कुछ तो लोग कहेंगे: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

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तौबा

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सफर की हमसफर- भाग 1: प्रिया की कहानी

दिल्ली के प्रेमी युगलों के लिए सब से मुफीद और लोकप्रिय जगह यानी लोधी गार्डन में स्वरूप और प्रिया हमेशा की तरह कुछ प्यार भरे पल गुजारने आए थे. रविवार की सुबह थी. पार्क में हैल्थ कोंशस लोग मॉर्निंग वाक के लिए आए हुए थे. कोई भाग रहा था तो कोई ब्रिस्क वाक कर रहा था. कुछ लोग तरहतरह के व्यायाम करने में व्यस्त थे तो कुछ दूसरों को देखने में. झील के सामने पड़ी लोहे की बेंच पर बैठे प्रिया और स्वरुप एकदूसरे में खोए हुए थे. प्रिया की बड़ीबड़ी शरारत भरी निगाहें स्वरूप पर टिकी थी. वह उसे अपलक निहारे जा रही थी. स्वरूप ने उस के हाथों को थामते हुए कहा, “प्रिया, आज तो तुम्हारे इरादे बड़े खतरनाक लग रहे हैं. ”

वह हंस पड़ी,” बिल्कुल जानेमन. इरादा यह है कि तुम्हे अब हमेशा के लिए मेरा हाथ थामना होगा. अब मैं तुम से दूर नहीं रह सकती. तुम ही मेरे होठों की हंसी हो. भला हम कब तक ऐसे छिपछिप कर मिलते रहेंगे? और फिर प्रिया गंभीर हो गई.

स्वरूप ने बेबस स्वर में कहा,” अब मैं क्या कहूं? तुम तो जानती ही हो मेरी मां को. उन्हें तो वैसे ही कोई लड़की पसंद नहीं आती उस पर हमारी जाति भी अलग है.”

“यदि उन के राजपूती खून वाले इकलौते बेटे को सुनार की गरीब बेटी से इश्क हो गया है तो अब तुम या मैं क्या कर सकते हैं? उन को मुझे अपनी बहू स्वीकार करना ही पड़ेगा. पिछले 3 साल से कह रही हूँ. एक बार बात कर के तो देखो.”

“एक बार कहा था तो उन्होंने सिरे से नकार दिया था. तुम तो जानती ही हो कि मां के सिवा मेरा कोई है भी नहीं. कितनी मुश्किलों से पाला है उन्होंने मुझे. बस एक बार वे तुम्हें पसंद कर लें फिर कोई बाधा नहीं. तुम उन से मिलने गई और उन्होंने नापसंद कर दिया तो फिर तुम तो मुझ से मिलना भी बंद कर दोगी. इसी डर से तुम्हे उन से मिलवाने नहीं ले जाता. बस यही सोचता रहता हूं कि उन्हें कैसे पटाऊं.”

“देखो अब मैं तुम से तो मिलना बंद नहीं कर सकती तो फिर तुम्हारी मां को पटाना ही अंतिम रास्ता है.”

“पर मेरी मां को पटाना ऐसी चुनौती है जैसे रेगिस्तान में पानी खोजना.”

“ओके तो मैं यह चुनौती स्वीकार करती हूं. वैसे भी मुझे चुनौतियों से खेलना बहुत पसंद है. “बड़ी अदा के साथ अपने घुंघराले बालों को पीछे की तरफ झटकते हुए प्रिया ने कहा और उठ खड़ी हुई.

“मगर तुम यह सब करोगी कैसे?” स्वरूप ने उठते हुए पूछा.

“एक बात बताओ. तुम्हारी मां इसी वीक मुंबई जाने वाली हैं न किसी ऑफिसिअल मीटिंग के लिए. तुम ने कहा था उस दिन.

“हां, वह अगले मंगल को निकल रही हैं. आजकल में रिजर्वेशन भी कराना है मुझे.”

“तो ऐसा करो, एक के बजाए दो टिकट करा लो. इस सफर में मैं उन की हमसफर बनूंगी. पर उन्हें बताना नहीं,” आंखे नचाते हुए प्रिया ने कहा तो स्वरूप की प्रश्नवाचक निगाहें उस पर टिक गईं.

प्रिया को भरोसा था अपने पर. वह जानती थी कि सफर के दौरान आप सामने वाले को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं. जब हम इतने घंटे साथ बिताएंगे तो हर तरह की बातें होंगी. उन्हें एक दूसरे को इंप्रेस करने का मौका मिलेगा. उन में दोस्ती हो सकेगी. कहने की जरुरत भी नहीं पड़ेगी. यह तय हो जाएगा कि वह स्वरूप की बहू बन सकती है. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया था कि यह उस की आखिरी परीक्षा है.

स्वरूप ने मुस्कुराते हुए सर हिला तो दिया था पर उसे भरोसा नहीं था. उसे प्रिया का आइडिया बहुत पसंद आया था पर वह मां के जिद्दी, धार्मिक व्यवहार को जानता था. फिर भी उस ने हाँ कर दिया.

उसी दिन शाम में उस ने मुंबई राजधानी एक्सप्रेस (गाड़ी संख्या 12952 ) के एसी 2 टियर श्रेणी में 2 टिकट (एक लोअर और दूसरा अपर बर्थ )रिज़र्व कर दिया. जानबूझ कर मां को अपर बर्थ दिलाई और प्रिया को लोअर.

जिस दिन प्रिया को मुंबई के लिए निकलना था, उस से 2 दिन पहले से वह अपनी तैयारी में लगी थी. यह उस की जिंदगी का बहुत अहम सफर था. उस की ख़ुशियों की चाबी यानी स्वरुप का मिलना या न मिलना इसी पर टिका था. प्रिया ने वह सारी चीज़ें रख लीं जिन के जरिये उसे स्वरुप की मां पर इम्प्रैशन जमाने का मौका मिल सकता था.

ट्रेन शाम 4.35 पर नई दिल्ली स्टेशन से छूटनी थी. अगले दिन सुबह 8.35 ट्रेन का मुंबई अराइवल था. कुल 1385 किलोमीटर की दूरी और 16 घंटों का सफर था. इन 16 घंटों में उसे स्वरुप की मां को जानना था और अपना पूरा परिचय देना था.

वह समय से पहले ही स्टेशन पहुँच गई और बहुत बेसब्री से स्वरुप और उस की मां के आने का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में उसे स्वरुप आता दिखा. साथ में मां भी थी. दोनों ने दूर से ही एकदूसरे को आल द बेस्ट कहा.

ट्रेन के आते ही प्रिया सामान ले कर अपने बर्थ की तरफ बढ़ गई.  सही समय पर ट्रेन चल पड़ी. आरंभिक बातचीत के साथ ही प्रिया ने अपनी लोअर बर्थ मां को ऑफर कर दी. उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया क्यों कि उन्हें घुटनों में दर्द रहने लगा था. वैसे भी बारबार ऊपर चढ़ना उन्हें पसंद नहीं था. उन की नजरों में प्रिया के प्रति स्नेह के भाव झलक उठे. प्रिया एक नजर में उन्हें काफी शालीन लगी थी. दोनों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करने लगे. मौका देख कर प्रिया ने उन्हें अपने बारे में सारी बेसिक जानकारी दे दी कि कैसे वह दिल्ली में रह कर जॉब कर रही है और इस तरह अपने मांबाप का सपना पूरा कर रही है. दोनों ने साथ ही खाना खाया। प्रिया का खाना चखते हुए मां ने पूछा,” किस ने बनाया? तुम ने या कामवाली रखी है?”

गुलाबो की मुसकान: वेलेंटाइन डे पर क्या हुआ उसके साथ

कालेज के लंचटाइम में हम सभी स्टाफ के साथ गपशप कर रहे थे कि अचानक मेरे कानों में आवाज आई, ‘मैडम, प्लीज यहां विटनैस में आप के साइन की जरूरत थी. दरअसल, मैं ने यहां पीजीटी (मैथ्स) के रूप में जौइन किया है. बैंक में अकाउंट के लिए बैंक वाले एक विटनैस मांग रहे हैं.’ मुझे उस के बोलने का लहजा, पहनावा अपनों जैसा लगा. पेपर मेरे सामने था, मैं न नहीं कर सकी. फौर्म पर हलके से नजर डाली, इंद्रेश बरेली. ‘ओह तो महाशय बरेली से हैं.’ यह बुदबुदाने के साथ साइन कर फौर्म दे दिया. सर ने थैंक्यू कहा और मुसकरा कर चले गए.

उन के मुड़ते ही एक जोरदार ठहाका लगा, ‘‘क्यों इंदु, इंद्रेशजी ने क्या राशि देख कर तुम्हारे साइन मांगे या फिर…?’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप लोग. उन्होंने तो आगे बढ़ाया था पेपर, अब वह मैं सामने पड़ गई तो वे क्या करते या मैं क्या करती,’’ मैं ने कहा.

‘‘तो इतनी जल्दी फेवर भी होने लगा,’’ दूसरी टीचर साथी ने कहा. टन…टन…टन तभी घंटी बज गई, हम सभी अपनेअपने क्लास में चले गए.

लेकिन मैं क्लास में जा कर भी क्लास में नहीं पहुंच सकी. गले में मफलर, पैंट, हां ये तो हमारे यहां जैसा ही है. ओह, मिट्टी, पानी और बोली में इतनी ताकत होती है कि आदमी दस की भीड़ में भी अपनों को पहचान लेता है. पर मैं तो उन्हें जानती भी नहीं. मैं ने साइन तो कर दिए हैं पर क्या? चलो, जो होगा, देखा जाएगा. मैं ने ऐसा सोच कर अपने को झटका पर विचारों की शृंखला हटने का नाम ही नहीं ले रही थी कि एक बच्चे ने कहा, ‘‘मैडम, क्लास ओवर हो गई.’’

मैं ने अपने शरीर को एक क्लास से ढकेल कर दूसरे क्लास में पहुंचा दिया. पूरा दिन इसी उधेड़बुन में निकल गया.

