अछूत- भाग 2: जब एक फैसला बना बेटे के लिए मुसीबत

बलराज शिशिर के मन में भी कटुता के बीज को रोपना चाहता था. लेकिन उस की हर बात का एक मौन के साथ  समर्थन करने वाली उस की पत्नी कालिंदी ने यहां उस की नहीं सुनी. उस ने अपने बेटे के मस्तिष्क की कोमल धरती पर प्रश्न का बीज अंकुरित कर दिया. शिशिर ने प्रश्न करना आरंभ कर दिया और जहां प्रश्न अंकुरित होने लगते हैं, वह धरती बंजर अथवा विषैली नहीं रह जाती.

शिशिर अलग था. जो विशेषाधिकार बलराज को प्रफुल्लित किया करते थे, उन से उस का दम घुटता था.

वह कहता,”यह ब्राह्मणवादी विशेषाधिकार, मेरे उन विशेषाधिकारों का हनन करती है, जो एक मनुष्य होने के नाते मुझे मिलने चाहिए. जैसे, खुल कर जीने की इच्छा, अपनी उन आदिम व सभी भावनाओं को प्रगट करने की इच्छा, जो मनुष्य होने का प्रमाण है. मगर समाज को इस सब की फिक्र कहां, उसे तो अपनी उस सड़ीगली, बदबूदार व्यवस्था को बचाए रखने की चिंता है, जो सारे सांस्कृतिक विकास पर एक बदनुमा दाग है. आज न तो देश, न सरकार और न ही युवा, ऐसी सड़ीगली व्यवस्था को मानते हैं.”

जब इंजीनियरिंग कालेज में उस ने एक दलित मित्र को अपना रूमपार्टनर बनाया, तब बलराज ने उसे खूब कोसा, फब्तियां कसी, चुटकियां ली, पर वह डटा रहा.

बलराज कुढ़ता रहता, लेकिन शिशिर मुसकराता और कहता,”अस्वीकार्य को अधिक दिनों तक लादा नहीं जा सकता. जाति का जहर मेरे शरीर में हमेशा चुभता रहा है.”

बलराज कहता,”तुम्हारा भाग्य है कि तुम्हें इतने महान कुल में जन्म प्राप्त हुआ है. तनिक सोचो, क्या होता यदि तुम्हारा जन्म एक निम्न जाति में हुआ होता? मनुष्य को जो आसानी से मिल जाता है, वह उस का मूल्य ही नहीं जान पाता.”

“पापा, मैं भी तो यही कह रहा हूं. उस जाति अथवा समाज पर क्या अभिमान करना जिस का प्राप्त होना, महज हेड ऐंड टैल का खेलमात्र हो. ब्राह्मण बन कर जन्म लेने में मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि क्या है? अभिमान के स्थान पर मुझे तो शर्म आती है, जब मात्र मेरी जाति के कारण मुझे सम्मान दिया जाता है. मुझे मेरे व्यक्तित्व के लिए सम्मान चाहिए, न कि किसी विशेष सरनेम के कारण. जन्म के लिए जिस कुल को चुनने पर आप का कोई अधिकार ही नहीं, उस कारण जब आप का अपमान किया जाता है, तो जरा सोचिए कि कितनी पीड़ा होती होगी?”

बलराज अहंकार के साथ कहता,”तो आरक्षण तो मिल गया ना उन्हें. यह उचित है क्या?”

“बिलकुल. वैसे आरक्षण कोई एहसान नहीं, उन का अधिकार है. एक समय था जब उच्च पदों पर तथाकथित उच्च जातियों का आधिपत्य था. आज वहां उन की मोनोपोली कम हो रही है. यह बात दूसरी है कि वर्तमान समय में आरक्षण राजनीतिक पार्टियों का एक हथियार भी बन गई है.”

बलराज कहता,”अरे सभी को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व होता है! सभी स्वयं को अन्य से बेहतर साबित करते हैं. तुम मात्र ब्राह्मणों को दोष नहीं दे सकते.”

शिशिर कहता,”मुझे ब्राह्मणों से नहीं, उस सोच से दिक्कत है, जो स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ आँकती है. ऐसी सोच रखने वाला जिस धर्म, जाति, देश अथवा क्षेत्र से संबंध रखता हो, वह गलत ही है.”

थोड़ी देर विराम ले कर वह फिर कहता,”आप को पता है पापा, मेरी प्रगतिशील दलित मित्रों की मंडली भी ‘ब्राह्मण’ कह कर मेरा उपहास करती है, मानो मैं ब्राह्मणशाही का प्रतिनिधि करता हूं और ब्राह्मण परिवार में पैदा हो जाने के कारण ब्राह्मणशाही का सारा गुनाह मेरे सिर पर है. मैं जानता हूं कि वे मेरे मित्र हैं, और यह उन का मजाक है, मगर यह भी सच है कि आज घृणा और क्रोध दोनों तरफ है. लेकिन हमें इस घृणा का अंत करना है, उसे बढ़ाने का कारण नहीं बनना.”

धीरेधीरे उन के बीच बातचीत कम होती चली गई. शिशिर मेधावी था, अतः जीवन के सोपान पर आगे बढ़ने में उसे अधिक कठिनाई नहीं हुई. मध्य प्रदेश सरकार के बिजली विभाग में अभियंता के पद पर चयनित हो कर शिशिर भोपाल चला गया और दोनों पतिपत्नी इंदौर में अकेले रह गए. मांऔर बेटे की बातचीत लगभग प्रतिदिन हो जाया करती पर बलराज और शिशिर के बीच अबोला बढ़ता ही चला गया.

बलराज यह सोच कर संतोष कर लेता कि समय के साथ उस की सोच बदल जाएगी. वैसे भी वह अपने आसपास यह सब होता हुआ देख रहा था. आजकल की पीढ़ी दोहरी मानसिकता के साथ जी रही थी. सोशल नेटवर्किंग साइट पर जिस प्रथा और मान्यता का विरोध करते, लंबेलंबे आलेख शेयर किया करते, उसी प्रथा का अपने जीवन में निस्संकोच पालन किया करते थे.

इस समाज को अधिक खतरा उन से नहीं है जो गलत सोच रखते हैं, बल्कि उन से हैं जो अच्छी सोच होने का ढोंग करते हैं.

वैसे संख्या में कम, लेकिन सोच में अधिक एक वर्ग ऐसा भी है, जिस की कथनी और करनी अलग नहीं है. उस का बेटा शिशिर भी ऐसा ही था. अपने जीवनकाल में वह यह जान तो पाया, लेकिन समझ नहीं पाया.

शिशिर अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव लेषकर उन के पास आया था. बलराज का संस्कारी मन इस प्रेम विवाह को समय की मांग सोच कर मान भी लेता यदि लड़की किसी उच्च जाति की होती. लेकिन साक्षी एक दलित परिवार की लड़की थी और एक दलित परिवार की लड़की को पुत्रवधू बना कर लाना उसे स्वीकार्य नहीं था. उस दिन वर्षों बाद पितापुत्र के बीच बात हुई थी.

बलराज ने ही बात को शुरू किया,”दलित और मुसलमान छोड़ कर तुम अपनी मरजी से किसी भी जाति में शादी कर सकते हो.”

एक मुसकान के साथ शिशिर बोला,”हम दोनों ने ही कभी यह नहीं सोचा कि हमारी जाति क्या है? हम उस विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, जहां इंसान जाति और धर्म की पहचान से बहुत ऊपर उठ जाता है. यह भी सच है कि प्रेम इंटरव्यू ले कर नहीं होते.”

उस दिन कालिंदी ने भी शिशिर को समझाया,”बेटा, पापा को भी तो समझो, हम जिस समाज में रहते हैं, वहां एक दलित से विवाह सही नहीं है.”

शिशिर चौंक गया था,”मां, जब दलित से मित्रता सही है, फिर विवाह गलत कैसे हो गया? वैसे भी समाज बदल गया है.”

इस बार बलराज मुसकराया था,”बेटा, सच यही है कि जाति एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में सिर्फ अपना रूप बदल रही है. जाति की शुद्धता बनाए रखने के लिए समाज में उस की खास जगह, खानपान और सामाजिक व्यवहार पर प्रतिबंध, व्यवसाय के स्वतंत्र चुनाव का अभाव और अंतर्जातीय विवाह पर रोक जरूरी माने गए हैं. आज इन लक्षणों में परिवर्तन आया है, जिस का सब से बड़ा कारण कानूनी बाध्यता है.

टेलीफोन- भाग 2: कृष्णा के साथ गेस्ट हाउस में क्या हुआ

यह कहते हुए कृष्णा ने ताला खोला और अंदर चली गई. फिर वाशरूम से आ खिड़की बंद करती है और एक बार आईने में खुद को देख हाथों से अपना बाल ठीक कर सूटकेश उठा बाहर निकल आती है. बाहर आ कर आश्चर्य में पड़ जाती है. यह देख कि गुप्ता मैडम का पति उस से फिर कहता है, ‘‘मैडम आप बात कर लीजिए न आप कल कह रही थीं कि बहुत जरूरी है बात करना.’’

‘‘नहीं इतना जरूरी नहीं है,’’ कहते हुए कृष्णा ताला लगाती है, अब उसे थोड़ा गुस्सा भी आने लगा था. सोचती है यह आदमी तो पीछे ही पड़ गया, कैसे इस से पीछा छुड़ाऊं? ताला लगा कर जब वह पीछे मुड़ी तो उस आदमी को अजीब स्थिति में पाती है जैसे आंखें चढ़ी हों और सांसें बेतरतीब चल रही हो, कृष्णा को अब थोड़ा डर लगा और वह सूटकेश ले कर से तेजी से निकल पड़ती है. गुप्ता का पति अभी भी पीछे से पुकार रहा है.

‘‘मैडम फोन कर लीजिए.’’

कृष्णा ‘नो थैंक्स’ ‘नो थैक्स’ कहते लगभग भागते हुए सड़क तक पहुंची.

रास्ते भर कृष्णा सोच में डूबी रही कि अजीब आदमी है. कल जब फोन करनी थी तो इस ने एक बार भी फोन करने को नहीं कहा और आज पीछे पड़ गया- फोन कर लीजिए, बिलकुल सिरफिरा लगता है. थोड़ी देर में वह औफिस पहुंच गई. जैसे ही वह औफिस पहुंची गुप्ता मैडम से उस का सामना हुआ और वह उस के सूटकेश को देख अजीब नजरों से उसे ताकने लगी फिर पूछा, ‘‘क्या तुम गेस्ट हाउस गई थी’’ और उसे से पीछा छुड़ा यह सोचते हुए कि दोनों ही पतिपत्नी बड़े अजीब हैं, नर्गिस के पास पहुंची.

नर्गिस लंच ले चुकी थी. कृष्णा का बड़बड़ाते देख पूछ बैठी, ‘‘क्या हुआ?’’

