लेखक- डा. हरिश्चंद्र पाठक
आज मेरे बेटे अरुण का अमेरिका से फोन आया. जब उस ने ‘ममा’ कहा तो मुझे ऐसा लगा मानो उस ने मुझे पहली बार पुकारा हो. मेरे रोमरोम में एक अजीब सा कंपन हुआ और आंखें नम हो गईं. लेकिन जब उस ने अपने डैडी के बारे में ज्यादा और मेरे बारे में कम बातें कीं तो मैं सारा दिन रोती रही. दिनभर यही सोचती रही कि उस ने मेरी तबीयत के बारे में क्यों नहीं पूछा. उस ने यह क्यों नहीं पूछा कि ममा, तुम्हारे जोड़ों का दर्द कैसा है. बस, पापा के ब्लडप्रैशर के बारे में, उन के काम के बारे में और फैक्टरी के बारे में ही पूछता रहा. उस ने अपनी छोटी बहन वत्सला के बारे में भी पूछा, लेकिन एक बार भी यह नहीं कहा कि ममा, तुम कैसी हो.
सारा दिन बीत गया, लेकिन मेरी रुलाई नहीं रुकी. यही सब सोचतेसोचते शाम हो गई. विजय फैक्टरी से आ गए थे. मैं ने मुंह धोया और किशन से चाय बनाने को कहा. उन के फ्रैश होने के बाद जब हम दोनों चाय पी रहे थे तो मैं चाह कर भी उन्हें अरुण के फोन के बारे में नहीं बता पाई. मुझे डर था कि बतातेबताते मेरा गला रुंध जाएगा और मैं शायद रो पड़ूंगी.
रात को खाने की मेज पर भी मैं कुछ न कह सकी और बात को सुबह की चाय के लिए छोड़ दिया.
मैं शुरू से ही काफी भावुक रही हूं. हालांकि, भावुक हर इंसान होता है, क्योंकि अगर भावनाएं नहीं होंगी तो वह इंसान नहीं होगा. कुछ लोग अपने भावों को छिपाने में माहिर होते हैं. मेरी तरह नहीं कि जरा सी बात पर रोने लगें. कभीकभी अपनी इस कमजोरी पर मुझे बड़ा गुस्सा आता है. मैं भी चाहती हूं कि दूसरे लोगों की तरह मैं भी बनावटी कवच ओढ़ कर अपने सारे दुखदर्द को उस के अंदर समेट लूं और बाहर से हंसती रहूं. लेकिन जिंदगी के लगभग 5 दशक पूरे करने के बाद भी मैं हर छोटीबड़ी बात पर बच्चों की तरह रो पड़ती हूं. कई बार तो मैं बहुत पुरानी बातें याद कर के भी अपनी आंखें नम कर लेती हूं.
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अब यह रोना मेरी जिंदगी का एक हिस्सा बन गया है. जिंदगी में मुझे कभी किसी चीज की कमी नहीं रही. मायके में मांबाप की एकलौती बेटी थी तो ससुराल में सासससुर की एकलौती बहू बनी. फिर भी मेरा और मेरे आंसुओं का साथ ऐसे रहा, जैसे नदी और पानी का. मैं ने शायद ही आज तक ऐसा कोई दिन बिताया हो जिस दिन रोई न हूं.
रात को बिस्तर पर लेटी तो फिर अरुण के फोन का खयाल आ गया. बचपन में भी जब बाबूजी भैया के लिए पतंग या गेंद लाते थे तो मैं चुपचाप अपने कमरे में जा कर रोया करती थी. हालांकि मेरे पास किसी चीज की कमी नहीं थी, मेरी गुडि़या थी, गुडि़या का बिस्तर था, रसोई का सामान था और ढेरों खिलौने थे, लेकिन फिर भी उस समय मैं खुद को उपेक्षित महसूस करती थी.
मेरी मां काफी कठोर स्वभाव की थीं. मुझे याद नहीं है कि कभी उन्होंने मुझे प्यार से गोद में बैठाया हो या कभी अपने साथ बाजार ले गईर् हों. मैं अपनी फरमाइश बाबूजी को ही बताती थी, उन्हीं के साथ बाजार जाती थी. वैसे मां के इस व्यवहार का कारण मुझे अब समझ में आता है.
दरअसल, हमारा ननिहाल ज्यादा पैसे वाला नहीं था. मां अभावों में पली थीं. हमारे बाबूजी सरकारी वकील थे, इसलिए घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. मां अपनी सारी इच्छाओं को पूरी करने में लगी रहतीं. वैसे तो वे काफी कंजूस थीं, लेकिन अपने गहनों और साडि़यों का उन्हें इतना शौक था कि महीने में 4 बार सर्राफा बाजार हो आती थीं.
मुझे तो तब आश्चर्य हुआ था जब मेरी शादी होने वाली थी. उन्हें इस बात की परवा नहीं थी कि कुछ ही दिनों में उन की बेटी उन्हें छोड़ कर चली जाएगी, बल्कि उन्हें यह चिंता थी कि वे लहंगा पहले दिन पहनेंगी या दूसरे दिन और लाल वाली साड़ी के साथ सोने का हार पहनेंगी या मोतियों का. मां घंटों तक अलगअलग गहने पहन कर कर खुद को आईने में निहारती रहतीं और मैं चुपचाप रोती रहती.
मां ने कभी मेरी किसी इच्छा का खयाल नहीं रखा. उन्होंने कभी किसी बात में मेरी तारीफ नहीं की. हां, मेरी गलतियां खूब निकालती थीं. मुझे याद है जब मैं ने शुरूशुरू में रोटियां बनाना सीखा था तो एक दिन बाबूजी बोले, ‘वाह, बेटा तू तो बहुत बढि़या फुलके बनाने लगी है.’
‘क्या खाक बढि़या बनाने लगी है. सारी रसोई में आटा फैला दिया,’ मां झट बोली थीं. मां ने यह बोल कर मुझे जो दुख दिया उसे मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता. कभीकभी मैं यह सोच कर पोंछा लगा देती कि शायद मां खुश हो जाएं, लेकिन मां देखते ही शाबाशी देने के बजाय चिल्ला उठतीं. ‘यह क्या किया बेवकूफ, पोंछे का पानी नाली में डाल दिया. अरे, इसे क्यारी में डालना था.’ मैं बाथरूम में जाती और नल खोल कर खूब रोती.
मां को न मेरी बनाई हुई चाय पसंद थी और न मेरी की हुई तुरपन. उन्हें मेरा गाना भी पसंद नहीं था जबकि इस के लिए मुझे स्कूल में कई इनाम मिल चुके थे.
जब मां घर से कुछ दिनों के लिए किसी शादी में या अपने मायके जातीं तो घर की सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर होती. मैं इस जिम्मेदारी को जहां तक होता, काफी अच्छी तरह निभाती और यह उम्मीद करती कि मां अगर शाबाशी नहीं भी देंगी तो कम से कम डांटेंगी तो नहीं. पर वे आते ही अपनी आदत के मुताबिक चिल्ला उठतीं, ‘तू ने तो 2 दिनों में ही सारा घी खत्म कर दिया. यह बाबूजी की पैंट क्यों नहीं धोई? भैया का कमरा इतना गंदा पड़ा है, ठीक नहीं कर सकती थी? क्या करती रही तू?’
मां के सामने मेरी कभी बोलने की हिम्मत न हुई. लेकिन मन ही मन खूब जवाब देती, ‘मां घी खाया ही तो है, फेंका तो नहीं? और इन दिनों पानी कुछ कम आया, इस वजह से पैंट रह गई. बाकी धुले हुए कपडे़ नहीं दिखे, इसी पैंट पर नजर पड़ी, मैं भैया का कमरा कब ठीक करती? सुबह खाना बनाने में रह जाती थी और शाम को स्कूल से लौट कर अपनी पढ़ाई करती थी.’ मैं यह सब खुद ही सोचती रहती और रोती रहती.
मैं हमेशा मां के मुंह से अपनी तारीफ सुनने को तरसती रही, लेकिन मेरी यह इच्छा कभी पूरी न हुई. वैसे मां मुझे ही नहीं डांटती थीं, वे बाबूजी को भी ऐसे ही फटकार लगतीं. एक बार बाबूजी अपना छाता कहीं भूल आए तो मां ने उन्हें ऐसे लताड़ा कि उन की बेचारगी देख कर उस दिन मैं रातभर तकिए में मुंह छिपा कर रोती रही.
मां की इस हिटलरशाही से तंग आ कर मैं यह भी सोचने लगती कि काश, मेरी शादी हो जाती तो रोजरोज की खिचपिच से और इस घुटन से तो छुट्टी मिलती.
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दरअसल, जब इंसान को बचपन में प्यार नहीं मिलता है तो वह इस प्यार को अपने जीवनसाथी और बच्चों में तलाशने की कोशिश करता है. मेरे अंदर भी एक आशा थी कि शादी के बाद मेरा पति मेरे सारे दर्द बांट लेगा. मैं उस के सारे दुख ले लूंगी और एकदूसरे की तकलीफें दूर करते हुए हम अपना जीवन आसान कर लेंगे.
लेकिन होनी में तो कुछ और लिखा था. मेरा सारा सोचना व्यर्थ गया. मेरी शादी एक संपन्न घराने में हुई. व्यापारिक घराना था. ससुरजी की 2 फैक्टरियां थीं. घर में सभी सुखसुविधाएं थीं, नौकरचाकर थे और मां जैसी सास थीं जिन्हें पा कर मैं निहाल हो गई थी. जब वे प्यार से मुझे अपने गले लगातीं या मेरे गालों पर हाथ फेरतीं तो मेरी आंखें अपनी आदत के अनुसार झरझर बहने लगतीं.
मेरे पति विजय ससुर के साथ बिजनैस में हाथ बंटाते थे. विजय सुदर्शन व्यक्तित्व के एक बहुत ही सीधेसादे इंसान हैं. वे मेरी हर इच्छा का खयाल रखते. वे खुद तो ज्यादा बोलते नहीं, लेकिन मेरी हर छोटीबड़ी बात को सिरआंखों पर रखते. उन की कम बोलने की आदत की वजह से धीरेधीरे मुझे तकलीफ होने लगी.
वे मेरा तो हर दर्द दूर करने की कोशिश करते, लेकिन अपनी कोई तकलीफ मुझे नहीं बताते. अपनी परेशानियां खुद ही झेल लेते. उन्हें बुखार है, इस का पता मुझे नौकरों से चलता था. उन की कार का पिछली शाम ऐक्सिडैंट हो गया, वह बात भी मुझे अपनी सास से मालूम होती थी. वे मुझे किसी बात की इत्तला देने की जरूरत नहीं समझते थे. जबकि, मैं उन के दुखों को बांटना चाहती थी, उन का सहारा बनना चाहती थी. जब ये बातें मुझे दूसरों से मालूम होती थीं तो मेरी आंखों से आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती.
बचपन की आदत के मुताबिक मैं विजय को मन के कठघरे में खड़ा कर के खुद ही सवालजवाब करती रहती, ‘मैं उन की जीवनसंगिनी हूं. क्या मुझे उन की तकलीफों को जानने का अधिकार नहीं है? उन के मन में क्या चल रहा है, यह मुझे पता चलना जरूरी नहीं है?’ और इस की सजा थी, मेरा रातभर का रोना.
जब लेडी डाक्टर ने मेरा चैकअप कर के बताया कि मैं मां बनने वाली हूं तो फिर एक बार आशा बंधी कि कोई होगा मेरा अपना जो मुझे समझेगा, मेरी तकलीफ दूर करेगा. यह सोच कर मैं फिर रो पड़ी. डाक्टर ने सोचा, मैं घबरा गई हूं इसलिए वे मुझे समझाने लगीं, ‘डरने की बात नहीं है, मैं तुम्हारी सास को बहुत अच्छी तरह जानती हूं. मैं यहीं आ कर तुम्हें देखती रहूंगी.’ लेकिन इन्हें क्या पता कि मैं तो इस आशा पर खुश हो कर रो रही हूं जिस ने फिर से मुझे जीने की प्रेरणा दी है. आशाओं के अभाव में तो जीवन शून्य हो जाता है.
विजय इस खबर से काफी खुश थे. अब वे मेरा और ज्यादा खयाल रखने लगे. मैं ने एक प्यारी सी बेटी की तमन्ना की थी, लेकिन मुझे पहला बेटा हुआ. मुझे याद है, जब मैं ने पहली बार अरुण को गोद में ले कर उस का माथा चूमा था, तो उस के माथे पर मेरा एक आंसू टपक पड़ा था जिसे मैं ने सब की नजरें बचा कर जल्दी से पोंछ दिया था.
अब मैं काफी व्यस्त रहने लगी थी. विजय सुबह अरुण के उठने से पहले ही चले जाते और उन के लौटने तक अरुण सो जाता था. मैं वैसे भी अरुण को किसी से बांटना नहीं चाहती थी. उसे जमानेभर की खुशियां देना चाहती थी. उसे इतना प्यार देना चाहती थी कि जितना आज तक दुनिया में किसी मां ने अपने बेटे को न दिया होगा.
आज अरुण 25 साल का है और मुझे याद नहीं कि मैं ने उसे आज तक किसी बात पर जोर से डपटा हो, मारना तो दूर की बात है. लेकिन मेरे दिल को सब से बड़ा झटका उस समय लगा जब अरुण ने अपने मुंह से पहला शब्द मां के बजाय पा…पा निकाला था. अब वह अपने पापा को देख कर उछलने लगा था और मेरी गोद से उतर कर उन के पास जाने की जिद करता. मैं अपने कमरे में आ कर फूटफूट कर रोती रहती. विजय ने उस का दाखिला अपनी पसंद के स्कूल में करवाया. वे उसे अपनी पसंद का नाश्ता करवाते और अपनी पसंद के कपड़े भी पहनाते.
उन्हीं दिनों अचानक ससुरजी का देहांत हो गया. ज्यादा समय नहीं गुजरा कि सास भी हमें छोड़ कर चली गईं. अब तो मुझ से बोलने वाला भी घर में कोई नहीं रहा. कंपनी का सारा भार विजय के कंधों पर आ गया था. उन दिनों न उन्हें खाने की फुरसत थी और न सोने की. सुबह आननफानन नाश्ता कर के जाते, तो यह खबर न रहती कि शाम को डिनर पर कब आएंगे.
मिल में इन दिनों काफी दिक्कतें आ गई थीं. मजदूरों की हड़ताल चल रही थी. ये बातें भी मुझे बाहर से पता चलती थीं. वे तो इन बातों का जिक्र ही नहीं करते थे. शाम को डाइनिंग टेबल पर सिर झुका कर खाना खाते. कभीकभी तो मुझे इस अंगरेजी सभ्यता पर क्रोध भी आता. कुरसी पर बैठ कर खाइए, जो चाहिए खुद ले लीजिए और रोटी के लिए नौकर को आवाज लगा दीजिए.
कभी जी में आता कि मैं भी मां की तरह अपने हाथों से रसोई बनाऊं. सब को सामने बैठा कर अपने हाथों से खाना खिलाऊं. दाल में नमक पूछूं. यह भी पूछूं कि क्या चाहिए? पर यहां तो पतिपत्नी के बीच संवाद ही नहीं था. कोई विषय ही नहीं था, जिस पर हम चर्चा कर सकें. यह सब सोच कर मेरी आंखें भर आतीं.
खैर, धीरेधीरे फैक्टरी की समस्याएं कम हो गईं. विजय ने सबकुछ संभाल लिया था. इसी बीच एक दिन डा. दीपक कुमार की पत्नी से शौपिंग सैंटर पर मुलाकात हुई. उन्होंने विजय की तबीयत के बारे में पूछा तो मैं हैरान हुई. फिर जब उन्होंने कहा कि विजय का ब्लडप्रैशर पिछले दिनों बढ़ गया था तो मैं हक्कीबक्की रह गई. यह तो हद थी खामोशी की.
उस रात मैं ने खाना नहीं खाया. जब विजय ने मेरे बालों में हाथ फेरते हुए इस की वजह पूछी तो मैं उन के सीने से लग कर खूब रोई और फिर मैं ने अपने दिल की सारी भड़ास निकाल दी.
पूरी बात सुन कर विजय इत्मीनान से बोले, ‘दरअसल, मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था. तुम बहुत सीधी हो और बेकार में दुखी होगी, यही सब सोच कर मैं अपना दुख खुद सहता गया और वैसे भी, यह इतनी बड़ी बात थोड़े ही है.’
‘लेकिन विजय, तुम्हें क्या मालूम कि तुम जिस बात को मामूली समझते हो, वही बात मेरे लिए कितनी बड़ी है. अपने पति की बीमारी के बारे में मुझे बाहर वालों से पता चले, यह कितनी कष्टप्रद बात है मेरे लिए. इसे तुम क्या समझो.’ इस के बाद मेरा मन, मेरे मन का कठघरा, कठघरे में विजय और फिर रातभर की जिरह. मैं कभी किसी से कुछ कह नहीं पाती थी, लेकिन इतना सोचती थी कि रात भी छोटी पड़ जाती.
फिर वत्सला पैदा हुई. वत्सला को मैं ने सामान्य बच्चों की तरह पाला. हालांकि उस के हिस्से का संपूर्ण प्यार उसे दिया, लेकिन उस से कोई आशा नहीं बांधी. अब मैं ने अपनी इस नियति को स्वीकार कर लिया था. वैसे भी आशाएं जब टूटती हैं तो दिल जारजार रोता है और अब वह दुख मेरी बरदाश्त से बाहर था.
वत्सला ने मेरी काफी सेवा की. वह मुझे बहुत प्यार करती थी. प्यार तो मुझे अरुण भी करता था, लेकिन अपने डैडी के सामने वह मुझे भूल जाता. शायद वह जानता था कि मैं तो उसे प्यार करती ही हूं, इसलिए डैडी से जो थोड़ाबहुत समय मिलता है, उस में उन का प्यार भी वसूल कर लूं. वह हमेशा अपने डैडी की तरफदारी करता. पिकनिक कहां जाएंगे, घर में किस कलर का पेंट होगा, बर्थडे किस तरह मनाया जाएगा या दीवाली में कितनी आतिशबाजी छोड़ी जाएगी, यह सब निर्णय बापबेटा खुद मिल कर करते थे. लेकिन वत्सला मेरी वकालत करती रहती और उस के डैडी अकसर उस की बातें मान लिया करते. वत्सला को मेरी पसंद की चीजें ही अच्छी लगतीं. अपनी शादी के वक्त भी उस ने सारे कपड़े और गहने मेरी पसंद के ही लिए. उसे देख कर मुझे जब अपना बचपना याद आता, मां की फटकार याद आती तो मेरे आंसू छलक आते.
मां ने हमेशा मेरी बालसुलभ इच्छाओं को दबाया. उन्होंने मुझे उन तारीफों से वंचित रखा जो एक किशोरी के विकास के लिए जरूरी हैं. हालांकि विजय ने अपने सारे कर्तव्यों को पूरा किया, फिर भी मुझे एक पत्नी के अधिकारों से दूर रखा. अरुण ने मेरे ममत्व को ठेस पहुंचाई, जबकि मैं ने उसे पालने में
कोई कमी या कसर नहीं छोड़ी. दरअसल, हम स्वार्थी मांएं ऐसे ही दुखी होती हैं जब हमारे बच्चे हमारे प्यार के बदले की गई हमारी इच्छाओं को पूरा नहीं करते.
लेकिन वत्सला, जिस से मैं ने कभी कोई आशा ही नहीं की, मुझे जीवनभर का संपूर्ण प्यार दिया. जब वह मेरे सिर में अपने छोटेछोटे हाथों से बाम लगाती तो यही एहसास होता कि मैं अपनी मां की गोद में सोई हूं. जब वह अपने कालेज की या दोस्तों की बातें बता कर हंसाती तो उस में मुझे अपनी अंतरंग सहेली की झलक नजर आती. यद्यपि मैं ने उस से कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन वह मेरे दुख को महसूस करती थी. उस की शादी के दिन मैं उसे निहारनिहार कर खूब रोई. विदाई के समय तो मैं बेहोश हो गई थी.
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विजय ने अरुण को पढ़ने के लिए अमेरिका भेज दिया. उस दिन भी मेरी आंखों में आंसुओं की बाढ़ नहीं थम रही थी, जब उस ने मेरे कंधों पर हाथ रख कर कहा, ‘ममा, अपना खयाल रखना.’ मैं उस से लिपट कर ऐसे बिफर पड़ी कि फिर संभल न पाई. विजय ने मुझे अरुण से अलग किया और फिर मैं घर कैसे पहुंची, मुझे कुछ याद नहीं.
अब तक तो घर में चहलपहल थी. दोनों बच्चों के चले जाने के बाद घर काटने को दौड़ता. नौकरों की चहलपहल से अपने जीवित होने का एहसास होता. मन के भीतर तो पहले ही सूनापन था, अब बाहर भी वीराना हो गया.
यही सब सोचतेसोचते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. सुबह घड़ी के अलार्म से नींद टूटी. सिर दर्द से भारी हो रहा था. आंखों की दोनों कोरें नम थीं. मैं उठ कर बाथरूम में चली गई. चाय के साथ विजय को अरुण के फोन के बारे में बताने के लिए खुद को तैयार जो करना था.
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