गाड़ी बुला रही है: क्या हुआ मुक्कू के साथ

आजअकेले कार चलाने का अवसर मिला है. ये औफिस गए हुए हैं, मुक्कू बिटिया कालेज और मैं चली अपनी बचपन की सहेली से मिलने. अकेले ड्राइव पर जाने का आनंद कोई मुझ से पूछे. एसी के सारे वेंट अपने मुंह की ओर मोड़ कर कार के स्पीकर का वौल्यूम बढ़ा कर उस के साथ गाते हुए कार चलाने का मजा ही कुछ और होता है. एक नईर् ऊर्जा का संचार होने लगता है मुझ में. कितनी बार तो मैं ट्रैफिक सिगनल पर खड़ी कार में बैठीबैठी थोड़ा नाच भी लेती हूं. हां, जब पड़ोस की कारों के लोग घूरते हैं तो झेंप जाती हूं.

ड्राइविंग का कीड़ा मेरे अंदर शुरू से कुलबुलाया करता था. कालेज में दाखिला मिलते ही मेरा स्कूटी चलाने को जी मचलने लगा. मम्मीपापा के पास भी अब कोईर् बहाना शेष न था. मैं वयस्क जो हो गई थी. अब तो लाइसैंस बनवाऊंगी और ऐश से स्कूटी दौड़ाती कालेज जाऊंगी.

फिर भी मम्मी कहने लगीं, ‘‘खरीदने से पहले स्कूटी चलाना तो सीख ले.’’

‘‘ओके, इस में क्या परेशानी है. मेरी सहेली गौरी है न. अपनी स्कूटी पर उस ने कितनी बार मुझे पीछे बैठाया है. कई बार कह चुकी है कि एक बार हैंडल पकड़ कर फील तो ले. लेकिन इस बार जब मैं ने उस से मुझे स्कूटी सिखाने की बात कही तो वह बोली, ‘‘पर तुझे तो साइकिल चलानी भी नहीं आती है आकृति?’’

‘‘तो मुझे साइकिल नहीं स्कूटी चलानी है. तू सिखाएगी या नहीं यह बता?’’

‘‘नाराज क्यों होती है? सिखाऊंगी क्यों नहीं. पर पहले तू साइकिल चलाना सीख ले… तेरे लिए स्कूटी चलाना आसान रहेगा.’’

‘‘अब साइकिल कहां से लाऊं?’’

मेरी यह उलझन भी गौरी ने दूर कर दी. तय हुआ कि

पहले मैं उस की छोटी बहन की साइकिल चलाना सीखूं और फिर उस की स्कूटी.

साइकिल चलाना सीखना शुरू तो कर दिया पर हर बार बैलेंस बनाते समय मैं गिर पड़ती थी. एक बार पड़ोसिन रमा आंटी बोल पड़ीं, ‘‘आकृति, तुम्हें साइकिल चलानी नहीं आएगी, रहने दो. बेकार में कहीं लग न जाए, लड़की जात हो, चेहरा बिगड़ना नहीं चाहिए.’’

उन की इस बात ने मेरा मनोबल ही तोड़ दिया. कितना अच्छा होता कि आंटी मेरा हौसला बढ़ातीं, लेकिन उन्होंने मुझे निराश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

कुछ दिन हतोत्साहित होने के बाद जब मैं ने छोटेछोटे बच्चों को साइकिलें दौड़ाते देखा तो मेरे अंदर पुन: उम्मीद जाग उठी. मैं ने भी साइकिल सीख कर ही दम लिया. पहले साइकिल की सीट नीचे कर के, पांव जमीन पर टिका कर कौन्फिडैंस बनाया. फिर एक बार बैलेंस करना और फिर साइकिल चलाना सीख गई.

अब नंबर था स्कूटी का. मम्मी को मैं अपनी प्रोग्रैस से खबरदार करना न भूलती थी. उन्हीं से स्कूटी जो खरीदवानी थी. लेकिन पापा ने भांजी मार दी. कहने लगे, बिना गीयर का कोई स्कूटर होता है भला. जिद पर अड़ गए कि गीयर वाला स्कूटर ही दिलवाएंगे. लेना है तो लो वरना कालेज जाने के लिए मंथली बस पास बनवा लो. कितनी मिन्नते कीं पर पापा टस से मस न हुए. हर बार एक ही बात कह देते, ‘‘बेटा, मैं तेरे भले के लिए कह रहा हूं. गीयर वाला स्कूटर चलाने की फील ही अलग है. गीयर वाले स्कूटर के बाद कार चलाने में भी आसानी रहेगी…’’ न जाने क्याक्या दलीलें देते, लेकिन मेरी समझ में एक बात आ गई थी वह यह कि स्कूटी का पत्ता कट चुका था.

मैं बड़ी निराश थी, ‘‘अब किस से सीखूंगी मैं? गौरी के पास स्कूटी है, गीयर वाला स्कूटर नहीं.’’

‘‘अरे, तू परेशान क्यों होती है? मैं हूं न, मैं सिखा दूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, आप डांटोगे और मेरा कौन्फिडैंस खत्म कर दोगे. याद नहीं मुझे मैथ्स कैसे पढ़ाते थे? इतना डांटते थे कि आज तक मेरे मन से मैथ्स का डर नहीं गया. मुझे किसी और से सीखना है,’’ मेरी भी जिद थी.

मेरी इस जिद के आगे पापा को झुकना पड़ा, ‘‘अच्छा ठीक है, तो फिर जिस शोरूम से स्कूटर लेंगे, वहीं के मैकैनिक से कह कर सिखवा दूंगा तुझे.’’

वह दिन भी आ गया जब मैं और पापा स्कूटर लेने शोरूम पहुंचे. मुझे पिस्तई हरा रंग पसंद आया. स्कूटर लिया और साथ ही मैचिंग हैलमेट भी. पेमैंट करते समय पापा ने शर्त रखी कि कोई मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाना सिखा दे. तब तय हुआ कि 2 दिनों में मैकेनिक मुझे स्कूटर चलाने के गुर सिखा देगा, फिर प्रैक्टिस करना मेरा काम.

पहली ट्रेनिंग उसी दिन हुई. मैकेनिक राजू ने मुझे स्कूटर के कलपुरजों से वाकिफ करवाया. फिर शोरूम के सामने वाले मैदान में स्कूटर ले जा कर मुझे ड्राइविंग सीट पर बैठाया और खुद पीछे बैठा. स्कूटर का हैंडल उसी के हाथों में था. उस ने स्कूटर स्टार्ट किया, और फिर मुझे पहला गीयर डाल कर दिखाया. क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा. मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर क्लच छोड़ते ही स्कूटर धीरेधीरे चलने लगा.

मुझे मजा आने लगा. फिर दूसरा और तीसरा गीयर डाल कर स्पीड बढ़ा कर भी दिखा दिया. अब स्कूटर का हैंडल संभालने की मेरी बारी थी. साइकिल से विपरीत स्कूटर का हैंडल एकदम सधा रहता है. डगमगाने का कोई डर ही नहीं, मैं आश्वस्त हो गई. पापा का डिसीजन मुझे सही लगने लगा. पहले दिन मैदान में चक्कर लगा कर हम घर लौट आए.

अगले दिन दूसरी और आखिरी क्लास के लिए शोरूम जाना था. पापा को मेरे उत्साह पर हंसी आ रही थी. आज की ट्रेनिंग राजू भाई सड़क पर लेना चाहता था ताकि मैं ट्रैफिक में भी सीख सकूं. सड़क तक स्कूटर राजू चला कर ले गया और वहां पहुंच कर मेरे हवाले करने लगा.

‘‘प्लीज, आप भी बैठे रहो न,’’ इतना ट्रैफिक और शोरगुल देख मैं थोड़ा डर गई.

मेरी रिक्वैस्ट पर राजू मेरे पीछे बैठ गया परंतु हैंडल से ले कर गीयर तक आज सब काम मुझे ही करने थे. मैं किक मारूं, लेकिन स्कूटर स्टार्ट ही न हो. राजू ने मुझे किक लगाने का सही तरीका बताया. अब की बार मुझ से किक लग गई. स्कूटर स्टार्ट कर मैं ने पहले गीयर में डाला और धीरेधीरे क्लच छोड़ते ही वह चलने लगा. वाह, मैं स्कूटर चला रही थी. लेकिन तभी साइड से जाती एक गाड़ी ने हौर्न बजाया और मैं डर गई. इतना डर गई कि चलते स्कूटर से उतर गई, किंतु उस का हैंडल नहीं छोड़ा. दोनों हाथों से हैंडल पकड़े मैं स्कूटर के संग भागने लगी.

अब डरते की बारी राजू की थी. मेरी इस हरकत पर उस ने फौरन ब्रेक लगाया. बाद में मुझे ऐसा डांटा कि पूछो मत. आज याद करती हूं तो हंसी आती है लेकिन सोचा जाए तो राजू की बात एकदम सही थी. चलती सड़क, पूरा ट्रैफिक, उस पर मैं चलते स्कूटर से उतर गई और संग भागने लगी. बड़ा ऐक्सीडैंट हो सकता था. चूंकि राजू साथ थे तो पापा या शोरूम के मालिक तो उन्हें ही जिम्मेदार ठहराते. राजू ने कानों को हाथ लगा कर मुझ से तोबा कर ली.

खैर, ड्राइविंग तो मुझे सीखनी ही थी पर अब मेरा कोई गौडफादर न था. मुझे आज भी याद है वह वसंत ऋतु की शाम. मौसम कितना खुशगवार था. दिल्ली में फरवरी से अच्छा मौसम शायद ही सालभर में कभी होता है. पर इतने खुशनुमा मौसम में भी मेरे चेहरे पर पसीना आ रहा था.

अपनी गली में हैलमेट लगा कर बहुत डरते हुए मैं ने स्कूटर को थामा. किक लगाई और धीरे से चलाना शुरू किया. 200 मीटर ही चली थी कि सामने से एक बाइक को अपनी ओर आता देख मैं फिर डर गई और सीधे हाथ से रेस कम करने के बजाय गलती से बढ़ा दी. फिर क्या था. स्कूटर उछलता हुआ भागा और सामने खड़ी एक कार से जा टकराया. मैं दर्द से कराह उठी. रोती हुई मैं घर आ गई. स्कूटर को महल्ले के लोगों ने घर पहुंचाया था. बस, वह मैं ने आखिरी बार स्कूटर चलाया था.

मगर ड्राइविंग के मेरे शौक को आराम न मिला. स्कूटर के बाद कार का नंबर लगा. कार चलाना सीखने की कहानी भी बड़ी मजेदार है. सुनेंगे?

कार सीखने तक मैं नौकरी करने लगी थी. मेरे मन में कार चलाने की इतनी तीव्र इच्छा जागने लगी कि मैं सपने में भी कार चलाया करती. जी हां, वह भी हर रात. जब प्रोफैशनल ड्राइविंग स्कूल से कार चलाना सीखना शुरू किया तो पहले दिन ट्रेनर ने मुझ से कहा, ‘‘लगाओ.’’

‘‘मैं ने पूछा, क्या?’’

‘‘गीयर, और क्या?’’

‘‘मुझे क्या पता कैसे लगाते हैं? बताओ तो सही.’’

मेरे उत्तर पर उस ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘तो क्या बिलकुल चलानी नहीं आती?’’

‘‘अगर आती तो सीखती क्यों?’’ मेरे इस उत्तर पर वह हंस पड़ा था. फिर उस ने बहुत अच्छी ट्रेनिंग दी. मुझे आज भी याद है कि शुरू में जब कार को रोकना होता था तो मैं स्ट्रैस में आ कर स्टीयरिंग व्हील कस कर पकड़ लेती. एक बार वह बोला, ‘‘कार इसे पकड़ने से नहीं रुकती.’’

आज भी उस की कही इस बात पर हंसी आती है. हां, उस की इस बात से मैं स्ट्रैस फ्री हो कर कार चलाना जरूर सीख गई.

मगर जिंदगी में एक बार ऐसी गलती कर बैठी थी जिस के बाद शायद कोई और होती तो कार को चलाने की हिम्मत फिर कभी न करती. बहुत पुरानी बात है, मुक्कू छोटी सी थी, गोदी में. मुझे आज भी साफसाफ याद है…

‘‘औरतें गाड़ी चलाती ही क्यों हैं?’’

‘‘जब चलानी नहीं आती तो कार ले कर निकलने की क्या जरूरत थी भला?’’

‘‘कैसी मां है… कलयुग है.’’

‘‘हा… हा… हा… अरे भाई यों ही नहीं डरते हम औरतों को ड्राइविंग सीट पर बैठे देख कर.’’

‘‘जरूर फोन में ध्यान होगा. इन फोनों ने तो दुनिया बिगाड़ कर रख दी.’’

जितने मुंह थे, उतनी बातें. दिल तो कर रहा था चीख कर सब की बातों का मुंहतोड़ जवाब दे डालूं. बता दूं सब को कि मैं कितनी अच्छी, सेफ और सधी हुई कार ड्राइव करती हूं. करीब 12 साल हो गए मुझे कार चलाते. इन सालों में 4 कारें बदली मैं ने और आज तक एक खरोंच नहीं आने दी मैं ने अपनी किसी भी कार की बौडी पर वह भी दिल्ली के ट्रैफिक में. लेकिन इस वक्त मेरी प्राथमिकता इन लोगों की बकवास नहीं, अपनी बच्ची थी जो मेरी गलती से कार में लौक हो गई थी.

नन्ही मुक्कू का चेहरा लाल पड़ता जा रहा था. हालांकि वह मुसकरा रही थी… शांत भी थी… उस के चेहरे या हावभाव से नहीं लग रहा था कि उसे कोई परेशानी हो रही है… पर उस का बदलता रंग… मेरी गोरी सी गुडि़या तांबाई होती जा रही थी. उस के पूरे शरीर पर उभर आई पसीने की बूदें उस के भीगे होने का एहसास करा रही थीं… मुक्कू की हालत देख मेरा भी हाल खराब हो रहा था. कितनी बड़ी गलती हो गई मुझ से आज, मेरे आसपास भीड़ जमा हो चुकी थी. हरकोई कार के अंदर झांकता, फिर मेरी ओर देखता. भीड़ खुसफुसा रही थी, आदमीऔरतें सभी.

मैं ने इन्हें फोन किया, ‘‘सुनो, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. मुक्कू को ले कर मार्केट के लिए निकली थी. सामान कार की बैक सीट पर रख, मुक्कू को पीलीयन सीट पर रखी उस की कार सीट में एडजस्ट किया और न जाने किस बेध्यानी में मुक्कू से खेलते हुए कार की चाबी उसे खेलने को पकड़ा दी. उस की चेन बहुत पसंद है न मुक्कू को. वह हंस रही थी. मैं ने उस की तरफ का डोर लौक किया और जैसे ही ड्राइवर डोर की ओर पहुंची तो मेरी घंटी बजी कि चाबी तो मैं ने अंदर ही लौक कर दी,’’ मैं एक ही सांस में बोलती चली गई.

‘‘मुक्कू कहां है?’’ इन का पहला रिस्पौंस था. आखिर अपनी 7 महीने की बच्ची के लिए कौन पिता चिंतित नहीं होगा.

‘‘मुक्कू अंदर ही है,’’ मैं रोने लगी, ‘‘इतनी गरमी में न जाने क्या हाल हो रहा होगा मेरी बच्ची का. लाल पड़ती जा रही है… पसीनापसीना हो गई है…’’

‘‘तो कार का शीशा तोड़ो और उसे बाहर निकालो फौरन. मैं अभी औफिस से निकल रहा हूं.’’ इन्होंने हल सुझाया.

मैं ने यही हल वहां खड़ी जनता को बताया, तो कुछ लोग कहने लगे, ‘‘शीशा तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है. बेकार नुकसान होगा और अगर बच्चे को शीशे के टुकड़े लग गए तो?’’

‘‘हां, एक स्केल लाओ तो मैं अभी दरवाजा खोले देता हूं.’’

फिर स्केल लाया गया और वह काफी देर तक दरवाजा खोलने की नाकाम कोशिश करता रहा.

‘‘भाई, ऐसा पुरानी गाडि़यों में हो पाता था. नई कारों में यह तरकीब न चलती.’’

‘‘चाबी वाले को बुला लो न कोई… नंबर नहीं है क्या?’’

