदना.’’

मुझ पर वज्रपात हुआ.

‘‘हां, एडवोकेट वंदना प्रधान.’’

मैं बेजान हो गई. यहां तक कि एक सिसकी भी नहीं ले सकी. जी चाह रहा था कि पूछूं, कब मिलते थे वंदना से और कहां? सारा दिन तो वह कोर्ट में मेरे साथ रहा करती थी. तभी वंदना के वे शब्द मेरे कानों में गूंज उठे, ‘क्या मुकुल नम्रता को बता कर जाता होगा कि कब मिलता है उस पराई स्त्री से. ऐसा तो रोज ही होता है.’

‘मैं नम्रता से कहा करती थी कि कैसी बेवकूफ स्त्री हो तुम नम्रता, पति के हावभाव, उठनेबैठने, बोलनेचालने से तुम इतना भी अंदाजा नहीं लगा सकीं कि उस के दिल में क्या है.’ मैं खुद भी तो ऐसा नहीं कर पाई.

मैं ने कस कर अपने कानों पर हाथ टिका लिए. जल्दीजल्दी सामान अपने सूटकेस में भरने लगी. शांतनु जड़वत खड़े रहे. मैं मेघा की उंगली थामे गेट से बाहर निकल आई.

अगले दिन मैं कोर्ट नहीं गई. दिमाग पर बारबार अपने ही शब्द प्रहार कर रहे थे, ‘एक महल्ले में रह कर भी नम्रता कुछ न जान पाई’ और मैं दिन में वंदना और शाम को शांतनु इन दोनों के बीच में ही झूलती रही थी फिर भी…गिला करती तो किस से. पराया ही कौन था और अपना ही कौन निकला. एक पल को मन चाहा कि मुकुल की तरह शांतनु भी हाथ जोड़ कर माफी मांग ले. लेकिन दूसरे ही पल शांतनु का चेहरा खयालों में उभर आया. मन वितृष्णा से भर उठा. मैं शायद उसे कभी माफ न कर सकूं?

मैं नम्रता नहीं हूं. अगले दिन मुंशी जी टाइपराइटर ले कर बैठे और बोले, ‘‘जी, मैडम, लिखवाइए.’’

‘‘लिखिए मुंशीजी, डिस्साल्यूशन आफ मैरिज बाई डिक्री ओफ डिवोर्स सुनंदिता सिन्हा वर्सिज शांतनु सिन्हा,’’ टाइपराइटर की टिकटिक का स्वर लगातार ऊंचा हो रहा था.

चिराग : करुणा को क्यों बहू नहीं मान पाए अम्मा और बापूजी

कानपुर रेलवे स्टेशन पर परिवार के सभी लोग मुझ को विदा करने आए थे, मां, पिताजी और तीनों भाई, भाभियां. सब की आंखोें में आंसू थे. पिताजी और मां हमेशा की तरह बेहद उदास थे कि उन की पहली संतान और अकेली पुत्री पता नहीं कब उन से फिर मिलेगी. मुझे इस बार भारत में अकेले ही आना पड़ा. बच्चों की छुट्टियां नहीं थीं. वे तीनों अब कालेज जाने लगे थे. जब स्कूल जाते थे तो उन को बहलाफुसला कर भारत ले आती थी. लेकिन अब वे अपनी मरजी के मालिक थे. हां, इन का आने का काफी मन था परंतु तीनों बच्चों के ऊपर घर छोड़ कर भी तो नहीं आया जा सकता था. इस बार पूरे 3 महीने भारत में रही. 2 महीने कानपुर में मायके में बिताए और 1 महीना ससुराल में अम्मा व बाबूजी के साथ.

मैं सब से गले मिली. ट्रेन चलने में अब कुछ मिनट ही शेष रह गए थे. पिताजी ने कहा, ‘‘बेटी, चढ़ जाओ डब्बे में. पहुंचते ही फोन करना.’’ पता नहीं क्यों मेरा मन टूटने सा लगा. डब्बे के दरवाजे पर जातेजाते कदम वापस मुड़ गए. मैं मां और पिताजी से चिपट गई. गाड़ी चल दी. सब लोग हाथ हिला रहे थे. मेरी आंखें तो बस मां और पिताजी पर ही केंद्रित थीं. कुछ देर में सब ओझल हो गए. डब्बे के शौचालय में जा कर मैं ने मुंह धोया. रोने से आंखें लाल हो गई थीं. वापस आ कर अपनी सीट पर बैठ गई. मेरे सामने 3 यात्री बैठे थे, पतिपत्नी और उन का 10-11 वर्षीय बेटा. लड़का और उस के पिता खिड़की वाली सीटों पर विराजमान थे. हम दोनों महिलाएं आमनेसामने थीं, अपनीअपनी दुनिया में खोई हुईं.

‘‘आप दिल्ली में रहती हैं क्या?’’ उस महिला ने पूछा.

‘‘नहीं, लंदन में रहती हूं. दिल्ली में मेरी ससुराल है. यहां पीहर में इतने सारे लोग हैं, इसलिए बहुत अच्छा लगता है. दिल्ली में सासससुर के साथ रहने का मन तो बहुत करता है पर वक्त काटे नहीं कटता. वहां बस खरीदारी में ही समय खराब करती रहती हूं,’’ अब मेरा मन कुछ हलका हो गया था, ‘‘आप मुझे आशा कह कर पुकार सकती हैं,’’ मैं ने अपना नाम भी बता दिया.

