दोनों ही काली: भाग 2- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 वहां से उठ कर तीनों प्राइवेट रूम में आए. लंबी डिलिवरी के बाद की थकान,

लेकिन आसपास बच्चियों के नन्हे दिलों की धड़कन और छोटेछोटे मुलायम हाथपैरों की हलचल ने नलिनी को गहरी नींद न सोने दिया था. इसलिए पारस को नलिनी के बैड के पास रखी कुरसी पर बैठा कर राबर्ट को साथ लिए मैस्सी कल फिर मौर्निंग वाली औनलाइन क्लास निबटाने के बाद आने की कह कर चली गई.

उस के बाद के दिनों में राबर्ट तो क्रिश्चियन वैलफेयर सोसाइटी का चेयरमैन होने के कारण अगले माह होने वाले सोसायटी के सालाना फंक्शन के आयोजन में व्यस्त हो गया, लेकिन मैस्सी नलिनी के डिस्चार्ज होने तक लगातार हौस्पिटल के चक्कर लगाती रही और डिस्चार्ज

के बाद वही उसे अपनी कार से ले कर मां के

घर आई.

वह जानती थी कि अपनी मां के पास रह कर ही नलिनी की सही देखभाल हो पाएगी.

उस के बाद मां के घर में जब भी मैस्सी नलिनी से मिलने पहुंची तो पारस को उस ने बहुत ही गंभीर और अपने में ही खोया हुआ पाया.

पारस ने अपना ज्यादातर समय बैंक में बिताना शुरू कर दिया था. मैनेजर पद के दायित्व का निर्वहन करने के बाद जब वह घर लौटता तो मैस्सी को नलिनी के पास ही पाता. बच्चियों को गोद में लेना तो दूर उसे उन के पास बैठना तक गवारा नहीं था.

समय एक एक दिन कर के बीत रहा था. दोनों बच्चियां भी मैस्सी के स्पर्श को पहचानने लगी थीं और पहचानती भी क्यों नहीं. आखिर मैस्सी उन की सगी मौसी थी, जो बचपन में मानसी के नाम से पुकारी जाती थी. यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में एमए करने के दौरान हंसमुख काला राबर्ट उस के जीवन में आया और मां तथा बड़े ताऊ के तमाम विरोध के बाद मानसी ने राबर्ट से शादी कर के क्रिश्चियन धर्म स्वीकार कर लिया.

ये भी पढ़ें- अमेरिका जैसा मैंने देखा: बेटे-बहू के साथ कैसा था शीतल का सफर

पिता तो बहुत पहले ही इस जगत को छोड़ गए थे. उस के बाद संयुक्त परिवार में एकमात्र बच्चे के विदेश जा कर बस जाने के गम में ताई भी ज्यादा समय तक जिंदा न रही. अपनी दोनों बच्चियों के साथ ही अब उन्हें अकेले बूढे़ जेठ का भी खयाल रखना पड़ता.

इस का एक कारण यह भी था कि नलिनी और मानसी के पिता की मृत्यु के बाद से उन्होंने भी बिना किसी लागलपेट के अपने दायित्व का निर्वहन बखूबी किया था. इसलिए मानसी का मैस्सी बन जाना उन्हें शुरू में तो बहुत अखरा

पर जब अपने अल्सर के औपरेशन के लिए नलिनी ने मैस्सी से परामर्श लिया तो राबर्ट ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अपनी सोसाइटी के चैरिटेबल हौस्पिटल में स्वयं ले जा कर उन का सफल औप्ररेशन करवा दिया तब से मैस्सी और राबर्ट का इस घर में आनाजाना बढ़ गया. हालांकि उस के बाद ताऊजी भी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे.

पारस बैंक में प्रोविशनरी औफिसर चयनित होने के बाद शुरू के दिनों में राबर्ट की वैलफेयर सोसाइटी के गैस्टहाउस में ही रहता रहा.

एक दिन जब राबर्ट मैस्सी के साथ नलिनी को एमएससी

की डिगरी हासिल करने की बधाई देने आया तो मैस्सी की मां ने कहा, ‘‘मैस्सी बेटी, तू नलिनी के लिए भी राबर्ट जैसा कोई लड़का ढूृंढ़ दे ताकि मेरी जब आंखें मुंदें तो उस समय कोई ख्वाहिश न हो वरना सुना है कि मरते समय अगर मन में कोई इच्छा रह जाती है तो मन भटकता रहता है.’’

यह सुन कर राबर्ट जोर से हंसा फिर बोला, ‘‘मांजी मैं शर्त लगा सकता हूं कि जीव मरने के बाद अपने मन को भी साथ ले जाता है फिर जब मन भी साथ चला गया तो भटकेगा कौन?’’

‘‘अरे तुम तो मां से भी शर्त लगाने में जुट गए… तुम्हारी नजर में कोई लड़का हो तो बताओ.’’

जब मैस्सी ने कहा तो राबर्ट ने नलिनी की तरफ गौर से देखा.

अपनी ओर यों घूरते देख नलिनि बोली, ‘‘जीजाजी आप मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हैं?’’

‘‘मैं इसलिए घूर रहा हूं कि इतनी सुंदर और गोरीचिट्टी होने के बाद भी कोई बांका छोरा तुम्हें फंसा क्यों नहीं पाया.’’

‘‘मेरा नाम नलिनी है, मानसी नहीं जिसे कोई भी फंसा ले.’’

‘‘ठीक, एक लड़का तो है मेरी नजर में. अच्छे घर का है बैंक में पीओ है और वह भी यही कहता है कि उसे कोई भी लड़की फंसा नहीं सकती, जबकि मजेदार बात यह है कि वह बेहद स्मार्ट है, गुड लुकिंग है. मैस्सी उसे अच्छी तरह जानती है.’’

‘‘तो उस से बात कर के देखो शायद उसे नलिनी पसंद आ जाए,’’ मां प्रसन्न होते हुए बोली.

‘‘मांजी मुझे पूरा विश्वास है कि नलिनी को वह रिजैक्ट कर ही नहीं सकता.’’

और यही सच भी हुआ. पारस को नलिनी पहली भेंट में पसंद भी आ गई. दोनों की शादी कराने में राबर्ट ने अपनी भूमिका बड़ी कुशलता से निभाई और शादी के बाद नलिनी कुछ दिन तो अपने सासससुर के पास रही, फिर पारस उसे अपने बैंक से मिले औफिसर्स फ्लैट में ले आया.

राबर्ट और मैस्सी का अकसर मिलनेजुलने आना हो ही जाता था. कभीकभी राबर्ट अकेला ही अपनी साली के हाथ से बनी कौफी पीने चला आता था.

बातबात पर किसी से भी शर्त लगाने को तैयार हंसमुख स्वभाव वाले राबर्ट से जीजासाली वाला तो रिश्ता था ही और जब से राबर्ट ने पारस से शादी करवाने में नलिनी की मां के साथ उस पर भी एक उपकार किया था तब से वह उन का और ज्यादा सम्मान करने लगी थी.

समय बीता नलिनी की कोख भारी हुई और डाक्टर डिसूजा ने शुरुआती परीक्षण में ही नलिनी के साथ आए पारस को बता दिया कि योर वाइफ इज कैरिंग ट्विंस.’’

तब से ही पारस एक अजीब सी मिश्रित प्रक्रिया से गुजर रहा था. नलिनी उसे

समझाती, ‘‘अरे तुम तो ऐसे घबरा रहे हो जैसे कोख मेरी नहीं तुम्हारी भारी हो गई हो.’’

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है और मैं चितिंत हूं कि तुम इकहरे बदन की हो… यह 2-2 कैसे तुम्हारी छोटी सी कोख संभाल पाएगी.’’

‘‘कोख के बारे में मैं बस इतना जानती हूं कि जरूरत के हिसाब से वह अपना आकार एडजस्ट कर लेती है, फिर मैं इस संसार में अकेली थोड़े ही हूं जो जुड़वां बच्चों की मां बनूंगी.’’

9 महीने कब में पूरे हो गए पारस को पता ही न चला. हां नलिनी ने 1-1 दिन अपने गर्भ में होने वाली हलचल और मीठीमीठी पीड़ा का अनुभव करा.

अब नतीजा सामने था. दोनों नन्ही किलकारियों को साथ ले कर वह अपनी अनुभवी मां के पास आ गई थी. मैस्सी रोज चक्कर लगा लेती.

ये भी पढ़ें- बहुरंगी आस्था: कैसे एक अछूत लड़की के मलिन स्पर्श ने प्रभु को बचाया

बच्चियों के शरीर का आकार बढ़ना शुरू हो गया. मां की देखरेख में नलिनी और रातिकादिनिका पलनेबढ़ने लगीं.

राबर्ट भी आ कर सब का मन बहला जाता. पर जबतब नलिनी से पूछता, ‘‘पारस बैंक से कब लौटता है?’’

उस का उतरा चेहरा देख कर वह मां से पूछता, ‘‘मां इधर जब भी मिलने आया हूं पारस से मुलाकात नहीं हुई.’’

