विद्रोह: भाग 1- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

वैसे तो रवि आएदिन मां को मारता रहता है लेकिन उस रात पता नहीं उसे क्या हो गया कि इतनी जोर का घूंसा मारा कि दांत तक टूट गया. बीच में आई पत्नी को भी खूब मारा. पड़ोसी लोग घबरा गए, उन्हें लगा कि कहीं विस्फोट हुआ और उस की किरचें जमीन को भेद रही हैं. खिड़कियां खोल कर वे बाहर झांकने लगे. लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि रवि के घर का दरवाजा खटखटा कर शोर मचने का कारण पूछ ले. मार तो क्या एक थप्पड़ तक कुसुम के पति ने उस की रेशमी देह पर नहीं मारा था, बेटा तो एकदम कसाई हो गया है. हर वक्त सजीधजी रहने वाली, हीरोइन सी लगने वाली कुसुम अब तो अर्धविक्षिप्त सी हो गई है. फटेगंदे कपड़े, सूखामुरझाया चेहरा, गहरी, हजारों अनसुलझे प्रश्नों की भीड़ वाली आंखें, कुछ कहने को लालायित सूखे होंठ, सबकुछ उस की दयनीय जिंदगी को व्यक्त करने लगे.

उस रात कुसुम बरामदे में ही पड़ी एक कंबल में ठिठुरती रही. टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची कि वह अपने छोटे से कमरे में, जो पहले स्टोर था, चली जाए. केवल एक ही वाक्य कहा था कुसुम ने अपनी बहू से : ‘पल्लवी, तुम ने यह साड़ी मुझ से बिना पूछे क्यों पहन ली, यह तो मेरी शादी की सिल्वर जुबली की थी.’

बस, बेटा मां को रुई की तरह धुनने लगा और बकने लगा, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि मेरी बीवी से साड़ी के लिए पूछती है.’’

कुसुम बेचारी चुप हो गई, जैसे उसे सांप सूंघ गया, फिर भी बेटे ने मारा. पहले थप्पड़ों से, फिर घूंसों से.

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ठंडी हवा का तेज झोंका उस की घायल देह से छू रहा था. उस का अंगअंग दर्द करने लगा था. वह कराह उठी थी. आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. चलचित्र की तरह घटनाएं, बीते दिन सूनी आंखों के आगे घूमने लगे.

‘इस साड़ी में कुसुम तू बहुत सुंदर लगती है और आज तो गजब ही ढा रही है. आज रात को…’ पति पराग ने कहा था.

‘धत्’ कह कर कुसुम शरमा गई थी नई दुलहन सी, फिर रात को उस के साथ उस के पति एक स्वर एक ताल एक लय हुए थे. खिड़की से झांकता हुआ चांद भी उन दोनों को देख कर शरमा गया था. वह पल याद कर के उस का दिल पानी से बाहर निकली मछली सा तड़पने लगा. जब भी खाने की किसी चीज की कुसुम फरमाइश करती थी तुरंत उस के पति ला कर दे देते थे. बातबात पर कुसुम से कहते थे, ‘तू चिंता मत कर. मैं ने तो यह घर तेरे नाम ही लिया है और बैंक में 5 लाख रुपए फिक्स्ड डिपौजिट भी तेरे नाम से कर दिया है. अगर मुझे कुछ हो भी जाएगा तब भी तू ठाट से रहेगी.’

हंस देती थी कुसुम. बहुत खुश थी कि उसे इतना अच्छा पति और लायक बेटी, बेटा दिए हैं. अपने इसी बेटे को उस ने बेटी से सौ गुना ज्यादा प्यार दिया, लेकिन यह क्या हो गया…एकदम से उस की चलती नाव में कैसे छेद हो गया. पानी भरने लगा और नाव डूबने लगी. सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी कगार पर पड़ी चट्टान सी हो जाएगी कि पता नहीं कब उस चट्टान को समुद्र निगल ले.

वह बीते पलों को याद कर पिंजड़े में कैद पंछी सी फड़फड़ाने लगी. उस रात वह सो नहीं पाई.

सुबह उठते ही धीरेधीरे मरियल चूहे सी चल कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, अपने लिए एक कप चाय बना कर, अपनी कोठरी में ले आई और पड़ोसिन के दिए हुए बिस्कुट के पैकेट में से बिस्कुट ले कर खाने लगी. बिस्कुट खाते हुए दिमाग में विचार आकाश में उड़ती पतंग से उड़ने लगे.

‘इस कू्रर, निर्दयी बेटेबहू से तो पड़ोसिनें ही अच्छी हैं जो गाहेबगाहे खानेपीने की चीजें चोरी से दे जाती हैं. तो क्यों न उन की सहायता ले कर अपनी इस मुसीबत से छुटकारा पा लूं.’ एक बार एक और विचार बिजली सा कौंधा.

‘क्यों न अपनी बेटी को सबकुछ बता दूं और वह मेरी मदद करे, लेकिन वह लालची दामाद कभी भी बेटी को मेरी मदद नहीं करने देगा. बेटी को तो फोन भी नहीं कर सकती, हमेशा लौक रहता है. घर से भाग भी नहीं सकती, दोनों पतिपत्नी ताला लगा कर नौकरी पर जाते हैं.’

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बस, इन्हीं सब विचारों की पगडंडी पर चलते हुए ही कुसुम ने कराहते हुए स्नान कर लिया और दर्द से तड़पते हुए हाथों से ही उलटीसीधी चोटी गूंथ ली. बेटेबहू की हंसीमजाक, ठिठोली की आवाजें गरम पिघलते शीशे सी कानों में पड़ रही थीं. कहां वह सजेसजाए, साफसुथरे, कालीन बिछे बैडरूम में सोती थी और कहां अब बदबूदार स्टोर में फोल्ंिडग चारपाई पर? छि:छि: इतना सफेद हो जाएगा रवि का खून, उस ने कभी सोचा न था. महंगे से महंगा कपड़ा पहनाया उसे, बढि़या से बढि़या खाने की चीजें खिलाईं. हर जिद, हर चाहत रवि की कुसुम और पराग ने पूरी की. शहर के महंगे इंगलिश कौन्वेंट स्कूल से, फिर विश्वविद्यालय से रवि ने शिक्षा ग्रहण की.

कितनी मेहनत से, कितनी लगन से पराग ने इसे बैंक की नौकरी की परीक्षाएं दिलवाईं. जब यह पास हो गया तो दोनों खुशी के मारे फूले नहीं समाए, खोजबीन कर के जानपहचान निकाली तब जा कर इस की नौकरी लगी.

और पराग के मरने के बाद यह सबकुछ भूल गया. काश, यह जन्म ही न लेता. मैं निपूती ही सुखी थी. इस के जन्म लेने के बाद मेरे मना करने पर भी 150 लोगों की पार्टी पराग ने खूब धूमधाम से की थी. बड़ा शरीफ, सीधासादा और संस्कारों वाला लड़का था यह. लेकिन पता नहीं इस ने क्या खा लिया, इस की बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जो राक्षसों जैसा बरताव करता है. अब तो इस के पंख निकल आए हैं. प्यार, त्याग, दया, मान, सम्मान की भावनाएं तो इस के दिल से गायब ही हो गई हैं, जैसे अंधेरे में से परछाईं.

रसोई से आ रही मीठीमीठी सुगंध से कुसुम बच्ची सी मनचली हो गई. हिम्मत की सीढ़ी चढ़ कर धीरेधीरे बहू के पास आई, ‘‘बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है, बेटी क्या बनाया है?’’ पता नहीं कैसे दुनिया का नया आश्चर्य लगा कुसुम को बहू के उत्तर देने के ढंग से, ‘‘मांजी, गाजर का हलवा बनाया है. खाएंगी? आइए, बैठिए.’’

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विद्रोह: भाग 2- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

हक्कीबक्की बावली सी कुसुम डायनिंग चेयर पर बैठ गई. एक प्लेट में हलवा रखा था, दूसरी प्लेट में गोभी के गरम परांठे. नाश्ता देते समय शहद सी मीठी बोली में बहू बोली, ‘‘पहले इन कागजों पर साइन कर दीजिए. फिर नाश्ता कर लीजिएगा.’’

‘‘न…न, मैं नहीं करूंगी साइन.’’

‘अच्छा, तो यह आदर, यह प्यार इस लालच में किया जा रहा था. छि:छि:, तुम दोनों ने तो रिश्तों को नीलाम कर दिया है. मैं चाहे मर जाऊं, चाहे मुझे कुछ भी हो जाए, मैं साइन नहीं करूंगी,’ कुसुम बड़बड़ाती रही.

‘‘जाइएजाइए, लीजिए सूखी ब्रैड और चाय, मत करिए साइन. और जब ये आ जाएं तब खाइएगा इन की मार.’’

बहू के शब्द तीरों से भी ज्यादा घायल कर गए कुसुम को. वह बाहर से अंदर तक लहूलुहान हो गई.

मरती क्या न करती. भूखी थी सूखी ब्रैड चाय में डुबो कर खाई, रोती रही. सोचती रही, ‘लानत है ऐसी जिंदगी पर. गाजर का हलवा, भरवां परांठे खा कर क्या मैं तेरी गुलाम बन जाऊं. न…न, मैं अपाहिज नहीं बनना चाहती. मैं अपना सबकुछ तुझे दे दूं और मैं अपाहिज बन जाऊं, यह नहीं हो सकता,’ बुदबुदाती हुई कुसुम, ब्रैड और चाय से ही संतुष्ट हो गई. मन ने कहा, ‘जाए भाड़ में तेरा हलवा और परांठे. मैं अपने जमाने में बचा हुआ हलवा, परांठेऔर पूरी मेहरी तक को खाने के लिए देती थी.’

कुसुम बहू की क्रियाएं आंखें फाड़फाड़ कर देख रही थी. सास की पीड़ा, दुख, व्यथा से बहू अनजान सी अपने कामों में व्यस्त थी. चायनाश्ता कर के उस ने अपना लंच बौक्स तैयार किया, फिर गुनगुनाती हुई पिं्रटैड सिल्क की साड़ी और उसी रंग की मैच करती माला पहन कर कालेज चली गई. बाहर से घर में ताला लगा दिया.

बाहर ताला बंद कर वह हर रोज ही कालेज जाती रही. और तो और टैलीफोन भी लौक कर दिया जाता था. लेकिन उस दिन वह टैलीफोन लौक करना भूल गई. कुसुम ने हर रोज की तरह पूरा घर देखा. हर चीज लौक थी. यहां तक कि फ्रिज में भी ताला लगा हुआ था.

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हां, बहू कुसुम के लिए डायनिंग टेबल पर 4 सूखी रोटी और अरहर की दाल बना कर रख गई थी. अनलौक टैलीफोन देख कर कुसुम के दिल में खुशी का खेत लहराने लगा. अब तो पड़ोसिन को फोन कर दूंगी. वह मुझे बाहर भागने में सहायता कर देगी.

उस समय कुसुम में हजार हाथियों की ताकत ने जन्म ले लिया. देह का दर्द भी कपूर सा उड़ गया. आंखों में हीरे सी चमक उत्पन्न हो गई. सब से पहले तो उस ने पड़ोसिन को फोन किया, ‘‘हैलो, कौन बोल रहा है?’’

‘‘मैं बोल रही हूं आंटी, रीता, लेकिन आप फोन कैसे कर रही हैं? क्या आज आप का फोन लौक नहीं है?’’

मुक्ति की खुशी में झूमती हुई कुसुम बोली, ‘‘हांहां बेटी, लौक नहीं है. सुनो, तुम इस समय बाहर का ताला तोड़ कर आ जाओ. तब तक मैं तैयारी करती हूं.’’

‘‘कैसी तैयारी, आंटी?’’ सुन कर रीता को आश्चर्य हुआ.

‘‘बेटी, तुम्हीं ने तो उस दिन कहा था कि आप यहां से भाग जाओ आंटी, किसी और शहर या बेटी के पास.’’

‘‘हांहां, कहा तो था. लेकिन आंटी, आप कहां जाएंगी?’’

‘‘मैं कानपुर अपने भाई के पास जाऊंगी. वह बस स्टेशन पर लेने आ जाएगा, फिर सब ठीक हो जाएगा. बेटी, अगर मैं नहीं गई तो यह मुझ से जबरदस्ती मारपीट कर, नशा पिला कर साइन करवा लेगा और…और…’’ कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

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‘‘और क्या आंटी… बताओ न…’’

‘‘और फिर मुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर फेंक देगा,’’ बोलते हुए कुसुम की आवाज कांप रही थी. पूरी की पूरी देह ही कंपकंपाने लगी थी. उस की देह जवाब दे रही थी. लेकिन फोन रख कर उस की हिम्मत सांस लेने लगी. आशा जीवित होने लगी.

जल्दीजल्दी अलमारी खोल कर अपने कपड़े, रुपए और वसीयत के कागज निकाले, पर्स लिया. ढंग से सिल्क की साड़ी पहन कर दरवाजे के पास अटैची ले कर खड़ी हो गई.

पत्थर से ताला नहीं टूटा तो रीता ने हथौड़ी से ताला तोड़ा. कुसुम दरवाजे के पास ही खड़ी थी.

एक ओर जेल से छूटे कैदी सी खुशी कुसुम के दिल में थी तो दूसरी ओर अपना घर, अपना घोंसला छोड़ने का दुख उसे खाए जा रहा था. वह घर, जिस में उस ने रानी सा जीवन व्यतीत किया, जहां उस ने सोने से दिन और चांदी सी रातें काटीं, जहां उस के आंगन में किलकारियां गूंजती थीं, प्यार का सूरज सदा उगता था, जहां उस के पति ने उसे संपूर्ण ब्रह्मांड का सुख दिया था, जहां वह घंटों पति के साथ प्रेम क्रीड़ाएं करती थी, जो घर खुशियों के फूलों से महकता था, वक्त ने ऐसी करवट बदली कि कुसुम आज उसे छोड़ कर जाने पर विवश हो गई. क्या करती वह? कोई अन्य उपाय नहीं था.

रीता ने अपनी कार में कुसुम को बिठा लिया, उस का सूटकेस उठाते समय रीता भी रोने लगी आंटी के बिछोह पर. रोंआसी रीता ने आंटी से उन के भाई का फोन नंबर ले लिया. और बस पर चढ़ाते समय यह वादा कर लिया कि वह हफ्ते में 2 बार फोन पर उन का हालचाल पता लगाती रहेगी.

जितना दुख कुसुम को अपना घर छोड़ने का था उस से कुछ ही कम दुख रीता से बिछुड़ने का था. ज्यादा देर वह रीता को बस के पास रोकना नहीं चाह रही थी. वह सरहद पर तैनात सिपाही सी सतर्क थी, सावधान थी कि कहीं खोजते हुए उस की बहू या बेटा न आ जाएं. वह उस घर में वापस जाना नहीं चाहती थी, जहां तालाब में मगरमच्छ सा उस का बेटा रहता था, जहां उस की जिंदगी मुहताज हो गई थी.

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बस चल पड़ी. वह खिड़की से बाहर आंसूभरी आंखों से रीता को तब तक देखती रही जब तक उस की आकृति ने बिंदु का रूप नहीं ले लिया.

ज्योंज्यों बस आगे बढ़ रही थी उस का अपना शहर दूर होता जा रहा था, वह शहर जहां वह सोलहशृंगार कर के अपने सुहाग के साथ आई थी. उसे लगा उस की जिंदगी एक नदी है जिस ने अपना रास्ता बदल लिया है और वह एक गांव है जो पीछे छूट गया है. बस जितना आगे बढ़ रही थी उस का दिल उतनी ही जोरों से धड़क रहा था. काफी देर बाद उस ने स्वयं को सामान्य स्थिति में पाया.

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अपराधिनी: भाग 1- क्या था उसका शैली के लिए उसका अपराध

लेखिका-  रेणु खत्री

पुरानी यादों के पन्ने समेटे आज  बरस बीत गए, फिर भी उस तसवीर को देखते ही पता नहीं क्यों मेरा मन अतीत में लौट जाता है. जब से शैली को टीवी पर देखा है, उस से मिलने की चाहत और भी बलवती हो गई. वह कैसे समाजसेविका बन गई? उसे क्या जरूरत थी यह सब करने की? उस का पति तो उसी की भांति समझदार ही नहीं, बल्कि कार की एक बड़ी कंपनी का मालिक भी था. ऐसे में वह इस क्षेत्र में कैसे आ गई?

मेरे अंतर्मन में ढेरों प्रश्न उमड़घुमड़ रहे थे. मैं उस से मिलने को बेताब हो उठी. पर न पता, न ठिकाना. कहां खोजूं उसे? यही सब सोचतेसोचते 4 दिन बीत गए. और फिर मेरे घर की चौखट पर जब मेरी प्रिय पत्रिका ने दस्तक दी तो उस में छपी उस की समाजसेवा की कुछ विशेष जानकारी से उस की संस्था का पता चला. उसी से उस का फोन नंबर मालूम हुआ. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने फोन लगाया. वही चिरपरिचित मधुर आवाज में वह ‘‘हैलो, हैलो…’’ बोले जा रही थी. और मेरे शब्द मुख के बजाय आंखों से झर रहे थे. मुझ से कुछ भी कहते नहीं बन रहा था. आखिर अपमान भी तो मैं ने ही किया था उस का. अब कैसे अपने किए की माफी मांगूं? फोन कट गया. मैं ने फिर मिलाया. अब भी बात करने की हिम्मत मैं नहीं कर पाई.

अब की बार वहीं से फोन आया. मैं ने घबराते हुए फोन उठाया. आवाज आई, ‘‘हैलो जी, कौन? लगता है आप तक मेरी आवाज नहीं पहुंच पा रही है.’’ उस का इतना कहना भर था कि मैं एकाएक बोल उठी, ‘‘शैली.’’

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‘‘हांहां, मैं शैली ही हूं. आप कौन हैं?’’

‘‘मैं, मैं, प्रिया, तुम्हारी बचपन की सहेली.’’

वह चौंकी, ‘‘प्रिया, तुम, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि मैं अभी भी तुम्हें याद हूं.’’

‘‘प्लीज शैली, मुझे माफ कर दो. उस दिन मैं ने तुम्हारा बहुत दिल दुखाया. सच मानो तो आज तक अपनेआप से नजरें मिलाते हुए आत्मग्लानि होती है. उस दिन के बाद से कितना तड़पी हूं तुम से माफी मांगने के लिए,’’ मैं लगातार बोले जा रही थी.

वह थोड़ा रोब में बोली, ‘‘बस, बहुत हुआ. और हां, तुम किस बात की माफी मांग रही हो? माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मैं ने तुम्हारे सपनों को तोड़ा. अगर तुम सचमुच मुझ से नाराज नहीं हो, तो मैं हैदराबाद में हूं. क्या तुम मुझ से मिलने आओगी? अपना पता मैं मोबाइल पर अभी मैसेज किए देती हूं. और प्रिया, तुम कहां हो?’’

‘‘मैं यहीं दिल्ली में ही हूं. आज तो तुम से बात करने से भी ज्यादा खुशी की बात यह है कि अगले महीने ही मेरे पति की औफिस की मीटिंग हैदराबाद में ही है. अब की बार मैं भी उन के साथ ही आऊंगी,’’ मैं ने कहा.

हम दोनों ही खुशी से खिलखिला उठे व जल्द ही एकदूसरे से मिलने की चाहत लिए अपनीअपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए.

शशांक के औफिस से लौटते ही मैं ने उन के आगे अपनी बात रख दी, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वैसे भी याशिका और देव तो होस्टल में हैं. याशिका का इसी वर्ष आईआईटी में चयन हो गया है. वह कानपुर में है. और देव कोटा में अपने मैडिकल प्रवेश टैस्ट की तैयारी में व्यस्त है.

अब शैली से मिलने की मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी. यों लगने लगा मानो दुख व नफरत के काले मेघ छंट गए और खुशियों की छांव फिर से हमारे दिलों पर दस्तक देने को तैयार है. शायद आंसू और खुशी के इस सामंजस्य का नाम ही जिंदगी है.

अब तो मेरा पूरा ध्यान ही शैली पर केंद्रित होने लगा. फिर फोन मिलाया. यह जानने के लिए कि उस के पति कैसे हैं, बच्चे कितने हैं, कितने बड़े हो गए.

पर शैली ने फोन पर कुछ भी बताने से मना कर दिया. मात्र इतना कहा, ‘‘अभी इसे राज ही रहने दो. मिलने पर सब बताऊंगी.’’

अपनी कल्पना में खोई मैं 2 बच्चों के हिसाब से उन के लिए कुछ उपहार आदि खरीद लाई.

अगले दिन शशांक के औफिस जाने के बाद मैं ने अपना पुराना वह अलबम निकाला जो शादी के समय दादी ने मेरे कपड़ों के साथ रख दिया था. इस में शैली और मेरी बचपन की कई तसवीरें थीं. उन्हें देखते ही मुझे वर्षों पुराने उन रंगों की स्मृति हो आई जो कभी मेरे जीवन में गहरे थे व कभी उन रंगों की चमक फीकी पड़ गई थी. उन यादों के अलगअलग रूप मेरे सामने चलचित्र की भांति आते जा रहे थे.

कितना प्यारा था वह बचपन, जो कभी तो मां की साड़ी के आंचल में छिप जाता था और कभी झांकने लगता था दादी की प्रेरणादायक कहानियों के माध्यम से.

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शैली और प्रिया की जोड़ी पूरे स्कूल में मशहूर थी. हमारे तमाम रिश्तों में हमारी दोस्ती का रिश्ता ही इतना प्रगाढ़ और अनमोल था कि स्कूल में, चाहे अध्यापिका हो अथवा सहेलियां, हम दोनों का नाम जोड़ कर ही बोला जाता था -शैलप्रिया.

शैली, जितनी बाहर से खूबसूरत सी, उस से कहीं अधिक वह दिल से भी सौंदर्य की धनी थी. हमारा बचपन ढेर सारे अनुभवों और किस्सों से भरा था. वह अपने मातापिता की इकलौती लाड़ली थी और मेरे दोनों छोटे भाइयों को वह राखी बांधती थी.

हमारा घर भी पासपास ही था. उस के पापा यहीं दिल्ली में ही किसी गैरसरकारी कंपनी में कार्यरत थे व उस की मां गृहिणी थीं, जबकि मेरे पापा का अपना कारोबार था और मम्मी अध्यापिका थीं. कालेज में भी हमारे विषय समान थे और कालेज भी हम दोनों का एक ही था. हम ने बीए किया था. उस के बाद हमारी दोस्ती पर पता नहीं किस की बुरी नजर लग गई जो हम एकदूसरे से 20 सालों से जुदा हैं. सोचतेसोचते ही मेरी आंखें नम हो आईं, फिर भी विचारों की झड़ी दिलोदिमाग में गोते खाती रही.

कुदरत व समय का हमारे जीवन से गहरा नाता है. हम तो इस मायावी दुनिया में मात्र माध्यम बनते हैं. जबकि कुदरत बड़ी करामाती है जो किस का समय, किस का काम, कहां, कैसे बांट दे, कोई नहीं जानता. फिर भी हम बुनते हैं सपनों के महल.

उस दिन भी जिंदगी ने एक रास्ता तय किया था जिस की सुखद फूलोंभरी राह पर मैं ने चलने के सपने देखे. लेकिन कुदरत ने उस दिन मेरा समय यों पलट दिया मानो मेरे अहं पर किसी ने भयानक प्रहार किया हो.

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रिश्ता कागज का: क्या था पारुल और प्रिया का रिश्ता

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खुशियों का उजास: भाग 1- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

“मम्मा… मम्मा…,” नन्हे की घुटीघुटी चीखें सुन कर मां बानी दौड़ीदौड़ी ड्राइंगरूम में आई, जहां वह अपने 4 साल के बेटे को आया की निगरानी में छोड़ कर गई थी. उस ने वहां जो दृश्य देखा, सदमे से उस की खुद की चीख निकल गई.

उस के सगे बड़े भाई और पिता कमरे में थे. भाई ने एक तकिए से नन्हे के मुंह को दबाया हुआ था, साथ खड़े पिता क्रोध से जलती लाल अंगारा आंखों से दांत पीसते हुए उस से कह रहे थे, “ज़ोर से भींच, और जोर से कि इस संपोले का काम आज तमाम हो ही जाए.”

एक क्षण को तो बानी में समझ ही नहीं आया कि वह क्या करे, लेकिन अगले ही पल वह भाई के हाथों से तकिया छीनते हुए जोर से चीखी, “बचाओ… बचाओ…” कि तभी बिजली की गति से एक लंबा व तगड़ा शख्स ड्राइंगरूम के खुले दरवाजे से कमरे में घुसा. उस ने भाई के हाथों से तकिया जबरन छीन कर एक ओर पटक दिया और नन्हे को उस के चंगुल से मुक्त करा बानी को थमा कर उस से बोला, “आप इसे ले कर भीतर जाइए. कमरे का दरवाजा बंद कर लीजिएगा. मैं इन से निबटता हूं.”

इस दौरान पिता उस की ओर मुखातिब हो चीख रहे थे, “पंडितजी ने कहा है, तूने हमारे घर पर अपने पाप की काली छाया डाल रखी है. तेरी वजह से हमारा घर फलफूल नहीं रहा. मेरी नौकरी नहीं रही. इस बड़के की नौकरी भी बारबार चली जाती है. छुटकी का रिश्ता नहीं हो रहा. तेरी और तेरे इस मनहूस की वजह से ही घर पर विपदा आई हुई है, कुलक्षणी.”

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वह खौफ़ और दहशत से थरथर कांपती हुई रोतेगर्राते नन्हे को अपने धड़कते सीने से चिपकाए अंदर के कमरे में जातेजाते थोड़ा ठहर कर पिता पर रोती हुई गरजी, “किस के कहने पर आप एक नन्हे से बच्चे की जान लेने चले आए? यह भी नहीं सोचा कि यह आप का अपना खून है. मैं ने अपनेआप अपनी ज़िंदगी बनाई है. खुद के दम पर पढ़लिख कर आज मैं इस मुकाम पर पहुंची हूं कि मैं अपने बेटे को एक बढ़िया जिंदगी दे पा रही हूं. एक बेहतरीन ज़िंदगी जी रही हूं. और आप कहते हैं, मेरे पाप की काली छाया आप लोगों पर पड़ रही है.

“आप की परेशानियों का कारण मैं नहीं, आप खुद हैं. आप और भैया को अपने दोस्तों के साथ अड्डेबाजी और गांजे से फुरसत मिले, तब तो आप लोग किसी नौकरी में टिकेंगे. आप दोनों का काहिलपना आप की समस्या की वजह है, न कि इतनी दूर बैठी मैं.” यह कह कर उस ने कमरे में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया, और नन्हे को बेहताशा चूमती हुई, अर्धविक्षिप्त सी आंसू बहाती, मुंह ही मुंह में बुदबुदाई, ‘मेरा बेटा… मेरा सोना… मेरा राजा… आज अगर वह लड़का समय पर नहीं आता तो क्या होता? तुझे कुछ हो जाता, तो मैं कहीं की न रहती.’

बाहर से उस युवक और भाई के बीच हाथापाई की आवाजें आ रही थीं. पिता गुस्से में उस युवक पर गरज रहे थे, “तू होता कौन है हमारे निजी मामलों में टांग अड़ाने वाला. यह मेरी बेटी है. मैं चाहे जो करूं.”

उधर शायद एक बार को उस का भाई उस युवक की गिरफ्त से छूट उस के बंद कमरे के दरवाजे को पीटने लगा, लेकिन शायद तभी उस युवक ने फिर से उसे काबू कर लिया. करीब दस मिनट तक पिता का चीखनाचिल्लाना जारी रहा.

बानी पत्ते की तरह थरथर कांपती, तेजी से धड़कते दिल के साथ नन्हे को कलेजे से चिपकाए बैठी थी, कि तभी उस ने सुना, वह युवक तेज आवाज में पापा को धमका रहा था, “आप दोनों यहां से फौरन नहीं गए, तो मुझे मजबूरन सौ नंबर डायल करना पड़ेगा. इसलिए बेहतर यही होगा कि आप दोनों यहां से फौरन चले जाएं. यह मत समझिए कि वे अकेली हैं. मैं यहां जस्ट बगल वाले फ्लैट में रहता हूं, इसलिए अगली बार यहां पैर रखने से पहले दस बार सोच लीजिएगा. अगर आप लोगों ने फिर से इन्हें या बच्चे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, तो मैं आप के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने में बिलकुल नहीं हिचकूंगा. आप इन के पिता हैं, उस का लिहाज कर मैं अभी कुछ नहीं कर रहा.”

कुछ ही देर में बाहर सन्नाटा छा गया. शायद पिता और भाई चले गए थे. तभी उस युवक ने उस का दरवाजा खटखटाया, “दरवाजा खोलिए, वे लोग चले गए हैं.”

डरीसहमी बैठी बानी ने अपनी गोद में सोए नन्हे को पलंग पर लिटा दिया और उठ कर दरवाजा खोला.

“आप ऐन समय पर नहीं आते तो आज अनर्थ हो जाता. मैं आप का किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं. थैंक यू, थैंक यू सो वैरी मच,” उस ने हाथ जोड़ते हुए उस युवक से कहा, “आप बगल वाले फ्लैट में रहते हैं, मैं ने आप को पहले तो कभी नहीं देखा.”

“जी, मैं पिछले हफ्ते ही मुंबई से ट्रांसफ़र हो कर यहां आया हूं. मैं उमंग हूं, एक डाक्टर हूं. आप का गुड नेम, प्लीज.”

“मैं बानी हूं.”

“आप क्या करती हैं बानीजी?”

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“जी, मैं अभिज्ञान यूनिवर्सिटी में मैथ्स की लैक्चरर हूं.”

“लैक्चरर, ओह, ओके.”

“चलिए बानीजी, मैं अपने बाहर के कमरे में खिड़की के पास ही बैठता हूं. रात को वहीं सोऊंगा भी. कभी भी आधी रात को भी कोई जरूरत हो तो आप बेहिचक एक मिस्डकौल दे दीजिएगा. मैं हाजिर हो जाऊंगा. वैसे तो अब वे लोग दोबारा आने की ज़ुर्रत नहीं करेंगे, फिर भी आप मेरा नंबर ले लीजिए.”

“जी, एक बार फिर से आप का बहुतबहुतबहुत शुक्रिया, डाक्टर उमंग.”

“अरे, हम पड़ोसी हैं. इन शुक्रिया और थैंक्स के चक्कर में मत पड़िए. चलिए, दरवाजा ठीक से बंद कर लीजिएगा.”

“जी, बहुत अच्छा.”

उस रात बानी को बहुत देर तक नींद नहीं आई. नन्हे को सीने से लगाए हुए कब बरबस उस के जेहन में बीते दिनों की मीठीकसैली यादों की गिरहें एकएक कर खुलने लगीं, उसे एहसास तक न हुआ.

‘वह एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार में कट्टर, पुरातनपंथी मान्यताओं वाले अल्पशिक्षित मातापिता की बेटी थी. उस का एक बड़ा भाई और एक छोटी बहन थी. पिता निठल्ले स्वाभाव के थे. कहीं टिक कर नौकरी नहीं करते. काम के बजाय यारीदोस्ती और गांजे का नशा करने में उन का मन ज्यादा रमता. आएदिन नौकरी छोड़ देते. घर में हर वक्त तंगी ही रहती. सो, घरखर्च चलाने के लिए मां लोगों के घरों में खाना बनातीं.

मां और पिता दोनों सुबह जल्दी घर से निकलते और देररात घर में घुसते. उपयुक्त नियंत्रण और मार्गदर्शन के अभाव में उन की बड़ी संतान, उन का एकमात्र बेटा ज्यादा नहीं पढ़ पाया. उस ने 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी. वह साड़ियों के एक शोरूम में काम करने लगा.

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वह शुरू से ही कुशाग्रबुद्धि थी, हमेशा पढ़ाई में अच्छा परिणाम देती और सीढ़ीदरसीढ़ी आगे बढ़ती गई. अपनी कड़ी मेहनत के दम पर उस ने मैथ्स जैसे कठिन विषय में एमएससी कर नैट की प्रतियोगी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली और पीएचडी पूरी कर स्थानीय यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई.

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खुशियों का उजास: भाग 2- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

नन्हे के पिता पार्थ से उस की मुलाकात उसी कालेज में हुई. वह उस से लगभग 3 साल सीनियर था. वह भी यूनिवर्सिटी के मैथ्स डिपार्टमैंट में ही लैक्चरर था.

कालेज के स्टाफरूम में बानी की टेबल पार्थ की टेबल के साथ ही लगी हुई थी. सो, दिनभर साथ उठते बैठते दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए, इतने कि घर जा कर भी दोनों एकआध बार एकदूसरे से बात किए बिना न रहते. उन के प्रेम का बिरवा उन की प्रगाढ़ दोस्ती की माटी में फूटा.

वह यह सब सोच ही रही थी कि तभी घर के बाहर गली के चौकीदार के डंडे की खटखटाहट उसे सुनाई दी. उस के सीने से चिपका नन्हे कुनमुनाया. गले में उमड़ती रुलाई के साथ बानी ने सोचा, ‘उफ़, पार्थ तुम कहां चले गए अपनी बानी को छोड़ कर.’ और वह फिर से एक बार पार्थ के साथ बिताए हंसीं दिनों की मीठी यादों के प्रवाह में डूबनेउतराने लगी.

उस दिन वह और पार्थ कालेज की लाइब्रेरी के लिए मैथ्स की कुछ किताबें खरीदने एक बुक एग्ज़िबिशन में आए थे. किताबें खरीदने के बाद पार्थ उसे एग्ज़िबिशन ग्राउंड के साथ लगे पार्क में ले गया, जहां पार्क के एक सूने कोने में रंगबिरंगे गुलाब के पौधों के बीच लगी बैंच पर बैठ उसे एक सुर्ख गुलाब का खूबसूरत फूल तोड़ कर उसे थमाते हुए अनायास उस ने उस से कहा, ‘बानी, हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए हैं. तुम्हारे बिना जीने की सोच ही मुझे घबराहट से भर देती है. घर पर भी तुम से बात करने की इच्छा होती रहती है. मन करता है, तुम हर लमहा मेरी आंखों के सामने रहो. अब मैं अपनी जिंदगी का हर पल तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं. जिंदगी की आखिरी सांस तक तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. मुझे रोमांटिक फिल्मी बातें करना नहीं आता. सीधेसाधे शब्दों में तुम से पूछ रहा हूं, मुझ से शादी करोगी?’

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इतने दिनों की करीबी से बानी भी पार्थ को बेहद पसंद करने लगी थी. सो, उस ने एक सलज़्ज़ मुसकान के साथ उसे इस विवाह प्रस्ताव के जवाब में अपनी सहमति दे दी.

दोनों के प्यार की दास्तां रफ्तारफ्ता आगे बढ़ चली.

उसे आज तक अच्छी तरह से याद है, उस दिन उस ने अपनी मां और पिता को पार्थ से अपनी शादी करने की इच्छा के बारे में बताया, लेकिन उस की अपेक्षा के विपरीत मां और पापा उस के एक विजातीय लड़के से विवाह की इच्छा पर बुरी तरह भड़क गए. उस के मातापिता दोनों ही बेहद पुराने रूढ़िवादी खयालों के थे. उन्हें अपनी बेटी का हाथ किसी अयोग्य, अल्पशिक्षित सजातीय पात्र के हाथ में देना मंजूर था, लेकिन पार्थ जैसे सुशिक्षित, सुयोग्य मगर विजातीय पात्र के हाथ में देना गवारा न था. बानी को एहसास था कि उस की जाति में उस जैसी निम्नमध्यवर्गीय व अल्पशिक्षित परिवार की लड़की को पार्थ जैसा योग्य और उच्चशिक्षित मैच मिलना मुश्किल ही नहीं, असंभव था.

सो, उस ने बहुत सोचविचार कर घर वालों की मरजी के खिलाफ़ जा कर पार्थ को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला ले लिया. एक दिन घर वालों को बिना बताए उस ने कुछ करीबी दोस्तों के समक्ष एकदूसरे को अंगूठी पहना कर सगाई कर ली. फिर 5 माह बाद कोर्ट मैरिज करने के लिए औपचारिक कार्यवाही भी कर डाली.

लेकिन, यदि कुदरती और इंसानी मंशाओं की मंजिल एक होती, तो दुर्भाग्य जैसी आपदा का वज़ूद न होता.

उन दिनों कोविड की बीमारी का प्रकोप चल रहा था. पार्थ को कोविड का भयंकर संक्रमण हुआ. पार्थ ने लापरवाही में शुरुआत में ही कोविड का इलाज किसी योग्य डाक्टर से नहीं करवाया. उस की बीमारी बिगड़ती गई और जब तक उस के घर वाले चेते, उस की बीमारी भयावह रूप लेते हुए उस के सभी अंगों को प्रभावित कर चुकी थी.

लगभग 20 दिनों तक कोविड से जूझने के बाद वह अपनी अंतिमयात्रा पर निकल पड़ा.

भाग्य का खेल, उस की मौत के बाद बानी को पता चला कि पार्थ का अंश उस की कोख में पल रहा था. बानी की दुनिया उलटपुलट हो गई. उस के पांवतले जमीन न रही.

कोविड के प्रकोप के बाद पूरे देश में कंप्लीट लौकडाउन चल रहा था. एक तरफ घर से निकलने की बंदिश, दूसरी ओर प्राइवेट क्लीनिकों के डाक्टरों ने मैडिको-लीगल कारणों से उस के अनमैरिड होने की वजह से अबौर्शन करने के लिए मना कर दिया और उसे उस के लिए उस से सरकारी अस्पताल में जाने को कहा. परंतु सरकारी अस्पताल में कोविड-19 के संक्रमण के खतरे को देखते हुए वह वहां नहीं गई. इन सब की वजह से उस का गर्भ 3 माह का होने को आया. सो, उसे विवश हो अपने गर्भ को रखने का फैसला लेना पड़ा.

इधर प्रैग्नैंसी के लक्षण जाहिर होते ही उस के मातापिता ने उस के खिलाफ़ मोरचाबंदी कर ली. वे दिनरात उसे बिनब्याही मां बनने पर कटु ताने और व्यंग्यबाण सुनाते. परेशान हो कर बानी ने एक दिन चुपचाप मांबाप का घर छोड़ दिया और अपनी यूनिवर्सिटी के पास किराए पर घर ले कर रहने लगी. यूनिवर्सिटी की बढ़िया नौकरी थी, आर्थिक रूप से वह ख़ासी मजबूत थी, तो उसे अकेले रहने में कोई खास दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा.

समय अपनी चाल से चलता गया. नियत समय पर बानी ने एक बेटे को जन्म दिया.

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बानी की नौकरी बदस्तूर जारी थी. नन्हे 4 बरस का होने आया. लेकिन इतना समय गुजर जाने पर भी उस के बिनब्याही मां बनने पर पिता और भाई का गुस्सा कम न हुआ. उन के खानदानी पंडितजी ने आग में घी डालते हुए उसे उन के लिए अपशगुनी करार दिया था. उस की छोटी बहन उस के संपर्क में थी. उस के माध्यम से उसे अपने घर की खबरें मिलती रहती थीं. कि तभी उसे अपने विचारों से नजात दिलाते हुए झपकी आ गई और उस का क्लांत तनमन नींद की आगोश में समा गया.

अगली सुबह जब बानी उठी, तो नन्हे तेज बुखार से तप रहा था. वह उसे ले कर डाक्टर के यहां ले जाने के लिए घर से निकल ही रही थी कि डाक्टर उमंग अपने घर के बाहर चहलकदमी करते हुए मिल गए.

“हैलो, गुडमौर्निंग, बानी. सुबहसवेरे कहां चल दीं?”

“नन्हे को बुखार आ रहा है. रातभर बुखार में भुना है. इसे डाक्टर के यहां ले जा रही हूं.”

“अगर आप चाहें तो मैं उसे एग्जामिन कर सकता हूं. मैं ने शायद आप को बताया नहीं, मैं यहां विनायक चिल्ड्रंस हौस्पिटल में पीडियाट्रिशियन हूं.”

“ओह, फिर तो आप प्लीज़ इसे एग्ज़ामिन कर लीजिए डाक्टर. आइए डाक्टर, प्लीज़, भीतर आ जाइए.”

डाक्टर उमंग ने नन्हे को एग्जामिन करने के बाद बानी से कहा, “चिंता की कोई बात नहीं है. कल की घटना से वह बेहद शाक में है. उसे कुछ मैडिसिन्स और इंजैक्शन लगाने पड़ेंगे.”

नन्हे को दवाई दे कर और इंजैक्शन लगाने के बाद वे जाने के लिए उठे ही थे कि बानी बोल पड़ी, “डाक्टर, चाय पी कर जाइएगा.”

चाय पी कर शाम को नन्हे का चैकअप करने के लिए घर आने का वादा कर के डाक्टर उमंग अपने घर चले गए.

आगे पढ़ें- करीब एक महीने बाद उस दिन भी…

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खुशियों का उजास: भाग 3- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

अगले एक माह तक डाक्टर उमंग नन्हे को एग्जामिन करने सुबहशाम उस के घर आते रहे. इस अवधि में डाक्टर उमंग और बानी के मध्य बहुत अच्छी फ्रैंडशिप हो गई.

करीब एक महीने बाद उस दिन भी डाक्टर उमंग बानी के यहां बैठे थे कि तभी बानी को अपनी यूनिवर्सिटी की परीक्षाओं के लिए मैथ्स के प्रश्नपत्र बनाते देख वे तनिक मुसकराते हुए बोले, “बानी, आप ने इतने मुश्किल सब्जैक्ट में कैरियर कैसे बनाया? मुझे तो मैथ्स शब्द से अभी तक डर लगता है.”

बानी यह सुन कर खिलखिला कर हंस दी, बोली, “ओह डाक्टर उमंग, मुझे यह सब्जैक्ट इतना चैलेंजिंग लगता है कि क्या बताऊं, किसी मुश्किल सवाल को हल करने की खुशी अनोखी होती है, डाक्टर. आप को याद है, आप ने कैसा महसूस किया था जब आप ने पहली बार साइकिल चलानी सीखी थी. आप बिलकुल वही फ़ील करते हैं. और किसी डिफिकल्ट क्वेश्चन को सौल्व करने की खुशी आप को अपनी क्षमता में जबरदस्त सैल्फ कौन्फिडैंस देती है.”

“ओह, यह बात है. अपनी बात बताऊं तो क्या आप विश्वास करेंगी कि मैथ्स के टीचर की क्लास में घुसते ही उन के डर से मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाया करती थी. टैंथ क्लास तक हमारे मैथ्स टीचर मुझे मैथ्स का होमवर्क पूरा कर के नहीं लाने पर पूरी क्लास के सामने मुरगा बना दिया करते थे,” डाक्टर उमंग ने जोर से ठहाका लगाते हुए बताया.

“मुरगा और आप डाक्टर,” यह कहते हुए बानी भी खिलखिला कर हंस दी.

वक्त के साथ बानी और उमंग की दोस्ती गहराती गई.

डाक्टर उमंग को बानी के संपर्क में आए ढाईतीन साल बीत चले.

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इतने से समय में बानी ने उमंग के दिल में अपनी एक खास जगह बना ली थी. डाक्टर उमंग बानी से 2 साल छोटे थे. 33 वर्ष के होने को आए थे. उन के घरवाले उन से शादी के लिए कहकह कर हार गए थे. उन की मां उन्हें हर हफ्ते एक नई लड़की का फ़ोटो और बायोडाटा भेजती, लेकिन डाक्टर उमंग उन पर एक नजर तक न डालते. उन के अंतर्मन में तो बानी ने कब्ज़ा कर रखा था.

दिन बीतने के साथसाथ वे बानी की सहृदयता, शीशे जैसा साफ निश्छल दिल और मीठे स्वभाव के कायल हो उठे थे. जबजब दूसरे शहर में रहने वाली उन की मां फ़ोन पर उन से शादी की बात छेड़ती, बानी की सौम्य, गंभीर छवि उन के कल्पनाचक्षुओं के सामने आ जाती.

पिछली बार जब वे मां के पास गए थे और मां ने उन के विवाह की चर्चा छेड़ी, तो उन्होंने साफ़साफ़ लफ़्ज़ों में उन से कह दिया, “मां, मेरे लिए लड़की ढूंढना बंद करो. मेरी निगाह में एक लड़की है. मैं उसी से शादी करूंगा.”

मां के बहुत कुरेदने पर उन्होंने उन्हें बानी के बारे में खुल कर बताया.

उन की बात सुन कर मां जैसे आसमान से गिरीं. अपने इकलौते, सुयोग्य, कुंआरे डाक्टर बेटे की शादी एक बिनब्याही बच्चे वाली औरत से करने की बात उन के लिए सदमे से कम न थी. इस खबर से उन्हें गहन मानसिक आघात पहुंचा और उन का ब्लडप्रैशर शूट कर गया. वे पलंग पर आ गईं.

मां की यह हालत देख उमंग बेहद पसोपेश में थे. जिंदगी के इस मुकाम पर पहुंच वे बानी के बिना अपनी भावी जिंदगी की कल्पना तक नहीं कर सकते थे. सो, उन्होंने सोचा कि वे अपने घर जा कर बानी से आर्य समाज में शादी कर उसे दुलहन बना कर अपने घर ले जाएंगे. एक बार बानी से शादी हो जाए, तो उसे देख कर मां के पास उसे स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा. बानी अपनी नर्मदिली और मृदु स्वभाव से देरसवेर उन का दिल जीत ही लेगी. और वे वापस अपने शहर आ गए.

अपने घर पहुंच कर उमंग शाम को बानी के घर गए और फ़रमाइश कर रात का डिनर उस के साथ किया.

रात के साढ़े 10 बजने को आए थे, लेकिन आज वे उठने का नाम नहीं ले रहे थे. थोड़ी ही देर में नन्हे भी सो गया.

उस के सोते ही उमंग ने बानी से कहा, “बानी, आज मैं बिना किसी लागलपेट के आप से एक खास बात कहना चाहता हूं. मैं आप को बेहद पसंद करता हूं और जिंदगी का बाकी का सफ़र आप के साथ काटना चाहता हूं. मेरी मां सख्त बीमार है. उन की वजह से ही मैं यह शादी इतनी जल्दी करना चाहता हूं. मैं कल या ज्यादा से ज्यादा परसों आर्य समाज में आप से शादी करना चाहता हूं. एक बार यह शादी हो जाए तो मां को हमारे इस रिश्ते को ऐक्सेप्ट करना ही होगा.”

उमंग के इस प्रस्ताव से हतप्रभ बानी उमंग से बोली, “यह आप क्या कह रहे हैं उमंग? शादी, आप से, और वह भी कल या परसों?”

“हां, कल या परसों. मां बिस्तर पर हैं, लेकिन मुझे पूरा पूरा यकीन है कि आप को बहू के रूप में देख कर वह फिर से हिरण हो उठेंगी.”

“उमंग, आप ने तो मुझे दुविधा में डाल दिया. मेरा पास्ट जान कर भी क्या वे मुझे ऐक्सेप्ट कर लेंगी? नहीं, नहीं, मैं आप से शादी करने की सोच भी नहीं सकती.”

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“चलिए, मैं आप की दुविधा आसान कर देता हूं. आप मुझे यह बताइए, क्या आप किसी भी वजह से मुझे नापसंद करती हैं?”

“नहींनहीं, उमंग, आप इतने अच्छे हैं, आप को नापसंद करने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता.”

“तो फिर दिक्कत क्या है?”

“मेरा पास्ट, आप से 2 साल बड़ी हूं, ऊपर से एक बच्चे की बिनब्याही मां भी.”

“तो क्या हुआ? आप दोनों की सगाई हो चुकी थी और आप दोनों शादी करने वाले थे. अब अगर आप के भावी पति की मौत हो गई तो इस में आप का क्या कुसूर?”

“नहींनहीं उमंग, अभी भावनाओं में बह कर आप मेरा हाथ थाम लेंगे, लेकिन वक्त के साथ जब हमारे अपने बच्चे होंगे तो शायद आप नन्हे को अपने बच्चे जैसा प्यार नहीं कर पाएंगे.”

“ओह बानी, इन फुजूल की आशंकाओं के चलते मेरा दिल मत तोड़िए.”

“उमंग, यह फुजूल की शंकाएं नहीं, वरन प्रैक्टिकल रियलिटी है जिस से आप मुंह मोड़ रहे हैं.”

“बानी, अब आप और नन्हे मेरी लाइफ़ का एक हिस्सा बन चुके हैं. मैं आप दोनों के बिना जीने की सोच तक नहीं सकता. चलिए, एक बात बताइए, क्या आप अब मेरे बिना जी सकती हैं? बताइए बानी, उधर मां का ब्लडप्रैशर खतरनाक तरीके से हाई हुआ पड़ा है. मुझे आप का निर्णय सुनना है. इतने वर्षों तक हम ने साथसाथ जिंदगी की हर परिस्थिति का मुकाबला साथ मिल कर किया है. क्या आप की जिंदगी में मेरी कोई अहमियत नहीं? बताइए बानी,” इस बार उमंग ने तनिक आवेश में आते हुए बानी के कंधों को झकझोरते हुए उस से पूछा.

“उमंग, मेरी जिंदगी में आप की बहुत अहमियत है. आप ने हर कदम पर मेरा बेशर्त साथ दिया है, लेकिन लोग तो यही कहेंगे न कि एक बिनब्याही मां ने अपने से छोटी उम्र के कुंआरे डाक्टर को फ़ांस लिया. दुनिया दस बातें बनाएगी.”

“अगर ऐसा है तो मुझ पर यकीन रखिए, मुझ से शादी के बाद कोई आप से कुछ भी उलटासीधा कहने की ज़ुर्रत न करेगा. चलिए तो बानी, हम कल ही आर्य समाज में शादी कर रहे हैं. ठीक है न,” उमंग ने बेहद अधीरता से बानी से कहा.

“मुझे थोड़ा वक्त चाहिए उमंग, मैं अपनी हां या न आप को मैसेज कर दूंगी.”

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‘ओ बानी, क्यों इतना सोच रही हैं? बिना बात के आप इतना परेशान हो रही हैं. आप को बस हां भर कहने की देर है. निश्चिंत रहिए. और सब बातें मैं संभाल लूंगा. मेरा यकीन करिए बानी, आप को कोई कुछ नहीं कहेगा.” यह कहते हुए उमंग ने बानी के दोनों हाथ थाम लिए और उस से बोले, “क्या आप को मुझ पर विश्वास नहीं है? मुझ पर भरोसा रखिए. मैं आप को बेहद चाहने लगा हूं. मैं किसी और के साथ जिंदगी गुज़ारने की सोच नहीं सकता. हां कह दीजिए बानी, प्लीज, आई बैग यू. आप ने हां नहीं की तो मैं मर जाऊंगा.” यह सुन बानी ने नम आंखों से उमंग के होठों पर अपना हाथ रख दिया.

उमंग ने बानी की हथेली हौले से चूम ली.

खुशियों के उजास से दोनों के चेहरे दमक उठे.

विद्रोह: भाग 3- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

अब वह आंखें बंद कर के सोचने लगी, ‘काश, मेरी बहू रीता जैसी होती, कितनी अच्छी है, कितना खयाल रखती है अपनी सासू मां का, जितनी बार भी इस की सास मुझ से मिली हैं, हमेशा अपनी बहू की तारीफों के पुल ही बांधती रही हैं, लेकिन मुझे दुष्ट बहू मिली. अरे बहू का क्या दोष है, नालायक तो अपना बेटा है. यदि बेटा ठीक होता तो बहू की क्या मजाल कि गलत काम करे?’

ज्योंज्यों कानपुर नजदीक आ रहा था, कुसुम घबरा रही थी कि भैयाभाभी पता नहीं क्या सोचेंगे. सोचें तो सोचें, उस के पास उस रास्ते के सिवा कोई रास्ता नहीं था. वह बोझ नहीं बनेगी भैयाभाभी पर, कुछ ही दिनों में अलग छोटा सा मकान ले कर रहेगी, एक नौकरानी रखेगी. एक विचार की लहर बारबार उठ रही थी कि घर छोड़ कर मैं ने गलत काम तो नहीं किया.

फिर दिमाग ने कहा, तो फिर क्या करती, हर रोज मार खाती. और वह मारता रहता जब तक जायदाद पूरी अपने नाम न लिखवा लेता. एक बार, दो बार, तीन बार…उस ने अपनी दोबारा बनाई वसीयत पढ़ी, जिस की एक प्रति उसे अपनी बेटी के पास भी भेजनी पड़ेगी, वकील के पास तो एक कौपी रख आई थी.

कुसुम अब सोचने लगी, ‘आज मैं ने जो कुछ भी किया वह पहले ही कर लेना चाहिए था. छि:छि:, मां बेटे से मार खाए, इस से अच्छा मर न जाए. मैं अकेली पड़ गई थी, वे दोनों पतिपत्नी एक हो गए थे. शुक्र है कि रीता जैसी पड़ोसिन मिल गई, जिस ने मेरी मृतप्राय जिंदगी को सांसें दे दीं. रीता न होती तो मैं वसीयत भी न बदल पाती और घर से भाग भी नहीं पाती.’

इन्हीं विचारों का तानाबाना बुनते हुए कानपुर आ गया. हड़बड़ाते हुए कुसुम ने अटैची और पर्स पकड़ा, फिर स्वरूपनगर के लिए रिकशा कर के चल दी.

कुसुम निश्चय कर के अपने भाई देवेंद्र के घर पहुंच गई. दरवाजे पर लगी कौल बैल बजाई. थोड़ी देर में एक भोलीभाली, सुंदर सी बालिका ने दरवाजा खोला.

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‘‘आप कौन, किस से मिलना है?’’ मीठी आवाज में बच्ची ने पूछा.

‘‘बेटी, मैं लखनऊ से आई हूं. तुम्हारे पापाजी की बहन हूं. मेरा नाम कुसुम है.’’

‘‘अंदर आइए, दादीजी, अंदर आइए.’’

बच्ची के पीछेपीछे कुसुम अपना पर्स और अटैची संभालती हुई चल दी. बरामदे के साथ जुड़ा हुआ ही ड्राइंगरूम था. उस घर में कुसुम 5 वर्षों बाद आई थी. पिछली बार अपने पति के साथ कुसुम कार से आई थी. घरपरिवार वालों ने खूब इज्जत, मानसम्मान दिया था. भैयाभाभी ने तो आंखों पर ही बिठा लिया था.

कुसुम के भाई के घर का वातावरण उस समय भी शांत था और अब भी लगता है सुखमय और शांत है. कुसुम की विचारतंद्रा उस के भाई ने ही तोड़ी, ‘‘अरे कुसुम, तू इस समय अकेली कैसे? कु़छ फोन वगैरह तो कर देती?’’

‘‘वह भैया, बस आना पड़ा,’’ सूखा चेहरा, मरियल आवाज में दिए उत्तर से भाई सशंकित हो गया.

‘‘आना पड़ा, मैं समझा नहीं. खैर, चल पहले चाय पी ले, कुछ खा ले फिर बताना.’’

कुसुम की आवाज सुन कर बरामदे में ही सब्जी काटती हुई भाभी दौड़ कर आईं, पांव छुए फिर बैठ गईं. थोड़ी देर बाद चायनाश्ता भी आ गया.

‘‘दीदी, आप तो बहुत दुबली हो गई हैं. 5 साल में चेहरा ही बदल गया. क्या हो गया है आप को?’’ कुसुम के पास आ कर भाभी ने आलिंगन किया और आश्चर्यचकित नजरों से उस की ओर देखती रहीं.

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कुसुम बारबार बांहों पर, गरदन पर पड़े जख्मों के निशान छिपा रही थी. लेकिन मेज पर रखी हुई चाय की प्याली उठाते समय गरदन से शाल हट गई और बांह का स्वेटर ऊपर को हो गया, देखते ही भैया दौड़ कर पास आए, घबरा कर पूछा, ‘‘यह सब क्या है, कुसुम? तुम्हारे शरीर पर ये जख्म कैसे हैं?’’

‘‘वह…वह भैया, रवि मारता था. पीटता था. एक बार तो उस ने इतनी जोर से मारा कि दांत तक टूट गया. बस, ये सब उसी के निशान हैं.’’

‘‘इतना सब होता रहा और तुम ने बताया तक नहीं. अरे हम कोई गैर हैं क्या? कभी फोन ही कर देतीं या कोई खत ही डाल देती. पता नहीं तुम ने कितने दुख झेले हैं जीजाजी की मृत्यु के बाद. छि:छि:, इतना कू्रर, बिगड़ा रवि बेटा हो जाएगा. सपने में भी नहीं सोचा था. खैर, कुसुम, तुम ने अच्छा किया जो आ गईं.’’

‘‘वह तो मुझे भूखा तक रखता था. बाहर दरवाजे पर ताला, टैलीफोन पर ताला, फ्रिज और सभी अलमारियों में ताला लगा रहता था. भैया, ऐसी दुर्दशा तो किसी कैदी की भी नहीं होगी जो उस ने मेरी की थी,’’ कहते ही कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

भैयाभाभी घबरा गए. आंसू पोंछे भाभी ने फिर कुसुम से वसीयत की योजना पूछी. थोड़ी देर बाद स्वयं पर काबू पा कर कुसुम ने अपनी नई वसीयत उन दोनों को दिखा दी. भैयाभाभी खुश हुए. बहन को भाई ने खूब प्यार कर के कहा, ‘‘बहन, घबराओ मत. जैसा तुम चाहती हो वैसे ही होगा. वैसे तो अलग रहने की जरूरत नहीं है, लेकिन अगर तुम चाहोगी तो स्वरूपनगर में ही तुम्हें अच्छा मकान मिल जाएगा. अभी तुम आराम करो, चिंता मत करो.’’

‘‘अच्छा भैया,’’ कह कर कुसुम सोफे पर ही लेट गई.

उधर, शाम को जब रवि औफिस से लौटा, पल्लवी ने रोनी सी सूरत ले कर दरवाजा खोला और वह वृक्ष से टूटी हुई डाली सी धम्म से सोफे पर बैठ गई. रवि ने उसे झकझोर कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है? सब ठीक तो है.’’

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पल्लवी चीख पड़ी, ‘‘कुछ ठीक नहीं है, तुम्हारी मां धोखा दे कर भाग गईं और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘यह देखो, अपने पलंग पर यह चिट्ठी रख गई हैं. लिखा है : ‘मैं जा रही हूं. कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें जायदाद में से. मैं ने वसीयत बदल दी है. आधी जायदाद बेटी मोनिका और आधी विकलांगों की संस्था के नाम कर दी है. मैं कपूत बेटे से विद्रोह करती हूं. जिस बेटे को पालपोस कर बड़ा किया वह मां पर हाथ उठाता है, वह भी जायदाद के लिए. मेरा सबकुछ तेरा ही तो था. लेकिन तू ने मांबेटे के रिश्ते का कोई लिहाज नहीं किया. तुझ से रिश्ता तोड़ने का मुझे कोई गम नहीं.’’’

कागज का टुकड़ा पढ़ कर रवि पागलों की तरह चिल्लाने लगा. कभी इधर कभी उधर चक्कर लगाने लगा. उधर पत्नी पल्लवी क्रोध में बड़बड़ाने लगी, ‘मैं ने पहले ही कहा था कि मांजी को मत सताओ, मत मारोपीटो, प्यार से उन्हें अपने वश में करो लेकिन तुम ने मेरी एक न सुनी. अब भुगतो. यह घर भी खाली करना पड़ेगा.’

हमारी अमृता

लेखक- ज्योति गजभिये

हमेशा की तरह आज भी बंगले के लान में पार्टी का आयोजन किया गया था. वीना सुबह से व्यस्त थीं. उन के घर की हर पार्टी यादगार होती है. दोनों बेटियां, कविता और वनिता भी तैयार हो कर आ गई थीं. वीना के पति अमरनाथ विशिष्ट मेहमानों को लाने होटल गए थे. मद्धिम रोशनी, लान में लगाई गई खूबसूरत कुरसियां और गरमागरम पकवानों से आती खुशबू, कहीं कुछ भी कम न था.

अमर मेहमानों को ले कर लान में दाखिल हुए. उन के स्वागत के बाद वीना सूप सर्व कर रही थीं कि अंदर से जोरजोर से चीखने की आवाज आने लगी, ‘मम्मी…मम्मी, मुझे बाहर निकालो.’ वीना हाथ का सामान छोड़ कर अंदर भागीं. इधर पार्टी में कानाफूसी होने लगी. कविता और वनिता चकित रह गईं. अमरनाथ के चेहरे पर अजीब हावभाव आजा रहे थे. लोग भी कुतूहल से अंदर की ओर देखने लगे. वीना ने फुरती से अमृता को संभाल लिया और पार्टी फिर शुरू हो गई.

यह अमृता कौन है? अमृता, वीना की तीसरी बेटी है. वह मानसिक रूप से अपंग है, पर यह बात बहुत कम लोग ही जानते हैं. ज्यादातर लोग उन की दोनों बड़ी बेटियों के बारे में ही जानते हैं.

अमृता की अपंगता को ले कर इस परिवार में एक तरह की हीनभावना है. हर कोई अमृता के बारे में चर्चा करने से कतराता है. वीना तो मां है और मां का हृदय संतान के लिए, भले ही वह कैसी भी हो, तड़पता है. किंतु परिवार के अन्य सदस्यों के आगे वह भी मजबूर हो जाती है.

वीना ने तीसरा चांस बेटे के लिए लिया था. कविता और वनिता जैसी सुंदर बच्चियों से घर की बगिया खिली हुई थी. इस बगिया में यदि प्यार से एक बेटे का समावेश हो जाए तो कितना अच्छा रहे, यही पतिपत्नी दोनों की इच्छा थी, पर बेटा नहीं हुआ. उन की आशाओं पर तुषारापात करने के लिए फिर बेटी हुई, वह भी मानसिक रूप से अपंग. शुरू में वह जान ही न पाए कि उन की बेटी में कोई कमी है, पर ज्योंज्यों समय गुजरता गया, उस की एकएक कमी सामने आने लगी.

अमृता अभी 14 साल की है किंतु मस्तिष्क 5-6 साल के बच्चे के समान ही है. घर की व्यवस्था, पति और बच्चे, इन सब के साथ अमृता को संभालना, वीना के लिए अच्छी कसरत हो जाती है. कहने को तो घर में कई नौकरचाकर थे पर अमृता, उसे तो मां चाहिए, मां का पल्लू थामे वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है.

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पार्टी समाप्त होने पर अमर ने जूते उतारते हुए वीना से कहा, ‘‘तुम पार्टी के समय अमृता की ठीक से व्यवस्था क्यों नहीं करतीं, चाहो तो मैं आफिस से सर्वेंटस भेज देता हूं. मगर मैं कोई व्यवधान नहीं चाहता.’’

थकी हुई वीना की आंखों में आंसू आ गए. वह धीरे से बोलीं, ‘‘आप के आफिस की फौज अमृता के लिए कुछ नहीं कर सकती, अमृता मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकती.’’

‘‘अमृता…अमृता…’’ अमर ने चिल्ला कर कहा, ‘‘न जाने तुम ने इस विषवेल का नाम अमृता क्यों रखा है. कई बार कहा कि कई मिशनरियां ऐसे बच्चों की अच्छी तरह देखभाल करती हैं. इसे तुम वहां क्यों नहीं छोड़ देतीं.’’

‘‘अमृता इस घर से कहीं नहीं जाएगी,’’ वीना ने सख्ती से कहा, ‘‘यदि वह गई तो मैं भी चली जाऊंगी.’’

कविता और वनिता ने मम्मीपापा की बहस सुनी तो वे चुपचाप अपने कमरे में चली गईं. इस घर में ऐसी बहस अकसर होती है. कविता के हृदय में अमृता के प्रति असीम प्रेम है किंतु वनिता को वह फूटी आंख नहीं भाती क्योंकि मम्मी अमृता के साथ इतनी व्यस्त रहती हैं कि उस का जरा भी ध्यान नहीं रखतीं.

16 साल की वनिता 11वीं की छात्रा है. अमृता के जन्म के बाद उसे मां की ओर से कम ही समय मिलता था इसलिए अभी भी वह स्वयं को अतृप्त महसूस करती है.

18 वर्षीय कविता बी.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा है. वह बेहद खूबसूरत और भावुक स्वभाव की है. किसी का भी दुख देख कर उस की आंखों में आंसू आ जाते हैं. अमृता को संभालने में वह मां की पूरी मदद करती है.

पति की बहस के बाद वीना अमृता के कमरे में चली गईं. उसे संभालने वाली बाई वहां थी. अमृता खिलौनों से खेल रही थी. कभीकभी उन्हें उठा कर फेंक भी देती. वीना को देख कर वह उन से लिपट गई. आंखों से आंसू और मुंह से लार बहने लगी. वीना ने पहले तो रूमाल से उस का चेहरा पोंछा, फिर बाई को वहां से जाने को कहा. उन्होंने अपने हाथों से अमृता को खाना खिलाया और उसे साथ ले कर सुलाने लगीं.

अमृता के साथ वीना इतनी जुड़ी हुई हैं कि वह अकसर घर के कई जरूरी काम भूल जातीं. उन्हें अमृता जब भी नजर नहीं आती है तो वह घबरा जाती हैं.

अमृता ने किशोरावस्था में प्रवेश कर लिया था. शरीर की वृद्धि बराबर हो रही थी किंतु मस्तिष्क अभी भी छोटे बच्चे की तरह ही था. कई बार वह बिछौना भी गीला कर देती. आंखों में दवा डाल कर वीना को उस की देखभाल करनी पड़ती थी. ज्यादा काम से वह कई बार चिड़चिड़ी भी हो जाती थीं.

परसों ही जब वनिता की सहेलियां आई थीं और वीना किचन में व्यस्त थीं, बाई को चकमा दे कर अमृता वहां आ पहुंची और टेबल पर रखी पेस्ट्री इस तरह खाने लगी कि पूरा मुंह गंदा हो गया. वनिता को ज्यादा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी. वह सहेलियों को ले कर अपने कमरे में चली गई. सहेलियों के बारबार पूछने पर भी वनिता ने नहीं बताया कि ऐसी हरकत करने वाली लड़की और कोई नहीं उस की बहन है.

सहेलियों के जाने के बाद उस ने अमृता को 2 थप्पड़ लगा दिए. अचानक पड़ी इस मार से अमृता का चेहरा लाल हो गया. वह सिर पटकपटक कर रोने लगी. वीना को सारा काम छोड़ कर आना पड़ा. जब उन्हें वनिता के दुर्व्यवहार के बारे में पता चला तब उन्होंने वनिता को खूब लताड़ा. वनिता गुस्से से बिफर पड़ी, ‘‘मम्मी, आप सुन लीजिए, इस घर में मैं रहूंगी या यह आप की लाड़ली रहेगी,’’ और पैर पटकते हुए अपने कमरे में चली गई. वीना के हृदय पर क्या वज्रघात हुआ, यह वनिता जान न सकी.

इतना बड़ा घर, नौकरचाकर, सुखसुविधाओं का हर सामान होने पर भी इस घर में मानसिक शांति नहीं है. अमर के अहंकार के आगे वीना को हर बार झुकना पड़ता है. एक अमृता की बात पर ही वह अड़ जाती हैं, बाकी हर बातें वह अमर की मानती हैं.

कभी वीना के मन में विचार आता है कि सभी के बच्चे पूर्णत्व ले कर आते हैं, एक मेरी अमृता ही क्यों अपूर्ण रह गई. पल भर के लिए ऐसे विचार आने पर वह तुरंत उन्हें झटक देतीं और फिर नए उत्साह से अमृता की सेवा में जुट जातीं, पर पति का असहयोग उन्हें पलपल खलता.

ऐसा नहीं था कि अमर के मन में अमृता के प्रति बिलकुल प्रेम न था किंतु जहां सोसायटी के सामने आने की बात आती वह अमृता का परिचय देने से कतराते थे. कल सुबह ही जब अमर चाय पी रहे थे, अमृता छोटी सी गुडि़या ले कर उन के पास आ गई. हर दम चीख कर बोलने वाली अमृता आज धीरे से अस्पष्ट शब्दों में बोली, ‘‘पापा, मेरी गुडि़या के लिए नई फ्राक लाइए न.’’ तब पापा को भी उस पर प्यार उमड़ आया था. उस के गाल थपथपा कर बोले, ‘‘जरूर ला देंगे.’’

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वीना ने यह देखा तो खुशी से फूली न समाईं. अमर भी सोचने लगे कि यह विक्षिप्त लड़की कभीकभी इतनी समझ-दार कैसे लगने लगती है.

अमृता ने जब से किशोरावस्था में प्रवेश किया था वीना उसे ले कर बहुत चिंतित रहती थीं. अब उन का घर से बाहर  आनाजाना बहुत कम हो गया था. नौकरों के भरोसे उसे छोड़ कर कहीं जाने का दिल नहीं करता. न जाने क्यों, आजकल उन्हें ऐसा महसूस होने लगा था कि अमृता को भी कुछ सिखाना चाहिए. थोड़ा व्यस्त रहने से उस में कुछ सुधार आएगा.

एक दिन घर के लिए जरूरी सामान लाना था. उस दिन कविता कालिज नहीं गई थी. वीना ने कविता को अमृता का खयाल रखने के लिए कहा और खुद बाजार चली गईं.

परदे एवं कुशन खरीद कर जब वह बिल का भुगतान करने लगीं तो पीछे से किसी ने उन के कंधे पर हाथ रख कर आवाज दी, ‘‘वीना…’’ वीना ने पलट कर देखा, कालिज के समय की सहेली ऋतु खड़ी थी. उसे देख कर वह खुशी से पागल हो गईं. भुगतान करना भूल कर बोलीं, ‘‘अरे ऋतु, तू यहां कैसे?’’

‘‘अभी 2 महीने पहले मुझे यहां नौकरी मिली है इसलिए मैं इस शहर में आई हूं. तू भी यहीं है, मुझे मालूम ही न था.’’

‘‘चल ऋतु, किसी रेस्टोरेंट में बैठ कर चाय पीते हैं और पुराने दिनों की याद फिर से ताजा करते हैं.’’

‘‘वीना, क्या तू मुझे अपने घर बुलाना नहीं चाहती? चाय तो पिएंगे पर रेस्टोरेंट में नहीं तेरे घर में. अरे हां, पहले तू बिल का भुगतान तो कर दे,’’ ऋतु बोली.

वीना बिल का भुगतान करने के बाद ऋतु को ले कर घर आ गईं. कविता अमृता को ले कर ड्राइंगरूम में बैठी थी. वह उसे टीवी दिखा कर कुछ समझाने का प्रयास कर रही थी. अपनी बेटियों का परिचय उस ने ऋतु से कराया. कविता ने दोनों हाथ जोड़ कर ऋतु को नमस्ते की किंतु अमृता अजीब सा चेहरा बना कर अंदर भाग गई. ऋतु की अनुभवी आंखों से उस की मानसिक अपंगता छिपी नहीं रही. फिर भी हलकेफुलके अंदाज में बोली, ‘‘वीना, तेरी 2 बेटियां हैं.’’

वीना बोली, ‘‘2 नहीं 3 हैं. मझली बेटी वनिता कालिज गई है,’’ वीना ने बताया.

इस पर ऋतु तारीफ के अंदाज में बोली, ‘‘तेरी दोनों बेटियां तो बहुत सुंदर हैं, तीसरी कैसी है वह तो उस के आने पर ही पता चलेगा.’’

बच्चों की चर्चा छिड़ी तो मानो वीना की दुखती रग पर किसी ने हाथ रख दिया हो. वह बोलीं, ‘‘सिर्फ खूबसूरती से क्या होता है, कुदरत ने मेरी अमृता को अधूरा बना कर भेजा है.’’

‘‘तू दुखी मत हो, सिर्फ तेरे ही नहीं, ऐसे और भी कई बच्चे हैं. मैं मतिमंद बच्चों की ही टीचर हूं और यहां मतिमंद बच्चों के स्कूल में मुझे नौकरी मिली है. तू कल से ही अमृता को वहां भेज दे. उस का भी मन लग जाएगा और तेरी चिंता भी कम होगी.’’

वीना को तो मानो बिन मांगे मोती मिल गया. वह भी कई दिनों से अमृता के लिए ऐसे ही किसी अवसर की तलाश में थी. ऋतु के कहने पर दूसरे ही दिन अमृता का एडमिशन वहां करवा दिया. जब वह एडमिशन के लिए स्कूल पहुंची तो वीना ने कई बच्चों को अमृता से भी खराब स्थिति में देखा, तब उन्हें लगा कि मेरी बच्ची अमृता काफी अच्छी है.

अब वीना की रोज की दिनचर्या में परिवर्तन आ गया. अमृता को स्कूल छोड़ने और वहां से लाने का काम जो बढ़ गया था. थोड़े दिन तक अमृता स्कूल में रोती थी, सामान फेंकने लगती थी, पर धीरेधीरे वह वहां ठीक से बैठने लगी. ऋतु उस का पूरा ध्यान रखती थी.

इस विद्यालय में बच्चों की योग्यता- नुसार उन से काम करवाया जाता था. हर बच्चा मतिमंद होने पर भी कुछ न कुछ सीखने का प्रयास जरूर करता है और यदि उस में लगन हुई तो कुछ अच्छा कर के भी दिखाता है.

ऋतु ने देखा अमृता चित्र बनाने का प्रयास कर लेती है. उस ने वीना को चित्रकला का सामान लाने को कहा. ऋतु ने उसे समझाया कि अमृता को बंद कमरों में न रख कर कभीकभी खुली हवा में बगीचों में घुमाया जाए. झील के किनारे, पर्वतों के पास, रंगबिरंगे फूलों के करीब ले जाया जाए ताकि उस के अंदर की प्रतिभा सामने आए. प्रकृति से प्रेरणा ले कर वह कुछ बनाने का प्रयास करेगी.

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वह समय ऐसा था कि वीना ने अमृता को अपनी दुनिया बना लिया. हर समय वह उस के साथ रहतीं, मानो वह अमृता को उस के जीवन के इतने निरर्थक वर्ष लौटाने का प्रयास कर रही थीं. उन की मेहनत रंग लाई. कागज पर अमृता द्वारा बनाए गए पर्वत, झील और फूल सजीव लगते थे. रंगों का संयोजन एवं आकृति की सुदृढ़ता न होने पर भी चित्रों में अद्भुत जीवंतता दिखाई पड़ती थी.

उसी समय स्कूल में मतिमंद बच्चों की बनाई गई वस्तुओं की एक प्रदर्शनी आयोजित की गई. बच्चों द्वारा बनाए गए ग्रीटिंग कार्ड, मिटटी के अनगढ़ खिलौने एवं चित्र रखे गए थे. अमृता के चित्र सभी को बहुत पसंद आए. उस की पीठ पर हाथ रख कर जब कोई उसे शाबाशी देता तो उस की आंखों में चमक आ जाती. चित्रकला प्रदर्शनी का उद्घाटन उसी विद्यालय के पिं्रसिपल ने ही किया. वह अमृता के बनाए चित्रों से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने चित्रों की बेहद तारीफ की.

वह अपने स्कूल के बच्चों के चित्रों की प्रदर्शनी विदेश में लगाना चाहते थे. उन्होंने अमृता के 2 चित्र विदेश भेजने के लिए पसंद कर लिए. वीना ने सुना तो उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. विदेश में अमृता का नाम होगा यह सोच कर ही वह रोमांचित हो उठीं.

आज वीना को अपनी बेटी कहीं से भी अपूर्ण नहीं दिखाई दे रही थी, वह तो पूर्ण है. वह उन्हें कविता एवं वनिता से भी ज्यादा पूर्ण लग रही थी. खुशी के अतिरेक में उन की आंखों से आंसू निकल गए. तुरंत फोन कर के उन्होंने अमर को यह खुशखबरी दी. वह भी चौंक गए कि जिस बेटी को वह दुनिया की नजरों से छिपाते आए थे, आज वही उन का नाम रौशन कर रही है. खुशी से उन की आंखें भर आईं.

शाम को जब अमर घर आए तो प्यार से उन्होंने अमृता का माथा चूम लिया. वह उस की गुडि़या के लिए नया फ्राक एवं उस के लिए खिलौने एवं कपड़े लाए थे. घर के सभी सदस्य एक अरसे बाद साथ बैठे. उन की खिल-खिलाहट देख कर लग रहा था कि घर की असली सुखशांति इसी में ही है. कितने ही सुखसुविधा के सामान इस हंसी के आगे फीके पड़ जाते हैं.

अमर ने बातोंबातों में बताया कि कल अमृता की उपलब्धि के उपलक्ष्य में पार्टी आयोजित की जाएगी. वीना के हृदय में कांटा सा चुभा. वह पिछली पार्टी की बात भूली न थी, फिर भी वह बहस कर के रंग में भंग नहीं डालना चाहती थी, अत: चुपचाप रही.

दूसरे दिन सुबह से वीना पार्टी की तैयारी में लग गईं. अमर आफिस के काम के कारण ऐन वक्त पर आने वाले थे. हमेशा की तरह लान में पार्टी रखी गई थी. कविता, वनिता और वीना तैयार हो कर मेहमानों का स्वागत कर रही थीं.

अमर किसी जरूरी काम से

10-15 मिनट लेट आए. आते ही उन की नजरें किसी को खोजने लगीं. उन्होंने वीना को करीब बुलाया और धीरे से पूछा, ‘‘अमृता कहां है?’’

वीना चौंक कर अमर का मुंह देखती रह गईं फिर बोलीं, ‘‘वह अपने कमरे में बाई के साथ बंद है.’’

‘‘अरे, यह क्या वीना, यह पार्टी अमृता के लिए ही रखी गई है. कुछ देर को ही सही, उसे जरूर यहां लाओ. और हां, मैं जो कपड़े लाया था उसे पहना दो.’’

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वीना के पैर खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. वह झट अंदर गईं. अमृता को नए कपड़े पहनाए. उसे समझाया कि सब से नमस्ते कैसे करनी है. फिर उस का हाथ पकड़ कर पार्टी में ले आईं. लोग जब सवालिया नजरों से अमृता को देखने लगे तब अमर, अमृता और वीना के पास गए. उन्होंने अमृता के गले में हाथ डाल दिया और बोले, ‘‘लेडिज एंड जेंटिलमैन, यह हमारी तीसरी बेटी अमृता है. इसी के बनाए चित्र पुरस्कार हेतु विदेश में भेजे जा रहे हैं और इसी खुशी में आज यह पार्टी रखी गई है.’’

सभी अमृता को तारीफ की नजरों से देखने लगे. उसे बधाई देने वालों का तांता लग गया. तभी ऋतु ने आ कर अमृता को उस की उपलब्धि पर बधाई दी, साथ ही उस ने अमर को भी बधाई दी. अमर बोले, ‘‘ऋतुजी, यह तो आप की नजर है जो आप ने इसे परखा, नहीं तो हमें भी कहां मालूम था कि इतनी गुणी है हमारी अमृता.’’

अनजाने में अमर के मुंह से निकला ‘हमारी अमृता’ शब्द वीना के हृदय के सारे तार छेड़ गया और प्रतिध्वनि रूप में उस में से आवाजें आने लगीं, ‘हमारी अमृता… हमारी अमृता.’

सफेद सियार: क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

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