भारत में धर्म की दुकानें

भारत के गुरू, स्वामी, धर्माचार्य, महंत, पंडित, पुजारी इस मामलों में अपने अमेरिकी तरहतरह के चर्चों में पादरियों, प्रिस्टों, बिशपों, पेस्टरों से बेहतर हैं. भारत में शायद ही किसी पर सैक्सुअल एब्यूज करने का आरोप लगता है पर अमेरिका के दक्षिण में चर्च के एक संप्रदाय साउदर्न बापटिस्ट कनवेंशन के पास 2000 से 2019 तक के 700 चर्च के पादरियों पर लगाए गए आरोपों की लंबी लिस्ट है. वर्षों से साउदर्न बापटिस्ट कनवेंशन चर्च इस लिस्ट में नए नाम जरूर जोड़ता रहा है पर इसे पब्लिक होवे से रोकता रहा है.

मई 2022 में जब यह रिपोर्ट लीक हो गई और इस लिस्ट के चेहरे टीवी स्क्रीनों पर दिखने लगे तो चर्च ने माना कि इन लोगों ने सैंकड़ों लोगों की जिंदगियों से खेला है और साउदर्न बापटिस्ट कनवेंशन चर्च रूस चर्च के पादरियों के गुनाहों के शिकारों को कुछ न्याय दिलाने का वायदा करता है.

विदेशी चर्च को भारत में एक समझा जाता है जबकि विदेशों में चर्च सैंकड़ों टुकड़ों में बंटा है ठीक वैसे ही जैसे हमारे यहां हर मंदिर, हर आश्रम, हर मठ अपने एक गुरू या संप्रदाय की निजी संपत्ति होता है. न चर्च, न गुरूद्वारों न बौंध मठ, न मंदिर किसी एक सत्ता के अंग है. वे सब अलगअलग अस्तिाव रखते हैं और सब के पास अपार संपत्ति है और धर्म की गाड़ी ईश्वर नहीं पैसा चलाता है जो भक्त दान करते हैं और चर्च या धर्म की हर दुकान में काम करने वालों को सेक्स सुख पाने का अक्सर खास मोटिव होता है. कैलीक्रोर्निया के इस चर्च में कम से कम 700 लोगों पर दोष लगाया जा चुका है और जब से यह भंडाफोड़ हुआ है, नए नाम जुड़ रहे हैं.

चर्च की चर्चा इसलिए की जा रही है कि भारत में धर्म की दुकानें आमतौर पर इन आरोपों से मुक्त रहती हैं. हमारे भक्त अमेरिकी भक्तों से ज्यादा भक्तिभाव रखते हैं और अपने पंडि़तों, स्वामियों गुरूओं के खिलाफ ज्यादा बोलते नहीं है. आसाराम बापू जैसे इक्केटुक्के मामलों में सजा हुई है पर आमतौर पर अगर मामला अदालत में चला जाता भी है तो जज या तो घबरा कर उसे टालते रहते है या मामले में पूरे सुबूत नहीं है कह कर बंद कर देते हैं.

सैक्सुअल एब्यूज पर हर तरह के धर्म लाखों डालर के समझौते हर साल आजकल कर रहे हैं. पीडि़तों को वे कहते हैं कि भगवान  के काम में ज्यादा दखलअंदाजी न करो, मरने के बाद ईश्वर को क्या जवाब दोगे. भक्त जो ईश्वर की काल्पनिक भक्ति में अगाध विश्वास रखता है आमतौर पर चुप रहता है. चर्चा के पादरियों के सैक्सुअल एब्यूज का उस के पास वही उत्तर होता है जो एक हिंदू के पास है. ईश्वर सब देखता है, ईश्वर सब पापों का दंड खुद देगा.

धर्म के हर तरह के दुकानदारों, भक्तों को इस तरह भ्रमित कर रखा है कि वे संतों, महंतों, पादरियों मुल्लाओं की हर ज्यादती को वरदान समझते हैं. वे तनमन और धन से की जाने वाली सेवा में तन में की जाने वाली सेवा का कोई अवसर नहीं छोडऩा चाहते. जिन गुनाहों पर सेक्यूलर सरकार और कानून गुनाहगार को जेल में डाल देता है, उसी को धर्म केवल पाप कहता है और या तो प्रायश्चित करवाता है या कह देता है कि चाय भरने के बाद ईश्वर की अदालत में होगा. जब गुनाहगार ईश्वर का अपना एजेंट हो तो कौन सा कानून उसे सजा देगा यह अमेरिका में स्पष्ट है, भारत में भी.

ये भी पढ़ें- महिला नेता: नाम बड़े और दर्शन छोटे

शिक्षा के लिए भटकते छात्र

हमारे युवाओं में पढऩे की ललक नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि अकेले चीन में 23,000 भारतीय युवा मीडिकल की पढ़ाई करने नहीं जाते. विदेश में अपनों से दूर, अलग भाषा, अलग रहनसहन में मेडिकल की पढ़ाई का रिस्क लेना इन स्टूडेंट्स की किसी भी तरह एक स्किच जानवर अपना भविष्य बनाने का एम साबित करता है पर कोविड की वजह से ये अब भारत लौट कर अपनी आधीअधूरी पढ़ाई औन लाइन कर रहे हैं.

ये 2300 स्टूडेंट्स केवल बड़े शहरों के नहीं, यूपी, हरियाणा, उत्तराखंड, तमिलनाडू के भी हैं और अब इंतजार कर रहे हैं कोविड का कहर खत्म हो. हालांकि चीन लौटना इन के लिए बेहद मंहगा होगा क्योंकि इस समय एयर टिकट 1 लाख रुपए का है और फिर 15-20 दिन अपने खर्च पर क्वारंटीन होना पड़ता है. सस्ती फीस और एडमिशन के चक्कर में भी युवा चीन गए थे और इन्हें उम्मीद थी कि धीरेधीरे स्थिति ठीक होगी और वे चीनी डिग्री के साथ दुनियाभर में मेडिकल प्रेक्टिस करने की कोशिश कर सकते हैं.

जब यूक्रेन पर रूस ने हमला किया था तो भी पता चला कि कितने भारतीय स्टेडेंट्स वहां पढ़ रहे हैं जबकि यूक्रेन तो चीन की तरह विकसित भी नहीं है. भारतीय स्टूडेंट्स पहले अफगानिस्तान में पढ़ रहे थे. तजाकिस्तान, कजाकिस्तान जैसे पूर्व सोवियत संघ के देशों में भी हजारों छात्र हैं.

यह भारतीय एजूकेशन की पोल खोलता है कि देश अपने ही स्टूडेंट्स के प्रति इतना ज्यादा बेरहम है कि उन्हें शिक्षा बेचने वाली देशी विदेशी संस्थाओं के आगे लुटनेपिटने भेज देता है. अपने चारों ओर कोई आस न देख कर हार कर भारतीय स्टूडेंट्स जहां भी एडमिशन मिलता है वहां का रूख कर लेते हैं. मेडिकल के अलावा और बहुत से कोर्स आज विदेशों में किए जा रहे हैं.

मानना पड़ेगा कि भारतीय मांबाप इतने दिलेर है कि लाखों खर्च कर के अपने लाडलों को अनजाने देशों की अनजानी डिग्री लेने भेजे देते हैं जिस की क्लालिटी और एक्स्पटैंस का कोई अतापता नहीं है. यह भी मानना पड़ेगा कि हमारी शिक्षा ब्यूरोक्रेसी कितनी मोटी खाल की है कि उसे भारतीय छात्रों की इन तकलीफो का कोई ख्याल नहीं है और देश में ही सस्ती शिक्षा सुलभ कराने में वे कुछ नहीं कर रहे. कहने को हम जगद्गुरू हैं पर हमारे यहां का हर अच्छा छात्र विदेश में जा कर गुरू ढूंढ़ता है.

ये भी पढ़ें- बर्बाद होता युवाओं का भविष्य

बर्बाद होता युवाओं का भविष्य

35 वर्षकी आयु में युवा अब बचत कम कर रहे हैं और अपनी सारी कमाई आज ही शौकों में पूरा कर रहे हैं. कोविड से यह खर्चीलापन बड़ गया है क्योंकि अकेले रहने वाला अब आज की सोचते हैं, कल का न जाने क्या होगा? जिस के निकट संबंधी कोविड की मौत के शिकार हो गए हैं, उन में तो नेगेटिविजन भर गया कि कल का क्या करूं, कल की बचत क्यों करें.

यह खतरनाक स्थिति है. बिमारी को तो असल में बचत की आदत डालनी चाहिए क्योंकि महामारी के दिनों में जब कमाई बंद हो जाए और इलाज पर खर्च बढ़ जाए तो अपनी बचत ही काम आएगी, कोविड के दिनों में तो बहुत सी जानें इसलिए गई कि इलाज, औक्सीजन, वैंटीलेटर, हास्पिटल के लायक पैसे बचे  नहीं थे.

दिक्कत यह है कि कोविड की आइसोलेशन ने लोगों को मोबाइल, लैपटौप का गुलाम बना दिया जो बारबार नया खरीदने को उकसाते रहते हैं. मोबाइल और लैपटौप पर औन लाइन जानकारी में विज्ञापन भरे ही नहीं हैं, वे पढऩे के दौरान बारबार बीच में आते हैं और अब जब तक एड फ्री साइट का पैसा न दिया गया हो, वे उन चीजों को बेचते हैं जो जरूरत की नहीं है जिन के दामों के बारे में कहीं से चैक नहीं किया जा सकता.

औफ लाइन बाजार में खरीदी का एक फायदा है कि दुकानदार अपनेआप में एक फिल्टर होता है. वह वही सामान रखता है जो ठीक है और जिसकी शिकायत करने के लिए अलग दिन ग्राहक फिर घर आ कर खड़ा न हो जाए. औफ लाइन बाजार में खरीदारी करने के लिए आनेजाने में लगने वाले समय और पैसे का एक फिल्टर होता है जो बेकार की खरीदी को रोकता है. दुकान से सामान ढो कर घर तक ले जाने के डर का एक और फिल्टर लग जाता है. अगर सामान अच्छा ओर लोकप्रिय हो तो आसपास की कई दुकानों पर वही सामान मिलने लगता है और दुकानदार मुनाफा कम कर के कंपीटिशन में सस्ता बेचते हैं.

औन लाइन खरीद में कार्ड से पेमेंट करते समय लोग भूल जाते है कि इस माह वे कितने का सामान खरीद चुके हैं. उन को छोटी चीजें याद ही नहीं रहती. पेमेंट करने के बाद डिलिवरी का समय देर से होता है तो नौंटकी दिया राम भूल जाना बड़ी बात नहीं होती. जब सामान मिलता है तो वह एक तरह से गिफ्ट लगता है और पैकेंट उसी तरह खोला जाता है मानो किसी ने गिफ्ट दिया हो.

इस मैंटिलिटी का नतीजा है कि आज के युवाओं के पास पैसा नहीं बना रहे. यूरोप, अमेरिका में सैकड़ों युवा बड़े शहरों से अब मातापिता के पास फिर शिफ्ट हो रहे हैं जहां रहना खाना मुफ्त मिलता है. जेनरेशन गैप के विवाह तो होते हैं पर अकेले मातापिता भी खुश रहते है. उन्हें दिक्कत तब होती है जब खाली हाथ बच्चे शादी के बाद आ धमकते हैं और फिर ससुरदामाद या सासबहू का विवाद शुरू हो जाता है. यदि समय रहते बचत की जाती तो यह नौबत नहीं आती.

युवाओं की पढऩे की तेज से कम होती आदत और बेबात में पिंगपिग करते मैसेज उन्हें किसी भी बात को गंभीरता से करने का समय नहीं देते. हर वह व्यक्ति जो खाली है, जब मर्जी किसी को हाई का मैसेज डाल देता है, कोई चीज फौरवर्ड कर देता है. मोबाइल हाथ में आते ही विज्ञापन भी टपकने लगते हैं और लाख कोशिश करो वे हटते नहीं है.

खर्चीले युवा न केवल एक पूरी पीढ़ी को भूखा मारेंगे, वे डैल्लेपमैंट को रोक लगा देंगे. दुनिया का विकास बचत पर हुआ. रोमन युग में सडक़ें और पानी लाने के एक्वाडक्ट बने थे ये आम लोगों की बचत के कारण. युवाओं की प्रौडक्टिविटी जब ज्यादा होती है तब वे ज्यादा खर्चा कर बचत नहीं करेंगे तो पूरी वल्र्ड इकौनौमी का कचरा बैठ जाएगा. यह कोविड और रूसी हमले की तरह है जो खतरनाक नतीजे दे सकता है.

अपना समय बचत बेकार का सामान खरीदने में न लगाएं. कुछ बनाए और उसे बनाने के लिए पढ़ कर कुछ जानकारी लें. सुखी आज और कल के लिए बचत ही सब से ज्यादा जरूरी है.

ये भी पढ़ें- दहेज कानून: कवच बन गया हथियार

दहेज कानून: कवच बन गया हथियार

वैशाली और रोहित की शादी 3 साल पहले ही हुई थी. वैशाली के पिता सेवानिवृत्त हो चुके थे जबकि वैशाली शादी के बाद भी नौकरी कर रही थी. वह चाहती थी कि अपनी पूरी तनख्वाह अपने मायके वालों को दे ताकि वहां का खर्च चल सके. पति और ससुराल वालों का कहना था कि उन्हें इस बात की आपत्ति नहीं है कि वह मायके को आर्थिक सहयोग क्यों कर रही है पर ससुराल की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है, इसलिए वह आधी तनख्वाह ही अपने मायके वालों को दे.

मगर वैशाली ने एक न सुनी और अपनी सारी तनख्वाह मायके को देती रही. इस बात को लेकर पति और सासससुर से उस से कई बार विवाद भी हुआ. जब बात बढ़ी तो उस ने अपने पति और ससुराल वालों से कहा कि वह उन्हें दहेज मांगने और उस के लिए प्रताडि़त करने के झठे मामले में फंसा देगी. बेचारे ससुराल वाले चुप हो गए.

रोहित के पिता यानी वैशाली के ससुर भी इस बीच बीमार पड़ गए. उन के इलाज में काफी पैसा चाहिए था. इसलिए पति ने अपनी पत्नी को सख्त हिदायत दी कि वह आगे से अपनी तनख्वाह मायके न भेजे. उसे तैश आ गया और पुलिस में जा कर उस ने अपने पति और सासससुर के खिलाफ दहेज के लिए सताने, प्रताडि़त करने की रिपोर्ट लिखा दी. पुलिस उन्हें पकड़ कर ले गई. बड़ी मुश्किल से जमानत हुई.

सिक्के का दूसरा पहलू

तनू की शादी मनोज से हुई. शादी के समय लड़के वालों ने किसी तरह की कोई मांग नहीं रखी. लड़की वालों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो कुछ किया, वह स्वीकार किया गया. शादी के बाद पता चला कि तनू के किसी लड़के के साथ पहले से ही प्रेम संबंध थे और आज भी वह उस से लुकछिप कर मिलती है.

एक दिन पति ने उसे अपने प्रेमी के साथ रंगरलियां मनाते देख लिया और घर आने पर उस की पिटाई कर दी. इस पर उस ने हल्ला मचा कर पति को बदनाम कर दिया कि वह दहेज में मोटरसाइकिल की मांग कर रहा है. नहीं दी, इसलिए मु?ो मारा. पुलिस व कोर्ट को उस ने अपनी चोट भी दिखाई, लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं किया कि उस के विवाहेतर संबंध हैं. नतीजतन दहेज प्रताड़ना के आरोप में आज पति जेल में बंद हैं.

मोनिका की शादी नरेंद्र से हुई है. शादी के बाद से ही दोनों के विचार मेल नहीं खाए. घरपरिवार वालों ने कहा कि यदि नहीं पटती है तो एकदूसरे से तलाक ले लें, लेकिन वह इस के लिए तैयार नहीं हुई. बोली मैं तो ससुराल वालों की छाती पर मूंग दलूंगी. जरा सा विवाद होने पर वह पुलिस थाने पहुंच जाती है तथा दहेज प्रताड़ना की रिपोर्ट दर्ज करा देती है. अब तो पुलिस भी इस बात को जान गई है कि आपसी विवादों को दहेज प्रताड़ना का नाम दिया जा रहा है.

प्राय: देखा गया है कि लड़की ससुराल में जा कर दहेज प्रताड़ना का आरोप लगाने की धौंस दे कर अपनी मनमानी करती है या अपनी मरजी से पति और ससुराल वालों को चलाना चाहती है. जब उस की बात नहीं बनती या उस का विरोध होता है तो वह दहेज प्रताड़ना का आरोप लगाने से भी नहीं हिचकिचाती.

तलाक का दुख

आजकल 28 से ले कर 35 साल तक सैकड़ों लड़कियां तलाक का दुख भोग रही हैं क्योंकि पतिपत्नी में नहीं बनती. कल तक लड़कियों और पत्नियों को पैर की जूती समझ जाता था, आज उन में हजारों हुनर सीख कर पैसा कमाने लगी हैं और वे सासससुर, जेठजेठानी या अपने पति का रोब सहने को तैयार नहीं हैं.

जब रीतिरिवाज का नाम ले कर रोकटोक लगाने की कोशिश की जाती है तो दबंग या पढ़ीलिखी लड़कियां पति पर आरोप लगा डालती हैं, कुछ झठे, कुछ सच्चे. दहेज का आरोप लगाना बड़ा आसान है.

प्रश्न यह है कि यदि लड़की वालों को पहले से ही यह ज्ञात है कि सामने वाला दहेज का इच्छुक है, तो क्यों करते हैं शादी वहां? सामने वाला जबरदस्ती तो किसी लड़की से शादी नहीं करता. यदि आप को वहां शादी नहीं करनी है तो न करें, लेकिन शादी के बाद उन्हें दहेज प्रताड़ना के झठे केस में तो न फंसाएं.

सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में फैसला देते हुए कहा है कि किसी व्यक्ति को केवल दहेज की मांग के आधार पर ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है जब तक कि इस के लिए मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना न दी गई हो और इस के चलते मौत हुई हो.

बैंच ने एक फैसले में कहा है कि अभियोजन को इस संबंध में पुख्ता सुबूत पेश करने होंगे कि पीडि़त की मौत से पहले आरोपी ने मांग के सिलसिले में उसे प्रताडि़त किया था. भारतीय दंड विधान की धारा 498 ए या 304 बी के तहत दहेज मांगना अपनेआप में कोई अपराध नहीं है.

कानून का बेजा इस्तेमाल

दहेज कानून को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. मामला चाहे जो हो उसे दहेज से जोड़ कर ससुराल पक्ष को प्रताडि़त और अपमानित किया जा रहा है. शिक्षित, उच्च पदों पर पदस्थ महिलाएं भी इस कानून की आड़ में ससुराल पक्ष को मजा चखाने से बाज नहीं आतीं. यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सलाह दी थी कि दहेज मामलों का दुरुपयोग न हो, इस के लिए दहेज कानून पर फिर से विचार किया जाए.

आज लड़कों को शादी के लिए लड़कियां मिल नहीं रही हैं. ऐसे में दहेज मांगने की बात समझ से परे है बल्कि कई बार तो शादी का पूरा खर्च लड़के वाले ही उठाते हैं. लेकिन बाद में लड़की वाले दहेज प्रताड़ना के झठे आरोप में उन्हें फंसा देते हैं.

फर्जी मुकदमे

अभी स्थिति यह है कि दहेज प्रताड़ना के 90% मुकदमे फर्जी होते हैं. उन में सत्यता कम और असत्यता ही अधिक होती है. कानून ऐसा है कि इस में बड़ी आसानी से निर्दोषों को फंसाया जा सकता है. शादी के 25 साल बाद या 3-4 बच्चे होने के बाद दहेज का मुकदमा करना, मुकदमे की पोल खोल देता है.

आमतौर पर सासससुर अपनी बहू को बेटी की तरह ही रखते हैं और उस की सुखसुविधा में कोई कसर नहीं छोड़ते. हजार में से कोई एक इस का अपवाद भला हो सकता है, लेकिन अब गेहूं के साथ घुन भी पिसने लगा है. परिवार का हित चाहना बहू को रास नहीं आता. ऐसे में वह उन्हें अपने तरीके से परेशान करने लगती है तथा वैमन्स्य, दुर्भावना और समझ के अभाव में वह अपने ही मातापिता तुल्य सासससुर को जेल पहुंचा देती हैं.

ये भी पढ़ें- लड़की बोझ क्यों

लड़की बोझ क्यों

बेटे पैदा करने का दबाव औरतों पर कितना ज्यादा होता है इस का नमूना दिल्ली के एक गांव में मिला जिस में एक मां ने अपनी 2 माह की बेटी की गला घोंट कर हत्या कर दी और फिर उसे कुछ नहीं सू झा तो एक खराब ओवन में छिपा कर बच्ची के चोरी होने का ड्रामा करने लगी. इस औरत के पहले ही एक बेटा था और आमतौर पर औरतें एक बेटे के बाद और बेटी से खुश ही होती हैं.

हमारा समाज चाहे कुछ पढ़लिख गया हो पर धार्मिक कहानियों का दबाव आज भी इतना ज्यादा है कि हर पैदा हुई लड़की एक बो झ ही लगती है. हमारे यहां पौराणिक कहानियों में बेटियों को इतना अधिक कोसा जाता है कि हर गर्भवती बेटे की कल्पना करने लगती है.

रामसीता की कहानी में राम तो राजा बने पर सीता के साथ हमेशा भेदभाव होता रहा. महाभारत काल की कहानी में कुंती हो या द्रौपदी या फिर हिडिंबा सब को वे काम करने पड़े थे जो बहुत सुखदायी नहीं थे.

ये कहानियां अब हमारी शिक्षा का अंग बनने लगी हैं. औरतों को त्याग की देवी का रूप कहकह कर उन का जम कर शोषण किया जाता है और वे जीवनभर रोतीकलपती रहती हैं. कांग्रेसी शासन में बने कानूनों में औरतों को हक मिले पर उन का भी खमियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है क्योंकि हर हक भोगने के लिए पुलिस और अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और भाई या पिता को उस के साथ जाना पड़ता है तो वे उस दिन को कोसते हैं जब बेटी पैदा हुई थी. हर औरत के अवचेतन मन में इन पौराणिक कहानियों और औरतों के व्रतों, त्योहारों से यही सोच बैठी है कि वे कमतर हैं और उन्हें ही अपने सुखों का बलिदान करना है.

रोचक बात है कि लगभग सारे सभ्य समाज में, जहां धर्म का बोलबाला है, औरतें एक न एक अत्याचार की शिकार रहती हैं. पश्चिमी अमीर देशों में भी औरतों की स्थिति पुरुषों के मुकाबले कमजोर है और बराबर की योग्यता के बावजूद वे ग्लास सिलिंग की शिकार रहती हैं और एक स्तर के बाद उन की पदोन्नति रुक जाती है. जब पूरे विश्व में पुरुषों का बोलबाला हो तो क्या आश्चर्य कि दिल्ली के चिराग दिल्ली गांव की नई मां को बेटी के जन्म पर अपना दोष दिखने लगा हो और गलती को सुधारने के लिए उसे मार ही डाला हो.

अब उस औरत को सजा देने की जगह मानसिक रोगी अस्पताल में कुछ दिन रखा जाना चाहिए. वह अपराधी है पर उस के अपराध पर उसे जेल भेजा गया तो उस के पति और बेटे का जीवन दुश्वार हो जाएगा. पति न तो दूसरी शादी कर सकता है, न घर अकेले चला सकता है.

ये भी पढे़ं- अंधविश्वास की आग

देश खुशहाल रहेगा जब औरतें खुश रहेंगी

लो जी देश की औरतों और उन के परिवारों को (मंदिर और मसजिद भी) ले जाने के लिए प्रचार का धुआंधार कार्यक्रम ज्ञानवाणी मसजिद और मथुरा से चालू हो गया है. जितनी मंदिर के नाम पर सुर्खियां आएंगी उतने ज्यादा मंदिरों के ग्राहक बढ़ेंगे और पूजा सामग्री भी ज्यादा बिकेगी, मोहल्लेका मंदिर हो या चारधाम, लाइनें बढेंगी, लोग कुंडलियों, वास्तु, आयुर्वेद, शुभ समय, पूजापाठ को दोड़ेंगे. यह औरतों को पता भी नहीं चलेगा कि इस की कीमत वे दे रही हैं, वे तो इस बात से खुश हैं कि उन का धर्म चमचमा रहा है या इस बात से गम में कमजोर हो रही है कि उन के धर्म पर हमले हो रहे हैं.

मंदिर मसजिद विवाद का अंतिम असर जो जीवन भर दर्द रहेगा, औरत पर पड़ता है. यह उसी का बेटा या पति है जो उस भीड़ में गला फाड़ता है जो मंदिरमंदिर चिल्ला रही है और घर आ कर पूछता है खाने को क्या है? वह  काम पर नहीं जाता पर खाना ज्यादा मांगना है क्योंकि उस का गला सूख रहा है, बदन दर्द कर रहा है.

जो चंदा मंदिर के नाम पर उपद्रव करने के लिए जमा किया वह औरत की आय का हिस्सा है. जिस का घर जलाया गया, बुलडोजर से तोड़ा गया वह औरत की सुरक्षा की छाया थी. जिसे रात्रि जागरण के लिए बुलाया गया, 4 घंटे जमीन पर बैठा कर कीर्तन गाए गए जिस के अंत में मंदिर वहीं चाहिए के नारे लगे वह औरतें ही थीं. ये वे औरतें हैं जो घर लौट कर कपड़े धोएंगी, सुखाएंगी, राशन, लाएंगी, खाना बनाएंगी, पर घर साफ रखेंगी. न मंदिर यह काम करेगा, न मसजिद.

अगर शहरों में मंदिरमसजिद को ले कर दंगे हुए तो आज का खाना कैसे बने या मिलेगा इसी औरत को होगी. अगर मंदिर के आदेश पर घर में 12 मूर्तियां या फोटो लगा दी गई तो उन के कपड़े धोने उन के आगे दिए जलाने का काम औरत का ही है जो उस महान हिंदू धर्म की रक्षा कर रही है जो उसे पाप योनि का कहना है, उसे वस्तु मान कर दान करवाता है, जीवन भर सुहागन रहने के लिए तरहतरह व्रत करवाता है, पति के लौन पर दोषी ठहरा कर स्थान वे कोने में फेंक देता है.

वाराणसी और मथुरा में अयोध्या के बाद क्या होगा यह निरर्थक अगर देश की औरतें खुश नहीं हैं उन्हें तो अंधविश्वास की आग में झोंक कर जय सती माता का नारा लगा दिया जाता है.

ये भी पढ़ें- घरेलू हिंसा की शिकार औरतें

घरेलू हिंसा की शिकार औरतें

सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में औरत को शेयर्ड हाउसहोल्ड में रहने का अधिकार दे कर एक नया दौर शुरू किया है. सताई हुई औरतें वहां जाएं, कौन सी छत ढूंढ़ें, यह सवाल बहुत बड़ा है जो किसी कारण अकेली रह गई हों, पति ङ्क्षहसक हो, बच्चे छोड़ गए हों उम्र हो गई हो, लंबी बिमारी हो, पूजापाठी जनता किसी भी बेचारी औरत को निकालने में जरा सी हिचकिचाती नहीं है.

सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि डोमेस्टिक वायलैंस एक्ट की धारा 17 (1) ऐसी किसी भी औरत को, चाहे वह मां हो, बेटी हो, बहन हो, पत्नी हो, विधवा हो,  सास हो, बहू हो घर में रहने का अधिकार रखती है चाहे उस के घर घर में सपंत्ति का हक हो या न हो. यह अधिकार हर धर्म, जाति की औरत का है. कोई भी उस अनचाही औरत को घर से नहीं निकाल सकता जो किसी अधिकार से उस घर में कभी आई थी.

एक पत्नी अपने पति के घर में रहने का हक रखती है चाहे घर पति का न होगा पति के मातापिता या भाईबहन का हो अगर पति वहां रह रहा है. उसी तरह घर की बेटी को घर से नहीं निकाला जा सकता. चाहे उस का विवाह हो गया हो और वह पति को छोड़ आई हो. कोई मां को नहीं निकाल सकता कि उसे अब दूसरे बेटे या बेटी के पास जा कर रहना चाहिए कोई औरत छत से मेहरूम न रहे इस तरह का फैसला अपने आप में क्रांतिकारी है. सोनिया गांधी की सरकार के जमाने में 2005 में बना हुआ यह कानून व यह फैसला असल में उन पौराणिक कथाओं पर एक तमाचा है जिन में पत्नी को बेबात के बिना बताए घर से निकाल दिया गया क्योंकि कुछ लोगों को शक था. यह उन कथाओं और मान्यताओं पर प्रहार है जिन में औरतों को गलती करने पर पत्थर बना दिया जाता था -जो सडक़ पर पड़ा रहे.

भारतीय संस्कृति में तो पापपुण्य का हिसाब रहता है, विधवा आमतौर पर पाप की भागी मानी जाती है कि वह पति को खा गई और उसे कैसे ससुराल में रहने की इजाजत दी जा सकती है. यह फैसला ऐसी औरतों को पौराणिक संस्कृति के विरुद्ध जा कर संरक्षण देता हैं.

विडंबना यह है कि इस समाज में वे ओरतें ही धर्म की दुहाई देती हैं जो कभी न कभी उसी धर्म को मान्यताओं की शिकार बनती हैं. आजादी के बाद बहुत से कानून बने जिन में औरतों को हक मिले पर वे कट्टरपंथी सरकारों की देन नहीं है. कट्टरपंथी तो उन को पूजास्थलों तक ले जाने में व्यस्त रहते है.

ये भी पढ़ें- लिवइन रिलेशनशिप और कानून

लिवइन रिलेशनशिप और कानून

जब मन को कोई अच्छा लगे तो उस की बैकग्राउंड बेमतलब हो जाती है. गुडग़ांव में अभी एक जोड़े के शव किराए के मकान में मिले 22-23 के साल के दोनों लिवइन में रह रहे थे जबकि युवक शादीशुदा था और उस की पत्नी बूटान की थी. लडक़ी जानते हुए थी कि लडक़ा शादीशुदा है 15 महीने से उस के साथ रह रही थी. दोनों अच्छाखासा कमा रहे थे. एक 5 स्टार होटल में शैफ था. दूसरी फूड डिलिवरी चेन में मैनेजर थी.

उन्होंने किस कारण जान दीं, यह नहीं पता पर यह अवश्य पहली बार में पता चला कि बाहर के किसी जने ने आकर उन्हें मारा नहीं था. पुलिस को लडक़ी बैड पर मिली और लडक़ा पंखे से लटका.

अपनी ङ्क्षजदगी अपने मनचाहे के साथ मनमर्जी से जीने का हक सब को है पर जब यह हक विवाह में बदल जाए तो बहुत चुभता है. लिवइन में सब से बड़ा खतरा यही है कि पार्टनर कभी भी बिना नोटिस दिए वर्क आउट कर सकता है और दूसरे के सुखदुख का तब उसे कोई ख्याल नहीं रहता. लिवइन रिलेशनशिप में जिम्मेदारी वर्षों बाद आ पाती है. अगर दोनों में से एक भी शादीशुदा हुआ या मातापिता पर निर्भर हो या उन की जिम्मेदारी हो तो लिवइन के लिए मुश्किलें बढ़ जाती है. पैसे और समय को ले कर कभी भी तकरार हो सकती है क्योंकि लिवइन पार्टनर आमतौर पर साथ वाले की समस्याओं को अपनी समझना.

लिवइन का मतलब ही टैंपरेरी अरेजमैंट होता है और इस में एक कुर्सी तक खरीदने पर 4 बार सोचना पड़ता कि कौन खर्च करेगा और रास्ते अलग हो जाने के बाद इस का क्या होगा? अब जब तक साथ रहेंगे तो 4 कुर्सियां, 1 बैड, 1-2 टेबल, गैस, बर्तन तो चाहिए होंगे न. पार्टनरशिप टूटने पर क्या होगा.

लिवइन रिलेशनशिप न कानून है, न होना चाहिए. यह 2 व्यस्कों की अपनी टेलेंट और अपना नीडबेस्ड है. इसे कानूनी दायरों में नहीं बांध जाना चाहिए. अदालतों को लिवइन पार्टनर की हर शिकायत को पहली बार में ही खिडक़ी से बाहर फेंक देना चाहिए क्योंकि जो लोग अपनी प्रौब्लम्स खुद सोल्व नहीं कर सकते उन्हें लिवइन के रास्ते पर जाना ही नहीं चाहिए.

पुलिस को मारपीट में भी दखल कम करना चाहिए क्योंकि जरा सा गुस्सा दिखाने पर दूसरे के पास घर का हक है. जब लडक़ालडक़ी राजी तो क्या करेगा काजी का फार्मूला निभाया जाना चाहिए.

ये भी पढ़ें- धर्म टैक्नोलौजी और राजनीति

‘मरीजों की चिंता सबसे पहले होती है’- डा. नेहा सिंह

डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले अधिकतर लोग निजी क्षेत्र में चिकित्सा सेवा को प्रथमिकता देते है. मिर्जापुर की रहने वाली डॉ नेहा सिंह ने निजी क्षेत्र में काम करने की जगह पर सरकारी अस्पतालों में सेवा करने को प्रथमिकता दी. डॉ नेहा का मानना था कि सरकारी अस्पतालों के जरिये वो गरीब और कमजोर वर्ग से आने वाले लोगो की अधिक सेवा कर सकती है. डॉ नेहा सिंह ने प्रोविंशियल मेडिकल ऑफिसर के रूप में काम करने की चुनौती भी स्वीकार की. उनकी सोंच थी कि अच्छी चिकित्सा व्यवस्था के लिये अच्छे डाक्टर के साथ ही साथ अच्छे प्रोविंशियल मेडिकल ऑफिसर की भी जरूरत होती है. यही नहीं डॉ नेहा ने प्राइवेट सेक्टर में जाकर डाग्नोसिस सेंटर खोलने की जगह पर सरकारी अस्पतालों में प्रोविंशियल मेडिकल ऑफिसर के रूप में काम करने की चुनौती को स्वीकार किया. वह ऐसे लोगो के लिये प्रेरणा का काम करती है जो सरकारी अस्पतालो में काम करके खुशी का अनुभव नहीं कर रहे होते है. डॉ नेहा ने अपने काम से एक अलग छवि बनाई है. जिसकी वजह से मरीज उनकी हर बात मानते है और उनसे अपनी हर बात शेयर करते है.

प्रोविंशियल मेडिकल सर्विस को बनाया अपना कैरियर:

डॉ नेहा सिंह के पिता खुद डाक्टर है. ऐसे में 12 वीं के बाद नेहा ने भी डाक्टर बनने के लिये परीक्षा दी. रूहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली में उनको एमबीबीएस करने के लिये प्रवेश मिल गया. वहां से अपनी पढाई पूरी करने के बाद नेहा ने प्रोविंशियल मेडिकल सर्विस में अपना कैरियर बनाने की सोची. पहली ही बार में ही परीक्षा में सफल हो गई. उत्तर प्रदेश के तमाम शहरों के सरकारी अस्पतालों में उन्हें सेवा करने का मौका मिला.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के बस्ती और देवरिया में काम करने का उनका अनुभव कैसा रहा? पूछने पर नेहा बताती है, ‘टीबी और चेस्ट विभाग में काम करते वक्त हमने देखा कि ज्यादातर लोग इस बीमारी को शुरुआती दिनों में गंभीरता से नहीं लेते है. इससे बचने की कोशिश नहीं करते है. लोगों को जागरूक होना चाहिये. अपनी सफाई का ध्यान रखना चाहिये. नशे से बचना चाहिये. अच्छा भोजन करना चाहिये.

“अगर कोई दिक्कत हो तो इलाज कराना चाहिये. लापरवाही नही बरतनी चाहिये. टीबी अब पहले जैसा घातक नहीं है पर इससे सावधान रहने की जरूरत है.”

कोरोना संकट में जनता की सेवा:

2020 में जब कोरोना का प्रकोप पूरी दुनिया पर संकट बनकर छाया तो भारत के सामने सबसे बडी समस्या खडी हो गई. ऐसे समय में सरकारी अस्पताल और वहां का आधारभूत ढांचा ही ढाल बनकर कोरोना के सामने खडा हुआ. डॉ नेहा सिंह का अनुभव और साहस भी इसमें बडा सहारा बना. उनकी ड्यूटी बस्ती जिले के सरकारी अस्पताल में लगी थी. इस अस्पताल को एल-2 का दर्जा दिया गया था. जिसका मतलब था कि कोरोना के गंभीर मरीजों का इलाज यहां होता था. वहां काम करना सबसे खतरनाक माना जा रहा था.

यहां काम करना चुनौती से कम नहीं था. डॉ नेहा सिंह ने इस चुनौती को स्वीकार किया. बच्चों और घर परिवार की चिंता छोड दी. वहां 15 दिन ड्यूटी देने के बाद बाकी के 15 दिन क्वारंटीन रहना पडता था. ऐसे में लगातार दो माह तक बच्चों से दूर रही. यह उनके जीवन में पहला अवसर था जब बच्चों से इतने लंबे समय तक दूर रहना पडा.

डॉ नेहा सिंह बताती है ‘मुझे भी एक बार कोरोना हो गया था. उस समय थोडा सा डर लग रहा था. मेरी 8 साल की बेटी और 3 साल का बेटा है. उनकी चिंता हो रही थी. अच्छी बात यह थी कि हमारा परिवार साथ रहता है तो बच्चों की देखभाल हो रही थी. दो माह तक बच्चों से दूर रहना बहुत अलग लग रहा था. दूसरे लोगों की दिक्कतों को देखते हुये हमारी परेशानी कम थी. इस बात को सोंच कर अपना हौसला बनाती रही.’

सशक्त समाज के लिये जागरूक हो महिलाएं:

“साफसफाई के अभाव में महिलाएं तमाम तरह की बीमारियों की शिकार हो जाती है, जिससे उनकी सेहत पर बुरा असर पडता है. सरकारी अस्पताल में काम करते वक्त हमें गांव और छोटेबडे शहरों की महिलाओं से मिलने का मौका मिला. हम उन्हें समझाने का काम करते थे. बहुत सारी महिलाएं सरवाइकल कैंसर से ग्रस्त होने के बाद इलाज के लिये आती थी. सफाई और पीरियडस के दिनो में हाईजीन का ख्याल रखने से महिलाएं तमाम बीमरियों से बच सकती है.”

डॉ नेहा का मानना है कि महिलाओं को अपनी हेल्थ से जुडे विषयों पर जागरूक होना चाहिये. इसके लिये पत्र-पत्रिकाएं पढे. उन्हें केवल मनोरंजन की निगाह से न देखे. इनमें आजकल बहुत सामग्री छपने लगी है. उसे पढ़े और समझे ताकि किसी मुसीबत में न पडे. राजनीति और समाज के दूसरे विषयों को पढ़े और समझे ताकि यह पता चल सके कि समाज और राजनीति में क्या कुछ आपके लिये हो रहा और क्या नहीं हो रहा है.  महिलाएं जागरूक और आत्मनिर्भर रहेगी तो अपने फैसले खुद ले सकेगी और एक सशक्त समाज का निर्माण कर सकेगी.

परिवार है सफलता की धुरी:

डॉ नेहा मानती है कि किसी भी महिला की सफलता में उसके परिवार की भूमिका सबसे अधिक होती है. कोरोनाकाल में मेरा परिवार मेरे बच्चों की देखभाल करने के लिये उपलब्ध न होता तो मै अपने बच्चों को छोड़ कर अपना काम बेहतर तरह से नहीं कर पाती. कैरियर और सफलता के लिये परिवार को ले कर आगे चलना चाहिये. इससे ही मजबूत समाज बनता है.

यहां झूठ भी है और फरेब भी

पिछले 2 दशकों में फोटोग्राफों व आडियो व विडियो क्लिपों के साथ छेडख़ानी कर के राजनीति उपयोग करने की एक प्रैक्टिस जम कर शुरू हुई है. सत्ता में बैठे लोगों ने इस का खूब फायदा उठाया है. हिंदूमुसलिम अलगाव भी भडक़ाया गया है और ऊंचीनीची जाति का स्कल भी अपने मन में उलझाया गया है. विरोधी दल के नेताओं को भी खूब बदनाम फोटोग्राफों व वीडियों को मनमाने ढंग से टेढ़े सीधे ढंग से जोड़तोड़ कर सोशल मीडिया पर झोक दिया गया है. मानने की बात है कि यह टैक्नोलौजी समझने वाले काफी शातिर दिमाग के हैं.

यही शातिरयना औरतों व लड़कियों को झेलना पड़ रहा है. दिल्ली के निकट गाजियाबाद के एक टैक्सटाइल कंपनी के प्रबंधक फंस गए जब उन की पत्नी के आधार या पैनकार्ड से फोटो को ले कर एक अश्लील चित्र के साथ जोड़ दिया गया और मैसेज पति के सेब नंवरों पर भेज दिए गए. फोटो वायरल न करने के लिए 5 लाख रुपए मांग लिए गए.

महिला ने अपना फोन ठीक करने के लिए एक दुकानदार को दिया था जिस से पूरा डाटा कौफी कर लिया गया होगा हालांकि यह आरोप मैकेनिक ने गलत बताया है.

बात इस महिला की नहीं है, बात यह है कि धर्म टैक्नोलौजी का जिस तरह धर्म की राजनीति करने वालों ने दुरुपयोग किया है उस से यह महिमामंडित हो गई है. जब सरकार में बैठे लोगों के समर्थक खुलेआम फोटो व वीडियो से छेड़छाड़ कर सकते हैं और पुलिस, अदालत और सरकार अनदेखा करती है तो आम शातिर क्यों नहीं अपने मतलवा इस टैक्नोलौजी के ज्ञान का इस्तेमाल करें. यह तो सब जानते हैं कि दुश्मन के लिए तैयार की गई गन अपनों पर ज्यादा चलती हैं. अमेरिका का उदाहरण है जहां अपनी सुरक्षा के लिए हथियार रखने का हक मास मर्डर के लिए लगातार वर्षों से हो रहा है और स्कूलों तक में सिरफिरे घुस कर 10-20 को भून डालते हैं.

जो हक अमेरिकी संविधान ने गन रखने का हर नागरिक को दिया है वही आज जनता के टैक्नोलौजी को समझने वालों को सत्ता में बैठे लोगों ने दे दिया है और इस का इस्तेमाल राजनीति में भी हो रहा है और लड़कियों व औरतों पर भी. उन के वैसें सैंकड़ों सैक्सी क्लिप वायरल हो रहे हैं जिन में अपने मजे के लिए लड़कियों के बनाए थे. उन्हें तोड़मरोड़ कर. इन पर चेहरे बदलकर, इन के फोटो बना कर जम कर इस्तेमाल हो रहा है. शिकार कमजोर बेचारी औरतें और लड़कियां हो रही हैं.

ये भी पढ़ें- जंग की कीमत चुकाती है औरत

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें