निर्णय: भाग 2- वक्त के दोहराये पर खड़ी सोनू की मां

कलेजा बर्फ हो गया था उस का. हाथपांव सुन्न हो गए थे. घरभर के ठंडे व उपेक्षित व्यवहार का कारण पलभर में उसे समझ आ गया था. उसे ट्रेन पर बिठाते ही नीलाभ ने इन लोगों के आगे वह सारा सच उगल दिया था जिसे वे दोनों आज तक अपनी परछाईं से भी छिपा कर रखते थे. मां ने क्या आग उगली, जिज्जी ने क्या दंश दिए, सब बेमानी हो गए थे नीलाभ के विश्वासघात के आगे. अपना वश नहीं चला तो उस पर घर वालों का दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे नीलाभ. यहीं चूक गए नीलाभ. पहचान नहीं पाए उसे. वह तो उसी क्षण उसी रात पूर्णरूपेण मां बन गई थी बेटे की. ममता भी कहीं आधीअधूरी होती है. अब शरर में कुछ दोष है तो है. इस नन्ही सी जान की सेवा के लिए परिवार या नीलाभ कौन होते हैं रोड़ा अटकाने वाले. अब यह तो नहीं हो सकता कि एक दिन अचानक से एक अनजान बालक को गोद में डाल दिया और कहा, ‘यह लो, बेटा बना लो. फिर कह दिया, नहीं, यह बेटा नहीं हो सकता, छोड़ आओ कहीं.’ वह हैरान थी कि कमी उजागर होते ही बेटे पर जान न्योछावर करने वाला पिता इतना कठोर हृदय कैसे हो सकता है.

भीतर की सारी उथलपुथल भीतर ही समेटे ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश में अपनी सारी ऊर्जा खर्च करती वह बूआ के घर में सब से मिलतीमिलाती रही थी. नामकरण से लौट कर रात को मां तथा जिज्जी ने उसे आ घेरा था. उन्हें हजम ही नहीं हो रहा था कि उस ने सब से इतना बड़ा झूठ बोला कैसे. शक तो पहले से ही था. न दिन चढ़ने की खबर लगने दी, न दर्द उठने की, सीधा छोरा जनने की खबर सुना दी थी. छोरा न हुआ, कुम्हड़ा हो गया कि गए और तोड़ लाए. ‘अब नीलाभ नहीं चाहता है तो तू क्यों सीने से चिपकाए है छोरे को. छोड़ क्यों नहीं देती इसे. पता नहीं किस जातकुजात का पाप है. अच्छा हुआ कि छोरा अपाहिज निकला वरना हमें कभी कानोंकान भनक न होती.’ बिफर तो सुबह से ही रही थीं दोनों, पर पता नहीं कैसे जब्त किए बैठी थीं. शायद उन्हें डर था कि ये सब बातें उठते ही क्लेश मच जाएगा घर में. उस के रोनेबिसूरने, विरोध तथा विद्रोह के स्वर इतने ऊंचे न हो जाएं कि उन की गूंज बूआ के घर एकत्र हुए मेहमानों तक पहुंच जाए. सब को पता था कि वह आई हुई है विशेष तौर पर समारोह में सम्मिलित होने. बिफर कर कहीं वहां जाने से इनकार कर देती तो बिरादरी में मां सब को क्या बतातीं उस के न आने का कारण.

सिर झुकाए बैठी वह सोच रही थी कि यदि सोनू की मां का कुछ अतापता होता तो नीलाभ अवश्य ही उसे वापस सौंप देते बच्चा. पर वह फिलहाल अनजान लड़की तो आसन्नप्रसवा थी जब नीलाभ के नर्सिंग होम में पहुंची थी. आधी रात का समय, स्टाफ और मरीज अधिक नहीं थे उस समय. बस, एक आपातकालीन मरीज की देखभाल करने के लिए रुके हुए थे नीलाभ. कुछ ही पलों में बच्चा जना और पता नहीं चुपचाप कब बच्चा वहीं छोड़ कर भाग निकली थी वह लड़की. पहले तो घबरा गए नीलाभ, पुलिस को सूचना देनी होगी. फिर अचानक उन की छठी इंद्रीय सक्रिय हो उठी. लड़का है. जो यों इसे पैदा कर के छोड़ कर भाग निकली है, वह वापस आने से तो रही. उन्होंने तुरंत उसे फोन किया तथा अस्पताल बुला लिया. एक बिस्तर पर लिटा कर पास ही पालने में वह नवजात शिशु लिटा दिया. सुबह  होतेहोते यह खबर चारों ओर फैल गई कि रात में पुत्र को जन्म दिया है डाक्टर साहब की पत्नी ने. सब हैरान थे. अच्छा, मैडम गर्भवती थी, पता ही न चला. अड़ोसपड़ोस भी हैरान था. सब को डाक्टर साहब ने अपनी बातों से संतुष्ट कर दिया. वैसे भी वह कहां ज्यादा उठतीबैठती थी पड़ोस में. छोटे शहरों में भी आजकल वह बात नहीं रही. कौन किस की इतनी खबर रखता है. बधाइयां दी गईं, मिठाइयां बांटी गईं, जश्न हुए. यही मां और जिज्जी बलाएं लेती न आघाती थीं. और अब इतना जहर. 5 बजे की ट्रेन थी उस की वापसी की. उस के निकलने से घंटा भर पहले सरिता आ पहुंची थी उस से मिलने. कोई और वक्त होता तो वह सौ गिलेशिकवे करती अपनी प्यारी ननद, अपनी बचपन की सखी सरिता से. पर जब से आई थी, इतने तनाव, क्लेश और परेशानियों में फंसी थी कि उसे स्वयं भी कहां याद रहा था एक बार सरिता को फोन ही कर लेना.

सरिता का ससुराल स्टेशन के पास ही रमेश नगर में  है. कुल आधे घंटे का रास्ता है यहां से. पर पता नहीं  क्यों वह कल बूआ के घर भी नहीं आई थी. आज आई है जब समय ही नहीं बचा है बैठ कर दो बातें करने का. सरिता आई तो जैसे उस की रुकी हुई सांसें भी चलने लगी थीं. बचपन में उस का मायका तथा ससुराल दोनों परिवार एक ही महल्ले में रहते थे. दोनों साथसाथ पढ़ती थीं एक ही कक्षा में. पक्की सहेलियां थीं दोनों. सूखे कुएं के पीछे, बुढि़या के घर से अमरूद तोड़ कर चुराने हों या पेटदर्द का बहाना कर स्कूल से छुट्टी मारनी हो, दोनों हमेशा साथ होती थीं. 7वीं-8वीं तक आतेआते तो इन दोनों की कारगुजारियां जासूसी एवं रूमानी उपन्यास पढ़ने तथा कभीकभार मौका पाते ही सपना टाकिज में छिप कर पिक्चर देख आने तक बढ़ गई थीं. क्या मजाल कि दोनों के बीच की बात की तीसरे को भनक तक लग जाए. उस के बाद साथ छूट गया था. सरिता के पिता का तबादला हो गया था. बाद में जब किसी बिचौलिए की सहायता से सरिता का रिश्ता नीलाभ के लिए आया तो सब ने स्वीकृति की मुहर इसीलिए लगाई थी कि कभी दोनों परिवार एकदूसरे के साथ, एक ही महल्ले में रहते थे. जानते हैं एकदूसरे को.

दूसरी ओर वह थी कि डाक्टर पति पाने से भी अधिक प्रसन्नता उसे सरिता को ननद के रूप में पाने की हुई थी. आज तक बदला नहीं है वह रिश्ता. यह बात छिपी तो नहीं किसी से फिर भी जिज्जी ने उस पर दबाव बढ़ाने के लिए सरिता को बुला भेजा था. उन्हें शायद लगा था कि इस विषय में सरिता अपनी सखी का नहीं बल्कि मां तथा जिज्जी का ही साथ देगी. आखिर उसे भी तो कुछ नहीं बताया गया था. वह धोखे में ही थी. आते ही सरिता उस के गले लग गई थी. 3 दिनों में पहली बार आंखें छलक आई थीं उस की. आंसू भी शायद तभी बहते हैं जब कोई पोंछने वाला हो सामने. उस ने इतना बड़ा सच छिपाया था सरिता से भी. पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा था. उस ने तो अहमियत ही न दी थी इस बात को. जिस बात को जानने का कोई कारण ही न हो, उसे न भी बताया जाए तो क्या हर्ज है. सब को सुना कर कहा था सरिता ने, ‘वे सब बड़े  हैं तो क्या दूसरों को सिर झुका कर उन की हर जायजनाजायज बात माननी पड़ेगी?’

 

मिलन: भाग 1- जयति के सच छिपाने की क्या थी मंशा

लेखक- माधव जोशी

जयंत आंगन में खड़े हो कर जोरजोर से पुकारने लगे, ‘‘मां, ओ मां, आप कहां हैं?’’

‘‘कौन? अरे, जयंत बेटे, तुम कब आए? इस तरह अचानक, सब खैरियत तो है?’’ अंदर से आती हुई महिला ने जयंत को अविश्वसनीय दृष्टि से देखते हुए पूछा.

‘‘जी, मांजी, सब ठीक है,’’ जयंत ने आगे बढ़ कर महिला के पैर छूते हुए कहा तो उन्होंने उस के सिर पर प्यार से हाथ रख दिया.

‘‘मां, जानती हैं, इस बार मैं अकेला नहीं आया. देखिए तो, मेरे साथ कौन है, आप की बहू, जयति,’’ कहते हुए जयंत ने मेरी ओर इशारा कर दिया.

‘‘क्या? तुम ने शादी कर ली?’’ मां हैरानी से मेरा मुआयना करते हुए बोलीं. और फिर ‘‘तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आई,’’ कह कर अंदर चली गईं.

‘तो ये हैं, जय की मांजी,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठी. मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी. घबरा कर जयंत की ओर देखा. वे मेरी तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने मुसकरा कर मुझे आश्वस्त किया. तभी हाथ में थाली लिए मांजी आ गईं.

‘‘भई, मेरे घर बहू आई है…पहले इस का स्वागत तो कर लूं,’’ कहते हुए मांजी मेरे पास आ गईं और थाली को चारों तरफ घुमाने लगीं. मैं उन के पांव छूने को झुकी ही थी कि उन्होंने मुझे अपनी बांहों में थाम लिया और माथे को चूमने लगीं. क्षणभर पहले मेरे मन में जो शंका थी, वह अब दूर हो चुकी थी. वे हम दोनों को

सामने वाले कमरे में ले गईं. कमरा बहुत साधारण था. सामने एक दीवान लगा था. एक तरफ 2 कुरसियां, एक मेज और दूसरी तरफ लोहे की अलमारी रखी थी. मांजी ने हमें दीवान पर बैठाया और बीच में स्वयं बैठ गईं. फिर मुझे प्यार से निहारते हुए बोलीं, ‘‘जय बेटा, कहां से ढूंढ़ लाया यह खूबसूरत हीरा? मैं तो दीपक ले कर तलाशती, फिर भी ऐसी बहू न ला पाती.’’

‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. मुझे आप को बिना बताए यह शादी करनी पड़ी,’’ जयंत रुके, मेरी तरफ देखा, मानो आगे बात कहने के लिए शब्द तलाश रहे हों. फिर बोले, ‘‘दरअसल, जयति के पिताजी को अचानक दिल का दौरा पड़ा और डाक्टर ने बताया कि उन का अंतिम समय निकट है. इसलिए उन का मन रखने के लिए हमें तुरंत शादी करनी पड़ी.’’ मैं जानती थी, जयंत अपराधबोध से ग्रस्त हैं. वे मां के कदमों के पास जा बैठे और उन की गोद में सिर रख कर बोले, ‘‘आप ने मेरी शादी को ले कर बहुत से सपने देखे होंगे…पर मैं ने सभी एकसाथ तोड़ दिए. मैं ने आप को बहुत दुख दिया है, मुझे माफ कर दीजिए,’’ कहते हुए वे रोने लगे.

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‘‘पगला कहीं का…अभी भी बच्चे की तरह रोता है. चल अब उठ, बहू क्या सोचेगी. तू मुंह धो, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ उन्होंने प्यार से इन्हें उठाते हुए कहा. मांजी के साथ मेरी यही मुलाकात थी. जयंत ने ठीक ही कहा था. मांजी सब से निराली हैं. उन के चेहरे पर तेज है और वाणी में मिठास है. वे तो सौंदर्य, सादगी व ममता की प्रतिमा हैं. शीघ्र ही मेरे मन में उन की एक अलग जगह बन गई. हमें मांजी के पास आए लगभग एक सप्ताह हो गया था. हमारी छुट्टियां समाप्त हो रही थीं. जयंत एक बड़ी फर्म में व्यवसाय प्रबंधक थे और मैं अर्थशास्त्र की व्याख्याता थी. हम दोनों ही चाहते थे कि मांजी हमारे साथ मुंबई चलें. जयंत अनेक बार प्रयत्न भी कर चुके थे, पर वे कतई तैयार न थीं. एक दिन चाय पीते हुए मैं ने ही बात प्रारंभ की, ‘‘मांजी, हम चाहते हैं कि आप हमारे साथ चलें.’’

‘‘नहीं बहू, मैं अभी नहीं चल सकती. मुझे यहां ढेरों काम हैं,’’ उन्होंने टालते हुए कहा.

‘‘ठीक है, आप अपने जरूरी काम निबटा लीजिए, तब तक मैं यहीं हूं. जयंत चले जाएंगे,’’ मैं ने चाय की चुसकी लेते हुए बात जारी रखी.

‘‘लेकिन जयति,’’ उन्होंने कहना चाहा, पर मैं ने बात काट कर बीच में ही कहा, ‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं, आप को हमारे साथ मुंबई चलना ही होगा.’’ मैं दृढ़ता से, बिना उन्हें कुछ कहने का मौका दिए कहती गई, ‘‘मांजी, मेरी माताजी बचपन में ही चल बसीं. उन के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं. मुझे कभी मां का प्यार नहीं मिला. अब जब मुझे मेरी मांजी मिली हैं तो मैं किसी भी कीमत पर उन्हें खो नहीं सकती.

‘‘जय ने मुझे बताया कि आप मुंबई इसलिए नहीं जाना चाहतीं, क्योंकि वहां पिताजी रहते हैं,’’ मैं ने क्षणभर रुक कर जयंत को देखा. उन के चेहरे पर विषाद स्पष्ट देखा जा सकता था. पर मैं ने इसे नजरअंदाज करते हुए कहना जारी रखा, ‘‘मांजी, आप अतीत से भाग नहीं सकतीं. कभी न कभी तो उस का सामना करना ही पड़ेगा. खैर, कोई बात नहीं, यदि आप मुंबई न जाना चाहें तो जयंत कहीं और नौकरी देख लेंगे. लेकिन तब तक मैं आप के पास यहीं रहूंगी.’’ मैं ने उन के दिल पर भावनात्मक प्रहार कर डाला. मैं जानती थी कि उन को यह बरदाश्त नहीं होगा कि मैं जयंत से अलग रहूं. मांजी तड़प उठीं. मानो मैं ने उन की दुखती रग छेड़ दी हो. वे बोलीं, ‘‘जयति, मैं ने सदा तुम्हारे ससुर का बिछोह झेला है. जयंत 5 वर्ष का था, जब इस के पिता ने किसी दूसरी स्त्री की खातिर मुझे घर से निकाल दिया. तब से इस छोटे से शहर में अध्यापिका की नौकरी करते हुए न जाने कितनी कठिनाइयां उठा कर इसे पाला है. जो दर्द मैं ने 20 बरसों तक झेला है, उसे इतनी जल्दी नहीं भूल सकती. कभी भी अपने पति से दूर मत होना. मैं यहीं ठीक हूं,’’ उन के शब्दों में असीम पीड़ा व आंखों में आंसू थे.

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‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.

एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.

फिर कुछ संयत हो कर जयंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर कहा, ‘‘जयति, वादा करो कि तुम मां को इतनी खुशियां दोगी कि वे पिछले सभी गम भूल जाएं.’’ मैं ने जयंत से वादा तो किया लेकिन पूरी रात सो न पाई, कभी मां का तो कभी जयंत का चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता. लेकिन उसी रात से मेरा दिमाग नई दिशा में घूमने लगा. अब मैं जब भी मांजी के साथ अकेली होती तो अपने ससुर के बारे में ही बातें करती, उन के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती. शुरूशुरू में तो मांजी कुछ कतराती रहीं लेकिन फिर मुझ से खुल गईं. उन्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगीं. एक दिन बातों ही बातों में मैं ने जाना कि लगभग 7 वर्ष पहले वह दूसरी औरत कुछ गहने व नकदी ले कर किसी दूसरे प्रेमी के साथ भाग गई थी. पिताजी कई महीनों तक इस सदमे से उबर नहीं पाए. कुछ संभलने पर उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ. वे पत्नी यानी मांजी के पास आए और उन से लौट चलने को कहा. लेकिन जयंत ने उन का चेहरा देखने से भी इनकार कर दिया. उन के शर्मिंदा होने व बारबार माफी मांगने पर जयंत ने इतना ही कहा कि वह उन के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखेगा. हां, मांजी चाहें तो उन के साथ जा सकती हैं. लेकिन तब पिताजी को खाली लौटना पड़ा था. मैं जान गई कि यदि उस वक्त जयंत अपनी जिद पर न अड़े होते तो मांजी अवश्य ही पति को माफ कर देतीं, क्योंकि वे अकसर कहा करती थीं, ‘इंसान तो गलतियों का पुतला है. यदि वह अपनी गलती सुधार ले तो उसे माफ कर देना चाहिए.’

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आखिर क्यों: निशा का दिल टूटा, स्मृति बनी राज की जीवनसंगिनी

निशा को उस के पति नील ने औफिस में फोन किया और कहा उस के बचपन की मित्र स्मृति अपने पति के साथ दिल्ली में आई है. बेचारी का कैंसर लास्ट स्टेज पर है. प्लीज तुम उस से मिलने चलो मेरे साथ क्योंकि वह मेरी बचपन की मित्र है और हमारे ही शहर में बड़ी मुसीबत में है. बहुत सालों तक हम मिले ही नहीं. पापा का फोन आया था कि वह अपने पति के साथ इसी शहर में डाक्टर को दिखाने आ रही है. निशा को भी ठीक लगा कि उस का जाना जरूरी है. दोनों अस्पताल पहुंचे. वहा पहुंच कर निशा ने देखा राज को स्मृति के पति के रूप में.

उस के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. वह थोड़ी देर तक रुकी फिर स्मृति से कहा, ‘‘आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी हौसल रखें और मैं शाम को फिर आप से मिलने आऊंगी. अभी मु झे निकलना होगा.’’ फिर उस ने अपने पति नील से कहा, ‘‘आप यहीं रुको. मैं गाड़ी से चली जाती हूं. शाम को हम दोनों साथ घर चलेंगे.’’ बाहर निकल कर निशा ने देखा कि आकाश में काले बादल छाए हुए हैं. निशा अपने औफिस लौट रही थी. सड़क खाली थी शायद बारिश की आशंका की वजह से लोग अभी बाहर नहीं निकल रहे थे. कार और मन दोनों तेज गति से दौड़ रहे थे… निशा का मन अपने बचपन में पहुंच गया था. वह स्कूल की होनहार विद्यार्थी थी. सभी टीचर्स उसे बहुत पसंद करती थीं.

सहपाठी भी उसे तवज्जो देते थे और निशा का जीवन अच्छा चल रहा था. वह अपने भविष्य की बहुत शानदार बुनियाद रख रही थी. वह जितनी तेज और कुशाग्रबुद्धि की थी उस की प्रिय सखी रोशनी उतनी ही सीधीसादी थी. शायद विपरीत गुणों में भी प्रगाढ़ मित्रता हो सकती है, उन दोनों को देख कर यह आसानी से सम झा जा सकता था. 12वीं कक्षा पास कर निशा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आ गई थी किंतु रोशनी का विवाह हो गया था जिस में निशा शामिल नहीं हो सकी थी. बाद में निशा रोशनी से मिलने पहुंची और वहां उस की मुलाकात रोशनी के पति के मित्र राज से हुई और दोनों एकदूसरे से प्रभावित हो गए.

राज सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था और निशा पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम जौब भी कर रही थी. अत: रोशनी के साथसाथ निशा राज को भी कभीकभी गिफ्ट भेजती थी. उस को भी एसटीडी कौल लगा देती थी. निशा राज की हर छोटीबड़ी खुशी और दुख की सहभागी बनती थी. निशा राज के जीवन के महत्त्वपूर्ण दिनों को अपनी खुशी सम झ कर सैलिब्रेट करती थी. उस ने ऐसा कभी नहीं सोचा कि राज उस के लिए कभी कुछ नहीं करता क्योंकि शायद निशा प्रेम कर रही थी और प्रेम कभी प्रतिदान नही मांगता. समय बीत रहा था. निशा के पिता निशा का विवाह करना चाहते थे. एक अच्छा लड़का मिलते ही पिता ने निशा का रिश्ता तय कर दिया और ठीक इसी समय राज का भी चयन प्रशासनिक सेवा में हो गया. जब निशा ने राज को बताया कि उस की सगाई हो गई तो राज ने भरी आंखों से उसे बधाई दी और उस से मिलने दिल्ली आया. राज ने निशा से कहा कि वह उस के पिता से मिलना चाहता है.

बहुत अनुनयविनय कर निशा के पिता को राजी किया. निशा के पिता ने दोनों के प्रेम को देखते हुए ही शादी के लिए हां कर दी और निशा की सगाई तोड़ दी. कोई दिक्कत भी नहीं थी दोनों की धर्मजाति भी एक थी. किंतु कुछ महीनों के बाद राज जब ट्रेनिंग पर गया तो वहां उस की मुलाकात स्मृति से हुई. उस का भी चयन राज के साथ ही हुआ था. दोनों ने जीवनसाथी बन कर साथ रहने का फैसला किया. निशा राज के इस आकस्मिक बदलाव से बहुत आहत हुई. लेकिन उस की राज से अपने प्यार के लिए भीख मांगने की मंशा नहीं थी. किंतु वह सोचती थी आखिर राज ने ऐसा क्यों किया? क्या राज ने सफलता की चकाचौंध और शोर में अपने दिल की आवाज को दबा दिया? राज ने ट्रेनिंग से आने के बाद स्मृति से विवाह कर लिया. मगर निशा राज की स्मृति को मन से निकाल नहीं पा रही थी. खैर, वक्त कभी रुकता नहीं है. धीरेधीरे निशा भी जीवन में आगे बढ़ गई और उस का विवाह भी नील से हो गया.

नील एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर था. आज अचानक राज के बारे में सुना कि उस की पत्नी कैंसर से जू झ रही है और 2 साल से बिस्तर पर है. वह सम झ नहीं पा रही थी कि राज की गलती की सजा स्मृति को मिल रही है या राज को उस के किए की सजा मिल रही है. निशा दिनभर औफिस में भी राज के ही बारे में सोच रही थी और उन्हीं विचारों में डूबी हुई शाम को वह वापस अस्पताल पहुंची नील को लेने. उस के विचारों को विराम लग तब जब निशा के पति नील ने राज से उसे मिलवाया और कहा, ‘‘आप हैं राज मेरी बचपन की मित्र स्मृति के पति.’’ उस ने राज की आंखों में कुछ देखा.

वह क्या था पता नहीं. शायद पछतावा या शर्मिंदगी या कायरता. किंतु निशा की आंखों में राज के लिए एक ही सवाल बरसों से था, ‘‘आखिर क्यों…’’ स्मृति की तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ. वह अब शायद जीवन की आशा छोड़ चुकी थी. किंतु जब तक सांस है तब तक तो जीवन जीना ही होता है. वह सोच रही थी कि उस के पीछे राज कहीं अकेला न रह जाए. बस यही बात उसे दिनरात खा रही थी. नील भी स्मृति की देखभाल में लगा हुआ था. इसलिए निशा का भी आनाजाना होता रहता था. एक दिन निशा स्मृति के पास बैठी थी और थकावट के कारण उसे झपकी आ गई. तभी राज वहां आ गया. उस ने निशा से कहा, ‘‘आप बहुत थकी हुई लग रही हैं. ऐसे में ड्राइव कर के मत जाओ. इंतजार करो मैं नील को भी औफिस से यहीं बुला लेता हूं. आप दोनों साथ ही घर चले जाना.’’ निशा इतने सालों बाद अचानक नील को इस अधिकार वाले स्वर में अपने लिए कुछ कहते सुना तो असमंजस में पड़ गई कि राज की बात मान ले या टाल दे. खैर, जीत राज की हुई. अब दोनों चुप बैठे थे.

हालांकि अंदर भावनाओं का तूफान उठा था दोनों के ही. राज ने ही चुप्पी तोड़ी बोला, ‘‘निशा, मु झे माफ कर दो,’’ और फिर जो भावावेश में बोलना चालू हुआ तो उसे कुछ भी होश न रहा और उस ने अपनी गलती की स्वीकारोक्ति भी कर ली. उस ने मान भी लिया कि उस ने पदप्रतिष्ठा के लिए स्मृति से शादी की और शादी के बाद उसे पता चला कि उस की असली खुशी कहीं और थी. स्मृति जो पहले सो रही थी न जाने कब जाग गई थी और चुपचाप लेटी थी. उस ने सब सुन लिया और उसे लगा कि क्यों न मरते हुए भी वह एक अच्छा काम कर जाए और 2 सच्चे प्यार वाले दिलों को मिलवा कर इस दुनिया से जाए. बस वह मन ही मन कुछ सोचने लगी. नील जब शाम को निशा को लेने आया तो स्मृति ने उसे बातों में उल झा लिया. फिर राज से कहा कि वह निशा को घर ड्रौप कर दे. वह नील के साथ बचपन की बातें कर रही है… उसे कुछ राहत मिलती है अपने वर्तमान के दुखों से. निशा और राज के जाते ही स्मृति ने नील से कहा, ‘‘नील, तुम से कुछ मांगना चाहती हूं.’’ नील थोड़ा भावुक हो गया. उस ने कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? बोलो मैं तुम्हें दूंगा.’’ स्मृति ने कहा, ‘‘नील मैं तुम से राज की खुशियां मांगती हूं,’’ और फिर उसे बताया, ‘‘राज और निशा बहुत पुराने प्रेमी हैं. राज ने पदप्रतिष्ठा के लिए मु झ से शादी की थी, किंतु प्रेम वह निशा से ही करता था. यह बात मु झे आज ही पता चली है.

देखो मैं तो इस दुनिया से जा रही हूं किंतु तुम निशा को वापस राज को दे देना, बस तुम से यही चाहिए.’’ नील के तो पैरों तले की जमीन खिसक गई. नील ने निशा की सहेली रोशनी से बात की तो उसे सारी सचाई पता चली. अब नील ने सोचा कि 2 सच्चे प्रेमियों को मिलाना ही होगा. उस ने जाते ही अपना रैज्यूम एक अमेरिकन आईटी कंपनी में भेजा जहां पर स्मृति का एक दोस्त पहले से ही काम कर रहा था. स्मृति के कहने पर नील का चयन उस कंपनी में हो गया. उसे 3 साल का कौंट्रैक्ट साइन करना था. नील ने निशा से कहा, ‘‘निशा, मु झे अमेरिका में जौब औफर हुई है.’’ निशा बहुत खुश हुई. किंतु नील ने कहा, ‘‘देखो निशा मु झे वहां अकेले ही बुलाया गया है. अब तुम जैसा कहो.’’ निशा ने कहा, ‘‘नील, मैं तुम्हारी खुशी में कभी रास्ते का रोड़ा नहीं बनूंगी. अगर तुम मु झ से दूर जा कर जिंदगी में कामयाबी हासिल करना चाहते हो तो मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं.’’ इस पर नील ने कहा, ‘‘निशा, मैं भी तुम्हें किसी बंधन में बांध कर नहीं जाना चाहता हूं. 3 साल का समय बहुत लंबा होता है.

तुम भी मेरी तरफ से आजाद हो,’’ नील थोड़ा भावुक हो गया था. निशा भी कुछ सम झ नहीं पा रही थी कि यह सब अचानक से क्या हो रहा है. खैर, वह चुप रही. 10 दिन बाद नील का वीजा और टिकट आ गया और वह चला गया. नील के जाते ही निशा काफी अकेली हो गई. ऐसे में राज ने उसे संभाला. अपनेपन की उष्णता पाते ही पुरानी भावनाएं पिघलने लगीं. उधर स्मृति की हालत बहुत तकलीफदेह हो गई थी. उस ने डाक्टर से पूछा, ‘‘उसे अब कितने दिन यह दर्द झेलना पड़ेगा?’’ डाक्टर ने कोई जवाब नहीं दिया. अब उस ने नर्स से एक कागज और पैन मांगा और राज को एक पत्र लिखा और साथ ही निशा से भी निवेदन किया कि वह राज को अपना ले और नील की कुरबानी को जाया न करे. जैसे ही स्मृति ने पत्र पूरा कर अपने तकिए के नीचे रखा वह एक संतोष लिए हमेशा के लिए सो गई और हर दर्द से आजाद हो गई. निशा एक बार फिर सोचने लगी कि नील और स्मृति ने ऐसा किया आखिर क्यों? द्य

सलाइयां- कैसे मशहूर हुई मेघना

जैसेएक जमाने में वर्षा की पहली बूंद पड़ते ही किसान हल निकाल कर अपने खेतों की ओर चल देते थे, ठीक उसी प्रकार 20-25 साल पहले पहली छींक की आवाज के साथ ही हर घर में महिलाओं व युवतियों के हाथों में सलाइयां नजर आने लगती थीं. छोटीबड़ी, मोटीपतली, रंगबिरंगी सलाइयां लगभग 7-8 माह तक हर परिवार की स्त्रियों के हाथों में दिखाई देती थीं. बच्चा चाहे गोद से छूट कर गिर जाए, चूल्हे पर चढ़ा दूध उफन कर पतीले से निकल जाए, पति बिना खाना खाए दफ्तर को चल दें, पर ये सलाइयां हाथों में जैसे चिपक सी जाती थीं. आज की सलाइयों की जगह मोबाइलों और लैपटौप ने ले ली है.

सलाइयों में एक विशेषता थी. ये भाले के साथसाथ कवच का भी काम करती थीं. मान लीजिए, बच्चों ने पति की कीमती ऐशट्रे तोड़ दी है और पति आगबबूला बने पूछते हैं, ‘‘किस ने किया है यह?’’

आवाज की कड़क से पत्नी जान जाती है कि अब लल्लू की खैर नहीं. साथ ही आंख के कोने से लल्लू को थरथर करती पीछे खड़ा देखती है. उसे मात्र एक मिनट का समय चाहिए बाहर भाग जाने को. बस, आप सलाइयों का कवच सामने कर देती हैं.

अचानक कुछ फंदे सलाई से निकल जाते और चेहरे पर भयंकर गंभीरता ओढ़े पत्नी उन्हें उठा रही होती थी. गरदन एक ओर ?ाक जाती थी. मेघना को हाथ के स्वैटर बुनना आज भी पसंद हैं. उस ने उस जमाने की भी और आज की भी ढेरों पत्रिकाएं जमा कर रखी हैं जिन में से वह डिजाइन ले कर मिटन, वूलन कैप, नी कैप, सौक्स आदि बनाती रहती है. मृदुल को उस का यह ओल्ड फैशन बिलकुल नहीं सुहाता खासतौर पर जब वह रात को बिस्तर में घुसता और मेघना सलाइयों में फंदे डालने में व्यस्त रहती. वह बहुत खीजता और कई बार तकिया उठा कर ड्राइंगरूम में सोफे पर पसर जाता.

ऐसे ही एक रात को जब वह मेघना की सलाइयों से ऊब कर सोफे पर सो रहा था तो उसे एक आदमी की चीख बैडरूम से सुनाईर् दी. घर में केवल मेघना और मृदुल, फिर यह कौन चीखा. वह कपड़े पहनते हुए बैडरूम की ओर भागा और दरवाजा खोल कर देखा तो एक 16 साल का लड़का अपनी आंख दबाए खड़ा था और मेघना सलाई लिए उसे मारने के लिए हाथ उठा रही थी.

लड़के की आंख तो चोट खा चुकी थी ही, उस के एक गाल से भी खून बह रहा था. मृदुल

ने स्थिति संभाली. लड़के को पकड़ा, दोनों ने मिल कर उस के हाथ गोले के धागे से कस कर बांध दिए और सोसायटी के गार्डों को बुलाया. पता चला कि वह लड़का एक माली का था जो काम छोड़ कर जा चुका था और शायद पिछली 2-3 चोरियों में उसी का हाथ था जो सोसायटी के फ्लैटों में हुई थीं.

कुछ ही देर में रात के 2 बजे भी फ्लैट के सामने भीड़ जमा हो गई. दुबलीपतली ओल्ड फैशन्ड मानी जाने वाली मेघना के सब तारीफों के पुल बांध रहे थे. सब से बड़े आश्चर्य की बात थी कि 2 कौड़ी की माने जाने वाली सलाई अब हथियार बन चुकी थी मानो वह लड़की के हाथों में एके 47 हो.

लड़का थरथर कांप रहा था. 2-4 उस को लगाने के बाद उस ने उगल दिया कि पिछले

4 महीनों में उस ने 6 फ्लैटों में चोरी की थी. 2 में तो उसे देख औरत ही नहीं पति की भी घिग्गी बंध गई थी इसलिए वह मेघना के घर में घुसा तो कौन्फिडैंट था. उसे क्या मालूम था कि यहां वह रात को 2 बजे तक सलाइयां चलाते मिलेगी सीमित रोशनी में.

जब सब चले गए तो दरवाजे बंद कर के सब से पहले मृदुल ने सलाई को चूमा, फिर मेघना को हाथों को और फिर जब आंखें मूंदने लगीं तो मेघना की आंखों को.

सुबह घंटी बजी तो दोनों घबरा कर उठे. दोनों तृप्त थे. कपड़े पहन कर दरवाजा खोला था तो कामवाली बाई पुष्पा 2-3 और बाइयों के साथ खड़ी थी.

‘‘मेमसाब आज जल्दी आ गई क्योंकि ये सब आप को देखना चाहती थीं,’’ फिर सकुचा कर बोली, ‘‘सब आप की सलाइयों से बुनना सीखना चाहती हैं. इन सब की मांएं इन्हें तो उन से काबू में रखती थीं. इन के बाप को भी रखती थीं. अब निहत्थी बेचारियां मर्दों से मार खाती हैं. सलाई हाथ में होगी तो कुछ तो डरेगा मर्द.’’

मेघना के मुंह से हंसी फूट रही थी. यही पुष्पा पूरी सोसायटी में मेघना मेमसाब के इस दकियानूसीपन की खबरें फैलाती रही थी.

अब जब किसी घर, शादी में जाना हो, कोई बीमार हो, विष्णु के सुदर्शनचक्र की

तरह सलाइयां सदैव पर्स में साथ रहती हैं और आंखें नईनई डिजाइनों की पकड़ में व्यस्त रहती हैं कि मशीन के बने स्वैटरों को कैसे वह हाथ से बना सकती है.

अब पता चला कि यही नहीं और भी उपयोग हैं इन सलाइयों के. सर्दियों में नारियल का तेल जम जाए तो सलाई शीशी में डाली और निकाल लिया तेल. कौन गरम करने का ?ां?ाट मोल ले. कान में खुजली है तो मजे से सलाई डाल कर मैल निकाल लीजिए. पिंटू ऊधम मचा रहा हो तो बेंत की तरह उस का उपयोग कीजिए. कहीं वाशबेसन में कुछ फंस जाए तो सलाई हाजिर है. बेवजह सिर खुजाने के लिए तो इस से अच्छी और कोई वस्तु आज तक ईजाद ही नहीं हुई. अब तो मृदुल के हाथ में कई बार सलाई रहती है जिस से दूर लगा स्विच बंद करना आसान लगता.

पूरी सोसायटी में मेघना अब फेमस हो गई है. वह छोटीमोटी सैलिब्रिटी बन गई है. सलाई यानी सैल्फ डिफैंस, सर्दी से भी, चोर से भी.

मां का साहस: क्या हुआ था वनिता के साथ

मां उसे सम झा रही थीं, ‘‘दामादजी सिंगापुर जा रहे हैं. ऐसे में तुम नौकरी पर जाओगी तो बच्चे की परवरिश ठीक से नहीं हो पाएगी. वैसे भी अभी तुम्हें नौकरी करने की क्या जरूरत है. दामादजी भी अच्छाखासा कमा रहे हैं. तुम्हारा अपना घर है, गाड़ी है…’’

‘‘तुम साफसाफ यह क्यों नहीं कहती हो कि मैं नौकरी छोड़ दूं. तुम भी क्या दकियानूसी बातें करती हो मां,’’ वनिता बिफर कर बोली, ‘‘इतनी मेहनत और खर्च कर के मैं ने अपनी पढ़ाई पूरी की है, वह क्या यों ही बरबाद हो जाने दूं. तुम्हें मेरे पास रह कर गुडि़या को नहीं संभालना तो साफसाफ बोल दो. मेरी सास भी बहाने बनाने लगती हैं. अब यह मेरा मामला है तो मैं ही सुल झा लूंगी. भुंगी को मैं ने सबकुछ सम झा दिया है. वह यहीं मेरे साथ रहने को राजी है.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है वनिता…’’ मां उसे सम झाने की कोशिश करते हुए बोलीं, ‘‘अब हम लोगों की उम्र ढल गई है. अपना ही शरीर नहीं संभलता, तो दूसरे को हम बूढ़ी औरतें क्या संभाल पाएंगी. सौ तरह के रोग लगे हैं शरीर में, इसलिए ऐसा कह रही थी. बच्चे की सिर्फ मां ही बेहतर देखभाल कर सकती है.’’

‘‘मैं फिर कहती हूं कि मैं ने इतनी मेहनत से पढ़ाईलिखाई की है. मु झे बड़ी मुश्किल से यह नौकरी मिली है, जिस के लिए हजारों लोग खाक छानते फिरते हैं और तुम कहती हो कि इसे छोड़ दूं.’’

‘‘मांजी का वह मतलब नहीं था, जो तुम सम झ रही हो…’’ शेखर बीच में बोला, ‘‘अभी गुडि़या बहुत छोटी है. और मांजी अपने जमाने के हिसाब से बातें समझा रही हैं. गुडि़या की चंचल हरकतें बढ़ती जा रही हैं. 2 साल की उम्र ही क्या होती है.’’

‘‘तुम तो नौकरी छोड़ने के लिए बोलोगे ही… आखिर मर्द हो न.’’

‘‘अब जो तुम्हारे जी में आए सो करो…’’ शेखर पैर पटकते हुए वहां से जाते हुए बोला, ‘‘परसों मु झे सिंगापुर के लिए निकलना है. महीनेभर का कार्यक्रम है. बस, मेरी गुडि़या को कुछ नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मेम साहब, मैं बच्ची देख लूंगी…’’ भुंगी पान चबाते हुए बीच में आ कर बोली, ‘‘आखिर हमें भी तो अपना पेट पालना है.’’

‘‘तुम्हें अपने बनावसिंगार से फुरसत हो तब तो तुम बच्ची को देखोगी…’’ वनिता की सास बीच में आ कर बोलीं, ‘‘हम जरा बीमार क्या हुए, फालतू हो गए. घर में सौ तरह के काम हैं. सब तरफ से भरेपूरे हैं हम. एक बच्चे की कमी थी, वह भी पूरी हो गई. हमें और और क्या चाहिए.’’

‘‘देखिए बहनजी, आप ही इसे सम झाएं कि ऐसे में कोई जरूरी तो नहीं कि यह नौकरी करे…’’ अब वे वनिता की मां से मुखातिब थीं, ‘‘4 साल तो नौकरी कर ली. अब यह  झं झट छोड़े और चैन से घर में रहे.’’

‘‘अब मैं आप लोगों के मुंह नहीं लगने वाली. मैं साफसाफ कहे देती हूं कि मैं नौकरी नहीं छोड़ने वाली. मु झे भी अपनी जिंदगी जीने का हक है. मु झे भी अपनी आजादी चाहिए. मैं आम औरतों की तरह नहीं जी सकती.’’

‘‘मु झे भी तो काम और पैसा चाहिए मेम साहब…’’ भुंगी खीसें निपोर कर बोली, ‘‘आप निश्चिंत हो कर चाकरी करो. मैं भी चार रोटी खा कर यहीं पड़ी रहूंगी. घर और गुडि़या को देख लूंगी.’’

‘‘भुंगी, मु झे तुम पर पूरा यकीन है…’’ वनिता चहकते हुए बोली, ‘‘ये पुराने जमाने के लोग हैं. आगे की क्या सोचेंगे. मु झ में हुनर है, तो मु झे इस का फायदा मिलना ही चाहिए. औफिस में मेरा नाम और इज्जत है. आखिर नाम कमाना किस को अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘पता नहीं, कहां से आई है यह भुंगी…’’ वनिता की मां उस की सास से बोलीं, ‘‘न पता, न ठिकाना. मु झे इस के लक्षण भी ठीक नहीं दिखते. पता नहीं, क्या पट्टी पढ़ा दी है कि इस वनिता की तो मति मारी गई है.’’

भुंगी इस महल्ले में  झाड़ूपोंछे का काम करती थी. उस ने वनिता के घर में भी काम पकड़ लिया था. अब वह वनिता की भरोसेमंद बन गई थी. काम के बहाने वह ज्यादातर यहीं रह कर वनिता की हमराज भी बन गई थी. वनिता उसे पा कर खुश थी.

घर में बूढ़े सासससुर थे, मगर वे अपनी ही बीमारी के चलते ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. शेखर अपने संस्थान के खास इंजीनियर थे. सिंगापुर की एक नामी यूनिवर्सिटी में एक महीने की खास ट्रेनिंग के लिए उन का चयन किया गया था. इस ट्रेनिंग के पूरा होने के बाद उन की डायरैक्टर के पद पर प्रमोशन तय था. मगर उन का नन्ही सी गुडि़या को छोड़ कर जाने का मन नहीं हो रहा था. वे उस की हिफाजत और देखभाल के लिए आश्वस्त होना चाहते थे, इसलिए वनिता ने अपनी मां को यहां बुलाना चाहा था. मगर मां ने साफतौर पर मना कर दिया तो वनिता को निराशा हुई. अब वह भुंगी के चलते आश्वस्त थी कि सबकुछ ठीकठाक चल जाएगा.

दसेक दिन तो ठीकठाक ही चले. भुंगी के साथ गुडि़या हिलमिल गई थी और उस के खानपान और रखरखाव में अब कोई परेशानी नहीं थी.

एक दिन शाम को वनिता औफिस से घर लौटी तो उसे घर में सन्नाटा पसरा दिखा. आमतौर पर उस के घर आते ही गुडि़या उछल कर उस के सामने चली आती थी, मगर आज न तो उस का और न ही भुंगी का कोई अतापता था.

वनिता ने ससुर के कमरे में जा कर  झांका. वहां सास बैठी थीं और वे ससुर के तलवे पर तेल मल रही थीं.

‘‘आप ने गुडि़या को देखा क्या?’’ वनिता ने सवाल किया, ‘‘भुंगी भी नहीं दिखाई दे रही है.’’

‘‘वह अकसर उसे पार्क में घुमाने ले जाती है…’’ सास बोलीं, ‘‘आती ही होगी.’’

वनिता हाथमुंह धोने के बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. अभी तक उन लोगों का कोई पता नहीं था. आमतौर पर औफिस से आने पर वह गुडि़या से बातें कर के हलकी हो जाती थी. तब तक भुंगी चायनाश्ता तैयार कर उसे दे देती थी.

वनिता उठ कर रसोईघर में गई. चाय बना कर सासससुर को दी और खुद चाय का प्याला पकड़ कर ड्राइंगरूम में टीवी के सामने बैठ गई.

थोड़ी देर बाद ही शेखर का फोन आया. औपचारिक बातचीत के बाद शेखर ने पूछा, ‘‘गुडि़या कहां है?’’

‘‘भुंगी उसे कहीं घुमाने ले गई है…’’ वनिता ने उसे आश्वस्त किया, ‘‘बस, वह आती ही होगी.’’

बाहर अंधेरा गहराने लगा था और अब तक न भुंगी का कोई पता था और न ही गुडि़या का. वनिता बेचैनी से उठ कर घर में ही टहलने लगी. पूरा घर जैसे सन्नाटे से भरा था. बाहर जरा सी भी आहट हुई नहीं कि वह उधर ही देखने लगती थी.

अब वनिता ने पड़ोस में जाने की सोची कि वहीं किसी से पूछ ले कि गुडि़या को साथ ले कर भुंगी कहीं वहां तो नहीं बैठी है कि अचानक उस का फोन घनघनाया.

वनिता ने लपक कर फोन उठाया.

‘तुम्हारी बच्ची हमारे कब्जे में है…’ उधर से एक रोबदार आवाज आई, ‘बच्ची की सलामत वापसी के लिए 30 लाख रुपए तैयार रखना. हम तुम्हें 24 घंटे की मोहलत देते हैं.’

‘‘तुम कौन हो? कहां से बोल रहे हो… अरे भाई, हम 30 लाख रुपए का जुगाड़ कहां से करेंगे?’’

‘हमें बेवकूफ सम झ रखा है क्या… 5 लाख के जेवरात हैं तुम्हारे पास… 10 लाख की गाड़ी है… तुम्हारे बैंक खाते में 7 लाख रुपए बेकार में पड़े हैं… और शेखर के खाते में 12 लाख हैं. घर में बैठा बुड्ढा पैंशन पाता है. उस के पास भी 2-4 लाख होंगे ही.

‘‘हम ज्यादा नहीं, 30 लाख ही तो मांग रहे हैं. तुम्हारी गुडि़या की जान की कीमत इस से कम है क्या…

वनिता को धरती घूमती नजर आ रही थी. बदमाशों को उस के घर के हालात का पूरा पता है, तभी तो बैंक में रखे रुपयों और जेवरात की उन्हें जानकारी है. उस ने तुरंत अपने मम्मीपापा को फोन किया. इस के अलावा कुछ दोस्तों को भी फोन किया.

देखते ही देखते पूरा घर भर गया. शेखर के दोस्त राकेश ने वनिता को सलाह दी कि उसे शेखर को फोन कर के सारी जानकारी दे देनी चाहिए, मगर वनिता के दफ्तर में काम करने वाली सुमन तुरंत बोली, ‘‘यह हमारी समस्या है, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. हम औरतें हैं तो क्या हुआ, जब हम औफिस की बड़ीबड़ी समस्याएं सुल झा सकती हैं तो इसे भी हमें ही सुल झाना चाहिए. जरा सब्र से काम ले कर हम इस समस्या का हल निकालें तो ठीक होगा.’’

‘‘मेरे खयाल से यही ठीक रहेगा,’’ राकेश ने अपनी सहमति जताई.

‘‘तो अब हम क्या करें?’’ वनिता अब खुद को संतुलित करते हुए बोली, ‘‘अब मु झे भी यही ठीक लग रहा है.’’

‘‘सब से पहले हम पुलिस को फोन कर के सारी जानकारी दें…’’ सुमन बोली, ‘‘हमारे औफिस के ही करीम भाई के एक परिचित पुलिस में इंस्पैक्टर हैं. उन से मदद मिल जाएगी.’’

‘‘तो फोन करो न उन्हें…’’ राकेश बोला, ‘‘उन्हीं के द्वारा हम अपनी बात पुलिस तक पहुंचाएंगे.’’

वनिता ने करीम भाई को फोन लगाया तो वे आधी रात को ही वहां पहुंच गए.

‘‘मैं ने अपने कजिन अजमल को, जो पुलिस इंस्पैक्टर है, फोन कर दिया है. वह बस आता ही होगा,’’ करीम भाई ने कहा.

करीम भाई ने वनिता को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो. तुम्हारी बेटी को अजमल जल्द ही ढूंढ़ निकालेगा.’’

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने आते ही वनिता से कुछ जरूरी सवाल पूछे. नौकरानी भुंगी की जानकारी ली और सब को पुलिस स्टेशन ले गए.

एफआईआर दर्ज करने के बाद इंस्पैक्टर अजमल बोले, ‘‘वनिताजी, इस समय यहां एक रैकेट काम कर रहा है. यह वारदात उसी की एक कड़ी है. हम उन लोगों तक पहुंचने ही वाले हैं. दिक्कत बस यही है कि इसे राजनीतिक सरपरस्ती मिली हुई है, इसलिए हमें फूंकफूंक कर कदम रखना है. अभी आप घर जाएं और जब अपहरण करने वालों का फोन आए तो उन से गंभीरतापूर्वक बात करें.’’

वनिता की आंखों में नींद नहीं थी. इतना बड़ा हादसा हो और नींद आए तो कैसे. रात जैसे आंखों में कट गई. इतनी छोटी सी बच्ची कहां, किस हाल में होगी, पता नहीं. सासससुर का भी रोतेरोते बुरा हाल था. मां उसे अलग कोस रही थीं, ‘‘और कर ले नौकरी. मैं कह रही थी न कि बच्चों की देखभाल मां ही बेहतर कर सकती है. मगर इसे तो अपने समाज की इज्जत और रोबरुतबे का ही खयाल था.’’

वनिता ने अपने कमरे में जा कर अटैची निकाली. अलमारी खोल कर पैसे देखने लगी कि उस का मोबाइल फोन बजने लगा.

‘क्या हुआ…’

‘‘रुपयों का इंतजाम कर रही हूं…’’ वह बोली, ‘‘तुम कहां हो? जल्दी बोलो कि मैं वहां आऊं.’’

‘अभी इतनी जल्दी क्या है,’ उधर से हंसने की आवाज आ कर बंद हो गई.

अचानक पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस के घर में आए और दोबारा जब उस से भुंगी के फोन और पते की बात पूछी तो वह घबरा गई.

‘‘वह तो इस महल्ले में कई साल से रहती थी.’’

‘‘आप के पास उस का जो पता था, वह गलत था. शहर की एक  झोंपड़पट्टी का उस ने जो पता दिया था, वह फर्जी निकला. वह कहीं और रहती थी.

‘‘अब यह बिलकुल आईने की तरफ साफ हो चुका है कि इस अपहरण में उस का ही हाथ है, तभी तो आप के जेवरात और बैंक खाते के बारे में बदमाशों को गहरी जानकारी थी.’’

पुलिस अब अगली कार्यवाही में जुट गई थी. उस ने अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया था.

मिनट घंटों में और घंटे दिन में बदल रहे थे. पुलिस भी पास के जिलों के जंगलपहाड़ों तक में खाक छान रही थी. 2 दिन बीत चुके थे और अभी तक गुडि़या का कोई सुराग, कोई अतापता नहीं था.

शाम के समय वनिता के पास फिर से बदमाशों का फोन आया. वह उलटे उन्हें ही डांटने लगी, ‘‘मैं रुपए ले कर बैठी हूं और तुम यहांवहां घूम रहे हो. मैं शाम को शहर के बौर्डर पर बागडि़या टैक्सटाइल फैक्टरी के पास बने आउट हाउस में अटैची ले कर अपनी एक सहेली के साथ रहूंगी.

‘‘और हां, तुम भी पुलिस को कुछ न बताना और मेरी बेटी को छोड़ कर रुपए ले जाना.’’

‘अरे, पुलिस को कुछ न बताने की बात तो मेरी थी.’

‘‘और, मु झे भी अपनी इज्जत प्यारी है, इसलिए कह रही हूं.’’

शहर के उस एरिया में एक पुराना इंडस्ट्रियल ऐस्टेट था जिस में पुरानी खंडहर उजाड़ फैक्टिरियां थीं. वनिता ने अपनी गाड़ी निकाली और सुमन के साथ अटैची ले कर बैठ गई.

कई एकड़ में फैली उस फैक्टरी में कोई आताजाता नहीं था. उस के ठीक नीचे नाला बह रहा था. वे दोनों वहीं एक दीवार की ओट में बैठ गईं, जहां से चारों तरफ का मंजर दिखता था.

अचानक उस उजाड़ फैक्टरी की एक बिल्डिंग के अंदर से 2 आदमी बाहर निकले. उन के पीछे नौकरानी भुंगी भी गुडि़या को लिए दिखाई दी.

उन दोनों में से एक के हाथ में पिस्तौल थी. वह पिस्तौल को जेब में रखते हुए बोला, ‘‘अब इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ वह अटैची लेने के लिए आगे बढ़ा.

अचानक बिजली की तेजी से वनिता ने उसे अटैची देते वक्त जोरों का धक्का दिया तो वह आदमी अटैची को लिए हुए ही नाले में जा गिरा.

उसे गिरता देख कर दूसरा आदमी एकदम से भाग खड़ा हुआ. सुमन दौड़ कर गुडि़या की ओर लपकी, तो भुंगी उसे छोड़ कर भाग निकली.

वनिता और सुमन ने जल्दी गुडि़या के बंधन खोले. गुडि़या उन से चिपट कर रोने लगी.

‘‘आप ने तो कमाल कर दिया वनिताजी…’’ पुलिस इंस्पैक्टर अजमल उस की तारीफ करने लगा था, ‘‘हमें मालूम पड़ा कि आप इधर आ रही हैं, तो हम ने भी आप का पीछा किया और यहां तक आ पहुंचे.’’

थोड़ी देर में उस घायल मुजरिम के साथ पुलिस आती दिखी जो नाले में जा गिरा था. एक पुलिस वाले के हाथ में अटैची भी थी.

पुलिस इंस्पैक्टर अजमल ने अटैची खोली तो उसे हंसी आ गई. अटैची में पुरानी किताबें, पत्रिकाएं और अखबार भरे थे. उस भारी अटैची को समेट न पाने के चलते ही वह आदमी वनिता के एक धक्के से नाले में लुढ़क गया था.

‘‘आप के इस साहस से न सिर्फ आप को अपनी बेटी मिली है, बल्कि हमें भी एक खतरनाक मुजरिम मिला है. अब इस के जरीए सारे मुजरिम हवालात में होंगे. मैं आप के इस साहस की तारीफ करता हूं. फिलहाल तो आप अपनी बेटी को ले कर घर जाइए, बाकी औपचारिकताएं बाद में होंगी.’’

‘‘अरे भाई, वनिता के साहस के कायल हम भी हैं…’’ करीम भाई बोला, ‘‘तभी तो औफिस की खास फाइलें इन्हीं के पास आती हैं.’’

‘‘वनिता एक मां भी हैं करीमजी. और एक मां अपनी औलाद के लिए शेर को भी मात दे सकती है…’’ सुमन बोल पड़ी, ‘‘वनिता, अब घर चलो. गुडि़या को सामान्य करते हुए तुम्हें खुद भी सामान्य होना है. आगे का काम पुलिस पूरा कर लेगी.’’

पक्षाघात: क्या टूट गया विजय का परिवार

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कल्पवृक्ष: भाग 2- विवाह के समय सभी व्यंग्य क्यों कर रहे थे?

सुन कर मां का कलेजा करुणा से भर आया. उन्होंने अपनेअपने कमरों के दरवाजे पर खड़ी दोनों बड़ी बहुओं की ओर देख, फिर छोटी बहू की ओर आकंठ ममत्व में डूबे हुए वे कुछ कहने को होंठ खोल ही रही थीं कि मधु साड़ी के छोर से हाथ पोंछती बोली, ‘‘बाबूजी, एक बात कहनी थी, आज्ञा हो तो कहूं?’’

‘‘हां, हां, कह न बहू,’’ वे आर्द्र कंठ से बोले.

‘‘क्या मेरे मायके से जो रुपया नकद मिला था वह सब खर्च हो गया? यह न सोचें कि मु झे चाहिए. यदि जमा हो तो वह विभा के विवाह में लगा दें.’’

‘‘वह, वह तो निखिल ने आधा शायद तभी अपने खाते में जमा कर लिया था. वह तो…’’

निखिल वाशबेसिन में कुल्ला करते घूम कर खड़ा हो गया. उस ने घूर कर मधु की ओर देखा. मधु ने तुरंत उधर से पीठ घुमा ली. फिर वह बोली, ‘‘वह सब निकाल लें और सब लोग कम से कम 25-25 हजार रुपए दें, भरपाई हो जाएगी.’’

‘‘रुपए हुए तो इतना सामान कहां से आएगा बेटी?’’

‘‘वह मेरा सामान तो अभी नया ही सा है, वही सब दे दें. घर में 2-2 फ्रिजों का क्या करना है. न इतने टीवी ही चाहिए. बिजली का खर्च भी तो बचाना चाहिए. मु झे तो ढेरों सामान मिला था. कुछ आलतूफालतू बेच कर बड़ी चीजें ले लें. रंगीन टीवी, फ्रिज, कपड़े धोने की मशीन के बिना भी तो अब तक काम चल रहा था. वैसे ही फिर चल सकता है. आप को घरवर पसंद है तो यहीं संबंध करिए विभाजी का, यही घरबार ठीक है.’’

सब जैसे चकित रह गए. दोनों जेठजेठानियां मुंहबाए अचरज से देख रहे थे और निखिल तो जैसे पहले उबल रहा था, परंतु फिर लगा वह बिलकुल शांत हो गया पत्नी के सामने. पहले उस के मन में आया कि कहीं मधु उस की ससुराल में मिले नए स्कूटर के लिए न कह दे, परंतु अब वह जैसे पिघल रहा था. उस ने पिता से लड़ झगड़ कर विवाह के बाद ससुराल से मिले आधे रुपए  झटक कर बैंक बैलेंस बना लिया था. यह बात उस ने मधु से कभी नहीं कही थी. आज जैसे वह पूरे परिवार की नजरों में गिर गया था. रुपयों की बात पर वह बौखला कर कुछ कहने के शब्द संजो रहा था कि मधु की दानशीलता ने उसे गहराई तक गौण बना दिया.

‘‘मांजी, मेरे पास जेवर भी कई जोड़ी हैं. मैं सब से छोटी हूं न मायके में. इस से बड़े दोनों भाईभाभी व चाचाचाची तथा दोनों बेटेबहुओं ने भी काफी कुछ दिया है. चाची की तो मैं बहुत दुलारी हूं. उन्होंने अलग से कई जेवर दिए हैं, उन्हें बेच कर समस्या हल हो जाएगी. आप लोग चिंता न करें. बाबूजी रिटायर हो गए हैं तो अब यह भार उन का नहीं, उन के तीनों बेटेबहुओं का है. कोई तानाठेना क्यों देगा. क्या कोई पराया है. बहन उन की ननद हमारी, आप तो कुछ शर्तों पर हेरफेर कर हां कर दो. सब ठीक हो जाएगा. कुछ अच्छा काम हम लोग भी तो कर लें.’’

सुन कर बहुत रोकने पर भी नेत्र बरस पड़े. वे भर्राए कंठ से किसी प्रकार बोले, ‘‘छोटी बहू, क्या कहूं? तेरी जैसी तो कहीं मिसाल नहीं है रे, कहां से पाया तू ने ऐसा ज्ञान, उदारता. तू कहां से आ गई इस घर में.’’

‘‘न, न बाबूजी और कुछ नहीं. मैं सह नहीं सकूंगी,’’ कह कर वह आगे बढ़ी उन के मुख पर हाथ रखने को तो उन्होंने उसे कंधे से लगा लिया और फिर उस के सिर पर हाथ रख कर जैसे मन की सारी ममता लुटाने को आतुर हो उठे.

‘‘पता नहीं कौन से कर्म किए थे हम ने कि इस साधारण घर में बहू बन कर चली आई. अरे, धन्य हैं इस के मातापिता और परिवार वाले जो उन्होंने इस मणि को हमारी  झोली में डाल दिया. अरे, आ तो मधु. मैं तु झे छाती से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं. अरे, ऐसा तो मैं अपनी औलाद को भी न ढाल पाई.’’

मांजी ने उसे खींच कर कलेजे से लगा लिया. मधु ने लज्जा से अपना मुंह मांजी के आंचल में छिपा लिया. मुकेश, अखिलेश अपनी नम आंखें पोंछ कर उठ खड़े हुए. निखिल वहां से चल कर अपने कमरे में दरवाजे पर खड़ा हो कर मुड़ा और बोला, ‘‘बाबूजी, आप विभा के यहां मंजूरी का पत्र लिख दें, और हां, मेरा स्कूटर मेरा बहनोई चलाएगा. अब थोड़ी साफसफाई हो जाएगी, बस,’’ कह कर वह अंदर घुस गया.

पिता ने बड़े ही आश्चर्य से हठीलेजोशीले बेटे की ओर देखा, ‘क्या यही है 6 माह पूर्व का निखिल, जो ससुराल से मिले रुपयों के लिए कई दिन  झगड़ता रहा था और ले कर ही माना था.’

‘‘बाबूजी, जैसे आप की बहू ने आज्ञा दी है, हम सब वहीं विभा की शादी को तैयार हैं. हम दोनों भी जीपीएफ आदि निकाल लेंगे. शादी वहीं होगी,’’ दोनों ने अपना निर्णय सुनाया. तभी दोनों जेठानियां आगे आईं.

‘‘मांजी, हमारे मायके के जो भारी बरतन हों, आप उन्हें साफ कर विभा को दे सकती हैं. कुछ न कुछ हम दोनों के पास भी है.’’

‘‘नहीं, बड़ी दीदी. आप की बेटी शैली बड़ी हो रही है. आप बरतनभांडे कुछ नहीं देंगी. बड़े दादा रुपए भर देंगे. रुपए तो तब तक हम शैली के लिए जोड़ ही लेंगे. अभी जो समय की मांग है वही चाहिए, बस.’’

जो काम पूरे परिवार को पहाड़ काटने सा प्रतीत हो रहा था वह जैसे पलभर में सुल झ गया.

तभी विभा के कमरे से सिसकियों के स्वर बाहर तक गूंजते चले गए. सब उधर दौड़ते चले गए. देखा, विभा पड़ी सिसक रही है. मधु ने घबरा कर उस का सिर गोद में रख लिया. वह अपने पलंग पर पड़ी सिसक रही थी. ‘‘क्या हुआ विभा, क्या हुआ,’’ सब उसे घेर कर खड़े हो गए, विभा थी कि रोए जा रही थी.

‘‘बोल न विभा,’’ मां ने हिला कर पूछा.

‘‘मां, ये भाभियां क्या अभी से वैरागिनी बन जाएंगी? क्या इन का सब सामान संजो कर मैं सुखी हो पाऊंगी?’’ वह रो कर बोली.

‘‘पगली, इतनी सी बात पर ऐसे बिलख रही है, जैसे कुबेर का खजाना लुट गया हो. अरे, यह तो फिर जुड़ जाएगा. मैं नौकरी कर लूं तो क्या फिर न जुड़ पाएगा. फिर अभी कौन कंगाल है, सब चीजें हैं तो घर में, तू सब चिंता छोड़,’’ मधु ने उसे सम झाया.

‘‘मधु ठीक कहती है, विभा. अभी जो है उसे तो स्वीकार करना ही पड़ेगा. सामान तो हम फिर जोड़ लेंगे. छोटी भाभी की तू चिंता मत कर, वह तो जब से आई है वैरागिनी सी ही तो रहती है. इसी से तो वह राजरानी से बढ़ कर है घरभर के लिए,’’ मुकेश ने उसे सम झाया. तब वह बड़ी कठिनाई से शांत हुई.

फिर बाबूजी ने देर नहीं की. उन्होंने रकम कम करने की प्रार्थना के साथ उन की कुछ ऊंची मांग स्वीकार कर ली थी. कुछ के लिए अगली विदा पर देने की प्रार्थना भी की थी. उन्हें जैसे पूरा विश्वास था कि वे लोग कुछ हद तक मान जाएंगे, क्योंकि उन लोगों को भी लड़की सहित उन का मध्यवर्गीय परिवार पसंद था.

हुआ भी यही. एक माह पश्चात सब शर्तों के साथ शादी तय भी हो गई. रकम भी कम कर दी गई. सामान तो सारा मिल ही रहा था, सब प्रसन्न हो उठे.

तब तक विभा की परीक्षाएं भी हो गईं. फिर सगाई की रस्म हुई. विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई. तब गई लग्न. पूरे 7 थाल भर कर गए. साड़ी, सूट, बच्चों के कपड़े व फल, मेवे, मिठाई, अच्छे बड़ेबड़े थाल देख कर घरभर खुश हो उठा. तभी मुकेश द्वारा हाथ पर थाल रखे जाने पर वर संजय की निगाह थाल पर लिखे नाम पर पड़ी जो मशीन द्वारा लिखा गया था. फिर उस ने सब थालों पर नजर डाली तो मन न जाने कैसा हो गया.

थालों पर नाम किस का लिखा है? वह पूछ बैठा.’’

‘‘छोटी बहू, मधु का. ये सब उसी के मायके के थाल हैं.’’

‘‘परंतु आप की बहन का नाम तो विभा है न?’’

‘‘हां, विभा ही तो है.’’

‘‘तो क्या यह उचित लगा आप लोगों को कि किसी के मायके की भेंट किसी को दी जाए?’’ वह थोड़ी तेज आवाज में बोला.

‘‘प्लीज, धीरे बोलिए, असल बात यह है कि 2 वर्र्ष पूर्व ही हम एक बहन के विवाह से निबटे हैं, फिर छोटे भाई निखिल का विवाह किया. लड़के के विवाह में भी तो पैसा लगता है.

‘‘आप के विवाह में भी लग रहा होगा, हम अभी ऐसी परिस्थिति में नहीं थे कि आप लोगों की सारी मांगें पूरी कर सकते. इसलिए ये सब लाना पड़ा. अब तक जितने भी संबंध आए, हम सब को और विभा को आप व आप का पूरा परिवार ही अच्छा लगा. और एक बात और बतलाऊं, छोटी बहू मधु ने ही खुशी से अपना बहुत सा सामान देने की हठ की है, वरना हम लोग तो यह रिश्ता शायद करने का साहस ही न कर पाते,’’ फिर उन्होंने जो घर पर घटित हुआ था, सारा कह सुनाया.

और आखिर में कहा, ‘‘और आप विश्वास करें तब से यह सब दहेज ऐसे ही रखा है, सिवा टीवी और स्कूटर के, सब नया ही है.’’

लड़का लगन की चौक पर बैठा था. घराती और मेहमान सब एक ओर और मुकेश आदि सहित सब दूसरी ओर. वर के निकट सामान के पास कुछ दबेदबे स्वर सुन कर सब पास आ गए. पिता चिंतित हो उठे, मन में कहा, ‘कुछ गड़बड़ हो गई लगती है,’ वे पास आ कर बैठ गए. अखिल और निखिल भी सरक आए, ‘‘क्या बात है, मुकेश?’’

मुकेश ने दबे शब्दों में सब कह दिया. तब तक वर के पिता, भाई तथा अन्य नातेदार भी आ जुटे.

‘‘क्या बात है, संजय?’’

‘‘पापा, ये देख रहे हैं थाल आदि, ये हैं तो नए परंतु इन की पत्नी मधु का नाम गुदा है इन में,’’ उस ने निखिल की ओर इशारा कर  के कहा.

‘‘तो इस में क्या हुआ, ऐसा तो चलता ही है, इधर का उधर दहेज का आदानप्रदान. तू तो पागल है बिलकुल.’’

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प्रेम ऋण: क्या था पारुल का फैसला

‘‘दी  दी, आप की बात पूरी हो गई हो तो कुछ देर के लिए फोन मुझे दे दो. मुझे तानिया से बात करनी है,’’ घड़ी में 10 बजते देख कर पारुल धैर्य खो बैठी.

‘‘लो, पकड़ो फोन, तुम्हें हमेशा आवश्यक फोन करने होते हैं. यह भी नहीं सोचा कि प्रशांत क्या सोचेंगे,’’ कुछ देर बाद अंशुल पारुल की ओर फोन फेंकते हुए तीखे स्वर में बोली.

‘‘कौन क्या सोचेगा, इस की चिंता तुम कब से करने लगीं, दीदी? वैसे मैं याद दिला दूं कि कल मेरा पहला पेपर है. तानिया को बताना है कि कल मुझे अपने स्कूटर पर साथ ले जाए,’’ पारुल फोन उठा कर तानिया का नंबर मिलाने लगी थी.

‘‘लो, मेरी बात हो गई, अब चाहे जितनी देर बातें करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता,’’ पारुल पुन: अपनी पुस्तक में खो गई.

‘‘पर मुझे फर्क पड़ता है. मैं मम्मी से कह कर नया मोबाइल खरीदूंगी,’’ अंशुल ने फोन लौटाते हुए कहा और कमरे से बाहर चली गई.

पारुल किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहती थी. फिर भी अंशुल के क्रोध का कारण उस की समझ में नहीं आ रहा था. पिछले आधे घंटे से वह प्रशांत से बातें कर रही थी. उसे तानिया को फोन नहीं करना होता तो वह कभी उन की बातचीत में खलल नहीं डालती.

अंशुल ने कमरे से बाहर आ कर मां को पुकारा तो पाया कि वह उस के विवाह समारोह के हिसाबकिताब में लगी हुई थीं.

‘‘मां, मुझे नया फोन चाहिए. मैं अब अपना फोन पारुल और नवीन को नहीं दे सकती,’’ वह अपनी मां सुजाता के पास जा कर बैठ गई थी.

‘‘क्या हुआ? आज फिर झगड़ने लगे तुम लोग? तेरे सामने फोन क्या चीज है. फिर भी बेटी, 1 माह भी नहीं बचा है तेरे विवाह में. क्यों व्यर्थ लड़तेझगड़ते रहते हो तुम लोग? बाद में एकदूसरे की सूरत देखने को तरस जाओगे,’’ सुजाता ने अंशुल को शांत करने की कोशिश की.

‘‘मां, आप तो मेरा स्वभाव भली प्रकार जानती हैं. मैं तो अपनी ओर से शांत रहने का प्रयत्न करती हूं पर पारुल तो लड़ने के बहाने ढूंढ़ती रहती है,’’ अंशुल रोंआसी हो उठी.

‘‘ऐसा क्या हो गया, अंशुल? मैं तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकती, बेटी.’’

‘‘मां, जब भी देखो पारुल मुझे ताने देती रहती है. मेरा प्रशांत से फोन पर बातें करना तो वह सहन ही नहीं कर सकती. आज प्रशांत ने कह ही दिया कि वह मुझे नया फोन खरीद कर दे देंगे.’’

‘‘क्या कह रही है, अंशुल. लड़के वालों के समाने हमारी नाक कटवाएगी क्या? पारुल, इधर आओ,’’ उन्होंने क्रोधित स्वर में पारुल को पुकारा.

‘‘क्या है, मां? मेरी कल परीक्षा है, आप कृपया मुझे अकेला छोड़ दें,’’ पारुल झुंझला गई थी.

‘‘इतनी ही व्यस्त हो तो बारबार फोन मांग कर अंशुल को क्यों सता रही हो,’’ सुजाताजी क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘मां, मुझे तानिया को जरूरी फोन करना था. मेरा और उस का परीक्षा केंद्र एक ही स्थान पर है. वह जाते समय मुझे अपने स्कूटर पर ले जाएगी,’’ पारुल ने सफाई दी.

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‘‘मैं सब समझती हूं, अंशुल को अच्छा घरवर मिला है यह तुम से सहन नहीं हो रहा. ईर्ष्या से जलभुन गई हो तुम.’’

‘‘मां, यही बात आप के स्थान पर किसी और ने कही होती तो पता नहीं मैं क्या कर बैठती. फिर भी मैं एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मुझे प्रशांत तनिक भी पसंद नहीं आए. पता नहीं अंशुल दीदी को वह कैसे पसंद आ गए.’’

‘‘यह तुम नहीं, तुम्हारी ईर्ष्या बोल रही है. यह तो अंशुल का अप्रतिम सौंदर्य है जिस पर वह रीझ गए, वरना हमारी क्या औकात थी जो उस ओर आंख उठा कर भी देखते. तुम्हें तो वैसा सौंदर्य भी नहीं मिला है. यह साधारण रूपरंग ले कर आई हो तो घरवर भी साधारण ही मिलेगा, शायद इसी विचार ने तुम्हें परेशान कर रखा है.’’

मां का तर्क सुन कर पारुल चित्रलिखित सी खड़ी रह गई थी कि एक मां अपनी बेटी से कैसे कह सकी ये सारी बातें. वह उन की आशा के अनुरूप अनुपम सुंदरी न सही पर है तो वह उन्हीं का अंश, उसे इस प्रकार आहत करने की बात वह सोच भी कैसे सकीं.

किसी प्रकार लड़खड़ाती हुई वह अपने कमरे में लौटी. वह अपनी ही बहन से ईर्ष्या करेगी यह अंशुल और मां ने सोच भी कैसे लिया. मेज पर सिर टिका कर कुछ क्षण बैठी रही वह. न चाहते हुए भी आंखों में आंसू आ गए. तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर चौंक उठी वह.

‘‘नवीन भैया? कब आए आप? आजकल तो आप प्रतिदिन देर से आते हैं. रहते कहां हैं आप?’’

‘‘मैं, अशोक और राजन एकसाथ पढ़ाई करते हैं अशोक के यहां. वैसे भी घर में इतना तनाव रहता है कि घर में घुसने के लिए बड़ा साहस जुटाना पड़ता है,’’ नवीन ने एक सांस में ही पारुल के हर प्रश्न का उत्तर दे दिया.

‘‘भूख लगी होगी, कुछ खाने को लाऊं क्या?’’

‘‘नहीं, मैं खुद ले लूंगा. तुम्हारी कल परीक्षा है, पढ़ाई करो. पर पहले मेरी एक बात सुन लो. तुम्हारे पास अद्भुत सौंदर्य न सही, पर जो है वह रेगिस्तान की तपती रेत में भी ठंडी हवा के स्पर्श जैसा आभास दे जाता है. इन सब जलीकटी बातों को एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो और सबकुछ भूल कर परीक्षा की तैयारी में जुट जाओ,’’ पारुल के सिर पर हाथ फेर कर नवीन कमरे से बाहर निकल गया.

अगले दिन परीक्षा के बाद पारुल तानिया के साथ लौट रही थी तो अंशुल को अशीम के साथ उस की बाइक पर आते देख हैरान रह गई.

‘‘अशीम के पीछे अंशुल ही बैठी थी न,’’ तानिया ने पूछ लिया.

‘‘हां, शायद…’’

‘‘शायद क्या, शतप्रतिशत वही थी. जीवन का आनंद उठाना तो कोई तुम्हारी बहन अंशुल से सीखे. एक से विवाह कर रही है तो दूसरे से प्रेम की पींगें बढ़ा रही है. क्या किस्मत है भौंरे उस के चारों ओर मंडराते ही रहते हैं,’’ तानिया हंसी थी.

‘‘तानिया, वह मेरी बहन है. उस के बारे में यह अनर्गल प्रलाप मैं सह नहीं सकती.’’

‘‘तो फिर समझाती क्यों नहीं अपनी बहन को? कहीं लड़के वालों को भनक लग गई तो पता नहीं क्या कर बैठें,’’ तानिया सपाट स्वर में बोल पारुल को उस के घर पर छोड़ कर फुर्र हो गई थी.

पारुल घर में घुसी तो विचारमग्न थी. तानिया उस की घनिष्ठ मित्र है अत: अंशुल के बारे में अपनी बात उस के मुंह पर कहने का साहस जुटा सकी. पर उस के जैसे न जाने कितने यही बातें पीठ पीछे करते होंगे. चिंता की रेखाएं उस के माथे पर उभर आईं.

सुजाता बैठक में श्रीमती प्रसाद के साथ बातचीत में व्यस्त थीं.

‘‘कैसा हुआ पेपर?’’ उन्होंने पारुल को देखते ही पूछा.

‘‘ठीक ही हुआ, मां,’’ पारुल अनमने स्वर में बोली.

‘‘ठीक मतलब? अच्छा नहीं हुआ क्या?’’

‘‘बहुत अच्छा हुआ, मां. आप तो व्यर्थ ही चिंता करने लगती हैं.’’

‘‘यह मेरी छोटी बेटी है पारुल. इसे भी याद रखिएगा. अंशुल के बाद इस का भी विवाह करना है,’’ सुजाता ने श्रीमती प्रसाद से कहा.

‘‘मैं जानती हूं,’’ श्रीमती प्रसाद मुसकराई थीं.

‘‘पारुल, 2 कप चाय तो बना ला बेटी,’’ सुजाताजी ने आदेश दिया था.

‘‘हां, यह ठीक है. एक बात बताऊं सुजाता?’’ श्रीमती प्रसाद रहस्यमय अंदाज में बोली थीं.

‘‘हां, बताइए न.’’

‘‘मैं तो लड़की के हाथ की चाय पी कर ही उस के गुणों को परख लेती हूं.’’

‘‘क्यों नहीं, यदि कोई लड़की चाय भी ठीक से न बना सके तो और कोई कार्य ठीक से करने की क्षमता उस में क्या ही होगी,’’ सुजाताजी ने उन की हां में हां मिलाई थी.

‘ओफ, जाने कहां से चले आते हैं यह बिचौलिए. स्वयं को बड़ा गुणों का पारखी समझते हैं,’ पारुल चाय देने के बाद अपने कक्ष में जा कर बड़बड़ा रही थी.

‘‘माना कि लड़के वालों की कोई मांग नहीं है पर आप को तो उन के स्तर के अनुरूप ही विवाह करना पड़ेगा. अंशुल के भविष्य का प्रश्न है यह तो,’’ उधर श्रीमती प्रसाद सुजाताजी से कह रही थीं.

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‘‘कैसी बातें करती हैं आप? हम क्या अपनी तरफ से कोई कोरकसर छोड़ेंगे? आप ने हर वस्तु और व्यक्ति के बारे में सूचना दे ही दी है. सारा कार्य आप की इच्छानुसार ही होगा,’’ सुजाताजी ने आश्वासन दिया.

श्रीमती प्रसाद कुछ देर में चली गई थीं. केवल सुजाताजी अकेली बैठी रह गईं.

‘‘इस विवाह का खर्च तो बढ़ता ही जा रहा है. समझ में नहीं आ रहा कि इतना पैसा कहां से आएगा,’’ वह मानो स्वयं से ही बात कर रही थीं. तभी उन के पति वीरेन बाबू कार्यालय से लौटे थे.

‘‘घर में बेटी की शादी है पर आप को तो कोई फर्क नहीं पड़ता. आप की दिनचर्या तो ज्यों की त्यों है. सारा भार तो मेरे कंधों पर है,’’ सुजाताजी ने थोड़ा नाराजगी भरे स्वर में कहा.

‘‘क्या कहूं, तुम्हें तो मेरे सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. मेरा किया कार्य तुम्हें पसंद भी तो नहीं आता,’’ वीरेन बाबू बोले थे.

‘‘आप को कार्य करने को कौन कह रहा है. पर कभी साथ बैठ कर विचारविमर्श तो किया कीजिए. हर चीज कितनी महंगी है आजकल. सबकुछ श्रीमती प्रसाद की इच्छानुसार हो रहा है. पर हम कर तो अपनी बेटी के लिए ही रहे हैं न. अब तक 15 लाख से ऊपर खर्च हो चुका है और विवाह संपन्न होने तक इतना ही और लग जाएगा.’’

‘‘पर इतना पैसा आएगा कहां से,’’ वीरेन बाबू चौंक कर बोले, ‘‘जब वर पक्ष की कोई मांग नहीं है तो जितनी चादर है उतने ही पैर फैलाओ,’’ वीरेन बाबू ने सुझाव दिया था.

‘‘मांग हो या न हो, हमें तो उन के स्तर का विवाह करना है कि नहीं. मैं साफ कहे देती हूं, मेरी बेटी का विवाह बड़ी धूमधाम से होगा,’’ सुजाताजी ने घोषणा की थी और वीरेन बाबू चुप रह गए थे. वह नहीं चाहते थे कि बात आगे बढ़े और घर में कोहराम मच जाए. वह शायद कुछ और कहते कि तभी धमाकेदार ढंग से अंशुल ने घर में प्रवेश किया.

‘‘कहां थीं अब तक? मैं ने कहा था न शौपिंग के लिए जाना था. श्रीमती प्रसाद आई थीं. तुम्हारे बारे में पूछ रही थीं.’’

‘‘आज मैं बहुत व्यस्त थी, मां. पुस्तकालय में काफी समय निकल गया. उस के बाद मंजुला के जन्मदिन की पार्टी थी. मैं तो वहां से भी जल्दी ही निकल आई,’’ सुजाताजी के प्रश्न का ऊटपटांग सा उत्तर दे कर अंशुल अपने कमरे में आई थी.

‘‘आइए भगिनीश्री, कौन से पुस्तकालय में थीं आप अब तक?’’ पारुल उसे देखते ही मुसकाई थी.

‘‘क्या कहना चाह रही हो तुम? इस तरह व्यंग्य करने का मतलब क्या है?’’

‘‘मैं व्यंग्य छोड़ कर सीधे मतलब की बात पर आती हूं. आज पूरे दिन अशीम के साथ नहीं थीं आप?’’

‘‘तो? अशीम मेरा मित्र है. उस के साथ एक दिन बिता लिया तो क्या हो गया?’’

‘‘अशीम केवल मित्र है, दीदी? मैं तो सोचती थी कि आप उस के प्रेम में आकंठ डूबी हुई हैं और किसी और के बारे में सोचेंगी भी नहीं. पर आप तो प्रशांत बाबू की मर्सीडीज देख कर सबकुछ भूल गईं.’’

‘‘कालिज का प्रेम समय बिताने के लिए होता है. मैं इस बारे में पूर्णतया व्यावहारिक हूं. अशीम अभी पीएच.डी. कर रहा है. 4-5 वर्ष बाद कहीं नौकरी करेगा. उस की प्रतीक्षा करते हुए मेरी तो आंखें पथरा जाएंगी. घर ढंग से चलाने के लिए मुझे भी 9 से 5 की चक्की में पिसना पड़ेगा. मैं उन भावुक मूर्खों में से नहीं हूं जो प्रेम के नाम पर अपना जीवन बरबाद कर देते हैं.’’

‘‘आप का हर तर्क सिरमाथे पर, लेकिन आप से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि आप अशीम को सब साफसाफ बता दें और उस के साथ प्यार की पींगें बढ़ाना बंद कर दें. फिर प्रशांतजी का परिवार इसी शहर में रहता है. किसी को भनक लग गई तो…’’

‘‘किसी को भनक नहीं लगने वाली. तुम्हीं बताओ, मांपापा को आज तक कुछ पता चला क्या? हां, इस के लिए मैं तुम्हारी आभारी हूं. पर मैं इस उपकार का बदला अवश्य चुकाऊंगी.’’

‘‘अंशुल दीदी, तुम इस सीमा तक गिर जाओगी मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ पारुल बोझिल स्वर में बोली.

‘‘यदि अपने हितों की रक्षा करने को नीचे गिरना कहते हैं तो मैं पाताल तक भी जाने को तैयार हूं. तुम चाहती हो कि मैं अशीम को सब साफसाफ बता दूं, पर जरा सोचो कि जब सारे शहर को मेरे विवाह के संबंध में पता है पर केवल अशीम अनभिज्ञ है तो क्या यह मेरा दोष है?’’

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‘‘पता नहीं दीदी, पर कहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘व्यर्थ की चिंता में नहीं घुला करते मेरी प्यारी बहन, अभी तो तुम्हारे खानेखेलने के दिन हैं. क्यों ऊंचे आदर्शों के चक्कर में उलझती हो. अशीम को मैं सबकुछ बता दूंगी पर जरा सलीके से. अपने प्रेमी को मैं अधर में तो नहीं छोड़ सकती,’’ अंशुल ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

पारुल चुप रह गई थी. वह भली प्रकार जानती थी कि अंशुल से बहस का कोई लाभ नहीं था. उस ने अपने अगले प्रश्नपत्र की तैयारी प्रारंभ कर दी.

परीक्षा और विवाह की तैयारियों के बीच समय पंख लगा कर उड़ चला था. सुजाताजी ने अपनी लाड़ली के विवाह में दिल खोल कर पैसा लुटाया था. वीरेन बाबू को न चाहते हुए भी उन का साथ देना पड़ा था. अंशुल की विदाई के बाद कई माह से चल रहा तूफान मानो थम सा गया था. पारुल ने सहेलियों के साथ नाचनेगाने और फिर रोने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. पर अब सूने घर में कहीं कुछ करने को नहीं बचा था.

धीरेधीरे उस ने स्वयं को व्यवस्थित करना प्रारंभ किया था. पर एक दिन अचानक ही अशीम का संदेश पा कर वह चौंक गई थी. अशीम ने उसे कौफी हाउस में मिलने के लिए बुलाया था.

अशीम से पारुल को सच्ची सहानुभूति थी. अत: वह नियत समय पर उस से मिलने पहुंची थी.

‘‘पता नहीं बात कहां से प्रारंभ करूं,’’ अशीम कौफी और कटलेट्स का आर्डर देने के बाद बोला.

‘‘कहिए न क्या कहना है?’’ पारुल आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘विवाह से 4-5 दिन पहले अंशुल ने मुझे सबकुछ बता दिया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मातापिता का मन रखने के लिए उसे इस विवाह के लिए तैयार होना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, और क्या कहा उस ने?’’

‘‘वह कह रही थी कि उस के विवाह के लिए मातापिता को काफी कर्ज लेना पड़ा. घर तक गिरवी रखना पड़ा. वह मुझ से विनती करने लगी, उस का वह स्वर मैं अभी तक भूला नहीं हूं.’’

‘‘पर ऐसा क्या कहा अंशुल दीदी ने?’’

‘‘वह चाहती है कि मैं तुम से विवाह कर लूं जिस से कि तुम्हारे मातापिता को चिंता से मुक्ति मिल जाए. और भी बहुत कुछ कह रही थी वह,’’ अशीम ने हिचकिचाते हुए बात पूरी की.

कुछ देर तक दोनों के बीच निस्तब्धता पसरी रही. कपप्लेटों पर चम्मचों के स्वर ही उस शांति को भंग कर रहे थे.

‘तो यह उपकार किया है अंशुल ने,’ पारुल सोच रही थी.

‘‘अशीमजी, मैं आप का बहुत सम्मान करती हूं. सच कहूं तो आप मेरे आदर्श रहे हैं. आप की तरह ही पीएच.डी. करने के लिए मैं ने एम.एससी. के प्रथम वर्ष में जीतोड़ परिश्रम किया और विश्वविद्यालय में प्रथम रही. इस वर्ष भी मुझे ऐसी ही आशा है. आप के मन में अंशुल दीदी का क्या स्थान था मैं नहीं जानती पर निश्चय ही आप ‘पैर का जूता’ नहीं हैं कि एक बहन को ठीक नहीं आया तो दूसरी ने पहन लिया,’’ सीधेसपाट स्वर में बोल कर पारुल चुप हो गई थी.

‘‘आज तुम ने मेरे मन का बोझ हलका कर दिया, पारुल. तुम्हारे पास अंशुल जैसा रूपरंग न सही पर तुम्हारे व्यक्तित्व में एक अनोखा तेज है जिस की अंशुल चाह कर भी बराबरी नहीं कर सकती.’’

‘‘यही बात मैं आप के संबंध में भी कह सकती हूं. आप एक सुदृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी हैं. इन छोटीमोटी घटनाओं से आप सहज ही विचलित नहीं होते. आप के लिए एक सुनहरा भविष्य बांहें पसारे खड़ा है,’’ पारुल ने कहा तो अशीम खिलखिला कर हंस पड़ा.

‘‘हम दोनों एकदूसरे के इतने बड़े प्रशंसक हैं यह तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं था. तुम से मिल कर और बातें कर के अच्छा लगा,’’ अशीम बोला और दोनों उठ खड़े हुए.

अपने घर की ओर जाते हुए पारुल देर तक यही सोचती रही कि अशीम को ठुकरा कर अंशुल ने अच्छा किया या बुरा? पर इस प्रश्न का उत्तर तो केवल समय ही दे सकता है.

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तिनका तिनका घोंसला: क्या हुआ हलीमा के साथ

लेखक- अरशद हाशमी

हलीमा का सिर दर्द से फटा जा रहा था, लेकिन काम पर तो जाना ही था वरना नाजिया मैडम झट से उस की पगार काट लेतीं, और दस बातें सुनातीं अलग से. कल रात फिर से उस का शौहर अकरम आधी रात के बाद शराब पी कर लौटा था और आते ही हलीमा से बिना बात मारपीट करने लगा था. अब तो ये आए दिन की बात हो गई थी.

अकरम दिनभर रिकशा चला कर जो कमाता उस का एक बड़ा हिस्सा जुए में हार आता और कभी कुछ पैसे बच जाते तो अपने दोस्तों के साथ शराब पी लेता.

5 साल पहले वे जब अपने गांव कराल से दिल्ली आए थे तो वह कितनी खुश थी. दिल्ली में ज्यादा कमाई होगी, बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ सकेंगे, और एक बेहतर जिंदगी के सपने देखे, लेकिन दिल्ली आते ही वह मानो आसमान से सीधे जमीन पर आ गिरी हो. रेलवे लाइन के किनारे बसी एक बस्ती में एक बेहद ही छोटी सी झुग्गी में पूरे परिवार को रहना था.

गांव के ही करीम चाचा ने अकरम को एक रिकशा किराए पर दिला दिया था. शुरूशुरू में अकरम बहुत मेहनत करता था. करीम चाचा ने ही उस को बताया था कि जैतपुर में काफी सस्ती जमीन मिल सकती है. हलीमा अपना घर बनाने के सपने देखने लगी और बड़ी मुश्किल से उस ने अकरम को इस बात के लिए मनाया कि वह बराबर वाली कालोनी में 1-2 घरों में काम करने लगे, ताकि वह भी कुछ पैसे जोड़ सके.

दोनों ने खूब मेहनत कर कुछ पैसे जोड़ भी लिए थे, लेकिन कुछ दिनों बाद अकरम का उठनाबैठना कुछ गलत लोगों के साथ हो गया. ज्यादा पैसे कमाने के लालच में अकरम ने उन के साथ जुआ खेलना शुरू कर दिया और इस चक्कर में अपनी सारी जमापूंजी भी लुटा बैठा. इतना ही नहीं, कभीकभी वह शराब भी पी लेता. हलीमा कितना रोई थी, कितना लड़ी थी उस से. शुरूशुरू में अकरम कसमें खाता कि अब जुए और शराब से दूर रहेगा, लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वही सब शुरू हो जाता.

सुबहसवेरे निकल कर हलीमा कई घरों में काम करती और शाम को थक कर चूर हो जाने के बाद भी उस को कोई आराम नहीं था. घर आ कर सब के लिए खाना बनाना और बाकी काम भी करने होते थे. अब तो हाल यह था कि घर का खर्चा भी बस हलीमा ही चलाती थी. कभी कुछ पैसे बच जाते तो अकरम छीन कर उन को भी जुए में हार आता.

उस दिन उस का छोटा बेटा माजिद बारिश में भीगने की वजह से बीमार पड़ गया. बस्ती में ही रहने वाले एक झोलाछाप डाक्टर से उस की दवा भी कराई, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि बीमारी और बढ़ गई. फिर उस को ओखला में एक डाक्टर को दिखाया गया. इस सब में उस के पास बचे सारे पैसे खत्म हो गए और कितना ही उधार उस के सिर चढ़ गया था.

कितना रोई थी वह अकरम के सामने, लेकिन वह तो करवट बदल कर खर्राटें भरने लगा था.

“सुनो हलीमा, क्या तुम एक और घर में काम करोगी? पड़ोस में ही मेरी एक सहेली रहने आई हैं. अकेली रहती

हैं, बैंक में नौकरी करती हैं,” एक दिन शबाना मैडम ने हलीमा से पूछा.

“मैडमजी, मुझे तो दम लेने की भी फुरसत नहीं है. एक घर और काम करने लगी तो बीमार ही पड़ जाऊंगी… और मुझे तो बीमार पड़ने की भी फुरसत नहीं है,” हलीमा ने बेचारगी से कहा.

“देख लो, वह तुम्हें 1,000 रुपए दे सकती हैं. उन का काम ज्यादा नहीं है, तुम्हें बस आधा घंटा ही लगेगा उन के घर.

“दरअसल, उन को एक अच्छी मेड चाहिए और मैं ने उन को तुम्हारा नाम बता दिया है,” शबाना मैडम ने उस को समझाते हुए कहा, तो हलीमा सोच में पड़ गई.

अगर वह आधा घंटा निकाल पाए तो 1,000 रुपए ज्यादा कमा सकती है. फिर उस ने यह सोच कर हां कर दी कि वह सुबह आधा घंटा पहले उठ जाया करेगी.

शांति मैडम से मिल कर उस को काफी अच्छा लगा. इत्तेफाक से वे भी उस के ही जिला बिजनौर की रहने वाली थीं.

हलीमा उन से मिल कर काफी खुश हो गई. हलीमा काम तो बड़ी साफसफाई से करती ही थी, खाना भी अच्छा बनाती थी. एक बार शांति मैडम ने ही उस को घर पर अचार, चटनी वगैरह बनाने का सुझाव दिया.

हलीमा ने 2-3 तरह के अचार बना कर शांति मैडम को दिए, तो उन्होंने अपने बैंक में ही 1-2 लोगों से हलीमा के लिए और्डर ले लिए. इस से हलीमा को कुछ अतिरिक्त आय भी होने लगी.

“मैं तुम्हारे पैसे बैंक में डाल दूं या तुम्हें कैश चाहिए,” एक महीने बाद शांति मैडम ने उस की पगार देने के लिए पूछा, तो हलीमा की हंसी निकल गई.

“क्या मैडमजी, हम गरीबों के भी कोई बैंक में खाते होते हैं?” हलीमा ने हंसते हुए कहा.

“क्या तुम्हारा किसी बैंक में अकाउंट नहीं है,” शांति ने हैरानी से पूछा.

“नहीं मैडमजी,” हलीमा ने गंभीरता से जवाब दिया.

“अगर तुम चाहो तो मैं अपने बैंक में ही तुम्हारा खाता खुलवा दूं. अगर किसी बैंक में तुम्हारा खाता नहीं है, तो तुम चार पैसे कैसे बचा पाओगी?” शांति ने उस को समझाया.

बात कुछकुछ हलीमा की समझ में आ रही थी. फिर उस ने यह सोच कर शांति से बैंक में खाता खुलवाने के लिए हां कर दी कि वह किसी को भी इन पैसों के बारे में नहीं बताएगी. इन पैसों को वह अपने बच्चों के भविष्य के लिए सुरक्षित रखेगी. और सचमुच उस ने किसी को इन पैसों के बारे में नहीं बताया और न ही इन पैसों को खर्च किए.

फिर एक दिन जब शांति ने उस को बताया कि उस के खाते में 10,000 से भी ज्यादा रुपए हो गए हैं, तो उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए.

पर, यह खुशी ज्यादा देर तक नहीं टिकी. उस दिन पूरी रात भी जब अकरम घर नहीं आया, तो उस को कुछ फिक्र हुई. वह चाहे कितना भी जुआ या शराब करे, रात में घर जरूर आता था. फिर सुबहसुबह करीम चाचा ने उस को बताया कि कल रात पुलिस अकरम और कुछ लोगों को उठा कर थाने ले गई है.

सुनते ही मानो उस के पैरों के नीचे से जमीन निकल गई. करीम चाचा के साथ वह पुलिस थाने गई. उन को देखते ही अकरम दहाड़ें मार मार कर रोने लगा.

“मुझे बचा ले हलीमा. ये पुलिस वाले मुझे बिना बात पकड़ लाए. अरे, मैं तो राजेंदर और अनीस के साथ ठेके से घर ही आ रहा था, इन्होंने मुझे रास्ते में उठा लिया,” अकरम रोतेरोते बता रहा था.

“कितनी बार कहा तुम से कि ये सब छोड़ दो. न तुम्हें घर वालों की फिक्र है, न अल्लाह का डर, और अब पुलिस थाने भी शुरू हो गए. क्या करूंगी. मैं कहां जाऊंगी बच्चों को ले कर,” हलीमा भी जोरजोर से रो रही थी.

“बस, इस बार मुझे बचा ले. तेरी कसम… आगे से सब बुरे काम छोड़ दूंगा,” अकरम उस के आगे हाथ जोड़ रहा था.

“मैं इंस्पेक्टर साब से बात कर के देखता हूं,” करीम चाचा ने हलीमा से कहा, तो वह भी उन के साथ चल दी.

“साहब, मेरे आदमी को छोड़ दो. आगे से कभी जुआ नहीं खेलेगा,” हलीमा ने इंस्पेक्टर के आगे हाथ जोड़े.

“शराब पी कर ये सारे लोग चौक पर दंगा कर रहे थे और एक दुकान का ताला तोड़ रहे थे. ये तो जाएगा 2-3 साल के लिए अंदर,” इंस्पेक्टर ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा.

“साहब, ये जुआरी और शराबी जरूर है, मगर चोर नहीं है. आप को कोई गलतफहमी हुई है,” हलीमा ने हाथ जोड़ेजोड़े विनती की.

“हम तो उधर से आ रहे थे. चोर तो पहले ही भाग गए थे. कोई नहीं मिला तो मुझे ही पकड़ लाए,” पीछे से अकरम की रोती हुई आवाज आई.

“अरे शहजाद, जरा लगा इस के दो हाथ… हमें हमारा काम सिखाता है,” इंस्पेक्टर ने भद्दी सी गाली देते हुए अपने कांस्टेबल से कहा, तो कांस्टेबल ने दो डंडे अकरम की कमर पर जड़ दिए. अकरम की चीखें पूरे थाने में गूंज गईं.

“अरे साहब, जाने दो न. गरीब आदमी है. आगे से ऐसा नहीं करेगा. कुछ सेवापानी कर देंगे,” करीम चाचा ने इंस्पेक्टर के आगे हाथ जोड़ कर कहा, तो इंस्पेक्टर ने उन को ऐसे घूरा मानो कच्चा ही चबा जाएगा.

“ठीक है, 10,000 रुपयों का इंतजाम कर लो, छोड़ देंगे इसे,” इंस्पेक्टर ने कुछ सोचते हुए कहा.

“10,000 रुपए…? इतने सारे रुपए कहां से लाएंगे सरकार. हम तो रोज कमानेखाने वाले लोग हैं. इतने सारे पैसे तो हम ने कभी एकसाथ देखे भी नहीं,” हलीमा ने रोते हुए इंस्पेक्टर से कहा.

“नहीं देखे तो अब इस को भी मत देखना कई साल. जा… जा कर कोई वकील कर, उस को हजारों रुपए फीस दे, अदालत में रिश्वत खिला, तब शायद ये 10 साल में घर वापस आ जाए,” इंस्पेक्टर दहाड़ा.

इतना सुन कर ही हलीमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. अकरम कैसा भी था, था तो उस का शौहर ही.

“ठीक है, साहब. मैं पैसों का इंतजाम कर के लाती हूं,” हलीमा ने हार कर कहा.

हलीमा ने शांति से कह कर अपने खाते में पड़े 10,000 रुपए निकलवाए और इंस्पेक्टर को ला कर दिए.

रास्तेभर उस ने अकरम से कोई बात नहीं की. आंखों में आंसू भरे वह अपने बच्चों का भविष्य बरबाद होते देख रही थी.

अकरम रोरो कर उस से माफी मांग रहा था, लेकिन हलीमा ने उस से एक लफ्ज भी नहीं बोला. अकरम बच्चों के सिर पर हाथ रख कर कसमें खा रहा था, लेकिन हलीमा को उन कसमों पर जरा भी यकीन नहीं था.

लेकिन इस बार अकरम सचमुच बदल गया था. हवालात में बिताए कुछ घंटों ने उस की आंखें खोल दी थीं. आज वह हलीमा का कर्जदार हो गया था. दिनभर उस ने जीतोड़ मेहनत कर के जितने भी पैसे कमाए, सारे के सारे हलीमा के हाथ पर रख दिए.

“मुझे माफ कर दे हलीमा… मैं बुरी संगत में पड़ कर ये भी भूल गया था कि मेरे ऊपर तुम सब की जिम्मेदारी भी है. मेरा यकीन कर आगे से मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिस से तेरी आंखों में आंसू आएं,” अकरम ने हलीमा के आगे हाथ जोड़ दिए.

“याद करो, हम गांव से दिल्ली किसलिए आए थे. अपने बच्चों के अच्छे कल के लिए, लेकिन हम उन को कैसा कल दे रहे हैं. जरा सोचो,” हलीमा की आंखें डबडबा आईं.

“तू सच कह रही है. मैं तुम सब का गुनाहगार हूं. मुझे एक मौका दे दे, मैं अपने बच्चों के लिए खूब मेहनत करूंगा और उन को एक अच्छी जिंदगी दूंगा,” अकरम ने हलीमा के हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा.

“आ जाओ मेरे बच्चो, अब तुम्हें अपने अब्बा से डरने की कोई जरूरत नहीं है,” अकरम ने बच्चों से कहा, जो दूर कोने में डरेसहमे से खड़े थे.

फिर अकरम ने उन सब को अपने गले लगा लिया. हलीमा को भी उम्मीद की एक नई किरण नजर आ रही थी. मन ही मन वह शांति मैडम की भी शुक्रगुजार थी, जिन की वजह से वह कुछ पैसे बचा पाई थी और आज उस का परिवार फिर से एक हो गया था.

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