मैं ने कार के अंदर झांका, मुक्कू अब कुछ कसमसाने लगी थी. उस का चेहरा और सुर्ख पड़ चुका था. मुझ से रहा नहीं गया. एक ईंट का टुकड़ा उठा कर मैं ने कार के शीशे पर दे मारा. लेकिन शीशे को कुछ न हुआ. फिर भीड़ को चीरता हुआ एक लड़का आगे आया और अपने हाथ में लिए हथौड़े से पीछे की सीट के शीशे तो तोड़ डाला. मुक्कू को कांच लगने का खतरा भी टल गया. पीछे का दरवाजा खोल कर वह कार के अंदर गया और मुक्कू वाला दरवाजा अंदर से अनलौक कर दिया.

न जाने मैं कितनी देर मुक्कू को चूमती रही. मेरे आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे. कभी उस के मुंह पर फूंक मारती, कभी उस का पसीना पोंछती. वह दिन है और आज का दिन, मैं ने कार की चाबी को उंगली से तभी जाने दिया जब या तो कार स्टार्ट कर ली या फिर अपने हाथ से लौक. प्रण कर लिया कि ऐसी कोई गलती दोबारा कभी नहीं करूंगी.

मैं तो बुढ़ापे तक कार चलाना चाहती हूं. दिल्ली की सर्दी में जब धुंध को चीरती मेरी कार चलती है तब लगता है मानो बादलों में सवारी कर रही हो. क्या आनंद आता है उस समय ड्राइविंग का… मेरी ड्राइविंग सीखने की सारी मेहनत वसूल हो जाती है, होंठ मुसकराने लगते हैं और मैं गुनगुनाने लगती हूं.

सुहाना सफर और ये मौसम हंसी हमें डर है हम खो न जाएं कहीं.

श्रद्धांजलि: क्या था निकिता का फैसला

‘‘निक्की, पापा ने इतने शौक से तुम्हारे लिए पिज्जा भिजवाया है और तुम उसे हाथ भी नहीं लगा रही, क्यों?’’ अमिता ने झल्ला कर पूछा.

‘‘क्योंकि उस में शिमलामिर्च है और आप ने ही कहा था कि जिस चीज में कैपस्किम हो उसे हाथ भी मत लगाना,’’ निकिता के स्वर में व्यंग्य था.

अमिता खिसिया गई.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गई थी कि तुझे शिमलामिर्ची से एलर्जी है. तेरे पापा को यह मालूम नहीं है.’’

‘‘उन्हें मालूम भी कैसे हो सकता है क्योंकि वे मेरे पापा हैं ही नहीं,’’ निकिता ने बात काटी.

अमिता ने सिर पीट लिया.

‘‘निक्की, अब तुम बच्ची नहीं हो, यह क्यों स्वीकार नहीं करतीं कि तुम्हारे अपने पापा मर चुके हैं और अब जगदीश लाल ही तुम्हारे पापा हैं?’’

‘‘मैं उसी दिन बड़ी हो गई थी मां जिस दिन मैं ने ही तुम्हें फोन पर पापा के न रहने की खबर दी थी, मेरी गोद में ही तो घायल पापा ने दम तोड़ा था. रहा सवाल जग्गी अंकल का तो आप उन्हें पति मान सकती हैं लेकिन मैं पापा नहीं मान सकती और मां, इस से आप को तकलीफ भी क्या है? आप की आज्ञानुसार मैं उन्हें पापा कहती हूं, उन की इज्जत करती हूं.’’

‘‘लेकिन उन्हें प्यार नहीं करती. जानती है कितनी तकलीफ होती है मुझे इस से, खासकर तब जब वे तेरा इतना खयाल रखते हैं. इतना पैसा लगा कर हमें यहां टूर पर इसलिए साथ ले कर आए हैं कि तू अपने स्कूल प्रोजैक्ट के लिए यह देखना चाहती थी कि छोटी जगहों में जिंदगी कैसी होती है. आज रास्ते में कहीं पिज्जा मिलता देख कर, ड्राइवर के हाथ तेरे लिए भिजवाया है, जबकि वे कंपनी के ड्राइवर से घर का काम करवाना पसंद नहीं करते.’’

‘‘इस सब के लिए मैं उन की आभारी हूं मां, बहुत इज्जत करती हूं उन की लेकिन पापा की तरह उन्हें प्यार नहीं कर सकती. बेहतर रहे कि आइंदा इस बारे में बात कर के न आप खुद दुखी हों, न मुझे दुखी करें. मैं वादा करती हूं, जग्गी अंकल की भावनाओं को मैं कभी आहत नहीं होने दूंगी,’’ निकिता ने पिज्जा को दोबारा पैक करते हुए कहा, ‘‘शाम को उन के पूछने पर कह दूंगी कि आप के साथ खाएंगे और फिर जब पिज्जा गरम हो कर आएगा तो आप मुझे खाने से रोक देना एलर्जी की वजह से. बात खत्म.’’ यह कह कर निकिता अपने कमरे में चली गई.

लेकिन बात खत्म नहीं हुई. निकिता को रहरह कर अपने पापा की याद आ रही थी. वह और पापा भी कालोनी के दूसरे लोगों की तरह अकसर कालोनी की सडक़ पर बैडमिंटन खेला करते थे. उस रविवार की सुबह मां बाजार गई थीं और निकिता पापा के साथ सडक़ पर बैडमिन्त्न खेल रही थी कि एक लौंग शौट मारने के चक्कर में उछल कर पापा एक नए बनते मकान की नींव के लिए रखे पत्थरों के ढ़ेर पर जा गिरे और उन का सिर फट गया. जब तक शोर सुन कर पड़ोस में रहने वाले डाक्टर चौधरी पहुंचे, पापा अंतिम सांस ले चुके थे.

मोबाइल पर निकिता से खबर मिलते ही मां ने शायद जग्गी अंकल को फोन कर दिया था क्योंकि वे मां से पहले पहुंच गए थे और विह्लïल होने के बावजूद उन्होंने बड़ी कुशलता से सब संभाल लिया था. मां और पापा के परिवार वालों का तो रोरो कर हाल बेहाल था. पापा के अंतिम संस्कार के बाद जग्गी अंकल ने सब से गंभीर स्वर में कहा था, ‘जो चला गया उस के लिए रोने के बजाय जिन्हें वह पीछे छोड़ गया है, उन की जिंदगी फिर से पटरी पर लाने के लिए क्या करना है, उस पर शांति से सोचिए.’

‘सोचना क्या है, इन्हें हम अपने साथ ले जाएंगे,’ अमिता की सास ने कहा.

‘मैं भी यही सोच रही हूं. अब अमिता की मरजी है, जहां चलना चाहे, चले,’ अमिता की मां बोली. ‘मेरा कहीं जाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि यहां मेरी स्थायी नौकरी है, निक्की का स्कूल है और हमारा अपना घर है. बीमे के पैसे से घर का लोन चुकता हो जाएगा और मेरे वेतन से हम मां बेटी का खर्च चल जाया करेगा,’ अमिता ने संयत स्वर में कहा.

‘फिर भी, छोटी बच्ची के साथ तुझे अकेले कैसे छोड़ सकते हैं?’ मां ने पूछा.

‘लेकिन फिलहाल आप न मिड टर्म में निक्की का स्कूल छुड़वा सकती हैं, न ही इतनी जल्दी अमिताजी की लगीलगाई नौकरी और न इस घर को बिकवा या किराए पर चढ़ा सकती हैं?’ अमिता के बोलने से पहले जग्गी ने पूछा, ‘बेहतर रहेगा कि अभी आप लोगों में से कोई बारीबारी इन के साथ रहे, मैं तो आताजाता रहूंगा ही. इस बीच इत्मीनान से कोई स्थायी हल भी ढूंढ लीजिएगा.’

‘जग्गी का कहना बिलकुल ठीक है,’’ अमिता के ससुर ने कहा. और सब ने भी उन का अनुमोदन किया.

निकिता की दादीनानी बारीबारी से उन के साथ रहने लगीं. जग्गी अंकल तो हमेशा की तरह आते रहते थे. पापा के बीमे, प्रौविडैंट फंड और अन्य विदेशों से पैसा निकलवाने में उन्होंने बहुत दौड़धूप की थी और उस रकम का निकिता के नाम से निवेश करवा दिया था. नानीदादी के रहने से और जग्गी अंकल के आनेजाने से पापा के जाने से कोई दिक्कत तो महसूस नहीं हो रही थी लेकिन जो कमी थी, वह तो थी ही. किसी तरह साल भी गुजर गया.

पापा की बरसी पर फिर सब लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने जो फैसला किया उस से निकिता बुरी तरह टूट गई थी.

सब का कहना था कि जगदीश लाल से बढ़ कर अमिता और निकिता का कोई  हितैषी हो ही नहीं सकता. सो, वे मांबेटी को उन्हें ही सौंप रहे हैं यानी दोनों की शादी करवा रहे हैं. जगदीश लाल और अमिता ने जिस नाटकीय ढंग से सब की आज्ञा शिरोधार्य की थी उस से निकिता बुरी तरह बिलबिला उठी थी. वह चीखचीख कर कहना चाहती थी कि बंद करो यह नौटंकी, तुम दोनों तो कब से इस दिन के इंतजार में थे. आंखमिचौली तो पापा के सामने ही शुरू कर चुके थे.

पापा के दोस्त जगदीश लाल एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के मार्केटिंग विभाग में काम करते थे. अकसर वे टूर पर उन के शहर में आते थे. पहले तो होटल में ठहरा करते थे, फिर पापा की जिद पर उन के घर पर ही ठहरने लगे. उन के आने से पापा तो खुश होते ही थे, निकिता को भी बहुत अच्छा लगता था क्योंकि अंकल उस के लिए हमेशा कुछ न कुछ ले कर आया करते थे. उस के साथ खेलते थे और होमवर्क भी करवा देते थे. शरारत करने पर डांटते भी थे जो निकिता को बुरा नहीं लगता था. लेकिन जगदीश लाल के आने पर सब से ज्यादा चहकती थीं मां. इंसान अपना गम तो किसी तरह छिपा लेता है मगर खुशी को स्वयं में समेटना शायद आसान नहीं होता, तभी तो मां ने एक दिन शीला आंटी के बगैर कुछ पूछे ही कहा था, ‘न जाने आजकल क्यों मैं बहुत तरोताजा महसूस कर रही हूं खुशी और उत्साह से भरी हुई.’

‘तो खुश रह, वजह ढूंढऩे की क्या जरूरत है?’ शीला आंटी ने लापरवाही से कहा.

लेकिन निकिता ने बताना चाहा था कि उसे वजह पता है, आजकल जगदीश लाल जो आए हुए हैं.

फिर मैनेजर बन कर अंकल की पोस्टिंग उन्हीं के शहर में हो गई थी. पापा के कहने पर कि ‘अब तो शादी कर ले’, अंकल ने कहा था, ‘करूंगा यार, मगर उम्र थोड़ी और बड़ी हो जाने पर ताकि बड़ी उम्र की औरत को अकेले रहते डर न लगे. मार्केटिंग का आदमी हूं, सो, शहर से बाहर जानाआना तो उम्रभर ही चलेगा.’

अंकल के आने के बाद मां का औफिस में देर तक रुकना भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था. अकसर उन का फोन आता था, ‘मैं तो 8 बजे से पहले नहीं निकल पाऊंगी, आप मुझे लेने मत आओ, निक्की का होमवर्क करवा कर उसे समय पर खाना खिला दो. मैं कैसे भी आ जाऊंगी या ठीक समझो तो जगदीश जी से कह दो.’ जगदीश अंकल भी उन लोगों को दावत पर बुलाते रहते थे और तब मां उस के और पापा के पहुंचने से पहले ही औफिस से सीधे वहां पहुंच चुकी होती थीं. कई बार मां अचानक ही कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम बना लेती थीं और वहां घूमते हुए जग्गी अंकल भी मिल जाते थे.

ऐसी छोटीछोटी कई बातें थीं जो तब तो महज इत्तफाक लगती थीं मगर अब सोचो तो लगता है कि पापा की आंखों में धूल झोंकी जा रही थी. जाने वह कब तक इस बारे में सोचती रहती कि मां के पुकारने पर उस की तंद्रा भंग हुई. ‘‘बाहर आओ निक्की, पापा आ गए हैं.’’

‘‘आज अनिता से फोन पर बात हुई थी. कह रही थी कि आधे रास्ते तक तो आए हुए ही हो, फिर मुझ से मिलने भी आ जाओ,’’ अमिता ने बताया.

‘‘बात तो सही है,’’ जगदीश ने कहा, ‘‘मौसी से मिलना है निक्की?’’ निकिता ने खुशी से सहमति में सिर हिलाया.

‘‘आप को छुट्टी मिल जाएगी?’’ अमिता ने पूछा.

‘‘टूर के दौरान छुट्टी लेना नियम के विरुद्ध है, कुछ दिनों बाद तुम्हें लिवाने के लिए छुट्टी ले कर आ सकता हूं. दिन का 7-8 घंटे का सफर है, एसी चेयर में आरक्षण करवा देता हूं, तुम दोनों आराम से चली जाना.’’

मौसी के बच्चे निकिता के समवयस्क थे. सो, उस का समय उन के साथ बड़े मजे में कट रहा था. लेकिन मौसी की आंखों से उस की उदासी छिपी न रह सकी. एक दोपहर जब अमिता सो रही थी, मौका देख कर उन्होंने पूछ ही लिया.

‘‘जग्गी का व्यवहार तेरे साथ कैसा है निक्की?’’

‘‘बहुत अच्छा. वे हमेशा ही मुझे बहुत प्यार करते हैं.’’

‘‘तो फिर तू खुश क्यों नहीं है, इतनी उदास क्यों रहती है?’’

‘‘पापा बहुत याद आते हैं मौसी.’’

‘‘वह तो स्वाभाविक ही है, उन्हें कैसे भुलाया जा सकता है.’’

‘‘लेकिन मां ने तो उन्हें भुला दिया है?’’

‘‘भुलाने का नाटक करती है बेचारी सब के सामने. हरदम रोनी सूरत बना कर कैसे रह सकती है?’’

‘‘रोनी सूरत बनाने का नाटक करती हैं,’’ निक्की फट पड़ी, ‘‘पापा की जिंदगी में ही उन की जग्गी अंकल के साथ लुक्काछिप्पी शुरू हो गई थी…’’ और उस ने धीरेधीरे अनिता को सब बता दिया.

‘‘मगर तेरे पापा की मृत्यु तो दुर्घटना ही थी न?’’

‘‘हां मौसी, वह तो मेरी आंखों के सामने ही हुई थी, उस के लिए तो किसी को दोष नहीं दे सकते लेकिन उस के बाद जो भी हुआ उस के लिए आप सब भी दोषी हैं.

आप सब ने ही तो मां की शादी जग्गी अंकल से करवा कर, पापा का अस्तित्व ही मिटा दिया उन की जिंदगी से.’’

अनिता सुन कर स्तब्ध रह गई. निक्की ने जो भी कहा उसे नकारा नहीं जा सकता था. लेकिन इस के सिवा कोई और चारा भी तो नहीं था. अकेले कैसे पालती अमिता निक्की को और अगर निक्की का जग्गी और अमिता के बारे में कहना सही है, तब तो उन लोगों ने समय रहते उन के रिश्ते पर सामाजिक मोहर लगवा कर परिवार की बदनामी होने को रोक लिया.

‘‘यह क्या कह रही है निक्की? अपने पापा की जीतीजागती धरोहर तू है न अमिता की जिंदगी में. कितने लाड़प्यार से पाल रहे हैं तुझे दोनों. और वैसे भी निक्की, तेरे पापा की यादों के सहारे जीना और तुझे पालना तो बहुत मुश्किल होता अकेली अमिता के लिए. याद है यहां पहुंचने के बाद तूने ही फोन पर जग्गी से कहा था कि तुम लोगों को लेने के लिए तो उसे आना ही पड़ेगा, तू अकेली अमिता के साथ सफर नहीं करेगी.’’

‘‘हां मौसी, हम दोनों को अकेली देख कर कुछ लोगों ने बहुत तंग किया था. रैक पर से सामान उतारने और रखने के बहाने बारबार हमारी सीट से सट कर खड़े हो जाते थे.’’

‘‘जब 7-8 घंटे के सफर में ही लोगों ने तुम्हारे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहा तो जिंदगी के लंबे सफर में तो न जाने क्याक्या होता? मैं तुम्हें अपने पापा को भूलने को या उन के अस्तित्व को नकारने को नहीं कह रही निक्की, मन ही मन उन का नमन करो, उन से जीवन में आगे बढऩे की प्रेरणा मांगो, उन से उन की प्रिय अमिता और जिगरी दोस्त जग्गी को खुश करने की शक्ति मांगो. उन दोनों की खुशी के लिए तो तुम्हारे पापा कुछ भी कर सकते थे न?’’ अनिता ने पूछा.

‘‘जी, मौसी.’’

‘‘और उन्हीं दोनों को तू दुखी रखती है उदास रह कर. जानती है निक्की, अपने पापा के लिए तेरी सब से उपयुक्त श्रद्धांजलि क्या होगी?’’

‘‘क्या मौसी?’’ निक्की ने उतावली हो कर पूछा.

‘‘खुश रह कर अमिता और जग्गी को भी खुशी से जीने दे.’’

‘‘जी, मौसी,’’ निकिता ने सिर झुका कर कहा.

बेटा, पिता के मरने के बाद बच्चों से ज्यादा उन की कमी मां को खलती है. तुम तो 5-7 साल में बड़ी हो कर पर लगा कर उड़ जाओगी, पता है तुम्हारी मां अगले 30-40 साल कैसे गुजारेंगी? क्या तुम चाहती हो कि वे अकेले रहें, तुम्हें रातबिरात परेशान करें. हर समय अपनी बीमारियों का रोना रोएं? जग्गी अंकल हैं तो तुम्हें भरोसा है न, कि मां की देखभाल कोई कर रहा है. अपने साथी को खो चुकी मां को यह गिफ्ट तो दे ही सकती है तू.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

रिश्तों की डोर: सुनंदा की आंखों पर पड़ी थी पट्टी

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गुड़िया: सुंबुल ने कौन सा राज छुपा रखा था?

‘‘सरबिरयानी तो बहुत जबरदस्त है. भाभीजी के हाथों में तो जादू है. इतनी लजीज बिरयानी मैं ने आज तक नहीं खाई,’’ बिलाल ने बिरयानी खाते हुए फरहान से कहा.

‘‘यह तो सच है तुम्हारी भाभी के हाथों में जादू है, लेकिन आज यह जादू भाभी का नहीं तुम्हारे भाई के हाथों का है,’’ फरहान ने हंसते हुए कहा.

‘‘मैं कुछ सम?ा नहीं? क्या यह बिरयानी भाभीजी ने नहीं बनाई?’’ बिलाल ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं मैं ने बनाई है. क्या है कि कल तुम्हारी भाभी के औफिस में एक जरूरी मीटिंग थी और वे आतेआते लेट हो गई थीं तो मैं ने सोचा चलो आज मैं भी अपना जादू दिखाऊं,’’ फरहान ने खाना खत्म करते हुए कहा.

‘‘अरे वाह सर आप भी इतना अच्छा खाना बनाते हैं. वैसे भाभी जौब करती हैं तो घर के काम कौन करता है? आप लोगों को तो बड़ी दिक्कत होती होगी? यहां दुबई में कोई मेड मिलना भी तो आसान नहीं है,’’ बिलाल ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘हां मेड मिलना तो बहुत मुश्किल है, लेकिन हम दोनों मिल कर मैनेज कर ही लेते हैं. थोड़ेबहुत काम मैं भी कर लेता हूं,’’ फरहान ने मुसकराते हुए कहा.

‘इतने बड़े मैनेजर हो कर घर के काम खुद करते हैं और बीवी औफिस जाती है,’ बिलाल मन ही मन हंसा, पर कुछ कह नहीं पाया, आखिर फरहान उस का सीनियर जो था.

8 महीने पहले ही बिलाल लखनऊ से दुबई आया था. एक बड़े बैंक में उसे अच्छी जौब मिल गई थी. उस का सीनियर फरहान दिल्ली से था और बहुत ही हंसमुख व मिलनसार. दोनों में खासी दोस्ती हो गई थी. अकसर लंच दोनों साथ करते थे. फरहान के लंच में हमेशा ही लजीज खाने होते थे तो बिलाल ने सोचा शायद उस की बीवी घर पर ही रहती होगी. उसे यह जान कर बड़ी हैरानी हुई कि वे भी कहीं जौब करती हैं. वैसे बिलाल की खुद की बीवी उज्मा भी खाना अच्छा ही बना लेती थी, लेकिन इतना अच्छा नहीं जितना फरहान के घर से आता था.

 

कुछ दिनों बाद बातों ही बातों में फरहान ने बताया कि उस की बीवी सुंबुल कुछ

दिनों के लिए भारत गई हुई हैं. ऐसे में बिलाल ने एक दिन फरहान को अपने घर खाने की दावत दे डाली.  फरहान ने उज्मा के बनाए खाने की बहुत तारीफ की और सुंबुल के वापस आने पर दोनों को अपने घर बुलाने की दावत भी दे डाली.

कुछ दिनों बाद सुंबुल भारत से वापस आ गई तो एक दिन फरहान ने बिलाल को घर पर दावत दे दी. छुट्टी के दिन बिलाल और उज्मा फरहान के घर पहुंच गए.

‘‘आइएआइए भाभीजी,’’ फरहान ने दोनों का स्वागत करते हुए कहा.

‘‘सुनिए मेहमान लोग आ गए हैं,’’ फरहान ने दोनों को ड्राइंगरूम में बैठाया और किचन में काम कर रही अपनी बीवी को आवाज दी.

ड्राइंगरूम काफी करीने से सजा था.  बिलाल और उज्मा दोनों ही प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

जैसे ही सुंबुल किचन से बाहर आई, बिलाल को एक जोर का ?ाटका लगा. उसे यकीन ही नहीं हुआ कि उस के सामने सुंबुल खड़ी है, उस की पुरानी मंगेतर. बिलाल को देख कर सुंबुल भी एक पल के लिए ठिठक गई, लेकिन फिर जल्दी ही सामान्य हो गई.

सुंबुल और उज्मा जल्द ही घुलमिल गईं और उज्मा भी सुंबुल की मदद करने के लिए किचन में चली गई. टीवी पर आईपीएल का मैच चल रहा था और फरहान विराट कोहली की बैटिंग की तारीफ कर रहा था, लेकिन बिलाल का दिमाग तो जैसे एकदम ही शून्य हो गया था. उसे उम्मीद नहीं थी कि एक दिन सुंबुल इस तरह उस के सामने आ जाएगी.

खाने की टेबल पर उज्मा सुंबुल के बनाये खाने की खूब तारीफें कर रही थी.

‘‘अरे बिलाल तुम्हें पता है हमारी ससुराल भी तुम्हारे पड़ोस में ही है. तुम लखनऊ से हो और सुंबुल कानपुर से,’’ बातों ही बातों में लखनऊ का जिक्र आया तो फरहान ने बिलाल से कहा.

‘‘अच्छा. अगली बार कानपुर आएंगे तो लखनऊ भी तशरीफ लाइएगा,’’ बिलाल बस इतना ही कह पाया. सुंबुल के सामने ज्यादा बोलने में वह बहुत ?ि?ाक रहा था.

घर वापस पहुंच कर उज्मा तो जल्दी सो गई, लेकिन बिलाल की आंखों से नींद कोसों दूर थी. गुजरा हुआ कल एक फिल्म की तरह उस के जेहन में चलने लगा…

बिलाल के पिताजी और सुंबुल के पिताजी की आपस में जानपहचान थी. 1-2 बार बिलाल के पिताजी जब कानपुर गए तो उन्होंने वहां सुंबुल को देखा और उस को बिलाल के लिए पसंद कर लिया. लड़का पढ़ालिखा और अच्छा था और फिर घरबार भी देखाभाला हुआ तो सुंबुल के पिताजी को भी इस रिश्ते में कोई हरज नहीं दिखाई दिया. फिर कुछ दिनों बाद दोनों की मंगनी हो गई और शादी लगभग 1 साल बाद होनी तय की गई. फिर अकसर दोनों एकदूसरे से बातें करने लगे.

मगर शादी से कुछ ही दिन पहले एक दिन अचानक बिलाल के पिताजी ने सुंबुल के पिताजी को फोन कर के शादी के लिए मना कर दिया.  वजह पूछने पर उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि उन्हें लगता है कि सुंबुल उन के घर में एडजस्ट नहीं हो पाएगी.

थोड़ी देर बाद ही सुंबुल ने बिलाल से मैसेज कर के इस फैसले की वजह जाननी चाही.

‘‘आई एम सौरी सुंबुल, लेकिन मु?ो और घर वालों को लगता है कि तुम हमारे घर के माहौल में एडजस्ट नहीं हो पाओगी. बाद में मुश्किलें हों इस से अच्छा है कि हम अभी अपने रास्ते अलग कर लें,’’ बिलाल ने जवाब दिया. वैसे दिल ही दिल में उसे भी अच्छा नहीं लग रहा था.  इतने दिनों तक मंगनी होने और सुंबुल से बातें करने के बाद वह भी मन ही मन उसे चाहने लगा था.

‘‘मगर अचानक ऐसा क्या हो गया जिस से आप को लगा मैं वहां एडजस्ट नहीं हो पाऊंगी?’’ सुंबुल ने फिर सवाल किया. उस की सम?ा नहीं आ रहा था कि आखिर उस ने ऐसा क्या कर दिया जिस से बिलाल और उस के घर वाले उस से रिश्ता खत्म करने पर आमादा हो गए. अभी 2 दिन पहले ही तो बिलाल के पिताजी किसी काम से कानपुर आए थे और उन के घर भी आए. उसे याद नहीं आ रहा था कि उस ने ऐसा क्या किया जिस से बात यहां तक पहुंची.

‘‘अभी 2 दिन पहले अब्बू आप के घर गए थे. उन्होंने आ कर बताया कि जब तक वे आप के घर में रहे आप ने किसी काम को हाथ नहीं लगाया. खाना बनाना या घर के बाकी काम सिर्फ आप की अम्मी ही करती रहीं और आप बस अपने लैपटौप पर बैठी रहीं या नेलपौलिश लगाती रहीं. अब्बू का मानना है कि हमें अपने घर के लिए एक सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए बल्कि ऐसी लड़की चाहिए जो घर संभाल सके और जो तेरी अम्मी को आराम दे सके,’’ बिलाल ने एक लंबाचौड़ा मैसेज भेजा.

‘‘आप को एक बार मु?ा से बात तो कर लेनी चाहिए थी.  बिना पूरी बात जाने आप लोग इतना बड़ा फैसला कैसे कर सकते हैं?’’ काफी देर बाद सुंबुल ने जवाब दिया.

‘‘बात करने लायक कुछ है ही नहीं.  वैसे भी अब हमें एहसास हो गया है कि जौब करने वाली लड़की घर नहीं चला सकती. अगर आप नौकरी छोड़ कर घर की सारी जिम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार हैं तो मैं अब्बू से एक बार बात कर सकता हूं.  वैसे जहां तक मु?ो लगता है आप अपनी जौब छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं होंगी, इसलिए बेहतर यही रहेगा कि हम अपनी राहें अलग कर लें,’’ बिलाल ने बात खत्म करने की नीयत से लिखा.

और फिर सुंबुल का कोई जवाब नहीं आया. जल्द ही उस की शादी उज्मा से हो गई.  कुछ दिनों बाद ही उज्मा पर घर की सारी

जिम्मेदारियां आ गईं. शुरूशुरू में तो सब ठीक रहा, लेकिन कुछ दिनों बाद ही घर में कलह होने लगी. बिलाल के 3 और छोटे भाईबहन थे और सब के लिए खाना बनाना और दूसरे काम करना उज्मा को पसंद नहीं था. बिलाल की अम्मी भी बहू के आने के बाद घर के कामों से बिलकुल बेफिक्र हो गई थीं और घर के सारे काम उज्मा को अकेले ही करने पड़ते थे.

फिर तो रोजरोज घर में कलह होने लगी.  बिलाल औफिस से आता तो अम्मी उस के सामने उज्मा की शिकायतें ले कर बैठ जातीं. उज्मा के पास जाता तो वह सब की शिकायतें ले कर बैठ जाती.  तंग आ कर बिलाल ने दुबई के एक बैंक में नौकरी के लिए अर्जी दे दी और दुबई आ गया.  रोजरोज की चिकचिक से तो उस को आजादी मिल गई लेकिन दुबई आ कर भी उज्मा खुश नहीं थी. उसे लगता था कि बिलाल घर के कामों में उस की जरा भी मदद नहीं करता. वहीं बिलाल घर के काम करने को अपनी शान के खिलाफ सम?ाता था. बचपन से ले कर आज तक उस ने घर के किसी काम को हाथ तक नहीं लगाया था. उस का मानना था कि घर के काम सिर्फ औरतों को ही करने चाहिए और मर्दों को सिर्फ कमाने के लिए काम करना चाहिए.

सुंबुल और उज्मा अकसर मिलने लगीं.  दोनों परिवार छुट्टी के दिन एकदूसरे के घर चले जाते या दुबई के खूबसूरत समुद्र तट पर साथसाथ घूमते. हालांकि बिलाल हमेशा सुंबुल के सामने असहज सा रहता था.

उस दिन उज्मा कुछ उदास सी थी तो सुंबुल ने उस से उस की उदासी की वजह पूछी.

‘‘मेरी बहन की मंगनी टूट गई. लड़का किसी और से शादी करना चाहता है, जबकि घर वाले जबरदस्ती उस की शादी मेरी बहन से कर रहे थे.  कल उन दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली,’’ उज्मा ने बड़ी उदासी के साथ कहा.

फरहान और सुंबुल को सुन कर बड़ा दुख हुआ.

‘‘जल्द ही शादी होने वाली थी. अब कितनी दिक्कत आएगी मेरी बहन की शादी में, कितनी बदनामी होगी उस की,’’ उज्मा ने ठंडी सांस लेते हुए कहा.

‘‘इस में उस का क्या कुसूर है, रिश्ता तो लड़के ने खत्म किया है, तो बदनामी आप की बहन की क्यों होगी?’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा देते हुए कहा.

‘‘भाई साहब, लड़के का कुसूर कौन मानता है. सभी लड़की पर ही उंगली उठाते हैं,’’ उज्मा की आंखें नम हो उठी थीं.

‘‘जमाना बदल गया है. आप की बहन की कोई गलती नहीं है इसलिए आप फिक्र मत कीजिए. हो सकता है उस के लिए इस से कुछ अच्छा ही लिखा हो,’’ फरहान ने कहा.

‘‘वैसे आप को पता है, सुंबुल की भी मंगनी एक बार टूट चुकी थी. फिर देखिए न कितनी अच्छी लड़की मु?ो मिल गई,’’ कह कुछ देर की खामोशी के बाद फरहान ने प्यार भरी नजरों से सुंबुल को देखा.

‘‘भला इस जैसी इतनी प्यारी लड़की से कौन शादी नहीं करना चाहेगा,’’ उज्मा ने सुंबुल की तरफ देख कर कहा.

सुंबुल थोड़ी असहज हो गई थी खासतौर पर जब तब बिलाल भी वहां मौजूद था. उधर बिलाल भी एकदम चुप बैठा था.

‘‘क्या वह लड़का भी किसी और को चाहता था?’’ उज्मा सुंबुल की कहानी जानने के लिए उतावली हो उठी.

‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी. असल में उन के घर वालों को लगा कि मैं जौब करती हूं तो घर के काम नहीं करूंगी. उन को अपने घर के लिए कोई सजावटी गुडि़या नहीं चाहिए थी,’’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुंबुल ने धीमी आवाज में कहा.

‘‘अरे आप तो जौब के साथसाथ अपने घर का भी कितना खयाल रखती हैं. इतना अच्छा खाना भी बनाती हैं, घर भी इतना अच्छा रखती हैं, क्या उन लोगों ने कभी आप का घर नहीं देखा था?’’ उज्मा को यकीन नहीं हो रहा था कि सुंबुल जैसी खूबसूरत और इतने सलीके वाली लड़की को कोई कैसे छोड़ सकता है.

‘‘असल में एक बार उन के अब्बू हमारे घर आए थे. उस दिन संडे था. आमतौर पर अपने घर पर सारा काम मैं और अम्मी मिल कर ही करते थे. शादी में कुछ ही दिन रह गए थे तो अम्मी ने मु?ो जबरदस्ती घर के काम करने से मना कर रखा था. फिर मैं भी जौब छोड़ने वाली थी तो अपना काम हैंडओवर कर रही थी और इसलिए लैपटौप पर काम कर रही थी. लेकिन उन के अब्बू को लगा कि शायद मैं कभी घर के काम नहीं करती और इसलिए उन लोगों ने यह रिश्ता तोड़ दिया,’’ सुंबुल ने पूरी बात बताई.

‘‘और उस लड़के ने भी कुछ नहीं कहा?’’ उज्मा ने हैरत से पूछा.

