बलराज शिशिर के मन में भी कटुता के बीज को रोपना चाहता था. लेकिन उस की हर बात का एक मौन के साथ समर्थन करने वाली उस की पत्नी कालिंदी ने यहां उस की नहीं सुनी. उस ने अपने बेटे के मस्तिष्क की कोमल धरती पर प्रश्न का बीज अंकुरित कर दिया. शिशिर ने प्रश्न करना आरंभ कर दिया और जहां प्रश्न अंकुरित होने लगते हैं, वह धरती बंजर अथवा विषैली नहीं रह जाती.
शिशिर अलग था. जो विशेषाधिकार बलराज को प्रफुल्लित किया करते थे, उन से उस का दम घुटता था.
वह कहता,”यह ब्राह्मणवादी विशेषाधिकार, मेरे उन विशेषाधिकारों का हनन करती है, जो एक मनुष्य होने के नाते मुझे मिलने चाहिए. जैसे, खुल कर जीने की इच्छा, अपनी उन आदिम व सभी भावनाओं को प्रगट करने की इच्छा, जो मनुष्य होने का प्रमाण है. मगर समाज को इस सब की फिक्र कहां, उसे तो अपनी उस सड़ीगली, बदबूदार व्यवस्था को बचाए रखने की चिंता है, जो सारे सांस्कृतिक विकास पर एक बदनुमा दाग है. आज न तो देश, न सरकार और न ही युवा, ऐसी सड़ीगली व्यवस्था को मानते हैं.”
जब इंजीनियरिंग कालेज में उस ने एक दलित मित्र को अपना रूमपार्टनर बनाया, तब बलराज ने उसे खूब कोसा, फब्तियां कसी, चुटकियां ली, पर वह डटा रहा.
बलराज कुढ़ता रहता, लेकिन शिशिर मुसकराता और कहता,”अस्वीकार्य को अधिक दिनों तक लादा नहीं जा सकता. जाति का जहर मेरे शरीर में हमेशा चुभता रहा है.”
बलराज कहता,”तुम्हारा भाग्य है कि तुम्हें इतने महान कुल में जन्म प्राप्त हुआ है. तनिक सोचो, क्या होता यदि तुम्हारा जन्म एक निम्न जाति में हुआ होता? मनुष्य को जो आसानी से मिल जाता है, वह उस का मूल्य ही नहीं जान पाता.”
“पापा, मैं भी तो यही कह रहा हूं. उस जाति अथवा समाज पर क्या अभिमान करना जिस का प्राप्त होना, महज हेड ऐंड टैल का खेलमात्र हो. ब्राह्मण बन कर जन्म लेने में मेरी व्यक्तिगत उपलब्धि क्या है? अभिमान के स्थान पर मुझे तो शर्म आती है, जब मात्र मेरी जाति के कारण मुझे सम्मान दिया जाता है. मुझे मेरे व्यक्तित्व के लिए सम्मान चाहिए, न कि किसी विशेष सरनेम के कारण. जन्म के लिए जिस कुल को चुनने पर आप का कोई अधिकार ही नहीं, उस कारण जब आप का अपमान किया जाता है, तो जरा सोचिए कि कितनी पीड़ा होती होगी?”
बलराज अहंकार के साथ कहता,”तो आरक्षण तो मिल गया ना उन्हें. यह उचित है क्या?”
“बिलकुल. वैसे आरक्षण कोई एहसान नहीं, उन का अधिकार है. एक समय था जब उच्च पदों पर तथाकथित उच्च जातियों का आधिपत्य था. आज वहां उन की मोनोपोली कम हो रही है. यह बात दूसरी है कि वर्तमान समय में आरक्षण राजनीतिक पार्टियों का एक हथियार भी बन गई है.”
बलराज कहता,”अरे सभी को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व होता है! सभी स्वयं को अन्य से बेहतर साबित करते हैं. तुम मात्र ब्राह्मणों को दोष नहीं दे सकते.”
शिशिर कहता,”मुझे ब्राह्मणों से नहीं, उस सोच से दिक्कत है, जो स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ आँकती है. ऐसी सोच रखने वाला जिस धर्म, जाति, देश अथवा क्षेत्र से संबंध रखता हो, वह गलत ही है.”
थोड़ी देर विराम ले कर वह फिर कहता,”आप को पता है पापा, मेरी प्रगतिशील दलित मित्रों की मंडली भी ‘ब्राह्मण’ कह कर मेरा उपहास करती है, मानो मैं ब्राह्मणशाही का प्रतिनिधि करता हूं और ब्राह्मण परिवार में पैदा हो जाने के कारण ब्राह्मणशाही का सारा गुनाह मेरे सिर पर है. मैं जानता हूं कि वे मेरे मित्र हैं, और यह उन का मजाक है, मगर यह भी सच है कि आज घृणा और क्रोध दोनों तरफ है. लेकिन हमें इस घृणा का अंत करना है, उसे बढ़ाने का कारण नहीं बनना.”
धीरेधीरे उन के बीच बातचीत कम होती चली गई. शिशिर मेधावी था, अतः जीवन के सोपान पर आगे बढ़ने में उसे अधिक कठिनाई नहीं हुई. मध्य प्रदेश सरकार के बिजली विभाग में अभियंता के पद पर चयनित हो कर शिशिर भोपाल चला गया और दोनों पतिपत्नी इंदौर में अकेले रह गए. मांऔर बेटे की बातचीत लगभग प्रतिदिन हो जाया करती पर बलराज और शिशिर के बीच अबोला बढ़ता ही चला गया.
बलराज यह सोच कर संतोष कर लेता कि समय के साथ उस की सोच बदल जाएगी. वैसे भी वह अपने आसपास यह सब होता हुआ देख रहा था. आजकल की पीढ़ी दोहरी मानसिकता के साथ जी रही थी. सोशल नेटवर्किंग साइट पर जिस प्रथा और मान्यता का विरोध करते, लंबेलंबे आलेख शेयर किया करते, उसी प्रथा का अपने जीवन में निस्संकोच पालन किया करते थे.
इस समाज को अधिक खतरा उन से नहीं है जो गलत सोच रखते हैं, बल्कि उन से हैं जो अच्छी सोच होने का ढोंग करते हैं.
वैसे संख्या में कम, लेकिन सोच में अधिक एक वर्ग ऐसा भी है, जिस की कथनी और करनी अलग नहीं है. उस का बेटा शिशिर भी ऐसा ही था. अपने जीवनकाल में वह यह जान तो पाया, लेकिन समझ नहीं पाया.
शिशिर अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव लेषकर उन के पास आया था. बलराज का संस्कारी मन इस प्रेम विवाह को समय की मांग सोच कर मान भी लेता यदि लड़की किसी उच्च जाति की होती. लेकिन साक्षी एक दलित परिवार की लड़की थी और एक दलित परिवार की लड़की को पुत्रवधू बना कर लाना उसे स्वीकार्य नहीं था. उस दिन वर्षों बाद पितापुत्र के बीच बात हुई थी.
बलराज ने ही बात को शुरू किया,”दलित और मुसलमान छोड़ कर तुम अपनी मरजी से किसी भी जाति में शादी कर सकते हो.”
एक मुसकान के साथ शिशिर बोला,”हम दोनों ने ही कभी यह नहीं सोचा कि हमारी जाति क्या है? हम उस विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, जहां इंसान जाति और धर्म की पहचान से बहुत ऊपर उठ जाता है. यह भी सच है कि प्रेम इंटरव्यू ले कर नहीं होते.”
उस दिन कालिंदी ने भी शिशिर को समझाया,”बेटा, पापा को भी तो समझो, हम जिस समाज में रहते हैं, वहां एक दलित से विवाह सही नहीं है.”
शिशिर चौंक गया था,”मां, जब दलित से मित्रता सही है, फिर विवाह गलत कैसे हो गया? वैसे भी समाज बदल गया है.”
इस बार बलराज मुसकराया था,”बेटा, सच यही है कि जाति एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में सिर्फ अपना रूप बदल रही है. जाति की शुद्धता बनाए रखने के लिए समाज में उस की खास जगह, खानपान और सामाजिक व्यवहार पर प्रतिबंध, व्यवसाय के स्वतंत्र चुनाव का अभाव और अंतर्जातीय विवाह पर रोक जरूरी माने गए हैं. आज इन लक्षणों में परिवर्तन आया है, जिस का सब से बड़ा कारण कानूनी बाध्यता है.