‘‘हां बेटे वह हफ्ताभर पहले जब आया था तो बता रहा था कि आजकल बैंकों में वर्क प्रैशर बहुत बढ़ गया है. सरकार की इतनी फाइनैंस स्कीमें आ गई हैं कि लोन वितरण करने और लाभार्थियों के खाते में सरकारी अनुदान का लेनदेन स्टाफ से करवाने के बाद इतना थक जाता हूं कि वहीं पास में अपने बंगले में सो जाता हूं.’’

‘‘और खाना वगैरह?’’

‘‘वहीं बैंक कैंटीन में खा लेते है,’’ इस बार नलिनी बोल पड़ी.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए उस ने दोनों बच्चियों को बारीबारी से गोद में उठा कर प्यार किया

और फिर नलिनी के हाथ से बनी कौफी पी कर चला गया.

आगे पढ़ें- 10 दिन पहले ही तो मैस्सी से…

ये भी पढ़ें- अपहरण नहीं हरण : क्या हरिराम के जुल्मों से छूट पाई मुनिया?

खुद के लिए एक दिन

कोरोनाकाल में घर और दफ्तर की भागतीदौड़ती जिंदगी में थोड़ा सा ठहरती हुई मैं रिश्तों के जाल में फंसी हुई खुद से ही खुद का परिचय कराती हुई मैं. एक बेटी, एक बहू, एक पत्नी, एक मां और एक कर्मचारी की भूमिका निभाते हुए खुद को ही भूलती हुई मैं, इसलिए सोचा चलो आज खुद के साथ ही 1 दिन बिताती हूं मैं.

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि कोरोनाकाल में भी अगर मुझे खुद के लिए समय नहीं मिला तो फिर ताउम्र नहीं मिलेगा. पर अगर सच बोलूं तो शायद कोरोनाकाल में हम लोगों की अपनी प्राइवेसी खत्म हो गई है.

हम चाहें या न चाहें हम सब परिवाररूपी जाल में बंध गए हैं. घर में कोई भी एक ऐसा कोना नहीं है जहां खुद के साथ कुछ समय बिता सकूं. सब से पहले अगर यह बात सीधी तरह किसी को बोली जाए तो अधिकतर लोगों को समझ ही नहीं आएगा कि खुद के साथ समय बिताने के लिए 1 दिन की आवश्यकता ही क्या है?

आज का समय तो जब तक जरूरी न हो घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर क्या हर इंसान को भावनात्मक और मानसिक आजादी की आवश्यकता नहीं होती है? लोग माखौल उड़ाते हुए बोलेंगे कि यह नए जमाने की नई हवा है जिस के कारण यह फितूर मेरे दिमाग मे आया है. कुछ लोग यह जुमला उछालेंगे कि जब कोई काम नहीं होता न तो ऐसे ही खुद को पहचानने का कीड़ा दिमाग को काटता है. यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि शायद मैं भी उन लोगों मे से ही हूं जो ऐसे ही प्रतिक्रिया करेगा.

अगर कोई मुझ से भी बोले कि आज मैं खुद के साथ समय बिताना चाहती या चाहता हूं, तो ऐसे लोगों को हम स्वार्थी या बस अपने तक सीमित या बस केवल अपनी खुशी देखने वाला और भी न जाने क्याक्या बोलते हैं.

ये भी पढ़ें- अनकही पीड़: क्या थी अजय की आपबीती

चलिए, अब रबरबैंड की तरह बात को न खींचते हुए मैं अपने अनुभव को साझा करना चाहती हूं. खैर लौकडाउन खत्म हुआ और मेरा दफ्तर चालू हो गया पर बच्चों और पति का अभी भी घर से स्कूल और दफ्तर जारी था. छुट्टी का दिन मेरे लिए और अधिक व्यस्त होता है क्योंकि जिन कार्यों की अनदेखी मैं दफ्तर के कारण कर देती थी वे सब कार्य ठुनकते हुए कतार में सिर उठा कर खड़े रहते थे कि उन का नंबर कब आएगा? बच्चे अगर सामने से नहीं पर आंखों ही आंखों में यह जरूर जता देते हैं कि मैं हर दिन कितनी व्यस्त रहती हूं, उन को जब मेरी जरूरत होती है तो मैं दफ्तर के कार्यों में अपना सिर डाल कर बैठी रहती हूं.

पति महोदय का बस यही वाक्य होता है कि तुम्हें ही सारा काम क्यों दिया जाता है? जरूर तुम ही भागभाग कर हर काम के लिए लपकती होंगी. अरे, वर्कफ्रौम होम के लिए बात क्यों नहीं करती हो? पर फिर जब हर माह की 5 तारीख को जब वेतन आता है तो वे सारी चीजें भूल जाते हैं और नारीमुक्ति या उत्थान के पुजारी बन जाते हैं.

ऐसे ही एक ठिठुरते हुए रविवार में सब के लिए खाना परोसते हुए मेरे दिमाग में यह खयाल आया कि क्यों न दफ्तर से छुट्टी ले ली जाए और बस लेटी रहूं. घर पर तो यह मुमकिन नहीं था. पहले तो बिना किसी कारण छुट्टी लेना किसी को हजम नहीं होगा. दूसरा, अगर ले भी ली तो सारा समय घर के कामों में ही निकल जाना है. कहने को तो मेरे जीवन में बहुत सारे मित्र हैं पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं यह दिन साझा कर सकूं. पर न जाने क्यों मन ने कुछ नया करने की ठानी थी, खुद के साथ समय बिताने की दिल ने की मनमानी थी.

जब से यह खयाल मन में आया तो कुछ जिंदगी में रोमांच सा आ गया साथ ही साथ एक अनजाना डर भी था कि कहीं मैं इस वायरस की चपेट में न आ जाऊं पर फिर अंदर की औरत बोल उठी,’अरे तो रोज दफ्तर भी तो जाती हो. उस में भी तो इतना ही जोखिम है. मेरे पास भी कुछ ऐसा होना चाहिए जो मेरा बेहद निजी हो.’

पूरा रविवार पसोपेश में बीत गया. ‘करूं या न करूं…’ सोचते हुए सांझ हो गई. मुझे कहीं घूमने नहीं जाना था, न ही किसी दर्शनीय स्थल के दर्शन करने थे, कारण था कोरोना. मुझे तो अपने अंदर की औरत को पहचाना था कि क्या इस कोरोना की आपाधापी में उस में थोड़ी सी चिनगारी अभी भी बाकी है?

दफ्तर में तो छुट्टी की सूचना दे दी थी पर अब सवाल यह था कि खुद को कहां पर ले जाऊं? क्या होटल सेफ रहेगा या मौल के किसी कैफे में? तभी फेसबुक पर ओयो रूम दिखाई पड़े. यहां पर घंटों के हिसाब से कमरे उपलब्ध थे. किराया भी बस ₹1,000 तक था. कोरोना के कारण घर से ही चेकइन करने की सुविधा थी पर फिर दिमाग में आया कि कहीं पुलिस की रेड न पड़ जाए क्योंकि ऐसे माहौल में कमरे घंटों के हिसाब से क्यों लिए जाते हैं यह सब को पता है तो ऐसे कमरों में ठहरना क्या सुरक्षित रहेगा?

इधरउधर होटल खंगाले तो कोई भी होटल ₹5,000 से कम नहीं था. पति महोदय मेरी समस्या को चुटकी में ही हल कर सकते थे पर यह तो मेरी खुद के साथ की डेट थी फिर उन से मदद कैसे ले सकती थी? और अगर सच बोलूं तो मुझे अपने पति से कोई लैक्चर नहीं सुनना था. यह बात नहीं सुननी थी कि मैं मिडऐज क्राइसिस से गुजर रही हूं इसलिए ऐसी बचकानी हरकतें कर रही हूं.

माह की 27 तारीख थी. बहुत अधिक शाहीखर्च नहीं हो सकती थी इसलिए धड़कते दिल से एक ओयो रूम ₹900 में 8 घंटों के लिए बुक कर दिया. वहां से कन्फर्मेशन में भी आ गया. फिर शाम के 5 बजे से मैं अपने मोबाइल को ले कर बेहद सजग हो गई जैसे मेरी कोई चोरी छिपी हो उस में.

बेटे ने जैसे ही हमेशा की तरह मेरे मोबाइल को हाथ लगाया, मैं फट पड़ी,”मैं तुम्हारे मोबाइल को हाथ नहीं लगाती हूं तो तुम्हें क्या जरूरत पड़ी है?”

बेटा खिसिया कर बोला,”मम्मी, मेरे एक फ्रैंड ने मुझे ब्लौक कर रखा है या नहीं, बस यही देखना चाहता था.”

पति और घर के अन्य सदस्य मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे. मैं बिना कोई उत्तर दिए रसोई में घुस गई. फिर रात को मैं ने अपने कार्ड्स और आईडी सब अपने पर्स में रख लिए. सुबह दफ्तर के समय ही घर से निकली और धड़कते दिल से कैब बुक करी. कैब ड्राइवर ने कैब उस गंतव्य की तरफ बढ़ा दी और फिर करीब आधे घंटे के बाद हम वहां पहुंच गए.

मुझे उतरते हुए कैब ड्राइवर ने पूछा,”मैम, आप को यहीं जाना था न?”

मुझे पता था वह बाहर ओयो रूम का बोर्ड देख कर पूछ रहा होगा. मैं कट कर रह गई पर ऊपर से खुद को संयत करते हुए बोली,”हां, पर तुम क्यों पूछ रहे हो?” वह कुछ न बोला पर उस के होंठों पर व्यंगात्मक मुसकान मुझ से छिपी न रही.

मैं अंदर पहुंची पर कोई रिसैप्शन नहीं दिखाई दिया, फिर भी मैं अंदर पहुंच गई तो एक ड्राइंगरूम दिखाई दिया. 2 बड़े बड़े सोफे पड़े हुए थे और एक डाइनिंग टेबल भी थी. 2 लड़के सोए हुए थे. मुझे देखते हुए आंखे मलते हुए उठने ही वाले थे कि मैं तीर की गति से बाहर निकल गई. खुद पर गुस्सा आ रहा था कि एक भी ऐसा कोना नहीं है मेरे इस शहर में.शहर में ही क्यों, मेरा निजी कुछ भी नहीं है मेरे जीवन में.

ये भी पढ़ें- वे नौ मिनिट: लौकडाउन में निम्मी की कहानी

अब खुद के साथ समय बिताना भी मुश्किल हो गया था. जो फोन नंबर वहां पर अंकित था, वह मिलाया तो पता लगा कि वह नंबर आउट औफ सर्विस है. यह स्थान एक घनी आबादी में स्थित था इसलिए सड़क पर आतेजाते लोगों में से कुछ मुझे आश्चर्य से और कुछ बेशर्मी से देख रहे थे. मैं बिना कुछ सोचे तेजतेज कदमों से बाहर निकल गई. नहीं समझ आ रहा था कि कहां जाऊं?

ऐसे ही चलती रही. एक मन किया कि किसी मौल मैं चली जाऊं पर फिर वहां पर मैं क्या खुद से गुफ्तगू कर पाऊंगी? करीब 1 किलोमीटर चलतेचलते फिर से एक इमारत दिखाई दी. ओयो रूम का बोर्ड यहां भी मौजूद था. न जाने क्या सोचते हुए मैं उस इमारत की ओर बढ़ गई. वहां पर देखा कि रिसैप्शन आरंभ में ही था. उस पर बैठे हुए पुरूष को देख कर मैं ने बोला,”सर, कमरा मिल जाएगा?”

रिसैप्शनिस्ट बोला,”जरूर मैडम, कितने लोगों के लिए?”

मैं ने कहा,”बस मैं…”

उस ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और फिर बोला,”मैडम, कोई मेहमान या दोस्त आएगा आप से मिलने?”

मैं बोली,”नहीं, दरअसल घर की चाबी नहीं मिल रही है,” न जाने क्यों एक झूठ जबान पर आ गया खुद को सामान्य दिखाने के लिए. मुझे मालूम था कि अगर उसे पता चलेगा कि मैं ऐसे ही समय बिताने आई हूं तो शायद वह मुझे पागल ही करार कर देता.

आज पहली बार मन ही मन कोरोना को धन्यवाद दिया. मास्क के पीछे मुझे बेहद सुरक्षित महसूस हो रहा था. रूम नंबर 202 के अंदर घुसते ही मैं ने देखा एक छोटा सा बैड है, साफसुथरी रजाई भी रखी हुई थी. मेरे सामने ही रूम को दोबारा सैनिटाइज करा गया था. मैं ने राहत की सांस ली और अपना मास्क निकाला और फिर दोबारा से हाथ सैनिटाइज कर लिए थे. टीवी चलाने की कोशिश करी तो जाना मुझे तो पता ही नहीं यह नए जमाने के स्मार्ट टीवी कैसे चलाते हैं. थोड़ीबहुत कोशिश करी और फिर नीचे से लड़का बुला कर टीवी को चलवाया गया.

एक म्यूजिक चैनल औन किया तो जाना कि न जाने कितने साल हाथों से फिसल गए. न कोई गाना पहचान पा रही थी और न ही कोई अभिनेता या अभिनेत्री. फिर भी कुछ झिझक के साथ रजाई ओढ़ते हुए मैं लेट गई. मन में यह सोचते हुए कि न जाने कितने जोड़ों ने इस को ओढ़ कर प्रेमक्रीड़ा करी होगी.

टनटन करते हुए व्हाट्सऐप के दफ्तर वाले ग्रुप पर कार्यों की बौछार हो रही थी. मैं ने तुरंत डेटा बंद किया और मन ही मन मुसकराने लगी.

कुछ आधे घंटे बाद एक असीम शांति महसूस हुई. ऐसी शांति जो कभी योगा में भी लाख कोशिशों के बाद भी नहीं हुई थी. लेटे हुए मैं यही सोच रही थी कि कौनकौन से मोड़ से जिंदगी गुजर गई और मुझे पता भी नहीं चला. फिर गुसलखाने जा कर अपनेआप को निहारने लगी. घर पर न तो फुरसत थी और न ही इजाजत, जैसे ही देखना चाहती कि एकाएक एक जुमला उछाला जाता,”अब क्या देख रही हो? कौनसा 16 साल की हो….” जैसे सुंदर दिखना बस युवाओं का मौलिक अधिकार है. 40 वर्ष की महिला तो महिला नहीं एक मशीन है.

आईना देखते हुए मेरी त्वचा ने चुगली करी कि कब से पार्लर का मुंह नहीं देखा? शायद पहले तो फिर भी माह में 1 बार चली जाती थी पर अब तो 9 माह से भी अधिक समय हो गया था. बाल भी बेहद रूखे और बेजान लग रहे थे. झिझकते हुए रूम से बाहर निकली तो देखा सामने ही पार्लर भी था. बिना कुछ सोचे कमरे में ताला लगाया और पार्लर चली गई. हेयर स्पा और फेसियल कराया तो बहुत मजा आया. ऐसा लगा जैसे खुद के लिए कुछ करना अंदर से असीम शांति और खुशी भर देता है.

जब 3 घंटे बाद कमरे में पहुंची तो कस कर भूख लग गई थी. इंटरकौम से खाना और्डर किया. बहुत दिनों बाद बिना किसी ग्लानि के अपना पसंदीदा तंदूरी रोटी और बेहद तीखा कोल्हापुरी पनीर खाया.

अब कोरोना का डर काफी हद तक दिमाग से निकल गया था. जब पूरे 8 घंटे बिताने के बाद मैं घर पहुंची तो देखा चारों ओर घर में तूफान आया हुआ है. अभीअभी दोनों बच्चे लड़ाई कर के बैठे थे. पर यह क्या मुझे बिलकुल भी गुस्सा नहीं आया. गुनगुनाती हुई मैं रसोई में घुस गई और गरमगरम पोहे बनाने में जुट गई.

ये भी पढ़ें- परी हूं मैं: आखिर क्या किया था तरुण ने

अंदर बैठी हुई खूबसूरत महिला फिर से दिल के दरवाजे पर दस्तख दे रही थी कि मैं अगली डेट पर कब जा रही हूं? शायद दूसरों को खुश करने से पहले खुद को खुश करना जरूरी है. इस कोरोनाकाल में मेरे अंदर चिड़चिड़ापन और तनाव बढ़ गया था, जो आज काफी हद तक कम हो गया था.

बात तो समझ आ गई कि खुद के साथ समय बिताना बेहद जरूरी है. लेकिन एक डेट के बाद यह भी समझ में अवश्य आ गया कि ऐसा कौंसैप्ट हमारे समाज मे अभी प्रचिलित नहीं है. अभी यह रचना लिखते हुए भी मेरे दिमाग मे यह बात आ रही है कि अगर उस दिन मुझे किसी जानपहचान वालों ने देख लिया होता तो शायद मैं भी उन के लिये एक अनसुलझी कहानी बन जाती. पर हम सब को तो मालूम है न कि हर प्रेमकहानी में थोड़ाबहुत जोखिम तो होता ही है और यह जोखिम मैं अब लेने के लिए तैयार हूं.

दादी अम्मा : भाग 4- आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा

लेखक- असलम कोहरा

जब नर्सिंग होम से डिस्चार्ज होने का समय आया तो दादी अम्मा ने दोनों से कहा, ‘बेटा, अब मुझे घर छोड़ आओ और तुम भी अपना घर देखो. तुम ने मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है.’

‘यह क्या कह रही हैं, अम्मा. हम दोनों के मांबाप तो रहे नहीं. आप की खिदमत से लगा जैसे उन की कमी दूर हो गई,’ मेहनाज ने कहा.

अम्मा उस के सिर पर हाथ फिराने लगीं. लेकिन अम्मा को आरजू और पोतेपोतियों की याद सता रही थी. इसलिए साजिद और मेहनाज को आगे कभी उन के साथ रहने की तसल्ली दे कर अपने घर आ गईं. उन के आने पर कुछ दिन तक तो बेटेबहुएं उन के आसपास रहे, लेकिन फिर उन का रवैया पहले जैसा हो गया, अम्मा के प्रति उपेक्षित व्यवहार. वे फिर अपनी मौजमस्ती में डूब गए.

कुछ समय बीता तो दादी अम्मा की तबीयत फिर बिगड़ने लगी. अब कौन उन की देखभाल करेगा. वे जबरदस्ती अपने बेटों पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं. एक दिन दादी अम्मा ने घर छोड़ दिया. किसी को बता कर नहीं गईं कि कहां जा रही हैं.

