हिंदू और मुसलिम विवाह कानून

डाक्टर युवक, डाक्टर युवती. दोनों ने 2017 में विवाह किया. 2018 में झगड़ा हो गया. आज 2022 में भी वे अदालतों के बरामदों में खड़े है क्योंकि हमारा तलाक कानून बेहद क्रूर है और बिना चिंता किए अलग हुए पति और पत्नी के कठोर सजा देना है. 2018 में ही पत्नी की पति से नहीं बनी तो वह बर्दवान, पश्चिमी बंगाल से चली गई और पिता के घर शामली, उत्तर प्रदेश आ कर रहने लगी. पति ने बर्दवान में फैमिली कोर्ट में तलाक का दावा कर दिया. अब 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी की एप्लीकेशन पर मामले को शामली में ट्रांसफर कर के एक जीत तो पत्नी को पकड़ा दी पर किस कीमत पर? उस के 4 साल तो अदालतों के चक्करों में गुजर ही चुके हैं.

अब मामला शामली कोर्ट में चलेगा और पति बर्दवान से आएगा. 5-7 साल बाद फैसला होगा. दोनों में से एक उच्च न्यायालय जाएगा. अगर बीच में कोई फैसला नहीं हुआ तो फिर सुप्रीम कोर्ट जाना हो सकता है.

इस बीच दोनों की डाक्टरी तो प्रभावित होगी ही, बालों के रंग सफेद होने लगेंगे. बैंक बैलेंस वकीलों, रेलों, हवाई जहाजों और टैक्सियों के खातों में शिफ्ट होने लगेगा. बच्चे पैदा कर के सुखी परिवार के सपने भी देखने बंद हो जाएंगे. कानूनी घटाघोप अंधेरा उन की िजदगी पर रहेगा. जब कुछ घंटों में शादी हो सकती तो तलाक के लिए इतनी मुश्किल क्यों खासतौर पर तब जब दोनों के कोई बच्चा भी न हो. पहली अदालत पहले आवेदन पर बिना दूसरे पक्ष की सुने आखिर तलाक क्यों नहीं दे सकती? क्या नुकसान हो जाएगा अगर एक की ही शिकायत पर उन्हें मुक्त कर दिया जाए. जब दोनों में से एक भी साथ रहने को तैयार नहीं तो शादी की इन अदृश्य जंजीरों पर कानूनी ताले क्यों लगे रहें?

एक और मामले में तेजपुर असम में 17 जून 2009 को शादी हुई और 30 जून 2009 को पत्नी घर छोड़ कर चली गई. मामला अब सुप्रीम कोर्ट में फरवरी 2022 में 13 साल बाद तय हुआ. पति पर अगर 15 लाख रुपए का बोझ डाला गया तो वह सस्ता था क्योंकि इन 13 सालों में पतिपत्नी साथ न रहते हुए भी अपनी जवानी के दिन अदालतों के बैंचों पर बिता रहे थे. नरम बिस्तरों पर नहीं.

हिंदू विवाह कानून असल आज भी मुसलिम विवाह कानून से ज्यादा कट्टर है पर कमाल है नैरेटिव का कि आम हिंदू अपने को बहुत प्रोग्रेसिस मानता है और इस्लाम के दकियानूसी. विवाह दो व्यस्कों के सहमति से जीने की बात है. इस में तीसरे की जरूरत नहीं है, न पंडित की न काजी की, न कोर्ट की, पंडित के बिना भी साथ रहना शादी समान है और अदालत की डिग्री के बिना अलग रहना तलाक समान है. फिर दोनों अपनी फीस पाने के लिए बीच में क्यों आते हैं.

भारत में टिपिंग सिस्टम 

देश भर के रेस्तरां भी अपनेआप को खास कहते हैं, खाने के बिल के साथ 10′ सॢवस चार्र्ज भी जोड़ते हैं. जीएसटी से पहले यह चार्ज बिना सेल्स टैक्स के होता था पर जीएसटी के बाद उस पर टैक्स भी देना होता है. जीएसटी वाले इसे खाने की कीमत मानते है. सरकार का कंज्यूमर मंत्रालय कहता है कि यह अनावश्यक है क्योंकि सॢवस कैसी भी हो, उस पर चार्ज जबरन वसूलना गलत है.

सरकार ने आदेश दिया है कि रेस्तरां यह चार्ज लगाना बंद  करें पर रेस्तरां मालिकों में से कुछ ठीठ हैं और उन्होंने बाहर ही बोर्ड लगा दिया है कि सॢवस चार्ज तो लगेगा. सॢवस चार्र्ज के बाद टिव न देनी होती तो बात दूसरी होती पर इन रेस्तरांओं में वेटर इस मुद्रा में खड़े हो जाते हैं कि मोटी रकम खर्च कर के जाने वाला काफी कुछ छोड़ जाता है.

असल में टिपिंग  का सिस्टम ही गलत है चाहे यह टैक्सी में हो, जोमाटो या स्वीगी में हो या एयरपोर्ट पर व्हीलचेयर चलाने वाले के हो. अगर एंपलायर नौकरी का वेतन दे रहा हो तो टिपिंग  अपनेआप में गलत ही नहीं जुलह है. यह देनी और लेने वालों दोनों के लिए गलत है. देने वाला अपनेआप को राजा समझने लगता है और लेने वाले को भिखारी. दूसरी तरफ लेने वाला की सैल्फ एस्टीक कम होती है जब वह आशा से अधिक टिप्प पा कर ज्यादा जोर से सलाम मारता है.

टिपिंग  असल में राजाओं रजवाड़ों की छोड़ी गई प्रेक्टिस है. टिप लेने वाला खुशीखुशी जाए घर भावना ही गलत है. उसे तो खुशी इस बात की होनी चाहिए उस ने अच्छी सेवा दी. उस की असली टिप तो ग्राहक की संतुष्टि है. बहुत बार टिप देने के बाद भी लेने वाले के माथे पर बल पड़े रहते हैं और देने वाले को लगता है कि नाहक ही खर्च किया.

जहां सॢवस अच्छी न हो, वहां िटिपिंग  का फर्क नहीं पड़ता. अगर न ही जाए तो भी तो तय हुआ है या जो रेट है वह पैसा तो देना ही होगा ही. रेस्तरां में चम्मच गंदे थे, चाय प्लेट में छलकी थी, खाना देर से आया था, टैक्सी में ड्राइवर किसी से रास्ते भर मोबाइल पर झगड़ता रहा या अपने म्यूजिक का वैल्यूम तेज रखे रखा, टिप न देने से भी जो खीख है वापिस नहीं मिलेगा. यह भी कोई गारंटी नहीं कि सेवा देने वाला अगले ग्राहक को टिप न देने या अच्छी सेवा देगा क्योंकि यह तो उस की आदत बन चुकी है.

जापान में टिपिंग बिलकुल नहीं दी ली जाती. अब अच्छे रेस्तरां होटल ‘नो टिपिंग  प्लीज’ बोर्ड लगाने वाले है. वे नहीं चाहते कि टिप के बंटबारे पर वर्कस में झगड़ा है. मंत्रालय जो वहा वह सही है पर सरकार की सलाह गलत है क्योंकि सरकार तो वैसे ही बिना सेवा दिए मोटी कीमत वसूलने की आदी है और उस के कर्मचारी रिश्वत के तौर पर मोटी टिप जबरन ले लेते हैं.

हनी ट्रैप बिजनैस और कानून

यौन संबंधों को ले कर बने कानूनों का लाभ उठाने के लिए अपराधियों ने एक नया व्यवसाय खड़ा कर लिया है, हनी ट्रैप का. इस में बड़ी आसानी से सेक्स के भूखे पुरुषों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप आदि से पहले दोस्ती की जाती है और फिर फोन नंबर ले कर मिलने का न्यौता दिया जाता है.

यहां तक बात स्वाभाविक और 2 व्यस्कों का मामला है. हर पुरुष की चाहत होती है कि पत्नी हो या न हों, उस की गर्लफ्रैंड जरूर हो जिस से वह अपने सुखदुख बांट सके और संभव हो तो सेक्स संबंध बना सके. सिर्फ सेक्स संबंध बनाने के लिए यूं तो वेश्याओं का बड़ा बाजार है पर उस में जोखिम बहुत हैं और लोग कतराते है. हनी ट्रैप में वे फंसते हैं जो कोई झमेला नहीं चाहते और केवल बदलाव, उत्सुकता या श्रमिक आनंद की खातिर कुछ रोमांचक करने को तैयार हो जाते हैं.

हनी ट्रैप में आने पर लडक़ी पुरुष के साथ अपनी सैक्सी अदाएं दिखाती हैं और कभी सैल्फी से तो कभी छिपे कैमरे से फोटो खींच ली जाती है. कई बार ऐन क्रिटिवल समय पर दरवाजा खोल कर 3-4 लोग घुस जाते है जो लडक़ी के साथी होते है जो ब्लैकमेल, लूट, मारापीटी करने लगते हैं.

हाल के बने कानूनों ने हनी ट्रैप बिजनैस को खूब बढ़ावा दिया है. आजकल हनी ट्रैप के शातिर पुरुष पर किसी भी तरह का आरोप लगा सकती है और अगर मामला पुलिस में चला जाए तो न केवल पुरुष की जगहंसाई, जग प्रतारणा होती ही है और घर में भीषण गृहयुद्ध भी छिड़ जाता है, जेल भी हो सकती है. यदि पुरुष इस जिद पर अड़ जाए कि जो हुआ वह सहमति से हुआ और अपराध नहीं हुआ. पुलिस और अदालत उसे जेल पहले भेज देंगे और सफाई देने का मौका महीनों बाद मिलेगा और लंबी अदालती लड़ाई के बाद ही छुटकारा मिलेगा. यही ब्लैकमेल का अवसर पैदा करता है.

स्त्री पुरुष संबंध व्यस्क संबंध है और इन पर बनाए गए कानून असल में स्त्री को अधिकार नहीं देते, उसे और गुलामी की जंजीरों में बांध रहे हैं. जैसे जून में दिल्ली के एक मामले में हुआ जिस में 3 पुरुषों और एक युवती ने एक पुरुष को फंसाया.

उन पुरुषों को लूटा तो गया पर वह पुलिस में  चला गया और जो पता लगा उस से यह स्पष्ट है कि यह युवती जो अपराधियों के साथ है, खुद एक पीडि़त ही है. वह इस तरह के अपराध में किसी लालच या भय के कारण शामिल हुई होगी. उसे जबरन चुग्गा बना कर फेंका गया. जो कानून उसे बचाने के लिए बनाया गया था, उसी कानून के अनुसार वह सिर्फ एक अपराध का हथियार थी.

वेश्यावृत्ति समाप्त करने वाले ज्यादातर कानूनों में वेश्याओं को अपराधी नहीं माना गया पर पुलिस उन्हीं को सब से ज्यादा लूटती है. इन कानूनों के बावजूद कोठों में रह रहीं या स्वतंत्र रूप से देह बेचने वाली दोनों समाज व पुरुषों की शिकार हैं और कानूनों ने उन्हें और जकड़ दिया है.

कार्यक्षेत्र में यौन प्रतारण कानून ने औरतों की आजादी छीन ली है. वे पुरुषों की तरह हंसबोल भी नहीं सकती. क्योंकि पुरुष उन से डरते रहते हैं. उन्हें जोखिम का काम नहीं दिए जाते. उन की युवावस्था की अपील पर कोई विवाद न खड़ा हो जाए इसलिए कंपनियां उन्हें जिम्मेदारी वाले पद देने से कतराती हैं. जो कंपनियां उन्हें आगे रखने का जोखिम लेती हैं, वे उन का केबल सजावटी उपयोग करती है और सब कोशिश करते है कि उन्हें दूरदूर रखा जाए. अच्छे से अच्छे दफ्तर या कारखाने में औरतों के अलग गुट बन जाते हैं, जिन कानूनों से अपेक्षा थी कि वे ङ्क्षलग भेद समाप्त करके बराबर के अवसर देंगे, वे अब फिर उन्हें पुरातन औरतों के अलग बाड़ों में बंद कर रहे हैं.

औरतों का नहीं, समाज के विकास के लिए जरूरी है कि औरत का इस्तेमाल पुरुष के क्षणिक सुख के लिए नहीं हो, उसे समाज का बराबर का यूनिट समझा जाए. जो एक तरफा कानून बने हैं, वे ङ्क्षलग भेद को पहले से स्पष्ट कर देते है और औरतों के विकास के रास्ते बंद कर देते हैं. औरत साथी को पुरुष साथी की तरह सहजता से लिया जाए, यह भावना वहीं से पैदा नहीं करते.

मामला एम जे अकबर और तरुण तेजपाल जैसे पत्रकारों का हो या जौनी डैप और एंकर हस्र्ट का हो सैक्सटौर्थन के मामलों में औरतें विक्टिम ही बनी रहती हैं. ये मामले दिखाते हैं कि औरतें आज भी वीकर सैक्स हैं और नए कानूनों या नई कानूनी परिभाषाओं ने वीकर सैक्स के बल देेने के नाम पर उन के पैरों में ब्रेसख बांध दिए हैं जो उन्हें कमजोर ही दर्शाते हैं.

डॉक्टर्स और पेशेंट के बीच मजबूत करे रिश्ते कुछ ऐसे

आये दिन डॉक्टर्स और रोगी के परिजन के बीच मारपीट अखबारों की सुर्ख़ियों में होती है, क्योंकि परिजन किसी अपने प्रियजन को आखिरी समय में डॉक्टर के पास ले जाने औरउसके ठीक होने की आस लिए जाते है, पर उसकी मृत्यु हो जाती है, जिसे वे डॉक्टर की लापरवाही समझते है. जबकि ऐसा कम ही होता है. डॉक्टर और मरीज के बीच ऐसा सम्बन्ध हमारे समाज और परिवार के लिए ठीक नहीं. आज डॉक्टर्स भी किसी गंभीर रोगी को इलाज करने से कतराते है, यही वजह है कि कई बार समय से इलाज न होने पर रोगी की मृत्यु हो जाती है. पश्चिम बंगाल, असम में आज गंभीर बीमार वाले रोगी को डॉक्टर्स इलाज नहीं करते और उन्हें किसी दूसरे राज्य में इलाज के लिए भेज देते है. जहाँ इतना सारा पैसा खर्च करने के बावजूद रोगी को इलाज देर से मिल पाती है और अधिकतर मरीज की मृत्यु हो जाती है. ये दुखद है, क्योंकि जितना कोशिश एक परिवार अपने प्रियजन को बचाने के लिए करता है, उतना ही एक डॉक्टर को भी करने की जरुरत होती है. इन संबंधों को सुधारने के लिए डॉक्टर्स और रोगी के परिजन सभी को धीरज धरने की जरुरत होती है.

मकसद है जागरूक करना

इसलिए हर साल 1 जुलाई को नेशनल डॉक्टर्स डे मनाया जाता है. इस दिन को मनाने का मकसद बेहतर स्वास्थ्य के प्रति लोगों को जागरूक करना और डॉक्टरों को उनकी समर्पित सेवा के लिए शुक्रिया अदा करना होता है. नेशनल डॉक्टर्स डे की शुरुआत के बारें मेंआइये जानते है.

पहला नेशनल डॉक्टर्स डे वर्ष 1991में मनाया गया था, क्योंकि दिन रात मेहनत कर एक डॉक्टर अपने मरीज को ठीक करता है. कोविड 19 में भी डॉक्टरों ने इलाज करते हुए पूरे भारत में 798 डॉक्टर्स ने अपनी जान गवाई. उस दौरानउन्होंने महीनों खुद को परिवार से दूर रखा, लेकिन वे लगे रहे. इतना ही नहीं, उन्हें आसपास के लोगों नेघर में घुसने नहीं दिया,पीपीए किट पहनकर घंटो अस्पताल में रहना और मरीजो का इलाज करना कोई आसान काम नहीं था, लेकिन उन्होंने किया और आज भी कर रहे है, जिससे करोड़ों लोगों की जान बच पाई.

बदलती सोच है जिम्मेदार

दरअसल, इस दिन डॉक्टर बिधान चन्द्र राय की जन्मदिन और पूण्यतिथि दोनों ही है. उन्हें उस समय का सबसे बेहतर डॉक्टर माना जाता था. इसलिए इस दिन को डॉक्टर्स के महत्व को याद किया जाता है. मुंबई, अपोलो स्पेक्ट्रा केइंटरनल मेडिसिन एक्सपर्ट,डॉ तुषार राणे कहते है किकुछ वर्ष पहले मरीज, डॉक्टरों को भगवान के स्वरूप मानते थे और डॉक्टर मरीज को ठीक करने के लिए अपनी जान की बाजी लगाते थे, लेकिन बदलते समय के साथ-साथ डॉक्टर और मरीज दोनों की सोच बदली है. अब डॉक्टरों को मरीज, भगवान का दर्जा नहीं देते.ये कहना भी गलत नहीं होगा कि इधर कुछ डॉक्टरों की आकांक्षाएं भी बढ़ी है.वे पहले की तरह निष्ठापूर्वक काम नहीं करते. डॉक्टर्स और मरीज के परिवार के बीच तनाव या झगड़े के मामले जो काफी बढ़ चुके है उसे कम करना आज बहुत जरुरी है. इसका मुख्य कारण डॉक्टर और मरीजों केरिश्तों के बीच संवेदनहीनता का होना है. इसे ठीक करने के तरीके निम्न है,

• डॉक्टर मरीजों की सेवा करते है इसलिए उसके अंदर सहानुभूति और करूणा के साथ मरीजों की देखभाल का गुण होना चाहिए, क्योंकि डॉक्टर-मरीज का रिश्ता पवित्र और आपसी विश्वास, सम्मान पर आधारित होता है.इसका उदाहरण कोरोना महामारी के दौरान सामने आया.कोरोना की संक्रामक बीमारी ने मरीजों के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने में डॉक्टरों के सामने कई चुनौतियां खड़ी कर दी थी, ऐसी स्थिति में मरीजों को विश्वास दिलाकर उनका इलाज करना काफी मुश्किल था, लेकिन डॉक्टरोंने इस चुनौती पूरी की है. डॉक्टरों की कडी मेहनत से ही कोरोना संक्रमण पर लगाम लग पाया.

• कोविड-19 महामारी ने डॉक्टर और मरीज के रिश्ते में भारी बदलाव लाया है. डॉक्टरों के निदान और उपचार के साथ मरीजों से बातचीत करने का तरीका पूरी तरह से बदला है. इसके अलावा महामारी के दौरान टेलीमेडिसिन एक वरदान रहा है. यह विकल्प डॉक्टर को फोन पर या वीडियो के माध्यम से संवाद करने, मरीज की समस्या के बारे में जानने, उसके चेहरे के भाव, दृश्य संकेतों और शरीर की भाषा पर ध्यान देने और फिर उपचार के अगले कदम पर निर्णय लेने की अनुमति दिया है.इससे मरीजों को कोरोना संक्रमण के जोखिम को कम करने का एक अनोखा तरीका रहा. वे केवल अति आवश्यक होने पर ही अस्पताल गए. ये तभी संभव हो पाया, जब डॉक्टर्स और रोगी के बीच एक अच्छा तालमेल बैठा, जिससे उनकी जरूरतों और उनके समग्र स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद मिली.

• डॉक्टर के अच्छे व्यवहार से रोगी की बीमारी आधी हो जाती है. इलाज के दौरान चिकित्सक के प्रति आत्मीयता का भाव होने पर चिकित्सक के व्यवहार से मरीज मं ठीक होने का विश्वास जागृत होता है. चिकित्सक को मरीज के आर्थिक स्थति को देखते हुए सस्ता और बेहतर इलाज की व्यवस्था करना जरुरी है, ताकि गरीब मरीज दवा व इलाज के अभाव में स्वास्थ्य सेवा से बंचित न रह सके.

• डॉक्टर होने के कारण आपका शेड्यूल बिगड़ सकता है, लेकिनआपको मरीज के बीमारी को उसके लक्षणों सहित वर्णन को सुनना आवशयक है. अन्यथा वे समस्या का खुलकर नहीं बतायेंगे और डॉक्टर उचित उपचार नहीं कर पायेंगे.

• मरीज खुद कितना निर्णय ले सकता है, इसकी जानकारी पता करें, ताकि उसके इलाज की प्रक्रिया उसे समझ में आयें. मरीज की सभी शंकाओं को दूर करने का प्रयास करें. उपचार के फायदे और नुकसान की पहचान में भी उनकी मदद करे.

• डॉक्टरों को मरीज के चेहरे के भावों पर ध्यान देना चाहिए. जरूरत पड़ने पर उसे शांत करने की कोशिश करन जरुरी है. मरीज के वफादार साथी बनने की कोशिश करें. उनकी भावनाओं को सुलझाने में उनकी सहायता करें.

• मरीजों को यह जानकारी होनी चाहिए कि जटिलताएं मेडिकल प्रक्रिया का ही एक हिस्सा होती है और सरकार तथा चिकित्सकों को इन जटिलताओं जानकारी पहले ही मरीज और उनके परिजनों को उपलब्ध करवानी चाहिए इससे मरीजों तथा चिकित्सकों के बीच किसी भी प्रकार का विवाद उत्पन्न ही ना हो. दोनों के बीच आपसी सामंजस्य और विश्वास बना रहे.

इसके अलावा डॉक्टर को मरीज का स्वागत मुस्कान के साथ कर मरीज की समस्या को ध्यान से सुनना आवश्यक है,इससे उन्हें कुछ राहत मिलती है. मरीजों को इलाज के बारे में झूठी उम्मीदें देने से बचें, उन्हें बीमारी के बारे में शिक्षित करें, उपचार के दुष्प्रभावों के बारे में बताएं और सुनिश्चित करें कि वे सुरक्षित है.ऐसी चीजे मरीज के साथ विश्वास और मजबूत बंधन बनाने में मदद करेगा. मरीजों को डॉक्टरों के मेडिकल इतिहास की स्पष्ट तस्वीर देनी चाहिए, ताकि उनका आप पर भरोषा हो.

अबॉर्शन राइट्स के मामले में क्या अमेरिका से आगे है भारत?

अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने देश की महिलाओं को मिले अबॉर्शन यानी गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को खत्म कर दिया. कोर्ट ने 24 जून को पचास साल पहले के अपने ही उस फैसले को पलटकर रख दिया, जिसमें कहा गया था कि महिलाओं के लिए अबॉर्शन का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है. पचास साल पहले अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने जिस मामले में ये फैसला सुनाया था, उसे 1973 के चर्चित ‘रोए बनाम वेड’केस के तौर पर जाना गया. अब इस नए फैसले के बाद पचास साल पहले के इस मामले की खूब चर्चा हो रही है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से अमेरिका के साथ ही दुनियाभर में इसपर लगातार आलोचना हो रही है. अमेरिका के अलावा कई देशों में फैसले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे है. इस फैसले के बाद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर कई जानी-मानी हस्तियों ने इसपर विरोध जताया है. अबॉर्शन यानि गर्भपात को लेकर भारत अमेरिका से कितना आगे है ये जानने से पहले आइए थोड़ा इस केस के बारे में जान लेते है.

‘रोए वी वेड’ का फैसला क्या था?

अमेरिका में गर्भपात हमेशा से एक बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है. महिलाओं के पास गर्भपात का अधिकार होना चाहिए या नहीं इसको लेकर अमेरिका में लगातार बहस होती रही है. साथ ही ये मुद्दा रिपब्लिकन्स (कंजरवेटिव) और डेमोक्रेट्स (लिबरल्स) के बीच भी विवाद का का कारण बनता आया है. बात साल 1971 की है. जब अमेरिका में रो जेन नाम की महिला ने तीसरी बार प्रेगनेंट होने के बाद कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. रो जेन पहले ही दो बच्चों की मां थी, और वो तीसरा बच्चा नहीं चाहती थी. लेकिन अमेरिका में अबॉर्शन की इजाज़त केवल विशेष परिस्थितियों में ही थी. जिसके कारण रो ने अबॉर्शन की इजाजत के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. जिसके बाद अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में अमेरिका की महिलाओं को अबॉर्शन का अधिकार दिया.

भारत में प्रेग्नेंसी कानून

भारत में 1971 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी कानून आया था. समय-समय पर इस कानून में संशोधन हुए. ये कानून एक सीमा तक महिलाओं को अबॉर्शन कराने की अनुमति देता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि भारत में महिलाओं को अबॉर्शन कराने की खुली छूट है. एमटीपी एक्ट में कई टर्म्स एंड कंडीशन्स दी गई हैं. अगर आपका कारण उस क्राइटेरिया को पूरा करता है, तब ही आप गर्भपात करा पाएंगी.

भारत में अबॉर्शन से जुड़े कानून

एमटीपी एक्ट में अबॉर्शन राइट्स को तीन कैटेगरी में डिवाइड किया गया है.

1. जिसमे पहली कैटेगरी है प्रेग्नेंसी के 0 – 20 हफ्ते तक अबॉर्शन. इसके तहत अगर कोई महिला मां बनने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं है. या फिर अगर कांट्रासेप्टिव मेथर्ड या डिवाइस फेल हो गया और ना चाहते हुए महिला प्रेग्नेंट हो गई तब वो गर्भपात करा सकती है. अबॉर्शन एक रजिस्टर्ड डॉक्टर द्वारा होना ज़रूरी है.

2. दूसरी कैटेगरी प्रेग्नेंसी के 20 – 24 हफ्ते तक अबॉर्शन. इसके तहत अगर मां या बच्चे की मानसिक या शारीरिक स्वास्थ को किसी भी तरह का खतरा है तब महिला गर्भपात करा सकती है. इसके लिए अबॉर्शन के दौरान दो रजिस्टर्ड डॉक्टरों का होना जरूरी है.

3. प्रेग्नेंसी के 24 हफ्ते बाद अबॉर्शन के लिए. यदि महिला रेप का शिकार हुई है और उस वजह से प्रेगनेंट हुई है तब वो प्रेग्नेंसी के 24 हफ्ते बाद भी अबॉर्शन करवा सकती है. या महिला विकलांग है तब वह 24 हफ्ते बाद भी गर्भपात की मांग कर सकती है. साथ ही बच्चे के जीवित बचने के चांस कम है या प्रेगनेंसी की वजह से मां की जान को खतरा हो तो भी करवाया जा सकता है अबॉर्शन.

24 हफ्ते के बाद गर्भपात पर फैसला लेने के लिए एमटीपी बिल में राज्य स्तरीय मेडिकल बोर्ड्स का गठन किया जाता है. इस मेडिकल बोर्ड में एक गायनेकोलॉजिस्ट, एक बाल रोग विशेषज्ञ, एक रेडियोलॉजिस्ट या सोनोलॉजिस्ट शामिल होते हैं. ये बोर्ड गर्भवती की जांच करता है और अबॉर्शन में महिला की जान पर कोई खतरा न होने की स्थिति में ही अबॉर्शन करने की इजाज़त देता है.

भ्रूण के लिंग की जांच के बाद गर्भपात करना भ्रूण हत्या के दायरे में आता है और कानून की नज़र में ये अपराध है.

भारत में से अबॉर्शन जुड़ी समस्याएं

भारत उन कुछ चुनिंदा देशों में से है जहां महिलाओं को क़ानूनी तौर पर गर्भपात का हक है, लेकिन यहां समस्याएं अलग तरह की हैं.

भारत में आमतौर पर प्रेग्नेंसी का फैसला सिर्फ महिलाओं का नहीं होता. शादीशुदा घरों में यहां बहुत कुछ पति और परिवार पर निर्भर करता है. यही बात अबॉर्शन केसेस पर भी लागू होती है. जैसे कानून तो ये कहता है कि अगर प्रेग्नेंसी की वजह से किसी महिला को मानसिक आघात पहुंचता है तो वो गर्भपात करवा सकती है. लेकिन भारत में जिस तरह का सोशल स्ट्रक्चर है उसमें परिवार का दबाव, समाज का दबाव इतना हावी होता है कि महिला पर बच्चा पैदा करने का भारी दबाव होता है. ऐसे में अगर वो मानसिक रूप से तैयार नहीं होने की बात कहकर अबॉर्शन करवाना चाहे भी तो परिवार वाले उसे ऐसा करने नहीं देते.

अक्सर इस तरह की बातें सुनने में आती हैं. ये अपने आप में बड़ी आयरनी है कि एक महिला जब अपनी मर्ज़ी से अबॉर्शन करना चाहती है तो उस पर बच्चा पैदा करने का दबाव बनाया जाता है. लेकिन अगर पता चल जाए कि पेट में लड़की है तो जीव हत्या, ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाओगी कहने वाले रिश्तेदार झट से बच्चा गिराने की राय देने लगते हैं. UNFPA की रिपोर्ट बताती है कि 2020 में जन्म से पहले लिंग परीक्षण की वजह से भारत में करीब 4.6 करोड़ लड़कियां मिसिंग हैं.

ये तो विवाहित महिलाओं की बात थी, लेकिन जब बात अविवाहित लड़कियों की आती है तो उसे कई स्तरों पर नेगेटिव बातों से जूझना पड़ता है. चूंकि शादी के बिना बनाए गए शारीरिक संबंधों को भारतीय समाज स्वीकार नहीं करता है और स्टिग्मा की तरह देखता है. ऐसे में जब कोई लड़की गर्भपात कराने जाती है, तो डॉक्टर्स भी उससे शादीशुदा हो, बच्चे का बाप कौन है, मां बाप को इस बारे में पता है टाइप के गैरज़रूरी सवाल पूछते हैं कई डॉक्टर्स लड़कियों को डांटने भी लगते हैं कि घरवालों का भरोसा तोड़ दिया आदि आदि. ऐसे वक्त में जब एक लड़की को सपोर्ट की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है वो लोगों के जजमेंट झेल रही होती है.

और गर्भपात तो दूर की बात है, आप किसी नार्मल सी प्रॉब्लम के लिए भी गायनेकोलॉजिस्ट के पास जाओ तब भी वो दो चार गैर ज़रूरी सवाल पूछेंगी. सही समय पर शादी और बच्चा पैदा करने जैसी बिन मांगी सलाह दे देंगी.

अबॉर्शन के अधिकारों के मामले में इंडिया अमेरिका से आगे है?

बिल्कुल सही बात है…भारत इस मामले में अमेरिका से आगे है. यहां का कानून महिलाओं को ये फैसला लेने का हक देता है कि बच्चा रखना चाहती है या नहीं. लेकिन वजह फैमिली प्लानिंग वाली है. एक औरत का उसके शरीर पर अधिकार वाली नहीं. कानून तो हमारा दुरुस्त है लेकिन दिक्कत सोशल स्ट्रक्चर की है जहां पति और ससुराल वाले एक लड़की, उसके शरीर और उसके पूरे अस्तित्व पर अपना हक समझते हैं. इस वजह से कई महिलाएं अपने शरीर से जुड़े फैसले खुद नहीं ले पातीं, उसके लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जाती हैं.

कानूनी हक के बावजूद सुविधाओं की कमी और सामजिक दिक्कतों के कारण वो पूरी तरह अपने हक़ का इस्तेमाल नहीं कर पातीं. हमें ज़रूरत है सुविधाओं को महिलाओं तक पहुंचाने और सामजिक रूप से कुरीतिओं को खत्म करने की ताकि महिलाएं अपने हक़ का इस्तेमाल कर सकें.

जून में क्यों मनाते हैं प्राइड परेड, आइए जानते हैं इसका पूरा इतिहास

पूरी दुनिया खासतौर से लैटिन-अमेरिकन देशों में जून को ‘प्राइड मंथ’ के रूप में मनाया जाता है. कुछ विशेष समुदायों के द्वारा जून महीने को प्राइड परेड मंथ कहा जाता है. हर साल दुनिया भर में LGBTQ समुदाय और इसे समर्थन देने वाले लोग इसे बड़े  उत्साह से मनाते है. प्रदर्शन के दौरान ये लोग हाथो में एक झंडा लेकर चलते हैं जिसे इंद्रधनुष कहते हैं.

क्यों मनाया जाता है प्राइड मंथ?

28 जून 1969 को अमेरिका के मैनहट्टन के स्टोन वॉल में LGBTQ समुदाय के लोगों के ठिकानों पर छापेमारी की गई थी, यह छापेमारी गे समुदाय के लोगों के द्वारा लगातार किए जा रहे प्रदर्शनों और धरनों के विरोध में की गई थी. इस छापेमारी के दौरान ही पुलिस और वहां मौजूद लोगों के बीच हिंसक झड़प हो गई. इसके बाद पुलिस ने जब लोगों को गिरफ्तार करना शुरू किया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो गए. जिसके बाद इस समुदाय के लोगों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया और यह संघर्ष लगातार तीन दिनों तक चला. इस लड़ाई से न केवल अमेरिका में समलैंगिक आजादी के आंदोलन की शुरूआत हुई, बल्कि बहुत से देशों में आंदोलन शुरू हो गया. इसके बाद इस समुदाय के लोगों ने अपने अधिकारों की मांग और अपनी आइडेंटिटी पर गर्व करने के लिए प्रत्येक साल जून महीने में शांति रूप से प्राइड परेड करने का फैसला लिया.

प्राइड मंथ पर निकलती है लाखों लोगों की परेड

इस मंथ को LGBTQ समुदाय के खिलाफ हो रही यातनाओं के खिलाफ विरोध में भी देखा जाता है.  इस महीने का इस्तेमाल राजनैतिक तौर पर LGBTQ कम्युनिटी के बारे में पॉजिटिव प्रभाव डालने के लिए भी होता है. पूरे महीने ये लोग शहर में जगह-जगह परेड निकालते हैं. इस समुदाय के प्रति समर्थन जाहिर करने के लिए भी कई संस्थाएं इनकी परेड में शामिल होती हैं.

अमेरिका में प्राइड मंथ को कब मिली मान्यता?

बिल क्लिंटन साल 2000 ऑफिशियल तौर पर प्राइड मंथ को मान्यता देने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं.  साल 2009 से 2016 तक अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा रहें, तो इस दौरान इन्होंने जून माह को LGBTQ के लोगों के लिए प्राइड मंथ की घोषणा की.  मई 2019 में, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक ट्वीट के साथ प्राइड मंथ को मान्यता दी. इसमें घोषणा की गई थी कि उनके प्रशासन ने LGBTQ को अपराध की श्रेणी से हटाने के लिए एक वैश्विक अभियान शुरू किया है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी आधिकारिक रूप से ‘प्राइड मंथ’ की घोषणा की है. न्यूयॉर्क प्राइड परेड होने वाली सबसे बड़ी और सबसे प्रसिद्ध परेड में से एक है.

प्राइड परेड का झंडा कैसा होता है

प्राइड परेड का झंडा साल 1978 में अमेरिका के शहर सैन फ्रांसिस्को के कलाकार गिल्बर्ट बेकर द्वारा डिज़ाइन किया गया था. बेकर द्वारा बनाये गए झंडे में 8 रंग थे – गुलाबी, लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, इंडिगो और वायलेट, लेकिन अगले ही साल से इस झंडे में छह-रंग कर दिए गए जिसमें लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला और वायलेट रंग हैं. ये लोग इसे इंद्रधनुष मानते हुए परेड में शामिल करते हैं. महीने भर चलने वाली इस परेड में कार्यशालाएं, संगीत कार्यक्रम समेत कई अन्य कार्यक्रम शामिल हैं, जो हर जगह लोगों को आकर्षित करते हैं. इस समुदाय के लोग अपने उत्सव में शामिल होने के लिए वेशभूषा, श्रृंगार के साथ तैयार होते हैं.

किसने दिया प्राइड परेड नाम?

इस आंदोलन को ‘प्राइड’ कहने का सुझाव साल 1970 में समलैंगिक अधिकारों के कार्यकर्ता एल क्रेग शूनमेकर ने दिया था. इसका खुलासा उन्होंने दिए एक इंटरव्यू में किया इन्होंने कहा कि इससे जुड़े हुए लोग अंदर ही अंदर संघर्ष कर रहे थे और उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि खुद को समलैंगिक साबित कर अपने पर गर्व कैसे महसूस करें.

भारत में LGBTQ के कानूनी अधिकार क्या हैं?

भारत में आर्टिकल 377 के तहत समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में था लेकिन साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता पर लगी धारा 377 को मान्यता दे दी. इस ऐतिहासिक फैसले के बाद भारत में  LGBTQ को संबंध बनाने का क़ानूनी अधिकार दे दिया गया. इस ख़ुशी के मौके पर इसे सेलिब्रेट करने के लिए LGBTQ समुदाय के लोगों ने पूरे देश में एक स्वतंत्र नागरिक होने की हैसियत से मार्च किया.

हालांकि अभी भी भारत में LGBTQ समुदाय के लोगों को शादी करने और बच्चे गोद लेने का अधिकार नहीं है जबकि ऑस्ट्रेलिया, माल्टा, जर्मनी, फिनलैंड, कोलंबिया, आयरलैंड, अमेरिका, ग्रीनलैंड, स्कॉटलैंड समेत 26 देशों में  LGBTQ समुदाय के लोगों को शादी करने और बच्चे गोद लेने का अधिकार है.

भारत में कब शुरू हुई प्राइड परेड और इसका इतिहास?

भारत में पहली प्राइड परेड 02 जुलाई, 1999 को कोलकाता में आयोजित की गई थी. इसे तब कोलकाता रेनबो प्राइड वाक नाम दिया गया था. सिटी ऑफ जॉय के नाम से मशहूर कोलकाता में हुई इस परेड में सिर्फ 15 लोग शामिल हुए थे जिसमें एक भी महिला नहीं थी. इसके बाद आने वाले सालों में देश के कई राज्यों में इसका आयोजन किया जाता है.

साल 2008 में दिल्ली और मुंबई में पहली बार LGBTQ समुदाय लोगों ने प्राइड परेड का आयोजन किया था. दिल्ली में इस समुदाय के द्वारा हर साल नवंबर के आखिरी संडे को प्राइड परेड का आयोजन किया जाता है.

कृषि कानूनों की तरह न हो जाएं अग्निवीर

अग्निपथ स्कीम की चर्चा के दौरान भारतीय सेनाओं के अफसरों की चर्चा न के बराबर हो रही है. जहां लाखों युवा आम्र्ड फोसर्स में नौकरी पाने के अवसर खोने पर पूरे देश में ट्रेनें, बसें, भाजपा कार्यालय, सरकारी संपत्ति जला रहे हैं, करीब 1 लाख अफसरों वाली सेना योग्य व कर्मठ अफसरों की कमी से जूझ रही है.

छठे व 7वें सैंट्रल पे कमीशन में अफसरों के वेतन काफी बढ़ गए हैं और बहुत ही सुविधाएं भी आम्र्स फोर्र्सेस के अफसरों की मिल जाती है जो वेतन में नहीं गिनी जातीं, अफसरों में कमी सरकार के लिए एक चिंता बनी है.

अफसरों को लगता है कि वे जो जोखिम लेते हैं, जिस तरह उन के बच्चों को तबदिलों की वजह से भटकना पड़ता है, सेना को औफिस लाइफ क्लालिटी युवा सेवा में नौकरी पाने को बेचैन नहीं दिखते. जहां आम रोजमर्रा के लिए लाखों युवा कस कर मेहनत करते दिखते हैं, पढ़ेलिखे परिवारों के बच्चे आईआईटी, नीट, क्लैट, एमबीए आदि की तैयारी में लगे रहते हैं. भारतीय जनता पार्टी अपनी सोच पर बहुत गरूर करती है पर उस के नेताओं में अपने बच्चों को सेना में भेजने की रूचि न के बराबर है.

अग्निवीर योजना का एक लाभ जरूर है कि जो युवा 21 से 25 साल तक रिटायर होंगे उन की शादी हुई ही नहीं होगी और सैनिक विडोज तो कम दिखेंगे. जो सेना में रह जाएंगे उन की औरतें विधवा होने का पूरा रिस्क लेती है क्योंकि सेना जिंदगी भर की पेंशन देने का वादा करती हैं.

अफसरों के लिए आज भारी क्वालिकेशन की जरूरत है क्योंकि सेना भी अब आधुनिक होती जा रही है और जो समान विदेशों से खरीदा जहा रहा है, चाहे हवाई जहाज हो, सब मेरीम हो, टैंक हों, उन में कंप्यूटरों की जरूरत होती है. आज की लड़ाई में चाहे अफसर पीछे रहें, जोखिम बराबर का बना रहता है और पढ़ेलिखे कमीशंड औफिसर बच्चे की कोई रूचि नहीं दिखा रहे.

भारत का लैंड बौर्डर 15,000 किलोमीटर कम है और 7,500 किलोमीटर सी बौर्डर है और हर जगह फैसले लेने के लिए अफसर स्पौट पर चाहिए होते है पर सरकार की सुविधाओं की घोषणाओं, बड़ेबड़े विज्ञापनों के बावजूद ‘देशभक्त’ युवा इस नौकरी में ज्यादा आगे नहीं आ रहे. अफसरों में दलित व मुसलिम न के बराबर लिए जाते हैं और ये वर्ग पढ़लिख कर भी कोई रूचि नहीं दिखाते क्योंकि समाज की छूआछूत की भावना को आर्मी की खास ट्रेनिंग भी पूरी तरह गला नहीं पाती. अच्छे घरों के मांबाप अपने इललौते से बच्चों को इस जोखिम की नौकरी में भेजना ही नहीं चाहते. यह स्थिति अग्निवीरों से बिलकुल उलट है जहां लाखों सैनिक बच्चे के लिए टैस्ट की तैयारी में खुद को महिनों तक बुरी तरह थका रहे हैं. ऐसा अफसर बनने में न के बराबर हो रहा है. देश के अखबारों में सैनिक अफसर बनने की परिक्षाओं की कोिचग के विज्ञापन लगभग नहीं दिखते क्योंकि इस में बहुत कम का इंट्रस्ट है.

शौर्ट सर्विस कमीशन के अफसर आर्मी की ट्रेनिंग के बाद अक्सर रिटायर हो कर निजी सैक्टर में नौकरी पाने का मौका ढूंढऩे लगते हैं क्योंकि अब वे शहरों की जिंदगी का मजा लेना चाहते हैं और रेगिस्तान, पहाड़ी, दुर्गम या कोस्टल विरान इलाकों में खुश नहीं रहते. निजी सैक्टर बिना जोखिम वाली अच्छी नौकरियां शौर्ट सॢवस कमीशंड अफसरों को देना हैं और रिटायरमैंट लेना अक्लमंदी लगती है जबकि अग्निवीरों के लिए उल्टी रिटायरमैंट एक सूसाइड की तरह है.

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कथाओं और मान्यताओं पर प्रहार

सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में औरतों को शेयर्ड हाउसहोल्ड में रहने का अधिकार दे कर एक नया दौर शुरू किया है. सताई हुई औरतें कहां जाएं, कौन सी छत ढूंढ़ें, यह सवाल बहुत बड़ा है. जो किसी कारण अकेली रह गई हों, पति हिंसक हो, बच्चे छोड़ गए हों, उम्र हो गई हो, लंबी बीमारी हो, पूजापाठी जनता ऐसी किसी भी बेचारी औरत को निकालने में जरा भी हिचकिचाती नहीं है.

सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि डोमैस्टिक वायलैंस ऐक्ट की धारा 17(1) ऐसी किसी भी औरत को, चाहे वह मां हो, बेटी हो, बहन हो, पत्नी हो, विधवा हो, सास हो, बहू हो घर में रहने का अधिकार रखती है चाहे उस के पास उस घर में संपत्ति का हक हो या न हो. यह अधिकार हर धर्म, जाति की औरत का है. कोई भी उस अनचाही औरत को घर से नहीं निकाल सकता, जो किसी अधिकार से उस घर में कभी आई थी.

एक पत्नी अपने पति के घर में रहने का हक रखती है चाहे घर पति का न हो, पति के मातापिता या भाईबहन का हो अगर पति वहां रह रहा है. उसी तरह घर की बेटी को घर से नहीं निकाला जा सकता. चाहे उस का विवाह हो गया हो और वह पति को छोड़ आई हो. कोई मां को नहीं निकाल सकता कि उसे अब दूसरे बेटे या बेटी के पास जा कर रहना चाहिए. कोई औरत छत से महरूम न रहे इस तरह का फैसला अपनेआप में क्रांतिकारी है.

सोनिया गांधी की सरकार के जमाने में 2005 में बना हुआ यह कानून व यह फैसला असल में उन पौराणिक कथाओं पर एक तमाचा है जिन में पत्नी को बेबात के बिना बताए घर से निकाल दिया गया क्योंकि कुछ लोगों को शक था. यह उन कथाओं और मान्यताओं पर प्रहार है जिन में औरतों को गलती करने पर पत्थर बना दिया जाता था, जो सड़क पर पड़ा रहे.

भारतीय संस्कृति में तो पापपुण्य का हिसाब रहता है. विधवा आमतौर पर पाप की भागी मानी जाती है कि वह पति को खा गई और उसे कैसे ससुराल में रहने की इजाजत दी जा सकती है. यह फैसला ऐसी औरतों को पौराणिक संस्कृति के विरुद्ध जा कर संरक्षण देता है.

विडंबना यह है कि इस समाज में वे औरतें ही धर्म की दुहाई देती हैं जो कभी न कभी उसी धर्म की मान्यताओं की शिकार बनती हैं. आजादी के बाद बहुत से कानून बने जिन में औरतों को हक मिले पर वे कट्टरपंथी सरकारों की देन नहीं हैं. कट्टरपंथी तो उन को पूजास्थलों तक ले जाने में व्यस्त रहते हैं.

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पाप धोना हो तो संपत्ति लुटाएं

भारतीय जनता पार्टी की अधिकृत प्रवक्ता नूपुर शर्मा और एक दूसरे मीडिया प्रभारी नवीन कुमार एक टीवी डिबेट में इस्लाम पर कुछ ऐसी फब्तियां कस दी कि सारे मुसलमानों की ही नहीं, सारी दुनिया के मुसलिम देशों की भौंहें तन गईं. नूपुर शर्मा और नवीन कुमार ने जो भी कहा वह भारतीय जनता पार्टी समर्थक अपने व्हाट्सएप गु्रपों में अर्से से कहते रहे हैं और इस्लाम हिंदू विवाद में खुद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए पैगंबर को अपमानित करने के लिए फौरवर्ड कर के अपने को हिंदू योद्धा मानते रहे हैं.

इस बार जोश में ज्ञानवापी मसजिद पर चल रही बहस में नूपुर जोश में आ गई और एंकर ने उसे टोका तक  नहीं. एंकर की सोच भी ऐसी ही है कि हिंदू ही सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वही उसे टीआरपी दिला रहा है.

हर धर्म के अपने ग्रंथों में अपने ही आराध्यों के बारे में न जाने क्याक्या कहां गया है और हर धर्म के अपने सुधारक कई बार अपने धर्म के लोगों को असलियत बताते रहते हैं. लगभग सभी देशों में ईशिनदा, कानून बने हुए हैं ताकि लोग अपने धर्म की पोल न खोलें. दूसरे धर्म की पोलपट्टी मौका देख कर खोली जाती है जब अपने धर्म पर होते आक्रमण से बचाना हो चाहे. वह स्वाधर्मी का हो या विधर्मी का. भारतीय जनता पार्टी की सत्ता चूंकि धर्म पर टिकी है जिस की मुख्य घुटी 1000 साल का मुसलिम राज है, वे प्राइवेट में बहुत अनर्गल बोलते रहते हैं. इस बार टेलीविजन बहस में बोल दिया गया और वह भी औफिस बीयरर द्वारा, पटाखा फूट गया और कई मुसलिम देशों की सरकारों ने भारतीय दूत को बुला कर सफाई देनेको कहा.

नूपुर शर्मा और नवीन कुमार का दोष नहीं है क्योंकि अपनी 1000 वर्षों की गुलामी की खीज उतारने का उन के पास और कोई चारा नहीं है कि वे मुसलिम जमात को बदनाम करें. इस्लाम चाहे जैसा भी हो, उन के ग्रंथों में जो भी लिखा हो, यह तो स्पष्ट है न कि हिंदू राजा बारबार, सैंकड़ों बार, मुट्ठी भर इस्लामी हमलावरों के हाथों हारते रहे क्योंकि हमारा अपना धर्म हमें सब को बांट कर रखता है ताकि ब्राह्मïण शिरोमणि सब से ऊपर बन रहें और निरंतर दानदक्षिणा पाते रहें. आजकल दान में वोट भी जम कर ली जा रही है कि इस वोट के दान से हर घर में सोना बरसेगा, पैट्रोल, डीजल 35 रुपए लीटर होगा, 15 लाख रुपए हरेक के खाते में जाएंगे, पाकिस्तान से कश्मीर वापिस लिया जाएगा, चीन को कातिल आंखें दिखाई जाएंगी और आम हिंदू को धर्म काज करने के हर 4 कदम पर नया नवेला मंदिर मिलेगा जहां वह पाप धोने के लिए अपनी संपत्ति लुटा सके.

आज जब इतना मिल रहा हो और पुरानी कालिख धुल रही हो तो विरोधी के पुरखों को कोसने में क्या जाता है? 7 पीढिय़ों तक जाने की परंपरा हमारे यहां हर परिवार में है ही. ये शब्द व्हाट्सएप यूनिवॢसटी हर रोज औन लाइन क्लासों में पढ़ाती रहती है. बस वह डाला. पहले 2-3 दिन तो छोटीमोटी शिकायतें हुई तो नुपूर शर्मा ने कह डाला कि गृहमंत्री, प्रधानमंत्री, पार्टी के औफिसों को उस का पूरा समर्थन है. अब बचे पीछें दुपक रहे हैं.

यह विवाद बिलकुल निरर्थक है क्योंकि आज की विश्व की िचता रूस यूक्रेन युद्ध है, ग्लोबल वार्मिंग है. कोविड माहमारी है, खानेपीने की चीजों में हो रही कमी है, औरतों के साथ शिक्षा और आजादी के बावजूद न रुकता भेदभाव व हिंसक व्यवहार है. इन समस्याओं की जगह किस के अपराध ने कब क्या किया, यह बाल की खाल निकाल कर सिर्फ धर्म की दुकान चलवाना है.

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जाति और धर्म

पिछले कुछ सालों से कश्मीर एक बार फिर देश के सैलानियों के लिए एक स्पौट बन रहा था, खासतौर पर सॢदयों में जब गुलमर्ग पर पूरी तरह बर्फ पड़ जाती थी और स्वीइंग और एलैजिग को मजा लूटा जा सकता था. अब लगता है कि एक बार फिर कश्मीर हिंदूमुसलिम विवाद में फंस रहा है.

भारत सरकार ने बड़ी आनबानशान से कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश घोषित करते हुए उसे उपराज्यपाल के अंतर्गत डाल दिया और संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित करते हुए ऐलान कर डाला कि कश्मीर अब पूरी तरह भारत का हिस्सा हो गया. पर मईजून माह में ताबड़तोड़ आतंकवादी हमलों ने फिर उन पुराने दहशत भरे दिनों के वापिस ला दिया. जब देश के बाहरी इलाकों के लोग कश्मीर में व्यापार तक करने जाने में घबराते थे.

आतंकवादी चुनचुन कर देश के बाहरी इलाकों से आए लोगों को मार रहे हैं. एक महिला टीचर और एक युवा नवविवाहित बैंक मैनेजर की मौत ने फिर से कश्मीर को पराया बना डाला है. जो सरकार समर्थक पहले व्हाट्सएप, फेसबुक, टिवटर पर कश्मीर में प्लाट खरीदने की बातें कर रहे थे अब न जाने कौन से कुओं में छिप गए हैं.

किसी प्रदेश, किसी जाति, किसी धर्म को दुश्मन मान कर चलने वाली नीति असल में बेहद खतरनाक है. आज के शहरी जीवन में सब लोगों को एकदूसरे के साथ रहने की आदत डालनी होती क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था सैंकड़ों तरह के लोगों के सम्मिलित कामों का परिणाम होती है.

हर मोहल्ले में, हर सोयायटी में, हर गली में हर तरह के लोग रहें, शांति से रहे और मिलजुल कर रहें तो ही यह भरोसा रह सकता है कि चाहे कश्मीर में हो या नागालैंड में, आप के साथ भेदभाव नहीं होगा यहां तो सरकार की शह पर हर गली में में जाति और धर्म की लाइनें खींची जा रही हैं ताकि लोग आपस में विभाॢजत रह कर या तो सरकार के जूते धोएं या अपने लोगों से संरक्षण मांगने के लिए अपनी अलग बस्तियां बनाएं.

जब हम दिल्ली के जाकिर नगर और शाहीन बाग को पराया मानने लगेंगी तो कश्मीर को कैसे अपनाएंगे?

सैलानी अलगअलग इलाकों को एक साथ जोडऩे का बड़ा काम करते हैं. वे ही एक देश की अखंडता के सब से बड़े सूत्र हैं, सरकार की ब्यूपेक्रेसी या पुलिस व फौज नहीं. कश्मीरी आतंकवादी इस बात को समझते हैं और इसलिए इस बार निशाने पर बाहर आए लोगों को निशाना बना रहे हैं और परिणाम है कि घर और परिवार सरकारी नीतियों के शिकार हो रहे हैं. निहत्थों पर वार करना कायरता है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अपना देश की जनता से किए वादे को पूरा करेगी और पृथ्वी पर बसें स्वर्ग को हर भारतीय के लिए खोले रखेगी.

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