लेखिका- रेणु खत्री
मेरे लिए कार कंपनी के मालिक, बेहद आकर्षक रोहित का रिश्ता आया. वे मुझे देखने आ रहे थे. मेरी मां, दादी और चाची तो थीं ही मेहमानों की खातिरदारी हेतु, परंतु मैं ने शैली और उस की मां को भी बुलवा लिया. सभी ने मिल कर बहुत अच्छी रसोई बनाई. देखनेदिखाने की रस्म, खानापीना सब अच्छे से संपन्न हो गया. अगले सप्ताह तक जवाब देने को कह कर लड़के वाले विदा ले चले गए.
मधुर पवन की बयार, बादलों की लुकाछिपी, वर्षा की बूंदें, प्रकृति की छुअन के हर नजारे में मुझे अपने साकार होते स्वप्नों की राहत का एहसास होता. लेकिन उस दिन मानो मुझ पर वज्रपात हो गया जब रोहित ने मेरे स्थान पर शैली को पसंद कर लिया. वादे के अनुसार, एक सप्ताह बाद रोहित के मामा ने हमारे यहां आ कर शैली का रिश्ता मांग लिया.
एक बार तो हम सभी हैरान रह गए और परेशान भी हुए. बस, एक मेरी अनुभवी दादी ने सब भांप लिया कि यहां बीच राह में समय खड़ा है. मेरी मां का तो यह हाल था कि वे मुझे ही डांटने लगीं कि तुम ने ही शैली को बुलाया था न, अब भुगतो. पर मेरी दादी रोहित के मामाजी को शैली के घर ले कर गईं. उन्हें समझाया. दादी शैली की शादी से भी खुश थीं.
तनाव दोनों घरों में था. मेरे तो सपने टूट गए. इतना अच्छा रिश्ता शैली की झोली में जाने से मेरी मां का स्वार्थ जाग उठा. वे शैली व उस की मां को भलाबुरा कहने लगीं और मैं ने अपनेआप को एकांत के हवाले कर दिया.
इस घटना से मेरे अंदर न जाने क्या दरक गया कि मेरे जीवन का सुकून खो गया और मेरी मित्रता मेरे अविश्वास की रेत बन कर मेरे हाथों से यों ढह गई मानो हमारी दोस्ती एक छलावा मात्र हो जिसे किसी स्वार्थ के लिए ही ओढ़ा हो.
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उधर, शैली नहीं चाहती थी कि हमारी दोस्ती इस रिश्ते की वजह से समाप्त हो. मेरी दादी ने इस बीच पुल का काम किया. उन्होंने पापा को समझाया, ‘शैली भी हमारी ही बेटी है. बचपन से हमारे यहां आतीजाती रही है. हम उसे अच्छी तरह जानतेसमझते हैं. फिर क्यों नहीं सोचते कि वह स्वार्थी नहीं है. वह हमारी प्रिया के मुकाबले ज्यादा सूबसूरत है, गुणी भी है. क्या हुआ जो रोहित ने उसे पसंद कर लिया. अरे, अपनी प्रिया के लिए रिश्तों की कमी थोड़े ही है.’
पापा दादी की बात से सहमत हो गए. मैं दादी की वजह से इस शादी में बेमन से शरीक हुई थी. विदाई के समय शैली मेरे गले लग कर इस कदर रोई मानो वह मुझ से आखिरी विदाई ले रही हो.
शैली की शादी के बाद उस की मां से मैं ने बोलना छोड़ दिया. लगभग 2 महीने बाद शैली मायके आई. वह मुझ से मिलने आई. मेरी दादी ने उसे बहुत लाड़ किया. पर मैं ने और मेरी मां ने उस के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. मेरी मां तो उसे अनदेखा कर बाजार चली गईं और मैं ने उस का हालचाल पूछने के बजाय उस से गुस्से में कह दिया, ‘अब तो खुश हो न मुझे रुला कर. मेरे हिस्से की खुशियां छीनी हैं तुम ने. तुम कभी सुख से नहीं रह पाओगी.’
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वह रोती हुई बाहर निकल गई और उस के बाद मुझ से कभी नहीं मिली. इस तरह की भाषा बोलना हमारे संस्कारों में नहीं था. और फिर, वह तो मेरी जान थी. फिर भी, पता नहीं कैसे मैं उस के साथ ऐसा व्यवहार कर गई जिस का मुझे उस वक्त कोई पछतावा नहीं था.
दादी को मेरा इस तरह बोलना बहुत बुरा लगा. उन्होंने मुझे बहुत डांटा और उसे मनाने के लिए कहा. पर मैं अपनी जिद पर अड़ी थी. मुझे अपने किए का पछतावा तब हुआ जब शैली का परिवार दिल्ली को ही अलविदा कह कर न जाने कहां बस गया.
वक्त बहुत बड़ा मरहम भी होता है और सबक भी सिखाता है. वह तो निर्बाध गति से चलता रहता है और हर किसी को अपने हिसाब से तोहफे बांटता रहता है. मुझे भी शशांक के रूप में वक्त ने ऐसा तोहफा दिया जो मेरे हर वजूद पर खरा उतरा. इन 19 वर्षों में उन्होंने मुझे शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया. मोटर पार्ट्स की कंपनी में मैनेजर के पद पर विराजित शशांक ने बच्चों को भी अच्छी शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढ़ाना और घर पर भी हम सभी को हमेशा भरपूर समय दिया है उन्होंने.
वक्त के साथ मैं बहुतकुछ भूल चुकी थी. पर आज शैली के साथसाथ दादी भी बहुत याद आने लगीं. सही कहती थीं दादी, ‘बेटा, कभी ऐसा कोई काम मत करो कि तुम अपनी ही नजरों में गिर जाओ.’ आज मेरा मन बहुत बेचैन था. मैं शैली से मिल अर अपने किए की माफी मांगना चाहती थी. मेरे व्यवहार ने उसे उस समय कितना आहत किया होगा, इसे मैं अब समझ रही थी. यादों के समंदर में गोते खाते वह समय भी नजदीक आ गया जब हमें उस से मिलने जाना था.
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हैदराबाद की राहों पर कदम रखते ही मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं. अपनेआप में शर्मिंदगी का भाव लिए बस यही सोचती रही कि कैसे उस का सामना कर पाऊंगी. हमारी आपसी कहानी से शशांक अनभिज्ञ थे. एक बार तो मैं शैली से अकेले ही मिलना चाहती थी. सो, मैं ने शशांक से कहा, ‘‘आप अपने औफिस की मीटिंग में चले जाइए, मैं टैक्सी ले लूंगी, शैली से मिल आऊंगी.’’ उन्हें मेरा सुझाव ठीक लगा.uyj7
अब मैं बिना किसी पूर्व सूचना के शैली के बताए पते पर पहुंच गई. उसी ने दरवाजा खोला. उस का शृंगारविहीन सूना चेहरा देख कर मेरा दिल बैठने लगा. हम दोनों ही गले लग कर जीभर रोए मानो आंसुओं से मैं अपने किए का पश्चात्ताप कर रही थी और वह उस पीड़ा को नयनों से बाहर कर रही थी जिस से मैं अब तक अनजान थी. मैं उस के घर में इधरउधर झांकने लगी कि बच्चे वगैरह हैं या नहीं, मैं पूछ ही बैठी, ‘‘रोहितजी कहां हैं? कैसे हैं? और बच्चे…?’’
मेरा कहना भर था कि उस की आंखें फिर भीग गईं. अब शैली ने बीते 20 वर्षों से, दामन में समाए धूपछांव के टुकड़ों को शब्दों में कुछ यों बयां किया, ‘‘रोहित से मेरा विवाह होने के 4 माह बाद ही एक सड़क दुर्घटना में वे हमें रोता छोड़ कर हमेशा के लिए हम से बिछुड़ गए. सुसराल वालों ने इस का दोष मेरे सिर पर मढ़ा.
अगले भाग में पढ़ें- अब लगता है शायद नियति ने ही ऐसा तय कर रखा था.