असुविधा के लिए खेद है: भाग 1- जीजाजी को किसके साथ देखा था ईशा ने

‘‘मेरीनानी की चचिया सास की बेटी के बेटे ने मेरी बहन से शादी करने को इनकार किया? मेरी बहन से? क्या कमी है तुझ में? मैं उसे छोड़ूंगी नहीं. मैं ने कहा था इस रिश्ते के लिए. मुझे मना करेगा? 2-4 बार उस से इस बाबत पूछ क्या लिया, कहता है कि आप मेरे

पीछे क्यों पड़ी हैं? उस की इतनी हिम्मत?

मुंबई पढ़ने गया था तो प्राइवेट होस्टल में रहने के लिए कैसे मेरी जानपहचान का फायदा लिया.

अब विदेश में नौकरी हो गई, अच्छी सैलरी

मिल गई तो मेम भा रही है उसे. मुझे इनकार. बताऊंगी उसे.’’

‘‘अरे जीजी छोड़ न. मुझे ऐसे भी पसंद नहीं था वह. तुम भी तो हाथ धो कर उस के पीछे पड़ी थी, सभ्य तरीके से मना करने के बाद भी जब तुम साथ नहीं रही थी, तभी उस ने कहा ऐसा. बात समझेगी नहीं तो क्या करे वह और तब जब पहले से ही वह किसी के प्यार में है. अब तो मैं ने भी जौब जौइन की है, कहां उस के साथ विदेश जाऊंगी. फिर मांपिताजी की तबीयत भी ऐसी कि उन्हें अकेला छोड़ा न जाए.’’

‘‘तू चुप कर. रिश्ता सही था या नहीं यह अलग बात है, पर मेरी बात को वह टालने वाला होता कौन है? आज तक किसी ने बात नहीं

टाली मेरी.’’

‘‘अरे जीजी गुस्सा क्यों होती है जब मुझे करनी ही नहीं थी शादी?’’

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‘‘तु चुप करे. एक मेम के लिए मुझे ‘न’ कहा. मैं छोड़ूंगी नहीं उसे और तेरे लिए तो कभी लड़का न देखूं. कुंआरी ही रह.’’

‘‘दीदी क्यों खून जलाती है अपना? देखो 30 साल की उम्र में ही तुम कितनी चिड़चिड़ी

हो गई हो. वीपी हाई हो जाएगा. बीमार पड़ोगी

तो कंसीव नहीं कर पाओगी. जीजू कुछ कहते नहीं तुम्हें?’’

‘‘तु चुप कर. क्या कहेगा वह? उस की मम्मीपापा के भरोसे चलती थी उस की जिंदगी, अब दोनों गए ऊपर तो मेरा ही मुंह ताकता है. औफिस से घर और घर से औफिस, आता ही क्या है उसे? मुझे कहेगा?’’

जीजी को लगता कि दुनियाजहान का सारा भार जीजी के ही कंधों पर है. पहले हम दोनों

का साझ कमरा था. 3 साल हुए इधर जीजी की शादी हुई और दादादादी भी इहलोक सिधार गए. तब से उन लोगों का कमरा जीजी के नाम किया गया है.

ज्यादातर जीजी अपने भोलेभाले जरा गोलमटोल पति को रसोइए के जिम्मे छोड़ यहां आ जाती. यहां हम सब पर राज करने की पुरानी आदत उस की गई नहीं थी. जीजी के कमरे से फोन पर बात करने की आवाजें आ रही थीं.

‘‘क्यों, छोड़े क्यों? ऐसे ही छोड़ दें? निकालती हूं हवा उस की.’’

उधर शायद जीजी की वह सहेली थी जिन के पति वकील थे. बात नहीं बनी शायद. जीजी ने फोन रख दिया.

बड़ी उतावली हो वह ऐसे किसी सज्जन

को ढूंढ़ रही थी जो जीजी की बात न मान कर जीजी को अपमानित करने वाले दुर्जन की हवा निकाल सके. कौन मिलेगा ऐसा. जीजी सोच में पड़ी थी.

मैं जीजी के कमरे में गई. उसे शांत करने का प्रयास किया, ‘‘जीजी, यह कोई इशू नहीं

है, तुम ईगो पर क्यों लेती हो? तुम अब इस प्रकरण को बंद करो. मुझे नहीं करनी थी कोई शादी… अभी बहुत जल्दीबाजी होगी शादी की बात करना.’’

‘‘मत कर शादी. मैं तेरे लिए लड़ भी नहीं रही. मेरी बात टाल जाए, मुझ से ही काम निकाल कर वह भी विदेशी मेम के लिए? यह गलत है. मैं होने नहीं दूंगी.’’

‘‘बड़ी अडि़यल और बेतुकी है जीजी.’’

‘‘हूं. तुझे उस से क्या तू अपने काम से

काम रख.’’

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इस के 2 दिन बाद शाम को जीजी अपना फोन लाई. मुझ से कहा इन तसवीरों में सब से अच्छी वाली कौन सी है?

‘‘क्यों?’’

‘‘तु बता न.’’

‘‘यह वाली. मगर यह तो 4 साल पुरानी तसवीर है, करोगी क्या इस का?’’

‘‘एक दूसरी एफबी प्रोफाइल खोल कर उस में मेरी सारी पुरानी पेंटिंग्स डालूंगी.’’

‘‘अरे वाह. सच जीजी. यह हुई न बात. यह प्लान बढि़या है.’’

जीजी ने नया प्रोफाइल खोला और अपनी पुरानी पेंटिंग्स की तसवीरें खींच कर उस में डालती रही. वैसे समझ नहीं पाईर् कि पेंटिंग्स पुराने एफबी प्रोफाइल में क्यों नहीं डालीं? जीजी को यहां आए 20 दिन तो हो ही चुके थे. जीजू के लिए हम सब को चिंता होती. वहां अकेले उन्हें दिक्कत होती थी. लेकिन जीजी से इस बारे में कुछ कहो तो उस का उत्तर होता, ‘‘हांहां, मैं तो हूं ही पराई. अब तू ही यहां राज कर. यहां रहने के खर्च देने पड़ेगा क्या? यह मेरा भी घर है. मेरा इस पर हक है.’’

महीनाभर हो गया तो जीजू ही आ गए. मुहतरमा ने वापस जाने को ठेंगा दिखा दिया. जीजू वापस चले गए. जीजी को लगातार फोन पर व्यस्त देखती. कोलकाता के जिस मार्केटिंग एरिया में हम रहते हैं वहां शाम होते ही बाजार और दुकानों में गहमागहमी रहती है. पहले जीजी के  साथ अकसर मैं भी मार्केटिंग को निकला करती थी. लेकिन अब तो जीजी का फोन ही सबकुछ था. कुछ दिनों बाद जीजी ने निर्णय सुनाया कि वह एक जगह पेंटिंग्स सिखाने को जाना चाहती है. कह दिया और शुरू हो गई.

जीजू के लिए वाकई मैं चिंतित थी. एक सीधासरल इंसान इस तरह बेवजह रिश्ते की उलझन में फंस जाए. अफसोस की बात थी. जीजू को एक दिन मैं ने फोन किया और उन से जीजी के बारे में बातें कीं.

‘‘मैं क्या कह सकता हूं? मेरी बातों को वह मानती नहीं, न ही इन 3 सालों में उस का अपनों से कोई लगाव देखा.

‘‘दुनिया रुकती नहीं है ईशा, मेरी भी दुनिया चल रही है. उसे मेरी फिक्र नहीं है… कुछ बोलूं तो खाने को दोड़ती है…’’

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जीजी पार्क स्ट्रीट के ड्राइंग पेंटिग स्कूल में क्लास लेने जाने लगी थी. जीजी ने एक विदेशी बाला से मिलवाया. 26-27 की होगी. गोल्डन बालों में वह एशियन लड़की भारतीय सलवार सूट बड़े शौक से पहने थी.

जीजी ने इंग्लिश में परिचय कराया तो रशियन लड़की मुझ से गले मिली. फिर उस ने टूटीफूटी हिंदी में जो भी कहा उस का सार यही था कि वह अपने होने वाले पति के लिए सब छोड़ आईर् थी. लड़का अभी कोलकाता के किसी मल्टीनैशनल ग्राफिक्स डिजाइनिंग ऐंड कंपनी में काम करता है.

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यह क्या हो गया: नीता की जिद ने जब तोड़ दिया परिवार

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जिद: भाग 2- क्या परिवार से हटकर चंचल कुछ सोच पाई

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

चंचल को अपनी इन खयालों की दुनिया से बाहर ले कर आई शिशिर की आवाज, “चंचल, मां बुला रही है, ड्राइंगरूम में, जल्दी आओ.“

यह सुन कर चंचल का दिल जोरों से धड़कने लगा कि अब खैर नहीं. डिनर का वक्त तो टल गया, लेकिन अब पक्की तरह से क्लास लगेगी.

ड्राइंगरूम में पहुंच कर देखा तो सब शांत था यानी कि कोई और बात है, चलो अच्छा हुआ.

मिसेज रस्तोगी ने बिठाया दोनों बहुओं को और अपने फौरेन टूर के बारे में बताने लगीं. इस बार रक्षाबंधन पर उन का यूरोप घूमने का प्लान है, अपनी दोनों बेटियों और दोनों बेटों के साथ. दोनों बहुओं को इस के एवज में छूट दी गई थी कि वो एक हफ्ता अपने पीहर रह कर आ सकती हैं, चाहें तो…

चंचल की आंखों में चमक आ गई, जैसे कि मांगी मुराद मिल गई हो, बल्कि उस से ज्यादा. अब वो आकांक्षा के साथ कितना सारा वक्त बिता पाएगी. बाकी घर वालों को उस की खुशी का राज समझ नहीं आ रहा था, लेकिन चंचल बहुत खुश थी.

आखिरकार रक्षाबंधन का समय भी आ गया. इधर, सुहाना और आशु खुश थे कि एक सप्ताह ननिहाल में धमाल मचाएंगे. तो उधर, चंचल के मन में भाई के साथसाथ आकांक्षा से मिलने की बेचैनी. चंचल के मातापिता तो तब से अपने नातीनातिन को खिलाने को बेताब थे. सालभर में, एक रक्षाबंधन पर ही चंचल घर आती थी और वो भी सिर्फ एक दिन के लिए, आज पूरे सप्ताह के लिए आ रही थी.

शनिवार का दिन त्योहार में गुजर गया, अगला दिन इतवार था, आकांक्षा को भी औफिस से फुरसत थी और चंचल को भी, अपने ससुराल की ड्यूटी से. आकांक्षा के घर मिलना तय हुआ. सुबहसुबह, 11 बजे ही चंचल को भाई आकांक्षा के यहां छोड़ आया.

घंटी बजाते ही उस की आवाज गूंज गई, चारों तरफ.

‘‘आ रही हूं…‘‘

दरवाजा खुलते ही चंचल का मानो सपना टूट गया, इतनी कमजोर सी, बीमार सी आकांक्षा. गले लगाते ही आंसू आ गए उस के, ‘‘क्या हाल बना लिया है अपना तू ने, ये हड्डियांहड्डियां क्यों निकाल रखी हैं? बीमार है क्या?‘‘

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आकांक्षा हंसते हुए बोली, ‘‘जैसे, तू खुद बड़ी मुटा गई हो. किधर से दो बच्चों की मां लग रही हो तुम? चल अब अंदर भी आ… सारी चिंता चैखट पर ही कर लोगी क्या?‘‘

घर छोटा सा था आकांक्षा का, लेकिन एकदम रौयल सजा हुआ था. ‘‘तो मैडम को अब महंगी चीजों का शौक भी हो चला है…हम्म…‘‘

‘‘ये सब तो पंकज की पसंद है, शादी के बाद कहां अपना कुछ बच ही जाता है. जो पतिदेव चाहें, बस वही सत्य है.‘‘

आकांक्षा की आंखों में उदासी देख, चंचल ने बात पलटी, ‘‘और बच्चे? बच्चे कहां हैं? वो तो पतिदेव को पसंद हैं या वो भी नहीं?‘‘

‘‘चल तू भी न, देख तेरे फेवरेट वाले दालपकौड़े बनाए हैं. चाय बस बन ही रही है.‘‘

‘‘बन क्या रही है चाय? 8 साल बाद मिलेंगे तो तू मेहमान की तरह चाय पिलाएगी मुझे? तू तो वैसे भी मेरे हाथ की चाय की दीवानी है.‘‘

अब दोनों सहेलियां किचन में हैं और चंचल चाय बना रही है.

‘‘चंचल, तुझे याद है वो मीनाक्षी…?‘‘

‘‘हां, वही मौडल मीनाक्षी न, जिस को सजनेसंवरने से फुरसत नहीं होती थी. हां याद है. हमारी तो कभी बनी ही नहीं थी उस से. वो कहां मिल गई तुझे?‘‘

‘‘मैड़म, सच में मौडलिंग कर रही है. पिछले महीने मैगजीन में उस का फोटो देखा तो आंखें खुली रह गईं. उस ने जो चाहा पा लिया. एक बड़ा नाम है मौडलिंग की दुनिया में वो आज.‘‘

‘‘वाअव… अच्छा है, किसी को तो कुछ मिला.‘‘

‘‘तुम्हें भी तो शिशिर मिल ही गया, क्यों? नहीं मिला क्या?‘‘ आकांक्षा की शरारत शुरू हो चुकी थी.

शिशिर के नाम पर चंचल आज भी झेंप सी गई. चायपकौड़े ले कर दोनों रौयल बैठक में आ कर बैठ गए. चाय पीते हुए चंचल ने फिर आकांक्षा से पूछा, ‘‘अब बता भी… बच्चे कहां हैं? दिख ही नहीं रहे. दादादादी के पास हैं? या सुबहसुबह खेलने निकल लिए.‘‘

इतनी देर से इधरउधर की बातें करते हुए आखिरकार आकांक्षा की आंख में आसूं आ गए.

‘‘आकांक्षा… अक्कू… क्या हुआ बच्चे? बता… सब ठीक है न? तेरी आंख में आंसू, मतलब बहुत बड़ी बात है.‘‘

गले लगा कर चंचल ने फिर से कहा, ‘‘अच्छा सब छोड़, पहले शांत हो जा तू. मेरी अक्कू रोते हुए बिलकुल अच्छी नहीं लगती.‘‘

चंचल ने नाक खींची, तो आकांक्षा के चेहरे पर भी मुसकान आ गई. अब दोनों सहेलियां बिना कुछ बोले, चाय पीने लगीं. चंचल ने अब कुछ नहीं पूछा. वो आकांक्षा को जानती है. कुछ समय ले कर वो खुद बता देगी कि क्या बात है.

‘‘बच्चे नहीं हैं चंचल, नहीं हैं बच्चे,‘‘ फिर से रो पड़ी आकांक्षा.

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‘‘ठीक है बाबा, नहीं हैं तो आ जाएंगे. वादा, अब दोबारा नहीं पूछूंगी. तू रो मत बस यार.‘‘

‘‘पंकज को अपना स्टेटस बनाना है. वो हमारी मिडिल क्लास वाली जिंदगी से बिलकुल खुश नहीं हैं. 8 साल हो गए शादी को, इन्हें लगता है, जिंदगी बस महंगी चीजों के पीछे भागने का नाम है.‘‘

एक गहरी सांस ले कर आकांक्षा ने कहा, ‘‘पता नहीं किस की बराबरी करना चाहते हैं. यह घर मुझे अपना घर लगता ही नहीं है. ब्रांडेड और महंगी चीजें बस, मेरी सादगी कहीं पीछे छूट गई है. पहननाओढ़ना, सब उन्हीं के हिसाब से होना चाहिए.‘‘

‘‘अब जब घर में लगभग हर सामान अपनी मरजी का खरीद चुके हैं तो अब इन्हें एक विला खरीदना है. जब तक इतना पैसा जमा नहीं कर लेंगे, विला खरीद नहीं लेंगे, तब तक कुछ और सुध नहीं लेनी.‘‘

‘‘आज संडे भी औफिस गए हैं. मेरी सरकारी नौकरी है. सो, मुझ पर बस नहीं चलता इन का, नहीं तो संडे भी औफिस भेज दें मुझे ये.‘‘

‘‘तुम्हारी बातों से ऐसा लग रहा है अक्कू, मानो मशीन हो तुम दोनों. और इसीलिए पंकजजी बच्चे नहीं चाहते हैं? एम आई राइट?‘‘

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जिद: भाग 1- क्या परिवार से हटकर चंचल कुछ सोच पाई

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘हैलो चंचल, मैं… आकांक्षा बोल रही हूं.‘‘

‘‘आकांक्षा… व्हाट ए बिग सरप्राइज… कैसी है तू? तुझे मेरा नंबर कहां से मिला? और कहां है तू आजकल?‘‘

‘‘अरे बस… बस, एक ही सांस में सारे सवाल पूछ लेगी क्या? थमो थोड़ा, और यह बताओ कि रक्षाबंधन पर घर आ रही हो न इस बार? ससुराल से एक दिन की एक्स्ट्रा छुट्टी ले कर आइएगा मैडम… कितनी सारी बातें करनी हैं…‘‘

एक्स्ट्रा छुट्टी के नाम पर थोड़ा सकपकाते और तुरंत ही खुद को संभालते हुए चंचल बोली, ‘‘बड़ी आई छुट्टी वाली… मैडम, आप हैं नौकरी वालीं… हम तो खाली लोग हैं… ये बताइए, आप को कैसे इतनी फुरसत मिल जाएगी. आखिरी बार ज्वाइन करते समय काल की थी. तब से मैडम बस नौकरी की ही हो कर रह गई हैं.‘‘

‘‘चल झूठी, तेरे घर शादी का कार्ड भिजवाया था, तुझे ही फुरसत नहीं मिली.‘‘

‘‘हम्म… तब नहीं आ पाई थी मैं. ये बता कि अभी कहां है?‘‘

‘‘पिछले हफ्ते ही नासिक ज्वाइन किया है और फ्लैट भी तेरी कालोनी में ही मिल गया है. कल शाम को ही अंकलआंटी से मिल कर आई हूं और नंबर लिया तेरा. मुझ से नंबर मिस हो गया था तेरा और तुझ से तो उम्मीद रखना भी बेकार है.‘‘

कभी एकदूसरे की जान के नाम से फेमस लड़कियां 8 साल बाद एकदूसरे से बात कर रही हैं.

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चंचल की शादी के बाद आकांक्षा ने सरकारी नौकरी की तैयारी की. सालभर बाद ही नौकरी लग गई और उस के सालभर बाद शादी.

आकांक्षा की शादी का कार्ड तो मिला था चंचल को, लेकिन शादी में जाने की परमिशन नहीं मिल पाई थी, ससुराल से.

‘‘अच्छा अब सेंटी मत हो, औफिस वाले हंसेंगे मेरी बोल्ड आकांक्षा को ऐसे देखेंगे तो.‘‘

‘‘हां यार, चल रखती हूं फोन. मिलते हैं… हां… छुट्टी ले लियो ससुराल से देवी मां, नहीं तो पिटाई होगी तुम्हारी, बता दे रही हूं. चल बाय… आ गया खड़ूस बौस‘‘

‘‘बाय… बाय,‘‘ हंसते हुए फोन कटा, तो चंचल ने देखा कि सासू मां पीछे खड़ी हैं और उन के चेहरे पर सवालिया निशान हैं. कपूर की तरह जिस गति से हंसी चेहरे से गायब हुई, उस से अधिक गति से चंचल रसोई में चली गई. सासू मां की चाय का वक्त था ये और चाय में 5 मिनट की देरी हो चुकी थी.

‘मांजी को ये लापरवाही बिलकुल भी पसंद नहीं. पता नहीं, अब क्याक्या सुनना पड़ेगा? मुझे भी न, ध्यान रखना चाहिए था, ऐसा भी क्या बातों में खो जाना,‘ खुद को मन ही मन डांटते हुए चंचल फिर से आकांक्षा की बात याद करने लगी, ‘‘पिटाई होगी तुम्हारी… बता दे रही हूं.‘‘

‘‘बिलकुल नहीं बदली है ये लड़की,‘‘ आखिर मुसकराहट आ ही गई चंचल के चेहरे पर.

चंचल को पता है कि आकांक्षा न तो एक दिन की एक्स्ट्रा छुट्टी ले सकती है, न ही मिलनामिलाना होगा. लेकिन फिर भी वो बहुत खुश है, 10 साल साथ गुजारे हैं चंचल और आकांक्षा ने, स्कूलकालेज, होमवर्क, ट्यूशन, क्लास बंक, लड़कों से लड़नाझगड़ना, क्याक्या नहीं किया है दोनों ने साथ? सारी यादें एकदम ताजा हो गई हैं.

यही सब सोचतेसोचते चंचल सासू मां को चाय पकड़ा आई.

डिनर का समय आसानी से कट गया, बिना किसी शिकवाशिकायत के. चंचल को उम्मीद थी कि बहुत जबरदस्त डांट पड़ेगी और शिशिर भी गुस्सा करेगा. पिछली बार जब छोटे बेटे आशु ने सोफा गीला कर दिया था तो कितनी आफत आ गई थी, याद कर के ही रूह कांप गई चंचल की.

देखा जाए तो चंचल की शादी आकांक्षा के मुकाबले बड़े खानदान में हुई थी. साउथ दिल्ली की बड़ी सी कोठी, हीरों के व्यापारी रस्तोगीजी, सारे शहर में उन का बड़ा नाम, रस्तोगीजी के छोटे और स्मार्ट बेटे शिशिर ने जब चंचल को पसंद किया तो बधाइयों का तांता लग गया था चंचल के घर.

चंचल के भी अरमान पंख लगा कर उड़ने लगे थे. उम्र ही ऐसी थी वो और शिशिर चंचल को भी पहली ही नजर में पसंद आ गए थे. इधर शिशिर के घरपरिवार में भी चंचल की खूब चर्चा थी. चंचल की सुंदरता भी कालेज की सारी लड़कियों को मात देती थी. साथ ही साथ पढ़नेलिखने में इतनी तेज, फाइनेंस से एमबीए किया है. और क्या चाहिए था, रस्तोगियों को अपनी बहू में.

शादी की तैयारियां और इतना अच्छा रिश्ता मिलने की खुशी के बीच, चंचल को भी अपनी जौब का खयाल नहीं आया. उसे शिशिर से बात कर के लगा नहीं कि उन्हें कभी कोई इशू होगा इस से. आकांक्षा ने 1-2 बार कहा कि उसे बात करनी चाहिए शिशिर से, तो चंचल ने बात भी की.

शिशिर ने उसे पूरा विश्वास दिलाया कि किसी को कोई समस्या नहीं है, वो जो चाहे करे.

शादी के 3-4 महीने बाद वहीं दिल्ली में कर लेना जौब एप्लाई. और तुम हो भी इतनी क्वालीफाइड… तुम्हें कौन मना करने वाला है जौब के लिए? मेरी चंचल को तो यों ही मिल जाएगी जौब, चुटकी में,” सुन कर शर्म से चेहरा लाल हो गया था चंचल का इस तारीफ पर.

रस्मोरिवाज और घूमनेफिरने में दिन पंख लगा कर उड़ गए. शादी के 3 महीने बाद चंचल ने अपनी सासू मां से बहुत आराम से बात की, ‘‘मांजी, अब तो सारी रस्में, घूमनाफिरना, सब हो चुका आराम से. मैं जौब के लिए एप्लाई कर देती हूं.‘‘

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सासू मां ने बड़ी कुटिल मुसकान के साथ जवाब दिया, ‘‘आराम से तो होगा ही बहूरानी… शिशिर के पापा ने इतना बड़ा बिजनेस किस के लिए खड़ा किया है? अपने बच्चों की खुशियों के लिए ही न.”

जौब के लिए उत्तर न मिलता देख चंचल ने आगे कहा, ‘‘जी, मांजी, मैं जौब के लिए अब एप्लाई कर ही देती हूं. मन नहीं लगता मेरा भी सारा दिन घर में.‘‘

इस बार, सासू मां का पारा सातवें आसमान पर था, लगभग चिल्लाते हुए शिशिर को आवाज लगाई, ‘‘शिशिर… ओ शिशिर, मैं ने मना किया था न इतनी ज्यादा पढ़ीलिखी लड़की के लिए. तुझे ही पसंद थी न, ले अब, जौब करनी है इसे… संभाल ले इसे और न मन लगे इस का तो छोड़ आ उसी 2 बीएचके में. वहीं मन लगता है इस का.‘‘

शिशिर सिर झुकाए खड़ा रहा और चंचल को अंदर जाने का इशारा किया.

चंचल के जाने के बाद शिशिर बोला, ‘‘मां, समझा दूंगा मैं उसे, आप नाराज न होइए. दोबारा जबान नहीं खोलेगी वह आप के सामने.‘‘

अंदर जाते ही अब शिशिर को चंचल पर चिल्लाना था, ‘‘क्या जरूरत है तुम्हें जौब करने की? क्या कमी है इस घर में? इतनी बड़ी कोठी की रानी हो तुम, रानी बन कर रहो. क्या तकलीफ है तुम्हें?

‘‘और मां… उन के सामने किसे जबान खोलते हुए देखा तुम ने, जो इतना बोलती हो? मिडिल क्लास से हो कर भी संस्कार नाम की कोई चीज नहीं है तुम में.‘‘

शिशिर को इतना गुस्से में देख, अपनी पढ़ाई पर गर्व करने वाली, अपने चुनाव पर गर्व करने वाली चंचल सहम गई. उस दिन के बाद से उस ने जौब का दोबारा नाम नहीं लिया.

मां ने शिशिर को समझा दिया था, ‘‘जल्दी बच्चेवच्चे कर लो. ज्यादा फैमिली प्लानिंग के चक्कर में न पड़ना. बहू का मन घरगृहस्थी में उलझना भी जरूरी है.‘‘

देखते ही देखते चंचल एक प्यारी सी बेटी सुहाना और एक शैतान से बेटे आशु की जिम्मेदार मां बन गई.

अब चंचल के पास इतना भी समय नहीं होता कि वो खुद पर या खुद से जुड़ी किसी भी बात पर ध्यान दे सके. धीरेधीरे हालात ऐसे हो गए कि चंचल को अपने लिए चप्पल खरीदनी हो या बच्चों के लिए डाइपर, सासू मां से पूछे बिना नहीं ले सकती थी. घर में आने वाली सूई से ले कर सैनिटरी पैड्स तक पर उन की नजर रहती हमेशा. कुछ अपने मांबाप की इज्जत, कुछ अब बच्चों की चिंता, चंचल ने अपनी इस नियति को स्वीकार कर लिया है.

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असुविधा के लिए खेद है: भाग 2- जीजाजी को किसके साथ देखा था ईशा ने

पहले जब वह अमेरिका पढ़ने गई थी तो इस लड़के से प्रेम हुआ. लड़के के

पिता जब बाद में चल बसे और लड़के की मां ने उसे यहां बुलावा भेजा तो लड़की ने भी लड़के के साथ आने का मन बनाया.

इस रशियन लड़की सेल्विना दास्तावस्की की मां नहीं रही. सौतेले पिता हैं, अब उस का यह ब्रौयफ्रैंड ही सबकुछ है. सेल्विना की आंखों में एक मधुर संभाषण और बालसुलभ कुतूहल देखा मैं ने. वाकई वह बहुत प्यारी और निश्चल थी. मुझे भा गई थी.

रात को जीजी घर आई तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘अचानक कैसे वहां ड्राइंग सीखने जाने लगी? कैसे पहचान हुई सेल्विना से तुम्हारी?’’

‘‘फेसबुक के मेरे नए प्रोफाइल पर.’’

‘‘तुम ने भेजी थी रिकवैस्ट?’’

‘‘तुझे क्या करना किस ने भेजी?’’

‘‘जीजी तुम सारी चीजों में उलझ कर रह गई, लेकिन जीजू के बारे में बिलकुल नहीं सोच रही. आखिर चाहती क्या हो? जीजू अकेले

क्यों रहें?’’

‘‘मैं ने उन से कहा तो है कोलकाता ट्रांसफर करा लें. नहीं, अपनी पैत्रिक संपत्ति छोड़ कर किराए के मकान में आना नहीं चाहते. मैं क्यों नहीं बड़े शहर में रहूं. पर तू यह बता तुझे क्यों इतनी फिक्र हो रही जीजू की?

‘‘जीजी.’’

‘‘चुप कर. ढीलेढाले पाजामे को मेरे गले बांध दिया. सभी ने मिल कर.. बैंक की नौकरी है… वह कोई मर्द है?’’

जीजी की बातें बड़ी चकित करने वाली थीं. मैं रात तक बेचैन रही.

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वे मुझ से स्नेह रखते थे. जीजू की लाचारी मुझे खलने लगी. मैं ने उन्हें एक के बाद एक कई संदेश भेजे ताकि उन की खैरियत पता चल सके. कोई उत्तर न मिला मुझे तो मैं ने फोन मिला दिया. फोन उठाया गया, लेकिन कुछ पल कानाफूसी सी आवाजें आने के बाद फोन कट गया.

मुझे ऐसा क्यों लगा कि उस वक्त ऐसा कुछ था जो न  होता तो अच्छा था. कल की सुबह शनिवार की थी. जीजी अपना भलाबुरा समझ नहीं पा रही थी, मैं तो समझती थी. औफिस से

2 दिन की छुट्टी लेने की ठान मैं

सो गई.

कोलकाता से बस में 4-5 घंटे लगते थे जीजू के शहर पहुंचने में. रात को पहुंची तो मेन गेट खुला था.

बरामदे में पहुंच मैं ने दरवाजे पर हाथ रखा तो अंदर से बंद था. मुझे लग रहा था कोई दिक्कत जरूर है. मेरी छठी इंद्री ने काम शुरू किया और मैं ने बगीचे की तरफ खुल रही बैडरूम की खिड़की से हाथ अंदर कर धीरे से परदा हटा कर झंका.

दृश्य ने मुझे सदमे में डाल दिया. जीजू और उन की रसोई बनाने वाली रीना बिस्तर

पर साथ. यह क्या किया जीजू तुम ने. मुझे बहुत दुख हुआ. अभिमान और व्यथा से मैं तड़पने लगी. पर क्यों? क्या जीजी के लिए या और कुछ? मैं बरामदे में आ कर बैठ गई. क्या मैं माफ  कर दूं जीजू को? करना ही पड़ेगा. ठगा गया इंसान जीने की सूरत ढूंढ़ रहा है, थोड़ी देर में दरवाजा खोल रीना निकली. मुझे देख उस का चेहरा सफेद पड़ गया. किसी तरह नमस्ते किया और सरपट निकल गई.

मुझे देख जीजू सकपका गए. अपना सिर नीचे कर लिया. मैं अभी कुछ कहती कि वे

बोल पड़े, ‘‘ईशा, मैं तुम्हारे परिवार का गुनहगार हूं. प्रभा को कितने संदेश भेजे… न ही जवाब दिया, न ही आई. मुझ से अकेलापन बरदाश्त नहीं हो रहा था. रीना के पति का शराब पीपी कर लिवर खराब हो गया है, उसे पैसों की जरूरत

थी. सच तो यह है कि हम दोनों ही कंगाली में थे. वह गरीब है, दुखी है, मैं ने उसे संभाला, उस ने मुझे.’’

यथासंभव खुद के साथ लड़ते हुए मैं ने उन का हाथ अपने हाथों में लिया, ‘‘क्या फिर भी आप ने यह ठीक किया? जीजी को छोड़ो, कभी भी आप ने मुझे जानने की कोशिश नहीं की.’’

जीजू उम्मीद भरी आंखों से मुझे देखने लगे.

‘‘क्या कोई 10 बार यों ही किसी को संदेश भेजता है? आप के लिए शरीर ही सबकुछ है? मेरा संदेश आप की खैरियत के बारे में होता है, लेकिन इस के पीछे की कोई बात…’’

जीजू ने मेरे होंठ अपने होंठों से सिल दिए.

‘‘मैं कल्पना कैसे करूं कि आसमान का सूरज आ कर कहे कि मैं सिर्फ तुम्हारा हूं,’’

जीजू ने कहा मैं अपने आप को रोक नहीं पाई.

उन के गले लग पड़ी. और हम भावनाओं में, अनुभूतियों में, प्रेम के आकंठ अणृतवर्षा में डूब चुके थे.

‘‘ईशा. क्या सच ऐसा कभी हो सकेगा कि तुम हमेशा के लिए मेरी हो जाओ?’’

‘‘और रीना?’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘कभी नहीं, विदा कर दूंगा उसे, माफ कर दो मुझे.’’

‘‘फिर तो यह आप पर है. लेकिन मैं मोटा जो हूं? तुम इतनी स्लिम और सुंदर?’’

‘‘उफ्फ. आप का यह भोलापन, सादगी, मेरी जान लेगा. कौन कहता है आप मोटे हो. बस इतने मोटे हो कि तीन महीने की जिम ट्रेनिंग और डायट सही कर आप बिलकुल फिट लगोगे. और वो सारा कुछ मैं इंतजाम करवा दूंगी.’’

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‘‘शुक्रिया मेरे तनमनधन से तुम्हारा शुक्रिया. मैं विश्वास नहीं कर पा रहा हूं कि कंगाल को राजपाट मिल गया है.’’

आज जीजू और मैं दोनों हवा से हल्के और समुद्र से भी गहरे हो गये थे.

जब लोटी तो देखा कि चार दिनों में ही जीजी में और भी बदलाव दिखे. अब वह बिलकुल मौर्डन स्टाइलिश लड़की थी, साड़ी से तो अब दूरदूर का नाता नहीं था. उस का घर आते ही अपने स्मार्टफोन में बिजी हो जाती. उस के बदलाव में कुछ और भी बात थी.

मैं ने जीजू यानी निहार से बात की और अपने मम्मीपापा को कुछ दिनों के लिए वहां छोड़ आई. तीनों को आपस में साथ रह कर एकदूसरे को समझने समझने का मौका मिले और इधर जीजी के दिमाग में शतरंज के प्यादे किसकरवट बैठ रहे हैं उस का भी मैं पता लगा पाऊं.

मम्मीपापा को निहार के पास छोड़ने जा रही थी तो जीजी से अपनी वापसी का जो दिन बताया था, उस के एक दिन पहले ही पहुंच गई मैं घर. घर की चाबी मेरे पास भी थी. मैं अंदर पहुंची तो आशा के मुताबिक जीजी फोन पर किसी से लगी पड़ी थी, ‘‘आज ही मिलो, तुम्हारी सेल्विना के साथ मैं लगभग गृहस्थी ही बसा चुकी. तुम जानते हो पेंटिंग्स की वजह से मैं तुम से जुड़ी, तुम पेंटिंग्स ग्राफिक्स का काम करते हो, और कहा भी था तुम ने कि तुम मेरे लिए वे सबकुछ करोगे जिस से मेरी पेंटिंग्स को पहचान मिले. लेकिन तुम ने तो मुझे गर्लफ्रैंड के हवाले कर दिया और भूल गये. क्या मैं तुम्हारी कुछ

भी नहीं.

‘‘कुछ भी नहीं सुनूंगी आज. मैं तुम्हें बुरी तरह मिस कर रही हूं, कल ईशा आ जाएगी वापस. आज रात सेल्विना को कोई बहाना बता कर मेरे पास आओ.’’

सारी बातें सुन कर फिर मेन दरवाजा बंद कर मैं बाहर आ गई.

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जिद: भाग 4- क्या परिवार से हटकर चंचल कुछ सोच पाई

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘नहीं, अपनी हैल्प करनी है मुझे,‘‘ आत्मविश्वास भरा जवाब आया चंचल का.

‘‘अपनी हैल्प? हाहाहा…दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा चंचल? तुम को किस बात की कमी है?‘‘

‘‘ये जुमला 10 सालों से सुनती आ रही हूं, शिशिर. अब बस भी करो ये ड्रामा. मुझे कब, कैसे, क्या करना है, सबकुछ तो आप और मांजी फैसला लेते हैं. मेरी अपनी कोई मरजी, कोई अस्तित्व नहीं छोड़ा है आप ने. ये कमी है मुझे.‘‘

‘‘हां, तो सही सोचते हैं हम लोग. समझ है ही कहां तुम में. देखो, अपने पीहर 3 दिन रुकी हो और कैसी बातें करनी लगी हो. दिल्ली चली जाओ, आज ही.‘‘

‘‘नहीं, दिल्ली तो मैं रविवार को ही जाऊंगी. बस, आप को बतानी थी ये बात, सो बता दी मैं ने.‘‘

‘‘कह रहा हूं न मैं, आज ही जाओ. और ये कोर्स वगैरह का भूत उतारो अपने दिमाग से, बच्चों पर ध्यान दो बस.‘‘

‘‘शिशिर, बच्चे जितने मेरे हैं, उतने ही आप के भी हैं. और ये मेरा आखिरी फैसला है, सोच लीजिए आप,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट हो गया. पीछे खड़ा मनु बहुत खुश है, दीदी को शादी के बाद आज अपने असली रूप में देख रहा है.

‘‘फैसला? मेरी चंचल फैसले कब से करने लगी? वो तो फैसले मानती है बस,‘‘ अब शिशिर को थोड़ी घबराहट हुई, चंचल की ‘जिद‘ दिख रही थी उसे.

आकांक्षा का घर, आज समय से पहले, ब्रैडआमलेट और चाय बना कर तैयार है. हालांकि आज आकांक्षा औफिस के लिए तैयार नहीं हुई है.

‘‘क्या बात है डार्लिंग? आज तो फेवरेट नाश्ता और वो भी समय से पहले? क्या डिमांड होने वाली है आज? हां, और तुम ये आज तैयार क्यों नहीं हुईं? नौकरीवौकरी छोड़ने का इरादा है क्या?‘‘

‘‘हां पंकज, नौकरी छोड़ने का ही इरादा है.‘‘

आमलेट गले में अटक गया पंकज के, ‘‘पगला गई हो क्या?‘‘ गुस्से में चिल्लाया, लेकिन तुरंत उसे अहसास हुआ कि गुस्से से बात नहीं संभाली जा सकती.

‘‘क्या हुआ बेटा? औफिस में कोई दिक्कत? मैं बात करूं चावला से?‘‘

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‘‘नहीं, दिक्कत घर में है, औफिस में नहीं.‘‘

‘‘नाराज हो मुझ से? कुछ चाहिए मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

‘‘हां, चाहिए.‘‘

‘‘क्या चाहिए, मेरी प्यारी अक्कू को?‘‘

खूब समझती है इन चिकनीचुपडी बातों को आकांक्षा. पहले की तरह ही गंभीर रहते हुए आकांक्षा बोली, ‘‘बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘क्या…?‘‘

‘‘मां बनना चाहती हूं मैं. कितने साल और इंतजार करूं अब मैं?‘‘

‘‘तुम जानती हो अक्कू, अभी हम तैयार नहीं हंै. विला ले लें, फिर जितने चाहे बच्चे करना. नहीं रोकने वाला मैं.‘‘

‘‘हम नहीं पंकज, केवल तुम तैयार नहीं हो. मैं पिछले 4 साल से कह रही हूं तुम्हें. पहले गाड़ी, फिर फ्लैट और अब विला. कल कुछ और शामिल हो जाएगा तुम्हारी लिस्ट में.‘‘

‘‘मैं खुश हूं पंकज, जो है उस में और मेरे बच्चे भी खुश रहेंगे, जानती हूं मैं. भौतिक सुखों का कोई अंत नहीं है, मैं थक गई हूं, इस तरह दौड़तेदौड़ते. मुझे ठहराव चाहिए, बच्चा चाहिए मुझे.‘‘

‘‘सुनो तो आकांक्षा…‘‘

‘‘नहीं पंकज, ये मेरा आखिरी फैसला है. अगर तुम्हें नहीं मंजूर, तो मैं कल ही इस्तीफा दे दूंगी. आज छुट्टी ली है बस,‘‘ मुसकराते हुए आकांक्षा बोली.

पंकज को समझ नहीं आ रहा था, वो छुट्टी की बात सुन कर खुश हो या बच्चे की बात सुन कर चिंतित. फिलहाल उसे अपना ‘विला‘ का सपना टूटते हुए दिख रहा था और दिख रही थी आकांक्षा की ‘जिद‘.

जिद तो दोनों ने कर ली थी, लेकिन जिद इतनी भी आसानी से पूरी नहीं होती. एक तरफ, चंचल की सासू मां ने हंगामा मचाया हुआ था, तो दूसरी तरफ, पंकज भी सारे दिन परेशान रहा कि कैसे अपनी बीवी को समझाए वो, कहां, बच्चों के चक्कर में पड़ गई है?

बुध का दिन इसी हलचल में गुजर गया. गुरुवार की सुबह शिशिर ने अपनी नाराजगी जताते हुए फोन नहीं किया, न ही चंचल का फोन उठाया. पंकज को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था, बात टालने के लिए वो भी टूर पर निकल गया, इतवार तक.

इतवार भी आ गया. चंचल को भी आज ही दिल्ली लौटना था, लेकिन चंचल ने न जाने का फैसला किया. इधर, आकांक्षा भी अपना सारा सामान पैक कर बैठी थी. पंकज को लगा था, 2-4 दिन दूर रहेगी आकांक्षा उस से तो खुद ही अक्ल आ जाएगी. पंकज के बिना आकांक्षा का कहां मन लगना था. लेकिन जो वो देख रहा था, वो अप्रत्याशित था.

‘‘आकांक्षा, क्या बचपना है ये?‘‘

‘‘बच्चों बिना कैसा बचपना? बच्चे तो इस घर में आने से रहे तो मैं ही बच्चा बन कर देख लेती हूं.‘‘

‘‘बस भी करो ये पागलपन… परेशान हो गया हूं मैं.‘‘

‘‘सो तो मैं भी. चलो परेशानी खत्म कर देते हैं. मैं ने साथ वाली कालोनी में एक रूम व किचन देख लिया है. तलाक के कागजात भिजवा दूंगी.‘‘

‘‘चलती हूं.‘‘

पंकज के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो मानो.

‘‘ठहरो आकांक्षा… बैठो, बात तो करो.‘‘

‘‘क्या बात करनी है पंकज? तुम्हारा फैसला मुझे पता है.‘‘

‘‘अच्छा, क्या पता है तुम को? यही ना कि मुझे अपने जैसा बेटा नहीं चाहिए, बल्कि तुम्हारे जैसी बेटी चाहिए. एकदम समझदार, मजबूत और निडर…‘‘

इस बार, आकांक्षा खुद को रोक नहीं पाई. पंकज को गले लगाते ही सालों का दर्द आंसुओं के साथ बहा दिया, आकांक्षा ने. रह गया तो उन दोनों के बीच का प्यार बस.

उधर, दिल्ली में जब शिशिर पूरे परिवार के साथ घर लौटा, तो चंचल और बच्चों को वहां न देख गुस्से से आगबबूला हो गया.

‘‘चंचल की इतनी हिम्मत? अभी बताता हूं उसे…‘‘

इस बार फोन नहीं किया, शिशिर ने, सीधा नासिक के लिए फ्लाइट ली. ‘‘बहुत बोलने लगी है, पीहर बैठ जाने को बोलूंगा न तो अपनेआप सीधी हो जाएगी.‘‘

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रात होतेहोते शिशिर चंचल के घर पहुंच ही गया. चंचल जैसे उसी के इंतजार में बैठी थी. डोरबैल बजी, चंचल ने दरवाजा खोला, एकदम सपाट चेहरे के साथ. न खुशी, न नाराजगी. लेकिन शिशिर तो नाराज था ही.

‘‘अपना सामान पैक करो चंचल… और तुम घर में क्यों नहीं हो? यहां क्यों हो? चल क्या रहा है दिमाग में तुम्हारे.‘‘

‘‘हाथपैर धो कर खाना खा लो शिशिर, डिनर तैयार है. बाद में बात करते हैं.‘‘

तभी आशु आ कर शिशिर से लिपट गया, ‘‘पापा आ गए… पापा आ गए.‘‘

बेटे को देख कर शिशिर अपना गुस्सा भूल गया, कुछ देर को. और फ्रेश होने चला गया.

डिनर के बाद चंचल ने उसे छत पर बुलाया, ‘‘हम्म, बताइए, क्या बोल रहे थे आप?‘‘

‘‘क्या बोलूंगा? तुम फोन क्यों नहीं उठा रही हो? और घर क्यों नहीं पहुंची अब तक?‘‘

‘‘क्या आप को सच में नहीं पता शिशिर?‘‘

‘‘अगर ये तुम्हारे बेकार से सर्टिफिकेट कोर्स और जौब के लिए है तो मुझे कोई बात नहीं करनी इस बारे में. तुम अच्छे से जानती हो, मां को बिलकुल पसंद नहीं ये सब और बच्चे…? बच्चों का भी खयाल नहीं आया तुम्हें? उन्हें कौन देखेगा?‘‘

‘‘शांत हो जाओ शिशिर, बात तो मुझे भी करनी है आप से और इसी बारे में करनी है, लेकिन इस तरह नहीं.‘‘

‘‘जो कौर्स और जौब तुम्हारे लिए बेकार है, वो मेरी आत्मनिर्भरता है. और इतने सालों से बच्चों को देख रही हूं न, आगे भी देख लूंगी.‘‘

‘‘मुझे नहीं पसंद, कह दिया न…‘‘

‘‘बात आप की पसंद की नहीं है, मेरे अस्तित्व की है.‘‘

‘‘तो ठीक है, आज से मेरे घर के दरवाजे बंद तुम्हारे लिए…‘‘

‘‘ठीक है, आप जब चाहें, जा सकते हैं.‘‘

इतना शांत जवाब? शिशिर अंदर तक हिल गया. सिर पकड़ कर बैठ गया, दस मिनट.

‘‘चंचल, क्या तुम सच में मेरे बिना रहना चाहती हो?‘‘

‘‘नहीं… मैं आप के साथ रहना चाहती हूं, लेकिन अपनी पहचान के साथ.‘‘

सुबकते हुए शिशिर बोला, ‘‘ठीक है, सुबह चलो साथ.‘‘

‘‘और मांजी?‘‘

‘‘परेशान मत होओ, सुबह सब साथ चलते हैं. सुहाना मैं और तुम, जब सब साथ मिल कर मनाएंगे तो मां भी मान ही जाएगी.‘‘

दोनों के चेहरे पर प्यार भरी मुसकराहट आ जाती है.

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जिद: भाग 3- क्या परिवार से हटकर चंचल कुछ सोच पाई

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘हम्म… मुझे लगता था कि तेरे पास बंगला है, गाड़ी है, पैसा है, सब है तो तू तो बहुत खुश होगी. लेकिन जब अंकल ने बताया कि तुम साल में एक ही बार पीहर आती हो, तो कुछ खटका सा हुआ. सब ठीक है न चंचल? तुम बिजी रहती हो, इसीलिए कम आ पाती हो न घर?‘‘

अब बारी चंचल की थी, ‘‘हां, बिजी तो रहती हूं. 2 बच्चे, सासससुर, जेठजेठानी और पतिदेव. उस पर से इतनी बड़ी कोठी. कहां समय मिलता है?‘‘

चंचल की आंखों का शून्य, लेकिन आकांक्षा पढ़ चुकी थी, ‘‘और जौब…? तुझे तो अपनी आजादी बहुत पसंद थी. जौब क्यों नहीं की तुम ने?‘‘

‘‘शिशिर…‘‘

‘‘शिशिर? तुम ने बात की थी न शादी से पहले ही उस से तो…? फिर क्या बात हुई?‘‘

‘‘हां, की थी, लेकिन मांजी को पसंद नहीं और शिशिर भी मां का कहा नहीं टाल सकते. सो, अब सुहाना और आशु ही जौब है मेरी,‘‘ मुसकराते हुए चंचल बोली.

‘‘हम्म…तू खुश है?‘‘

‘‘हां बहुत, सबकुछ तो है मेरे पास, किस बात की कमी है?‘‘

तभी भाई का फोन आ गया, ‘‘दीदी, आशु आप को ढ़ूंढ़ रहा है तब से. रोरो कर बुरा हाल कर लिया है अपना. आप आ जाइए, जल्दी.‘‘

‘‘ओह्ह, आई मैं बस. तब तक उसे तुम किंडर जौय दिला लाओ. थोड़ा ध्यान भटकेगा उस का. मैं पहुंच ही रही हूं बस,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट होने के साथ ही चंचल उठ खड़ी हुई.

‘‘निकलना होगा अक्कू मुझे. आशु रो रहा है. आते वक्त नाना के साथ खेलने में इतना बिजी था कि मैं ने डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा.‘‘

‘‘अच्छा सुन, फोन करना… और मिलती भी रहना अब, बिजी मैडम,‘‘ गले लगाते हुए आकांक्षा ने बोला.

हड़बड़ाहट में भी चंचल के चेहरे पर मुसकान आ गई. ‘‘मिलते हैं. चल, बाय. खयाल रखना अपना. मैं फोन करती हूं.‘‘

10 मिनट बाद चंचल अपने घर थी और आशु में बिजी हो गई. उधर आकांक्षा भी अपने वीकेंड वाले काम निबटाने में लग गई है. सबकुछ रुटीन जैसा दिख रहा है, चल भी रहा है, लेकिन दोनों के मन में उथलपुथल मची है.

अपनेअपने रुटीन में बिजी ये दोनों सहेलियां, जिन के पास खुद के बारे में सोचने का समय नहीं होता, वो दोनों ही एकदूसरे के बारे में सोच रही हैं, बल्कि सोचे ही जा रही हैं.

चंचल की आंखों के सामने से आकांक्षा को रोना नहीं आ रहा. और आकांक्षा के जेहन से चंचल के ये शब्द, ‘‘सबकुछ तो है मेरे पास, किस बात की कमी है?‘‘

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आकांक्षा जानती है कि इस बात का मतलब है कि जो दिख रहा है, वो सच नहीं है. इधर चंचल आकांक्षा के साथसाथ मौडल मीनाक्षी के बारे में भी सोच रही थी. सब से कमजोर बैकग्राउंड होने के बाद भी उस ने वो पा लिया, जो उस ने चाहा था. उस के पास सब से ज्यादा जो था, वो थी ‘जिद‘, वरना उस के सपनों का कौन मजाक नहीं उड़ाता था कालेज में.

रविवार के बाद सोमवार भी इसी तरह गुजर गया. न औफिस में मन लगा आकांक्षा का, न घर में. मांपापा, भाईबच्चे, सब के होते हुए भी चंचल अपने में खोई सी रही. जाने क्या था वो, जो दोनों के मन में बीज ले रहा था.

मंगल की शाम को चंचल ने भाई को आवाज लगाई, ‘‘मनु, ओ मनु…‘‘

‘‘आया दीदी.‘‘

‘‘एक बात बता… एमबीए कंपलीट हुए मुझे 10 साल हो गए न, इतना गैप हो जाने के बाद कोई जौब मिलेगी क्या मुझे?‘‘

‘‘जौब? अचानक से दीदी? जीजाजी से पूछा आप ने? और समधिनजी, उन को बुरा लगा तो…?‘‘

‘‘मैं ने जो पूछा, उस में से किसी एक बात का भी जवाब नहीं दिया तू ने. तेरे जीजाजी और समधिनजी को नहीं करनी जौब. मुझे करनी है जौब. अब तू कुछ हैल्प कर सकता है तो बता या मैं कुछ और सोचूं?‘‘

अपनी दीदी में अचानक से आए आत्मविश्वास को देख आश्चर्यमिश्रित खुशी से मनु बोला, ‘‘अरे, करूंगा क्यों नहीं? लेकिन सच बात यह है कि इतने गैप के बाद आप को अच्छा पैकेज मिलना मुश्किल है. बहुत स्ट्रगल रहेगा, जौब मिलना भी एक मुश्किल टास्क रहेगा. कंपनियां एक्सपीरियंस्ड लोगों को पहले बुलाती हंै.‘‘

‘‘अच्छा…‘‘ मायूस हो गई चंचल.

‘‘अरे, इस में उदास होने वाली क्या बात है? पूरी बात तो सुनिए.‘‘

‘‘सुना…‘‘

‘‘वर्क फ्रौम होम कर सकती हैं आप दीदी. शेयर मार्केट की करंट स्ट्रेटेजी समझने के लिए एक सर्टिफिकेट कोर्स कर लो आप. फिर आप अपने हिसाब से औनलाइन टाइम स्पैन सलैक्ट कर पाएंगी. और बच्चों को भी देख पाएंगी.‘‘

‘‘हम्म…. ठीक.‘‘

‘‘मुझे कल तक का समय दो, मैं पूरी डिटेल्स पता कर के बताता हूं आप को.‘‘

इधर, डिनर पर पंकज, हमेशा की तरह अपनी कंपनी और मालिक संचेती के बखान किए जा रहा था, लेकिन आकांक्षा का ध्यान न खाने में था और न ही पंकज की बातों में. डिनर के बाद पंकज ने पूछा भी, ‘‘तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी? इतवार से देख रहा हूं तुम्हें, बुझीबुझी सी हो. और तुम ने बताया भी नहीं कि तुम्हारी सहेली से मुलाकात कैसी रही? क्या झटका दे दिया उस ने मेरी जान को?‘‘

‘‘कुछ भी तो नहीं,‘‘ एक फीकी मुसकान के साथ आकांक्षा उठ कर अपने काम में लग गई.

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पंकज ने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वह अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुका है. अब न बताएं तो आकांक्षा की मरजी. आकांक्षा भी जानती थी कि औपचारिकता थी वो, दोबारा नहीं पूछने वाला पंकज.

मंगल की रात दोनों सहेलियों के लिए मंगलकारी या यों ही कहिए, क्रांतिकारी रही. आकांक्षा ने खुद को इस बात के लिए तैयार किया कि वो पंकज को साफसाफ शब्दों में बात करेगी कि वो मां बनने की खुशी से अब और दूर नहीं रह सकती और चंचल ने तमाम कोर्सेज देख कर, दिल्ली के एमिटी कालेज में एप्लाई भी कर दिया.

बुधवार की सुबह दोनों के लिए परीक्षा की घड़ी थी जैसे. चंचल शिशिर के फोन का इंतजार कर रही थी और आकांक्षा पंकज के जागने का.

‘‘हैलो, कैसी है मेरी दो जान? और जान की स्वीट सी मम्मी? सुबह हुई या नहीं?‘‘

‘‘हैलो शिशिर, हम सब अच्छे हैं. आप लोग सब कैसे हैं?‘‘

शिशिर को याद आया कि सालों से चंचल ने उसे नाम से नहीं बुलाया है, एकदम से अपना नाम सुन कर चैंक सा गया, ‘‘हम भी बढ़िया. क्या बात है चंचल? सब ठीक है न?‘‘

‘‘हां, सब बढ़िया. क्यों, क्या हुआ?‘‘

‘‘लगा मुझे, अच्छा सुहाना से बात कराओ तो…‘‘

‘‘शिशिर, मुझे आप से कुछ बात करनी है?‘‘

‘‘हां, हां, बताओ.‘‘

‘‘मैंने एमिटी से शेयर मार्केट में स्पेशलाइजेशन सर्टिफिकेट कोर्स एप्लाई किया है.‘‘

‘‘अच्छा? क्यों अपने गरीब भाई को हैल्प करनी है क्या तुम्हें?‘‘ व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए शिशिर बोला.

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