लेखिका: सुधा सिन्हा
चंद्रा ने सलवारसूट क्या पहना, पूरे घर ने उस का खासा मजाक बना दिया. बेचारी चंद्रा शर्म के मारे अपना मुंह छिपाती रही. लेकिन उसी सलवारसूट ने वह करामात कर दिखाई जो कोई सोच भी नहीं सकता था…
सलवारसूट पहन कर जब चंद्रा अपने कमरे से बाहर आई तो गरमी की शाम में बाहर आंगन में बैठ कर ठंडी हवा का आनंद लेते परिवार के लोगों को आश्चर्य हुआ.
चमकी चमक कर बोली, ‘‘वाह बूआ, आज बहुत खिल रही हैं आप.’’
‘‘आज की ताजा खबर,’’ कह उस का भाई बप्पी ठठा कर हंस पड़ा.
अखबार परे सरका कर और चश्मे को उतार कर हाथ में ले बांके बिहारी ने अपनी 50 वर्षीया बाल विधवा बहन चंद्रा को ऊपर से नीचे तक घूरा, ‘‘कम से कम अपनी उम्र का तो लिहाज किया होता.’’
इतना सुनना था कि चंद्रा का मनोबल टूट गया, वहीं जमीन पर बैठ गई और ‘‘मैं नहीं रोऊंगी, मैं नहीं रोऊंगी,’’ की रट लगाने लगी.
अपना काम छोड़ कर राधिका उठ कर अपनी ननद के पास आ बैठी, ‘‘दीदी, जो जितना दबता है उसे उतना ही दबाया जाता है, जानती हो न? अपने भैया को न सही, कम से कम चमकी और बप्पी को तुम झिड़क ही सकती हो. जन्म से गोद में खिलाया है तुम ने उन्हें.’’
‘‘मम्मी, तुम भी,’’ बप्पी बोला, ‘‘बूआ बात ही ऐसी करती हैं. कैसी कार्टून सी लग रही हैं. पूरा महल्ला हंसेगा, अगर मैं हंस पड़ा तो क्या हुआ?’’
‘‘अगर मेरा शरीर तेरी बूआ जैसा छरहरा होता तो मैं भी ये सब पहनती. तब देखती कौन मेरे ऊपर हंसता,’’ राधिका बोली.
‘‘तुम्हारा तो दबदबा है, तुम्हारे ऊपर हंसने की किस की हिम्मत होगी,’’ बांके बिहारी बोले.
घुटनों में सिर छिपा कर उन की विधवा बहन सुबकसुबक कर रोने लगी.
‘‘अरे, ये सब जानवर हैं, चलो दीदी, भीतर चलते हैं,’’ राधिका ने कहा.
‘‘मम्मी, तुम हमेशा से बूआ की तरफदारी करती आई हो, पता नहीं क्यों.’’ बप्पी बोला.
‘‘तुम तो शायद मेरे सौतेले हो और तेरी बूआ तो मेरी पेटजाई हैं,’’ बप्पी को गुस्से से घूर कर राधिका बोली और चंद्रा को भीतर ले गई.
‘‘सच बताओ, दीदी, तुम्हें क्या सूझा कि सलवारसूट खरीद लिया? कब खरीदा? वैसे फबता है तुम पर.’’
‘‘सच कहती हो भाभी?’’ चंद्रा खिल उठी, ‘‘स्कूल में सभी टीचर्स पहनती हैं. सुमन मेरे लिए खरीद लाई थी. मैं ने बहुत मना किया था, पर मानी ही नहीं. वह कहने लगी, ‘आजकल सब चलता है, समय के साथ चलना चाहिए. शुरू में जरूर हिचक लगेगी, सो, घर से शुरुआत करनी चाहिए.’ मुझे पता था, भैया नाराज होंगे, पर वे तो हमेशा से ही मुझ पर नाराज रहते हैं. कुछ करो या न करो.’’
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‘‘ऐसा न कहो दीदी,’’ राधिका पति का पक्ष ले कर बोली, ‘‘उन्हीं की जिद से तुम पढ़लिख सकीं. बीए, फिर बीएड कर सकीं, स्कूल में टीचर बन सकीं. नहीं तो ससुरजी तो बहुत खिलाफ थे इस सब के.’’
‘‘हां, भाभी, यह बात तो है. ‘चंद्रा को अपने पैरों पर खड़ा करना है’ यह भैया की जिद थी. पर कब खड़ा होने दिया उन्होंने मुझे? हर वक्त इतनी ज्यादा सख्ती, इतना नियंत्रण. उन्हें खुश रखने के लिए मैं ने हमेशा सफेद साड़ी पहनी, कभी क्रीमपाउडर को हाथ तक न लगाया. घर वापस आने में एक मिनट भी देर नहीं की. शायद मैं अपने पैरों पर खड़ा होना भूल गई हूं. शायद इस उम्र में मुझे अपनी काबिलीयत पर संदेह होने लगा है. मैं देखना चाहती हूं कि मैं अकेली अपने पैरों पर खड़ी हो भी सकती हूं कि नहीं. लेकिन, मेरे पास तो हिम्मत ही नहीं है.’’
राधिका ने अपनी हमउम्र ननद के सिर पर हाथ रखा, ‘‘जिंदगीभर गाय बनी रहीं. एकदम से आधुनिक थोड़े ही हो जाओगी. रही हिम्मत की बात, तो मेरे विचार से अपने भैया को छोड़ कर तुम और किसी से नहीं डरती हो.’’
‘‘क्या ये कम हैं? वे पूरे हौआ हैं. तुम जाने कैसे सहती हो उन्हें, भाभी.’’
‘‘सुना नहीं, वे मुझे क्याक्या कहते हैं. भाभी, सच, तुम नहीं होतीं तो मैं ने न जाने कब की आत्महत्या कर ली होती.’’
राधिका हंसी, ‘‘सुनो दीदी, औरतों को अपनीअपनी तरह से इन आत्महत्या वाले पलों से गुजरना पड़ता है. जो हार गईं,
वे गईं. बाकी जिंदगी की जंग को अपनेअपने ढंग से लड़ती ही रहती हैं.’’
राधिका का हाथ पकड़ कर चंद्रा बोली, ‘‘भाभी, आप मेरी जिंदगी का बहुत बड़ा सहारा हैं. इन बच्चों को अपना समझ कर कितने लाड़ से पाला था, पर अब शायद मेरे स्नेहप्यार की उन्हें जरूरत नहीं है. लगता है मैं इन के लिए पराई हो गई हूं. सिर्फ आप ही समझती हैं मुझे. नहीं तो मैं कितनी अकेली हो जाती.’’
राधिका चंद्रा का हाथ पकड़े थोड़ी देर चुप बैठी रही, फिर बोली, ‘‘तुम्हारे भैया को हमेशा तुम्हारा डर लगा रहता था कि कहीं तुम्हारी वजह से उन को शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े. इसीलिए तुम पर सख्ती करते रहे. वैसे, तुम्हारी फ्रिक करते हैं, तुम्हें प्यार करते हैं.’’
‘‘शायद करते हों, पर मैं ने भी कभी संदेह का कोई अवसर आने नहीं दिया है.’’
‘‘जानती हूं,’’ राधिका बोली, ‘‘फिलहाल तुम रात को सलवारसूट पहन कर सो लिया करो. चमकी इतनी बड़ी हो कर भी जो स्कर्ट पहने घूमती रहती है, उस से तो ज्यादा शालीन लगोगी तुम. धीरेधीरे तुम्हारे भैया तुम्हारे सलवारसूट के अभ्यस्त हो जाएंगे. तुम्हारी हिचक भी खत्म हो जाएगी.’’
‘‘भाभी, यू अप्रूव?’’ खुशी से भर कर बच्चों की तरह चंद्रा बोली.
‘‘कोई हर्ज नहीं है. फिर बच्चे तो आधुनिक होते जा रहे हैं और सारी पाबंदी हमारे ऊपर ही क्यों है? जिंदगीभर पाबंदियों में रही हो, अब यदि सलवारसूट से तुम्हें थोड़ी खुशी मिलती है तो आई सर्टेनली अप्रूव.’’
लौट कर राधिका ने अपने पति को आड़ेहाथों लिया, ‘‘क्यों जी, क्यों आप दीदी को हरदम रुलाते रहते हो? सलवारसूट ही तो पहना, कोई बिकनीअंगिया पहन कर तो बाहर नहीं निकली थीं?’’
‘‘निकलती, तो भी तुम उसी का पक्ष लेतीं,’’ बांके बोले, ‘‘हमेशा से देखता आया हूं. मैं जो भी कहता हूं तुम उस के खिलाफ झंडा गाड़ कर खड़ी हो जाती हो. मैं परिवार के भले के लिए ही कहता हूं, यह तुम्हें क्यों नहीं यकीन होता?’’
‘‘जब आप के बच्चे…’’ राधिका रुकी, थोड़ा हंसी, फिर बोली, ‘‘जब हमारे 17-18 वर्ष के युवा बच्चे बरमूडा, टीशर्ट पहने शाम ढले तक लड़केलड़कियों का गु्रप बनाए टहलते रहते हैं, तो?’’
‘‘तब भी तुम्हीं ने उन का पक्ष ले कर हमारी बोलती बंद कर दी थी कि जमाने के साथ बच्चों को चलने देना चाहिए, नहीं तो उन्हें कौप्लैक्स हो जाएगा.’’
‘‘तब आप मान गए थे, तो अब भी मानिए. आजकल मेरी उम्र की औरतें सलवारसूट पहनें, तो कोई बुरा नहीं मानता. इस से आधुनिकता ही दिखती है.’’
‘‘तुम से किस ने कहा कि मैं आधुनिक हूं?’’
‘‘आप के बच्चों ने, जो टीवी में फिल्म नहीं देखते, पर दोस्तों के साथ हौल में फिल्म देखना पसंद करते हैं, जो अपनी बर्थडे पार्टी में केक काटने से कहीं ज्यादा फिल्म के गानों के साथ मस्तमस्त नाचना पसंद करते हैं.’’
तैश में आई अपनी पत्नी को बांके बिहारी ने देखा. वे जानते थे कि उन दोनों को ही यह आधुनिकता पसंद नहीं है. लेकिन इस युग की आधुनिकता के बहाव को रोकना भी उन के वश में नहीं है. बात वहीं खत्म करने के इरादे से वे बोले, ‘‘भई, मानना पड़ेगा, ये गाने, ये धुनें, ये विजुअल खून में गरमाहट भर ही देते हैं.’’
राधिका बोली, ‘‘एक हमीं गंवार रह गए. सोच रही हूं, आधुनिक डांस क्लास जौइन कर लूं और एक मिनी स्कर्ट खरीद लूं अपने लिए.’’
‘‘क्या?’’
‘‘तुम्हारे लिए बप्पी का बरमूडा चलेगा,’’ कह कर राधिका जोरजोर से हंसने लगी.
एक तरफ इतनी आधुनिकता दूसरी तरफ इतनी रूढि़वादिता? राधिका को अपने परिवार का यह खिचड़ीवाद कभी समझ नहीं आया. पर घरघर की यही कहानी है. पुराना युग नए युग को पकड़ कर रखना चाहता है और नया युग पुराने युग के सब बंधन काट फेंकना चाहता है. उस के ससुर ने अपने पढ़ेलिखे बेटे के लिए पढ़ीलिखी बहू चाही थी, पर उसे एक संकुचित दायरे में बंद रखा गया था.
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उन की मृत्यु के बाद उसे थोड़ी राहत जरूर मिली थी, पर बेचारी विधवा चंद्रा कभी भी खुल कर सांस न ले पाई. अब इस उम्र में यदि वह कुछ शौक पूरे करना चाहती है तो क्या बुरा है. हमेशा ही अपना वेतन उसी के हाथ में रखा है उस ने. कभी अपने अधिकार के लिए चंद्रा ने मुंह नहीं खोला. और एक चमकी है, अभी 18 वर्ष की भी नहीं हुई है, पर सब से हर वक्त जवाबतलब करती रहती है. दोनों बच्चों के स्वार्थ में, उन के आराम में, उन के रूटीन में जरा सा भी विघ्न नहीं आना चाहिए. शायद नए युग के लोग लड़ कर ही अपना अधिकार हासिल कर पाएंगे. चलो, युग के साथ चलना तो सीख रहे हैं वे लोग. पर चंद्रा जैसों का इस युग में कहां स्थान है? क्यों इतनी मौन रहती है वह कि उस के लिए हर बार राधिका को कमर कसनी पड़ती है?
तभी डा. कैप्टन शर्मा की पुकार सुनाई दी, ‘‘अरे, चंद्रा, कहां हो? चमकी, बप्पी, कहां हो तुम सब? कोई नजला, कोई जुकाम?’’
वर्षों पहले बांके बिहारी को किडनी स्टोन की तकलीफ हुई थी. उसी के सिलसिले में डा. कैप्टन शर्मा का इस घर में प्रवेश हुआ था. पास में ही रहते थे. कभी सैनिक अस्पताल में थे. घर में बड़ों या बच्चों की कोई बीमारी हो, तो हमेशा उन्हें ही बुला लिया जाता. धीरेधीरे वे इस घर के सदस्य जैसे बन गए.
दोनों परिवारों में भी सामाजिक संबंध हो गए थे. वे सरकारी अस्पताल के डाक्टर थे. वहां से छूटते ही अकसर वे यहां आ बैठते थे और ‘भाभी एक गरमगरम चाय हो जाए,’ कह सोफे पर पसर जाते थे. इस मरीज ने यह तमाशा किया, उस वार्ड बौय ने किसे कैसे तंग किया, किस नर्स का किस डाक्टर से क्या संबंध है, सबकुछ नाटकीय ढंग से बताते जाते. और बच्चों से ले कर बड़ों तक का हंसाहंसा कर दम भर देते. चमकी तो बचपन से ही मानो उन की दुम थी. जब वे आते, बस, उन्हीं से चिपकी रहती. अब बड़ी हो गई है, हजार काम हैं उस को, पर अब भी सबकुछ छोड़छाड़ कर कुछ देर के लिए तो जरूर ही आ बैठती है उन के पास.
‘कोई नजला नहीं, कोई जुकाम नहीं,’ वह हमेशा यही उत्तर देती रही है, लेकिन आज बोली, ‘‘बूआ से आप उन के कमरे में मिल ही लीजिए.’’
‘‘भई, ऐसी क्या बात हुई कि हमें वहां जाना पड़ेगा? तबीयत तो ठीक है न?’’ उन्होंने पूछा.
वर्षों से इस परिवार में आनाजाना है. अब रिटायर हो चुके हैं, पर कभी भी उन्होंने चंद्रा के कमरे में कदम नहीं रखा है. हां, जब भी आते हैं एक नजर उसे देखने की ख्वाहिश उन की अवश्य होती है. पहले जब वह जवान थी तो कभीकभी परदे की आड़ से, छिप कर उन के नाटकीय वर्णनों को सुना करती थी. एक अदृश्य शक्ति से उन्हें एकदम पता लग जाता था कि कब वह उन्हें सुन रही है. वे कुछ सजग हो जाते, वे कुछ और हंसीमजाक कर के उस वर्णन में जान डालने की कोशिश करते. मानो चंद्रा को खुश कर के उन्हें तृप्ति मिलेगी. जब चंद्रा चली जाती तो उन्हें पता चल जाता और उन की बातें भी खत्म हो जातीं और फिर वे चले जाते.
तब वे बालबच्चे वाले थे. घर में मां थीं, 2 बहनें थीं, पत्नी, बच्चे थे, बड़ी जिम्मेदारी थी. उन्होंने चंद्रा से चाहा भी कुछ नहीं था. उस की उदास जिंदगी में थोड़ी खुशी भरना चाहते थे, बस. अब मां, पत्नी परलोक सिधार चुकी हैं. बच्चे, बहनें अपनीअपनी गृहस्थी में सुखी हैं. कोई यहां, कोई वहां जा बसा है. बेटे विदेश में बस चुके हैं. अब वे नितांत अकेले हैं, रिटायर्ड हैं, पर स्वतंत्र ही रहना चाहते हैं. उन के परिवार के नाम पर बांके बिहारी के परिवारजन हैं. रोज ही आने लगे हैं यहां आजकल. लेकिन अभी भी चंद्रा सामने नहीं आती. यदि पड़ भी जाती है तो अभिवादन भर कर लेती है. मुसकरा कर, सिर हिला कर हां या न में उन के सवालों का जवाब दे देती है और वापस चली जाती है.
डा. कैप्टन शर्मा राधिका से अकसर पूछ लेते, ‘और चंद्रा कैसी है? कोईर् नजला, कोई जुकाम?’
राधिका हंसती, ‘नहीं, ठीक है वह. उसे नजलाजुकाम की फुरसत कहां है. आजकल उस के स्कूल में परीक्षाएं चल रही हैं. कुछ ट्यूशनें भी घर में लेनी शुरू कर दी हैं उस ने. आजकल बडि़यां बनाने में लगी है या आजकल स्वेटर बुनने में व्यस्त है,’ आदिआदि जैसी चंद्रा की सैकंडहैंड खबरें राधिका से उन्हें मिलती रहतीं. कभी वे कोई मैगजीन ले आते, उपन्यास ले आते उस के लिए.
बस, इतना ही. और कुछ नहीं. दुखिया को एकाकीपन से कुछ तो मुक्ति मिल जाए. अपने दायरे में ही रह कर जितना हो सके सुख बटोर ले. बस, यही इच्छा थी उन की.
‘‘कोई नजला नहीं, कोई जुकाम नहीं, पर बूआ से आप आज उन के कमरे में मिल ही लीजिए,’’ चमकी चमक कर कह रही थी.
‘‘भई, ऐसी क्या बात है कि हमें वहां जाना पड़ेगा? तबीयत तो ठीक है न?’’
‘‘आप वहां जाइए तो पहले, तभी तो पता लगेगा,’’ चमकी ने जोड़ा.
‘‘भाभी, राधिका भाभी, बात क्या है? क्या बहुत बीमार है वह?’’ उस तरफ जातेजाते डा. शर्मा बोले.
पीछे से राधिका आ गई. कुछ रास्ता रोकते हुए बोली, ‘‘नहीं, दीदी एकदम ठीक हैं. चमकी शरारत कर रही है.’’
‘‘अरे, एक लेडी के कमरे में बिना इजाजत जाने को कह रही है, आखिर माजरा क्या है?’’ उन्होंने पूछा.
‘‘क्या, बिना इजाजत वहां नहीं जा सकते आप?’’ चमकी ने आश्चर्य प्रकट किया.
‘‘एकदम नहीं, आखिर जैंटलमैन हूं मैं.’’
‘‘कायर हैं कायर, डरते हैं बूआ से,’’ चमकी ने चैलेंज किया.
‘‘ओके, जाता हूं,’’ डा. बोले और चंद्रा के कमरे के द्वार पर खड़े हो कर दरवाजा पर खटखटा कर अंदर आने की आज्ञा मांगी. फिर थोड़ा रुक कर उन्होंने भीतर प्रवेश किया.
साथ ही राधिका और चमकी भी पीछेपीछे घुसीं. देखा, उन की तरफ पीठ कर के वे खिड़की के पास खड़ी हैं. शायद रो भी रही हैं.
‘‘क्या हुआ?’’ डाक्टर ने राधिका से फुसफुसा कर पूछा.
सलवारसूट की तरफ इशारा कर के राधिका बोली, ‘‘परिवार के सब लोगों ने बड़ा मजाक उड़ाया है इन का. मैं ने समझाबुझा दिया था. अब चमकी की नासमझी से फिर बिफर पड़ी हैं ये शायद.’’
उलटे पैर डा. कैप्टन शर्मा बाहर निकल गए. चमकी भी बाहर आ गई, बोली, ‘‘डर गए न डाक्टर चाचा?’’
गंभीर हो कर कैप्टन शर्मा बोले, ‘‘हरेक आदमी की अपनी प्राइवेसी होती है. उस को तोड़ना अनुचित ही नहीं, बल्कि शर्म की बात भी है. वह जब उचित समझेगी, और मुझे यदि उपयुक्त समझेगी तो खुद ही बातचीत करने के लिए बाहर आएगी.’’
‘‘आप का यह संदेश मैं उन्हें दे आऊं? वे तो बाहर आने से रहीं.’’
‘‘तुम जाओ, चमकी, अपना काम करो.’’
‘‘आज कोई गपशप?’’
‘‘आज मैं किसी का इंतजार कर रहा हूं. इसलिए आज गपशप नहीं.’’
अनजान सी कुछ देर खड़ी रह कर चमकी वापस लौट गई.
डा. कैप्टन शर्मा की आवाज सुनते ही जो रुलाई फूट पड़ी थी, उस से चंद्रा लाज से गड़ी जा रही थी. लेकिन जब वे दरवाजे से लौट गए तो अचानक उस ने उन के प्रति बड़ी कृतज्ञता का अनुभव किया. बाहर जा कर मानो उन्होंने उसे एक बड़ी शर्म से बचा लिया. अब बाहर वे उस की प्रतीक्षा कर रहे हैं, क्यों?
राधिका उसे कमरे में अकेला छोड़ कर जा चुकी थी. चंद्रा अनिश्चित दशा में कुछ देर चुप खड़ी रही, फिर पानी से मुंह धो कर रसोई में राधिका के पास आ बैठी. चाय का कप उसे पकड़ा कर राधिका ने कहा, ‘‘जाओ, डाक्टर साहब को दे आओ.’’
‘‘मैं?’’
‘‘हां, क्यों?’’
‘‘इन कपड़ों में?’’
‘‘यदि कपड़े बदलने जाओगी, तो न तो चाय पीने के काबिल बचेगी और न तुम चाय ले कर जाने के काबिल बचोगी.’’
‘‘भाभी, क्या कह रही हैं आप.’’
‘‘कुछ कदम आगे बढ़ते हैं तो कुछ को पीछे छोड़ कर ही बढ़ते हैं. इसी तरह कुछ धारणाएं टूटती हैं तो कुछ बनती भी हैं. अब सलवारसूट पहन कर आगे बढ़ी हो, तो बैठक में जा कर चाय पेश करना भी सीखो.’’
चाय की ट्रे ले कर धीरेधीरे कदम बढ़ाती, सिर झुकाए, चंद्रा ने जब बैठक में प्रवेश किया तो सोफा छोड़ कर कैप्टन शर्मा अदब से मिलिटरी कायदे के अनुसार खड़े हो गए. और तब तक खड़े रहे, जब तक चंद्रा सोफे पर नहीं बैठ गई.
‘‘मैं कैप्टन शर्मा हूं. बिहारी परिवार का फैमिली डाक्टर,’’ उन्होंने अपनेआप को परिचित कराया.
पीछेपीछे राधिका भी कमरे में आ गई थी. हंस कर उस ने अपनी ननद का परिचय डाक्टर से कराया.
‘‘बहुत दिनों से आशा लगा रखी थी कि तुम्हें कभी नजला या कभी जुकाम हो तो मुझे याद किया जाए, लेकिन हमेशा मुझे निराशा ही हाथ लगी.’’
चंद्रा सिर झुकाए मुसकराती रही.
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‘‘मैं बातें किए जा रहा हूं. तुम कोई जवाब ही नहीं देतीं. यह तो बड़ा जुल्म है.’’
चंद्रा जानती थी कि डाक्टर साहब के व्यक्तित्व में एक चुंबकीय आकर्षण है. शायद इसीलिए वह सदैव अपने को उन से दूर रखती आई थी. आज भी वह ठीक उन के सामने बैठी चुंबक के सामने पड़े लोहे की तरह छटपटा रही थी कि बांके बिहारी ने कमरे में प्रवेश कर के खामोशी तोड़ दी.
‘‘क्या मौके पर आए हो,’’ डाक्टर साहब बोले, ‘‘मैं चंद्रा के साथ सामने पार्क में घूमने जा ही रहा था,’’ डा. साहब अब उठ कर खड़े हो चुके थे, ‘‘अब आ ही गए हो तो तुम से भी इजाजत ले लेता हूं.’’
‘‘पी कर आए हो?’’ आश्चर्य से बांके बोले, ‘‘भले घर की स्त्रियां क्या पराए मर्दों के साथ घूमने जाती हैं?’’
‘‘जानता था, तुम यही कहोगे,’’ डाक्टर साहब हंस पड़े, ‘‘आज इन्होंने पहली बार सलवारसूट पहना है. बाहर घूमने के लिए तो इन्हें निकलना ही है. तुम तो ले कर जाओगे नहीं. तुम्हें छोड़ कर भाभी जाएंगी नहीं. बच्चे दोनों पहले से ही अपनेअपने गु्रप के साथ वहां पहुंच चुके होंगे. अब कौन बचा, मैं ही?’’
चंद्रा शर्म से गड़ी जा रही थी. वह कमरे से बाहर जाने के लिए खड़ी हुई. डाक्टर बोले, ‘‘तुम बहुत सुंदर लग रही हो. बहुत जंच रहा है तुम पर यह सलवारसूट. घूमने तो हम लोग साथ चलेंगे ही, चाहे इस के लिए मुझे बांके बिहारी को साला ही क्यों न बनाना पड़े.’’
एक बार फिर सब सकते में आ गए.बाहर की ओर जातेजाते चंद्रा के कदम थम गए. सोचने लगी, ‘कहीं यह उस का कोई दूसरा मजाक तो नहीं है?’ पर नहीं, डा. कैप्टन शर्मा चंद्रा के एकदम नजदीक आ खड़े हुए, ‘‘चंद्रा, क्या मुझे अपना जीवनसाथी चुनना स्वीकार करोगी.’’
एक भयभीत सी नजर चंद्रा ने अपनी भाभी पर डाली.
राधिका बोली, ‘‘डाक्टर बाबू, उन के भैया से तो पहले इजाजत ले लीजिए.’’
‘‘अरे, वह साला क्या इजाजत देगा, साला है न. इजाजत तो मुझे चंद्रा की चाहिए. हम दोनों बालिग हैं. इजाजत न देगा, तो भाग निकलेंगे. यह गली छोड़ कर दूसरी गली में बस जाएंगे.
कोई कुछ बोले, उस से पहले ही आगे बढ़ कर राधिका ने डाक्टर साहब के हाथ में चंद्रा का हाथ रख दिया.
इस घटना के अरसे बाद तक चमकी उस सलवारसूट के करामाती किस्से सुनाती रही. जब भी उस की किसी सहेली के लिए रिश्ता आता, चमकी उस को सलवारसूट ही पहनने की सलाह देती, ‘‘देखो, सलवारसूट की ही वजह से तो मेरी 50 वर्षीया बूआ के हाथ पीले हुए.
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