‘‘मेरा नाम करुणा है और यह है हमारा बेटा राकेश, और ये हैं मेरे पति सोमेश्वर.’’ करुणा के पति ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया. राकेश अपनी मां के कहने पर नमस्ते के बजाय केवल मुसकरा दिया. लेकिन सोमेश्वर ने नमस्ते के बाद उस से आगे बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. मैं ने अनुमान लगाया कि शायद वे दक्षिण के थे. करुणा और मैं तो हिंदी में ही बातें कर रही थीं. शायद सोमेश्वर को हिंदी में बातें करने में परेशानी महसूस होती थी, इसलिए वे चुप ही रहे. ‘‘गाड़ी दिल्ली कब तक पहुंचेगी?’’ मैं ने पूछा, ‘‘वैसे पहुंचने का समय तो दोपहर के 3 बजे का है. अभी तक तो समय पर चल रही है शायद?’’ ‘‘यह गाड़ी आगरा के बाद मालगाड़ी हो जाती है. वहां से इस का कोई भरोसा नहीं. हम तो साल में 3-4 बार दिल्ली और कानपुर के बीच आतेजाते हैं, इसलिए इस गाड़ी की नसनस से वाकिफ हैं,’’ करुणा बोली, ‘‘शायद 5 बजे तक पहुंच जाएगी. आप दिल्ली में कहां जाएंगी?’’

‘‘करोलबाग,’’ मैं बोली.

‘‘आप को स्टेशन पर कोई लेने आएगा?’’ करुणा ने पूछा, ‘‘हमें तो टैक्सी करनी पड़ेगी, हम छोड़ आएंगे आप को करोलबाग, अगर कोई लेने नहीं आया तो…’’ ‘‘मुझे लेने कौन आएगा. बेचारे सासससुर के बस का यह सब कहां है,’’ मैं ने संक्षिप्त उत्तर दिया. सोमेश्वर ने अंगरेजी में कहा, ‘‘आप फिक्र न कीजिए, हम छोड़ आएंगे.’’

‘‘हम तो हौजखास में रहते हैं. कभी समय मिला तो आप से मिलने आऊंगी,’’ करुणा बोली. न जाने क्यों वह मुझे बहुत ही अच्छी लगी. ऐसे लगा जैसे बिलकुल अपने घर की ही सदस्य हो. ‘‘हांहां, जरूर आ जाना…परसों तो इंदू भी आ जाएगी. हम तीनों मिल कर खरीदारी करेंगी.’’ करुणा की आंखों में प्रश्न तैरता देख कर मैं ने कहा, ‘‘इंदू मेरी ननद है. मेरे पति से छोटी है. कलकत्ता में रहती है.’’

‘‘कहीं इंदू के पति का नाम वीरेश तो नहीं?’’ करुणा जल्दी से बोली.

‘‘हांहां, वही…तुम कैसे जानती हो उसे?’’ मैं उत्साह से बोली. अचानक शायद कोई धूल का कण सोमेश्वर की आंखों में आ गया. उस ने तुरंत चश्मा उतार लिया और आंख रगड़ने लगा.

करुणा बोली, ‘‘आप से कितनी बार कहा है कि खिड़की के पास वाली सीट पर मत बैठिए. खुद बैठते हैं, साथ ही राकेश को भी बिठाते हैं. अब जाइए, जा कर आंखों में पानी के छींटे डालिए.’’ सोमेश्वर सीट से उठ खड़ा हुआ. उस के जाने के बाद करुणा ने राकेश को पति की सीट पर बैठने को कहा और खुद मेरे पास आ कर बैठ गई.

‘‘आशाजी, आप मुझे नहीं पहचानतीं, मैं वही करुणा हूं जिस की शादी हरीश से हुई थी.’’

‘‘अरे, तुम हो करुणा?’’ मेरे मुंह से चीख सी निकल गई. करुणा ने मेरी ओर देखा फिर राकेश को देखा. वह अपने में मस्त बाहर खिड़की के नजारे देख रहा था. करुणा का नाम लेना भी हमारे घर में मना था. हम सब के लिए तो वह मर गई थी. मेरे देवर से उस की शादी हुई थी, 12 वर्ष पहले. शादी अचानक ही तय हो गई थी. हरीश 2 वर्ष के लिए रूस जा रहा था, प्रशिक्षण के लिए. साथ में पत्नी को ले जाने का भी खर्चा मिल रहा था.अम्मा और बाबूजी तो हमारे आए बिना शादी करने के पक्ष में नहीं थे. इन का औ?परेशन हुआ था, डाक्टरों ने मना कर दिया था यात्रा पर जाने के लिए, इसलिए हम में से तो कोई आ नहीं पाया था. शादी के कुछ दिनों बाद हरीश और करुणा रूस चले गए. लेकिन 2 महीने के भीतर ही हरीश की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. मेरे पति लंदन से मास्को गए थे हरीश का अंतिम संस्कार करने. बेचारी करुणा भी भारत लौट गई. दुलहन के रूप में भारत से विदा हुई थी और विधवा के रूप में लौटी थी.

