फिल्म निर्माता, निर्देशक की किस प्रौब्लम का जिक्र कर रहे है एक्टर Manoj Bajpayee

फिल्म ‘बेंडिटक्वीन’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी को फिल्म ‘सत्या’ से प्रसिद्धी मिली. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.बिहार के पश्चिमी चंपारण के एक छोटे से गाँव से निकलकर कामयाबी हासिल करना मनोज बाजपेयी के लिए आसान नहीं था. उन्होंने धीरज धरा और हर तरह की फिल्में की और कई पुरस्कार भी जीते है.बचपन से कवितायें पढ़ने का शौक रखने वाले मनोज बाजपेयी एक थिएटर आर्टिस्ट भी है. उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी  में हर तरह की कवितायें पढ़ी है. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है.ओटीटी पुरस्कार की प्रेस कांफ्रेंस में उपस्थित मनोज बाजपेयी कहते है कि ओटीटी ने फिल्म इंडस्ट्री को एक नई दिशा दी है, पेंड़ेमिक और लॉकडाउन में अगर इसकी सुविधा नहीं होती, तो लोगों को घर में समय बिताना बहुत मुश्किल होता,वे और अधिक तनाव में होते. हालांकि अभी भी लोग थिएटर हॉल जाने से डर रहे है, क्योंकि ओमिक्रोन वायरस एकबार फिर सबको डरा रहा है.

करनी पड़ेगी मेहनत

आज आम जनता की आदत घरों में आराम से बैठकर फ़िल्में अपनी समय के अनुसार देखने की है,ऐसे में फिल्म निर्माता, निर्देशक, लेखक और कलाकार के लिए थिएटर हॉल तक दर्शकों को लाना कितनी चुनौती होगी ?पूछे जाने पर मनोज कहते है कि सेटेलाइट टीवी, थिएटर, ओटीटी आदि ये सारे मीडियम रहने वाले है. लॉकडाउन के बाद थिएटर हॉल में दर्शकों की संख्या कम रही, पर सूर्यवंशी फिल्म अच्छी चली है. दर्शकों को समय नहीं मिल रहा है कि वे कुछ सोच पाए और हॉल में बैठकर फिल्म का आनंद उठाएं. कोविड वायरस उन्हें समय नहीं दे रहा है. असल में सभी की आदत बदलने की वजह पेंडेमिक है,जो पिछले दो सालों में हुआ है, इसे कम करना वाकई मुश्किल है.इसके अलावा इसे आर्थिक और सहूलियत से भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि अब दर्शक घरों में या गाड़ी में बैठकर अपनी पसंद के अनुसार कंटेंट देख सकते है, इसमें उन्हें थोड़े पैसे में सब्सक्रिप्शन और इन्टरनेट की सुविधा मिल जाती है और वे एक से एक अच्छी फिल्में देख सकते है, इसमें पैसे और समय दोनों की बचत होती है. फिल्म निर्माता, निर्देशक, कहानीकार, कलाकार आदि सभी के लिए ये एक चुनौती अवश्य है, क्योंकि फिर से लार्जर देन लाइफ’ और अच्छी कंटेंट वाली फिल्में देखने ही दर्शक हॉल तक जायेंगे और इंडस्ट्री के सभी को मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन मैं इतना मानता हूँ कि कोविड सालों तक रहने वाली नहीं है, उम्मीद है वैज्ञानिक जल्द ही इस बीमारी की दवा अवश्य खोज लेंगे और तब सुबह एक टेबलेट लेने से शाम तक व्यक्ति बिल्कुल इस कोविड फीवर से स्वस्थ हो जाएगा. तब दर्शक बिना डरे फिर से थिएटर हॉल में आयेंगे. इसके अलावा ओटीटी की वजह से नए और प्रतिभाशाली कलाकारों को देखने का मौका मिला है, जो बिग स्टार वर्ल्ड लॉबी से दूर अपनी उपस्थिती को दर्ज कराने में सफल हो रहे है, जिसमें नए निर्देशक, लेखक, कलाकार, एडिटर, कैमरामैन आदि सभी को काम मिल रहा है.

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आहत होती है क्रिएटिविटी

कई बार ओटीटी फिल्मों में कुछ अन्तरंग दृश्य या अपशब्द होते है, ऐसे में कई बार फिल्म निर्देशकों और कलाकारों को धमकी मिलती है कि वे ऐसी फिल्में न बनाये और न ही एक्टिंग करें, क्योंकि ये समाज के लिए घातक साबित हो सकती है.फिल्म बनाने वाले पर ऐसे लोग अपना गुस्सा भी उतारते है. इसके अलावा कुछ लोग इन फिल्मों पर सेंसर बोर्ड की सर्टिफिकेशन करने पर जोर देते आ रहे है. इस बारें में मनोज बाजपेयी कहते हैकि डर के साये में क्रिएटिविटी पनप नहीं सकती. सुरक्षा के लिए कठिन कानून होनी चाहिए, क्योंकि क्रिएटिव माइंड पर किसी की दखलअंदाजी से क्रिएटिव माइंड मर जाती है. किसी भी फिल्म को बनाने में सालों की मेहनत होती है, अगर उसमें कोई दूसरा आकर कुछ बदलाव करने को कहे, तो उस फिल्म को दिखाने का कोई अर्थ नहीं होता. समाज के आईने को उसी रूप में दिखाने के उद्देश्य से ऐसी फिल्में बनती है. दर्शकके पास सही फिल्म चुनने का अधिकार होता है.वे ही तय करते है कि फिल्म या वेब सीरीज उनके या उनके बच्चे देखने के लायक है या नहीं. सेंसर बोर्ड किसी फिल्म को पूरा करने में निर्माता, निर्देशक के साथ नहीं होता, इसलिए वे सालों की मेहनत को नहीं समझते, लेकिन वे सर्टिफाइड करते है, इससे फिल्म की कंटेंट का अस्तित्व समाप्त हो जाता है.

एक्टर बनने की थी चाहत

मनोज बाजपेयी पिछले 25 साल से काम कर रहे है और उन्होंने हर चरित्र को अपनी इच्छा के अनुसार ही चुना है. बचपन की दिनों को याद करते हुए मनोज कहते है कि मुझे छोटी उम्र से फिल्में देखने का शौक था और मेरे पिता मुझे कभी-कभी शहर ले जाकर फिल्में दिखाते थे, तब उस छोटे से पंखे वाली हॉल में देखना भी अच्छा लगता था. थिएटर से मैं फिल्मों में आया और मुझे हमेशा अनुभवी कलाकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला है. सभी ने मुझे सहयोग दिया, इसलिए आज मैं भी जरूरतमंद को सहयोग करता हूँ.

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वेब सीरीज ‘ Dil Bekraar’ में नजर आएंगी एक्ट्रेस Poonam Dhillon, पढ़ें इंटरव्यू

1980 के दशक की कामयाब, खुबसूरत और ग्लैमरस लुक की धनी अभिनेत्री पूनम ढिल्लों किसी परिचय की मोहताज़ नहीं. उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखी है, पहली फिल्म ‘त्रिशूल’ की सफलता के बाद फिल्म ‘नूरी’ जो बहुत कम बजट में बनाई गयी हिट फिल्म थी. अभिनेता फारुख शेख के साथ बनी इस फिल्म को दर्शकों का प्यार खूब मिला. इससे पूनम इंडस्ट्री पर राज करने लगी और उनकी अधिकतर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर हिट रही. पूनम ने हिंदी फिल्मों के अलावा साउथ की फिल्मों में भी काम किया है.

पूनम को जितनी सफलता फिल्मों में मिली, उतनी उनके निजी जीवन में प्यार के रूप में नहीं मिली. उनके प्यार के चर्चे रमेश तलवार, राज सिप्पी और अशोक ठाकरिया से रही. किसी कारणवश रमेश तलवार और राज सिप्पी के प्यार को छोड़कर पूनम ने निर्माता अशोक ठाकरिया से शादी की और दो बच्चों,अनमोल और पालोमा की माँ बनी. पति की एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर और पत्नी पर ध्यान न देने की वजह से पूनम ने बच्चों की कस्टडी अपने पास रखकर साल 1997 में तलाक लिया. पूनम ने फिल्मों के अलावा थिएटर और टीवी में भी काम किया है. वह 100 से अधिक फिल्में कर चुकी है. अभी उनकी वेब सीरीज ‘दिल बेक़रार’ डिजनी + हॉटस्टार पर रिलीज होने वाली है. इसे पेंड़ेमिक के दौरान बहुत मुश्किल से शूट किया गया है. पूनम से उनकी जर्नी के बारें में वर्चुअली बात की, पेश है कुछ खास अंश.

सवाल – इस वेब सीरीज को एक्सेप्ट करने की खास वजह क्या है?

जवाब –पहले थोड़ी सोच थी कि ये कैसी होगी और मेरा करना सही होगा या नहीं,क्योंकि वेब के दर्शक अलग होते है और कंटेंट भी अलग होते है. पिछले कुछ सालों में वेब सीरीज बहुत पोपुलर हो चुकी है और इसकी पहुँच भी बहुत अधिक है. इसके अलावा एक अच्छी कहानी,अच्छी सेटअप, सही निर्देशक और अच्छे साथी कलाकार हो, तो अधिक सोचने और झिझकने की जरुरत नहीं होती.

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सवाल –क्या आप पहले की प्यार आज के प्यार में कुछ अंतर पाती है?

जवाब – पहले और अब की प्यार में कोई अंतर नहीं होती, क्योंकि व्यस्क होना कुदरती है. समय के साथ सब कुछ बदलती है, हाँ इतना जरुर है कि ये कहानी 80 के दशक की है, अब देश इलेक्ट्रोनिकली काफी आगे बढ़ चुका है. फ़ोन, गाड़ी, वीडियोज, टीवी,रिकार्ड्स, आदि कई चीजे है, जिसका मॉडर्न रूप हमारे सामने है, लेकिन रिश्ते और इमोशन वैसे ही रहते है, केवल भाषा थोड़ी बहुत बदल जाती है, कुछ नए शब्द इसमें जुड़ जाते है. हमारे ज़माने में चीजें थोड़ी साधारण हुआ करती थी. आज की जेनरेशन ने कभी फ़ोन डायल नहीं किया होगा, बटन प्रेस किया है. चीजे बदलती है, जबकि कुछ एक जैसी ही रहती है.

सवाल – आज के समय में रिश्तों की अहमियत बहुत कम रह गयी है, क्योंकि अधिकतर यूथ जॉब की तरह रिश्ते बदलते रहते है, इस बारें में आपकी राय क्या है?

जवाब – ये एक बड़ी चर्चा का विषय है, लेकिन मैं इसमें इतना कहूंगी कि 80 के दशक में हम सभी को कहीं भी जाना हो, माता-पिता को बताकर जाना था. मैं जितनी भी बड़ी हो जाऊं, पर बोलकर ही कही जाना पड़ता था. ये एक प्रकार का सिस्टम परिवार में होता था. आज के बच्चों में भी ऐसे संस्कार होने चाहिए. वे कही जाने पर पेरेंट्स को बताएं, क्योंकि उन्हें समझना है कि पेरेंट्स हर काम बच्चों की भलाई के लिए ही करते है. उन्हें अपमानित करना या दोषी बताना ठीक नहीं. इसके अलावा ये भी सही है कि आज के बच्चे माता-पिता से दूर पढने या जॉब करने चले जाते है. मेरी बेटी और बेटा जब भी बाहर जाते है, मेरे फ़ोन करने पर वे मुझे निश्चित होकर सोने को कहते है, लेकिन मुझे नींद तब तक नहीं आती, जब तक बच्चे घर नहीं आ जाते. पेरेंट्स की फ़िक्रमंदी उन्हें समझ में नहीं आती.

सवाल – ये कहानी 80 के दशक की किस बात बताने की कोशिश कर रही है?

जवाब – इसमें 80 के दशक की पोलिटिकल और सोशल इवेंट्स किस तरीके की होते थे, जिसमें लोगों की सोच और नजरिये को बताते हुए नई जेनरेशन के विचार को दर्शाने की कोशिश की गई है. ये एक पारिवारिक कहानी है, जिसमें बच्चे का बड़े होना, जॉब करना, शादी करना आदि कई चीजों को शामिल किया गया है और ये हर परिवार में होता है, ये एक नार्मल फीचर है. 80 के दशक को पृष्ठभूमि में रखते हुए नई जेनरेशन को दिखाने की कोशिश की गयी है.कुछ सालों पहले जहाँ एक गाडी के बीच रास्ते में रुक जाने पर सभी लोग कार से उतरकर धक्का मारते है, पर उन्हें इसमें कोई शर्म नहीं, बल्कि अपने पास गाडी होने का गुमान होता था.

सवाल –आपने काफी दिनों बाद ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कदम रखी है, जबकि उस समय के काफी कलाकार काम कर रहे है, इसकी वजह क्या रही?

जवाब –मैंने रैट रेस में नहीं पड़ते हुए और अपनी सुविधा के अनुसार परिवार की देखभाल करते हुए काम किया है. जब कभी लगता है कि अगले 6 महीने फिल्म या टीवी नहीं कर सकती तब मैंने काम आने पर भी उसे छोड़ दिया, क्योंकि इस उम्र में मुझे किसी के साथ किसी प्रकार की कॉम्पिटिशन नहीं करना है. लाइफ में कम्फर्ट जरुरी है और मैं खुद का ध्यान रखती हूं. इतने सालों से काम कर रही हूं और अब प्रायोरिटी थोड़ी अलग हो चुकी है.

सवाल – आपके बच्चों का रुझान किस क्षेत्र में है?

जवाब –मेरे बेटे की एक फिल्म ओटीटी पर रिलीज हुई है, क्योंकि लॉकडाउन था और हॉल बंद थे. अभी वह दूसरे प्रोजेक्ट पर काम कर रहा है. बेटी की इच्छा फिल्मों में आने की है, लेकिन अभी कोई निर्णय उसने नहीं लिया है.

सवाल – आपने बहुत कम उम्र से अभिनय की शुरुआत की और कामयाब रही, क्या फिल्म इंडस्ट्री में किसी प्रकार की बदलाव महसूस करती है?

जवाब – आज कहानियां काफी रीयलिस्टिक हो चुकी है. मसलन अगर एक कहानी एक बच्चे पर है, तो पूरी कहानी उस बच्चे के इर्दगिर्द घूमती हुई बन जाती है. इसके अलावा बायोपिक्स का दौर भी आ चुका है. पहले पुराने हिस्टोरिकल चरित्र पर बायोपिक फिल्में बनती थी, जबकि आजकल जीवित व्यक्ति की भी बायोपिक बन जाती है. पहले ऐसी जीवंत लोगों के बारें में कोई सोच भी नहीं सकता था.

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सवाल – आपकी इतनी फिल्मों में कौन सी फिल्म आपके दिल के करीब है और क्यों?

जवाब – उस समय काम बहुत अधिक हुआ करते थे,हॉल में जाकर फिल्मे देखना संभव नहीं था. बाद में डीविडी आई तो कुछ फिल्में मैंने देखी, पर अपनी नही, क्योंकि अपनी फिल्मों को देखने में कोई मज़ा नहीं था. कई बार लोग कहते है कि मेरी फिल्म टीवी पर आ रही है, तो मैं उसे देख लेती हूं. शूटिंग, डबिंग के बाद फिल्म थिएटर में आ गयी, बस मेरा काम खत्म हो जाता था, लेकिन अब जब देखती हूं तो लगता है कि कुछ आलोचना खुद को ही कर लेना आवश्यक है. मेरी फिल्म सोहनी महिवाल बहुत अच्छी बनी थी. मेरे हिसाब से एक नोस्टाल्जिया होती है और उसे याद करना अच्छा लगता है. इसके अलावा नूरी फिल्म इतनी इम्पैक्टफुल फिल्म होगी, मुझे पता नहीं था, क्योंकि उस समय मेरी उम्र भी कम थी. इस फिल्म को बहुत सादगी से बनायीं गयी है और इसके गाने एवरग्रीन है.

सवाल – अभी घर पर आपकी रूटीन कैसी होती है?

जवाब –हर एक हाउसवाइफ की तरह मैं घर की देखभाल करती हूं, एक जमाना था, जब हमें सामान खरीदने बाज़ार जाना पड़ता था, अब घर पर एक फोन कॉल से समान घर पहुँच जाता है. कई बार मैं बच्चों को इसकी दायित्व लेने के लिए कहती हूं. इसके अलावा थोड़ी वर्कआउट भी करती हूं.

सवाल – क्या कोई मेसेज देना चाहती है?

जवाब – आज की महिलाएं घर और जॉब दोनों को आसानी से सम्हाल लेती है. इसलिए उन्हें जो भी काम पसंद हो, उसे करें, छोड़े मत.

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आजादी, भीख : कंगना रनौत का सरंक्षण और विकृति

-“देश को आजादी भीख में मिली है.” ऐसा दुस्साहस पुर्ण वक्तव्य देकर फिल्मी दुनिया में अपना एक वजूद बनाने के बाद कंगना राणावत क्या इतनी बड़ी शक्ति हो चुकी है कि देश का प्रधानमंत्री कार्यालय अर्थात पीएमओ, केंद्र सरकार और कानून, उच्चतम न्यायालय असहाय हो गया है?

क्या कंगना राणावत को कोई अदृश्य संरक्षण मिला हुआ है? साफ साफ ये कहना कि 1947 में मिली हुई आजादी हमें भीख में मिली है और इसके बाद यह कहना कि आजादी तो 2014 के बाद मिली है यानी नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार आने के बाद.
इस कथन में यह साफ दिखाई देता है कि इस सोच के पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही है और देश को कहां ले जाना चाहती है.

दरअसल, कंगना राणावत को जिस तरीके से “पद्मश्री” मिला है जिस तरीके से उसकी हर गलत नाजायज बातों को हवा दी जा रही है वह देश हित में तो नहीं है. मगर एक विशेष विचारधारा और राजनीतिक दल को यह सब सुखद लगता है. परिणाम स्वरूप कंगना राणावत देश में आज चर्चा का विषय बन गई है और कानून के लिए एक चुनौती भी.

आज देश की आम जनता को यह सोचने समझने का गंभीर समय है. जब ऐसे समय में देश की महान विभूतियां स्वतंत्रता सेनानियों पर कोई एक महिला प्रश्न खड़ा कर रही है, जब किसी एक महिला कि यह हिमाकत हो सकती है कि आजादी को भीख कह दे, तो यह समय चिंता करने का है और अपनी धरोहर को समझने का और संभालने का भी है.

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क्योंकि एक प्रवक्ता की तरह जिस तरह कंगना राणावत ने मोर्चा संभाला है, यह जगजाहिर कर चुका है कि आने वाले समय में कंगना कन्हैया कुमार की तरह जेल नहीं जाएंगी. बल्कि उनके पक्ष में हो सकता है कुछ और बड़े नामचीन लोग आकर खड़े हो जाएं और बातों को ट्विस्ट करने लगें. आज का समय ऐसा ही है आजकल पुराने ऐतिहासिक तथ्यों को समाप्त करने का और एक नए युग का निर्माण का भ्रम पालने वाले लोगों का है.

शायद यही कारण है कि रातों-रात यह निश्चय कर लिया गया कि एक नया संसद भवन बनाना चाहिए गांधी जी की, और नेहरू के इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के उन ऐतिहासिक चिन्हों को नष्ट कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वहां पर हमें अच्छा करना है!
यह अच्छा करने का भ्रम पैदा करके महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य और स्थानों को नष्ट करने का प्रयास जारी है.

 

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इसी क्रम में हमने देखी है नोटबंदी,ताकि नोट से गांधी जी को हटा दिया जाए. हालांकि यह हो नहीं सका. मगर लोगों के दिलों दिमाग से देश के महान विभूतियों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को खत्म करने कि यह जो सोच है यह अपना काम आज तेजी से कर रही है. क्योंकि वह आज पावरफुल है. ऐसे में यही कहा जा सकता है कि यह देश यह धरोहर आज की पीढ़ी की हाथों में है वह इसे कैसे संभाल पाएगी या फिर नष्ट होने देगी यह उन्हीं के कांधे पर है.

जैल भेजें, कानून के रखवाले

छोटी-छोटी बातों पर देश की बात करने वाले, देशभक्ति की बात करने वाले आज कसौटी पर हैं. क्योंकि आज कंगना राणावत ने देश की आजादी को भी हमें भीख में मिलने का कथन कह कर इन सारे देश भक्ति की हिमायत करने वालों को कटघरे में खड़ा कर दिया है.सवाल है अगर कोई अपना गलत बोलता है तो उसे छूट मिल सकती है क्या? यह प्रश्न भी आज उन लोगों के सामने खड़ा है जो देश और देश भक्ति का राग अक्सर बिला वजह अलापते रहते हैं, और जब आज समय कुछ करने का है, तो मौन है.
आज महाभारत के पात्र समय के उद्घोष का है यानी “समय” चेहरे देखने का है और चेहरे से नकाब उतरते हुए देखने का भी.
सचमुच सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए दोहरे चरित्र के लोगों का सच आज धीरे-धीरे देश की जनता के सामने आता चला जा रहा है.

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रेटिंगः दो स्टार

निर्माताः करण जोहर,रोहित शेट्टी, केप आफ गुड फिल्मस और रिलायंस इंटरटेनमेंट

निर्देशकः रोहित शेट्टी

कलाकारः अक्षय कुमार,कटरीना कैफ,अजय देवगन,रणवीर सिंह,कुमुद मिश्रा,जावेद जाफरी,अभिमन्यू सिंह, राजेंद्र गुप्ता ,निहारिका रायजादा, निकितन धीर,विवान भथेना,

अवधिः दो घंटा 25 मिनट

लगभग पौने दो वर्ष बाद मुंबई के सभी सिनेमाघर पचास प्रतिशत की क्षमता के साथ 22 अक्टूबर से खुल चुके हैं. लेकिन अफसोस अब तक एक भी फिल्म दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर पायी है.  फिल्म जगत से जुड़े लोगों को आज 5 नवंबर को देश विदेश के सिनेमाघरों में पहुॅची रोहित शेट्टी की महंगी और मल्टीस्टारर एक्शन मसाला फिल्म ‘‘सूर्यवंशी’’से काफी उम्मीदें थी.  कोविड महामारी के बाद भारतीय सिनेमा की जो दयनीय स्थिति हो गयी है,उसे सुधारने के लिए आवश्यक है कि लोग सिनेमा देखने सिनेमाघर के अंदर जाएं.  हम भी चाहते है कि लोग पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने सिनेमाघर में जाएं. मगर रोहित शेट्टीे की फिल्म ‘‘सूर्यवंशी’’ को दर्शकों का साथ मिलेगा,ऐसी उम्मीद कम नजर आ रही हैं. फिल्मकारों को भी  सिनेमा जगत को पुनः जीवन प्रदान करने के लिए फिल्म निर्माण के विषय वगैरह पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है.

कहानीः

रोहित शेट्टी के दिमाग मे पुलिस किरदारों की अपनी एक अलग कल्पना है. ‘सिंघम’ और ‘सिंबा’के बाद उसी कड़ी में उनकी यह तीसरी फिल्म ‘सूर्यवंशी है. जिसके प्री क्लायमेक्स में सिंबा यानी कि रणवीर सिंह और क्लायमेक्स में सिंघम यानीकि अजय देवगन भी सूर्यवंशी यानी कि अक्षय कुमार का साथ देने आ जाते हैं.

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एक काल्पनिक कथा को यथार्थ परक बताने के लिए ही रोहित शेट्टी ने फिल्म की कहानी की शुरूआत ही मार्च 1993 में मुबई में हुए लगातर सात बम विस्फोट से होती है. इस बम विस्फोट के बाद पुलिस अफसर कबीर श्राफ(जावेद जाफरी) इस बम विस्फोट के लगभग हर गुनाहगार को पकड़ लेेते हैं. मगर बम ब्लास्ट के मास्टर माइंड बिलाल (कुमुद मिश्रा) और ओमर हफीज (जैकी श्रॉफ) मुंबई में अमानवीय कांड करके पाकिस्तान भाग गए थे. पर अपने फर्ज को अपनी डॉक्टर पत्नी रिया (कटरीना कैफ) और बेटे से भी उपर रखने वाले बहादुर पुलिस अफसर सूर्यवंशी को बिलाल और ओमर हफीज की तलाश है. क्यांेकि मुंबई बम विस्फोट में सूर्यवंशी अपने माता-पिता को खो चुके हैं. कबीर श्राफ को जांच में पता चला था कि मुंबई बम विस्फोट के लिए  असल में एक हजार किलो आरडीएक्स लाया गया था, जिसमें से महज 400 किलो का इस्तेमाल करके तबाही मचाई गई थी. जबकि 600 किलो आरडीएक्स मुंबई में ही कहीं छिपा कर रखा है. अब सुर्यवंशी उसी की जांच को आगे बढ़ाते हुए सूर्यवंशी यह पता लगाने में सफल हो जाते हैं कि पिछले 27 वर्षों से आतंकी संगठन लश्कर के स्लीपर सेल फर्जी नाम वह भी हिंदू बनकर देश के विभिन्न प्रदेशों में रह रहे हैं. अब ओमर हाफिज अपने दो बेटों रियाज(अभिमन्यू सिंह) व राजा(सिकंदर खेर ) को भारत भेजता है कि वह वहां सावंत वाड़ी में उस्मानी की मदद से छिपाकर रखे गए छह सो किलो आरडीएक्स का उपयोग कर मुंबई के सात मुख्य  भीड़भाड़ वाले इलाकों में एक बार फिर बम विस्फोट कर देश को दहला दे. मगर सूर्यवंशी अपनी सूझबूझ से रियाज को गिरफ््तार कर जेल में डाल देता है. तब ओमर शरीफ पाकिस्तान से पुनः बिलाल को भेजता है. अब मुंबई को आतंकी हमले से सूर्यवंशी,सिंबा और सिंघम की मदद से किस तरह बचाते हैं,यह तो फिल्म देखकर ही पता चलेगा.

लेखन व निर्देशनः

पटकथा तेज गति की है. मगर फिल्म ‘सूर्यवंशी’ की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसकी कहानी और फरहाद सामजी के संवाद हैं. फरहाद सामजी के संवाद अति साधारण हैं.  कुछ संवाद अतिबचकाने हैं. 1993 में मुंबई आए एक टन आरडीएक्स में से मार्च 1993 में मुंबई बम विस्फोट में सिर्फ चार सौ किलो आरडीएक्स उपयोग किया गया था. बाकी की तलाश व अपराधियों को पकड़ने की कहानी में जबरन राष्ट्वाद ठूंसने की कोशिश की गयी है. एक दृश्य में मंदिर से भगवान गणेश जी की मूर्ति को स्थानांतरित करते समय मौलानाओं को गणेश जी की मूर्ति उठाते हुए दिखाया गया है. रोहित शेट्टी ने सूर्यवंशी ( अक्षय कुमार)के किरदार को जिस तरह से गढ़ा है,वह भी हास्यास्पद ही है. सूर्यवंशी( अक्षय कुमार) हमेशा अपने साथ काम करने वालों के नाम भूल जाते हैं. मगर मुस्लिमों को धर्मनिरपेक्षता, देशभक्ति और मुस्लिम कट्टरपंथियो का समर्थन देने के खतरे को लेकर भाषणबाजी देना नही भूलते.

रोहित शेट्टी ने अपनी पुरानी फिल्मों के दृश्यों को ही फिर से इस फिल्म में पिरो दिया. इसमें फिल्म में जॉन को पकड़ने के लिए सूर्यवंशी को बैंकॉक भेजने वाला पूरा घटनाक्रम अनावश्यक है. हकीकत में बतौर निर्देशक रोहित शेट्टी इस फिल्म में काफी मात खा गए हैं. फिल्म के कई दृश्यों का वीएफएक्स भी काफी कमजोर है. फिल्म में नयापन नही है. यहां तक कि रोहित शेट्टी ने क्लायमेक्स के लिए कई दृश्यों को अपनी पुरानी फिल्म ‘‘सिंघम’’से चुराए हैं.

रोहित शेट्टी ने नायक के साथ साथ खलनायकों के परिवार, उनके सुख दुःख के साथ   भावनात्मक  इंसान के रूप में दिखाया जाना गले नही उतरता.

अक्षय कुमार और कटरीना कैफ के बीच रोमांस सिर्फ एक गाने में है. कहानी की बजाय सिर्फ एक्शन देखने के शौकीन लोग जरुर खुश होंगे. रोहित शेट्टी के अंदाज के अनुरूप इसमें गाड़ियों का उड़ना नजर आता है. लेकिन यह सारे एक्शन दृश्य हौलीवुड फिल्मों के एक्शन दृश्यों से प्रेरित हैं.

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अभिनयः

अक्षय कुमार के अभिनय मे भी दोहराव ही है. वह हर दृश्य में किरदार की बजाय अक्षय कुमार ही नजर आते हैं. कटरीना कैफ  गाने ‘टिप टिप बरसा पानी’ में सेक्सी व सिजलिंग नजर आयी हैं. कुमुद मिश्रा,जैकी श्राफ और गुलशन ग्रोवर की प्रतिभा को जाया किया गया है. इनके किरदारांे के साथ न्याय नही हुआ.

सुनीता आहूजा और Govinda की मीठी लवस्टोरी, जिसे जानकर आप हो जाएंगे हैरान

अभिनेता गोविंदा यानि गोविन्द अरुण आहूजा आज भी कॉमेडी के किंग के अलावा एक शानदार डांसर, एक अभिनेता, जो अपने अभिनय की बारीकियों से कभी हँसा, तो कभी रुला देते है. पूरा देश उन्हें एक लिजेंड्री एक्टर मानता है, लेकिन उनकी पत्नी सुनीता अहुजा के लिए वे एक लविंग हस्बैंड है. गोविंदा का निक नेम ची-ची है. गोविंदा और सुनीता ने टिन एज में प्यार किया और उसे ही शादी के रूप में अंजाम दिया. कैरियर की वजह से उन दोनों नेकई सालों तक अपनी शादी को छुपाकर रखा था और शादी की 25वीं वर्षगाठ पर दोनों ने गोविंदा की माँ निर्मला देवी के कहने पर पूरी रीति-रिवाज से विवाहिता सुनीता से शादी की.

गोविंदा और सुनीता के वैवाहिक जीवन में कई उतर-चढ़ाव आये,उनकी एक बेटी केवल 4 महीने रहकर गुजर गयी थी, क्योंकि वह प्रीमच्योर बेबी थी. इसके अलावा दोनों ने हमेशा अपनी रिलेशनशिप को बनाये रखने की कोशिश की. जब गोविंदा कामयाबी की शिखर पर थे, तब उनका नाम कई हीरोइनों के साथ जोड़ा गया, जो उस समय की सुर्खिया थी, लेकिन इन दोनों ने इसकी परवाह किये बिना अपने रिश्ते को अधिक मजबूती दी. आज गोविंदा फिल्मों में कम दिखने की वजह स्क्रिप्ट का पसंद न होना है. दोनों एक अच्छी मैरिड लाइफ बीता रहे है और दोनों बच्चो टीना और यशवर्धन के साथ खुश है. गोविंदा, सुनीता और बच्चे हर साल दीपावली को साथ मिलकर मनाने की कोशिश करते है. इस साल भी वैसे ही मनाने वाले है. इसके अलावा घर पर बनी मिठाइयोंका स्वाद और दीपक से पूरे घर को सजाने वाले है. खूबसूरत और हंसमुख सुनीता ने खास गृहशोभा के लिए बात की,आइये जानते है, उनकी रोमांटिक और स्वीट लव स्टोरी.

सवाल- आप दोनों की लव स्टोरी में कितनी चुनौती रही, सुनीता?

जवाब – हम दोनों ने कम उम्र में प्यार किया था, मैं उस समय 15 साल की थी. मेरी शादी 18 वर्ष में हो गयी और 19 वर्ष में टीना पैदा हो गयी. प्यार जब होता है, तो किसी प्रकार की चुनौती दिखाई नहीं पड़ती. बचपन का प्यार अंधा होता है(हंसती हुई).

सवाल – सुनीता, प्यार हुआ कैसे ? किसने पहले प्रपोज किया?

जवाब – मेरे बहन की शादी गोविंदा के मामा निर्देशक आनंद सिंह से हुई थी. स्ट्रगलिंग टाइम में गोविंदा, जीजा यानि मेरे दीदी के पास 3 साल तक रुके थे. पहली फिल्म ‘तन-बदन’ के लिए मेरे जीजाजी ने साईन करवाया था. पिक्चर की मुहूरत पर मैं, मेरी बहन , भाई और गोविंदा गाड़ी में आ रहे थे. गोविंदा ने मेरे पीठ के पीछे अपना हाथ रखे थे, मैंने उनके हाथ को पकड लिया और आज तक नहीं छोड़ा. 3 साल तक हमने डेटिंग की उसके बाद शादी की.

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(हंसती हुई) असल में मेरी एक लव लैटर को मेरे जीजाजी ने देखलियाऔर हमारे लव के बारें में उनको पता चला, उन्होंने मेरा कान पकड कर पूछा, क्या ये सच है? मैंने हाँ कह दी. इसके बाद गोविंदा ने ही मुझे 2 से 3 साल सेटल्ड होने के लिए समय माँगा था,मैं राजी हो गयी. पहले सान्ताक्रुज़ में केवल वन रूम और किचन था, जब जुहू में उन्होंने वन बेडरूम, हॉल और किचन लिया, तब मेरी सास ने बेटे को शादी करने के लिए कहा, फिर शादी हुई.शादी के बाद मैं प्रेग्नेंट हो गयी, लेकिन गोविंदा ने शादी को डिसक्लोज नहीं किया था, क्योंकि उस समय शादी हो जाने पर एक्टर की फैन फोलोइंग लड़कियों की कम हो जाती थी. तब मैंने एक साल एक रूम में गुजारी थी, क्योंकि घर में प्रेस के लोग आते रहते थे, लेकिन किसी को पता नहीं चला कि गोविंदा की शादी हो गयी है. टीना की पहली सालगिरह पर गोविंदा की शादी की बात सबको पता लगा था.

सवाल – एक कामयाब हीरो की पत्नी होना कितना कठिन रहा?

जवाब–एक एक्टर की पत्नी होना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि हमेशा कुछ न कुछ अखबारों और मैगज़ीन में छपते रहते थे. असल में मैं बिंदास स्वभाव की हूँ, कोई कुछ बोले मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. लोग कई बार कहते थे कि गोविंदा कभी किसी के साथ तो कभी किसी के साथ उन्होंने देखा है. मैं उस व्यक्ति को डांटती और कहती थी कि हीरो है, उसे करने दो, क्योंकि काम नहीं करेंगे तो इंसान पैसा कैसे कमाएगा. अगर मैं गोविंदा से इधर-या उधर जाने से मना करूँ, तो ये कैसे काम करेंगे. मुझे तो पहले से ही पता था कि ये हीरो है. इसके अलावा मेरी और गोविंदा के बीच एक मधुर रिश्ता और विश्वास था, जिसकी वजह से हमारा प्यार हमेशा कायम रहा.

सवाल – वैवाहिक जीवन के 3 दशक बीत जाने के बाद भी आपदोनों के रिश्ते में कभी कडवाहट नहीं आई, इसकी वजह क्या रही, सुनीता?

जवाब– यंग एज को हम दोनों ने कभी स्वाभाविक रूप से नहीं बिताया, क्योंकि गोविंदा बहुत बिजी रहते थे, कही घूमने जाना, रेस्तरां में खाना, थिएटर हॉल में पिक्चर देखना आदि साधारण लोगों की तरह मैं कभी कर नहीं पाई. कही अगर जाएँ भी तो लोग उनके साथ पिक्चर्स या औटोग्राफ लेना शुरू कर देते थे, ये अच्छी बात है कि उनकी पॉपुलैरिटी इन्हीं सब से होता है, लेकिन प्राइवेसी कभी नहीं मिली, ऐसी कई चीजो को मुझे समझना पड़ा.

सवाल– क्या परदे पर सबको हंसाने वाले गोविंदा का घर पर भी वैसा ही स्वभाव रहता है?

जवाब–घर पर भी वैसे ही हँसते रहते है, वे मेरे बिना कभी आउटडोर नहीं जाते थे, क्योंकि घर में मैं ही हंसने खेलने वाली हूँ. अभी भी गोविंदा मुझमें बचपना ही देखते है और कहते है कि मैंने तुम्हे शादी नहीं गोद लिया हुआ है, क्योंकि तुम बड़ी नहीं होती. अभी मैंने 50 साल पूरा किया है और आगे 100 साल तक ऐसी ही रहूंगी. उम्र होगया है, पर मैं अपने स्वभाव को नहीं बदल सकती. शादी के इतने दिन हो गए है, लेकिन अभी भी नोक-झोंक चलती रहती है. गोविंदा बहुत शांत प्रकृति के है, लेकिन मुझे गुस्सा बहुत तेज़ आता है.

सवाल– ऐसा सुनने में आता है कि गोविंदा एक दिन में कई फिल्मों की शूटिंग करते थे, ऐसे में उनसे कुछ बात कहनी हो, तो कैसे कह लेती थी?

जवाब–किसी बात को उन्हें कहना कभी भी मुश्किल नहीं रही, वे एक शांत और हंसमुख व्यक्तित्व के इन्सान है, व्यस्तता के बीच में उन्होंने परिवार का ध्यान हमेशा रखा है. इसके अलावा शादी के बाद टीना पैदा हुई और मैं उसमें व्यस्त हो गयी, ऐसे में बच्चों को सही पालन-पोषण देना ही मेरा मुख्य उद्देश्य रहा, अब बच्चों के बड़े हो जाने पर मैं उनका सब काम सम्हालती हूँ और उनके साथ ट्रेवल भी करती हूँ.

सवाल– आपसी मनमुटाव होने पर कौन किसे पहले मनाता है?

जवाब– गोविंदा ही मनाते है और खुश करने के लिए ज्वेलरी दिला देते है या फिर शोपिंग पर जाने के लिए कहते है. मैं बहुत हठी हूँ और जल्दी मानती नहीं.

सवाल – गोविंदा का नाम अभिनेत्री नीलम कोठारी के साथ बहुत बार उछाला जाता रहा है,उन दोनों की जोड़ी को दर्शक पसंद करते थे, इसलिए दोनों ने साथ-साथ बहुत सारी हिट फिल्में दी, ऐसे में आपके रिएक्शन क्या थे? पति और पिता के रूप में गोविंदा कैसे है?

जवाब – मैं प्रेस वालों की बात तब तक विश्वास नहीं करती, जब तक मैं अपनी आँखों से देख न लूँ. गोविंदा कहीं भी चले जाए, घूम फिरकर पत्नी के पास ही उन्हें आना है. (ठहाके लगाकर हंसती हुई) बाहर का खाना कब तक किसी को हजम होता है, घर का खाना ही सबको हजम होता है.

पति के रूप में वे अच्छे है, लेकिन मैं अगले जनम में उन्हें बेटे के रूप में पाना चाहती हूँ, क्योंकि मैंने जैसा पति चाहा, वैसे गोविंदा नहीं है. मुझे घूमना, फिरना, बाहर खाना आदि पसंद है, लेकिन गोविंदा को काम करना और अपने भाई, बहन के साथ रहना ही सबसे अधिक पसंद है.

पिता के रूप में गोविंदा अपने बच्चों के साथ बहुत ही फ्रेंडली है, लेकिन बच्चों को डर माँ से लगता है.

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सवाल– गोविंदा के जीवन में आये उतार-चढ़ाव को आपने कैसे लिया?

जवाब– मैं हमेशा उनके साथ खड़ी रही. मैं उन्हें समझाती थी कि 80 और 90 की दशक में जब आप काम कर रहे थे, तो बाकी कलाकार के पास काम कम था. पूरी जिंदगी किसी की भी समस्या में नहीं गुजरती, सकारात्मक सोच रखने पर एक समय के बाद सब सही हो जाता है. मुझे ख़ुशी है कि गोविंदा ने 170 फिल्में की थी. वे खुद में एक स्कूल है और बच्चों को बाहर जाकर एक्टिंग सीखने की जरुरत नहीं. मैं अपने बच्चों को पिता से एक्टिंग की सारी बारीकियों को सीखने के लिए कहती हूँ.

मुझे याद आता है संघर्ष के दिनों में जब गोविंदा विरार से आते थे, उनका जूता फटा हुआ रहता था, वे बस से कही आते-जाते थे. साथ में VCR और कैसेट लेकर हर प्रोडक्शन हाउस में जाकर अपनी परफोर्मेंस को दिखाते थे, लेकिन सब रिजेक्ट करते थे, क्योंकि इंडस्ट्री में तब भी गॉडफादर न होने पर कोई काम नहीं देते थे. गोविंदा ने इस नियम को तोड़ा और बिना गॉडफादर के कामयाब हुए. उन्होंने बहुत अधिक संघर्ष किया है. मैंने हमेशा सपोर्ट किया है. जब हमारा अफेयर हुआ, गोविंदा बी,कॉम फाइनल कर रहे थे और मैं उस समय 10वीं में पढ़ रही थी.

सवाल- अभिनय को छोड़ गोविंदा राजनीति में गए, उसका अनुभव आपके लिए कैसा था?

जवाब– मुझे तो राजनीति पसंद नहीं थी, क्योंकि बहुत सारी रोक-टोक और सुरक्षा के अनुसार कुछ भी करना पड़ता था. बच्चों की आज़ादी छीन गयी थी, उनके लिए सुरक्षा का इंतजाम करना पड़ा और मुझे दो इंसान का मेरे साथ बंदूक लेकर चलना ज़रा भी पसंद नहीं था. मैंने कभी सिक्यूरिटी नहीं ली, क्योंकि मेरी सुरक्षा मैं खुद कर सकती थी. गोविंदा को भी ये बात समझ में आई और कुछ दिनों बाद राजनीति से हट गये.

सवाल– क्या आपने कभी किसी फिल्म के लिए गोविंदा को सलाह दिया है?

जवाब–साउथ के निर्देशक मणिरत्नम मुझे बहुत पसंद थे, मैंने ‘रावण’ फिल्म में अभिषेक बच्चन के साथ और आदित्य चोपड़ा की फिल्म ‘किलबिल’ में एक्टिंग करने की सलाह दी थी.

सवाल– कोई मेसेज जो आप सभी कलाकारों को देना चाहती है?

जवाब–गृहशोभा के ज़रिये मैं सभी कलाकारों, लेखको और निर्देशकों को अच्छी और हंसने खेलने की पिक्चर बनाने की सलाह देती हूँ.आज की दुनिया बहुत ही तनाव पूर्ण है, ऐसे में मारधाड़ और हिंसा पर बनी फिल्में दर्शको को अधिक स्ट्रेस और डिप्रेशन में ले जा रही है.

गोविंदा से जुडी कुछ अनसुनी बातें,

  • गोविंदा की कमजोरी और स्ट्रेंथ – माँ निर्मला देवी,
  • सुनीता के हाथ की बनी पसंदीदा व्यंजन – तुअर दाल, मटन, फ्रूट सलाद,
  • गोविंदा की पसंदीदा फिल्म – स्वर्ग,
  • गोविंदा का कम काम की वजह – मनपसंद स्क्रिप्ट न मिलना और किसी फ़िल्मी ग्रुप में शामिल न होना.

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Judiciary और एजेंसी के जाल में फंसे Aryan Khan, पढ़ें खबर

बुरी लत चाहे ड्रग्स की हो या किसी दूसरे चीज की….कानून के हिसाब से सबकुछ होने की जरुरत है…… नामचीन व्यक्ति……क्रिकेट और हिंदी सिनेमा जगत के सेलेब्रिटी को जनता का प्यार बहुत मिलता है……उन्हें एक घड़ी पहनने का ब्रांड 5 करोड़ देती है……क्यों दे रही है?….जनता के लिए ही दे रही है, क्योंकि जनता उसे ही पहनना चाहेगी….और ब्रांड का काम बन जाता है ……एक आम इंसान को कोई ब्रांड5 करोड़ तो क्या 5 रुपये तक नहीं देती ….. अगर ब्रांड का फायदा सेलेब्रिटी को मिलता है, तो आपके बारें में जनता जानना भी चाहती है….इसे टाला नहीं जा सकता…क्योंकि आपने अगर इंडोर्समेंट का फायदा उठाया है, तो आपके जीवन में किसी का हस्तक्षेप न हो, ऐसा संभव नहीं. ऐसे ही कुछ बातों को कह रही थी, मुंबई हाईकोर्ट की वकील, सोशल एक्टिविस्ट और फॉर्मर ब्यूरोक्रेट आभा सिंह. व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उन्होंने बात की और कहा कि कोर्ट का आर्यन खान को बेल न देना,मेरी समझ से बाहर है.

अंधा नहीं है कानून

आभा सिंह कहती है कि कानून कभी अंधा नहीं होता, जो सबूत सही ढंग से पेश न कर तोड़-मरोड़ कर रख दिया जाता है और जज उसी सबूत के आधार पर अपना निर्णय देता है. कई बार न्याय देने में देर हो जाती है, क्योंकि 50 प्रतिशत सीट कोर्ट में खाली है, जिसे अभी तक भरा नहीं गया. कानून अंधे होने की बात के बारें में गौर करें, तो आर्यन खान के पास से न तो ड्रग मिली और न ही उसके ब्लड टेस्ट में भी ड्रग लेने की कोई सबूत मिला, लेकिन 20 दिनों से वह जेल में है. इसलिए अबसबको लगने लगाहै कि सरकारी तंत्र किसी को कभी भी फंसा सकता है. अगर न्यायतंत्र इन एजेंसियों के आगे हल्की पड़ जाती है और एजेंसी की बातों को सही ढंग से नहीं परखती, तब लोग समझने लगते है कि कानून वाकई अंधा है.

न्यायतंत्र को परखने की है जरुरत

वकील आभा का कहना है कि इस देश में तो अब ये लगता है कि अगर आप एक नामचीन इंसान है, तो कुछ भी गलत किसी के साथ होने पर पूरा परिवार उसे भुगतता है. एजेंसी सही ढंग से कानून नहीं लगाती, इसलिए न्यायतंत्र को परखने की जरुरत है. कोई भी एजेंसी अगर गलत कानून लगाती है, तो उनपर कार्यवाई की जानी चाहिए, ताकि जनता को लगे कि कानून उनको सुरक्षा देने के लिए है, न कि दुरूपयोग कर अत्याचार करने की है.

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पोलिटिसाइज़ हो गई है एजेंसिया

सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति वी एम कनाडे, जो मुंबई की लोकायुक्त है और पिछले 40 साल से कानून के क्षेत्र में काम कर रहे है. उन्होंने आर्यन के बेल के बारें में कहा कि आर्यन के वकील ने हाई कोर्ट में फिर से एप्लीकेशन दिया है, जो हाईकोर्ट में मंगलवार को सुनवाई होगी. कानून के बारें आज जनता का विश्वास क्यों उठने लगा है पूछने पर न्यायमूर्ति कनाडे कहते है कि अगर आशा के अनुसार न्याय नहीं मिलता, तो लोग कानून में विश्वास नहीं रखते और आशा के अनुसार न्याय मिलने पर लोग न्याय पर विश्वास जताते है, लेकिन ये भी सही है कि जुडीशियरी लास्ट रिसोर्ट होती है और लोग उसपर सबसे अधिक विश्वास रखते है. मेरा अनुभव ये कहता है कि आज पोलिटिकल लड़ाई बहुत चल रही है. किसी भी निर्णय को पॉलिटिक्स के हिसाब से देखी जा रही है, यह सही नहीं है. मैं 16 साल जज रहा हूँ. नॉर्मली हम राजनीति में नहीं जाते, कानून के हिसाब से निर्णय देते है. इसके अलावा आज न्यायालयों में जजों और वकीलों की संख्या बहुत कम है, खाली स्थानों को जल्दी भरने की बहुत जरुरत है.

न्यायतंत्र पर विश्वास कम होने की वजह लॉयर आभा सिंहबताती है कि 84 वर्ष के स्टेन स्वामी की मृत्यु जेल में ही हो गयी, लेकिन उन्हें बेल नहीं मिला. मुझे लगता है कि पुलिस और कई एजेंसियां राजनीतिकरण का हिस्सा बन चुकी है. ये इस तरह के केस बनाती है. पिछले कुछ दिनों पहले एक बात सामने आई थी कि प्रधानमंत्री मोदी को किसी ने जान से मारने की धमकी दी है, फिर पता चला कि लैपटॉप पर ये मेसेज आया है.सबको पता है कि आज लोग मेल हैक कर क्या-क्या कर लेते है. ये बातें कितनी झूठी और बनावटी हो सकती है, ऐसे में आर्यन के व्हाट्स एप मेसेज को इतनी तवज्जों क्यों दी जा रही है? राईट टू लिबर्टी को बचाने केलिए सुप्रीम कोर्ट को नयी गाइडलाइन्स लानी पड़ेगी. आज देश के सारे हाई नेटवर्क वाले लोग देश छोड़कर चले जा रहे है,ऐसे में देश, एक अच्छा देश कैसे बन सकता है? हर नेता चाहते है कि पुलिस उनके सामने घुटने टेके, लेकिन न्यायतंत्र को देखना चाहिए कि पुलिसवाला क्या गलत कर रहा है? अगर अरेस्ट करने का पॉवर पुलिस को मिला है, तो कोर्ट बेल दे सकती है, लेकिन जुडीशियरी अगर अपने कानून को न देखकर दूसरी तरफ देखने लगे, तो अराजकता फैलती है.

सहानुभूति की है जरुरत

इसके आगे आभा का कहना है कि आर्यन को बिना किसी प्रूफ के जेल में डाले हुए है. असल में नारकोटिक ड्रग्स एंड साईकोट्रोपिक सबस्टेन्स (NDPS) एक्ट 1985 के तहत बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस कोतवाल ने रिया चक्रवर्ती को बेल तो दिया था, लेकिन उस समय NDPSएक्ट को उन्होंने नॉन बेलेबल कहा था. इसलिए आर्यन को बेल नहीं मिल रही है, लेकिन ये भी सच है कि पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि अगर कोई छोटा अमाउंट पर्सनल यूज़ के लिए कंज्यूम करता है, तो उसे बेल दे दी जाय, क्योंकि आपको उस इन्सान से सहानुभूति रखनी है, उसके एडिक्शन को छुड़ावाना, इलाज करवाना आदि की जरुरत है. यहाँ आर्यन के पास केवल 13 ग्राम ड्रग ही मिला है,जबकि हमारे देश में होली पर लोग चरस, गांजा आदि के प्रयोग कर ठंडाई बनाते है. अगर ड्रग को रोकना है, तो उन्हें ड्रग बेचने वाले पेडलर और  ड्रग सिंडिकेट को पकड़ने की जरुरत है. उन्हें पकड़ न पाने की स्थिति में बॉलीवुड और कॉलेज के बच्चों को पकड़ रहे है, जो सॉफ्ट टारगेट होते है और उन्हें पकड़कर मीडिया में तमाशा कर रहे है. जबकि ये बच्चे ड्रग सिंडिकेट के शिकार है और उनका परिवार बच्चों की इन आदतों से परेशान है. इंडिया में ड्रग, दवाइयों और कुछ खास चीजों के लिए लीगल है, जबकि कई देशों में इसे लीगल कर दिया गया है. इस तरह से अगर बच्चे अरेस्ट होने लगे, तो आधी जनता जेल में होगी. मेरा सुझाव है कि जब आर्यन के बेल की बात आगे हाई कोर्ट में सुना जाएँ, तो जस्टिस कोतवाल के बात को अलग रखकर, उस बच्चे को बेल दी जाय. NDPS एक्ट 1985 की सेक्शन 39 में लिखा हुआ है कि बच्चे के उम्र और पिछले आचरण को देखते हुए,उसे बेल दीजिये. नॉन बेलेबल का कोई सवाल नहीं उठता.

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सरकार की दोहरी नीति

23 साल के आर्यन को बेल न मिल पाने की वजह से फेंस और हिंदी सिनेमा जगत से जुड़े सभी लोग परेशान और दुखी है. एड गुरु प्रह्लाद कक्कड़ कहते है कि ड्रग्स कई प्रकार के होते है और क्राइम भी उसी हिसाब गिना जाता है. चरस और गांजा दो हज़ार सालों से साधु संत, व्यापारी और मेहनत करने वाले किसान,बदन दर्द को कम करने के लिए, सोने से पहले एक चिलम मारते है,उसे  ड्रग्स नहीं कहा जा सकता. जो नैचुरल पदार्थ ओपियम को प्रोसेस कर बनाया जाता है,वह ड्रग कहलाता है. ऐसे कई गांजा और चरस के ठेके को सरकार लाइसेंस देती है. फिर ये ड्रग कैसे हो सकती है?ये एक प्रकार की हिपोक्रेसी हुई. एक हाथ से सरकार गांव खेड़े में, साधु संत और अखाड़े वालों को मादक पदार्थों के सेवन की पूरी छूट देती हैऔर दूसरी तरफ कॉलेज जाने वाले एक बच्चे के पॉकेट से 10 ग्राम की कुछ भी मिलने पर पोलिटिकल एफिलियेशन के अनुसार छोड़ते है या जेल भेज देते है. इस प्रकार कानून की कोई पॉवर नहीं है. इससे जो कोई भी पॉवर में आएगा, वह दूसरे के पीछे पड़ेगा. यहाँ आर्यन खान से अधिक शाहरुख़ खान के पीछे सब पड़े है.ये एक प्रकार की दुश्मनी है,जिसे वे इस तरीके से निकाल रहे है,क्योंकि जिस चीज को 2 हज़ार साल से लोग प्रयोग करते आ रहे है, उसे गैर कानूनी नहीं कहा जा सकता.एनसीबी और सीबीआई सब सरकार के टट्टू है. एक 23 साल के बच्चे को जेल में डाल दिया और जो रियल में क्रिमिनल है, जिसने 4 लोगों को कुचल दिया, वह आराम से घूम रहा है. बिगड़ी हुई न्याय व्यवस्था को जनता महसूस कर रही है, क्योंकि सरकार दोहरी निति पर चल रही है, अपनों के लिए अलग कानून और दूसरों के लिए अलग कानून बनाए है.

बिके हुए है न्यूज़ चैनल्स

न्यूज़ चैनेल टीआर पी के लिए कुछ भी तमाशा कर रही है. आर्यन एडल्ट है, उसने जो किया, खुद से किया है. शाहरुख़ का नाम क्यों आ रहा है, जबकि अरबाज़ मर्चेंट और मुनमुन धमेचा के पेरेंट्स को कोई सामने नहीं ला रहे है. उन्होंने भी तो अपराध किया है. इसका अर्थ ये हुआ की मिडिया भी इसी गेम में फंसी हुई है, बिकीहुई है, तभी किसी पर कीचड़ उछाल रही है. मिडिया को सही बातें रखने की आवश्यकता है. जब दो हज़ार करोड़ ड्रग के साथ अदानी पोर्ट पर पकड़ा गया, उसे एक छोटी सी जगह पर पेज में छुपा हुआ न्यूज़ आइटम दिखा. जबकि आर्यन खान के साथ शाहरुख़ को जोड़कर न्यूज़ चैनेल हेड लाइन बनाती है. मुझे दुःख इस बात से है कि देश की न्यायतंत्र आज सरकार के टट्टू बन चुके है, जबकि उन्हें कानून के अनुसार निर्णय देना चाहिए. कानून के सामने सब बराबर है, टीआरपी के लिए टीवी चैनेल्स फेवरिटीज्म नहीं दिखा सकती.

इस प्रकार तथ्य यह है कि क्रूज ड्रग्स पार्टी मामले में आर्यन खान अभी भी जेल में है. सेशंस कोर्ट ने बुधवार 20 अक्तूबर को आर्यन की जमानत याचिका खारिज कर दी. आर्यन के साथ ही अरबाज मर्चेंट और मुनमुन धमेचा की जमानत याचिका खारिज कर दिया गया है. दरअसल आर्यन को 2 अक्टूबर को मुंबई से गोवा जा रही क्रूज पर रेव पार्टी में छापेमारी के बाद एनसीबी ने पहले हिरासत में लिया और फिर गिरफ्तार कर लिया. इसमें आर्यन के साथ 8 लोगों को भी ग‍िरफ्तार किया गया. आर्यन फिलहाल मुंबई के आर्थर रोड जेल में 14 दिनों की न्‍याय‍िक हिरासत में कैद है.अगली सुनवाई 26 अक्तूबर को होगी, अब देखना है कि आर्यन खान को बेल मिलेगी या नहीं.

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पं. जसराज की नातिन व Actress श्लोका पंडित सीख रही हैं कत्थक नृत्य

मशहूर शास्त्रीय गायक और पद्मविभूषण से सम्मानित स्व.  पंडित जसराज की नातिन श्लोका पंडित सबसे पहले 2014 में फिल्म ‘‘द परसियन’’ में नजर आयी थी,मगर श्लोका पंडित को कुछ माह पहले उस वक्त शोहरत मिली,जब वह  अमेजॉन प्राइम पर प्रसारित फिल्म ‘‘हेलो चार्ली’’ में वह अभिनय करते हुए नजर आयीं.  फिल्म ‘‘ हेलो चार्ली’’ में अभिनय कर श्लोका पंडित ने  हर किसी को मंत्रमुग्ध कर दिया था,पर इन दिनों वह श्लोका पंडित कत्थक नृत्य सीख रही हैं.

मगर फिल्म ‘‘ हेलो चार्ली’’ ओटीटी पर कोरोना माहारी के वक्त आयी,जिसका उन्हे फायादा नही मिल पाया. इस पर श्लोका पंडित कहती हैं-‘‘ मेरे लिए ‘हेलो चार्ली’ पहली फिल्म है. हर कोई एक बेहतर कल और एक बेहतर करियर चाहता है. लेकिन कोरोना महामारी के संकट ने सब कुछ अनिश्चित कर दिया. आम तौर पर पहली फिल्म के बाद आप अपनी यात्रा शुरू करते हैं और आप उस पर आगे के कैरियर का निर्माण करना चाहते हैं.  लेकिन कोरोना की वजह से सब कुछ बंद रहा. परिणामतः ‘हेलो चार्ली’से शोहरत मिली,पर उसका फायदा नही मिल पाया. लेकिन मैं आशावादी हॅूं.  ऐसे में घर पर खाली बैठने की बनिस्बत मैने कत्थक नृत्य की ट्रेनिंग लेनी शुरू की. ’’

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कत्थक नृत्य की ऐसी शैली है,जो आंखों और से भावों में उत्कृष्टता प्राप्त करने में मदद करता है.  श्लोका पंडित को नृत्य शैली बहुत पसंद है . इसीलिए वह वर्तमान में कत्थक के लिए प्रशिक्षण ले रही हैं,क्योकि उनकी नजर में कहानी कहने का एक साधन कत्थक नृत्य भी है.  वह कहती हैं-‘‘अभिनय से जुड़ने की मूल वजह लोगों को कहानियंा सुनाना ही है. मुझे नृत्य के माध्यम से कहानी कहने वाला पहलू पसंद है. इसलिए मैने अॉनलाइन क्लासेज से जुड़कर कत्थक नृत्य सीखना शुरू कर दिया.  अब इसे फुल टाइम सीख रही हॅूं. ’’

श्लोका पंडित आगे कहती हैं-‘‘मुझे नृत्य शैली पसंद है.  कत्थक कहानी कहने का एक रूप है और एक नृत्य रूप के माध्यम से हर दिन इस रूप में एक नई चुनौती होती है और यह अत्यंत रोमांचक है.  नृत्य मेरे लिए बहुत सहज है और जब मैं ऐसा करती हूं,तो मुझे सबसे अच्छा लगता है. यॅूं भी मुझे नृत्य के हर प्रकार सीखने का शौक है. यह मुझे आगे बढ़ाता है. मेरी राय में नृत्य इंसान के अंदर खुशी जगाने के साथ ही बौडी को भी लचीला बनाता है. इसलिए हम सभी को नृत्य  जरुर सीखना व करना चाहिए.  माना कि कत्थक नृत्य सबसे कठिन नृत्य रूपों में से एक है.  और इस कला रूप को आजमाने के लिए भी बहुत प्रयास करना पड़ता है.

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नारी शक्ति पर अलग नजरिया पेश करने वाली पहली इंडो पोलिश फिल्म ‘‘नो मींस नो’

सिनेमा राष्ट् का ऐसा सांस्कृतिक राजदूत होता है कि सिनेमा जिस देश भी पहुंचता है, उस राष्ट् के लोगों को अपने राष्ट् की संस्कृति, गीत व संगीत से जोड़ ही लेता है. तभी तो पोलैंड के निवासी इन दिनों भारतीय खानपान व गीत संगीत के न सिर्फ दीवाने बन चुके हैं, बल्कि अब हजारों लोग हिंदी भाषा भी सीख रहे हैं. हम सभी जानते हैं कि पोलैंड एक ऐसा यूरोपीय देश है, जहां के लोग केवल पोलिश भाषा ही जानते और बोलते हैं. पोलैंड के लोग हिंदी तो क्या अंग्रेजी भाषा के भी जानकार नही है. मगर पोलैंड जैसे राष्ट् के निवासियों के बीच भारतीय संगीत, व भारतीय भोजन व हिंदी के प्रति लालायित करने का श्रेय सिक्यूरिटी गार्ड की एजंसी चलाते हुए फिल्म निर्माता व निर्देशक बनने वाले विकाश वर्मा को जाता है, जो कि पहली इंडो पोलिश फिल्म ‘‘नो मींस नो’’ लेकर आ रहे हैं. हिंदी, अंग्रेजी और पोलिश भाषाओं में एक साथ बनी फिल्म ‘‘नो मींस नो’’ का निर्माण भारत व पोलैंड के बीच सामाजिक व सांस्कृति द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूत करने के साथ ही महिलाओं को उनकी शक्ति का अहसास दिलाने के साथ ही उनके अंदर उनकी आंतरिक ताकत को लेकर जागरूकता लाना मकसद है.

विकाश वर्मा के पिता और पूर्व फौजी ने 1969 में ‘सिक्यूरिटी एजंसी  की शुरूआत की थी, उससे पहले सिक्यूरिटी एजंसी का कोई कॉसेप्ट नहीं था. मशहूर फिल्म निर्देशक राज कुमार कोहली के संग बतौर सहायक काम कर रहे विकाश वर्मा ने अपने पिता के देहंात के बाद पिता की सिक्यूरिटी एजंसी को संभाला और पिछले पच्चीस तीस वर्षों में उन्होने इस क्षेत्र में कमाल का काम किया. अमरीकी प्रेसीडेट व बिल गेट्स,  वार्नर ब्रदर्स, कोलंबिया पिक्चर्स,  सेेबी से लेकर विश्व की कई हस्तियों की सिक्यूरिटी संभाल चुके विकाश वर्मा ने देश के कई खंूखार अपराधियों को पकड़वाने में भी अहम भूमिका निभा चुके हैं. तो वहीं हॉलीवुड के एक्शन सुपर स्टार स्टीवन को अपना गुरू मानने वाले विकाश वर्मा ‘लगान’,  ‘दीवानगी’,  ‘भूमि’, ‘पद्मश्री लालू प्रसाद यादव जैसी कई फिल्मों के साथ भी सहायक या एसोसिएट निर्देशक के रूप में जुड़े रहे.

फिल्म ‘‘नो मींस नो’’ की कहानी पोलैंड की एक लड़की के जीवन की सत्य घटना पर चेक गणराज्य की भाषा में लिखी गयी किताब का भारतीय करण है. फिल्म की कहानी कें कंेद्र में स्कीइंग खेल,  प्रेम कहानी, पिता व पुत्री का रिश्ता के साथ नारी सशक्तिकरण है. यह कहानी एक भारतीय लड़के राज वर्मा(ध्रुव वर्मा )की है, जो कि बेहतरीन स्कीइंग खिलाड़ी है. एक स्कीइंग प्रतियोगिता में वह पोलैंड की स्कीइंग खिलाड़ी लड़की कासिया(नतालिया बाक )को अपना दिल दे बैठता है और फिर उस लड़की के पीछे पीछे पोलैंड पहुॅकर वहां अंतरराष्ट्ीय स्कीइंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के साथ ही उस लड़की का भी दिल जीत लेता है. इस पर फिल्म के निर्देशक विकाश वर्मा कहते हैं-‘‘मैने एक प्रेम कहानी के माध्यम से भारत व पोलैंड,  दोनों देशों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक,  धार्मिक और द्विपक्षीय रिश्ते बनाने की कोशिश की है. हमने इसे बर्फीले पहाड़ों और बेहद खूबसूरत स्थलों पर किया, जिससे पोलैंड में जन-जीवन की झलक भी नजर आती है. इससे देश के पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा. ’’

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फिल्म का नाम ‘‘ नो मींस नो ’’ है,  जिससे यह अनुमान गलत होगा कि इसमें भारतीय नारी अपने शरीर के हक या सेक्स को लेकर अपनी राय की बात कर रही है. इस संबंध में खुद निर्देशक विकाश वर्मा कहते हैं-‘‘मेरी फिल्म देखकर लोगों की समझ में आएगा कि हर औरत कुछ भी कर सकती है. उसकी ताकत को कम आंकना मूर्खता है. जिसके पास विनाश करने की ताकत हो, उससे कोई नही जीत सकता. हमने इसमें नारी स्वतंत्रता और नारी सशक्तिकरण की बात की है. ’’

विकाश वर्मा आगे कहते हैं-‘‘जब कोई परिस्थिति बनती है, तो एक औरत की कोख सबसे अधिक शक्तिशाली होती है. वह जननी है. वही इंसान को क्रिएट करती है, जन्म देती है. जिस इंसान को औरत खुद जन्म देती है, आज उसी इंसान सेऔरत डरती है. मेरी फिल्म हर नारी को यह संदेश देती है कि तुम्हे किसी भी इंसान से डरने की जरुरत नही है, तुम तो उसका विनाश कर सकती हो. घर में चूल्हे पर खाना बनता है,  मगर वही अग्नि, दावानल भी है. औरत एक ऐसी शक्ति है कि यदि उस पर आपत्ति आ जाए, तो अपनी रक्षा के लिए उसने जिसे पैदा किया है, उसका विनाश भी कर सकती है. मैने अपनी फिल्म में सृष्टि को एक नारी का पेट कोख बताया है. उसे ही ब्रम्हांड बताया है. पुरूष कुछ भी पैदा नही कर सकता. जबकि पुरूष को जन्म देने वाली औरत में ऐसी शक्ति है. हमारी फिल्म का नाम ‘नो मींस नो’ जिसका अर्थ है कि नारी के आगे कुछ भी नहीं है. हमारी फिल्म की कहानी एक अबला नारी की नही है. इसमें हमने एक औरत की शक्ति को चित्रित किया है. ’’

फिल्म तो एक लड़की की सत्य कथा पर है, तो उसकी कहानी की किस बात ने आपको प्रभावित किया था?इस सवाल पर विकाश वर्मा ने कहा-‘‘मैं फिलहाल कहानी को पूरी तरह से उजागर नहीं कर सकता. भारत ही नही पूरे विश्व में पिता व बेटी के बीच जो इमोशनल संबंध होते हैं, वह है. इसी के साथ इसमें प्रकृति के खिलाफ इंसान का मुद्दा है. हम इंसान के तौर पर प्रकृति नेचर की चुनौतियों का सामना कर ही नही पाते हैं. हम बेवजह न्यूकलियर वार या अन्य युद्ध की बात करते हैं. पहले हमें प्रकृति से लड़ना सीखना होगा. अगर उस पर हमने विजय पा ली, तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं. दूसरे देशो में क्या है?बर्फ में लोग मर जाते थे, मगर यूरोपियन ने उसी बर्फ को खेल बना लिया. वह लोग बर्फ में स्केटिंग करते हैं. उन्होने ‘विंटर स्कीइंग’खेल को जन्म दिया. मैने भी सोचा कि हमारे देश में गुलमर्ग है, शिमला है, कुलू मनाली है. इन जगहों पर ‘स्कीइंग’को लाया जाना चाहिए. स्कीइंग एक अलग और अति खूबसूरत खेल है. इस पर खर्च नही है. मैं ‘स्कीइंग’के कॉसेप्ट को अपने देश में लाना चाहता हूं, मगर किसी ने भी इसे महत्व नहीं दिया. हमारे देश में केवल क्रिकेट को ही महत्व दिया गया. पोलैंड के दो साल के बच्चे भी स्कीइंग पहनकर बर्फ में घूमते रहते हैं. बचपन से ही बच्चों को खेलों से जोड़ना चाहिए. वहां के लोग इस बात की चिंता नही करते कि हमारा दो वर्ष का बच्चा गिर जाएगा, चोट लग गयी तो?जबकि हमारे यहां हर माता पिता बच्चे को चोट न लग जाए, इस भय से सायकल भी चलाने नहीं देता. ’’

‘‘नो मींस नो’’ की पोलैंड में शूटिंग करने का क्या प्रभाव नजर आया. इस पर विकाश वर्मा ने कहा-‘‘ हम जहां शूटिंग कर रहे थे, तो हमने वहां से तीन सौ किलोमीटर दूर स्थित एक  होटल से बात कर भारतीय भोजन यानी कि चावल, दाल व सब्जी वगैरह बनवाते थे, जिसे पोलैंड के कलाकार व वहां के तकनीशियन भी खाते  थे, धीरे धीरे उनके परिवार भी सिर्फ भारतीय भोजन खाने आने लगे. बाद में पता चला कि वहां के लोग भारतीय भोजन के दीवाने हो गए हैं.  इसके अलावा हमारी फिल्म में हरिहरण ने गीत गाए हैं. एक गीत के फिल्मांकन के वक्त लोगों को गीत बहुत पसंद आया. उसके बाद हमने रेडियो पर हरिहरण का स्वरबद्ध एक गाना चलवाया,  तो उन्हे पॉंच हजार ईमेल आ गए कि यह कौन है?इस तरह पूरे यूरोप में हरिहरण मशहूर हो गए हैं. तो हमारी फिल्म की शूटिंग देखते हुए वहां के लोगो ने हिंदी भाषा सीखने की कोशिश की है. उन्हें हिंदी गानों के साथ अपनापन हो गया है. ’’

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फिल्म‘‘नो मींस नो’’ के अलावा विकाश वर्मा एक चार सौ करोड़ रूपए के बजट की फिल्म ‘‘गुड महाराजा’’ का भी निर्माण कर रहे हैं, जिसकी कुछ शूटिंग वह पोलैंड में कर चुके हैं. बाकी की शूटिंग जल्द पोलैंड में ही करेंगे. इस फिल्म में शीर्ष भूमिका संजय दत्त निभा रहे हैं. तो वहीं ध्रुव वर्मा की भी इसमें अहम भूमिका है.  फिल्म की कहानी जाम साहिब के नाम से प्रसिद्ध नवानगर,  गुजरात के महाराजा दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी जडेजा पर आधारित है, जिन्होने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मन बम विस्फोटों से बचने के लिए सोवियत रूस से निकाले गए लगभग एक हजार पोलिश बच्चों को आश्रय और शिक्षा प्रदान की थी.

फिल्म ‘‘नो मींस नो ’’में भारतीय कलाकारों गुलशन ग्रोवर,  दीप राज राणा,  शरद कपूर,  नाजिया हसन, कैट क्रिस्टियन के साथ ही पोलैंड के नतालिया बाक,  अन्ना गुजिक,  सिल्विया चेक,  पावेल चेक,  जर्सी हैंडजलिक और अन्ना एडोर जैसे कलाकारो ने अभिनय किया है.

सरदार उधमः क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह के जीवन से जुड़े कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनः निर्माण

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः राइजिंग सन और कीनो वक्र्स

निर्देशकः शूजीत सरकार

कलाकारः विक्की कौशल, स्टीफन होगन,  शॉन स्कॉट,  कर्स्टी एवर्टन,  एंड्रयू हैविल,  बनिता संधू,  अमोल पाराशर व अन्य.

अवधिः दो घंटे 43 मिनट 50 सेकंड

ओटीटी प्लेटफार्मः अमैजान प्रइम वीडियो

13 अ्रपैल 1919 के दिन ब्रिटिश हुकूमत के समय पंजाब प्रांत के गर्वनर माइकल ओ डायर ने रोलिड एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण विरोध दर्ज करा रहे निहत्थे भारतीयों पर पंजाब के जलियां वाला बाग में जघन्य नरसंहार करवाया था, जिसमें बीस हजार से अधिक लोग मारे गए थे. इससे क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह का खून खौल उठा था, उसके बाद वह माइकल ओडायर की हत्या करने के मकसद से लंदन पहुॅचे और कई प्रयासों के बाद 13 मार्च 1940 को लंदन के कार्टन हाल में माइकल ओ डायर की हत्या कर जलियांवाला बाग कांड का बदला लिया था, जिसे सरदार उधम सिंह ने खुद ही अपना क्रांतिकारी फैसला बताया था और खुद को क्रांतिकारी होने की बात कही थी. जिसकी वजह से ब्रिटिश सरकार ने उन्हे फांसी पर लटका दिया था. पर आज तक ब्रिटेन ने इस दुष्कृत्य के लिए माफी नही मांगी है. भारत में राजनीतिक रस्साकशी के चलते हाशिए पर ढकेल दिए गए क्रांतिकारी उधम सिंह के जीवन को विस्तार से लोगों के सामने रखने के लिए फिल्मकार शूजीत सरकार ऐतिहासिक फिल्म ‘‘सरदार उधम’’ लेकर आए हैं, जो कि 16 अक्टूबर से अमैजान प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानीः

फिल्म की कहानी 1931 में पंजाब में जेल से शेर सिंह उर्फ उधम सिंह (विक्की कौशल) के जेल से रिहा होने से शुरु होती है, जो कि जेल से निकलकर खैबर गेस्ट हाउस पहुंचता है. जहां नंदा सिंह उन्हे सलाह देते है कि वह अफगानिस्तान पहुंचे जहां उन्हे पिस्तौल मिल जाएगी. फिर यूएसएसआर रूस होते हुए वह 1934 में लंदन पहुंचे. लंदन पहुंचकर उधम सिंह वहंा मौजूद कुछ ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ यानी कि ‘एच एस आर ए’ से जुड़े खोपकर सहित कई लोगों से मिलते हैं. एक ब्रिटिश महिला एलीन (कर्स्टी एवर्टन) से दोस्ती करते हैं. उधम सिंह लंदन में जनरल माइकल ओ ड्वायर (शॉन स्कॉट) की तलाश करते है. अंततः उधम सिंह इस सिरफिरे अंग्रेज को ढूंढ निकालते हंै और एक दिन सेल्समैन बनकर उन्हे मुफ्त में पेन का बैग देते हैं. फिर कुछ दिन जनरल माइकल ओड्वायर से के घर मे नौकरी करते हुए उनके जूते पॉलिश करते हैं. जनरल ओडायर के मन में जलियावाला बाग कंाड के लिए कोई अपराध बोध नही है, वह बार बार उधम सिंह से कहते हैं कि वह भारतीय जनता को सबक सिखाना चाहते थे.  फिर 13 मार्च 1940 को कॉर्टन हाल के जलसे में जनरल ड्वायर को उधम सिंह गोली मार देते हैं. पर भागते नहीं है और पुलिस को गिरफ्तारी देते हैं.  इसके बाद उधम पर अंग्रेज पुलिस के जुल्म और अदालती मुकदमा चलता है. पुलिस के पूछताछ के ही दौरान उधम सिंह के जीवन के कई घटनाक्रम फ्लैशबैक में आते हैं. तभी वह बताते है कि किशोर वय में उन्होने जलियंावाला बाग कांड देखा था, जिसकी वजह से उनके अंदर जनरल ओड्वायर की हत्य कर बदला लेने का गुस्सा पनपा था. उनके पास कई नाम के पासपोर्ट भी होते हैं. अंत में उधम बताते है कि जलियांवाला बाग कांड के कारण उन्होने जनरल ड्वायर को मारने का संकल्प लिया था. अदालत में उधम सिंह ‘हीर रांझा’ किताब पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम खाते हैं. फिर बिना ज्यादा बहस के अंग्रेज न्यायाधीश फांसी का फैसला लिख देता है.

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लेखन व निर्देशनः

दो घंटे 44 मिनट लंबी अवधि की अति धीमी गति से कम संवादो वाली इस फिल्म को देखने के लिए धैर्य की जरुरत है. फिल्म की कहानी धीरे धीरे आगे बढ़ती है, जिसमें संवाद कम हैं. फिल्मकार ने इसे दृश्यों के माध्यम से चित्रित करने का प्रयास किया है.  वैसे फिल्मकार ने इस ऐतिहासिक फिल्म को पेश करते हुए फिल्म का नाम सरदार उधम सिंह की बजाय सिर्फ सरदार उधम ही रखा है और शुरूआत में ही डिस्क्लैमर देकर सारी मुसीबतों व विवादों से छुटकारा भी पाया है. डिस्क्लैमर काफी लंबा चैड़ा है. इसमें फिल्मकार ने घोषित किया है कि यह फिल्म सत्य एैतिहासिक घटनाक्रमांे प आधारित है, मगर ऐतिहासिक तथ्यों को इसमें न खोजा जाए. फिल्म सरदार उधम सिंह के जीवन पर जरुर आधारित है, मगर इसे सरदार उधम सिंह की बायोपिक फिल्म के तौर पर न देखा जाए. ‘रचनात्मक स्वतंत्रता और सिनेमाई अभिव्यक्ति के लिए घटनाओं को नाटकीय बनाने‘ के सामान्य अस्वीकरण के साथ फिल्मकार हमेशा अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास क्या करते हैं. यदि वह सच कहने से डारते हैं,  तो फिल्म ही नही बनानी  चाहिए. हम सभी जानते है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के कई शहीदों को अभी न्याय और सम्मान मिलना बाकी है. कई क्रातिकारी इतिहास के पन्नों में कुछ पंक्तियों में सिमट गए और वह भी जो राजनीतिक रस्साकशी में हाशिये पर ढकेल दिए गए.  इस लिहाज से सरदार उधम की कहानी विस्तार से बताने के लिए शुजित सरकार का यह एक बड़ा कदम माना जा सकता है. क्योंकि उन्होंने इसे सिर्फ फिल्म न रखते हुए किसी दस्तावेज की तरह पर्दे पर उतारा है.

फिल्मकार ने उधम सिंह के अफगानिस्तान व रूस होते हुए इंग्लैंड पहंॅुचने को बहुत विस्तार से चित्रित किया है. फिल्म के अंतिम चालिस मिनट में जब जलियांवाला बाग कांड आता है, तब अंग्रेजों के अत्याचार आदि की कहानी नजर आती है.

फिल्म में तमाम ऐसे घटनाक्रम हैं, जिनका इतिहास में कहीं जिक्र नही है. फिल्मकार का दावा है कि उधम सिंह से संबंधित तमाम तथ्य अभी तक सार्वजनिक नही किए गए हैं. फिल्मकार ने फिल्म में उस दौर में चल रही वैश्विक उथल-पुथल और आंदोलनों का भी चित्रण किया है. फिल्मकार ने इस बात पर रोशनी डालने का प्रयास किया है कि आजादी की लड़ाई कई अलग-अलग स्तरों पर चल रही थी. देश में आजादी के दीवाने सड़कों पर उतर कर जेल जा रहे थे तो कई विदेश में रह कर मदद कर रहे थे या फिर मदद हासिल करने के लिए प्रयासरत थे.

फिल्मकार एक जगह यह बताते हैं कि उधम सिंह को अंग्रेजी  भाषा का ज्ञान था, तो फिर पुलिस पूछताछ के दौरान अनुवादक रखने की जरुरत क्यों महसूस की गयी?क्या यह निर्देशक की कमजोर कड़ी का परिचायक नही है?

फिल्मकार ने उधम और प्यारी रेशमा (बनिता संधू) के बीच रोमांस को ठीक से चित्रित नही किया है, जबकि फ्लैशबैक में कई बार इसका संकेत देते हैं. पर फिल्मकार ने जलियांवाला बाग हत्याकांड का आदेश देने वाले पुरुषों की क्रूर क्रूरता, भीड़ पर लगातार गोलीबारी, अपने जीवन को बचाने की कोशिश कर रहे निहत्थे भारतीय,  मृतकों और मरने वालों की हृदय विदारक दृश्यों का यथार्थपरक चित्रण किया है. शूजित ने अपनी इस फिल्म में 1919 से 1941 के दौर में भारत और लंदन को जीवंतता प्रदान की है,  फिर चाहे रूस के बर्फीले जंगल व पहाड़ी हों या भारत व लंदन की  जगहें-इमारतें-सड़कें हों,  सभा भवन हों,  किरदारों के परिधान हों,  उस समय का माहौल हो या दृश्यों में नजर आने वाली तमाम प्रॉपर्टी.  जी हॉ!1933 से 1940 के लंदन का सेट,  विंटेज एम्बुलेंस,  डबल डेकर बस,  पुलिस वैन,  हाई हील्स के साथ दौड़ती महिलाएं,  सबकुछ प्रामाणिकता का एहसास कराती हैं.

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अभिनयः

जलियावाला बाग कांड के गवाह बने उधम सिंह की पीड़ा,  क्रांतिकारी बनने, बदला लेने के जोश आदि को विक्की कौशल ने परदे पर अपने उत्कृष्ट अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. 19 वर्षीय किशोर वय में जलियांवाला बाग के घायलों को अस्पताल पहुॅचाते वक्त चेहरे  पर आ रही पीड़ा व गुस्सा हो अथवा जासूस की तरह रहस्यमय इंसान की तरह लंदन की सड़कों पर चलना हो, माइकल ड्वायर पर गोली चलाने से लेकर पुलिस की यातना सहने तक के हर दृश्य में विक्की याद रह जरते हैं. विक्की कौशल का अभिनय व हावभाव काफी सधे हुए हैं. भगतसिंह के किरदार में अमोल पाराशर के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. उधम सिंह की प्रेमिका रेशमा के भोलेपन व मासूमियत को बनिता बंधू ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. वह बिना संवाद महज हाव-भाव से असर पैदा करने में कामयाब रहती हैं.  माइकल ओ डवायर के किरदार में शॉन स्कॉट का अभिनय काफी दमदार है.  उधम के वकील के रूप में स्टीफन होगन का अभिनय ठीक ठाक है.

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फिल्म ‘मसान’ में एक बनारसी लड़के की भूमिका निभा चुके अभिनेता विक्की कौशल को इस फिल्म के लिए इंटरनेशनलइंडियन फिल्म अकेडमी अवार्ड्स के तहत बेस्ट मेल डेब्यू का पुरस्कार मिला है.विक्की के पिता श्याम कौशल एक एक्शन एंड स्टंट डायरेक्टर है,उन्होंने क्रिश 2, बजरंगी भाईजान,स्लमडॉग मिलेनियर, 3 इडियट्स आदि कई फिल्मों में एक्शन दिया है. विक्की को हमेशा से अभिनय की इच्छा रही. मेकेनिकल इंजिनीयरिंग की पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने एक्टिंग की ट्रेनिंग ली और अभिनय के क्षेत्र में उतरे. इससे पहले उन्होंने फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में निर्देशक अनुराग कश्यप के साथ सहायक निर्देशक के रूप मेंकाम किया और कुछ फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिका निभाई, जिससे उन्हें अभिनय की बारीकियों को सीखने का मौका मिला. विक्की स्पष्टभाषी और हँसमुख स्वभाव के है. उनकी फिल्म ‘सरदार उधम’ अमेजन प्राइम विडियो पर रिलीज हो चुकी है, जो सरदार उधम सिंह के जीवनी पर बनी है, जिसमें विक्की के अभिनय की बहुत प्रसंशा की जा रही है. विक्की से ज़ूम कॉल पर बात हुई. आइये जाने विक्की से उनकी कुछ खास बातें.

सवाल-ये फिल्म आपके लिए बहुत खास है, क्या इसकी शूटिंग करते हुए कभी ऐसा एहसास हुआ?

हां, कई बार मेरे साथ हुआ है, क्योंकि जलियांवाला बाग़ को रिक्रिएट करना बहुत ही मुश्किल था. स्क्रिप्ट मुझे हिलाकर रख देता था और कई बार आँखे नम हो जाती थी. कहानी पता होती थी, लेकिन जब इसे रियल में शूट करना होता है, तो वही भाव मेरे अंदर आ जाता था. इसके अलावा निर्देशक शूजित सरकार का सेट हमेशा ही दृश्य के अनुसार रियल और गंभीर होता था. मेरा खून सूख जाता था. हर रात को मैं सोचता रहा कि आज से सौ साल पहले 20 हजार की भीड़ ने एक मैदान में इस दृश्य को देखा है, जहाँ से उन्हें भागने का कोई रास्ता नहीं था. सिर्फ एक रास्ता था, जिससे फौजी लगातार निहत्थे लोगों पर गोलियां चला रहे थे. उस भीड़ में बच्चे, बूढ़े, जवान सभी थे. इस दृश्य ने मुझे झकझोर कर रख दिया था.

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सवाल-इस फिल्म को इरफ़ान खान करने वाले थे, लेकिन उनकी अचानक मृत्यु से ये फिल्म आपको मिली, क्या आपको लगता है कि इरफ़ान आपसे अच्छा अभिनय कर पाते?

अभिनेता इरफ़ान खान एक प्रतिभाशाली कलाकार थे और पूरे विश्व में प्रसिद्ध थे. उन्होंने कई सफल फिल्में की है और मुझसे अच्छा अभिनय अवश्य कर पाते. मैं अगर उनके जैसे एक प्रतिशत भी काम करने में सफल हुआ, तो ये मेरे लिए बड़ी बात होगी.यहाँ मेरा सौभाग्य के साथ-साथ दायित्व भी है कि मैं इस भूमिका को अच्छी तरह से निभाऊँ. ये फिल्म मेरी तरफ से उनके लिए एक छोटा सा ट्रिब्यूट है.

सवाल-निर्देशक शुजित सरकार के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?

अनुभव बहुत ही अच्छा रहा, क्योंकि मैंने उनके साथ काम कर कई चीजे सीखी है. उनके साथ काम करने से पहले मुझे खुद को एक खाली कप की तरह पेश करना पड़ा, ताकि उनके निर्देश को मैं अपने अंदर पूरी तरह भर सकूँ. शुजित सरकार ने इस फिल्म की कल्पना आज से 20 साल पहले की थी और इसकी वजह से वे दिल्ली से मुंबई आये थे, लेकिन यहाँ भी उन्हें कोई प्रोड्युसर नहीं मिला था, क्योंकि तब वे नए थे और इस तरह की फिल्मों का चलन नहीं था. आज ये बायोपिक फिल्म बन दर्शकों तक पहुंची है और सबको पसंद आ रही है.

सवाल-इस फिल्म में आपने एक फ्रीडम फाइटर सरदार उधम सिंह की भूमिका निभाई है, कितना चुनौतीपूर्ण था और किस भाग को करना बहुत कठिन था?

इसमें मैंने शारीरिक रूप से खुद की तैयारी कर ली थी, क्योंकि इसमें एक बार 20 साल के सरदार उधम तो कही 40 वर्ष के सरदार उधम की भूमिका निभानी पड़ी, जो बहुत चुनौतीपूर्ण रही. दो दिन में मुझे 14 से 15 किलो घटाने थे, जो बहुत कठिन था. उस भाग को शूट करने के बाद दुबारा 25 दिनों में फिर से 14, 15 किलो बढ़ाने थे. इसके लिए मुझे कुछ फोटो सोशल मीडिया पर मिले तो कुछ पुरानी किताबों से पता चला है कि सरदार उधम सिंह बहुत ही बलशाली और मजबूत इंसान थे. इसलिए खुद को थोडा वजनी, चेहरे की भारीपन को लाना पड़ा. इसके अलावा उन्होंने अलग-अलग देशों में अलग लुक्स और नाम को बदलते थे. ऐसे में मुझे भी लुक्स के साथ जीना सीखना पड़ा. इसके लिए प्रोस्थेटिक का सहारा लिया गया, जिसके लिए रूस, सर्बिया और यहाँ की टीम ने मिलकर काम किया, क्योंकि टीम उस दौर की सभी चीजों को वास्तविक दिखाने की कोशिश की है, ताकि दर्शक को दृश्य रियल लगे. उस इन्सान का दर्द और दुःख जैसे मानसिक भाव को चेहरे पर लाने के लिए शुजित सरकार ने काफी मदद की है.

सवाल-इस तरह की गहन चरित्र निभाने के बाद क्या आप में कुछ परिवर्तन आया?

थोडा संयम और धीरज मेरे अंदर आया है, क्योंकि एक इंसान ने जलियांवाला बाग़ के दर्द को  21 साल तक अपने अंदर रखा और 21 साल बाद उसका बदला लंदन जाकर लिया था. इसमें धैर्य की बहुत जरुरत होती है और मुझमे भी धैर्य का कुछ भाव अवश्य आया होगा.

सवाल-क्या आप सरदार उधम सिंह की जीवनी से परिचित थे, क्योंकि स्कूल में बहुत कम सरदार उधम सिंह के बारें में लिखी गयी है,क्या आप मानते है कि इन स्वतंत्रता सेनानियों के बारें में और अधिक पढ़ी और सुनी जानी चाहिए?

मुझे सरदार उधम सिंह के बारें में पता है, क्योंकि पंजाब में मेरा गांव होशियारपुर से जलियांवालाबाग़ केवल 2 घंटे की दूरी पर है और इतिहास की किताब में इसका जिक्र होने पर मैं अपने पेरेंट्स से इसकी जानकारी लेता था, क्योंकि उस ज़माने में फ्रीडम और इक्वलिटी, बार-बार भेष बदलकर पूरे विश्व में घूमना आदि बातें फिल्म के दौरान पता चली.

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इन स्वतंत्रता सेनानियों के बारें में किताबो, फिल्मों और संगीत के माध्यम से याद किये जाने की आवशयकता है, क्योंकि ये डेमोक्रेसी जो हमें मिली है, वह ऐसे बहुतों के त्याग और बलिदान के फलस्वरूप मिली है. इसे बचाकर रखना बहुत जरुरी है, क्योंकि उस ज़माने में 200 साल तक राज कर रहे अंग्रेजों को हटाना आसान नहीं था. शुजित सरकार ने इसी वजह से इस फिल्म को बनाने के लिए 20 साल तक इन्तजार किया है.

सवाल-आप को किस बात से गुस्सा आता है और गुस्सा आने पर इसे मैनेज कैसे करते है?

जब मैं बहुत थका हुआ महसूस करता हूँ या तेज भूख लगी हो, तो मैं गुस्सा हो जाता हूँ. इसे मैं खुद को अकेला रखकर या खाना खाकर शांत कर लेता हूँ. किसी से बात नहीं करता, क्योंकि तब किसी के कुछ कहने पर मैं एकदम से फूट पड़ता हूँ.

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