सुसाइड: भाग 3- क्या पूरी हो पाई शरद की जिम्मेदारियां

लेखक- सुकेश कुमार श्रीवास्तव

पिछले अंक में आप ने पढ़ा था : शरद के एक दूर के साले ने उसे पान खाने का चसका लगा दिया. पहले मीठा, फिर तंबाकू वाला. धीरेधीरे शरद गुटखा खाने लगा. एक दिन मुंह में छाला हुआ तो डाक्टर ने उसे चेतावनी देते हुए दवा लिख दी. शरद को लगा कि उसे कैंसर हो गया है. इस से उस की हालत पतली हो गई..

अब पढ़िए आगे…

‘‘पर, यह छिपेगा कैसे महेंद्रजी? आपरेशन होगा. आपरेशन और दवा के खर्चों का बिल औफिस से पास होगा. पता तो चल ही जाएगा न.’’

‘‘अरे, कंपनी को कैसे पता चलेगा?’’

‘‘वह डैथ सर्टिफिकेट होता है न. कंपनी डैथ सर्टिफिकेट तो मांगेगी न?’’

‘‘तो…?’’

‘‘उस में तो मौत की वजह लिखी होती है न. उस में अगर कैंसर लिखा होगा तो समस्या हो सकती है न.’’

‘‘अरे, आप इतनी फिक्र मत कीजिए भाई. आप के डैथ सर्टिफिकेट में हम लोग कुछ और लिखा देंगे. इतना तो हम लोग कर ही लेते हैं. अब जाइए, मैं कुछ काम कर लूं.’’

शरद चिंतित सा उठ गया. पीछे से महेंद्रजी ने आवाज दी, ‘‘शरद बाबू, एक बात सुनिए.’’

शरद पलट गया, ‘‘जी…’’

‘‘आप पान-गुटखा खाना छोड़ दीजिए. अगर कौज औफ डैथ में कोई और वजह लिखी होगी तो क्लेम में कोई परेशानी नहीं आएगी. समझ गए न…’’

‘‘जी, समझ गया. छोड़ दिया है.’’

आधे घंटे के अंदर पूरे औफिस में खबर फैल गई कि शरद को कैंसर हो गया है.

चपरासी ने आ कर शरद को बताया कि इंजीनियर साहब उसे बुला रहे हैं.

शरद उन के केबिन में गया. उन्होंने इशारे से बैठने को कहा.

‘‘कौन सी स्टेज है?’’ उन्होंने गुटखा थूक कर कहा.

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‘‘जी, अभी तो कंफर्म ही नहीं है. टैस्ट होना है.’’

‘‘इस का पता ही लास्ट स्टेज पर चलता है. आप लोग बड़ी गलती करते हैं. निगल जाते हैं. अब मुझे देखिए. जब से पान मसाला चला है, खा रहा हूं, पर मजाल है कि कभी निगला हो.

‘‘कभीकभी हो जाता है.’’

‘‘तभी तो यह परेशानी होती है. मैं आप की फाइल देख रहा था. आप की पत्नी का नाम रजनी है न?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘वह ग्रेजुएट है न?’’

‘‘जी. साइंस में ग्रेजुएट है.’’

‘‘बहुत बढि़या. कंप्यूटर का कोई कोर्स किया है क्या?’’

‘‘नहीं साहब. वह तो उस ने नहीं किया है.’’

‘‘करा दीजिए. 3 महीने का कोर्स करा दीजिए. आप तो जानते ही हैं कि आजकल कंप्यूटर के बिना काम नहीं चलता.’’

‘‘जी, मैं जल्दी ही करा दूंगा.’’

‘‘उसे आप की जगह नौकरी मिल जाएगी. आप के पीएफ में कुछ प्रौब्लम है, पर मैं उसे देख लूंगा.’’

‘‘पर, अभी कंफर्म नहीं हुआ है. टैस्ट होने हैं.’’

‘‘कंफर्म ही समझिए और क्या आप लेंगे?’’ उन्होंने नया पाउच तोड़ते हुए पूछा.

‘‘नहीं साहब, मैं ने खाना छोड़ दिया है.’’

‘‘अरे, आराम से खाइए…’’ उन्होंने पाउच सीधे मुंह में डालते हुए कहा, ‘‘जितना समय बचा है, जो मन हो खाइए. जितना नुकसान होना था हो चुका है. अब कोई फर्क नहीं पड़ना है, खाइए या छोडि़ए. खुश रहिए और मस्त रहिए.

‘‘शरद बाबू, दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी. बीवी को जौब मिल जाएगी और बच्चा पल जाएगा. कुछ समय बाद किसी को आप की याद भी नहीं आएगी. पर उस ने कंप्यूटर कोर्स किया होता तो अच्छा था. उस की अंगरेजी कैसी है?’’

‘‘ठीक ही है.’’

‘‘आप की अंगरेजी कमजोर थी. आप की ड्राफ्टिंग भी कमजोर थी. हम तो यही चाहते हैं कि औफिस को काम का स्टाफ मिले.’’

‘‘मैं करा दूंगा सर. मैं उसे कंप्यूटर कोर्स करा दूंगा. 3 महीने वाला नहीं, 6 महीने वाला करा दूंगा.’’

‘‘नहीं. 3 महीने वाला ही ठीक है. बीच में छोड़ना न पड़े.’’

‘‘ठीक है सर.’’

‘‘आल माई बैस्ट विशेज.’’

‘‘थैंक्यू सर,’’ कह कर शरद बाहर आ कर अपनी सीट पर पहुंचा.

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इंजीनियर की बात सुन कर शरद का मन घबराने लगा. उस ने एक हफ्ते की मैडिकल लीव की एप्लीकेशन लिखी व सीधे इंजीनियर साहब के कमरे में आ गया. वे खाना खा कर नया पाउच तोड़ रहे थे.

‘‘सर, मैं घर जा रहा हूं एक हफ्ते की मैडिकल लीव पर,’’ शरद ने अपना निवेदन उन की सीट पर रखा.

‘‘मैं तो पहले ही कह रहा था. जाइए और भी छुट्टी बढ़ानी हो तो बढ़ा दीजिएगा. एप्लीकेशन देने की भी जरूरत नहीं है. फोन कर दीजिएगा. मैं संभाल लूंगा.’’

शरद घर आ गया. वह बहुत निराश था. पर इंजीनियर साहब की एक बात से उसे तसल्ली मिली. रजनी को नौकरी मिल जाएगी और वह बेसहारा नहीं रहेगी.

5वें दिन शाम को शरद डाक्टर के यहां पहुंचा. रजनी भी जिद कर के साथ गई थी. उन की बारी आई तो वे डाक्टर के चैंबर में गए.

‘‘आइए, कैसे हैं आप?’’ डाक्टर साहब ने उन्हें पहचान लिया.

‘‘क्या हाल बताएं डाक्टर साहब,’’ शरद ने कहा, ‘‘अब आप ही देखिए और बताइए.’’

‘‘आप के छाले का क्या हाल है?’’

‘‘दर्द तो कम है, लेकिन खाना खाने में तकलीफ होती है.’’

‘‘अच्छा, मुंह खोलिए.’’

शरद ने मुंह खोला. उसे लगा कि मुंह पहले से कुछ ज्यादा खुल रहा है.

‘‘यह देखिए…’’ डाक्टर ने एक शीशा लगे यंत्र को मुंह में डाल कर दिखाया, ‘‘यह गाल देखिए. दूसरी तरफ भी यह देखिए. पूरा चितकबरा हो गया है. इस में जलन या दर्द है क्या?’’

‘‘नहीं डाक्टर साहब. जलन या दर्द तो पहले भी नहीं था, पर जबान से छूने पर पता नहीं चलता है.’’

‘‘सैंसिविटी खत्म हो गई है. आजकल पान मसाला के पाउच का क्या स्कोर है?’’

‘‘छोड़ दिया है डाक्टर साहब…’’ अब रजनी बोली, ‘‘जिस दिन से आप के पास से गए हैं, उस दिन के बाद से नहीं खाया है.’’

‘‘आप को क्या मालूम? आप जरा चुप रहिए. आप से बाद में बात करता हूं. ये बाहर जा कर खा आते होंगे, तो आप को क्या पता चलेगा’’

‘‘नहीं डाक्टर साहब, मैं ने उस दिन से पान मसाला का एक दाना भी नहीं खाया है,’’ शरद की आवाज भर्रा गई.

‘‘क्यों नहीं खाया है? आप तो दिनभर में 20 पाउच खा जाते थे.’’

‘‘डर लगता है साहब.’’

‘‘वैरी गुड. तभी आराम दिख रहा है. मैं 5 दिन की दवा और दे रहा हूं. उस के बाद दिखाइएगा.’’

‘‘डाक्टर साहब, वह कैंसर वाला टैस्ट…’’ शरद ने कहना चाहा.

‘‘5 दिन बाद. जरा और प्रोग्रैस देख लें, उस के बाद. और आप अब जरा बाहर बैठिए. मुझे आप की पत्नी से कुछ बात करनी है.’’

शरद उठ कर धीरेधीरे बाहर आ गया व दरवाजा बंद कर दिया. रजनी हैरान सी बैठी रही.

‘‘पिछले 5 दिन आप लोगों के कैसे बीते?’’ डाक्टर साहब ने रजनी से पूछा.

रजनी जवाब न दे पाई. उस की आंखें भर आई व गला रुंध गया. उस ने आंचल मुंह पर लगा लिया.

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आगे पढ़ें- रजनी बाहर आ गई. शरद बेचैन हो रहा था….

सुसाइड: भाग 1- क्या पूरी हो पाई शरद की जिम्मेदारियां

बड़ी जिम्मेदारियां थीं शरद के ऊपर. अभी उस की उम्र ही क्या थी. महज 35 साल. रजनी सिर्फ 31 साल की थी और सोनू तो अभी 3 साल का ही था. उस ने जेब में हाथ डाल कर गुटखे के दोनों पाउच को सामने ही रखे बड़े से डस्टबिन में फेंक दिया.

‘देखिए, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता…’ शरद को लगा, जैसे डाक्टर का कहा उस के जेहन में गूंज रहा हो, ‘अगर दवाओं से आराम हो गया तो ठीक है, नहीं तो कुछ कहा नहीं जा सकता. मुंह पूरा नहीं खुल पा रहा है. अगर आराम नहीं हुआ तो कुछ टैस्ट कराने पड़ेंगे. 5 दिन की दवा दे रहा हूं, उस के बाद दिखाइएगा.’

तब सोनू पैदा नहीं हुआ था. रजनी के मामा के लड़के की शादी थी. शरद की खुद की शादी को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ था. शादी के बाद ससुराल में पहली शादी थी. उन्हें बड़े मन से बुलाया गया था.

रजनी के मामाजी का घर बिहार के एक कसबेनुमा शहर में था. रजनी के पिताजी, मां, भाई व बहन भी आ ही रहे थे. दफ्तर में छुट्टी की कोई समस्या नहीं थी, इसलिए शरद ने भी जाना तय कर लिया था. ट्रेन सीधे उस शहर को जाती थी. रात में चल कर सुबहसुबह वहां पहुंच जाती थी, पर ट्रेन लेट हो कर 10 बजे पहुंची.

स्टेशन से ही आवभगत शुरू हो गई. उन्हें 4 लोग लेने आए थे. उन्हीं में थे विनय भैया. थे तो वे शरद के साले, पर उम्र थी उन की 42 साल. खुद ही बताया था उन्होंने. वे रजनी के मामाजी के दूर के रिश्ते के भाई के लड़के थे.

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वे खुलते गेहुंए रंग के जरा नाटे, पर मजबूत बदन के थे. सिर के बाल घने व एकदम काले थे. उन की आंखें बड़ीबड़ी व गोल थीं. वे बड़े हंसमुख थे और मामाजी के करीबी थे.

‘आइए… आइए बाबू…’ उन्होंने शरद को अपनी कौली में भर लिया, ‘पहली बार आप हमारे यहां आ रहे हैं. स्वागत है. आप बिहार पहली बार आ रहे हैं या पहले भी आ चुके हैं?’

‘जी, मैं तो पहली बार ही आया हूं साहब,’ शरद ने भी गर्मजोशी से गले मिलते हुए अपना हाथ छुड़ाया.

‘अरे, हम साहब नहीं हैं जमाई बाबू…’ उन के मुंह में पान भरा था, ‘हम आप के साले हैं. नातेरिश्तेदारी में सब से बड़े साले. नाम है हमारा विनय बाबू. उमर है 42 साल. सहरसा में अध्यापक हैं, पर रहते यहीं हैं. कभीकभार वहां जाते हैं.’

‘आप अध्यापक हैं और स्कूल नहीं जाते?’ शरद ने हैरानी से कहा.

‘अरे, स्कूल नहीं कालेज जमाई बाबू…’ उन्होंने जोर से पान की पीक थूकी, ‘हां, नहीं जाते. ससुरे वेतन ही नहीं देते. चलिए, अब तो आप से खूब बातें होंगी. आइए, अब चलें.’

तब तक साथ आए लोगों ने प्रणाम कर शरद का सामान उठा लिया था. वे स्टेशन से बाहर की ओर चले.

‘आप किस विषय के अध्यापक हैं?’ शरद ने चलतेचलते पूछा.

‘हम अंगरेजी के अध्यापक हैं…’ उन्होंने गर्व से बताया, ‘हाईस्कूल की कक्षाएं लेता हूं जमाई बाबू.’

स्टेशन के बाहर आ कर सभी तांगे से घर पहुंचे. शरद का सभी रिश्तेदारों से परिचय हुआ.

तब शरद को पता चला कि विनय भैया नातेरिश्ते में होने वाले शादीब्याह के अभिन्न अंग हैं. वे हलवाई के पास बैठते थे. विनय भैया सुबह से शाम तक हलवाइयों के साथ लगे रहते थे.

दूसरे दिन विनय भैया आए.

‘आइए जमाई बाबू…’ विनय भैया बोले, ‘आप बोर हो गए होंगे. आइए, जरा आप को बाहर की हवा खिलाएं.’

सुबह का नाश्ता हो चुका था. शरद अपने कमरे में अकेला बैठा था. वह तुरंत उठ खड़ा हुआ. घर से बाहर निकलते ही विनय भैया ने नाली में पान थूका.

‘आप पान बहुत खाते हैं विनय भैया,’ शरद से रहा नहीं गया.

‘बस यही पान का तो सहारा है…’ उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘खाना चाहे एक बखत न मिले, पर पान जरूर मिलना चाहिए. आइए, पान खाते हैं.’

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वे उसे आगे मोड़ पर बनी पान की दुकान की ओर ले चले.

‘मगही पान लगाओ. चूना कम, भीगी सुपारी, इलायची और सादा पत्ती. ऊपर से तंबाकू,’ उन्होंने पान वाले से कहा.

‘आप कैसा पान खाएंगे जमाई बाबू?’ उन्होंने उस से पूछा.

‘मैं पान नहीं खाता,’ शरद बोला.

‘अरे, ऐसा कहीं होता है. पान खाने वाली चीज है, न खाने वाली नहीं जमाई बाबू.’

‘सच में मैं पान नहीं खाता, पर चलिए, मैं मीठा पान खा लूंगा.’

‘मीठा पान तो औरतें खाती हैं, बल्कि वे भी जर्दा ले लेती हैं.’

‘नहीं, मैं जर्दातंबाकू बिलकुल नहीं खाता.’

‘अच्छा भाई, जमाई बाबू के लिए जनाना पान लगाओ.’

पान वाले ने पान में मीठा डाल कर दिया.

वे वापस आ कर हलवाई के पास पड़ी कुरसियों पर बैठ गए और हलवाई से बातें करने लगे. आधा घंटा बीत गया.

तभी विनय भैया ने एक लड़के से कहा, ‘अबे चिथरू, जा के 2 बीड़ा पान लगवा लाओ. बोलना विनय बाबू मंगवाए हैं.’

वह लड़का दौड़ कर गया और पान लगवा लाया.

‘लीजिए जमाई बाबू, पान खाइए. अबे, जमाई बाबू वाला पान कौन सा है?’

‘आप पान खाइए…’ शरद ने कहा, ‘मेरी आदत नहीं है.’

‘चलो तंबाकू अलग से दिए हैं…’ विनय बाबू ने पान चैक किए, ‘लीजिए. यह तो सादा चूनाकत्था है. जरा सी सादा पत्ती डाल देते हैं.’

‘नहीं विनय भैया, मु झे बरदाश्त नहीं होगी.’

‘अरे, क्या कहते हैं जमाई बाबू? सादा पत्ती भी कोई तंबाकू होती है क्या. वैसे जर्दातंबाकू खाना तो मर्दानगी की निशानी है. सिगरेट आप पीते नहीं, दारू वगैरह को तो सुना है, आप हाथ भी नहीं लगाते. जर्दातंबाकू की मर्दानगी तो यहां बच्चों में भी होती है.’

तब तक विनय बाबू पान में एक चुटकी सादा पत्ती वाला तंबाकू डाल कर उस की तरफ बढ़ा चुके थे. शरद ने उन से पान ले कर मुंह में रख लिया. कुछ नहीं हुआ. मर्दानगी के पैमाने को उस ने पार कर लिया था.

शादी से लौट कर शरद ने पान खाना शुरू कर दिया. बहुत संभाल कर बहुत थोड़ी सी सादा पत्ती व तंबाकू लेने लगा. फिर तो वह कायदे से पान खाने लगा. कुछ नहीं हुआ. बस यह हुआ कि उस के खूबसूरत दांत बदसूरत हो गए.

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एक बार शरद को दफ्तर के काम से एक छोटी सी तहसील में जाना पड़ा. गाड़ी से उतर कर उस ने एक दुकान से पान खाया. पान एकदम रद्दी था. कत्था तो एकदम ही बेकार था. तुरंत मुंह कट गया.

‘बड़ा रद्दी पान लगाया है,’ शरद ने पान वाले से कहा.

‘यहां तो यही मिलता है बाबूजी.’

‘पूरा मुंह खराब कर दिया यार.’

‘यह लो बाबूजी, इस को दबा लो,’ उस ने एक पाउच बढ़ाया.

‘यह क्या है?’

‘यह गुटखा है. नया चला है. इस से मुंह कभी नहीं कटेगा. इस में सुपारी, कत्था, चूना, इलायची सब मिला है. पान से ज्यादा किक देता है बाबूजी.’

शरद ने गुटखे का पाउच फाड़ कर मुंह में डाल लिया.

अपने शहर में आ कर अपनी दुकान से शरद ने पान खाया. आज मजा नहीं आया. उस ने 4 गुटखे ले कर जेब में डाल लिए.

सोतेसोते तक में शरद चारों गुटखे खा गया. सुबह उठते ही ब्रश करते ही गुटखा ले आया. धीरेधीरे उस की पान खाने की आदत छूट गई. खड़े हो कर पान लगवाने की जगह गुटखा तुरंत मिल जाता था. रखने में भी आसानी थी. खाने में भी आसानी थी. परेशानी थोड़ी ही थी. मुंह का स्वाद खत्म हो गया. खाने में टेस्ट कम आता था.

रजनी परेशान हो गई. शरद की सारी कमीजों पर दाग पड़ गए, जो छूटते ही नहीं थे. सारी पैंटों की जेबों में भी दाग थे. उसे कब्ज रहने लगी. पहले उठते ही प्रैशर रहता था, जाना पड़ता था. अब उठ कर ब्रश कर के, चाय पी कर व फिर जब तक एक गुटखा न दबा ले, हाजत नहीं होती थी.

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धर्मणा के स्वर्णिम रथ: भाग 3- क्या हुआ था ममता के साथ

आज के दिन के खर्च का हिसाब लगाया जाए तो आसानी से 15 हजार रुपए तक पहुंच जाएगा. ममता समाज को ऐसा ही वैभव दर्शन करवाने की कामना से हर नवरात्र पर 9 दिन अपने घर में कीर्तन रखवाया करतीं. रानी ने भी प्रसाद में अपनी ओर से लाए फल सजवा दिए. कीर्तन प्रारंभ होने पर आदतन रानी ने ढोलक और माइक अपनी ओर खींच लिए. न तो वे किसी और को ढोलक बजाने देतीं और न ही माइक पर भजन गाने का अवसर प्रदान करती. यह मानो उन का एकाधिकार था.

सारी गोष्ठी में रानी के स्वर और थाप गूंजते. उन के मुखमंडल का तेज देखने लायक होता, जैसा उन से महान भक्त इस संसार में दूसरा कोई नहीं. रानी का प्रभुत्वपूर्ण व्यवहार देख पाखी का मन प्रतिवाद करता कि यह कैसी पूजा है जहां आप स्वयं को अन्य से श्रेष्ठ माननेमनवाने में लीन हैं. मुख से गा रहे हैं, ‘तेरा सबकुछ यहीं रह जाएगा…’ और एक ढोलकमाइक का मोह नहीं छूटते बन रहा.

कम उम्र की महिलाएं रानी के चरणस्पर्श करतीं तो वे और भी मधुसिक्त हो झूमने लगतीं. कोई कहती, ‘देखो, कैसे भक्तिरस के खुमार में डूब रही हैं,’ तो कोई कहती कि इन पर माता आ गई है. यह सब देखते हुए पाखी अकसर विचलित हो उठती. उसे इन आडंबरों से पाखंड की बू आती है. वह अकसर स्वयं को अपने आसपास के परिवेश में मिसफिट पाती. कितनी बार उस के मनमस्तिष्क में यह द्वंद्व उफनता कि काश, उस की सोच भी अपने वातावरण के अनुरूप होती तो उस के लिए सामंजस्य बिठाना कितना सरल होता. यदि उस के विचार भी इन औरतों से मेल खाते, तो वह भी इन्हीं में समायोजित रहती.

पाखी ने अपने कमरे में आ कर मनन को खाना खिलाया और फिर कीर्तन मंडली में जा कर बैठने को थी कि रानी ने तंज कसा, ‘‘पाखी, सारी मोहमाया यहीं रह जाएगी. भगवान में मन लगा, ये पतिबच्चे कोई काम नहीं आता. सिर्फ प्रभु नाम ही तारता है इस संसार से.’’

‘‘चाचीजी, मैं बच्चे को भूखा छोड़ कर भजन में मन कैसे लगाऊं?’’ पाखी से इस बार प्रतिउत्तर दिए बिना न रहा गया. इन ढपोलशंखी बातों से वैसे ही उसे खीझ उठ रही थी.

‘‘हमारा काम समझाना है, आगे तुम्हारी मरजी. जब हमारी उम्र में पहुंचोगी तब पछताओगी कि क्यों गृहस्थी के फालतू चक्करों में समय बरबाद किया. तब याद करोगी मेरी बात को.’’

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‘‘तब की तब देखी जाएगी, चाचीजी. किंतु आज मैं अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ सकती. मेरा नन्हा बच्चा, जो मेरे सहारे है, उसे बेसहारा छोड़ मैं प्रभुगान करूं, यह मेरी दृष्टि में अनुचित है. मेरी नजर में यदि मैं अपने बच्चे को सही शिक्षा दे पाऊं, उस का उचित लालनपालन कर सकूं, तो वही मेरे लिए सर्वोच्च पूजा है,’’ अकसर चुप रह जाने वाली पाखी आज अपने शब्दों पर कोई बांध लगाने को तैयार नहीं थी.

उस की वर्तमान मानसिक दशा ताड़ती हुई रानी ने मौके की नजाकत को देखते हुए चुप हो जाने में भलाई जानी. लेकिन सब के समक्ष हुए इस वादप्रतिवाद से वह स्वयं को अवहेलित अनुभव करने से रोक नहीं पा रही थी. आज के घटनाक्रम का बदला वह ले कर रहेगी. मन ही मन प्रतिशोध की अग्नि में सुलगती रानी ने सभा समाप्त होने से पहले ही एक योजना बना डाली.

कुछ समय बाद दीवाली का त्योहार आया. मनन अपने छोटेछोटे हाथों में फुलझडि़यां लिए प्रसन्न था. किशोरीलाल और ममता दुकान में लक्ष्मीपूजन कर अब घर के मंदिर में पूजा करने वाले थे. चाचा और रानी चाची भी पूजाघर में विराजमान हो चुके थे. संबल ने पाखी को पूजा के लिए पुकारा. हर दीवाली पर पाखी वही हार पहनती जो संबल ने उसे सुहागरात पर भेंट दिया था, यह कह कर कि यह पुश्तैनी हार हर शुभ अवसर पर अवश्य पहनना है. किंतु इस बार पाखी को वह हार नहीं मिल रहा था. निराशा और खिन्नता से ओतप्रोत पाखी हार को हर तरफ खोज कर थक चुकी थी. आखिर उसे बिना हार पहने ही जाना पड़ा.

उस के गले में हार को न देख संबल

एक बार फिर आपा खो बैठा और

उस पर चीखने लगा. पाखी ने उसे समझाने का अथक प्रयास किया पर विफल रही. दीवाली का त्योहार खुशियां लाने के बजाय अशांति और कलह दे गया. सब के समक्ष संबल ने पाखी को खूब लताड़ा. बेचारी पाखी अपने लिए लापरवाह, असावधान, अनुत्तरदायी, अधर्मी जैसे उपमाएं सुनती रही.

‘‘हम तो सोचते थे कि पाखी को केवल धर्म और पूजापाठ से वितृष्णा है. हमें क्या पता कि इसे हर संस्कारी कर्म से परेशानी होती है. पारंपरिक विधियों से भला कैसा बैर,’’ रानी चाची आग में भरपूर घी उड़ेल रही थीं.

‘‘इसीलिए तो कहते हैं, रानी, कि धर्म से मत उलझो. देखो, तुम्हारी भाभी की तरह, हमारी बहू को भी उस के किए की सजा मिल गई. हाय, हमारा पुश्तैनी हार… इस से तो अच्छा था कि वह हार हम ही संभाल लेते,’’ ममता का विलाप परिस्थिति को और जटिल किए जा रहा था.

इस घटना से पाखी भीतर तक सिहर गई. क्या सच में उसे अपने किए की सजा मिल रही थी? क्या धर्म की दुकान के आगे नतमस्तक न हो कर वह पाप की भागीदारिणी बन रही है? पाखी का हृदय व्याकुल हो उठा. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. क्या उसे भी अन्य की भांति धार्मिक ढकोसलों के आगे झुक जाना चाहिए, या फिर अपने तर्कवितर्क से जीवन मूल्यों को मापना चाहिए. इसी अस्तव्यस्तता की अवस्था में वह घर की छत पर जा पहुंची. संभवतया यहां उसे सांस आए. अमूमन घर की स्त्रियां छत पर केवल सूर्यचंद्र को अर्घ्य देने आया करती थीं. लंबीलंबी श्वास भरते हुए पाखी छत के एक कोने में जा बैठी. अभी उस का उद्वेलित मन शांत भी नहीं हुआ था कि उसे छत पर निकट आती कुछ आवाजें सुनाई दीं.

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‘‘तो क्या करती मैं? खून का घूंट पी कर रह जाती उस कल की छोकरी से?’’ ये रानी चाची के स्वर थे, ‘‘उसे सबक सिखाना जरूरी था और फिर हार का क्या, मैं भी तो इसी परिवार का हिस्सा हूं. मेरे पास रह गया हार, तो कोई अनर्थ नहीं हो जाएगा.’’

तो क्या हार को जानबूझ कर रानी चाची ने गायब किया? उफ, पाखी का मन और भी भ्रमित हो उठा. धर्म के आगे न झुकने पर उस के अपने परिवार वाले ही उसे सजा दे रहे थे?

‘‘पकड़ी जाती तो?’’ यह एक मरदाना सुर था.

‘‘पर पकड़ी गई तो नहीं न?’’ रानी चाची अपनी होशियारी पर इठलाती प्रतीत हो रही थीं.

‘‘पकड़ी गई,’’ यह फिर उसी मरदाना सुर में आवाज आई. साथ ही, पाखी ने गुदगुदाने वाले स्वर सुने, मानो कोई चुहलबाजी कर रहा हो. बहुत सावधानी से पाखी ने झांका, तो हतप्रभ रह गई. उस के ससुर किशोरीलाल और रानी चाची एकदूसरे के साथ ठिठोली कर रहे थे. किशोरीलाल की बांहें

रानी चाची को अपने घेरे में लिए

हुए थीं और रानी चाची झूठमूठ कसमसा रही थीं. किशोरीलाल के

हाथ रानी चाची के अंगअंग पर मचल रहे थे.

‘‘छोड़ो न, जाने दो. कहीं ममता आ गई तो क्या कहोगे?’’ अब रानी, किशोरीलाल को छेड़ रही थी, ‘‘इस से तो अपनी दुकान का वह कमरा ही सुरक्षित है. अपने भाई को घर जाने दो. बाद में मुझे छोड़ने के बहाने वहीं चलेंगे. और हां, दीवाली पर एक नई साड़ी लूंगी तुम से.’’

‘‘ले लेना, मेरी जानेमन, पर पहनाऊंगा मैं ही,’’ किशोरीलाल और रानी की बेशर्मियों से पाखी के कान सुर्ख हो चले थे.

आज पाखी के दिल को तसल्ली मिली थी. अच्छा ही है जो वह यहां मिसफिट है. आखिर, ऐसी मानसिकता जो समाज में दोहरे रूप रखे, बाहरी ढकोसलों में स्वयं को भक्तसंत होने का दिखावा करे, पर अंदर ही अंदर परिवार के सगे रिश्तों को भी वासना की आंच से न बचा पाए, उन में ढल जाना पाखी को कतई स्वीकार न था. ऐसी धर्मणा बनने या फिर उस के दिखावेभरे स्वर्णिम रथों पर सवार होने की उस

की कोई इच्छा न थी. वह अधर्मी ही भली.

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धर्मणा के स्वर्णिम रथ: भाग 2- क्या हुआ था ममता के साथ

जाए? आप की मंडली में तो सभी संपन्न घरों से आती हैं. जो चढ़ावा आता है और जो कुछ आप ने प्रसाद के लिए सोचा है, सब मिला कर किसी झोपड़पट्टी के बच्चों को दूधफल खिलाने के काम आ जाएगा.’’

‘‘कैसी बात करती हो, पाखी? तुम खुद तो अधर्मी हो ही, हमें भी अपने पाप की राह पर चलने को कह रही हो. अरे, धर्म से उलझा नहीं करते. अभी सुनी नहीं तुम ने मेरी भाभी वाली बात? हाय जिज्जी, यह कैसी बहू लिखी थी आप के नाम,’’ रानी चाची ने पाखी के सुझाव को एक अलग ही जामा पहना दिया. उन के जोरजोर से बोलने के  कारण आसपास घूम रहा संबल भी वहीं आ गया, ‘‘क्या हो गया, चाचीजी?’’

‘‘होना क्या है, अपनी पत्नी को समझा, अपने परिवार के रीतिरिवाज सिखा. आज के दिन तो कम से कम ऐसी बात न करे,’’ रानी के कहते ही संबल ने आव देखा न ताव, पाखी की बांह पकड़ उसे घर के अंदर ले गया.

‘‘देखो पाखी, मैं जानता हूं कि तुम पूजाधर्म को ढकोसला मानती हो, पर हम नहीं मानते. हम संस्कारी लोग हैं. अगर तुम्हें यहां इतना ही बुरा लगता है तो अपना अलग रास्ता चुन सकती हो. पर यदि तुम यहां रहना चाहती हो तो हमारी तरह रहना होगा,’’ संबल धाराप्रवाह बोलता गया.

वह अकसर बिदक जाया करता था. इसी कारण पाखी उस से धर्म के बारे में कोई बात नहीं किया करती थी. परंतु वह स्वयं को धार्मिक आडंबरों में भागीदार नहीं बना पाती थी. इस समय उस ने चुप रहने में ही अपनी और परिवार की भलाई समझी. वह जान गईर् थी कि संबल को रस्में निभाने में दिलचस्पी थी, न कि रिश्ते निभाने में.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, संबल. चाचीजी को मेरी बात गलत लगी, तो मैं नहीं कहूंगी. तुम बाहर जा कर मेहमानों को देखो,’’ उस ने समझदारी से संबल को बाहर भेज दिया और खुद मनन को खिलानेसुलाने में व्यस्त हो गई. मन अवश्य भीग गया था. उसे संदेह होने लगता है कि काश, उस की मानसिकता भी इन्हीं लोगों की भांति होती तो उस के लिए जीवन कुछ आसान होता. परंतु फिर अगले पल वह अपने मन में उपमा दोहराती कि जैसे कीचड़ में कमल खिलता है, वह भी इस परिवार में इन की अंधविश्वासी व पाखंडी मानसिकता से स्वयं को दूर रखे हुए है.

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इधर किशोरीलाल स्वयं रानी चाची को उन के घर तक छोड़ने गए. ममता ही जिद कर के भेजा करती थीं. ‘‘आप गाड़ी चला कर जाइए रानी को छोड़ने. वह कोई पराई है क्या, जो ड्राइवर के साथ उसे भेज दें?’’

रास्ते में रोशन कुल्फी वाले की दुकान आई तो किशोरीलाल ने पूछा, ‘‘रोकूं क्या, तुम्हारी पसंदीदा दुकान आ गई. खाओगी कुल्फीफालूदा?’’

‘‘पूछ तो ऐसे रहे हो जैसे मेरे मना करने पर मान जाओगे? तुम्हीं ने बिगाड़ा है मुझे. अब हरजाना भी भुगतना पड़ेगा,’’ रानी ने खिलखिला कर कहा. फिर किशोरीलाल की बांह अपने गले से हटाते हुए कहने लगी, ‘‘किसी ने देख लिया तो? आखिर तुम्हारी दुकान यहीं पर है, जानपहचान वाले मिल ही जाते हैं हर बार.’’

किशोरीलाल और रानी के बीच अनैतिक संबंध जाने कितने वर्षों से पनप रहा था. सब की नाक के नीचे एक ही परिवार में दोनों अपनेअपने जीवनसाथी को आसानी से धोखा देते आ रहे थे. ममता धार्मिक कर्मकांड में उलझी रहतीं. रानी आ कर उन का हाथ बंटवा देती और ममता की चहेती बनी रहती. कभी पूजा सामग्री लाने के बहाने तो कभी पंडितजी को बुलाने के बहाने, किशोरीलाल और रानी खुलेआम साथसाथ घर से निकलते. किशोरीलाल ने अपनी दुकान में पहले माले पर एक कमरा अपने आराम करने के लिए बनवा रखा था. सभी मुलाजिमों को ताकीद थी  कि जब सेठजी थक जाते हैं तब वहां आराम कर लेते हैं. पर जिस दिन घर पर पूजापाठ का कार्यक्रम होता, किशोरीलाल अपने सभी मुलाजिमों को छुट्टी देते और अपने घर न्योता दे कर बुलाते.

ऐसे में तैयारी करने के बहाने वे और रानी बाजार जाते. फिर दुकान पर एकडेढ़ घंटा एकदूसरे की आगोश में बिताते और आराम से घर लौट आते. मौज की मौज और धर्मकर्म का नाम. बाजार में कोई देख लेता तो सब को यही भान होता कि घर पर पूजा के लिए कुछ लेने दुकान पर आए हैं. वैसे भी, हर बार आयोजन से पहले किशोरीलाल, ममता के लिए अपनी दुकान से नई साडि़यां ले ही जाया करते थे. पत्नी भी खुश और प्रेमिका भी.

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नवरात्र में भजनकीर्तन की तैयारी में जुटी ममता को अपना भी होश न था. सबकुछ भूल कर वे माता का दरबार सजाने में मगन थीं. बहू पाखी ने आज अपने कमरे में रह कर ही भोजन किया, वरना उसे सुबह से ही सास की चार बातें सुनने को मिल जातीं कि कोई व्रतउपवास नहीं करती. पाखी इन नाम के उपवासों में विश्वास नहीं करती थी. कहने को उपवास है, पर खाने का मैन्यू सुन लो तो दंग रह जाओ – साबूदाना की खिचड़ी, आलू फ्राई, कुट्टू के पूरीपकौड़े, घीया की सब्जी, आलू का हलवा, सामक के चावल की खीर, आलूसाबूदाने के पापड़, लय्या के लड्डू, हर प्रकार के फल और भी न जाने क्याक्या.

कहने को व्रत रख रहे हैं पर सारा ध्यान केवल इस ओर कि इस बार खाने में क्या बनेगा. रोजाना के भोजन से कहीं अधिक बनता है इन दिनों में. और विविधता की तो पूछो ही मत. 9 दिन व्रत रखेंगे और फिर कहेंगे कि हमें तो हवा भी लग जाती है, वरना पतले न हो जाते. अरे भई, इतना खाओगे, वह भी तलाभुना, तो पतले कैसे हो सकते हो? पाखी अपनी सेहत और नन्हे मनन की देखरेख को ही अपना धर्म मानती व निभाती रहती.

कीर्तन करने के लिए अड़ोसपड़ोस की महिलाएं एकत्रित होने लगी थीं. सभी एक से बढ़ कर एक वस्त्र धारण किए हुए थीं. देवी की प्रतिमा को भी नए वस्त्र पहनाए गए थे – लहंगाचोलीचूनर, सोने के वर्क का मुकुट, पूरे हौल में फूलों की सजावट, देवी की प्रतिमा के आगे रखी टेबल पर प्रसाद का अथाह भंडार, देसी घी से लबालब चांदी के दीपक, नारियल, सुपारी, पान, रोली, मोली, क्या नहीं था समारोह की भव्यता बढ़ाने के लिए. आने वाली हर महिला को एक लाल चुनरिया दी जा रही थी जिस पर ‘जय माता दी’ लिखा हुआ था.

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धर्मणा के स्वर्णिम रथ: भाग 1- क्या हुआ था ममता के साथ

लाख रुपए का खर्च सुन जब ममता विस्मित हो उठीं तो उन के पति किशोरीलाल ने उन्हें समझाया, ‘‘जब बात धार्मिक उत्सव की हो तो कंजूसी नहीं किया करते. आखिर क्या लाए थे जो संग ले जाएंगे. सब प्रभु का दिया है.’’ फिर वे भजन की धुन पर गुनगुनाने लगे, ‘‘तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा…’’ ममता भी भक्तिरस में डूब झूमने लगीं.

दिल्ली के करोलबाग में किशोरीलाल की साड़ीलहंगों की नामीगिरामी दुकान थी. अच्छीखासी आमदनी होती थी. परिवार में बस एक बेटाबहूपोता. सो, धर्म के मामले में वे अपना गल्ला खुला ही रखते थे.

खर्च करना किशोरीलाल का काम और बाकी सारी व्यवस्था की देखरेख ममता के सुपुर्द रहती. वे अकसर धार्मिक अनुष्ठानों, भंडारों, संध्याओं में घिरी रहतीं. समाज में उन की छवि एक धार्मिक स्त्री के रूप में थी जिस के कारण सामाजिक हित में कोई कार्य किए बिना ही उन की प्रतिष्ठा आदरणीय थी.

अगली शाम साईं संध्या का आयोजन था. ममता ने सारी तैयारी का मुआयना खुद किया था. अब खुद की तैयारी में व्यस्त थीं. शाम को कौन सी साड़ी पहनी जाए… किशोरीलाल ने 3 नई साडि़यां ला दी थीं दुकान से. ‘साईं संध्या पर पीतवस्त्र जंचेगा,’ सोचते हुए उन्होंने गोटाकारी वाली पीली साड़ी चुनी. सजधज कर जब आईना निहारा तो अपने ही प्रतिबिंब पर मुसकरा उठीं, ‘ये भी न, लाड़प्यार का कोई मौका नहीं चूकते.’

शाम को कोठी के सामने वाले मंदिर के आंगन में साईं संध्या का आयोजन था. मंदिर का पूरा प्रांगण लाल और पीले तंबुओं से सजाया गया था. मौसम खुशनुमा था, इसलिए छत खुली छोड़ दी थी. छत का आभास देने को बिजली की लडि़यों से चटाई बनाईर् थी जो सारे परिवेश को प्रदीप्त किए हुए थी. भक्तों के बैठने के लिए लाल दरियों को 2 भागों में बिछाया गया था, बीच में आनेजाने का रास्ता छोड़ कर.

एक स्टेज बनाया गया था जिस पर साईं की भव्य सफेद विशालकाय मूर्ति बैठाईर् गई थी. मूर्ति के पीछे जो परदा लगाया था वह मानो चांदीवर्क की शीट का बना था. साईं की मूर्ति के आसपास फूलों की वृहद सजावट थी जिस की सुगंध से पूरा वातावरण महक उठा था. जो भी शामियाने में आता, ‘वाहवाह’ कहता सुनाई देता. प्रशंसा सुन कर ममता का चेहरा और भी दीप्तिमान हो रहा था.

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नियत समय पर साईं संध्या आरंभ हुई. गायक मंडली ने भजनों का पिटारा खोल दिया. सभी भक्तिरस का रसास्वादन करने में मगन होने लगे. बीचबीच में मंडली के प्रमुख गायक ने परिवारजनों के नाम ले कर अरदास के रुपयों की घोषणा करनी शुरू की. ग्यारह सौ की अरदास, इक्कीस सौ की अरदास… धीरेधीरे आसपास के पड़ोसी भी अरदास में भाग लेने लगे. घंटाभर बीता था कि कई हजारों की अरदास हो चुकी थी. जब अरदास के निवेदन आने बंद होने लगे तो प्रमुख गायक ने भावभीना भजन गाते हुए प्रवेशद्वार की ओर इशारा किया.

सभी के शीश पीछे घूमे तो देखा कि साक्षात साईं अपने 2 चेलों के साथ मंदिर में पधार रहे हैं. उन की अगुआई करती

2 लड़कियां मराठी वेशभूषा में नाचती आ रही हैं. साईं बना कलाकार हो या साथ में चल रहे 2 चेले, तीनों का मेकअप उम्दा था. क्षीणकाय साईं बना कलाकार अपने एक चेले के सहारे थोड़ा लंगड़ा कर चल रहा था. उस की गरदन एक ओर थोड़ी झुकी हुईर् थी और एक हाथ कांपता हुआ हवा में लहरा रहा था. दूसरे हाथ में एक कटोरा था.

उस कलाकार के मंदिर प्रांगण में प्रवेश करने की देर थी कि भीड़ की भीड़ उमड़ कर उस के चरणों में गिरने लगी. कोई हाथ से पैर छूने लगा तो कोई अपना शीश उस के पैरों में नवाने लगा. लगभग सभी अपने सामर्थ्य व श्रद्धा अनुसार उस के कटोरे में रुपए डालने लगे. बदले में वह भक्ति में लीन लोगों को भभूति की नन्हीनन्ही पुडि़यां बांटने लगा.

सभी पूरी भक्ति से उस भभूति को स्वयं के, अपने बच्चों के माथे पर लगाने लगे. जब कटोरा नोटों से भर जाता तो साथ चल रहे चेले, साईं बने कलाकार के हाथ में दूसरा खाली कटोरा पकड़ा देते और भरा हुआ कटोरा अपने कंधे पर टंगे थैले में खाली कर लेते. और वह कलाकार लंगड़ा कर चलते हुए, गरदन एक ओर झुकाए हुए, कांपते हाथों से सब को आशीर्वाद देता जाता.

भक्ति के इस ड्रामे के बीच यदि किसी को कोफ्त हो रही थी तो वह थी ममता और किशोरीलाल की बहू पाखी. पाखी एक शिक्षित स्त्री थी, जिस की शिक्षा का असर उस के बौद्धिक विकास के कारण साफ झलकता था. वह केवल कहने को पढ़ीलिखी न थी, उस की शिक्षा ने उस के दिमाग के पट खोले थे. वह इन सब आडंबरों को केवल अंधविश्वास मानती थी. लेकिन उस का विवाह ऐसे परिवार में हो गया था जहां पंडिताई और उस से जुड़े तमाशों को सर्वोच्च माना जाता था. अपने पति संबल से उस ने एकदो बार इस बारे में बात करने का प्रयास किया था किंतु जो जिस माहौल में पलाबढ़ा होता है, उसे वही जंचने लगता है.

संबल को इस सब में कुछ भी गलत नहीं लगता. बल्कि वह अपने मातापिता की तरह पाखी को ही नास्तिक कह उठता. तो पाखी इन सब का हिस्सा हो कर भी इन सब से अछूती रहती. उसे शारीरिक रूप से उपस्थित तो होना पड़ता, किंतु वह ऐसी अंधविश्वासी बातों का असर अपने ऊपर न होने देती. जब भी घर में कीर्तन या अनुष्ठान होते, वह उन में थोड़ीथोड़ी देर को आतीजाती रहती ताकि क्लेश न हो.

उस की दृष्टि में उस की असली पूजा उस की गोद में खेल रहे मनन का सही पालनपोषण और बौद्धिक विकास था. अपने सारे कर्तव्यों के बीच उस का असली काम मनन का पूरा ध्यान रखना था. कितनी बार उसे पूजा से उठ कर जाने पर कटु वचन भी सुनने पड़ते थे. परंतु वह इन सब की चिंता नहीं करती थी. उस का उद्देश्य था कि वह मनन को इन सब पोंगापंथियों से दूर रखेगी और आत्मविश्वास से लबरेज इंसान बनाएगी.

साईं संध्या अपनी समाप्ति की ओर थी. अधिकतर भजनों में मोहमाया को त्यागने की बात कही जा रही थी. आखिरी भजन गाने के बाद मुख्य गायक ने भरी सभा में अपना प्रचारप्रसार शुरू किया. कहां पर उन की दुकान है, वे कहांकहां जाते हैं, बताते हुए उन्होंने अपने विजिटिग कार्ड बांटने आरंभ कर दिए, ‘‘जिन भक्तों को साईं के चरणों में जाना हो, और ऐसे आयोजन की इच्छा हो, वे इस संध्या के बाद हम से कौंटैक्ट कर सकते हैं,’’ साथ ही, प्रसाद के हर डब्बे के नीचे एक कार्ड चिपका कर दिया जा रहा था ताकि कोई ऐसा न छूट जाए जिस तक कार्ड न पहुंचे.

सभी रवाना होने लगे कि रानी चाची ने माइक संभाल लिया, ‘‘भक्तजनो, मैं आप सब से अपना एक अनुभव साझा करना चाहती हूं. आप सब समय के बलवान हैं कि ऐसी मनमोहक साईं संध्या में आने का सुअवसर आप को प्राप्त हुआ. मैं ने देखा कि आप सभी ने पूरी श्रद्धा व भक्ति के साथ यह शाम बिताई. साईं बाबा का आशीर्वाद भी मिला. तो बोलो, जयजय साईं,’’ और सारा माहौल गुंजायमान हो उठा, ‘‘जयजय साईं.’’

‘‘रानी की यह बात मुझे बहुत भाती है,’’ अपनी देवरानी के भीड़ को आकर्षित करने के गुण पर ममता बलिहारी जा रही थीं.

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रानी चाची ने आगे कहा, ‘‘आप लोगों में से शायद कोई एकाध ऐसा नास्तिक भी हो सकता है जो आज सभा में आए साईं बाबा को एक मनुष्यरूप में देखने का दुस्साहस कर बैठा हो. पर बाबा ऐसे ही दर्शन दे कर हमारी प्यास बुझाते हैं. मैं आप को एक सच्चा किस्सा सुनाती हूं-‘‘गत वर्ष मैं और मेरी भाभी शिरडी गए थे. वहां सड़क पर मुझे साईं बाबा के दर्शन हुए. उन्हें देख मैं आत्मविभोर हो उठी और उन्हें दानदक्षिणा देने लगी. मेरी भाभी ने मुझे टोका और कहने लगीं कि दीदी, यह तो कोई बहरूपिया है जो साईं बन कर भीख मांग रहा है.

‘‘अपनी भाभी की तुच्छ बुद्धि पर मुझे दया आई. पर मैं ने अपना कर्म किया और बाबा को जीभर कर दान दिया. मुश्किल से

20 कदम आगे बढ़े थे कि मेरी भाभी को ठोकर लगी और वे सड़क पर औंधेमुंह गिर पड़ीं. साईं बाबा ने वहीं न्याय कर दिया. इसलिए हमें भगवान पर कभी शक नहीं करना चाहिए. जैसा पंडितजी कहें, वैसा ही हमें करना चाहिए.’’

सभी लोग धर्म की रौ में पुलकित हो लौटने लगे. रानी को विदा करते समय ममता ने कहा, ‘‘रानी, अगले हफ्ते से नवरात्र आरंभ हो रहे हैं. हर बार की तरह इस बार भी मेरे यहां पूरे 9 दिन भजनकीर्तन का प्रोग्राम रहेगा. तुझे हर रोज 3 बजे आ जाना है, समझ गई न.’’

‘‘अरे जिज्जी, पूजा हो और मैं न आऊं? बिलकुल आऊंगी. और हां, फलों का प्रसाद मेरी तरफ से. आप मखाने की खीर और साबूदाना पापड़ बांट देना. साथ ही खड़ी पाखी सब देखसुन रही थी. पैसे की ऐसी बरबादी देख उसे बहुत पीड़ा होती. स्वयं को रोक न पाई और बोल पड़ी, ‘‘मां, चाचीजी, क्यों न यह पैसा गरीबों में बंटवा दिया.

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सास भी कभी बहू थी: भाग 4- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

कुणाल उसे डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने सुमित्रा की जांच की तो कुणाल से बोला, ‘‘आप की मां को ‘अलजाइमर्स’ की बीमारी है. जिस तरह बुढ़ापे में शरीर अशक्त हो जाता है उसी तरह दिमाग की कोशिकाएं भी कमजोर हो जाती हैं. यह बीमारी लाइलाज है पर जान को खतरा नहीं है. बस, जरा एहतियात बरतना पड़ेगा.’’

‘जाने कौन सी मरी बीमारी है जिस का आज तक नाम भी न सुना,’ सुमित्रा ने चिढ़ कर सोचा.

अब उस के बाहर आनेजाने पर भी प्रतिबंध लग गया.

सुमित्रा अब दिनभर अपने कमरे में बैठी रहती है. किसी को याद आ गया तो उस का खाना और नाश्ता उस के कमरे में ले आता है. अकसर ऐसा होता है कि नौकरचाकर अपने काम में फंसे रहते हैं और उस के बारे में भूल जाते हैं. और तो और, अब तो यह हाल है कि सुमित्रा स्वयं भूल जाती है कि उस ने दिन का खाना खाया कि नहीं. अकसर ऐसा होता है कि उस के पास तिपाई पर चाय की प्याली रखी रहती है और वह पीना भूल जाती है.

यह मुझे दिन पर दिन क्या होता जा रहा है? वह मन ही मन घबराती है. दिमाग पर एक धुंध सी छाई रहती है. जब धुंध कभी छंटती है तो उसे एकएक बात याद आती है.

उसे हठात याद आया कि एक बार ज्योति ने टमाटर का सूप बनाया था और उसे भी थोड़ा पीने को दिया. उसे उस का स्वाद बहुत अच्छा लगा. ‘अरे बहू, थोड़ा और सूप मिलेगा क्या?’ उस ने पुकार कर कहा.

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थोड़ी देर में रसोइया कप में उस के लिए सूप ले आया. सुमित्रा खुश हो गई. उस ने एक घूंट पिया तो लगा कि इस का स्वाद कुछ अलग है.

उस ने रसोइए से पूछा तो वह अपना सिर खुजाते हुए बोला, ‘‘मांजी, सूप खत्म हो गया था. मेमसाब बोलीं कि अब दोबारा सूप कौन बनाएगा. सो, उन्होंने थोड़ा सा टमाटर का सौस गरम पानी में घोल कर आप के लिए भिजवा दिया.’’

सुमित्रा ने सूप पीना छोड़ दिया. उस का मन कड़वाहट से भर गया. अगर उस ने अपनी सास के लिए ऐसा कुछ किया होता तो वे उस की सात पुश्तों की खबर ले डालतीं, उस ने सोचा.

एक बार उस को फ्लू हो गया.

3-4 दिन से मुंह में अन्न का एक दाना भी न गया था. उसे लगा कि थोड़ा सा गरम दूध पिएंगी तो उसे फायदा पहुंचेगा. वह धीरे से पलंग से उठी. घिसटती हुई रसोई घर तक गई, ‘‘बहू, एक प्याला दूध दे दो. इस समय वही पी कर सो जाऊंगी. और कुछ खाने का मन नहीं कर रहा.’’

‘‘दूध?’’ ज्योति मानो आसमान से गिरी, ‘‘ओहो मांजी, इस समय तो घर में दूध की एक बूंद भी नहीं है. मैं ने सारा दूध जमा दिया है दही के लिए. कहिए तो बाजार से मंगा दूं?’’

‘‘नहीं, रहने दो,’’ सुमित्रा बोली.

वह वापस अपने कमरे में आई. क्या सब के जीवन में यही होता है? उस ने मन ही मन कहा. वह हमेशा सोचती आई कि जब वह बहू से सास बन जाएगी तो उस का रवैया बदल जाएगा. वह अपनी बहू पर हुक्म चलाएगी और उस की बहू दौड़दौड़ कर उस का हुक्म बजा लाएगी लेकिन यहां तो सबकुछ उलटा हो रहा था. कहने को वह सास थी पर उस के हाथ में घर की बागडोर न थी. उस की एक न चलती थी. उस की किसी को परवा न थी. वह एक अदना सा इंसान थी, कुणाल के प्रिय कुत्ते टाइगर से भी गईबीती. टाइगर की कभी तबीयत खराब होती तो उसे एक एसी कार में बिठा कर फौरन डाक्टर के पास ले जाया जाता पर सुमित्रा बुखार में तपती रहे तो उस का हाल पूछने वाला कोई न था. वह अपनी इस स्थिति के लिए किसे दोष दे.

उसे लग रहा था कि वह एक अवांछित मेहमान बन कर रह गई है. वह उपेक्षित सी अपने कमरे में पड़ी रहती है या निरुद्देश्य सी घर में डोलती रहती है. उस का कोई हमदर्द नहीं, कोई हमराज नहीं. वह पड़ीपड़ी दिन गिन रही है कि कब सांस की डोर टूटे और वह दुनिया से कूच कर जाए.

सास हो कर भी उस की ऐसी दशा? यह बात उस के पल्ले नहीं पड़ती. एक जमाना था कि बहू का मतलब होता था एक दबी हुई, सहमी हुई प्राणी जिस का कोई अस्तित्व न था, जो बेजबान थी और जिस पर मनमाना जुल्म ढाया जा सकता था, जिसे दहेज के लिए सताया जा सकता था और कभीकभी नृशंसतापूर्वक जला भी दिया जाता था.

आज के जमाने में बहू की परिभाषा बदल गई है. आज की बहू दबंग है. शहजोर है. वाचाल है. ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली. एक की दस सुनाने वाली. वह किसी को पुट्ठे पर हाथ नहीं रखने देती. उस से संभल कर पेश आना पड़ता है. उस के मायके वालों पर टिप्पणी करते ही वह आगबबूला हो जाती है. रणचंडी का रूप धारण कर लेती है. ऐसी बहू से वह कैसे पेश आए. उसे कुछ समझ में न आता था.