अम्मा और बाबूजी के ऊपर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा था. उन का बेटा भरी जवानी में ही उन को छोड़ कर चला गया था. वे करुणा को अपने पास रखना चाहते थे, लेकिन वह नागपुर अपने मातापिता के पास चली गई. कभीकभार करुणा के पिता ही बाबूजी को पत्र लिख दिया करते थे. अम्मा और बाबूजी की खुशी की सीमा नहीं रही, जब उन्हें पता चला कि उन के बेटे की संतान करुणा की कोख में पनप रही है. कुछ महीनों बाद करुणा के पिता ने पत्र द्वारा बाबूजी को उन के पोते के जन्म की सूचना दी. अम्मा और बाबूजी तो खुशी से पागल ही हो गए. दोनों भागेभागे नागपुर गए, अपने पोते को देखने. लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि करुणा ने बेटे को जन्म अपने पीहर में नहीं बल्कि अपने दूसरे पति के यहां बंबई में दिया था. दोनों तुरंत नागपुर से लौट आए. बाद में करुणा के 1 या 2 पत्र भी आए, परंतु अम्मा और बाबूजी ने हमेशाहमेशा के लिए उस से रिश्ता तोड़ लिया. हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी करुणा ने दूसरी शादी कर ली, इस बात के लिए वे उसे क्षमा नहीं कर पाए. जब उन्हें इस बात का पता चला कि करुणा का दूसरा पति उस समय मास्को में ही था, जब हरीश और करुणा वहां थे तो अम्माबाबूजी को यह शक होने लगा कि क्या पता करुणा के पहले से ही कुछ नाजायज ताल्लुकात रहे हों. क्या पता यह संतान हरीश की है या करुणा के दूसरे पति की? कहीं जायदाद में अपने बेटे को हिस्सा दिलाने के खयाल से इस संतान को हरीश की कह कर ठगने तो नहीं जा रही थी करुणा? ‘‘राकेश एकदम हरीश पर गया है. एक बार अम्माबाबूजी इस को देख लें तो सबकुछ भूल जाएंगे,’’ मुझ से रहा न गया. ‘‘भाभीजी, आप ने मेरे मुंह की बात कह दी. यह बात कहने को मैं बरसों से तरस रही थी लेकिन किस से कहती. बेचारा सोमेश्वर तो राकेश को ही अपना बेटा मानता है. शायद हरीश भी कभी राकेश से इतना प्यार नहीं कर पाता जितना सोमेश्वर करता है.’’

करुणा ने बात बीच में ही रोक दी. सोमेश्वर लौट आया था. उस के बैठने से पहले ही राकेश उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलिए पिताजी, भोजनकक्ष में. कुछ खाने को बड़ा मन कर रहा है.’’ सोमेश्वर का मन तो नहीं था, परंतु करुणा द्वारा इशारा करने पर वह चला गया. उन के जाने पर करुणा ने चैन की सांस ली. हम दोनों चुप थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करें. ‘‘करुणा, अम्मा और बाबूजी को बहुत बुरा लगा था कि तुम ने हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी दूसरी शादी कर ली,’’ मैं ने चुप्पी तोड़ने के विचार से कहा. शायद करुणा को इस प्रश्न का एहसास था. वह धीरे से बोली, ‘‘क्या करती भाभीजी, सोमेश्वर हमारे फ्लैट के पास ही रहता था. वह उन दिनों बंबई की आईआईटी में वापस जाने की तैयारी कर रहा था. उस ने हरीश की काफी मदद की थी. हर शनिवार को वह हमारे ही यहां शाम का खाना खाने आ जाया करता था. जिस कार दुर्घटना में हरीश की मृत्यु हुई थी, उस में सोमेश्वर भी सवार था. संयोग से यह बच गया.

‘‘भाई साहब तो हरीश का अंतिम संस्कार कर के तुरंत लंदन वापस चले गए थे परंतु मैं वहां का सब काम निबटा कर एक हफ्ते बाद ही आ पाई थी. सोमेश्वर भी उसी हवाई उड़ान से मास्को से दिल्ली आया था. वह अम्मा और बाबूजी का दिल्ली का पता और हमारे घर का नागपुर का पता मुझ से ले गया,’’ कहतेकहते करुणा चुप हो गई. ‘‘तुम दिल्ली भी केवल एक हफ्ता ही रहीं और नागपुर चली गईं?’’ मैं ने पूछा.‘‘क्या करती भाभी, सोमेश्वर दिल्ली से सीधा नागपुर गया था, मेरे मातापिता से मिलने. उस से मिलने के बाद उन्होंने तुरंत मुझे नागपुर बुला भेजा, भैया को भेज कर. फिर जल्दी ही सोमेश्वर से मेरी सिविल मैरिज हो गई,’’ करुणा की आंखों में आंसू भर आए थे. ‘‘तुम ने सोमेश्वर से शादी कर के अच्छा ही किया. राकेश को पिता मिल गया और तुम्हें पति का प्यार. तुम्हारे कोई और बालबच्चा नहीं हुआ?’’

‘‘भाभीजी, राकेश के बाद हमारे जीवन में अब कोई संतान नहीं होने वाली. कानूनी तौर पर राकेश सोमेश्वर का ही बेटा है. सोमेश्वर ने तो मुझ को पहले ही बता दिया था कि युवावस्था में एक दुर्घटना के कारण वह संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो गया था. मेरे मातापिता ने यही सोचा कि इस समय उचितअनुचित का सोच कर अगर समय गंवाया तो चाहे उन की बेटी को दूसरा पति मिल जाएगा, परंतु उन के नवासे को पिता नहीं मिलने वाला. मैं शादी के बाद बंबई में रहने लगी. जब राकेश हुआ तो किसी को तनिक भी संदेह नहीं हुआ.’’ वर्षों से करुणा के बारे में हम लोगों ने क्याक्या बातें सोच रखी थीं. अम्मा और बाबूजी तो उस का नाम आते ही क्रोध से कांपने लगते थे. परंतु अब सब बातें साफ हो गई थीं. बेचारी शादी के बाद कितनी जल्दी विधवा हो गई थी. पेट में बच्चा था. फिर एक सहारा नजर आया, जो उस की जीवननैया को दुनिया के थपेड़ों से बचाना चाहता था. ऐसे में कैसे उस सहारे को छोड़ देती? अपने भविष्य को, अपनी होने वाली संतान के भविष्य को किस के भरोसे छोड़ देती? मैं ने करुणा के सिर पर हाथ रख दिया. वह मेरी ओर स्नेह से देखने लगी. अचानक वह झुकी और मेरे पांवों को हाथ लगाने लगी, ‘‘आप तो रिश्ते में मेरी जेठानी लगती हैं. आप के पांव छूने का अवसर फिर पता नहीं कभी मिलेगा या नहीं.’’

