मौडर्न सिंड्रेला

आज मयंक ने मनाली को खूब शौपिंग करवाई थी. मनाली काफी खुश लग रही थी. उसे खुश देख कर मयंक भी अच्छा महसूस कर रहा था. वैसे वह बड़ा फ्लर्ट था, पर मनाली के लिए वह बिलकुल बदल गया था. मनाली से पहले भी उस की कई गर्लफ्रैंड्स रह चुकी थीं, पर जैसी फीलिंग उस के मन में मनाली के प्रति थी वैसी पहले किसी के लिए नहीं रही.

‘‘चलो, तुम्हें घर ड्रौप कर दूं,’’ मयंक ने कहते ही मनाली के लिए कार का दरवाजा खोल दिया.

‘‘नहीं मयंक, मुझे निमिशा दीदी का कुछ काम करना है इसलिए आप चले जाइए. मैं घर चली जाऊंगी,’’ प्यार से मुसकराते हुए मनाली निकल गई. फिर उस ने फोन कर के कोको स्टूडियो में पता किया कि कोको सर आए हैं कि नहीं. उसे आज हर हाल में फोटोशूट करवाना था. कैब बुक कर के वह कोको स्टूडियो पहुंच गई. तभी उसे याद आया, ‘आज तो ईशा मैम की क्लास है. उन की क्लास मिस करना बड़ी बात थी. वे क्लास बंक करने वाले स्टूडैंट्स को प्रैक्टिकल में बहुत कम नंबर देती थीं. तुरंत कीर्ति को फोन कर रोनी आवाज में दुखड़ा रोया, ‘‘प्लीज मेरी हाजिरी लगवा देना. चाची और निमिशा दीदी ने सुबह से जीना हराम कर रखा है.’’

‘‘ओह, तुम परेशान मत हो,’’ कीर्ति उसे दुखी नहीं देख सकती थी. वह समझती थी कि चाचाचाची मनाली को बहुत तंग करते हैं. तभी कोको सर भी आ गए. मौडलिंग की दुनिया में काफी नाम कमाया था उन्होंने. हां, थोड़े सनकी जरूर थे पर मौलिक, कल्पनाशील लोग ज्यादातर ऐसे होते ही हैं. कोको सर ने मनाली को ध्यान से देखा और उस पर बरस पड़े, ‘‘तुम्हें वजन कम करने की जरूरत है. मैं ने पहले भी तुम्हें बताया था. आज तुम्हारा फोटोशूट नहीं हो सकेगा.’’‘‘बुरा हो इस मयंक का और कालेज के अन्य दोस्तों का. जबतब जबरदस्ती कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं,’’ मनाली आगबबूला हो कर स्टूडियो से बड़बड़ाती हुई निकली. घर पहुंची तो चाची ने चुपचाप खाना परोस दिया. चाची उस से ज्यादा बातचीत नहीं करती थीं पर उस का खयाल अवश्य रखती थीं.

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उस ने खाने की प्लेट की तरफ देखा तक नहीं, क्योंकि अब उस पर डाइटिंग का भूत सवार हो चुका था. रात का खाना भी उस ने नहीं खाया तो चाचाचाची को चिंता हुई. वैसे भी वह चाचा की लाड़ली थी. वे उसे अपने तीनों बच्चों की तरह ही प्यार करते थे. मनाली के मातापिता का तलाक हो गया था. उस की मां ने एक एनआरआई डाक्टर के साथ दूसरी शादी कर ली थी और अमेरिका में ही सैटल हो गई थीं. वहीं पिता कैंसर के मरीज थे. मनाली जब 8 वर्ष की थी तभी उन की मृत्यु हो गई थी. कुछ समय बूआ के पास रहने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उसे चंडीगढ़ चाचाचाची के पास भेजा गया. पढ़ाईलिखाई में मनाली का मन कम ही लगता था जबकि चाचा के तीनों बच्चे पढ़ने में बहुत अच्छे थे. चाची उसे भी पढ़ने को कहतीं पर मनाली पर उस का कम ही असर होता था. इंटर में गिरतेपड़ते पास हुई तो चाचा उस के अंक देख कर चकराए. ‘‘किस कालेज में दाखिला मिलेगा?’’

इस का हल भी मनाली ने सोच लिया था. वह चाचा को आते देख कर किसी न किसी काम में जुट जाती. यह देख कर चाचा चाची पर खूब नाराज होते. उस के कम अंक आने का जिम्मेदार चाचा ने चाची और बड़ी बेटी निमिशा को मान लिया था. खैर, जैसेतैसे चाचा ने मनाली का ऐडमिशन अच्छे कालेज में करा दिया था. कालेज में भी मनाली ने सब को चाची और निमिशा के अत्याचारों के बारे में बता कर सहानुभूति अर्जित कर ली थी. चाचा की छोटी बेटी अनीशा की मनाली के साथ अच्छी बनती थी. अनीशा थोड़ी बेवकूफ थी और अकसर मनाली की बातों में आ जाती थी. दोनों बाहर जातीं और देर होने पर मनाली अनीशा को आगे कर देती. बेचारी को चाचाचाची से डांट खानी पड़ती. चाची मनाली की चालाकियां खूब समझती थीं पर अनीशा मनाली का साथ छोड़ने को तैयार न थी. उस का लैपटौप, फोन, मेकअप का सामान मनाली खूब इस्तेमाल करती थी.

एक दिन अनीशा ने उसे बताया कि वह एक लड़के को पसंद करती है. पापा के दोस्त का बेटा है. उस की पार्टी में ही मुलाकात हुई थी. अनीशा ने मनाली को मयंक से मिलवाया. मयंक बहुत हैंडसम था और अमीर बाप की इकलौती संतान. मनाली ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह कैसे भी मयंक को हासिल कर के रहेगी. ‘‘देखो मयंक, मैं कहना तो नहीं चाहती पर अनीशा को साइकोसिस की बीमारी है.’’ मनाली ने भोली सी सूरत बना कर कहा.

‘‘क्या?’’ मयंक तो हैरान रह गया था.

‘‘प्लीज, तुम यह बात अनीशा और उस की फैमिली से मत कहना. तुम्हें तो पता ही है न उस घर में मेरी क्या हैसियत है.’’

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मयंक मनाली की बातों में आ गया. और उस ने अनीशा के प्रति अपना नजरिया बदल लिया. उधर अनीशा को मयंक का व्यवहार कुछ अलग लगने लगा. उस के फोन उठाने भी उस ने बंद कर दिए. अनीशा ने मनाली को इस बारे में बताया तो उस ने आंखें मटकाते हुए समझाया, ‘‘मयंक को मैं ने एक नामी मौडल के साथ देखा है. वह उस की गर्लफ्रैंड है. तुम उसे भूल जाओ.’’ मनाली को तसल्ली हो गई कि अनीशा के भी अंक इस बार कम ही आएंगे. अच्छा हो, दोनों ही डांट खाएं. एक दिन चाचा के बेटे मनीष ने उसे कालेज टाइम में मयंक के साथ घूमते देख लिया. घर आ कर चाचाचाची के सामने मनाली की पोल खुली. ‘‘मैं तो मयंक की खबर लेने गई थी कि उस ने अनीशा का दिल दुखाया,’’ सुबकते हुए मनाली ने कारण बताया. बात बनाना उसे खूब आता था. घर वालों को अनीशा की उदासी का कारण भी पता चला. अनीशा मनाली से नाराज होने के बजाय उस से लिपट गई, ‘‘इस घर में एक तुम ही हो, जिसे मेरी फिक्र है.’’ खैर, कड़ी मेहनत के बाद मनाली ने वजन घटा ही लिया. फोटोशूट भी हो गया और चोरीछिपे एक दो असाइनमैंट भी मिल गए.

एक दिन मयंक से उस ने साफसाफ पूछा, ‘‘मयंक, मैं चाचाचाची के पास रहते हुए तंग आ चुकी हूं. मुंबई में मेरी मौसी रहती हैं. क्या, तुम कुछ समय के लिए मेरी मदद कर सकते हो?’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. मैं तुम्हारे रहने का बंदोबस्त कर देता हूं. तुम बस मुझे बताओ कि तुम्हें कितनी रकम चाहिए,’’ मयंक सोच रहा था कि मनाली मुंबई जा कर मौसी के पास रह कर अपनी पढ़ाई करना चाहती है. उस ने ढेर सारी रकम और एटीएम कार्ड मनाली को दिया और निश्चित तारीख का टिकट भी पकड़ा दिया. चाचाचाची से कालेज ट्रिप का बहाना बना कर मुंबई जाने का रास्ता मनाली ने खोज लिया था. ‘वापसी शायद अब कभी न हो,’ सोच कर मंदमंद मुसकराती मौडर्न सिंड्रेला मुंबई की उड़ान भर चुकी थी. उसे खुद पर और उस से भी ज्यादा लोगों की बेवकूफी पर भरोसा था कि वह जो चाहेगी वह पा ही लेगी.

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आधुनिक बीवी: भाग 2- क्या धर्मपाल की तलाश खत्म हो पाई

लेखक- प्रमोद कुमार शर्मा

रेणु जब नहा कर वापस आई तब तक मैं ने फायर प्लेस में आग जला ली थी. हम ने एक हिंदी फिल्म का कैसेट लगाया और देखने लगे. इतने में फोन की घंटी बजी. रेणु ने रिसीवर उठाया और ऊपर जा कर बातें करने लगी. वह करीब आधे घंटे बाद नीचे आई तो मैं ने पूछा, ‘‘किस का फोन था?’’

वह बोली, ‘‘कल की पार्टी में एक दक्षिण भारतीय महिला मिली थी, उसी का फोन था. सुषमा के बारे में ही बातें होती रहीं कि कैसे वह बड़ी बेशर्मी से पाल के गले में बांहें डाल कर शराब पी रही थी.’’

मैं ने बात को आगे न बढ़ाया, उठ कर वीडियो बंद कर दिया और चाय बनाने लगा.

चाय पीने के बाद मैं ऊपर जा कर लेट गया. मुझे छुट्टी के दिन दोपहर बाद थोड़ी देर सोना बड़ा अच्छा लगता है.

जब मेरी आंख खुली तो देखा कि रेणु भी मेरे पास ही सो रही है. मैं उसे सोता छोड़ कर नीचे चला आया और टैलीविजन देखने लगा.

लगभग 1 घंटे बाद रेणु भी नीचे आई और रसोई में जा कर रात के खाने का प्रबंध करने लगी. मैं ने रेणु से कहा कि यदि बर्फ पड़नी बंद न हुई तो लगता है, कल औफिस जाना मुश्किल हो जाएगा.

करीब 8 बजे हम ने खाना खाना और फिर से हिंदी फिल्म देखने लगे. 10 बजे के आसपास हम सोने चले गए.

सुबह उठ कर मैंने देखा कि बर्फ तो पड़नी बंद हो गई है, पर सड़कें अभी बर्फ से ढकी हुई हैं. मेरा औफिस घर से केवल 5-6 मील की दूरी पर है, सो औफिस जाने का निश्चय किया.

औफिस में ज्यादा लोग नहीं आए थे. शाम 5 बजे मैं वापस घर आ गया. रेणु ने चाय बनाई तथा डाक ला कर दी. पूरा सप्ताह ही बीत गया. शुक्रवार की शाम को रीता का फोन आया. उस ने अपने यहां अगले दिन रात के डिनर पर आने का निमंत्रण दिया. हमारा चूंकि अगले दिन कहीं जाने का प्रोग्राम नहीं था, सो ‘हां’ कर दी.

रीता के घर जब पहुंचे तो यह जान कर बड़ा अचंभा हुआ कि पाल वहां निमंत्रित नहीं है. रीता ने अन्य भारतीय परिवारों को भी बुलाया हुआ था. पार्टी में भी सुषमा के बारे में चर्चा होती रही. महिलाओं को इस बात का बड़ा दुख था कि उन्होंने कभी सुषमा जैसा फैशन क्यों नहीं किया या खुल कर लोगों के सामने शराब क्यों नहीं पी. रात को जब हम घर लौटे तो रेणु ने कार में फिर से सुषमा पुराण दोहराना चाहा, पर जब मैं ने उस में कोई दिलचस्पी न दिखाई तो उसे चुप हो जाना पड़ा.

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अगले दिन रेणु ने पाल को फोन किया और उसे घर आने को कहा. लेकिन उस ने यह कह कर मना कर दिया कि उन्हें घर के लिए फर्नीचर वगैरा खरीदने जाना है. पर शाम को करीब 8 बजे वे दोनों अचानक हमारे घर आ पहुंचे.

‘‘अरे, तुम तो खरीदारी के लिए जाने वाले थे?’’ मैं ने पाल से पूछा.

‘‘वहीं से तो आ रहे हैं,’’ वह बोला. उस ने बाद में बताया कि फर्नीचर तो खरीद नहीं पाए क्योंकि सुषमा ने और सामान खरीदने में ही इतने पैसे लगा दिए. हमारे यहां वे लोग रात के खाने तक रुके और फिर घर चले गए.

रेणु ने मुझे बाद में बताया कि पाल ने अपनी पत्नी को 2 हजार डौलर की हीरे की अंगूठी दिलवाई है. उस की असली शिकायत यह थी कि मैं ने कभी हीरे की अंगूठी खरीद कर उसे क्यों नहीं दी. उस ने मुझे कई और ताने भी दिए.

3-4 महीने यों ही गुजर गए. एक दिन औफिस में पाल का फोन आया कि वह मुझ से कुछ बात करना चाहता है. मैं ने उसे शाम को घर आने को कहा तो बोला, ‘‘नहीं, मैं केवल तुम से एकांत में मिलना चाहता हूं.’’

मुझे जल्दी एक मीटिंग में जाना था, सो कहा, ‘‘अच्छा, औफिस के बाद पब्लिक लाइब्रेरी में मिलते हैं.’’

वह इस के लिए राजी हो गया. मैं ने रेणु को फोन कर दिया कि शाम को जरा देर से आऊंगा.

शाम को मैं जब लाइब्रेरी में पहुंचा तो पाल वहां पहले से ही बैठा था. इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने मुझ से 5 हजार डौलर उधार मांगे. वह मुझ से कुछ ज्यादा ही कमाता था और काफी समय से नौकरी भी कर रहा था. उस ने अभी तक घर भी नहीं खरीदा था, किराए के फ्लैट में ही रहता था. भारत भी उस ने कभी पैसे भेजे नहीं थे क्योंकि उस के घर वाले बहुत समृद्ध थे. मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हें पैसों की ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी? क्या घर खरीदने जा रहे हो?’’

वह बोला, ‘‘नहीं यार, जब से सुषमा आई है, तब से खर्च कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. उस ने 3-4 महीने में इतनी खरीदारी की है कि सारे पैसे खर्च हो गए हैं. अब वह नई कार खरीदने को कह रही है.’’

‘‘तो उस में क्या बात है, किसी भी कार डीलर के पास चले जाओ. वह पैसे का प्रबंध करा देगा.’’

वह बोला, ‘‘अब तुम से क्या छिपाऊं. मेरे ऊपर करीब 10-12 हजार डौलर का वैसे ही कर्जा है. यह सब जो हम ने खरीदा है, सब उधार ही तो है. अब जब क्रैडिट कार्ड के बिल आ रहे हैं तो पता चल रहा है.’’

मैं ने आगे कहा, ‘‘पाल, बुरा मत मानना, पर जब तुम्हारे पास इतने पैसे नहीं थे तो इतना सब खरीदने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘मेरी नईनई शादी हुई है और सुषमा आधुनिक विचारों की है. चाहता हूं कि मैं उसे दुनियाभर की खुशियां दे दूं, जो आज तक किसी पति ने अपनी पत्नी को न दी हों,’’ उस ने अजीब सा उत्तर दिया.

मैं ने पाल को समझाना चाहा कि उसे अपनी जेब देख कर ही खर्च करना चाहिए और कुछ पैसा बुरे समय के लिए बचा कर रखना चाहिए. पर असफल ही रहा.

