विदाई: भाग 1- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

विदाई की रस्म पूरी हो रही थी. नीता का रोरो कर बुरा हाल था. आंसुओं की झड़ी के बीच वह बारबार नजरें उठा कर बेटी को देखती तो उस का कलेजा मुंह को आ जाता.

सारी औपचारिकताएं खत्म हो चुकी थीं. टीना धीरेधीरे गाड़ी की ओर बढ़ रही थी. बड़ी बूआ भीगी पलकों के साथ ढेर सारी नसीहतें दे रही थीं, ‘‘टीना, अब तेरे लिए ससुराल ही तेरा अपना घर है. वहां सब का खयाल रखना. सासससुर की सेवा करना…’’ कहतेकहते उन की रुलाई फूट पड़ी.

नीता बड़ी मुश्किल से इतना भर कह पाई, ‘‘अपना खयाल रखना टीना,’’ आगे मां की जबान साथ न दे पाई और वह बड़ी जीजी के कंधे का सहारा ले कर जोरजोर से रोने लगीं.

टीना और नरेश गाड़ी में बैठ गए. दुलहन के लिबास में लिपटी टीना की हालत पर नरेश भावुक हो उठा. उस ने धीरे से टीना का हाथ पकड़ कर उसे ढांढस बंधाने का प्रयास किया. पति का स्पर्श पा कर टीना को कुछ राहत मिली, वरना उसे लग रहा था कि उस के सारे परिचित पीछे छूट गए हैं.

1 घंटे में टीना अपनी ससुराल की दहलीज पर खड़ी थी. नरेश का परिवार उस के लिए अपरिचित न था. दूर की रिश्तेदारी के कारण अकसर उन की मुलाकातें हो जाया करती थीं. ऐसे ही एक विवाह समारोह में नरेश की मां सुधा ने टीना को देखा था. उस का चुलबुलापन उन्हें बहुत अच्छा लगा. बिना समय गंवाए उन्होंने बात चलाई और 6 महीने के अंदर टीना उन की बहू बन कर उन के घर आ गई.

2 दिन तक विवाह की रम्में पूरी होती रहीं. तीसरे दिन नरेश व टीना हनीमून के लिए शिमला आ गए. दोनों बहुत खुश थे. नरेश के प्यार में खो कर टीना, मम्मी से बिछुड़ने का गम भूल  सी गई.

हनीमून के 2 दिन बहुत ही सुखद बीते. तीसरे दिन टीना को सर्दीबुखार ने घेर लिया. नरेश चिंतित था, ‘‘टीना, तुम आराम करो, लगता है यहां के मौसम में आए बदलाव के चलते तुम्हें सर्दी लग गई है.’’

‘‘मेरा बदन बहुत दुख रहा है नरेश.’’

‘‘तुम चिंता न करो, मैं डाक्टर को ले कर आता हूं.’’

‘‘डाक्टर की जरूरत नहीं है. एंटी कोल्ड दवाई से ही बुखार ठीक हो जाएगा, क्योंकि जब मुझे सर्दीबुखार होता था तो मम्मी मुझे यही दिया करती थीं.’’

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‘‘मम्मी की बहुत याद आ रही है,’’ टीना को बांहों में भर कर नरेश बोला तो उस ने सिर हिला दिया.

‘‘तो इस में कीमती आंसू बहाने की क्या जरूरत है. अभी मम्मी से बात कर लो,’’ टीना की ओर मोबाइल बढ़ाते हुए नरेश बोला.

‘‘मुझे मम्मी से ढेर सारी बातें करनी हैं, अभी घर पर बहुत सारे मेहमान होंगे.’’

‘‘पगली, बाकी बातें बाद में कर लेना, अभी तो अपना हालचाल बता दो उन्हें.’’

‘‘प्लीज, उन्हें मेरी तबीयत के बारे में कुछ न बताना, वरना वे मुझे देखने यहीं आ जाएंगी. मैं मम्मी को जानती हूं,’’ टीना चहक कर बोली.

मम्मी के बारे में बात कर वह अपना दुखदर्द भूल गई. नरेश ने महसूस किया कि टीना सब से ज्यादा खुश मम्मी की बातों से होती है. अब टीना का दिल बहलाने के लिए वह बहुत देर तक मम्मी के बारे में बात करता रहा.

हनीमून के दौरान पूरे 7 दिनों में टीना ने एक बार भी अपनी ससुराल के बारे में कुछ नहीं पूछा. वह बस, अपनी मम्मी की और सहेलियों की बातें करती रही. हनीमून से वापस लौटते हुए टीना बोली, ‘‘नरेश, मुझे लखनऊ कितने दिन रुकना होगा.’’

‘‘तुम यह सब क्यों पूछ रही हो? अभी हमारी शादी को 8-10 दिन ही हुए हैं. जिस में हम घर पर 3 दिन ही रहे हैं. कम से कम 2 हफ्ते तो रुक ही जाना.’’

‘‘2 हफ्ते तक घर में बहू बन कर रहना मेरे बस की बात नहीं है.’’

‘‘मेरी मम्मी तुम्हें बहू नहीं बेटी की तरह रखेंगी. तुम खुद देख लेना. बहुत अच्छी मां हैं वह.’’

‘‘तुम्हारी बहन को देख कर मुझे अंदाजा लग गया है कि वह बेटी को किस तरह रखती हैं,’’ मुंह बना कर टीना बोली.

‘‘हम यहां से चल कर 2 दिन लखनऊ रुकेंगे. उस के बाद दिल्ली चलेंगे तुम्हारे मम्मीपापा के पास. वहां से जब तुम चाहोगी तब ही वापस आएंगे,’’ न चाहते हुए भी मजबूरी में टीना ने नरेश की यह बात मान ली.

लखनऊ में नरेश के परिवार वालों ने टीना की खूब खातिरदारी की. नरेश को लगा वह टीना को कुछ दिन और यहां रोक लेगा पर दूसरे दिन ही टीना ने अपने मन की बात कह डाली.

‘‘नरेश, हम कल दिल्ली चल रहे हैं न. मैं ने मम्मी को फोन से बता दिया है,’’ टीना बोली तो नरेश चुप हो गया. उस ने यह बात अभी तक अपने मम्मीपापा से नहीं कही थी. वह तुरंत पानी पीने के बहाने वहां से हट कर किचन में आ गया और धीरे से मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, टीना कल अपने मायके जाना चाहती है. आप की इजाजत हो तो…’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है बहू. इतने दिन हो गए हैं उसे ससुराल आए हुए. इकलौती बेटी है वह अपने मां बाप की. घर की याद आनी तो स्वाभाविक है बेटा,’’ बेटे की दुविधा दूर करते हुए सुधा बोलीं.

कमरे में नरेश पहुंचा तो टीना बोली, ‘‘आप मेरी बात अधूरी छोड़ कर कहां चले गए थे?’’

‘‘पानी पीने चला गया था. तुम पैकिंग में व्यस्त थीं सो मैं खुद ही चला गया किचन तक.’’

‘‘कल का प्रोग्राम पक्का है न?’’

‘‘बिलकुल पक्का,’’ नरेश चहक कर बोला तो टीना ने राहत की सांस ली.

मायके पहुंच कर टीना मम्मी से लिपट कर खूब रोई. नीता, टीना को बड़ी देर तक सहलाती रही.

‘‘कितनी दुबली हो गई हैं मम्मी आप,’’ टीना बोली.

नरेश, मांबेटी को छोड़ कर अपने ससुर के पास आ गया.

‘‘पापा, बेटी के बिना घर खालीखाली लग रहा होगा आप को.’’

‘‘बेटी का असली घर तो उस की ससुराल ही होता है बेटा, यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए. टीना अपनी मां के लाड़प्यार के कारण थोड़ी लापरवाह है. उस की नादानियों को नजरअंदाज कर दिया करना.’’

‘‘आप चिंता न करें पापाजी, धीरेधीरे टीना मेरे परिवार के साथ घुलमिल जाएगी.’’

एक ही दिन में नरेश समझ गया कि इस घर में टीना के पापा की उपस्थिति केवल नाम लेने भर की है. घर में सारे फैसले नीता के कहे अनुसार ही होते हैं.

एक हफ्ता बीत गया. टीना का मन लखनऊ जाने का न था, वह तो नरेश के साथ सीधे मुंबई जाना चाहती थी पर नरेश से कहने का वह साहस न जुटा सकी.

बेटी को विदा करते हुए नीता ने ढेरों हिदायतें दे डालीं. नरेश साथ खड़ा सबकुछ सुन रहा था पर बोला कुछ नहीं. उसे ताज्जुब हो रहा था कि उस की सास ने एक बार भी टीना को अपने सासससुर की सेवा से संबंधित नसीहत न दी. चलते वक्त वह नरेश से बोलीं, ‘‘बेटा, टीना का खयाल रखना, मैं ने जिंदगी की अमानत तुम्हें सौंप दी है.’’

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शादी के 3 हफ्तों में ही नरेश को सबकुछ समझ में आने लगा था कि मम्मी के लाड़प्यार के कारण टीना की परवरिश एक आम लड़की की तरह नहीं हुई थी. घूमनाफिरना, मौजमस्ती करना और गप्पबाजी उस के खास शौक थे. घर के किसी काम में उस की रुचि न थी. सामान्य शिष्टाचार में उस का विश्वास न था.

छुट्टियां खत्म हुईं तो नरेश के साथ टीना भी मुंबई आ गई.

नरेश, टीना से जितना सामंजस्य बिठाता, टीना अपनी हद आगे सरका देती.

टीना की गुडमार्निंग मम्मी को फोन से होती, और फिर तो बातों में टीना यह भी भूल जाती कि उस के पति को दफ्तर जाना है, महीने का टेलीफोन का बिल हजारों में आया तो नरेश बोला, ‘‘टीना, मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं 5 हजार रुपए महीना टेलीफोन के बिल पर खर्च कर सकूं. हमें अपनी जरूरतें सीमित करनी होंगी.’’

‘‘नरेश, आप के पास रुपए की कमी है तो मैं मम्मी से मांग लेती हूं. मेरे एक फोन पर वह तुरंत रुपए आप के खाते में ट्रांसफर करवा देंगी.’’

‘‘शादी के बाद बेटी को मां पर नहीं पति पर आश्रित रहना चाहिए.’’

‘‘मैं अपनी मम्मीपापा की इकलौती संतान हूं,’’ टीना बोली, ‘‘उन का सबकुछ मेरा ही तो है. पता नहीं किस जमाने की बात कर रहे हो तुम.’’

‘‘छोटीछोटी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना ठीक नहीं होता.’’

‘‘मम्मी, दूसरी नहीं मेरी अपनी हैं.’’

‘‘यही बातें तुम्हें मेरे लिए भी सोचनी चाहिए. मेरे मांबाप का मुझ पर कुछ हक है और हमारा उन के प्रति कुछ फर्ज भी है,’’ पहली बार अपने परिवार की पैरवी की नरेश ने.

दूसरे दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने सारी बातें अपनी मम्मी को बताईं तो वह बोलीं, ‘‘ठीक किया तू ने टीना. तुम्हारी ससुराल में जरा सी भी दिलचस्पी नरेश को उन की ओर मोड़ देगी. तुम्हें अपना भला देखना है कि ससुराल का.’’

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भोर की एक नई किरण: भाग 3- क्यों भटक गई थी स्वाति

लेखिका- रेनू मंडल

फ्स्वाभाविक है, ऐसी स्थिति में आप की राय ही मानी जाएगी. मातापिता बच्चों से अधिक अनुभवी और समझदार होते हैं. उन का निर्णय गलत नहीं होता है, स्वाति ने विनम्रता से उत्तर दिया. मम्मी और मनीष कुछ आश्चर्यचकित हो कर स्वाति की ओर देखने लगे. शाम को वे चारों लड़का देखने चले गए थे.

अगले दिन रात में पायल स्वाति से कहानी सुनाने की जिद कर रही थी. स्वाति उस से बोली, फ्बच्चे अपनी दादी से कहानी सुनते हैं. मैं छोटी थी, तब मुझे भी मेरी दादी अच्छीअच्छी कहानियां सुनाती थीं.

फ्मैं भी दादीमां के पास जाऊं? पायल उठ कर खडी़ हो गई.

फ्हां जाओ, स्वाति ने कहा.

पायल दादी के पास जा कर बोली, फ्दादीमां, आप मुझे कहानी सुनाओ.

दादी उस समय सोने की तैयारी कर रही थीं, अतः बेरुखी से बोलीं, फ्अपनी मम्मी से सुनो कहानी.

फ्मैं तो आप से सुनूंगी. मम्मी कहती हैं, आप को बहुत सी कहानियां आती हैं, पायल मचल कर बोली.

फ्मुझे नहीं आती कोई कहानी. जाओ जा कर अपने कमरे में सो जाओ, दादी की डांट सुन कर पायल रोते हुए कमरे में आ गई और बिना दूध पिए सो गई.

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अगली रात को स्वाति ने बहलाफुसला कर पायल को फिर से दादी के पास कहानी सुनने भेज दिया, कितु अंजाम फिर वही हुआ. उस दिन भी वह रोते हुए भूखी सो गई. सुबह उसे हलका सा बुखार था. मनीष आफिस जाते हुए मम्मी से बोला, फ्मम्मी, पायल को यदि आप कहानी सुना देतीं, तो कुछ बिगड़ नहीं जाता. पिछले 2 दिनों से वह बिना दूध पिए सो रही है, मेरे बच्चों से तुम्हें जरा भी लगाव नहीं है.

मनीष की बात सुन कर वह चौंक पडीं़. आज पहली बार उन्हें बेटे ने किसी बात के लिए टोका था. वह नहीं चाहती थीं, यह बात पुनः दोहराई जाए. इसलिए रात होने पर उन्होंने स्वयं पायल को बुला कर अपने पास लिटा लिया और कहानी सुनाने लगीं.

पायल की भोलीभाली बातों से धीरेधीेरे मम्मी की सोई हुई ममता जगने लगी. अब वह अकसर पायल को अपने पास सुला लेती थीं. धीरेधीरे वह उन से खूब हिलमिल गई.घ्आखिर एक दिन मम्मी ने कह ही दिया कि अब पायल बडी़ हो रही है. अब से वह उन्हीं के पास सोया करेगी.

बच्चों के करीब आने के कारण धीरेधीरे घर का माहौल बदल रहा था. मम्मी और स्वाति के बीच की दूरी कम हो रही थी. अब वह उस के साथ पहले की तरह कठोरता से पेश नहीं आती थीं. स्वाति को अब पछतावा हो रहा था कि जो प्रयास उस ने भैया के कहने पर इतने सालों बाद किया था, उसे पहले करना चाहिए था. यदि मम्मी ने उसे अपने निकट नहीं बुलाया था, तो उस ने भी कभी उन के पास जाने का प्रयत्न नहीं किया था. दोनों ही शायद अपनेअपने अहं के दायरे में कैद थे.

अकसर मनीष स्वाति के इस बदलाव पर आश्चर्य व्यक्त करता. इस पर स्वाति हंस पड़ती और मन ही मन भैया के प्रति श्रúा से भर उठती, जिन्होंने अपनी सूझबूझ से उस के बिखरते घर को बचा लिया था.

इस के बाद मम्मी का पथरी का आपरेशन हुआ. सप्ताह भर तक स्वाति अस्पताल और घर के बीच दौड़ती रही. मम्मी की सेवा में उस ने कोई कसर नहीं उठा रखी थी. एक सप्ताह बाद जब मम्मी घर वापस आईं तो अगले दिन शाम के समय मनीष के एक मित्र परिवार सहित उन्हें देखने आए. बातों के दौरान मम्मी ने बताया कि वह और मनीष के पापा अपने बडे़ बेटे केघ्पास कानपुर जाने की सोच रहे हैं. यह सुन कर स्वाति और मनीष दोनों चौंक उठे. मेहमानों के जाने के बाद स्वाति उदास स्वर में बोली, फ्ऐसा लगता है मम्मी, आप की सेवा करने में मुझ से जरूर कोई कमी रह गई, तभी तो आप यहां से जाने की सोच रही हैं.

फ्नहीं स्वाति, ऐसी बात नहीं है. जितनी सेवा तुम ने मेरी की है, मेरी बेटी होती तो शायद वह भी नहीं करती, मम्मी स्नेह भरे स्वर में बोलीं.

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फ्तब फिर आप ने कैसे सोच लिया कि हम आप को जाने देंगे. सनी और पायल क्या आप के बगैर रह सकेंगे? कहते हुए स्वाति अंदर चली गई.

डैडी और मम्मी ने उसे अपने कमरे में बुलाया और कहा, फ्स्वाति, हम चाहते हैं कि यह मकान तुम्हारे नाम कर दें. साथ ही 50-50 हजार रुपए पायल और सनी के नाम जमा कर दें.

स्वाति आश्चर्यचकित हो कर बोली, फ्यह सब क्यों मम्मी, आज आप लोग मुझ से कैसी बातें कर रहे हैं.

फ्देखो बेटे, जिदगी का कोई भरोसा नहीं. हमारे बाद भी सबकुछ तुम्हीं लोगों का है, इसलिए अपने सामने थोडा़थोडा़ तीनों बेटों के नाम कर दें तो अच्छा है, डैडी बोले.

फ्नहीं डैडी, मुझे आप लोगों का मकान और पैसा नहीं चाहिए. अपना प्यार दे कर आप लोगों ने मुझे सबकुछ दे दिया है. इस के बाद और किसी दौलत की मुझे जरूरत नहीं, कहते हुए स्वाति कमरे से बाहर आ गई. बाहर आते हुए उस ने सुना, डैडी मम्मी से कह रहे थे, फ्तुम ने व्यर्थ ही कठोरता का आवरण ओढ़ कर इतनी अच्छी लड़की को स्वयं से दूर कर रखा था.

फ्इस बात का पछतावा तो मुझे भी है, यह मम्मी की आवाज थी. स्वाति की आंखों से खुशी के आंसू निकल आए और वह वहां से हट गई.

अगले सप्ताह अचानक श्रीकांत बडौ़दा आ गए. भैया को देख स्वाति अचंभित हो उठी. उसे तो पता ही नहीं चला था कि भैया को गए 6 माह व्यतीत हो चुके हैं. गृहस्थी का सुख पाने में उस ने जिस आस्था का परिचय दिया था, उस में तो वैसे भी समय का पता नहीं चलना था. कमरे में अटैची रखते हुए श्रीकांत ने हंसते हुए कहा, फ्वादे के मुताबिक ठीक 6 माह बाद तुम्हें लेने आया हूं, बताओ चलोगी?

स्वाति ने सजल आंखों से मुसकराते हुए भाई की ओर देखा ओर कहा, फ्आप की दी हुई शिक्षा की वजह से प्रबलतम अंधकार के बाद भोर की एक नई किरण मेरे आंगन में दिखाई दी है, अब इस के प्रकाश को छोड़ कर कहां जाऊं?

श्रीकांत के चेहरे पर संतोष की आभा छा गई और उन्होंने स्वाति को प्यार से गले लगा लिया.

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भोर की एक नई किरण: भाग 2- क्यों भटक गई थी स्वाति

लेखिका- रेनू मंडल

एक रात श्रीकांत और स्वाति छत पर जा कर बैठ गए थे. छत पर ठंडी हवा चल रही थी कितु स्वाति बहुत अधीर थी. अब तक श्रीकांत ने उस से चलने के बारे में कुछ नहीं कहा था. श्रीकांत के बैठते ही स्वाति ने उस का हाथ पकड़ लिया और रुंधे गले से बोली, फ्भैया, मुझे यहां से ले चलो. मैं अब और यहां नहीं रह सकती.

जब से मैं यहां आया हूं स्वाति, तुम्हारी ही स्थिति को जानने और समझने का प्रयास कर रहा हूं.

फिर तो आप ने देखा होगा भैया कि मेरा घर में कोई महत्त्व नहीं. किसी को मुझ से तनिक भी लगाव नहीं. यहां तक कि मनीष को भी नहीं. तब मैं क्यों जबरन यहां पडी़ रहूं?

प्रश्न जबरन पडे़ रहने का नहीं है, स्वाति. प्रश्न यह है, क्या यहां से चले जाने से संबंध अच्छे बन जाएंगे?

जब संबंध ही नहीं रखने, तो उन के अच्छे या बुरे होने का क्या अर्थ है?

पगली, क्या ऐसे संबंध इतनी सरलता से टूट जाते हैं, कह कर श्रीकांत कुछ क्षण बहन के चेहरे को देखते रहे फिर बोले, याद रखो, स्वाति, संबंध तोड़ना सरल है. क्षण भर में हम कोई भी संबंध बिगाड़ सकते हैं कितु असली कला है, उन्हें जीवन भर निभाना.

एक पल रुक कर श्रीकांत गंभीर स्वर में बोले, फ्स्वाति, तुम्हें मुझ पर पूरा विश्वास है न कि मैं जो कुछ भी करूंगा वह तुम्हारी भलाई के लिए होगा.

यह भी कोई पूछने की बात है, भैया आप से अधिक तो मुझे खुद पर भी भरोसा नहीं.

तब सुनो स्वाति, पिछले कई दिनों से मैं यहां की स्थिति को देख और समझ रहा हूं. वास्तव में तुम लोगों के संबंधों में टकराव नहीं, वरन उदासीनता है और इस के लिए मैं समझता हूं, तुम भी कम दोषी नहीं हो.

यह क्या कह रहे हैं आप, भैया ?

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मैं ठीक कह रहा हूं, यदि तुम्हारी सास ने तुम्हें नहीं अपनाया तो तुम ने भी कभी उन के निकट जाने का प्रयास नहीं किया जबकि तुम्हें पता था कि यह विवाह मनीष के हठ के कारण हुआ है.

भैया, मैं आप से बहस नहीं कर रही हूं, कितु जब बहू अपने प्रियजनों को छोड़ कर अनजाने लोगों के बीच आती है, तब ससुराल वालों का फर्ज बनता है, उसे अपनाएं और भरपूर प्यार दें ताकि वह उस घर को अपना समझ कर नया जीवन प्रारंभ कर सके.

श्रीकांत ने सिर हिलाते हुए स्वाति की बात का समर्थन किया, फिर उसे समझाते हुए बोले, फ्जीवन में सदैव सबकुछ सरलता से प्राप्त नहीं होता है. कभीकभी उस के लिए अथक प्रयास भी करना पड़ता है. याद रखो स्वाति, किसी से कुछ पा लेना व्यक्ति की अपनी क्षमता पर निर्भर करता है.

अब इन बातों से क्या लाभ, स्वाति बोली, फ्अब तो सबकुछ समाप्त हो चुका है. इन लोगों के व्यवहार ने मेरा मन मार दिया है. अब कुछ भी करने का उत्साह शेष नहीं है.

स्वाती, जब हमें ऐसा लगे कि अंधकार अब कभी समाप्त नहीं होगा, तभी प्रकाश की किरण दिखाई देने की संभावना प्रबलतम होती है. इन टिमटिमाती हुई बत्तियों को देखो, इतना कह कर श्रीकांत ने हाथ से एक ओर इशारा किया. स्वाति ने उस ओर देखा, पूरी तरह अंधकार में किसी फैक्टरी की वह जलती हुई 3-4 बत्तियां बडी़ भली लग रही थीं.

अपनी जिदगी के अंधकार में हमें इसी तरह के बिदुओं से अपना आगे का रास्ता चुनना चाहिए, श्रीकांत ने कहा.

फ ने इतनी अच्छी बातें करनी कहां से सीखी भैया, स्वाति श्रीकांत की बातों से प्रभावित हो कर बोली.

फ्मां से, स्वाति. तुम उस समय बहुत छोटी थी. मां को मैं ने कभी भी निराश होते नहीं देखा था. कितनी भी कठिन स्थिति क्यों न हो, वह कोई न कोई आशा की किरण अवश्य खोज लेती थीं, श्रीकांत ने कुछ पल रुक कर स्वाति की ओर देखा. स्वाति सिर झुकाए कुछ सोच रही थी. श्रीकांत ने फिर कहा, फ्मैं चाहता हूं, एक बार तुम सच्चे मन से उस दूरी को समाप्त करने का प्रयत्न करो जो तुम्हारे और तुम्हारी सास के बीच हुई है. यदि तुम ने उन की ओर एक कदम भी बढा़या तो दूरी कुछ कम ही होगी, स्वाति ने सहमति में सिर हिलाया.

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इस के पश्चात श्रीकांत स्वाति को धीरेधीरे कुछ समझाते रहे और अंत में बोले, फ्मैं आज से ठीक 6 माह बाद पुनः यहां आऊंगा. यदि स्थिति में तनिक भी सुधार नहीं हुआ तो अपने भाई पर विश्वास रखो, तुम्हें अवश्य ही यहां से ले जाऊंगा. इस के बाद वे दोनों नीचे आ गए. अगले दिन श्रीकांत बडौ़दा से अपने घर वापस लौट आए.

कुछ दिनों तक स्वाति भैया की बातों पर विचार करती रही और अपने मन को तैयार करती रही, उस युú के लिए जिस में वह खुद अर्जुन थी और भैया के वाक्य उस के लिए गीता के उपदेशों के समान थे.

2-3 दिन बाद स्वाति के मामाजी का पत्र आया. उन की लड़की की बडौ़दा में रह रहे एक इंजीनियर लड़के से रिश्ते की बात चल रही थी. उन्होंने पत्र में स्वाति और मनीष से लड़का देखने का आग्रह किया था.

सुबह का समय था. मनीष आफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे. तौलिए से हाथ पोंछते हुए वह रसोई घर में आए और स्वाति से बोले, फ्शाम को लड़का देखने जाना है, तैयार रहना.

स्वाति ने मुड़ कर देखा. मम्मी फ्रिज में से पानी की बोतल निकाल रही थीं. उस ने कहा, फ्मम्मी, शाम को आप को और पापा को हमारे साथ लड़का देखने जाना है.

फ्हम लोग जा कर क्या करेंगे? तुम दोनों देख आओ, मम्मी ने पानी गिलास में डालते हुए कहा.

फ्जितनी अच्छी तरह आप लड़के और उस के परिवार की जांचपरख कर लेंगी, हम दोनों नहीं कर पाएंगे.

फ्और यदि हमारी राय भिन्नभिन्न हुई तब? मम्मी ने पूछा.

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भोर की एक नई किरण: भाग 1- क्यों भटक गई थी स्वाति

लेखिका- रेनू मंडल

देहरादून एक्सप्रेस अपनी पूरी रफ्तार से भागी जा रही थी. कितु इस से भी तेज भाग रहा था, श्रीकांत का मन. भागती ट्रेन के शोर से भी अधिक स्वाति के पत्र के शब्द उन के दिमाग पर हथौडे़ बरसा रहे थे और चोट से बचने के लिए उन्होंने अपना चेहरा खिड़की से सटा लिया और प्रकृति के विस्तार में अपनी आंखें गडा़ दीं. कितु दूरदूर तक फैले हुए खेतखलिहान और भागते हुए वृक्ष भी उन के मन को न बांध सके. मन बारबार वर्तमान से अतीत की ओर भाग रहा था.

उन की बहन स्वाति ने मनोविज्ञान में एम.ए- किया था. उस का इरादा पीएच.डी- करने का था. वह शुरू से ही पढ़ने में बेहद तेज थी. मेहनत एवं लगन की उस में कमी नहीं थी. लेक्चरर बन कर अपना एक अलग स्थान बनाने के लिए वह जीजान से जुटी हुई थी. लेकिन स्वाति कहां जानती थी कि कभीकभी एक छोटा सा अनुरोध भी जीवन को नया मोड़ दे देता है.

मनीष ने उसे एक विवाह समारोह में देखा था और वहीं उसे उस ने पसंद कर लिया. उस की ओर से जब विवाह का प्रस्ताव आया तो स्वाति ने तुरंत इनकार कर दिया. विवाह के लिए वह अपने कैरियर को दांव पर नहीं लगा सकती थी. विवाह तो बाद में भी किया जा सकता था. उस के भाई श्रीकांत जो मित्र और पथप्रदर्शक भी थे, उन की भी यही इच्छा थी कि पहले कैरियर फिर विवाह.घ्भाभी सुधा ने दोनों को समझाया था कि जीवन में ऐसे मौके बारबार नहीं आते, स्वाति ऐसे मौकों की कभी अवहेलना मत करो.

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स्वाति ने प्रतिरोध करते हुए कहा, ‘भाभी, तुम भलीभांति जानती हो कि मैं ने वर्षों से एक ही सपना देखा है कि मैं जीवन में कुछ बनूं और तुम लोग मेरा यह स्वप्न तोड़ देना चाहते हो.’

बहुत सोचने के बाद श्रीकांत को सुधा की बात अधिक उचित जान पडी़. उन्होंने सुझाया, ‘क्यों न ऐसा रास्ता अपनाया जाए जिस से लड़का भी हाथ से न जाए और स्वाति की इच्छा भी रह जाए. मनीष से पत्रव्यवहार कर के यह स्पष्ट कर लेते हैं कि उसे विवाह के बाद स्वाति के पीएच-डी- करने पर कोई आपत्ति तो नहीं.’

इस के बाद श्रीकांत और मनीष के बीच पत्रव्यवहार हुआ, जिस से पता चला कि मनीष को इस पर कोई आपत्ति न थी. तब खुशीखुशी स्वाति और मनीष का विवाह हो गया.घ्स्वाति को विदा करते हुए जहां श्रीकांत को उस के दूर चले जाने का गम था, वहीं यह संतोष भी था कि उन्होंने बहन के प्रति कर्तव्यों को पूरा कर के मां को दिया हुआ वचन निभाया है. इस के लिए वह सुधा के भी आभारी थे, जिस ने भाभी के रूप में स्वाति को मां जैसा स्नेह दिया था.

विवाह के बाद स्वाति जब पहली बार मनीष के साथ मायके आई तो श्रीकांत को उस की खुशी देख कर सुखद अनुभूति हुई. समय का पंछी आगे उड़ता रहा और देखतेदेखते 6 वर्ष बीत गए. इस बीच स्वाति 2 बच्चों की मां भी बन गई. शादी के बाद जब कभी श्रीकांत और सुधा ने उस से पीएच-डी- पूरी करने के विषय में पूछा तो वह हंस कर टाल गई. श्रीकांत समझते, स्वाति अपने विवाहित जीवन के सुख में इतना खो गई है कि अब वह पीएच-डी- करने की बात भूल बैठी है. उन का स्वाति के बारे में यह भ्रम न जाने कब तक बना रहता, यदि अचानक उन्हें उस का भेजा पत्र न मिलता. पत्र देखते ही वह स्वाति से मिलने केघ्लिए चल पडे़ थे.घ्अचानक टेªन का झटका लगा और श्रीकांत अतीत से वर्तमान में लौट आए.

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उन्होंने जेब से पत्र निकाला और फिर एक बार उन की नजरें इन पंक्तियों पर अटक गईं:

फ्पिछले 6 सालों से अपने ही घर में अपने वजूद को तलाश करतेकरते थक चुकी हूं. इस से पहले कि पूरी तरह टूट कर बिखर जाऊं, मुझे यहां से ले जाओ.

पत्र पढ़ते ही श्रीकांत बेचैन हो उठे. उन का शेष सफर बहुत कठिनाई से बीता.

बडौ़दा स्टेशन पर उतरते ही उन्होंने टैक्सी पकडी़ और स्वाति के घर जा पहुंचे. बडे़ भाई को देखते ही स्वाति उन से लिपट गई और सुबकने लगी. मनीष आश्चर्यचकित हो कर बोला, फ्अरे, भैया आप आने की खबर कर देते तो मैं स्टेशन पहुंच जाता, कहते हुए उस ने श्रीकांत के पैर छुए.

फ्अचानक आफिस का कुछ विशेष काम निकल आया. इसलिए खबर देने का समय ही नहीं मिला.

फ्चलो, अच्छा हुआ. इसी बहाने आप आए तो, स्वाति के ससुर ने श्रीकांत को सोफे पर बैठाते हुए कहा.

फ्पायल कहां है? श्रीकांत ने चारों तरफ निगाहें दौडा़ते हुए पूछा.

फ्पायल स्कूल गई है, स्वाति बोली और बेटे सनी को अपने भाई की गोद में दे कर चाय का प्रबंध करने चली गई.

दोपहर में श्रीकांत जब आराम करने के लिए स्वाति के कमरे में आए तो स्नेहपूर्वक उसे पास बैठाते हुए बोले, फ्तुझे किस बात का दुख है, स्वाति?

भाई का स्नेहिल स्पर्श पाते ही स्वाति फफक पडी़, फ्मुझे यहां से ले चलो भैया वरना मैं मर जाऊंगी, और उस के बाद स्वाति ने धीरेधीरे श्रीकांत को सब बता दिया.

मनीष की मम्मी बेटे का विवाह कहीं और करना चाहती थीं परंतु मनीष ने स्वाति को पसंद कर लिया. बेटे के हठ के आगे मां को झुकना पडा़, पर उन्होंने कभी दिल से बहू को स्वीकार नहीं किया. वह पहले दिन से ही स्वाति का विरोध करती रहीं. स्वाति जब कभी उन का कोई काम करती, वह उस में कमी अवश्य निकालतीं. स्वाति के ससुर जब भी उस का पक्ष लेते वह उन्हें भी डांट देती थीं.

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विवाह के 2-3 दिन बाद उन्होंने सारे काम का दायित्व स्वाति को सौंप दिया था. धीरेधीरे स्वाति ने चुप्पी साध ली. इस बीच वह 2 बच्चों की मां बन चुकी थी फिर भी घर में उस का कोई महत्त्व नहीं था. मनीष स्वाति के साथ होते हुए अन्याय को देख कर भी अनदेखा कर देता था.

मनीष की उदासीनता ने स्वाति को इस घर से चले जाने के लिए प्रेरित किया. वह सोचती, जहां रह कर उस का खुद का व्यक्तित्व कुुंठित हो रहा हो, वहां वह किस प्रकार अपने बच्चों की उचित परवरिश कर सकती है. इसलिए उस ने श्रीकांत को पत्र लिखा ताकि उस के पास रह कर वह नए सिरे से अपना जीवन शुरू करे. श्रीकांत ने स्वाति को बताया, फिलहाल, वह 7-8 दिन बडौ़दा में रुकने वाला था.

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सौत से सहेली: भाग 3- क्या शिखा अपनी गृहस्थी बचा पाई

लेखिका-दिव्या साहनी

इस रविवार को अंजु ने लंच पर उन सब को अपने घर बुला लिया था. वहां चारों बच्चों ने उस को पूरा समय अपने साथ खेल में लगाए रखा. ज्यादा देर तक सोने व राजीव के साथ कुछ मौजमस्ती करने की अपनी दोनों इच्छाओं को पूरा करने का कोई मौका शिखा को नहीं मिला.

उस रात काफी थके होने के बाद भी शिखा सो नहीं सकी थी. नीरजा की घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां पूरा करने के चक्कर में वह अब

खुद को अजीब से जाल में बहुत फंसा महसूस कर रही थी. वह अपनी पुरानी दिनचर्या में

लौटना चाहती थी, पर नीरजा का दिल दुखाए बिना ऐसा करने का उसे कोई रास्ता नहीं सूझ

रहा था.

उस का न औफिस के काम में दिल लगता, न नीरजा के घर के कामों में. किसी से हंसनेबोलने का मन नहीं करता. नीरजा जितना ज्यादा उस के प्रति अपना आभार व प्रेम प्रकट करती, वह खुद को उतना ही ज्यादा चिड़ा व परेशान महसूस करती.

ऐसा भी हुआ कि राजीव ने मौका पा कर उसे अपनी बांहों में भर कर प्यार करने की कोशिश करी थी. परेशान शिखा को उस के स्पर्श से किसी तरह से उत्तेजना या सुख महसूस नहीं हुआ था. बगल के कमरे में नीरजा की मौजूदगी ने शायद उस की भावनाओं को खिलने व पनपने की स्वतंत्रता छीन ली थी.

सोनू और मोनू के साथ खेलने और बातें करने से वह बचती. अंजु के बच्चों को तो वह थोड़ी देर के बाद ही उन के घर भेज देती थी. नीरजा के मुंह से अपनी तारीफ सुनना उसे कोई खुशी नहीं देता. राजीव के प्रति जो खिंचाव वह सदा महसूस करती थी, उस में भी कमी आ

गईर् थी.

शिखा एकाएक नीरजा के प्लस्तर कटने का बड़ी बेसग्री से इंतजार करने लगी थी.

नीरजा उस की बदलती मनोस्थिति से पूरी तरह से अनजान थी, ‘‘मेरे पैर पर प्लस्तर चढ़ने का एक फायदा तो हुआ कि तुम जैसी नेकदिल, खुशमिजाज लड़की मेरी सब से अच्छी सहेली बनी है,’’ इस वाक्य को नीरजा शिखा के सामने ही नहीं, बल्कि हर आएगए के सामने कईकई बार भावुक लहजे में दोहराती थी.

नीरजा कईकई बार उसे औफिस में फोन करती. बेहिचक उसे जरूरी चीजें बाजार से लाने की हिदायत देती. जल्दी से जल्दी घर पहुंचने का प्यार से आग्रह करती. एक बार जो बोलना शुरू करती, तो रुकने का नाम ही न लेती.

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धीरेधीरे ऐसी नौबत आ गई कि शिखा अपने मोबाइल पर नीरजा का

नंबर देखते ही घबरा उठती. बड़े अनमने भाव से ही उस से बातें करती. कई बार सोचती कि राजीव से अपने मन का हाल कह कर उन के घर जाने से इनकार कर दे, पर ऐसी रुखाई दिखाने की हिम्मत अपने अंदर पैदा नहीं कर पाई. अपने प्रेमी की नजरों में अपनी छवि बिगाड़ने की इच्छुक नहीं थी.

वक्त कैसा भी चल रहा हो, वह बीत ही जाता है. आखिरकार 3 सप्ताह बीत गए और नीरजा के पैर का प्लस्तर कट गया.

नीरजा ने सब से पहले शिखा को आंखों में आंसू ला कर गले से लगाया और भावुक लहजे में कहा, ‘‘तुम्हारे सारे एहसानों का बदला मैं कभी नहीं चुका सकूंगी, पर फिर भी तुम्हें मेरी एक बात तो माननी ही पड़ेगी.’’

‘‘कौन सी बात नीरज?’’ अपनी जबरदस्ती ओढ़ी जिम्मेदारियों से मुक्ति पा जाने की खुशी शिखा के चेहरे पर साफ झलक रही थी.

‘‘हम सब नैनीताल घूमने चलेंगे. कितना मजा आएगा… सोनू और मोनू कितना खुश होंगे. तुम्हारा साथ पा कर… खूब ऐश रहेगी… जीभर कर सथ घूमेंगे, खाएंगेपीएंगे और गप्पें मारेंगे… उन की और मेरी तरफ  से यह ‘ट्रिप’ तुम्हारे लिए गिफ्ट होगा, शिखा,’’ बेहद प्रसन्न नजर आ रही नीरजा ने जोर से शिखा को फिर से अपनी छाती से लगा लिया.

राजीव को भी नीरजा के इस प्रोग्राम की भनक नहीं थी. अपनी प्रेमिका के साथ नैनीताल घूम आने की बात उस के मन को गुदगुदा

रही थी.

‘‘श्योर… श्योर… जरूर चलेंगे हम सब नैनीताल,’’ शिखा जवाब में मुसकराई, पर

उसे अचानक अपनी सांस घुटती हुई सी

महसूस हुई.

जब घंटे भर बाद वह सब से विदा ले कर अपने घर चली, तो राजीव व नीरजा के

घर में दोबारा जल्दी से कदम न रखने का

संकल्प उस के मन में बेहद मजबूत जड़ें जमा चुका था.

‘मुझे नीरजा की दोस्ती नहीं चाहिए. उस

से दूरी बनाने को मैं राजीव से भी संबंध तोड़ लूंगी. मेरे किसी दुश्मन ने मेरा इतना खून कभी नहीं फूंका होगा जितना इस नई सहेली के प्यार और अपनेपन ने फूंका है,’ ऐसे विचारों में

उलझी परेशान शिखा नीरजा की जिंदगी से

निकल गई.

नीरजा ने कई बार शिखा को उस दिन फोन मिलाया पर दोनों की बात नहीं हो पाई. शिखा ने अपना फोन बंद कर रखा था.

अगले दिन रविवार दोपहर को वह डाक्टर राजेश की फिजियोथेरैपिस्ट अनुराधा से रेस्तरां के बाहर मिली. नीरजा ने ही उसे लंच साथसाथ करने के लिए बुलाया था.

‘‘समस्या अंडर कंट्रोल है न?’’ अनुराधा

ने शरारती चमक आंखों में भर कर नीरजा से सवाल किया.

‘‘पूरी तरह और मुझे ज्यादा झेलना बेचारी शिखा के लिए अब संभव नहीं,’’ नीरजा ने हंस कर जवाब दिया.

‘‘हम ने ठीक रास्ता चुना, सहेली. तुम राजीव और उसे दूर करने के लिए अपने पति

या शिखा से उलझती, तो मामला बिगड़ता ही. उस स्थिति में राजीव और तुम्हारे बीच की दूरी बढ़ जाती.’’

‘‘शिखा के साथ दोस्ती बढ़ा कर उस की जान के लिए मुसीबत बन जाने का तुम्हारा सुझाव बड़ा कारगर साबित हुआ.’’

‘‘डाक्टर राजेश, लगभग रोज ही तुम्हारे बारे  में मुझ से पूछ लेते थे. शिखा की परेशानियां को सुन कर खूब हंसते थे.’’

‘‘मैं उन के बच्चों के लिए आज मिठाई और चौकलेट भिजवाऊंगी तुम्हारे हाथ. वह झूठा प्लस्तर चढ़ाने को तैयार न होते, तो हमारी योजना में जान न पड़ती.’’

‘‘अपनी प्यारी सहेली की खातिर मुझे उन्हें मनाना ही था.’’

‘‘थैंक यू, माई फ्रैंड.’’ नीरजा ने अनुराधा का कंधा दबा कर फिर से आभार प्रकट किया.

अनुराधा से नीरजा ने ही पूछा था कि क्या वह किसी स्वामी या वकील के पास जाए? तो अनुराधा ने ही मना किया था. उसी ने बताया था कि असल में ये दोनों ही औरतों को लूटते हैं. उस के पास बहुत से मामले आते हैं जिन में औरततों को शारीरिक दर्द असल में मानसिक व्यथाओं के कारण होते है और स्वामी वकील दोनों ही मन और तन का दर्द बढ़ाते हैं. उसी ने सारी प्लानिंग की थी.

‘‘वैसे शिखा का हाल कैसा है?’’ अनुराधा ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘कल शाम और रात को उस ने अपना फोन बंद रखा. अभी तुम्हारे सामने ट्राई करती हूं,’’ कह नीरजा ने अपना मोबाइल निकाल कर शिखा का नंबर मिलाया.

शिखा ने इस बार उस का फोन रिसीव कर लिया तो नीरजा आंखों में हैरानी के

भाव ला कर उस से बातें करने लगी.

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‘‘कैसी हो शिखा?’’ नीरजा ने अपनी आवाज में बहुत ज्यादा मिठास घोल कर प्रश्न किया.

‘‘मैं ठीक हूं,’’ शिखा की आवाज में किसी तरह का उत्साह या खुशी के भाव मौजूद नहीं थे.

‘‘सोनू और मानू तुम्हें बहुत याद करते हैं. कल फोन क्यों बंद कर रखा था?’’

‘‘उस की बैटरी खत्म हो गईर् थी. मैं आऊंगी उन से मिलाने’’

‘‘कब?’’

‘‘जल्द ही.’’

‘‘नैनीताल चलने का पक्का कार्यक्रम बना लेना. इस शुक्रवार की रात को निकलेंगे.’’

‘‘मैं तो नहीं जा पाऊंगी, नीरजा.’’

‘‘ऐसा मत कहो, शिखा.’’

‘‘मुझे अपनी मौसी के पास लखनऊ जाना है. उन की तबीयत ठीक नहीं चल रही है.’’

‘‘वहां बाद में चली…’’

‘‘नहीं, लखनऊ तो मुझे जाना ही पड़ेगा. अभी कोई घर में आया हुआ है. बाद में बात करते हैं.’’

‘‘अरे, सुनो तो नैनीताल में बहुत मजे… हैलो… हैलो…’’

शिखा ने संबंधविच्छेद कर दिया था. नीरजा और अनुराधा की नजरें मिलीं और दोनों परेशान शिखा की मनोस्थिति की कल्पना कर एकसाथ जोरदार ठहाका मार कर हंस पड़ीं.

‘‘चल, अपने पति की भूतपूर्व प्रेमिका

को सही सबक सिखाने की खुशी में पार्टी करते हैं,’’ नीरजा ने मुसकराते हुए अनुराधा का हाथ थामा और दोनों शान से चलती हुईं रेस्तरां में प्रवेश कर गईं.

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प्रकाश स्तंभ: भाग 2- क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

दोनों सहेलियां भोजन करने लगी थीं पर रचना की विचारशृंखला पहले की भांति ही चलती रही. रम्या आजकल में आने ही वाली थी. दोनों बहनों में एक क्षण को भी नहीं बनती. इस समस्या को कैसे सुलझाएं इसी ऊहापोह में डूबी थी. निमिषा ठीक ही कहती है कि मेरा घर तो पूरा अजायबघर है, इसे सचमुच छोड़ कर भाग जाने का मन होता है.

रचना घर पहुंची तो रम्या आ चुकी थी. उस का पति प्रतीक टीवी देखने में व्यस्त था जबकि रम्या अपना सामान खोल रही थी.

‘मां, अच्छा हुआ आप आ गईं. अब आप ही बता दीजिए कि मैं अपना सामान कहां लगाऊं? मैं दीदी से कह रही थी कि वह ऊपर का कमरा हमारे लिए खाली कर दे. वह अकेली जान नीचे के गेस्टरूम में सरलता से रह लेंगी. हम दोनों ऊपर का कमरा ले लेंगे,’ रम्या रचना को देखते ही बदहवास हो उठी थी.

‘मैं ने पहले ही कहा था कि मैं अपना कमरा किसी को नहीं देने वाली. अतिथियों के लिए अतिथिकक्ष होता है, उन्हें वहीं रहना चाहिए,’ नंदिनी ने रचना के कुछ बोलने से पहले ही अपना निर्णय सुना दिया था.

‘रहने दे रम्या. बड़ी बहन है तेरी. क्यों छेड़ती है बेचारी को. तुम दोनों अपना सामान अतिथिकक्ष में जमा लो. थोड़ा छोटा अवश्य है पर बहुत हवादार और आरामदायक कमरा है,’ रचना ने समझौता करवा दिया था.

‘ठीक है. हमें कौन सा यहां जीवन बिताना है? कहीं भी रह लेंगे…प्रतीक का काम जमते ही हम यहां से चले जाएंगे. हमें तो बड़ा सा, खुला घर चाहिए,’ रम्या ने मुंह बनाया था.

‘छोड़ो, यह सब. इतनी छोटी सी बात के लिए क्यों अपना मन खराब करती हो. कुछ और बताओ. क्या हालचाल हैं. इतने दिनों बाद घर आई हो, इतने दिनों तक क्या किया, कहां घूमेफिरे?’

‘मां, मैं अतिथिकक्ष में अपना सामान जमा लेती हूं. बातें बाद में करेंगे. पहले कुछ खाने को दो. सामान बांधने और यहां आने के चक्कर में नाश्ता तक नहीं किया. बस, एक कप चाय पी थी.’

रम्या की बात सुन कर रचना पिघल उठी थी. बेचारी ने सुबह से कुछ नहीं खाया है.

‘नंदिनी, तुम ने छोटी बहन को खाने तक को नहीं पूछा?’ रचना आश्चर्य- चकित स्वर में पूछ बैठी थी.

‘जरूर कुछ खिलाती माताश्री, पर आप की लाड़ली ने मुझ से कहा तक नहीं कि वह भूखी है. यह शुभ समाचार तो इस ने आप के लिए ही रख छोड़ा था.’

‘चल, मैं अभी कुछ बना देती हूं,’ रचना द्रवित हो उठी थी, ‘बेचारी सुबह से भूखी है.’

रचना ने आननफानन में गरमागरम पूडि़यां और रम्या की पसंद की सब्जी बना दी थी. पिता नीरज गुलाबजामुन ले आए थे. बहुत दिनों बाद पूरा परिवार एकसाथ भोजन करने बैठा था.

‘अच्छा हुआ रम्या, तुम आ गईं, न जाने कितने दिनों बाद आज हम ढंग का भोजन कर रहे हैं…नहीं तो सूखी दालरोटी खातेखाते मन ऊब गया था,’ नंदिनी अपनी प्लेट में पूड़ी डालते हुए बोली थी.

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‘ऐसी बातें तुम्हें शोभा नहीं देतीं नंदिनी, तुम क्या अब भी छोटी बच्ची हो? जो खाने का मन हो स्वयं बना कर खा सकती हो,’ नंदिनी की बात सुन कर रचना तीखे स्वर में बोली थी.

‘हां, पता है कि मैं बच्ची नहीं हूं पर मां, हर क्षण यह बताने की आवश्यकता नहीं है. आगे से मैं अपने लिए खुद ही भोजन बना लूंगी,’ नंदिनी एकदम से भड़क उठी और अपनी प्लेट छोड़ कर वह रोती हुई ऊपर कमरे में चली गई थी.

‘तुम भी चुप नहीं रह सकतीं, रचना. रुला दिया न बेचारी को,’ नीरज बाबू रूखे स्वर में बोले और बेटी को समझाने उस के कमरे में चले गए थे.

नीरज बाबू के समझानेबुझाने से उस समय युद्धविराम अवश्य हो गया था पर दोनों बहनों के बीच शीतयुद्ध की स्थिति बनी रहती थी. रचना को हर घड़ी यही चिंता सताती थी कि कहीं स्थिति विस्फोटक न हो जाए.

‘मां, प्रतीक बहुत बुद्धिमान और परिश्रमी है,’ रम्या बोली, ‘परिवार का थोड़ा सहारा मिल जाता तो पता नहीं कहां से कहां पहुंच जाता. पर उस के पिता और भाई तो उस की शक्ल देखने को तैयार नहीं हैं.’

‘लेकिन बेटी, उसे अपनी नौकरी को कुछ अधिक गंभीरता से लेना चाहिए था कि नहीं?’ रचना ने अपनी बात स्पष्ट की थी.

‘मां, सच पूछो तो अपने पिता के भरोसे ही प्रतीक नौकरी छोड़ कर आया था पर पिता की बेरुखी  से बिलकुल टूट गया है. वैसे भी उस का दोष क्या है मां. यही न कि उस ने अपनी पसंद से विवाह किया है,’ रम्या रो पड़ी थी.

रचना प्रस्तर मूर्ति बनी बैठी रही थीं. काश, वह भी ऐसा कर पातीं, पर नहीं, चाहे कुछ हो जाए वह अपने खून का तिरस्कार करने की सामर्थ्य नहीं रखती थीं.

 

‘कितनी पूंजी चाहिए प्रतीक को?’ ‘कम से कम

15-20 लाख रुपए, मां. एक बार उन का काम चल निकला तो वह आप की पाईपाई चुका देगा.’

‘रम्या, मैं प्रतीक से बात करना चाहती हूं. उस के मुंह में तो लगता है जबान ही नहीं है.’

रम्या लपक कर प्रतीक को बुला लाई थी.

‘देखो, बेटे,’ रचना ने बात स्पष्ट की, ‘मेरी बात को अन्यथा मत लेना. मैं तो तुम्हें केवल अपनी वस्तुस्थिति से अवगत कराना चाहती हूं. हम ठहरे मध्यवर्गीय लोग. हमारा काम अवश्य चलता रहता है पर व्यापार के लिए बड़ी रकम जुटा पाना हमारे लिए संभव नहीं है. लेदे कर यह एक घर ही है. कम से कम सिर पर छत होने का संतोष तो है, जहां हर परिस्थिति में शरण ली जा सकती है.

‘मैं तो तुम्हें यही सलाह दूंगी कि एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ लो तुम दोनों. थोड़ा अनुभव और पूंजी दोनों पास हों तो व्यापार करने में सरलता रहती है. तुम समझ रहे हो न?’ प्रतीक के चेहरे पर बेचैनी के भाव देख कर वह पूछ बैठी थीं.

प्रतीक कुछ क्षणों तक शून्य में ताकता चुप बैठा रह गया था. रचना मन ही मन बदहवास हो उठी थीं. प्रतीक सामान्य तो है? ऐसा क्या है इस में जिस पर रम्या रीझ गई थी. रचना ने इसे भी नियति का खेल जान कर खुद को समझाना चाहा था.

आखिर मौन रम्या ने ही तोड़ा था, ‘मां, हम आप से सलाह नहीं सहायता की उम्मीद ले कर आए थे.’

‘बेटी, मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार हर सहायता करने को तैयार हूं.’

उस दिन से रम्या ने उन से बोलचाल भी अत्यंत सीमित कर दी थी. कभी सामने पड़ जाती तो रचना ही बोल पड़ती अन्यथा रम्या और प्रतीक अपने ही कक्ष में सिमटे रहते.

ऐसे में सीशैल्स जाने का प्रस्ताव उन्हें ताजी हवा के झोंके की भांति लगा था. कुछ विशेष भत्तों के साथ उन्हें पदोन्नति दे कर भेजा जा रहा था. साथ ही नई शाखा स्थापित करने का अपना रोमांच भी था.

इसी ऊहापोह में देर तक सोचती हुई कब वह निद्रा की गोद में समा गईं उन्हें स्वयं ही पता नहीं चला था. नीरज ने जब बत्ती जलाई तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

‘‘सो रही थीं क्या? सोना ही है तो आराम से पलंग पर सो जाओ, मैं बत्ती बुझा देता हूं,’’ नीरज बाबू धीरगंभीर स्वर में बोले थे.

‘‘थकान के कारण आंख लग गई थी. अभी सोने का मन नहीं है,’’ वह उठीं, घड़ी पर नजर डाली. अभी 9 ही बजे थे पर ऐसी शांति थी मानो आधी रात हो. चूंकि टीवी बंद था इसलिए उन्हें अजीब सा लगा.

‘‘क्या बात है नीरज, नाराज हो क्या? कुछ तो बोलो?’’

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‘‘बोलने को क्या बचा है, रचना? तुम ने फैसला लिया है तो सोचसमझ कर ही लिया होगा. मुझे तो सदा यही अपराधबोध सताता है कि मैं ने तुम्हारे साथ अन्याय किया है. पर सच मानो, मैं ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया है,’’ नीरज बाबू का स्वर बेहद उदास था.

‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. तुम ने तो हर कदम पर मुझे मजबूत सहारा प्रदान किया है. केवल तुम्हारे ही बलबूते पर तो मैं बेधड़क कोई भी निर्णय ले लेती हूं. तुम्हारा मेरे जीवन में जो महत्त्व है उसे पैसे से नहीं आंका जा सकता,’’ रचना का स्वर अनजाने ही भीग गया था.

नीरज बाबू हंस दिए थे. एक उदास खोखली सी हंसी जो रचना के दिल को छलनी करती चली गई थी.

‘‘इस तरह मन क्यों छोटा करते हो,’’ रचनाजी बोलीं, ‘‘मैं अकेली नहीं जा रही, हम दोनों साथ जा रहे हैं. नंदिनी और रम्या स्वयं को संभालने योग्य हो गई हैं.’’

‘‘लेकिन रचना, नंदिनी का हाल तो तुम जानती ही हो. हम दोनों के सहारे के बिना कैसे जीएगी वह.’’

‘‘मां हूं मैं, फिर भी मन को समझा लिया है मैं ने. शायद जो हमारी मौजूदगी से संभव नहीं हुआ वह हमारी गैरमौजूदगी में हो जाए. जब समस्या सिर पर आ खड़ी होती है तो हल ढूंढ़ने के अलावा और कौन सा रास्ता शेष रह जाता है?’’ रचना ने समझाना चाहा था.

‘‘ठीक है. मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो,’’ और कुछ दिनों की ऊहापोह के बाद वह मान गए थे. रचना ने अनेक तर्क दे कर उन्हें साथ जाने के लिए मना लिया था.

आगे पढ़ें- रचना बेटी के कमरे में जा बैठीं और…

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सौतेली: भाग 1- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

जब से जानकी बूआ ने शेफाली को यह बतलाया कि उस की गैरमौजूदगी में उस के पापा ने दूसरी शादी की है तब से उस का मन यह सोच कर बेचैन हो रहा था कि जब वह घर वापस जाएगी तो वहां एक ऐसी अजनबी औरत को देखेगी जो उस की मां की जगह ले चुकी होगी और जिसे उस को ‘मम्मी’ कह कर बुलाना होगा.

पापा की शादी की बात सुन शेफाली के अंदर विचारों के झंझावात से उठ रहे थे.

मम्मी की मौत के बाद शेफाली ने पापा को जितना गमगीन और उदास देखा था उस से ऐसा नहीं लगता था कि वह कभी दूसरी शादी की सोचेंगे. वैसे भी मम्मी जब जिंदा थीं तो शेफाली ने उन को कभी पापा से झगड़ते नहीं देखा था. दोनों में बेहद प्यार था.

मम्मी को कैंसर होने का पता जब पापा को चला तो उन्हें छिपछिप कर रोते हुए शेफाली ने देखा था.

यह जानते हुए भी कि मम्मी बस, कुछ ही दिनों की मेहमान हैं पापा ने दिनरात उन की सेवा की थी.

इन सब बातों को देख कर कौन कह सकता था कि वह मम्मी की बरसी का भी इंतजार नहीं करेंगे और दूसरी शादी कर लेंगे.

अब जब पापा की दूसरी शादी एक कठोर हकीकत बन चुकी थी तो शेफाली को अपने दोनों छोटे भाईबहन की चिंता होने लगी थी. बहन मानसी से कहीं अधिक चिंता शेफाली को अपने छोटे भाई अंकुर की थी जो 5वीं कक्षा में पढ़ रहा था.

मम्मी को कैंसर होने का जब पता चला था तो शेफाली बी.ए. फाइनल में थी और बी.ए. करने के बाद बी.एड. करने का सपना उस ने देखा था. लेकिन मम्मी की असमय मृत्यु से शेफाली का वह सपना एक तरह से बिखर गया था.

शेफाली बड़ी थी. इसलिए मम्मी की मौत के बाद उस को लगा था कि छोटे भाईबहन के साथसाथ पापा की देखभाल की जिम्मेदारी भी उस के कंधों पर आ गई थी और उस ने भी अपने दिलोदिमाग से इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए खुद को तैयार कर लिया था.

मगर शेफाली को हैरानी उस समय हुई जब मम्मी की मौत के 3-4 महीने बाद ही पापा ने उस को खुद ही बी.एड. करने के लिए कह दिया.

शेफाली ने तब यह कहा था कि अगर वह भी पढ़ाई में लग गई तो घर को कौन देखेगा तो पापा ने कहा, ‘घर की चिंता तुम मत करो, यह देखना मेरा काम है. तुम अपने भविष्य की सोचो और अपनी आगे की पढ़ाई शुरू कर दो.’

‘मगर यहां बी.एड. के लिए सीट का मिलना मुश्किल है, पापा.’

‘तो क्या हुआ, तुम्हारी जानकी बूआ जम्मू में हैं. सुनने में आता है कि वहां आसानी से सीट मिल जाती है. मैं जानकी से फोन पर इस बारे में बात करूंगा. वह इस के लिए सारा प्रबंध कर देगी,’ पापा ने शेफाली से कहा था.

शेफाली तब असमंजस से पापा का मुख ताकती रह गई थी, क्योंकि ऐसा करना न तो घर के हालात को देखते हुए सही था और न ही दुनियादारी के लिहाज से. लेकिन पापा तो उस को जानकी बूआ के पास भेजने का मन बना ही चुके थे.

शेफाली की दलीलों और नानुकुर से पापा का इरादा बदला नहीं था और हमेशा दूसरों के घर की हर बात पर टीकाटिप्पणी करने वाली जानकी बूआ को भी पापा के फैसले पर कोई एतराज नहीं हुआ था. होता भी क्यों? शायद पापा जो भी कर रहे थे जानकी बूआ के इशारे पर ही तो कर रहे थे.

उसे लगा सबकुछ पहले से ही तय था. बी.एड. की पढ़ाई तो जैसे उस को घर से निकालने का बहाना भर था.

अब सारी तसवीर शेफाली के सामने बिलकुल साफ हो चुकी थी. शायद मम्मी की मौत के तुरंत बाद ही गुपचुप तरीके से पापा की दूसरी शादी की कोशिशों का सिलसिला शुरू हो गया था. शेफाली को पक्का यकीन था कि इस में जानकी बूआ ने अहम भूमिका निभाई होगी.

मम्मी की मौत पर जानकी बूआ की आंखें सूखी ही रही थीं. फिर भी छाती पीटपीट कर विलाप करने का दिखावा करने के मामले में बूआ सब से आगे थीं.

एक तो वैसे भी जानकी बूआ का रिश्ता दिखावे का था. दूसरे, मम्मी से बूआ की कभी बनी न थी. उन के रिश्ते में खटास रही थी. इस खटास की वजह अतीत की कोई घटना हो सकती थी. इस के बारे में शेफाली को कोई जानकारी न थी.

लगता तो ऐसा है कि मम्मी के कैंसर होने की बात जानते ही जानकी बूआ ने दोबारा भाई का घर बसाने की बात सोचनी शुरू कर दी थी. तभी तो जबतब इशारों ही इशारों में बूआ अपने अंदर की इच्छा यह कह कर जाहिर कर देती कि औरत के बगैर घर कोई घर नहीं होता. पापा ने भी शायद दोबारा शादी के लिए जानकी बूआ को मौन स्वीकृति दी होगी. तभी तो योजनाबद्ध तरीके से सारी बात महीनों में ही सिरे चढ़ गई थी.

चूंकि मैं बड़ी व समझदार हो गई थी. मुझ से बगावत का खतरा था इसलिए मुझे बी.एड. की पढ़ाई के बहाने बड़ी खूबसूरती से घर से बाहर निकाल दिया गया था.

पापा की दूसरी शादी करवा कर वापस आने के बाद जानकी बूआ शेफाली के साथ ठीक से आंख नहीं मिला पा रही थीं और तरहतरह से सफाई देने की कोशिश कर रही थीं.

किंतु अब शेफाली को बूआ की हर बात में केवल झूठ और मक्कारी नजर आने लगी थी इसलिए उस के मन में बूआ के प्रति नफरत की एक भावना बन गई थी.

फूफा शायद शेफाली के दिल के हाल को बूआ से ज्यादा बेहतर समझते थे इसलिए उन्होंने नपेतुले शब्दों में उस को समझाने की कोशिश की थी, ‘‘मैं तुम्हारे दिल की हालत को समझता हूं बेटी, मगर जो भी हकीकत है अब तुम्हें उस को स्वीकार करना ही होगा. नए रिश्तों से जुड़ना बड़ा मुश्किल होता है लेकिन उस से भी मुश्किल होता है पहले वाले रिश्तों को तोड़ना. इस सच को भी तुम्हें समझना होगा.’’

घर जाने के बारे में शेफाली जब भी सोचती नर्वस हो जाती. उस के हाथपांव शिथिल पड़ने लगते. कैसा अजीब लगेगा जब वह मम्मी की जगह पर एक अजनबी और अनजान औरत को देखेगी? वह औरत कैसी और किस उम्र की थी, शेफाली नहीं जानती मगर वह उस की सौतेली मां बन चुकी थी, यह एक हकीकत थी.

‘सौतेली मां’ का अर्थ शेफाली अच्छी तरह से जानती थी और ऐसी मांओं के बारे में बहुत सी बातें उस ने सुन भी रखी थीं. अपने से ज्यादा उसे छोटे भाईबहन की चिंता थी. वह नहीं जानती थी कि सौतेली मां उन के साथ कैसा व्यवहार कर रही होंगी.

जानकी बूआ शेफाली से कह रही थीं कि वह एक बार घर हो आए और अपनी नई मम्मी को देख ले लेकिन शेफाली ने बूआ की बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया, क्योंकि अब उन की अच्छी बात भी उसे जहर लगती थी. इस बीच पापा का 2-3 बार फोन आया था पर शेफाली ने उन से बात करने से मना कर दिया था.

आगे पढ़ें- शेफाली की इस धमकी से बूआ…

प्रकाश स्तंभ: भाग 3- क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

नंदिनी के व्यवहार में अब अजीब परिवर्तन देखा था रचना ने. वह कुछ खिंचीखिंची सी रहने लगी थी और बहुत जरूरी होने पर ही उन से बात करती. ज्यादातर अपने कमरे में बैठी, स्वयं में ही व्यस्त रहने लगी थी.

एक दिन रचना बेटी के कमरे में जा बैठीं और बोलीं, ‘‘क्या बात है नंदिनी, आजकल बहुत चुप रहने लगी हो?’’

‘‘मां, आप के पास भी कहां समय है मेरे लिए? आप तो कामक ाजी महिला हैं. मेरे जैसी निठल्ली थोड़े ही हैं…फिर अब तो आप विदेश जा रही हैं,’’ नंदिनी के स्वर का व्यंग्य उन से छिप नहीं सका था.

‘‘भविष्य संवारने के लिए एक से दूसरे स्थान जाने का सिलसिला तो सालों से चल रहा है बेटी. वैसे मैं तुम लोगों का पूरा प्रबंध कर के जा रही हूं. तुम्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होगी. यदि कभी अचानक कोई जरूरत आ पड़े तो तुम्हारे मामा हैं न यहां. वह कह भी रहे थे कि तुम दोनों बहनों का वह पूरा खयाल रखेंगे.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ नंदिनी ने निश्वास लेते हुए कहा और बात आईगई हो गई थी.

1 माह का समय कैसे बीत गया रचना को पता भी नहीं चला. इस दौरान दफ्तर और घर दोनों ही जगहों पर उन की व्यस्तता बढ़ गई थी. जब जाने का समय आया तो रचना रो पड़ी थीं. नीरज बाबू का मन भी बोझिल हो उठा था पर वह पत्नी को ढाढ़स बंधाते रहे थे.

उधर मातापिता को विदा कर लौटी नंदिनी घर पहुंचते ही फूटफूट कर रो पड़ी थी. जब बहुत देर तक उस का रोना बंद नहीं हुआ तो रम्या के संयम का बांध टूट गया.

‘‘अब कब तक यों रोनेपीटने का कार्यक्रम चलेगा, दीदी,’’ वह बेहाल स्वर में बोली थी.?

‘‘मांपापा चले गए हैं, यह पता है मुझे. मैं तो इसलिए रो रही हूं कि मां ने एक बार भी मुझ से साथ चलने को नहीं कहा,’’ नंदिनी सुबकते हुए बोली थी.

‘‘लो और सुनो, तुम्हारे कारण ही तो मांपापा घर क्या देश भी छोड़ कर चले गए. फिर तुम्हें साथ चलने को कहने का क्या औचित्य था?’’ रम्या खिलखिला कर हंसी थी.

‘‘वे मेरे कारण नहीं तुम्हारे कारण गए हैं. जब देखो तब पैसा चाहिए. मैं पूछती हूं कि जब पूंजी नहीं है तो व्यापार करना जरूरी है क्या? प्रतीक नौकरी नहीं कर सकते?’’ नंदिनी क्रोध में आ गई थी.

‘‘दीदी, मुझे कुछ भी कहो पर प्रतीक को बीच में न ही लाओ तो अच्छा है. पूंजी के लिए मां से मैं ने कहा था प्रतीक ने नहीं,’’ रम्या ने विरोध प्रकट किया था.

सुनते ही नंदिनी भड़क उठी थी और आरोपप्रत्यारोपों का सिलसिला कुछ इस तरह चला कि प्रतीक को हस्तक्षेप करना पड़ा.

‘‘यदि आप दोनों बहनों का झगड़ा शांत हो गया हो तो हम भोजन कर लें. मुझे जोर की भूख लगी है. मैं ने मेज पर खाना लगा दिया है,’’ प्रतीक ने अनुनयपूर्ण स्वर में पूछा था.

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उस के नाटकीय अंदाज को देख कर रम्या शांत हो गई और नंदिनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई थी.

‘‘दीदी को भी बुला लो नहीं तो वह भूखी ही सो जाएंगी,’’ प्रतीक बोला था.

‘‘मैं न कभी रूठती हूं और न रूठे हुए को मनाती हूं,’’ रम्या ने उत्तर दिया था.

‘‘ठीक है तो मैं बुला लाता हूं उन्हें,’’ प्रतीक उठ खड़ा हुआ था.

‘‘अरे, वाह, आज दीदी के लिए बड़ा प्यार उमड़ रहा है?’’

‘‘रम्या, समझ से काम लो. मम्मीपापा अब नहीं हैं यहां जो तुम्हारी दीदी को मना कर खिलापिला देंगे. तुम दोनों एकदूसरे की चिंता नहीं करोगी तो कौन करेगा?’’ प्रतीक ने समझाना चाहा था.

‘‘बड़ी वह हैं मैं नहीं. यों बातबात पर रूठना, उन्हें शोभा देता है क्या? मैं नहीं जाने वाली उन्हें मनाने,’’ रम्या ने दोटूक उत्तर दे दिया था.

प्रतीक नंदिनी को बुलाने चला गया था. वह प्रतीक के साथ आई तो तीनों भोजन करने बैठे पर दोनों बहनें बातचीत करना तो दूर एकदूसरे से नजरें मिलाने से भी कतरा रही थीं.

नंदिनी ने चुपचाप भोजन किया और फिर अपने कमरे में जा बैठी थी.

‘‘देखा तुम ने? ऐसा कितने दिन चलेगा, आईं, खाना खाया और फिर अपने कमरे में जा बैठीं. हम दोनों क्या उन के सेवक हैं जो सारा काम करते रहें.’’

‘‘वह तुम्हारी बड़ी बहन हैं, रम्या. लोग तो अनजान लोगों की भी सेवा कर देते हैं. मन शांत रखोगी तो स्वयं भी चैन से रहोगी और दूसरे भी आनंदित रहेंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. कुछ रिक्त स्थानों के विज्ञापन देखे थे, उन्हें भेजने के लिए प्रार्थनापत्र टाइप करने हैं,’’ वह उठ खड़ी हुई थी.

‘‘रम्या, तुम अपनी पुरानी कंपनी में पुन: प्रयत्न क्यों नहीं करतीं. शायद बात बन जाए,’’ प्रतीक ने सलाह दी थी.

‘‘क्या कह रहे हो? जब मैं ने अचानक नौकरी छोड़ी थी तो हमारे प्रबंध निदेशक आगबबूला हो गए थे. विवाह के लिए 2 माह का वेतन अग्रिम लिया था. उसे चुकाए बिना ही मैं छोड़ आई थी. अब क्या मुंह ले कर वहां जाऊंगी?’’ रम्या रोंआसी हो उठी थी.

‘‘तुम ने ऐसा किया ही क्यों? तुम्हारे नए नियोक्ता अवश्य उन से पूछताछ करेंगे.’’

‘‘इसीलिए तो मैं कंपनी का नाम तक नहीं ले रही.’’

‘‘ऐसा करने से कर्मचारी की साख को बट्टा लगता है. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.’’

‘‘क्या पता था, फिर से नौकरी करनी पड़ेगी,’’ रम्या बोली, ‘‘विवाह से पहले कितने सपने देखे थे, सब मिट्टी में मिल गए.’’

‘‘यों मन छोटा नहीं करते, मैं नौकरी और व्यापार दोनों के लिए प्रयत्न कर रहा हूं. कुछ मित्रों से बात की है. कुछ न कुछ हो जाएगा,’’ प्रतीक ने आश्वासन दिया था.

अगले दिन रम्या और प्रतीक सो कर उठे तो नंदिनी चाय बना रही थी. आशा के विपरीत वह टे्र में 3 प्याली चाय ले कर आई और प्रतीक और रम्या को उन की चाय थमा कर अपनी चाय पीने लगी थी.

‘‘धन्यवाद, दीदी, चाय बहुत अच्छी बनी थी,’’ प्रतीक आखिरी घूंट लेते हुए बोला था.

‘‘धन्यवाद तो मुझे देना चाहिए. रात्रि के भोजन के लिए तुम नहीं बुलाते तो शायद मैं भूखी ही सो जाती. इस घर में तो मेरे खाने न खाने से किसी को अंतर ही नहीं पड़ता,’’ नंदिनी भरे गले से बोली थी.

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रम्या ने चौंक कर नंदिनी को देखा था.

‘‘आप क्यों चिंता करती हैं, दीदी, हम हैं न. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा,’’ प्रतीक ने ढाढ़स बंधाया था.

समय अपनी गति से बढ़ता रहा. रम्या ने अनेक प्रयत्न किए पर कहीं सफलता नहीं मिली. आखिर उस ने अपनी पुरानी कंपनी में जाने का निर्णय लिया.

‘‘नमस्ते, सर,’’ रम्या ने प्रबंध निदेशक अस्थाना के कमरे में घुसते ही अभिवादन किया था.

‘‘ओह रम्या, कहो कैसी हो, तुम विवाह करते ही ऐसी गायब हुईं जैसे गधे के सिर से सींग. तुम तो यह भी भूल गईं कि तुम ने कंपनी से 2 माह का अग्रिम वेतन लिया हुआ था.’’

‘‘यह मैं कैसे भूल सकती हूं सर. सच पूछिए तो कुछ व्यक्तिगत समस्याओं में ऐसी उलझ गई कि आ ही नहीं सकी. उस के लिए क्षमा प्रार्थी हूं.’’

‘‘ओह, तो काम करने आई हो तुम? पर मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता. मेरे ऊपर भी कुछ अफसर हैं और उन से आज्ञा लिए बिना तुम्हें फिर काम पर रखना संभव नहीं हो सकेगा.’’

‘‘लेकिन सर, यदि आप ने मुझे काम पर नहीं रखा तो 2 माह का वेतन चुकाने की सामर्थ्य मुझ में कहां है?’’

‘‘ठीक है, तुम अपना प्रार्थनापत्र छोड़ जाओ. कोई निर्णय लेते ही सूचित करेंगे,’’ अस्थाना साहब ने दोटूक शब्दों में कह दिया था.

थकीहारी रम्या घर पहुंची तो वह चौंक गई. घर में तीव्र स्वर लहरियां गूंज रही थीं. अंदर पहुंची तो पाया कि नंदिनी दीदी एक लोकप्रिय गीत की धुन पर थिरक रही थीं. कुछ देर तो रम्या ठगी सी उन्हें देखती रही थी.

‘‘दीदी, तुम तो छिपी रुस्तम निकलीं. इतना अच्छा नृत्य करती हो तुम और मुझे पता तक नहीं,’’ वह बोली थी.

‘‘जब मन प्रसन्न हो तो पांव स्वयं ही थिरक उठते हैं,’’ नंदिनी भावविभोर स्वर में बोली थी और फिर एक पत्र उस की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘ओह दीदी, एंजल कानवेंट स्कूल की ओर से भेजा गया यह तो तुम्हारा नियुक्तिपत्र है.’’

‘‘वही तो, यह मेरा पहला नियुक्ति- पत्र है. शायद मुझ अभागी का भाग्य भी करवट ले रहा है.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते दीदी. मैं जानती थी कि एक न एक दिन तुम अवश्य अपनी योग्यता के झंडे गाड़ोगी.’’

‘‘रम्या, मुझे कल से ही काम पर जाना है पर तुम चिंता मत करना. मैं सारा काम कर लूंगी,’’ नंदिनी ने रम्या का मुंह मीठा करवाया था.

‘‘रम्या, कहां हो? देखो तो, बड़ा ही सुखद समाचार है,’’ कुछ ही देर में प्रतीक ने प्रवेश किया था.

‘‘कहो न, क्या बात है?’’

‘‘मैं ने अपने 3 दोस्तों के साथ मिल कर सौफ्टवेयर कंपनी बना ली है. बैंक ने कर्ज देने की बात भी मान ली है. मेरे एक हिस्सेदार के पिता बैंक में कार्यरत हैं. उन्होंने हमारी बड़ी सहायता की. अब तुम्हें कहीं नौकरी करने की जरूरत नहीं है.’’

रचना और नीरज बाबू को फोन पर जब नंदिनी और प्रतीक ने अपनी सफलता की बात बताई तो उन की प्रसन्नता की सीमा न रही. रचना तो अपनी बेटियों को याद कर सिसक उठी थीं.

‘‘मन हो रहा है कि मैं उड़ कर अपने घर पहुंच जाऊं और दोनों बेटियों को गले से लगा लूं,’’ रचना बोली थीं.

‘‘मैं तो अगले सप्ताह ही उड़ कर अपनी बेटियों के पास जा रहा हूं, कई अधूरे काम पूरे करने हैं,’’ वह बोले थे.

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‘‘मैं भी छुट्टी ले कर चलती हूं. नंदिनी और रम्या से मिलने को बड़ा मन हो रहा है,’’ रचना ने कहा तो नीरज बाबू प्रसन्नता से झूम उठे थे.

‘‘मैं ने कई जगह नंदिनी के विवाह की बात चलाई है. 2-3 जगह से कुछ आशा बंधी है. इस बार भारत जा कर नंदिनी का विवाह कर के ही लौटेंगे,’’ रचना पुलकित स्वर में बोलीं और नंदिनी के लिए आए विवाह प्रस्तावों की पतिपत्नी मिल कर कंप्यूटर पर विवेचना करने लगे थे.

‘‘क्यों न यह विवरण और फोटो नंदिनी को भेज दें. उस की राय भी तो जान लें,’’ नीरज बाबू बोले.

‘‘नहीं, यह सुखद समाचार तो वहां पहुंच कर हम स्वयं सुनाएंगे. नंदिनी के चेहरे पर आने वाले भाव मैं स्वयं देखना चाहती हूं,’’ रचना मुसकरा दी थीं. उस प्रकाश स्तंभ की भांति जो स्वयं निश्चल खड़ा रह कर भी दूरदूर तक लोगों को राह दिखाता है.

सौतेली: भाग 2- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

जानकी बूआ ने शेफाली पर घर जाने और पापा से फोन पर बात करने का दबाव बनाने की कोशिश की तो उस ने बूआ को सीधी धमकी दे डाली, ‘‘बूआ, अगर आप किसी बात के लिए मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो सच कहती हूं, मैं इस घर को भी छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी और फिर कभी किसी को नजर नहीं आऊंगी.’’

शेफाली की इस धमकी से बूआ थोड़ा डर गई थीं. इस के बाद उन्होंने शेफाली पर किसी बात के लिए जोर देना ही बंद कर दिया था.

शेफाली को यह भी पता था कि वह हमेशा के लिए बूआ के घर में नहीं रह सकती थी. 5-6 महीने के बाद जब उस की बी.एड. की पढ़ाई खत्म हो जाएगी तो उस के पास बूआ के यहां रहने का कोई बहाना नहीं रहेगा.

तब क्या होगा?

आने वाले कल के बारे में जितना सोचती उतना ही अनिश्चितता के धुंधलके में घिर जाती. बगावत पर आमादा शेफाली का मन उस के काबू में नहीं रहा था.

फूफा से शेफाली कम ही बात करती थी. बूआ से तो उस का छत्तीस का आंकड़ा था लेकिन उस घर में शेफाली जिस से अपने दुखसुख की बात करती थी वह थी रंजना, जानकी बूआ की बेटी.

रंजना लगभग उसी की हमउम्र थी और एम.ए. कर रही थी.

रंजना उस के दिल के हाल को समझती थी और मानती थी कि उस के पापा ने उस की गैरमौजूदगी में शादी कर के गलत किया था. इस के साथ वह शेफाली को हालात के साथ समझौता करने की सलाह भी देती थी.

सौतेली मां के लिए शेफाली की नफरत को भी रंजना ठीक नहीं समझती थी.

वह कहती थी, ‘‘बहन, तुम ने अभी उस को देखा नहीं, जाना नहीं. फिर उस से इतनी नफरत क्यों? अगर किसी औरत ने तुम्हारी मां की जगह ले ली है तो इस में उस का क्या कुसूर है. कुसूर तो उस को उस जगह पर बिठाने वाले का है,’’ ऐसा कह कर रंजना एक तरह से सीधे शेफाली के पापा को कुसूरवार ठहराती थी.

कुसूर किसी का भी हो पर शेफाली किसी भी तरह न तो किसी अनजान औरत को मां के रूप में स्वीकार करने को तैयार थी और न ही पापा को माफ करने के लिए. वह तो यहां तक सोचने लगी थी कि पढ़ाई पूरी होने पर उस को जानकी बूआ का घर भले ही छोड़ना पडे़ लेकिन वह अपने घर नहीं जाएगी. नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ी होगी और अकेली किसी दूसरी जगह रह लेगी.

2 बार मना करने के बाद पापा ने फिर शेफाली से फोन पर बात करने की कोशिश नहीं की थी. हालांकि जानकी बूआ से पापा की बात होती रहती थी.

मानसी और अंकुर से शेफाली ने फोन पर जरूर 2-3 बार बात की थी, लेकिन जब भी मानसी ने उस से नई मम्मी के बारे में चर्चा करने की कोशिश की तो शेफाली ने उस को टोक दिया था, ‘‘मुझ से इस बारे में बात मत करो. बस, तुम अपना और अंकुर का खयाल रखना,’’ इतना कहतेकहते शेफाली की आवाज भीग जाती थी. अपना घर, अपने लोग एक दिन ऐसे बेगाने बन जाएंगे शेफाली ने कभी सोचा नहीं था.

पहले तो शेफाली सोचती थी कि शायद पापा खुद उस को मनाने जानकी बूआ के यहां आएंगे पर एकएक कर कई दिन बीत जाने के बाद शेफाली के अंदर की यह आशा धूमिल पड़ गई.

इस से शेफाली ने यह अनुमान लगाया कि उस की मम्मी की जगह लेने वाली औरत (सौतेली मां) ने पापा को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है. इस सोच में उस के अंदर की नफरत को और गहरा कर दिया.

अचानक एक दिन बूआ ने नौकरानी से कह कर ड्राइंगरूम के पिछले वाले हिस्से में खाली पड़े कमरे की सफाई करवा कर उस पर कीमती और नई चादर बिछवा दी थी तो शेफाली को लगा कि बूआ के घर कोई मेहमान आने वाला है.

शेफाली ने इस बारे में रंजना से पूछा तो वह बोली, ‘‘मम्मी की एक पुरानी सहेली की लड़की कुछ दिनों के लिए इस शहर में घूमने आ रही है. वह हमारे घर में ही ठहरेगी.’’

‘‘क्या तुम ने उस को पहले देखा है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ रंजना का जवाब था.

शेफाली को घर में आने वाले मेहमान में कोई दिलचस्पी नहीं थी और न ही उस से कुछ लेनादेना ही था. फिर भी वह जिन हालात में बूआ के यहां रह रही थी उस के मद्देनजर किसी अजनबी के आने के खयाल से उस को बेचैनी महसूस हो रही थी.

वह न तो किसी सवाल का सामना करना चाहती थी और न ही सवालिया नजरों का.

जानकी बूआ की मेहमान जब आई तो शेफाली उसे देख कर ठगी सी रह गई.

चेहरा दमदमाता हुआ सौम्य, शांत और ऐसा मोहक कि नजर हटाने को दिल न करे. होंठों पर ऐसी मुसकान जो बरबस अपनी तरफ सामने वाले को खींचे. आंखें झील की मानिंद गहरी और खामोश. उम्र का ठीक से अनुमान लगाना मुश्किल था फिर भी 30 और 35 के बीच की रही होगी. देखने से शादीशुदा लगती थी मगर अकेली आई थी.

जानकी बूआ ने अपनी सहेली की बेटी को वंदना कह कर बुलाया था इसलिए उस के नाम को जानने के लिए किसी को कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी थी.

मेहमान को घर के लोगों से मिलवाने की औपचारिकता पूरी करते हुए जानकी बूआ ने अपनी भतीजी के रूप में शेफाली का परिचय वंदना से करवाया था तो उस ने एक मधुर मुसकान लिए बड़ी गहरी नजरों से उस को देखा था. वह नजरें बडे़ गहरे तक शेफाली के अंदर उतर गई थीं.

शेफाली समझ नहीं सकी थी कि उस के अंदर गहरे में उतर जाने वाली नजरों में कुछ अलग क्या था.

‘‘तुम सचमुच एक बहुत ही प्यारी लड़की हो,’’ हाथ से शेफाली के गाल को हलके से थपथपाते हुए वंदना ने कहा था.

उस के व्यवहार के अपनत्व और स्पर्श की कोमलता ने शेफाली को रोमांच से भर दिया था.

शेफाली तब कुछ बोल नहीं सकी थी.

जानकी बूआ वंदना की जिस प्रकार से आवभगत कर रही थीं वह भी कोई कम हैरानी की बात नहीं थी.

एक ही घर में रहते हुए कोई कितना भी अलगअलग और अकेला रहने की कोशिश करे मगर ऐसा मुमकिन नहीं क्योंकि कहीं न कहीं एकदूसरे का सामना हो ही जाता है.

शेफाली और वंदना के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दोनों अकेले में कई बार आमनेसामने पड़ जाती थीं. वंदना शायद उस से बात करना चाहती थी लेकिन शेफाली ही उस को इस का मौका नहीं देती थी और केवल एक हलकी सी मुसकान अधरों पर बिखेरती हुई वह तेजी से कतरा कर निकल जाती थी.

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सही रास्ता: आखिर चोर कौन था

लेखक- डा. गोपाल नारायण आवटे

जैसे ही जेब में रुपयों को निकालने के लिए हाथ डाला तो उसे अनुभव हुआ, जेब में कुछ भी नहीं है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं था. अभी महीना पूरा होने में 15 दिनों का समय शेष था.उस ने पत्नी को आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘मुन्ना की अम्मा, जरा इधर आओ.’’

मुन्ना की मम्मी सुबह काम में व्यस्त थी, लेकिन हाथ का काम छोड़ कर आ कर बोली, ‘‘क्या बात हो गई?’’

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए गायब हैं,’’ उस ने क्रोध से कहा.

‘‘कहीं रख कर भूल गए होंगे, देखो, मिल जाएंगे,’’ मुन्ना की मम्मी ने उत्तर दिया.

‘‘मेरा मतलब है तुम ने तो नहीं लिए?’’

‘‘मैं क्यों लेने लगी? अगर मुझे चाहिए होते तो क्या मैं तुम्हें बताती नहीं?’’ मुन्ना की मम्मी ने कहा, फिर आगे कह उठी, ‘‘तुम्हीं ने खर्च कर दिए होंगे और यहां खोज रहे हो.’’

‘‘तुम समझने की कोशिश करो, मैं ने ऐसा कोई खर्च नहीं किया, और करता भी तो क्या मुझे याद नहीं होता?’’ उस ने प्रतिवाद किया.

‘‘मैं ने तुम्हारे रुपए नहीं निकाले,’’ कहते हुए मुन्ना की मम्मी नाश्ता बनाने के लिए अंदर चली गई.

वह परेशान हो गया. आखिर रुपए, वह भी हजारों में थे, कैसे और कहां चले गए? परिवार में केवल एक बेटा मुन्ना ही है और वह जानता है कि मुन्ना को किसी भी प्रकार की कोई गंदी या नशे की आदत नहीं है कि वह चोरी करे या जेब से रुपए निकाले. पचासों बार उसे जब भी आवश्यकता रही, मुन्ना ने कहा था, ‘पापा, मुझे 50 रुपए चाहिए, पिकनिक पर जाना है.’

उस ने उस से कहा था, ‘जा कर पैंट की जेब में से निकाल लो.’ मुन्ना ने 50 ही रुपए लिए थे. कभी भी एक रुपए के लेनदेन में गड़बड़ी नहीं की थी. कभी बाजार से सौदा लाने को भेजते तो लौटने के बाद 2 रुपए भी बचते तो वह लौटा देता था. आज तक मुन्ना ने कभी बिना पूछे रुपए नहीं लिए. अब क्यों लेगा? यदि मुन्ना को रुपए लेने ही थे तो वह इतने रुपयों को क्यों लेता? इतने रुपयों का वह करेगा भी क्या?

पिछले दिनों उस ने मोबाइल खरीदने की मांग जरूर की थी, लेकिन उस ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘मुन्ना, तुम्हारी बर्थडे पर हम गिफ्ट कर देंगे. इन दिनों तंगी है.’

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‘जी पापा,’ मुन्ना ने कहा था.

वह बहुत परेशान हो गया था. अभी महीना भी पूरा नहीं हो पाया था, इस पर आजकल कितनी महंगाई है और आमदनी कितनी कम है. दिनभर आटोरिक्शा चलाने के बाद 2-3 सौ रुपयों की बचत हो पाती है. पत्नी से तो उस ने पूछ लिया, यदि मुन्ना से पूछ लें तो क्या हर्ज है? लेकिन बेटा क्या सोचेगा? उस को पूरे महीने की चिंता थी. उस ने मुन्ना को आवाज दी, जो अभी सो कर उठा था और बाथरूम में जाने की तैयारी में था. मुन्ना आ कर खड़ा हो गया.

‘‘मुन्ना, तुम ने कुछ रुपए निकाले?’’

‘‘कहां से?’’

‘‘मेरी जेब से.’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ घबराए स्वर में मुन्ना ने कहा.

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए निकल गए बेटा, पता नहीं चल पा रहा कहां गए,’’ परेशानी भरे स्वर में उस ने कहा.

‘‘मैं जाऊं पापा?’’ मुन्ना का स्वर अभी तक घबराया सा था, मानो उसी ने चोरी की हो. लेकिन वह क्यों और किस काम के लिए रुपए निकालेगा? बारबार उस का शक मुन्ना पर जा कर पत्नी तक जाता और फिर वह पैंट की दूसरी जेबों में देखने लगता. अकसर इधरउधर वह जहां भी रुपयों को रख देता था, सब जगह उस ने रुपयों को देखा, लेकिन रुपयों को नहीं मिलना था, सो नहीं मिले.

हाथ से खर्च किए या किसी को दिए जाने पर रुपए कम पड़ जाने का दुख नहीं होता है, क्योंकि उस की जानकारी हमें होती है लेकिन अनायास जेब कट जाए या चोरी हो जाए या रुपए गिर जाएं तो सच में बहुत पीड़ा होती है.

आटोरिक्शा में न जाने कितनी बार किसी का मोबाइल या पर्स या थैला रह जाता तो वह यात्री को खोज कर उसे दे देता था या थाने में जा कर उस का सामान जमा करा देता था. लेकिन उस के साथ यह पहली बार ऐसी घटना घटी थी जिस की उसे कोईर् उम्मीद न थी. वह किस पर अविश्वास करे? फिर घर में कोई आयागया भी नहीं जो चोरी होती. हो सकता है कोई आया हो और उसे न पता हो. फिर उस ने पत्नी को आवाज दी. वह फिर आई.

‘‘क्या कल शाम को कोई मिलने वाली सहेली या मुन्ना के दोस्त आए थे?’’

‘‘कोई नहीं आया, तुम ही किसी को दे कर भूल गए होगे,’’ उस ने फिर पति को ही उलाहना दिया.

आखिर रुपए गए तो कहां? वह बारबार सोच रहा था. जितना सोचता उतना ही दुखी हो रहा था. बड़ी मेहनत से कमाए गए रुपए थे. उसे दुखी देख कर मुन्ना की मम्मी ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो, मिल जाएंगे. मैं चाय लाती हूं,’’ कह कर वह चली गई. मुन्ना भी बाथरूम से निकल कर टैलीविजन के सामने बैठ कर फिल्म देखने लगा था. वह चायनाश्ता टैलीविजन के सामने बैठ कर ही करता रहा था.

यह सच था कि बहुत अधिक भौतिक वस्तुएं वह नहीं खरीद पाता था, अधिक खर्च भी नहीं कर पाता था. मुन्ना कभी आइसक्रीम या चौकलेट लेने की जिद करता तो वह खिला जरूर देता, लेकिन खिलाने के बाद उसे बता भी देता था, ‘बेटा, हम अभी इतने अमीर नहीं हुए हैं कि फालतू खानेपीने पर 100-200 रुपए खर्च कर सकें.’ मुन्ना कभी नाराज नहीं होता था. वह भी जानता था कि वह एक गरीब परिवार का बेटा है. एकदो बार उस ने अपनी मां से कहा भी था, ‘मम्मी, स्कूल से छूटने के बाद

मैं किसी दुकान पर काम करने चले जाया करूं?’

‘क्यों?’

‘हम गरीब हैं न, पापा को कुछ मदद मिल जाएगी. उस की मां ने उसे सीने से लगा लिया और बालों में हाथ फेरते हुए कह उठी, ‘अभी इस की जरूरत नहीं है, पहले पढ़लिख ले, फिर ये

सब बातें बाद में करना.’ रात में उस ने अपने पति से भी यह बात बताई थी कि मुन्ना काम करने के लिए कह रहा था.

‘मैं जिंदा हूं अभी, खबरदार जो काम करने भेजा तो.’

‘मैं ने कब कहा भेजने को?’

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‘उस से कहो, पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाए.’ बात आईगई, हो गई, लेकिन आखिर रुपए कहां गए होंगे? वह जितना सोचता उतना ही उलझता जाता था. आखिर उस ने तय कर लिया कि एकएक घंटे अतिरिक्त आटोरिक्शा चला कर कर वह इस घाटे को पूरा कर लेगा.

2-3 सप्ताह में वह रुपयों की चोरी की बात को लगभग भूल ही गया था. जीवन शांति के साथ बीत रहा था. एक शाम वह घर लौट रहा था तो रास्ते में उन के महल्ले का पोस्टमैन मिल गया. अभिवादन के बाद उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आज दिल्ली से पार्सल आया था, क्या था उस में?’’

‘‘दिल्ली से पार्सल, मतलब?’’ वह कुछ समझा नहीं, उस के कोई रिश्तेदार भी दिल्ली में नहीं थे, फिर किस ने पार्सल भेजा होगा और कैसा पार्सल? पोस्टमैन ने फिर कहा, ‘‘एक वीपीआर से पार्सल आया था तुम्हारे बेटे के नाम.’’

‘‘कितने का था?’’

‘‘2 हजार रुपयों का.’’

‘‘किस ने छुड़वाया?’’

‘‘तुम्हारे बेटे ने, लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

मुन्ना के पापा ने सब सूत्रों को जोड़ा तो बात समझ में आई कि मुन्ना ने कोई पार्सल मंगवाया था, रुपए भी निश्चित रूप से उस ने ही निकाले थे. उन्होंने पोस्टमैन से कहा, ‘‘वैसे ही पूछ लिया, मुन्ना बता तो रहा था पार्सल आने वाला है, लेकिन आज आया, यह मालूम नहीं था.’’

‘‘अच्छा, चलता हूं,’’ कह कर पोस्टमैन अपने घर की ओर मुड़ गया.

मुन्ना के पापा को अत्यधिक क्रोध हो आया, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मुन्ना इस तरह चोरी करेगा. आखिर, उस ने ऐसा क्यों किया? क्रोध और दुख के मिलेजुले भाव से घर पर पहुंच कर उस ने मुन्ना को जोर से आवाज दी, ‘‘मुन्ना.’’

मुन्ना की मम्मी बाहर निकल आई, ‘‘क्या बात हो गई? इतने नाराज हो?’’

‘‘कहां है मुन्ना? 2 हजार रुपए उसी ने मेरी जेब से निकाले थे,’’ क्रोध में मुन्ना के पापा ने कहा. तब तक मुन्ना भी सामने आ गया था.

‘‘क्यों, तूने ही जेब से रुपए निकाले थे न?’’ मुन्ना ने नजरें नीची कर लीं.

‘‘क्यों चोरी किए थे तूने?’’ पापा ने क्रोध में मुन्ना से पूछा.

‘‘पार्सल में क्या आया? हम से कहता, हम तुझे बाजार से दिलवा देते,’’ पापा अभी भी चिल्ला रहे थे. मुन्ना की मम्मी बहुत आश्चर्य से सबकुछ देख रही थी.

‘‘पापा, वह यहां बाजार में नहीं मिलता,’’ मुन्ना ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘क्या मंगवाया था, बता मुझे,’’ पापा ने क्रोध में प्रश्न किया.

मुन्ना अंदर गया, एक छोटी सी पैकिंग ले आया और पापा की ओर बढ़ा दी.

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘पापा, इस में अमीर होने का तावीज है जिस पर लक्ष्मीजी का मंत्र है, इसे धारण करने से घर में खूब रुपया आएगा. पापा, यह मैं ने आप के लिए लिया था ताकि हमारी गरीबी दूर हो सके,’’ मुन्ना ने भोलेपन से पापा के हाथों में वह तावीज देते हुए कहा.

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वह एक पेंडुलम था जिस की कुल कीमत 100 रुपए होगी लेकिन तुरंत वह अपने बेटे की भावनाओं को समझ गया और पलभर बाद ही उसे गले से लगा लिया और कहा, ‘‘बेटा, ऐसा हार पहनने से या पूजापाठ करने से कोई अमीर नहीं बनता, ईमानदारी से परिश्रम किए बिना हम कभी भी धनवान नहीं बन सकते. बेटा, यह सब तो व्यापार और पाखंड है.’’

मुन्ना सिर पकड़ कर बैठ गया. उसे समझ आ गया कि पाखंड का प्रचार कितना प्रभावशाली होता है कि पढ़ेलिखे, तर्क की भाषा जानने वाली, कौम भी ‘एक बार अपना कर देख लो’ की सोच का शिकार हो जाती है. मुन्ना तो कुछ अबोध था पर उस के पापा ने क्यों नहीं पाठ पढ़ाया कि यह पाखंड है. शायद इसलिए कि भक्ति का भय उस पर भी मन के कोने में छिपा था.

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