आशा की नई किरण: भाग 1- कौनसा मानसिक कष्ट झेल रहा था पीयूष

स्वाति के मन में खुशी की लहर दौड़ रही थी. महीना चढ़े आज 15 दिन हो गए थे और अब तो उसे उबकाई भी आने लगी थी. खट्टा खाने का मन करने लगा था. वह खुशी से झूम रही थी. पर वह पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहती थी. इतनी जल्दी इस राज को वह किसी पर प्रकट नहीं करना चाहती थी, खासकर पति के ऊपर. 15 दिन और बीत गए. दूसरा महीना भी निकल गया. अब वह पूरी तरह आश्वस्त थी. वह सचमुच गर्भवती थी. शादी के 10 वर्षों बाद वह मां बनने वाली थी, परंतु मां बनने के लिए उस ने क्याक्या खोया, यह केवल वही जानती थी. अभी तक उस के पति को भी मालूम नहीं था. पता चलेगा तो कैसा तूफान उस के जीवन में आएगा इस का अनुमान तो वह लगा सकती थी, लेकिन मां बनने के लिए वह किसी भी तूफान का सामना करने के लिए चट्टान की तरह खड़ी रह सकती थी. इस के लिए वह हर प्रकार का त्याग करने को तैयार थी. 10 वर्ष के विवाहित जीवन में बहुत कष्ट उस ने सहे थे. बांझ न होते हुए भी उस ने बांझ होने का दंश झेला था, सास की जलीकटी सुनी थीं, मातृत्वसुख से वंचित रहने का एहसास खोया था. आज वह उन सभी कष्टों, दुखों, व्यंग्यभरे तानों और उलाहनों को अपने शरीर से चिपके घिनौने कीड़ों की तरह झटक कर दूर कर देना चाहती थी, लोगों के मुंह बंद कर देना चाहती थी. वह सास के चेहरे पर खुशी की झलक देखना चाहती थी और पति…

पति को याद करते हुए उस के मन को झटका लगा, दिल में एक कड़वी सी कसक पैदा हुई, परंतु फिर उस के सुंदर मुखड़े पर एक व्यंग्यात्मक हंसी दौड़ गई. अपने होंठों को अपने दांतों से हलके से काटते हुए उस ने सोचा, पता नहीं उन को कैसा लगेगा? उन के दिल पर क्या गुजरेगी, जब उन को पता चलेगा कि मैं मां बनने वाली हूं. हां, मां, परंतु किस के बच्चे की मां? क्या पीयूष इस सत्य को आसानी से स्वीकार कर लेंगे कि वह मां बनने वाली है. उन के दिमाग में धमाका नहीं होगा, उन का दिल नहीं फट जाएगा? क्या वे यह पूछने का साहस कर पाएंगे कि स्वाति के पेट में किस का बच्चा पल रहा है या वे अपने दिल और दिमाग के दरवाजे बंद कर के अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए एक चुप्पी साध लेंगे? कुछ भी हो सकता है. परंतु स्वाति उस के बारे में चिंतित नहीं थी.

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उस ने बहुत सोचसमझ कर इतना बड़ा कदम उठाया था. मातृत्वसुख प्राप्त कर के अपने माथे से बांझपन का कलंक मिटाने के लिए उस ने परंपराओं का अतिक्रमण किया था और मर्यादा का उल्लंघन किया था. परंतु उस ने जो कुछ किया था, बहुत सोचसमझ कर किया था. शादी के वक्त स्वाति एक टीवी चैनल में न्यूजरीडर और एंकर थी. वह अपनी रुचि के अनुसार काम कर रही थी, परंतु शादी के पहले ही पीयूष की मम्मी ने कह दिया था कि शादी के बाद वह काम नहीं करेगी. मन मार कर उस ने यह शर्त मंजूर कर ली थी. पीयूष ने एमबीए किया था. एमबीए पूरा होते ही वह अपने पिता के साथ उन के व्यापार में हाथ बंटाने लगा था. उन्हीं दिनों उस के पिता की असामयिक मौत हो गई. उस के बाद उस ने अपने पिता का कारोबार संभाल लिया. उन दोनों की शादी के समय पीयूष के पिता जीवित नहीं थे.

दोनों की शादी धूमधाम से संपन्न हुई. स्वाति भी खुश थी कि उस को अपने सपनों का राजकुमार मिल गया. परंतु सुहागरात को ही उस की खुशियों पर तुषारापात हो गया, उस के अरमान बिखर गए और सपनों के पंख टूट गए. सुहागरात में दोनों का मिलन स्वाति के लिए बहुत दुखद रहा. पीयूष ने जैसे ही उड़ान भरी कि धड़ाम से जमीन पर आ गिरा, जैसे उड़ान भरने के पहले ही किसी ने पक्षी के पर काट दिए हों. वह लुढ़क कर लंबीलंबी सांसें लेने लगा. स्वाति का हृदय दहल गया. मन में एक डर बैठ गया, अगर ऐसा है तो दांपत्य जीवन कैसे पार होगा? फिर उस ने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की. हो सकता है, पहली बार के कारण ऐसा हुआ हो. उस ने कहीं पढ़ा था कि प्रथम मिलन में लड़के अत्यधिक उत्तेजना के कारण जल्दी स्खलित हो जाते हैं. यह असामान्य बात नहीं होती है. धीरेधीरे सब सामान्य हो जाता है. काश, ऐसा ही हो, स्वाति ने सोचा. परंतु स्वाति की शंका निर्मूल नहीं थी. उस की आशाओं के पंख किसी ने नोंच कर फेंक दिए. उस की सोच भी सत्य सिद्ध नहीं हुई. पीयूष के पंख सचमुच कटे हुए थे. वह बहुत लंबी उड़ान भर सकने में असमर्थ था. स्वाति अपने पर रोती, परंतु कुछ कर नहीं सकती थी. दांपत्य जीवन के बंधन इतने कड़े होते हैं कि कोई भी उन को तोड़ने का साहस नहीं कर सकता है. अगर तोड़ता है तो शरीर में कहीं न कहीं घाव हो जाता है. स्वाति के जीवन में खुशियों के फूल मुरझाने लगे थे, परंतु वह पढ़ीलिखी थी. उस ने आशा का दामन नहीं छोड़ा. आधुनिक युग विज्ञान का युग था, हर प्रकार के मर्ज का इलाज संभव था.

स्वाति के मन में पीड़ा थी परंतु ऊपर से वह बहुत खुश रहने का प्रयास करती थी. घर के सारे काम करती थी. सासूमां उस के व्यवहार व कार्यकुशलता से खु थीं, उस का पूरा खयाल रखतीं. स्वाति के साथ घर के कामों में हाथ बंटातीं. स्वाति कहती, ‘‘मांजी, अब आप के आराम करने के दिन हैं, क्यों मेरे साथ लगी रहती हैं. मैं कर लूंगी न सबकुछ.’’

‘‘तू सब कर लेती है, मैं जानती हूं परंतु मैं अपंग नहीं हूं. तेरे साथ काम करती हूं तो शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है. काम न करूंगी तो बीमार हो कर बिस्तर से लग जाऊंगी.’’

‘‘फिर भी कुछ देर आराम कर लिया कीजिए,’’ स्वाति सासूमां को समझाने का प्रयास करती.

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‘‘तेरे आने से मुझे आराम ही आराम है. बस, 1 पोता दे कर तू मुझे बचीखुची खुशियां दे दे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा,’’ मांजी ने स्वाति की तरफ ममताभरी निगाह से देखा.

स्वाति के हृदय में कुछ टूट गया. मांजी की तरफ देखने का उसे साहस नहीं हुआ. सिर झुका कर अपने काम में व्यस्त हो गई. समय बीतने के साथसाथ सासूमां की स्वाति से पोते पैदा करने की अपेक्षाएं बढ़ने लगीं. दिन बीतते जा रहे थे. उसी अनुपात में सासूमां की पोते के प्रति चाहत भी बढ़ती जा रही थी. एक दिन उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति बेटा, अब और कितना इंतजार करवाओगी? तुम लोग कुछ करते क्यों नहीं? क्या कोई सावधानी बरत रहे हो?’’ उन्होंने संदेहपूर्ण निगाहों से स्वाति को देखा. ‘‘कैसी सावधानी, मां?’’ स्वाति ने अनजान बनते हुए पूछा. वह अपनी तरफ से क्या कहती, उसे ऐसे पुरुष के साथ बांध दिया था जिस में पुरुषत्व की कमी थी. इस में न उस के घर वालों का दोष था, न ससुरालपक्ष के लोगों का? दोष था तो केवल पीयूष का, जिस ने सबकुछ जानते हुए भी शादी की. स्वाति अभी तक चुप थी. शर्म और संकोच की दीवार उस के मन में थी, परंतु अब इस दीवार को उसे तोड़ना ही होगा. पीयूष से इस बारे में उसे बात करनी होगी, परंतु इस तरीके से कि उस के अहं को ठेस न पहुंचे और वह बात की गंभीरता को समझ कर अपना इलाज करवाने के लिए तैयार हो जाए.

शादी की पहली वर्षगांठ बीत गई. कोई उत्साह उन के बीच में नहीं था. स्वाति कोई जश्न मनाना नहीं चाहती थी. पीयूष और मां दोनों की इच्छा थी कि घर में छोटामोटा जश्न मनाया जाए. केवल खास लोगों को बुलाया जाए परंतु स्वाति ने साफ मना कर दिया. वह लोगों की निगाहों में जगे हुए प्रश्नों की आग में तपना नहीं चाहती थी. अंत में पीयूष और स्वाति एक रेस्तरां में डिनर कर के लौट आए. उसी रात…स्वाति ने खुल कर बात की पीयूष से, ‘‘एक साल हो गया, अब हमें कुछ करना होगा. मम्मी की हम से कुछ अपेक्षाएं हैं.’’

पीयूष चौंका, परंतु बिना स्वाति की ओर करवट बदले पूछा, ‘‘कैसी अपेक्षाएं?’’

स्वाति मछली की तरह करवट बदल कर पीयूष की आंखों में देखती हुई बोली, ‘‘क्या आप नहीं जानते कि एक मां की बेटेबहू से क्या अपेक्षाएं होती हैं?’’

पीयूष की पलकें झुक गईं, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं?’’ उस ने हताश स्वर में कहा. स्वाति ने अपनी कोमल उंगलियों से उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘आप निराशाजनक बातें क्यों कर रहे हैं. दुनिया में हर चीज संभव है, हर मर्ज का इलाज है और प्रत्येक समस्या का समाधान है.’’

पीयूष ने उस की आंखों में देखते हुए पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो?’’

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मेरी डोर कोई खींचे : रचना की कहानी

ट्रक से सामान उतरवातेउतरवाते रचना थक कर चूर हो गई थी. यों तो यह पैकर्स वालों की जिम्मेदारी थी, फिर भी अपने जीवनभर की बसीबसाई गृहस्थी को यों एक ट्रक में समाते देखना और फिर भागते हुए ट्रक में उस का हिचकोले लेना, यह सब झेलना भी कोईर् कम धैर्य का काम नहीं था. उस का मन तब तक ट्रक में ही अटका रहा था जब तक वह सहीसलामत अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच गया था. खैर, रचना के लिए यह कोई नया तजरबा नहीं था. तबादले का दंश तो वह अपने पिता के साथ बचपन से ही झेलती आ रही थी. हां, इसे दंश कहना ही उचित होगा क्योंकि इस की तकलीफ तो वही जानता है जो इसे भुगतता है. रचना को यह बिलकुल पसंद नहीं था क्योंकि स्थानांतरण से होने वाले दुष्परिणामों से वह भलीभांति परिचित थी.

बाकी सब बातों की परवा न कर के जिस बात से रचना सब से ज्यादा विचलित रहती थी वह यही थी कि पुराने साथी एकाएक छूट जाते हैं, सभी दोस्त, साथी गलीमहल्लों के रिश्ते पलक झपकते ही पराए हो जाते हैं और हम खानाबदोशों की तरह अपना तंबू दूसरे शहर में तानने को मजबूर हो जाते हैं. अजनबी शहर, उस के तौरतरीके अपनाने में काफी दिक्कत आती है. नए शहर में कोई परिचित चेहरा नजर नहीं आता. वह दुखसुख की बात करे तो किस से? घर जाए तो किस के और अपने घर बुलाए तो भी किसे? नया शहर, नया घर उसे काटने को दौड़ता था.

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सौरभ यानी रचना के पति को इस से विशेष फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि उन को तो आते ही ड्यूटी जौइन करनी होती थी और वे व्यस्त हो जाते थे. यही हाल बेटे पर्व और बेटी पूजा का था. वे भी अपने नए स्कूल व नई कौपीकिताबों में खो जाते थे. रह जाती थी तो रचना घर में बिलकुल अकेली, अपने अकेलेपन से जूझती.

यह तो भला हो नई तकनीक का, जिस ने अकेलेपन को दूर करने के कई साधन निकाल रखे हैं. रचना उठतेबैठते फेसबुक व व्हाट्सऐप के जन्मदाताओं का आभार व्यक्त करना नहीं भूलती थी. उस की नजर में लोगों से जुड़ने के ये साधन अकेलापन तो काटते ही हैं, साथसाथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी प्रदान करते हैं, खासकर स्त्रियों को. घर की चारदीवारी में रह कर भी वह अपने मन की बात इन के जरिए कर सकती है.

दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद रोज की तरह रचना अपना स्मार्टफोन ले कर बैठ गई. उस में एक फ्रैंडरिक्वैस्ट थी, नाम पढ़ते ही वह चौंक गई-नीरज सक्सेना. उस ने बड़ी उत्सुकता से उस की प्रोफाइल खोली तो खुशी व आश्चर्य से झूम उठी. ‘अरे, यह तो वही नीरज है जो मेरे साथ पढ़ता था,’ उस के मुंह से निकला. पापा का अचानक से ट्रांसफर हो जाने के कारण वह किसी को अपना पता नहीं दे पाई थी और नतीजा यह था कि फेयरवैल पार्टी के बाद आज तक किसी पुराने सहपाठी से नहीं मिल पाई थी.

उस के अंतर्मन का एक कोना अभी भी खाली था जिस में वह सिर्फ और सिर्फ अपनी पुरानी यादों को समेट कर रखना चाहती थी और आज नीरज की ओर से भेजी गई फ्रैंडरिक्वैस्ट दिल के उसी कोने में उतर गई थी. उस ने फ्रैंडरिक्वैस्ट स्वीकार कर ली.

फिर तो बातों का सिलसिला चल निकला और जब भी मौका मिलता, दोनों पुराने दिनों की बातों में डूब जाया करते थे. बातों ही बातों में उसे पता चला कि नीरज भी इसी शहर में रहता है और यहीं आसपास रहता है.

रचना ने सौरभ को भी यह बात बताई तो सौरभ ने कहा, ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है, तुम सदा शिकायत करती थी कि आप के तो इतने पुराने दोस्त हैं, मेरा कोई नहीं, अब तो खुश हो न? किसी दिन घर बुलाओ उन्हें.’’

एक दिन रचना ने नीरज को घर आने का न्योता दिया. इस के बाद बातों के साथसाथ मिलनेजुलने का सिलसिला भी शुरू हो गया. नीरज को जब भी फुरसत मिलती, वह रचना से बात कर लेता और घर भी आ जाता था.

नीरज अकसर अकेला ही आता था, तो एक दिन सौरभ बोले, ‘‘भई, क्या बात है, आप एक बार भी भाभीजी व बच्चों को नहीं लाए. उन को भी लाया कीजिए.’’

यह सुन कर नीरज बोला, ‘‘अवश्य लाता, यदि वे होते तो?’’

क्या मतलब, तुम ने अभी तक शादी नहीं की, सौरभ ने चुटकी काटी जबकि  रचना सौरभ को बता चुकी थी कि वह शादीशुदा है और एक बेटे का बाप भी है.

सौरभ की बात सुन कर नीरज झेंप कर बोला, ‘‘मेरा कहने का मतलब था- यदि वे यहां होते. प्रिय व संदीप अभी यहां शिफ्ट नहीं हुए हैं, स्कूल में ऐडमिशन की दिक्कत की वजह से ऐसा करना पड़ा.’’

‘‘ठीक कह रहे हो तुम, बड़े शहरों में किसी अच्छे स्कूल में ऐडमिशन करवाना भी कम टेढ़ी खीर नहीं है. हम ने भी बहुत पापड़ बेले हैं बच्चों के ऐडमिशन के लिए.’’

अब सौरभ और नीरज में भी दोस्ती हो गई थी और स्थिति यह थी कि कई बार नीरज बिना न्योते के भी खाने के समय आ जाता था. नीरज के घर में आने से रचना बहुत खुश रहती थी और बहुत ही मानमनुहार से उस की खातिरदारी भी करती थी.

एक बार खाने के समय जब नीरज के बारबार मना करने पर भी रचना ने एक चपाती परोस दी तो सौरभ से रहा नहीं गया और वे बोले, ‘‘खा लो भैया, इतनी खुशामद तो ये मेरी भी नहीं करती.’’

बात साधारण थी पर रचना को यह चेतावनी सी प्रतीत हुई. पतिपत्नी के नाजुक रिश्ते में कभीकभी ऐसी छोटीछोटी बातें भी नासूर बन जाती हैं, इस का एहसास था उसे. उस दिन के बाद से वह हर वक्त यह खयाल भी रखती कि उस के किसी भी व्यवहार के लिए सौरभ को टोकना न पड़े क्योंकि रिश्तों में पड़ी गांठ सुलझाने में हम अकसर खुद ही उलझ जाते हैं.

एक शाम जब सौरभ औफिस से आए तो बोले, ‘‘आई एम सौरी, रचना, मुझे कंपनी की ओर से 15 दिनों के टूर पर अमेरिका जाना पड़ेगा. मेरा मन तो नहीं है कि मैं तुम्हें इस नए शहर में इस तरह अकेले छोड़ कर जाऊं पर क्या करूं, बहुत जरूरी है, जाना ही पड़ेगा.’’

यह सुन कर रचना को उदासी व चिंता की परछाइयों ने घेर लिया. वह धम्म से पलंग पर बैठ गई और रोंआसा हो कर बोली, ‘‘अभी तो मैं यहां ठीक तरह से सैटल भी नहीं हुई हूं. आप तो जानते ही हैं कि आसपड़ोस वाले सब अपने हाल में मस्त रहते हैं. किसी को किसी की परवा नहीं है यहां. ऐसे में 15 दिन अकेली कैसे रह पाऊंगी.’’

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‘‘ओह, डोंट वरी, आई नो यू विल मैनेज इट. मुझे तुम पर पूरा भरोसा है.’’

और फिर दूसरे दिन ही सौरभ अमेरिका चले गए और रचना अकेली रह गई. यों तो रचना घर में रोज अकेली ही रहती थी पर इस उम्मीद के साथ कि शाम को सौरभ आएंगे. आज वह उम्मीद नहीं थी, इसलिए घर में उस सूनेपन का एहसास अधिक हो रहा था.

खैर, वक्त तो काटना ही था. बच्चों के साथ व्यस्त रह कर, कुछ घरेलू कामकाज निबटा कर रचना अपना जी लगाए रखती. पर बच्चे भी पापा के बिना बड़े अनमने हो रहे थे. नन्हीं पूजा ने तो शायद इसे दिल से ही लगा लिया था. सौरभ के जाने के बाद उस का खानापीना काफी कम हो गया था. वह रोज पूछती, ‘पापा कब आएंगे?’ और रचना चाह कर भी उसे खुश नहीं रख पाती थी.

एक शाम पूजा को बुखार आ गया. बुखार मामूली था, इसलिए रचना ने घर पर रखी बुखार की दवा दे दी. फिर समझाबुझा कर कुछ खिला कर सुला दिया. आधी रात को पूजा के कसमसाने से रचना की नींद खुली तो उस ने देखा, पूजा का बदन बुखार से तप रहा था. रचना झट से थर्मामीटर ले आई. बुखार 104 डिगरी था. रचना के होशोहवास उड़ गए. इतना तेज बुखार, वह रोने लगी पर फिर हौसला कर के उस ने सौरभ को फोन मिलाया.

संयोग से सौरभ ने फोन तुरंत रिसीव किया. रचना ने रोतेरोते सौरभ को सारी बात बताई.

सौरभ ने कहा, ‘‘घबराओ मत, पूजा को तुरंत डाक्टर के पास ले कर जाओ.’’

रचना ने कहा, ‘‘आप जानते हैं न, यहां रात के 12 बज रहे हैं. गाड़ी खराब है. एकमात्र पड़ोसी बाहर गए हैं. मैं और किसी को जानती भी तो नहीं इस शहर में.’’

‘‘नीरज, हां, नीरज है न, उसे कौल करो. वह तुम्हारी जरूर मदद करेगा.’’

‘‘पर सौरभ, इतनी रात, मैं अकेली, क्या नीरज को बुलाना ठीक रहेगा?’’

‘‘इस में ठीकगलत क्या है? पूजा बीमार है. उसे डाक्टर को दिखाना जरूरी है. बस, इस समय यही सोचना जरूरी है.’’

‘‘पर फिर भी…’’

‘‘तुम किस असमंजस में पड़ गईं? अरे, नीरज अच्छा इंसान है. 2-4 मुलाकातों में ही मैं उसे जान गया हूं. तुम उसे कौल करो, मुझे किसी की परवा नहीं. तुम इसे मेरी सलाह मानो या आदेश.’’

‘‘ठीक है, मैं कौल करती हूं.’’ रचना ने कह तो दिया पर सोच में पड़ गई. रात को 12 बजे नीरज को कौल कर के बुलाना उसे बड़ा अटपटा लग रहा था. वह सोचती रही, और कुछ देर यों ही बुत बन कर बैठी रही.

पर कौल करना जरूरी था, वह यह भी जानती थी. सो, उस ने फोन हाथ में लिया और नंबर डायल किया. घंटी गई और किसी ने उसे काट दिया. आवाज आई, ‘यह नंबर अभी व्यस्त है…’ उस ने फिर डायल किया. फिर वही आवाज आई.

अब क्या करूं, वह तो फोन ही रिसीव नहीं कर रहा. चलो, एक बार और कोशिश करती हूं, यह सोच कर वह रिडायल कर ही रही थी कि कौलबैल बजी.

इतनी रात, कौन हो सकता है? रचना यह सोच कर घबरा गई, ‘तभी उस के लैंडलाइन फोन की घंटी बजी. उस ने डरतेडरते फोन रिसीव किया.

‘‘हैलो रचना, मैं नीरज, दरवाजा खोलो, मैं बाहर खड़ा हूं.’’

रचना को बड़ा आश्चर्य हुआ. नीरज ने तो मेरा फोन रिसीव ही नहीं किया. फिर यह यहां कैसे आया. पर उस ने दरवाजा खोल दिया.

‘‘कहां है पूजा?’’ नीरज ने अंदर आते ही पूछा. स्तंभित सी रचना ने पूजा के कमरे की ओर इशारा कर दिया.

नीरज ने पूजा को गोद में उठाया और बोला, ‘‘घर को लौक करो. हम पूजा को डाक्टर के पास ले चलते हैं. ज्यादा देर करना ठीक नहीं है.’’

गाड़ी चलातेचलाते नीरज ने कहा, ‘‘यह तो अच्छा हुआ कि आज मैं ने सौरभजी का कौल रिसीव कर लिया वरना रात को तो मैं घोड़े बेच कर सोता हूं और कई बार तो फोन भी स्विच औफ कर देता हूं.’’

अब रहस्य पर से परदा उठ चुका था यानी कि उस के कौल से पहले ही सौरभ का कौल पहुंच चुका था नीरज के पास.

पूजा को डाक्टर को दिखा कर, आवश्यक दवाइयां ले कर रचना ने नीरज को धन्यवाद कह कर विदा कर दिया और फिर सौरभ को फोन लगाया.

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इस से पहले कि सौरभ कुछ बोलता, रचना बोली, ‘‘धन्यवाद, हमारा इतना ध्यान रखने के लिए और मुझ पर इतना विश्वास करने के लिए. इतना विश्वास तो शायद मुझे भी खुद पर नहीं है, तभी तो मुझे नीरज को फोन करने के लिए इतना सोचना पड़ा.’’

सौरभ बोले, ‘‘मुझे धन्यवाद कैसा? यह तो आदानप्रदान है. तुम भी तो मुझे परदेश में इसी विश्वास के साथ आने देती हो कि मैं लौट कर तुम्हारे पास अवश्य आऊंगा. तो क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता. यह विश्वास नहीं, प्यार है.’’

आगामी अतीत: आशीश को मिली माफी

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‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है, मां? भेज दो उस के मायके. बड़े चालाक बनते हैं वे. अपनी बीमार बेटी तुम्हारे मत्थे मढ़ गए.’’

‘‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भी भेजी हैं पर अंजू खुद नहीं जा रही और सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है उस में, इतनी प्यारी है वह.’’

‘‘तो ठीक है, करती रहो सेवा उस की.’’

और फिर एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा था मैं ने. वैसे भी इधर व्यवसाय के सिलसिले में अश्विनी काफी परेशान थे. कई जगह माल भेज कर पैसों की वसूली नहीं हो पा रही थी. एक दिन शाम को बहुत झल्लाए थे मेरे ऊपर.

‘‘रीना, क्या तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारी भाभी अस्पताल में हैं.’’

‘‘तो इस में नया क्या है?’’

‘‘क्या औपचारिकतावश उन का हाल नहीं पूछना चाहिए तुम्हें? अब वे घर आ गई हैं. चलो, मिल कर आते हैं. बीमार मनुष्य से यदि दो शब्द भी सहानुभूति के बोलो तो दुख बंट जाता है.’’

बेमन से मैं तैयार हो कर चल पड़ी थी. एक पल के लिए उन का पीला चेहरा देख कर तरस भी आया, पर न जाने दूसरे ही पल वह घृणा में क्यों बदल गया था. मैं मां से बतियाती रही. मां लगातार अंजू का ध्यान रख रही थीं और मैं कुढ़ रही थी. वातावरण को सामान्य बनाने के लिए मां बोली थीं, ‘‘रीना, अंजू का गाना सुनोगी?’’

मैं ने बेमन से ‘हां’ कहा. अंजू के प्रति छिपा तिरस्कार मां बखूबी पहचानती थीं. और तभी अंजू का गाना सुना. इतना मीठा स्वर मैं ने पहली बार सुना था. उन्होंने उस के कपड़े बदलवाए. उस की उंगलियां फिर मुड़ गई थीं. वह हमारे जाने से बहुत खुश होती थी. जितना मेरे पास आने का प्रयत्न करती मैं उसे मूक प्रताड़ना देती.

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अचानक अश्विनी अपने व्यवसाय की परेशानियां ले बैठे. अंजू सबकुछ चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. बाबूजी भी हतप्रभ से उस के सुझावों को सुन रहे थे. उस के सुझावों से अश्विनी को वाकई लाभ हुआ था. वह जब भी ठीक होती, भैया के साथ मेरे घर आती. गाड़ी में बैठ कर भैया के साथ कई बार दफ्तर जाती. बाबूजी तो अब वृद्ध हो गए थे. भैया दौरे पर चले जाते. वह फैक्टरी व दफ्तर अच्छी प्रकार संभाल लेती थी. 4 वर्ष के वैवाहिक जीवन में एक बार भी तो पलट कर मायके को न निहारा था उस ने. मेरी बिटिया को भी इतना प्यार करती कि कहना मुश्किल है. बाबूजी भी बेटी से ज्यादा स्नेह देते उसे. पर मैं उस वातावरण में घुटती थी.

