लौटती बहारें: भाग 4- मीनू के मायके वालों में कैसे आया बदलाव

अचानक अम्मांजी की आवाज आई, ‘‘बहू, मेरा और नीलम का खाना मत बनाना. हमारा खाना वहीं होगा.’’ मैं आहत सी हो गई. मैं नईनवेली दुलहन पर मुझे तो कोई किसी योग्य समझता ही नहीं. मन मार कर काम में लग गई. तभी अचानक नीलम जीजी की जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. मैं डर गई कि क्या हुआ. कहीं राहुल को चोट तो नहीं लग गई. मैं आटे से सने हाथों को जल्दी से धो कर अंदर कमरे की ओर दौड़ी. अंदर जा कर देखा नीलम जीजी अपना सामान बिखराए रो रही थीं. अम्मांजी बैग खोल कर कुछ ढूंढ़ रही थीं. पूछने पर मालूम चला कि नीलम दीदी का एक बैग शायद जल्दबाजी में औटोरिकशा में ही छूट गया. उस में उन के जेवर भी थे.

यह सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा. अब तो औटोचालक की ईमानदारी पर ही उम्मीद लगाई कि शायद पुलिस स्टेशन में जमा करा दे अथवा घर आ कर लौटा जाए. नीलम को न तो औटो का नंबर याद था और न ही चालक का चेहरा. इस से परेशानी और बढ़ गई. घर में गहरा तनाव छा गया था. पापाजी ने इन्हें भी औफिस से बुलवा लिया था. दोनों पुलिस स्टेशन रपट लिखवाने गए. पर वहां जा कर भी कोई ऐसी तसल्ली नहीं मिली जिस से तनाव कम हो जाता. बेटी का मायके आ कर जेवर खो देना मायके वालों के लिए बहुत बदनामी काकारण था. शेखर और रवि दोनों मिल कर जीजी को दिलासा दे रहे थे. नीलम जीजी एक ही प्रलाप किए जा रही थीं कि ससुराल जा कर क्या मुंह दिखाऊंगी. अम्मां औटो वाले को कोस रही थीं. मैं और पापाजी दोनों बेबस से खड़े थे.

उस दिन किसी ने खाना नहीं खाया. मैं ने बड़ी कठिनाई से राहुल को दूध व बिस्कुट खिलाए. अगले दिन शाम तक न पुलिस स्टेशन से कोई खबर आई और न ही औटोचालक का ही कुछ अतापता मिला. सभी निराश हो चले थे. मुझे नीलम जीजी की दशा देख कर बहुत दुख हो रहा था. कितने उत्साह से विवाह में शामिल होने आई थीं और किस परेशानी में घिर गईं. अगर कभी मायके जा कर मेरे साथ यह घटना हो जाती तो? यह सोच मैं मन ही मन कांप गई. मेरे मन में विचारों की उधेड़बुन चल रही थी कि कैसे नीलम जीजी की परेशानी दूर करूं.

अचानक दिमाग में बिजली कौंधी. मैं दृढ़ कदमों से अपने कमरे में गई और अपनी अलमारी से सारे जेवर निकाल लाई. जेवरों का डब्बा मैं ने नीलम जीजी को देते हुए कहा, ‘‘लो जीजी, ये जेवर आज से आप के हुए. मेरे तो फिर बन जाएंगे… अभी आप का जेवरों के कारण कोई अपमान नहीं होना चाहिए.’’

सभी हैरानी से मेरा मुंह देखने लगे मानो उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा हो. कुछ ही क्षणों बाद घर के सभी सदस्य गहने लेने से इनकार करने लगे तो मैं ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मैं जेवर, नीलम जीजी को दे कर कोई एहसान नहीं कर रही हूं. आप सब मेरा परिवार हैं. आप के मानअपमान में मैं भी बराबर की हिस्सेदार हूं. आजकल आएदिन लूटपाट की खबरें आती रहती हैं. गहने तो अधिकतर लौकरों की शोभा ही बढ़ाते हैं,’’ यह कह मैं किचन की ओर चल दी.

तभी नीलम जीजी ने लपक कर मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगीं, ‘‘नहींनहीं भाभी मैं अपनी लापरवाही की सजा आप को नहीं दे सकती,’’ और फिर से जेवर वापस करने लगीं. इस बार मैं ने उन्हें राहुल का वास्ता दे कर जेवर ले लेने को कहा. कोई चारा न देख कर उन्होंने जेवर ले लिए.

शेखर और रवि भैया मुझे प्रशंसाभरी नजरों से देख रहे थे. पापा ने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘बहू, इस समय जो तुम ने हमारे लिए किया उसे हम जीवन भर नहीं भुला पाएंगे.’’

हर समय पराए घर की और पराया खून की रट लगाने वाली अम्मांजी लज्जित सी सिर झुकाए बैठी थीं. जेवरों का यों खो जाना कोई मामूली चोट न थी. फिर भी फिलहाल उस पर मरहम लगा दिया. सभी बेमन से थोड़ाबहुत खा कर सो गए.

नीलम जीजी जैसेतैसे सहेली की शादी निबटा कर चली गईं. ससुराल में जा कर बताया कि भाभी के जेवर नए डिजाइन के थे, इसलिए उन से बदल लिए. उन की ससुराल वाले खुले विचारों के लोग थे. अत: उन्होंने कोई पूछताछ नहीं की. इस घटना के बाद से सब का मेरे प्रति व्यवहार बदल गया. शेखर बाहर घुमाने भी ले जाने लगे. खाना बन जाने पर रवि भैया और शेखरजी डाइनिंगटेबल पर प्लेटें, डोंगे रखवाने

में मेरी मदद करते. खाने के समय सब मेरा इंतजार करते. एक दिन तो अम्मां ने यहां तक कह दिया, ‘‘बहू रोटियां बना कर कैसरोल में रख लिया करो. सब के साथ ही खाना खाया करो.’’

मैं मन ही मन इस बदलाव से खुश थी. पर मन में रेनू और राजू की चिंता, किसी फांस की तरह चुभती रहती. मैं ऊपर से सामान्य दिखने का प्रयत्न करती रहती. मुझे सहारनपुर से लौटे लगभग 2 महीने होने को आए थे.

पापा का 2-3 बार कुशलमंगल पूछने के लिए फोन आ चुका था. मम्मी से भी बात हो गई थी. रेनू और राजू से एक बार भी बात नहीं हो पाई. उन के बारे में जब भी पूछा, पापा ने घर पर नहीं हैं कह कर बहाना बना दिया. हो सकता है वे दोनों बात करना न चाहते हों. कल रात जब खाना बना रही थी तो सहारनपुर से पापा का फोन आया. घबराए हुए थे. उन्होंने कहा, ‘‘मीनू बेटी, तेरी मम्मी की तबीयत खराब है, उन्हें पीलिया हो गया है. तुम्हें बहुत याद कर रही हैं.’’

मैं समझ गई मम्मी की तबीयत ज्यादा ही खराब होगी. तभी पापा ने मुझे फोन किया वरना नहीं करते. मेरी आंखें भर आईं. मैं ने पापा को आने का आश्वासन दे कर फोन काट दिया. पीछे मुड़ी तो कमरे में अम्मां और पापाजी खड़े थे. मेरे चेहरे पर चिंता की रेखाएं देख कर पूछने लगे, ‘‘बहू, मायके में सब कुशलमंगल तो है?’’ मम्मी की तबीयत के बारे में बतातेबताते मैं रो पड़ी.

अम्मां ने मुझे सांत्वना दी. पापाजी ने कहा, ‘‘तुम सुबह ही शेखर को ले कर चली जाओ. मम्मी की देखभाल करो. शेखर के पास छुट्टियां कम हैं पर 1-2 दिन रह कर लौट आएगा. तुम जितने दिन चाहो रह लेना.’’ अगले दिन मैं और शेखर सहारनपुर जा पहुंचे. सारा घर अस्तव्यस्त हो रखा था. मैं ने मम्मी को देखा तो हैरान रह गई. वे बहुत कमजोर हो गई थीं. आंखों में बहुत पीलापन आ गया था.

इलाज तो चल ही रहा था, पर मुझे तसल्ली न हुई. मैं और शेखर मम्मी को दूसरे डाक्टर के पास ले गए. शहर में इन का अच्छे डाक्टरों में नाम आता था. मुआयना करने के बाद डाक्टर ने कहा कि मर्ज काफी बढ़ गया है, पर परहेज और आराम करने से सुधार आ सकता है. घर पहुंचने पर पाया रेनू और राजू भी आ गए थे. मुझे देख कर दोनों के चेहरे उतर गए, पर मैं भी उन से औपचारिक बातें ही करती.

चौथे दिन मम्मी के स्वास्थ्य में सुधार दिखने लगा. पापा के चेहरे पर भी रौनक लौट आई. यह देख बहुत अच्छा लगा. दोपहर को मैं मम्मी को खिचड़ी खिलाने लगी. घर में कोई नहीं था. मम्मी ने खिचड़ी खा कर प्लेट एक ओर रख कर मेरे दोनों हाथ पकड़ कर मुझे पलंग पर अपने पास ही बैठा लिया. उन की आंखों में आंसू थे. वे रोते हुए बोलीं, ‘‘मीनू, बेटी पिछली बार हम से तुम्हारा बड़ा अपमान हो गया था. मुझे माफ कर दे बेटी. मैं मजबूर हो गई थी,’’ और फिर मेरे सामने हाथ जोड़ने लगीं.

मुझे बहुत बुरा लगा. मैं ने उन के हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, आप यह क्या कर रही हैं? आप न तो पिछली बातें सोचेंगी और न ही कहेंगी. बस अपनी सेहत पर ध्यान दें.’’ धीरेधीरे मां खुलती गईं. अपनी मन की पीड़ा से मुझे अवगत कराने लगीं. उन्होंने बताया कि रेनू किस तरह घर के प्रति लापरवाह हो गई है. जब से बीमार हुईं हूं सवेरे ही कुछ बना कर डाइनिंगटेबल पर रख जाती है. शाम को भी यही हाल है. जल्दबाजी में कुछ भी कच्चापक्का बना कर दे देती है. कुछ कहो या पूछो तो गुस्सा हो जाती है.

राजू भी दिन भर बाहर रहता है. खानेपीने का कोई नियम नहीं. तेरे पापा ने चाय बनानी सीख ली है. चाय तो वे ही बना लेते हैं. ये सब सुन कर मन बेहद दुखी हुआ. मैं भी रेनू और राजू के बहकते कदमों के बारे में मम्मी को सतर्क करना चाहती थी पर उन के स्वास्थ्य को देखते हुए मैं ने इस विषय पर चुप्पी ही साध ली.

अगले दिन मैं ने अपनी सहेली चित्रा को फोन किया. वह मुझ से मिलने घर आ गई. विवाह के बाद मैं उसे मिल न पाई थी. चित्रा मेरी बचपन की एक मात्र अंतरंग सखी थी. वह एक धनी व्यवसायी की बेटी थी, परंतु घमंड से कोसों दूर थी. बेहद स्नेहमयी थी. इसीलिए वह हमेशा मेरे दिल के करीब रही. दोनों एकदूसरे के दुखसुख में भागीदार रहती थीं. चित्रा के आने पर मेरा मन खुश हो उठा. हम दोनों पहले मम्मी के पास बैठीं.

मम्मी बोलीं, ‘‘अरे चित्रा, आज तो तू मीनू को कहीं बाहर घुमा ला. जब से आई है मेरी सेवा में लगी है. अब मैं ठीक हूं.’’ चित्रा ने चलने का अनुरोध किया तो मैं मना न कर पाई. वह अपनी कार में आई थी. दोनों एक रेस्तरां में पहुंच गईं. चित्रा ने कौफी और सैंडविच का और्डर दिया. फिर दोनों बतियाने लगीं. चित्रा मुझ से मेरे विवाह और ससुराल के अनुभव सुनने के लिए बेताब थी. फिर अचानक चित्रा गंभीर हो गई. बोली, ‘‘मीनू, हम दोनों कितने समय बाद मिले हैं. मैं तेरा दिल दुखाना नहीं चाहती हूं पर इस विषय पर चुप्पी साध कर भी मैं तेरा और तेरे परिवार का नुकसान नहीं करना चाहती.’’

मैं ने उसे सब कुछ खुल कर बताने को कहा तो चित्रा ने कहा, ‘‘मीनू तू तो जानती है कि मेरा छोटा भाई रजत और राजू कालेज में एकसाथ ही हैं. रजत ने मुझे बताया कि राजू 3-4 महीनों से कालेज में बहुत कम दिखाई देता है. वह कुछ दादा टाइप लड़कों के साथ घूमता है. प्रोफैसर उसे कई बार चेतावनी दे चुके हैं. मुझे लगता है उसे अभी न रोका गया तो वह गलत रास्ते पर आगे बढ़ जाएगा, फिर वहां से लौटना कठिन हो जाएगा.’’ मैं ने चित्रा को शुक्रिया कहा और बोली, ‘‘तू ने सही समय पर मुझे सचेत कर दिया. राजू से आज ही बात करती हूं.’’

बात निकली तो मैं ने रेनू के बारे में भी चित्रा को सब बता दिया. मेरी बात सुन कर चित्रा कहने लगी, ‘‘वैसे तो इस उम्र में लड़कियों और लड़कों में आकर्षण आम बात है पर परेशानी तब होती है जब लड़के मासूम लड़कियों को बहलाफुसला कर उन से संबंध बना कर उन के आपत्तिजनक वीडियो बना कर ब्लैकमेल करने लगते हैं.’’ मैं ने कहा, ‘‘बस चित्रा मुझे यही चिंता खा रही है. रेनू सुनने को तैयार ही नहीं है. क्या करूं?’’

अभी हम बातें कर ही रही थीं कि एकाएक मेरी नजर सामने की टेबल पर पड़ी. वहां एक नवयुवक और एक नवयुवती हाथों में हाथ डाले जूस पी रहे थे. वे धीरेधीरे बातें कर रहे थे. मुझे लगा कि इस लड़के को कहीं देखा है. दिमाग पर जोर डाला और ध्यान से देखा तो याद आ गया. यह वही लड़का है, जिस के साथ रेनू बाइक पर घूमती है. बस अब मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा. इस फ्लर्टी लड़के के चक्कर में रेनू मेरा इतना अपमान कर रही थी. मैं ने झटपट एक प्लान बनाया और चित्रा को समझाया. चित्रा वाशरूम जाने के बहाने उन दोनों के पास जा कर रुकेगी और मैं समय नष्ट न करते हुए मोबाइल से उन का फोटो ले लूंगी. अगर वह जोड़ा सचेत हो जाता है, तो मैं कैमरे का रुख चित्रा की ओर कर के उसे पोज देने को कहने लगूंगी. मगर दोनों प्रेमी अपने आसपास की चहलपहल से बेखबर एक ही गिलास में जूस पीने में मस्त थे. मैं ने जल्दी से फोटो लिए और हम दोनों रेस्तरां से बाहर आ गईं.

घर पर रेनू और राजू भी आ चुके थे. राजू तो चित्रा को घर आया देख सकपका सा गया पर चित्रा को रेनू बहुत पसंद करती थी, इसलिए वह चित्रा से बहुत प्यार से मिली. एकदूसरे का हालचाल पूछ कर रेनू सब के लिए चाय बनाने चली गई. कुछ देर रुक राजू मौका देख कर कोचिंग क्लास के बहाने बाहर जाने लगा तो चित्रा ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘‘क्यों मैं इतने दिनों बाद आई हूं, मुझ से बातचीत नहीं करोगे? मीनू के ससुराल जाने के बाद अब मैं ही तुम्हारी दीदी हूं. मुझ से अपने मन की बात कह सकते हो,’’ यह कहतेकहते वह राजू को अलग कमरे में ले गई.

चित्रा ने राजू को समझाया, ‘‘तुम्हारी हरकतों से तुम्हारा कैरियर तो खराब होगा ही, पूरे घर के मानसम्मान पर भी धब्बा लगेगा. तुम्हारे मातापिता तुम से कितनी उम्मीदें लगाए बैठे हैं.’’ राजू सब सिर झुकाए सुनता रहा.

चित्रा ने आगे कहा, ‘‘तुम कल से नियमित कालेज जाओ… उन लड़कों से मिलनाजुलना बंद करो. अगर इस में कोई भी समस्या सामने आती है, तो प्रोफैसर आदित्य के पास चले जाना. वे मेरे कजिन हैं. हर तरह से तुम्हारी मदद करेंगे. हां, अब तुम्हारी सारी गतिविधियों पर ध्यान भी रखा जाएगा. याद रहे तुम्हारी मीनू दीदी उसी कालेज में टौपर रह चुकी हैं.’’ राजू चित्रा का बहुत आदर करता था. अत: ये सब सुन कर रो पड़ा. उस ने चित्रा से वादा किया कि वह उन की बातों पर अमल करेगा. चित्रा ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई. तभी रेनू चाय बना कर कर ले आई. उधर मैं ने भी अपना काम कर लिया. मैं ने रेस्तरां में खींचे गए फोटो वहीं रख दिए जहां टेबल पर रेनू ने चाय रखी थी. मैं वहां से उठ कर मम्मी के कमरे में चली गई. रेनू चाय के लिए सब को बुलाने लगी. हम सब हंसतेखिलाते चाय पीने लगे. तभी रेनू की नजर फोटो पर पड़ गई, ‘‘किस के फोटो हैं ये?’’ कह कर उन्हें उठा लिया.

चित्रा बोली, ‘‘ये मेरे फोटो खींच रही थी. मेरे तो खींच नहीं पाई. यह जोड़ा रेस्तरां में बैठा था, उस की खिंच गई. मीनू तू तो मोबाइल से भी फोटो नहीं खींच पाती.’’ फोटो देखते ही रेनू के चेहरे का रंग बदल गया. हम चुपचाप अनजान बने चाय पीते रहे.

रेनू चुपचाप वहां से चली गई. हम थोड़ी देर बाद रेनू के कमरे में जा पहुंचे. वह बिस्तर पर पड़ी रो रही थी. चित्रा ने उस से प्यार से रोने का कारण पूछा तो उस ने पहले तो बहाना किया पर उस का बहाना मेरे और चित्रा के सामने नहीं चला. मैं ने पुचकार कर पूछा तो उस ने उस लड़के के बारे में सब बता दिया. मैं ने और चित्रा ने उसे इस उम्र में होने वाली गलतियों से आगाह किया और पढ़ाईलिखाई में ध्यान देने को कहा.

रेनू रोतेरोते मेरे गले लग गई और बोली, ‘‘दीदी, मुझे डांटो, मैं बहुत खराब हूं.’’ तब मैं ने प्यार से समझाया, ‘‘सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अब मम्मीपापा की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी है.’’

रेनू ने हां में सिर हिला दिया. राजू भी सिर झुकाए खड़ा था. वह भी मेरे गले लग गया. चित्रा जाते समय मम्मीपापा से मिलने गई तो हंस कर बोली, ‘‘अंकल जिस काम के लिए मैं यहां आई थी उसे तो भूल कर जा रही थी. दरअसल, पापा ने मुझे आप के पास इसलिए भेजा था कि पापा को अपने व्यवसाय के लिए एक अनुभवी अकाउंटैंट चाहिए. यदि आप यह कार्य संभाल लें तो उन की चिंता कम हो जाएगी.’’

पापा की खुशी की सीमा न रही. बोले, ‘‘नेकी और पूछपूछ. चित्रा बेटी तुम्हारा यह उपकार कभी नहीं भूलूंगा.’’ यह सुन कर चित्रा प्यार भरे गुस्से से बोली, ‘‘अंकल आप ऐसा कहेंगे तो मैं आप से बहुत नाराज हो जाऊंगी.’’

पापा ने मुसकरा कर अपने कान पकड़ लिए तो सभी जोर से हंस पड़े. सारा माहौल खुशगवार हो गया. मम्मी अब ठीक थीं. रेनू ने भी घर के कामकाज में ध्यान देना शुरू कर दिया था. मैं ने भी ससुराल लौटने की इच्छा जताई. इस बार

राजू मुझे ससुराल छोड़ने जा रहा था. अगले दिन मैं जाने से पहले मम्मीपापा के कमरे के पास से गुजर रही थी तो मुझे उन की बातचीत सुनाई पड़ी. मम्मी कह रही थीं, ‘‘देखो हम बेटियों को पराया धन, पराई अमानत कह कर दुखी करते हैं परंतु बेटियां पति के घर जा कर भी पिता की चिंता नहीं छोड़तीं.’’

पापा हंस कर बोले, ‘‘तुम ने वह कहावत नहीं सुनी है कि बेटे अपने तब तक रहते हैं जब तक न हो वाइफ और बेटियां तब तक साथ रहती हैं जब तक हो लाइफ.’’ यह सुन कर मैं भी मुसकरा दी. अगले दिन मैं मायके से विदा हो कर ससुराल आ गई. सभी मुझ से और राजू से बहुत प्यार से मिले. शेखर ने राजू को पूरी दिल्ली घुमाया. कई तोहफे दिए. नीलम जीजी भी राजू से मिलने आईं. राजू बहुत ही अच्छे मूड में विदा हुआ.

अम्मां के घुटनों के दर्द के लिए मैं एक तेल लाई थी. उस से मालिश कर के अम्मां और पापाजी के कमरे से निकली तो पापा की आवाज सुनाई दी, ‘‘बहुएं तो प्यार की भूखी होती हैं. जब तक उन्हें पराए घर की, पराए खून की कहते रहेंगे वे ससुराल में अपनी जगह कैसे बनाएंगी?’’ अम्मां बोलीं, ‘‘सच कह रहे हो शेखर के पापा… वे बेचारियां अपना मायके का सब कुछ छोड़ कर हमारे आसरे आती हैं और हम उन्हें अपनाने में पीछे हटते हैं.’’

‘‘ये नादानियां तुम्हीं ने सब से ज्यादा की हैं,’’ पापा ने कहा तो अम्मां ने शर्म से सिर झुका लिया.

दुनिया अगर मिल जाए तो क्या: भाग-1

क्लासरूम में जैसे ही चैताली आई, ओनीर ने मुंह बना कर अपने साथी धवन को इशारा किया, आ गई. चैताली रोज से अलग कुछ अच्छे मूड में थी. बाकी स्टूडैंट्स ने चैताली को विश किया. ये सब मुंबई के इस कालेज में इतिहास में पीएचडी कर रहे स्टूडैंट्स थे. ओनीर ने यों ही एक नजर सहर पर भी डाली, मन में सोचा, हद है यह लड़की. इतना सुंदर कौन होता है, काश.

चैताली ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, अब आप को बेसब्री से इंतजार होगा कि कब आप के नाम के आगे डाक्टर लगे. है न?’’ सब स्टूडैंट्स ने हंसते हुए ‘हां’ में गरदन हिला दी.

चैताली की आदत थी, वह एकदम से किसी मशीनी तरीके से लैक्चर की शुरुआत नहीं करती थी, पहले कुछ सामयिक मुद्दों पर थोड़ी बात करती थी, फिर काम की बातों पर आती थी. आज भी उस ने पूछ लिया, ‘‘पेपर पढ़ा आप लोगों ने या वह वीडियो देखा जिस में दलित मांबेटी को जिंदा जला दिया गया? पता नहीं, देश में यह हो क्या रहा है.

युवान सोशल मीडिया की सारी खबरों पर बात कर सकता था. उस के पास अथाह नौलेज थी. वैसे तो ये सारे स्टूडैंट्स इस समय शिक्षा के क्षेत्र में सब से ऊंची डिग्री लेने जा रहे थे. सभी खूब ज्ञानी थे. इतिहास यों भी पिछली घटनाओं, उन के परिणामों और आधुनिक समाज पर प्रभाव का अध्ययन है. युवान ने कहा, ‘‘मैम, हां, देखा, दुख होता है.’’

‘‘आप लोगों को भी लगता है कि पिछले कुछ समय में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं?’’

ओनीर के संस्कार और परवरिश ने उसे हिंदू राष्ट्र का अंधसमर्थक बना दिया था. वह खड़ा हो गया. उसे जब भी गुस्सा आता, बैठ कर आराम से बात करना उस के हाथ में न रहता, यह अब तक सब जान गए थे. चैताली भी अनुभवी थी, समझ गई कि बात अब कहां जाएगी. ओनीर ने कहा, ‘‘क्यों मैम, इस से पहले देश में कभी किसी के साथ अन्याय हुआ ही नहीं था?’’

‘‘मैं वर्तमान की बात कर रही हूं.’’

‘‘मैं नहीं मानता.’’

‘‘तुम्हारे मानने, न मानने से कुछ बदलने वाला नहीं है. इतिहास के स्टूडैंट हो, तर्क और तथ्य के साथ बात किया करो. कल किसी कालेज में प्रोफैसर बनोगे, स्टूडैंट्स को सही पाठ पढ़ाना तुम्हारा फर्ज होगा, व्हाट्सऐप वाला ज्ञान उन के दिमाग से निकालना होगा.’’

ओनीर हमेशा उन की व्हाट्सऐप वाली बात पर बहुत चिढ़ता था, अब भी चिढ़ गया.

‘‘मैं प्रोफैसर नहीं बनना चाहता. मैं इतिहासकार या जर्नलिस्ट बनूंगा. इतिहास के वो पन्ने ढूंढ़ढूंढ़ कर सब के सामने रखूंगा कि लोग जानें कि मुगलों ने हिंदुओं पर कितने अन्याय किए हैं, एक राजनीतिक पार्टी जौइन करूंगा जो हिंदू राष्ट्र की समर्थक है. लोगों को दलितों पर हुए अन्याय दिखते हैं, जो इतिहास में हमारे साथ हुआ, उस की बात कोई नहीं करता. दलित लोग अपना तमाशा खुद ही ज्यादा बनाते रहते हैं. उन के दिलदिमाग में ही हीनभावना भरी रहती है.’’

‘‘तुम्हारे जैसे स्टूडैंट्स मेरी क्लास में हैं, दुख होता है. इतना पढ़लिख कर भी…

‘‘तो आप भी तो इतना पढ़लिख कर सिर्फ आज की न्यूज में किसी दलित की ही न्यूज लाईं, मैम. आप को भी तो अपनी जाति से सहानुभूति रहती है, मैं क्यों नहीं अपनी जाति पर गर्व कर सकता?’’

ओनीर चैताली के साथ अशिष्टता कर रहा था, सब को दिख रहा था. पर कोई कुछ बोला नहीं क्योंकि ओनीर सब पर एक अकड़ के साथ हावी रहता था पर जब सहर उठ कर खड़ी हुई, ओनीर के लिए फिर बस वहां हर तरफ सहर ही थी. वह सबकुछ भूल गया, अपलक सहर को देखने लगा. सहर उदार विचारों की लड़की थी, सब उसे पसंद करते. उस ने आहिस्ता से ओनीर को जैसे सोते से जगाया, ‘‘ओनीर, मैम से इस तरह आप का बात करना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है. वे हमारी प्रोफैसर हैं, उन की रिस्पैक्ट करना हमारा फर्ज है.’’

ओनीर फिर चिढ़ा, ‘‘मैं गलत बात को गलत कह रहा हूं. मैम से मेरी कोई पर्सनल प्रौब्लम थोड़े ही है.’’

‘‘आप को पता है कि आप मैम से गलत तरह से बात कर रहे थे, इस तरह की जातिगत बहस हमारी क्लासरूम तक न ही पहुंचे तो अच्छा रहेगा. मैम, अब आप बताएं कि अगले प्रोजैक्ट के लिए क्या करना है, काफी टाइम वेस्ट हो गया है.’’

ओनीर ने सहर को देखा, वाइट कुरते, जीन्स में पतली, लंबी सी सुंदर सहर, हमेशा की तरह उस के दिल में उतर गई, फिर सोचा, काश…

सहर को बहुत सारे शेर, गजलें, गीत, याद रहते थे. वह बहुत अच्छा गाती भी थी. जब भी कोई शेर कहती, उस की जादुई आवाज में सामने वाले जैसे खुद को भूल जाते. वह अपनी इस शायरी के लिए पूरे कालेज में मशहूर थी. कोई भी फंक्शन होता, कुछ न कुछ जरूर गाती. इस समय भी उस ने चैताली को देख कर कहा, ‘‘मैम, यह आप के लिए, ‘‘जहर मीठा हो तो पीने में मजा आता है, बात सच कहिए मगर यूं कि हकीकत न लगे.’’

सब हंस पड़े. पढ़ाई शुरू हुई. उस के बाद सहर के चेहरे से ओनीर नजरें हटा न पाया.

चैताली ने आज क्लास को फिर गंभीर मुद्रा में ही नोट्स दिए. थोड़ी देर बाद सब अपनेअपने दोस्तों के साथ कौफी हाउस की तरफ चल दिए. वहां का स्टाफ सब को पहचानता ही था, सहर अपनी फ्रैंड्स नितारा और मिराया के साथ नीबू पानी का और्डर दे कर बैठ गई. बराबर में ही लड़के अपना और्डर दे कर बैठ गए. नितारा ने ओनीर को छेड़ दिया, ‘‘तुम आज कुछ कोल्डड्रिंक ले लो, दिमाग बहुत गरम है तुम्हारा.’’

रसोई: सुधीर ने विभा के सामने कौन-सी शर्त रख दी

‘‘विभा  चाय ले आओ बढि़या सी,’’ घर के अंदर घुसते ही सुधीर ने पत्नी को आवाज लगातार कहा और खुद पिता के निकट बैठ गया.

‘‘पापा, देखो 4 कमरे निकल आए हैं

और अलग स्पेस भी,’’ सुधीर ने उत्सुकता से पिता के सामने नक्शा बिछा कर कहा.

‘‘बढि़या, अच्छा यह बता कि ड्रांइगरूम का साइज क्या है? छोटा नहीं होना चाहिए. दिनभर वहीं बैठना होता है मुझे,’’ पिता ने नक्शे को देखते हुए कहा.

‘‘अरे पापा, यह देखो पूरे 15 बाई 15 का निकल रहा है. ध्यान से देखो न. 2 बैडरूम

14 बाई 12 के और एक 12 बाई 12 का,’’

सुधीर की आवाज में अलग खनक थी.

‘‘बस सब बढि़या हो गया. बस अब काम शुरू करवा दे प्लाट पर. इस दड़बे से निकलें बाहर,’’ पिता ने कहा.

‘‘रसोई का क्या साइज है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘अरे यार तुम चाय रखो पहले. बहुत थक गया हूं,’’ सुधीर ने कहा.

सुधीर और ससुर को चाय पकड़ा विभा फिर नक्शे को देखने लगी.

‘‘8 बाई 8 की रसोई तो बहुत छोटी बनेगी,’’ विभा बोली.

‘‘आठ बाई 8 की रसोई छोटी नहीं होती और वैसे भी तुम्हें कौन सा रसोई में खाट बिछानी है, खाना ही तो बनाना है,’’ चाय का घूंट भरते हुए सुधीर बोला.

‘‘मेरा तो पूरा दिन वहीं बीतता है बस खाट ही नहीं बिछाती.

गरमी में कितनी घुटन हो जाती है तुम क्या जानो,’’ विभा के स्वर में उदासी थी.

‘‘अरे यार, मम्मी ने पूरी जिंदगी इस 6 बाई 6 की रसोई में बीता दी. उन्होंने तो कभी शिकायत नहीं की छोटी रसोई की,’’ सुधीर चिढ़ते हुए बोला.

‘‘कभी खड़े हो कर देखना जून की गरमी में. खुद पता चल जाएगा मैं शिकायत कर रही हूं या परेशानी बता रही हूं,’’ विभा बोली.

‘‘यार नौटंकी न करो. काम में विघ्न मत डालो. अब नक्शा बन गया है,’’ सुधीर झल्लाते हुए बोला.

‘‘तो ठीक करवा ले नक्शा. शिकायत नहीं की तो क्या मुझे दिक्कत नहीं थी? खूब परेशानी होती थी इस पिंजरे सी रसोई में खाना बनाने में.

पूरी जिंदगी सोचती रही कि अगर नया घर बना तो रसोई खूब खुली बनाऊंगी,’’ अब तक चुप बैठी सुधीर की मां बोल पड़ी.

‘‘सच में मां, मैं अपने बैडरूम से ज्यादा रसोई को खुला चाहती हूं ताकि 4 मेहमानों के आने पर खाना बनाने में दिक्कत न हो,’’ सास की बात से बल ले विभा बोली.

‘‘बिलकुल सही है. औरत की पूरी जिंदगी रसोई के धुंए में स्वाहा हो जाती है लेकिन किसी को इस का एहसास नहीं होता. सुधीर तू रसोई का साइज 2 फुट बढ़ा और देख रसोई में हवा और रोशनी बराबर हो,’’ मां ने आदेश दिया.

‘‘फिर तो ड्राइंगरूम छोटा करना होगा. पापा से पूछ लो पहले मां,’’ सुधीर ने पिता की ओर देख कर कहा.

‘‘तेरे पापा को बनाना पड़ता है क्या खाना?’’ मां ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘बेटा सुधीर, रोटियां चाहिए तो जो ये सासबहू कहें मान ले भई,’’ पिता ने पत्नी की ओर देख बेचारा बन कर कहा.

‘‘नहीं पापा, रहने दीजिए. यदि आप दोनों की सहमति नहीं है तो मैं कुछ नहीं कहूंगी,’’ विभा ने कहा.

‘‘अरे बेटा, मेरी सहमति तो सब की खुशी में है और सब की खुशी तो घर की लक्ष्मी से जुड़ी है. वह दुखी तो कैसी सहमति और फिर हम दोनों को यह बात समझनी चाहिए थी कि कैसे गरमी में एक औरत घर का पेट भरने के लिए गरमी में बिना शिकायत जलती रहती है.’’

ससुरजी की बात सुन विभा का चेहरा खिल उठा. उस ने सुधीर की ओर देखा.

‘‘ठीक है भई. बहुमत की जयजयकार है. कल ही रसोई के साइज और वैंटिलेशन को ले कर बात करता हूं. लेकिन एक शर्त पर,’’ सुधीर ने कहा.

‘‘कौन सी शर्त?’’ मां ने पूछा.

‘‘मुझे समोसे खाने हैं वह भी मां के हाथों के,’’ सुधीर चहकते हुए बोला.

‘‘तू नहीं सुधरेगा. अब भी मां को गरमी में मारेगा. बीवी को बोल अपनी,’’ मां ने नकली गुस्सा दिखाते हुए कहा.

‘‘नहीं मां, आप की बहू को कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि जान गया हूं कि बहुमत उसी के पास है,’’ सुधीर ने विभा की ओर दोनों हाथ जोड़ कर कहा.

सुधीर की इस हरकत पर तीनों के चेहरे पर हंसी खिल गई जैसे वसंत की धूप आंगन में पसर गई.

मुलाकात: क्या आरती को मिला मदन का प्यार

आरती ने जब कार से उतरने के लिए पैर बाहर निकाला तो अचानक पूरे बदन में सिहरन सी हुई. उसे लगा कि वापस चली जाए और दावत को टाल दे, मगर फिर उस ने दोबारा कुछ सोचा और कार लौक कर के  फटाफट आयोजनस्थल की तरफ चल दी.

आरती को उस की एक परिचिता ने इस आयोजन का कार्ड दिया था. मगर अभीअभी उस की परिचिता ने फोन कर उसे बताया कि उसे अचानक शहर से बाहर जाना पड़ रहा है. मगर आरती तब तक तैयार हो कर घर से निकल चुकी थी. आयोजनस्थल में काफी रौनक थी. गेट पर

2 युवतियों ने स्वागत किया और आरती को गुलाब का एक ताजा फूल दिया. गेट से समारोहस्थल के हौल में भीतर आते ही 2 सेवक कुरसी ले कर उस के समीप आ गए. एक सेवक ट्रे में शीतल पेय ले आया और दूसरा सनैक्स.

आरती को यह आवभगत बेहद अचछी लगी. अब उस ने चारों तरफ नजर घुमा कर गौर से छानबीन की. कोई भी जानपहचान वाला नहीं दिखा यानी आरती को पूरा समय यहां बिलकुल अकेले ही बैठना था.

यह दावत किसी रियल स्टेट वालों ने अपनी फर्म की प्रमोशन के लिए रखी थी. बड़ीबड़ी स्क्रीन्स पर उन का प्रचार स्वत: हो रहा था. अब 2 गायक मंच पर आए और गीतसंगीत आरंभ हो गया. इसी गहमागहमी और मधुर संगीत के आनंद में सिर हिला कर सहज ?ामती हुई आरती की नजर अचानक किसी से टकराई. पहले कभी इस नैनमटक्का की आदत नहीं थी  सो आरती एकदम सकपका सी गई. वह घबरा कर अपनी जगह से उठी और फट से  बाहर आ गई. उस ने कार स्टार्ट की और घर चल दी. वैसे भी उसे वहां 1 घंटा हो ही गया था.

इतना काफी था मगर वह अजनबी चेहरा और उस की नशीली आंखें… 1-2 दिन तक तो आरती उस अजनबी को भुला न सकी. हमेशा सोचती रहती कि एक अनजान सी जगह थी. सारे अजनबी थे. किसी से जानपहचान नहीं. मगर वह एक अपरिचित उसे एक नजर मिलते ही अपना सा लगा और वह तो भाग कर ही चली आई. उफ… पानी पीते यही सब सोचती आरती के गले में पानी की कुछ बूंदें अटक गईं. वह एक बार फिर घबरा गई.

3-4 दिन बाद आरती सुपरबाजार से राशन लेने गई थी तो किसी जानेपहचाने चेहरे को देख कर एकदम ठिठक गई, ‘उफ, यह तो वही है जो उस आयोजन में दिखाई दिया था,’ आरती मन ही मन में सोचने लगी.

सब्जी और राशन ले कर वह अपनी कार की तरफ जा ही रही थी कि किसी ने पीछे से टोका, ‘‘अजी सुनिए तो.’’

‘‘उफ, यह तो सिरफिरा है. औरतों का

पीछा करने वाला सनकी है,’’ आरती को मन ही मन झंझलाहट सी होने लगी. न जाने कैसेकैसे लोग हैं.

वह जवाब दिए बगैर चलती रही कि दोबारा आवाज आई, ‘‘अजी बगैर चाबी के कार

कैसे चलेगी… यह लीजिए.’’

‘‘आरती यह सुन कर सकपका गई. चाबी सचमुच उस के पास नहीं थी. अब उसे सहीसही याद आया कि वह सब्जी लेते समय कार की चाबी भूल आई थी.

‘‘ये लीजिए,’’ अब वे महाशय सामने आ गए थे.

‘‘शुक्रिया,’’ आरती ने लजा कर कहा.

‘‘मेरा नाम मदन है. और आप उस दिन भी मिली थीं, उस आयोजन में है न?’’

‘‘जीजी हां मैं वहां आई थी,’’ अब आरती ने सहज हो कर आराम से बिना घबराए और दोस्ताना अंदाज में जवाब दिया तो मदन की भी हिम्मत बढ़ी. बोला, ‘‘अगर ऐतराज न हो तो क्या हम कौफी पी सकते हैं.’’

‘‘अच्छा, ठीक है. मैं आती हूं,’’ कह कर आरती ने अपने हाथों में लटक रहे सब्जी के बैग व अन्य सामान को कार में रखा. फिर बोली, ‘‘चलें?’’

‘‘जी चलिए.’’

इस पर आरती हौले से हंस दी.

‘‘तो आप जमीन आदि खरीदने में रुचि रखती हैं,’’ मदन ने कौफी का सिप लेते हुए कहा.

‘‘जी नहीं बिलकुल नहीं. बस ऐसे ही.’’

‘‘ऐसे ही का मतलब?’’

‘‘मतलब मेरी एक परिचिता ने मुझे मनुहार कर के उस आयोजन में आने को कहा था.’’

‘‘ओह, क्या बात है. आप मनुहार तो मान ही लेती हैं.’’

‘‘अ,.. जी… जी,’’ आरती संकोच से बोली.

मदन ने मजाक किया, ‘‘बिलकुल मैं ने अनुरोध किया तो कौफी पीने भी आ गईं. है न.’’

‘‘अरे, मदनजी,’’ कह कर आरती इस बात पर फिर हंस दी. दोनों बातबात पर हंसते रहे.

उस दिन की यह मुलाकात बस इतनी सी

ही रही थी. मगर अब मदन और आरती 1-2 बार आगे भी  इसी तरह अनायास मिल गए. मगर दोनों ही बडी हैरत में थे कि न तो एकदूजे से

फोन नंबर लिया और न कोई पता मांगा. लेकिन यह मुलाकात है कि बारबार खुदबखुद हो ही

जाती है.

एक दिन ऐसी ही एक मुलाकात में मदन ने प्यार से कहा, ‘‘आरती, एक बात कहूं?’’

‘‘हां, कहो,’’ आरती ने उसे हौसला दिया, ‘‘बिलकुल कहो मदन,’’ आरती अब उस से जरा सी भी औपचारिक नहीं रही थी.

‘‘आरती बात यह है कि तुम भी अभी अविवाहित हो न?’’

‘‘हां तो?’’

‘‘आरती, मैं भी एक साथी ही खोज रहा हूं. तुम से साफसाफ पूछना चाहता हूं.’’

‘‘अरे, मदन इतनी जल्दी. अभी तो तुम मेरे विषय में कुछ भी नहीं जानते. तुम इतनी जल्दी यह फैसला कैसे ले रहे हो?’’ आरती को यह प्रस्ताव अच्छा भी लगा और अजीब भी.

‘‘बात यह है आरती कि मैं तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं्. तुम्हारे अतीत को नहीं मैं तुम से बहुत प्रभावित हूं आरती,’’ मदन ने रोमांटिक हो कर कहा तो आरती का दिल भी धड़कने लगा. वह बोली,’’ मगर मदन मेरा यह जीवन तो कांटों की सेज है.’’

‘‘ओह चलो, तो बताओ अपने बारे में.’’

मदन ने सुनने की ख्वाहिश की तो आरती ने बताया, ‘‘मदन मेरे माता पिता अब 62 साल के हैं,’’ और मेरा एक भाई है वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में अफसर है.’’

‘‘ओह, ग्रेट,’’ मदन ने बात काटी.

आरती बोली, ‘‘मदन पूरी बात तो सुनो. वे अफसर थे पर अब वे जेल में हैं.’’

‘‘अरे, जेल में? पर कैसे?’’

‘‘यह लंबी कहानी है मदन. मेरे भाई के

पास मानव संसाधन मंत्रालय का बेहद गोपनीय विभाग था. 2 साल पहले जब पिता एक निजी कंपनी से रिटायर हुए तो उन के पास रोजगार

नहीं रहा. तब मैं खुद बीएड कर रही थी तो वे भाई से बोले कि कुछ मदद चाहिए बेटा इलाज कराना है. मगर भाई ने साफ मना कर दिया. उस के बाद मैं ने भी 2-3 बार फोन किया तो भाई मु?ा से बहस करने लगे कि मैं ने तो घर में छोटी होने का बस लाभ ही लाभ लिया है. मैं तो बैठ कर ऐश कर रही हूं. फिर मैं ने समझाया कि भैया अब घर में कोई आमदनी नहीं है. पापा को कोई पैंशन नही मिलेगी तो वे चीखने लगे कि पिता को अगर पैंशन नहीं मिलती तो पहले की बचत तो होगी? वे तो बस तेरे लिए ही रखी है आदिआदि.

‘‘बस इन ओछी बातों से आहत होने के बाद मैं ने भाई से संबंध काट लिए और इस घटना के कुछ हफ्ते बाद अखबार में पढ़ा कि एक सेवा संबंधी जरूरी भरती में बड़ा घोटाला हुआ है. उस में भाई के खिलाफ काफी सुबूत मिले और भाई जेल में डाल दिए गए हैं. भाभी ने भी कुछ दिन पहले ही उन से तलाक ले लिया. अब 32 साल के भाई अकेले हो गए हैं,’’ कह कर आरती खामोश हो गई.

‘‘ओह, यह तो दुख की बात है,’’ मदन ने गंभीर हो कर कहा.

आरती बोली, ‘‘भाई मुझ से 7 साल बडे़ हैं. पापा ने उन की पढ़ाई के लिए

मकान तक बेचा. हम लोग किराए के मकान में आ गए. मैं हमेशा सोफे पर ही सोती ताकि भैया जो अपने कमरे में सामान फैला कर पढ़ते थे परेशान न हों. मगर भैया ने सफलता मिलते ही अपनी बचपन की साथी से विवाह कर लिया और इस की सूचना हमें फोन पर दी. इस घटना से पापा पर क्या बीती थी. यह तो वही जानते हैं. मगर भाभी ने तो असुरक्षा में गलत कदम उठाया.’’

‘‘आरती यह क्या कह रही हो? गलत

कदम कैसे?’’

‘‘मदन मेरे भाभी और भैया बचपन के साथी रहे… भाभी के घर मे भी बहुत गरीबी थी. वे अपने छोटे भाईबहन आदि को विवाह के बाद भैया के बंगले में ले आई और हम लोगों को भैया से एकदम अलग कर दिया. मगर था तो भाई ही न, इसलिए एक बार तो मैं उन के विवाह के एक साल बाद राखी पर हिम्मत कर के भैया से मिलने गई भी पर मत पूछो कि क्या हुआ.’’

‘‘बताओ न आरती,’’ मदन जानना चाहता था.

‘‘मदन, मैं तो अपनी अच्छी भावना से ही गई थी. हम तो अपना गुजारा जैसेतैसे कर ही रहे थे और मातापिता को इसी बात की खुशी थी कि बेटा इतने बडे़ पद में आ गया. बाद में उन की यह नाराजगी भी खत्म हो गई कि भैया ने गुपचुप विवाह किया. मदन फिर यह हाल हो गया था कि समय का खेल मान कर हम तीनों लोग अपने हाल में जी रहे थे.’’

‘‘फिर क्या हुआ आरती?’’ मदन उत्सुक था.

‘‘मदन, जब मैं राखी ले कर गई उसी समय भाभी तथा उन के पीहर वाले सब के सब सजधज कर एक बहुत महंगी गाड़ी में कहीं जा रहे थे. बताया भी नहीं कि कहां जा रहे है. बस, मु?ो वहीं बैठा कर सब तुरंत चले गए. भैया तो शहर से बाहर थे…

‘‘भाभी ने तो मुझे अंधेरे में रखा, मैं बाहर बैठी 2 घंटे इतजार करतीकरती

लौट गई तो शायद उसी समय मेरे पीछे भैया भी आए होंगे और भाभी ने भाई को उलटा मेरे ही लिए न जाने कैसी गलत बातें कह दी और अगले दिन भाई ने मुझे फोन पर ही खूब लताड़ा. खैर, मैं तो उस पल ही वह रहासहा रिश्ता भी खत्म

कर के भाई को भूल कर बस अपने पढ़नेलिखने में रम गई.’’

‘‘अच्छा,’’ मदन ने एक बार फिर गहरी सांस ली, ‘‘आरती, तो अब तुम नौकरी कर रही हो न?’’ उस ने पूछा.

आरती बोली, ‘‘मदन अभी तो एक निजी स्कूल में हूं. आगे जो भी हो पर मातापिता को अकेले इस तरह छोड़ कर तो कदापि नहीं जा सकती.’’

‘‘आरती एक बात मेरी भी सुनो. मेरी कहानी भी ऐसी ही है.’’

‘‘अच्छा मदन बताओ न,’’ आरती उस का चेहरा ताकने लगी.