मैं ने उस को अपने पांवों को छूने दिया. चाहे अम्मा और बाबूजी ने करुणा को अपनी पुत्रवधू के रूप में अस्वीकार कर दिया था, परंतु मुझे अब वह अपनी देवरानी ही लगी. कुछ ही देर में सोमेश्वर और राकेश लौट आए. भोजनकक्ष से काफी सारा खाने का सामान लाए थे. हम सभी मिलजुल कर खाने लगे. दिल्ली जंक्शन आ गया. सामान उठाने के लिए 2 कुली किए गए. सोमेश्वर ने मुझे कुली को पैसे देने नहीं दिए. टैक्सी में सोमेश्वर आगे ड्राइवर के साथ बैठा था. मैं, करुणा और राकेश पीछे बैठे थे. कुछ ही देर बाद हमारा घर आ गया. सोमेश्वर डिक्की से मेरा सामान निकालने लगा. ‘‘बेटा, ताईजी को नमस्ते करो, पांव छुओ इन के,’’ करुणा ने कहा तो राकेश ने आज्ञाकारी पुत्र की तरह पहले हाथ जोड़े फिर मेरे पांव छुए. मैं ने उन दोनों को सीने से लगा लिया. सोमेश्वर ने मेरा सामान उठा कर बरामदे में रख कर घंटी बजाई. मैं ने करुणा और राकेश से विदा ली. चलतेचलते मैं ने 100 रुपए का 1 नोट राकेश की जेब में डाल दिया. अम्मा और बाबूजी तो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे, तुरंत दरवाजा खोल दिया. मेरे साथ सोमेश्वर को देख कर तनिक चौंके, परंतु मैं ने कह दिया, ‘‘अम्माजी, ये अपनी टैक्सी में मुझे साथ लाए थे, कार में इन की पत्नी और बेटा भी हैं.’’

‘‘चाय वगैरा पी कर जाइएगा,’’ बाबूजी ने आग्रह किया.

‘‘नहीं, अब चलता हूं,’’ सोमेश्वर ने हाथ जोड़ दिए. अम्मा और बाबूजी मुझ को घेर कर बैठ गए. वे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे, सफर के बारे में, मेरे पीहर के बारे में परंतु मेरा मन तो कहीं और भटक रहा था. लेकिन उन से क्या कहती.

मैं कहना तो चाहती थी कि आप यह सब मुझ से क्यों पूछ रहे हैं? अगर कुछ पूछना ही चाहते हैं तो पूछिए कि वह आदमी कौन था, जो यहां तक मुझे टैक्सी में छोड़ गया था? टैक्सी में बैठी उस की पत्नी और पुत्र कौन थे? शायद मैं साहस कर के उन को बता भी देती कि उन के खानदान का एक चिराग कुछ क्षण पहले उन के घर की देहरी तक आ कर लौट गया है. वे दोनों रात के अंधेरे में उसे नहीं देख पाए थे. शायद देख पाते तो उस में उन्हें अपने दिवंगत पुत्र की छवि नजर आए बिना नहीं रहती.

परिवार: क्या हुआ था सत्यदेव के साथ

कहानी- संजय दुबे

सत्यदेव का परिवार इन दिनों सफलता की ऊंचाइयां छू रहा था. बड़ा बेटा लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर, मझला बेटा बिल्डर और छोटा बेटा अपने बड़े भाइयों का सहयोगी. लगातार पैसे की आवक से सत्यदेव के परिवार के लोगों के रहनसहन में भी आश्चर्यजनक ढंग से बदलाव आया था. केवल 3 साल पहले सत्यदेव का परिवार सामान्य खातापीता परिवार था. बड़ा बेटा समीर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगा था तो मझला बेटा सुजय, एक बिल्डर के यहां सुपरवाइजर बन कर ढाई हजार रुपये की नौकरी करता था. छोटा बेटा संदीप कालिज की पढ़ाई पूरी करने में लगा था. सत्यदेव सरकारी विभाग में अकाउंटेंट के पद से रिटायर हुए थे. उन्होंने अपने जीवन के पूरे सेवाकाल में कभी रिश्वत नहीं ली थी इस कारण उन्हें अपनी ईमानदारी पर गुमान था.

2 साल के अंतराल में समीर लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर बन गया तो सुजय बैंक वालों की मदद से कालोनाइजर बन गया. उधर संदीप का बतौर कांटे्रक्टर पंजीयन करा कर समीर उस के नाम से अपने विभाग में ठेके ले कर भ्रष्टाचार से रकम बटोरने लगा. उधर कालोनाइजिंग के बाजार में एडवांस बुकिंग कराने वालों में सुजय ने अपनी इमेज बनाई तो घर में पैसा बरसने लगा.

