खुशियों का उजास: भाग 1- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

“मम्मा… मम्मा…,” नन्हे की घुटीघुटी चीखें सुन कर मां बानी दौड़ीदौड़ी ड्राइंगरूम में आई, जहां वह अपने 4 साल के बेटे को आया की निगरानी में छोड़ कर गई थी. उस ने वहां जो दृश्य देखा, सदमे से उस की खुद की चीख निकल गई.

उस के सगे बड़े भाई और पिता कमरे में थे. भाई ने एक तकिए से नन्हे के मुंह को दबाया हुआ था, साथ खड़े पिता क्रोध से जलती लाल अंगारा आंखों से दांत पीसते हुए उस से कह रहे थे, “ज़ोर से भींच, और जोर से कि इस संपोले का काम आज तमाम हो ही जाए.”

एक क्षण को तो बानी में समझ ही नहीं आया कि वह क्या करे, लेकिन अगले ही पल वह भाई के हाथों से तकिया छीनते हुए जोर से चीखी, “बचाओ… बचाओ…” कि तभी बिजली की गति से एक लंबा व तगड़ा शख्स ड्राइंगरूम के खुले दरवाजे से कमरे में घुसा. उस ने भाई के हाथों से तकिया जबरन छीन कर एक ओर पटक दिया और नन्हे को उस के चंगुल से मुक्त करा बानी को थमा कर उस से बोला, “आप इसे ले कर भीतर जाइए. कमरे का दरवाजा बंद कर लीजिएगा. मैं इन से निबटता हूं.”

इस दौरान पिता उस की ओर मुखातिब हो चीख रहे थे, “पंडितजी ने कहा है, तूने हमारे घर पर अपने पाप की काली छाया डाल रखी है. तेरी वजह से हमारा घर फलफूल नहीं रहा. मेरी नौकरी नहीं रही. इस बड़के की नौकरी भी बारबार चली जाती है. छुटकी का रिश्ता नहीं हो रहा. तेरी और तेरे इस मनहूस की वजह से ही घर पर विपदा आई हुई है, कुलक्षणी.”

ये भी पढ़ें- बदबू : कमली की अनोखी कहानी

वह खौफ़ और दहशत से थरथर कांपती हुई रोतेगर्राते नन्हे को अपने धड़कते सीने से चिपकाए अंदर के कमरे में जातेजाते थोड़ा ठहर कर पिता पर रोती हुई गरजी, “किस के कहने पर आप एक नन्हे से बच्चे की जान लेने चले आए? यह भी नहीं सोचा कि यह आप का अपना खून है. मैं ने अपनेआप अपनी ज़िंदगी बनाई है. खुद के दम पर पढ़लिख कर आज मैं इस मुकाम पर पहुंची हूं कि मैं अपने बेटे को एक बढ़िया जिंदगी दे पा रही हूं. एक बेहतरीन ज़िंदगी जी रही हूं. और आप कहते हैं, मेरे पाप की काली छाया आप लोगों पर पड़ रही है.

“आप की परेशानियों का कारण मैं नहीं, आप खुद हैं. आप और भैया को अपने दोस्तों के साथ अड्डेबाजी और गांजे से फुरसत मिले, तब तो आप लोग किसी नौकरी में टिकेंगे. आप दोनों का काहिलपना आप की समस्या की वजह है, न कि इतनी दूर बैठी मैं.” यह कह कर उस ने कमरे में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया, और नन्हे को बेहताशा चूमती हुई, अर्धविक्षिप्त सी आंसू बहाती, मुंह ही मुंह में बुदबुदाई, ‘मेरा बेटा… मेरा सोना… मेरा राजा… आज अगर वह लड़का समय पर नहीं आता तो क्या होता? तुझे कुछ हो जाता, तो मैं कहीं की न रहती.’

बाहर से उस युवक और भाई के बीच हाथापाई की आवाजें आ रही थीं. पिता गुस्से में उस युवक पर गरज रहे थे, “तू होता कौन है हमारे निजी मामलों में टांग अड़ाने वाला. यह मेरी बेटी है. मैं चाहे जो करूं.”

उधर शायद एक बार को उस का भाई उस युवक की गिरफ्त से छूट उस के बंद कमरे के दरवाजे को पीटने लगा, लेकिन शायद तभी उस युवक ने फिर से उसे काबू कर लिया. करीब दस मिनट तक पिता का चीखनाचिल्लाना जारी रहा.

बानी पत्ते की तरह थरथर कांपती, तेजी से धड़कते दिल के साथ नन्हे को कलेजे से चिपकाए बैठी थी, कि तभी उस ने सुना, वह युवक तेज आवाज में पापा को धमका रहा था, “आप दोनों यहां से फौरन नहीं गए, तो मुझे मजबूरन सौ नंबर डायल करना पड़ेगा. इसलिए बेहतर यही होगा कि आप दोनों यहां से फौरन चले जाएं. यह मत समझिए कि वे अकेली हैं. मैं यहां जस्ट बगल वाले फ्लैट में रहता हूं, इसलिए अगली बार यहां पैर रखने से पहले दस बार सोच लीजिएगा. अगर आप लोगों ने फिर से इन्हें या बच्चे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, तो मैं आप के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने में बिलकुल नहीं हिचकूंगा. आप इन के पिता हैं, उस का लिहाज कर मैं अभी कुछ नहीं कर रहा.”

कुछ ही देर में बाहर सन्नाटा छा गया. शायद पिता और भाई चले गए थे. तभी उस युवक ने उस का दरवाजा खटखटाया, “दरवाजा खोलिए, वे लोग चले गए हैं.”

डरीसहमी बैठी बानी ने अपनी गोद में सोए नन्हे को पलंग पर लिटा दिया और उठ कर दरवाजा खोला.

“आप ऐन समय पर नहीं आते तो आज अनर्थ हो जाता. मैं आप का किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूं, मेरे पास शब्द नहीं हैं. थैंक यू, थैंक यू सो वैरी मच,” उस ने हाथ जोड़ते हुए उस युवक से कहा, “आप बगल वाले फ्लैट में रहते हैं, मैं ने आप को पहले तो कभी नहीं देखा.”

“जी, मैं पिछले हफ्ते ही मुंबई से ट्रांसफ़र हो कर यहां आया हूं. मैं उमंग हूं, एक डाक्टर हूं. आप का गुड नेम, प्लीज.”

“मैं बानी हूं.”

“आप क्या करती हैं बानीजी?”

ये भी पढ़ें- वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई

“जी, मैं अभिज्ञान यूनिवर्सिटी में मैथ्स की लैक्चरर हूं.”

“लैक्चरर, ओह, ओके.”

“चलिए बानीजी, मैं अपने बाहर के कमरे में खिड़की के पास ही बैठता हूं. रात को वहीं सोऊंगा भी. कभी भी आधी रात को भी कोई जरूरत हो तो आप बेहिचक एक मिस्डकौल दे दीजिएगा. मैं हाजिर हो जाऊंगा. वैसे तो अब वे लोग दोबारा आने की ज़ुर्रत नहीं करेंगे, फिर भी आप मेरा नंबर ले लीजिए.”

“जी, एक बार फिर से आप का बहुतबहुतबहुत शुक्रिया, डाक्टर उमंग.”

“अरे, हम पड़ोसी हैं. इन शुक्रिया और थैंक्स के चक्कर में मत पड़िए. चलिए, दरवाजा ठीक से बंद कर लीजिएगा.”

“जी, बहुत अच्छा.”

उस रात बानी को बहुत देर तक नींद नहीं आई. नन्हे को सीने से लगाए हुए कब बरबस उस के जेहन में बीते दिनों की मीठीकसैली यादों की गिरहें एकएक कर खुलने लगीं, उसे एहसास तक न हुआ.

‘वह एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार में कट्टर, पुरातनपंथी मान्यताओं वाले अल्पशिक्षित मातापिता की बेटी थी. उस का एक बड़ा भाई और एक छोटी बहन थी. पिता निठल्ले स्वाभाव के थे. कहीं टिक कर नौकरी नहीं करते. काम के बजाय यारीदोस्ती और गांजे का नशा करने में उन का मन ज्यादा रमता. आएदिन नौकरी छोड़ देते. घर में हर वक्त तंगी ही रहती. सो, घरखर्च चलाने के लिए मां लोगों के घरों में खाना बनातीं.

मां और पिता दोनों सुबह जल्दी घर से निकलते और देररात घर में घुसते. उपयुक्त नियंत्रण और मार्गदर्शन के अभाव में उन की बड़ी संतान, उन का एकमात्र बेटा ज्यादा नहीं पढ़ पाया. उस ने 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी. वह साड़ियों के एक शोरूम में काम करने लगा.

ये भी पढ़ें- अजनबी: परिवार के लिए क्यों अनजान बन गई भारती

वह शुरू से ही कुशाग्रबुद्धि थी, हमेशा पढ़ाई में अच्छा परिणाम देती और सीढ़ीदरसीढ़ी आगे बढ़ती गई. अपनी कड़ी मेहनत के दम पर उस ने मैथ्स जैसे कठिन विषय में एमएससी कर नैट की प्रतियोगी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली और पीएचडी पूरी कर स्थानीय यूनिवर्सिटी में लैक्चरर बन गई.

आगे पढ़ें- कालेज के स्टाफरूम में बानी की टेबल…

खुशियों का उजास: भाग 2- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

नन्हे के पिता पार्थ से उस की मुलाकात उसी कालेज में हुई. वह उस से लगभग 3 साल सीनियर था. वह भी यूनिवर्सिटी के मैथ्स डिपार्टमैंट में ही लैक्चरर था.

कालेज के स्टाफरूम में बानी की टेबल पार्थ की टेबल के साथ ही लगी हुई थी. सो, दिनभर साथ उठते बैठते दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए, इतने कि घर जा कर भी दोनों एकआध बार एकदूसरे से बात किए बिना न रहते. उन के प्रेम का बिरवा उन की प्रगाढ़ दोस्ती की माटी में फूटा.

वह यह सब सोच ही रही थी कि तभी घर के बाहर गली के चौकीदार के डंडे की खटखटाहट उसे सुनाई दी. उस के सीने से चिपका नन्हे कुनमुनाया. गले में उमड़ती रुलाई के साथ बानी ने सोचा, ‘उफ़, पार्थ तुम कहां चले गए अपनी बानी को छोड़ कर.’ और वह फिर से एक बार पार्थ के साथ बिताए हंसीं दिनों की मीठी यादों के प्रवाह में डूबनेउतराने लगी.

उस दिन वह और पार्थ कालेज की लाइब्रेरी के लिए मैथ्स की कुछ किताबें खरीदने एक बुक एग्ज़िबिशन में आए थे. किताबें खरीदने के बाद पार्थ उसे एग्ज़िबिशन ग्राउंड के साथ लगे पार्क में ले गया, जहां पार्क के एक सूने कोने में रंगबिरंगे गुलाब के पौधों के बीच लगी बैंच पर बैठ उसे एक सुर्ख गुलाब का खूबसूरत फूल तोड़ कर उसे थमाते हुए अनायास उस ने उस से कहा, ‘बानी, हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए हैं. तुम्हारे बिना जीने की सोच ही मुझे घबराहट से भर देती है. घर पर भी तुम से बात करने की इच्छा होती रहती है. मन करता है, तुम हर लमहा मेरी आंखों के सामने रहो. अब मैं अपनी जिंदगी का हर पल तुम्हारे साथ बिताना चाहता हूं. जिंदगी की आखिरी सांस तक तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. मुझे रोमांटिक फिल्मी बातें करना नहीं आता. सीधेसाधे शब्दों में तुम से पूछ रहा हूं, मुझ से शादी करोगी?’

ये भी पढ़ें- पिता का नाम: एक बच्चा मां के नाम से क्यों नहीं जाना जाता

इतने दिनों की करीबी से बानी भी पार्थ को बेहद पसंद करने लगी थी. सो, उस ने एक सलज़्ज़ मुसकान के साथ उसे इस विवाह प्रस्ताव के जवाब में अपनी सहमति दे दी.

दोनों के प्यार की दास्तां रफ्तारफ्ता आगे बढ़ चली.

उसे आज तक अच्छी तरह से याद है, उस दिन उस ने अपनी मां और पिता को पार्थ से अपनी शादी करने की इच्छा के बारे में बताया, लेकिन उस की अपेक्षा के विपरीत मां और पापा उस के एक विजातीय लड़के से विवाह की इच्छा पर बुरी तरह भड़क गए. उस के मातापिता दोनों ही बेहद पुराने रूढ़िवादी खयालों के थे. उन्हें अपनी बेटी का हाथ किसी अयोग्य, अल्पशिक्षित सजातीय पात्र के हाथ में देना मंजूर था, लेकिन पार्थ जैसे सुशिक्षित, सुयोग्य मगर विजातीय पात्र के हाथ में देना गवारा न था. बानी को एहसास था कि उस की जाति में उस जैसी निम्नमध्यवर्गीय व अल्पशिक्षित परिवार की लड़की को पार्थ जैसा योग्य और उच्चशिक्षित मैच मिलना मुश्किल ही नहीं, असंभव था.

सो, उस ने बहुत सोचविचार कर घर वालों की मरजी के खिलाफ़ जा कर पार्थ को अपना जीवनसाथी बनाने का फैसला ले लिया. एक दिन घर वालों को बिना बताए उस ने कुछ करीबी दोस्तों के समक्ष एकदूसरे को अंगूठी पहना कर सगाई कर ली. फिर 5 माह बाद कोर्ट मैरिज करने के लिए औपचारिक कार्यवाही भी कर डाली.

लेकिन, यदि कुदरती और इंसानी मंशाओं की मंजिल एक होती, तो दुर्भाग्य जैसी आपदा का वज़ूद न होता.

उन दिनों कोविड की बीमारी का प्रकोप चल रहा था. पार्थ को कोविड का भयंकर संक्रमण हुआ. पार्थ ने लापरवाही में शुरुआत में ही कोविड का इलाज किसी योग्य डाक्टर से नहीं करवाया. उस की बीमारी बिगड़ती गई और जब तक उस के घर वाले चेते, उस की बीमारी भयावह रूप लेते हुए उस के सभी अंगों को प्रभावित कर चुकी थी.

लगभग 20 दिनों तक कोविड से जूझने के बाद वह अपनी अंतिमयात्रा पर निकल पड़ा.

भाग्य का खेल, उस की मौत के बाद बानी को पता चला कि पार्थ का अंश उस की कोख में पल रहा था. बानी की दुनिया उलटपुलट हो गई. उस के पांवतले जमीन न रही.

कोविड के प्रकोप के बाद पूरे देश में कंप्लीट लौकडाउन चल रहा था. एक तरफ घर से निकलने की बंदिश, दूसरी ओर प्राइवेट क्लीनिकों के डाक्टरों ने मैडिको-लीगल कारणों से उस के अनमैरिड होने की वजह से अबौर्शन करने के लिए मना कर दिया और उसे उस के लिए उस से सरकारी अस्पताल में जाने को कहा. परंतु सरकारी अस्पताल में कोविड-19 के संक्रमण के खतरे को देखते हुए वह वहां नहीं गई. इन सब की वजह से उस का गर्भ 3 माह का होने को आया. सो, उसे विवश हो अपने गर्भ को रखने का फैसला लेना पड़ा.

इधर प्रैग्नैंसी के लक्षण जाहिर होते ही उस के मातापिता ने उस के खिलाफ़ मोरचाबंदी कर ली. वे दिनरात उसे बिनब्याही मां बनने पर कटु ताने और व्यंग्यबाण सुनाते. परेशान हो कर बानी ने एक दिन चुपचाप मांबाप का घर छोड़ दिया और अपनी यूनिवर्सिटी के पास किराए पर घर ले कर रहने लगी. यूनिवर्सिटी की बढ़िया नौकरी थी, आर्थिक रूप से वह ख़ासी मजबूत थी, तो उसे अकेले रहने में कोई खास दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा.

समय अपनी चाल से चलता गया. नियत समय पर बानी ने एक बेटे को जन्म दिया.

ये भी पढ़ें-सहारा: सुलेखा के आजाद ख्याल ने कैसे बदली उसकी जिंदगी

बानी की नौकरी बदस्तूर जारी थी. नन्हे 4 बरस का होने आया. लेकिन इतना समय गुजर जाने पर भी उस के बिनब्याही मां बनने पर पिता और भाई का गुस्सा कम न हुआ. उन के खानदानी पंडितजी ने आग में घी डालते हुए उसे उन के लिए अपशगुनी करार दिया था. उस की छोटी बहन उस के संपर्क में थी. उस के माध्यम से उसे अपने घर की खबरें मिलती रहती थीं. कि तभी उसे अपने विचारों से नजात दिलाते हुए झपकी आ गई और उस का क्लांत तनमन नींद की आगोश में समा गया.

अगली सुबह जब बानी उठी, तो नन्हे तेज बुखार से तप रहा था. वह उसे ले कर डाक्टर के यहां ले जाने के लिए घर से निकल ही रही थी कि डाक्टर उमंग अपने घर के बाहर चहलकदमी करते हुए मिल गए.

“हैलो, गुडमौर्निंग, बानी. सुबहसवेरे कहां चल दीं?”

“नन्हे को बुखार आ रहा है. रातभर बुखार में भुना है. इसे डाक्टर के यहां ले जा रही हूं.”

“अगर आप चाहें तो मैं उसे एग्जामिन कर सकता हूं. मैं ने शायद आप को बताया नहीं, मैं यहां विनायक चिल्ड्रंस हौस्पिटल में पीडियाट्रिशियन हूं.”

“ओह, फिर तो आप प्लीज़ इसे एग्ज़ामिन कर लीजिए डाक्टर. आइए डाक्टर, प्लीज़, भीतर आ जाइए.”

डाक्टर उमंग ने नन्हे को एग्जामिन करने के बाद बानी से कहा, “चिंता की कोई बात नहीं है. कल की घटना से वह बेहद शाक में है. उसे कुछ मैडिसिन्स और इंजैक्शन लगाने पड़ेंगे.”

नन्हे को दवाई दे कर और इंजैक्शन लगाने के बाद वे जाने के लिए उठे ही थे कि बानी बोल पड़ी, “डाक्टर, चाय पी कर जाइएगा.”

चाय पी कर शाम को नन्हे का चैकअप करने के लिए घर आने का वादा कर के डाक्टर उमंग अपने घर चले गए.

आगे पढ़ें- करीब एक महीने बाद उस दिन भी…

ये भी पढ़ें- विद्रोह: घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

खुशियों का उजास: भाग 3- बानी की जिंदगी में कौनसा आया नया मोड़

अगले एक माह तक डाक्टर उमंग नन्हे को एग्जामिन करने सुबहशाम उस के घर आते रहे. इस अवधि में डाक्टर उमंग और बानी के मध्य बहुत अच्छी फ्रैंडशिप हो गई.

करीब एक महीने बाद उस दिन भी डाक्टर उमंग बानी के यहां बैठे थे कि तभी बानी को अपनी यूनिवर्सिटी की परीक्षाओं के लिए मैथ्स के प्रश्नपत्र बनाते देख वे तनिक मुसकराते हुए बोले, “बानी, आप ने इतने मुश्किल सब्जैक्ट में कैरियर कैसे बनाया? मुझे तो मैथ्स शब्द से अभी तक डर लगता है.”

बानी यह सुन कर खिलखिला कर हंस दी, बोली, “ओह डाक्टर उमंग, मुझे यह सब्जैक्ट इतना चैलेंजिंग लगता है कि क्या बताऊं, किसी मुश्किल सवाल को हल करने की खुशी अनोखी होती है, डाक्टर. आप को याद है, आप ने कैसा महसूस किया था जब आप ने पहली बार साइकिल चलानी सीखी थी. आप बिलकुल वही फ़ील करते हैं. और किसी डिफिकल्ट क्वेश्चन को सौल्व करने की खुशी आप को अपनी क्षमता में जबरदस्त सैल्फ कौन्फिडैंस देती है.”

“ओह, यह बात है. अपनी बात बताऊं तो क्या आप विश्वास करेंगी कि मैथ्स के टीचर की क्लास में घुसते ही उन के डर से मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाया करती थी. टैंथ क्लास तक हमारे मैथ्स टीचर मुझे मैथ्स का होमवर्क पूरा कर के नहीं लाने पर पूरी क्लास के सामने मुरगा बना दिया करते थे,” डाक्टर उमंग ने जोर से ठहाका लगाते हुए बताया.

“मुरगा और आप डाक्टर,” यह कहते हुए बानी भी खिलखिला कर हंस दी.

वक्त के साथ बानी और उमंग की दोस्ती गहराती गई.

डाक्टर उमंग को बानी के संपर्क में आए ढाईतीन साल बीत चले.

ये भी पढ़ें- नामर्द: तहजीब का इल्जाम क्या सह पाया मुश्ताक

इतने से समय में बानी ने उमंग के दिल में अपनी एक खास जगह बना ली थी. डाक्टर उमंग बानी से 2 साल छोटे थे. 33 वर्ष के होने को आए थे. उन के घरवाले उन से शादी के लिए कहकह कर हार गए थे. उन की मां उन्हें हर हफ्ते एक नई लड़की का फ़ोटो और बायोडाटा भेजती, लेकिन डाक्टर उमंग उन पर एक नजर तक न डालते. उन के अंतर्मन में तो बानी ने कब्ज़ा कर रखा था.

दिन बीतने के साथसाथ वे बानी की सहृदयता, शीशे जैसा साफ निश्छल दिल और मीठे स्वभाव के कायल हो उठे थे. जबजब दूसरे शहर में रहने वाली उन की मां फ़ोन पर उन से शादी की बात छेड़ती, बानी की सौम्य, गंभीर छवि उन के कल्पनाचक्षुओं के सामने आ जाती.

पिछली बार जब वे मां के पास गए थे और मां ने उन के विवाह की चर्चा छेड़ी, तो उन्होंने साफ़साफ़ लफ़्ज़ों में उन से कह दिया, “मां, मेरे लिए लड़की ढूंढना बंद करो. मेरी निगाह में एक लड़की है. मैं उसी से शादी करूंगा.”

मां के बहुत कुरेदने पर उन्होंने उन्हें बानी के बारे में खुल कर बताया.

उन की बात सुन कर मां जैसे आसमान से गिरीं. अपने इकलौते, सुयोग्य, कुंआरे डाक्टर बेटे की शादी एक बिनब्याही बच्चे वाली औरत से करने की बात उन के लिए सदमे से कम न थी. इस खबर से उन्हें गहन मानसिक आघात पहुंचा और उन का ब्लडप्रैशर शूट कर गया. वे पलंग पर आ गईं.

मां की यह हालत देख उमंग बेहद पसोपेश में थे. जिंदगी के इस मुकाम पर पहुंच वे बानी के बिना अपनी भावी जिंदगी की कल्पना तक नहीं कर सकते थे. सो, उन्होंने सोचा कि वे अपने घर जा कर बानी से आर्य समाज में शादी कर उसे दुलहन बना कर अपने घर ले जाएंगे. एक बार बानी से शादी हो जाए, तो उसे देख कर मां के पास उसे स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा. बानी अपनी नर्मदिली और मृदु स्वभाव से देरसवेर उन का दिल जीत ही लेगी. और वे वापस अपने शहर आ गए.

अपने घर पहुंच कर उमंग शाम को बानी के घर गए और फ़रमाइश कर रात का डिनर उस के साथ किया.

रात के साढ़े 10 बजने को आए थे, लेकिन आज वे उठने का नाम नहीं ले रहे थे. थोड़ी ही देर में नन्हे भी सो गया.

उस के सोते ही उमंग ने बानी से कहा, “बानी, आज मैं बिना किसी लागलपेट के आप से एक खास बात कहना चाहता हूं. मैं आप को बेहद पसंद करता हूं और जिंदगी का बाकी का सफ़र आप के साथ काटना चाहता हूं. मेरी मां सख्त बीमार है. उन की वजह से ही मैं यह शादी इतनी जल्दी करना चाहता हूं. मैं कल या ज्यादा से ज्यादा परसों आर्य समाज में आप से शादी करना चाहता हूं. एक बार यह शादी हो जाए तो मां को हमारे इस रिश्ते को ऐक्सेप्ट करना ही होगा.”

उमंग के इस प्रस्ताव से हतप्रभ बानी उमंग से बोली, “यह आप क्या कह रहे हैं उमंग? शादी, आप से, और वह भी कल या परसों?”

“हां, कल या परसों. मां बिस्तर पर हैं, लेकिन मुझे पूरा पूरा यकीन है कि आप को बहू के रूप में देख कर वह फिर से हिरण हो उठेंगी.”

“उमंग, आप ने तो मुझे दुविधा में डाल दिया. मेरा पास्ट जान कर भी क्या वे मुझे ऐक्सेप्ट कर लेंगी? नहीं, नहीं, मैं आप से शादी करने की सोच भी नहीं सकती.”

ये भी पढ़ें- मंथर हत्या: सुरेश और उसकी पत्नी ने कैसे दिया माता-पिता को धोखा

“चलिए, मैं आप की दुविधा आसान कर देता हूं. आप मुझे यह बताइए, क्या आप किसी भी वजह से मुझे नापसंद करती हैं?”

“नहींनहीं, उमंग, आप इतने अच्छे हैं, आप को नापसंद करने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता.”

“तो फिर दिक्कत क्या है?”

“मेरा पास्ट, आप से 2 साल बड़ी हूं, ऊपर से एक बच्चे की बिनब्याही मां भी.”

“तो क्या हुआ? आप दोनों की सगाई हो चुकी थी और आप दोनों शादी करने वाले थे. अब अगर आप के भावी पति की मौत हो गई तो इस में आप का क्या कुसूर?”

“नहींनहीं उमंग, अभी भावनाओं में बह कर आप मेरा हाथ थाम लेंगे, लेकिन वक्त के साथ जब हमारे अपने बच्चे होंगे तो शायद आप नन्हे को अपने बच्चे जैसा प्यार नहीं कर पाएंगे.”

“ओह बानी, इन फुजूल की आशंकाओं के चलते मेरा दिल मत तोड़िए.”

“उमंग, यह फुजूल की शंकाएं नहीं, वरन प्रैक्टिकल रियलिटी है जिस से आप मुंह मोड़ रहे हैं.”

“बानी, अब आप और नन्हे मेरी लाइफ़ का एक हिस्सा बन चुके हैं. मैं आप दोनों के बिना जीने की सोच तक नहीं सकता. चलिए, एक बात बताइए, क्या आप अब मेरे बिना जी सकती हैं? बताइए बानी, उधर मां का ब्लडप्रैशर खतरनाक तरीके से हाई हुआ पड़ा है. मुझे आप का निर्णय सुनना है. इतने वर्षों तक हम ने साथसाथ जिंदगी की हर परिस्थिति का मुकाबला साथ मिल कर किया है. क्या आप की जिंदगी में मेरी कोई अहमियत नहीं? बताइए बानी,” इस बार उमंग ने तनिक आवेश में आते हुए बानी के कंधों को झकझोरते हुए उस से पूछा.

“उमंग, मेरी जिंदगी में आप की बहुत अहमियत है. आप ने हर कदम पर मेरा बेशर्त साथ दिया है, लेकिन लोग तो यही कहेंगे न कि एक बिनब्याही मां ने अपने से छोटी उम्र के कुंआरे डाक्टर को फ़ांस लिया. दुनिया दस बातें बनाएगी.”

“अगर ऐसा है तो मुझ पर यकीन रखिए, मुझ से शादी के बाद कोई आप से कुछ भी उलटासीधा कहने की ज़ुर्रत न करेगा. चलिए तो बानी, हम कल ही आर्य समाज में शादी कर रहे हैं. ठीक है न,” उमंग ने बेहद अधीरता से बानी से कहा.

“मुझे थोड़ा वक्त चाहिए उमंग, मैं अपनी हां या न आप को मैसेज कर दूंगी.”

ये भी पढ़ें- दुश्मन: क्यों बदसूरत लगने लगा सोम को अपना चेहरा

‘ओ बानी, क्यों इतना सोच रही हैं? बिना बात के आप इतना परेशान हो रही हैं. आप को बस हां भर कहने की देर है. निश्चिंत रहिए. और सब बातें मैं संभाल लूंगा. मेरा यकीन करिए बानी, आप को कोई कुछ नहीं कहेगा.” यह कहते हुए उमंग ने बानी के दोनों हाथ थाम लिए और उस से बोले, “क्या आप को मुझ पर विश्वास नहीं है? मुझ पर भरोसा रखिए. मैं आप को बेहद चाहने लगा हूं. मैं किसी और के साथ जिंदगी गुज़ारने की सोच नहीं सकता. हां कह दीजिए बानी, प्लीज, आई बैग यू. आप ने हां नहीं की तो मैं मर जाऊंगा.” यह सुन बानी ने नम आंखों से उमंग के होठों पर अपना हाथ रख दिया.

उमंग ने बानी की हथेली हौले से चूम ली.

खुशियों के उजास से दोनों के चेहरे दमक उठे.

विद्रोह: भाग 3- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

अब वह आंखें बंद कर के सोचने लगी, ‘काश, मेरी बहू रीता जैसी होती, कितनी अच्छी है, कितना खयाल रखती है अपनी सासू मां का, जितनी बार भी इस की सास मुझ से मिली हैं, हमेशा अपनी बहू की तारीफों के पुल ही बांधती रही हैं, लेकिन मुझे दुष्ट बहू मिली. अरे बहू का क्या दोष है, नालायक तो अपना बेटा है. यदि बेटा ठीक होता तो बहू की क्या मजाल कि गलत काम करे?’

ज्योंज्यों कानपुर नजदीक आ रहा था, कुसुम घबरा रही थी कि भैयाभाभी पता नहीं क्या सोचेंगे. सोचें तो सोचें, उस के पास उस रास्ते के सिवा कोई रास्ता नहीं था. वह बोझ नहीं बनेगी भैयाभाभी पर, कुछ ही दिनों में अलग छोटा सा मकान ले कर रहेगी, एक नौकरानी रखेगी. एक विचार की लहर बारबार उठ रही थी कि घर छोड़ कर मैं ने गलत काम तो नहीं किया.

फिर दिमाग ने कहा, तो फिर क्या करती, हर रोज मार खाती. और वह मारता रहता जब तक जायदाद पूरी अपने नाम न लिखवा लेता. एक बार, दो बार, तीन बार…उस ने अपनी दोबारा बनाई वसीयत पढ़ी, जिस की एक प्रति उसे अपनी बेटी के पास भी भेजनी पड़ेगी, वकील के पास तो एक कौपी रख आई थी.

कुसुम अब सोचने लगी, ‘आज मैं ने जो कुछ भी किया वह पहले ही कर लेना चाहिए था. छि:छि:, मां बेटे से मार खाए, इस से अच्छा मर न जाए. मैं अकेली पड़ गई थी, वे दोनों पतिपत्नी एक हो गए थे. शुक्र है कि रीता जैसी पड़ोसिन मिल गई, जिस ने मेरी मृतप्राय जिंदगी को सांसें दे दीं. रीता न होती तो मैं वसीयत भी न बदल पाती और घर से भाग भी नहीं पाती.’

इन्हीं विचारों का तानाबाना बुनते हुए कानपुर आ गया. हड़बड़ाते हुए कुसुम ने अटैची और पर्स पकड़ा, फिर स्वरूपनगर के लिए रिकशा कर के चल दी.

कुसुम निश्चय कर के अपने भाई देवेंद्र के घर पहुंच गई. दरवाजे पर लगी कौल बैल बजाई. थोड़ी देर में एक भोलीभाली, सुंदर सी बालिका ने दरवाजा खोला.

ये भी पढ़ें- सैकंड चांस: क्या मिल पाया शिवानी को दूसरा मौका

‘‘आप कौन, किस से मिलना है?’’ मीठी आवाज में बच्ची ने पूछा.

‘‘बेटी, मैं लखनऊ से आई हूं. तुम्हारे पापाजी की बहन हूं. मेरा नाम कुसुम है.’’

‘‘अंदर आइए, दादीजी, अंदर आइए.’’

बच्ची के पीछेपीछे कुसुम अपना पर्स और अटैची संभालती हुई चल दी. बरामदे के साथ जुड़ा हुआ ही ड्राइंगरूम था. उस घर में कुसुम 5 वर्षों बाद आई थी. पिछली बार अपने पति के साथ कुसुम कार से आई थी. घरपरिवार वालों ने खूब इज्जत, मानसम्मान दिया था. भैयाभाभी ने तो आंखों पर ही बिठा लिया था.

कुसुम के भाई के घर का वातावरण उस समय भी शांत था और अब भी लगता है सुखमय और शांत है. कुसुम की विचारतंद्रा उस के भाई ने ही तोड़ी, ‘‘अरे कुसुम, तू इस समय अकेली कैसे? कु़छ फोन वगैरह तो कर देती?’’

‘‘वह भैया, बस आना पड़ा,’’ सूखा चेहरा, मरियल आवाज में दिए उत्तर से भाई सशंकित हो गया.

‘‘आना पड़ा, मैं समझा नहीं. खैर, चल पहले चाय पी ले, कुछ खा ले फिर बताना.’’

कुसुम की आवाज सुन कर बरामदे में ही सब्जी काटती हुई भाभी दौड़ कर आईं, पांव छुए फिर बैठ गईं. थोड़ी देर बाद चायनाश्ता भी आ गया.

‘‘दीदी, आप तो बहुत दुबली हो गई हैं. 5 साल में चेहरा ही बदल गया. क्या हो गया है आप को?’’ कुसुम के पास आ कर भाभी ने आलिंगन किया और आश्चर्यचकित नजरों से उस की ओर देखती रहीं.

ये भी पढ़ें- आखिर कब तक और क्यों: क्या हुआ था रिचा के साथ

कुसुम बारबार बांहों पर, गरदन पर पड़े जख्मों के निशान छिपा रही थी. लेकिन मेज पर रखी हुई चाय की प्याली उठाते समय गरदन से शाल हट गई और बांह का स्वेटर ऊपर को हो गया, देखते ही भैया दौड़ कर पास आए, घबरा कर पूछा, ‘‘यह सब क्या है, कुसुम? तुम्हारे शरीर पर ये जख्म कैसे हैं?’’

‘‘वह…वह भैया, रवि मारता था. पीटता था. एक बार तो उस ने इतनी जोर से मारा कि दांत तक टूट गया. बस, ये सब उसी के निशान हैं.’’

‘‘इतना सब होता रहा और तुम ने बताया तक नहीं. अरे हम कोई गैर हैं क्या? कभी फोन ही कर देतीं या कोई खत ही डाल देती. पता नहीं तुम ने कितने दुख झेले हैं जीजाजी की मृत्यु के बाद. छि:छि:, इतना कू्रर, बिगड़ा रवि बेटा हो जाएगा. सपने में भी नहीं सोचा था. खैर, कुसुम, तुम ने अच्छा किया जो आ गईं.’’

‘‘वह तो मुझे भूखा तक रखता था. बाहर दरवाजे पर ताला, टैलीफोन पर ताला, फ्रिज और सभी अलमारियों में ताला लगा रहता था. भैया, ऐसी दुर्दशा तो किसी कैदी की भी नहीं होगी जो उस ने मेरी की थी,’’ कहते ही कुसुम फूटफूट कर रोने लगी.

भैयाभाभी घबरा गए. आंसू पोंछे भाभी ने फिर कुसुम से वसीयत की योजना पूछी. थोड़ी देर बाद स्वयं पर काबू पा कर कुसुम ने अपनी नई वसीयत उन दोनों को दिखा दी. भैयाभाभी खुश हुए. बहन को भाई ने खूब प्यार कर के कहा, ‘‘बहन, घबराओ मत. जैसा तुम चाहती हो वैसे ही होगा. वैसे तो अलग रहने की जरूरत नहीं है, लेकिन अगर तुम चाहोगी तो स्वरूपनगर में ही तुम्हें अच्छा मकान मिल जाएगा. अभी तुम आराम करो, चिंता मत करो.’’

‘‘अच्छा भैया,’’ कह कर कुसुम सोफे पर ही लेट गई.

उधर, शाम को जब रवि औफिस से लौटा, पल्लवी ने रोनी सी सूरत ले कर दरवाजा खोला और वह वृक्ष से टूटी हुई डाली सी धम्म से सोफे पर बैठ गई. रवि ने उसे झकझोर कर पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है? सब ठीक तो है.’’

ये भी पढ़ें- रिश्ता कागज का: क्या था पारुल और प्रिया का रिश्ता

पल्लवी चीख पड़ी, ‘‘कुछ ठीक नहीं है, तुम्हारी मां धोखा दे कर भाग गईं और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘यह देखो, अपने पलंग पर यह चिट्ठी रख गई हैं. लिखा है : ‘मैं जा रही हूं. कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें जायदाद में से. मैं ने वसीयत बदल दी है. आधी जायदाद बेटी मोनिका और आधी विकलांगों की संस्था के नाम कर दी है. मैं कपूत बेटे से विद्रोह करती हूं. जिस बेटे को पालपोस कर बड़ा किया वह मां पर हाथ उठाता है, वह भी जायदाद के लिए. मेरा सबकुछ तेरा ही तो था. लेकिन तू ने मांबेटे के रिश्ते का कोई लिहाज नहीं किया. तुझ से रिश्ता तोड़ने का मुझे कोई गम नहीं.’’’

कागज का टुकड़ा पढ़ कर रवि पागलों की तरह चिल्लाने लगा. कभी इधर कभी उधर चक्कर लगाने लगा. उधर पत्नी पल्लवी क्रोध में बड़बड़ाने लगी, ‘मैं ने पहले ही कहा था कि मांजी को मत सताओ, मत मारोपीटो, प्यार से उन्हें अपने वश में करो लेकिन तुम ने मेरी एक न सुनी. अब भुगतो. यह घर भी खाली करना पड़ेगा.’

सफेद सियार: क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

Top 10 Best Raksha Bandhan Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट रक्षा बंधन कहानियां हिंदी में

Raksha Bandhan Stories in Hindi: इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आए हैं गृहशोभा की 10 Raksha Bandhan Stories in Hindi 2021. इन कहानियों में भाई-बहन के प्यार और रिश्तों से जुड़ी 10 दिलचस्प कहानियां हैं जो आपके दिल को छू लेगी और जिससे आपको रिश्तों का नया मतलब जानने को मिलेगा. इन Raksha Bandhan Stories से आप कई अहम बाते भी जान सकते हैं कि आखिर भाई-बहन के प्यार की जिंदगी में क्या अहमियत है और क्या होता है जब किसी की जिंदगी में ये प्यार नही होता. तो अगर आपको भी है संजीदा कहानियां पढ़ने का शौक तो यहां पढ़िए गृहशोभा की Raksha Bandhan Stories in Hindi.

1. समय चक्र- अकेलेपन की पीड़ा क्यों झेल रहे थे बिल्लू भैया?

samay

शिमला अब केवल 5 किलोमीटर दूर था…य-पि पहाड़ी घुमाव- दार रास्ते की चढ़ाई पर बस की गति बेहद धीमी हो गई थी…फिर भी मेरा मन कल्पनाओं की उड़ान भरता जाने कितना आगे उड़ा जा रहा था. कैसे लगते होंगे बिल्लू भैया? जो घर हमेशा रिश्तेदारों से भरा रहता था…उस में अब केवल 2 लोग रहते हैं…अब वह कितना सूना व वीरान लगता होगा, इस की कल्पना करना भी मेरे लिए बेहद पीड़ादायक था. अब लग रहा था कि क्यों यहां आई और जब घर को देखूंगी तो कैसे सह पाऊंगी? जैसे इतने वर्ष कटे, कुछ और कट जाते.

कभी सोचा भी न था कि ‘अपने घर’ और ‘अपनों’ से इतने वर्षों बाद मिलना होगा. ऐसा नहीं था कि घर की याद नहीं आती थी, कैसे न आती? बचपन की यादों से अपना दामन कौन छुड़ा पाया है? परंतु परिस्थितियां ही तो हैं, जो ऐसा करने पर मजबूर करती हैं कि हम उस बेहतरीन समय को भुलाने में ही सुकून महसूस करते हैं. अगर बिल्लू भैया का पत्र न आया होता तो मैं शायद ही कभी शिमला आने के लिए अपने कदम बढ़ाती.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

2. चमत्कार- क्या बड़ा भाई रतन करवा पाया मोहिनी की शादी?

chamat

‘‘मोहिनी दीदी पधार रही हैं,’’ रतन, जो दूसरी मंजिल की बालकनी में मोहिनी के लिए पलकपांवडे़ बिछाए बैठा था, एकाएक नाटकीय स्वर में चीखा और एकसाथ 3-3 सीढि़यां कूदता हुआ सीधा सड़क पर आ गया.

उस के ऐलान के साथ ही सुबह से इंतजार कर रहे घर और आसपड़ोस के लोग रमन के यहां जमा होने लगे.

‘‘एक बार अपनी आंखों से बिटिया को देख लें तो चैन आ जाए,’’ श्यामा दादी ने सिर का पल्ला संवारा और इधरउधर देखते हुए अपनी बहू सपना को पुकारा.

‘‘क्या है, अम्मां?’’ मोहिनी की मां सपना लपक कर आई थीं.

‘‘होना क्या है आंटी, दादी को सिर के पल्ले की चिंता है. क्या मजाल जो अपने स्थान से जरा सा भी खिसक जाए,’’ आपस में बतियाती खिलखिलाती मोहिनी की सहेलियों, ऋचा और रीमा ने व्यंग्य किया था.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

3. भैया- 4 बहनों को मिला जब 1 भाई

bhaiya

कीर्ति ने निशा का चेहरा उतरा हुआ देखा और समझ गई कि अब फिर निशा कुछ दिनों तक यों ही गुमसुम रहने वाली है. ऐसा अकसर होता है. कीर्ति और निशा दोनों का मैडिकल कालेज में दाखिला एक ही दिन हुआ था और संयोग से होस्टल में भी दोनों को एक ही कमरा मिला. धीरेधीरे दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो गई.

कीर्ति बरेली से आई थी और निशा गोरखपुर से. कीर्ति के पिता बैंक में अधिकारी थे और निशा के पिता महाविद्यालय में प्राचार्य.

गंभीर स्वभाव की कीर्ति को निशा का हंसमुख और सब की मदद करने वाला स्वभाव बहुत अच्छा लगा था. लेकिन कीर्ति को निशा की एक ही बात समझ में नहीं आती थी कि कभीकभी वह एकदम ही उदास हो जाती और 2-3 दिन तक किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

4. तोबा मेरी तोबा- अंजली के भाई के साथ क्या हुआ?

tauba

मेरे सिगरेट छोड़ देने से सभी हैरान थे. जिस पर डांटफटकार और समझानेबुझाने का भी कोई असर नहीं हुआ वह अचानक कैसे सुधर गया? जब मेरे दोस्त इस की वजह पूछते तो मैं बड़ी भोली सूरत बना कर कहता, ‘‘सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है, इसलिए छोड़ दी. तुम लोग भी मेरी बात मानो और बाज आओ इस गंदी आदत से.’’

मुझे पता है, मेरे फ्रैंड्स  मुझ पर हंसते होंगे और यही कहते होंगे, ‘नौ सौ चूहे खा कर बिल्ली हज को चली. बड़ा आया हमें उपदेश देने वाला.’ मेरे मम्मीडैडी मेरे इस फैसले से बहुत खुश थे लेकिन आपस में वे भी यही कहते होंगे कि इस गधे को यह अक्ल पहले क्यों नहीं आई? अब मैं उन से क्या कहूं? यह अक्ल मुझे जिंदगी भर न आती अगर उस रोज मेरे साथ वह हादसा न हुआ होता.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

5. रेतीला सच- शिखा की बिदाई के बाद क्या था अनंत का हाल

ret

‘तुम्हें वह पसंद तो है न?’’ मैं  ने पूछा तो मेरे भाई अनंत  के चेहरे पर लजीली सी मुसकान तैर गई. मैं ने देखा उस की आंखों में सपने उमड़ रहे थे. कौन कहता है कि सपने उम्र के मुहताज होते हैं. दिनरात सतरंगी बादलों पर पैर रख कर तैरते किसी किशोर की आंखों की सी उस की आंखें कहीं किसी और ही दुनिया की सैर कर रही थीं. मैं ने सुकून महसूस किया, क्योंकि शिखा के जाने के बाद पहली बार अनंत को इस तरह मुसकराते हुए देख रही थी.

शिखा अनंत की पत्नी थी. दोनों की प्यारी सी गृहस्थी आराम से चल रही थी कि एक दर्दनाक एहसास दे कर यह साथ छूट गया. शिखा 5 साल पहले अनंत पर उदासी का ऐसा साया छोड़ गई कि उस के बाद से अनंत मानो मुसकराना ही भूल गया.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

6. मेरे भैया- अंतिम खत में क्या लिखा था खास

mere

सावनका महीना था. दोपहर के 3 बजे थे. रिमझिम शुरू होने से मौसम सुहावना पर बाजार सुनसान हो गया था. साइबर कैफे में काम करने वाले तीनों युवक चाय की चुसकियां लेते हुए इधरउधर की बातों में वक्त गुजार रहे थे. अंदर 1-2 कैबिनों में बच्चे वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे. 1-2 किशोर दोपहर की वीरानगी का लाभ उठा कर मनपसंद साइट खोल कर बैठे थे.  तभी वहां एक महिला ने प्रवेश किया. युवक महिला को देख कर चौंके, क्योंकि शायद बहुत दिनों बाद एक महिला और वह भी दोपहर के समय, उन के कैफे पर आई थी. वे व्यस्त होने का नाटक करने लगे और तितरबितर हो गए.

महिला किसी संभ्रांत घराने की लग रही थी. चालढाल व वेशभूषा से पढ़ीलिखी भी दिख रही थी. छाता एक तरफ रख कर उस ने अपने बालों को जो वर्षा की बूंदों व तेज हवा से बिखर गए थे, कुछ ठीक किए. फिर काउंटर पर बैठे लड़के से बोली, ‘‘मुझे एक संदेश टाइप करवाना है. मैं खुद कर लेती पर हिंदी टाइपिंग नहीं आती है.’’

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

7. तृप्त मन- राजन ने कैसे बचाया बहन का घर

tript

पिछले दिनों से थकेहारे घर के सभी सदस्य जैसे घोड़े बेच कर सो रहे थे. राशी की शादी में डौली ने भी खूब इंज्वाय किया लेकिन राजन की पत्नी बन कर नहीं बल्कि उस की मित्र बन कर.

अमेरिका में स्थायी रूप से रह रहे राजन के ताऊ धर्म प्रकाश को जब खबर मिली कि उन के भतीजे राजन ने आई.टी. परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है तो उन्होंने फौरन फोन से अपने छोटे भाई चंद्र प्रकाश को कहा कि वह राजन को अमेरिका भेज दे…यहां प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण के बाद नौकरी का बहुत अच्छा स्कोप है.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

8. राखी का उपहार

rakhi-ka

इस समय रात के 12 बज रहे हैं. सारा घर सो रहा है पर मेरी आंखों से नींद गायब है. जब मुझे नींद नहीं आई, तब मैं उठ कर बाहर आ गया. अंदर की उमस से बाहर चलती बयार बेहतर लगी, तो मैं बरामदे में रखी आरामकुरसी पर बैठ गया. वहां जब मैं ने आंखें मूंद लीं तो मेरे मन के घोड़े बेलगाम दौड़ने लगे. सच ही तो कह रही थी नेहा, आखिर मुझे अपनी व्यस्त जिंदगी में इतनी फुरसत ही कहां है कि मैं अपनी पत्नी स्वाति की तरफ देख सकूं.

‘‘भैया, मशीन बन कर रह गए हैं आप. घर को भी आप ने एक कारखाने में तबदील कर दिया है,’’ आज सुबह चाय देते वक्त मेरी बहन नेहा मुझ से उलझ पड़ी थी. ‘‘तू इन बेकार की बातों में मत उलझ. अमेरिका से 5 साल बाद लौटी है तू. घूम, मौजमस्ती कर. और सुन, मेरी गाड़ी ले जा. और हां, रक्षाबंधन पर जो भी तुझे चाहिए, प्लीज वह भी खरीद लेना और मुझ से पैसे ले लेना.’’

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

9. स्लीपिंग पार्टनर- मनु की नजरों में अनुपम भैया

sleeping

मनु को एक दिन पत्र मिलता है जिसे देख कर वह चौंक जाती है कि उस की भाभी यानी अनुपम भैया की पत्नी नहीं रहीं. वह भैया, जो उसे बचपन में ‘डोर कीपर’ कह कर चिढ़ाया करते थे.

पत्र पढ़ते ही मनु अतीत के गलियारे में भटकती हुई पुराने घर में जा पहुंचती है, जहां उस का बचपन बीता था, लेकिन पति दिवाकर की आवाज सुन कर वह वर्तमान में लौट आती है. वह अनुपम भैया के पत्र के बारे में दिवाकर को बताती है और फिर अतीत में खो जाती है कि उस की मौसी अपनी बेटी की शादी के लिए कुछ दिन सपरिवार रहने आ रही हैं. और सारा इंतजाम उन्हें करने को कहती हैं.

आखिर वह दिन भी आ जाता है जब मौसी आ जाती हैं. घर में आते ही वह पूरे घर का निरीक्षण करना शुरू कर देती हैं और पूरे घर की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले लेती हैं. पूरे घर में उन का हुक्म चलता है.

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

10. मत बरसो इंदर राजाजी

mat

भाई की चिट्ठी हाथ में लिए ऋतु उधेड़बुन में खड़ी थी. बड़ी  प्यारी सी चिट्ठी थी और आग्रह भी इतना मधुर, ‘इस बार रक्षाबंधन इकट्ठे हो कर मनाएंगे, तुम अवश्य पहुंच जाना…’

उस की शादी के 20 वर्षों  आज तक उस के 3 भाइयों में से किसी ने भी कभी उस से ऐसा आग्रह नहीं किया था और वह तरसतरस कर रह गई थी.  उस की ससुराल में लड़कियों के यहां आनाजाना, तीजत्योहारों का लेनादेना अभी तक कायम था. वह भी अपनी इकलौती ननद को बुलाया करती थी. उस की ननद तो थी ही इतनी प्यारी और उस की सास कितनी स्नेहशील.  जब भी ऋतु ने मायके में अपनी ससुराल की तारीफ की तो उस की मंझली भाभी उषा, जो मानसिक रूप से अस्वस्थ रहती थीं, कहने लगीं, ‘‘जीजी, ससुराल में आप की इसलिए निभ गई क्योंकि आप की सासननद अच्छी हैं, हमारी तो सासननदें बहुत ही तेज हैं.’’

पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें…

क्यों, आखिर क्यों : मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

किसको कहे कोई अपना

Family Story In Hindi

कंजूस: भाग 3- आखिर क्या था विमल का दर्दभरा सच

लेखक- अनूप श्रीवास्तव

‘‘जीतोड़ मेहनत से काम करने से धीरेधीरे पैसे इकट्ठे होते गए और मेरा काम बढ़ता गया. फिर मैं ने अपनी एक दुकान खोली, जिस में डेयरी का दूध, ब्रैड और इस तरह के बस एकदो ही सामान रखना शुरू किया. जब कोई पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करता है तो वक्त भी उस की सहायता करता है. मेरा उसूल रहा है कि न तो किसी की बेईमानी करो, न किसी का बुरा करो और मेहनत से कभी पीछे मत हटो. मेरी लगन और मेहनत का परिणाम यह है कि आज वही दुकान एक जनरल स्टोर बन चुकी है और उसी की बदौलत यह मकान खरीद सका हूं. श्रद्धा तो थोड़ाबहुत जानती है पर बच्चे कुछ नहीं जानते क्योंकि वे तो शुरू से ही यह मकान और मेरा जनरल स्टोर देख रहे हैं. वे शायद समझते हैं कि उन के पिता पैदायशी अमीर रहे हैं, जिन को पारिवारिक व्यवसाय विरासत में मिला है. उन को क्या पता कि मैं कितना संघर्ष कर इस मुकाम पर पहुंचा हूं.’’

विमल की बातें सुन कर बच्चे तो जैसे हैरान रह गए. वास्तव में वे यही सोचते थे कि  उन के पिता का जनरल स्टोर उन को विरासत में मिला होगा. उन को न तो यह पता था न ही वे कल्पना कर सकते थे कि उन के पिता ने अपने बचपन में कितने उतारचढ़ाव देखे हैं, कैसे गरीबी का जीवन भी जिया है और कैसी विषम परिस्थितियों में किस तरह संघर्ष करते हुए यहां तक पहुंचे हैं. पुरानी स्मृतियों का झंझावात गुजर गया था पर जैसे तूफान गुजर जाने के बाद धूलमिट्टी, टूटी डालियां व पत्ते बिखरे होने से स्थितियां सामान्य नहीं लगतीं, कुछ इसी तरह अब माहौल एकदम गंभीर व करुण सा हो गया था. बात बदलते हुए श्रद्धा बोली, ‘‘अच्छा चलिए, वे दुखभरे दिन बीत गए हैं और आप की मेहनत की बदौलत अब तो हमारे अच्छे दिन हैं. आज हमें किसी बात की कमी नहीं है. आप सही माने में सैल्फमेडमैन हैं.’’ ‘‘श्रद्धा, इसीलिए मेरी यही कोशिश रहती है कि न तो हमारे बच्चों को किसी बात की कमी रहे, न ही वे किसी बात में हीनता का अनुभव करें. यही सोच कर तो मैं मेहनत, लगन और ईमानदारी से अपना कारोबार करता हूं. बच्चो, तुम लोग कभी किसी बात की चिंता न करना. तुम्हारी पढ़ाई में कोई कमी नहीं रहेगी. जिस का जो सपना है वह उसे पूरा करे. मैं उस के लिए कुछ भी करने से पीछे नहीं रहूंगा.’’

ये भी पढ़ें- मुहब्बत पर फतवा : नुसरत बानो ने क्यों नहीं पाला दूसरे निकाह का ख्वाब

‘‘यह बात हुई न. अब तो कल का प्रोग्राम पक्का रहा. चलो बच्चो, अब कल की तैयारी करो,’’ बूआ के इतना कहते ही सारे बच्चे चहकने लगे मगर जाने क्यों विमल का 15 वर्षीय बड़ा बेटा रजत अभी भी गंभीर ही था.‘‘क्या हुआ रजत, अब क्यों चिंतित हो?’’ बूआ ने पूछा ही था कि रजत उसी गंभीर मुद्रा में कहने लगा, ‘‘बूआ, अब पुराना समय बीत गया जब पापा को पैसों की तंगी रहती थी. अब हमारे पास पैसे या किसी चीज की कमी नहीं है बल्कि हम अमीर ही हो गए हैं. तो फिर पापा क्यों ऐसे रहते हैं. अब तो वे अपनी वे इच्छाएं भी पूरी कर सकते हैं जो वे गरीबी के कारण पूरी नहीं कर सके होंगे.’’रजत के प्रश्न से विमल चौंक गया, फिर कुछ सोच कर कहने लगा, ‘‘बेटा, मुझे खुशी है कि तुम ने यह प्रश्न पूछा. वास्तव में हमारी आज की जीवनशैली, आदतें या खर्च करने का तरीका इस बात पर निर्भर नहीं होता कि हमारी आज की आर्थिक स्थिति कैसी है बल्कि हमारे जीने के तरीके तय करने में हमारा बचपन भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अपने बचपन में मैं ने जैसा जीवन जिया है, उस प्रकार का जीवन जीने वालों के मन में कटु माहौल सा बन जाता है, जिस से वे चाह कर भी बाहर नहीं आ सकते. जो आर्थिक संकट वे भुगत चुके होते हैं, पैसे के अभावों की जो पीड़ा उन का मासूम बचपन झेल चुका होता है, उस के कारण वे अमीर हो जाने पर भी फुजूलखर्ची नहीं कर सकते.

‘‘आर्थिक असुरक्षा के भय, अपमानजनक परिस्थितियों की यादों के कष्टप्रद दंश, एकएक पैसे का महत्त्व या पैसों की तंगी की वजह से अभावों में गुजरे समय की जो पीड़ा  अंतर्मन में कहीं गहरे बैठ जाती है उस से चाह कर भी उबरना बहुत कठिन होता है. हकीकत तो यह है कि हमारा आज कितना भी बेहतर हो जाए या मैं कितना भी अमीर क्यों न हो जाऊं लेकिन मैं जिस तरह का बचपन और संघर्षमय अतीत जी चुका हूं वह मुझे इस तरह से खर्च नहीं करने देगा. लेकिन क्या तुम जानते हो कि वास्तव में कंजूस तो वह होता है जो जरूरी आवश्यकताओं पर खर्च नहीं करता है. ‘‘तुम लोगों को पता होगा कि घर में दूध, मौसम के फलसब्जियों या मेवों की कमी नहीं रहती. हां, मैं तुम लोगों को फास्ट फूड या कोल्ड डिं्रक्स के लिए जरूर मना करता हूं क्योंकि आज भले ही ये सब फैशन बन गया है पर ऐसी चीजें सेहत के लिए अच्छी नहीं होतीं. इस के अलावा तुम लोगों की वे सारी जरूरतें, जो आवश्यक हैं, उन को पूरा करने से न तो कभी हिचकता हूं न ही कभी पीछे हटूंगा. तुम्हारे लिए लैपटौप भी मैं ने सब से अच्छा खरीदा है. तुम लोगों के कपड़े हमेशा अच्छे से अच्छे ही खरीदता हूं. इसी तरह तुम लोगों की जरूरी चीजें हमेशा अच्छी क्वालिटी की ही लाता हूं. मैं अपने अनुभव के आधार पर एक बात कहता हूं जिसे हमेशा याद रखो कि जो इंसान अपनी आमदनी के अनुसार खर्च करता और बचत करता है, अपने आने वाले कल के लिए सोच कर चलता है, वह कभी परेशान नहीं होता. अच्छा, अब रात बहुत हो गई है और सब को कल घूमना भी है, इसलिए चलो, अब सोने की तैयारी की जाए.’’

ये भी पढ़ें- सलवार सूट: क्या हुआ था चंद्रा के साथ

कंजूस: भाग 2- आखिर क्या था विमल का दर्दभरा सच

लेखक- अनूप श्रीवास्तव

‘‘वैसे रज्जो, अगर देखा जाए तो इस में बच्चों का उतना दोष भी नहीं है. दरअसल, मैं ही आजकल की जिंदगी नहीं जी पाता हूं. न तो आएदिन बाहर खाना, घूमनाफिरना, न ही रोजरोज शौपिंग करना, नएनए मौडल के टीवी, मोबाइल बदलना, अकसर नए कपड़े खरीदते रहना. ऐसा नहीं है कि मैं इन बातों के एकदम खिलाफ हूं या यह बात एकदम गलत है पर क्या करूं, मेरी ऐसी आदत बन गई है. मगर इस का भी एक कारण है और आज मैं तुम सब को अपने स्वभाव का कारण भी बताता हूं,’’ इतना कह कर विमल गंभीर हो गए तो सब ध्यान से सुनने लगे.

विमल बोले, ‘‘रज्जो, तुझे अपना बचपन तो याद होगा?’’

‘‘हांहां, अच्छी तरह से याद है, भैया.’’

‘‘लेकिन रज्जो, तुझे अपने घर के अंदरूनी हालात उतने अधिक पता नहीं होंगे क्योंकि तू उस समय छोटी ही थी,’’ इतना कह कर विमल अपने बचपन की कहानी सुनाने लगे : उन के पिता लाला दीनदयाल की गिनती खातेपीते व्यापारियों में होती थी. उन के पास पुरखों का दोमंजिला मकान था और बड़े बाजार में गेहूंचावल का थोक का व्यापार था. विमल ने अपने बचपन में संपन्नता का ही समय देखा था. घर में अनाज के भंडार भरे रहते थे, सारे त्योहार कई दिनों तक पूरी धूमधाम से परंपरा के अनुसार मनाए जाते थे. होली हो या दशहरा, दिल खोल कर चंदा देने की परंपरा उस के पूर्वजों के समय से चली आ रही थी. विमल जब कभी अपने दोस्तों के साथ रामलीला देखने जाता तो उन लोगों को सब से आगे की कुरसियों पर बैठाया जाता. इन सब बातों से विमल की खुशी देखने लायक होती थी. विमल उस समय 7वीं कक्षा में था पर उसे अच्छी तरह से याद है कि पूरी कक्षा में वे 2-3 ही छात्र थे जो धनी परिवारों के थे क्योंकि उन के बस्ते, पैन आदि एकदम अलग से होते थे. उन के घर में उस समय के हिसाब से ऐशोआराम की सारी वस्तुएं उपलब्ध रहती थीं. उस महल्ले में सब से पहले टैलीविजन विमल के ही घर में आया था और जब रविवार को फिल्म या बुधवार को चित्रहार देखने आने वालों से बाहर का बड़ा कमरा भर जाता था तो विमल को बहुत अच्छा लगता था. उस समय टैलीफोन दुर्लभ होते थे पर उस के घर में टैलीफोन भी था. आकस्मिकता होने पर आसपड़ोस के लोगों के फोन आ जाते थे. इन सारी बातों से विमल को कहीं न कहीं विशिष्टता का एहसास तो होेता ही था. उसे यह भी लगता था कि उस का परिवार समाज का एक प्रतिष्ठित परिवार है.

ये भी पढ़ें- सफेद सियार: क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

पिछले कुछ समय से जाने कैसे दीनदयाल को सट्टे, फिर लौटरी व जुए की लत पड़ गई थी. उन का अच्छाखासा समय इन सब गतिविधियों में जाने लगा. जुए या ऐसी लत की यह खासीयत होती है कि जीतने वाला और अधिक जीतने के लालच में खेलता है तो हारने वाला अपने गंवाए हुए धन को वापस पा लेने की आशा में खेलता है. दलदल की भांति जो इस में एक बार फंस जाता है, उस के पैर अंदर ही धंसते जाते हैं और निकलना एकदम कठिन हो जाता है. पहले तो कुछ समय तक दीनदयाल जीतते रहे मगर होनी को कौन टाल सकता है. एक बार जो हारने का सिलसिला शुरू हुआ तो धीरेधीरे वे अपनी धनदौलत हारते गए और इन्हीं सब  चिंता व समस्याओं से व्यवसाय पर पूरा ध्यान भी नहीं दे पाते थे. उन की सेहत भी गिर रही थी, साथ ही व्यापार में और भी नुकसान होने लगा. विमल को वे दिन अच्छी तरह से याद हैं जब वह कारण तो नहीं समझ पाया था पर उस के माता और पिता इस तरह पहली बार झगड़े थे. उस ने मां को जहां अपने स्वभाव के विपरीत पिता से ऊंची आवाज में बात करते सुना था वहीं पिता को पहली बार मां पर हाथ उठाते देखा था. उस दिन जाने क्यों पहली बार विमल को अपने पिता से नफरत का एहसास हुआ था. फिर एक दिन ऐसा आया कि उधार चुकता न कर पाने के कारण उन का पुश्तैनी मकान, जो पहले से ही गिरवी रखा जा चुका था, के नीलाम होने की नौबत आ गई. इस के बाद दीनदयाल अपने परिवार को ले कर वहां से दूर एक दूसरे महल्ले में किराए के एक छोटे से मकान में रहने को विवश हो गए. हाथ आई थोड़ीबहुत पूंजी से वे कुछ धंधा करने की सेचते पर उस के पहले ही उन का दिल इस आघात को सहन नहीं कर सका और वे परिवार को बेसहारा छोड़ कर चल बसे.

यह घटना सुनते हुए रजनी की आंखें नम हो आईं और उस का गला रुंध गया. कटु स्मृतियों के दंश बेसाख्ता याद आने से पुराने दर्द फिर उभर आए. कुछ पल ठहर कर उस ने अपनेआप को संयत किया फिर कहने लगी, ‘‘मुझे आज भी याद है कि भैया के ऊपर बचपन से ही कितनी जिम्मेदारियां आ गई थीं. हम लोगों के लिए फिर से अपना काम शुरू करना कितना कठिन था. वह तो जाने कैसे भैया ने कुछ सामान उधार ले कर बेचना शुरू किया था और अपनी मेहनत से ही सारी जिम्मेदारियां पूरी की थीं.’’ ‘‘रज्जो सच कह रही है. इसी शहर में मेरे एक मित्र के पिता का थोक का कारोबार था. हालांकि वह मित्र मेरी आर्थिक रूप से मदद तो नहीं कर सका मगर उस ने मुझे जो हौसला दिया, वह कम नहीं था. मैं ने कैसेकैसे मिन्नतें कर के सामान उधार लेना शुरू किया था और उसे किसी तरह बेच कर उधार चुकाता था. वह सब याद आता है तो हैरान रह जाता हूं कि कैसे मैं यह सब कर पाया था. जैसेतैसे जब कुछ पैसे आने शुरू हुए तो मैं ने अम्मा, दीदी और रज्जो के साथ दूसरे मकान में रहना शुरू किया. हमारे साथ जो कुछ घटित हुआ, इस तरह की खबरें बहुत तेजी से फैलती हैं और जानते हो इस का सब से बड़ा नुकसान क्या होता है? आर्थिक नुकसान तो कुछ भी नहीं है क्योंकि पैसों का क्या है, आज नहीं तो कल आ सकते हैं पर पारिवारिक प्रतिष्ठा को जो चोट पहुंचती है और पुरखों की इज्जत जिस तरह मिटती है उस की भरपाई कभी नहीं हो सकती. मैं अपना बचपन अपने बाकी साथियों की तरह सही तरीके से नहीं जी पाया और उस की भरपाई आज क्या, कभी नहीं हो सकती.

ये भी पढ़ें- चार सुनहरे दिन: प्रदीप को पाने के लिए किस हद तक गुजरी रेखा

‘‘लेकिन यह मत समझो कि इस की वजह केवल पैसों का अभाव रहा है. अपना सम्मान खोने के बाद भी सिर उठा कर जीना आसान नहीं होता. मुझे अच्छी तरह से याद है कि इन सब घटनाओं से मैं कितनी शर्मिंदगी महसूस करता था और अपने दोस्तों का सामना करने से बचता था. तू तो छोटी थी पर मां तो जैसे काफी दिन गुमसुम सी रही थीं और मेरी खुशमिजाज व टौपर दीदी भी इन सब घटनाओं से जाने कितने दिन डिप्रैशन में रही थीं. इन सारी घटनाओं की चोट मेरे अंतर्मन में आज भी ताजा है और मैं अकेले में उस पीड़ा को आज भी ऐसे महसूस करता हूं जैसे कल की घटना हो. अब मुझे पता चला कि एक आदमी की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का खमियाजा उस के परिवार के जाने कितने लोगों को और कितने समय तक भुगतना पड़ सकता है. आज भी अगर कोई पुराना परिचित मिल जाता है तो भले ही वह हमारा अतीत भूल चुका हो परंतु मैं उस को देख कर भीतर ही भीतर शर्मिंदा सा महसूस करता हूं. मुझे ऐसा लगता है कि मेरे सामने वह व्यक्ति नहीं कोई आईना आ गया है, जिस में मेरा अतीत मुझे दिख रहा है.

आगे पढ़ें- विमल की बातें सुन कर बच्चे…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें