कंजूस: भाग 1- आखिर क्या था विमल का दर्दभरा सच

लेखक- अनूप श्रीवास्तव

विमल जब अपनी दुकान बंद कर घर लौटे तो रात के 10 बजने वाले थे. वे रोज की तरह सीधे बाथरूम में गए जहां उन की पत्नी श्रद्धा ने उन के कपड़े, तौलिया वगैरा पहले से रख दिए थे. नवंबर का महीना आधे से अधिक बीत जाने से ठंड का मौसम शुरू हो गया था. विशेषकर, रात में ठंड का एहसास होने लगा था. इसलिए विमल ने दुकान से आने पर रात में नहाना बंद कर दिया था. बस, अच्छे से हाथमुंह धो कर कपड़े बदलते और सीधे खाना खाने पहुंचते. उन की इच्छा या बल्कि हुक्म के अनुसार, खाने की मेज पर उन की पत्नी, दोनों बेटे और बेटी उन का साथ देते. विमल का यही विचार था कि कम से कम रात का खाना पूरे परिवार को एकसाथ खाना चाहिए. इस से जहां सब को एकदूसरे का पूरे दिन का हालचाल मिल जाता है, आपस में बातचीत का एक अनिवार्य ठिकाना व बहाना मिलता है, वहीं पारिवारिक रिश्ते भी मधुर व सुदृढ़ होते हैं.

विमल ने खाने को देखा तो चौंक गए. एक कटोरी में उन की मनपसंद पनीर की सब्जी, ठीक उसी तरह से ही बनी थी जैसे उन को बचपन से अच्छी लगती थी. श्रद्धा तो किचन में थी पर सामने बैठे तीनों बच्चों को अपनी हंसी रोकने की कोशिश करते देख वे बोल ही उठे, ‘‘क्या रज्जो आई है?’’ उन का इतना कहना था कि सामने बैठे बच्चों के साथसाथ किचन से उन की पत्नी श्रद्धा, बहन रजनी और उस की बेटी की हंसी से सारा घर गूंज उठा. ‘‘अरे रज्जो कब आई? कम से कम मुझ को दुकान में फोन कर के बता देतीं तो रज्जो के लिए कुछ लेता आता,’’ विमल ने शिकायती लहजे में पत्नी से कहा ही था कि रजनी किचन से बाहर आ कर कहने लगी, ‘‘भैया, उस बेचारी को क्यों कह रहे हो. भाभी तो तुम को फोन कर के बताने ही वाली थीं पर मैं ने ही मना कर दिया कि तुम्हारे लिए सरप्राइज होगा. आजकल के बच्चों को देख कर मैं ने भी सरप्राइज देना सीख लिया.’’

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‘‘अरे मामा, आप लोग तो फन, थ्रिल या प्रैंक कुछ भी नहीं जानते. मैं ने ही मां से कहा था कि इस बार आप को सरप्राइज दें. इसलिए हम लोगों ने दिन में आप को नहीं बताया. क्या आप को अच्छा नहीं लगा?’’ रजनी की नटखट बेटी बोल उठी. ‘‘अरे नहीं बेटा, सच कहूं तो तुम लोगों का यह सरप्राइज मुझे बहुत अच्छा लगा. बस, अफसोस इस बात का है कि अगर तुम लोगों के आने के बारे में दिन में ही पता चल जाता तो रज्जो की मनपसंद देशी घी की बालूशाही लेता आता,’’ विमल ने कहा. ‘‘वो तो मैं ने 2 किलो बालूशाही शाम को मंगवा ली थीं और वह भी आप की मनपसंद दुकान से. मुझे पता नहीं है कि बहन का तो नाम होगा लेकिन सब से पहले आप ही बालूशाही खाएंगे,’’ श्रद्धा ने कहा ही था कि सब के कहकहों से घर फिर गूंज उठा.खाना निबटने के बाद श्रद्धा ने  उन सब की रुचि के अनुसार जमीन पर कई गद्दे बिछवा कर उन पर मसनद, कुशन, तकिये व कंबल रखवा दिए. और ढेर सारी मूंगफली मंगा ली थीं. उसे पता था कि भाईबहन का रिश्ता तो स्नेहपूर्ण है ही, बूआ का व्यवहार भी सारे बच्चों को बेहद अच्छा लगता है. जब भी सब लोग इकट्ठे होते हैं तो फिर देर रात तक बातें होती रहती हैं. विशेषकर जाड़े के इस मौसम में देर रात तक मूंगफली खाने के साथसाथ बातें करने का आनंद की कुछ अलग होता है.

रजनी अपने समय की बातें इस रोचक अंदाज में बता रही थी कि बच्चे हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे. विमल और श्रद्धा भी इन सब का आनंद ले रहे थे. बातों का सिलसिला रोकते हुए रजनी ने विमल से कहा, ‘‘अच्छा भैया, एक बात कहूं, ये बच्चे मेरे साथ पिकनिक मनाना चाह रहे हैं. कल रविवार की छुट्टी भी है. अब इतने दिनों बाद अपने शहर आई हूं तो मैं भी भाभी के साथ शौपिंग कर लूंगी. इसी बहाने हम सब मौल घूमेंगे, मल्टीप्लैक्स में सिनेमा देखेंगे और समय मिला तो टूरिस्ट प्लेस भी जाएंगे. अब पूरे दिन बाहर रहेंगे तो हम सब खाना भी बाहर ही खाएंगे. बस, तुम्हारी इजाजत चाहिए.’’ विमल ने देखा कि उस के बच्चों ने अपनी निगाहें झुकाई हुई थीं. यह उन की ही योजना थी लेकिन शायद वे सोच रहे थे कहीं विमल मना न कर दें. ‘‘ठीक है, तुम लोगों के घूमनेफिरने में मुझे क्यों एतराज होगा. मैं सुबह ही ट्रैवल एजेंसी को फोन कर पूरे दिन के लिए एक बड़ी गाड़ी मंगा दूंगा. तुम लोग अपना प्रोग्राम बना कर कल खूब मजे से पिकनिक मना लो. हां, मैं नहीं जा पाऊंगा क्योंकि कल दुकान खुली है,’’ विमल ने सहजता से कहा.

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तीनों बच्चों ने विमल की ओर आश्चर्य से देखा. शायद उन को इस बात की तनिक भी आशा नहीं थी कि विमल इतनी आसानी से हामी भर देंगे क्योंकि जाने क्यों उन लोगों के मन में यह धारणा बनी हुई थी कि उन के पिता कंजूस हैं. इस का कारण यह था कि उन के साथी जितना अधिक शौपिंग करते थे, अकसर ही मोबाइल फोन के मौडल बदलते थे या आएदिन बाहर खाना खाते थे, वे सब उस तरीके से नहीं कर पाते थे. हालांकि विमल को भी अपने बच्चों की सोच का एहसास तो हो गया था पर उन्होंने बच्चों से कभी कुछ कहा नहीं था. लेकिन विमल को यह जरूर लगता था कि बच्चों को भी अपने घर के हालात तो पता होने ही चाहिए, साथ ही अपनी जिम्मेदारियां भी जाननी चाहिए, क्योंकि अब वे बड़े हो रहे हैं. आज कुछ सोच कर विमल पूछने लगे, ‘‘रज्जो, यह प्रोग्राम तुम ने बच्चों के साथ बनाया है न?’’

रज्जो ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘बच्चों को लग रहा था कि तुम मना न कर दो, इसलिए मैं भी जिद करने को तैयार थी पर तुम ने तो एक बार में ही हामी भर दी.’’ इस पर विमल मुसकराए और एकएक कर सब के चेहरे देखने के बाद सहज हो कर कहने लगे, ‘‘रज्जो, तुम शायद इस का कारण नहीं जानती हो कि बच्चों ने ऐसा क्यों कहा होगा. जानना चाहोगी? इस का कारण यह है कि मेरे बच्चे समझते हैं कि मैं, उन का पिता, कंजूस हूं.’’ विमल का इतना कहना था कि तीनों बच्चे शर्मिंदा हो गए और अपने पिता से निगाहें चुराने लगे. एक तो उन को यह पता नहीं था कि उन के पिता उन की इस सोच को जान गए हैं, दूसरे, विमल द्वारा इतनी स्पष्टवादिता के साथ उसे सब के सामने कह देने से वे और भी शर्मिंदगी महसूस करने लगे थे. विमल किन्हीं कारणों से ये सारी बातें करना चाह रहे थे और संयोगवश, आज उन को मौका भी मिल गया.

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भाई का  बदला: भाग 3- क्या हुआ था रीता के साथ

रमन अपने भाई की ओर  सवालिया निगाहों से देखने लगा. अमन ने उसे इशारों से रीता को हां कहने को कहा.

“ठीक है, तब परसों संडे को  शाम ठीक 5 बजे  मेरे कहे समय और पते पर 7 लाख कैश ले कर मिलो.  इस के बाद भी हम अच्छे दोस्त बने रहेंगे, यह मेरा वादा है.  मुझे  अच्छे कालेज में एडमिशन के लिए पैसों की सख्त जरूरत है.“

“ओके, मैं पैसे ले कर आ जाऊंगा.“

“याद रखना, यह बात सिर्फ तुम्हारे और मेरे बीच रहनी चाहिए  वरना मैं तुम्हारे फोटो की कौपी किसी दूसरे दोस्त को फौरवर्ड कर दूंगी.  कुछ ऐसावैसा किया तो वह तुम्हें एक्सपोज कर देगा. हां, एक जरूरी बात, अगर मैं घर से बाहर नहीं निकल सकी तो मेरा बड़ा भाई जा सकता है.   उस के पास सौ रुपए का यह नोट होगा, इस का नंबर नोट कर लो.“

“नहीं, मैं किसी को नहीं बताऊंगा और तुम्हारे दिए समय व पते पर आ जाऊंगा. पर कोई दूसरा आए तो उस के पास तुम्हारा ही फोन होना चाहिए जिस में मेरी तसवीरें हैं,“  रमन ने कहा.