उसे याद आया कि उस की सास जब तक जीवित रहीं, हमेशा कहती रहीं, ‘अरी बहू, यह बात अच्छी तरह गांठ बांध ले कि तेरा खसम तेरा पति बाद में है, मेरा बेटा पहले है. वह कोई आसमान से नहीं टपका है तेरी खातिर, उसे मैं ने अपनी कोख में 9 महीने रखा और जन्म दिया है और मरमर कर पाला है. उस पर तेरे से अधिक मेरा हक है और हमेशा रहेगा.’

सुमित्रा अगर ज्योति से ये सब कहने  जाएगी तो शायद ज्योति कहेगी कि मांजी आप को अपना बेटा मुबारक हो. आप रहो उसे ले कर. मैं चली अपने बाप के घर. और आप

लोगों को शीघ्र ही तलाक के कागजात मिल जाएंगे.’

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सुमित्रा यही सब सोचने लगी.

हाय तलाक का हौवा दिखा कर बहू घरभर को चुप करा देगी. सुमित्रा की तो सब तरह से हार थी. चित भी बहू की, पट भी उस की.

सुमित्रा ने अपना सिर थाम लिया. सारी उम्र सोचती रही कि वह सास बन जाएगी तो ऐश करेगी. अपने घर पर राज करेगी. पर आज उसे लग रहा था कि सास बन कर भी उस के जीवन में कुछ खास बदलाव नहीं आया. क्या यह नए जमाने का दस्तूर था या बहू की पढ़ाई की कारामात थी या उस के पिता की दौलत का करिश्मा था या फिर बहू की परवरिश का कमाल?

उस की बहू तेजतर्रार है, मुंहजोर है, निर्भीक है, स्वच्छंद है, काबिल है और अपने नाम का अपवाद है.

और सुमित्रा पहले भी बहू थी और आज सास होने के बाद भी बहू है.

सास भी कभी बहू थी: भाग 3- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

हार कर सुमित्रा को फिर से गृहस्थी अपने जिम्मे लेनी पड़ी. वह चूल्हेचौके की फिक्र में लगी और उस की बहू आजादी से विचरने लगी. ज्योति ने एक किट्टी पार्टी जौइन कर ली थी. जब उस की मेजबानी करने की बारी आती और सखियां उस के घर पर एकत्रित होतीं तो वे सारा घर सिर पर उठा लेतीं. कमसिन लड़कियों की तरह उधम मचातीं और सुमित्रा से बड़ी बेबाकी से तरहतरह के खाने की फरमाइश करतीं. शुरूशुरू में तो सुमित्रा को ये सब सुहाता था पर शीघ्र ही वह उकता गई.

उसे मन ही मन लगता कि कहीं कुछ गलत हो रहा है. उस का बेटा दिनभर अपने काम में व्यस्त है. बहू है कि वह अपनी मौज में मस्त है और सुमित्रा घर की समस्याओं को ले कर लस्तपस्त है. दिन पर दिन उस की बहू शहजोर होती जा रही है और सुमित्रा मुंह खोल कर कुछ कह नहीं सकती. ज्योति की आदतें बड़ी अमीराना थीं. उस की सुबह उठते ही बैड टी पीने की आदत थी. अगर सुमित्रा न बनाए और नौकर न हो तो यह काम झक मार कर उस के पति कुणाल को करना पड़ता था. इस बात से सुमित्रा को बड़ी कोफ्त होती थी. ऐसी भी क्या नवाबी है कि उठ कर अपने लिए एक कप चाय भी न बना सके? वह नाकभौं सिकोड़ती. हुंह, अपने पति को अपना टहलुआ बना डाला. यह भी खूब है. बहू हो कर उसे घरभर की सेवा करनी चाहिए. पर यहां सारा घर उस की ताबेदारी में जुटा रहता है. यह अच्छी उल्टी गंगा बह रही है.

एकआध बार उस ने ज्योति को प्यार से समझाने की कोशिश भी की, ‘‘बहू, कितना अच्छा हो कि तुम सुबहसवेरे उठ कर अपने पति को अपने हाथ से चाय बना कर पिलाओ. चाहे घर में हजार नौकर हों पति को अपने पत्नी के हाथ की चाय ही अच्छी लगती है.’’

‘‘मांजी, यह मुझ से न होगा,’’ ज्योति ने मुंह बना कर कहा, ‘‘मुझ से बहुत सवेरे उठा नहीं जाता. मुझे कोई बिस्तर पर ही चाय का प्याला पकड़ा दे तभी मेरी आंख खुलती है.’’

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चाहे घर में मेहमान भरे हों, चाहे कोई आएजाए इस से ज्योति को कोई सरोकार नहीं था. उस का बंधा हुआ टाइमटेबल था. वह सुबह उठ कर जौगिंग करती या हैल्थ क्लब जाती. लंच तक सैरसपाटे करती. कभी ब्यूटीपार्लर जाती, कभी शौपिंग करती. दोपहर में घर में उस की सहेलियां इकट्ठी होतीं. ताश का अड्डा जमता. वे सारा दिन हाहा हीही करतीं. और रहरह कर उन की चायपकौड़ी की फरमाइश…सुमित्रा दौड़तेदौड़ते हलकान हो जाती. उसे अपने कामों के लिए जरा भी समय नहीं मिलता था.

वह मन ही मन कुढ़ती पर वह फरियाद करे भी तो किस से? कुणाल तो बीवी का दीवाना था. वह उस के बारे में एक शब्द भी सुनने को तैयार न था.

धीरेधीरे घर में एक बदलाव आया. ज्योति के 2 बच्चे हो गए. अब वह जरा जिम्मेदार हो गई थी. उस ने घर की चाबियां हथिया लीं. नौकरों पर नियंत्रण करने लगी. स्टोररूम में ताला लग गया. वह एकएक पाई का हिसाब रखने लगी. इतना ही नहीं, वह घर वालों की सेहत का भी खयाल रखने लगी. बच्चों को जंक फूड खाना मना था. घर में ज्यादा तली हुई चीजें नहीं बनतीं. सुमित्रा की बुढ़ापे में जबान चटोरी हो गई थी. उस का मन मिठाई वगैरह खाने का करता, पर ऐसी चीजें घर में लाना मना था.

जब उस ने अपनी बेटियों से अपना रोना रोया तो उन्होंने उसे समझाया, ‘‘मां इन छोटीछोटी बातों को अधिक तूल

न दो. तुम्हारा जो खाने का मन करे,

उसे तुम स्वयं मंगा कर रख लो और खाया करो.’’

सुमित्रा ने ऐसा ही किया. उस ने चैन की सांस ली. चलो देरसवेर बहू को अक्ल तो आई. अब वह भी अपनी बचीखुची जिंदगी अपनी मनमरजी से जिएगी. जहां चाहे घूमेगीफिरेगी, जो चाहे करेगी.

पर कहां? उस के ऊपर हजार बंदिशें लग गई थीं. जब भी वह अपना कोई प्रोग्राम बनाती तो ज्योति उस में बाधा डाल देती, ‘‘अरे मांजी, आप कहां चलीं? आज तो मुन्ने का जन्मदिन है और हम ने एक बच्चों की पार्टी का आयोजन किया है. आप न रहेंगी तो कैसे चलेगा?’’

‘‘ओह, मुन्ने का जन्मदिन है? मुझे तो याद ही न था.’’

‘‘यही तो मुश्किल है आप के साथ. आप बहुत भुलक्कड़ होती जा रही हैं.’’

‘‘क्या करूं बहू, अब उम्र भी तो हो गई.’’

‘‘वही तो, उस दिन आप अपनी अलमारी खुली छोड़ कर बाहर चली गईं. वह तो अच्छा हुआ कि मेरी नजर पड़ गई. किसी नौकर की नजर पड़ी होती तो वह आप के रुपएपैसे और गहनों पर हाथ साफ कर चुका होता. बेहतर होगा कि आप इन गहनों को मुझे दे दें. मैं इन्हें बैंक में रख दूंगी. जब आप पहनना चाहें, निकाल कर ले आऊंगी.’’

‘‘ठीक है. पर अब इस उम्र में मुझे कौन सा सजनसंवरना है, बहू. सबकुछ तुम्हें और लीला व सरला को दे जाऊंगी.’’

‘‘एक बात और मांजी, आप रसोई में न जाया करें.’’

‘‘क्यों भला?’’

‘‘उस रोज आप ने खीर में शक्कर की जगह नमक डाल दिया. रसोइया बड़बड़ा रहा था.’’

‘‘ओह बहू, अब आंख से कम दिखाई देता है.’’

‘‘और कान से कम सुनाई देता है, है न? आप के बगल में रखा टैलीफोन घनघनाता रहता है और आप फोन नहीं उठातीं.’’

‘‘हां मां,’’ कुणाल कहता है, ‘‘पता नहीं तुम्हें दिन पर दिन क्या होता जा रहा है. तुम्हारी याददाश्त एकदम कमजोर होती जा रही है. याद है उस दिन तुम ने हमसब को कितनी परेशानी में डाल दिया था?’’

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सुमित्रा ने अपराधभाव से सिर झुका  लिया. उसे याद आया वह दिन जब हमेशा की तरह वह शाम को टहलने निकली और बेध्यानी में चलतेचलते जाने कहां जा पहुंची. उस ने चारों तरफ देखा तो जगह बिलकुल अनजानी लगी. उस के मन में डर बैठ गया. अब वह घर कैसे पहुंचेगी? वह रास्ता भूल गई थी और चलतेचलते बेहद थक भी गई थी. पास में ही एक चबूतरा दिखा. वह चबूतरे पर कुछ देर सुस्ताने बैठ गई.

सुमित्रा ने अपने दिमाग पर जोर दिया पर उसे अपना पता न याद आया. वह अपने बेटे का नाम तक भूल गई थी. यह मुझे क्या हो गया? उस ने घबरा कर सोचा. तभी वहां एक सज्जन आए. सुमित्रा को देख कर वे बोले, ‘‘अरे मांजी, आप यहां कहां? आप तो खार में रहती हैं. अंधेरी कैसे पहुंच गईं? क्या रास्ता भूल गई हैं? चलिए, मैं आप को घर छोड़ देता हूं.’’

घरवाले सब चिंतित से बाहर खड़े थे. कुणाल उसे देखते ही बोला, ‘‘मां तुम कहां चली गई थीं? इतनी देर तक घर नहीं लौटीं तो हम सब को फिक्र होने लगी. मैं अभी मोटर ले कर तुम्हें ढूंढ़ने निकलने वाला था.’’

‘‘बस, आज से तुम्हारा अकेले बाहर जाना बंद. जब कहीं जाना हो तो साथ में किसी को ले लिया करो.’’

सास भी कभी बहू थी: भाग 2- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

एक बार सुमित्रा बुखार में तप रही थी. उसे बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी. कमरे में दिनभर पड़े रहने पर भी किसी ने उस का हाल तक जानने की कोशिश न की थी. जब उस से रहा न गया तो वह धीरेधीरे चल कर रसोई तक आई.

‘‘मांजी,’’ उस ने कहा, ‘‘एक गिलास दूध मिलेगा क्या? मुझ से अब खड़ा भी नहीं रहा जाता.’’

‘‘दूध?’’ सास ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘अरी बहू, यहां दूध अंजन लगाने तक तो मिलता नहीं, तुम गिलासभर दूध की फरमाइश कर रही हो. कहो तो थोड़ी कड़क चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए.’’

उस के मातापिता को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने आग्रह कर के उस के घर एक गाय भेज दी.

‘‘अरे बाप रे, यह क्या बहू, इस गाय का सानीपानी कौन करेगा? इस उम्र में मुझ से ये सब न होगा.’’

‘‘आप चिंता न करें, मांजी, मैं सब कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है, जो करना हो करो. लेकिन एक बात बताए देती हूं कि घर में गाय आई है तो दूध सभी को मिलेगा. यह नहीं हो सकता कि तुम दूध सिर्फ अपने बच्चों के लिए बचा कर रखो.’’

‘‘ठीक है, मांजी,’’ सुमित्रा ने बेमन से सिर हिलाया.

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घर के काम के अलावा गाय की सानीपानी कर के वह बुरी तरह थक जाती थी. पर और कोई इलाज भी तो न था. दिन गिनतेगिनते वह घड़ी भी आ पहुंची जब उस का पति रजनीश लंदन से वापस लौट आया. आते ही उस की नियुक्ति मुंबई के एक बड़े अस्?पताल में हो गई और वह अपने परिवार को ले कर चला गया.

कुछ साल सुमित्रा के बहुत सुख से बीते. समय मानो पंख लगा कर उड़ चला. बच्चे बड़े हो गए. बड़ी 2 बेटियों की शादी हो गई. बेटे ने वकालत की पढ़ाई कर ली और उस की प्रैक्टिस चल निकली.

एक दिन दिल की धड़कन रुक जाने से अचानक रजनीश का देहांत हो गया. सुमित्रा पर फिर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा.

धीरेधीरे वह अपने दुख से उबरी. उस ने फिर से अपना उजड़ा घोंसला समेटा. अब घर में केवल वह और उस का बेटा कुणाल रह गए थे. सुमित्रा उस के पीछे पड़ी कि वह शादी कर ले, ‘‘अकेला घर भांयभांय करता है. तेरा घर बस जाएगा तो मैं अपने पोतेपोतियों से दिल बहला सकूंगी.’’

‘‘क्यों मां, हम दोनों ही भले हैं. किसी और की क्या जरूरत. अपने दिन मजे में कट रहे हैं.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते. समाज का नियम है तो मानना ही पड़ेगा. सही समय पर तेरी शादी होनी जरूरी है नहीं तो लोग तरहतरह की बातें बनाएंगे. और मुझे भी तो बुढ़ापे में थोड़ा आराम की जरूरत है. तेरी पत्नी आ कर अपनी गृहस्थी संभाल लेगी तो मैं चैन से जी सकूंगी.’’

कुणाल थोड़े दिन टालता रहा पर जब शहर के एक अमीर खानदान की बेटी ज्योति का रिश्ता आया तो वह मना नहीं कर सका. जब उस ने ज्योति को देखा

तो देखता ही रह गया. अपार धनराशि के साथ इतना अच्छा रूप मानो सोने पे सुहागा.

सुमित्रा ने जरा आपत्ति की, ‘‘शादी हमेशा बराबर वालों में ही ठीक होती है. वे लोग बहुत पैसे वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां. हमें उन के पैसों से क्या लेनादेना?’’

‘‘बहू बहुत ठसके वाली हुई तो? नकचढ़ी हुई तो?’’

‘‘यह कोई जरूरी नहीं उसे अपने पैसे का घमंड हो. आप बेकार में मन में वहम मत पालो. और सोचो यदि गरीब घर की लड़की हुई तो वह अपने परिवार की समस्याएं भी साथ लाएंगी. हमें उन से भी जूझना पड़ेगा.’’

सुमित्रा ने हथियार डाल दिए.

‘‘वाह सुमित्रा तेरे तो भाग खुल गए,’’ उस की सहेलियां खुश हो रही थीं, ‘‘बहू मिली खूब सुंदर और साथ में दहेज इतना लाई है कि तेरा घर भर गया.’’

सुमित्रा भी बड़ी खुश थी. पर धीरेधीरे उसे लगने लगा कि उस का भय दुरुस्त था.

ज्योति मांबाप की लाड़ली, नाजों से पली बेटी थी. वह बातबात पर बिगड़ती, रूठ जाती, अपनी मनमानी न होने पर भूख हड़ताल कर देती, मौनव्रत धारण कर लेती, कोपभवन में जा बैठती और घर में सब के हाथपांव फूल जाते. कुणाल हमेशा बीवी का मुंह जोहता रहता था. और सुमित्रा को भी सदा फिक्र लगी रहती कि पता नहीं किस बात को ले कर बहू बिदक जाए और घर की सुखशांति भंग हो जाए.

बहू के हाथों घर की बागडोर सौंप कर सुमित्रा यह सोच कर निश्चिंत हो गई कि अब वह अपने सब अरमान पूरे करेगी. वह भी अपनी हमउम्र स्त्रियों की तरह पोतीपोते गोद में खिलाएगी, घूमेगीफिरेगी, मन हुआ तो किट्टी पार्टी में भी जाएगी, ताश भी खेलेगी. अब उसे कोई रोकनेटोकने वाला न था. अब वह अपनी मरजी की मालिक थी, एक आजाद पंछी की तरह.

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कुछ दिन चैन से बीते पर शीघ्र  ही उसे अपने कार्यक्रम पर पूर्णविराम लगाना पड़ा. ज्योति ने अनभ्यस्त हाथों से घर चलाने की कोशिश तो की पर उसे किफायत से घर चलाने का गुर मालूम न था. वह एक बड़े घर की बेटी थी. महीनेभर चलने वाला राशन 15 दिन में ही खत्म हो जाता. नौकरचाकर अलग लूट मचाए रहते थे. आएदिन घर में छोटीमोटी चोरी करते और चंपत हो जाते.

सास भी कभी बहू थी: भाग 1- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

सुमित्रा की आंखें खुलीं तो देखा कि दिन बहुत चढ़ आया था.  वह हड़बड़ा कर उठी. अभी सास की तीखी पुकार कानों में पड़ेगी. ‘अरी ओ महारानी, आज उठना नहीं है क्या? घर का इतना सारा काम कौन निबटाएगा? इतनी ही नवाबी थी तो अपने मायके से एकआध नौकर ले कर आना था न.’

फिर उन का बड़बड़ाना शुरू हो जाएगा. ‘उंह, इतने बच्चे जन कर धर दिए. इन को कौन संभालेगा? इन का बाप सारी चिंता छोड़ कर परदेस में जा बैठा है. जाने कौन सी पढ़ाई है शैतान की आंत की तरह जो खत्म ही नहीं हो रही और अपने परिवार को ला पटका मेरे सिर. हम पहले ही अपने झंझटों से परेशान हैं. अपनी बीमारियों से जूझ रहे हैं, अब इन को भी देखो.’

सुमित्रा झटपट तैयार हो कर रसोई की ओर दौड़ी. पहले चाय बना कर घर के सब सदस्यों को पिलाई. फिर अपने बच्चों को स्कूल के लिए तैयार किया. उन का नाश्ता पैक कर के दिया. उन्हें स्कूल की बस में चढ़ा कर लौटी तो थक कर निढाल हो गई थी.

अभी तक उस ने एक घूंट चाय तक न पी थी. सच पूछो तो उसे चाय पीने की आदत ही न थी. बचपन से ही वह दूध की शौकीन थी. उस के मायके में घर में गायभैंसें बंधी रहती थीं. दहीदूध की इफरात थी.

जब वह ब्याह कर ससुराल आई तो उस ने डरतेडरते अपनी सास से कहा था कि उसे चायकौफी की आदत नहीं है. उसे दूध पीना अच्छा लगता है.

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सास ने मुंह बना कर कहा था, ‘‘दूध किसे अच्छा नहीं लगेगा भला. लेकिन शहरों में दूध खरीद कर पीना पड़ता है. यहां तुम्हारे ससुर की तनख्वाह में दूध वाले का बिल चुकाना भारी पड़ता है. बालबच्चों को दूध मिल जाए तो वही गनीमत समझो.’’

उस के बाद सुमित्रा की फिर मुंह खोलने की हिम्मत न हुई थी. उस ने कमर कस ली और काम में लग गई. घर में महाराजिन थी पर जब वह काम से नागा करती तो सुमित्रा को उस का काम संभालना पड़ता था. महरी नहीं आई तो सब सुमित्रा का मुंह जोहते रहते और वह झाड़ू ले कर साफसफाई में जुट जाती. घर में कई सदस्य थे. एक बेटी थी जो अपने परिवार के साथ मायके में ही जमी हुई थी उस का पति घरजमाई था और सास का बेहद लाड़ला था.

सुमित्रा के अलावा 2 देवरदेवरानियां भी थीं पर वे बहुएं बड़े घर से आई थीं और सास की धौंस की वे बिलकुल परवा न करती थीं. तकरीबन रोज ही वे खापी, बनठन कर सैरसपाटे को चल देतीं. कभी मल्टी प्लैक्स सिनेमाघर में फिल्म देखतीं तो कभी चाटपकौड़ी खातीं.

सुमित्रा का भी बड़ा मन करता था कि वह घूमेफिरे पर इस शौक के लिए पैसा चाहिए था और वह उस के पास न था. उस का पति डाक्टरी पढ़ने के लिए लंदन यह कह कर गया था, ‘तुम कुछ दिन यहीं मेरे मातापिता के पास रहो. तकलीफ तो होगी पर थोड़े ही समय के लिए. एफआरसीएस की पढ़ाई पूरी होगी और नौकरी लग जाएगी, मैं तुम लोगों को ले जाऊंगा और फिर हमारे दिन फिर जाएंगे.’

सुमित्रा मान गई थी. इस के सिवा और कोई चारा भी तो न था. बच्चों की पढ़ाई की वजह से उस का शहर में रहना अनिवार्य था. उन के भविष्य का सोच कर वह तंगी में अपने दिन काट रही थी. सासससुर ने एक मेहरबानी कर दी थी कि उसे अपने बच्चों समेत अपने घर में शरण दी थी. लेकिन वे उसे हाथ पे हाथ धरे ऐश करने नहीं दे सकते थे. सास तो हाथ धो कर उस के पीछे पड़ी रहतीं. दिनभर उस के ऊपर आदेशों के कोड़े दागती रहतीं.

वे उस के लिए खोजखोज कर काम निकालतीं. वह जरा सुस्ताने बैठती कि उन की दहाड़ सुनाई देती, ‘अरी बहू, थोड़ी सी बडि़यां उतार ले. खूब कड़ी धूप है.’ या ‘थोड़ा सा आम का अचार बना ले.’ उन्हें लगता कि बेटा एक पाई तो भेजता नहीं, कम से कम बहू से ही घर का काम करवा कर थोड़ीबहुत बचत कर ली जाए तो क्या बुराई है. इस महंगाई के जमाने में चारचार प्राणियों को पालना कोई हंसीखेल तो था नहीं.

महीने में एक दिन सुमित्रा को छुट्टी मिलती कि वह पास ही के गांव में अपने मातापिता से मिल आए. उस के बच्चे इस अवसर का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते. चलते वक्त उस की सास उस के हाथ में बस के टिकट के पैसे पकड़ातीं और कहतीं, ‘वापसी का किराया अपने मांबाप से ले लेना.’

साल में एक बार बच्चों की स्कूल की छुट्टियों में सुमित्रा को अपने मायके जाने की अनुमति मिलती थी. वे दिन उस के लिए बड़ी खुशी के होते. गांव की खुली हवा में वह अपने बच्चों समेत खूब मौजमस्ती करती. अपने बच्चों के साथ वह खुद भी बच्चा बन जाती. वह घर के एक काम को हाथ न लगाती. बातबात पर ठुनकती. थाली में अपनी पसंद का खाना न देख कर रूठ जाती. उस के मांबाप उस की मजबूरियों को जानते थे. उस की तकलीफ का उन्हें अंदाजा था.

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वे उस का मानमनुहार करते. यथासाध्य उस की मदद करते. चलते वक्त उस के और बच्चों के लिए नए कपड़े सिलवा देते. सुमित्रा को भेंट में एकआध छोटामोटा गहना गढ़वा देते.

जब वह मांबाप की दी हुई वस्तुएं अपनी सास को दिखाती तो वे अपना मुंह सिकोड़ कर कहतीं, ‘बस इतना सा ही दिया तुम्हारे मांबाप ने? यह जरा सी मिठाई तो एक ही दिन में चट कर जाएंगे ये बच्चे. और ये साड़ी? हुंह, लगती तो नहीं कि असली जरी की है. और यह गहना, महारानी, यह मेरी बेटी को न दिखाना वरना वह मेरे पीछे पड़ जाएगी कि उसे भी मैं ऐसा ही हार बनवा दूं और यह मेरे बस का नहीं है.’

सुमित्रा को लाचारी से अपना हार बक्से में बंद कर के रखना पड़ता और बातें वह बरदाश्त कर लेती थी पर जब खानेपीने के बारे में उस की सास तरफदारी करती तो उस के आंसू बरबस निकल आते. घर में जब भी कोई अच्छी चीज बनती तो पहले ससुर और बेटों के हिस्से में आती. फिर बच्चों को मिलती. कभीकभी ऐसा भी होता कि मिठाई या अन्य पकवान खत्म हो जाता और सुमित्रा के बच्चे निहारते रह जाते, उन्हें कुछ न मिलता. सुमित्रा के मायके से कभी भूलाभटका कोई सगा संबंधी आ जाता तो उसे कोई पानी तक को न पूछता और यह बात उसे बहुत अखरती थी.

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दोनों ही काली: भाग 3- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 अगले दिन वह सीधा उस ब्रांच पहुंचा जहां वह ब्रांच मैनेजर की हैसियत से पोस्ट था. स्टाफ ने बताया कि वह तो 10 दिन से छुट्टी पर हैं.’’

‘‘छुट्टी पर?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘ओह,’’ कहते हुए राबर्ट शाखा से बाहर निकल आया. बैंक की पार्किंग में खड़ी अपनी कार में बैठ कर किसी गहरी सोच में डूब गया.

10 दिन पहले ही तो मैस्सी से उस की मुलाकात मां के घर पर हुई थी. मैस्सी बता रही थी कि उस ने दाढ़ी बढ़ा ली है, जाने क्या मंथन अपने दिमाग में करता रहता है. नलिनी कुछ पूछती है तो उसे अजीब सी नजरों से घूरने लगता है.

कभी किसी बच्ची को गोद में ले कर सामने पहुंचती है तो चीख पड़ता है, ‘‘मेरे सामने मत लाया करो इन बच्चियों को. मुझे इन से कोई लगाव नहीं है.’’

‘‘और राबर्ट, पारस ने तो घर आना ही बंद कर दिया. नलिनी का फोन नंबर भी ब्लौक कर रखा है,’’ मैस्सी ने ही उसे ये सब बताया.

कार में बैठे हुए राबर्ट फिर सोच में डूब गया.

बैंक में काम का प्रैशर भी समझ में आता है, पर अपनी पत्नी और हाल ही में पैदा हुई बच्चियों को बिना देखे वह कैसे रह पाता होगा? आखिर वह छुट्टी ले कर कहां गया होगा? 5 दिन से घर नहीं आया यानी उसे छुट्टी लिए 5 दिन बीत गए हैं.

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अचानक राबर्ट का ध्यान दोनों जुड़वां बच्चियों की तरफ चला गया. क्या बच्चियों का काला पैदा होना ही तो दूर भाग जाने का कारण नहीं है? अरे काला होना कोई अभिशाप तो नहीं है. मैं भी तो काले रंग का पैदा हुआ था. मेरे मांबाप ने अपने जीतेजी इस बात का एहसास तक नहीं होने दिया कि मुझ से पहले नीग्रो जैसा काला उन के खानदान में कभी पैदा ही नहीं हुआ.

कितनी बेहतरीन परवरिश की. उच्च स्तर की शिक्षा दिलवाई. चर्च में फादर होने के साथसाथ घर और समाज का भला ही सोचा. चैरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से हौस्पिटल और स्कूल, कालेजस बनवाए. आज मेरा जो भी मानसम्मान है वह उन्हीं के पद्चिह्नों पर चलने के कारण ही तो है.

मगर यह पारस कहां चला गया. मुझ से पक्की दोस्ती होने के बाद से इस ने हर परेशानी, हरेक खुशी और बहुत सी अंतरंग बातें मुझ से शेयर की हैं, लेकिन इस बार ऐसा क्या बैठ

गया इस के दिमाग में, जो इस ने मुझे फोन तक नहीं किया.

फोन का विचार आते ही राबर्ट ने अपना मोबाइल उठा कर पारस का नंबर डायल किया. उधर से वौइस मैसेज डायल्ड नंबर इज आऊट औफ नेटवर्क कवरेज. सुन कर वह और बेचैन हो उठा.

राबर्ट ने कार स्टार्ट की. घर आया. मैस्सी को बताया तो उसे भी चिंता होने लगी. बोली, ‘‘चलो नलिनी के पास चलते हैं. शायद

उस के पास पारस का कोई मैसेज आया हो.’’

दोनों एक उम्मीद ले कर नलिनी के पास पहुंचे. 45 दिन पहले जन्मी दोनों

बच्चियां राबर्ट और मैस्सी को देख कर अपने नन्हे हाथपैर तेजी से चला कर ऐसे खुशी का इजहार करने लगीं जैसे उन्हें जाने क्या मिल गया हो.

मगर नलिनी का चेहरा उदास था और आंखें बता रही थीं कि वह रातभर रोती रही है.

मैस्सी ने उसे अलग कमरे मे ले जा कर कुरेदा, ‘‘यह तू ने क्या हाल बना रखा है? क्या हुआ तुझे? और यह पारस तुझ से बिना मिले कहां जा सकता है? क्या तुझे कोई सूचना दे कर गया है वह?’’

नलिनी कुछ बोली नहीं. उस ने कोरियर से प्राप्त एक पत्र मैस्सी की तरफ बढ़ा दिया. पत्र पढ़ कर एक बार तो मैस्सी भी सकते में आ गई. सोचने लगी क्या यह बात सच भी हो सकती है. जीजा और साली के किस्से तो बहुत सुने हैं और पारस का शक सही भी हो सकता है. राबर्ट के रंग से हूबहू बच्चियां कहीं राबर्ट और नलिनी के अंतरंग संबंधों का नतीजा तो नहीं हैं.

राबर्ट नलिनी की पारस से शादी के बाद अकसर ही तो बैंक औफिसर्स क्वार्टर में कौफी पीने पहुंच जाता था. शर्तें लगाने के साथ ही प्यारभरी आकर्षक बातें कर के किसी को भी अपना बना लेने में

तो वह माहिर है ही. बहुत पहले उस ने भी तो शादी से पहले अपना सर्वस्व राबर्ट को सौंप दिया था. नलिनी भी उस के प्रेम के झांसे में फंस सकती है.

उस ने पत्र पढ़ने के बाद कुछ देर तक सुबकती हुई नलिनी के चेहरे की तरफ देखा.

उधर मां वाले कमरे मे राबर्ट मां के पास बैठा दोनों बच्चियों से ऐसे बतिया रहा था जैसे वे दोनों उस की सब बातें समझ रही हों.

तभी अचानक दरवाजे से

अंदर लड़खड़ा कर घुसते हुऐ पारस की तेज चीखती आवाज पूरे घर मे गूंज उठी.

मैस्सी और नलिनी भी पारस की गुस्साभरी आवाज सुन कर अपनी बातचीत उसी जगह छोड़ कर कमरे से निकल कर मां वाले कमरे में घबराई हुई लपकती चली आईं.

बढ़ी हुई दाढ़ी, शराब के नशे में डूबी लाल आंखें, मुंह से गाली भरे गंदे शब्द निकलता हुआ. पारस तेजी से राबर्ट की तरफ बढ़ा जा रहा था, लेकिन इस से पहले कि उस के

दोनों हाथ राबर्ट की गरदन को

जकड़ पाते, नलिनी और मैस्सी दौड़ कर उन दोनों के बीच पहुंच गईं. पारस को पूरी ताकत से रोकते हुए दोनों ने उसे राबर्ट की तरफ बढ़ने

से रोका.

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तभी नलिनी चीख पड़ी, ‘‘पागल हो गए हो क्या? जीजाजी से इस तरह का बरताव क्यों कर रहे हो? एक तो 5 दिनों से न मेरी सुध ली और न बच्चों का खयाल आया… खुद मिलने न आ कर कोरियर द्वारा जो खत लिख कर मुझे भिजवाया वह भी शायद इसी तरह शराब पी कर विवेक खोने के बाद लिखा होगा?’’

‘‘तू बीच से हट जा, तुझे तो मैं बाद में समझूंगा. पहले इस आस्तीन के सांप से निबट लूं. यह दोस्ती के नाम पर कलंक है. ये दोनों जुड़वां इसी की काली करतूत का फल है. मेरे बच्चे कभी काले हो ही नहीं सकते थे. इस जैसे लोग ही घरेलू औरतों को रंडी बना दते हैं.’’

‘‘पारस़,’’ नलिनी और मैस्सी एकसाथ चीखीं.

मां को कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह पारस के बिलकुल करीब आ कर बोली, ‘‘किस ने तुझे इतनी पिला दी और यह तू क्या बोल

रहा है? राबर्ट की तो तू हमेशा तारीफ करता फिरता था?’’

राबर्ट अब तक संभल चुका था. उस ने सब को पारस के पास से हटाया और मैस्सी से बोला, ‘‘तुम मां और नलिनी को ले कर उधर जा कर बैठो. मैं इस की गलतफहमियां दूर कर के नशा उतारता हूं.’’

मां को साथ ले कर मैस्सी और नलिनी उसी कमरे में एक ही

पालने में लेटी दोनों बच्चियों के पास पड़े दीवान पर बैठ गईं, हालांकि सभी इस बात से डर रही थीं कि दोनों में कहीं मारपीट न शुरू हो जाए. इसलिए उन का सारा ध्यान राबर्ट और पारस की तरफ ही था.

दोनों बच्चियां मस्त, अपने

नन्हे हाथपैर चलाने में व्यस्त थीं. कुछ देर पहले ही नलिनी ने दोनों को अपने स्तन से बारीबारी भरपेट दूध पिलाया था.

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