पैसा आया तो दिखा भी. पहले घर फिर कार और फिर ऐशोआराम के साधन जुटने लगे. सत्यदेव अपने परिवार की समाज में बढ़ती प्रतिष्ठा को देख फूले नहीं समाते. दोनों बेटों, समीर व सुजय का विवाह भी उन्होंने हैसियत वाले परिवारों में किया था. संयुक्त परिवार में 2 बहुओं के आने के बावजूद एकता बनी रही तो कारण दोनों भाइयों की समझबूझ थी.

शाम के समय सत्यदेव पार्क मेें अपने दोस्तों के साथ बैठे राजनीतिक चर्चा में मशगूल थे तभी बद्रीप्रसाद ने कहा, ‘‘आजकल आप के बेटों की चर्चा बहुत हो रही है सत्यदेवजी, आप को पता है कि नहीं?’’

सत्यदेव ने तुनक कर कहा, ‘‘चलो, मुझे पता नहीं तो अब आप ही बता दो.’’

‘‘अरे, आजकल आप के बड़े बेटे द्वारा घटिया सामग्री से बनवाई सड़क की खूब चर्चा है. लोक निर्माण मंत्री दौरे पर आए थे तो जांच के आदेश दे कर गए हैं.’’

‘‘मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता है,’’ सत्यदेव ने नाराजगी जाहिर की, ‘‘वह मेहनती है इसलिए लोग उस से जलते हैं.’’

‘‘सत्यदेवजी, बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभान अल्लाह,’’ ओंकारनाथ बोले, ‘‘कल कुछ लोग कलेक्टर के पास आप के मझले बेटे की शिकायत ले कर गए थे. जनाब ने एक प्लाट को 2 लोगों को बेच दिया है.’’

‘‘ओंकारनाथजी, मेरे परिवार की तरक्की लोगों के गले से नीचे नहीं उतर रही है, इस कारण कुछ लोग फुजूल की बातें करते रहते हैं,’’ यह कहते हुए सत्यदेव पैर पटकते घर की ओर चल पड़े.

रात के 9 बज रहे थे. शाम को हुई बातों से सत्यदेव का मन खिन्न था. बड़ा बेटा समीर मोटरसाइकिल से आया और उसे खड़ा कर घर के भीतर जाने लगा तो सत्यदेव बोले, ‘‘बेटा, 5 मिनट तुम से अकेले में बात करनी है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. कहिए, बाबूजी.’’

‘‘बेटा, आज पार्क में बद्रीप्रसाद बता रहा था कि तुम ने जो सड़क बनवाई है उस की जांच तुम्हारे विभाग के मंत्री ने की है.’’

‘‘यह सच है बाबूजी. मैं सर्किट हाउस से ही लौट कर आ रहा हूं. मुझे मैनेज करना पडे़गा. मैं सर्किट हाउस फिर जा रहा हूं क्योंकि रात 12 बजे मंत्रीजी ने मिलने के लिए कहा है.’’

‘‘इतनी रात को क्यों बुलाया है?’’

‘‘बाबूजी, आप परेशान मत हों. अच्छा, मैं चलता हूं.’’

सत्यदेव फिर घूमने लगे. थोड़ी देर बाद सुजय कार से घर पहुंचा और तेजी से अंदर जाने लगा.

सत्यदेव, सुजय के पीछेपीछे अंदर आए तो देखा वह कहीं फ ोन कर रहा था.

‘‘हैलो कलेक्टर साहब…सर, आप से मिलना था. जी सर…जी सर….थैंक्यू वेरीमच.’’

सुजय ने फोन रखा तो सामने सत्यदेव खड़े थे.

‘‘बेटा, बिल्डिंग के काम में कलेक्टर क्या करते हैं?’’

‘‘बाबूजी, कुछ लोग कलेक्टर के पास मेरी शिकायत ले कर गए थे…’’

सत्यदेव ने बेटे की बात को बीच में काट कर कहा, ‘‘एक जमीन को 2 लोगों के नाम रजिस्ट्री की बात को ले कर?’’

‘‘हां, पर आप को कैसे पता चला, बाबूजी? खैर, मैं मैनेज कर लूंगा,’’ कह कर सुजय अंदर चला गया.

‘क्या बात है, समीर भी कहता है मंत्री को मैनेज कर लेगा. सुजय भी कलेक्टर को मैनेज कर लेगा,’ सत्यदेव मन ही मन विचार करने लगे.

थोड़ी देर बाद सत्यदेव ने देखा कि समीर एक छोटा ब्रीफकेस ले कर निकला. 10 मिनट बाद सुजय भी एक ब्रीफकेस ले कर जाते दिखा.

‘लगता है, बद्रीप्रसाद और ओंकार नाथ ठीक बोल रहे थे,’ सत्यदेव मन ही मन बुदबुदाए.

रात के 3 बज रहे थे. सत्यदेव के कान मोटरसाइकिल और कार की आवाज सुनने के लिए बेचैन थे. अचानक जीप रुकने की आवाज आई. उन्होंने लपक कर दरवाजा खोला. सामने पुलिस इंस्पेक्टर और 4 सिपाहियों के साथ सुजय खड़ा था.

‘‘बेटा सुजय, यह सब क्या है?’’

‘‘मैं बताता हूं आप को,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘जनाब ने एक एडिशनल कलेक्टर को प्लाट बेचा था. एक सप्ताह पहले वह अपना प्लाट देखने गए तो वहां किसी और का मकान बन रहा था. उन्होंने अपने कलेक्टर मित्र को खबर कर दी. यह जनाब कलेक्टर को रिश्वत देने चले थे. रंगेहाथ पकड़े गए हैं. यह रहा सर्च वारंट और हमें अब आप के घर की तलाशी लेनी है,’’ कहते हुए इंस्पेक्टर और चारों सिपाही घर में घुस कर तलाशी लेने लगे.