‘‘नहीं, उस ने भी बिना मेरी बात सुने अपने घर वालों की बात मान ली. मु?ो अपनी सफाई देने का मौका ही नहीं मिल,’’ सुंबुल ने एक उदास मुसकान के साथ कहा और फिर उस ने एक उचटती हुई नजर बिलाल पर डाली तो वह शर्म से पानीपानी हो गया.

‘‘वैसे देखा जाए तो अच्छा ही हुआ. ये सब नहीं होता तो मु?ो इतने अच्छे पति कहां मिलते,’’ सुंबुल ने मुहब्बत भरी नजरों से फरहान की तरफ देखते हुए कहा.

‘‘यह तो कुदरत का कमाल है,’’ फरहान ने अदब से सिर ?ाकाते हुए कहा तो सुंबुल और उज्मा दोनों ही हंस पड़ीं.

‘‘वैसे भी अब जमाना बदल गया है. आज लड़कियां जौब के साथसाथ घर भी अच्छी तरह संभाल रही हैं और अगर ऐसे में हम हस्बैंड लोग घर के कामों में थोड़ी मदद कर दें तो इस में बुराई ही क्या है? आखिर घर भी तो दोनों का ही होता है,’’ फरहान ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा.

‘‘भाभी आप बेफिक्र रहें. आप की बहन के लिए अच्छा लड़का हम भी ढूंढे़ंगे,’’ फरहान ने उज्मा को दिलासा दिया.

थोड़ी देर बाद फरहान सब के लिए आइसक्रीम लेने चला गया और उज्मा वाशरूम चली गई.

‘‘आई एम सौरी सुंबुलजी… आज मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं. मैं ने बिना सच जाने आप को इतनी तकलीफ पहुंचाई. मु?ो माफ कर दीजिएगा,’’ सुंबुल को अकेला देख कर बिलाल उस के पास आया सिर ?ाका सुंबुल से माफी मांगने लगा.

‘‘इस की कोई जरूरत नहीं है. मु?ो आप से कोई शिकायत नहीं है. शायद हमारे हिस्से में यही लिखा था,’’ सुंबुल को उस के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव साफ नजर आ रहे थे. उस के दिल में बिलाल के लिए कोई मलाल नहीं था.

‘‘आप का बहुत बहुत शुक्रिया,’’ बिलाल के मन से बड़ा बो?ा उतर गया था.

शाम को बिलाल और उज्मा जब घर लौटे तो उज्मा के सिर में दर्द हो रहा था. वह आंखें बंद कर थोड़ी देर के लिए लेट गई.

‘‘तुम बहुत थक गई होंगी. तुम आराम करो आज कौफी मैं बनाता हूं,’’ घर पहुंच कर बिलाल ने उज्मा से कहा तो उज्मा की हैरत की इंतहा न रही, ‘‘अरे आज आप को यह क्या हो गया. आप तो घर के काम करने को बिलकुल अच्छा नहीं मानते,’’ उज्मा को बिलाल का यह रूप देख कर हैरानी भी हो रही थी और खुशी भी.

‘‘फरहान भाई सही कहते हैं.  घर तो शौहर और बीवी दोनों का ही होता है तो क्यों न घर के काम भी दोनों मिलजुल कर करें?’’ बिलाल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘अरे यह कैसी कौफी बनी है,’’ बिलाल ने कौफी का पहला घूंट लेते ही बुरा सा मुंह बनाया.

‘‘हां चीनी थोड़ी ज्यादा है, दूध थोड़ा कम है और कौफी भी थोड़ी ज्यादा है, लेकिन यह दुनिया की सब से अच्छी कौफी है,’’ उज्मा ने बिलाल की तरफ प्यारभरी नजरों से देखते हुए कहा तो बिलाल को भी चारों तरफ रंगबिरंगे फूल दिखाई देने लगे. दोनों के रिश्ते का एक नया अध्याय शुरू हो चुका था.

हृदय परिवर्तन: वाणी के मन में कौन-सी गलत यादें थीं

लेखिका-रेणु दीप

भावना की ट्रेन तेज रफ्तार से आगे बढ़ती जा रही थी. पीछे छूटते जा रहे थे खेतखलिहान, नदीनाले और तालतलैया. मन अंदर से गुदगुदा रहा था, क्योंकि वह बच्चों के साथ 2 बरसों के बाद अपने मायके जा रही है अपने भाईर् अक्षत की कलाई पर राखी बांधने. गाड़ी की रफ्तार के साथसाथ उस का मन भी पिछली यादों में उल झ गया.

एक समय था जब वह महीनों पहले से रक्षाबंधन की प्रतीक्षा बहुत बेकरारी से किया करती थी. वे 5 बहनें और एक भाईर् था. भाई के जन्म के पहले न जाने कितने रक्षाबंधन बिना किसी की कलाई पर राखी बांधे ही बीते थे उस के. 5 बहनों के जन्म के बाद भाई अक्षत का जन्म हुआ था. सब से बड़ी बहन होने के नाते उस ने अक्षत को बेटे की तरह ही गोद में खिलाया था. सो, शादी के बाद शुरू के 4-5 वर्षों तक, जब तक उस के बच्चे छोटे रहे, वह बहुत ही चाव से हर रक्षाबंधन पर मांबाबूजी के निमंत्रण पर मायके जाती रही थी.

उसे आज तक भाई के विवाह के बाद पड़ा पहला रक्षाबंधन अच्छी तरह याद है. पति दिवाकर ने कितना मना किया था कि देखो, अब अक्षत का विवाह हो गया है, एक बहू के आने के बाद तुम्हारा वह पुराना राजपाट गया सम झो. अब किसी के ऊपर तुम्हारा पुराना दबदबा नहीं चलने वाला. अब तो बस, सालभर में महज एक मेहमान की तरह कुछ दिन ही मायके के हिसाब में रखा करो वह भी तब, जब भाभी तुम्हें खुद निमंत्रण भेजे आने का. लेकिन काश, तब उस ने पति की बात को खिल्ली में न उड़ा कर गंभीरता से लिया होता तो ननद व भाईभाभी के नाजुक रिश्ते में दिल को छलनी कर देने वाली वह दरार तो न पड़ती.

हर वर्ष की भांति उस वर्ष भी मांबाबूजी का दुलारभरा खत आया था, जिस में उन्होंने उसे रक्षाबंधन पर बुलाया था. भाभी के सामने पहले रक्षाबंधन पर जा रही हूं, यह सोच कर उस ने अपने बजट से कहीं ज्यादा खर्च कर भाई के लिए काफी महंगी पैंटशर्ट और भाभी के लिए बहुत बढि़या खालिस सिल्क की साड़ी व मोतियों का सुंदर जड़ाऊ सैट खरीदे थे.

मायके पहुंचते ही मांबाबूजी व भाई ने हमेशा की तरह ही पुलकित मन से भावना और दोनों बच्चों का सत्कार किया था. लेकिन जिस चेहरे को अपने स्नेहदुलार, ममता के रेशमी जाल में हमेशा के लिए जकड़ने आई थी, ननदभाभी के रिश्ते को नया रूप देने आईर् थी, घर पहुंचने के घंटेभर बाद तक भावना को वह चेहरा नजर नहीं आ पाया था. वह अपनी उत्सुकता को और न दबा पाते हुए  झट से भाई से बोल पड़ी थी, ‘अरे अक्षत, तेरी बहू नहीं दिखाई दे रही. इस बार तो मैं उसी से मिलने और दोस्ती करने आई हूं. वरना तेरे जीजा तो मु झे आने ही नहीं दे रहे थे,’ ड्राइंगरूम में बैठे लोग बातें कर रहे थे कि भावना अपनी आदत के अनुसार धड़धड़ाती हुई नई बहू के शयनकक्ष में बिना खटखटाए ही घुस गई थी. बहू के खूबसूरत चेहरे को देखते ही भावना ने  झट से उसे बांहों में भर लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए पर भाभी के चेहरे पर भावों को देख कर अपना हाथ पीछे खींच लिया. वह यह कह कर कमरे से बाहर आ गई थी, ‘वाणी, जल्दी से बाहर आ जाओ, मैं तो तुम से बातें करने को बुरी तरह से  झटपटा रही हूं.’

वापस आ कर भावना यात्रा से पैदा हो आईर् थकान को अपनों के बीच बैठ, मां के हाथों की बनी मसाले वाली, सौंधीसौंधी महक वाली चाय के घूंटों से मिटाने का प्रयत्न कर रही थी. साथ ही साथ, उस की नजरें नई बहू से मिलने व बतियाने की ख्वाहिश में बारबार दरवाजे पर  झूलते परदे की ओर खिंच जाती थीं. लेकिन पौना घंटा बीतने पर भी वाणी कमरे से बाहर नहीं आई थी. अक्षत भी बीच में उठ कर शायद वाणी को ही बुलाने चला गया था, लेकिन वह भी इस बार तनिक असहज मुद्रा में ही वापस लौटा था.

तकरीबन एक घंटे बाद वाणी अपने कमरे से बाहर आईर् थी पूरी तरह से सजधज के साथ. साड़ी से मेल खाती चूडि़यां, बिंदी, यहां तक कि गले और कान के गहने भी उस की साड़ी से मेल खा रहे थे, जिन्हें देख कर बिना सोचेसम झे वह यह पूछने की गलती कर बैठी थी, ‘यह क्या वाणी, कहीं जा रही हो क्या, जो इस तरह तैयार हो कर आई हो?’

इतनी देर तक प्रतीक्षा करवा कर बाहर आने की प्रतिक्रियास्वरूप कुछ खिन्न मन से भाई भी बोल पड़ा था, ‘अरे दीदी, इस की कुछ न पूछो, आधा दिन तो इस का मेकअप करने में ड्रैसिंग टेबल के सामने ही गुजर जाता है.’

उस ने साफ देखा था, भाई के यों बोलने से वाणी का चेहरा गुस्से से तन गया था और किंचित रोष से भर कर उस ने अत्यंत तल्ख, व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया था, ‘बचपन से हमारी मां ने हम में यही आदत डाली है कि ड्राइंगरूम में बिना सलीके से तैयार हुए कभी कदम तक नहीं रखना है. हमारे यहां तो काफी ऊंचे तबके के लोगों का उठनाबैठना रहता है. कभी जिला जज आए होते हैं तो कभी पुलिस अधीक्षक. रोजाना एकाध मंत्री भी आए ही रहते हैं. अब इतनी ऊंचीऊंची हस्तियों के सामने यों लल्लुओं की तरह तो नहीं जा सकते न.’

यह कहते हुए बरबस ही उस की निगाह भावना के रेल सफर के दौरान हुए धूलधूसरित कपड़ों पर पड़ गईर् थी और भावना शायद पहली बार कपड़ों के प्रति अपनी लापरवाहीभरे व्यवहार से असहज हो उठी थी.

उसे आज तक याद है, पहुंचने के अगले ही दिन भाई के औफिस जाने के बाद वह भाभी से बातचीत करने के उद्देश्य से उस के कमरे में जा कर बैठी थी. वाणी अपने शोध प्रबंध लिखने के लिए पढ़ने में तल्लीन थी. उस ने भाभी से बातचीत शुरू करने का प्रयास किया था. लेकिन वाणी की उदासीन हांहूं ने उसे आखिरकार लौट आने को विवश कर दिया था.

दिन ढले तकरीबन 4 बजे वाणी के सो कर उठने के बाद वह फिर बोली थी, ‘वाणी, फ्रैश हो कर बाहर ही आ जाओ’, पर वाणी की रोबीली और दोटूक बातें सुन कर मांबेटी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था. भावना को पहली बार एहसास हुआ कि वाणी की बात से उस के उच्च अभिजात्य परिवार के होने के दंभ की  झलक आ रही है. वह तो खैर ननद है उस की, भविष्य में गिनती के दिनों के लिए गाहेबगाहे महज एक मेहमान की हैसियत से ही वाणी से मिलने की संभावना थी, लेकिन मां के अत्यंत लाड़दुलार के बावजूद वाणी उन्हें एक बड़े बुजुर्ग का मान नहीं दे रही थी.

विवाह के इतने महीने गुजर जाने के बाद तक उस ने रसोई में कदम नहीं रखा था. मां ने ही भावना को बताया था कि उस की रसोई के प्रति इस उदासीनता को देखते हुए घर के किसी भी सदस्य ने उसे आज तक एक शब्द भी नहीं कहा था, बल्कि तीनों वक्त मां उन सब को एकसाथ खाने की मेज पर बैठा कर बहुत लाड़ से गरम खाना खिलाया करती थीं और अपनी एकलौती बहू को तो खिलाते वक्त उस के चेहरे से लाड़ टपकता था.

वाणी की रसोई में जाने की अनिच्छा भांप कर मां खुद ही अपने लिए फुलके सेंक लिया करती थीं, पर फिर भी वाणी के प्रति उन के लाड़दुलार में कोई कमी नहीं आई थी. उन सभी का यह मानना था कि नितांत अनजाने घर, अनजाने परिवेश से आई एक लड़की को ससुराल के नए परिवेश के रहनसहन, आचारविचार अपनाने में बहुत वक्त लगा करता है.इसलिए वे सब, यानी कि भावना और मां अत्यंत धैर्य से वाणी के मन को अपने निश्च्छल, निस्वार्थ प्रेम से अपने परिवार का एक अंतरंग सदस्य बनाने की कोशिश में जुटे हुए थे. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी वे वाणी को उस के मौन कवच से बाहर निकाल पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे.उन्हीं दिनों घर की आया कुछ दिनों तक नहीं आई थी. उस ने और मां ने ही मिल कर घर के सभी काम किए थे, वाणी के कमरे का  झाड़ूपोंछा व सफाई भी वह करती आ रही थी, वाणी और भाई के कपड़े भी घरभर के कपड़ों के साथ उस ने ही धोए थे. सुबहशाम की चाय वाणी के कमरे तक पहुंचाना भी उस ने अपने काम में शुमार कर लिया था.

सारा वक्त उसे गंभीरतापूर्वक अपना शोध प्रबंध लिखने में व्यस्त देख भावना करीने से उस की थाली सजा उस के कमरे में ही उसे गरमागरम फुलका खिलाया करती थी. लेकिन न जाने वह लड़की किस मिट्टी की बनी हुई थी, इन सब अपनत्व, ममताभरे हावभावों के बावजूद वाणी इस लगाव की भाषा को सम झ नहीं पा रही थी.

एक दिन वाणी के कमरे की सफाई करते समय भावना की नजर उस के गले में पड़ी एक सुंदर नाजुक चेन पर पड़ गई. और वह बोल उठी थी, ‘वाणी, यह चेन कब बनवाई तुम ने? इस की गठन तो बहुत बारीक और सुंदर है,’ वह  झट बोल उठी थी, ‘यह चेन तो मेरी मौसी का उपहार है, जिसे देते समय उन्होंने कहा था कि यह चेन तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी.’

वाणी ने किसी काम से अपनी अलमारी खोली और भावना की नजर उस की एक बहुमूल्य आकर्षक साड़ी पर पड़ गई. उस के मुंह से हठात ही निकल पड़ा, ‘यह साड़ी भी तुम्हारी विदेशी लगती है. यहां न तो यह कपड़ा मिलने वाला है और न ही यह अद्भुत रंग संयोजन.’

भावना की इस टिप्पणी पर वाणी ने कहा था, ‘दीदी, यह विशुद्ध मलमल सिल्क की है. यह मेरी भाभी ने शादी के तोहफे के रूप में दी है. यह कहते हुए कि इन्हें मैं किसी भी हालत में किसी को भेंट में न दूं. कोई मांगे, तो भी नहीं.’

वाणी की बातों को सुन कर इस बार भावना के जेहन में जोरों की घंटी बज उठी थी, ‘यह क्या, कहीं वाणी अपनी चीजों की प्रशंसा को मेरी अप्रत्यक्ष फरमाइश तो नहीं रही.’

वाणी की इन टिप्पणियों को सुन कर भावना दिनभर इसी उधेड़बुन में खोई रही. वह अपने उच्च जहीन परिवार की उच्चशिक्षित लड़की और इतनी रुग्ण मानसिकता. इसीलिए तो बड़ेबुजुर्गों द्वारा तय किए हुए विवाहों को जुआ कहा जाता है. अच्छे स्वभाव का जीवनसाथी मिल गया तो अच्छी बात, वरना जिंदगीभर सिर पकड़े बैठे रहिए और जीवनसाथी के बेमेल अभाव से तालमेल बैठाते रहने की कोशिश में एक असहज जीवन जीने का अभिशाप ढोते रहिए. भाई के लिए मन पीड़ा से भर आया था कि वह जीवन को ताउम्र कैसे निभा पाएगा?

इन कुछ ही दिनों में भावना ने वाणी का स्वभाव अच्छी तरह से परख लिया था और कहा था कि वाणी के साथ निभाने की भरसक कोशिश उसे ही करनी होगी और अत्यधिक धैर्य व सहिष्णुता के साथ उसे उस का मन जीतने के प्रयास करने होंगे. मां को भी उस ने यह बात भलीभांति सम झा दी थी.

आखिर रक्षाबंधन का दिन आ ही गया. बड़े लाड़ से उस ने भाई की कलाई पर सुंदर राखी बांध असीम स्नेहभाव से उस के माथे को चूम लिया था. वाणी की चूड़ी में भी सुंदर सा रेशमी जरी के काम वाला लुंबा बांध उस के माथे पर भी उस ने सहजस्नेह भाव से अपना स्नेह अंकित कर दिया था.

सदा की ही भांति भाई ने राखी बंधवाई थी. एक सुंदर सी बहुमूल्य साड़ी उसे भेंट में दी थी और भावना ने भी भैयाभाभी को अपने तोहफे देने का यही सही मौका सम झ अपने लाए उपहार दोनों को थमा दिए थे. भाई

तो खैर सदा से ही उस के तोहफे बड़ी खुशीखुशी स्वीकार करता आया था.

शादी से पहले तो वह बहन से अपनी मनपसंद चीजों को मांग लिया करता था. लेकिन न जाने क्यों, मोतियों का इतना सुंदर जड़ाऊ सैट पा कर भी वाणी खुश होने के बदले, न जाने किस सोच में डूब गईर् थी. उस को खुश न देख कर भावना पूछ बैठी थी, ‘क्या हुआ वाणी, क्या यह सैट पसंद नहीं आया? आजकल तो इस का बहुत फैशन है.’

वाणी के जवाब ने उन सभी को अचंभित कर दिया था, ‘दीदी, रक्षाबंधन पर तो हमारा आप को उपहार देना जंचता है. यों मु झे इतना कीमती तोहफा दे कर तो आप भाई के सिर पर अपना बो झ लाद रही हो. अब आप हुईं हमारी ननद. आप के उपहार के बदले में भी तो अब हमें कुछ देना ही पड़ेगा न. आप हमारे लिए इतने महंगे तोहफे, उपहार न ही लाया करो तो अच्छा रहेगा.’ और फिर अक्षत की ओर मुखातिब हो कर वह बोली थी, ‘देखो जी, ननदजी को देने में जरा भी कोताही मत बरतना, क्योंकि मैं नहीं चाहती कि कोई यह कहे कि भाभी ने आ कर भाई को पट्टी पढ़ा दी.

‘मेरी तरफ से तुम्हें खुली छूट है, अपनी बहनों को जो चाहे दो. मैं कभी तुम्हारे आड़े आने वाली नहीं, बहनों का तो बस एक ही रिश्ता होता है भाइयों से और वह है लेने का. तुम्हारे माथे तो 5 बहनें हैं. अब निबाहना तो होगा ही उन्हें, चाहे जी कर, चाहे मर कर.’

सहज स्नेह के प्रतीक उन उपहारों के बदले इतनी कड़ी आलोचना सुननी पड़ेगी, भावना ने यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था. इसीलिए वहां खड़े मां, बाबूजी, भाई सभी के सभी हतप्रभ हो उठे थे.

उसी दिन शाम को घर वापस लौटने के लिए उस ने अपना सामान बांधना शुरू कर दिया था. भाई के कमरे के सामने से गुजरते हुए अनायास ही वाणी के कठोर शब्द कानों में पड़े थे, ‘क्यों जी, यह दीदी क्या हमेशा यों ही इतने महंगे उपहार देदे कर जाती हैं? फिर तो वापसी में इन्हें भी इतने महंगे उपहार देने की आफत आती होगी. देखोजी, एक बात ध्यान से सुन लेना, मैं अपने मायके से लाईर् चीजों में से एक तिनका भी नहीं देने वाली. इन लोगों को जो कुछ भी लेनादेना हो, उसे तुम्हें अपनी तनख्वाह से ही देना होगा.’

तभी अक्षत के तीखे स्वर कानों में पड़े थे, ‘यह क्या, तुम दीदी के लाड़प्यार को लेनदेन के तराजू पर तोलने लगीं? इस घर में आज तक तो हम ने दीदी के इतने प्यारभरे तोहफों को कभी इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा कि इन्हें दे कर दीदी ने अपना बो झ हम पर लाद दिया. स्नेहभरे इन तोहफों में लिपटी अपनत्व और प्यार की खुशबू भी पहचानना सीखो, इन से जुड़ी उन के निश्च्छल प्यार की अनमोल भावनाओं को पहचानना सीखो. लेनदेन में मिलने वाली बेहिसाब खुशियों की सुखद अनुभूति की पहचान करना सीखो, नहीं तो जीवनभर बस, उस की कीमत के जोड़घटाव में ही अपना समय जाया कर बैठोगी.’

भाई के मुंह से अपनी ममता का सही मोल आंके जाने के सुखद एहसास ने भाभी के कड़वे स्वरों से उमड़ आए आंखों के आंसुओं को भीतर ही भीतर सुखा डाला था.

भाई के विवाह के बाद पड़े पहले रक्षाबंधन की कटु यादें उस की स्मृति में हमेशा जीवन के कड़वे अनुभवों में शायद सदैव सब से ऊपर दर्ज रहेंगी. इस बार करीब 2 वर्षों की लंबी अवधि बीत जाने पर भाई के साथ भाभी के न्योते का भी मनुहारभरा खत पा उस का मन रक्षाबंधन का त्योहार वहीं मनाने के लिए मचल उठा था. सो, 2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की तैयारी कर वह भाई के घर पहुंच गईर् थी.

वे 2 दिन कितनी जल्दी बीत गए थे, वाणी को पता भी न चला था. हां, इस बार यह जरूर गनीमत रही थी कि संक्षिप्त मायके प्रवास से वह किसी खास अप्रिय कड़वे अनुभव की सौगात साथ नहीं लाई थी. हमेशा की तरह भाई के लिए उस ने एक बहुत सुंदर सा स्वेटर खरीदा था. लेकिन पिछली बार के कटु अनुभव से सबक सीख उस ने वाणी के लिए कोई भी उपहार, महंगा या सस्ता, नहीं खरीदा था.

भाई का उपहार तो उस ने मौका देख अकेले में उसे थमा दिया था. रक्षाबंधन वाले दिन भाई और भाभी को राखी बांध भाभी को उपहारस्वरूप उस ने एक सुंदर और काफी कम कीमत का हलका सा चांदी का सैट उपहार में दिया था. मां इस बार घर पर नहीं थीं. सो, चलते वक्त भाभी ने उसे एक सोने की गिन्नी थमाई थी यह कहते हुए, ‘‘इस बार आप 2 साल बाद आई हो. जाते वक्त मांजी यह गिन्नी मु झे आप को देने के लिए कह गई थीं.’’

वाणी से विदा लेते वक्त उस के द्वारा भेंटस्वरूप दी गई गिन्नी उस ने वाणी की मुट्ठी में हौले से सरका दी थी यह कहते हुए, ‘‘भाभी, आजकल हम जरा तंगी में चल रहे हैं, तो कोई खास उपहार आप के लिए नहीं जुटा पाई. मेरी तरफ से यही रखो, मेरी प्यारभरी सौगात सम झ कर.’’

2 दिनों के संक्षिप्त प्रवास की यादों में डूबतउतराते वापसी की यात्रा आंखों ही आंखों में कट गई थी. घर पहुंच पति का खुशनुमा सान्निध्य भी पिछले दिनों की यादों को अवचेतन में धकेल पाने में असमर्थ रहा था. तभी शाम को फोन की घंटी घनघनाई थी और फोन पर वाणी की आवाज ने भावना को आश्चर्य के सुखद एहसास से चौंका दिया था, ‘‘दीदी, ठीकठाक पहुंच गईं न. इस बार तो आप का आना न आना बराबर ही रहा. कहीं मायके में भी बस 2 दिनों के लिए आया जाता है? अब दशहरे पर आप को जीजाजी के साथ यहां आना है, पूरे महीनेभर के लिए, जिस से कि फुरसत से आप के साथ का आनंद उठा सकूं. दीदी, प्लीज, वादा कीजिए कि आप जरूर आएंगी. बोलो न दीदी, आओगी न?’’

वाणी के सरस मिश्री से घुले स्वर कानों में मधुर घंटी से घनघना उठे. भर्राए स्वरों से भावना बस यही कह सकी थी, ‘‘हां री, तू इतने प्यार से बुलाए और मैं न आऊं, यह भी कभी हो सकता है? दशहरे की छुट्टियों में हम जरूर आएंगे.’’ ठूंठ से सूखे एक नए रिश्ते को अपनी ममता के धूपपानी से सींच और बदले में उसे अपनत्व की हरियाली से हराभरा देख भावना का खोया विश्वास एक बार फिर से निस्वार्थ प्यार की तिलिस्मी गुणात्मक ताकत में पुख्ता हो उठा था.

सहारा: क्या बेटे के लिए पति के पास लौट पाई वंदना

औफिससे निकल कर वंदना उस शुक्रवार की शाम को करीब 6 बजे क्रेच पहुंची तो पाया कि उस का 5 वर्षीय बेटा राहुल तेज बुखार से तप रहा था.

अपने फ्लैट पर जाने के बजाय वह उसे ले कर सीधे बाल रोग विशेषज्ञ डाक्टर नमन के क्लीनिक पहुंची. वहां की भीड़ देख कर उस का मन खिन्न हो उठा. उसे एहसास हो गया कि

8 बजे से पहले घर नहीं पहुंच पाएगी. डाक्टरों के यहां अब फिर कोरोना के बाद भीड़ बढ़ने लगी थी.

कुछ देर बाद बेचैन राहुल उस की गोद में छाती से लग कर सो गया. एक बार को उस का दिल किया कि अपनी मां को फोन कर के बुला ले, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाई. उन का लैक्चर सुन कर वह अपने मन की परेशानी बढ़ाने के मूड में बिलकुल नहीं थी.

वंदना की बड़ी बहन विनिता का फोन 7 बजे के करीब आया. राहुल के बीमार होने की बात सुन कर वह चिंतित हो उठी. बोली, ‘‘तुम खाने की फिक्र न करना, वंदना. मैं तुम मांबेटे का खाना ले आऊंगी.’’

विनिता की इस पेशकश को सुन वंदना ने राहत महसूस करी.

डाक्टर नमन ने राहुल को मौसमी बुखार बताया और सलाह दी, ‘‘बुखार से जल्दी छुटकारा दिलाने के लिए राहुल को पूरा आराम कराओ और हलकाफुलका खाना प्यार से खिलाती रहना. जरूरत पड़े तो मुझे फोन कर लेना. और हां एहतियातन कोविड टैस्ट करा लो ताकि कोई शक न रहे.’’

कैमिस्ट के यहां से दवाइयां ले कर

फ्लैट पर पहुंचतेपहुंचते उसे

8 बज ही  गए. उस ने पहले राहुल को दवा पिलाई. फिर उसे पलंग पर आराम से लिटाने के बाद अपने लिए चाय बनाने के लिए रसोई में चली आई. अपने तेज सिरदर्द से छुटकारा पाने

के लिए चाय के साथ दर्दनिवारक गोली खाना चाहती थी.

चाय उस ने बना तो ली, पर उसे पूरी न

पी सकी क्योंकि ढंग से पीना उसे नसीब नहीं हुआ. राहुल ने उलटी कर दी थी. जब तक

उस ने उस के पकड़े बदलवाए और फर्श साफ किया, तब तक चाय पूरी तरह से ठंडी हो

चुकी थी.

उसे लगा कि वह अचानक रो पड़ेगी, लेकिन आंखों से आंसू बहें उस से पहले ही विनिता अपने पति सौरभ के साथ वहां आ

पहुंची.

‘‘तुम अब राहुल के पास बैठो. मैं खाना गरम कर के लाती हूं,’’ कह तेजतर्रार स्वभाव वाली विनिता ने फौरन कमान संभाली और काम में जुट गई.

करीब 10 मिनट बाद वंदना की मां कांता भी अपने बेटे विकास और बहू अंजलि के साथ वहां आ गईं.

कांता ने फौरन राहुल को अपनी गोद में उठा कर छाती से लगाया तो वह अपनी नानी को देख कर खुश हो गया.

‘‘आप रात को मेरे पास ही रुकना और मैं खाना भी आप के हाथ से ही खाऊंगा. दादी की तरह आप भी खाना खिलाते हुए मुझे अच्छी सी कहानी सुनाना.’’

टिंडों की तरी वाली सब्जी के साथसाथ

1 फुलका खा कर राहुल अपनी नानी की

बगल में सो गया. वंदना अपने भैयाभाभी, बहन

व जीजा के साथ ड्राइंगरूम में आ बैठी.

हमेशा की तरह विकास और विनिता वंदना के ससुराल छोड़ कर अकेले फ्लैट में रहने की

बात को ले कर 10 मिनट के अंदर ही आपस में भिड़ गए. होने वाली इस बहस में सौरभ अपनी पत्नी का और अंजलि अपने पति का साथ दे

रही थी.

अपने सिरदर्द की तेजी से परेशान वंदना चाहती थी कि वे चारों चुप हो जाएं, पर वह इन बड़ों को चुप करने की हिम्मत अपने अंदर पैदा नहीं कर पाई.

‘‘किसी भी तकरार को जरूरत से ज्यादा लंबा खींचना अच्छा नहीं होता है, वंदना. तुम्हें अपना घर छोड़ कर इस फ्लैट में राहुल के साथ रहते हुए करीबकरीब 2 महीने हो चुके हैं. अरुण तुझे बुलाबुला कर थक गए हैं. अब तू सम?ादारी दिखा और वापस लौट जा.’’

विकास की वंदना को दी गई ऐसी सलाह को सुनते ही विनिता भड़क उठी, ‘‘बेकार की सलाह दे कर उस के सब किएकराए पर पानी मत फिरवाओ भैया,’’ विनिता फौरन उस से उल?ाने को तैयार हो गई, ‘‘वंदना ने ससुराल के नर्क में वापस लौटने को अलग रहने का कदम नहीं उठाया था. रातदिन की टोकाटाकी… रोजरोज

का अपमान… अरे, 7 साल बहुत लंबा समय होता है यों मन मारमार कर जीने के लिए. अगर अरुण को अपनी पत्नी व बेटे के साथ रहना है, तो उसे अब अलग होने का निर्णय लेना ही होगा. वंदना किसी कीमत पर वापस लौटने की मूर्खता नहीं दिखाएगी.’’

‘‘तुम ने ही इसे भड़काभड़का कर इस का दिमाग न खराब किया होता, तो आज यह अपने पति से यों दूर न रह रही होती,’’ विकास का स्वर शिकायती कड़वाहट से भर उठा.

‘‘भैया, विनिता पर गलत आरोप मत लगाइए,’’ सौरभ ने फौरन अपनी पत्नी का पक्ष फौरन लिया, ‘‘हम दोनों वंदना का साथ दे रहे हैं. अलग फ्लैट में रहने का फैसला उस का अपना

है और देख लेना वह जल्दी ही अपने मकसद को पा लेगी.’’

‘‘तुम्हें लगता है कि अरुण दबाव में आ कर अपने घर से अलग होने को तैयार हो जाएगा?’’

‘‘बिलकुल. अरे, अपने बीवीबच्चे से दूर रहना आसान नहीं होता है.’’

‘‘मैं आप से सहमत नहीं हूं, जीजाजी,’’ अंजलि ने अपना मत व्यक्त किया, ‘‘अरुण जीजाजी अपने घर वालों के साथ बड़ी मजबूती से जुड़े हुए हैं. उन की छोटी बहन कुंआरी घर में बैठी है. जब तक उस की शादी नहीं हो जाती, तब तक उन के अलग होने का सवाल ही नहीं उठता है.’’

‘‘अपने घर वालों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को वह घर से अलग रहते हुए क्या पूरी नहीं कर सकता है? और क्या वंदना को खुश और सुखी रखना उस की सब से पहली जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए?’’

विनिता के इस सवाल के जवाब में विकास और अंजलि को खामोश रहना पड़ा.

अरुण और वंदना के बीच बिगड़े रिश्ते के विभिन्न पहलुओं की चर्चा उन चारों के बीच चलती रही थी. वंदना ने कठिनाई से 1 फुलका खाया और अपने सिरदर्द से लड़ते हुए मजबूरन उन सब के बीच बैठी रही. रहरह कर उस का मन अतीत की यादों में घूम आता था. इन सब लोगों के बीच चल रही बहस में उस की ज्यादा रुचि नहीं थी क्योंकि वह इन की दलीलें पहले भी कई बार सुन कर पक चुकी थी.

जब वे चारों घंटेभर बाद भी चुप होने को तैयार नहीं हुए, तो हार कर वंदना ने थके

स्वर में हस्तक्षेप किया, ‘‘ससुराल छोड़ कर यहां अलग रहने का मेरा फैसला गलत था या ठीक, इस विषय पर अब बहस करने का क्या फायदा है? किसी को भी परेशान होने की जरूरत नहीं है. भविष्य में मेरे इस कदम के कारण जो भी नतीजा निकलेगा उस की जिम्मेदार मैं सिर्फ खुद को मानूंगी किसी और को नहीं.’’

‘‘तू अकेली नहीं हैं, हम तेरे साथ है,’’ उस का कंधा हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में दबा कर विनिता अपने घर जाने को उठ खड़ी हुई.

‘‘अरुण को राहुल की बीमारीकी खबर दे देना,’’ ऐसी सलाह दे कर विकास भी जाने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘मां को सुबह यहां छोड़ जाना. मेरे

औफिस में क्लोजिंग चल रही है. कल शनिवार को भी मुझे औफिस जाना है,’’ वंदना की इस बात को सुन कर विकास के माथे पर बल

पड़ गए.

‘‘कल तो अंजलि के मम्मीडैडी के यहां हमारा लंच है. मां भी हमारे साथ जाएंगी,’’ विकास ने जानकारी दी.

‘‘तू राहुल को मेरे पास छोड़ जाना,’’  विनिता ने समस्या का समाधान बताया.

‘‘नहीं, यह ठीक नहीं रहेगा. अगर कहीं कोविड हुआ तो बुखार अमित और सुमित को भी पकड़ लेगा. मम्मी को ही अंजलि के घर जाना कैंसिल कर के यहां रहने आना चाहिए,’’ सौरभ ने कुछ ऐसे कठोर, शुष्क लहजे में अपनी बात कही कि विनिता अपने पति की बात का आगे विरोध नहीं कर सकी.

‘‘मैं तो रात को भी रुक जाती, पर न मैं अपनी दवाइयां लाई हूं और न कहीं और मुझे

ढंग से नींद आती है. राहुल का बुखार अब

कम है. मेरे खयाल से वह सुबह सोता रहेगा. सुबह मैं जल्दी आ जाऊंगी,’’ कांता भी अपने बहूबेटे के साथ लौट जाने को तैयार नजर आईं. तब वंदना ने उन्हें रुक जाने को एक बार भी

नहीं कहा.

उन सब के जाने के बाद वह राहुल के

पास उस का हाथ पकड़ कर बैठ गई. अपने

बेटे के चेहरे को निहारतेनिहारते अचानक उस

के सब्र का बांध टूट गया और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

काफी देर तक बहे आंसू उसे अंदर तक खाली कर गए. खुद को बहुत थकी और निढाल सा महसूस करती हुई वह राहुल की बगल में लेटी और फिर कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह उस के मोबाइल पर कोविड की नैगेटिव रिपोर्ट आ गई तो चैन की सांस ली.

वह जब 7 बजे के  करीब उठी तो खुद को

काफी फिट महसूस कर रही थी. राहुल का

बुखार कम देख कर भी उस ने काफी राहत महसूस करी.

वंदना 8 बजे औफिस जाने को निकलती थी, पर उस की मां इस वक्त तक उस के घर नहीं पहुंचीं. उस के 2-3 बार फोन करने के बाद वे विकास के साथ 9 बजे के करीब आईं.

देर से आने को ले कर वंदना अपने भाई और मां से लड़ पड़ी. जवाब में कांता ने तो

नाराजगी भरी चुप्पी साध ली, पर विकास ने उसे खरीखोटी सुना दी, ‘‘अरे, अगर आज छुट्टी के दिन घंटाभर देर से पहुंच जाएगी, तो कोई मुसीबत का पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा तेरे औफिस पर. नौकरी करने वाली औरतों का दिमाग हमेशा खराब ही रहता है. तुम सब यह क्यों सोचतीं कि तुम्हारा नौकरी करना सब पर बहुत बड़ा एहसान है और अब हर आदमी को तुम्हारे आगेपीछे जीहजूरी करते हुए घूमना चाहिए?’’

विकास का ऐसा जवाब सुन कर वंदना को भी गुस्सा आ गया और फिर दोनों के बीच अच्छीखासी कहासुनी हो गई.

वंदना औफिस घंटाभर देर से पहुंची, तो उसे अपने बौस से भी लैक्चर सुनने को मिला. ज्यादातर लोग वर्क फ्रौम होम कर रहे थे पर कुछ कामों के लिए खुद दफ्तर में मौजूद रहना होता है. उस वजह से काम का बो?ा बहुत बढ़ जाने के कारण उसे अपनी परेशानियों पर ज्यादा सोचविचार करने का वक्त तो नहीं मिला, लेकिन मन खिन्न ही बना रहा.

दिनभर में वह 2 बार ही अपनी मां से बातें कर के राहुल का हाल पूछ पाई. उस का बुखार दवाइयों के कारण ज्यादा नहीं बढ़ा था. राहुल से उस की बात नहीं हुई क्योंकि वह दोनों बार सो रहा था.

लंच में उस के मोबाइल पर अरुण का फोन आया. जब से वह अलग फ्लैट में रहने लगी थी तब से उन दोनों के बीच बड़ा खिंचाव सा पैदा हो गया था. दोनों ने खुल कर एकदूसरे से दिल की बातें करना बंद सा कर दिया था.

राहुल के बीमार पड़ने की बात सुन कर अरुण चिंतित हो उठा.

‘‘उस की फिक्र न करो. मां मु?ा से ज्यादा अच्छे ढंग से उस का ध्यान रख रही हैं?’’ वंदना ने यों रुखा सा जवाब दे कर राहुल की बीमारी की चर्चा को ?ाटके से बंद कर दिया.

चाह कर भी वह औफिस से जल्दी नहीं निकल पाई. शाम को 6 बजे जब वह घर पहुंची, तो अरुण को राहुल के साथ ड्राइंगरूम में खेलते देख मन ही मन चौंक पड़ी.

अरुण ने तो इस फ्लैट में कभी कदम न रखने का प्रण कर रखा था. यहां अलग रहने के उस के फैसले से वह सख्त नाराज जो हुआ था.

राहुल उसे देखते ही उस से लिपट गया. फिर बड़े जोशीले अंदाज में अपने पापा द्वारा लाई रिमोट से चलने वाली कार उसे दिखाने लगा.

कांता 3 कप चाय बना लाई थीं. सभी आपस में बातें न कर के राहुल से वार्त्तालाप कर रहे थे. उन तीनों के ध्यान का केंद्र बन कर राहुल खूब हंसबोल रहा था.

चाय पीने के बाद वंदना बैडरूम में कपड़े बदलने चली गई. नहाधो कर वह तरोताजा महसूस करती जब ड्राइंगरूम में लौटी, तो अरुण विदा लेने को उठ खड़ा हुआ.

‘‘पापा, आप मत जाओ, प्लीज,’’ राहुल अपने पापा के गले में बांहें डाल कर रोआंसा सा हो उठा.

‘‘मैं फिर आ जाऊंगा, मेरे शेर. तुम टाइम से दवा खा लेना और मम्मी व नानी को तंग मत करना. तुम ठीक हो गए, तो कल मैं तुम्हें बाजार घुमाने भी ले चलूंगा,’’ राहुल का माथा चूम कर अरुण ने उसे प्यार से सम?ाया.

‘‘आप कुछ देर बाद चले जाना. मैं किचन का चक्कर लगा कर आती हूं,’’ वंदना के इस आग्रह में इतना आत्मविश्वास और अपनापन भरा था कि अरुण से कुछ कहते नहीं बना और वह खामोशी से वापस सोफे पर बैठ गया.

कांता अपने घर से खाना बना लाने को तैयार थीं, पर वंदना ने उन्हें मना

कर दिया. वे अपनी बेटी के व्यवहार को समझ नहीं पा रही थी. वंदना का शांत, गंभीर चेहरा

उस के मनोभावों को पूरी कुशलता से छिपा

रहा था.

‘‘आज अरुण ठीक मूड में लग रहा है. तू प्यार और शांति से उसे अलग घर में रहने को राजी करने की कोशिश दिल से करेगी, तो वह जरूर मान जाएगा,’’ बारबार इस सलाह को दोहरा कर कांता गाड़ी मंगा कर अपने घर 7 बजे के करीब पहुंच गईं.

राहुल और अरुण एकदूसरे के साथ खेलने में मग्न थे. वंदना अधिकतर समय रसोई में रही. उस ने सब्जी और रायता तैयार कर चपातियां बनाईं और खाना मेज पर लगा दिया.

उस दिन वह बड़े हलकेफुलके अंदाज में अरुण से बोल रही थी. शिकवेशिकायतें

एक बार भी उस की जबान पर नहीं आईं.

अरुण भी कुछ देर बाद सहज हो गया.

उस ने अपनी छोटी बहन अंजु के रिश्ते की

बात कहांकहां चल रही थी, उस की जानकारी वंदना को दी. दोनों ने अपनेअपने औफिस से जुड़ी जानकारी का आदानप्रदान किया. दोस्तों

व रिश्तेदारों के साथ घटी घटनाओं की चर्चा करी. कुल मिला कर उन के बीच लंबे समय के बाद 2 घंटे का समय बिना तकरार और झगड़े के बीता. भोजन हो जाने के बाद बरतन समेट कर वंदना रसोई में चली गई.

राहुल और अरुण फिर से कार के साथ खेलने लगे. दोनों इतने खुश थे कि उन्हें वंदना

की अनुपस्थिति का डेढ़ घंटे तक एहसास ही

नहीं हुआ.

अरुण के ऊंची आवाज में पुकारने पर वंदना शयनकक्ष से निकल कर ड्राइंगरूम में आ गई.

‘‘अब मैं चलता हूं. 9 बज चुके हैं,’’ राहुल को गोद से उतार कर अरुण खड़ा हो गया.

कोई जवाब न दे कर वंदना वापस बैडरूम में चली गई, तो अरुण की आंखों में हैरानी और उलझन के मिलेजुले भाव उभर आए.

वंदना 1 बड़े सूटकेस को पहियों पर चलाती जब फौरन लौटी, तो अरुण चौंक पड़ा.

‘‘चलो,’’ वंदना ने सूटकेस को मुख्य द्वार की तरफ धकेलना जारी रखा.

‘‘तुम साथ चल रही हो?’’

‘‘हां.’’

वंदना का जवाब सुन कर राहुल खुशी से तालियां बजाता अपने पिता की गोद में चढ़ कर उछलने लगा.

‘‘यों अचानक… मैं बहुत हैरान भी हूं और बेहद खुश भी,’’ अरुण ने प्यार से राहुल का माथा चूम लिया.

वंदना अरुण का हाथ अपने हाथों में ले कर भावुक लहज में कहने लगी, ‘‘अपना घर छोड़ कर इस तरह लौट आने पर दोनों नहीं तीनों ही खुश थे.’’

सौतेली: क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

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एक प्रश्न लगातार: क्या कमला कर देगी खुलासा?

रजाई में मुंह लपेटे केतकी फोन की घंटी सुन तो रही थी पर रिसीवर उठाना नहीं चाहती थी सो नींद का बहाना कर के पड़ी रही. बाथरूम का नल बंद कर रोहिणी ने फोन उठाया रिसीवर रखने की आवाज सुनते ही जैसे केतकी की नींद खुल गई हो, ‘‘किस का फोन था, ममा?’’

‘‘कमला मौसी का.’’

यह नाम सुनते ही केतकी की मुख- मुद्रा बिगड़ गई.

रोहिणी जानती है कि कमला का फोन करना, घर आना बेटी को पसंद नहीं. उस की स्वतंत्रता पर अंकुश जो लग जाता है.

‘‘आने की खबर दी होगी मौसी ने?’’

‘‘कालिज 15 तारीख से बंद हो रहे हैं, एक बार तो हम सब से मिलने आएगी ही.’’

‘‘ममा, 10 तारीख को हम लोग पिकनिक पर जा रहे हैं. मौसी को मत बताना, नहीं तो वह पहले ही आ धमकेंगी.’’

‘‘केतकी, मौसी के लिए इतनी कड़वाहट क्यों?’’

‘‘मेरी जिंदगी में दखल क्यों देती हैं?’’

‘‘तुम्हारी भलाई के लिए.’’

‘‘ममा, मेरे बारे में उन्हें कुछ भी मत बताना,’’ और वह मां के गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘तुम जानती हो केतकी, तुम्हारी मौसी कालिज की प्रिंसिपल है. उड़ती चिडि़या के पंख पहचानती है.’’

‘अजीब समस्या है, जो काम ये लोग खुद नहीं कर पाते मौसी को आगे कर देते हैं. इस बार मैं भी देख लूंगी. होंगी ममा की लाडली बहन. मेरे लिए तो मुसीबत ही हैं और जब मुसीबत घर में ही हो तो क्या किया जाए, केतकी मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘पापा भी साली साहिबा का कितना ध्यान रखते हैं. वैसे जब भी आती हैं मेरी खुशामदों में ही लगी रहती हैं. मुझे लुभाने के लिए क्या बढि़याबढि़या उपहार लाती हैं,’ और मुंह टेढ़ा कर के केतकी हंस दी.

‘‘अकेले क्या भुनभुना रही हो, बिटिया?’’

‘‘मैं तो गुनगुना रही थी, ममा.’’

मातापिता के स्नेह तले पलतीबढ़ती केतकी ने कभी किसी अभाव का अनुभव नहीं किया था. मां ने उस की आजादी पर कोई रोक नहीं लगाई थी. पिता अधिकाधिक छूट देने में ही विश्वास करते थे, ऐसे में क्या बिसात थी मौसी की जो केतकी की ओर तिरछी आंख से देख भी सकें.

इस बार गरमियों की छुट्टियों में वह मां के साथ लखनऊ जाएंगी. मौसी ने नैनीताल घूमने का कार्यक्रम बना रखा था. कालिज में अवकाश होते ही तीनों रोमांचक यात्रा पर निकल गईं. रोहिणी और कमला के जीवन का केंद्र यह चंचल बाला ही थी.

नैनी के रोमांचक पर्वतीय स्थल और वहां के मनोहारी दृश्य सभी कुछ केतकी को अपूर्व लग रहे थे.

‘‘ममा, आज मौसी बिलकुल आप जैसी लग रही हैं.’’

‘‘मेरी बहन है, मुझ जैसी नहीं लगेगी क्या?’’

इस बीच कमला भी आ बैठी. और बोली, ‘‘क्या गुफ्तगू चल रही है मांबेटी में?’’

‘‘केतकी तुम्हारी ही बात कर रही थी.’’

‘‘क्या कह रही हो बिटिया, मुझ से कहो न?’’ कमला केतकी की ओर देख कर बोली.

‘‘मौसी, यहां आ कर आप प्रिंसिपल तो लगती ही नहीं हो.’’

सुन कर दोनों बहनें हंस दीं.

‘‘इस लबादे को उतार सकूं इसीलिए तो तुम्हें ले कर यहां आई हूं.’’

‘‘आप हमेशा ऐसे ही रहा करें न मौसी.’’

‘‘कोशिश करूंगी, बिटिया.’’

खामोश कमला सोचने लगी कि यह लड़की कितनी उन्मुक्त है. केतकी की कही गई भोली बातें बारबार मुझे अतीत की ओर खींच रही थीं. कैसा स्वच्छंद जीवन था मेरा. सब को उंगलियों पर नचाने की कला मैं जानती थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि शस्त्र सी मजबूत मेरे जैसी युवती कचनार की कली सी नाजुक बन गई.

सच, कैसी है यह जिंदगी. रेलगाड़ी की तरह तेज रफ्तार से आगे बढ़ती रहती है. संयोगवियोग, घटनाएंदुर्घटनाएं घटती रहती हैं, पर जीवन कभी नहीं ठहरता. चाहेअनचाहे कुछ घटनाएं ऐसी भी घट जाती हैं जो अंतिम सांस तक पीछा करती हैं, भुलाए नहीं भूलतीं और कभीकभी तो जीवन की बलि भी ले लेती हैं.

अच्छा घरवर देख कर कमला के  मातापिता उस का विवाह कर देना चाहते थे पर एम.ए. में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर स्कालरशिप क्या मिली, उस के तो मानो पंख ही निकल आए. पीएच.डी. करने की बलवती इच्छा कमला को लखनऊ खींच लाई. यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर मुकेश वर्मा के निर्देशन में रिसर्च का काम शुरू किया. 2 साल तक गुरु और शिष्या खूब मेहनत से काम करते रहे. तीसरे साल में दोनों ही काम समाप्त कर थीसिस सबमिट कर देना चाहते थे.

‘कमला, इस बार गरमियों की छुट्टियों में मैं कोलकाता नहीं जा रहा हूं. चाहता हूं, कुछ अधिक समय लगा कर तुम्हारी थीसिस पूरी करवा दूं.’

‘सर, अंधा क्या चाहे दो आंखें. मैं भी यही चाहती हूं.’

थीसिस पूरी करने की धुन में कमला सुबह से शाम तक लगी रहती. कभीकभी काम में इतनी मग्न हो जाती कि उसे समय का एहसास ही नहीं होता और रात हो जाती. साथ खाते तो दोनों में हंसीमजाक की बातें भी चलती रहतीं. रिश्तों की परिभाषा धीरेधीरे नया रूप लेने लगी थी. प्रो. वर्मा अविवाहित थे. कमला को विवाह का आश्वासन दे उन्होंने उसे भविष्य की आशाओं से बांध लिया. धीरेधीरे संकोच की सीमाएं टूटने लगीं.

‘कितना मधुर रहा हमारा यह ग्रीष्मावकाश, समय कब बीत गया पता ही नहीं चला.’

‘अवकाश समाप्त होते ही मैं अपनी थीसिस प्रस्तुत करने की स्थिति में हूं.’

‘हां, कमला, ऐसा ही होगा. मेरे विभाग में स्थान रिक्त होते ही तुम्हारी नियुक्ति मैं यहीं करवा लूंगा, फिर अब तो तुम्हें रहना भी मेरे साथ ही है.’

इन बातों से मन के एकांतिक कोनों में रोमांस के फूल खिल उठते थे. जीवन का सर्वथा नया अध्याय लिखा जा रहा था.

‘तुम्हारी थीसिस सबमिट हो जाए तो मैं कुछ दिन के लिए कोलकाता जाना चाहता हूं.’

‘नहीं, मुकेश, अब मैं तुम्हें कहीं जाने नहीं दूंगी.’

‘अरी पगली, परिवार में तुम्हारे शुभागमन की सूचना तो मुझे देनी होगी न.’

‘सच कह रहे हो?’

‘क्यों नहीं कहूंगा?’

‘मुकेश, किस जन्म के पुण्यों का प्रतिफल है तुम्हारा साथ.’

‘तुम भी कुछ दिन के लिए घर हो आओ, ठीक रहेगा.’

परिवार में कमला का स्वागत गर्मजोशी से हुआ. पहले दिन वह दिन भर सोई. मां ने सोचा बेटी थकान उतार रही है. फिर भी उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा था. अनुभवी आंखें बेटी की स्थिति ताड़ रही थीं. एक सप्ताह बीता, मां ने डाक्टर को दिखाने की बात उठाई तो कमला ने खुद ही खुलासा कर दिया.

‘विवाह से पहले शारीरिक संबंध… बेटी, समाज क्या सोचेगा?’

‘मां, आप चिंता न करें. हम दोनों शीघ्र ही विवाह करने वाले हैं. वैसे मुझे लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप भी मिल गई है. मुकेश भी वहीं प्रोफेसर हैं. मैं आज ही फोन से बात करूंगी.’

‘जरूर करना बेटी. समय पर विवाह हो जाए तो लोकलाज बच जाएगी.’

कमला ने 1 नहीं, 2 नहीं कम से कम 10 बार नंबर डायल किए, पर हर बार रांग नंबर ही सुनना पड़ा. वह बहुत दिनों तक आशा से बंधी रही. समय बीतता जा रहा था. उस की घबराहट बढ़ती जा रही थी. बड़ी बहन रोहिणी भी चिंतित थी. वह उसे अपने साथ पटना ले आई. नर्सिंग होम में भरती करने के दूसरे दिन ही उस ने एक कन्या को जन्म दिया. पर वह कमला की नहीं रोहिणी की बेटी कहलाई. सब ने यही जाना, यही समझा. इस तरह समस्या का निराकरण हो गया था. मन और शरीर से टूटी विवश कमला ड्यूटी पर लौट आई.

निसंतान रोहिणी को विवाह के 15 वर्ष बाद संतान सुख प्राप्त हुआ था. उस का आंगन खुशियों से महक उठा. बहुत प्रसन्न थी वह. कमला की पीड़ा भी वह समझती थी. सबकुछ भूल कर वह विवाह कर ले, अपनी दुनिया नए सिरे से बसा ले, यही चाहती थी वह. सभी ने बहुत प्रयत्न किए पर सफल नहीं हो पाए.

अवकाश समाप्त होने के कई महीनों बाद भी मुकेश नहीं लौटा था. बाद में उस के नेपाल में सेटिल होने की बात कमला ने सुनी थी. उस दिन वह बहुत रोई थी, पछताई थी अपनी भावुकता पर. आवेश में पुरुष मानसिकता को लांछित करती तो स्वयं भी लांछित होती. अत: जीवन को पुस्तकालय ही हंसतीबोलती दुनिया में तिरोहित कर दिया.

कभी अवकाश में दीदी के पास चली जाती, पर केतकी ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी उसे मौसी का आना अखरने लगा था. वह देखती, समाज की वर्जनाओं की परवा न कर के जीजाजीजी ने बिटिया को पूरी छूट दे रखी है. आधुनिक पोशाकें डिस्को, ब्यूटीपार्लर, सिनेमा, थियेटर कहीं कोई रोकटोक नहीं थी. इतना सब होने पर भी वे बेटी का मुंह जोहते, कहीं किसी बात से राजकुमारी नाराज तो नहीं.

‘‘इस बार जन्मदिन पर मुझे कार चाहिए, पापा,’’ बेटी के साहस पर चकित थी रोहिणी. मन ही मन वह जानती थी कि जिस शक्ति का यह अंश है, संसार को उंगली पर नचाने की ऐसी ही क्षमता उस में भी थी. युवा होती केतकी के व्यवहार में रोहिणी को कमला की झलक दिखाई देती.

ऐसी ही हठी थी वह भी. मनमाना करने को छटपटाती रहती. हठ कर के लखनऊ चली आई. बेटी को त्यागने का निश्चय एक बार कर लिया तो कर ही लिया. पर आंख से ही दूर किया है, मन से कैसे हटा सकती है. अभी इस के एम.बी.बी.एस. पूरा करने में 2 वर्ष बाकी हैं. पर अभी से अच्छे जीवनसाथी की तलाश में जुटी हुई है. कैसे समझाऊं कमला को? कब तक छिपाए रखेंगे हम यह सबकुछ. एक न एक दिन तो वह जान ही जाएगी सब. सहसा केतकी के आगमन से उस के विचारों की शृंखला टूटी.

‘‘ममा, आप मेरे बारे में हर बात की राय मौसी से क्यों लेती हैं? माना वह कालिज में पढ़ाती हैं पर मैं जानती हूं कि वह आप से ज्यादा समझदार नहीं हैं.’’

‘‘मां को फुसलाने का यह बढि़या तरीका है.’’

‘‘नहीं, ममा, मैं सच कहती हूं. वह आप जैसी हो ही नहीं सकतीं. आप के साथ कितना अच्छा लगता है. और मौसी तो आते ही मुझे डिस्पिलिन की रस्सियों से बांधने की चेष्टा करने लगती हैं.’’

‘‘केतकी, कमला मुझे तुम्हारे समान ही प्रिय है. मेरी छोटी बहन है वह.’’

‘‘आप की बहन हैं, ठीक है पर मेरी जिंदगी के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं?’’

‘‘बिटिया सोचसमझ कर बोला कर. मौसी का अर्थ होता है मां सी.’’

‘‘सौरी, ममा, इस बार आप की बहन को मैं भी खुश रखूंगी.’’

वातावरण हलका हो गया था.

आज मौसम बहुत सुहाना था. लौन की हरी घास कुछ ज्यादा ही गहरी हरी लग रही थी. सफेद मोतियों से चमकते मोगरे के फूल चारों ओर हलकीहलकी मादक सुगंध बिखेर रहे थे. सड़क को आच्छादित कर गुलमोहर के पेड़ फूलों की वर्षा से अपनी मस्ती का इजहार कर रहे थे. प्रकृति का शीतल सान्निध्य पा कर कमला की मानसिक बेचैनी समाप्त हो गई थी. चाय की प्यालियां लिए रोहिणी पास आ बैठी.

‘‘क्या सोच रही हो, कमला?’’

‘‘कुछ नहीं, दीदी, ऊपर देखो, सफेद बगलों का जोड़ा कितनी तेजी से भागा जा रहा है.’’

‘‘अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी है इन को. क्या तुम नहीं जानतीं कि संध्या ढल रही है और शिशु नीड़ों से झांक रहे होंगे,’’ इतना कह कर रोहिणी खिलखिला दी.

‘‘जानती हूं दीदी, लेकिन जिस का कोई गंतव्य ही न हो वह कहां जाए? किनारे के लिए भटकती लहरों की तरह मंझधार में ही मिट जाना उस की नियति होती होगी.’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो, कमला. तुम्हारा वर्तमान तुम्हारा गंतव्य है. चाहो तो अब भी बदल सकती हो इस नियति को.’’

‘‘नहीं, दीदी, मुक्त आकाश ही मेरा गंतव्य है, अब तो यही अच्छा लगता है मुझे.’’

कमला एकदम सावधान हो गई. पिछले कई महीनों से जीजाजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं. मस्तिष्क में विचार गड्डमड्ड होने लगे. जीजी, आज फिर उस बैंक मैनेजर का किस्सा ले बैठेंगी. जीवन के सुनिश्चित मोड़ पर मिला साथी जब छल कर जाए तो कैसा कसैला हो जाता है संपूर्ण अस्तित्व.

‘‘केतकी को देखती हूं तो अविश्वास का अंधकार मेरे चारों ओर लिपट जाता है. इस मासूम का क्या अपराध? जीजी, तुम्हारा दिल कितना बड़ा है. मेरे जीवन की आशंका को तुम ने अपनी आशा बना लिया. मुकेश की सशक्त बांहों के आश्रय में कितना कुछ सहेज लिया था मैं ने, पर मुट्ठी से झरती रेत की तरह सब बह गया.’’

रात की कालिमा पंख फैलाने लगी थी. कमला के जेहन में बीती घटनाएं केंचुओं की तरह जिस्म को काटती हुई रेंग रही थीं. कैसेकैसे आश्वासन दिए थे मुकेश ने. प्रगतिशील पुरुष का प्रतिबिंब उस का व्यक्तित्व जैसे ‘डिसीव’ शब्द ही नहीं जानता था. मेरी आशंकाओं को निर्मल करने के लिए अपने स्तर पर वह इस शब्द का अस्तित्व ही मिटा देना चाहता था. अंत में क्या हुआ. दोहरे व्यक्तित्व का नकाबपोश. बहुत देर तक रोती रही कमला.

कभी अनजाने में ही मुकेश की उपस्थिति कमला के आसपास मंडराने लगती. तब वह बहुत बेचैन हो जाती, जैसे कोई खूनी शेर तीखे पंजों से उस के कोमल शरीर को नोच रहा हो. सबकुछ बोझिल और उदास लगने लगता. दुनिया को पैनी निगाहों से परखने वाली कमला सोचती, इस संसार में चारों ओर कितना सुख बिखरा है पर दुख की भी तो कमी नहीं है. ऐसे में कवि पंत की ये पंक्तियां वह अकसर गुनगुनाने लगती : ‘जग पीडि़त है अति सुख से जग पीडि़त है अति दुख से.

मानव जग में बंट जाए सुख दुख से, दुख सुख से.’

अंधकार बढ़ रहा था, वातावरण पूरी तरह से नीरव था. कमला बुदबुदा रही थी, अपने ही शब्द सुन रही थी. केतकी को क्या समझूं एक दिन के लिए भी मैं इसे अपना न कह सकी. दीदी सहारा न देतीं तो इस उपेक्षित बाला का भविष्य क्या होता? कितनी खुश है यहां. यह तो उन्हें ही वास्तविक मातापिता समझती है.

एम.बी.बी.एस. की परीक्षा केतकी ने स्वर्णपदक के साथ उत्तीर्ण की. हर बात की टोह रखने वाली कमला अगले ही दिन पटना पहुंच गई. केतकी हैरान रह गई.

‘‘ममा, यह आप ने क्या किया? कल रिजल्ट आया और आज आप ने मौसी को बुला भी लिया.’’

‘‘तुम्हारी पीठ ठोकने चली आई. उसे कैसे रोकती मैं.’’

कमला ने केतकी को हृदय से लगा लिया. मौसी की आंखों में अपने लिए आंसू देख कर वह चकित थी.

‘‘यह क्या? आप रो रही हैं?’’

‘‘पगली, खुशी के भी आंसू होते हैं. होते हैं न?’’ गाल को उंगली से छू कर कहा कमला ने, ‘‘मैं तुम्हें ताज में पार्टी दूंगी बिटिया. तुम अपने दोस्तों को भी खबर कर दो. मैं उन सब से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘सच मौसी, आप को अच्छा लगेगा?’’

‘‘क्यों नहीं? मेरी लाडली अब डाक्टर है, अबोध बच्ची नहीं.’’

कमला बहुत खुश थी. पार्टी चल रही थी. बहुत से जोडे़ हंस रहे थे. आपस में बतिया रहे थे. उसी दिन कमला ने देखा केतकी और कुणाल के हावभाव में झलकता निच्छल अनुराग.’’

‘‘कमला, केतकी और कुणाल के संबंधों की बात मैं खुद ही तुम्हें बताना चाहती थी पर कह न पाई,’’ रोहिणी बोली, अब तुम ने सब देख लिया है. अच्छा हो इस बार यह संबंध तय कर के जाओ.

‘‘जीजी, यह अधिकार आप का है.’’

‘‘तुम्हारी स्वीकृति आवश्यक है.’’

‘‘दीदी, कुणाल को मैं जानती हूं. मेरी क्लासमेट अनुराधा का बेटा है वह, बहुत भला और संस्कारी परिवार है. आप कहें तो कल अनु को बुला लूं.’’

‘‘क्यों नहीं, मैं तुम्हारे चेहरे पर खुशी की रेखा देखना चाहती हूं.’’

कमला ने कालिज से एक माह का अवकाश ले लिया था. विवाह खूब धूमधाम से संपन्न हुआ. कमला लखनऊ लौट गई. अपने कमरे के एकांत में वर्षों बाद उस ने मुकेश का नाम लिया था पर लगा जैसे चारों ओर कड़वाहट फैल गई हो. चाहत में डुबो कर तुम ने मुझे छला मुकेश और तुम्हारे राज को मैं ने 24 वर्ष तक हृदय की कंदरा में छिपाए रखा. मैं केतकी को तुम्हारी बेटी कभी नहीं कहूंगी. तुम इस योग्य हो भी नहीं. पता नहीं रिसर्च और सर्विस का झांसा दे कर तुम ने मेरे जैसी कितनी अबोध युवतियों के साथ यह खेल खेला होगा. बेटी के सुखी भविष्य के लिए मैं उसे तुम्हारा नाम नहीं बताऊंगी.

‘‘ममा, मौसी का फोन है.’’

‘‘दीदी, मैं कल ही कालिज का ट्रिप ले कर कुल्लूमनाली जा रही हूं. 10 दिन का टूर है. हां, केतकी कैसी है?’’

‘‘दोनों बहुत खुश हैं. तुम अपना ध्यान रखना.’’

‘‘ठीक है, जीजी,’’ कह कर कमला फोन पर खिलखिला कर हंसी थी. रोहिणी को लगा कि बेटी का घर बस जाने की खुशी थी यह.

नियत तिथि पर टूर समाप्त हुआ. केतकी के लिए ढेरों उपहार देख रोहिणी चकित थी कि हर समय इस के दिल में केतकी बसी रहती है.

अवकाश समाप्त होने में अभी 10 दिन शेष थे. कमला दीदी और केतकी के साथ घर पर रहने के मूड में थी. पर आने के 2 दिन बाद ही कमला को ज्वर हो आया. डा. केतकी ने दिनरात परिचर्या की. कोई सुधार होता न देख कर दूसरे डाक्टर साथियों से भी सहायता ली उस ने.

‘‘जीजी, लगता है अब यह ज्वर नहीं जाएगा. मेरा अंत आ पहुंचा है.’’

‘‘ऐसा मत कहो, कमला. अभी तुम्हें केतकी के लिए बहुत कुछ करना है.’’

‘‘समय क्या किसी के रोके रुका है, जो मैं उसे रोक लूंगी. दीदी, केतकी को बुला दीजिए.’’

‘‘वह तो यहीं बैठी है तुम्हारे पास.’’

‘‘बेटी, यह जरूरी कागज हैं तुम्हारे और कुणाल के लिए. इन्हें संभाल कर रख लेना.’’

‘‘यह क्या हो रहा है ममा? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘कमला, केतकी कुछ जानना चाहती है.’’

‘‘जीजी, आप सब जानती हैं, जितना ठीक समझो बता देना. मेरे पास अब समय नहीं है.’’

कमला ने अंतिम सांस ली. तड़प उठी केतकी. पहली बार रोई थी वह उस अभागी मां के लिए, जो जीवन रहते बेटी को बेटी कह कर छाती से न लगा सकी.

सबकुछ है पर कुछ नहीं: राधिका को किस चीज की कमी थी

‘‘दीदी,जीजाजी कहा हैं? फोन भी औफ कर रखा है.’’

‘‘बिजी होंगे किसी मीटिंग में, तुम बैठो तो सही, क्या लोगे?’’

‘‘जीजाजी के साथ ही बैठूंगा अब दीदी. मां ने जीजाजी के लिए ये कुछ चीजें भेजी हैं. अच्छा मैं आता हूं अभी,’’ कह कर दिनेश अपनी बड़ी बहन राधिका, जो एक बड़े मंत्री की पत्नी थी, को बैग पकड़ा कर विशालकाय कोठी से बाहर निकल गया.

राधिका ने उत्साह से बैग खोल कर मां की भेजी हुई चीजों पर नजर डाली. सब चीजें उस के पति अमित की पसंद की थीं, उस की खुद की पसंद की एक भी चीज नहीं थी. मां ने सबकुछ अपने मंत्री दामाद के लिए भेजा था, अपनी बेटी के लिए कुछ भी नहीं.

अजीब सा मन हुआ राधिका का. ठंडी सांस लेते हुए बैग एक किनारे रख वहीं सोफे पर बैठ कर अमित के पीए को फोन मिलाया तो उस ने अमित को बता दिया.

‘‘हां बोलो, राधिका, क्या हुआ?’’ अमित

ने पूछा.

‘‘बस, यही याद दिलाना था कि कल सुजाता के स्कूल जाना है, कोई प्रोग्राम मत रखना और हां, दिनेश भी आया है.’’

‘‘हांहां, चलेंगे कल. अभी बिजी हूं बाद में बात करता हूं,’’ कह कर अमित ने फोन रख दिया.

बेटी सुजाता के स्कूल का वार्षिकोत्सव है कल. अमित को याद दिला दिया. वे चलेंगे यह बड़ी बात है नहीं तो अमित इतने व्यस्त रहते हैं कि राधिका ने उन से कोई उम्मीद रखनी छोड़ ही चुकी है… पता नहीं कल कैसे समय निकाल पाएंगे. हो सकता है सुजाता की लगातार जिद का असर हो… वैसे तो उसे आजकल यही लगता है कि कहने के लिए उस के पास सबकुछ है पर हकीकत में नहीं है.

राधिका के सारे रिश्तेदार, दोस्त, परिचित, पड़ोसी सब के लिए वह बस राज्य सरकार के एक मंत्री की पत्नी है. वह तरसती रहती है कि काश, किसी के दिल में उस के लिए, राधिका के लिए, कोई स्थान हो. वह हर तरफ  से अमित से काम निकलवाने वाले लोगों से घिरी रहती है. उस के अपने मायके वाले बस अमित की की ही जीवनशैली, पद, अधिकार में रुचि रखते हैं, उस की तथाकथित दोस्त, परिचित सिर्फ अमित की ही बात करना पसंद करते हैं.

उस के युवा बच्चे सुजाता और सुयश भी पिता के पद के अहंकार में डूबे मां की ममता को व्यर्थ की चीज समझते हैं. वह जब भी अपने बच्चों से उन के स्कूल, दोस्तों की बातें करना चाहती है तो बच्चों के अहं और दर्दभरे स्वर से उसे लगता ही नहीं कि वह अपने बच्चों से बात कर रही है. लगता है किसी मंत्री के घमंडी बच्चों से बात कर रही है. आजकल वह ज्यादातर चुप ही रहती है. किस से बात करें और क्या बात करे. सब की तो उस के मंत्री पति में ही रुचि है, उस का अपना तो कहीं कोई है ही नहीं… वह अपने विचारों में गुम थी. अमित और दिनेश अंदर आते दिखे. दिनेश ने आते हुए कहा, ‘‘देखो दीदी, जीजाजी को जबरदस्ती पकड़ कर ले आया हूं, अब साथ में लंच करेंगे,’’

आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी अमित मुसकराते हुए बोले, ‘‘देख लो राधिका, तुम्हारा भाई मुझे औफिस से जबरदस्ती उठा लाया है. बोला आप से मिलने ही तो आया हूं.’’

‘‘हां जीजाजी, मैं आप से ही मिलने आया था. दीदी का क्या है, उन से तो कभी भी मिल सकते हैं. दीदी, अब लंच लगवा दो.’’

अमित जब तक  फ्रैश हो कर आए खाना लग चुका था. तीनों खाने बैठे तो दिनेश ने कहा, ‘‘जीजाजी, मैं आज ही वापस चला जाऊंगा. बस आप याद रखना आप को मेरे दोस्त का काम करवाना ही पड़ेगा.’’

राधिका ने पूछा, ‘‘कौन सा काम दिनेश?’’

‘‘आप रहने दो दीदी, यह जीजाजी के बस का ही है, मैं ने उन्हें रास्ते में समझा दिया है सब.’’

अमित मुसकराते हुए खाना खाते रहे. थोड़ी देर में बच्चे भी आ गए, वे भी खाना खा कर सब के साथ बैठ गए.

सुजाता अगले दिन होने वाले स्कूल के प्रोग्राम के बारे में उत्साह से बताने लगी, ‘‘कल मेरे दोस्त भी तो देखें मेरे डैड क्या चीज हैं. एक मंत्री के जलवे मेरी टीचर्स भी तो देखें.’’

सुजाता खिलखिला रही थी, सुयश भी दिनेश से बातों में व्यस्त था. राधिका चुपचाप सब की बातें सुन रही थी.

दिनेश ने कहा, ‘‘जीजाजी, आप के लिए मां ने कुछ चीजें भेजी हैं, जरूर खाना.’’

अभी कुछ दिन पहले तक ऊंची जातियों के जो साथी बच्चों से कन्नी सी काटते थे, अमित के मंत्री बनते ही उन से दोस्ती बढ़ाने लगे थे.

‘‘अच्छा? उन्हें मेरा धन्यवाद कहना.’’

अमित की आकर्षक हंसी को निहारती रह गई राधिका कि अमित का संपूर्ण व्यक्तित्व कितना आकर्षक व प्रभावशाली है. हालांकि उन में थोड़ा सा गांव का टच आता है पर फिर भी कीमतों कपड़ों में वह छिप जाता है. कितनी मेहनत से पहुंचे हैं यहां तक और अब जब

जीवन में हर सुखसुविधा है तो उसे क्यों लगता

है उस के पास कुछ नहीं है. उस से अच्छी तो वह तब थी जब छोटे से घर में रहती थी और अमित उस के चारों और मंडराता थे. उस ने अपनी सोच को झटक दिया. अमित उठ खड़े हुए थे, ‘‘राधिका, आने में देर होगी, डिनर शायद घर न करूं.’’

उन के उठते ही दिनेश भी जाने के लिए खड़ा हो गया, तो राधिका बोल पड़ी, ‘‘दिनेश, तुम तो रुको… तुम तो बैठे ही नहीं मेरे पास.’’

‘‘नहीं दीदी, मैं भी निकलता हूं,’’ कह वह अमित के साथ ही निकल गया. बच्चे अपनेअपने रूम में चल गए, वह अकेली खड़ी रह गई, फिर वह भी अपने बैडरूम में चली गई.

अगले दिन सुजाता अमित और राधिका के साथ उस के स्कूल पहुंची. स्कूल के

गेट पर ही अमित का भव्य स्वागत हुआ. राधिका भी मुसकरा कर सब के अभिवादन का जवाब देती रही. ऐसे में उसे हमेशा महसूस होता था जैसे

वह कोई मशीन है या कठपुतली है अथवा

रोबोट, मन में कोई उमंग नहीं. बस, सब अमित को घेरने की कोशिश करते रहते थे और वह सजीधजी अपनी नकली मुसकराहट बिखरेती,

उन के साथ खड़े रहने की कोशिश करती रह जाती थी.

स्कूल में पता नहीं कितने बच्चों ने, कितनी टीचर्स ने अमित के साथ फोटो खिंचवाए. वहां सब उन के आसपास पहुंचने की कोशिश करते रहे. अमित का सुरक्षा घेरा आज अमित के कहने पर कुछ दूरी पर ही रहा. समारोह में आने के लिए उन्हें विशेष रूप से धन्यवाद कहा गया.

प्रोग्राम खत्म होने पर राधिका रोबोट की तरह उन के साथ चलती घर आ गई. घर आ कर देखा अमित की 2 चचेरी बहनें आई हुई थीं. राधिका उन की आवभगत में व्यस्त हो गई.

बड़े मंत्री की पत्नी बनना भी कांटों का ताज पहनना है यह वह भलीभांति समझ गई थी पर कुशल पत्नी की भांति वह बिना मीनमेख निकाले जानबूझ कर भी मक्खी निगल लेती थी. दिनरात के मेहमानों ने उस की नाक में दम कर रखा था. पहले भी लोग आते थे पर कम और उन के अपने स्तर के. अब तरहतरह के लोग आतेजाते थे.

कभी कोई आत्मीय इंटरव्यू के लिए चला आ रहा है तो कभी कोई अपना

ट्रांसफर रुकवाने. कभीकभी उस के जी में आता सब को निकाल बाहर करे पर भारतीय नारी और वह भी जिस के पुरखों ने कभी ऐश नहीं देखी हो, कभी ऐसा दुस्साहस कर सकती है खूब हंसहंस कर वह मेहमानों की आवभगत करती रहती है.

दोनों बहनें रेखा और मंजू अपनी सुसराल के किसी रिश्तेदार की फैक्टरी लगाने में आई अड़चनें दूर करवाने की बात कर रही थीं. अमित ने उन की बात सुन कर मदद करने का आश्वासन दिया.

रेखा और मंजू बहुत दिनों बाद आईर् थीं. राधिका ने सोचा आज कुछ देर बैठ कर उन से बातें करेगी पर अमित के उठते ही वे दोनों भी जल्दीजल्दी चाय समाप्त कर अमित के साथ ही निकलने के लिए उठ खड़ी हुईं. उन्हें भी सिर्फ अमित से ही मतलब था. राधिका का दिल फिर डूब गया. उसे लगने लगा उस के पास कोई बात करने वाला नहीं है जो कुछ उस की सुने, कुछ अपनी कहे. किसी आम औरत की तरह वह पासपड़ोस में बैठ कर गप्पें नहीं मार सकती थी.

एक बार किट्टी पार्टी जौइन की तो वहां भी हर सदस्य किसी न किसी काम की सिफारिश करता रहा तो राधिका ने वहां जाना भी बंद कर दिया. किसी समाजसेवा संस्था से जुड़ना चाहा तो वहां भी अमित की पुकार होती रहती. अब राधिका ने धीरेधीरे सब जगह जाना छोड़ दिया था.

मंत्री की पत्नी होने के सुखदुख पर वह मन ही मन गौर करती और किसी से शेयर न कर पाने की स्थिति में मन ही  मन अकेलेपन से घिरी रहती. कभी दिनबदिन व्यस्त होते अमित से मिले कभीकभार कुछ अंतगरंग पल उस की झोली में आ गिरते तो वह कई दिनों तक उन्हें सहेजे रहती.

एक दिन जब उस के बचपन की प्रिय सखी का फोन आया कि  वह किसी काम से लखनऊ आ रही है तो राधिका खिल उठी.

कामिनी ने छेड़ा, ‘‘मंत्री की पत्नी बन कर मिलेगी या सहेली बन कर?’’

हंस पड़ी राधिका, ‘‘तू आ कर खुद ही

देख लेना.’’

कामिनी आई तो राधिका के ठाटबाट देख कर हैरान रह गई. राधिका के गले लगते हुए बोली, ‘‘वाह, कभी सोचा था ऐसा वैभव देखेगी? चल, पूरा घर दिखा पहले.’’

घर था तो सरकारी बंगला. अमित के

कहने पर कई ठेकेदारों ने मुफ्त में उस का काया पलट कर दिया था. वह देखती रह गई कि कैसे

2 महीनों में रातदिन लगा कर खंडहर को महल बना दिया गया. बाहर काले ग्रेमइट पर खुदा था

-अमित कुमार मंत्री, राज्य सरकार.

राधिका ने उसे पूरा घर दिखाया. कामिनी ने खुले दिल से कोठी की भव्यता की प्रशंसा की. कामिनी किसी विवाह में शामिल होने आई थी और सीधी राधिका के पास ही आ गई थी. कामिनी और राधिका का बचपन रुड़की में एक ही गली में आमनेसामने के घरों में बीता था. दोनों के पिताओं के पास पैसा न था. छोटीछोटी नौकरियां ही तो करते थे. कामिनी फ्रैश होने चली गई तो राधिका को बीते समय की बहुत सी बातें याद आने लगी.

राधिका और कामिनी की कालेज की पढ़ाई भी साथ हुई थी, उसी कालेज में अमित उसे पसंद आ गया था. उस के पिता भी साधारण थे पर पिता और पुत्र दोनों राजनीति में सक्रिय थे.

राधिका और दोनों का साधारण सा विवाह हो गया था. स्टूडैंट राजनीति से शुरू कर मेन राजनीति में अपनी पकड़ बनाते चले गए थे अमित. पिछड़े वर्ग का होने के कारण हर पार्टीको उनकी जरूरत थी. वे मेधावी भी थे. एक मंत्री की पत्नी बन कर वह कभी गर्व से इतराती तो कभी अकेलेपन में अकुलाती, पति की व्यस्त दिनचर्या, नपीतुली बातचीत और संतुलित व्यवहार के साथ खुद को परिवेश में डालने की कोशिश में जीवन बीतता चला गया था.

कामिनी राधिका के ऐशोआराम पर मुग्ध थी. कामिनी का पति एक ऊंची

जाति का था. एमबीए में कामिनी से मिला था. राधिका जो बहुत कुछ बांटना चाहती थी अपनी बालसखी से, कुछ भी नहीं कह पाई. कामिनी खूब उत्साह से उस की घरगृहस्थी की तारीफ करने में ही व्यस्त रही.

खाने की टेबल पर शानदार लंच देख कर, नौकरों को इधर से उधर काम करते देख कामिनी ने चहकते हुए खाना शुरू किया, बोली, ‘‘राधिका, इतना वैभव, ऐशोआराम का हर साधन, योग्य पति, बच्चे, वाह, सबकुछ है न आज तेरे पास?’’ राधिका ने फीकी सी हंसी हंसते हुए मन ही मन कहा कि हां, सबकुछ है पर कुछ नहीं.’’

कामिनी ने उस के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘राधिका मैं समझ सकती हूं कि तुम पर क्या बीत रही होगी. साधारण घरों में बड़े हुए हम लोगों को प्यार चाहिए. यह वैभव, पैसा कचोटता है. मयंक के पास पैसा भी है और ऊंची जाति होने का गरूर भी. मैं भी कमाती हूं पर वह खुशी नहीं मिलती. मयंक ने कितनी बार कहा कि तुम से कह कर कोई काम करा दूं पैसा भी मिल जाएगा. पर मैं जानती हूं कि तुझे प्यारी सहेली चाहिए, पैसा नहीं. इतने साल में इसीलिए आने से कतराती रही कि न जाने तू कहीं बदल नहीं गई हो पर उस दिन स्कूल में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट टीवी में देखी तो तेरे चेहरे की बनावटी मुसकान के पीछे का दर्द में देख सकती थी. अब तो तू भंवरजाल में फस चुकी है… खुश रह.’’

राधिका ने कहा, ‘‘तू सही कहती है, कामिनी. इसी कुछ नहीं के साथ जीना पडे़गा वरना न वे बच्चे साथ रहेंगे, न भाई, न मांबाप.’’

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