अगले दिन मैं ने पाल को 5 हजार डौलर का चैक दे दिया. घर से पिताजी का पत्र आया कि मेरी छोटी बहन मंजु का रिश्ता तय हो गया है तथा 1 महीने के बाद ही शादी है. घर में यह आखिरी शादी थी, सो हम दोनों ने भारत जाने का निश्चय किया और शादी से 2 दिन पहले भारत पहुंच गए. 5-6 वर्ष बाद भारत आए थे. सबकुछ बदलाबदला सा लग रहा था. ऐसा लगा कि भारत में लोगों के पास बहुत पैसा हो गया है. लोग पान खाने के लिए भी सौ रुपए का नोट भुनाते हैं.

शादी में एक सप्ताह ऐसे बीत गया कि समय का पता ही न चला. शादी के बाद कुछ और दिन भारत में रह कर हम वापस अमेरिका लौटे. अगले दिन रविवार था सो, खूब डट कर थकान मिटाई. शाम को बाजार खाने का सामान लेने गए. सुपर मार्केट में अचानक रीता से मुलाकात हुई. मुझ से नमस्कार करने के बाद वह रेणु से बातें करने लगी. बातोंबातों में पता लगा कि पाल के हाल कुछ अच्छे नहीं हैं.

मैं ने घर जा कर पाल को फोन मिलाया तो वह बोला, ‘‘अरे, तुम कब आए?’’

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‘‘कल रात ही आए हैं,’’ मैं ने उत्तर दिया. इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने बताया कि उस के औफिस में करीब 50 आदमियों की छंटनी होने वाली है और उस का नाम भी उस सूची में है.

अमेरिका में यह बड़ा चक्कर है. स्थायी नौकरी नाम की कोई चीज यहां नहीं है. जब जरूरत होती है, तो मुंहमांगी तनख्वाह पर रखा जाता है लेकिन जब जरूरत नहीं है तो दूध में गिरी मक्खी की तरह से निकाल दिया जाता है.

मैं ने पाल को समझाते हुए कहा कि उसे अभी से दूसरी नौकरी की तलाश करनी चाहिए, लेकिन वह बहुत ही घबराया हुआ था. फिर मैं ने कहा, ‘‘ऐसा करो, तुम लोग यहां आ जाओ, बैठ कर बातें करेंगे.’’

8 बजे के आसपास पाल और सुषमा आ गए. सुषमा तो रेणु के पास रसोई में चली गई, पाल मेरे पास आ कर बैठ गया. उस ने बताया कि उस पर पहले करीब 15 हजार डौलर का कर्ज था. लेकिन कार लेने के बाद वह 35 हजार डौलर तक पहुंच गया है. यदि नौकरी चली गई और जल्दी से दूसरी नहीं मिली तो क्या होगा?

मैं ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अभी तो 2 महीने तक तुम्हारी कंपनी निकाल ही नहीं रही, तुम इलैक्ट्रिकल इंजीनियर हो और इस लाइन में बहुत नौकरियां हैं. चिंता छोड़ कर प्रयत्न करते रहो.’’

जब उस ने मुझ से मेरे पैसों के बारे में कहना शुरू किया तो मैं ने उसे एकदम रोक दिया, ‘‘मेरे पैसों की तुम बिलकुल चिंता मत करो. जब तुम्हारे पास होंगे, तब दे देना, नहीं होंगे तो मत देना.’’

मैं ने पाल को एक सुझाव और दिया कि सुषमा को भी कहीं नौकरी करनी चाहिए. रात का खाना खाने के बाद वे दोनों अपने घर चले गए.

2 महीने बाद पाल की नौकरी छूट गई तो मुझे बड़ा दुख हुआ. मैं ने 2-3 कंपनियों में पता लगाया, पर कुछ बात न बनी. पाल बहुत हताश हो गया था. उन्हीं दिनों उस के पिताजी का भारत से पत्र आया कि उन के एक मित्र का लड़का न्यूजर्सी स्टेट में पढ़ने आ रहा है. पाल से उन्होंने उस की सहायता करने को लिखा था. जिस यूनिवर्सिटी में वह लड़का पढ़ने आ रहा था, वह हमारे घर के पास ही थी. पाल ने मुझे उसे हवाईअड्डे से लिवा लाने को कहा तो मैं उसे ले आया. उस का नाम अरुण था. पाल अगले दिन उसे यूनिवर्सिटी ले गया तथा उस का रजिस्ट्रेशन वगैरा सब करा दिया.

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ओढ़ी हुई दीवार: क्या हुआ था ममता के साथ

लेखक- अनिल कुमार ‘मनमौजी’

नजर बारबार उस फोटो फ्रेम से जा कर उलझ जाती है जिस के आधे हिस्से में कभी एक सुंदर सी तसवीर दिखाई देती थी, मगर अब वह जगह खाली पड़ी है. उस ने कई बार चाहा कि वह उस फोटो फ्रेम में कोई दूसरी तसवीर लगा कर वह रिक्तता दूर कर दे. मगर चाह कर भी वह कभी ऐसा नहीं कर सकी, क्योंकि वह जानती थी कि ऐसा करने से वह खालीपन दूर होने वाला नहीं. वह खालीपन उस नई तसवीर के पीछे से भी झांकेगा, कहकहे लगाएगा और कहेगा, ‘तुम कायर हो, तुम में इतनी हिम्मत नहीं कि इस खालीपन को दूर कर सको.’

आज भी स्टील का वह फोटो फ्रेम ममता की मेज पर उसी तरह पड़ा है. उस में एक तरफ ममता की फोटो लगी हुई है कुछ लजाते हुए, कुछ मुसकराते हुए, आंखें बिछाए जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रही हो. और आज भी वह वैसे ही प्रतीक्षा में आंखें बिछाए बैठी है, ठीक उस फोटो फ्रेम वाली तसवीर की तरह. अभी 3, साढ़े 3 साल ही तो बीते हैं, जब फोटो फ्रेम के उस खाली हिस्से में प्रभात की भी तसवीर दिखाई देती थी. आज तो यह नाम भी जैसे अंदर तक चीर जाता है. यही नाम तो है जो इतने सालों से उसे सालता रहता है. एकाएक कार के हौर्न से उस का ध्यान टूट गया. यह हौर्न बगल वाले कमरे की चंचल और शोख किम्मी के लिए था. इसी तरह होस्टल की हर लड़की का कोई न कोई चाहने वाला था.

कभीकभी ममता को भी लगता, काश, इन में से एक हौर्न उस के लिए भी होता. उसे इस होस्टल में रहते हुए पूरे 2 साल होने को आए थे. आज से 2 साल पहले जब वह इस नए शहर के एक स्कूल में अध्यापिका हो कर आई थी तो उस की अकेली रहने की समस्या इस होस्टल ने पूरी कर दी थी, जहां उस के समान कितनी ही लड़कियां, शायद लड़कियां नहीं, औरतें, रहा करती थीं. यहां किसी का भी भूतकाल पूछने की पद्धति नहीं थी. सभी वर्तमान में जीती थीं. वह भी किसी तरह अपने दिन गुजार रही थी. खैर, दिन तो किसी तरह गुजर जाते थे, मगर रातें, न जाने कहां से ढेर सारा सूनापन किसी भयानक स्वप्न की तरह आ घेरता. ऐसे क्षणों में उसे किसी ऐसे साथी की आवश्यकता महसूस होने लगती जो उस के दिनभर के सुखदुख को बांट सके. ऐसे नाजुक क्षणों में उसे महसूस होता कि नारी सचमुच पुरुष के बिना कितनी अधूरी है. उसे किसी साथी की आवश्यकता है क्योंकि यह उस के मन की, उस के शरीर की आवश्यकता है. सब आवश्यकताओं की पूर्ति तो वह कर सकती है, मगर यह आवश्यकता? और तब उसे प्रभात की आवश्यकता महसूस होने लगती.

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उसे लगता जैसे अभी दरवाजे को लात से ठेलता हुआ प्रभात उस कमरे में आ जाएगा और बड़े प्यार से कहेगा, ‘अरे, मुन्मु, तू यहां बैठी है. चल, उठ, देख मैं ने तेरे लिए अपने दोस्त से कह कर लोनावला की चिक्की मंगाई है. चल, अब बहुत हो चुका रूठना, अच्छे बच्चे ज्यादा जिद नहीं किया करते.’ और इतने अवसाद के क्षणों में भी उस के मुंह में चिक्की का स्वाद उभर आता. वह तो ससुराल में भी सारी लाज छोड़ कर घर के सामने से गुजरते हुए चिक्की वाले को रोक लेती थी. कभीकभी उसे लगता जैसे प्रभात उसी के पलंग पर बाजू में लेटा है और उस का हाथ अपने हाथों में ले कर अपने नाखूनों से उस के पौलिश लगे बड़ेबड़े नाखून रगड़ रहा है. यह उस की हमेशा की आदत थी. कभीकभी तो वह नाखून पकड़ कर तोड़ने की कोशिश करने लगता और वह दर्द से चीख उठती. इस पर भी वह हाथ न छोड़ता और अधिक चीखने पर कहता, ‘तुम्हारे पिताजी ने ये हाथ अब मुझे सौंप दिए हैं. अब ये मेरी चीज हैं, मैं जो चाहूं करूं.’

इस पर वह झूठमूठ रूठते हुए हाथों से उस के सीने को पीटने लगती, अंत में सीने से चिपट जाती. अब ये बातें सोचतेसोचते उस की आंखें भर आतीं और उस की उंगलियों में एक कसक उठने लगती है. उस का गला रुंध जाता और मन करता कि वह किसी के सीने से लग कर बहुतबहुत रोए. मगर इस समय उसे सीने से लगाने के लिए केवल तकिया ही मिलता और सचमुच उस का तकिया आंसुओं से भीग जाता. से अभी तक याद है, यह तसवीर फोटो फ्रेम में प्रभात ने स्वयं ही लगाई थी. शादी के कुछ ही दिनों बाद दोनों ने अलगअलग तसवीरें खिंचवाई थीं. न जाने क्यों वह उस के साथ तसवीर उतरवाने को तैयार नहीं हुआ था. वह भी नईनवेली होने के कारण ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई थी. यह तो खुद फोटोग्राफर ने ही कहा था कि साहब, तसवीर तो इकट्ठी ही अच्छी लगती है. मगर न जाने क्यों उस ने साफ इनकार कर दिया था. वह उस के इनकार का कारण नहीं समझ सकी थी, न ही उसे कुछ पूछने की हिम्मत ही हुई थी.

मगर यह फोटो फ्रेम वह स्वयं ही खरीद कर लाया था और अपने ही हाथों से वे दोनों तसवीरें लगा कर मेज पर रखते हुए बोला था, ‘लो, अब तो हो गए न दोनों साथसाथ. अरे, लोगों को यह दिखाने की क्या आवश्यकता है कि हम में कितना प्रेम है? प्रेम भी भला कोई बताने की चीज है?’ इस घटना से ममता को प्रभात रूखे स्वभाव का अरसिक व्यक्ति ही लगा था. पर उस ने सोचा था कि वह उस का वह रूखापन कुछ ही दिनों में अपने प्रेम द्वारा दूर कर देगी जो उस में संभवतया अकेलेपन के कारण आ गया हो. मगर ममता ने कभी यह नहीं सोचा था कि उस का यही रूखापन उस के लिए दुख का कारण भी बन सकता है. वह हर शाम उस का बेकरारी से इंतजार करते हुए अपने कमरे की खिड़की पर खड़ी रहती, जो सीधे सामने की सड़क पर खुलती थी. मगर प्रभात उस की ओर ध्यान दिए बिना ही मां को आवाज देता हुआ दवाई, फल आदि देने सीधे उन के कमरे में चला जाता. वहीं से वह रसोईघर में जा कर भाभी के पास बैठ कर चाय पीता और तब कहीं जा कर कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में आता.

ममता दिनभर सोचा करती थी कि आज वह उस से खूब बातें करेगी या फिर कहीं बाहर घूमने के लिए चलने की फरमाइश करेगी. मगर वह केवल दोचार बातें पूछ कर और कपड़े बदल कर दोस्तों की चौकड़ी में बैठने निकल जाता. एकदो बार उस ने हिम्मत कर के कहा भी, मगर वह हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाता. रात को भी वह देर से घर आता और खाना खा कर सो जाता. मगर जब कभी मौज में होता तो उसे रात दोदो बजे तक सोने ही न देता. कुल मिला कर वह उस के लिए एक उपेक्षित खिलौना बन कर रह गई थी, जिस से बच्चा कभी दिल बहला लिया करता है. अपने प्रति प्रभात की इस उपेक्षा का कारण ढूंढ़ने पर ममता इस परिणाम पर पहुंची कि यह सब उस के मांबाप और भाभी के कारण ही है, जिन के अत्यधिक लाड़प्यार में वह बचपन से डूबा रहा है और अभी तक उबर नहीं पाया है. उसे प्रभात को अपनी ओर आकृष्ट करने और उस का प्यार पाने का उपाय यही सूझा कि उसे उस के मांबाप से अलग कर दिया जाए.

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दिमाग में इन विचारों के घर करते ही उस ने त्रियाचरित्र के सारे फार्मूले आजमाने शुरू कर दिए. कभी वह मां पर बिगड़ पड़ती तो कभी भाभी पर. और उस के इस तांडव ने घर में कलह मचा कर रख दी. मगर प्रभात पर इन सब बातों का विपरीत ही प्रभाव पड़ा. वह ममता से और अधिक दूर रहने लगा. आखिर हार कर उस ने स्त्रियों का आखिरी अस्त्र इस्तेमाल किया और तुनक कर अपने मायके जा बैठी. मायके से लौटने की उस ने यही शर्त रखी कि प्रभात को मांबाप से अलग घर ले कर रहना होगा, जिसे प्रभात ने कभी स्वीकार नहीं किया. इस से ममता को और ठेस लगी. फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ी रही. उस की यही जिद उसे ले डूबी. यहां तक कि वकील के नोटिस का जवाब भी प्रभात ने नहीं दिया और मामला कोर्ट तक जा पहुंचा. वह अपने ही रचे गए चक्रव्यूह में खुद फंस गई. इधर इस मामले को ममता के भाइयों ने अपनी इज्जत का सवाल बना लिया और वे कचहरी की दीवारों से सिर मारने लगे. इस कांड ने उस के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन ला दिया जिस की उसे कल्पना भी नहीं थी. जिंदगी इतनी जटिल है, यह उस ने पहली ही बार जाना. किसी तरह उस के भाइयों ने उसे अध्यापिका की यह नौकरी दिला दी थी. मगर वह अपने घर से बाहर नहीं जाना चाहती थी. उसे अपने इस निष्कासन का अर्थ तभी मालूम हुआ जब उस के बड़े भाई ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा था, ‘ममता, शादी के बाद बेटी के लिए पिता का घर पराया हो जाता है. तुम ने सुना ही होगा कि बेटी की डोली और अरथी में कोई फर्क नहीं होता.’

उस दिन के बाद उसे अपना वह घर, जिस में उस ने सारा बचपन बिताया था, पराया लगने लगा था. उसे अपने भाई के इन उपदेशों में अपने सिर का बोझ उतारने का भाव ही नजर आया था और इसीलिए उस ने यह नौकरी सहर्ष स्वीकार कर ली थी. परिवर्तन का दूसरा झटका उसे तब लगा था जब उसे आवेदनपत्र में अपना नाम लिखना पड़ा था. आखिर वह क्या लिखे : श्रीमती ममता अथवा कुमारी ममता? समाज के कानून बनाने वालों ने विवाहित अथवा अविवाहित और विधवा के लिए तो नियम बनाए थे, मगर इस बीच की स्थिति पर शायद किसी ने भी विचार नहीं किया था. पिछले 2 सालों से उस के कानों में कोर्ट में ऊंचे स्वर में पुकारा जाने वाला नाम ही गूंजता रहा था- ममता देवी विरुद्ध प्रभात कुमार. किसी ने भी उस के नाम के आगेपीछे कुछ नहीं लगाया. वहां तो सारा उपक्रम इन दोनों नामों को अलग करने के लिए ही किया जाता रहा. अखबार में छपने वाली तलाक की खबरें, जिन्हें पढ़ कर वह पहले कभी हंसा करती थी, अब खुद उसे एक बिगड़ती हुई जिंदगी का एहसास दिलाने लगीं. अब किसी भी दशा में वह उन पर हंस नहीं पाती थी. उसे अब महसूस होने लगा था कि अपनेआप को प्रगतिशील कहने वाली, नारी मुक्ति आंदोलन की बड़ीबड़ी बातें बघारने वाली नारियां भी किसी पुरुष की छाया पाने के लिए कितनी लालायित रहती हैं.