‘‘बाबूजी, मुझे बचा लीजिए.’’

‘‘सुजय, यह गलत काम करने की जरूरत क्या थी?’’

‘‘बाबूजी, गलती तो हो गई है. आप समीर को बुलाइए, उस की बहुत जानपहचान है. वह सबकुछ कर सकता है.’’

सत्यदेव ने समीर को फोन कर शीघ्र घर आने को कहा.

थोड़ी ही देर में समीर घर पहुंच गया. सत्यदेव ने पुलिस के घर में होने की जानकारी दी.

‘‘बाबूजी, इंस्पेक्टर साहब कहां हैं?’’

‘‘अंदर हैं बेटा.’’

समीर अंदर दाखिल हुआ. इंस्पेक्टर को देख कर बोला, ‘‘एक्सक्यूज मी, सर, मैं समीर, सुजय का बड़ा भाई. आप से कुछ कहना है.’’

‘‘क्या घूस देना चाहते हो? एक भाई तो इसी में पकड़ा गया है. चले थे कलेक्टर को रिश्वत देने.’’

‘‘सर, जमाना ही ऐसा है. हम गलती मान रहे हैं. आप कोई रास्ता तो बताइए.’’

‘‘काफी समझदार हो. देखो दोस्त, सर्च में कमी कर देंगे. उस का अलग लेंगे. आप के भाई को जमानत कोर्ट से मिलेगी. इस काम के लिए 2 पेटी लगेंगी.’’

‘‘2 मिनट रुकिए.’’

‘‘सुनो मिस्टर, 2 मिनट से ज्यादा नहीं, समझे,’’ इंस्पेक्टर ने अकड़ दिखाई.

समीर ने कमरे से बाहर आ कर सुजय को बताया, ‘‘सुजय, इंस्पेक्टर 2 पेटी जांच न करने की मांग रहा है. बाकी तुम्हारी जमानत कोर्ट से होगी.’’

‘‘मेरे को बचाने के लिए भी पूछ. रास्ता बता दे तो एक पेटी और दे देंगे.’’

सत्यदेव दोनों बेटों की बात सुन रहे थे. वह भयभीत और सशंकित थे. तभी दोनों बहुएं और बच्चे भी उठ कर ड्राइंगरूम में आ गए. तभी समीर उठ कर अंदर गया.

‘‘सर, पैसा तैयार है, कहां लेंगे?’’

‘‘कल बताऊंगा. और हां, सुनो, इस घर के कागजात और पैसे आधे घंटे में कहीं और भेज दो, समझे.’’

‘‘सर, सुजय मेरा छोटा भाई है. उस को गिरफ्तार नहीं करते तो…’’

‘‘देखो भाई, उस के खिलाफ तो कलेक्टर गवाह है. उसे जमानत कोर्ट से ही मिलेगी.’’

‘‘सर, बहुत बदनामी होगी. कैसे भी कुछ कीजिए.’’

‘‘आप बिलकुल भोले हैं. आप के भाई को अब 10-20 लाख रुपए भी छुड़ा नहीं सकते.’’

‘‘हां, एक रास्ता मैं बताता हूं. जमानत कराने के लिए जज को मैनेज कर लो. रामधन गुप्ता एडवोकेट हैं. सुबह बात कर लो. सुनो, घर से बाहर के 2 लोगों को बुलाइए, पंचनामा बनाना है.’’

कागजी काररवाई कर पुलिस सुजय को ले कर चली गई. समीर भी उन के साथ चला गया.

सत्यदेव धम्म से सोफे पर बैठ गए. आंखें जो अब तक नम थीं वे बह निकलीं. आंखों के सामने लाचार सुजय का चेहरा घूम गया.

रश्मि, सत्यदेव के बाजू में सिसक रही थी. बड़ी बहू उसे ढाढ़स बंधा रही थी.

सत्यदेव की समझ में नहीं आ रहा था कि कल सुबह किस मुंह से लोगों के सामने जाएंगे. सुबह होते ही यह बात सब जगह फैलेगी. महल्ले के लोग मजे लेने आएंगे.

‘‘रश्मि बेटा और सुजाता, तुम दोनों बच्चों को ले कर सुबह होने से पहले अपनेअपने मायके चली जाओ. जैसे ही सबकुछ ठीक होगा वापस आ जाना.’’

‘‘बाबूजी, इस मुसीबत में मैं मायके चली जाऊं, खबर तो वहां भी पहुंचेगी,’’ रश्मि ने परेशानी के साथ कहा, ‘‘बाबूजी, जब पैसा आ रहा था तो सब को अच्छा लग रहा था, अब परेशानी आई है तो यहीं रह कर झेलेंगे.’’

‘‘ठीक है, जाओ, बच्चों को सुला दो. हां, इन्हें कल स्कूल मत भेजना, समझी.’’

सुबह की पहली किरन फूटी तो पैर में चप्पल डाल कर सत्यदेव, सोमनाथ वकील के यहां चल पड़े. दरवाजे पर पहुंच कर कालबेल दबाई तो अंदर से आवाज आई, ‘‘ठहरो, भगोना ले कर आ रही हूं.’’

दरवाजा खुला. सामने सत्यदेव को खड़ा देख कर मिसेज सोमनाथ झेंप गईं.

‘‘दरअसल, भाई साहब, दूध वाला इसी समय आता है. माफ करेंगे, मैं इन को बुलाती हूं.’’

