संजना हतप्रभ सी नयना को देखती रह गई. उस की आंखों में, उस के चेहरे पर असुरक्षा के भाव थे, भविष्य की चिंता थी. लेकिन क्यों? नयना खुद इतने ऊंचे पद पर कार्यरत थी, इस आजाद खयाल जीवन की हिमायती नयना के मन में भी पवन के खो जाने का डर है, जीवन में अकेले रह जाने का डर है. पवन के बाद दूसरा साथी बनाएगी फिर तीसरा…फिर चौथा…और उस के बाद जैसे एक विराट प्रश्नचिह्न संजना के सामने आ कर टंग गया था. वह तो अपनी नौकरी के अलावा कभी किसी बारे में सोचती ही नहीं. बस, नितिन का अपने से कम योग्य होना ही उसे खलता रहता है और इस बात से वह दुखी होती रहती है.
‘‘पवन कहीं नहीं जाएगा, नयना, आ जाएगा रात तक. तुम्हारा भ्रम है यह…’’ वह नयना को दिलासा देती हुई बोली. और दिन भर के लिए उस के पास रुक गई. शाम को जब वह घर पहुंची तो घर पर रोली को अपना इंतजार करते पाया.
‘‘अरे, रोली इस समय तुम कैसे आ गईं.’’
‘‘तुझ से बात करने का मन हो रहा था. सो, आ गई. नितिनजी ने बताया कि तू नयना के घर गई है, आने वाली होगी. मुझे इंतजार करने को कह कर वह कुछ सामान लेने चले गए.’’
एक पल चुप रहने के बाद रोली बोली, ‘‘नितिन बता रहे थे कि नयना की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, क्या हुआ है उसे?’’
‘‘कुछ नहीं, वह अपने और पवन के रिश्तों को ले कर कुछ अपसेट सी है,’’ संजना सोफे पर बैठती हुई बोली, ‘‘नयना को पवन पर भरोसा नहीं रहा. उसे लग रहा है कि उस की जिंदगी में कोई और है तभी वह उस से दूर जा रहा है.’’
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‘‘लेकिन नयना उस से पूछती क्यों नहीं?’’ रोली रोष में आ कर बोली.
‘‘किस बिना पर, रोली. आखिर लिव इन रिलेशन का यही तो मतलब है कि जब तक बनी तब तक साथ रहे वरना अलग होने में वैवाहिक रिश्तों जैसा कोई झंझट नहीं.’’
‘‘और तू सुना, कैसी है,’’ थोड़ी देर बाद संजना बोली.
‘‘बस, ऐसे ही, कल से बहुत परेशान सी थी. घर में रिश्ते की बात चल रही है. एक अच्छा रिश्ता आया है. सब बातें तो ठीक हैं पर लड़का मुंबई में कार्यरत है? मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. इसी बात पर घर में हंगामा मचा हुआ था. पापा चाहते थे कि मुझे चाहे नौकरी छोड़नी पड़े पर मैं उस रिश्ते के लिए हां कर दूं. इसी विवाद से परेशान हो कर मैं थोड़ी देर के लिए तेरे पास आ गई.’’
‘‘तो क्या सोचा है तू ने?’’ संजना बोली.
‘‘सोचा तो था कि मना कर दूंगी,’’ रोली खिसक कर संजना के पास बैठती हुई बोली, ‘‘लेकिन नयना के बारे में जानने के बाद अब सोचती हूं कि हां कर दूं. आज की पीढ़ी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में उलझी हुई विवाह और विवाह के बाद की जिम्मेदारियों से दूर भाग रही है लेकिन जैसेजैसे उम्र आगे बढ़ती है पीछे मुड़ कर देखने का मन करता है. अगर 10 साल बाद कोई समझौता करना है तो आज क्यों नहीं?’’ पल भर के लिए दोनों सहेलियां चुप हो गईं.
‘‘तू ने सही और समय से निर्णय लिया, संजना. सभी को कुछ न कुछ समझौता तो करना ही पड़ता है. मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ रही है और नयना को भविष्य की सुरक्षा, लेकिन तेरे पास सबकुछ है. नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन अयोग्य तो नहीं है. पहले लड़कियां इतनी योग्य भी नहीं होती थीं तो उन्हें अपने से अधिक योग्य लड़के मिल जाते थे लेकिन अब जमाना बदल रहा है. लड़कियां इतनी तरक्की कर रही हैं कि यदि अपने से अधिक योग्य लड़के के इंतजार में बैठी रहेंगी तो या तो नौकरी ही कर पाएंगी या शादी ही.
‘‘ऐसे लड़के का चुनाव करना जिस के साथ घरेलू जीवन चल सके, बच्चों की परवरिश हो सके, बड़ेबुजुर्गों की देखभाल हो सके, अपने से लड़का कुछ कम योग्य भी हो तो इस में कुछ भी गलत नहीं है. समय के साथ यह बदलाव आना ही चाहिए. आखिर पहले पत्नी घर देखती थी आज ऊंचे ओहदों पर कार्य कर रही है तो पति के पास घर की देखभाल करने का समय हो तो इस में कुछ गलत है क्या?’’ यह कह कर रोली उठ खड़ी हुई.
संजना जब रोली को बाहर तक छोड़ कर अंदर आई तो ध्यान आया कि नितिन को बाजार गए हुए काफी देर हो गई और अभी तक वह आए नहीं. आज नितिन के लिए संजना के मन में अंदर से चिंता हो रही थी. तभी कौलबेल बज उठी, सामान से लदाफदा नितिन दरवाजे पर खड़ा था.
‘‘अरे, आप इतना सारा सामान ले आए,’’ संजना सामान के कुछ पैकेट उस के हाथ से पकड़ते हुए बोली, ‘‘बहुत देर हो गई, मैं इंतजार कर रही थी.’’
संजना के स्वर की कोमलता से नितिन चौंक गया. बिना कुछ बोले वह अपने हाथ का सामान किचन में रख कर बेडरूम में चला गया. संजना भी उस के पीछेपीछे आ गई.
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‘‘नितिन,’’ पीछे से उस के गले में बांहें डालती हुई संजना बोली, ‘‘चलो, आज का डिनर बाहर करेंगे, फिर कोई फिल्म देखेंगे. आया को रोक लेते हैं. वह मुन्ने को देख लेगी.’’
उस के इस प्रस्ताव व हरकत से नितिन हैरत से पलट कर उस की ओर देखने लगा.
‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ संजना इठलाती हुई बोली, ‘‘हर समय गुस्से में रहते हो, यह नहीं की कभी बीवी को कहीं घुमा लाओ, फिल्म दिखा लाओ.’’
आम घरेलू औरतों की तरह संजना बोली तो उस की इस हरकत पर नितिन खिलखिला कर हंस पड़ा.
संजना उस के गले में बांहें डाल कर उस से लिपट गई, ‘‘मुझे माफ कर दो, नितिन.’’
‘‘संजना, इस में माफी की क्या बात है? मेरे लिए तुम, तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी काम में व्यस्तता, तुम्हारा रुतबा सभी कुछ गर्व का विषय है लेकिन जब तुम मुझे ही अपनी जिंदगी से दरकिनार कर देती हो तो दुख होता है.’’
‘‘अब ऐसा नहीं होगा. मेरे लिए आप से अधिक महत्त्वपूर्ण जीवन में दूसरा कुछ भी नहीं है. आप में और मुझ में कोई फर्क नहीं, हमारा कुछ भी, चाहे वह नौकरी हो या समाज, जिंदगी भर नहीं रहेगा…लेकिन हम दोनों मरते दम तक साथ रहेंगे.’’
मानअभिमान की सारी दीवारें तोड़ कर संजना नितिन से लिपट गई. नितिन ने भी एक पति के आत्मविश्वास से संजना को अपनी बांहों में समेट लिया.
‘‘पि छले एक हफ्ते से बहुत थक गई हूं,’’ संजना ने कौफी का आर्डर देते हुए रोली से कहा, ‘‘इतना काम…कभीकभी दिल करता है कि नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाऊं.’’
‘‘हां यार, मेरे घर वाले भी शादी करने के लिए जोर डाल रहे हैं,’’ रोली बोली, ‘‘लेकिन नौकरी की व्यस्तता में कुछ सोच नहीं पा रही हूं…नयना का ठीक है. शादी का झंझट ही नहीं पाला, साथ रहो, साथ रहने का मजा लो और शादी के बाद के झंझट से मुक्त रहो.’’
‘‘मुझे तो लिव इन रिलेशन शादी से अधिक भाया है,’’ नयना ने कहा, ‘‘शादी करो, बच्चे पैदा करो, बच्चे पालो और नौकरी को हाशिए पर रख दो. अरे, इतनी मेहनत कर के इंजीनियरिंग की है क्या सिर्फ घर चलाने और बच्चे पालने के लिए?’’
‘‘कैसा चल रहा है तेरा पवन के साथ?’’ रोली ने पूछा.
‘‘बहुत बढि़या, जरूरत पर एक दूसरे का साथ भी है लेकिन बंधन कोई नहीं. मैं तो कहती हूं, तू भी एक अच्छा सा पार्टनर ढूंढ़ ले,’’ नयना बोली.
‘‘कौन कहता है कि शादी बंधन है,’’ संजना कौफी के कप में चम्मच चलाती हुई बोली, ‘‘बस, कामयाब औरत को समय के अनुसार सही साथी तलाश करने की जरूरत है.’’
‘‘हां, जैसे तू ने तलाश किया,’’ नयना खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘आई.आई.टी. इंजीनियर और आई.आई.एम. लखनऊ से एम.बी.ए. हो कर एक लेक्चरर से शादी कर ली, इतनी कामयाब बीवी को वह कितने दिन पचा पाएगा.’’
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जवाब में संजना मुसकराने लगी, ‘‘क्यों नहीं पचा पाएगा. जब एक पत्नी अपने से कामयाब पति को पचा सकती है तो एक पति अपने से अधिक कामयाब पत्नी को क्यों नहीं पचा सकता है. आज के समय की यही जरूरत है,’’ कह कर कौफी का प्याला मेज पर रख कर संजना उठ खड़ी हुई. साथ ही रोली और नयना भी खिलखिलाते हुए उठीं और अपनी- अपनी राह चल पड़ीं.
तीनों सहेलियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़ेबड़े ओहदों पर थीं. फुरसत के समय तीनों एकदूसरे से मिलती रहती थीं. तीनों सहेलियों की उम्र 32 पार कर चुकी थी. रोली अभी तक अविवाहित थी. नयना एक युवक पवन के साथ लिव इन रिलेशन व्यतीत कर रही थी और संजना ने एक लेक्चरर से 3 साल पहले विवाह किया था. उस का साल भर का एक बेटा भी था. वैसे तो तीनों सहेलियां अपनीअपनी वर्तमान स्थितियों से संतुष्ट थीं लेकिन सबकुछ है पर कुछ कमी सी है की तर्ज पर हर एक को कुछ न कुछ खटकता रहता था.
रोली जब घर पहुंची तो 9 बज रहे थे. मां खाने की मेज पर बैठी उस का इंतजार कर रही थीं. उसे आया देख कर मां बोलीं, ‘‘बेटी, आज बहुत देर कर दी, आ जा, जल्दी से खाना खा ले.’’
9 बजना बड़े शहरों में कोई बहुत अधिक समय नहीं था, पर किसी ने भी उस का खाने के लिए इंतजार करना ठीक नहीं समझा. भाई अगर देर से आएं तो उन के लिए सारा परिवार ठहरता है. आखिर, वह अपनी सारी तनख्वाह इसी घर में तो खर्च करती है.
मां की तरफ बिना देखे रोली अंदर चली गई. बाथरूम से फ्रेश हो कर निकली तो मां प्लेट में खाना डाल रही थीं. उस ने किसी तरह थोड़ा खाना खाया. इस दौरान मां की बातों का वह हां, ना में जवाब देती रही और फिर अपने कमरे में बत्ती बुझा कर लेट गई. दिन भर के काम से शरीर क्लांत था लेकिन हृदय के अंदर समुद्री तूफान था. लंबेचौड़े पलंग ने जैसे उस का अस्तित्व शून्य बना दिया था.
रिश्ते तो कई आते हैं पर तय हो ही नहीं पाते क्योंकि या तो उसे अपनी वर्तमान नौकरी छोड़नी पड़ती या फिर लड़के का रुतबा उस के बराबर का नहीं होता और दोनों ही स्थितियां रोली को स्वीकार नहीं थीं. इसी कारण शादी टलती जा रही थी. वह हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहती थी. उस के संस्कार उसे नयना जैसा जीवन जीने की प्रेरणा नहीं देते थे और उस का रुतबा व स्वाभिमान उसे अपने से कम योग्य लड़के से शादी करने से रोकते थे.
नयना अपने फ्लैट पर पहुंची तो फ्लैट में अंधेरा था. पर्स से चाबी निकाल कर दरवाजा खोला और अंदर आ गई. ‘पवन कहां होगा’ यह सोच कर उस ने पवन के मोबाइल पर फोन लगाया और बोली, ‘‘पवन, कहां हो तुम?’’
‘‘नयना, मैं आज कुछ दोस्तों के साथ एक फार्म हाउस पर हूं. सौरी डार्लिंग, मैं आज रात वापस नहीं आ पाऊंगा. कल रविवार है, कल मिलते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.
पवन साथ हो या न हो, एक असुरक्षा का भाव जाने क्यों हमेशा उस के जेहन में तैरता रहता है. यों उन का लिव इन रिलेशन अच्छा चल रहा था फिर भी वह अपनेआप को कुछ लुटा हुआ, ठगा हुआ सा महसूस करती थी. विवाह की अहमियत दिल में सिर उठा ही लेती. वैवाहिक संबंधों पर पारिवारिक, सामाजिक व बच्चों का दबाव होता है इसलिए निभाने ही पड़ते हैं लेकिन उन के संबंधों की बुनियाद खोखली है, कभी भी टूट सकते हैं…उस के बाद…यह सोचने से भी नयना घबराती थी.
नयना ने 2 टोस्ट पर मक्खन लगाया, थोड़ा दूध पिया और कपड़े बदल कर बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई. पवन लिव इन रिलेशन के लिए तो तैयार है पर विवाह के लिए नहीं. कहता है कि अभी उस ने विवाह के बारे में सोचा नहीं है. सच तो यह है कि पवन यदि विवाह के लिए कहे भी तो शायद वह तैयार न हो पाए. विवाह के बाद की जिम्मेदारियां, बच्चे, घरगृहस्थी, वह कैसे निभा पाएगी. लेकिन जब अपने दिल से पूछती है तो एहसास होता है कि विवाह की अहमियत वह समझती है.
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स्थायी संबंध, भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा विवाह से ही मिलती है. लाख उस के पवन के साथ मधुर संबंध हैं लेकिन उसे वह अधिकार तो नहीं जो एक पत्नी का अपने पति पर होता है. यह सबकुछ सोचतेसोचते नयना गुदगुदे तकिए में मुंह गड़ा कर सोने का असफल प्रयास करने लगी.
संजना घर पहुंची तो नितिन बेटे को कंधे से चिपकाए लौन में टहल रहा था. उसे अंदर आते देख कर उस की तरफ चला आया और बोला, ‘‘बहुत देर हो गई.’’
‘‘हां, नयना और रोली के साथ कौफी पीने रुक गई थी.’’
‘‘तो एक फोन तो कर देतीं,’’ नितिन नाराजगी से बोला.
दोनों अंदर आ गए. नितिन बेटे को बिस्तर पर लिटा कर थपकियां देने लगा. वह बाथरूम में चली गई. नहाधो कर निकली तो मेज पर खाना लगा हुआ था.
‘‘चलो, खाना खा लो,’’ संजना बोली तो नितिन मेज पर आ कर बैठ गया.
डोंगे का ढक्कन हटाती हुई संजना बोली, ‘‘कुछ भी कहो, खाना महाराजिन बहुत अच्छा बनाती है.’’
नितिन चुपचाप खाना खाता रहा. संजना उस की नाराजगी समझ रही थी. आज शनिवार की शाम नितिन का आउटिंग का प्रोग्राम रहा होगा, जो उस की वजह से खराब हो गया. एक बार मन किया कि मानमनुहार करे लेकिन वह इतनी थकी हुई थी कि नितिन से उलझने का उस का मन नहीं हुआ.
आगे पढ़ें- वैसे नितिन उस का स्वयं का चुनाव था. जब…
खाना खत्म कर के उस ने बचा हुआ खाना फ्रिज में रखा और बिस्तर पर आ कर लेट गई. नितिन सो गया था. आंखों को कोहनी से ढके संजना का मन कर रहा था कि वह नितिन को मना ले, लेकिन पता नहीं कौन सी दीवार थी जो उसे उस के साथ सहज होने से रोकती थी.
वैसे नितिन उस का स्वयं का चुनाव था. जब उस के लिए रिश्ते आ रहे थे उस समय उस की बूआ ने अपने रिश्ते के एक लेक्चरर लड़के का रिश्ता उस के लिए सुझाया था. घर में सभी खिलखिला कर हंस पड़े थे. कहां संजना बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक और कहां लेक्चरर.
तब उस की छोटी बहन मजाक में बोली थी, ‘वैसे दीदी, एक लेक्चरर से आप का आइडियल मैच रहेगा. आखिर पतिपत्नी में से किसी एक को तो घर संभालने की फुरसत होनी ही चाहिए. वरना घर कैसे चलेगा. आप पति बन कर राज करना वह पत्नी बन कर घर संभालेगा.’ और बहन की मजाक में कही हुई बात संजना के जेहन में आ कर अटक गई थी.
पहले तो उस के जैसी योग्य लड़की के लिए रिश्ते मिलने ही मुश्किल हो रहे थे. एक तो इस लड़के की नौकरी स्थानीय थी और दूसरे, आने वाले समय में बच्चे होंगे तो उन की देखभाल करने का उस के पास पर्याप्त समय होगा तो वह अपनी नौकरी पर पूरा ध्यान दे सकती है. यह सोच कर उस का निर्णय पुख्ता हो गया. उस के इस क्रांतिकारी निर्णय में पिता ने उस का साथ दिया था. उन की नजर में आज के समय में पति या पत्नी में से किसी का भी कम या ज्यादा योग्य होना कोई माने नहीं रखता है. और इस तरह से नितिन से उस का विवाह हो गया था.
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शुरुआत में तो सब ठीक चला लेकिन धीरेधीरे उन के रिश्तों में ख्ंिचाव आने लगा. उस की तनखाह, ओहदा, उस का दायरा, उस की व्यस्तताएं सभी कुछ नितिन के मुकाबले ऊंचा व अलग था. और यह बात संजना के हावभाव से जाहिर हो जाती थी. नितिन उस के सामने खुद को बौना महसूस करता था. संजना सोच रही थी कि काश, उस ने विवाह करने में जल्दबाजी न की होती तो आज उस की यह स्थिति नहीं होती. उस से तो अच्छा रोली और नयना का जीवन है जो खुश तो हैं. नितिन उस की परेशानियां समझ ही नहीं पाता. वह चाहता है कि पत्नी की तरह मैं उस के अहं को संतुष्ट करूं. यही सोचतेसोचते संजना सो गई.
दूसरे दिन रविवार था. वह देर से सो कर उठी. जब वह उठी तो महाराजिन, धोबन, महरी सब काम कर के जा चुके थे और आया मोनू की मालिश कर रही थी. वह बाहर निकली, किचन में जा कर चाय बनाई. एक कप नितिन को दी और खुद भी बैठ कर चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगी.
तभी उस का फोन बज उठा. उस ने फोन उठाया, नयना थी, ‘‘हैलो नयना…’’ संजना चाय पीते हुए नयना से बात करने लगी.
‘‘संजना, क्या तुम थोड़ी देर के लिए मेरे घर आ सकती हो?’’ नयना की आवाज उदासी में डूबी हुई थी.
‘‘क्यों, क्या हो गया, नयना?’’ संजना चिंतित स्वर में बोली.
‘‘बस, घर पर अकेली हूं, रात भर नींद नहीं आई, बेचैनी सी हो रही है.’’
‘‘मैं अभी आती हूं,’’ कह कर संजना उठ खड़ी हुई. नितिन सबकुछ सुन रहा था. उस का तना हुआ चेहरा और भी तन गया.
वह तैयार हुई और नितिन से ‘अभी आती हूं’ कह कर बाहर निकल गई. नयना के फ्लैट में संजना पहुंची तो वह उस का ही इंतजार कर रही थी. बाहर से ही अस्तव्यस्त घर के दर्शन हो गए. वह अंदर बेडरूम में गई तो देखा नयना सिर पर कपड़ा बांधे बिस्तर पर लेटी हुई थी. कमरे में कुरसियों पर हफ्ते भर के उतारे हुए मैले कपड़ों का ढेर पड़ा हुआ था. कहने को पवन और नयना दोनों ऊंचे ओहदों पर कार्यरत थे पर उन के घर को देख कर जरा भी नहीं लगता था कि यह 2 समान विचारों वाले इनसानों का घर है.
‘‘क्या हुआ, नयना,’’ संजना उस के सिर पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘पवन कहां है?’’
‘‘वह अपने दोस्तों के साथ शहर से दूर किसी फार्म हाउस पर गया हुआ है और मेरी तबीयत रात से ही खराब है. दिल बारबार बेचैन हो उठता है, सिर में तेज दर्द है,’’ इतना बताते हुए नयना की आवाज भर्रा गई.
संजना के दिल में कुछ कसक सा गया. यहां नयना इसलिए दुखी है कि पवन कल से लौटा नहीं और उस के पास नितिन के लिए समय नहीं है.
‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है. रात तक पवन लौट आएगा,’’ संजना बोली, ‘‘चल, तुझे डाक्टर को दिखा लाती हूं. उस के बाद मेरे घर चलना.’’
‘‘बात रात तक आने की नहीं है, संजना,’’ नयना बोली, ‘‘पवन का व्यवहार कुछ बदल रहा है. वह अकसर ही मुझे बिना बताए अपने दोस्तों के साथ चला जाता है. कौन जाने उन दोस्तों में कोई लड़की हो?’’ बोलते- बोलते नयना की रुलाई फूट पड़ी.
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‘‘लेकिन तू ने कभी कहा नहीं…’’
‘‘क्या कहती…’’ नयना थोड़ी देर चुप रही, ‘‘वह मेरा पति तो नहीं है जिस पर कोई दबाव डाला जाए. वह अपने फैसले के लिए आजाद है, संजना,’’ और संजना की बांह पकड़ कर नयना बोली, ‘‘तू ने अपने जीवन में सब से सही निर्णय लिया है. तेरे पास सबकुछ है. सुकून भरा घर, बेटा और तुझे मानसम्मान देने वाला पति पर मेरे और पवन के रिश्तों का क्या है, कौन सा आधार है जो वह मुझ से बंधा रहे? आखिर इन रिश्तों का और इस जीवन का क्या भविष्य है? एक उम्र निकल जाएगी तो मैं किस के सहारे जीऊंगी?
‘‘जीवन सिर्फ जवानी की सीधी सड़क ही नहीं है, संजना. इस सीधी, सपाट सड़क के बाद एक संकरी गली भी आती है…अधेड़ावस्था की…और जब यह गली मुड़ती है न…तो एक भयानक खाई आती है…बुढ़ापे की…और जीवन का वही सब से भयानक मोड़ है, तब मैं क्या करूंगी…’’ कह कर नयना रोने लगी.
‘‘नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन तेरे जीवन की निश्ंिचतता उसी की वजह से है. उसे खोने का तुझे डर नहीं, घर की तुझे चिंता नहीं…बेटे के लालनपालन में तुझे कोई परेशानी नहीं…’’ रोतेरोते नयना बोली, ‘‘मेरे पास क्या है? पवन का मन होगा तब तक वह मेरे साथ रहेगा, फिर उस के बाद…’’
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‘‘तनु बेटा, जा कर तैयार हो जा. वे लोग आते ही होंगे,’’ मां ने प्यारभरी आवाज में मनुहार करते हुए कहा. ‘‘मां, मैं कितनी बार कह चुकी हूं कि मैं विवाह नहीं करूंगी. मुझे पसंद नहीं है यह देखने व दिखाने की औपचारिकता. मां, मान भी लो कि यह रिश्ता हो गया, तो क्या मैं सुखी वैवाहिक जीवन बिता पाऊंगी? जब भी उन्हें पता चलेगा कि मैं एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त हूं तो क्या वे मुझे…’’ मैं आवेश में कांपती आवाज में बोली.
‘‘बेटा, तू ने मन में भ्रम पाल लिया है कि तुझे गंभीर बीमारी है. प्रदूषण के कारण आज हर 10 में से एक व्यक्ति इस बीमारी से पीडि़त है. दमा रोग आज असाध्य नहीं है. उचित खानपान, रहनसहन व उचित दवाइयों के प्रयोग से रोग पर काबू पाया जा सकता है. अनेक कुशल व सफल व्यक्ति भी इस रोग से ग्रस्त पाए गए हैं. ज्यादा तनाव, क्रोध इस रोग की तीव्रता को बढ़ा देते हैं. हमारे खानदान में तो यह रोग किसी को नहीं है, फिर तू क्यों हीनभावना से ग्रस्त है?’’ मां ने समझाते हुए कहा.
‘‘तुम इस बीमारी के विषय में उन लोगों को बता क्यों नहीं देतीं,’’ मैं ने सहज होने का प्रयत्न करते हुए कहा.
‘‘तू नहीं जानती है, बेटी, तेरे डैडी ने 1-2 जगह इस बात का जिक्र किया था, किंतु बीमारी का सुन कर लड़के वालों ने कोई न कोई बहाना बना कर चलती बात को बीच में ही रोक दिया,’’ असहाय मुद्रा में मां बोलीं.
‘‘लेकिन मां, यह तो धोखा होगा उन के साथ.’’
‘‘बेटा, जीवन में कभीकभी कुछ समझौते करने पड़ते हैं, जिन्हें करने का हम प्रयास कर रहे हैं.’’ लंबी सांस से ले कर मां फिर बोलीं, ‘‘इतनी बड़ी जिंदगी किस के सहारे काटेगी? जब तक हम लोग हैं तब तक तो ठीक है, भाई कब तक सहारा देेंगे? अपने लिए नहीं तो मेरे और अपने डैडी की खातिर हमारे साथ सहयोग कर बेटा. जा, जा कर तैयार हो जा,’’ मां ने डबडबाई आंखों से कहा.
कुछ कहने के लिए मैं ने मुंह खोला किंतु मां की आंखों में आंसू देख कर होंठों से निकलते शब्द होंठों पर ही चिपक गए. अनिच्छा से मैं तैयार हुई. मन कह रहा था कि किसी को धोखा देना अपराध है. मन की बात मन में ही रह गई. भाई रंजन ने आ कर बताया कि वे लोग आ गए हैं. मां और डैडी स्वागत के लिए दौड़े. 2 घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला. मनुज अत्यंत आकर्षक, हंसमुख व मिलनसार लगा. लग ही नहीं रहा था कि हम पहली बार मिल रहे हैं. पहली बार मन में किसी को जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हुई.
वे लोग चले गए, किंतु मेरे मन में उथलपुथल मच गई. क्या वे मुझे स्वीकार करेंगे? यदि स्वीकार कर भी लिया तो कच्ची डोर से बंधा बंधन कब तक ठहर पाएगा?
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2 दिनों बाद फोन पर रिश्ते को स्वीकार करने की सूचना मिली तो बिना त्योहार के ही घर में त्योहार जैसी खुशियां छा गईं. डैडी बोले, ‘‘मैं जानता था रिश्ता यहीं तय होगा. कितना भला व सुशील लड़का है मनुज.’’
किंतु मैं खुश नहीं थी. जनमजनम के इस रिश्ते में पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है, सो, पता प्राप्त कर चुपके से एक पत्र मनुज के नाम लिख कर डाल दिया. धड़कते दिल से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी.
एक हफ्ता बीता, 2 हफ्ते बीते, यहां तक तीसरा भी बीत गया. उस के पत्र का कोई उत्तर नहीं आया. मनुज का विशाल व्यक्तित्व खोखला लगने लगा था. स्वप्न धराशायी होने लगे थे कि एक दिन कालेज से लौटी तो दरवाजे की कुंडी में 3-4 पत्रों के साथ एक गुलाबी लिफाफा था. उस का भविष्य इसी लिफाफे में कैद था. जीवन में खुशियां आने वाली हैं या अंधेरा, एक छोटा सा कागज का टुकड़ा निर्णय कर देगा. पत्र खोल कर पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी.
‘प्यारी तनु,मां आज किटी पार्टी में गई थीं. सो, बैग से चाबी निकाल कर ताला खोला. कड़कड़ाती ठंड में भी माथे पर पसीने कीबूंदें झलक आई थीं. स्वयं को संयत करते हुए पत्र खोला. लिखा था :
तुम्हें जीवनसाथी के रूप में प्राप्त कर मेरा जीवन धन्य हो जाएगा. तुम बिलकुल वैसी ही हो जैसी मैं ने कल्पना की थी.’
मन में अचानक अनेक प्रकार के फूल खिल उठे, सावन के बिना ही जीवन में बहार आ गई. चारों ओर सतरंगी रंग छितर कर तनमन को रंगीन बनाने लगे. मैं ने भी उन के पत्र का उत्तर दे दिया था.
2 महीने के अंदर ही वैदिक मंत्रों के मध्य अग्नि को साक्षी मान कर मेरा मनुज से विवाह हो गया. दुखसुख में जीवनभर साथ निभाने के कसमेवादों के साथ जीवन के अंतहीन पथ पर चल पड़ी. विदाई के समय मां का रोरो कर बुरा हाल था. चलते समय मनुज से बोली थीं, ‘‘बेटा, नाजुक सी छुईमुई कली है मेरी बेटी, कोई गलती हो जाए तो छोटा समझ कर माफ कर देना.’’
मेरी आंखें रो रही थीं किंतु मन नवीन आकांक्षाओं के साथ नए पथ पर छलांग मारने को आतुर था. कानपुर से फैजाबाद आते समय मनुज ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था तथा धीरेधीरे सहला रहे थे, और मैं चाह कर भी नजरों से नजरें मिलाने में असमर्थ थी. कैसा है यह बंधन… अनजान सफर में अनजान राही के साथ अचानक तनमन का एकाकार हो जाना, प्रेम और अपनत्व नहीं, तो और क्या है.
ससुराल में खूब स्वागत हुआ. सास सौतेली थीं, किंतु उन का स्वभाव अत्यंत मोहक व मृदु लगा. कुछ ने कहा कि कमाऊ बेटा है इसीलिए उस की बहू का इतना सत्कार कर रही हैं. यह सुन कर सौम्य स्वभाव, मृदुभाषिणी सास के चेहरे पर दुख की लकीरें अवश्य आईं, किंतु क्षण भर पश्चात ही निर्विकार मूर्ति के सदृश प्रत्येक आएगए व्यक्ति की देखभाल में जुट जातीं.
ननद स्नेहा भी दिनभर भाभीभाभी कहते हुए आगेपीछे ही घूमती. कभी नाश्ते के लिए आग्रह करती तो कभी खाने के लिए. प्रत्येक आनेजाने वाले से भी परिचय करवाती. मनुज भी किसी न किसी काम के बहाने कमरे में ही ज्यादा वक्त गुजारते. मित्र कहते, ‘‘वह तो गया काम से. अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ मन चाहने लगा था, काश, वक्त ठहर जाए, और इसी तरह हंसीखुशी से सदा मेरा आंचल भरा रहे.
पूरे हफ्ते घूमनाफिरना लगा रहा. 2 दिनों बाद ऊटी जाने का कार्यक्रम था. देर रात्रि मनुज के अभिन्न मित्र के घर से हम खाना खा कर आए. पता नहीं ठंड लग गई या खानेपीने की अनियमितता के कारण सुबह उठी तो सांस बेहद फूलने लगी.
‘‘क्या बात है? तुम्हारी सांस कैसे फूलने लगी? क्या पहले भी ऐसा होता था?’’ मुझे तकलीफ में देख कर हैरानपरेशान मनुज ने पूछा.
‘‘मैं ने अपनी बीमारी के बारे में आप को पत्र लिखा था,’’ प्रश्न का समाधान करते हुए मैं ने कहा.
‘‘पत्र, कौन सा पत्र? तुम्हारे पत्र में बीमारी के बारे में तो जिक्र ही नहीं था.’’
लगा, पृथ्वी घूम रही है. क्या इन को मेरा पत्र नहीं मिला? मैं तो इन का पत्र प्राप्त कर यही समझती रही कि मेरी कमी के साथ ही इन्होंने मुझे स्वीकारा है. तनाव व चिंता के कारण घबराहट होने लगी थी. पर्स खोल कर दवा ली, लेकिन जानती थी रोग की तीव्रता 2-3 दिन के बाद ही कम होगी. दवा के रूप में प्रयुक्त होने वाला इनहेलर शरम व झिझक के कारण नहीं लाई थी. यदि किसी ने देख लिया और पूछ बैठा तो क्या उत्तर दूंगी.
बीमारी को ले कर इन्होंने घर सिर पर उठा लिया. इन का रौद्ररूप देख कर मैं दहल गई थी. आखिर गलती हमारी ओर से हुई थी. बीमारी को छिपाना ही भयंकर सिद्ध हुआ था. मेरा लिखा पत्र डाक एवं तार विभाग की गड़बड़ी के कारण इन तक नहीं पहुंच पाया था.
‘‘बेटा, आजकल के समय में कोई भी रोग असाध्य नहीं है. हम बहू का इलाज करवाएंगे. तुम क्यों चिंता करते हो?’’ मनुज को समझाते हुए सासससुर बोले.
‘‘पिताजी, मैं इस के साथ नहीं रह सकता. मैं ने एक सर्वगुणसंपन्न व स्वस्थ जीवनसाथी की तलाश की थी न कि रोगी की. क्या मैं इस की लाश को जीवनभर ढोता रहूंगा? अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ कड़कती मुद्रा में ये बोले.
‘‘पापा, भैया ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ स्नेहा, मेरी ननद ने भाई का समर्थन करते हुए कहा.
‘‘तुम चुप रहो. अभी छोटी हो, शादीविवाह कोई बच्चों का खेल नहीं है जो तोड़ दिया जाए,’’ पितासमान ससुरजी ने स्नेहा को डांटते हुए कहा.
‘‘मैं कल ही अपने काम पर लौट रहा हूं.’’ कुछ कहने को आतुर अपने पिता को चुप कराते हुए, मनुज घर से चले गए.
मनुज की बातों से व्याकुल सास मेरे पास आईं. मेरी आंखों से बहते आंसुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए बोलीं, ‘‘बेटी घबरा मत, सब ठीक हो जाएगा. बेवकूफ लड़का है, इतना भी नहीं समझता कि बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है. इस की वजह से विवाह जैसे पवित्र संबंध को तोड़ा नहीं जा सकता. हां, इतना अवश्य है कि राजेंद्र भाईसाहब को बीमारी के संबंध में छिपाना नहीं चाहिए था.’’
‘‘मांजी, मम्मीपापा ने छिपाया अवश्य था, किंतु मैं ने इन्हें सबकुछ सचसच लिख दिया था. इन का पत्र प्राप्त कर मैं समझी थी कि इन्होंने मेरी बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया है, वरना मैं विवाह ही नहीं करती,’’ कहतेकहते आंचल में मुंह छिपा कर मैं रो पड़ी थी.
डाक्टर भी आ गए थे. रोग की तीव्रता को देख कर इंजैक्शन दिया तथा दवा भी लिखी. रोग की तीव्रता कम होने लगी थी, किंतु इन के जाने की बात सुन कर मन अजीब सा हो गया था. सारी शरम छोड़ कर सासूजी से कहा, ‘‘मम्मी, क्या ये एक बार, सिर्फ एक बार मुझ से बात नहीं कर सकते?’’
सासुमां ने मनुज से आग्रह भी किया, किंतु कोई भी परिणाम न निकला. जाते समय मैं भी सब के साथ बाहर आई. इन्होंने मां और पिताजी के पैर छुए, बहन को प्यार किया और मेरी ओर उपेक्षित दृष्टि डाल कर चले गए. सासुमां ने दिलासा देते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैं विह्वल स्वर में बोल उठी, ‘‘मां, मेरा क्या होगा?’’
आदमी इतना तटस्थ हो सकता है, मैं ने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था. विगत एक हफ्ते में हम ने कुछ अंतरंग क्षण व्यतीत किए थे, कुछ सपने बुने थे, सुखदुख में साथ रहने की कसमें खाई थीं, क्या वह सब झूठ था?
डैडी को पता चला तो वे भी आए. उन के उदास चेहरे पर मैं नजर भी न डाल सकी. कितने प्रयत्न, कितनी खुशी से संबंध तय किया था, क्या सिर्फ एक हफ्ते के लिए?
‘‘दिवाकरजी, आप मनुज को समझा कर देखिए. यह रोग भयंकर रोग तो है नहीं, मैं सच कहता हूं, हमारे यहां न मेरी तरफ और न ही इस की मां की तरफ किसी को यह रोग है. सो, यदि प्रयास किया जाए तो ठीक हो सकता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए डैडी बोले.
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‘‘भाईसाहब, अपनी तरफ से तो मैं पूर्ण प्रयास करूंगा पर नई पीढ़ी को तो आप जानते ही हैं, यह सदा अपने मन की ही करती है,’’ मेरे ससुरजी डैडी को दिलासा देते हुए बोले.
मैं डैडी के साथ अपने घर वापस लौट आई. इस तरह एक हफ्ते में सारे सुख और दुख मेरे आंचल में आ गिरे थे. इस जीवन का क्या होगा? यह प्रश्न बारबार जेहन में उभर रहा था. मां मेरे लौट आने के बाद गुमसुम हो गई थीं. डैडी अब देर से घर लौटते थे. शायद कोई भी एकदूसरे से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था.
मैं विश्वविद्यालय की पढ़ाई करना नहीं चाहती थी. 2 बार प्रीमैडिकल परीक्षा में असफल होने के पश्चात एक बार फिर प्रीमैडिकल परीक्षा में सम्मिलित होने का निर्णय सुनाया तो सभी ने स्वागत किया. परीक्षा का फौर्म भरते समय नाम के आगे कुमारी शब्द देख कर मम्मी व डैडी बिगड़ उठे, किंतु, भाई रंजन ने मेरे समर्थन में आवाज उठाई, बोले, ‘‘ठीक ही तो है. उस संबंध को लाश की तरह उठाए कब तक फिरेगी?’’
एक महीने पश्चात मनुज ने अपने वकील के माध्यम से तलाक के लिए नोटिस भिजवाया. मांपिताजी ने हस्ताक्षर करने से मना किया, किंतु मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘पतिपत्नी का संबंध मन व आत्मा से होता है. यदि मन ही एकाकार नहीं हुए तो टूटी डोर में गांठ बांधने से क्या फायदा,’’ और कागज पर हस्ताक्षर कर दिए.
जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया. परीक्षा हुई और परिणाम निकला. सफल प्रतियोगियों में मैं अपना नाम देख कर खुशी से झूम उठी.
मम्मीडैडी के उदास चेहरों पर एक बार फिर खुशी झलकने लगी थी और मुझे मेरी मंजिल मिल गई थी.
5 वर्ष की पढ़ाई पूरी हुई. मैं लड़कियों में प्रथम रही थी. योग्यता के कारण सरकारी सेवा में नियुक्ति हो गई. पूरे दिन रोगियों की सेवा करती तो अलग तरह के आनंद की प्राप्ति होती. कभीकभी लगता वह जीवन क्षणमात्र के लिए था. मेरा जन्म तो इसी के लिए हुआ है. कभी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से अपनी तुलना करती तो कभी जौन औफ आर्क से, मन में छाया कुहासा पलभर में दूर हो जाता और कर्तव्यपथ पर कदम स्वयं बढ़ने लगते.
एक दिन अस्पताल में बैठी रोगियों को देख रही थी कि एक युगल ने कमरे में प्रवेश किया. मैं उस जोड़े को देख कर चौंक गई, किंतु चेहरे पर आए परिवर्तन पर यथासंभव अंकुश लगा लिया.
‘‘कहिए, क्या तकलीफ है आप को?’’ मैं ने सामान्य होते हुए पूछा.
‘‘आप इन का चैकअप कर लीजिए. चलनेफिरने में तकलीफ होती है, पैरों में सूजन भी है,’’ युवक ने कहा.
‘‘चलिए,’’ उठते हुए मैं ने कहा व बगल के कमरे में ले जा कर युवती का पूरा चैकअप किया और फिर बताया, ‘‘कोई परेशानी की बात नहीं है, इन्हें उच्च रक्तचाप है. इसी कारण पैरों में सूजन है. दवा लिख रही हूं, समय पर देते रहिएगा. बच्चा होने तक लगातार हर 15 दिन बाद चैकअप करवाते रहिएगा.’’
‘‘जी, डाक्टर.’’
‘‘नाम?’’ दवाई का परचा लिखते हुए मैं ने पूछा.
‘‘ऋचा शर्मा,’’ उत्तर युवती ने दिया.
परचे पर नाम लिखते समय न जाने क्यों हाथ कांप गया था. कुछ दवाएं व टौनिक लिख कर दिए. साथ में कुछ हिदायतें भी. वे दोनों उठ कर चले गए, किंतु दिल में हलचल मचा गए. उस दिन, दिनभर व्यग्र रही. बारबार अतीत आ कर कुरेदने लगा. जो चीज मैं पीछे छोड़ आई थी, वह क्यों फिर से मुझे बेचैन करने लगी थी. मैं ने अलमारी से वह फोटो निकाली जो विवाह के दूसरे दिन जा कर खिंचवाई थी. देख कर मैं बुदबुदा उठी थी, ‘तुम क्यों मेरे शांत जीवन में हलचल मचाने आ गए. मैं ने तुम से कुछ नहीं मांगा. तुम ने साथ चलने से इनकार कर दिया तो मैं ने अपनी राह स्वयं बना ली. तुम इस राह में फिर क्यों आ गए. कितना त्याग और बलिदान चाहते हो?’ रात अशांति में, बेचैनी में गुजरी. सुबह उठी तो रातभर जागने के कारण आंखें बोछिल थीं. अस्पताल जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, किंतु फिर भी यह सोच कर तैयार हुई कि कार्य में व्यस्त रहने पर मन शांत रहता है.
अस्पताल में कमरे के बाहर मनुज को प्रतीक्षारत पाया तो कदम लड़खड़ा गए. किंतु सहज बनने का अभिनय करते हुए उन्हें अनदेखा कर अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. मनुज भी मेरे पीछेपीछे आए थे.
‘‘माफ कीजिएगा, आप तनुजा हैं न?’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने पूछा.
‘‘क्यों, आप को कुछ शक है क्या?’’ तेज निगाहों से देखते हुए मैं ने पूछा.
‘‘मैं ने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार व अन्याय किया है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया. कल तुम्हें देखने के बाद से ही मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा हूं. मुझे माफ कर दो, तनु.’’
‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा कहिए और बाहर आप मेरे नाम की तख्ती देख लीजिए,’’ निर्विकार मुद्रा में बोली थी मैं. ‘‘आप की पत्नी की तबीयत अब कैसी है? उन का खयाल रखिएगा और हो सके तो प्रत्येक 15 दिन बाद परीक्षण करवाते रहिएगा,’’ कह कर मैं ने घंटी बजा दी, ‘‘मरीजों को अंदर भेज दो,’’ चपरासी को निर्देश देती हुई बोली.
‘‘अच्छा, मैं चलता हूं, तनु,’’ मनुज ने मेरी ओर आग्रहपूर्वक देखते हुए कहा.
‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा,’’ मैं ने कुमारी शब्द पर थोड़ा जोर देते हुए तीव्र स्वर में कहा. और लड़खड़ाते कदमों से मनुज चले गए.
मैं देखती रह गई. क्या यह वही व्यक्ति है जिस ने मुझे मझधार में डूबने के लिए छोड़ दिया था. किंतु यह इस समय इतना निरीह क्यों? इतना दयनीय क्यों? क्या यह सिर्फ मेरे पद के कारण है या इस के जीवन में कोई अभाव है? मुझे स्वयं पर हंसी आने लगी थी. इसे क्या अभाव होगा, जिस की इतनी प्यारी पत्नी है, पद है, मानसम्मान है.
तब तक मरीजों ने आ कर मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया और मैं कार्य में व्यस्त हो गई.
अतीत ने मुझे कुरेदा जरूर था किंतु अनजाने सुख भी दे गया था, क्योंकि वह व्यक्ति जिस ने मुझे अपमानित किया था, मानसिक पीड़ा दी थी, वह मेरे सामने निरीह व दयनीय बन कर खड़ा था. इस से अधिक सुख क्या हो सकता था? मेरे जीवन में एक और परिवर्तन आ गया था, वह तसवीर जिसे शादी के दूसरे दिन दोनों ने बड़े प्रेम से खिंचवाया था उसे देखे बिना मुझे नींद नहीं आती थी. उस तसवीर में उस का निरीह चेहरा मेरे आत्मसम्मान को सुख पहुंचाता था. इसलिए, अब वह तसवीर मेरे बेडरूम में लग गई थी.
ऋचा हर 15 दिन पश्चात आती रही, किंतु उस के साथ वह चेहरा देखने को नहीं मिला. 2 माह पश्चात लड़का हुआ. उस ने आ कर आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था, ‘‘तनुजाजी, मैं आप का गुनाहगार हूं. किंतु, आप ने बेटे के रूप में उपहार दे कर अनिर्वचनीय आनंद प्रदान किया है. शायद, आप नहीं जानती कि यह मेरी और ऋचा की तीसरी संतान है. अन्य 2 जन्म से पूर्व ही काल के गाल में समा गईं.’’
मनुज चला गया, किंतु हृदय में सुलगते दावानल को मेरे सामने प्रकट कर गया. शायद वह अपनी पूर्व 2 संतानों की असमय ही मौत का कारण तनु के साथ पूर्व में किए गए अपने गलत व्यवहार को ही समझ बैठा था, तभी इतना निरीह व कातर लगने लगा है.
कुछ दिन पश्चात ही मेरा वहां से स्थानांतरण हो गया. अतीत से संबंध कट गया. किंतु कभीकभी मेरा दिल अपने ही हाथों से मात खा जाता था. तब तड़प उठती थी, क्या मेरे जीवन में यही एकाकीपन लिखा है? मम्मीपापा का देहांत हो गया था. भाई अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त था.
कितने वर्ष यों ही बीत गए. अपने को बेसहारा पा कर मैं ने एक अनाथ बेसहारा लड़की को गोद ले लिया ताकि जीवन की शून्यता को भर सकूं. लड़की पढ़ने में तेज थी. डाक्टरी पढ़ कर अनाथ बेसहाराजनों की सेवा करना चाहती थी.
करीब 5 वर्ष पूर्व न्यूमोनिया बीमारी से पीडि़त हो कर अस्पताल में भरती हुई थी. उस की मासूम नीली आंखों में न जाने क्या था कि मन उसे अपनाने को मचल उठा था. अनाथाश्रम से उठा कर घर लाई तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. पिछले वर्ष ही मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में उस का चयन हुआ और पढ़ाई के लिए उसे इलाहाबाद जाना पड़ा और मैं फिर एक बार अकेली हो गई थी.
जीवन मेरे साथ आंखमिचौली खेल रहा था. सुखदुख एक ही सिक्के के 2 पहलू हो चले थे. एक दिन अपने कमरे में बैठी अपने संस्मरण लिख रही थी कि नौकर ने आ कर बताया कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है. मैं बाहर निकल कर आई तो वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, शर्मा साहब का लड़का बेहद बीमार है. आप शीघ्र चलिए.’’
अपना बैग उठाया तथा कार में उस अनजान आदमी को बैठा कर चल पड़ी. ऐसे अवसरों पर अनजान व्यक्ति के साथ जाते समय मन में बेहद उथलपुथल होती थी, किंतु यह सोच कर चल पड़ती कि हर आदमी बुरा नहीं होता, फिर किसी पर अविश्वास क्यों और किसलिए, इंसान को अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए. हमारा कर्तव्य हमारे साथ, उस का कर्तव्य उस के साथ. यही तो मेरी विचारधारा थी, जीवनदर्शन था.
कार के पहुंचते ही एक आदमी तेजी से उधर से बाहर आया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप को तकलीफ हुई होगी, लेकिन मजबूर था. प्रतीक्षित को 104 डिगरी बुखार है.’’
‘‘चलिए,’’ तब तक हम रोशनी में पहुंच चुके थे.
‘‘अरे तनु, तुम. ओह, माफ कीजिएगा तनुजाजी, मुझ से गलती हो गई,’’ मनुज एकदम हड़बड़ा कर बोले.
मैं भी एकदम चौंक उठी थी. इस जिंदगी में यह दोबारा अप्रत्याशित मिलन किसलिए? सोच ही नहीं पा रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘प्रतीक्षित कहां है?’’
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अंदर गए तो देखा वह बुखार में तप रहा था. आंखें बंद थीं, किंतु मुंह से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे. नब्ज देखी तो टायफायड के लक्षण नजर आए. ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए दवा बैग से निकाल कर खिला दी. अन्य दवाइयां परचे पर लिख कर देते हुए बोली, ‘‘ये दवाएं बाजार से मंगवा लीजिए तथा ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखिए और हाथ, पैर व तलवे की भी मालिश कीजिए.’’
मनुज उस के हाथों को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगे तथा चिंतित व घबराए स्वर में बोले, ‘‘डाक्टर साहब, मेरा प्रतीक्षित बच जाएगा न? यही मेरा जीवन है. मेरे जीवन की एकमात्र पूंजी.’’
लगभग एक घंटे पश्चात बंद पलकों में हलचल हुई तथा होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘प…पानी… पानी…’’
मनुज ने तत्काल उठ कर उस के मुंह में चम्मच से पानी डाला. दवा के असर के कारण वह पानी पी कर फिर सो गया.
‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए. आवश्यकता पड़ने पर बुला लीजिएगा,’’ घड़ी पर निगाह डालते हुए मैं ने कहा.
‘‘चलिए, मैं आप को छोड़ आता हूं,’’ मनुज ने मेरा बैग उठाते हुए कहा.
रातभर बेचैन रही. प्रतीक्षित के लिए न जाने क्यों अनजाने ही लगाव हो गया था. मैं जितना ही उस की भोली व मासूम सूरत से भागने का प्रयास करती वह उतनी ही और करीब आती जाती. ऋचा नजर नहीं आ रही थी, लेकिन पूछने का साहस भी नहीं कर पाई.
सुबह अस्पताल जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट की तो न जाने कैसे स्टियरिंग मनुज के घर की ओर मुड़ गया. जब वहां जा कर कार खड़ी हुई तब होश आया कि अनजाने में कहां से कहां आ गई. वह कैसी स्थिति थी, मैं नहीं जानती. दिल पर अंकुश रख कर गाड़ी बैक करने ही वाली थी कि नौकर दौड़ादौड़ा आया, ‘‘डाक्टर साहब, आप की कृपा से प्रतीक्षित भैया होश में आ गए हैं. साहब आप को ही याद कर रहे हैं.’’
न चाहते हुए भी उतरना पड़ा. मुझे वहां उपस्थित देख कर मनुज आश्चर्यचकित रह गए. उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं बिना बुलाए उन के बेटे का हालचाल पूछने आऊंगी.
‘‘प्रतीक्षित कैसा है? कल उस के ज्वर की तीव्रता देख कर मैं भी घबरा गई थी. सो, उसे देखने चली आई,’’ मनुज के चेहरे पर अंकित प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए मैं बोली.
मनुज ने प्रतीक्षित से मेरा परिचय करवाया तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मैं ठीक हो जाऊंगा न, तो खूब पढ़ूंगा और आप की तरह ही डाक्टर बनूंगा. फिर आप की तरह ही सफेद कोट पहन कर, स्टेथोस्कोप लगा कर बीमार व्यक्तियों को देखूंगा.’’
‘‘अच्छा बेटा, पहले ठीक हो जा, ज्यादा बातें मत करना, आराम करना. समय पर दवा खाना. मुझ से पूछे बिना कुछ खानापीना मत. अच्छा, मैं चलती हूं.’’
‘‘आंटी, आप फिर आइएगा, आप को देखे बिना मुझे नींद ही नहीं आती है.’’
‘‘बड़ा शैतान हो गया है, बारबार आप को तंग करता रहता है,’’ मनुज खिसियानी आवाज में बोले.
‘‘कोई बात नहीं, बच्चा है,’’ मैं कहती, पर अप्रत्यक्ष में मन कह उठता, ‘तुम से तो कम है. तुम ने तो जीवनभर का दंश दे दिया है.’
मैं जानती थी कि मेरा वहां बारबार जाना उचित नहीं है. कहीं मनुज कोई गलत अर्थ न लगा लें. मनुज की आंखों में मेरे लिए चाह उभरती नजर आई थी. किंतु मेरी अत्यधिक तटस्थता उन्हें सदैव अपराधबोध से दंशित करती रहती. प्रतीक्षित के ठीक होने पर मैं ने जाना बंद कर दिया. वैसे भी प्रतीक्षित के साथ मेरा रिश्ता ही क्या था? सिर्फ एक डाक्टर व मरीज का. जब बीमारी ही नहीं रही तो डाक्टर का क्या औचित्य.
एक दिन शाम को टीवी पर अपनी मनपसंद पिक्चर ‘बंदिनी’ देख रही थी. नायिका की पीड़ा मानो मेरी अपनी पीड़ा हो, पुरानी भावुक पिक्चरों से मुझे लगाव था. जब फुरसत मिलती, देख लेती थी. तभी नौकर ने आ कर सूचना दी कि कोई आया है. मरीजों का चैकअप करने वाले कमरे में बैठने का निर्देश दे कर मैं गई, सामने मनुज और प्रतीक्षित को बैठा देख कर चौंक गई.
‘‘कैसे हो, बेटा? अब तो स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा?’’ मैं स्वर को यथासंभव मुलायम बनाते हुए बोली.
‘‘हां, स्कूल तो जाना प्रारंभ कर दिया है किंतु आप से मिलने की बहुत इच्छा कर रही थी. इसलिए जिद कर के डैडी के साथ आ गया. आप क्यों नहीं आतीं डाक्टर आंटी अब हमारे घर?’’
‘‘बेटा, तुम्हारे जैसे और भी कई बीमार बच्चों की देखभाल में समय ही नहीं मिल पाता.’’
‘‘यदि आप नहीं आ सकतीं तो क्या मैं शाम को या छुट्टी के दिन आप के घर मिलने आ सकता हूं?’’
‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उत्तर तो दे दिया था, किंतु क्या मनुज पसंद करेंगे.
‘‘घर में भी सदैव आप की बात करता है, डाक्टर आंटी ऐसी हैं, डाक्टर आंटी वैसी हैं,’’ फिर थोड़ा रुक कर मनुज बोले, ‘‘आप ने मेरे पुत्र को जीवनदान दे कर मुझे ऋणी बना दिया है. मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा.’’
‘‘वह तो मेरा कर्तव्य था,’’ मेरे मुख से संक्षिप्त उत्तर सुन कर मनुज कुछ और कहने का साहस न जुटा सके, जबकि लग रहा था कि वे कुछ कहने आए हैं. और मैं चाह कर भी ऋचा के बारे में न पूछ सकी. प्रतीक्षित इतने दिन बीमार रहा. वह क्यों नहीं आई, क्यों उस की खबर नहीं ली.
उस दिन के पश्चात प्रतीक्षित लगभग रोज ही मेरे पास आने लगा. मेरा काफी समय उस के साथ बीतने लगा. एक दिन बातोंबातों में मैं ने उस से उस की मां के बारे में पूछा, तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मां याद तो नहीं हैं, सिर्फ तसवीर देखी है, लेकिन डैडी कहते हैं कि जब मैं 3 साल का था, तभी मां की मौत हो गई थी.’’
मन हाहाकार कर उठा था. एक को तो उस ने स्वयं ठुकरा दिया और दूसरी स्वयं उसे छोड़ कर चली गई. प्रकृति ने उसे उस के अमानवीय व अमानुषिक कृत्य के लिए दंड दे दिया था. अब मुझे भी प्रतीक्षित के आने की प्रतीक्षा रहती. उस की स्मरणशक्ति व बुद्धि काफी तीव्र थी. जो एक बार बता देती, भूलता नहीं था. किसी भी नई चीज, नई वस्तु को देख कर उस के उपयोग के बारे में बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता तथा मैं भी यभासंभव उस के प्रश्नों का समाधान करती.
स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी थी. मेरी सहायता से प्रतीक्षित ने मौडल बनाया. मौडल देख कर वह अत्यंत प्रसन्न था.
प्रदर्शनी के पश्चात वह सीधा मेरे घर आया. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैं अपने शयनकक्ष में लेटी आराम कर रही थी. दौड़ता हुआ आया व खुशी से चिल्लाता हुआ बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, आप कहां हो? देखो, मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है. और आंटी, गवर्नर ने हमारी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया था और उन्होंने ही पुरस्कार दिया. आप को मालूम है, उन के साथ मेरी फोटो भी खिंची है. उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की,’’ पलंग पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप की तबीयत खराब है क्या?’’
‘‘लगता है थोड़ा बुखार हो गया है. ठीक हो जाएगा.’’
‘‘आप सब की देखभाल करती हैं किंतु अपनी नहीं,’’ तभी उस की नजर स्टूल पर रखे फोटो पर गई. हाथ में उठा कर बोला, ‘‘आंटी, यह तसवीर तो पापा की है, साथ में आप भी हैं. इस में आप दोनों जवान लग रहे हैं. यह तसवीर आप ने कब और क्यों खिंचवाई?’’
जिस का मुझे डर था वही हुआ, इसीलिए कभी उसे शयनकक्ष में नहीं लाती थी. वह फोटो मेरी अहम संतुष्टि का साधन बनी थी, सो, चाह कर भी अंदर नहीं रख पाई थी. मेरा अब कोई संबंध भी नहीं था मनुज से, लेकिन यदि तथ्य को छिपाने का प्रयत्न करती तो वह कभी संतुष्ट न हो पाता तथा कालांतर में मेरी उजली छवि में दाग लग सकता था. सो, सबकुछ सचसच बताना पड़ा.
वस्तुस्थिति जान कर वह उबल पड़ा था कि यह डैडी ने अच्छा नहीं किया. मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि डैडी ऐसा भी कर सकते हैं. मैं अभी डैडी से जा कर इस का उत्तर मांगता हूं कि उन्होंने आप के साथ ऐसा क्यों किया? मैं बीमार हो जाऊं तो क्या वे मुझे भी छोड़ देंगे? वह जाने को उद्यत हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटा, मैं ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा. जीवनपथ पर जैसे भी चली जा रही हूं, चलने दो, अब आखिरी पड़ाव पर मेरी भावनाओं, मेरे विश्वास, मेरे झूठे आत्मसम्मान को ठेस मत पहुंचाना तथा किसी से कुछ न कहना,’’ कहतेकहते एक बार फिर उस के सम्मुख आंसू टपक पड़े.
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‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, मां, किंतु आप को न्याय दिलाने का प्रयत्न अवश्य करूंगा,’’ दृढ़ निश्चय व दृढ़ कदमों से वह कमरे से बाहर चला गया था.
किंतु उस के मुखमंडल से निकला, ‘मां’ शब्द उस के जाने के पश्चात भी वातावरण में गूंज कर उस की उपस्थिति का एहसास करा रहा था, कैसा था वह संबोधन… वह आवाज, उस की सारी चेतना…संपूर्ण अस्तित्व सिर्फ एक शब्द में खो गया था. जिस मोह के जाल को वर्षों पूर्व तोड़ आई थी, अनायास ही उस में फंसती जा रही थी…कैसा है यह बंधन? कैसे हैं ये रिश्ते? अनुत्तरित प्रश्न बारबार अंत:स्थल में प्रहार करने लगे थे.
लेखिका- सरोज दुबे
मैं जब मामा के घर पहुंची तो विभा बाहर जाने की तैयारी में थी.
‘‘हाय दीदी, आप. आज ? जरा जल्दी में हूं, प्रैस जाने का समय हो गया है, शाम को मिलते हैं,’’ वह उल्लास से बोली.
‘‘प्रभा को तुम्हारे दर्शन हो गए, यही क्या कम है. अब शाम को तुम कब लौटोगी, इस का कोई ठिकाना है क्या?’’ तभी मामी की आवाज सुनाई दी.
‘‘नहींनहीं, तुम निकलो, विभा. थोड़ी देर बाद मुझे भी बाहर जाना है,’’ मैं ने कहा.
मामाजी कहीं गए हुए थे. अमित के स्नान कर के आते ही मामी ने खाना मेज पर लगा दिया. पारिवारिक चर्र्चा करते हुए हम ने भोजन आरंभ किया. मामी थकीथकी सी लग रही थीं. मैं ने पूछा तो बोलीं, ‘‘इन बापबेटों को नौकरी वाली बहू चाहिए थी. अब बहू जब नौकरी पर जाएगी तो घर का काम कौन करेगा? नौकरानी अभी तक आई नहीं.’’
मैं ने देखा, अमित इस चर्चा से असुविधा महसूस कर रहा था. बात का रुख पलटने के लिए मैं ने कहा, ‘‘हां, नौकरानियों का सब जगह यही हाल है. पर वे भी क्या करें, उन्हें भी तो हमारी तरह जिंदगी के और काम रहते हैं.’’
अमित जल्दीजल्दी कपड़े बदल कर बाहर निकल गया. मैं ने मामी के साथ मेज साफ करवाई. बचा खाना फ्रिज में रखा और रसोई की सफाई में लग गई. मामी बारबार मना करती रहीं, ‘‘नहीं प्रभा, तुम रहने दो, बिटिया. मैं धीरेधीरे सब कर लूंगी. एक दिन के लिए तो आई हो, आराम करो.’’
मुझे दोपहर में ही कई काम निबटाने थे, इसलिए बिना आराम किए ही बाहर निकलना पड़ा.
जब मैं लौटी तो शाम ढल चुकी थी. मामी नौकरानी के साथ रसोई में थीं. मामाजी उदास से सामने दीवान पर बैठे थे. मैं ने अभिवादन किया तो क्षणभर को प्रसन्न हुए. परिवार की कुशलक्षेम पूछी. फिर चुपचाप बालकनी में घूमने लगे. बात कुछ मेरी समझ में न आई. अमित और विभा भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. मामाजी का गंभीर रुख देख कर उन से कुछ पूछने की हिम्मत न हुई.
तभी मामी आ गईं, ‘‘कब आईं, बिटिया?’’
‘‘बस, अभी, मामाजी कुछ परेशान से दिखाई दे रहे हैं.’’
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‘‘विभा अभी तक औफिस से नहीं लौटी है, जाने कैसी नौकरी है उस की.’’
कुछ देर बाद अमित और विभा साथसाथ ही आए. दोनों के मुख पर अजीब सा तनाव था. विभा बिना किसी से बोले तेजी से अपने कमरे में चली गई. अमित हम लोगों के पास बैठ कर टीवी देखने लगा. वातावरण सहसा असहज लगने लगा. किसी अनर्थ की आशंका से मन व्याकुल हो उठा.
विभा कपड़े बदल कर कमरे में आई तो मामी ने उलाहने के स्वर में कहा, ‘‘खाना तो हम ने बना लिया है. अब मेज पर लगा लोगी या वह भी हम जा कर ही लगाएं?’’
मामाजी मानो राह ही देख रहे थे, तमक कर बोले, ‘‘तुम बैठो चुपचाप, बुढ़ापे में मरी जाती हो. अभी पसीना सूखा नहीं कि फिर चलीं रसोई में. तुम ने क्या ठेका ले रखा है.’’
बात यहीं तक रहती तो शायद विभा चुप रह जाती, मामाजी दूसरे ही क्षण फिर गरजे, ‘‘लोग बाहर मौज करते हैं. पता है न कि घर में 24 घंटे की नौकरानी है.’’
इस आरोप से विभा हतप्रभ रह गई. कम से कम उसे यह आशा नहीं रही होगी कि मामाजी मेरी उपस्थिति में भी ऐसी बातें कह जाएंगे. उस ने वितृष्णा से कहा, ‘‘आप लोगों को दूसरों के सामने तमाशा करने की आदत हो गई है.’’
‘‘हम लोग तमाशा करते हैं? तमाशा करने वाले आदमी हैं, हम लोग? पहले खुद को देखो, अच्छे खानदान की लड़कियां घरपरिवार से बेफिक्र इतनी रात तक बाहर नहीं घूमतीं.’’
‘‘आप को मेरा खानदान शादी के पहले देखना था, बाबूजी.’’
मामाजी भड़क उठे, ‘‘मुझ से जबान मत चलाना, वरना ठीक न होगा.’’ बात बढ़ती देख अमित पत्नी को धकियाते हुए अंदर ले गया. मैं लज्जा से गड़ी जा रही थी. पछता रही थी कि आज रुक क्यों गई. अच्छा होता, जो शाम की बस से घर निकल जाती. यों बादल बहुत दिनों से गहरातेघुमड़ते रहे होंगे, वे तो उपयुक्त अवसर देख कर फट पड़े थे.
थोड़ी देर बाद मामी ने नौकरानी की सहायता से खाना मेज पर लगाया. मामी के हाथ का बना स्वादिष्ठ भोजन भी बेस्वाद लग रहा था. सब चुपचाप अपने में ही खोए भोजन कर रहे थे. बस, मामी ही भोजन परोसते हुए और लेने का आग्रह करती रहीं.
भोजन समाप्त होते ही मामाजी और अमित उठ कर बाहर वाले कमरे में चले गए. मैं ने धीरे से मामी से पूछा, ‘‘विभा…?’’
‘‘वह कमरे से आएगी थोड़े ही.’’
‘‘पर?’’
‘‘बाहर खातीपीती रहती है,’’ उन्होंने फुसफुसा कर कहा.
मैं सोच रही थी कि विभा बहू की जगह बेटी होती तो आज का दृश्य कितना अलग होता.
‘‘देखा, सब लोगों का खाना हो गया, पर वह आई नहीं,’’ मामी ने कहा.
‘‘मैं उसे बुला लाऊं?’’
‘‘जाओ, देखो.’’
मैं उस के कमरे में गई. उस की आंखों में अब भी आंसू थे. मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि अमित उसे मेरे कारण औफिस का काम बीच में ही छुड़वा कर ले आया था और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. जब भी कोई मेहमान आता, उसे औफिस से बुलवा लिया जाता.
‘‘तुम ने अमित को समझाने की कोशिश नहीं की?’’
‘‘कई बार कह चुकी हूं.’’
‘‘वह क्या कहता है?’’
‘‘औफिस का काम छोड़ कर आने में तकलीफ होती है तो नौकरी छोड़ दो.’’
क्षणभर को मैं स्तब्ध ही रह गई कि जब नए जमाने का पढ़ालिखा युवक उस के काम की अहमियत नहीं समझता तो पुराने विचारों के मामामामी का क्या दोष.
‘‘चिंता न करो, सब ठीक हो जाएगा. शुरू में सभी को ससुराल में कुछ न कुछ कष्ट उठाना ही पड़ता है,’’ मैं ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा.
फिर घर आ कर इस घटना को मैं लगभग भूल ही गई. संयुक्त परिवार की यह एक साधारण सी घटना ही तो थी. किंतु कुछ माह बीतते न बीतते, एक दिन मामाजी का पत्र आया. उन्होंने लिखा था कि अमित का तबादला अमरावती हो गया है, परंतु विभा ने उस के साथ जाने से इनकार कर दिया है.
पत्र पढ़ कर मुझे पिछली कितनी ही बातें याद हो आईं… अमित मामाजी का एकलौता बेटा था. घर में धनदौलत की कोई कमी न थी, तिस पर उस ने इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी. देखने में भी वह लंबाचौड़ा आकर्षक युवक था. इन तमाम विशेषताओं के कारण लड़की वालों की भीड़ उस के पीछे हाथ धो कर पड़ी थी.
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किंतु मामाजी भी बड़े जीवट आदमी थे. उन्होंने तय कर लिया था कि लड़की वाले चाहे जितना जोर लगा लें, पर अमित का विवाह तो वे अपनी शर्तों पर ही करेंगे. जिन दिनों अमित के रिश्ते की बात चल रही थी, मैं ने भी मामाजी को एक मित्रपरिवार की लड़की के विषय में लिखा था. लड़की मध्यवर्गीय परिवार की थी. अर्थशास्त्र में एमए कर रही थी. देखने में भली थी. मेरे विचार में एक अच्छी लड़की में जो गुण होने चाहिए, वे सब उस में थे.
मामाजी ने पत्रोत्तर जल्दी ही दिया था. उन्होंने लिखा था… ‘बेटी, तुम अमित के लिए जो रिश्ता देखोगी, वह अच्छा ही होगा, इस का मुझे पूरा विश्वास है. पर अमित को विज्ञान स्नातक लड़की चाहिए. दहेज मुझे नहीं चाहिए, लेकिन तुम तो जानती हो, रिश्तेदारी बराबरी में ही भली. जहां तक हो सके, लड़की नौकरी वाली देखो. अमित भी नौकरी वाली लड़की चाहता है.’
मामाजी का पत्र पढ़ कर मैं हैरान रह गई. मामाजी उस युग के आदमी थे जिस में कुलीनता ही लड़की की सब से बड़ी विशेषता मानी जाती थी. लड़की थोड़ीबहुत पढ़ीलिखी और सुंदर हो तो सोने पर सुहागा. जमाने के हिसाब से विचारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है. लेकिन लगता था कि वे बिना यह सोचेविचारे कि उन के अपने परिवार के लिए कैसी लड़की उपयुक्त रहेगी, जमाने के साथ नहीं बल्कि उस से आगे चल रहे थे.
संयोग से दूसरे ही सप्ताह मुझे नागपुर जाने का अवसर मिला. मामाजी से मिलने गई तो देखा, वे बैठक में किसी महिला से बातें कर रहे हैं. वे उस महिला को समझा रहे थे कि अमित के लिए उन्हें कैसी लड़की चाहिए.
उन्होंने दीवार पर 5 फुट से 5 फुट 5 इंच तक के निशान बना रखे थे और उस महिला को समझा रहे थे, ‘‘अपना अमित 5 फुट 10 इंच लंबा है. उस के लिए लड़की कम से कम 5 फुट 3 इंच ऊंची चाहिए. यह देखो, यह हुआ 5 फुट, यह 5 फुट 1 इंच, 2 इंच, 3 इंच. 5 फुट 4 इंच हो तो भी चलेगी. लड़की गोरी चाहिए. लड़की के मामापिता, भाईबहनों के बारे में सारी बातें एक कागज पर लिख कर ले आना. लड़की हमें साइंस ग्रेजुएट चाहिए. अगर गणित वाली हो या पोस्टग्रेजुएट हो तो और भी अच्छा है.’’
सामने बैठी महिला को भलीभांति समझा कर वे मेरी ओर मुखातिब हुए, ‘बेटे, आजकल आर्ट वालों को कोई नहीं पूछता, उन्हें नौकरी मुश्किल से मिलती है. खैर, बीए में कौन सी डिवीजन थी लड़की की? फर्स्ट डिवीजन का कैरियर हो तो सोचा जा सकता है. एमए के प्रथम वर्ष में कितने प्रतिशत अंक हैं?’
मैं समझ गई कि अमित के लिए रिश्ता तय करवाना मेरे बूते के बाहर की बात है. मामाजी के विचारों के साथ अमित की कितनी सहमति थी, इसे तो वही जाने, पर इस झंझट में पड़ने से मैं ने तौबा कर ली. लगभग 2-3 वर्षों की खोजबीन- जांचपरख के बाद अमित के लिए विभा का चयन किया गया था. वह गोरी, ऊंची, छरहरे बदन की सुंदर देह की धनी थी. उस की शिक्षा कौनवैंट स्कूल में हुई थी. वह फर्राटे से अंगरेजी बोल सकती थी. उस ने राजनीतिशास्त्र में एमए किया था.
बंबई से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद वह नागपुर के एक प्रसिद्ध दैनिक समाचारपत्र में कार्यरत थी. इस विवाह संबंध से मामाजी, मामी और अमित सभी बहुत प्रसन्न थे. खुद मामाजी विभा की प्रशंसा करते नहीं थकते थे.
लेकिन विवाह के 3-4 महीने बाद ही स्थिति बदलने लगी. विभा के नौकरी पर जाते ही यथार्थ जीवन की समस्याएं उन के सामने थीं. मामाजी हिसाबी आदमी थे, वे यह सोच कर क्षुब्ध थे कि आखिर बहू के आने से लाभ क्या हुआ? अमित के तबादले ने इस मामले को गंभीर मोड़ पर पहुंचा दिया था.
इस के बाद नागपुर जाने के अवसर को मैं ने जानबूझ कर टाल दिया था. किंतु लगभग सालभर बाद मुझे एक बीमार रिश्तेदार को देखने नागपुर जाना ही पड़ा. वहीं मामाजी से भेंट हो गई. अमित और विभा के विषय में पूछा तो बोले, ‘‘घर चलो, वहीं सब बातें होंगी.’’ हम लोग घर पहुंचे तो वहां सन्नाटा छाया हुआ था. मामी खिचड़ी बना कर अभीअभी लेटी थीं, उन की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. मुझे देखा तो उठ बैठीं और शिकायत करने लगीं कि मैं ने उन लोगों को भुला दिया है.
‘‘अमित अमरावती में है, उसे वहां बढि़या फ्लैट मिला है पर खानेपीने की कोई व्यवस्था नहीं है. कभी होटल में खा लेता है, कभी नौकर से बनवा लेता है. तुम्हारी मामी बीचबीच में जाती रहती है, इस का भी बुढ़ापा है. यह यहां मुझे देखे या उसे वहां देखे. मेरी तबीयत भी अब पहले जैसी नहीं रही. यहां का कारोबार देखना भी जरूरी है, नहीं तो सब अमरावती में ही रहते. विभा ने नौकरी छोड़ कर अमित के साथ जाने से इनकार कर दिया. सालभर से मायके में है,’’ मामाजी ने बताया.
अमित के विषय में बातें करते हुए दोनों की आंखों में आंसू भर आए. मैं ने ध्यान से देखा तो दीवार पर 5 फुट की ऊंचाई पर लगा निशान अब भी नजर आ रहा था. मन तो हुआ, उन से कहूं, ‘आप की समस्या इतनी विकट नहीं है, जिस का समाधान न हो सके. ऐसे बहुत से परिवार हैं जहां नौकरी या बच्चों की पढ़ाई के कारण पतिपत्नी को अलगअलग शहरों में रहना पड़ता है. विभा और अमित भी छुट्टियां ले कर कभी नागपुर और कभी अमरावती में साथ रह सकते हैं, ’ पर चाह कर भी कह न सकी.
दूसरे दिन सुबह हमसब नाश्ता कर रहे थे कि किसी ने घंटी बजाई. मामाजी ने द्वार खोला तो सामने एक बुजुर्ग सज्जन खड़े थे. मामी ने धीरे से परिचय दिया, ‘‘दीनानाथजी, विभा के पिता.’’ पता चला कि विभा और अमित के मतभेदों के बावजूद वे बीचबीच में मामाजी से मिलने आते रहते हैं.
मामी अंदर जा कर उन के लिए भी नाश्ता ले आईं. दीनानाथ सकुचाते से बोले, ‘‘बहनजी, आप क्यों तकलीफ कर रही हैं, मैं घर से खापी कर ही निकला हूं.’’ फिर क्षणभर रुक कर बोले, ‘‘क्या करें भई, हम तो हजार बार विभा को समझा चुके कि अमित इतने ऊंचे पद पर है, पूर्वजों का जो कुछ है, वह सब भी तुम्हारे ही लिए है, नौकरी छोड़ कर ठाट से रहे. पर वह कहती है कि ‘मैं सिर्फ पैसा कमाने के लिए नौकरी नहीं कर रही हूं. इस काम का संबंध मेरे दिलोदिमाग से है. मैं ने अपना कैरियर बनाने के लिए रातरातभर पढ़ाई की है. नौकरी के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा से गुजरी हूं. अब इस नौकरी को छोड़ देने में क्या सार्थकता है?’ ऐसे में आप ही बताइए,’’ उन्होंने बात अधूरी ही छोड़ दी.
मामाजी ने अखबार पढ़ने का बहाना कर के उन की बात को अनसुना कर दिया. परंतु मामी चुप न रह सकीं, ‘‘भाईसाहब, लड़की तो लड़की ही है, लेकिन हम बड़े लोगों को तो उसे यही शिक्षा देनी चाहिए कि वह अपनी घरगृहस्थी देखते हुए नौकरी कर सके तो जरूर करे. नौकरी के लिए घरपरिवार छोड़ दे, पति को छोड़ दे और मायके में जा बैठे, यह तो ठीक नहीं है.’’
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यद्यपि मामी ने अपनी बात बड़ी सरलता और सहजता से कही थी परंतु उन का सीधा आक्षेप दीनानाथजी पर था. कुछ क्षण चुप रह कर वे बोले, ‘‘बहनजी, एक समय था जब लड़कियों को सुसंस्कृत बनाने के लिए ही शिक्षा दी जाती थी. लड़की या बहू से नौकरी करवाना लोग अपमान की बात समझते थे. पर अब तो सब नौकरी वाली, कैरियर वाली लड़की को ही बहू बनाना चाहते हैं. इस कारण लड़कियों के पालनपोषण का ढंग ही बदल गया है. अब वे किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हैं कि जब हम चाहें, तब नौकरी करने लगें और जब हम चाहें, तब नौकरी छोड़ दें.’’
कुछ देर सन्नाटा सा रहा. उन की बात का उत्तर किसी के पास नहीं था. इधरउधर की कुछ बातें कर के दीनानाथ उठ खड़े हुए. मामाजी उन्हें द्वार तक विदा कर के लौटे और बोले, ‘‘देखा बेटी, बुड्ढा कितना चालाक है. गलती मुझ से ही हो गई. शादी के पहले ही मुझे यह शर्त रख देनी थी कि हमारी मरजी होगी, तब तक लड़की से नौकरी करवाएंगे, मरजी नहीं होगी तो नहीं करवाएंगे.’’
उन की इस शेष शर्त को सुन कर मैं अवाक रह गई.
लेखक- रमेश चंद्र छबीला
सावित्री आंखों की जांच कराने दीपक आई सैंटर पर पहुंचीं. वहां मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. अपनी बारी का इंतजार करतेकरते 2 घंटे से भी ज्यादा हो गए. तभी एक आदमी तेजी से आया और बोला, ‘‘शहर में दंगा हो गया है, जल्दी से अपनेअपने घर पहुंच जाओ.’’
यह सुन कर वहां बैठे मरीज और दूसरे लोग बाहर की ओर निकल गए. सावित्री ने मोबाइल फोन पर बेटे राजन को सूचना देनी चाही, पर आज तो वे जल्दी में अपना मोबाइल ही घर भूल गई थीं. वे अकेली रिकशा में बैठ कर आई थीं. अब सूचना कैसे दें?
बाहर पुलिस की गाड़ी से घोषणा की जा रही थी, ‘शहर में दंगा हो जाने के चलते कर्फ्यू लग चुका है. आप लोग जल्दी अपने घर पहुंच जाएं.’
सावित्री ने 3-4 रिकशा और आटोरिकशा वालों से बात की, पर कोई गांधी नगर जाने को तैयार ही नहीं हुआ जहां उन का घर था.
निराश और परेशान सावित्री समझ नहीं पा रही थीं कि घर कैसे पहुंचें? शाम के 7 बज चुके थे.
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तभी एक स्कूटर उन के बराबर में आ कर रुक गया. स्कूटर चलाने वाले आदमी ने कहा, ‘‘भाभीजी नमस्ते, आप यहां अकेली हैं या कोई साथ है?’’
‘‘भाई साहब नमस्ते, मैं यहां अकेली आई थी, आंखों की जांच कराने. दंगा हो गया है. घर की तरफ कोई रिकशा नहीं जा रहा है.’’
‘‘इधर कोई नहीं जाएगा भाभीजी, क्योंकि दंगा पुराने शहर में हुआ है. आप चिंता न करो और मेरे साथ घर चलो.
इस तरफ नई कालोनी है, कोई डर नहीं है. आप आराम से रहना. वहां कमला
भी है.’’
‘‘लेकिन…?’’ सावित्री के मुंह से निकला.
‘‘भाभीजी, आप जरा भी चिंता न करें. घर पहुंच कर मैं राजन को फोन
कर दूंगा.’’
‘‘यह दंगा क्यों हो गया?’’ सावित्री ने स्कूटर पर बैठते हुए पूछा.
‘‘अभी सही पता नहीं चला है. मैं एक कार्यक्रम में गया था. वहां दंगा और कर्फ्यू का पता चला तो कार्यक्रम बीच में ही बंद हो गया. मैं घर की ओर लौट रहा था तो यहां मैं ने आप को सड़क पर खड़े हुए देखा.’’
सावित्री स्कूटर वाले शख्स सूरज प्रकाश को अच्छी तरह जानती थीं. सूरज प्रकाश जय भारत इंटर कालेज के प्रिंसिपल रह चुके थे. वे 5 साल पहले ही रिटायर हुए थे. परिवार के नाम पर वे और उन की पत्नी कमला थीं. जब उन के यहां 10 साल तक भी कोई औलाद नहीं हुई, तो उन्होंने अनाथ आश्रम से एक साल की लड़की गोद ले ली थी. जिस का नाम सुरेखा रखा गया था.
देखते ही देखते सुरेखा बड़ी होने लगी थी. वह पढ़नेलिखने में होशियार थी. सूरज प्रकाश सुरेखा को सरकारी अफसर बनाना चाहते थे.
जब सुरेखा 10वीं जमात में पढ़ रही थी, तब एक दिन उसे साइकिल पर स्कूल जाते हुए एक ट्रक ने बुरी तरह कुचल दिया था और उस की मौके पर ही मौत हो गई थी.
सूरज प्रकाश व उन की पत्नी कमला को दुख तो बहुत हुआ था, पर वे कर ही क्या सकते थे? उन्होंने सुरेखा को ले कर जो सपने देखे थे, वे सब टूट गए थे.
सूरज प्रकाश को समाजसेवा में भी बहुत दिलचस्पी थी और वे एक संस्था ‘संकल्प’ के अध्यक्ष थे.
सूरज प्रकाश पहले सावित्री के ही महल्ले गांधी नगर में रहते थे. दोनों परिवार एकदूसरे के घर आतेजाते थे. सूरज प्रकाश और सावित्री के पति सोमनाथ में बहुत गहरी दोस्ती थी.
घर के बाहर स्कूटर रोकते ही सूरज प्रकाश ने कहा, ‘‘आइए भाभीजी.’’
स्कूटर से उतर कर सावित्री सूरज प्रकाश के साथ घर में घुसीं. सावित्री को देखते ही कमला ने खुश हो कर कहा, ‘‘अरे दीदी आप? आइएआइए, बैठिए.’’
सावित्री सोफे पर बैठ गईं. सूरज प्रकाश ने बता दिया कि वे सावित्री को कर्फ्यू लगने के चलते यहां ले आए हैं.
‘‘दीदी, आप जरा भी चिंता न करें. यहां आप को जरा भी परेशानी नहीं होगी. पता नहीं, क्यों लोग जराजरा सी बात पर लड़नेमरने को तैयार रहते हैं. लोगों में प्यार नहीं नफरत भरी जा रही है. लोगों की नसों में जातिवाद का जहर भरा जा रहा है.
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‘‘वैसे, हमारी कालोनी में दंगे का असर कम ही होता है, पुराने शहर में ज्यादा असर होता
है. उधर मिलीजुली आबादी जो हैं.
सूरज प्रकाश ने राजन के मोबाइल का नंबर मिलाया. उधर से राजन की आवाज सुनाई दी, ‘हैलो, नमस्ते अंकल.’
‘‘नमस्ते बेटे… तुम्हारी मम्मी डाक्टर दीपक के यहां आंखों की जांच कराने गई थीं न…’’
‘हांहां, गई थीं. क्या हुआ मम्मी को? दंगे में कहीं…’
‘‘नहींनहीं बेटे, वे बिलकुल ठीक हैं. तुम्हारी मम्मी को मैं अपने साथ घर ले आया हूं. तुम जरा भी चिंता न करना. वे बिलकुल ठीक हैं.’’
‘चलो, यह बहुत अच्छा किया जो आप मम्मी को अपने साथ ले आए. हमें तो चिंता हो रही थी, क्योंकि वे अपना मोबाइल फोन यहीं भूल गई थीं.’
सूरज प्रकाश ने सावित्री को मोबाइल देते हुए कहा, ‘‘लो भाभी, राजन से बात कर लो.’’
सावित्री ने मोबाइल ले कर कहा, ‘‘हां राजन, मैं बिलकुल ठीक हूं. कर्फ्यू खुलेगा तो तू आ जाना.’’
‘ठीक है मम्मी,’ राजन ने कहा.
तभी कमला एक ट्रे में चाय व खाने का कुछ सामान ले आईं.
रात को खाना खा कर वे तीनों काफी देर तक बातें करते रहे.
11 बज गए तो कमला व सूरज प्रकाश उठ कर दूसरे कमरे में चले गए.
सावित्री के पति सोमनाथ एक सरकारी महकमे में बाबू थे. बेटे राजन की शादी हो चुकी थी.
सोमनाथ के रिटायर होने के बाद वे दोनों ऐतिहासिक नगरों में घूमनेफिरने जाने लगे थे. जिंदगी की गाड़ी बहुत अच्छी चल रही थी कि एक दिन… सावित्री और सोमनाथ आगरा से ट्रेन से लौट रहे थे. रात का समय था. सभी मुसाफिर सो चुके थे. अचानक ट्रेन का ऐक्सीडैंट हो गया. सावित्री अपनी बर्थ से गिर कर बेहोश हो गई थीं. अस्पताल में जब उन्हें होश आया तो पता चला कि सोमनाथ बच नहीं सके थे.
कुछ दिनों तक राजन व उस की पत्नी भारती सावित्री की भरपूर सेवा करते रहे. उन्हें जरूरत की हर चीज बिना कहे ही मिल जाती थी, पर धीरेधीरे उन के बरताव में बदलाव आने लगा था. उन्होंने सावित्री की अनदेखी करनी शुरू कर दी थी.
एक दिन भारती जब बाहर से लौटी तो अपने बेटे राजू के सिर पर पट्टी बंधी देख कर वह बुरी तरह चौंक उठी थी.
भारती के पूछने से पहले ही सावित्री ने कहा था, ‘इसे एक मोटरसाइकिल वाला टक्कर मार कर भाग गया. यह चौकलेट खाने की जिद कर रहा था. मैं ने बहुत मना किया, पर माना नहीं. चौकलेट ले कर लौट रहा था तो टक्कर हो गई. मैं डाक्टर से पट्टी करा लाई हूं. मामूली सी चोट लगी है. 2-4 दिनों में ठीक हो जाएगी.’
भारती के मन में तो जैसे ज्वालामुखी धधक रहा था. वह घूरते हुए बोली, ‘इसे ज्यादा चोट लग जाती तो… हाथपैर भी टूट सकते थे. अगर मेरे राजू को कुछ हो जाता तो हमारे घर में अंधेरा हो जाता. मैं 2-3 घंटे के लिए घर से गई और आप राजू को संभाल भी न सकीं.’
तभी राजन भी ड्यूटी से लौट आया. वह राजू की ओर देख कर चौंक उठा और बोला, ‘इसे क्या हो गया?’
‘पूछो अपनी मम्मी से, यह इन की ही करतूत है. मैं एक सहेली के घर शोक मनाने गई थी. उस के जवान भाई की हादसे में मौत हो गई है. मुझे आनेजाने में 3 घंटे भी नहीं लगे. मेरे पीछे राजू को चौकलेट लाने भेज दिया. सोचा होगा कि चौकलेट आएगी तो खाने को मिलेगी.
‘सड़क पर राजू को किसी बाइक ने टक्कर मार दी. पता नहीं, इस उम्र में लोगों को क्या हो जाता है?’
‘सठिया जाते हैं. सोचते हैं कि किसी बहाने कुछ न कुछ खाने को मिल जाए. मम्मी, यह आप ने क्या किया?’ राजन ने उन की ओर देख कर पूछा.
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‘मैं ने तो बहुत मना किया था, पर मेरी सुनता ही कौन है?’ सावित्री ने दुखी मन से कहा था.
‘जिन्हें मरना चाहिए वे परिवार की छाती पर मूंग दल रहे हैं और जिन को जीना चाहिए वे अचानक ही बेमौत मर रहे हैं,’ भारती बुरा सा मुंह बना कर बोली थी.
सावित्री चुपचाप सुनती रहीं. थोड़ी देर बाद वे वहां से अपने कमरे में आ गईं और बिस्तर पर गिर कर रोने लगीं.
इसी तरह दिन बीतते रहे. सावित्री को लग रहा था कि अपना घर, बेटा
और पोता होते हुए भी वे बिलकुल अकेली हैं.
कर्फ्यू की अगली सुबह जब सावित्री की नींद खुली तो 7 बज रहे थे. जब वे नहाने के लिए जाने लगीं तो कमला ने कहा, ‘‘दीदी, आप मेरे ही कपड़े पहन लेना.’’
‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ सावित्री ने कहा और कमला से उस के कपड़े ले कर बाथरूम में नहाने चली गईं.
नाश्ता करने के बाद वे तीनों एक कमरे में बैठ गए. टैलीविजन चला दिया और खबरें सुनने लगे.
दंगे की वजह पता चली कि नगर में धार्मिक शोभा यात्रा निकल रही थी. दूसरे समुदाय के किसी शरारती तत्त्व ने पत्थर मार दिए. भगदड़ मच गई. देखते ही देखते लूटमार व आगजनी शुरू हो गई. प्रशासन ने तुरंत कर्फ्यू की घोषणा कर दी.
सूरज प्रकाश ने कहा, ‘‘भाभीजी, राजन व बहू के बरताव में कुछ सुधार हुआ है या वैसा ही चल रहा है?’’
‘‘सुधार क्या होना है भाई साहब… देख कर लगता ही नहीं कि यह अपना बेटा राजन ही है जो शादी से पहले हर काम मुझ से या अपने पापा से पूछ कर ही करता था. शादी के बाद यह इतना बदल जाएगा, सपने में भी नहीं सोचा था,’’ सावित्री ने दुखड़ा सुनाया.
‘‘पता नहीं, बहुएं कौन सा जादू कर देती हैं कि बेटे मांबाप को बेकार और फालतू समझने लगते हैं…’ सूरज प्रकाश ने कहा.
शहर में अचानक दंगा भड़क जाने से सावित्री कर्फ्यू में फंस गईं. कोई भी घर जाने में उन की मदद नहीं कर रहा था कि तभी सावित्री के पुराने परिचित सूरज प्रकाश मिल गए और उन्हें अपने घर ले गए. सावित्री के बेटे राजन को यह बात पता चली तो उस ने राहत की सांस ली, पर उन्हें लेने नहीं गया.
त भी कमला बोल उठीं, ‘‘मैं ने तो ऐसा कोई जादू नहीं किया था आप पर. आप ने तो अपने मातापिता की भरपूर सेवा की है. यह बेटे के ऊपर भी निर्भर करता है कि वह उस जादू से कितना बदलता है.’’
सूरज प्रकाश ने कहा, ‘‘भाभीजी, ऐसा लगता है दुनिया में दुखी लोग ज्यादा हैं. देखो न हम इसलिए दुखी हैं कि हमारे कोई औलाद नहीं है. आप इसलिए दुखी हैं कि अपना बेटा भी अपना न रहा. वह आप की नहीं, बल्कि बहू की ही सुनता और मानता है.’’
‘‘हां, सोचती हूं कि इस से तो अच्छा था कि बेटा नहीं, बल्कि एक बेटी ही हो जाती, क्योंकि बेटी कभी अपने मांबाप को बोझ नहीं समझती.’’
‘‘इस दुनिया में सब के अपनेअपने दुख हैं,’’ कमला ने कहा.
5 दिन तक कर्फ्यू लगा रहा. इन 5 दिनों में राजन ने एक दिन भी फोन कर के सावित्री का हाल नहीं पूछा.
5 दिन बाद कर्फ्यू में 4 घंटे की ढील दी गई. सावित्री ने सूरज प्रकाश से कह कर राजन को फोन मिलवाया.
सूरज प्रकाश ने कहा, ‘‘कैसे हो राजन, सब ठीक तो है न?’’
‘हांहां अंकल, सब ठीक है. मम्मी कैसी हैं?’ उधर से राजन की आवाज सुनाई दी.
‘‘वे भी ठीक हैं बेटे. लो, अपनी मां से बात कर लो,’’ कहते हुए सूरज प्रकाश ने सावित्री को फोन दे दिया.
‘कैसी हो मम्मी?’
‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. भाई साहब के यहां कोई परेशानी हो सकती है क्या? इन दोनों ने तो मेरी भरपूर सेवा की है. तू ने 5 दिनों में एक दिन भी फोन कर के नहीं पूछा कि मम्मी कैसी हो?’’
‘‘अंकल बहुत अच्छे इनसान हैं. उन की सभी तारीफ करते हैं. मैं जानता था कि अंकल के यहां आप सहीसलामत रहोगी.’’
‘‘कर्फ्यू में 4 घंटे की ढील है. तू यहां आ जा. मैं तेरे साथ घर आ जाऊंगी.’’
‘मम्मी, मैं तो बाजार जा रहा हूं कुछ जरूरी सामान खरीदना है. तुम ऐसा करो कि रिकशा या आटोरिकशा कर के घर आ जाना, क्योंकि मुझे बाजार में देर हो जाएगी.’
‘‘ऐसा ही करती हूं,’’ बुझे मन से सावित्री ने कहा और फोन काट दिया.
सूरज प्रकाश ने पूछा, ‘‘क्या कहा राजन ने?’’
‘‘कह रहा है कि कुछ जरूरी सामान खरीदने बाजार जा रहा हूं तुम रिकशा या आटोरिकशा कर के घर आ जाओ. भाई साहब, अभी 3 घंटे से भी ज्यादा का समय बाकी है. मैं बाहर से कोई रिकशा या आटोरिकशा पकड़ कर घर चली जाऊंगी,’’ सावित्री ने निराशा भरी आवाज में कहा.
‘‘भाभीजी, आप क्या बात कर रही हैं? आप अकेली जाएंगी? क्या हम से मन ऊब गया है जो इस तरह जाना चाहती हो?’’
‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं है. इन 5 दिनों में तो मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं बता नहीं सकती.’’
‘‘वैसे तो मैं भी आप को घर छोड़ कर आ सकता हूं, पर मैं नहीं जाऊंगा. जब कर्फ्यू पूरी तरह खुल जाएगा तब आप चली जाना. हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि राजन क्यों नहीं आया.’’
‘‘ठीक कहते हैं आप, लेकिन घर जाना भी तो जरूरी है.’’
‘‘मैं ने कब मना किया है. 3 दिन बाद कर्फ्यू खुल जाएगा, तब आप चली जाना,’’ सूरज प्रकाश ने कहा.
3 दिनों के बाद जब पूरी तरह कर्फ्यू खुला तो सावित्री ने अकेले ही घर जाने के लिए कहा.
कमला ने टोक दिया, ‘‘नहीं दीदी, आप अकेली नहीं जाएंगी. ये आप को घर छोड़ आएंगे.’’
‘‘हां भाभीजी, आप के साथ चल रहा हूं.’’ सूरज प्रकाश ने कहा.
स्कूटर सावित्री के मकान के सामने रुका. सावित्री ने कहा, ‘‘अंदर आइए.’’
‘‘मैं फिर कभी आऊंगा भाभीजी. आज तो बहुत काम करने हैं. समय नहीं मिल पाएगा.’’
सावित्री घर में घुसी.
‘‘तुम किस के साथ आई हो मम्मी?’’ राजन ने पूछा.
‘‘सूरज प्रकाश घर छोड़ कर गए हैं. मैं ने उन से बहुत कहा कि अकेली चली जाऊंगी, पर वे दोनों ही नहीं माने. कमला दीदी भी कहने लगीं कि अकेली नहीं जाने दूंगी.’’
भारती चुप रही. उसे सावित्री के आने की जरा भी खुशी नहीं हुई, पर पोता राजू बहुत खुश था.
राजन व भारती के बरताव में कोई फर्क नहीं पड़ा. सावित्री को लग रहा था कि उन्हें जानबूझ कर परेशान किया जा रहा है.
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रविवार का दिन था. सावित्री दोपहर का खाना खा रही थी, पर सब्जी में मिर्च बहुत ज्यादा थी. एक टुकड़ा खाना भी मुश्किल हो गया. उस ने चुपचाप 3-4 टुकड़े रोटी के खा लिए, पर मुंह में जैसे आग लग गई हो. पानी पी कर राजन को आवाज दी.
राजन ने पूछा, ‘‘क्या हुआ मम्मी?’’
‘‘सब्जी में मिर्च बहुत तेज है. मुझ से तो खाई नहीं जा रही है.’’
‘‘मम्मी, सब्जी तो एकजैसी बनती है. तुम्हारी अलग से नहीं बनती.’’
‘‘तू सब्जी चख कर तो देख.’’
‘‘तुम्हारे मुंह का जायका खराब हो गया है. कल तुम डाक्टर को दिखा कर आना.’’
तभी भारती रसोई से निकल कर आई और तेज आवाज में बोली, ‘‘क्या हुआ?’’
‘‘मम्मी कह रही हैं कि सब्जी में मिर्च बहुत तेज है.’’
‘‘बनाबनाया खाना बैठेबिठाए मिल जाता है. खाना खराब है तो छोड़ क्यों नहीं देतीं. क्यों खा लेती हो दोनों टाइम?’’
‘‘छोड़ो भारती, तुम रसोई में जाओ. मम्मी तो सठियाती जा रही हैं.’’
सावित्री ने खाने की थाली एक तरफ सरकाते हुए कहा, ‘‘रहने दे राजन, मुझे नहीं खाना है. डाक्टर ने तेज मिर्च, नमक, मसाले व ज्यादा घीतेल खाने को मना कर रखा है. इस उम्र में बहुत नुकसान पहुंचाते हैं. अभी तो मेरे हाथपैर चल रहे हैं. मैं अपना नाश्ता और खाना खुद बना लूंगी.’’
राजन चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया.
उस दिन के बाद सावित्री ने खुद ही अपना चायनाश्ता व खाना बनाना शुरू कर दिया.
एक रात सावित्री की सोते हुए आंख खुली. रात के 12 बज रहे थे. वे उठीं और आंगन के एक कोने में बने बाथरूम की ओर चल दीं. राजन के कमरे में बहुत कम आवाज में टैलीविजन चल रहा था. राजन और भारती की बातचीत सुन कर उन के कदम रुक गए.
‘‘तुम्हारी मम्मी से तो मैं बहुत ही परेशान हूं. तुम्हारे पापा तो चले गए और इस मुसीबत को मेरी छाती पर छोड़ गए. अगर दंगे में मारी जातीं तो हमेशा के लिए हमें भी चैन की सांस मिलती,’’ भारती बोल रही थी.
‘‘और सरकार से 5 लाख रुपए भी मिलते, जैसा कि अखबारों में छपा था कि दंगे में मरने वालों के परिवार को सरकार द्वारा 5 लाख रुपए की मदद की जाएगी,’’ राजन बोला.
यह सुन कर सावित्री सन्न रह गईं. वे थके कदमों से बाथरूम पहुंचीं और लौट कर अपने बिस्तर पर लेट गईं.
अगली सुबह सावित्री उठीं. नहाधो कर बिना नाश्ता किए सूरज प्रकाश के घर पहुंच गईं.
कमला ने चेहरे पर खुशी बिखेरते हुए पूछा, ‘‘दीदी, कैसी हैं आप?’’
‘‘हां, बस ठीक हूं,’’ सावित्री ने उदास लहजे में कहा.
‘‘भाभीजी, पहले आप नाश्ता कर लीजिए,’’ सूरज प्रकाश ने कहा.
नाश्ता करने के बाद सावित्री ने सारी बातें बता दीं. रात की बात सुन कर तो उन दोनों को भी बहुत दुख हुआ.
सावित्री ने दुखी मन से कहा, ‘‘भाई साहब, समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं? घरपरिवार होते हुए भी मैं बिलकुल अकेली सी हो गई हूं. अब तो वह घर मुझे जेल की कोठरी की तरह लगने लगा है. आप मुझे किसी वृद्धाश्रम का पता बता दीजिए. मैं अपनी जिंदगी के बाकी दिन वहां बिता लूंगी,’’ कहतेकहते सावित्री रोने लगीं.
‘‘भाभीजी, क्या बात कर रही हैं आप? आप वृद्धाश्रम में क्यों रहेंगी? आप अपने घर में न रहें, यह आप की इच्छा है, पर हमारी भी एक इच्छा है, अगर आप बुरा न मानो तो कह दूं?’’
‘‘हांहां, कहिए.’’
‘‘क्या यह नहीं हो सकता कि आप हम दोनों के साथ इसी घर में रहें. हम दोनों भी बूढ़े हैं और अकेले हैं. हम तीनों मिलजुल कर रहें, इस से हम तीनों का अकेलापन दूर हो जाएगा,’ सूरज प्रकाश ने कहा.
तभी कमला बोल उठीं, ‘‘दीदी, मना मत करना. मैं एक बात जानना चाहती हूं कि हमारी दलित जाति के चलते आप को कोई एतराज तो नहीं है?’’
‘‘नहींनहीं, हम दोनों परिवारों के बीच यह जाति कहां से आ गई. आप के यहां इतने दिन रह कर तो मैं ने देख लिया है. आप जैसे परिवार का साथ पाने को भला कौन मना कर सकता है.’’
‘‘भाभी, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सभी शहरों में अकेलेपन की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए समान विचारों के 3-4 बूढ़े इकट्ठा रहने लगें?’’
‘‘हांहां, क्यों नहीं हो सकता ऐसा,’’ सावित्री ने कहा. उन्हें लग रहा था कि उन के दिल से भारी बोझ उतर रहा है.
शाम को जब सावित्री घर पहुंचीं तो राजन ने कहा, ‘‘आप कहां चली गई थीं? फोन भी यहीं छोड़ गई थीं. कहां रहीं सुबह से अब तक?’’
सावित्री ने अपने कमरे में कुरसी पर बैठते हुए कहा, ‘‘भारती को भी बुला ले. मुझे तुम दोनों से बात करनी है.’’
राजन ने भारती को आवाज दी. उसे लग रहा था कि मम्मी के दिल में कोई ज्वालामुखी धधक रहा है. भारती भी कमरे में आ गई.
सावित्री बोल उठीं, ‘‘मैं ने कल रात तुम दोनों की बातें सुन ली हैं. मैं अपने ही घर में अपनी औलाद पर बोझ बन गई हूं. मैं इतनी बड़ी मुसीबत बन गई हूं कि तुम दोनों मुझ से छुटकारा चाहते हो. तुम चाहते थे कि मैं भी दंगे में मारी जाती और तुम्हें 5 लाख रुपए सरकार से मिल जाते.’’
राजन और भारती यह सुन कर सन्न रह गए.
‘‘बेटे, अब तक तो मैं तेरे और पोते के मोह के जाल में थी. अपने खून का मोह होता है, पर रात को जो मैं ने सुना उसे सुन कर सारा मोह खत्म हो गया है.’’
‘‘यह मकान, नकदी जोकुछ भी मेरे पास है, सब तुम्हारा ही तो था, पर तब जब मेरी सेवा करते. मेरे बुढ़ापे का सहारा बनते. अब तो मेरी इच्छा है कि मैं अपनी सारी जायदाद किसी ऐसे वृद्धाश्रम को दान कर दूं, जहां लोग अपनी नालायक औलाद से पीडि़त और दुखी हो कर पहुंचते हैं. अब मैं यहां नहीं रहूंगी. कल ही मैं यहां से चली जाऊंगी.’’
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‘‘कहां जाओगी?’’ राजन के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी.
‘‘मैं सूरज प्रकाश के घर जा रही हूं. हम तीनों मिल कर अपना बुढ़ापा आराम से काट लेंगे.’’
‘‘सूरज अंकल तो दलित हैं… क्या आप उन के घर में रहोगी?’’
‘‘मैं ने कर्फ्यू में वहां इतने दिन गुजारे तब तो तू ने कुछ नहीं कहा. अब मैं वहां हमेशा रहने की बात कर रही हूं तो तुझे उन की जाति दिखाई दे रही है,’’ सावित्री ने गुस्से भरे लहजे में कहा.
राजन और भारती उन से नजरें नहीं मिला पा रहे थे.
Family story in hindi
जयंत औफिस के बाद पुलिस थाने होते हुए घर पहुंचे थे. बहुत थक गए थे. शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत ज्यादा थके थे. शारीरिक श्रम जीवन में प्रतिदिन करना ही पड़ता है, परंतु पिछले 1 महीने से जयंत के जीवन में शारीरिक व मानसिक श्रम की मात्रा थकान की हद तक बढ़ गई थी. घर पर पत्नी मृदुला उन की प्रतीक्षा कर रही थी. प्रतिदिन करती है. उन के आते ही जिज्ञासा से पूछती है, ‘‘कुछ पता चला?’’ आज भी वही प्रश्न हवा में उछला. पत्नी को उत्तर पता था. जयंत के चेहरे की थकी, उदास भंगिमा ही बता रही थी कि कुछ पता नहीं चला था.
जयंत सोफे पर गिरते से बोले, ‘‘नहीं, परंतु आज पुलिस ने एक नई बात बताई है.’’
‘‘वह क्या?’’ पत्नी का कलेजा मुंह को आ गया. जिस बात को स्वीकार करने में जयंत और मृदुला इतने दिनों से डर रहे थे, कहीं वही सच तो सामने नहीं आ रहा था. कई बार सच जानतेसमझते हुए भी हम उसे नकारते रहते हैं. वे दोनों भी दिल की तसल्ली के लिए झूठ को सच मान कर जी रहे थे. हृदय की अतल गहराइयों से वे मान रहे थे कि सच वह नहीं था जिस पर वे विश्वास बनाए हुए थे. परंतु जब तक प्रत्यक्ष नहीं मिल जाता, वे अपने विश्वास को टूटने नहीं देना चाहते थे.
पत्नी की बात का जवाब न दे कर जयंत ने कहा, ‘‘एक गिलास पानी लाओ.’’
मृदुला को अच्छा नहीं लगा. वह पहले अपने मन की जिज्ञासा को शांत कर लेना चाहती थी. पति की परेशानी और उन की जरूरतों की तरफ आजकल उस का ध्यान नहीं जाता था. वह जानबूझ कर ऐसा नहीं करती थी, परंतु चिंता के भंवर में फंस कर वह स्वयं को भूल गई थी, पति का खयाल कैसे रखती?
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जल्दी से पानी का गिलास ला कर पति के हाथ में थमाया और फिर पूछा, ‘‘क्या बताया पुलिस ने?’’
पानी पी कर जयंत ने गहरी सांस ली, फिर लापरवाही से कहा, ‘‘कहते हैं कि अब हमारा बेटा जीवित नहीं है.’’
मृदुला उन को पकड़ कर रोने लगी. वे उस को संभाल कर पीछे के कमरे तक लाए और बिस्तर पर लिटा कर बोले, ‘‘रोने से क्या फायदा मृदुल, इस सचाई को हम स्वयं नकारते आ रहे थे, परंतु अब हमें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए.’’
मृदुला उठ कर बिस्तर पर बैठ गई, ‘‘क्या उन को कोई सुबूत मिला है?’’
‘‘हां, प्रमांशु के जिन दोस्तों को पुलिस ने पकड़ा था, उन्होंने कुबूल कर लिया है कि उन्होंने प्रमांशु को मार डाला है.’’
सुन कर मृदुला और तेजी से रोने लगी. इस बार जयंत ने उसे चुप कराने का प्रयास नहीं किया, बल्कि आगे बोलते रहे, ‘‘लाश नहीं मिली है. पुलिस ने कुछ हड्डियां बरामद की हैं, उन से पहचान असंभव है.’’
मृदुला का विलाप सिसकियों में बदल गया. फिर नाक सुड़कती हुई बोली, ‘‘हो सकता है, वे प्रमांशु की हड्डियां न हों.’’
‘‘हां, संभव है, इसीलिए पुलिस उन का डीएनए टैस्ट कर के पता करेगी कि वे प्रमांशु के शरीर की हड्डियां हैं या किसी और व्यक्ति की. उन्होंने हमें कल बुलाया है. हमारे ब्लड सैंपल लेंगे.’’
‘‘ब्लड सैंपल…’’ मृदुला चौंक गई. उस ने आतंकित भाव से जयंत को देखा.
जयंत ने आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘इस में डरने की क्या बात है? ब्लड सैंपल देने में कोई तकलीफ नहीं होती.’’
‘‘नहीं, लेकिन…’’ मृदुला का स्वर कांप रहा था.
‘‘इस में परेशानी की कोई बात नहीं है. डीएनए मिलेगा तो वह हमारा प्रमांशु होगा, नहीं मिलेगा तो कोई अनजान व्यक्ति होगा.’’ जयंत के कहने के बावजूद मृदुला के चेहरे से भय का साया नहीं गया. उस का हृदय ही नहीं, पूरा शरीर कांप रहा था. उस के शरीर का कंपन जयंत ने भी महसूस किया. उन्होंने समझा, बेटे की मृत्यु से मृदुला विचलित हो गई है. उन्होंने उस को दवा दे कर बिस्तर पर लिटा दिया. नींद कहां आनी थी, परंतु जयंत उसे अकेला छोड़ कर ड्राइंगरूम में आ गए. सोफे पर अधलेटे से हो कर वे अतीत के जाल में उलझ गए.
जयंत का पारिवारिक जीवन काफी सुखमय रहा था. मनुष्य के पास जब धन, वैभव और वैचारिक संपन्नता हो तो उस के जीवन में आने वाले छोटेछोटे दुख, कष्ट और तकलीफें कोई माने नहीं रखतीं. उन के पिताजी केंद्र सरकार की सेवा में उच्च अधिकारी थे. मां एक कालेज में प्रोफैसर थीं. उन की शिक्षा शहर के सब से अच्छे अंगरेजी स्कूल और फिर नामचीन कालेज में हुई थी. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने भी प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास की और आज राजस्व विभाग में उच्च अधिकारी थे. उन की पत्नी मृदुला भी उच्च शिक्षित थी, परंतु वह नौकरी नहीं करती थी. वह समाजसेवा और घूमनेफिरने की शौकीन थी. शादी के बाद जब उस का उठनाबैठना जयंत के सीनियर अधिकारियों की बीवियों के साथ हुआ, तो उस की पहचान का दायरा बढ़ा और वह शहर के कई क्लबों और सभासमितियों की सदस्या बन गई थी. जयंत खुले विचारों के शिक्षित व्यक्ति थे, सो, पत्नी की आधुनिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे. वह पत्नी के घूमनेफिरने, अकेले बाहर आनेजाने पर एतराज नहीं करते थे. पत्नी के चरित्र पर वे पूरा भरोसा करते थे.
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शादी के 5 साल तक उन के घर बच्चे का पदार्पण नहीं हुआ. जयंत इच्छुक थे, परंतु मृदुला नहीं चाहती थी. शादी के तुरंत बाद वह बच्चा पैदा कर के अपने सुंदर, सुगठित शरीर को बेडौल नहीं करना चाहती थी. वैसे भी वह घर और पति की तरफ अधिक ध्यान नहीं देती थी. इस के बजाय वह किटी पार्टियों व क्लबों में रमी खेलने में ज्यादा रुचि लेती थी. तब जयंत के मातापिता जीवित थे, परंतु मृदुला अपने ऊपर किसी का प्रतिबंध नहीं चाहती थी. वह वैचारिक और व्यावहारिक स्वतंत्रता की पक्षधर थी. इसलिए बाहर आनेजाने के मामले में वह किसी की बात नहीं सुनती थी. जयंत बेवजह घर में कोई झगड़ा नहीं चाहते थे, इसलिए पत्नी को कभी टोकते नहीं थे. उन का मानना था कि एक बच्चा होते ही वह घर और बच्चे की तरफ ध्यान देने लगेगी और तब वह क्लब की मौजमस्ती और किटी पार्टियां भूल जाएगी.
परंतु ऐसा नहीं हो सका. शादी के 5 साल बाद उन के यहां बच्चा हुआ, तो भी मृदुला की आदतों में कोई सुधार नहीं आया. कुछ दिन बाद ही उस ने क्लबों की पार्टियों में जाना प्रारंभ कर दिया. बच्चा आया (मेड) और जयंत के भरोसे पलने लगा. जब तक जयंत के मातापिता जीवित रहे तब तक उन्होंने प्रमांशु को संभाला, परंतु जब वह 10 साल का हुआ तो उस के दादादादी एकएक कर दुनिया से चल बसे. बच्चा स्कूल से आ कर घर में अकेला रहता, टीवी देखता या बाल पत्रिकाएं पढ़ता, जिन को जयंत खरीद कर लाते थे ताकि प्रमांशु का मन लगा रहे. वह आया से भी बहुत कम बात करता था.
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शाम को जयंत घर लौटते तो वे उस का होमवर्क पूरा करवाते, कुछ देर उस के साथ खेलते और खाना खिला कर सुला देते. रात के 10 बजने के बाद कहीं मृदुला किटी पार्टियों या क्लब से लौट कर आती. तब उसे इतना होश न रहता कि वह प्रमांशु के साथ दो शब्द बोल कर उस के ऊपर ममता की दो बूंदें टपका सके. उस ने तो कभी यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि उस का पेटजाया बच्चा किस प्रकार पलबढ़ रहा था, उसे कोई दुख या परेशानी है या नहीं, वह मां के आंचल की ममतामयी छांव के लिए रोता है या नहीं. वह मां से क्या चाहता है, कभी मृदुला ने उस से नहीं पूछा, न प्रमांशु ने कभी उसे बताया. उन दोनों के बीच मांबेटे जैसा कोई रिश्ता था ही नहीं. मांबेटे के बीच कभी कोई संवाद ही नहीं होता था.
धीरेधीरे प्रमांशु बड़ा हो रहा था. परंतु मृदुला उसी तरह क्लबों व किटी पार्टियों में व्यस्त थी. अब भी वह देर रात को घर लौटती थी. जयंत ने महसूस किया कि प्रमांशु भी रात को देर से घर लौटने लगा है, घर आते ही वह अपने कमरे में बंद हो जाता है, जयंत मिलने के लिए उस के कमरे में जाते तो वह दरवाजा भी नहीं खोलता. पूछने पर बहाना बना देता कि उस की तबीयत खराब है. खाना भी कई बार नहीं खाता था. जयंत की समझ में न आता कि वह इतना एकांतप्रिय क्यों होता जा रहा था. वह हाईस्कूल में था. जयंत को पता न चलता कि वह अपना होमवर्क पूरा करता है या नहीं. एक दिन जयंत ने उस से पूछ ही लिया, ‘बेटा, तुम रोजरोज देर से घर आते हो, कहां रहते हो? और तुम्हारा होमवर्क कैसे पूरा होता है? कहीं तुम परीक्षा में फेल न हो जाओ?’
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‘पापा, आप मेरी बिलकुल चिंता न करें, मैं स्कूल के बाद अपने दोस्तों के घर चला जाता हूं. उन्हीं के साथ बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर लेता हूं,’ प्रमांशु ने बड़े ही आत्मविश्वास से बताया. जयंत को विश्वास तो नहीं हुआ, परंतु उन्होंने बेटे की भावनाओं को आहत करना उचित नहीं समझा. बात उतनी सी नहीं थी, जितनी प्रमांशु ने अपने पापा को बताई थी. जयंत भी लापरवाह नहीं थे. वे प्रमांशु की गतिविधियों पर नजर रखने लगे थे. उन्हें लग रहा था, प्रमांशु किन्हीं गलत गतिविधियों में लिप्त रहने लगा था. घर आता तो लगता उस के शरीर में कोई जान ही नहीं है, वह गिरतापड़ता सा, लड़खड़ाता हुआ घर पहुंचता. उस के बाल उलझे हुए होते, आंखें चढ़ी हुई होतीं और वह घर पहुंच कर सीधे अपने कमरे में घुस कर दरवाजा अंदर से बंद कर लेता. जयंत के आवाज देने पर भी दरवाजा न खोलता. दूसरे दिन भी दिन चढ़े तक सोता रहता.
यह बहुत चिंताजनक स्थिति थी. जयंत ने मृदुला से इस का जिक्र किया तो वह लापरवाही से बोली, ‘इस में चिंता करने वाली कौन सी बात है, प्रमांशु अब जवान हो गया है. अब उस के दिन गुड्डेगुडि़यों से खेलने के नहीं रहे. वह कुछ अलग ही करेगा.’
और उस ने सचमुच बहुतकुछ अलग कर के दिखा दिया, ऐसा जिस की कल्पना जयंत क्या, मृदुला ने भी नहीं की थी.
प्रमांशु ने हाईस्कूल जैसेतैसे पास कर लिया, परंतु नंबर इतने कम थे कि किसी अच्छे कालेज में दाखिला मिलना असंभव था. आजकल बच्चों के बीच प्रतिस्पर्धा और कोचिंग आदि की सुविधा होने के कारण वे शतप्रतिशत अंक प्राप्त करने लगे थे. हाई स्कोरिंग के कारण 90 प्रतिशत अंक प्राप्त बच्चों के ऐडमिशन भी अच्छे कालेजों में नहीं हो पा रहे थे. जयंत ने अपने प्रभाव से उसे जैसेतैसे एक कालेज में ऐडमिशन दिलवा दिया, परंतु पढ़ाई जैसे प्रमांशु का उद्देश्य ही नहीं था. उस की 17-18 साल की उम्र हो चुकी थी. अब तक यह स्पष्ट हो चुका था कि वह ड्रग्स के साथसाथ शराब का सेवन भी करने लगा था. जयंत के पैरों तले जमीन खिसक गई. प्यार और ममता से वंचित बच्चे क्या इतना बिगड़ जाते हैं कि ड्रग्स और शराब का सेवन करने लगते हैं? इस से उन्हें कोई सुकून प्राप्त होता है क्या? अपने बेटे को सुधारने के लिए मांबाप जो यत्न कर सकते हैं, वे सभी जयंत और मृदुला ने किए. प्रमांशु के बिगड़ने के बाद मृदुला ने क्लबों में जाना बंद कर दिया था. सोसायटी की किटी पार्टियों में भी नहीं जाती थी.
प्रमांशु की लतों को छुड़वाने के लिए जयंत और मृदुला ने न जाने कितने डाक्टरों से संपर्क किया, उन के पास ले कर गए, दवाएं दीं, परंतु प्रमांशु पर इलाज और काउंसलिंग का कोई असर नहीं हुआ. उलटे अब उस ने घर आना ही बंद कर दिया था. रात वह अपने दोस्तों के घर बिताने लगा था. उस के ये दोस्त भी उस की तरह ड्रग एडिक्ट थे और अपने मांबाप से दूर इस शहर में पढ़ने के लिए आए थे व अकेले रहते थे. जयंत के हाथों से सबकुछ फिसल गया था. मृदुला के पास भी अफसोस करने के अलावा और कोई चारा नहीं था. प्रमांशु पहले एकाध रात के लिए दोस्तों के यहां रुकता, फिर धीरेधीरे इस संख्या में बढ़ोतरी होने लगी थी. अब तो कई बार वह हफ्तों घर नहीं आता था. जब आता था, जयंत और मृदुला उस की हालत देख कर माथा पीट लेते, कोने में बैठ कर दिल के अंदर ही रोते रहते, आंसू नहीं निकलते, परंतु हृदय के अंदर खून के आंसू बहाते रहते. अत्यधिक ड्रग्स के सेवन से प्रमांशु जैसे हर पल नींद में रहता. लुंजपुंज अवस्था में बिस्तर पर पड़ा रहता, न खाने की सुध, न नहानेधोने और कपड़े पहनने की. उस की एक अलग ही दुनिया थी, अंधेरे रास्तों की दुनिया, जिस में वह आंखें बंद कर के टटोलटटोल कर आगे बढ़ रहा था.
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जयंत के पारिवारिक जीवन में प्रमांशु की हरकतों की वजह से दुखों का पहाड़ खड़ा होता जा रहा था. जयंत जानते थे, प्रमांशु के भटकने की असली वजह क्या थी, परंतु अब उस वजह को सुधार कर प्रमांशु के जीवन में सुधार नहीं लाया जा सकता था. मृदुला अब प्रमांशु के ऊपर प्यारदुलार लुटाने के लिए तैयार थी, इस के लिए उस ने अपने शौक त्याग दिए थे, परंतु अब समय उस के हाथों से बहुत दूर जा चुका था, पहुंच से बहुत दूर. इस बात को ले कर किसी को दोष देने का कोई औचित्य भी नहीं था. जयंत और मृदुला परिस्थितियों से समझौता कर के किसी तरह जीवन के साथ तालमेल बिठा कर जीने का प्रयास कर रहे थे कि तभी उन्हें एक और झटका लगा. पता चला कि प्रमांशु समलैंगिक रिश्तों का भी आदी हो चुका था.
जयंत की समझ में नहीं आ रहा था, यह कैसे जीन्स प्रमांशु के खून में आ गए थे, जो उन के खानदान में किसी में नहीं थे. जहां तक उन्हें याद है, उन के परिवार में ड्रग्स लेने की आदत किसी को नहीं थी. पार्टी आदि में शराब का सेवन करना बुरा नहीं माना जाता था, परंतु दिनरात पीने की लत किसी को नहीं लगी थी. और अब यह समलैंगिक संबंध…?
जयंत की लाख कोशिशों के बावजूद प्रमांशु में कोई सुधार नहीं हुआ. घर से उस ने अपना नाता पूरी तरह से तोड़ लिया था. उस की दुनिया उस के ड्रग एडिक्ट और समलैंगिक दोस्तों तक सिमट कर रह गई थी. उन के साथ वह यायावरी जीवन व्यतीत कर रहा था. बेटा चाहे घरपरिवार से नाता तोड़ ले, मांबाप के प्रति अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाए, परंतु मांबाप का दिल अपनी संतान के प्रति कभी खट्टा नहीं होता. जयंत अच्छी तरह समझ गए थे कि प्रमांशु जिस राह पर चल पड़ा था, उस से लौट पाना असंभव था. ड्रग और शराब की आदत छूट भी जाए तो वह अपने समलैंगिक संबंधों से छुटकारा नहीं पा सकता था. इस के बावजूद वे उस की खोजखबर लेते रहते थे. फोन पर बात करते और मिल कर समझाते, मृदुला से भी उस की बातें करवाते. वे दोनों ही उसे बुरी लतों से छुटकारा पाने की सलाह देते.
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