मौत को बांध रखा था

लेखक- प्रेम बजाज

करनाल में नामी फर्नीचर शोरूम, “लाल फर्नीचर” जिसकी करनाल, कुरूक्षेत्र, लाडवा, समालखा में कई ब्रांच थी.

शोरूम के मालिक शाह जी के नाम से जाने जाते, शाह जी का एक छोटा भाई अतुल इंग्लैंड रहता था.

यहां इंडिया में शाह जी का पत्नी और एक बेटी के अलावा और कोई रिश्तेदार नहीं था.

शाह जी बहुत बार छोटे भाई अतुल को इंडिया आने को कहते मगर अतुल एक ही जवाब देता,” भाई यहां इन्सान की कद्र उसके हुनर से है, उसकी पहचान उसकी काबलियत से है, इंडिया में इन्सान को केवल प्रापर्टी, धन-दौलत, जायदाद से ही अच्छा और बड़ा समझा जाता है, उसके हुनर की कोई कद्र नहीं, फिर ऐसे में कैसा भविष्य होगा इन्सान का? ”

और शाह जी चुप हो जाते, ऐसा नहीं वो ये बातें मानते थे, मगर वो बहस ना करना चाहते, वो समझते थे कि इन्सान की कीमत उसके गुणों से है.

शाह जी की बेटी निहारिका, शाह जी की ही तरह, किसी से कोई फालतू बात ना करनी, बस केवल अपने काम से काम रखना.

निहारिका ने जब कालिज में एडमिशन लिया, उसी की क्लास में सौरभ नाम का एक लड़का सुन्दर, सजीला जवान,  जब वो निहारिका को देखता है तो देखता ही रह जाता है, बेशक निहारिका साधारण सी, ना कोई मेकअप, ना कोई स्टाइलिश कपड़े.

फिर भी ना जाने उसमें क्या कशिश थी, वो निहारिका की तरफ खिंचने लगा, उसने कई बार कोशिश की, कि निहारिका से बात करे, और भी बहुत से लड़के निहारिका से बात करने की कोशिश करते, यहां तक कि कोई -कोई तो धमकी भी देता कि उससे बात करें, वरना वो उसे नुकसान पहुंचा सकते हैं.

कालिज ऐसा स्थान होता है जहां जोड़ियां बनते देर नहीं लगती. लेकिन निहारिका किसी को भी बात करने का अवसर तक ना देती. बस सुबह एक गाड़ी आती जिसमें एक अधेड़ उम्र का शख्स दिखने में ड्राइवर जैसा वो गाड़ी उसे छोड़ कर जाती और क्लास खत्म होते ही गाड़ी आ जाती और निहारिका चुपचाप उस गाड़ी में बैठ कर चली जाती.

ग्रेजुएशन के बाद  सौरभ ने  इंटिरियर डिजाइनर का कोर्स चुना जब सेंटर में गया तो देखा इत्तेफ़ाकन निहारिका भी इंटिरियर डिजाइनर का कोर्स करने आई है.

दोनों में हाए हैलो होती है, लेकिन इतना समय साथ रहने के बावजूद भी निहारिका ने किसी को भी अभी तक अपना फोन नंबर नही दिया था, किसी से अगर बात करनी हो तो केवल इंटरनेट से ही करती थी मैसेज द्वारा. इंटिरियर डिजाइनर का कोर्स दो साल का था, सौरभ को खुशी हुई कि इस बहाने दो साल निहारिका के साथ और रहने का मौका मिला.

इधर शाह जी की तबीयत कुछ खराब रहने लगी थी, कितनी बार पत्नी और बेटी ने डाक्टर को दिखाने को कहा, लेकिन शाह जी टालते रहे, उन्हें लगा शायद काम की अधिकता से थकावट हो जाती है.

लेकिन एक दिन निहारिका, ” पापा आज मैं क्लास नहीं जा रही, आप  जल्दी से तैयार हो जाएं, हम डाक्टर के पास चल रहे हैं”

शाह जी,” अच्छा बाबा मैं आज, अभी डाक्टर के पास जाऊंगा मगर तुम अपनी क्लास मिस मत करो”

निहारिका पापा से प्रोमिस लेकर क्लास चली गई और शाह जी चले बेटी से किया वादा निभाने डाक्टर के पास.

डाक्टर चैकअप करने के बाद कुछ टैस्ट करवाते हैं और रिपोर्ट आने पर शाह जी को पता चलता है कि उन्हें गुर्दे का कैंसर है, जो काफी ज्यादा फैल चुका है. शाह जी दवाई लेकर आते हैं, मगर यह बात किसी को नहीं बताते, बस इतना कहते हैं कि हल्का सा किडनी इनफैक्शन है जो डायलिसिस के बाद ठीक हो जाएगा. लेकिन   अब उन्हें निहारिका की चिंता सताती है, निहारिका का इंटिरियर का दूसरा साल चल रहा है, शाह जी उसे साथ-साथ एडवांस कम्प्यूटर कोर्स भी  करवाते हैं और उसकी सरकारी नौकरी की कोशिश करते हैं लेकिन यहां किस्मत साथ नहीं देती.

कहीं अगर शादी की बात करते हैं तो इकलौती बेटी होने की वजह से सबका ध्यान उनकी प्रोपर्टी की ओर जाता है. अक्सर यही सुनने में मिलता है कि निहारिका बहुत साधारण सी है लेकिन चलो प्रोपर्टी तो अच्छी खासी है इसलिए अच्छी जगह रिश्ता हो सकता है, अर्थात जो भी देखता प्रोपर्टी ही देखता.

इन‌सब बातों से शाह जी का मन खिन्न हो गया उन्होंने इंग्लैंड में अपने भाई से बात की तो उन्होंने कहा कि आइलेट का कोर्स करवा दें निहारिका को और यहां इंग्लैंड भेज दें वहां इन्सान की दौलत की नहीं,  इन्सान की कद्र है, उसके हुनर की कद्र है.

शाह जी निहारिका को आइलट्स का कोर्स करवा देते हैं, जिसमें निहारिका अच्छा रैंक लाती है.

शाह जी के पास समय बहुत कम रह गया है लेकिन किसी को भी इस बात की भनक नहीं. एक महीने बाद ही निहारिका को इंग्लैंड जाना है.

निहारिका पापा से बार-बार किडनी चेंज कराने को कहती हैं, लेकिन शाह जी नहीं मानते, क्योंकि वो जानते हैं ये कैंसर है किडनी चेंज भी होगा तो भी कैंसर फिर से होगा, इसलिए कहते हैं,” बस थोड़ी सी डायलिसिस और उसके बाद हमेशा के लिए छुट्टी, बिल्कुल ठीक”

धीरे-धीरे निहारिका के जाने का दिन नज़दीक आ रहा है, निहारिका पैकिंग करते हुए, ईश्वर से प्रार्थना भी कर रही है कि पापा को जल्द ठीक कर दें, और बार-बार पापा को भी देखती है. उसके पापा खुश हैं कि उनकी बेटी दहेज के कलंक से बच गई. यहां तो बेटियों को दहेज के खर्चे की लिस्ट और लड़कों को घर बैठे कमाई का जरिया माना जाता है.

आज निहारिका की फ्लाइट है और शाह जी की डायलिसिस की टर्न भी.

निहारिका, ” पापा आप जाईए अस्पताल, मैं एअरपोर्ट खुद चली जाऊंगी”

” ठीक है बेटा जाओ, खुश रहो”

निहारिका को आशीर्वाद देते हुए शाह जी अस्पताल के लिए चल दिए, लेकिन ना जाने क्यों निहारिका का मन बैचैन था, उसे ऐसा लगा जैसे वो पापा को आखिरी बार मिल रही है, शायद फिर कभी मेल ना हो.

सौरभ को रात को बुखार था  इसलिए रात भर अच्छे से नींद नहीं आई, सुबह जब कुछ बुखार कम हुआ तो नींद की झपकी आ गई, लेकिन अचानक मोबाइल की घररर-घरररर से नींद खुली तो देखा मैसेंजर काॅल था.

जैसे ही फोन उठाया हैलो बोलने से पहले ही उधर से आवाज़ आई,” पापा चले गए छोड़कर हमेशा के लिए”

सौरभ कुछ ना बोल सका, केवल सोचता रहा उस शख्स के बारे में जिसने अपनी बेटी को एक अच्छा भविष्य देने के लिए अपनी मौत को बांध कर रख लिया था. अपनी बेटी का सुनहरा भविष्य बनाकर अब वो फ्री हो गया, मुक्त हो गया हर चिंता से.

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ऐसे ही सही: भाग 3- क्यों संगीता को सपना जैसा देखना चाहता था

अगले दिन सुबह ही मैं उन की पत्नी और उन की 20 साल की बेटी को ले कर जाने लगा. उसी समय मुझे अचानक याद आ गया कि उन की फोटो मैं घर से लाना भूल गया जो कल रात ही मैं ने बनवाई थी. मैं जैसे ही घर पहुंचा तो संगीता ने पूछा, ‘‘आज इतनी जल्दी कैसे आ गए…मुझ पर तरस आ गया क्या?’’

मैं कुछ नहीं बोला और अपनी अलमारी से फोटो निकाल कर चला गया. उत्सुकतावश वह भी मेरे पीछेपीछे बाहर आ गई. मेरे कार में बैठने से पहले ही पूछने लगी, ‘‘कौन हैं और इस समय इन के साथ कहां जा रहे हो? कार कहां से मिल गई?’’

‘‘यह हमारे साहब की पत्नी हैं और पीछे उन की बेटी बैठी है. मैं इन के ही काम से जा रहा हूं.’’

‘‘ऐसा तो मैं ने पहले कभी नहीं सुना कि साहब अपनी खूबसूरत पत्नी और बेटी को कार सहित तुम्हारे साथ भेज दें. कहीं कुछ तो है. शक तो मुझे पहले से ही था. तुम ने सोचा घर पर मैं नहीं होऊंगी तो यहीं रंगरलियां मना ली जाएं और अगर मिल गई तो साहब का बहाना बना देंगे.’’

उन के सामने ऐसी बातें सुन कर मैं बेहद परेशान हो गया और शर्मिंदा भी. मैं ने बहुत कोशिश की कि वह  चुप हो जाए पर उसे तो जैसे लड़ने का नया बहाना मिल गया था. साहब की पत्नी भी संगीता को लगातार समझाने का प्रयत्न करती रहीं. मुझे ऐसी बेइज्जती महसूस हुई कि मेरी आंखों में आंसू आ गए. मेरे लिए वहां खड़ा हो पाना अब बेहद मुश्किल हो गया. मैं जैसे ही कार में बैठा तो वह अपनी चिरपरिचित तीखी आवाज में बोली, ‘‘मैं अब इस घर में एक मिनट भी नहीं रहूंगी.’’

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शाम को मैं जल्दी घर आ गया और जो होना चाहिए था वही हुआ. संगीता की मां और बहन बैठी मेरा इंतजार कर रही थीं. मैं उन्हें इस समय वहां देख कर चौंक गया पर खामोश रहा. अपने ऊपर लगाए गए आरोपों का विरोध करने की मुझ में हिम्मत नहीं थी क्योंकि मेरे विरोध करने का मतलब उन तीनों की तीखी और आक्रामक आवाज से अपने ही महल्ले में जलील होना.

‘‘मैं अपना हक लेना जानती हूं और कभी यहां वापस नहीं लौटूंगी,’’ कह कर वे तीनों वहां से चली गईं. सारा सामान वे ले गईं. स्त्रीधन और सारा सामान उस के हिस्से आया और मानसिक पीड़ा मेरे हिस्से में. अब मेरे लिए वहां रुकने का कोई प्रयोजन नहीं था. उसी शाम अपनी जरूरत भर की वस्तुओं को ले कर मैं अपने मातापिता के यहां आ गया.

मुझे इस वेदना से उभरने में काफी समय लग गया. इन्हीं दिनों 2-3 बार सपना के फोन आए थे जो मैं ने व्यस्त होने का बहाना बना कर टाल दिए.

अपने को व्यस्त रखने के लिए मैं ने सब से पहला काम शर्माजी का विज्ञापन स्थानीय अखबार में दे दिया. पासपोर्ट से ले कर सभी सुविधाओं का विवरण था. एलआईसी का एजेंट  होने के नाते मुझे दिन में 2 घंटे ही आफिस जाना होता था.

इस विज्ञापन के प्रकाशित होते ही मेरे पास आशाओं से अधिक फोन आने लग गए. मैं बहुत उत्साहित था. लोग अपनी समस्याओं को सुनाते और मैं उस से संबंधित पेपर ले कर शाम को शर्माजी के पास पहुंच जाता. इस प्रकार हफ्ते में 2 बार जा कर अपना काम सौंप कर पुराना काम ले आता.

दिन बीतते गए. मैं जब भी घर पहुंचता, सपनाजी अपनी कई बातें मुझ से कहतीं. अपना कोई न कोई काम मुझे देती रहतीं. शाम को कई बार ऐसा संयोग होता कि वह रास्ते में ही मुझ से मिल जातीं और मेरे साथ ही घर आ जातीं. कभीकभी उन का कोई ऐसा काम फंस जाता जो वह नहीं कर सकतीं तो उसे मुझे ही करना पड़ता था.

एक दिन दोपहर को मुझे किसी जरूरी काम से शर्माजी के घर जाना पड़ा. मैं ने देखा बड़ी तल्लीनता से वह सब कागज फैला कर अपना काम करने में व्यस्त थे. मुझे बड़ी खुशी हुई कि शायद उन की जीवन के प्रति नकारात्मक सोच में बदलाव हो गया. सपनाजी पास ही बैठी उन्हें पैड पकड़ा रही थीं. मेरे वहां पहुंचते ही वह हंस कर बोलीं, ‘‘जानते हो, इन दिनों यह बहुत खुश रहते हैं. मुझे तो पूछते भी नहीं.’’

‘‘तुम ऐसा मौका ही कहां देती हो. बस, सवेरे उठ कर तैयार हो जाती हो और चल देती हो. दोपहर तक स्कूल में फिर शाम को बाहर घूमने चली जाती हो.’’

‘‘यह तो आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि कितना काम हो जाता है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं कि तुम क्या करती हो.’’

कहतेकहते अपने सारे कागज एक तरफ रख कर मुझे घूरने लगे, जैसे भीतर उठी खीज को दबा लिया हो. वह जिन नजरों से मुझे देख रहे थे, मुझे बड़ी बेचैनी महसूस होने लगी. मैं ने विज्ञापन देने से पहले ही सपनाजी  को पता और फोन नंबर देने के लिए कहा था. सपनाजी भी अपनी जगह ठीक थीं. कहने लगीं कि घर पर आने वाले सभी व्यक्तियों को शर्माजी की हालत के बारे में पता चल जाएगा. घर पर मैं और बेटी ही रहती हैं तो कोई कुछ भी कर सकता है. मैं चुप रहा था.

मैं ने औपचारिकता निभाते हुए नया काम दिया और जाने लगा तो सपनाजी बोलीं, ‘‘कहां तक जा रहे हैं आप?’’

‘‘अब तो आफिस ही जाऊंगा,’’ मैं ने सरलता से कहा.

‘‘क्या आप मुझे सिविल लाइंस तक छोड़ देंगे?’’ उन्होंने पूछा.

मैं इनकार नहीं कर सका. शर्माजी टीवी पर मैच देखने में व्यस्त हो गए.

सपनाजी तैयार हो कर आईं और अपना बैग उठा कर बोलीं, ‘‘मैं ममता के घर जा रही हूं. उस के बेटे का जन्मदिन है. आप का उस तरफ का कोई काम हो तो…’’

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‘‘जाओजाओ. तुम्हें तो बस, घूमने का बहाना चाहिए. मैं घर पर पड़ा सड़ता रहूं पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है,’’ कहतेकहते उन की आवाज तेज और मुद्रा आक्रामक हो गई, ‘‘तुम क्या समझती हो. मैं कुछ जानता नहीं हूं. तुम्हें बाहर जाने की छूट क्या दी तुम ने तो इस का नाजायज फायदा उठाना शुरू कर दिया…मुझे तुम्हारा इस तरह गैर मर्दों के साथ जाना एकदम अच्छा नहीं लगता.’’

सपनाजी  एकदम सहम गईं. आंखों में आंसू भर कर चुपचाप भीतर चली गईं. शर्माजी का ऐसा रौद्र रूप मैं ने कभी नहीं देखा था.

अचानक वातावरण में भयानक सन्नाटा पसर गया. मैं पाषाण बना चुपचाप वहीं बैठा रहा. नारी शायद हर संबंधों को सीमाओं में रह कर निभा लेती है पर पुरुष इतना सहज और सरल नहीं होता. शक की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी

डर कहीं मेरे भीतर भी बैठ गया था. मौका देख कर मैं ने कहा, ‘‘सर, अब रोजरोज मेरा आना संभव नहीं है. और अब तो आप भी सभी कामों को अच्छी तरह समझ गए हैं. फिर बहुत जल्दी मेरा तबादला भी होने वाला है. आगे से सभी लोगों को मैं आप के पास ही भेज दिया करूंगा,’’ वह मुझे अजीब सी नजरों से देखने लगे पर कहा कुछ नहीं.

वहां से उठतेउठते ही मैं ने कहा, ‘‘साहब, मेरा कहासुना माफ करना. मुझ से जो बन पड़ा, मैं ने किया.’’

मैं दबे पांव वहां से निकल जाना चाहता था. गेट खोल कर जैसे ही स्कूटर स्टार्ट किया, सपनाजी धीरे से दूसरे कमरे से निकल कर मेरे पास आ गईं और बेहद कोमल स्वर में बोलीं, ‘‘आप ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है उस का एहसान तो नहीं चुका सकती पर भूलूंगी भी नहीं. शर्माजी की बातों का बुरा मत मानना,’’ कहतेकहते वह अपराधी मुद्रा में तब तक खड़ी रहीं जब तक मैं चला नहीं गया. मैं भारी मन और उदास चेहरे से वहां से चला गया.

सच, अपने हिस्से की पीड़ा तो स्वयं ही भोगनी पड़ती है. झूठे आश्वासनों के अलावा हम कुछ नहीं दे सकते. कोई किसी की पीड़ा को बांट भी नहीं सकता. उस के बाद मैं उस घर में कभी नहीं गया. यह जीवन का एक ऐसा यथार्थ था जिसे मैं नजरअंदाज नहीं कर सकता. यदि इस दुनिया में यही जीने का ढंग और संकीर्ण मानसिकता है तो ऐसे ही सही.

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नीड़: भाग 3- सिद्धेश्वरीजी क्या समझ आई परिवार और घर की अहमियत

सिद्धेश्वरीजी के पैरों में मोच आई थी. प्राथमिक चिकित्सा के बाद उन्हें घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उन के घर पहुंचने से पहले ही बहू और बेटे ने, उन की सुविधानुसार कमरे की व्यवस्था कर दी थी. समीर और शालिनी ने अपना बैडरूम उन्हें दे दिया था क्योंकि बाथरूम बैडरूम से जुड़ा था. वे दोनों किनारे वाले बैडरूम में शिफ्ट हो गए थे. सिरहाने रखे स्टूल पर बिस्कुट का डब्बा, इलैक्ट्रिक कैटल, मिल्क पाउडर और टी बैग्स रख दिए गए. चाय की शौकीन सिद्धेश्वरीजी जब चाहे चाय बना सकती थीं. उन्हें ज्यादा हिलनेडुलने की भी जरूरत नहीं थी. पलंग के नीचे समीर ने बैडस्विच लगवा दिया था. वे जैसे ही स्विच दबातीं, कोई न कोई उन की सेवा में उपस्थित हो जाता.

अगले दिन तक नेहा और जमाई बाबू भी पहुंच गए. घर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. उन के आने से समीर और शालिनी को भी काफी राहत मिल गई थी. कुछ समय के लिए दोनों दफ्तर हो आते. नेहा मां के पास बैठती तो स्वाति अस्पताल हो आती थी. इन दिनों उस की इन्टर्नशिप चल रही थी. अस्पताल जाना उस के लिए निहायत जरूरी था. शाम को सभी उन के कमरे में एकत्रित होते. कभी ताश, कभी किस्सेकहानियों के दौर चलते तो घंटों का समय मिनटों में बदल जाता. वे मंदमंद मुसकराती अपनी हरीभरी बगिया का आनंद उठाती रहतीं. सिद्धेश्वरीजी एक दिन चाय पी कर लेटीं तो उन का ध्यान सामने खिड़की पर बैठे कबूतर की तरफ चला गया. खिड़की के जाली के किवाड़ बंद थे, जबकि शीशे के खुले थे. मुश्किल से 5 इंच की जगह रही होगी जिस पर वह पक्षी बड़े आराम से बैठा था. तभी नेहा और शालिनी कमरे में आ गईं, बोलीं, ‘‘मां, इस कबूतर को यहां से उड़ाना होगा. यहां बैठा रहा तो गंदगी फैलाएगा.’’

‘‘न, न. इसे उड़ाने की कोशिश भी मत करना. अब तो चैत का महीना आने वाला है. पक्षी जगह ढूंढ़ कर घोंसला बनाते हैं.’’

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उन की बात सच निकली. देखा, एक दूसरा कबूतर न जाने कहां से तिनके, घास वगैरह ला कर इकट्ठे करने लगा. वह नर व मादा का जोड़ा था. मादा गर्भवती थी. नर ही उस के लिए दाना लाता था और चोंच से उसे खिलाता था. सिद्धेश्वरीजी मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें देखतीं. पक्षियों को नीड़ बनाते देख उन्हें अपनी गृहस्थी जोड़ना याद आ जाता. उन्होंने भी अपनी गृहस्थी इसी तरह बनाई थी. रमानंदजी कमा कर लाते, वे बड़ी ही समझदारी से उन पैसों को खर्चतीं. 2 देवर, 2 ननदें ब्याहीं. मायके से जो भी मिला, वह ननदों के ब्याह में चढ़ गया. लोहे के 2 बड़े संदूकों को ले कर अपने नीड़ का निर्माण किया. बच्चे पढ़ाए. उन के ब्याह करवाए. जन्मदिन, मुंडन-क्या नहीं निभाया.  खैर, अब तो सब निबट गया. बच्चे अपनेअपने घर में सुख से रह रहे हैं. उन्हें भी मानसम्मान देते हैं. हां, एक कसक जरूर रह गई. अपने मकान की. वही नहीं बन पाया. बड़ा चाव था उन्हें अपने मकान का.  मनपसंद रसोई, बड़ा सा लौन, पीछे आंगन, तुलसीचौरा, सूरज की धूप की रोशनी, खिड़की से छन कर आती चांदनी और खिड़की के नीचे बनी क्यारी व उस क्यारी में लगी मधुमालती की बेल.

वे बैठेबैठे बोर होतीं. करने को कुछ था नहीं. एक दिन उन्होंने कबूतरी की आवाज देर तक सुनी. वह एक ही जगह बैठी रहती. अनिरुद्ध उन के कमरे में आया तो अतिउत्साहित, अति उत्तेजित स्वर में बोला, ‘‘बड़ी मां, कबूतरी ने घोंसले में अंडा दिया है.’’

‘‘इसे छूना मत. कबूतरी अंडे को तब तक सहेजती रहेगी जब तक उस में से बच्चे बाहर नहीं आ जाते.’’

अनिरुद्ध पीछे हट गया था. उन्हें इस परिवार से लगाव सा हो गया था. जैसे मां अपने बच्चे के प्रति हर समय आशंकित सी रहती है कि कहीं उस के बच्चे को चोट न लग जाए, वैसे ही उन्हें भी हर पल लगता कि इन कबूतरों के उठनेबैठने से यह अंडा मात्र 4 इंच की जगह से नीचे न गिर जाए. एक दिन उस अंडे से एक बच्चा बाहर आया. सिर्फ उस की चोंच, आंखें और पंजे दिखाई दे रहे थे. अब कबूतर का काम और बढ़ गया था. वह उड़ता हुआ जाता और दाना ले आता. कबूतरी, एकएक दाना कर के उस बच्चे को खिलाती जाती. सिद्धेश्वरीजी ने अनिरुद्ध से कह कर उन कबूतरों के लिए वहीं खिड़की पर, 2 सकोरों में दाने और पानी की व्यवस्था करा दी थी. अब कबूतर का काम थोड़ा आसान हो गया था.

सिद्धेश्वरीजी अनजाने ही उस कबूतर जोड़े की तुलना खुद से करने लगी थीं. ये पक्षी भी हम इंसानों की तरह ही अपने बच्चों के प्रति समर्पित होते हैं. फर्क यह है कि हमारे सपने हमारे बच्चों के जन्म के साथ ही पंख पसारने लगते हैं. हमारी अपेक्षाएं और उम्मीदें भी हमारे स्वार्थीमन में छिपी रहती हैं. इंसान का बच्चा जब पहला शब्द मुंह से निकालता है तो हर रिश्ता यह उम्मीद करता है कि उस प्रथम उच्चारण में वह हो. जैसे, मां चाहती है बच्चा ‘मां’ बोले, पापा चाहते हैं बच्चा ‘पापा’ बोले, बूआ चाहती हैं ‘बूआ’ और बाबा चाहते हैं कि उन के कुलदीपक की जबान पर सब से पहले ‘बाबा’ शब्द ही आए. हम उस के हर कदम में अपना बचपन ढूंढ़ते हैं. अपनी पसंद के स्कूल में उस का ऐडमिशन कराते हैं.

यह हमारा प्रेम तो है पर कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ भी है. उस का भविष्य बनाने के लिए किसी अच्छे व्यावसायिक संस्थान में उसे पढ़ाते हैं. उस की तरक्की से खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं. समाज में हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है. हम अपनी मरजी से उस का विवाह करवाना चाहते हैं. यदि बच्चे अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं तो हमारा उन से मनमुटाव शुरू हो जाता है, हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा को बट्टा जो लग जाता है. हमारी संवेदनाओं को ठेस पहुंचती है. बच्चे बड़े हो जाते हैं, हमारी अपेक्षाएं वही रहती हैं कि वे हमारे बुढ़ापे का सहारा बनें. हमारे उत्तरदायित्व पूरे करें. हमारे प्रेम, हमारी कर्तव्यपरायणता के मूल में कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ निहित है. कुछ दिन बाद उस बच्चे के छोटे पंख दिखाई देने लगे. फिर पंख थोड़े और बड़े हुए. अब उस ने स्वयं दाना चुगना शुरू कर दिया था. फिर एक दिन उस के मातापिता उसे साथ ले कर उड़ने लगे. तीनों विहंग छोटा सा चक्कर लगाते और फिर लौट आते वापस अपने नीड़ में.

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धीरेधीरे सिद्धेश्वरीजी की तबीयत सुधरने लगी. अब वे घर में चलफिर लेती थीं. अपना काम भी स्वयं कर लेती थीं. रमानंदजी को नाश्ता भी बना देती थीं. घर के कामों में शालिनी की सहायता भी कर देती थीं. अब यह घर उन्हें अपना सा लगने लगा था. दिन स्वाति उन्हें अस्पताल ले गई. मोच तो ठीक हो गई थी. फिजियोथेरैपी करवाने के लिए डाक्टर ने कहा था, सो प्रतिदिन स्वाति ही उन्हें ले जाती. वापसी में समीर अपनी गाड़ी भेज देता. अब ये सब भला लगता था उन्हें.

एक दिन उन्होंने देखा, कबूतर उड़ गया था. वह जगह खाली थी. अब वह नीड़ नहीं मात्र तिनकों का ढेर था. क्योंकि नीड़ तो तब था जब उस में रहने वाले थे. मन में अनेक सवाल उठने लगे, क्या वह बच्चा हमेशा उन के साथ रहेगा? क्या वह बड़ा हो कर मातापिता के लिए दाना लाएगा? उन की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाएगा? इसी बीच उन के मस्तिष्क में एक ऋषि और राजा संवाद की कुछ पंक्तियां याद आ गई थीं. ऋषि ने राजा से कहा था, ‘‘हे राजा, हम मनुष्य अपने बच्चों का भरणपोषण करते हैं, परंतु योग माया द्वारा भ्रमित होने के कारण, उन बच्चों से अपेक्षाएं रखते हैं. पक्षी भी अपने बच्चों को पालते हैं पर वे कोई अपेक्षा नहीं रखते क्योंकि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं और न ही माया में बंधे हैं.’’

उन्होंने खिड़की खोल कर वहां सफाई की और घोंसला हटा दिया. धीरेधीरे तेज हवाएं चलने लगीं. उन्होंने खिड़की बंद कर दी. कुछ दिन बाद कबूतर का एक जोड़ा फिर से वहां आ गया. अपना नीड़ बनाने. वे मन ही मन सुकून महसूस कर रही थीं. अब फिर घोंसला बनेगा, कबूतरी अंडे देगी, उन्हें सेना शुरू करेगी, अंडे में से चूजा निकलेगा, फिर पर निकलेंगे और फिर कबूतर उड़ जाएगा और कपोत का जोड़ा टुकुरटुकुर उस नीड़ को निहारता रह जाएगा, उदास मन से. ठंड बढ़ने के साथसाथ मोच वाले स्थान पर हलकी सी टीस एक बार फिर से उभरने लगी थी. परिवार में उन की हालत सब के लिए चिंता का विषय बनी हुई थी. रमानंदजी आयुर्वेद के तेल से उन के टखनों की मालिश कर रहे थे. स्वाति ने एक अन्य डाक्टर से उन के लिए अपौइंटमैंट ले लिया था. सिद्धेश्वरीजी ने उसे रोकने की कोशिश की, तो वह उन्हें चिढ़ाते हुए बोली, ‘‘बड़ी मां, टांग का दर्द ठीक होगा तभी तो गांव जाएंगी न.’’

स्वाति समेत सभी खिलखिला कर हंसने लगे थे. नौकर गरम पानी की थैली दे गया तो सिद्धेश्वरीजी पलंग पर लेट कर सोचने लगीं, ‘सही कहते हैं बड़ेबुजुर्ग, घर चारदीवारी से नहीं बनता, उस में रहने वाले लोगों से बनता है.’ घोंसला अवश्य उन का अस्थायी रहा पर वे तो भरीपूरी हैं. बेटेबहू, पोतेपोती से खुश, संतप्त भाव से एक नजर उन्होंने रमानंदजी की दुर्बल काया पर डाली, फिर दुलार से हाथ फेरती हुई बुदबुदाईं, ‘उन का जीवनसाथी तो उन के साथ है ही, उन के बच्चे भी उन के साथ हैं. अब उन्हें किसी नीड़ की चाह नहीं. जहां हैं सुख से हैं, संतुष्ट और संतप्त.’ उन्होंने कामवाली बाई से कह कर बक्से में से सामान निकलवाया और अलमारी में रखवा दिया. और फिर मीठी नींद के आगोश में समा गईं.

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नीड़: भाग 2- सिद्धेश्वरीजी क्या समझ आई परिवार और घर की अहमियत

धीरेधीरे स्वाति ने उन से बात करना कम कर दिया. वह उन से दूर ही छिटकी रहती. वे कुछ कहतीं तो उन की बातें एक कान से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती. पोती के बाद उन का विरोध अपनी बहू से भी था. उसे सीधेसीधे टोकने के बजाय रमानंदजी से कहतीं, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है बहू ने स्वाति को. मुझे तो डर है, कहीं उस की वजह से इन दोनों की नाक न कट जाए.’ रमानंदजी चुपचाप पीतल के शोपीस चमकाते रहते. सिद्धेश्वरीजी का भाषण निरंतर जारी रहता, ‘बहू खुद भी तो सारा दिन घर से बाहर रहती है. तभी तो, न घर संभल पा रहा है न बच्चे. कहीं नौकरों के भरोसे भी गृहस्थी चलती है?’

‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में 2 घंटे उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ता है. अब काम चाहे 2 घंटे का हो या 4 घंटे का, आवाजाही में भी समय निकलता है.’

‘जरूरत क्या है नौकरी करने की? समीर अच्छा कमाता ही है.’

‘अब इस उम्र में बहू मनकों की माला तो फेरने से रही. पढ़ीलिखी है. अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का अवसर मिलता है तो क्यों न करे. अच्छा पैसा कमाती है तो समीर को भी सहारा मिलता है. यह तो हमारे लिए गौरव की बात है.’ इधर, रमानंदजी ने अपनेआप को सब के अनुसार ढाल लिया था. मजे से पोतापोती के साथ बैठ कर कार्टून फिल्में देखते, उन के लिए पिज्जा तैयार कर देते. बच्चों के साथ बैठ कर पौप म्यूजिक सुनते. पासपड़ोस के लोगों से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. जब भी मन करता, उन के साथ ताश या शतरंज की बाजी खेल लेते थे.

बहू के साथ भी उन की खूब पटती थी. रमानंदजी के आने से वह पूरी तरह निश्चिंत हो गई थी. अनिरुद्ध को नियमित रूप से भौतिकी और रसायनशास्त्र रमानंदजी ही पढ़ाते थे. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट भी उन्होंने ही तैयार करवाई थी. बच्चों को छोड़ कर शालिनी पति के साथ एकाध दिन दौरे पर भी चली जाती थी. रमानंदजी को तो कोई असुविधा नहीं होती थी पर सिद्धेश्वरीजी जलभुन जाती थीं. झल्ला कर कहतीं, ‘बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है.’

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रमानंदजी चुप रहते, तो वे और चिढ़ जातीं, ‘अपने दिन याद हैं? अम्मा जब गांव से आती थीं तो हम दोनों का घूमनाफिरना तो दूर, साड़ी का पल्ला भी जरा सा सिर से सरकता तो वे रूठ जाती थीं.’

‘अपने दिन नहीं भूला हूं, तभी तो बेटेबहू का मन समझता हूं.’

‘क्या समझते हो?’

‘यही कि अभी इन के घूमनेफिरने के दिन हैं. घूम लें. और फिर बहू हमारे लिए पूरी व्यवस्था कर के जाती है. फिर क्या परेशानी है?’

‘परेशानी तुम्हें नहीं, मुझे है. बुढ़ापे में घर संभालना पड़ता है.’

‘जरा सोचो, बहू तुम्हारे पर विश्वास करती है, इसीलिए तो तुम्हारे भरोसे घर छोड़ कर जाती है.’

सिद्धेश्वरीजी को कोई जवाब नहीं सूझता था. उन्हें लगता, पति समेत सभी उन के खिलाफ हैं.

दरअसल, वे दिल की इतनी बुरी नहीं हैं. बस, अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्त्व जतलाने की आदत से मजबूर थीं. उन की मरजी के बिना घर का पत्ता तक नहीं हिलता था. यहां तक कि रमानंदजी ने भी कभी उन से तर्क नहीं किया था. बेटे के यहां आ कर उन्होंने देखा, सभी अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं, तो उन्हें थोड़ी सी कोफ्त हुई. उन्हें ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे अब एक अस्तित्वविहीन सा जीवन जी रही हों. पिछले हफ्ते से एक और बात ने उन्हें परेशान कर रखा था. स्वाति को आजकल मार्शल आर्ट सीखने की धुन सवार हो गई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की तो वह उग्र स्वर में बोली, ‘बड़ी मां, आज के जमाने में अपनी सुरक्षा के लिए ये सब जरूरी है. सभी सीख रहे हैं.’

पोती की ढिठाई देख कर सिद्धेश्वरीजी सातवें आसमान से सीधी धरातल पर आ गिरीं. उस से भी अधिक गुस्सा आया अपने बहूबेटे पर, जो मूकदर्शक बने सारा तमाशा देख रहे थे. बेटी को एक बार टोका तक नहीं. और अब, इस हरिया माली की, गुलाब का फूल न तोड़ने की हिदायत ने आग में घी डालने जैसा काम किया था. एक बात का गुस्सा हमेशा दूसरी बात पर ही उतरता है, इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी.

‘‘मां, हम बाहर जा रहे हैं. कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

सिद्धेश्वरीजी मुंह फुला कर बोलीं, ‘‘इन्हें क्या मंगाना होगा? इन के लिए पान का जुगाड़ तो माली, नौकर यहां तक कि ड्राइवर भी कर देते हैं. हमें ही साबुन, क्रीम और तेल मंगाना था. पर कहें किस से? समीर भी आजकल दौरे पर रहता है. पिछले महीने जब आया था तो सब ले कर दे गया था. जिस ब्रैंड की क्रीम, पाउडर हम इस्तेमाल करते हैं वही ला देता है.’’

‘‘मां, हम आप की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं. फिर भी कुछ खास चाहिए तो बता क्यों नहीं देतीं? समीर से कहने की क्या जरूरत है?’’

बहू की आवाज में नाराजगी का पुट था. पैर पटकती वह घर से बाहर निकली, तो रमानंदजी का सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट पत्नी पर उतरी, ‘‘सुन लिया जवाब. मिल गई संतुष्टि. कितनी बार कहा है, जहां रहो वहीं की बन कर रहो.  पिछली बार जब नेहा के पास मुंबई गई थीं तब भी कम तमाशे नहीं किए थे तुम ने. बेचारी नेहा, तुम्हारे और जमाई बाबू के बीच घुन की तरह पिस कर रह गई थी. हमेशा कोई न कोई ऐसा कांड जरूर करती हो कि वातावरण में सड़ी मच्छी सी गंध आने लगती है.’’ पछता तो सिद्धेश्वरीजी खुद भी रही थीं, सोच रही थीं, बहू के साथ बाजार जा कर कुछ खरीद लाएंगी. अगले हफ्ते मेरठ में उन के भतीजे का ब्याह है. कुछ ब्लाउज सिलवाने थे. जातीं तो बिंदी, चूडि़यां और पर्स भी ले आतीं. बहू बाजार घुमाने की शौकीन है. हमेशा उन्हें साथ ले जाती है. वापसी में गंगू चाट वाले के गोलगप्पे और चाटपापड़ी भी जरूर खिलाती है.

रमानंदजी को तो ऐसा कोई शौक है नहीं. लेकिन अब तो सब उलटापुलटा हो गया. क्यों उन्होंने बहू का मूड उखाड़ दिया? न जाने किस घड़ी में उन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई और घर छोड़ने की बात कह दी? सब से बड़ी बात, इस घर से निकल कर जाएंगी कहां? लखनऊ तो कब का छोड़ चुकीं. आज तक गांव में एक हफ्ते से ज्यादा कभी नहीं रहीं. फिर, पूरा जीवन कैसे काटेंगी? वह भी इस बुढ़ापे में, जब शरीर भी साथ नहीं देता है. शुरू से ही नौकरों से काम करवाने की आदी रही हैं. बेटेबहू के घर आ कर तो और भी हड्डियों में जंग लग गया है.

सभी चुपचाप थे. शालिनी रसोई में बाई के साथ मिल कर रात के खाने की तैयारी कर रही थी. और स्वाति, जिस की वजह से यह सारा झमेला हुआ, मजे से लैपटौप पर काम कर रही थी. सिद्धेश्वरीजी पति की तरफ मुखातिब हुईं और अपने गुस्से को जज्ब करते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम भी सामान बांध लो.’’

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‘‘किसलिए?’’ रमानंदजी सहज भाव से बोले. उन की नजरें अखबार की सुर्खियों पर अटकी थीं.

‘‘हम, आज शाम की गाड़ी से ही चले जाएंगे.’’

रमानंदजी ने पेपर मोड़ कर एक तरफ रखा और बोले, ‘‘तुम जा रही हो, मैं थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘मतलब, तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘नहीं,’’ एकदम साफ और दोटूक स्वर में रमानंदजी ने कहा, तो सिद्धेश्वरीजी बुरी तरह चौंक गईं. उन्हें पति से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन उन का आत्मबल गिरने लगा. गांव जा कर, बंद घर को खोलना, साफसफाई करना, चूल्हा सुलगाना, राशन भरना उन्हें चांद पर जाने और एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक कठिन और जोखिम भरा लग रहा था. पर क्या करतीं, बात तो मुंह से फिसल ही गई थी. पति के हृदयपरिवर्तन का उन्हें जरा भी आभास होता तो यों क्षणिक आवेश में घर छोड़ने का निर्णय कभी न लेतीं. हिम्मत कर के वे उठीं और अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बैग में रख लिए. ड्राइवर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया. कार स्टार्ट होने ही वाली थी कि स्वाति बाहर निकल आई. ड्राइवर से उतरने को कह कर वह स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और सधे हाथों से स्टीयरिंग थाम कर कार स्टार्ट कर दी. सिद्धेश्वरीजी एक बार फिर जलभुन गईं. औरतों का ड्राइविंग करना उन्हें कदापि पसंद नहीं था. बेटा या पोता, कार ड्राइव करे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. वे यह मान कर चलती थीं कि ‘लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए. यही उन्हें शोभा देता है.’

इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया. कार स्टेशन पर आ कर रुकी तो सिद्धेश्वरीजी उतर गईं. तुरतफुरत अपना बैग उठाया और सड़क पार करने लगीं. उतावलेपन में पोती को साथ लेने का धैर्य भी उन में नहीं रहा. तभी अचानक एक कार…पीछे से किसी ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया. और वे एकदम से दूर जा गिरीं. फिर उन्हीं हाथों ने सिद्धेश्वरीजी को सहारा दे कर कार में बिठाया. ऐसा लगा जैसे मृत्यु उन से ठीक सूत भर के फासले से छू कर निकल गई हो. यह सब कुछ दो पल में ही हो गया था. उन का हाथ थाम कर खड़ा करने और कार में बिठाने वाले हाथ स्वाति के थे. नीम बेहोशी की हालत से उबरीं तो देखा, वे अस्पताल के बिस्तर पर थीं. रमानंदजी उन के सिरहाने बैठे थे. समीर और शालिनी डाक्टरों से विचारविमर्श कर रहे थे. और स्वाति, दारोगा को रिपोर्ट लिखवा रही थी. साथ ही वह इनोवा कार वाले लड़के को बुरी तरह दुत्कारती भी जा रही थी. ‘‘दारोगा साहब, इस सिरफिरे बिगड़ैल लड़के को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइएगा. कुछ दिन हवालात में रहेगा तो एहसास होगा कि कार सड़क पर चलाने के लिए होती है, किसी की जान लेने के लिए नहीं. अगर मेरी बड़ी मां को कुछ हो जाता तो…?’’

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मैं हारी कहां: भाग 4- उस औरत का क्या था प्रवीण के साथ रिश्ता

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

उन दोनों की बात सुन मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया. जड़वत हो कर अपने साथ हुई इस धोखे की दास्तां को खुद अपनी आंखों से देख रही थी और मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. ये ऐसे बेशर्म लोग हैं, जो अपने प्यार भरे रिश्तों के साथ ऐसा खिलवाड़ करेंगे… मैं गुस्से और नफरत से कांप रही थी.

तभी पीछे से आवाज आई, ‘‘सुनिए, आप कौन?’’ मैं पूरी तरह से उस इंसान को देख भी नहीं पाई और वहीं गिर कर बेहोश हो गई.

जब आंख खुली तो सामने बेला दीदी और आर्मी यूनीफौर्म में एक फौजी को देखा, दीदी को देख मैं खुद को रोक ना सकी और रोने लगी.

‘‘क्या हुआ मेरी गुडि़या क्यों रो रही हो… अभी कुछ समय पहले खुशी से रो रही थी और अभी ऐसे… प्लीज बताओ क्या हुआ?’’

मैं ने दुख और क्रोध में रोते हुए पूरी बात दीदी को बता दी. यह भी नहीं सोचा कि सामने जो फौजी खड़ा है वह मधु का पति है.

मेरी बात सुन कर उन लोगों ने पहले तो मेरी बात पर विश्वास ही नहीं किया, पर पूरी बात सुनने के बाद उन का मन भी मधु के प्रति नफरत से भर गया. सिर पकड़ वहीं सोफे  पर बैठ गए, तभी दोनों बेशर्मों की तरह एकदूसरे से अनजान बनते हुए आए और बेला दीदी से मेरे बेहोश होने का कारण जानने की कोशिश करने लगे, उन दोनों को देख कर मन हुआ खूब चिल्लाऊं. उन दोनों की बेशर्मी और धोखे की दास्तां सब को चीखचीख कर बताऊं… मेरी नफरत बढ़ती जा रही थी उन दोनों के प्रति.

मधु, दर्शन की तरफ बढ़ी पर दर्शन की आंखों में आंसू और क्रोध से भरा चेहरा देख वहीं जड़ हो गई, उन दोनों को अंदेशा हो गया था शायद उन के बारे में हम दोनों को पता है.

दर्शन ने बताया था कि जब मैं बेहोश हुई थी तो वहां प्रवीण नहीं थे. मेरे बेहोश होने के समय भी ये दोनों खुद को छिपाने में लगे थे, यह सुन कर क्रोध से मेरा दिमाग फटा जा रहा था.

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मैं ने दर्शन और बेला दीदी से कहा कि इन दोनों को कमरे से बाहर करें, मैं अब एक सैकंड भी इन को बरदाश्त नहीं कर सकती. मेरी बातों से अब साफ हो चुका था फर्क मुझे सब पता है और दर्शन को भी.

मधु दर्शन को सफाई देने की कोशिश करने लगी, लेकिन जब दर्शन ने डीएनए टैस्ट की धमकी दी, तो रोतेरोते सब कुबूल कर लिया. प्रवीण तटस्थ खड़े रहे. चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी जैसे कंठ सूख गया हो.

‘‘मेरे साथ ऐसा क्यों किया प्रवीण? तुम पर मैं ने अपना सबकुछ लुटा दिया. प्यार किया, भरोसा किया तुम पर और तुम ने क्या किया… अगर मधु से प्यार करते थे तो थोड़ी हिम्मत और मर्दानगी भी जुटा लेते. मां से बात करते. कम से कम मेरी जिंदगी तो बरबाद नहीं करते,’’ कहना तो बहुत कुछ चाहती थी, पर जिस की आंखों और विचारों में शर्म नहीं, उस से कुछ भी कहनेसुनने से क्या फायदा. इन दोनों ने एक पल में मेरी जिंदगी बदल दी. कहां मैं अपनी खुशियां बांटने चली थी और अभी इन के दिए गए धोखे से टूटी हुई हौस्पिटल के बैड पर पड़ी हूं. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं, किधर जाऊं.

मेरे इस बुरे वक्त में बेला दीदी और दर्शन जो खुद मेरी तरह इन के धोखे का शिकार हुए थे, मेरे साथ साहस से खड़े रहे.

दीदी ने मां और मेरे मायके में फोन कर उन लोगों को भी बुला लिया.

मांबाबा मेरी हालत देख टूट से गए. अकेले में दोनों रोते पर मेरे सामने हिम्मत और समझदारी की बात करते. बेला दीदी मुझे और मांबाबा को अपने घर ले गई.

मांबाबा को मेरी प्रैगनैंसी के बारे में पता था. वे समाज और परिवार के लिए मुझे समझौते के लिए राजी करने में लगे थे. उन का सोचना था अकेले इस पुरुषवादी समाज में कैसे मैं एक बच्चे को पाल सकती हूं, इसलिए मैं प्रवीण को माफ कर दूं.

मैं विवश हो कर इन की बातें सुनती और सोचती रहती क्या हम औरतें इतनी कमजोर हैं कि अकेले बच्चे नहीं पाल सकतीं, अकेले रह नहीं सकतीं? क्यों हर पल हमें जीने के लिए पुरुष का सहारा चाहिए? अपनी पत्नी, मां को धोखा देने वाले पुरुष को क्या कहेंगे? जब वह एकसाथ 2 औरतों से संबंध रखे, तो उस के पुरुषत्व का क्या नाम देंगे?

समझौता सिर्फ स्त्री करे और पुरुष अपने बड़े से बड़े गुनाहों को छिपा कर समाज में सिर उठा कर चले, मुझे यह मंजूर नहीं था पर बेला दीदी के अलावा कोई मेरी इस बात को नहीं समझ रहा था.

अगले दिन सुबहसुबह प्रवीण आए. मुझ से संभलने की इच्छा जाहिर की, पर मैं ने साफ कह दिया कि मैं उन की उपस्थिति बरदाश्त नहीं कर सकती, मेरी प्रैगनैंसी की खबर उन्हें लग गई थी शायद मां ने सासूमां को बताया हो.

बच्चे का हवाला दे कर बहुत मनाने की कोशिश की गई पर मैं अपनी फैसले पर अडिग रही.

ऐसे इंसान के साथ अब मैं एक पल भी नहीं रह सकती जिस की एक रखैल और उस की एक बेटी भी हो.

जिंदगी में कभीकभी ऐसे मुकाम भी आते हैं, जब हमें दिल से नहीं दिमाग से फैसले लेने पड़ते हैं. आज मैं भी उसी मोड़ पर खड़ी हूं.

भाईभाभी का भी साथ मिला. बेला दीदी तो पहले ही मेरे साथ थी. मेरे लिए फैसला लेना अब इतना भी मुश्किल नहीं था.

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भाई के सहयोग से एक अच्छा वकील मिल गया और मैं ने तलाक के लिए केस दर्ज कराया. तलाक की लंबी प्रक्रिया के बीच कहीं मैं हिम्मत न हार जाऊं, यह सोच कर भाई ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में मेरा एडमिशन करा दिया. मैं ने अपना पूरा ध्यान अब पढ़ाई में लगा दिया. सासूमां भी अपने बेटे को छोड़ मेरे साथ आ गईं, मेरा हौसला बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. प्रवीण को अपनी तमाम संपत्ति से बेदखल कर दिया और सबकुछ मेरे और मेरे होने वाले बच्चे के नाम कर दिया.

समाज और परिवार के खिलाफ जा कर मां ने जो मेरे लिए किया, उस के आगे हम सभी नतमस्तक हो गए थे.

मां ने दिल्ली में मेरे नाम से फ्लैट ले लिया और मेरे साथ मेरी देखभाल के लिए रहने लगीं. मांबाबा को वापस भेज दिया था. वे लोग बीचबीच में आते रहते मुझ से मिलने.

भाई फोन से सारी जानकारी लेता रहता और अपने मित्रों के सहयोग से मेरे हर काम में मदद करता रहता. पढ़ाई के साथ तलाक लेने में जो भी मुश्किलें आतीं, सब का हल मेरे परिवार के निस्स्वार्थ सहयोग से ही संभव हुआ.

मैं अब अकेली नहीं, पर इस समय प्रवीण अकेले हो गए थे. उन की मां ने भी उन का साथ नहीं दिया. फिर दोस्त भी कहां तक साथ देते. सुनने में आया कि अब प्रवीण मधु और अपनी बेटी के साथ ही रहने लगे हैं. दर्शन भी मधु को तलाक देने के लिए केस कर चुके थे. मेरा और दर्शन के केस का फैसला लगभग एकसाथ होना था.

दिन, महीने गुजरते गए, डाक्टर ने डिलिवरी के लिए अगले महीने की तारीख दे दी. मैं प्रैगनैंसी के उस दौर में थी, जब चलनाफिरना भी मुश्किल होता है और इस वक्त मैं अपना पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई में लगाना चाहती थी. अगले महीने से परीक्षाएं भी शुरू होने वाली थीं.

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मैं हारी कहां: भाग 3- उस औरत का क्या था प्रवीण के साथ रिश्ता

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

अगले दिन प्रवीण के औफिस जाने के बाद दरवाजे पर खटखट की आवाज

आई. मैं ने दरवाजा खोला तो सामने एक बेहद खूबसूरत औरत, जिस के हाथ में चाबी थी, शायद वह फ्लैट का लौक खोलने की कोशिश कर रही थी. मुझे एकटक देखे जा रही थी… जैसे कोई अजूबा देख लिया हो.

‘‘आप कौन? अपनी तरफ ऐसे देख मैं थोड़ी घबरा गई, इसलिए सीधा सवाल किया.

‘‘यह फ्लैट तो प्रवीण का है, आप कौन हैं?’’ उस ने मेरे सवाल का जवाब सवाल में दिया.

‘‘मैं प्रवीण की वाइफ गौरी हूं. कल ही हम लोग आए हैं.’’

मेरा यह कहना था कि वह मुझे चौंक कर देख कर चकरा गई. मैं ने झट से उसे सहारा दिया और अंदर ले आई. पानी पिलाया तो वह कुछ संभली.

‘‘आप ठीक तो हैं, कौन हैं आप?’’ मेरे जेहन में कई तरह के सवाल आ रहे थे.

‘‘जी, माफ करें, मैं आप के ऊपर वाले फ्लैट में रहती हूं, कल बाहर गई थी. रात में वापस आई, इसलिए पता नहीं चला कि प्रवीण वापस आ गए हैं, मैं तो सफाई करवाने आई थी,’’ उस ने खुद को सयंत करते हुए कहा.

‘‘वह तो.. वह आप हैं, कल प्रवीण ने बताया था कि उन के कोई फ्रैंड ऊपर वाले

फ्लैट में रहते हैं, वही साफसफाई करवा देते

हैं, पर आप की तबीयत सही नहीं लग रही,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां कमजोरी महसूस कर रही हूं कुछ दिनों से, शायद इसीलिए चक्कर आ गया होगा.’’

‘‘अरे… तो फिर आप को आराम करना चाहिए और आप मेरे घर की देखभाल में लगी हैं, आप बैठिए मैं चाय बनाती हूं.’’

‘‘आप प्लीज, परेशान न हों.’’

‘‘परेशानी कैसी… आप के बहाने मैं भी चाय पी लूंगी,’’ कहते हुए मैं किचन में चली गई.

‘‘देखिए, मैं भी कितनी अजीब हूं इतनी देर से हम बातें कर रहे हैं

और आप का नाम तो मैं ने पूछा ही नहीं.’’

‘‘मैं मधु, मेरे पति दर्शन आर्मी में हैं, पोस्टिंग भी ऐसी जगह पर है, जहां परिवार को नहीं रख सकते, इसलिए मैं अकेली अपनी बेटी को ले कर रहती हूं.

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‘‘आप दिल्ली जैसे शहर में अकेली रह रही हैं? मधुजी आप में बहुत हिम्मत है, मैं तो अकेले रह ही नहीं सकती, प्रवीण जब तक औफिस से आते नहीं, मैं तो बेचैनी से उन का इंतजार करती रहती हूं.’’

मेरी बात सुन कर वह अजीब नजरों से

मुझे एकटक देख रही थी. मैं ने गौर तो किया,

पर कुछ समझ नहीं आया कि वह ऐसे क्यों देख रही मुझे.

सूर्य अस्त होने लगा था. आसमान में चारों तरफ लालिमा छाई थी. मैं गेट पर खड़ी प्रवीण का इंतजार कर रही थी और प्रकृति के इस खूबसूरत नजारे और अपनी खुद की बनाई सपनों की दुनिया में खोई हुई थी, तभी प्रवीण की आवाज ने मुझे खयालों की दुनिया से बाहर निकाला.

-क्र

‘‘यहां क्या कर रही हो, गौरी? तुम अभी इस शहर से पूर्णतया अनजान हो. ऐसे बाहर निकल कर मत खड़ी हुआ करो,’’ घर में घुसते ही प्रवीण शुरू हो गए.

‘‘तो क्या मैं पूरा दिन घर में बैठी रहूं, बाहर सिर्फ मैं ही नहीं और भी औरतें खड़ी हैं और मैं इस शहर से इतनी भी अनजान नहीं. भाई जब यहां पढ़ता था तो मैं भी उस के पास रहती थी,’’ कहते हुए मैं चाय बनाने चली गई या यों कह लें कि बात बढ़ने से रोकने के लिए हट गई.

चाय पीने के साथ प्रवीण भी सहज हो गए थे. तभी मैं ने मधुजी के बारे में बताया. मधु का नाम सुन प्रवीण बहुत असहज हो गए. उन के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. हावभाव अचानक बदल गए.

‘‘क्या हुआ आप को? तबीयत तो ठीक है आप की?’’ मैं उन्हें ऐसे देख घबरा गई.

‘‘नहीं कुछ नहीं, मैं ठीक हूं तुम परेशान न हो. शायद ब्लडप्रैशर बढ़ गया होगा,’’ कहते हुए प्रवीण खुद को सहज करने की कोशिश करने लगे.

‘‘क्या बात हुई तुम दोनों में?’’ प्रवीण ने पूछा.

‘‘कुछ खास नहीं, उन्हें शायद हमारी शादी के बारे में पता नहीं था, इसलिए मुझे देख थोड़ी नर्वस लग रही थी,’’ कहते हुए मैं डिनर की तैयारी में लग गई.

समय बीतते देर नहीं लगती. ऐसे ही दिन गुजरने लगे थे. प्रवीण मेरी तरफ से निश्चिंत थे और मैं उन की तरफ से.

मुझे अपने प्यार पर भरोसा था. शक की कोई गुंजाइश नहीं थी. मधुजी भी कब मेरी बड़ी बहन के रूप में मेरी जिंदगी में एक अहम किरदार में आ गई, पता ही नहीं चला.

हंसतेमुसकराते खुशियां बटोरते यों ही 3 महीने गुजर गए, एक दिन सुबह से ही तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. प्रवीण आजकल बैंक के काम से शहर से बाहर गए थे, इसलिए खुद ही बेला दीदी को फोन कर उन के हौस्पिटल चली गई, दीदी ने कुछ जरूरी जांच के बाद बताया कि मैं मां बनने वाली हूं.

खुशी और डर दोनों भाव मेरे अंदर समाहित हो मेरे आंसू छलक पड़े. दीदी ने भी खुशी से मुझे बधाई देते हुए गले लगा लिया.

दीदी ने कुछ खास एहतियात बरतने को और समय से मैडिसिन लेने को कहा. फिर मैं खुशी से घर की तरफ बढ़ गई.

आज प्रवीण भी टूर से वापस आने वाले थे. मैं भी उन का बेसब्री से इंतजार कर रही थी. अब यह न्यूज सुन कर मेरी बेसब्री बेचैनी में बदल गई थी. जल्द से जल्द घर पहुंच कर प्रवीण को हमारी जिंदगी की सब से बड़ी खुशी देना चाहती थी.

घर पहुंच गई पर प्रवीण अभी आए नहीं थे. उन की फ्लाइट की टाइमिंग के हिसाब से उन्हें घर पर होना चाहिए, हो सकता हो घर बंद देख वापस औफिस चले गए हों फोन भी बंद आ रहा है.

मेरी बेसब्री अब चिंता में बदल गई, दिमाग में तरहतरह की बातें आ रही थीं, फिर मैं मधु दीदी के घर की तरफ बढ़ गई. सोचा हो सकता है कि उन से बात कर अपनी परेशानी का हल निकाल सकूं.

दरवाजा पूरी तरह से बंद नहीं था, इसलिए बिना नोक किए मैं अंदर चली गई. वैसे भी अब उन से मैं इतनी घुलमिल हो गई थी कि सामान्य औपचारिकता की जरूरत नहीं थी.

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तभी मुझे मधु दीदी की जोरजोर से लड़ने की आवाज आई, किसी पर बहुत बुरी तरह नाराज थी. मुझे लगा शायद मैं गलत वक्त पर आ गई हूं, इसलिए चुपचाप निकलने वाली ही थी कि प्रवीण की आवाज सुन मेरे कदम वहीं जड़ हो गए, प्रवीण दीदी को शांत होने के लिए बोल रहे थे, मुझे सहसा अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था और मैं विश्वास करना भी नहीं चाहती थी, फिर भी अपनी शंका दूर करने के लिए दरवाजे से झांक कर देखा, सामने प्रवीण और मधु दीदी बैठे थे.

प्रवीण के कंधे पर सिर टिका कर मधु दीदी रो रही थी, ‘‘प्रवीण, आखिर कब तक मुझे ऐसी जिंदगी जीनी होगी… मैं तुम्हारे लिए अपने पति की न हो सकी. कभी सोचा है हमारे रिश्ते के बारे में दर्शन को पता चल गया और सब से बड़ा सच हमारी बेटी… जो दर्शन को लगता है उस की बेटी है यह सच उसे पता चल गया तो वह न मुझे छोड़ेगा न तुम्हें.’’

‘‘मधु, तुम परेशान न हो. ऐसा कुछ नहीं होगा जैसा तुम सोच रही हो. गौरी को बहुत जल्दी मां के पास छोड़ आऊंगा, फिर हम पहले की तरह रहेंगे.’’

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मैं हारी कहां: भाग 2- उस औरत का क्या था प्रवीण के साथ रिश्ता

लेखिका- अनामिका अनूप तिवारी

मुंहदिखाई के लिए पड़ोस की महिलाएं और घर में आए हुए रिश्तेदार थे. सभी ने मेरी खूबसूरती और साथ आए हुए साजोसामान की खुले दिल से तारीफ की. मैं ने अपनी सासूमां की तरफ देखा… उन का चेहरा गर्व और खुशी से दमक रहा था.

सब को संतुष्ट देख मन को शांति मिली. सभी के जाने के बाद सासूमां ने मां को फोन किया और उन्हें भरोसा दिलाया कि उन की बेटी अब इस घर की बेटी है, मुझ से बात कराई.

शाम ढलने को थी. प्रवीण गृहप्रवेश रस्मों के बाद से दिखे नहीं थे. मुझे एक

सजेसजाए कमरे में ले जा कर बैठा दिया गया. हर लड़की की तरह अपनी सुहागरात के सुंदर सपने सजाए मैं प्रवीण का इंतजार करने लगी.

दिनभर की रस्मों से थकान महसूस हो

रही थी, कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘गौरी, उठो बेटी,’’ सासूमां की आवाज सुन मैं चौंक कर

उठ बैठी.

‘‘सौरी मां मैं इतनी देर तक नहीं सोती, पता नहीं ऐसे कैसे सो गई थी,’’ मेरी नजर शर्म से फर्श पर टिकी थी.

‘‘कोई बात नहीं बेटी, तुम बहुत थकी हुई थी, इसलिए नींद आ गई

चलो अब नहा लो और तैयार हो कर बाहर आ जाओ, कुछ रिश्तेदार जाएंगे अभी थोड़ी देर में,’’ हंसते हुए उन्होंने मेरे सिर पर अपना प्यारभरा

हाथ रखा.

‘‘जी मां, अभी तैयार हो कर आती हूं.’’

सासूमां के जाने के बाद मैं प्रवीण के लिए सोच रही थी. संकोचवश उन से पूछ भी न सकी. रात में वे कमरे में आए भी थे या नहीं या सुबह उठ कर चले गए हों, ‘उफ गौरी ऐसे कैसे अपनी सुहागरात में घोड़े बेच कर सो गई,’ खुद को कोसते हुई तैयार होने के लिए उठी.

लगभग सभी रिश्तेदार जाने के लिए तैयार थे. सासूमां सभी की विदाई कर रही थीं. मैं भी उन की मदद के लिए उन के साथ जा कर खड़ी हो गई पर मेरी नजर प्रवीण को ढूंढ़ रही थी. वे कहीं नहीं दिख रहे थे.

सासूमां को शायद मेरी मनोस्थिति का भान हो गया था.

‘‘अत: गौरी, सुबह से प्रवीण सभी के लिए टैक्सी का इंतजाम करने में लगा है. तुम परेशान

न हो.’’

मैं झेंप कर इधरउधर देखने लगी और वे मुसकरा रही थीं.

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सभी के जाने के लगभग 1 घंटे बाद प्रवीण कमरे में आए. बोले, ‘‘कल रात बहुत गहरी नींद में सो रही थी… शायद तुम इन 3-4 दिनों से ऐसी बोझिल रस्मों से थक गई थी.’’

‘‘जी, कल नींद आ गई थी मुझे, पर आप जगा सकते थे मुझे,’’ अपनी तरफ  से मैं ने भी सफाई दी.

‘‘कोई बात नहीं,’’ उन्होंने मुझे मुसकराते हुए देखा.

सच कहूं तो जिंदगी में पहली बार मुझे ऐसा कुछ महसूस हो रहा था, जिस को मैं समझ नहीं पा रही थी और ऊपर से प्रवीण की मुसकराहट, मैं खुद पर नियंत्रण खोती जा रही थी. जिंदगी खूबसूरत लगने लगी, सबकुछ अच्छा लग रहा था. ये क्या हो रहा है मुझे… कहीं मुझे प्रवीण से प्यार तो नहीं हो गया.

‘इतनी जल्दी…’

अभी तक प्रवीण से मेरी ज्यादा बात भी नहीं हुई और मैं क्याक्या सोच रही हूं, ‘‘पागल गौरी,’’ खुद से बात करते हुए हंस पड़ी मैं.

कुछ समय ऐसे ही नईनवेली दुलहन और उस के सपनों को जीती हुई मेरी प्यारी सी छोटी सी दुनिया… जिस में मैं रचबस गई थी.

कुछ दिनों बाद सासूमां ने फरमान जारी फरमान जारी किया, ‘‘बहू अपनी भी पैकिंग कर लो, कल प्रवीण के साथ अपने मातापिता से मिलने चली जाना और परसों दिल्ली.’’

‘‘मां ऐसे अचानक, अभी तो कुछ समय और रुकना था.’’

‘‘नहीं बेटी, प्रवीण की छुट्टियां खत्म हो रही हैं. वह परसों चला जाएगा तो तुम यहां क्या करोगी?’’

सासूमां का फैसला था, मानना तो था ही. अत: मैं ने भी अपनी पैकिंग शुरू कर दी, पर प्रवीण के चेहरे पर एक अजीब घबराहट और बेचैनी महसूस की मैं ने. पर क्यों? हो सकता है… मुझे साथ नहीं ले जाना चाहते हों… एक बार पूछूं क्या? पूछने पर कहीं नाराज न हो जाएं,’ मन में कई तरह के सवाल चल रहे थे. अचानक ऐसी तबदीली देख किसी का भी मन संशय में पड़ जाए और यह मेरा भ्रम भी तो हो सकता है… मां को छोड़ कर जाने से भी मन उदास हो सकता है.

‘मैं भी क्या, कुछ भी सोच कर बैठ जाती हूं, यही सच होगा… मां के लिए ही प्रवीण चिंतित होंगे,’ सोच कर काम में जुट गई.

अगले दिन सुबहसुबह मायके के लिए निकल गए हम दोनों. मां, बाबा हम दोनों को देख बहुत खुश हुए थे, ‘‘गौरी बिटिया, आज कुछ भी नानुकुर नहीं करना, सब अच्छे से खा लेना, तुम्हारी मां सुबह से रसोई से निकली नहीं, तुम्हारी पसंद का सब बनाया है, दामाद बाबू की पसंद के बारे में ज्यादा कुछ अभी पता नहीं, जो पता था, वह सब बन गया है.’’

‘‘अरे बाबा, आप नाहक परेशान हो रहे हैं और मां को भी परेशान किए हुए हैं, प्रवीण सबकुछ खाते है.’’

मेरी बाबा से प्यारी नोकझोंक चल रही थी पर मेरी नजर प्रवीण पर ही थी, उन के चेहरे पर पहले से अधिक परेशानी दिख रही थी, आखिर बात क्या है? यहां भी कुछ पूछा नहीं जा सकता था. मां तो मेरी शक्ल देख कर ही मेरा दिमाग पढ़ लेंगी… मुझे सहज होना होगा. किसी तरह दिन बीता, मैं खुद को सहज रखने का भरसक प्रयत्न करती रही.

‘‘दामाद बाबू कम बोलते हैं या नाराज हैं, तुझ से? जब से आए हैं, गुमसुम से हैं, हर सवाल का हां या न में जवाब दे रहे हैं,’’ आखिर मां ने पूछ ही लिया मां की नजरों से कैसे कोई छिप सकता है, पर मैं बोली, ‘‘मां, आप भी क्याक्या सोच लेती हैं… हां प्रवीण कम बोलते हैं, पर मुझ से नाराज क्यों होंगे, वे मां को अकेले छोड़ कर जाने की वजह से थोड़े परेशान हैं बस,’’ मां को किसी तरह समझा लिया, पर सच तो यह था कि प्रवीण का यह व्यवहार मेरी समझ से भी परे था.

मांबाबा से विदा ले कर हम उसी रात चले आए. यहां भी सासूमां हमारा इंतजार कर रही थीं. खाना खा कर आए थे. थके हुए भी थे इसलिए ज्यादा बात न कर सिर्फ वहां का हालचाल बता कर सोने चले गए.

भोर की किरणें जब चेहरे पर पड़ी तो मेरी नींद खुली, बगल में प्रवीण भी गहरी

नहीं में थे.

यों तो सभी के सामने धीरगंभीर रूप में रहते हैं पर अभी चेहरे पर यह कैसी मासूमियत झलक रही है… मैं एकटक निहारे जा रही थी.

तभी प्रवीण की आंख खुली. मुझे ऐसे देखते हुए झेंप गए, ‘‘क्या बात है… आज सुबहसुबह इरादे कुछ ठीक नहीं लग रहे जनाब के?’’

प्रवीण की बात सुन मैं भी शरमा गई. चोरी जो पकड़ी गई थी.

पूरा दिन सामान समेटने में चला गया. हम रात की ट्रेन से दिल्ली के लिए निकल गए.

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सुबह प्रवीण का मूड ठीक था पर जैसेजैसे जाने का वक्त आ रहा था, प्रवीण के चेहरे की परेशानी बढ़ती जा रही थी.

स्टेशन से टैक्सी कर घर आ गए, प्रवीण ने मुझे फ्लैट नंबर बता कर चाबी दी और खुद सामान उतारने लगे.

‘घर तो बहुत गंदा होगा लगभग 15 दिनों से प्रवीण थे नहीं यहां, पता नहीं,’ कोई मेड भी है या नहीं यही सोचते हुए मैं ने लौक खोला तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गई, ‘‘यह क्या, आप इतने दिनों बाद आए हो, फिर भी घर ऐसे साफ जैसे हर रोज सफाई होती हो?’’ पीछे आते हुए प्रवीण से मैं ने पूछा.

आ अ… हा… वह मेरे एक फ्रैंड की फैमिली भी यहीं रहती है… मैं ने उन्हें सफाई

के लिए बोल दिया था,’’ प्रवीण अचकचाते

हुए बोले.

‘‘यह तो सही किया आप ने… अच्छा किचन कहां है?’’ मैं ने प्रवीण से पूछा.

‘‘तुम फ्रैश हो जाओ मैं खाना और्डर कर देता हूं, तुम बहुत थकी हुई हो, खाना खा कर आराम करो, किचन देख लो पर खाना शाम को बनाना,’’ वे बड़े प्यार से मेरे चेहरे को अपने हाथों में लेते हुए बोले.

‘‘जी, जैसा आप कहें हुजूर,’’ मैं ने भी नजाकत से आंखें झुका कर बोला, फिर दोनों

हंस पड़े.

आगे पढ़ें- अपनी तरफ ऐसे देख मैं थोड़ी घबरा गई, इसलिए…

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