अंदर से अधिवक्ता सोमनाथ बाहर आए.

‘‘अरे, सत्यदेव, इतनी सुबहसुबह. क्या कोई खास बात है?’’

‘‘हां, आफिस खोलो. वहीं बताता हूं.’’

सोमनाथ ने आफिस खोला. सत्यदेव आफिस के सोफे पर धम्म से बैठ गए. उन के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं.

‘‘क्या बात है, सत्यदेव, बहुत घबराए हुए हो?’’

‘‘सोमनाथ, मेरे बेटे सुजय को बचा लो. मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं,’’ इतना कह कर सत्यदेव ने एक सांस में रात की सारी बातें बता दीं. फिर बोले, ‘‘सोमनाथ, इंस्पेक्टर बता रहा था कि कोई रामधन गुप्ता वकील हैं, वही जज को मैनेज कर सकते हैं.’’

‘‘सत्यदेव, यह सब फालतू की बात है. फिर भी अगर वह मैनेज कर लेता है तो अच्छा ही है. हां, उस से अगर काम नहीं होता है तो जेल में डाक्टर किशोर मेरा भतीजा है. उसे कह कर सुजय को अस्पताल में 2 दिन के लिए शिफ्ट कराने की कोशिश करेंगे, और सोमवार को तो तुम्हारे बेटे की जमानत हो ही जाएगी. ऐसा मैं कर सकता हूं. तुम रामधन गुप्ता के यहां जाओ.’’

‘‘कहां रहते हैं वह?’’

‘‘शंकर टावर के फ्लैट नं. 117 में.’’

‘‘ठीक है. मैं वहां काम होने के बाद तुम्हें फोन करता हूं.’’

सत्यदेव आटो से जब रामधन के घर पहुंचे तो वहां की भीड़ देख कर वह हतप्रभ रह गए. आफिस में घुसने लगे तो सामने बैठे व्यक्ति ने उन्हें रोक कर पूछ लिया, ‘‘क्या अपाइंटमेंट है?’’

‘‘नहीं, मुझे इंस्पेक्टर घोरपड़े ने भेजा है.’’

‘‘अरे, तब तो आप खास व्यक्तियों में हैं. आप बस, मेरे पीछेपीछे चले आइए.’’

सत्यदेव उस आदमी के साथ पिछले दरवाजे से एक सुसज्जित ड्राइंगरूम में दाखिल हुए.

‘‘आप बैठिए. रामधनजी आधे घंटे में यहां आएंगे.’’

सत्यदेव कुरसी पर बैठ गए. आंखें बंद कीं तो रात की घटनाएं किसी चलचित्र की तरह उन की आंखों के सामने घूमती रहीं और उन से भयभीत हो कर उन्होंने जब आंखें खोलीं तो सामने काले कपड़ों में कोई वकील खड़ा था.

‘‘आप मिस्टर सत्यदेवजी. हैलो, मैं रामधन गुप्ता. इंस्पेक्टर घोरपड़े का फोन मेरे पास आया था. देखिए, जमानत के लिए 1 लाख रुपए एडवांस लेता हूं. लोवर कोर्ट से साढ़े 12 बजे जमानत रद्द होगी. सी.जी.एम. के यहां प्रार्थनापत्र लगाएंगे और शाम 7 बजे तक आप का बेटा आप के घर. मंजूर है?’’

‘‘काम नहीं हुआ तो?’’ सत्यदेव बोले.

‘‘रुपए 25 हजार काट कर रकम वापस, क्योंकि कभीकभी जज का मूड ठीक नहीं होता.’’

सत्यदेव ने तुरंत समीर को फोन लगाया.

‘‘हैलो समीर, मैं बाबूजी.’’

‘‘बाबूजी, आप हैं कहां? मैं कब से आप को खोज रहा हूं.’’

‘‘बेटा, मैं रामधन वकील साहब के यहां से बोल रहा हूं. इंस्पेक्टर साहब ने इन से मिलने के लिए कहा था न. बेटा, एक लाख रुपए एडवांस मांग रहे हैं. यदि काम नहीं हुआ तो 25 हजार रुपए काट कर 75 हजार रुपए वापस करेंगे.’’

‘‘बाबूजी, आप उन को बताइए कि मैं रकम ले कर आ रहा हूं,’’ समीर ने कहा और फोन कट गया.

सत्यदेव ने रामधन वकील को बताया कि मेरा बेटा रकम ले कर आ रहा है.

‘‘ठीक है, तो आप वकालतनामे पर दस्तखत कर दीजिए. आप के बेटे के आने तक पेपर तैयार हो जाएंगे. आप के लिए चाय भेजता हूं. परेशान मत होइए.’’

सत्यदेव कमरे में अकेले रह गए.

क्या जमाना आ गया है. यहां तो न्याय भी बिकने के लिए तैयार है. पैसा पानी हो गया है. इंस्पेक्टर 2 लाख, जज 1 लाख.

समीर ब्रीफकेस ले कर अंदर दाखिल हुआ तो सत्यदेव को खामोश आंखें बंद किए कुरसी पर बैठा पाया. सामने रखी चाय ठंडी हो गई थी.

तभी रामधन भी कमरे में आ गए.

‘‘सर, यह 1 लाख रुपए हैं.’’

‘‘ठीक है, आप 11 बजे कोर्ट आ जाइएगा. और सुनिए, बाबूजी को मत लाइएगा.’’

‘‘वकील साहब, मेरा बेटा मुसीबत में है,’’ सत्यदेव ने मिन्नत की.

