दिमागों को रंगने का काम चालू है

दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान के सब से पास गंगा गढ़मुक्तेश्वर में बहती है और लंबे समय से यह भक्तों की डुबकी लगाने की या मृतकों को फूंकने की जगह है. पर अब सरकार और मंदिरवादियों के जबरदस्त प्रचार के कारण यहां का भी धंधा देश के दूसरे तीर्थों की तरह फूलफल रहा है. इस बार जेठ दशहरा पर 12 लाख से अधिक अंधभक्तों ने जम कर मैली गंगा में स्नान किया और पहले व बाद में दान में करोड़ों रुपए दिए. गंगा को और ज्यादा गंदा किया वह अलग क्योंकि हर भक्त एक दोने में फूलपत्ती, दीए रख कर बहाता है.

इस बार इस दिन मेन सड़क पर जाम न होने पर पुलिस वाले अपनी पीठ खुद थपथपा रहे हैं. पुलिस ने जेठ दशहरे के लिए हफ्तों पहले प्लानिंग शुरू कर दी. सड़कों पर बीच की पटरी में कट बंद किए गए. खेतों में पार्किंग बनाई गई. मेरठ और मुरादाबाद मंडल के अफसरों ने कईकई मीटिंगें कीं और हर बार आनेजाने पर पैट्रोल फूंका ताकि भक्तों और हाईवे इस्तेमाल करने वालों का पैट्रोल बेकार न जाए.

जहां पुलिस के मैनेजमैंट की तारीफ की जानी चाहिए, वहीं यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि आखिर इस जेठ दशहरे पर डुबकी लगाने से भक्तों का कौन सा व्यापार चमक उठता है? कौन सी नौकरी में प्रमोशन मिल जाती है? किस के ऐग्जाम में ज्यादा नंबर आ जाते हैं? किस की बीमारी ठीक हो जाती है? कहां रिश्वतखोरी बंद हो जाती है? कौन सा सरकारी दफ्तर अच्छा काम करने लगता है? किस के खेत की उपज बढ़ जाती है? किस कारखाने में प्रोडक्ट ज्यादा बनने लगते हैं?

गढ़गंगा हो, हर की पौड़ी हो, चारधाम हों, अमरनाथ यात्रा हो, वैष्णो देवी हो, अजमेर का उर्स हो या कुछ भी हो, धर्म के नाम पर कहां कुछ अच्छा होता है? धर्म के नाम पर तो झगड़ा होता है. हमारे यहां वे यही चैनल जो इन तीर्थों का गुणगान हर दूसरेतीसरे दिन करते हैं, हर रोज पिछले कई सालों से धर्म के नाम पर जहर उगल रहे हैं और लगातार उकसा रहे हैं. नतीजा नूपुर शर्मा और नवीन कुमार की बहती जबान है जिस से न केवल पूरे देश में हंगामा मच गया, भारत के दूतावासों के अफसर कितने ही देशों में बेमतलब में सफाई देते बयान जारी करते रहे.

गढ़गंगा के हाईवे पर जाम नहीं लगा, यह अच्छा है पर दिमागों पर जो जाम लगवा दिया गया है, उस से कैसे मुक्ति मिलेगी? दिमागों को रंगने का काम चालू है और जलती आग में घी डालने वाले चुप नहीं हैं. चुपचाप अपनी साजिश में लगे हैं कि कैसे हिंदुओं को उकसा कर बचीखुची जायदाद भी उन से हड़प लें. हर तीर्थ पर बड़ेबड़े भवन दिख जाएंगे और तीर्थ से 5-7 किलोमीटर पहले दिखने लग जाएंगे. यह मन के जाम का नतीजा है.

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार “अभिनेता” और राजनीति

यह शायद अब होने लगा है की राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में भी राजनीति की चौपड़ बिछाई जा रही है. अगरचे आप अजय देवगन को, जिन्हें सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया है के सम्मान को महाराष्ट्र की सत्ता, राजनीति को जोड़ कर देखेंगे तो आपके सामने सब कुछ दूध का दूध और पानी का पानी , साफ साफ होगा.

महाराष्ट्र की राजनीति और षड्यंत्र अभी अभी देश ने देखा है कि किस तरह वहां भाजपा के इशारे पर शिवसेना के एक प्यादे एकनाथ शिंदे ने शिवसेना को तोड़ा है और मुख्यमंत्री बन गए हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि एकनाथ शिंदे जिनके पास न तो शिवसेना पार्टी है और ना ही शिवसेना आलाकमान का आशीर्वाद या सभी विधायकों का समर्थन इसके बावजूद भाजपा की अनैतिक राजनीति और सत्ता की धमक के कारण एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हो गए हैं.

अब हम बात करें महाराष्ट्र की राजनीति एकनाथ शिंदे अजय देवगन की बीच के तारों की तो यह आपको समझना होगा कि जो कुछ महाराष्ट्र में भाजपा के शीर्ष नेताओं ने खेल खेला है उसमें मराठा, हिंदुत्व और महाराष्ट्र अस्मिता का घोल है, यहां भविष्य की राजनीति के साथ वोट बैंक जुड़ा हुआ है. अजय देवगन की फिल्म जनवरी 2020 में आई उनकी यह सौवीं फिल्म थी जो हिंदू मराठा भावना को जागृत करती है. और भाजपा को यही चाहिए. जहां हिंदुत्व है वहां भाजपा की सील तैयार है. अजय देवगन की यह फिल्म तानाजी मराठा पराक्रम को रेखांकित करती है.

अभिनय की दृष्टि से और बाजार की दृष्टि से यह फिल्म अपना कोई मुकाम हासिल नहीं कर पाई थी फिल्म समीक्षकों ने भी तानाजी को कोई विशेष तवज्जो नहीं दी इसके बावजूद राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जब घोषित होते हैं तो अजय देवगन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता घोषित किया जाता है. इसकी बिसात शायद पहले ही बिछ चुकी थी यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया था. भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने फिल्म की प्रदर्शन के समय ही भूरी भूरी प्रशंसा कर दी थी. बाद में यह महाराष्ट्र में टैक्स फ्री हुई और लगभग 150 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने सिर्फ 400 करोड़ की कमाई की है.

यहां यह देखना समीचीन होगा कि अजय देवगन सर्वश्रेष्ठ अभिनेता घोषित हुए हैं, यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ नहीं है! बल्कि सूर्या को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया गया है. इस सब को अगर आप देखें तो फिल्म पुरस्कारों में राजनीति का जो खेल खेला गया है वह आपके सामने होगा.

यह फिल्म बाक्स आफिस पर सामान्य रही. केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने सभी विजेताओं को बधाई दी.और उन्होंने कड़ी मेहनत और पारदर्शिता के लिए निर्णायक मंडल की भी प्रशंसा की. मंत्री जी का इस अनावश्यक बात को कहना चर्चा का विषय बन गया कि आखिर मंत्री जी ने ऐसा क्यों कहा है क्या पहले निष्पक्ष और पारदर्शी रूप से सम्मान फिल्म और कलाकारों को नहीं मिलते थे?
आपने अगर अभिनेता सूर्या की ‘सोरारई पोटरु’नहीं देखी है तो एक बार अवश्य देखें और तुलना करें अजय देवगन और सूर्या में. आपके सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा. फिल्म एअर डेक्कन के संस्थापक कैप्टन जी आर गोपीनाथ के जीवन से प्रेरित है. इसी फिल्म के लिए अपर्णा बालामुरली ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता. सूर्या की फिल्म ‘सोरारई पोटरु’ साल 2020 में आई थी.

जहां तक बात अजय देवगन की फिल्म का सवाल है तो अजय देवगन ने‌ मराठा साम्राज्य को फिर से हासिल करने के लिए क्रूर मुगल सरदार उदयभान सिंह राठौर के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई को जीवंत किया था.

टिप नहीं स्माइल करिए

एक रेस्तरां या होटल की जान उस की लोकेशन, डिकोर, एयरकंडीशिनग, शैफ की प्रीप्रेशन, सफाई, मैनेजमैंट की कार्यकुशलता में होती है न कि उस जने में जो एक कागज पर ग्राहक का आर्डर लिखना है और पहले से साफ की हुई प्लेटों में किचन से लाकर ग्राहक की मेज तक ले जाता है. यह जना चाहे कितना ही वैल ड्रैस्ड हो, पोलाइट हो, स्मार्ट हो, ….हो या यदि किचन से गंदी प्लेट में खराब खाना आएगा तो वह कुछ नहीं कर सकता.

अफसोस यह है कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में लोग सारा क्रेडिट उसे देते हैं जो रेस्तरां की फूड चेन में केवल डिलवरी का काम करता है और यह उम्मीद की जाती है कि रेस्तरां के मालिक की तय की गई कीमतों के और भी कुछ पैसे केवल इन डिलवरी मैन को दे दिए जाए. अमेरिका में तो अगर टिप न दें तो सर्व करने वाला इस तरह का मुंह बनाता है कि साफ दिखे कि वह नाराज है.

जापान और पूर्व एशिया के कुछ देशों में न टिप देने की जो कल्चर है वह बहुत अच्छी है. वहां फिर भी अच्छी सेवा मिलती है, स्मार्ट सर्वर होते है, अच्छा खाना मिलता है.

आजकल कंज्यूमर फोरम इस बारे में हल्ला मचा रहे हैं कि इस टिप को रेस्तरां मालिक सॢवस चार्ज के नाम पर जबरन बिल में न जोड़ें, यह ठीक हो सकता है पर उस के टिप देना लगभग अनिवार्य हो ही जाएगा. यदि कंज्यूमर फोरम टििपग के खिलाफ ही खड़े होते तो बात दूसरी होती.

टिपिंग अपनेआप में गलत इसलिए है क्योंकि टिप लेने वाला या टैक्सी ड्राइवर हो, पोर्टर हो, व्हील चेयर पुशर हो, पेडिक्योरिस्ट या बारबार हो, पूरी सेवा चेन का घोम का हिस्सा होता है. उस का ग्राहक से संबंध है तो वह सेवा का जिम्मेदार नहीं है क्योंकि वह जो भी सॢवस दे रहा है उस में सिर्फ अपनी मुस्कान के अलावा कुछ नहीं जोड़ सकता. खराब टैक्सी या खराब खाना या गंदे पार्लर की खराब कैचियां सर्व करने वाले की जिम्मेदारी नहीं हैं.