बाबूजी तो अपने साथ घुमा भी लाते थे उसे. मां को कई बार हाथों से दवा और जूस पिलाते देखा था मैं ने. पर न जाने क्यों मेरे हृदय की वितृष्णा स्नेह में नहीं बदल पा रही थी. अश्विनी कई बार समझाते, पर मेरा दिल न पसीजता. बारबार अंजू का जिक्र होता और मैं उसे और तिरस्कृत करती. अब तो मैं ने वहां जाना भी छोड़ दिया था.

उड़तीउड़ती खबर सुनी थी कि आज अंजू मां की सेवा कर रही थी. अब उस ने घर भली प्रकार संभाल लिया है. कभी उस की बीमारी की खबर भी सुनती, पर एक कान से सुनती दूसरे कान से निकाल भी देती. एक दिन बाबूजी का फोन आया था. घबराहट से पूछ रहे थे, ‘‘अश्विनी कहां है?’’

‘‘वे तो अभी आए नहीं. क्यों? क्या बात है? क्या आज आप की बहू फिर बीमार हो गई?’’

मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी न थी. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, फोन का चोगा रख दिया था. तभी अश्विनी का क्रुद्ध स्वर सुनाई पड़ा था, ‘‘हद होती है शुष्क व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उन का मुख भी नहीं देखना चाहतीं. मनुष्य को मानवता के प्रति तो प्रतिबद्ध होना ही चाहिए. रीना, कम से कम इंसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं.’’

‘‘क्या हुआ मां को?’’

‘‘पिछले कई दिन से वे डायलिसिस पर हैं. डाक्टर ने गुरदे का औपरेशन बताया है,’’ वे कपड़े बदल कर कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे.

‘‘कहां जा रहे हो?’’

‘‘अस्पताल.’’

‘‘तुम ने मुझे आज तक बताया क्यों नहीं कि मां बीमार हैं?’’

‘‘इसलिए कि तुम्हारे जैसी पाषाण- हृदया नारी कभी पसीज नहीं सकती. जीवनमरण के बीच झूलती तुम्हारी मां को गुरदे की आवश्यकता है? तुम्हारे जैसी मंदबुद्धि स्त्री को इन बातों से क्या सरोकार?’’

मैं भी साथ जाने को तैयार हो गई थी. कितना गिरा हुआ महसूस कर रही थी मैं स्वयं को. यदि मां को कुछ हो गया तो? बूढ़ा जर्जर शरीर एक अनजान की सेवा करता रहा, उसे अपनाता रहा, और मैं? उस की कोखजायी उस की अवहेलना ही तो करती रही. आज अपने शरीर का एक अंग दे कर मां की जान बचा लूं तो धन्य समझूं स्वयं को.

गाड़ी की गति से तेज मेरे विचारों की गति थी.

अस्पताल के बरामदे में भाभी, भैया व बाबूजी बदहवास से खड़े थे. अंजू फूटफूट कर रो रही थी.

‘‘दीदी, मेरा परीक्षण करवाइए. मैं गुरदा दूंगी मां को.’’

मैं ने मन में सोचा, ‘ढोंगी स्त्री, यह मां की जान बचाएगी? वह सुखी संसार इसी के कारण तो नरक बना था.’ डाक्टर से विचारविमर्श करने के बाद मेरा व अंजू का परीक्षण किया गया. हम दोनों ही गुरदा दे सकते थे, पर अंजू जिद पर अड़ी रही. बोली, ‘‘मेरे जीवन का मूल्य ही क्या है? मैं ने इस परिवार को दिया ही क्या है. यदि रीना को कुछ हो गया तो उस की बिटिया को कौन पालेगा?’’ उस के तर्क के सामने हम चुप हो गए थे. भाभी व मां को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया था.

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औपरेशन का समय लंबा ही होता जा रहा था. डाक्टर ने बताया कि औपरेशन कामयाब हो गया है पर अंजू खतरे से बाहर नहीं है.

हम सब सन्नाटे में आ गए थे. पहली बार मैं ने भाभी के गुणों को जाना था. किस प्रकार उस ने स्वयं को इस परिवार से बांधा, मैं यह सब अब समझ सकी थी. मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी. आज तक अंजू की मौत मांगने वाली रीना उस की दीर्घायु की कामना कर रही थी. डर सा लग रहा था कहीं उस का यह अंतिम पड़ाव न हो. भाभी के साथ भैया व मांबाबूजी का बंधन अटूट है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था. तभी डाक्टर ने बताया, ‘‘अब अंजू खतरे से बाहर है.’’

भाग कर उस के बिस्तर तक पहुंच गई थी मैं. उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी थी. सभी विस्फारित नेत्रों से मुझे देख रहे थे. शायद विश्वास नहीं कर पा रहे थे पर मेरी आंखों की कोरों से निकले आंसू भाभी के आंसुओं से मिल कर यह दर्शा रहे थे मानो यथार्थ और प्रकृति का समागम हो. मां का हाथ मेरे सिर पर था इंतजार था कब दोनों स्वास्थ्यलाभ ले कर अपने घर लौटेंगी.

हकीकत : लक्ष्मी की हकीकत ने क्यों सोचने पर मजबूर कर दिया

लेखक- परमादत्त झा

‘‘बाबूजी, हमारे भाई की शादी में जरूर आना,’’ खुशी से चहकती लक्ष्मी शादी का कार्ड मुझे देते हुए कह रही थी.

‘‘जरूर आऊंगा लक्ष्मी. तुम्हारे यहां न आऊं, ऐसा कैसे हो सकता है…’’ मैं उसे दिलासा देते हुए बोला था.

लक्ष्मी के मांबाप उसी समय गुजर गए थे, जब वह मुश्किल से 15 साल की रही होगी. उस की गोद में डेढ़ साल का छोटा भाई और साथ में 5 साल की बहन रानी थी.

आज इस बात को कई साल हो गए हैं. डेढ़ साल का वह छोटा भाई आज खूबसूरत नौजवान है, जिस की शादी लक्ष्मी करा रही है.

मैं लक्ष्मी के जाते ही पुरानी यादों में खो गया. उस के पिता आंध्र प्रदेश से यहां मजदूरी करने आए थे, जो साइकिल मरम्मत की दुकान द्वारा अपना परिवार चलाते थे. वे किराए की झुग्गी में पत्नी व बच्चों के साथ रहते थे. उसी महल्ले में जग्गा बदमाश भी रहता था, जिस की निगाह 14 साल की लक्ष्मी पर जा टिकी थी.

सांवले रंग की लक्ष्मी तब भी भरे बदन वाली दिखती थी. एक दिन जग्गा ने मौका पा कर लक्ष्मी को रौंद डाला. कली फूल बनने से पहले ही मसल दी गई थी.

जग्गा की इस करनी से लक्ष्मी का सीधासादा बाप इतना गुस्साया कि उस ने सो रहे जग्गा की कुदाल से काट कर हत्या कर दी.

खून के केस में लक्ष्मी का बाप जेल चला गया और मां दाई का काम कर के अपने बच्चे पालने लगी.

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इधर लक्ष्मी पेट से हो गई, तो उस की मां लोकलाज के डर से महल्ला बदल कर इधर आ गई. फिर तो सरकारी अस्पताल में बच्चे का जन्म और उस की जल्दी मौत. लक्ष्मी की मां द्वारा इस तनाव को झेल न पाना और अचानक मर जाना, सब एकसाथ हुआ. एक चैरिटेबल स्कूल में दाई की जरूरत थी, सो लक्ष्मी को रख लिया गया. सुबह नियमित समय पर आना, अपना काम मन से करना, सब से मीठा बोलना, लक्ष्मी के ऐसे गुण थे कि वह सभी का सम्मान पाने लगी.

आज इस बात को तकरीबन 25 साल से ज्यादा हो गए हैं. अब लक्ष्मी एक अधेड़ औरत दिखती है.

‘‘क्यों लक्ष्मी, इन सब झमेलों के बीच तुम अपनी शादी भूल गई?’’ मैं ने मजाक में पूछा था.

‘‘भूली कहां सर. शादी के बाद भी तो बच्चे ही होते न, सो 2 बच्चे मेरी गोद में हैं. मैं ने जन्म नहीं दिया है, तो क्या हुआ, अपना दूध पिला कर पाला तो है,’’ लक्ष्मी का यह जवाब मुझे अंदर तक हिला गया.

‘‘तुम ने दूध पिलाया है?’’ मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘हां साहब, मैं उस जग्गा बदमाश के चलते बदनाम हो गई थी. कौन शादी करता मुझ से? बच्चा पैदा करने के चलते मैं ने एक बार अपने रोते भाई को मजाक में दूध पिलाया था. वह चुप हो गया और मुझे मजा आया, फिर तो मैं ने 2-3 साल तक उसे दूध पिलाया.’’ यह सुन कर मैं चुप हो गया.

‘‘क्या सोचने लगे बाबूजी?’’

‘‘यही कि तुम्हारी जितनी तारीफ करूं, कम है,’’ मेरे मुंह से निकला.

लक्ष्मी के दोनों भाईबहनों का स्कूल में दाखिला मैं ने ही कराया था. वहीं वे दोनों 12वीं जमात में फर्स्ट डिवीजन में पास कर चुके थे. बहन जहां नर्स की ट्रेनिंग ले कर सरकारी अस्पताल में नर्स थी, वहीं भाई ने बीकौम किया और बैंक में क्लर्क हो गया था. उसी की शादी का कार्ड ले कर लक्ष्मी मेरे पास आई थी.

‘‘लक्ष्मी, तुम ने इतना कुछ कैसे कर लिया?’’ मैं ने एक दिन उस से पूछा था.

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‘‘यह सोचने का समय कहां था साहब. बाप जेल में, मां मर गई. रिश्तेदारों में से कोई झांकने तक नहीं आया, इसलिए जैसेतैसे कर के जो काम मिला करती गई.

‘‘स्कूल का काम करते हुए 1-2 घर का काम करतेकरते जैसेतैसे कर के पैसा कमा कर भाईबहन और खुद का पेट भरना था. फीस के अलावा सारे खर्च थे, जो पूरा करतेकरते जिंदगी निकल गई. आज सब अपने पैरों पर खड़े हैं, तो उन की शादी करनी है.’’

लक्ष्मी ने ईडब्लूएस मकान के लिए जब कहा, तो मैं चौंक गया था. मैं ने उसे बैंक से लोन दिलवाया था. गारंटी भी मैं ने ही दी थी. मजे की बात यह कि उस ने पूरी किस्त समय से भर कर मकान अपना कर लिया. इसी तरह दूसरी सारी समस्याओं का सामना भी वह मजे में करती गई.

एक दिन एक अखबार में किसी के खुदकुशी करने की खबर को सुन कर लक्ष्मी परेशान हो गई और पूछ बैठी, ‘‘साहब, लोग खुदकुशी क्यों करते हैं?’’

‘‘जो जिंदगी से नाराज होते हैं या जिन्हें मनचाहा नहीं मिलता, वे खुदकुशी कर लेते हैं,’’ मेरा जवाब था.

‘‘साहब, मेरी पूरी जिंदगी में संघर्ष ही रहा. मांबाप को खोया, बच्चा खोया, मगर लड़ती रही. अगर नहीं लड़ती, तो आज ये दोनों अनाथ होते. भटकभटक कर जान दे चुके होते, इसलिए इन की खातिर जीना पड़ा. अब तो आदत हो चुकी है. लेकिन मेरे मन में एक बार भी  खुदकुशी करने का विचार नहीं आया.’’

लक्ष्मी की इस बात ने मुझे बिलकुल चुप करा दिया.

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Top 10 Best Family Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट फैमिली कहानियां हिंदी में

Family Story in Hindi: परिवार हमारी लाइफ का सबसे जरुरी हिस्सा है, जो हर सुख-दुख में आपका सपोर्ट सिस्टम बनती है. साथ ही बिना किसी के स्वार्थ के आपका परिवार साथ खड़ा रहता है. इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आये हैं गृहशोभा की 10 Best Family Story in Hindi. रिश्तों से जुड़ी दिलचस्प कहानियां, जो आपके दिल को छू लेगी. इन Family Story से आपको कई तरह की सीख मिलेगी. जो आपके रिश्ते को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौक तो पढ़िए Grihshobha की Best Family Story in Hindi.

1. थोड़ा दूर थोड़ा पास : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

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पढ़ीलिखी मौडर्न तन्वी को ब्याह कर विजित उसे अपने घर तो ले आया मगर फिर घर में अजीबोगरीब घटनाएं होने लगीं और फिर एक दिन…

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2. घूंघट में घोटाला: दुल्हन का चेहरा देख रामसागर को क्यों लगा झटका

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रामसागर ने बमुश्किल नजरें उठायीं. लड़की के सिर पर गुलाबी पल्ला था. आधा चेहरा ही रामसागर को नजर आया. चांद सा. बिल्कुल गोरा-गोरा. रामसागर ने धीरे से गर्दन हिला कर अपनी रजामंदी जाहिर कर दी.

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3. बंदिनी: रेखा ने कौनसी कीमत चुकाई थी कीमत

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बंदिनी समान जीवन जीना और फिर मृत्यु को गले लगाना ही रेखा की नियति बन गई थी. पर जिस रिहाई की कीमत रेखा ने चुकाई थी, क्या वह उसे कभी मिल पाई?

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4. लड़की: क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

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मां हो कर मैं ने अपने बेटों को लाड़ दिया और बेटी को तिरस्कार. बेटों को स्वच्छंदता दी और बेटी को पाबंदियों का पिंजरा. उस के हर अरमान व फैसलों पर कुठाराघात किया. हमारी परवरिश के चलते ही शायद आज वीणा की जिंदगी इस झंझावत में उलझ गई थी. सारा दोष मेरा ही था.

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5. सिसकता शैशव: मातापिता के झगड़े में पिसा अमान का बचपन

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मासूम सा बचपन, मन में अनगिनत सवाल. सब अनबुझे. अमान का अबोध बचपन मातापिता के झगड़े के बीच में पिस कर रह गया. उस के सिसकने, रोने को कोई भी समझ नहीं पा रहा था .

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6.एक से बढ़कर एक: दामाद सुदेश ने कैसे बदली ससुरजी की सोच

family story in hindi

दकियानूसी खयाल के अपने ससुरजी को जगाने के लिए दामाद सुदेश ने ऐसी कौन सी युक्ति निकाली कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी…

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7. शरशय्या: त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

family story in hindi

कौन सा था वो अनाम रिश्ता जिसे वो इला से छिपा रहा था ताकि उन का रिश्ता लहूलुहान न हो.

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8.उस रात: कौनसा हादसे के शिकार हुए थे राकेश और सलोनी

family story in hindi

2 महीने बीत जाने के बाद भी जब राकेश व सलोनी का कुछ पता नहीं चला तो सभी ने यह समझ लिया कि वे दोनों किसी दूसरे शहर में जा कर पतिपत्नी की तरह रह रहे होंगे.

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9.अपनी ही दुश्मन: कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

family story in hindi

कविता भी एकदम गजब लड़की थी. उसे हर बात की जल्दी रहती थी. बचपन में उसे जितनी जल्दी खेल शुरू करने की रहती थी, उतनी ही जल्दी उस खेल को खत्म कर के दूसरा शुरू करने की रहती थी.

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10. कभी नहीं: क्या गायत्री को समझ आई मां की अहमियत

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किसी तरह भावी सास को विदा तो कर दिया गायत्री ने परंतु मन में भीतर कहीं दूर तक अपराधबोध सालने लगा, कैसी पागल है वह और स्वार्थी भी, जो अपना प्रेमी तलाशती रही उस इंसान में जो अपना विश्वास टूट जाने पर उस के पास आया था.

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आशा की नई किरण: भाग 2- कौनसा मानसिक कष्ट झेल रहा था पीयूष

‘‘बस यही कि आप एक अच्छे डाक्टर से सलाह ले कर इलाज करवा लें और जब तक आप का इलाज चलता रहेगा, मैं अपने जौब पर वापस जा कर खुश रहने का प्रयास करूंगी.’’

पीयूष सोच में पड़ गया. स्वाति का काम पर जाना उसे पसंद नहीं था. दरअसल, वह अपनी यौन अक्षमता से परिचित था और वह नहीं चाहता था कि शादी के बाद स्वाति अन्य पुरुषों के संपर्क में आए. स्त्री की अधूरी इच्छाएं और कामनाएं उसे भटका सकती थीं. इन पर किसी स्त्री का जोर नहीं चलता.

‘‘बाहर जा कर काम करने की इच्छा तुम मन से निकाल दो,’’ पीयूष ने कुछ कड़े स्वर में कहा, ‘‘मां, कभी नहीं मानेंगी और अगर मैं ने इजाजत दी तो घर में बेवजह कलह पैदा होगा. परंतु मैं एक काम कर सकता हूं. तुम में रचनात्मक प्रतिभा है. मैं घर पर कंप्यूटर ला देता हूं. तुम लेखकहानी लिख कर पत्रपत्रिकाओं में भेजो. इस से तुम्हारे अंदर का रचनाकार जीवित रहेगा और तुम समय का सही उपयोग भी कर सकोगी.’’ स्वाति जो चाहती थी, यह उस का सही समाधान नहीं था. चौबीसों घंटे घर पर रहने से एकाकीपन और ज्यादा डरावना लगने लगता है. यों तो स्वाति के ऊपर बाहर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था परंतु पुरानी सहेलियों और मित्रों से संपर्क टूट चुका था. एकाध से कभीकभार फोन पर बात हो जाती थी. अब उसे अपने पुराने रिश्तों को जीवित करना होगा. जिस घुटनभरी मानसिक अवस्था में वह जी रही थी, उस में उस का बाहर निकल कर लोगों के साथ घुलनामिलना आवश्यक था, वरना वह मानसिक अवसाद के गहरे कुएं में गिर सकती थी. स्वाति ने बुझे मन से पति के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया परंतु मन में विद्रोह के भाव जाग्रत हो उठे. वह बहुत सीधी, सरल और सच्चे मन की लड़की थी. उस के स्वभाव में विद्रोही भाव नहीं थे. परंतु परिस्थितियां मनुष्य को विद्रोही बना देती हैं. स्वाति के पास विद्रोह करने के एक से अधिक कारण थे परंतु अपनी मनोभावना को उस ने पति पर प्रकट नहीं किया. स्वाति ने संशय से पूछा, ‘‘और आप ने अपने बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘अपने बारे में क्या सोचना?’’ उस ने टालने के भाव से कहा.

‘‘आप जानबूझ कर अनजान क्यों बन रहे हैं? क्या आप समझते हैं कि मैं इतनी भोली हूं और पुरुष के बारे में कुछ नहीं जानती. आप अपनेआप को किसी भ्रम में रखने की कोशिश न करें वरना मांजी पोतापोती का मुंह देखे बिना ही इस दुनिया से कूच कर जाएंगी.’’

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पीयूष कुछ पल चुप रहा, फिर गंभीरता से कहा, ‘‘मैं अपना इलाज करवा लूंगा.’’

‘‘तो फिर कब चलेंगे डाक्टर के पास?’’ स्वाति ने उत्साह से कहा.

‘‘तुम क्यों मेरे साथ चलोगी? मैं स्वयं जा कर डाक्टर से सलाह ले लूंगा,’’ पीयूष की आवाज में बेरुखी साफ दिखाई पड़ रही थी.

स्वाति के मन में कुछ चटक गया. पतिपत्नी के प्रेम की डोर में एक गांठ पड़ गई. पीयूष ने दूसरे ही दिन एक डैस्कटौप कंप्यूटर, प्रिंटर के साथ ला कर घर पर लगवा दिया. स्टेशनरी भी रख दी. स्वाति ने अपने भावों को शब्दरूप में ढालना आरंभ किया. उस के लेखन को प्रकाशन के माध्यम से गति मिली. इस से काफी हद तक उसे मानसिक सुख और शांति का अनुभव हुआ. स्वाति अपनी दुश्चिंता और मानसिक परेशानी से बचने के उपाय ढूंढ़ रही थी, तो दूरी तरफ सासूमां उस की परेशानी बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थीं. जैसेजैसे महीने साल में बदल रहे थे, सासूमां की वाणी की मधुरता गायब होती जा रही थी. उन के मुंह से अब केवल व्यंग्यबाण ही निकलते थे. स्वाति को बातबात पर कोसना उन की दिनचर्या में शामिल हो गया था. सासूमां की कटुता स्वाति अपनी कहानियों और कविताओं में भरती रहती थी.

सासूमां अकसर टोकतीं, ‘‘स्वाति, कुछ घर की तरफ भी ध्यान दो.’’

‘‘मेरे बिना घर का कौन सा काम रुका पड़ा है?’’ स्वाति ने अब अपनी स्वाभाविक सरलता त्याग दी थी. वह भी पलट कर जवाब देने लगी थी.

‘‘शादी के कई साल हो गए. अभी तक एक बच्चा पैदा न कर सकी. घरगृहस्थी की तरफ कब ध्यान दोगी, बच्चे कब संभालोगी?’’

‘‘जब समय आएगा, बच्चे भी पैदा हो जाएंगे?’’

‘‘वह समय पता नहीं कब आएगा?’’ सासूमां बोलीं.

स्वाति कुछ नहीं बोली, तो सासूमां ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे पैर घर में टिकते ही नहीं, बच्चों की तरफ ध्यान क्यों जाएगा? बाहर तुम्हारे सारे शौक पूरे हो रहे हैं, तो पति से क्या लगाव होगा? उसे प्यार दोगी तभी तो बच्चे पैदा होंगे.’’ स्वाति ने जलती आंखों से सासूमां को देखा. मन में एक ज्वाला सी भड़की. इच्छा हुई कि सासूमां को सबकुछ बता दे, कमसेकम उन का कोसना तो बंद हो जाएगा, परंतु क्या वे उस की बात पर विश्वास करेंगी? शायद न करें, अपने बेटे की कमजोरी को वे क्यों स्वीकार करेंगी?

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‘‘पता नहीं कैसी बंजर कोख ले कर आई है. ऊसर में भी बरसात की दो बूंदें पड़ने से घास उग आती है, परंतु इस की कोख में तो जैसे पत्थर पडे़ हैं,’’ सासूमां के प्रवचन चलते ही रहते थे. सासूमां की जलीकटी सुनतेसुनते स्वाति तंग आ चुकी थी. लेख, कविता और कहानी के माध्यम से मन की भड़ास निकालने के बाद भी उस के मन की जलन कम नहीं होती थी. दिन पर दिन स्वाति का मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा था. पीयूष की तरफ से उसे कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे थे. उस ने कहा था कि वह एक आयुर्वेदाचार्य से सलाह ले कर जननेंद्रियों को पुष्ट करने वाली कुछ यौगिक क्रियाएं कर रहा था और दूध के साथ कोई चूर्ण ले रहा था. स्वाति समझ गई, वह किसी ढोंगी वैद्य के चक्कर में फंस गया था. एक नियमित अवधि के बाद जब दोनों ने संबंध बनाए तो स्वाति को पीयूष की पौरुषता में कोई अंतर नजर नहीं आया.

‘‘आप किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?’’ स्वाति ने कहा.

‘‘क्या फायदा, जब आयुर्वेद में इस का इलाज नहीं है तो अंगरेजी चिकित्सा में कहां होगा?’’

‘‘आप कैसी दकियानूसी बातें कर रहे हैं. आप पढ़ेलिखे हैं. एक अनपढ़गंवार व्यक्ति के मुंह से भी यह बात अच्छी नहीं लगती. आज विज्ञान कहां से कहां पहुंच गया. चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो रही है. कम से कम आप तो ऐसी बात न करें.’’

‘‘ठीक है, अगर तुम कहती हो तो मैं डाक्टर को दिखा दूंगा,’’ पीयूष ने बात को टालते हुए कहा और बाहर की तरफ चल दिया.

स्वाति पति के टालू स्वभाव से हैरान रह गई. पता नहीं किस मिट्टी का बना है यह इंसान. सासूमां का अत्याचार उस के ऊपर बदस्तूर जारी था, बल्कि दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था. उन के तानों और जलीकटी बातों से स्वाति का हृदय फट कर रह जाता था. दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से उस की मानसिक परेशानी दोगुनी हो जाती. उसे लगता, इस भरीपूरी दुनिया में वह बिलकुल अकेली पड़ गई है. उस का पति और सास ही उस के दुश्मन बन गए हैं. अपने मम्मीपापा से वह अपनी परेशानी बता नहीं सकती थी. अपना दर्द वह उन के हिस्से में क्यों डाले. उन्होंने तो अपनी जिम्मेदारी निभा दी थी. उस की शादी कर दी. अब अपने दांपत्यजीवन की परेशानियों से अवगत करा कर उन्हें क्यों परेशान करे? उस ने ठान लिया कि वह स्वयं ही अपनी परेशानियों से लड़ेगी और जीत हासिल करेगी. इन्हीं दुश्चिंताओं से गुजरते हुए उस ने इंटरनैट पर एक प्रसिद्ध सैक्सोलौजिस्ट का नाम व पता ढूंढ़ निकाला, फिर पीयूष से कहा, ‘‘आप स्वयं तो कुछ करने वाले नहीं हैं. मैं ने एक डाक्टर के बारे में इंटरनैट से जानकारी प्राप्त की है. उन से अपौइंटमैंट भी ले लिया है. कल हम दोनों उन के पास चलेंगे.’’ पीयूष ने अपने स्वर में और ज्यादा तल्खी घोलते हुए कहा, ‘‘एक बात समझ लो, मैं किसी डाक्टर के पास नहीं जाने वाला, तुम अपने काम से काम रखो. घर संभालो, मां की सेवा करो, अपना लेखन कार्य करो. तुम्हें जो चाहिए, मैं ला कर दूंगा. मेरे बारे में कुछ करने की तुम्हें जरूरत नहीं है.’’

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बुजदिल : कलावती का कैसे फायदा उठाया

लेखक- सुरेंद्र कुमार

सुंदर के मन में ऐसी कशमकश पहले शायद कभी भी नहीं हुई थी. वह अपने ही खयालों में उलझ कर रह गया था.

सुंदर बचपन से ही यह सुनता आ रहा था कि औरत घर की लक्ष्मी होती है. जब वह पत्नी बन कर किसी मर्द की जिंदगी में आती है, तो उस मर्द की किस्मत ही बदल जाती है.

सुंदर सोचता था कि क्या उस के साथ भी ऐसा ही हुआ था? कलावती के पत्नी बन कर उस की जिंदगी में आने के बाद क्या उस की किस्मत ने भी करवट ली थी या सचाई कुछ और ही थी?

खूब गोरीचिट्टी, तीखे नाकनक्श और देह के मामले में खूब गदराई कलावती से शादी करने के बाद सुंदर की जिंदगी में जबरदस्त बदलाव आया था. पर इस बदलाव के अंदर कोई ऐसी गांठ थी, जिस को खोलने की कोशिश में सुंदर हमेशा बेचैन हो जाता था.

एक फैक्टरी में क्लर्क के रूप में 8 हजार रुपए महीने की नौकरी करने वाला सुंदर अपनी माली हालत की वजह से खातेपीते दोस्तों से काफी दूर रहता था

सुंदर अपने दोस्तों की महफिल में बैठने से कतराता था. उस के कतराने की वजह थी पैसों के मामले में उस की हलकी जेब. सुंदर की जेब में आमतौर पर इतने पैसे ही नहीं होते थे कि वह दोस्तों के साथ बैठ कर किसी रैस्टोरैंट का मोटा बिल चुका सके.

लेकिन शादी हो जाने के बाद एकाएक ही सबकुछ बदल गया था. सुंदर की अहमियत उस के दोस्तों में बहुत बढ़ गई थी. बड़ीबड़ी महंगी पार्टियों से उस को न्योते आने लगे थे. बात दूरी की हो, तो एकाएक ही सुंदर पर बहुत मेहरबान हुए अमीर दोस्त उस को लाने के लिए अपनी चमचमाती गाड़ी भेज देते थे.

पर किसी भी दोस्त के यहां से आने वाला न्योता अकेले सुंदर के लिए कभी भी नहीं होता था. उस को पत्नी कलावती के साथ ही आने के लिए जोर दिया जाता था.

कई दोस्त तो बहाने से सुंदर के घर तक आने लगे थे और कलावती के हाथ की गरमागरम चाय पीने की फरमाइश भी कर देते थे. चाय पीने के बाद दोस्त कलावती की जम कर तारीफ करना नहीं भूलते थे.

एक दोस्त ने तो कलावती के हाथ की बनी चाय की तारीफ में यहां तक कह डाला था, ‘‘कमाल दूध, चीनी या पत्ती में नहीं, भाभीजी के हाथों में है.’’

कम पढ़ीलिखी और बड़े ही साधारण परिवार से आई कलावती अपनी तारीफ से फूली नहीं समाती थी. उस के गोरे गाल लाल हो जाते थे और जोश में वह तारीफ करने वाले दोस्त को फिर से चाय पीने के लिए आने का न्योता दे देती थी.

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सुंदर अपने दोस्तों को घर आने के लिए मना भी नहीं कर सकता था. आखिर दोस्ती का मामला जो था. लेकिन वह उन दोस्तों से इतना तंग होने लगा था कि उसे अजीब सी घुटन महसूस होने लगती थी.

सुंदर का एक दोस्त हरीश विदेशी चीजों का कारोबार करता था. वह कारोबार के सिलसिले में अकसर दिल्ली और मुंबई जाता रहता था. वह उम्र में सुंदर से ज्यादा होने के बावजूद अभी भी कुंआरा था.

हरीश काफी शौकीन किस्म का इनसान था. दोस्तों की मंडली में सब से ज्यादा रुपए खर्च करने वाला भी.

हरीश जब कभी सुंदर के घर उस से मिलने जाता था, तो कलावती के लिए विदेशी चीजें तोहफे में ले जाता था. हरीश के लाए तोहफों में महंगे परफ्यूम और लिपस्टिक शामिल रहती थीं.

ऐसे तोहफों को देख कर कलावती खिल जाती थी. इस तरह की चीजें औरतों की कमजोरी होती हैं और इस कमजोरी को हरीश पहचानता था.

सुंदर को अपनी बीवी कलावती पर हरीश की मेहरबानी और दरियादिली अखरती थी. वैसे तो शादी के बाद सभी दोस्त ही सुंदर पर मेहरबान नजर आने लगे थे, मगर हरीश की मेहरबानी जैसे एक खुली गुस्ताखी में बदल रही थी.

सुंदर को उस वक्त हरीश उस की मर्दानगी को ही चुनौती देता नजर आता, जब वह विदेशी लिपस्टिक कलावती को ताहफे में देते हुए साथ में एक गहरी मुसकराहट से कहता, ‘‘मैं शर्त के साथ कहता हूं भाभीजी कि इस लिपस्टिक का रंग आप की पर्सनैलिटी से गजब का मैच करेगा.’’

हरीश के तोहफे से खुश कलावती ‘थैंक्यू’ कह कर जब उस को स्वीकार करती, तो सुंदर को ऐसा लगता जैसे वह उस के हाथों से फिसलती जा रही है.

हरीश के पास अपनी गाड़ी भी थी. उस की गाड़ी में बैठते हुए कलावती की गरदन जैसे शान से तन जाती थी. कलावती को गाड़ी में ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठना अच्छा लगता था, इसलिए वह गाड़ी की अगली सीट पर हरीश के पास ही बैठती थी. मजबूरन सुंदर को गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ कर संतोष करना पड़ता था.

शहर में जब कोई नई फिल्म लगती थी, तो हरीश सुंदर से पूछे बिना ही 3 टिकटें ले आता था, इसलिए मना करने की गुंजाइश ही नहीं रहती थी.

जब कलावती फिल्म देखने के लिए तैयार होती थी, तो मेकअप के लिए उन्हीं चीजों को खासतौर पर इस्तेमाल करती, जो हरीश उसे तोहफे में देता रहता था.

सिनेमा जाने के लिए जब कलावती सजधज कर तैयार हो जाती, तो बड़े बिंदास अंदाज में हरीश उस की तारीफ करना नहीं भूलता था. वह कलावती के होंठों पर पुती लिपस्टिक के रंग की खासतौर पर तारीफ करता था.

यह देख कर सुंदर एक बार तो जैसे अंदर से उबल पड़ता था. मगर यह उबाल बासी कढ़ी में आए उबाल की ही तरह होता था.

सिनेमाघर में कलावती सुंदर और हरीश के बीच वाली सीट पर बैठती थी. उस के बदन में से निकलने वाली परफ्यूम की तीखी और मादक गंध दोनों के ही नथुनों में बराबर पहुंचती थी.

परफ्यूम की गंध ही क्यों, बाकी सारे एहसास भी बराबर ही होते थे. अंधेरे सिनेमाघर में अगर कलावती की एक मरमरी नंगी बांह रहरह कर सुंदर को छूती थी, तो वह इस खयाल से बेचैन हो जाता था कि कलावती की दूसरी मरमरी बांह हरीश की बांह को छू रही होगी.

सिनेमाघर में हरीश दूसरी गुस्ताखियों से भी बाज नहीं आता था. सुंदर से कानाफूसी के अंदाज में बात करने के लिए वह इतना आगे को झुक जाता था कि उस का चेहरा कलावती के उभारों को छू लेता था.

जब सुंदर उस दौर से गुजरता, तब मन में इरादा करता कि वह खुले शब्दों में हरीश को अपने यहां आने से मना करेगा, पर बाद में वह ऐसा कर नहीं पाता था. शायद उस में ऐसा करने की हिम्मत नहीं थी. वह शायद बुजदिल था.

हरीश की हिम्मत और बेबाकी लगातार बढ़ती गई. पहले तो सुंदर की मौजूदगी में ही वह उस के घर आता था, मगर अब वह उस की गैरमौजूदगी में भी आनेजाने लगा था.

कई बार सुंदर काम से घर वापस आता, तो हरीश उस को घर में कलावती के साथ चाय की चुसकियां भरते हुए मिलता.

हरीश को देख सुंदर कुछ कह नहीं पाता था, मगर गुस्से के मारे ऐंठ जाता. सुंदर को देख हरीश बेशर्मी से कहता, ‘‘इधर से गुजर रहा था, सोचा कि तुम से मिलता चलूं. तुम घर में नहीं थे. मैं वापस जाने ही वाला था कि भाभीजी ने जबरदस्ती चाय के लिए रोक लिया.’’

सुंदर जानता था कि हरीश सरासर झूठ बोल रहा था, मगर वह कुछ भी कर नहीं पाता. जो चीज अब सुंदर को ज्यादा डराने लगी थी, वह थी कलावती का हाथों से फिसल कर दूर होने का एहसास.

कुछ दिन तक सुंदर के अंदर विचारों की अजीब सी उथलपुथल चलती रही, पर हालात के साथ समझौता करने के अलावा उस को कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा था.

सुंदर को मालूम था कि उस जैसे साधारण आदमी की सोसाइटी में जो शान एकाएक बनी थी, वह उस की हसीन बीवी के चलते ही बनी थी, वरना पांचसितारा होटलों, फार्महाउसों की महंगी पार्टियों में शिरकत करना उस के लिए एक हसरत ही रहती.

एक सच यह भी था कि पिछले कुछ महीनों से सुंदर को इन सब चीजों से जैसे एक लगाव हो गया था. यह लगाव ही जैसे कहीं न कहीं उसे उस की मर्दानगी को पलीता लगाता था.

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कलावती भी जैसे अपने रूपरंग की ताकत को पहचानने लगी थी, तभी तो सुंदर के हरीश सरीखे दोस्तों से कई फरमाइश करने से वह कभी झिझकती नहीं थी. देखा जाए, तो शादी के बाद कलावती की ख्वाहिशें सुंदर की जेब से नहीं, बल्कि उस के दोस्तों की जेब से पूरी हो रही थीं.

सुंदर को यह भी एहसास हो रहा था कि झूठी मर्दानगी में खुद को धोखा देने से कोई फायदा नहीं. अगर उस का कोई दोस्त उस की बीवी के होंठों के लिए लिपस्टिक का रंग पसंद करता था, तो उस के असली माने क्या हो सकते थे?

अपनी खूबसूरत बीवी के खोने का डर सुंदर को लगातार सता रहा था. इस डर के बीच कई तरह की बातें सुंदर के मन में अचानक ही उठने लगी थीं. पति की जगह एक लालची इनसान उस के विचारों पर हावी होने लगा.

सुंदर को लगने लगा था कि उस की बीवी वास्तव में खूबसूरत थी और उस के यारदोस्त काफी सस्ते में ही उस को इस्तेमाल कर रहे थे. अगर उस की खूबसूरत बीवी अमीर दोस्तों की कमजोरी थी, तो उन की इस कमजोरी का फायदा वह अपने लिए क्यों नहीं उठाता था?

इस बात में कोई शक नहीं कि हरीश जैसे अमीर और रंगीनमिजाज दोस्त कलावती के कहने पर उस के लिए कुछ भी कर सकते थे.

सुंदर की सोच बदली, तो उस की वह तकलीफ भी कम हुई, जो दोस्तों के अपनी बीवी से रिश्तों को ले कर उस के मन में बनी हुई थी.

शर्म और मर्दानगी से किनारा कर के सुंदर ने मौका पा कर कलावती से कहा, ‘‘क्या तुम को नहीं लगता कि हमारे पास भी रहने के लिए एक अच्छा घर और सवारी के लिए अपनी कार होनी चाहिए?’’

इस पर कलावती के होंठों पर एक अजीब तरह की मुसकराहट फैल गई. उस ने जवाब में कहा, ‘‘तुम्हारी 8 हजार रुपए की तनख्वाह को देखते हुए मैं इन चीजों के सपने कैसे देख सकती हूं?’’

‘‘कुछ कोशिश करने से सबकुछ हासिल हो सकता है.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘अगर हमारी आमदनी का कोई ऐक्स्ट्रा जरीया बन जाए, तो कुछ दिनों में ही हमारे दिन भी बदल सकते हैं.’’

‘‘मगर, ऐसा कोई जरीया बनेगा कैसे?’’ कलावती ने पूछा.

‘‘हरीश का काफी अच्छा कारोबार है. अगर वह चाहे तो बड़ी आसानी से हमारे लिए भी कोई आमदनी का अच्छा सा जरीया बन सकता है,’’ एक बेशर्म और लालच से भरी मुसकराहट होंठों पर लाते हुए सुंदर ने कहा.

सुंदर की बात पर कलावती की आंखें थोड़ी सिकुड़ गईं. पति उस से जो कहने के लिए भूमिका तैयार कर रहा था, उसे वह समझ गई थी.

जिस दिन सुंदर ने कलावती से आमदनी का अच्छा जरीया वाली बात की, उसी दिन कलावती काफी रात हुए घर आई. हरीश उस को अपनी गाड़ी से घर के बाहर तक छोड़ने आया था.

यह शायद पहला मौका था, जब हरीश घर के अंदर नहीं आया था.

कलावती अकेले ही अंदर आई थी. उस के होंठों की फीकी पड़ी लिपस्टिक और बिखरेबिखरे बाल जैसे खुद ही कोई कहानी बयान कर रहे थे.

सबकुछ समझते हुए भी सुंदर आज उसे अनदेखा करने के मूड में था. कलावती ने सुंदर को कुछ कहने या सवाल करने का मौका ही नहीं दिया.

होंठों के एक कोर पर फैली लिपस्टिक को हाथ के अंगूठे से साफ करते हुए कलावती ने कहा, ‘‘मैं ने हरीश से बात की है. वह बिना किसी इंवैस्टमैंट के ही हमें अपने काम में 10 फीसदी की पार्टनरशिप देने को तैयार है. इस के लिए मुझे उस के दफ्तर में बैठ कर ही कामकाज में उस का हाथ बंटाना होगा.

‘‘हरीश जो भी सामान बेचता है, वह सब औरतों के इस्तेमाल में आने वाला है, इसलिए उस को लगता है कि एक औरत होने के नाते मैं उस के कारोबार को बेहतर तरीके से देख सकती हूं. जब ऐक्स्ट्रा आमदनी रैगुलर आमदनी की शक्ल ले लेगी, तो मैं बेशक नौकरी छोड़ दूंगी. तुम को मेरे इस फैसले पर कोई एतराज तो नहीं…?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ सुंदर ने उतावलेपन से कहा.

इस के बाद कलावती हरीश के दफ्तर में जाने लगी. कई बार कलावती खुद चली जाती और कभी उस को लेने के लिए हरीश की गाड़ी आ जाती. रात को कलावती अकसर 9-10 बजे से पहले घर नहीं आती थी. कभी रात को हरीश का ड्राइवर घर पर उसे छोड़ने आता था और कभी हरीश खुद.

कलावती अकसर खाना भी खा कर ही आती थी. अगर वह खाना खा कर नहीं आती, तो घर पर नहीं बनाती थी. सुंदर किसी ढाबे या होटल से खाना ले आता और दोनों मिल कर खा लेते थे.

कलावती के रंगढंग और तेवर लगातार बदल रहे थे. कई बार तो वह रात को घर आती, तो उस के मुंह से तीखी गंध आ रही होती थी. यह तीखी गंध शराब की होती थी.

कलावती के बेतरतीब कपड़ों और बिगड़ा हुआ मेकअप भी खामोश जबान में बहुतकुछ कहता था.

मगर सुंदर ने इन सब चीजों की तरफ से जैसे आंखें मूंद ली थीं. उस का खून अब जोश नहीं मारता था.

जो दोस्त कभी सुंदर को घास नहीं डालते थे, वे अपनी की गई मेहरबानियों की कीमत वसूले बिना कैसे रह सकते थे?

अब तो सारा खेल जैसे खुला ही था. एक मर्द अपनी बीवी का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहा था और बीवी सबकुछ समझते हुए भी अपनी खुशी से इस्तेमाल हो रही थी.

इस सारे खेल में हरीश भी खुद को एक बड़े और चतुर खिलाड़ी के रूप में ही देखता था. कारोबार में 10 फीसदी की साझेदारी का दांव खेल कर उस ने अपने दोस्त की खूबसूरत बीवी पर एक तरह से कब्जा ही कर लिया था. अब उस को कई बहाने से दोस्त के घर जाने की जरूरत नहीं रह गई थी. वह पति की रजामंदी से खुद ही उस के पास जो आ गई थी.

जल्दी ही कलावती अपने बैग में नोटों की गड्डियां भर कर लाने लगी थी. कहने को तो नोटों की ये गड्डियां साझेदारी में 10 फीसदी हिस्सा थीं, मगर असलियत में वह कलावती के जिस्म की कीमत थी.

दिन बदलने लगे. केवल एक साल में ही किराए के घर को छोड़ कर सुंदर और कलावती अपने खरीदे हुए नए मकान में आ गए. नया खरीदा मकान जल्दी ही टैलीविजन, वाशिंग मशीन, फ्रिज और एयरकंडीशन से सज भी गया.

दूसरे साल में उन के घर के बाहर एक कार भी सवारी के लिए नजर आने लगी.

लेकिन, इस के साथ ही साथ कलावती जैसे नाम की ही सुंदर की पत्नी रह गई थी. कलावती में घरेलू औरतों वाली कोई भी बात नहीं रह गई थी. अपने पति के कहने पर ही वह पैसा बनाने वाली एक मांसल मशीन बन गई थी.

लोग सुंदर के बारे में तरहतरह की बातें करने लगे थे. कुछ लोग तो पीठ पीछे यह भी कहने लगे थे कि कलावती बीवी तो थी सुंदर की, मगर सोती थी उस के दोस्त हरीश के साथ.

10 फीसदी की मुंहजबानी साझेदारी के नाम पर अगर हरीश उन को कुछ दे रहा था, तो बदले में पूरी शिद्दत से वसूल भी कर रहा था. कलावती के मांसल जिस्म को उस ने ताश के पत्तों के तरह फेंट डाला था.

सुंदर जब लोगों का सामना करता था, तो उन की शरारत से चमकती हुई आंखों में बहुतकुछ होता था. कुछ लोग तो इशारों ही इशारों में कलावती को ले कर सुंदर से बहुतकुछ कह भी देते थे, मगर इस से न ही तो अब सुंदर की मर्दानगी को चोट लगती थी और न ही उस का खून खौलता था. उस की सोच मानो बेशर्म हो गई थी.

हरीश जैसे रंगीनमिजाज रईस मर्दों और कलावती जैसी शादीशुदा औरतों के संबंध ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं हैं और न ही इस की उम्र ज्यादा लंबी होती है.

हरीश का मन भी कलावती से भरने लगा था. उस ने कलावती से छुटकारा पाने के लिए उस के प्रति बेरुखी दिखानी शुरू कर दी थी.

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कलावती ने उस की बदली हुई नजरों को पहचान लिया, मगर उस को इस की कोई परवाह नहीं थी. हरीश से साफतौर पर कलावती के लेनदेन वाले संबंध थे और वह काफी हद तक इन संबंधों को कैश कर भी चुकी थी. मकान, घर का सारा कीमती सामान और गाड़ी हरीश की बदौलत ही तो थी.

वैसे, कलावती की नजरों में भी हरीश बेकार होने लगा था. उस को और निचोड़ना मुश्किल था.

हरीश ने साफ शब्दों में कलावती से छुटकारा मांगा. इस के बदले में कलावती ने भी एक बड़ी रकम मांगी. हरीश ने वह मांगी रकम दे दी.

हरीश से संबंध खत्म करने पर सुंदर ने कलावती से कहा, ‘‘हमारे पास अब सबकुछ है, इसलिए हमें पतिपत्नी के रूप में अपनी पुरानी जिंदगी में लौट आना चाहिए.’’

सुंदर की बात पर कलावती खिलखिला कर हंस पड़ी और बोली, ‘‘मुझ को नहीं लगता कि अब ऐसा हो सकता है. पतिपत्नी का रिश्ता तो इस मकान की बुनियाद में कहीं दफन हो चुका है. क्या तुम को नहीं लगता कि पति बनने के बजाय तुम केवल अपनी बीवी के दलाल बन कर ही रह गए? ऐसे में मुझ से दोबारा कोई सती सावित्री बनने की उम्मीद तुम कैसे कर सकते हो?’’

कलावती के जवाब से सुंदर का चेहरा जैसे सफेद पड़ गया. कलावती ने जैसे उस को आईना दिखा दिया था.

कलावती वह औरत नहीं रह गई थी, जो अब घर की चारदीवारी में बंद हो कर रह पाती.

सुंदर भी जान गया था कि उस ने अपनी बीवी को दोस्तों के सामने चारे के रूप में इस्तेमाल कर के हासिल तो बहुतकुछ कर लिया था, मगर अपने जमीर और मर्दानगी दोनों को ही गंवा दिया था.

हरीश को छोड़ने के बाद कलावती ने सुंदर के एक और अमीर दोस्त दिनेश से संबंध बना लिए.

उधर कलावती बाहर मौजमस्ती कर रही थी, इधर सुंदर ने खूब शराब पीनी शुरू कर दी. कभीकभी शराब पी कर सुंदर इतना बहक जाता कि गलीमहल्ले के बच्चे उस का मजाक उड़ाते और उस पर कई तरह की फब्तियां भी कसते.

कुछ फब्तियां तो ऐसी कड़वी और धारदार होतीं कि नशे में होने के बावजूद सुंदर खड़ेखड़े ही जैसे सौ बार मर जाता.

जैसे शराब के नशे में एक बार जब सुंदर लड़खड़ा कर गली में गंदी नाली के पास गिर पड़ा, तो वहां खेल रहे कुछ लड़के खेलना छोड़ उसे उठाने के लिए लपकने को हुए, तो उन में से एक लड़के ने उन को रोक लिया और बोला, ‘‘रहने दो, मेरा बापू कहता है कि यह अपनी औरत की घटिया कमाई खाने वाला एक गंदा इनसान है. इज्जतदार और शरीफ लोगों को इस से दूर रहना चाहिए.’’

एक लड़के का इतना ही कहना था कि बाकी लड़कों के कदम वहीं रुक गए. शराब के नशे में लड़खड़ा कर सुंदर गिर जरूर गया था, मगर बेहोश नहीं था. लड़के के कहे हुए शब्द गरम लावे की तरह उस के कानों में उतर गए.

अपनी बुजदिली और लालच के चलते आज सुंदर कितना नीचे गिर चुका था, इस का सही एहसास गली में खेलने वाले लड़के के मुंह से निकले शब्दों से उसे हो रहा था.

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आशा की नई किरण: भाग 3- कौनसा मानसिक कष्ट झेल रहा था पीयूष

इस बात से स्वाति भड़क गई, ‘‘आप क्या समझते हैं, घर संभालने, सास की सेवा करने और लेखन कार्य करने मात्र से एक पत्नी के जीवन में खुशियां आ सकती हैं? इस के अलावा उसे और कुछ नहीं चाहिए? आप समझते क्यों नहीं कि एक स्त्री को इस के अतिरिक्त और भी कुछ चाहिए, उसे अपने पति से एक बच्चा भी चाहिए. वह मां बनना चाहती है. मां बन कर ही एक स्त्री को पूर्णता प्राप्त होती है.

‘‘इस घर में क्या हो रहा है, आप को दिखाई नहीं पड़ता? सासूमां मेरे बारे में क्याक्या बोलती रहती हैं, वह भी आप के कानों में नहीं पड़ता, क्योंकि आप ने अपनी आंखें और कान बंद कर रखे हैं. मेरी समझ में नहीं आता कि मेरे जीवन में आग लगा कर आप इतने निरपेक्ष कैसे रह सकते हैं. आप को पता है कि आप का रोग लाइलाज है परंतु अपनी नामर्दगी की सजा आप मुझे क्यों दे रहे हैं? मैं ने क्या अपराध किया है?’’ बोलतेबोलते स्वाति की आवाज भर्रा गई. वह पलंग पर बैठ कर सुबकने लगी. पीयूष ने उसे चुप कराने का कोई प्रयास नहीं किया और चुपचाप बाहर निकल गया. स्वाति ने नम आंखों से उसे बाहर जाते हुए देखा और उस का हृदय शीशे की तरह चटक गया. पीयूष के प्रति मन घृणा से भर गया. स्वाति की प्रिय सहेली नम्रता उसी के शहर में ब्याही थी. 2 साल का बच्चा था उस का. उस से यदाकदा बात होती रहती थी. उस के बेटे के जन्मदिन पर पीयूष के साथ गई थी. इधर मानसिक परेशानी और उलझनों के कारण उस ने नम्रता को काफी दिनों से फोन नहीं किया था. कुछ सोच कर उस ने नम्रता को फोन किया. हायहैलो के बाद स्वाति ने कहा, ‘‘मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘तो आ जाओ न यार, कितने दिन हो गए मिले हुए. मिल कर गपशप मारेंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे.’’

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स्वाति जब नम्रता से मिलने गई तो वह उसे देख कर हैरान रह गई, ‘‘यह क्या स्वाति, इतनी कमजोर कैसे हो गई? बीमार थी क्या?’’ ‘‘सब बताऊंगी यार,’’ स्वाति ने फीकी मुसकराहट के साथ कहा. नम्रता का पति सरकारी नौकरी में उच्च पद पर था. उस वक्त वह घर पर ही था. स्वाति से अपने बेटे के जन्मदिन पर मिल चुका था. पहले वाली स्वाति और सामने बैठी स्वाति में जमीनआसमान का अंतर था. उस के चेहरे की चमक कहीं खो गई थी, आंखें कुछ ढूंढ़ती सी लगती थीं. होंठों में जैसे जमानेभर की प्यास भरी हुई थी, परंतु उन की प्यास मिटाने वाला कोई नहीं था. उस के होंठ सूखते जा रहे थे. स्वाति से बोला, ‘‘स्वातिजी, चांद में ग्रहण लगते तो देखा था, परंतु यह पतझड़ कहां से आ गया? आप का खूबसूरत चांद सा मुखड़ा कहीं खो गया है.’’ पीड़ा में भी स्वाति की हंसी फूट पड़ी. अमित की बात सुन कर उस का दर्द जैसे गायब हो गया. उस की तरफ प्यारभरी नजर से देखा और फिर शरमा कर बोली, ‘‘आप तो मेरे ऊपर कविता करने लगे.’’

‘‘अरे नहीं, ये तो तुम्हारे जीवन में बहार बन कर छाने की कोशिश कर रहे हैं. स्वाति, इन से बच कर रहना, ये बड़े दिलफेंक इंसान हैं. सुंदर लड़की देखते ही लाइन मारना चालू कर देते हैं.’’

‘‘ये तो खुद कह रहे हैं कि मैं पतझड़ की मारी हूं. मेरा चांद कहीं खो गया है. ऐसे में मेरे ऊपर क्या लाइन मारेंगे,’’ स्वाति ने दुखी हो कर कहा.

‘‘ऐसा न कहो, ये तो सूखे फूल में भी खुशबू भर देते हैं,’’ नम्रता जैसे अपने पति की पोल खोलने पर आमादा थी. स्वाति शर्म और संकोच में डूबती जा रही थी.

अमित ने पत्नी से कहा, ‘‘तुम इस बेचारी को क्यों परेशान कर रही हो. पहले इस के हालचाल तो पूछो कि इसे हुआ क्या है?’’ दोनों सहेलियां जब एकांत में बैठीं तो स्वाति ने अपने हृदय के सारे परदे उठा दिए, मन की सारी गुत्थियां खोल दीं. कुछ भी न रखा अपने पास. नम्रता की आंखों में आंसू छलक आए, उस की बातें सुन कर. कुछ सुनने के बाद बोली, ‘‘स्वाति, तुम सचमुच स्वाति नक्षत्र की तरह प्यासी हो. कौन जानता था कि एक सुंदर पढ़ीलिखी लड़की के जीवन में इस तरह की काली छाया भी पड़ सकती है. अब तुम क्या चाहती हो?’’

‘‘नम्रता, तुम मेरी सब से अच्छी सहेली हो, मैं तुम्हारी मदद चाहती हूं.’’

‘‘मैं तुम्हारे लिए हर संभव मदद करूंगी. बताओ, कैसी मदद चाहती हो?’’

‘‘मैं जानती हूं, जो मैं तुम से मांगने जा रही हूं वह सहज ही किसी पत्नी को मंजूर नहीं होगा, परंतु मैं इस के लिए किसी कोठे पर नहीं बैठ सकती, किसी परपुरुष से संबंध नहीं बना सकती.’’

‘‘तुम क्या चाहती हो?’’ नम्रता ने धड़कते दिल से पूछा. उसे कुछकुछ समझ में आने लगा था.

‘‘मैं अपनी कोख भरना चाहती हूं, मातृत्व प्राप्त करना चाहती हूं.’’

‘‘यह कैसे संभव हो सकता है? तुम्हारा पति…’’

‘‘सबकुछ हो सकता है, मुझे तुम्हारा साथ चाहिए,’’ स्वाति ने उस की बात काट कर कहा. उस के स्वर में उतावलापन था, जैसे अगर जल्दी से अपनी बात नहीं कहेगी तो कभी कह नहीं पाएगी.

‘‘क्या तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड है, जिस के साथ…’’ नम्रता ने जानना चाहा.

‘‘अरे नहीं, बौयफ्रैंड पालना मेरे बस का नहीं. किसी परपुरुष से शारीरिक संबंध बनाना हर हाल में खतरनाक होता है. वह जीवनभर के लिए गले की हड्डी बन जाता है. संबंध तोड़ने पर ब्लैकमेल करने लगता है. मैं इतना बड़ा जोखिम उठा कर अपने परिवार को नष्ट नहीं करना चाहती हूं.’’

‘‘तो फिर मैं किस प्रकार तुम्हारी मदद कर सकती हूं?’’ नम्रता ने बेबसी से पूछा.

‘‘बस, कुछ दिन के लिए तुम्हें अपने हृदय पर पत्थर रखना होगा, कुछ दिनों के लिए तुम अपने पति को मुझे उधार दे दो. मैं उन के साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहती हूं. जब मेरी कोख भर जाएगी तो मैं उन से अपना संबंध तोड़ लूंगी,’’ स्वाति ने साफसाफ कहा. यह सुन कर नम्रता को चक्कर सा आ गया. वह विस्फारित नेत्रों से स्वाति को देखती रही. मुंह से एक बोल भी न फूटा. स्वाति ने उस के दोनों हाथ पकड़ कर अपने धड़कते सीने पर रख लिए और विनती सी करती बोली, ‘‘तुम मेरी इतनी सी बात मान लो, मैं तुम्हारी जीवन भर एहसानमंद रहूंगी. तुम यह सोच लेना कि जैसे तुम इस बारे में कुछ नहीं जानती हो.’’

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नम्रता कुछ पल सोचती सी बैठी रही, फिर अपने हाथों से स्वाति के हाथों को थामते हुए कहा, ‘‘सुन कर बड़ा अजीब सा लग रहा है, बड़ा कठोर निर्णय है यह. एक पत्नी जानबूझ कर अपने पति को दूसरी स्त्री के बिस्तर पर लिटा दे, यह संभव नहीं होता परंतु मैं तुम्हारा दुख समझ रही हूं. उस की कसक अपने दिल में महसूस कर सकती हूं. अच्छा होता अगर तुम बिना बताए मेरे पति को अपने जाल में फंसा लेतीं. पीठपीछे पति क्या करता है, यह जब तक पत्नी को पता नहीं चलता, उसे दुख नहीं होता है.’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ विश्वासघात नहीं करना चाहती थी. मैं पूरी सुरक्षा के साथ यह सब करना चाहती हूं. अगर सबकुछ तुम्हारी जानकारी में होगा तो बाद में अमितजी से पीछा छुड़ाना मेरे लिए आसान होगा, वरना कहीं वे भी जीवनभर के लिए पीछे पड़ गए तो…’’ स्वाति ने स्पष्ट किया. नम्रता कुछ पल तक सोचती रही. उस के चेहरे पर तरहतरह के भाव आ रहे थे. स्वाति ने अधीरता से उस के हाथों को कस कर दबा दिया, ‘‘देखो नम्रता, मना मत करना, वरना मेरे जीवन का सारा आधार ढह जाएगा. मैं कहीं की न रहूंगी.’’

‘‘खैर, जब तुम ने मुझे सबकुछ बता ही दिया तो मैं तुम्हारी बात मान कर कुछ दिन के लिए अपने हृदय पर पत्थर रख लेती हूं, परंतु स्वाति, तुम स्वयं अमित को पटाओगी. मैं उन से कुछ नहीं कहूंगी. उन्हें यह बताना भी मत कि मुझे सबकुछ मालूम है. तुम उन से कहां मिलोगी, यह भी तुम तय करना. मुझे मत बताना.’’

स्वाति ने उस का माथा चूम लिया, ‘‘नम्रता, मैं जीवनभर तुम्हें सगी बहन की तरह मानूंगी.’’

स्वाति के लिए अमित को पटाना बहुत आसान सिद्ध हुआ. नम्रता ने सही कहा था कि वह बहुत दिलफेंक इंसान था. स्वाति के 2-3 फोन पर ही अमित उस से मिलने के लिए व्याकुल हो गया. स्वाति स्वयं प्यासी थी, सो उस ने भी सारे बंधन ढीले कर दिए और कटी पतंग की तरह अमित की बांहों में जा गिरी. जिस योजना के तहत स्वाति इस अनैतिक कार्य को अंजाम दे रही थी, वह समयसीमा में बंधा हुआ था. उस कार्य के पूर्ण होने का आभास होते ही उस ने अमित से दूरियां बनानी शुरू कर दीं. अंत में एक दिन उस ने अमित को अपनी मजबूरी बता कर उन से अपने संबंध तोड़ लिए. अमित समझदार पारिवारिक व्यक्ति ही नहीं एक जिम्मेदार अधिकारी भी था. उस ने स्वाति को आजाद कर दिया. गर्भधारण के बाद स्वाति के आचरण में स्वाभाविक परिवर्तन आने लगे थे. सासूमां को समझते देर न लगी कि स्वाति मां बनने वाली है. उन का मनमयूर नाच उठा. जो स्वाति अभी तक उन की आंखों में खटक रही थी, दुश्मन से बढ़ कर नजर आती थी, उस का परित्याग करने के मन ही मन मनसूबे बांध रही थीं. वही अचानक उन की आंखों का तारा बन गई. वह उन के लिए खुशियों का खजाना ले कर जो आने वाली थी. स्वाति की बलैयां लेते हुए सासूजी ने कहा, ‘‘नजर न लगे मेरी बेटी को. कितने दिन बाद तू खुशियां ले कर आई है. दिन गिनतेगिनते मेरी आंखें पथरा गईं. पर चलो, देर से ही सही, तू ने मेरी मुराद पूरी कर दी.’’

शाम को उन्होंने पीयूष से कहा, ‘‘तुझे कुछ पता भी है, बहू पेट से है. उस के लिए अच्छीअच्छी खानेपीने की चीजें ले कर आ. मेवाफल आदि.’’

पीयूष चौंका, ‘‘ऐं…’’ उसे सचमुच पता नहीं था. काफी दिनों से स्वाति और उस के बीच अबोला चल रहा था.

उस ने बड़ी मुश्किल से अपने मन को शांत किया. वह किसी को अपने मन की बात नहीं बता सकता था. कैसे बताता कि स्वाति के पेट में उस का बच्चा नहीं था? उसे यह दंश झेलना ही पड़ेगा. एक परिवार को बचाने और सुखी रखने के लिए यह अति आवश्यक था. वह अपनी मां की खुशियों को आग के हवाले नहीं कर सकता था. पिताजी नहीं थे. मां ही उस की सबकुछ थीं. जब तक जिंदा हैं, उन की खुशियों के लिए उसे भी खुश होने का दिखावा करना पड़ेगा. सासूजी रातदिन स्वाति की सेवा में लगी रहतीं. उस की हर चीज का खयाल करतीं, उसे कोई काम न करने देतीं. परंतु पीयूष उस से उखड़ाउखड़ा रहता, बात न करता. व्यवहार में इतना रूखापन था कि कई बार स्वाति का मन करता कि उस की पोल खोल दे, परंतु परिवार की प्रतिष्ठा और मर्यादा का खयाल कर वह चुप रह जाती. यह कैसी विडंबना थी कि जब तक स्वाति ने मर्यादा के अंदर रहते हुए अपने पति और सासू के लिए खुशियां बटोरनी चाहीं तो उसे दुखों के कतरों के सिवा कुछ न मिला. परंतु जब मर्यादा का उल्लंघन किया, सामाजिक मूल्यों को तोड़ दिया और एक अनैतिक कार्य को अंजाम दिया, तो सासूमां की झोली में खुशियों का अंबार लग गया. नियत समय आने पर स्वाति ने एक बच्ची को जन्म दिया. नर्स नवजात शिशु को तौलिए में लपेट कर लाई और दादी के हाथों में रख कर बोली, ‘‘मुबारक हो, पोती हुई है.’’

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सुन कर सासूजी का हृदय धक से रह गया. चेहरे पर स्याही पुत गई. वे बच्ची की तरफ नहीं, नर्स की तरफ अविश्वास भरी नजरों से देख रही थीं, जैसे उस ने बच्चा बदल दिया हो.

नर्स बोली, ‘‘क्या दादीमां, आप मेरा मुंह क्यों ताक रही हैं?’’

‘‘दादीमां शायद सोच रही होंगी, यह लड़की कहां से पैदा हो गई. इन को पोते की चाहत रही होगी,’’ दूसरी नर्स बोली.

पहली नर्स ने कहा, ‘‘दादीमां, आप एक औरत हैं, फिर भी समाज और परिवार के लिए लड़की की महत्ता नहीं समझतीं. इतना जान लीजिए, लड़कों से ज्यादा खुशियां एक लड़की परिवार के लिए ले कर आती है. जब बेटियां घर में रह कर मांबाप की सेवा करती हैं, तब लड़के बाहर जा कर मटरगश्ती करते हैं. आप को तो खुश होना चाहिए कि आप की बहू ने एक बेटी को जन्म दिया है.’’ तीसरे दिन स्वाति बच्चे के साथ घर आ गई. स्वाति के मम्मीपापा और बहन भी साथ ही आए थे. वे बच्ची की छठी होने तक स्वाति के साथ रहना चाहते थे. सभी चाहते थे बच्ची की छठी धूमधाम से मनाई जाए. इन 3 दिनों में पीयूष की मम्मी का मन भी बच्ची की तरफ से साफ हो गया था. नर्सों की बातें उन के हृदय को छू गई थीं. उन्होंने खुशी मन से छठी मनाने की स्वीकृति दे दी परंतु पीयूष ने साफ मना कर दिया कि वह कोई जश्न नहीं मनाएगा. सभी के मुंह लटक गए. कारण पूछा तो बिना कुछ बोले बाहर चला गया. उस के बाहर जाने के बाद पीयूष की मां ने कहा, ‘‘उस के मनाने  न मनाने से क्या होता है. मेरे घर में पोती हुई है, तो जश्न मैं मनाऊंगी. समधीजी, आप सारी तैयारियां करवाएं.’’

रात को पीयूष काफी देर से घर लौट कर आया. सभी लोग उस का इंतजार कर रहे थे. खाना वह बाहर से खा कर आया था. उस ने किसी से बात नहीं की. सब ने खाने के लिए पूछा तो मना कर दिया और चुपचाप ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गया. सभी लोगों को उस के इस प्रकार के व्यवहार पर आश्चर्य हो रहा था. परंतु ऐसा वह क्यों कर रहा था, किसी को पता नहीं था. वह किसी को कुछ बता भी नहीं रहा था.

उस के मन की बात तो केवल स्वाति ही जानती थी. सभी लोग अपनेअपने कमरे में चले गए तो स्वाति बच्ची को सुला कर ड्राइंगरूम में आई. पीयूष एक सोफे में आंखें बंद कर के लेटा था. वह सोया नहीं था. विचारों के झोंके उसे सोने नहीं दे रहे थे. स्वाति उस के पैंताने बैठ गई और बोली, ‘‘मैं जानती हूं, आप दुखी हैं और मुझ से नाराज भी हैं, परंतु आप बताइए, इस के अलावा मेरे पास चारा क्या था?’’ आज उस ने अपनी चुप्पी तोड़ दी थी. काफी दिनों बाद वह पीयूष से बोली थी.

पीयूष थोड़ा कसमसाया परंतु बोला कुछ नहीं. स्वाति ने आगे कहा, ‘‘आप बताइए, अगर मैं ऐसा न करती तो क्या जिंदगी भर लांछनों के दाग ले कर घुटघुट कर जीती? मांजी के ताने आप ने नहीं सुने? मैं बांझ नहीं कहलाना चाहती थी और अगर आप से तलाक लेती तो आप की बदनामी होती. मुझे स्पष्ट कारण बताना पड़ता. तब बताइए, क्या आप इस समाज में एक प्रतिष्ठित जीवन जी पाते? आप कौन सा मुंह दुनिया को दिखाते और क्या मांजी पोतापोती का मुंह देखे बिना ही इस संसार से विदा न हो जातीं?’’

पीयूष ने हलके से सरक कर अपना सिर सोफे के पुट्ठे पर रख लिया. आंखें चौड़ी कर के स्वाति को देखा. वह गंभीर थी, परंतु उस की आंखों में एक अनोखी चमक थी.

वह कहती गई, ‘‘आप देख रहे हैं, मेरे एक अमर्यादित कदम से कितने लोगों के हृदय में खुशियों का सागर लहरा रहा है. सभी के चेहरों पर रौनक आ गई है. मांजी की खुशियों का आप अंदाज भी नहीं लगा सकते हैं.’’

पीयूष ने अचानक तड़प कर कहा, ‘‘परंतु एक बच्चे के लिए तुम ने अपनी इज्जत क्यों दांव पर लगाई? क्या हम निसंतान रह कर जीवन नहीं गुजार सकते थे?’’

‘‘गुजार सकते थे, परंतु तब मैं जीवनभर अपने माथे पर बांझ होने का कलंक ले कर जीती. उसे मिटा नहीं सकती थी. सासूजी जब तक जीतीं, उन के ताने झेलती. दुनियाभर की शक्की निगाहों के वार झेलती. आप को नहीं पता, वे तो मुझे तलाक दिलवा कर आप की दूसरी शादी तक करने की बात भी सोच रही थीं. क्या आप उन की खुशी के लिए दूसरी लड़की की जिंदगी बरबाद करते? आप शांत मन से सोचिए, यह बात केवल हम दोनों को मालूम है. ‘‘इस बच्ची को आप एक बार अपना मान कर देखिए, फिर उस के पालनेपोसने में जो खुशी आप को प्राप्त होगी वह किसी और चीज में नहीं प्राप्त हो सकती?’’

‘‘परंतु यह बच्ची मेरी नहीं है. इस में मेरा खून कहां है?’’ उस ने तर्क दिया.

‘‘इसे दत्तक पुत्री समझ कर ही अपनी मान लीजिए. इस बच्ची के शरीर में कम से कम मेरा खून तो है.’’

‘‘परंतु मैं अपने मन को कैसे समझाऊं?’’ पीयूष ने हताश स्वर में कहा.

स्वाति ने आगे सरक कर उस के सीने पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘आप को दुखी होने की आवश्यकता नहीं है. ऐसा करने में ही हम दोनों की भलाई थी. अब समाज में हम इज्जत के साथ जी तो सकते हैं.’’

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पीयूष ने तर्क दिया, ‘‘परंतु मुझे मानसिक कष्ट हुआ है.’’

‘‘सच है, परंतु आप का मानसिक कष्ट मेरे कष्ट से बढ़ कर नहीं है. अपनी कमजोरी के बारे में जानते हुए भी आप ने मेरे साथ शादी की और मुझे तानों, उलाहनों और लांछनों की आग में जलने के लिए छोड़ दिया. खैर, जो भी हुआ उसे भूल जाने में ही भलाई है. आप अपनी सापेक्ष सोच से अपने गमों को खुशियों में बदल सकते हैं.’’ पीयूष की सोच कुछकुछ बदलने लगी थी. स्वाति की नरम उंगलियां अब पीयूष के गालों को हौलेहौले सहला रही थी. काफी रात हो चुकी थी वह आंखें बंद कर के बोली, ‘‘मैं आप को विश्वास दिलाती हूं कि अब मेरे कदम कभी नहीं डगमगाएंगे. आप की उपेक्षा और मांजी के तानों से ऊब कर ही मैं ने बहुत कड़े मन से यह कदम उठाया था. अगर मैं ऐसा न करती तो आप की कमजोरी सभी को पता चल जाती या मैं जीवनभर बांझ औरत की लांछना ले कर जीने को मजबूर रहती. आप की इज्जत बची रहे और मेरे ऊपर लगे सारे लांछन मिट जाएं, इसलिए मुझे परपुरुष की बांहों का सहारा लेना पड़ा,’’ कहतेकहते स्वाति का स्वर भावुक हो गया. पीयूष ने अपने गालों पर उस की उंगलियों को थाम लिया और अगले ही क्षण स्वाति को खींच कर सीने से लगा लिया. आज की उजली भोर उस के लिए आशा की नई किरण ले कर आई थी.

संबंध : भाग 3- भैया-भाभी के लिए क्या रीना की सोच बदल पाई?

किस से कहें, क्या कहें? भोलीभाली मां छलप्रवंचनाओं के छद्मों को कदापि नहीं पहचान पाई थीं, तभी तो ‘हां’ कर बैठी थीं.

मेहमानों की खुसुरफुसुर सुन कर लग रहा था उन्हें अंजू के बारे में पता लग चुका था. अभी रात्रि के 10 बजे थे. सहसा देविका मौसी घर आई थीं. बोलीं, ‘‘दीदी, तुम सब से अंजू मिलना चाहती है. उस की जिद है कि जब तक विपिन से बात नहीं करेगी, यह विवाह संपन्न न होगा.’’

इस पल तक हर दिल में व्याप्त समुद्री शोर थम सा गया. एक लमहे के लिए मानो सन्नाटा छाया सा लगने लगा था वहां. मुझे कुछ आशा की किरण दमकती लगी. गाड़ी निकाल कर मैं, मां व भैया अंजू के पास गए थे. बाबूजी अपने उच्च रक्तचाप के कारण जा नहीं पाए थे. कमरे में अंजू व देविका मौसी ही थीं. उस ने आगे बढ़ कर मां के चरण स्पर्श किए. मां ने भी आशीर्वाद दिया था. अंजू ने ही मौन तोड़ा था :

‘‘मां, क्या आप मुझे बहू के रूप में स्वीकार कर पाएंगी?’’

मां इस प्रश्न के लिए तैयार न थीं.

वे भैया की ओर उन्मुख हो कर बोलीं, ‘‘कोई भी फैसला किसी भी प्रकार के दबाव में आ कर मत कीजिएगा. इस में देविका चाची का भी कोई दोष नहीं है. लगभग 3 वर्ष पूर्व मेरी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी. बुरी तरह जख्मी हो गई थी मैं. डाक्टरों ने प्रयत्न कर के मुझे तो बचा लिया पर आज भी मुझे कई दिनों के अंतराल पर बेहोशी के दौरे पड़ते हैं. उस के 1-2 दिन बाद तक मेरे हाथ यों टेढ़े हो जाते हैं. सामान्य होने में कुछ वक्त लगता है. मांजी, मैं आप के घर की खुशियां बरबाद करना नहीं चाहती. देविका चाची भी इस दुर्घटना के बारे में अनभिज्ञ थीं. मैं पूर्णरूप से एक आदर्श बहू बनने का प्रयत्न करूंगी. विपिनजी, आप का निर्णय ही मेरा अंतिम निर्णय होगा.’’

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स्पष्ट रूप से उस ने बात समझाई थी. मैं ने सोचा, भैया का उत्तर अवश्य ही नकारात्मक होगा. उन्होंने तो एक पल भी हामी भरने में देर न की थी.

मां को भी यह संबंध शायद स्वीकार था. कहीं कोरी वचनबद्धता के तहत तो भैया व मां ने हामी नहीं भरी थी? या दहेज के लालच में आ कर मां अपने बेटे का जीवन बलिदान कर रही थीं? मैं ने भैया से पूछा भी था, ‘एक अपाहिज के साथ जीवन बिता सकेंगे आप?’

मां से भी कहा था, ‘धनदौलत तो हाथों का मैल है, मां. अपने बेटे को यों बेचो मत. भैया का जीवन अंधकारमय हो जाएगा. अब क्या तुम्हारे दिन हैं सेवाटहल करने के, थक जाओगी तुम?’

अपने भाई की खुशियों को आग में जलता देख भला किस बहन का दिल रुदन करने को न चाहेगा. भैया ने अपना स्नेहिल हाथ मेरे सिर पर रख कर कहा था, ‘रीना, यदि अंजू विवाह के बाद यों दुर्घटनाग्रस्त हुई होती तो क्या हम उसे स्वीकार न करते?’

‘तब की बात और थी, भैया.’

‘अच्छा एक बात बता, यदि हमारी कोई बहन अपाहिज होती तो क्या हम उस का घर बसाने का प्रयत्न न करते?’

‘अवश्य करते, पर छल से नहीं.’

‘तो इस पूरे घटनाक्रम में अंजू तो दोषी नहीं. मैं वादा करता हूं मैं अपनी तरफ से किसी को शिकायत का मौका नहीं दूंगा.’

हम सब चुप रह गए थे. सीधासरल व्यक्तित्व लिए भैया भविष्य की दुश्ंिचताओं से अनभिज्ञ से थे. मेरे प्रतिकार, विरोध, प्रतिवाद सब व्यर्थ हो गए थे. मैं मूकदर्शिका सी बनी अपने परिवार की खुशियां अग्नि के हवाले होते देख रही थी. जी चाहा, इस विवाह में सम्मिलित ही न होऊं, कहीं भाग जाऊं. पर सामाजिक बंधनों में जकड़े मनुष्य को मर्यादा के अंश सहेजने ही पड़ते हैं.

भैया का विवाह संपन्न हो गया.

विवाहोपरांत दिए जाने वाले प्रीतिभोज के अवसर पर मेहमानों की अगवानी व स्वागतसत्कार के लिए भैया के साथ खड़ी भाभी मेहमानों की भीड़ में गश खा कर गिर पड़ी थीं. मेहमानों के समक्ष बहाना बनाना पड़ा था, थकावट के कारण ऐसा हुआ है. एक टीस सी उभरी दिल में. यदि तब भाभी मृत्यु की गोद में समा गई होती तो मेरे भैया का जीवन यों बरबाद न होता.

मां व बाबूजी ने पूर्ण स्नेह व सम्मान दिया था बहू को. फूल की कोंपल के समान उस की रक्षा की जाती थी. मां किसी भी अभद्र व्यवहार को बरदाश्त नहीं करती थीं. कपोत की तरह अपने डैनों से ढक कर वे भाभी की रक्षा कर रही थीं. सभी के होंठ सी गए थे. मानवता की मूर्ति बनी थीं वे. यदि भाभी सामान्य होतीं तो मां पर अवश्य गर्व करती. पर एक बीमार स्त्री को अपने बेटे के साथ प्रणयसूत्र में बांध कर उन्होंने उस के प्रति जो अन्याय किया था, उसे मैं भूल नहीं पा रही थी.

दहेज में रंगीन टीवी, वीसीआर और एअरकंडीशनर से ले कर हीरे, माणिक, मोती सभी कुछ तो थे, पर इन चीजों की यहां कोई कमी न थी.

घर आ कर मैं फूटफूट कर इतना रोई कि शायद दीवारें भी पसीज गई होंगी. अश्विनी ने बहुत प्यार से समझाया था, ‘वैवाहिक संबंध संयोगवश बनते हैं. तुम्हारे भैया की शादी जिस से होनी थी, हो गई. इस संबंध में व्यर्थ चिंता करने से क्या लाभ है. और यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारी भाभी का स्वभाव इतना मृदु हो कि तुम सब को वह स्नेहपाश में बांध ले.’

मैं चुप हो गई.

तभी सास, ननद आ धमकी थीं. सास बोलीं, ‘‘हां भई, अब तो एसी दहेज में मिलने लगे हैं. हमारे बेटे को तो कूलर भी नहीं मिला था. अब बहू टेढ़ीमेढ़ी हो तो क्या हुआ?’’

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जी चाहा प्रत्युत्तर में उन का मुंह नोच लूं. तुम्हारे हृदय में मानवता हो तो जानो मोल मानवता का, पर अश्विनी ने इशारे से चुप करवा दिया था. 3-4 दिन बाद मां को फोन किया. सोचा, अकेली होंगी. कुछ तो मन हलका कर लेंगी मेरे साथ. भैयाभाभी तो हनीमून पर गए थे. फोन अंजू ने उठाया, ‘‘हैलो, रीना तुम? इतनी जल्दी क्यों आ गईं अपने घर?’’

‘‘……’’

‘‘तुम लोग तो 15 दिन बाद आने वाले थे न?’’

‘‘हां, वहां जा कर मां से फोन पर बात की तो मालूम पड़ा, बाबूजी बीमार हैं, इसीलिए वापस आ गए.’’

उस के स्वर में मिसरी घुली थी. मैं ने सोचा, ‘तुम्हारे जैसी बीमार स्त्री कश्मीर की वादियों में भैया का क्या मन मोह पाई होगी?’

तभी मैं बाबूजी से मिलने चल पड़ी थी.

अंजू उन के सिरहाने बैठी थी. मां को जबरदस्ती सुला दिया था उस ने. बोली, ‘‘परेशान हो जाती हैं मां बाबूजी को देख कर. मैं तो हूं ही यहां.’’

और वह एक ट्रे में बाबूजी के लिए जूस व मेरे लिए चाय ले कर आ गई थी. दीनू को भेज कर समोसे भी मंगवाए थे उस ने. बोली, ‘‘खाओ न, तुम्हें बहुत पसंद हैं न ये.’’

उस के बाद वह हर एक घंटे बाद बाबूजी का बुखार देखती रही. अच्छा तो बहुत लगा यह सब, पर फिर सोचा, कहीं यह आडंबर तो नहीं. अपना दोष छिपाने के लिए नाटक कर रही हो? पर आत्ममंथन करने पर मैं ही ग्लानि से भर गई थी. बेटी होने का मैं ने कौन सा कर्तव्य निभाया.

शाम को उस ने अश्विनी को भी फोन कर बुला लिया. जबरदस्ती हमें रोक लिया था उस ने. पूरी मेज मेरी पसंद के भोजन से सजी थी, पर मेरे मुंह से प्रशंसा का एक भी शब्द नहीं निकल रहा था. भैया भी हाथोंहाथ ले रहे थे. सभी सामान्य थे.

वापस अपने घर आई तो यहां भी जी नहीं लग रहा था. तभी भैया मां को ले कर आए थे. मां बोली थीं, ‘‘कल अंजू फिर बेहोश हो गई थी. उस की तबीयत देख कर घबरा जाती हूं. कौन से अस्पताल में दाखिल करूं, समझ नहीं आता?’’

अगले भाग में पढ़ें- क्या औपचारिकतावश उन का हाल नहीं पूछना चाहिए तुम्हें?

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