आज का सच : भाग 1- कौनसा सच छिपा रहा था राम सिंह

‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे,

इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोहे.’

मेरी पत्नी रसोई में व्यस्त गुनगुना रही थी और बीचबीच में आवाज भी लगा रही थी, ‘‘रामजी, बेटा आ जाओ और अपने चाचाजी से भी कहो कि जल्दी आ जाएं वरना वह कहेंगे कि रोटी अकड़ गई.’’

‘‘चाचीजी, आप को नहीं लगता कि आप अभीअभी जो गा रही थीं वह कुछ ठीक नहीं था?’’

‘‘अरे, कबीर का दोहा है. गलत कैसे हुआ?’’

‘‘गलत है, मैं ने नहीं कहा, जरा एकपक्षीय है, ऐसा लगता है न कि मिट्टी अहंकार में है, कुम्हार उसे रौंद रहा है और वह उसे समझा रही है कि एक दिन वह भी इसी तरह मिट्टी बन जाएगा.’’

‘‘सच ही तो है, हमें एक दिन मिट्टी ही तो बन जाना है.’’

‘‘मिट्टी बन जाना सच है, चाचीजी, मगर यह सच नहीं कि कुम्हार से मिट्टी ने कभी ऐसा कहा होगा. कुम्हार और मिट्टी का रिश्ता तो बहुत प्यारा है, मां और बच्चे जैसा, ममता से भरा. कोई भी रिश्ता अहंकार की बुनियाद पर ज्यादा दिन नहीं टिकता और यह रिश्ता तो बरसों से निभ रहा है, सदियों से कुम्हार और मिट्टी साथसाथ हैं. यह दोहा जरा सा बदनाम नहीं करता इस रिश्ते को?’’

चुप रह गई थी मेरी पत्नी रामसिंह के सवाल पर. मात्र 26-27 साल का है यह लड़का, पता नहीं क्यों अपनी उम्र से कहीं बड़ा लगता है.

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60 साल के आसपास पहुंचा मैं कभीकभी स्वयं को उस के सामने बौना महसूस करता हूं. राम के बारे में जो भी सोचता हूं वह सदा कम ही निकल पाता है. हर रोज कुछ नया ही सामने चला आता है, जो उस के चरित्र की ऊंचाई मेरे सामने और भी बढ़ा देता है.

‘‘तुम्हारा क्या कहना है इस बारे में?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘अहंकार के दम पर कोई भी रिश्ता देर तक नहीं निभ सकता. लगन, प्रेम और त्याग ही हर रिश्ते की जरूरत है.’’

मुसकरा पड़ी थी मेरी पत्नी. प्यार से राम के चेहरे पर चपत लगा कर बोली, ‘‘इतनी बड़ीबड़ी बातें कैसे कर लेता है रे तू?’’

‘‘हमारे घर के पास ही कुम्हार का घर था जहां मैं उसे रोज बरतन बनाते देखता था. मिट्टी के लोंदे का पल भर में एक सुंदर आकार में ढल जाना इतना अच्छा लगता था कि जी करता था सारी उम्र उसी को देखता रहूं… लेकिन मैं क्या करता? कुम्हार न हो कर जाट था न, मेरा काम तो खेतों में जाना था, लेकिन वह समय भी कहां रहा…आज न तो मैं किसान हूं और न ही कुम्हार. बस, 2 हाथ हैं जिन में केवल आड़ीतिरछी लकीरें भर हैं.’’

‘‘हाथों में कर्म करने की ताकत है बच्चे, चरित्र में सच है, ईमानदारी है. तुम्हारे दादादादी इतनी दुआएं देते थे तुम्हें, उन की दुआएं हैं तुम्हारे साथ…’’ मैं बोला.

‘‘वह तो मुझे पता है, चाचाजी, लेकिन रिश्तों पर से अब मेरा विश्वास उठ गया है. लोग रिश्ते इस तरह से बदलने लगे हैं जैसे इनसान कपड़े बदल लेता है.’’

खातेखाते रुक गया था राम. उस का कंधा थपथपा कर पुचकार दिया मैं ने. राम की पीड़ा सतही नहीं जिसे थपकने भर से उड़ा दिया जाए.

बचपन के दोस्त अवतार का बेटा है राम. अवतार अपने भाई को साथ ले कर विलायत चला गया था. तब राम का जन्म नहीं हुआ था इसलिए पत्नी को यहीं छोड़ कर गया. राम को जन्म देने के बाद अवतार की पत्नी चल बसी थी. इसलिए दादादादी के पास ही पला रामसिंह और उन्हीं के संस्कारों में रचबस भी गया.

अवतार कभी लौट कर नहीं आया, उस ने विलायत में ही दोनों भाइयों के साथ मिल कर अच्छाखासा होटल व्यवसाय जमा लिया.

रामसिंह तो खेतों के साथ ही पला बढ़ा और जवान हुआ. मुझे क्या पता था कि दादादादी के जाते ही अवतार सारी जमीन बेच देगा. राम को विलायत ले जाएगा, यही सोच मैं ने कोई राय भी नहीं मांगी. हैरान रह गया था मैं जब एक पत्र के साथ रामसिंह मेरे सामने खड़ा था.

पंजाब के एक गांव का लंबाचौड़ा प्यारा सा लड़का. मात्र 12 जमात पास वह लड़का आगे पढ़ नहीं पाया था, क्योंकि बुजुर्ग दादादादी को छोड़ कर वह शहर नहीं जा सका था.

गलत क्या कहा राम ने कि जब तक मांबाप थे 2 भाइयों ने उस का इस्तेमाल किया और मरते ही उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया. जमीन का जरा सा टुकड़ा उस के लिए छोड़ दिया. जिस से वह जीविका भी नहीं कमा सकता. यही सब आज पंजाब के हर गांव की त्रासदी होती जा रही है.

‘‘तुम भी विलायत क्यों नहीं चले गए रामसिंह वहां अच्छाखासा काम है तुम्हारे पिता का?’’ मैं ने पूछा.

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‘‘मेरे चाचा ने यही सोच कर तो सारी जमीनें बेच दीं कि मैं उन के साथ चलने को तैयार हो जाऊंगा. मुझ से मेरी इच्छा पूछी ही नहीं…आप बताइए चाचाजी, क्या मैं पूरा जीवन औरों की उंगलियों पर ही नाचता रहूंगा? मेरा अपना जीवन कब शुरू होगा? दादादादी जिंदा थे तब मैं ही जमीनों का मालिक था, कम से कम वह जमीनें ही वह मुझे दे देते. उन्हें भी चाचा के साथ बांट लिया…मैं क्या था घर का? क्या नौकर था? कानून पर जाऊं तो बापू की आधी जमीन का वारिस मैं था. लेकिन कानून की शरण में क्यों जाऊं मैं? वह मेरे क्या लगते हैं, यदि जन्म देने वाला पिता ही मेरा नहीं तो विलायत में कौन होगा मेरा, वह सौतेली मां, जिस ने आज तक मुझे देखा ही नहीं या वे सौतेले भाई जिन्होंने आज तक मुझे देखा ही नहीं, वे मुझे क्यों अपनाना चाहेंगे? पराया देश और पराई हवा, मैं उन का कौन हूं, चाचाजी? मेरे पिता ने मुझे यह कैसा जीवन दे दिया?’’

रोना आ गया था मुझे राम की दशा पर. लोग औलाद को रोते हैं, नाकारा और स्वार्थी औलाद मांबाप को खून के आंसू रुलाती है और यहां स्वार्थी पिता पर औलाद रो रही थी.

‘‘वहां चला भी जाता तो उन का नौकर ही बन कर जीता न…मेरे पिता ने न अपनी पत्नी की परवा की न अपने मांबाप की. एक अच्छा पिता भी वह नहीं बने, मैं उन के पास क्यों जाता, चाचाजी?’’

गांव में हमारा पुश्तैनी घर है, जहां हमारा एक दूर का रिश्तेदार रहता है. कभीकभी हम वहां जाते थे और पुराने दोस्तों की खोजखबर मिलती रहती थी. अवतार  के मातापिता से भी मिलना होता था. रामसिंह बच्चा था, जब उसे देखा था. मुझे भी अवतार से यह उम्मीद नहीं थी कि अपने मांबाप के बाद वह अपनी औलाद को यों सड़क पर छोड़ देगा. गलती अवतार के मातापिता से भी हुई, कम से कम वही अपने जीतेजी रामसिंह के नाम कुछ लिख देते.

‘‘किसी का कोई दोष नहीं, चाचाजी, मुझे वही मिला जो मेरी तकदीर में लिखा था.’’

‘‘तकदीर के लिखे को इनसान अपनी हिम्मत से बदल भी तो सकता है.’’

‘‘मैं कोशिश करूंगा, चाचाजी, लेकिन यह भी सच है, न आज मेरे पास ऊंची डिगरी है, न ही जमीन. खेतीबाड़ी भी नहीं कर सकता और कहीं नौकरी भी नहीं. मुझे कैसा काम मिलेगा यही समझ नहीं पा रहा हूं.’’

काम की तलाश में मेरे पास दिल्ली में आया रामसिंह 2 ही दिन में परेशान हो गया था, मैं भी समझ नहीं पा रहा था उसे कैसा काम दिलाऊं, कोई छोटा काम दिलाने को मन नहीं था.

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समाधान: भाग 3- अनुज और अरुण ने क्या निकाला अंजलि की तानाशाही का हल

वह दोनों करीब 2 घंटे बाद लौटे. डाक्टर ने अंजलि को उलटियां बंद करने का इंजेक्शन दिया था. वह कुछ बेहतर महसूस कर रही थी. इसी कारण उस की नाराजगी और शिकायतें  लौटने लगीं.

‘‘बूआ, यह सब लोग 3 घंटे से कहां गायब हैं?’’ उस ने नाराजगी भरे लहजे में अपने  भाई व भाभियों के बारे में सवाल पूछा.

‘‘वे सब सीमा की बड़ी बहन के घर चले गए हैं,’’ मैं ने उसे सही जानकारी दे दी.

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरे खयाल से सीमा का मूड ठीक करने के इरादे से.’’

‘‘और मैं यहां मर रही हूं, इस की किसी को चिंता नहीं है,’’ वह भड़क उठी, ‘‘अपने घर वाले मस्ती मारते फिरें और एक बाहर का आदमी मुझे डाक्टर के पास ले जाए…मेरे लिए दवाइयां खरीदे… मारामारा फिरे…क्या मैं बोझ बन गई हूं उन सब पर? और आप क्यों नहीं हमारे साथ आईं?’’

मैंने विषय बदलने के लिए आक्रामक रुख अपनाते हुए जवाब दिया, ‘‘अंजलि, जो तुम्हारे सुखदुख में साथ खड़ा है, उस नेकदिल इनसान को बाहर का आदमी बता कर उस की बेइज्जती करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है.’’

मेरा तीखा जवाब सुन कर अंजलि पहले चौंकी और फिर परेशान नजर आती राकेश से बोली, ‘‘आई एम सौरी. गुस्से में मैं गलत शब्द मुंह से निकाल गई.’’

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‘‘इसे आसानी से माफ मत करना, राकेश. मेरी कोई बात नहीं सुनती है यह जिद्दी लड़की. इसे माफी तभी देना जब यह तुम्हारे कहने से कुछ खा ले. मैं तुम दोनों का खाना यहीं लाती हूं,’’ अंजलि से नजरें मिलाए बिना मैं मुड़ी और कमरे से बाहर निकल कर रसोई में आ गई.

आज सारी परिस्थितियां मेरे पक्ष में थीं. बिस्तर में लेटी बीमार अंजलि न कहीं भाग सकती थी, न जोर से झगड़ा करने की हिम्मत उस में थी. राकेश की मौजूदगी में अंजलि को अपना व्यवहार सभ्यता की सीमा के अंदर रखना ही था. मैं उस के सामने पड़ने से बच भी रही थी. राकेश ने जब भी जाने की इच्छा जाहिर की, मैं ने या तो उसे कोई काम पकड़ा दिया या प्यार से डपट कर चुप कर दिया.

वैसे अंजलि ने पहले जो नाराजगी भरी खामोशी अपनाई हुई थी, वह भी कुछ देर सोने के बाद चली गई.

जागने के बाद अंजलि ने राकेश के साथ एक लोकप्रिय हास्य धारावाहिक देखा. फिर दोनों हलकेफुलके अंदाज में बातचीत करने लगे. मैं ने नोट किया कि अंजलि मुझे देख कर गुस्सा आंखों में भर लाती थी, पर राकेश के साथ उस का व्यवहार दोस्ताना था. ऐसा शायद पहली बार हो रहा था. उन के बीच बने इस नए संबंध को फलनेफूलने का अवसर देने के इरादे से मैं अंदर के कमरे में जा कर लेट गई. मेरी आंख कब लग गई, मुझे पता ही नहीं चला.

करीब 2 घंटे बाद मेरी नींद खुली. अंजलि के कमरे में पहुंच कर मैं ने देखा कि मेरी भतीजी पलंग पर और राकेश पास पड़ी कुरसी में बैठ कर सो रहे थे.

आने की मेरी आहट सुन कर राकेश जाग गया. हम दोनों कम से कम आवाजें पैदा करते हुए ड्राइंगरूम में आ गए.

‘‘तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद, राकेश बेटा. अब मैं संभाल लूंगी, तुम घर जाओ,’’ मैं ने उस की पीठ प्यार से थपथपाई.

‘‘मैं कपड़े बदल कर आता हूं,’’ उस की यह बात सुन कर मैं ने नोट किया कि उस के कपड़ों से उलटी की बदबू आ रही थी.

‘‘अब कल आ जाना. थक भी गए होगे…’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल थका हुआ नहीं हूं, मौसीजी. अंजलि एक उपन्यास पढ़ना चाहती है. मैं वह भी उसे आज ही उपहार में देना चाहता हूं.’’

‘‘वह स्वीकार कर लेगी तुम्हारा उपहार?’’ मेरी आंखों में शरारत के भाव उभरे.

‘‘हां, मौसीजी. उस ने मुझे आज अच्छा इनसान बताया है…अब मैं उस का अच्छा मित्र बनने का प्रयास करूंगा,’’ वह शरमाता सा बोला.

‘‘तब एक काम और करना, बीमार आदमी के कमरे में फूलों का सुंदर गुलदस्ता…’’

‘‘मैं समझ गया,’’ उस ने उत्साहित अंदाज में मुझे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और अपने घर चला गया.

उसे लौटने में करीब 2 घंटे लगे. इस सारे समय में अंजलि अपने भाईभाभियों के व्यवहार की लगातार आलोचना करती रही. उस ने इन सब के लिए अब तक जो भी अच्छा किया था, उन कामों का राग अलापती रही.

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मैं ने जानबूझ कर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की. सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘कई बार अपने काम नहीं आते, अंजलि. इस समस्या का समाधान यही है कि उस दिल के अच्छे इनसान को तुम अपनों की सूची में शामिल कर लो, जो सुखदुख में तुम्हारा साथ खुशीखुशी देने को तैयार है.’’

मेरा इशारा राकेश की तरफ है, इस बात को उस ने बखूबी समझा, पर हमारे बीच राकेश को ले कर कोई चर्चा नहीं छिड़ी. मैं ने इस मामले में अपनी टांग अड़ाने की मूर्खता नहीं की.

राकेश ने बाहर से जब घंटी बजाई, तब मैं ने अंजलि का हाथ पकड़ कर भावुक स्वर में सिर्फ इतना कहा, ‘‘बेटी, अपने भाई और भाभियों के परिवारों से भावी सुख और सुरक्षा पाने की नासमझी मत कर, इन के दिमाग में तेरे बलिदान और त्याग की यादें वक्त धुंधली कर देगा. तू ने जो भी इन सब के लिए किया है, वह वक्त की जरूरत थी. अब उन बलिदानों की कीमत मत मांग. जिंदगी में सुखशांति, सुरक्षा और प्यार भरा सहारा सभी को चाहिए. अपनी घरगृहस्थी बसा ले. यह सब चीजें तुझे वहीं मिलेंगी.’’

मेरी इस सलाह को अंजलि ने गंभीरता से लिया है, इस का एहसास मुझे उस के राकेश द्वारा लाए गुलदस्ते को स्वीकार करने के अंदाज से हुआ.

राकेश के हाथों से गुलाब के फूलों का वह छोटा सा गुलदस्ता लेते हुए अंजलि शरमा उठी थी. उसे किसी आम लड़की की तरह यों शरमाते हुए मैं ने पहली बार देखा था.

उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं ड्राइंगरूम में चली आई. वहां से मैं ने फोन पर सीमा और प्रिया से बातें कीं.

‘‘किला फतह हो गया. अब तुम लौट आओ,’’ मेरी यह बात सुन कर वह दोनों खुशी भरी उत्तेजना का शिकार बन गई थीं.

आज जो भी घटा था वह सीमा, प्रिया और मेरी मिलीभगत का नतीजा था. अंजलि की बीमारी का फायदा उठा कर हम तीनों ने राकेश और उसे पास लाने की योजना पिछली रात ही बनाई थी. अरुण और अनुज इस योजना का हिस्सा नहीं थे. जानबूझ कर ऐसी परिस्थितियां पैदा की गईं कि वह चारों घर से बाहर चले जाएं. सीमा ने अरुण के साथ जबरदस्ती झगड़े को बढ़ाया था. प्रिया ही जोर दे कर अनुज को साथ में घर से बाहर ले गईर् थी.

अंजलि राकेश के साथ अपनी घर- गृहस्थी बसा लेगी, इस आशा की जड़ें आज काफी मजबूत हो गई थीं. घर में बढ़ते झगड़ों की समस्या को हल करने की दिशा में हम ने सही कदम उठाया है, इस का भरोसा मेरे मन में पक्का होने लगा था.

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समाधान: भाग 2- अनुज और अरुण ने क्या निकाला अंजलि की तानाशाही का हल

अंजलि खुद को घर की मुखिया मानती थी. हर किसी को आदेश देना उसे अपना हक लगता. सब उस के ढंग से उस के कहे पर चलें, यह इच्छा उस के मन में गहरी जड़ें जमाए हुए थी.

सीमा और प्रिया बाहर से आ कर परिवार का अंग बनी थीं. अंजलि सब की शुभचिंतक है, इस का एहसास सभी को था, पर उस के तानाशाही व्यवहार के चलते घर का माहौल तनावपूर्ण रहता. पूरी स्थिति अनुज की शादी के बाद ज्यादा बिगड़ी थी. सीमा और प्रिया को एकदूसरे के सामने अंजलि से दबनाडरना जरा भी नहीं भाता था. बड़ी ननद का व्यवहार दोनों को धीरेधीरे असहनीय होता जा रहा था.

घर में बढ़ती कलह व असंतोष की खबरें मुझे रोज ही फोन पर मिल जाती थीं. घर की तीनों स्त्रियां मुझे अपनेअपने पक्ष में करने के लिए एक ही घटना को अलगअलग रंग दे कर सुनातीं. दोनों भाई इन परिस्थितियों से बेहद दुखी व परेशान थे.

अपने दिवंगत भैयाभाभी के परिवार को यों दुखी, परेशान व तनावग्रस्त देख मैं अकसर आंसू बहाने लगती. इस समस्या के समाधान की जरूरत मुझे शिद्दत से महसूस होने लगी थी.

समस्या का समाधान करीब 3 महीने पहले राकेश के रूप में सामने आया था. वह मेरी बहुत पुरानी सहेली सुषमा का बड़ा बेटा था. उस की पत्नी सड़क दुर्घटना में करीब 3 साल पहले चल बसी थी. कोई संतान न होने के कारण राकेश बिलकुल अकेला रह गया था. अपने दोनों छोटे भाइयों के परिवारों के साथ रहते हुए भी अकेलापन दर्शाने वाली उदासी उस के चेहरे पर बनी ही रहती थी.

मेरी समझ से जीवनसाथी को ढूंढ़ निकालना अंजलि और राकेश दोनों की भावी खुशियां व सुखशांति सुनिश्चित करने के लिए जरूरी था. इसी सोच के तहत मैं ने अलगअलग बहाने बना कर राकेश और अंजलि की आपस में मुलाकात कई बार कराई थी.

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आज भी राकेश आएगा, मुझे पता था. कल शाम मैं ने ही फोन पर अंजलि को बुखार होने की सूचना दी थी. राकेश अंजलि में दिलचस्पी ले रहा है, यह मेरी और दूसरे लोगों की आंखों से छिपा नहीं था.

लेकिन अंजलि की प्रतिक्रिया से मुझे खासी निराशा मिली थी.

‘‘मीना बूआ, किस कोण से यह राकेश आप को मेरे लिए उपयुक्त जीवनसाथी लग रहा है?’’ कुछ दिनों पहले ही अंजलि ने बुरा सा मुंह बना कर मुझे अपनी राय बताई थी, ‘‘मैं भी कोई रूप की रानी नहीं हूं, पर उस की पर्सनेल्टी तो बिलकुल ही फीकी है.’’

‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता…लंबा कद है…काना, बहरा, लंगड़ा या गूंगा नहीं है. हां, दुबलापतला जरूर है पर शादी के बाद सुकड़े लड़कों की अकसर तोंद निकल आती है,’’ मैं ने राकेश के पक्ष में उसे समझाने का प्रयास शुरू किया.

‘‘मुझे न किसी तोंदू में दिलचस्पी है, न भोंदू में.’’

‘‘वह सीधा है, भोंदू नहीं. पूरे घर में अपनी बीमार मां का वही सब से ज्यादा ध्यान रखता है.’’

‘‘मैं उस से बंध गई तो उस की यह जिम्मेदारी भी मेरे गले पड़ जाएगी. उस के घर में 10  लोग तो होंगे ही. मेरी अब वह उम्र नहीं रही कि इतने बड़े संयुक्त परिवार में जा कर मैं खट सकूं.’’

‘‘हम किसी दूसरे के काम नहीं आएंगे…किसी का सहारा नहीं बनेंगे तो हमारे काम भी कोई नहीं आएगा,’’ मेरे इस तर्क को सुनने के बाद अंजलि कुछ उदास जरूर हो गई पर राकेश से संबंध जोड़ने में मैं उस की दिलचस्पी पैदा नहीं कर पाई.

मैं राकेश को ले कर जब अंजलि के कमरे में पहुंची, तो वह खस्ता हालत में नजर आ रही थी. उस का सिर पहले ही दर्द से फट रहा था. अब उलटियां भी शुरू हो गईं.

उन दोनों के बीच औपचारिक बातचीत शुरू हुई और मैं पलंग पर लेटी अंजलि के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखने लगी.

कुछ देर बाद मैं ने यह काम राकेश को सौंपा और अदरक वाली चाय बनाने के लिए रसोई में चली आई. अंजलि के अंदर शायद इतनी ताकत नहीं थी कि वह राकेश द्वारा पट्टियां रखे जाने का विरोध कर पाती.

हमारे बहुत जोर देने पर अंजलि ने दो घूंट चाय ही पी थी कि फिर उस का जी मिचलाने  लगा और 2 मिनट बाद उलटी हो गई.

‘‘इस का बुखार कम नहीं हो रहा है. कोई लौट आता तो इसे डाक्टर को दिखा लाते,’’ मेरी आवाज चिंता से भरी थी.

‘‘हम दोनों ले चलते हैं इन्हें डाक्टर के पास,’’  राकेश ने सकुचाए अंदाज में सुझाव पेश किया.

‘‘गुड आइडिया. मैं कपड़े बदल कर आती हूं,’’ अंजलि के कुछ कहने से पहले ही मैं कमरे से बाहर निकल आई थी.

अंजलि को राकेश की उपस्थिति असहज बना रही थी. वह उस की किसी भी तरह की सहायता लेना नहीं चाहती थी पर कमजोरी ने उसे मजबूर कर दिया था.

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मेरी एक आवाज पर राकेश भागभाग कर काम कर रहा था. घर बंद करने में उस ने मेरी सहायता की. अंजलि को सहारा दे कर बाहर लाया. फिर डाक्टर के क्लिनिक तक जाने के लिए 2 रिकशे लाया.

‘‘मुझ से अंजलि नहीं संभलेगी,’’ ऐसा कहते हुए मैं ने राकेश को अंजलि के साथ रिकशे में बिठा दिया.

इस बार बीमार अंजलि की आंखों में मैं ने नाराजगी के भाव साफ देखे, पर उस की परवा न कर मैं दूसरे रिकशे की तरफ चल दी.

उन का रिकशा चल पड़ा. सड़क  के कोने पर जा कर जब वह मेरी आंखों से ओझल हो गया तो मैं ने अपने रिकशा वाले को 5 रुपए दे कर खाली वापस भेज दिया.

मेरा राकेश और अंजलि के साथ क्लिनिक तक जाने का कोई इरादा न था. ताला खोल कर मैं घर में घुसी और टीवी खोल कर देवआनंद की सदाबहार फिल्म ‘ज्वैल थीफ’ देखने का आनंद लेने लगी.

राकेश से अंजलि हर बार कटीकटी सी मिलती आई थी. मैं ने इस बार उन दोनों का काफी समय एकसाथ गुजरे, इस का इंतजाम कर दिया था. अब आगे जो होगा देखा जाएगा, ऐसा सोच कर मैं आराम से फिल्म देखने में मग्न हो गई.

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दूसरी पारी: भाग 3- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

महीने के इन 2 दिनों में पिता से मिलना बेटे के लिए ‘मूल्यवान भीख’ के समान लगती है. दीपा को अब समझ आ रहा है कि वह… कहीं तो गलत थी. लोगों ने बहुत समझाया था, ‘दीपा, सोच ले. जिस सुरंग में बेटे को ले कर सफ़र पर जा रही है उस के दूसरे छोर पर ख़ुशी का सूरज है भी या नहीं, कौन जाने…’

पर उस ने किसी की न सुनी. सिर पर जनून सवार था, ‘अलग रहूंगी.’

आज 2 साल बाद इस तरह एक छत के नीचे क़ानून के दायरे में रहना, संभवतया मजबूरी है. यह कब तक चलेगा, नहीं जानती? वह मर्द, जिसे वह पति कहती थी, से बात करते झिझकती है, सामना करते घबराती है. बेटा, दोनों के बीच पहले की तरह बातचीत हो, मन से चाहता है.

ये बातें सोमू भी समझता है. दोनों के बीच संभवतया समझौतों की दीवार है. तलाक़ के बाद उसे यह नया जीवन जरा भी रास नहीं आ रहा. रोहिणी में 2 कमरों के फ्लैट में निपट अकेला रहता है.

शराब बिलकुल छोड़ दी थी. घर में चाय तक नहीं बनती. अब खाना होटल से आता है. घर में सफ़ाई हफ्ते में एक बार होती थी. कुरसी पर कपड़ों का ढेर लगा होता है. कामवाली कपड़े धो व सुखा कर प्रैस भी करा लाती. कई बार टोक भी देती, ‘साब जी, प्रैस किए कपड़े तो संभाल लिया करो. और अपने को भी संभालो.’ फिर हंस पड़ती, ‘बहू जी को ले आओ. क्यों अकेले रहते हो?’

सोमू क्या कहता? चुपचाप बाथरूम में जा कर रो लेता. वह क्या करे? सबकुछ उस के हाथ से निकल चुका है.

आज 2 महीने से लौकडाउन के कारण सोमू यहां अटका है, अनवान्टेड गेस्ट की तरह.

घर में सारा दिन टीवी चलता है. पहले कभी कनक टीवी चलाता था, तो मम्मी घूर कर बेटे को देखती थी. वह घबरा कर टीवी ही बंद कर देता था. लेकिन अब ऐसा बिलकुल नहीं होता. टीवी का वौल्यूम फ़ुल होता है. कनक हैरान है, मम्मी अब चिल्लाती नहीं है. पर क्यों? कनक ने अनुभव किया है मां अब पहले की तरह बातबात पर ग़ुस्सा नहीं करती. मम्मी बदल रही है. अब पापा की तरफ़ देख कर हंसती भी है. माहौल सहज होता जा रहा है. जिसे सभी ने अनुभव किया है. यह बात अलग है कि पहले की तरह दोनों खुल कर बहस नहीं करते.

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एक दिन सुमित्रा बोली, “बाई सा, लगता है साब ने दारू छोड़ दी है.”

“लगता तो है. चलो, अच्छा है,” दीपा से ऐसा सुनना सुमित्रा को भा गया. भूली नहीं है वह वो सब…

यह दारू ही तो थी जिस ने दोनों के बीच दीवार खींच दी थी.

पिछले 2 महीने से कनक हर रात पापा से चिपट कर सोता है पर दीपा आधी रात में अपने बिस्तर पर ले आती है. एक रात जब सोते कनक को ले जाने आई तो सोमू ने उसे ऐसा करने से मना किया, ‘आज इसे यहीं सोने दें. सुबह देखिएगा क्या होता है?’

वह चुप चाप वापस अपने कमरे में आ कर सो गई.

सोमू ने जो कहा था वही हुआ. बिस्तर से उठते ही कनक ख़ुशी से चिल्लाया, “ये…मैं पूरी रात कल पापा के पास सोया था. वाह, मुझे रोज़ाना मम्मी आधी रात में अपने बिस्तर पर शिफ़्ट कर देती थी, कल ऐसा नहीं हुआ. माय स्वीट मम्मी, थैंक्यू. मैं पापा के पास ही सोना चाहता हूं.”

“देखिए, मैं ने यही तो कहा था, कितना ख़ुश है,” सोमू उस की तरफ़ देख कर मुसकरा पड़ा, बोला, “थैंक्यू.” दीपा को भी अच्छा लगा था.

औपचारिकता की इसी दीवार को ढाने के लिए सोमू एड़ी से चोटी तक का जोर लगा चुका है. वह दिल से चाहता है सब पहले सा हो जाए. पर ‘अहं’ है जो दोनों को रोकता है.

फिर भी उम्मीद का दामन उस ने नहीं छोड़ा है. पानी को लकड़ी मार कर 2 टुकड़ों में बांटा नहीं जा सकता.

पानी तो पानी में ही मिलेगा, यह वह जानता है.

एक रात, सोतेसोते सोमू चौंक पड़ा. कनक का तन गरम था. नहीं… हो सकता है, वैसे ही मेरा भ्रम है.

कुछ देर बाद लगा तेज़ बुखार से कनक का तन तप रहा है. घबरा गया था सोमू. कहीं…करोना…?

बारबार सांस की गति पर ध्यान जा रहा था. दीपा को उठाऊं? पर कैसे? वह तो अंदर से दरवाज़ा बंद कर के सोती है. फ़ोन किया. “कनक को तेज़ बुखार है,” उस की आवाज़ में घबराहट थी.

कुछ पल में दीपा कनक के पास थी. बेटे को देख वह भी घबरा गई. निढाल पड़े बेटे को देख अपने को रोक न पाई. सब भूल कर सोमू के क़रीब आ कर रोने लगी, “प्लीज़ सोमू, किसी डाक्टर को जल्दी से फ़ोन कर के बुलाओ.”

और न चाहते हुए भी भावुक हो उस ने सोमू को कस कर पकड़ लिया.

सोमू भी अपने को न संभाल सका. हाथपैर उस के भी कांप रहे थे. “ठहरो, मेरा एक डाक्टर मित्र यहीं पास में रहता है. उस से फ़ोन पर बात करता हूं. इस वक्त कहीं किसी हौस्पिटल में हमें कोई भी तवज्जुह नहीं देगा. यह मेरा बचपन का यार है. जरूर सहायता करेगा.” डाक्टर सुरेश को हाल बताया तो उस ने दवा बता कर कहा, “माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखो जब तक बुखार 100 पर न आ जाए. यह सीजनल है. दवा से कम न हो, तो मुझे बताना. सुबह कोरोना टैस्ट करा लेना.”

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“दीपा, तुम कनक के माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखो. मैं फ़ार्मेसी से दवा ले कर आता हूं.”

दवा देने के साथ माथे पर ठंडी पट्टी से कनक का बुखार कम हो गया. वह सो गया था. पर दीपा अभी भी अपने पल्लू से आंसू पोंछ रही थी.

सामने बैठे सोमू को देख कर सोच रही थी- आज यह न होता तो क्या करती.

पूरी रात दोनों बेटे के सिरहाने से नहीं हटे थे. “आप थक गए होंगे, कुछ देर सो लें. सुबह इसे ले कर कोविड टैस्ट के लिए जाना है.”

“नहीं, मैं यहीं ठीक हूं. मेरी चिंता न करो.”

कुछ देर बाद दीपा ने देखा, सोमू कुरसी पर सिर टिका कर सो गया था. कितने बरसों बाद यों, बच्चे की तरह सोते देखा था. कितना प्यारा दिखता है. आज उसे वह पल याद आ रहा था जब कनक का जन्म हुआ था. सोमू ने बड़े प्यार से कहा था, ‘यह कनक है. हमें कुदरत ने हमारे जीवन का सब से क़ीमती तोहफ़ा दिया है. हमें जीवनभर इस की क़द्र करनी है. वादा करो, हम कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिस से इसे दुख हो.’

आज की इस घटना ने बहुतकुछ सोचने को मजबूर कर दिया है. क्या दोनों ही उस वादे को भूल गए…?

बाई सा, अपना न सही, इस बच्चे का तो ख़याल करो. बेटा, साब को कितना प्यार करता है. और आप उन से बच्चे को दूर कर रही हो? यह बच्चे के साथ अन्याय नहीं है? न बाई सा, आप सही नहीं कर रहे हो. तब उस ने सुमित्रा को ‘अनपढ़गंवार’ कहा था. आज लगता है वही सही थी, दीपा गलत!

कनक का करोना टैस्ट नैगेटिव आया. सब ख़ुश हैं. इस खुशी में सोमू की मनपसंद मखाने की खीर दीपा ने बनाई है. कनक बोला, ‘पापा ने तो 2 कटोरी भर कर खाई और मां की प्रशंसा भी की.

अब कई बार दोनों साथ बैठ कर बातें भी करते हैं. बातों में कभी कुछ सीरियस भी होता है.

पर सब से अहम बात है, बच्चे के लिए मम्मीपापा दोनों की उपस्थिति ज़रूरी है. यह सच दोनों ने मान लिया है. परंतु इस सच को मुंह से कहने से पता नहीं क्यों दोनों झिझकते हैं. आसमान में उड़ते परिंदों को उड़ते देख सोचते हैं, इन्हें भी तो देखो… बच्चा जब तक उड़ना सीख नहीं जाता, साथ उड़ते हैं. उसे आसमान की राह दिखाने में दोनों की बेजोड़ मेहनत होती है.

लेकिन, मनुष्य कितना स्वार्थी है. अपने अहं और स्वार्थ के वश अपनी असली ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लेता है. लानत है हम पर. कनक की बीमारी के बाद से सोमू और दीपा दोनों के बीच की दीवार हौलेहौले ढहने लगी है.

लौकडाउन ख़त्म हो रहा है. क़ानून के तहत सोमू को वापस जाना पड़ेगा. उस का औफ़िस खुल गया है.

“मुझे अब जाना होगा.”

“पापा, कहां जा रहे हो? मैं भी आप के साथ चलूंगा.”

“नहीं बेटा, मिलूंगा एक हफ्ते बाद,” कहते हुए कनक के गाल पर चुम्मी दी.

“नहीं, पापा रहो हमारे साथ ही रहो,” पापा से लिपट कर कनक सिसकी भरने लगा.

सुमित्रा सामने खड़ी मार्मिक दृष्य से अविभूत है. दीपा भी. वह तो मुंह फेर कर खड़ी हो गई थी. इस दृष्य का सामना करने की हिम्मत न थी उस में. अचानक किसी निर्णय के साथ पलटी, “बेटा, पापा को जाने दो. वैसे, पापा हमें माफ़ कर दें तो हम उन के साथ रोहिणी चल सकते हैं, पर शर्त है, उन्हें हमारे साथ वापस आना होगा.”

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“मम्मी, क्या कहा?” हैरान कनक मां को विस्फारित नेत्रों से देख रहा था.

सोमू को भी कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

यानी, मम्मी ने भी हमे माफ़ कर दिया.

दीपा ने मुसकरा कर उस को हाथों से पकड़ा. दीपा की आंखों से दो आंसू ढलक कर उस के गालों पर आ गए थे.

कनक ख़ुशी से- “ये…” कहता हुआ गाड़ी में बैठ गया था.

बालकनी में खड़ी सुमित्रा बाई सा, जो बड़ी देर से सब का हिस्सा बनी हुई थी, हाथ जोड़ कर मन ही मन कह रही थी, ‘हे माताजी महाराज, बहुतबहुत शुक्रिया. यह लौकडाउन ने दुख तो बड़े दिए पर ऐसे अंत के वास्ते हज़ार बार लौकडाउन लगे, तो भी कोई दुख नाहिं.

दूसरी पारी: भाग 2- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

सोमू की गाड़ी लगभग एक फ़र्लांग ही चली थी कि आगे से होमगार्ड वाले ने गाड़ी रोकने का सिगनल दिया.

..”कहॉ जाना है साब?”

“रोहिणी.”

“लौट जाइए. पूरे दिल्ली में आवाजाही बंद है. मैं जाने दूंगा तो आप को आगे रोक दिया जाएगा. बेहतर है वापस चले जाएं.”

समझ गया है, आगे सारे रास्ते बंद ही मिलेंगे. टीवी पर भी यही कह रहे थे- ‘कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें.’ अब जाना पड़ेगा वापस. दीपा के पास जाना तो बिलकुल नहीं चाहता, उस को बापबेटे का यों मिलना जरा भी नहीं भाता. वह तो कोर्ट की परमीशन ले कर मिलने आता है. दीपा कुछ कर नहीं सकती.

सोमू यहां आसपास काफ़ी लोगों को जानता तो है पर वह किसी के घर जाना नहीं चाहता. सब को सारी कहानी बतानी पड़ेगी. इधरउधर गाड़ी घुमाना बेकार है. चलता हूं वापस, वहीं.

कैसा अजीब सा लगेगा उस घर में दोबारा पहुंच कर. जबकि कभी यह घर उस का अपना घर था. जैसे शाम ढलते ही चिड़िया अपने घोंसले में लौटने को उतावली होती है, कभी वह भी उड़ान भरता था. गाड़ी औफ़िस से उड़ाता हुआ लाता था. आज गाड़ी उधर मोड़ना भी अच्छा नहीं लग रहा था. इस के सिवा कुछ और विकल्प है भी तो नहीं.

गाड़ी मोड़ ली.

“अरे पापा, वाह, आप वापस आ गए!” कनक को हैरानी हो रही थी. दीपा को कोई हैरानी न थी. शायद, उसे पता था, यही होगा.

सोमू को वापस आया देख सब से ज्यादा ख़ुश था कनक, मन की मुराद पूरी जो हो गई थी.

और दोंनों बड़ी रात तक लीगों टौयज जोड़ते रहे थे. ‘पापा-पापा’ की गूंज बहुत देर तक घर में गूंजती रही थी.

उस रात दोनों बापबेटे साथ में चिपक कर सोए थे.

आधी रात को सोमू को लगा, कोई बैड के पास खड़ा है.

“दीपा, आप?”

“हां, कनक के साथ सोने में आप को दिक़्क़त हो रही होगी,” दीपा ने सीधेसीधे कह दिया.

सोमू ने कहना चाहा, ‘नहीं रहने दो,’ पर कुछ न बोला. पूरा दिन बीत गया, दीपा ने सोमू से कोई बात नहीं की.

इस वक्त जी चाहा पूछे, कैसी हो दीपा.

नहीं, कुछ भी नहीं पूछेगा. क्या दीपा को नहीं पूछना चाहिए था- सोमू, कैसे जीवन कट रहा है?

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तलाक़ हुए 2 साल बीत गए हैं. कभी फ़ोन करना तो दूर, कनक से मिलने आता हूं तो मेरे यहां पहुंचने से पहले ही निकल जाती है.

कनक की पढ़ाईलिखाई व स्कूल से जुड़े सवालों का हमेशा एक ही जवाब मिलता- ‘ठीक है,’ बस. कितना जी करता है, कुछ कहे, कुछ पूछे. मकान का पिछला हिस्सा कमज़ोर हो गया है, ठीक कराना है. कौन खड़ा हो कर सब देखेगा… मैं यहां आ कर, चला जाता हूं. जैसे एक विज़िटर हूं. यह घर सोमू के नाम था. अब दीपा के नाम है. ये सब किन हालात में हुआ, यह एक अलग कहानी है.

दीपा सोए बेटे को कंधे पर उठा कर ले जा चुकी है. वह बिस्तर पर लेटा कड़ियां गिन रहा है. नींद आंखों से कोसों दूर हो गई है.

एक हफ्ते के लिए लौकडाउन लगा है. एक दोस्त बता रहा था, औफ़िस भी बंद है. हो सकता है एक हफ्ते बाद हमें घर से काम करने को कहा जाए. कैसे, क्या होगा… सोमू परेशान है.

लौकडाउन चालू है. 4 दिन बीत गए हैं. कपड़ों को ले कर परेशान है सोमू. कुछ अंदर के कपड़े पुरानी अलमारी में पड़े हैं, उसे याद है. सुमित्रा बाई सा को जरूर याद होगा. उस से पूछा तो हंस कर बोली, “साब, मुझे याद है. कुछ कपड़े तो अभी भी रखे हैं पर कपड़े छोटे न हो गए होंगे? 2 साल में आप की तोंद निकल आई है.”

बाई सा की बात पर कनक खिलखिला कर हंसा. मुह फेर कर दीपा भी मुसकरा दी थी. और सोमू शरमा कर कमरे में चला गया था.

पुराने कपड़ों का बक्सा खोला तो अंदर से एक नाइट सूट और 2 पैंटें भी निकल आईं. “साब, इन पैंटों की टांगें काट कर बरमूडा बना देती हूं. आप को कहीं जाना तो है नहीं. घर में सब चलेगा.”

लो जी, बाई सा ने बरमूडा बना डाला. पापा को बरमूडा में देख कनक ने खूब एंजौय किया.

बाथरूम में जा कर दीपा भी हंसी थी.

सोमू का ज्यादातर समय कनक के साथ बीतता है. वर्क फ्रौम होम शुरू होने से नए तरीक़े से हर कोई बिजी हो गया है.

बाई सा सुबह 8 बजे ही नाश्ता मेज पर पहुंचा देती है. सोमू, दीपा और कनक नाश्ता कर के अपनेअपने काम में लग जाते हैं. कनक की औनलाइन क्लास हो रही है.

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सोमू और दीपा अपनेअपने कमरे में लैपटौप खोल कर काम में लग जाते हैं. उस के आधे घंटे बाद कनक की क्लास शुरू हो जाती है. शुरू में कनक को औनलाइन पढ़ाई करने में बहुत दिक़्क़त आती थी. बहुत जल्दी खीझ जाता था. दीपा को भी समझ नहीं आता पढ़ाई के इस नए तरीक़े से कैसे बेटे को अवगत कराए. एक रोज सोमू ने कनक से कहा, “बेटा, मैं आप की हैल्प करूं?”

“यस पापा.”

पता नहीं कौन सा मंत्र उस ने कान में फूंका कि वह हैरान रह गई.

“अब तो होम वर्क भी पापा ही कराएंगे.” यह सुन कर दीपा मन ही मन ख़ुशी महसूस करती है.

एक दिन सोमू बोला, ” बाई सा, मैं घर का राशन ले आऊंगा. सुबह ब्रैड, बटर, सब्ज़ी और जरूरत का सामान लाने की ज़िम्मेदारी मुझ पर है. लौकडाउन जल्दी खुलने वाला नहीं है. मेम सा से उन की दवाइयों की लिस्ट ले कर मुझे पकड़ा दो. एक ही बार में सब ले आऊंगा.”

दीपा को सुन कर अच्छा लगा था. ‘बहुत ज़िम्मेदार हो गए हो सोमू.’ घर का सामान लाने पर दोनों की हमेशा लड़ाई होती थी. यह बात उस ने कोर्ट में जज साहब के सामने भी कही थी. चलो, कुछ बदलाव तो आया.

घर की छोटी से छोटी ज़िम्मेदारी को ले कर सोमू अब सजग है. बाई सा का भी हाथ बंटा देता है. बग़ैर पूछे बहुत से काम अपनेआप करते देख बाई सा मन ही मन मातारानी को धन्यवाद देती. यह जिम्मेदारी क्या सदा के लिए साब के कंधों पर नहीं आ सकती… कोई नहीं, वक्त का इतंजार करना चाहिए. ख़ुश है बाई सा इस नए माहौल से. पर सब से ज्यादा ख़ुश कनक है. शनिवार व इतवार रिलैक्स डेज हैं पूरे घर के लिए. कनक का शिड्यूल तय है. सुबह जल्दी नाश्ता कर के पापा के साथ खुले आसमान में पतंग उड़ाई जाती है. ढेरों परिंदों को ख़ूबसूरती से उड़ते देख सोमू को भी बहुत अच्छा लगता है.

परिंदों के झुंडों को बेख़ौफ़ उड़ते सभी ने पहली बार देखा था इस लौकडाउन में. कभी छत पर न आने वाली दीपा भी इस जादू से खिंची चली आती है. यहां छत से सामने के फ्लैटों की छतों पर भी लोग पतंगों का आनंद ले रहे हैं. यह अनुभव बचपन को उस के सामने ला कर खड़ा कर देता है.

दीपा को याद आता है, जब सोमू और वह छत पर छिपछिप कर मिलते थे. तब दीपा व सोमू इसी बिल्डिंग में ऊपरनीचे के फ्लैट में रहते थे. स्कूल अलग था पर क्लास एक ही थी. आज वह बीते कल को याद कर रही है.

प्यार को किसी रितु का इतंजार नहीं होता. फिर भी हर दिन दोनों को उसी प्यारे चेहरे का इतंजार रहता है जिसे वे बेहद चाहते हैं. दोनों मिले, हर दिन मिले और फिर लगने लगा कि दोनों एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते.

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सो, दोनों ने शादी कर ली. उन की मुहब्बत पर समाज ने मुहर लगा दी. और अब छत की जरूरत न थी.

एक साल बाद कनक का जन्म हुआ. दीपा सबकुछ भूल कर बेटे में खो गई. पति को कनक से बेपनाह प्यार था. पर न जानें क्यों उसे लगा, जैसे सोमू घर और बच्चे की ज़िम्मेदारी से दूर जाता जा रहा है. वह चिड़चिड़ा होता जा रहा था. अकसर सब्ज़ी की कटोरी से दीवार पर चित्रकारी होती उस के ग़ुस्से का. या दारू के गिलासों से दीवारों पर निशाना लगाया जाता. छोटीछोटी बात पर दोनों झगड़ पड़ते.

सोमू की शराब बढ़ती जा रही थी तो, झगड़े भी.

…और फिर जो न होना था, हो गया- तलाक़! एक भयानक हादसा. शुरू में दोनों को लगा, यही ठीक है, कहीं शांति तो है. पर कैलेंडर पर तारीख़ बदल जाने से कुछ नहीं होता है. कल क्या होगा, यह चिंता वक्त के साथ उसे खा रही थी. नई जिदगी में बच्चे का उतरा चेहरा देख समझ जाती, पिता से दूर रह कर बेटा ख़ुश नहीं है.

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दूसरी पारी: भाग 1- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

“कितनी अजीब बात है, मुझे औफ़िस जाना है और सोमू अभी तक नहीं पहुंचा. आज रोड पर भीड़ भी खास नहीं है.”

“बाई साब आते ही होंगे. आप को औफ़िस के लिए लेट हो रहा है, तो चली जाओ. घर पर कनक के साथ मैं तो हूं.”

“ठीक है, मैं जा रही हूं. और सुनो, हमेशा की तरह लंच वही बनाना जो दोनों को पसंद है. मैं शाम तक आऊंगी.”

दीपा के घर से जाते ही सुमित्रा ने घर का दरवाज़ा बंद कर लिया. कनक अपने खेल में व्यस्त है. 8 साल का कनक आज बहुत उत्साहित है. खेल छोड़ कर बारबार खिड़की के बाहर झांक लेता है.

आज उस के पापा उस से मिलने आ रहे हैं. महीने में सिर्फ 2 बार आते हैं. कनक को बेसब्री से पापा का इतंजार रहता है. पर मां को क़तई भी सोमू का इतंजार नहीं होता. यह बात उसे अच्छी नहीं लगती. आज भी उस ने गाड़ी की चाबी उठाती मां को टोका था.

“मम्मी, रुक जातीं. पापा से मिलने के बाद भी तो औफिस जा सकती हो,” बड़ी हिम्मत की थी कनक ने, जानता था, क्या जबाब मिलेगा.

“वह बेटा, स्पैशल मीटिंग है औफ़िस में. सो, फिर कभी,” कहती हुई दीपा ने उस के गाल पर किस किया और निकल ली थी. मां को बेटे ने ऐसे देखा जैसे कुछ गलत कर बैठी है.

कनक ने गाल को कस कर रगड़ा और मुंह मोड़ कर खेल में अपने को व्यस्त करने का प्रयत्न करने लगा. सुमित्रा से कुछ भी छिपा नहीं है. पिछले 10 वर्षों से इस घर में काम कर रही है वह. उस का पति राघव सोमू साब का ड्राइवर था. 6 वर्षों पहले उस की एक कार दुर्घटना में मौत हो गई थी. तब से सुमित्रा यहीं, इन लोगों के बीच घर के सदस्य की तरह रहती है. राघव के जाने के बाद सोमू साब ने ही उस से कहा था, “किसी के जाने से दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती. जब तक चाहो यहां रहो, यह घर पहले भी तुम ने संभाला था, अब भी तुम को ही संभालो. कनक की ज़िम्मेदारी अब तुम पर है.”

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इस बीच, बहुतकुछ बदल गया. सांब और दीपा बाई सा के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था. बात बढ़ते बढ़ते तलाक़ तक पहुंच गई.

कनक की कस्टडी मां दीपा को मिली. सुमित्रा ने बहुतकुछ देखा है. पर सब से ज्यादा दुख उसे इस मासूम को ले कर है. आज तक वह दिन नहीं भूली जब पापा से अलग होने के बाद कनक बुरी तरह रोया था. मां के साथ कोर्ट से बाहर निकलते हुए सहम गया था वह. ‘….मम्मा, पापा को भी साथ ले चलो. हम पापा और आप सब साथ रहेंगे. सुमित्रा बाई सा, आप ही पापा को ले आओ. आप के बुलाने से जरूर आ जाएंगे, मम्मी से तो नाराज़ हैं वे.’

बच्चे को इस तरह बिलखते और लोगों ने भी देखा था. सब की आंखें नम थीं. उस रोज कोर्ट से लौट कर किसी ने भी खाना नहीं खाया था. एक लंबी चुप्पी कई हफ्ते तक घर में पसरी रही थी. कनक की इतंजार करती आंखें सुमित्रा को आज भी याद है.

तब से सोमू साब महीने में दोबार कनक से मिलने आते हैं. जिस दिन पापा आते हैं उस दिन वह ख़ुश रहता है. जितनी देर सोमू बेटे के साथ रहते हैं, लगता है उस हर क्षण को जी लेना चाहता है वह. सुमित्रा भी साब व बेटे को हंसता, खिलखिलाता देख ख़ुश हो जाती है. पर वह जानती है कि यह खुशी मात्र 5 घंटे की है. फिर घर मे लंबा सन्नाटा पसर जाएगा जैसे टीवी पर चलतेचलते लाइट औफ़ हो जाती है.

“बाई सा, पापा की पसंद के सूखे आलू बनाए हैं न. देखना, 10 मिनट में पापा आ जाएंगे, फिर हम खूब खेलेंगे.”

कि तभी किर्रकिर्र घंटी बज उठी.

दरवाज़ा सुमित्रा ने खोला, “अरे, बाई सा, आप!”

दीपा को सामने देख हैरान थी. “मम्मा, आप? और पापा नहीं आए?” कनक मां को देख ख़ुश तो था पर सोच रहा था, ‘पापा भी आते ही होंगे.’

आज तो मम्मीपापा दोनों घर पर होंगे. ऐसा अवसर इतने सालों में कभी नहीं आया. हां, कई बार पापा घर में एंट्री लेते हैं, तो पापामम्मी आपस में हैलो का आदानप्रदान कर एकदूसरे को अवौइड कर के निकल जाते हैं.

कनक अब छोटा नहीं है. वक्त व हालात ने उसे बहुतकुछ सिखा दिया है तथा बहुत बड़ा बना दिया है.

मम्मी व पापा का एकदूसरे को ‘पहचानने से इनकार करना’ उसे बेहद चुभता है.

सुमित्रा बाई सा भी सब समझती है. लेकिन आज पापामम्मी दोनों घर पर होंगे. कनक कई बार सोचता है- मम्मीपापा पहले तो साथ रहते थे, पता नहीं अब पापा किसी और जगह रहते हैं. लेकिन ऐसा क्यों? दोनों आपस में बात भी नहीं करते. कभी सोचता है, मम्मी से पूछे, पर डरता है कहीं ऐसा न हो कि महीने में 2 बार पापा आते हैं वह अवसर भी उस से छिन जाए. नहीं, वह किसी से कुछ नहीं पूछेगा.

“मम्मी, आप लौट आईं, क्या हुआ?” वैसे, मम्मी की उपस्थित उसे भा रही है.

“मीटिंग कैंसिल हो गई. चौराहे तक पहुंची थी कि पुलिस वाले ने गाड़ी रोक कर कहा, ‘मेम सा, वापस जाएं, आज सभी औफ़िस बंद हैं.” मम्मी यह बता ही रही थी कि तभी डोरबैल बजी.

“ये तो पापा ही हैं. हमेशा, किर्र…किर्र 2 बार बैल बजाते हैं. पापा आ गए, पापा आ गए.”

स्टूल पर चढ़ कर दरवाज़ा खोला और हमेशा की तरह, ‘मेरे पापा’ कहता सोमू से लिपट गया वह.

रसोई की खिड़की के पार से बेटेबाप का मधुर मिलन दीपा ने देखा और मुह फेर लिया. जानती है, दोनों एकदूसरे से मिलने को कितने बेसब्र होते हैं. पर क्या करे. अब सबकुछ उस के हाथ से निकल चुका है. बेटा किसी भी हाल में पिता से दूर होना नहीं चाहता. इधर सुमित्रा से सोमू बता रहा था, “आज मुझे चौराहे पर पुलिस वाले ने रोक कर कहा, ‘बाबू जी, आगे आप नहीं जा सकते. शहर पूरा बंद है. जहां से आए हैं वहीं वापस चले जाएं.’ मैं ने कहा, मैं अपनी मां की दवा ले कर वापस घर ही जा रहा हूं. बाई सा, आज झूठ न बोलता तो यहां न पहुंच पाता. फिर हम अपने बेटे से कैसे मिलते?” और मुसकरा कर साथ लाया गिफ़्टपैक कनक को पकड़ा दिया.

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“हां पापा, लौट जाते तो मैं ग़ुस्सा हो जाता.” वह गिफ़्ट खोल कर बड़ी देर तक खेलता रहा.

उस दिन कनक को बहुत अच्छा लगा क्योंकि खाने की टेबल पर मम्मी पापा दोनों थे.

तीनों जन खाना खाते हुए 3 दिशाओं में अलगअलग सोच रहे थे.

5 बजे पापा चले जाएंगे. काश, पापा आज रुक जाते तो हम दोनों पूरी रात खूब मस्ती करते. खाना खाने के बाद छत पर हम पतंग उड़ाएंगे. पापा को अपनी नई वाली पेंटिंग भी दिखाऊंगा. पिछली बार पापा जो लीगों टौयज लाए थे, मैं ने अभी खोला भी नहीं है. आज हम दोनों मिल कर इसे जोड़ेंगे. मैं अकेला तो बना ही नहीं पाऊंगा. पापा मेरी हैल्प करेंगे.

दूसरी तरफ़, सोमू सोच रहा है- टीवी में दिखा रहे हैं करोना बीमारी के कारण शहर में लौकडाउन है. सड़कें खाली हैं. लोगों को घर से बाहर न आने की हिदायत दी जा रही है. जो घर से बाहर आ रहा है उसे पुलिस वाले वापस घर भेज रहे हैं. ये सब कब तक चलेगा? कहीं शाम को भी ऐसा रहा तो वह क्या करेगा? यहां आते वक्त तो झूठ बोल कर आ गया था लेकिन वापसी में नहीं चलेगा. यहीं रात बितानी पड़ी तो…? कहीं ऐसा न हो दीपा कुछ गलतसलत समझे. क़रार के मुताबिक़, कनक के साथ वह सिर्फ 5 घंटे बिता सकता है. जानता है, हमेशा की तरह उस की एंट्री के समय आज भी समय नोट किया गया होगा. खाने की टेबल पर बैठी दीपा उस को कनखियों से देख रही है. मेरे मन में क्या चल रहा है, जानने की पूरी कोशिश कर रही है.

और, जैसेजैसे घड़ी की सूई आगे बढ़ रही है, दीपा की बेसब्री बढ़ती जा रही है. कनक और सोमू ने पूरे दिन खूब मस्ती की. घड़ी में 5 बजते ही सोमू ने अपना बैग समेटा और बेटे को बाय कर के बाहर आ गया. नीचे गाड़ी चलाने से पहले कनक का उतरा चेहरा बालकनी से झांक रहा है. कनक का आख़िरी प्रयास- ‘पापा, प्लीज़ मत जाओ,’ सोमू के कानों को छू रहा है.

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जानता है, जैसे ही मेरी गाड़ी स्टार्ट होगी…कनक का रोना शुरू हो जाएगा. दीपा लंबी सांस खींच कर मन ही मन कहेगी, हे प्रकृति, शुक्र है दिन निकल गया. सोमू का मन भारी था.

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सिद्धार्थ की वापसी -भाग 1 : सुमित और तृप्ति शादी के बाद भी खुश क्यों नहीं थे

सुमित और तृप्ति का वैवाहिक जीवन सुचारु रूप से चल रहा था. फिर भी एक अनकही दूरी दोनों के बीच बनी हुई थी. इस का कारण था सिद्धार्थ. आखिर, कौन था यह सिद्धार्थ? ‘‘क्या बात है, सुमित. बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठे हो, कुछ चाहिए क्या?’’ तृप्ति ने सुमित को कहीं शून्य में ताकते देख प्रश्न किया, मगर सुमित स्वयं में ही डूबा बैठा रहा. ‘‘सुमित…? कहां खो गए तुम?’’ तृप्ति ने अपना स्वर ऊंचा कर फिर कहा तो मानो सुमित की तंद्रा टूटी. ‘‘कुछ कहा क्या तुम ने?’’ सुमित ने प्रश्न किया. ‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है, सुमित? आजकल देखती हूं तुम बात करतेकरते बीच में ही कहीं खो जाते हो?’’ ‘‘मैं क्या छोटा बच्चा हूं जो कहीं खो जाऊंगा,’’ सुमित बोला.

‘‘बड़े भी खो जाते हैं, सुमित, और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती,’’ तृप्ति गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं कई दिनों से तुम्हारी आंखों में अजीब सी तड़प देख रही हूं. मैं जब भी पूछती हूं, तुम टाल जाते हो. आज मैं तुम से जान कर ही रहूंगी.’’ ‘‘अगर मैं कहूं कि मैं भी तुम्हें खोना नहीं चाहता तो?’’ ‘‘विवाह के 7 वर्षों बाद भी यदि तुम्हें इतना विश्वास नहीं है तो हमारा दांपत्य अर्थहीन है, सुमित,’’ तृप्ति बोली. उस के स्वर की वेदना को सुमित ने साफ अनुभव किया था. ‘‘तो सुनो, तृप्ति, तुम्हें नहीं बताऊंगा तो और किसे बताऊंगा? जब से सिद्धार्थ से मिल कर लौटा हूं, मन बहुत उदास है.’’ ‘‘सिद्धार्थ यानी गौतम बुद्ध. वे कहां मिल गए तुम्हें?’’ तृप्ति हंसी. ‘‘यह उपहास का विषय नहीं है, तृप्ति,’’ सुमित के स्वर में तीव्र वेदना थी. ‘‘तुम्हें दुख पहुंचाने का मेरा विचार नहीं था, पर मैं सचमुच कुछ नहीं समझी,’’ कहते हुए तृप्ति ने नजरें नीची कर ली थीं.

‘‘मैं अपने पुत्र सिद्धार्थ की बात कर रहा था.’’ ‘‘ओह, सिद्धू,’’ तृप्ति ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा. ‘‘हां, उस का पूरा नाम सिद्धार्थ ही है, तृप्ति.’’ तृप्ति के सिर पर मानो किसी ने जोर से प्रहार किया था और अनेक चेहरे उस की आंखों के सामने गड्डमड्ड होते चले गए थे. पता नहीं, वह यह कैसे भूल जाती है कि वह सुमित की दूसरी पत्नी है. पहली पत्नी का पुत्र सिद्धू है और उस का अस्तित्व वह चाह कर भी नकार नहीं पाती है. सुमित से उस का पहला परिचय बड़ी ही नाटकीय परिस्थितियों में हुआ था. दोनों के कार्यालय एक ही भवन में थे और एक दिन अचानक वह बातों में इस तरह खो गई थी कि उसे समय का ध्यान ही नहीं रहा था. वह जब तक कार्यालय भवन के नीचे पहुंची थी, बस जा चुकी थी. दिसंबर के महीने में 5 बजते ही अंधेरा घिरने लगता है और उस दिन हलकी बूंदाबांदी भी हो रही थी. ‘कहां जाना है, आप को?’ तभी सुमित का स्कूटर उस के पास आ कर रुका था कि वह घबरा गई थी.

‘आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं अगली बस से चली जाऊंगी,’ तुरंत जवाब दे तृप्ति ने बेरुखी दिखाई थी. ‘मैं चिंता नहीं कर रहा हूं, पर आज बस चालकों ने अचानक हड़ताल कर दी है. इसीलिए मानवता के नाते पूछ लिया कि शायद आप को सहायता की जरूरत हो,’ सुमित ने भी दोटूक उत्तर दिया था. ‘हड़ताल? क्यों, क्या हुआ?’ तृप्ति चौंकी थी. ‘पता नहीं, सुना है, यात्रियों की किसी बस चालक से हाथापाई हो गई थी, इसीलिए जनता को इस आकस्मिक हड़ताल का सामना करना पड़ा है.’ ‘ओह, मुझे तो पता ही नहीं था. अभी तो कोई औटो भी नजर नहीं आ रहा है. क्या आप मुझे मलकपेट तक छोड़ देंगे?’ अचानक तृप्ति अब नरम हुई थी. ‘इसीलिए मैं ने आप से पूछा था. वैसे मेरा घर भी उधर ही है. आप चाहें तो मेरे साथ आ सकती हैं. मैं इसी भवन में ‘मौडल सौफ्टवेयर’ में कार्यरत हूं. पता नहीं आप ने कभी मुझे देखा है या नहीं, पर मैं तो प्रतिदिन आप को बस का इंतजार करते यहीं खड़ी देखता हूं,’ सुमित ने अपना परिचय देते हुए कहा था. तृप्ति को घर जो पहुंचना था, सो वह लपक कर सुमित के स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ गई थी, पर वह रास्तेभर स्वयं को कोसती रही थी कि इस तरह दीनदुनिया से वह बेखबर क्यों रहती है? ये महाशय तो प्रतिदिन मुझे निहारते रहे और मैं इन के अस्तित्व से सर्वथा अनभिज्ञ हूं. उस के बाद तो यह रोज की ही बात हो गई. यद्यपि सुमित का घर दूसरी ओर पड़ता था, पर तृप्ति से घनिष्ठता बढ़ाने के लिए ही उस ने हड़ताल वाले दिन झूठ बोल दिया था.

जब एक दिन सुमित उसे अपने घर ले गया था और सुमित ने हकीकत बयान की थी तब वह यह जान कर खूब हंसी थी. धीरेधीरे सुमित का मनमोहक व्यक्तित्व उस के अस्तित्व पर छाता चला गया था. उस दिन सुमित ने उसे खुद ही भोजन बना कर खिलाया था. भोजन ठीकठाक ही बना था, पर सुमित के प्रेमपूर्ण व्यवहार से ही वह तृप्त हो गई थी. यों तो सुमित उसे घर तक छोड़ने आया था, पर खापी कर लौटने में काफी देर हो गई थी. तृप्ति के पिता अर्जुन राव दरवाजे पर ही खड़े बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. ‘क्या बात है, पिताजी? आप दरवाजे पर ही खड़े हैं? यह समय तो आप के पसंदीदा टीवी कार्यक्रम का है,’ कहते हुए तृप्ति पिता को देखते ही मुसकराई थी. ‘जब जवान बेटी के कदम भटक रहे हों तो दरवाजे पर खड़े रहना ही तो पिता की नियति बन जाती है,’ पिता का क्रोधित स्वर सुन कर वह सहम गई थी. उस के पिता ने उस से कभी भी इस तरह बात नहीं की थी. ‘पूछिए न, अब पूछते क्यों नहीं? इतनी देर से तो घर सिर पर उठा रखा था,’ अंदर पहुंचते ही उस की मां, जो भरी बैठी थीं, कहते हुए बिफर पड़ी. ‘हांहां, पूछूंगा क्यों नहीं, मैं क्या डरता हूं? आजकल तुम किस के साथ घूमतीफिरती हो?’ पिता का पारा फिर चढ़ने लगा था.

‘‘शायद आप सुमित की बात रहे हैं. मैं उस के साथ केवल घूमफिर नहीं रही हूं, हम दोनों एक ही भवन के कार्यालयों में काम कर रहे हैं और बहुत अच्छे मित्र हैं,’ तृप्ति बोली थी. ‘और केवल मित्रता के नाते ही वह तुम्हें प्रतिदिन घर छोड़ने आता है?’ उस की मां ने प्रश्न किया था. ‘और तुम 9 बजे तक उस के साथ घूमती रहती हो? यह शरीफ लड़कियों के घर लौटने का समय है? तुम तो शायद अत्याधुनिक हो गई हो, पर हमें इसी समाज में रहना है,’ अर्जुन राव बोले थे. ‘आप वेंकट बाबू के बेटे के संबंध में बात चलाओ ताकि जल्दी से जल्दी इस के विवाह का प्रबंध किया जा सके, नहीं तो यह मित्रता तो हमारी नाक ही कटवा कर रहेगी,’ तृप्ति की मां बोली थीं. ‘नहीं मां, ऐसी गलती मत करना. मैं सुमित के अलावा और किसी से विवाह नहीं करूंगी,’ तृप्ति घबरा कर बोली थी.

सिद्धार्थ की वापसी -भाग 2 : सुमित और तृप्ति शादी के बाद भी खुश क्यों नहीं थे

देखा, आ गई न गाड़ी पटरी पर, खुल गई मित्रता की पोल,’ मां और पिताजी लगभग एकसाथ बोले थे. ‘ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप दोनों सोच रहे हैं. बस, हम दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता है,’ तृप्ति ने सफाई देनी चाही थी. ‘ठीक है, हमारी बात हमें अच्छी तरह समझ में आ गई. अब तुम भी तुम्हारी बात समझ लो. कल ही सुमित से बात करो और यदि वह विवाह के लिए तैयार है तो हम उस के मातापिता से बात आगे बढ़ाएंगे, नहीं तो हम तुम्हारा विवाह कहीं और कर देंगे,’ तृप्ति के पिता ने सख्ती से कहा था. ‘इसे आदेश समझूं या चेतावनी?’ कह कर तृप्ति ने मुसकराना चाहा था. ‘वह तुम्हारी इच्छा है, पर हम अब और चुप्पी नहीं साध सकते. इस पार या उस पार, हमें समाज में रहना है और उस के बनाए नियमकायदे हमें मानने पड़ते हैं.

अरे, यह क्या कोई विलायत है जो तुम खुलेआम अपने पुरुष मित्र के साथ घूमती रहोगी और कोई कुछ नहीं कहेगा? यह बात बिरादरी में फैल गई तो तुम्हारा विवाह करवाना कठिन हो जाएगा,’ तृप्ति के पिता ने गंभीरता से कहा था. ‘आप ऐसी बातें कर के मुझे नीचा दिखाने का प्रयत्न क्यों करते रहते हैं? आप डरते होंगे बिरादरी से, मैं नहीं डरती. फिर बिरादरी ने हमारे लिए किया ही क्या है कि हम हर पल उस से थरथर कांपते रहें,’ तृप्ति स्वयं पर नियंत्रण न रख सकी थी. ‘देखा, न कहती थी मैं कि लड़की को अधिक पढ़ाओलिखाओ मत. चलो, पढ़लिख भी ली तो कम से कम नौकरी तो मत करवाओ, पर मेरी सुनता ही कौन है. आप को तो बेटी को अपने पैरों पर खड़ा करना था. चलो, अच्छा हुआ, पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गई है आप की बेटी,’ तृप्ति की मां व्यंग्य से बोली थीं.

‘क्यों बात का बतंगड़ बना रही हैं आप. कह तो दिया है कि सुमित से बात करूंगी,’ कहती हुई तृप्ति अपने कक्ष की ओर चली गई थी और मातापिता देर तक बड़बड़ाते रहे थे. तृप्ति जब दूसरे दिन कार्यालय पहुंची तो किसी भी कार्य में उस का मन नहीं लगा था. उस ने कई बार सुमित को फोन किया, पर वह भी न जाने कहां चला गया था. ‘शाम को 5 बजे तक लौट आएगा वह,’ उस के सहकर्मी ने तृप्ति को बताया था. ‘क्या हुआ? कहां चले गए थे तुम? सुबह से मैं ने तुम्हें हजार बार फोन किया था,’ शाम को जब कार्यालय बंद होने पर तृप्ति नीचे उतरी तो सुमित को स्कूटर सहित सामने खड़ा देख वह भड़क उठी थी. ‘खैरियत तो है, आज तो आप पत्नी की तरह डांट रही हैं. बात क्या है? घर जल्दी पहुंचना है क्या? आइए, बैठिए. मिनटों में आप हवा से बातें कर रही होंगी,’ सुमित ने स्कूटर पर बैठने का इशारा करते हुए मुसकरा कर कहा था. ‘ऐसा कुछ नहीं है, पर मुझे तुम से बहुत जरूरी बात करनी है. मैं अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकती,’

कहते हुए तृप्ति रोंआसी हो उठी थी. ‘ऐसी क्या जरूरी बात है? चलो, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं,’ अपना उपहास भूल कर सुमित ने प्रस्ताव दिया था, पर तृप्ति ने केवल हां में सिर हिला दिया था तो एक रैस्टोरैंट में जा कर वे दोनों एकदूसरे के सामने बैठ कर चाय पीने लगे. ‘हां, बोलो, समस्या क्या है? मैं तो तुम्हारी हालत देख कर घबरा ही गया था,’ कहते हुए सुमित ने अपनी आकुल नजरें तृप्ति के चेहरे पर टिका दी थीं. ‘मैं कल जब देर से घर पहुंची तो मां और पिताजी बहुत नाराज थे,’ तृप्ति ने अपने मन की बात कहनी शुरू की थी. ‘उन का नाराज होना सही था. यदि जवान बेटी रात को 10 बजे घर पहुंचे तो कौन से मातापिता नाराज नहीं होंगे,’ सुमित ने शालीन लहजे में समझाते हुए कहा था. ‘10 बजे? मैं पूरे 11 बजे घर पहुंची थी, वह भी तुम्हारे कारण क्योंकि तुम्हें मुझे अपने हाथ का पकाया भोजन कराने का शौक जो चढ़ आया था. फिर भी तुम यह निर्णय कर लो कि तुम मेरी तरफ हो या उन की तरफ,

’ तृप्ति झुंझला उठी थी. ‘मैं पूरी तरह अपनी तृप्ति के साथ हूं, पर बताओ तो सही कि आगे क्या हुआ?’ ‘पिताजी का आदेश है कि हमारे संबंध को जल्दी से जल्दी परिभाषित किया जाए,’ कहते हुए तृप्ति खिलखिला कर हंसी थी. तृप्ति ने सोचा था कि उस की बातें सुनते ही सुमित भावुक हो कर, उस का हाथ अपने हाथ में ले कर कल्पनाओं में खो जाएगा या फिर कहेगा कि यह क्या प्रिये, इतनी सी बात के लिए तुम इतनी परेशान थीं. हम दोनों तो बने ही एकदूसरे के लिए हैं, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ था वह गुमसुम बैठा रहा. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. ‘बात क्या है, सुमित? तुम तो बिलकुल गुमसुम हो गए. शायद तुम ने मेरी बात का मतलब नहीं, समझा?’ ‘मैं ने तुम्हारी बात का मतलब अच्छी तरह समझ लिया है, तृप्ति. पर मेरे लिए तुम्हारी बात का उत्तर दे पाना सरल नहीं होगा,’ सुमित गंभीर स्वर में बोला था. ‘अर्थात मेरे मातापिता जो सोच रहे थे, वही सही था? साथ घूमनाफिरना, सैरसपाटा अलग बात है, पर विवाह अपने लोगों में भारीभरकम दहेज ले कर ही करोगे?’ तृप्ति आवेशपूर्ण स्वर में बोली थी.

‘ऐसा कुछ नहीं है. तुम जैसी पत्नी तो किसी खुशमिजाज इंसान को ही मिलेगी.’ ‘हां, और तुम खुद को उस खुशमिजाजी से वंचित रख कर कितना बड़ा त्याग कर रहे हो,’ तृप्ति ने उलाहनाभरे अंदाज में कहा था. ‘तृप्ति, क्या हम केवल मित्र बन कर नहीं रह सकते? मैं कारण बता कर तुम्हें खोना नहीं चाहता?’ ‘यदि तुम ने आज ही मुझे सबकुछ नहीं बताया तो मैं तुम्हारा मुंह भी नहीं देखूंगी,’ तृप्ति ने तैश में आ कर कहा. ‘तो सुनो, मेरी शादी हो चुकी है. 2 वर्ष पहले मेरे बेटे सिद्धार्थ के जन्म के समय वह हम सब को रोताबिलखता छोड़ कर चली गई थी.’ ‘और आप का बेटा?’ ‘उझानी नाम का छोटा सा कसबा है, वहीं मेरे मातापिता के पास रहता है.’ ‘6 महीने से हम दोनों साथ घूमफिर रहे हैं. तुम ने इतनी बड़ी बात मुझ से छिपाए रखी?’ कहते हुए तृप्ति रोंआसी हो गई. ‘ऐसी कोई विशेष बात भी नहीं, फिर तुम ने कभी पूछा नहीं, तो मैं क्यों बताता? पर जब आज बात शादी की उठी तो तुम्हें खोने का खतरा उठा कर भी मैं ने यह बात बताई, क्या यही काफी नहीं है?’ सुमित ने अपनी बात स्पष्ट की थी. ‘नहीं, यह सच नहीं है. 6 माह तक तुम मेरे साथ घूमतेफिरते रहे, यों दुनियाभर की बातें करते हो, पर बातोंबातों में भी तुम ने कभी अपने विवाह या बेटे का नाम तक नहीं लिया,’ तृप्ति ने शिकायती लहजे में कहा. ‘यह तुम नहीं, तुम्हारी वह मानसिकता बोल रही है जिस में हमारे समाज का हर व्यक्ति एक पुरुष और स्त्री की मित्रता को सही परिप्रेक्ष्य में आंक ही नहीं पाता. उस की परिणति व लक्ष्य दोनों ही केवल वैवाहिक संबंध ही क्यों होते हैं,

तृप्ति?’ सुमित धीरगंभीर स्वर में बोला था. ‘सुमित, इतने आदर्शवादी बनने का प्रयास मत करो. क्या तुम ने इन महीनों में कभी विवाह के संबंध में नहीं सोचा?’ कहते हुए तृप्ति की आंखें छलछला आई थीं. ‘तृप्ति, मैं झूठ नहीं कहूंगा, तुम मुझे पहली ही नजर में भा गई थीं, पर मेरी पत्नी के निधन के बाद मेरा जीवन बहुत अस्तव्यस्त हो गया था. अभी तो उसे नए सिरे से संवारने का समय भी नहीं मिला. सोचा था कि तुम्हें धीरेधीरे सिद्धार्थ के संबंध में बताऊंगा, उस से मिलवाऊंगा शायद बात बन जाए. मैं सिद्धार्थ को भी बहुत चाहता हूं और नए संबंध बनाते समय पुराने संबंधों को तोड़ा तो नहीं जाता न?’ ‘ओह, तो तुम ने सोचा था कि यदि तुम मेरे बहुत आगे बढ़ने के बाद अपने पुत्र का प्रवेश हमारी कहानी में करोगे तो तुम गलती पर थे. आज के बाद तुम मुझ से मिलने का प्रयास मत करना.

तुम ने यह समझ भी कैसे लिया कि मैं तुम्हारे जैसे व्यक्ति को कभी स्वीकार कर पाऊंगी,’ कहते हुए तृप्ति उठ खड़ी हुई थी. ‘रुको तो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं,’ सुमित बोला था. ‘धन्यवाद, मुझे अपने घर की राह पता है, वह तो तुम्हारी संगति में पड़ कर भूल गई थी,’ कहते हुए तृप्ति रैस्टोरैंट से बाहर चली गई और सुमित पुकारता ही रह गया था. क्षणांश में ही तृप्ति उस की आंखों से ओझल हो गई थी. अगले दिन से सुमित उसी जगह खड़ा हो कर तृप्ति के कार्यालय की सीढि़यों की ओर ताकता रहता, पर तृप्ति पता नहीं कार्यालय आती भी थी या नहीं और आती थी तो किधर से निकल जाती थी, पता ही नहीं चलता था. कुछ दिनों बाद वह नजर भी आई थी तो मुंह फेर कर चल दी थी. ‘तृप्ति, मुझे तुम से जरूरी बातें करनी हैं,’ एक दिन कार्यालय से लौट कर तृप्ति आंखें मूंदे सोफे पर पसरी हुई थी,

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