टिप बरसों से गलत जनों को दी जा रही हैं और कंज्यूमर फोरमों को कुछ करना था तो सॢवस चार्ज जो बिल में जोड़ा जा रहा है के पीदे नहीं. सेवा देने के बदले टिप की परंपरा के पीछे पड़ते. कंज्यूमर फोरम यह आदत डाल सकते हैं कि सेवा देने वालों को वेतन मिलता है और ग्राहक उन्हें कुछ अतिरिक्त न दे. अच्छी स्माइल और स्मार्ट सेवा के बदले ग्राहक से स्माइल और बिग थैंक यू मिलना चाहिए, करारे नोट नहीं.

एकदूसरे को बराबर का सम्मान दें

आम लोगों में जब विवाह टूटते हैं तो मामला मोहल्ले तक रह जाता है पर जब सिमरों के संबंध टूटते हैं तो पता चलता है कि पतिपत्नी संबंध किस तरह नाजुक और रेतीली जमीन पर होते हैं कि जरा सी गलतफहमी उन्हें अलग कर सकती है.

धर्म चोपड़ा और राजीव सेन की शादी के बाद. एक बेटी के जन्म के बाद हो रही अनबन, दोषादोषी साबित कर रही है कि अगर विवाह बाद जीवन को पटरी पर रखना है तो उसी तरह से इंजन की देखभाल करनी होती है जैसे रेलवे करती है. पटरी बिदा दी गई, 200-300 लोगों के सामने एकदूसरे को सुंदर डिजाइनर कपड़ों में घूम लिया काफी नहीं है.

‘क्यों दिल छोड़ आए’ धारावाही की नायिका का कहना है कि राजीव की फेशफुलनैस पर उसे शक है और वह कहता रहता है एक चांस दो, एक धोस दो और फिर कहीं मुंह मार आता है. राजीव का कहना है कि चारू की पहले बीकानेर में शादी हुई थी पर उस ने वह बात राजीव को नहीं बताई. पहली शादी की बात अपने पति से छिपाना किसी पति को मंजूर नहीं होता. शादी के बाद पतिपत्नी एकदूसरे पर अगाध विश्वास करते हैं और यही प्रेम की जौट होती है जो 2 सफल से लोगों को एक छत के नीचे रहने को तैयार रखती है.

जब से दोनों में अनबन हुई है, वकीलों के बीच में ले आया गया, दोनों को एकदूसरे के प्रति झूठसच फैलाना एकदम सुलह के सारे रास्ते बंद कर देना होता है. ऐसी हालत में तलाक तो होता ही है, बेटी को मां या बाप में से एक को खोना होता है. अब राजीव सेन को अपनी बेटी को देखने के लिए गिड़गिड़ाना पड़ता है.

एक खासी सफल सी एक्ट्रेस को काम से रोकना या बेटी के फोटो दोस्तों और फैनों के साथ सोशल मीडिया पर शेखर करने से रोकने जैसी छोटी बातें कई बार ऐसा एसिड हो जाती हैं जो शादी के पहले के प्यार की गोंद को बहा ले जाता है.

हर शादी में पतिपत्नी एकदूसरे को बराबर का सम्मान दें, जगह दें, स्पेस दें, फैसले करने दें, क्या करने दें जरूरी है. कामों का बंटवारा प्यार से हो तराजू में तोल कर नहीं. पतिपत्नी बढ़चढ़ कर एकदूसरे को आराम देने की कोशिश करें. रसोई से ले कर टैक्स तक दोनों एकदूसरे के साथ बने रहें और एकदूसरे के गलत फैसलों का भी सम्मान ही नहीं करें, उन्हें सहन करने की आदत डालें मानों यह फैसला उसी का है.

शो बिजनैस में किसी और के साथ सोना एक आफत नहीं होना चाहिए. यह इंडस्ट्री की कल्चर का हिस्सा है. जैसे पंजाब के शासक रणजीत ङ्क्षसह की 5 पत्नियां थीं और रणजीत ङ्क्षसह फिर भी सफल रहता थे, वैसे ही शो बिजनैस तो विवाहित साथी के दूसरे संबंध सहज लेना ही सही है. जिन्हें इस पर आपत्ति हो, उन्हें साथ रहना ही नहीं चाहिए.

चारू असोपा और रोहित सेन का विवाह टूटे या न टूटे पर इस तरह की घटनाओं से आम लोगों कोई कई सबक मिल सकते हैं.

रुपर्ट मर्डोक की चौथी शादी

बुढ़ापे में बूढ़ी से भी शादी फलेगी इस की कोई गारंटी नहीं है. कम से कम मीडिया टाइकून रुपर्ट मर्डोक के मामले में तो ऐसा रहा है. अब 91 वर्ष के मर्डोक ने 6 साल पहले तब 60 साल की गैरी हाल से लंदन में 3 शादियों और तलाकों के बाद चौथी शादी की थी. अब गैरी हाल तलाक और मर्डोक की अरबों की संपत्ति में से हिस्सा मांग रही है.

कट्टरपंथी फौक्स न्यूज का चर्च भक्त रुपर्ट मर्डोक 4 शादियां करे और निभा न पाए पर रातदिन अपने चैनलों से भक्ति के गुण गाए और बाइबल की संस्कृति के गुण गाए जो स्त्रीपुरुष का मिलन एक बार का मरने तक मानती है, अजीब नहीं है क्या?

मर्डोक के एंपायर में भारत के स्टार चैनल भी हैं जो अपने धारावाहियों से ङ्क्षहदू भक्तों को भगवान का ज्ञान देते हैं. अमेरिका में ऐसा ही फौक्स चैनल से होता है. फौक्स चैनल ने गर्भाघात संबंधित अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय पर खूब खुशियां मनाई थी पर उसी का मालिक उसी बाइबल जिस के आधार पर गर्भपात विरोधी 40 साल से हल्ला मचा रहे थे. 4 बार शादी कर के तलाक कर रहा है जबकि शादी बाइबल के अनुसार मृत्यु तक होती है और केवल एक ही मृत्यु के बाद दूसरा फिर शादी कर सकता है.

असल में धर्म का दोगलापन हमेशा आम लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. आदमी सदियों से अपनी सैक्स भूख शादी के बाद पूरी करते रहे हैं पर अपनी पत्नियों को नाखल दिखादिखा कर पति का भगवान मानने को मजबूर करते रहे हैं.

हमारा हिंदू धर्म इस मामले में साफ है. आदमी के पास 100 पत्नियों का हक है, औरतों के पास केवल एक पति का. अगर किसी ने 100 औरतों से बाजेगाजे, पंडितों के साथ मंत्र पढ़ कर शादियां की हैं तो 100 की 100 कानूनी हैं और उन में से एक भी पति से तलाक नहीं मांग सकती. पत्नी को बहुपत्नी वाले पति से छुटकारा पाता है तो कुंआ है, नदी है, जमीन का गड़ा है, फांसी का फंदा है, जहर है, अग्नि है, हजार तरीके हैं पति से छुटकारे पाने के.

यही कट्टर ईसाई औरत के साथ है कि वह वहशी, खूंखार, दूसरी औरतों के साथ सोने वाले पति के साथ निभाए जाए, निभाए जाए. यह तो पिछली कुछ सदियों में हुआ है कि आधुनिक कानून ईसाई देशों में बने और भारत में भी बने कि एक ही पतिपत्नी रहेंगे और अगर झिकझिक हो रही है तो तलाक ले सकते हैं. रुपर्ट मर्डोक जैसे चर्च, बाइबल, पादरियों का समर्थन भी करते हैं और आधुनिक कानूनों का सहारा ले कर शादी, तलाक शादी, तलाक, शादी, तलाक फिर शादी और अब तलाक कर रहे हैं.

पूरे पश्चिम में शिक्षा, तकनीक, तर्क, लौजिक, पर्सनल इंडीपैंडैंस के बावजूद चर्च रोजमर्रा के जीवन पर उसी तरह भारी है जैसे इस्लाम में मौलवी और ङ्क्षहदुओं पर पंडे, महंत. ये सब आधुनिक विज्ञान का लाभ उठाते हैं पर साथ ही हजारों साल पुराने नामों पर एकदूसरे को मारने दौड़ते हैं, लड़ाइयां करते हैं, अपने लोगों को जेलों में बंद करते हैं, मास मर्डर करते हैं.

रुपर्ट मर्डोक उन में से है जिस का मीडिया एंपयार दोगली बात कहता है. जो चर्च को भी बढ़ावा देता है ताकि बेवकूफ चर्च को दान दें, उस के चैनलों व अखबारों को पढ़ें और चर्च के आदेशों को मर्जी से उठापटक कर अपना सााम्राज्य बचाए. बुढ़ापे में 85 साल की आयु में शादी करना और 91 साल की आयु में तलाक लेना इसी तरह के दोगले लोग कर सकते हैं.

सिनी शेट्टी का Miss India World 2022 का सफर

जीवन की यही खूबसूरती है किसी को भी  जमीन से उठाते हुए  सितारों पर बैठा दिया जाता है.ऐसी ही कुछ बात  सिनी शेट्टी के साथ हुई है जो सुंदरता की दौड़ में सबको पीछे छोड़ कर आगे निकलती जा रही है. भारत सुंदरी बनने के बाद अब वह विश्व सुंदरी बनने की दौड़ में है, लेकिन उसके सामने क्या है चुनौतियां. और किस तरह भारत सुंदरी बनने के बाद परफारमेंस दे रही हैं.

इक्कीस वर्ष की सिनी शेट्टी सामान्य सी लड़की है जो कभी बॉलीवुड, तो कभी फ्री स्टाइल या अपने भरतनाट्यम नृत्य के  वीडियो यूट्यूब पर डालकर उनके ‘‘व्यूज’’ गिनती थी ने संभवतः कभी सोचा भी नहीं था कि देश की सबसे सुंदर लड़की चुन ली जाएंगी और उन्हें देखने वाले लाखों में नहीं बल्कि करोड़ों करोड़ों लोग होंगे.

