Winter Special: फैमिली डाक्टर का साथ यानी बेहतर इलाज

आज की व्यस्त जिंदगी में हर व्यक्ति चाहता है कि वह और उस का परिवार हमेशा सुखी और स्वस्थ रहे. लेकिन आजकल गलत खानपान व अनियमित दिनचर्या के कारण लोगों में बहुत सी बीमारियां जन्म ले रही हैं और ये बीमारियां कभी भी किसी को भी हो सकती हैं. फैमिली डाक्टर क्यों जरूरी: इंडिया हैबिटैट सैंटर के कंसल्टैंट फिजिशियन डाक्टर अशोक रामपाल का कहना है कि कोई भी बीमारी दरवाजा खटखटा कर नहीं आती. इसलिए खुद को और अपने परिवार को बीमारियों से दूर रखने व स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए एक फैमिली डाक्टर का होना बहुत जरूरी होता है, जो समय पर सही इलाज कर सके या अच्छे डाक्टर के पास आप को रैफर कर सके. आप का फैमिली डाक्टर आप की और आप की फैमिली के लोगों की उम्र, समस्याएं वगैरह धीरेधीरे जान जाता है, इसलिए वह सभी का सही इलाज तो करता ही है, कोई गंभीर समस्या जैसे हार्ट की, लंग्स की या हड्डी की होने पर वह हार्ट सर्जन, कार्डियोलौजिस्ट या और्थोपैडिक सर्जन के पास रैफर कर देता है.

1.एक फिटनैस फ्रैंड: फैमिली डाक्टर को अगर फिटनैस फ्रैंड का नाम दें तो गलत नहीं होगा क्योंकि उसे आप के स्वास्थ्य के और बीमारी के बारे में पूरी जानकारी होती है. उस आप की पर्सनल हिस्ट्री पता होती है, इसलिए कौन सी दवा आप को सूट करेगी और किस से आप को साइडइफैक्ट होगा उसे शुरू से पता होता है. आप की समस्या के अनुसार ही वह आप का और आप के पूरे परिवार का इलाज करता है. इलाज बिना समय गंवाए: आप अपने फैमिली डाक्टर से कभी भी किसी समय अपना इलाज करा सकते हैं और बिना समय गंवाए आप नी पेन से ले कर हार्ट सर्जरी तक इलाज करवा कर स्वास्थ्य को बेहतर बना सकते हैं. किसी गंभीर बीमारी के होने पर यह डाक्टर तुरंत प्राथमिक उपचार कर आप को दूसरे डाक्टर के पास रैफर कर सकता है. इस से आप का इलाज समय रहते हो जाता है.

2.स्वास्थ्य भी और सलाह भी: एक फैमिली डाक्टर ही आप को सही सलाह दे सकता है कि किस तरह से इलाज कराएं क्योंकि कभीकभी एक छोटी सी बीमारी भी आप के अनदेखा करने पर बड़ी बीमारी बन जाती है इसलिए अपने फैमिली डाक्टर से बिना कुछ छिपाए उन्हें सही जानकारी दे कर खुद को स्वस्थ रखें. संपर्क कभी भी कहीं भी मुमकिन: आप अपने फैमिली डाक्टर से इतने फ्रैंडली होते हैं कि आप बिना झिझक उन से किसी भी समय फोन कर के या मिल कर अपनी समस्या बता सकते हैं. अगर आप कहीं बाहर हैं तो फोन द्वारा भी वे आप की बीमारी का इलाज बेहतर तरीके से कर सकते हैं. न पैसे की बरबादी न सेहत का नुकसान: फैमिली डाक्टर को आप के स्वास्थ्य के अलावा आप की फैमिली की आर्थिक स्थिति के बारे में भी पूरी जानकारी होती है, इसलिए वह इलाज उसी के अनुसार करता है. अगर किसी बड़ी बीमारी के लिए उसे कहीं रैफर भी करना पड़े, तो वह आप की आर्थिक स्थिति को देख कर ही यह करता है. इस से आप के पैसे की बरबादी नहीं होती और इलाज भी बेहतर हो जाता है.

3.फैमिली डाक्टर एक काउंसलर भी: आप का फैमिली डाक्टर एक काउंसलर के रूप में भी कार्य करता है, क्योंकि उसे आप की हिस्ट्री के बारे में पूरी जानकारी होती है. इसीलिए वह आप को कौन सी बीमारी है और उस की सही पहचान व सही इलाज के लिए जिस विशेषज्ञ की आप को जरूरत है, उसी के पास रैफर करता है. अगर आप को इस की जानकारी न हो तो आप को विशेषज्ञ मिलना मुश्किल हो सकता है. एक फैमिली डाक्टर आप को उचित सलाह दे कर आप को तनावमुक्त भी रखता है.

Winter Special: जाने मेनोपॉज के दौरान कैसे अपनी त्वचा का बचाव कर सकते हैं आप?

मेनोपॉज बढ़ती उम्र में जीवन का एक हिस्सा है. यह महिलाओं के शारीरिक, जातीय और सामाजिक पहलुओं को जोड़ता है. दुनिया में हर जगह जब महिलाओं की उम्र आधी हो जाती है तो वे अनियमित पीरियड्स या मेनोपॉज का अनुभव करती हैं. इन सब चीजों में डॉक्टरी मदद से कुछ राहत मिल जाती है. ईस बारे में बता रहे हैं-एलाइव वेलनेस क्लीनिक के मुख्य त्वचा रोग विशेषज्ञ और डायरेक्टर डॉ चिरंजीव छाबरा.

मेनोपॉज प्राकृतिक रूप से होने वाली एक ‘बायोलॉजिकल’ प्रक्रिया है. मेनोपॉज तब होता है जब ओवरीज (अंडाशय) हार्मोन का उत्पादन ज्यादा मात्रा में करना बंद कर देती हैं. ओवरीज टेस्टोस्टेरोन के अलावा वे फीमेल हार्मोन एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का उत्पादन करते हैं. जब पीरियड्स आते हैं तो एस्ट्रोजेन और प्रोजेस्टेरोन उसमे मुख्य भूमिका निभाते हैं. जिस तरह से आपका शरीर कैल्शियम का इस्तेमाल करता है या ब्लड कोलेस्ट्राल लेवल को संतुलित करता है उसी के हिसाब से एस्ट्रोजन का उत्पादन भी प्रभावित होता है.

जब मेनोपॉज होता है तो ओवरी से फेलोपियन ट्यूब में अंडे रिलीज होना बंद हो जाते हैं और महिला तब अपने आखिरी मासिक चक्र में होती है.

मेनोपॉज के दौरान महिलाओं को होने वाली समस्याएं

मेनोपॉज के दौरान अनियमित रूप से पीरियड्स आते हैं, उम्र से सम्बंधित त्वचा पर लक्षण दिखते हैं, धूप से त्वचा के डैमेज हो जाती है, स्किन ड्राई हो जाती है, चेहरे के बाल नज़र आते हैं, बालों का झड़ना, झुर्रियाँ, फुंसियाँ, हार्ट तेज होना, सिरदर्द, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द, और दर्द, सेक्स न करने की भावना होना, एकाग्रता में और याददाश्त सम्बन्धी परेशानी, वजन बढ़ना और कई तरह के मुँहासे होते हैं.

समस्याएं–

– गर्माहट का झोंका लगना (गर्मी का अचानक अहसास जो पूरे शरीर में हो).

– रात में पसीना आना और/या ठंड लगना.

– सर्विक्स में सूखापन; सेक्स के दौरान बेचैनी होना

– पेशाब करने की बार-बार जरूरत महसूस होना

– नींद न आने की समस्या (अनिद्रा).

– भावनात्मक बदलाव (चिड़चिड़ापन, मिजाज, हल्का डिप्रेशन).

– मुंह, आँख और स्किन का ड्राई होना

मेनोपॉज आने पर स्किन से सम्बंधित सावधानी–

विटामिन  D और कैल्शियम से भरपूर चीजें खाएं

मेनोपॉज संबंधी हार्मोनल बदलाव हड्डियों को कमजोर बना देते हैं. जिससे ऑस्टियोपोरोसिस होने का खतरा बढ़ सकता है क्योंकि कैल्शियम और विटामिन D की कमी हो जाती है. इसलिए अपनी डाइट में उन चीजों को शामिल करें जिसमे कैल्शियम और विटामिन डी प्रचुर मात्रा में हो.

 

ट्रिगर खाद्य पदार्थ खाने से बचें–

कुछ खाद्य पदार्थों से गर्म झोंके आने, रात को पसीना आने और मूड स्विंग से जोड़ कर देखा जाता है. जब रात में इसका सेवन किया जाता है, तो उनके ट्रिगर होने की संभावना और भी ज्यादा हो सकती है. कैफीन, शराब और मसालेदार भोजन से बचें.

 

हयालूरोनिक एसिड–

जब उम्र बढ़ती है तो शरीर में हयालूरोनिक एसिड कम हो जाता है, जिस वजह यह एसिड त्वचा और ऊतकों की सुरक्षा नहीं कर पाता है. इसलिए हयालूरोनिक जैल और सीरम लगाने की जरूरत होती है. प्रोफिलो  भी ऐसा ही एक इंजेक्टेबल स्किन रीमॉडेलिंग ट्रीटमेंट है. इस इलाज को तब अमल में लाया जाता है जब त्वचा को हाइड्रेटेड, जवान और स्वस्थ रखने के लिए हयालूरोनिक एसिड को सीधे त्वचा की परतों में इंजेक्ट किया जाता है. यह थेरेपी कई रूपों में आती है. इन थेरेपी में बायो रीमॉडेलर, स्किन बूस्टर, फ्रैक्शनल मेसोथेरेपी और लिप फिलर्स शामिल हैं.

 

फल और सब्जियों का भरपूर सेवन करें–

फलों और सब्जियों से भरपूर डाइट का सेवन  करने से मेनोपॉज के कई लक्षणों को रोकने में मदद मिल सकती है.  फल और सब्जियों में कम कैलोरी होती हैं. इनसे आप अपने वजन को भी संतुलित रख सकते हैं.

 

रिफाइन शुगर और प्रोसेस्स्ड फ़ूड का सेवन कम करें–

रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट और शुगर से ब्लड शुगर के स्पाइक्स और ड्रॉप्स बन सकते हैं. इससे व्यक्ति थका हुआ और चिड़चिड़ा महसूस कर सकता है. यह मेनोपॉज के शारीरिक और मानसिक लक्षणों को बढ़ा सकता है. हाई-रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट डाइट पोस्टमेनोपॉज़ल महिलाओं में डिप्रेशन के ख़तरे को बढ़ा सकते हैं.

अन्य तरीके–

महिलाएं इलाज के रूप में प्रोफिलो के माध्यम से हाइलूरोनिक एसिड का भी उपयोग कर सकती हैं. प्रोफिलो एक ऐसा तरीका है जिससे उम्र बढ़ने से सम्बंधित संकेतो और लक्षणों को मिटाया जा सकता है. कई महिलाएं जीवन के इस फेज में काफी खुश होती है क्योंकि उन्हें बच्चे पैदा होने की चिंता नहीं रह जाती है. इससे वे नई चीजें अपनाने में लग जाती हैं.

Winter Special: ऐसे करें मोटापे से फाइटिंग

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हम में से अधिकतर लोग न तो कसरत के लिए नियमित रूप से समय निकाल पाते हैं, न ही जीभ पर कंट्रोल रहता है. फिर ऐसे में भला कैसे घटे वजन और कैसे निखरे पर्सनैलिटी? लेकिन घबराइए नहीं, घर व आफिस के अपने बिजी शेड्यूल को डिस्टर्ब किए बिना या सुबहसुबह जल्दी बिस्तर छोड़ घंटों एक्सरसाइज करने की भी जरूरत नहीं, क्योंकि आप की सेहत को चुस्तदुरुस्त रखने के लिए कई ऐसे तरीके हैं, जिन की बदौलत आप खुद को स्लिम व आकर्षक बना सकते हैं.

जंक फूड से परहेज

विशेषज्ञों का मानना है कि सब से पहले हमें अपने खानपान पर ध्यान देना चाहिए. आप के आहार में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और मिनरल्स भरपूर मात्रा में होने चाहिए. इस के लिए हरी पत्तेदार सब्जियां, सलाद, चिकन, मछली, दूध, अंडे और ताजे फलों को अपने आहार में जरूर शामिल करें. दिन भर में 8 से 10 गिलास पानी जरूर पीएं. इस से न सिर्फ आप का शरीर चुस्तदुरुस्त और तंदुरुस्त रहेगा, बल्कि आप स्वस्थ भी रहेंगे. कोला व कौफी जैसे कैफीनयुक्त पेय पदार्थों और जंक फूड से आप जितना दूर रहेंगे आप के शरीर के लिए उतना ही अच्छा होगा.

मानव शरीर कुदरत की अद्भुत रचना है. हमारे शरीर की रचना इस प्रकार की है कि दिन भर के परिश्रम के बाद इसे स्वत: ही नींद की जरूरत होती है. भरपूर नींद शरीर के लिए जरूरी है. यथासंभव सोने व उठने का समय निश्चित करें. 7-8 घंटे की अच्छी नींद आप के शरीर में होने वाली टूटफूट की मरम्मत कर देती है और उठने पर आप तरोताजा महसूस करते हैं. अच्छी नींद ले कर और खूब पानी पी कर आप खुद को तरोताजा रख सकते हैं. अब जरा बात करें मोटापे की, तो मोटापा स्वस्थ शरीर के साथसाथ सुंदर शरीर का भी दुश्मन है, लेकिन मोटापे को ले कर ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है. जैसा कि आमतौर पर देखा जाता है, अपने शरीर से अनावश्यक मेहनत करवा कर या खुद को भूखा रख कर मोटापा भले ही दूर हो या न हो, पर आप कमजोरी के शिकार जरूर हो सकते हैं और कमजोर शरीर पर रोग भी तेजी से हमला कर सकते हैं.

क्रेश डाइटिंग से बचें

हालांकि आमतौर पर माना जाता है कि वजन घटाना आसान नहीं होता है. इस में महिलाएं सब से ज्यादा पैसा खर्च करती हैं, लेकिन 90% मामलों में उतना वजन कम नहीं होता जितनी आशा की जाती है. अगर आप भी अपने वजन को ले कर परेशान हैं तो घबराने की जरूरत नहीं है. वीएलसीसी की डा. वीणा अग्रवाल कहती हैं कि औरतें वजन कम करने के चक्कर में क्रेश डाइटिंग करने लगती हैं. इस से वे एनीमिया, आरथ्राइटिस कमजोरी व थकान जैसी समस्याओं से ग्रस्त हो जाती हैं. इसलिए वजन कम करने के लिए के्रश डाइटिंग जैसे तरीकों को हरगिज न अपनाएं.

वे कहती हैं कि खानेपीने में अचानक कमी करने से शरीर की मेटाबोलिक गतिविधियां मंद पड़ जाती हैं. विटामिनों व खनिज लवणों की कमी होने लगती है. बाल गिरने लगते हैं और पेट में ऐंठन की भी शिकायत होने लगती है. कैलोरी की मात्रा बहुत ज्यादा कम करने पर शरीर कमजोर व थकाथका रहने लगता है. वजन कम करते समय हम इस तरह के परिणामों की आशा तो नहीं करते हैं. अत: अगर आप वजन कम करने की सोच रहे हैं तो अपनी जरूरतों के मुताबिक सही किस्म का पर्याप्त आहार लें. रेशेदार खाद्य पदार्थ, फल, सब्जियां, अनाज, दालें, दुग्ध उत्पाद, हलका मांसाहार, मछली आदि का सेवन करें. लेकिन चीनी व वसा जैसी चीजों को अपने आहार में शामिल करने से बचें.

वैसे वजन कम करने के लिए अब लूज पिल्स भी बाजार में आ गई हैं, लूज पिल्स यानी वजन कम करने की गोलियों के बारे में पूछने पर डाक्टर वीणा कहती हैं कि इन में से कुछ दिमाग पर असर करती हैं, इसलिए व्यक्ति को भूख नहीं लगती. कुछ पेट के अंदर जा कर वसा युक्त खाद्य पदार्थों को शरीर में घुलने नहीं देती हैं, लेकिन इन गोलियों के साइड इफेक्ट भी हैं. इस से व्यक्ति को घबराहट होने लगती है, हाथपांव कांपते हैं, पेट चल जाता है, बुखार होने लगता है. बाल झड़ने लगते हैं, कुछ मामलों में तो व्यक्ति काफी अवसादग्रस्त भी हो जाता है, दिल की धड़कन तेज चलने लगती है और उच्च रक्तचाप भी रहने लगता है. इसलिए वजन कम करने की कोई भी गोली लेने से पहले किसी विशेषज्ञ से परामर्श जरूर लें.

चेन्नई के रमेश का उदाहरण देते हुए वह कहती हैं कि जब वे हमारे पास आए थे तो उन का वजन करीब 100 किलोग्राम था. हालांकि वे छरहरे बदन के मालिक थे पर उन का ब्लडप्रेशर बढ़ा हुआ था और शरीर में कोलेस्ट्रोल की मात्रा भी सामान्य से लगभग दोगुनी थी. दरअसल, रमेश के साथ ऐसा इसलिए हुआ कि वे वजन घटाने के लिए अनापशनाप दवाओं का सेवन करते थे और उन का जीवन बिना किसी शारीरिक गतिविधि के चलता था. सुबह दफ्तर जाते तो दिन भर कुरसी पर बैठेबैठे बीत जाता. कोई निश्चित समय नहीं था.

हरी सब्जियों का सेवन

मेरे सामने सब से बड़ी चुनौती थी कि रमेश की बीमारियों पर कैसे नियंत्रण पाया जाए. फिर रमेश की पत्नी को समझाया कि खाने में रमेश को घीया, तुरई, नीबू, मौसमी, धनिया, सेलरी, पत्तागोभी, ब्रोकली, सूखे मेवे आदि दिए जाएं. प्रोसेस्ड फूड और छिलका रहित अनाजों के स्थान पर छिलकायुक्त अनाज और हरी पत्तियों का ज्यादा से ज्यादा सेवन करने के लिए कहा गया. रेशेदार खाद्य पदार्थ लेने के लिए कहा गया. वहीं भोजन में वसा की मात्रा 15 से 20% कम की गई. मलाईयुक्त दूध की जगह स्किम्ड मिल्क और पकाने के लिए सरसों और जैतून का तेल इस्तेमाल करने के लिए कहा गया.

अगर आप भी मोटापे से परेशान हैं, तो आप भी ऐसा कर सकते हैं. अगर आप कौफी पीने के शौकीन हैं, तो उस की जगह आप ग्रीन टी ले सकते हैं, क्योंकि ग्रीन टी कोलेस्ट्रोल कम करती है और खून के थक्के जमने से रोकती है.  दिन में 10 से 12 गिलास पानी लें. साथ ही नारियल पानी को भी आहार में शामिल किया जा सकता है, क्योंकि यह मैग्नीशियम, कैल्सियम और पोटैशियम के अलावा जिंक, सेलेनियम, आयोडीन, सल्फर, मैगनीज जैसे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से भरपूर होता है, आप कच्चा लहसुन भी खा सकते हैं. यह भी कोलेस्ट्रोल के स्तर को कम करता है.

दिल्ली स्थित मूलचंद अस्पताल व हार्ट केयर फाउंडेशन औफ इंडिया के डाक्टर के.के. अग्रवाल ने बताया कि मोटापे से बचना है तो अपनी जीवनशैली को बदलें. खानपान में विशेष ध्यान दें. चीनी, चावल और मैदा खाना बंद कर दें. संतुलित आहार लें. एक बार में 80 ग्राम से ज्यादा न खाएं. पेट की चौड़ाई  80 सेंटीमीटर से कम होनी चाहिए. मोटा होना सिर्फ सौंदर्य संबंधी समस्या ही नहीं है, बल्कि आप की सेहत और जान के लिए भी एक बड़ा खतरा है. मोटे और ज्यादा वजन के लोग अनेक रोगों के शिकार हो जाते हैं.

आधुनिक गैजेट का उपयोग

आज अत्याधुनिक गैजेट्स की मदद से फिटनेस की निगरानी करना आसान हो गया है. ये गैजेट आप के दिल की धड़कनों सहित शरीर की सभी गतिविधियों पर नजर रखते हैं और बताते हैं कि कहां सुधार की जरूरत है. कंप्यूटर ट्रेनिंग सर्किट ऐसा ही गैजेट है, जो युवाओं में लोकप्रिय हो रहा है. इस की मदद से आप अपने अनूकुल स्वस्थ रहने का कार्यक्रम बना सकते हैं और अपनी सुगठित देह के मालिक बन सकते हैं. मोटरगाडि़यों के स्पीड मीटर की तरह कलाई घडि़यां भी बाजार में उपलब्ध हैं. इन्हें आप अपनी कलाई पर बांध कर अपने चलने व दौड़ने की गति को जान सकते हैं. इस से आप को अपनी शरीर की कैलोरी का आइडिया मिलता है. 

एक अन्य गैजेट बौडी जेम आप को बताता है कि दिन भर में आप को कितनी कैलोरी ऊर्जा की जरूरत है. इस की मदद से कैलोरी पर नियंत्रण रखना आसान है. इस के अलावा रोमहोम क्रास ट्रेनिंग मशीन पर आप 4 मिनट में ही 20 से 45 मिनट तक के स्वस्थ रहने का लाभ उठा सकते हैं. पंप पौड का आप अपना पर्सनल ट्रेनर बना सकते हैं, वह भी बगैर किसी ट्रेनर की मदद से. यह पर्सनल ट्रेनिंग प्रोग्राम आप के पर्सनल आईपौड पर चल सकेगा. इन के अलावा स्मार्ट सोल वाले जूते भी उपलब्ध हैं, जो आप की दिल के धड़कनों पर नजर रखते हैं, साथ ही बाजार में डायनेमिक ब्रा भी उपलब्ध हैं, जो स्तनों को सही आकार में रखने में मदद करती हैं. 

 शारीरिक स्तर के अलावा मन को प्रसन्न रख कर भी अच्छा स्वास्थ्य हासिल किया जा सकता है. मानसिक थकान को मिटाने का यह कारगर उपाय है. पैदल चलना शुरू करें. आसपास के कामों के लिए पैदल आनाजाना शुरू कर आप पर्यावरण की रक्षा तो करेंगे ही, साथ ही नएनए अनुभवों का भी मजा ले सकेंगे. अंत में अपनी बोरियत भरी रुटीन जिंदगी से थोड़ा अलग हट कर बाहर जा कर भी आप तरोताजा हो सकते हैं.

Winter Special: दांतों के आधुनिक उपचार

चिकित्सा जगत में अब दांतों के आधुनिक उपचार में क्रांति आई है. दांतों के आधुनिक उपचार की मांग तो बढ़ी है, लेकिन जानकारी न होने के कारण कई मरीजों को इस का खमियाजा भुगतना पड़ता है. एक ही सेशन के दौरान होने वाली कई प्रक्रियाओं जैसे दांतों को सफेद करना, ब्लीचिंग, लैमिनेट, वेनीर, मसूढ़ों की सर्जरी इनेमेलोप्लास्टी आदि से लोगों को न सिर्फ संतुष्टि मिलती है, बल्कि बिना कारण के भी औसतन से अधिक हंसने लगते हैं. लेकिन इन प्रक्रियाओं के दुष्प्रभावों को जानने के बाद आप के लिए यह निर्णय करना आसान हो जाएगा कि आप बिना कारण कुछ दिन तक हंसना चाहते हैं या फिर हमेशा के लिए अपनी हंसी को अपने पास संजो कर रखना चाहते हैं.

दांतों को सफेद कराना या ब्लीचिंग कराने की प्रक्रिया को एक सेशन मेें ही किया जा सकता है. लेकिन क्या आप इस के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हैं?सब के लिए यह जानना आवश्यक है कि दांतों पर ब्लीचिंग का असर सिर्फ कुछ हफ्तों तक ही रहता है इसलिए इसे बारबार और जल्दीजल्दी कराना पड़ता है. फिर हर बार उतनी चमक नहीं आती जितनी कि शुरुआत में आती है. इस का सब से बड़ा दुष्प्रभाव तो यह होता है कि बारबार ब्लीचिंग कराने से दांत कमजोर हो जाते हैं और आगे चल कर इन के जल्दी ही गिरने की आशंका रहती है. दांत जल्दी सड़ जाते हैं, खुरदुरे हो जाते हैं और दांतों के बीच फ्रेक्चर लाइन बन जाती है. तो क्या ये सब जानने के बाद आप मुसकराना चाहेंगे?

अब कई आधुनिक तकनीकों केक आने से ब्लीचिंग के लिए सही सदस्यों का चयन कर पाना आसान हो गया है. एडवांस्ड पावर जूम भी एक ऐसी ही तकनीक है. इस के दौरान प्रोफेशनल तरीके से दांतों को चमकाया जाता है. इस के शतप्रतिशत परिणामस्वरूप जादू जैसा असर देखने को मिलता है. शेड गाइड पर तुलना करने से पता चलता है कि यह दांतों को 6-8 शेड अधिक चमकदार बनाता है. इस का असर कम से कम दो सालों तक रहता है अन्यथा ब्लीचिंग या अन्य उत्पादों का इस्तेमाल करने से केवल एक या दो शेड ही चमक मिलती है व इस का प्रभाव केवल कुछ समय तक ही रहता है.

लैमिनेट

लैमिनेट धातु से बने पतले कवर की तरह होते हैं जिन्हें पीले, भूरे दांतों की गंदगी, फ्लोराइड दाग आदि को छिपाने के लिए लगाया जाता है. यह पुरानी मगर विशष्ट प्रक्रिया है. लेकिन यहां भी वही सवाल उठता है कि क्या आप इस के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हैं?

लैमिनेट कैप या क्राउन का बेहतर विकल्प माना जाता है. कैप के मुकाबले इस में दांतों को 75 % काटना पड़ता है. तकनीकी तौर पर इस प्रक्रिया के दौरान सामने से दांतों के आकार को केवल 0.5 मि.मी. से अधिक नहीं काटना पड़ता है. जबकि कैप लगाने के लिए दांतों के चारों तरफ से उसे 1.5 मि.मी. काटना पड़ता है. इस के अलावा कैप लगवाने वाले दांतों में पहले रूट कैनाल ट्रीटमेंट आरसीटी कराना पड़ता है. इस से दांत निष्क्रिय हो जाते हैं, उन तक कोई पौष्टिक आहार आदि नहीं पहुंचता और दांत जल्द ही कमजोर हो जाते हैं.

हालांकि कैप और लैमिनेट दोनों का खर्चा लगभग बराबर ही होता है लेकिन कैप के साथ आरसीटी कराने का खर्चा अलग से करना पड़ता है यानी कैप अधिक महंगा पड़ता है.

मसूढ़ों की सर्जरी या एनेमेलोप्लास्टी

हर कोई इन प्रक्रियाओं के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता. इस से दांतों को नुकसान हो सकता है. दांतों पर लगने वाले ब्रेसिस चलिए किसी अवस्था के बारे में सोचते हैं. कोई लड़की जिस के दांत टेढ़ेमेढ़े हैं और 2-3 महीने में उस की शादी होने वाली है. वह अपने दांतों के लिए कोई उपचार ढूंढ़ रही है. लेकिन उसे लगभग हर दंत रोग विशेषज्ञ यही कहेगा कि ब्रेसिस लगाने की उस की उम्र समाप्त हो चुकी है. और अगर ब्रेसिस लगाए भी गए तो उन्हेें अपना परिणाम देने में लगभग 1 वर्ष का समय लगेगा. लेकिन यह एक मिथ्य है कि किशोर ब्रेसिस नहीं लगवा सकते या फिर हर केस में परिणाम आने में 1 वर्ष का समय लगेगा. यह उपचार किसी भी उम्र में किया जा सकता है. इस का परिणाम भी 3-4 महीनों में आ जाता है. लेकिन यह मरीज के ऊपर निर्भर करता है कि वह उम्र भर के लिए आरसीटी करा के नकली कैप लगा कर हरना है कि फिर उम्र भर के लिए प्राकृतिक मुसकराहट चाहिए. इस का निर्णय मरीज को सोचसम?ा कर करना चाहिए. अगर हम खर्चे की बात करें तो किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्रेसिस का खर्चा लैमिनेट की तुलना में 50 से 70 % तक कम होता है.

मुसकराहट की बनावट

किसी भी दंत उपचार के लिए विज्ञान की बहुत बड़ी भूमिका होती है. लैमिनेट का आकार हर व्यक्ति व हर दांत के लिए अलग होता है. यह आप के चेहरे के आकार पर भी निर्भर करता है. अगर आप का चेहरा गोल, अंडाकार, लंबा, छोटा है और आप के दांत छोटेबड़े, चौड़े, पतले, टेढ़े या ?ाके हुए हैं या फिर ऊपरनीचे के दांत कम दिखते हैं या कई केसों में आगे के नीचे वाले दांत ऊपरी दांतों को बारबार रगड़ देते हैं जिस से ऊपरी दांत घिसने लगते हैं तो ऐसे में आसानी से ब्रेसिस लगाए जा रहे हैं.

दांतों की सुरक्षा या खूबसूरती की एक दंत रोग विशेषज्ञ जिसे स्माइल आर्किटेक्ट भी कहा जाता है, आज के लिए बहुत जरूरी है और कोई भी सौंदर्य उपचार इस के बिना पूरा नहीं है. दांतों के उपचार में अवेजेनेटिक का भी रोल रहेगा. आप के शरीर के जीन के कोड के अनुसार टूटे या सड़े दांतों को ठीक करना सर्जनों के लिए आम हो जाएगा. डा. थिमि और मितसैदीस, जो यूनीवर्सिटी औफ ज्यूरिक में हैं. अब दांतों के एनेमल और आप के शरीर के जीन पर काम कर रहे हैं.

Winter Special: इस ठंड बचें जानलेवा बीमारियों से

दिसंबर का महीना आते ही पूरे उत्तर भारत में ठंड का प्रकोप बढ़ना शुरू हो गया है. इसके साथ ही आ गई हैं कई तरह की बीमारियां भी. सर्दियां आते ही जुकाम, खांसी और बुखार के अलावा अस्थमा, हाई ब्लड प्रेशर और ब्रेन स्ट्रोक के मरीजों की तादाद भी बढ़ने लगी हैं. खासकर दिल के मरीजों की संख्या में तो करीब 25 फीसदी तक इजाफा हुआ है.

डॉक्टर्स का कहना है कि सर्दी के मौसम में विशेष सावधानी की जरूरत है. डॉक्टर्स की मानें तो सर्दी में स्वस्थ बने रहने के लिए विशेष सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि सर्दी में होने वाली बीमारियों के लगातार बढ़ने और पनपने का खतरा बना रहता है. ऐसे में जरूरी है सही समय पर सही इलाज. सर्दी के मौसम में शरीर को जितना बचकर चलेंगी, उतना ही आप बिमारियों से दूर रहेंगी.

सर्दियों में होने वाली बीमारियां

इस मौसम में लकवे की बीमारी का खतरा बढ़ जाता है, क्योंकि सर्दी में खून की नलियां सिकुड़ जाती हैं, जिससे खून का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है. इससे हाई ब्लड प्रेशर के मरीजों में लकवे का खतरा बढ़ जाता है.

ऐसे रखें अपना ध्यान

हृदय रोग विशेषज्ञ सर्जन डॉ. राकेश वर्मा ने बताया दिल और ब्लड प्रेशर के मरीज सुबह एकदम से ठंड में बाहर न जाएं. बिस्तर से उठने से पहले गर्म कपड़े पहनें और थोड़ा एक्सरसाइज करते हुए उठें. सर्दी के मौसम में सिर, हाथ पैर को पूरी तरह से ढंक कर चलें, ताकि सर्द हवाएं आपके शरीर के भीतर न जा सकें.

इससे बचने के लिए समय-समय पर ब्लड प्रेशर की जांच कराते रहना जरूरी है. अस्थमा के मरीजों को भी विशेष सावधानी बरतने की जरूरत है. ठंड के चलते अस्थमा के मरीजों में दौरे पड़ने की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे मरीज अपनी दवाएं और इन्हेलर हमेशा अपने साथ रखें. ठंड के चलते धमनियां के सिकुड़ने से हार्ट अटैक का भी खतरा बना रहता है.

इन छोटे-छोटे उपायों को अपनाकर आप दिल की बीमारियों, अस्थमा और हाई ब्लड प्रेशर से होने वाली परेशानियों से बच सकते हैं.

Winter Special: क्या करें जब सताए मौसमी ऐलर्जी

सर्दियों की ऐलर्जी आप को बीमार कर सकती है. इस से आप की नाक बहनी शुरू हो जाती है अथवा बंद हो जाती है, साथ ही गले में खराश भी हो जाती है. आंखों में खुजलाहट और लाली आ जाती है और छींक और कफ की समस्या बढ़ जाती है. फफूंदी, धूलमिट्टी, जानवरों की खुश्की और परफ्यूम जैसी चीजें ऐलर्जी की समस्या बढ़ाने का काम करती हैं और सर्दी के मौसम में आप के शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता भी कम हो जाती है. इस मौसम की सर्दीजुकाम एक मामूली समस्या होती है, लेकिन ऐलर्जी लंबे समय तक परेशान करती है.

फफूंदी, धूलमिट्टी व जानवरों की खुश्की जैसी चीजें वैसे तो पूरे साल वातारवण में मौजूद रहती हैं, लेकिन ठंड के मौसम में ये इसलिए ज्यादा सक्रिय हो जाती हैं क्योंकि लोग कमरे की सारी खिड़कियां और दरवाजे आदि बंद कर लेते हैं और ठंड के बचाव के लिए रूम हीटर आदि चला लेते हैं. ऐसे में कमरे का वातावरण इन चीजों के पनपने के लिए अनुकूल हो जाता है.

आइए, अब जानिए इस मौसम की ऐलर्जी की खास वजहों के बारे में विस्तार से, जो घर के अंदरूनी वातावरण में ही मौजूद होती हैं:

फफूंदी के जीवाणु: सांस लेने के दौरान अस्थमा के मरीजों के शरीर में जब वातावरण में मौजूद फफूंदी के जीवाणु प्रवेश कर जाते हैं तब बीमारी गंभीर रूप ले लेती है. ये जीवाणु आप को नजर नहीं आते. ये तो बाथरूम और बेसमैंट जैसी नमी वाली जगहों पर पनपते हैं. इस मौसम में हवा में उड़ रहे कटी फसल के कण भी समस्या बढ़ाने की वजह बनते हैं.

धूल के कण: ये घर के अंदर साफ दिखने वाले वातावरण में भी मौजूद रहते हैं. इन से आंखों से पानी आने, नाक बंद होने और लगातार छींक आने जैसी समस्याएं बढ़ जाती हैं. ये आप के तकियों, गद्दों, कमरे की सजावटी चीजों, परदों और कारपेट आदि में जमा रहते हैं.

जानवरों की खुश्की: ठंड में ऐलर्जी की समस्या बढ़ाने का काम पालतू जानवरों की लार और मूत्र में मौजूद प्रोटीन के तत्त्व करते हैं, जिसे जानवरों की खुश्की कहते हैं. यह बहुत ही हलकी होती है और आसानी से आप के कपड़ों, जूतों और बालों में चिपक जाती है.

आप क्या करें: इस मौसम की कोई भी समस्या, जैसे नाक बहना, खांसी, आंखों में खुजली व जलन, छींक आना और आंखों के आसपास काले घेरे अगर 1 हफ्ते से अधिक समय तक बरकरार रहें तो डाक्टर से संपर्क करना चाहिए. इस के अलावा बचाव के कुछ उपायों को अपना लेना हमेशा बेहतर रहता है.

घर के वैंटिलेशन का करें इंतजाम: जैसे ही सर्दियां आती हैं हम कंबल, गद्दों, सौफ्ट टौयज, तकिए और ऊनी कपड़ों से नजदीकी बढ़ा लेते हैं. इन चीजों में धूल के कण आसानी से अटक जाते हैं. हम अपनी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर लेते हैं और कंपाने वाली ठंड से बचने के लिए घर में हीटर जला लेते हैं. इस का नतीजा यह होता है कि घर में सूरज की रोशनी प्रवेश नहीं कर पाती, जिस के चलते फफूंदी पनपती है. सर्दियों में कई बार ऐग्जिमा की समस्या भी बढ़ जाती है, जिस का संबंध धूलकणों से ऐलर्जी से होता है. इस से बचाव के लिए सूरज की रोशनी को घर में आने दें.

बनाएं एक ऐक्शन प्लान: परदों और कारपेट आदि को नियमित रूप से वैक्यूम क्लीनर की सहायता से साफ करें. अपने कंबल और स्वैटर आदि को कम से कम हफ्ते में एक बार धूप में जरूर रखें.

रहें सावधान: धूम्रपान करने और अगरबत्ती जलाने से बचें. मिट्टी के कणों और फफूंदी पनपने को रोकने के लिए घर में नमी के स्तर को सामान्य रखें. इस के लिए ह्यूमिडिफायर और डीह्यूमिडिफायर का इस्तेमाल करें.

अपने घर को करें स्कैन: आप को नियमित रूप से अपने घर की अच्छी तरह जांच करनी चाहिए और ऐसी जगहों की सफाई करनी चाहिए, जहां जीवाणुओं के पनपने की आशंका हो. अपने बेसमैंट की सफाई करें और ऐसी चीजों को हटा दें, जिन में मिट्टी के कण जमा होने का खतरा हो.

ऐलर्जी को कभी नजरअंदाज न करें. डाक्टर को दिखाएं. इस से आप को उस के लिए दवाओं, स्प्रे और इनहेलर जैसी चीजों के बारे में जानकारी मिल जाएगी, जो ठंड में आप को ऐलर्जी से राहत दिलाएगी.

– डा. सतीश कौल
कोलंबिया एशिया हौस्पिटल, गुड़गांव.

आर्टिफिशियल प्रक्रिया से मां बनना हुआ आसान

आर्टिफिशियल प्रक्रिया की मदद से गर्भधारण करना कोई नई बात नहीं है. नई बात तो यह है कि नए जमाने की नई सोच की वजह से समाज ने इसे अपना लिया है. फिर इनफर्टिलिटी के तमाम केसों और कारणों को देखते हुए आज कई तकनीकों की मदद से गर्भधारण कराया जा रहा है. जैसे इक्सी, आईवीएफ, लेजर असिस्टिड हैचिंग, ब्लास्टोसिस्ट कल्चर आदि.

47 वर्षीय जेनिफर जब 2004 में भारत आईं, तब उन का उद्देश्य ताज की खूबसूरती देखना नहीं, बल्कि यहां आ कर गर्भधारण करना था जोकि फ्रांस में नहीं कर पा रही थीं. उन्होंने भारत में डाक्टर से संपर्क किया और अपने पति के साथ यहां आ कर 10 दिन बिताए. यहां डोनर एग की सहायता से वे न सिर्फ गर्भधारण कर पाईं, बल्कि बच्चे को भी जन्म दिया.

उदयपुर स्थित इंदिरा इनफर्टिलिटी एवं टैस्ट ट्यूब बेबी सैंटर के निदेशक डा. अजय मुर्डिया के अनुसार इनफर्टिलिटी उपचार के क्षेत्र में तो भारत सब की पहली पसंद बनता जा रहा है. इस का एक बड़ा कारण है कम पैसों में अच्छी मैडिकल सुविधा का उपलब्ध होना.

अब ऐसी कोई चिकित्सा पद्धति नहीं बची है, जो विदेशों में हो रही है मगर भारत में नहीं हो सकती. दांतों की समस्या, नी कैप और हिप रिप्लेसमैंट और आईवीएफ व ओपन हार्ट सर्जरी तक के लिए पश्चिमी देशों से मरीज भारत की ओर रुख कर रहे हैं. कम खर्च में अच्छी चिकित्सा व आनेजाने की सुविधा के अलावा इंटरनैट क्रांति ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. विश्व स्तरीय चिकित्सा को मामूली खर्च पर मुहैया करने में भारत को अच्छी सफलता मिली है.

आर्टिफिशियल प्रक्रिया की मदद से गर्भधारण करना कोई नई बात नहीं है. नई बात तो यह है कि नए जमाने की नई सोच की वजह से समाज ने इसे अपना लिया है. फिर इनफर्टिलिटी के तमाम केसों और कारणों को देखते हुए आज कई तकनीकों की मदद से गर्भधारण कराया जा रहा है. जैसे इक्सी, आईवीएफ, लेजर असिस्टिड हैचिंग, ब्लास्टोसिस्ट कल्चर आदि.

47 वर्षीय जेनिफर जब 2004 में भारत आईं, तब उन का उद्देश्य ताज की खूबसूरती देखना नहीं, बल्कि यहां आ कर गर्भधारण करना था जोकि फ्रांस में नहीं कर पा रही थीं. उन्होंने भारत में डाक्टर से संपर्क किया और अपने पति के साथ यहां आ कर 10 दिन बिताए. यहां डोनर एग की सहायता से वे न सिर्फ गर्भधारण कर पाईं, बल्कि बच्चे को भी जन्म दिया.

उदयपुर स्थित इंदिरा इनफर्टिलिटी एवं टैस्ट ट्यूब बेबी सैंटर के निदेशक डा. अजय मुर्डिया के अनुसार इनफर्टिलिटी उपचार के क्षेत्र में तो भारत सब की पहली पसंद बनता जा रहा है. इस का एक बड़ा कारण है कम पैसों में अच्छी मैडिकल सुविधा का उपलब्ध होना.

अब ऐसी कोई चिकित्सा पद्धति नहीं बची है, जो विदेशों में हो रही है मगर भारत में नहीं हो सकती. दांतों की समस्या, नी कैप और हिप रिप्लेसमैंट और आईवीएफ व ओपन हार्ट सर्जरी तक के लिए पश्चिमी देशों से मरीज भारत की ओर रुख कर रहे हैं. कम खर्च में अच्छी चिकित्सा व आनेजाने की सुविधा के अलावा इंटरनैट क्रांति ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. विश्व स्तरीय चिकित्सा को मामूली खर्च पर मुहैया करने में भारत को अच्छी सफलता मिली है.

आईवीएफ तकनीक

90 के दशक में जब आईवीएफ तकनीक लौंच की गई थी, तब से ले कर अब तक इस तकनीक के माध्यम से 50 हजार से ज्यादा बच्चों का जन्म हो चुका है. आईवीएफ तकनीक में अंडाशय से अंडे को शल्य चिकित्सा के द्वारा निकाल कर शरीर के बाहर शुक्राणु द्वारा निषेचित कराया जाता है. 40 घंटे के बाद यह देखा जाता है कि शुक्राणुओं द्वारा अंडा निषेचित हुआ या नहीं और कोशिकाओं में विभाजन हो रहा है या नहीं. इस के बाद निषेचित अंडे को वापस महिला के गर्भाशय में डाल दिया जाता है.

लगभग सभी प्रक्रियाओं में प्रयोगशाला में ही अंडे को शुक्राणु के साथ मिला कर फर्टिलाइज कराया जाता है. लेकिन यह सुनने और कहने में जितना आसान लगता है, प्रयोग के समय उतना ही जटिल होता है, क्योंकि इस प्रक्रिया के दौरान एकएक बारीकी का खासतौर पर खयाल रखना पड़ता है. इन सभी तकनीकों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रयोगशाला में तैयार किए हुए भू्रण का गर्भाशय में सही ढंग से प्रत्यारोपण हुआ है या नहीं.

डा. अजय मुर्डिया के अनुसार दरअसल, प्रयोगशाला में जब शुक्राणु और अंडे को मिलाया जाता है, तो फर्टिलाइज अंडे की ऊपरी परत जिसे जोना पेलुसिडा कहते हैं, कई बार कठोर हो जाती है जिस से भू्रण को प्रत्यारोपित करने में परेशानी होती है. लेकिन इस समस्या का समाधान अब लेजर तकनीक के द्वारा ढूंढ़ लिया गया है जिसे लेजर असिस्टिड हैचिंग अथवा लेजर तकनीक कहते हैं. यह प्रयोगशाला में ही की जाने वाली एक तकनीक है. जोना पेलुसिडा परत एक बार में एक ही शुक्राणु को अंडे के भीतर प्रवेश करने देती है. साथ ही यह भू्रण को इम्यून सिस्टम के सेलों के अटैक से भी बचाती है. यह परत भू्रण को तब तक संरक्षित करती है जब तक वह ब्लास्टोसिस्ट की अवस्था तक नहीं पहुंच जाता है.

लेजर असिस्टिड हैचिंग तकनीक में एक बारीक लेजर की मदद से जोना पेलुसिडा को थोड़ा सा खोल दिया जाता है ताकि भू्रण की ऊपरी सतह कुछ कमजोर हो जाए. इस से भू्रण को जोना पेलुसिडा से निकलने और सही तरह से प्रत्यारोपित होने में मदद मिलती है. इस में भू्रण को माइक्रोस्कोप के भीतर रखा जाता है जिस का जोना यानी सतह आसानी से देखी जा सकती है. इसे लेजर की मदद से खोला जाता है. यह लेजर नौन कौंटैक्ट होता है यानी भू्रण का लेजर से सीधे तौर पर कोई कौंटैक्ट नहीं होता है. लेजर से भू्रण की ओपनिंग के आकार को बढ़ाया जाता है. यह बेहद बारीकी और विशिष्टता से किया जाता है.

लेजर को दोबारा फायर किया जाता है ताकि पूरा जोना खुल जाए, जिस से प्रत्यारोपण के दौरान भू्रण आसानी से जोना से निकल सके. लेकिन लेजर को इतनी दूर से इस्तेमाल किया जाता है ताकि भू्रण नष्ट न होने पाए. ऐसा करने के बाद प्रत्यारोपण की सफलता के आसार बढ़ जाते हैं. हालांकि यह हैचिंग की प्रक्रिया पहले भी की जाती थी, लेकिन इसे ऐसिड से किया जाता था, जिस से भू्रण के नष्ट होने का खतरा बना रहता था. लेकिन आज लेजर की मदद से भू्रण को बिना नुकसान पहुंचाए हैचिंग की जा सकती है.

यह तकनीक उन केसों में अपनाई जाती है जहां आईवीएफ या इक्सी द्वारा असफलता हाथ लगी हो. इस के अलावा जिन मरीजों में कम भू्रण बने हों तथा अधिक उम्र की औरतों में व कुछ बीमारियों में, जिन में भू्रण की बाहरी परत कठोर पाई जाती है. उन में यह तकनीक करने से सफलता की संभावना काफी बढ़ जाती है.

इनफर्टिलिटी की समस्या

इन्फर्टिलिटी कई प्रकार की होती है. विशेष तौर पर जन्म से ही होने वाली और कुछ केसों में गर्भ ठहरने में समस्या आती है. कई केसों में पहला बच्चा ठीक से हो जाता है, लेकिन दूसरा बच्चा होने में दिक्कत आती है. आज के समय में 20% शादीशुदा दंपतियों को इनफर्टिलिटी की समस्या है. जिस में 40% औरतें हैं और 30% पुरुष हैं. ऐसे में हमारा उद्देश्य है कि अधिक से अधिक दंपती इस आधुनिक तकनीक एवं नवीनतम उपकरणों की सहायता से संतान प्राप्ति कर पाएं.

अब इंस्ट्रा साइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजैक्शन (इक्सी) की तकनीक से जिन पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या न के बराबर है, उन का भी पिता बनना संभव हो गया है. इस में मरीज की पत्नी को विशेष दवाएं दी जाती हैं, जिस से वह बहुत सारे अंडे पैदा कर सके. फिर वैजाइनल सोनोग्राफी की बहुत ही सरल तकनीक से उन अंडों को उस महिला के शरीर से अलग कर लिया जाता है. इस दर्दविहीन प्रक्रिया से मरीज को जनरल ऐनेस्थीसिया के साथ पूरा किया जाता है.

एक बार अंडों को अलग करने के बाद पति से अपने वीर्य का नमूना जमा करने को कहा जाता है. फिर माइक्रोमैनियूलेटर नाम की एक विकसित विशेष मशीन की सहायता से हर अंडे को पति द्वारा जमा किए गए अकेले शुक्राणु से इंजैक्ट किया जाता है. इस के बाद अंडों को 2 दिनों तक अंडा सेने की मशीन में रखा जाता है. 2 दिनों के बाद भू्रण (अविकसित बच्चा) तैयार हो जाता है तो उसे एक पतली नलिका में डाल कर गर्भाशय में रख दिया जाता है.

90 के दशक में जब आईवीएफ तकनीक लौंच की गई थी, तब से ले कर अब तक इस तकनीक के माध्यम से 50 हजार से ज्यादा बच्चों का जन्म हो चुका है. आईवीएफ तकनीक में अंडाशय से अंडे को शल्य चिकित्सा के द्वारा निकाल कर शरीर के बाहर शुक्राणु द्वारा निषेचित कराया जाता है. 40 घंटे के बाद यह देखा जाता है कि शुक्राणुओं द्वारा अंडा निषेचित हुआ या नहीं और कोशिकाओं में विभाजन हो रहा है या नहीं. इस के बाद निषेचित अंडे को वापस महिला के गर्भाशय में डाल दिया जाता है.

लगभग सभी प्रक्रियाओं में प्रयोगशाला में ही अंडे को शुक्राणु के साथ मिला कर फर्टिलाइज कराया जाता है. लेकिन यह सुनने और कहने में जितना आसान लगता है, प्रयोग के समय उतना ही जटिल होता है, क्योंकि इस प्रक्रिया के दौरान एकएक बारीकी का खासतौर पर खयाल रखना पड़ता है. इन सभी तकनीकों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रयोगशाला में तैयार किए हुए भू्रण का गर्भाशय में सही ढंग से प्रत्यारोपण हुआ है या नहीं.

डा. अजय मुर्डिया के अनुसार दरअसल, प्रयोगशाला में जब शुक्राणु और अंडे को मिलाया जाता है, तो फर्टिलाइज अंडे की ऊपरी परत जिसे जोना पेलुसिडा कहते हैं, कई बार कठोर हो जाती है जिस से भू्रण को प्रत्यारोपित करने में परेशानी होती है. लेकिन इस समस्या का समाधान अब लेजर तकनीक के द्वारा ढूंढ़ लिया गया है जिसे लेजर असिस्टिड हैचिंग अथवा लेजर तकनीक कहते हैं. यह प्रयोगशाला में ही की जाने वाली एक तकनीक है. जोना पेलुसिडा परत एक बार में एक ही शुक्राणु को अंडे के भीतर प्रवेश करने देती है. साथ ही यह भू्रण को इम्यून सिस्टम के सेलों के अटैक से भी बचाती है. यह परत भू्रण को तब तक संरक्षित करती है जब तक वह ब्लास्टोसिस्ट की अवस्था तक नहीं पहुंच जाता है.

लेजर असिस्टिड हैचिंग तकनीक में एक बारीक लेजर की मदद से जोना पेलुसिडा को थोड़ा सा खोल दिया जाता है ताकि भू्रण की ऊपरी सतह कुछ कमजोर हो जाए. इस से भू्रण को जोना पेलुसिडा से निकलने और सही तरह से प्रत्यारोपित होने में मदद मिलती है. इस में भू्रण को माइक्रोस्कोप के भीतर रखा जाता है जिस का जोना यानी सतह आसानी से देखी जा सकती है. इसे लेजर की मदद से खोला जाता है. यह लेजर नौन कौंटैक्ट होता है यानी भू्रण का लेजर से सीधे तौर पर कोई कौंटैक्ट नहीं होता है. लेजर से भू्रण की ओपनिंग के आकार को बढ़ाया जाता है. यह बेहद बारीकी और विशिष्टता से किया जाता है.

लेजर को दोबारा फायर किया जाता है ताकि पूरा जोना खुल जाए, जिस से प्रत्यारोपण के दौरान भू्रण आसानी से जोना से निकल सके. लेकिन लेजर को इतनी दूर से इस्तेमाल किया जाता है ताकि भू्रण नष्ट न होने पाए. ऐसा करने के बाद प्रत्यारोपण की सफलता के आसार बढ़ जाते हैं. हालांकि यह हैचिंग की प्रक्रिया पहले भी की जाती थी, लेकिन इसे ऐसिड से किया जाता था, जिस से भू्रण के नष्ट होने का खतरा बना रहता था. लेकिन आज लेजर की मदद से भू्रण को बिना नुकसान पहुंचाए हैचिंग की जा सकती है.

यह तकनीक उन केसों में अपनाई जाती है जहां आईवीएफ या इक्सी द्वारा असफलता हाथ लगी हो. इस के अलावा जिन मरीजों में कम भू्रण बने हों तथा अधिक उम्र की औरतों में व कुछ बीमारियों में, जिन में भू्रण की बाहरी परत कठोर पाई जाती है. उन में यह तकनीक करने से सफलता की संभावना काफी बढ़ जाती है.

इनफर्टिलिटी की समस्या

इन्फर्टिलिटी कई प्रकार की होती है. विशेष तौर पर जन्म से ही होने वाली और कुछ केसों में गर्भ ठहरने में समस्या आती है. कई केसों मे पहला बच्चा ठीक से हो जाता है, लेकिन दूसरा बच्चा होने में दिक्कत आती है. आज के समय में 20% शादीशुदा दंपतियों को इनफर्टिलिटी की समस्या है. जिस में 40% औरतें हैं और 30% पुरुष हैं. ऐसे में हमारा उद्देश्य है कि अधिक से अधिक दंपती इस आधुनिक तकनीक एवं नवीनतम उपकरणों की सहायता से संतान प्राप्ति कर पाएं.

अब इंस्ट्रा साइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजैक्शन (इक्सी) की तकनीक से जिन पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या न के बराबर है, उन का भी पिता बनना संभव हो गया है. इस में मरीज की पत्नी को विशेष दवाएं दी जाती हैं, जिस से वह बहुत सारे अंडे पैदा कर सके. फिर वैजाइनल सोनोग्राफी की बहुत ही सरल तकनीक से उन अंडों को उस महिला के शरीर से अलग कर लिया जाता है. इस दर्दविहीन प्रक्रिया से मरीज को जनरल ऐनेस्थीसिया के साथ पूरा किया जाता है.

एक बार अंडों को अलग करने के बाद पति से अपने वीर्य का नमूना जमा करने को कहा जाता है. फिर माइक्रोमैनियूलेटर नाम की एक विकसित विशेष मशीन की सहायता से हर अंडे को पति द्वारा जमा किए गए अकेले शुक्राणु से इंजैक्ट किया जाता है. इस के बाद अंडों को 2 दिनों तक अंडा सेने की मशीन में रखा जाता है. 2 दिनों के बाद भू्रण (अविकसित बच्चा) तैयार हो जाता है तो उसे एक पतली नलिका में डाल कर गर्भाशय में रख दिया जाता है.

तनाव को कहें बायबाय

एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत उमा को शादी के बाद तनाव इसलिए हुआ, क्योंकि उस की ससुराल में भिंडी की सब्जी बनती थी, जिसे वह खाना पसंद नहीं करती थी. दूसरी समस्या यह थी कि पति के घर में भैंस का दूध आता था, जबकि उस ने बचपन से गाय का दूध पिया था. बात इतनी बढ़ी कि उमा ने अपने पति को तलाक देने की ठान ली, क्योंकि इन हालात की वजह से उसे नींद नहीं आती थी और वह हमेशा घबराहट में रहती थी. ऐसा होने से उस का काम में मन नहीं लगता था. ऐसी और भी कई समस्याएं आने लगीं तो वह मनोरोग चिकित्सक के पास गई, जिस से उसे अपनी समस्या का समाधान मिला. इस तरह की कई बड़ी अजीबोगरीब समस्याएं कभीकभी तनाव या डिप्रैशन का कारण बनती हैं.

महिलाओं में तनाव ज्यादा

यह देखा गया है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं तनाव की शिकार अधिक होती हैं, जिस का अनुपात 2:1 का होता है. इस के बारे में हुए शोध से पता लगा है कि करीब 87 प्रतिशत महिलाएं भारत में तनावग्रस्त रहती हैं. इस के बारे में मुंबई के फोर्टिस हौस्पिटल और एशियन हार्ट इंस्टिट्यूट की मनोरोग विशेषज्ञा डा. पारुल टौक कहती हैं कि महिलाओं में तनाव कई अवस्थाओं में आता है. जिस की वजह उन की शारीरिक संरचना होती है. मसलन, ‘एडौल्सन पीरियड’ जब माहवारी शुरू होती है. इस के बाद ‘पोस्टपार्टम डिप्रैशन’ और तीसरी अवस्था ‘मेनौपोज’ के बाद होती है. इन सभी अवस्थाओं में महिलाएं तनाव या डिप्रैशन का शिकार होती हैं और बारबार उन में होने वाला हारमोंस का बदलाव तनाव को अधिक बढ़ाता है. इस के अलावा बदलती हुई जीवनशैली, जिस में आज की महिलाएं घर और बाहर दोनों को संभालती हैं, की वजह से डबल स्ट्रैस उन में हो रहा है, लेकिन समय रहते अगर डाक्टरी परामर्श ले लिया जाए, तो तनाव का शिकार होने से महिलाएं बच सकती हैं.

तनाव के लक्षण

  • हमेशा थकान व चिड़चिड़ापन महसूस करना.
  • किसी काम का निर्णय न ले पाना, काम में मन न लगना.
  • जीवन के प्रति नकारात्मक सोच, खानपान में बदलाव, आत्महत्या की प्रवृत्ति का होना.
  • वजन का बढ़ना या घटना, एकाग्रता खोना और अनिद्रा का शिकार होना.

पारुल बताती हैं कि आजकल की महिलाओं में सहनशीलता का अभाव हो चुका है. इस की वजह उन का वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होना है. पहले महिलाएं घर पर रह कर बच्चे और परिवार को संभालती थीं, जबकि आज घर और बाहर दोनों संभालने पड़ते हैं. ऐसे में तनाव कम करने के लिए परिवार और समाज की सोच को बदलना आवश्यक है.

ऐसे बचें तनाव से

  • तनाव ही धीरेधीरे डिप्रैशन का रूप ले लेता है, इसलिए समय रहते मानसिक रोग विशेषज्ञ की सलाह लेना जरूरी है और ऐसी नौबत न आने देने के लिए कुछ बातें अगर महिलाएं दैनिक जीवन में शामिल करें तो वे तनाव से बच सकती हैं.
  • व्यायाम को अपनी दिनचर्या में शामिल करें. अगर ऐसा संभव न हो तो सुबहशाम टहलने की कोशिश करें.
  • जीवन में घटित हुई नकारात्मक बातों से अपनेआप को हमेशा दूर रखें. उन के बारे में न सोचें.
  • दिमाग का अधिक से अधिक उपयोग करें. इस के लिए समाचारपत्र व पत्रिकाएं नियमित रूप से पढ़ें. टीवी से अधिक समय  किताबें पढ़ने में दें, क्योंकि पढ़ने से कल्पनाशीलता बढ़ती है, जिस से दिमाग का व्यायाम हो जाता है.
  • आर्थिक परेशानी आने पर तनाव के बजाय शांत दिमाग से सोचें कि आप की आय कितनी है. फिर वैधानिक तरीके से कैसे, क्या करें इस की सलाह ऐक्सपर्ट से लें.
  • पतिपत्नी के रिश्ते में अगर तनाव चल रहा हो तो करीबी मित्र या घर वालों से इस बारे में बात करें. मैरिज काउंसलर से भी सलाह ली जा सकती है.
  • किसी शारीरिक बदलाव या बीमारी को ले कर तनाव में हैं, तो विशेषज्ञ से संपर्क करें.
  • सहकर्मी या बौस की वजह से तनाव होता हो तो समस्या की चर्चा संबंधित व्यक्ति से करें.
  • आजकल अधिकतर लोग कंप्यूटर और मोबाइल का प्रयोग करते हैं. काम खत्म होने पर उन्हें अपने से दूर रखें, क्योंकि कई बार गैजेट्स भी तनाव बढ़ाते हैं.
  • कुछ भोजन ऐसे हैं, जो हमारे शरीर को तनाव से लड़ने की शक्ति देते हैं. संतरे व सूखे मेवे में पोटैशियम की मात्रा अधिक होने से दिमाग को शक्ति मिलती है. आलू में विटामिन बी अधिक मात्रा में होता है, जो हमारी चिंता और खराब मूड को ठीक करता है.
  • अगर आप अकेली हैं तो ‘पैट्स’ या ‘बर्ड्स’ रख सकती हैं. उस से भी तनाव कम होगा.
  • हमेशा याद रखिए जिंदगी खुल कर आनंद के साथ जिएंगी तो स्वस्थ और सुखी रहने के साथसाथ तनावमुक्त भी रहेंगी.

बढ़ते शुगर को ऐसे करें कंट्रोल

हम सभी जानते हैं कि खाने-पीने के रेडीमेड सामानों और सॉफ्ट ड्रिंक्स के जरिए हम सबसे ज्यादा शुगर (चीनी) कंज्यूम करते हैं. ये शूगर ही हमारे शरीर को कई तरह से सबसे ज्यादा नुकसान भी पहुंचाती है.

इस एक्स्ट्रा शुगर से आपकी सेहत को कोई भी फायदा नहीं होता बल्कि जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के मुताबिक ये शरीर में घटिया किस्म के कॉलेस्ट्रोल को बढ़ावा देती है जिससे आगे चलकर दिल से संबंधित बीमारियों का खतरा पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है.

ज्यादा शुगर वाली खाने-पीने की चीजें इस्तेमाल करने से डायबिटीज का खतरा भी बढ़ जाता है. एडल्ट्स को करीब 30 ग्राम शुगर एक दिन में कंज्यूम करने की सलाह दी जाती है जबकि 4 से 6 साल के बच्चों के लिए ये मात्रा 19 ग्राम और 7 से 10 साल के बच्चों के लिए 34 ग्राम है.

अगर आप मीठा खाने के बहुत ज्यादा शौकीन हैं और डायबिटीज जैसे इसके नुकसानों से भी बचे रहना चाहते हैं तो न्यूट्रीशन एक्सपर्ट डॉक्टर मर्लिन ग्लेनविल बता रहीं हैं ऐसे 6 तरीके जिससे आप अपनी आदत बदले बिना रह सकते हैं डायबिटीज से दूर.

1. बाहर संभल कर खाएं: सबसे ज्यादा शुगर बाहर से खाने-पीने वाली चीजों के जरिये कंज्यूम की जाती हैं. ऐसे में थोड़े सी सतर्कता से आप मीठा खाकर भी बीमारियों से बचे रह सकते हैं. आपको करना बस इतना है कि स्पैगिटी सॉस और मियोनीज की जगह ऑर्गनिक योगार्ट इस्तेमाल करें और ऐसी दुकानों पर खाएं जो अपने सॉस खुद तैयार करते हैं. घर में बने सॉस में अपेक्षाकृत कम शुगर होती है.

2. कम-कम खाइए लेकिन जरूर खाइए: डायबिटीज है और लो ब्लड शुगर जैसी दिक्कतों से जूझना पड़ता है तो साथ में चॉकलेट बार या मीठी बिस्किट्स का पैकेट रखिए. थोड़ा-थोड़ा खाइए लेकिन खाना अवॉयड मत कीजिये. नाश्ता, लंच और डिनर के आलावा दोपहर और शाम में स्नैक्स भी लीजिए. तीन घंटे से ज्यादा बिना खाए मत रहिए नहीं तो लो ब्लड शुगर की दिक्कत को झेलना ही पड़ेगा.

3. इस दौरान फास्टिंग से बचे: जब आपने अपनी डाइट से शुगर कम करने का जिम्मा उठाया है तो फास्टिंग से बचे. बालिग लोगों के हिसाब से एक पुरुष को दिन में 2500 कैलोरी जबकि महिला को कम से कम 2000 कैलोरी कंज्यूम करनी ही चाहिए. हालांकि डाइट में शुगर और कार्बोहाइड्रेट से बचें. बता दें कि लो या हाई ब्लड शुगर ही शरीर में इन्सुलिन के स्त्राव पर असर डालता है. इसके अलावा स्ट्रेस हारमोंस जैसे एड्रिलिन और कोरिस्टोल भी इसी से नियंत्रित होते हैं.

4. दिन में दूसरी बार कॉफी या चाय पीने से बचें: चाय या कॉफी के जरिये आप जो कैफीन कंज्यूम करते हैं अब उस पर भी कंट्रोल करने का समय आ गया है. चाय या कॉफी पीने से शरीर में एड्रिलिन और कोरिस्टोल हारमोन का स्त्राव होता है जिससे इन्सुलिन का स्त्राव अफेक्ट होता है. चाय या कॉफी आप में ज्यादा शुगर कंज्यूम करने की आदत को भी बढ़ावा देती हैं.

5. कार्बोहाइड्रेट के साथ डाइट में शामिल करें प्रोटीन: ये तो सब जानते हैं कि शरीर में पहुंचने के बाद कार्बोहाइड्रेट ही टूटकर शुगर में तब्दील हो जाता है. लेकिन आप जितना प्रोटीन का इस्तेमाल करेंगे वो कार्बोहाइड्रेट के शुगर में तब्दील होने की प्रक्रिया को उतना ही धीमा और नियंत्रित कर देगा. आप डाइट में मूंगफली जैसी चीजों को शामिल कर ऐसा कर सकते हैं.

6. ‘कम्फर्ट’ डाइट से बचें: आप जब भी स्ट्रेस्ड फील करते हैं कुछ मीठा खाना चाहते हैं और ज्यादातर लोग मीठा खाते भी हैं. स्ट्रेस की सिचुएशन में मीठे को ‘कम्फर्ट फ़ूड’ कहा जाता है, क्योंकि मीठा खाने से आप राहत महसूस करते हैं. लोग सिर्फ स्ट्रेस में ही नहीं, बोर होने, अकेले होने, दुखी होने और गुस्सा होने पर भी कम्फर्ट इटिंग करते हैं. बस आपको करना इतना है कि इसका दूसरा रास्ता निकालें और मीठा खाने की जगह किसी दूसरी एक्टिविटी में खुद को व्यस्त कर लें.

न हों आंटी सिंड्रोम का शिकार

चर्चित कोरियोग्राफर फराह खान को एक रिऐलिटी शो के दौरान एक बच्चे ने आंटी कहा तो उन का तुरंत कहना था कि प्लीज, डोंट कौल मी आंटी. माना कि मैं 3 बच्चों की मां हूं, मगर मेरी उम्र इतनी भी अधिक नहीं है कि तुम लोग मुझे आंटी कहो. मुझे दीदी कहो तो ज्यादा अच्छा है अगर 3 बच्चों की मां दीदी कहलाना पसंद करे और वह भी बच्चों से तो इसे क्या कहेंगे? बढ़ती उम्र को ले कर इस तरह का फुतूर सैलिब्रिटीज में ही नहीं आम महिलाओं में भी देखने को मिलता है. दरअसल, यह एक मनोरोग है, जिसे ‘आंटी सिंड्रोम’ कहा जाता है.

उम्र को रिवर्स गियर में डालना असंभव

मुट्ठी में ली गई रेत की तरह हमारी उम्र आहिस्ताआहिस्ता खिसकती जाती है. ऐसा कोई भी उपाय नहीं, जिस से उम्र को रिवर्स गियर में डाला जा सके. यह जिंदगी का फलसफा है, जो बदला नहीं जा सकता. बावजूद इस के उम्र गुजरने का फोबिया महिलाओं को डराता है. इस फोबिया के चलते आंटी सिंड्रोम की गिरफ्त में आने से बचने का प्रयास करना जरूरी है. यह सच है कि बढ़ती उम्र को रोकना हमारे हाथ में नहीं, मगर अपनी पर्सनैलिटी को निरंतर बेहतर बनाते हुए जिंदगी को खूबसूरत आयाम देना हमारे हाथ में है. लोग आप को आंटी कह रहे हैं, तो उन पर खीजने के बजाय उन का शुक्रिया अदा करें, क्योंकि उन के माध्यम से आप को पता तो चला कि आप आंटी लग रही हैं. अब आप गंभीरता से खुद पर ध्यान देना शुरू कर दें. आंटी उन्हीं महिलाओं को कहा जाताहै, जो फिट ऐंड फाइन नजर आना तो चाहती हैं, लेकिन इस के लिए प्रयास नहीं करतीं. आप की चाहत और क्रिया के बीच फासला जितना बढ़ेगा, स्ट्रैस लैवल उतना ही हाई होगा और डैवलप होगा यह मनोरोग.

फिटनैस क्रेजी बनें

50 पार करने के बाद भी कुछ महिलाएं फिट ऐंड फाइन दिखती हैं. उन्हें देख कर हर किसी को रश्क होता है. एक शोध से यह तथ्य सामने आया है कि सुंदरता का आधार स्त्रीत्व होता है. उम्र भले बढ़ जाए, स्त्रीत्व सौंदर्य को सदा जवान रखता है. आप सहज, सरस और फिटनैस क्रेजी रह कर इस सौंदर्य में इजाफा कर सकती हैं. चेहरा खूबसूरत होने के बाद भी आप का आकर्षक दिखना अनिवार्य नहीं है. नैननक्श सही हैं, लेकिन चेहरे पर सख्ती है तो स्त्रीत्व की कोमलता पर ग्रहण लग जाता है. बौडी लैंग्वेज और फिटनैस क्रेजी रहने की आवश्यकता पर ध्यान देने के साथसाथ यह भी जरूरी है कि आप का पहनावा आप की उम्र और आप के मेकअप के अनुरूप हो. अपनी उम्र को काफी कम कर के बताना, पहनावे और स्टाइल में अपनी उम्र से कम उम्र के फैशन को तवज्जो देना नकारात्मक परिणाम देता है.

सनक न बने सुंदर दिखने की चाहत

तेजी से बढ़ते ब्यूटी व्यवसाय और मीडिया इंडस्ट्री द्वारा आम आवाम तक तेजी से पहुंचाई जा रही ग्लैमर वर्ल्ड की दास्तान के चलते महिलाओं में सौंदर्य के प्रति ललक बढ़ी है. लोग छोटेबड़े परदे के स्टार्स से अपनी तुलना करते हैं. फिट और फाइन दिखने (बनने का नहीं) का जनून उन पर हावी है. सुंदर दिखने की चाहत को बलवती बनाएं. उसे पूरी करने का प्रयास करें. मगर इसे जनून न बनने दें. पर्सनैलिटी ग्रूमिंग की ललक ठीक है, किंतु प्राकृतिक सचाई को झुठलाने की सनक ठीक नहीं है. सचाई से भागने का परिणाम यह होगा कि आप को उम्र छिपाने की आदत पड़ जाएगी. जैसे ही लोग आंटी कहना शुरू करेंगे, मनोरोग आप के अंदर घर करने लगेगा.

बदलाव को स्वीकारें

जो महिलाएं जीवन में तिरस्कार झेली होती हैं और जो महिलाएं हीनभावना की शिकार होती हैं, उम्र बढ़ने का तनाव उन में अधिक होता है. उन में आत्मविश्वास की कमी होती है. ऐसे में खुद को ले कर आश्वस्त रहना संभव नहीं हो पाता. सेहत और सौंदर्य के लिए बदलाव को सहजता से स्वीकारें. खूबसूरती आप के ऐटीट्यूड में होती है, आप की उम्र से इस का कोई खास लेनादेना नहीं होता. पर्सनैलिटी वाइब्रेंट है, ऐटीट्यूड लचीला है, तो आप उम्रदराज हो कर भी आकर्षक साबित हो सकती हैं. उम्र निकल जाने के कारण पहले जैसी न दिख पाने का मलाल मन में रखेंगी तो स्वाभाविक सौंदर्य भी खत्म हो जाएगा. केश कलर करने, महंगे सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल करने और स्पैशल स्किन ट्रीटमैंट लेने से भी बात नहीं बनेगी. निश्चय करें कि सौंदर्य आप के तन से नहीं मन से फूटना चाहिए. चेहरे को सहज, शांत रखें और उसे मुसकान दें. खुद को बेशर्त और शिद्दत से प्यार करें. दूसरों से अपनी तुलना करना बंद करें. पार्लर, जिम जाएं पर अपनी ग्रूमिंग की उपेक्षा न करें. -डा. विकास मानव

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