‘‘बाबूजी, आप घर जाइए. मैं कोर्ट चला जाऊंगा. आप को मोबाइल से खबर करता रहूंगा,’’ समीर बोला.

आटो में बैठ कर सत्यदेव बोले, ‘‘गांधी उद्यान चलो.’’

सत्यदेव पार्क में बैठ कर आतेजाते लोगों को देख रहे थे. देखतेदेखते शाम हो आई. वह उठ कर पास के पी.सी.ओे. पहुंचे और समीर को फोन लगाया.

‘‘हैलो, समीर बेटा.’’

‘‘बाबूजी, सुजय की जमानत नहीं हुई. उसे जेल भेज दिया गया है. 2 दिन छुट््टी है. सोमवार को ही जमानत होगी. आप हैं कहां? घर पर मैं कब से मोबाइल लगा रहा हूं.’’

सत्यदेव आगे कुछ बोले नहीं. फोन रख कर पैसे दिए और पी.सी.ओ. से बाहर निकल कर सोच में पड़ गए कि इस समय घर जाऊंगा तो सब दुकानें खुली होंगी. वहां लोग बैठे होंगे. सब एक ही प्रश्न पूछेंगे. इस से तो अच्छा है पहले सोमनाथ वकील के यहां चलता हूं, फिर घर जाऊंगा.

सत्यदेव जब सोमनाथ वकील के कार्यालय पहुंचे तो अंदर कई लोगों को बैठा देख कर वे वहीं खड़े हो कर सब के जाने का इंतजार करने लगे. अंतिम व्यक्ति जब बाहर निकला तो वह अंदर घुसे.

‘‘सोमनाथ, सुजय की जमानत नहीं हुई?’’

‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था. खैर, प्रयास तो किया,’’ कहते हुए सोमनाथ ने जेल के डाक्टर को फोन मिला कर कहा, ‘‘हैलो, किशोर, मैं तुम्हारा चाचा बोल रहा हूं. बेटा, एक काम था. जेल में सुजय नाम का एक आरोपी गया है. वह अपने दोस्त सत्यदेव का बेटा है. किसी तरह उसे लोहिया अस्पताल में शिफ्ट करा दो, बेटा,’’ सोमनाथ ने फोन बंद करते हुए सत्यदेव की ओर देखा. बोले, ‘‘सत्यदेव, आधे घंटे बाद लोहिया अस्पताल चलेंगे. किशोर ने कहा है, वह तब तक सुजय को शिफ्ट करा देगा.’’

थोड़ी देर में मिसेज सोमनाथ चायनाश्ता ले कर आईं.

‘‘भाई साहब, आप नाश्ता कर लीजिए.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सत्यदेव नाश्ते को देखते रहे और सोचते रहे पता नहीं सुजय ने क्या खाया होगा? आधे घंटे बाद सोमनाथ अंदर से तैयार हो कर सत्यदेव के पास आए तो देखा, चायनाश्ता ज्यों का त्यों पड़ा है. वह बोले, ‘‘अरे, तुम ने तो कुछ भी नहीं लिया.’’

‘‘सोमनाथ, चलो अस्पताल चलते है,’’ इतना कहते हुए सत्यदेव उठ गए तो सोमनाथ ने भी मनोस्थिति को समझते हुए आगे कुछ नहीं कहा.

अस्पताल पहुंचते ही सोेमनाथ को पता चला कि सुजय कैदी वार्ड नंबर 7 के बेड नंबर 14 पर है. दोनों वार्ड नं. 7 में पहुंचे. वार्ड के सामने 4 पुलिस वाले बैठे थे. उन के सामने से हो कर सोमनाथ 14 नंबर बेड के पास पहुंचे. सुजय के हाथ में हथकड़ी लगी हुई थी. हथकड़ी का दूसरा सिरा लोहे के पलंग से बंधा था. उसे छिपाने के लिए सुजय ने चादर डाल रखी थी.

सुजय, सत्यदेव को देख कर रो पड़ा. वह असहाय खड़े रह गए. उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. अचानक आगे बढ़ कर सुजय से लिपट कर वह फफक कर रो पडे़.

‘‘बाबूजी, जिंदगी में कोई गलत काम नहीं करूंगा. मेरे कारण आज सब परेशान हैं. सब की इज्जत मिट्टी में मिल गई. बाबूजी, पैसा कमाने के चक्कर में मैं बेईमानी करने लगा था. खुद बेईमान बना तो सब को बेईमान समझ लिया. सोचता था, सब बिकते हैं परंतु मेरा सोचना गलत था. ईमानदारी के सामने पैसा कुछ भी नहीं है. मुझे माफ कर दो, बाबूजी.’’

‘‘काश, बेटा, पैसे बटोरने की अंधी दौड़ से बचने की कोशिश करते. अब तो पता नहीं कौनकौन से शब्द सुनाएंगे लोग. बात करेंगे तो विषय यही होगा. मैं तो पिता हूं, माफ ही कर सकता हूं लेकिन दूसरे लोग तो इस बात का मजा ही लेंगे,’’ इतना कह कर वह सोमनाथ को साथ ले कर वार्ड से बाहर हो गए.

सीढ़ी उतरतेउतरते सत्यदेव की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. रेलिंग पकड़ कर संभलने की कोशिश करते कि उन्हें सीने में तेज दर्द उठा और उन का शरीर निढाल हो कर सीढ़ी से लुढ़क गया. जब तक सोमनाथ कुछ समझते और उन्हें संभालने का प्रयास करते सत्यदेव की सांसें थम चुकी थीं. उन की आंखें बेबस खुली हुई थीं.

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