चिराग : करुणा को क्यों बहू नहीं मान पाए अम्मा और बापूजी

कानपुर रेलवे स्टेशन पर परिवार के सभी लोग मुझ को विदा करने आए थे, मां, पिताजी और तीनों भाई, भाभियां. सब की आंखोें में आंसू थे. पिताजी और मां हमेशा की तरह बेहद उदास थे कि उन की पहली संतान और अकेली पुत्री पता नहीं कब उन से फिर मिलेगी. मुझे इस बार भारत में अकेले ही आना पड़ा. बच्चों की छुट्टियां नहीं थीं. वे तीनों अब कालेज जाने लगे थे. जब स्कूल जाते थे तो उन को बहलाफुसला कर भारत ले आती थी. लेकिन अब वे अपनी मरजी के मालिक थे. हां, इन का आने का काफी मन था परंतु तीनों बच्चों के ऊपर घर छोड़ कर भी तो नहीं आया जा सकता था. इस बार पूरे 3 महीने भारत में रही. 2 महीने कानपुर में मायके में बिताए और 1 महीना ससुराल में अम्मा व बाबूजी के साथ.

मैं सब से गले मिली. ट्रेन चलने में अब कुछ मिनट ही शेष रह गए थे. पिताजी ने कहा, ‘‘बेटी, चढ़ जाओ डब्बे में. पहुंचते ही फोन करना.’’ पता नहीं क्यों मेरा मन टूटने सा लगा. डब्बे के दरवाजे पर जातेजाते कदम वापस मुड़ गए. मैं मां और पिताजी से चिपट गई. गाड़ी चल दी. सब लोग हाथ हिला रहे थे. मेरी आंखें तो बस मां और पिताजी पर ही केंद्रित थीं. कुछ देर में सब ओझल हो गए. डब्बे के शौचालय में जा कर मैं ने मुंह धोया. रोने से आंखें लाल हो गई थीं. वापस आ कर अपनी सीट पर बैठ गई. मेरे सामने 3 यात्री बैठे थे, पतिपत्नी और उन का 10-11 वर्षीय बेटा. लड़का और उस के पिता खिड़की वाली सीटों पर विराजमान थे. हम दोनों महिलाएं आमनेसामने थीं, अपनीअपनी दुनिया में खोई हुईं.

‘‘आप दिल्ली में रहती हैं क्या?’’ उस महिला ने पूछा.

‘‘नहीं, लंदन में रहती हूं. दिल्ली में मेरी ससुराल है. यहां पीहर में इतने सारे लोग हैं, इसलिए बहुत अच्छा लगता है. दिल्ली में सासससुर के साथ रहने का मन तो बहुत करता है पर वक्त काटे नहीं कटता. वहां बस खरीदारी में ही समय खराब करती रहती हूं,’’ अब मेरा मन कुछ हलका हो गया था, ‘‘आप मुझे आशा कह कर पुकार सकती हैं,’’ मैं ने अपना नाम भी बता दिया.

‘‘मेरा नाम करुणा है और यह है हमारा बेटा राकेश, और ये हैं मेरे पति सोमेश्वर.’’ करुणा के पति ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया. राकेश अपनी मां के कहने पर नमस्ते के बजाय केवल मुसकरा दिया. लेकिन सोमेश्वर ने नमस्ते के बाद उस से आगे बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. मैं ने अनुमान लगाया कि शायद वे दक्षिण के थे. करुणा और मैं तो हिंदी में ही बातें कर रही थीं. शायद सोमेश्वर को हिंदी में बातें करने में परेशानी महसूस होती थी, इसलिए वे चुप ही रहे. ‘‘गाड़ी दिल्ली कब तक पहुंचेगी?’’ मैं ने पूछा, ‘‘वैसे पहुंचने का समय तो दोपहर के 3 बजे का है. अभी तक तो समय पर चल रही है शायद?’’ ‘‘यह गाड़ी आगरा के बाद मालगाड़ी हो जाती है. वहां से इस का कोई भरोसा नहीं. हम तो साल में 3-4 बार दिल्ली और कानपुर के बीच आतेजाते हैं, इसलिए इस गाड़ी की नसनस से वाकिफ हैं,’’ करुणा बोली, ‘‘शायद 5 बजे तक पहुंच जाएगी. आप दिल्ली में कहां जाएंगी?’’

‘‘करोलबाग,’’ मैं बोली.

‘‘आप को स्टेशन पर कोई लेने आएगा?’’ करुणा ने पूछा, ‘‘हमें तो टैक्सी करनी पड़ेगी, हम छोड़ आएंगे आप को करोलबाग, अगर कोई लेने नहीं आया तो…’’ ‘‘मुझे लेने कौन आएगा. बेचारे सासससुर के बस का यह सब कहां है,’’ मैं ने संक्षिप्त उत्तर दिया. सोमेश्वर ने अंगरेजी में कहा, ‘‘आप फिक्र न कीजिए, हम छोड़ आएंगे.’’

‘‘हम तो हौजखास में रहते हैं. कभी समय मिला तो आप से मिलने आऊंगी,’’ करुणा बोली. न जाने क्यों वह मुझे बहुत ही अच्छी लगी. ऐसे लगा जैसे बिलकुल अपने घर की ही सदस्य हो. ‘‘हांहां, जरूर आ जाना…परसों तो इंदू भी आ जाएगी. हम तीनों मिल कर खरीदारी करेंगी.’’ करुणा की आंखों में प्रश्न तैरता देख कर मैं ने कहा, ‘‘इंदू मेरी ननद है. मेरे पति से छोटी है. कलकत्ता में रहती है.’’

‘‘कहीं इंदू के पति का नाम वीरेश तो नहीं?’’ करुणा जल्दी से बोली.

‘‘हांहां, वही…तुम कैसे जानती हो उसे?’’ मैं उत्साह से बोली. अचानक शायद कोई धूल का कण सोमेश्वर की आंखों में आ गया. उस ने तुरंत चश्मा उतार लिया और आंख रगड़ने लगा.

करुणा बोली, ‘‘आप से कितनी बार कहा है कि खिड़की के पास वाली सीट पर मत बैठिए. खुद बैठते हैं, साथ ही राकेश को भी बिठाते हैं. अब जाइए, जा कर आंखों में पानी के छींटे डालिए.’’ सोमेश्वर सीट से उठ खड़ा हुआ. उस के जाने के बाद करुणा ने राकेश को पति की सीट पर बैठने को कहा और खुद मेरे पास आ कर बैठ गई.

‘‘आशाजी, आप मुझे नहीं पहचानतीं, मैं वही करुणा हूं जिस की शादी हरीश से हुई थी.’’

‘‘अरे, तुम हो करुणा?’’ मेरे मुंह से चीख सी निकल गई. करुणा ने मेरी ओर देखा फिर राकेश को देखा. वह अपने में मस्त बाहर खिड़की के नजारे देख रहा था. करुणा का नाम लेना भी हमारे घर में मना था. हम सब के लिए तो वह मर गई थी. मेरे देवर से उस की शादी हुई थी, 12 वर्ष पहले. शादी अचानक ही तय हो गई थी. हरीश 2 वर्ष के लिए रूस जा रहा था, प्रशिक्षण के लिए. साथ में पत्नी को ले जाने का भी खर्चा मिल रहा था.अम्मा और बाबूजी तो हमारे आए बिना शादी करने के पक्ष में नहीं थे. इन का औ?परेशन हुआ था, डाक्टरों ने मना कर दिया था यात्रा पर जाने के लिए, इसलिए हम में से तो कोई आ नहीं पाया था. शादी के कुछ दिनों बाद हरीश और करुणा रूस चले गए. लेकिन 2 महीने के भीतर ही हरीश की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. मेरे पति लंदन से मास्को गए थे हरीश का अंतिम संस्कार करने. बेचारी करुणा भी भारत लौट गई. दुलहन के रूप में भारत से विदा हुई थी और विधवा के रूप में लौटी थी.

अम्मा और बाबूजी के ऊपर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा था. उन का बेटा भरी जवानी में ही उन को छोड़ कर चला गया था. वे करुणा को अपने पास रखना चाहते थे, लेकिन वह नागपुर अपने मातापिता के पास चली गई. कभीकभार करुणा के पिता ही बाबूजी को पत्र लिख दिया करते थे. अम्मा और बाबूजी की खुशी की सीमा नहीं रही, जब उन्हें पता चला कि उन के बेटे की संतान करुणा की कोख में पनप रही है. कुछ महीनों बाद करुणा के पिता ने पत्र द्वारा बाबूजी को उन के पोते के जन्म की सूचना दी. अम्मा और बाबूजी तो खुशी से पागल ही हो गए. दोनों भागेभागे नागपुर गए, अपने पोते को देखने. लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि करुणा ने बेटे को जन्म अपने पीहर में नहीं बल्कि अपने दूसरे पति के यहां बंबई में दिया था. दोनों तुरंत नागपुर से लौट आए. बाद में करुणा के 1 या 2 पत्र भी आए, परंतु अम्मा और बाबूजी ने हमेशाहमेशा के लिए उस से रिश्ता तोड़ लिया. हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी करुणा ने दूसरी शादी कर ली, इस बात के लिए वे उसे क्षमा नहीं कर पाए. जब उन्हें इस बात का पता चला कि करुणा का दूसरा पति उस समय मास्को में ही था, जब हरीश और करुणा वहां थे तो अम्माबाबूजी को यह शक होने लगा कि क्या पता करुणा के पहले से ही कुछ नाजायज ताल्लुकात रहे हों. क्या पता यह संतान हरीश की है या करुणा के दूसरे पति की? कहीं जायदाद में अपने बेटे को हिस्सा दिलाने के खयाल से इस संतान को हरीश की कह कर ठगने तो नहीं जा रही थी करुणा? ‘‘राकेश एकदम हरीश पर गया है. एक बार अम्माबाबूजी इस को देख लें तो सबकुछ भूल जाएंगे,’’ मुझ से रहा न गया. ‘‘भाभीजी, आप ने मेरे मुंह की बात कह दी. यह बात कहने को मैं बरसों से तरस रही थी लेकिन किस से कहती. बेचारा सोमेश्वर तो राकेश को ही अपना बेटा मानता है. शायद हरीश भी कभी राकेश से इतना प्यार नहीं कर पाता जितना सोमेश्वर करता है.’’

करुणा ने बात बीच में ही रोक दी. सोमेश्वर लौट आया था. उस के बैठने से पहले ही राकेश उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलिए पिताजी, भोजनकक्ष में. कुछ खाने को बड़ा मन कर रहा है.’’ सोमेश्वर का मन तो नहीं था, परंतु करुणा द्वारा इशारा करने पर वह चला गया. उन के जाने पर करुणा ने चैन की सांस ली. हम दोनों चुप थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करें. ‘‘करुणा, अम्मा और बाबूजी को बहुत बुरा लगा था कि तुम ने हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी दूसरी शादी कर ली,’’ मैं ने चुप्पी तोड़ने के विचार से कहा. शायद करुणा को इस प्रश्न का एहसास था. वह धीरे से बोली, ‘‘क्या करती भाभीजी, सोमेश्वर हमारे फ्लैट के पास ही रहता था. वह उन दिनों बंबई की आईआईटी में वापस जाने की तैयारी कर रहा था. उस ने हरीश की काफी मदद की थी. हर शनिवार को वह हमारे ही यहां शाम का खाना खाने आ जाया करता था. जिस कार दुर्घटना में हरीश की मृत्यु हुई थी, उस में सोमेश्वर भी सवार था. संयोग से यह बच गया.

‘‘भाई साहब तो हरीश का अंतिम संस्कार कर के तुरंत लंदन वापस चले गए थे परंतु मैं वहां का सब काम निबटा कर एक हफ्ते बाद ही आ पाई थी. सोमेश्वर भी उसी हवाई उड़ान से मास्को से दिल्ली आया था. वह अम्मा और बाबूजी का दिल्ली का पता और हमारे घर का नागपुर का पता मुझ से ले गया,’’ कहतेकहते करुणा चुप हो गई. ‘‘तुम दिल्ली भी केवल एक हफ्ता ही रहीं और नागपुर चली गईं?’’ मैं ने पूछा.‘‘क्या करती भाभी, सोमेश्वर दिल्ली से सीधा नागपुर गया था, मेरे मातापिता से मिलने. उस से मिलने के बाद उन्होंने तुरंत मुझे नागपुर बुला भेजा, भैया को भेज कर. फिर जल्दी ही सोमेश्वर से मेरी सिविल मैरिज हो गई,’’ करुणा की आंखों में आंसू भर आए थे. ‘‘तुम ने सोमेश्वर से शादी कर के अच्छा ही किया. राकेश को पिता मिल गया और तुम्हें पति का प्यार. तुम्हारे कोई और बालबच्चा नहीं हुआ?’’

‘‘भाभीजी, राकेश के बाद हमारे जीवन में अब कोई संतान नहीं होने वाली. कानूनी तौर पर राकेश सोमेश्वर का ही बेटा है. सोमेश्वर ने तो मुझ को पहले ही बता दिया था कि युवावस्था में एक दुर्घटना के कारण वह संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो गया था. मेरे मातापिता ने यही सोचा कि इस समय उचितअनुचित का सोच कर अगर समय गंवाया तो चाहे उन की बेटी को दूसरा पति मिल जाएगा, परंतु उन के नवासे को पिता नहीं मिलने वाला. मैं शादी के बाद बंबई में रहने लगी. जब राकेश हुआ तो किसी को तनिक भी संदेह नहीं हुआ.’’ वर्षों से करुणा के बारे में हम लोगों ने क्याक्या बातें सोच रखी थीं. अम्मा और बाबूजी तो उस का नाम आते ही क्रोध से कांपने लगते थे. परंतु अब सब बातें साफ हो गई थीं. बेचारी शादी के बाद कितनी जल्दी विधवा हो गई थी. पेट में बच्चा था. फिर एक सहारा नजर आया, जो उस की जीवननैया को दुनिया के थपेड़ों से बचाना चाहता था. ऐसे में कैसे उस सहारे को छोड़ देती? अपने भविष्य को, अपनी होने वाली संतान के भविष्य को किस के भरोसे छोड़ देती? मैं ने करुणा के सिर पर हाथ रख दिया. वह मेरी ओर स्नेह से देखने लगी. अचानक वह झुकी और मेरे पांवों को हाथ लगाने लगी, ‘‘आप तो रिश्ते में मेरी जेठानी लगती हैं. आप के पांव छूने का अवसर फिर पता नहीं कभी मिलेगा या नहीं.’’

मैं ने उस को अपने पांवों को छूने दिया. चाहे अम्मा और बाबूजी ने करुणा को अपनी पुत्रवधू के रूप में अस्वीकार कर दिया था, परंतु मुझे अब वह अपनी देवरानी ही लगी. कुछ ही देर में सोमेश्वर और राकेश लौट आए. भोजनकक्ष से काफी सारा खाने का सामान लाए थे. हम सभी मिलजुल कर खाने लगे. दिल्ली जंक्शन आ गया. सामान उठाने के लिए 2 कुली किए गए. सोमेश्वर ने मुझे कुली को पैसे देने नहीं दिए. टैक्सी में सोमेश्वर आगे ड्राइवर के साथ बैठा था. मैं, करुणा और राकेश पीछे बैठे थे. कुछ ही देर बाद हमारा घर आ गया. सोमेश्वर डिक्की से मेरा सामान निकालने लगा. ‘‘बेटा, ताईजी को नमस्ते करो, पांव छुओ इन के,’’ करुणा ने कहा तो राकेश ने आज्ञाकारी पुत्र की तरह पहले हाथ जोड़े फिर मेरे पांव छुए. मैं ने उन दोनों को सीने से लगा लिया. सोमेश्वर ने मेरा सामान उठा कर बरामदे में रख कर घंटी बजाई. मैं ने करुणा और राकेश से विदा ली. चलतेचलते मैं ने 100 रुपए का 1 नोट राकेश की जेब में डाल दिया. अम्मा और बाबूजी तो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे, तुरंत दरवाजा खोल दिया. मेरे साथ सोमेश्वर को देख कर तनिक चौंके, परंतु मैं ने कह दिया, ‘‘अम्माजी, ये अपनी टैक्सी में मुझे साथ लाए थे, कार में इन की पत्नी और बेटा भी हैं.’’

‘‘चाय वगैरा पी कर जाइएगा,’’ बाबूजी ने आग्रह किया.

‘‘नहीं, अब चलता हूं,’’ सोमेश्वर ने हाथ जोड़ दिए. अम्मा और बाबूजी मुझ को घेर कर बैठ गए. वे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे, सफर के बारे में, मेरे पीहर के बारे में परंतु मेरा मन तो कहीं और भटक रहा था. लेकिन उन से क्या कहती.

मैं कहना तो चाहती थी कि आप यह सब मुझ से क्यों पूछ रहे हैं? अगर कुछ पूछना ही चाहते हैं तो पूछिए कि वह आदमी कौन था, जो यहां तक मुझे टैक्सी में छोड़ गया था? टैक्सी में बैठी उस की पत्नी और पुत्र कौन थे? शायद मैं साहस कर के उन को बता भी देती कि उन के खानदान का एक चिराग कुछ क्षण पहले उन के घर की देहरी तक आ कर लौट गया है. वे दोनों रात के अंधेरे में उसे नहीं देख पाए थे. शायद देख पाते तो उस में उन्हें अपने दिवंगत पुत्र की छवि नजर आए बिना नहीं रहती.

परिवार: क्या हुआ था सत्यदेव के साथ

कहानी- संजय दुबे

सत्यदेव का परिवार इन दिनों सफलता की ऊंचाइयां छू रहा था. बड़ा बेटा लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर, मझला बेटा बिल्डर और छोटा बेटा अपने बड़े भाइयों का सहयोगी. लगातार पैसे की आवक से सत्यदेव के परिवार के लोगों के रहनसहन में भी आश्चर्यजनक ढंग से बदलाव आया था. केवल 3 साल पहले सत्यदेव का परिवार सामान्य खातापीता परिवार था. बड़ा बेटा समीर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगा था तो मझला बेटा सुजय, एक बिल्डर के यहां सुपरवाइजर बन कर ढाई हजार रुपये की नौकरी करता था. छोटा बेटा संदीप कालिज की पढ़ाई पूरी करने में लगा था. सत्यदेव सरकारी विभाग में अकाउंटेंट के पद से रिटायर हुए थे. उन्होंने अपने जीवन के पूरे सेवाकाल में कभी रिश्वत नहीं ली थी इस कारण उन्हें अपनी ईमानदारी पर गुमान था.

2 साल के अंतराल में समीर लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर बन गया तो सुजय बैंक वालों की मदद से कालोनाइजर बन गया. उधर संदीप का बतौर कांटे्रक्टर पंजीयन करा कर समीर उस के नाम से अपने विभाग में ठेके ले कर भ्रष्टाचार से रकम बटोरने लगा. उधर कालोनाइजिंग के बाजार में एडवांस बुकिंग कराने वालों में सुजय ने अपनी इमेज बनाई तो घर में पैसा बरसने लगा.

पैसा आया तो दिखा भी. पहले घर फिर कार और फिर ऐशोआराम के साधन जुटने लगे. सत्यदेव अपने परिवार की समाज में बढ़ती प्रतिष्ठा को देख फूले नहीं समाते. दोनों बेटों, समीर व सुजय का विवाह भी उन्होंने हैसियत वाले परिवारों में किया था. संयुक्त परिवार में 2 बहुओं के आने के बावजूद एकता बनी रही तो कारण दोनों भाइयों की समझबूझ थी.

शाम के समय सत्यदेव पार्क मेें अपने दोस्तों के साथ बैठे राजनीतिक चर्चा में मशगूल थे तभी बद्रीप्रसाद ने कहा, ‘‘आजकल आप के बेटों की चर्चा बहुत हो रही है सत्यदेवजी, आप को पता है कि नहीं?’’

सत्यदेव ने तुनक कर कहा, ‘‘चलो, मुझे पता नहीं तो अब आप ही बता दो.’’

‘‘अरे, आजकल आप के बड़े बेटे द्वारा घटिया सामग्री से बनवाई सड़क की खूब चर्चा है. लोक निर्माण मंत्री दौरे पर आए थे तो जांच के आदेश दे कर गए हैं.’’

‘‘मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता है,’’ सत्यदेव ने नाराजगी जाहिर की, ‘‘वह मेहनती है इसलिए लोग उस से जलते हैं.’’

‘‘सत्यदेवजी, बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभान अल्लाह,’’ ओंकारनाथ बोले, ‘‘कल कुछ लोग कलेक्टर के पास आप के मझले बेटे की शिकायत ले कर गए थे. जनाब ने एक प्लाट को 2 लोगों को बेच दिया है.’’

‘‘ओंकारनाथजी, मेरे परिवार की तरक्की लोगों के गले से नीचे नहीं उतर रही है, इस कारण कुछ लोग फुजूल की बातें करते रहते हैं,’’ यह कहते हुए सत्यदेव पैर पटकते घर की ओर चल पड़े.

रात के 9 बज रहे थे. शाम को हुई बातों से सत्यदेव का मन खिन्न था. बड़ा बेटा समीर मोटरसाइकिल से आया और उसे खड़ा कर घर के भीतर जाने लगा तो सत्यदेव बोले, ‘‘बेटा, 5 मिनट तुम से अकेले में बात करनी है.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. कहिए, बाबूजी.’’

‘‘बेटा, आज पार्क में बद्रीप्रसाद बता रहा था कि तुम ने जो सड़क बनवाई है उस की जांच तुम्हारे विभाग के मंत्री ने की है.’’

‘‘यह सच है बाबूजी. मैं सर्किट हाउस से ही लौट कर आ रहा हूं. मुझे मैनेज करना पडे़गा. मैं सर्किट हाउस फिर जा रहा हूं क्योंकि रात 12 बजे मंत्रीजी ने मिलने के लिए कहा है.’’

‘‘इतनी रात को क्यों बुलाया है?’’

‘‘बाबूजी, आप परेशान मत हों. अच्छा, मैं चलता हूं.’’

सत्यदेव फिर घूमने लगे. थोड़ी देर बाद सुजय कार से घर पहुंचा और तेजी से अंदर जाने लगा.

सत्यदेव, सुजय के पीछेपीछे अंदर आए तो देखा वह कहीं फ ोन कर रहा था.

‘‘हैलो कलेक्टर साहब…सर, आप से मिलना था. जी सर…जी सर….थैंक्यू वेरीमच.’’

सुजय ने फोन रखा तो सामने सत्यदेव खड़े थे.

‘‘बेटा, बिल्डिंग के काम में कलेक्टर क्या करते हैं?’’

‘‘बाबूजी, कुछ लोग कलेक्टर के पास मेरी शिकायत ले कर गए थे…’’

सत्यदेव ने बेटे की बात को बीच में काट कर कहा, ‘‘एक जमीन को 2 लोगों के नाम रजिस्ट्री की बात को ले कर?’’

‘‘हां, पर आप को कैसे पता चला, बाबूजी? खैर, मैं मैनेज कर लूंगा,’’ कह कर सुजय अंदर चला गया.

‘क्या बात है, समीर भी कहता है मंत्री को मैनेज कर लेगा. सुजय भी कलेक्टर को मैनेज कर लेगा,’ सत्यदेव मन ही मन विचार करने लगे.

थोड़ी देर बाद सत्यदेव ने देखा कि समीर एक छोटा ब्रीफकेस ले कर निकला. 10 मिनट बाद सुजय भी एक ब्रीफकेस ले कर जाते दिखा.

‘लगता है, बद्रीप्रसाद और ओंकार नाथ ठीक बोल रहे थे,’ सत्यदेव मन ही मन बुदबुदाए.

रात के 3 बज रहे थे. सत्यदेव के कान मोटरसाइकिल और कार की आवाज सुनने के लिए बेचैन थे. अचानक जीप रुकने की आवाज आई. उन्होंने लपक कर दरवाजा खोला. सामने पुलिस इंस्पेक्टर और 4 सिपाहियों के साथ सुजय खड़ा था.

‘‘बेटा सुजय, यह सब क्या है?’’

‘‘मैं बताता हूं आप को,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘जनाब ने एक एडिशनल कलेक्टर को प्लाट बेचा था. एक सप्ताह पहले वह अपना प्लाट देखने गए तो वहां किसी और का मकान बन रहा था. उन्होंने अपने कलेक्टर मित्र को खबर कर दी. यह जनाब कलेक्टर को रिश्वत देने चले थे. रंगेहाथ पकड़े गए हैं. यह रहा सर्च वारंट और हमें अब आप के घर की तलाशी लेनी है,’’ कहते हुए इंस्पेक्टर और चारों सिपाही घर में घुस कर तलाशी लेने लगे.

‘‘बाबूजी, मुझे बचा लीजिए.’’

‘‘सुजय, यह गलत काम करने की जरूरत क्या थी?’’

‘‘बाबूजी, गलती तो हो गई है. आप समीर को बुलाइए, उस की बहुत जानपहचान है. वह सबकुछ कर सकता है.’’

सत्यदेव ने समीर को फोन कर शीघ्र घर आने को कहा.

थोड़ी ही देर में समीर घर पहुंच गया. सत्यदेव ने पुलिस के घर में होने की जानकारी दी.

‘‘बाबूजी, इंस्पेक्टर साहब कहां हैं?’’

‘‘अंदर हैं बेटा.’’

समीर अंदर दाखिल हुआ. इंस्पेक्टर को देख कर बोला, ‘‘एक्सक्यूज मी, सर, मैं समीर, सुजय का बड़ा भाई. आप से कुछ कहना है.’’

‘‘क्या घूस देना चाहते हो? एक भाई तो इसी में पकड़ा गया है. चले थे कलेक्टर को रिश्वत देने.’’

‘‘सर, जमाना ही ऐसा है. हम गलती मान रहे हैं. आप कोई रास्ता तो बताइए.’’

‘‘काफी समझदार हो. देखो दोस्त, सर्च में कमी कर देंगे. उस का अलग लेंगे. आप के भाई को जमानत कोर्ट से मिलेगी. इस काम के लिए 2 पेटी लगेंगी.’’

‘‘2 मिनट रुकिए.’’

‘‘सुनो मिस्टर, 2 मिनट से ज्यादा नहीं, समझे,’’ इंस्पेक्टर ने अकड़ दिखाई.

समीर ने कमरे से बाहर आ कर सुजय को बताया, ‘‘सुजय, इंस्पेक्टर 2 पेटी जांच न करने की मांग रहा है. बाकी तुम्हारी जमानत कोर्ट से होगी.’’

‘‘मेरे को बचाने के लिए भी पूछ. रास्ता बता दे तो एक पेटी और दे देंगे.’’

सत्यदेव दोनों बेटों की बात सुन रहे थे. वह भयभीत और सशंकित थे. तभी दोनों बहुएं और बच्चे भी उठ कर ड्राइंगरूम में आ गए. तभी समीर उठ कर अंदर गया.

‘‘सर, पैसा तैयार है, कहां लेंगे?’’

‘‘कल बताऊंगा. और हां, सुनो, इस घर के कागजात और पैसे आधे घंटे में कहीं और भेज दो, समझे.’’

‘‘सर, सुजय मेरा छोटा भाई है. उस को गिरफ्तार नहीं करते तो…’’

‘‘देखो भाई, उस के खिलाफ तो कलेक्टर गवाह है. उसे जमानत कोर्ट से ही मिलेगी.’’

‘‘सर, बहुत बदनामी होगी. कैसे भी कुछ कीजिए.’’

‘‘आप बिलकुल भोले हैं. आप के भाई को अब 10-20 लाख रुपए भी छुड़ा नहीं सकते.’’

‘‘हां, एक रास्ता मैं बताता हूं. जमानत कराने के लिए जज को मैनेज कर लो. रामधन गुप्ता एडवोकेट हैं. सुबह बात कर लो. सुनो, घर से बाहर के 2 लोगों को बुलाइए, पंचनामा बनाना है.’’

कागजी काररवाई कर पुलिस सुजय को ले कर चली गई. समीर भी उन के साथ चला गया.

सत्यदेव धम्म से सोफे पर बैठ गए. आंखें जो अब तक नम थीं वे बह निकलीं. आंखों के सामने लाचार सुजय का चेहरा घूम गया.

रश्मि, सत्यदेव के बाजू में सिसक रही थी. बड़ी बहू उसे ढाढ़स बंधा रही थी.

सत्यदेव की समझ में नहीं आ रहा था कि कल सुबह किस मुंह से लोगों के सामने जाएंगे. सुबह होते ही यह बात सब जगह फैलेगी. महल्ले के लोग मजे लेने आएंगे.

‘‘रश्मि बेटा और सुजाता, तुम दोनों बच्चों को ले कर सुबह होने से पहले अपनेअपने मायके चली जाओ. जैसे ही सबकुछ ठीक होगा वापस आ जाना.’’

‘‘बाबूजी, इस मुसीबत में मैं मायके चली जाऊं, खबर तो वहां भी पहुंचेगी,’’ रश्मि ने परेशानी के साथ कहा, ‘‘बाबूजी, जब पैसा आ रहा था तो सब को अच्छा लग रहा था, अब परेशानी आई है तो यहीं रह कर झेलेंगे.’’

‘‘ठीक है, जाओ, बच्चों को सुला दो. हां, इन्हें कल स्कूल मत भेजना, समझी.’’

सुबह की पहली किरन फूटी तो पैर में चप्पल डाल कर सत्यदेव, सोमनाथ वकील के यहां चल पड़े. दरवाजे पर पहुंच कर कालबेल दबाई तो अंदर से आवाज आई, ‘‘ठहरो, भगोना ले कर आ रही हूं.’’

दरवाजा खुला. सामने सत्यदेव को खड़ा देख कर मिसेज सोमनाथ झेंप गईं.

‘‘दरअसल, भाई साहब, दूध वाला इसी समय आता है. माफ करेंगे, मैं इन को बुलाती हूं.’’

अंदर से अधिवक्ता सोमनाथ बाहर आए.

‘‘अरे, सत्यदेव, इतनी सुबहसुबह. क्या कोई खास बात है?’’

‘‘हां, आफिस खोलो. वहीं बताता हूं.’’

सोमनाथ ने आफिस खोला. सत्यदेव आफिस के सोफे पर धम्म से बैठ गए. उन के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आईं.

‘‘क्या बात है, सत्यदेव, बहुत घबराए हुए हो?’’

‘‘सोमनाथ, मेरे बेटे सुजय को बचा लो. मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं,’’ इतना कह कर सत्यदेव ने एक सांस में रात की सारी बातें बता दीं. फिर बोले, ‘‘सोमनाथ, इंस्पेक्टर बता रहा था कि कोई रामधन गुप्ता वकील हैं, वही जज को मैनेज कर सकते हैं.’’

‘‘सत्यदेव, यह सब फालतू की बात है. फिर भी अगर वह मैनेज कर लेता है तो अच्छा ही है. हां, उस से अगर काम नहीं होता है तो जेल में डाक्टर किशोर मेरा भतीजा है. उसे कह कर सुजय को अस्पताल में 2 दिन के लिए शिफ्ट कराने की कोशिश करेंगे, और सोमवार को तो तुम्हारे बेटे की जमानत हो ही जाएगी. ऐसा मैं कर सकता हूं. तुम रामधन गुप्ता के यहां जाओ.’’

‘‘कहां रहते हैं वह?’’

‘‘शंकर टावर के फ्लैट नं. 117 में.’’

‘‘ठीक है. मैं वहां काम होने के बाद तुम्हें फोन करता हूं.’’

सत्यदेव आटो से जब रामधन के घर पहुंचे तो वहां की भीड़ देख कर वह हतप्रभ रह गए. आफिस में घुसने लगे तो सामने बैठे व्यक्ति ने उन्हें रोक कर पूछ लिया, ‘‘क्या अपाइंटमेंट है?’’

‘‘नहीं, मुझे इंस्पेक्टर घोरपड़े ने भेजा है.’’

‘‘अरे, तब तो आप खास व्यक्तियों में हैं. आप बस, मेरे पीछेपीछे चले आइए.’’

सत्यदेव उस आदमी के साथ पिछले दरवाजे से एक सुसज्जित ड्राइंगरूम में दाखिल हुए.

‘‘आप बैठिए. रामधनजी आधे घंटे में यहां आएंगे.’’

सत्यदेव कुरसी पर बैठ गए. आंखें बंद कीं तो रात की घटनाएं किसी चलचित्र की तरह उन की आंखों के सामने घूमती रहीं और उन से भयभीत हो कर उन्होंने जब आंखें खोलीं तो सामने काले कपड़ों में कोई वकील खड़ा था.

‘‘आप मिस्टर सत्यदेवजी. हैलो, मैं रामधन गुप्ता. इंस्पेक्टर घोरपड़े का फोन मेरे पास आया था. देखिए, जमानत के लिए 1 लाख रुपए एडवांस लेता हूं. लोवर कोर्ट से साढ़े 12 बजे जमानत रद्द होगी. सी.जी.एम. के यहां प्रार्थनापत्र लगाएंगे और शाम 7 बजे तक आप का बेटा आप के घर. मंजूर है?’’

‘‘काम नहीं हुआ तो?’’ सत्यदेव बोले.

‘‘रुपए 25 हजार काट कर रकम वापस, क्योंकि कभीकभी जज का मूड ठीक नहीं होता.’’

सत्यदेव ने तुरंत समीर को फोन लगाया.

‘‘हैलो समीर, मैं बाबूजी.’’

‘‘बाबूजी, आप हैं कहां? मैं कब से आप को खोज रहा हूं.’’

‘‘बेटा, मैं रामधन वकील साहब के यहां से बोल रहा हूं. इंस्पेक्टर साहब ने इन से मिलने के लिए कहा था न. बेटा, एक लाख रुपए एडवांस मांग रहे हैं. यदि काम नहीं हुआ तो 25 हजार रुपए काट कर 75 हजार रुपए वापस करेंगे.’’

‘‘बाबूजी, आप उन को बताइए कि मैं रकम ले कर आ रहा हूं,’’ समीर ने कहा और फोन कट गया.

सत्यदेव ने रामधन वकील को बताया कि मेरा बेटा रकम ले कर आ रहा है.

‘‘ठीक है, तो आप वकालतनामे पर दस्तखत कर दीजिए. आप के बेटे के आने तक पेपर तैयार हो जाएंगे. आप के लिए चाय भेजता हूं. परेशान मत होइए.’’

सत्यदेव कमरे में अकेले रह गए.

क्या जमाना आ गया है. यहां तो न्याय भी बिकने के लिए तैयार है. पैसा पानी हो गया है. इंस्पेक्टर 2 लाख, जज 1 लाख.

समीर ब्रीफकेस ले कर अंदर दाखिल हुआ तो सत्यदेव को खामोश आंखें बंद किए कुरसी पर बैठा पाया. सामने रखी चाय ठंडी हो गई थी.

तभी रामधन भी कमरे में आ गए.

‘‘सर, यह 1 लाख रुपए हैं.’’

‘‘ठीक है, आप 11 बजे कोर्ट आ जाइएगा. और सुनिए, बाबूजी को मत लाइएगा.’’

‘‘वकील साहब, मेरा बेटा मुसीबत में है,’’ सत्यदेव ने मिन्नत की.

‘‘बाबूजी, आप घर जाइए. मैं कोर्ट चला जाऊंगा. आप को मोबाइल से खबर करता रहूंगा,’’ समीर बोला.

आटो में बैठ कर सत्यदेव बोले, ‘‘गांधी उद्यान चलो.’’

सत्यदेव पार्क में बैठ कर आतेजाते लोगों को देख रहे थे. देखतेदेखते शाम हो आई. वह उठ कर पास के पी.सी.ओे. पहुंचे और समीर को फोन लगाया.

‘‘हैलो, समीर बेटा.’’

‘‘बाबूजी, सुजय की जमानत नहीं हुई. उसे जेल भेज दिया गया है. 2 दिन छुट््टी है. सोमवार को ही जमानत होगी. आप हैं कहां? घर पर मैं कब से मोबाइल लगा रहा हूं.’’

सत्यदेव आगे कुछ बोले नहीं. फोन रख कर पैसे दिए और पी.सी.ओ. से बाहर निकल कर सोच में पड़ गए कि इस समय घर जाऊंगा तो सब दुकानें खुली होंगी. वहां लोग बैठे होंगे. सब एक ही प्रश्न पूछेंगे. इस से तो अच्छा है पहले सोमनाथ वकील के यहां चलता हूं, फिर घर जाऊंगा.

सत्यदेव जब सोमनाथ वकील के कार्यालय पहुंचे तो अंदर कई लोगों को बैठा देख कर वे वहीं खड़े हो कर सब के जाने का इंतजार करने लगे. अंतिम व्यक्ति जब बाहर निकला तो वह अंदर घुसे.

‘‘सोमनाथ, सुजय की जमानत नहीं हुई?’’

‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था. खैर, प्रयास तो किया,’’ कहते हुए सोमनाथ ने जेल के डाक्टर को फोन मिला कर कहा, ‘‘हैलो, किशोर, मैं तुम्हारा चाचा बोल रहा हूं. बेटा, एक काम था. जेल में सुजय नाम का एक आरोपी गया है. वह अपने दोस्त सत्यदेव का बेटा है. किसी तरह उसे लोहिया अस्पताल में शिफ्ट करा दो, बेटा,’’ सोमनाथ ने फोन बंद करते हुए सत्यदेव की ओर देखा. बोले, ‘‘सत्यदेव, आधे घंटे बाद लोहिया अस्पताल चलेंगे. किशोर ने कहा है, वह तब तक सुजय को शिफ्ट करा देगा.’’

थोड़ी देर में मिसेज सोमनाथ चायनाश्ता ले कर आईं.

‘‘भाई साहब, आप नाश्ता कर लीजिए.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सत्यदेव नाश्ते को देखते रहे और सोचते रहे पता नहीं सुजय ने क्या खाया होगा? आधे घंटे बाद सोमनाथ अंदर से तैयार हो कर सत्यदेव के पास आए तो देखा, चायनाश्ता ज्यों का त्यों पड़ा है. वह बोले, ‘‘अरे, तुम ने तो कुछ भी नहीं लिया.’’

‘‘सोमनाथ, चलो अस्पताल चलते है,’’ इतना कहते हुए सत्यदेव उठ गए तो सोमनाथ ने भी मनोस्थिति को समझते हुए आगे कुछ नहीं कहा.

अस्पताल पहुंचते ही सोेमनाथ को पता चला कि सुजय कैदी वार्ड नंबर 7 के बेड नंबर 14 पर है. दोनों वार्ड नं. 7 में पहुंचे. वार्ड के सामने 4 पुलिस वाले बैठे थे. उन के सामने से हो कर सोमनाथ 14 नंबर बेड के पास पहुंचे. सुजय के हाथ में हथकड़ी लगी हुई थी. हथकड़ी का दूसरा सिरा लोहे के पलंग से बंधा था. उसे छिपाने के लिए सुजय ने चादर डाल रखी थी.

सुजय, सत्यदेव को देख कर रो पड़ा. वह असहाय खड़े रह गए. उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. अचानक आगे बढ़ कर सुजय से लिपट कर वह फफक कर रो पडे़.

‘‘बाबूजी, जिंदगी में कोई गलत काम नहीं करूंगा. मेरे कारण आज सब परेशान हैं. सब की इज्जत मिट्टी में मिल गई. बाबूजी, पैसा कमाने के चक्कर में मैं बेईमानी करने लगा था. खुद बेईमान बना तो सब को बेईमान समझ लिया. सोचता था, सब बिकते हैं परंतु मेरा सोचना गलत था. ईमानदारी के सामने पैसा कुछ भी नहीं है. मुझे माफ कर दो, बाबूजी.’’

‘‘काश, बेटा, पैसे बटोरने की अंधी दौड़ से बचने की कोशिश करते. अब तो पता नहीं कौनकौन से शब्द सुनाएंगे लोग. बात करेंगे तो विषय यही होगा. मैं तो पिता हूं, माफ ही कर सकता हूं लेकिन दूसरे लोग तो इस बात का मजा ही लेंगे,’’ इतना कह कर वह सोमनाथ को साथ ले कर वार्ड से बाहर हो गए.

सीढ़ी उतरतेउतरते सत्यदेव की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. रेलिंग पकड़ कर संभलने की कोशिश करते कि उन्हें सीने में तेज दर्द उठा और उन का शरीर निढाल हो कर सीढ़ी से लुढ़क गया. जब तक सोमनाथ कुछ समझते और उन्हें संभालने का प्रयास करते सत्यदेव की सांसें थम चुकी थीं. उन की आंखें बेबस खुली हुई थीं.

अभियुक्त: सुमि ने क्या देखा था

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  मरीचिका: क्यों परेशान थी इला – भाग 2

सब्जी जलने की गंध से इला का ध्यान टूटा. शिमलामिर्च जल कर कोयला हो गई थी. फ्रिज खोल कर देखा तो एक बैगन के सिवा कुछ भी नहीं था. वही काट कर छौंक दिया और दाल कुकर में डाल कर चढ़ा दी. वैसे वह जानती थी कि  यह खाना राजन को जरा भी पसंद नहीं. कितने चाव से सवेरे शिमलामिर्च मंगवाई थी.

इला व राजन हिल कोर्ट रोड के 2 मंजिले मकान की ऊपरी मंजिल पर रहते थे व नीचे के तल्ले पर कंपनी का गैस्टहाउस था. वहीं का कुक जब अपनी खरीदारी करने जाता तो इला भी उस से कुछ मंगवा लेती थी. कभी खाना बनाने का मन न होने पर नीचे से ही खाना मंगवा लिया जाता जो खास महंगा न था. कभी कुछ अच्छा खाने का मन होता तो स्विगी और जोमैटो थे ही.

कमरों के आगे खूब बड़ी बालकनी थी, जहां शाम को इला अकसर बैठी रहती. पहाड़ों से आने वाली ठंडी हवा जब शरीर से छूती तो तन सिहरसिहर उठता. गहरे अंधेरे में दूर तक विशालकाय पर्वतों की धूमिल बाहरी रेखाएं ही दिखाईर् देतीं, बीच में दार्जिलिंग के रास्ते में ‘तिनधरिया’ की थोड़ी सी बत्तियां जुगनू की जगह टिमटिमाती रहतीं.

राजन अकसर दौरे पर दार्जिलिंग, कर्लिपौंग, गंगटोक, पुंछीशिलिंग या कृष्णगंज जाता रहता. इला को कई बार अकेले रहना पड़ता. वैसे नीचे गैस्टहाउस होने से कोई डर न था.

इला ने चाय बनाई व प्याला ले कर बालकनी में आ बैठी. शाम गहरा गई थी. हिल कोर्ट रोड पर यातायात काफी कम हो गया था. अकेली बैठी, हमेशा की तरह इला फिर अपने अतीत में जा पहुंची.

शादी के  बाद राजन की बदली सिलीगुड़ी में हो गई थी. कंपनी की ओर से उसे फ्लैट मिल गया था. राजन के साथ शादी के बाद भी इला रमण को नहीं भूला पाई थी. तन जरूर राजन को समर्पित कर दिया था परंतु मन को वह सम?ा नहीं पाती थी. वह भरसक अपने को घरगृहस्थी में उल?ा कर रखती.

इला का घर शीशे की तरह चमकता रहता. चाय, नाश्ता, खाना सब ठीक समय पर बनता. राजन के बोलने से पहले ही वह उस की सब आवश्यकताएं सम?ा जाती थी परंतु रात आते ही वह चोरों  की तरह छिपने लगती. राजन के गरम पानी के सोते की तरह उबलते प्रेम का वह कभी उतनी गरमजोशी से प्रतिदान न कर पाती. ऐसे में राजन अकसर ?ाल्ला कर बैठक में सोने चला जाता. इला ठंडी शिला की तरह पड़ी रोने लगती. राजन कई तरह से उस का मन बहलाने का प्रयत्न करता.

कभी दौरे पर अपने साथ ले जाता, कभी घुमाने. कभी उसे कई विदेशी साड़ी इत्र और सौंदर्यप्रसाधन मंगवा देता परंतु इला थी कि पसीजना ही भूल गई थी.

जीवन की सब खुशियां उस के हाथों से, मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह खिसकती जा रही थीं. राजन भी इसे अपनी नियति सम?ा कर चुप बैठ गया था. मगर कभीकभी मित्रों के परिवारों के साथ बाहर की सैर का कार्यक्रम बनने पर इला के इस अनोखे मूड के कारण उसे बड़ा दुख होता.

पुरुष एक कार्य एक कार्यकुशल गृहिणी ही नहीं, प्रेमिका, पूर्ण सहयोगी और काफी हद तक बिस्तर पर एक वेश्या की सी भूमिका अदा करने वाली पत्नी चाहता है. मगर इला न जाने किस मृग मारीचिका के पीछे भटक रही थी. एक कुशल गृहिणी की भूमिका निभा कर ही वह अपने पत्नीत्व को सार्थक और अपने कर्तव्यों की इतिश्री सम?ा रही थी.

कभीकभी इला को अपने पर क्रोध भी आता. क्या दोष है बेचारे राजन का? क्यों वह उसे हमेशा निराश करती है? क्यों वह दूसरी औरतों की तरह हंस और खिलखिला नहीं सकती? क्यों वह अन्य पत्नियों की तरह राजन को कभी डांट नहीं पाती? क्यों उन दोनों का कभी ?ागड़ा नहीं होता? ?ागड़े के बाद मानमनौअल का मीठा स्वाद तो उस ने शादी के बाद आज तक चखा ही न था.

इला की बात से राजन कितना खिन्न हो गया था. जब से मनाली में एक नया रिजोर्ट बना था, कई लोग वहां जाने को उत्सुक थे. कितने दिनों से राजन अपने दोस्तों के साथ वहां जाने का कार्यक्रम बना रहा था और इला ने उस के सारे उत्साह पर एक ही मिनट में पानी फेर दिया था. राजन ने ही सब के लिए वहां कमरे बुक करवाए थे, पर अब इला के न जाने से उस की स्थिति कितनी खराब होगी.

रात को राजन आया तो कपड़े बदल कर चुपचाप लेट गया. खाना भी नहीं खाया. इला ने धीरे से मनाली की बात चलानी चाही तो उस ने कह दिया, ‘‘मैं ने सब को कह दिया है कि एक आवश्यक कार्य के कारण मैं न जा सकूंगा. अब तुम क्यों परेशान हो रही हो?’’ कह कर उस ने करवट बदल कर आंखें बंद कर ली थीं जैसे सो गया हो.

‘‘लेकिन प्रोग्राम तो तुम ने ही बनाया था, तुम्हारे न जाने से सब को कितना बुरा लगेगा?’’ इला धीरे से बोली.

‘‘अच्छा या बुरा लगने से तुम्हें तो कुछ अंतर पड़ने वाला नहीं है. जो होगा मैं देख लूंगा. तुम तो वहीं अपनी रसोई, सब्जी, घरगृहस्थी के चक्कर में उल?ा रहो.’’

इला रोने लगी. राजन कुछ पिघला. करवट बदल कर कुहनी के बल लेट कर बोला, ‘‘इला, क्यों तुम मेरे साथ कहीं भी जा कर खुश नहीं होतीं? क्यों हर समय उदास रहती हो? इस घर में  तुम्हें क्या कमी है या मैं तुम्हें क्या नहीं दे पाया, जो अन्य पति अपनी पत्नियों को देते हैं?’’

इला कुछ बोल नहीं पाई. कहती भी क्या?

राजन फिर बोला, ‘‘हमारे घर में सुखसुविधा के कौन से साधन नहीं हैं? हम बहुत धनी न सही परंतु मजे में तो रह ही रहे हैं. फिर भी तुम में किसी बात के लिए उत्साह नहीं. मेरे मित्रों की पत्नियां पति द्वारा एक  साधारण साड़ी ला कर देने पर ही खुशी से उछल पड़ती हैं परंतु तुम तो हंसी, खुशी की सीमा से कहीं बहुत दूर हो. हिमखंड जैसी ठंडी. तुम अपने इस ठंडेपन से मेरी भावनाओं को भी सर्द कर देती हो.’’

इला को उस ने अपनी बांहों के घेरे में ले लिया, ‘‘क्या तुम किसी और को चाहती

हो, जो मेरा प्यार सदा प्यासा ही लौटा देती हो?’’

इला ने ?ाट से अपनी आंखें पोंछ डालीं, ‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हो?’’

‘‘फिर क्या विवाह से पहले किसी को चाहती थीं?’’ राजन ने गहरी नजर डालते हुए पूछा.

‘‘तुम आज क्या बेकार की बातें ले बैठे

हो? यदि ऐसा होता तो मैं तुम से विवाह ही क्यों करती?’’

बात भी ठीक थी. इला कोई अनपढ़, भोलीभाली लड़की तो थी नहीं कि उसकी शादी जबरदस्ती कहीं कर दी जाती. सगाई से पहले 2-3 बार राजन उस से मिला था, उस समय कभी नहीं लगा था कि विवाह के लिए उस से जबरन हां कराई गई है.

जब राजन की मां उसे अपनी पसंद की ड्रैसें, लहंगे खरीदने के लिए बाजार ले गई थीं तो उस ने बड़े शौक से अपनी पसंद के कपड़े खरीदे थे. फिर बाद में रेस्तरां में भी सहज भाव से गपशप करती रही थी. प्रारंभ से ही इला उसे सम?ादार लड़की लगी थी, आम लड़कियों की तरह खीखी कर के लजानेशरमाने व छुईमुई हो जाने वाली नहीं.

अपने एक खास मित्र के कहने से वह जब उस की मंगेतर से मिलने गया था तो वह कमसिन छोकरी मुंह पर हाथ रखे सारा समय अपनी हंसी ही दबाती रही थी. बारबार उस के गाल और कान लाल हो जाते थे. राजन ने सोचा था, ‘यह पत्नी बन कर घर संभालने जा रही है या स्कूल की अपरिपक्व लड़की पिकनिक मनाने जा रही है?’

इसी से इला की गंभीरता ने उसे आकृष्ट किया था. स्वयं भी उस की आयु एकदम कम न थी, जो किसी अल्हड़ लड़की को ढूंढ़ता. उस ने सोचा था कि परिपक्व मस्तिष्क की लड़की से अच्छी जमेगी. मगर इला का मन तो न जाने कौन सी परतों में छिपा पड़ा था, जिस की थाह वह अभी तक नहीं पा सका था. विवाह के प्रारंभिक दिनों में उस ने सोचा था कि शायद नया माहौल होने से ऐसा है परंतु अब तो यहां उन दोनों के सिवा घर में कोई न था, जिस के कारण इला इस तरह दबीघुटी सी रहती. किसी तरह भी वह गुत्थी नहीं सुल?ा पा रहा था.

 

कई औरतें ऐसी ही शुष्क होती हैं, किसी तरह अपने मन को सम?ा कर वह संतोष कर लेता. बिना मतलब गृहस्थी उजाड़ने का क्या लाभ? आज भी इला को बांहों में लिएलिए ही वह सो गया. किसी तरह की मांग उस ने इला के सामने नहीं रखी.

इला मन ही मन स्वयं को कोसती रही और निश्चय करती रही कि  अब वह अपने को बदलने का प्रयत्न करेगी. मगर वह स्वयं भी जानती थी कि अगले दिन से फिर पहले वाला ही सिलसिला शुरू हो जाएगा.

वैसे अपने जीवन का यह निश्चय उस ने स्वयं किया था. इस के लिए वह किसी को भी दोषी नहीं ठहरा सकती थी. प्रेम कहानी के इस त्रिकोण में न किसी ने दगा की थी, न कोई दुष्ट बीच में आया था. जीवन की एक कड़वी सचाई थी और पात्र यथार्थ के धरातल पर जीने वाले इसी दुनिया के जीव थे. सिनेमा में गाते, नाचते, पियानो बजाते, बिसूरते नायकनायिका नहीं थे.

मगर अब अपने साथसाथ वह राजन को भी सजा दे रही थी. सचाई से पहले व बाद में वह उस से साधारण रूप में मिलती थी, जिस में सहज मित्रता थी परंतु शादी के बाद अपने उत्तरदायित्व को वह संभाल नहीं पा रही थी.

फूलप्रूफ फार्मूला: क्या हो पाई अपूर्वा औऱ रजत की शादी

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प्यार की चाह: क्या रोहन को मिला मां का प्यार

लेखिका- वीना टहिल्यानी

झल्लाई हुई निशा ने जब गाड़ी गैरेज में खड़ी की तो रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी. ‘रवि का यह खेल पुराना है,’ वह काफी देर तक बड़बड़ाती रही, ‘जब भी घर में किसी सोशल गैदरिंग की बात होगी, वह बिजनैस ट्रिप पर भाग खड़ा होगा, अब भुगतो अकेले.’

‘तुम चिंता न करना, मेरा सैक्रेटरी सबकुछ देख लेगा.’

‘हूं,’ सैक्रेटरी सबकुछ देख लेगा. कार्ड बांटने और इनवाइट करने तो पर्सनली ही जाना पड़ता है न.’

‘न जाने पार्टी के नाम से उसे इतनी चिढ़ क्यों है? महेश ने विदेश जाने पर पार्टी दी थी तो अरविंद ने विदेश से लौटने की. राघव की बेटी रिंकी को फिल्मों में हीरोइन का चांस मिला तो पार्टी, भाटिया ने फिल्म का मुहूर्त किया तो पार्टी. अपनी सुधा तो कुत्तेबिल्लियों के जन्मदिन पर भी पार्टी देती है. इधर एकलौते बेटे का जन्मदिन मनाना भी खलता है. फिर इन्हीं पार्टियों की बदौलत सोशल स्टेटस बनता है. सोशल कौंटैक्ट्स बनते है,’ पर रवि के असहयोग से अपने किटी सर्किल में निशा पार्टीचोर के नाम से ही जानी जाती थी. इसी कारण वह तमतमा उठी.

‘‘मेमसाब, खाना गरम करूं?’’  मरिअम्मा ने पूछा.

‘‘नहीं, मैं खा कर आई हूं,’’ पर्स पलंग पर फेंक कर निशा बाथरूम में घुस गई.

‘इतना भी नहीं कि एक फोन ही कर दे. 1-1 बजे तक बैठे रहो इंतजार में,’ मन ही मन भुनभुनाते हुए रामआसरे ने टेबल पर रखा सामान हटाया, किचन साफ किया और पिछवाड़े अपने क्वार्टर में चला गया.

मरिअम्मा अपने कमरे में ऊंघ रही थी. रोहन का कमरा नाइटलैंप के नीले प्रकाश में नहाया था. दबेपांव जा कर निशा ने बड़ा सा चमकीला गुलाबी गिफ्टपैक रोहन की स्टडी टेबल पर रख दिया, फिर उस के ऊपर जन्मदिन का कार्ड भी लगा दिया, रोहन के बिस्तर के ठीक सामने.

‘उठते ही सामने उपहार देख कर वह कितना खुश होगा,’ उस ने सोचा.

एक बार तो निशा के दिल में आया कि सोते बेटे को सहलाए, पुचकारे, पर फिर कुछ सोच कर वह ठिठक गई. जाग गया, तो साथ सुलाने की जिद करेगा. साथ सोया तो सुबह मुझे भी उस के साथ जल्दी उठना पड़ेगा. नहीं, नहीं, कल रात तो पार्टी है. अभी नींद पूरी न की तो सिर भारी और चेहरा रूखारूखा सा लगेगा. देररात गए से ले कर सुबह सूरज उगने तक चलने वाली ये हाईफाई पार्टियां तो वैसे भी अघोषित सौंदर्र्य प्रतियोगिताओं सी होती हैं. निशा भला अकारण ही किसी से उन्नीस लगने का जोखिम क्यों उठाती. धीरे से बेटे के कमरे का दरवाजा बंद करती वह अपने कमरे में चली गई.

निशा थकान से चूर थी. पहले जागरूक महिला मंडल की मीटिंग, फिर क्लब में किटी, ऊपर से घरघर जा कर कार्ड बांटने का झमेला, सुबह से मुसकरातेमुसकराते उस के जबड़े दर्द करने लगे थे.

‘दरजी ने ब्लाउज आज भी नहीं दिया. कल बैंक से जड़ाऊ सैट भी निकालना था, ओह,’ तनाव से उस का सिर फटा जा रहा था. करवटें बदलतेबदलते वह उठ बैठी और एक सिगरेट सुलगा ली. फिर सोचने लगी.

‘यह रोहन भी दिनोंदिन कैसा घुन्ना होता जा रहा है. बिलकुल अपने बाप पर गया है, कार में स्कूल नहीं जाना, जिद कर के स्कूलबस लगवा ली है. खेलेगा तो कालोनी के बच्चों के साथ, साथ में मरिअम्मा को भी नहीं ले जाना. अब जन्मदिन पर भी न दोस्तों को बुलाना है न टीचरों को. कितना कहा, सब को एकएक कार्ड पकड़ा दो. अच्छीभली दावत, साथ में रिटर्न गिफ्ट्स भी. आने वाले तो उपकृत हो कर ही जाते. पर कहां, नहीं बुलाना तो नहीं बुलाया. किसी बात की ज्यादा जिद करो, तो बस, रोना शुरू.’

निशा ने सिगरेट का गहरा कश ले कर ढेर सारा धुआं उगला.

‘इस बार रवि पर भी नजर रखनी होगी. पीने की आदत नहीं, तो 2 पैग पी कर ही बहकने लगते हैं महाशय. पिछली बार कैसा तमाशा खड़ा किया था, उस के हाथ की सुलगी सिगरेट खींच कर बोला कि डार्लिंग, तुम्हारी गोलगोल बिंदी और लाल गुलाब जैसी साड़ी के साथ यह सिगरेट तो जरा भी मैच नहीं करती. हूं, मैच नहीं करती… मेहमानों के जाते ही मैं ने भी उस की वह खबर ली कि सारा नशा काफूर कर दिया. पर भरी सभा में उस की बेइज्जती को याद कर निशा आज भी तिलमिला जाती है. अंतिम लंबे कश के साथ उस ने अप्रिय यादों और तनावों को झटकने का प्रयास किया. सिगरेट को जोर से दबा कर बुझाया. नींद की गोली ली और चली सोने.

‘‘हैप्पी बर्थडे, सनी,’’ मरिअम्मा का स्वर सुनाई पड़ा. साथ ही ‘कुक्कू’ क्लाक के मधुर अलार्म का स्वर भी.

आंखें खुलते ही रोहन की नजर गिफ्टपैक पर रखे कार्ड पर पड़ी. नजरभर देखे बिना ही वह अलसा कर फिर से ऊंघने लगा.

‘‘उठो बाबा, उठो, स्कूल को देरी होगा,’’ आवाजें लगाती मरिअम्मा उस के कपड़े निकाल रही थी.

बाथरूम से निकल कर रोहन ने मां के कमरे में झांका ही था कि मरिअम्मा ने घेर लिया. दबी आवाज में समझाती बोली, ‘‘शशश, चलो बाबा, चलो, मम्मी जाग गया तो बहुत गुस्सा होगा. रात कितनी देर से सोया है. चलोचलो, तैयार हो, बस निकल जाएगा,’’ वह उस का हाथ पकड़ वापस अपने कमरे में ले आई.

कपड़े देख कर रोहन अड़ गया, ‘‘मैं ये नए कपड़े नहीं, स्कूल की यूनिफौर्म ही पहनूंगा.’’

‘‘क्यों बाबा, आज तो तुम्हारा हैप्पी बर्थडे है. स्कूल में भी नया कपड़ा पहन सकता है. मेमसाब बोला है. हम को भी 2 जोड़ा नया कपड़ा लाया है. एक, स्कूल में पहनने के वास्ते और दूसरा, रात की पार्टी के वास्ते,’’ प्यार से पुचकारती मरिअम्मा उसे मनाने लगी.

‘‘नहीं, नहीं, नहीं. बोला नहीं पहनूंगा. तो नहीं पहनूंगा,’’ नए कपड़ों को एक ओर पटक कर अलमारी से स्कूल की ड्रैस निकाल रोहन बाथरूम में घुस गया.

अब वह मरिअम्मा को कैसे समझाए कि नए कपड़े पहन कर स्कूल जाने से उस के सारे दोस्त समझ जाएंगे कि आज उस का बर्थडे है.

‘मैं ने तो उन्हें इनवाइट भी नहीं किया,’ रोहन ने सोचा.

पिछले साल की पार्टी की गड़बड़ रोहन को आज भी याद थी. पापा को नशा कुछ ज्यादा हो गया था. उन्होंने मम्मी के हाथ की सिगरेट छीनी तो रोहन का दिल धक से रह गया. ‘अब होगा झगड़ा,’ उस ने सोचा. लेकिन मम्मी मधु आंटी से बातें करती रही थीं. पर, पार्टी के बाद की वह जोरदार लड़ाई उफ…’

मां का सिगरेट पीना रोहन को भी असमंजस में डाल देता है.

वह सोचने लगता है, ‘विक्की की मम्मी तो सिगरेट नहीं पीतीं, रेनू की मां भी नहीं, शाहिद की अम्मी भी नहीं, फिर मम्मी ही क्यों. पापा मना करें तो लो, हो गया झगड़ा.’

‘आज तो मेरी बस निकल ही जाती, यह तो रेनू की मम्मी ने दूर से ही मुझे देख लिया और ड्राइवर को रोके रखा. आंटी कितनी अच्छी हैं, रोज रेनू का बैग उठा कर उसे बसस्टौप पर छोड़ने, फिर लेने भी आती हैं. कीर्ति के साथ उस के दादा आते हैं और निधि के साथ उस के पापा. लेकिन ये सब तो छोटे हैं. मैं, मैं तो कितना बड़ा हो गया हूं, फिर भी मम्मी मरिअम्मा को साथ भेज देती हैं.’

पहले तो रोहन का भी मन करता था कि मम्मी उस के साथ आएं बसस्टौप तक. बस, एक दिन के लिए ही सही. पर कहां? मम्मी को तो कितने काम होते हैं, कितनी सोशल सर्विस करनी पड़ती है. रेनू, छवि, पवन उन सब की मम्मियां तो सिर्फ हाउसवाइफ हैं, बस, घर का काम करो और आराम से रहो. सोशल क्लब जौइन करना पड़े तो पता चले. मम्मी ने ही सब समझाया था.

फिर भी रोहन सोचता, ‘काश, उस की मम्मी भी केवल हाउसवाइफ ही होतीं. या फिर उस के दादादादी ही उस के साथ रहते, जैसे कीर्ति और विक्की के रहते हैं. फिर तो मजा ही मजा होता. वे उस के साथ बाग में खेलते, बातें करते, बसस्टौप तक छोड़ने आते. पर दादादादी का आना मम्मी को जरा भी नहीं भाता. फिर वे हर समय गुस्से में रहती हैं. पापा से भी झगड़ती हैं, मुझे भी डांटती हैं.’

दादी तो उसे अपने साथ ही सुलाती थीं. सितारों और परियों की कहानियां भी सुनाती थीं, पर मम्मी कहती हैं, ‘बच्चों को अलग कमरे में सोना चाहिए. हर समय मां का आंचल पकड़े रहने वाले बच्चे कमजोर और दब्बू बन जाते हैं, जैसे तुम्हारे पापा हैं.’

रोहन को पापा का उदाहरण अखरता है, ‘पापा तो कितने स्मार्ट, कितने हैंडसम हैं, पर क्या वे सचमुच मम्मी से डरते हैं? क्या वे सच में दब्बू हैं?’

हर तरह की सोच से परे उस का मन फिर भी मचलता ही रहता है, मम्मीपापा के साथ उन के बीच सोने को. तकिया फेंकफेंक कर उन के साथ खेलने को, पर नहीं, अब तो वह कितना बड़ा हो गया है, पूरे 11 साल का. अब तो वह मम्मीपापा के साथ सोने की जिद भी नहीं करेगा, कभी नहीं.

रोहन स्कूल से लौटा तो लौन में शामियाना लग चुका था. पेड़पौधों पर बिजली के रंगबिरंगे छोटेछोटे बल्बों की कतारें झूल रही थीं. बरामदा और हौल रंगबिंरगे गुब्बारों व चमकतीदमकती झालरों से सजेधजे थे. रोहन ने दौड़ कर मम्मीपापा के कमरे में झांक कर कहा, ‘‘मरिअम्मा, पापा कहां हैं?’’

‘‘उन का फ्लाइट लेट है बाबा, अब वह तुम को सीधा पार्टी में ही मिलेगा,’’ मरिअम्मा ने कहा.

‘‘और मम्मी?’’ कहता हुआ रोहन रोने को हो उठा.

‘‘वह तो टेलर के पास गया है. वहां से फिर ब्यूटीपार्लर जाने का, देर से लौटेगा. अब तुम हाथमुंह धो कर खाना खाने का, फिर आराम कर के जल्दीजल्दी होमवर्क फिनिश करने का. फिर तुम्हारा हैप्पी बर्थडे होगा. बड़ाबड़ा केक कटेगा.’’

‘‘नहीं खाना मुझे खाना, नहीं करना होमवर्क,’’ मरिअम्मा को धकेलता रोहन धड़ाम से पलंग पर जा पड़ा. यह देख मरिअम्मा हैरान रह गई.

‘‘गुस्साता काहे रे. अरे, तू ने तो अपना गिफ्ट भी खोल कर नहीं देखा, खोलोखोलो. देखोदेखो, मम्मी रात तुम्हारे वास्ते क्या ले कर आया. अभी पापा भी अच्छाअच्छा खिलौना लाएगा,’’ मरिअम्मा ने राहुल को समझाया.

‘‘नहीं चाहिए मुझे खिलौने. मैं अब बड़ा हो गया हूं,’’ मरिअम्मा के हाथ से गिफ्टपैक छीन कर रोहन ने बाथरूम के दरवाजे पर दे मारा और सुबकने लगा.

डरी हुई मरिअम्मा पलभर तो शांत रही, फिर धीरेधीरे उस का सिर सहलाती उसे पुचकारनेमनाने लगी, ‘‘मेरा अच्छा बाबा. मेरा राजा बेटा. अब तो तू बड़ा हो गया रे, रोते नहीं. रोते नहीं बाबा. अपने जन्मदिन पर कोई रोता है क्या?’’ उसे समझातेमनाते मरिअम्मा की आवाज भी भर्रा गई, ‘‘उठ, उठ जा मुन्ना. मेरा अच्छा बच्चा, चल, खाना खाएं होमवर्क करें. देरी हुआ तो मेमसाब मेरे को गुस्सा करेगा कि हम तेरा ध्यान नहीं रखता.’’

रोहन का सुबकना थम गया. आंखें चुराता, मुंह छिपाता वह बाथरूम में चला गया.

एक मरिअम्मा ही है जो उसे प्यार करती है, उस का इतना ध्यान रखती है. फिर भी मम्मी उसे डांटती ही रहती हैं. पहले वाली वह रोजी, उफ, कितनी गंदी थी, चुपकेचुपके उसे चिकोटी काटती, उस का चौकलेट खा जाती. उस का दूध पी जाती और बसस्टौप पर रोज उस का बौयफ्रैंड भी उस से मिलने आता. मम्मी से शिकायत की, पापा को पता चला तो घर में कितना हंगामा हुआ था. पापा ने तो यहां तक कह दिया था, ‘तुम से एक बच्चा तो संभलता नहीं, करती हो समाजसेवा. रोहन को आज से तुम ही देखोगी, रोजी की छुट्टी है.’

मम्मी का क्लब, किटी आदि सब बंद हो गया. वे हर समय गुस्सातीझल्लाती रहतीं. घर में रोज लड़ाई होती. फिर एक दिन मरिअम्मा आ गईं.

मरिअम्मा सच में अच्छी हैं. उसे कहानियां सुनाती हैं, उस के साथ खेलती हैं, उसे प्यार भी करती हैं.

खाना खा कर रोहन लेटा तो जरूर, पर उस की सभी इंद्रियां मम्मीपापा के इंतजार में सचेत थीं.

‘पापा अभी तक नहीं आए. मम्मी अभी और कितनी देर लगाएंगी? मम्मीपापा हमेशा इतने बिजी क्यों रहते हैं?’

अचानक ही रोहन को बैग में रखी ‘जादू की पुडि़या’ की याद आई. उस दिन बस में 12वीं कक्षा के किशोर के दोस्तों की सभा जमी थी. झुरमुट में फुसफुसाते वे जोरजोर से ठहाके लगा रहे थे, ‘अरे, जादू है जादू, जबान पर रख लो तो मन की सभी मुरादें पूरी.’

‘एक पुडि़या मुझे भी दो न,’ बस में चढ़ते रोहन ने फुसफुसाते हुए फरमाइश की.

‘तू क्या करेगा रे, अभी तू मुन्ना है, मुन्ना, थोड़ा बड़ा हो ले, फिर मौज मारना,’ कह कर किशोर के दोस्तों ने ठहाका लगाया था.

‘अरे, दे दे न मुन्ना को, अपना क्या जाता है,’ राकेश ने आंख दबा कर रोहन की सिफारिश करते हुए कहा था.

‘चल, निकाल 25 रुपए, औरों के लिए 50-100 से कम नहीं, पर तू

तो अभी बच्चा है न, बिलकुल नयानवेला, नन्हामुन्ना. बच्चू, मजा न आए तो कहना.’

लेकिन रोहन न ही इतना नन्हामुन्ना था और न ही पूरा बेवकूफ.

किशोर उस के स्कूल का दादा था. उस ने किशोर और उस के साथियों को दरवाजे के पास खड़े आइसक्रीम वाले से बहुत सारी पुडि़याएं खरीदते देखा था. सफेद पाउडरभरी उन पुडि़याओं में कैसा जादू था, वह खूब जानता था. फिर भी उस ने वह पुडि़या खरीद ली. खरीदने के बाद लगा, वह उसे फेंक दे, पर नहीं फेंकी. संभाल कर बैग के अंदर वाली जिप में रख ली.

रोहन मम्मीपापा के बारे में सोच ही रहा था पर तभी उसे उस पुडि़या का ध्यान आया. उस ने उठ कर बैग खोल कर देखा. पुडि़या ज्यों की त्यों रखी थी. पुडि़या निकाल कर रोहन कुछ पल

उसे घूरता रहा, फिर उसे बैग में रख कर लेट गया.

‘‘बाबा, ओ बाबा, उठो. देखो शाम हो रही है,’’ मरिअम्मा ने रोहन को पुकारा.

रोहन ने आलस में आंखें खोलीं तो मरिअम्मा प्यार से मुसकरा उठी.

‘‘उठो बाबा, होमवर्क करना है. तैयार होना है. फिर मेहमान आना शुरू हो जाएगा.’’

रोहन तुरंत एक झटके में ही उठ बैठा और पूछा, ‘‘मम्मी आ गईं, मरिअम्मा?’’

‘‘आ गया, बाबा. वह तो सब से पहले तुम्हारे पास ही आया, पर तुम सोता था,’’ मरिअम्मा ने जवाब दिया.

रोहन ने दौड़ कर मां के कमरे में झांक कर कहा, ‘‘मम्मी तो नहीं हैं, मरिअम्मा.’’

‘‘वह नहाता होगा बाबा, पार्टी के लिए सजना है न. अब तुम भी जल्दी करो, देरी हुआ तो मेमसाब नाराज होगा.’’

होमवर्क खत्म कर रोहन फिर से मां के कमरे की ओर भागा, पर दरवाजा तो अंदर से बंद था. रोहन समझ गया मम्मी अब मेकअप कर रही होंगी और मेकअप करते समय कोई डिस्टर्ब करे, यह उन्हें बिलकुल भी पसंद नहीं. हारे कदमों से रोहन वापस आ गया.

‘‘अरे, रोहन बाबा, तुम अभी इधर ही बैठा है, चलोचलो, नहा लो, तैयार हो जाओ. देखो, तुम्हारा नया कपड़ा भी निकाल दिया,’’ मरिअम्मा ने कहा.

‘‘पापा अभी तक नहीं आए, मरिअम्मा?’’

‘‘आते ही होंगे बाबा,’’ मरिअम्मा ने बिलकुल सफेद रूमाल रोहन की जेब में रखते हुए कहा.

‘‘चलो बाबा, अब पार्टी का टाइम हो गया. मेमसाब वहीं मिलेगा.’’

‘‘तुम जाओ मरिअम्मा, मैं आ जाऊंगा.’’

‘‘देखो, देरी नहीं करना, जल्दी से पहुंच जाना,’’ जातेजाते मरिअम्मा ने एक बार फिर रोहन के बाल संवारे और उसे प्यारभरी नजरों से देखती बाहर चली गई.

शाम होते ही बंगला रंगारंग रोशनी में नहा उठा. रात गहराते ही रौनक बढ़

गई. मेहमान आने शुरू हो गए. चहकतेमहकते, मुसकराते, सजेधजे मेहमान, आंखों ही आंखों में एकदूसरे को आंकते मेहमान, बातों ही बातों में एकदूसरे को नापते मेहमान.

‘‘रवि आज भी नदारद है, निशा,’’ हरीश ने कहा.

‘‘उस के वही बिजनैस ट्रिप्स, फिर हमारी यह बेटाइम चलने वाली एअरलाइंस, बस, आता ही होगा,’’ मनमोहनी मुसकान के साथ निशा ने सफाई दी.

‘‘रोजरोज के ये बिजनैस ट्रिप्स. कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं, निशा?’’ हरीश ने आंख दबा कर शिगूफा छोड़ा तो वातावरण में हंसी की फुलझडि़यां फूट गईं. निशा भी पूरी तरह मुसकरा उठी.

‘‘बर्थडे बौय कहां है भाई?’’ माला ने बड़ी नजाकत से हाथ में पकड़े उपहार के डब्बे को साथ वाली कुरसी पर रखते हुए कहा.

‘‘अब साहबजादे को भी बुलाइए जरा,’’ रमेश ने अपने हाथ में पकड़ा गिफ्टपैक राधिका को देते हुए कहा.

‘‘रोहन, रोहन, माई सन,’’ निशा की धीमी मीठी आवाज गूंज उठी.

‘‘रोहन, सनी?’’ निशा ने इधरउधर देखा, ‘‘रोहन कहां है मरिअम्मा?’’

‘‘इधर ही था मेमसाब, बाथरूम में होगा, अभी देखता,’’ कह कर वह उसे ढूंढ़ने लगी.

‘‘रोहन बाबा, रोहन बाबा,’’ मरिअम्मा ने कमरे में झांका, बाथरूम देखा, लौन में ढूंढ़ा, पिछवाड़े भी देखा पर वह न मिला. मरिअम्मा रोंआसी हो उठी, ‘कहां गया रोहन?’ वह सोचने लगी. फिर बोली, ‘‘मेमसाब, बाबा नहीं मिल रहा.’’

निशा की भौंहें तन गईं, ‘‘तुम किस मर्ज की दवा हो फिर?’’ उस ने दबी आवाज में मरिअम्मा को लताड़ते हुए कहा.

‘रोहन नहीं मिल रहा,’ ‘रोहन खो गया है,’ मेहमानों में अफरातफरी मच गई. बंगले का कोनाकोना छन गया.

‘‘पुलिस को फोन करिए, निशा,’’ मेहमानों ने कहा.

‘‘किडनैपिंग का केस लगता है?’’ सुन कर निशा के हाथपैर सुन्न पड़ गए, सिर चकरा गया.

‘‘मेमसाब, मेमसाब,’’ खुली छत की रेलिंग पर झुकी मरिअम्मा की भयभीत चीखपुकार सुन कर सब ऊपर की

ओर दौड़े.

‘‘देखिए, देखिए तो मेमसाब, रोहन बाबा को क्या हो रहा है?’’

छत के एक कोने में निढाल, बेसुध पड़े रोहन के मुंह पर तो एक मीठी मुसकान बिखरी हुई थी. जादू की पुडि़या का जादू उस पर चल चुका था. उसे अपना मनचाहा सबकुछ मिल चुका था.

पुचकारते पापा, दुलारती मम्मी. खेल खिलाते पापा. साथ सुलाती मम्मी…

उछलताकूदता, खिलखिलाता, फुदकता रोहन तो सीधा उन की गोद में ही जा बैठा था. दृश्य खयालों में चल रहे थे…

‘हैप्पी बर्थडे सनी.’

‘हैप्पी बर्थडे रोहन.’

‘थैंक यू पापा,’ कहता रोहन पिता के सीने से चिपक गया.

‘थैंक यू मम्मी,’ रोहन मां से लिपट गया. जोरजोर से ठहाके लगाता रोहन अचानक सुबकने लगा तो मरिअम्मा परेशान हो उठी. उस ने चुप बैठ कर उस का सिर अपनी गोद में रख लिया.

‘‘देखो न मेमसाब, हमारे बाबा को क्या हो रहा है. बाबा, बाबा, रोहन बाबा,’’ मरिअम्मा जोरजोर से उस के गाल थपथपाने लगी.

मेहमानों के चेहरे पर भय, आश्चर्य और जिज्ञासा के मिलेजुले भाव तैरने लगे.

‘‘इतना छोटा बच्चा और ड्रग एडिक्ट?’’ एक आश्चर्यभरा स्वर उभरा, ‘‘ये आजकल के बच्चे? माई गौड.’’

निशा की मुट्ठियां भिंच गईं, भौंहें तन गईं. उस की सारी इज्जत, सारा का सारा सोशल स्टेटस धूल में जा मिला.

सही डोज: भाग 2- आखिर क्यों बनी सविता के दिल में दीवार

काम करती हुई सविता सोच रही थी कि उस की मां ने घर को इतना साफसुथरा रखना सिखाया था. काम करने को अकेली मां ही तो थी, पर घर में हर चीज कायदे से अपनी जगह पर रखी होती थी. पिताजी, भैया और वे तीनों काम पर जाते थे, पर मजाल है कि किसी का अपना सामान इधरउधर बिखरा मिले. सब चीजों के लिए एक जगह निश्चित थी. यहां आज ठीक करो, कल फिर वैसा ही हाल. उस की ससुराल के लोग सीखते क्यों नहीं, समझते क्यों नहीं. देवर होस्टल में जरूर रहता है, पर घर आते ही वह भी इस घर के रंग में रंग जाता. ऐसा लगता था जैसे इस तरीके से रहना इन लोगों को कहीं से विरासत में मिला है.

अकसर शिकायत करती महरी की आवाज आई, ‘‘बरतन मेज से उठा कर सिंक में रख कर कुछ देर नल खोल दिया करो तो जल्दी साफ  हो जाते,’’ कह कर वह चली गई. 4 दिन बाद कोई और मिली थी तो रात को खाना खाने के बाद हमेशा की तरह सब लोग बैठक में बातें करने के इरादे से बैठा करते थे.

तभी सविता ने कहा, ‘‘बहुत खोज कर कपड़े धोने के लिए मैं एक नई औरत को इस शर्त पर लाई थी कि सिर्फ कपड़ों के नीचे पहनने वाले कपड़े ही धोने होंगे. बड़े कपड़े यानी पैंट, शर्ट, कमीज, धोतियां, चादरें तो धोबी धोता ही है. पर आज वह मुझसे कह रही थी कि अब बड़े कपड़े भी उसे दिए जाने लगे हैं. वह तो इस बात पर काम छोड़ रही थी. मैं ने किसी तरह उसे समझा दिया है. अब आप लोग सोच लें वह बड़े कपड़े धोऊंगी नहीं.’’

कोई कुछ नहीं बोला, नवीन ने बेचैनी से 1-2 बार कुरसी पर पहलू जरूर बदला. गप्पों का मूड उखड़ चुका था. सब उठ कर अपनेअपने कमरे में चल गए. तभी सविता ने फैसला किया था नवीन के साथ अलग रहना ही इस समस्या का हल है. दोनों की मुलाकात उसे याद हो आई…

दांतों के डाक्टर की दुकान की बात है. एक खूबसूरत सी लड़की बैठी थी. तभी एक युवक भी आ कर बैठ गया. और भी बहुत से लोग बैठे थे. इंतजार तो करना ही था. तभी भीतर से एक तेज दर्दभरी चीख सुनाई दी और साथ में डाक्टर की आवाज भी, ‘‘अगर आप इतना शोर मचाएंगे तो बाहर बैठे मेरे सब मरीज भाग जाएंगे.’’

और तो कोई नहीं भागा, पर 2 मरीज जरूर भाग रहे थे और भागने में यह खूबसूरत सी लड़की उस लड़के से दो कदम आगे ही थी. वह बड़ी तेजी से सीढि़यां उतरती गई. बाहर ही एक औटो खड़ा था. वह औटो में बैठ गई. तभी वह युवक भी जो दो कदम ही पीछे था, घुस गया. उन के शहर में औटो शेयर करने का रिवाज था. रिकशाचालक हिसाब से पैसे ले लेता था.

रिकशा वाले ने लड़की से पूछा, ‘‘बहनजी, कहां जाना है?’’

हांफतेहांफते लड़की ने कहा, ‘‘हजरतगंज.’’

लड़के से रिकशा वाले ने कुछ नहीं पूछा.

कुछ देर बाद दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा और मुसकरा दिए. वे दोनों अब काफी बेहतर महसूस कर रहे थे. तभी युवक ने डरतेडरते धीरे से अपनी दुखती दाढ़ को छुआ. एक गोल सी छोटी सी चीज हाथ में आ गई. उसे संभाल कर मुंह से बाहर निकाल कर उस ने खिड़की की तरफ कर के देखा, ‘‘निकल गया.’’

‘‘क्या?’’ लड़की ने चौंक कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं, कंकड़, जो दाढ़ में फंसा था,’’ झेंपकर लड़का बोला, ‘‘शायद चावल में था.’’

लड़की ने कुछ नहीं कहा और युवक की आंख बचाकर अपने सामने के एक दांत पर उंगली फेरी और फिर ‘‘ओह’’ कर अपनी सीट से उछल पड़ी.

‘‘क्या हुआ,’’ युवक ने पूछा.

जवाब में लड़की ने उंगलियों में पकड़ा एक लंबा सा कांटा निकाल कर युवक के हाथ पर रख दिया और फिर नजरें झुका कर कहा, ‘‘मछलीका है, यही मेरे दांत में अटक गया था.’’

‘‘जरूर अटक गया होगा. आप हैं ही ऐसी, कोई भी अटक सकता है.’’ कुछ देर की खामोशी के बाद लड़की फिर बोली, ‘‘आप कहां जाएंगे?’’

‘‘आप हजरतगंज जाएंगी, मैं चिडि़याघर के पास रहता हूं, वहीं उतर जाऊंगा.’’

‘‘चिडि़याघर के भीतर नहीं,’’ लड़की ने कहा और दोनों हंसने लगे. यह नवीन और सविता की पहली मुलाकात थी. यादों में खोई वह खड़ी थी. तभी नवीन ने पीछे से आ कर उसे बांहों के घेरे में ले लिया.

‘‘अंधेरे में खड़ी हो.’’ ‘‘आदत पड़ गई थी, पर अब चांदनी की आदत डाल रही हूं.’’

‘‘सविता, हम ने प्रेम विवाह किया है. तुम्हें प्यार करता हूं, इसीलिए सब घर वालों को छोड़ कर आया हूं हालांकि सब से मेरा प्यार आज भी है.’’ ‘‘प्रेम विवाह हम ने जरूर किया था, पर बाद में प्रेम तो रहा नहीं, सिर्फ विवाह रह गया. प्रेम तो घर के चौकेचूल्हे और घर की चीजें उठानेरखने में न जाए किस अलमारी में बंद हो गया था.’’

‘‘सही कह रही हो सविता.’’ ‘‘गलती मेरी ही थी. शादी से पहले मैं ने तुम से यह जो नहीं पूछा था कि मु?ो कहां ले जा कर रखोगे.’’

‘‘मैं हमेशा तुम्हारी परेशानियों को समझता रहा हूं सविता.’’ ‘‘पर कुछ कर नहीं रहे थे. सब साथ रहते तो कितना अच्छा रहता. अब मुझे अकेलापन खलता है,’’ सविता ने कहा.

‘‘अब भी मेरी मजबूरी है तुम्हें.’’ ‘‘हां मुझे लगता है मैं ने तुम से कुछ छीन लिया है. मैं इतनी खुदगर्ज नहीं हूं नवीन.’’ ‘‘लगता है, तुम्हारी मजबूरी कभी खत्म नहीं होगी. जाओ, जा कर सो जाओ. मुझे सवेरे जल्दी उठना होगा.’’

जीवन लीला: क्या हुआ था अनिता के साथ

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वैलकम: भाग-2 आखिर क्या किया था अनुराग ने शेफाली के साथ

अभी तक तो शेफाली के अंदर साहस ही साहस था, लेकिन भाभी की बात और भाभी की घबराहट देख कर उसे भी पहली बार कुछ घबराहट सी हुई और जब वह बैठक के दरवाजे पर पहुंची तो कितना भी धैर्य रखने पर उस का मन आशंका से कांप उठा क्योंकि बैठक में बैठे सभी लोगों की नजरें उस के सैंडिलों पर ही थीं.

‘इन लोगों को मुझे देखना है या मेरी चाल अथवा सैंडिल को?’ यह प्रश्न उस के मन में हलचल मचा गया. फिर बरबस मुसकरा कर नमस्ते करने के बाद वह अनुराग की भाभी की बगल में बैठ गई. अनुराग से भी उस की यह फेस टू फेस पहली मुलाकात थी.

शेफाली प्रदर्शनी में सजी निर्जीव गुडि़या की तरह पलकें नीची किए बैठी थी. पुराने जमाने की लड़कियों की तरह उस के मन में अजीब सा संकोच था, जिस से उस के मुख का सौंदर्य फीका पड़ता जा रहा था. अनुराग की मां, छोटा भाई और बहन तीनों ही उस के अंगप्रत्यंग को नजरों से नापते हुए एकदूसरे को कनखियों से देखते हुए मुसकरा रहे थे. ‘‘रंग कैसा बताओगे? मेरे ही जैसा न? अच्छी तरह देख लो,’’ भाभी फुसफुसा कर

अपने देवर के कान में बोली, ‘‘रंग मु  झ से फीका नहीं होना चाहिए,’’ और फिर चश्मे के अंदर आंखें घुमाती हुई वह उस के मुख के और करीब आ गई. मगर तभी देवर ने अपनी भाभी को आंख मार कर हट जाने को कहा, जैसे कह रहा हो कि रंग की प्रतियोगिता में तो तुम हर तरह से पराजित हो भाभी. उसे अगर 100 से 90 मिलेंगे तो तुम्हें 10 भी नहीं मिलने के. ‘‘शेफाली, सुना है आप बहुत अच्छा गाती हैं. एक गाना सुना दीजिए न.’’

आंसू बह कर अपनी असमर्थता की पीड़ा खोल दें, इस से पूर्व ही शेफाली मुंह नीचा कर के कमरे से बाहर जाती हुई बोली, ‘‘मैं अभी आई,’’ उस का मन हुआ कि वह चीख-चीखकर कह दे कि वह ऐसे आदमी से शादी नहीं करना चाहती, जिस में इनसानियत का जरा भी मादा न हो, जिस के घर की महिलाओं को बात करने की भी तमीज न हो. किंतु होंठों तक आ कर भी शब्द रुक गए. उस के कानों में बारबार भाभी के ये शब्द गूंज रहे थे कि वे लोग कैसा भी व्यवहार करें, तू अपनी जबान न खोलना. सदा की तरह आज भी अपने भैया की लाज रखना. वह अपने कमरे में आ कर पलंग

पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. वह 32 साल की होने लगी थी. उस ने कभी अपने दोस्त नहीं बनाए थे.  पहले भैया ने अपने आसपास वालों को कहा था पर बात नहीं बनीं. फिर साइटों पर जाकर प्रोफाइल डाला. तब जा कर अनुराग मिला. भैया उसे हाथ से निकलने नहीं देना चाहते थे.

अब भैया बहुत ही नाराज हो चुके थे. उन्होंने अनुराग की भाभी से साफसाफ कह दिया, ‘‘बहनजी, आप लोगों ने शेफाली के साथ जो व्यवहार किया, उस से मु  झे बड़ा दुख पहुंचा है. सच बात तो यह है कि अगर मु  झे पहले से यह ज्ञात होता कि आप शेफाली के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे तो मैं शेफाली को अनुराग से रिश्ता करने की सलाह ही न नहीं देता.’’ इस के बाद उन लोगों ने रुखसत ले ली. वे लोग कानपुर के थे. कानपुर लौट गए. दूसरे ही दिन एफएम रेडियो पर शेफाली का कार्यक्रम था. यद्यपि इस घटना ने उसका मन खराब कर दिया था, पर इस मनोस्थिति के कारण गजल गाते समय उस के स्वर और दर्दीले हो उठे थे. अपनी नौकरी पर वापस जाने के लिए जब वह बैंगलुरु के एअरक्राफ्ट में चढ़ी तो सिर   झुकाए अपराधी की तरह भैया और भाभी के हाहाकार करते मन की बात जान कर उस का रोमरोम सिसक उठा. उस ने मन में यह निश्चय कर लिया कि अब वह कुंआरी ही रहेगी.

अचानक शेफाली के कानों में आवाज आई, ‘‘वी आर लैडिंग इन बैंगलुरु…’ शेफाली टैक्सी से उतर कर जब होस्टल में घुसी तब तक अंधेरा घिर आया था. उर्वशी ने अपने कमरे में उस के कुम्हलाए चेहरे को देखा तो उत्सुकता के बावजूद उस ने फिलहाल शेफाली से न मिलना ही उचित सम  झा. उस ने सोचा, सुबह जब शेफाली कुछ स्वस्थ हो जाएगी, तभी वह उस से सब जानने का प्रयत्न करेगी.

रात भर शेफाली को नींद नहीं आई. जीवन में पहली बार उसे महसूस हुआ कि प्राय: सभी दृष्टियों से अर्निद्य होते हुए भी उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न किया गया है. देर से नींद आने के कारण वह सुबह देर तक सोती रही. ‘‘अरे शेफाली, उठ जल्दी… इसे कहते हैं दीवानापन. तू तैयार हो कर अपने दीवाने का स्वागत कर और मैं जाती हूं चाय बनाने,’’ गहरी नींद में सोती शेफाली को अचानक उर्वशी ने आ कर   झक  झोर दिया.

 

आखिरी पेशी: भाग-1 आखिर क्यों मीनू हमेशा सुवीर पर शक करती रहती थी

मीनू शक्की थी और अपने पति सुवीर पर अकसर शक करती रहती थी. उसका यही शक एक दिन दोनों में अलगाव की वजह बन गया. उस दिन कोर्ट में आखिरी पेशी थी…

उस दिन अदालत में सुवीर से तलाक के लिए चल रहे मुकदमे की आखिरी पेशी थी. सुबह से ही मेरा मन न जाने क्यों बहुत घबराया हुआ था. इतना समय बीत गया था, पर थोड़ी छटपटाहट और खीज के अलावा मेरा दिल इतना बेचैन कभी नहीं हुआ था.

शायद इस की वजह यह थी कि उस के ठीक 8 दिन बाद ही दीवाली थी. किसी को तो शायद याद भी न हो पर मुझे खूब याद था कि 4 साल पहले दीवाली से 8 दिन पहले ही सुवीर से रूठ कर मैं मायके चली आई थी.

क्या पता था कि जिस दिन मैं ससुराल की देहरी छोड़ूंगी, ठीक उसी दिन मेरे और सुवीर के तलाक के मुकदमे का फैसला होगा.

सुवीर से बिछुड़े मुझे पूरे 4 वर्ष हो चुके थे. साल के और दिन तो जैसेतैसे कट जाते थे परंतु दीवाली आते ही मेरे लिए वक्त जैसे रुक सा जाता था, रुलाई फूटफूट पड़ती थी. जब सब लोग खुशी और उमंग में डूबे होते तो मैं अपने ही खींचे दायरे में कैद हो कर छटपटाती रहती.

यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं कि सुवीर से बिछुड़ कर यह सारा वक्त मैं ने अजीब घुटन सी महसूस करते हुए काटा था. इस के बावजूद सुवीर से तलाक की अर्जी मैं किस निर्भीकता और जिद में दे आई थी, इस पर मुझे अभी भी अकसर आश्चर्य होता रहता है. शायद उस वक्त मैं ने सोचा था कि सुवीर तलाक की अर्जी पर अदालत का नोटिस मिलते ही कोर्टकचहरी के चक्करों से बचने के लिए अपनी गलती महसूस कर मुझे स्वयं आ कर मना कर ले जाएंगे पर यह मेरी भूल थी.

मुकदमे की पहली ही पेशी में सुवीर ने अपने जवाब में तलाक का विरोध न कर के अदालत से उन्होंने आपसी सहमति वाले तलाक के प्रावधान पर मेरे वकील के कहने पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे. मेरे आवेदन को स्वीकार कर लेने का अनुरोध किया था. सुवीर के इस अप्रत्याशित रवैए से मेरे मन को बड़ा धक्का लगा था. मेरा मन खालीखाली सा हो गया था. अपने जीवन के अकेले, बोझिल और बासी क्षणों पर मैं कभीकभी बेहद खीज उठती थी. मन में अकसर यह विचार आता, यदि जिंदगी का सफर यों ही अकेले तय करना था तो शादी ही क्यों की मैं ने और फिर जब कर ही ली थी तो घर भर के कहे अनुसार एक बार लौट कर मुझे सुवीर के पास जरूर जाना चाहिए था. क्या पता, मुझे चिढ़ाने के लिए ही सुवीर उस लड़की के साथ घूमते रहे हों.

अब तक जितनी भी पेशियां हुई थीं उन में सुवीर मुझे बेहद उदास और टूटे हुए से दिखाई दिए थे. उन्होंने कभी अपने मुंह से वकील को कुछ  नहीं कहा था. बस, हर बार नजरें मिला कर और फिर  झुकाकर यही कहते रहे थे, ‘‘जैसा इन्हें मंजूर हो, मुझे भी मंजूर है.’’

जज हर बार मामले को 5-6 महीने के लिए टाल रहे थे,शायद इसलिए कि वे भांप गए थे कि यह आप का सिर्फ ईगो है.

कभी-कभी पेशियों से लौट कर मैं कितनी अनमनी हो जाती थी, सोचती, ‘क्या सुवीर नहीं चाहते कि मैं उन से अलग हो जाऊं? क्या सुवीर का उस लड़की से सचमुच ही कोई संबंध नहीं है? क्या सुवीर अभी भी मुझे प्यार करते हैं या यह सब नाटकबाजी है?’

बस, यहीं आ कर मैं हार जाती थी. पता नहीं क्यों मुझे लगता सुवीर नाटक कर रहे हैं. असल में वह खुद ही मुझसे छुटकारा पाना चाहते हैं और मैं सिर झटक कर सभी विचारों से मुक्ति पा लेती थी.

कचहरी 10 बजे तक पहुंचना था पर वक्त मानो रुका जा रहा था. पिताजी को मेरे  साथ जाने की वजह से उस दिन काम पर नहीं जाना था. वे बरामदे में बैठे थे.

मैं ऊबी सी कोई पत्रिका लेकर पलंग पर आ बैठी थी पर मन था कि बांधे नहीं बंध रहा था, उड़ा ही जा रहा था.

सुवीर से जब मेरा चट मंगनी पट ब्याह हुआ था तो मेरे सुनहलेरुपहले दिन न जाने कैसे पंख लगा कर उड़ जाते थे. कवियों की भाषा में यों कहूं कि मेरे दिन सोने के थे और रातें चांदी की तो कोई अतिशयोक्ति न होगी.

मुझे ऐसा घर मिला था कि मैं फूली न समाती थी. सुवीर अपने मांबाप के इकलौते बेटे थे. उन की 2 बहनें थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं. सासससुर साथ ही रहते थे और वे भी मु?ो खूब प्यार करते थे. सुवीर का प्यार पा कर तो मैं सब कुछ भूल ही गई थी. मैं ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था जहां में शादी से पहले से ही पढ़ाती थी.

सुवीर एक फैक्टरी में प्रबंधक के पद पर थे. हर शाम को उन के लौटने तक मैं उन की पसंद की कोईर् चीज बनाया करती और सुंदर कपड़े पहन कर दरवाजे पर ही उन का स्वागत किया करती थी.

शाम की चाय हम इकट्ठे पी कर अकसर घूमने निकल जाया करते थे. कभी

कहीं, कभी कहीं. वैसे मेरी सास भी बहुत उदार दिल की थीं. हम न जाते तो वे सुवीर से कहतीं, ‘‘बहू सारा दिन काम कर के आई है. ऊब गई होगी. तू भी ऊब गया होगा. जा, कहीं इसे घुमा ला, बेटा. फिर यही दिन तो घूमनेफिरने के हैं. एक बार बच्चों और गृहस्थी के जंजाल में फंसोगे तो फिर चिंता ही चिंता.’’

और हम रोज ही शाम को बातें करतेकरते कहां के कहां पहुंच गए, यह हमें ध्यान ही नहीं रहता था. जब कुछ खापी कर घर लौटने लगते, तब कहीं रास्ते की दूरी का एहसास होता था. इसी तरह शादी हुए 8 महीने गुजर गए थे. एक दिन सुवीर की छुट्टी थी. हम पिकनिक मनाने के उद्देश्य से स्थानीय ?ाल गए थे. वहां काफी भीड़ थी.

घूमफिर कर हम एक जगह चादर बिछा कर बैठ गए थे. हम ने सस्ते में एक जगह से खाना पैक करा लिया था. खानेपीने की चीजें निकालने में व्यस्त हो गई थी और फिर सिर नीचा किएकिए ही मैं ने सुवीर से पूछा, ‘‘खाना निकालूं?’’

सुवीर ने कोई जवाब नहीं दिया. अपने ही विचारों में गुनगुनाते मैं ने यही सवाल दोबारा किया पर जवाब फिर नदारद था. अचानक मैं ने सिर उठा कर देखा तो सुवीर एक  बेहद सुंदर युवती को घूरघूर कर देख रहे थे और वह दबंग युवती भी सुवीर को बिना मेरी परवाह किए आंखों में आंखें डाल कर देखे जा रही थी.

मेरा मन नारी सुलभ ईर्ष्या से जल उठा. लाख सुंदर सही पर मेरे होते हुए

सुवीर का इस तरह उसे देखना मुझे फूटी आंख नहीं भाया. जी तो किया कि उसी समय उस लड़की का मुंह अपने लंबे नाखूनों से नोच लूं पर फिर न जाने क्या सोच कर मैं ने गुस्से में भर कर सुवीर को झकझोर दिया.

मेरे हिलाने से सुवीर मानो सम्मोहन की दुनिया से लौट आए थे. उधर वह युवती भी अचकचा कर चलती बनी थी. पर मैं ने सुवीर को खूब आड़े हाथों लिया, ‘‘क्यों, ऐसी क्या खास बात थी उस में जो भूखे शेर की तरह उसे घूर रहे थे? शर्म नहीं आती लड़कियों को इस तरह देखते हुए? बताओ, आखिर क्या देख रहे थे? क्या कोई पुरानी जानपहचान है?’’

इधर मैं तो गुस्से में आगबबूला हुई जा रही थी और उधर सुवीर अभी भी खोएखोए से थे. सिर्फ हांहूं कर रहे थे. आंखों की पुतलियां भले ही उस लड़की को नहीं देख पा रही थीं परंतु उन में नाचती तसवीर और आंखों का बावरापन साफ बता रहा था कि सुवीर अभी भी उसी के खयालों में डूबे बैठे हैं.

खिसिया कर मैं ने जोर से सुवीर को फिर झकझोरा तो एक बार फिर हां कह कर वे उसी ओर देखने लगे जिधर वह युवती गईर् थी.

मारे गुस्से के मैं पैर पटकती उठ खड़ी हुई और अकेली ही सारा सामान सुवीर के भरोसे छोड़ कर औटो कर के घर चल दी.

सास ने मुझे देखा तो आश्चर्य में पड़ गईं. बोली, ‘‘सुवीर कहां है? क्या अकेली आई हो? सामान कहां है?’’

न जाने वे क्याक्या पूछती रहीं. मैं ने आंखों के उमड़ते सैलाब को रोक कर कहा, ‘‘आएं तो उन्हीं से पूछिएगा.’’

और मैं फटाक से कमरे का दरवाजा बंद कर के पलंग पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. सुवीर का बावरापन याद आते ही मुझे लगा कि जरूर इन दोनों में कोई गहरी सांठगांठ है और कोई बात मुझसे छिपाई गई है. बगैर जानपहचान के कोई भी लड़की इस तरह गैरमर्द को नहीं देख सकती. मेरे मन में तरहतरह के सवाल उठ रहे थे. क्या पता साथ पढ़ती रही हो? क्या पता सुवीर की प्रेमिका हो और शादी के बाद भी वह उन से प्यार करते हो? हो सकता है रखैल ही हो.

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