Women’s Day: प्यार की जीत: निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

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प्यार की जीत: भाग 3- निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

निशा इस प्रस्ताव के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी. वह गहरी सोच में पड़ गई. दिल की बात किसी के साथ बांटने के लिए निशा की कोई करीबी सहेली भी नहीं थी.

निशा रातदिन इस बारे में सोचने लगी. निशा ने सोचा कि अगर उस के पिता ने उस की शादी करवाई तो वे जरूर एक ऐसे लड़के व परिवार को ढूंढ़ निकालेंगे जो औरत को इंसान नहीं मानते. उस से भी नहीं पूछेंगे कि वह लड़का उसे पसंद है या नहीं.

बहुत सोचने के बाद निशा को यह एहसास हुआ कि मन ही मन में वह बिलाल से प्यार करने लगी है. बस, अपने दिल की बात समझ नहीं पाई और बिलाल ने अपने दिल की बात कह कर  उस के अंदर सोए हुए प्यार को जगा दिया. बिलाल एक नेक और अच्छा इंसान है. अच्छे खानदान का है. निशा को ऐसा लगा कि बिलाल से अच्छा पति ढूंढ़ने पर भी कहीं नहीं मिलेगा. काफी कशमकश के बाद निशा ने फैसला लिया कि जिस परिवार ने उसे प्यार और इज्जत नहीं दी उस परिवार के लिए वह अपने प्यार की बलि क्यों चढ़ाए.

निशा ने 15 दिनों के बाद बिलाल से अपने प्यार का इजहार किया. उसी दिन बिलाल उसे अपने घर ले गया.?

बिलाल की गाड़ी एक आलीशान बंगले के सामने आ कर रुक गई. गाड़ी से उतर कर झिझकती हुई निशा अंदर गई.  ‘आजा मेरी बहूरानी’ एक प्यारभरी पुकार सुन कर निशा ने उस तरफ देखा तो वहां एक और मुसकराती हुई औरत खड़ी थी. ‘मेरी अम्मीजान जुबैदा बेगम,’ बिलाल ने कहा और वहां 2 और औरतें खड़ी थीं और उन में से एक औरत को ‘मेरी भाभीजान जीनत और सूट पहने एक लड़की को ‘मेरी छोटी व इकलौती बहन शबनम, कालेज में पढ़ रही है,’ कह कर बिलाल ने सब से परिचय करवाया. निशा ने अपने संस्कार के अनुसार बिलाल की मां के पैर छुए, मगर बिलाल की मां ने निशा को उठा कर अपने सीने से लगाया और कहा, ‘नहीं, मेरी बेटी, तुम्हारी जगह यहां नहीं बल्कि यहां मेरे दिल में है. आ कर यहां आराम से बैठो. डर क्यों रही हो, मैं भी एक मां हूं.’ यह सुनते ही निशा का मनोबल बढ़ गया.

ऐसे में शबनम बोली, ‘अरे, मेरी नई भाभी, आप क्यों इतनी टैंशन में हैं. अपनी टैंशन कम करने के लिए यह ठंडा पानी पीजिए.’ निशा ने भी हंसते हुए उस से पानी का गिलास ले लिया.

इसी दौरान उस घर की बहू जीनत एक प्लेट में कुछ मिठाई और नमकीन ले कर आई, ‘लीजिए, मेरी नई देवरानीजी, इसे खाइए.’

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इतने में बिलाल के बड़े भाई और पापा आ गए. बिलाल ने अपने पिताजी से निशा का परिचय करवाया. उस की आवाज में डर बिलकुल नहीं था. उस ने प्यार और इज्जत के साथ अपने पिताजी से बात की. ‘अब्बूजान, मैं ने आप से कहा था न कि मैं एक लड़की से प्यार करता हूं, यही वह लड़की है निशा.’ बिलाल की बातें सुनते ही पिताजी ने मुसकराते हुए निशा के पास आ कर कहा, ‘हमेशा खुश रहो बेटी.’

बिलाल को अपने पिता से बातें करते हुए देख कर निशा को ऐसा लगा कि बापबेटे नहीं, बल्कि 2 भाई आपस में बातें कर रहे हैं. फिर बिलाल ने अपने भाई को निशा से मिलवाया. अपने भाई से एक दोस्त की तरह पेश आया बिलाल.

बिलाल के परिवार से मिलने के बाद निशा ने फैसला कर लिया कि चाहे जो भी हो बिलाल से शादी करने के अपने फैसले से वह पीछे नहीं हटेगी. अपने पिता से भी उस ने हिम्मत जुटा कर कहा, ‘मैं 21 साल की हूं. अपनी जिंदगी का अहम फैसला लेने की उम्र है मेरी. अगर आप अपने बेटों के साथ मेरे रास्ते में अड़चन डालेंगे तो मजबूरन मुझे कानून की मदद लेनी पड़ेगी. मैं आगे आने वाली किसी भी मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार हूं और मैं अपने फैसले पर अटल हूं.’

निशा की दृढ़ता देख कर सोमनाथ ने भी अपना निर्णय सुनाया, ‘‘मुझे तुम्हारी कोई परवा नहीं. तुम जियो या मरो, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मगर एक बात कान खोल कर सुन लो, अगर तुम्हारी शादीशुदा जिंदगी में कोई समस्या आए तो मायका समझ कर इस घर में कदम रखने के बारे में सोचना मत. याद रहे, मेरे लिए तुम मर चुकी हो.’’ सोमनाथ ने एक बाप की तरह नहीं, बल्कि किसी दुश्मन की तरह निशा के साथ व्यवहार किया.

बिलाल और निशा की शादी हुए लगभग 2 महीने बीत गए. शादी के दिन निशा ने बिलाल से कहा, ‘‘बिलाल, यह मेरी जिंदगी का बहुत बड़ा फैसला है. अगर कुछ गलती हो जाए तो सिर छिपाने के लिए मेरे पास मेरा मायका भी नहीं है.’’ बिलाल ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘हमारे घर में तुम्हें इतना प्यार मिलेगा कि तुम्हें अपने मायके की याद कभी नहीं आएगी. यह मेरा वादा है तुम से.’’

निशा ने सोचा था कि बिलाल के घर वाले उन दोनों की शादी इसलामिक तौरतरीकों से करेंगे. मगर शादी के 2 दिन पहले ही बिलाल के मां और पापा ने निशा से इस के बारे में बात की. उन्होंने कहा, ‘‘तुम ने मेरे बेटे से प्यार किया है और शादी भी करने वाली हो, इस वजह से तुम्हारे ऊपर हम अपना मजहब नहीं थोपना चाहते. दबाव में पड़ कर एक मजहब को कोई अपना नहीं सकता. इसलिए अब तुम दोनों की कानूनी तौर से कोर्टमैरिज करवा देंगे. तुम हमारे साथ रह कर हमारे मजहब और रीतिरिवाज को जान लो. जब तुम्हारा मन पूरी तरह से इसलाम को कुबूल करना चाहे तब तुम अपना मजहब बदलना.’’ यह सुनते ही निशा को राहत मिली और उस ने अपनी सास को गले लगा लिया.

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उस घर का माहौल निशा को बहुत पसंद आया. निशा को ऐसा लगा कि उस घर के कोनेकोने में प्यार ही प्यार है. कोई भी किसी से बुरा सुलूक नहीं करता और ऊंची आवाज में भी नहीं बोलता था. खासकर, अपनी सास के प्यार से वह फूली न समाई. बिलाल की मां अपनी दोनों बहुओं को अपनी बेटी की तरह प्यार और सम्मान देती थीं.

बिलाल की मां को सिलाई व कढ़ाई में ज्यादा दिलचस्पी थी. वे उस बंगले के बाहर वाले एक बड़े कमरे में अपनी डिजाइनर साडि़यों का बुटीक चला रही थीं. निशा ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया था, इसलिए वह भी अपनी सास के साथ साडि़यां तैयार करने लगी और बुटीक में जा कर वहां भी काम संभालने लगी.

एक दिन जब निशा अपनी सास के साथ बुटीक में बैठी थी, उस वक्त एक छोटा सा पत्थर आ कर गिरा. उस पत्थर से बुटीक का एक शीशा टूट गया. सासबहू हैरान हो गईं. इतने में और भी बहुत सारे पत्थर आ कर गिरे. दोनों ने बाहर आ कर देखा तो वहां निशा के दोनों भाई खड़े थे. उन्हें देखते ही निशा को यह आभास हुआ कि यह हरकत इन दोनों की ही है. इस हरकत से निशा को बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई. इस के बाद निशा के दोनों भाई सड़क पर खड़े हो कर बहन को गाली देने लगे.

‘‘यही है वह औरत जिस ने एक मुसलमान से शादी की. बेशरम कहीं की,’’ ऐसा कह कर निशा के भाई निशा का अपमान करने लगे. यह सुन कर निशा शर्म से पानीपानी हो गई. निशा अपना सिर पकड़ कर बैठ गई. निशा इस सोच में पड़ गई कि इस मामले को कैसे सुलझाए.

निशा को पता था कि उस के भाई लखनऊ शहर के बहुत बड़े गुंडे हैं और 2-3 बार जेल की हवा भी खा चुके हैं. उन के पिताजी ने उन्हें जेल से छुड़वाया और जब निशा की मां ने कुछ पूछने की कोशिश की तो सोमनाथ ने बात काट कर, ‘‘तुम औरत हो. यह मामला मर्दों का है और मेरे बेटों ने मर्दों जैसा काम किया है, तुम बीच में मत बोलो,’’ लक्ष्मी को चुप करा दिया.

आज उन दोनों भाइयों ने निशा के ससुराल वालों के सामने आ कर अपनी गुंडागर्दी दिखाई. इतने में 4-5 छोटेछोटे पत्थर और आ कर गिरे और उन में से एक पत्थर निशा की सास के माथे पर लगा और उन्हें चोट लग गई.

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प्यार की जीत: भाग 2- निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

पहले तो सोमनाथ ने निशा को फैशन टैक्नोलौजी की पढ़ाई करने की इजाजत देने से सख्त मना कर दिया. लेकिन लक्ष्मी ने उन से गुजारिश की, ‘कोर्स को खत्म होने में अब सिर्फ एक ही साल बाकी है, उसे बीच में रोकना नहीं. उसे पूरा करने दीजिए, मैं आप के पैर पड़ती हूं.’ बहुत सोचने के बाद आखिरकार सोमनाथ ने निशा को कालेज भेजने के लिए मंजूरी दी.

निशा को यह सब बड़ा अजीब सा लगा. एक तो  पहली बार वह अभी अपनी 21 साल की उम्र में अपने जन्मदाता मांबाप से मिल रही थी, दूसरी बात जिस माहौल में वह बड़ी हुई थी वहां इस तरह औरतें अपने पति के सामने झोली फैला कर नहीं खड़ी होती थीं. दोनों को वहां पर बराबर का सम्मान दिया जाता था.

लक्ष्मी ने भी अपनी बेटी के प्रति अपना प्यार नहीं जताया. उस के मन में एक ही विचार था कि पढ़ाई खत्म होते ही निशा का ब्याह एक ऐसे घर में हो जहां औरतों को इज्जत दी जाए. बेटी की शादी में पिता की उपस्थिति जरूरी है, इसलिए लक्ष्मी अपने पति से अपनी बेटी के बारे में कोई भी बहस नहीं करना चाहती थी और सोमनाथ की हर बात मानती थी.

सोमनाथ की देखादेखी उन के दोनों बेटे भी औरतों की इज्जत नहीं करते थे. दोनों मिल कर अकसर निशा को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते. बचपन से लाड़प्यार और इज्जत से पली निशा को इस माहौल में घुटन होने लगी. उसे इस बात का बहुत अफसोस था कि उस की मां ने भी अपना प्यार जाहिर नहीं किया.

इसी बीच निशा के कालेज में वार्षिक महोत्सव हुआ और तभी पहली बार उस की मुलाकात बिलाल से हुई. उस उत्सव में भाग लेने के लिए कई कालेजों से बहुत सारे छात्र आए हुए थे. निशा एक अच्छी गायिका थी और उस की आवाज में मिठास थी. जिस के कारण उस के कालेज के छात्रों और अध्यापकों ने निशा को गाने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि उन के कालेज को पुरस्कार मिले. निशा ने उस प्रतियोगिता के लिए खूब तैयारी भी की. उस के साथ उस की सहेली गिटार बजाने वाली थी.

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मगर उत्सव के दिन जो लड़की गिटार बजाने वाली थी उस के पिता बीमार हो कर अस्पताल में भरती थे और वह उत्सव में न आ सकी. निशा अब उलझन में पड़ गई. गिटार के बिना निशा का गाना अधूरा होगा और इसी कारण उसे पुरस्कार मिलने की उम्मीद नहीं थी. निशा असमंजस में पड़ गई और रोने लगी. उस की सहेलियां ढाढ़स बंधाने लगीं और उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थीं.

उसी वक्त एक नौजवान वहां आया और उस ने कहा, ‘एक्सक्यूज मी, मैं आप की बातें सुन रहा था और मैं समझ गया हूं कि आप को एक गिटार बजाने वाला चाहिए. अगर आप को कोई एतराज न हो तो क्या मैं आप की मदद कर सकता हूं?’ इसे सुन कर निशा और उस की सहेलियां ताज्जुब से एकदूसरे को देखने लगीं. एक पल के लिए वे सोच में पड़ गईं कि क्या जवाब दें.

निशा और उस की सहेलियों को उस अनजान युवक का प्रस्ताव स्वीकार करने में झिझक हुई. वह किसी और कालेज का छात्र है, फिर वह क्यों अपने कालेज को छोड़ कर हमारे कालेज के लिए गिटार बजाने को तैयार है, ऐसा क्यों? उन के मन में यह डर था कि यह ईव टीजिंग का कोई चक्कर तो नहीं.

उस युवक ने हंसते हुए कहा, ‘मैं एक अच्छा गिटारिस्ट हूं. इसलिए मैं ने सोचा कि मैं आप की मदद करूं, अगर आप बुरा न मानें तो. ज्यादा मत सोचिए, हमारे पास वक्त बहुत कम है.

उस की गंभीरता देख कर निशा और उस की सहेलियां उस लड़के की मदद लेने के लिए तैयार हो गईं. उस लड़के ने तुरंत अपने दोस्त से गिटार ले कर निशा के साथ मिल कर 2 बार रिहर्सल किया. निशा ने देखा कि वह उस के साथ बड़ी तमीज के साथ बातें कर रहा था और बहुत ही मृदुभाषी था. निशा स्पर्धा को ले कर बहुत परेशान थी और इस हड़बड़ी में उस ने उस लड़के का नाम तक नहीं पूछा.

जब उन की बारी आई तो दोनों मंच पर आए. निशा अपनेआप को भूल कर अपने गाने में मंत्रमुग्ध हो गई और उसे पुरस्कार भी मिला. पुरस्कार लेते समय निशा उस लड़के को भी अपने साथ मंच पर ले गई.

विदाई के समय उस लड़के ने निशा को अपना नाम बताया, ‘मेरा नाम बिलाल है. मैं अंगरेजी साहित्य में एमए कर रहा हूं. आप मेरा मोबाइल नंबर सेव कर लीजिए. अगर आप को कोई परेशानी न हो तो हम फोन पर बात कर सकते हैं और दोस्ती को आगे कायम रख सकते हैं.’ निशा ने एक मीठी सी मुसकान के साथ बात कर रहे बिलाल की ओर देखा.

निशा ने पहली बार बिलाल को गौर से देखा. 6 फुट का कद, चौड़े कंधे, गेहुंआ रंग, बड़ीबड़ी आंखें और चौड़ा माथा तथा उस के चेहरे पर छलक रही एक मधुर मुसकान. निशा को लगा कि सच में बिलाल एक आकर्षक युवक है. इस के अलावा लड़कियों के प्रति उस का बरताव निशा को बेहद पसंद आया.

उस घटना के बाद दोनों अकसर फोन पर बातें करते थे. बिलाल की आवाज में भी एक अनोखा जादू था. बड़े अदब से बात करने वाला उस का अंदाज निशा को उस की ओर खींचने लगा. कई बार फोन पर बात होने के बाद दोनों ने एक कौफी शौप में मिलने का फैसला लिया. बिलाल एक बड़ी गाड़ी में आया. फोन पर इतनी बातें करते वक्त कभी अपनी हैसियत के बारे में उस ने कुछ भी नहीं बताया. अब भी बड़ी नम्रता से कहा, ‘वापस जाते

समय आप को मोटरबाइक में छोड़ना अच्छा नहीं लगेगा, इसलिए गाड़ी ले कर आया.’ उस की आवाज में जरा भी घमंड नहीं था.

बिलाल ने अपने परिवार के बारे में सबकुछ बताया. उस ने बताया कि लखनऊ की मशहूर कपड़े की दुकान जमाल ऐंड संस के मालिक हैं उस के पिता और उस की मां घर पर ही बुटीक चलाती हैं जहां वे डिजाइनर साडि़यां तैयार कर उन्हें बेचती हैं. उस के बडे़ भाई पिता के साथ कारोबार संभालते हैं और एक छोटी बहन कालेज में पढ़ती है. यह सुनती रही निशा बिलाल को अपने परिवार के बारे में क्या बताए, सोचने लगी. अपने पिता या अपने भाइयों की झूठी तारीफ करने के बजाय वह चुप रही.

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दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई. एक दिन बिलाल ने कौफी शौप में कौफी पीते समय कहा, ‘निशा, मुझे बातें घुमाना नहीं आता. मैं आप से बेहद प्यार करता हूं और आप से शादी करना चाहता हूं. क्या आप को मेरा प्यार कुबूल है.’ यह बात सुन कर निशा को एक झटका सा लगा, क्योंकि वह बिलाल को दोस्त ही मानती रही और कभी भी उस ने उसे इस नजरिए से नहीं देखा था. इस के अलावा निशा ने सोचा कि दोनों के बीच मजहब की दीवार है और यह शादी कैसे हो सकती है?

‘मैं जानता हूं कि हमारा मजहब अलग है मगर वह हमारे बीच नहीं आ सकता. आप को जल्दबाजी में फैसला लेने की जरूरत नहीं है. आप मेरे बारे में और हमारे रिश्ते के बारे में आराम से ठंडे दिमाग से सोचिए. आप मुझ से शादी न करना चाहें तो भी मैं दोस्ती को बरकरार रखना चाहता हूं.’

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मैं जहां हूं वहीं अच्छा हूं: भाग-1

जीवन कितना आसान हो गया है. यह जरा सा बटन दबाओ और जिस से चाहो बात कर लो. यह छोटी सी डिब्बी कितनी प्यारी चीज है,’’ मोनू भैया बड़ी मस्ती में थे.

कल ही 10 हजार का नया मोबाइल खरीद कर लाए थे. वह पुरानी डिब्बी भी सही काम कर रही थी, मगर क्या करें जब बाजार में नया ब्रैंड आ गया तो पुराना हाथ में ले कर चलना कितना स्तरहीन लगता है, यह उन का मानना है. इस मोबाइल में इंटरनैट भी है. सारी दुनिया मानो जेब में. कहांकहां का हाल नहीं है इस मोबाइल में.

उस दिन कितनी लंबीचौड़ी बहस हुई पापा और मोनू भैया के बीच. खर्च ज्यादा था और पापा अभी इतने पैसे निकालना नहीं चाहते थे. मम्मी के कंधों का दर्द बहुत बढ़ गया है… सोच रहे थे नई वाशिंगमशीन ले दें, लेकिन मोनू भैया की वजह से घर में ऐसा क्लेश डल गया था कि मम्मी ने कंधों का दर्द सहना ही श्रेष्ठ समझा. कमी में रहो मगर शांति में रहो, यही मम्मी का मानना है.

‘‘तुम मांगते तो इनकार भी कर देती… मोनू को इनकार नहीं करना चाहती… बिन मां का है… उस की मां बनना चाहती हूं.’’

मन में आया कि कह दूं कि वह बिन मां का कहां है? वह तो मां वाला ही है… बिन मां का तो मैं हूं. जिस दिन से मां और मैं मोनू भैया और मोनू के पापा के साथ रहने आए हैं उसी दिन से मैं अनाथ जैसा हो गया हूं. पिता की मृत्यु के बाद अब मां भी लगभग न के बराबर ही हैं मेरे लिए. मोनू की मां नहीं है… वह उन्हें छोड़ कर चली गई है. उसी का दंड अनजाने ही सही मैं भी भोग रहा हूं.

मेरी मां तो मेरी ही हैं, जो मेरा है उसे भला कैसे कोई छीन सकता है? लेकिन अफसोस भी इसी बात का है कि मां मेरी हो कर भी मेरी नहीं रह पा रही हैं. शायद वे भी यही सोच रही हैं कि जहां सौतेला शब्द चिपका हो वहां प्राणी को उस सौतेलेपन से उबरने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. जो पराया है उसे अपना बनाया जाए. जो है ही अपना उसी को अपना प्रमाणित करने में ही सारी ऊर्जा क्यों लगा दी जाए?

अकसर ऐसा हो जाता है. मनुष्य को अनचाहे रिश्तों में बंधना पड़ता है. दादाजी की जिद थी कि मां पुन: अपना घर बसा लें. उनके ही एक मित्र का बेटा अपनी पत्नी के छोड़ कर चले जाने पर अपनी टूटीफूटी गृहस्थी लिए किसी तरह जी रहा था. दोनों मित्रों ने अपने अपने अधूरे बच्चों को पूर्ण कर के एक तरह से स्वयं को भी चैन दिया और शायद अपने बच्चों को भी.

पापा तो मैं ने कभी किसी को कहा हीनहीं था, क्योंकि पापा कभी देखे ही नहीं थे. आज तक हर पुरुष चाचा मामा या ताऊ था मेरे लिए. 16-17 साल से मां ही मेरी मां भी थीं और पिता भी. दादाजी को ही पापा कहा करता था मैं. उस रात मैं सुबह तक परेशान रहा था. तब दादाजी ने ही मुझे समझाया था कि मुझे अपनी मां के सुखद भविष्य के लिए इस शादी का विरोध नहीं करना चाहिए.

‘‘देखो बेटा, तुम समझदार हो… 10 साल बाद तुम्हारा अपना घरपरिवार होगा. तुम्हारी मां को भी तो साथी चाहिए… पहले ऐसा कोई संयोग ही नहीं बना… अब बन रहा है, तो मैं चाहता हूं ऐसा हो ही जाए… तुम्हारा मन जहां चाहे वहीं रहना… मेरे पास रहो या मां के पास… तुम हमारे ही रहोगे.’’

पिता के अभाव में शायद संतान समय से पहले बड़ी हो जाती है. मैं ने भी अपनी मां का भविष्य उसी नजर से देखना शुरू कर दिया जिस नजर से एक पिता अपनी बेटी का भविष्य देखता है. कागज पर 2 लोगों ने हस्ताक्षर किए और 2 अधूरे परिवार मिल कर संपूर्ण परिवार बन गया. पहली बार अपनी मां को मैं ने सुहागिन रूप में देखा. रंगीन और गहरे रंग के कपड़ों में मां कितनी सुंदर लगती हैं… माथे पर बिंदिया लगाए मां का रूप कितना प्यारा लगता है… एक पराया परिवार मां का अपना होता गया और मैं धीरेधीरे एक कोने में खिसकताखिसकता शायद उस परिवार से बाहर ही हो जाऊंगा. अब मुझे कुछकुछ ऐसा ही लगने लगा है.

‘‘क्या बात है विजय चुपचुप से हो?’’ मेरी सहपाठी ने पूछा. बड़ी सुलझी हुई है मीरा. हम दोनों की उम्र बराबर है, मगर समझाने का काम वही करती है सदा. मां का पुनर्विवाह हो जाना चाहिए, यह भी काफी हद तक मीरा ने ही समझाया था मुझे.

‘‘आज मां के घर नहीं जा रहे हो क्या? दादाजी के पास जाओगे? परेशान हो…?’’

बिना कुछ कहे कैसे वह सब समझ जाती है, मैं हैरान था. क्या कहूं मैं? कैसे बताऊं

उसे कि मेरी मां ही मुझ से छूटती जा रही हैं. ऐसा नहीं है कि मैं असुरक्षित महसूस कर रहा हूं. मां के दिल का एक कोना मैं खुशीखुशी मोनू भैया को देने को तैयार हूं, मगर वह इस लायक है नहीं शायद. मेरी मां उस के आगेपीछे घूमती रहतीं और वह जरा भी परवाह नहीं करता. इज्जत तो वह करता ही नहीं है. उस पर बदतमीजी भी करता है. मैं यह सब देखता हूं तो बहुत बुरा लगता है.

‘‘विजय क्या हुआ? बात करो न मुझ से,’’ कह मीरा ने मेरा हाथ हिला दिया.

‘‘मां की सोचता हूं मीरा… मोनू का व्यवहार बड़ा अजीब है… मेरी मां का सम्मान नहीं करता. मुझ से उम्र में बड़ा है… 21-22 साल का लड़का इतना तो नासमझ नहीं होता न?’’

‘‘क्या किया उस ने?’’ मीरा ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं कि क्या किया? इनसान के हावभाव ही बता देते हैं कि वह किसी का सम्मान कर रहा है या नहीं… मां बेचारी उसे अपना बनाने की कोशिश करती रहती हैं और वह पता नहीं किस पूर्वाग्रह से ग्रस्त है. मुझे नहीं लगता उस ने अपने पिता को मेरी मां के साथ स्वीकार किया है… जिस तरह मैं ने मोनू के पिता को अपना पिता मान लिया है उसी तरह शायद वह मेरी मां को अपनी मां नहीं मानता.’’

‘‘वक्त लगता है विजय… आज तक घर में उस का राज था. अब 2 और लोग उसी घर में उस का अधिकार बांटने चले आए हैं तो…’’

प्यार की जीत: भाग 1- निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

‘‘मैं बिलाल से बेइंतहा मोहब्बत करती हूं. चाहे कुछ भी हो जाए मैं उसी से शादी करूंगी. आप मुझे कुछ भी कर के रोक नहीं सकते. मेरे जन्म से आज तक इन 21 सालों में आप ने सिर उठा कर भी मेरी ओर नहीं देखा क्योंकि मैं एक बेटी हूं. ऐसे में आप अब क्यों मेरी जिंदगी में दखल दे रहे हैं? यह मेरी जिंदगी है. अगर इस मामले में भी मैं आप की बात सुनूंगी तो मेरी पूरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी. मैं इसे बरदाश्त नहीं कर सकती हूं. गलत क्या है और सही क्या है, यह मैं जानती हूं. इस के अलावा मैं अब नाबालिग नहीं हूं. अपना जीवनसाथी  चुनने का अधिकार है मुझे.’’ अपने समक्ष खड़ी अपनी बेटी निशा की बातें सुन कर सोमनाथ आश्चर्यचकित रह गए.

सोमनाथ को यकीन ही नहीं हो रहा था कि जो उन के सामने बोल रही है वह उन की बेटी निशा है. निशा ने इस घर में आए इन 2 सालों में अपने पिता के सामने कभी इतनी हिम्मत से बात नहीं की.

निशा को अपने पिता से इस तरह बात करते हुए देख कर उस की मां लक्ष्मी भी हैरान थी. उसे भी निशा के इस नए रूप को देख कर यकीन ही नहीं हो रहा था कि यह उस की बेटी निशा ही है. अगर एक सलवारकमीज खरीदनी होती तो भी वह अपने पापा से पूछने के लिए घबराती. अपनी मां के पास आ कर ‘मां, आप ही पापा से पूछिए और खरीद दीजिए न प्लीज, प्लीज मां’ बोलने वाली निशा आज अपने पापा के सामने अचानक शेरनी कैसे बन गई? अपने पापा के सामने इस तरह खड़े हो कर बेधड़क बातें कर रही निशा को देख कर लक्ष्मी सन्न रह गई.

उस से भी बड़ी हैरानी की बात यह है कि निशा का यह कहना कि वह एक मुसलमान युवक से प्यार करती है और उसी से शादी भी करना चाहती है. इस प्रस्ताव को सोमनाथ के सामने रखने के लिए भी हिम्मत चाहिए, क्योंकि सोमनाथ एक कट्टर हिंदू हैं. उन के सामने उन की बेटी कह रही है कि वह एक मुसलमान युवक से शादी करना चाहती है. लक्ष्मी ने मन में सोचा कि जो भी हो, निशा की हिम्मत की दाद देनी चाहिए.

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एक कड़वा सच यह है कि लक्ष्मी कभी अपने पति के सामने ऐसी बातें नहीं कर सकती थी. शादी हुए इन 30 सालों में लक्ष्मी ने पति के सामने कभी अपनी राय जाहिर नहीं की. उन के परिवार की प्रथा है कि औरतों को आजादी न दी जाए. उन का मानना है कि स्त्री का दर्जा हमेशा पुरुष से कम होता है.

मगर लक्ष्मी के मायके की बात अलग थी. लक्ष्मी के पिता ने उसे एक महारानी की तरह पालपोस कर बड़ा किया. उस के पिता की 3 बेटियां थीं और वे इस से बहुत खुश थे. वे अपनी लड़कियों को घर की महालक्ष्मी मानते थे और उन्हें भरपूर स्नेह व इज्जत देते. उन्हें अपनी तीनों बेटियों पर गरूर था खासकर अपनी बड़ी बेटी लक्ष्मी पर. लक्ष्मी की बातों को वे सिरआंखों पर रखते थे. लक्ष्मी की ख्वाहिश का मान करते हुए उन्होंने उसे अंगरेजी साहित्य में बीए करने की इजाजत दी.

लक्ष्मी के पिता ने अपनी बेटी की शादी के मामले में एक गलत फैसला ले लिया. सोमनाथ के परिवार के बारे में अच्छी तरह पूछताछ किए बगैर उस परिवार की शानोशौकत को देख कर अपनी बेटी की शादी सोमनाथ से करवाई. शादी के दूसरे दिन ही लक्ष्मी को ससुराल में एक झटका सा लगा. लक्ष्मी को अंगरेजी अखबार पढ़ते देख कर उस के ससुर ने उसे फटकारा, ‘इस तरह सुबह अंगरेजी अखबार पढ़ना एक बहू को शोभा देता है क्या? तुम्हारी मां ने तुम्हें यही सिखाया है क्या? मर्दों की तरह औरतों का अखबार पढ़ना अच्छे संस्कार नहीं हैं. दुनिया के बारे में जान कर तुम क्या करोगी? तुम्हारा काम है रसोई में खाना पकाना और बच्चे पैदा कर के उन का पालनपोषण करना, समझी तुम?’ ससुरजी की बातें सुन कर लक्ष्मी को ताज्जुब हुआ.

ससुराल में आए कुछ ही दिनों में लक्ष्मी को पता चल गया कि औरतों को मर्दों का गुलाम बना कर रहना ही इस घर की परंपरा है. न चाहते हुए भी लक्ष्मी ने अपनेआप को बदलने की कोशिश की.

समय आया जब लक्ष्मी अपने पहले बच्चे की मां बनने वाली थी. जब डाक्टर ने यह खबर सुनाई तो लक्ष्मी बेहद खुश हुई. उस ने खुशी से अपने पति सोमनाथ को यह समाचार सुनाया तो उन्होंने कहा, ‘‘सुनो, अगर लड़का पैदा हुआ तो उसे ले कर इस घर में आना. लड़की पैदा हुई तो उसे अपने मायके में छोड़ कर आना, समझी. खानदान को आगे बढ़ाने के लिए मुझे लड़का ही चाहिए.’’ यह सुनते ही लक्ष्मी सन्न रह गई. वह सोच भी नहीं सकती थी कि कोई आदमी अपनी पहली संतान के बारे में ऐसा भी सोच सकता है.

बहरहाल, लक्ष्मी ने एक लड़के को जन्म दिया और उस के बाद लक्ष्मी की इज्जत उस घर में बढ़ गई. इस का कारण यह था कि लक्ष्मी की दोनों जेठानियां अपनी पहली संतान लड़की होने केकारण उन्हें अपने मायकों में ही छोड़ कर आईर् थीं. लक्ष्मी के ससुर ने उसे एक कीमती गहना तोहफे में दिया. उस के 2 वर्षों बाद जब लक्ष्मी का दूसरा लड़का पैदा हुआ तब से सोमनाथ अपना सीना चौड़ा करते हुए घूमते थे.

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लक्ष्मी के कई बार मना करने के बावजूद उस के दोनों बेटों संदीप और सुदीप को उस के पति और ससुर ने लाड़प्यार दे कर बिगाड़ दिया. अगर लक्ष्मी बीच में बोले तो, ‘ये दोनों लड़के हैं, शेर हैं मेरे बच्चे. उन्हें पढ़ने की कोई जरूरत नहीं. कुछ भी कर के जिंदगी में सफल हो जाएंगे,’ कह कर लक्ष्मी के दोनों बेटों को पूरी तरह बिगाड़ दिया सोमनाथ ने. लक्ष्मी बेबस हो कर देखती रह गई.

इतने में लक्ष्मी तीसरी बार गर्भवती हुई. सोमनाथ तो बड़े गरूर से कहता रहा, ‘यह भी बेटा ही होगा.’ सोमनाथ की इस बेवकूफी को देख कर लक्ष्मी को समझ में ही नहीं आया कि वह रोए या हंसे.

मगर इस बार लक्ष्मी के एक खूबसूरत बेटी पैदा हुई. लक्ष्मी ने अपनी नन्ही सी परी को अपने सीने से लगा लिया. जब सोमनाथ को यह खबर मिली कि लक्ष्मी ने एक लड़की को जन्म दिया है तो वे गुस्से से पागल हो गए. बच्ची को देखने के लिए भी नहीं आए और ऊपर से उन्होंने चिट्ठी लिखी कि घर वापस आते समय बेटी को मायके में छोड़ कर आना. अगर वहां भी बच्ची को पालना नहीं चाहें तो उसे किसी अनाथ आश्रम में दाखिल करवा देना.

लक्ष्मी अपनी बच्ची को अपनी छोटी बहन के हवाले कर अपने पति के घर वापस आ गई. लक्ष्मी की बहन के 2 बेटे थे, इसलिए उस ने खुशीखुशी लक्ष्मी की बेटी की परवरिश करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. लक्ष्मी की छोटी बहन ने उस प्यारी सी बच्ची का नाम निशा रखा.

लक्ष्मी के बेटे संदीप और सुदीप दोनों अव्वल नंबर के निकम्मे, बदतमीज और बदचलन बने. 10वीं कक्षा में दोनों फेल हो गए और लफंगों की तरह इधरउधर घूमने लगे. लाख कोशिशों के बावजूद लक्ष्मी अपने बेटों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाई. संदीप और सुदीप दोनों गैरकानूनी काम कर के 2 बार जेल भी जा चुके थे.

लक्ष्मी ने अपनी बहन की चिट्ठी से यह जान लिया कि निशा पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहती है और अच्छे संस्कारों से आगे बढ़ रही है. लक्ष्मी को इतनी कठिनाइयों के बीच इसी समाचार ने खुश रखा. मगर वह खुशी बहुत दिनों तक नहीं टिकी. लक्ष्मी की छोटी बहन, जिसे कोई बीमारी नहीं थी, अचानक दिल का दौरा पड़ा और 4 दिन अस्पताल में रहने के बाद चल बसी. उस के पति ने सोचा कि एक 21 साल की लड़की को बिन मां के पालना खुद से नहीं होगा, इसलिए निशा को लक्ष्मी के पास छोड़ने का फैसला लिया. उस वक्त निशा फैशन टैक्नोलौजी का कोर्स कर रही थी और वह अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी.

आगे पढ़ें- निशा को यह सब बड़ा अजीब सा लगा….

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मैं जहां हूं वहीं अच्छा हूं: भाग-3

पापा मां को चुप रहने को कह रहे थे, पर मां पूरी ताकत लगा कर मुझे दोषी बना रही थीं.

‘‘तुम ने मोनू की मां का नाम ले कर उसे ताना मारा है… शर्म नहीं आती ऐसी बेहूदा बात करते? इतने भी नासमझ नहीं हो जो पता न चले कि क्या कहना है और क्या नहीं.’’

क्षण भर को लगा सब एक तरफ हो गए हैं और मैं अकेला एक तरफ. मैं ने मोनू को ताना मारा उस की मां का नाम ले कर? लेकिन कब? मैं तो उस से बचता रहता हूं, उस के सामने भी नहीं पड़ता, क्योंकि उसी का व्यवहार अशोभनीय होता है.

‘‘तुम ने ऐसा क्यों किया बेटा? तुम तो समझदार हो मुन्ना?’’ दादी ने भी पूछा.

दादाजी भी अदालत सजा कर बैठे नजर आए. आज तक चुप थे, क्योंकि मेरे पेपर थे. आज आखिरी पेपर हुआ और सभी के सब्र का बांध टूट गया. मेरा साल भर से चुप रहना, संयम रखना धरा का धरा रह गया. मेरा अपनी मां की चिंता में रोनाबिलखना सब बेकार हो गया. सभी के चेहरे इस तरह से हो गए मानो मैं ही सब से बड़ा अपराधी हूं. मैं मानसिक रूप से इस आक्रमण के लिए कहां तैयार था. मैं तो आखिरी पेपर दे कर बड़ा हलकाहलका महसूस करता हुआ घर आया था. मुझे क्या पता था एक और इम्तिहान सामने खड़ा होगा.

मैं तनिक चेतता मां ने एक और प्रश्न दाग दिया, ‘‘तुम ने मोनू से ऐसा पूछा कि उस की

मां किस के साथ भागी थी? क्या ऐसा सवाल किया था?’’

हैरान रह गया था मैं. कहां की बात कहां क्या कह कर सुनाई मोनू ने. अपने व्यवहार के बारे में नहीं सोचा. इस से पहले कि मां कुछ और बोलतीं पापा ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे मेरे कमरे में ला कर दरवाजा भीतर से बंद कर लिया. देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे. फिर पूछा, ‘‘मैं जानता हूं सीमा टूटी होगी तभी तुम ने कुछ कहा होगा. क्या बात है बेटा? तुम ने अपनी मां को क्यों छोड़ रखा है? मेरा परिवार बन जाए और तुम अकेले हो जाओ मैं ने ऐसा तो नहीं चाहा था… तुम उस घर में भी नहीं आते?’’

‘‘मोनू मेरी मां की इज्जत नहीं करता. मैं उस का व्यवहार देख कर अपना दिमाग खराब करूं, उस से अच्छा है मैं कुछ न देखूं.’’

‘‘क्या कहता है मोनू. बताओ मुझे बेटा? तुम भी मेरे बच्चे हो… तुम्हारा अधिकार मुझ पर मोनू से कम तो नहीं?’’

‘‘मुझे किसी पर कोई अधिकार नहीं चाहिए पापा. अधिकार का भूखा होता तो मां को इस तरह आप के घर नहीं जाने देता. मां की खुशी के लिए मां को छोड़ देने का मतलब यह तो नहीं है… इस घर में मां के लिए रोटीकपड़ा नहीं था? दादीदादा या मैं मां से प्यार नहीं करते थे?

‘‘कालेज कैंटीन में मेरा मजाक उड़ाता है मोनू. कहता है मेरी मां भाग कर उस के घर चली आई है… मुझ में अपनी मां को संभालने की हिम्मत नहीं है क्या? पापा क्या यही सच है? मेरी मां ने तो बुजुर्गों के कहने पर पूरी इज्जतसम्मान के साथ आप का हाथ पकड़ा है और मोनू की मां कहां धक्के खा रही हैं, क्या उसे पता है? मेरी मां कहां हैं मैं जानता हूं. उस की मां कहां है क्या वह यह जानता है? आप ही निर्णय कीजिए कि मैं ने यह सवाल पूछ कर क्या बुरा किया? क्या मैं ने उस का अपमान किया या उस ने मेरा किया?’’

अवाक तो रहना ही था नए पापा को. चेहरे पर मिलाजुला भाव चला आया था. थोड़ी शर्म और थोड़ी आत्मग्लानि.

‘‘अगर आप को भी ऐसा ही लगता है कि मेरी मां ने आप से शादी कर के कोई गलत काम किया है, जिस पर मुझे अपमानित होना चाहिए?’’

‘‘नहीं बच्चे नहीं… ऐसा नहीं कहते बेटा. मैं ने तो जीना ही अब शुरू किया… जब से तुम्हारी मां मेरे जीवन में आई है. सही माने में मां क्या होती है, वह भी मोनू ने तुम्हारी मां के आने के बाद ही जाना है.’’

‘‘जाना है तो मां का आभारी क्यों नजर नहीं आता वह? अगर मां की इज्जत करता होता तो

4 मित्रों में बैठ कर मेरा मजाक नहीं उड़ाता… मैं ने तो शादी के कुछ दिन बाद से ही उस से बात करना छोड़ दिया था. उस से कभी नहीं मिलता

हूं मैं और यह बहस भी शादी के कुछ दिन बाद की है. मुझे तो बस अब इतना ही याद है कि

वह मेरी मां की इज्जत नहीं करता. मैं ने उसे

कोई ताना नहीं मारा. सिर्फ उसी के सवाल का जवाब दिया है… मैं भला मोनू की मां का अपमान क्यों करूंगा?’’

पापा चुपचाप मुझे सुनते रहे. फिर धीरे से पास आ कर मेरा हाथ पकड़ा और अपने गले से लगा लिया. मैं पापा का स्पर्श पा कर एकाएक रो पड़ा.

‘‘तो इतने महीनोें से चुप क्यों रहे बेटा. अपने मन की बात कभी कही क्यों नहीं?’’

‘‘हो सकता है मोनू आप को मेरी मां के साथ बांटना न चाहता हो… मैं उस की मनोस्थिति भी समझता हूं पापा. फिर भी जिस की अपनी मां का कोई ठिकाना नहीं उसे दूसरे की मां

को बदनाम करने का भी कोई अधिकार नहीं.’’

‘‘मोनू से पूछूंगा मैं… उसे ऐसा नहीं

कहना चाहिए.’’

‘‘रहने दीजिए पापा… मां को पता चलेगा तो उन का मन भी मोनू को ले कर खट्टा होगा… मोनू से प्यार नहीं कर पाएंगी,’’ कह मैं ने पापा से अलग होने का प्रयास किया, ‘‘वे मेरी मां हैं, उन्हें मुझ से कोई नहीं छीन सकता. दूरपास रहने से रिश्ता थोड़े न बदल जाएगा? मोनू को मां की ज्यादा जरूरत है. इसीलिए मैं वहां आ कर उस का प्यार बांटना नहीं चाहता. मुझे यहीं रहने दीजिए. मैं वहां गया तो रोज नया तनाव होगा, जो न आप के लिए अच्छा होगा न ही मां के लिए. जाहिर सी बात है अपना अधिकार सहज ही कोई छोड़ना नहीं चाहता. मोनू का घर उसी का है और मेरा घर यहां है, जहां मैं हूं… आप को मोनू को जैसे भी समझाना है समझाइए, मगर जो सच है वह मैं ने आप को बता दिया है. मैं ने मोनू को कोई ताना नहीं मारा, सिर्फ उस के सवाल का जवाब दिया है. मेरा जवाब उसे इतना चुभ गया तो क्या उस का सवाल मुझे गोली जैसा नहीं

लगा होगा?’’

चुपचाप सुनते रहे पापा. फिर मुसकराते हुए बोले, ‘‘मैं कितना खुशहाल हूं, जो मुझे तुम जैसा बेटा मिला है. मैं तुम्हारा मन समझ रहा हूं. अब तुम भी मेरे मन की बात सुनो… तुम्हारी मां और तुम दोनों ही मेरे जीवन के अभिन्न अंग हो. तुम दोनों का मानसम्मान मेरे मन में आज और भी बढ़ गया है. मैं चाहता हूं हम चारों साथसाथ रहें.’’

‘‘मोनू और मैं दोनों ही बच्चे नहीं हैं न पापा और कितना समय मैं भी आप के पास रहूंगा. हो सकता है कहीं दूर ही जाना पड़े आगे की पढ़ाई के लिए. अच्छा है जब भी मिलें प्यार से मिलें बजाय इस के कि जब भी मिलें एकदूसरे को घूर कर देखें.’’

 

भीगी आंखें लिए मेरा चेहरा पढ़ते रहे पापा. आज पहली बार लग रहा है अपने पिता से मिल रहा हूं.

पापा ने पुन: कस कर छाती से लगा लिया मुझे, ‘‘जीते रहो बच्चे. मगर यह मत सोचना अकेले हो. मैं तुम्हारा हूं बेटे. जो भी चाहो हक से मांगना. आज भी और कल भी. मोनू को थोड़ा और समय देते हैं. वक्त सब सिखा देता है. हो सकता है वह भी रिश्तों को निभाना सीख जाए, आज नहीं तो कल. मैं तुम्हारे साथ हूं बेटा. आज भी और कल भी.’’

मां बारबार दरवाजा खटखटा रही थीं. शायद डर रही होंगी. शायद मुझे ले कर, शायद पापा को ले कर. पापा ने दरवाजा खोला. मां के माथे पर पड़े बल और भी गहरे हो चुके थे. हावभाव समझा रहे थे वे मुझ से कितनी नाराज हैं. लग रहा है अपने घर में मुझ से कितनी नाराज हैं. लग रहा है अपने घर में पूरी तरह रचबस गई हैं. यही तो चाहता हूं मैं कि मां जहां रहें खुश रहें. मेरा क्या है, मैं जहां हूं वहीं अच्छा हूं.

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