उस रोज बसस्टौप वाली घटना से तो उस का यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया था. उस रोज वह सीताबड़ी मेन बसस्टौप पर शंकरनगर से आने वाली बस के लिए लाइन में खड़ी थी. बस आने में अभी देर थी और बसस्टौप पर भीड़ ज्यादा थी. वह लाइन में खड़ी बोरियत दूर करने के लिए अपने बैग में रखी पत्रिका के पन्ने पलटने लगी थी कि तभी एक मनचला युवक उसे धक्का देता हुआ आगे बढ़ गया. इस पर बिफरते हुए वह बोली थी, ‘आंखें नहीं हैं या तमीज नहीं है? बिना धक्का दिए चला ही नहीं जाता, शोहदा कहीं का.’ इस पर वह युवक भी उद्दंडता से बोल उठा था, ‘मेमसाहब, यह आप का घर नहीं है, बसस्टैंड है. यहां भीड़ होती ही है, और भीड़ में धक्के भी लगते ही हैं. यदि इतनी ही रईसी है तो टैक्सी में सफर किया कीजिए, बस आम जनता के लिए है, समझीं?’

उसे ऐसे उत्तर की अपेक्षा नहीं थी. इस बात पर आसपास खड़े कुछ युवक हंस पड़े थे. उसे कुछ जवाब देते नहीं बना तो वह लाइन से निकल कर बसस्टैंड छोड़ कर सड़क पर आ गई. उस अपमान को वह बड़ी मुश्किल से पी सकी थी. उस रोज उसे प्रभात की याद हो आई थी जब उस ने एक युवक को उस के पर्स में हाथ डालने के शक में भरी भीड़ में पीट दिया था. उस दिन उसे लगा कि एक अकेली स्त्री किसी पुरुष के बिना उस बेल की तरह है जो बिना सहारे के जमीन पर पड़ी लोगों के पैरों तले कुचल दी जाती है. बेल को यदि पैरों तले रौंदे जाने से बचाना है तो उसे कोई न कोई सहारा चाहिए ही, चाहे उसे गुलाब के कांटेदार पौधे का सहारा ही क्यों न मिले. फिर भले ही उस का बदन छिलता रहे, मगर वह कुचले जाने से तो बची रहेगी. साथ ही, कभीकभी ही सही, गुलाब की खुशबू भी तो मिलेगी.

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इन्हीं विचारों की ऊहापोह में उस ने निश्चित कर लिया कि वह प्रभात के बिना नहीं रह सकती. इस तरह तिरस्कृत जिंदगी जीने से तो बेहतर वही जिंदगी थी. कम से कम सिर पर रक्षा का छत्र तो था. भले ही थोड़ी उपेक्षा सहनी पड़े और अब तो शायद थोड़ा अपमान भी, मगर कभीकभी प्यार भी तो मिलेगा. जगहजगह अपमानित हो कर भटकने से तो यही बेहतर है कि थोड़ी उपेक्षा सह ली जाए और उस ने प्रभात के आगे आत्मसमर्पण करने का निर्णय ले लिया. वह उसे पत्र लिखेगी कि वह आ रही है, वह उसे स्टेशन पर लेने आ जाए.

सुबह की व्यस्तता ने उस के पत्र लिखने के निर्णय को शाम पर टाल दिया. दिनभर वह अनमने भाव से ढीलेढीले हाथों से ब्लैकबोर्ड पर चाक चलाती रही. शाम को थक कर चूर हो जब वह होस्टल की सीढि़यां चढ़ रही थी तभी मोबाइल पर आया मैसेज देखा. भाई ने भेजा था, लिखा था :

‘‘प्रिय बहन,

‘‘बधाई हो, हम लोग कोर्ट में केस जीत गए हैं. अब तुम सदासदा के लिए प्रभात से मुक्त हो गई हो. अब तुम्हें कभी उस का अपमान सहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. तुम्हारा तलाक मंजूर हो गया है.’’ मोबाइल उस के कांपते हाथों से फिसल कर नीचे गिर गया. उस का सिर चकराने लगा और वह पलंग पर औंधी गिर पड़ी. उस के धक्के से पास ही मेज पर रखा फोटो फ्रेम गिर पड़ा और उस का शीशा चूरचूर हो गया और फोटो फ्रेम में एक ओर लगी उस की तसवीर बाहर निकल आई. वह फफकफफक कर रो पड़ी. उस का जीवन भी तो अब उस खाली फोट फ्रेम के समान ही रह गया था- रिक्त, केवल एक शून्य. वह अपनी ही ओढ़ी हुई दीवार के नीच दब कर रह गई थी.

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बिलखता मौन: भाग 1- क्यों पास होकर भी मां से दूर थी किरण

‘पता नहीं क्या हो गया है इस लड़की को? 2 दिनों से कमरे में बंद बैठी है. माना स्कूल की छुट्टियां हैं और उसे देर तक बिस्तर में रहना अच्छा लगता है, किंतु पूरे 48 घंटे बिस्तर में भला कौन रह सकता है? बाहर तो आए, फिर देखते हैं. 2 दिनों से सबकुछ भुला रखा है. कई बार बुला भेजा उसे, कोई उत्तर नहीं. कभी कह देती है, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं. कभी आज भूख नहीं है. कभी थोड़ी देर में आती हूं. माना कि थोड़ी तुनकमिजाज है, किंतु अब तक तो मिजाज दुरुस्त हो जाना चाहिए था. हैरानी तो इस बात की है कि 2 दिनों से उसे भूख भी नहीं लगी. एक निवाला तक नहीं गया उस के अंदर. पिछले 10 वर्षों में आज तक इस लड़की ने ‘रैजिडैंशियल केअर होम’ के नियमों का उल्लंघन कभी नहीं किया. आज ऐसा क्या हो गया है?’’ केअर होम की वार्डन हैलन बड़बड़ाए जा रही थी. फिर सोचा, स्वयं ही उस के कमरे में जा कर देखती हूं कहीं किरण की तबीयत तो खराब नहीं. डाक्टर को बुलाना भी पड़ सकता है. हैलन पंजाब से आई ईसाई औरत थी और 10 सालों से वार्डन थी उस केअर होम की.

वार्डन ने कई बार किरण का दरवाजा खटखटाया. कोई उत्तर न पा वह झुंझलाती हुई अधिकार से बोली, ‘‘किरण, दरवाजा खोलो वरना दरवाजा तोड़ दिया जाएगा.’’ किरण की ओर से कोई उत्तर न पा कर वार्डन फिर क्रोध से बोली, ‘‘दरवाजा क्यों नहीं खोलती? किस का शोक मना रही हो? बोलती क्यों नहीं.’’

‘‘शोक मना रही हूं, अपनी मां का,’’ किरण ने रोतेरोते कहा. फिर फूटफूट कर रोने लगी.

इतना सुनते ही वार्डन चौंक पड़ी. सोच में पड़ गई, मां, कौन सी मां? जब से यहां आई है, मां का तो कभी जिक्र तक नहीं किया. वार्डन ने गहरी सांस ले अपने को संभालते हुए बड़े शांत भाव से कहा, ‘‘किरण बेटा, प्लीज दरवाजा तो खोलो.’’

कुछ क्षण बाद दरवाजा खोलते ही किरण वार्डन से लिपट कर दहाड़दहाड़ कर रोने लगी. धीरेधीरे उस का रोना सिसकियों में बदल गया.

‘‘किरण, ये लो, थोड़ा पानी पी लो,’’ वार्डन ने स्नेहपूर्वक कहा.

नाजुक स्थिति को समझते हुए वार्डन ने किरण का हाथ अपने हाथ में ले उस से प्यार से पूछा, ‘‘किरण, अपनी मां से तो तुम कभी मिली नहीं? आज ऐसी क्या बात हो गई है?’’

सिसकियां भरतेभरते किरण बोली, ‘‘मैं मां से कहां मिलना चाहती थी. अभी भी कहां मिली हूं. न जाने यह कब और कैसे हो गया. अब तो मैं चाह कर भी मां से नहीं मिल सकती.’’ इतना कह कर किरण ने गहरी सांस ली.

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वार्डन ने उसे आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘जो कहना है कहो, मेरे पास तुम्हारे लिए समय ही समय है.’’

वार्डन का कहना भर था कि किरण के मुंह से अपने जीवन का इतिहास अपनेआप निकलने लगा, ‘‘पैदा होने से अब तक रहरह कर मेरे कानों में मां के तीखे शब्द गूंजते रहते हैं, ‘तू कोख में क्या आई, मेरे तो करम ही फूट गए.’ ऊपर से नानी, जिन्होंने मां को एक पल भी चैन से नहीं जीने दिया, मां से संबंधविच्छेद के बाद भी कभीकभार हमारे घर आ धमकतीं. फिर चालू हो जाती उन के तानोंउलाहनों की सीडी, ‘न सुखी, तू जम्मी ओ वी कुड़ी’. हुनतां तू अपने देसी बंदे नाल व्याण जोगी वी नई रई. कुड़ी अपने बरगी होंदी ते बाकी बच्यां नाल रलमिल जांदी. लबया वी कौन? दस्दयां वी शर्म आंदी ऐ.’’ आंसू भर आए थे एक बार फिर किरण की आंखों में.

‘‘मिसेज हैलन, मुझे नानी का हरदम कोसना, मां की बेरुखी से कहीं अधिक खलता था. ऐसा लगता जैसे वे मुझे नहीं, मेरे मांबाप को गालियां दे रही हों. मेरे मोटेमोटे होंठ, तंगतंग घुंघराले बाल, सभी को बहुत खटकते थे. मैं अकसर क्षुब्ध हो कर मां से पूछती, ‘इस में मेरा क्या कुसूर है?’ मैं दावे से कह सकती हूं कि अगर नानी का बस चलता तो मेरे बाल खींचखींच कर सीधे कर देतीं. मेरे होंठों की प्लास्टिक सर्जरी करवा देतीं. मुझे नानी जरा भी नहीं भाती थीं. दरवाजे से अंदर घुसते ही उन का शब्दों का प्रहार शुरू हो जाता, ‘नी सुखीये ऐस कुड़ी नूं सहेड़ के, तू अपनी जिंदगी क्यों बरबाद कर रई ए. दे दे किसी नूं, लाह गलयों. जद गल ठंडी पै जावेगी, तेरा इंडिया जा के ब्याह कर दयांगे. ताकत देखी है लाल (ब्रिटिश) पासपोर्ट दी. जेड़े मुंडे ते हथ रखेंगी, ओईयों तैयार हो जावेगा.’

‘‘दिनरात ऐसी बातें सुनसुन कर मेरे प्रति मां के व्यवहार में रूखापन आने लगा. एक दिन जब मैं स्कूल से लौटी ही थी कि घंटी बजी. मेरे दरवाजा खोलते ही सामने एक औरत खड़ी थी, बोली, ‘हाय किरण, मैं, ज्योति आंटी, तुम्हारी मम्मी की सहेली.’

‘‘मां, आप की सहेली, ज्योति आंटी आई हैं,’’ मैं ने मम्मी को आवाज दी.

‘‘‘हाय ज्योति, तुम आज रास्ता कैसे भूल गई हो?’

‘‘‘बहुत दिनों से मन था तुम्हारे साथ बैठ कर पुरानी यादों को कुरेदने का.’

‘‘‘आओ, अंदर आओ, बैठो. बताओ, आजकल क्या शगल चल रहा है. 1 से 2 हुई या नहीं?’ मां ने पूछा.

‘‘‘न बाबा न, मैं इतनी जल्दी इन झंझटों में पड़ने वाली नहीं. जीभर के मजे लूट रही हूं जवानी के. तू ने तो सब मजे स्कूल में ही ले लिए थे,’ ज्योति ने व्यंग्य से कहा.

‘‘‘मजे? क्या मजे? वे मजे तो नुकसानदेह बन गए हैं मेरे लिए. सामने देख,’ मां ने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘इतना सुनते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. मुझे उन की सब बातें सुनाई दे रही थीं. बहुत तो नहीं, थोड़ाथोड़ा समझ में आ रहा था…

‘‘‘सुखी, तुझे तो मैडल मिलना चाहिए. तू ने तो वह कर दिखाया जो अकसर लड़के किया करते हैं. क्या गोरा, क्या काला. कोई लड़का छोड़ा भी था?’ ज्योति आंटी ने मां को छेड़ते हुए कहा.

‘‘‘ज्योति, तू नहीं समझेगी. सुन, जब मैं भारत से आई थी, उस समय मैं 14 वर्ष की थी. स्कूल पहुंचते ही हक्कीबक्की सी हो गई. यहां का माहौल देख कर मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं. तकरीबन सभी लड़केलड़कियां गोरेचिट्टे, संगमरमरी सफेद चमड़ी वाले, उन के तीखेतीखे नैननक्श. नीलीनीली हरीहरी आंखें, भूरेभूरे सोने जैसे बाल, उन्हें देख कर ऐसा लगता था मानो लड़के नहीं, संगमरमर के बुत खड़े हों. लड़कियां जैसे आसमान से उतरी परियां. मेरी आंखें तो उन पे गड़ी की गड़ी रह जातीं. शुरूशुरू में उन का खुलापन बहुत अजीब सा लगता था. बिना संकोच के लड़केलड़कियां एकदूसरे से चिपटे रहते. उन का निडर, आजाद, हाथों में हाथ डाले घूमते रहना, ऐसा लगता था जैसे वे शर्म शब्द से अनजान हैं. धीरेधीरे वही खुलापन मुझे अच्छा लगने लगा. ज्योति, सच बताऊं, कई बार तो उन्हें देख कर मेरे मन में भी गुदगुदी होती. मन मचलने लगता. उन से ईर्ष्या तक होने लगती थी. तब मैं घंटों अपने भारतीय होने पर मातम मनाती. बहुत कोशिशें करने के बावजूद मेरे मन में भी जवानी की इच्छाएं इठलाने लगतीं. आहिस्ताआहिस्ता यह आग ज्वालामुखी की भांति भभकने लगी. एक दिन आखिर के 2 पीरियड खाली थे. मार्क ने कहा, ‘सुखी, कौफी पीने चलोगी?’ मैं ने उचक कर झट से हां कर दी. क्यों न करती? उस समय मेरी आंखों के सामने वही दृश्य रीप्ले होने लगा. तुम इसे चुनौती कहो या जिज्ञासा. मुझे भी अच्छा लगने लगा. धीरेधीरे दोस्ती बढ़ने लगी. मार्क को देख कर जौर्ज और जौन की भी हिम्मत बंधी. कई लड़कों को एकसाथ अपने चारों ओर घूमते देख कर अपनी जीत का एहसास होता. इसे तुम होल्ड, कंट्रोल या फिर पावर गेम भी कह सकती हो. अपने इस राज की केवल मैं ही राजदार थी.’

‘‘‘सुखी, तुम कौन से जौर्ज की बात कर रही हो, वही अफ्रीकन?’

‘‘‘हां, वह तो एक जिज्ञासा थी. उसे टाइमपास भी कह सकती हो. न जाने कब और कैसे मैं आगे बढ़ती गई. आसमान पर बादलों के संगसंग उड़ने लगी. पढ़ाई से मन उचाट हो गया. एक दिन पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं. घर में जो हंगामा हुआ, सो हुआ. मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा. सभी लड़कों ने जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया. मैं भी किस पर हाथ रखती. मैं तो खुद ही नहीं जानती थी. किरण का जन्म होते ही उसे अपनाना तो दूर, मां ने किसी को उसे हाथ तक नहीं लगाने दिया. जैसे मेरी किरण गंदगी में लिपटी छूत की बीमारी हो. इस के बाद मेरी मां के घर से क्रिसमस का उपहार तो क्या, कार्ड तक नहीं आया.’’’

‘‘किरण, तुम्हें यह सब किस ने बताया?’’ वार्डन ने स्नेहपूर्वक पूछा.

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‘‘उस दिन मैं ने मां और ज्योति आंटी की सब बातें सुन ली थीं. जल्दी ही समय की कठोर मार ने मुझे उम्र से अधिक समझदार बना दिया. मां जो कभीकभी सबकुछ भुला कर मुझे प्यार कर लेती थीं, अब उन के व्यवहार में भी सौतेलापन झलकने लगा. जो पैसे उन्हें सोशल सिक्योरिटी से मिलते थे, उन से वे सारासारा दिन शराब पी कर सोई रहतीं. घर के काम के कारण कईकई दिन स्कूल नहीं भेजतीं. सोशलवर्कर घर पर आने शुरू हो गए. सोशल सर्विसेज की मुझे केयर में ले जाने की चेतावनियों का मां पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. शायद मां भी यही चाहती थीं. मां हर समय झुंझलाई सी रहतीं. मुझे तो याद ही नहीं कि कभी मां ने मुझे प्यार से बुलाया हो या फिर कभी अपने संग बिस्तर में लिटाया हो. मैं मां की ओर ललचाई आंखों से देखती रहती. ‘एक दिन मां ने मुझे बहुत मारा. शाम को वे मुझे अकेला छोड़ कर दोस्तों के संग पब (बीयर बार) में चली गईं. उस वक्त मैं केवल 8 वर्ष की थी. घर में दूध के सिवा कुछ खाने को नहीं था. बाहर बर्फ पड़ रही थी. रातभर मां घर नहीं आईं. न ही मुझे डर के मारे नींद. दूसरे दिन सुबह मैं ने पड़ोसी मिसेज हैंपटन का दरवाजा खटखटाया. मुझे डरीडरी, सहमीसहमी देख कर उन्होंने पूछा, ‘किरण, क्या बात है? इतनी डरीडरी क्यों हो?’

‘‘मम्मी अभी तक घर नहीं आईं,’ मैं ने सुबकतेसुबकते कहा.

‘‘‘डरो नहीं, अंदर आओ.’

‘‘मैं सर्दी से ठिठुर रही थी. मिसेज हैंपटन ने मुझे कंबल ओढ़ा कर हीटर के सामने बिठा दिया. वे मेरे लिए दूध लेने चली गईं. 20 मिनट के बाद एक सोशलवर्कर, एक पुलिस महिला के संग वहां आ पहुंची. जैसेतैसे पुलिस ने मां का पता लगाया.

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आई हेट हर: गूंज की अपनी मां से नाराजगी का क्या था कारण

सुबह के 7 बजे थे, गूंज औफिस जाने के लिए तैयार हो रही थी कि मां के फोन ने उस का मूड खराब कर दिया,”गूंज बिटिया, मुझे माफ कर दो…मेरी हड्डी टूट गई है…”

“बीना को दीजिए फोन…,” गूंज परेशान सा बोली. ‘’बीना क्या हुआ मां को?”

“दीदी, मांजी बाथरूम में गिर कर बेहोश हो गई थीं. मैं ने गार्ड को बुलाया और किशोर अंकल भी आ गए थे. किसी तरह बैड पर लिटा दिया लेकिन वे बहुत जोरजोर से रो रहीं हैं. सब लोग होस्पिटल ले जाने को बोल रहे हैं. शायद फ्रैक्चर हुआ है. किशोर अंकल आप को फोन करने के लिए बोल रहे थे.”

“बीना, मैं डाक्टर को फोन कर देती हूं. वह देख कर जो बताएंगे फिर देखती हूं…’’

गूंज ने अपने फैमिली डाक्टर को फोन किया और औफिस आ गई. उसे मालूम हो गया था कि मां को हिप बोन में फ्रैक्चर हुआ है, इसी वजह से वे परेशान थीं. उसे अब काफी चिंता होने लगी थी.

किशोर अंकल ने ऐंबुलैंस बुला कर उन्हें नर्सिंगहोम में ऐडमिट करवा दिया था. इतनी देर से लगातार फोन से सब से बात करने से काम तो हो गया, लेकिन बीना है कि बारबार फोन कर के कह रही है कि मां बहुत रो रही हैं और एक बार आने को बोल रही हैं.

“गूंज, किस का फोन है जो तुम बारबार फोन कट कर रही हो?’’ पार्थ ने पूछा. पार्थ उस के साथ उसी के औफिस में काम करता है और अच्छा दोस्त है.

एक ही कंपनी में काम करतेकरते दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ गई थी. फिर दोनों कब आपस में अपने सुखदुख साझा करने लगे थे, यह पता ही नहीं लगा था.

गूंज ने अपना लैपटौप बंद किया और सामान समेटती हुई बोली, ‘’मैं रूम पर जा रही हूं.‘’पार्थ ने भी अपना लैपटौप बंद कर बौस के कैबिन में जा कर बताया और दोनों औफिस से निकल पड़े.

“गूंज, चलो न रेस्तरां में 1-1 कप कौफी पीते हैं.”गूंज रोबोट की तरह उदास कदमों के साथ रेस्तरां की ओर चल दी. वह वहां बैठी अवश्य थी पर उस की आंखों से ऐसा स्पष्ट हो रहा था कि उस का शरीर यहां है पर मन कहीं और, मानों वह अपने अंतर्मन से संघर्ष कर रही हो .

पार्थ ने उस का मोबाइल उठा लिया और काल हिस्ट्री से जान लिया था कि उस की मां की कामवाली का फोन, फिर डाक्टर…“क्या हुआ तुम्हारी मम्मी को?’’“वे गिर गईं हैं, हिप बोन में फ्रैक्चर हुआ है. मुझे रोरो कर बुला रही हैं.‘’“तुम्हें जाना चाहिए.‘’

“मुझे तो सबकुछ करना चाहिए, इसलिए कि उन्होंने मुझे पैदा कर के मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है…इसलिए…उन्होंने मेरे साथ क्या किया है? हमेशा मारनापीटना… प्यारदुलार के लिए मैं सदा तरसती रही…अब आएं उन के भगवान…करें उन की देखभाल….उन के गुरु  महराज… जिन के कारण वे मेरी पिटाई किया करती थीं. आई हेट हर.”

‘’देखो गूंज, तुम्हारा गुस्सा जायज है, होता है… कुछ बातें स्मृति से प्रयास करते रहने से भी नहीं मिट पातीं. लो पानी लो, अपनेआप को शांत करो.”

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“पार्थ, मैं मां की सूरत तक नहीं देखना चाहती,‘’ कह कर वह सिसक उठी थी.पार्थ चाहता था कि उस के मन की कटुता आंसू के माध्यम से बाहर निकल जाएं ताकि वह सही निर्णय ले पाए.

वह छोटी सी थी. तब संयुक्त परिवार में रहती थी. घर पर ताईजी का शासन था क्योंकि वह रईस परिवार की बेटी थी. मां सीधीसादी सी समान्य परिवार से थीं.

गूंज दुबलीपतली, सांवली, पढ़ने में कमजोर, सब तरह से उपेक्षित… पापा का किसी के साथ चक्कर था… सब तरह से बेसहारा मां दिन भर घर के कामों में लगी रहतीं. उन का सपना था कि उन की बेटी पढ़लिख कर औफिसर बने पर उसे तो आइसपाइस, कैरमबोर्ड व दूसरे खेलों से ही फुरसत नहीं रहती. वह हर समय ताई के गोलू और चिंटू के पीछेपीछे उन की पूंछ की तरह घूमा करती.

घर में कभी बुआ के बच्चे, तो कभी मौसी के बच्चे तो कभी पड़ोस के साथियों की टोली का जमघट लगा रहता. बस, सब का साथ पा कर वह भी खेलने में लग जाती.

एक ओर पति की उपेक्षा, पैसे की तंगी साथ में घरेलू जिम्मेदारियां. कुछ भी तो मां के मनमाफिक नहीं था. गूंज जिद करती कि मुझे गोलू भैया जैसा ही बैग चाहिए, नाराज हो कर मां उस का कान पकड़ कर लाल कर देतीं. वह सिसक कर रह जाती. एक तरफ बैग न मिल पाने की तड़प, तो दूसरी तरफ कान खींचे जाने का दर्द भरा एहसास और सब से अधिक अपनी बेइज्जती को महसूस कर गूंज  कभी रो पड़ती तो कभी चीखनेचिल्लाने लगती. इस से फिर से उस की पिटाई होती थी. रोनाधोना और भूखे पेट सो जाना उस की नियति थी.

उस उम्र में वह नासमझ अवश्य थी पर पिटाई होने पर अपमान और बेइज्जती को बहुत ज्यादा ही महसूस करती थी.

गूंज दूसरी क्लास में थी. उस की फ्रैंड हिना का बर्थडे था. वह स्कूल में पिंक कलर की फ्रिल वाली फ्रौक पहन कर आई थी. उस ने सभी बच्चों को पैंसिल बौक्स के अंदर पैंसिल, रबर, कटर और टौफी रख कर दिया था. इतना सुंदर पैंसिल बौक्स देख कर वह खुशी से उछलतीकूदती घर आई और मां को दिखाया तो उन्होंने उस के हाथ से झपट कर ले लिया,’’कोई जरूरत नहीं है इतनी बढ़िया चीजें स्कूल ले जाने की, कोई चुरा लेगा.‘’

वह पैर पटकपटक कर रोने लगी, लेकिन मां पर कोई असर नहीं पड़ा था.

कुछ दिनों के बाद वह एक दिन स्कूल से लौट कर आई तो मां उस पैंसिल बौक्स को पंडित के लड़के को दे रही थीं. यह देखते ही वह चिल्ला कर  उन के हाथ से बौक्स छीनने लगी,”यह मुझे मिला था, यह मेरा है.”

इतनी सी बात पर मां ने उस की गरदन पीछे से इतनी जोर से दबाई कि उस की सांसें रुकने लगीं और मुंह से गोंगों… की आवाजें निकलने लगीं… वह बहुत देर तक रोती रही थी.

लेकिन समय सबकुछ भुला देता है.

वह कक्षा 4 में थी. अपनी बर्थडे के दिन नई फ्रौक दिलवाने की जिद करती रही लेकिन फ्रौक की जगह उस के गाल थप्पड़ से लाल हो गए थे. वह रोतेरोते सो गई थी लेकिन शायद पापा को उस का बर्थडे याद था इसलिए वह उस के लिए टौफी ले कर आए थे. वह स्कूल यूनीफौर्म में ही अपने बैग में टौफी रख कर बेहद खुश थी. लेकिन शायद टौफी सस्ती वाली थी, इसलिए ज्यादातर बच्चों ने उसे देखते ही लेने से इनकार कर दिया था. वह मायूस हो कर रो पड़ी थी. उस ने गुस्से में सारी टौफी कूङेदान में फेंक दी थी.

लेकिन बर्थडे तो हर साल ही आ धमकता था.

पड़ोस में गार्गी उस की सहेली थी. उस ने आंटी को गार्गी को अपने हाथों से खीर खिलाते देखा था. उसी दिन से वह कल्पनालोक में केक काटती और मां के हाथ से खीर खाने का सपना पाल बैठी थी. पर बचपन का सपना केक काटना और मां के हाथों  से खीर खाना उस के लिए सिर्सफ एक सपना ही रह गया .

वह कक्षा 6 में आई तो सुबह मां उसे चीख कर जगातीं, कभी सुबहसुबह थप्पड़ भी लगा देतीं और स्वयं पत्थर की मूर्ति के सामने बैठ कर घंटी बजाबजा कर जोरजोर से भजन गाने बैठ जातीं.

वह अपने नन्हें हाथों से फ्रिज से दूध निकाल कर कभी पीती तो कभी ऐसे ही चली जाती. टिफिन में 2 ब्रैड या बिस्कुट देख कर उस की भूख भाग जाती. अपनी सहेलियों के टिफिन में उन की मांओं के बनाए परांठे, सैंडविच देख कर उस के मुंह में पानी आ जाता साथ ही भूख से आंखें भीग उठतीं. यही वजह थी कि वह मन ही मन मां से चिढ़ने लगी थी.

उस ने कई बार मां के साथ नजदीकी बढ़ाने के लिए उन के बालों को गूंथने और  हेयरस्टाइल बनाने की कोशिश भी की थी मगर मां उस के हाथ झटक देतीं.

मदर्सडे पर उस ने भी अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर उन के लिए प्यारा सा कार्ड बनाया था लेकिन वे उस दिन प्रवचन सुन कर बहुत देर से आई थीं. गूंज को मां का इतना अंधविश्वासी होना बहुत अखरता था. वे घंटों पूजापाठ करतीं तो गूंज को कोफ्त होता.

जब मदर्सडे पर उस ने उन्हें मुस्कराते हुए कार्ड दिया तो वे बोलीं,”यह सब चोंचले किसलिए? पढोलिखो, घर का काम सीखो, आखिर पराए घर जाना है… उन्होंने कार्ड खोल कर देखा भी नहीं था और अपने फोन पर किसी से बात करने में बिजी हो गई थीं.

वह मन ही मन निराश और मायूस थी साथ ही गुस्से से उबल रही थी.

पापा अपने दुकान में ज्यादा बिजी रहते. देर रात घर में घुसते तो शराब के नशे में… घर में ऊधम न मचे, इसलिए मां चुपचाप दरवाजा खोल कर उन्हें सहारा दे कर बिस्तर पर लिटा देतीं. वह गहरी नींद में होने का अभिनय करते हुए अपनी बंद आंखों से भी सब देख लिया करती थी.

रात के अंधेरे में मां के सिसकने की भी आवाजें आतीं. शायद पापा मां से उन की पत्नी होने का जजियाकर वसूलते थे. उस ने भी बहुत बार मां के चेहरे, गले और हाथों पर काले निशान देखे थे.

पापा को सुधारने के लिए मां ने बाबा लोगों की शरणों में जाना शुरू कर दिया था… घर में शांतिपाठ, हवन, पूजापाठ, व्रतउपवास, सत्संग, कथा आदि के आयोजन आएदिन होने लगे था. मां को यह विश्वास था कि बाबा ही पापा को नशे से दूर कर सकते हैं, इसलिए वे दिनभर पूजापाठ, हवनपूजन और उन लोगों का स्वागतसत्कार करना आवश्यक समझ कर उसी में अपनेआप को समर्पित कर चुकी थीं. वैसे भी हमेशा से ही घंटों पूजापाठ, छूतछात, कथाभागवत में जाना, बाबा लोगों के पीछे भागना उन की दिनचर्या में शामिल था.

अब तो घर के अंदर बाबा सत्यानंद का उन की चौकड़ी के साथ जमघट लगा रहता… कभी कीर्तन, सत्संग और कभी बेकार के उपदेश… फिर स्वाभाविक था कि उन का भोजन भी होगा…

पापा का बिजनैस बढ़ गया और उस महिला का तबादला हो गया था, जिस के साथ पापा का चक्कर चल रहा था. वह मेरठ चली गई थी… मां का सोचना था कि यह सब कृपा गुरूजी की वजह से ही हुई है, इसलिए अब पापा भी कंठी माला पहन कर सुबहशाम पूजा पर बैठ जाते. बाबा लोगों के ऊपर खर्च करने के लिए पापा के पास खूब पैसा रहता…

इन सब ढोंगढकोसलों के कारण उसे पढ़ने और अपना होमवर्क करने का समय ही नहीं मिलता. अकसर उस का होमवर्क अधूरा रहता तो वह स्कूल जाने के लिए आनाकानी करती. इस पर मां का थप्पड़ मिलता और स्कूल में भी सजा मिलती.

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वह क्लास टेस्ट में फेल हो गई तो पेरैंट्स मीटिंग में टीचर ने उस की शिकायत की कि इस का होमवर्क पूरा नहीं रहता और क्लास में ध्यान नहीं देती, तो इस बात पर भी मां ने उस की खूब पिटाई की थी.

धीरेधीरे वह अपनेआप में सिमटने लगी थी. उस का आत्मविश्वास हिल चुका था. वह हर समय अपनेआप में ही उलझी रहने लगी थी. क्लास में टीचर जब समझातीं तो सबकुछ उस के सिर के ऊपर से निकल जाता.

वह हकलाने लगी थी. मां के सामने जाते ही वह कंपकंपाने लगती. पिता की अपनी दुनिया थी. वे उसे प्यार तो करते थे, पिता को देख कर गूंज खुश तो होती थी लेकिन बात नहीं कर पाती थी. वह कभीकभी प्यार से उस के सिर पर अपना हाथ फेर देते तो  वह खुशी से निहाल हो उठती थी.

उधर मां की कुंठा बढती जा रही थी. वे नौकरों पर चिल्लातीं, उन्हें गालियां  देतीं और फिर गूंज की पिटाई कर के स्वयं रोने लगतीं,”गूंज, आखिर मुझे क्यों तंग करती रहती हो?‘’

तब वह ढिठाई से हंस देती थी. उसे मालूम था कि ज्यादा से ज्यादा मां फिर से उस की पिटाई कर देंगी और क्या? पिटपिट कर वह मजबूत हो  चुकी थी. अब पिटने को ले कर उस के मन में कोई खौफ नहीं था.

वह कक्षा 7वीं में थी. गणित के पेपर में फेल हो गई थी. जुलाई में उस की फिर से परीक्षा होनी थी. वह स्कूल से अपमानित हो कर आई थी, क्योंकि गणित के कठिन सवाल उस के दिमाग में घुसता ही नहीं था.

घर के अंदर घुसते ही सभी के व्यंग्यबाणों से उस का स्वागत हुआ था,”अब तो घर में नएनए काम होने लगे हैं… गूंज से इस घर में झाड़ूपोंछा लगवाओ. वह इसी के लायक है…”

एक दिन ताईजी ने भी गूंज को व्यंग्य से कुछ बोलीं तो वह उन से चिढ़ कर कुछ बोल पङी. फिर क्या था, उसे जोरदार थप्पड़ पङे थे.

इस घटना के बाद उस की आंखों के आंसू सूख चुके थे… अब वह मां को परेशान करने के नएनए तरीके सोच रही थी. कुछ देर में मां आईं और फूटफूट कर रोने लगीं थीं. कुछ देर तक उस के मन में यह प्रश्न घुमड़ता रहा कि जब पीट कर रोना ही है तो पीटती क्यों हैं?

मां के लिए उस के दिल में क्रोध और घृणा बढ़ती गई थी.

लेकिन उस दिन पहली बार मां के चेहरे पर बेचारगी का भाव देख कर वह व्याकुल हो उठी थी.

व्यथित स्वर में वे बोली थीं, “गूंज, पढ़लिख कर इस नरक से निकल जाओ, मेरी बेटी.‘’

उस दिन मजबूरी से कहे इन प्यारभरे शब्दों ने उस के जीवन में पढ़ाई के प्रति रुचि जाग्रत कर दी थी.

अब पढ़ाई में रुझान के कारण उस का रिजल्ट अच्छा आने लगा तो मां की शिकायत दूर हो गई थी.

वह 10वीं में थी. बोर्ड की परीक्षा का तनाव लगा रहता था… साथ ही अब उस की उम्र की ऐसी दहलीज थी, जब किशोर मन उड़ान भरने लगता है. फिल्म, टीवी के साथसाथ हीरोहीरोइन से जुड़ी खबरें मन को आकर्षित करने लगती हैं.

पड़ोस की सुनिता आंटी का बेटा कमल भैया का दोस्त था. अकसर वह घर आया करता था. वह बीएससी में था, इसलिए वह कई बार उस से कभी इंग्लिश तो कभी गणित के सवाल पूछ लिया करती थी.

वह उस के लिए कोई गाइड ले कर आया था. उस ने अकसर उसे अपनी ओर देख कर मुसकराते हुए देखा था. वह भी शरमा कर मुसकरा दिया करती थी.

एक दिन वह उस के कमरे में बैठ कर उसे गणित के सवाल समझा रहा था. वह उठ कर अलमारी से किताब निकाल रही थी कि तभी उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया था. वह सिटपिटा कर उस की पकड़ से छूटने का प्रयास कर रही थी कि तभी कमरे में कमल भैया आ गए और बस फिर तो घर में जो हंगामा हुआ कि पूछो मत…

वह बिलकुल भी दोषी नहीं थी लेकिन घर वालों की नजरों मे सारा दोष उसी का था…

“कब से चल रहा है यह ड्रामा? वही मैं कहूं कि यह सलिल आजकल क्यों बारबार यहां का चक्कर काट रहा है… सही कहा है… कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना…

मां ने भी उस की एक नहीं सुनी, न ही कुछ पूछा और लगीं पीटने,”कलमुंही, पढ़ाई के नाम पर तुम्हारा यह नाटक चल रहा है…”

वह पिटती रही और ढिठाई से कहती रही,”पीट ही तो लोगी… एक दिन इतना मारो कि मेरी जान ही चली जाए…”

मां का हाथ पकड़ कर अपने गले पर ले जा कर बोलती,”लो मेरा गला दबा दो… तुम्हें हमेशाहमेशा के लिए मुझ मुक्ति मिल जाएगी.”

उस दिन जाने कैसे पापा घर आ गए थे… उस को रोता देख मां से डांट कर बोले,”तुम इस को इतना क्यों मारती हो?”

तो वे छूटते ही बोलीं,”मेरी मां मुझे पीटती थीं इसलिए मैं भी इसे पीटती हूं.”

पापा ने अपना माथा ठोंक लिया था.

अब मां के प्रति उस की घृणा जड़ जमाती जा रही थी. वह उन के साथ ढिठाई से पेश आती. उन से बातबात पर उलझ पड़ती.

मगर गुमसुम रह कर अपनी पढाई में लगी रहती. वह मां का कोई कहना नहीं मानती न ही किसी की इज्जत करती. उस की हरकतों से पापा भी परेशान हो जाते. दिनबदिन वह अपने मन की मालिक होती जा रही थी.

उस के मन में पक्का विश्वास था कि यह पूजापाठ, बाबा केवल पैसा ऐंठने के लिए ही आते हैं… यही वजह थी कि वह पापा से भी जबान लड़ाती. वह किसी भी हवनपूजन, पूजापाठ में न तो शामिल होती और न ही सहयोग करती.

इस कारण अकसर घर में कहासुनी होती लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ी रहती.

इसी बीच उस का हाईस्कूल का रिजल्ट आया. उस की मेहनत रंग लाई थी. उस ने स्कूल में टौप किया था. उस के 92% अंक आए थे. बस, फिर क्या था, उस ने कह दिया कि उसे कोटा जा कर आगे की पढ़ाई करनी है. इस बात पर एक बार फिर से मां ने हंगामा करना शुरू कर दिया था,”नहीं जाना है…किसी भी हालत में नहीं…”

लेकिन पापा ने उसे भेज दिया और वहां अपने मेहनत के बलबूते वह इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता पास कर बाद में इंजीनियर बन गई.

उधर पापा की अपनी लापरवाही के कारण उन का स्टाफ उन्हें धोखा देता रहा… वे सत्संग में मगन रह कर पूजापाठ में लगे रहे.

जब तक पापा को होश आया उन का बिजनैस बाबा लोगों द्वारा आयोजित पूजापाठ, चढ़ावे के हवनकुंड में स्वाह हो चुका था. अब वे नितांत अकेले हो गए. फिर उन्हें पैरालिसिस का अटैक हुआ. कोई गुरूजी, बाबा या फिर पूजापाठ काम नहीं आया. तब गूंज ने खूब दौड़भाग की लेकिन निराश पापा जीवन की जंग हार गए…

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मां अकेली रह गईं तो वह बीना को उन के पास रख कर उस ने अपना कर्तव्य निभा दिया.

गूंज का चेहरा रोष से लाल हो रहा था तो आंखों से अश्रुधारा को भी वह रोक सकने में समर्थ नहीं हो पाई थी.

‘’पार्थ, आई हेट हर…’’

“आई अंडरस्टैंड गूंज, तुम्हारे सिवा उन का इस दुनिया में कोई नहीं है, इसलिए तुम्हें उन के पास जाना चाहिए. शायद उन के मन में पश्चाताप  हो, इसलिए वे तुम से माफी मांगना चाहती हों…यदि तुम्हें मंजूर हो तो उन्हें बैंगलुरू शिफ्ट करने में मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूं. यहां के ओल्ड एज होम का नंबर मुझे मालूम है. यदि तुम कहो तो मैं बात करूं?”

“पार्थ, मैं उन की शक्ल तक देखना नहीं चाहती…”

“मगर डियर, सोचो कि एक मजबूर बुजुर्ग, वह भी तुम्हारी अपनी मां, बैड पर लेटी हुईं तुम्हारी ओर नजरें लगाए तुम्हें आशा भरी निगाहों से निहार रही हैं…”

वह बुदबुदा कर बोली थी, ‘’कहीं पहुंचने में हम लोगों को देर न हो जाए.‘’

गूंज सिसकती हुई मोबाइल से फ्लाइट की टिकट बुक करने में लग गई…

मैं अहम हूं: शशि से बराबरी करने के लिए क्या कर बैठी इंदु

लेखिका- मंगला रामचंद्रन

शशि ने बबलू की ओर देखा. उस का चेहरा कितना भोला मालूम होता है. बहुत ही प्यारा बच्चा है. हर मांबाप को अपने बच्चे प्यारे ही लगते हैं. बबलू गोराचिट्टा बच्चा था, जिस को देख कर सभी का उसे प्यार करने को मन होता. फिर शशि तो उस की मां थी. सारे दिन उस की शरारतें देख कर खुश होती. बबलू को पा कर तो उसे ऐसा लगता कि बस, अब और कुछ नहीं चाहिए. बबलू से बड़ी 7-8 साल की बेटी नीलू भी कम प्यारी नहीं थी. दोनों बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहने वाली शशि उन के प्रति लापरवाह कैसे हो गई?

आज तो हद हो गई. सुबह जब वह आटो पर बैठने लगी तो बबलू उस के पांवों से लिपट गया. प्यार से मनाने पर नहीं माना तो शशि ने उसे डांटा. देर तो हो ही रही थी, उस ने आव देखा न ताव, उस के गाल पर एक चांटा जड़ दिया. चांटा कुछ जोर से पड़ गया था, उंगलियों के निशान गाल पर उभर आए थे. उस के रोने की आवाज सुन कर उस के दादाजी बाहर आ गए और बबलू को गोद में ले कर मनाने लगे. सास ने जो आंखें तरेर कर शशि की ओर देखा तो वह सहम गई. आटो में बैठते हुए ससुरजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘जब करते नहीं बनता तो क्यों करती है नौकरी. यहां क्या खाने के लाले पड़ रहे हैं?’’

स्कूल में उस दिन किसी काम में मन नहीं लगा. इच्छा तो हो रही थी छुट्टी ले कर घर जाए पर अभी नौकरी लगे दोढाई महीने ही हुए थे. प्रधान अध्यापिका वैसे भी कहती रहती थीं, ‘‘भई, नौकरी तो बच्चों वाली को करनी ही नहीं चाहिए. रहेंगी स्कूल में और ध्यान रहेगा पप्पू, लल्ली में,’’ यह कह कर वे एक तिरस्कारपूर्ण हंसी हंसतीं. वे खुद 45 वर्ष की आयु में भी कुंआरी थीं. स्कूल का समय समाप्त होते ही शशि आटो के लिए ऐसे दौड़ी कि सामने से आती हुई प्रधान अध्यापिका व अन्य 2 अध्यापिकाओं को अभिवादन करना तक भूल गई. आटो में आ कर बैठने के बाद उसे इस बात का खयाल आया. दोनों अध्यापिकाओं की प्रधान अध्यापिका के साथ बनती भी अच्छी थी, और वे उस से वरिष्ठ भी थीं. खैर, जो भी हुआ अब क्या हो सकता था.

आटो वाले से उतावलापन दिखाते हुए कहा, ‘‘जल्दी चलो.’’

कुछ दूर जा कर आटो वाले ने पूछा, ‘‘साहब क्या करते हैं?’’

‘‘बहुत बड़े वकील हैं,’’ शशि ने सगर्व कहा.

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आटो वाले ने मुंह से कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक हलकी सी मुसकान के साथ पीछे मुड़ कर उसे देख लिया. उस की इस मुसकान से उसे सुबह की घटना फिर याद आ गई. जैसेजैसे घर करीब आता गया, शशि का संकोच बढ़ता गया. सासससुर से कैसे आंख मिलाए. सुबह तो पति अजय घर पर नहीं थे, पर अब अजय को भी मालूम हो गया होगा. बच्चों को वे कितना चाहते हैं. जहां तक हो सके वे प्यार से ही उन्हें समझाते हैं. बच्चे भी अपने पिता से बहुत हिलेमिले थे. घर के आगे आटो रुका. बबलू रोज की तरह दौड़ कर नहीं आया. नीलू भी सिर्फ एक बार झांक कर भीतर चली गई. अंदर जा कर उस ने धीरे से बबलू को आवाज दी. वह दूर से ही बोला, ‘‘अम नहीं आते. आप मालती हैं. आप से अमाली कुट्टी हो गई.’’

शशि वैसे ही बिस्तर पर पड़ गई. रोतेरोते उस के सिर में दर्द होने लगा. वह चुपचाप वैसे ही आंख बंद किए पड़ी रही. किसी ने बत्ती जलाई. सास ही थीं. उस के करीब आ कर बोलीं, ‘‘चलो बहू, हाथमुंह धो कर कुछ खापी लो.’’ सास की हमदर्दी अच्छी भी लगी और साथ ही शर्म भी आई. रात का खानपीना खत्म हुआ तो सब बिस्तर पर चले गए थे. अजय खाना खा कर दूसरे कमरे में चला गया, जरूरी केस देखने. शशि को उन का बाहर जाना भी उस दिन राहत ही दे रहा था. बबलू करवट बदलते हुए नींद  में कुछ बड़बड़ाया. शशि ने उस को चादर ओढ़ाई, फिर नीलू की ओर देखा. आज नीलू भी उस से घर आने के बाद ज्यादा बोली नहीं. और दिनों तो स्कूल की छोटी से छोटी बात बताती, तरहतरह के प्रश्न पूछती रहती. साथ में खाना खाने की जिद करती. फिर सोते समय जब तक एकाध कहानी न सुन ले, उसे नींद न आती. पर आज शशि को लग रहा था, मानो बच्चे पराए, उस से दूर हो रहे थे. ढाई साल के बच्चे  में अपनापराया की क्या समझ हो सकती है. वह तो मां को ही सबकुछ समझता है. मां भी तो उस से बिछुड़ कर कहां रहना चाहती है.

वह दिन भी कितना बुरा था जब वह पहली बार इंदु से मिली थी, शशि सोचने लगी…

कैसी सजीधजी थी इंदु, बातबात पर उस का हंसना. शशि को उस दिन वह जीवन से परिपूर्ण, एकदम जीवंत लगी. अजय और मनोज साथ ही पढ़े थे. आजकल मनोज उसी शहर में ला कालेज में लैक्चरार से तरक्की पा कर प्रोफैसर बन गया था. उस दिन रास्ते में जो मुलाकात हुई तो मनोज ने अजय व शशि को अपने घर आने का निमंत्रण दिया. वहां जाने पर शशि भौचक्की सी रह गई. ड्राइंगरूम था या कोई म्यूजियम. महंगी क्रौकरी में नाश्ता आया. अच्छी नईनई डिशेज. शशि तो नाश्ते के दौरान कुछ अधिक न बोली, पर इंदु चहकती रही. शायद भौतिक सुख से परिपूर्ण होने पर आदमी वाचाल हो जाता है. इंदु किसी काम से अंदर चली गई. अजय और मनोज बीते दिनों की यादों में खोए हुए थे. शशि सोचने लगी, उस का पति भी वकालत में इतना तो कमा ही लेता है जिस से आराम से रहा जा सके. खानेपहनने को है, बच्चों को घीदूध की कमी नहीं. बचत भी ठीक है. सुखशांति से भरापूरा परिवार है. पर मनोज के यहां की रौनक देख कर उसे अपना रहनसहन बड़ा तुच्छ लगा.

इंदु की आवाज से शशि इतनी बुरी तरह चौंकी कि अजय और मनोज दोनों उस की ओर देखने लगे. मनोज ने कहा, ‘शायद भाभी को घर में छोड़े हुए बच्चों की याद आ रही है. भाभी, इतना मोह भी ठीक नहीं. अब देखिए, हमारी श्रीमतीजी को, लेदे के एक तो लाल है, सो उस को भी छात्रावास में भेज दिया. मुश्किल से 8-10 साल का है. कहती हैं, ‘वहां शुरू से रहेगा तो तहजीब सीख लेगा.’ भाभी, आप ही बताइए, क्या घर पर बच्चे शिष्टाचार नहीं सीखते हैं?’ मनोज शायद आगे भी कुछ कहता पर इंदु शशि का हाथ पकड़ कर यह कहते हुए अंदर ले गई, ‘अजी, इन की तो यह आदत है. कोई भी आए तो शुरू हो जाते हैं. भई, हम को तो ऐसी भावुकता पसंद नहीं. आदमी को व्यावहारिक होना चाहिए.’

उस के व्यावहारिक होने का थोड़ा अंदाजा तो बाहर से ही मिल रहा था. जब अंदर जा कर देखा तो एलईडी टैलीविजन, कंप्यूटर, चमचमाता महंगा फर्नीचर ओह, क्याक्या गिनाए. शशि की हैरानी को इंदुशायद भांप गई थी. बड़े गर्व से, गर्व के बजाय घमंड कहना ही उचित होगा, बोली, ‘यह सब मेरी मेहनत का फल है. यदि विकी को छात्रावास में न रखती तो इतने आराम से नौकरी थोड़े ही की जा सकती थी. उस को देखने के लिए आया, नौकर रखो, फिर उन नौकरों की निगरानी करो, अच्छा सिरदर्द ही समझो. अब मुझे कोई फिक्र नहीं. हर महीने 70 हजार रुपए कमा लेती हूं. काम भी अच्छा ही है. एक मल्टीनैशनल कंपनी में कंसल्टैंट के तौर पर काम करती हूं. जरा ढंग से संवर के रहना, लोगों से मिलना और मुसकान बिखेरते रहना. संवर के रहना किस औरत को अच्छा नहीं लगेगा. अरे, मैं तो बोले ही जा रही हूं. आप भी कहेंगी, अच्छी मिली. आइए, मैं आप को पूरा घर दिखाऊं.’

शयनकक्ष तो बिलकुल फिल्मी था. बढि़या सुंदर डबलबैड और उस पर बिछी चादर इतनी सुंदर कि हाय, शशि कल्पना में अपनेआप को उस पर अजय के साथ देखने लगी. सिर को झटक कर उस विचार को तुरंत निकाल देने की कोशिश की. बाहर के कमरे में आने पर अजय बोला, ‘चलो शशि, क्या यहीं रहने का इरादा है?’

इंदु ने अजय से कहा, ‘आप इन्हें कभीकभी यहां ले आया करिए. इन का मन भी बहला करेगा. आप को समय न हो तो मनोज को फोन कर दिया कीजिए, हम खुद ही इन्हें ले आएंगे.’ शशि की इच्छा तो हुई कि कहे, जब आप लेने आएंगी तो वहीं, मेरे घर पर बातचीत हो सकती है. पर उस का मन इतना भारी हो रहा था कि लग रहा था कि अगर एक बोल भी मुंह से निकला तो वह रो देगी. वह समझ रही थी कि इंदु सिर्फ अपने धन का दिखावा भर दिखाना चाहती थी. घर लौटते हुए आधे रास्ते तक दोनों चुप रहे. फिर अजय एकदम बोला, ‘मनोज की पत्नी भी खूब है.’ वह आगे कुछ बोले, इस से पहले शशि ने टोक दिया, ‘हां, मुझ जैसी बेवकूफ थोड़ी है.’

उस की आवाज रोंआसी थी. अजय ने आश्चर्य से उस की ओर देखा और प्यार से बोला, ‘शशि, कैसी बेवकूफों सी बातें करती हो?’ फिर उस ने एकदम दांतों तले जीभ दबा ली. यह वह अनजाने में क्या बोल गया, मानो शशि की कही हुई बात का समर्थन कर दिया हो. एकदम बात बदलते हुए बोला, ‘बहुत देर हो गई, बच्चे शायद सो भी गए होंगे.’ पर शशि की आग्नेय दृष्टि देख कर फिर वह रास्ते भर चुप ही रहा.

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घर पहुंचने पर शशि सिरदर्द का बहाना कर के बिना कुछ खाएपिए लेट गई. पर रातभर उसे इंदु के बैडरूम के ही सपने आते रहे. इंदु की अलमारी में सजी साडि़योें की इंद्रधनुषी छटा रहरह कर आंखों के सामने नाच रही थी. ओह, कितनी साडि़यां, रोज एकएक पहने तो साल में उसे 3 या 4 बार से अधिक पहनने का मौका न आए. अब तो उन की दूसरी कार भी आने को है. वैसे तो कई लोगों के अच्छे व बड़े घर, कार सब देख चुकी है. खुद उस के भाईसाहब के पास कार है पर वे बहुत बड़े इंजीनियर हैं. अपने पति की बराबरी में तो जो भी हैं, सब का रहनसहन करीबकरीब एकसा ही है. शशि ने यह नहीं सोचा था कि उस की बेचैनी एक दिन उसे नौकरी करने पर मजबूर कर देगी. आवेदन देने के पहले कई दिन तक ऊहापेह में पड़ी रही. ढाई साल का बबलू, उसे कौन संभालेगा? सासूमां बूढ़ी हैं. अजय से जब राय मांगी तो उन्होंने भी यही कहा, ‘भई, परिस्थितिवश नौकरी करना बुरी बात नहीं, पर तुम्हें नौकरी की क्या जरूरत पड़ गई? कम से कम बबलू ही कुछ बड़ा हो कर स्कूल जाने लगे तो ठीक है. फिर आगे तुम्हारी इच्छा.’

सासससुर ने भी कहा, ‘बहू, बबलू को तो हम संभाल लेंगे. हमारा और है ही कौन. पर तुम्हारा शरीर भी तो दोनों भार को सहन कर सके तब न. जो भी करो, सोचसमझ कर करो.’’ पर उस के सिर पर तो जैसे जनून सवार था. 6-7 दिन तक तो स्कूल में बबलू की खूब याद आती थी, फिर ठीक लगने लगा. पर रोज स्कूल से लौट कर जब घर में कदम रखती तो घर की कुछ अव्यवस्थता मन को खटकती. एक दिन जब वह स्कूल से लौटी तो घर में कोई मेहमान आए हुए थे. कामवाली घर पर नहीं थी तो नीलू उन को पानी दे रही थी. नीलू को देखते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर आ पहुंचा. बाल बिखरे हुए, फ्रौक की तुरपन उधड़ी हुई, हाथ में पेंटिंग कलर लगे हुए थे, अजीब हाल बना रखा था. नीलू को बगल से पकड़ कर खींचते हुए वह अंदर ले गई. उस का तमतमाता चेहरा देख कर वहां का वातावरण एकदम बोझिल हो गया. नीलू सुबकती हुई एक कोने में खड़ी हो गई. उस समय शशि को अपनी गलती का खयाल नहीं आया, बल्कि उसे सब पर गुस्सा आया कि सब उस से खार खाए बैठे हैं और जानबूझ कर उस का अपमान करना चाहते हैं. पर आज लगता है, वास्तव में उस ने अपनी नौकरी के आगे बाकी हर बात को गौण समझ लिया. पहले वह अजय के मोजे, रूमाल देख कर रख दिया करती थी, उस के कपड़ों पर प्रैस, बटन आदि का भी ध्यान रखती थी. दोपहर के समय बच्चों के पुराने कपड़ों को बड़ा करना, मरम्मत करना आदि काफी कुछ काम कर लेती थी. अब तो अजय अपने हाथ से बटन लगाना आदि छोटीमोटी मरम्मत कर लेता है, पर मुंह से कुछ नहीं बोलता. बबलू भी इन 2 ही महीनों में कुछ दुबला हो गया है. दादी दूध दे सकती हैं, खिला सकती हैं, प्यार भी बहुत करती हैं, पर मां की ममता व आरंभिक शिक्षा और कोई थोड़े ही दे सकता है.

फिर उस के कमाने से क्या फायदा हुआ, सिवा इस के कि घर का खर्चा पहले से बढ़ गया. सब कपड़े धोबी को जाने लगे और कपड़ों का नुकसान भी ज्यादा होने लगा. अब महरी को भी काम बढ़ जाने से ज्यादा पैसे देने पड़ते थे. आटो का खर्च अलग, इस प्रकार मासिक खर्च बढ़ ही गया. इस के अलावा घर और बच्चे अव्यवस्थित हो गए सो अलग. सास बेचारी दिनभर काम में पिसती रहती. और जब  नहीं कर पाती तो बड़बड़ाती रहती. इन्हीं 2 महीनों में घर की शांति भंग हो गई. जिस पर उस ने जो कल्पना की थी कि अपनी तनख्वाह से घर की सजावट के लिए कुछ खरीदेगी, उसे कार्यरूप से परिणत करना कितना मुश्किल है, यह उसे तुरंत पता लग गया. उसे कुछ कहने में ही झिझक हो रही थी. कहीं अजय यह न समझ ले कि उस ने सिर्फ इन दिखावे की चीजों के लिए ही नौकरी की है. अजय के मन में हीनभावना भी आ सकती है. पर यह सब उसे पहले क्यों नहीं सूझा? खैर, अब तो सुध आई. ‘बाज आई ऐसी नौकरी से,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘बच्चे जरा बड़े हो जाएं तो देखा जाएगा.’

अगले दिन उस ने अजय के चपरासी के हाथों एक महीने का नोटिस देते हुए अपना त्यागपत्र तथा एक दिन के आकस्मिक अवकाश की अरजी भेज दी. अजय ने यही समझा कि शायद तबीयत खराब होने से 1-2 दिन की छुट्टी ले रखी है. बादल उमड़घुमड़ रहे थे और बारिश की हलकीहलकी बूंदें भी पड़नी शुरू हो चुकी थीं. बहुत दिनों बाद उस रात को दोनों चहलकदमी को निकले. अजय ने पूछा, ‘‘क्यों, अचानक तुम्हारी तबीयत को क्या हो गया, तुम ने कितने दिन की छुट्टी ले ली है?’’

शशि बोली, ‘‘हमेशा के लिए.’’ अजय परेशान सा उस की ओर देखने लगा, ‘‘सच, शशि, सच, अब तुम नहीं जाओगी स्कूल? चलो, अब कमीजपैंट में बटन नहीं टांकने पड़ेंगे. धोबी को डांटने का काम भी अब तुम संभाल लोगी. हां, अब रात को थके होने का बहाना भी नहीं कर सकतीं. पर यह तो बताओ, नौकरी छोड़ क्यों दी?’’

शशि उस के उतावलेपन को देख कर हंसते हुए मजा ले रही थी. उसे पति पर दया भी आई, बोली, ‘‘हां, मुझे नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी, जनाब दरजी तो बन ही जाते. अजीब आदमी हो, कम से कम एक बार तो मुंह से कहा होता कि शशि, तुम्हारे स्कूल जाने से मुझे कितनी परेशानी होती है.’’ डियर, हम तो शुरू से कहना चाहते थे, पर हमारी बात आप को तब जंचती थोडे़ ही. हम ने भी सोचा कर लेने दो थोड़े मन की, अपनेआप सब हाल सामने आएगा तो जान जाएगी. पर यह उम्मीद नहीं थी कि तुम इतनी जल्दी नौकरी छोड़ने को तैयार हो जाओगी. खैर, तुम ने अपनी परिस्थिति पहचान ली तो सब ठीक है,’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘हां, शशि सद्गृहिणी बनना कितना कठिन है. तुम जब अपने इस दायित्व को अच्छे से निभाती हो तो मुझे कितना गर्व होता है, मालूम है? यह मत सोचो कि मैं तुम्हें घर से बांधने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी ओर से पूरी छूट है, तुम पढ़ोलिखो, कुछ नया सीखो, पर अपने दायित्व को समझ कर.’’

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फिर कुछ दूर दोनों मौन चलते रहे. अजय को लग रहा था कि शशि कुछ पूछना चाह रही है, पर हिचक रही है. 2-3 बार उस ने शशि की ओर देखा, मानोे हिम्मत बंधा रहा हो. ‘‘इंदु को देख कर आप को यह नहीं लगता कि वह कितनी लायक औरत है, उस ने अपना घर कैसे सजा लिया है. तब आप को मुझ में कमी नहीं लगती?’’ आखिर शशि ने पूछ ही लिया. अजय इतना खुल कर हंसे कि राह के इक्कादुक्का लोग भी मुड़ कर उन की ओर देखने लगे. आखिर हंसने का यह कैसा और कौन सा मौका है, शशि समझ न पाई. जब उन की हंसी रुकी तो बोले, ‘‘तुम को क्या लगता है कि मनोज बहुत खुश है. वह क्या कह रहा था मालूम है? ‘यार, जबान का स्वाद ही चला गया. मनपसंद चीजें खाए अरसा हो गया. श्रीमतीजी दफ्तर से आ कर परांठे सेंक देती हैं, बस. इतवार के दिन वे छुट्टी के मूड में रहती हैं. देर से उठना, आराम से नहानाधोना, फिर होटल में खाना, पिक्चर, बस. यार, तू बड़ा सुखी है. यहां तो हर महीने मांबाप को रुपए भेजने पर टोका जाता है. आखिर मांबाप के प्रति कुछ फर्ज भी तो है कि नहीं?

‘‘और सुनोगी? उस दिन हमारे बच्चों को देख कर बोला, ‘यार, तुम्हारे बच्चे कितने सलीके से रहते हैं. इच्छा तो होती है कि इंदु को बताऊं कि देखो, इन बच्चों को शिष्टचार की कोई सीख कौन्वैंट या पब्लिक स्कूल से नहीं, बल्कि मां के सिखाने से मिली है.’

‘‘मैं ने यह सुन कर कैसा अनुभव किया होगा, तुम अनुमान लगा सकती हो, यही तुम्हारी जीत थी, और तुम्हारी जीत यानी मेरी जीत. इंदु की आधी तनख्वाह तो अपनी साडि़यों, मेकअप, होटल और सैरसपाटे में खर्च हो जाती है. बेटे को छात्रावास में रखने का खर्च अलग. उस में अहं की भावना है, और ‘मेरे’ की भावना से ग्रस्त वह यही समझती है कि उस के नौकरी करने से ही घर में इतनी चीजें आई हैं. जहां यह ‘मेरे’ की भावना आई, घर की सुखशांति नष्ट समझो.’’ कुछ रुक कर अजय बोले, ‘‘चलो, शशि, अब घर चलें, काफी दूर निकल आए हैं,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘आज के बाद रात को थकान का बहाना न चलेगा.’’

शशि को गुदगुदी सी हुई और बहुत दिनों बाद उस के मन में बसी बेचैनी दूर जाती लगी.

दूसरी पारी: क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

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आधुनिक बीवी: भाग 1- क्या धर्मपाल की तलाश खत्म हो पाई

लेखक- प्रमोद कुमार शर्मा

‘‘मौसम विभाग की भविष्यवाणी है कि आज रात तथा कल बहुत बर्फ पड़ने वाली है. क्या तुम्हारा अभी भी कल शाम को पाल के यहां होने वाली पार्टी में जाने का विचार है?’’ मैं ने रेणु से पूछा.

रेणु चाय बनाने चली गई थी, सो शायद उस ने मेरी बात पूरी तरह से सुनी नहीं थी. जब वह चाय बना कर लाई तो मैं ने उस से फिर वही प्रश्न दोहराया तो वह बोली, दिनेश, ‘‘पाल तुम्हारे पुराने व गहरे मित्र हैं. इतने दिनों बाद उन्हें यह खुशी मिली है और तुम्हें उन्होंने विशेष तौर पर बुलाया है. क्या तुम अपने मित्र की खुशी में शामिल होना नहीं चाहते?’’

‘‘चलो, तो तैयार हो जाओ. बाजार से कोई तोहफा ले आएं,’’ मैं बोला.

चाय पी कर हम बाजार गए. पहले पाल के लिए तोहफा खरीदा, फिर अगले सप्ताह के लिए खाने का सब सामान खरीदने के बाद रात को 9 बजे घर वापस आए. रेणु ने खाना पहले ही बना रखा था, सो उसे गरम कर के खाया और फिर टैलीविजन देखने लगे. 10 बजे के करीब मैं ने खिड़की से बाहर देखा तो बर्फ पड़ने लगी थी. रात में 11 बजे के समाचार सुने और हम सोने चले गए.

अगले दिन भी बर्फ पड़ती रही तो मैं ने पाल को फोन किया, ‘‘अरे, तुम्हारी पार्टी आज ही है या स्थगित करने की सोच रहे हो?’’

पाल बोला, ‘‘अरे, बर्फ कोई ज्यादा नहीं है.’’ पार्टी समय पर ही है.

पाल मेरा पुराना मित्र है. हम दोनों एकसाथ ही अमेरिका आए तथा एकसाथ ही एमएस किया था. पाल से मेरी मुलाकात पेरिस में हुई थी.

फिर मैं न्यूयार्क में एक छोटी सी इलैक्ट्रौनिक्स कंपनी में नौकरी करने लगा था. पाल कैलिफोर्निया में जा कर बस गया. 3 वर्ष बाद मैं ने भारत जा कर रेणु से शादी कर ली तथा न्यूजर्सी में एक दूसरी कंपनी में नौकरी कर ली और यहीं बस गया.

पिछले वर्ष शनिवार को जब हम एक शौपिंग सैंटर में घूम रहे थे तो अचानक पाल से मुलाकात हुई. पाल 1 महीना पहले न्यूजर्सी में आ कर रहने लगा था. उस ने अब तक शादी नहीं की थी. वह अब अकसर शनिवार, रविवार को हमारे घर आने लगा. रेणु पाल से जब भी शादी करने को कहती तो उस का जवाब होता, ‘भाभीजी, कोई लड़की पसंद ही नहीं आती.’

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रेणु जब उस से उस की पसंद के बारे में पूछती तो उस का जवाब होता, ‘मुझे बहुत सुंदर व आधुनिक विचारों की पत्नी चाहिए.’

रेणु जब उस से आधुनिक की परिभाषा पूछती तो उन में घंटों तक बहस होती रहती.

पाल का पूरा नाम धर्मपाल है. रेणु ने उस से एक बार कहा, ‘तुम लोगों को अपना पूरा नाम ‘धर्मपाल’ क्यों नहीं बताते?’

वह बोला, ‘भाभीजी, धर्म तो मैं भारत में ही छोड़ आया था, अब तो पाल बाकी रह गया है.’

अचानक एक दिन पाल का फोन आया, ‘दिनेश, मैं दिल्ली से बोल रहा हूं. 2 सप्ताह बाद मेरी शादी है. मैं ने तुम्हें कार्ड भेज दिया है. हो सके तो अवश्य आना.’

मुझे उस की बात पर यकीन नहीं हुआ तो उस के न्यूजर्सी के घर पर फोन मिलाया, पर किसी ने न उठाया. 2 दिनों बाद हमें पाल का कार्ड मिला तो यकीन आया कि वास्तव में उस की शादी होने जा रही है.

लगभग 1 महीने बाद पाल वापस अमेरिका आ गया और उस ने मुझे फोन कर के बताया कि उस की शादी का प्रोग्राम अचानक बन गया. वह आगे बोला, ‘पिताजी का एक दिन फोन आया कि एक लड़की उन्हें बहुत पसंद आई है, आ कर देख तो लो. मैं उसी सप्ताह दिल्ली चला गया और शादी पक्की हो गई.’

रेणु ने पाल को पत्नी सहित घर आने का न्योता दिया तो वह बोला, ‘भाभीजी, सुषमा तो अभी नहीं आ पाई है, उस के वीजा के लिए कुछ कागज वगैरा भेजने हैं.’

रेणु ने फिर उसे स्वयं ही आने को कहा तो वह बोला, ‘अच्छा, मैं अगले शनिवार को आऊंगा.’

शनिवार को दोपहर के 2 बजे के करीब पाल ने घंटी बजाई तो मैं ने दरवाजा खोला, ‘बधाई हो पाल, अफसोस है कि तुम्हारी शादी में हम शामिल नहीं हो सके.’

रेणु भी पीछे से आ गई और उस से बोली, ‘तुम ने हमें समय ही नहीं दिया वरना हम तो अवश्य आते.’

पाल बोला, ‘घर में तो आने दो, बाद में ताने देते रहना,’ वह भीतर आ गया तो रेणु खाना परोसने लगी.

खाना खाने के बाद हम लोग बैठ कर बातें करने लगे.

रेणु ने पूछा, ‘‘सुषमा कब तक अमेरिका आएगी?’’

‘देखो, कागज वगैरा तो सारे भेज दिए हैं, शायद 2 महीने में आ जाए.’

सुषमा 1 महीने से पहले ही अमेरिका आ गई. तब उसी खुशी में पार्टी का आयोजन किया गया था.

शाम को जब हम पाल के घर पहुंचे तो हम से पहले ही 2-3 परिवार वहां आ चुके थे. पाल ने हमारा सब से परिचय कराया.

रेणु बोली, ‘‘पाल, तुम ने सब से परिचय करा दिया है या कोई बाकी है?’’

‘‘भाभीजी, सुषमा ऊपर तैयार हो रही है, अभी आने ही वाली है.’’

करीब आधा घंटे बाद सुषमा नीचे आई तो पाल ने उस का सब से परिचय कराया. वह पाल से 12 वर्ष छोटी थी, पर थी सुंदर. उस ने बहुत मेकअप किया हुआ था, इस से और भी खूबसूरत लग रही थी. हम सब लोगों को पाल ने शीतल पेय दिए. फिर उस ने सुषमा से पूछा, ‘‘तुम क्या लोगी?’’

वह बोली, ‘‘कुछ भी.’’

इस पर पाल उस के लिए स्कौच बनाने लगा तो वह बोली, ‘‘इस में पानी मत डालना. बस, बर्फ डाल कर ले आना.’’

जितनी भी वहां और भारतीय महिलाएं थीं, सब साधारण पेय ही पी रही थीं. मैं ऐसी बहुत ही कम भारतीय महिलाओं को जानता हूं जो शराब पीती हैं. रेणु ने जब यह देखा तो उसे यकीन नहीं हुआ कि सुषमा जो अभीअभी भारत से आई है, स्कौच पी रही है. कुछ और महिलाओं को भी आपस में कानाफूसी करते सुना.

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‘‘अरे, हम तो यहां पिछले 20 वर्षों से रह रहे हैं, भारत में भी काफी आधुनिक थे, पर स्कौच तो दूर, हम ने तो कभी वाइन तक को हाथ नहीं लगाया,’’ रीता को मैं ने रेणु से यह कहते सुना.

इतने में सुषमा को ले कर पाल बीच मंडली में आया और दोनों ने जाम टकरा कर पीने शुरू कर दिए. 2-3 घंटे तक पार्टी बड़ी गरम रही. कुछ लोग राजनीति पर चर्चा कर रहे थे तो कुछ हिंदी फिल्मों पर. 12 बजे के करीब शादी की खुशी में केक काटा गया. फिर सब ने पाल को बधाइयां तथा तोहफे दिए. उस के बाद खाने की बारी आई.

12 बजे के आसपास पार्टी तितरबितर होनी शुरू हुई. हमें घर आतेआते 1 बज गया.

घर आते ही मैं बिस्तर पर लेट गया और जल्दी ही सो गया.

सुबह 9 बजे के करीब जब मेरी आंखें खुलीं तो पाया कि रेणु बिस्तर पर नहीं है. मैं ने खिड़की से बाहर झांका, बर्फ अभी भी गिर रही थी. मैं नीचे आया तो देखा, रेणु सोफे पर सो रही है.

मैं जब नहा कर लौटा तो उस समय करीब 11 बज रहे थे. रेणु अभी भी सो रही थी मैं ने सोचा, शायद उस की तबीयत ठीक नहीं है, सो, जा कर उठाया तो वह हड़बड़ा कर उठी और बोली, ‘‘क्या टाइम हो गया?’’

‘‘तुम्हें आज टाइम की क्या चिंता है? यह बताओ, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? और तुम यहां पर क्यों सो रही हो?’’

‘‘मुझे रात नींद नहीं आई तो यह सोच कर कि तुम्हारी नींद न खराब हो, 2 बजे के करीब नीचे चली आई. यहां आ कर भी जब नींद न आई तो टैलीविजन चला दिया, फिर पता नहीं कब नींद आ गई.’’

मैं ने उस के लिए चाय बनाई, क्योंकि वह हमेशा चाय पीना पसंद करती है. फिर उस से नींद न आने का कारण पूछा तो बोली, ‘‘ऐसी तो कोई खास बात नहीं थी, बस, पाल और सुषमा के बारे में ही सोचती रही. तुम ने देखा नहीं, वह कैसी बेशर्मी से शराब पी रही थी.’’

मैं बोला, ‘‘तुम्हें दूसरों की व्यक्तिगत जिंदगी से क्या मतलब?’’

‘‘तो क्या पाल कोई दूसरे हैं? वे तुम्हारे मित्र नहीं हैं?’’ उस ने जोर से यह बात कही.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘मेरा मतलब यह नहीं था. शराब पीना या न पीना पाल और सुषमा का व्यक्तिगत मामला है, हमें उस में नहीं पड़ना चाहिए.’’

रेणु चाय पी कर बोली, ‘‘मैं नहाने जा रही हूं. तुम फायर प्लेस जला लो. आज बाहर तो कहीं जा नहीं सकते, इसलिए बैठ कर कोई पुरानी हिंदी फिल्म देखेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘जैसी सरकार की मरजी.’’

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बिलखता मौन: भाग 3- क्यों पास होकर भी मां से दूर थी किरण

‘‘परीक्षा में तल्लीन होने के कारण कई दिन सूरज से नहीं मिल पाए. स्कूल जा कर मालूम हुआ, सूरज बहुत दिनों से स्कूल नहीं आया. मुझे चिंता होने लगी. बिक्की ने दिलासा देते हुए कहा, ‘चिंता मत करो. शनिवार को गुरुद्वारे जा कर मिल लेंगे.’ शनिवार को गुरुद्वारे जाते वक्त मुझे खुशी के साथसाथ बहुत घबराहट हो रही थी. ‘बिक्की, अगर मुझे गुरुद्वारे में अंदर न जाने दिया गया तो?’

‘‘‘किरण, विश्वास करो, ऐसा बिलकुल नहीं होगा. वहां सब का स्वागत है. बस, सिर जरूर ढक लेना.’

‘‘कुछ सप्ताह मां और सूरज गुरुद्वारे में भी दिखाई नहीं दिए. चिंता सी होने लगी थी. हार कर एक दिन मैं और बिक्की मां के घर की ओर चल दीं. वहां तो और ही दृश्य था. बहुत से लोग सफेद कपड़े पहने जमा थे. मेरा दिल धड़का.

‘‘‘किरण, लगता है यहां वह हुआ है जो नहीं होना चाहिए था. शायद किसी की मृत्यु हुई है.’ हम दोनों हैरान सी खड़ी रहीं. इतने में हमें दूर से हमारी ओर एक महिला आती दिखाई दीं. बिक्की ने हिम्मत बटोर कर पूछ ही लिया, ‘आंटीजी, यहां क्या हुआ है?’

‘‘‘सिंह साहब की पत्नी की मृत्यु हो गई है. कई महीनों से बीमार थीं.’

‘‘‘आंटीजी, फ्यूनरल कब है?’

‘‘‘बेटा, शुक्रवार को ढाई बजे. पैरीबार के मुर्दाघाट में.’ ‘‘इतना सुनते ही मैं तो सन्न रह गई. भारी मन लिए बड़ी मुश्किल से हम दोनों घर पहुंचीं. देखतेदेखते झुंड के झुंड बादल घिर आए. बादलों की गुड़गुड़ ध्वनि के साथ मेरे मन में भी सांझ उतर आई थी. ‘‘4 दिनों बाद अंतिम संस्कार था. कितना कुछ कहना चाहती थी मां से. सभी गिलेशिकवे, मन की बातें अब मन ही में रह जाएंगी. यह कभी नहीं सोचा था, उस वक्त मैं खुद को बेबस, असहाय महसूस कर रही थी.’’

‘‘‘किरण, क्यों नहीं तुम अपनी मां को पत्र लिख कर मन की बातें कह देती.’

‘‘‘मैं ने बिक्की को बांहों में भर कर कहा, थैंक्यू, थैंक्यू बिक्की.’

‘‘मेरी प्यारी मां…

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‘‘क्यों फिर आज तुम ने वही किया जो 10 वर्ष पहले किया था. तुम्हें याद होगा, 10 वर्ष पहले सब के सामने मेरे हाथ से तुम्हारे दुपट्टे का छोर फिसलताफिसलता छूट गया, तुम बेबसी से देखती रहीं. किंतु आज तो तुम चोरीचोरी अपना छोर छुड़ा कर चली गई हो. अपनी किरण को एक बार गौर से देखा तक नहीं. तुम्हें नहीं पता, तुम्हारी किरण तो अपनी मां और भैया सूरज को हर रोज चोरीचोरी देख लेती थी टौयलट जाने के बहाने  ‘‘मां शायद तुम्हें याद होगा, एक दिन जब आप की और मेरी नजरें स्कूल में टकराई थीं, आप अनजाने से मुझे देखना भूल गई थीं. तब से मैं हर रोज चोरीचोरी सब की नजरों से छिप कर तुम्हारी एक झलक देखने की प्रतीक्षा करती रही. लेकिन मुझे कभी भी आप के पूरे चेहरे की झलक नहीं मिली. बस, यही एहसास ले कर जीती रही कि मेरी भी मां है.

‘‘मां , मेरी प्यारी मां, मुझे आप से कोई शिकायत नहीं है. मैं तो आप की हिम्मत और साहस की दाद देती हूं. आप ने भ्रूण हत्या के बजाय मुझे इस दुनिया में लाने की हिम्मत दिखाई. हर रोज नानी के कड़वेकड़वे कटाक्ष सुने. मेरा मन जानता है, प्यार तो तुम अपनी किरण को बहुत करती थीं. न जाने तुम्हारी क्याक्या मजबूरियां रही होंगी. मैं पुरानी धुंधली यादों के सहारे आज तक कभी हंस लेती हूं, कभी रो लेती हूं. मैं जानती थी कि कोई भी मां इतनी कठोर नहीं हो सकती और न ही जानबूझ कर ऐसा कर सकती है.

‘‘मां, आज तुम्हें मैं एक राज की बात बताती हूं. तुम्हारी छवि, तुम्हारा स्पर्श, तुम्हारी खुशबू को लेने के लिए मैं रोज सूरज से मिलने जाती रही. उस को छूने तथा सूंघने से मेरे मन में तुम्हारे प्यार की लहर सी उठती. जो मेरे मन में उठे गुबार को शांत कर देती. उसे गोद में बिठा कर मैं मन में छवि बना लेती कि जब वह तुम्हारी गोद में बैठेगा, तब सूरज नहीं, मैं किरण होऊंगी. ‘‘मेरी सुंदर मां, देखो न, हम दोनों एकदूसरे को कितना समझते रहे हैं. आप भी जानती थीं कि मैं आप को देखती रहती हूं और मैं भी जानती थी कि आप को पता है. फिर भी हम ने कभी भी एकदूसरे को शर्मिंदा नहीं होने दिया.

‘‘मां, कई बार सोचा, हिम्मत बटोर कर आप से बात करूं. किंतु मैं नहीं चाहती थी कि मेरे कारण आप का अतीत आप के वर्तमान में उथलपुथल मचा जाए. अतीत को साथसाथ लिए तुम आगे नहीं बढ़ सकती थीं. मन ही तो है, मचल जाता है. ‘‘मैं जानती थी आप के लिए ऐसा करना संभव न था. आप की भी सीमाएं हैं. इसीलिए आज तक मैं ने कोई प्रश्न नहीं किया. शायद नानी सही थीं. अगर नानी आप के बारे में न सोचतीं तो और कौन सोचता?

‘‘मां, मेरी प्यारी मां, मेरी आखिरी शिकायत यह है, आज आप ने सदा के लिए मुझ से अपने होने (मां) का एहसास छीन लिया जिस एहसास से मेरी सब आशाएं जीवित थीं, मेरे जीवन की डोर बंधी थी. तुम थीं तो पिता का एहसास भी जीवित था. अब न तुम, न पिता.

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‘‘प्यारी सी तुम्हारी बेटी, किरण.

‘‘मिस हैलन, इंसान में समझौते की प्रवृत्ति कितनी शक्तिशाली होती है? कैसी भी स्थिति क्यों न हो, आदमी उस में जीना सीख ही लेता है.’’

‘‘ठीक कहती हो किरण, जीवन का सतत प्रवाह भी कभी रुक पाया है क्या?’’

‘‘मिस हैलन, अब प्रश्न उठा कि यह पत्र पहुंचाया कैसे जाए.

‘‘मुझे और बिक्की दोनों को पता था कब फ्यूनरल है. कितने बजे पार्थिव शरीर को आखिरी दर्शन के लिए घर लाया जाएगा. हम दोनों सफेद कपड़े पहने भीड़ को चीरते उन के घर पहुंचे. मां के दर्शन करते वक्त मैं ने चोरी से वह पत्र मां को दे दिया. (कफिन बौक्स में रख दिया). अब हमें किसी का डर नहीं था. नानी का भी नहीं. वैसे, नानी मुझे पहचान गई थीं, पर चुप रहीं. हम दोनों चुपके से वहां से निकल आए. आज यही मातम तो मना रही थी, मिस.’’ वह फूटफूट कर रोने लगी.

हैलन ने किरण के कंधों पर हाथ रख कर दिलासा देते उसे गले से लगा कर कहा, ‘‘जाओ, थोड़ा आराम कर लो.’’

इतने में ही ‘चिल्ड्रंस होम’ की प्रधान अध्यापिका किरण के हाथ में एक पैकेट देती बोलीं, ‘‘किरण, आज सुबह ही यह रजिस्टर्ड पत्र तुम्हारे लिए आया है.’’

‘‘मेरे लिए?’’ उस ने पत्र घुमाफिरा कर देखा. कोई अतापता नहीं था. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद वह लिखाई थोड़ी जानीपहचानी लग रही थी.

‘‘किरण, दो इसे मैं पढ़ देती हूं,’’ हैलन ने कहा. उस ने पत्र हैलन की ओर बढ़ाया.

‘‘मेरी प्यारी जिगर की टुकड़ी किन्नी (किरण),

‘‘बेटा, यह संदेश मैं वैसे ही लिख रही हूं जैसे डूबते समय जहाज के साथ समुद्र में समाए जाने से पहले नाविक अंतिम संदेश लिख कर बोतल में रख कर लहरों में छोड़ देता है. इस आशा में मैं ने यह पत्र छोड़ दिया है. तुम्हें मिले या न मिले, यह समय पर निर्भर करता है. अगर यह पत्र तुम्हें मिल गया तो जरूर पढ़ लेना. मुझे शांति मिलेगी.

‘‘मैं जानती हूं, मैं बहुत बड़ी गुनहगार हूं. बहुत बड़ी भूल की है मैं ने. तुम से क्षमा मांगती हूं. ऐसी बात नहीं कि मैं तुम्हें भूल गई थी. भला, कोई मां अपने बच्चों को भूल सकती है क्या? मुझे पूरा विश्वास है, जब तुम बड़ी होगी, शायद मेरी बेबसी को समझ पाओगी. समय जानता है, एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा होगा जब तुम्हारी मां की आंखें नम न हुई हों. मानती हूं, गलतियां बहुत की हैं मैं ने जो क्षमा के योग्य भी नहीं हैं. क्या करूं, कमजोर थी. ‘‘उस दिन मैं ने खुद को बहुत कोसा. रातभर नींद भी नहीं आई जब मैं ने तुम्हें देख कर भी अनदेखा कर दिया और आगे बढ़ गई थी. तुम्हें देखते ही यों लगा, मानो प्रकृति ने मेरी मुराद पूरी कर दी हो. जी तो किया कि तुम्हें गले लगा लूं लेकिन अपराधबोध की दीवार सामने खड़ी थी जिसे मैं मरते दम तक न लांघ सकी. उस दिन के बाद घर से निकलते ही मेरी नजर तुम्हें ढूंढ़ने लगतीं.

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‘‘तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी नानी ने मेरे लाल पासपोर्ट का फायदा उठाया. अपने नए पति को तुम्हारे बारे में न बता सकी. एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब मैं ने अपनी प्यारी पहली बच्ची किरण के बारे में सोचा नहीं. जबजब सूरज को प्यार से गले लगाती तबतब तुम्हारा नाम ले कर सूरज को बारबार पुचकारती रहती. मैं जानती थी कि तुम अकसर सूरज से मिलती हो. जब कभी सूरज बताता कि किरण दीदी ने चौकलेट दी है, उस की बलैया लेते नहीं थकती. बेटा, तुम्हारे लिए मेरी अंतडि़यां रोती थीं. विडंबना यह थी कि किसी से तुम्हारा जिक्र भी नहीं कर सकती थी. तुम्हें तो यह तक न बता सकी कि मेरे पास समय बहुत कम है, कभी भी मेरी मृत्यु हो सकती है. बस, सोच कर तसल्ली कर लेती. तुम्हें अलग करने की यह सजा तो नाममात्र के बराबर है. अब मैं आजाद होने वाली हूं. आज कोई डर नहीं है मुझे, मां का भी नहीं.

‘‘बेटा मरने से पहले यह पत्र तथा एक छोटा सा पैकेट पड़ोसियों को दिया है तुम्हें पोस्ट करने के लिए, जिस में तुम्हारा पहला जोड़ा, हम दोनों की पहली तसवीर, तुम्हारा टैडीबियर, तुम्हारे पापा का नाम और फोटो है. ‘‘जीवन भर तुम्हें कलेजे से लगाने को तरसती रही, लेकिन हिम्मत न जुटा पाई. दोषी हूं तुम्हारी. हाथ जोड़ कर माफी मांगती हूं. मजबूर मां के इस बिलखते मौन को समझ कर उसे क्षमा कर देना.

‘‘तुम्हारी मां.’’

सपनों की उड़ान: भाग 1- क्या हुआ था शांभवी के साथ

इशिता अपने लैपटौप में जगहजगह कंपनियों में नौकरी के लिए आवेदन देने में व्यस्त थी. तभी उस के पापा भानु प्रताप ने आ कर पूछा, ‘‘मम्मी आज देर से आएगी क्या? तुम्हें कुछ बताया था क्या?’’

‘‘हां, मैं आप को बताना भूल गई आज उन्हें कालेज में ऐक्स्ट्रा क्लास लेनी है, इसलिए देर से आएंगी. फोन साइलैंट में होगा,’’ इशिता ने अपना लैपटौप बंद करते हुए कहा, ‘‘खाना गरम कर देती हूं आप और मैं लंच कर लेते हैं.’’

‘‘पापा आप के कालेज में ऐक्स्ट्रा क्लासें शुरू नहीं हुईं? अगले महीने तो फाइनल ऐग्जाम हैं,’’ इशिता ने पापा को खाना परोसते हुए पूछा.

‘‘मुझे नहीं लेनी हैं. मैं अपना कोर्स कंप्लीट कर चुका हूं. तुम्हारी मम्मी की तो हर साल ऐक्स्ट्रा क्लासें शुरू हो जाती हैं.’’

‘‘पापा, हर साल आप से ज्यादा छुट्टियां मम्मी की हो जाती हैं… घरपरिवार, रिश्तेदारी भी तो उन्हें ही निभानी पड़ती है. आप तो उस समय छुट्टी लेने से मना कर देते हैं.’’

‘‘अपनी मम्मी की ही तरफदारी करना. अब देखो मम्मी देर से आएगी तो अब घर को मैं ही व्यवस्थित करूंगा.’’

‘‘तो आप ही को काम वाली का काम पसंद नहीं आता है.’’

‘‘सारी गलती मेरी है बस. एक तेरा भाई है उसे देख कितना होशियार रहा है बचपन से. एक दिन आईएएस जरूर बनेगा. एक तुम हो एमबीए कर के क्या हासिल हुआ? मैं ने कहा था पीएचडी जौइन कर लो… अभी तक कालेज से अटैच भी करा देता.’’

‘‘जब आप भाई को उस की मरजी से तैयारी करने का समय दे रहे हैं तो मुझे क्यों हर वक्त सुनाते रहते हैं कि यह क्यों नही किया वह क्यों नहीं किया? वह आईएएस कब बनेगा पता नहीं, मगर मुझे जल्दी नौकरी मिल जाएगा,’’ कह इशिता भुनभुना कर अपनी प्लेट सिंक में पटक आई.

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आज फिर इशिता का मूड खराब हो गया था. एक तो नौकरी न मिल पाने की टैंशन ऊपर से पापा के ताने. बेटा बहुत प्यारा है. वह कुछ भी करे पूरी छूट है, मगर उसे अपनी जिंदगी का छोटा सा फैसला लेने का भी हक नहीं. भला हो मम्मी का, उन की सपोर्ट से वह एमबीए कर पाई. पापा तो पीएचडी की रट लगा बैठे थे.

इशिता ने अपना मूड ठीक करने के लिए अपने ताऊजी की बेटी को फोन

मिलाया, ‘‘हैलो दी, क्या हाल हैं?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘लगता है आज फिर पापा से बहस हुई है,’’ शांभवी ने हंस कर पूछा.

‘‘हां दी आप तो पापा और ताऊजी का नेचर जानती ही हैं हर समय बेटों की तारीफ करना और बेटियों को नीचा दिखाना.’’

‘‘सच कहा… तुझे क्या बताऊं… आजकल मेरे लिए रिश्ता ढूंढ़ रहे हैं. कितना सम?ाया है पापा को कि मेरा बीएड पूरा हो जाने दो.’’

‘‘उफ, अब क्या करोगी दीदी?’’

‘‘क्या कर सकती हूं… अभी तो कुंडली मिलान ही चल रहा है देखो इस के आगे के स्टैप तक पहुंचने में ही 6 महीने साल बीत जाएगा. तब की तब देखी जाएगी. अभी 1 साल बाकी है बीएड का, बस जो भी हो उस के बाद ही हो.’’

‘‘कहीं किसी से कुंडली तुरंत मिल गई तो क्या करोगी?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘शुभशुभ बोल, क्यों मेरे गले में खूंटा बांधना चाहती है,’’ शांभवी ने कहा.

‘‘चलो अच्छा है अभी मेरे पापा के दिमाग में मेरी शादी करने का फुतूर नहीं चढ़ा है शायद तुम्हारी शादी तय होने का ही इंतजार है, फिर मेरे पीछे भी पड़ जाएंगे,’’ इशिता ने घबरा कर कहा.

‘‘इशिता कितनी देर से फोन पर हो 1 ग्लास पानी लाना,’’ रितिका ने अपनी बेटी को आवाज दी.

‘‘ओके बाय दी, मम्मी घर आ गई फिर

बात करूंगी.’’

उस दिन इशिता सुबह से अपने लैपटौप में पांच अलगअलग कंपनियों के इंटरव्यू कौल में बिजी थी कि उस के पापा ने आ कर कुछ कहना चाहा तो उस ने उन्हें इशारे से कमरे से बाहर जाने को कहा.

कुछ देर बाद वह कमरे से बाहर आई और पापा से पूछने लगी, ‘‘हां अब बताइए आप क्या कह रहे थे?’’

‘‘तुम्हारी शांभवी दीदी की एक जगह कुंडली मिल गई है. कल वे लोग हरदोई जा रहे हैं शायद बात पक्की हो जाए.’’

‘‘क्या कुंडली मिल गई?’’ इशिता चीख पड़ी.

‘‘इस में इतना चिल्लाने की क्या जरूरत है? कुंडली तो 3-4 जगह और भी मिल गई थी, मगर लेनदेन को ले कर बात आगे नहीं बढ़ी. इन लोगों को पढ़ीलिखी बहू चाहिए. शांभवी की बीएड शादी के बाद वे पूरी करवा देंगे. शादी के खर्च को ले कर भी सहमती बन गई है. तुम अपने और मम्मी के कपड़े बैग में रख लो. मम्मी के कालेज से आते ही हम लोग हरदोई चल पड़ेंगे.’’

‘‘हम लोगों का क्या काम?’’

‘‘अरे कुछ समझ में नहीं आता तुम्हें? तुम्हारी ताई अकेले मेहमाननवाजी कैसे कर पाएगी. हमें साथ बैठ कर सगाई और शादी की जगह और तारीख तय करनी होगी… बहुत से काम होंगे. भाई साहब अकेले घबरा रहे हैं. लखनऊ से हरदोई है ही कितना दूर. परसों संडे को लौट आएंगे.’’

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इशिता सोचने लगी कि इधर वह लगातार विभिन्न कंपनियों में साक्षात्कार में व्यस्त हो गई थी तो शांभवी से बात भी न हो पाई. उस ने बैग लगाने से पहले शांभवी से फोन पर बात करना उचित सम?ा.

‘‘हैलो दी क्या हालचाल हैं?’’

‘‘पता तो चल ही गया होगा, क ल विजय का परिवार आ रहा हैं… इधर 2 महीनों से मैं बहुत टैंशन में आ गई थी. ऐसेऐसे रिश्ते आए कि मन कर रहा था घर से भाग जाऊं. पर जाती कहां? काश आत्मनिर्भर होती तो घर वालों से विद्रोह भी कर सकती थी,’’ शांभवी ने अपना दुखड़ा रोया.

‘‘पापा तो विजय के परिवार की तारीफ कर रहे हैं कि खुले विचारों के लोग हैं… बहू को आगे पढ़ाने को भी तैयार हैं. होप सो, कुछ घंटों बाद मुलाकात करते हैं. बाय,’’ कह इशिता फोन रख बैग तैयार करने लगी.

शांभवी के पिता का हरदोई रेलवे गंज के मकान में पहले फ्लोर में किराने का थोक व्यापार है. दूसरे फ्लोर में निवासस्थल है. हरदोई से लगे माधो गंज में पुस्तैनी जमीनजायदाद है, जिस से अच्छी आमदनी हो जाती है. दोनों भाइयों के बीच भी प्रेम संबंध बना हुआ है. शांभवी और इशिता दोनों के बड़े भाई दिल्ली में एक फ्लैट ले कर कोचिंग कर रहे हैं. एक का लक्ष्य आईएएस बनना तो दूसरे का आईपीएस.

हरदोई पहुंच कर इशिता, शांभवी के कमरे में अपना बैग पटक कर बैड में पसर गई.

शांभवी ने पूछा, ‘‘मैं चाय बनाने जा रही हूं तुम भी पीयोगी?’’

‘‘नहीं दी अब डिनर ही करूंगी.’’

डाइनिंगटेबल पर इशिता और शांभवी को ढेर सारी हिदायतें दी गईं कि मेहमानों के सामने जोर से न हंसना, सिर और आंखें नीची रखना, बात धीमे स्वर में करना आदि. दोनों मन ही मन कुढ़ कर रह गईं.

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