संबंध : भाग 2- भैया-भाभी के लिए क्या रीना की सोच बदल पाई?

मां तो यहां तक कहती हैं कि दहेज भी उन्होंने मौसी को मां से बढ़ कर ही दिया था. पुराने जमाने में रिश्ते निबाहना लोग भली प्रकार जानते थे शायद. वे हमेशा नानाजी के एहसानों से दबी रहती थीं. यदाकदा अमेरिका से आ कर ढेर सारे उपहारों से हमारा घर भर देतीं. हम भाईबहन को बहुत प्यार करतीं. वे दोनों सगी बहनों से बढ़ कर थीं.

‘‘लड़की स्वभाव से सुशील है, सुंदर है और सब से बड़ी बात एमबीए है,’’ खुशी के अतिरेक में मां बही चली जा रही थीं.

‘‘तुम्हें कैसे मालूम कि वह रूपवती है?’’

मां फोटो निकाल लाई थीं. ऐसा लगा जैसे चांद धरती पर उतर आया हो, पर न जाने क्यों मेरा शंकालु हृदय इस रिश्ते को अनुमति नहीं दे रहा था.

‘‘मां, विदेश में पलीबढ़ी लड़की क्या यहां पर तारतम्य बिठा पाएगी? वहां के रहनसहन और यहां के तौरतरीकों में बहुत अंतर है.’’

‘‘तू नहीं जानती देविका का स्वभाव. मेरे ही साथ पलीबढ़ी है. उस के और मेरे संस्कारों में कोई अंतर थोड़े ही है. क्या उसे नहीं मालूम कि मैं विपिन के लिए कैसी लड़की पसंद करूंगी?’’

मैं देख रही थी भैया की भी मूक अनुमति थी इस संबंध में. बाबूजी का हस्तक्षेप सदा ही नकारात्मक रहा है ऐसे मामलों में. संबंध को स्वीकृति दे दी गई. ब्याह की तारीख 2 माह बाद दी गई थी. मांबाबूजी का विश्वास देखते ही बनता था.

मेरे जाने से जो सूनापन वहां आ गया था उसे अंजू भाभी पाट देंगी, ऐसा उन का अटूट विश्वास था. बारबार कहते, ‘जाओ, बाजार से खरीदारी कर के आओ.’ रोज मैं मां के साथ खरीदारी करती. उस के काल्पनिक गोरे रंग पर क्या फबेगा, यह सोच कर कपड़ा लिया जाता. इस घर में धनदौलत, मोटरबंगला, नौकरचाकर किसी की भी कमी नहीं थी. हीरेमोती के सैट लिए गए थे. समधियों के रहने का इंतजाम एक होटल में किया गया था. हर तरह की सुखसुविधाएं उन के लिए मुहैया थीं. मुझे भी कीमती साड़ी व जड़ाऊ सैट बाबूजी ने दिलवाया था. अश्विनी मना करते रह गए थे. मां का तर्क था कि इकलौते भाई की शादी में यह सब लेने का हक था मुझे.

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एकएक दिन युग के समान प्रतीत हो रहा था. कब वह दिन आए और मैं भाभी से मिलूं? आकांक्षाएं आसमान छू रही थीं. मां का उत्साह इकलौती बहू के प्रति देखते ही बनता था. बारबार कहतीं, ‘जोड़ी सुंदर तो लगेगी न?’ हम मुसकरा कर अपनी सहमति देते थे. विवाह का समय ज्योंज्यों नजदीक आता मांबाबूजी की बेचैनी बढ़ती जाती थी. सब काम अलगअलग लोगों में बंटा था. किसी प्रकार की कमी वह सह नहीं पा रहे थे.

भैया सदैव से अल्पभाषी रहे हैं, पर उन की उत्सुकता मां से छिपी न थी. आज भाभी और उन के पिताजी जो आ रहे थे. बारबार आंखों के सामने एक खूबसूरत चेहरा, छरहरा बदन व लंबे कद की रूपसी खड़ी हो जाती.

हम सब हवाई अड्डे पहुंच चुके थे. वहां पहुंच कर अश्विनी ने छेड़ा, ‘‘मां, अपनी बहू को कैसे पहचानोगी?’’

‘‘देविका के साथ जो सब से सुंदर लड़की होगी वही मेरी बहू है,’’ मां का अटूट विश्वास देखते ही बनता था.

उद्घोषिका ने सूचित किया, अमेरिका से आने वाला वायुयान आ गया है. उत्सुक निगाहें हर आगंतुक में भाभी को ढूंढ़ रही थीं.

सहसा मां को किसी ने अंक में भर लिया था, देविका मौसी थीं.

‘‘हमारी बहू कहां है?’’

‘‘और मेरी भाभी?’’ मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी.

उन्होंने एक 5 फुट की लड़की को आगे कर के कहा, ‘‘यही तो है तुम्हारी बहू.’’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. कहां वह फोटो वाली रूपसी और कहां यह कुम्हलाया सा चेहरा? कहीं ये मजाक तो नहीं कर रही हैं, या मैं ही कोई दुस्वप्न देख रही हूं? उस के दोनों हाथ जुड़े हुए थे, शायद कभी पक्षाघात का शिकार हुई थी. कदकाठी का पूर्ण विकास हुआ लगता ही न था.

बाबूजी संज्ञाशून्य से परिस्थिति का विवेचन कर रहे थे और भैया अपना गांभीर्य ओढ़े कभी अंजू को निहार रहे थे, कभी हम सब को. अपनी जीवनसंगिनी को इस रूप में देख कर उन की आकांक्षाओं पर बुरी तरह तुषारापात हुआ था. मां गश खा कर गिर पड़ी थीं. किसी प्रकार उन्हें उठाया. रुग्ण सी काया व संतप्त मन लिए वे कांपती रही थीं. कितने अनदेखे दंश खाए होंगे उन्होंने, यह मैं भली प्रकार से महसूस कर पा रही थी. शक्ति की स्रोत मां बुरी प्रकार से टूट चुकी थीं.

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पर ऊपरी तौर पर सभी सामान्य थे. किसी ने एक शब्द भी न कहा था. मेरा हृदय चीत्कार कर के देविका मौसी को बुराभला कहने को चाह रहा था. खूब बदला लिया था उन्होंने हम सब से अपने पर किए गए एहसानों का. जाने कब का बदला लिया था उन्होंने भैया से? किंतु मातापिता की शिक्षा के कारण कुछ भी तो अनर्गल न कहा गया था.

फोटो वाली सुंदरसलोनी अंजू की तुलना इस अपाहिज से कर के मन दुखी सा हो गया था. भविष्य की सुंदर सुनहरी हरीतिमा की कल्पना यथार्थ की धरती पर मरुभूमि की सफेदी में परिवर्तित हो गई थी. सारे बिंबप्रतिबिंब टूट पड़े थे. ऐसा प्रतीत होता था कि सामने पड़े वैभव को किसी ने कालिमा से पोत दिया हो.

समधियों को उन के रहने के स्थान पर छोड़ा गया. उन की आवभगत के लिए कुछ लोग तैनात थे. एक बात कुछ विचित्र सी लगी थी, देविका मौसी सामान्य ही थीं. उन के व्यवहार से ऐसा नहीं लगा कि उन्होंने हमारे साथ विश्वासघात किया हो.

घर आ कर हर परिचित, रिश्तेदार की जबान पर एक ही प्रश्न था, ‘बहू कैसी है?’

क्या बताते? मृत्यु के बाद का सा सन्नाटा छा गया था. ऐसा लगता, हम सब के शरीर का रक्त किसी ने चूस लिया हो. रात्रिभोज तक हम सब सामान्य थे या सामान्य होने का प्रयत्न कर रहे थे. अभी विवाह में 3 दिन का समय बाकी था. रहरह कर मां व बाबूजी पर क्रोध आ रहा था. इस नवीन विचारधारा के युग में महज फोटो देख कर ब्याह निश्चित करना कितनी बड़ी भूल थी. कुंठा कहीं दिल में कैद थी और जबान को मानो ताला लग गया था.

अगले भाग में पढ़ें- मां से भी कहा था, ‘धनदौलत तो हाथों का मैल  

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संबंध : भाग 1- भैया-भाभी के लिए क्या रीना की सोच बदल पाई?

मैं काफी देर से करवट बदल रही थी. नींद आंखों से ओझल थी. अंधेरे में भी घड़ी की सूई सुबह के 4 बजाते हुए प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रही थी. हर ओर स्तब्धता छाई हुई थी. एक नजर अश्विनी की ओर देखा. वे गहरी नींद में थे. पूरे दिन दौड़धूप वही करते रहते हैं. मुझ से तो किसी प्रकार की सहानुभूति या अपनत्व की अपेक्षा नहीं करते वे लोग. किंतु आज मेरे मन को एक पल के लिए भी चैन नहीं है. मृत्युशय्या पर लेटी मां व भाभी का रुग्ण चेहरा बारबार आंखों के आगे घूम जाता है.

क्या मनोस्थिति होगी बाबूजी व भैया की आज की रात?

डाक्टरों ने औपरेशन के बाद दोनों की ही स्थिति को चिंताजनक बताया था. मां परिवार की मेरुदंड हैं और अंजू भाभी गृहलक्ष्मी. यदि दोनों में से किसी को भी कुछ हो गया तो परिवार बिखर जाएगा. किस प्रकार जोड़ लिया था उन्होंने भाभी को अपने साथ. घर का कोई काम, कोई सलाह उन के बिना अधूरी थी. मैं ही उन्हें अपना न पाई. एक पल के लिए भी अंजू की उपस्थिति को बरदाश्त नहीं कर पाती थी मैं.

उसे प्यार करना तो दूर, उस की शक्ल से भी मुझे नफरत थी. उसी के कारण मां को भी तिरस्कृत करती रही थी. जाने क्यों मुझे लगता उस के कारण मेरे परिवार की खुशियां छिन गईं. भैया का जीवन नीरस हो गया. क्या मां का जी नहीं चाहता होगा कि उन का घरआंगन भी पोतेपोतियों की किलकारियों से गूंजे. आज के इस भौतिकवादी युग में रूप, गुण और शिक्षा से संपन्न स्त्री को भी कई बार यातनाएं सहनी पड़ती हैं.

किंतु मेरे परिवार के सदस्यों ने तो उस अपाहिज को स्वीकारा था. उस की कई बार सेवाशुश्रूषा की थी. शारीरिक व मानसिक संबल प्रदान किया था. भाभी के प्रति मां को असीम स्नेह लुटाता देख मैं ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगी थी.

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ससुराल में अपना स्थान बनाने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ा था मुझे? इस अपाहिज नारी के कारण भी कुछ कम आक्षेप तो नहीं सहे थे. मेरे मातापिता दहेज के लोभी बन गए थे. कैसे समझाती इस समाज को कि उन्होंने यह सब मानवता के वशीभूत हो कर किया था. और मैं क्या एक पल को भी भाभी के किसी गुण से प्रसन्न हो पाई थी? मेरी दृष्टि में भाभी का जो काल्पनिक रूप था उस से तो वे अंशमात्र भी मेल न खाती थीं.

कुढ़ कर मैं ने मां से कहा भी था, ‘‘यह तो ग्रहण है तुम्हारे बेटे के जीवन पर और तुम्हारे परिवार पर एक अभिशाप.’’

मां स्तब्ध रह जाती थीं मेरे शब्दों पर. उन्हें कभी कोई शिकायत थी ही नहीं उन से.

सुबह के 5 बजे थे. फोन की घंटी बज रही थी. कहीं कोई अप्रिय समाचार न हो, धड़कते दिल से फोन का चोगा उठाया, बाबूजी थे.

‘‘रीना बेटी, तुम्हारी मां की तबीयत कुछ ठीक है, पर अंजू अभी खतरे से बाहर नहीं है,’’ उन के स्वर का कंपन स्पष्ट था.

मैं स्वयं को कोस रही थी. क्यों बाबूजी व अश्विनी के कहने पर घर आ गई थी. बाबूजी व भैया के पास बैठना चाहिए था मुझे. नितांत अकेले थे वे दोनों. पर मुझ से सहानुभूति की अपेक्षा वे रखते भी न होंगे. उन्हें क्या मालूम हर समय अंजू को तिरस्कृत करने वाली रीना आज पश्चात्ताप की अग्नि में इस तरह जल रही है.

पहले भी तो वह कई बार अस्पताल आई थीं, किंतु तब मेरे मन के किसी कोने से अस्फुट सी यही आवाज उठती थी कि भाभी इस दुनिया से चली जाएं और मेरे भैया का जीवन बंधनों से मुक्त हो जाए. एक पल को न समझ पाई थी कि भैया का जीवन भाभी के बिना अधूरा है. मां ने एक बार समझाया था कि एक बार वह इस घर की बहू बनी है तो अब वह मेरी बेटी भी बन गई है. उस की देखभाल करना हमारा नैतिक ही नहीं, मौलिक दायित्व भी है.

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‘‘और उन के मायके वालों का क्या कर्तव्य है? धोखे से अपनी बीमार बेटी दूसरे के पल्ले बांध कर खुद चैन की नींद सोएं? कहने को तो करोड़ों का व्यापार है, टिकटें भेजते रहते हैं अपनी बेटी व दामाद को. अमेरिका घूम आने के निमंत्रण भेजते रहते हैं पर बीमार बेटी की सेवा नहीं की जाती उन से,’’ मैं गुस्से से कांपकांप जाती थी.

‘‘रीना, वह स्वयं मायके नहीं जाना चाहती. जानती है, कल मेरे गले में हाथ डाल कर बोली थी, ‘मां, मेरी मां व पिताजी से बढ़ कर प्यार आप लोगों ने मुझे दिया है. मेरा जी आप लोगों को छोड़ने को नहीं चाहता.’’’

‘‘बस तुम से तो कोई मीठा बोले तो पिघल जाती हो.’’

बड़ी मुश्किल से अश्विनी मुझे चुप करवाते. दिखावे के संबंध मुझे हमेशा विचलित करते रहे हैं. मां के पास जा कर भी अंजू को अपना न पाती थी मैं. कितना प्रतिरोध किया था भैया के ब्याह पर मैं ने? उन के जैसे सौम्य, सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी के लिए रिश्तों की क्या कमी थी? उन्होंने एमबीए किया था. बाबूजी का लाखों का व्यापार था. भैया दाहिने हाथ के समान उन की मदद करते थे. मैं मचल कर बाबूजी से कहती, ‘‘भैया के लिए सुंदर सी भाभी ला दीजिए न.’’

‘‘पहले तुझे इस घर से निकालेंगे तब बहू आएगी यहां.’’

पर मैं एक सखी के समान भाभी के साथ रहना चाहती थी. हमउम्र ननदभाभी सखियों के समान ही तो होती हैं. पर मेरी किसी ने भी न सुनी थी. उन का तर्क था, ‘‘हम तुझे इसी शहर में ब्याहेंगे, जब जी चाहे आ जाना.’’

और धूमधाम से ब्याह दी गई थी मैं. आदर्श पति के समान अश्विनी रोज मुझे मां से मिलवा लाते थे. पूरा दिन मां से बतियाती, मेरी पसंद के पकवान बनते. मां बताती रहती थीं भैया के रिश्तों के बारे में. बाबूजी भी पास बैठे रहते. भैया का स्वभाव कितना मृदु था. उन की आवाज की पारदर्शी सरलता से उन का आकर्षक व्यक्तित्व परिलक्षित होता था.

मुझे नाज था अपने भाई पर. मेरी कितनी सहेलियां उन पर फिदा थीं.

पर वे तो आदर्श पुत्र थे अपने माता-पिता के.

एक दिन मां ने बताया था, ‘‘तेरी देविका मौसी का पत्र आया है अमेरिका से. वे अपनी देवरानी की बेटी का रिश्ता करना चाहती हैं विपिन के साथ.’’

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ये वही देविका मौसी थीं जिन्होंने अपने मातापिता को बचपन में ही खो दिया था. दरदर की ठोकरें खाने के बाद भी उन्हें किसी ने सहारा न दिया था. अभागिन कह कर लोग दुत्कार देते थे. मेरे नाना ने उन्हें पालापोसा, पढ़ायालिखाया और उच्च कुल में ब्याहा था.

अगले भाग में पढ़ें- ‘‘और मेरी भाभी?’’ मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रही थी.

अधूरा सा इश्क: क्या था अमन का फैसला

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

यादों के झरोखे पर आज फिर किसी ने दस्तक दी थी. न चाहते हुए भी अमन का मन उस और खींचता चला गया. अपनी बेटी का आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा उसे बारबार कचोट रहा था.

“विनय, मुझे माफ कर दो, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. मैं अपने पापा को धोखा नहीं दे सकती. मैं उन का गुरूर हूं…उन के भरोसे को मैं तोड़ नहीं सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

देर रात श्रेया के कमरे की जलती हुई लाइट को देख अमन के कदम उस ओर बढ़ गए थे. श्रेया की हिचिकियों की आवाजें बाहर तक आ रही थीं. अमन दरवाजे पर कान लगाए खड़ा था. फोन पर उधर किसी ने क्या कहा अमन यह तो नहीं सुन पाया पर श्रेया के शब्द सुन कर उस के पैर कमरे के बाहर ही जम गए. कितना गुस्सा आया था उसे…पिताजी के खिलाफ जा कर उस ने श्रेया का कालेज में दाखिला कराया था और वह…

“आग और भूसे को एकसाथ नहीं रखा जाता. वैसे भी इसे दूसरे घर जाना है. कल कोई ऊंचनीच हो गई तो मुझ से मत कहना.”

अपने बाबा की बात सुन श्रेया संकोच और शर्म से गड़ गई थी. तब अमन ने कितने विश्वास के साथ कहा था,”पिताजी, मुझे श्रेया पर पूरा भरोसा है. वह मेरा सिर कभी झुकने नहीं देगी.”

श्रेया रोतेरोते सो गई. अमन उसे सोता हुआ देख रहा था. उस की छोटी सी गुड़िया कब इतनी बड़ी हो गई… तकिया आंसुओं से गीला हो गया था. बिस्तर के बगल में रखे लैंप की रौशनी में उस का मासूम चेहरा देख अमन का कलेजा मुंह को आ गया. कितना थका सा लग रहा था उस का चेहरा मानों वह मीलों का सफर तय कर के आई हो. कितनी मासूम लग रही थी वह.

उस की श्रेया किसी लड़के के चक्कर में…अभी उस ने दुनिया ही कहां देखी है? आजकल के ये लड़के बाप के पैसों से घुमाएंगेफिराएंगे और फिर छोड़ देंगे. श्रेया के मासूम चेहरे को देख अमन को किसी की याद आ गई. सच मानों तो इतने सालों के बाद भी वह उस चेहरे को भूल नहीं पाया था.

उसे लगा आज किसी ने उसे 25 साल पीछे ला कर खड़ा कर दिया हो. न जाने कितनी ही रातें उस ने उस के खयालों में बिता दी थीं. उस के जाने से कुछ नहीं बदला था, रात भी आई थी…चांद भी आया था पर बस नींद नहीं आई थी.

कितनी बार…हां, न जाने कितनी ही बार वह नींद से जाग कर उठ जाता.तब एक बात दिमाग में आती, जब खयाल और मन में घुमड़ते अनगिनत सवाल और बवाल करने लगे तब तुम आ जाओ. तुम्हारा वह सवाल जनून बन जाएगा और बवाल जीवन का सुकून…आज सोचता हूं तो हंसी आती है. बावरा ही तो था वह…बावरे से मन की यह न जानें कितनी बावरी सी बातें थीं. कोई रात ऐसी नहीं थी जब वह साथ नहीं होती. हां, यह बात अलग थी कि वह साथ हो कर भी साथ नहीं होती. अमन को कभीकभी लगता था कि उस के बिना तो रात में भी रात न होती. शायद इसी को तो इश्क कहते हैं… इतने साल बीत जाने पर भी वह उस को माफ नहीं कर पाया था.

सच कहा है किसी ने मन से ज्यादा उपजाऊ जगह कोई नहीं होती क्योंकि वहां जो कुछ भी बोया जाए उगता जरूर है चाहे वह विचार हो, नफरत हो या प्यार. कुछ ख्वाहिशें बारिश की बूंदों की तरह होती हैं जिन्हें पाने की जीवनभर चाहत होती है. उस चाहत को पाने में हथेलियां तो भीग जाती हैं पर हाथ हमेशा खाली रहता है. उस का प्यार इतना कमजोर था कि वह हिम्मत नहीं कर पाई. बस, कुछ सालों की ही तो बात थी…

“कैसी लग रही हूं मैं..?” खुशी ने मुसकराते हुए अमन से पूछा था. अमन उस के चेहरे में खो सा गया था. लाल सुर्ख जोड़े और मेहंदी लगे हाथों में वस और भी खूबसूरत लग रही थी. वह उसे एकटक देखता रहा और सोचता रहा कि मेरा चांद किसी और की छत पर चमकने को तैयार था.

“तुम हमेशा की तरह खूबसूरत…बहुत खूबसूरत लग रही हो.”

“सच में…”

“क्या तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं, कोई गवाह चाहिए तुम्हें…”

अमन की आंखों में न जाने कितने सवाल तैर रहे थे. ऐसे सवाल जिन का जवाब उस के पास नहीं था. खुशी ने अचकचा कर अपनी आंखें फेर लीं और भरसक हंसने का प्रयास करने लगी. अमन उस मासूम हंसी को कभी नहीं भूल सकता था. न जाने क्या सोच कर वह एकदम से चुप हो गया. उस समय वे दोनों कमरे में अकेले थे. बारात आने वाली थी.सब तैयारी में इधरउधर दौड़भाग रहे थे. कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.

शायद बारात आ गई थी. भीड़ का शोर बढ़ता जा रहा और खुशी के चेहरे पर बेचैनी भी…वह तेजी से अपनी उंगलियों में दुपट्टे को लपेटती और फिर ढीला छोड़ देती. कुछ था जो उस के हाथों से छूटने जा रहा था पर….खुशी सोच रही थी कि माथे का सिंदूर रिश्ते की निशानी हो सकती है पर क्या प्यार की भी? तब खुशी ने ही बोलना शुरू किया, “अमन, शायद तुम्हें मुझ से, अपने जीवन से शिकायत हो. शायद तुम्हें लगे कुदरत ने हमारा साथ नहीं दिया पर एक बार खिड़की से बाहर उन चेहरों को देखो जो मेरी खुशी के लिए कितने दिनों से दौड़भाग रहे हैं. मेरे पापा से मिल कर देखो, खुशी उन की आंखों से बारबार छलक रही है और मेरी मां… वह भी कितनी खुश है.

“क्या अगर आज हम ने उन की मरजी के खिलाफ जा कर चुपचाप शादी कर ली होती, इतने लोगों को दुख पहुंचा कर हम नए जीवन की शुरुआत कर पाते? तुम्हें शायद मेरी बातें आज न समझ में आए पर एक न एक दिन तुम्हें लगेगा कि मैं गलत नहीं थी. हो सके तो मुझे भूल जाना…”

“भूल जाना…” आसानी से कह दिया था खुशी ने यह सब पर क्या यह इतना आसान था? अमन मुसकरा कर रह गया. उस की मुसकराहट में खुशी को न पा पाने का गम, अपने बेरोजगार होने की मजबूरी बारबार साल रही थी. आज खुशी जिन लोगों का दिल रखने की कोशिश कर रही थी, क्या किसी ने उस का दिल रखने की कोशिश की? खुशी की बहनें जयमाल के लिए खुशी को ले कर चली गईं. अमन काफी देर तक उस स्थान को देखता रहा जहां खुशी बैठी थी. उस के वजूद की खुशबू वह अभी तक महसूस कर रहा था.

खुशी सिर्फ उस के जीवन से नहीं जा रही थी, उस के साथ उस की खुशियां, उस के होने का मकसद को भी ले कर चली गई थी. वह तेजी से उठा और भीड़ में गुम हो गया.

“अरे अमन, वहां क्यों खड़े हो? यहां आओ न… फोटो तो खिंचवाओ,” खुशी की मां ने हुलस कर कहा और वह झट से दोस्तों के साथ मंच पर चढ़ गया. न जाने क्यों खुशी का चेहरा उतर गया था. एक अजीब सा तनाव और गुस्सा अमन के चेहरे पर था, जैसे किसी बच्चे से उस का पसंदीदा खिलौना छीन लिया गया हो. अमन खुशी के पति के पीछे जा कर खड़ा हो गया, जैसे वह खुद को बहला रहा था. जिस जगह पर आज खुशी का पति बैठा है इस जगह पर तो उसे होना चाहिए था.

आज उस का मन यादों के भंवर में घूम रहा था. याद है, आज भी उसे खुशी से वह पहली मुलाकात… फरवरी की गुलाबी ठंड शीतल हवा के झोंके चेहरे से टकरा कर एक अजीब सी मदहोशी में डुबो रहे थे. बादलों से झांकता सूरज बारबार आंखमिचौली कर रहा था.

तभी सामने से आती एक सुंदर सी लड़की जिस ने पीले सलवारकमीज पर चांदी की चूड़ियां डाल रखी थीं, उस पर नजरें टिक गईं. हाथ की कलाई में बंधी घड़ी को उस ने बेचैनी से देखा. शायद उसे क्लास के लिए आज देर हो गई थी. उस के चेहरे पर बिखरी हुई लटें किसी का भी मन मोह लेने में सक्षम थी, हर पल उस के कदम अमन की ओर बढ़ते जा रहे थे और उस के हर बढ़ते हुए कदम के साथ अमन का दिल जोरजोर से धङकने लगा था. सांसें थम सी गई थीं, चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. शायद यह उम्र का असर था या फिर कुछ और, उस की निगाहों की कशिश उसे अपनी ओर खींचने को मजबूर करती थीं. उसे रोज देखने की आदत न जाने कब मुहब्बत में बदल गई.

वे घंटों एकदूसरे के साथ सीढ़ियों पर बैठे रहते थे, उन के मौन के बीच भी कोई था जो बोलता था. एकदूसरे का साथ उन्हें अच्छा लगता था. आज भी उस रास्ते से जब वह गुजरता तो लगता वह उन सीढ़ियों पर बैठा उस का इंतजार कर रहा है और वह अपनी सहेलियों के बीच घिरी कनखियों से उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही है.

यहीं…हां, यहीं तो उस ने अपनी शादी का कार्ड पकड़ाया था. न जाने क्यों उस की बोलती और चमकती आंखों में लाल डोरे उभर आए थे. कुछ खोईखोई सी लग रही थी वह… उस दिन भी तो उस ने उस का पसंदीदा रंग पहन रखा था. यह इत्तिफाक था या फिर कुछ और वह आज तक समझ नहीं पाया…

हाथों में वही चांदी की चूड़ियां… लाल सुर्ख कार्ड को उस ने अपनी झुकी पलकों और कंपकंपाते हाथों के साथ अमन को पकड़ाया. पता नहीं वह भ्रम था या फिर कुछ और… उस के गुलाबी होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए थे पर…हिरनी सी चंचल आंखों से में एक अजीब सा सूनापन था. खालीपन तो उस की आंखों में भी था…

“आओगे न…” इन 2 शब्दों ने उस के कानों तक आतेआते न जाने कितने मीलों का सफर तय किया था. सच ही तो है, हम सब एक सफर में ही तो हैं.

“तुम…तुम सचमुच चाहती हो मैं आऊं?”

आंसू की 2 बूंदें उस कार्ड पर टप से टपक पङे और वह मेरे बिना कोई जवाब दिए दूर बहुत दूर चली गई. कितना गुस्सा आया था उस दिन… एक बार… हां, एक बार भी नहीं सोचा उस ने मेरे बारे में…क्या वह मेरा इंतजार नहीं कर सकती थीं? कितनी शामें मैं ने उस की उस पसंदीदा जगह पर इंतजार किया था पर वह नहीं आई. शायद उसे आना भी नहीं था. खिड़की से झांकता पेड़ मुझ से बारबार पूछता कि क्या वह आएगी? पर नहीं, पार्क में पड़ी लकड़ी की वह बैंच…

आज भी उस बैंच पर गुलमोहर के फूल गिरते हैं, जिन्हें वह अपने नाजुक हाथों में घुमाघुमा अठखेलियां करती थी. बारिश की बूंदें जब उस के चेहरे को छू कर मिट्टी में लोट जाती तब वह उस की सोंधी खुशबू से पागल सी हो जाती. बरगद का वह विशाल पेङ जहां वह अमन के साथ घंटों बैठ कर भविष्य के सपने बुनती, आज भी उस का इंतजार कर रहा था. अपनी नाजुक कलाइयों से वह उस विशाल पेङ को बांधने का निर्रथक प्रयास करती, उस का वह बचपना आज भी अमन को गुदगुदा देता.

अमन सोच रहा था कि शब्द और सोच इंसान की दूरियां बढ़ा देते हैं और कभी हम समझ नहीं पाते और कभी समझा नहीं पाते. कल वह खुशी को समझ नहीं पाया था और आज वह श्रेया को नहीं समझ पा रहा. उस ने तो सिर्फ उतना ही देखा और समझा जितना वह देखना और समझना चाहता था. जिंदगीभर उसे खुशी से शिकायतें रहीं पर एक बार भी उस ने यह सोचा कि खुशी को भी तो उस से शिकायतें हो सकती हैं? वह भी तो उस के पिता से मिल कर उन्हें समझा सकता था? खुशी का दिया जख्म उसे आज तक टीस देता था पर आज श्रेया के प्यार के बारे में जान कर भी वह कुछ नहीं करेगा?

क्या उस नए जख्म को बरदाश्त कर पाएगा? खुशी और श्रेया न जाने क्यों उसे आज एक ही नाव पर सवार लग रहे थे, जो दूसरों का दिल रखने के चक्कर में अपना दिल रखना कब का भूल चुके थे.

सच कहा था उस दिन खुशी ने कि एक दिन मुझे उस की बातें समझ में आएंगी. अमन की आंखें बोझिल हो रही थीं, वह थक गया था अपने विचारों से लड़तेलड़ते…उस की पत्नी नींद के आगोश में थी. अमन खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. बाहर तेज बारिश हो रही थी. हवा के झोंके ने अमन के तन को भिगो दिया. पानी की तेज धार में पत्ते धूल गए थे और कहीं न कहीं अमन की गलतफहमियां भी… वह निश्चय कर चुका था कि बेशक उस की जिंदगी में खुशी नहीं आ पाई थी मगर मेरी श्रेया किसी की नफरत का शिकार नहीं बनेगी…वह कल ही उस से बात करेगा.

दहेज: अलका के घरवाले क्यों परेशान थे

डाक्टर के केबिन से बाहर निकल कर राहुल सिर पकड़ कर बैठ गया. उस की मम्मी आईं और उस से पूछने लगीं, ‘‘डाक्टर ने ऐसा क्या कह दिया कि तू अपना सिर पकड़ कर बैठ गया?’’

राहुल बोला, ‘‘मम्मी, अलका डाक्टर बन गई है.’’

‘‘कौन अलका?’’ मम्मी ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘वही अलका, जिस से दहेज में 5 लाख रुपए न मिलने की वजह से हम फेरों के समय बरात वापस ले आए थे.’’

‘‘पर बेटा, शादी के लिए तो उस ने ही मना किया था,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘और क्या करती वह? ताऊजी और पापा ने उस समय उस के पापा को इतना जलील किया था कि उस ने शादी करने से मना कर दिया,’’ राहुल बोला.

‘‘पर बेटा, तू इतना परेशान क्यों हो गया है?’’

‘‘मम्मी, मैं ने तो बस यही कहा था, ‘डाक्टर, हमें तो अलका की हाय खा गई. शादी को 12-13 साल हो गए, पर औलाद का मुंह देखने को तरस गए. हर बार किसी न किसी वजह से पेट गिर जाता है. इस बार खुश थे कि अब हम औलाद का मुंह देख लेंगे, पर यह समस्या आ गई.’

‘‘हमारी डाक्टर ने अलका का नाम लिया और कहा कि अब वे ही कुछ कर सकती हैं.’’

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‘‘मम्मी, अलका रिपोर्ट देखतेदेखते बोली, ‘जिस लड़की की बरात फेरों के समय वापस लौट जाए, वह कभी दुआ तो नहीं देगी.’

‘‘फिर उस ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा. उस की शक्ल देख कर मेरी बोलती बंद हो गई.

‘‘आगे और कोई बात होती कि तभी नर्स ने आ कर तैयारी शुरू कर दी. अलका उठ कर चलने लगी, फिर मेरी पीठ को सहलाते हुए बोली, ‘डरो मत, मैं डाक्टर पहले हूं, अलका बाद में.’’’

पर राहुल की मम्मी कुछ और ही सोच रही थीं, इसलिए उन्होंने बेटे की बात पर कोई गौर नहीं किया.

थोड़ी देर बाद मम्मी ने पूछा, ‘‘क्या अलका शादीशुदा है?’’

राहुल बोला, ‘‘नहीं मम्मी. लेकिन आप यह क्या पूछ रही हैं?’’

‘‘बेटा सोच, उस ने अभी तक शादी क्यों नहीं की? उस से कह दे कि बच्चे को बचाने की कोशिश करे. बहू न बचे, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल चीखा, ‘‘आप कितनी बेरहम हैं. मैं वही गलती दोबारा नहीं करूंगा. एक बार ताऊजी और पापा के खिलाफ नहीं बोल कर मुझे अलका जैसी लड़की से हाथ धोना पड़ा था. मुझे अपनी बीवी और बच्चा दोनों चाहिए.’’

उधर डाक्टर अलका  के सामने लेटी कविता जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी. वह उस शख्स की बीवी थी, जो अलका के साथ होने वाले फेरों पर अपनी बरात वापस ले गया था.

डाक्टर अलका के सामने उस दिन का एकएक सीन घूम गया, जिस ने उन की जिंदगी बदल दी थी.

राहुल और अलका मंडप के नीचे बैठे हुए थे कि तभी राहुल के पापा की आवाज गूंजी थी, ‘रुक जाओ…’

फिर वे अलका के पापा से बोले थे, ‘5 लाख रुपए का इंतजाम और करो. अब फेरे तभी होंगे, जब आप 5 ख रुपए का इंतजाम कर लोगे.’

अलका और उस के परिवार वाले सभी चौंक कर रह गए थे. अलका के पापा और चाचा दोनों राहुल के पापा के सामने गिड़गिड़ा रहे थे, पर उन का एक ही राग था कि 5 लाख रुपए का इंतजाम करो, नहीं तो बरात वापस ले जाएंगे.

इसी बीच राहुल के ताऊजी बोले थे, ‘अरे समधीजी, आप के लिए गर्व की बात होनी चाहिए कि आप की 12वीं पास लड़की को सरकारी नौकरी वाला लड़का मिल रहा है… ऊपर से यह सांवली भी है. आप 5 लाख रुपए का इंतजाम कर लें, फिर सारी कमियां छिप जाएंगी.’

फिर पापा राहुल से बोले थे, ‘उठ बेटा, हम वापस चलते हैं.’

बहुत देर से चुपचाप सुन रही अलका उठी और दहाड़ी, ‘अरे, यह क्या उठेगा, मैं ही उठ जाती हूं.

‘मैं अब यह शादी नहीं करूंगी. आप शौक से बरात ले जाएं. लेकिन मेरे पापा का जो अब तक खर्च हुआ है, सब दे कर जाएं.’

फिर अलका अपने चाचा से बोली थी, ‘चाचाजी, आप पुलिस को बुलाइए.’

अब तक जो शेर की तरह दहाड़ रहे थे, वे भीगी बिल्ली बन गए थे. वे अलका पर शादी के लिए दबाव डालने लगे थे, पर अलका ने शादी करने से साफ मना कर दिया और बरात लौट गई थी.

कमरे में आ कर अलका रोने लगी थी. उस की बूआ पास आ गई थीं. वह उन से लिपट कर रोने लगी और बोली थी, ‘बूआ, मैं और पढ़ना चाहती हूं.’

बूआ ने अपने भाई से कहा था, ‘भैया, मैं ने पहले ही कहा था कि अभी अलका की उम्र ही क्या हुई है… पर आप को तो बस नौकरीपेशा लड़के का लालच आ गया. देख लिया नतीजा…

‘भैया, मेरे कोई बच्चा नहीं है, इसलिए अलका की जिम्मेदारी मुझे सौंप दो. इसे मैं अपने साथ ले जाऊंगी. मैं इसे आगे पढ़ाऊंगी.’

इस के बाद बूआ अलका को अपने साथ ले गई थीं. उस समय वह 12वीं जमात विज्ञान से कर रही थी, तभी पीएमटी का इश्तिहार आया था. अलका ने पीएमटी का इम्तिहान देने की इच्छा जाहिर की, तो उस की बूआ ने उस की इच्छा पूरी की.

अलका ने बहुत मेहनत की. अब उस का एक ही मकसद था कि कुछ कर के दिखाना है. उस की मेहनत रंग लाई और उस का पीएमटी में चयन हो गया.

अलका को पता था कि बूआ भी माली रूप से कमजोर थीं, लेकिन बूआ ने किसी तरह उसे डाक्टरी पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया था.

अलका को बाद में पता चला था कि उस की बूआ ने उस के दाखिले के लिए अपने कुछ जेवर बेचे थे, इसलिए उस ने अपने सहपाठियों से कहा कि उस के लिए कुछ ट्यूशन बता दें, जिस से वह अपनी बूआ को कुछ राहत दे सके.

अलका के सहपाठी उस के काम आए. उन्हीं में डाक्टर विश्वास भी थे. उन्होंने कुछ ट्यूशन बता दिए. बस, यहीं से अलका की निकटता डाक्टर विश्वास से बढ़ने लगी और उस हद तक पहुंच गई, जहां दोनों एकदूसरे के बिना नहीं रह पा रहे थे.

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3 साल बाद अलका एक नर्सिंगहोम की मालकिन थी. इस नर्सिंगहोम की मालकिन बनने में भी डाक्टर विश्वास ने ही मदद की थी.

अब अलका इतनी काबिल डाक्टर हो गई थी कि बिगड़े केस भी ठीक कर देती थी. कविता का केस भी तभी अलका के पास आया, जब दूसरे डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे.

डाक्टर अलका के लिए यह सब से मुश्किल केस था, क्योंकि अगर वह अपने काम में नाकाम हुई तो लोग यही कहेंगे कि अलका ने अपना बदला ले लिया. उस का कैरियर भी चौपट हो जाएगा, जबकि उस को पता था कि उस के सामने लेटी औरत का कोई कुसूर नहीं था.

अलका को बारबार पसीना आ रहा था. उस की ऐसी हालत देख कर नर्स बोली, ‘‘डाक्टर क्या हुआ? आप अपनेआप को संभालो.’’

अलका बोली, ‘‘डाक्टर विश्वास को फोन लगाओ.’’

थोड़ी देर बाद जब नर्स ने कहा कि डाक्टर विश्वास कुछ ही देर में पहुंचने वाले हैं, तब जैसे अलका को हिम्मत मिली. अब उस के लिए कविता एक आम मरीज थी. 2 घंटे बाद जब बच्चे के रोने की आवाज गूंजी, तब सब खुशी से उछल पड़े.

बाकी काम अपने सहायकों पर छोड़ कर डाक्टर अलका डाक्टर विश्वास के साथ बाहर निकल गई.

कविता 3 दिन अस्पताल में रही. राहुल और अलका की मुलाकात नहीं हुई या राहुल ही खुद अलका से कन्नी काट लेता था.

3 महीने बीत गए थे. अलका अस्पताल जाने की तैयारी कर रही थी कि तभी एक आवाज ने उसे चौंकाया. उस ने आवाज की तरफ देखा और बोली, ‘‘अरे कविताजी, आप?’’

अपने बच्चे को डाक्टर अलका की गोद में सौंपते हुए कविता बोली, ‘‘मुझे सब पता चल गया है, जो इन्होंने आप के साथ किया था.’’

‘‘मैं तो अब सबकुछ भूल गई हूं, क्योंकि आज मैं जिस मुकाम पर खड़ी हूं, तब मैं सोचती हूं कि अगर उस समय मेरी शादी हो गई होती, तब मैं इस मुकाम पर नहीं पहुंच पाती.’’

‘‘पर इन्होंने जो किया, वह गलत किया.’’

‘‘हां, मुझे भी उस समय बुरा लगा था कि राहुल ने अपने पापा का विरोध नहीं किया था. तब मुझे लगा कि अगर मेरी शादी राहुल के साथ हो जाती, तो हो सकता है कि बाद में भी दहेज ही मेरी मौत की वजह बन जाए, इसलिए मैं ने शादी के लिए मना कर दिया.’’

फिर अलका ने कविता से पूछा, ‘‘क्या अब भी राहुल ऐसे ही हैं?’’

‘‘नहीं, अब वे बदल गए हैं. मुझे आप के अस्पताल की नर्स ने बताया कि उस दिन भी इन की मम्मी ने दबाव डाला था कि डाक्टर से कह दे कि अगर बचाने की बात हो, तो बहू को नहीं, बल्कि बच्चे को बचा ले. तब इन्होंने मम्मी को डांट दिया था.

‘‘इन्होंने अपनी मां से कहा था कि एक बार पापा की बात का विरोध न कर के अलका जैसी लड़की को खो बैठा हूं, पर वह गलती अब दोबारा नहीं करूंगा.

‘‘तब मुझे यह पता नहीं था कि वह लड़की आप हैं.’’

बात को मोड़ देते हुए अलका ने पूछा, ‘‘इस बच्चे का क्या नाम रखा?’’

‘‘विश्वास,’’ कविता बोली.

तभी डाक्टर विश्वास वहां आए. अपना नाम सुन कर वे बोले, ‘‘मेरा नाम क्यों लिया जा रहा है?’’

कविता ने बताया, ‘‘हम ने अपने बच्चे का नाम आप के नाम पर रखा है.’’

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डाक्टर विश्वास बोले, ‘‘अरे, विश्वास नाम मत रखो, वरना मेरी तरह कुंआरा ही रह जाएगा.’’

‘‘देखो, कैसे ताना मार रहे हैं,’’ अलका बोली, ‘‘आज से पहले कभी इन्होंने प्रपोज नहीं किया? और आज प्रपोज किया है, तो ताना भी मार रहे हैं. अब मुझे क्या सपना आया था कि आप से केवल दोस्ती नहीं है, कुछ और भी है.’’

डाक्टर विश्वास के बोलने से पहले ही कविता बोली, ‘‘बहुत खूब. दोनों ने प्रपोज भी किया और ताना भी मारा. अब शादी की तारीख भी तय कर लो.’’

‘शादी की तारीख तो हमारे बड़े तय करेंगे,’ वे दोनों एकसाथ बोले.

कुछ दिन बाद अलका और विश्वास की शादी की तारीख तय हो गई. राहुल और कविता उन के खास मेहमान थे.

लमहे पराकाष्ठा के : रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी

लेखक- डा. शशि मंगल

लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना. इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रू्रण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

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तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

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‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में. उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

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कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी…’

टूटे हुए पंखों की उड़ान: अर्चना ने क्या चुना परिवार या सपना

गली में घुसते ही शोरगुल के बीच लड़ाईझगड़े और गालीगलौज की आवाजें अर्चना के कानों में पड़ीं. सड़ांध भरी नालियों के बीच एक संकरी गली से गुजर कर उस का घर आता था, जहां बरसात में मारे बदबू के चलना मुश्किल हो जाता था.

दुपट्टे से नाक ढकते हुए अर्चना ने घर में कदम रखा, तो वहां का नजारा ही दूसरा था. आंगन के बीचोंबीच उस की मां और पड़ोस वाली शीला एकदूसरे पर नाक फुलाए खड़ी थीं. यह रोज की बात थी, जब किसी न किसी बात पर दोनों का टकराव हो जाता था.

मकान मालिक ने किराए के लालच में कई सारे कोठरीनुमा कमरे बनवा रखे थे, मगर सुविधा के नाम पर बस एक छोटा सा गुसलखाना और लैट्रिन थी, जिसे सब किराएदार इस्तेमाल करते थे.

वहां रहने वाले किराएदार आएदिन किसी न किसी बात को ले कर जाहिलों की तरह लड़ते रहते थे. पड़ोसन शीला तो भद्दी गालियां देने और मारपीट करने से भी बाज नहीं आती थी.

गुस्से में हांफती, जबान से जहर उगलती प्रेमा घर में दाखिल हुई. पानी का बरतन बड़ी जोर से वहीं जमीन पर पटक कर उस ने सिगड़ी जला कर उस पर चाय का भगौना रख दिया.

‘‘अम्मां, तुम शीला चाची के मुंह क्यों लगती हो? क्या तुम्हें तमा करके मजा आता है? काम से थकहार कर आओ, तो रोज यही सब देखने को मिलता है. कहीं भी शांति नहीं है,’’ अर्चना गुस्से से बोली.

‘‘हांहां, तमाशा तो बस मैं ही करती हूं न. वह तो जैसे दूध की धुली है. सब जानती हूं… उस की बेटी तो पूरे महल्ले में बदनाम है. मक्कार औरत नल में पानी आते ही कब्जा जमा कर बैठ जाती है. उस पर मुझे भलाबुरा कह रही थी.

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‘‘अब तू ही बता, मैं कैसे चुप रहूं?’’ चाय का कप अर्चना के सामने रख कर प्रेमा बोली.

‘‘अच्छा लाडो, यह सब छोड़. यह बता कि तू ने अपनी कंपनी में एवांस पैसों की बात की?’’ यह कहते हुए प्रेमा ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा भी नहीं था अब तक, जो दिनभर की कड़ी मेहनत से कुम्हलाया हुआ था.

‘‘अम्मां, सुपरवाइजर ने एडवांस पैसे देने से मना कर दिया है. मंदी चल रही है कंपनी में,’’ मुंह बिचकाते हुए अर्चना ने कहा, फिर दो पल रुक कर उस ने कुछ सोचा और बोली, ‘‘जब हमारी हैसियत ही नहीं है तो क्या जरूरत है इतना दिखावा करने की. ननकू का मुंडन सीधेसादे तरीके से करा दो. यह जरूरी तो नहीं है कि सभी रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते बांटे जाएं.’’

‘‘यह क्या बोल रही है तू? एक बेटा है हमारा. तुम बहनों का एकलौता भाई. अरी, तुम 3 पैदा हुईं, तब जा कर वह पैदा हुआ… और रिश्तेदार क्या कहेंगे? सब का मान तो रखना ही पड़ेगा न.’’

‘‘रिश्तेदार…’’ अर्चना ने थूक गटका. एक फैक्टरी में काम करने वाला उस का बाप जब टीबी का मरीज हो कर चारपाई पर पड़ गया था, तो किसी ने आगे आ कर एक पैसे तक की मदद नहीं की. भूखे मरने की नौबत आ गई, तो 12वीं का इम्तिहान पास करते ही एक गारमैंट फैक्टरी में अर्चना ने अपने लिए काम ढूंढ़ लिया.

अर्चना के महल्ले की कुछ और भी लड़कियां वहां काम कर के अपने परिवार का सहारा बनी हुई थीं. अर्चना की कमाई का ज्यादातर हिस्सा परिवार का पेट भरने में ही खर्च हो जाता था. घर की बड़ी बेटी होने का भार उस के कंधों को दबाए हुए था. वह तरस जाती थी अच्छा पहननेओढ़ने को. इतने बड़े परिवार का पेट पालने में ही उस की ज्यादातर इच्छाएं दम तोड़ देती थीं.

कोठरी की उमस में अर्चना का दम घुटने लगा, सिगड़ी के धुएं ने आंसू ला दिए. सिगड़ी के पास बैठी उस की मां खांसते हुए रोटियां सेंक रही थी.

‘‘अम्मां, कितनी बार कहा है गैस पर खाना पकाया करो… कितना धुआं है,’’ दुपट्टे से आंखमुंह पोंछती अर्चना ने पंखा तेज कर दिया.

‘‘और सिलैंडर के पैसे कहां से आएंगे? गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. अरी, रुक जा. अभी धुआं कम हो जाएगा, कोयले जरा गीले हैं.’’

अर्चना उठ कर बाहर आ गई. कतार में बनी कोठरियों से लग कर सीढि़यां छत पर जाती थीं. कुछ देर ताजा हवा लेने के लिए वह छत पर टहलने लगी. हवा के झोंकों से तनमन की थकान दूर होने लगी.

टहलते हुए अर्चना की नजर अचानक छत के एक कोने पर चली गई. बीड़ी की महक से उसे उबकाई सी आने लगी. पड़ोस का छोटेलाल गंजी और तहमद घुटनों के ऊपर चढ़ाए अपनी कंचे जैसी गोलगोल आंखों से न जाने कब से उसे घूरे जा रहा था.

छोटेलाल कुछ महीने पहले ही उस मकान में किराएदार बन कर आया था. अर्चना को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था. अर्चना और उस की छोटी बहनों को देखते ही वह यहांवहां अपना बदन खुजाने लगता था.

शुरू में अर्चना को समझ नहीं आया कि वह क्यों हर वक्त खुजाता रहता है, फिर जब वह उस की बदनीयती से वाकिफ हुई, तो उस ने अपनी बहनों को छोटेलाल से जरा बच कर रहने की हिदायत दे दी.

‘‘यहां क्या कर रही है तू इतने अंधेरे में? अम्मां ने मना किया है न इस समय छत पर जाने को. चल, नीचे खाना लग गया है,’’ छोटी बहन ज्योति सीढि़यों पर खड़ी उसे आवाज दे रही थी.

अर्चना फुरती से उतर कर कमरे में आ गई. गरम रोटी खिलाती उस की मां ने एक बार और चिरौरी की, ‘‘देख ले लाडो, एक बार और कोशिश कर के देख ले. अरे, थोड़े हाथपैर जोड़ने पड़ें, तो वह भी कर ले. यह काम हो जाए बस, फिर तुझे तंग न करूंगी.’’

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अर्चना ने कमरे में टैलीविजन देखती ज्योति की तरफ देखा. वह मस्त हो कर टीवी देखने में मगन थी. ज्योति उस से उम्र में कुल 2 साल ही छोटी थी. मगर अपनी जवानी के उठान और लंबे कद से वह अर्चना की बड़ी बहन लगती थी.

9वीं जमात पास ज्योति एक साड़ी के शोरूम में सेल्सगर्ल का काम करती थी. जहां अर्चना की जान को घरभर के खर्च की फिक्र थी, वहीं ज्योति छोटी होने का पूरा फायदा उठाती थी.

‘‘अम्मां, ज्योति भी तो अब कमाती है. तुम उसे कुछ क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरी, अभी तो उस की नौकरी लगी है, कहां से ला कर देगी बेचारी?’’ मां की इस बात पर अर्चना चुप हो गई.

‘‘ठीक है, मैं फिर से एक बार बात करूंगी, मगर कान खोल कर सुन लो अम्मां, यह आखिरी बार होगा, जब तुम्हारे इन फुजूल के रिवाजों के लिए मैं अपनी मेहनत की कमाई खर्च करूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है. अपनी कमाई की धौंस मत जमा. चार पैसे क्या कमाने लगी, इतना रोब दिखा रही है. अरे, कोई एहसान नहीं कर रही है हम पर,’’ गुस्से में प्रेमा का पारा फिर से चढ़ने लगा.

एक कड़वाहट भरी नजर अपनी मां पर डाल कर अर्चना ने सारे जूठे बरतन मांजने के लिए समेटे.

बरतन साफ कर अर्चना ने अपना बिस्तर लगाया और सोने की कोशिश करने लगी, उसे सुबह जल्दी उठना था, एक और जद्दोजेहद भरे दिन के लिए. वह कमर कस के तैयार थी. जब तक हाथपैर चलते रहेंगे, वह भी चलती रहेगी. उसे इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम वह किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाती.

अर्चना के होंठों पर एक संतुष्टि भरी फीकी मुसकान आ गई और उस ने आंखें मूंद लीं.

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अपराधिनी: क्या था उसका शैली के लिए उसका अपराध

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आगामी अतीत: भाग 1- आशीश को मिली माफी

तू ने अपनी लिस्ट बना ली… किसकिस को कार्ड भेजना है?’’ ज्योत्स्ना ने अपनी बेटी भावना से पूछा.

‘‘जी मम्मी, यह रही मेरी लिस्ट. पर एक कार्ड आप मुझे दे दीजिए, अपने एक खास दोस्त को भेजना है.’’

यह कह कर भावना ने  एक कार्ड लिया, अपना बैग उठाया, अपनी गाड़ी निकाली और अस्पताल की ओर चल दी.

भावना कार चला रही थी. उस की आंखों में अपने पापा का बीमार चेहरा, बढ़ी हुई दाढ़ी, कातर आंखें घूम रही थीं, जो शायद उस से क्षमायाचना कर रही थीं. उस के पापा कुछ समय पहले ही उस अस्पताल में दाखिल हुए थे जहां वह काम कर रही थी. उन्हें पक्षाघात हुआ था. उस के मम्मीपापा जब वह 15 साल की थी, एकदूसरे से अलग हो गए थे.

पापा तो मम्मी से अलग हो गए लेकिन उस का हृदय पापा की याद में तड़पता रहा था.

मम्मी के अथक प्रयास व कड़ी मेहनत ने उस के पैरों तले ठोस जमीन दी. वह डाक्टर बन गई. मम्मी के सामने पापा का नाम लेना भी मुश्किल था और वह इस को गलत भी नहीं समझती थी, आखिर जिस सहचर पर मम्मी को अथाह विश्वास था, जिस की उंगली पकडे़ वह जीवन डगर पर निश्ंिचत हो आगे बढ़ रही थीं, वही एक दिन चुपचाप अपनी उंगली छुड़ा कर चल देगा यह तो वह सोच भी नहीं सकती थीं. जीवनसाथी के धोखे के बाद तो मम्मी की दुनिया में उन की स्कूल की छोटी सी नौकरी और भावना के अलावा किसी के लिए भी जगह नहीं थी.

भावना गाड़ी खड़ी कर अपने केबिन में पहुंची तो बाहर मरीजों की भीड़ लगी हुई थी. उस की सहयोगी डाक्टर केबिन में बैठी हुई थी.

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‘‘हैलो, डा. आर्या, कैसी हैं आप?’’

‘‘फाइन, डाक्टर. आज आप को देर हो गई. मरीजों की भीड़ लगी है.’’

‘‘हां, शादी की तैयारी के चलते आजकल थोड़ी देर हो जाती है.’’

इस के बाद भावना कुछ घंटों के लिए तो अपनेआप को भी भूल गई. 1 बजे  तक मरीज निबटे. उस ने एक कप चाय मंगवाई, धीरेधीरे चाय पीते हुए वह अतीत के दलदल में धंसने लगी.

पापा के यों चले जाने से वह इतनी आहत हुई थी कि उस ने मन ही मन विवाह न करने का फैसला कर लिया था. उस ने सोचा कि वह डाक्टर है और मानव सेवा व मम्मी की देखभाल में अपना जीवन गुजार देगी.

डा. अमन ने कितने ही तरीकों से उस के सामने प्रणय निवेदन किया पर उस ने हर बार ठुकरा दिया. जब मम्मी को पता चला तो उन्होंने उसे विवाह करने के लिए बहुत समझाया पर वह किसी भी तरह से तैयार नहीं हुई. मम्मी के जीवन के भयावह अनुभवों से उस के अंदर वैवाहिक जीवन के प्रति भारी कड़वाहट भर गई थी, जिसे वह किसी तरह भी अपने अंदर से निकाल नहीं पा रही थी. थकहार कर मम्मी भी चुप हो गईं.

लगभग 6 महीने पहले वह अस्पताल का राउंड लगा रही थी कि उसे एक बेड पर जानापहचाना सा चेहरा नजर आया. कृशकाय शरीर, खिचड़ी दाढ़ी…दर्द से कुम्हलाया चेहरा, वह पहचानने की कोशिश करने लगी. दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि यह तो उस के पापा का चेहरा है. क्या वह इस हाल में…यहां हो सकते हैं? उस के दिमाग में जैसे भूचाल सा मच गया.

उस ने नर्स की ओर देख कर पूछा, ‘सिस्टर, इन्हें क्या हुआ है?’

‘डाक्टर…बाईं तरफ लकवा पड़ा है. अब तो कुछ ठीक हो गए हैं.’

‘क्या नाम है इस मरीज का?’ कहते हुए वह खुद सामने लटके चार्ट को देखने लगी.

‘आशीश शर्मा.’

चार्ट पर लिखा यह नाम जहर बुझे तीर की तरह उस के दिल के आरपार हो गया. संज्ञाशून्य सी वह अपने मरीजों को देख कर वापस चली आई थी.

उस का हृदय अपने पापा की ऐसी हालत देख कर करुणा से छटपटा गया था. यद्यपि वह उस के मरीज नहीं थे पर वह उन के केश में दिलचस्पी लेने लगी. वह जब भी डाक्टर से उन के बारे में बात करती तो इस बात का ध्यान रखती कि डाक्टर को यह न लगे कि वह इस मरीज में इतनी रुचि क्यों ले रही हैं. उस ने अपने पापा को भी यह आभास नहीं होने दिया कि वह उन को पहचान गई है.

उस के पापा लगभग डेढ़ महीना अस्पताल  में रहे. कई बार सोचा कि मम्मी को उन के बारे में बताए पर कहने की हिम्मत न जुटा सकी. उस को यह देख कर आश्चर्य होता कि पापा के 1-2 दोस्त ही उन से मिलने आते थे. एक दिन वह अस्पताल पहुंची तो उन का बिस्तर खाली था.

‘यह मरीज कहां गया, सिस्टर…’

‘उन को डिस्चार्ज कर दिया गया, डाक्टर. अब उन का इलाज घर से ही होगा…डाक्टर, आप के नाम मिस्टर आशीश एक पत्र दे गए हैं. क्या वह आप के जानने वाले थे?’

सिस्टर ने डा. भावना को एक पत्र थमा दिया. पत्र पकड़ते ही उस की टांगें थरथरा गईं. अपने को संभाल कर वह अपने केबिन में आ कर कुरसी में धंस गई. कांपते हाथों से उस ने पत्र खोला. लिखा था :

‘प्रिय भावना,

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तुम ने मुझे पहचाना हो या न पहचाना हो पर मैं तो तुम्हें पहले ही दिन पहचान गया था कि तुम मेरी बेटी, भावना हो. तुम्हें अपनी बेटी कहने का हक तो मैं बहुत पीछे छोड़ आया, लेकिन तुम्हारा पिता तो मैं ही हूं और यह मेरे लिए फख्र की बात है. बदनसीब हूं मैं…जो तुम जैसी बेटी को अपना नहीं कह सकता.

जिस के कारण तुम दोनों को छोड़ आया था वह तो मुझे छोड़ कर कभी की चली गई थी. भला अपनों का दिल दुखा कर किसी को सुख मिल सकता है कभी…यह भूल गया था मैं…तुम दोनों को अकेला छोड़ आया था, आज खुद भी अकेलेपन की सजा भुगत रहा हूं.

तुम दोनों मांबेटी का अपराधी हूं मैं…मेरा अपराध क्षमा के योग्य तो नहीं पर हो सके तो मुझे माफ कर देना…’

आगे के शब्द उस की आंसू भरी आंखों में धुंधला गए.

उस ने आंखें बंद कर पीछे सिर टिका दिया. आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. मम्मी का इतने सालों का अकेलापन, उन की छटपटाहट, अपने युवा हो रहे मन का बिना पापा के अजीब सा अकेलापन, भय सबकुछ मानसपटल पर उभर आया था. जिंदगी के वे सब लम्हे याद आ गए जब पापा की कमी शिद्दत से खली थी. बिना पुरुष के साथ के मम्मी को कई बार कमजोर पड़ते भी देखा था.

पापा के इतने बडे़ अपराध के बाद भी उस का मन उन्हें प्यार करता था लेकिन उन्हें माफ करने या न करने का अधिकार सिर्फ मम्मी को ही था. मम्मी यदि उन्हें माफ कर दें तो उस के लिए उन्हें फिर से अपनाना मुश्किल नहीं था.

पापा के माफीनामे को पढ़ने के बाद विवाह के प्रति जो नफरत की शिला उस के दिल पर पड़ी थी वह धीरेधीरे पिघलने लगी थी. उस ने डा. अमन को अपने आसपास आने की ढील  दे दी और अंत में उन का प्रणय निवेदन उस ने स्वीकार कर लिया था.

मम्मी उस की विवाह की स्वीकृति या खुशी से बौरा सी गईं. मां की बेरौनक जिंदगी में उस की खुशियां व सफलता ही तो रंग भर सकते थे, बाकी था ही क्या… पर पापा के बारे में जान कर उसे मम्मी की जिंदगी फिर भी अच्छी लग रही थी कि उन की जिंदगी में उस से जुड़ी खुशियां तो थीं. पापा की जिंदगी में तो कुछ भी नहीं था सिवा भीषण अकेलापन, अपने परिवार को छोड़ देने का दर्द और साथ में उन की इस बीमारी के, लेकिन  कैसे बताए मम्मी को…वह कई दिन तक इसी कशमकश में रही थी.

मम्मी उत्साहित हो उस की शादी की तैयारियों में लग गई थीं. वह दिनभर अस्पताल से थक कर चूर हो कर घर आती और बेसुध सी बिस्तर पर पड़ जाती. मम्मी की वह जरा भी मदद नहीं कर पा रही थी.

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आगामी अतीत: भाग 2- आशीश को मिली माफी

एक दिन रात को उस की नींद खुली, प्यास महसूस हुई तो पानी पीने के लिए उठ गई. बगल में नजर पड़ी तो बिस्तर खाली था. मम्मी शायद बाथरूम गई होंगी, सोच कर वह पानी पी कर लेट गई. थोड़ी देर तक जब मम्मी वापस नहीं आईं तो उस ने बाथरूम में झांका, वहां कोई नहीं था. वह बाहर आई, बालकनी में मम्मी कुरसी पर बैठीं, चुपचाप अंधेरे को घूर रही थीं.

‘मम्मी, आप यहां बैठी हैं, नींद नहीं आ रही है क्या?’  वह भी कुरसी खींच कर उन की बगल में बैठ गई, ‘शादी की तैयारियों के कारण आप बहुत थक गई हैं…अपना खयाल रखिए…’

कह कर उस ने मम्मी की तरफ देखा, धुंधलाती चांदनी में उन की आंखों का गीलापन उस ने लक्ष्य कर लिया.

‘क्या हुआ? मम्मी, आप रो रही थीं,’ उस ने स्नेह से पूछा, ‘मैं विदा होने वाली हूं इसलिए?’ उन का मूड ठीक करने के लिए उस ने हलका सा परिहास किया, ‘लेकिन मेरे विदा होने की नौबत नहीं आएगी…या तो अमन विदा हो कर यहां आएगा या फिर आप मेरे साथ चलेंगी.’

मम्मी की आंखों की नमी बूंद बन कर गालों पर लुढ़क गई. वह कोमलता से उन के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘मम्मी, क्या बात है?’

‘खुशी के आंसू हैं पगली…’ मम्मी हलका सा मुसकराईं, ‘हर लड़की विदा हो कर अपनी ससुराल जाती है. तू भी जाएगी. मैं तेरे साथ कैसे जा सकती हूं… मेरी शोभा तो अपने ही घर में रहने में है बेटा. यह तेरा मायका है. जबतब तू अपने मायके आएगी तो तेरे आने के लिए भी तो एक घर होना चाहिए. मेरे लिए तो यही खुशी की बात है कि तू इसी शहर में रहेगी और आतीजाती रहेगी.’

कहतेकहते मम्मी चुप हो गईं. वह साफ महसूस कर रही थी कि मम्मी अंधेरे में घूरते हुए अपने आंसू पीने का असफल प्रयास कर रही हैं.

‘मम्मी,’ वह धीरे से उन की हथेली अपने हाथों में ले कर सहलाती हुई बोली, ‘पापा की याद आ रही है न…’ कह कर उस ने मम्मी की प्रतिक्रिया देखने के लिए उन के चेहरे पर अपनी नजरें गड़ा दीं. पापा का नाम सुन कर हमेशा की तरह मम्मी इस बार भड़की नहीं, न ही कोई जवाब दिया, बस, चुपचाप अपने आंसू पोंछती रहीं.

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‘है न मम्मी…’ उन की तरफ से कोई जवाब नहीं आया. थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच चुप्पी पसर गई.

‘मम्मी, एक बात कहूं?’ मम्मी ने अपनी प्रश्नवाचक नजरें उस के चेहरे पर गड़ा दीं.

‘फर्ज करो कि यदि आज पापा लौट आएं और अपने किए की माफी मांगें तो क्या आप उन्हें माफ कर देंगी?’

नाजुक समय था, कोमल मूड था सो बिना भड़के बेटी का गाल थपक कर बोलीं, ‘तू क्यों बेकार की बात सोचती है भावना…वह हमारे ही होते तो जाते ही क्यों…और आना ही होता तो अभी तक क्यों नहीं आए…इतने सालों बाद तू उस इनसान को क्यों याद कर रही है? बेटी, तेरी नई जिंदगी शुरू होने जा रही है…अमन अच्छा लड़का है, तू बहुत खुश रहेगी.’

‘मैं ही नहीं मम्मी, हम दोनों ही तो उन को याद कर रहे हैं…’

सुन कर मम्मी की आंखें एक बार फिर बरस गईं. फिर आंसू पोंछ कर बोलीं, ‘सोच रही थी भावना कि ऐसा कौन सा क्षण रहा होगा, मेरी तरफ से ऐसी कौन सी कमी रह गई होगी, जब आशीश का पैर फिसला…और उस क्षण का खमियाजा हम को ताउम्र भुगतना पड़ा…वरना तेरे पापा के व मेरे रिश्ते कड़वाहट भरे कभी नहीं रहे. हम अपने वैवाहिक जीवन से खुश थे. वह औरत अगर उन के जीवन में नहीं आई होती और तेरे पापा भटके नहीं होते तो आज हमारी जिंदगी कितनी खुशहाल होती और मेरी जिंदगी की शाम इतनी अकेली नहीं होती…कैसे कटेगी आगे की जिंदगी…जिंदगी की शाम में जीवनसाथी की कमी सब से अधिक खलती है भावना…याद रखना, तुम और अमन एकदूसरे के प्रति हमेशा ईमानदार रहना और इतने करीब रहना कि बीच में कोई तीसरा अपनी जगह बना ही न पाए.’

‘‘क्या सोच रही हैं डा. भावना, ड्यूटी का समय खत्म हो गया है, घर नहीं जाना है क्या?’’

डा. आर्या का स्वर सुन कर भावना वर्तमान में लौट आई. आंखें खोलीं तो देखा, उस की सहयोगी डा. आर्या उसे आश्चर्य से देख रही थी.

‘‘क्या बात है डा. भावना, आप रो रही थीं?’’

‘‘नहींनहीं, बस, ऐसे ही…कुछ पुरानी बातें याद आ गई थीं…’’ वह अपनी गीली आंखें पोंछती हुई बोली. उस ने अपना बैग खोल कर अंदर रखा कार्ड दोबारा देखा, उस परची को भी देखा जिस पर उस ने पापा का पता लिखा था और जिसे उस ने अस्पताल के रिकार्ड से हासिल किया था. बैग कंधे पर डाल कर वह बाहर निकल गई.

आशीश शर्मा का पता ढूंढ़तेढूंढ़ते जब भावना उन के घर पहुंची तो शाम गहरा रही  थी. धड़कते हृदय से उस ने घंटी बजा दी. अंदर की आवाज पास आती हुई लग रही थी. थोड़ी देर बाद दरवाजा खुल गया. आशीश शर्मा उसे आश्चर्य व खुशी से भौचक हो निहार रहे थे.

‘‘तुम…तुम डा. भावना हो न?’’

‘‘हां, पापा,’’ वह कठिनाई से बोल पाई. बरसों बाद पापा बोलने के लिए उसे काफी प्रयास करना पड़ा.

‘‘आओ…अंदर आओ, बेटी…’’ आशीश शर्मा की खुशी का वेग उन के हावभाव से संभल नहीं पा रहा था. शायद वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें और क्या न करें.

हृदय में उठते तूफान को थामते हुए हाथ का कार्ड पकड़ाते हुए वह बोली,   ‘‘यह मेरी शादी का कार्ड है. आप जरूर आइएगा.’’

‘‘तुम्हारी शादी हो रही है…’’ वह खुशी से बोले. फिर कार्ड पकड़ते हुए धीरे से बोले, ‘‘तुम्हारी मम्मी जानती हैं सबकुछ…’’

‘‘हां…’’ वह झूठ बोल गई, ‘‘आप जरूर आइएगा,’’ कह कर वह बिना एक क्षण भी रुके वापस मुड़ गई.

आशीश शर्मा अंदर आ गए, थके हुए से वह कुरसी में धंस गए.

भावना एक आशा की किरण उन के दिल में जगा कर गुम हो गई थी. वह ही जानते हैं कि अपने परिवार से बिछड़ कर वह कितना तड़पे हैं…अपनी बड़ी होती बेटी को देखने के लिए उन्होंने कितनी कोशिश नहीं की…कितना कोसा उन्होंने खुद को, जब वह दामिनी के चंगुल में फंस गए थे…कैसा जाल फेंका दामिनी ने उन्हें फंसाने के लिए…उन की पत्नी एक शांत नदी की तरह थी और दामिनी थी बरसाती उफनता नाला, जो अपने सारे कगारों को तोड़ कर उन की तरफ बढ़ता रहा और वह स्वयं भी उस में बह गए.

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उस समय तो बस, दामिनी को पाना ही जैसे उन का एकमात्र लक्ष्य रह गया था. क्यों इतना आकर्षित हो गए थे वह उस समय दामिनी की तरफ…दामिनी की तड़कभड़क, अपने में समा लेने वाले उद्दाम सौंदर्य के पीछे वह उस की चरित्रहीनता और बददिमागी को नहीं देख पाए.

दामिनी के सामने उन्हें अपनी शांत सौम्य पत्नी बासी व श्रीहीन लगी थी. लगा, उस के साथ जीने में कोई मजा ही नहीं है. एकरस दिनचर्या…तनमन का एकरस साथ…तब नहीं समझा अपनी सीमाओं में रहने वाली नदी की तरह ही उन की पत्नी ने भी उन के जीवन को व उन के परिवार को सीमाओं में बांधा हुआ है.

दामिनी का साथ बहुत लंबे समय तक नहीं रह पाया. शुरू में तो वह दामिनी के सौंदर्य के सागर में डूब गए, लेकिन दामिनी के रूप का तिलिस्म अधिक नहीं रह पाया. धीरेधीरे प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत दामिनी का असली चेहरा उन के सामने खुलने लगा. अपनी जिस तनख्वाह में पत्नी व बेटी के साथ वह सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे, उसी तनख्वाह में दामिनी के साथ गृहस्थी की गाड़ी खींचना मुश्किल ही नहीं दूभर हो रहा था. उस के सैरसपाटे, बनावशृंगार व साडि़यों के खर्चे से वह परेशान हो गए थे. बात इतनी ही होती तो भी ठीक था. दामिनी परले दर्जे की झगड़ालू व बददिमाग थी. उन को हर पल दामिनी की  तुलना में ज्योत्स्ना याद आ जाती. धीरेधीरे उन के बीच की दूरियां बढ़ने लगीं. वह कब, कहां और क्यों जा रही है यह पूछना भी उन के बस की बात नहीं रह गई थी. पति की तरह वह उस पर कोई भी अधिकार नहीं रख पा रहे थे.

वे दोनों लगभग 5 साल तक एकसाथ रहे. इन 5 सालों में वह इस बात को अच्छी तरह समझ गए थे कि दामिनी के जीवन में फिर कोई आ गया है. वह उस को रोकना चाह कर भी रोक नहीं पाए या फिर शायद उन्होंने रोकना ही नहीं चाहा. तब पहली बार नकारे जाने का दर्द उन की समझ में आया था. सामाजिक मानमर्यादा के लिए इतने सालों तक वह किसी तरह दामिनी से बंधे रहे थे, लेकिन जब दामिनी ने उन्हें खुद ही छोड़ दिया तो उन्होंने भी रिश्ते को बचाने की कोई कोशिश नहीं की…दामिनी ने उन्हें तलाक दे दिया.

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