मुंबई के जियो वर्ल्ड कन्वेंशन सेंटर में मिस इंडिया 2022 का ग्रैंड फिनाले आयोजित किया गया, जिसमें कर्नाटक की सिनी शेट्टी ने अपने पूरे तीस प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़कर सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. मिस इंडिया चुने जाने के अलावा उन्हें ‘मिस टेलेंटिड’ और ‘मिस बॉडी ब्यूटिफुल’ का खिताब भी मिल गया.

विश्व सुंदरी का खिताब लक्ष्य

 

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जब उनसे पूछा गया कि आगे आप क्या करने जा रही हैं तो हंसकर सिनी शेट्टी  ने कहा – वह 71 वें मिस वर्ल्ड मुकाबले में भारत का प्रतिनिधित्व करना चाहती है.

आपको हम बताते चलें कि यह 5 वर्ष पहले भारत के लिए आखिरी दफा भारत की मानुषी छिल्लर ने 2017 में जीता था. अब सिनी शेट्टी की हाजिरजवाबी सुंदरता को देख सबकी निगाह सिनी पर टिकी हुई है.

20 जून 2001 को जन्मी सिनी शेट्टी ने अपने कॉलेज में पढ़ते हुए ही मॉडलिंग शुरू कर दी थी और मिस इंडिया का ताज अपने सिर पर सजाने से पहले वह एक वेब सीरिज में अभिनय भी कर चुकी हैं.वह अपने डांस वीडियो अकसर सोशल मीडिया पर अपलोड करती हैं और उनके ऐसे ही एक वीडियो को लाखों लोग देख चुके हैं.

मजे की बात यह है कि देश की सबसे सुंदर महिला बनने के बाद सिनी अब ‘विश्व सुंदरी’ प्रतियोगिता की तैयारी में जुट गई है. सिनी शेट्टी ने एक संवाददाता से बातचीत में कहा यह उपलब्धि एक सपने के साकार होने जैसा है. और आगे कहा कि दुनिया की हर लड़की सुंदर होती है और उसके मन में सबसे सुंदर दिखने की चाह भी होती है. उनमें से कुछ खुशनसीब ही अपने ख्वाबों को पूरा कर पाती हैं.

सिनी शेट्टी ने अपनी अद्भुत सफलता के लिए अपनी माता और पिता सहित अपने मेंटोर का शुक्रिया अदा करते हुए सिनी ने कहा कि देशभर की लड़कियों द्वारा भेजी गई तीस हजार से अधिक प्रविष्टियों में से विभिन्न राज्यों की 31 प्रतियोगियों को इस फाइनल मुकाबले के लिए चुना गया और इस मुकाबले में मिस इंडिया का ताज उनके सिर पर आने के साथ ही उनके कंधों पर यह जिम्मेदारी भी आ गई है कि वह दुनिया के सामने अपनी और अपने देश की एक सच्ची और बेहतर तस्वीर पेश करें. किसी एक संवाददाता के

यह पूछे जाने पर कि प्रतियोगिता के दौरान क्या उन्हें अपनी जीत का विश्वास था, सिनी ने कहा ‘‘प्रतियोगिता में आई सभी अन्य तीस लड़कियां अपने राज्य का प्रतिनिधित्व कर रही थीं और सभी कड़ी मेहनत के बाद इस फाइनल मुकाबले तक पहुंची थीं, ऐसे में खुद की जीत के लिए आश्वस्त होना आसान नहीं था, लेकिन मैं जब कोई काम शुरू करती हूं तो उसे पूरा किए बिना नहीं छोड़ती, इसलिए हार और जीत से ज्यादा अपने आप को बेहतरीन अंदाज में पेश करने पर ज्यादा जोर दिया और हर मुश्किल आसान होती गई.’’

आपको एक मजेदार बात बताते चलें – सिनी ने बताया कि विजेता के रूप में उनका नाम पुकारे जाने पर उन्होंने सबसे पहले अपने माता-पिता की तरफ देखा, जो उनके नाम की घोषणा होते ही खुशी से उछल पड़े थे. सिनी ने कहा कि उन्हें खुश देखकर मिस इंडिया बनने की उनकी खुशी दोगुनी गई और इस बात का गर्व और संतोष भी हुआ कि उन्होंने एक बेटी होने का फर्ज अच्छे से निभाया है और आगे भी निभाती रहेंगी.

सिनी शेट्टी ने अपने भविष्य की योजना का जिक्र करते हुए कहा कि अगर उन्हें मौका मिला तो वह भारतीय फिल्मों में अपना योगदान करना चाहती है. सिनी ने दक्षिण भारत की आसिन राशि खन्ना और बालीवुड में दीपिका पादुकोण और आलिया भट्ट को अपनी पसंदीदा कलाकार बताते हुए कहा कि यह सभी अभिनेत्रियां अपने दम पर फिल्म को सफल बनाने का माद्दा रखती हैं और वह भी अभिनय के क्षेत्र में इनका अनुसरण करना चाहती हैं.

देखिए खूबसूरती के मामले में देश की सबसे सुंदर लड़की का खिताब जीत चुकी सिनी शेट्टी को अब संसार की सबसे सुंदर लड़की चुने जाने के लिए कुछ महीने तक खूब मेहनत करनी होगी और पूरे देश को उम्मीद है कि सिनी पांच साल बाद एक बार फिर मिस वर्ल्ड का हीरे जड़ा ताज लेकर आएंगी.

धर्म की गाड़ी तो पैसा चलाता है

भारत के गुरु, स्वामी, धर्माचार्य, महंत, पंडित, पुजारी इस मामले में अमेरिकी तरहतरह के चर्चों में पादरियों, प्रिस्टों, बिशपों, पेस्टरों से बेहतर हैं. भारत में शायद ही किसी पर सैक्सुअल ऐब्यूज करने का आरोप लगता हो पर अमेरिका के दक्षिण में चर्च के एक संप्रदाय साउदर्न बैपटिस्ट कनवैंशन के पास 2000 से 2019 तक के 700 चर्चों के पादरियों पर लगाए गए आरोपों की लंबी लिस्ट है.

वर्षों से साउदर्न बैपटिस्ट कनवैंशन चर्च इस लिस्ट में नए नाम जरूर जोड़ता रहा है पर इसे पब्लिक होने से रोकता रहा है. मई, 2022 में जब यह रिपोर्ट लीक हो गई और इस लिस्ट के चेहरे टीवी स्क्रीनों पर दिखने लगे तो चर्च ने माना कि इन लोगों ने सैकड़ों लोगों की जिंदगियों से खेला है और साउदर्न बैपटिस्ट कनवैंशन चर्च इन पादरियों के गुनाहों के शिकारों को कुछ न्याय दिलाने का वादा करता है. विदेशी चर्च को भारत में एक सम?ा जाता है जबकि विदेशों में चर्च सैकड़ों टुकड़ों में बंटा है, ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां हर मंदिर, हर आश्रम, हर मठ अपने एक गुरु या संप्रदाय की निजी संपत्ति होता है. न चर्च, न गुरुद्वारे, न बौद्ध मठ, न मंदिर किसी एक सत्ता के अंग हैं.

वे सब अलगअलग अस्तित्व रखते हैं और सब के पास अपार संपत्ति है और धर्म की गाड़ी ईश्वर नहीं वह पैसा चलाता है जिसे भक्त दान करते हैं. चर्च या धर्म की हर दुकान में काम करने वालों को सैक्स सुख पाने का अवसर खास दूसरा मोटिव होता है. कैलिफोर्निया के इस चर्च में कम से कम 700 लोगों पर दोष लगाया जा चुका है और जब से यह भंडाफोड़ हुआ है, नए नाम जुड़ रहे हैं. चर्च की चर्चा इसलिए की जा रही है कि भारत में धर्म की दुकानें आमतौर पर इन आरोपों से मुक्त रहती हैं.

हमारे भक्त अमेरिकी भक्तों से ज्यादा भक्तिभाव रखते हैं और अपने पंडितों, स्वामियों, गुरुओं के खिलाफ ज्यादा बोलते नहीं हैं. आसाराम बापू जैसे इक्कादुक्का मामलों में सजा हुई है पर आमतौर पर अगर मामला अदालत में चला जाता भी है तो जज या तो घबरा कर उसे टालते रहते हैं या फिर मामले में पूरे सुबूत नहीं हैं कह कर बंद कर देते हैं.

सैक्सुअल ऐब्यूज पर हर तरह के धर्म लाखों डौलर के सम?ौते हर साल आजकल कर रहे हैं. पीडि़तों को वे कहते हैं कि भगवान के काम में ज्यादा दखलंदाजी न करो, मरने के बाद ईश्वर को क्या जवाब दोगे? भक्त जो ईश्वर की काल्पनिक भक्ति में अगाध विश्वास रखता है आमतौर पर चुप रहता है. चर्च के पादरियों के सैक्सुअल ऐब्यूज का उस के पास वही उत्तर होता है जो एक हिंदू के पास है- ईश्वर सब देखता है, ईश्वर सब पापों का दंड खुद देगा. धर्म ने हर तरह के दुकानदारों, भक्तों को इस तरह भ्रमित कर रखा है कि वे संतों, महंतों, पादरियों, मुल्लाओं की हर ज्यादती को वरदान सम?ाते हैं.

वे तनमन और धन से की जाने वाली सेवा में तन से की जाने वाली सेवा का कोई अवसर नहीं छोड़ना चाहते. जिन गुनाहों पर सैक्युलर सरकार और कानून गुनहगारों को जेल में डाल देता है, उसी को धर्म केवल पाप कहता है और या तो प्रायश्चित्त करवाता है या फिर कह देता है कि न्याय मरने के बाद ईश्वर की अदालत में होगा. जब गुनहगार ईश्वर का अपना एजेंट हो तो कौन सा कानून उसे सजा देगा यह अमेरिका में स्पष्ट है, भारत में भी.

सूदखोरों के चंगुल में महिलाएं

जबलपुर के कटरा इलाके में रहने वाले महेश रैकवार एक वकील के यहां मुंशीगिरी करते हैं. उन की पत्नी उमा टिफिन सैंटर चलाती हैं. दोनों की आमदनी से घर खर्च तो पूरा हो जाता था, लेकिन बचत नहीं हो पाती थी. कोविड-19 के दौरान उमा का टिफिन का काम बंद हो गया, जिस से घर में पैसों की किल्लत होने लगी. इस किल्लत को दूर करने के लिए उमा ने मानसरोवर कालोनी में रहने वाली सपना प्रजापति से ₹50 हजार और काकुल प्रजापति से ₹30 हजार ब्याज पर लिए.

ब्याज 10 फीसदी महीने की दर से तय हुई.  उमा सपना को ₹5 हजार महीना और काकुल को ₹3 हजार महीना चुकाने को तैयार हो गई इस उम्मीद के साथ कि जल्द ही टिफिन सैंटर का काम फिर चल निकलेगा जिस की आमदनी से वह इन दोनों की पाईपाई चुका देगी.

वक्त गुजरता गया और उमा ने सपना को डेढ़ लाख और काकुल को ₹60 हजार चुकाए यानी मूल रकम से दोगुना और 3 गुना, फिर भी मूल रकम ज्यों की त्यों थी और ब्याज का पहिया घूमता जा रहा था. जब उमा और ब्याज नहीं दे पाई तो काकुल ने उस के घर वसूली के लिए फूटा ताल निवासी गोवर्धन कश्यप उर्फ जीतेंद्र को भेजना शुरू कर दिया जो पैसा वसूलने में माहिर था. उस का पेशा ही ऐसे इज्जतदार लोगों से पैसा वसूलना था.

जितेंद्र उसे आए दिन डरानेधमकाने लगा कि पैसा दो नहीं तो अंजाम भुगतने को तैयार हो जाओ. मैं तुम्हारे पूरे परिवार की हत्या कर दूंगा. डरीसहमी उमा कुछ सोचसमझ पाती उस के पहले ही एक दिन सपना भी उस के यहां आ धमकी और धमकी दी कि 11 जनवरी तक पूरी रकम नहीं चुकाई तो तेरे घर पर हम कब्जा कर लेंगे. जीतेंद्र ने भी इसी धमकी के साथ पैसा चुकाने की तारीख 15 जनबरी मुकर्र कर रखी थी.

सूदखोरों का कहर

इन सूदखोरों के कहर से बचने का इकलौता रास्ता उमा को आत्महत्या कर लेने का दिख रहा  था. लिहाजा उस ने जहर पी लिया. तबीयत बिगड़ी तो उस की बेटी पूनम ने उसे गोल बाजार स्थित एक प्राइवेट अस्पताल में भरती करा दिया. मामला चूंकि खुदकुशी की कोशिश का था, इसलिए अस्पताल में पुलिस की ऐंट्री हुई जिस ने उमा और पूनम के बयानों पर सपना और जीतेंद्र को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन काकुल फरार हो गई.

सूदखोरों के कहर का यह मुकदमा भी अब अदालत में है जिस का फैसला जो भी आए, लेकिन यह तो साफ दिख रहा है कि महिलाएं भी अब बाजार से तगड़े ब्याज पर पैसा उठाने लगी हैं जो उन्हें सहूलियत से मिल भी जाता है, लेकिन एवज में उन से स्टांप पेपर पर लिखापढ़ी करवा ली जाती है और अकसर उन के नाम की जायदाद या गहने भी गिरवी रखवा लिए जाते हैं. इस तरीके में ब्याज की दर थोड़ी कम हो जाती है, लेकिन वह इतनी कम नहीं होती है कि जबलपुर की उमा रैकवार या भोपाल की रश्मि सक्सेना (बदला नाम) जैसी महिलाएं उसे आसानी से चुका सकें.

निगलना भी मुश्किल और उगलना भी

28 वर्षीय अविवाहित रश्मि को एमए करने के बाद कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी सो उस ने होशंगाबाद में अपने फ्लैट में ही छोटा सा ब्यूटीपौर्लर खोल लिया जो उस के बूढ़े पिता के नाम है और वे उस के साथ ही रहते हैं. पार्लर चला तो लेकिन आमदनी उम्मीद के मुताबिक नहीं हो रही थी. इस पर एक सीनियर ब्यूटीशियन ने उसे सलाह दी कि किसी पौश इलाके में बड़ा पार्लर खोलो तो लक्ष्मी छमाछम बरसने लगेगी क्योंकि वहां ग्राहक ज्यादा होते हैं.

आइडिया रश्मि को भा गया पर बड़े पार्लर के लिए ₹4-5 लाख कहां से आएं? इस के लिए पहले तो उस ने बैंक लोन के लिए भागदौड़ की, लेकिन 3 महीने में ही उसे समझ आ गया कि यह लोन उसे इस जन्म में तो नहीं मिलने बाला. इस दौरान उस की एक क्लाइंट ने उसे बाजार से पैसा उठाने की न केवल सलाह दी बल्कि उसे फाइनैंसर यानी सूदखोर के पास ले कर भी गई. फाइनैंसर अग्रवाल समाज के संभ्रांत दंपत्ती थे जिन्होंने रश्मि को समझया कि देखो ₹5 लाख हम दे तो देंगे, लेकिन इस के एवज में कुछ गिरवी रखना पड़ेगा और ब्याज वक्त पर देना पड़ेगा.

रश्मि ने अपने पापा को मना कर उन का फ्लैट सूदखोरों के पास गिरवी रखवा दिया और पैसा हाथ में आते ही एक पौश इलाके में दुकान ले कर उस में अपने सपनों का पार्लर खोल लिया जो ठीकठाक चलने लगा. ₹5 लाख पर ब्याज की रकम 4 फीसदी महीने की दर से वह ₹20 हजार देती रही. 6 महीने बाद ही रश्मि को समझ आ गया कि ऐसे तो वह पापा का गिरवी रखा फ्लैट कभी नहीं छुड़ा पाएगी क्योंकि सारे खर्चे निकालने के बाद पार्लर से ₹30 हजार महीने से ज्यादा की कमाई नहीं हो रही थी. इन में से ₹20 हजार ब्याज के देने के बाद उस के पल्ले ₹10 हजार ही पड़ रहे थे.

लुटतेपिटते कर्जदार

अब 2 साल गुजर जाने के बाद मूल रकम के बराबर ब्याज दे चुकी रश्मि तनाव में है क्योंकि ऐग्रीमैंट के मुताबिक उसे मूल रकम ₹5 लाख 5 साल में चुकानी है नहीं तो फ्लैट सूदखोरों का हो जाएगा. अब वह उस घड़ी को कोसती है जब ब्याज पर पैसा लेने का शौक या लालच जो भी कह लें उसे यह सोचते चर्राया था कि 1 साल में ही इतना कमा लेगी कि फ्लैट वापस ले लेगी. पर अब ऐसा होना मुमकिन नहीं हो रहा तो वह न तो पापा से नजरें मिला पाती और न ही पहले जैसे उत्साह से पार्लर चला पाती.

रश्मि या उमा ने शायद ही करीब 45 साल पहले रिलीज हुई रेखा विनोद खन्ना द्वारा अभिनीत हिंदी फिल्म ‘आप की खातिर’ देखी होगी. लेकिन उन की हालत इस फिल्म की नायिका सरिता जैसी ही है जो पति से छिप कर एक सूदखोर से तगड़े ब्याज पर ₹10 हजार ले कर मुनाफे के लालच में शेयर बाजार में लगा देती है और पैसा न चुकाने पर एक के बाद एक कई मुसीबतों में न केवल खुद फंसती जाती है बल्कि अपने टैक्सी ड्राइवर पति को भी जोखिम में डाल देती है.

चूंकि हिंदी फिल्म थी, इसलिए अंत सुखद ही हुआ लेकिन रियल लाइफ में ऐसा नहीं होता. तब यह होता है कि कर्जदार लुटपिट जाते हैं. सूद में अपना बचाखुचा भी खो देते हैं और कई तो घबरा कर आत्महत्या ही कर लेते हैं.

आत्महत्या करने को मजबूर

ऐसी खबरें आए दिन हर किसी को चिंता और हैरत में डाल देती हैं.

– भोपाल के नेहरू नगर इलाके में बीती 7 जनवरी को एक महिला रजनी (बदला नाम) ने सूदखोरों से तंग आ कर जहर खा लिया. गंभीर हालत में अस्पताल में भरती होने के बाद पुलिस की छानबीन में पता चला कि रजनी ने 2 महिला सूदखोरों से 7 साल पहले ब्याज पर ₹1 लाख लिए थे. वह इस राशि का ब्याज कभीकभार देती रही, लेकिन कुछ दिनों से सूदखोरनियां उस से ₹10 लाख की मांग करने लगी. न देने पर रजनी को धमकियां देने लगीं थी. इस की शिकायत रजनी ने कमला नगर थाने में की भी थी पर पुलिस ने कोई काररवाई नहीं की.

– रजनी के मामले से 3 महीने पहले एक और सनसनीखेज मामला भोपाल से ही उजागर हुआ था जिस में पिपलानी इलाके के एक ही परिवार के 5 सदस्यों ने एकसाथ जहर खा लिया और इन सभी की एक के बाद एक मौत हो गई. इस मामले में पेशे से मैकैनिक संजीव जोशी की पत्नी अर्चना जोशी ने बबली नाम की महिला से ₹3 लाख 70 हजार ब्याज पर लिए थे. ये पैसे घर खर्च और बेटियों की पढ़ाई के लिए किश्तों में लिए गए थे. ‘आप की खातिर’ फिल्म की नायिका की तरह अर्चना ने भी पति से छिप कर यह कर्ज तगड़े सूद पर लिया था. एक दिन संजीव ने बबली और उस की गुंडी टाइप सहयोगियों को घर पर पैसे का तकाजा करते देखा तो उसे हकीकत पता चली.

– चूंकि अर्चना ने ब्याज पर पैसा घर की जरूरतों के लिए लिया था, इसलिए संजीव ने ₹80 हजार दे कर उन्हें टरकाया और थोड़ाथोड़ा कर बाद में भी चुकाते रहे, लेकिन इस से समस्या हल नहीं हो गई अब तो इस बबली गैंग की मैंबर आए दिन घर आ कर गालीगलौच करती धमकियां भी देने लगीं. महल्ले और रिश्तेदारी

में बदनामी होने लगी तो जोशी परिवार ने जहर खा कर सामूहिक आत्महत्या कर ली. मरने वालों में जोशी दंपती की 2 मासूम बेटियां और बुजुर्ग मां भी थीं.

