कोरोना लव: शादी के बाद क्या दूर हो गए अमन और रचना

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बुद्धू- भाग 3: अनिल को क्या पता चला था

‘‘शादी की सारी तैयारियां हो चुकी थीं. अचानक निवेदिता ने ही गड़बड़ी कर दी. मालूम पड़ा कि वह शादी न करने की जिद कर रही है.

‘‘भाभीजी ने मुझ से कहा था कि अब निवेदिता को भी तुम्हीं जा कर समझओ.

‘‘यह सुन कर मैं सुन्न हो गया और फिर बोला कि एकाएक निवेदिता को यह क्या हो गया है. मैं उसे क्या समझऊं.

‘‘यह सुन कर भाभी बोलीं कि अनिल तुम्हारे समझने से ही कुछ हो सकता है. तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वह असल में तुम से प्यार करती है.

‘‘मैं भाभीजी का मुंह देखता रह गया था. मेरा चेहरा लाल हो उठा था. मैं चिंता में डूब गया. ब्याह की बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि अब पीछे हटने में मेरी बदनामी होती. मैं किसी को मुंह दिखाने लायक भी न रहता.

‘‘भाभीजी के कहने से मैं उस के पास गया. वह दूसरी मंजिल के एक कमरे में खिड़की के पास खड़ी रोती मिली. मैं ने उसे पुकारा. इतने दिनों में मेरी उस से यह पहली बार आमनेसामने बात हुई.

‘‘मैं ने कहा कि निवेदिता, बात इतनी आगे बढ़ चुकी है. क्या अब तुम सब को नीचा दिखाओगी.

‘‘उस ने नजरें उठा कर मेरी ओर देखा. फिर तुरंत ही बोली कि और मेरा प्यार, मेरा दिल?

‘‘मैं ने पूछा कि क्या तुम्हें इस रिश्ते में कोई परेशानी है?

‘‘उस का गोल चेहरा शर्म से और ज्यादा झक गया. वह अपनी चुन्नी का छोर लपेटने लगी.

‘‘मैं ने फिर कहा कि क्या तुम फिर एक  बार गंभीरता से इस बात को नहीं सोच सकतीं?

‘‘उस ने नजरें उठा कर कुछ पल मेरी ओर देखा. फिर बोली कि यह आप कह

रहे हैं?

‘‘निवेदिता का प्रश्न सुन कर मैं दंग रह गया. फिर बोला कि तुम्हारी मां, बूआजी आदि सभी की इच्छा है… उधर रोमित भी इंतजार में बैठा था…

‘‘बात अधूरी ही रह गई. मेरा गला भर आया. सहसा अपनेआप को ही सबकुछ वाहियात लगने लगा.

‘‘वह बोली कि यह सब तो मैं जानती हूं, लेकिन क्या आप भी ऐसा ही कह रहे हैं?

‘‘मैं जबरन मुसकरा कर बोला कि मैं तो ऐसा कहूंगा ही.

‘‘मेरी सुन कर वह बोली कि क्यों नहीं कहोगे वरना दोस्त के आगे सिर नीचा नहीं हो जाएगा?

‘‘मैं ने कहा कि नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. जो कुछ हो रहा है, तुम्हारी भलाई के लिए ही हो रहा है.

‘‘मेरी बात सुन कर वह बोली कि मेरी भलाई के लिए? बस यही बात है?

‘‘इस के आगे निवेदिता ने मुझे कुछ कहने का मौका नहीं दिया और शीघ्रता से कमरे से निकल फटाफट सीढि़यां उतर कर नीचे चली गई.

‘‘देखतेदेखते शादी का दिन आ गया. सारे घर में लोग होहल्ला मचा रहे थे. मैं दिखाने के लिए व्यस्त सा इधरउधर घूमता रहा, पर मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. बरात दरवाजे पर आ चुकी थी. ऐसे ही समय में भाभीजी को ढूंढ़ता हुआ दोमंजिले के उसी कमरे में जा पहुंचा. वहां महिलाओं का दल निवेदिता को घेरे बैठा था. पर बरात के आने की खबर सुन कर मेरे सामने ही सब 1-1 कर कमरे से बाहर हो गईं.

‘‘लाल रंग की बेहद खूबसूरत साड़ी पहने, माथे पर लाल गोल बिंदी व पैरों में लाल महावर लगा, चेहरे को दोनों घुटनों के बीच झकाए निवेदिता बैठी थी. उस समय वह बड़ी सुंदर लग रही थी. मैं एकटक उसे निहारता रहा. अचानक उस की नजरे ऊपर उठीं. वह कुछ देर मेरे मुंह को ताकती रही. मैं ने देखा, उस की दोनों आंखें बहुत लाल थीं. सुना था, ब्याह की रात सभी लड़कियां रोती हैं. शायद वह भी रोई थी. मुझे उस की लाल आंखें बड़ी भली लगीं.

निवेदिता उठ कर खड़ी हो गई और भारी गले से बोली कि आप की ऐसी ही इच्छा थी न? और उस की आंखों से झरझर आंसू झरने लगे.

‘‘फिर मैं वहां न ठहर सका. सिर झका कर अपराधी सा बाहर आ गया. उस दिन पहली बार मेरी आंखों में आंसू आ गए थे. पता नहीं क्यों इस के बाद उस घर में मेरा मन न लगा.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘श्रद्धा, इस के बाद फिर कुछ नहीं हुआ.’’

‘‘निवेदिता से फिर आप की कोई मुलाकात नहीं हुई?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘बड़े आश्चर्य की बात है.’’

‘‘श्रद्धा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा है पर यह सच है कि शादी के 8 दिन बाद ही रोमित अपनी पत्नी को ले कर मुंबई लौट गया. शायद उस को ज्यादा छुट्टी नहीं मिली थी. इधर मेरा भी तबादला लखनऊ हो गया. इस के बाद हमारीतुम्हारी शादी हो गई और मैं भी कामकाज में घिर गया. तब से तो तुम साथ ही हो. लखनऊ के बाद कानपुर, फिर घाटमपुर तबादला हुआ और अब 12 वर्ष बाद फिर दिल्ली आ गया हूं. यद्यपि इन 12 सालों में अपने पास बुलाने के लिए रोमित और भाभीजी ने कई बार आग्रह भरे पत्र लिखे, पर रोमित और भाभीजी के पास जाने की इच्छा अधूरी ही रही.’’

‘‘अब तो हमें दिल्ली आए भी 1 महीना हो चुका है. इस 1 महीने में तुम भाभीजी के घर एक बार भी नहीं गए?’’

‘‘तुम ने यह कैसे समझ लिया कि मैं भाभीजी के घर गया ही नहीं?

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम भाभीजी के घर के चक्कर लगते ही रहते हैं.’’

‘‘नहीं, रोजरोज यह कैसे संभव है?’’

‘‘ओह, तुम से तो कोईर् बात पूछना भी बेवकूफी है. तुम मर्द लोग पता नहीं किस दिमाग के होते हो?’’

‘‘तुम शायद गुस्सा हो गई हो. यहां आने के चौथे दिन ही मैं उन ममतामयी भाभी के दर्शन करने चला गया था. वहां जाने पर निवेदिता की भी याद आई, पर मैं ने भाभीजी से उस का कोई जिक्र नहीं किया.

‘‘बातोंबातों में भाभीजी ने ही बताया कि निवेदिता अपने पति के साथ बहुत सुखी है. दिल्ली आने पर मुझे याद करती है. सुन कर मुझे संतुष्टि अवश्य हुई.

‘‘उस के बाद मैं भाभीजी के घर चाह कर भी न जा सका. लेकिन संयोग से आज भाभीजी सैक्टर 3 के मोड़ पर मिल गईं और…’’

‘‘निवेदिता की मौत का दुखद समाचार

सुना गईं.’’

‘‘हां, यह मैं पहले ही तुम्हें बता चुका हूं.’’

‘‘अनिल, मुझे अफसोस है कि मैं निवेदिता को न देख सकी.’’

‘‘क्या करती देख कर?’’

‘‘यह तो देखने और मिलने के बाद ही बतला सकती थी. तुम ने एक बार भी उसे अपने

यहां नहीं बुलाया. बुरा मत मानना, तुम वाकई बड़े बुद्धू हो…’’

‘‘श्रद्धा, इस में बुरा मानने की क्या बात है? शायद तुम सही कहती हो. सोच रहा हूं, अब बेचारे रोमित का क्या होगा. उसे पत्र लिखना चाहता हूं, पर काफी सोचने पर भी शब्द नहीं मिल रहे हैं. ऐसे शब्द जिन से रोमित निवेदिता के छोड़े हुए अधखिले फूलों को खिला सके और उन की महक से अपनेआप को महका ले.’’

‘‘क्या किसी शब्दकोश में ऐसे शब्द नहीं हैं, जिन से मरा हुआ आदमी जिंदा हो जाए?’’

‘‘श्रद्धा, मुझ पर व्यंग्य कर रही हो?

पर सुनो, मेरे शब्दों में इतनी शक्ति तो नहीं कि मरे हुए इंसान को पुन: जीवित कर दें. पर मेरे शब्दों से 3 जिंदगियों के होंठों से छिनी मुसकान यदि फिर से वापस आ जाए तो मुझ जैसे बुद्धू आदमी के लिए यह एक महान कार्य ही होगा.’’

बुद्धू- भाग 2: अनिल को क्या पता चला था

‘‘इस के बाद विशेष कुछ नहीं है, पर हां, कभीकभी एक धुंधला सा चित्र आंखों के सामने आ जाता है. ठीक वैसे ही जैसे भोर की अर्धनिद्रा में आया स्वप्न हो, जिस का कोई आकार नहीं होता, पर उस की झलक मात्र से मनमस्तिष्क में बेचैनी सी छा जाती है. यदि तुम सोचती हो कि वह चित्र निवेदिता का होगा तो यह तुम्हारी भूल है. मैं कह नहीं सकता कि तुम स्त्रियों के साथ भी ऐसा होता है क्या?’’

‘‘औरतों की हालत कैसी होती है, यह तुम ने उस समय निवेदिता से पूछा होता तो इस का पता लग गया होगा.’’

‘‘मैं एक बार फिर तुम्हें  बता देता हूं कि हमारी आमनेसामने बातचीत शायद ही कभी हुई हो, यद्यपि जिस दिन भी वहां जाता था, हमारी मुलाकात अवश्य होती थी. भाभीजी, उस की मां और हम सभी शाम के समय अधिकतर लौन में कुरसियां डाल कर बैठ जाते थे. वह अपनी कुरसी कुछ दूर ही रखती थी. पता नहीं क्यों? हां, इतना अवश्य था कि भाभीजी जब भी उस से कहती थीं, वह गाना अवश्य सुना दिया करती थी. कभीकभी वह गीत में इतना खो जाती थी कि एक के बाद एक सुनाती जाती थी. उस का गाना रुक जाने के बाद बहुत देर तक हम लोग बातें करना भूल जाते थे.’’

‘‘वह कैसा गाती थी?’’

‘‘श्रद्धा, यह तो मैं नहीं जानता, वैसे उस के गाने की तारीफ सभी करते थे. लेकिन जब वह गाती थी तब मुझे ऐसा लगता था कि उस के गाने में जो दर्द, जो टीस है, वही मेरे दिल में है. पर मेरे पास उसे प्रकट करने के लिए कोई शब्द नहीं थे, भाषा नहीं थी. उस के कुछ गाने मैं ने चोरी से रिकौर्ड कर लिए थे.’’

‘‘गाने तो वह तुम्हारे लिए ही गाती थी, यही कहना चाहते हो न?’’

‘‘ऐसी बेतुकी बातें मैं ने कभी नहीं सोचीं. कोई लड़की अगर आंख उठा कर

देख ले और मैं सोचने लगूं कि वह मुझे किसी विशेष कारण से देख रही है तो यह मेरी बेवकूफी के सिवा और क्या होगा? और रही रिकौर्डिंग की बात तो उस के बाद तो न जाने कितनी बार मोबाइल बदले जा चुके हैं. अब कहां मिलेगी वह आवाज.’’

‘‘तुम्हारी यह बात मेरी बुद्धि में नहीं घुसी. खैर, आगे बताओ.’’

