6 दिनों बाद उस का एक खत मिला, जो होटल के ही एक कर्मचारी ने ला कर दिया. खोलने पर मालूम पड़ा कि लिखावट आसुओ से धुंधली हो गई थी.
‘दी, माफ कर देना. यों आप को बगैर बताए आ जाना मेरी कठोरता नहीं, बल्कि मजबूरी थी. दरअसल, सुबहसुबह (नवीन, मेरे पति) के अचानक गुजर जाने की खबर से मैं इतना आहत हो गई थी कि खुद पर नियंत्रण खो बैठी और आप को बगैर बताए लखनऊ आ गई. आज उन का तीजा है. मैं भले ही उन के साथ नहीं रहती थी मगर साथ में गुजारा हुआ एक बरस आज भी मेरे साथ है जिस में कुछ मीठी यादें भी हैं. उस मिठास की चिपकन इतनी मजबूत होगी, यह आज ही जाना.
‘रिश्ता जुड़ाव का मुहताज नहीं होता, दी. वह तो अलग रह कर भी पनप सकता है. अब न तो मैं उन से नफरत कर सकती और न ही प्रेम का प्रदर्शन. शादी के बाद के कड़वे अनुभव एकाएक मुंह फाड़ कर जिंदा हुए थे, फिर अगले ही पल उन की मृतदेह को देख कर धुंधला भी गए. कमजोर मानी जाने वाली औरत का दिल बड़ा ही कठोर होता है जहां सौ जख्मों का दर्द भी परपीड़ा के एहसासभर से मर जाता है और वह चिरनिद्रा से जागी हुई अबोध सी बन जाती है.
‘नवीन अब नही हैं, उन के दिए हुए सभी आघात भी नहीं रहे, मगर मैं अभी भी हूं, एकदम खाली सी. रिश्तों से डरने लगी हूं. नए रिश्ते बन कर टूटने की चरमराहट कानों में बजने लगी है. क्या टूटना जरूरी होता है, दी. दिमाग में खून के बजाय तमाम सवाल दौड़ रहे हैं. इस बार मिलने पर आप से सारी बातें करूंगी जो मैं ने आप को पहली मुलाकात में नही बताईं. कारण था, मैं खुल कर हंसना चाहती थी. जिंदगी को जीना चाहती थी. नहीं चाहती थी कि उन पर अतीत का ग्रहण लगे. और फिर उन से दूर भाग कर ही तो वहां आई थी.
‘मैं जानती हूं दी, आप की तलहटी सोच मुझे जरूर समझेगी. आप से मेरा रिश्ता अटूट है. जो कभी नहीं टूट सकता. हम दोबारा जरूर मिलेंगे. तब तक के लिए एक अल्पविराम.
‘आप की आलिया.’
काफी देर तक वह खत यों ही मुटठी में दबा रहा. धड़कन जैसे थम सी गई. अब वह मुझ से कब मिलेगी? मिलेगी भी या नहीं? आखिर वह मुझ से मिली ही क्यों? अब अगर न मिली तो? क्यों वह मेरी परवा करे? मैं इतना क्यों सोच रही हूं उस के बारे में? जिंदगीभर आदमी रिश्तों की गोंद से चिपका रहता है और एक ही झटके में अलग हो जाता है. फिर, मैं ने तो एक दिन ही बिताया है बस, इतना आकर्षण? इतना लगाव? यह खिंचाव चुंबकिया था जो विज्ञान के नियमों जैसा काम कर रहा था? इन सवालों ने आंखों को भिगो दिया. टप…टप…टप…कई बूंदें मेरी गोद में आ गिरीं. उन बूंदों में किसी अजनबी रिश्ते की गरमाहट थी जिसे मैं ने भीतर तक महसूस किया.
पूरा दिन उदासी से भीगा रहा. न लिखा गया न पढ़ा. दिनभर में खत को 40 बार पढ़ डाला. हर बार शब्द कुछ और कहते और दिल कुछ और. क्या हर औरत यों ही खाली सुराही की तरह होती है, जब तक भरी है, सब प्यास बुझाते रहे और फूटने पर बाहर फेंक दी जाती है. पर संदेश? वह तो आज भी मुझ से प्यार करता है, मेरा पहला प्यार, जो ताउम्र मेरे साथ रहेगा. भले ही हम शादी नहीं कर पाए. क्या शादी करना ही प्रेम का प्रमाण है? भले ही संदेश ने मुझे अपनी पत्नी का दर्जा नहीं दिया, वह उन की पारिवारिक मजबूरी थी जहां मेरी भावनाओं को स्थान नहीं दिया गया.
संदेश को अपने परिवार के खिलाफ जाने से मैं ने ही रोका था, वरना वह तो अड़ ही गया था कि मेरे बगैर नहीं रह पाएगा. मैं जानती थी, विशाल वृक्ष को भी उस की जड़ों से अलग कर दिया जाए, तो वह ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सकता, जबकि फूलों और खुशबू के बगैर तो जिया जा सकता है. यही सोच कर ही तो मैं ने बेवजह उग आई खरपतवार को उस वृक्ष की जड़ों से दूर उखाड़ कर फेंक दिया और आजीवन स्वतंत्र जीवन जीने का फैसला किया था. लेकिन यह भी सच है कि संदेश के दिल में आज भी सिर्फ मैं हूं. बस, यही एहसास सांसों की उड़ान के लिए काफी है. यह अपराध तो मैं जरूर कर रही हूं. उस की अर्धांगिनी की अपराधी हूं मैं. लेकिन क्या करूं? नींव के बगैर इमारत का खड़े रहना असंभव है. अंधा प्रेम, अंधा कानून…हा हा हा…. भीगी आंखों में न जाने कौन सी हंसी थी जो मैं बेवजह हंस दी.
खत में आलिया ने अपना फोन नंबर नहीं लिखा था. मैं ने हर बार पढ़ते वक्त उसे ढूंढा था. शायद उस के घर में लैडलाइन फोन हो ही न? नहीं, नहीं. उस ने जिक्र किया था फोन का…फिर? फिर क्यों नहीं लिखा उस ने नंबर?
उम्मीदें धरातल की तरफ धंस रही थीं. खालीपन मुंह चिढ़ाने लगा था. मन के बगैर ही उपन्यास पूरा करने बैठ गई. यही तरीका था सूनेपन से छुटकारा पाने का.
सभी लिखे हुए कागजों को फाड़ दिया गया था जो टेबल के नीचे रखे डस्टबिन में भर गए थे. मैं ने सबकुछ यों ही छोड़ कर बालकनी में पड़ी आरामकुरसी का सहारा लिया और आंख बंद कर अधलेटी पड़ी रही. चेतना वापस तब लौटी जब दरवाजे को किसी ने नौक किया. मैं ने वहीं से भीतर आने की सहमति दे दी.
‘मैडम, रिसैप्शन पर आप का फोन होल्ड पर है.’
‘किस का फोन है?’
‘यह तो मैं नही जानता, मैम.’
‘ठीक है, आप चलिए, मैं आती हूं.’
दिल में हलचल लिए मैं सारी सीढ़ियां एक ही सांस में उतर गई. झट से काउंटर पर अलग से रखा रिसीवर उठा लिया.
‘हैलो दी, मैं.’ उधर से आवाज़ आई.
‘आलिया.’ मैं उस की आव़ाज को पहचान उतावली हो गई.
‘दी, जल्दीबाजी में मैं अपना नंबर लिखना भूल गई थी, आप नोट कर लो,’
‘कैसी है आलिया?’ मैं ने उस की सुनने के बजाय सवाल दागा जो मेरी स्थिति को नियंत्रित करने के लिए जरूरी था.
‘आप के बगैर रह पाना असंभव है, दी. बहुतकुछ आप को बताना चाहती हूं.’
‘क्या बात है आलिया, सब ठीक तो है न?’
‘ठीक है भी और नहीं भी, एक बात पूछनी है आप से?’
‘हां, बोलो मैं सुनने के लिए बेताब हूं, आलिया.’
‘क्या मैं शादीशुदा थी और अब विधवा? एक साल नवीन के साथ रह कर 2 साल अलग बिताए थे मैं ने, बिलकुल कुंआरा जीवन. तब वहां नवीन नहीं थे. उन का परिवार भी नहीं. सिर्फ मेरी पढ़ाई और मेरी रिसर्च थी. उस वक्त कोई नहीं था मेरे साथ. नवीन का होना न होना कोई माने नहीं रखता. फिर ये यादें खुरेच कर और विधवा का ठप्पा जड़ कर समाज कौन सी जीत चाहता है?’
‘आलिया, तुम भी तो नवीन को नही भूलीं?’
‘हां, नहीं भूली, यह मेरी मरजी है, दी. लोग कौन होते हैं मेरी भावनाओं की पहरेदारी करने वाले? तब सब कहां थे जब मैं हालात से जूझ रही थी. पूरे 2 बरस किसी को परवा नहीं, न उस के घरवालों को न मेरे घरवालों को. और अब इर्दगिर्द, हर वक्त, मेरी सांसों पर भी जैसे मेरा अधिकार नहीं रहा.’
‘कूल डाउन, आलिया. समाज का अंदरूनी हिस्सा बिलकुल मानव के शरीर जैसा है. अगर चमड़ी हटा दी जाए तो अंदर खून, मांस और लोथड़ो के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.’
‘दी, आप से मिलने को मन तड़प रहा है, कब मिलेंगे हम?’
‘कल मैं वापस जबलपुर लौट जाऊंगी. तुम रस्मोंरिवाजों से निबट कर चाहो तो कुछ दिनों के लिए आ जाना मेरे पास.’
‘ठीक है दी, समय बहुत हुआ, अब फोन रखती हूं बाय.’
बातचीत के दौरान हथेली पर नोट किया गया उस का नंबर मैं ने आते ही डायरी में उतार लिया. हाथों से सामान की पैकिंग जरूर हो रही थी मगर दिल आलिया के आसपास ही था.
सुबह 7 बजे की ट्रेन थी. इस बार अपने शहर की वापसी हर बार से अलग थी. कभी लगता भरी हुई हूं तो कभी लगता खाली सी हूं. आज मैं ही यह गाना गुनगुना उठी थी- ‘अजनबी कौन हो तुम…जब से तुम्हें देखा है…सारी दुनिया मेरी आंखों में सिमट आई है…’
सारा सामान पैक हो चुका था. अब इंतजार था तो स्टेशन जाने का जिस के लिए औटो आने ही वाला था. मैं अपने शहर को रवाना भी हो गई.
जब से इस बार जबलपुर आई थी, कुछ अलग ही थी. हम लगभग रोज ही बात करने लगे थे खाने से ले कर पढ़नेलिखने, सोने तक का पूरा चिटठा. खुशी की बात तो यह थी, इस दौरान वह उदासियों के घेरे से बाहर आने लगी थी, मुसकराने और खिलखिलाने लगी थी. कुछ अपनी चाहतों का जिक्र भी करती, कुछ मेरी भी पूछती. मैं राहत महसूस कर रही थी. फिर तो हमारी फोन पर लंबी मुलाकातें होने लगीं. उस को चहकता देख कर यकीनन मुझे वही संतुष्टि मिलती जैसे एक मां को मिलती.