– गाजियाबाद के विजय नगर में जनरल स्टोर मालिक ललित कुमार ने कुछ सूदखोरों से 2019 में ₹20 लाख ब्याज पर लिए थे जिन में से थोड़ाथोड़ा कर के 4 गुना चुका भी चुके थे, लेकिन यह ब्याज था असल नहीं. लालची सूदखोरों का दबाव बढ़ा तो घबराए ललित ने फांसी लगा ली जिस से बीती 15 मई को उन की मौत हो गई. लोग लाखोंकरोड़ों भी तगड़े ब्याज पर लेते हैं और न चुकाने पर मौत को गले लगा लेते हैं.

– सूदखोरी के धंधे में महिलाओं के बढ़ते दखल और भागीदारी का एक मामला बीती 22 मई को उदयपुर से आया. नवरत्न कौंप्लैक्स निवासी कपड़ों के व्यापारी दीपक मेहता का सूरजपोल में कपड़ों का बड़ा शोरूम है. उन्होंने हेमलता काकारिया नाम की महिला से ₹30 लाख कारोबार के लिए लिए थे और ब्याज में ₹2 करोड़ दे चुके थे इस पर भी हेमलता और उस के पति निरंजन मोगरा उसे आए दिन परेशान करते रहते थे जिस से आजिज आ कर दीपक ने फांसी लगा ली.

– यह तो थी करोड़ों की बात, लेकिन महज ₹5 हजार के कर्ज का बोझ भी जानलेवा साबित हो सकता है यह तेलांगना के सिद्धिपेठ कसबे के भारत नगर में रहने वाली 23 वर्षीय किर्नी मोनिका जोकि राजगोपालपेठ में कृषि विस्तार अधिकारी थीं की आत्महत्या से सामने आया.

उन्होंने किसानों के लिए कर्ज देने वाले एक एप के जरीए ₹5 हजार का लोन लिया था. इस का ब्याज बढ़तेबढ़ते ₹2 लाख 60 हजार हो गया. इस का पता उन्हें अप्रत्याशित तरीके से उस वक्त चला जब लोन देने वाली कंपनी के रिकवरी एजेंटों ने उन का फोटो सोशल मीडिया पर वायरल करते हुए यह लिखा कि मोनिका ने उन से लोन लिया है.

अगर वे आप को कहीं दिखाई दें तो उन से लोन लौटाने के लिए कहें. यह ठीक वैसी ही बात थी जैसेकि किसी ने गुमशुदा की तलाश के पोस्टर शहर की दीवारों पर चिपकवा दिए हों. इस वेइज्जती को मोनिका बरदाश्त नहीं कर पाई और उन्होंने पिछले साल 16 दिसंबर को आत्महत्या कर ली.

इज्जत है बड़ी दिक्कत

मोनिका और रजनी जैसी महिलाओं को चिंता और तनाव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते ब्याज के साथसाथ प्रतिष्ठा की भी रहती है, इसलिए उन्होंने जानलेवा रास्ता चुना. हालांकि यह हालत हर उस शख्स की होती है जो सूदखोरों के चंगुल में फंस जाता है. लोग कर्ज तो चाहते हैं, लेकिन उस के सार्वजनिक होने से डरते हैं. ऐसा इसलिए कि हमारे समाज में सूदखोरों से ब्याज पर पैसा लेना अच्छा नहीं माना जाता. उलट इस के बैंकों से लिए गए कर्ज को आजकल इतने शान की बात समझ जाती है कि लोग खुद यह ढिंढोरा पीटते नजर आते हैं कि आमदनी में से इतने हजार तो होम या कार लोन की किश्त चुकाने में चले जाते हैं.

यानी बैंक से कर्ज लेना अब हरज की बात नहीं, लेकिन सूदखोरों से लेना अच्छी बात नहीं समझ जाती. इस मानसिकता की जड़ में खास बात यह है कि बैंक ग्राहक को हमेशा उस की आमदनी और लौटाने की क्षमता को देख कर लोन देते हैं और जायदाद गिरवी रख लेने के अलावा भी गारंटी लेते हैं, जबकि सूदखोर को इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं होता.

पैसा वापस न मिलने पर सख्ती ये दोनों ही करते हैं पर सूदखोर ज्यादा कानूनी पचड़े में नहीं पड़ते. वे नोटिस के बजाय खुद घर आ धमकते हैं या फिर अपने गुर्गों जिन्हें बाउंसर कहते हैं को भेजते हैं. इन का खास काम कर्जदार को धमकाते रहने के अलावा उस की इज्जत का पंचनामा बनाना भी रहता है. यह तरीका कुछ साल पहले तक क्रैडिट कार्ड देने बाली कंपनियों और बैंकों ने भी अपना रखा था जो कमोबेश अभी भी चलन में है.

एक बड़ा फर्क ब्याज दर का है. क्रैडिट कार्ड देने बाले बैंक और सूदखोर बहुत ज्यादा दर पर पैसा देते हैं और उन्हें इस बात से भी कोई मतलब नहीं रहता कि लेने वाला इन्हें कहां और कैसे खर्च कर रहा है. वजह उन्हें पैसा वसूलना अच्छी तरह आता है फिर किसी की इज्जत या जान जाए इन की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

आत्मनिर्भरता के साइड इफैक्ट्स

महिलाओं की आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता अच्छी बात है. शहरी इलाकों में हर तीसरे घर में एक कमाऊ महिला सदस्य है. पारिवारिक बदलावों के चलते बड़ा फर्क यह देखने में आ रहा है कि महिलाएं न केवल सूद पर पैसा लेती हैं बल्कि देती भी हैं. करीब 4 दशक पहले तक घर का मुखिया जाहिर है आमतौर पर पुरुष शादीब्याह के मौके और उच्छ शिक्षा के लिए कब किस से ब्याज पर पैसे ला कर कब कैसे चुका भी देता था घर के बाकी सदस्यों को इस की भनक भी नहीं लगती थी.

अब हालत यह है कि हर कमाऊ मैंबर किसी न किसी रूप में कर्जदार है, लेकिन सूदखोरों के चंगुल में जो एक बार फंसा उस का सलामत निकलना किसी चमत्कार से कम नहीं होता.

असल में तमाम पेशेवर सूदखोर और पुलिस बाले मौसरे भाई होते हैं. भोपाल के अशोका गार्डन इलाके के एक सूदखोर की मानें तो हर थाने में समयसमय पर चढ़ावा हम लोग पहुंचाते हैं. काररवाई तभी होती है जब कोई देनदार आत्महत्या कर लेता है और मीडिया इस को ले कर हल्ला मचाता है, इसलिए हम भी नहीं चाहते कि कोई खुदकुशी करे, हमें तो ब्याज से प्यार होता है जो मिलता रहे नहीं तो मजबूरी में हमें दूसरे हथकंडे अपनाना पड़ते हैं.

यह सोचना भी बेमानी है कि चूंकि सूदखोर महिला है इसलिए पैसा न चुकाने की स्थिति में रहम खाएगी. अभी तक के मामले तो यह बताते हैं कि महिला सूदखोर पुरुष सूदखोर की तरह् ही बेरहम होती है जिस के जाल में महिलाएं आसानी से फंस जाती हैं.

धमकियां मिलने पर इज्जत की परवाह न कर पुलिस और कानून का सहारा लें भले ही कुछ हो या न हो इस से आप की झिझक दूर होगी और सूदखोर जितना मिल जाए उतना दे दो पर समझता करने तैयार हो सकता है.

कैसे बचें

– सूदखोरों से बचने का सब से आसान रास्ता यह है कि उन के जाल में पड़ा पैसों का दाना चुगा ही न जाए और चुगना मजबूरी हो जाए तो हड़बड़ाहट दिखाने के बजाय ब्याज की दर पर मोलभाव किया जाए. देशभर में आमतौर पर 10 फीसदी का ब्याज चलन में है. इस का गणित सम?ों कि आप अगर किसी से ₹1 लाख ब्याज पर लेती हैं तो एवज में हर महीने ₹10 हजार चुकाना होंगे. पैसा लेते वक्त यह बेहद हलका लगता है, लेकिन जब चुकाया जाने लगता है तो इस का भारीपन समझ में आता है पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है.

– महिलाएं पुरुषों जैसी ही एक गलती यह करती हैं कि एक सूदखोर से छुटकारा पाने के लिए दूसरे से उसी ब्याज दर पर पैसा ले लेती हैं. ‘आप की खतिर’ फिल्म की नायिका सरिता ने भी यही किया था पर उसे कर्ज चुकाने के लिए पैसा देने वाली समाजसेवी महिला वसूली के लिए उस से देह व्यापार करवाना चाहती थी जो किसी भी महिला के लिए जलालत की बात होती है. इसलिए नौकरी की तरह ब्याज स्विच करना फायदे का सौदा नहीं है.

– धमकियों से बचने के लिए इकलौता रास्ता पुलिस का बचता है, लेकिन वहां से भी कुछ हासिल नहीं होता क्योंकि सूदखोरी पर कोई असरदार कानून बहुत से कानून होने के बाद भी नहीं है इसलिए खुद पुलिस वाले हाथ खड़े कर देते हैं कि इस में हम क्या करें पैसा लिया है तो लौटाओ.

‘महिलाओं, बच्चों और यूथ के विकास जरुरी’ क्या कहती हैं सोशल वर्कर डॉ. किरण मोदी

जब कोई प्रियजन आपके जीवन से अचानक चला जाता है, जिससे आपकी जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है, आपकी जिंदगी उसके यादों के इर्द-गिर्द घूमती है,तब केवल एक ही रास्ता आपके जीवन में थोड़ी तसल्ली देती है, वह है गुजरे व्यक्ति की इच्छाओं को पूरा करना. दिल्ली की संस्था ‘उदयन केयर’ की सामाजिक कार्यकर्त्ता और फाउंडर मैनेजिंग ट्रस्टी डॉ. किरण मोदी ऐसी ही एक माँ है, जिन्होंने केवल 21 वर्ष के बेटे को एक दुर्घटना में खो दिया औरअपनी संस्था का नाम उन्होंने खोये हुए बेटे उदयन के नाम पर रखा. डॉ. किरण ने इसमें ‘मेकिंग यंग लाइफ शाइन’ कैम्पेन के द्वारा अनाथ, किसी बीमारी से पीड़ित बच्चों की देखभाल, महिला सशक्तिकरण को बढ़ाना आदि को ध्यान में रखते हुए हर बच्चे को आत्मनिर्भर बना रही है. शांत और स्पष्टभाषी 67 वर्षीय डॉ.किरण को इस काम के लिए शुरू में बहुत कठिनाई आई, पर वे घबराई नहीं और अपने काम को अंतिम रूप दिया. उनके साथ तीन ट्रस्टी जुड़े है, जो उन्हें पूरी तरह से सहयोग देते है.

किया संस्था का निर्माण

डॉ. किरण कहती है कि आज से 28 साल पहले मेरे जीवन में एक ऐसा मोड़ आया, जिसने मुझे हिला कर रख दिया. फिर मैंने महसूस किया किमुझे कुछ ऐसा करना है, जिससे मेरा दुःख कुछ समय के लिए कम कर सकूँ. मैंने बच्चों के लिए कुछ करने की योजना बनाईऔरयही से मैंने अपनी संस्था बनाई. धीरे-धीरे मेरे साथ अच्छे लोग जुड़ते गए और मेरा काम आसान होता गया. मेरे बेटे का नाम उद्यन था, वह अमेरिका में अकेले रहकर पढ़ाई कर रहा था और वहां उसकी मृत्यु एक दुर्घटना की वजह से हो गयी. जब मैं वहां उसके कमरे में गयी, तो वहां मुझे एक कागज मिला, जिसमे मैंने पाया कि वह किसी को बिना बताएं अफ्रीका और गरीब देशों की बच्चों के लिए अनुदान देता था, ऐसे में मैंने उसके काम को आगे बढ़ने की सोची और अपनी संस्था उदयन केयर बनाई.

मुश्किल था आगे बढ़ना

इसके आगे डॉ. किरण कहती है कि शुरू में संस्था में काम करना मुश्किल था, क्योंकि कहाँ से फंड आयेगे, कैसे काम करना है, क्या कार्यक्रम करने है आदि विषयों पर जानकारी कम थी. पहले एक साल तक तो मुझे कई संस्थाओं में जाना पड़ा. वहां उनके काम को समझने की कोशिश की.नॉन और डेवलपमेंट सेक्टर के बारें में जानकारी हासिल की. तब मुझे समझ में आने लगा कि बच्चों के लिए कैसे क्या करना है. उसी दौरान मैं एक संस्था में गई, वहां एक छोटी लड़की मेरी पल्लू पकड़ कर कहने लगी कि मुझे घर ले चलो. मुझे यहाँ मत छोड़ो. मैंने देखा है कि तब बच्चों को एक अनाथ की तरह पाला जाता था और वहां से निकलने के बाद भी वे फिर अनाथ ही रह जाते है. उनकी बोन्डिंग नहीं होती थी और वे 18 साल के बाद निकल जाते थे. इसे देखकर मैंने अपनी संस्था को एक परिवार की तरह बनाई, ताकि बच्चों को अनाथ महसूस न हो. यही से उदयन संस्था की रचना की गयी, जिसमे मैंने एक घर में 10 से 12 बच्चों के रहने का इंतजाम किया था. जिसमे आसपास के समुदाय के साथ उनका जुड़ाव अच्छा हो इसकी कोशिश किया जाने लगा, ताकि बड़े होने पर उन्हें समाज के साथ जुड़ने में आसानी हो. इसके अलावा हर बच्चों के लिए एक मेंटर की व्यवस्था की गई ताकि वे उन्हें आगे बढ़ने में उन्हें सही गाइडेंस दे सके. इसमें मैंने उन लोगों को चुना , जो अच्छे पढ़े-लिखे, जॉब करने वाले, बच्चों को सही दिशा में गाइडेंस देने वाले आदि को अपने पैनल पर रखा .

डॉ. किरण ने पहले दिल्ली में काम की शुरुआत की इसके बाद लोग जुड़ते चले गए और अब 16 होम सेंटर पूरे देश में है, जिसमे 18 साल के बाद बच्चे आते है. इसमें 29 मेंटर पेरेंट्स है . सभी बच्चों को पेरेंट्स की तरह मानते है, लेकिन वे वहां रहते नहीं, बच्चों को गाइड कर घर चले जाते है. बच्चो की देखभाल के लिए कुछ सर्वेन्ट्स है. सभी तरह के लोग हमारे साथ होते है, जो बच्चों की किसी समस्या का समाधान कर सकते है.

मानसिक विकास पर अधिक ध्यान

बच्चों को संस्था तक पहुँचने के बारें में पूछने पर वह कहती है हर जिले में चाइल्ड प्रोटेक्शन कमेटी होती है. उनके पास अपने बच्चों को सही पालन-पोषण न दे पाने वाले पेरेंट्स के बच्चे आते है, फिर कमिटी निश्चित करती है कि बच्चा किस संस्था में जाएगा. बच्चा आने पर उनके पेरेंट्स को बुलाकर उन्हें बच्चे को ले जाने के लिए कहा जाता है, ताकि पेरेंट्स बच्चे को सही तरह से पाल सकें, जिन्हें पैरेंटल सपोर्ट नहीं है,उन्हें सहयोग देते है. 16 होम्स में बच्चे 18 साल के उपर वाले आते है. इन बच्चों को ‘आफ्टर केयर’ दी जाती है. ऐसी सुविधा 3 जगह पर है. वहां बच्चे 18 साल के बाद रहकर, कॉलेज की पढाई करते है और जॉब की कोशिश करते है, जॉब मिल जाने के बाद वे निकल जाते है. बच्चे और युवा के तहत काम करने वाली 4संस्थाएं 4 राज्यों में है. इसके बाद मैंने इसे अधिक कारगर बनाने के लिए दो नए प्रोग्राम शुरू किये, जिसका काम परिवार को मजबूत बनाना था, ताकि बच्चे परिवार के साथ रहे . जिसमे पहला ‘उदयन शालीनी फेलोशिप’कार्यक्रम है, इसमें गरीब परिवार से आने वाली लड़कियां पढना चाहती है, लेकिन पेरेंट्स पैसे की कमी और सामजिक दबाव की वजह से उन्हें पढ़ाना नहीं चाहते, ऐसी लड़कियों को सरकारी स्कूल से लेकर स्नातक की पूरी पढाई करवाई जाती है. इसमें उस लड़की का पूरा खर्चा देने के साथ-साथ एक मेंटर भी दी जाती है, ताकि उसका मानसिक विकास अच्छी तरह से हो सकें, जिसमे लाइफस्टाइल, कैरियर काउंसलिंग, महिलाओं के अधिकार आदि होते है, जो किसी व्यक्ति की पूरी ग्रोथ को निर्धारित करती है और बाद में उन्हें जॉब दिलवाया जाता है. ये प्रोग्राम 26 शहरों में होती है. इस संस्था के साथ अधिकतर वोलेंटीयर्स काम करते है. इस प्रोग्राम में अभी मेरे पास 11 हजार बच्चियां है,जिनका ख्याल रखा जाता है.

बच्चों के घर को बसाना है मकसद

इसके आगे डॉ. किरण का कहना है कि तीसरा प्रोग्राम Information Technology and vocational Training  Centres (आईटी वीटी ) का है, जिसमें 19 आईटी सेंटर्स पूरे भारत में है, इसमें 2 वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर्स है. बहुत सारे बच्चे घर से बाहर मुंबई काम करने आ जाते है, उन्हें भी चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के द्वारा ही मेरे पास भेजा जाता है. मेरी ये कोशिश होती है कि घर छोड़कर भागने वाले बच्चों के माता-पिता को खोजा जाय. घर प्रोग्राम में अनाथ तो कुछ भागकर या कुछ को पेरेंट्स गरीबी के कारण जान-बुझकर खो देते है. इन्हें पुलिस उठाकर ले जाती है और ऐसे ही संस्थाओं में छोड़ देती है, इसलिए मेरे पास भी हर तरह के बच्चे है. पहले हर जगह से बच्चे आ जाते थे, लेकिन अब इन बच्चों को उस राज्य के संस्थाओं में ही रखकर बड़ा किया जाता है. ऐसी संस्था दिल्ली में गाजियाबाद, गुडगांव, कुरुक्षेत्र आदि कई जगहों में है, जहाँ उस जिले के आसपास के बच्चे आते है.

हो जाती है गलती 

यहाँ से निकलकर 4 बच्चे विश्व की अलग-अलग युनिवर्सिटी में आगे पढने चले गए है. इसके अलावा उनकी संस्था से निकलकर कुछ बच्चे इंजिनियर तो कुछ वकील बन चुके है. इस काम में डॉ. मोदी के साथ मेंटर्स का काफी योगदान रहा. एक मेंटर कैंसर की कीमोथेरेपी के बाद काम करने आ गयी. इस तरह की डिवोशन सभी में है. हर बच्चा उनके लिए प्रिय होता है, उनका कहना है कि कोई भी बच्चा गलत नहीं हो सकता, उससे गलती हो जाती है. बच्चे ने गलती क्यों की, वजह क्या रही, इसे जानने पर उसे ठीक किया जा सकता है. एक 10 साल की लड़की को मैंने एक बार कहा था कि मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ, पर तुम मुझे नहीं करती. जाते समय उसने मुझे एक चिट्ठी दी और मुझे घर जाकर खोलने को कहा. मैने घर पहुंचकर जब उसे खोला तो उसमे लिखा था कि जब मैं खुद को प्यार नहीं करती तो आपको क्या प्यार करुँगी. इससे मुझे उनकी मानसिक दशा के बारें में जानकारी मिली, ये बच्चे बहुत दुखी होते है, क्योंकि घर से निकलने के बाद रास्ते में न जाने क्या-क्या होता होगा, घर में भी क्या हुआ होगा,फिर पुलिस के गंदे बर्ताव से होकर संस्था में आती है, ऐसे में बच्चा किसी को विश्वास नहीं कर पाता. दो साल बाद जब मैं उससे मिली, तो उसने दूसरी पत्र दी, इसे भी मैंने घर जाकर खोला, तो उस पर अब लिखा था, ‘आई लव यू’. इस तरह बच्चों से मैंने मनोवैज्ञानिक बहुत सारी बातें सीखी है. बाल सुरक्षा पर भी बहुत सारा काम बिहार और मध्यप्रदेश में यूनिसेफ, सरकार के साथ मिलकर किया जा रहा है. इस काम में फाइनेंस की व्यवस्था हो जाती है,डोनेशन मिलते है. बच्चों की उपलब्धि को देखकर वे भी खुश होते है और अच्छा डोनेशन देते है. अभी बहुत सारा काम आगे करने की इच्छा है.

हिंदी: शर्म नहीं गर्व कीजिए

हिंदी मीडियम से भी लहराया जा सकता है परचम

ऐसे बहुत से बच्चे हैं जो सरकारी स्कूलों में पढ़ कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं और नाम कमाते हैं. अरुण एस नायर एक ऐसे ही शख्स हैं जिन्होंने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की और अपने दम पर डाक्टर और फिर यूपीएससी पास कर आईएएस अधिकारी बना. वह 55वीं रैंक ला कर आईएएस बने. वे केरल से संबंध रखते हैं. उन्होंने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की और एक के बाद एक उपलब्धियां हासिल कीं.

महाराष्ट्र कैडर से आईपीएस मनोज शर्मा की कहानी भी इस देश के हर युवा के लिए मिसाल है. 12वीं कक्षा फेल मनोज शर्मा की परिस्थिति ऐसी थी कि पढ़ाई जारी रखने के लिए औटो चलाया, भिखारियों के साथ सोया. उन्होंने गांव में शुरुआती पढ़ाईलिखाई हिंदी मीडियम से की थी, जिस की वजह से अंगरेजी बहुत कमजोर थी. हिंदी मीडियम से पढ़ने वाले मनोज शर्मा से यूपीएससी के इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि आप को अंगरेजी नहीं आती तो फिर शासन कैसे चलाएंगे? मगर आज वे महाराष्ट्र के सफल और तेजतर्रार आईपीएस अधिकारियों में से एक हैं.

उत्तराखंड के देहरादून शहर के एक परिवार की बेटी गुलिस्तां अंजुम ने सरकारी व हिंदी मीडियम स्कूलों से परहेज करने वाले तमाम लोगों की तब बोलती बंद कर दी जब उन्होंने उत्तराखंड न्यायिक सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की. उन्होंने 2017 में भी पीसीएस-जे की परीक्षा दी थी पर कुछ अंकों से रह गईं. लेकिन दूसररी बार फिर पूरी शिद्दत से परीक्षा की तैयारी की और सफल हुईं.

निशांत जैन ने सिविल सेवा परीक्षा 2014 में दी थी, जिस में उन्होंने 13वीं रैंक हासिल की थी. वे यूपीएससी परीक्षा में हिंदी के टौपर थे. निशांत बेहद साधारण बैकग्राउंड में पलेबढ़े. वे अपना खुद का खर्चा उठाने में यकीन रखते थे. ऐसे में उन्होंने 10वीं कक्षा के बाद कोई न कोई नौकरी करने का फैसला किया. एमए के बाद निशांत जैन ने यूपीएससी की तैयारी करने का फैसला लिया. उन की पोस्ट ग्रैजुएशन तक की पढ़ाई हिंदी मीडियम से हुई थी. इसलिए उन्होंने यूपीएससी का सफर भी हिंदी मीडियम के साथ जारी रखने का प्लान बनाया. निशांत की हिंदी पर शुरू से ही कमांड रही. ऐसे में उन्होंने सोचा कि अगर यूपीएससी में भी अपने सवालों के जवाब प्रभावशाली तरीके से देने हैं तो हिंदी भाषा को ही मजबूत करना होगा. यूपीएससी 2014 की परीक्षा में उन्होंने 13 रैंक प्राप्त की. इस तरह एक हिंदी माध्यम का युवा आईएएस अफसर बन गया.

इसी तरह विस्थापित एक परिवार के बेटे अमन जुयाल ने सरकारी व हिंदी मीडियम स्कूलों से परहेज करने वाले तमाम लोगों को आईना दिखते हुए नीट व जीबी पंत विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा के बाद एम्स एमबीबीएस प्रवेश रीक्षा में भी प्रदेश में दूसरा स्थान हासिल किया.

‘‘कौ शिक मुझे नहीं लगता कि मैं इस इंटरव्यू में सफल हो पाऊंगा. सारे इंग्लिश मीडियम के कैंडिडेट्स भरे पड़े हैं जो फर्राटेदार इंग्लिश में बातें कर रहे हैं,’’ अमर ने थोड़ी घबराई हुई आवाज में कौशिक से कहा.

‘‘अगर तू ऐसा सोच रहा है तो मुझे यकीन है तू वाकई इंटरव्यू में फेल हो जाएगा,’’ कौशिक ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘यह क्या यार तू तो मेरा मनोबल और गिरा रहा है.’’

‘‘तो क्या करूं, जब तूने खुद ही यह कहना शुरू कर दिया है कि तू सफल नहीं होगा तो यकीन मान कोई तुझे नहीं जिता सकता. अगर सफल होना है तो अपने मन और दिमाग को बता कि तुझे बस जीतना है. तब तुझे कोई नहीं हरा सकता. मगर जब पहले से ही तू घबराया हुआ अंदर जाएगा तो जाहिर है तुझ से छोटीछोटी गलतियां होंगी. तू याद की हुई बातें भी भूल जाएगा. इतना भ्रमित दिखेगा कि वे चाह कर भी तुझे अपौइंट नहीं कर पाएंगे. ऐसे में तू असफल होगा, मगर हिंदी मीडियम की वजह से नहीं बल्कि कौन्फिडैंस की कमी की वजह से,’’ कौशिक ने समझया.

‘‘सच यार तूने तो मेरी आंखें खोल दीं. अब देखना तेरा दोस्त कैसे जीत कर आता है,’’ अमर ने उत्साह से कहा. उस की आंखों में विश्वास भरी चमक खिल आई थी.

यह एक सच्चा वाकेआ है और अकसर हमारे आसपास हिंदी मीडियम में पढ़े ऐसे बहुत से अमर दिख जाएंगे जो जीतने के पहले ही हार जाते हैं, इंटरव्यू बोर्ड के सामने जाने से पहले ही असफल हो जाते हैं. दरअसल, वे घबरा जाते हैं और सब जानते हुए भी सही जवाब नहीं दे पाते. आत्मविश्वास की कमी की वजह से उन की जबान लड़खड़ाने लगती है. कई ऐसे भी मिलेंगे जो हिंदी मीडियम वाले होने के बावजूद इंग्लिश में जवाब देने का फैसला करते हैं ताकि सामने वालों पर अच्छा प्रभाव पड़े. मगर होता उलटा है. उन्हें इंग्लिश के सही शब्द नहीं मिल पाते और सब जानते हुए भी सैटिस्फैक्टरी रिस्पौंस नहीं दे पाते.

दरअसल, हिंदी मीडियम के युवाओं को हमेशा ऐसा लगता है कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले लोग बेहतर होते हैं. इस से उन के अंदर हीनभावना भर जाती है, आत्मविश्वास कमजोर हो जाता है. लेकिन सच यह है कि कोई हिंदी भाषा में बेहतर होता है तो कोई इंग्लिश भाषा में. कोई फर्राटेदार अंगरेजी बोल लेता है तो कोई धाराप्रवाह हिंदी. भाषा तो दोनों ही हैं. जरूरत होती है सामने वाले के आगे अपनी बात सही तरह से प्रस्तुत करने की. माना कि किसी एक भाषा पर कमांड हासिल करना आवश्यक है, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि हिंदी जानने वाले कमजोर हैं और इंग्लिश जानने वाले ज्ञानी हैं.

कुछ लोग यह सोचते हैं कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ने से अच्छा रुतबा, कैरियर, ओहदा, पैसा और नौकरी मिलती है. पर ऐसे लोगों की कमी नहीं जिन्होंने भाषा को अहमियत न देते हुए कड़ी मेहनत से शोहरत के उस मुकाम को हासिल किया जहां तक पहुंचने की ज्यादातर लोग कल्पना भी नहीं कर पाते. इंसान के भीतर काबिलीयत होनी चाहिए, ज्ञान और आत्मविश्वास होना चाहिए. भले ही भाषा हिंदी ही क्यों न हो.

डिजिटल दुनिया में हिंदी सब से बड़ी भाषा

अगर हम आंकड़ों में हिंदी की बात करें तो 260 से ज्यादा विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है. 1 अरब, 30 करोड़ से ज्यादा लोग हिंदी बोलने और समझने में सक्षम हैं. 2030 तक दुनिया का हर 5वां व्यक्ति हिंदी बोलेगा. सब से बड़ी बात यह कि जो कुछ साल पहले इंग्लिश इंटरनैट की सब से बड़ी भाषा थी अब हिंदी ने उसे बहुत पीछे छोड़ दिया है. गूगल सर्वेक्षण बताता है कि इंटरनैट पर डिजिटल दुनिया में हिंदी सब से बड़ी भाषा है.

हिंदी बोलने पर शर्म नहीं गर्व कीजिए

अगर आप इंग्लिश में कंफर्टेबल महसूस करते हैं तो आप इंग्लिश में ही बात करिए. इसे ही अपनी बातचीत की प्राथमिक भाषा रहने दीजिए. लेकिन जब कभी आप को हिंदी बोलने का मौका मिले या आप को इंग्लिश में बात करना न आता हो तो इस में शर्म न करें.

अब जरा भारत के कुछ नेताओं की ही बात कर लें. बहुत से नेता हिंदी मीडियम से पढ़ाई कर के आए हैं. देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हों या वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बिहार के नीतीश कुमार हों, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव हों या फिर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ, ये सभी हिंदी मीडियम से पढ़ कर आए हैं पर देश की बागडोर संभाली. इन सभी नेताओं ने हर काम हिंदी भाषा में किया और हिंदी को ही तरजीह दी.

याद कीजिए 4 अक्तूबर, 1977 का वह दिन जब विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी पहुंचे थे. उन्होंने अपना भाषण हिंदी में दिया था. वैसे यह भाषण पहले इंग्लिश में लिखा गया था. लेकिन अटल ने उस का हिंदी अनुवाद पढ़ा था. उन के भाषण के बाद यूएन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. हिंदी की वजह से ही उन का यह भाषण ऐतिहासिक हो गया था.

इसी तरह मोदीजी भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर धाराप्रवाह हिंदी में भाषण देते हैं और विदेशी नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिला कर शिरकत करते हैं.

ज्ञान भाषा पर आधारित नहीं होता

कोई भी भाषा अपनी भावना व्यक्त करने का एक माध्यम भर है. यह किसी को अमीरगरीब नहीं बनाती. अरे यह तो आप के घर की भाषा है, आप के शहर और गांव की भाषा है. इसे बोलने में शर्म नहीं अपनापन महसूस होना चाहिए. हिंदी भाषा आप का स्टेटस छोटा नहीं दिखाती बल्कि आप के विद्वान होने का ऐलान करती है.

आप अपने आसपास नजर डालें तो यह महसूस करेंगे कि जो व्यक्ति इंग्लिश भाषा बोलने में सहज नहीं महसूस करता उसे कम पढ़ालिखा या कम समझदार माना जाता है. लेकिन याद रखें ज्ञान भाषा पर आधारित नहीं होता. ज्ञान तो आप की पढ़ाई, समझ और अनुभवों पर निर्भर करता है. हो सकता है कि कोई व्यक्ति इंग्लिश नहीं हिंदी में बोलता हो, लेकिन उस के पास बिजनैस, तकनीक या फिर किसी और क्षेत्र में ज्ञान का भंडार हो. यह भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति इंग्लिश न बोल पाता हो पर हिंदी भाषा में फिलौसफी से जुड़ी ऐसी बातों का रहस्य खोल सकता हो जो शायद देशविदेश के विद्वानों ने भी न खोला हो. किसी को उस की भाषा के आधार पर कम समझदार आंकना हमारी अपनी कमअक्ली को दर्शाता है.

हम ने इंग्लिश को हिंदी में इतना ज्यादा मिला दिया है कि शुद्ध हिंदी लिखना ही भूल गए हैं. हम आजकल हिंगलिश बोलने लगे हैं. यह न इंग्लिश है और न हिंदी. यह हर तरह से कमजोर लोगों की निशानी है. ऐसे लोग जिन्हें न खुद पर विश्वास है और न अपनी भाषा पर वे ही ऐसा जोड़तोड़ का रास्ता अपनाते हैं. इसी तरह आजकल व्हाट्सऐप पर ऐसी हिंदी लिखी जा रही है कि बेचारी हिंदी को ही शर्म आती होगी.

मातृभाषा की अहमियत समझें

याद रखें इंसान की कल्पनाशक्ति का विकास मातृभाषा में ही हो सकता है. हम जब इमोशनल या गुस्से में होते हैं तो हम मातृभाषा में ही बोलते हैं. जब धाराप्रवाह बोलने की जरूरत हो तो मातृभाषा में ही हम सहजता से बोल पाते हैं. जहां तक बात हिंदी की है तो इंग्लिश की तुलना में हिंदी इंसान को ज्यादा समृद्ध बना सकती है. हिंदी भारत में सब से ज्यादा बोली जाने वाली यानी राजभाषा है.

हमारे देश के 77% से ज्यादा लोग हिंदी लिखते, पढ़ते, बोलते और समझते हैं. हिंदी उन के कामकाज का भी हिस्सा है. इसलिए 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा घोषित किया और तब से संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ मनाया जाता है.

किसी भी राष्ट्र की पहचान उस की भाषा और संस्कृति से होती है. हमें दूसरों की भाषा सीखने का मौका मिले यह अच्छी बात है, लेकिन दूसरों की भाषा के चलते हमें अपनी मातृभाषा को छोड़ना पड़े तो यह शर्म की बात है. हमें अपनी भाषा का सम्मान करना चाहिए.

शायद ही दुनिया में ‘हिंदी दिवस’ की तरह किसी और भाषा के नाम पर दिवस का आयोजन होती है क्योंकि पूरी दुनिया के लोगों को अपनी भाषा पर गर्व है. गर्व की बात है कि वे लोग सिर्फ बोलते ही नहीं बल्कि उसे व्यवहार में अपनाते भी हैं. लेकिन हम लोग हिंदी दिवस पर हिंदी हमारी मातृभाषा है, हमें हिंदी पर गर्व है जैसे रटेरटाए वाक्य बोल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. असलियत में हिंदी में बातचीत करने वालों को आज भी हेय दृष्टि से देखा जाता है. यदि कोई व्यक्ति 2-4 वाक्य फर्राटेदार अंगरेजी में बोलता है तो सब उसे बहुत होशियार समझते हैं.

आधुनिकता का भूत

हमारे यहां जब बच्चे का जन्म होता है तो घर के लोगों से हिंदी सुन कर बच्चा भी हिंदी बोलने और समझने लगता है. मगर आज की तथाकथित मौडर्न फैमिलीज में बच्चे को तुतलाना भी इंग्लिश में ही सिखाया जाता है. हर वक्त घर में पेरैंट्स उस के पीछे इंग्लिश के शब्द ले कर भागते रहते हैं ताकि गलती से भी वह हिंदी न सीख जाए. ऐसा लगता है जैसे हिंदी बोलने पर उस का भविष्य ही चौपट हो जाएगा.

जैसे ही बच्चे को स्कूल भेजने की बात आती हैं तो हिंदी मीडियम स्कूलों के हालात का रोना रोते हुए पेरैंट्स जल्दी से बच्चे को अंगरेजी स्कूल में भेजने के लिए हाथपैर मारने लगते हैं. इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों के बाहर इतनी लंबी लाइन रहती है कि लोग नर्सरी में एडमिशन के लिए भी लाखों खर्च करने से नहीं घबराते हैं. इतने रुपयों के सहारे इंग्लिश मीडियम में डाल कर वे बहुत खुश होते हैं. उन्हें लगता है जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो.

यहीं से बच्चे की रहीसही हिंदी भी कमजोर होने लगती है. यही वजह है कि इंग्लिश मीडियम में पढ़ालिखा नौजवान सब्जी वाले से हिसाबकिताब करते वक्त उन्यासी और नवासी का फर्क तक नहीं समझ पाता. आम बोलचाल के हिंदी के छोटेछोटे शब्द उस की समझ से परे होते हैं. भले ही अंगरेजी की तुलना में हिंदी इंसान को ज्यादा समृद्ध बना सकती है लेकिन जौब मार्केट में अंग्रेजी का दबदबा कायम होने की वजह से सब इंग्लिश के पीछे भागते हैं और जो नहीं भाग पाए वे खुद को बेकार समझते हैं. मगर हकीकत में बहुत से हिंदी मीडियम वाले ज्ञान के मामले में इंग्लिश मीडियम वालों से बहुत आगे रहते हैं. हिंदी भाषा में हर तरह की पाठ्यसामग्री या दूसरे विषयों पर जानकारी उपलब्ध है. इसलिए हिंदी भाषी होने की वजह से घबराना बेमानी है. हिंदी भाषा उच्च कोटि की भाषा है. इसे गंवारों की भाषा समझना बहुत बड़ी भूल है.

हिंदी में पढ़ कर छू ली बुलंदी

पेटीएम आज पूरे देश का सब से लोकप्रिय डिजिटल पेमैंट ऐप्लिकेशन बन चुका है. पर आप को जान कर आश्चर्य होगा कि पेटीएम के फाउंडर विजय शेखर भारत के एक छोटे से शहर के बहुत ही साधारण परिवार से संबंधित हैं. उन्हें अंगरेजी का थोड़ा भी ज्ञान नहीं था परंतु इस के बावजूद इन्होंने पेटीएम जैसे ऐप्लिकेशन की खोज कर डाली.

इन्होंने एक साधारण हिंदी मीडियम स्कूल में दाखिला लिया था. पढ़ने में तेज होने के कारण अपनी 12वीं कक्षा की पढ़ाई को मात्र 14 साल की उम्र में ही पूरा कर लिया था. पढ़ाई में तेज होने के कारण इन्हें दिल्ली कालेज औफ इंजीनियरिंग में दाखिला तो मिल गया था पर हिंदी मीडियम से अंगरेजी वातावरण में जाने के कारण पढ़ाई में बहुत दिक्कत आई. मगर इन्होंने हार नहीं मानी और अंगरेजी सीखने का प्रयत्न करते रहे. ये एक ही किताब को अंगरेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में खरीद लेते और फिर पढ़ने का प्रयास करते.

विजय शेखर शर्मा समय के अनुसार काम करते थे. उन्हें कब क्या करना है वे बखूबी जानते हैं. इसलिए जब स्मार्टफोन का प्रयोग बढ़ा और हर युवक के पास स्मार्टफोन पाया जाने लगा तो इन्होंने कैशलैस की सोची अर्थात मोबाइल से ही पैसे ट्रांसफर करना. ये पेटीएम यानी पे थ्र्रू मोबाइल के कांसैप्ट पर काम करना चाहते थे. मगर किसी ने इन का साथ नहीं दिया क्योंकि ये एकदम नया व्यापार था और बहुत मुश्किल लग रहा था.

फिर इन्होंने अपनी इक्विटी में से 1% यानी 2 मिलियन डौलर बेच कर पेटीएम की स्थापना की और आज पेटीएम की लोकप्रियता का कोई ठिकाना नहीं है. 2017 में इकौनोमिक टाइम्स द्वारा शेखर शर्मा को इंडिया के हौटैस्ट बिजनैस लीडर अंडर 40 के रूप में चुना.

विजय शेखर जैसे लोगों की जिंदगी से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है. हमें यह समझ आता है कि हिंदी या इंग्लिश माने नहीं रखता बल्कि आप की लगन, अलग सोच और कुछ करने का जज्बा सफलता के लिए जरूरी है.

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