‘‘ठीक ही कहा तुम ने. उस की मां को उस की शादी की बड़ी जल्दी थी. पर मैं भाभीजी को अकसर यह कहते सुना करता था कि अरे, ऐसी भी क्या जल्दी है. लड़की अभी बीए तो कर ले. उसे पढ़ने भी दो, समय आने पर शादी हो जाएगी.

‘‘लेकिन उस की मां कहती थी कि शादीब्याह की कोशिश तो पहले से करनी पड़ती है. लड़की की शादी है, कोई हंसीमजाक तो नहीं.

‘‘एक दिन निवेदिता की मां ने मुझे से भी कहा कि अनिल, तुम इतनी अच्छी नौकरी पर हो. क्या निवेदिता के लिए अपने ही जैसे किसी लड़के को नहीं ढूंढ़ सकते?

‘‘तभी भाभीजी मेरा मजक उड़ाती हुई बोलीं कि तुम ने भी बड़े भले आदमी से जिक्र छेड़ा है. अपने छोटों से बात करने में तो यह पसीने में भीग जाता है, यह बिटिया के लिए क्या लड़का ढूंढ़ेगा. हां, इस की निगाह में एक लड़का जरूर है.

‘‘और वह यह कह कर मेरी ओर स्नेहभरी दृष्टि डाल कर मुसकरा पड़ीं.

‘‘उस की मां ने उत्सुकतापूर्वक तुरंत पूछा कि कौन है वह लड़का? कहां रहता है? क्या काम करता है?

‘‘पर भाभीजी मेरी ओर देख कर मुसकरा ही रही थीं. मुझ से वहां एक पल भी न ठहरा गया. मैं तुरंत उठ कर गली में आ गया. मेरा मन यह सोच कर बड़ा खराब हो गया कि भाभीजी ने मेरे विषय में क्या सोच रखा है.

‘‘मैं लज्जा से गड़ा जा रहा था. सोचता, आखिर भाभीजी को किस तरह प्रमाण दूं कि मैं निवेदिता के आकर्षण से उन के घर नहीं आता. किस तरह से उन्हें बताऊं कि मैं इतना गिरा हुआ इनसान नहीं कि भाभीजी के निस्स्वार्थ प्रेम का ऐसा दुरुपयोग करूंगा. निवेदिता के आने से पहले भी मैं अकसर आता था और अब भी कभीकभी चला आता हूं. क्या निवेदिता के आने के बाद मेरे व्यवहार में कोई तबदीली हुई? क्या मैं ने भाभीजी को ऐसा सोचने का मौका दिया? मैं रास्ते भर अपने मन को टटोलता रहा. मैं ने कोई गलती की है? कहीं मेरी किसी हरकत ने अनजाने से ही कुछ ऐसा तो प्रकट नहीं किया जिस से भाभीजी के नारीमन के बारीक परदे पर कुछ झलक गया हो. ऐसा कब हुआ. कैसे हुआ. कुछ भी, किसी भी तरह समझ में नहीं आया.

‘‘घर आ कर मैं आंखें मूंद कर चारपाई पर लेट गया. पर चैन न मिला. मन का

क्लेश बढ़ता ही गया. आखिर मैं ने स्वयं ही फैसला किया, भाभीजी का संदेह दूर करना ही होगा, इस के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े.

‘‘उस के बाद से भाभीजी के घर जाने के लिए अपनेआप को तैयार करने में बड़ा असमर्थ पाने लगा, पर भाभीजी के निस्स्वार्थ प्यार के बारे में सोचसोच कर मेरा दिल भरभर जाता. मगर यह भी डर था कि अचानक जाना बंद करने से कहीं सब को शक न हो जाए. इसलिए बजाय एकदम जाना बंद करने के यह सोचा करता कि क्या किया जाए. तब सहसा मेरे दिमाग में यह बात आईर् कि क्यों न निवेदिता के लिए कोई अच्छा सा वर ढूंढ़ दूं. इस से अच्छा और कोई नेक काम नहीं हो सकता. सच, मैं इतने समय तक बेकार ही परेशान रहा.

‘‘इसी बीच अचानक एक दिनकनाटप्लेस में रोमित मिल गया. उस ने एमएससी मेरे साथ ही की थी. पर पढ़ने में तेज होने के कारण आई.

एएस प्रतियोगिता में चुन लिए जाने से राजपत्रित अधिकारी हो गया था. बातोंबातों में जब पता चला कि रोमित अभी कुंआरा है तो खुशी से मेरा दिल उछल पड़ा.

‘‘मैं ने जिक्र छेड़ने में देर करना उचित नहीं समझ. शुरू में तो बात मजाक में उड़ गई, पर थोड़ी देर बाद रोमित इस मामले में गंभीर दिखाई दिया. दिल्ली से बाहर का जीवन, फिर अकेले में उस का दिल भी नहीं लगता था. मैं ने मौका अच्छा समझ और निवेदिता का जिक्र छेड़ दिया.

‘‘बात जब लड़की को देखने की आई तो रोमित बोला कि कैसी बात करते हो, अनिल? अगर लड़की तुम्हारी निगाहों में मेरे लायक है तो बस ठीक है. पर मेरी मां लड़की को बिना देखे नहीं मानेंगी.

‘‘मैं ने कहा कि बेशक… बेशक, मुझे इस में क्या परेशानी हो सकती है? जब चाहो माताजी को ले कर आ जाओ.

‘‘वह बोला कि ठीक है, अनिल. मैं अगले चक्कर में कुछ दिनों की छुट्टी ले कर दिल्ली आऊंगा.

‘‘रोमित ने इस से ज्यादा कुछ नहीं कहा था, पर उस के चेहरे के भाव ने मुझे बहुत कुछ समझ दिया था.

‘‘उसी रात तो मैं ने भाभीजी को अकेले में रोमित के विषय में सब कुछ बता दिया. भाभीजी हैरान करती हुई बोलीं कि सच कह रहे हो, अनिल?

‘‘मैं ने कहा कि भाभीजी मैं ने आप से कभी मजाक किया है?

‘‘भाभीजी कुछ देर मेरे चेहरे को एकटक देखने के बाद बोलीं कि ठीक है.

‘‘उन की ओर से मुझे जितनी खुशी की आशा थी उतनी मैं उन के चेहरे पर न देख सका. पर निवेदिता की मां खुशी से फूली न समाईं और मुझे कंधे से पकड़ कर बोलीं कि अनिल, तुम्हें यह रिश्ता शीघ्र ही तय कर देना चाहिए. ऐसे वर बारबार नहीं मिलते.

‘‘कुछ ही दिनों में निवेदिता की शादी तय हो गई. निवेदिता की मां सभी नातेरिश्तेदारों में मेरी तारीफ के पुल बांधा करतीं और उत्तर में वे सब भी मेरी प्रशंसा करने लगे थे. मुझ जैसे बुद्धू व्यक्ति से इतना बड़ा नेक काम भी हो सकता है, किसी को ऐसी आशा तक नहीं थी.

मन बहुत प्यासा है: क्या थी शेखर की गलती

शाम बहुत उदास थी. सूरज पहाडि़यों के पीछे छिप गया था और सुरमई अंधेरा अपनी चादर फैला रहा था. घर में सभी लोग टीवी के सामने बैठे समाचार सुन रहे थे. तभी न्यूज ऐंकर ने बताया कि सुबह दिल्ली से चली एक डीलक्स बस अलकनंदा में जा गिरी है. यह खबर सुनते ही सब के चेहरे का रंग उड़ गया और टीवी का स्विच औफ कर दिया गया. मैं नवीन की कमीज थामे सन्न सी खड़ी रह गई. ढेर सारे खयाल दिलोदिमाग में हलचल मचाते रहे. क्या सचमुच नवीन इज नो मोर?

मां का विलाप सुन कर आंगन में आसपास की औरतें जुड़ने लगीं. उन में से कुछ रो रही थीं तो कुछ उन्हें सही सूचना आने तक तसल्ली रखने की सलाह दे रही थीं. बाबूजी ने मेरे डैडी को फोन किया और तुरंत घटनास्थल पर चलने को कहा. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं? क्या मैं सचमुच… इस के आगे सोचने से दिल घबराने लगा. 3 दिन तक जीनेमरने जैसी स्थिति रही. चौथे दिन हारे हुए जुआरी की तरह बाबूजी और डैडी वापस लौट आए. अलकनंदा में उफान के कारण लाशें तक निकाली नहीं जा सकी थीं. पता कर के आए मर्दों के चेहरों पर हताशा को पढ़ कर औरतें चीखचीख कर रोने लगीं. कुछ उस घड़ी को कोस रही थीं, जिस घड़ी नवीन ने घर से बाहर कदम निकाला था.

एक बूढ़ी औरत मेरे कमरे में आई और मुझे घसीटती हुई बाहर ले आई. कुछ औरतों ने आंखों ही आंखों में सरगोशियां कीं और मेरा चूडि़यों से भरा हाथ फर्श पर दे मारा. चूडि़यां टूटने के साथ खून की कुछ बूंदें मेरी कलाई पर छलक आईं पर इस की परवाह किस को थी. भरी जवानी में मेरे विधवा हो जाने से जैसे सब दुखी थीं और मुझे गले लगा कर रोना चाहती थीं. मैं पत्थर की शिला सी हो गई थी. मेरी आंखों में बूंद भर पानी भी नहीं था.

अपने विफल हो रहे प्रयासों से औरतों में खीज सी पैदा हो गई. कुछ मुझे घूरते हुए एकदूसरे से कुछ कह रही थीं, तो महल्ले की थुलथुली बहुएं, जो मेरी स्मार्टनैस से कुंठित थीं अपनी भड़ास निकालने की कोशिश कर रही थीं. मेरा लंबा कद, स्याह घने बाल, हिरनी जैसी आंखें और शादी में लाया गया ढेर सारा दहेज, जिस के कारण महल्ले की सासें अपनी बहुओं को ताने दिया करती थीं, आज बेमानी बन कर रह गया, तो मेरी सुंदर काया का मूल्य पल भर में कौडि़यों का हो गया.

मेरी उड़ती नजर आंगन के कोने में खड़ी मोटरसाइकिल पर गई. इसी मोटरसाइकिल के लिए मझे 4 दिन तक भूखा रखा गया था और 6 महीने तक मैं मायके में पड़ी रही थी. आखिर पापा ने अपने फंड में से पैसा निकाल कर नवीन को मोटरसाइकिल ले दी थी. अब कौन चलाएगा इसे? नवीन की मौत से हट कर मेरा

मन हर राउंड में लाई गई चीजों की फेहरिस्त बना रहा था.

कुल 2 साल ही तो हुए थे हमारी शादी को और हमारी बेट मिनी साल भर की है. खुद को कर्ज में डुबो कर बेटी का घर भर दिया था पापा ने. क्या मैं उस आदमी के लिए रोऊं जो हर वक्त कुछ न कुछ मांगता ही रहता था और हर चौथे दिन रुई की तरह धुन देता था. तभी औरतों की खींचातानी से मिनी रोई तो मेरी तंद्रा टूटी. मैं उसे औरतों की भीड़ से निकाल कर कमरे में ले आई.

औरतों का आनाजाना कई दिनों तक लगा रहा. कुछ मुझ कुलच्छनी बहू को घूरघूर कर एकदूसरे से बतियाती हुई आंसू बहातीं तो कुछ मेरे न रोनेधोने के कारण किसी रहस्य को सूंघने की कोशिश करतीं. पर मुझे उन की परवाह नहीं थी.

मां जो शेरनी की तरह दहाड़ती रहती थीं अब भीगी बिल्ली सी आंसू बहाती रहतीं. मेरी ननद गीता और उस के पति रजनीश भी आ गए थे. गीता मेरे कमरे के फेरे मारती रहती और एकएक कीमती चीज के दाम पूछती रहती. रजनीश की नजरमोटरसाइकिल पर थी.

गीता को वापस जाना था. रजनीश ने खिसियानी सी हंसी हंसते हुए कहा, ‘‘भाभी, अब इस मोटरसाइकिल का यहां क्या होगा? कहो तो मैं ले जाऊं. डीटीसी बसों में आतेजाते मैं तो तंग आ गया हूं. रोज देर हो जाती है तो बौस की डांट खानी पड़ती है.’’ फिर मोटरसाइकिल पर बैठ कर ट्रायल लेने लगा.

गीता भी पीछे नहीं रही, ‘‘भाभी, इस कौस्मैटिक बौक्स का अब आप क्या करेंगी? आप के लिए तो बेकार है. मैं ले जाती हूं इसे. कितने सारे तो परफ्यूम्स हैं. इतनी अच्छी चीजें इंडिया में कहां बनती हैं. आप के पापा का भी जवाब नहीं. हर चीज कीमती दी है आप को.’’

क्या संबंध स्वार्थ की कागजी नींव पर टिके होते हैं? यह सोचते हुए संबंधों पर से मेरी आस्था हटने लगी. यह वही गीता है, जो बारबार गश खा कर गिर रही थी और भाई की मौत को अभी 4 दिन भी नहीं गुजरे इस ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया.

गीता और रजनीश की नजर तो मेरे लैपटौप और महंगे मोबाइलों पर भी थी, क्योंकि बाबूजी ने कह दिया था कि मोटरसाइकिल वगैरह अभी यहीं रहने दो. बाद में देखेंगे. गीता ने एक बार झिझकते हुए कहा, ‘‘भाभी, आप के पास तो 2 मोबाइल हैं. वाऊ, कितने खूबसूरत हैं.’’

मैं ने जब कोई जवाब नहीं दिया तो वह बोली, ‘‘मैं तो ऐसे ही कह रही थी.’’

गीता और रजनीश के जाने के बाद घर में गहरा सन्नाटा छा गया. मां और बाबूजी दोनों ही शंकित थे कि कहीं मैं भी उन्हें छोड़ कर न चली जाऊं. पर अब कहां जाना था मुझे. हालांकि पापा ने मुझे साथ चलने को कहा था पर मैं ने मना कर दिया. बाबूजी का दुलार तो मुझे हमेशा ही मिलता रहा था पर मां और नवीन के सामने उन की चलती ही नहीं थी. पर अब कितना कुछ बदल गया था.

थोड़ी भागदौड़ के बाद मुझे नवीन की जगह नौकरी भी मिल गई. रसोईघर जहां मैं दिन भर खटती रहती थी, को मां ने संभाल लिया था. नौकरी पर आतेजाते मुझे लगता था कि कई आंखें मुझे घूर रही हैं. दरअसल, वे औरतें, जिन्हें मुझे ले कर निंदासुख मिलता था अब अजीब नजरों से मुझे देखती थीं.

एक अभी हुई विधवा रोज नईनई पोशाकें पहन कर दफ्तर जाए यह बात उन के गले से नहीं उतरती थी. मां का भी अब महल्ले की चौपाल पर बैठना लगभग बंद हो गया था, तो पड़ोसिनों का आनाजाना भी कम हो गया था.

मेरी नौकरी ने जैसे मुझे नया जीवन दे दिया था. ऐसा लगता था जैसे मरुस्थल में बरसाती बादल उमड़नेघुमड़ने लगे हों. इस से बेचैनी और भी बढ़ जाती, तो मैं सोचती कि मैं विधवा हो गई तो इस में मेरा क्या कुसूर? दहेज में मिली कई कीमती साडि़यों की तह अभी तक नहीं खुली थीं. मैं जब उन में से कोई साड़ी निकाल कर पहनती तो मां प्रश्नवाचक नजरों से चुपचाप देखती रहतीं और मैं जानबूझ कर अनजान बनी रहती. कालोनी की जवान लड़कियों को मेरा कलर कौंबिनेशन बहुत पसंद आता. वे प्रशंसनीय नजरों से मुझे देखतीं पर मैं इस सब से तटस्थ रहती. दफ्तर में मुझे सब से ज्यादा आकर्षित करता था शेखर. वह मेरे काम में मेरी मदद करता. फिर कभीकभी बाहर किसी रेस्तरां में कौफी पीने भी हम चले जाते. गपशप के दौरान कब वह मेरे करीब आता चला गया मुझे पता ही नहीं चला. धीरेधीरे हम दोनों एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि साथ जीनेमरने की कसमें खाने लगे.

एक दिन इतवार को दोपहर के समय जब मैं मिनी को गोद में लिए बाहर निकली तो मां ने प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा. मुझे लगा जैसे मैं कोई अपराध करने जा रही हूं. पर अब मैं ने नजरों की भाषा को पढ़ना छोड़ दिया था. मन में एक अजीब सी प्यास थी और मैं मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रही थी. देर शाम को जब घर लौटी तो मां की नजर में कई सवाल थे. वे मिनी को उठा कर बाहर ले गईं और लौटीं तो पूछा, ‘‘यह शेखर अंकल कौन है?’’ मैं सन्न रह गई. मां मुझ से ऐसा सीधा सवाल करेंगी यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. मगर जल्दी ही मैं ने खुद को संभाला ओर बोली, ‘‘शेखर मेरे दफ्तर में काम करता है. मौल में मिल गया था.’’ मां ने हुंकार भरा और अपने कमरे में चली गईं. देर रात तक मां और बाबूजी की आवाजें कटकट कर मेरे कानों में आती रहीं और मैं दमसाधे सुनती रही. साथ में यह भी सोचती रही कि आखिर क्या चाहते हैं ये लोग? क्या मैं सारी उम्र यों ही गुजार दूं? मुझे अकसर औफिस से आतेआते देर हो जाती. तब बाबूजी मुझे बस स्टौप पर खड़े मिलते. मुझे देखते ही कहते, ‘‘मैं यों ही टहलता हुआ इधर निकल आया था. सोचा, तुम आ रही होगी.’’ फिर सिर झुकाए साथसाथ चलने लगते. मुझे ऐसा लगता जैसे मैं कांच के मकान में रह रही हूं, जरा सी ठोकर लगते ही टूट जाएगा.

मैं अपनी जिंदगी में आगे बढ़ना चाहती थी पर बाबूजी और मां का बुढ़ापा कैसे कटेगा यह सवाल मुझे सालता था. मैं शेयर के साथ अपनी तनहाई शेखर करना चाहती पर मां और बाबूजी का बुढ़ापा बीच में आ जाता था उन की आंखों का डर मुझे खुल कर जीने नहीं दे रहा था. शेखर कुछ दिनों की छुट्टी ले कर घर गया था. मैं सोच रही थी कि जब वह वापस आएगा तो उस से खुल कर बात करूंगी. उस ने वादा किया था कि वह अपने मांबाप को मना लेगा इसलिए मैं आश्वस्त थी. लेकिन एक दिन औफिस में मैं ने अपनी मेज पर एक लंबा लिफाफा रखा देखा. लिफाफा खुला ही था. अंदर से कागज निकाला तो देखा तो लगा छनाक से कुछ टूट गया हो. एक वैडिंग कार्ड था- शेखर विद सरोज. साथ में एक चिट्ठी भी थी जिस में लिखा था- मीरा, एक विधवा के साथ विवाह करने की बात मेरे मम्मीडैडी के गले नहीं उतरी. विधवा, उस पर एक बच्ची की मां. सच मानो मीरा मैं ने मम्मीडैडी को समझाने की बहुत कोशिश की पर अपने अविवाहित बेटे के लिए उन के दिल में बड़ेबड़े अरमान हैं. कैसे तोड़ दूं उन्हें… मुझे क्षमा कर देना, मीरा.

अगले दिन मैं ने निगाह घुमा कर देखा, शेखर मोटीमोटी फाइलों में गुम होने का असफल प्रयास कर रहा था. मैं ने खत सहित वैडिंग कार्ड को टुकड़ेटुकड़े कर डस्टबिन में डाला तो उस ने घूर कर मुझे देखा.मैं रोई नहीं. रोना मेरी आदत नहीं है. मैं तेजी से टाइप करती रही और मैं ने चपरासी को पंखा तेज करने को कहा, क्योंकि मन की तपिश और बढ़ गई थी.  शाम को जब औफिस से निकली तो खुली हवा के झोंके मन को सहलाने लगे मेरे कदम अपनेआप ही न्यू औप्टिकल स्टोर की ओर बढ़ गए. बाबूजी केलिए नया चश्मा बनवा कर जब निकली तो याद आया कि मां कई दिन से एक साड़ी लाने को कह रही थीं. एक ही क्षण में दुनिया कितनी बदल गई थी. बाबूजी डेढ़ महीने से नया चश्मा बनवाने को कह रहे थे पर उस ओर मेरा ध्यान ही नहीं जा रहा था. उन्हें पढ़नेलिखने में कितनी परेशानी हो रही थी, आज याद आया तो मन में अपराधबोध सा जागने लगा था. लगता है बाबूजी को शेखर के विवाह की बात पता चल गई थी. वे बस स्टौप पर भी नहीं आए. अगली सुबह देखा तो वे मोटरसाइकिल साफ कर रहे थे. मुझे लगा इसे बेचने की तैयारी है. मन में कसैलापन भर गया. पर तभी बोले, ‘‘बेटा, तुम्हें तो मोटरसाइकिल चलानी आती है न. चलो जरा डाक्टर की दुकान तक ले चलो. बसों में जाने में दिक्कत होती है.’’ मैं मुंह खोले उन्हें देखती रह गई और फिर उन के सीने से जा लगी, ‘‘बाबूजी…’’ मुझ से बोला नहीं जा रहा था. तभी मां की आवाज आई, ‘‘और हां, लौटते हुए बेकरी से एक केक लेती आना. आज तेरा जन्मदिन है न…’’

बुद्धू- भाग 1: अनिल को क्या पता चला था

दफ्तर से घर लौटते समय रास्ते में भाभीजी मिल गईं. वे बहुत उदास थीं. पूछने पर उन्होंने बताया, ‘‘मुंबई से रोमित का मैसेज आया है कि निवेदिता अब इस दुनिया में नहीं रही है.’’

सुन कर मैं स्तब्ध रह गया. घर तक कैसे आया, पता नहीं. आते ही एक बौक्स से निवेदिता का फोटो निकाल कर बैठ गया. तभी श्रद्धा ने आ कर पूछा, ‘‘इतने ध्यान से किस का चित्र देखा जा रहा है?’’

‘‘तुम नहीं जानतीं, श्रद्धा, यह निवेदिता है. महज 32 साल की उम्र में अपने पति और 2 बच्चों को कोविड से पैदा हुए किसी कौंप्लिकेशन की वजह से बिलखता छोड़ कर हमेशा के लिए दुनिया से चली गई है.’’

‘‘उफ, बड़े दुख की बात है. लेकिन तुम निवेदिता को कैसे जानते हो? निवेदिता का फोटो तुम्हारे पास कैसे आया?’’

‘‘तुम गोविंदपुरी वाली भाभीजी को तो जानती ही हो.’’

 

‘‘हां, अपने हनीमून से लौटते वक्त कुछ समय के लिए हम उन्हीं के घर तो रुके थे.’’

‘‘ठीक पहचाना तुम ने. निवेदिता उन्हीं की भतीजी थी.’’

‘‘मगर पहले तो तुम ने निवेदिता का कभी जिक्र नहीं किया?’’

‘‘ऐसी कितनी ही बातें मैं ने तुम्हें अभी तक नहीं बताई होंगी.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम से कोई बात छिपा कर नहीं रखी?’’

‘‘यह क्या तुक हुआ?’’

‘‘अच्छा, तो कोई तुक नहीं हुआ? तुम मर्द लोग पता नहीं कैसे होते हो. अब तो तुम्हारी ही बात से यह स्पष्ट हो गया कि तुम्हारे जीवन में न जाने ऐसी कितनी निवेदिताएं आ चुकी हैं.’’

‘‘तुम फिर गलती कर रही हो.’’

‘‘सही बात सभी को कड़वी लगती है, पति महाशय. भाभी की भतीजी और परेशान तुम हो और फिर भी कहना यह कि उस से कोई रिश्ता नहीं.’’

‘‘पर मैं तुम्हें कैसे समझऊं कि निवेदिता के साथ मैं ने कभी ढंग से बात भी नहीं की थी.’’

‘‘कोई दूसरा कहता तो शायद इस बात का विश्वास भी कर लेती.’’

‘‘मेरी बात का भी तुम्हें विश्वास कर लेना चाहिए क्योंकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि तुम्हारा पति इतना बुद्धू है कि जरूरत पड़ने पर भी झठ नहीं बोल सकता.’’

‘‘बनो मत, मैं जानती हूं कि अंटशंट बकना तुम्हारी आदत है. इसीलिए जिंदगी में कोई उन्नति नहीं कर सके. तुम किसी भी व्हाट्सऐप गु्रप में भी ढंग से ज्यादा दिन नहीं रह पाते.’’

‘‘तुम ने ठीक फरमाया. अपने को धन्य समझे कि तुम्हें मेरे जैसा पति मिला है. मैं शादीशुद पुरुष हो कर भी घिसेपिटे ढंग से जी रहा हूं, इसीलिए आज तक उन्नति नहीं कर सका.’’

‘‘शायद निवेदिता को न पाने के पश्चात्ताप में अब तक तुम घुलते रहे हो.’’

‘‘मुझ पर नहीं तो उस बेचारी लड़की पर तो तरस खाओ. और फिर अब तो वह मर भी गई है.’’

‘‘वाह, क्या कहने तुम्हारी दार्शनिकता के. फिर भी यह तो बताओ कि तुम्हारी उस से जानपहचान कैसे हुई?’’

‘‘तुम जानना ही चाहती हो तो सुनो. बात उन दिनों की है जब एमएससी करने के बाद मुझे दिल्ली  में नौकरी मिल गई थी. गांव छोड़ते समय पिताजी ने मुझे दूर के एक भाई साहब को फोन कर कहा था कि बेटे, ये तुम्हारे दूर के रिश्ते के एक भाई का पता है. दिल्ली में अपनी जानपहचान का इन के अलावा और कोई नहीं है. बड़ा शहर है, वक्तजरूरत इन के पास चले जाया करना.

‘‘दिल्ली पहुंचने के तीसरे दिन ही मैं भाई साहब के घर गया. पहली भेंट में ही मुझे भैया और भाभी के व्यवहार ने मोह लिया. फिर मैं अकसर उन के घर जाने लगा. भाभीजी से मेरी खूब पटने लगी.’’

‘‘चलोजी, बहुत भूमिका हो ली. अब तुरंत नायिका को मंच पर पेश करो.’’

‘‘फिर मैं एक दिन शाम को भाभीजी के घर गया. ड्राइंगरूम में घुसते ही मैं ठिठक

गया. सामने सोफे पर एक लड़की बैठी कशीदा काढ़ रही थी. उस के खुले, काले, घने, लंबे बाल पीठ पर लटक रहे थे. ड्राइंगरूम की खिड़की से ढलते सूरज की धूप उस पर सुनहरे फीते की तरह पड़ रही थी.

‘‘उस लड़की को भाभीजी के घर में मैं ने पहली बार ही देखा था. आहट पा कर कढ़ाई से आंख हटते ही वह सकपका सी गई. उसे उसी हालत में छोड़ कर मैं घर के भीतर चला गया.

‘‘भाभीजी रसोईघर में कुछ बना रही थीं. मुझे देख कर एकदम खिल गईं और बोलीं कि बड़े अच्छे वक्त पर आए हो, अनिल, छोलेभठूरे बनाते हुए तुम्हारी बहुत याद आ रही थी. तुम्हें बहुत अच्छे लगते हैं न.

‘‘भाभीजी के दुलार से मैं बहुत खिल गया और बोला कि भाभीजी, मुझे एक स्टूल दे दो.

‘‘इस पर वे बोलीं कि तुम इस गरमी में यहां बैठोगे.

‘‘मैं ने कहा कि वाह, भाभीजी, आप ऐसी गरमी में छोलेभठूरे बना सकती हैं तो क्या हम यहां बैठ कर उन्हें खा भी नहीं सकते.

‘‘भाभीजी मुसकरा कर आंचल से माथा पोंछने लगीं तो अचानक मैं ने पूछा कि ड्राइंगरूम में जो देवीजी बैठी हैं वे कौन हैं?

‘‘भाभीजी ने बताया कि वह उन की भतीजी है. उस का नाम निवेदिता है. चूंकि उन के भैया का देहांत हो गया है और घर में कोई और सहारा नहीं है, इसलिए उन्होंने अपनी भाभी और भतीजी को अपने पास बुला लिया है.

‘‘थोड़ी देर बाद वह लड़की आ कर रसोई के दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

‘‘मैं ने महसूस किया कि वह मुझे भाभीजी से इस तरह घुलमिल कर बातें करते देख कर हैरान है. लेकिन उस ने ऐसा प्रदर्शित किया जैसे उन से मुझे देखा ही न हो. भाभी ने परिचय कराया कि निवेदिता, यह हमारा देवर अनिल है.

‘‘निवेदिता ने नजरें उठा कर मुझे देखा और तुरंत पलट कर ड्राइंगरूम की ओर चली गई.

‘‘इस के बाद उस ने मुझे भाभीजी के घर के एक सदस्य के रूप में ही देखा. वह गांव से इंटर पास कर के आई थी. दिल्ली में आने पर उस का पढ़नालिखना भी अच्छी तरह से हो सकेगा और दूसरे यहां उस के लिए अच्छा घरवर भी आसानी से ढूंढ़ा जा सकता है, कुछ इस प्रकार की इच्छाएं भाभीजी और निवेदिता की मां के मन में थीं, यह मुझे तभी पता लग गया.’’

‘‘वाह, कहानी तो खूब अच्छी गढ़ रखी है तुम ने. खैर, फिर निवेदता से दूर हो कर तुम मरे पास कैसे आ गए? तुम दोनों में प्यार कहां तक हुआ, यह भी तो बताओ?’’

‘‘देखो, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि उन दिनों दिल्ली में उठनेबैठने का मेरा एकमात्र स्थान भाभीजी का घर ही था. उस उम्र में भी मुझे आवारागर्दी पसंद नहीं थी. शेष खाली वक्त में मैं अपने कमरे में बैठ कर बड़ेबड़े लेखकों की किताबें पढ़ा करता था और जब थक जाता था तो भाभी के आंचल की स्निग्धता मुझे उन के पास खींच ले जाती थी. वे मुझ से अकसर मजाक में कहतीं कि अनिल, तुम शाद कर के अपनी बीवी के ऐसे गुलाम बन जाओगे कि बेचारी की जान मुसीबत में पड़ जाएगी. यह तो तुम मानोगी ही कि उन की यह बात कितनी सही थी.’’

‘‘रहने भी दो अपनी बड़ाई, बीवी के गुलाम मर्द भी कहीं अच्छे होते हैं?.’’

‘‘यह तो तुम अच्छी तरह जानती हो कि पुरुषों की सी कठोरता मुझ में है ही नहीं. मैं कभी गुस्सा नहीं कर सकता. नौकर मुझ से डरते नहीं. किसी के दिल से नहीं खेल सकता. इसलिए एक सुंदर लड़की को बिलकुल नजदीक पा कर भी मैं उस से प्रेम न कर सका.’’

‘‘क्या निवेदिता सुंदर थी? फोटो से तो ऐसा नहीं लगता.’’

‘‘यह फोटो बिलकुल सादी पोशाक में खींचा गया है और फोटो में वह चाहे जैसी भी प्रतीत हो रही है, पर उस का गेहुआं रंग, बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और मासूम चेहरा मुझे बहुत भला लगता था.’’

‘‘अरे, इतनी जल्दी क्यों रुक गए. थोड़ी सी कविता और कर डालो.’’

‘‘उपहास न करो, श्रद्धा, यह एक सचाई है.’’

‘‘बाप रे, मेरे बुद्धूराम, जरा सा मजाक भी सहन नहीं तुम को. मामला कुछ गंभीर नजर आता है, सुनाओ भई, आगे सुनाओ.’’

बिट्टू और उसका दोस्त- भाग 4: क्या यश को अपना पाई मानसी

तुम बहुत अच्छे और सच्चे इंसान हो… अपना यह फैसला बदलने का दुख मुझे हमेशा रहेगा. बिट्टू नहीं जानता, सुधांशु की बातों में आ कर उस ने किस इंसान को खो दिया है. आई एम सौरी, यश.’’ मानसी धीरे से बोली.

यश ने एक ठंडी सांस ली. वह सिर झकाए बैठा था, ‘‘बिट्टू से मैं ने बहुत प्यार किया था. मुझे उस में अपना बचपन नजर आता था. फिर तुम से मिला. तुम मेरे लिए बहुत खास हो. इतनी खास कि मैं सारा जीवन तुम्हारा इंतजार कर सकता हूं और करूंगा भी क्योंकि मैं अपने दिल से मजबूर हूं. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है, तुम्हारी जगह मैं होता तो शायद यही करता.’’

मानसी के लिए अब वहां रुकना मुश्किल हो रहा था. दोनों की आंखों के कोने नम होने लगे थे और बिछड़ने का पल तो यों भी कष्ट देने वाला होता ही है और बिछड़ना भी वह कि जिस में फिर मिलने की कोई उम्मीद ही न हो.

यह फैसला मानसी के लिए आसान तो नहीं था. कहीं दिल कराहा था, यादों ने हलचल मचाई थी, आंखें रातदिन रोई थीं तब कहीं जा कर यह फैसला हुआ था.

मानसी घर पहुंची तो बिट्टू ने उस की लाल आंखों और उतरे चेहरे को बड़े ध्यान से देखा, लेकिन वह तेजी से अपने कमरे में चली गई.

1 हफ्ते बाद मानसी के पापा ने बताया कि यश अपना सारा बिजनैस बेच कर हमेशा के लिए कनाडा चला गया. वह आज उन से मिलने आया था. मानसी ने नोट किया बिट्टू यह सुन कर काफी रिलैक्स हो गया था.

फिर मानसी का जीवन बहुत सूना हो गया. वह अपने काम में व्यस्त रहती. बिट्टू का व्यवहार बदल गया था. अब वह उस से हंसनेबोलने की कोशिश करता. लेकिन मानसी का दिल जैसे मर गया था. पतझड़ तो बहुत चुपके से उस के जीवन में आ गया था. दिन बेहद उदास बीतने लगे. वह बहुत अकेलेपन की शिकार थी. उसे लगता यश उसे बहुत याद करता होगा. फोन की हर घंटी उसे चौंका देती.

एक दिन जब बिट्टू ने कहा कि वह अपनी छुट्टियां अपने पापा के साथ अमेरिका में बिताना चाहता है तो उस ने अपने जवान होते बेटे को जाने से नहीं रोका. 2 महीने की जगह वह इस बार 1 महीने में ही वापस लौट गया, लेकिन इस बार उस का मूड अपने पापा की वजह से बहुत खराब था. उस के पापा ने एक अमीर विधवा अंगरेज औरत से तीसरी शादी कर ली थी. इस बार सुधांशु ने बिट्टू को भी खास लिफ्ट नहीं दी थी. अब की बार वह बहुत डिस्टर्ब था. अब वह धीरेधीरे अपनी नजरों से चीजों को देखने और समझने लगा था. काफी समय बीत गया. मानसी के मम्मीपापा भी नहीं रहे थे. घर में दोनों मांबेटा ही रहते थे.

एक दिन सुधांशु का फोन आया तो मानसी ने बिट्टू को फोन पर चिल्लाते हुए सुना, ‘‘मैं आप को अच्छी तरह जान गया हूं. आप के लिए पैसे से बढ़ कर कुछ नहीं है. अब आप मुझे गलत गाइड नहीं कर सकते. आज के बाद मुझे फोन मत करना,’’ कह कर उस ने गुस्से से रिसीवर

रख दिया.

मानसी ने यह सब सुना तो उस का दिल बहुत दिनों बाद कुछ हलका हुआ.

बिट्टू एकदम से बड़ा हो गया था. नानानानी की मृत्यु के बाद वह काफी अपसैट सा रहता. अपना खाली समय वह मानसी के साथ बिताता. उसे अब मानसी की चिंता रहने लगी थी.

एक दिन वह चुपचाप मां की गोद में सिर रख कर लेट गया, बोला, ‘‘मम्मी, आप ने मेरे लिए बहुत त्याग किया है पता नहीं मैं कभी इस त्याग के बदले में कुछ कर पाऊंगा भी या नहीं.’’

मानसी को उस पर प्यार आ गया. उस के जख्म भी हरे होने लगे, ‘‘बेकार की बातें मत मत सोचो, चलो, सो जाओ.’’

मानसी अपने कमरे में आ गई. उस की आंखों से आंसू बहने लगे. कई बार दिल जिद्दी बच्चे की तरह एडि़यां रगड़रगड़ कर रोने लगता तो ऐसे समय में उसे कौन चुप कराए?

कुछ दिनों बाद मानसी औफिस से लौटी तो बिट्टू ने उसे देखते ही कहा, ‘‘मम्मी, कल मेरा एक दोस्त लंच पर आ रहा है. आप बहुत अच्छी तरह तैयार होना. सुंदर सी साड़ी पहनना,’’ और फिर उस के गले में बांहें डाल कर प्यार करने लगा तो मानसी को हंसी आ गई.

अगले दिन रविवार था. उस के दोस्त को 1 बजे जाना था. अचानक बिट्टू को कुछ चीजें लाना याद आया तो वह अभी आया कह कर बाजार चला गया. दरवाजे की घंटी बजी तो मानसी बिट्टू के दोस्त को देख कर खड़ी की खड़ी रह गई. कई सालों का लंबा समय उन दोनों के बीच आ गया था. मानसी अपलक यश को निहार रही थी और यश मानसी को.

मानसी के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

यश ने उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर बैठाया और बड़े प्यार से देखते हुए कहा, ‘‘मेरे दोस्त ने फोन कर के मुझे बुलाया या तो मुझे तो आना ही था. मैं ने जिसे अपना बिजनैस दिया था उसी से बिट्टू ने मेरा फोन नंबर ले कर मुझे फोन किया. वह कल मुझे लेने एयरपोर्ट आया था. मेरे गले लग कर बहुत रोया. बहुत बदल गया है. बारबार माफी मांग रहा था.’’

तभी बिट्टू आ गया. उस के चेहरे पर बच्चों जैसा भोलापन और खुशी थी. यश

बोला, ‘‘देखो मानी, मेरे दोस्त का कद अब मेरे जितना हो गया है.’’

बिट्टू आगे बढ़ा और मानसी के घुटनों पर हाथ रखता हुआ नीचे बैठ गया और बोला, ‘‘मम्मी, कई दिनों से अंकल की याद आ रही

थी. अंकल के साथ जो समय बिताया था सब याद आ रहा था. एक फैसला आज से 5 साल पहले आप ने मेरे कारण किया था तो एक

फैसला क्या मैं आप के बारे में नहीं कर सकता? मम्मी, यश अंकल सचमुच मेरे बैस्ट फ्रैंड हैं. देखो, मेरे एक फोन करने पर आ गए. मैं ने अंकल से फोन पर इतना ही कहा था कि

अंकल, लौट आइए, मुझे आप की जरूरत है. हैं न, मम्मी अंकल अच्छे?’’ और अचानक बिट्टू ने मानसी का हाथ पकड़ कर उठा दिया और यश को भी पास लाते हुए बोला, ‘‘मम्मी, हम तीनों साथसाथ कितने अच्छे लग रहे हैं’’ और फिर तीनों हंस दिए. तीनों को लग रहा था अब खुशियों ने दस्तक दे दी है.

सरिता: क्या पूरा हुआ देव का प्यार

वह ठीक मेरे सामने से गुजरी. एकदम अचानक. मन में बेचैनी सी हुई. उस ने शायद देख लिया था मुझे. लेकिन अनदेखा कर के पल भर में बिलकुल नजदीक से निकल गई. जैसे अजनबी था मैं उस के लिए. कोई जानपहचान ही न हो. इस जन्म में मिले ही न हों कभी. मेरा कोई अधिकार भी न था उस पर कि आवाज दे कर रोक सकूं

और पूछूं कि कैसी हो? क्या चल रहा है आजकल? उस ने भी शायद बात करना नाजायज समझा हो. शायद इस तरह आमनेसामने से निकलने पर उसे लग रहा हो जैसे कोई गुनाह हो गया हो उस से. आज का दिन उस के लिए बुरा साबित हुआ हो. कहां से टकरा गए? क्यों, कैसे देख लिया?

यही वह लड़की थी. लड़की पहले थी अब तो वह महिला थी शादीशुदा. किसी की पत्नी. लेकिन जब मेरी पहली मुलाकात हुई थी उस समय वह लड़की थी. एक सुंदर लड़की, जो मुझ से मिलने के लिए बहाने तलाशती थी. मुझे देखे बिना उसे चैन न आता था.

हम कभी पार्क में, कभी रैस्टोरैंट में, कभी क्लब में तो कभी सिनेमाहाल में मिलते.

धीरेधीरे प्यार परवान चढ़ने लगा. प्रेम के पंख लगते ही हम उड़ने लगे. आसमान की सैर करने लगे. जब मौका मिलता मोबाइल पर बातें करते. एकदूसरे को एसएमएस करते रहते. दोनों दुनिया से बेखबर प्यार में डूबे रहते. बहुत थे उसे देखने वाले. बहुत थे उस के चाहने वाले. लेकिन वह केवल मेरे साथ थी, मेरी थी. वह मुझ से बेइंतहा प्रेम करती थी. देखता तो मैं उसे रहता था. लेकिन मेरे देखने से क्या होता है? ताजमहल को हजारों लोग देखते हैं. बात तो तब थी जब वह मुझे देखे.

कालेज शुरू हो चुका था. वह प्रथम वर्ष में थी और मैं द्वितीय वर्ष में. जैसाकि रिवाज चला आया है कालेजों में नए छात्रों की खिंचाई करना. उन्हें परेशान करना. अपमानित करना. प्रताडि़त करना. इसे परिचय का नाम देने वालों को पता नहीं था कि बाद में यह कुरीति बन कर गंभीर अपराध का रूप धारण कर लेगी.

जब सीनियर छात्रों ने उस से कहा कि वह आई लव यू कहे तो उस ने इनकार कर दिया. लड़कों ने उसे घेर कर बियर पीने को कहा. उस ने इनकार कर दिया. लड़कों ने कहा कि वह अपनी सलवार या कमीज दोनों में से कोई एक उतार दे. उस ने मना कर दिया. सीनियर छात्रों ने इसे अपना अपमान समझा. उन्होंने उस के गालों पर तमाचे मारना शुरू कर दिया. फिर तमाचों की चोट से वह तिलमिला कर चीखने लगी.

सभी सीनियर लड़के बारीबारी आते और जोरदार थप्पड़ मार कर हंसते हुए निकल जाते. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी. मेरा नंबर भी आया. मैं ठीक उस के सामने था. वह डर, क्रोध, अपमान से थरथरा रही थी. मैं उस के नजदीक से निकल गया बिना उसे तमाचा मारे. फिर सीनियर छात्रों ने उसे जबरदस्ती बियर पिला दी. उस के कपड़े फाड़ने की कोशिश की. वह अपमान व पीड़ा से बिलखती हुई वहीं बैठ कर रोने लगी. फिर बियर से उस का सिर भारी होने लगा. उस का चेहरा मेरी नजरों के सामने घूमा. मैं वापस वहीं पहुंचा, जहां उस की रैगिंग हो रही थी. वहां कोई नहीं था. वह बेसुध पड़ी हुई थी. मैं उसे अस्पताल ले गया. उस के मोबाइल से उस के घर का नंबर ले कर उन्हें इतला दी.

उस के पिता शहर के बड़े उद्योगपति थे. हालात मालूम होने पर उन्होंने पुलिस को इतला दी. लड़की के पिता के पास धनबल, राजनीतिक बल था. उन्होंने कालेज की ईंट से ईंट बजा दी. इस से पहले कि लड़कों पर कोई कानूनी काररवाई होती, उन्होंने लड़की से अस्पताल में जा कर माफी मांग ली. बात खत्म हो गई.

उस के पिता ने मेरा शुक्रिया अदा किया. जब छोटी औकात वाले का शुक्रिया अदा किया जाता है तो उसे शुक्रिया के रूप में कुछ रुपए दिए जाते हैं, यह कह कर कि रख लो प्यार से दे रहा हूं. मेरी मना करने की हिम्मत नहीं हुई. न चाहते हुए भी लेने पड़े. एक करोड़पति आदमी, आलीशान कोठी. गेट पर दरबान. लाइन से खड़ी महंगी चमचमाती गाडि़यां. मैं उन के व्यक्तित्व के आगे दब गया था. अगर कालेज के लड़कों को उस के पिता की औकात के बारे में पता होता तो भूल कर भी यह गलती न करते. अब सब उस से संबंध बनाने का प्रयास करने लगे. लेकिन उस ने मुझे देखा उस नजर से, जिस नजर से इस उम्र में हर कोई चाहता है कि उसे देखा जाए. वह मुझे कालेज कैंटीन में ले जाती. यदि मैं पहले से किसी दोस्त के साथ बैठा होता तो वह आ कर कहती ऐक्सक्यूजमी, क्या मैं बैठ सकती हूं? क्या आप हमें अकेला छोड़ सकते हैं? मेरे दोस्त शर्मिंदगी, गुस्से से उठ कर चले जाते.

‘‘हैलो, मैं सरिता,’’ उस ने हाथ बढ़ाया.

‘‘मैं, देव,’’ मैं ने हाथ बढ़ाया.

2 हाथ मिले. आंखें चार हुईं. धड़कनों की गति बढ़ी. कुछ और नजदीकियां बढ़ीं और पास आए. गले मिलने लगे तो धमनियों में रक्त का संचार बढ़ने लगा. कालेज की ओर से पिकनिक टूर हुआ. मैं अपनी आर्थिक स्थिति के चलते जाने को राजी न था. उस ने अपनी तरफ से मेरी फीस अदा की और मुझे यह कह कर ले गई कि पिकनिक तो बहाना है. हमें एकदूसरे के साथ समय बिताने का मौका मिलेगा.

सभी छात्र हिल स्टेशन का लुत्फ उठाते रहे. लेकिन हम दोनों बांहों में बांहें डाले

अपनी ही दुनिया में खोए रहे. प्यारमुहब्बत के वादे करते रहे. हम दोनों एकदूसरे के दिल की गहराइयों में उतर चुके थे.

उस ने कहा, ‘‘मैं तुम से प्यार करती हूं. तुम्हारे बिना जी नहीं सकती.’’

‘‘प्यार तो मैं भी तुम से करता हूं, लेकिन इस प्यार का अंजाम क्या होगा?’’ मैं ने कहा.

‘‘वही जो हर प्यार का होता है.’’

‘‘मैं गरीब हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘अपने पिता से पूछ कर देखना.’’

‘‘यार, प्यार मैं ने किया. शादी मुझे करनी है. जीवन मेरा है. जीना मुझे है. इस में मेरे पिता का क्या लेनादेना?’’

‘‘यह भी पिता से पूछ कर देखना.’’

वह चिढ़ गई. मैं ने उसे मनाने का हर जतन किया. उसे फिल्मी शेरोशायरी सुनाई. प्रेम भरे गीत सुनाए. उस से लिपट गया. उस के गालों को चूमा. उस से माफी मांगी. वह खिलखिला पड़ी. स्वच्छ, पवित्र बहती नदी की तरह. अपने नाम की तरह.

हमारी मुलाकातें बढ़ती गईं. हमारा प्यार बढ़ता गया. कालेज में सब को पता था हमारे प्यार के बारे में. सब जलते थे हमारे प्यार से.

एक दिन सरिता ने कहा, ‘‘मुझे अपने घर के लोगों से मिलवाओ.’’

मैं डर गया. क्या सोचेगी? कहीं मेरी गरीबी का मजाक तो नहीं उड़ाएगी? किस से मिलवाऊं घर में? गरीब महल्ले में 1-2 कमरे का कच्चा मकान. जवानी की दहलीज लांघ चुकी कुंआरी बहन, जिस की शादी दहेज के कारण न हो सकी. विधवा बूढ़ी मां, जिस के मन में ढेरों बोझ, चेहरे पर झुंझलाहट और मुंह में कड़वे बोल थे. क्या कहेगी मां कि मेहनत, मजदूरी कर के पढ़ाने के लिए भेजा और बहन की शादी करने के बजाय खुद इश्क कर रहा है. अपनी शादी की योजना बना रहा है.

खैर, सरिता नहीं मानी. मैं उसे घर ले गया. वह बहन से मिली. मां से मिली. प्यार से बातें हुईं. चायनाश्ता भी. लेकिन सरिता के जाने के बाद मां ने मुझ से कुछ कहा तो नहीं, लेकिन खफाखफा सी नजर जरूर आईं. उन का अनकहा मैं समझ गया. मुझे नौकरी तलाश कर घर चलाना है. मुझे हर हाल में बहन की शादी करनी है. यह मेरा दायित्व है. बाकी सब बाद में. पढ़ाई के साथसाथ में नौकरी के फार्म भी भर रहा था. तैयारी भी कर रहा था नौकरी की. लेकिन हर जगह से नाउम्मीदी, असफलता. घर में घुटन सी होती. पढ़ाई से मन हटने लगा था. लेकिन मेरे हाथ में कुछ न था. मेरे पास एक सीधा रास्ता यह था कि सरिता से शादी कर के घरजमाई बन कर अपनी गरीबी से मुक्ति पा लेता. लेकिन आत्मसम्मान आड़े आता रहा.

सरिता करोड़पति पिता की इकलौती बेटी थी. वह प्यार के खुमार में महल से झोपड़े में आने को तैयार थी. वह मुझे झोपड़े से महल में ले जाने को भी राजी थी. लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं और क्या न करूं? मैं कैसे एक कलकल बहती पावन, शुद्ध साफ नदी का रुख मोड़ कर उसे अपनी गरीबी के दलदल में ले आऊं? कितने दिन रह पाएगी? कैसे उन अभावों को सह पाएगी? क्यों लूं मैं उस से इतनी बड़ी कुरबानी? कैसे मैं उस के घर जा कर अपने जमीर को मार कर उस की अमीरी में अपना मुंह छिपा लूं? क्या सोचेगी मेरी बूढ़ी मां, जिस के पास पूंजी के नाम पर सिर्फ मैं था?

‘‘तुम्हारी समस्या क्या है?’’ सरिता ने पूछा, ‘‘मैं सब में राजी हूं. या तो तुम निकलो अपनी गरीबी से या फिर मुझे ले चलो अपनी गरीबी में. मुझे सिर्फ तुम्हारा साथ चाहिए. जगह जो भी हो. महल हो या झोंपड़ा. जहां तुम वहां मैं. तुम्हारे बिना मुझे महल स्वीकार नहीं.’’

मैं चुप रहा.

‘‘तुम बोलते क्यों नहीं?’’ सरिता ने झल्ला कर कहा.

‘‘मेरे पास बोलने को कुछ नहीं है. मुझे समय चाहिए.’’

समय का काम है गुजरना. समय गुजरता रहा. कालेज पूरा हो चुका था. मैं नौकरी के लिए प्रयास करता रहा. सफलता तो जैसे मेरी दुश्मन थी. सरिता मुझ से मिलती रहती. फोन पर बात करती रहती. गुजरते वक्त के साथ मैं टूट रहा था और सरिता शादी की जिद पर अड़ी थी, जोकि उस के प्यार का हक था.

सरिता का कालेज भी समाप्त हो चुका था. मेरी दुविधा को खत्म करने के लिए सरिता ने अपने पिता से बात की. एक दिन सरिता ने कहा, ‘‘पापा ने घर पर बुलाया है. उन्हें कुछ बात

करनी है.’’

मैं उस विशाल कोठी के सामने खड़ा था. दरबान ने हिकारत के भाव से गेट खोला. विदेशी कुत्ते भूंक रहे थे. मुझे लगा जैसे मेरी गरीबी को दुतकार रहे हों.

विशाल कोठी के बाहर सरिता के पिता बैठे चाय की चुसकियां ले रहे थे.

मैं पहुंचा. उन्होंने बैठने को कहा. उन्होंने नौकर को इशारा किया. नौकर फौरन चाय ले कर आ गया. उन्होंने नौकर को जाने को कहा. अब मैं इस विशाल व्यक्तित्व के सामने खौफ खाए बैठा था. मुझे डर नहीं था, लेकिन मैं अपनी औकात से वाकिफ था.

उन्होंने अपनी रोबदार आवाज में कहा, ‘‘क्या चाहते हो?’’

‘‘जी, कुछ भी तो नहीं,’’ मैं ने अचकचा कर कहा.

‘‘सरिता से शादी करने की हिम्मत है?’’

‘‘जी, नहीं.’’

‘‘घरजमाई बन सकते हो?’’

‘‘जी, नहीं.’’

‘‘फिर, आगे क्या सोचा है?’’

मैं चुप रहा.

‘‘शादी तुम कर नहीं सकते. नौकरी तुम्हें मिल नहीं रही. घर की जिम्मेदारियां निभाते जीवन गुजर जाएगा. मेरी बेटी का क्या होगा? उसे मना कर दो. क्यों उस का वक्त बरबाद मेरा मतलब जीवन खराब कर रहे हो?’’

मैं फिर चुप रहा.

‘‘तुम्हारा आत्मविश्वास डगमगा चुका है देव. चलो, एक समझौता करते हैं. सौदा चाहो तो सौदा समझ लो.’’

मैं नजरें झुकाए शांत बैठा था. एक नजर सरिता के पिता को देखता और फिर नजरें झुका लेता.

‘‘मैं अपने दोस्त की कंपनी में तुम्हें नौकरी दिलवा सकता हूं. सुपरवाइजर की पोस्ट खाली है. अच्छी तनख्वाह है. तुम्हारी बहन की शादी के लिए लोन भी दिलवा सकता हूं. बदले में तुम्हें सरिता को छोड़ना होगा.’’

मुझे नौकरी मिल गई. बहन की शादी के लिए पैसा भी. बूढ़ी मां का बोझ उतर गया.

सरिता ने अपने पिता से पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘उस ने अपनी जिम्मेदारी और प्यार में से जिम्मेदारी को चुन लिया है. तुम उसे भूल जाओ. न वह घरजमाई बन कर रहने लायक है और न ही वैसा दामाद जैसा मुझे चाहिए था, पूर्ण समर्पित तुम्हारे प्रति. वह वैसा नहीं है और न ही वह तुम्हें अपनी गरीबी में रखने को राजी है. तुम रह भी नहीं पाओगी. वह जानता है.’’

सरिता मेरे पास आई. उस ने अपना गुस्सा मुझ पर उतारा, ‘‘क्यों किया था

प्यार? क्यों किए थे झूठे वादे? तुम फरेबी निकले. मुझे नहीं पता था कि कालेज में मुझे थप्पड़ न मारने वाला लड़का मुझे बहोशी की हालत में अस्पताल ले जाने वाला वह दिलेर लड़का बेकारी और कर्त्तव्यों के बोझ से इतना दब जाएगा कि अपने प्यार से बच कर भाग निकलेगा.’’

मैं चुप रहा तो मेरी चुप्पी ने उसे तोड़ दिया. वह कलकल बहती पवित्र नदी का शुद्ध जल आज मेरे सितम, मेरी चुप्पी से रुक सा गया था. मानों किसी बड़े बांध में बंध कर उस का प्रवाह रुक गया हो. उस उमड़तीघुमड़ती नदी का पानी मटमैला सा हो चुका था.

‘‘तुम ने मेरा सौदा कर दिया. मुझे बेच दिया अपने कर्त्तव्यों की आड़ में. मुझे कालेज की रैगिंग के वे चांटे, वे कहकहे, वह अपमान उतना भारी नहीं लगा जितनी तुम्हारी खामोशी. तुम अपनी गरीबी, अपनी जिम्मेदारियों, अपनी बेकारी में अपने प्यार को हार चुके हो,’’ और वह चली गई.

आज वर्षों बाद जब सरिता इतने नजदीक से अचानक गुजरी तो यों गुजर गई मानों मैं उस के लिए दुनिया से गुजर गया हूं या शायद दुनिया का सब से गुजरा व्यक्ति था. तभी तो उस ने पल भर रुकना, मेरी तरफ देखना भी गंवारा न समझा.

उस के पीछे उस का पति था. मेरा कालेज का दोस्त. रैगिंग मास्टर.

समर मुझे देख कर रुक गया. बोला, ‘‘अरे देव, तुम यहां कैसे? कैसे हो?’’

‘‘मैं ठीक हूं अपनी कहो,’’ मैं ने पूछा.

‘‘मैं भी ठीक हूं. पर तुम यहां कैसे?’’ समर ने पूछा.

‘‘भाई समर मैं यहां कपाडि़या से मिलने आया था. पौलिसी के संबंध में वरना इस बड़े और महंगे होटल में मेरी क्या औकात आने की.’’

वह हंसा, ‘‘मैं ही कपाडि़या हूं. मैं ने ही बुलाया था.’’

मैं भौचक्का रह गया. कहा, ‘‘तुम तो समर राठी हो… क्यों मजाक…’’

उस ने मेरी बात काट कर, ‘‘चलो, कौफी पीते हुए बातें करते हैं.’’

मैं एजेंट था. क्लाइंट के पीछे चलना मेरी मजबूरी, मेरी रोजीरोटी थी.

समर ने कौफी मंगवाई. मैं ने फार्म निकाला. मैं उस के बताए अनुसार फार्म भरता गया. नौमिनेशन में सरिता कपाडि़या का नाम आते ही पल भर के लिए हाथ रुक गया.

उस ने हंसते हुए बताया, ‘‘तुम्हारी चुप्पी से सरिता कटी पतंग की तरह हो गई थी. मैं भी मध्यमवर्ग का था. मुझे भी पैसा, ऐशोआराम की जिंदगी चाहिए थी. यों समझ ले कि वह कटी पतंग मैं ने लूट ली. मैं उस के जीवन में आया. उसे प्रेम, दिलासा, अपनापन दिया. उस का दिल बहलाया. वह पहले से टूटी हुई थी. मुझ से जल्दी जुड़ गई. उस के पिता ने शर्त रखी कि तुम्हें घरजमाई बनना होगा. अपना सरनेम चेंज करना होगा. मैं जो चाहता था वह मुझे मिल गया. मैं पूरी तरह कपाडि़या हो कर सरिता और उस के पिता के कहने पर चला. आज मैं कपाडि़या सेठ हूं.’’

तभी सरिता आ गई. उस ने मुझे उचटती निगाह से देखा. मैं ने उसे देख कर पहलू बदला. उस ने कुछ भी पीने से इनकार कर दिया और समर से पूछा, ‘‘ये यहां कैसे?’’

‘‘बहुत दिनों से पौलिसी लेने के लिए फोन कर रहा था. यह मुझे नहीं पहचान पाया. मैं पहचान गया. मैं ने सोचा चलो दोस्त की मदद हो जाएगी.’’

सरिता ने व्यंग्य से कहा, ‘‘कैसे पहचान पाते. तुम ने अपनी जात ही बदल ली,’’ फिर हंसते हुए कहा, ‘‘प्रेम तो कोई तुम से करना सीखे. प्रेम में क्या जाति, क्या धर्म? पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनेआप को बदल ही नहीं पाते.’’

समर ने कहकहा लगाया. इस कहकहे में वह अपना अपमान छिपा गया. उस ने मुझ से पूछा, ‘‘देव, घर में सब कैसे हैं?’’

‘‘ठीक हैं.’’

‘‘मेरा मतलब तुम्हारी पत्नी, बच्चे?’’

‘‘मैं ने अपनी जिम्मेदारी के कारण शादी नहीं की. विधवा बहन के 2 बच्चों का पालनपोषण कर रहा हूं. सुपरवाइजरी की नौकरी छोड़ दी… वह नौकरी मुझे एहसान लगने लगी थी. किसी का कर्ज, कोई सौदा. फिर एलआईसी में एजेंट बन गया. अब दिनरात ग्राहक तलाशता हूं.’’

सरिता की आंखें भर आईं. फिर आंसुओं को रोकते हुए कहा, ‘‘जो लोग जीवन में सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाते, जो लोग जीवन में बड़े फैसले नहीं कर पाते, उन का कुछ नहीं हो सकता.’’

समर को लगा कि कहीं पुराना पे्रम फिर से हिलोरें न मारने लगे. अत: उस ने उठते

हुए कहा, ‘‘अच्छा देव, हमें चलना है. चलो सरिता.’’

देव अपनी फाइल व कागजात समेटने लगा. समर और सरिता बाहर निकल गए.

सरिता यों चल रही थी समर के साथ मानो अंत में हर नदी का अंजाम ही हो खारे सागर में मिल कर मरना. उस ने अपनी नियत स्वीकार ली थी.

देव की एक चुप्पी ने सरिता के जीवन में ऐसा बांध बना दिया कि उसे फिर से कलकल करते बहने के लिए किसी समर रूपी सागर में पनाह लेनी पड़ी. यह जानते हुए भी कि समर ने शादी उस की दौलत की खातिर की है. गंगोतरी की गंगा खारे पानी में मिल कर विलीन हो चुकी थी. उस की सरिता मर चुकी थी. सरिता के मरने में उस का भारी योगदान था. देव की सरिता, समर की सरिता. सागर में विलीन सरिता. उस की चुप्पी से अधूरी, अतृप्त, उदास सरिता.

बिट्टू और उसका दोस्त- भाग 3: क्या यश को अपना पाई मानसी

‘‘आप सब अदालत को बताना, हमें भी आप के कारनामे बताने हैं. जो बाप रातें क्लबों में बिताता हो, कई बार जेल भी जा चुका हो, जिस की अंगरेज पत्नी अपने किसी और दोस्त के साथ रह रही हो, उसे कोई मां अपना बच्चा कैसे दे सकती है?’’ यश ने कहा तो सुधांशु दांत पीसता रह गया.

‘‘मैं देख लूंगा तुम्हें,’’ सुधांशु जातेजाते वह धमकी दे गया.

अदालत ने बिट्टू का निर्णय मानसी के हक में दे दिया और मानसी को

बड़ी हैरानी इस बात पर हुई कि सुधांशु ने अदालत में उस पर किसी तरह का घटिया आरोप नहीं लगाया. वैसे कोर्ट ने उसे बिट्टू से मिलने का हक दे दिया.

शुरूशुरू में वह 1-2 बार बिट्टू से मिलने आया, फिर पता चला वह वापस अमेरिका चला गया है. मानसी ने चैन की सांस ली. वहां से वह कभीकभी बिट्टू से फोन पर बात करता रहता. सब नौर्मल चल रहा था.

6 महीने बाद सुधांशु के फिर आने की खबर ने मानसी को डिस्टर्ब कर दिया. बिट्टू की छुट्टियां थीं. सुधांशु आया तो बड़ी शराफत से उस ने 5 दिन के लिए बिट्टू को घुमाने की अनुमति मांगी. मानसी मना नहीं कर पाई. मानसी ने महसूस किया बिट्टू भी घूमने जाना चाहता है सुधांशु के साथ. सुधांशु बिट्टू को ले गया.

बिट्टू के जाने के बाद घर में सन्नाटा सा

छा गया. सब से ज्यादा बोर यश हो रहा था.

अभी उस की भी छुट्टियां थीं और नया काम शुरू होने में समय था. सारा दिन आशाजी और मानसी से बिट्टू की बातें करता रहता. बिट्टू सचमुच यश के जमीन का एक महत्त्वपूर्ण भाग बन चुका था.

फिर एक दिन यश ने अपने पापा और मानसी के मम्मीपापा के सामने मानसी की उंगली में डायमंड की अंगूठी पहना दी. मानसी के चेहरे पर इंद्रधनुष के रंग बिखर गए.

यश कहने लगा, ‘‘जब भी अपने घर के

बारे में सोचता हूं तो पापा के साथ तुम्हारा और बिट्टू का चेहरा मेरी आंखों में उभर जाता है.

अब बस बिट्टू जल्दी से आ जाए तो मेरा घर

भी बस जाए.’’

उस की इस बात पर सब हंस पड़े.

बिट्टू 5 की जगह 10 दिनों में आया, लेकिन उस का उखड़ाउखड़ा रवैया मानसी का दिल दहलाने लगा. वह काफी चुप और गंभीर था. सब से बड़ी बात यह थी कि यश के साथ उस का व्यवहार बहुत ही रूखा था. यश कई बार उसे साथ ले जाने के लिए आया तो बिट्टू ने उस से बात तक नहीं की.

मानसी को पहली बार अपनी गलती का एहसास हुआ कि उसे इतने दिनों के लिए सुधांशु की बातों में आ कर बिट्टू को उस के साथ नहीं भेजना चाहिए था. अब तो गलती हो ही गईर् थी.

मानसी बिट्टू से बात करने की कोशिश करती भी तो वह सिर्फ हांहूं में जवाब देता. यश

ने बिट्टू से बात करने की बहुत कोशिश की लेकिन यश को देख कर ही बिट्टू अपने कमरे में बंद हो जाता और उस के जाने के बाद ही निकलता. बिट्टू के इस व्यवहार से हरकोई

दुखी था.

फिर एक दिन बिट्टू ने जो कहा मानसी

का दिमाग सुन कर सुन्न रह गया, ‘‘पापा ठीक कहते हैं तुम्हारे नाना की दौलत पर पराए लोग ऐश करेंगे और वह तुम्हें दूध में मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगे.’’

‘‘पराए… कौन पराए लोग.’’

‘‘यश अंकल और कौन.’’

‘‘बिट्टू, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? यह सब तुम ने कहां से सीख लिया?’’

‘‘मम्मी, रिलैक्स. पापा ठीक कहते हैं आप को लोगों की पहचान नहीं है. यश अंकल आप के माध्यम से नाना की संपत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं.’’

मानसी का जी चाहा बिट्टू का मुंह थप्पड़ों से लाल कर दे. वह उसे गुस्से से देखती रही, फिर चुपचाप बाहर चल दी.

अगले दिन शाम को यश आया तो बिट्टू ने दहाड़ कर मानसी से कहा, ‘‘आप अंकल को मना कर दो कि यहां न आया करें.’’

मानसी ने प्यार से समझने का प्रयत्न किया, ‘‘बिट्टू तुम तो कहते थे अंकल तुम्हारे बैस्ट फ्रैंड हैं, उन्होंने तुम्हें कितना प्यार दिया है. क्या तुम सब भूल गए हो?’’

वह पांव पटक कर बोला, ‘‘नहीं हैं वे मेरे बैस्ट फ्रैंड, वे धोखेबाज हैं, आप से शादी करना चाहते है.’’ फिर यश को देख कर जो अपमानित सा खड़ा था बिट्टू फिर चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं, हमारे घर मत आया करें. आप मेरी मम्मी को मुझ से छीन कर ले जाना चाहते हैं,’’ वह आप से बाहर था.

यश परेशान हो गया. बिट्टू का कच्चा दिमाग काफी हद तक बिगड़ चुका था. यश ने

प्यार से उस की तरफ हाथ बढ़ाया तो बिट्टू उस का हाथ जोर से झटक कर अंदर चला गया. यश दुखी हो कर अपने घर वापस चला गया.

फिर एक दिन यश के पापा का सोतेसोते हार्टफेल हो गया. अब यश दुनिया में बिलकुल अकेला था. मानसी और यश का घर कुछ कदम के फासले पर ही था. मानसी के मम्मीपापा अकसर यश के पास चले जाते. यश ने तो बिट्टू का मन जीतने की बहुत कोशिश की, लेकिन बिट्टू ने उस दिन से उस के घर पैर भी नहीं रखा जब से वह सुधांशु के पास से लौटा था. यश ने भी बिट्टू का ध्यान रखते हुए मानसी के घर जाना छोड़ रखा था.

एक दिन मानसी यश के घर गई और बहुत गंभीरतापूर्वक बोली, ‘‘आज बहुत सोचने

के बाद मैं तुम से एक बात कहना चाहती हूं.’’

यश का दिल धड़का, ‘‘कहो.’’

‘‘यश, मेरे जीवन में खुशियां कम ही आई हैं. मेरे इस फीके, बेरंग जीवन में एक ही खुशी है और वह है बिट्टू. उसे मैं नहीं छोड़ सकती. पहले मुझे लगता था वह तुम्हारे साथ खुश रहेगा, लेकिन अब हालात बदल गए हैं. अगर मैं तुम्हारा साथ देती हूं तो बिट्टू की नफरत मुझ से सहन नहीं होगी. मुझे दुख है तुम्हारे जीवन में आने वाली लड़की की मजबूरी है कि वह एक मां भी है जो अपनी हर खुशी संतान के लिए कुरबान कर सकती है. मुझे उम्मीद है तुम मेरी यह मजबूरी समझ कर मुझे माफ कर दोगे.’’

कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया. यश के चेहरे पर दुख ही दुख था.

फिर मानसी मुश्किल से बोली, ‘‘मैं सिर्फ 1 महीना सुधांशु के साथ रही थी उस 1 महीने का दुख मैं आज तक नहीं भुला पाई.

सफर की हमसफर- भाग 2: प्रिया की कहानी

“कामवाली तो है आंटी पर खाना मैं खुद ही बनाती हूं. मेरी मां ने मुझे सिखाया है कि जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन. अपने हाथों से बनाए खाने की बात ही अलग होती है. इस में सेहत और स्वाद के साथ प्यार जो मिला होता है”.

उस की बात सुन कर मां मुस्कुरा उठीं. तुम्हारी मां ने तो बहुत अच्छी बातें सिखाई है. जरा बताओ और क्या सिखाया है उन्होंने?”

“कभी किसी का दिल न दुखाओ, जितना हो सके दूसरों की मदद करो. आगे बढ़ने के लिए दूसरे की मदद पर नहीं बल्कि अपनी काबिलियत और परिश्रम पर विश्वास करो. प्यार से सब का दिल जीतो। ”

प्रिया कहे जा रही थी और मां गौर से उसे सुन रही थीं. उन्हें प्रिया की बातें बहुत पसंद आ रही थी. इसी बीच मां बाथरूम के लिए उठी कि अचानक झटका लगने से डगमगा गई और किनारे रखे ब्रीफ़केस के कोने से पैर में चोट लग गई. चोट ज्यादा नहीं थी मगर खून निकल आया. उस ने मां को बैठाया और अपने बैग में रखे फर्स्ट ऐड बॉक्स को खोलने लगी. मां ने आश्चर्य से पूछा ,”तुम हमेशा यह डब्बा ले कर निकलती हो ?”

“हां आंटी, चोट मुझे लगे या दूसरों को मुझे अच्छा नहीं लगता। तुरंत मरहम लगा दूं तो दिल को सुकून मिल जाता है. वैसे भी जिंदगी में हमेशा किसी भी तरह की परेशानी से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।”

कहते हुए प्रिया ने तुरंत चोट वाली जगह पर मरहम लगा दिया और इस बहाने उस ने मां के पैर भी छू लिए. मां ने प्यार से उस का गाल थपथपाया और पूछने लगी, “तुम्हारे पापा क्या करते हैं? तुम्हारी मां हाउसवाइफ हैं या जॉब करती हैं?”

प्रिया ने बिना किसी लागलपेट के साफ़ स्वर में जवाब दिया,” मेरे पापा सुनार हैं और वे ज्वेलरी शॉप में काम करते हैं. मेरी मां हाउसवाइफ हैं. हम 2 भाईबहन हैं. छोटा भाई इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा है और मैं यहां एक एमएनसी कंपनी में काम करती हूं. मेरी सैलरी अभी 80 हजार प्रति महीने है और उम्मीद करती हूं कि कुछ सालों में अच्छा मुकाम हासिल कर लूंगी।”

“बहुत खूब!” मां के मुंह से निकला। उन की प्रशंसा भरी नजरें प्रिया पर टिकी हुई थीं, “बेटा और क्या शौक है तुम्हारे?”

“मेरी मम्मी बहुत अच्छी डांसर है. उन्होंने मुझे भी इस कला में निपुण कराया है. डांस के अलावा मुझे कविताएं लिखने और फोटोग्राफी करने का भी शौक है. तरहतरह के डिशेज तैयार करना और सब को खिला कर वाहवाही लूटना भी बहुत पसंद है.”

ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और इधर प्रिया और मां की बातें भी बिना किसी रूकावट चली जा रही थी.

कोटा और रतलाम स्टेशनों के बीच जब कि ट्रेन 140 किलोमीटर प्रति घंटे की तेज रफ़्तार से चल रही थी अचानक एक झटके से रुक गई. दूरदूर तक जंगली सूना इलाका था. आसपास न तो कोई आवागमन के साधन थे और न खानेपीने की चीजें थीं. ट्रेन करीब 8-9 घंटे वहीं खड़ी रहनी थी. दरअसल पटरी में क्रैक की वजह से ट्रेन के आगे वाला डब्बा उलट गया था. यात्री घायल तो नहीं हुए मगर अफरातफरी जरूर मच गई थी. क्रैन आने और पलटे हुए डब्बे को हटाने में काफी समय लगना था. इधर प्रिया खुश हो रही थी कि इसी बहाने उसे मां के साथ बिताने को ज्यादा वक्त मिल जाएगा.

एक्सीडेंट 11 बजे रात में हुआ था और अब सुबह हो चुकी थी. यह इलाका ऐसा था कि दूरदूर तक चायपानी या कचौड़ीपकौड़ी बेचने वाला तक नजर नहीं आ रहा था. ट्रेन के पैंट्री कार में भी अब खाने की चीजें खत्म हो चुकी थी. 12 बज चुके थे. मां सोच रही थी कि चाय का इंतजाम हो जाता तो चैन आता. तब तक प्रिया पैंट्री कार से गर्म पानी ले आई. अपने पास रखी टीबैग,चीनी और मिल्क पाउडर से उस ने फटाफट गर्मगर्म चाय तैयार की और फिर टिफिन बॉक्स निकाल कर उस में से दाल की कचौड़ी और मठरी आदि कागज़ के प्लेट में रख कर नाश्ता सजा दिया। टिफिन बॉक्स निकालते समय मां ने गौर किया था कि प्रिया के बैग में डियो के अलावा भी कोई स्प्रे है.

“यह क्या है प्रिया ” मां ने उत्सुकता से पूछा तो प्रिया बोली,” आंटी यह पेपर स्प्रे है ताकि किसी बदमाश से सामना हो जाए तो उस के गलत इरादों को कभी सफल न होने दूँ. सिर्फ यही नहीं अपने बचाव के लिए मैं हमेशा एक चाकू भी रखती हूं। मैं खुद कराटे में ब्लैक बेल्ट होल्डर हूं. इसलिए खुद की सुरक्षा का पूरा ख्याल रखती हूं.”

“बहुत अच्छे ! मां की खुशी चेहरे पर झलक रही थी. अच्छा प्रिया यह बताओ कि तुम अपनी सैलरी का क्या करती हो? खुद तुम्हारे खर्चे भी काफी होंगे आखिर अकेली रहती हो मेट्रो सिटी में और फिर ऑफिस में प्रेजेंटेबल दिखना भी जरूरी होता है. आधी सैलरी तो उसी में चली जाती होगी।”

“अरे नहीं आंटी। ऐसा कुछ नहीं है. मैं अपनी सैलरी के चार हिस्से करती हूं। दो हिस्से यानी 40 हजार भाई की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पापा को देती हूं. एक हिस्सा खुद पर खर्च करती हूं और बाकी के एक हिस्से से फ्लैट का किराया देने के साथ कुछ पैसे सोशल वर्क में लगाती हूं.”

“सोशल वर्क? ” मां ने हैरानी से पुछा.

“हां आंटी, जो भी मेरे पास अपनी समस्या ले कर आता है उस का समाधान ढूंढने का प्रयास करती हूँ. कोई नहीं आया तो खुद ही ग़रीबों के लिए कपड़े, खाना वगैरह खरीद कर उन्हें बाँट देती हूँ. ”

तब तक ट्रेन वापस से चल पड़ी। दोनों की बातें भी चल रही थीं. मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए कहा,”मेरा भी एक बेटा है स्वरूप. वह भी दिल्ली में जॉब करता है. ”

स्वरुप का नाम सुनते ही प्रिया की आँखों में स्वाभाविक सी चमक उभर आई. अचानक मां ने प्रिया की तरफ देखते हुए पुछा, “अच्छा यह बताओ बेटे कि आप का कोई ब्वॉयफ़्रेंड है या नहीं ? सचसच बताना.”

प्रिया ने 2 पल मां की आँखों में झाँका और फिर नजरें झुका कर बोली,”जी है.”

ओह ! मां थोड़ी गंभीर हो गईं,”बहुत प्यार करती हो उस से? शादी करने वाले हो तुम दोनों? ”

प्रिया को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे? इस तरह की बातों का हां में जवाब देने का अर्थ है खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना. फिर भी जवाब तो देना ही था. सो वह हंस कर बोली, “आंटी शादी करना तो चाहते हैं मगर क्या पता आगे क्या लिखा है। वैसे आप अपने बेटे के लिए कैसी लड़की ढूंढ रही हैं?”

” ईमानदार, बुद्धिमान और दिल से खूबसूरत.” मां ने जवाब दिया.

कोरोना लव- भाग 3: शादी के बाद क्या दूर हो गए अमन और रचना

दोनों कागज पर लिख कर अपने दिल का हाल बयां करते और उस खत को रोल कर एकदूसरे की तरफ फेंकते. कभी मोबाइल से दोनों बातें करते, कभी चैटिंग करते. जोक्स बोल कर हंसतेहंसाते. लेकिन इस पर भी जब उन का मन नहीं भरता, तो दोनों अपनीअपनी छत पर खड़े हो कर लोगों के घरों में ताकझांक करते कि इस लौकडाउन में वे अपने घरों में क्या रहे हैं. कहीं पतिपत्नी साथ मिल कर खाना पका रहे होते. कहीं काम को ले कर सासबहू में झगड़े हो रहे होते. और एक घर में तो हसबैंड पोंछा लगा रहा था और उस की पत्नी उसे बता रही थी कि और कहांकहां पोंछा लगाना है. देख कर दोनों की हंसी रुक ही नहीं रही थी. रचना का तो पेट ही दुखने लगा हंसहंस कर. बड़ा मजा आ रहा था उन्हें लोगों के घरों में ताकझांक करने में. अकसर दोनों छत पर जा कर लोगों के घरों में ताकतेझांकते और खूब मजे लेते.

इस कोरोना ने पूरी दुनिया में कहर मचा रखा है. दुनियाभर में कोरोना की चपेट में लाखों लोग आ गए हैं. लाखों लोगों की मौत हो चुकी है. कोरोना के डर से करोड़ों लोग अपने घरों में कैद हैं. सोशल डिस्टैंसिंग के चलते लोग एकदूसरे से मिल नहीं रहे हैं. वहीं, इस दहशत के बीच रचना और शिखर के बीच प्यार का अंकुर फूट पड़ा है. यह अनोखी प्रेम कहानी भले ही लोगों की आंखों से ओझल है, पर दोनों एकदूसरे की आंखों में डूब चुके हैं.

लेकिन, उन का प्यार रचना के पति अमन और शिखर की पत्नी की आंखों से छिपा नहीं है. जान रहे हैं वे दोनों कि इन दोनों के बीच कुछ चल रहा है. तभी तो अमन जब भी घर में होता है, रचना के आसपास ही मंडराता रहता है, और उधर शिखर की पत्नी भी खिड़की खुली देख नाकभौं चढ़ा लेती है.

इसी बात पर कई बार अमन से रचना की लड़ाई भी हो चुकी है. अमन का कहना है कि क्यों वह वहीं बैठ कर काम करती है? घर में और भी तो जगह है? लेकिन रचना कहती कि उस की मरजी, जहां बैठ कर वह काम करे.

‘वह क्यों उस का मालिक बना फिरता है? घर का एक काम तो होता नहीं उस से, और बड़ा आया है नसीहतें देने,’ अपने मन में ही बोल रचना मुंह बिचका देती.

उधर, शिखर भी अपनी पत्नी के व्यवहार से परेशान है. जब देखो, वह उस के आगेपीछे मंडराती रहती. कभी चाय, कभी पानी देने के बहाने वहां पहुंच जाती और फालतू की बातें कर उसे बोर करती. कहता शिखर कि जाओ मुझे काम करने दो. पर नहीं, बकवास करनी ही है उसे. रचना को वह घूर कर देखती है और खिड़की बंद कर देती है. लेकिन जब वह चली जाती है, खिड़की फिर खुल जाती और फिर दोनों की गुपचुप बातें शुरू हो जातीं.

अमन के सो जाने पर, देररात तक रचना शिखर के साथ फोन पर चैटिंग करती रहती है. सुबह रचना को डेरी तक दूध लाने जाना पड़ता था, तो अब शिखर भी उस के साथ दूध और सब्जीफल लाने  स्टोर तक जाने लगा है, ताकि दोनों को आपस में बातें करने का और मौका मिल सके. लोगों की नजरें बचा कर शिखर कूद कर रचना की छत पर आ जाता और दोनों एकदूसरे की आंखों में झांकते हुए घंटों बिता देते हैं.

‘‘लगता है बारिश होगी. हवा भी कितनी ठंडीठंडी चल रही है’’ कह कर रचना उस रोज, जब दोनों एक ही छत पर साथ बैठे हुए थे, रचना अपनेआप में ही सिकुड़ने लगी, तभी अमन ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और दोनों वहीं जमीन पर बैठ गए. कुछ देर तक दोनों एकदूसरे की आंखों में ऐसे डूबे रहे जैसे उन के आसपास कोई हो ही न. शिखर हौलेहौले रचना के बालों में उंगलियां फेरने लगा और वह मदहोश उस की बांहों में सिकुड़ती चली गई. ‘‘अभी तो लोगों को डिस्टैंस बना कर कर चलने के लिए कहा जा रहा है और हम यहां एकसाथ बैठे प्यारमोहब्बत कर रहे हैं. अगर किसी ने देख लिया हमारा कोरोना प्यार तो?’’ हंसते हुए रचना बोली.

‘‘हां, सही है यार. किसी ने देख लिया तो? पता है, पुलिस लोगों को दौड़ादौड़ा कर डंडे बरसा रही है,’’ कह कर शिखर हंसा, तो रचना भी हंस पड़ी और बोली, ‘‘वैसे, क्यों न हम अपने प्यार का नाम ‘कोरोना लव’ रख दें. कैसा रहेगा?’’

तभी अचानक से शरीर पर पानी की बूंदें पड़ते देख दोनों चौंक पड़े. ‘‘ब…बारिश, बारिश हो रही है, शिखर. ओ मां, इस मार्च के महीने में बारिश?’’ बोल कर रचना एक बच्ची की तरह चिहुंक उठी और अपनी हथेलियां फैला कर गोलगोल घूमने लगी. मजा आ रहा था उसे बारिश में भीगने में. लेकिन तबीयत बिगड़ने के डर से दोनों वापस घर आ गए. यह बेमौसम की बारिश थी और वैसे भी, अभी कोरोना वायरस फैला हुआ है, तो बारिश में भीगना ठीक नहीं. लेकिन दोनों की बातें अभी खत्म नहीं हुई थीं. सो, वे अपनीअपनी खिड़की से ही इशारों मे बातें करने लगे.

‘‘आंखों की गुस्ताखियां माफ हों, एकटक तुम्हें देखती हैं, जो बात कहना चाहे जबां, तुम से वो यह कहती है. एक कागज पर ढेरों तारीफें लिख कर शिखर ने रचना की तरफ अभी फेंका ही था कि अमन आ गया और उन का कलेजा धक्क कर गया.  खैर,  वह उस कागज के गोले को देख नहीं पाया, क्योंकि रचना ने झट से उसे अपने पैर के नीचे दबा लिया और जब अमन वहां से चला गया, तब वह उसे खोल कर पढ़ने लगी. अपनी तारीफें पढ़ कर रचना के गाल शर्म से लाल हो गए. जब उस ने अपनी नजरें उठा कर शिखर की तरफ देखा, तो उस ने एक प्यारा सा  ‘फ्लाइंग किस’ रचना को भेजा. बदले में रचना ने भी उसे फ्लाइंग किस भेजा और दोनों मोबाइल पर चैटिंग करने लगे.

कोरोना के डर से लोग सहमे हुए हैं, सड़केंगलियां वीरान पड़ी हैं जबकि रचना और शिखर को अपनी जिंदगी पहले से भी हसीन लगने लगी है. उन्हें वीरान पड़ी दुनिया रंगीन नजर आ रही है. सायंसायं करती हवा प्यार की धुन लग रही है. अपनी जिंदगी में यह नया बदलाव दोनों को भाने लगा है. लेकिन यही बातें अमन और शिखर की पत्नी को जरा भी नहीं भा रही हैं. उन्हें खुश देख वे जलभुन रहे हैं.

अमन और रचना ने लवमैरिज की थी.  परिवार के खिलाफ जा कर दोनों ने शादी की थी. वैसे, फिर बाद में सब ने उन के रिश्ते को स्वीकार कर लिया. लेकिन अब उसी अमन में वह बात नहीं रही जो पहले हुआ करती थी. रचना तो आज भी अमन को प्यार करती है, पर ताली तो दोनों हाथों से बजती है न?

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