जब सहेली हो सैक्सी

आजकल के युवाओं में सैक्सी दिखने का ट्रैंड हिट है. वे सोचते हैं कि जो शौर्ट कपड़े पहनते हैं, स्लिमट्रिम होते हैं वे ही सैक्सी हैं और जो सैक्सी हैं वे ही इंटैलिजैंट हैं. इस कारण सब उसी से दोस्ती करना पसंद करते हैं. यही नहीं कुछ युवा तो सैक्सी लुक के पीछे इस कदर पागल हो जाते हैं कि वे अपनी खुद की पर्सनैलिटी ही भूल जाते हैं और इस चक्कर में सामने वाले से नफरत भी करने लगते हैं. ऐसे में यह समझना जरूरी है कि जलन के बजाय आप को अपनी पर्सनैलिटी में स्मार्टनैस लाने की जरूरत है.

आइए, जानते हैं कि दोस्त के सैक्सी होने पर हम करते क्या हैं जबकि हमें करना क्या चाहिए:

हम क्या करते हैं

जलन की भावना: जब हमारी दोस्त हम से कही ज्यादा सैक्सी दिखती है, खुद को सेक्सी बनाए रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती है, जिस कारण हर लड़का उस का दीवाना होने लगता है तो हमारे मन में उस के लिए जलन की भावना पैदा होने लगती है. इस कारण हमें उस की सही बात भी गलत लगती है, हम उस से अच्छा रिलेशन होने के बावजूद उस से दूरी बनाना शुरू कर देते हैं, उस के बारे में दूसरों से गलत बात कहने में भी नहीं कतराते हैं क्योंकि हमें लगता है कि उस के ज्यादा सैक्सी होने की वजह से लड़के हमें नजरअंदाज करने लगे हैं, जो जरा भी गवारा नहीं होता है.

धीरेधीरे यही जलन की भावना दोनों के रिश्ते में दरार डालने के साथसाथ एकदूसरे का दुश्मन तक बना डालती है.

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हर बात लगती है गलत: लड़कों ने रिया के सैक्सी लुक की तारीफ क्या करनी शुरू कर दी कि अब तो प्रिया की आंखों में रिया इस कदर खटकने लगी कि उस की सही बात भी गलत लगने लगी क्योंकि प्रिया से उस का सैक्सी लुक जो बरदाश्त नहीं हो रहा था.

एक बार जब रिया ने उस के ऐग्जाम्स के लिए उसे सलाह दी तो उस ने मन में ईर्ष्या के कारण उस की बात को गलत ठहरा कर नहीं माना, जिस का नतीजा उस के लिए गंभीर साबित हुआ क्योंकि जब हमारे मन में किसी के लिए ईर्ष्या का भाव आने लगता है खासकर के लड़कियों में एकदूसरे के लुक को लेकर तो वे उसे किसी भी कीमत पर बरदाश्त नहीं कर पाती हैं. उस की हर बात को सही जानते हुए भी गलत ठहरा कर खुद को सुकून पहुंचाने की कोशिश करती हैं, जो सही नहीं होता है.

करैक्टर को करते हैं जज: जब कोई लड़की खुद को सैक्सी दिखाने लगती है तो उस की फ्रैंड्स उस की तारीफ करने के बजाय उस के लुक से जलने लगती हैं. फिर इस जलन को व्यक्त करने के लिए वे दूसरे लोगों के सामने यह कहने से भी नहीं कतरातीं कि यार यह अपने सैक्सी लुक से लड़कों को अट्रैक्ट करने की कोशिश कर रही है, तभी तो आजकल इस का चालचलन इतना बदल सा गया है.

इस का करैक्टर ही खराब है, इसलिए हमें भी इस से दोस्ती नहीं रखनी चाहिए. ये लड़कों को अपना दीवाना बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. दोस्त की जबान पर ये शब्द अपनी फ्रैंड के सैक्सी लुक के कारण मन में पैदा हुई जलन के कारण ही आए हैं. उस के कारण फ्रैंड उसे करेक्टरलैस भी लगने लगी है.

पीठ पीछे बुराई

यार वह कैसे कपड़े पहनती है, बालों का स्टाइल तो देखो, चाल भी किसी हीरोइन से कम नहीं है, लड़कों को अपने आगेपीछे घुमाने के लिए चेहरे पर हमेशा मेकअप ही थोपे रखती है ताकि अपने सैक्सी लुक से सब की तारीफ बटोर कर बौयफ्रैंड की लाइन मार सके. चाहे इस का कितना ही सैक्सी लुक क्यों न हो, लेकिन बोलने की जरा भी अक्ल नहीं है. कुछ आताजाता है नहीं, तभी तो अपने सैक्सी लुक से ही फेम कमाने की कोशिश कर रही है.

अपने फ्रैंड के सैक्सी लुक को देख कर लड़कियां जलन के मारे पीठ पीछे उसे नीचा दिखाने के लिए उस की झठी बुराई करने में भी पीछे नहीं रहती हैं. इस से उन के मन की भड़ास जो दूर होती है, जबकि ऐसा कर के वे खुद की नजरों में ही गिरती हैं.

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मजाक बनाने में भी पीछे नहीं

स्नेहा बहुत ही सैक्सी व अट्रैक्टिव लग रही थी. जैसे ही उस ने फ्रैंड्स के बीच ऐंट्री मारी तो सब की नजरें उस पर ही टिकी रह गईं. लड़कों के मुंह से वाउ, वाट ए लुक, तुम जैसा सैक्सी कोई नहीं जैसे शब्दों को सुन कर प्रियांशा के दिल में मानो इतने कांटे चुभे कि इसे शब्दों में भी बयां नहीं किया जा सकता. उसे गवारा नहीं हो रहा था कि सब का ध्यान  स्नेहा ने अपने सैक्सी लुक से अपनी ओर खींच लिया.

इस कारण उस ने अपने इस गुब्बार को मन में नहीं रखा और कुछ ही देर में उस की किसी बात का इतना मजाक बनाना शुरू कि स्नेहा की आंखों से आंसू नहीं रुके. उस का मजाक बनाने में कर दिया स्नेहा ने अपने बाकी फ्रैंड्स को भी शामिल कर लिया जो बिलकुल ठीक नहीं था.

कैसे बनें अच्छे अभिभावक

अगर कोई बच्चा कोई शरारत करे, तो मांबाप क्या करेंगे? उसे 1-2 चपत लगा देंगे, डांट देंगे या अधिक से अधिक एक समय का खाना बंद कर देंगे.

मगर जापान के टोक्यो शहर में एक मांबाप ने अपने 7 साल के बच्चे को सजा के तौर पर घने जंगल में छोड़ दिया, जहां जंगली जानवरों का बोलबाला था. मांबाप को अपनी गलती का भान तब हुआ जब 5 मिनट बाद वे वापस बच्चे को लेने पहुंचे. मगर वह कहीं नहीं मिला. 1 हफ्ते तक घने जंगल में बच्चे की तलाश की गई. पूरी दुनिया में यह खबर आग की तरह फैल गई और पेरैंट्स को खूब कोसा जाने लगा.

3 जून, 2016 को यामातो तानूका नामक यह बच्चा एक मिलिटरी कैंप में मिला. वहां उस ने एक झोंपड़ी में शरण ली थी. पानी पी कर और जमीन पर सो कर उस ने खुद को जिंदा रखा था.

एक इंटरव्यू में उस बच्चे के पिता ने रुंधे गले से कहा कि उस ने यामातो से माफी मांगी.

दरअसल, कुछ पेरैंट्स बच्चे को परफैक्ट बनाने के चक्कर में कभीकभी इतनी अधिक सख्ती कर बैठते हैं कि बाद में उन्हें पछताना पड़ता है.

2011 में एमी चुआ नाम की येल प्रोफैसर ने अपनी किताब ‘बैटल हाइम औफ द टाइगर मदर’ में टाइगर मौम की अवधारणा का जिक्र किया. टाइगर मौम पेरैंट्स से तात्पर्य ऐसे स्ट्रिक्ट और डिमांडिंग पेरैंट्स से है, जो अपने बच्चों पर हर क्षेत्र में बेहतर परफौर्मैंस देने का दबाव डालते हैं. पढ़ाई के साथसाथ दूसरे अवार्ड विनिंग क्षेत्रों में भी अव्वल रखने का प्रयास करते हैं ताकि आज के प्रतियोगी युग में बच्चे अपना स्थान सुरक्षित कर सकें.

जब टाइगर पेरैंट्स के बच्चे अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं, तो वे बच्चों को भावनात्मक धमकियों के साथसाथ हलके शारीरिक दंड भी देते हैं. ऐसे पेरैंट्स बच्चों को कभी अपने फैसले स्वयं लेने की अनुमति नहीं देते.

एमी चुआ ऐसी ही स्ट्रिक्ट टाइगर मौम थी. वह स्वीकार करती है कि अपनी दोनों बेटियों लुलु और सोफिया को सब के सामने कूड़ा कहने में भी उसे कोई गुरेज नहीं था. उस का मानना है कि बच्चों की सफल परवरिश उन के मांबाप की कुशलता को दर्शाती है और बच्चों की कामयाबी मांबाप के कद को ऊंचा करती है.

य-पि आज उस की दोनों बेटियां अपने कैरियर के लिहाज से अच्छी जगह पर हैं. मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जरूरत से ज्यादा सख्ती बरतने से बच्चों को स्कूल में ऐडजस्ट करने में दिक्कत आती है. उन का आत्मविश्वास कम होता है और उन के अवसादग्रस्त होने की संभावना बढ़ जाती है.

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चाइना के हैंगझोऊ नामक स्थान पर किए गए एक यूथ सर्वे, जिस में 589 हाई और मिडिल स्कूल के बच्चों को शामिल किया गया, में पाया गया कि टाइगर मौम टाइप पेरैंटिंग लाभदायक नहीं. जरूरत से ज्यादा नियंत्रण बच्चों में हताशा पैदा कर सकता है.

सरोज सुपर स्पैश्यलिटी अस्पताल दिल्ली के डा. संदीप गोविल कहते हैं कि जब मांबाप तानाशाह की तरह बच्चों पर अपनी पसंद और अनुशासन थोपते हैं और उन्हें बोलने का मौका नहीं देते हैं, तो वे यह नहीं समझ पाते कि ऐसा कर वे अपने बच्चों का आत्मविश्वास खत्म कर रहे हैं. आप अपने बच्चों को अनुशासन में रखें, लेकिन जहां प्यार और आप के साथ की जरूरत हो, उन्हें यह उपलब्ध कराएं. चाहे प्यार हो या अनुशासन, एक सीमा निर्धारित करना बहुत जरूरी है. जब आप कोई भी चीज सीमा से अधिक करेंगे, तो उस का बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. अगर बच्चे को बिहेवियर प्रौब्लम है, तो आप को इस ओर ध्यान देना होगा कि आप का अपने बच्चे से रिश्ता कैसा है.

अच्छी परवरिश वह है, जिस में सहानुभूति, ईमानदारी, आत्मविश्वास, आत्मनियंत्रण, दयालुता, सहयोग, मानवता आदि गुण विकसित हों. ऐसी परवरिश बच्चे को ऐंग्जाइटी, डिप्रैशन, ईटिंग डिसऔर्डर, असामाजिक व्यवहार और नशे आदि का शिकार होने से बचाती है.

अच्छा अभिभावक बनने के लिए इन बातों का ध्यान रखें:

अत्यधिक अनुशासित पालनपोषण के नुकसान

डा. संदीप गोविल बताते हैं कि जो मातापिता अपने बच्चों को अत्यधिक अनुशासन में पालते हैं, वे हर चीज के लिए कड़े नियम बना देते हैं. पढ़ाई और सुरक्षा के नियम होने ठीक हैं, लेकिन अगर आप अपने बच्चे के जीवन के हर पहलू के लिए कड़े नियम बना देंगे तो निम्न समस्याएं खड़ी हो जाएंगी:

विद्रोह: जो बच्चे अत्यधिक कड़े नियमों में पलते हैं, उन्हें अपनी स्वतंत्रता नहीं मिलती, जो उन के लिए जिम्मेदार इनसान बनने के लिए जरूरी है. वे खुद कभी यह नहीं सीख पाते कि सही क्या है और गलत क्या है. उन में आंतरिक स्वअनुशासन विकसित नहीं हो पाता, क्योंकि उन्हें केवल नियमों का पालन करना सिखाया जाता है, खुद को नियंत्रित करना नहीं. ऐसे में कई बार बच्चों में विद्रोह करने की प्रवृत्ति पनपने लगती है.

संवाद की समस्या: स्ट्रिक्ट पेरैंट्स और बच्चों में संवाद की कमी होती है. जब बच्चों को इस बात का डर होता है कि यदि वे अपनी भावनाएं, विचार या कार्य अपने मातापिता से साझा करेंगे तो उन्हें डांट या मार पड़ेगी, तो ऐसे में वे उन से बातें छिपा लेते हैं. जब बच्चों के समक्ष कोई ऐसी समस्या आती है, जिस का समाधान वे स्वयं नहीं ढूंढ़ पाते तब भी वे अपने मातापिता से उस समस्या को साझा नहीं करते हैं.

निर्णय लेने की क्षमता: जो मातापिता अपने बच्चों को कड़े अनुशासन में रखते हैं, स्वयं निर्णय नहीं लेने देते वे बच्चे बड़े हो कर भी अपने निर्णय स्वयं नहीं ले पाते और अगर ले लेते हैं, तो उन पर डटे नहीं रहते. उन में हमेशा अपने से शक्तिशाली का अनुसरण करने की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है.

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उदाहरण प्रस्तुत करें: याद रखें, बच्चे अपने मातापिता को देख कर ही सीखते हैं. आप के कार्यों की गूंज आप के शब्दों से तेज होती है. पहले खुद अच्छे व्यवहार के द्वारा सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करें. फिर बच्चों से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा करें.

अत्यधिक प्यार न दें: अत्यधिक प्यार दे कर बच्चों को बिगाड़ें नहीं, बच्चों की हर बात न मानें, क्योंकि उन की समझ विकसित नहीं हुई होती है.

हमेशा साथ होने का एहसास कराएं: बच्चों की हर जरूरत के समय उन के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से उपलब्ध रहें. लेकिन उन्हें थोड़ा स्पेस भी दें. हमेशा उन के साथ साए की तरह न रहें.

परवरिश में बदलाव लाते रहें: बच्चे जैसेजैसे बड़े होते हैं, उन के व्यवहार में बदलाव आता है. आप 3 और 13 साल के बच्चे के साथ एकसमान व्यवहार नहीं कर सकते. जैसेजैसे बच्चों के व्यवहार में बदलाव हो, उस के अनुरूप उन के साथ अपने संबंधों में बदलाव लाएं.

नियम बनाएं: प्यार के साथ अनुशासन की भी जरूरत होती है. कड़े नियम न बनाएं. लेकिन बचपन से ही उन में जिम्मेदारी की भावना विकसित करें. उन्हें आत्मनियंत्रण के गुर सिखाएं.

बच्चों को स्वतंत्रता दें: हमेशा अपनी पसंदनापसंद बच्चों पर न थोपें. उन्हें थोड़ा स्पेस दें ताकि उन का अपना व्यक्तित्व विकसित हो सके.

बच्चों से अच्छा व्यवहार करें: बच्चों से विनम्रता से बात करें. उन के विचारों को  ध्यान से सुनें. उन से प्रेमपूर्वक व्यवहार करें. ध्यान रखें, आप के बच्चों के साथ आप का व्यवहार दूसरों के साथ उन के व्यवहार की आधारशिला है.

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बच्चों से ये बातें कभी न कहें

कभीकभी मातापिता बच्चों को ऐसी बातें कह देते हैं, जो उन के मन में घर कर जाती हैं, इसलिए ये बातें कहने से बचें:

– मैं जब तुम्हारी उम्र की थी तो अधिक जिम्मेदार थी.

– तुम तो हमेशा गलत फैसले लेते/लेती हो.

– तुम अपने भाई/बहन की तरह क्यों नहीं बनते?

– तुम्हें खुद पर शर्म आनी चाहिए.

– तुम्हारे जैसी औलाद होने से तो अच्छा होता मैं बेऔलाद होती.

– अपने गंदे दोस्तों का साथ छोड़ो.

बौयफ्रैंड डैडी

कृति औफिस में काम कर रहे अपने पिता को जबतब फोन कर देती है. कभी किसी रेस्तरां में चलने, तो कभी किसी नई फिल्म के लिए फ्रैंड के घर जाने या किसी पार्टी में जाने के लिए. कृति हर जगह अपने डैडी को ले जाना पसंद करती है. इसलिए नहीं कि उस के डैडी बाकी फ्रैंड्स के पिताओं की तुलना में यंग हैं बल्कि इसलिए क्योंकि उसे अपने डैडी की कंपनी काफी पसंद है. कृति के पिता न सिर्फ अपनी इकलौती बेटी की जरूरतों का खयाल रखते हैं बल्कि उस की हर छोटी से बड़ी बात भी उस के बोलने से पहले ही सम  झ जाते हैं.

दरअसल, कृति के पिता चाहे कितने भी व्यस्त क्यों न हों, अपनी प्यारी बिटिया के लिए हमेशा फ्री रहते हैं. यही वजह है कि स्कूल के टीचर्स से ले कर कृति के फ्रैंड्स तक सब कृति के पिता की मिसाल देते हैं.

बेटी-पिता की दोस्ती

एक वक्त था जब बेटियों को घर की इज्जत मान कर उन्हें पाबंदियों में रखा जाता था. पहननेओढ़ने से ले कर उन की हर चीज पर नजर रखी जाती थी. लेकिन अब फादर काफी बदल गए हैं. वे बेटियों पर लगाम लगाने के बजाय उन की हर इच्छा को अपनी इच्छा सम  झ कर पूरी करते हैं. फिर चाहे बात कपड़ों की हो अथवा घूमने की. बदलते वक्त के साथ अब यह प्यार और ज्यादा गहरा हो चला है.

बेटियों को मिलने लगी है स्पेस

ऐसी नहीं है कि पिता हर वक्त बेटियों पर चिपके ही रहते हैं बल्कि अब बेटियां ही पिता के साथ वक्त बिताना पसंद करने लगी हैं. कृति के स्कूल में कई दोस्त ऐसे भी हैं जो कृति को अकसर चिढ़ाते हैं कि देखों कृति आज अपने बौयफ्रैंड के साथ आई है. लेकिन बजाय इस बात पर चिढ़ने के कृति इसे मजाक के रूप में लेती है और फख्र से सब के सामने बोलती है हां मेरे पापा मेरे बौयफ्रैंड हैं. किसी को कोई दिक्कत? कृति का यह रूप देख कर हरकोई मुसकराए बिना नहीं रह पाता.

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कुछ अलग है यह रिश्ता

पापाबेटी का रिश्ता अलग होता है. कुछ खट्टा होता है तो कुछ मीठा है. कभी बेशुमार प्यार होता है तो कभी खटपट भी होती है. बदलते वक्त के साथ मातापिता में काफी बदलाव आया है. ऐसा नहीं है कि उन की मनमरजियां पूरी कर के वे उन्हें बिगाड़ रहे हैं बल्कि आजकल मातापिता बच्चों के साथ कदमताल करते हुए चल रहे हैं. एक समय था जब मातापिता में जैनरेशन गैप आ जाता था, लेकिन समय के साथ मातापिता ने खुद को काफी हाइटैक कर लिया है. यही वजह है कि बच्चे चाह कर भी मातापिता को नजरअंदाज नहीं कर पाते.

ऐसा नहीं है कि बच्चे मातापिता को कहीं ले कर नहीं जाना चाहते या फिर बच्चे सिर्फ स्कूल मीटिंग तक ही मातापिता को सीमित रखना चाहते हैं बल्कि बेटियां पिता की कंपनी को बखूबी ऐंजौय करती हैं पार्टियों में कृति अकसर अपने पिता के साथ डांस करती नजर आ जाती है. पिता के साथ खिलखिलाती है.

जब रिश्ता न हो अच्छा

कई मातापिता बच्चों पर पाबंदी लगा देते हैं. उन्हें कई आनेजाने नहीं देते, लेकिन ऐसा करने से न सिर्फ बच्चों के विकास पर फर्क पड़ता है बल्कि मातापिता बच्चों का नजरिया भी बदलने लगता है. टीनएज ऐसी उम्र होती है जिस में बच्चे अकसर मातापिता को गलत सम  झने लगते हैं. उन्हें अपना दुश्मन मान बैठते हैं, अत: बच्चों के हमदर्द बनें. उन से उन की तकलीफ पूछें क्योंकि इस ऐज में बच्चे अकसर विद्रोही बन जाते हैं. उन्हें प्यार से समझाएं कि उन के लिए क्या गलत है और क्या सही. उन्हें घुमाने ले जाएं.

हो सकता है कि आप के पास वक्त की कमी हो, लेकिन बच्चों को समय की जरूरत होती है. छुट्टी के दिनों घुमाने ले जाएं, फिल्म दिखाएं, बाहर खाना खिलाएं. इस से धीरेधीरे आप को रिश्ता भी मधुर हो जाएगा.

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क्या परफैक्ट होते हैं नुक्स निकालने वाले पति

रतिमा पोस्टग्रैजुएट है. शक्लसूरत भी ठीकठाक है. खाना भी अच्छा बनाती है. व्यवहारकुशल भी है. चाहे रिश्तेदार हों, पड़ोसी हों या फिर सहेलियां सभी में वह लोकप्रिय है. मगर पति की नजरों में नहीं. क्यों? यह सवाल सिर्फ प्रतिमा के लिए ही नहीं है, बल्कि ऐसी बहुत सी महिलाओं के लिए है, जिन की आदतें, तौरतरीके, रहनसहन उन के पति के लिए नागवार होते हैं, तो क्या हमेशा अपनी पत्नी में नुक्स निकालने वाले पति परफैक्ट होते हैं? हर व्यक्ति का अपनाअपना स्वभाव, तौरतरीके, नजरिया और पसंद होती है. ऐसे में हम यह सोचें कि फलां हमारी तरह नहीं है इसलिए परफैक्ट नहीं है, तो यह ज्यादती होगी. यह जरूरी नहीं कि जिस में हम नुक्स निकालते हैं उस में कोई गुण हो ही न.

प्रतिमा को ही लें. वह अच्छा खाना बनाती है. व्यवहारकुशल भी है. वहीं उस के पति न तो व्यवहारकुशल हैं और न ही उन में कोई बौद्धिक प्रतिभा है, जिस से वे दूसरों से खुद को अलग साबित कर सकें. सिवा इस के कि वे कमाते हैं. कमाने को तो रिकशे वाला भी कमाता है. प्रतिमा स्वयं घर पर ट्यूशन कर के क्व 8-10 हजार कमा लेती है. सुबह 5 बजे उठना. बच्चों के लिए टिफिन तैयार करना, उन्हें तैयार करना, घर को इस लायक बनाना कि शाम को पति घर आए तो सब कुछ व्यवस्थित लगे. शाम को बच्चों को खुद पढ़ाना. अगर पति कभी पढ़ाने लगें तो पढ़ाने पर कम पिटाई पर ज्यादा ध्यान देते हैं.

अत्यधिक अपेक्षा

पति महोदय किसी भी हालत में सुबह 7 बजे से पहले नहीं उठते हैं. वजह वही दंभ कि मैं कमाता हूं. मुझ पर काम का बोझ है. सुबह पहले उठना और रात सब से बाद में सोना प्रतिमा की दिनचर्या है. उस पर पति आए दिन उस के काम में मीनमेख निकालते रहते हैं. उस की हालत यह है कि दिन भर खटने के बाद जैसे ही शाम पति के आने की आहट होती है वह सहम जाती है कि क्या पता आज किस काम में नुक्स निकालेंगे? पति महोदय आते ही बरस पड़ते हैं, ‘‘तुम दिन भर करती क्या हो? बच्चों के कपड़े बिस्तर पर पड़े हैं. अलमारी खुली हुई है. आज सब्जी में ज्यादा नमक डाल दिया था. मन किया फेंक दूं.’’

सुन कर प्रतिमा का मन कसैला हो गया. यह रोजाना का किस्सा था. कल अलमारी बंद थी. आज नहीं कर सकी, क्योंकि उसी समय पड़ोसिन आ गई थी. ध्यान उधर बंट गया. बच्चे की कमीज का बटन निकल गया था. उसे लगाने के लिए उस ने उसे बिस्तर पर रखा था. अब कौन सफाई दे. सफाई देतेदेते शादी के 10 साल गुजर गए, पर पति की आदतों में कोई सुधार नहीं आया. कभीकभी प्रतिभा की आंखें भीग जातीं कि उस की भावनाओं से पति को कुछ लेनादेना नहीं. उन्हें तो सब कुछ परफैक्ट चाहिए.

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पति की तानाशाही

सवाल उठता है कि परफैक्ट की परिभाषा क्या है? सब्जी में नमक कम है या ज्यादा कैसे परफैक्ट माना जाएगा? हो सकता है कि जितना नमक पति को पसंद हो उतना प्रतिमा को नहीं. प्रतिमा ही क्यों उस के घर आने वाले हर मेहमान को प्रतिमा का बनाया खाना बेहद पसंद आता है. ऐसे में पति की परफैक्शन की परिभाषा को किस रूप में लिया जाए? क्या यह पति की तानाशाही नहीं कि जो वे कह रहे हैं वही परफैक्ट है?

नुक्स निकालने की आदत एक मनोविकार है. मेरी एक परिचिता हैं. वे भी ऐसे ही मनोविकार से ग्रस्त हैं. चैन से बैठने की उन की आदत ही नहीं है. जहां भी जाएंगी सिवा नुक्स के उन्हें कुछ नहीं दिखता. नजरें टिकेंगी तो सिर्फ नुक्स पर. किसी की आईब्रो में ऐब नजर आएगा, तो किसी की लिपस्टिक फैली नजर आएगी. किसी की साड़ी पर कमैंट करेंगी. हर आदमी एक जैसा नहीं होता. बेशक प्रतिमा के पति को सब कुछ परफैक्ट चाहिए परंतु उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि अकेली प्रतिमा से चूक हो सकती है. इस का मतलब यह नहीं कि उसे डांटाफटकारा जाए. औफिस और घर में फर्क होता है. औफिस में सफाई के लिए कर्मचारी रखे जाते हैं. मगर घर में पत्नी के हिस्से तरहतरह के काम होते हैं. हर काम में वह समान रुचि दिखाए, यह संभव नहीं. इसलिए परफैक्शन के लिए पति का भी कर्तव्य होता है कि पत्नी के काम में हाथ बंटाए.

कलह की शुरुआत

किसी भी चीज की अति बुरी होती है. परफैक्शन के चलते घरघर नहीं, बल्कि जेलखाना बन जाता है. ऐसे लोगों के घर जल्दी कोई जाता नहीं. अगर पत्नी के मायके के लोग चले आएं, तो पति महोदय सामने तो कुछ नहीं कहेंगे, पर उन के जाते ही उलाहना देना शुरू कर देंगे, ‘‘तुम्हारे भाईबहनों को तमीज नहीं है. दो कौड़ी की मिठाई उठा लाए थे.’’ मायके के सवाल पर हर स्त्री आगबबूला हो जाती है. हंसमुख स्वभाव की प्रतिमा की भी त्योरियां चढ़ जातीं. फिर शुरू होती कलह.

नुक्स के चलते पति से मिली लताड़ का गुस्सा पत्नियां अपने बच्चों पर निकालती हैं. वे अकारण उन्हें पीटती हैं, जिस से बच्चों की परवरिश पर बुरा प्रभाव पड़ता है. धीरेधीरे पत्नी के स्वभाव में चिड़चिड़ापन भी आ जाता है. वह अपनी खूबियां भूलने लगती है. प्राय: ऐसी औरतें डिप्रैशन की शिकार होती हैं, जो घरपरिवार के लिए घातक होता है. क्या पति महोदय इस बारे में सोचेंगे? पति के नुक्स निकालने की आदत की वजह से जब कभी प्रतिमा मायके आती है, तो ससुराल जाने का नाम नहीं लेती. जाएगी तो फिर उसी दिनचर्या से रूबरू होना पड़ेगा. जब तक पति औफिस नहीं चले जाते तब तक उस का जीना हराम किए रहते हैं. वह बेचारी दिन भर घर समेटने में जुटी रहती है ताकि पति को शिकायत का मौका न मिले. मगर पति महोदय तो दूसरी मिट्टी के बने हैं. शाम घर में घुसते ही नुक्सों की बौछार कर देंगे.

समझौता करना ही पड़ता है

नुक्स निकालने वाले व्यवहारकुशल नहीं होते. उन के शुभचिंतक न के बराबर होते हैं. नकारात्मक सोच के चलते वे सभी में अलोकप्रिय होते हैं. माना कि पति महोदय परफैक्ट हैं, तो क्या बाकी लोग अयोग्य और नकारा हैं? प्रतिमा की बहन एम.एससी. है. स्कूल में पढ़ाती है. अच्छाखासा कमाती है. वहीं उस के पति भी सरकारी कर्मचारी हैं. घर जाएं तो कुछ भी सिस्टेमैटिक नहीं मिलेगा. तो भी दोनों को एकदूसरे से शिकायत नहीं है. वे लोग सिर्फ काम की प्राथमिकता पर ध्यान देते हैं. जो जरूरी होता है उस पर ही सोचते हैं. रही घर को ठीकठाक रखने की बात तो वह समय पर निर्भर करता है. काम में परफैक्शन होना अच्छी बात है. मगर इस में टौर्चर करने वाली बात न हो. जरूरी नहीं कि हर कोई हमारी सोच का ही हो खासतौर पर पतिपत्नी का संबंध. समझौता करना ही पड़ता है. प्रतिमा साड़ी का पल्लू कैसे ले, यह उस का विषय है. वह किसी से कैसे बोलेबतियाए यह उस पर निर्भर करता है. पति महोदय अपने हाथों जूतों पर पौलिश तक नहीं करते. यह काम भी प्रतिमा को ही करना पड़ता है. उस में भी नुक्स कि तुम ने ठीक से चमकाए नहीं. प्राय: यह काम पति खुद करता है.

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पत्नी ही क्यों पति को अपने बच्चों की आदतों में भी हजार ऐब नजर आते हैं. पति को पत्नी के हर काम में टोकाटाकी से बाज आना चाहिए वरना पत्नी, बच्चों में आत्मविश्वास की कमी हो जाती है. उन्हें हमेशा भय रहता है कि वे कुछ गलत तो नहीं कर रहे हैं?

क्या पति के काम में नुक्स नहीं निकाला जा सकता? खुद उन का बौस उन के काम में नुक्स निकालता होगा. पति इसलिए चुप रहते होंगे कि उन्हें नौकरी करनी है. ऐसे ही प्रतिमा चुप इसलिए रहती है कि उसे कमाऊ पति के साथ जीवन गुजारना है.

खुद पहल करें

मिस्टर परफैक्शनिस्ट के नाम से मशहूर आमिर खान की फिल्म ‘धोबीघाट’ असफल रही. गलतियां वही करता है, जो काम करता है. खाना खाते समय चावल का दाना गिर जाए इस का मतलब यह नहीं कि उसे खाना खाने का तरीका नहीं आता. नुक्स निकालने वाले पति अगर खाने पर साथ बैठेंगे तो चैन से खाना भी नहीं खाने देंगे. कभी ठीक से कौर न उठाने के लिए टोकेंगे, तो कभी पानी का गिलास न होने पर टोकेंगे. वे खुद पानी का गिलास रख कर पत्नी का काम हलका नहीं करेंगे. गृहस्थ जीवन में यह सब होना आम बात है. इसे नुक्स नहीं समझना चाहिए. एक औरत किसकिस पर ध्यान दे? कमी रह ही जाती है. फिर हर आदमी एक जैसा नहीं होता. अगर हमें गृहस्थ जीवन में कुछ खास चाहिए, तो खुद पहल करनी होगी. पत्नी को मुहरा बना कर उसे डांटनाडपटना खुदगर्जी है. पतियों को यह सोचना चाहिए.

दोस्ती का एक रिश्ता ऐसा भी

मेरी सहेली रागिनी मेरे घर आई हुई थी. अभी कुछ ही देर हुई होगी कि मेरी बेटी का फोन आ गया. मैं रागिनी को चाय पीने का इशारा कर बेटी के साथ तन्मयता से बातें करने लगी. हर दिन की ही तरह बेटी ने अपने दफ्तर की बातें, दोस्तों की बातें बताते, घर जा कर क्या पकाएगी इस का मेन्यू और तरीका डिस्कस करते हुए मेरा, अपने पापा, नानानानी सहित सब का हालचाल ले फोन रखा.

जैसे ही मैं ने फोन रखा कि रागिनी बोल पड़ी, ‘‘तुम्हारी बेटी तुम से कितनी बातें करती है. मेरे बेटे तो कईकई दिनों तक फोन नहीं करते हैं. मैं करती हूं तो भी हूंहां कर संक्षिप्त सा उत्तर दे कर फोन औफ कर देते हैं. लड़की है न इसलिए इतनी बातें करती है.’’

मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. मेरा बेटा भी तो होस्टल में रह कर पढ़ रहा है. वह भी अपनी दिन भर की बातें, पढ़ाईलिखाई के अलावा अपने दोस्तों के विषय में और अपने कैंपस में होने वाली गतिविधियों की भी जानकारी देता है. सच पूछो तो रागिनी मुझे या मेरे बच्चों को आपस में बातें करने के लिए टौपिक नहीं तलाशने होते हैं.’’

मैं रागिनी के अकेलेपन और उदासी का कारण समझ रही थी. बच्चे तो उस के भी बाहर चले गए थे पर उस का अपने बच्चों के साथ संप्रेषण का  स्तर बेहद बुरा था. उसे पता ही नहीं रहता कि उस के बच्चों के जीवन में क्या चल रहा है. बेटे उदास हैं या खुश उसे यह भी नहीं पता चल पाता. कई बार तो वह, ‘‘बेटा खाना खाया? क्या खाया?’’ से अधिक बातें कर ही नहीं पाती थी.

मैं रागिनी को बरसों से जानती हूं, तब से जब हमारे बच्चे छोटे थे. मैं जब भी रागिनी के घर जाती, देखती कि वह या तो किसी से फोन पर बातें कर रही होती या फिर कान में इयरफोन लगा अपना काम कर रही होती. उस के घर दिन भर टीवी चलता रहता था. बच्चे लगातार घंटों कार्टून चैनल देखते रहते. रागिनी या उस के पति का भी पसंदीदा टाइम पास टीवी देखना ही था. अब जब बच्चों ने बचपन में दिन का अधिकांश वक्त मातापिता से बातें किए बगैर ही बिताया था तो अचानक उन्हें सपना तो नहीं आएगा कि मातापिता से भी दिल की बातें की जा सकती हैं.

जैसा चाहे ढाल लें

वाकई यह मातापिता के लिए एक बड़ी चुनौती है कि वे अपने बच्चों के वक्त को, उन के बचपन को किस दिशा में खर्च कर रहे हैं. बच्चे तो गीली मिट्टी की तरह होते हैं. उस गीली मिट्टी को अच्छे आचारव्यवहार और समझदारी की धीमी आंच में पका कर ही एक इनसान बनाया जाता है. जन्म के पहलेदूसरे महीने से शिशु अपनी मां की आवाज को पहचानने लगता है. एक तरह से बच्चा गर्भ से ही अपने मातापिता की आवाज को सुननेसमझने लगता है. इसलिए बच्चों के सामने हमेशा अच्छीअच्छी बातें करें. अनगढ़ गीली मिट्टी के बने बाल मानस को आप जैसे चाहें ढाल लें.

बाल मनोचिकित्सक मौलिक्का शर्मा बताती हैं कि जो मातापिता अपने बच्चों से शुरुआत से ही खूब बतियाते हैं, हंसते हैं हंसाते हैं, अपनी रोजमर्रा की छोटीछोटी बातें भी शेयर करते हैं, उन के बच्चों को भी आदत हो जाती है अपने मातापिता से सारी बातें शेयर करने की. और फिर यह सिलसिला बाद की जिंदगी में भी चलता रहता है. लाख व्यस्तताओं के बीच अन्य दूसरे जरूरी कामों के साथ बच्चे अपने मातापिता से जरूर बतिया लेते हैं.

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संयुक्त परिवारों में बच्चों से बातें करने, उन्हें सुनने वाले कई लोग होते हैं मातापिता से इतर, इस के विपरीत एकल परिवारों में मातापिता दोनों  अपनेअपने काम से थके होने के चलते बच्चों को क्वालिटी टाइम नहीं दे पाते हैं बातचीत करनी तो दूर की बात है.

माता पिता से सीखते हैं बच्चे

होली फैमिली हौस्पिटल, बांद्रा, मुंबई के चाइल्ड साइकोलौजिस्ट डाक्टर अरमान का कहना है कि अपने बच्चों के बचपन को सकारात्मक दिशा में खर्च करना मातापिता का प्रथम कर्तव्य है. अकसर घरों में बच्चों को टीवी के सामने बैठा दिया जाता है, खानापीना खाते हुए वे घंटों कार्टून देखते रहते हैं. खुद मोबाइल, कंप्यूटर या किसी भी अन्य चीज में व्यस्त हो जाते हैं. इस दिनचर्या में बेहद औपचारिक बातों के अलावा मातापिता बच्चों से बातें नहीं करते हैं.

बच्चों के सामने बातें करना मानो आईने के समक्ष बोलना है, क्योंकि आप के बोलने की लय, स्वर, लहजा, भाषा वे सब सीखते हैं. बातचीत के वे ही पल होते हैं जब आप अपने अनुभव और विचारों से उन्हें अवगत करते हैं, अपनी सोच उन में रोपित करते हैं. जैसा इनसान उन्हें बनाना चाहते हैं वैसे भाव उन में भरते हैं.

आप जब बूढ़े हो जाएं तब भी आप के बच्चे आप से बातें करने को लालायित रहें तो इस के लिए आप को इन बातों पर अमल करना होगा:

– छोटे बच्चों को खिलातेपिलाते, मालिश करते, नहलाते यानी जब तक वह जगा रहे उस के साथ कुछ न कुछ बोलते रहें. ऐसे बच्चे जल्दी बोलना भी शुरू करते हैं.

– थोड़ा बड़ा होने पर गीत और कहानी सुनाने की आदत डालें. इस से कुछ ही वर्षों में बच्चे पठन के लिए प्रेरित होंगे. उन्हें रंगबिरंगी किताबों से लुभाएं और किताबों से दोस्ती कराने की भरसक कोशिश करें.

– टीवी चलाने के घंटे और प्रोग्राम तय करें. अनर्गल, अनगिनत वक्त तक न आप टीवी देखें और न ही बच्चों को देखने दें. यदि आप अपने मन को थोड़ा साध लेते हैं, तो यकीन मानिए आप स्वअनुशासन का एक बेहतरीन पाठ अपने बच्चों को पढ़ा देंगे.

– अपने संप्रेषण के जरीए आप छोटे बच्चों में कई अच्छे संस्कार रोपित कर सकते हैं जैसे  देश प्रेम, स्वच्छता, सच बोलना, लड़की को इज्जत देना इत्यादि. आज का आप के द्वारा रोपित बीजरूपेण संस्कार के वटवृक्ष के तले भविष्य में समाज और देश खुशहाल होगा.

– यदि छोटा बच्चा कुछ बोलता है, तो उसे ध्यान से सुनें. कई बार मातापिता बच्चों की बातों को अनसुनी करते हुए अपनी धुन में रहते हैं. अपने बच्चों की बातों को तवज्जो दें. उन्हें यह महसूस होना चाहिए कि आप उन की बातों को हमेशा ध्यान से सुनेंगे चाहे कोई और सुने या नहीं.

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– लगातार संप्रेषण से ही आप बच्चे में किसी भी तरह की आ रही तबदीलियों को भांप सकेंगे. ठीक इसी तरह जब आप से अलग वह रहेगा/रहेगी तो आप की अनकही बातों को वह महसूस कर लेगा. मेरी बेटी हजारों मील दूर फोन पर मेरी आवाज से समझ जाती है कि मैं बीमार हूं, दुखी हूं या उस से कुछ छिपा रही हूं.

– बच्चों के संग बोलतेबतियाते आप दुनियादारी की कई बातें उन्हें सिखा सकते हैं. एकल परिवार में रहने वाला बच्चा भी इसी जरीए रिश्तों और समाज के तौरतरीकों से वाकिफ होता है. यदि बच्चे आप से पूरी तरह खुले रहेंगे तो आप उन्हें बैड टच गुड टच और सैक्स संबंधित ज्ञान भी आसानी से दे सकेंगे.

– सिर्फ छुट्टियों में बात करने या वक्त देने वाली सोच से आप बच्चों के कई हावभावों से अनभिज्ञ रह जाते हैं. परीक्षा की घड़ी हो या पहले प्यार का पल युवा होते बच्चे अपनी बचपन की आदतानुसार आप से शेयर करते रहेंगे. फिर दुनिया में आप से बेहतर काउंसलर उन के लिए कोई नहीं होगा.

– यकीन मानिए अपने बच्चों से बेहतर मित्र दुनिया में कोई नहीं होता है. संप्रेषण वह पुल होता है, जो आप को अपने बच्चों से जोड़े रखता है ताउम्र.

जब पत्नी हो कमाऊ

आजकल के विवाह विज्ञापनों से पता चलता है कि नौजवान कमाऊ पत्नी ही चाहते हैं. ऐसे लोग पतिपत्नी की कमाई से शादी के बाद जल्दी साधनसंपन्न होना चाहते हैं. अगर कमाऊ लड़की को शादी करने के बाद अपने पति के परिवार के सदस्यों के साथ रहना पड़े तो संयुक्त परिवार के सभी सदस्यों के विचार और धारणाएं अलगअलग होने की वजह से उस को नए माहौल में ढलना पड़ता है. वह स्वावलंबी होने के साथसाथ अगर स्वतंत्रतापसंद होगी, तो उसे जीवन में नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. कुछ परिवारों में सभी कमाऊ सदस्य अपनीअपनी कमाई घर के मुखिया को सौंपते हैं. मुखिया घरेलू खर्च को वहन करता है. ऐसी स्थिति में कमाऊ नववधू को भी अपनी पूरी कमाई घर के मुखिया को सौंपनी पड़ेगी. लेकिन स्वतंत्र स्वभाव वाली युवती ऐसा नहीं करना चाहेगी. उस अवस्था में नववधू और परिवार के सदस्यों के बीच मनमुटाव पैदा होगा. पति और पत्नी के बीच मनमुटाव भी हो सकता है, जो उन के जीवन में जहर घोल देगा. ऐसे जहर को विवाहविच्छेद में परिवर्तित होते देखा गया है.

क्या करे पति

अगर परिवार वाले अपनी कमाऊ बहू से उस की कमाई नहीं लेते तो कमाऊ नववधू खुश रहती है और स्वतंत्ररूप से अपने दोस्तों के साथ घूमती है. अगर पतिपत्नी के विचारों में समन्वय होता है तब तक जीवन की गाड़ी ठीक चलती है, लेकिन अगर कहीं पति अपनी पत्नी को शक की निगाह से देखने लगे तो समस्या गंभीर बन जाती है. शादी के पहले कोई लड़का अपनी होने वाली कमाऊ पत्नी से नहीं पूछता कि वह अपनी कमाई उसे देगी या नहीं. अगर पूछ ले तो शादी के बाद कोई समस्या खड़ी न हो. एक प्राचार्य ने एक लैक्चरर से शादी की. प्राचार्य की इतनी कमाई थी कि घर का खर्च आराम से चलता था. ऐसी स्थिति में लैक्चरर पत्नी ने अपनी कमाई अपने पति को नहीं दी और कहा कि घर का खर्च तो आराम से चल ही रहा है. धीरेधीरे प्राचार्य को शक होने लगा कि उस की पत्नी अपने साथियों को खिलानेपिलाने में खर्च कर रही है और उसे एक नया पैसा नहीं दे रही है. अत: धीरेधीरे मनमुटाव ने विकराल रूप धारण कर लिया और उन दोनों में विवाहविच्छेद हो गया.

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ऐसा भी होता है

कुछ गुलछर्रे उड़ाने के लिए ही कमाऊ पत्नी चाहते हैं. ऐसे लड़के अपनी कमाई और अपनी बीवी की कमाई को मिला कर ऐशोआराम की जिंदगी जीना चाहते हैं. शादी के पहले ऐसे लड़कों का पता नहीं चलता. लेकिन शादी के बाद वे गुल खिलाने लगते हैं. कई बार तो अपनी बीवी की कमाई भी उन के लिए कम पड़ने लगती है. पतिपत्नी के बीच पैसों के लिए झगड़ा होने लगता है. कुछ अधिक संपन्न लड़कियां स्त्रीशासित परिवार बनाने के लिए अपने से कमाई में कमजोर पर प्रसिद्ध पुरुषों को उन की पत्नी से तलाक दिला कर शादियां करती हैं ताकि ऐसा पुरुष उन का जीवन भर कहना मानता रहे. ऐसी लड़कियां दकियानूसी परिवार के सदस्यों के साथ समझौता नहीं कर सकतीं.

होना क्या चाहिए

कमाऊ बहू या तो परिवार के सदस्यों की भावनाओं से समझौता करे या शांति से पतिपत्नी अपने परिवार से अलग रहें. इतना ही नहीं पुरुषशासित समाज में जहां पुरुषों की चलती है वहां कमाऊ बहू नाराज रहेगी इसलिए समाज के बदलते आयाम में कमाऊ बहू को घर के सभी आर्थिक खर्चों में राय देने का अधिकार होना चाहिए. आजकल पति और पत्नी को समान अधिकार है, इसलिए दोनों को अपने परिवार के माहौल में मिलजुल कर रहना चाहिए अन्यथा पारिवारिक परिवेश में अशांति रहेगी. 

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जब बच्चे करें वयस्क सवाल

बहुत से बच्चे अभिभावकों से पूछते हैं, ‘मम्मी मैं कहां से आया’, ‘सैक्स क्या होता है?’ कल तक परियों व राजाओं की कहानियां सुनने वाले बच्चों के मुंह से ये सवाल सुन कर अभिभावक परेशान हो जाते हैं. जब मम्मी को नहीं सूझता कि वह इन सवालों के क्या जवाब दे या बच्चों को कैसे समझाए, तो वह उन्हें अभी आप छोटे हो कह कर या फिर डांट कर चुप करा देती है. मगर इस बारे में दिल्ली के अपोलो हौस्पिटल की चाइल्ड स्पैशलिस्ट डाक्टर रोशनी मेहता का कहना है कि बच्चों के ऐसे सवाल जिन के जवाब देने में आप सहज महसूस नहीं कर रही हैं, तो अभी आप की यह जानने की उम्र नहीं है, बड़े होगे तो खुद ही समझ जाओगे जैसे जवाब दे कर टालें नहीं, क्योंकि संचार क्रांति के युग के बच्चे इस से संतुष्ट नहीं होंगे.

अगर आप बात नहीं करेंगी तो वे इस की जानकारी अन्य माध्यमों, जैसे अपने दोस्तों, मीडिया, इंटरनैट या अन्य संचार माध्यमों से लेंगे. ऐसे में संभव है कि उन्हें सही जानकारी न मिले और उन के मन में यह बात बैठ जाए कि सैक्स एक ऐसा विषय है, जिस पर सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं की जाती है. यह वर्जित विषय है. इस से बेहतर है कि हम उन्हें घुमाफिरा कर, लेकिन सरल भाषा में जवाब दें.

जैसेकि 3-4 साल की उम्र का बच्चा यह पूछ सकता है कि उस के पास पेनिस है. लड़कियों के पास यह क्यों नहीं है? ध्यान रहे कि यह शरीर के अंगों के बारे में जानने की बच्चों की सहज और सामान्य उत्सुकता है, इसलिए मातापिता को चाहिए कि अपनी क्षमता के अनुसार वे बच्चे को भरसक संतुष्ट करने की कोशिश करें.

जैसे मातापिता अपनी स्थानीय भाषा में बच्चे को शरीर के हिस्सों के बारे में बताएं. लेकिन देरसवेर उन्हें बताना पड़ेगा कि लड़के के प्राइवेट पार्ट को पेनिस कहते हैं और लड़कियों के प्राइवेट पार्ट को वैजाइना. इस तरह बच्चे के मन में यह विश्वास जगाएं कि उस के सवालों के लिए आप हमेशा तैयार हैं. अगर उस के मन में कोई शंका है तो आप उस का निवारण करेंगे.

आइए जानें कुछ ऐसे ही सवाल और उन के जवाब जिन्हें बच्चों के लिए जानना जरूरी है ताकि वे जिम्मेदारी के साथ विकसित हों और साथ ही अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम.

4 से 9 साल के बच्चों के सवाल

मम्मी मैं कहां से आया?

यह सवाल इस उम्र के हर बच्चे के मन में उठना स्वाभाविक है और अगर पूछे जाने पर आप उसे सही जवाब नहीं देंगे और डांट देंगे तो यह गलत बात होगी. बच्चे से यह भी न कहें कि तुम भगवान या बाबा के घर से आए हो, बल्कि उसे सच बताएं. वरना बच्चा बचपन से अंधविश्वासी बन जाएगा और उसे लगेगा कि हर चीज भगवान के घर से मंगवाई जा सकती है. बच्चे इस उम्र में जानवरों या फूलपौधों के उदाहरणों से हर बात अच्छी तरह समझ जाते हैं, इसलिए उन के सवालों के जवाब उन्हें उन की इसी भाषा में समझाएं. फूलों का उदाहरण दे कर उन्हें बताएं कि वे कैसे पैदा होते हैं और फिर मां के शरीर से अलग हो कर कैसे अपनी बढ़ोतरी करते हैं. उन से यह भी कह सकते हैं कि मां के शरीर में एक खास अंग गर्भाशय होता है जहां से तुम आए हो. उन्हें जन्म की पूरी प्रक्रिया बिताने की जरूरत नहीं है.

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सैक्स क्या होता है?

इस सवाल के जवाब में कहा जा सकता है कि मम्मी और पापा एकदूसरे से खास तरह से प्यार करते हैं, जिसे सैक्स कहते हैं.

भैया और मेरे प्राइवेट पार्ट्स अलग क्यों हैं?

बच्ची को बताएं कि जिस तरह कुत्ते, हाथी, घोड़े, गाय इन सभी की शारीरिक बनावट अलगअलग होती है, उसी तरह लड़के और लड़की के शरीर की बनावट और उन के अंग भी अलगअलग होते हैं.

सैनिटरी नैपकिन क्या होता है?

टीवी में विज्ञापन देख कर यह सवाल बच्चे अकसर पूछते हैं? इस सवाल का घबरा कर उलटासीधा जवाब न दें, बल्कि उन्हें समझाएं कि जिस तरह नाक व हाथ पोंछने के लिए मम्मा तुम्हें नैपकिन देती हैं उसी तरह के ये नैपकिन भी हैं. बस फर्क इतना है कि ये नैपकिन सिर्फ प्राइवेट पार्ट्स पोंछने के लिए होते हैं और इन का इस्तेमाल बड़े होने पर किया जाता है. ये बच्चों के लिए नहीं होते. जिस तरह मम्मा और बच्चों के कपड़े और रूमाल अलगअलग होते हैं उसी तरह बच्चों और बड़ों के नैपकिन भी अलगअलग होते हैं.

कंडोम क्या होता है?

टीवी में विज्ञापन देख कर बच्चे यह सवाल भी पूछते हैं. इस स्थिति में बच्चे से कुछ छिपाएं नहीं, बल्कि बताएं कि जिस तरह हाथों को किसी बीमारी से बचाने के लिए हम दस्ताने पहन लेते हैं उसी तरह कंडोम भी एक तरह का दस्ताना ही होता है, जो पुरुषों को बीमारियों से बचाता है. हां, अगर बच्चा 10 साल से बड़ा है, तो उसे बता सकते हैं कि कंडोम सैक्स के दौरान पुरुषों को बीमारियों से बचाता है.

10-15 साल के बच्चों के सवाल

मेरी मूंछें और प्राइवेट पार्ट्स पर बाल क्यों आ रहे हैं? मेरी आवाज क्यों बदल रही है?

सब से पहले तो बच्चों को इस बात का विश्वास दिलाएं कि आवाज बदलना, मुंहासे होना, दाढ़ी आना आदि आम बात है. उन्हें कोई बीमारी नहीं है, बल्कि यह किशोरावस्था की सामान्य प्रक्रिया है. उन्हें तो खुश होना चाहिए कि वे बड़े हो रहे हैं. उन्हें बताएं कि आप भी ऐसे ही बड़े हुए थे. यह बदलाव लड़कों और लड़कियों में अलगअलग हो सकते हैं, इसलिए एकदूसरे के बदलाव को देख कर कन्फ्यूज न हों.

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पीरियड्स क्या होते हैं?

पीरियड्स के बारे में हर मां को अपनी बेटी के पूछने से पहले ही बता देना चाहिए. 10 साल की उम्र में लड़की के पहुंचते ही उसे इस बारे में बता देना चाहिए. अगर उसे कहीं बाहर से पता चलेगा तो वह परेशान हो जाएगी. इसलिए बेटी को बताएं कि यह सामान्य प्रक्रिया है. हर लड़की को इस से गुजरना पड़ता है. आप उसे अपने पहले अनुभव के बारे में भी बताएं कि आप को भी दर्द हुआ था, पर धीरेधीरे आदत हो गई. इस समय की जाने वाली साफसफाई और अन्य बातें भी बेटी को समझाएं ताकि उसे कोई परेशानी न हो.

नाइटफाल क्या होता है?

बच्चे के इस तरह के सवाल पर सकपकाएं नहीं, क्योंकि हो सकता है कि वह इस उम्र से गुजर रहा हो, इसलिए उसे समझाएं कि यह बिलकुल नौर्मल बात है. जिस तरह हमारे शरीर में टौयलेट बनता रहता है और निकलता रहता है उसी तरह लड़कों के शरीर में हर वक्त सीमन बनता रहता है और जब यह ज्यादा इकट्ठा हो जाता है तो सोते वक्त निकल जाता है. इस में कुछ गलत नहीं है. इस से घबराएं नहीं.

मास्टरबेशन क्या होता है?

सीमन को जब खुद अपने प्राइवेट पार्ट को टच कर के निकाला जाता है तो उसे मास्टरबेशन कहते हैं. ऐसा करने पर शरीर में कोई कमजोरी नहीं आती है. हां, अति हर चीज की बुरी होती है. इसलिए अपना ध्यान पढ़ाई अथवा अन्य गतिविधियों में लगाएं. छोटे बच्चे को यह भी बताना जरूरी है कि शरीर के जो अंग ढके रहते हैं उन्हें छूने का हक सिर्फ मां को है. मां नहलाते वक्त ऐसा कर सकती है या फिर डाक्टर कर सकता है. लेकिन अगर इस के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा करता है फिर चाहे वह व्यक्ति आप के दादा, मामा, भाई ही क्यों न हो और यह कहता हो कि किसी को मत बताना तो तुम्हें यह बात अपने मम्मीपापा को जरूर बतानी चाहिए. बच्चे को यह भी सिखाइए कि अगर कोई उस के प्राइवेट पार्ट्स को छूने की कोशिश करता है तो उसे क्या करना चाहिए. आप उसे सिखा सकती हैं कि ऐसा होने पर वह यह कहे कि मुझे हाथ मत लगाना वरना मैं तुम्हारी शिकायत कर दूंगा या दूंगी. बच्चे को बताइए कि वह शिकायत करने से न डरे भले ही वह व्यक्ति डराएधमकाए.

रेप क्या होता है? अगर वह यह पूछे तो रेप शब्द को समझाने के लिए कहें कि जिस तरह आप अपनी गुडि़या को किसी दूसरे को छूने नहीं देतीं, वह आप की है, उसे प्यार करने का हक सिर्फ आप का है, उसी तरह आप हमारी गुडि़या हो. आप को सिर्फ मम्मापापा, दादादादी ही प्यार कर सकते हैं. यदि कोई अनजान व्यक्ति इस तरह छूता है या जानपहचान का व्यक्ति भी इस तरह छुए जो आप को खराब लगे तो उस जबरदस्ती और अच्छा न लगने वाले व्यवहार को रेप कह सकते हैं.

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जानें कैसी हो इकलौते की परवरिश

आस्ट्रेलिया के मोनाश और क्लेयटन विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिकों द्वारा हाल में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक इकलौते बच्चे दूसरे बच्चों के मुकाबले 16% कम जोखिम उठाना पसंद करते हैं. साथ ही उन में स्वार्थ की भावना भी ज्यादा होती है. यह निष्कर्ष चीन में 1979 में ‘एक परिवार एक ही बच्चा’ की नीति लागू होने के पहले और उस के बाद के वर्षों में पैदा हुए बच्चों का आपसी तुलनात्मक अध्ययन कर के निकाला गया है. इकलौते बच्चों को परिवार में बेहद लाड़प्यार मिलता है, जिस की वजह से उन में बादशाही जिंदगी जीने की आदत पड़ सकती है. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. वे स्वार्थी तो होते ही हैं, भाईबहनों के अभाव की वजह से बचपन से इन में प्रतियोगी भावना की कमी पाई जाती है. यही नहीं यूरोप में किए गए एक शोध के मुताबिक इकलौती संतान के मोटे होने की संभावना भी भाईबहन वाले बच्चों की तुलना में 50% अधिक होती है. यह निष्कर्ष यूरोप के 8 देशों के 12,700 बच्चों पर किए गए एक सर्वेक्षण में सामने आया.

ऐसे बच्चे अन्य बच्चों की तरह घर से बाहर निकल कर कम खेलते हैं और टीवी देखने के ज्यादा आदी होते हैं. वे खानेपीने में भी मनमानी करते हैं. मांबाप प्यारदुलार में उन की हर मांग पूरी करते जाते हैं. इन वजहों से उन में मोटे होने की संभावना ज्यादा पाई जाती है.

एकल परिवार

आज के संदर्भ में देखा जाए तो इस तरह के शोधों और उन से निकाले गए निष्कर्षों पर गौर करना लाजिम है. आज बढ़ती महंगाई और बदलती जीवनशैली ने सामाजिक संरचना में परिवर्तन ला दिया है. संयुक्त परिवारों के बजाय अब एकल परिवारों को प्रमुखता मिल रही है. पतिपत्नी दोनों कामकाजी हैं. पत्नी को घर के साथ दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है. ऐसे में कभी परिस्थितिवश तो कभी सोचसमझ कर लोग एक ही बच्चे पर परिवार सीमित करने का फैसला ले लेते हैं. हाल ही में भारत में एक मैट्रिमोनियल साइट (शादी.कौम) द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक महिलाओं की तुलना में पुरुष एक से अधिक बच्चों की इच्छा अधिक रखते हैं. सर्वे में जहां 62% पुरुषों ने एक से ज्यादा बच्चों की जरूरत पर बल दिया, वहीं सिर्फ 38% महिलाओं ने ही इस में रुचि दिखाई.

दरअसल, पुरुष सोचते हैं कि बच्चे उन के जीवन के केंद्र हैं और एक सफल शादी के सूचक हैं, इसलिए वे ज्यादा बच्चे पसंद करते हैं. इस के विपरीत महिलाएं, जिन्हें मूल रूप से बच्चों के देखभाल की पूरी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है, कम बच्चे चाहती हैं. मैट्रोज के कपल्स पर आधारित इस सर्वे में पाया गया कि 42% मैरिड कपल्स के पास सिंगल चाइल्ड थे, जबकि 28% मैरिड कपल्स के 1 से ज्यादा बच्चे थे. इस सर्वे में एक दिलचस्प बात यह भी सामने आई कि लव मैरिज करने वाले कपल्स सिंगल चाइल्ड तो अरैंज मैरिज वाले कपल्स 1 से ज्यादा बच्चे पसंद करते हैं. लव मैरिज करने वाले कपल्स में से 49% ने सिंगल चाइल्ड की इच्छा जताई, जब कि अरैंज मैरिज करने वाले कपल्स में से 62% एक से अधिक बच्चों के ख्वाहिशमंद थे, क्योंकि वे बेटा और बेटी दोनों ही चाहते थे.

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सोच में बदलाव

इस संदर्भ में मैट्रो हौस्पिटल की कंसल्टैंट साइके्रटिस्ट, अवनि तिवारी कहती हैं कि आजकल की बढ़ती महंगाई और टूटते संयुक्त परिवारों की परंपरा ने लोगों की सोच में बदलाव पैदा किया है. अब लोग बच्चे को जन्म देने का फैसला बहुत सोचविचार कर लेते हैं, क्योंकि पतिपत्नी दोनों को अपना कैरियर भी देखना होता है. उधर घर में सास, मां, मौसी, बूआ आदि की कमी रहती है. ऐसे में सारी जिम्मेदारी स्वयं उठानी पड़ती है. फिर अधिक उम्र में विवाह की वजह से भी रिप्रोडक्टिव कैपिसिटी घट रही है. बड़े शहरों में रहने वाले ज्यादातर कपल्स किसी तरह एक बच्चा तो मैनेज कर लेते हैं, क्योंकि ऐसा उन्हें समाज के लोगों का मुंह बंद करने और खुद भी मांबाप बनने का आनंद उठाने के लिए जरूरी लगता है. पर दूसरे बच्चे की बात पर उन्हें सोचना पड़ता है. अकसर यह भी होता है कि एक पार्टनर यदि इच्छुक भी है, तो दूसरा बढ़ती जिम्मेदारियों और खर्चों का वास्ता दे कर दूसरे को चुप करा देता है. ऐसे घरों में अब चूंकि बच्चा इकलौता होता है तो मांबाप की सारी उम्मीदें उसी से जुड़ी होती हैं. उन के पास यह विकल्प नहीं होता कि चलो एक बच्चा डाक्टर बनना चाहता है तो कोई बात नहीं, दूसरा मेरी मरजी के मुताबिक इंजीनियर या वकील वगैरह बन जाएगा. पतिपत्नी की सारी उम्मीदों का केंद्र वह इकलौता बच्चा रहता है.

बच्चा सोचता है कि सब कुछ तो मेरा ही है. इस से उस में न तो प्रतियोगी भावना पैदा होती है और न ही वह अच्छा पीयर रिलेशनशिप यानी हमउम्र साथियों से दोस्ती ही डैवलप कर पाता है. यदि समय पर ध्यान न दिया जाए तो संभव है कि बच्चा आत्मकेंद्रित हो जाए. पर मांबाप बचपन से उस में सही संस्कार और सोच पैदा करें तो इस स्थिति से बचा जा सकता है. मांबाप को चाहिए कि वे बच्चे को रिश्तेदारों और पड़ोसियों के हमउम्र बच्चों के साथ मिक्सअप होना सिखाएं. उस के हाथ से दूसरों को चीजें दिलवाएं. बच्चे को अकेला न छोड़ें. बड़े भाईबहन के रहने से छोटा बच्चा अकसर सारे काम जल्दी सीख जाता है, क्योंकि बड़ा भाई/बहन उसे सब सिखाता जाता है. पर चूंकि यहां बच्चा अकेला है, तो मांबाप को ही यह भूमिका निभानी होगी. बच्चे के साथ बच्चा बन कर रहना होगा, उस के साथ खेलना होगा और उसे अच्छी आदतें सिखानी होंगी.

मिथक और वास्तविकताएं

वैसे यह कहना कि बच्चा इकलौता है तो वह हमेशा ही हठी, स्वार्थी या आत्मकेंद्रित होगा, जरूरी नहीं है. यह बात महत्त्वपूर्ण है कि उस की परवरिश कैसे की गई है. आप महात्मा गांधी, गौतम बुद्ध या फिर आइजैक न्यूटन का उदाहरण ले सकते हैं. ये भी इकलौते बच्चे थे पर मानवता और देशसेवा के नाम अपनी जिंदगी उत्सर्ग कर दी. दुनिया को नया ज्ञान दिया. बच्चे में आप शुरू से मिलजुल कर रहने और दूसरों के लिए परवाह करने की आदत डालें तो बड़े होने पर बच्चे का व्यक्तित्व संतुलित और उदात्त होगा. अकसर कहा जाता है कि अकेला बच्चा अकेलेपन का शिकार हो सकता है और आगे चल कर वह असामाजिक प्रवृत्ति का इंसान बनता है, पर यह भी जरूरी नहीं. ‘किंग औफ रौक ऐंड रौल’ कहे जाने वाले एल्विस प्रेश्ले को ही लीजिए. वे अपने असंख्य प्रशंसकों एवं दोस्तों के बीच काफी लोकप्रिय रहे. न सिर्फ गाने की वजह से वरन उदात्त और मिलनसार स्वभाव की वजह से भी. वे अपने दोस्तों की बहुत मदद करते थे और उन्हें हर तरह से सपोर्ट देते थे.

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रखें कुछ बातों का खयाल

  1. बच्चे से दोस्ताना व्यवहार करें. घर में उसे अकेला महसूस न होने दें.
  2. जब भी वक्त मिले, बच्चे के साथ क्वालिटी टाइम बिताएं. उसे अच्छी किताबें पढ़ने को दें.
  3. बच्चे को थोड़ा स्पेस भी दें. उस की जिंदगी में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप न करें.
  4. जब बच्चा भाईबहन न होने की शिकायत करे तो उसे समझाएं कि चचेरेममेरे भाई बहन भी उतने ही करीबी हो सकते हैं. उसे रिश्तेदारों के बच्चों से मिलाने ले जाएं. आसपास के बच्चों से दोस्ती करने को प्रेरित करें.
  5. बच्चे में स्कूल में दोस्तों और घर में रिश्तेदारों के बच्चों के साथ मिल कर रहने, अपनी चीजें शेयर करने और अच्छा बरताव करने की आदत डालें.
  6. बच्चे पर जरूरत से ज्यादा प्रैशर न डालें. अकेला बच्चा है तो आप उसे हर क्षेत्र में परफैक्ट देखना चाहेंगे. उस के जरीए अपना सपना पूरा करना चाहेंगे. पर ध्यान रखें, इस चक्कर में उस पर अनावश्यक दबाव न बनाएं. उसे अपना बचपन जीने दें.
  7. अपने बच्चे की केयर करने और उस की खुशियों की परवाह करने के साथ उसे अनुशासन में रहना भी सिखाएं. उस की हर जायज व नाजायज मांग पूरी न करें. उस की इच्छा का खयाल रखें. पर वह गलत बात की जिद करे तो मना करें.
  8. अपने बच्चे में अच्छे मानवीय गुणों, नैतिक मूल्यों और संस्कारों की नींव डालने का प्रयास करें.
  9. किसी भी चीज का सकारात्मक पक्ष देखने की आदत भी डालें.
  10. बच्चा आप के लिए अनमोल है पर उसे यह एहसास न दिलाएं कि वह दूसरों से बढ़ कर  है या उस की खुशी के लिए आप किसी भी हद तक जा सकते हैं. बच्चे को सामान्य जिंदगी जीने दें. उसे घमंडी या बदतमीज न बनाएं. कभीकभी उसे गलत काम करने पर डांटें और सजा भी दें.
  11. बच्चे में सदैव मखमली बिस्तर पर रहने की आदत न डालें. उस में अपना काम स्वयं करने की आदत बचपन से डालें. यही नहीं घरेलू कामों में भी उसे अपनी मदद के लिए बुलाएं. इस से जहां उसे काम में सहयोग देने की आदत पड़ेगी, वहीं आप के साथ अधिक वक्त बिताने का मौका भी मिलेगा.

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रूठों को मनाए Sorry

सीमा उदास बैठी थी. तभी उस के पति का फोन आया और उन्होंने उसे ‘सौरी’ कहा. सीमा का गुस्सा एक मिनट में शांत हो गया. दरअसल, सुबह सीमा का अपने पति से किसी बात पर झगड़ा हो गया था. गलती सीमा की नहीं थी, इसलिए वह उदास थी. लड़ाईझगड़े हर रिश्ते में होते हैं पर सौरी बोल कर उस झगड़े को खत्म कर के रिश्तों में आई कड़वाहट दूर की जा सकती है. यह इतनी छोटी सी बात है. लेकिन बच्चे तो क्या, बड़ों की समझ में भी यह बात न जाने क्यों नहीं आती.

हर रिश्ते में कभी न कभी मतभेद होता है. अच्छा और बुरा दोनों तरह का समय देखना पड़ता है. कभीकभी रिश्तों में अहंकार हावी हो जाता है और दिन में हुआ विवाद रात में खामोशी की चादर बन कर पसर जाता है. अपने साथी की पीड़ा और उस से नाराजगी के बाद जीवन नरक लगने लगता है. फिर हालात ऐसे हो जाते हैं कि आप समझ नहीं पाते कि सौरी बोलें तो किस मुंह से. पर सौरी बोलने का सही तरीका आप के जीवन में आई कठिनाई और मुसीबत को काफी हद तक दूर कर रिश्तों में आई कड़वाहट को कम कर सकता है. यह तरीका हर किसी को नहीं आता. यह भी एक हुनर है. जब आप अपने रिश्तों के प्रति सतर्क नहीं होते और हमेशा अपनी गलतियों को नजरअंदाज करते रहते हैं, तभी हालात बिगड़ते हैं. आप इस बात से डरे रहते हैं कि आप का सौरी बोलना इस बात को साबित कर देगा कि आप ने गलतियां की हैं. यही बात कई लोग पसंद नहीं करते. अगर आप सौरी नहीं कहना चाहते तो आप के पास और भी तरीके हैं यह जताने कि आप अपने बरताव और अपने कहे शब्दों के लिए कितने दुखी हैं.

कैसे कहें सौरी

शुरुआत ऐसे शब्दों से करें जिन से आप के जीवनसाथी, दोस्त या रिश्तेदार को यह लगे कि आप उस से अपने बरताव के लिए वाकई बहुत शर्मिंदा हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि लोग आपस में हो रहे विवाद या बहस को खत्म करने के लिए वैसे ही सौरी बोल देते हैं. लेकिन उन्हें अपने किए पर कोई भी पश्चात्ताप नहीं होता. अगर आप सच में अपने बरताव के लिए माफी मांग रहे हैं तो यह जरूर तय कर लें कि आप में अपनेआप को बदलने की इच्छा है. दूसरी बात यह है कि आप सौरी बोल कर अपनी सारी गलतियों को स्वीकार रहे हैं न कि सफाई दे कर अपने बरताव के लिए बहस कर रहे हैं. ये सारी बातें आप के साथी को यह एहसास कराएंगी कि आप सच में अपनी गलतियों के लिए शर्मिंदा हैं और उन सब को छोड़ कर आगे बढ़ना चाहते हैं. बीती बातों को भूल कर एक नई शुरुआत करना चाहते हैं.

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कई लोगों को सौरी बोलने में काफी असहजता महसूस होती है तो कई लोग सौरी बोलने से कतराते हैं. लेकिन सौरी कह कर आप न केवल मन का बोझ हलका करते हैं, बल्कि सामने वाले व्यक्ति के मन की पीड़ा को भी दूर कर देते हैं. इस के दूरगामी नतीजे सामने आते हैं. आप किसी भी गलती के लिए सौरी बोल कर उसे बड़ी बात बनने से रोक सकते हैं. सौरी एक ऐसा शब्द है, जिसे बोलने से टूट रहे रिश्ते को आप न केवल बचाते हैं, बल्कि उस से और भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं. फिर धीरेधीरे पुरानी बातें खत्म हो जाती हैं.

भेंट भी दें

सौरी बोलने के साथ आप अपने साथी को फूल या जो भी उन्हें पसंद हो, वह भेंट कीजिए. अगर डांस करना पसंद है तो उन्हें बाहर डांस के लिए ले जाइए और डांस करतेकरते उन्हें सौरी बोल दीजिए. कौफी हाउस या रेस्तरां में बैठ कर एक नई पहल करते हुए भी अपने किए पर खेद जता सकते हैं. जिस ने भी झगड़ा शुरू किया है या झगड़े की कोई भी वजह रही हो, उस पर कभी तर्कवितर्क नहीं करना चाहिए. पीछे मुड़ कर देखने का कोई फायदा भी नहीं है. आप यह तय कर लें कि आप सच में खेद महसूस कर रहे हैं. तय कर लीजिए कि आप केवल सामने वाले को खुश करने के लिए उसे सौरी नहीं बोल रहे. अपने पार्टनर की भावनाओं की कद्र करें और उन्हें तकलीफ देने की कोशिश न करें. अगर झगड़ा बहुत बढ़ गया है तो थोड़ी देर के लिए उन्हें अकेला छोड़ दें. उन्हें काल कर के या एसएमएस कर के परेशान न करें. 1-2 दिन इंतजार करें, फिर सारी बातें भुला कर अपना और अपने साथी का झगड़ा वहीं खत्म करें. अपनी गलती मान लेना सब से बड़ी बात है. इस से आप का और दुखी साथी का मन निर्मल हो जाता है. इसलिए जहां कहीं भी यह लगे कि आप गलत हैं, अपना जीवनसाथी हो या दफ्तर का साथी या फिर कोई भी रिश्तेदार, उसे सौरी बोल कर गिलेशिकवे दूर कर लीजिए. देर मत कीजिए वरना गांठें बढ़ती जाएंगी. सच मानिए यह सौरी बोलना अपनेआप में जादू से कम नहीं.

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जानें क्या होता है मिड एज सिंड्रोम

अकसर हम 40-45 साल के कुछ ऐसे लोगों को देखते हैं, जो युवाओं की तरह भड़कीले कपड़े पहने उन के जैसा ही व्यवहार करते नजर आते हैं. कुछ इस से भी आगे बढ़ कर अपने से काफी छोटी उम्र के लोगों की ओर आकर्षित होते हैं और उन्हें भी अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तरहतरह के नुसखे तथा पैतरे आजमाते दिखते हैं. इस तरह की स्थितियां जब सहजता की सीमा को पार करने लगती हैं, तो वे मिड लाइफ क्राइसिस, मिड लाइफ सिंड्रोम अथवा मिड एज सिंड्रोम कही जाती हैं. इस पर काफी अध्ययन और शोध भी हुए हैं.

होता क्या है

40-45 की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते व्यक्ति कैरियर, गृहस्थी आदि में काफी हद तक सैटल हो जाता है. तब उस के पास अपने बारे में सोचनेविचारने का समय रहता है. ऐसे में अकसर उसे यह महसूस होता है कि युवावस्था उस के हाथ से निकलती जा रही है. वह जीवन की रोजमर्रा की जुगत में ठीक से उस का उपयोग नहीं कर पाया. अत: वह तरहतरह से उसे ठहराना, पकड़ना तथा भरपूर जीना चाहता है. ऐसे में समाज की मान्यताएं, सोच, हदें और सीमाएं उस की इस मनमरजी में बाधक लगती और बनती हैं. तब उस के भीतरबाहर द्वंद्व की स्थिति होती है, जो मिड लाइफ क्राइसिस कही जाती है.

पुरुषों में ज्यादा

वैसे यह क्राइसिस स्त्रीपुरुष दोनों में होती है, परंतु पुरुषों की तुलना में स्त्रियों में कम व देर से होती है और कम समय रहती है. पुरुषों में स्त्रियों की अपेक्षा नेचर और स्थितियों के साथ समायोजन की क्षमता कम होती है तथा वे अपनी मरजी से जीवन जीने के अधिक अभ्यस्त होते हैं, इसलिए भी उम्र की फिसलन उन की इच्छाओं में ज्यादा बढ़ोतरी करने लगती है. मनोचिकित्सक डा. संजय चुघ के अनुसार, इस क्राइसिस में व्यक्ति को लगता है कि उस की आधी जिंदगी बीत चुकी है. बची हुई जिंदगी वह अपनी मरजी से जीए. वह पहनावे, फिटनैस वगैरह का खास ध्यान रखने लगता है और युवा दिखने की भी काफी कोशिश करता है. अपनी जिंदगी में आई रिक्तता को भरने के लिए वह उस में ऐक्साइटमैंट लाना चाहता है. इस फेर में वह रोमांस तथा फ्लर्टिंग खोजने लगता है. उस का व्यवहार किशोरावस्था के व्यवहार जैसा होने लगता है. सिर्फ मनोवैज्ञानिक कारण ही नहीं हारमोनल बदलाव को भी इस के लिए जिम्मेदार माना गया है.

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स्त्रियों में कम क्यों

मनोचिकित्सकों के अनुसार स्त्रियां जीवन के तनावों, दबावों तथा हारमोनल बदलावों को सहज एवं प्राकृतिक रूप से टैकल कर लेती हैं. कई कार्यों, गतिविधियों में जीवन को व्यस्त कर लेती हैं. आमतौर पर खालीपन उन्हें खलता नहीं. वे उसे किसी न किसी तरह भर लेती हैं. इस मुद्दे पर कई स्त्रियों से बातचीत की तो उन्होंने इस के बारे में बताया. डा. पूनम आनंद लाजपत नगर, दिल्ली के विद्यालय में साइंस की शिक्षिका हैं. वे कहती हैं, ‘‘हम ने ये उम्र पार कर ली पर हमें इस की क्राइसिस का आभास इसलिए नहीं हुआ कि हमारे लिए बच्चों का कैरियर सैटलमैंट और जीवन के अन्य लक्ष्य भी महत्त्वपूर्ण हैं.’’ गुड़गांव केंद्रीय विहार में कार्यरत एक सौंदर्य विशेषज्ञा कहती हैं, ‘‘मेरे पास हर उम्र की महिलाएं आती हैं और वे सभी हर उम्र में सुंदर दिखना चाहती हैं. 44-45 की उम्र में भी एज क्राइसिस मैं ने उन में नहीं देखी. वे तो हमेशा ही जवान व सुंदर दिखना चाहती हैं.’’

डा. वीरेंद्र सक्सेना कहते हैं, ‘‘मैं फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ का संपादक रहा. उस के लिए काम संबंधों पर शोध के दौरान किए गए इंटरव्यूज में मैं ने पाया कि स्त्रियां जीवन में मिले खाली समय को निरर्थक नहीं समझतीं, वे चीजों को बहुत सकारात्मकता से देखती हैं तथा खाली समय का भी सार्थक निवेश करती हैं.’’

क्या हो सकते हैं लक्षण

पदप्रतिष्ठा को भूल कर प्यार, रोमांस का तलबगार हो जाना.

कभीकभी पदप्रतिष्ठा को दांव पर भी लगा देना.

विवाहेतर संबंधों में दिलचस्पी.

दांपत्य में एकरसता, ऊब या बासीपन अनुभव करना.

सोशल साइट्स, इंटरनैट, अश्लीलता आदि की ओर रुझान बढ़ना.

हास्यास्पद हरकतें.

ब्रिटेन में मिड एज क्राइसिस पर हुए शोध में कई लक्षण प्रकाश में आए जैसे:

अपने से 20-25 वर्ष कम उम्र की लड़कियों से फ्लर्टिंग.

पुराने साथियों और लोगों को खोजना.

मित्र या अपनों की खुशी में खुश न होना.

उम्र छिपाना.

बाल झड़ने, तोंद बढ़ने अथवा बाल सफेद होने आदि की चिंता.

क्या इस क्राइसिस का है समाधान

जीवन की स्थितियों को सहजता से ले कर समायोजन कर लेते हैं, उन्हें इस क्राइसिस का अनुभव तो दूर, उन का तो इस का नाम तक लिए बिना जीवन गुजर जाता है. जीवन को लक्ष्य से जोड़े रखना बेहतर है. प्रोफैशनल जीवन के अलावा छोटेछोटे अन्य लक्ष्य भी बनाए जा सकते हैं. रुचियों और अधूरी इच्छाओं को समय दिया जा सकता है.

उम्र के हर पड़ाव का है चार्म

हर उम्र का अपना मजा है, अपना चार्म है. जिस बचपन या यौवन को इस उम्र की क्राइसिस में याद किया जा रहा है, उम्र के उस दौर में भी क्राइसिस कम न थी. अपनेआप को साबित करने, पढ़नेलिखने तथा अन्य हारमोनल तनावदबाव तथा आकर्षण भी बाधक थे. उम्र के अनुरूप व्यवहार, रहनसहन तथा हावभाव अच्छे लगते हैं. अगर बच्चे कहने लगें कि पापा को क्या हो गया? या डैडी तो बड़ी छिछोरी हरकतें करते हैं…, तो इस तरह की बातें कहीं का नहीं रहने देतीं. सर्दीगरमी, बरसात की तरह ही हर उम्र का मौसमी फ्लेवर है.

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लाइफ बिगिन्स आफ्टर फोर्टी

40 के बाद सही आनंदमय जीवन के चार्म को इस कहावत के जरीए दर्शाया गया है. यही तो समय है जब पैसे से ले कर कैरियर तक की सही कमान हाथ में आती है. इस का आनंद लेना आसपास के लोगों से सीखा जा सकता है. दुनिया भर की कई मशहूर हस्तियां 40 के बाद ही मुकाम पर पहुंचीं.

काबू न किए जाने पर किरकिरी

इस उम्र की क्राइसिस को मैनेज न कर पाने पर बहुत किरकिरी होती है. पुरुषों में तो 60-70 साल की उम्र तक यह सिंड्रोम रह सकता है, जिस की वजह से बिल क्लिंटन, बलुस्की और दुनिया की कई और भी जानीमानी हस्तियों की बहुत किरकिरी हुई है. मैनेज न किए जाने पर यह तनाव दबाव का रूप ले कर सफलता को असफलता, चरित्र को चरित्रहीनता और गुण को अवगुण में तबदील कर सकता है.

आ रही है अवेयरनैस

इस क्राइसिस के प्रति दुनिया भर में जागरूकता लाई जा रही है. पुराने समय में भी इस तरह की मनोवृत्तियों को कहावतों, मुहावरों के जरीए दर्शाने का प्रयास रहा है. जैसे सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होना, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम और पचपन में दिन बचपन के वगैरह.

बौलीवुड में भी ‘बीवी नं. 1’, ‘गैंड मस्ती’, ‘नो ऐंट्री’ जैसी फिल्में बनी हैं, जो इस एज क्राइसिस की ओर ध्यान दिला कर बचाव का संदेश देती हैं.

बच कर रहना ठीक

दांपत्य में एकरसता, उपेक्षा न आने दी जाए. जीवनसाथी के जीवन की रिक्तता को पूरा किया जाए. नवीनता और बदलाव की इच्छा को साथी द्वारा सैक्स, रहनसहन और लाइफस्टाइल की नईनई तकनीकें अपना कर टैकल किया जा सकता है. जब भी ऐसा एज सिंड्रोम सिर उठाए, तो उसे सकारात्मक व सही दिशा दे कर जीवन का और लुत्फ लिया जा सकता है. कुछ लोग जीवन में नए लक्ष्य और कार्यों के लिए उत्सुक, सीखने के लिए आतुर और घूमने के लिए व्याकुल नजर आते हैं वे काफी हद तक इसे सही दिशा में स्वयं ही मोड़ लेते हैं.

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