अगले दिन सुबह जब असेंबली के लिए सारे टीचर्स बच्चों के सामने खड़े थे, मेरी आंखें गेट पर लगी थीं. सामने से मुझे इंद्रेश सर तेजी से, कुछ शरमाए, घबराए, शांत, कुछ मुसकराते हुए आते दिखाई दिए. मैं ने कनखियों से उन्हें देखा. वे मुझ से कुछ दूरी पर आ कर खडे़ हो गए. उन्होंने मुझ से नमस्ते की तो मुझे अपने शहर की हवा चलती हुई महसूस हुई.

2-3 दिन बाद उन का अकाउंट खुल गया. वे मुझे धन्यवाद देने मेरे पास आए. तब पता चला उन के बारे में थोड़ाबहुत. मैं उस परदेश में 4 साल से रह रही थी. नौकरी के दौरान मेरे कुछ दोस्त भी बने थे पर फिर भी आज पहली बार उन सब को पीछे छोड़ कर आखिर यह कौन था जिस को ले कर मैं सोचने लगी थी. वरना मैं, मेरा कमरा मेरा मोबाइल, मेरी डायरी. इस के सिवा मैं किसी को अपना कीमती वक्त देना पसंद नहीं करती थी. आंखें नीची कर तेज चाल से जाने वाली मैं अब सड़कों पर किसी के साथ का इंतजार करने लगी थी.

3 महीने हो गए सर को जौइन किए हुए. अब हमारे बीच नियमित कुछ न कुछ बातों का आदानप्रदान होने लगा था. मैं छोटीमोटी चीजें बाजार से सर के द्वारा मंगवा लेती थी. वे चीजें देने के बहाने मेरे यहां आ जाया करते थे. हम चाय पीते हुए घर पर थोड़ी देर गपशप कर लिया करते थे. वे बहुत कम बोलते थे. दरअसल, वे मैथ्स के टीचर थे. मैं संगीत की. मुझे लिखनेपढ़ने में थोड़ी रुचि थी इसलिए मेरा अभिव्यक्ति पक्ष थोड़ा मजबूत था. हम एकदूसरे को सर और मैडम कह कर ही संबोधित करते थे.

वैसे तो मैं ने सपनों में किसी राजकुमार को देखा ही नहीं था. फिर भी मुझे बोलने वाले बिंदास लोग ही पसंद आते थे. पर फिर भी न जाने क्यों मैं सर से मिलने, उन से बात करने के बाद उन की छोटीछोटी बातों को सोचसोच कर खुश होने लगी थी. वे मेरी जिंदगी में बिना आहट किए दबेपांव प्रवेश कर चुके थे. मैं उन की तरफ खिंचने लगी थी. मैं जितनी बातूनी, चंचल, हंसमुख, वे उतने ही शांत, सौम्य, गंभीर. अब उन की मैथ में प्लस और माइनस का क्या रिजल्ट होता है, मैं जानना चाहती थी. एक दिन हम दोनों मेरे कमरे में बैठे चाय पी रहे थे तब मैं ने कहा कि कितने शांत हैं यह पहाड़ बिलकुल आप की तरह, मन करता है इस शांति के साथ हम देर तक यों ही बैठ कर चाय पीते रहें. मैं अपनी बात खत्म भी न कर पाई थी कि वे बीच में ही बोल पड़े, ‘‘यदि ज्यादा देर तक चाय पीनी है तो चलो कहीं बाहर घूमने चलते हैं.’’

यह बात उन के मुंह से सुन कर मैं अवाक् रह गई. वैसे तो हम पहाड़ों पर रहते थे. हमारा कालेज घाटी में था. पर हम दोनों ऐसे व्यवसाय से जुड़े थे कि उस जगह हम कहीं भी साथसाथ नहीं जा सकते थे.मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘कहां चलेंगे हम, यहां तो पहाड़ों के अलावा कुछ है ही नहीं.’’ तो उन्होंने बड़ी गंभीरता से कहा था, ‘‘पहाड़ों की ही तो जरूरत है, पहाड़ी से तुम्हें मांगना चाहता हूं, इसीलिए तो.’’ मेरा मन भावनाओं के अथाह सागर में गोते खाने लगा . अब तो जाना ही पड़ेगा.

उन की चंद अभिव्यक्तियों ने मुझे उन की दीवानी बना दिया था. जो मन में था वह बाहर आने लगा था. प्रेम परवान चढ़ने लगा था. वक्त तेजी से दौड़ रहा था.

‘‘मैडम, बड़े सर ने बुलाया है,’’ चपरासी क्लास में कहने आया. मैं तेजी से अपना बैग उठा कर पिं्रसिपल औफिस में पहुंची.

‘‘जी सर,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां मैडम, आप का ट्रांसफर और्डर आ गया है. आप को देहरादून मिल गया है. बधाई हो,’’ प्रिंसिपल सर ने कहा. ‘मुझे ट्रांसफर नहीं चाहिए,’ मैं लगभग बुदबुदाई.

‘‘जी?’’ सर ने कहा.

‘‘नहीं, कुछ नहीं सर, कब जौइन करना है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘विद इन अ वीक,’’ वे बोले.

मैं ने तेजी से अपना शरीर स्टाफरूम की तरफ ढकेला. टन…टन…टन छुट्टी की आवाज आई, मैं किसी से मिले बिना चुपचाप घर चली गई. तो क्या जिंदगी का एक अध्याय यहीं खत्म हुआ. नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मैं यह ट्रांसफर लेना नहीं चाहती. मैं अभी एक ऐप्लीकेशन लिखती हूं. तभी अचानक फोन की घंटी से मैं स्वयं से बाहर निकली, ‘‘हैलो.’’

‘‘हां बेटा, मैं ने नैट पर देखा, तुम्हारा ट्रांसफर हो गया है. तुम अब घर आ जाओगी. चलो, अच्छा हुआ, मन बहुत परेशान रहता था. तुम्हें अकेला छोड़ तो रखा था पर…’’ पापा बोलते जा रहे थे. पर मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.

मै इस घटना के बाद 2 दिन तक कालेज नहीं गई. तीसरे दिन सर, कुछ परेशान से घर पर आए, बोले, ‘‘क्या बात है मैडम, कालेज क्यों नहीं आईं? 4 दिन बाद तो आप वैसे भी जा रही हैं. फिर तो हम आप को देख नहीं पाएंगे.’’

मै फफक कर उन से लिपट गई. उन्होंने मुझे अपने से अलग करते हुए कहा, ‘‘मैं आप की आंखों में आंसू नहीं देख सकता. पर यह तो बताओ, आप क्यों रो रही हैं?’’

मैंने गुस्से से उन की तरफ देखा, ‘‘क्या आप नहीं जानते?’’

‘‘नहीं, मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं.’’

‘‘मैं जाना नहीं चाहती.’’

‘‘क्यों, तुम ने तो रिक्वैस्ट की थी?’’

‘‘हां, पर तब कुछ और बात थी.’’

‘‘और अब क्या बात है?’’

‘‘तो सबकुछ मुझ से ही कहलवाना चाहते हैं. जैसे आप मुझे अपना बनाना चाहते हैं वैसे ही मैं भी,’’ कहते हुए मेरी आंखें फिर भर आई थीं. मेरी बात सुन कर वे हंसे.

‘‘आप को हंसी आ रही है. मैं देहरादून नहीं जाऊंगी,’’ मैं लगभग चीखती हुई सी बोली.

‘‘तो तुम्हें अपने पर विश्वास नहीं है?’’

‘‘शायद नहीं.’’

‘‘पर विश्वास के बिना तो प्यार भी पूर्ण नहीं होता है,’’ उन्होंने कहा तो मैं कुछ नहीं बोली.

4 दिनों के बाद पापा आ गए. मैं अपना सामान पैक कर के जाने को तैयार हो गई. भीगी पलकों से स्टाफ ने विदाई दी. सभी बसस्टैंड तक छोड़ने आए. सर भी आए. मुझे मन ही मन ऐसा लगा जैसे मैं अपनी भावनाओं के हाथों छली गई थी. सर के चेहरे पर सामान्य भाव थे. तो क्या उन्हें मेरे अलग होने का दुख नहीं हुआ. रास्ते भर इसी ऊहापोह में मेरा श्रीनगर से देहरादून का सफर तय हो गया.

मैं ने नया कालेज जौइन कर लिया. मेरा नए कालेज में बिलकुल मन नहीं लग रहा था. मैं कालेज जाती और आ जाती, न किसी से बोलना न बतियाना. एक सप्ताह के बाद जब छुट्टी की घंटी बजी. मैं कालेज से बाहर निकली तो सर सामने खड़े थे. मैं ठिठक गई, ‘‘अरे…अरे, आप?’’ मैं ने कहा.

‘‘क्यों, भूल गई या आश्चर्य हुआ,’’ उन्होंने हंसते हुए कहा.

‘‘हां, नहीं तो, पर आप यहां कैसे?’’

‘‘तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाने को आया हूं.’’

उन की इस बात से मैं हतप्रभ रह गई.

‘‘कल मम्मीपापा तुम्हें देखने तुम्हारे घर आ रहे हैं. जरा सजसंवर कर उन के सामने जाना. और हां, बोलना थोड़ा कम.’’

मैं शरमा गई. फिर हम ने बाहर जा कर चाय पी. ‘‘और कालेज में सब ठीक है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मैं तुम्हारे आने के बाद कालेज ही नहीं गया. नहीं गया या यों समझो कि जाने का मन ही नहीं हुआ. तुम्हारे जाने के बाद ऐसा लगा कि अब मैं बिलकुल अकेला हो गया. कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘‘मांबाबा से अपने मन की बात बता कर बड़ी मुश्किल से तुम्हें देखने को राजी कर सका हूं. वे थोड़े परंपरावादी हैं पर तुम चिंता मत करो. मैं सही परंपराओं के निर्वहन पर विश्वास करता हूं और गलत का सख्त विरोध करता हूं. वैसे अंदर की बात यह है कि मेरी बहन नंदिनी को तुम पसंद हो. उस ने मम्मी को समझा कर तैयार कर लिया है. फिर भी आगे का खेल तुम्हारे हाथ में है.’’

मैं ने सर को इतना बोलते हुए और इतना खुश पहले कभी नहीं देखा था. वे हमेशा मुझे गंभीर, शांत से ही दिखे थे. पर हां, मैं नर्वस जरूर थी.

‘‘आप कमजोर लग रहे हैं,’’ मैं ने कहा पर उन्होंने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया. बिना कहे भी उन की आंखों ने बहुतकुछ कह दिया. उन की आंखें भीगी थीं. मैं कितनी गलत थी जो सोचती थी कि मैं छली गई.

वे वापस घर चले गए. मैं ने मां को डरतेडरते घर जा कर यह बात बताई. मांपापा मुझ से बहुत प्यार करते थे, मुझ पर उन्हें पूरा विश्वास था. इसलिए उन्होंने कोई नकारात्मक बात नहीं कही और अगले दिन की तैयारी के लिए जुट गए.

मैं ने सर की पसंदीदा रंग की साड़ी पहनी. चाय ले कर जब कमरे में पहुंची तो सर के मम्मीपापा के साथ नंदिनी भी थी. मुझे आश्चर्य हुआ यह देख कर कि मैं ने नंदिनी से इस से पहले कई बार बात की थी. वह उछल पड़ी, मैं शरमा गई.

मुझे माहौल थोड़ा भारी सा लगा. न तो मम्मीपापा ने ही उन्हें प्रभावित करने की कोशिश की और न ही उन्होंने ही ज्यादा बात की. उन की मां ने मुझ से बस यह पूछा कि कभी बरेली अपने घर पर गई हो. मैं ने हंस कर कह दिया कि वहां कोई रहता ही नहीं है, इसलिए पापा हमें वहां कभी भी नहीं ले गए. बस, सर की बहन ही बातें करती रही थी.

उन के जाने के बाद मां ने कुछ परेशान होते हुए कहा, ‘साड़ी उतार दो और मन में पल रहे प्रेम को मार दो क्योंकि यह रिश्ता नहीं हो सकेगा.’’ मुझे आश्चर्य हुआ ऐसा क्या था जो मां को पसंद नहीं आया. मैं ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे हमारे परिवार को पसंद नहीं करेंगे,’’ जवाब पापा ने दिया था.

मैं पापा की तरफ मुड़ी, ‘‘पर उन्होंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा.’’

‘‘25 साल पहले ही कह दिया था जब तुम्हारे चाचा ने तुम्हारी चाची से अंतर्जातीय विवाह किया था. तुम्हारी चाची एक ऐसी जाति से हैं जिसे अपने समाज ने तिरस्कृत किया है. चाचाजी तो चाची से शादी कर के विदेश चले गए पर हमारे परिवार का हुक्कापानी अपनी जाति वालों ने बंद कर दिया. हम मां और पिताजी को ले कर देहरादून आ गए. तब से हम बरेली लौट कर नहीं गए. अपनों से दूर, अपनी मिट्टी से दूर, अपने रिश्तों से दूर. मां इसी गम को लिए साल भर के भीतर चल बसीं और पिताजीउन के 5 साल बाद. न चाचाजी को फिर कभी दोबारा देखा और न अपना घर,’’ पापा ने लंबी सांस ली. मां ने पापा के कंधे को पकड़ लिया.

पापा इन चंद लमहों में मुझे बूढ़े दिखाई देने लगे. मैं झल्लाई, ‘‘हुक्कापानी बंद पर पापा, यह तो अब ब्लैक ऐंड व्हाइट मूवी की स्टोरी जैसा लगता है. पापा इंटरनैट का जमाना है. लोग दूसरे प्लैनैट्स पर कालोनीज बनाने की सोच रहे हैं. क्या आज भी 25 साल पुरानी बातें माने रखेंगी? यह आप का पूर्वाग्रह है. आप परेशान न हों, देखना कल सर का ‘हां’ में फोन जरूर आएगा.’’ पाप मुसकराए और बोले, ‘‘बेटा, बदलाव की बयार चल जरूर रही है पर सब को छू नहीं पा रही है. तुम नहीं जानतीं, आज भी अपटूडेट दिखने वाले भी वैसे ही अनपढ़ हैं जैसे पहले थे. आज भी हम हर जाति के साथ अपना लंच शेयर नहीं करते. मैं नेतो अपने स्कूल में देखा है, बच्चों का एक समूह आज भी दीवार से चिपक कर जमीन पर बैठ कर चुपचाप अपना खाना खा लेता

है. यह जाति और छुआछूत की समस्या सदियों से चली आ रही है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहेगी जब तक इस देश के युवा स्वयं कोई ठोस कदम नहीं उठाते. हमें ठोस कदम के साथ आगे बढ़ना होगा.

मैं तुम्हारे चाचा की कुछ बातों से सहमत नहीं. उसे शादी कर के वहीं रहना था. यदि हम दो होते तो उस विरोध को आसानी से झेल लेते. आज मैं इसलिए दुखी नहीं हूं कि तुम्हारे चाचा द्वारा उठाया गया कदम तुम्हारे आगे परेशानी बन कर खड़ा है, बल्कि इसलिए कि तुम्हें तुम्हारी पसंद नहीं दिला पाऊंगा.’’

मैं संभल चुकी थी और अब मुझे चाचा के द्वारा जलाई मशाल को ले कर आगे बढ़ना था.

मैं ने अगले दिन सर को फोन किया और अपने इरादों को बताया. सर ने सिर्फ इतना कहा कि मैं अपने इरादों में मजबूत हूं. अब यह शादी सिर्फ प्यार को पाने के लिए नहीं, बल्कि युवाओं में जातिगत भावना से ऊपर उठने के लिए एक अलख जगाना है.’’ मैं ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी और इस जंग में हमेशा तुम्हारे साथ हूं.’’

इस बात को 1 वर्ष हो गया. उस के बाद न तो उन का कोई फोन आया, न ही कोई समाचार. मैं ने कई बार उन्हें फोन करने का प्रयास किया पर नंबर मिला ही नहीं. शायद, सब यहीं खत्म हो गया, मुझे अब ऐसा लगने लगा. लड़का व लड़की भावनाओं में बह कर शादी के बड़ेबड़े वादे तो कर लेते हैं पर रूढि़वादी परंपराओं की दीवार तोड़ने का साहसी कदम नहीं उठा पाते.

फरवरी का महीना, कोहरा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैं कालेज जा रही थी. आज वैलेंटाइन डे था. कालेज में सभी के हाथ में गुलाब, ग्रीटिंग और खुशियां देखते ही बनती थीं. मैं धुंध की मोटी चादर में सिमटती जा रही थी. छुट्टी हो गई. लो, यह दिन भी खत्म हुआ. टिं्रगटिं्रग की आवाज से स्वयं से बाहर आई. पर्स से मोबाइल निकाला. अनफीडेड नंबर देख बेमन से ‘हैलो’ कहा.

‘‘हां, मैं बोल रहा हूं, हैपी वैलेंटाइन डे. बाहर निकलो, तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’

उधर से चिरप्रतीक्षित आवाज सुन कर चेहरा खिल गया. चाल तेज हो गई. बाहर आई. सर खड़े हुए थे. उन्हें देख मेरी आंखों में आंसू आ गए. उन से लिपट कर रोना चाहती थी. ‘हमेशा इतना इंतजार और सरप्राइज क्यों देते हैं आप?’ कहना चाहती थी. पर छुट्टी हो गई थी, बच्चे बाहर जा रहे थे, न कुछ कह सकी न कर सकी. बस, उन के साथ आगे बढ़ने लगी.

‘‘इतने दिनों बाद? नंबर क्या बदल लिया? कहां थे? कहां से आ रहे हो? क्या सब शादी के लिए राजी हो गए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘इतने सवाल एकसाथ पूछोगी तो कैसे बता पाऊंगा,’’ उन्होंने कहा.

मेरे बहुत समझाने पर वे शादी के लिए राजी हो गए हैं. मैं ने तुम्हारा ट्रांसफर भी कैंसिल करवा दिया है. पापा संडे को ‘रोके’ के लिए आ रहे हैं. नंदिनी ने अपने साथ प्रैक्टिस कर रहे डाक्टर को पसंद किया है. जब वे लोग नंदिनी का हाथ मांगने आए तअंतर्जातीय होने के बाद भी मांबाबा मना नहीं कर सके और उन्होंने मुझ से कहा कि फिर तुम ने क्या गलती की है. सो, वे शादी की बात आगे बढ़ाने के लिए आ रहे हैं. और हां, हम अपना रिसैप्शन बरेली में करेंगे ताकि तुम और तुम्हारे मम्मीपापा फिर से अपना खोया हुआ घर देख सकें. चलो, जल्दी करो, बस चल देगी.’’

मैं ने बस में बैठे हुए पूछा, ‘‘हम कहां जा रहे हैं?’’

‘‘शादी की तारीख निकलवाने,’’ वे हंसते हुए बोले.

मैं ने बस में बैठ कर बाहर देखा, धूप निकल आई थी, कोहरा छंट गया था. सड़कों पर लड़के और लड़कियों के हाथों में वैलेंटाइन डे के गुलाबों की मुसकान साफ नजर आ रही थी.

सफर की हमसफर- भाग 3: प्रिया की कहानी

दोनों एकदूसरे की तरफ कुछ पल देखती रहीं फिर प्रिया ने पलकें झुका लीं। उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां से क्या कहे और कैसे कहे। दोनों ने ही इस मसले पर फिर बात नहीं की. प्रिया के दिमाग में बड़ी उधेड़बुन चलने लगी थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां ने उसे पसंद किया या नहीं. उस ने स्वरूप को वे सारी बातें मैसेज कर के बताईं . मां भी खामोश बैठी रहीं. प्रिया कुछ देर के लिए आंखें बंद कर लेट गई. उसे पता ही नहीं चला कि कब उसे नींद आ गई. मां के आवाज लगाने पर वह हड़बड़ा कर उठी तो देखा मुंबई आ चुका था और अब उसे मां से विदा लेनी थी.

स्टेशन पर उतर कर वह खुद ही बढ़ कर मां के गले लग गई. मन में एक अजीब से घबराहट थी. वह चाहती थी कि मां कुछ कहें. पर ऐसा नहीं हुआ. मां से विदा ले कर वह अपने रास्ते निकल आई. अगले दिन ही फ्लाइट पकड़ कर वापस दिल्ली लौट आई.

फिर वह स्वरुप से मिली और सारी बातें विस्तार से बताईं. ब्वॉयफ़्रेंड वाली बात भी. स्वरूप भी कुछ समझ नहीं सका कि मां को प्रिया कैसी लगी. मां 2 दिन बाद लौटने वाली थीं. दोनों ने 2 दिन बड़ी उलझन में गुजारा. उन की जिंदगी का फैसला जो होना था.

नियत समय पर मां वापस लौटी. स्वरूप बहुत बैचैन था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां से कैसे पूछे. वह चाहता था कि मां खुद ही उस से प्रिया की बात छेड़े. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. एक दिन और बीत गया. अब तो स्वरुप की हालत खराब होने लगी. अंततः उस ने खुद ही मां से पूछ लिया,” मां आप का सफर कैसा रहा? सह यात्री कैसे थे?”

“सब अच्छा था.” मां ने छोटा सा जवाब दिया.

स्वरूप और भी ज्यादा बैचैन हो उठा. उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे पूछे मां से. उस से रहा नहीं गया तो उस ने सीधा पूछ लिया, “और वह जो लडकी थी

जाते समय साथ में. उस ने आप का ख़याल तो रखा? ‘

” क्यों पूछ रहे हो? जानते हो क्या उसे?” मां ने प्रश्नवाचक नजरें उस पर टिका दीं.

स्वरूप घबड़ा गया. जैसे उस की चोरी पकड़ी गई हो, “जी ऐसा कुछ नहीं. मैं तो बस ऐसे ही पूछ रहा था. ”

“ओके ! सब अच्छा रहा. अच्छी थी लड़की.” मां फिर छोटा सा जवाब दे कर बाहर निकलने लगीं. लेकिन फिर ठहर गईं और बोलीं,

“हां एक बात बता दूं कि मेरे साथ जो लड़की थी न उस की कई बातों ने मुझे अचरज में डाल दिया. जानते हो मेरे दाहिने पैर में चोट लगी तो उस ने क्या

किया?

“क्या किया मां ?” अनजान बनते हुए स्वरुप ने पूछा.

“मेरे दाहिने पैर में मलहम लगाने के बहाने उस ने मेरे दोनों पैरों को छू लिया. फिर जब मैं ने उस से यह पूछा कि क्या उस का कोई बॉयफ्रेंड है तो 2 पल के लिए उस के दिमाग में एक जंग सा छिड़ गया. लग रहा था जैसे वह सोच रही हो कि अब मुझे क्या जवाब दे. एक बात और जानते हो, तेरा नाम लेते ही उस की नजरों में अजीब सी चमक आई और पलके झुक गई. मैं समझ नहीं सकी कि ऐसा क्यों है?

मां की बातें सुन कर स्वरूप के चेहरे पर घबराहट की रेखाएं खिंच गईं. वह एकटक मां की तरफ देखे जा रहा था जैसे मां उस के एग्जाम का रिजल्ट सुनाने

वाली हैं.

मां ने फिर कहा,” एक बात और बताउं स्वरूप, जब वह सो रही थी तो उस के मोबाइल स्क्रीन पर मुझे तुम्हारे कई सारे व्हाट्सएप मैसेज आते दिखे क्यों कि उस ने तुम्हारे मैसेज पॉप अप मोड में रखा था. मैसेज कुछ इस तरह के थे, ‘डोंट वरी प्रिया. मां के साथ तुम्हारा यह सफर हम दोनों की जिंदगी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है’ , ‘मां बस एक बार तुम्हें पसंद कर लें फिर हम हमेशा के लिए एक हो जाएंगे.’

फिर तो मेरा शक यकीन में बदल गया कि तुम दोनों मिल कर मुझे बेवकूफ़ बना रहे हो,” कहतेकहते मां थोड़ी गंभीर हो गईं.

स्वरूप की आँखों में बेचैनी साफ झलकने लगी,” नहीं मॉम ऐसा नहीं है.” उस ने मां के कंधे पकड़ कर कहा तो वह झटके से अलग होती हुई बोली,” देखो स्वरूप एक बात अच्छी तरह समझ लो.. .”

“क्या मॉम ?” डरासहमा सा स्वरूप खड़ा रहा.

“यही कि तुम्हारी पसंद ….” कहतेकहते मां ठहर गईं. स्वरूप को लगा जैसे उस की धड़कनें रुक जाएंगी. तभी मां खिलखिला कर हंस पड़ी,” जरा अपनी सूरत

तो देखो. ऐसा लग रहा है जैसे एग्जाम में फेल होने के बाद चेहरा बन गया हो तुम्हारा. मैं तो कह रही थी कि तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है. मुझे बस ऐसी

ही लड़की चाहिए थी बहू के रूप में. सर्वगुण संपन्न. रियली आई लाइक योर चॉइस.”

मां के शब्द सुन कर स्वरूप अपनी खुशी रोक नहीं पाया और मां के गले से लग गया. “आई लव यू ममा.”

मां प्यार से बेटे का कंधा थपथपाने लगीं.

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 4: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

शाम को मम्मी ने दिवाकर से लड़की देखने की बात कही. दिवाकर ने अनमनाते हुए मना कर दिया. फिर मुझ से पूछा, ‘‘बहू, तू क्या चाहती है इस के लिए लड़की ढूंढ़ें?’’

मैं ने कह दिया, ‘‘इन से ही पूछो, ये क्या चाहते हैं?’’ फिर मम्मी सीधे असली बात पर आ गईं. दोनों को आमनेसामने बुला कर बोलीं, ‘‘क्या तुम दोनों एकदूसरे को चाहते हो? हां या न में उत्तर दो. वरना पापा अभी लड़की वालों से बात करने वाले हैं.’’ मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर दिवाकर ने ‘हां’ में जवाब दिया.

‘‘तो तुम दोनों शादी के लिए तैयार हो? हां या न में जवाब दो,’’ मम्मी का मूड खराब हो चला था.

कुछ देर मौन रहने के बाद दिवाकर बोले, ‘‘हां, मैं शादी करने के लिए तैयार हूं.’’

‘‘और बहू तुम…?’’

‘‘मम्मीजी, दिवाकर जैसा चाहेंगे, मैं उन के साथ हूं,’’ मैं ने अपनी बात सामने रख दी. मैं जानती थी अगर अब चूकी तो फिर आगे पछताना पड़ेगा.

मम्मी सुन कर चली गईं. उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था. 10-15 दिनों बाद हम दोनों का विवाह संपन्न हो गया. अगले दिन शाम को प्रीतिभोज की पार्टी की गई. अधिकांश समझदार पढे़लिखे पुरुष विधवा विवाह, वह भी घर ही घर में किए जाने पर मेरे ससुरजी को बधाई दे रहे थे और खुशी जाहिर कर रहे थे. यह सारा कार्यक्रम निबट जाने से मेरी और दिवाकर की खुशी का ठिकाना नहीं था. यह तो मैं जानती थी, पुरुषवर्ग इस तरह के सामाजिक कार्यों में संतोष ही जाहिर करते हैं. उन्हें किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं होती. पर कुछ महिलाएं विधवा विवाह, पुनर्विवाह या अपने ही घर में देवर से विवाह कर लेना पचा नहीं पातीं. यही वे महिलाएं हैं जो स्वयं के विवाह में या अपनों के विवाह में दहेज की भरपूर लोलुप भी होती हैं. कम दहेज आने का मलाल उन में बना रहता है, जो आगे दुलहन के साथ कलह का कारण बना रहता है.

खैर, मेरा अपने ही घर में अपने देवर से पुनर्विवाह हो गया. लोगों का कहा भलाबुरा सब सहन कर लूंगी. जब घर वालों को कोई एतराज नहीं, तो बाहर वालों की क्या चिंता करनी. अगले दिन सुबहसुबह मम्मी ने मुझे और मेरी ननद तनुजा को पासपड़ोस व बिरादरी में पैंणा यानी शादी का लड्डू वगैरा देने के लिए भेज दिया. जब हम अपने चचिया ससुर मानवेंद्र सिंह के घर की बाउंडरी के पास पहुंचे तो हमें कई औरतों के जोरजोर से बतियाने की आवाज सुनाई पड़ी. बातें हमारे परिवार व शादी को ले कर ही हो रही थी. हमारे पैर थम गए. एक औरत की चिरपरिचित आवाज आ रही थी. ‘‘अरी, ये पंडिताइन तो उन के बड़े लड़के को तो खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. सीधेसीदे बच्चों को न जाने किस की नजर लग गई?’’

दूसरी सयानी औरत कह रही थी, ‘‘बुढि़या को भी तो तनक समझ होनी थी. उस ने क्या उन के रंगढंग नहीं देखे होंगे. पता नहीं, उस ने न जाने कब से उसे फांस रखा होगा.’’ अगली आवाज मिर्चमसाला लगा कर आ रही थी, ‘‘उस घर में तो डायन आई है, डायन. एक को तो खा गई, अभी न जाने कितनों को और खा जाएगी.’’ कई औरतें हां में हां मिला रही थीं. मैं आगे सुन न सकी. मुझे रुलाई आने लगी. मैं ने धोती के छोर को मुंह में डाल लिया और वहीं से वापस लौट गई. भरे मन से मेरी ननद भी मेरे पीछेपीछे लौट आई.

मेरी रुलाई रोके नहीं रुक रही थी. बारबार वही शब्द कानों में गूंज रहे थे, ‘बड़े लड़के को खा गई, अब लगता है दूसरे की बारी है. न जाने कब से फांस रखा है. उस घर में डायन आई है, डायन. खा जाएगी.’ मैं अपने कमरे का दरवाजा बंद कर फूटफूट कर रोने लगी. उस पूरे दिन मैं अपने कमरे में बंद रही. किसी से नहीं बोली और न कुछ खायापिया ही. ननद ने सारी बात मम्मी से कह दी होगी. सो, उन्होंने मुझ पर अधिक दबाव नहीं डाला. मन हलका होने के लिए छोड़ दिया. मेरी बेटी दिवाकर के पास थी. कभीकभी उन्हीं के पास सो जाती थी. मैं ने भी उसे अपने पास नहीं मंगाया.

मेरे लिए यह सब बरदाश्त के बाहर होता जा रहा था. मैं अपनेआप से ही सवालजवाब करने लगी थी. मैं ने किस का क्या बिगाड़ा था? प्यार करना क्या गुनाह है? हम ने तो जातिवाद का बंधन तोड़ा था. इस में हम दोनों की रजामंदी थी. विदेश या दूरदराज के शहरों में जाति कौन देखता है. गुणयोग्यता देखी जाती है. फिर यहां यह ढकोसला क्यों? बाद में दिवाकर की इच्छा को मैं टाल नहीं सकी. दिवाकर में मुझे अपने अतुल का प्रतिबिंब नजर आता था. सो, मैं भी उस की ओर झुकती चली गई. मैं विधवा विवाह के लिए राजी हो गई. वह भी अपने ही घर में. इस में क्या बुराई थी. अतुल तो एक हादसे के शिकार हो गए. उन के साथ गजेंद्र बाबू भी तो मारे गए. क्या वे भी मेरे ही कारण मृत्यु को प्राप्त हुए?

क्या उन्हें भी मैं ही खा गई. दुनिया तो अब एडवांस हो गई. पर हमारे गांवों की महिलाओं की रूढि़वादी सोच, अंधविश्वास कब समाप्त होगा? उन के हिसाब से मैं दिवाकर को भी खा जाऊंगी. समझ नहीं आता, मैं क्या करूं? कहीं, कभी सचमुच दिवाकर को भी कुछ हो जाए तो मैं सचमुच गांवभर की डायन कही जाऊंगी. लोग मुझे ढेले, पत्थर मारेंगे. मैं कल्पना मात्र से ही सिहर उठी. ये सब लांछन मेरी बरदाश्त के बाहर थे. इन उलाहनों, पाखंड व दोगलेपन की बातें सुन कर मन ही मन एक दृश्य आकार  लेने लगा-

कल सुबह मेरा शव आंगन में उगे बूढ़े नीम के पेड़ में लटका है, साथ में जातिवाद, विधवा विवाह तथा अंधविश्वास पर मेरा सूसाइड नोट भी है. मैं ने इन उलाहनों से बचने के लिए कायरता का रास्ता अपनाया है. अचानक विचारों की डरावनी लडि़यां टूट गईं. वर्तमान में मौजूद मन में एक ऊर्जा स्फुटित होने लगी. मैं खुद से कह रही थी कि जब अतुल को खो कर मैं ने हार नहीं मानी. जिंदगी का डट कर सामना कर, समाज की खोखली रस्मों व रिवाजों की दीवारें लांघ कर दिवाकर सरीखा जीवनसाथी पा लिया तब किनारे में आ कर डूबने की बेवकूफी आखिर क्यों? मुझे अभी जीना है. अपने लिए. अपनी बच्ची के लिए और दिवाकर के लिए भी. समाज व लोगों का क्या है? कुछ तो लोग कहेंगे…

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 3: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

तभी मुझे किसी बाइक की आवाज सुनाई दी. रात के सन्नाटे में यह आवाज डरावनी सी लग रही थी. मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. बाइक आ कर गेट पर रुक गई. बाइक से 2 लोग उतरे थे. वे उतर कर कुछ बातें कर रहे थे. उन की नजरें उस

सड़क को ताक रही थीं जिस से वे आए थे. शायद किसी का इंतजार था. वे रुके क्यों, सीधे घर क्यों नहीं आए, या कहीं उन की…?

मेरे मन में तरहतरह के विचार कौंधने लगे. मैं बरामदे में खड़ी हो गई. मैं ने चैनल जोर से जकड़ कर पकड़ लिया था. मेरे पैर कांप रहे थे. मुझे अस्पताल के उस वार्डबौय के हाथ के ऐक्शन का बारबार ध्यान आ जाता था. वह हथेली को नकारात्मक ढंग से हिलाता सुस्त चाल में चला जा रहा था. उस के हावभाव से मुझे लगा जैसे वह अपने असली होशहवास में नहीं था या उस ने कुछ गलत देखा था, जिस का प्रभाव उस के दिलोदिमाग में घूम रहा था.

मेरे विचारों की शृंखला फिर से तब टूटी जब मैं ने कुछ कारों और मोटरसाइकिलों की आवाजें सुनीं. उन का प्रकाश भी दूर सड़क तक फैल रहा था. कुछ ही क्षणों में तमाम कारें व मोटरसाइकिलें मुख्य रोड से लिंक रोड को मुड़ गईं. प्रांगण का गेट खुला था. वे सब कारें घर के प्रांगण में प्रवेश कर गईं. मैं ने बरामदे का चैनल खोल दिया था और जिज्ञासावश मैं बाहर आ गई. तभी कारों से महिलाएं व पुरुष बाहर निकले. महिलाओं की ओर से घुटीघुटी रोने की आवाजें आ रही थीं. ससुरजी ने भारी गले से आज्ञा दी, ‘‘अतुल को गाड़ी से बाहर निकालो.’’

सफेद कपड़े में लिपटी अतुल की बौडी को बाहर निकाल कर पोर्च के नीचे लिटा दिया गया. मैं ने देखा और पछाड़ खा कर बौडी पर गिर गई. औरतें भी जोरजोर से रोने लगीं. गांव वाले आवाज सुन कर आने लगे थे.

लोग चर्चा कर रहे थे, ‘वह तो उसी समय खत्म हो गया था जब नर्स और वार्डबौय बाहर आए थे. उस समय 6-7 बजे का समय रहा होगा. अस्पताल वालों ने एक दिन का मैडिकल बिल बढ़ाने के लिए बौडी को रोके रखा था.’

मेरा सबकुछ समाप्त हो गया. विधवा नारी का जीवन भी क्या जीवन होता है. वह अनूठा प्यार जिस की खातिर हम ने सालोंसाल संघर्ष किया. लोगों के ताने सुने. घर की फटकार सुनी. समाज में फैली जातिप्रथा का सामना किया. बड़ी मुश्किल से विजय हासिल की. पर यह हमारी विजय कहां थी, यह तो जीवन की भयानक हार साबित हुई. अब मेरा क्या होगा? इस पहाड़ से जीवन को कैसे ढो पाऊंगी? कितने प्यारे थे. सब के दुलारे थे. अब क्या होगा मेरा?

ठाकुर साहब का इलाके भर में मान था. सो, दाहसंस्कार तथा पीपलपानी में भारी संख्या में लोग उपस्थित थे. सब की सहानुभूति उन के परिवार के साथ थी. धीरेधीरे परिवार का दुख कम होता गया. पर मैं उन्हें कैसे भूल पाती. उन की निशानी दिनप्रतिदिन मेरे गर्भ में बढ़ती चली जा रही थी. आखिर एक दिन उन का प्रतिरूप कन्या बन कर इस धरातल पर उतर आया. घर में बच्ची के रुदन व किलकारी का स्वर सब को आनंदविभोर करने लगा. ऐसा लगा जैसे घर का सूनापन बच्ची की स्वरलहरी में कहीं बहने लगा हो. उदासी का घना बादल छंट रहा हो. बच्ची बहुत सुंदर थी. सो, वह सब के हाथोंहाथ रहती थी. खाली समय में दिवाकर ही उसे अपनी गोद में बैठा कर घुमाया करते थे.

दिवाकर नौकरी के लिए दिल्ली जाने की सोच रहे थे. पर घर में दुर्घटना के बाद ठाकुर साहब ने उन्हें नौकरी करने के लिए मना कर दिया. वे स्वयं भी बूढ़े हो चले थे. फिर बड़े लड़के के निधन ने उन की कमर ही तोड़ दी थी. सो, वे चाहते थे कि छोटा लड़का दिवाकर ही उन के सारे कामकाज को देखे.

घर में रहने और अधिकतर बच्ची को अपने साथ घुमाने से दिवाकर का लगाव मेरी ओर भी होने लगा. यह लगाव बच्ची के कारण था या मेरी टूट कर बिखर चुकी जिंदगी के प्रति दयाभाव का था. यह भी हो सकता है कि भरीपूरी जवानी का उन्माद पिघल कर मेरी ओर पसर रहा हो. ऐसा नहीं कि यह उन्माद का ज्वार मात्र दिवाकर की ओर से ही पनप रहा हो. स्वयं मुझे भी न जाने क्या होता जा रहा था कि मैं उन में अपने पति अतुल का प्रतिबिंब देख रही थी. उन का वही दबे पांव चलना, मुसकराना, अनोखी महक, स्पर्श करना मुझे, अतुल की ही भांति, मदहोश सा कर जाता था. कभीकभी मैं उन्हें अर्द्घचेतनावस्था में अतुल ही समझ बैठती थी. यही खिंचाव मुझे बेचैन कर जाता था. मैं कोशिश करती दिवाकर मेरे पास न आए. अगर घर वालों को उन की मंशा की भनक तनिक भी लग जाएगी तो अनर्थ हो जाएगा. पर वे बच्ची के बहाने बारबार मेरे पास आ जाते. मैं मना करती, पर वे मानते तब न.

 

धीरेधीरे घर के भीतर फुसफुसाहट होने लगी. मम्मी ने पापाजी से कहा, ‘‘दिवाकर की शादी कर देनी चाहिए. अब वह सयाना हो गया है.’’

पापा ने कहा था,‘‘हां, तू ठीक कहती है. मैं बीमार रहने लगा हूं. जिंदगी का क्या भरोसा? पर बेरोजगार को एकदम लड़की कहां मिलती है? कोशिश करनी पड़ेगी.’’

इस कार्य में देरी होती गई. मम्मी बेचैन हो उठीं. एक दिन उन्होंने पापा से कह ही दिया, ‘‘तुम तो आंखें बंद किए रहते हो. घर में क्या हो रहा है, तुम्हें पता भी है?’’ आज मम्मी का मूड बहुत खराब था.

‘‘आखिर क्या हो रहा है हमें भी तो पता चले,’’ पापा ने जिज्ञासा से पूछा.

मम्मी को तनिक संकोच सा हुआ, फिर बोल ही पड़ीं, ‘‘अरे तुम्हारा लाड़ला जब देखो बच्ची के बहाने अपनी भाभी के कमरे में ही पड़ा रहता है. उसे मैं ने डांटा भी है. पर बेशर्म को फर्क पड़े, तब न. तभी तो मैं तुम से उस की जल्दी शादी कर देने की बात कह रही हूं.’’ मम्मी गुस्से में थीं.

‘‘अरे भई, भाभी है उस की, जाता है तो इस में बुराई क्या है?’’ पापा ने सामान्य ढंग से उत्तर दिया.

‘‘इतने में ही बात होती तो मैं तुम से क्यों कहती? वह तो बेशर्म उस की पलंग पर भी देरदेर तक बैठने लगा है. कल कुछ ऊंचनीच हो जाए तो हम मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे,’’ मम्मी खीझ कर बोली थीं.

‘‘ओह, यह तो अच्छी बात नहीं,’’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘एक बात बता, ये दोनों एकदूसरे को चाहते हैं?’’

‘‘जब चाहते होंगे तभी तो बेशर्मी की हद पार कर रहे हैं,’’ मम्मी बोलीं.

पापा कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘शिवानी, मैं तुम्हारी राय लेना चाहता हूं. अगर तुम ठीक समझा तो…?’’

‘‘हां, कहो, क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘भई, अगर बात इतनी आगे बढ़ गई है तो क्यों न हम इन दोनों की शादी कर दें. बहू की जिंदगी भी संवर जाएगी और दिवाकर की इच्छा भी पूरी हो जाएगी. घर की जायदाद भी बंटने से बची रहेगी,’’ पापा ने मम्मी से कह दिया.

‘‘यह क्या कह रहे हो तुम? दिमाग तो ठीक है? अरे, दुनिया क्या कहेगी? एक तो पहले ही पंडित की लड़की ला कर खूब खिल्ली उड़ी थी, अब फिर…?’’ मम्मी तिक्त स्वर में बोलीं.

‘‘देख, तू पहले इन दोनों का मन टटोल ले. दिवाकर से कहना कि तेरे लिए तेरे पापा किसी लड़की वालों से बात कर रहे हैं. 2-4 दिन में खबर मिल जाएगी,’’ पापा ने राय दी.

‘‘अगर अतुल की तरह वह भी नहीं माने तो…?’’ मम्मी सशंकित बोलीं.

‘‘तब हमारे लिए लाचारी होगी. बहू अच्छी लड़की है. घर का घर में ही निबट जाए, तो ठीक ही है. जहां तक बाहर वालों की टीकाटिप्पणी की बात है, वह तो पहले भी हुई थी. फिर सब शांत हो गया. यहां भी लोग आलोचना करेंगे. फिर वे समय पर शांत हो जाएंगे,’’ पापा ने कहा था.

‘‘ठीक है, देखती हूं. क्या कहते हैं…?’’ मम्मी ने बुझे मन से कहा.

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 2: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

अपने घर का भी कुछ कामकाज निबटा कर नौकरानी फिर से हमारे मकान में आ गई. आवाज दे कर बोली, ‘‘बीबीजी, दूध पिया कि नहीं…?’’ दूध वैसे ही पड़ा देख कर दुखित मन से बोली, ‘‘बीबीजी, यह तो अच्छी बात नहीं. बच्चे को बचाने के लिए आप को कुछ न कुछ खानापीना तो होगा ही. बच्चा भूखा होगा.’’ उस ने जिद कर दूध का गिलास मुझे पकड़ा दिया. बोली, ‘‘बीबीजी, मालकिन को पता चलेगा कि हम ने आप को कुछ भी खानेपीने को नहीं दिया तो वे बहुत नाराज होंगी. हम क्या जवाब देंगे?’’ मैं ने ठंडा हो गया दूध पी लिया. वह ठीक ही कहती थी. बच्चे की खातिर मुझे कुछ न कुछ लेना ही था. वह पानी का जग और गिलास रख गई थी.

मैं तकिये को सीने में दबाए फिर लेट गई. मेरा ध्यान अस्पताल की ओर ही था. आशानिराशा के भंवर में मेरा मन डोल रहा था. कभीकभी ऐसा लगता जैसे आंधीतूफान के तेज झोंके में मेरी नौका बच न सकेगी, कईकई मीटर उछलती लहरों में सदा के लिए डूब जाएगी.

चिंतातुर मैं बारबार करवट बदल रही थी. मुझे किसी भी प्रकार से चैन नहीं आ रहा था. विचार बारबार मन में कौंध रहे थे कि कहीं वे नहीं बचे तो…मेरा जीवन… नहींनहीं, ऐसा नहीं होगा. कोई उन्हें बचा लो. मैं ने घुमड़ आए अपने आंसुओं को तकिये से पोंछा. जब मन कुछ हलका हुआ, स्मृतिपटल पर अतीत की सुखद यादें उभरने लगीं और कुछकुछ ऊहापोह में लिपटी भयभीत कर देने वाली यादें तड़प पैदा करने लगीं.

हमारा संगसाथ कालेज के दिनों से ही अठखेलियां खेलता चला आ रहा था. तब मैं इंटर फर्स्ट ईयर में थी और अतुल इंटर फाइनल में थे. हम पैदल ही कालेज आतेजाते थे. पर इधर कुछ महीनों से अनजाने में एकदूसरे का इंतजार करने लगे. सिलसिला चलता रहा. बोर्ड की परीक्षा आ गई. इंटर क्लास को फर्स्ट ईयर वालों ने विदाई दी. उस दिन हम दोनों ही उदास थे. हमें पता हीं नहीं चला कि हमें कब एकदूसरे से प्रेम हो गया. वे इंटर पास हो कर बड़े कालेज जाने लगे थे. रास्ता मेरे घर के पास से ही जाता था. मैं इंतजार करती, वे मुसकरा कर आगे बढ़ जाते थे. कहते हैं इश्क, मुश्क, खांसी और खुशी छिपाए नहीं छिपते. कभी न कभी उजागर हो ही जाते हैं. गांव के लड़केलड़कियों को कभी इस की भनक लग गई थी. पर ठाकुर दिंगबर से भी दुकान में किसी परिचित ने बात छेड़ दी. ठाकुर साहब को यकीन हुआ ही नहीं. बात टालते हुए सशंकित, भारी मन से वे घर लौट आए.

ठाकुर साहब बचपन से ही जातिवाद के कठोर हिमायती थे. उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों से कोई शिकायत नहीं थी. पर वे ब्राह्मणों से खार खाते थे. कभी किसी पंडित ने उन के सीधेसाधे पिता को ठगा था. एक पुरोहित ने शादी में दूसरे पक्ष के पुरोहित से मिल कर दोनों जजमानों की खूब लूटखसोट मचाई थी. ऐसी ही कई बातों के कारण उन के मन में ब्राह्मणों के प्रति नफरत भर गई. हर कोई इस बात को जानता था कि ठाकुर साहब ब्राह्मणों के नाम से नाकभौं सिकोड़ते हैं. पर जब दुकानों, महफिलों में ठाकुर साहब के लड़के अतुल और सुखदानंदजी की लड़की दिव्या के प्रेमप्रसंग का जिक्र आता तो वे लोग मुंह दबा कर हंसते.

शाम के वक्त घर पहुंच कर ठाकुर साहब ने बाहर से ही अतुल को आवाज दे कर बाहर बुलाया. वे गुस्से में थे, दहाड़ कर बोले, ‘क्यों रे अतुवा, यह मैं क्या सुन रहा हूं. तू क्या ब्राह्मण सुखदिया की लड़की के चक्कर में पड़ा है?’ अतुल इस अकस्मात आक्रमण से सन्न रह गया. उस के मुंह से आवाज नहीं निकली. ‘तुझे शरम नहीं आई एक ठाकुर हो कर ब्राह्मण की ही लड़की तुझे पसंद आई. कुछ तो शरम करता.’

अतुल अंदर अपने कमरे में चला गया. पापा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. अब वह यही कोशिश करता कि वह अपने पापा के सामने न आए.

कुछ समय बाद ठाकुर साहब ने उस का विवाह करने की सोची. दोएक जगहों से लड़कियों के फोटो भी उपलब्ध किए. अतुल की मां ने उसे फोटो दिखाते हुए शादी की बात की तो अतुल ने फोटो देखने से इनकार कर दिया. उस ने कह दिया, ‘मुझे शादी नहीं करनी है.’ इसी तरह समय निकलता गया. महीना व साल गुजर गया. अब हम दोनों का मिलनाजुलना तो कम हो गया पर दिल में आकर्षण बना रहा. मेरे पिताजी को भी मेरी शादी की चिंता सताने लगी. उन्हें भी पता हो गया था हम दोनों के प्रेमप्रसंग का. उन्होंने मुझे डांट लगाई थी कि मैं आइंदा अतुल से न मिलूं. वे जानते थे कि ठाकुर साहब कट्टर ठाकुरवादी हैं. सो, शादी के लिए तैयार नहीं होंगे. वे स्वयं तो सवर्ण में शादी करने के विरोधी नहीं थे. अपने बच्चों के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे.

मैं ने ही अपनी मां से कहा, ‘मांजी, अगर अतुल कहीं और शादी कर लेते हैं तो तब मुझे कहीं भी शादी करने से कोई एतराज नहीं होगा. पर अभी मेरी शादी तय नहीं करें तो अच्छा होगा.’

 

आखिर जब ठाकुर साहब को दोएक बार हार्टअटैक पड़े तो उन की पत्नी शिवानी ने चिंतित हो कर उन से आग्रह किया, ‘अब अपनी जिद छोड़ दो. लड़की मेरी देखीभाली है, ठीक है. अपनी जाति की जिद में लड़के को भी खो दोगे. वह उस से ही शादी करना चाहता है, अन्यथा कहीं नहीं करना चाहता. देखो, तुम हार्टपेशेंट हो, इस से तुम्हें और धक्का लगेगा. तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी? उस की बात मान लो.’

आखिर ठाकुर साहब मान गए. उन्होंने मेरे पिताजी को अपने घर बुलवाया. संयम व शालीनता के साथ हमारी बात सामने रख कर शादी का प्रस्ताव रखा. मेरे पिताजी एक निर्धन परिवार के किसान थे. उन्हें क्या आपत्ति थी? अच्छे माकूल घर में लड़की को देने में उन्हें कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. शादी संपन्न हो गई. ठाकुर साहब ने महिला संगीत व प्रीतिभोज की पार्टी एकसाथ निबटा दी. कुछ दिन तक गांव तथा समाज में अच्छी व बुरी प्रतिक्रियाएं होती रहीं. फिर लोगों ने इसे भुला सा दिया. अब सब सामान्य सा हो गया. इधर, हमारा दांपत्य जीवन सुखकर बीत रहा था. घर के लोग मेरे अच्छे व्यवहार व काम से संतुष्ट थे. मुझे परिवार में ऐडजस्ट होने में अधिक समय नहीं लगा. शादी से पूर्व के विवाद पर न घर वाले बात करते और न हम.

अतुल एक मशहूर कंपनी में फील्ड का काम देखते थे. उन्हें अधिकांश दूरदराज जिलों में सामान की सप्लाई करना व खराब मशीनों की रिपेयरिंग करने का जिम्मा सौंपा गया था. इसी काम से उस दिन वे मसूरी से लौट रहे थे कि रास्ते में…

अतीत की यादें घबराहट में ठहर गईं. मैं ने घड़ी की ओर देखा, रात्रि के 2 बज रहे थे. लेकिन अस्पताल से न कोई आया और न ही कोई खबर आई.

कुरसी डाल कर मैं बरामदे में बैठ गई. बाहर से चैनलगेट बंद था. बिजली का प्रकाश दूरदूर तक फैला था.

कुछ तो लोग कहेंगे- भाग 1: क्यों अलग हुए अतुल और दिव्या

उन्हें भरती किए हुए 18 घंटे हो चुके थे. पर सुधार की अभी कोई सूचना नहीं आई थी. जब अतुल का घर में फोन आया था तब वे होशहवास में थे. गंभीर दुर्घटना की बात कह रहे थे. याचनाभरे शब्दों में बोल रहे थे, ‘मुझे बचा लो. मैं मरना नहीं चाहता. मैं मसूरी से करीब 17 मिलोमीटर दूर देहरादून वाली रोड पर बड़े मोड़ पर पड़ा हूं. मेरे साथी गजेंद्र बाबू मर चुके हैं. किसी जीप ने हमारी बाइक को टक्कर मार दी. लोग आजा रहे हैं, पर हमें कोई उठा नहीं रहा है. मेरा खून बहुत बह चुका है. शायद मैं बच न सकूं. दिव्या का खयाल रखना.’ फिर फोन बंद हो गया था. शायद अतुल बेहोश हो गए थे.

शहर के एक बड़े अस्पताल जीवनदायिनी हौस्पिटल में भारी उम्मीदों के साथ मेरे ससुर दिगंबरजी ने अतुल को अस्पताल में भरती कराया था. वे रोड के बीच में बेसुध अवस्था में पड़े थे. गाड़ी का एक पहिया उन की जांघ के बीचोंबीच से निकल गया था. हाथपैरों में कई जगह फै्रक्चर थे. हैलमेट के कारण सिर तो बच गया पर चेहरा बुरी तरह जख्मी था. पास ही गजेंद्र बाबू की लाश पड़ी थी. सिर फटा था. गुद्दी बाहर फैली थी. बाइक का भी कचूमर निकल गया था.

ये सब देखने की मुझ में हिम्मत ही कहां थी. यह तो साथ में गए मेरे देवर दिवाकर व गांववालों ने ही बतलाया था. मैं तो सासूमां और बिरादरी की अन्य औरतों के साथ अस्पताल सीधी पहुंची थी. वहीं सुना, गजेंद्र बाबू की बौडी को पोस्टमार्टम के लिए मौरचरी में ले जाया जा रहा था.

अस्पताल के वेटिंगरूम में तमाम ग्रामीण व रिश्तेदार जमा थे. वे आपस में चर्चा कर रहे थे. मेरे कान उन की बातें सुनने में लगे थे. व्याकुल दशा में मेरा दिल धकधक कर मुझे ही सुनाई दे रहा था. अपने तनमन को संतुलित करने का प्रयास कर रही थी. सासूमां का रुदन थम नहीं रहा था. आंसुओं की मानो बाढ़ आ गई थी. पड़ोसी महिलाएं उन्हें शांत करने का प्रयास कर रही थीं. मेरा ध्यान उन लड़कों की बातों में लगा था जो कुछ दूर धीमेधीमे बतिया रहे थे. मेरा चचेरा देवर बता रहा था, ‘यार, गाड़ी का पहिया उस के कमर व जांघ से हो कर निकल गया था. जिस का निशान साफ दिखाई पड़ रहा था. हम ने जायजा लिया था कि कितनी चोट लगी है. कमर व जांघ की हड्डी चूरचूर हो गई थी. हालत बड़ी गंभीर लगती है…’

मैं ने सुना तो जैसे मुझे बेहोशी सी छाने लगी. मेरे मुंह से घुटीघुटी चीख निकल पड़ी. औरतों ने सुना, वे मेरी ओर लपकीं. मुझे पास ही बिछी चटाई पर लिटा दिया गया. मेरी ननद तनुजा मुझे अखबार से पंखा झलने लगी, हालांकि अस्पताल के पंखे भी चल रहे थे. मैं कुछ देर बाद तनिक सामान्य हालत में आ गई थी. मैं घुटने सिकोड़ कर लेटी रही. औरतें धीरेधीरे फुसफुसा रही थीं. दूर से आदमियों की हलकीहलकी आवाजें आ रही थीं. कुछ ही क्षणों बाद कोई नर्स आईसीयू से बाहर आई. हमारे तीमारदारों ने उसे घेर लिया. हालात के बारे में पूछने लगे. ‘‘अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. डाक्टर लगातार देख रहे हैं,’’ कह कर वह तेजी से दूसरे वार्ड में चली गई.

अस्पताल वाले हमारे लोगों को आईसीयू में घुसने नहीं दे रहे थे. उन का कहना था कि घरवालों को देख कर मरीज को दिल का दौरा पड़ सकता है. अभी 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि एक वार्डबौय आईसीयू से बाहर निकला. उस की चाल में धीमापन था. चेहरे में हताशा की कालिमा पुती हुई थी. श्मशान सी उदासी. वह बिना इधरउधर देखे मंथर गति से बाहर की ओर बढ़ा जा रहा था. दोएक ने उसे रोक कर कुछ पूछना चाहा. पर वह रुका नहीं, चलता ही गया. चलतेचलते हाथ इस प्रकार हिला रहा था मानो कह रहा हो ‘मुझे पता नहीं.’ हाथ हिलाने से यह भी अर्थ निकलता था कि, ‘मुश्किल है.’ यह भी समझा जा सकता था कि ‘अब कुछ नहीं बचा.’

लगभग सभी नजरें उसी पर थीं. उस के हाथ हिलाने का सब मन ही मन अपनेअपने ढंग से अर्थ निकाल रहे थे. दिवाकर ने मेरी ओर देखा. आंखों में प्रश्नचिह्न थे. मैं ने इशारे से वार्डबौय का पीछा करने को कहा. वे समझ गए और धीरेधीरे अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा दिए. जब लौटे तो मुरझाए हुए थे. डूबते कदमों से मेरे पास आए और बोले, ‘‘मांजी ने कहा है अपनी भाभी को घर पर पहुंचा आ. चलो, घर चलते हैं.’’ वे नजर उठा कर मेरी ओर नहीं देख रहे थे. मैं सशंकित होते हुए उठी, पूछा, ‘‘क्या कहा उस ने?’’

‘‘2-4 घंटे बाद डाक्टर ही बतलाएंगे,’’ दिवाकर ने फिर मांजी से कहा, ‘‘मैं भाभी को घर पहुंचाने जा रहा हूं.’’ मांजी ने सहमति में सिर हिलाया.

मुझे लगा किसी को भी मेरा यहां रुकना अच्छा नहीं लग रहा था. एक तो यहां स्थिति नाजुक थी, दूसरा मैं गर्भवती थी. पांचवां महीना चल रहा था. ऐसे में मुझे वहां रोकना कौन पसंद करेगा. मैं घर चली आई. खाली घर भायभाय सा खाने को दौड़ रहा था. मैं ने पलंग पर सिरहाने रखे उन के स्वेटर को उठा लिया. पलंग पर गिर कर जोरजोर से रोने लगी. बड़े जतन से मैं ने उन का स्वेटर बुना था. जब पूर्ण होने को आया तो…? दिवाकर को मेरा रुदन बरदाश्त नहीं हो रहा था. उन का खुद भी गला भर आया था. यह कह कर कि, ‘‘भाभी, अपना खयाल रखना. मैं अस्पताल जा रहा हूं.’’ और बिना पानी पिए ही वे लौट गए. कल रात्रि से परिवार वालों के गले में अन्न का एक दाना भी नहीं गया था.

मकान के पिछवाड़े बनी झोंपडि़यों में नौकर व बटाइदारों के परिवार रहते हैं. घर में मालिक लोगों के आने की खबर पा कर एक नौकर की बीवी अपने घर से ही दूध गरम कर लाई थी. वह बोली, ‘‘बीबीजी, दूध लाई हूं. पी लीजिए, बच्चे की खातिर आप के पेट में कुछ न कुछ जाना आवश्यक है.’’ वह दूघ का गिलास मेज पर रख कर कुछ दूर खड़ी हो कर बोली, ‘‘मालिक लोगों के आने में समय लगेगा. मैं यहीं हूं. आप को जो भी कुछ चाहिएगा, बतला दें. बाहर जानवरों का सारा काम हम ने कर दिया है. लाइट वगैरा भी हम जला देंगे. आप चिंता न करें. पानी की मोटर हम चालू कर देते हैं,’’ कह कर नौकरानी बरामदे के बिजली के स्विच की ओर बढ़ गई.

तौबा- भाग 2

‘‘मारे गुस्से के मैं सारी रात जाग कर और क्या करती रही हूं? तेरे पति की दुम हमेशा के लिए सीधी करने की बड़ी सटीक योजना है मेरे पास.’’

‘‘मैं हर कदम पर तेरा साथ दूंगी, माधवी,’’ मैं ने भावुक हो कर अपनी सहेली को गले से लगा लिया.

दोपहर के भोजन के समय तक मैं ने माधवी की योजना पूरी तरह समझ ली. उसी दिन से उस पर अमल करने का हम ने पक्का निर्णय लिया.

मेरे साथ खाना खाने के बाद उस ने पहला कदम उठा भी लिया.

मेरे घर के फोन से माधवी ने सुमित के औफिस का नंबर मिला कर उस से बातें कीं. पिछली रात सुमित ने उसे अपना कार्ड दिया था.

तभी माधवी की आवाज सुन कर उसे सुखद हैरानी जरूर हुई पर किसी तरह का शक उस के दिमाग में बिलकुल पैदा नहीं हुआ.

‘‘अपनी आवाज सुना कर तुम ने मेरे दिन को बहुत खूबसूरत बना दिया है, माधवी. कहो, कैसे याद आ गई बंदे की?’’ सुमित की स्पीकर से आती आवाज मैं साफ सुन सकती थी.

‘‘मैं एक बार तुम्हें जरूर फोन करूं, तुम्हारी उसी जिद को पूरा कर रही हूं,’’ माधवी ने वार्त्तालाप सहज ढंग से बोलते हुए आरंभ किया.

‘‘थैंक्यू, डियर. अब मेरी एक और जिद पूरी कर दो.’’

‘‘कौन सी?’’

‘‘आज शाम चायकौफी पीने के लिए कहीं मिल लो. कल रात तुम से ज्यादा बातें नहीं हो सकीं. वह प्यास अभी भी बनी हुई है.’’

‘‘शादीशुदा इंसान को लड़कियों से दोस्ती करने के चक्कर में नहीं रहना चाहिए, जनाब.’’

‘‘यह तो कोई बात नहीं हुई. तुम से दोस्ती करने की मेरी इच्छा कैसे गलत है?’’

‘‘साधारण दोस्ती करने में कोई बुराई नहीं, पर तुम ने कल रात जो मेरा हाथ पकड़ा, क्या वह गलत नहीं था?’’

‘‘तुम्हें बुरा लगा?’’

‘‘मेरे सवाल का जवाब दो पहले.’’

‘‘सारे जवाब जब हम आमनेसामने बैठे होंगे, तब दूंगा. प्लीज, मिलो न आज शाम को.’’

‘‘मैं आधे घंटे से ज्यादा देर तक नहीं रुक सकूंगी.’’

‘‘ओह, थैंक्यू, थैंक्यू, थैंक्यू,’’ सुमित की आवाज की खुशी पहचान कर मेरा खून उबलने लगा था.

आने वाले दिनों में अपने पति के चालाक व्यवहार को देख कर मैं मन ही मन बड़ा अचंभा करती. मुझे माधवी रोज की रिपोर्ट न दे रही होती, तो मुझे सपने में भी शक न होता कि सुमित किसी और लड़की के चक्कर में फंस गए हैं. घर में देर से आने के उन के बहाने एक से बढ़ कर एक होते.

‘‘आज कार स्टार्ट ही नहीं हुई. मैकेनिक ने ठीक करने में पूरे 2 घंटे लगाए. आगे से ठीक टाइम पर सर्विसिंग कराया करूंगा,’’ माधवी के साथ पहली बार रेस्तरां में मिलने के बाद जनाब ने यह बहाना बनाया था.

छुट्टी के दिन वे माधवी को फिल्म दिखाने ले गए. उस दिन वे अस्पताल में दाखिल अपने एक सहयोगी को देखने जाने की बात कह कर घर से निकले थे.

जिस दिन 5 सितारा होटल में माधवी के साथ डिनर किया, उस रात वे औफिस में एक महत्त्वपूर्ण कौन्फ्रैंस में व्यस्त थे. अगले डिनर का बहाना, अपने दोस्त के बेटे की जन्मदिन पार्टी में जाने का था.

मुझे उन के माधवी के साथ बने हर कार्यक्रम की पहले से जानकारी होती थी. उन्हें बड़ी सहजता व सफाई के साथ झूठ बोलते देख मैं सचमुच दांतों तले उंगली दबा लेती. न कोई झिझक, न बेचैनी और न किसी तरह का अपराधबोध. अपने पतियों पर आंखें मूंद कर विश्वास करने वाली औरतें महामूर्ख होती हैं, उन का व्यवहार देख कर यह धारणा हर रोज मेरे मन में मजबूत होती जाती.

करीब 10 दिनों की मेलमुलाकातों के बाद सुमित को सबक सिखाने का समय आ ही गया.

उस दिन माधवी के पास सुबह 11 बजे सुमित का फोन आया तो उस ने मेरे पति को जानकारी दी, ‘‘आज शाम को नहीं मिल सकूंगी. एक समारोह में शामिल होना है.’’

सुमित के पूछने पर उस ने खुलासा किया, ‘‘मौसी के यहां गृहप्रवेश का फंक्शन हो रहा है. मम्मीपापा सुबह चले गए. मैं शाम को जाऊंगी.’’

‘‘तो क्या अभी घर में अकेली हो?’’

‘‘हां, और जी भर कर खूब सोऊंगी.’’

‘‘लंच मेरे साथ करो और बाकी समय सोना.’’

‘‘मैं बाहर निकलने के मूड में नहीं हूं, सुमित.’’

‘‘नो प्रौब्लम, डियर. मैं ‘पैक्ड लंच’ ले कर हाजिर होता हूं. ठीक 1 बजे पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘नहीं, तुम यहां मत…’’

‘‘बेकार में डरो मत. मैं आ रहा हूं. अच्छा बाय. बौस बुला रहे हैं. मैं 1 बजे मिलता हूं.’’

ऐसा प्रोग्राम बना कर धोखेबाज सुमित हमारे जाल में पूरी तरह फंस गए थे.

1 बजे से चंद मिनट पहले ही मैं ने उतावले सुमित को माधवी के फ्लैट में प्रवेश करते देखा. इस वक्त मैं माधवी के पड़ोसी योगेशजी के घर में उपस्थित थी. उन के यहां आधा घंटा पहले मुझे माधवी ही बैठा कर गई थी.

मैं ने गंभीरता का मुखौटा ओढ़ा, मन में गुस्से के भाव पैदा करने शुरू किए और सुमित के अंदर जाने के करीब 5 मिनट बाद माधवी के फ्लैट की घंटी बजाई.

दरवाजा माधवी ने खोला. किसी सज्जन पुरुष की तरह सुमित बड़े सलीके से सोफे पर बैठे नजर आए.

मुझे देख कर माधवी ने चौंकने का शानदार अभिनय किया, जबकि सुमित सचमुच यों उछले मानो उन्हें अचानक बिजली का झटका लगा हो.

‘‘अरे, सपना तुम? यों अचानक? सचमुच मजा आ गया तुम्हें देख कर,’’ माधवी ने बढि़या नाटक करते हुए मुझे गले से लगा लिया.

‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम इस फ्लैट में रहती हो,’’ मैं ने उस की पकड़ से छूट कर शुष्क लहजे में जवाब दिया.

‘‘मुझ से नहीं तो फिर किस से मिलने आई हो?’’

‘‘तुम से ही. मेरा मतलब है कि मैं ‘माधवी’ नाम की लड़की से ही मिलने आई हूं, पर मुझे नहीं पता था कि वह लड़की मेरे साथ कालेज में पढ़ी मेरी सब से अच्छी सहेली निकलेगी.’’

मेरी नजरें सुमित की तरफ घूमीं. मेरी बात सुन कर सुमित का चेहरा पीला पड़ता चला गया.

‘‘ये मेरे अच्छे दोस्त सुमित हैं,’’ माधवी ने मुझे सुमित की तरफ देखता पा कर हमारा परिचय कराया.

‘‘प्रेमी को दोस्त मत कहो, माधवी,’’ मैं रूखे अंदाज में मुसकराई.

‘‘नहीं वैसा चक्कर नहीं है हमारे बीच. सुमित शादीशुदा हैं,’’ माधवी शरमाए से अंदाज में हंस पड़ी.

‘‘मुझे मालूम है.’’

‘‘कैसे?’’ उस ने माथे पर बल डाले.

‘‘तुम्हारे रोमियो की पत्नी तुम्हारे सामने ही खड़ी है. हैलो, पतिदेव,’’ मैं ने जहर बुझे अंदाज में सुमित को ‘हैलो’ कहा.

सुमित ने अपने को संभाला और नाराजगी भरे स्वर में मुझ से बोले, ‘‘माधवी और मुझ पर गलत शक करने की बेवकूफी मत करो, सपना. एक शादी में कुछ दिन पहले ही मेरी इन से जानपहचान हुई है. आज सुबह फोन करने से मालूम पड़ा कि इन की तबीयत खराब है. मैं तो सिर्फ हालचाल पूछने आया हूं.’’

‘‘झूठ मत बोलिए,’’ मैं फौरन गुस्से से फट पड़ी, ‘‘मेरे ऐसे शुभचिंतक हैं आप के औफिस में जो मुझे आप की कारगुजारियों की सारी खबरें देते रहते हैं. आप ने माधवी के साथ एक फिल्म देखी है, 3 बार डिनर किया है और लगभग रोज शाम को मिलते रहे हो इस से. आज रंगे हाथों पकड़ा है मैं ने आप को. अब तो झूठ मत बोलो.’’

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