कृष्णा ने बताया, ‘‘अरे ये गुप्ता मैडम और उस के पति दोनों बड़े अजीब लोग हैं. अभी मैं सूटकेश लेने गई थी गेस्ट हाउस में तो उस का पति कह रहा था कि मेरे लैंडलाइन से घर पर फोन कर लीजिए. अब मुझे फोन नहीं करना तो नहीं करना उसे क्या पड़ी है,’’ इस पर नर्गिस ने बताया, ‘‘मैं तुम्हें बताना भूल गई कि उस के बारे में बड़े अजीबअजीब से किस्से प्रचलित हैं, जरा बच के रहना उस से.’’ जब कृष्णा ने कोंचा तो उस ने बताया, ‘‘अस्पताल में एक बार इस आदमी ने एक नर्स को छेड़ा था. नर्स ने जब हल्ला किया तो लोग जमा हो गए. कहा जाता है ऐसे ही किसी मामले में एक बार वह सस्पेंड भी हो चुका है. अफवाह तो ऐसी ही थी पता नहीं सच क्या है और झूठ क्या? लेकिन इतना तो तय है कि इस की रैप्यूटेशन अच्छी नहीं है. तरहतरह की अफवाहें उड़ती रही हैं उस के बारे में.’’

‘‘मुझे तुम्हें पहले बताना चाहिए था,’’ कहते हुए कृष्णा के शरीर में एक झुरझुरी सी उठी लेकिन जाने की हड़बड़ी में सब भूल कर जल्दजल्दी काम निबटाने में लग गई. समय से पहले सब काम निबटा बास से छुट्टी ले वह स्टेशन के लिए रवाना हो गई.

स्टेशन पहुंची तो ट्रेन लगी हुई थी, अब फोन करने का समय नहीं था. वह जल्दी में ट्रेन में चढ़ गई. थोड़ी देर में ट्रेन खुल भी गई. खिड़की के बाहर हर पल दृश्य बदल रहा था. सांझ हो आई थी, खेतों के बीच से पशुपखेरू, लोगबाग अपनेअपने घरों को लौट रहे थे. कृष्णा को खयाल आया कि कल इस समय मैं भी अपने परिवार के साथ अपने घर में रहूंगी.

धीरेधीरे रात उतर आई और बाहर कुछ बत्तियों के सिवाय अब कुछ भी दिखाई पड़ना बंद हो गया. कृष्णा खाना खा कर कल के सपने देखती हुई सो गई. सुबहसुबह उस की नींद खुली तो उस का स्टेशन आने वाला था. जल्दीजल्दी उस ने अपना सामान समेटा. सोच रही थी पता नहीं जय स्टेशन आएगा या नहीं. वैसे जय को मालूम तो था कि वह आने वाली है पर 2 दिन से बात नहीं होने के कारण ठीक से प्रोग्राम नहीं बता पाई थी. पर उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब उस ने जय को हाथों में फूलों का बुके लिए खड़े देखा. शादी के बाद शायद यह उन की सब से लंबी जुदाई का वक्त रहा था. अत: दोनों मिलने को बेकरार थे. घर आ कर वह घर की सफाई और बच्चों के साथ मिल कर दीवाली की तैयारी में जुट गई. खुशी के 2-3 दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला.

अपने परिवार के साथ मस्ती भरी दीवाली बीत गई. अब उसे कावेरी से मिलना

था. जैसा कि पहले से तय था दोनों कौफी हाउस में मिले और कौफी की चुस्कियों के साथ बातों का सिलसिला चल निकला. दोनों एकदूसरे को अपनी नई पोस्टिंग और नए जगह के बारे में बताने लगे. दोनों पहली बार अपने घरपरिवार से दूर अलग रहने के अनुभव को शेयर करने लगीं. कृष्णा ने बातों ही बातों में यात्रा से तुरंत पहले की वह टेलीफोन वाली बात कावेरी को बताया. कावेरी ने जोर का ठहाका लगाया और अपने बिंदास अंदाज में उस से पूछने लगी, ‘‘तुझे क्या लगता है क्यों वह तुझे फोन करवाने को इतना आतुर था और तुझ पर इतनी मेहरबानी कर रहा था?’’

कृष्णा ने कहा, ‘‘मुझे तो वह कुछ सिरफिरा लगा, हो सकता है रिटायरमैंट के बाद सठिया गया हो.’’

कावेरी ने उसी बिंदास अंदाज में एक और ठहाका लगाया और कहा, ‘‘अरे बुद्धू तू बालबाल बच गई इंनकार कर के वरना वह तुझे लपेटने वाला था. अगर तू उस के रूम में चली जाती तो वह पीछे से दरवाजा बंद करता और तुझ पर टूट पड़ता. तू खुद कह रही है न कि औफिस का समय था और उस समय कौरिडोर में कोई नहीं था और उस की आवाज भी उखड़ीउखड़ी सी थी.’’

‘‘अरे नहीं, क्या बात करती हो तुम, मैं एक अधेड़ उम्र की महिला वह मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकता था.’’

‘‘तेरे गोरे रंग पर मर मिटा होगा ये बता तुझ से तो बड़ा था न? तू कह रही है रिटायर्ड था तो कम से कम 15 साल तो बड़ा होगा ही तुझ से.’’

‘‘ये तू क्या कह रही है कावेरी मैं ने इस ऐंगल से तो सोचा ही नहीं.’’

‘‘तो सोच, अगर वह सिर्फ तुझ पर मेहरबानी कर रहा था तो शाम में जब तुम सब साथ चाय पी रहे थे और उस की पत्नी साथ थी उस ने तुझे फोन करने को क्यों नहीं कहा?’’

‘‘हां, तेरी यह बात भी सही है.’’

‘‘जी हां, मैं हमेशा सही ही कहती हूं. दिन में जब गेस्ट हाउस में निश्चय ही सारे

लोग औफिस जा चुके थे और कारिडोर

बिलकुल सूना पड़ा था तभी वह दरियादिल क्यों बन गया था और तभी उस ने तुझ से फोन करने को क्यों कहा? इस के पीछे कुछ तो वजह रही होगी.’’

‘‘हां, यह बात भी सही है कि उस समय पूरे कौरिडोर में कोई नहीं था.’’

‘‘यस और नर्गिस ने तुझे बताया भी कि उस का रिकौर्ड ठीक नहीं.’’

‘‘हां, पर उस ने पहले नहीं बताया न.’’

‘‘अगर नर्गिस ने पहले बताया होता तो तुम्हें उसी समय माजरा समझ में आ गया होता.’’

‘‘अच्छा ये बता उस की पत्नी ने औफिस में मुझ से क्यों पूछा कि तुम गेस्ट हाउस गई थी क्या?’’

‘‘वह इसलिए कि इसे अपने पति का चालचलन मालूम था और उसे हमेशा अपने पति पर संदेह रहता होगा कि वह फिर से कोई करामात कर सकता है.’’

टेलीफोन- भाग 3: कृष्णा के साथ गेस्ट हाउस में क्या हुआ

अब कृष्णा के मुंह से निकला.

‘‘औफ…’’

‘‘तू बालबाल बच गई कृष्णा, लगता है वह बुड्ढा कुछ ज्यादा ही रंगीनमिजाज था.’’

‘‘कावेरी तुझे लगता है कि अगर वह बूड्ढा मेरे साथ जबरदस्ती करता तो मैं उसे छोड़ देती, कस के एक झापड़ नहीं रसीद करती उस के गाल पे. ऊंह, ये मुंह और मसूर की दाल.’’

‘‘कृष्णा तू जो भी करती पर एक कांड तो हो जाता न?’’ अब तो तू मान ले कि मैं जो कहती थी वो 100% सही था कि पुरुषों पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए भले ही वे बूढ़े ही क्यों न हों.’’

‘‘नहीं सारे पुरुष एक से नहीं होते मेरे पति तो मुझे छोड़ किसी की तरफ ताकते तक नहीं.’’

‘‘कृष्णा तेरी बात सही है कि सारे पुरुष एक से नहीं होते पर कुछ मर्द तो ऐसे होते ही हैं जो अकेली औरत देखी नहीं कि बस लगे लार टपकाने. उन के लिए औरत की उम्र भी कोई माने नहीं रखती. ऐसे मर्दों से हमेशा सावधान रहना चाहिए.’’

‘‘कावेरी तेरी बात मानने को दिल तो नहीं करता पर तू ने इस घटना का विश्लेषण इस तरह किया है कि तेरी बातों में दम नजर आने लगा है. अब तो मुझे भी लगने लगा है कि उस दिन एक हादसा होतेहोते रह गया. पर मुझे अब भी बड़ा अजीब लग रहा है कि मेरे साथ भी इस उम्र में ऐसा कुछ कैसे हो सकता है.’’

‘‘कृष्णा चल अब मैं तुझे अपनी बात बताती हूं. इस बार दीवाली छुट्टी के लिए जब मैं आ रही थी स्टेशन पर मेरे साथ भी एक मजेदार वाकेआ हुआ. मैं स्टेशन समय से पहुंच गई थी पर ट्रेन

2 घंटे लेट हो गई थी. जिस प्लेटफार्म पर ट्रेन आने वाली थी मैं वहीं एक बेंच पर बैठ ट्रेन का इंतजार कर रही थी. मन नहीं लग रहा था अकेले और तू तो जानती ही है मैं अधिक देर चुप नहीं रह सकती. अत: पास बैठे आदमी से बात करने लगी. वह 30-35 साल का सांवले रंग का दुबलापतला सा, औसत कद का आदमी था जो बारबार अपना मोबाइल फोन निकाल कर कुछ बटन दबा रहा था. ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी से उस पर बात करना उस का मकसद नहीं वरन उस मोबाइल को लोगों को दिखाना ही उस का मुख्य मकसद हो. मैं ने सोचा अभी ट्रेन आने में देर है तब तक क्यों न इस नमूने से ही बात की जाए. उस की हिंदी अच्छी नहीं थी शायद दक्षिण भारतीय था और उसी शहर में किसी फैक्टरी में नौकरी करता था.

‘‘टूटीफूटी हिंदी और इंग्लिश में वह बातें करने लगा. बात ट्रेन से शुरू हो कर डैस्टिनेशन पर खत्म हो जानी थी पर मुझे समय पास करना था. अत: मैं ने उस के मोबाइल के बारे में पूछा कि कहां से खरीदी, कितने में खरीदी? वह खुशीखुशी मुझे बताने लगा जैसे उसे दिखाते हुए उसे गर्व महसूस हो रहा हो. वैसे भी आज के समय में मोबाइल एक नई चीज तो है ही. वह बता रहा कि मैं ने इसे खरीद तो लिया पर अधिकतर समय इस पर बात नहीं हो पाती क्योंकि टावर नहीं रहता हर जगह. फिर वह मेरे बारे में पूछने लगा कि कहां रहती हैं, कहां जा रही हैं? फिर मैं ने देखा कि जैसे ही उसे पता चला कि मैं इस शहर में अकेली रहती हूं वह मुझे से बात करने में रुचि लेने लगा.

‘‘उस ने बताया कि वह उसी शहर में किसी फैक्टरी में नौकरी करता है और अकेले रहता है. वह मुझे कहने लगा कि आप मेरा फोन नंबर ले लीजिए. मैं ने कहा मेरे पास मोबाइल है नहीं मैं नंबर ले कर क्या करूंगी. पर वह बारबार मुझे नंबर रख लेने के लिए यह कह कर जिद करने लगा कि शायद मैं कभी आप के काम आ सकूं. अब उस से पीछा छुड़ाने के लिए मैं ने मैगजीन खरीदने के बहाने वहां से उठना ही ठीक समझा. मैगजीन खरीद कर मैं दूसरे बेंच पर बैठ गई.

‘‘थोड़ी देर में वह इंसान फिर वहां पहुंच गया और एक बार फिर से मुझ से अनुरोध करने लगा कि मेरा नंबर ले लीजिए. अब मुझे उस पर गुस्सा आने लगा था. शायद मैं उसे झिड़क देती लेकिन तभी ट्रेन आ गई और मेरे जान में जान आई. उस व्यक्ति ने मेरे मना करने के बावजूद मेरा सामान उठा लिया और मेरे सीट तक गया मुझे पहुंचाने के लिए. जब मैं बैठ गई तो उस ने अपना नंबर लिख कर एक बार फिर मुझे देने की कोशिश की. अब मैं ने सोचा इस से पीछा छुड़ाने का सब से अच्छा रास्ता यही है कि नंबर रख लूं ताकि वह चला जाए.

‘‘मैं ने नंबर ले लिया और कहा कि आप के टे्रन का समय हो रहा है आप जाइए वरना आप की ट्रेन छूट जाएगी. आखिर में वह ट्रेन से उतरा पर फिर खिड़की के पास आ कर कहने लगा कि मैडम फोन करोगी न? प्लीज जरूर फोन कीजिएगा. अब मेरा धैर्य जवाब देने लगा था पर ट्रेन ने सीटी दे दी थी और मैं कोई सीन क्रिएट नहीं करना चाहिए थी. अत: उस से जान छुड़ाने के लिए कह दिया कि करूंगी. उस के जाते ही मैं ने वह कागज का टुकड़ा फाड़ कर फेंक दिया.’’

कृष्णा के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘‘यानी वह तुम से मिलने का ख्वाब

देखने लगा था?’’

‘‘हां, कृष्णा मैं समझ रही थी और मेरा अगला कदम उसे डपट कर ट्रेन से उतारने का था लेकिन वह खुद चला गया.’’

‘‘यानी टेलीफोन के चक्कर में तू भी पड़ी थी.’’

‘‘हां कृष्णा मैं भी, अब बता पुरुष को क्या कहोगी? वह उम्र में मुझ से काफी छोटा लग रहा फिर भी पीछे पड़ गया फोन के बहाने. पता नहीं उस के आगे क्या मंसूबे थे?’’

‘‘ओए कावेरी, कहने का अर्थ यह हुआ कि पुरुष किसी भी उम्र का हो उस से सावधान रहो और दूसरी बात यह भी अभी हम बूढ़े नहीं हुए हैं,’’ इतना कह कर कृष्णा ने एक जोरदार ठहाका लगाया. दोनों गले मिले, अगली बार फिर मिलने का वादा किया और एकदूसरे को सावधान रहने की हिदायत दे कर विदा हो गए.

कृष्णा छुट्टी खत्म कर के वापस गई तो सब से पहले उस ने औफिस में क्वार्टर के लिए आवेदन किया और अपने पति को बता दिया कि उस की बेटी आराधना जब तक यहां आएगी तब तक उसे क्वार्टर अलाट हो जाएगा.

टेलीफोन- भाग 1: कृष्णा के साथ गेस्ट हाउस में क्या हुआ

ये उन दिनों की बात है जब मोबाइल फोन नहीं आया था और लोग लैंडलाइन से ही काम चलाते थे. 21वीं सदी की बस शुरुआत ही हुई थी. कृष्णा और कावेरी दोनों एक ही औफिस में काम करती थीं और दोनों में दांत काटी रोटी वाली दोस्ती थी. दोनों साथ लंच लेतीं, अपना खाली समय साथ बितातीं और अपने जीवन की हर छोटीबड़ी घटना एकदूसरे से शेयर करतीं. औफिस में दोनों की दोस्ती की चर्चा थी और दोनों ट्वीन फ्रैंड्स के नाम से जानी जाती थीं. दोनों अच्छे परिवार से ताल्लुक रखती थीं, दोनों के पति भी उच्च पद पर थे और दोनों के बच्चे बड़े हो चुके थे. दोनों की उम्र 40-45 साल के करीब थी. कृष्णा गोरीचिट्टी, सुंदर सुंदर चेहरे वाली, मृदु स्वभाव की महिला थी. अधिक बात करना उस के स्वभाव में नहीं था.

वहीं कावेरी बेहद बातूनी, बिंदास और काफी बोल्ड महिला थी. सुंदर वह भी कम नहीं थी बस रंग थोड़ा कम था. दोनों अकसर बहस करतीं राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक मुद्दों के अलावे एक मुद्दा यह भी होता कि आजकल महिलाएं अधिक असुरक्षित हो गई हैं और उन के प्रति होन वाले अपराध बढ़ गए हैं. कृष्णा कहती कि अधिकतर अपराध करने वाले कम उम्र के नौजवान ही होते हैं और इस तरह के अपराध करने वाले कम उम्र के नौजवान ही होते हैं और इस तरह एकदूसरे की बातों को काटने के लिए कई उदाहरण दिया करते और एकदूसरे को यह सलाह भी कि हमारी तो कट गई पर अपनी बच्चियों की हिफाजत हमारी जिम्मेदारी है. अत: उस की सुरक्षा में कोई चूक नहीं होनी चाहिए.

सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि अचानक एक ऐसी खबर आई जो किसी विस्फोट से कम नहीं थी. दोनों का तबादला अलगअलग शहरों में हो गया था और अब दोनों के बिछड़ने का समय आ गया था. इस तबादले के कारण दोनों अपने घरपरिवार से तो दूर हो ही रहे थे साथ ही एकदूसरे से भी. अत: बेहद दुखी थीं लेकिन नौकरी का सवाल था तो जाना तो था ही. अंतत: दोनों ने दीवाली की छुट्टियों में मिलने का वादा कर एकदूसरे से विदा ली.

कृष्णा को नए शहर में तुरंत क्वार्टर नहीं मिला. अत: वह उस गेस्ट हाउस में ठहर गई जो उस के औफिस का ही था और जिस में औफिस की 4 और महिलाएं भी रहती थीं. उसे बताया गया कि जब तक उसे क्वार्टर अलाट नहीं हो जाता वह आराम से यहां रह सकती है. धीरेधीरे समय बीतने लगा. औफिस से आने के बाद और खाना खाने के बाद वह टहलते हुए उस चौराहे तक जाती जहां टेलीफोन बूथ था और अपने बच्चों और पति से बातें करती. कभीकभी वहां अच्छीखासी भीड़ होती. अत: बात करने के लिए उसे काफी देर तक इंतजार करना पड़ता. उसे सब से अधिक चिंता अपनी बेटी के लिए होती जो 14-15 साल की हो चुकी थी. बीच सेशन में उस का स्कूल छुड़वा कर अपने साथ लाना उचित नहीं समझ कृष्णा उसे भाई और पिता के पास ही छोड़ कर आई थी और यह तय किया था कि जैसे ही उस की वार्षिक परीक्षा हो जाएगी वह उसे अपने साथ ले आएगी. फिर जब तक उस की पोस्टिंग दोबारा अपने शहर में नहीं हो जाती उसे अपने साथ ही रखेगी.

कावेरी की भी हालत कमोवेश ऐसी ही थी. उस का बेटा 12वीं में था और बेटी 8वीं कक्षा में पढ़ती थी. उस ने उन की देखभाल के लिए अपनी मां को बुला लिया था. अत: वह थोड़ी निश्चिंत थी पर फिर भी जब भी वह अखबारों में लड़कियों के साथ हुए छेड़छाड़ से संबंधित किसी समाचार को पढ़ती तो वह डर जाती. वह और उस के पति जीतोड़ कोशिश में लगे थे कि किसी तरह कावेरी का तबादला दोबारा उसी शहर में हो जाए.

दीवाली नजदीक आ रही थी अत: दोनों ने अपनाअपना टिकट बुक करवा लिया. जल्द ही मिलने का प्लान बनाते हुए एकदूसरे को पत्र लिखा और दीवाली के बाद कौफी हाउस में मिलने का समय तय कर लिया.

कृष्णा छुट्टियों को ले कर बहुत उत्साहित थी और शाम को गेस्ट हाउस के लौन में बैठ अपनी औफिस की सहकर्मी नर्गिस से बातें कर रही थी. नर्गिस काफी मिलनसार और अच्छे स्वभाव की महिला था और काफी दिनों से वहां रह रही थी. कृष्णा की उस से अच्छी दोस्ती हो गई थी. दोनों लौन में बैठ कर बातें कर ही रहे थे कि एक टैक्सी आ कर रुकी और उस से 2 बुजुर्ग दंपति उतरे. नर्गिस ने कृष्णा का उन से परिचय करवाया कि यह गुप्ता मैडम हैं. बीमारी की वजह से कई महीने की छुट्टियों के बाद अपने पति के साथ वापस लौटी थीं, कल वे औफिस जौइन करेंगी ऐसा उस ने बताया. गुप्ता मैडम के पति डाक्टर थे और उसी औफिस के अस्पताल में पहले कार्यरत थे. लगभग 3 साल पहले रिटायर हो चुके थे. अभी तत्काल दोनों उसी गेस्ट हाउस में ठीक कृष्णा के सामने वाले रूम में ठहरे थे.

बाहर बेमौसम की बरसात शुरू हो गई थी इसलिए कृष्णा और नर्गिस लान से उठ कर टैरेस में आ गए. थोड़ी देर में फ्रैश हो कर वह बुजुर्ग दंपति भी वहीं आ कर बैठ गया. नर्गिस ने कबाब बनाया था. अत: उन्हें भी औफर किया, कबाब की खूब तारीफ हुई.

बाहर बरसात तेज हो गई थी. नर्गिस ने कहा, ‘‘एक कप गरमगरम चाय हो जाए तो मजा आ जाए,’’ अब बारी कृष्णा की थी. उस ने कहा, ‘‘मैं चाय बना लाती हूं,’’ सब मौसम का आनंद लेते हुए चाय पीते रहे. इधरउधर की बातें होती रही. कृष्णा भी सब से खुल गई थी लेकिन वर्षा रुकते न देख चिंतित हो रही थी क्योंकि वह समय उस का टेलिफोन बूथ पर जाने का था. उसे अगले दिन गाड़ी पकड़नी थी इसलिए वह अपने पति से बात कर उन्हें स्टेशन रिसीव करने के लिए आने को कहना चाहती थी पर झिझक बस कृष्णा ने उन से नहीं कहा. सोचती रही न होगा तो स्टेशन से ही बात कर लेगी. न ही गुप्ता मैडम ने औफर किया कि जरूरी है तो आप मेरे फोन से बात कर लीजिए न उस के पति ने. खैर थोड़ी देर में सभी विसर्जित हुईं और अगले दिन की तैयारी कर कृष्णा सो गई. सुबह उठ औफिस के लिए तैयार हुई अपना सूटकेश तैयार कर साइड में रख दिया. यह सोचते हुए कि लंच टाइम में आ कर ले जाऊंगी. अभी से कहां इसे ले कर जाऊं और औफिस के लिए निकल गई.

औफिस पहुंच घर जाने की खुशी में जल्दीजल्दी अपना काम निबटाने लगी. जैसे ही काम से थोड़ी फुरसत मिली डब्बा उठा कर लंच कर लिया क्योंकि लंच टाइम में उसे गेस्ट हाउस जा कर सूटकेश लाना था. 5 मिनट का रास्ता था औफिस से गेस्ट हाउस का. रास्ते भर सोचती रही कि औफिस लौट कर बौस को स्टेशन लीव का एप्लीकेशन देगी और ट्रेन का हवाला दे कर औफिस से थोड़ा जल्दी निकलने की कोशिश करेगी.

