अंधेरी रात का जुगनू: भाग 3- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

पलभर के लिए रेशमा का आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा था. कहीं किसी ग्राहक को जल्दबाजी में ज्यादा पैसे तो नहीं दे दिए मैं ने, कहीं किसी से कम पैसे तो नहीं लिए? लेकिन दूसरे ही पल उस ने खुद को धिक्कारा. अपनी सतर्कता और हिसाब पर पूरा यकीन था उसे. तभी सेठ की आवाज का चाबुक उस की कोमल और ईमानदार भावना पर पड़ा, ‘रेशमा, अगर तुम मेरे दोस्त की बेटी न होतीं तो अभी, इसी समय पुलिस को फोन कर देता. शर्म नहीं आती चोरी करते हुए. पैसों की जरूरत थी तो मुझ से कहतीं. मैं तनख्वाह बढ़ा देता. लेकिन तुम ने तो ईमानदार बाप का नाम ही मिट्टी में मिला दिया.’

सुन कर तिलमिला गई रेशमा. क्या सफाई देती उन्हें जो उस की विवशता को उस का गुनाह समझ रहे हैं. मेहनत और वफादारी के बदले में मिला उसे जलालत का तोहफा. तभी खुद्दारी सिर उठा कर खड़ी हो गई और 28 दिन की तनख्वाह का हिसाब मांगे बगैर वह दुकान से बाहर निकल गई. अंदर का आक्रोश उफनउफन कर बाहर आने के लिए जोर मार रहा था. मगर रेशमा ने पूरी शिद्दत के साथ उसे भीतर ही दबाए रखा. असमय घर पहुंचती तो अम्मी को सच बतलाना पड़ता. रेशमा पर चोरी का इलजाम लगने और नौकरी हाथ से चले जाने का सदमा अम्मी बरदाश्त नहीं कर पाएंगी. अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे दोनों भाइयों और घर को संभाल पाएगी, यह सोचते हुए रेशमा के कदम अनायास ही मजार की तरफ बढ़ गए.

मजार के अहाते का पुरसुकून, इत्र और फूलों की मनमोहक खुशबू भी उस के रिसते जख्म पर मरहम न लगा सकी. घुटनों पर सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. रात 10 बजे मजार का गेट बंद करने आए खादिम ने आवाज लगाई, ‘घर नहीं जाना है क्या, बेटी?’ सुन कर जैसे नींद से जागी. धीमेधीमे मायूस कदम उठाते हुए घर पहुंची. अम्मी का चिंतित चेहरा दोनों भाइयों की छटपटाहट देख कर उसे यकीन हो गया कि मेरे घर के लोग मुझे कभी गलत नहीं समझेंगे.

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‘कहां चली गई थीं?’

‘दुकान में ज्यादा काम था आज,’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर पानी के साथ रोटी का निवाला गटकते हुए बिना कोई सफाई दिए बिस्तर पर पहुंचते ही मुंह में कपड़ा ठूंस कर बिलखबिलख कर रो पड़ी. उस रात अब्बू बहुत याद आए थे. कमसिन कंधों पर उन की भरीपूरी गृहस्थी का बोझ तो उठा लिया रेशमा ने, मगर उन के नाम को कलंकित करने का झूठा इल्जाम वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

दूसरे दिन रोज की तरह लंच बाक्स ले कर रेशमा के कदम अनजाने में अब्बू की दुकान की तरफ मुड़ गए. बरसों बाद जंग लगे ताले को खुलता देख अगलबगल वाले दुकानदार हैरान रह गए.

धूल से अटे कमरे में अब्बू का बनाया हुआ मार्बल का लैंपस्टैंड, सूखा एक्वेरियम और कभी तैरती, मचलती खूबसूरत मछलियों के स्केलटन. दुकान के कोने में बना प्लास्टर औफ पेरिस का फाउंटेन, सबकुछ जैसा का तैसा पड़ा था. अगर कुछ नहीं था तो अब्बू का वजूद. बस, उन की आवाज की प्रतिध्वनि रेशमा के कानों में गूंजने लगी, ‘बेटा, खूब दिल लगा कर पढ़ना. आप को चार्टर्ड अकाउंटैंट और दोनों बेटों को डाक्टर, इंजीनियर बनाऊंगा,’ ऐसे ही गुमसुम बैठे हुए सुबह से शाम गुजर गई.

भरा हुआ टिफिन वापस बैग में डाल कर घर वापस जाने के लिए उठ ही रही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘रेशमा, आई एम सौरी. मुझे माफ करना बेटा. मैं गुस्से में तुम को पता नहीं क्याक्या कह गया,’ दूसरी ओर से सेठ की आवाज गूंजी, ‘सुन रही हो न, रेशमा. दरअसल, 8 हजार रुपए मेरे बेटे ने गल्ले से निकाले थे. कल शाम को ही वह जुआ खेलता हुआ पकड़ा गया तो पता चला.’

सुन कर रेशमा स्थिर खड़ी अब्बू की धूल जमी तसवीर को एकटक देखती रही.

‘बेटे, अपने अब्बू के दोस्त को माफ कर दो तो कुछ कहूं.’

इधर से कोई प्रतिउत्तर नहीं.

‘कोई बात नहीं, तुम अगर दुकान पर काम नहीं करना चाहती हो तो कोई बात नहीं, तुम मेरा बुटीक सैंटर संभाल लो. तुम्हारी जैसी मेहनती और ईमानदार इंसान की ही जरूरत है मेरे बुटीक सेंटर को.’

रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया. अपमान और तिरस्कार का आघात,

सेठ की आत्मविवेचना व पछतावे पर भारी रहा.

रास्ते भर ‘बुटीक…बुटीक…बुटीक’ शब्द मखमली दूब की तरह कानों में उगते रहे. स्कूल के दिनों में शौकिया तौर पर एंब्रायडरी सीखी थी रेशमा ने. कुरतों, सलवारों, चादरों, नाइटीज पर खूबसूरत रेशमी धागों से बनी डिजाइनों ने उसे अब्बू और रिश्तेदारों की शाबाशियां भी दिलवाई थीं. थोड़ाबहुत कटे हुए कपड़े भी सिलना सीख गई थी. अनजाने में ही सेठ ने रेशमा की अमावस की अंधेरी रात को पूर्णिमा का उजाला दिखला दिया, स्वाभिमान और आत्मविश्वास से जीने का रास्ता बतला दिया.

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पापा की दुकान और रेशमा का शौकिया हुनर, अपना निजी और स्वतंत्र कारोबार, जहां अपना आधिपत्य होगा जहां उसे कोई चोर कह कर जलील नहीं करेगा. जहां वह अपने परिवार के साथसाथ हुनरमंद कारीगरों और उन के परिवारों का पेट पालने का जरिया बन सकेगी. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलती रही रेशमा. उस दिन आसमां पर चांद की रफ्तार धीमी लगने लगी उसे.

पौ फटते ही रेशमा दोनों भाइयों के साथ पापा की दुकान में खड़ी अनुपयोगी वस्तुओं को ठेले पर लदवा रही थी. लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत बैंक से लोन लेने के लिए आवेदन दे दिया. 1 महीने बाद दुकान के सामने बोर्ड लग गया, ‘जास्मीन बुटीक सैंटर’. दूसरे ही दिन दुकान के शुभारंभ का दावतनामा ले कर बांटने के लिए निकल पड़ी रेशमा. कार्ड देख कर किसी ने हौसला बढ़ाया, तो किसी ने नाउम्मीद और नाकामयाबी के डर से डराया. लेकिन रेशमा कान और मुंह बंद किए हुए पूरे हौसले के साथ जिस रास्ते पर चल पड़ी उस से पलट कर पीछे नहीं देखा.

रेशमा के भीतर का कलाकार धीरेधीरे उभरने लगा, वह कपड़ों की डिजाइन केटलौग्स के अलावा कंप्यूटर स्क्रीन पर ग्राहकों को दिखलाने लगी. धीरेधीरे आकर्षक डिजाइनों व काम की नियमितता देख कर महिला ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी. शादीब्याह, तीजत्योहारों के मौकों पर तो रेशमा को दम लेने की फुरसत नहीं होती.

कड़ी मेहनत, समझदारी से मृदुभाषी रेशमा के बैंक के बचत खाते में बढ़ोतरी होने लगी. 1 साल के बाद 30×60 स्क्वैर फुट का प्लौट खरीदते समय खालेदा बेगम ने अपने बचेखुचे जेवर भी रेशमा को थमा दिए.

हाउस लोन ले कर रेशमा ने तनहा ही धूप, बरसात, ठंड के थपेड़े सह कर नींव खुदवाने से ले कर मकान बनने तक दिनरात एक कर दिए. दोनों छोटे भाइयों और अम्मी के संबल ने रेशमा का हौसला मजबूत किया. अब कतराने वाले रिश्तेदार, अब्बू के करीबी दोस्त, मकान की मुबारकबाद देने बुटीक सैंटर पर ही आने लगे.

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चौक पर लगी घड़ी ने रात के 4 बजाए. रेशमा की अम्मी दर्द की चादर ओढ़े नींद के आगोश में समा गईं लेकिन रेशमा छत की ग्रिल से टिक कर खड़ी, एकटक कोने पर लगी ग्रिल की तरफ देख रही थी. लगा, अब्बू सफेद कुरतापाजामा पहने दीवार से टिक कर खड़े हैं. ‘रेशमा, मेरी बच्ची, मेरा ख्वाब पूरा कर दिया. शाबाश बेटा. मैं जानता हूं तुम दोनों भाइयों को इसी तरह जुगनू बन कर राह दिखलाती रहोगी.’ धीरेधीरे पापा की परछाईं अंधेरे में कहीं खो गई और रेशमा बिस्तर पर आ कर लेट गई. दूर कहीं भोर होने की घंटी बजी. पूर्व दिशा में आसमान का रंग लाल हो चला था.

अंधेरी रात का जुगनू:भाग 2- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

‘बेटी, इकबाल साहब की मौत, मिट्टी का इंतजाम…’ महल्ले के बुजुर्ग अनीस साहब ने डूबते जहाज का मस्तूल पकड़ा दिया रेशमा के कमजोर हाथों में. सुन कर भीतर तक दहल गई रेशमा.

भारी कदमों को घसीटते हुए अलमारी खोल कर, अपनी शादी के लिए अम्मी द्वारा जमा की गई लाल पोटली में बंधी पूंजी अनीस साहब को थमाते हुए रेशमा के हाथ पत्थर के हो गए थे.

अब्बू की मौतमिट्टी, चेहल्लुम, अम्मी की इद्दत के पूरे होने तक रेशमा का खिलंदड़ापन जाने कहां दफन हो गया. शौहर की मौत के सदमे से बुत बनी अम्मी को देख कर, दोनों छोटे भाइयों को अब्बू की याद कर रोते देखती तो उन्हें समझाने के लिए पुचकारते हुए रेशमा कब बड़ी हो गई, उसे खुद भी पता नहीं चला. रेशमा ने अब्बू के अकाउंट्स चेक किए तो बमुश्किल 8-10 हजार रुपए का बैलेंस था.

रेशमा की पढ़ाई छूट गई, दिनचर्या ही बदल गई. रेशमा के उन्मुक्त ठहाकों को आर्थिक अभाव का विकराल अजगर निगलता चला गया. बहुत ढूंढ़ने पर होमलोन देने वाले प्राइवेट बैंक की नौकरी 4 जनों की रोटी का जुगाड़ बनी. घर के खाली कनस्तरों में थोड़ाथोड़ा राशन भरने लगा.

जिंदगी कड़वे तजरबों के चुभते ऊबड़खाबड़ रास्ते से गुजर कर अभी समतल मैदान पर आ भी नहीं पाई थी कि मकान मालिक ने मकान खाली करवाने की जिम्मेदारी पेशेवर गुंडे गोलू जहरीला को सौंप दी.

‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए,’ आएदिन दरवाजे पर दस्तक देती उस की डरावनी शक्ल दिखलाई पड़ती.

एक दिन हिम्मत कर के रेशमा ने ज्यों ही दरवाजा खोला तो शराब का भभका उस के नथुनों में घुस गया. गोलू जहरीला ने उसे देखते ही अपना वाक्य दोहरा दिया, ‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए नहीं तो…’

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‘नहीं तो… क्या कर लेंगे आप?’ भीतर के आक्रोश को दबातेदबाते भी रेशमा की आंखें चिंगारी उगलने लगी थीं.

‘कुछ नहीं. बस, तुम को उठवा लेंगे,’ पान रचे होंठों को तिरछा कर के व्यंग्य से हंसते हुए गोलू जहरीला ने चेतावनी दी तो रेशमा के कानों में जैसे अंगारे सुलगने लगे.

‘बंद कीजिए बकवास. दफा हो जाइए यहां से,’ रेशमा का आक्रोश बरदाश्त का पुल उखाड़ने लगा.

बाहर आवाजों का हंगामा सुन कर भीतर से दौड़ी आई रेशमा की अम्मी. रेशमा को दरवाजे के पीछे ढकेल कर, खुद दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो कर बोलीं, ‘देखिए, आप जब मरजी हो तब कमर पर बंदूक लटका कर हमारे दरवाजे पर न आया कीजिए. जैसे ही हालात ठीक होंगे, हम आप को घर खाली करने की सूचना दे देंगे.’

सुन कर गोलू चला तो गया लेकिन अपने पीछे छोड़ गया दहशत, डर और मजबूरियों का अंधड़.

उस के जाते ही रेशमा की अम्मी रो पड़ीं. रेशमा के पैर गुस्से से कांपने लगे और दांत किटकिटाने लगे लेकिन विवशता की नदी मुहाने तक आतेआते अपनी रफ्तार खो चुकी थी. दोनों भाइयों को सीने से चिपकाए वह खुद भी रो पड़ी. उस रात न उन के घर में चूल्हा जला न किसी के हलक से पानी का घूंट ही उतरा. सब अपनीअपनी मजबूरियों के शिकंजे में कसे छटपटाते रहे.

वक्त की आंधियों ने कसम खा ली थी रेशमा को तसल्ली देने वाले हर चिराग को बुझा देने की.

3 महीने बाद प्राइवेट बैंक भी बंद हो गया. घर की जरूरतों ने रेशमा को कपड़ों के थोक विक्रेता की दुकान पर कैशियर की नौकरी के लिए ला कर खड़ा कर दिया. छोटी सी तनख्वाह घर की बड़ीबड़ी जरूरतों के सामने मुंह छिपाने लगी और ऊंट के मुंह में जीरे की तरह चिपक गई. बस, जिंदा रहने के लायक तक की चीजें ही खरीद पाते रेशमा के पसीने से भीगी बंद मुट्ठी के नोट. रिश्तेदार, जो अपना काम करवाने के लिए इकबाल साहब से मधुमक्खी की तरह चिपके रहते थे, अब जंगल की नागफनी की तरह हो गए थे. महफिलों, मजलिसों में अब मिलनेजुलने वाले उस के परिवार को देख कर कन्नी काट लेते, जैसे कांटों की बाड़ को छू गए हों.

उस दिन रात का खाना खाते हुए गुमसुम बैठे छोटे भाई से रेशमा ने पूछ ही लिया, ‘क्या हुआ आफाक तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ कुछ देर तक साहस बटोरने के बाद भाई के द्वारा बोले गए शब्दों ने रेशमा को कांच के ढेर पर खड़ा कर दिया. ‘बाजी, छोटे मामूजान कह रहे थे कि तुम दोनों भाइयों को रेशमा अब तुम्हारे अम्मीअब्बू के पास भेज देगी, क्योंकि उस की छोटी सी तनख्वाह अब 4 लोगों का पेट नहीं पाल सकेगी. फाके की नौबत आने वाली है. ऐसे में तुम दोनों भाई उस पर बोझ…’ ठहरी हुई झील में मामू ने पत्थर मार दिया था. तिलमिलाहट के ढेर सारे दायरे बनने लगे. रेशमा ने तुरंत मामू को फोन मिलाया और चीख पड़ी, ‘मेरे घर में कंगाली आ जाए या फाकाकशी हो, मैं अपने चचाजात भाइयों को कभी भी अपने से अलग नहीं करूंगी. अगर घर में एक रोटी भी बनेगी न, तो हम चारों एकएक टुकड़ा खा कर सो जाएंगे, मगर किसी के दरवाजे पर हाथ पसारने नहीं जाएंगे. कान खोल कर सुन लीजिए, आज के बाद कभी मेरे मासूम भाइयों को बरगलाने की कोशिश की तो मैं भूल जाऊंगी आप इन के सगे मामू हैं.’

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रेशमा का गुस्सा देख कर दोनों भाई तो सहम गए लेकिन खालेदा को यकीन हो गया कि रेशमा की खुद्दारी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. अगर रेशमा की जगह उन का अपना बेटा होता तो वह अभावों का हवाला दे कर किसी भी सूरत में चचाजान भाइयों की जिम्मेदारी न उठाता. सचमुच अभाव इंसानों को जुदा नहीं करते, जुदा करती हैं उन की स्वार्थी भावनाएं.

घर का खर्च, भाइयों के स्कूल का खर्च, मकान का किराया, सब पूरा करने के बाद रेशमा के पास मुश्किल से आटो का किराया ही बच पाता.

अपनी पसंद का काम न होते हुए भी रेशमा दुकान के काम में दिल लगाने लगी थी. तभी एक दिन सेठ की कर्कश आवाज ने चौंका दिया, ‘रेशमा, तुम ने कल जो हिसाब दिया था उस में 8 हजार रुपए कम हैं.’

‘लेकिन मैं ने तो पूरे पैसे गिन कर गल्ले में रखे थे,’ रेशमा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सेठ ने जैसे अंगारा छू लिया.

‘मैं ने 10 बार हिसाब मिला लिया है, पैसे कम हैं इसलिए बोल रहा हूं. कहां गए पैसे अगर तुम ने रखे थे तो?’

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अंधेरी रात का जुगनू: भाग 1- रेशमा की जिंदगी में कौन आया

शाम होते ही नया बना मकान रंगीन रोशनी से जगमगा उठा. मुख्यद्वार पर आने वाले मेहमानों का तांता लगा था. पूरा घर अगरबत्ती, इत्र और लोबान की खुशबू से महक रहा था. कव्वाली की मधुर स्वरलहरी शाम की रंगीनियों में चार चांद लगा रही थी. पंडाल से उठती मसालेदार खाने की खुशबू ने वातावरण को दिलकश बना दिया था.

तभी बाहर जीप रुकने की आवाज सुन कर एक 20-22 वर्ष की लड़की दरवाजे पर आ खड़ी हुई और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘नमस्ते, चाचाजी.’’

‘‘जीती रहो, रेशमा बिटिया,’’ कहते हुए 2 अंगरक्षकों के साथ इलाके के विधायक रमेशजी ने मकान में प्रवेश किया.

पोर्च में खड़े हो कर मकान के चारों तरफ नजर डालते रमेशजी के चेहरे पर मुसकराहट खिलने लगी, ‘‘बिटिया, आज तुम ने अपने अब्बाजान का सपना पूरा कर के दिखला दिया. तुम्हारी हिम्मत और हौसले को देख कर लोग अब से बेटे नहीं बेटियां चाहेंगे.’’

रमेशजी की इस बात से रेशमा की आंखें नम हो गईं. खुद को संभालते हुए संयत स्वर में बोल उठी रेशमा, ‘‘चाचाजी, आप ने ही तो अब्बू की तरह हमेशा मेरा संबल बढ़ाया. मकान बनाते हुए आने वाली तमाम परेशानियों को सुलझाने में हमेशा मेरी मदद की.’’

‘‘बिटिया, तुम्हारे अब्बू इकबाल मेरा लंगोटिया यार था. उस की असमय मृत्यु के बाद उस के परिवार का खयाल रखना मेरा फर्ज था. मैं ने उसे निभाने की बस कोशिश की है. बाकी सबकुछ तुम्हारे साहस और धैर्य के सहारे ही संभव हो सका है.’’

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‘‘चाचाजी, चलिए, खाना टेबल पर लग गया है,’’ रेशमा के चाचा का बेटा आफताब बड़े आदरपूर्वक रमेशजी को खाने की मेज की तरफ ले गया.

रेशमा की अम्मी खालेदा इकबाल ओढ़नी से सिर को ढके परदे के पीछे से चाचाभीतीजी का वात्सल्यमयी वार्तालाप सुन रही थीं और रेशमा को घर के इस कोने से उस कोने तक आतेजाते, मेहमानों का स्वागत करते हुए गृहप्रवेश की मुबारकबाद स्वीकारते हुए भीगी आंखों से मंत्रमुग्ध हो कर देख रही थीं. तभी मेहमानों की भीड़ से उठते कहकहों ने उन्हें चौंकाया और वे दुपट्टे के छोर से उमड़ते आंसुओं को पोंछ कर, अतीत की यादों के चुभते नश्तर से बचने के लिए मेहमानों की गहमागहमी में खो जाने का असफल प्रयास करने लगीं.

देर रात तक मेहमानों को विदा कर के बिखरे सामान को समेट और मेनगेट पर ताला लगा कर ज्योंही वे भीतर जाने लगीं, ऐसा लगा जैसे इकबाल साहब ने आवाज दी हो, ‘फिक्र न करना बेगम, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आज सिर पर छत का साया मिला है, कल रेशमा की शादी, फिर बेटों की गृहस्थी…’

वे चौंक कर पीछे पलटीं तो दूर तक रात की नीरवता के अलावा कुछ भी न था. कहां हैं इकबाल साहब? यहां तो नहीं हैं? कैसे नहीं हैं यहां? यही सोतेजागते, उठतेबैठते हर वक्त लगता है कि वे मेरे करीब ही बैठे हैं. बातें कर रहे हैं. विश्वास ही नहीं हो रहा है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं. बिस्तर पर पहुंचने तक बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाई थीं रेशमा की अम्मी. दिनभर का रुका हुआ अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. बहुत कोशिशें कीं बीते हुए तल्ख दिनों को भूल जाने की लेकिन कहां भूल पाईं वे.

इकबाल साहब की मौत के बाद हर दिन का सूरज नईनई परेशानियों की तीखी किरणें ले कर उगता और उन की हर रात समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने में आंखों ही आंखों में कट जाती. दर्द की लकीरें आंसुओं की लडि़यां बन कर आंखों में तैरती रहतीं.

8 भाईबहनों में 5वें नंबर के इकबाल की शिक्षा माध्यमिक कक्षा से आगे संभव न हो सकी थी. लेकिन कलाकार मस्तिष्क ने 14 साल की उम्र में ही टायरट्यूब खोल कर पंचर बनाने और गाडि़यां सुधारने का काम सीख लिया था. भूरी मूछों की रेखाओं के काली होने तक पाईपाई बचा कर जोड़ी गई रकम से शहर की मेन मार्केट में टायरों के खरीदनेबेचने की दुकान खरीद ली. शाम होते ही दुकान पर दोस्तों का मजमा जमता, ठहाके लगते. शेरोशायरी की महफिल जमती. सालों तक दोस्तों के साथ इकबाल साहब के व्यवहार का झरना अबाध गति से बहता रहा. उन की 2 बेटियां और छोटे भाई के 2 बेटों के बीच गहरा प्यार और अपनापन देख कर रिश्तेदारों और महल्ले वालों के लिए फर्क करना मुश्किल हो जाता कि कौन से बच्चे इकबाल साहब के हैं और कौन से उन के भाई के. खुशियां हमेशा उन के किलकते परिवार के इर्दगिर्द रहतीं.

अकसर एकांत के क्षणों में इकबाल साहब खालेदा का हाथ अपने हाथ में ले कर कहते, ‘बेगम, मेरा कारोबार और ट्यूबलैस टायर बनाने की टेकनिक टायर कंपनी को पसंद आ गई तो मैं खुद डिजाइन बना कर एक आलीशान और खूबसूरत सा घर बनाऊंगा जिस के आंगन में गुलाबों का बगीचा होगा. सब के लिए अलगअलग कमरे होंगे और छत को, आखिरी सिरे तक छूने वाले फूलों की बेल से सजाऊंगा.’

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रेशमा अकसर अपनी ड्राइंगकौपी में घर की तसवीर बना कर पापा को दिखाते हुए कहती, ‘पापा, मेरी गुडि़या और डौगी के लिए भी अलग कमरे बनवाइएगा.’

सुन कर इकबाल साहब हंस कर मासूम बेटी को गले लगा कर बोलते, ‘जरूर बनाएंगे बेटे, अगर लंबी जिंदगी रही तो आप की हर ख्वाहिश पूरी करेंगे.’

‘तौबातौबा, कैसी मनहूस बातें मुंह से निकाल रहे हैं आप. आप को हमारी उम्र भी लग जाए,’ रेशमा की अम्मी ने प्यार से झिड़का था शौहर को.

ठंडी सांस भर कर सोचने लगीं, शायद उन्हें आने वाली दुर्घटनाओं का पूर्वाभास हो चुका था. तभी तो तीसरे ही दिन हट्टेकट्टे इकबाल साहब सीने के दर्द को हथेलियों से दबाए धड़ाम से गिर पड़े थे फर्श पर. देखते ही गगनभेदी चीख निकल गई थी रेशमा की अम्मी के मुंह से.

‘पापा की तबीयत खराब है,’ सुन कर तीर की तरह भागी थी रेशमा कालेज से.

घर के दालान में लोगों का जमघट और कमरे में पसरा पड़ा जानलेवा सन्नाटा. बेहोश अम्मी को होश में लाने की कोशिशें करती पड़ोसिन, हालात की संजीदगी से बेखबर सहमे से कोने में खड़े दोनों चचाजान, भाई और फर्श पर पड़ा अब्बू का निर्जीव शरीर. घर का दर्दनाक दृश्य देख कर रेशमा की निस्तेज आंखें पलकें झपकाना ही भूल गईं और पैर बर्फ की सिल्ली की तरह जम गए.

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आगामी अतीत: भाग 3- आशीश को मिली माफी

पिछले 5 साल तक उन्होंने कितनी बार कोशिश की ज्योत्स्ना के पास वापस लौटने की. वह ज्योत्स्ना के बारे में सबकुछ पता करते रहते थे. ज्योत्स्ना के जीवन में आतेजाते उतारचढ़ाव से वह अनभिज्ञ नहीं थे. कई बार दिल करता कि भाग कर जाएं ज्योत्स्ना के आंसू पोंछने… उन की बेटी डाक्टरी की पढ़ाई कर रही थी, जब वह मेडिकल में निकली थी तब उन्हें हार्दिक खुशी हुई थी…गर्व हो आया था बेटी पर…दामिनी ने तो कभी मां बनना चाहा ही नहीं था.

बेटी जब डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर के आ गई तब न जाने कितनी बार उस अस्पताल के गेट पर खड़े रहे थे पागलों की तरह, बेटी की एक झलक पाने के लिए, लेकिन कारों व लोगों की भीड़ में वह कभी भावना को देख नहीं पाए.

तभी उन के जीवन में यह दुखद मोड़ आया. आफिस में ही उन्हें पक्षाघात का अटैक पड़ा. उन के आफिस के दोस्त जब उन्हें अस्पताल ले जाने लगे तब वह बहुत मुश्किल से उन्हें उस अस्पताल का नाम समझा पाए, जहां उन की बेटी काम करती थी, इस उम्मीद में कि शायद उन की अपनी बेटी से अंतिम समय में मुलाकात हो जाए…और ऐसा हुआ भी पर भावना ने उन्हें पहचाना नहीं या फिर पहचानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

वह तो भावना को चिट्ठी लिख कर भी भूल गए थे, लेकिन आज भावना को अपने सामने देख कर उन का अपने परिवार के पास लौटने का सपना अंगड़ाई लेने लगा था. उन की सुप्त भावनाएं फिर जोर पकड़ने लगीं, लेकिन पता नहीं ज्योत्स्ना उन्हें माफ कर पाएगी या नहीं…

तभी बाहर सड़क पर किसी गाड़ी के हार्न की तेज आवाज सुन कर वह अपने अतीत से बाहर निकल आए. न जाने वह कब से ऐसे ही बैठे थे. उन्होंने कार्ड उठा कर उसे उलटापलटा और मन में निश्चय किया कि बेटी की शादी में अवश्य जाएंगे. परिणाम चाहे कुछ भी हो. ज्योत्स्ना उन का अपमान भी कर देगी तब भी वह उस दुख से कम ही होगा जो उन्होंने उसे दिया है और जो उन्हें अपने परिवार से अलग रह कर मिल रहा है. सोच कर उन का हृदय शांत हो गया.

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उधर घर आ कर भावना अपने हृदय को शांत नहीं कर पा रही थी. पता नहीं उस ने अच्छा किया या बुरा…मम्मी पर इस की क्या प्रतिक्रिया होगी…मम्मी से कुछ भी कहने की उस की हिम्मत नहीं थी…अब तो जो भी होगा देखा जाएगा, यह सोच कर उस ने अपने दिलोदिमाग को शांत कर लिया.

आखिर विवाह का दिन आ पहुंचा. दुलहन बनी भावना खुद को शीशे में निहार रही थी. मम्मी पसीने से लस्तपस्त इधरउधर सब संभालने में लगी हुई थीं. बरात आने वाली थी. उस के डाक्टर मित्र मम्मी की थोड़ीबहुत मदद कर रहे थे, तभी बैंडबाजे की आवाज आने लगी. ‘बरात आ गई… बरात आ गई’ कहते सब बाहर भाग गए. वह कमरे में अकेली खड़ी रह गई.

पापा अभी तक नहीं आए…पता नहीं आएंगे भी या नहीं…काश, उस की कोशिश कामयाब हो जाती. तभी मम्मी उस को लेने कमरे में आ पहुंचीं.

‘‘चल, भावना…जयमाला के लिए चल,’’ तो वह मम्मी के साथ मंच की तरफ चल दी. जयमाला हुई, खाना खत्म हुआ, फेरे शुरू हो गए…खत्म भी हो गए, उस की निगाहें गेट की तरफ लगी रहीं. उस को ऐसा खोया देख कर मम्मी ने एकदो बार टोका भी पर उस के दिमाग में क्या ऊहापोह चल रही है, उन्हें क्या पता था.

फेरे के बाद उस के डाक्टर मित्र, रिश्तेदार सब अपनेअपने घर चले गए. सुबह विदाई के वक्त कुछ बहुत नजदीकी रिश्तेदार ही रह गए. उस की विदाई की तैयारियां हो रही थीं पर उस का हृदय उदास था. पापा ने यह अवसर खो दिया. इस खुशी के मौके व अकेलेपन के मोड़ पर मम्मी, पापा को माफ कर देतीं.

तभी डा. आर्या अंदर आ कर बोली, ‘‘भावना, तुम्हें कोई पूछ रहा है.’’

‘‘मुझे…’’

‘‘हां, कोई आशीश शर्मा हैं…’’

‘‘आशीश शर्मा…’’ वह खुशी के अतिरेक में डा. आर्या का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मेरा एक काम कर दो डाक्टर… उन्हें यहां ले आओ, मेरे कमरे में.’’

‘‘यहां…’’ डा. आर्या आश्चर्य से बोली, ‘‘कौन हैं वह.’’

‘‘सवाल मत करो. बस, उन्हें यहां ले आओ…’’

थोड़ी देर बाद डा. आर्या, आशीश शर्मा को ले कर कमरे में आ गई.

‘‘आप कल शादी में क्यों नहीं आए, पापा,’’ वह उलाहने भरे स्वर में बोली. उस के स्वर के अधिकार से बरसों की दूरी पल भर में छिटक गई. आशीश शर्मा ठगे से खडे़ रह गए. मन किया बेटी को गले लगा लें पर अपने किए अपराध ने पैरों में बेडि़यां डाल दीं. बाप का अधिकार उन के वजूद से छिटक कर अलग खड़ा हो गया.

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‘‘बेटी, मैं ने सोचा, तुम्हारी मम्मी की न जाने क्या प्रतिक्रिया हो…तुम्हारी शादी है…उन का मूड मुझे देख कर खराब न हो जाए…मैं जश्न में विघ्न नहीं डालना चाहता था.’’

‘‘मम्मी कहां हैं डा. आर्या…’’ वह आश्चर्यचकित खड़ी डा. आर्या से बोली.

‘‘शायद अंदर वाले कमरे में विदाई की तैयारी कर रही हैं.’’

‘‘चलिए, पापा,’’ वह आशीश शर्मा का हाथ पकड़ कर अंदर जा कर मम्मी के सामने खड़ी हो गई. अचानक इतने वर्षों बाद अपने सामने आशीश शर्मा को यों लाठी के सहारे खड़ा देख कर ज्योत्स्ना संज्ञाशून्य सी देखती रह गईं.

‘‘तुम…’’

‘‘मम्मी, पापा आप से कुछ कहना चाहते हैं…बोलिए न पापा, जो कुछ आप ने पत्र में लिखा था.’’

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…जिस के लिए तुम्हें इतने दुख दिए वह तो वर्षों पहले मुझे छोड़ कर चली गई. मैं जानता हूं कि मेरा अपराध क्षमा के योग्य नहीं है, इसी कारण मैं इतने सालों तक वापस आने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाया…मैं ने कोशिश तो बहुत की…मैं ही जानता हूं, कितना तड़पा हूं तुम दोनों के लिए… भावना की एक झलक पाने के लिए अस्पताल के गेट पर पागलों की तरह खड़ा रहता था…तुम्हें देखने के लिए स्कूल के चक्कर काटा करता था. कभी तुम दिख भी जातीं तो अपनेआप में मगन… फिर सोचता, कितने दुख दिए हैं तुम्हें… बहुत मुश्किल से संभली हो…कहीं मेरे कारण तुम्हारी मुश्किल से संभली जिंदगी फिर से बिखर न जाए…

‘‘यही सब सोच कर मेरी कोशिश कमजोर पड़ जाती. अपनी बीमारी में भी उसी अस्पताल में इसीलिए भरती हुआ कि जिंदगी के आखिरी दिनों में बेटी को जी भर कर देख लूंगा.

‘‘मुझे माफ कर दो ज्योत्स्ना…आज भी अगर भावना जोर नहीं देती तो मैं तुम से माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाता,’’ लाठी को बगल के सहारे टिका कर आशीश शर्मा ने दोनों हाथ जोड़ दिए.

ज्योत्स्ना का मन किया कि वह फूटफूट कर रो पडे़. बेटी की विदाई, आशीश का यों माफी मांगना, इतने वर्षों का संघर्ष…उन की रुलाई गले में आ कर मचलने लगी. आंखें बरसने से पहले उन्होंने बापबेटी की तरफ अपनी पीठ फेर दी, लेकिन हिलती पीठ से भावना समझ गई कि मम्मी रो रही हैं.

मम्मी के दोनों कंधों को पकड़ कर भावना बोली, ‘‘पापा को माफ कर दीजिए…गलती उन से हुई है पर उस की सजा भी उन को मिल चुकी है… अकेलापन उन्होंने भी झेला है, भले ही अपनी गलती से…प्लीज मम्मी…मेरी खातिर…’’ उस ने मम्मी का चेहरा धीरे से अपनी तरफ किया.

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‘‘बहुत बड़ी हो गई है तू यह सब करने के लिए…’’ मम्मी रुंधी आवाज में बोलीं पर उन की आवाज में गुस्सा नहीं बल्कि हार कर जीत जाने का एहसास था.

‘‘मम्मी, मैं इस घर को, अपने परिवार को पूर्ण देखना चाहती हूं,’’ कहते हुए भावना ने पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें पास खींच लिया. ज्योत्स्ना ने भरी नजरों से आशीश की तरफ देखा, जैसे कह रही हों, तुम मेरी जगह होते तो क्या माफ कर देते, जो मैं करूं. लेकिन आशीश शर्मा ने हिम्मत कर के ज्योत्स्ना के कंधों के चारों तरफ अपनी बांहें फैला दीं. रोती हुई वह पति आशीश के कंधे से लग गईं. दोनों को अपनी बांहों के घेरे से बांध कर भावना भी रो रही थी.

विदाई की बेला पर कार में बैठते हुए भावना आंसू भरी नजरों से गेट पर एकसाथ खडे़ मम्मीपापा की छवि को जैसे अपनी आंखों में समा लेना चाहती थी.

वक्त की अदालत में: भाग 3- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

पलट कर देखा, तो मुकीम अंगारे उगलती आंखों और विद्रूप चेहरे पर व्यंग्यभरी मुसकान से बोला, ‘इतना सजधज कर स्कूल जा रही है, या कहीं मुजरा करने जा रही है.’ सुन कर मैं अपमान और लांछन के दर्द से तिलमिला गई, ‘हां तवायफ हूं न, मुजरा करने जा रही हूं. और तुम क्या हो, तवायफ की कमाई पर ऐश करने वाले.’

‘आज तो तु झे जान से मार डालूंगा मैं…ले, ले,’ कहते हुए मुकीम मेरे कमर से नीचे तक के लंबे घने खुले बालों को खींच कर घर के मुख्य दरवाजे पर ही पटक कर लातोंघूसों से मारने लगा. नई साड़ी तारतार हो गई. कुहनी, घुटना और ठुड्डी से खून बहने लगा. सड़क से आतेजाते लोग औरत की बदकिस्मती और मर्द की सरपस्ती का भयानक व हृदयविदारक दृश्य देखने लगे. ‘बड़ा जाहिल आदमी है, पढ़ीलिखी, नौकरीपेशा औरत के साथ कैसा जानवरों सा सुलूक कर रहा है,’कहते हुए औरतें रुक जातीं. जबकि मर्द देख कर भी अनदेखा करते हुए तटस्थभाव से आगे बढ़ जाते.

‘मियांबीवी का मामला है, अभी  झगड़ रहे हैं 2 घंटे बाद एक हो जाएंगे. बीच में बोलने वाले बुरे बन जाएंगे. छोड़ो न, हमें क्या करना है,’ कहते और सोचते हुए पड़ोसी खिड़कियां बंद करने लगे और राहगीर अपनी राह पकड़ कर आगे बढ़ गए.

भूख, तंगदस्ती, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न अपनी पराकाष्ठा पार करने लगा था. फिर भी मैं अपने और बच्चों की लावारिसी की खौफनाक कल्पना से डर कर 12 सालों तक चुप्पी साध कर मुकीम के घर में ही रहने के लिए विवश थी. लेकिन मुकीम ने अस्मिता पर चोट  की तो मैं बिलबिला कर शेरनी की तरह बिफर गई, ‘लो मारो. और मारो मुझे. लो, बच्चों को भी मार डालो. अपनी तमाम खामियां और कमजोरियां मर्दाना ताकत से दबा कर सिर्फ मजबूर औरत पर जुल्म कर सकते हो न, बड़ा घमंड है अपने मर्द होने पर. जानती हूं मेरे बाद कई औरतों से कई बच्चे पैदा करने की ताकत है तुम में, लेकिन सच यह है कि इस के अलावा और कोई खूबी भी तो नहीं तुम में. इसलिए तो मेरे वकार, मेरी ईमानदारी को लहुलूहान कर के खुश होने का भ्रम पाल रखा है तुम ने.’

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‘साली, सजधज कर बाहर के मर्दों को रि झाने जाती है. कुछ कहने पर मुंहजोरी करती है. आज तो मैं तु झे सबक सिखा कर रहूंगा. दो पैसे कमाने का इतना घमंड दिखलाती है. ले, अब चला मुंह,’ कहते हुए मुकीम वहशी की तरह दौड़ा और पास पड़े 3 फुट लंबे चमड़े के पाइप को उठा कर पूरी ताकत से बरसाने लगा मेरे तांबे से जिस्म पर, सटाक, सटाक. आसमान देख रहा था चुपचाप, धरती देख रही थी चुपचाप, महल्ला देख रहा था चुपचाप, हवा बह रही थी चुपचाप. कोई एक कदम आगे न बढ़ा मुकीम की कलाई मरोड़ने के लिए. न ही मेरे जख्मों पर मरहम लगाने के लिए. पड़ोसिन सिद्दीकी आंटी मुंह पर पल्लू रख कर धीरे से बुदबुदाई थीं, ‘इसलिए तो औरत के बेबाक बाहर जाने पर पाबंदी लगाई जाती है. औरत को बाहर की हवा लगते ही वह मुंहफट और दीदेफटी हो जाती है.’

2 बच्चों की मां, कमाई करने वाली औरत, घर में नौकरानी की तरह खटने वाली औरत मैं 12 वर्षों तक अपने हक की रक्षा न कर सकी. खुदगर्ज मर्द के साथ बराबरी का सम्मान हासिल न कर पाईर्. 21वीं सदी की मुसलिम महिला की इस से बड़ी त्रासदी व विडंबना और क्या हो सकती है.

3 दशकों पहले राजीखुशी के समाचार खतों के जरिए ही मालूम होते थे. मैं ने कई बार सोचा, अम्मी व अब्बू को तब के मौजूदा हालात से वाकिफ करवा दूं, मगर हर बार उन की बुजुर्गी का सवाल कैक्टस की तरह चुभने लगता. मैं अपने भीतर की तपिश को ज्यादा दिन बरदाश्त नहीं कर पाई. जिस्मोदिल चूरचूर हो गए थे. बुरी तरह से बीमार पड़ गई. स्कूल से लंबी छुट्टी. सूखा, टूटता, बिखरता शरीर. भूख से तड़पते दोनों मासूम बच्चों की सिसकियां. मुकीम को पछतावा तो दूर उन की फिक्र करने की भी चिंता न थी.

उस की कमीनगी ने एक और रूप से परिचित करवा दिया. ‘मेहर सीरियस, कम सून.’ पोस्टमैन के हाथ से तार लेते हुए अब्बू थरथराने लगे थे. ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. जल्दी से पानी ला,’ अम्मी की बदहवास चीखों ने घर की दीवारों को थर्रा दिया. तबीयत संभली तो तीसरे दिन अब्बू सहर के साथ मुकीम की ड्योढ़ी पर खड़े थे. लाचार, बेबस बाप, मेरे चेहरे के नीचे स्याह धब्बों को लाचारगी से देखते हुए सीने से लगा कर फफक कर रो पड़े. नाजों में पली फूल सी बच्ची पर इतनी बर्बरता के निशान, उफ, बेटी पैदा करने की यह सजा. इतनी क्रूरता, ऐसा पाशिविक बरताव, मालूम होता तो पैदा होते ही नमक चटा देते, गला घोंट देते.

पढ़ेलिखे दामाद ने कितने लोगों की जिंदगी को अबाब बना कर रख दिया. न कानून सख्त है, न समाज में हौसला है एक औरत को शारीरिक, मानसिक यंत्रणा देने वाले मर्द को सजा देने का. ये उन के दिए गए संस्कार ही थे जिस की बदौलत बेटी ने ससुराल की ड्योढ़ी से बाहर कदम नहीं निकाला.

अब्बू की कोशिश यही रही कि बात को संभाला जाए. बेबाप के बच्चे, बेशौहर की औरत समाज में नासूर की तरह ही पलते हैं. यह सोच कर अपने आक्रोश का जहर पी कर पत्थर की तरह वे चुप रहे. सहर ने किचन संभाल लिया. अब्बू सौदासलूक के साथ मेरे रिसते जख्मों के लिए मरहम और दवाइयां ले आए. शरीर के घाव तो भर जाएंगे लेकिन मनमस्तिष्क के गहरे घावों को भरने में शायद पूरी उम्र भी कम पड़ जाए. मुकीम परिवार से कटाकटा ही रहा. अब्बू भी उस के मुंह लग कर अपनी इज्जत खोना नहीं चाहते थे. मुसलिम मध्यवर्गीय परिवार का सब से विवश और निरीह प्राणी बेटियों का बाप होता है.

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हफ्तेभर बाद मेरे सिर पर सहानुभूति का हाथ रख कर बोले थे अब्बू, ‘बेटा, आप की अम्मी शुगर और ब्लडप्रैशर की मरीज हैं, आप के लिए बहुत फिक्रमंद हो रही होंगी. मैं शाम की गाड़ी से घर वापस जाने की इजाजत चाहता हूं.’

‘नहीं अब्बू, हमें अकेला छोड़ कर मत जाइए. ये दरिंदे तो हमें…’ मैं ने कस कर अब्बू के दोनों हाथ पकड़ लिए थे. ‘न, न… बेटा, मरे आप के दुश्मन. हौसला रखिए. अभी आप को दोनों बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाना है, छोटी बहनों को विदा करना है, छोटे भाइयों को बड़ा होते देखना है, और पिं्रसिपल भी तो बनना है.’

‘नहीं, नहीं अब्बू, आप के साथ होने से बड़ी तसल्ली मिलती है. आप के अलावा इस शेर की मांद में हमारी हिफाजत कौन करेगा. आप मत जाइए, अब्बू.’

असमंजस की स्थिति में गिरफ्तार अब्बू काफी देर बाद बोल सके, ‘अच्छा, मैं सहर को कुछ दिनों के लिए आप के पास छोड़ जाता हूं. तसल्ली रहेगी आप को. तबीयत ठीक होते ही खत लिख देना. मैं आ कर ले जाऊंगा.’ डूबते को तिनके का सहारा. मेरा कोई तो अपना मेरे साथ होगा इन लोगों के बीच.

मुकीम अपने रूखे, नीरस और निष्ठुर स्वभाव के कारण बीवीबच्चों के साथ संवेदनशीलता से स्पंदनरहित था. यों तो घर का माहौल शांत था, फिर भी तूफानी हवाओं की सांयसांय अकसर कनपटी गरम कर जाती.

सहर खाली वक्त में बचपन की बातें याद दिला कर हंसाने की पुरजोर कोशिश करती, मगर मेरे चेहरे पर फीकी हंसी की एक लकीर लाने में भी कामयाब न हो पाती.

मैं ने पपड़ाए जख्मों के साथ ही स्कूल जौइन किया. स्टाफरूम की हर निगाह सवाली, मेरे गुलाबी, फड़फड़ाते होंठों से वहशीयत की कहानी सुनने के लिए. मगर सिले होंठों की सिवन कभी न उधेड़ने की प्रतिज्ञा करने पर मेरे खाते में सिर्फ हमदर्दी की शबनम ही आती रही.

उस दिन रोज ही की तरह सहर दोनों बच्चों को अगलबगल लिए दूसरे कमरे में सोई थी. दरवाजे का परदा गिरा था. मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. पानी पीने के लिए उठना ही चाहती थी कि सीढि़यों पर चढ़ती पदचाप सुन कर आंखें मूंदे करवट बदल कर लेटी रही. दवाइयों का असर और शरीर की टूटन ने धीरेधीरे नींद की आगोश में भर दिया. अकसर मुकीम पलंग की दूसरी तरफ चुपचाप आ कर लेट जाता था.

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तीसरे पहर सहर की जोरदार चीख सुन कर मैं कच्ची नींद से उठ कर दूसरे कमरे की तरफ भागी. नींद से बो िझल आंखों को कुछ भी नजर नहीं आया, तो दीवार पर टटोल कर बिजली का बटन दबा दिया. दूधिया रोशनी में सामने का दृश्य देख कर पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. शराब के नशे में धुत मुकीम कमर के नीचे से एकदम नंगा, चित लेटी सहर के ऊपर लेटा एक हाथ से उस के मुंह को दबाए, दूसरे हाथ से उस की छातियां मसल रहा था. दिल हिला देने वाला पाशविक दृश्य किसी भी सामान्य इंसान के रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी था. मैं ने अपनी पूरी ताकत सहर को मुकीम की गिरफ्त से छुड़ाने में लगा दी.

अगले भाग में पढ़ें- वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

दुश्मन: क्यों बदसूरत लगने लगा सोम को अपना चेहरा

‘रिश्तों के बिना इनसान का कोई अस्तित्व नहीं होता’ सोम ने इस बात को चरितार्थ कर दिया था. सगे भाई, पत्नी और यहां तक कि अपने बेटे विजय को भी अपना दुश्मन बना लिया था. लेकिन विजय ने रिश्तों की सचाई का ऐसा आईना सोम को दिखाया जिस में उसे अपना ही चेहरा बदसूरत लगने लगा.

‘‘कभी किसी की तारीफ करना भी सीखो सोम, सुनने वाले के कानों में कभी शहद भी टपकाया करो. सदा जहर ही टपकाना कोई रस्म तो नहीं है न, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी सदा निभाया ही जाए.’’

टेढ़ी आंख से सोम मुझे देखने लगा.

‘‘50 के पास पहुंच गई तुम्हारी उम्र और अभी भी तुम ने जीवन से कुछ नहीं सीखा. हाथ से कंजूस नहीं हो तो जबान से ही कंजूसी किस लिए?’’ बड़बड़ाता हुआ क्याक्या कह गया मैं.

वह चुप रहा तो मैं फिर बोला, ‘‘अपने चारों तरफ मात्र असंतोष फैलाते हो और चाहते हो तुम्हें संतोष और चैन मिले, कभी किसी से मीठा नहीं बोलते हो और चाहते हो हर कोई तुम से मीठा बोले. सब का अपमान करते हो और चाहते हो तुम्हें सम्मान मिले…तुम तो कांटों से भरा कैक्टस हो सोम, कोई तुम से छू भर भी कैसे जाए, लहूलुहान कर देते हो तुम सब को.’’

शायद सोम को मुझ से ऐसी उम्मीद न थी. सोम मेरा छोटा भाई है और मैं उसे प्यार करता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरा छोटा भाई सुखी रहे, खुश रहे लेकिन यह भी सत्य है कि मेरे भाई के चरित्र में ऐसा कोई कारण नहीं जिस वजह से वह खुश रहे. क्या कहूं मैं? कैसे समझाऊं, इस का क्या कारण है, वह पागल नहीं है. एक ही मां के शरीर से उपजे हैं हम मगर यह भी सच है कि अगर मुझे भाई चुनने की छूट दे दी जाती तो मैं सोम को कभी अपना भाई न चुनता. मित्र चुनने को तो मनुष्य आजाद है लेकिन भाई, बहन और रिश्तेदार चुनने में ऐसी आजादी कहां है.

मैं ने जब से होश संभाला है सोम मेरी जिम्मेदारी है. मेरी गोद से ले कर मेरे बुढ़ापे का सहारा बनने तक. मैं 60 साल का हूं, 10 साल का था मैं जब वह मेरी गोद में आया था और आज मेरे बुढ़ापे का सहारा बन कर वह मेरे साथ है मगर मेरी समझ से परे है.

मैं जानता हूं कि वह मेरे बड़बड़ाने का कारण कभी नहीं पूछेगा. किसी दूसरे को उस की वजह से दर्द या तकलीफ भी होती होगी यह उस ने कभी नहीं सोचा.

उठ कर सोम ऊपर अपने घर में चला गया. ऊपर का 3 कमरों का घर उस का बसेरा है और नीचे का 4 कमरों का हिस्सा मेरा घर है.

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जिन सवालों का उत्तर न मिले उन्हें समय पर ही छोड़ देना चाहिए, यही मान कर मैं अकसर सोम के बारे में सोचना बंद कर देना चाहता हूं, मगर मुझ से होता भी तो नहीं यह कुछ न कुछ नया घट ही जाता है जो मुझे चुभ जाता है.

कितने यत्न से काकी ने गाजर का हलवा बना कर भेजा था. काकी हमारी पड़ोसिन हैं और उम्र में मुझ से जरा सी बड़ी होंगी. उस के पति को हम भाई काका कहते थे जिस वजह से वह हमारी काकी हुईं. हम दोनों भाई अपना खाना कभी खुद बनाते हैं, कभी बाजार से लाते हैं और कभीकभी टिफिन भी लगवा लेते हैं. बिना औरत का घर है न हमारा, न तो सोम की पत्नी है और न ही मेरी. कभी कुछ अच्छा बने तो काकी दे जाती हैं. यह तो उन का ममत्व और स्नेह है.

‘‘यह क्या बकवास बना कर भेज दिया है काकी ने, लगता है फेंकना पड़ेगा,’’ यह कह कर सोम ने हलवा मेरी ओर सरका दिया.

सोम का प्लेट परे हटा देना ही मुझे असहनीय लगा था. बोल पड़ा था मैं. सवाल काकी का नहीं, सवाल उन सब का भी है जो आज सोम के साथ नहीं हैं, जो सोम से दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते हैं.

स्वादिष्ठ बना था गाजर का हलवा, लेकिन सोम को पसंद नहीं आया सो नहीं आया. सोम की पत्नी भी बहुत गुणी, समझदार और पढ़ीलिखी थी. दोषरहित चरित्र और संस्कारशील समझबूझ. हमारे परिवार ने सोम की पत्नी गीता को सिर- आंखों पर लिया था, लेकिन सोम के गले में वह लड़की सदा फांस जैसी ही रही.

‘मुझे यह लड़की पसंद नहीं आई मां. पता नहीं क्या बांध दिया आप ने मेरे गले में.’

‘क्यों, क्या हो गया?’

अवाक् रह गए थे मां और पिताजी, क्योंकि गीता उन्हीं की पसंद की थी. 2 साल की शादीशुदा जिंदगी और साल भर का बच्चा ले कर गीता सदा के लिए चली गई. पढ़ीलिखी थी ही, बच्चे की परवरिश कर ली उस ने.

उस का रिश्ता सोम से तो टूट गया लेकिन मेरे साथ नहीं टूट पाया. उस ने भी तोड़ा नहीं और हम पतिपत्नी ने भी सदा उसे निभाया. उस का घर फिर से बसाने का बीड़ा हम ने उठाया और जिस दिन उसे एक घर दिलवा दिया उसी दिन हम एक ग्लानि के बोझ से मुक्त हो पाए थे. दिन बीते और साल बीत गए. गीता आज भी मेरी बहुत कुछ है, मेरी बेटी, मेरी बहन है.

मैं ने उसे पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखने दिया. वह मेरी अपनी बच्ची होती तो भी मैं इसी तरह करता.

कुछ देर बाद सोम ऊपर से उतर कर नीचे आया. मेरे पास बैठा रहा. फिर बोला, ‘‘तुम तो अच्छे हो न, तो फिर तुम क्यों अकेले हो…कहां है तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे?’’

मैं अवाक् रह गया था. मानो तलवार सीने में गहरे तक उतार दी हो सोम ने, वह तलवार जो लगातार मुझे जराजरा सी काटती रहती है. मेरी गृहस्थी के उजड़ने में मेरी तो कोई भूल नहीं थी. एक दुर्घटना में मेरी बेटीबेटा और पत्नी चल बसे तो उस में मेरा क्या दोष. कुदरत की मार को मैं सह रहा हूं लेकिन सोम के शब्दों का प्रहार भीतर तक भेद गया था मुझे.

कुछ दिन से देख रहा हूं कि सोम रोज शाम को कहीं चला जाता है. अच्छा लगा मुझे. कार्यालय के बाद कहीं और मन लगा रहा है तो अच्छा ही है. पता चला कुछ भी नया नहीं कर रहा सोम. हैरानपरेशान गीता और उस का पति संतोष मेरे सामने अपने बेटे विजय को साथ ले कर खडे़ थे.

‘‘भैया, सोम मेरा घर बरबाद करने पर तुले हैं. हर शाम विजय से मिलने लगे हैं. पता नहीं क्याक्या उस के मन में डाल रहे हैं. वह पागल सा होता जा रहा है.’’

‘‘संतान के मन में उस की मां के प्रति जहर घोल कर भला तू क्या साबित करना चाहता है?’’ मैं ने तमतमा कर कहा.

‘‘मुझे मेरा बच्चा वापस चाहिए, विजय मेरा बेटा है तो क्या उसे मेरे साथ नहीं रहना चाहिए?’’ सफाई देते सोम बोला.

‘‘आज बच्चा पल गया तो तुम्हारा हो गया. साल भर का ही था न तब, जब तुम ने मां और बच्चे का त्याग कर दिया था. तब कहां गई थी तुम्हारी ममता? अच्छे पिता नहीं बन पाए, कम से कम अच्छे इनसान तो बनो.’’

आखिर सोम अपना रूप दिखा कर ही माना. पता नहीं उस ने क्या जादू फेरा विजय पर कि एक शाम वह अपना सामान समेट मां को छोड़ ही आया. छटपटा कर रह गया मैं. गीता का क्या हाल हो रहा होगा, यही सोच कर मन घुटने लगा था. विजय की अवस्था से बेखबर एक दंभ था मेरे भाई के चेहरे पर.

मुझे हारा हुआ जुआरी समझ मानो कह रहा हो, ‘‘देखा न, खून आखिर खून होता है. आ गया न मेरा बेटा मेरे पास…आप ने क्या सोचा था कि मेरा घर सदा उजड़ा ही रहेगा. उजडे़ हुए तो आप हैं, मैं तो परिवार वाला हूं न.’’

क्या उत्तर देता मैं प्रत्यक्ष में. परोक्ष में समझ रहा था कि सोम ने अपने जीवन की एक और सब से बड़ी भूल कर दी है. जो किसी का नहीं हुआ वह इस बच्चे का होगा इस की भी क्या गारंटी है.

एक तरह से गीता के प्रति मेरी जिम्मेदारी फिर सिर उठाए खड़ी थी. उस से मिलने गया तो बावली सी मेरी छाती से आ लगी.

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‘‘भैया, वह चला गया मुझे छोड़ कर…’’

‘‘जाने दे उसे, 20-22 साल का पढ़ालिखा लड़का अगर इतनी जल्दी भटक गया तो भटक जाने दे उसे, वह अगर तुम्हारा नहीं तो न सही, तुम अपने पति को संभालो जिस ने पलपल तुम्हारा साथ दिया है.’’

‘‘उन्हीं की चिंता है भैया, वही संभल नहीं पा रहे हैं. अपनी संतान से ज्यादा प्यार दिया है उन्होंने विजय को. मैं उन का सामना नहीं कर पा रही हूं.’’

वास्तव में गीता नसीब वाली है जो संतोष जैसे इनसान ने उस का हाथ पकड़ लिया था. तब जब मेरे भाई ने उसे और बच्चे को चौराहे पर ला खड़ा किया था. अपनी संतान के मुंह से निवाला छीन जिस ने विजय का मुंह भरा वह तो स्वयं को पूरी तरह ठगा हुआ महसूस कर रहा होगा न.

संतोष के आगे मात्र हाथ जोड़ कर माफी ही मांग सका मैं.

‘‘भैया, आप क्यों क्षमा मांग रहे हैं? शायद मेरे ही प्यार में कोई कमी रही जो वह…’’

‘‘अपने प्यार और ममता का तिरस्कार मत होने दो संतोष…उस पिता की संतान भला और कैसी होती, जैसा उस का पिता है बेटा भी वैसा ही निकला. जाने दो उसे…’’

‘‘विजय ने आज तक एक बार भी नहीं सोचा कि उस का बाप कहां रहा. आज ही उस की याद आई जब वह पल गया, पढ़लिख गया, फसल की रखवाली दिनरात जो करता रहा उस का कोई मोल नहीं और बीज डालने वाला मालिक हो गया.’’

‘‘बच्चे का क्या दोष भैया, वह बेचारा तो मासूम है…सोम ने जो बताया होगा उसे ही मान लिया होगा…अफसोस यह कि गीता को ही चरित्रहीन बता दिया, सोम को छोड़ वह मेरे साथ भाग गई थी ऐसा डाल दिया उस के दिमाग में…एक जवान बच्चा क्या यह सच स्वीकार कर पाता? अपनी मां तो हर बेटे के लिए अति पूज्यनीय होती है, उस का दिमाग खराब कर दिया है सोम ने और  फिर विजय का पिता सोम है, यह भी तो असत्य नहीं है न.’’

सन्नाटे में था मेरा दिलोदिमाग. संतोष के हिलते होंठों को देख रहा था मैं. यह संतोष ही मेरा भाई क्यों नहीं हुआ. अगर मुझे किसी को दंड देने का अधिकार प्राप्त होता तो सब से पहले मैं सोम को मृत्युदंड देता जिस ने अपना जीवन तो बरबाद किया ही अब अपने बेटे का भी सर्वनाश कर रहा है.

2-4 दिन बीत गए. सोम बहुत खुश था. मैं समझ सकता था इस खुशी का रहस्य.

शाम को चाय का पहला ही घूंट पिया था कि दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘‘ताऊजी, मैं अंदर आ जाऊं?’’

विजय खड़ा था सामने. मैं ने आगेपीछे नजर दौड़ाई, क्या सोम से पूछ कर आया है. स्वागत नहीं करना चाहता था मैं उस का लेकिन वह भीतर चला ही आया.

‘‘ताऊजी, आप को मेरा आना अच्छा नहीं लगा?’’

चुप था मैं. जो इनसान अपने बाप का नहीं, मां का नहीं वह मेरा क्या होगा और क्यों होगा.

सहसा लगा, एक तूफान चला आया हो सोम खड़ा था आंगन में, बाजार से लौटा था लदाफंदा. उस ने सोचा भी नहीं होगा कि उस के पीछे विजय सीढि़यां उतर मेरे पास चला आएगा.

‘‘तुम नीचे क्यों चले आए?’’

चुप था विजय. पहली बार मैं ने गौर से विजय का चेहरा देखा.

‘‘मैं कैदी हूं क्या? यह मेरे ताऊजी हैं. मैं इन से…’’

‘‘यह कोई नहीं है तेरा. यह दुश्मन है मेरा. मेरा घर उजाड़ा है इस ने…’’

सोम का अच्छा होने का नाटक समाप्त होने लगा. एकाएक लपक कर विजय की बांह पकड़ ली सोम ने और यों घसीटा जैसे वह कोई बेजान बुत हो.

‘‘छोडि़ए मुझे,’’ बहुत जोर से चीखा विजय, ‘‘बच्चा नहीं हूं मैं. अपनेपराए और अच्छेबुरे की समझ है मुझे. सभी दुश्मन हैं आप के, आप का भाई आप का दुश्मन, मेरी मां आप की दुश्मन…’’

‘‘हांहां, तुम सभी मेरे दुश्मन हो, तुम भी दुश्मन हो मेरे, तुम मेरे बेटे हो ही नहीं…चरित्रहीन है तुम्हारी मां. संतोष के साथ भाग गई थी वह, पता नहीं कहां मुंह काला किया था जो तेरा जन्म हुआ था…तू मेरा बच्चा होता तो मेरे बारे में सोचता.’’

मेरा बांध टूट गया था. फिर से वही सब. फिर से वही सभी को लहूलुहान करने की आदत. मेरा उठा हुआ हाथ विजय ने ही रोक लिया एकाएक.

‘‘रहने दीजिए न ताऊजी, मैं किस का बेटा हूं मुझे पता है. मेरे पिता संतोष हैं जिन्होंने मुझे पालपोस कर बड़ा किया है, जो इनसान मेरी मां की इज्जत करता है वही मेरा बाप है. भला यह इनसान मेरा पिता कैसे हो सकता है, जो दिनरात मेरी मां को गाली देता है. जो जरा सी बात पर दूसरे का मानसम्मान मिट्टी में मिला दे वह मेरा पिता नहीं.’’

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स्तब्ध रह गया मैं भी. ऐसा लगा, संतोष ही सामने खड़ा है, शांत, सौम्य. सोम को एकटक निहार रहा था विजय.

‘‘आप के बारे में जो सुना था वैसा ही पाया. आप को जानने के लिए आप के साथ कुछ दिन रहना बहुत जरूरी था सो चला आया था. मेरी मां आप को क्यों छोड़ कर चली गई होगीं मैं समझ गया आज…अब मैं अपने मांबाप के साथ पूरापूरा न्याय कर पाऊंगा. बहुत अच्छा किया जो आप मुझ से मिल कर यहां चले आने को कहते रहे. मेरा सारा भ्रम चला गया, अब कोई शक नहीं बचा है.

‘‘सच कहा आप ने, मैं आप का बच्चा होना भी नहीं चाहता. आप ने 20 साल पहले भी मुझे दुत्कारा था और आज भी दुत्कार दिया. मेरा इतना सा ही दोष कि मैं नीचे ताऊजी से मिलने चला आया. क्या यह इतना बड़ा अपराध है कि आप यह कह दें कि आप मेरे पिता ही नहीं… अरे, रक्त की चंद बूंदों पर ही आप को इतना अभिमान कि जब चाहा अपना नाम दे दिया, जब चाहा छीन लिया. अपने पुरुष होने पर ही इतनी अकड़, पिता तो एक जानवर भी बनता है. अपने बच्चे के लिए वह भी उतना तो करता ही है जितना आप ने कभी नहीं किया. क्या चाहते हैं आप, मैं समझ ही नहीं पाया. मेरे घर से मुझे उखाड़ दिया और यहां ला कर यह बता रहे हैं कि मैं आप का बेटा ही नहीं हूं, मेरी मां चरित्रहीन थी.’’

हाथ का सामान जमीन पर फेंक कर सोम जोरजोर से चीखने लगा, पता नहीं क्याक्या अनापशनाप बकने लगा.

विजय लपक कर ऊपर गया और 5 मिनट बाद ही अपना बैग कंधे पर लटकाए नीचे उतर आया.

चला गया विजय. मैं सन्नाटे में खड़ा अपनी चाय का प्याला देखने लगा. एक ही घूंट पिया था अभी. पहले और दूसरे घूंट में ही कितना सब घट गया. तरस आ रहा था मुझे विजय पर भी, पता नहीं घर पहुंचने पर उस का क्या होगा. उस का भ्रम टूट गया, यह तो अच्छा हुआ पर रिश्ते में जो गांठ पड़ जाएगी उस का निदान कैसे होगा.

‘‘रुको विजय, बेटा रुको, मैं साथ चलता हूं.’’

‘‘नहीं ताऊजी, मैं अकेला आया था न, अकेला ही जाऊंगा. मम्मी और पापा को रुला कर आया था, अभी उस का प्रायश्चित भी करना है मुझे.’’

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मोहमोह के धागे: भाग 3- मानसिक यंत्रणा झेल रही रेवती की कहानी

कुछ दिनों बाद ही एक दिन देवरानी को चक्कर और उलटियां आ रही थीं. डाक्टर ने मुआयना कर के 2 माह के गर्भ की सूचना दी. घर में थोड़ी सी खुशी की लहर घूम गई. रेवती की खुशी का ठिकाना न रहा. वह सम झी, साधु की साधना का फल है. वह दिनरात देवरानी की सेवा में लग गई. सभी संतुष्ट थे.

9वें महीने में रेवती की देवरानी नीता ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया. घर में छाई मुर्दनी धीरेधीरे तिरोहित होती गई. जहां तक रेवती का सवाल, उस में अलग सा परिवर्तन आ गया था. अब देवरानी से उस का ध्यान हट कर सारा ध्यान बच्चे की ओर लग गया था. नीता को भी देखभाल की जरूरत थी. रेवती सारा दिन बच्चे को गोद में लिए बैठी रहती. कभी मालिश करती, कभी स्नान करवा के डेटौल में उस के कपड़े धो कर डालती. बच्चा दूध के लिए रोता तो जा कर नीता को देती. नीता को अब खलने लगा था.

रीता ने 6 महीने की मैटरनिटी लीव ले रखी थी. अब वह चलनेफिरने लगी थी. अपने बच्चे का काम करना चाहती थी. पर रेवती उसे मौका नहीं देती. किचन का काम अधूरा पड़ा रहता. चायनाश्ता, लंच का कुछ समय न रहा था. सब की प्रश्नवाचक निगाहें रेवती पर उठने लगीं. कुछ समय तो परिवार वाले रेवती में आए इस बदलाव का कारण जानने की कोशिश करते रहे लेकिन किसी नतीजे पर न पहुंच पा रहे थे. मान लिया नवजात बच्चे के काम कर उसे संतुष्टि मिलती थी पर अब वह अपनी देवरानी नीता के मां बनने की खुशियों में बाधा बन रही थी.

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एक दिन तो हद ही हो गई. रेवतीकिचन का सारा काम अधूरा छोड़, बच्चे को ले मंदिर चली गई. बच्चा भूख के मारे रोने लगा. पर वह पूरे मंदिर परिसर की परिक्रमा करती रही. नीता नहा कर निकली, तो बच्चा नदारद. वह घबरा गई. सभी लोग रेवती और बच्चे को खोजने लगे. करीब आधे घंटे बाद रेवती भूख से बिलबिलाते, रोते बच्चे को ले कर जब घर आई तो नीता, जो सदैव जेठानी की इज्जत करती थी, उन के ऊपर हुए वैधव्य के वज्रपात के कारण ऊंची आवाज में बात न करती थी, गुस्से में फट पड़ी. उस ने रेवती की गोद से बच्चा छीनते हुए खरीखोटी सुना डाली.

रेवती को यह उम्मीद न थी. वह स्तब्ध रह गई. नीता ने चिल्ला कर कहा कि आज के बाद आप मेरे बच्चे को हाथ नहीं लगाएं. यह सुन रेवती के दिमाग में पाखंडी साधु की बात याद आई. जब तुम्हारा पति पुनर्जन्म लेगा तो बहुत लोग उसे तुम से दूर करने का प्रयास करेंगे. तुम हिम्मत न हारना. अब रेवती का दिमाग गुस्से से भर गया. वह चिल्लाने लगी, ‘‘किस का बच्चा, कौन सा बच्चा? यह बच्चा मेरे पति रणवीर हैं जिन्होंने इस घर में पुनर्जन्म लिया है. यह मेरा बच्चा है, मेरा रहेगा.’’ यह कह वह बच्चे को छीनने लगी. घरवालों ने बड़ी कठिनाई से दोनों को अलगअलग किया.

साधु महाराज ने उसे हिदायत दी, ‘‘देवी, ध्यान रखना यह बात हमेशा गुप्त रखना वरना मेरी ज्ञानध्यानशक्ति कमजोर पड़ जाएगी. मैं फिर तुम्हारे लिए कुछ न कर पाऊंगा. जाओ, अब घर जाओ.’’ सारे परिवार में खलबली मच गई. सब नीता को सम झाने लगे. रेवती की ओर से माफी मांगने लगे. नीता सम झदार लड़की थी. वह ससुराल वालों की आज्ञा की अवहेलना नहीं करना चाहती थी. सो, चुप्पी लगा गई.

रेवती, नीता की इस घोषणा से सतर्क हो गई. उस के दिमाग में साधु ने जो बातें भरी थीं वे घर बना चुकी थीं. रातरातभर वह गहरी सोच में डूबी रहती. उस के दिमाग में एक अजीब सी हलचल शुरू हो गई. वह दिमागी रुग्णता का शिकार हो गई.

एक दिन सासससुर किसी आयोजन में गए हुए थे. राजवीर औफिस गया था. नीता बच्चे को पालने में सुला कर नहाने चली गई. रेवती ने मौका पा एक बैग में कुछ कपड़े, दूध की बोतल रखी. कुछ रुपए उस के पास थे. वह बच्चे को एक चादर में लपेट कर दबेपांव घर से निकल गई. उसे स्वयं पता नहीं था कि कहां जाना है. सामने जाते हुए औटो को रोक स्टेशन चलने को कह दिया. स्टेशन आने पर हरिद्वार का टिकट ले लोगों से पूछतीपूछती प्लेटफौर्म नंबर-2 पर आ गई. उस ने साधुमहाराज के मुंह से हरिद्वार, ऋषिकेश का नाम बारबार सुना था.

उधर, नीता ने जब घर में बच्चे और रेवती को न देखा तो उसे रेवती की सारी योजना सम झ आ गई. उस ने बिना समय गंवाए पुलिस स्टेशन जा कर बच्चे और रेवती की फोटो दे कर सारी बात बताई. पुलिस सक्रिय हो गई. उस ने फिर पति, सास, ससुर रेवती के मायके में सब को सूचित किया. देखतेदेखते पुलिस ने बस अड्डे, टैक्सी स्टैंड, रेलवे स्टेशन खबर व फोटो भिजवा दीं. नीता की सू झबू झ और पुलिस की दौड़भाग से रेवती को हरिद्वार जाने वाली गाड़ी के प्लेटफौर्म से पकड़ लिया गया.

रेवती ने पुलिस को देख हंगामा कर दिया. वह किसी तरह भी बच्चा सौंपने को तैयार नहीं थी. उस ने एक ही रट लगा रखी थी कि यह मेरा रणवीर है. साधुमहाराज की तपस्या के बल पर मु झे वापस मिला है. जबरन लेडी कांस्टेबल ने बच्चे को उस की पकड़ से छुटकारा दिलवाया. रेवती अनर्गल प्रलाप करते हुए बेहोश हो गई.

लगभग एक महीने तक रेवती का मानसिक रोगों के अस्पताल में इलाज हुआ. डाक्टरों की स्नेहपूर्ण काउंसलिंग से उसे वास्तविकता से रूबरू करवाया गया. धीरेधीरे उसे अपनी नामस झी का भान हुआ. ससुराल वालों को जब रेवती द्वारा गहने देने की बात पता चली तो सब स्तब्ध रह गए. रेवती की नाजुक हालत को देख वे सब खून का घूंट पी कर रह गए. राजवीर ने मंदिर जा कर उस पाखंडी साधु की काली करतूत से सब को अवगत कराया. किसी के मोबाइल में साधु की प्रवचन करते समय की फोटो थी. उस ने प्रिंटआउट निकलवा पुलिस स्टेशन में दे कर गहने लूटने की घटना बना कर रिपोर्ट लिखवाई, पुलिस एक बार फिर अपने काम में जुट गई.

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अब रेवती बहुत शर्मिंदा थी. वह नए सैशन में ऐडमिशन ले कर आगे पढ़ना चाहती थी. इस के लिए उस ने डरतेडरते सासससुर से कहा. वे दोनों पहले ही उस की नामस झी से नाखुश थे. पहले तो उन्होंने गहने गंवाने के कारण रेवती को खरीखोटी सुनाई, उस के बाद कालेज में ऐडमिशन की मांग को सिरे से खारिज कर दिया. रेवती एक बार फिर निराशा के अंधकार में डूब गई. उस दिन छुट्टी होने के कारण राजवीर घर पर ही था.

रेवती का पढ़ाई का प्रस्ताव रखना, मातापिता द्वारा खारिज करना ये सब बातें राजवीर सुन रहा था. वह नए जमाने के क्रांतिकारी विचारों का युवक था. रणवीर केवल उस का भाई ही नहीं, वरन पक्का दोस्त भी था. उसे यह सब नागवार गुजरा. वह रेवती भाभी की पीड़ा और अकेलेपन से वाकिफ था. वह भाभी के भविष्य को सुधारने के लिए कुछ करना चाहता था. अचानक ऐसा संयोग बना कि उसे रेवती को इस घोर निराशा से बाहर निकालने का मौका हाथ लगा.

राजवीर का एक दोस्त समीर था, जिस की पत्नी अचानक प्रसव के समय एक  प्यारी सी बच्ची को जन्म दे कर चल बसी. पति पर तो दुख और मुसीबत का मानो पहाड़ ही टूट गया. घर में कोई न था जो बच्ची को संभाल लेता. बच्ची को जब तक कोई संभालने वाला न मिल जाता, नर्स उसे संभाल रही थी. उस ने दोस्त से अपनी रेवती भाभी के लिए पूछा. दोस्त समीर ने तुरंत हामी भर दी. वह राजवीर का शुक्रिया करते नहीं थक रहा था पर इस में भी राजवीर को एक आशंका थी कि रेवती को उस बिना मां की बच्ची को संभालने की अनुमति उस के रूढि़वादी मातापिता की ओर से मिलेगी या नहीं.

दूसरी समस्या यह थी कि रेवती और उस के परिवार को बच्ची को संभालने के लिए समीर के घर जा कर रहना मान्य होगा या नहीं. पहली समस्या का हल तो निकल गया. रेवती को बच्ची संभालने की अनुमति तो मिल गई पर रेवती और परिवार को समीर के घर जा कर रहना मान्य नहीं था. मातापिता की त्योरियों में भी बल पड़ गए. राजवीर को भी खरीखोटी सुननी पड़ी.

खैर, रेवती बच्ची को ले कर आ तो गई पर घर के कामों के चलते बच्ची को संभाल नहीं पा रही थी. घर में हर समय 2-2 बच्चों के काम, उन के रोने के शोरगुल के कारण कामकाज में लापरवाही होते देख राजवीर ने एक घरेलू हैल्पर रख ली. रेवती ने देखा कि सभी का ध्यान राजवीर के बेटे की ओर था. बच्ची की उपेक्षा हो रही थी. बच्ची रोती रहती, रेवती काम में लगी रहती. हैल्पर भी दूसरों के काम करती रहती. उस की बात पर ध्यान नहीं देती थी. रेवती को बच्ची से बहुत लगाव हो गया था. अब उस ने हिम्मत कर के बच्ची की केयरटेकर के रूप में समीर के घर रहने का फैसला कर लिया.

समीर एक शरीफ और सम झदार लड़का था. घरभर के एतराज के बावजूद राजवीर, रेवती को समीर के घर ले गया. समीर सवेरे ही औफिस निकल जाता, शाम को आ कर थोड़ी देर अपनी बच्ची से खेलता. जब वह सो जाती तो रेवती उसे अपने कमरे में ले जाती. रेवती के कुशल हाथों ने समीर के अस्तव्यस्त घर को संभाल लिया. बच्ची को पिता का भी भरपूर प्यार मिलने लगा. रेवती संतुष्ट थी. वह दिल की गहराइयों से बच्ची को प्यार करने लगी थी.

देखतेदेखते बच्ची 5 साल की हो गई. बच्ची के 5वें जन्मदिन पर राजवीर ने समीर से मिल कर एक योजना बनाई. समीर रेवती के लिए गुलाबी साड़ी और चूडि़यां लाया और बोला, ‘‘रेवतीजी, इन 5 सालों में आप ने मेरे घर और बच्ची के लिए इतना कुछ किया जिस का मैं उपकार जीवनभर नहीं उतार सकता. क्षमा चाहता हूं. मेरे घर और बच्ची को आप ने जैसे संभाला, वह कोई अपने घर का सदस्य ही संभाल सकता है. मैं आप को केयरटेकर न मान कर बहुत ऊंचा दर्जा देता हूं. आप भी आज इस समाज की वर्जनाओं को तोड़ कर चाहें तो इस साड़ी और चूडि़यों को पहन कर मेरे मन की बात मान सकती हैं.

‘‘अब मैं आप को अपने जीवनसाथी के रूप में देख कर समाज के रूढि़वादी बंधनों को तोड़ना चाहता हूं. अगर आप को मंजूर नहीं, तो कोई बात नहीं. मु झे बुरा नहीं लगेगा. बच्ची 5 साल की हो चुकी है, मैं इसे होस्टल में भेजने का इंतजाम कर लूंगा.’’

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रेवती भी जिंदगी में इतने कटु अनुभव  झेल चुकी थी कि और कुछ सहने की हिम्मत न थी. समीर की सज्जनता, सादगी और चरित्र की महानता वह परख चुकी थी. उसे भी इस घर और बच्ची के साथ समीर से भी मोह हो चुका था. ससुराल और मायके में राजवीर एकमात्र हितैषी था. उस के मन में खुशी की एक लहर सी उठी. अगले दिन बच्ची के जन्मदिन की शाम को रेवती ने पूरे घर को सजा कर समीर की दी गुलाबी साड़ी और चूडि़यां पहन लीं. मेहमानों के आने से पहले घर में यह गाना गूंजने लगा, ‘ये मोहमोह के धागे, तेरी उंगलियों से जा उल झे…’

समीर केक ले कर आया तो रेवती का यह बदला रूप देख आश्चर्य और खुशी में डूब गया. उस ने खुशी से बच्ची को गोद में उठा गोलगोल घुमाना शुरू कर दिया. रेवती ने जब उसे ऐसा करते देखा, तो भागती हुई आई, बोली, ‘‘अरे, मेरी बच्ची को चक्कर आ जाएंगे.’’ और दोनों जोर से हंस पड़े.

बकरा: भाग 2- क्या हुआ था डिंपल और कांता के साथ

लेखक- कृष्ण चंद्र महादेविया

चेला छांगू भी कहीं से टपक कर चोरीछिपे उन की बातें सुनने लगा था. डिंपल पर उस की बुरी नजर से कांता पूरी तरह परिचित थी और वह उसे देख भी चुकी थी.

उस ने चेले को बड़ी मीठी आवाज में पुकारा, ‘‘चेलाजी, चुपकेचुपके क्या सुनते हो… पास आ कर सुनो न.’’ छांगू था पूरा चिकना घड़ा. वह ‘हेंहेंहें’ करता हुआ उन के पास आ कर खड़ा हो गया.

‘‘दोनों क्या बातें कर रही हो, जरा मैं भी सुनूं?’’ उस ने कहा.

‘‘चेलाजी, हमारी बातों से आप को क्या लेनादेना. आप मेले में जाइए और मौज मनाइए,’’ डिंपल ने सपाट लहजे में कहा. उसे चेले का वहां खड़े होना अच्छा नहीं लगा था.

‘‘हाय डिंपल, तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं मरता हूं,’’ छांगू चेले की ‘हाय’ कहने के साथ ही शराब पीए होने की गंध से एक पल के लिए तो उन दोनों के नथुने फट से गए थे, फिर भी कांता ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘चेला भाई, आप की उम्र कितनी हो गई होगी?’’

‘‘अजी कांता रानी, अभी तो मैं 40-45 साल का ही हूं. तू अपनी सहेली डिंपल को समझा दे कि एक बार वह मुझ से दोस्ती कर ले, तो फायदे में रहेगी. देवता का चेला हूं, मालामाल कर दूंगा.’’

‘‘क्या आप की बीवी और खसम करेगी?’’

‘‘चुप कर कांता, ये लोहारियां हम खशकैनेतों के लिए ही हैं. जब चाहे इन्हें उठा लें… पर प्यार से मान जाए तो बात कुछ और है. तू इसे समझा दे, मैं देवता का चेला हूं. पूरे तंत्रमंत्र जानता हूं.’’

डिंपल के पूरे बदन में बिजली सी रेंग गई. उस के दिल में एक बार तो आया कि अभी जूते से मार दे, पर बखेड़ा होने से वह मुफ्त में परेशानी मोल नहीं लेना चाहती थी, तो उस ने सब्र का घूंट पी लिया.

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‘‘पर तुम्हारी मोटी भैंस का क्या होगा? वह और खसम करेगी या किसी लोहार के साथ भाग जाएगी,’’ कांता ने ताना कसते हुए कहा, तो छांगू चेला भड़क गया.

‘‘चुप कर कांता, लोहारों की इतनी हिम्मत कि वे हमारी औरतों को छू भी सकें. पर तू इसे मना ले. इसे देखते ही मेरा पूरा तन पिघल जाता है. इस लोहारी में बात ही कुछ और है. पर याद रख कांता, मैं देवता का चेला हूं, जरा संभल कर बात करना… हां.’’

तभी डिंपल ने उस के चेहरे पर एक जोर का तमाचा जड़ दिया. दूसरा थप्पड़ कांता ने मारा. छांगू चेले का सारा नशा हिरन हो गया. उस की सारी गरमी पल में उतर गई. हैरानपरेशान सा गाल मलते हुए वह कभी डिंपल, तो कभी कांता को देखने लगा. ‘‘खबरदार, अगर डिंपल की तरफ नजर उठाई, तो काट के रख दूंगी. लोहारों की क्या इज्जत नहीं होती? लोहारों की औरतें औरतें नहीं होतीं? देवता के नाम पर तुम्हारे तमाशों को हम अच्छी तरह जानती हैं. चुपचाप रास्ता नाप ले, नहीं तो गरदन उड़ा दूंगी,’’ कमर से दरांती निकाल कर कांता ने कहा, तो छांगू चेला थरथर कांपने लगा. वह गाल मलता हुआ दुम दबा कर खिसक लिया.

डिंपल और कांता खूब हंसी थीं. फिर काफी देर तक वे गांव के रिवाजों और प्रथाओं पर चर्चा करते रहने के बाद अपनेअपने घरों को लौटी थीं. सुबह ही एक खबर जंगल की आग की तरह पूरे चानणा गांव में फैल गई कि माधो लोहार शराब के नशे में खशों के रास्ते चल कर उसे अपवित्र कर गया. उस की बेटी डिंपल ने लटूरी देवता के मंदिर को छू कर अनर्थ कर दिया. खश तो आग उगलने लग गए. वहीं माधो से खार खाए लोहार भी बापबेटी को बुराभला कहने लगे. गुर खालटू ने कारदारों के जरीए पूरे गांव को मंदिर के मैदान में पहुंचने का आदेश भिजवा दिया. वह खुद छांगू, भागू और 3-4 कारदारों के साथ माधो के घर जा पहुंचा.

आंगन में खड़े हो कर गुर खालटू ने रोब से पुकारा, ‘‘माधो, ओ माधो… बाहर निकल.’’

माधो की डरीसहमी पत्नी ने आंगन में चटाई बिछाई, लेकिन उस पर कोई न बैठा. इतने में माधो बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया. डिंपल भी अपनी मां के पास खड़ी हो गई. उस ने किसी को भी नमस्ते नहीं किया. उसे देख कर छांगू चेले ने गरदन हिलाई कि अब देखता हूं तुझे. ‘‘माधो, तू ने रात खशों के रास्ते पर चल कर बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है. तू जानता है कि तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था. तेरी बेटी ने भी मंदिर को छू कर अपवित्र कर दिया है. अब देवता नाराज हो उठेंगे,’’ गंभीर चेहरा किए गुर खालटू ने जहर उगला.

‘‘गुरजी, यह सब सही नहीं है. न मैं खशों के रास्ते चला हूं और न ही मेरी बेटी ने मंदिर को छुआ है.’’

‘‘हां, मैं तो मंदिर की तरफ गई भी नहीं,’’ डिंपल ने निडरता से कहा, तो गुर थोड़ा चौंका. दूसरे लोग भी हैरान हुए, क्योंकि गुर और कारदारों के सामने बिना इजाजत कोई औरत या लड़की एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी. डिंपल देवता के नाम पर होने वाले पाखंड और कानून के खिलाफ हो रहे भेदभाव पर बहुतकुछ कहना चाहती थी, पर अपनी योजना के तहत वह चुप रही.

‘‘तू चुप कर डिंपल, मैं ने तुझे मंदिर को हाथ लगाते देखा है,’’ छांगू चेले ने जोर से कहा.

‘‘हांहां, बिना हवा के पेड़ नहीं हिलता. तुम बापबेटी ने बहुत बड़ा गुनाह किया है, अब तो पूरे गांव को तुम्हारी करनी भुगतनी पड़ेगी. बीमारी, आग, तूफान, बारिश वगैरह गांव को तबाह कर सकती है. तुम लोगों को पूरे गांव की जिम्मेदारी लेनी होगी,’’ मौहता भागू गुस्से से बोला.

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‘‘तुम दोनों चुपचाप अपना गुनाह कबूल करो. हां, देवता महाराज को बलि दे कर और माफी मांग कर खुश कर लो,’’ एक मोटातगड़ा कारदार बोला.

‘‘जब हम ने गुनाह किया ही नहीं, तो बलि और माफी किस बात की?’’ डिंपल ने गुस्से में कहा, पर माधो की बोलती बंद थी.

‘‘माधो, इस से पहले कि देवता गुस्सा हो जाएं, तू अपने बकरे की बलि और धाम दे कर लटूरी देवता को खुश कर ले. इस से पूरा गांव प्रकोप से बच जाएगा. तुम्हारा परिवार भी देवता की नाराजगी से बच जाएगा. देख, तुझे देव गुर कह रहा है.’’

‘‘हांहां, बकरे की बलि दे कर ही रास्ते और मंदिर की शुद्धि होगी. लटूरी देवता खुश हो जाएंगे और गांव पर कोई मुसीबत नहीं आएगी,’’ छांगू चेले ने आंगन में बंधे बकरे और डिंपल को देख कर मुंह में आई लार को गटकते हुए कहा. उसे डिंपल और कांता के थप्पड़ भूले नहीं थे.

‘‘हां, धाम न लेने के लिए मैं देवता को राजी कर दूंगा, पर बकरे की बलि तो तय है माधो,’’ गुर ने फिर कड़कती आवाज में कहा. डिंपल और उस की मां ने बकरा देने की बहुत मनाही की, पर गुर खालटू और देव कारकुनों के डराने पर माधो को मानना पड़ा. उस ने एक बार फिर सभी को बताया कि वह अपने रास्ते चल कर ही घर आया था और उस की बेटी ने मंदिर छुआ ही नहीं, पर उस की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. मौहता भागू ने झट बकरा खोला और मंदिर की ओर ले चला. फिर सभी मंदिर की ओर शान से चल दिए. चलतेचलते गुर खालटू ने माधो को बेटी समेत लटूरी देवता के मैदान में पहुंचने का आदेश दिया.

लटूरी देवता के मैदान में पूरे गांव वाले इकट्ठा हो गए. देवता के गुर खालटू ने धूपदान में रखी गूगल धूप को जला कर एक हाथ में चंबर लिए मंदिर की 3 बार बड़बड़ाते हुए परिक्रमा की. देवता की पिंडी बाहर निकाल कर पालकी में रख दी गई.

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वक्त की अदालत में: भाग 2- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

आप फिक्र न कीजिए, मेहरून बेटी. मैं प्लौट बेच कर आप के बीएड का खर्च पूरा करूंगा.’ अब्बू का खत आया था. इस से तो अच्छा होता मैं बीएड कर के नौकरी करती, फिर शादी करती. पर समाज के तानों ने अम्मी और अब्बू का जीना मुहाल कर दिया था. बीएड के ऐंट्रैंस एग्जाम में मैं पास हो गई थी. मेरी क्लासेस शुरू हो गईं. चारदीवारी की घुटन से निकल कर खुली हवा सांसों में भरने लगी. लेकिन घर से महल्ले की सरहद तक हिजाब कर के बसस्टौप तक बड़ी मुश्किल से पहुंचती थी.

‘यार, तुम कैसे बुरका मैनेज करती हो? तुम्हें घुटन नहीं होती? सांस कैसे लेती हो? मैं होती तो सचमुच नोंच कर फेंक देती और हिजाब करवाने वालों का भी मुंह नोंच लेती. चले हैं नौकरी करवाने काला लबादा पहना कर. शर्म नहीं आती लालची लोगों को,’ पौश कालोनी की सहपाठिन मेहनाज बोली थी.

‘मेहर में इतनी हिम्मत कहां कि वह ससुराल वालों का विरोध कर सके. यह तो गाय जैसी है. उठ कहा, तो उठ गई. बैठ कहा, तो बैठ गई. पढ़ीलिखी बेवकूफ और डरपोक है,’ शेरी मैडम के तंज का तीर असमर्थता के सीने पर धंसा. खचाक, मजबूरियों के खून का फौआरा छूटता, दर्दीली चीख उठती, आंखों में खून उतर आता, दुपट्टे का एक कोना खारे पानी के धब्बों से भर जाता.

‘तुम्हें वजीफा मिला है मेहर, नोटिस बोर्ड पर लिस्ट लगी है,’ मेहनाज ने चहकते हुए मु झे खबर दी थी.

‘सचमुच,’ खुश हो गई थी मैं.

‘हां, सचमुच, देख इन पैसों से कुछ अच्छे कपड़े और एग्जाम के लिए गाइड खरीद लेना. सम झी, मेरी भोली मालन,’ मेहनाज ने राय दी थी. ‘ठीक है,’ कह कर मैं घर की तरफ जाने वाली बस में चढ़ गई थी.

दूसरे दिन मुकीम कालेज मेरे साथ ही आ गया था. क्लर्क से वजीफे की कैश रकम ले कर जब अपनी जेब के हवाले करने लगा, तो मैं तड़प गई, ‘मुझे इम्तहान के लिए गाइड्स और टीचिंग एड बनाने के लिए कुछ सामान खरीदना है. कुछ पैसे मुझे चाहिए.’

मुकीम ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कुत्ता लाश का गोश्त नोंचने वाले गिद्ध की तरफ देखता है, बोला, ‘पुरानी किताबों की दुकान से सैकंडहैंड गाइड्स ला दूंगा. टीचिंग एड्स रोलअप बोर्ड पर बनाना. मु झे कर्जदारों का पैसा अदा करना है.’

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बीएड एग्जाम के बाद 2 साल में 2 बच्चे, शिथिल शरीर और आर्थिक अभावों ने आत्मनिर्भरता की दूरियों को और बढ़ा दिया. बड़ी हिम्मत कर के महल्ले के आसपास के प्राइवेट स्कूलों में अपना रिज्यूमे दे आई थी. आज से 30 साल पहले 50 रुपए से नौकरी शुरू की थी. उन दिनों क्रेच का कोई अस्तित्व ही नहीं था क्योंकि 99वें प्रतिशत औरतें घरेलू होती थीं.

बड़ी मुश्किल से एक विधवा वृद्धा के पास दोनों बच्चों को छोड़ कर मुंहअंधेरे ही घर का पूरा कामकाज निबटा कर स्कूल जाने लगी. मेरी कर्मठता और पाबंदी ने अगले माह ही इन्सैंटिव के रूप में 50 रुपए की तनख्वाह में चारगुना वृद्धि कर दी.

इस बीच, सरकारी स्कूल में वकैंसी निकली. लिखित परीक्षा में सफलता और 3 महीने बाद इंटरव्यू में सलैक्शन. ‘अब तो इस बेहया के और पैर निकल आएंगे,’ सास को अपना सिंहासन डोलता नजर आने लगा. ‘अरे अम्मी, यह क्यों नहीं सोचतीं कि भाभी की तनख्वाह बच्चों के बहाने से हम अपनी जरूरत के लिए ले सकते हैं,’ मक्कार और कपटी ननद ने मां के कान भरे.

‘अरे हां बाजी, अब आप अपना घर बनने तक भाईजान के पोर्शन में रह सकती हैं. भाईजान को महल्ले में ही किराए का घर ले कर रहने के लिए अम्मी जिद कर सकती हैं. अब पैसों की तंगी का बहाना नहीं कर सकेंगे भाईजान,’ देवरानी ने ननद के लालच के तपते लोहे पर चोट की. दरअसल, वह सास की वजह से मायके नहीं जा सकती थी. ननद पास में रहेगी, तो सास को उस के भरोसे छोड़ कर कई दिनों तक मायके में रहने, घूमनेफिरने का आनंद उठा सकती थी.

स्वार्थी और निपट गंवार सास ने आएदिन मुकीम को टेंचना शुरू किया. ‘तेरी औरत से कोई आराम तो मिला नहीं. उलटे, हमेशा डर बना रहता है कि मेरे बाजार और कहीं जाने पर यह छोटी बहू को भी अपने रंग में रंग कर घर के 3 टुकड़े न कर डाले. अब तू किराए का मकान ले ले. मेरी बेटी का मकान बनने तक वह यहीं रहेगी मेरे पास. और मेरी खिदमत भी करेगी.’

नागपुर से 10 किलोमीटर दूर कामठी में पोस्ंिटग पर मैं आ गई. ‘तुम स्कूल से कहां बारबार बैंक जाती रहोगी पैसे निकलवाने के लिए,’ कह कर मुकीम ने चालाकी से मेरे साथ जौइंट अकाउंट खोल लिया.

अम्मी ने देर रात तक कपड़े सिल कर, क्रोशिए से दस्तरख्वान, चादरें बुनबुन कर मेरी कालेज की फीस दी थी. पहली तनख्वाह मिली, तो मैं ने 25 रुपए का मनीऔर्डर कर उन के एहसानों का शुक्रिया अदा करते हुए उन के पते पर भेजा. पहली बार मेरा चेहरा खुशी और आत्मविश्वास से कुमुदनी की तरह खिल गया था.

एक हफ्ते बाद मुकीम के हाथ का कस के पड़ा तमाचा मेरे गुलाबी गाल पर पांचों उंगलियों के निशान छोड़ गया, ‘मायके से पैसे मंगवाने के बजाय मां को मनीऔर्डर भेज रही है. शर्म नहीं आती. बदजात औरत. आईंदा मु झ से पूछे बगैर एक पाई भी यहांवहां खर्च की, तो चीर के रख दूंगा, सम झी.’ उस दिन पहली बार लगा कि मैं ससुराल में सिर्फ पैसा कमाने वाली और बच्चा पैदा करने वाली मशीन बन गई हूं. मैं सिसकती हुई भूखी ही सो गई.

बचपन से ही सीधीसादी, छलकपट से कोसों दूर रहने वाली मैं मुकीम की क्रूरता को सालों तक चुपचाप सहती रही.

मुकीम के परिवार के लोगों का छोटीछोटी बातों को ले कर ऊंचीऊंची आवाज से लड़ना,  झगड़ना, गालीगलौज करना सहज स्वाभाविक दस्तूर की तरह रोज ही घटता रहता. यह अमानवीय और क्रूर दृश्य देख कर मेरे पैर थरथराने लगते, पेट में ऐंठन होने लगती और पसीने से लथपथ हो जाती.

उस दिन बड़े बेटे की तबीयत अचानक स्कूल में खराब हो गई. एमआई रूम के डाक्टर ने चैकअप कर के मिलिट्री हौस्पिटल के लिए रैफर कर दिया. दोपहर तक टैस्ट होते रहे. पर्स में सिर्फ 30 रुपए थे जो घर से निकलते वक्त मुकीम भिखारियों की तरह मेरे हाथ पर रख देता था. इलाज के लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी, सोच कर शौर्टलीव ले कर बैंक पहुंची. विदड्रौल स्लिप पर लिखी रकम देख कर कैशियर व्यंग्य से मुसकराया, ‘मैडम, आप के अकाउंट में सिर्फ सिक्युरिटी की रकम बाकी है.’ यह सुन कर पैरोंतले जमीन खिसक गई.

बेइज्जती का दंश सहती बीमार बच्चे को ले कर घर पहुंची तो बच्चे के इलाज के खर्च के लिए मुकीम को आनाकानी करते देख कर मैं अपना आपा खो बैठी, ‘इसीलिए आप ने जौइंट अकाउंट खुलवाया था कि महीना शुरू होते ही मेरी पूरी तनख्वाह निकाल कर शराब और जुए में उड़ा दें और अपनी तनख्वाह अपनी बहन के परिवार और मां पर खर्च कर दें. आप ने अपने ऐश के लिए मु झे नौकरी करने की इजाजत दी है, बच्चे के इलाज के लिए धेला तक खर्च नहीं करना चाहते. वाह, क्या खूब शौहर और बाप की जिम्मेदारी निभा रहे हैं.’

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‘हां, हां, मेरा बेटा तो निकम्मा है. तेरी कमाई से ही तो घर चल रहा है,’ कब से दीवार पर कान लगा कर सुन रही सास ने दिल की भड़ास निकाली.

‘आप हमारे बीच में मत बोलिए. मेरे घर को जलाने के लिए पलीता आप ही ने सुलगाया है हरदम,’ बेटे की कराह सुन कर मु झ में जाने कहां से विपरीत दिशा से आती तूफानी हवाओं को घर में धंसने से रोकने की ताकत भर गई.

‘देखदेख, मुकीम, यह नौकरी कर रही है, तो कितना ठसक दिखा रही है. मार इस को, हाथपैर तोड़ कर डाल दे,’ मां की आवाज सुनते ही मुकीम ने बरतनों के टोकरे से चिमटा खींच कर दे मारा मेरे सिर पर. खून की धार मेरे काले घने बालों से हो कर माथे पर बहने लगी. सिर चकरा गया और मैं धड़ाम से मिट्टी के फर्श पर बिखर गई. दोनों बच्चे यह वहशियाना नजारा देख कर चीख कर रोने लगे. मुकीम अपने भीतर के शैतान पर काबू नहीं कर पाया और मु झ बेहोश बीवी को गालियां बकते हुए लातोंघूंसों से मारने लगा. आवाजें सुन कर आसपास के घरों के लोग अपनी छतों से उचक कर मेरे घर का तमाशा देखने व सुनने की कोशिश करने लगे. खून देख कर सास धीरे से नीचे खिसक आई.

आधी रात को मुझे होश आया तो दोनों बच्चों को नंगे फर्श पर अपने से चिपक कर सोता हुआ पाया. हंसने, किलकने और बेफिक्र मासूम बचपन के हकदार बच्चे पिता का रौद्र रूप देख कर नींद में भी सिसक उठते थे.

मैं जिस्म की टूटन और सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी. मगर पेट को तो भरना ही था न. मुकीम को तो मौका मिल गया घर में दंगाफसाद कर के होटल का मनपसंद खाना और शराब में धुत आधी रात को घर लौटने का.

अप्रैल में स्कूल में ऐनुअल फंक्शन था. उर्दू, हिंदी, इंग्लिश तीनों पर बेहतरीन कमांड होने के कारण प्राचार्य ने अनाउंसमैंट की मेरी ड्यूटी लगा दी थी. बच्चों के साथ खुद भी तैयार हो कर घर से बाहर निकल ही रही थी कि पीछे से किसी ने बड़े एहतियात से बनाया गया जूड़ा पकड़ कर खींच दिया. दर्द से बिलबिला गई.

अगले भाग में पढ़ें- ‘सहर, देख तो अब्बू को क्या हो गया. 

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