‘‘तो सुनो आरती, जब मैं ने होश संभाला तो रोज सुबहशाम बस यही पाया कि मेरी माताजी मेरे युवा चाचा की गोद में जबतब बैठी रहती. दोनों खिलखिलाते रहते और रहे मेरे पिता तो वे एक नंबर के जुआरी और शराबी थे. वे काम पर जाते थे पर सारा पैसा ऐसे ही उड़ा दिया करते थे. बड़ा होने लगा तो मैं अपनी माता और चाचा के इस अवैध प्रेम से परेशान नहीं था.

‘‘आरती मैं यह सच हौलेहौले सम?ा रहा था कि माता को असली प्यार चाचा ने दिया और रहे चाचा तो वे विवाह तक नहीं कर रहे थे यानी वे भी मेरी माता को बेहद चाहते थे. आरती अपने मातापिता की मैं अकेली संतान हूं. जब मैं 10वीं कक्षा में पढ़ता था तो मेरे पिता ने बीमार हो कर इस संसार से विदा ले ली और मेरी माताजी

1 महीने बाद ही मेरे चाचा के साथ भाग गई.’’

ओह, आरती का चेहरा सफेद पड़ गया.

‘‘दरअसल, आरती घर किराए का था. आसपास के

लोग उन पर आए दिन उंगली उठाने लगे थे. मुझे भी ले जा रहे थे. मैं भाग आया वापस.

मैं उन के साथ जानबूझ कर

नहीं गया.’’

‘‘फिर तुम कैसे रहे मदन?’’ आरती ने भरे गले से पूछा.

‘‘मेरा तो कोई रहा ही नहीं था आरती. मैं ने यही पर निर्धन छात्रावास में रह कर आगे की पढ़ाई की. फिर कालेज के दिनों में मोमबत्तियां बना कर बेचीं. आगे फिर बैंक से कर्ज लिया. मैं दिनरात काम करता रहा और आज हाल यह है कि मेरा मोमबत्तियां बनाने का कारखाना है. आरती मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं.’’

आज यह कहानी सुन कर मैं तुम्हें पहले से भी अधिक चाहने लगी हूं,’’ आरती ने उस का हाथ पकड़ कर कहा.

मदन बोला, ‘‘आरती, मैं हमेशा तुम्हारा इंतजार करूंगा. तुम्हें पहली नजर में देख कर ही मेरा दिल धड़क उठा था. आरती मैं सचमुच तुम से दिल लगा बैठा हूं.’’

यह सुन कर आरती की आंखों से आंसू

बहने लगे. बोली, ‘‘चलो मदन, आज ही और अभी मैं तुम्हें मातापिता से मिलवाने ले चलती हूं.’’

आरती के मातापिता को मालूम था कि आरती की पसंद खराब हो ही नहीं सकती है. मदन उन्हें बेहद अच्छा लगा.

‘‘मैं आप का कोई खोया हुआ बेटा हूं यह मान लीजिए,’’ मदन ने कहा तो वे दोनों फफकफफक कर रोने लगे.

मदन ने उन के आंसू पोंछे और कहने लगा, ‘‘मेरा भी अपना कोई नहीं है और आप ने मु?ो अपना लिया. समय का यही न्याय है. हम 4 लोग एकसाथ रहेंगे. यह किराए का मकान खाली करवा कर मैं आप को कल ही लेने आ रहा हूं,’’ मदन ने उत्साह से कहा.

यह सुन कर आरती खुशी के मारे 7वें आसमान में थी. वह सोच रही थी कि अगर उस दिन कार में बैठ कर वापस लौट जाती तो उसे मदन जैसा जीवनसाथी नहीं मिलता.

यह कैसा प्रेम- भाग 5 : आलिया से क्यों प्यार करता था वह

धीरेधीरे हर शामसुबह हम एकदूसरे से बात करने लगे थे.  या तो वह मुझे फोन कर लेती या मैं. शायद, हम एकदूसरे के आदी होने लगे थे. मुरझाई हुई बेल बारिश के आने पर जैसे हरे रंग से लिपट कर इठलाने लगती है वैसे ही आलिया भी लगने लगी थी. सूरज की पहली किरण से ले कर चंद्रमा की चांदनी तक का पूरा ब्योरा वह मेरे सामने जब तक न रख लेती उसे चैन ही न आता. आज मेरा बहुत मन किया कि संदेश से बात करूं और उसे आलिया के बारे में सब बताऊं, मगर मेरी यह चाहत गुनाह का रूप ले सकती थी. सो, खुद को समझा लिया. हां, आलिया से मैं ने एक बार संदेश का जिक्र जरूर किया था. तब वह अल्हड़ लड़की उतावली हो कर नाराजगी जताने लगी थी- ‘क्या जरूरत थी आप को दी इतना महान बनने की? आप ने अपने प्यार का गला अपने ही हाथों क्यों घोट दिया? क्या मिला आप को बदले में?’

‘संदेश आज भी मुझ से प्यार करता है. वह मुझे कभी नहीं भूल सकता. आलिया, बस, यही मेरे लिए काफी है.’

‘जाने दो, दी. मैं आप से कभी जीतना नहीं चाहूंगी, क्योंकि आप तो सुनोगी नहीं. आप तो त्याग की देवी हो,’ आलिया ने नाराजगी में शब्दों को थोड़ा सा गरम किया था.

माहौल को हलका करने के लिए हम दोनों ही फूहड़ता से ठहाका लगा दिए थे. हंसने के लिए मैं ने ही उसे बाध्य किया था, वरना वह तो जाने कब तक मुंह फुलाए रहती.

सूरत बगैर देखे ही भाव पढ़े जाते रहे थे. वह तो जादूगरनी थी यह तक बता देती कि मैं क्या सोच रही हूं. इस कदर परवा करती कि मुझे उस से डरना पड़ता था. विचारों को कैद करने वाला जादूगर कोई ऐसावैसा नहीं होता, कौन जाने रूठ कर मैं उलाहना देने लगूं और वह पढ़ ले. रोज वही गाना जब तक न सुना लेती, फोन कट न करती- ‘दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा, हाय रे मेरे यारा…’

उस रोज उस ने बताया, ‘मैं आप से मिलने जबलपुर आ रही हूं. कल सुबह की ट्रेन से निकलूंगी, दी. मेरे लिए कुछ अच्छा सा पका कर रखना.’  मैं ने भी मजाक में कह दिया था, ‘न आलिया, मैं तो न बनाऊंगी कुछ भी, बस बैठ कर खाऊंगी तेरे हाथ का.’ वह भी पगली ठहरी, जिद पर अड़ गई कि- ‘न रे, भूखी ही मर जाऊंगी पर खाऊंगी तो आप से ही बनवा कर.’

हम दोनों सांझ ढले तक ठिठोली करते रहे. न वह हारी न मैं. वह मुझ पर अपना अधिकार जताती रही और मैं झूठमूठ का मुकरती रही. वह आज बेतहाशा हंस रही थी. बहुत ही खुश थी. उस ने अपने जीवन का हर पन्ना मेरे सामने खोल दिया था और कुछ हद तक मैं ने भी. इस के बाद मेरा मन उस से मिलने के लिए हवाओं सा उड़ने लगा.

बेसब्री में एक बार फिर वही गलती दोहरा दी. लिखे हुए कागजों को बगैर दबाए उठ बैठी. पंखा की हवा तो जैसे इसी ताक में थी. पूरे कमरे में कागज बिखर गए. समेटते हुए आलिया का चेहरा सामने आ गया. कैसे वह बारिश में संभाल कर लाई थी? अब इन्हें कौन संभालेगा? फिर मन फुसफुसाया- ‘पड़ा रहने दे इन्हें यों ही, शाम तक तो आई रही है न तेरी चहेती, वही सहेजेगी उस बारिश वाली रात की तरह. यह सोच कर मैं ढपली बजाती हुई डौल की तरह मुसकरा उठी, जो सामने ही टेबल पर खड़ीखड़ी हंस रही थी.

आने दो इस बार आलिया को, उस के दिल का एकएक कोना तलाशना है मुझे. दबाए हुए जख्मों को सुखा कर जीवंत अंकुरों का नवसंचार करना है ताकि वह जीवन से साकार रूप को ही यथार्थ मान कर सुख में डूबी जिंदगी को जिए. वह धारदार बंधनों के धागे सकारात्मक सोच से तोड़ सके. नवीन से जुड़े कसैले अनुभव वह उखाड़ फेंक दे और एक पाठ की तरह उसे याद रखे, बस. मुझ में उस की आसक्ति, दरअसल, विपरीतलिंगी कड़वाहट का परिणाम थी जो वह झेल चुकी थी. इसीलिए, उस ने मुझ में अपना प्रेम ढूंढ़ा और विश्वास की आंच में पकने दिया.

सुबह से शाम होने को आई. आलिया का फोन नहीं उठ रहा था. फिर याद आया, घर में तो कोई होगा ही नहीं, फिर भला फोन कौन उठाएगा. खुद पर झुंझला कर गुस्से से बड़बड़ाने लगी थी- इस लड़की को जरा भी परवा नहीं. अब तो ट्रेन का टाइम निकल चुका है. ट्रेन लेट हो सकती है या फिर स्टेशन से घर तक आने में ट्रैफिक मिला होगा? बस, आती ही होगी. यों अधीरता अच्छी नही. अरे, क्यों न होऊं मैं अधीर, उस की और मेरी दोस्ती कोई आम दोस्ती नहीं है. पाताल तक पहुंची होंगी हमारे रिश्ते की जड़ें. दुनिया का बिलकुल अनूठा रिश्ता था यह, जिस को कलेजा सहेजे हुए था, मैं नहीं. दिल तो उलाहना दे रहा था और दिमाग था कि चिंता में घुला जा रहा था.

पूरी रात भी बीत गई, मगर आलिया नहीं आई. सारी रात फोन की टेबल पर बैठे कटी थी और आंखें मेनगेट पर लगी पथराई हुई थीं. मैं ने स्टेशन पर फोन किया. काफी समय बाद फोन उठा, तो पता लगा कि ट्रेन तो कब की आ चुकी है. दिल धक्क से उछल पड़ा- ‘तो आलिया कहां गई?’ उस का लैंडलाइन भी ट्राई करकर थक गई थी मैं. अब मेरे पास रोने के अलावा चारा नहीं था. स्टेशन जा कर वेटिंगरूम चैक किया.  हर बैंच पर ढूंढ़ा. मगर वह कहीं नहीं थी. न जाने कितनी बार जान निकलने को हुई, मगर फिर भी एक उम्मीद थी जिस ने मुझे बचा लिया कि वह आएगी जरूर.

आज पूरे 5 बरस होने को आए, मगर आलिया नहीं आई. और न ही उस का फोन आया. मुझे उस का कुछ पता नहीं कि वह कहां है? किस हाल में है. है भी या नहीं? वह धोखेबाज निकली या कुदरत ने कोई नई चाल चली थी हमारे साथ, मुझे नहीं पता. इंतजार करतेकरते जिंदगी ने अपनी रफ्तार पकड़ ली है. उम्मीद भी लगभग टूट चुकी है. मगर फिर भी वह मुझे हर जगह नजर आती है, किताबों में, उस के लौटाए कागजों में, बारिश की दलदली मिटटी में, हवाओं में, लकड़ी की छेद वाली टेबल में, काले वाले लैंडलाइन फोन में, दिल की हूक में, हाथ की मुट्ठी में, नीचे गिरे कलम में, उस के हाथ से लिखे खतों में और उस गीत में जिसे मैं भजन की तरह रोज सुबहशाम सुनती हूं- दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा, हाय रे मेरे यारा…

लौटती बहारें: भाग 2- मीनू के मायके वालों में कैसे आया बदलाव

इतना घटिया सामान खरीदा. फिर रवि को कुछ खिलानापिलाना तो दूर उलटे औटो तक के पैसे ले लिए. मैं शर्म से गड़ी जा रही थी. कैसे बताती अपनी पसंद के बारे में. कभीकभी इंसान हालात के हाथों मजबूर सा हो जाता है.

अगले दिन रवि भैया ने मुझे सहारनपुर जाने वाली बस में बैठा दिया. अम्मां ने एक मिठाई का डब्बा दे कर अपना कर्त्तव्य निभा दिया.

शादी के बाद पहली बार अकेली मायके जा रही थी. दिल खुशी से धड़क रहा था.

पिछली बार तो पगफेरे के समय वे साथ थे. मम्मीपापा, भाईबहन से ज्यादा बातें करने का अवसर ही नहीं मिला, क्योंकि शेखर हर समय साथ रहते थे. अगले दिन वापस भी आ गए थे.

मन रोमांचित हो रहा था कि इस बार अपनी प्यारी सहेली चित्रा से भी मिलूंगी. रेनू और राजू मेरे बाद कितने अकेले हो गए होंगे. उन दोनों की चाहे पढ़ाई से संबंधित समस्या हो या कोई और, हल अपनी मीनू दीदी से ही पूछते थे. मम्मी का भी दाहिना हाथ मैं ही थी. पापा मुझे देख गर्व से फूले न समाते. यही सोचतेसोचते समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.

झटके से बस रूकी. मैं ने देखा सहारनपुर आ गया था. मैं पुलकित हो उठी. बस की खिड़की से झांका तो राजू तेज कदमों से बस की ओर आता दिखा. बस से उतरते ही राजू ने मेरा सूटकेस थाम लिया. उसे देख खुशी से मेरी आंखें भर आईं. 2 ही महीनों में राजू बहुत स्मार्ट हो गया था. नए स्टाइल में संवरे बाल, आंखों पर काला चश्मा लगा था.

घर पहुंचते ही ऐसे लगा मानो कोई खोई

हुई चीज अचानक मिल गई हो. मैं सब से टूट कर मिली. मम्मीपापा ने पीठ पर हाथ फेर कर दुलारा. मुझे लगा कि मैं इस प्यार के लिए कितना तरस गई थी. मेरा और ससुराल का हालचाल

पूछ मम्मी किचन में चली गईं. मैं पापा की सेहत और रेनू व राजू की पढ़ाई के बारे में पूछताछ करने लगी.

बड़े अच्छे माहौल में खाना खत्म हुआ. राजू और रेनू मेरी अटैची के आसपास घूमने लगे. बोले, ‘‘बताओ दीदी, दिल्ली से हमारे लिए क्या लाई हो?’’

मैं शर्म से गड़ी जा रही थी कि किस मुंह से उपहार दिखाऊं. मैं अनिच्छा से ही उठी और उन दोनों के पैकेट निकाल कर दे दिए. पैकेट खोलते ही रेनू और राजू के मुंह उतर गए. दोनों मेरी ओर देखने लगे.

रेनू बोली, ‘‘आप कमाल करती हैं दीदी… पूरी दिल्ली में यही घटिया चीजें आप को हमारे लिए मिलीं.’’

राजू भी बोल उठा, ‘‘दीदी, ऐसे चीप

कपड़े तो हमारी कामवाली बाई के बच्चे भी नहीं पहनते हैं.’’

शर्म और अपमान से मैं क्षुब्ध हो उठी. यह सही था. कपड़े उन के स्तर के नहीं थे, परंतु ऐसा व्यवहार तो मैं ने उन का पहली बार देखा था. दोनों पैकेटों को पलंग पर रख कमरे से बाहर निकल गए. मैं हैरानपरेशान उन्हें देखती रह गई.

जो भाईबहन मुझे इतना आदर और मान देते थे वही सस्ते से उपहारों के लिए इतना सुना गए. मन खिन्न हो उठा. बहुत थकी थी. वहीं पलंग पर लेट गई. न जाने कब आंख लग गई.

शाम को आंख खुली तो कानों में रेनू की आवाज सुनाई दी.

मैं ने बालकनी से नीचे देखा तो रेनू एक लड़के से बातें करती दिखाई दी. लड़का बाइक पर बैठा था. हावभाव और बातचीत से किसी निम्नवर्गीय परिवार का लग रहा था. अचानक उस ने बाइक स्टार्ट की और रेनू को फ्लाइंग किस देता हुआ तेज गति से चला गया.

यह सब देख मैं हैरान रह गई. अभी तो कालेज में रेनू का पहला वर्ष ही है. उस ने अपनी आयु के 18 वर्ष भी पूरे नहीं किए. अपरिपक्व है. अभी से यह किस रास्ते चल पड़ी? फिर मैं ने सोचा कि मौका देख कर बात करूंगी.

मम्मी कमरे में चाय ले कर आ गईं. मैं ने मम्मी का हाथ पकड़ कर, ‘‘मम्मी, आप यहीं बैठो,’’ कह कर मैं ने उन के लिए लाई साड़ी और पापा की शौल का पैकेट उन्हें पकड़ा दिया. मेरी आंखें शर्म से झुकी जा रही थीं.

उन्होंने साड़ी और शौल को उलटपुलट कर देखा, फिर बोलीं, ‘‘इस की क्या जरूरत थी. अभी तेरे पापा ने रिटायरमैंट के अवसर पर महंगी साडि़यां दिलवाई हैं,’’ और फिर पैकेट वहीं छोड़ किचन में चली गईं.

मैं शर्मिंदगी से उबर नहीं पा रही थी. मैं ने सारे तोहफे समेटे और अलमारी के कोने में

रख दिए.

बड़ा नौर्मल सा दिखने का अभिनय करते हुए मैं मम्मी के पास किचन में चली गई.

मुझे देखते ही मम्मी बोली, ‘‘अरे, तू कमरे में ही आराम कर यहां कहां चली आई. अब तो तू हमारी मेहमान है.’’

यह सुन कर मेरी आंखें भर आईं. मैं मुंह फेर कर बरतनों को उलटपलट कर रखने लगी. मुझे वे दिन याद आने लगे, जब मेरे किचन में जाने पर मम्मी आश्वस्त हो बाहर निकल जाती थीं. दो घड़ी आराम कर लेती थीं. कल तो मौसियां, चाची, बूआ सब मेहमान आ जाएंगे. फिर तो मम्मी को जरा सी भी फुरसत नहीं मिलेगी. बड़ा मन कर रहा था कि मां की गोद में सिर रख कर खूब रो लूं, मन हलका कर लूं पर मां तो लगातार काम करती जा रही थीं. बीचबीच में ससुराल के मेरे अनुभव भी पूछती जा रही थीं. मुझे जो भी सूझता जवाब देती जा रही थी.

मम्मी ने रसोई में पड़ा स्टूल मेरी तरफ खिसका दिया और बोलीं, ‘‘थक जाएगी, बैठ जा.’’

उन का यह मेहमानों वाला व्यवहार मेरे सीने में किसी कांटे की तरह चुभ रहा था.

अगले दिन बहुत चहलपहल रही. घर में खूब रौनक हो गई थी. सब की केंद्र बिंदु मैं थी. सभी ससुराल के अनुभव, पति, घर वालों के स्वभाव के बारे में पूछ रहे थे. मैं दिल में टीस छिपाए रटेरटाए उत्तर देती जा रही थी. कैसे बताती कि मैं पेड़ से टूटी शाखा और शाखा से

टूटे पत्ते जैसी जिंदगी गुजार रही हूं. अपनापन पाने की कई परीक्षाएं दे चुकी पर हर बार असफल होती रही.

पापा का सेवानिवृत्ति का आयोजन बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया. सभी लोगों

ने उन की ईमानदारी की खूब प्रशंसा की. मैं ने देखा पापा ने चेहरे पर कृतिम खुशी का जो मुखौटा लगा रखा था वह कई बार खिसक जाता तो चेहरे पर चिंता की रेखाएं दिखने लगतीं. मैं जानती थी कि ये चिंताएं रेनू और राजू को ले कर हैं, जो अभी कहीं सैटल नहीं हैं. उन की शिक्षा, विवाह, नौकरी सभी कुछ बाकी है. यह तो पापा की दूरदर्शिता थी कि समय पर यह मकान बनवा लिया था, जिस की छत्रछाया में उन का परिवार सुरक्षित था. अब तो फंड और पैंशन से गुजारा चलाना था.

अगले दिन पापा कैटरिंग वालों का हिसाब कर रहे थे. उधर मेहमानों की विदाई भी हो रही थी.

मेहमानों के जाते ही घर में सन्नाटा सा छा गया. सब थके हुए थे. दोपहर को थकान उतारने के लिए आराम करने लगे.

मैं ने इस आयोजन के दौरान एक बात और नोट की कि पूरे आयोजन में रेनू और राजू का सहयोग नगण्य था. रेनू काफी समय तो पार्लर में लगा आई बाकी समय मौसी, चाची और बूआ से गपशप करती रही. राजू भी मेहमानों के साथ मेहमान बना घूम रहा था. 1-2 बार तो मैं ने उसे बिलकुल पड़ोस वाली टीना, जो उस की ही हमउम्र थी, से इशारेबाजी करते भी देखा. देखने में ये बातें इस उम्र में नौर्मल होती है, परंतु इन्हें अपनी पढ़ाईलिखाई और जिम्मेदारी का पूरा ध्यान रखना चाहिए. उपहारों को ले कर किए इन दोनों के कटाक्ष एक बार फिर मेरी वेदना को बढ़ा गए. मन उचाट हो गया. मैं उठ कर अपने कमरे में चली गई.

रेनू और राजू घर पर नहीं थे. मम्मीपापा सोए हुए थे. मैं ने देखा पूरे कमरे की काया पलट हो चुकी थी. दीवारों पर आलिया भट्ट, वरुण धवन के पोस्टर लगे हुए थे.

फिर मैं ने अपनी अलमारी खोली. इस में मेरी बहुत सी यादें जुड़ी थी. अलमारी में रेनू के कपड़े और सामान रखा था. इधरउधर देखा, रेनू की अलमारी पर ताला लगा था. अचानक अलमारी के ऊपर रखी 2 गठरियां दिखाई दीं. उतार कर देखीं तो एक में मेरे कपड़े थे और एक में किताबें बंधी थीं. मैं उन्हें कहां रखूं, यह सोच ही रही थी कि रेनू के बाय कहने की आवाज आई.

बालकनी में जा कर देखा, रेनू उसी लड़के की बाइक से उतर कर

ऊपर आ रही थी. मुझे सामने पा कर चौंक गई. फिर नजरें बचा कर अंदर जाने लगी.

उसी समय राजू भी किसी से मोबाइल पर बातें करता ऊपर आ गया. मुझे देख मोबाइल छिपाते हुए अपने कमरे की ओर जाने लगा. मैं ने उसे आवाज दी तो वह अनसुना कर गया.

अब मेरा धैर्य भी जवाब देने लगा था.

फिर भी मैं ने यथासंभव खुद को सामान्य करते हुए बड़े प्यार से दोनों को पुकारा. रेनू तो अभी वहीं खड़ी थी. राजू मुंह फुलाए आकर खड़ा हो गया.

मैं ने बड़े प्यार से दोनों की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछा तो दोनों ने संक्षिप्त उत्तर दिए और जाने लगे.

मैं ने राजू से पूछा, ‘‘यह मोबाइल तुम ने नया खरीदा क्या?’’

‘‘पापा ने ले कर दिया?’’

राजू मुंह बना कर बोला ‘‘पापा क्या ले

कर देंगे, यह मुंबई वाली मौसी का बेटा रजत अपना पुराना मोबाइल दे गया. मैं ने अपनी सिम डलवा ली.’’

मैं ने कहा, ‘‘ऐसे एकदम किसी से कोई चीज नहीं लेते. कम से कम मुझ से ही एक बार पूछ लेते. पापा को तो तुम ने कहा ही नहीं होगा. वरना क्या वे मना कर देते.’’

यह सुन कर राजू ने बहुत अवज्ञा से मुंह बनाया. यह देख मुझे गुस्सा आया. मैं ने कहा, ‘‘देख रही हूं तुम दोनों 2 महीनों में ही बहुत बदल चुके हो,’’ कह मैं ने रेनू की ओर मुखातिब हो कर पूछा, ‘‘रेनू यह लड़का कौन है जिस की बाइक पर तुम आई थीं?’’

यह सुन कर रेनू गुस्से से फट पड़ी, ‘‘क्या हो गया दीदी… वह रोमी है. कालेज में मेरे साथ पढ़ता है… क्या हो गया अगर मुझे छोड़ने घर तक आ गया?’’

मैं ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘रेनू, इन बातों के लिए तुम अभी बहुत छोटी हो, भोली हो, अभी तुम दोनों को अपनी पढ़ाईलिखाई पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए… राजू, रात मैं पानी पीने उठी तो तुम्हारे कमरे की लाइट जल रही थी. मैं ने सोचा तुम अभी तक पढ़ रहे होगे. लेकिन खिड़की से देखा तो पाया कि तुम रात को 1 बजे तक टीवी देख रहे थे. तुम दोनों जानते हो कि पापा को तुम दोनों से बहुत उम्मीदे हैं. उन्हें यह सब जान कर बुरा लगेगा. अभी पढ़ाई पर पूरा ध्यान लगाओ.’’

यह सुन कर राजू बोला, ‘‘दीदी, हम लोगों ने ऐसा क्या दुनिया से अलग कर दिया है जो तुम हमें ताने मार रही हो?’’

रेनू बोली, ‘‘हमें यह बेकार की रोकटोक पसंद नहीं… आप अपना बहनजीपन हम पर मत थोपो… अपनी ससुराल में जा कर यह रोब दिखाना.’’

मैं यह सब सुन कर सन्न रह गई कि क्या ये वही रेनू और राजू हैं, जो हर काम मेरे से पूछ कर करते थे? दोनों मैथ और अंगरेजी में कमजोर थे. मैं अपनी पढ़ाई खत्म कर दोनों को रात 1-2 बजे तक पढ़ाती थी. तब जा कर पास होने योग्य नंबर जुटा पाते थे. मैं इन का आदर्श थी.

हम सब की तेज अवाजें सुन मम्मी भागती हुई चली आईं. हम सब को आपस में उलझते देख हैरान रह गईं. मुझ से पूछने लगीं, ‘‘क्या बात हो गई?’’

मैं कुछ कहती, उस से पहले ही रेनू चिल्लाने लगी, ‘‘होना क्या है मम्मी… मीनू दीदी जब से आईं हैं हमारी जासूसी में लगी हैं कि कहां जाते हैं क्या पहनते हैं, हमारे कौनकौन दोस्त हैं… हमारी छोटीछोटी खुशियां इन से बरदाश्त नहीं हो रही है.’’

राजू बोला, ‘‘मम्मी, जमाना बदल रहा है. हम भी बदल रहे हैं. इन्हें हम से क्या परेशानी है, समझ नहीं आता.’’

मेरा इतना अपमान होते देख मम्मी बौखला गईं. मेरा हाथ खींचते हुए बोलीं, ‘‘तू चल यहां से… काहे को चौधराइन बन रही है… अब तू इन की चिंता छोड़ अपनी ससुराल देख.’’

मुझे किसी ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. मैं अपमानित सी खड़ी थी. शोर सुन कर पापा भी आ गए. बिना कुछ पूछे धीरगंभीर पापा मेरा हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गए. अपमान ने मेरे मुंह पर चुप्पी का ताला लगा दिया. पापा ने भी मुझे इस घटना से उबरने का मौका दिया. वे चुप रहे.

थोड़ी देर बाद मैं उठ कर लिविंग रूम के सोफे पर जा लेटी. कब आंख लग गई, पता ही न चला. रात को डिनर के लिए मम्मी और पापा बारीबारी से मुझे बुलाने आए पर मैं ने भूख नहीं है कह कर मना कर दिया. रेनू और राजू के अलावा किसी ने भी खाना नहीं खाया. मुझे रात भर नींद नहीं आई. यही सोचती रही कि यह मैं ने क्या किया? आई थी इन सब की खुशियों में शामिल होने पर सारे माहौल को तनावयुक्त कर दिया.

अगले दिन मैं जल्दी उठ कर नहा कर तैयार हो गई. मैं ने सब के लिए चाय बनाई. रेनू और राजू को आवाज दे कर उन के कमरे में चाय दे कर आई. मम्मी और पापा की चाय उन के कमरे में ले गई. होंठों पर नकली मुसकान लिए मैं ने बिलकुल नौर्मल दिखने का अभिनय किया. अपनी चाय पीतेपीते मैं अपनी ससुराल के बारे में बिना उन के पूछे बातें शेयर करने लगी. अपने देवर की शैतानियों के बारे में हंसहंस कर झूठी कहानियां सुनाने लगी.

मम्मीपापा भी मेरे द्वारा बनाए माहौल को बनाए रखने में मेरा साथ देने लगे. यह देख मैं सोचने लगी कि हम हिंदुस्तानी औरतों को घरगृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चलाने के लिए अभिनय घुट्टी में पिलाया जाता है. कभी मायके की इज्जत रखने को तो कभी ससुराल का मानसम्मान बनाए रखने के लिए अच्छा अभिनय कर जाती हैं?

तभी रेनू कालेज के लिए तैयार हो कर आ गई. उसे देख कर मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘अरे रेनू, आज इतनी जल्दी कालेज जा रही है… 5 मिनट रुक मैं मेरे लिए नाश्ता बना रही हूं… तुझे गोभी के परांठे पसंद हैं. वही बना देती हूं.’’ मगर रेनू मेरी बात अनसुनी कर मम्मी की ओर देखते हुए बोली, ‘‘मम्मी, आज कालेज में देर हो जाएगी,’’ और फिर सीढि़यां उतर गई.

मम्मी और मैं देखते रह गए. मैं ने बिना समय नष्ट किए जा कर किचन संभाली. सोचा रेनू तो बिना कुछ खाए निकल गई कहीं राजू भी भूखे पेट न निकल जाए. जल्दी सभी की पसंद ध्यान में रखते हुए नाश्ता बनाया और डाइनिंगटेबल पर लगा दिया.

नाश्ता तैयार है की आवाज लगा कर माहौल को तनावमुक्त करने की कोशिश की. मम्मीपापा तो तुरंत आ गए पर राजू अनमना सा थोड़ी देर बाद आया. उस ने किसी से बात नहीं की. जल्दीजल्दी खा कर खड़ा हो गया. बोला, ‘‘मम्मी, कालेज जा रहा हूं… आज दीदी को बस में बैठाने तो नहीं जाना?’’ और फिर जवाब का इंतजार किए बिना चला गया.

मैं रेनू और राजू के व्यवहार से मन ही मन क्षुब्ध हो रही थी. मैं दकियानूसी स्वभाव की बहन नहीं थी, परंतु इस कच्ची उम्र में हुई कुछ गलतियां सारी जिंदगी के लिए घातक हो जाती हैं. अपरिपक्व दिमाग, भोलेपन या नासमझी के चलते कुछ लोग गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं. फिर वहां से लौटना कठिन हो जाता है. बस इसी उलझन में पड़ गई थी. मेरे दिल में भाईबहन के लिए प्यार, ममता, सहानुभूति की भावनाएं प्रबलता से हिलोरें ले रही थीं, परंतु स्वाभिमान और फैला तनाव मुझे चुप रहने का संकेत दे रहा था.

मेड इन हैवन: गरिमा के साथ कौन-सी घटना घटी

फाइनली गरिमा और हेमंत की शादी हो ही गई. दोनों हनीमून ट्रिप पर स्विट्जरलैंड में ऐश कर रहे हैं. उन के घर वालों का तो पता नहीं परंतु मैं बहुत ख़ुश हूं क्योंकि अभी थोड़ी देर पहले ही गरिमा ने 2 मिनट के लिए स्विट्जरलैंड से बात की, ‘‘थैंक्स आंटी इतना अच्छा लाइफपार्टनर मिलवाने के लिए.’’

पीछे से हेमंत का भी स्वर उभरा, ‘‘डार्लिंग, मेरी तरफ से भी आंटी को थैंक्स बोल देना,’’ फिर दोनों की सम्मिलित हंसी का स्वर उभरा और फोन काट दिया गया.

गरिमा और हेमंत दोनों बहुत खुश लग रहे थे. मैं ने राहत की सांस ली क्योंकि दोनों को मिलवाने में मैं ने ही बीच की कड़ी का काम किया था. संयोगिक घटनाओं की विचित्रता को भला कौन सम?ा सकता है. मेरे मन में यादों की फाइल के पन्ने फड़फड़ाने लगे…

3 साल पहले गरिमा को मैं ने अपनी फ्रैंड विनीता के घर हुई किट्टी पार्टी में देखा था. लंबी, छरहरी गरिमा रूपलावण्य की धनी तो थी ही, नाम के अनुरूप व्यक्तित्व में संस्कारी छाप भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी. उसे देखते ही लगा काश मेरा कोई बेटा होता तो मैं गरिमा का हाथ उस की मां से मांग लेती.

मु?ो गरिमा की तरफ ताकते देख विनीता ने मु?ा से उस का परिचय करवाया, ‘‘बेटे, ये कृष्णा आंटी हैं. हमारी किट्टी मैंबर.’’

गरिमा कुछ देर मेरे पास बैठी तो मैं ने उस की जौब के बारे में बातचीत की, फिर किट्टी के अन्य सदस्यों के आने पर वह उठ कर अपने कमरे में चली गई.

मेरी फ्रैंड सुमन ने भी जब गरिमा को देखा तो उस की नजरों से लग रहा था कि गरिमा के व्यक्तित्व ने सुमन को भी प्रभावित किया है. धीरेधीरे किट्टी के अन्य सदस्यों के आ जाने पर बातचीत का रुख बदल गया. कोई 2 हजार के नए नोट को अच्छा बता रही थी तो कोई इस से उपजी परेशानियां गिना रही थी.

किट्टी पार्टी पूरे शबाब पर थी. सब गपशप करने लगी थीं, साथ ही कनखियों से एकदूसरे की साड़ी और ज्वैलरी को निहारने का सिलसिला भी चल रहा था कि इस की साड़ी मेरी साड़ी से अच्छी क्यों है, किस का हार असली है और किस का नकली.

विनीता के घर से निकलने पर सुमन ने बातचीत शुरू की, ‘‘सच इस की बिटिया बहुत प्यारी है. तू कोई चक्कर चला न. मैं भी आजकल हेमंत की शादी को ले कर काफी चिंतित हूं. धीरेधीरे उम्र बढ़ती जा रही है मेरी भी और हेमंत की भी. कोई अच्छी लड़की मिल जाए तो इस का रिश्ता पक्का कर के मैं निश्चिंत हो जाऊं.’’

‘‘देख कृष्ण, जब तुम विनीता से बात करोगी, तो हेमंत के बारे में कुछ संक्षिप्त परिचय दे देना, हेमंत ने एमबीए किया है और आजकल एक एमएनसी में डाइरैक्टर के पद पर है. उस की लंबाई 6 फुट 3 इंच  है, तो वह चाहता है कि लड़की भी लंबी हो तो सोने में सुहागा. रही उम्र की बात तो 34 पूरे करने जा रहा है 2 महीने में. मेरे खयाल से गरिमा भी 30 से ऊपर की ही होगी. मु?ो तो सब से ज्यादा उस की लंबाई भा गई है. सुमन अपनी ही रौ में बोलती जा रही थी.

मैं ने उसे टोका, ‘‘देख, मैं विनीता से बात कर के देखती हूं, फिर जोडि़यां तो ऊपर वाले के यहां से ही बन कर आती हैं.’’

कुछ दिनों बाद जब मैं विनीता से मिलने उस के घर गई तो देखा वह किसी की जन्मकुंडली ले कर बैठी थी. लैपटौप सामने खुला पड़ा था. मुझे देख कर लैपटौप बंद करते हुए बोली, ‘‘आ बैठ. अभी चाय बना कर लाती हूं. फिर ठाट से गप्पें मारेंगे. जब विनीता चाय ले कर आई तो मैं ने पूछा, ‘‘आज किस का भाग्य संवारने में लगी है.’’

दरअसल, कुछ साल पहले विनीता ने ज्योतिषाचार्य का डिप्लोमा किया था. आजकल ऐसा डिप्लोमा देने वालों की बाढ़ आई हुई है क्योंकि धर्म प्रचार के साथ धर्म का व्यापार भी फलफूल रहा है. तभी से वह जन्मकुंडली देखने और मिलाने लगी थी. किट्टी पार्टी की 2-4 सखियों के बच्चों की कुंडलियां मिलाईं और उन के बच्चों की शादीशुदा लाइफ स्वाभाविक तौर पर खुशहाल गुजर रही थी. तभी से विनीता का कुंडली मिलाने में विश्वास कुछ अधिक गहरा हो चला था. गरिमा के रिश्ते की बात जहां भी चलती सब से पहले बिनीता कुंडली मिलाने बैठ जाती, बिना लड़के को मिले, देखे अब तक सैकड़ों लड़कों को रिजैक्ट कर चुकी थी और गरिमा की उम्र 32 पार करने को थी. उस कोर्स ने उस के तार्किक दिमाग को बंद कर दिया था. वह सब के लिए ग्रहों, नक्षत्रों में भरोसा करने लगी थी.

उम्र बढ़ने पर गरिमा के चेहरे की मुसकराहट धीरेधीरे गायब हो रही थी. स्वयं विनीता भी आजकल तनाव व चिड़चिड़ाहट के घेरे में आती जा रही थी.

गरिमा ने तो अपने मन की भड़ास निकालते हुए यहां तक कह दिया था कि यदि कुंडली मिलाने से सभी की शादी सफल होती तो आज तलाकों की संख्या लाखों तक नहीं पहुंचती. शादी में कुंडली नहीं स्वभाव, रुचियों व आदतों की साझेदारी बहुत माने रखती है. अब मैं अपने हिसाब से अपने लिए जीवनसाथी ढूंढ़ती हूं.

‘‘बेटा, भावावेश में आ कर कहीं कोई गलती न कर बैठना. आखिर मैं तुम्हारे सुखद भविष्य के लिए ही तो ये सब कर रही हूं.

‘‘उस सुखद भविष्य के इंतजार में चाहे मेरी उम्र ही क्यों न बढ़ती जाए और रही गलती की बात सो गलती से कुछ नहीं होता सबकुछ हमारे व्यवहार पर निर्भर है. किसी पर कमी को फुर्सत नहीं कि हर पेड़पौधों, जानवर, आदमीऔरत की कुंडली कम से बने,’’ गरिमा के शब्द सुन कर विनीता हक्कीबक्की रह गई.

अगले महीने की किट्टी पार्टी सुमन के घर थी. विनीता यह कह कर जल्दी घर लौट गई कि आज गरिमा का बर्थडे है सो घर सी गैटटुगैदर रखी है.

किट्टी की 1-2 मैंबर जो कुछ मुंहफट टाइप थीं ने तो यहां तक कह दिया कि कब तक गरिमा का बर्थडे अपने घर पर ही मनाती रहोगी. किसी दूसरे को भी तो मौका दो उस का बर्थडे मनाने का.

विनीता खिसियानी हंसी हस कर रह गई और फिर वहां से तुरंत निकल ली.

पिछले हफ्ते मार्केट में अचानक गरिमा मिल गई. मैं ने उसे हैप्पी बर्थडे विश किया तो उस ने थैंक्यू बोला.

‘‘गरिमा क्या चल रहा है लाइफ में.’’

‘‘कुछ खास नहीं आंटी. लाइफ कोर्ट से घर और घर से कोर्ट तक सिमट कर रह गई है. ऐक्चुअली आई नीड सम ग्रेट चेंज.’’

इस से उस का सीधा सा मतलब था कि अब वह शादी कर के घर बसाने को आतुर है.

‘‘कोर्ट में दूसरों के केस लड़तेलड़ते थक चुकी हूं. अब मैं अपना ख़ुद का केस सुलझना चाहती हूं,’’ गरिमा फीकी सी मुसकराहट बिखेरते हुए बोली.

एक दिन जब मैं विनीता से मिलने उस के घर गई और बातचीत के दौरान मैं ने गरिमा के रिश्ते के लिए हेमंत का नाम सुझाया तो विनीता चौंकती हुई मेरी तरफ देखने लगी. मेरी पूरी बात सुने बिना ही उस ने यह रिश्ता खोटे सिक्के सा ठुकरा दिया. उस का मानना था कि रिश्ता तो बराबर के लोगों के साथ ही जोड़ा जाता है. किट्टी मैंबर है तो इस का मतलब यह तो नहीं कि उस से रिश्ता जोड़ लूं. कहां उस का परिवार और कहां हम लोग.

दूसरे दिन सुबहसुबह सुमन ने फोन खटका दिया. स्वर में कुछ परेशानी सी झलक रही थी, ‘‘सुन तू मेरे घर थोड़ी देर को आ सकती है कुछ जरूरी सलाह लेनी है तुम से.’’

दरअसल, सुमन अकेली रहती है. बेटियां घर बसा कर अपनी ससुराल जा चुकी हैं और बेटा हेमंत आजकल बैंगलुरु में किसी बड़ी कंपनी में मार्केटिंग डाइरैक्टर के पद पर कार्यरत है. कुछ ही महीनों में विदेश की पोस्टिंग पर जाने की तैयारी चल रही है. इसी कारण सुमन चाहती है विदेश जाने से पहले अपना घर बसा ले तो अच्छा है. शायद इसी बाबत कुछ सलाह करने के लिए बुलाया होगा, मैं ने मन ही मन सोचा.

सुमन के घर पहुंचने पर उस से बातचीत करने पर पता चला कि उस के बेटे हेमंत के ऊपर किसी ने फ्रौड केस बना दिया है. जैसेजैसे उस के विदेश जाने की तारीख नजदीक आती जा रही है, उस की घबराहट बढ़ती जा रही है. जाने से पहले वह इस केस हर हाल में निबटाना चाहता है. सो यदि किसी अच्छे वकील को जानती है तो प्लीज मदद कर दो.

‘‘अरे, इस में इतना सोचने वाली क्या बात है? अपनी विनीता की बेटी गरिमा टौप क्लास की वकील है. वह किस दिन काम आएगी. उस का रिकौर्ड है कि आज तक जो भी केस हाथ में लिया जीत ही हासिल की है. तुम कहो तो मैं हेमंत को गरिमा का नंबर बता देती हूं. दोनों आपस में केस से संबंधित बातचीत ख़ुद ही कर लेंगे.’’

हेमंत ने फोन पर गरिमा को अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए अपने केस की सारी डिटेल बता दी. सारी डिटेल सुनने के बाद गरिमा हेमंत का केस लेने को तैयार हो गई. इतना ही नहीं गरिमा ने हेमंत को आश्वासन भी दिया, ‘‘डौंटवरी, केस हम ही जीतेंगे.’’

‘‘मुझे भी आप की काबिलीयत पर पूरा भरोसा है. कल कोर्ट में मिलते हैं,’’ हेमंत ने कहा.

कोर्ट शुरू होने से एक घंटा पहले ही दोनों कोर्ट परिसर में पहुंच चुके थे. कुछ औपचारिक  बातचीत के बाद दोनों ने केस शुरू होने से पहले 1-1 कप चाय पीने की एकसाथ इच्छा जाहिर की. कैंटीन में चाय पीतेपीते जब भी गरिमा ने हेमंत की तरफ देखा उसे कनखियों से अपनी तरफ देखते ही पाया और उस के कपोल लज्जा से लाल हो गए. आखिर दोनों हमउम्र ही तो थे.

कोर्ट शुरू होने का टाइम हो गया था सो दोनों कोर्ट रूम में पहुंचे. केस शुरू होने पर गरिमा ने अपनी धुआंधार दलीलों से प्रतिद्वंद्वी पक्ष के वकील को निरुत्तर कर दिया. फिर भी जज साहब ने कोई फैसला सुनाने से पहले अगली हियरिंग अगले हफ्ते होने की घोषणा की.

इस 1 हफ्ते के दौरान गरिमा व हेमंत केस की बाबत बातचीत करने के बहाने किसी न किसी रैस्टोरैंट में शाम इकट्ठा गुजारने लगे.

1 हफ्ते की मुलाकात में दोनों की साझेदारी कुछ इस तरह बढ़ी कि केस से हट कर वे दोनों एकदूसरे की रुचियों, स्वभाव व आदतों के बारे में भी बातचीत करने लगे. दोनों की एकदूसरे में दिलचस्पी बढ़ रही थी.

अगले हियरिंग में केस पूरी तरह सुलझ गया और फैसला हेमंत के पक्ष में आया. फैसला सुन कर गरिमा व हेमंत दोनों ही बहुत खुश थे.

‘‘इतनी बड़ी जीत पर अच्छी सी ट्रीट तो बनती ही है. क्या खयाल है तुम्हारा गरिमा?’’ हेमंत ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए पूछा.

गरिमा को हेमंत का आप से तुम कहना अच्छा लगा, लेकिन खुश तो वह भी थी सो बोली, ‘‘हां, क्यों नहीं. कोर्ट से थोड़ी ही दूर एक रैस्टोरैंट है. वहां चल कर चाय और स्नैकस का आनंद लेते हैं और फिर जब तक स्नैक्स आते दोनों बातचीत में मशगूल हो गए.

‘‘तुम बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?’’ हेमंत ने कहा.

‘‘हां पूछो.’’

‘‘तुम ने अभी तक शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘बस, अभी तक कोई मन भाता टकराया ही नहीं,’’ गरिमा ने हेमंत की आंखों में आंखें डालते हुए कहा.

गरिमा को इस तरह अपनी ओर देखते हेमंत कुछ ?ोंप सा गया. चाय की चुसकियों के साथ दोनों ने एकदूसरे से ढेर सारी व्यक्तिगत बातें कीं क्योंकि अब तक इन दोनों की दोस्ती गहरी हो चुकी थी और इन्हें साथ समय गुजारना रास आने लगा था.

चाय पीतेपीते मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. ऐसे में घर के लिए निकलना नामुमकिन था सो बारिश के साथसाथ बातचीत का रेला भी बहने लगा. दोनों ही

हमउम्र थे. अत: बिना लागलपेट के हेमंत ने पूछा, ‘‘आखिर तुम्हें कैसा लाइफ़ पार्टनर चाहिए? शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं.’’

‘‘बिलकुल तुम्हारे जैसा,’’ गरिमा ने हेमंत की आंखों में आंखें डालते हुए शरारती मुसकान भर कर कहा.

हेमंत भी खुशी से उछल पड़ा.

‘‘रुको इतना खुश होने की जरूरत नहीं है. मैं पहले तुम्हें अपने मांबाप से मिलवाऊंगी. तभी बात आगे बढ़ेगी. आखिर जिंदगीभर का सवाल है. जिंदगी के अहम केस की 2-3 हियरिंग तो होनी ही चाहिए.’’

इस बीच बारिश बंद हो चुकी थी. जल्द ही दोबारा मिलने का वादा ले कर दोनों अपनेअपने घर चले गए.

रात को डिनर के लिए गरिमा अपने घर वालों के साथ बैठी तो उस ने चहकते हुए कहा,

‘‘पापा, आज मैं ने 2 केस एकसाथ जीते हैं. एक तो जो मैं ने आप को बताया था न हेमंत का और दूसरा मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है,’’ उस ने निर्णयात्मक स्वर में अपना फैसला सुनाते हुए कहा.

पापा ने उत्साह भरे स्वर में आश्चर्य से पूछा, ‘‘अच्छा, कौन है? कब मिलवा रही हो?’’

इतनी देर से बापबेटी की चुपचाप बातचीत सुन रही विनिता बोली, ‘‘ऐसे कैसे तुम अपना जीवनसाथी चुन सकती हो? आखिर जिंदगीभर का सवाल है… बिना जन्मकुंडली मिलाए शादी कैसे हो सकती है?’’

‘‘पापा हेमंत जिसे मैं ने अपना जीवनसाथी चुना है वह मम्मी की किट्टी पार्टी की सहेली सुमन आंटी का बेटा है. मम्मी उन के परिवार से अच्छी तरह परिचित है.’’

सुमन का नाम सुन कर मम्मी के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं.

मम्मी को नजरअंदाज करते हुए उस के पापा ने कहा, ‘‘तुम्हारी पसंद पर पूरा भरोसा है… हम सब को उस से मिलवाओ और फिर शादी की तारीख पक्की करते हैं.’’

गरिमा के पापा ने उस की पसंद पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा, ‘‘आखिर हमारी बेटी इतने बड़ेबड़े केस हैंडल करती है तो यह तो उस की अपनी जिंदगी का मुकदमा है. इसे जरूर जीत हासिल होगी. तुम तो बस अपनी कुंडली मिलान का चक्कर छोड़ इस की शादी की तैयारी करो और अपनी शुभकामनाएं और आशीर्वाद देने को तैयार रहो.’’

विनिता सोच रही थी कि वह अपनी ज्योतिष की किताबों को रद्दी में डाल दे क्या? फिर उस ने सोचा लोगों को बेवकूफ बनाने का यह अच्छा अवसर तो दे रही है. बस उसे इस ज्योतिष को घर पर लागू नहीं करना. यह विधा दूसरों को बेवकूफ बनाने में बहुत कामयाब है और सदियों से समाज पर थोपी जा चुकी है. इस सोच उगलने वाले स्टंट को क्यों छोड़ा जाए. उस ने किताबें और सजा कर रख दीं.

हिमायती: अपने रास्ते के कांटे को सीमा ने कैसे हटाया

समीर तो औफिस की बातें घर में करते नहीं हैं, इसलिए उन के औफिस में यदाकदा होने वाली पार्टियों का मेरे लिए बहुत महत्त्व है. औफिस की चटपटी बातों की जानकारी मुझे वहीं मिलती है.

कोई भी पति अपनी कमजोर बात तो पत्नी को कभी नहीं बताता, लेकिन अपने सहयोगियों की बातें जरूर बता देता है. फिर वही रसीली बातें जब पत्नी पार्टी वगैरह में बाकी औरतों से शेयर करती है, तो बताने वाली की आंखों की चमक और सुनने वालियों की दिलचस्पी देखते ही बनती है.

पिछले हफ्ते जो पार्टी हुई उस में अपने पतिदेव के कारण महिलाओं के आकर्षण का केंद्र मैं रही.

‘‘तेरे समीर का अकाउंट सैक्शन वाली चुलबुली रितु से चक्कर चल रहा है. जरा होशियार हो जा,’’ सब के बीच अपमानित करने वाली यह खबर सब से पहले मुझे नीलम ने चटखारे ले कर सुनाई.

इस खबर की पुष्टि जब इंदु, कविता और शिखा ने भी कर दी, तो शक की कोई गुंजाइश बाकी नहीं बची. यह सच है कि इस खबर ने मुझे अंदर तक हिला दिया था पर मैं ऊपर से मुसकराती रही.

उन सब की सलाह और सहानुभूति से बचने और एकांत में सोचविचार करने की खातिर मैं प्रसाधन कक्ष में चली आई.

एक बात तो मेरी समझ में यह आई कि समीर से झगड़ा करने का कोई फायदा नहीं होगा. मैं ने कई मामलों में देखा था कि लड़ाईझगड़ा कर के कई नासमझ पत्नियों ने अपने पतियों को दूसरी औरत की तरफ धकेल दिया था.

ऐसा मामला समझाने और गिड़गिड़ाने से भी हल नहीं होता है, इस के भी मैं कई उदाहरण देख चुकी थी. वैसे भी मैं आंसू बहाने वाली औरतों में नहीं हूं.

उन दोनों के बीच चल रहे चक्कर की जड़ें कितनी मजबूत और गहरी हो गई हैं, इस का अंदाजा खुद लगाने के इरादे से मैं जल्दी ही बाथरूम से बाहर आ गई.

बाहर आते ही मेरी नजर में वे दोनों आ गए. हौल के एक कोने में खड़े दोनों हंसहंस कर बतिया रहे थे. अपने होंठों पर बनावटी मुसकान सजाए और लापरवाह सी चाल चलती मैं उन दोनों की तरफ बढ़ गई.

मुझे अचानक बगल में खड़ा देख वे दोनों सकपका गए. मेरी समझ से इस बात ने ही दोनों के मन में चोर होने की पुष्टि कर दी थी.

‘‘बहुत सुंदर लग रही हो, रितु. तुम्हारे सूट का रंग बहुत प्यारा है,’’ मैं ने यों ही प्रशंसा कर उसे मुसकराने को मजबूर कर दिया.

फिर मैं मुसकराते हुए उस से इधरउधर की बातें करने लगी. ये मेरे ही प्रयास का नतीजा था कि वह जल्दी ही सहज हो कर मुझ से खुल कर हंसनेबोलने लगी.

समीर को मेरे व्यवहार में कोई गड़बड़ी नजर नहीं आई तो वे हमें अकेला छोड़ कर अपने दूसरे दोस्तों के पास चले गए.

अपने मन की चिढ़ और किलस को नियंत्रण में रख मैं काफी देर तक रितु के साथ हंसतीबोलती रही. समीर को उस के साथ अकेले में बातें करने का मौका मैं ने उस रात उपलब्ध नहीं होने दिया.

विदा लेने से पहले मैं ने रितु को अपने घर आने का न्योता कई बार दिया. उस ने चलने से पहले बस एक बार मुझे अपने घर आने की दावत दी तो मैं खुशी से झूम उठी.

आने वाले दिनों में मेरा मन उदास सा रहा पर मैं ने रितु की कोई चर्चा समीर से नहीं छेड़ी. हफ्ते भर बाद मेरा जन्मदिन आया. घर के सारे लोग पार्टी में शामिल हुए पर मैं सब के साथ हंसनेबोलने का नाटक ही कर पाई.

मुझे यों उदास देख कर मेरी सास ने 2 दिनों तक मेरे पास रुकने का फैसला कर लिया. वे जबान की तेज पर बहुत समझदार महिला हैं.

हम दोनों ने 2 दिनों में ढेर सारी बातें कीं. जब वे लौटीं तब तक मेरे अंदर जीने का नया उत्साह भर चुका था.

आगामी शनिवार को समीर 3 दिनों के टूर पर शहर के बाहर चले गए और मैं रविवार की सुबह 10 बजे के करीब रितु के घर अकेली पहुंच गई. अपने 5 वर्षीय बेटे को मैं ने अपनी सास के पास छोड़ दिया.

रितु ने मेरा स्वागत मुसकरा कर किया पर मैं ने उस की आंखों में चिंता और उलझन के भावों को पैदा होते साफसाफ देखा.

‘‘तुम्हें तो पता है कि समीर टूर पर गए हुए हैं, मैं ने सोचा आज कुछ समय तुम्हारे साथ बिताया जाए,’’ मैं उस से किसी अच्छी सहेली की तरह बड़े अपनेपन से मिली.

‘‘आप का स्वागत है, सीमा दीदी. राहुल को साथ क्यों नहीं लाईं?’’ हाथ पकड़ कर ड्राइंग रूम की तरफ ले जाते हुए उस ने मेरे बेटे के बारे में पूछा.

‘‘मेरी ननद मायके आई हुई हैं. राहुल उन के दोनों बेटों के साथ खेलने गया है.’’

‘‘आप क्या लेंगी? चाय या कौफी?’’

‘‘चाय चलेगी. मैं जरा लेट लूं. लगता है, सीढि़यां चढ़ते हुए कमर झटका खा गई है.’’

वह फौरन मेरे लिए तकिया ले आई. मैं पलंग पर आराम से लेटी और वह चाय बनाने रसोई में चली गई.

हम दोनों ने साथसाथ चायनाश्ता लिया. हमारे बीच जल्दी ही खुल कर बातें होने लगीं. यों ही गपशप करते 1 घंटा बीतने का हमें पता ही नहीं चला. फिर जब मैं ने अचानक उस की शादी के बारे में सवाल पूछने शुरू किए तो वह घबरा सी उठी.

‘‘लव मैरिज करोगी या मम्मी ढूंढ़ेंगी तुम्हारा रिश्ता?’’

मेरे इस सवाल को सुन कर वह सकपका सी गई.

‘‘देखो क्या होता है,’’ उस की आवाज में हकलाहट पैदा हो गई.

‘‘तुम जैसी सुंदर, स्मार्ट और कमाऊ लड़की के आशिकों की क्या कमी होगी. किसी के साथ तुम्हारा चक्कर जरूर चल रहा होगा. बताओ न उस का नाम,’’ मैं उस के पीछे ही पड़ गई.

वह बेचारी कैसे बताती कि उस का चक्कर मेरे पति के साथ चल रहा था. मैं ने इसी विषय पर कुछ देर बातें कर के उस की बेचैनी और परेशानी का मन ही मन खूब आनंद लिया.

उस की खिंचाई का अंत तब हुआ, जब मेरे मोबाइल पर 2 फोन आए. पहला मेरी सास का था और दूसरा मेरी किट्टी फ्रैंड अनिता का. दोनों ही मेरा हालचाल पूछ रही थीं. अपनी कमर में आई मोच को ले कर मैं ने दोनों के साथ काफी देर तक बातें की.

अभी 1 घंटा भी नहीं बीता होगा कि मेरी सास, ननद नेहा और तीनों बच्चे रितु के घर आ धमके. बच्चे तो फौरन ही कार्टून चैनल देखने के लिए टीवी के सामने जम गए. मेरी सास और नेहा सोफे पर बैठ कर मेरी कमर दर्द के बारे में पूछने लगीं.

‘‘आप मेरी जरूरत से ज्यादा फिक्र करती हो मम्मी,’’ मेरा स्वर भावुक हो उठा था.

‘‘लेकिन तू तो एक नंबर की लापरवाह है. हजार बार तो तुझे समझाया ही होगा मैं ने कि वजन कम कर के अपने इस कमरे को कमर बना ले, पर तेरे कानों पर जूं तक नहीं रेंगती,’’ मेरी सास एकदम से भड़क उठीं तो मैं झेंपी सी रितु की तरफ देखने लगी.

रितु का मेरी सास से पहली बार आमनासामना हुआ था. उन की कड़क आवाज सुन कर उस की आंखों से डर झांक उठा था.

‘‘समीर भैया जब किसी सुंदर तितली के चक्कर में पड़ जाएंगे, तब ही भाभी की आंखें खुलेंगी,’’ नेहा दीदी की इस टिप्पणी को सुन कर मेरी सास और भड़क उठीं.

‘‘तेरे भैया की टांगें तोड़ने और उस तितली के पर काटने में मैं 1 मिनट भी नहीं लगाऊंगी.’’

‘‘मेरे छोटे से मजाक पर इतना गुस्सा होने की क्या जरूरत है?’’

‘‘ऐसी वाहियात बात तुम मुंह से निकाल ही क्यों रही हो?’’

नेहा दीदी बुरा सा मुंह बना कर चुप हो गईं. रितु फर्श की तरफ देखते हुए अपनी उंगलियां तोड़मरोड़ रही थी. मेरी सास से आंखें मिलाने की शायद उस की हिम्मत नहीं हो रही थी.

मेरी सास ने हम सब को लैक्चर देना शुरू कर दिया, ‘‘आजकल की लड़कियों में न समझ है और न सब्र है. अपनी गृहस्थी बसाने में उन की दिलचस्पी होती ही नहीं है. बस उलटेसीधे इश्क के चक्करों में उलझ कर बेकार की परेशानियों में फंस जाती हैं. जो रास्ता कहीं न पहुंचता हो, उस पर चलने का कोई फायदा होता है क्या, रितु बेटी?’’

‘‘जी नहीं,’’ रितु ने मरे से स्वर में जवाब दिया तो मेरे लिए अपनी हंसी रोकना मुश्किल हो गया.

‘‘तुम कब शादी कर रही हो?’’

‘‘जल्दी ही.’’

‘‘गुड. तुम्हारे मम्मीपापा कहां हैं?’’

‘‘पापा अब नहीं हैं और मम्मी मौसी के घर गई हैं.’’

‘‘कब तक लौटेंगी?’’

‘‘शाम तक.’’

‘‘मैं जरूर आऊंगी उन से मिलने. बहू, अब कमर दर्द कैसा है? क्या सारा दिन यही लेटे रहने का इरादा है?’’

‘‘दर्द तो बढ़ता जा रहा है, मम्मी,’’ मैं ने कराहते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या डाक्टर को बुलाएं?’’

‘‘नहीं मम्मी. तुम्हारे पास आयोडैक्स

है, रितु?’’

‘‘मैं अभी लाई,’’ जान बचाने वाले अंदाज में उठ कर रितु अंदर वाले कमरे में चली गई.

रितु को ही मेरी कमर में आयोडैक्स लगानी पड़ी.

रितु को मेरी सास जिंदगी की ऊंचनीच समझाए जा रही थीं. नेहा दीदी उन से हर बात पर उलझने को तैयार थीं. मांबेटी के बीच चल रही जोरदार बहस को देख कर ऐसा लगता था कि इन के बीच कभी भी झगड़ा हो जाएगा. इन दोनों की तेजतर्रारी देख कर रितु की टैंशन बढ़ती जा रही थी.

तभी किसी ने बाहर से घंटी बजाई. नेहा दीदी दरवाजा खोलने गईं. वे लौटीं तो मेरी किट्टी पार्टी की सहेलियां अनिता, शालू और मेघा उन के साथ थीं.

ये तीनों बहुत ही बातूनी हैं. इन के आने से मांबेटी की बहस तो बंद हो गई पर कमरे के अंदर शोर बहुत बढ़ गया.

‘‘अपनी नई सहेली से बड़ी सेवा करा रही हो, सीमा,’’ मेघा ने आंख मटकाते हुए मजाक किया और फिर तीनों जोर से हंस पड़ीं.

‘‘सीमा का दिल जीत कर हमारा पत्ता साफ न कर देना, रितु. तुम हमारी भी अच्छी दोस्त बनो, प्लीज,’’ अनिता ने दोस्ताना अंदाज में रितु का कंधा दबाया और फिर मेरा हाथ पकड़ कर मेरे पास बैठ गई.

‘‘नई दोस्ती की नींव मजबूत करने के लिए हम गरमगरम समोसे और जलेबियां भी लाए हैं,’’ शालू ने अपनी बात ऐसे नाटकीय अंदाज में कही कि रितु हंसने को मजबूर हो गई.

अपनाअपना परिचय देने के बाद वे तीनों बेधड़क रसोई में चली गईं. जब तक रितु आयोडैक्स के हाथ धो कर वहां पहुंचती, तब तक उन्होंने चाय भी तैयार कर ली थी.

बच्चों के लिए नेहा दीदी ने फ्रिज में से जूस का डब्बा निकाल लिया. कुछ देर बाद हम सभी जलेबियों और समोसों का लुत्फ उठा रहे थे. इतना ज्यादा शोर रितु के फ्लैट में शायद ही कभी मचा होगा.

मेरी सहेलियां रितु का दिल जीतने में सफल रही थीं. वह उन के साथ खूब हंसबोल रही थी. ऐसा लग रहा था मानो हम सब उसे लंबे समय से जानते हों.

‘‘सीमा, रितु से दोस्ती कर के एक फायदा तो तुझे जरूर होगा,’’ मेघा की आंखों में शरारती चमक उभरी.

‘‘कैसा फायदा?’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘अब अगर तेरे समीर की औफिस की किसी लड़की में दिलचस्पी पैदा हुई, तो रितु तुझे फौरन खबर कर देगी.’’

‘‘बात तो तेरी ठीक है, मेघा. अपने औफिस में क्या तुम मेरी आंखें बनोगी, रितु?’’ रितु की तरफ देख कर मैं बड़े अपनेपन से मुसकराई.

रितु के गाल एकदम गुलाबी हो उठे थे. वह जवाब नहीं दे पाई. उस ने सिर्फ गरदन ऊपरनीचे हिलाई और फिर मेज पर रखी कपप्लेटें उठाने के काम में लग गई.

मेज की सफाई पूरी हुई ही थी कि मेरे ससुरजी मेरा हाल पूछने वहां आ गए. उन के आते ही सारा माहौल बिलकुल बदल गया.

वे बड़े रोबीले इंसान हैं. मेरी सब सहेलियों ने उन के पैर छुए. वे सब यों चुप हो गईं मानो मुंह में जबान ही न हो.

‘‘बहू, तुम घर चलने की हालत में हो या नहीं?’’ उन्होंने गंभीर लहजे में मुझ से पूछा.

‘‘चल लूंगी, जी,’’ मैं ने धीमे स्वर में जवाब दिया.

‘‘इंसान को संभल कर चलना चाहिए न?’’

‘‘जी.’’

‘‘डाक्टर खन्ना को मैं ने फोन कर दिया है. उन से दवा लिखवाते हुए घर जाएंगे.’’

‘‘जी.’’

‘‘यहां किसी खास काम से आई थीं?’’

‘‘रितु से मिलने आई थी, जी.’’

‘‘इस से नई जानपहचान हुई है?’’

‘‘जी हां, ये उन के औफिस में काम करती है.’’

‘‘रितु बेटी, क्या तुम यहां अकेली

रहती हो?’’

‘‘नहीं अंकल, मम्मी साथ रहती हैं. पापा को गुजरे 5 साल हो गए हैं,’’ उन की नजरों का केंद्र बनते ही रितु घबरा गई थी.

‘‘पापा नहीं रहे तो कोई बात नहीं. कभी कोई जरूरत पड़े तो हमें बताना. अब हम चलते हैं.’’

पापा खड़े हुए तो हम सब भी चलने की तैयारी करने लगे. पापा कमरे के बाहर चले गए तो मेरी सास ने चलते हुए रितु को सलाह दी, ‘‘बेटी, जल्दी से शादी कर लो. उम्र बढ़ जाने के बाद लड़कियों को अच्छे लड़के नहीं मिलते.’’

‘‘तुम्हें हम अपनी किट्टी पार्टी का मैंबर जरूर बनाएंगे. फोन करती हूं मैं तुम्हें बाद में,’’ अनिता के इस प्रस्ताव का हम सभी सहेलियों ने स्वागत किया.

तीनों बच्चे रितु आंटी को थैंक यू कह कर बाहर चले गए. सब से आखिर में मैं रितु का सहारा ले कर बाहर की तरफ चल पड़ी.

‘‘रितु, इन सब का बहुत ज्यादा खुल जाना तुम्हें बुरा तो नहीं लगा?’’ मैं ने मुसकराते हुए उस से सवाल किया.

‘‘नहीं सीमा दीदी, ये सब तो बहुत अच्छे लेग हैं.’’

ऐसा जवाब देते हुए वह सहज हो कर मुसकरा नहीं पाई थी.

‘‘ये अच्छे लोग इस दुनिया में मेरे लिए बड़े हिमायती हैं, रितु. मुझे अपने इन हिमायतियों का बड़ा सहारा है. इन के कारण ही मैं खुद को सदा सुरक्षित महसूस करती हूं. कोई मेरी गृहस्थी की खुशियों को अगर नष्ट करने की कोशिश करे, तो मेरे ये हिमायती मेरी ढाल बन जाएंगे. इन से पंगा लेना किसी को भी बड़ा महंगा पड़ेगा. मेरी राह का कांटा बनने वाला इंसान समाज में अपनी इज्जत को दांव पर लगाएगा. मैं ने तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है. तुम मेरी विश्वसनीय सहेली बनो तो मेरे ये हिमायती तुम्हारी भी ताकत बन जाएंगे,’’ ढकेछिपे अंदाज में उसे चेतावनी देते हुए मैं ने अपना दायां हाथ उस की तरफ बढ़ा दिया.

वह पहले झिझकी पर फिर उस ने समझदारी दिखाते हुए मुझ से हाथ मिला

लिया. तब मैं ने खुश हो कर उसे प्यार से गले लगा लिया.

मेरे सारे हिमायती बाहर मेरा इंतजार कर रहे थे. रितु का सहारा छोड़ मैं आराम से चल कर उन के पास पहुंची. मेरी कमर को तो झटका लगा ही नहीं था. आज सब कुछ हमारी पहले से बनाई योजना के अनुरूप ही घटा था.

मैं ने दायां हाथ उठा कर 2 उंगलियों से विजयचिह्न बनाया तो मेरे सारे हिमायतियों के चेहरे खुशी से खिल उठे.

यह कैसा प्रेम- भाग 3 : आलिया से क्यों प्यार करता था वह

मैं, बस, अनायास ही उस की बात से मुसकरा उठी थी. उस का इस तरह मुझे खुद से जोड़ लेना मेरे लिए अदभुत था. फिर भी मैं बहुत ज्यादा गंभीर नहीं थी. मैं उस के बारे में पूरा जानना चाह रही थी. इस के लिए उस के साथ समय बिताना जरूरी था. मुझे भी कोई खास काम नहीं था. इसी मंशा से मैं ने सहमति दी और हम कहीं समय बिताने के लिए निकल पड़े.

दूसरी मुलाकात में एकदूसरे से इतना सहज हो जाना और साथ समय बिताने का आग्रह स्वीकार कर लेना बेशक अविश्वसनीय था, मगर चाशनी में डूबा हुआ था जो मुझे अच्छा लग रहा था और शायद उसे भी.

हम होटल से निकल पड़े और साथसाथ चल रहे थे, बातों का सिलसिला जारी था. इस बीच कई बार उस ने मेरे विचारों को बगैर समझे ही समर्थन दिया था. शायद यह उस की जल्दीबाजी थी या मुझ पर भरोसा जताने का तरीका, यह तो मैं नहीं समझ पाई मगर इतना जरूर समझ गई थी किह मुझ से प्रभावित है, इसलिए ऐसा कर रही है. और उस का ऐसा करना कहीं न कहीं मुझे उस से जोड़ रहा था.

चलतेचलते हम किसी रैस्टोरैंट जाने के बजाय एक छोटे से चाय के खोखे में बैठ गए जो पहाड़ी पंखडंडीनुमा रास्तों के बीच बांस की खपच्चियों से बनाया गया था. आम के तख्तों से बनी बैंच पर हम दोनों बैठ गए. बेतरतीब बनाई गई बैंच हमारे बैठते ही हिलने लगी, जिस से डरने के बजाय अनायास ही हमारी हंसी छूट पड़ी और मन बचपन की तरह शरारती हो उठा. फिर हम बिलकुल सधे हुए बैठे रहे.

सर्प सी लहराती हवाओं की अपनी ही संगीतमय ठसक थी. रात की बारिश से दलदली मिटटी और हवा की शीतलता से मचलते हुए मन के कहने पर मैं ने अपनी सैंडिल उतार कर एड़ियों को मिटटी में धंसा लिया.

2 प्याले मसाला चाय और आलू का पकौड़ा उस की तरफ से और्डर किया गया था. उस ने और्डर करने से पहले मुझ से मेरी पसंद के बारे में नहीं पूछा था. शायद इसलिए क्योंकि इस के अलावा वहां कुछ ऐसा था भी नहें जिसे मंगवाया जाता.

चाय आने तक समय जरा भी नहीं खला था.

देवदार के बड़े वृक्ष और जड़ीबूटियों के छोटेछोटे पौधे, दूरदूर तक फैली हरियाली, कहींकहीं ऊंची घास की हवा से अठखेलियां और चारों ओर फैला सन्नाटा, सूखे हुए पत्तों का ढेर जिस पर हमारे पैर पड़ने से खड़खड़ाने की आवाज सुनाई दे रही थी.

ठंडी हवाएं और प्रकृति का अवर्णनीय सौंदर्य देख कर हम दोनों ही अभिभूत थे. ऐसा मुझे इसलिए लगा क्योंकि उस ने अपनी दोनों हथेलियों को जोड़ कर घुटनों के बीच में छिपा लिया था और पलकों को बंद कर वह सुकून की मुद्रा में बैठी थी. मैं उसे देख कर मुसकरा उठी थी. उस की सौम्यता मुझे छू रही थी. न जाने क्यों उस का साथ मुझे नया सा नहीं लगा, शायद हमारी जड़ें बहुत गहरी जुड़ी थीं.

मुझे मेरी कहानी मिल रही थी और उसे मेरा साथ भा रहा था. क्या वह ऐसी ही है या मुझे देख कर ऐसा जता रही है? इन सवालों के कई जवाब मेरे दिमाग में इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे.

अभी वह बात करने की मुद्रा में नहीं थी. खोई हुई थी. यह मैं ने उस के मौन से जान लिया था. एकसाथ 2 दुनियाओं में रहना आसान नहीं होता, ऐसा कुछ खास लोगों के हिस्से में ही होता है. मैं समझ चुकी थी, वह खास है और वह मुझे खास समझती रही, यह अलग बात है.

पकौड़े एकदम गरम थे, इतने कि उस की भाप और हमारी सांसों की भाप मिल कर एक हो गए थे. स्नेह का रस सूख न जाए, इसलिए चाय की चुस्की के साथ मैं ने ही चुप्पी को तोड़ा- ‘वाह, मजा आ गया. गरमागरम चायपकौड़ा आज वैसा ही मजा दे रहा है जैसा बचपन में दिया करता था.’

वह मुसकराई, फिर खिलखिला कर जाड़े की धूप सी गुनगुनी हंसी बिखेर दी. मेरा जिस्म उस गुनगुनी धूप की गरमाहट से भर उठा. हम दोनों ने ही उस गुनगुनाहट को खूब महसूस किया था.

उस ने एक घंटा वहां बैठ कर इतने सवाल कर डाले जो हमारी गहरी दोस्ती के लिए काफी थे. जिस में मुख्यतया हमारी पसंदनापसंद, शौक और विचार शामिल थे. परिवार को ले कर भी दोचार बुनियादी सवाल किए गए थे, मगर वे सिर्फ औपचारिक तौर पर, ज्यादा रुझान तो व्यक्तित्व पर केंद्रित था.

मैं ने उस के शोध को ले कर कुछ जिज्ञासा जरूर दिखाई थी वह भी लेखनिए मांग को ले कर वरना तो लखनऊ की आलिया और जबलपुर की आराधना की मित्रता तो किसी पुराने पेड़ की जड़ों जैसी गहरी जम रही थी.

इस बीच, हम एकएक चाय पूरी शिद्दत से और डकार चुके थे, फिर से कुछ पकौड़े भी. इस दौरान वह नाटा, छोटी आंखों वाला व खूबसूरत सा नौजवान हमारी बातों का आनंद उठा रहा था. उस का सिर झुका कर बेवजह का मुसकराना इस बात की गवाही थी. वही हमारी टेबल पर चाय और पकौड़े सर्व करने आया था. जिस टेबल पर लकड़ी की गांठों के कई बड़े होल थे. बातचीत के दौरान कई बार आलिया ने उन खाली छेदों में यों ही अपनी उंगली को घुमाया था बिलकुल किसी उतावले और चुलबुले बच्चे की तरह.

इस एक घंटे की मुलाकात के बाद जब हम उठे तो उस ने मेरा हाथ अपने दोनों हाथों से कस कर पकड़ रखा था. मैं ने हौले से ढील देने की कोशिश की तो उस के हाथ का दबाव और बढ़ गया. मैं समझ गई, वह मेरा हाथ पकड़े रहना चाहती है. इसलिए मैं ने उसे वैसे ही रहने दिया. हम यों ही साथसाथ बहुत दूर तक चलते रहे. पहाड़ी रास्तों से सटे सागौन के पेड़ और ढलानों पर फिसलती सी ऊंची घास से होते हुए हम काफी दूर निकल आए थे जहां से हमें अपना होटल किसी कैनवास पर बने चित्र की तरह दिखाई दे रहा था. उस ने इशारे से मुझे होटल दिखाया और बच्चों की तरह चहक कर बोली- ‘काश, मुझे पेंटिंग आती तो यह खूबसूरत नज़ारा कैद कर लिया होता.’

मैं मुसकरा उठी और मन ही मन कहने लगी, तुम वास्तव में चित्रकार हो जिस मन में प्रेम के, भावनाओं के और जिज्ञासा के चित्र खिंचते हुए देखे हैं मैं ने. उस ने जैसे मेरे मन की गति को पढ़ लिया हो, चिरपरिचित मुसकान बिखेर दी. एक बार को मुझे लगा कि कहीं शब्द मेरे मुंह से बाहर तो नहीं निकल गए थे, निकले तो नहीं, अगर निकलते तो अच्छा होता. कई बार शाब्दिक प्रभाव चुंबक की तरह होता है, जो परस्पर खिंचाव के लिए जरूरी भी होता है.

शाम ढल चुकी थी. पूरे दिन का हिसाबकिताब न मेरे पास था और न ही उस ने रखा होगा. बस, उस एक दिन में एक जन्म की बातों का आदानप्रदान हुआ, जो आज तक किसी से नहीं हुआ.

हमारे कदम वापस होटल की तरफ बढ़ने लगे.

‘दिल आने की बात है जब कोई लग जाए प्यारा, दिल पर किस का जोर है यारो, दिल के आगे हर कोई हारा…’  चलतेचलते मुझे देख कर उस का यह गीत गुनगुनाना, फिर हौले से मुसकरा देना बड़ा ही सुखद था.

उस रात मैं देर तक जागी. जब तक नींद नहीं आई, दिमाग में वही किसी खूबसूरत एहसास की तरह छाई रही. उस से मिल कर इतना तो जान ही लिया कि उस के पास उल्लास तो है पर रास्ता नहीं. वह अपनी सात्विकता, पवित्रता का प्रमाण देना चाहती है पर क्यों? भ्रम की स्थिति बढ़ने से पहले ही संकोच की परिधि को तोड़ना होगा. आंखें बंद कर मैं दूर पहाड़ी पर बज रहे गीत को सुनने लगी थी…’अजनबी कौन हो तुम, जब से तुम्हें देखा है, सारी दुनिया मेरी आंखों में सिमट आई है…’ मीठे एहसास और मधुर संगीत मिल कर एक हो गए थे और फिर पता नहीं कब मेरी आंख लग गई थी.

अगली सुबह अंगड़ाई ले कर जब मैं उठी तो 9 बज चुका था, ‘उफफफफफ, इतना लेट’  अभी सोच ही रही थी कि घड़ी की सुईयां मुंह चिढ़ा कर कहने लगीं- और देर तक जागो…हा-हा-हा…धूप चढ़ आई है…उठिए मैडम…या चाय मंगवा दूं पहले? हा-हा-हा…’ मैं ने उसे थप्पड़ दिखाया- चुप कर, अब आगे बोली न, तो पिटेगी.

मैं उस से झगड़ कर उठ तो बैठी मगर, आलिया के व्यक्तित्व से बाहर नहीं आ पाई थी. मैं ने मन ही मन निश्चय किया कि हम चाय साथ ही पिएंगे, इंटरकौम से रूमसर्विस पर फोन किया कि ‘रूम नंबर ट्रिपल वन से मिस आलिया को मेरे रूम में भेज दें.’  उधर से जवाब सुन कर मैं सन्न रह गई. दिल को गहरा आघात लगा. रिसैप्शन से पता लगा, आज सुबह 7 बजे ही उस ने होटल से चैकआउट कर लिया है.

‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. आलिया, यों अचानक… नहीं, वह मुझे बताए बगैर नहीं जा सकती…’ मैं दौड़ कर रिसैप्शन पर पहुंची शायद कोई मैसेज या खत छोड़ा हो उस ने. कुछ भी नहीं. न कोई संदेश न खत. मैं टूट सी रही थी. एक अनजान लड़की मेरे सारे शरीर की ताकत को खींच कर ले गई थी. भारी कदमों से अपने रूम की तरफ लौटने लगी. उस के बाद न तो चाय का और्डर किया गया और न ही कोई दूसरा काम. सारा दिन यों ही बिस्तर पर औंधी पड़ी रही. ‘वह कौन थी? क्यों आई थी एक दिन के लिए मेरे पास? ये ऐसे तमाम सवाल थे जो भीतर ही भीतर उबल रहे थे. अव्यवस्थित मनोस्थिति, अंतर्वेदना से कराह रही थी.

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