“डोंट वरी, मुझे आम खाने से मतलब है, गुठली गिनने से नहीं. मुझे मेरी रकम चाहिए और कुछ नहीं.“

अगले दिन रीता ने फोन कर रुपयों के साथ आने के समय और स्थान का पता बता दिया. रमन को शहर के पूर्वी छोर पर एक जगह बुलाया. वह जगह अभी डैवलप्ड नहीं थी. कुछ घर बन चुके थे जिन में इक्केदुक्के   लोग रह रहे थे और काफी घर बन रहे थे. वहां अभी सड़कें भी पक्की नहीं बन सकी थीं. रीता ने रमन को एक निर्माणाधीन घर का पता दे कर वहां आने को कहा. अमन ने अपनी कंपनी के एक स्टाफ  को वहां जा कर उस जगह को देखने को कहा. उस ने स्टाफ को सिर्फ इतना बताया कि वहां उसे कुछ प्लौट खरीदना है. अमन के स्टाफ ने आ कर बताया कि उस मकान के 3 ओर अभी गन्ने के खेत थे.  यह जानने के बाद अमन बहुत खुश हुआ और उस ने रमन, शालू और दिया को भी इस की जानकारी दे दी.

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अमन ने बाकी  तीनों लोगों के साथ मिल कर एक प्लान बनाया और सख्त हिदायत दी कि और किसी को इस प्लान की भनक न लगे.  उस ने कहा, “रीता अपने ही बने जाल में फंसने जा रही है. उस ने जगह ऐसी चुनी है कि हम लोग मिल कर उस की घेराबंदी कर लेंगे.

एक ब्रीफकेस में कुछ असली रुपए रख कर उन के नीचे सिर्फ सफ़ेद पेपर के टुकड़े डाल दिए गए.  फैसला हुआ कि  अमन, शालू और दिया तीनों रीता के बताए गंतव्य स्थान पर पूर्व नियोजित समय से काफी पहले से ही  निकट के खेत में छिप जाएंगे. उस दिन कंस्ट्रक्शन वर्कर की छुट्टी थी. इलाका लगभग वीरान था.  रमन का फोन अमन के पास रहेगा और रीता का मैसेज मिलते ही रमन ब्रीफकेस ले कर रीता के पास जाएगा. रमन के पास अमन का फोन होगा और जब रीता का फोन आएगा, अमन कौल रिसीव करेगा और रमन, बस, होंठ चलाते हुए बात करने का उपक्रम करते हुए रीता की और बढ़ेगा. अगर  दिशानिर्देश आदि कोई विशेष जानकारी देनी होगी, तो अमन या शालू उसे रमन को मैसेज कर देंगी.

रीता ने अपनी समझ में  पूरी होशियारी बरती. उस ने खुद न जा कर किसी दूसरे लड़के को भेजा जिसे रीता ने अपना भाई कहा था. रमन ने उस से 100 रुपए के नोट का नंबर मिलाया. फिर कुछ देर तक उसे  इधरउधर की बातों में उलझाए  रखा. उस ने रमन से जल्द ही ब्रीफकेस देने को कहा. रमन ने भी उस से रीता का फोन देने को कहा ताकि वह फोटो डिलीट कर दे. उस ने रीता का फोन रमन को दिया, तभी अचानक अमन और दिया को अपनी तरफ आते देखा. वह घबरा कर भागने लगा पर दिया के ट्वाइकांडों  के एक झटके से वह जमीन पर औंधेमुंह गिर पड़ा.

दिया, अमन और शालू ने मिल कर उस पर काबू पा लिया. अमन बोला, “तुम रीता के भैया हो न, अपनी बहन को कौल कर यहां बुलाओ. जैसा मैं कहूं, वैसा ही उसे बोलना होगा.“

“काहे का भैया? मैं तो उस का प्रेमी हूं. भैया  नहीं, होने वाला सैंया  हूं. रीता भी यहां से ज्यादा दूर नहीं है.“

“तुम उस के जो  भी हो, उसे जल्द यहां आने को कहो.“

रीता के प्रेमी ने फोन कर  उस से कहा, “रीता, यह कौन सी जगह तुमने चुनी है? रुपए तो पूरे मिल गए पर मुझे सांप ने काट लिया है. मैं अब और चल नहीं सकता हूं. पता नहीं  सांप जहरीला था या नहीं पर बहुत दर्द और जलन हो रही है . जल्दी से मुझे ले चलो यहां से.“

तभी रीता एक पुरानी कार चलाते हुए वहां आई. वहां रमन के अलावा अन्य लोगों को देख वह डर गई. उसे देख कर प्रेमी बोला, “घबराओ नहीं, ये लोग हमारी मदद कर रहे हैं.“

रीता के आते ही दिया के दूसरे पैतरे ने उसे भी चारो खाने चित कर दिया. रीता के पास से दूसरा फोन भी ले लिया गया. रीता और उस के प्रेमी ने कहा, “हम दोनों भाग कर शादी करने जा रहे थे. अपनी नई जिंदगी की शुरुआत के लिए रुपयों की जरूरत थी, इसीलिए हम ने  ऐसा किया है. अमन ने ऐसा एक  कुबूलनामा लिखवा कर दोनों के साइन ले लिए.“

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अमन बोला, “तुम ने रमन के फोटो कहांकहां भेजे हैं?“

“अभी तक कहीं नहीं भेजे हैं. रमन रुपए न देता, तो फिर मजबूर हो कर भेज देती.“

शालू बोली, “आप लोग उस की चिंता न करें.  मैं ISP से सब पता कर लूंगी. वैसे भी, इस ने अपना जुर्म कुबूल कर लिया है और कुबूलनामा पर साइन भी किए हैं. कुछ गड़बड़ होने पर दोनों जेल की हवा खाएंगे.“

फिर रमन और उस के साथ आए लोगों ने निर्माणाधीन मकान से रस्सियां ला कर दोनों के हाथ, पैर और मुंह बांध कर कार में बैठा दिया. ब्रीफकेस से असली रुपए निकाल कर अपने पास रख लिए. अमन कार ड्राइव कर रहा था, उस ने  रीता के  घर के सामने कार रोकी और रीता के फोन से ही उस के पापा को फोन किया, “आप की बेटी का कार ऐक्सीडैंट हो गया था. हम उसे ले कर आए हैं. हम नीचे कार में हैं. चोट ज्यादा नहीं लगी है, फिर भी उसे हौस्पिटल ले जाना जरूरी है.”

तब तक शालू और दिया भी दूसरी कार में आ गए थे. अमन और रमन  ने रीता और उस के   प्रेमी को  वहीँ छोड़ दिया. उन्होंने दोनों के फोन अपने पास रख लिए. चारों अपनी  कार में सवार हो कर चल दिए. उन लोगों ने बड़ी चालाकी से बिना एक धेला खर्च किए और बिना पुलिस की मदद से ब्लैकमेलर जोड़ी को उन की औकात बता दी.

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सफेद सियार: भाग 5- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

चलते समय एक बार और अंशिका के कंधे, सिर और गाल पर हाथ फेरता हुआ बनवारी चला गया.

पर, आज उसे न जाने क्यों बनवारी अंकल की नीयत में खोट नहीं दिखाई दिया. उसे तो औफिस इंचार्ज वाली कुरसी दिखाई दे रही थी.

फिर कंधे, सिर और गाल पर तो उस के पापा भी हाथ फेर लिया करते थे.

अगले दिन 2 बजे तक अंशिका अपने सारे प्रमाणपत्र फाइल में रख कर तैयार हो कर ड्राइवर का इंतजार कर रही थी. बहुत दिनों बाद जिस ढंग से उस ने मां के कहने पर उन की सुंदर सी साड़ी पहन कर अपने को सजायासंवारा था, उस से उस की सुंदरता इतनी निखर आई थी कि मां को उसे अपने पास बुला कर उस के कान के पीछे काजल का टीका लगा कर कहना पड़ा, “मेरी ये साड़ी पहन कर तू कितनी सुंदर लग रही है. मेरा ब्लाउज भी तुझे एकदम फिट आया है. तू तो शादीलायक हो गई है. काश, तेरे पापा और भैया…” कहतेकहते कुमुद रोने लगी.

अंशिका ने पास जा कर मां को संभाला. मुझे रो कर इंटरव्यू के लिए भेजोगी, तो मैं पास होने से रही. और मां रोने से होगा क्या… दिन में कितनी बार रोरो कर तुम अपना बुरा हाल…

अंशिका इतना ही कह पाई थी कि किसी ने बाहरी दरवाजा खटखटाया. अंशिका समझ गई कि उसे लेने बनवारी अंकल का ड्राइवर आ गया है.

उस ने जा कर दरवाजा खोला. जुगल ही था. सजीधजी अंशिका को देख कर वह ठगा सा खड़ा रह गया. ऐसी ही तो पत्नी पाने की चाह वह रखता था. और ये उस सियार के पास नौकरी पाने के लिए इंटरव्यू देने जा रही है, जो कई मजबूर जीवों का खून चूस कर छोड़ चुका है.

उसे अपनी ओर अपलक यों देखता पा कर अंशिका बोली, “अरे जुगल, मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो? क्या कभी साड़ी पहने लड़की नहीं देखी…?”

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तभी कुमुद बाहरी दरवाजा बंद करने के इरादे से अंशिका के पीछे आ कर खड़ी हो गई. उन्होंने पूछा, ”क्या हुआ बेटी?”

“कुछ नहीं मां. जुगल किशोर नाम का यह ड्राइवर मुझे लेने आया है. मैं जा रही हूं. तुम ठीक से दरवाजा बंद कर लो.”

कुमुद को देखते ही जुगल ने हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्ते की, फिर अंशिका को अपने साथ वाली आगे की सीट पर बैठा कर कार को आगे बढ़ा ले गया.

यों तो अंशिका वाले घर से संस्था के औफिस तक का रास्ता बमुश्किल 30 मिनट का था, लेकिन जुगल ने थोड़े लंबे वाले रास्ते पर कार को मोड़ दिया, तभी अंशिका पूछ बैठी, “बनवारी लालजी वाला सेवा संस्थान का औफिस यहां से कितनी दूर है?”

“रीवा के न्यू टाउन आउटर इलाके में कृषि विकास प्राधिकरण के नवनिर्मित भवन के पास,” ड्राइवर जुगल ने बताया.

“लेकिन, वहां पहुंचने के लिए पीछे एक टर्न भी तो था, जिसे तुम ने छोड़ दिया. उस से मुड़ते तो हम थोड़ा जल्दी पहुंच जाते.”

“अरे, आप तो यहां के रास्तों से खूब परिचित हैं.”

“सालों से यहां रह रही हूं. यहीं पढ़ीलिखी हूं. खूब परिचित हूं रास्तों से.”

“रास्तों से भले ही परिचत हों, लेकिन आप यहां के इनसानों से परिचित नहीं हैं.”

“क्या मतलब है तुम्हारा…?

“मैं सीधेसीधे यह कहना चाहता हूं कि मेरा दिल आज से आप को चाहने लगा है. जिसे मेरा दिल चाहता है, उसे दलदल की तरफ जाने से रोकना मेरा कर्तव्य है.”

“तुम्हारे कहने का मतलब क्या है…?”

“मेरे कहने का मतलब यही है कि जिस बनवारी लाल के पास आप इंटरव्यू देने जा रही हैं, वह सफेदपोश भेड़िया है. न जाने कितनों का शोषण कर के वह उन की जिंदगी बरबाद कर चुका है. मैं अब किसी और की जिंदगी बरबाद होते नहीं देख सकता.”

“पहले मेरी भी उन के प्रति यही धारणा थी. तुम ने शायद सुनीसुनाई बातों पर विश्वास कर रखा है. मेरे पापा के वे तबके दोस्त हैं, जब मैं 14 साल की थी. वे मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं करेंगे. मैं उन के पास जा कर इंटरव्यू अवश्य दूंगी,” अंशिका अपनी बात पर अड़ गई.

आखिरकार ड्राइवर जुगल को बनवारी लाल नाम के सफेद सियार की मांद में अंशिका को भेजना पड़ा. लेकिन सावधानीवश उस ने वहां के गार्ड शुभम को फोन कर के कुछ निर्देश दे दिए.

इसलिए अंशिका का इंटरव्यू लेने के बहाने जब बनवारी लाल ने उसे साउंडप्रूफ केबिन के अंदर बने एक और केबिन में ले जाने से पहले शुभम को इंसट्रक्शन दिए, ”तुम बाहर ‘डू नोट डिस्टर्ब’ का बोर्ड लगा दो. और जब तक इंटरव्यू खत्म न हो जाए, किसी को भी अंदर मत आने देना.”

आज इंपोर्टेंट इंटरव्यू के बहाने से उन्होंने गार्ड को छोड़ कर सभी स्टाफ को छुट्टी दे रखी थी.

उधर, 10-15 मिनट ही बीत पाए थे कि बाहर से तेज कदमों से चलता हुआ ड्राइवर जुगल आया और शुभम के पीछे बाहर वाले केबिन के कांच के दरवाजे को धकियाता हुआ फिर अंदर वाले केबिन का दरवाजा लात, फिर कंधे की मदद से तोड़ता हुआ अंदर पहुंच गया. पीछेपीछे गार्ड शुभम भी था.

अंदर डरीसहमी, घबराई सी अंशिका बदहवास एक कोने में पेटीकोटब्लाउज में खड़ी थी. उस की साड़ी एक तरफ उतरी पड़ी थी. ऐसा लग रहा था, अपनी इज्जत बचाने के लिए वह सघर्ष करने में जुटी पड़ी थी.

ड्राइवर जुगल को देखते ही अंशिका उस के पास आ कर लिपटते हुए बोली, “तुम सही कह रहे थे कि ये अंकल नहीं भेड़िया है. उधर अंडरवीयर और बनियान में ही अपना सफेद कुरतापाजामा उठा कर केबिन से बाहर जाने की फिराक में बनवारी को दरवाजे की तरफ सरकता देख गार्ड शुभम ने दरवाजा अंदर से बंद कर जुगल के साथ सोने के मूठ वाली छड़ से तब तक तुड़ाई की, जब तक उस ने कह नहीं दिया कि आज से वह किसी की भी इज्जत से खिलवाड़ नहीं करेगा.

अंशिका के पैर छू कर माफी मांगते हुए वह जुगल और शुभम के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा होते हुए बोला, “तुम दोनों इस बात को अपने तक ही रखना. मैं कल ही अंशिका के नाम वो वाला घर कर दूंगा और इस औफिस का भार भी उसे सौंप देता हूं.”

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कुछ देर बाद सब उस केबिन से इस तरह बाहर निकले, जैसे कुछ हुआ ही न हो.

अंशिका ने अपने को संवार लिया था और बनवारी लाल पिटने के बाद भी सामान्य सी अवस्था में बाहर आ कर अपनी रिवाल्विंग चेयर पर बैठते हुए अंशिका के लिए पहले से ही टाइप किए हुए अपायंटमेंट लैटर पर साइन करने में जुट गया.

ड्राइवर जुगल के साथ कार से वापस लौटते समय अंशिका ने कार एक सन्नाटे वाले पार्क के गेट पर रुकवा ली, फिर अंदर एक मोटे तने वाले पेड़ की आड़ में जुगल के आलिंगन में बंधते हुए वह बोली, “तुम मुझे आप नहीं अंशिका कह कर बुलाया करो. आज मेरी इज्जत तुम ने बचाई है. तुम्हारा प्यार और नई जिंदगी पा कर मैं धन्य हो गई.

“पर, एक बात बताओ, बनवारी अंकल ने मुझे अपायंटमेंट लेटर तो दे दिया है, लेकिन फिर उस की नीयत बिगड़ी तो…?”

“तुम पर क्या, अब तो किसी पर भी उस ने बुरी नजर डाली तो इस से भी ज्यादा हम उस की तुड़ाई करेंगे.”

“और उन्होंने तुम्हारे खिलाफ कोई केस बना कर जेल भिजवा दिया तो…?”

“अव्वल तो चरित्र से कमजोर और भ्रष्ट आदमी को अपनी इज्जत की चिंता ज्यादा रहती है, इसलिए वे किसी को फंसाने के बजाय अपने को बचाए रखने में ही भलाई समझता है.

“बनवारी के खिलाफ हम ने इतने सुबूत इकट्ठा कर रखे हैं कि वे हमें नहीं, बल्कि हम उन्हें जेल भिजवा सकते हैं.”

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सफेद सियार: भाग 4- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका जो बड़े ध्यान से अब तक जुगल की बातें सुन रही थी, अचानक पूछ बैठी, “अच्छा जुगल, एक बात बताओ. तुम इतने उदास और गंभीर क्यों रहते हो?”

“इन सब के पीछे लंबी दास्तान है. शोषण, स्वार्थ और सफेदपोश दिखने वाले लोगों से मैं जितनी नफरत करता था, आज उन्हीं के बीच मजबूरी में ये नौकरी कर रहा हूं. मैं ही नहीं मेरा भाई शिवम, जो उन के औफिस या यों कहो कि पर्सनल सिक्योरिटी में रातदिन लगा रहता है. वह तो इन की काली करतूतें देख कर खून का घूंट पी कर रह जाता है.”

“काली करतूतें…? मैं कुछ समझी नहीं.”

“आप न ही समझिए तो अच्छा है. हम तो मजबूर हैं, इसलिए जमे हुए हैं. जिस दिन स्थितियां अनुकूल होंगी और फैक्टरियां खुल जाएंगी, उसी दिन ऐसी नौकरी को हम लात मार कर चले जाएंगे.”

अंशिका ने आगे पूछा, “तुम्हारे इस संस्थान में कुछ लड़कियां भी काम करती हैं क्या?”

“हां, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का काम 3 लड़कियां करती हैं और एक मजबूर शादीशुदा लड़की को उन्होंने अभी कोई एक महीना पहले उस के पति की कोरोना से मौत हो जाने के बाद रखा है.”

“इन दिनों तो इस संस्थान ने हेल्थ वर्कर्स को अपौइंटमेंट कर के अस्पतालों में ड्यूटी पर भेजने का भी ठेका ले रखा है.”

जुगल के जाने के बाद अंशिका सोचने लगी, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का कोर्स तो उस ने भी किया हुआ है और मैं यह काम अच्छे से कर भी सकती हूं. लेकिन, बनवारी अंकल की वो गंदी नीयत…

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कई बार उस का मन हुआ कि वह उन्हें फोन लगा कर पूछे, ‘अंकल, क्या मैं भी आप के संस्थान वाले औफिस में डाटा एंट्री औपरेटर के रूप में जौब पा कर कुछ इनकम कर सकती हूं?’

वह जानती थी कि कुछ महीनों पहले तक जो उसे देखने, छूने के बहाने प्यार करने के लिए बेचैन हो जाता था, वह उस की इतनी बात तो मान ही लेगा.

कुमुद की मनोदशा को समझते हुए उस ने इस विषय में अब तक कोई बात नहीं की थी. लेकिन, इस महीने के अंतिम दिन जब बनवारी का फोन अंशिका के पास आया, तो उस ने स्पीकर औन कर के मां को फोन पकड़ाते हुए धीरे से कहा, “बनवारी अंकल का फोन है. लो, बात कर लो.”

उधर से बनवारी की आवाज सुनाई दी, “भाभीजी, आप सोच रही होंगी कि मधुसूदन का ये कैसा दोस्त है, जिस ने उन के और बेटे के कोरोना के कारण जान गंवाने के बाद घर आ कर सुध तक नहीं ली. लेकिन, ऐसा नहीं है. मेरे समाजसेवी संस्थान के वर्कर्स लगातार अंशिका के संपर्क में थे. मैं ने 2-3 बार आप को फोन भी मिलाया, पर शायद अंशी ने काट दिया.”

उधर से इतना सुनते ही अंशिका ने फोन अपने हाथ में ले कर कहा, ”अंकल, मां वैसे ही इतने सदमे में थी. बड़ी मुश्किल से मैं उन्हें संभाले हुए थी. और आप की आवाज सुन कर वह फिर बीते हुए समय में चली जातीं, तब उन्हें संभालना और भी मुश्किल हो जाता, इसलिए मैं ने फोन…”

बात खत्म होने से पहले ही उधर से बनवारी की आवाज सुनाई दी, “मैं समझ सकता हूं अंशी. तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है. कल से लौकडाउन खत्म हो रहा है. मैं कल तुम्हारे घर आ रहा हूं. बोलो, तुम्हारे लिए क्या लेता आऊं. जलेबी या गरमागरम समोसे…”

“जो भी आप को अच्छा लगे ले आइए अंकल,” अपनी आवाज में पूरी मिठास घोलते हुए अंशिका ने कहा. इस समय तो उस ने बनवारी लाल के संस्थान में नौकरी करने का पक्का मन बना लिया था.

बनवारी लाल भला क्यों न आता. वह आया झक सफेद पठान सूट में. काले रंगे हुए बाल और मूंछ, सुनहरी मूठ वाली छड़ी.

आते ही बनवारी ने जलेबी और समोसे मुसकराते हुए अंशिका को पकड़ाए. पैकेट पकड़ाते समय अंशिका ने अपनी गुदाज हथेली पर बनवारी के उस रेशमी स्पर्श से मिलने वाले प्यार के संकेत को भांप लिया था. परंतु ना जाने क्यों उसे बुरा न लगा. अब कोई किसी को कुछ देगा तो ऐसा स्पर्श स्वाभाविक भी हो सकता है. उस ने अपने मन को समझाया.

इतना तो बनवारी रूपी सफेद सियार के लिए बहुत था कि वह अंशिका रूपी जिस बिल्ली पर कई सालों से घात लगाए बैठा था, वह खुद उस के करीब आने वाली है. इसलिए बनवारी को अपने सामने देख जब कुमुद मधुसूदन को याद कर के विलाप करने लगी, तो वह अपनापन दिखाते हुए बड़े मीठे शब्दों में बोला, “अब देखो न भाभी, होनी कितनी बलवान होती है. उस दिन मधुसूदन को वैक्सीन का पहला टीका लग जाता तो ये सब न हुआ होता. अब जो होना था हो गया. अब मुझे आदेश दो कि मैं तुम्हारी और क्या सहायता कर सकता हूं.”

कुमुद कुछ कहती, इस से पहले ही ट्रे में चाय और प्लेटों में बनवारी द्वारा लाए समोसे, जलेबी सामने वाली मेज पर रखती हुई अंशिका बोली, “अंकल, आप तो बस इतना कर दो कि मुझे अपनी संस्था वाले औफिस में डाटा एंट्री आपरेटर के रूप में नौकरी पर रख लो.”

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“बस इतनी सी बात… मेरे रहते तू डाटा एंट्री आपरेटर की नौकरी करेगी. अरे, तेरे लिए मैं औफिस इंचार्ज की पोस्ट क्रिएट कर के वहां बैठा दूंगा. बस तुझे अपने सारे सर्टिफिकेट ले कर कल शाम तक इंटरव्यू के लिए आना होगा. अब संस्था में नौकरी के लिए फोरमैलिटी तो पूरी करनी ही पड़ेगी.”

“अंकल, मेरा इंटरव्यू तो आप ही लोगे ना?”

“तुझे इतना सब सोचने की जरूरत नही है,” कहते हुए बनवारी ने समोसा खाने के बाद चाय का घूंट भरते हुए कहा, “देख रही हो भाभी, मुझे यह अंकल भी कहती है और डरती भी है, जबकि सेलेक्शन मुझे ही करना है.”

“बेटी, जब अंकल कह रहे हैं तो डरना कैसा…? मेरे लिए तो इस से अच्छी कोई बात हो ही नहीं सकती कि जानपहचान वाली जगह पर तू नौकरी करेगी, तो मैं भी बेफिक्र रहूंगी और घर में खर्चे के लिए कुछ रुपए भी आने लगेंगे. वैसे भी इस महीने का किराया भी तेरे अंकल को देना है.”

“भाभी, वह तो तुम पेटीएम कर देना. अब मैं चलता हूं. कल ड्राइवर को कार के साथ भेजूंगा. वह अंशी को घर से पिकअप कर लेगा और औफिस के इंटरव्यू रूम तक पहुंचा देगा.”

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भाई का  बदला: भाग 2- क्या हुआ था रीता के साथ

इधर अमन और उस के पिता समझ चुके थे कि रमन का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है.  वह दिनभर फोन और कंप्यूटर पर लगा रहता है  हालांकि रीता के बारे में उन्हें कुछ पता न था.  सेठ ने  दोनों बेटों को बुला कर कहा, “मैं सोच रहा हूं, तुम दोनों की शादी पक्की कर दूं.  सेठ जमुनालाल ने अपनी इकलौती बेटी दिया के लिए रमन में दिलचस्पी दिखाई है. हालांकि, दिया  ट्वेल्फ्थ ड्रौपआउट  है पर उस में अन्य सराहनीय गुण हैं. मैं देख रहा हूं कि   रमन का जी पढ़ाई में नहीं लग रहा है.   अमन के लिए भी एक लड़की है मेरी नजर में, कल ही उस के पिता से बात करता हूं. उसे तुम भी जानते हो, शालू, जो कुछ साल तुम्हारे ही स्कूल में पढ़ी थी.  वह बहुत अच्छी लड़की है, मुझे तो पसंद है.“

अमन बोला, “हां, मैं शालू को जानता हूं पर  पापा मेरी पढ़ाई अगले साल पूरी हो रही है, इसलिए तब तक  मैं शादी नहीं करूंगा.“

“मैं ने शालू के पिता को भरोसा दिया है कि अमन मेरी बात नहीं टालेगा. उन्हें इनकार कर मुझे बहुत दुख होगा.“

“पापा, आप का भरोसा मैं नहीं टूटने दूंगा, न ही आप उन्हें इनकार करेंगे. बस, आप उन से कहिए कि चाहें तो सगाई अभी कर सकते हैं और शादी मेरे फाइनल एग्जाम के बाद होगी.”

“बहुत  अच्छी बात कही है तुम ने बेटा, सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली बात हुई. ठीक है, मैं उन्हें बता दूंगा.“

“ठीक है, शादी अगले साल ही होगी.  इसी साल किसी अच्छे मुहूर्त देख कर तुम दोनों भाइयों की सगाई कर देता हूं.“

“ओके पापा.“

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एक महीने के अंदर दोनों भाइयों  की सगाई होने वाली थी.  रमन ने यह सूचना अपनी फेसबुक फ्रैंड रीता को बता दी.  रीता ने उसे बधाई  दी.  अगले दिन से रीता के अकाउंट्स से रमन को धमकियां  मिलने लगीं- “तुम ने एक नाबालिग लड़की से फेसबुक पर अश्लील हरकतें की हैं.  मैं तुम्हारे सारे फोटो तुम्हारी मंगेतर, तुम्हारे पापामम्मी और सारे फ्रैंड्स व रिश्तेदारों  को फौरवर्ड कर दूंगी  और साथ ही, सोशल मीडिया पर भी.“

“तुम कैसी फ्रैंड हो…  मैं ने तुम्हारी मदद की और अब तुम मुझे बेइज्जत करने की सोच रही हो?“ रमन ने कहा.

“मैं कुछ नहीं जानती, एक नाबालिग लड़की से ऐसी गंदी हरकतें करने के पहले तुम्हें सोचना चाहिए था.  अगर तुम अपने परिवार को बेइज्जती और बदनामी से बचाना चाहते हो तो  तुम को मुझे 10 लाख रुपए देने होंगे.  सेठ रोशनलाल के बेटे  हो और सेठ जमुनालाल के इकलौते दामाद बनने जा रहे हो. इतनी रकम जुटाना कोई बड़ी बात नहीं है.“

“इतनी बड़ी रकम मैं नहीं दे सकता.“

“अगर तुम नहीं मानते,  तब मुझे भी मजबूर हो कर सख्त कदम उठाना होगा. सभी को तुम्हारी गंदी और अश्लील हरकतों की जानकारी देनी होगी. दोनों परिवारों की बदनामी तो होगी ही और तुम दोनों भाइयों की शादी का क्या होगा, वह तुम समझ सकते हो.“

कुछ दिनों तक दोनों के बीच ऐसा ही चलता रहा.  रमन बहुत परेशान और दुखी रहने लगा.  घरवालों के पूछने पर कुछ बताता भी नहीं था.  अब  सगाई में मात्र 10 दिन रह गए थे.  रीता ने रमन से कहा, “ब मैं और इंतजार नहीं कर सकती.  तुम्हें, बस, 3  दिन का समय दे रही हूं.  तुम रुपए ले कर जहां कहूं वहां आ जाना. कब और कहां, मैं थोड़ी देर में  बता दूंगी.  वरना, अंजाम तुम समझ सकते हो.“

एक रात अमन  छोटे भाई रमन  के कमरे के सामने से गुजर रहा था. रमन का कमरा अधखुला था.  उस ने रमन को  कमरे में तकिए में मुंह छिपा कर सिसकते देखा. वह  रमन के पास गया  और उस से रोने का कारण पूछा. रमन अपने भाई के गले लग कर रोने लगा. अमन ने उसे चुप कराया और  कहा, “अपने भाई से अपने दुख का कारण शेयर करो. अगर  मैं तुम्हारा दुख कम नहीं कर सका, तब भी शेयर करने से  कम से कम मन का बोझ कम हो सकता है.  चुप हो जाओ और अब  शेयर करो अपनी बात.“

रमन ने रोते हुए अपने  और रीता के बीच हुई सारी बातें बताईं. रमन की बातें सुन कर अमन बोला, “बस, इतनी सी बात है. तुम अब इस की चिंता छोड़ दो. हम दोनों मिल कर उस रीता की बच्ची को छठी के  दूध की याद दिला देंगे. इतना ही नहीं, हम दोनों की भावी पत्नियां भी रीता को सबक सिखाने में हमारी मदद करेंगी.“

“पर क्या शालू भाभी और दिया को यह बताना सही होगा?“

“अगर सही नहीं है तो इस में कुछ गलत भी नहीं है. तुम्हारी गलती इतनी है कि तुम अपनी  नादानी और बेवकूफी के कारण  रीता के ब्लैकमेल के जाल  में फंस चुके हो. तुम्हें शायद पता नहीं है कि शालू को आईटी की अच्छी जानकारी है. दिया तुम्हारी भावी पत्नी है, उसे तुम सचाई बता सकते हो. इतना ही नहीं, दिया ताइक्वांडो में ब्लैक बेल्ट ले चुकी है. इन दोनों को अपने जैसा कमजोर न समझो. हम चारों मिल कर इस स्थिति से निबटने का कोई  उपाय निकाल लेंगे.  तुम दिया को कौन्फिडैंस में लो और रीता से बात करते रहो कि पैसों  का इंतजाम कर रहा हूं, कुछ समय दो.“

“क्या हमें पुलिस की मदद लेनी होगी?“  रमन ने पूछा.

“नहीं, अगर लेनी भी पड़ी तो  रीता को पकड़ने के बाद. आखिर तुम्हारी तसवीरें तो उस के मोबाइल या अन्य सिस्टम में स्टोर हैं और वह तुम्हें गलत साबित कर सकती है.”

दोनों भाई और उन की भावी पत्नियों ने मिल कर रीता से निबटने का प्लान बनाया. रमन ने रीता को फोन कर कहा, “देखो 10 लाख रुपए का इंतजाम तो मैं नहीं कर सकता, 5 लाख रुपए तो तैयार ही समझो. इतने से  तुम्हारा काम हो जाना चाहिए.“

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फोन की बातें अमन, दिया और शालू भी सुन रहे थे. रीता ने कहा, “नहीं, 5 लाख से काम नहीं चलेगा.“

रमन बोला, “तब ठीक है, कल के पेपर में मेरे सुसाइड करने की खबर पढ़ कर तुम्हारा काम हो  जाना चाहिए.“

“अरे नहीं यार, मैं उतनी जालिम नहीं हूं. तुम्हारे मरने से मुझे क्या हासिल होगा. ऐसा करो, 2 लाख और दे देना. बस, फुल एंड फाइनल,“ रीता बोली.

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सफेद सियार: भाग 3- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका ने कार के पीछे वाले कांच पर पेंट से लिखा हुआ प्रचार विज्ञापन पढ़ा, “कोरोना विपदा की इस घड़ी में आप का सच्चा साथी ‘जागृति सेवा संस्थान’. उस के नीचे ब्रैकेट के अंदर छोटे अक्षरों में लिखा था, “आप भी इस संस्था को कोई भी राशि दान कर सकते हैं. आप का छोटा सा सहयोग इस आपदा की घड़ी में गरीबों और जरूरतमंदों के काम आ सकता है.”

उन के जाते ही बाहरी दरवाजा बंद कर के अंदर आ कर अंशिका ने सामान एक तरफ रखा. कमरे में झांक कर मां को देखा. वे अभी भी सो ही रही थीं.

पूरे घर में उदास सा सन्नाटा पसरा था. फ्रेश होने के लिए बाथरूम की तरफ कदम बढ़ाने से पहले अंशिका ने हाथ में पकड़े कार्ड पर नजर डाली और संस्था के संस्थापक और संचालक का नाम पढ़ कर चौंक पड़ी, ‘बनवारी लाल’.

फ्रेश होने के बाद वह चाय का थर्मस और 2 कप लिए हुए गहरी नींद में सो रही मां के पलंग के पास पड़ी कुरसी पर आ कर बैठ गई. उस ने एक बार और कार्ड को फिर से उलटपुलट कर देखा और सोचने लगी कि बनवारी अंकल तो बहुत बड़ी समाजसेवा में जुटे हैं. उन के प्रति अब तक तो वह बहुत गलत धारणा पाले हुए थी.

उस की नजरों मे वो दृश्य घूम गया, जब 4 साल पहले वह अपने मातापिता और भैया के साथ बनवारी अंकल की कार में बैठ कर उन का ये घर देखने आई थी. उसी साल उस के पिता फर्टिलाइजर फैक्टरी के स्टोर इंचार्ज पद से रिटायर हुए थे. पेंशन न के बराबर थी. फंड का जो पैसा मिला था, उस में से कुछ रकम उन्होंने एफडी में डाल दी थी और कुछ रुपया जमीन खरीदने में फंसा दिया था.

मधुसूदन सोचते थे कि जमीन मिलते ही रजिस्ट्री करवा कर अंशिका की शादी के लिए जब वह उसे बेचेंगे तो अच्छी रकम हाथ आ जाएगी, इसलिए वह निश्चिंत थे.

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मधुसूदन के रिटायरमेंट से कुछ महीने पहले आलोक का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था. उस की रुचि टूर ऐंड ट्रेवल्स के क्षेत्र में जाने की ज्यादा थी, इसलिए उस ने मास्टर इन टूरिज्म का डिप्लोमा करने के बाद कई जगह एप्लाई करना शुरू कर दिया था. दिन बीत रहे थे, लेकिन कोरोना ने सारी प्लानिंग चौपट कर दी थी.
हालांकि तब तक वे सब इस घर में आ चुके थे.

इस से पहले जिस घर में पिछले कई सालों से वे किराए पर रहते थे, वह काफी पुराना और कई तरह की सुविधाओं से वंचित था. धूप तो आती ही नहीं थी. पानी की भी हमेशा किल्लत बनी रहती थी.

फिर जब एक दिन मधुसूदन ने घर आ कर बताया कि कभी उन के साथ ही स्टोर का कार्यभार संभालने वाला बनवारी लाल, जो बीच में ही नौकरी छोड़ कर क्षेत्रीय राजनीति में घुस कर ठेकेदारी करने लगा था, उस का धनबाद में एक नया बना मकान खाली पड़ा है और वो हमें किराए पर देने को तैयार है.

उन सब को अपनी कार में ले कर जब वह इस घर में आया, तो मकान दिखाते समय बनवारी ने कई बार अंशिका के कंधों पर, पीठ पर या फिर सिर पर प्यार भरे हाथ फेरते हुए उसे अंशिका की जगह अंशी कहते हुए पूछा, “क्यों अंशी, कैसा लगा मकान?”

बनवारी का स्पर्श तभी होता था, जब सब का ध्यान मकान में बनी सुविधाएं देखने में लगा होता.

जब अंशिका उन की तरफ देखती, तो उसे अंकल की नीयत में खोट लगती. वह दौड़ कर मां या भाई के पास पहुंच कर खड़ी हो जाती.

मधुसूदन, कुमुद और आलोक के साथ मकान तो अंशिका को भी पसंद आ गया था, परंतु उसे बनवारी अंकल की नीयत समझ में नहीं आई थी. उस ने अपने मन को समझाया, ”अरे, कौन सा मुझे यहां अकेले रहना है…? पापा, भैया और मम्मी सभी तो साथ रहेंगे.”

मधुसूदन और उस का पूरा परिवार बनवारी के इस मकान में किराए पर रहने लगा. बनवारी 1 से 7 तारीख के बीच मिलने आ जाता. एक मकसद तो किराया लेना होता था और दूसरा अंशिका पर अपना प्रभाव डालना.

इस के लिए बनवारी कभी जलेबी, तो कभी गरमागरम समोसे, गुलाब जामुन या फिर खस्ता कचौड़ी अवश्य ले आता और तब खाता, जब पापा या मम्मी द्वारा अंशिका को सामने बुला कर बैठा न लेता…

मधुसूदन के हार्ट के आपरेशन के बाद जब कुमुद अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में देखरेख के लिए वहीं रहती और आलोक घर से अस्पताल की दौड़भाग में लगा होता, तो बनवारी मौका ताड़ कर अंशिका से मिलने चला आता.

हाथ में पकड़े हुए गरम समोसे और जलेबी के पैकेट अंशिका को पकड़ाते हुए कहता, “तुम्हारे पापा को देख कर अस्पताल से लौट रहा था, तो मन हुआ कि अपनी अंशी के लिए लेता चलूं और उस के हाथ की चाय पीता जाऊं.”

अंशिका को समझ में नहीं आता कि वह करे तो क्या करे. वह उन के लिए जल्दी चाय बना लाती, ताकि जल्द ही वह घर से चला जाए. बनवारी की नीयत वह खूब समझती थी.

एक दिन अंशिका ने हिम्मत कर के टोक ही दिया, ”अंकल, अब मुझे न समोसे पसंद आते हैं और न ही जलेबी. आप को ये सब लाने की कोई जरूरत नहीं है.”

“तो तुझे और क्या पसंद है, मुझे बता. मैं वही चीज ले आया करूंगा.”

“मुझे एकांत और अकेले में रहना पसंद है. मैं चाहती हूं कि कोई मुझे डिस्टर्ब न करे.”

उस के बाद बनवारी के आने वाले समय पर अंशिका घर में ताला लगा कर अड़ोसपड़ोस की किसी सहेली के यहां चली जाती और वहीं से भाई आलोक को फोन कर के बता देती कि लौटते समय वह उसे ले ले.

मधुसूदन के अस्पताल से वापस आने तक यही चलता रहा. फिर सब सामान्य हो गया.

बनवारी मधुसूदन से किराया लेने तो आता, पर उसे लगता कि अंशिका ने अपनी मां को कहीं सब बता न दिया हो, क्योंकि वह एक अज्ञात डर से कुमुद से बहुत देर तक आंख मिला कर बात नहीं करता.

एक बार कुमुद ने टोक दिया, “क्यों बनवारी भैया, अब तुम हमें समोसे ला कर नहीं खिलाते.”

इतना सुनते ही वह चौंक गया, फिर बात बनाते हुए बोला, “अरे भाभी, अब मेरा उधर जाना नहीं होता. और फिर मुझे अब समोसेजलेबी अच्छे भी नहीं लगते,” कहते हुए वह किराया ले कर तुरंत मधुसूदन के पास से उठ जाता, लेकिन उस की चोर निगाहें अंशिका को आसपास खोजतीं जरूर.

समय ऐसे ही बीत रहा था.

वह तो भला हो कि पिछला पूरा साल लौकडाउन में बीता और बनवारी लाल का इस घर में आनाजाना न के बराबर हो गया. शायद उसे डर था कि कहीं वह भी कोरोना वायरस की चपेट में न आ जाए.

आलोक ने अपनी मां कुमुद के मोबाइल पर पेटीएम अकाउंट बना दिया था. महीने का किराया उसी से बनवारी के पेटीएम अकाउंट में जमा हो जाता था.

अचानक अंशिका विचारों से बाहर निकल आई. कुमुद की आंख खुल गई थी. हड़बड़ा कर वह उठ कर पलंग के नीचे पैर लटका कर बैठ गई.

कुछ देर बाद जैसे ही उस के मस्तिष्क ने कल रात के घटनाक्रम को आज के समय से जोड़ा, तो वह फिर जोरों से कराह उठी, रोने और सिसकने लगी.

अंशिका ने कुरसी से उठ कर मां से सट कर बैठते हुए बड़ों की तरह समझाया, “मां, अब हमें धैर्य और हिम्मत से काम लेना होगा. रोनेधोने से कोई भी वापस आने वाला नहीं. तुम उठो, फ्रेश हो, हाथमुंह धो लो, कुल्लामंजन करो, फिर मैं तुम्हें गरमागरम चाय बना कर पिलाती हूं.”

“अरे, चाय तू ने कब बनाना सीख ली. तुझे तो पता है कि घर में किसी की डेथ हो जाने के बाद 5 दिन तक चूल्हा नहीं जलता है… और तू…”

“लेकिन मां, मैं ने चूल्हा नहीं जलाया. हां, यदि समाजसेवी संस्था वाले इस थर्मस में चाय और दोनों वक्त का खाना न दे जाते तो मैं गैस जला कर चाय और खाना जरूर बनाती. आप को भूखा थोड़े ही रहने देती और न खुद रहती.”

“लेकिन, अभी दाह संस्कार और शुद्धि हवन तक नहीं हुआ है और…”

“सब हो गया मां. समाजसेवी संस्था के जो लोग आए थे, उन्होंने पापा और भैया का दाह संस्कार भी कर दिया और शुद्धि हवन भी वही करवा देंगे.”

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“लेकिन बेटी…?”

“मां प्लीज अब सामने जो सच है, उसे स्वीकार करो. और सोच लो कि अब हमें और तुम्हें ही अपना जीवन चलाना है. तुम ने ही नहीं, मैं ने भी अपनों को खोया है, लेकिन ये निराशा भरी और पुरानी सोच वाली बातें भूल जाओ, पहले फ्रेश हो कर आओ.”

कुमुद यंत्रवत सी उठी. लौटी तो अंशिका ने उन्हें चाय पिलाई.

देखते ही देखते ये हफ्ता, इस से अगला हफ्ता भी बीत गया. लौकडाउन की अवधि 1-1 हफ्ते के हिसाब से राज्य सरकार द्वारा बढ़ाई जाती रही.

‘जागृति सेवा संस्थान’ के लड़के अदलबदल कर हालचाल लेने और आवश्यक घरेलू सामान पहुंचाने आते रहे. उन्हीं में से एक लड़का इधर लगातार आ रहा था, जो देखने मे हैंडसम और पहनावे से कुछ पढ़ालिखा और किसी अच्छे परिवार का लग रहा था, लेकिन कम बोलता था. चेहरे से हमेशा गंभीर बना रहता था. उस से अंशिका ने एक दिन पूछ लिया, ”क्या नाम है तुम्हारा?”

“जुगल किशोर.”

“इस संस्था में कब से जुड़े हो?”

“पिछले 5 महीने से. मोटर के स्पेयर पार्ट बनाने वाली फैक्टरी पिछले लौकडाउन में ही बंद हो गई थी और हमारे जैसे सभी टेक्निकल सर्टिफिकेट कोर्स करे हुए मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया गया था.

“अब घर में सब का पेट तो भरना ही है, इसलिए बनवारी लाल के सेवा संस्थान में ड्राइवर की नौकरी कर ली. उन की परमिट मिली गाड़ी ले कर संस्थान के काम से इधरउधर जाता रहता हूं.

“मेरा शादीशुदा चचेरा भाई भी बेरोजगार हो कर परेशान था. उसे भी मैं ने इस संस्थान के औफिस में सिक्योरिटी गार्ड की ड्यूटी पर लगवा दिया है.”

आगे पढ़ें- अंशिका ने आगे पूछा..

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सफेद सियार: भाग 2- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

आईसीयू के गहरे नीले रंग के कांच के बाहर उसे रोक कर वार्ड बौय ने स्ट्रेचर पर पड़े पिता को अंदर ले जा कर एडमिट करा दिया.

अंदर से आईसीयू की नर्स ने बाहर निकल कर आलोक से कुछ कागजों पर आवश्यक डिटेल भरवाई, फिर कई जगह आलोक के दस्तखत ले कर कहा, “मिस्टर आलोक, आज तो मजबूरी थी, वरना कोविड के आईसीयू वार्ड के आसपास किसी का भी आनाजाना वर्जित है. कल से आप को नीचे रिसेप्शन लौबी में कुछ देर के लिए प्रवेश मिलेगा और वहीं से संबंधित रोगी का स्वास्थ्य स्टेटस भी मिल जाएगा. अब आप जा सकते हैं.”

कांच के बाहर से ही आलोक ने एक असहाय सी नजर से आईसीयू के बेड पर लिटा दिए गए बेहोश पिता को देखने का प्रयास किया. उन के चेहरे पर औक्सीजन मास्क चढ़ा दिया गया था. स्लाइन और दवाएं भी हथेली की नसों के द्वारा शरीर में जानी शुरू हो गई थीं.

आलोक का वहां से हटने का मन नहीं हो रहा था. वह कुछ देर और वहीं खड़ा रहना चाहता था, तभी आईसीयू की सिक्योरिटी में लगे गार्ड ने आलोक के साथ वहां इक्कादुक्का और भी फालतू खड़े लोगों को बाहर निकाल दिया.

उस दिन आलोक घर तो आ गया. मां को सब हाल बता कर संतुष्ट भी कर दिया, पर भीतर ही भीतर बहुत बेचैन था. ये कैसी महामारी है, जिस ने सब का पिछला साल भी खराब कर दिया और इस साल भी भयंकर रूप से फैले चली जा रही है.

उस के बाद अगले 26 दिनों तक वह घर से अस्पताल लौकडाउन की सारी बाधाओं को दूर कर अस्पताल तो पहुंच जाता, जबकि उसे पता चल गया था कि उस की रिपोर्ट भी पोजिटिव आई है, लेकिन अगर उस ने बता दिया और कहीं उसे भी एडमिट कर लिया गया तो मां और अंशिका का क्या होगा. कौन दौड़भाग करेगा, इसलिए उस ने इस बात को अपने भीतर ही छुपा लिया.

अब तक बैंक के बचत खाते में जमापूंजी भी तेजी से घटती जा रही थी. उसे याद आया कि उस ने पापा और मम्मी के लिए ‘आयुष्मान भारत’ कार्ड के औनलाइन आवेदन के बाद कितनी दौड़भाग की थी, लेकिन स्वास्थ्य विभाग को सारी जानकारी उपलब्ध कराने के बाद भी उन का कार्ड नहीं बन पाया था.

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हालत और बिगड़ने पर मधुसूदन को वेंटिलेटर पर रख दिया गया था. रोज महंगा रेमडेसिविर इंजेक्शन, औक्सीजन के सिलेंडर का खर्चा. वह तो उस वार्ड बौय की मदद से उसे थोड़ा महंगे दामों में ही सही, लेकिन उपलब्ध हो जाता था वरना कुछ लोग तो उस इंजेक्शन को खरीदने के लिए अस्पताल की फार्मेसी के बाहर लगी लाइन में खड़े ही रह जाते थे.

रुपया पानी की तरह बहता चला जा रहा था. आलोक रोज अस्पताल तो आ जाता, पर पिता के दर्शन न हो पाते. बस इतना पता चलता कि उन की काफी देखभाल की जा रही है. हालत स्थिर बनी हुई है.

कोई 26-27 दिन के इलाज के बाद जब अगले दिन आलोक अस्पताल के वेटिंग लाउंज मे पहुंचा, तो उस का शरीर पसीने से नहा उठा, सांस घुटने सी लगी और औक्सीजन लेवल एकदम से गिर गया. पसलियों में उठने वाली असीम पीड़ा से कराहता हुआ वह धड़ाम से वहीं फर्श पर गिर गया. जब तक उसे उठा कर इमर्जेंसी वार्ड तक ले जाया जाता, उस के प्राण पखेरू उड़ चुके थे.

उसी समय वेटिंग लाउंज में लगे टीवी पर कल रात कोविड संक्रमण से मरने वालों के जो नाम लिए गए थे, उन में एक नाम मधुसूदन का भी था.

एक रात के इंतजार के बाद और लाशों के साथ मधुसूदन और आलोक की लाशों को भी प्लास्टिक में लपेट कर अस्पताल की खचाखच लाशों से भरी मोर्चरी में अंतिम संस्कार के लिए ले जाने के क्रम में रख दिया गया.

पूरी रात और अगली दोपहर तक जब आलोक घर नहीं पहुंचा, तो कुमुद का मन कई सारी आशंकाओं से घिर कर बेचैन हो उठा. वह अंशिका से बोली, “बेटी, मुझे बहुत घबराहट हो रही है. तू मुझे अस्पताल ले चल.”

“अरे मम्मी, आप परेशान मत हो. हो सकता है कि पापा ठीक हो गए हों. भैया पापा को ले कर आते हों.”

कुमुद कुछ देर के लिए तो शांत हो गई, लेकिन फिर से उस का मन किसी अज्ञात आशंका से घबरा उठा. लौकडाउन की अवधि लगातार बढ़ती जा रही थी. परिस्थितियां सामान्य होतीं, तो वह मधुसूदन की देखरेख के लिए अस्पताल में ही होती.

2 साल पहले प्राइवेट अस्पताल में उन के हार्ट के आपरेशन के समय कुमुद किस तरह उन के पास ही रही थी. लेकिन इन दिनों कोविड संक्रमण और लौकडाउन के भय ने सब को बांध कर रख दिया था.

लोग अपने रिश्ते और कर्तव्य निभाने में भी असमर्थ थे. यहां तक कि अपनों की मौत के बाद लोग कंधा देने को तरस रहे थे.

सोचतेसोचते अचानक कुमुद को कुछ खयाल आया. उस ने अंशिका से कहा, “तू बनवारी अंकल को फोन लगा. वही कुछ पता लगा कर बता सकते हैं.”

अंशिका ने बनवारी को फोन लगा कर सारी स्थिति से अवगत कराया, तो उन्होंने कहा, “बेटी, मैं संक्रमित होने के डर से चूंकि घर से बाहर झांक तक नहीं रहा हूं, इसलिए अस्पताल जा तो सकता नहीं. हां, वहां की एक हेल्थ वर्कर मेरी परिचित है. मैं उस से पता कर के कुछ देर में तुम्हें फोन करता हूं. अपनी मां से कहो कि वह परेशान न हों.”

कुछ ही देर बाद उधर से बनवारी ने जो सूचना दी, तो कुमुद तो दहाड़े मारमार कर छाती पीटने लगी और अंशिका किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई.

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बनवारी ने उसी मोबाइल पर व्हाट्सएप मैसेज में वो फोटो भी फोरवर्ड कर दी थी, जिस में पौलीथिन में लिपटे, केवल चेहरा खुले मृतक मधुसूदन और आलोक के शव थे, जिन्हें देख कर कुमुद का रुदन और तेज हो गया. वह बाहरी दरवाजे की ओर पागलों सी चिल्लाती भागने को हुई. अंशिका ने पूरी ताकत लगा कर अपनी मां को दोनों बांहों में कस कर जकड़ लिया और बोली, “कहां जाना चाह रही हो मां? तुम अस्पताल पहुंच भी गईं तो कौन मिलेगा वहां? उन के दाह संस्कार के लिए हमें बौडी तो मिलने से रही… फिर उन दोनों की मौत कोरोना से हुई है. कहीं तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?”

कुमुद के शरीर में थोड़ी शिथिलता आई, लेकिन रोना जारी था. अंशिका ने उन्हें वापस ला कर बिठाया. वह भी खूब चीखचीख कर रोना चाह रही थी, परंतु अपने को संभाले हुए कुमुद के सीने से लिपट उन के घायल दिल से निकलने वाले शब्द सुनते हुए सिसक रही थी.

“अरे, ये क्या हो गया… अब हमारा और इस बच्ची का क्या होगा… हायहाय, हम दोनों को भी कोरोना क्यों नहीं हो गया… अब हम किस के लिए और कैसे जिएंगे…”

“मम्मी, तुम्हें मेरे लिए जीना होगा और मुझे तुम्हारे लिए.”

वह रात मातम मनाते हुए, रोते हुए ही कटी. ऐसे में चीखपुकार और रोना सुन कर भी अड़ोसपड़ोस से कोई नहीं आया.

अगले दिन भोर के समय दोनों की आंख लगी. जब धूप चढ़ आई, कोई 10 बजे का समय रहा होगा. बाहरी दरवाजे पर किसी ने जोरों से दस्तक दी. अच्छा हुआ कि अंशिका की आंख पहले खुली. उस ने जा कर दरवाजा खोला. चेहरे पर मास्क लगाए 2 युवक थे.

अंशिका को देखते ही उन में से एक युवक बोला, “हम ‘जागृति सेवा संस्थान’ के कार्यकर्ता हैं. आज सवेरे ही बनवारीजी ने हमें आप के पिता और भाई की कोरोना से हुई मृत्यु का समाचार दिया था और सहायता करने को कहा था.”

तभी दूसरे युवक ने बताया, “अभी हम आप के पिता और भाई का दाह संस्कार करवा कर आ रहे हैं. इस तरह की सेवा के अलावा प्रभावित घरों तक भोजन और राशनपानी की व्यवस्था करना आदि ऐसे ही और संबंधित काम हमारी संस्था हम से करवाती है…

“हम आप के लिए थर्मस में गरम चाय और पैकेट में दोनों वक्त के हिसाब से खाना ले आए हैं,” कहते हुए उन में से एक युवक ने लाया हुआ सामान अंशिका की तरफ बढ़ा दिया और दूसरा संस्था का छपा हुआ विजिटिंग कार्ड और साथ में 2 मास्क उसे देते हुए बोला, “ये हमारा कार्ड है. इस में सारे फोन नंबर भी दिए हैं. रातबिरात कोई जरूरत हो, तो फोन कर दीजिएगा. हम नहीं तो हमारा कोई ना कोई सेवक उपस्थित हो जाएगा,” इतना कह कर वे दोनों युवक जिस कार से आए थे, उसी से वापस चले गए.

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छली: ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

 

 

छली: भाग 4- ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

अमित निरूत्तरित था. उस रोज किसी तरह वह मंजरी के सवालों से बच कर निकल आया. घर में उस का मन विचलित था. मंजरी की मनोदशा देख वह अंदर ही अंदर भयभीत था. उसे सपने में भी भान नहीं था कि मंजरी शादी को ले कर इतना संजीदा है. वह तो अब तक इस रिश्ते को ले कर सहज था. मंजरी तनहा थी. उसे एक पुरुष साथी की जरूरत थी. उस की कमी उस ने पूरी की. इसी का नतीजा था, जो उस के फूल से मुरझाए चेहरे पर ताजगी आई. उस की वीरान जिंदगी में बहार की रंगत बिखरी, वरना अब तक उस ने बेहद उदास वक्त गुजारा. आज मंजरी की हालत ऐसी हो गई थी कि वह उस की गैरमौजूदगी की कल्पना से ही डर जाती. वह भरसक चाहती कि जितनी जल्दी उन दोनों की शादी हो जाए, ताकि असुरक्षित जिंदगी से छुटकारा मिल सके. एक अकेली स्त्री के लिए जीवन काटना इतना आसान नहीं होता. उस पर एक बेटी की मां. जिस की सुरक्षा उसे हर वक्त चिंतित किए रहती. पति का साया मिलेगा तो लोगों को तरहतरह की बातें बनाने का मौका नहीं मिलेगा.

2 दिन तक अमित उस के पास नहीं आया. मंजरी को लगा कि वह उस से नाराज है. जब उस का गुस्सा शांत हुआ तो उसे इस बात के लिए बेहद अफसोस हुआ कि क्यों बिना वजह अमित पर तोहमत लगाई. हो सकता है कि वह जो कह रहा है सही हो.

उस ने अमित को फोन लगा कर माफी मांगनी चाही. मगर, उस ने उठाया नहीं. बारबार स्विच औफ के संकेत मिल रहे थे. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. तो क्या अमित उस से अपने अपमान का बदला ले रहा है? सोच कर वह सिहर गई. मन आशंकाओं से घिर गया. वह अपनेआप को दोषी मानने लगी.

बिना वजह अमित पर शक किया और इतना कुछ सुना दिया. मगर अगले ही पल यथार्थ के धरातल पर आई तो लगा जो कहा सही कहा. जिंदगी भावनाओं से नहीं चलती. इनसान को कड़े फैसले लेने पड़ते हैं. ऐसा कब तक चलेगा? क्या उस के पास इतना वक्त है. समय निकलता जा रहा है. कल शालिनी परिपक्व हो जाएगी, तब भी क्या इस रिश्ते को उसी रूप में लेगी जैसी लेती आई है. परिपक्वता आएगी तो निश्चय ही उसे यही लगेगा कि मैं चरित्रहीन हूं. फिर तो मैं अपनी बेटी की नजरों से भी गिर जाऊंगी.

मंजरी ने कई बार फोन लगाने की कोशिश की, मगर हर बार उसे नाकामी हाथ लगी. उस की आकुलता बढ़ती ही जा रही थी. रातों को नींद नहीं आती. कम से कम फोन से हाय, हैलो तो कर सकता था. क्या इतना कहने की भी उस के पास फुरसत नहीं? ऐसे तो हर रोज किसी न किसी बहाने उस से मिलने आ जाता था. अब कौन सी व्यस्तता आ गई?

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काफी सोचविचार कर उस ने उस के क्वार्टर पर जाने का फैसला लिया. 3 साल में वह पहली बार उस के क्वार्टर जाएगी. न अमित ने कहा, न ही उस ने कभी जाने का दबाव डाला.

क्वार्टर पर ताला लगा हुआ था. पड़ोस की महिला से पूछा तो बताया कि वह अपने घर मुंबई गए हैं.

“क्यों…?” के सवाल पर वह बोली, ‘‘आप को पता नहीं कि उन की पत्नी की तबीयत एकाएक खराब हो गई है,’’ सन्न रह गई मंजरी यह सुन कर. एक चरित्रहीन पत्नी के लिए आज भी इतना लगाव? जो मुझ से बिना बताए चला गया. यह छल नहीं है तो क्या है?

जब तक वह मेरे पल्लू से बंधा था, सिवाय उस की बुराई के उसे कुछ नहीं सूझता था और आज एकाएक उस की बीमारी की खबर सुनते ही मुंबई भाग गया.

सोच कर मंजरी से न रोते बन रहा था और न ही हंसते. किसी तरह भारी कदमों से चल कर वह अपने घर आई. आते ही वह बिस्तर पर पड़ गई. रहरह कर उस के सामने अमित का चेहरा आ जाता. उस ने उसे पहचानने में कितनी बड़ी भूल की? वह अमित से ज्यादा खुद को कुसूरवार मानने लगी. क्या जरूरत थी अमित पर इतना भरोसा करने की? अमित से उस की जानपहचान कितने दिनों की थी? मात्र एकाध हफ्ते की. इतने कम समय में किसी के मूल चरित्र को समझ पाना संभव है? जाहिर है नहीं. तिस पर वह भावनाओं पर नियंत्रण न रख सकी. अमित पर भरोसा कर के उसे सबकुछ सौंप दिया. उस का मन कचोटने लगा. क्या वह कभी अपनेआप को माफ कर पाएगी? एकाध बार उस की अबोध बेटी ने उसे अमित को अपनी बांहों में भरते हुए देखा भी था. जिस के लिए उसे आत्मग्लानि भी हुई. मगर बाद में यह सोच कर खुद को मना लिया कि कल को अमित उस का पति हो जाएगा तो सबकुछ ठीक हो जाएगा. अब कौन सा मुंह ले कर अपनी बेटी के सामने जाएगी? जो मां खुद को रास्ता नहीं दिखा सकी, वह भटकती हुई बेटी को क्या दिखाएगी?

हो सकता है कि बाद में वह यह भी कह सकती है कि तुम अपना देखो, तुम ने क्या किया था. दुश्चिंताओं में डूबी थी मंजरी कि तभी मोबाइल की घंटी बजी. फोन अमित ने किया था. यह आग में घी से कम नहीं था मंजरी के लिए.

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‘‘फोन क्यों किया?’’

‘‘तुम्हारा मिस काल आया था?’’

‘‘पत्नी कैसी है?’’ मंजरी ने तंज कसा.

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’

‘‘बनने की कोशिश मत करो. मुझे सब पता चल चुका है.’’

‘‘मैं ने तुम्हें इसलिए फोन किया है कि मेरा ट्रांसफर हो चुका है. और हां, यह सच है कि मेरी अपनी पत्नी के साथ तलाक का मुकदमा चल रहा है, मगर मेरी भरसक कोशिश यही है कि सबकुछ सामान्य हो जाए. कोई अपने बसेबसाए घर को तबाह होते नहीं देख सकता. मेरा एक बड़ा बेटा है. अब क्या मैं उसे खोना चाहूंगा?’’ जैसे ही वह फोन रखने जा रहा था, मंजरी ने रोका, “मेरी भी सुनते जाओ. यह मत समझना कि मुझ से छल कर तुम चैन से जी लोगे. तुम ने दोदो जिंदगियां बरबाद की हैं. एक मेरी, दूसरी मेरी बेटी की. पर, याद रखना कि मैं कमजोर नहीं हूं. मैं अपनी पहचान के साथ जीऊंगी. नहीं जरूरत है मुझे तुम जैसे कायर जीवनसाथी की. अच्छा हुआ जो तुम ने पहले ही अपनी असलियत बता दी, वरना मैं अपनेआप को कभी माफ न कर पाती,’’ कहतेकहते मंजरी की आंखें छलछला आईं.

अमित ने फोन काट दिया. तभी मंजरी की नजर सामने खड़ी शालिनी पर गई. ऐसा लगा, वह दोनों की बातें सुन रही थी. शालिनी स्कूल से कब आई? अभी इसी उधेड़बुन में थी कि वह अपनी मां के करीब आई. उस के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘मां, तुम रोओ मत. ऐसे गंदे आदमी की मुझे भी जरूरत नहीं.’’

इतनी समझदारी की बात करने वाली 11 वर्षीय बेटी को उस ने गोद में भर लिया और फूटफूट कर रोने लगी.

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छली: भाग 3- ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

अब अमित को जब इच्छा होती, मंजरी के पास चला आता. उस की बच्ची के लिए वह परिवार का सदस्य हो गया था. वैसे भी वह अबोध थी. अमित के लिए मंजरी का घर अनजाना नहीं रहा. जब भी वह आता, मंजरी और उस की बच्ची की जरूरतों के हिसाब से घरगृहस्थी का सामान खरीदते हुए आता.

मंजरी मना करती तो कहता, ’’क्या मैं तुम्हारे लिए गैर हूं?’’

इस के आगे मंजरी को कोई जवाब नहीं सूझता.

अमित शालिनी के साथ खूब मस्ती करता. यह देख कर मंजरी आह्लादित थी. मंजरी को पूरा विश्वास था कि अमित से शादी हो जाएगी, तो शालिनी को उसे पिता के रूप में अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. यही तो सब से बड़ी समस्या थी, जिस की वजह से वह शादी से कतराती थी. पिता के न रहने पर शालिनी कितने सवाल करती थी.

मंजरी को समझ में नहीं आता कि कैसे उसे रास्ते पर लाए. ऐसे में अमित का आना मांबेटी के लिए किसी वरदान से कम नहीं था.

आहिस्ताआहिस्ता एक साल गुजर गया. दोनों के संबंध पतिपत्नी की तरह बन गए थे. एक रोज फ्लैट की एक पड़ोसन ने अमित के बारे में मंजरी से सवाल किया, जिसे सुन कर उसे अच्छा न लगा.

उस रात जब वे दोनों हमबिस्तर थे, तब मंजरी ने इस घटना की चर्चा की.

‘‘तुम बेकार लोगों की बातों पर गौर करती हो? जैसे ही तलाक मिलेगा, मैं तुम से शादी कर के इन लोगों के मुंह पर तमाचा मार दूंगा.’’

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मंजरी को तत्काल राहत मिली, मगर मन में उठने वाली सामाजिक रुसवाइयों को ले कर उस की बेचैनी कम नहीं हुई. वह जल्द से जल्द शादी कर के इस रुसवाई से मुक्ति चाहती थी.

देखते ही देखते 3 साल गुजर गए. इस बीच अमित जब कभी मुंबई अपनी पत्नी के पास जाता, तो उस का एक ही जवाब होता, ’’तलाक के सिलसिले में जा रहा हूं. तारीख पड़ी हैैैे.’’

एक दिन मंजरी से रहा न गया. वह तल्ख लहजे में बोली, ‘‘वह आखिर चाहती क्या है?’’

‘‘उस ने 30 लाख रुपयों की डिमांड की है. साथ में हर माह 50 हजार घरखर्च. कहां से इतना रुपया ला कर दूं?’’ अमित झल्लाया. उस के गरम तेवर देख मंजरी ने खुद को संयत किया.

‘‘तुम्हें इतना देने में दिक्कत क्यों हो रही है? अगर तुम नहीं दे सकते, तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. अगर वह तुम्हारी तनख्वाह का आधा ले भी लेती है तो दे कर मुक्ति पाओ. मेै खुद सरकारी नौकरी में हूं. आराम से रह लेंगे.’’

मंजरी को लगा कि इसे सुन कर अमित का सारा तनाव खत्म हो जाएगा. मगर, ऐसा हुआ नहीं.

‘‘जैसा तुम समझती हो वैसा कुछ नहीं है. वह एक नबंर की धूर्त है. आज 30 मांगी है, कल 40 मांगेगी. इसलिए सोचता हूं कि कोर्ट जो फैसला लेगी वही ठीक रहेगा,’’अमित ने कहा.

‘‘भले ही सारी जिंदगी निकल जाए,’’ मंजरी चिढ़ी.

अमित को मंजरी के बात करने का तरीका अच्छा न लगा. क्षणांश विचारप्रक्रिया से गुजरने के बाद मंजरी बोली, “तुम मुझे अपनी पत्नी का मोबाइल नंबर दो. मैं उस से बात करूंगी.’’

‘‘तुम ऐसा कभी नहीं करोगी,’’ अमित एकाएक घबरा गया. वह बोला, ’’यह हमारा आपसी मामला है.”

‘‘समय निकलता जा रहा है. शालिनी बड़ी होती जा रही है. पता नहीं आगे वह इस रिश्ते के लिए तैयार होगी भी या नहीं. अभी तुम से घुलीमिली है,’’ मंजरी हताश थी.

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“तुम व्यर्थ परेशान होती हो. सब ठीक हो जाएगा,’’ उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए अमित यों बोला मानो कुछ हुआ ही न हो. उस की निश्चिंतता मंजरी को बेचैन करती. उस की स्थिति परकटे परिंदे की तरह हो गई थी. न उड़ सकती थी और न दूर तक चल सकती थी. सभी दोनों के रिश्ते को जान चुके थे. यहां तक कि वह अपने पिता से भी इस रिश्ते का जिक्र कर चुकी थी. पिता की रजामंदी थी. वह बेटी की खुशी में ही अपनी खुशी देख रहे थे. जिंदगी का क्या ठिकाना, कल रहे या न रहे. इस से पहले वे मंजरी का घर बसा हुआ देखना चाहते थे.

एकाएक मंजरी ने अपना हाथ खींच लिया. अमित को अटपटा लगा. मंजरी भरे गले से बोली, ‘‘अमित, तुम्हें कुछ न कुछ फैसला लेना ही होगा.’’

अमित के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं. कल तक वह सहज थी, मगर आज बेहद गंभीर और निर्णायक मूड में थी. अचानक ऐसा क्या हो गया? उस ने मंजरी को फिर से सामान्य स्थिति में लाने के लिए उसे बांहों में भर लिया.

‘‘डार्लिंग, इतना परेशान क्यों होती हो? अभी 3 साल ही तो गुजरे हैं. कुछ महीेने की बात है. वकील ने कहा है कि अब फैसला होने में देर नहीं होगी.’’

’’इस में नई बात क्या हैे,’’ उस की पकड़ से दूर होती हुई मंजरी बोली, ’’सालभर के लिए कहा था, अब 3 साल हो रहे हैं. तलाक में समस्या क्या आ रही है, उस का खुलासा भी नहीं करते. क्यों तुम मुझ से कुुछ छुपा रहे हो?’’

‘‘मैं कुछ छुपा नहीं रहा हूं,’’ अपनी कोशिश नाकाम होते देख अमित सोफे पर बैठ गया. मंजरी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.

‘‘इस में टेसुए बहाने की क्या जरूरत है? हम ने जो किया आपसी सहमति से किया.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’

‘‘यही कि अगर तुम इस रिश्ते को आगे नहीं ले जाना चाहती तो मेरी तरफ से आजाद हो.’’

‘‘अमित,” मंजरी चीखी.

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“3 साल पतिपत्नी की तरह रहे हम दोनों… और आज कह रहे हो कि मैं तुम्हें आजाद करता हूं. जिस्मानी संबंध बनाते हुए तुम ने मुझे क्या आश्वासन दिया था? मैं कोई वेश्या हूं, जो तुम से अपनी जिस्मानी जरूरतें पूरी करने के लिए जुड़ी.’’

‘‘हां, कह दिया था कि जैसे ही तलाक हो जाएगा, मैं तुम से शादी कर लूंगा,’’ अमित बोला, ’’मगर, तलाक हो तब ना.’’

‘‘कब तक होगा…?’’ मंजरी के इस सवाल का उस के पास कोई जवाब नहीं था. वह उसे संभालने की नीयत से बोला, ’’मंजरी, इतना गुस्सा मत हो. मैं तुम्हारी जिंदगी से जाने वाला नहीं. बस थोड़ा इंतजार करो. जैसे ही तलाक हो जाएगा, मैं तुम से शादी कर लूंगा.’’

‘‘तुम कभी नहीं करोगे?’’ मंजरी ने मानो उस के मन की बात पकड़ ली हो. वह आगे बोली,‘‘मुझे तुम दोहरे चरित्र के लगते हो? मुझे तो यह भी शक है कि तुम्हारा मुकदमा चल भी रहा है या नहीं.’’

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