आज उन्हें घर छोड़े हुए 1 महीने से ऊपर हो चला था. सभी रिश्तेदारों के बीच खोजा, लेकिन कहीं पता नहीं चला. जब पूरा घर सूना और उजड़ा सा लगा तो बेटों को उन की अहमियत का पता चला. अब वे चाह रहे थे कि किसी भी तरह अम्मा घर वापस आ जाएं. इसीलिए हाजी फुरकान के आगे वे दुखड़ा रो रहे थे.

ये भी पढ़ें- नीड़: सिद्धेश्वरीजी क्या समझ पाई परिवार और घर की अहमियत

दूसरे दिन हाजी फुरकान, गफूर मियां, जाबिर मियां और मजहबी कार्यक्रमों के नाम पर चंदा उगाहने वाले रशीद अली को ले कर रेहान के घर पर पहुंच गए. आंगन में दरी बिछा कर उस पर कालीन डाल दी गई और बीच में हुक्का व पानदान रख दिया गया.

‘‘बताओ मियां, क्या परेशानी है?’’ थोड़ी देर हुक्का गुड़गुड़ाने के बाद राशिद अली ने पूछा.

‘‘अम्मा का कुछ पता नहीं चल रहा है. पता नहीं किस हाल में हैं. दुनिया में हैं भी या नहीं?’’ रेहान ने बुझी आवाज में कहा.

‘‘देखो मियां, घबराओ नहीं, हम अपने इलम से अभी पता लगा लेते हैं,’’ जाबिर मियां ने तसल्ली दी, फिर सब से बोले, ‘‘सब लोग खामोश रहें. हमें अपना काम करने दें.’’

वे कुछ देर तक आंखें बंद कर के मुंह ऊपर उठा कर बुदबुदाते रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘बेटा, सब्र से काम लेना. हम ने पता लगा लिया है. तुम्हारी अम्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’

‘‘आप ने कैसे पता लगाया?’’ जुबैर ने जिज्ञासावश पूछना चाहा कि गफूर मियां ने उसे बीच में ही झिड़क दिया, ‘‘देखो बेटे, या तो हम पर यकीन करो या फिर हमें बुलाते ही नहीं.’’ फिर हाजी फुरकान पर बिगड़ते हुए बोले, ‘‘मियां, कैसे दीन से फिरे हुए लोगों के घर ले आए हमें. चलो, जाबिर मियां. यहां रुकना अब ठीक नहीं है.’’

इस पर हाजी फुरकान ने जुबैर को डांटना शुरू कर दिया, ‘‘तुम लोग क्या जाबिर मियां को ऐसावैसा समझ रहे हो. बड़े पहुंचे हुए हैं. अपने कब्जे में की हुई रूहानी ताकतों से वे सात समंदर पार की खबर निकाल लेते हैं, यह तो फिर भी यहीं का मामला है. और सुनो, मेरे कहने से तो आ भी गए, वरना ऐसीवैसी जगह तो वैसे भी ये लोग हाथ नहीं डालते हैं,’’ फिर गफूर मियां और जाबिर मियां को समझाते हुए बोले, ‘‘बच्चा है, गलती से पूछ बैठा. आप कहीं मत जाइए, आप की जो खिदमत करनी होगी, उस के लिए ये लोग तैयार हैं. मैं गारंटी लेता हूं.’’

थोड़ी देर तक नाकभौं सिकोड़ने के बाद जाबिर मियां दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए रेहान से बोले, ‘‘देखो बेटे, आप की वालिदा को तो कोई वापस ला नहीं सकता, अलबत्ता उन को शांति मिले, इस के लिए काफी कुछ किया जा सकता है.’’

‘‘वह कैसे?’’ रेहान ने पूछा.

‘‘उन के जीतेजी जो ख्वाहिशें अधूरी रह गई हैं उन्हें पूरा कर के उन को सुकून मिल सकता है. बताओ, क्याक्या ख्वाहिशें थीं उन की? फिर हम ऐसे उपाय बताएंगे कि अम्मा को शांति मिल जाएगी और आप लोगों का प्रायश्चित्त भी हो जाएगा,’ जाबिर मियां उगलदान में पान की पीक थूकने के बाद बोले.

‘‘चचाजान, अम्मा को खीर, पान, रसगुल्ले, फल और मुरब्बे बहुत पसंद थे. बिरयानी भी चाव से खाती थीं,’’ फैजान ने बताया.

‘‘अजी मियां, ये दोचार बातें क्या बता रहे हो, हम ने अपने इलम से पता लगा लिया है कि उन्हें क्याक्या पसंद था,’’ जाबिर मियां हुक्का गुड़गुड़ाने के बाद बोले, ‘‘देखो बेटे, तुम्हारी अम्मा को जो पसंद था, उस की लिस्ट हम दे देते हैं. ये सारा सामान ले आओ, जब तक हम और साथियों को बुला लेते हैं.’’

रेहान ने जब लिस्ट देखी तो उस के होश उड़ गए. उस में 40 मुल्लाओं को धार्मिक अनुष्ठान के मौके पर मुर्गमुसल्लम, पुलाव, खीर, फल और मिठाई मिला कर 25 व्यंजन खिलाने और कपड़े दिए जाने के अलावा गफूर मियां और रशीद अली को अलग से 11-11 हजार रुपए दिए जाने की हिदायत दे डाली थी जाबिर मियां ने.

इन कठमुल्लों के फरमान को टालना तीनों भाइयों के बस की बात नहीं थी. फिर भी थोड़ी देर के लिए वे सोच में पड़ गए.

ये भी पढ़ें- मुसकान: सुनीता की जिंदगी में क्या हुआ था

उन्हें चुप देख कर हाजी फुरकान ने व्यंग्यात्मक शब्दों की तोप दागी, ‘‘मियां, ये लोग तो समझो मुफ्त में परेशानी दूर कर रहे हैं, वरना इस नेक काम के तो लाखों लेते हैं. और यह भी समझो कि अगर इन से आप लोगों का रिश्ता बना रहा तो अपनी रूहानी ताकत और तावीजगंडों से आगे भी इस घर को बुरी हवा से बचाए रखेंगे.’’

इस से आगे बढ़ कर गफूर मियां ने और डरा दिया, ‘‘बेटा, सोच लो, अगर मजहब की परंपराओं को भुला दिया तो इस घर को बरबाद होने से कोई नहीं बचा सकेगा, समझे. हमारा क्या, यहां नहीं तो दूसरों के दुखदर्द दूर करेंगे.’’

‘‘आप नाराज मत होइए. कल अम्मा का चालीसवां है. हम सारा इंतजाम कर देंगे. बस, आप दुआएं देते रहें, आप ही सहारा हैं,’’ रेहान उन के आगे गिड़गिड़ाने लगा.

दूसरे दिन सुबह से ही रेहान, जुबैर और फैजान व उन की पत्नियां चालीसवें के धार्मिक अनुष्ठान की तैयारी में जुट गए. घर के आंगन में बड़ी सी दरी बिछ गई, भट्ठियों पर देगें चढ़ा दी गईं और कठमुल्लों के प्रवचनों के लिए छत के कोनों पर लाउडस्पीकर लगा दिए गए.

दोपहर होतेहोते कठमुल्लों की भीड़ आंगन में इकट्ठी हो गई. जाबिर मियां के आदेश पर दरी के बीच में अम्मा की पसंद का नाम ले कर तरहतरह के पकवान सजा दिए गए. आरजू यह सब देख कर दुखी हो रही थी. वह खुले विचारों की थी और रूढि़यों व मजहब के नाम पर धंधेबाजों से उसे नफरत थी.

वह सोच रही थी कि मुसलिम समाज में कितना ढकोसला है. जब दादी अम्मा जीवित थीं तो ये बेटे उन को 2 रोटी और 1 कटोरी दालसब्जी नहीं देते थे और अब उन की मृत्यु हो जाने पर कितने पकवान उन के नाम पर बना रहे हैं, जिन्हें वे स्वयं ही खाएंगे. उसे जब इस ढकोसले से चिढ़ होने लगी तो कमरे में चली गई.

थोड़ी देर बाद जाबिर मियां ने प्रवचन शुरू किया. उन्होंने संबोधन के कुछ शब्द ही बोले थे कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. कमरे से निकल कर आरजू ने जब दरवाजा खोला तो सामने दादी अम्मा खड़ी थीं, साथ में साजिद और मेहनाज भी थे.

कुछ पल के लिए आरजू चौंकी, फिर ‘दादी अम्मा’ कहते हुए उन से लिपट कर रोने लगी. जब दादी अम्मा आंगन में आईं तो उन्हें जिंदा देख कर अफरातफरी मच गई. तीनों बेटे और बहुएं उन्हें भय व आश्चर्य से देखने लगे.

‘‘घबराओ नहीं, अम्मा जिंदा हैं. लेकिन तुम लोगों ने तो इन्हें जीतेजी मार ही दिया था. जब इन्हें रोटी और कपड़ों की जरूरत थी तो पूछा नहीं और अब पकवानों व कपड़ों के ढेर लगा रहे हो. और ये लोग प्रवचन कर रहे हैं, इन की झूठी मौत का बहाना बना कर कमाई कर रहे हैं,’’ साजिद ने अपने दिल की भड़ास निकाल डाली.

आंगन में सन्नाटा सा छा गया. हाजी फुरकान और उन के साथ आए कठमुल्लों की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. उन्होंने वहां से खिसकने में ही भलाई समझी. कठमुल्लों के जाने के बाद सारे बच्चे अम्मा से लिपट गए.

‘‘कहां चली गई थीं, दादी अम्मा, मुझे छोड़ कर?’’ आरजू ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

ये भी पढ़ें- आत्मसम्मान: रवि के सौदे का क्या था अंजाम

‘‘मैं बताता हूं,’’ साजिद ने कहा. और फिर साजिद ने जो बताया उसे सुन कर बेटे और बहुएं शर्म से गड़ गए.

दरअसल, पिछली बार जब दादी अम्मा बीमार पड़ीं तो वे लापरवाह बेटों व बहुओं पर बोझ बनने और अपनी देखभाल न हो पाने के दुख से बचने के लिए दूसरे शहर में बुजुर्गों की देखभाल करने वाले संस्थान में चली गईं, ताकि बाकी जिंदगी वहीं काट सकें. वे साजिद और मेहनाज के पास भी यह सोच कर नहीं गईं कि जब सगे बेटेबहुएं अपने नहीं हुए तो दूर के रिश्तेदार पर बोझ क्यों बना जाए. इस की जानकारी होने पर साजिद और मेहनाज ने तमाम दौड़धूप के बाद उन का पता लगाया और किसी तरह उन्हें वापस घर आने के लिए राजी किया.

‘‘अम्मा, हमें माफ कर दो. हम से बड़ी भूल हो गई. अब हम कभी ऐसा नहीं करेंगे. हमें एक मौका दे दो,’’ कहते हुए तीनों बेटे और बहुएं दादी अम्मा के पास आ गए. उन्होंने एकएक कर के सब को गले लगाया. ऐसा करते उन की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए.

ऐसे ही सही: क्यों संगीता को सपना जैसा देखना चाहता था

family story in hindi

दादी अम्मा : भाग 3- आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा

लेखक- असलम कोहरा

शादी के कुछ दिनों बाद से ही बहू का मुंह फूलना शुरू हो गया. फिर एक दिन उस ने रेहान से साफतौर पर कह दिया, ‘मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, ऊपर से पूरे कुनबे की नौकरानी बना कर रख छोड़ा है. अब मुझ से और नहीं होगा.’

एक साल बीततेबीतते उस ने मनमुटाव कर के अपने शौहर से घर में अपने हिस्से में दीवारें खिंचवा लीं. नतीजा यह हुआ कि सकीना बेगम जिस चूल्हाचक्की से निकलने की आस लगाए बैठी थीं, दोबारा फिर उसी में जा फंसीं. रेहान की बड़ी बेटी आरजू उस के अपने हिस्से में ही पैदा हुई. उस के जन्म लेते ही सकीना बेगम दादी अम्मा बन गईं.

अब आस थी दूसरे बेटों की बहुओं से. लेकिन यह आस भी जल्द ही टूट गई. जब जुबैर और फिर फैजान का विवाह हुआ तो नई आई दोनों बहुएं भी बड़ी के नक्शेकदम पर चल पड़ीं. बड़ी ने छोटियों के भी ऐसे कान भरे कि उन्होंने भी अपनेअपने शौहरों को अपने कब्जे में कर उस संयुक्त घर में ही अपनेअपने घर बना डाले. अपने हिस्से में रह गए सुलेमान बेग और दादी अम्मा. बदलती परिस्थितियों में उन की बेगम अकेली न रहें, इसलिए सुलेमान बेग ने समय से 2 साल पहले ही रिटायरमैंट ले लिया. लेकिन फिर भी वे अपनी बेगम का साथ ज्यादा दिन तक नहीं निभा सके. रिटायरमैंट के कोई डेढ़ साल बाद सुलेमान बेग हाई ब्लडप्रैशर के झटके को झेल नहीं पाए और दादी अम्मा को अकेला छोड़ गए.

दादी अम्मा शौहर की मौत के सदमे से दिनोंदिन और कमजोर होती गईं. बीमारियों ने भी घेर लिया, सो अलग. पति की पैंशन से ही रोजीरोटी और दवा का खर्चा चल रहा था.

बेटी बहुत दूर ब्याही थी, इसलिए कभीकभार ही वह 2-3 दिन के लिए आ पाती थी.

ये भी पढ़ें- व्रत: वर्षा को क्या समझ आई पति की अहमियत

दादी अम्मा सारा दिन अपने कमरे और बरामदे में अकेली पड़ी रहतीं और हिलते सिर के साथ कंपकंपाते हाथों से जैसेतैसे अपनी दो जून की रोटी सेंक लेतीं. सामने बेटों के घरों से पकवानों की खुशबू तो आती लेकिन पकवान नहीं. वे तरस कर रह जातीं. ठंड में पुराने गरम कपड़ों, जिन के रोंए खत्म हो चुके थे, के बीच ठिठुरती रहतीं. 3 बेटों और बहुओं के होते हुए भी वे अकेली थीं. वे कभीकभार ही दादी अम्मा वाले हिस्से में आते, वह भी बहुत कम समय के लिए. आते भी तो खटिया से थोड़ी दूर पर ही बैठते. दादी अम्मा के पास आना उन्हें एक बोझ सा लगता. बस, बच्चे ही उन के साथी थे. वे ‘दादी अम्मा, दादी अम्मा’ कहते हुए आते, उन की गोदी में घुस जाते और कभी उन का खाना खा जाते. इस में भी दादी अम्मा को खुशी हासिल होती, जैसेतैसे वे फिर कुछ बनातीं. बच्चों में आरजू दादी अम्मा के पास ज्यादा आयाजाया करती थी और उन की मदद करती रहती थी. सही माने में आरजू ही उन के दुखदर्द की सच्ची साथी थी.

पिछली सर्दियों में हाड़ गला देने वाली ठंड पड़ी तो लगा कि कहीं दादी अम्मा भी दुनिया न छोड़ दें. किसी बड़े चिकित्सालय के बजाय बेटे महल्ले के झोलाछाप डाक्टर से उन का इलाज करवा रहे थे. इस से रोग और बढ़ता गया. एक दिन जब तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो बेटे और बहुएं उन की चारपाई के आसपास बैठ गए. पता चलने पर दादी अम्मा के दूर के रिश्ते का भतीजा साजिद भी अपनी पत्नी मेहनाज के साथ आ गया. दोनों शिक्षित थे और दकियानूसी विचारों से दूर थे. दोनों सरकारी नौकरी पर थे और अवकाश ले कर अम्मा का हाल जानने आए थे.

आरजू के अलावा यही दोनों थे जो दूर रह कर भी उन का हालचाल पूछते रहते थे और मदद भी करते रहते थे.

‘बड़ी मुश्किल में हैं अम्मा. जान अटकी है. समझ में नहीं आता क्या करें,’ रेहान का गला भर आया.

‘सच्ची, अम्मा का दुख देखा नहीं जाता. इस से तो बेहतर है कि छुटकारा मिल जाए,’ बड़ी बहू ने अपने पति की हां में हां मिलाई.

‘अम्मा के मरने की बात कर रहे हैं, आप लोग. यह नहीं कि किसी अच्छे डाक्टर को दिखाया जाए,’ जब रहा नहीं गया तो साजिद जोर से बोल पड़ा.

बेटेबहुओं ने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन नाकभौं चढ़ा लिए.

साजिद और मेहनाज ने समय गंवाना उचित नहीं समझा. वे दादी  अम्मा को अपनी कार से उच्चस्तरीय नर्सिंग होम में ले गए और भरती करा दिया. बेटे दादी अम्मा के भरती होने तक नर्सिंग होम में रहे, फिर वापस आ गए, भरती होने में खर्चे को ले कर भी तीनों बेटे एकदूसरे को देखने लगे. रेहान बोला, ‘इस वक्त तो मेरा हाथ तंग है. बाद में दे दूंगा.’

ये भी पढ़ें- लालच: रंजीता के साथ आखिर क्या हुआ

‘मेरे घर में पैर भारी हैं, परेशानी में चल रहा हूं,’ कहते हुए जुबैर भी पीछे हट गया.

फैजान ने चुप्पी साधते हुए ही अपनी मौन अस्वीकृति दे डाली.

‘आप लोग परेशान न हों, हम हैं तो. सब हो जाएगा,’ मेहनाज ने सब को तसल्ली दे दी.

दादी अम्मा करीब 10 दिन भरती रहीं. बेटे वादा तो कर के गए थे बीचबीच में आने का, लेकिन ऐसे गए कि पलटे ही नहीं. बेटों ने अपने पास रहते हुए जब दादी अम्मा की खबर नहीं ली तो दूर जाने पर तो उन्होंने उन्हें बिलकुल ही भुला दिया. साजिद और मेहनाज ही उन के साथ रहे और एक दिन के लिए भी उन्हें छोड़ कर नहीं गए. दोनों पतिपत्नी ने अपनेअपने विभागों से छुट्टी ले ली थी. सही चिकित्सा और सेवा सुश्रूषा से दादी अम्मा की हालत काफी हद तक ठीक हो गई.

दादी अम्मा : भाग 2- आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा

लेखक- असलम कोहरा

सुलेमान बेग युवावस्था में रोजगार पाने की गरज से अपनी बीवी सकीना बेगम को ले कर इस शहर में आ गए थे. उस समय उन के पास एक संदूकिया और पुराना बिस्तर था. उन का पुश्तैनी घराना निर्धन था. यही मजबूरी उन्हें यहां ले आई थी. किसी मिलने वाले ने सुझाव दिया था कि यहां साहबों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर गुजरबसर कर सकते हैं. साहब खुश हो गए तो नौकरी भी मिल सकती है.

उस की बात सही निकली. सुलेमान बेग की मेहनत, लगन और सहयोगी व्यवहार से प्रभावित हो कर एक साहब ने 1 साल बीततेबीतते उन की तहसील में तीसरे दरजे की नौकरी भी लगवा दी. कुछ दिनों में सरकारी क्वार्टर भी मिल गया.

नौकरी और क्वार्टर मिलने की खुशी सुलेमान बेग से संभाली नहीं जा रही थी. पहले दिन क्वार्टर में घुसते ही सकीना बेगम को उन्होंने सीने से लगा लिया, ‘बेगम, मेरी जिंदगी में तुम्हारे कदम क्या पड़े, कामयाबी का पेड़ लग गया.’

‘यह सब आप की मेहनत का फल है. मैं तो यही चाहती हूं कि आप सलामत रहें. मेरी उम्र भी आप को लग जाए,’ भावावेश में सकीना बेगम की आंखों में आंसू छलक आए.

‘ऐसा न कहो, तुम हो तो यह घर है. नहीं तो कुछ भी नहीं होता,’ कहते हुए सुलेमान बेग ने उन का माथा चूम लिया.

ये भी पढ़ें- जस को तस: दीनानाथ की कैसे खुली पोल

सुलेमान बेग के 4 बच्चे हुए. 1 बेटी और उस के बाद 3 बेटे. वेतन कम होने से घर का खर्च बमुश्किल चल पाता था. दोनों पतिपत्नी ने अपना पेट काट कर बच्चों की परवरिश की थी. अपने शौकों को दबा कर बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करने में लगे रहे. तबादले होते रहने की स्थिति में एक स्थायी निवास के लिए सुलेमान बेग ने जोड़तोड़ कर के 4 कमरों का घर बना लिया.

सुलेमान बेग का तबादला इधरउधर होता रहा. बच्चों के लिए घर पैसे भेजने के वास्ते किराए के एक कमरे में रहते, मलयेशिया के बने सस्ते कपड़े पहनते और स्वयं तवे पर दो रोटी डाल कर गुजरबसर करते. लेकिन इस का बुरा असर यह हुआ कि वे जबतब बीमार रहने लगे थे.

उन की अनुपस्थिति में सकीना बेगम ही बच्चों को बटोरे रहतीं. वे स्वयं ही घर का सारा कामकाज करतीं. चूल्हे पर सब का खाना बनातीं. कपड़े और बरतन धोतीं. पौ फटते ही उठ जातीं, गाय की सानी करतीं फिर साफसफाई करने के बाद बच्चों को रोटी और साग खिला कर स्कूल भेजतीं. कम वेतन में भी उन के त्याग ने घर को खुशियों से भर रखा था. कुछ बातें वे खुद ही सह लेतीं, पति और बच्चों पर जाहिर नहीं होने देतीं.

एक बार ईद के मौके पर पैसे की कुछ ज्यादा ही तंगी थी. लेकिन बच्चे इस से बेखबर नए कपड़ों की जिद करने लगे, ‘अम्मा, सभी संगीसाथी नएनए कपड़ों की शेखी बघार रहे हैं. हम उन से कम थोड़े ही हैं, ऐसे कपड़े बनवाएंगे कि सब देखते रह जाएंगे. है न अम्मीजान.’

सकीना बेगम को काटो तो खून नहीं. पिछले दिनों लाल गेहूं के पैसे भी कहां दिए थे दुकानदार को. बाद में कुछ और किराने का सामान भी उधार ही आया था. पति की बीमारी, बच्चों की पढ़ाई से आर्थिक तंगी और बढ़ चली थी. नकद सामान आता भी कहां से. बड़ी खुशामद के बाद किराने वाले ने मुंह बिगाड़ते हुए 1 किलो सेंवइयां दी थीं. ऐसे में कपड़ों के बारे में तो वे सोच भी नहीं सकती थीं. सोचा था, नील डाल कर कपड़े फींच देंगी, बच्चे गौर नहीं करेंगे, ऐसे ही टल जाएगी ईद. लेकिन…

बच्चों की बात सुन कर अपने को संयत कर उन्होंने दिलासा दी, ‘क्यों नहीं, हम क्या किसी से कम हैं. सब के कपड़े बनेंगे, आखिर सालभर में एक ही बार तो मीठी ईद आती है.’ बड़ी मुश्किल से उन्होंने बेटी के विवाह के लिए अपनी शादी में चढ़े चांदी के 2 जेवर बचा कर रखे थे. बिना किसी को बताए वे उन्हें गिरवीं रख कर स्वयं को छोड़ सब के कपड़े खरीद लाईं. सुलेमान बेग ने जब उन के कपड़ों के बारे में पूछा तो हंसती हुई बोलीं, ‘अरे, मैं तो घर में ही रहती हूं, मुझे किसी को दिखाना थोड़े ही है.’

सुलेमान बेग की नौकरी के चलते घर में न रहने और वेतन बहुत कम होने के बीच बड़ी कक्षाओं में आने पर 2 बड़े लड़के दूसरे शहर में ट्रेन से जा कर पढ़ने लगे तो उन पर और भार पड़ गया. बच्चों के बड़े होने पर जैसेतैसे जोड़गांठ कर जब उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो कुछ चैन की सांस ली. तीनों बेटे भी बड़े थे, लेकिन धन के अभाव में उन के लिए रोटियां सेंकनी पड़तीं. चूल्हे में जब वे लोहे की फूंकनी से कंडों को सुलगाने के लिए फूंकतीं तो उन की सांस तो फूल ही जाती, साथ में धुएं और राख से आंखें भी लाल हो जातीं.

ये भी पढ़ें- तरकीब: क्या खुद को बचा पाई झुमरी

वैसे तो वे सहती रहतीं लेकिन उन का सब्र उस समय जवाब दे जाता जब गीली लकडि़यां सुलगने में बहुत देर लगातीं और फूंकनी फूंकतेफूंकते उन की जान कलेजे को आ जाती. ‘पता नहीं कब मुझे आराम नसीब होगा. लगता है मर कर ही चैन मिलेगा,’ कहते हुए वे देर तक बड़बड़ाती रहतीं.

बेटे उच्च शिक्षा तो नहीं ले पाए फिर भी सुलेमान बेग ने 2 बड़े बेटों को शहर में ही तृतीय श्रेणी की नौकरियों पर लगवा दिया और छोटे लड़के को मैडिकल स्टोर खुलवा दिया. आर्थिक स्थिति कुछ सुधरने पर जैसेतैसे जब बड़े बेटे रेहान की शादी हुई तो सकीना बेगम को लगा कि अब उन्हें रातदिन कोल्हू के बैल जैसी जिंदगी से छुटकारा मिल जाएगा. लेकिन जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं.

सौतन

family story in hindi

दादी अम्मा : भाग 1-आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा

लेखक- असलम कोहरा

दादी अम्मा कहीं चली गई थीं. कहां गई थीं, किसी को पता नहीं चला. रातदिन की उपेक्षा और दुर्दशा के कारण एक न एक दिन यह होना ही था. पहले कभीकभी अकेलेपन से दिल घबराने या तबीयत खराब होने पर वे पासपड़ोस के घरों में या महल्ले के हकीम साहब से माजून लेने चली जाती थीं. लेकिन 2-3 घंटे या फिर देर हुई तो शाम तक घर वापस आ जाती थीं. इस बार जब वे देर रात तक नहीं लौटीं तो तीनों बेटों को चिंता सताने लगी. तमाम रिश्तेदारों में पूछताछ की, लेकिन उन का कहीं पता नहीं चला.

‘‘पता नहीं कहां चली गईं अम्मा, दिल फटा जा रहा है, चचा. 1 महीने से ज्यादा वक्त हो गया है, न जाने किस हाल में होंगी,’’ बड़े बेटे रेहान ने मायूसी भरे लहजे में हाजी फुरकान से कहा.

हाजी फुरकान पूरे महल्ले के मुंहबोले चचा थे. रेहान के घर पर उन का कुछ ज्यादा ही आनाजाना था. वे दादी अम्मा के बारे में ही पूछने आए थे.

‘‘बेटा, दुखी मत हो. सब्र से काम लो,’’ हाजी फुरकान ने दिलासा दिया.

‘‘चचा, दुख तो इस बात का है कि हम तीनों भाइयों ने उन की कोई खिदमत नहीं की. अब कैसे प्रायश्चित्त करें कि दिल को सुकून मिले. हम उन की खिदमत न कर पाने से तो दुखी हैं ही, उस से भी बड़ी परेशानी यह है कि अम्मा की कई ख्वाहिशें अधूरी रह गई हैं. न वे कुछ मनचाहा खापी सकीं और न ही पहनओढ़ सकीं. इस के पछतावे में हम सब का दिल बैठा जा रहा है.’’

ये भी पढ़ें- अनोखा बदला : निर्मला ने कैसे लिया बहन और प्रेमी से बदला

तभी आंगन के दूसरी ओर बने कमरे में से उस का छोटा भाई जुबैर अपनी बीवीबच्चों के साथ आ गया.

‘‘जुबैर बेटा, अपने भाई को समझाओ, ज्यादा आंसू न बहाए, सबकुछ ठीक हो जाएगा,’’ हाजी फुरकान ने जुबैर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा. थोड़ी देर बाद उन्होंने दोनों भाइयों से पूछा, ‘‘फैजान कहां है? उसे भी जरा बुलाओ. कुछ खास बात करनी है तुम सब भाइयों के साथ.’’

जुबैर मकान के सामने के हिस्से के ऊपर बने कमरों में से एक कमरे का परदा हटा कर उस में घुस गया. थोड़ी देर बाद वह फैजान को ले कर नीचे आ गया. हाजी फुरकान तीनों भाइयों को ले कर घर की बैठक में चले गए.

‘‘बेटा, परेशान और पशेमान होने की कोई जरूरत नहीं है. अली मियां की मजार पर बैठने वाले मुजाविर गफूर मियां को तुम जानते ही हो. हर मर्ज का इलाज है उन के पास. वे और उन के साथी जाबिर मियां तुम्हें सभी दुखों से नजात दिला देंगे. जनाब जाबिर मियां तो तावीजगंडों और झाड़फूंक में माहिर हैं, माहिर, समझे. अपनी रूहानी ताकतों से अम्मा का पता लगा लेंगे. अगर जिंदा हुईं तो उन्हें घर आने पर मजबूर कर देंगे और यदि मर गई होंगी तो उन की रूह को सुकून दिला देंगे,’’ हाजी फुरकान ने ऐसी शान से कहा जैसे उन्होंने रेहान और उस के भाइयों के दुख दूर करने का ठेका ले रखा हो.

‘‘चचाजान, गफूर मियां और जाबिर मियां से जल्दी मिला दीजिए,’’ जुबैर तपाक से बोला.

‘‘जब तुम सब ने मुझ पर भरोसा किया है तो समझ लो कि तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो गया. मैं कल ही गफूर मियां और जाबिर मियां को बुला लाऊंगा,’’ भरोसा दे कर हाजी फुरकान चले गए.

अपने अब्बू और चाचाओं की ये सारी बातें रेहान की बड़ी बेटी आरजू भी सुन रही थी. 12वीं कक्षा में पढ़ रही आरजू अपनी दादी अम्मा से काफी घुलीमिली थी. एक तरह से वह उन्हें ही अपनी मां समझती थी. वह अपनी दादी को बहुत चाहती थी और दादी अम्मा कह कर पुकारती थी. दादी अम्मा के चले जाने से सब से अधिक दुख उसी को था. अब्बू और चाचाओं के दोहरे व्यवहार को देख कर उस का कलेजा फटा जा रहा था. जब से उस ने होश संभाला था तब से घर में दादी अम्मा की उपेक्षा और दुर्दशा देख रही थी.

ये भी पढ़ें- हम बेवफा न थे: हमशां ने क्यों मांगी भैया से माफी

जब तक अम्मा घर पर थीं तो बेटों ने उन की महत्ता नहीं समझी. अब उन्हें उन की कमी दुख दे रही थी. अलग रहते हुए भी अम्मा पूरे घरबार के टब्बर को कैसे समेटे रहती थीं. शादीब्याह और दूसरे कार्यक्रमों में जब बेटे अपनी बीवियों के साथ कुछ दिनों के लिए चले जाते तो अम्मा ही उन के बच्चों को ऐसे संभालतीं जैसे मुरगी अपने चूजों को परों के नीचे सुरक्षा देती है. घर के कार्यक्रमों में भी उन की मौजूदगी से सब निश्चिंत से हो जाते.

कई बार हलकीफुलकी बीमारी में तो बच्चे दादी अम्मा की गरम गोद, उन की कड़वे तेल की मालिश और घरेलू नुस्खों से ही ठीक हो जाते थे. अब उन के चले जाने से घर का भारीपन कहीं खो गया था. लगा, जैसे घर की छत उड़ गई हो और दीवारें नंगी हो गई हों. बेटेबहुएं पछता रही थीं कि काश, वे घर के बुजुर्ग का मूल्य समझ पाते. दादी अम्मा के साए में घर और बच्चों को सुरक्षित समझते हुए बेटे और बहुएं अपनेआप में मगन थे. लेकिन अब सुरक्षा का आवरण कहीं नहीं था. घर के सूनेपन और बच्चों के पीले चेहरों ने बेटों और बहुओं को झकझोर कर रख दिया था. उन्हें पछतावा हो रहा था कि जो अम्मा अकेले पूरे घर को समेटे हुए थीं, उन्हें पूरे घर के लोग मिल कर भी क्यों नहीं समेटे रख सके. पूरा घर आह भर रहा था, काश, दादी अम्मा वापस आ जाएं.

अम्मा का चरित्र कुछ इस तरह आंखों के सामने चित्रित होने लगा: दादी अम्मा जब इस घर में आई थीं तो उस समय उन की उम्र यही कोई 19 वर्ष की रही होगी. मांबाप ने उन का प्यारा सा नाम रखा था, सकीना. पिछड़े घराने से ताल्लुक रखने के कारण वे बस 5 दरजा तक ही पढ़ सकी थीं, लेकिन सुंदरता, गुणवत्ता और गुरुत्वता उन में कूटकूट कर भरी थी. मांबाप ने उन का विवाह महल्ले के 10वीं पास सुलेमान बेग से कर दिया था.

ये भी पढ़ें- वारिसों वाली अम्मां : पुजारिन अम्मां की मौत से मच गई खलबली

वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत

family story in hindi

औकात से ज्यादा: भाग 1- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

लड़कियों को काम कर के पैसा कमाते देख निशा के अंदर भी कुछ करने का जोश उभरा. सिर्फ जोश ही नहीं, निशा के अंदर ऐसा आत्मविश्वास भी था कि वह दूसरों से बेहतर कर सकती थी. निशा कुछ करने को इसलिए भी बेचैन थी क्योंकि नौकरी करने वाली लड़कियों के हाथों में दिखलाई पड़ने वाले आकर्षक व महंगे टच स्क्रीन मोबाइल फोन अकसर उस के मन को ललचाते थे और उस की ख्वाहिश थी कि वैसा ही मोबाइल फोन जल्दी उस के हाथ में भी हो. निशा के सपने केवल टच स्क्रीन मोबाइल फोन तक ही सीमित नहीं थे.  टच स्क्रीन मोबाइल से आगे उस का सपना था फैशनेबल कीमती लिबास और चमचमाती स्कूटी. निशा की कल्पनाओं की उड़ान बहुत ऊंची थी, मगर उड़ने वाले पंख बहुत छोटे. अपने छोटे पंखों से बहुत ऊंची उड़ान भरने का सपना देखना ही निशा की सब से बड़ी भूल थी. वह जिस उम्र में थी, उस में अकसर लड़कियां ऐसी भूल करती हैं. वास्तव में उन को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे की दुनिया कितनी बदसूरत व कठोर है.

अपने सपनों की दुनिया को हासिल करने को निशा इतनी बेचैन और बेसब्र थी कि मम्मी और पापा के समझाने के बावजूद 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए कालेज में दाखिला नहीं लिया. वह बोली, ‘‘नौकरी करने के साथसाथ आगे की पढ़ाई भी हो सकती है. बहुत सारी लड़कियां आजकल ऐसा ही कर रही हैं. कमाई के साथ पढ़ाई करने से पढ़ाई बोझ नहीं लगती.’’ ‘‘जब हमें तुम्हारी पढ़ाई बोझ नहीं लगती तो तुम को नौकरी करने की क्या जल्दी है?’’ मम्मी ने निशा से कहा. ‘‘बात सिर्फ नौकरी की ही नहीं मम्मी, दूसरी लड़कियों को काम करते और कमाते हुए देख कई बार मुझ को कौंप्लैक्स  महसूस होता है. मुझे ऐसा लगता है जैसे जिंदगी की दौड़ में मैं उन से बहुत पीछे रह गई हूं,’’ निशा ने कहा. ‘‘देख निशा, मैं तेरी मां हूं. तुम को समझाना और अच्छेबुरे की पहचान कराना मेरा फर्ज है. दूसरों को देख कर कुछ करने की बेसब्री अच्छी नहीं. देखने में सबकुछ जितना अच्छा नजर आता है, जरूरी नहीं असलियत में भी सबकुछ वैसा ही हो. इसलिए मेरी सलाह है कि नौकरी करने की जिद को छोड़ कर तुम आगे की पढ़ाई करो.’’

‘‘जमाना बदल गया है मम्मी, पढ़ाई में सालों बरबाद करने से फायदा नहीं.  बीए करने में मुझे जो 3 साल बरबाद करने हैं, उस से अच्छा इन 3 सालों में कहीं जौब कर के मैं अपना कैरियर बनाऊं,’’ निशा ने कहा. मम्मी के लाख समझाने के बाद भी निशा नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उस के अंदर जबरदस्त जोश और आत्मविश्वास था. उस के पास ऊंची पढ़ाई के सर्टिफिकेट और डिगरियां नहीं थीं, लेकिन यह विश्वास अवश्य था कि अगर अवसर मिले तो वह बहुतकुछ कर के दिखा सकती है. वैसे देखा जाए तो लड़कियों के लिए काम की कमी ही कहां? मौल्स, मोबाइल और इंश्योरैंस कंपनियों, बड़ीबड़ी ज्वैलरी शौप्स और कौस्मैटिक स्टोर आदि पर ज्यादातर लड़कियां ही तो काम करती नजर आती थीं. ऐसी जगहों पर काम करने के लिए ऊंची क्वालिफिकेशन से अधिक अच्छी शक्लसूरत की जरूरत थी जोकि निशा के पास थी. सिर्फ अच्छी शक्लसूरत कहना कम होगा, निशा तो एक खूबसूरत लड़की थी. उस में वह जबरदस्त चुंबकीय खिंचाव था जो पुरुषों को विचलित करता है. कहने वाले इस चुंबकीय खिंचाव को सैक्स अपील भी कहते हैं.

निशा उत्साह और जोश से भरी नौकरी की तलाश में निकली अवश्य, मगर जगह- जगह भटकने के बाद मायूस हो वापस लौटी. नौकरी का मिलना इतना आसान नहीं जितना लगता था. निशा 3 दिन नौकरी की तलाश में घर से निकली, मगर उस के हाथ सिर्फ निराशा ही लगी. इस पर मम्मी ने उस को फिर से समझाने की कोशिश की, ‘‘मैं फिर कहती हूं, यह नौकरीवौकरी की जिद छोड़ और आगे की पढ़ाई कर.’’ निशा अपनी मम्मी की कहां सुनने वाली थी. उस पर नौकरी का भूत सवार था. वैसे भी, बढ़े हुए कदमों को वापस खींचना अब निशा को अपनी हार की तरह लगता था. वह किसी भी कीमत पर अपने सपनों को पूरा करना चाहती थी. फिर एक दिन नौकरी की तलाश में निकली निशा, घर आई तो उस के चेहरे पर अपनी कामयाबी की चमक थी. निशा को नौकरी मिल गई थी. नौकरी के मिलने की खुशखबरी निशा ने सब से पहले अपनी मम्मी को सुनाई थी. निशा को नौकरी मिलने की खबर से मम्मी उतनी खुश नजर नहीं आईं जितना कि निशा उन्हें देखना चाहती थी.

मम्मी शायद इसलिए एकदम से अपनी खुशी जाहिर नहीं कर सकीं क्योंकि एक मां होने के नाते जवान बेटी की नौकरी को ले कर दूसरी तरह की कई चिंताएं थीं. इन चिंताओं को अपनी रंगीन कल्पनाओं में डूबी निशा नहीं समझ सकती थी. बेटी की नौकरी की खबर से खुश होने से पहले मम्मी कई बातों को ले कर अपनी तसल्ली कर लेना चाहती थीं.

‘‘किस जगह पर नौकरी मिली है तुम को?’’ मम्मी ने पूछा.

‘‘शहर के एक बहुत बड़े शेयरब्रोकर के दफ्तर में. वहां पहले भी बहुत सारी लड़कियां काम कर रही हैं.’’

‘‘तनख्वाह कितनी होगी?’’

‘‘शुरू में 20 हजार रुपए, बाद में बढ़ जाएगी,’’ इतराते हुए निशा ने कहा. नौकरी को ले कर मम्मी के ज्यादा सवाल पूछना निशा को अच्छा नहीं लग रहा था. तनख्वाह के बारे में सुन मम्मी का माथा जैसे ठनक गया. उन को सबकुछ असामान्य लग रहा था.  बेटी की योग्यता को देखते हुए 20 हजार रुपए तनख्वाह उन की नजर में बहुत ज्यादा थी. एक मां होने के नाते उन को इस में सब कुछ गलत ही गलत दिख रहा था. वे जानती थीं कि मात्र 7-8 हजार रुपए की नौकरी पाने के लिए बहुत से पढ़ेलिखे लोग इधरउधर धक्के खाते फिर रहे थे. ऐसे में अगर उन की इतनी कम पढ़ीलिखी लड़की को इतनी आसानी से 20 हजार रुपए माहवार की नौकरी मिल रही थी तो इस में कुछ ठीक नजर नहीं आता था. निशा की मम्मी ने दुनिया देखी थी, इसलिए उन को मालूम था कि अगर कोई किसी को उस की काबिलीयत और औकात से ज्यादा दे तो इस के पीछे कुछ मतलब होता है, और औरत जात के मामले में तो खासकर. लेकिन निशा की उम्र शायद अभी इस बात को समझने की नहीं थी. उजालों के पीछे की अंधेरी दुनिया के सच से वह अनजान थी. सोचने और विचार करने वाली बात यह थी कि मात्र दरजा 10+2 तक पढ़ी हुई अनुभवहीन लड़की को शुरुआत में ही कोई इतनी मोटी तनख्वाह कैसे दे सकता था. मम्मी को हर बात में सबकुछ गलत और संदेहप्रद लग रहा था, इसलिए उन्होंने निशा को उस नौकरी के लिए साफसाफ मना किया, ‘‘नहीं, मुझ को तुम्हारी यह नौकरी पसंद नहीं, इसलिए तुम वहां नहीं जाओगी.’’

मम्मी की बात को सुन निशा जैसे हैरानी में पड़ गई और बोली, ‘‘इस में नापसंद वाली कौन सी बात है, मम्मी? इतनी अच्छी सैलरी है. किसी प्राइवेट नौकरी में इतनी बड़ी सैलरी मिलना बहुत मुश्किल है.’’ ‘‘सैलरी इतनी बड़ी है, इस कारण ही तो मुझ को यह नौकरी नापसंद है,’’ मम्मी ने दोटूक लहजे में कहा.

‘‘सैलरी इतनी बड़ी है इसलिए तुम को यह नौकरी पसंद नहीं?’’

‘‘हां, क्योंकि मैं नहीं मानती सही माने में तुम इतनी बड़ी सैलरी पाने के काबिल हो. जो कोई भी तुम को इतनी सैलरी देने जा रहा है उस की मंशा में जरूर कुछ खोट होगी,’’ मम्मी ने अपने मन की बात निशा से कह दी. मम्मी की बात को निशा ने सुना तो गुस्से से उत्तेजित हो उठी, ‘‘आप पुरानी पीढ़ी के लोगों को न जाने क्यों हर अच्छी चीज में कुछ गलत ही नजर आता है. वक्त बदल चुका है मम्मी, अब काबिलीयत का पैमाना सर्टिफिकेटों का पुलिं?दा नहीं बल्कि इंसान की पर्सनैलिटी और काम करने की उस की क्षमता है.’’

‘‘मैं इस बात को नहीं मानती.’’

‘‘मानना न मानना तुम्हारी मरजी है मम्मी, मगर ऐसी बातों का खयाल कर के मैं इतनी अच्छी नौकरी को हाथ से जाने नहीं दे सकती. मैं बड़ी हो गई हूं, इसलिए अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेने का मुझे हक है,’’ निशा के तेवर बगावती थे. उस के बगावती तेवरों को देख मम्मी एकाएक जैसे ठिठक सी गईं, ‘‘एक मां होने के नाते तुम को समझाना मेरा फर्ज था, मगर लगता है तुम मेरी बात मानने के मूड में नहीं हो. अब इस मामले में तुम्हारे पापा ही तुम से कोई बात करेंगे.’’

‘‘मैं पापा को मना लूंगी,’’ निशा ने लापरवाही से कहा. मम्मी के विरोध को दरकिनार कर के निशा ने जैसा कहा, वैसे कर के भी दिखलाया और नौकरी पर जाने के लिए पापा को मना लिया. लेकिन मम्मी निशा से नाराज ही रहीं. मम्मी की नाराजगी की परवा नहीं कर के निशा नौकरी पर चली गई. एक नौकरी उस के कई सपनों को पूरा करने वाली थी, इसलिए वह रुकती तो कैसे रुकती. मगर उस को यह नहीं मालूम था कि कभीकभी अपने कुछ सपनों की अप्रत्याशित कीमत भी चुकानी पड़ती है. संजय शहर का एक नामी शेयरब्रोकर था. पौश इलाके में स्थित उस का एअरकंडीशंड औफिस काफी शानदार था और उस में कई लड़कियां काम करती थीं. शेयरब्रोकर संजय की उम्र तकरीबन 40 वर्ष थी. उस का सारा रहनसहन और जीवनशैली एकदम शाही थी. ऐसा क्यों नहीं होता, एक ब्रोकर के रूप में वह हर महीने लाखों की कमाई करता था. संजय के औफिस में एक नहीं, कई कंप्यूटर थे जिन के जरिए वह दुनियाभर के शेयर बाजारों के बारे में पलपल की खबर रखता था.

आगे पढ़ें- निशा के सपनों का संसार और बड़ा हो रहा था….

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें