Marriage : शादी के लिए मेरे घरवाले मुझ पर प्रैशर डाल रहे हैं, मैं क्या करूं ?

Marriage : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मैं 27 साल की हूं शादी को ले कर मेरे घर वाले मुझ पर प्रैशर डाल रहे हैं. कई लड़कों से मिली, लेकिन बात नहीं बनी. भविष्य को ले कर काफी टैंशन में हो जाती हूं और अपना वर्तमान समय उस से खराब कर लेती हूं. जब ऐसे विचार आते हैं तब ऐसा लगता जैसे भविष्य एकदम अंधकारमय है. मैं कुछ नहीं कर पाऊंगी. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

कभीकभार फैमिली का प्रैशर हमें कुछ निर्णय लेने पर मजबूर कर देता है. मगर शादी एक बहुत ही अहम निर्णय है. इसे किसी के दबाव में आ कर न लिया जाए. जब आप को लगे कि आप इमोशनली, मैंटली और फाइनैंशली तैयार हैं तभी शादी करने का निर्णय लें.

फैमिली मैंबर्स से बात कर उन्हें समझाएं कि आप फिलहाल शादी के लिए तैयार नहीं हैं. जब हो जाएंगी तब खुद उन्हें बता देंगी. आप के ऐसा करने से वे रिलैक्स फील करेंगे.

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सोनिया 20 साल की हुई नहीं कि उस की मां को उस की शादी की चिंता सताने लगी. लेकिन सोनिया ने तो ठान लिया है कि वह पहले पढ़ाई पूरी करेगी, फिर नौकरी करेगी और तब महसूस हुआ तो शादी करेगी वरना नहीं. सोनिया की इस घोषणा की जानकारी मिलते ही परिवार में हलचल मच गई. सभी सोनिया से प्रश्न पर प्रश्न पूछने लगे तो वह फट पड़ी, ‘‘बताओ भला, शादी में रखा ही क्या है? एक तो अपना घर छोड़ो, दूसरे पराए घर जा कर सब की जीहुजूरी करो. अरे, शादी से पतियों को होता आराम, लेकिन हमारा तो होता है जीना हराम. पति तो बस बैठेबैठे पत्नियों पर हुक्म चलाते हैं. खटना तो बेचारी पत्नियों को पड़ता है. कुदरत ने भी पत्नियों के सिर मां बनने का बोझ डाल कर नाइंसाफी की है. उस के बाद बच्चे के जन्म से ले कर खानेपीने, पढ़ानेलिखाने की जिम्मेदारी भी पत्नी की ही होती है. पतियों का क्या? शाम को दफ्तर से लौट कर बच्चों को मन हुआ पुचकार लिया वरना डांटडपट कर दूसरे कमरे में भेज आराम फरमा लिया.’’

यह बात नहीं है कि ऐसा सिर्फ सोनिया का ही कहना है. पिछले दिनों अंजु, रचना, मधु, स्मृति से मिलना हुआ तो पता लगा अंजु इसलिए शादी नहीं करना चाहती, क्योंकि उस की बहन को उस के पति ने दहेज के लिए बेहद तंग कर के वापस घर भेज दिया. रचना को लगता है कि शादी एक सुनहरा पिंजरा है, जिस की रचना लड़कियों की आजादी को छीनने के लिए की गई है. स्मृति को शादीशुदा जीवन के नाम से ही डर लगता है. उस का कहना है कि यह क्या बात हुई. जिस इज्जत को ले कर मांबाप 20 साल तक बेहद चिंतित रहते हैं, उसे पराए लड़के के हाथों निस्संकोच सौंप देते हैं. उन की बातें सुन कर मन में यही खयाल आया कि क्या शादी करना जरूरी है. उत्तर मिला, हां, जरूरी है, क्योंकि पति और पत्नी एकदूसरे के पूरक होते हैं. दोनों को एकदूसरे के साथ की जरूरत होती है. शादी करने से घर और जिंदगी को संभालने वाला विश्वसनीय साथी मिल जाता है. व्यावहारिकता में शादी निजी जरूरत है, क्योंकि पति/पत्नी जैसा दोस्त मिल ही नहीं सकता.

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कितना जरूरी वसीयत का रजिस्ट्रेशन

वसीयत एक कानूनी दस्तावेज है, जिस में व्यक्ति अपनी मौत के बाद अपनी संपत्ति को किस तरह से किसकिस को देना चाहता है. वसीयत करने वाले व्यक्ति को वसीयतकर्ता कहा जाता है. वसीयत बनाने से संपत्ति के बंटवारे में होने वाले झगड़ों से बचा जा सकता है. वसीयत में वसीयत करने वाला अपनी इच्छाओं को कानूनी रूप से दर्ज करता है. इस में दान और अपने अंतिम संस्कार की इच्छा भी बता सकते हैं. वसीयत करने वाले को स्वस्थ और दिमागी रूप से ठीक होना चाहिए. अंधे या बहरे लोग भी वसीयत कर सकते हैं. वसीयतकर्ता अपनी जिंदगी में कभी भी वसीयत बदल सकता है या किसी और के नाम कर सकता है.

वसीयत 1925 के भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम यानी आईएसए के अनुसार बनाई जाती है. वसीयत से जुडे़ विवाद इसी कानून के अनुसार सुलझाए जाते हैं. आईएसए की धारा 57 से 191 में 23 सैक्शन है. जो वसीयत के नियमों को बताते हैं. वसीयत शब्द लैटिन के वोलंटस से बना है, जिस का इस्तेमाल रोमन कानून में वसीयतकर्ता के इरादे को व्यक्त करने के लिए किया जाता था. आईएसए की धारा 61 से 70 के द्वारा किसी भी वसीयत या वसीयत के किसी भाग को शून्य घोषित करती है यदि वह धोखाधड़ी, जबरदस्ती बनाई गई हो.

कितना जरूरी है रजिस्ट्रेशन

वसीयत पर वसीयतकर्ता के हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान होना चाहिए. वसीयत को 2 या अधिक गवाहों द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए जिन्होंने वसीयतकर्ता को हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान लगाते देखा हो. वसीयत को ले कर एक सवाल सब से अधिक पूछा जाता है कि क्या वसीयत का रजिस्ट्रेशन जरूरी है? वसीयत का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य नहीं है. बिना रजिस्टर्ड वसीयत उतनी ही वैध है यदि वह भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार बनी हो. राज्य सरकारों के द्वारा इस तरह का दबाव बनाया जाता है कि वसीयत का रजिस्टर्ड होना जरूरी है. जब मसला कोर्ट में जाता है तो यह देखा जाता है वहां गैररजिस्टर्ड और गैररजिस्टर्ड का भेद नहीं होता है.

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत गैररजिस्टर्ड को बाद में रजिस्टर्ड भी कराया जा सकता है. वसीयत का रजिस्टर्ड होना कानूनी नहीं व्यावहारिक विचारों को ध्यान में रख कर देखा जाता है. यदि पहली वसीयत पंजीकृत है और बाद की नहीं हैं तो यह पंजीकृत वसीयत के आधार पर भरने की स्थिति पैदा हो सकती है. इस तरह की परेशानियों से बचने के लिए वसीयत को पंजीकृत करना उचित है. वसीयत सादे कागज पर भी हो सकती है. कई बार 100 रुपए के स्टांप पर भी लिखी जाती है.

भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम यानी आईएसए की धारा 218 में बताया गया है कि जब कोई हिंदू व्यक्ति बिना वसीयत के मर जाता है, तो उस की संपत्ति को प्रशासन किसी भी ऐसे व्यक्ति को दे सकता है जो उत्तराधिकार नियमों के अनुसार मरे व्यक्ति की संपत्ति में विरासत का हकदार होगा. यदि कई व्यक्ति प्रशासन के लिए आवेदन करते हैं तो न्यायालय के पास उन में से एक या अधिक को इसे देने का विवेकाधिकार है.

क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट का फैसला

श्रीमती लीला देवी मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वसीयत का रजिस्टर्ड होना उस की मान्यता नहीं देता है. वसीयतकर्ता लीला देवी द्वारा हस्ताक्षरित वसीयत की सचाई के बारे में विवाद हुआ. इस मामले में वसीयतकर्ता के भाई के बेटे यानी भतीजे ने अपील की थी. उस ने कहा कि वसीयतकर्ता ने 27 अक्तूबर, 1987 को उस के पक्ष में वसीयत की थी. वसीयत 03 नवंबर, 1987 को वसीयतकर्ता और 2 गवाहों की मौजूदगी में रजिस्टर्ड भी की गई थी.

ट्रायल कोर्ट ने पाया कि वसीयत के 2 गवाहों द्वारा दिए गए साक्ष्य सही नहीं थे. ट्रायल कोर्ट ने माना कि वसीयतकर्ता 70 वर्ष की अपनी वृद्धावस्था के बावजूद स्वस्थ दिमाग की थी और उस के लिए भतीजे के पक्ष में वसीयत करना स्वाभाविक था क्योंकि उस ने और उस के परिवार ने वसीयतकर्ता के अंतिम वर्षों के दौरान उस की भलाई का खयाल रखा था.

उच्च न्यायालय का मानना था कि चूंकि भतीजे ने वसीयत के तैयार करने और रजिस्ट्रेशन में गहरी रुचि ली थी, इसलिए यह अपनेआप में कुछ संदेह पैदा करने का कारण बनता है. उच्च न्यायालय ने आगे कहा कि वसीयत के 2 सत्यापनकर्ता गवाहों द्वारा दिए गए 2 अलगअलग बयान भी अहम बात कहते हैं. इसलिए यह माना गया कि वसीयत साक्ष्य अधिनियम और आईएसए के कानून पर खरी नहीं उतर रही है. इस के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. वसीयत से जुडे़ तथ्यों और कानून को देखते व सम?ाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना कि वसीयत को साबित करने के लिए आवश्यक तथ्य मिलान नहीं करते हैं.

गवाहों की भूमिका

यह वसीयत अंगरेजी में लिखी गई थी लेकिन वसीयतकर्ता ने हिंदी में अपने हस्ताक्षर किए थे. गवाहों के हस्ताक्षर वसीयत के सभी पन्नों पर नहीं थे बल्कि केवल आखिरी पन्ने के नीचे थे. इस के अलावा गवाहों ने अलगअलग तरीके से हस्ताक्षर किए थे. एक ने उन के नाम के ऊपर और एक ने उन के नाम के नीचे हस्ताक्षर किए थे. गवाहों के हस्ताक्षर पहले पृष्ठ के पीछे की ओर दिखाई दिए. एक गवाह ने पृष्ठ के बाईं ओर और दूसरे ने दाईं ओर हस्ताक्षर किए थे. जबकि वसीयतकर्ता ने बीच में हस्ताक्षर किए थे.

पहले गवाह ने दावा किया कि वह वसीयत के पंजीकरण के समय मौजूद था और तहसीलदार ने वसीयतकर्ता को वसीयत के बारे में सम?ाया था और उस ने इसे सम?ा और स्वेच्छा से वसीयत पर हस्ताक्षर किए थे. दूसरे गवाह ने कहा कि वह भतीजे से मिला था जिस समय भतीजे ने दूसरे गवाह को बताया था कि कुछ कागजात पर उस के हस्ताक्षर की आवश्यकता है. दूसरे गवाह ने कागजात पर हस्ताक्षर किए बिना ही उस की विषय वस्तु के बारे में जानकारी हासिल कर ली. दूसरे गवाह ने कहा कि उस ने पहले गवाह को अपनी मौजूदगी में हस्ताक्षर करते नहीं देखा और न ही उस ने वसीयतकर्ता को अपनी मौजूदगी में वसीयत पर हस्ताक्षर करते देखा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भतीजा वसीयत को सही साबित करने में विफल रहा. भले ही पहले गवाह ने दावा किया कि वसीयतकर्ता ने उस की उपस्थिति में और दूसरे गवाह की उपस्थिति में वसीयत पर हस्ताक्षर किए, लेकिन दूसरे गवाह ने इस बात से साफ इनकार किया. इस के अलावा पहले गवाह ने कभी यह नहीं कहा कि उस ने वसीयतकर्ता की उपस्थिति में वसीयत पर अपने हस्ताक्षर किए थे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वसीयत का रजिस्टर्ड होना ही उस को सच साबित नहीं करता है.

कैसे तैयार करें वसीयत

वसीयत लिखने से पहले संपत्ति के कानूनी पहलू को किसी जानकार वकील से सम?ाना जरूरी होता है. इस के अलावा वसीयत स्पष्ट पढ़ी जाने योग्य लिखी होनी चाहिए. ऐसे में अगर यह टाइप हो तो और भी बेहतर रहता है. यदि वसीयत हाथ से लिखी गई है तो यह बिना किसी ओवर राइटिंग या कटिंग के लिखी होनी चाहिए. जिस दिन यह लिखी गई हो उस का सही तरह से उल्लेख होना चाहिए. वसीयत की भाषा वह हो जिसे वसीयत करने वाला सम?ाता हो. वसीयत के हर पन्ने पर वसीयत करने वाले और गवाहों के पूरे हस्ताक्षर जरूरी होते हैं.

अगर गवाह वसीयत का लाभार्थी न हो तो तो बेहतर होता है. वैसे यह कानूनी प्रतिबंध नहीं है. गवाह कम आयु के हों क्योंकि वसीयत को चुनौती दिए जाने की स्थिति में उन की अदालत में गवाही देने की आवश्यकता पड़ सकती है. वसीयत मेें संपत्ति का बंटवारा स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए. अगर जरूरत पड़े तो संपत्तियों का पूरा विवरण वसीयत के साथ संलग्न एक अलग सूची में लिख दिया जाए. इस में बैंक और डीमैट खातों का विवरण भी लिखा जाना ठीक रहता है.

वसीयत को मजबूती

वसीयत में अनावश्यक बातें न लिखी हों जो भविष्य में विवाद का कारण बनें. वसीयत में यह बताना जरूरी है कि यह वसीयत पहली वसीयत है. अगर पहले कोई वसीयत है तो एक पैरा में पिछली वसीयत को स्पष्ट रूप से निरस्त करने की बात लिखनी चाहिए. यदि किसी उत्तराधिकारी को खास कारणों से उत्तराधिकार प्राप्त करने से बाहर रखा जाना है तो वसीयत मेें इस बहिष्कार को स्पष्ट रूप से बताएं और इस निर्णय के लिए छोटा सा स्पष्टीकरण भी दें. यदि कोई विरासत किसी ऐसे व्यक्ति को दी जाती है जो उत्तराधिकारी नहीं है तो ऐसी विरासत देने के कारणों को संक्षेप में दर्ज करें.

वसीयत का रजिस्ट्रेशन जरूरी नहीं है. अगर रजिस्ट्रेशन कराना संभव है तो करा लेना चाहिए. यह वसीयत को मजबूती देता है. अगर वसीयत सही है उसे रजिस्टर्ड कराने का समय नहीं मिला तो भी कोई दिक्कत नहीं होती है. इस से अदालत के सामने रख कर इस के अनुरूप संपत्ति का विभाजन हो सकता है. विवाद की दशा में अदालत यह तय करने का अधिकार रखती है

कि कौन सी वसीयत मान्य है. वसीयत का मूल कानून इस के रजिस्ट्रेशन की बात नहीं कहता है. सरकारें विवादों से बचने के लिए रजिस्ट्रेशन पर बल देती हैं.

Skin Care Tips : बेधड़क फ्लौंट करें ब्यूटीफुल स्किन

Skin Care Tips :  हेयर रिमूवल क्रीम का इस्तेमाल कर मिनटों में समर रैडी लुक पाना है, तो यह जानकारी आप के लिए ही है… गरमियों में आप के पास फैशनेबल और स्टाइलिश कपड़े पहनने के बहुत से औप्शंस होते हैं. आप बैकलेस और स्लीवलेस ड्रैसेस जैसे गाउन, औफशोल्डर ड्रैस, मिनीज, शौर्ट्स, क्रौप टौप्स, सिंगल शोल्डर्ड ड्रैस, नूडल्स स्ट्रेपी, स्लिटेड एंड वनपीस वगैरह कितने ही आउटफिट्स पहन कर दूसरों को मंत्रमुग्ध कर सकती हैं.

मगर इस के लिए साफ चमकती त्वचा का होना भी जरुरी है यानी आप को अपनी बाहों, टांगों, अंडरआर्म्स और पीठ के हिस्सों को बालरहित साफ और कोमल रखना होगा और इस के लिए अनचाहे बालों से छुटकारा पाना होगा.मसलन शौर्ट्स पहननी है तो चिकनी टांगों की ख्वाहिश होती है, समुद्र तट पर जा कर स्विमिंग का आनंद लेना है तो अपनी बिकिनी लाइन से अनचाहे बालों से छुटकारा पाना जरुरी है, बैकलेस या औफ शोल्डर ड्रैसेस के लिए बैक की स्किन को क्लीन रखना मस्ट है. इसी तरह स्लीवलेस ब्लाउज या ड्रैसेस पहनने के लिए बाहों का चिकना होना जरूरी है.

हेयर रिमूवल क्रीम हैं बेस्ट औप्शन

बाल साफ करना या हेयर रिमूवल एक ऐसी प्रक्रिया है जिस के द्वारा शरीर से बालों को हटाया जाता है. अनचाहे बाल एक बड़ी परेशानी हो सकते हैं और ऐसे में एक अच्छी क्वालिटी वाला हेयर रिमूवल या बाल साफ करने वाली क्रीम खासे सहायक सिद्ध हो सकते हैं. ये मौइस्चराइजिंग और पौष्टिक एजेंटों से युक्त होती है, जो आप की त्वचा को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं. वैसे बाजार में कई हेयर रिमूवल विकल्प मौजूद हैं, जिन में शेविंग, वैक्सिंग, थ्रेडिंग, हेयर रिमूवल क्रीम ,लेजर और इलैक्ट्रोलाइसिस शामिल हैं.हेयर रिमूवल के लिए सही औप्शन चुनना भी महत्त्व रखता है.

यदि आप तैयार होने और बाहर जाने को ले कर बहुत जल्दबाजी में होती हैं तो अनचाहे बालों को हटाने के लिए रेजर का उपयोग सस्ता पड़ता है. मगर रेजर केवल आप की त्वचा की सतह पर बालों को काटता है. जिस का अर्थ है कि त्वचा को जो चिकनापन यह प्रदान करता है वह बहुत ही अल्पकालिक होता है और बहुत कम समय में ही आप के बालों की ग्रोथ वापस आ जाती है. जिस से आप को जल्दीजल्दी उसी प्रक्रिया से गुजरना होता है. रेजर के प्रयोग के बाद नए बाल पहले की तुलना में अधिक घने, मोटे और पैने भी होते हैं. इसी तरह लेजर का इस्तेमाल काफी महंगा है. समय भी लगता है.इस के विपरीत हेयर रिमूवल क्रीम का इस्तेमाल करने की प्रक्त्रिया सस्ता होने के साथ इजी और लंबे समय में अधिक फायदेमंद साबित होती है. आप को पार्लर जा कर समय लगाने या दूसरों पर निर्भर होने की जरुरत नहीं पड़ती. आप घर पर बहुत आसानी से इस का इस्तेमाल कर सकती हैं.

इस के प्रयोग के बाद बालों को फिर से बढ़ने में अधिक समय लगेगा और ये वापस महीन और नर्म उगेंगे. हेयर रिमूवल क्रीम आप के शरीर के अधिकांश हिस्सों के अनचाहे बालों से छुटकारा पाने के लिए एकदम सही विधि है चाहे वह आप की बगल हो, टांगें हों, बिकिनी लाइन हो. ये अनचाहे बालों से मुक्ति पाने वाले सभी तरीकों में सब से कम पीड़ारहित तरीका भी है.क्रीम को बस उन बालों पर अच्छी तरह लगाना होता है जिन से आप छुटकारा पाना चाहती हैं. यह बालों में केराटिन प्रोटीन को घोलने का काम करती है. फिर उन्हें जेली जैसे पदार्थ में बदल देती है जो क्रीम को साफ करते समय आप की त्वचा से आसानी से हट जाते हैं. इस प्रक्रिया में आप को अलग से खुद कुछ नहीं करना होता इसलिए एक बार जब आप क्रीम लगाती हैं तो निर्दिष्ट समय तक उसे लगा छोड़ कर अन्य काम भी कर सकती हैं.

बढ़ता है कौन्फिडेंस

शरीर पर बहुत ज्यादा बाल होना कोई शर्म की बात नहीं है मगर इन्हें हटा दिए जाएं तो लुक बेहतर बनता है और आप के अंदर अलग तरह का आत्मविश्वास आता है. आप हर तरह के फैशनेबल कपड़े बिना बेझिझक के पहन पाती हैं. चाहे वे बगल के बाल हों, पैर के बाल हों या चेहरे के बाल हों. अपनेआप में आत्मविश्वास और सहज महसूस करना बहुत महत्त्वपूर्ण है. हेयर रिमूवल के बाद न सिर्फ आप का आत्मविश्वास बढ़ता है बल्कि आप जीभर कर स्टाइलिश कपड़े पहन पाती हैं. आप अपनी त्वचा को ले कर आश्वस्त रहती हैं.साफसुथरा लुक हेयर रिमूवल से त्वचा चिकनी और मुलायम दिखाई देती है जिस से आप का लुक निखरता है. आप के शरीर की सफाई भी होती है और रोम छिद्र खुलते हैं. आप ज्यादा साफसुथरी और डिसेंट लगती हैं. आप का आकर्षण भी बढ़ता है.

Hindi Fiction Stories : मन की सुंदरता- कैसी थी शोभना

Hindi Fiction Stories : शोभना बचपन से ही नटखट स्वभाव की थी.किन्तु वह अपने स्वभाव को सभी के सामने जाहिर नही करती थी.

वह बच्चों के सँग बच्ची और बड़ों के सङ्ग बड़ी बन जाती थी और कभी बेवज़ह ही शांत होकर एक कोना पकड़कर बैठ जाती थी.

वह बहुत जल्दी क्रोधित भी हो जाती थी.मगर उसमे एक ख़ास बात भी थी कि उसे गलत बात बिल्कुल पसँद नही थी. वह हर माहौल में ढल तो जाती थी, लेकिन उसे व उसके स्वभाव को समझने वाला कोई नही था.

शोभना बहुत ही जज्बाती और संवेदनशील लड़की थी. वह दूसरे के दुख को अपना समझकर कभी   स्वयं ही हैरान परेशान हो जाती थी.

शोभना बी०ए० प्रथम वर्ष की छात्रा थी जो कि पढ़ने में बहुत ही होशियार थी.इसलिए कॉलेज के सभी लड़के उस पर जान छिड़कते थे परंतु शोभना किसी को तनिक भी अपने करीब  फटकने नही देती थी.

उसकी सभी सहेलियां उससे इसलिये चिढ़ती भी थी. इसमें क्या है जो मुझमें नही  है. धीर- धीरे समय गुजर रहा था कि शोभना का जीवन ही अगले दिशा में बदल गई.

शोभना रोजाना की भाँति उस दिन भी कॉलेज जा रही थी, जिस दिन उसका जन्मदिन था.

घर के सभी लोग उसे उस दिन मना कर रहे थे कि शोभू आज कॉलेज मत जा, आज हम सबलोग तेरे बर्थडे पर कुछ स्पेशल करेंगे. फिर भी वह नही मानी. क्योंकि उसे अपने दोस्तों को पार्टी देनी थी, इसलिए शोभना खुशी खुशी कॉलेज जा रही थी वह अपने जन्मदिन को बहुत ही अधिक मान देती थी. वह उस दिन पीले रँग की फ़्रॉक सूट और पीले रंग की एक हाथ मे चूड़ी व दूसरे हाथ मे घड़ी पहनी हुई थी. और माथे पर एक छोटी सी काली बिंदी लगाई थी जिसे वह रोज लगाती है.

वह उस दिन मानो स्वर्ग से उतरी कोई अप्सरा भाँति दिख रही थी. शोभना की इसी सादगी भरी सुंदरता पर कॉलेज के सभी लड़के उस पर फ़िदा थे और उसमें से एक ने तो एकदम से जीना ही दुश्वार कर रखा था. शोभना का,जो इस कॉलेज के मैनेजर  का बेटा था. जिससे सभी डरते थे।वह हमेशा ड्रग्स के नशे में धुत्त रहा करता था. वह सबको डराता धमकाता पर लड़कियों पर कभी नज़र उठाकर नही देखता था.मगर शोभना को देख कर वह पागलों जैसा हरक़त करने लगा था.

शोभना उससे परेशान होकर सभी लड़के लड़कियों के सामने एक दिन उसके बदतमीजी पर उसके गाल पर खींचकर अपनी पांचों उंगलियों की छाप छोड़ दी,जिससे वह मवाली व नशेड़ी लड़का बौखला पड़ा था.वह उसी दिन से बदला लेने के  लिए बेताब हो गया.

उस दिन उसको अवसर मिल ही गया. जिस दिन उसका  जन्म दिन था .  मंद – मंद मुस्कान बिखरी हुई थी. चाँद स्वरूप मुखड़े पर ,जो उसे न सुहाई और  शोभना द्वारा प्रेम प्रस्ताव न स्वीकारने पर व प्रतिशोध की आग में जला हुआ आवेश में आकर रास्ते में उसके चेहरे पर तेजाब का भरा बोतल फेंककर ठहाका मारते हुए बोला- “तुझे अपने सुंदरता पर बहुत नाज़ था न! तो लो अब दिखाओ ना.”

इतना बोलकर वह वहाँ से रफूचक्कर हो गया।जनता तमाशा देख रही थी.कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नही आया। जब वह बेसुध होकर सड़कपर कराह रही थी. तब वहाँ मीडिया भी कैमरा लेकर आ खड़ी हो गई। मीडिया वालों के लिए एक नई सनसनीखेज ख़बर मिल गई थी.

शोभना की हालत बिगड़ती जा रही थी तभी भीड़ को चीरकर एक युवक सामने आया. वही शोभना को उठाकर अस्पताल ले गया जो डॉ० विक्रम ही था , जिसका तभी तबादला हुआ था  इस नये शहर में.

 शोभना को अस्पताल में  आये यहाँ एक महीना हो गया था, और स्वास्थ्य भी बेहतर हो रहा था.

पर शोभना का वो चँचल पन कहीं विलुप्त हो चुका था. रेत के भाँति सब बिखर गया था.

उसके लिए, उसका चेहरा ही एक  पहचान थी.वह भी जल कर ख़ाक हो गया. फिर भी शोभना डॉक्टर विक्रम से काफी अच्छे से घुल मिल गई थी उसे विक्रम की जिंदादिली बहुत अच्छी लगती थी.वे हर हाल में खुश नजर आते थे।और इधर विक्रम भी शोभना का समय -समय पर दवा पुछने आ जाते थे.इसी बीच दोनो की दोस्ती हो गई । शोभना को बातों -बातों में शायरी बोलने की आदत ने अपनी ओर आकर्षित कर रही थी विक्रम को.  जब शोभना कुछ बोलती तो दर्द भरी शायरी जरूर बोलती और विक्रम उसके होंठों को  और उसके आँखों को ध्यान से देखता, जिससे शोभना भी वाकिफ़ थी. मग़र वह अपनी जली हुई सूरत के कारण डॉ० विक्रम से नज़रें नही मिला पाती थी. एक दिन बातों ही बातों में डॉ०विक्रम अपनी बात शोभना के सामने रख ही दिए. परन्तु शोभना इंकार कर बैठी और सिसकती हुई बोली- “विक्रम जी आप मुझ जैसी लड़की को क्यों इतना चाहते हो। मेरी जो सुन्दरता थी वह अभिशाप बन गई। मेरे लिए .  मैं अब कहीं की नहीं हूँ.”

फिर कुछ ही क्षण में सम्भल कर बोली- “हम सिर्फ़ दोस्त बनकर आजीवन रहेंगें। वादा कीजिये.”

“ठीक है जो आपको सही लगे। लेकिन मेरे ख्याल से सुंदरता चेहरे से नहीं, इंसान के मन से होता है. आप दिल से बहुत सुंदर हो.”

विक्रम की बातें सुनकर शोभना विक्रम का कसकर हाथ पकड़कर बोली- “मुझे कभी उम्मीद ही नही था कि आपके जैसा कोई इतना मन से तन से सुंदर साथी मुझे मिलेगा.मेरा जीवन फिर से सँवर गया.”

शोभना के आँखों मे एक पल के लिए खुशी की लहर उमड़ पड़ी.

अरे! शोभना तुम मेरे जीवन की रौशनी हो. अब तुमसे ही मेरा बंजर घर फिर से हरा- भरा होगा.घर की शोभा बढ़ेगी. तुम अपने पवित्र व सुंदर मन से मेरे नहीं… अपने घर को सुसज्जित करोगी.

बस एक दिन दो दिन में तुम्हारे डिस्चार्ज होने के बाद मैं अपने पापा को लेकर तुम्हारे घर आऊँगा.

जीवन भर के लिए. तुम्हारा हाथ और साथ दोनों माँगने के लिए. और साथ ही साथ उस मवाली को भी सलाखों के पीछे करके तुम्हे न्याय भी दिलाने की भरसक प्रयास करूँगा.”

फिर मुस्करा कर बोला, “और यह भी न भूलो कि चिक्तिसा विज्ञानं में हर रोज नई तकनीक का विकास हो रहा है. कल नहीं तो वर्षों बाद तुम पहले जैसी हो जाओगी और मैं रिस्क नहीं लेना चाहता कि तब कोई और तुम्हें उड़ा ले.”

शोभना बूत समान ख़ामोश होकर आँखों में प्रेम के समंदर को थाम कर विक्रम को एक टक देखे जा रही थी. और भविष्य के दिन के लम्हों को सँजोने के लिए कुछ सँकोच-सी सोच लिए अग्रसरित होने को उतावली भी हो रही थी.

Hindi Moral Tales : बहिष्कार

Hindi Moral Tales : ‘‘महेश… अब उठ भी जाओ… यूनिवर्सिटी नहीं जाना है क्या?’’ दीपक ने पूछा.

‘‘उठ रहा हूं…’’ इतना कह कर महेश फिर से करवट बदल कर सो गया.

दीपक अखबार को एक तरफ फेंकते हुए तेजी से बढ़ा और महेश को तकरीबन झकझोरते हुए चीख पड़ा, ‘‘यार, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है… रातभर क्या करते रहते हो…’’

‘‘ठीक है दीपक भाई, आप नाश्ता तैयार करो, तब तक मैं तैयार होता हूं,’’ महेश अंगड़ाई लेता हुआ बोला और जल्दी से बाथरूम की तरफ लपका.

आधा घंटे के अंदर ही दीपक ने नाश्ता तैयार कर लिया. महेश भी फ्रैश हो कर तैयार था.

‘‘यार दीपू, जल्दी से नाश्ता कर के क्लास के लिए चलो.’’

‘‘हां, मेरी वजह से ही देर हो रही है जैसे,’’ दीपक ने तंज मारा.

दीपक की झल्लाहट देख महेश को हंसी आ गई.

‘‘अच्छा ठीक है… कोई खास खबर,’’ महेश ने दीपक की तरफ सवाल उछाला.

दीपक ने कहा, ‘‘अब नेता लोग दलितों के घरों में जा कर भोजन करने लगे हैं.’’

‘‘क्या बोल रहा है यार… क्या यह सच?है…’’

‘‘जी हां, यह बिलकुल सच है,’’ कह कर दीपक लंबी सांस छोड़ते हुए खामोश हो गया, मानो यादों के झरोखों में जाने लगा हो. कमरे में एक अनजानी सी खामोशी पसर गई.

‘‘नाश्ता जल्दी खत्म करो,’’ कह कर महेश ने शांति भंग की.

अब नेताओं के बीच दलितों के घरों में भोजन करने के लिए रिकौर्ड बनाए जाने लगे हैं. वक्तवक्त की बात है. पहले दलितों के घर भोजन करना तो दूर की बात थी, उन को सुबह देखने से ही सारा दिन मनहूस हो जाता था. लेकिन राजनीति बड़ेबड़ों को घुटनों पर झुका देती है.

‘‘भाई, आप को क्या लगता है? क्या वाकई ऐसा हो रहा है या महज दिखावा है? ये सारे हथकंडे सिर्फ हम लोगों को अपनी तरफ जोड़ने के लिए हो रहे हैं, इन्हें दलितों से कोई हमदर्दी नहीं है. अगर हमदर्दी है तो बस वोट के लिए…’’

दीपक महेश को रोकते हुए बोला, ‘‘यार, हमेशा उलटी बातें ही क्यों सोचते हो? अब वक्त बदल रहा है. समाज अब पहले से ज्यादा पढ़ालिखा हो गया है, इसलिए बड़ेबड़े नेता दलितों के यहां जाते हैं, न कि सिर्फ वोट के लिए, समझे?’’

‘‘मैं तो समझ ही रहा हूं, आप क्यों ऐसे नेताओं का पक्ष ले रहे हैं. चुनाव खत्म तो दलितों के यहां खाने का रिवाज भी खत्म. फिर जब वोट की भूख होगी, खुद ही थाली में प्रकट हो जाएंगे, बुलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

दीपक बात को बीच में काटते हुए बोला, ‘‘सुन महेश, मुझे कल सुबह की ट्रेन से गांव जाना है.’’

‘‘क्यों? अचानक से… कौन सा ऐसा काम पड़ गया, जो कल जाने की बात कर रहा है? घर पर सब ठीक तो हैं न?’’ महेश ने सवाल दागे.

‘‘हां, सब ठीक हैं. बात यह है कि गांव के शर्माजी के यहां तेरहवीं है तो जाना जरूरी है.’’

महेश बोला, ‘‘दीपू, ये वही शर्माजी हैं जो नेतागीरी करते हैं.’’

‘‘सही पकड़े महेश बाबू,’’ मजाकिया अंदाज में दीपू ने हंस कर सिर हिलाया.

अगले दिन दीपक अपने गांव पहुंच गया. उसे देखते ही मां ने गले लगाने के लिए अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए.

‘‘मां, पिताजी कहां हैं? वे घर पर दिख नहीं रहे?’’

‘‘अरे, वे तो शर्माजी के यहां काम कराने गए हैं. सुबह के ही निकले हैं. अब तक कोई अतापता नहीं है. क्या पता कुछ खाने को मिला भी है कि नहीं.’’

‘‘अरे अम्मां, क्यों परेशान हो रही हो? पिताजी कोई छोटे बच्चे थोड़ी हैं, जो अभी भूखे होंगे. फिर शर्माजी तो पिताजी को बहुत मानते हैं. अब उन की टैंशन छोड़ो और मेरी फिक्र करो. सुबह से मैं ने कुछ नहीं खाया है.’’

थोड़ी देर बाद मां ने बड़े ही प्यार से दीपक को खाना खिलाया. खाना खा कर थोड़ी देर आराम करने के बाद दीपक भी शर्माजी के यहां पिताजी का हाथ बंटाने के लिए चल पड़ा.

तकरीबन 15 मिनट चलने के बाद गांव के किनारे मैदान में बड़ा सा पंडाल दिख गया, जहां पर तेजी के साथ काम चल रहा था. पास जा कर देखा तो पिताजी मजदूरों को जल्दीजल्दी काम करने का निर्देश दे रहे थे.

तभी पिताजी की नजर दीपक पर पड़ी. दीपक ने जल्दी से पिताजी के पैर छू लिए.

पिताजी ने दीपक से हालचाल पूछा, ‘‘बेटा, पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम्हें रहनेखाने की कोई तकलीफ तो नहीं है?’’

दीपक ने कहा, ‘‘बाबूजी, मेरी फिक्र छोडि़ए, यह बताइए कि आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘बेटा, मैं बिलकुल ठीक हूं.’’

दीपक ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘सारा काम हो ही गया है, बस एकडेढ़ घंटे का काम बचा है,’’ इस पर पिता ओमप्रकाश ने हामी भरी. इस के बाद दोनों घर की तरफ चल पड़े.

रात को 8 बजे के बाद दीपक घर आया तो मां ने पूछा, ‘‘दीपू अभी तक कहां था, कब से तेरे बाबूजी इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘अरे मां, अब क्या बताऊं… गोलू के घर की तरफ चला गया था. वहां रमेश, जीतू, राजू भी आ गए तो बातों के आगे वक्त का पता ही नहीं चला.’’

मां बोलीं, ‘‘खैर, कोई बात नहीं. अब जल्दी से शर्माजी के यहां जा कर भोजन कर आ.’’

कुछ ही देर में गोलू के घर पहुंच कर दीपक ने उसे आवाज लगाई.

गोलू जोर से चिल्लाया, ‘‘रुकना भैया, अभी आया. बस, एक मिनट.’’

5 मिनट बाद गोलू हांफता हुआ आया तो दीपक ने कहा, ‘‘क्या यार, मेकअप कर रहा था क्या, जो इतना समय लगा दिया?’’

गोलू सांस छोड़ते हुए बोला, ‘‘दीपू भाई, वह क्या है कि छोटी कटोरी नहीं मिल रही थी. तू तो जानता है कि मुझे रायता कितना पसंद है तो…’’

‘‘पसंद है तो कटोरी का क्या काम है?’’ दीपक ने अचरज से पूछा.

गोलू थोड़ा गंभीर होते हुए बोला, ‘‘दीपक, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हम लोग हमेशा से ही ऊंची जाति वालों के यहां घर से ही अपने बरतन ले कर जाते हैं, तभी खाने को मिलता है.’’

‘‘हां पता है, लेकिन अब ये पुरानी बातें हो गई हैं. अब तो हर पार्टी के बड़ेबड़े नेता भी दलितों के यहां जा कर खाना खाते हैं.’’

गोलू ने बताया, ‘‘ऊंची जाति के लोगों के लिए पूजा और भोजन का इंतजाम बड़े पंडाल में है, ताकि छोटी जाति वालों को पूजापाठ की जगह से दूर बैठा कर खाना खिलाया जा सके, जिस से भगवान और ऊंची जाति वालों का धर्म खराब न हो.

‘‘दलितों को खाना अलग दूर बैठा कर खिलाया ही जाता है, इस पर यह शर्त होती है कि दलित अपने बरतन घरों से लाएं, जिस से उन के जूठे बरतन धोने का पाप ऊंची जाति वालों को न लगे,’’ इतना कहने के बाद गोलू चुप हो गया.

लेकिन दीपक की बांहें फड़कने लगीं, ‘‘आखिर इन लोगों ने हमें समझ क्या रखा है, क्या हम इनसान नहीं हैं.

‘‘सुन गोलू, मैं तो इस बेइज्जती के साथ खाना नहीं खाऊंगा, चाहे जो हो जाए,’’ दीपक की तेज आवाज सुन कर वहां कई लोग जमा होने लगे.

‘‘क्या बात है? क्यों गुस्सा कर रहे हो?’’ एक ने पूछा.

‘‘अरे चाचा, कोई छोटीमोटी बात नहीं है. आखिर हम लोग कब तक ऊंची जातियों के लोगों के जूते को सिर पर रख कर ढोते रहेंगे, क्या हम इनसान नहीं हैं? आखिर कब तक हम उन की जूठन पर जीते रहेंगे?’’

‘‘यह भीड़ यहां पर क्यों इकट्ठा है? यह सब क्या हो रहा है,’’ पिता ओमप्रकाश ने भीड़ को चीरते हुए दीपक से पूछा.

इस से पहले दीपक कुछ बोल पाता, बगल में खड़े चाचाजी बोल पड़े, ‘‘ओम भैया, तुम ने दीपू को कुछ ज्यादा ही पढ़ालिखा दिया है, जो दुनिया उलटने की बात कर रहा है. इसे जरा भी लाज नहीं आई कि जिन के बारे में यह बुराभला कह रहा है, वही हमारे भाग्य विधाता?हैं. अरे, जो कुछ हमारे वेदों और शास्त्रों में लिखा है, वही तो हम लोग कर रहे हैं.’’

‘‘चाचाजी…’’ दीपक चीखा, ‘‘यही तो सब से बड़ी समस्या है, जो आप लोग समझना नहीं चाहते. क्या आप को पता है कि ये ऊंची जाति के लोगों ने खुद ही इस तरह की बातें गढ़ ली हैं. जब कोई बच्चा पैदा होता है तो उस का कोई धर्म या मजहब नहीं होता, वह मां के पेट से कोई मजहब या काम सीख कर नहीं आता.

‘‘सुनिए चाचाजी, जब बच्चे जन्म लेते हैं तो वे सब आजाद होते हैं, लेकिन ये हमारी बदकिस्मती है कि धर्म के ठेकेदार अपने फायदे के लिए लोगों को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, भाषा के नाम पर बांट देते हैं.

‘‘क्या आप लोगों को नहीं पता कि मेरे पिताजी ने मुझे पढ़ाया है. अगर वे भी यह सोच लेते कि दलितशूद्रों का पढ़ना मना है, तो क्या मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा होता?

‘‘इसी छुआछूत को मिटाने के लिए कई पढ़ेलिखे जागरूक दलितों ने कितने कष्ट उठाए, अगर वे पढ़ेलिखे नहीं होते तो क्यों उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेदारी दी जाती?’’

एक आदमी ने कहा, ‘‘अरे दीपक, तू तो पढ़ालिखा है, मगर हम तो जमाने से यही देखते चले आ रहे हैं कि भोज में बरतन अपने घर से ले कर जाने पड़ते हैं. जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दो?’’

‘‘नहीं दादा, हम से यह न होगा, जिसे खाना खिलाना होगा, वह हमें भी अपने साथ इज्जत से खिलाए, वरना हम किसी के खाने के भूखे नहीं हैं. अब बहुत हो गया जुल्म बरदाश्त करतेकरते. मैं इस तरह से खाना नहीं खाऊंगा.’’

दीपक की बातों से गोलू को जोश आ गया. उस ने भी अपने बरतन फेंक दिए. इस से हुआ यह कि गांव के ज्यादातर दलितों ने इस तरह से खाने का बहिष्कार कर दिया.

‘‘शर्माजी, गजब हो गया,’’ एक आदमी बोला.

‘‘क्या हुआ? क्या बात है? सब ठीक तो है?’’

‘‘कुछ ठीक नहीं है. बस्ती के सारे दलित बिना खाना खाए वापस अपने घरों को जा रहे हैं. लेकिन मुझे यह नहीं पता कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं.’’

शर्माजी ने जल्दी से दौड़ लगा दी. दौड़ते हुए ही वे आवाज लगाने लगे, ‘‘अरे क्या हुआ, क्या कोई बात हो गई है, आप लोग रुकिए तो…’’

भीड़ में सन्नाटा छा गया. अब शर्माजी को कोई क्या जवाब दे.

‘‘देखिए शर्माजी…’’ दीपक बोला, ‘‘हम सब आप लोगों की बड़ी इज्जत करते हैं.’’

‘‘अरे दीपक, यह भी कोई कहने की बात है,’’ शर्माजी ने बीच में ही दीपक को टोका.

‘‘बात यह है कि अब से हम लोग इस तरह आप लोगों के यहां किसी भी तरह का भोजन नहीं किया करेंगे, क्योंकि हमारी भी इज्जत है. हम भी आप की तरह इनसान हैं, तो आप हमारे लिए अलग से क्यों कायदेकानून बना रखे हैं?

‘‘जब वोट लेना होता है तो आप लोग ही दलितों के यहां खाने को ले कर होड़ मचाए रहते हैं. जब चुनाव हो जाता है तो दलित फिर से दलित हो जाता है.’’

शर्माजी को कोई जवाब नहीं सूझा. वे चुपचाप अपना सा मुंह लटकाए वहीं खड़े रहे.

Hindi Stories Online : मोको कहां ढूंढे रे बंदे – कौन थी चीकू

Hindi Stories Online : आज फिर कांता ने छुट्टी कर ली थी और वो भी बिना बताए. रसोई से ज़ोर – ज़ोर से बर्तनों का शोर आ रहा था. बेचारे गुस्से के कारण बहुत पिटाई खा रहे थे. पर इस गुस्से के कारण कुछ बर्तनों पर इतनी जम के हाथ पड़ रहा था कि मानो उनका भी  रंग रूप निखर आया हो. वही जैसे फेशियल के बाद चेहरे पर आता है. अरे, “आज मुझे पार्लर भी तो जाना है.” अचानक याद आया. सारा काम जल्दी – जल्दी निपटा  दिया. थकान भी लग रही थी. पर सोचा चलो, वही रिलैक्स हो जाऊंगी. घर का सारा काम निपटा कर मैं पार्लर पहुंच गई.

जब फेशियल हो गया तो पार्लर वाली बोली…….

“दीदी कल देखना, क्या ग्लो आता है.” उफ़….एक तो उसका “दीदी” बोलना और दूसरा अंग्रेजी का “ग्लो” ग्लो~~ वाह!! सच, मन कितना आनंद से भर जाता है. खुश होकर मैंने कुछ टिप उसके हाथ में रख दी, “थैंक यू दीदी” उसने कहा.सच में अपने आप पर बड़ा गर्व महसूस होने लगा, जैसे न जाने कितना महान काम कर दिया हो.घर वापसी के लिए पार्लर का दरवाज़ा खोलते समय सचमुच में एक सेलेब्रिटी वाली फीलिंग आने लगती है. लगता है जैसे बाहर कई सारे फोटोग्राफर और ऑटोग्राफ लेने वाले इंतजार में खड़े होंगे… मैडम, मैडम!हेल्लो.. हेल्लो.. प्लीज़ प्लीज़ एक फोटो. इधर,  इधर, मैडम. ऐसा सोचते ही एक गर्वीली मुस्कुराहट अनायास ही चेहरे पर आ गई.

पर ये क्या? पार्लर से निकलते ही सब्ज़ी वाला भईया दिख गया. उफ़…मेरे ख्यालों की दुनिया जैसे पल भर में गायब हो गई. मुझे देखते ही वो अपने चिरपरिचित अंदाज़ में बोला “हां,…. चाहिए कुछ?” मैं जैसे सपने से जागी.अरे हां,आलू तो खत्म हो ही गए है. परांठे कैसे बनेंगे कल.सन्डे को कुछ स्पेशल तो सबको चाहिए ही. फिर चाहे लंच में छोले चावल बन जाएंगे. टमाटर भी लेे ही लेती हूं. रखे रहेंगे, बिगड़ते थोड़े ही है. कुछ और सब्जियां भी ‘सेफर साइड योजना’ के तहत लेे ली जाती है.अब आती है असली जिम्मेदारी निभाने की बारी..यानी हिसाब लगवाने की बारी “क्या भईया, क्यूं इतनी मंहगी  लगा रहे हो?”
“हमेशा तो आपसे ही लेती हूं.”

“आज क्या कोई पहली बार सब्ज़ी थोड़े खरीद रही हूं आपसे?”
“उधर, बाहर मार्केट में बैठते हो तो कम भाव लगाते हो” “हमारी कॉलोनी में आते ही सबके भाव बढ़ जाते है”अन्तिम डायलॉग बोलते समय थोड़ा फक्र महसूस होता है. देखा हम कितनी पॉश कॉलोनी के वासी है. परन्तु फ्री का धनिया और हरी मिर्च मांगते वक्त मैं अपने वास्तविक रूप में लौट आती.बनावट तो अस्थाई होती है, वास्तविकता ही हमारे साथ स्थाई रूप से रहती है.पर ये हमें शायद बहुत कम या कहिए देर से समझ आता है.

खैर….सब्जी वाले के साथ मोल भाव करने और कुछ एक्स्ट्रा लेने में अपनी कला पर खुद को ही शाबाशी दे डाली, हमेशा की तरह. वरना, घर पर ये सब बताओ तो इन समझदारी की बातों को भला कौन समझता है? उल्टा प्रवचन अलग मिल जाता है पतिदेव से …”क्या तुम भी, यूं दो – चार रुपयों के लिए इन मेहनतकश लोगो से इतना तोल मोल करती हो” इतनी सुबह- सुबह दूर मंडी से तुम्हें ये सब घर बैठे ही मिल जाता है. ये भी तो फ्री होम डिलीवर ही है. हमें तो इनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए.

उहं मैंने मन ही मन  मुंह बनाया. अरे, घर चलाना कोई खेल नहीं है. बहुत सारी बातें सोचनी पड़ती है. ये मर्दों के बस की बात नहीं है. अपने और उनके दोनों के ही हिस्से की बातें मैं मन ही मन सोच रही थी.
जब सब्ज़ियां खरीद ली तो याद आया. ओह, हां.. .’ब्रेड और मख्खन भी तो नहीं है और छोटे बेटे ने अपना शैंपू लाने के लिए भी तो कहा था.’ कुछ चिप्स और चॉकलेट भी लेे लूंगी उसके लिए. घर पहुंचते ही  बोलता है “मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” दुकान पर पहुंची तो कुछ अन्य वस्तुओं पर भी नज़र गई . उन्हें देख कर सोचा..”अच्छा हुआ जो नजर पड़ गई, ये सामान भी तो लगभग खत्म ही होने लगा है.” ये तो बहुत अच्छा हुआ, जो देखकर याद आ गया. वरना फिर से आना पड़ता. सारा सामान लेे कर  थकी – हारी घर पहुंची. रिक्शे वाले से भी थोड़ी बहस हो गई किराए को लेकर. आज तो सारा मूड ही खराब हो गया.

डोरबेल बजाई तो चीकू ने दरवाज़ा खोला और चिल्ला कर बोला… पापा,  “मम्मी आ गई हैं.” “पता नहीं क्यूं ये हमेशा अपने पापा को सावधान होने का संकेत देता है.” जैसे, “मैं नहीं, कोई खतरे की घड़ी आ गई हो.”
हमेशा की तरह मैंने इस बात को नजर अंदाज़ किया.

चीकू बोला ,”मेरे लिए क्या लाई हो मम्मी?” हर बार उसकी यही जिज्ञासा होती. अरे. “हर बार क्यूं पूछते हो?” “मैं कोई विदेश यात्रा से आती हूं.” थकान अब तल्खी में बदल रही थी.

पतिदेव ने शायद इसे महसूस कर लिया था. वे कमरे से बाहर आये और माहौल की नज़ाकत को समझते हुए चिंटू को अंदर जाने का इशारा किया और सामान भीतर लेे जाने के लिए उठाने लगे. फिर अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया. वे  सहानुभूति जताते हुए बोले…अरे,,”तुम तो पार्लर गई थी ना?”
“क्या पार्लर बंद था?” ओह! “लगता है सारा समय घर की खरीदी में ही निकल गया.”

क्या इन्हें मेरा “ग्लो” नजर नहीं आ रहा? बाल भी तो ठीक कराए थे, क्या वो भी दिखाई नहीं पड़  रहे?
एक वो पार्लर वाली है जो बोल रही थी….”दीदी”, “आप अपने पर बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही हो” “देखो तो कितनी ड्रायनेस आ गई है हाथों पर और बाल भी कितने हल्के होते जा रहे है” “आप थोड़ा जल्दी जल्दी विजिट किया करे” सच में मेरा कितना ख्याल करती है, और इन्हें देखो, इतना कुछ करवा कर आने के बाद भी पूछ रहे है…”क्या पार्लर नहीं गई?”

हद है. दिनभर की थकान,  सबसे हुई बहस और पति की नज़र का दोष.एक धमाके का रूप ले चुका था. मैंने जोर से पांव पटके और धड़ाम से दरवाज़ा बंद किया और कहा..

“कभी तो मुझ पर ध्यान दीजिए, कभी तो फुरसत निकालिए” “क्या आपको कहीं भी?… कुछ?.. सुंदरता नजर आती है?” मैंने एक – एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा “हर समय बस, ये अख़बार और टीवी” “क्या बार बार वही न्यूज सुनते रहते हो””घर -बाहर का सारा काम कर करके मेरे चेहरे का ग्लो ही खत्म हो गया” ये देखो, बर्तन मांज – मांज कर मेरे हाथ कितने ड्राई हो गए है”

“ये नाखून तो जैसे सारे ही टूट गए है.” मैं  गुस्से में बोल रही थी. आवाज़ से लग रहा था, बस रो ही पडूंगी, पर उनके सामने रोना अपनी बात को कमज़ोर बनाना था. मैं सीधे अपने कमरे में चली गई. अचानक एक छोटे से प्रश्न पर इतना भड़क जाना? उनकी कुछ समझ नहीं आ रहा था. पतिदेव ज्यादा बहस के मूड में नहीं  थे. चुपचाप सारा सामान रसोई में रख अख़बार उठा कर पढ़ने लगे.

कुछ देर बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा खोला. देखा रसोई में कुछ खुसुर – पुसुर हो रही थी.
चीकू की आवाज़ आ रही थी….”पापा आज बाहर से कुछ मंगवा  ले?”और पतिदेव बोल रहे थे..”यार चीकू मैगी ही बना लेते है.” “अब, मम्मी से कौन पता करे कि उन्हें क्या खाना है?”

अब मुझे अपने आप पर भी गुस्सा आने. आखिर इतना बवाल करने की क्या जरूरत थी.
मैंने रसोई में जाकर बिना प्यास के पानी पिया. बस टोह लेने के लिए कि क्या चल रहा है. फिर सपाट और संयमित स्वर में पूछा..”क्या खाओगे?” दोनों एक साथ बोल उठे…”खिचड़ी”

“ये तो कमाल हो गया, यार चीकू ” पापा ने बड़ी प्रशंसा भरी नज़रों से चीकू को शाबाशी दी और चीकू ने भी अपनी आंखे झपकाकर पापा को “टू गुड” कहा.  “वाह!”

“इतनी अंडरस्टैंडिंग” सच में कमाल ही है. जो खिचड़ी के नाम से ही बिदकते हो आज खुद खिचड़ी खाने के लिए कह रहे हैं. जो मैं अपनी थकान की स्थिति के विकल्प रूप में बनाती हूं. मैं मन ही मन मुस्कुराई पर स्वयं की प्रतिष्ठा के मद्देनजर चेहरा संजीदा ही बनाए रखा.

अब वे दोनों चुपचाप रसोई से बाहर निकल कर टेबल लगाने लगे. खाने के बाद के सारे काम निपटा कर जब मैं चीकू के कमरे में गई तो वो सो चुका था. आज इसे अकारण ही डांट दिया. बहुत बुरा लग रहा था. कॉमिक्स उसके हाथ से निकाल कर हौले से उसके बालों को सहलाया. बत्ती बंद कर  मैंने अपने कमरे की ओर रुख किया.

आश्चर्य है आज उनके हाथ में न अख़बार था न मोबाइल मुझे देख कर वे थोड़ा मुस्कराए मुझे थोड़ा अटपटा लगा. पता नहीं क्या बात है? मैं उनकी ओर पीठ घुमाकर  अपने ड्राई हाथों पर क्रीम मलने लगी. आज थोड़ी ज्यादा देर तक हाथों को क्रीम मलती रही. शायद उनके बुलाने का इंतजार कर रही थी. सोचे जा रही थी…”इतना धैर्य भी भला किस काम का? जो बोलने में भी इतना समय लगे.” मन में बोले गए वाक्य के पूरा होने की देर थी कि आवाज़ आई…”आओ!” “तुम्हें कुछ दिखाना है” ये हो क्या रहा है? शाम के खाने से लेकर अभी तक आश्चर्य ही आश्चर्य इतने आश्चर्य वाली धाराएं तो पहले कभी नहीं देखी.

मैं बिना कुछ कहे बैठ गई..वे अलमारी से एक बड़ा सा लिफाफा निकाल रहे थे. मैं सोच रहीं थीं, अभी न तो मेरा जन्मदिन है, न शादी की सालगिरह. फिर तोहफे लेने देने वाली परंपरा भी तो ज़रा कम ही है हमारे बीच.उन्होंने वो बड़ा सा लिफाफा मेरे सामने रख दिया. “ये क्या?”  “लिफाफा तो पुराना सा दिख रहा है” मुझे कुछ अजीब लगा.

मैंने धीरे से पूछा… .. ….”क्या है इसमें ?”
“आज तुम पार्लर से आकर पूछ रही थी ना…. कि क्या मुझे  कहीं भी, किसी भी रूप में कुछ सुंदरता दिखाई देती है?” “ये वही सुंदरता वाला लिफाफा है.” वे एकदम शांत और संयत आवाज़ में बोले.

अब तो सच में, मैं आश्चर्य के समुद्र में गोते लगाने लगी. देखो, अनु, “सुंदरता की सबकी अपनी परिभाषा होती है.” “सुंदरता देखने का सबका अपना अलग – अलग नज़रिया होता है.”

“किसी को तन की सुंदरता मोहित करती है, तो किसी को मन की, कोई स्वभाव की सुंदरता देखता है तो कोई भाषा की.” “कोई  प्रकृति की सुंदरता में खो जाता है, तो किसी को खेत – खलिहान में काम करने वाले उन मेहनतकश मजदूर और उन पर लगी उस माटी की सुंदरता मोहित करती है.” “कोई रसोई में खाना बनाती उस गृहिणी और उसके माथे पर आने वालेे पसीने की बूंदों में सुंदरता देखता है, जिसमें परिवार के लिए स्नेह झलकता है, जो मैं तुममें भी अक्सर देखता हूं.” “मुझे तुम्हारा वो ग्लो ज्यादा अच्छा लगता है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है?” वे बोलते जा रहे थे. मैं अपना सिर नीचे किए बस उन्हें सुन रही थी. आंखों में आंसू डबडबाने लगे थे.

तभी लिफाफे के खुलने की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी. “ये देखो.” मैंने पनीली आंखों से देखा….”ये मां की बरसों पुरानी तस्वीर है.” मैंने देखा सासू मां की उस ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर को … एक सादी सी सुती साड़ी पहने, माथे पर बड़ी सी बिंदी, बालों की एक लंबी ढीली सी चोटी.इतनी सादगी और कितनी सुंदर. मैं मोहित हो कर देखने लगी. सचमुच सुंदर.

फिर निकली एक बड़ी सी राखी जो बचपन में बहन ने बांधी थी. उस समय वो कलाई से भी काफी बड़ी रही होगी. मुझे अपने भाई की याद गई वो भी तो ऐसी ही बड़ी सी राखी बंधवाता था और फिर सारे मोहल्ले को दिखता था. उसे याद कर मैं धीरे से हंस पड़ी.

फिर निकली एक पुरानी सी कैसेट जिसमें मेरी नानी के गाए भजन और उनके साथ की गई बातचीत की पर्ची लगी हुई थी.

पिताजी जी के साथ देखी गई फिल्म का पोस्टर. सचमुच कमाल. हमारी पहली यात्रा के टिकिट, चीकू की पहली पेंटिंग वाला कागज़. सारी चीजे इतने जतन से संभाली हुई.

अब तो मेरी बहुत कोशिश से रोकी हुई रुलाई फूट पड़ी. “देखो अनु,” “मैं तुम्हारा दिल दुखना हरगिज़ नहीं चाहता.” “पार्लर जाना कोई बुरी बात नहीं है.” “न ही मैंने तुम्हें कभी रोका है.”

“अपने आप को अच्छा रखना और लगना कोई गुनाह नहीं है.” “दरसअल, हमें जो अच्छा लगता है, हम चाहते है सामने वाले को भी वो, उसी रूप में अच्छा लगे और वो उसकी तारीफ करे,पर ऐसा हर बार जरूरी तो नहीं.”

“उसकी अपनी सोच हमसे अलग भी तो हो सकती है.” “मुझे लगता है, जब हम सुंदरता का कोई रूप देख कर खुश होते है,तो आपकी आंतरिक खुशी  चेहरे पर अपने आप आ जाती है.”

उस खुशी से चेहरा दमकने लगता है. शायद तभी चेहरे को दर्पण कहा   जाता है. बिना बोले ही कितनी बातें कह जाता है. “मेरा अपना सुंदरता का क्या नज़रिया है, वो मैंने तुम्हें बता दिया.”

“मेरा तुम्हारा मन दुखाने का कभी भी कोई मकसद नहीं होता.”  एक गहरे निःश्वास के साथ वे चुप हो गए. उस दिन मैं एक नए संवेदनशील इंसान से मिली.अब मेरी आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला रहे थे. सुंदरता की ऐसी परिभाषा तो शायद मैंने पहले कभी सोची ही नहीं.आज कुछ अलग सा महसूस किया था. सच,एक नया अर्थ समझ आया था.

मुझे लगा जैसे आज संवेदनाओं की कितनी उलझने सुलझ गई थी. दूर बादलों की ओट से चांद बाहर निकल रहा था. ठीक मेरे मन की तरह. शिकवे- शिकायतों के सारे काले बादल शांत, श्वेत चांदनी में बदल गए थे. खिड़की से झांकती चांदनी मुस्कुरा रही थी.

हम दोनों खामोश थे.बस आंखें बोल रही थी. मैंने उनकी ओर देखा और  झूठ – मूठ का गुस्सा दिखाते हुए कहा… चलिए, “अब सो जाइए. कल सुबह मुझे आलू के परांठे भी बनाने है.” “वाकई. तुम्हारे आलू परांठे होते बहुत सुंदर है.” पतिदेव एक शरारती मुस्कान लिए बोले. देखा नहीं? “उन्हें देखते ही मेरे और चीकू के चेहरे पर कितना “ग्लो”~~ आ जाता है.” हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

Moral Stories in Hindi : प्यार का पौधा – तीसरे देश की धरती पर

Moral Stories in Hindi :  भारत के बिहार के रहने वाले अजय और पाकिस्तान के लाहौर के रहने वाले जहीर ने अपनी 30 साल से चली आ रही दोस्ती को रिश्ते में बदलने के उपलक्ष्य में अमेरिका के न्यू जर्सी के एक बड़े होटल में दावत का आयोजन किया था.

एक ओर भव्य मुगल लिबास में सजे अजय उन की पत्नी जया व फूलों का सेहरा पहन दूल्हा बने उन के बेटे अमित पाकिस्तान की तहजीब से रुबरू हो रहे थे तो दूसरी तरफ सिल्क का कुरता, अबरक लगी पीली धोती पहने जहीर, सीधे पल्ला किए पीली बनारसी साड़ी में उन की बेगम जीनत गजब ढा रही थीं. आंखों को चौंधियाते सोने के तारों व मोतियों वाला सुर्ख लाल लहंगा, चुन्नी व नयनाभिराम आभूषणों में दिपदिपाती हुई उन की लाड़ली आसमा चांदसितारों को शरमा रही थी.

मोगरा के फूलों में लिपटे हुए उस के बाल, जड़ाऊं मांगटीका से चमकता माथा व उस की मांग में पीला सिंदूर दिपदिपा रहा था. कान के ऊपर लटकता मोतियों की लडि़योंवाले झिलमिलाते झूमर से चांदनी बिखर रही थी. दोनों परिवार एकदूसरे की इच्छाओं का मानसम्मान रखते हुए अपनेअपने देश की गंगायमुनी संस्कृति का मिलन कर के अपनी दोस्ती की मिसाल पेश कर रहे थे.

उन की प्यारभरी दोस्ती की शुरुआत बड़े अजीबोगरीब ढंग से हुई थी. अजय को भारत से आए अभी हफ्ता भी नहीं हुआ था कि रोड दुर्घटना में वे अपना हाथपैर तुड़वा बैठे थे और 2 वर्षों पहले ही लाहौर, पाकिस्तान से आए हुए जहीर, जो अजय के अपार्टमैंट में ही रहते थे, ने पलक झपकते ही उन की सारी जिम्मेदारियों को उठा कर आपसी भाईचारे का अनोखा संदेश दिया था.

भयानक घटना कुछ ऐसे घटी थी. अजय ने गाड़ी चलाना नईनई ही सीखी थी. उसी महीने तो 2 बार कोशिश करने के बाद उन्होंने जैसेतैसे ड्राइविंग टैस्ट पास किया था. ज्यादातर लोग पैरेलल पार्किंग कर नहीं पाते और टैस्ट में असफल हो जाते हैं.

अमेरिका में ड्राइविंग लाइसैंस देने की प्रक्रिया जटिल होने के साथ ईमानदारी पर आधारित रहती है. जब तक भरपूर कुशलता नहीं आती, लाइसैंस मिलने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता है. लाइसैंस मिलने के बाद उन्होंने लोन पर सैकंडहैंड गाड़ी खरीदी. हफ्ताभर भी तो नहीं हुआ था उन्हें गाड़ी चलाते हुए कि औफिस जाते समय ऐक्सिडैंट कर बैठे. वो तो आननफानन घटनास्थल पर पुलिस पहुंच गई थी और लहूलुहान व बेहोश अजय को न्यू जर्सी के रौबर्ट वुड हौस्पिटल में पहुंचाते हुए उन के औफिस और घर पर सूचित करने के लिए स्वयं पहुंच गई. पुलिस ने ही उन की पत्नी को हौस्पिटल भी पहुंचाया.

अमेरिकी पुलिस की यह बहुत बड़ी विशेषता है कि वहां पर रहते हर व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मदद करने के लिए वह तत्पर रहती है. वहां जिस का कोई अपना नहीं होता, पुलिस उस की देखरेख किसी अपने से बढ़ कर करती है.

हौस्पिटल में अजय की पत्नी जया अकेली, असहाय सी खड़ी आंसू बहा रही थी. नया देश, नए लोग किस से अपना दुख बांटे. वह असमंजस में थी. इंडिया में मायके व ससुराल दोनों की आर्थिक अवस्था इतनी भी मजबूत नहीं कि वहां से कोई यहां आ कर उस की असहायता के इस गहन अंधेरे को साझा कर ले. चारों ओर दुख का उफनता सागर था, जिस का कहीं दूर तक किनारा जया को नजर नहीं आ रहा था.

बहते हुए आंसुओं पर काबू पाते हुए वह अपना आत्मबल संजोने की चेष्टा कर तो रही थी पर सफल नहीं हो पा रही थी. दुर्घटना की खबर पाते ही वे सब परेशान हो जाएंगे. किसी न किसी तरह इस आपत्ति को वह खुद ही झेलने का साहस प्राप्त करेगी. दृढ़ निश्चय की आभा से वह भर उठी. इंश्योरैंस वाले हौस्टिपल का खर्च उठा ही रहे हैं. आगे कोई न कोई राह निकल ही आएगी, ऐसा सोच कर जया के मन को शक्ति मिली.

औपरेशन थिएटर से अजय को केबिन में शिफ्ट कर दिया गया था. लेकिन अभी भी उन पर एनेस्थीसिया का असर था. थकान और परेशानी के कारण जया को झपकी आ गई थी. दरवाजा खुलने की आहट से अचानक उस की पलकें खुल गईं और उस के बाद उस ने जो कुछ भी देखा, अविश्वसनीय था.

जहीर दंपती घबराए हुए अंदर आए और जया से मुखातिब हुए कि उस ने उन्हें इस दुर्घटना की जानकारी क्यों नहीं दी. जवाब में जया सिर झुकाए रही. वे जया की जरूरत के सारे सामान लेते आए थे. उस दिन से दोनों पतिपत्नी अजय के घर लौटने तक जया की हर जरूरत की पूर्ति, चेहरे पर रत्तीभर शिकन लाए बिना करते रहे. इस तरह अजय के उस नाजुक वक्त में जहीर ने शारीरिक व आर्थिक रूप से, अपने किसी भी देशवासी से बढ़ कर, उन्हें सहारा दिया था.

आने वाले दिनों में दोनों की दोस्ती गाढ़ी होती गई. अमित के जन्म के समय एक बार फिर वे सारे रिश्तों के पर्याय बन गए थे. गर्भावस्था के नाजुक पलों को जीनत बेगम ने किसी अपने से बढ़ कर महीनों सांझा किया. घर से ले कर हौस्पिटल तक का भार अपने कंधे पर उठा कर अजय को बेहिसाब तसल्ली दी. अमित का बचपन दोनों परिवारों के लिए खिलौना बना रहा.

2 वर्षों बाद ही आसमा पैदा हुई. अजय और जया ने भी उन नाजुक पलों की जिम्मेदारियों को सहर्ष निभाया. अपनी ओर से कोई कमी नहीं छोड़ी. अमित और आसमा दोनों साथ खेलते हुए बड़े हुए. एक ही स्कूल में उन दोनों ने पढ़ाई की. उन दोनों की नोकझोंक पर दोनों परिवार न्योछावर होते रहे. कहीं कोई दुराव नहीं था. घर अलग थे पर अपनी बेशुमार मोहब्बत से दीवार को उन्होंने पारदर्शी बना लिया था. दोनों परिवारों की दोस्ती सभी के लिए मिसाल बन गई थी.

कहते हैं जब प्यार का सवेरा शाम के सुरमई अंधेरे को गले लगा लेता है तो समय का पंख भी गतिशील हो जाता है. ग्रीनकार्ड मिलते ही दोनों परिवार सभी तरह से सुव्यवस्थित हो गए थे. कुछ वर्षों बाद ही उन्हें वोट देने का अधिकार मिल गया और वे अब वहां के नागरिक थे.

खुशियों की चांदनी में वे भीग रहे थे कि दुनिया का सब से बड़ा प्रभुत्वशाली देश अमेरिका का कुछ हिस्सा आतंकवाद के काले धुएं में समा गया. 2001 के

11 सितंबर, मंगलवार को न्यूयौर्क के वर्ल्ड ट्रेड सैंटर और पैंटागन पर हुए आतंकी हमले ने पूरे विश्व को सहमा कर रख दिया. कितने लोगों की जानें गईं. धनसंपत्ति का बड़ा भारी नुकसान हुआ. वर्ल्ड टे्रड सैंटर की इमारत का ध्वस्त होना पूरी दुनिया की आर्थिक स्थिति को चरमरा गया. इस हमले के पीछे मुसलिम हैं, इस की जानकारी पाते ही अमेरिका में रह रहे मुसलिमों पर आफत आ गई. अमेरिकियों के निशाने पर सारे दाढ़ी रखने वाले आ गए थे.

दाढ़ी वालों पर होते जुल्मोंसितम से जहीर व उन के परिवार को अजय ने अपनी जान पर खेल कर बचाया.

समय के साथ दुख के बादल छंट तो गए पर जहीर की नौकरी जाती रही. दोनों हिस्सों की ठंड को बांटते हुए अजय ने अपने हिस्से की धूप भी उन पर बिखरा दी, जिस की ताप को जहीर ने कभी कम नहीं होने दिया. सबकुछ सामान्य होते ही जहीर की बहाली भी हो गई और एक बार फिर से खुशियां उन के दरवाजे पर दस्तक देने लगीं.

स्कूल की पढ़ाई पूरी कर के अमित और आसमा दोनों आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर चले गए. अमित ने कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की तो आसमा ने मैडिकल पढ़ाई की लंबी दूरियां तय कर लीं. जीवन में सुख ही सुख की लाली थी जो पलक झपकते ही दुखों की कालिमा को निगल लिया करती थी. परम संतुष्टि के भाव में विभोर थे दोनों परिवार. अमित और आसमा ने एक लंबा समय साथ बिताया था.

बचपन की चुहलबाजियों ने धीरेधीरे प्यार के नशीले रूप को धारण कर लिया था. इस का अंदाजा उन्हें उस समय हुआ जब वे आगे की पढ़ाई करने के लिए घर से दूर जा रहे थे. धर्म और जाति की दीवारों में उन का प्यार कभी दफन नहीं होगा, इस का उन्हें भरपूर अंदाजा था और वे सभी तरह से आश्वस्त हो कर अपनी मंजिल हासिल करने की होड़ में शामिल हो गए.

उन के प्यार से अनजान उन के मातापिता कुछ ऐसे ही खूबसूरत बंधन के लिए आतुर थे. उन्हें इस का जरा सा भी अंदाजा नहीं था. दोनों के पेरैंट्स को जब उन के प्यार के बारे में पता चला तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ मानो अटलांटिक महासागर में ही अनहोनी को होनी करते हुए प्यार के हजारों कमल खिल गए हों.

इस तरह हर ओर से जीवन की हर धूपछांव को बांटते हुए उन्होंने अपनी औलादों को आज सब से खूबसूरत रेशमी रिश्तों में बांध दिया था. वर्षों से चली आ रही अपनी दोस्ती पर खूबसूरत रिश्ते की मुहर लगा दी थी. बधाइयां देने वालों का तांता लगा था. यह दिलकश नजारा था गोली, बारूद की ढेर पर बैठे, निर्दोषोें की लाशों से अपनी सीमाओं को पाट कर रख देने वाले 2 देश हिंदुस्तान व पाकिस्तान की सरहदों के नुकीले तारों से क्षतविक्षत हुए दिल के तारों के किसी तीसरे देश की धरती पर मिलन का.

Latest Hindi Stories : विवाह – विदिशा को किस बात पर यकीन नहीं हुआ

Latest Hindi Stories :  राज आज बहुत खुश था. विदिशा से मिलने के लिए वह पुणे आया था. दोनों गर्ल्स होस्टल के पास ही एक आइसक्रीम पार्लर पर मिले.

‘‘मैं लेट हो गई क्या?’’ विदिशा ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं ही जल्दी आ गया था,’’ राज बोला.

‘‘तुम से एक बात पुछूं क्या?’’ विदिशा ने कहा.

‘‘जोकुछ पूछना है, अभी पूछ लो. शादी के बाद कोई उलझन नहीं होनी चाहिए,’’ राज ने कहा.

‘‘तुम ने कैमिस्ट्री से एमएससी की है, फिर भी गांव में क्यों रहते हो? पुणे में कोई नौकरी या कंपीटिशन का एग्जाम क्यों नहीं देते हो?’’‘‘100 एकड़ खेती है हमारी. इस के अलावा मैं देशमुख खानदान का एकलौता वारिस हूं. मेरे अलावा कोई खेती संभालने वाला नहीं है. नौकरी से जो तनख्वाह मिलेगी, उस से ज्यादा तो मैं अपनी खेती से कमा सकता हूं. फिर क्या जरूरत है नौकरी करने की?’’

राज के जवाब से विदिशा समझ गई कि यह लड़का कभी अपना गांव छोड़ कर शहर नहीं आएगा.

शादी का दिन आने तक राज और विदिशा एकदूसरे की पसंदनापसंद, इच्छा, हनीमून की जगह वगैरह पर बातें करते रहे.

शादी के दिन दूल्हे की बरात घर के सामने मंडप के पास आ कर खड़ी हो गई, लेकिन दूल्हे की पूजाआरती के लिए दुलहन की तरफ से कोई नहीं आया, क्योंकि दुलहन एक चिट्ठी लिख कर घर से भाग गई थी.

‘पिताजी, मैं बहुत बड़ी गलती कर रही हूं, लेकिन शादी के बाद जिंदगीभर एडजस्ट करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं है. मां के जैसे सिर्फ चूल्हाचौका संभालना मुझ से नहीं होगा. आप ने जो रिश्ता मेरे लिए ढूंढ़ा है, वहां किसी चीज की कमी नहीं है. ऐसे में मैं आप को कितना भी समझाती, मुझे इस विवाह से छुटकारा नहीं मिलता, इसलिए आप को बिना बताए मैं यह घर हमेशा के लिए छोड़ कर जा रही हूं…’

‘‘और पढ़ाओ लड़की को…’’ विदिशा के पिता अपनी पत्नी पर गुस्सा करते हुए रोने लगे. वर पक्ष का घर श्मशान की तरह शांत हो गया था. देशमुख परिवार गम में डूब गया था. गांव वालों के सामने उन की नाक कट चुकी थी, लेकिन राज ने परिवार की हालत देखते हुए खुद को संभाल लिया.

विदिशा पुणे का होस्टल छोड़ कर वेदिका नाम की सहेली के साथ एक किराए के फ्लैट में रहने लगी. उस की एक कंपनी में नौकरी भी लग गई.

वेदिका शराब पीती थी, पार्टी वगैरह में जाती थी, लेकिन उस के साथ रहने के अलावा विदिशा के पास कोई चारा नहीं था. 4 साल ऐसे ही बीत गए.

एक रात वेदिका 2 लाख रुपए से भरा एक बैग ले कर आई. विदिशा उस से कुछ पूछे, तभी उस के पीछे चेहरे पर रूमाल बांधे एक जवान लड़का भी फ्लैट में आ गया.

‘‘बैग यहां ला, नहीं तो बेवजह मरेगी,’’ वह लड़का बोला.

‘‘बैग नहीं मिलेगा… तू पहले बाहर निकल,’’ वेदिका ने कहा.

उस लड़के ने अगले ही पल में वेदिका के पेट में चाकू घोंप दिया और बैग ले कर फरार हो गया.

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. उस ने तुरंत वेदिका के पेट से चाकू निकाला और रिकशा लेने के लिए नीचे की तरफ भागी. एक रिकशे वाले को ले कर वह फ्लैट में आई, लेकिन रिकशे वाला चिल्लाते हुए भाग गया.

विदिशा जब तक वेदिका के पास गई, तब तक उस की सांसें थम चुकी थीं. तभी चौकीदार फ्लैट में आ गया. पुलिस स्टेशन में फोन किया था. विदिशा बिलकुल निराश हो चुकी थी. वेदिका का यह मामला उसे बहुत महंगा पड़ने वाला था, इस बात को वह समझ चुकी थी. रोरो कर उस की आंखें लाल हो चुकी थीं.

पुलिस पूरे फ्लैट को छान रही थी. वेदिका की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी गई. दूसरे दिन सुबह विदिशा को पुलिस स्टेशन में पूछताछ के लिए बुलाया गया. सवेरे 9 बजे से ही विदिशा पुलिस स्टेशन में जा कर बैठ गई. वह सोच रही थी कि यह सारा मामला कब खत्म होगा.

‘‘सर अभी तक नहीं आए हैं. वे 10 बजे तक आएंगे. तब तक तुम केबिन में जा कर बैठो,’’ हवलदार ने कहा.

केबिन में जाते ही विदिशा ने टेबल पर ‘राज देशमुख’ की नेमप्लेट देखी और उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे.

तभी राज ने केबिन में प्रवेश किया. उसे देखते ही विदिशा खड़ी हो गई.

‘‘वेदिका मर्डर केस. चाकू पर तुम्हारी ही उंगलियों के निशान हैं. हाल में भी सब जगह तुम्हारे हाथों के निशान हैं. खून तुम ने किया है. लेकिन खून के पीछे की वजह समझ नहीं आ रही है. वह तुम बताओ और इस मामले को यहीं खत्म करो,’’ राज ने कहा.

‘‘मैं ने खून नहीं किया है,’’ विदिशा बोली.

‘‘लेकिन, सुबूत तो यही कह रहे हैं,’’ राज बोला.

‘‘कल जो कुछ हुआ है, मैं ने सब बता दिया है,’’ विदिशा ने कहा.

‘‘लेकिन वह सब झूठ है. तुम जेल जरूर जाओगी. तुम ने आज तक जितने भी गुनाह किए हैं, उन सभी की सजा मैं तुम्हें दूंगा मिस विदिशा.’’

‘‘देखिए…’’

‘‘चुप… एकदम चुप. कदम, गाड़ी निकालो. विधायक ने बुलाया है हमें. मैडम, हर सुबह यहां पूछताछ के लिए तुम्हें आना होगा, समझ गई न.’’

विदिशा को कुछ समझ नहीं आ रहा था. शाम को वह वापस पुलिस स्टेशन के बाहर राज की राह देखने लगी.

रात के 9 बजे राज आया. वह मोटरसाइकिल को किक मार कर स्टार्ट कर रहा था, तभी विदिशा उस के सामने आ कर खड़ी हो गई.

‘‘मुझे तुम से बात करनी है.’’

‘‘बोलो…’’

‘‘मैं ने 4 साल पहले बहुत सी गलतियां की थीं. मुझे माफ कर दो. लेकिन मैं ने यह खून नहीं किया है. प्लीज, मुझे इस सब से बाहर निकालो.’’

‘‘लौज में चलोगी क्या? हनीमून के लिए महाबलेश्वर नहीं जा पाए तो लौज ही जा कर आते हैं. तुम्हारे सारे गुनाह माफ हो जाएंगे… तो फिर मोटरसाइकिल पर बैठ रही हो?’’

‘‘राज…’’ विदिशा आगे कुछ कह पाती, उस से पहले ही वहां से राज निकल गया.

दूसरे दिन विदिशा फिर से राज के केबिन में आ कर बैठ गई.

‘‘तुम क्या काम करती हो?’’

‘‘एक प्राइवेट कंपनी में हूं.’’

‘‘शादी हो गई तुम्हारी? ओह सौरी, असलम बौयफ्रैंड है तुम्हारा. बिना शादी किए ही आजकल लड़केलड़कियां सबकुछ कर रहे हैं… हैं न?’’

‘‘असलम मेरा नहीं, वेदिका का दोस्त था.’’

‘‘2 लड़कियों का एक ही दोस्त हो सकता है न?’’

‘‘मैं ने अब तक असलम नाम के किसी शख्स को नहीं देखा है.’’

‘‘कमाल की बात है. तुम ने असलम को नहीं देखा है. वाचमैन ने रूमाल से मुंह बांधे हुए नौजवान को नहीं देखा. पैसों से भरे बैग को भी तुम्हारे सिवा किसी ने नहीं देखा है. बाकी की बातें कल होंगी. तुम निकलो…’’

रोज सुबह पुलिस स्टेशन आना, शाम 3 से 4 बजे तक केबिन में बैठना, आधे घंटे के लिए राज के सामने जाना. वह विदिशा की बेइज्जती करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता था. तकरीबन 2 महीने तक यही चलता रहा. विदिशा की नौकरी भी छूट गई. गांव में विदिशा की चिंता में उस की मां अस्पताल में भरती हो गई थीं. रोज की तरह आज भी पूछताछ चल रही थी.

‘‘रोजरोज चक्कर लगाने से बेहतर है कि अपना गुनाह कबूल कर लो न?’’

विदिशा ने कुछ जवाब नहीं दिया और सिर नीचे कर के बैठी रही.

‘‘जो लड़की अपने मांपिता की नहीं हुई, वह दोस्त की क्या होगी? असलम कौन है? बौयफ्रैंड है न? कल ही मैं ने उसे पकड़ा है. उस के पास से 2 लाख रुपए से भरा एक बैग भी मिला है,’’ राज विदिशा की कुरसी के पास टेबल पर बैठ कर बोलने लगा.

लेकिन फिर भी विदिशा ने कुछ नहीं कहा. उसे जेल जाना होगा. उस ने जो अपने मांबाप और देशमुख परिवार को तकलीफ पहुंचाई है, उस की सजा उसे भुगतनी होगी. यह बात उसे समझ आ चुकी थी.

तभी लड़की के पिता ने केबिन में प्रवेश किया और दोनों हाथ जोड़ कर राज के पैरों में गिर पड़े, ‘‘साहब, मेरी पत्नी बहुत बीमार है. हमारी बच्ची से गलती हुई. उस की तरफ से मैं माफी मांगता हूं. मेरी पत्नी की जान की खातिर खून के इस केस से इसे बाहर निकालें. मैं आप से विनती करता हूं.’’

‘‘सब ठीक हो जाएगा. आप घर जाइए,’’ राज ने कहा.

विदिशा पीठ पीछे सब सुन रही थी. अपने पिता से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं थी उस में. लेकिन उन के बाहर निकलते ही विदिशा टेबल पर सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी.

‘‘तुम अभी बाहर जाओ, शाम को बात करेंगे,’’ राज बोला.

‘‘शाम को क्यों? अभी बोलो. मैं ने खून किया है, ऐसा ही स्टेटमैंट चाहिए न तुम्हें? मैं गुनाह कबूल करने के लिए तैयार हूं. मुझ से अब और सहन नहीं हो रहा है. यह खेल अब बंद करो.

‘‘तुम से शादी करने का मतलब केवल देशमुख परिवार की शोभा बनना था. पति के इशारे में चलना मेरे वश की बात नहीं है. मेरी शिक्षा, मेरी मेहनत सब तुम्हारे घर बरबाद हो जाती और यह बात पिताजी को बता कर भी कोई फायदा नहीं था. तो मैं क्या करती?’’ विदिशा रो भी रही थी और गुस्से में बोल रही थी.

‘‘बोलना चाहिए था तुम्हें, मैं उन्हें समझाता.’’

‘‘तुम्हारी बात मान कर पिताजी मुझे पुणे आने देते क्या? पहले से ही वे लड़कियों की पढ़ाई के विरोध में थे. मां ने लड़ाईझगड़ा कर के मुझे पुणे भेजा था. मेरे पास कोई रास्ता नहीं था, इसलिए मुझे मंडप छोड़ कर भागना पड़ा.’’

‘‘और मेरा क्या? मेरे साथ 4 महीने घूमी, मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, उस का क्या? मेरे मातापिता का इस में क्या कुसूर था?’’

‘‘मुझे लगा कि तुम्हें फोन करूं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई.’’

‘‘तुम्हें जो करना था, तुम ने किया. अब मुझे जो करना है, वह मैं करूंगा. तुम बाहर निकलो.’’

विदिशा वहां से सीधी अपने गांव चली गई. मां से मिली. ‘‘मेरी बेटी, यह कैसी सजा मिल रही है तुझे? तेरे हाथ से खून नहीं हो सकता है. अब कैसे बाहर निकलेगी?’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ जो छल किया?है, उस की सजा मुझे भुगतनी होगी मां.’’

‘‘कुछ नहीं होगा आप की बेटी को, केस सुलझ गया है मौसी. असलम नाम के आदमी ने अपना गुनाह कबूल कर लिया है. वह वेदिका का प्रेमी था. दोनों के बीच पैसों को ले कर झगड़ा था, जिस के चलते उस का खून हुआ.

‘‘आप की बेटी बेकुसूर है. अब जल्दी से ठीक हो जाइए और अस्पताल से घर आइए,’’ राज यह बात बता कर वहां से निकल गया.

विदिशा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

‘‘सर, मैं आप का यह उपकार कैसे चुकाऊं?’’

‘‘शादी कर लो मुझ से.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मजाक कर रहा था. मेरा एक साल का बेटा है मिस विदिशा.’’

Hindi Kahaniyan : मुरदा – क्यों लावारिस थी वह लाश

Hindi Kahaniyan : भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘अरे जल्दी बुलाओ… 108 नंबर डायल करो… यह तो मर जाएगा…’

कुछ लोग वहां इकट्ठा हो गए थे. मैं ने अपनी गाड़ी के ब्रेक लगाए और लोगों से भीड़ की वजह पूछी, तो पता चला कि मामला सड़क हादसे का है.

मैं भी गाड़ी से उतर कर भीड़ में घुस कर देखने लगा. तकरीबन 50-55 साल का एक आदमी बुरी तरह घायल सड़क पर पड़ा तड़प रहा था.

लोग कह रहे थे कि वह कोई गरीब आदमी है, जो कुछ दिनों से इस इलाके में घूम रहा था. कोई कार वाला उसे टक्कर मार कर चला गया.

सब लोग इधरउधर की बातें कर रहे थे, पर जमीन पर पड़े उस आदमी के हक में कुछ भी नहीं हो रहा था. न अभी तक कोई एंबुलैस वहां आई थी, न ही पुलिस.

मैं ने फोन कर के पुलिस को बुलाया. हादसा हुए तकरीबन आधा घंटा बीत चुका था और उस आदमी का शरीर बेदम हुआ जा रहा था.

तभी सायरन बजाती एंबुलैंस वहां आ पहुंची और उसे अस्पताल ले जाने का इंतजाम हो गया.

एंबुलैंस में बैठे मुलाजिम ने किसी एक आदमी को उस घायल आदमी के साथ चलने के लिए कहा, लेकिन साथ जाने के लिए कोई तैयार न हुआ.

मुझे भी एक जरूरी मीटिंग में जाना था. उधर मन जज्बाती हुआ जा रहा था. मैं पसोपेश में था. मीटिंग में नहीं जाता, तो मुझे बहुत नुकसान होने वाला था. पर उस बेचारे आदमी के साथ नहीं जाता, तो बड़ा अफसोस रहता.

मैं ने मीटिंग में जाने का फैसला किया ही था कि पुलिस इंस्पैक्टर, जो मेरी ही दी गई खबर पर वहां पहुंचा था, ने मुझ से अस्पताल और थाने तक चलने की गुजारिश की. मुझ से टाला न गया. मैं ने अपनी गाड़ी वहीं खड़ी की और एंबुलैंस में बैठ गया.

अस्पताल पहुंचतेपहुंचते उस आदमी की मौत हो गई थी.

मरने वाले के हुलिएपहनावे से उस के धर्म का पता लगाना मुश्किल था. बढ़ी हुई दाढ़ी… दुबलापतला शरीर… थकाबुझा चेहरा… बस, यही सब उस की पहचान थी. उस की जेब से भी ऐसा कुछ न मिला, जिस से उस का नामपता मालूम हो पाता. अलबत्ता, 20 रुपए का एक गला हुआ सा नोट जरूर था.

अस्पताल ने तो उस आदमी को लेने से ही मना कर दिया. पुलिस भी अपनी जान छुड़ाना चाहती थी.

इंस्पैक्टर ने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘भाईसाहब, पंचनामा तो हम कर देते हैं, पर आप भी जानते हैं कि सरकारी इंतजाम में इस का अंतिम संस्कार करना कितना मुश्किल है. क्यों न आप ही अपने हाथों से यह पुण्य का काम लें और इस का अंतिम संस्कार करा दें?’’

‘‘क्यों नहीं… क्यों नहीं,’’ कहते हुए मैं ने हामी भर दी.

मन ही मन मैं ने इस काम पर आने वाले खर्च का ब्योरा भी तैयार कर लिया था. मेरे हिसाब से इस में कुछेक हजार रुपए का ही खर्चा था, जिसे मैं आसानी से उठा सकता था. सो, मैं इस काम के लिए तैयार हो गया.

इस तरह पुलिस और अस्पताल की जिम्मेदारी मैं ने अपने ही हाथों या कहें कि अपने कंधों पर डाल ली थी.

‘‘अब मुझे क्या करना होगा?’’ मैं ने इंस्पैक्टर से पूछा.

इंस्पैक्टर ने कहा कि मैं इस मुरदा शरीर को श्मशान घाट ले जाऊं. उन्होंने मुझे एक फोन नंबर भी दिया, जिस पर मैं ने बात की और यह सोच कर निश्चिंत हो गया कि अब सब जल्दी ही निबट जाएगा.

मेरे कहने पर ड्राइवर बताए हुए पते पर एंबुलैंस ले गया. श्मशान घाट पहुंचते ही मैं उस के संचालक से मिला और उस लाश के अंतिम संस्कार के लिए कहा.

पंचनामे में उस आदमी का कोई परिचय नहीं था, सिर्फ हुलिए का ही जिक्र था. संचालक ने मुझ से जब यह पूछा कि परची किस नाम से काटूं और कहा कि इस के आगे की जिम्मेदारी आप की होगी, तो मैं डर गया.

मैं ने उसे बताया, ‘‘यह मुरदा लावारिस है. मैं तो बस यह पुण्य का काम कर रहा हूं, ताकि इस की आत्मा को शांति मिल सके…’’

इस से आगे मैं कुछ बोलता, इस से पहले ही पीछे से आवाज आई, ‘‘भाई, यह लाश तो किसी मुसलिम की लगती है. इस की दाढ़ी है… इस का हुलिया कहता है कि यह मुसलिम है… इसे आग में जलाया नहीं जा सकता. बिना धर्म की पहचान किए हम यह काम नहीं करेंगे… आप इसे कब्रिस्तान ले जाइए.’’

यह बात सुनते ही वहां मौजूद तकरीबन सभी लोग एकराय हो गए.

समय बीतता जा रहा था. बहुत देर हो चुकी थी, इसलिए मैं ने भी उसे कब्रिस्तान ले जाना ही मुनासिब समझा.

मैं ने उन से कब्रिस्तान का पता पूछा और एंबुलैंस ड्राइवर से उस बेजान शरीर को नजदीक के कब्रिस्तान ले चलने को कहा.

मैं मन ही मन बहुत पछता रहा था. हर किसी ने इस मुसीबत से अपना पीछा छुड़ाया, फिर मैं ही क्यों यह बला मोल ले बैठा. खैर, अब ओखली में सिर दे ही दिया था, तो मूसल तो झेलना ही था.

कब्रिस्तान पहुंचते ही वहां मौजूद शख्स बोला, ‘‘पहले यह बताइए कि यह कौन सी मुसलिम बिरादरी का है? इस का नाम क्या है?’’

मैं सन्न था. यहां भी बिरादरी?

मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मैं इन सब चीजों से नावाकिफ हूं और मेरा इस मुरदे से कोई वास्ता नहीं, सिवा इस के कि मैं इसे लावारिस नहीं छोड़ना चाहता.’’

पर इन सब बातों का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ. मुझ से पीछा छुड़ाने के अंदाज में उस ने कहा, ‘‘भाईजान, मालूम हो कि यहां एक खास बिरादरी ही दफनाई जाती है, इसलिए पहले इस के बारे में मुकम्मल जानकारी हासिल कीजिए.’’

मैं ने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘यह मुरदा है और इसे मुसलिम बताया गया है. आप मेरी और इस बेजान की मदद कीजिए. आप को सवाब मिलेगा.’’

पर सवाब की चिंता किसे थी? उस आदमी ने लाश दफनाने से साफ मना कर दिया और इस तरह से एक बार फिर मुझे उस लाश को दूसरे कब्रिस्तान में ले जाने को मजबूर कर दिया गया.

इस बीच मुझे समाज की खेमेबाजी का चेहरा साफसाफ नजर आ गया था.

अब मैं दूसरे कब्रिस्तान पहुंच चुका था. वहां एक बुजुर्ग मिले. उन्हें मैं ने पूरा वाकिआ सुनाया. वे सभी बातें बड़े इतमीनान से सुन रहे थे और बस यही वह चीज थी, जो इस घड़ी मेरी हिम्मत बंधा रही थी, वरना रूह तो मेरी अब भी घबराई हुई थी.

जिस का डर था, वही हुआ. सबकुछ सुन कर आखिर में उन्होंने भी यही कहा, ‘‘मैं मजबूर हूं. अगर आदमी गैरमुसलिम हुआ और मेरे हाथों यह सुपुर्द ए खाक हो गया, तो यह मेरे लिए गुनाह होगा, इसलिए पहले मैं इस का शरीर जांच कर यह पुख्ता तो कर लूं कि यह मुसलिम है भी या नहीं.’’

उन्होंने जांच की और असहज हो कर मेरे पास आए. गहरी सांस छोड़ते हुए वे बोले, ‘‘माफी कीजिएगा जनाब, यह तो मुसलिम नहीं है.’’

उन के इन लफ्जों से मेरा सिर चकराने लगा था. एक तरफ रस्मों की कट्टरता पर गुस्सा आ रहा था, तो दूसरी तरफ अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार कर इस पुण्य कमाने की इच्छा पर मैं खूब पछता रहा था.

कितने आडंबर में जीते हैं हम. एक मरे हुए आदमी के धर्म के प्रति भी इतनी कट्टरता? काश, हम आम जिंदगी में ऐसे आदर्शों का लेशमात्र भी अपना पाते.

मैं थकान और गुस्से से भर चुका था. उस मुरदा शरीर के साथ मैं सीधा पुलिस स्टेशन पहुंचा और अपना गुस्सा उस इंस्पैक्टर के सामने उगल दिया, जिस ने मुझे तकरीबन फुसला कर यह जिम्मेदारी सौंपी थी.

इंस्पैक्टर ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘एक ही दिन में थक गए आप? यहां तो यह हर रोज का तमाशा है. आप घर जाइए, इसे हम ही संभालेंगे.’’

मैं हैरान था कि यह खाकी वरदी सब्र और हिम्मत के रेशों से बनी है क्या? मैं माफी मांगते हुए वहां से विदा हुआ.

मैं अगले 2 दिन तक परेशान रहा कि उस लावारिस मुरदे का आखिर क्या हुआ होगा.

यह सोच कर मैं बेचैन होता रहा और तीसरे दिन फिर पुलिस स्टेशन पहुंच गया.

इंस्पैक्टर साहब मुझे देखते ही पहचान गए. शायद वे मेरी हालत और मेरी जरूरत समझ गए थे. उन्होंने अपने सिपाही की तरफ इशारा किया, ‘‘आप इन से जानकारी ले सकते हैं.’’

सिपाही ने बताया कि वह लाश अस्पताल के मुरदाघर में रखवा दी गई थी. उस ने एक कागज भी दिया, जिसे दिखा कर मुझे अस्पताल के मुरदाघर में जाने की इजाजत मिली.

मुरदाघर पहुंचने पर मैं ने देखा कि वहां ऐसी कई लाशें रखी थीं. उन सब के बीच मुझे अपने लाए हुए उस मुरदे को पहचानने में जरा भी समय नहीं लगा.

बदबू से भरे उस धुंधलके में वह मुरदा अभी भी एक मैली सी चादर की ओट में लावारिस ही पड़ा था. सरकारी नियम के हिसाब से उस लाश का उसी दिन दाह संस्कार किया जाना था. मैं तो यह भी पूछने की हिम्मत न कर पाया कि उसे दफनाया जाएगा या जलाया जाएगा.

मैं ठगा सा अपनी गाड़ी की तरफ चला जा रहा था.

Society : पति की पिटाई करने वाली महिलाओं को मीडिया में हाईलाइट करना समाज की मानसिक चाल

Society : इन दिनों ये देखा जा रहा है कि पत्नी द्वारा पति पर अत्याचार किया जा है, कई वायरल वीडियो में पत्नी अपने पति को पिटते हुए और अपशब्द कहते हुए नजर आ रहीं है. हमारे समाज में जब भी कोई महिला अपने पति पर हाथ उठाती है या घरेलू हिंसा का आरोपी बनती है, तो यह खबर तेजी से फैलती है. मीडिया इसे सनसनीखेज बनाकर परोसता है और समाज में यह नैरेटिव गढ़ा जाता है कि महिलाएं अब अत्याचार कर रही हैं. लेकिन क्या यह एक संयोग है, या फिर महिलाओं के खिलाफ एक सोचीसमझी मानसिक चाल?

यह कोई नई बात नहीं है कि महिलाओं को नियंत्रित करने के लिए समाज ने हमेशा नएनए तरीके अपनाए हैं. कभी उन्हें शिक्षा से दूर रखा गया, कभी उन के पहनावे पर सवाल उठाए गए, तो कभी उन के कार्यक्षेत्र को सीमित किया गया. एक बार इतिहास में झांकर देखे तो यह मालूम होता है कि महिलाओं की आवाज को हमेशा ही दबाया गया है. सती प्रथा जैसी चलन ने समाज में महिलाओं के लिए डर का माहौल तैयार किया और उन के पति के मरने के बाद उन से जिंदगी जीने तक का अधिकार छीन लिया था. विधवा औरतों की दूसरी शादी से समाज आज भी उतना ही असहज है जितना आज से सौ साल पहले हुआ करता था. अगर कोई आदमी किसी विधवा औरत से शादी कर ले तो समाज उसे ऐसी हीन भावना से देखता है जैसे कि उस ने कोई अपराध कर दिया हों. आज भी छोटे शहर से लड़कियां बड़े शहरों में अपनी पढ़ाई और नौकरी के लिए कम ही आती है. मांबाप के अन्दर एक अलग ही डर आज भी मौजूद है कि कहीं उनकी बेटी के साथ बड़े शहर में कुछ अप्रिय घटना न घट जाएं. बलात्कार के मामले हर रोज आप को सुनने को मिल ही जाएंगे. इस से कोई शहर अछूता नहीं रह गया है. ऐसे में मांबाप की चिंता एक तरफ तो जायज नजर आती है वहीं दूसरी तरफ एक बेटी के सपने उस के आंखों में ही रह जाते है और कभी भी हकीकत की शक्ल नहीं ले पाते है. अब जब महिलाएं कहीं हिम्मत करके शिक्षा और रोजगार के माध्यम से आत्मनिर्भर हो रही हैं, तो उन्हें ‘दमनकारी’ या ‘हिंसक’ बताने का प्रयास किया जा रहा है. अगर कहीं किसी छोटे कस्बे की कोई लड़की अपनी हक के लिए बगावत कर दें तो समाज उसे डराने से बाज नहीं आता.

सरकार बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की बात तो करती है लेकिन उसी बेटी के एजुकेशन को और महंगा कर देती है. सरकारी विश्विद्यालयों और कालेजों की बात करें इनमें उतनी सीट तो होती है नहीं कि पुरे भारतवर्ष की बेटियां पढ़ लें, ऐसे में कई बेटियों की पढ़ाई या तो छुट जाती है या फिर उन्हें किसी के घर ब्याह दिया जाता है. क्योंकि प्राइवेट कालेजों में मांबाप बेटे को पढ़ाने के लिए प्राथमिकता देते है. प्राइवेट कालेजों में पढ़ाई इतनी महंगी है कि ज्यादातर परिवार अपनी बेटी को पढ़ाने से बचते है. रही बात छोटे शहरों में सरकारी कालेजों की तो यहां अब भी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर शिक्षा विभाग को बहुत काम करना है. ज्यादातर कालजों को हालत खस्ता हो चली है. इस के साथ ही इन कालेजों में शिक्षकों की भी भारी कमी है.

समाज में कुछ अपवादस्वरूप घटनाएं होती हैं, जहां कुछ महिलाएं अपने पति के प्रति हिंसक हो सकती हैं, लेकिन इन्हें पूरे महिला समाज पर थोपना न केवल अनुचित बल्कि दुष्प्रचार भी है. जब कोई पुरुष घरेलू हिंसा करता है, तो इसे ‘निजी मामला’ या ‘सामाजिक समस्या’ कहकर टाल दिया जाता है, लेकिन जब कोई महिला अपने पति के खिलाफ हिंसा करती है, तो इसे बढ़ाचढ़ाकर दिखाया जाता है. आज भी अगर तुलना की जाए तो पुरषों द्वारा महिलाओं पर किए गए हिंसा के मामले ही ज्यादा होंगे. समाज हमेशा से ही पुरुषप्रधान रहा है और आज भी ज्यादा कुछ नहीं बदला है. गिनी चुनी महिलाएं है जो अपना मुकाम हासिल कर पाईं हैं. कार्यस्थलों पर न महिलाओं को पुरुषों के बराबर सम्मान मिलता है और न ही वेतन. खेलों में भी पुरुषों के खेल को ज्यादा तवज्जों दी जाती है. उन्हें मार्केट किया जाता है और अच्छा खासा बिजनेस बनाया जाता है. वहीं महिलाओं के खेल को न दर्शक भारी मात्रा में देखने जाते है और न ही मिडिया इन्हें ज्यादा तरजीह देती है. ऐसे में समानता का अधिकार संविधान में सिमटता नजर आता है.

महिला आयोग तो बना दिया गया है, लेकिन यह आयोग कितनी महिलाओं की आवाज सुन पाता है? अगर आवाजें सुनी जाती तो महिलाओं की सुरक्षा के लिए ठोस कदम उठाए जाते. बेटियां स्वतंत्र होकर अपने सपनों को पंख लगाती और एक नई दुनिया का निर्माण होता. मगर ऐसा होना आज की इस सरकार में तो बहुत मुश्किल लगता है. सरकार और मिडिया दोनों ने वास्तविक मुद्दों से अपना मुंह फेर लिया है और लोगों को आपस में लड़ाकर खुद सत्ता और शक्ति की मलाई खा रही है. ऐसे दौर में भी अगर कोई महिला समाज से लड़कर, हर पड़ाव को पार कर जब इतिहास लिखती है तो सभी नेतागण और मिडिया की टीआरपी नाम की दानव उस महिला के सम्मान में कसीदे पढ़ते नहीं थकते है. वहीं कोई महिला के साथ अगर बलात्कार हो जाए तो इनके मुंह से सिवाय निंदा के और कुछ नहीं निकलता है. ओलंपिक में मेडल लाने वाली बेटियां भी यौन उत्पीड़न और यौन शोषण की शिकार हुईं. वे न्याय के लिए चीखतीं रहीं और एक सांसद संसद में मुस्कुराता रहा और सरकार मौनव्रत रख सब देखती रही. प्रधानमंत्री दुनिया भर के हर विषयों पर भाषण देते है, लेकिन ऐसे मामलों में पता नहीं उन्हें कानों में समस्या हो जाती है, क्योंकि उन के पार्टी में ही कुकर्मी मौजूद है.

महिलाओं से जुड़े कानून और उन की स्थिति

भारत में महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए कई कानून बनाए गए हैं, लेकिन पुरुषवादी मानसिकता वाले समाज में इन्हें भी गलत ढंग से पेश किया जाता है.

1. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005
– यह कानून महिलाओं को उन के पति और ससुराल पक्ष द्वारा की गई हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है. इसमें शारीरिक, मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा को अपराध माना गया है.

2. दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961
– इस कानून का उद्देश्य दहेज प्रथा को खत्म करना था, लेकिन इसे गलत तरीके से पेश कर यह नैरेटिव बनाया गया कि महिलाएं झूठे केस दर्ज कर पुरुषों को फंसाती हैं. जबकि असल में ऐसे मामलों की संख्या बहुत कम होती है.

3. आईपीसी की धारा 498A
– यह कानून महिलाओं को दहेज प्रताड़ना से बचाने के लिए बनाया गया था, लेकिन इसे लेकर भी दुष्प्रचार किया गया कि महिलाएं इस धारा का दुरुपयोग कर रही हैं. जबकि सच यह है कि अधिकांश महिलाएं डर और सामाजिक दबाव के कारण इस की शिकायत तक दर्ज नहीं कर पातीं.

4. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम, 2013
– यह कानून महिलाओं को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा देने के लिए बना था, लेकिन इस के खिलाफ भी यह तर्क दिया जाता है कि पुरुषों को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है.

महिला सशक्तिकरण को दबाने की कोशिश

जब भी कोई महिला किसी क्षेत्र में प्रगति करती है, तो उस के खिलाफ कुछ न कुछ नैरेटिव गढ़ा जाता है. पहले कहा जाता था कि महिलाएं पढ़ लिखकर भी घर ही संभालेंगी, फिर जब वे नौकरी करने लगीं, तो कहा गया कि वे परिवार को समय नहीं देतीं. अब जब महिलाएं अपने अधिकारों की रक्षा के लिए खड़ी हो रही हैं, तो उन्हें हिंसक बताने की कोशिश की जा रही है और ये सब नैरेटिव गढ़ने के पीछे उसी विचारधारा के लोग खड़े है, जिन्हें महिलाओं की तरक्की शुरू से ही रास नहीं आई. ये वही लोग है जिन्होंने हमेशा ही महिलाओं को वस्तु समझा और उन्हें वस्तु की तरह ही इस्तेमाल किया. रेल गाड़ी से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक का सफ़र तय करने वाली माहिलाओं की सफलता इन्हें कभी रास नहीं आई. ऐसे लोग बस एक बिंदु ढूंढते है कि आखिर कैसे माहिलाओं को बदनाम किया जाएं. महिलाएं भले ही अपने क्षेत्र में कितना भी अच्छा काम कर लें, लेकिन समाज के दकियानूसी लोग हाथ से सलाम करने के बजाए उंगली उठाना पसंद करते है. इन्हें दुनिया में महिला की तरक्की पसंद नहीं, ये दुनिया को उन्हीं बेड़ियों में फिर जकड़ना चाहते है जहां सिर्फ मर्दों की हुकूमत चलती थी और औरतों को किसी तरह का कोई अधिकार नहीं था. समाज में पुरुषों द्वारा की जाने वाली हिंसा को सामान्य मान लिया गया है. लेकिन जब महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाती हैं या किसी हिंसा का जवाब देती हैं, तो उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है. यह न केवल पितृसत्तात्मक मानसिकता को दर्शाता है, बल्कि महिला सशक्तिकरण को रोकने का एक षड्यंत्र भी है.

समाज को बदलना होगा, कैसे हो शुरुआत ?

मीडिया को निष्पक्ष रिपोर्टिंग करनी चाहिए – महिलाओं से जुड़े अपराधों को सनसनीखेज बनाने के बजाय, उन्हें उचित संदर्भ में दिखाया जाना चाहिए, क्योंकि मिडिया वह माध्यम है जिसके परोसे गए कंटेंट को लोग सच मान लेते है. ऐसे में मिडिया का निष्पक्ष होना बहुत जरुरी हो जाता है. मिडिया अगर खबर को लेकर थोड़ा भी एंगल चेंज करती है तो इससे उस महिला के मानसिक हालत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है, इससे उबरने में उस महिला को बरसो का समय लग जाता है. निष्पक्ष रिपोर्टिंग न होने की वजह से मिडिया और पुरे देश ने अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत का जिम्मेदार रिया चक्रवर्ती को मान लिया था. अब जब सीबीआई की रिपोर्ट आई है तो एक बड़े चैनल के बड़े पत्रकार ने सोशल मिडिया के माध्यम से सार्वजनिक रूप से रिया चक्रवर्ती से माफी मांगी है.

घरेलू हिंसा के सभी मामलों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए – चाहे हिंसा पुरुष करे या महिला, दोनों ही मामलों में निष्पक्ष जांच होनी चाहिए. हालांकि हमारे समाज में अगर पत्नी अपने पति के खिलाफ घरेलु हिंसा की शिकायत पुलिस को करती है तो समाज उसे अपना दुश्मान मान लेता है उस पर तरहतरह के आरोप लगा कर उसे बद्चलन तक करार देता है. वहीं अगर कोई पति अपनी पत्नी के खिलाफ केस कर देता है तो पुरे समाज को पहली नजर में मामला सच नजर आने लगता है और वे सभी पति को पत्नी पीड़ित कह देते है.

महिला सुरक्षा कानूनों का सम्मान किया जाए – यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं के लिए बने कानूनों की आवश्यकता क्यों पड़ी और समाज में इनका सही तरीके से क्रियान्वयन हो. कानून का अगर सही से क्रियान्वयन न हुआ तो महिलाओं का न्याय से विश्वास उठ जाएगा. ऐसे ही लंबी कानूनी प्रक्रिया और अदालतों की सुनवाई से महिलाओं को और गहरा सदमा लगता है. अदालत में उन के केस पर जिरह कम उन के अंगों के बारे में ज्यादा सवाल किया जाता है. इस तरह के केस में कई महिलाएं अंदर से टूट जाती है और जिंदा लाश बनकर अपनी जिंदगी जीती है.

महिलाओं की छवि धूमिल करने वाली घटनाओं को तूल न दिया जाए – किसी एक दो मामलों के आधार पर पूरे महिला समाज को कलंकित करना बंद किया जाना चाहिए. महिलाओं की छवि को धूमिल कर समाज आपस में बहुत ज्ञान का आदान प्रदान करता है. समाज के सबसे ज्ञानी लोग अपना कीमती समय इस काम के लिए तो जरुर ही निकालते है कि महिला ने किस तरह के वस्त्र पहने है, वह कैसे बात करती है, कैसे हंसती है और उस महिला के कितने पुरुष मित्र है! लेकिन ये बुद्दजीवी लोग अपने आप को कभी ऐसी संज्ञा नहीं देते है और न ही अपने गुंडागर्दी और नालायकी हरकतों से बाज आते है.

महिलाओं के खिलाफ बनाई जा रही हर मानसिक चाल को समझना जरूरी है. कुछ अपवादस्वरूप घटनाओं की आड़ में पूरे महिला समाज को कलंकित करना गलत है. जब समाज में महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं, तो उन्हें दमनकारी या हिंसक बताने के प्रयास किए जा रहे हैं. हमें इस नैरेटिव को तोड़ने और महिलाओं के वास्तविक संघर्ष को समझने की जरूरत है ताकि वे अपने अधिकारों से वंचित न रह जाएं. हम सभी को हमेशा ये याद रखना चाहिए कि महिला ही समाज की असली जन्मदाता है.

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