गेस्ट हाउस में पहुंच जैसे ही वह अपने कमरे का ताला खोलती है गुप्ता मैडम का पति आवाज सुन बाहर निकल आता है और कहता है, ‘‘मैडम आप आज ही जा रही हैं क्या?’’

कृष्णा हां में सर को हिलाती है?’’

‘‘कितने बजे की ट्रेन है?’’

‘‘5 बजे की.’’

‘‘आप को फोन करना था न आप हमारे फोन से कर लीजिए.’’

‘‘नहीं अब देर हो जाएगी, मैं बस अपना सूटकेश लेने आई थी. सूटकेश ले कर मैं निकल जाऊंगी.’’

अछूत- भाग 1: जब एक फैसला बना बेटे के लिए मुसीबत

वह अब एक मृत शरीर था. स्वयं को चिरंजीवी, दूसरों से बेहतर तथा कुलीन समझने के अभिमान से बंधा हुआ उस का शरीर, ऐंबुलैंस के अंदर घंटों से निर्जीव, निरीह पड़ा था. न जाने कितनी बार अपनी कठोरता और शुष्क व्यवहार से भर कर उस ने लोगों का तिरस्कार किया था, आज स्वयं तिरस्कृत हो कर, लावारिस के समान पड़ा हुआ था.
जिस श्मशानघाट के द्वार पर खड़े हो कर, कभी उस ने शवों का भी वर्गीकरण किया था, उस स्थान पर उस के ही प्रवेश पर गहन चर्चा चल रही थी. चारधामों की यात्रा के बावजूद अर्जित पुण्य भी उस के पवित्र शरीर के लिए 4 कंधों की व्यवस्था नहीं कर पा रहे थे. उस की विशुद्ध और स्वर्ण देह, आज निर्जीव पङी थी.

उसे कुछ दिनों पूर्व करोना का आलिंगन प्राप्त हुआ था, लेकिन उस की आत्मा तो न जाने कब से मलिन थी. इस महामारी ने उस बलराज शास्त्री के शरीर का अंत किया था, जिस का हृदय स्वार्थ और अहंकार के  वशीभूत था.

बलराज के पिता श्रीधर शास्त्री उज्जैन के एक गांव में एकमात्र यजमानी पंडित थे. इसी से घर में कभी खानेपीने, ओढ़नेबिछाने, पहननेखाने की वस्तुओं का अभाव नहीं रहा. यजमानों के घर में जन्म हो या मृत्यु, दोनों समान रूप से श्रीधर शास्त्री को समृद्धि से लाद जाते. वे ब्राह्मण थे और पूजित होने का परंपरागत जातिगत विशेषाधिकार उन्हें प्राप्त था.

4 पुत्रियों के बाद हुआ बलराज का जन्म, उस के परिवार और पिता के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था. बचपन से ही उस की माता ने उस के भीतर के पुरुष का पूजन शुरू कर दिया, तो वहीं पिता ने उस के कोमल मन में घृणा का अंकुर बोना.

जब बलराज 4-5 साल का था तब हमारे पास के गांधी स्मारक स्कूल में उस का दाखिला कराया गया. इस स्कूल में लगभग सभी जातियों के बच्चे जाते थे. बच्चों के अलावा वहां  सभी जातियों के शिक्षक भी थे. वहां तमाम तरह के खेल खोखो, भाग छू, कबड्डी आदि खिलाए जाते थे. लेकिन वहां पर उस सामंती नैतिक शिक्षा का बोलबाला था, जिस का धीमा जहर सभी की धमनियों में परिवार से ले कर स्कूलों तक भरा जाता था. उस समय इन के प्रति सवालों का प्रायः अकाल था.

गांव में रामलीला भी होती थी. कभीकभी आसपास होने वाले शादीब्याह में नौटंकी भी होती थी. पासपड़ोस के कई लड़के उसे देखने जाते थे. उस का भी मन इन के प्रति सदा से उत्साह रहता, पर यह उत्साह प्रकट न हो सकता था, क्योंकि इन्हें देखने जाने की मनाही थी. कभीकभी जाने की जिद करने पर पिताजी कहते,”वहां अच्छे घरों के बच्चे नहीं जाते.”
अच्छे घरों से मतलब ऊंची जातियों से होता था.

तब वह नहीं जानता था कि रामलीला, नौटंकी नाटक की ही विविध शैलियां हैं. लेकिन जब जान गया तब भी कहां पूछ पाया कि जब नाटक को पंचम वेद की संज्ञा दी गई है, फिर वह वर्जित कैसे हो सकती थी?

हालांकि उस के पिताजी ने भरत मुनि का नाट्यशास्त्र कभी नहीं पढ़ा, पर  पढ़ कर भी बलराज उसे कहां समझ पाया. सदियों से घृणा सिंचित ब्राह्मण मानस की  जातिवादी  मानसिकता मस्तिष्क के चेतनअवचेतन में इस कदर घुल चुकी थी कि कुछ भी समझ पाने की बुद्धि शेष ही नहीं थी.

उस समय यह सब कुछ सही प्रतीत होता था. वह इस अमानवीय व्यवस्था का हिस्सा बनता चला गया, जहां एक बच्चे की कोमल भावनाओं को निर्ममता से कुचल दिया जाता था. हमेशा से अपने बाजार के दलित लड़कों को देख कर उस का मन दुखता था. एक पल को उस का बालमन सोचता कि कितने मस्त हैं, चाहे जहां जाते हैं, नाचते हैं, खाते हैं, पीते हैं. लेकिन अगले ही पल तर्कसंगत सोच पर झूठी श्रेष्ठता के दंभ का अधिकार हो जाता और वह उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखने लगता.

बड़े होने पर बीए की पढ़ाई करने दिल्ली आया तब भी जाति ने पीछा नहीं छोड़ा. वैसे यह शहर बुद्धिजीवियों, पढ़नेलिखने वालों की नगरी थी, लेकिन ऐडमिशन लेते, किराए का कमरा ढूंढ़ते और लोगों से बात करते समय हमेशा जाति का संदर्भ जारी रहा.

इस देश में श्रेष्ठता के अनेक मापदंड हैं. विभिन्नता में एकता तो एक आदर्श परिस्थिति है जो यदाकदा ही नजर आती है. लेकिन विभिन्नताओं में अनेकता इस देश की कङवी सचाई  है. हर धर्म स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने में लगा रहता है. जातिधर्म तो भारतीय समाज को सदियों से खोखला कर ही रही है. भाषा की लड़ाई ने भी घृणित रूप ले लिया है. एक ही देश के लोग उत्तर और दक्षिण की लड़ाई में व्यस्त रहने लगे हैं. रंगभेद रूपी घृणा का पेड़ भी फलफूल रहा है. निर्धन और संपन्न के मध्य धन के साथ नफरत की खाई भी बढ़ रही है.

धीरेधीरे वह भी यह सोचने लगा कि उस के नाम ‘बलराज’ के बाद ‘शास्त्री ’ लगते ही, उस के नाम का वजन बढ़ जाता है. लोगों का नाम सुन कर ही उस के हाथ हरकत में आया करते थे. वह कभी भी, तथाकथित बड़े और ऊंचे लोग जिन्हें अछूत जाति या नीच जाति कहते हैं, का सरनेम लगा होता तो उस व्यक्ति से हाथ नहीं मिलाया करता था. वह जाति इतर किसी के व्यक्तित्व को कोई महत्व ही नहीं दे पाया. किसी के ज्ञान व बुद्धि का उस के लिए जैसे कोई मूल्य ही नहीं था. महत्व था, मूल्य था, तो इस कट्टर व्यवस्था का जो सदियों से चली आ रही थी.

देश के कानून और अपनी बैंक की सरकारी नौकरी से बंधे होने के कारण बलराज खुल कर अपनी भावनाओं को तो व्यक्त नहीं कर पाता लेकिन, पारिवारिक चर्चाओं में उस के मन की कटुता कभी छिपी भी नहीं रहती थी. वैसे अब वह जाति से ब्राह्मण और कर्म से वैश्य था, लेकिन उस के अहंकार में लेशमात्र की भी कमी नहीं हुई थी.

नियत समय पर बलराज का विवाह कालिंदी के साथ हो गया. विवाह के बाद उसे बेटा हुआ तो ऐसा लगा जैसे उस की विरासत को उत्तराधिकारी प्राप्त हो गया. वैसे यह सोचना भी हास्यपद ही था कि कौन सी रियासत थी उस के पास, जिस का युवराज वह अपने बेटे शिशिर को बनाने वाला था.

दहकता पलाश: भाग-3

पूर्व कथा

प्रवीण से अचानक मुलाकात होते ही अर्पिता की कालेज के दिनों की यादें ताजा हो गईं. तब वह प्रवीण को चाहने लगी थी. उधर प्रवीण के दिल में भी उस के लिए प्यार उमड़ने लगा था. मगर प्रवीण के पिता के ट्रांसफर की खबर ने 2 दिलों को एक होने से पहले ही जुदा  कर दिया. कालेज की पढ़ाई के बाद अर्पिता की शादी आनंद के साथ हो गई. शादी के बाद आनंद का अकसर टुअर पर रहना उसे बेहद खलता था. मगर प्रवीण से मिल कर उस के दिल में दबी प्यार की चिनगारी भड़क उठी. एक रोज प्रवीण ने उसे सांस्कृतिक कार्यक्रम में आमंत्रित किया तो वह मना न कर पाई. प्रवीण का साथ पा कर वह बेहद खुश थी.

 – अब आगे पढ़ें :

रात के लगभग 12 बजे दोनों वहां के गैस्ट हाउस वापस आ गए. चौकीदार दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में सोने चला गया. अर्पिता अपने कमरे में जाने लगी तो प्रवीण भी उस के पीछे आ गया और दरवाजा बंद कर के उस ने अर्पिता को अपनी बांहों में भर लिया. अर्पिता के अंगअंग में पलाश की कलियां चटक कर फूल बनने लगीं और वह पलाश के दहकते फूलों की तरह पलंग पर बिछ गई.

2 दिन और 2 रातें प्यार की बड़ी खुमारी में बीत गईं. अर्पिता को लग रहा था कि जैसे वह हनीमून पर आई है. प्यार क्या होता है, कितना रोमांचक और सुखद होता है यह तो उस ने पहली बार ही जाना है. उस का अंगअंग निखर आया. तीसरे दिन सुबह प्रवीण और वह वापस आ गए.

इस के बाद अकसर ही शनिवार रविवार को आसपास के छोटे छोटे टूरिस्ट स्पौट्स, जहां ज्यादा लोगों का आनाजाना नहीं होता था, प्रवीण अर्पिता को ले कर चला जाता. दोनों गैस्ट हाउस या फिर होटल में रुकते. अब तो

2 कमरों की औपचारिकता भी समाप्त हो गई थी. अर्पिता के गले का मंगलसूत्र देख कर गैस्ट हाउस के चौकीदार उसे प्रवीण की पत्नी ही समझते. दोनों 2 दिन साथ रहते मौजमस्ती करते और वापस आ जाते. पड़ोसियों को लगता अर्पिता मां के यहां गई है और मां से अर्पिता किसी सहेली के घर जाने का बहाना कर देती.

धीरेधीरे 7 महीने निकल गए. अर्पिता और प्रवीण का मिलनाजुलना बदस्तूर जारी था. प्रवीण कभीकभी सरकारी काम से इंदौर या रायपुर चला जाता तो अर्पिता से जुदाई के ये दिन काटे नहीं कटते थे. ऐसे ही समय कटता रहा और आनंद को कैलिफोर्निया गए 10 महीने बीत गए. अर्पिता का मन कभीकभी घबरा जाता. वह प्रवीण के साथ इतनी आगे बढ़ गई है, अब लौट कर आनंद के साथ कैसे निभा पाएगी? अगर वह आनंद को तलाक दे दे तो क्या प्रवीण उस से शादी कर लेगा? अब प्रवीण के बिना जिंदगी बिताने के बारे में वह सोच भी नहीं सकती और ऐसी हालत में आनंद के साथ अपने रिश्ते को जबरन ढो भी नहीं सकती. अर्पिता रातदिन सोच में डूबी रहती. वह कैसे दोराहे पर आ कर खड़ी हो गई थी. एक ओर आनंद मम्मीपापा, समाज और दूसरी ओर प्रवीण का साथ.

ये भी पढ़ें- प्रेम विवाह: कैथरीन के हुस्न पर मरने वाले अभिजित ने क्यों लिया तलाक का फैसला?

एक दिन प्रवीण इंदौर गया हुआ था. अर्पिता का मन उदास था. बुटीक में काम निबटा कर अर्पिता पार्लर चली गई. सोचा, फेस मसाज करवा कर थोड़ा रिलैक्स फील करेगी. पार्लर में भीड़ थी, अर्पिता बाहर के रूम में सोफे पर बैठ कर मैगजीन पढ़ने लगी.

‘‘कैसी हो अर्पिता?’’

अपना नाम सुन कर अर्पिता ने चौंक कर सिर उठाया. देखा तो सामने नीलांजना खड़ी थीं, जो उसे पचमढ़ी में मिली थीं. नीलांजना अर्पिता के पास ही सोफे पर बैठ गईं.

‘‘जी मैं ठीक हूं. आप कैसी हैं?’’ अर्पिता ने मुसकरा कर पूछा. 2 मिनट तक दोनों के बीच औपचारिक बातें होती रहीं, फिर अचानक नीलांजना असल बात पर आ गईं.

‘‘प्रवीण को कब से जानती हो?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘जी वह मेरा कालेज के समय का दोस्त है,’’ अर्पिता को उन के हावभाव देख कर आशंका हो रही थी कि वे उस के बारे में ही बात करना चाह रही हैं.

‘‘मैं इधरउधर की बात न कर के सीधी बात पर आती हूं अर्पिता. प्रवीण ठीक आदमी नहीं है. उस का चरित्र अच्छा नहीं है. तुम उस से दूर ही रहो तो ठीक होगा. तुम्हारा उस के साथ अकेले पचमढ़ी जाना और वहां तुम दोनों के एकदूसरे के प्रति जो ऐक्सप्रेशंस थे उस से मैं समझ गई थी कि तुम उस की दोस्त से आगे बढ़ कर कुछ और भी हो,’’ नीलांजना की गहरी आंखें अर्पिता के मन में छिपे चोर को साफ देख रही थीं.

अर्पिता अपनी चोरी पकड़ी जाने से हड़बड़ा गई. नीलांजनाजी ने इतने दृढ़ और विश्वास भरे स्वर में यह बात कही थी कि क्षण भर को अर्पिता को समझ ही नहीं आया कि उन की बात कैसे झुठलाए.

क्षण भर बाद खुद को संयत कर के उस ने कमजोर स्वर में प्रतिवाद किया, ‘‘मैं उसे सालों से जानती हूं. वह तो किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखता था.’’

‘‘तब की बात मैं नहीं जानती. मैं तो आज के प्रवीण को जानती हूं. प्रवीण के कई शादीशुदा औरतों से संबंध हैं. रायपुर में जब यह 6 माह की ट्रेनिंग पर आया था तो वहां के भी एक अधिकारी की खूबसूरत बीवी को अपने जाल में फांस लिया था. यह अब भी वहां जा कर उस से मिलता है,’’ नीलांजना ने बताया तो अर्पिता को लगा कि जैसे उस के चारों ओर एकसाथ सैकड़ों धमाके हो गए हैं. वह सन्न सी बैठी रह गई.

‘‘लेकिन अगर ऐसा ही है तो उसे कुंआरी लड़कियों की क्या कमी, वह शादीशुदा औरतों के पीछे क्यों पड़ेगा भला?’’ अर्पिता ने नीलांजना को गलत साबित करना चाहा.

‘‘प्रवीण बहुत शातिर है. कुंआरी लड़की शादी के सपने देखने लगती है और फिर छोड़े जाने पर व्यर्थ का बवाल खड़ा करती है, जो उस की छवि को खराब करेगा. शादीशुदा औरतों को अगर वह छोड़ भी देता है तो वे आंसू बहा कर चुप रह जाती हैं. अपनी और पति व घर की इज्जत की खातिर वे तमाशा खड़ा नहीं करतीं. बस प्रवीण का काम बन जाता है. जैसा कि उस ने इंदौर के एक बिजनैसमैन की पत्नी के साथ किया.

‘‘पति की अनुपस्थिति में उस के साथ खूब घूमाफिरा, मौजमस्ती की और फिर भोपाल आ गया. वह बेचारी आज भी उस की याद में रो रही है. जहां तक शादी का सवाल है, उस की महत्त्वाकांक्षा बहुत ऊंची है. उस की इच्छा किसी बहुत बड़े अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी से ही शादी करने की रही है. इसीलिए 2 महीने पहले उस ने इंदौर के एक उच्च अधिकारी की आई.ए.एस. बेटी नीलम से सगाई कर ली है,’’ नीलांजना ने संक्षेप में बताया.

‘‘क्या प्रवीण की सगाई हो गई?’’ अर्पिता बुरी तरह चौंक कर बोली. उसे लगा जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो.

नीलांजना बोलीं, ‘‘तुम तो उस से दोस्ती का दम भरती हो, तुम्हें उस ने बताया नहीं कि उस की शादी पक्की हो गई है? तभी तो आजकल उस के इंदौर के टूर बढ़ गए हैं.’’

प्रवीण उस से इतनी बड़ी बात छिपाएगा, उसे धोखे में रखेगा, इस का उसे जरा भी अंदेशा नहीं था. उस का सिर चकराने लगा.

‘‘आप प्रवीण के बारे में इतना सब कैसे जानती हैं?’’ अर्पिता ने थके से स्वर में पूछा.

‘‘रायपुर वाली घटना तो मेरी आंखों के सामने की ही है और इंदौर वाली…’’ नीलांजना एक गहरी सांस भर कर बोलीं, ‘‘वह बिजनैसमैन और कोई नहीं मेरा भाई है. तभी प्रवीण मुझे देखते ही सकपका जाता है. प्रवीण के चक्कर में पड़ कर अपना घरसंसार व्यर्थ में बरबाद मत करो. आज नहीं तो कल वह वैसे भी तुम्हें छोड़ ही देगा. अच्छा है समय रहते ही तुम खुद उसे छोड़ दो.’’

अर्पिता शाम को घर लौटी तो उस का सिर बुरी तरह से चकरा रहा था. नीलांजना की बातों में सचाई झलक रही थी. वह भी देख रही थी कि पिछले 2 महीनों से प्रवीण कुछ बदल सा गया है. अब छुट्टियों में अर्पिता के साथ बाहर जाने के बजाय वह सरकारी काम का बहाना बना कर अकेला ही चला जाता है. यदि यह सच है कि प्रवीण को औरतों को फंसाने की आदत ही है तो वह कितनी बड़ी गलती कर बैठी है. उस के पद और प्रतिष्ठा की चकाचौंध में अंधी हो कर अपने पति के साथ बेवफाई कर बैठी. अब पता नहीं अपनी गलती की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी. धोखे के एहसास से अर्पिता तिलमिला गई. उस ने प्रवीण को फोन लगाया.

‘‘तुम ने सगाई कर ली और मुझे बताया भी नहीं,’’ प्रवीण के फोन उठाने पर अर्पिता गुस्से से चिल्लाई.

‘‘ओह तो तुम्हें पता चल गया. अच्छा हुआ. मैं खुद ही सोच रहा था कि मौका देख कर तुम्हें बता दूं,’’ प्रवीण का स्वर अत्यंत सामान्य था.

‘‘तुम ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम ने मुझे धोखा दिया है,’’ उस के सामान्य स्वर पर अर्पिता तिलमिला गई.

‘‘क्या किया है मैं ने?’’ प्रवीण आश्चर्य से बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें कौन सा धोखा दिया है? मैं कुंआरा हूं और एक न एक दिन मेरी शादी होगी यह तो तुम जानती ही थीं. मैं ने कोई तुम से तो शादी का वादा किया नहीं था फिर धोखे की बात कहां से आ गई?’’

‘‘तुम ने मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है. क्यों खेलते रहे मेरे जज्बातों से इतने दिन?’’ अर्पिता अब भी तिलमिला रही थी.

‘‘मैं ने तुम्हारी भावनाओं से नहीं खेला. जो कुछ हुआ तुम्हारी मरजी से हुआ. मैं ने कोई जबरदस्ती तो की नहीं. हम दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगा और हम ने साथ में जीवन के मजे लूटे. मैं ने जिंदगी भर साथ निभाने का कोई वादा तो किया नहीं है तुम से. हां, तुम कालेज के दिनों से मुझे पसंद थीं. तुम कुंआरी होती तो मैं तुम से शादी के बारे में सोच भी सकता था, लेकिन तुम तो शादीशुदा हो. ऐसा सोच भी कैसे सकती हो कि तुम से शादी करूंगा? मैं इतनी बड़ी पोस्ट पर हूं. शहर में मेरा नाम व रुतबा है. तुम से शादी कर के मुझे अपनी इज्जत खराब नहीं करवानी,’’ प्रवीण तल्ख स्वर में बोला, ‘‘हां, तुम चाहो तो हम ये रिश्ता ऐसे ही बरकरार रखेंगे वरना…’’

अपमान और पीड़ा से अर्पिता छटपटा गई. वह बिफर कर बोली, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतने गिरे हुए होगे.’’ फिर उस ने उस से रायपुर और इंदौर वाले किस्सों का जवाब भी मांगा.

‘‘तुम औरतें पतियों से दुखी रह कर उन से ऐडजस्ट न कर पाने के कारण खुद ही बाहर किसी सहारे की तलाश में रहती हो. तुम लोगों को हमेशा एक ऐसे कंधे की तलाश रहती है, जिस पर सिर रख कर तुम अपना दुख हलका कर सको. अपने जीवनसाथी की थोड़ी सी भी कमी तुम लोगों से सहन नहीं होती और तुम लोग बाहर उसे पूरा करने को तत्पर रहती हो.

‘‘सच तो यह है कि मर्दों की बजाय औरतों को ऐसे संबंधों की ज्यादा जरूरत होती है और वे इन्हें ज्यादा ऐंजौय करती हैं. अगर औरतें ऐसे संबंधों को न चाहें तो मर्द की हिम्मत ही नहीं होगी किसी भी औरत की ओर आंख उठा कर देखने की. औरतें खुद ही यह सब चाहती हैं और मर्दों को फालतू बदनाम करती हैं. अपने पति से बेवफाई कर के उन्हें धोखा तुम ने दिया और धोखेबाज मुझे कह रही हो. तुम सोचो, बेवफा और धोखेबाज सही अर्थों में कौन है?’’

अर्पिता सन्न रह गई. प्रवीण ने उसे आईना दिखा दिया था. आनंद की जो कमियां उसे खलती थीं उन्हें प्रवीण के द्वारा पूरा कर के वह सुख पाना चाहती थी. गलत तो वही थी. पलाश की सुर्ख मादकता में डूबने से पहले उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि सुर्ख रंग सिर्फ मादकता का ही नहीं खतरे का प्रतीक भी होता है. लेकिन अब क्या हो सकता था. उस ने खुद ही अपने ही संसार में आग लगा ली थी. अर्पिता कटे पेड़ की भांति पलंग पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. दहकते पलाश ने इस का जीवन झुलसा दिया था.

मेरा पति सिर्फ मेरा है: भाग-3

रोती हुई अनुषा बाथरूम में जा कर मुंह धोने लगी तो सास ने दबी आवाज मे कहा,” मैं समझती हूं तुम्हारा दर्द. देखो मैं एक बाबा को जानती हूं. बहुत पहुंचे हुए हैं. वे भभूत दे देंगे या कोई उपाय बता देंगे. सब ठीक हो जाएगा. तुम चलो कल मेरे साथ.”

अनुषा को बाबाओं और पंडितों पर कोई विश्वास नहीं था. मगर सास समझाबुझा कर जबरन उसे बाबा के पास ले गई. शहर से दूर वीराने में उस बाबा का आश्रम काफी लंबाचौड़ा था. आंगन में भक्तों की भीड़ बैठी हुई थी. बाबा की आंखें अनुषा को शराब जैसी जहरीली लग रही थी. उस पर बारबार बाबा का भक्तों पर झाड़ू फिराना फिर अजीब सी आवाजें निकालना. अनुषा को बहुत कोफ्त हो रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि टीना को उस की जिंदगी से दूर करने में भला बाबा की क्या भूमिका हो सकती है? इस के लिए तो उसे ही कुछ सोचना होगा. वह चुपचाप बैठ कर आगे का प्लान अपने दिमाग में बनाने लगी.

इधर कुछ समय में उस का नंबर आ गया. बाबा ने वासना पूरित नजरों से उस की तरफ देखा और फिर उस के हाथों को पकड़ कर पास बैठने का इशारा किया. अनुषा को यह छुअन बहुत घिनौनी लगी. वह मुंह बना कर बैठी रही. सास ने समस्या बताई. बाबा ने झाड़ू से उस की समस्या झाड़ देने का उपक्रम किया.

फिर बाबा ने उपाय बताते हुए कहा, “बच्ची तुम्हें 18 दिन केवल एक वक्त खा कर रहना होगा और वह भी नमकीन नहीं बल्कि केवल मीठा. इस के साथ ही 18 दिन का गुप्त अनुष्ठान भी चलेगा. काली बाड़ी के पास वाले मंदिर में रोजाना 11बजे मैं एक पूजा करवाउंगा. इस में करीब ₹90,000 का खर्च आएगा.”

“जी बाबा जी जैसा आप कहें,” सास ने हाथ जोड़ कर कहा.

अनुषा उस वक्त तो चुप रही मगर घर आते ही बिफर पड़ी,” मांजी, मुझे ऐसे उलजलूल उपायों पर विश्वास नहीं. मैं कुछ नहीं करने वाली. अब मैं अपने कमरे में जा रही हूं ताकि कोई बेहतर ढूंढ़ सकूं.”

अनुषा का गुस्सा देख कर सास चुप रह गईं. इधर अनुषा देर रात तक सोचती रही. वह इतनी जल्दी अपनी परिस्थितियों से हार मानने को तैयार नहीं थी. उस ने काफी सोचविचार किया और फिर उसे रास्ता नजर आ ही गया.

अनुषा ने पहले टीना के बारे में अच्छे से खोजखबर ली ताकि उस की कमजोर नस पकड़ सके. सारी जानकारियां एकत्र की. जल्द ही उसे पता लग गया कि टीना का पति रैडीमेड कपड़ों का व्यापारी है और पास के मार्केट में उस की काफी बड़ी शौप भी है. बस फिर क्या था अनुषा ने अपनी योजना के हिसाब से चलना शुरू किया.

सब से पहले एक ड्रैस खरीदने के बहाने वह उस दुकान में गई. दुकान का मालिक यानी टीना का पति विराज करीब 40 साल का एक सीधासादा सा आदमी था, जिस के सिर पर बाल काफी कम थे. वैसे पर्सनैलिटी अच्छी थी. अनुषा ने बातों ही बातों में बता दिया कि वह भी विराज के शहर की है. फिर क्या था विराज उस पर अधिक ध्यान देने लगा.

अनुषा ने एक महंगा सूट खरीदा और घर चली आई. 2-3 दिन बाद वह फिर उसी दुकान में पहुंची और कुछ कपड़े खरीद लिए. विराज ने उस के लिए स्पैशल चाय मंगवाई तो अनुषा भी बैठ कर उस से ढेर सारी बातें करने लगी. धीरेधीरे उस ने यह भी बता दिया कि उस का पति भुवन टीना के औफिस में काम करता है. विराज टीना और भुवन के रिश्ते के बारे में पहले से जानता था. इसलिए अनुषा से और भी ज्यादा जुङाव महसूस करने लगा.

अनुषा अब अकसर विराज की शॉप पर जाने लगी और उसे देर तक बातें भी करती. जल्द ही विराज से उस की दोस्ती इतनी गहरी हो गई कि विराज ने उसे घर आने को भी आमंत्रित कर दिया.

अगले ही दिन अनुषा टीना की गैरमौजूदगी में विराज और टीना के घर पहुंच गई. विराज ने उस की काफी आवभगत की और दोनों ने दोस्त की तरह साथ समय व्यतीत किया. चलते समय अनुषा ने जानबूझ कर टीना के बैड पर कोने में अपना हेयर पिन रख दिया. रात में जब टीना ने वह हेयर पिन देखा तो बौखला गई और विराज से सवाल करने लगी. विराज ने किसी तरह बात को टाल दिया.

मगर 2 दिन बाद ही अनुषा फिर विराज के घर पहुंच गई. इस बार वह बाथरूम में अपना दुपट्टा लटका आई थी.

टीना ने जब लैडीज दुपट्टा बाथरूम में देखा तो आपे से बाहर हो गई और विराज पर उंगली उठाने लगी,” यह दुपट्टा किस का है विराज, बताओ किस के साथ रंगरेलियां मना रहे थे तुम?”

“पागल मत बनो टीना. मैं तुम्हारी तरह किसी के साथ रंगरेलियां नहीं मनाता,” विराज का गुस्सा भी फूट पड़ा.

“तुम्हारी तरह? क्या कहना चाहते हो तुम? भूलो मत मेरे पिता के पैसों पर पल रहे हो. मुझ को धोखा देने की बात सोचना भी मत.”

“देखो टीना मैं मानता हूं एक महिला से मेरी दोस्ती हुई है. अनुषा नाम है उस का. मगर वह घर पर सिर्फ चाय पीने आई थी. यकीन जानो हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम रंगरेलियां मनाना कह सको. ”

अब टीना थोड़ी सावधान हो गई थी. उसे महसूस होने लगा था कि बदला लेने के लिए अनुषा उस के पति पर डोरे डाल रही है. टीना ने अब भुवन के घर आनाजाना कम कर दिया मगर उस के साथ वक्त बिताना नहीं छोड़ा.

इधर अनुषा फिर से विराज के घर पहुंची. इस बार वह विराज के लिए खूबसूरत सा गिफ्ट ले कर आई थी. यह एक खूबसूरत कविताओं का संग्रह था. विराज को कविताओं का बहुत शौक था. 2-3 घंटे दोनों कविताओं पर चर्चा करते रहे. इस बीच योजनानुसार अनुषा ने अपनी इस्तेमाल की हुई एक सैनिटरी नैपकिन टीना के बाथरूम के डस्टबिन में डाल दिया. फिर विराज से इजाजत ले कर वह घर लौट आई.

अनुषा को अंदेशा हो गया था कि आज रात या कल सुबह टीना कोई न कोई ड्रामा जरूर करेगी. हुआ भी यही. सुबहसुबह टीना अनुषा के घर धमक आई.

वह बाहर से ही चिल्लाती आ रही थी,” मेरे पति पर डोरे डाले तो अच्छा नहीं होगा अनुषा. मेरा पति सिर्फ मेरा है.”

हंसती हुई अनुषा किचन से बाहर निकली और बोल पड़ी,” मान लो मैं तुम्हारे पति पर डोरे डाल रही हूं. तो अब बताओ क्या करोगी तुम? मेरे पति पर डोरे डालोगी? वह तो तुम पहले ही कर चुकी हो. आगे बताओ और क्या करोगी?”

अनुषा का सवाल सुन कर वह बिफर पड़ी. चीखती हुई बोली,” खबरदार अनुषा मेरे पति की तरफ आंख उठा कर भी मत देखना. वरना तुम्हारे पति को नौकरी से निकाल दूंगी.”

“तो निकाल दो न टीना. मैं भी यही चाहती हूं कि वह तुम्हारे चंगुल से आजाद हो जाए. हंसी आती है तुम पर. मेरे पति के साथ गलत रिश्ता रखने में तुम्हें कोई दिक्कत नहीं. मगर तुम्हारे पति की और कोई देख भी ले तो तुम्हें समस्या हो जाती है. कैसी औरत हो तुम जो औरत का दर्द ही नहीं समझ सकतीं? दर्द तुम नहीं सह सकतीं वह दूसरों को क्यों देती हो?”

दूर खड़ा भुवन दोनों की बातें सुन रहा था. उस की आंखें खुल गई थीं. मन ही मन अनुषा की तारीफ कर रहा था. कितनी सचाई से उस ने गलत के खिलाफ आवाज उठाई थी.

अब तक टीना भी सब के आगे अपना मजाक बनता देख संभल चुकी थी. अनुषा की बातों का असर हुआ था या फिर खुद पर जब बीती तो उस जलन के एहसास ने टीना को सोचने पर विवश कर दिया था. उस के पास कोई जवाब नहीं था.

घर लौटते समय वह फैसला कर चुकी थी कि आज के बाद भुवन पर वह अपना कोई हक नहीं रखेगी.

मेरा पति सिर्फ मेरा है: भाग-2

तब तक ससुरजी उसे समझाने आ गए, “सच कहूं बहू तो उस ने काफी कुछ किया है हमारे लिए. मेरे हार्ट की सर्जरी कराने में भी पानी की तरह पैसे बहाए. इन सब के बदले भुवन का थोड़ा वक्त ही तो लेती है. सुबह भुवन 1 घंटे जल्दी चला जाता है ताकि उस के साथ समय बिता सके और रात में थोड़ा अधिक रुक जाता है. बस, इतनी ही डिमांड है उस की.”

“यदि टीना को भुवन इतना ही पसंद था तो उसी से शादी क्यों नहीं करा दिया आप लोगों ने? मेरी जिंदगी क्यों खराब की?”

“बेटा टीना शादीशुदा है. उस की शादी भुवन से हो ही नहीं सकती.”

शादी के दूसरे दिन ही अपनी जिंदगी में आए इस कड़वे अध्याय को पढ़ कर अनुषा विचलित हो गई थी. सोचा मां को हर बात बता दे और सब कुछ छोड़ कर मायके चली जाए. मगर फिर मां की कही बातें याद आ गईं कि हमेशा धैर्य बनाए रखना.

आधे घंटे में भुवन वापस लौट आया. खापी कर और बरतन निबटा कर जब अनुषा अपने कमरे में पहुंची तो देखा भुवन टीना से बातें कर रहा है. अनुषा को देखते ही उस ने फोन काट दिया और अनुषा को बांहों में भरने लगा. अनुषा छिटक कर अलग हो गई और उलाहने भरे स्वर में बोली,” मेरी सौतन से बातें कर रहे थे?”

भुवन हंस पड़ा,”अरे यार सौतन नहीं है वह. बस मुझ पर मरती है और मैं भी उस के साथ थोड़ाबहुत हुकअप कर लेता हूं. बस और क्या. खूबसूरत है साथ चलती है तो अपना भी स्टैंडर्ड बढ़ जाता है. ”

बेशर्मी से बोलते हुए भुवन सहसा ही सीरियस हो गया,” देखो अनुषा, जीवनसाथी तो तुम ही हो मेरी. मेरे जीवन का हर रास्ता लौट कर तुम्हारे पास ही आएगा.”

‘वह तो ठीक है भुवन मगर ऐसा कब तक चलेगा? इस टीना को तुम में इतनी दिलचस्पी क्यों है ? कहीं न कहीं तुम भी उसे भाव देते होगे तभी तो उसे आगे बढ़ने का मौका मिलता है.”

“देखो यार, मेरा तो एक ही फंडा है, थोड़ी खुशी मुझे मिल जाती है और थोड़ी उसे. इस में गलत क्या हैऔफिस में मेरा पोजीशन बढ़ाती है और मैं उसे थोड़ा प्यार दे देता हूं. बस, इस से ज्यादा और कुछ नहीं. दिल में तो केवल तुम ही हो न…” कह कर भुवन ने लाइटें बंद कर दीं और न चाहते हुए भी अनुषा को समर्पण करना पड़ा.

समय इसी तरह निकलने लगा. लगभग रोजाना ही टीना घर आ धमकती.

वह जब भी आती भुवन के साथ फ्लर्ट करती, अदाएं बिखेरती और अनुषा पर व्यंग कसती.

एक दिन भुवन के बालों को अपनी उंगली में घुमाते हुए शोख आवाज में बोली,” एक राज बताऊं अनुषा, तुम्हारे काम आएगा. ”
अनुषा ने कोई जवाब नहीं दिया.

मगर टीना ने बोलना जारी रखा,” पता है, भुवन कब खुद पर काबू नहीं रख पाता?”

“कब?” भुवन ने टोका तो हंसते हुए टीना बोली, “जब कोई लड़की हलके गुलाबी रंग की नाइटी पहन कर उस के करीब जाए. फिर तो भुवन का खुद पर भी वश नहीं चलता.”

सुन कर भुवन सकपका गया और टीना हंसती हुई बोली, “वैसे अनुषा, एक बात और बताऊं,” भुवन के बिलकुल करीब पहुंचते हुए टीना ने कहा तो अनुषा का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा.

अनुषा को और भी ज्यादा जलाती हुई टीना बोलने लगी,” काले टीशर्ट और ग्रे जींस में तुम्हारा पति इतना हैंडसम लगता है कि बस फिर दुनिया का कोई भी पुरुष तुम्हारे पति के आगे पानी भरे. ”

अनुषा ने कोई जवाब नहीं दिया मगर टीना ने अपने फ्लर्टी अंदाज में बोलना जारी रखा,” जानते हो भुवन, तुम्हारी कौन सी अदा और कौन सी चीज मुझे अपनी तरफ खींचती है?”

अनुषा का गुस्सा देख भुवन टीना के पास से उठ कर दूर खड़ा हो गया तो नजाकत के साथ उस के करीब से गुजरती हुई टीना बोली,” यह तुम्हारा सब जान कर भी अंजान बने रहने की अदा. तोबा दिल का सुकून छिन जाता है जब तुम्हारी निगाहों में अपनी मोहब्बत देखती हूं. चलो अब चलती हूं मैं वरना कोई गुस्ताखी न हो जाए मुझ से…”

इस तरह की बेशर्मियां टीना अकसर करती.

हनीमून पर जाने से 2 दिन पहले की बात है. उस दिन रविवार था. भुवन सुबह से ही अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहा था. अनुषा दोपहर के खाने की तैयारियों में लगी थी. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई तो अनुषा ने जा कर दरवाजा खोला. सामने टीना खड़ी थी. खुले बाल, स्लीवलैस बौडीहगिंग टौप और जींस के साथ डार्क रैड लिपस्टिक में उसे देख कर अनुषा का चेहरा बन गया.

टीना नकली हंसी बिखेरती अंदर घुस आई और पूछा,” नई दुलहन आप के श्रीमान जी कहां हैं?

“वे अपने कमरे में काम कर रहे हैं.”

“ओके मैं मिल कर आती हूं.”

“आप बैठिए मैं बुला कर लाती हूं.”

अनुषा के इस कथन पर टीना ठहाके मार कर हंसती हुई बोली,” आंटी, सुना आप ने? आप की बहू तो मुझ से औपचारिकताएं निभा रही है. उसे पता ही नहीं कि मैं इस घर में किसी भी कमरे में किसी भी समय जा सकती हूं,” कहते हुए वह भुवन के कमरे की तरफ बढ़ गई.

अनुषा ने सवालिया नजरों से सास की तरफ देखा तो सास ने नजरें नीची कर लीं. टीना ने भुवन के कमरे में जा कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. करीब 1 घंटे बाद उस ने दरवाजा खोला. उतनी देर अनुषा के सीने में आग आग जलती रही. उसी समय जा कर उस ने हनीमून के टिकट फाड़ डाले. रात तक अपना कमरा बंद कर रोती रही.

सास ने उसे समझाते हुए कहा,” देख बहू, पुरुषों द्वारा 2 स्त्रियों के साथ संबंध बना कर रखना कोई नई बात तो है नहीं. सदियों से ऐसी बातें चली आ रही है. यहां तक कि देवीदेवता भी इस से विमुख नहीं. कृष्ण का ही उदाहरण ले जिन की 16 हजार रानियां थीं. रानी रुक्मणी के साथसाथ राधा से भी उन के संबंध थे. पांडु और राजा दशरथ की 3-3 पत्नियां थीं तो इंद्र ने भी अहिल्या के साथ…”

“मांजी आप प्लीज अपनी दलीलें मुझे मत दीजिए. मुझे मेरे दर्द के साथ अकेला रहने दीजिए. एक बात बताइए मांजी, आप को इस में कुछ भी गलत नहीं लग रहा? अगर ऐसा है और यह घर टूटता है तो आप इस का इल्जाम मुझ पर मत लगाइएगा ”

आगे पढ़ें- रोती हुई अनुषा बाथरूम में जा कर मुंह धोने लगी तो…

मेरा पति सिर्फ मेरा है: भाग-1

सुबह के 6 बज गए थे. अनुषा नहाधो कर तैयार हो गई. ससुराल में उस का पहला दिन जो था, वरना घर में मजाल क्या कि वह कभी 8 बजे सुबह से पहले उठी हो.

विदाई के समय मां ने समझाया था,”बेटी, लड़कियां कितनी भी पढ़लिख जाएं उन्हें अपने संस्कार और पत्नी धर्म कभी नहीं भूलना चाहिए. सुबह जल्दी उठ कर सिर पर पल्लू रख कर रोजाना सासससुर का आशीर्वाद लेना. कभी भी पति का साथ न छोड़ना. कैसी भी परिस्थिति आ जाए धैर्य न खोना और मुंह से कभी कटु वचन न कहना.”

“जैसी आप की आज्ञा माताश्री…”

जिस अंदाज में अनुषा ने कहा था उसे सुन कर विदाई के क्षणों में भी मां के चेहरे पर हंसी आ गई थी.

अनुषा ड्रैसिंग टेबल के आगे बैठी थी. बीती रात की रौनक उस के चेहरे पर लाली बन कर बिखरी हुई थी. भीगी जुल्फें संवारते हुए प्यार भरी नजरों से उस ने बेसुध भुवन की तरफ देखा.

भुवन से वैसे तो उस की अरैंज्ड मैरिज हुई थी. मगर सगाई और शादी के बीच के समय में वे कई दफा मिले थे. इसी दरमियान उस के दिल में भुवन के लिए प्यार उमड़ पड़ा था. तभी तो शादी के समय उसे महसूस ही नहीं हुआ कि वह अरैंज्ड मैरिज कर किसी अजनबी को जीवनसाथी बना रही है. उसे लग रहा था जैसे लव मैरिज कर अपने प्रियतम के घर जा रही है.

बाल संवार कर और सिर पर पल्लू रख कर अनुषा सीढ़ियों से नीचे उतर आई. सासससुर बैठक रूम में सोफे पर बैठे अखबार पढ़ते हुए चाय की चुसकियों का आनंद ले रहे थे. अनुषा ने उन को अभिवादन किया और किचन में घुस गई. उस ने अपने हाथों से सुबह का नाश्ता तैयार कर खिलाया तो ससुर ने आशीष स्वरूप उसे हजार के 5 नोट दिए. सास ने अपने गले से सोने की चेन निकाल कर दी. तब तक भुवन भी तैयार हो कर नीचे आ चुका था.

भुवन ने अनुषा को बताया था कि अभी औफिस में कुछ जरूरी मीटिंग्स हैं इसलिए 2-3 दिन मीटिंग्स और दूसरे काम निबटा कर अगले सप्ताह दोनों हनीमून के लिए निकलेंगे. इस के लिए भुवन ने 10 दिनों की छुट्टी भी ले रखी थी.

भुवन का औफिस टाइम 10 बजे का था. औफिस ज्यादा दूर भी नहीं था और जाना भी अपनी गाड़ी से ही था. फिर भी भुवन ठीक 9 बजे घर से निकल गया तो अनुषा को कुछ अजीब लगा. मगर फिर सामान्य हो कर वह खाने की तैयारी में जुट गई.

तब तक कामवाली भी आ गई थी. अनुषा को ऊपर से नीचे तक तारीफ भरी नजरों से देखने के बाद धीरे से बोली,” शायद अब भुवन भैया उस नागिन के चंगुल से बच जाएंगे.”

“यह क्या कह रही हो तुम?”  कामवाली की बात पर आश्चर्य और गुस्से में अनुषा ने कहा.

वह मुसकराती हुई बोली,” बस बहुरानी कुछ ही दिनों में आप को मेरी बात का मतलब समझ आ जाएगा. 2-3 दिन इंतजार कर लो,” कह कर वह काम में लग गई.

फिर अनुषा की तारीफ करती हुई बोली,” वैसे बहुरानी बड़ी खूबसूरत हो तुम.”

अनुषा ने उस की बात अनसुनी कर दी. उस के दिमाग में तो नागिन शब्द  घूम रहा था. उसे नागिन का मतलब समझ नहीं आ रहा था.

पूरे दिन अनुषा भुवन के फोन का इंतजार करती रही. दोपहर में भुवन का फोन आया. दोनों ने आधे घंटे प्यार भरी बातें कीं. शाम में भुवन को आने में देर हुई तो अनुषा ने सास से पूछा.

सास ने निश्चिंतता भरे स्वर में कहा,”आ रहा होगा. थोड़ा औफिस के दोस्तों में बिजी होगा.”

8 बजे के करीब भुवन घर लौटा. साथ में एक महिला भी थी. लंबी, छरहरी, नजाकत और अदाओं से लबरेज व्यक्तित्व वाली उस महिला ने स्लीवलैस वनपीस ड्रैस पहन रखी थी. होंठों पर गहरी लिपस्टिक और हाई हील्स में वह किसी मौडल से कम नहीं लग रही थी. अनुषा को भरपूर निगाहों से देखने के बाद भुवन की ओर मुखातिब हुई और हंस कर बोली,” गुड चौइस. तो यह है आप की बैटर हाफ. अच्छा है.”

बिना किसी के कहे ही वह सोफे पर पसर गई. सास जल्दी से 2 गिलास शरबत ले आई. शरबत पीते हुए उस ने शरबती आवाज में कहा,” भुवन जिस दिल में मैं हूं उसे किसी और को किराए पर तो नहीं दे दोगे?”

उस महिला के मुंह से ऐसी बेतुकी बात सुन कर अनुषा की भंवें चढ़ गईं. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से भुवन की ओर देखा और फिर सास की तरफ देखा.

सास ने नजरें नीचे कर लीं और भुवन ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा,” यार टीना तुम्हारी मजाक करने की आदत नहीं गई.”

“मजाक कौन कर रहा है? मैं तो हकीकत बयान कर रही हूं. वैसे अनुषा तुम से मिल कर अच्छा लगा. आगे भी मुलाकातें होती रहेंगी हमारी. आखिर मैं भुवन की दोस्त जो हूं. तुम्हारी भी दोस्त हुई न. बैटर हाफ जो हो तुम उस की.”

वह बारबार बैटर हाफ शब्द पर जोर दे रही थी. अनुषा उस का मतलब अच्छी तरह समझ रही थी. टीना ने फिर से अदाएं बिखेरते हुए कहा,”आज की रात तो नींद नहीं, चैन नहीं, है न भुवन”

5 -10 मिनट रुक कर वह जाने के लिए खड़ी हो गई. भुवन उसे घर छोड़ने चला गया. अनुषा ने सास से सवाल किया,” यह कौन है मांजी जो भुवन पर इतना अधिकार दिखा रही है?”

“देखो बेटा, अब तुम भुवन की पत्नी हो इसलिए इतना तो तुम्हें जानने का हक है ही कि वह कौन थी? दरअसल, बेटा तुम्हें उस को भुवन की जिंदगी में स्वीकार करना पड़ेगा. हमारी मजबूरी है बेटा. हम सब को भी उसे स्वीकार करना पड़ा है बेटे.”

“पर क्यों सासूमां ? क्या भुवन का उस के साथ कोई रिश्ता है?”

“ऐसा कोई रिश्ता तो नहीं बहू पर बस यह जान लो कि उस के बहुत से एहसान हैं हमारे ऊपर. वैसे तो वह उस की बौस है मगर भुवन को इस मुकाम तक पहुंचाने में काफी मदद की है उस ने. अपने पावर का उपयोग कर भुवन को काफी अच्छा ओहदा दिया है. बस भुवन पसंद है उसे और कुछ नहीं.”

“इतना कम है क्या सासूमां ?”वह तो पत्नी की तरह हक दिखाती है भुवन पर.”

बहु कभीकभी हमें जिंदगी में समझौते करने पड़ते हैं. 1-2 बार भुवन ने जौब छोड़ने की भी कोशिश की. मगर उस ने आत्महत्या की धमकी दे डाली. भुवन के प्रति आकर्षित है इसलिए उस को अपने औफिस से निकलने भी नहीं देती.”

मैं जहां हूं वहीं अच्छा हूं: भाग-2

मीरा अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही विजय बोल उठा, ‘‘2 लोग नहीं मीरा… मैं तो ज्यादातर दादादादी के पास ही रहता हूं… मुझे वहां अच्छा नहीं लगता. कभीकभार ही वहां जाता हूं.’’

‘‘कभीकभार जाने का मतलब?’’ मीरा ने हैरानी से पूछा, ‘‘कभीकभार जाओगे तो उस घर में रचोगेबसोगे कैसे?’’

‘‘मुझे वहां रचबस कर क्या करना है मीरा? मेरे अपने पिता का घर है न मेरे पास… मेरी मां का घर है वह, उन्हें वहां रचनाबसना है और वह पूरी तरह रचबस भी गई हैं वहां. इस का प्रमाण यह है कि मैं अगर 2-4 दिन मिलने न भी जाऊं तो भी उन्हें पता नहीं चलता. इतनी व्यस्त रहती हैं वे अपनी नई गृहस्थी को सजानेसंवारने में कि मुझ से पूछती भी नहीं कि इतने दिन से मैं आया क्यों नहीं मिलने? दादाजी और मैं यही तो चाहते थे कि मां को जीवनसाथी मिल जाए और वे अकेली न हों.’’

‘‘तुम ने तो पहले कभी नहीं बताया कि तुम वहां नहीं रहते? मैं तो सोचती थी कि तुम साल भर से वहीं रह रहे हो.’’

‘‘पूरे साल में कुछ ही दिन रहा हूं वहां. सच पूछो तो वह घर मेरा नहीं लगता मुझे.’’

‘‘नए पापा भी कुछ नहीं कहते? तुम्हें रोकते नहीं?’’

‘‘शुरूशुरू में कहते थे. मोनू भैया के साथ वाला कमरा भी मुझे दे दिया था. मगर कमरे का लालच नहीं मुझे. दादा दादी का पूरा घर है मेरे पास. सवाल अधिकार का नहीं है न. सवाल स्नेह और सम्मान का है. घर या कमरा वजह नहीं है मेरे वहां न रहने की. मैं वहां रहता हूं तो मुझे लगातार ऐसा महसूस होता रहता है कि मोनू मेरी मां का सम्मान नहीं करता. यह मुझे कचोटता है. शायद मेरा रिश्ता ही ऐसा है… तुम यह भी कह सकती हो कि मैं छोटे दिल का मालिक हूं. हो सकता है कुछ बातों को पचा

पाना मेरे बस में नहीं है. फिर भी बहुत कुछ पचा रहा हूं न मैं. मेरी मां जो सिर्फ मेरी थी आज उस पुरुष के साथ खुश हैं, जो मेरा पिता नहीं है.

अगर मैं अपनी मां पर अपना अधिकार छोड़ रहा हूं तो मोनू को मां तो इस रिश्ते का सम्मान करना चाहिए न?’’

‘‘उस का मन तुम्हारी तरह बड़ा नहीं होगा न विजय.’’

‘‘हां, यह भी हो सकता है कि उस के पास मीरा जैसी दोस्त नहीं होगी?’’

क्षणिक मुसकरा कर बात को रफादफा कर मैं ने विषय को मोड़ तो दिया, मगर सत्य यह था कि जिस तरह एक पिता अपनी बेटी को ले कर चिंतित रहता है उसी तरह मैं भी अपनी मां को ले कर परेशान रहने लगा हूं. कहीं पुनर्विवाह उस के लिए मुसीबत तो नहीं बनता जा रहा?

नए पापा मां का पूरापूरा खयाल रखते हैं और वे अपना सजासंवरा घर, संभली गृहस्थी देख कर प्रसन्न भी नजर आते हैं. उन के चेहरे पर मां के प्रति आभार भी नजर आता है.

मां की तरफ से मुझे चिंता नहीं. बस मोनू भैया का व्यवहार अशोभनीय है. मां का चेहरा पढ़ता रहता हूं मैं. मुझे पता है उन में भी सहने का काफी माद्दा है. बस सोचता हूं किस दिन यह हद समाप्त होगी और जिस दिन यह हद समाप्त होगी उस दिन कैसा लावा फूटेगा पता नहीं. मैं वहां नहीं रहता. एक तरह से वहां किसी भी हद के टूट जाने का कारण मैं नहीं बनना चाहता. फूंकफूंक कर पैर रखता हूं ताकि मेरी मां का घर बसा रहे. उन्हें किसी संकट में न डालूं, यही सोच मिलने से मां बचता रहता हूं. दादादादी भी उठतेबैठते मेरा चेहरा पढ़ते रहते हैं. मैं अपनी मां से मिलता रहता हूं या नहीं वे अकसर पूछते रहते हैं. कभी कह देता हूं नहीं मिला हूं और कभी झूठ  भी कह देता हूं कि मिल आया हूं. कभीकभी अजीब सी घुटन होने लगती है.

‘‘विजय, क्या सोच रहे हो?’’ मीरा जब भी मिलती है बस अब यही पूछती है. ‘‘फाइनल इम्तिहान सिर पर है… कुछ पढ़ भी पा रहे हो  या नहीं?’’

मेरी दुखती रग पर जैसे उस का हाथ पड़ा था. मैं क्या कहूं? वह भलीभांति समझ रही है मेरी मनोस्थिति. मैं नहीं पढ़ पा रहा हूं, वह यह जानती है.

मोनू का खयाल ही हर वक्त दिमाग में रखोगे तो कब पढ़ोगे? मां अगर मोनू की वजह से परेशान हैं तो क्या तुम मां को और परेशान करोगे? यह सब तो चलता रहेगा… तुम अपना समय तो बरबाद मत करो. जीवन है तो समस्याएं भी होंगी. तुम कुछ बनोगे तो ही मां को भी सहारा दे पाओगे न?

मीरा का यह सवाल काफी था मुझे जगाने को. मैं जीजान से अपनी पढ़ाई में जुट गया. सच कह रही है मीरा कि अगर कुछ कर नहीं पाया तो मां को भी क्या सहारा दे पाऊंगा.

अब मैं अपने कमरे में ही रहता. दादी मेरा खानापीना सब देख रही थीं. दादाजी कभी फल काट कर ले आते तो कभी बादाम छील कर खिलाते. मेरे सारे काम वही करने लगे थे.

‘‘तू अपना पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई में लगा… कोई चिंता मत कर… हम दोनों हैं न तेरे पास.’’

मां से फोन पर बात कर लेता. वे ठीकठाक हैं, यही आश्वासन मेरे बुझते दीए में तेल का काम करता.

परीक्षा खत्म हो गई. मुझे संतोष था कि मैं ने जो किया अच्छा किया. आखिरी पेपर दे कर घर आया. घर पर मां और पापा सामने खड़े थे. सुखद आश्चर्य हुआ कि आखिर मां को मेरी याद आ ही गई. मां का चेहरा गौर से देखा. उन के माथे पर ढेर सारे बल थे. पापा ने पास आ कर मेरा कंधा थपथपाया.

‘‘पेपर अच्छे हो गए न बेटे… हम तुम्हें लेने आए हैं… अब अपने घर चलो बच्चे.’’

जैसे कुछ अनचाहा कह दिया हो उन्होंने, ‘‘अरे नहींनहीं… अपने घर से क्या मतलब… वह मेरा घर थोड़े है? मैं यहीं ठीक हूं… मेरा घर तो यही है,’’ अनायास मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘इतने दिन हम चुप रहे तो सिर्फ इसलिए कि तुम्हारे पेपर थे… लेकिन अब और नहीं.’’

‘‘नहीं पापा मुझे वहां नहीं जाना. कृपया मुझे मजबूर न करें.’’

‘‘मोनू से तुम्हारा कोई झगड़ा हुआ है क्या? वह कह रहा था तुम ने उस की मां का नाम ले कर उसे बदनाम किया है,’’ सहसा मां ने ऊंचे स्वर में पूछा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें