Family Story In Hindi: उनका बेटा- भाग 3- क्यों हैरान थे जयंत और मृदुला

जयंत और मृदुला को नहीं लगता था कि प्रमांशु कभी अपनी लतों से छुटकारा पा सकेगा. परंतु नहीं, प्रमांशु ने अपनी सारी लतों से एक दिन छुटकारा पा लिया. उस ने जिस तरह से अपनी आदतों से छुटकारा पाया था, इस की जयंत और मृदुला को न तो उम्मीद थी न उन्होंने ऐसा सोचा था. एक दिन प्रमांशु के किसी मित्र ने जयंत को फोन कर के बताया कि प्रमांशु कहीं चला गया है और उस का पता नहीं चल रहा है. जयंत तुरंत उस मित्र से मिले. पूछने पर उस ने बताया कि इन दिनों वह अपने पुराने दोस्तों को छोड़ कर कुछ नए दोस्तों के साथ रहने लगा था. इसी बात पर उन लोगों के बीच झगड़ा और मारपीट हुई थी. उस के बाद प्रमांशु कहीं गायब हो गया था. उस मित्र से नामपता ले कर जयंत उस के नएपुराने सभी दोस्तों से मिले, खुल कर उन से बात की, परंतु कुछ पता नहीं चला. जयंत ने अनुभव किया कि कहीं न कहीं, कुछ बड़ी गड़बड़ है और हो सकता है, प्रमांशु के साथ कोई दुर्घटना हो गई हो.

दुर्घटना के मद्देनजर जयंत ने पुलिस थाने में प्रमांशु की गुमशुदगी की रपट दर्ज करा दी. जवान लड़के की गुमशुदगी का मामला था. पुलिस ने बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया. परंतु जब जयंत ने प्रमांशु की हत्या की आशंका व्यक्त की और पुलिस के उच्च अधिकारियों से बात की तो पुलिस ने मामले को गंभीरता से लिया और प्रमांशु के दोस्तों से गहरी पूछताछ की. जयंत लगभग रोज पुलिस अधिकारियों से बात कर के तफ्तीश की जानकारी लेते रहते थे, स्वयं शाम को थाने जा कर थाना प्रभारी से मिल कर पता करते. थानेदार ने उन से कहा भी कि उन्हें रोजरोज थाने आने की जरूरत नहीं थी. कुछ पता चलनेपर वह स्वयं उन को फोन कर के या बुला कर बता देगा, परंतु जयंत एक पिता थे, उन का दिल न मानता.

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और आज पुलिस ने संभावना व्यक्त की थी कि प्रमांशु की हत्या हो चुकी थी. उस के दोस्तों की निशानदेही पर पुलिस ने कुछ हड्डियां भी बरामद की थीं. चूंकि प्रमांशु की देह नहीं मिली थी, उस की पहचान सिद्ध करने के लिए डीएनए टैस्ट जरूरी था. जयंत और मृदुला का खून लेने के लिए पुलिस ने कल उन्हें थाने बुलाया था. वहां से अस्पताल जाएंगे. रात में फिर मृदुला ने शंका व्यक्त की, ‘‘पता नहीं, पुलिस किस की हड्डियां उठा कर लाई है और अब उन्हें प्रमांशु की बता कर उस की मौत साबित करना चाहती है. मुझे लगता है, हमारा बेटा अभी जिंदा है.’’

‘‘हो सकता है, जिंदा हो. और पूरी तरह स्वस्थ हो. फिर भी मैं चाहता हूं, एक बार पता तो चले कि हमारे बेटे के साथ क्या हुआ है. वह जिंदा है या नहीं, कुछ तो पता चले.’’

‘‘परंतु जंगल से किसी भी व्यक्ति की हड्डियां उठा कर पुलिस कैसे यह साबित कर सकती है कि वे हमारे बेटे की ही हड्डियां हैं?’’

‘‘इसीलिए तो वह डीएनए परीक्षण करवा रही है,’’ जयंत ने मृदुला को आश्वस्त करते हुए कहा.

दूसरे दिन वे दोनों ब्लड सैंपल दे आए. एक महीने के बाद जयंत के पास थानेदार का फोन आया, ‘‘डीएनए परीक्षण की रिपोर्ट आ गई है. आप थाने पर आ कर मिल लें.’’

‘‘क्या पता चला?’’ उन्होंने जिज्ञासा से पूछा.

‘‘आप आ कर मिल लें, तो अच्छा रहेगा,’’ थानेदार ने गंभीर स्वर में कहा. जयंत औफिस में थे. मन में शंका पैदा हुई, थानेदार ने स्पष्ट रूप से क्यों नहीं बताया? उन्होंने मृदुला को फोन कर के बताया कि डीएनए की रिपोर्ट आ गई है. वे घर आ रहे हैं, दोनों साथसाथ थाने चलेंगे. घर से मृदुला को ले कर जंयत थाने पहुंचे. थानेदार ने उन का स्वागत किया. मृदुला कुछ घबराई हुई थी, परंतु जयंत ने स्वयं को तटस्थ बना रखा था. किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए वे तैयार थे.

थानेदार ने जयंत से कहा, ‘‘आप मेरे साथ आइए,’’ फिर मृदुला से कहा, ‘‘आप यहीं बैठिए.’’ जयंत को एक अलग कमरे में ले जा कर थानेदार ने जयंत से कहा, ‘‘सर, बात बहुत गंभीर है, इसलिए केवल आप से बता रहा हूं. हो सकता है सुन कर आप को सदमा लगे, परंतु सचाई से आप को अवगत कराना भी मेरा फर्ज है. डीएनए परीक्षण के मुताबिक जिस व्यक्ति की हड्डियां हम ने बरामद की थीं, वे प्रमांशु की ही हैं.’’

जयंत को यही आशंका थी. उन्होंने अपने हृदय पर पत्थर रख कर पूछा, ‘‘परंतु उस की हत्या कैसे और क्यों हुई?’’

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‘‘उस के जिन दोस्तों को हम ने पकड़ा था, उन से पूछताछ में यही पता चला था कि प्रमांशु ने अपने कुछ पुराने दोस्तों से संबंध तोड़ कर नए दोस्त बना लिए थे. पुराने दोस्तों को यह बरदाश्त नहीं हुआ. उन्होंने उस से संबंध जारी रखने के लिए कहा, तो प्रमांशु ने मना कर दिया. यही उस की हत्या का कारण बना.’’

‘‘क्या हत्यारे पकड़े गए?’’

‘‘हां, वे जेल में हैं. अगले हफ्ते हम अदालत में आरोपपत्र दाखिल कर देंगे.’’ जयंत ने गहरी सांस ली.

‘‘सर, एक और बात है, जो हम आप से छिपाना नहीं चाहते क्योंकि अदालत में जिरह के दौरान आप को पता चल ही जानी है.’’

‘क्या बात है’ के भाव से जयंत ने थानेदार के चेहरे को देखा.

‘‘सर, प्रमांशु आप की पत्नी का बेटा तो है, परंतु वह आप का बेटा नहीं है,’’ थानेदार ने जैसे धमाका किया. जयंत की आंखें फटी की फटी रह गईं और मुंह खुला का खुला रहा गया. उन्हें चक्कर सा आया. कुरसी पर न बैठे होते तो शायद गिर जाते. जयंत कई पल तक चुपचाप बैठे रहे. थानेदार भी नहीं बोला, वह जयंत के दिल की हालत समझ सकता था. कुछ पल बाद जयंत ने शांत स्वर में कहा, ‘‘थानेदार साहब, जो होना था, हो गया. अब प्रमांशु कभी वापस नहीं आ सकता, परंतु जिस झूठ को अनजाने में हम सचाई मान कर इतने दिनों से जी रहे थे, वह झूठ सचाई ही बना रहे तो अच्छा है. यह हमारे दांपत्य जीवन के लिए अच्छा होगा.’’

‘‘क्या मतलब, सर?’’ थानेदार की समझ में कुछ नहीं आया.

‘‘आप मेरी पत्नी को यह बात मत बताइएगा कि मुझे पता चल गया है कि मैं प्रमांशु का पिता नहीं हूं.’’

थानेदार सोच में पड़ गया, फिर बोला, ‘‘जी सर, यही होगा. मैं आप की पत्नी को गवाह नहीं बनाऊंगा.’’

‘‘हां, यही ठीक होगा. बाकी मैं संभाल लूंगा.’’

‘‘जी सर.’’

जयंत थके उदास कदमों से मृदुला को कंधे से पकड़ कर थाने के बाहर निकले. मृदुला बारबार उतावली सी पूछ रही थी, ‘‘क्या हुआ? थानेदार ने क्या बताया? डीएनए परीक्षण से क्या पता चला? क्या वह हमारा प्रमांशु ही था?’’

गाड़ी में बैठते हुए जयंत ने मृदुला के सिर को अपने कंधे पर टिकाते हुए कहा, ‘‘मृदुल, तुम अपने को संभालो, वह हमारा ही बेटा था. अब वह इस दुनिया में नहीं रहा.’’ मृदुला हिचकियां भर कर रोने लगी.

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क्यों, आखिर क्यों : भाग 3- मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

ममता भरा स्पर्श पा कर उस की आंखें भर आईं. मैं ने सोचा शायद पढ़ाई में कोई मुश्किल सवाल रहा होगा, जिस का हल वह नहीं ढूंढ़ पा रही होगी.

‘‘बेटा, क्या मैं आप की कोई मदद कर सकती हूं?’’

‘‘नो, थैंक्स मम्मा,’’ उस के शब्द गले में ही अटक गए.

‘‘चलो, मैं प्रियंका को फोन कर देती हूं. वह आप की समस्या का कोई हल ढूंढ़ पाएगी, क्या उस से झगड़ा हुआ है?’’ मैं फोन की ओर बढ़ी, ‘‘उसे मैं कह देती हूं कि वह जल्दी आ जाए ताकि मैं आप दोनों को स्कूल में ड्राप कर दूं.’’

‘‘मम्मा,’’ वह चीख उठी, ‘‘प्रियंका अभी नहीं आ सकेगी.’’

‘‘क्यों…?’’ मुझे धक्का लगा.

‘‘सौरी, मम्मा,’’ वह धीरे से बोली, ‘‘प्रियंका लाइफ लाइन अस्पताल में है.’’

आश्चर्य का इतना तेज झटका मैं ने महसूस किया कि मैं संभल नहीं पाई, ‘‘क्या हुआ है उसे?’’

हमारे पड़ोस में ही निर्मल परिवार रहता है जिन की बड़ी बेटी प्रियंका  करिश्मा की खास सहेली है. दोनों एकसाथ 7वीं कक्षा में पढ़ती हैं.

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पता चला कि प्रियंका ने मिट्टी का तेल छिड़क कर खुद को जलाने की कोशिश की थी जिस में उस का 80 प्रतिशत बदन आग की लपेट में आ गया था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया. मेरी नजरों के सामने प्रियंका का चेहरा उभर आया. इतनी कम उम्र और इतना भयानक कदम…? इतना सारा साहस उस फू ल सी बच्ची ने कहां से पाया होगा? न जाने किस पीड़ादायी अनुभव से वह गुजर रही होगी जिस से छुटकारा पाने के लिए उस ने यह अंतिम कदम उठाया होगा? लगातार रोए जा रही करिश्मा को बड़ी मुश्किल से चुप करा कर उसे स्कूल के गेट तक छोड़ दिया. फिर मैं प्रियंका को देखने अस्पताल के लिए चल पड़ी.

अस्पताल के गेट पर ही मुझे मेरी एक अन्य पड़ोसिन ईराजी मिल गईं. उन से जो हकीकत पता चली उसे जान कर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए, कल्पना से परे एक हकीकत जिसे सुन कर पत्थर दिल इनसान का भी कलेजा फट जाएगा.

प्रियंका की मम्मी को एक के बाद एक कर के 4 बेटियां हुईं. जाहिर है, इस के पीछे बेटा पाने की भारतीय मानसिकता काम कर रही होगी. धिक्कार है ऐसी घटिया सोच के साथ जीने वाले लोगों को…मेरे समग्र बदन में नफरत की तेज लहर दौड़ गई.

उन की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं चल रही थी. इस महंगाई के दौर में 4 बेटियां और आने वाली 5वीं संतान की, सही ढंग से परवरिश कर पाना उन के लिए मुश्किल था. ऐसे में राजनजी के किसी मित्र ने उन की चौथी बेटी सोनिया को गोद लेने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने मान लिया. क्या सोच कर उन्होंने ऐसा निर्णय किया यह तो वही जानें लेकिन प्रियंका इस बात के लिए हरगिज तैयार नहीं थी. उस ने साफ शब्दों में मम्मीपापा से कह दिया था कि यदि उन्होंने सोनिया को किसी और को सौंपने की बात सोची भी  तो वह उन्हें माफ नहीं करेगी.

प्रियंका बेहद समझदार और संवेदनशील बच्ची थी. वह उम्र से कुछ पहले ही पुख्ता हो चुकी थी. घर के उदासीन माहौल ने उसे कुछ अधिक ही संजीदा बना दिया था. बचपन की अल्हड़ता और मासूमियत, जो इस उम्र में आमतौर पर पाई जाती है, उस के वजूद से कब की गायब हो चुकी थी.

अपने को आग की लपटों के हवाले करने से पहले उस ने अपने हृदय की सारी पीड़ा शब्दों के माध्यम से बेजान कागज के पन्ने पर उड़ेल दी थी, अपने खून से लिखी उस चिट्ठी ने सब का दिल दहला दिया :

‘‘श्रद्धेय मम्मीपापा, अब मुझे माफ कर दीजिए, मैं आप सब को छोड़ कर जा रही हूं. वैसे मैं आप के कंधों से अपनी जिम्मेदारी का कुछ बोझ हलका किए जा रही हूं ताकि आप के कमजोर कंधे सोनिया का बोझ उठाने में सक्षम बन सकें. अपनी तीनों बहनों को मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहती हूं. किसी को भी परिवार से अलग होते हुए मैं नहीं देख पाऊंगी. सोनिया न रहे उस से अच्छा है कि मैं ही न रहूं…अलविदा.’’

आप की लाड़ली बेटी,

प्रियंका.’’

4 दिन तक जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करती हुई प्रियंका आखिर हार गई और जिंदगी का दामन छोड़ कर वह मौत के आगोश में हमेशा के लिए समा गई पर वह मर कर भी एक मिसाल बन गई. उस की कुरबानी ने हमारे परंपरागत, दकियानूसी समाज पर हमेशा के लिए कलंक का टीका लगा दिया, जिसे अपने खून से भी हम कभी न मिटा पाएंगे.

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प्रियंका की मौत के ठीक एक हफ्ते बाद मेरे भतीजे तेजस ने भी बेहोशी की हालत में ही दम तोड़ दिया. तेजस हमारे परिवार का एकमात्र जीवन ज्योति था, जो अपनी उज्ज्वल कीर्ति द्वारा हमारे परिवार को समृद्धि के उच्च शिखर पर पहुंचाता. हमारे समाज के फलक पर रोशन होने वाला सूर्य अचानक ही अस्त हो गया फिर कभी उदित न होने के लिए.

दिनरात मेरी नजर के सामने उन दोनों के हंसते हुए मासूम चेहरे छाए रहते. हर पल अपनेआप से मैं एक ही सवाल करती, क्यों? आखिर क्यों ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी स्वीकार नहीं कर पाते? उन की मौत क्या हमारे समाज के लिए संशोधन का विषय नहीं?

दादीमां की पीढ़ी से ले कर प्रियंका के बीच कितने सालों का अंतराल है? दादीमां 85 वर्ष की हो चली हैं. तेजस सिर्फ 20 वसंत ही देख पाया और प्रियंका सिर्फ 12. इस लंबे अंतराल में क्या परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं थी?

दादीमां औरत थीं फिर भी मानती थीं कि संसार पुरुष से ही चलता है. हर नीतिनियम, रीतिरिवाज सिर्फ पुरुष के दम से है फिर मालती का पति तो पुरुष है. उस का यह मानना लाजमी ही था कि जो पुरुष बेटा न पैदा कर पाए वह नामर्द होता है. प्रियंका के मातापिता भी तो इसी मानसिकता का शिकार हैं कि वंश की शान और नाम आगे बढ़ाने के लिए बेटा जरूरी है. क्या सोनिया की जगह अगर उन्होंने बेटा पैदा किया होता तो उसे किसी और की गोद में डालने की बात सोच सकते थे? या उस के बाद और बच्चा पैदा करने की जरूरत को स्वीकार कर पाते? नहीं, कभी नहीं….

भला हो मालती का जिस ने मेरी आंखें खोल दीं वरना जानेअनजाने मैं भी इन तमाम लोगों की तरह ही सोचती रह जाती. अपनी कुंठित मान्यताओं के भंवर से बाहर निकालने वाली मालती का मैं जितना शुक्रिया अदा करूं कम ही है.

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तेजस की अकाल मौत ने दादी मां को यह सोचने पर मजबूर किया कि जिस कुलदीपक की चाह में उन्होंने अतीत में एक मासूम बच्ची के साथ अन्याय किया था उस कुलदीपक की जीवन ज्योति को अकाल ही बुझा कर नियति ने उन की करनी की सजा दी थी.

प्रियंका भी पुकारपुकार कर पूछ रही है, हर नारी और हर पुरुष यही सोचे और चाहे कि उन के घर बेटा ही पैदा हो तो भविष्य में कहां से लाएंगे हम वह कोख जो बेटे को पैदा करती है?

क्यों, आखिर क्यों : भाग 2- मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

मम्मी के लाख समझाने के बावजूद मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती. सौभाग्य से मुझे वेदांत मिले जिन्हें सिर्फ मुझ से प्यार है, मेरी जिद से उन्हें कोई सरोकार नहीं. उन्होंने कभी मेरे लाइफ स्टाइल पर एतराज जाहिर नहीं किया.

टेलीफोन की घंटी कानों में पड़ते ही मैं फिर वर्तमान में आ पहुंची. दूसरी तरफ अंजलि भाभी थीं. उन्होंने बताया कि तेजस लोकल टे्रन से गिर गया था. इलाज के लिए उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया है. मैं ने उसी वक्त वेदांत को एवं आलोक भैया को फोन द्वारा सूचित तो कर दिया लेकिन मैं अजीब उलझन में पड़ गई. न तो मैं ऋचा को अकेली छोड़ कर जा सकती थी और न ही उसे अस्पताल ले जाना मेरे लिए ठीक रहता. अब क्या करूं…एक बार फिर मुझे मालती की याद आ गई…उफ, इस औरत का मैं क्या करूं?

डोरबेल बजने पर जब मैं ने दरवाजा खोला तो दरवाजे के बाहर मालती को खड़ा पाया. उसे सामने देख कर मेरा सारा गुस्सा हवा हो गया क्योंकि उस की सूजी हुई आंखें और चेहरे पर उंगलियों के निशान देख कर मैं समझ गई कि वह फिर अपने पति के जुल्म का शिकार हुई होगी.

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‘‘क्या हुआ, मालती? तुम्हारे चेहरे पर हवाइयां क्यों उड़ रही हैं?’’ लगातार रो रही मालती उत्तर देने की स्थिति में कहां थी. मैं ने भी उसे रोने दिया.

मालती ने रोना बंद कर बताना शुरू किया, ‘‘भाभी, मैं तुम से माफी मांगती हूं. बंसी ने मुझे इतना पीटा कि मैं 3 दिन तक बिस्तर से उठ नहीं पाई.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’ मुझे रहरह कर उस के पति पर गुस्सा आ रहा था. मन कर रहा था कि उसे पुलिस के हवाले कर दूं. पर अभी तो अस्पताल जाना ज्यादा जरूरी है.

‘‘मालती, मेरे खयाल से तुम काफी थकी हुई लग रही हो. थोड़ी देर आराम कर लो. मुझे अभी अस्पताल जाना है,’’ मैं ने उसे संक्षेप में सब बता दिया और बोली, ‘‘मेरे लौटने तक तुम्हें यहीं रुकना पड़ेगा. हम बाद में बात करेंगे…करिश्मा स्कूल से आए तो उस के लिए नाश्ता बना देना.’’

मैं अस्पताल पहुंची. मुझे देखते ही अंजलि मेरे कंधे से लग कर बेतहाशा रोने लगी. मेरी भी आंखें छलछला आईं. मेडिकल कालिज का मेधावी छात्र, लेकिन पिछले 6 महीनों से दूरदर्शन के एक मशहूर धारावाहिक में प्रमुख किरदार निभा रहा था. अभी तो उस के कैरियर की शुरुआत हुई थी, लोग उसे जानने, पहचानने और सराहने लगे थे कि शूटिंग से लौटते वक्त लोकल टे्रन से गिर कर ब्रेन हैमरेज का शिकार

हो गया. मां, पिताजी और मैं भाभी

को संभालतेसंभालते खुद भी हिम्मत हारने लगे थे. सभी एकदूसरे को

ढाढ़स बंधाने का असफल प्रयास कर रहे थे.

काफी रात हो चुकी थी. बच्चोें के कारण मुझे बेमन से घर जाना पड़ा. मालती की गोद में ऋचा तथा होम वर्क के दिए गए गणित के समीकरण को सुलझाने का प्रयास करती हुई करिश्मा को देख मेरी आंखें भर आईं.

मैं निढाल सी सोफे पर लेट गई. मेरे दिल और दिमाग पर तेजस की घटना की गहरी छाप पड़ी थी. थोड़े समय बाद जब कुछ सामान्य हुई तो यह सोच कर कि आज जितने हादसों से साक्षात्कार हो जाए अच्छा होगा, कम से कम, कल का सूरज आशाओं की कुछ किरणें हमारे उदास आंचल में डालने को आ जाए. यही सोच कर मैं ने मालती से उस की दर्दनाक व्यथा सुनी.

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‘‘भाभी, मैं चौथी बार पेट से हूं. बंसी मेरे पीछे पड़ गया है कि मैं जांच करवा लूं और लड़की हो तो गर्भपात करा दूं. मैं इस के लिए तैयार नहीं हूं, इस बात पर वह मुझे मारतापीटता और धमकाता है कि अगर इस बार लड़की हुई तो मुझे घर से निकाल देगा, वह जबरदस्ती मुझे सरकारी अस्पताल भी ले गया था लेकिन डाक्टर ने उसे खूब डांटा, धमकाया कि औरत पर जुल्म करेगा, जांच के लिए जबरदस्ती करेगा तो पुलिस में सौंप दूंगी क्योंकि गर्भपरीक्षण कानूनी अपराध होता है. मैं ने तो उसे साफ बोल दिया कि वह मुझे मार भी डालेगा तो भी मैं गर्भपात नहीं कराऊंगी.’’

‘‘तो क्या तुम यों ही मार खाती रहोगी? इस तरह तो तुम मर जाओगी.’’

‘‘नहीं, भाभी, मैं ने उस को बोल दिया कि बेटा हुआ तो तुम्हारा नसीब वरना मैं अपनी चारों बच्चियों को ले कर कहीं चली जाऊंगी. हाथपैर सलामत रहे तो काम कहीं भी मिलेगा, वैसे भी बंसी तो सिर्फ नाम का पति है, वह कहां बाप होने का धर्म निभाता है? उस को भी तो मैं ही पालती हूं. मैं मां हूं और मां की नजर सिर्फ अपने बच्चे को देखती है, बेटी, बेटे का भेद नहीं. फिर लड़का या लड़की पैदा करना क्या मेरे हाथ में है?’’

कितनी कड़वी मगर सच्ची बात कह दी इस अनपढ़ औरत ने. एक मां अपने बच्चे के लिए बड़ी से बड़ी कुरबानी दे सकती है पर शायद यह पुरुष प्रधान भारतीय समाज की मानसिकता है कि वंश को आगे बढ़ाने के लिए और अर्थी को कांधा देने के लिए बेटे की जरूरत होती है…अत: अगर परिवार में बेटा न हो तो परिवार को अधूरा माना जाता है.

मेरी दादी मां क्यों औरत की कदर करना नहीं जानतीं? वह क्यों भूल गईं कि वह खुद भी एक औरत ही हैं? दादी की याद आते ही मेरा हृदय कड़वाहट से भर उठा. लेकिन अगले ही पल मेरे मन ने मुझे टोका कि तू खुद भी संकुचित मानसिकता में दादी मां से कम है क्या? अगर मालती चौथी बार मां बनने वाली है तो तेरे उदर में भी तो तीसरा बच्चा पल रहा है. तीसरी बार गर्भधारण के पीछे तेरा कौन सा गणित काम कर रहा है…? 2 बेटियों की मां बन कर तू खुश नहीं? क्या जानेअनजाने तेरे मन में भी बेटा पाने की लालसा नहीं पनप रही?

मैं सिर से पैर तक कांप उठी. यह मैं क्या करने जा रही हूं? दादी को कोसने से मेरा यह अपराधबोध क्या कम हो जाएगा? नहीं, कदापि नहीं. उसी वक्त मैं ने फैसला ले लिया कि तीसरे बच्चे के बाद मैं आपरेशन करवा लूंगी. यह फैसला करते ही मेरे दिमाग की तंग नसें धीरेधीरे सामान्य होती चली गईं.

चैन से सो रही मालती के चेहरे पर निर्दोष मुसकान खेल रही थी. जल्द ही मैं भी नींद के आगोश में समा गई. सुबह जब आंख खुली तब मैं अपने को हलका महसूस कर रही थी.

मालती पहले ही उठ कर घर के कामों को पूरा कर रही थी. उस ने करिश्मा को नाश्ता बना कर दे दिया था और वह स्कूल जाने को तैयार थी.

मैं ने करिश्मा के कपोल चूमते हुए उसे विश किया तो लगा कि वह कुछ बुझीबुझी सी थी.

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‘‘क्यों बेटी, क्या आप की तबीयत ठीक नहीं?’’

‘‘नहीं मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं.’’

‘‘मम्मी आप के चेहरे की हर रेखा पढ़ सकती है, बेटा, जरूर कोई बात है… मुझ से नहीं कहोगी?’’ सोफे पर बैठ कर मैं ने उसे अपनी गोद में खींच लिया.

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किसको कहे कोई अपना- भाग 1- सुधा के साथ क्यों नही था उसका परिवार

सुधा बहुत दिनों से राजेश्वर में एक प्यारा सा बदलाव देख रही थी. धीरगंभीर राजेश्वर आजकल अनायास मुसकराने लगते, कपड़ों पर भी वे विशेष ध्यान देते हैं. पहले तो एक ड्रैस को वे 2 व 3 दिनों तक औफिस में चला लेते थे, पर अब रोज नई ड्रैस पहनते हैं. हमेशा अखबार या टीवी की खबरों में डूबे रहने वाले राजेश्वर अब बेटे द्वारा गिफ्ट किया सारेगामा का कारवां में पुराने गाने सुनने लगे थे.

सुधा भी सारी जिम्मेदारियां खत्म होने पर राहत महसूस कर रही थी. वह सोच रही थी राजेश्वर में भी बदलाव का यही कारण था. सुधा को एक ही दुख था कि राजेश्वर उस से रूठेरूठे रहते हैं. वह जानती थी कि इस में सारी गलती पति की नहीं है पर वह भी तो उस समय पूरे घर की जिम्मेदारियों में डूब कर राजेश्वर के मीठे प्रस्तावों को अनदेखा कर दिया करती थी.

राजेश्वर के औफिस जाने के बाद सुधा चाय का कप लिए सोफे पर आ बैठी. काम वाली बाई को 11 बजे आना था. चाय पीतेपीते सुधा अतीत की लंबी गलियों में निकल पड़ी.

20 साल की उम्र में म्यूजिक विषय के साथ बीए किया था. वह कालेज की लता मंगेशकर कहलाती थी. वह बहुत भोली, नम्र भी थी. संगीत विषय में एमए करना चाहती थी. पर मातापिता विवाह के लिए पात्र देखने लगे. ऐसे में राजेश्वर का रिश्ता आ गया. वे सरकारी नौकरी में उच्च अधिकारी थे. पिता नहीं थे. विरासत में

2 हवेलियां मिली थीं. एक भाई, 2 बहनें, मां, भरापूरा परिवार. वे बस, घरेलू लड़की जो घरपरिवार को संभालने और बांध के रखने में सक्षम हो, चाहते थे. दानदहेज की कोई डिमांड नहीं थी.

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सुधा के परिवार को रिश्ता भा गया. बस, 20 साल की उम्र में सुधा दुलहन बन राजेश्वर की बड़ी हवेली में आ गई. पायल की रुनझुन और चूडि़यों की खनखनाहट से राजेश्वर का दिल धड़क उठा. सब ने अनुरोध कर के 4 दिनों के लिए दोनों को मसूरी घूमने भेजा. बस, उस के बाद सुधा के सिर पर जिम्मेदारियों का भारी ताज पहना दिया गया.

अब पारिवारिक जिम्मेदारी और सब को खुश रखना, बस ये 2 बातें ही सुधा के जेहन में रह गईं, बाकी सब भूल गई. पूरे घर का काम उस के नाजुक कंधों पर आ गया. सास, गठिया वात की मरीज, देवर और ननदों पर पढ़ाई का जोर. बस, सुधा ही सारा दिन नाचती रहती. कभीकभी ननदों का सहयोग मिल जाता, तो कुछ आराम मिल जाता.

रिश्तेदारों के सामने जब घर वाले सुधा की खुल कर तारीफ करते तो सुधा फूली न समाती. सास की बहूबहू, ननदों और देवर की भाभीजीभाभीजी और राजेश्वर की सुधासुधा की आवाजों से हवेली मुखरित रहती. सुधा तो ससुराल में ऐसी रम गई कि अपनेआप को ही भुला बैठी.

राजेश्वर रात को बड़ी बेताबी से सुधा की राह देखते पर सुधा को तो 11 बजे तक बरतन धोने, अगले दिन के खानेनाश्ते के मेनू बनाने, दही जमाने से फुरसत न मिलती. खीझ कर राजेश्वर सो जाते. वे भी औफिस से थक कर आते थे.

कभी 11 या 12 बजे तक सुधा को फुरसत मिल भी जाए तो वह मसाले और हींग की बास मारते कपड़े पहने राजेश्वर की बगल में जा लेटती. गुस्से में भरे वे या तो सोफे पर जा लेटते या मुंह फेर कर सो जाते. भोली और सीधी सुधा कभी यह न समझ पाई कि अपनी ससुराल की कश्ती खेतेखेते वह अपनी सोेने सी गृहस्थी को डुबोती जा रही है. इसी दौरान बेटा भी हो गया.

मुश्किल से 40 दिन आराम कर के फिर कोल्हू के बैल जैसी जुट गई. धीरेधीरे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं. ननदों और देवर की शादियों की सारी जिम्मेदारी सुधा और राजेश्वर पर थी. वे अकेले कमाने वाले थे. अब देवर की नौकरी लग गई तो उस की भी शादी कर दी. सास का देहांत हो चुका था.

देवरानी के चाव भी सुधा को पूरे करने पड़े. वह नए जमाने की लड़की थी. सुधा जैसा ठहराव उस में न था. घरपरिवार के कामों में न तो रुचि और न ही बहू होने के कर्तव्य का एहसास था. सुधा चुपचाप लगी रहती. देवरानी बहाना बना किचन से निकल जाती. सुधा घर की बड़ी बहू के एहसास में दबी कुछ न कहती.

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ननदों और उन की ससुराल से आने वालों की कैसे खातिरदारी करनी है, क्या लेनादेना है, सारी सिरदर्दी सुधा की थी. देवरानी तो सजधज के मेहमानों से बतियाने में चतुर थी.

देवर ने बड़ी होशयारी से बड़े भाई राजेश्वर को खुद के छोटी हवेली में जाने को मना लिया. देवरदेवरानी छोटी हवेली में शिफ्ट हो गए. बेटा अतुल 12वीं कर इंजीनियरिंग कालेज चला गया था. अचानक फोन की आवाज से सुधा वर्तमान में लौट आई. उस की भतीजी अंजू का फोन था. वह वकील थी और इसी शहर में रहती थी.

इतनी दौड़भाग में सुधा समय से पहले ही बुजुर्ग लगने लगी. एक दिन राजेश्वर के किसी खास मित्र के घर में पार्टी थी. सुधा को आग्रह कर आने को कहा था. सुधा अपनी ओर से बहुत सलीके से तैयार हो कर गई थी, पर चेहरा आभाहीन था, बालों में सफेदी झांकने लगी थी. वहां जा कर सब के बीच उसे बड़ा अटपटा लगने लगा. राजेश्वर के सुदर्शन व्यक्तित्व के सामने वह बहुत ही फीकी दिख रही थी. सभी लोगों की निगाहें उस पर थीं, आखिर सुधा उन के बौस की पत्नी थी. कुछ महिलाओं ने तो यह कह दिया कि मैडम, आप अपना ध्यान नहीं रखतीं, इतनी छोटी उम्र में बुजुर्ग लगने लगी हो. यह सुन वह झेंप गई. राजेश्वर भी खिसियाने से हो गए.

राजेश्वर उस से खिंचेखिंचे से रहने लगे थे. भोली सुधा सोचती, मैं तो उन के घरपरिवार की सेवा ही करती रही, फिर भी मुझ से अलगाव क्यों? समय का पहिया आगे बढ़ गया था. अतुल की पढ़ाई खत्म हो गई थी. मुंबई की एक कंपनी में नौकरी भी लग गई थी.

औफिस की 4 दिनों की छुट्टी थी. सुधा का मन हुआ कि अब बेटा भी नौकरी कर आत्मनिर्भर हो गया है. उस की ओर से बेफिक्री हो गई है. कहीं घूमने का प्लान करते हैं. शायद राजेश्वर को भी थोड़ा बदलाव चाहिए. बेचारे घरपरिवार के कारण जीवन के वो लुत्फ न उठा पाए जो उन्हें मिलने चाहिए थे. देर न करते हुए उस ने शाम की चाय के बाद इन छुट्टियों में अपने दोनों की घूमने की प्लानिंग बताई. राजेश्वर कुछ देर चुप रहे, फिर ठंडे स्वर में बोले, ‘‘शुक्र है तुम्हें घरपरिवार से हट कर कुछ सूझा तो सही, पर माफ करना मैं बताना भूल गया, मेरा कुछ दोस्तों के साथ गोवा जाने का प्रोग्राम बन चुका है. कल सवेरे मुझे निकलना है.’’ यह सुन सुधा चुप रह गई.

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राजेश्वर गोवा के लिए निकल गए. सुधा को एकाएक घर बहुत सूना लगने लगा. वह औटो कर छोटी हवेली देवरानी के घर चली गई. छोटी हवेली की साजसज्जा देख हैरान रह गई. उसे अपने घर की याद आई, बाबा आदम के जमाने का सोफा जो सास के समय से चला आ रहा था. पुराने समय की सजावट जिसे ठीक करने का सुधा और राजेश्वर के सिर पर जिम्मेदारियों के बोझ के रहते न तो समय मिला, न पैसा था जो कुछ कर पाते.

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Family Story In Hindi: मान मर्दन

Family Story In Hindi: मनपसंद- मेघा ने परिवार के प्रति कौनसा निभाया था फर्ज

पिता का जाना मतलब घर का छतविहीन होना. बारिश और तूफान में अचानक छाते का उड़ जाना. जिस दीवार का सहारा लिए बैठे हों उसी का भरभरा कर ढह जाना. या फिर, ऐसा ही कुछ और… मेघा सही स्थिति का आकलन कर पाने की स्थिति में नहीं है. मां को देखती है तो कलेजा कट के रह जाता है वहीं रिश्तेदारों की चाशनी में लिपटी बेतुकी सलाहें सुनती है तो कटे कलेजे को सिल कर ढाल बनाने को जी चाहता है उस का.

मेघा के लिए आने वाली परिस्थितियां आसान नहीं होंगी, इस का एहसास उसे बखूबी है. लेकिन इन से पार पाने की कोई रणनीति उस के दिमाग में अभी नहीं आ रही है. उस की मां तो साधारण घरेलू महिला रही हैं, पेट के रास्ते से पति के दिल में उतरने की कवायद से आगे कभी कुछ सोच ही नहीं पाईं. पता नहीं वे खुद नहीं सोच पाई थीं या फिर समाज ने इस से अधिक सोचने का अधिकार उन्हें कभी दिया ही नहीं था. जो कुछ भी हो, अच्छीभली गृहस्थी की गाड़ी लुढ़क रही थी. कोई भी कहां जानता था कि ऊंट कभी इस करवट भी बैठ सकता है. लेकिन अब तो बैठ ही चुका है. और यही सच है.

राहत की बात यह थी कि पिता सरकारी कर्मचारी थे और सरकार की यही अदा सब को लुभाती भी है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हो जाएं लेकिन सरकार अपने सेवारत कर्मचारी और उस के बाद उस के आश्रितों का अंतिम समय तक साथ निभाती है. लिहाजा, परिवार के किसी एक सदस्य को अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल ही जाएगी. और यही नौकरी उन के आगे की लंगड़ाती राह में लकड़ी की टेक बनेगी.

15 बरस की छुटकी माला और 20 साल की मेघा. मां को चूंकि दुनियादारी की अधिक समझ नहीं थी और माला ने अभी अपनी स्कूली पढ़ाई भी पूरी नहीं की है, इसलिए यह नौकरी मेघा ही करेगी, यह तय ही था लेकिन मेघा जानती थी कि परिवार की जिम्मेदारी लेना बिना पैरों में चप्पल पहने कच्ची सड़क पर चलने से कम नहीं होगा.

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अनुकंपा की नौकरी दोधारी तलवार होती है. एक तो यह एहसास हर वक्त कचोटता है कि यह नौकरी आप को अपनी मेहनत और काबिलीयत की बदौलत नहीं, बल्कि किसी आत्मीय की मृत्यु की कीमत पर मिली है और दूसरे हर समय एक अपराधबोध सा घेरे रहता है कि जाने कर्तव्य ठीक से निभ भी रहे हैं या नहीं. खुद को अपराधबोध न भी हो, तो कुछ नातेरिश्तेदार होते ही इसलिए हैं. उन का परम कर्तव्य होता है कि समयसमय पर सूखने की कोशिश करते घाव को कुरेद कर उसे हरा बनाए रखें. और वे अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाते हैं.

6 महीने बीततेबीतते उतरती हुई गाड़ी फिर से पटरी पर आने लगी थी. एक परिवार ने अपने मुखिया के बिना जीने की कोशिशें शुरू कर दी थीं. मेघा को भी पिता की जगह उन के औफिस में नौकरी मिल गई. जिंदगी ने ढर्रा पकड़ लिया.

फ़िल्मी और किताबी बातों से परे मेघा बहुत ही व्यावहारिक लड़की है. भविष्य को ले कर उस का दृष्टिकोण बिलकुल स्पष्ट था. वह भलीभांति जानती थी कि माला और मां उस की जिम्मेदारी हैं लेकिन इन जिम्मेदारियों के बीच भी वह खुद अपने लिए भी जीने की चाह पाले हुए थी. बीस की हवाई उम्र में उस के भी कुछ निजी सपने थे जिन्हें पूरा करने के लिए वह बरसों इंतजार नहीं करना चाहती थी. उसे पता था कि उम्र निकलने के बाद सपनों का कोई मोल नहीं रहता.

नौकरी के दरमियान ही मंगल उस की जिंदगी में आया जिसे मेघा ने आदर्शों का रोना रोते हुए जाने नहीं दिया बल्कि खुलेदिल से उस का स्वागत किया. मंगल उस का सहकर्मी. मंगल की एकएक खूबी का विस्तार से बखान करने के बजाय मेघा एक ही शब्द में कहती थी- ‘मनपसंद.’ मनपसंद यानी इस एक विशेषण के बाद उस की शेष सभी कमियां नजरअंदाज की जा सकती हैं.

इधर लोगों ने फिल्में और टैलीविजन के धारावाहिक देखदेख कर मेघा की भी त्याग की मूर्ति वाली तसवीर बना ली थी और वे उसे उसी सांचे में फिट देखने की लालसा भी रखते थे. त्याग की मूर्ति यानी पहले छुटकी को पढ़ाएलिखाए. उस का कैरियर बनाए. उस का घर बसाए. तब कहीं जा कर अपने लिए कुछ सोचे. इन सब के बीच मां की देखभाल करना तो उस का कर्त्तव्य है ही. लोगों का दिल ही टूट गया जब उस ने मंगल से शादी करने की इच्छा जताई.

“अभी कहां वह बूढी हो रही थी. पहले छोटी का बंदोबस्त कर देती, फिर अपना सोचती. अब देखना तुम, पैसेपैसे की मुहताज न हो जाओ तो कहना.” यह कह कर कइयों ने मां को भड़काया भी. मां तो नहीं भड़कीं लेकिन मेघा जरूर भड़क गई.

“आप अपना बंदोबस्त देख लीजिए, हमारा हम खुद देख लेंगे,” यह कहने के साथ ही मेघा ने हर कहने वाले मुंह को बंद कर दिया. लेकिन इस के साथ मेघा को बदतमीज और मुंहफट का तमगा मिल गया.

इस तरह की बातें बिना पंख ही उड़ती हैं. मेघा की मुंहजोरी की बातें मंगल के घर तक पहुंचीं तो मंगल की मम्मी सतर्क हुई. मंगल को तुरंत लाइनहाजिर किया गया और मेघा के स्वभाव के बारे में पूछताछ की गई. अपनी संतुष्टि के लिए मंगल की मां ने सालभर का समय मांगा ताकि वह मंगल की जीवनसंगिनी बनने के लिए मेघा की उम्मीदवारी को परख सके.

कौन जाने इस बीच मंगल के लिए कोई बेहतर रिश्ता ही मिल जाए. या, हो सकता है कि दोनों के बीच खटास ही आ जाए. मां इसी आस पर सालभर निकाल देना चाहती थी. लेकिन कहते हैं न कि करम तो जहां फूटने को लिखे हैं वहीं फूटते हैं. सालभर बाद भी न तो मंगल को कोई मिली और न ही मेघा को.

सालभर बाद दोनों इस सहमति और शर्त के साथ एक बंधन में बंध गए कि मेघा अपने परिवार की जिम्मेदारी पहले की तरह ही उठाती रहेगी और अपनी तनख्वाह भी पूर्ववत उसी परिवार पर खर्च करती रहेगी. लेकिन मनपसंद साथी का नशा किसी भी अन्य नशे से किसी भी प्रकार कम नहीं होता. मेघा भी प्रेम के नशे में आकंठ डूब गई. वह अपनी तनख्वाह बेशक अपनी मां और बहन पर खर्च करती थी लेकिन अब उस के पास उन पर खर्च करने के लिए समय कम पड़ने लगा था. छुट्टी वाले दिन किसी तरह भागती सी मायके जाती और जाते ही वापसी के लिए घड़ी देखने लगती. साल बीततेबीतते नन्हा गोदी में आ गया तो बचेखुचे समय पर उस का कब्जा हो गया.

इधर माला स्कूल खत्म कर के कालेज में आ गई थी. कालेज का खुलापन, घर में पिता के कठोर अनुशासन की कमी और बहन का बिना जरूरत पैसों से पर्स भरते रहना… किशोर लड़की के राह भटकने के लिए इतने कारण काफी होते हैं.

किसी तरह गिरतेपड़ते माला अपना कालेज कर रही थी. एक दिन पता चला कि माला के पांव गलत पगडंडी पर मुड़ गए. मां ने मेघा और मंगल को बुला कर चर्चा की. सब ने ठंडे दिमाग से सोच कर तय किया कि कालेज खत्म होते ही माला की शादी कर दी जाए.

लेकिन कालेज तो 6 महीने में खत्म हो जाएगा और इतनी जल्दी अच्छा लड़का कहां से तलाश किया जाए. दोतीन महीने खोजने के बाद भी बात बनती दिखाई नहीं दी तो मेघा को अपने देवर सोम का खयाल आया. उस ने मंगल के सामने अपनी बात रखी. मंगल उस का प्रस्ताव सुनते ही उखड़ गया.

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“दिमाग खराब हो गया क्या तुम्हारा? जिंदा मक्खी निगलने के लिए तुम्हें सोम ही दिखाई दिया,” मंगल ने गुस्से से कहा.

“बच्चों से गलतियां हो जाती हैं. हम बड़े हैं, हमें ही समझदारी दिखानी होगी. तुम ने मुझ से जिम्मेदारी बांटने का वादा नहीं किया था? तुम्हारी अपनी बहन होती तब भी क्या तुम ऐसे ही तेवर दिखाते?” जैसे कई प्रश्नों के साथ मेघा ने पति पर पलटवार किया.

“हां, तो कर रहे हैं न प्रयास. मिल जाएगा कोई न कोई लड़का. इन सब में सोम को सूली पर टांगने की कहां जरूरत है?” मंगल ने प्रतिरोध किया. लेकिन स्त्री के हठ से भला कौन जीत सका है जो आज मंगल जीत पाता. मेघा के प्रयास रंग लाए और मंगल की नापसंदगी तथा खुद माला की लाख नानुकुर के बाद भी माला सोम के साथ विवाह वचनों से बंधी अपनी बड़ी बहन की देवरानी बन गई.

समय में बहुत शक्ति होती है. बड़े से बड़े घाव भी समय के साथ भर जाते हैं. खरोचों के निशान हलके पड़तेपड़ते एक दिन अदृश्य हो जाते हैं. माला के साथ भी यही हुआ. जवानी के उफनते झरने पर सोम के प्रेम का बांध बनते ही वह शांत नदी सी बहने लगी. अब उसे गृहस्थी में रस आने लगा था. मेघा खुश थी कि उस ने बिगड़ती बात को संभाल लिया था. बहन के घर आने से अब बच्चे की देखभाल के लिए उसे हलकान नहीं होना पड़ता. चौकाचूल्हा भी माला देख लेती है.

थके शरीर को बिस्तर मिलते ही व्यक्ति पहले जरा आराम से लेटता है, फिर आंखें बंद कर दिमाग को शांत करता है और आखिरकार सो जाता है. माला के आने के बाद भी यही हुआ. धीरेधीरे घर की सारी जिम्मेदारी माला पर डाल कर मेघा निश्चिंत हो गई. माला भी खुश थी. दोनों बहनें बारीबारी से मां और सासससुर दोनों की देखभाल कर रही थीं. अपने वादे के अनुसार मेघा आज भी अपनी तनख्वाह का तीसरा हिस्सा ही अपने पास रखती है. शेष 2 हिस्से मां और माला को देती है. इस एक हिस्से से माला और सोम का जेबखर्च निकल आता है. बाकी के खर्चे मंगल और ससुरजी देखते ही हैं.

मेघा ने इतनी तरल जिंदगी की तो कल्पना भी नहीं की थी लेकिन हकीकत को भी भला कैसे झुठलाया जा सकता है. शायद जिंदगी अपनी पिछली गलतियों का पश्चात्ताप कर रही थी. इतने कांटों के बाद कुछ फूलों पर भी हक़ तो बनता ही है.

देखते ही देखते दो हजार बीस का साल आ गया. यह बरस तो मनहूसियत के साथ ही अवतरित हुआ था. चारों तरफ कोरोनाकोरोना का ही तांडव मच रहा था. हर कोई डर के साए में जी रहा था. कौन जाने मौत का अगला शिकार कौन हो. एकएक दिन भारी बीत रहा था.

‘आज तो ठीक है, कल पता नहीं क्या हो.’ हर स्वस्थ व्यक्ति यही सोच रहा था. किसी को जरा सी भी छींक या खांसी आने पर लोग उसे संदिग्ध दृष्टि से देखने लगते. कोई अपना मास्क सही करने लगता तो कोई दो फुट दूर सरक लेता. व्यक्ति से व्यक्ति के बीच अविश्वास की खाई बन गई.

मेघा भी अपने परिवार की सुरक्षा के लिए पूरी तरह सतर्क थी और फिलहाल अभी तक इस महामारी की चपेट में आने से सभी बचे हुए थे.

साल बीतने को आया. मेघा को लगने लगा था कि इस अदृश्य दुश्मन पर अब जीत हासिल हो ही गई है. लेकिन कांटों के झाड़ से लहंगा बचा कर रखने के तमाम प्रयासों के बावजूद भी यह अनहोनी हो ही गई. किसी शायर के कहे अनुसार, यह नाव भी किनारे आ कर ही डूबी.

अब जबकि वैक्सीन के आने की सुगबुगाहट के बीच लोग जरा बेफिक्र हुए ही थे और कोरोना शायद इसी लापरवाही का इंतजार कर रहा था. एक दिन अचानक सोम को हलका बुखार आया और अगले दिन उसे खांसी शुरू हो गई. टैस्ट करवाया तो कोरोना पौजिटिव आया. हालांकि अब मृत्युदर काफी कम थी लेकिन फिर भी खतरा तो था ही. आखिर जिस का डर था, वही हुआ. इंफैक्शन बढ़ने के बाद सोम हौस्पिटल गया तो फिर बौडी के रूप में ही वापस आया.

सबकुछ बहुत ही आकस्मिक रहा. महज 3 साल के वैवाहिक जीवन के बाद ही माला की रंगीन साड़ी सफेद हो गई. मां पर तो मानो वज्रपात ही हुआ था. मेघा को भी लगा जैसे कि जिंदगी ट्रेडमिल पर ही चल रही थी. चले तो खूब लेकिन पहुंचे कहीं भी नहीं.

मन बदलने के लिए मेघा ने माला को कुछ दिनों के लिए मां के पास भेज दिया. इस के बाद भी माला अकसर मां के पास ही रहने लगी. मेघा और मंगल उस के भविष्य के लिए फिर से फिक्रमंद होने लगे.

इधर अचानक कुछ दिनों से माला बुझीबुझी सी लग रही थी. सोम की यादों को कारण मान कर मेघा ने उस पर अधिक ध्यान नहीं दिया. मेघा ने महसूस तो किया कि आजकल माला अपने जीजा मंगल से भी कुछ खिंचीखिंची सी रहती है लेकिन यह भी कोई अधिक गौर करने वाली बात नहीं थी. मन खराब हो, तो कुछ भी अच्छा कहां लगता है.

माला पिछले एक माह से मां के पास ही है. आज लंच के बाद मेघा ने भी मां से मिलने का सोचा और स्कूटर ले कर उधर ही चल दी. तभी खयाल आया कि इस समय तो मां सो रही होंगी.

‘कोई बात नहीं, माला तो है न. यों उस से मन की दो बात किए हुए भी समय बीत गया. बेचारी, अभी कुछ भी तो नहीं देखा जिंदगी में, मन ही मन यह सोच कर व्यथित होती मेघा बढ़ी चली जा रही थी. घर के बाहर खड़ी मंगल की मोटरसाइकिल देख कर मेघा चौंक गई.

‘इन्हें तो इस समय औफिस में होना चाहिए. यहां किस कारण से हैं,’ सोचती हुई मेघा घर के मुख्य दरवाजे तक आ गई. दरवाजे पर लगी डोरबैबेल बजातेबजाते अचानक उस के हाथ रुक गए. अंदर से आते हैरान करने वाले वार्त्तालाप ने उसे रुकने को मजबूर कर दिया. “र्मैं ने कह दिया न, मैं यह सब नहीं करने वाली. आप नहीं मानेंगे तो मजबूरन मुझे दीदी को बताना पड़ेगा,” माला की आवाज थी जो गुस्से में लग रही थी.

“यह भी कर के देख लो. लेकिन सोच लेना, कहीं उसे भी तुम्हारी तरह मायके आ कर रहना न पड़ जाए,” मंगल के बेशर्मीभरे इस स्वर की धमकी ने मेघा के सामने सारी स्थिति खोल कर रख दी. उसे माला के उखड़े मन का कारण समझ में आ गया. वह यकीन नहीं कर पा रही थी कि मंगल इतनी कमीनी हरकत कर सकता है. मेघा बिना आहट के ही वहां से लौट आई.

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मंगल घर लौटा तो सबकुछ सामान्य था. नन्हा अपने दाद के पास खेल रहा था. मां टीवी देख रही थी. मेघा रसोई में थी. मेघा ने चाय बना कर सासससुर को थमाई और अपना कप ले कर मंगल के पास आ गई. दोनों साथसाथ पीने लगे.

“मैं कुछ दिनों के लिए मां के पास जा रही हूं,” मेघा ने कहा.

“और यहां कौन देखेगा?” मंगल के स्वर में इनकार सा था.

“सोम के बिना भी तो सब चल रहा है न. कुछ दिन मेरे बिना भी चल जाएगा,” मेघा पति के इनकार को खारिज करते हुए मायके जाने की तैयारी करने लगी. बेटी को यों अचानक आया देख कर मां हैरान तो हुईं लेकिन खुश भी थीं. घर में रौनक हो गई.

“मंगल तुझ से क्या चाह रहा है?” एक दिन एकांत में मेघा ने माला से पूछा. माला बहन का प्रश्न सुन कर अचकचा गई. फिर धीरेधीरे सब विस्तार से बताती गई.

“जीजाजी चाहते हैं कि मैं उन्हें सोम की जगह दे दूं. यदि मैं ने ऐसा नहीं किया तो वे तुम्हें छोड़ देने की धमकी देते हैं.” इस के आगे माला ने जो बताया उसे सुन कर मेघा सफेद हो गई. फिर मन ही मन एक निश्चय कर लिया.

“देख माला, अभी तुम्हारी उम्र कुछ भी नहीं है. स्नातक तो तुम हो ही, किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करो. मन लगा कर करोगी तो तुम्हें विधवा कोटे में नौकरी मिल ही जाएगी. एक बार जिंदगी सही रास्ते पर चल पड़ेगी तो मंजिल मिलने में देर नहीं होगी,” मेघा ने समझाया.

“लेकिन मेरा आधा दिमाग तो जीजाजी ने खराब कर रखा है. हर तीसरे दिन धमक जाते हैं. उन से बचने के लिए ही तो मैं यहां मां के पास रहती हूं. यहां भी चैन से नहीं रहने देते. मेरी जिंदगी को तो आम रास्ता समझ लिया है. कहते हैं कि सोम से पहले भी तो किसी की हो चुकी हो, अब क्या डर है. ऐसे में तैयारी क्या खाक करूंगी,” माला निराश थी.

“तू फिक्र मत कर. तू यहां से दूर जा कर किसी इंस्टिट्यूट में तैयारी कर. मंगल को मैं संभाल लूंगी,” मेघा के सुझाव में दम था.

माला राजी हो गई. माला को दिल्ली के एक बहुत अच्छे इंस्टिट्यूट में बैंकपीओ की तैयारी करने के लिए एडमिशन दिला दिया गया. माला वहीँ होस्टल में रहने चली गई. मंगल को पता चला, तो उस ने बहुत बवाल मचाया.

“इतना बड़ा फैसला अकेले ही कर लिया? पति हूं तुम्हारा. और उस का जीजा भी व जेठ भी. क्या मुझ से पूछना भी जरूरी नहीं लगा तुम्हें?” मंगल ने चिल्लाते हुए कहा. मंगल जाल में फंसने से पहले ही चिड़िया के उड़ने से खिन्न था.

“तुम ने कौन सा जीजा और जेठ की जिम्मेदारी निभाई है. मेरा मुंह न खुले, इसी में तुम्हारी इज्जत है. खुल गया तो पत्नी से भी हाथ धो बैठोगे,” मेघा ने दांत चबा कर पति की आंखों में आंखें डाल कर कहा.

शब्दों की तल्खी से मंगल जान गया था कि मेघा को सब पता चल गया है. वह उन आंखों का सामना नहीं कर सका और तुरंत मेघा के सामने से हट गया.

मेघा को लग रहा था मानो आज उस ने बहन, मां और परिवार के प्रति अपना एक और कर्तव्य निभाया है.

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Family Story In Hindi: मान मर्दन- भाग 3- अर्पणा ने कैसे दिया मां को जीवनदान

उस दिन मैं मां के कमरे में न जा कर सीधे भैया के कमरे में चली गई थी. भैया अकेले कमरे में बैठे गजलें सुन रहे थे. अपर्णा मां को जूस पिला रही थी. दोनों को अनदेखा कर के मैं भैया के पास जा कर तीखे स्वर में बोली, ‘क्या आप गलत गाड़ी में सिर्र्फ इसलिए सवार रहेंगे कि पहले आप गलती से उस पर चढ़ गए थे और अब सामान समेटने और नया टिकट कटवाने के झंझट से डर रहे हैं?’

भैया शायद मेरा आशय समझ नहीं पाए थे. मैं ने दोबारा कहा, ‘अब भी वक्त है. अपर्णा से तलाक ले लीजिए और दोबारा शादी कर लीजिए.’

कुछ देर तक चुप्पी छाई रही.

‘भैया, विश्वास कीजिए. अपर्णा की मां के छल को मैं समझ नहीं पाई, वरना वह कभी मेरी भाभी नहीं बनती.’

‘कारण जाने बिना तुम भी परिणाम तक पहुंच गईं,’ वह फीकी हंसी हंस दिए,  ‘अपर्णा बहुत अच्छी है. सच बात तो यह है कि वह ब्याह करना ही नहीं चाहती थी पर मां के आगे उस की चली नहीं.’

‘झूठ की बुनियाद पर क्या इमारत खड़ी हो सकती है?’ मेरा मन अब भी अशांत था.

‘झूठ उस ने नहीं, उस की मां ने बोला था, वैसे उन का निर्णय भी गलत  कहां था? हर मां की तरह उस की मां के मन में भी अपनी बेटी को सुखी गृहस्थ जीवन देने की कामना रही होगी. तुम्हारे ब्याह के समय भी मां कितनी चिंतित थीं.’

भैया पुन: बोले, ‘अपर्णा की मां की दशा भी कुछ वैसी ही रही होगी. मानसी, कितना अजीब है हमारे समाज का चलन. बेटी की इच्छाअनिच्छा जाने बिना ब्याह की चिंता शुरू हो जाती है. अधिकांश विवाह लड़की की अनुमति के बिना होते हैं. अपर्णा ने भी विरोध किया था पर उस की एक नहीं चली और अब अपर्णा मेरी पत्नी है. उस का हर सुखदुख मेरा है.’

मैं विस्मित सी अपने भाई का चेहरा निहारती रह गई.

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उस दिन के बाद मैं ने उस चौखट पर कदम नहीं रखा. स्वप्निल ने कई बार समझाया, ‘रिश्ते, संयोगवश बनते हैं. तुम्हारे भैया का ब्याह अपर्णा के साथ ही होना लिखा था. इस संबंध में व्यर्थ की चिंता करने से क्या लाभ? जरा सोचो, यही बीमारी उसे ब्याह के बाद होती तब क्या करतीं? और फिर यह रोग, असाध्य नहीं है.’

मैं चिढ़ कर जवाब देती, ‘तब की बात और थी. देखभाल कर कोई मक्खी निगलता है क्या?’

मां अकसर फोन पर अपर्णा की तबीयत के विषय में बताती रहती थीं. एक दिन बोलीं, ‘कल अपर्णा फिर बेहोश हो गई थी. उस की तबीयत देख कर घबराहट होती है. डाक्टरों ने जल्द आपरेशन करवाने की सलाह दी है.’

‘भेज दो उसे मायके. जिस तरह उन लोगों ने हमारे साथ खेल खेला है तुम भी चालाकी से काम लो,’ क्रोध से मेरी कनपटियां बजने लगीं.

‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भेजी हैं पर अपर्णा खुद ही नहीं जाना चाहती. सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है इस बच्ची में,’ मां ने कहा था.

‘तो, करती रहो सेवा.’

मां निरुत्तर हो जातीं. उन्हें कुछ कहने का मौका ही मैं कब देती थी.

मुझे बारबार मम्मीपापा और भैया पर क्रोध आ रहा था. इस नए युग में एक बीमार बहू के प्रति इतनी आत्मीयता और सहृदयता दिखाने की क्या जरूरत थी.

मेरे मनोभावों से बेखबर स्वप्निल ने मुझे आगाह किया, ‘मानसी, कल अपर्णा को अस्पताल में भरती किया जा रहा है. वैलूर से एक विशेषज्ञ सीमाराम अस्पताल आ रहे हैं. वह आपरेशन करेंगे.’

मैं ने एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा, बल्कि पीहर फोन ही नहीं किया. अपर्णा के प्रति मेरे मन में छिपा तिरस्कार स्वप्निल बखूबी पहचान रहे थे. एक दिन बुरी तरह झल्लाए मुझ पर, ‘हद होती है रूखे व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उस का चेहरा भी देखना नहीं चाहतीं.’

स्वप्निल का मन रखने के लिए मैं एक बार अस्पताल हो आई थी. नाक में आक्सीजन, मुंह में नली, एक बांह में ग्लूकोज, दूसरी बांह में दवाओं की नलिकाएं लगी थीं. मां का सेवाभाव, पापा का दुलार और भैया की आत्मीयता देखते ही बनती थी. एक पल के लिए मुझे तरस भी आया पर अगले ही पल वह भाव घृणा में बदल गया, ‘कितना अच्छा हो अगर अपर्णा की आपरेशन टेबल पर ही मृत्यु हो जाए. कम से कम भैया को तो छुटकारा मिलेगा इस रोगिणी पत्नी से.’

पर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. कुछ ही दिनों में वह बिलकुल ठीक हो गई. अब वह भैया के साथ गाड़ी में बैठ कर दफ्तर भी जाने लगी थी. पापा अब वृद्ध हो गए थे. वह फैक्टरी कम ही जाते थे. भैया बाहर आर्डर लेने जाते तो अपर्णा घर और फैक्टरी अच्छी तरह संभाल लेती थी. मां को अब भी अस्वस्थता घेरे रहती. बहू से कई बार उन्होंने कहा भी कि एक बार बोट्सवाना घूम आओ पर वह हर बार यही कहती, ‘एक बार आप अच्छी तरह से ठीक हो जाएं, तभी जाऊंगी.’

एक सुबह वह मेरे घर आई. मेरी बिटिया को तेज बुखार था. डाक्टर ने टायफायड बताया था. मैं पूरी रात जाग कर उस के माथे पर बर्फ की पट्टियां रखती रही थी. एक ओर बिटिया की तबीयत को ले कर मैं बुरी तरह तनावग्रस्त थी, दूसरी ओर थकावट की वजह से बुरा हाल था मेरा. उस ने चौके में जा कर पूरा नाश्ता तैयार किया. फिर दोपहर की दालसब्जी तैयार कर के हमारे पास आ कर बैठी तो स्वप्निल दफ्तर की कुछ उलझनें ले कर बैठ गए. अपर्णा चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. उस के सुझावों से स्वप्निल को काफी लाभ हुआ था.

मां का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था. बैठेबैठे सांस फूलने लगती, थकावट महसूस होती, छाती में दर्द उठता. मुझे ये खबरें स्वप्निल से मिलती रहती थीं. वह अकसर मम्मीपापा से मिलने मेरे घर जाया करते थे.

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उस दिन रविवार था. स्वप्निल समय से पहले ही तैयार हो गए थे.

‘कहीं बाहर जा रहे हो?’ नाश्ते की प्लेट डाइनिंग टेबल पर रखते हुए मैं ने पूछा.

‘नहीं,’ उन्होंने रूखे स्वर में उत्तर दिया. फिर चौके में जा कर उन्होंने दूध गरम कर के थरमस में उडे़ला और 4 डबलरोटी के स्लाइस पर मक्खन लगा कर पैक करने लगे. मैं ने अपना प्रश्न फिर दोहराया, ‘कहीं जा रहे हो?’

‘हां, अस्पताल.’

‘क्यों, अब कौन बीमार है? कहीं अपर्णा, फिर तो अस्पताल नहीं चली गई?’ मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी नहीं थी.

‘तुम, इतनी कठोर और अहंकारी हो, मैं नहीं जानता था.’

मैं अवाक् उन का चेहरा निहारने लगी.

‘कम से कम, इनसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं?’

‘क्या हुआ मां को?’ मैं बुरी तरह चौंक उठी थी.

‘2 दिन से अस्पताल में हैं.’

‘क्या तुम जानते थे?’

‘हां.’

‘तो फिर बताया क्यों नहीं?’

‘इसलिए क्योंकि तुम्हारे जैसी पत्थरदिल औरत कभी पसीज ही नहीं सकती. एक इनसान अगर बुरा है तो बुरा है, अच्छा तो वह हो ही नहीं सकता. एक ग्रंथि पाल ली तुम ने अपर्णा के विरुद्ध और इतनी दुश्मनी पाल ली कि मायके से नाता ही तोड़ लिया. कम से कम बूढ़े मातापिता की तो खबर ली होती. जानती हो, तुम्हारी मां का आपरेशन हुआ है और उन्हें खून की जरूरत थी. वह खून अपर्णा ने दिया है. अपर्णा की दशा चिंताजनक बता रहे हैं डाक्टर,’ इतना कह कर स्वप्निल बाहर निकल गए.

कितना गिरा हुआ समझ रही थी मैं खुद को उस पल? बीमार, कमजोर, पराए घर की बेटी, मां की सेवा करती रही, स्नेह बरसाती रही और मैं उन की अपनी बेटी बेखबर बैठी रही.

आज अपने खून का एक कतरा दे कर भी मां की जान बचा सकूं तो खुद को धन्य समझूं, यह सोचती हुई मैं अस्पताल पहुंची. बाहर कोरिडोर में भैया और पापा खड़े थे. स्वप्निल डाक्टरों से परामर्श कर रहे थे. मुझे देखते ही भैया फूटफूट कर रो पड़े.

‘मां कैसी हैं?’ मैं ने उन्हें धीरज बंधा कर आत्मीयता से पूछा.

‘खतरे से बाहर हैं.’

‘और अपर्णा?’ पहली बार मुझे अपर्णा के प्रति चिंतित देख कर सभी के चेहरों पर ताज्जुब मगर संतुष्टि के भाव मुखर हो उठे थे.

‘रक्तचाप गिर गया है बेहोश है,’ पापा अब भी चिंतित थे.

‘उसे क्यों खून देने दिया? ब्लड बैंक से ले लेते.’

‘कहा तो था पर अपर्णा नहीं मानी. बोली, जब उस का खून मैच कर रहा है तो ब्लड बैंक से खून ले कर बीमारियों का खतरा क्यों मोल लिया जाए?’ सभी सन्नाटे में थे. भैया निढाल से बैंच पर बैठे थे. मैं देख रही थी इन लोगों का अपर्णा के साथ बंधन अटूट है. वह वास्तव में इस घर की बहू नहीं बेटी है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था….

बाहर किसी शोर से अचानक मेरे विचारों का सिलसिला टूटा. जल्दीजल्दी तैयार हो कर मैं अकेली ही अस्पताल पहुंची.

उसी समय डाक्टर ने बाहर आ कर  बताया, ‘‘अपर्णा स्वस्थ है. आप लोग उस से मिल सकते हैं.’’

सब के चेहरे पर संतुष्टि के भाव तिर आए थे. अगर अपर्णा को कुछ हो जाता तो कोई भी खुद को माफ नहीं कर पाता. सब से ज्यादा मैं खुद को दोषी समझती.

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भाग कर मैं अपर्णा के बिस्तर पर पहुंच गई और उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी. सभी अचरज से मुझे देख रहे थे. शायद किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे हृदय के इर्दगिर्द उगा खरपतवार यों एकाएक कैसे छंट गया. आंसुओं से विगलित तीव्र वेदना की धार मुख से निकली, ‘‘अपर्णा, तुम ने मां को जीवनदान दिया है.’’

‘‘नहीं दीदी, जीवनदान तो आप सब ने मुझे दिया है. मैं ने तो केवल अपना कर्तव्य निभाया है.’’

मेरी आंखों की कोर से ढुलके आंसू कब अपर्णा के आंसुओं से मिल गए, मैं नहीं जानती.

Family Story In Hindi: मान मर्दन- भाग 2- अर्पणा ने कैसे दिया मां को जीवनदान

मां इस जानकारी से संतुष्ट हो गई थीं. कंप्यूटर के इस युग में फोटो का आदानप्रदान कुछ ही घंटों में हो गया था. शीघ्र ही संबंध को स्वीकृति दे दी गई. प्रोजेक्ट समाप्त होते ही मैं स्वप्निल के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. मम्मीपापा का विश्वास देखते ही बनता था. बारबार कहते, हमारे घर लक्ष्मी आ रही है. एकएक दिन यहां पर सब के लिए एक युग के समान प्रतीत हो रहा था. आकांक्षाएं, उम्मीदें आसमान छू रही थीं. कब वह दिन आए और मम्मीपापा बहू का मुंह देखें.

भैया की जिज्ञासा उन की बातों से स्पष्ट थी. प्रत्यक्षत: कुछ नहीं पूछते थे पर जब भी अपर्णा का प्रसंग छिड़ता, उन की आंखों में चमक उभर आती. बारबार कहते, ‘जाओ, बाजार से खरीदारी कर के आओ.’

अपर्णा के गोरे रंग पर क्या फबेगा, यह सोच कर साडि़यां ली जातीं. हीरेमोती के सेट लेते हुए मुझे भी कीमती साड़ी व जड़ाऊ सेट पापा ने दिलवाया था.

ब्याह से ठीक एक माह पूर्व भारद्वाज परिवार ने लखनऊ पहुंचने की सूचना दी थी. हवाई अड्डे पहुंचने से पहले मां का फोन आया. बोलीं, ‘मैं, अपनी बहू को पहचानूंगी कैसे?’

‘हवाई जहाज से जो सब से सुंदर लड़की उतरेगी, समझ लेना वही तुम्हारी बहू है.’

अपर्णा और उस के परिवारजनों से मिल कर मां धन्य हो उठी थीं. ब्याह की काफी तैयारियां तो पहले ही हो चुकी थीं. रहीसही कसर अपर्णा के परिजनों से मिल कर पूरी हो गई.

घर लौट कर मैं ने भैया को टटोला था, ‘कैसी लगी हमारी अपर्णा?’

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चेहरे पर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ कर उन्होंने शांत भाव से सहमति प्रदान की तो हम सब संतुष्ट हो गए थे.

ब्याह धूमधाम से हुआ. भारद्वाज दंपती ने बरात का स्वागत और दानदहेज देने में कोई कसर नहीं रखी. हीरेमोती कुंदन के सैट, कलर टीवी, वाशिंग मशीन और इंपोर्टेड फर्नीचर दे कर उन्होंने पूरा घर भर दिया था. मम्मीपापा की साध पूरी हुई, मुझे प्यारी भाभी मिली और भैया को स्नेहमयी पत्नी.

ब्याह से अगले दिन नए जोड़े ने हनीमून के लिए गोवा प्रस्थान किया तो मां बिखरा घर समेटने में जुट गई थीं. मैं भी मां की सहायता के लिए कुछ दिन वहीं ठहर गई थी.

पूरा घर व्यवस्थित कर के मां निश्ंिचत हुईं तो दरवाजे की घंटी बजी. पापा घर पर ही थे. दरवाजा स्वप्निल ने ही खोला था. भैया दरवाजे पर थे. पीछे अपर्णा खड़ी थी.

नवब्याहता जोड़े को यों अचानक वापस आया देख कर सभी हैरान रह गए थे.

कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया, यह सोच मां चिंतित हो उठी थीं.

अपर्णा कमरे में अपना बैग खोलने में व्यस्त हो गई और भैया हमारे पास ही टेबल पर बैठ गए. मां ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘यों अचानक कैसे लौट आए? तुम लोग तो 15 दिन बाद आने वाले थे.’

‘मां, अपर्णा की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. सिरदर्द और उलटियां शुरू हो गईं, इसीलिए लौटना पड़ा.’

पहाड़ी क्षेत्रों में चढ़ाई उतरनेचढ़ने से अकसर उलटियां हो जाती हैं. यही सोच कर मां ने कहा, ‘तो किसी डाक्टर से मशविरा कर के दवा दिलवा देते.’

‘कहा था मैं ने, पर अपर्णा नहीं मानी. बोली घर चलना है,’ भैया अब भी चिंतित थे.

हमेशा हंसनेखिलखिलाने वाली अपर्णा का चेहरा बेहद फीका और बेजान सा दिखा था उस पल.

‘चलो, कोई बात नहीं. अगली बार किसी और जगह हो आना,’ कह कर मां ने मीटिंग बर्खास्त कर दी थी.

यों घर में काम करने के लिए नौकरचाकर थे पर चौके का काम मां ही संभालती थीं. अपर्णा ने अगले दिन से ही उन्हें इस कार्यभार से मुक्त कर दिया. सब की पसंद का भोजन पकाने और खिलाने में उसे विशिष्ट आनंद की अनुभूति होती थी. कोई भी काम, अपने हाथ में ले कर, जब तक दौड़भाग कर पूरी तन्मयता से संपूर्ण नहीं करती, उसे चैन नहीं मिलता था.

एक दिन मां अपर्णा को अपने पास बुला कर बोलीं, ‘तुम ने एम.बी.ए. किया है. यों घरगृहस्थी के कामों में उलझ कर तो तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी. तुम्हें घर से बाहर निकल कर कुछ करना चाहिए.’

‘पर घर का कामकाज…’ अपर्णा मां के इस अचानक आए प्रस्ताव से घबरा गई थी.

‘वह तो पहले भी होता था और आगे भी होता रहेगा. अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करो, बेटी,’ मां की मुसकराहट और विश्वास उसे धीरे से सहला गया था.

अगले ही दिन पापा और भैया के साथ जा कर फैक्टरी का वित्तीय कार्यभार उस ने अपने जिम्मे ले लिया था.

पूरी तन्मयता के साथ काम करने लगी थी अपर्णा. परिणाम अच्छे घोषित हुए. मुनाफे में वृद्धि हुई. हर किसी की प्रशंसा की पात्र बनी अपर्णा कभीकभी खुशी के उन लम्हों में भी बेहद उदास हो जाती. उस की यों असमय चुप्पी का कारण कई बार हम ने जानने का प्रयास भी किया पर वह कभी किसी से कुछ कहती नहीं थी.

कुछ ही दिन बीते थे. उसे फिर से भयानक दर्द हुआ. इस बार दर्द की तीव्रता पहले से भी ज्यादा थी. चेहरा काला पड़ गया था. होंठ टेढ़े हो गए थे.

पापा और मां सोच रहे थे उस की यह दशा तनाव की वजह से है, पर मैं उस के स्वास्थ्य को ले कर बेहद चिंतित थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अपर्णा इस घर में खुश नहीं? अपर्णा का ब्याह मैं ने ही करवाया था. ‘अगर उसे किसी बात से परेशानी है तो उस का समाधान भी मैं ही करूंगी,’ मैं ने सोचा.

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इसी निश्चय के साथ मैं उस के कमरे में चली गई. अपर्णा आरामकुरसी पर बैठी कुछ सोच रही थी. मैं ने पूछा, ‘अपर्णा, कहां खोई हो? कुछ कहोगी नहीं?’ मेरे अंदर समुद्रमंथन जैसी हलचल मची हुई थी.

वह आंखें नीचे किए फर्श को निहार रही थी.

‘तुम्हें सिरदर्द क्यों हो रहा है? किसी चीज की कमी है या तुम किसी बात से असंतुष्ट हो? मुझे बताओ, शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं.’

अजगर की तरह पसरा सन्नाटा जैसे अंधियारे को लील रहा था. निराशा के पल में प्यार का स्नेहिल स्पर्श और आश्वासन पाते ही उस की आंखों में आंसू छलक उठे.

‘यह सिरदर्द नया नहीं पुराना है. मुझे बे्रन ट्यूमर है.’

‘क्या… ब्रेन ट्यूमर?’ मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई थी.

‘चाची ये सब जानती थीं?’ मेरे अंतर्मन की पीड़ा पके फोडे़ सी लहकने लगी थी.

‘हां, उन दिनों मैं एम.बी.ए. फाइनल में थी, जब मुझे पहली बार सिरदर्द उठा. मां ने मुझे दर्द निवारक गोली दी और नियमित रूप से बादाम का दूध देने लगीं. सभी सोच रहे थे कि यह सिरदर्द कमजोरी और तनाव की वजह से है. आंखों का भी टेस्ट हुआ. सबकुछ सामान्य निकला. उस के बाद जब दर्द फिर हुआ तो पापा मुझे विशेषज्ञ के पास ले गए. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मुझे ब्रेन ट्यूमर है, जिस का एकमात्र इलाज आपरेशन ही है. एक दिन पापा ने एक मशहूर डाक्टर से मेरे आपरेशन की बात की. अपाइंटमेंट भी ले लिया, पर मां नहीं मानी थीं. बोलीं, ‘ब्याह योग्य बेटी के दिमाग की चीड़फाड़ करवाएंगे? अपर्णा को कुछ हो गया तो रिश्ता करना मुश्किल हो जाएगा.’ इस पर पापाजी बोले थे, ‘तुम्हें इस के रिश्ते की चिंता है. मैं तो उस के स्वास्थ्य को ले कर परेशान हूं. इसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा.’

अपर्णा की बीमारी के बारे में धीरेधीरे सब को पता चल गया.

पापा संज्ञाशून्य से हो गए थे. भैया गंभीरता का मुखौटा ओढ़े कभी पत्नी को निहारते और कभी हम सब को. अपनी जीवनसंगिनी को इस रूप में देख कर उन की आकांक्षाओं पर तुषारापात हुआ था. मां गश खा कर गिर पड़ी थीं.

भैया दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए थे. पूरी जांच के बाद पता चला, उन्हें हलका हार्टअटैक हुआ है. अचानक रक्तचाप इतना बढ़ गया कि उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती कराना पड़ा था.

जिस दिन उन्हें थोड़ा स्वास्थ्य लाभ हुआ मैं घर लौट आई थी. इतना रोई कि  शायद दीवारें भी पसीज गई होंगी.

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मैं सोच रही थी कि कितने प्रसन्न और सुखी थे मेरे पीहर के लोग. मगर अब मेरे भाई का जीवन अंधकारमय हो गया है. अब तो पूरे परिवार का जीवन ही दुख से भर गया है. मूकदर्शिका सी बनी, परिवार की खुशियों को लुटते देख रही थी मैं. अपने भाई की खुशियों को आग में जलता देख कर कौन सी बहन का दिल रो नहीं पड़ेगा. अपर्णा के रोग का एक ही इलाज था आपरेशन. सफल हुआ तो ठीक, नहीं तो अपर्णा अपंग भी हो सकती है. फिर मेरे भैया उस अपंग पत्नी के साथ कैसे जीएंगे? उम्र भर अपर्णा की सेवा में ही जुटे रहेंगे. अब क्या मां के दिन हैं सेवा करने के? पर जो कुछ भी था उस सब के लिए मैं खुद को दोषी मान रही थी.

पहली बार मेरे मन के एक चोर कोने में विचार आया. यदि इस पूरे परिदृश्य से अपर्णा को ही हटा दिया जाए तो सब सही हो जाएगा. आजकल तो लोग बातबेबात तलाक ले लेते हैं और दूसरा ब्याह भी कर लेते हैं, अगर भैया भी ऐसा ही करें तो?

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Family Story In Hindi: मान मर्दन- भाग 1- अर्पणा ने कैसे दिया मां को जीवनदान

अपर्णा को मानसी ने अपने भाई अविनाश के लिए पसंद किया था. शादी के बाद उस के ब्रेन ट्यूमर की खबर ने सब को चौंका दिया. परंतु सकुशल आपरेशन के पश्चात उस के स्वस्थ होने पर भी मानसी के मन में उस के प्रति नफरत का बीज पनपने लगा लेकिन अपर्णा ने कुछ ऐसा किया कि पत्थर दिल मानसी सहित पूरे परिवार का दिल जीत लिया…

कुत्ता जोरजोर से भौंक रहा था. बाहर गली में चौकीदार के जूतों की चपरचपर और लाठी की ठकठक की आवाज से स्पष्ट था कि अभी सुबह नहीं हुई थी.

एक नजर स्वप्निल पर डाली. गहरी नींद में भी उन के चेहरे पर पसीने की 2-4 बूंदें उभर आई थीं. पूरा दिन दौड़भाग करने के बाद रात 12 बजे तो लौटे थे. मुझ से तो किसी प्रकार की सहानुभूति या अपनत्व की अपेक्षा नहीं करते ये लोग. किंतु आज मेरे मन को एक पल के लिए भी चैन नहीं था. मां और अपर्णा का रुग्ण चेहरा बारबार मेरी आंखों के आगे घूम जाता था. क्या मनोस्थिति होगी पापा और भैया की? डाक्टरों ने बताया था कि यदि आज की रात निकल गई तो दोनों खतरे से बाहर होंगी, वरना…

मां परिवार की केंद्र हैं तो अपर्णा परिधि. यदि दोनों में से किसी को भी कुछ हो गया तो पूरा परिवार बिखर जाएगा. किस तरह जोड़ लिया था मां ने बहू को अपने साथ. बहू नहीं बेटी थी वह उस घर की. घर का कोई भी काम, कोई भी सलाह उस के बिना अधूरी थी.

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लेकिन इतना सब देने के बाद मां को बदले में क्या मिला? तीमारदारी? मैं ने कई बार अपर्णा को तिरस्कृत करने के लिए मां से कहा भी था, ‘बहुएं दानदहेज के साथ डिगरियां लाती हैं लेकिन तुम्हारी बहू तो अपने साथ मेडिकल रिपोर्ट, एमआरआई और एक्सरे रिपोर्ट से भरी फाइलें लाई है.’

यह सुनते ही मां हंस देतीं, ‘संस्कारों की अनमोल धरोहर भी तो लाई है अपने साथ.’

मां कमरा छोड़ कर चली जातीं. जाहिर था, उन्हें अपर्णा के प्रति मेरे द्वारा कहे गए कठोर शब्दों से दुख पहुंचता था पर मैं भी क्या करती? मन था कि लाख प्रयासों के बाद भी नियंत्रित नहीं होता था.

सुबह के 5 बजे थे. कुछ देर पहले ही स्वप्निल अस्पताल के लिए निकल चुके थे. फोन की घंटी बज रही थी. कहीं कोई अप्रिय समाचार न हो? कांपते मन से फोन का चोंगा उठाया. पापा थे, बोले, ‘रुक्मिणी की तबीयत ठीक है लेकिन बहू की हालत चिंताजनक है.’

मन आत्मग्लानि से भर उठा. क्यों पापा और भैया के कहने पर मैं लौट आई? इस समय तो भैया और उन दोनों को सहानुभूति की आवश्यकता होगी. स्वप्निल भी तो बिना कुछ कहे चले गए. एक बार कहते तो मैं भी चली जाती उन के साथ. कुछ पल ठहर कर मैं कम से कम उन का मनोबल तो बढ़ा सकती थी. लेकिन उन्हें क्या पता, अपर्णा के प्रति मेरे मन में अब किसी प्रकार का मलाल नहीं.

अपर्णा से मेरा परिचय बोट्सवाना में हुआ था. उन दिनों मैं स्वप्निल के साथ एक ‘असाइनमेंट’ पर बोट्सवाना आई थी. चारों तरफ हरियाली, पेड़पौधे और वादियां और उन के बीच बसी वह छोटी सी कालोनी. कुल मिला कर वहां 10-12 ही घर थे और एक घर से दूसरे घर का फासला इतना कम था कि मौकेबेमौके आसानी से लोग एकदूसरे के यहां आतेजाते थे. यों तो अन्य परिवार भी थे वहां पर अपर्णा के परिवार से कुछ ही दिनों में हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी. उस के पिता स्वप्निल की कंपनी में ही वरिष्ठ पद पर थे. दूसरे, वह हमारी ही तरह ब्राह्मण थे और लखनऊ के मूल निवासी भी. रीतिरिवाज और बोलचाल में समानता होने की वजह से कुछ ही दिनों में हमारी दोस्ती घनिष्ठता में बदल गई और हम हर दिन मिलने लगे.

कभी घर पर, कभी क्लब में. बातचीत का सिलसिला इधर- उधर की बातों  से घूमता फिरता लखनऊ की नफासत नजा- कत, खानपान या फिर चौड़ीसंकरी गलियों से होता हुआ एकदूसरे के रीतिरिवाजों और तीजत्योहारों के मनाने के ढंग पर अटक जाता.

मुझे गोरी, लंबी, छरहरी, काली आंखों और घने बालों वाली अपर्णा का व्यक्तित्व हर समय आकर्षित करता था. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. लगभग हर विषय पर अपने विचार खुल कर व्यक्त कर सकती थी. कालिज के बाद वह अकसर मेरे घर आ जाती और किसी न किसी विषय पर  बहस छेड़ देती.

अपर्णा की मां भी एक शिष्ट, व्यावहारिक और सुलझी हुई महिला थीं. 2 बहुओं की सास और 4 पोतेपोतियों की दादी होने के बाद भी उन के व्यवहार में बचपना ही झलकता था. उम्र में वह मुझ से काफी बड़ी थीं, फिर भी उन का सान्निध्य मुझे भला लगता था.

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एक शाम मैं उन के घर गई तो मुझे ऐसा लगा जैसे वह मेरी ही बाट जोह रही हों. मुझे पास बिठा कर बोलीं, ‘मानसी, अपर्णा तेरी हर बात मानती है. तू ही इसे समझा. ब्याह की बात करो तो रोनाधोना शुरू हो जाता है इस का.’

‘मुझे ब्याह नहीं करना है,’ उस की आंखें सूजी हुई थीं. ऐसा लगा जैसे रो कर आई हो.

‘क्यों? ब्याह तो सभी लड़कियां करती हैं,’ जवानी की दहलीज पर खड़ी सुनहरे, रुपहले सपनों को देखने की उम्र में अपर्णा का वह वाक्य मुझे अचरज में डाल गया था.

‘कब तक बिठा कर रखूंगी तुझे? जब तक मांबाप हैं तब तक ठीक, उस के बाद भाईभौजाई नहीं पूछेंगे.’

‘मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिए, पढ़ीलिखी हूं, नौकरी कर के अपनी देखभाल स्वयं कर लूंगी.’

‘औरत को जीने के लिए किसी का तो अवलंबन चाहिए. ब्याह, परिवार और बच्चे इन्हीं सब में उलझ कर तो स्त्री का जीवन सार्थक बनता है.’

‘और अगर ब्याह के बाद भी यही एकाकीपन हाथ आया तो?’ अपर्णा के शब्दों में छिपी निराशा देख मन विचलित हो उठा था. शायद हर दिन तलाक, टूटन और बिखराव की खबरें पढ़तेपढ़ते उस ने सफल, सुखद, वैवाहिक जीवन की उम्मीद ही छोड़ दी थी.

‘ऐसा कुछ नहीं होगा,’ मैं ने दृढ़ता से कहा तो वह मेरा चेहरा देखने लगी.

‘अपर्णा के लिए मेरी नजर में एक रिश्ता है. अगर आप चाहें तो…’

‘हांहां क्यों नहीं,’ अपर्णा की मां ने अति उत्साह से मेरी बात बीच में ही काट दी.

‘मैं अपने भाई अविनाश के लिए, अपर्णा का हाथ आप से मांग रही हूं. वहां आप की अपर्णा को बहू नहीं बेटी का प्यार मिलेगा.’

किसी विशेष परिचय के मुहताज नहीं थे अविनाश भैया. दिल्ली आईआईटी से इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने लंदन से एम.बी.ए. किया था. भारत लौट कर जब से उन्होंने पापा की फैक्टरी संभाली, मेरे मन में भाभी की इच्छा प्रबल हो उठी थी. जब भी मां से भैया के ब्याह की बात करती तो वह हंस कर टाल जातीं.

‘पहले तुझे ब्याहेंगे, फिर बहू आएगी इस घर में.’

‘कुछ दिन मैं भी तो भाभी के  साथ हंसबोल लूं.’

‘दूर थोड़े ही भेजेंगे तुझे. इसी शहर में ब्याहेंगे. जब मरजी हो चली आना और भाभी के साथ रह कर हंसबोल लेना,’ मां ने कहा था.

धूमधाम से ब्याह दी गई थी मैं लखनऊ में ही. स्वप्निल साफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर थे. सासससुर, देवरानीजेठानी का परिवार था मेरा. मां से अकसर फोन पर बात होती रहती थी. मेरा जब जी चाहता, स्वप्निल मुझे मम्मीपापा से मिलवाने ले जाते. मां, मेरी पसंद के  पकवान पकातीं लाड़ जतातीं. भैया और पापा मेरे इर्दगिर्द ही घूमते रहते. मन खुशियों से भरा रहता था. लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल पाया यह सब. 2 माह बाद ही स्वप्निल को बोट्सवाना का प्रोजेक्ट मिला और हम दोनों यहां चले आए.

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अपर्णा की मां से स्वीकृति पाते ही मैं ने लखनऊ फोन मिला कर मां से बात की. अपर्णा के विषय में सारी जानकारी दे कर मैं ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘मां, लड़की स्वभाव से सुशील और सुंदर है और सब से बड़ी बात, एम.बी.ए. भी है. भैया और पापा को बिजनेस में भी मदद करेगी.’

‘विदेश में पलीबढ़ी लड़की हमारे यहां तारतम्य बिठा पाएगी? हमारे और वहां के रहनसहन और तौरतरीकों में बहुत अंतर है,’ मां को चिंता ने घेर लिया था.

‘आप नहीं जानतीं अपर्णा

का स्वभाव. वह बेहद सरल और सादगीपसंद है. हमारे परिवार के लिए सुशील बहू और भैया के लिए आदर्श पत्नी साबित होगी वह. उन के और हमारे परिवार के वातावरण में कोई अंतर थोड़े ही है.’

‘विवाह संबंधों में पूरे परिवार का लेखाजोखा लिया जाता है,’ मां ने कहा था.

‘भारद्वाज साहब हमारी कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. पिछले 20 वर्षों से बोट्सवाना में हैं. अगले वर्ष रिटायर होने वाले हैं. 2 बेटे, 2 बहुएं, बच्चे सब लखनऊ में ही हैं. हजरतगंज के पास 500 गज की कोठी है.’

आगे पढ़ें- भैया की जिज्ञासा उन की बातों से…

किसको कहे कोई अपना- भाग 2- सुधा के साथ क्यों नही था उसका परिवार

देवरानी किसी महारानी की तरह सजधज कर मैगजीन पढ़ रही थी. सुधा अपनी मामूली सी साड़ी की सिलवटें ठीक करने लगी. एक कृत्रिम मुसकराहट के साथ देवरानी गले लग गई. देवर बाहर गए थे. औपचारिक बातचीत होती रही. लंच के समय देवर भी आ गए. भाभी को अभिवादन कर भाई के बारे में पूछने लगे. सुधा ने जब दोस्तों के साथ गोवा जाने की बात कही, तो हैरान हो गए, बोले, ‘‘मैं तो भैया के सारे दोस्तों को जानता हूं. वे सब तो यहीं शहर में हैं. अभीअभी तो बाजार में ही मिले थे. पता नहीं कौन से दोस्त साथ गए हैं?’’

तभी खाना लग गया. घर में एक स्थायी मेड रखी थी. वह सारा काम देखती थी. उस ने कई तरह के व्यंजन टेबल पर सजा दिए. सुधा हैरान रह गई. शाम को देवर सुधा को कार से घर छोड़ने जाने लगा तो सुधा के मन में एक टीस सी उठी, वह घर पर अकेली थी, एक बार भी रात को रुकने को नहीं कहा. निराश सी कार में बैठ गई. जिस देवर को छोटे भाई की तरह रखा, वह समय के साथ कैसे बदल गया. इन लोगों के लिए मैं ने अपना जीवन कुरबान कर दिया. कोई मेरा न हुआ.

घर आ कर चाय बना कर बैठी ही थी कि मुंबई से बेटे अतुल का फोन आ गया. कुछ नाराज सी आवाज में बोला, ‘‘मम्मी, पापा क्या गोवा गए हैं?’’ सुधा ने हामी भरी तो वह बोला, ‘‘पापा ने मुझे एक फोन तक नहीं किया, मिलना तो दूर. और मां, वे किस के साथ गए हैं? मेरा दोस्त मनीष, पापा को जानता है. वह कह रहा था कि उन के साथ कोई महिला थी. जब उस ने पापा को दूर से अभिवादन किया तो वे उठ कर बाहर चले गए.’’

सुधा बोली, ‘‘किसी दोस्त की बीवी होगी या टेबल शेयर किया होगा.’’

बेटे के फोन से सुधा तनावग्रस्त हो गई. रातभर सोचती रही. दिन काटे नहीं कट रहे थे. 2 बार राजेश्वर को फोन लगाया पर फोन स्विचऔफ था. अगले दिन शहर में रहने वाली भतीजी को बुला लिया. वह वकील थी, फिर भी दोपहर बाद अपना लैपटौप ले कर आ गई. यहीं से काम करती रही, बूआ से बातचीत भी करती रही.

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सुधा ने अपने मन की दुविधा अंजू को कह सुनाई. अंजू बोली, ‘‘बूआजी, फूफाजी ऐसा कुछ करेंगे, लगता तो नहीं पर आजकल कोर्ट में ऐसेऐसे केस आ रहे हैं कि कभीकभी शादी जैसे पवित्र बंधन पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं. आप अपनी किसी हौबी को फिर से शुरू करो. इस प्रकार खाली रहने से मन आशंकाओं से घिर जाता है. फिर भी कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद करना. मैं शहर में ही हूं.’’

सुधा का मन कुछ शांत हुआ. बूआभतीजी मिल कर बाजार गईं, चाटपकौड़ी खाई. सुधा ने अपना सालों पुराना हारमोनियम ठीक करवाया. सालों बाद सुर लगाने की कोशिश करने लगी. पर सुर ठीक नहीं लग पा रहे थे. सुधा मायूस हो गई. भतीजी अंजू ने समझाया, ‘‘बूआ, कोईर् भी हुनर हो, सालोंसाल छोड़ दो तो यही होता है. मन शांत कर अभ्यास करिए, सब हो जाएगा.’’

अगले दिन सवेरे अंजू चली गई. शाम तक राजेश्वर आ पहुंचे. सुधा भरी बैठी थी. चाय दे कर मौके की तलाश में बैठ गई. चाय पी कर राजेश्वर सुस्ताने बैठे ही थे कि सुधा का रोष फूट पड़ा, बोली, ‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं आप किन दोस्तों के साथ गोवा गए थे.’’

अचानक राजेश्वर बौखला गए, बोले, ‘‘क्यों? मेरे हर दोस्त को तुम जानती हो जो बताऊं?’’ अपना पक्ष मजबूत करते हुए आगे बोले, ‘‘तुम्हें सारे दिन किचन में रहना अच्छा लगता, तो मैं भी घर में कैद हो जाऊं?’’

सुधा आक्रोश से भर उठी, ‘‘आप के दोस्त तो सारे यहीं थे, आप किस के साथ गए थे? अतुल के दोस्त ने आप को किसी महिला के साथ देखा था, वह कौन थी?’’

पोल खुलती देख स्वर को ऊंचा कर के राजेश्वर बोले, ‘‘रही न कुएं की मेढक, तुम जैसी औरतों से तो बस दालसब्जियों के मोलभाव करवा लो, बाहर की दुनिया क्या जानो. एक मित्र मिल गया था, उस की पत्नी थी वह, समझीं.’’ वे आगे बोले, ‘‘मेरी जासूसी करने से अच्छा है कुछ रहनेसहने व पहनेओढ़ने के तौरतरीके सीख लेतीं तो पढ़ीलिखी महिलाओं के बीच खड़ी होने योग्य हो जातीं.’’ यह कह कर राजेश्वर बाहर निकल गए.

सुधा के स्वाभिमान पर गहरी चोट लगी थी, बेबसी पर आंसू छलक आए. आहत सी वह डिनर बनाने लग गई. रात के 12 बज गए. पति का अतापता नहीं था. सुधा समझ गईर्, दाल में कुछ काला है. थोड़ी देर में राजेश्वर आ गए. कपड़े बदल, तकिया उठा दूसरे बैडरूम में चले गए.

सुधा रातभर अपने बैडरूम में लेटी सोचती रही, समय के साथ मैं ही न बदली, सब बदल कर उस से दूर हो गए. अब अपने को बदल के खुद को पति के मुकाबले का बनाऊंगी. पूरी रात सुधा ने रोते हुए काटी. सवेरे उठ किचन में लग गई. राजेश्वर बड़े बेमन से नाश्ता कर औफिस निकल गए.

सुधा ने पति की अटैची खोली. कपड़े धोने के लिए निकालने लगी. अचानक रामेश्वर के टौवल में से एक पीला सिल्क का ब्लाउज गिरा. सुधा ने ब्लाउज को अपनी अलमारी में रख दिया.

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शाम को जब चाय पी कर राजेश्वर टीवी देखने लगे तो सुधा भी वहीं आ गई. वह बोली, ‘‘आप को जो दोस्त की पत्नी वहां मिली थी वह क्या अपना ब्लाउज भी आप की अटैची में डाल गई थी.’’ यह कह उस ने ब्लाउज उन के आगे रख दिया.

ब्लाउज देख राजेश्वर शर्मिंदा हो गए पर ऊंची आवाज से सुधा को डांटने लगे. लेकिन जब बदले में सुधा ने खरीखोटी सुनाई तो स्वर बदल कर बोले, ‘‘देखो सुधा, तुम मेरे योग्य न कभी थीं. न भविष्य में होगी. तुम ने सारी जिंदगी किचन में गुजार दी. अब मैं अपने अनुसार जीना चाहता हूं. मैं तुम्हें घर से जाने को नहीं कहता. जैसे पहले रहती थीं, रहती रहो. पर मुझे मेरे अनुसार जीने दो.’’ यह कह कर उठ खड़े हुए.

सुधा बोली, ‘‘लेकिन मैं ने तो अपना सारा जीवन आप के परिवार पर कुरबान कर दिया.’’ इस पर राजेश्वर बोले, ‘‘यह करने को मैं ने तुम्हें मजबूर नहीं किया था. गरिमा मेरी पुरानी मित्र हैं. उन्होंने शादी नहीं की थी. वे और मैं बचपन से एकसाथ पढ़े और बड़े हुए. पिताजी ने मेरी मंशा जाने बिना न जाने क्यों तुम से मेरा रिश्ता तय कर दिया. अब मैं गरिमा का साथ चाहता हूं.’’

यह सुनते ही सुधा के दिल में सैकड़ों तीर एकसाथ घुस गए, बेहोशी सी आने लगी, किसी तरह लड़खड़ाती बिस्तर तक पहुंची और कटे पेड़ सी गिर पड़ी.

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