कैसे रखें खुद का खयाल

दिल्ली, मुंबई समेत देश के 7 बड़े शहरों में किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं. ‘द इंडियन वूमन हैल्थ-2021’ की रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि 67 फीसदी महिलाएं अपनी सेहत से जुड़ी समस्याओं के बारे में बात करने से हिचकती हैं. उन का कहना है कि हमारे स्वास्थ्य के बारे में बात करना समाज में वर्जित माना जाता है.

देश में कामकाजी महिलाओं की सेहत ठीक नहीं है. आधी से अधिक महिलाओं को काम के साथ स्वयं को स्वस्थ रखना चुनौती साबित हो रहा है. महिलाएं लगातार काम करने और अपने दायित्वों का पालन करते हुए खुद की सेहत को दरकिनार करती हैं.

‘द इंडियन वूमन हैल्थ-2021’ की इस रिपोर्ट के अनुसार 22 से 55 की उम्र की 59 फीसदी कामकाजी महिलाएं सेहत से संबंधित समस्याओं के कारण नौकरी छोड़ देती हैं. 90 फीसदी महिलाओं को पारिवारिक दायित्वों के कारण दिक्कत होती है.

52 फीसदी महिलाओं के पास नौकरी, पारिवारिक दायित्वों के साथ स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए समय नहीं होता है. रिपोर्ट के अनुसार देश में महिलाएं कार्यस्थल पर सेहत से जुड़ी समस्याओं, पीरियड्स, ब्रैस्ट कैंसर, गर्भाशय समेत तमाम समस्याओं पर बात करने से हिचकती हैं. उन का कहना है कि जब हमारी सेहत की बात आती है तो 80 फीसदी पुरुष सहयोगी संवेदनशील नहीं होते हैं.

चौंकाने वाले परिणाम

देश में प्रत्येक 4 में से 3 नौकरीपेशा महिलाओं का स्वास्थ्य घरदफ्तर की भागदौड़ और उन के बीच संतुलन साधने में कहीं न कहीं कमजोर पड़ जाता है. एसोचैम के एक सर्वेक्षण में यह परिणाम सामने आया है कि दफ्तर का काम, बच्चों और घर की देखभाल की वजह से बने दबाव के चलते उन की दिनचर्या काफी व्यस्त रहती है और समय के साथ कई लंबी और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं.

सर्वेक्षण में पाया गया कि 32 से 58 साल की आयु के बीच की तीनचौथाई कामकाजी महिलाएं अपनी कठिन जीवनशैली के कारण लंबी तथा गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाती हैं. उन्हें मोटापा, थकान, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, पीठ दर्द और उच्च कोलैस्ट्रौल जैसी बीमारियां घेर लेती हैं.

इस सर्वे के अनुसार कामकाजी महिलाओं में दिल की बीमारी का जोखिम भी तेजी से बढ़ रहा है. 60% महिलाओं को 35 साल की उम्र तक दिल की बीमारी होने का खतरा रहता है. 32 से 58 साल की उम्र की महिलाओं के बीच हुए इस सर्वे के अनुसार 83% महिलाएं किसी तरह का व्यायाम नहीं करतीं और 57% महिलाएं खाने में फलसब्जी का कम उपयोग करती हैं.

युवा लड़कियां जो इन परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम होती हैं उन पर भी बाद में इस तरह की स्वास्थ्य समस्याओं में घिर जाने का खतरा बना रहता है. सर्वेक्षण में शामिल महिलाओं में 22% पुरानी लंबी बीमारी से ग्रस्त बताई गईं जबकि 14% गंभीर बीमारी से पीडि़त बताई गईं. एसोचैम का यह सर्वेक्षण अहमदाबाद, बैंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, एनसीआर, हैदराबाद, जयपुर, कोलकाता, लखनऊ, मुंबई और पुणे में 32 से 58 साल की 2,800 महिलाओं पर किया गया. ये महिलाएं 11 विभिन्न क्षेत्रों की 120 कंपनियों में कार्यरत हैं.

अतिरिक्त तनाव और दबाव

महिलाओं पर अच्छा अभिभावक, अच्छी मां बनने का काफी दबाव रहता है और यह उन के तनाव का कारण भी बनता है. महिलाएं सुबह से शाम तक भागदौड़ भरी जिंदगी में कई बार डाक्टर के पास भी नहीं जा पाती हैं.

एसोचैम द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि मां बनने के बाद कई महिलाएं नौकरी छोड़ देती हैं. सर्वे के मुताबिक 40% महिलाएं अपने बच्चों को पालने के लिए यह फैसला लेती हैं.

खुद की परवाह छोड़ कर मां जीती है बच्चे के लिए. बच्चे के जन्म से पहले ही मां अपने बच्चे का खयाल रखना शुरू कर देती है. जब बच्चा पेट में होता है तो हर मां ऐसी चीजें खाने से बचती हैं जिन से बच्चे की सेहत पर गलत असर हो. अपनी पसंद की चीजों को छोड़ कर हमेशा अच्छी चीजें ही खाती हैं ताकि बच्चे की हैल्थ अच्छी रहे.

फिर बच्चों के बड़े होने तक हर मां अपने बच्चों और घर के दूसरे सदस्यों के भी खानपान और सेहत का पूरा खयाल रखती हैं और इस कारण वे अपनी सेहत पर बिलकुल ध्यान नहीं दे पातीं. सेहत पर ध्यान न दे पाने से समय के साथसाथ कुछ बीमारियों का खतरा बढ़ने लगता है. ऐसे में जरूरी है कि महिलाएं अपनी सेहत पर भी ध्यान दें.

याद रखिए आज बच्चे और परिवार आप की प्राथमिकता हैं, मगर बहुत जल्द वह समय आएगा जब बच्चे अपनी पढ़ाई या नौकरी के लिए दूर चले जाएंगे. यही नहीं शादी के बाद उन का अपना परिवार होगा और हो सकता है वे किसी और शहर या दूसरे देश में सैटल हो जाएं. ऐसे में आप को अपना संबल खुद बनना है. आप का जीवनसाथी आप के साथ होगा, मगर उन की देखभाल भी आप तभी कर सकती हैं जब खुद स्वस्थ रहें. बच्चे आप के ऊपर तभी तक निर्भर होते हैं जब तक वे बड़े नहीं हो जाते. उस के बाद आप को बाकी के 20-30 साल अकेले अपने बल पर ही बिताने हैं.

इस के लिए आप का शारीरिक और मानसिक रूप से हैल्दी रहना जरूरी है वरना आप दूसरों पर बोझ बन कर रह जाएंगी.

अपनी सेहत को इग्नोर न करें

बदलते वक्त ने महिलाओं को आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से सशक्त किया है और उन की हैसियत एवं सम्मान में भी वृद्धि हुई है. अकसर यह देखा गया है कि जब महिलाएं घर, परिवार और कार्यस्थल हर जगह अपना दायित्व का पालन करती हैं उस वक्त वे अपनी सेहत पर बिलकुल ध्यान नहीं दे पाती हैं. जब परेशानी हद से ज्यादा बढ़ जाती है तब वे अपनी सेहत की जांच करवाती हैं. अत: बेहतर है कि वे समय रहते खुद का खयाल रखें.

समयसमय पर मैडिकल टैस्ट

घर के काम, बच्चों की जिम्मेदारियां, घरगृहस्थी और औफिस की टैंशन आदि के कारण महिला की सेहत पर गलत असर होता है और समय के साथ कई बीमारियां जन्म ले लेती हैं. इन बीमारियों से बचने का सब से अच्छा तरीका यह है कि समयसमय पर अपने कुछ मैडिकल टैस्ट कराए जाएं और डाक्टर को दिखाएं. अगर रिपोर्ट में कुछ गलत निकलता है तो डाक्टर समय रहते सही इलाज करेंगे जिस से बीमारी पर काबू पाया जा सकता है. मैमोग्राम, थायराइड, पैप स्मीयर, डायबिटीज, ब्लड प्रैशर आदि मैडिकल टैस्ट समयसमय कराती रहें.

खानपान का रखें ध्यान

सुबह जल्दी उठने से रात देर से सोने तक एक महिलाएं दिनभर घर के काम करने और अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में ही लगी रहती हैं. ऐसे में वे अपने खानपान पर ध्यान नहीं दे पातीं. कई बार तो वे खाली पेट रह कर भी घर के कामों में लगी रहती हैं. लेकिन ऐसा करना काफी गलत होता है. इसलिए खयाल रखें और रोजाना खाना समय पर व पौष्टिक लें. अपनी डाइट में फाइबर, प्रोटीन, फ्रूट्स, फल और सब्जियां भी शामिल करें.

फिजिकल ऐक्टिविटी

दिनभर घर के काम करने से आप की फिजिकल ऐक्टिविटी काफी हो जाती है. लेकिन इस के दूसरी ओर इन कामों से मानसिक थकान भी हो सकती है. इसलिए अपनी दिनचर्या में कुछ फन ऐक्टिविटीज डालने की भी कोशिश करें. ऐसा करने से आप का मूड सही रहेगा और फिजिकल ऐक्टिविटी भी हो जाएगी. आप समय निकाल कर गार्डनिंग कर सकती हैं, पार्क में घूमने जा सकती हैं, सहेलियों से मुलाकात कर सकती हैं.

आराम की भी है जरूरत

जैसेजैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसेवैसे शरीर को अधिक आराम की जरूरत होती है. सुबह जल्दी उठने और रात देर से सोने के कारण कई बार नींद पूरी नहीं हो पाती होगी. इसलिए कोशिश करें कि आप कम से कम 8-9 घंटे की नींद जरूर लें. अगर किसी कारण से रात में पूरी नींद नहीं हो पाती तो दिन में भी 2-3 घंटे की नींद ले सकती हैं. ऐसा करने से थकान को दूर करने में मदद मिलेगी.

दूसरों से मदद लें

बच्चा छोटा होता है तो उस के काम बहुत ज्यादा होते हैं. बड़े होने के बाद भी एक मां के लिए बच्चे के सारे काम खुद संभालना कठिन होता है. इसी वजह से उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता. इसीलिए जरूरी है कि आप घर के दूसरे सदस्यों की मदद लें ताकि अपने लिए थोड़ा समय बचा पाएं. अगर आप नईनई मां बनी हैं तो आप को अपना और ज्यादा खयाल रखना चाहिए. ऐसे में आप को बेहतर स्वास्थ्य के लिए चीजों को आसान बनाने की आवश्यकता है. आप पार्ट टाइम या फुलटाइम मदद के लिए घर में नौकर लगा लें. चाहें तो मदद के लिए मातापिता या सासससुर को बुला लें.

जिन घरों में पति या अन्य परिजन कामकाज में हाथ बंटाते हैं वहां महिलाओं का स्वास्थ्य अपेक्षाकृत बेहतर पाया जाता है. स्वस्थ महिला स्वस्थ परिवार और स्वस्थ समाज का निर्माण करती है, इसलिए महिलाओं को तनावमुक्त और काम के बोझ से मुक्त रखना परिवार की जिम्मेदारी है.

प्रसव के बाद मेरे जोड़ों में काफी दर्द रहने लगा है?

 सवाल-

मैं 32 वर्षीय घरेलू महिला हूं. प्रसव के बाद मेरे जोड़ों में काफी दर्द रहने लगा है. बताएं मु झे क्या करना चाहिए?

जवाब-

गर्भावस्था और प्रसव के दौरान शरीर में कई रासायनिक और हारमोनल बदलाव होते हैं, जिस का प्रभाव जोड़ों पर भी पड़ता है. गर्भावस्था में वजन बढ़ने से भी कमर, कूल्हों और घुटनों के जोड़ों पर दबाव पड़ता है और उन में टूटफूट की प्रक्रिया तेज हो जाती है. कई महिलाएं गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान अपने खानपान का ध्यान नहीं रखतीं जबकि इस दौरान उन के शरीर को पोषक तत्त्वों की काफी अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है. अपने खानपान का ध्यान रखें, बढ़े वजन को कम करें और शारीरिक रूप से सक्रिय रहें.

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मां बनना एक खुशी का पल होता है, जिसे हर मां अपनी तरह से जीना चाहती है. मां बनने से पहले तो हर कोई अपनी हेल्थ का ध्यान रखता है, लेकिन प्रैग्नेंसी के बाद कईं महिलाएं अपना ख्याल नहीं रखती, जिससे वह कईं बिमारियों का शिकार हो जाती हैं. वहीं बौलीवुड एक्ट्रेस की बात की जाए तो वह मां बनने के बाद भी स्लिम एंड फिट नजर आती हैं, लेकिन कुछ महिलाएं मां बनने के बाद खुद को रिटायर समझने लगती हैं और सोचने लगती हैं कि अब उन की फिगर पहले जैसा आकार नहीं ले सकती. इसलिए वे अपनी फिटनेस को लेकर लापरवाह हो जाती हैं, जिससे उनकी बौडी थुलथुली हो जाती है व स्किन डल हो जाती है. पर बच्चा पैदा होने के बाद अगर थोड़ा ध्यान खुद पर दिया जाए तो किसी भी महिला की हेल्थ नही बिगड़ेगी. इसीलिए आज हम आपको डिलीवरी के बाद भी अपने को फिट और खूबसूरत कैसे रखें इसके बारे में बताएंगे…

1. डिलीवरी के बाद कब शुरू करें एक्सरसाइज

प्रौफेशनल का कहना है अगर डिलीवरी नौर्मल हुई हो तो डिलीवरी के 6 हफ्तों के बाद कोई भी महिला एक्सरसाइज शुरू कर सकती है और अगर डिलीवरी सिजेरियन हुई हो तो 3 महीनों के बाद महिला एक्सरसाइज शुरू कर सकती है. डिलीवरी के समय वेट गेन होना यानी वजन का बढ़ना नौर्मल है. हर महिला 9 किलोग्राम से 11 किलोग्राम तक वेट गेन करती है. चूंकि इस समय फिजिकल एक्टिविटीज नहीं होती और घी, ड्राई फू्रट्स आदि हाईकैलोरी वाली चीजों का सेवन ज्यादा किया जाता है, तो वजन बढ़ ही जाता है. अगर रोज एक्सरसाइज और खानपान का ध्यान रखा जाए तो बढ़ते वजन को घटाया जा सकता है.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- 6 टिप्स: डिलीवरी के बाद ऐसे रखें खुद को फिट

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एओर्टिक स्टेनोसिस : समय पर इलाज जरूरी

डायबिटीज रोगी 77 साल के बिपिन चंद्रा की जिंदगी अब थोड़ी सुकूनभरी है लेकिन साल 2014 में उन की स्थिति काफी तकलीफदेह हो गई थी. किडनी की बीमारी से जूझ रहे बिपिन चंद्रा की बाईपास सर्जरी हो चुकी थी. उम्र के इस पड़ाव में उन का चलनाफिरना या काम करना मुश्किल हो गया था. थोड़ा चलने पर ही वे हांफने लगते. उन की बढ़ती समस्या को देखते हुए डाक्टर से परामर्श लिया गया.

डाक्टर ने उन के कुछ टैस्ट किए जिन में एमएससीटी (इस तकनीक में हृदय और वैसल्स की 3डी इमेज बनाने के लिए एक्सरे बीम तथा लिक्विड डाई का इस्तेमाल किया जाता है) भी शामिल है. टैस्ट के बाद खुलासा हुआ कि वे गंभीररूप से एओर्टिक स्टेनोसिस से पीडि़त थे. बिपिन चंद्रा की सर्जरी हुए 2 साल हो गए हैं और अब वे बेहतरीन जिंदगी जी रहे हैं.

एओर्टिक स्टेनोसिस क्या है?

जब हृदय पंप करता है तो दिल के वौल्व खुल जाते हैं जिस से रक्त आगे जाता है और हृदय की धड़कनों के बीच तुरंत ही वे बंद हो जाते हैं ताकि रक्त पीछे की तरफ वापस न आ सके. एओर्टिक वौल्व रक्त को बाएं लोअर चैंबर (बायां वैंट्रिकल) से एओर्टिक में जाने के निर्देश देते हैं.

एओर्टिक मुख्य रक्तवाहिका है जो बाएं लोअर चैंबर से निकल कर शरीर के बाकी हिस्सों में जाती है. अगर सामान्य प्रवाह में व्यवधान पड़ जाए तो हृदय प्रभावी तरीके से पंप नहीं कर पाता. गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस यानी एएस में एओर्टिक वौल्व ठीक से खुल नहीं पाते.

मेदांता अस्पताल के कार्डियोलौजिस्ट डा. प्रवीण चंद्रा कहते हैं कि गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस की स्थिति में आप के हृदय को शरीर में रक्त पहुंचाने में अधिक मेहनत करनी पड़ती है. समय के साथ इस वजह से दिल कमजोर हो जाता है. यह पूरे शरीर को प्रभावित करता है और इस वजह से सामान्य गतिविधियां करने में दिक्कत होती है. जटिल एएस बहुत गंभीर समस्या है. अगर इस का इलाज न किया जाए तो इस से जिंदगी को खतरा हो सकता है. यह हार्ट फेल्योर व अचानक कार्डिएक मृत्यु का कारण बन सकता है.

लक्षण पहचानें

एओर्टिक स्टेनोसिस के कई मामलों में लक्षण तब तक नजर नहीं आते जब तक रक्त का प्रवाह तेजी से गिरने नहीं लगता. इसलिए यह बीमारी काफी खतरनाक है. हालांकि यह बेहतर रहता है कि बुजुर्गों में सामने आने वाले विशिष्ट लक्षणों पर खासतौर से नजर रखनी चाहिए. ये लक्षण छाती में दर्द, दबाव या जकड़न, सांस लेने में तकलीफ, बेहोशी, कार्य करने में स्तर गिरना, घबराहट या भारीपन महसूस होना और तेज या धीमी दिल की धड़कन होना हैं.

बुजुर्ग लोगों को एओर्टिक स्टेनोसिस का बहुत रिस्क रहता है क्योंकि इस का काफी समय तक शुरुआती लक्षण नहीं दिखता. जब तक लक्षण, जैसे कि छाती में दर्द या तकलीफ, बेहोशी या सांस लेने में तकलीफ, विकसित होने लगते हैं तब तक मरीज की जीने की उम्र सीमित हो जाती है. ऐसी स्थिति में इस का इलाज सिर्फ वौल्व का रिप्लेसमैंट करना ही बचता है. हाल ही में विकसित ट्रांसकैथेटर एओर्टिक वौल्व रिप्लेसमैंट (टीएवीआर) तकनीक की मदद से गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस रोगियों का इलाज प्रभावी तरीके से किया जा सकता है जिन की सर्जरी करने में बहुत ज्यादा जोखिम होता है.

एओर्टिक वौल्व रिप्लेसमैंट

टीएवीआर से उन एओर्टिक स्टेनोसिस रोगियों को बहुत लाभ मिलेगा जिन्हें ओपन हार्ट सर्जरी करने के लिए अनफिट माना गया है. इस उपचार की सलाह उन मरीजों को दी जाती है जिन का औपरेशन रिस्कभरा होता है. इस से उन के जीने और कार्यक्षमता में बहुत सुधार होता है.

गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस में जान जाने का खतरा रहता है और अधिकतर मामलों में सर्जरी की ही जरूरत पड़ती है. कुछ सालों तक इस बीमारी का इलाज ओपन हार्ट सर्जरी ही थी. लेकिन टीएवीआर के आने से अब काफी बदलाव हो रहे हैं. टीएवीआर मिनिमल इंवेसिव सर्जिकल रिप्लेसमैंट प्रक्रिया है जो गंभीर रूप से पीडि़त एओर्टिक स्टेनोसिस रोगियों और ओपन हार्ट सर्जरी के लिए रिस्की माने जाने वाले रोगियों के लिए उपलब्ध है. इस के अलावा जो रोगी कई तरह की बीमारियों से घिरे हुए हैं, उन के लिए भी यह काफी प्रभावी और सुरक्षित प्रक्रिया है.

टीएवीआर ने दी नई जिंदगी

देहरादून के 53 साल के संजीव कुमार का वजन 140 किलो था और वे हाइपरटैंशन व डायबिटीज से पीडि़त थे. इस के साथ उन्हें अनस्टेबल एंजाइना की समस्या थी जिस में रोगी को अचानक छाती में दर्द होता है और अकसर यह दर्द आराम करते समय महसूस होता है. संजीव को कई और बीमारियां जैसे कि नौन क्रीटिकल क्रोनोरी आर्टरी बीमारी (सीएडी), औबस्ट्रैक्टिव स्लीप अपनिया (सोते समय सांस लेने में तकलीफ), उच्च रक्तचाप, क्रोनिक वीनस इनसफिशिएंसी (बाएं पैर), ग्रेड 2 फैटी लीवर (कमजोर लीवर), हर्निया और गंभीर एलवी डायफंक्शन के साथ खराब इंजैक्शन फ्रैक्शन 25 फीसदी (हृदय के पंपिग करने की कार्यक्षमता) थीं.

संजीव की स्थिति दिनबदिन गंभीर होती जा रही थी और उन का पल्स रेट 98 प्रति मिनट (सामान्य से काफी ज्यादा) था. सीटी स्कैन और अन्य परीक्षणों के बाद खुलासा हुआ कि वे गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस से भी पीडि़त थे. इतनी बीमारियों के कारण डाक्टर ने मोेटापे से ग्रस्त संजीव का इलाज ट्रांसकैथेटर एओर्टिक वौल्व रिप्लेसमैंट (टीएवीआर) से किया. हालांकि जब फरवरी 2016 में उन पर यह प्रक्रिया अपनाई गई, तब तक वे 25-30 किलो वजन कम कर चुके थे और जिंदगी को ले कर उन का नजरिया काफी सकारात्मक हो गया था.

समय पर चैकअप जरूरी

गौरतलब है कि एएस की बीमारी आमतौर पर जब तक गंभीर रूप नहीं ले लेती तब तक इस बीमारी के लक्षणों का पता नहीं चलता. इसलिए नियमित चैकअप कराने की सलाह दी जाती है. उम्र बढ़ने के साथ एएस के मामले भी बढ़ते जाते हैं. इसलिए बुजुर्ग रोगियों को वौल्व फंक्शन टैस्ट के बारे में डाक्टर से पूछना चाहिए और गंभीर एओर्टिक स्टेनोसिस के इलाज की आधुनिक तकनीकों की जानकारी भी लेते रहना चाहिए.

सर्दियों के दौरान आंखों की त्वचा बहुत ज्यादा ड्राई हो जाती है?

सवाल-

सर्दियों के दौरान आंखों की त्वचा बहुत ज्यादा खुश्क और रूखी हो जाती है. उस में सिकुड़न आ जाती है, जिस से मुझे शर्मिंदगी होती है. बताएं इस समस्या से कैसे छुटकारा पाऊं?

जवाब-

ठंड के मौसम में आंखों की त्वचा में हलकी सिकुड़न आना नौर्मल समस्या है. लेकिन यदि सिकुड़न ज्यादा होती है तो आंखों का खास ध्यान रखने की जरूरत है. इस मौसम में बाकी अंगों के साथसाथ आंखों की त्वचा को भी नमी की जरूरत होती है. इसलिए एक अच्छे मौइस्चराइजर का इस्तेमाल करें. रोज रात को सोने से पहले कैस्टर औयल से हलके हाथों से त्वचा की मसाज करें. त्वचा को रगड़ें बिलकुल नहीं. सुबह फेस वाश करने के बाद कुछ देर क्लींजिंग मिल्क से आंखों की त्वचा की मसाज करें. फिर साफ कर मौइस्चराइजर में गुलाबजल मिला कर लगाएं. यदि इन उपायों से भी समस्या ठीक न हो तो डर्मेटोलौजिस्ट से मिलें.

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हाइपोथायरोडिज्म की प्रौब्लम को लेकर सुझाव दें?

सवाल-

मेरी शादी को 6 साल हो गए हैं, लेकिन मेरी कोई संतान नहीं है. मु झे हाइपोथायरोडिज्म है. कहीं बां झपन का कारण मेरी यह बीमारी तो नहीं है?

जवाब-

महिलाओं और पुरुषों में बां झपन का एक प्रमुख कारण थायराइड से संबंधित समस्याएं होती हैं. महिलाओं में इस के कारण या तो अंडाशय की कार्यप्रणाली प्रभावित होती है या अंडे रिलीज नहीं होते अथवा उन का चक्र अनियमित हो जाता है. कई महिलाएं समय से पहले मेनोपौज की शिकार हो जाती हैं. हालांकि उपचार के बाद प्रजननतंत्र संबंधी समस्याओं को नियंत्रित किया जा सकता है. आप किसी अच्छी स्त्रीरोग विशेषज्ञा को दिखाएं.

जांच करने पर ही पता चलेगा कि आप गर्भधारण क्यों नहीं कर पा रही हैं. अगर हाइपोथायरोडिज्म इस का कारण है तो दवाइयों और विभिन्न उपायों द्वारा इस का प्रबंधन कर प्रजननतंत्र की कार्यप्रणाली में सुधार कर सामान्यरूप से गर्भधारण को संभव बनाया जा सकता है.

सवाल-

थायरायड ग्रंथि के ठीक प्रकार से काम करने के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ताकि थायराइड संबंधित गड़बडि़यों के खतरे को कम किया जा सके?

जवाब-

जीवनशैली और खानपान में परिवर्तन ला कर थायराइड से संबंधित समस्याओं पर नियंत्रण किया जा सकता है. शारीरिक रूप से सक्रिय रहें और संतुलित भोजन का सेवन करें जो विटामिन ए, सी, डी, ओमेगा-3 फैटी ऐसिड और ऐंटीऔक्सीडैंट से भरपूर हो. यह थायराइड ग्रंथि के ठीक प्रकार से कार्य करने के लिए आवश्यक है. हाइपोथायराइड से पीडि़त लोग सी फूड, ब्रैड और आयोडीन युक्त नमक का अधिक मात्रा में सेवन करें जबकि हाइपरथायराइड से पीडि़त लोग ऐसे खाद्यपदार्थ कम खाएं जिन में आयोडीन अधिक मात्रा में हो.

हालांकि ऐंटीथायराइड दवाइयों से थायराइड ग्रंथि से ज्यादा स्राव कम हो जाता है, लेकिन केवल इस से ही काम नहीं चलेगा क्योंकि एक बार दवाइयां बंद करने के बाद यह फिर से शुरू हो जाता है. इसलिए आप को खानपान में अतिरिक्त सावधानी रखनी होगी. नियमित रूप से ऐक्सरसाइज भी थायराइड के मरीजों को सामान्य जीवन जीने में सहायता कर सकती है.

सवाल-

मेरे बेटे की उम्र 8 साल है. उस की थायराइड ग्रंथि सामान्य रूप से काम नहीं कर रही है. मैं ने सुना है कि ऐसे बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित होता है. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

यह सही है कि थायराइड संबंधी गड़बडि़यों का उपचार न कराया जाए तो इस से बच्चे का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है. अत: उपचार कराने में देरी न करें. इस के लक्षण गंभीर हो सकते हैं और जटिलताओं का खतरा बढ़ सकता है. उस की डाइट का पूरा ध्यान रखें.

बच्चे के खाने में आयोडीन और विटामिन-ए उचित मात्रा में हो ताकि थायराइड ग्रंथि ठीक प्रकार से कार्य कर सके. उसे आउटडोर गेम खेलने दें. इस से न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर बनता है बल्कि थायराइड ग्रंथि भी ठीक प्रकार से काम करती है.

सवाल-

मैं 42 वर्षीय कामकाजी महिला हूं. कुछ दिनों से मैं बहुत थकीथकी रहने लगी हूं. हर समय नींद आती रहती है और मेरा वजन भी काफी बढ़ गया है. कई उपाय किए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. बताएं मैं क्या करूं?

जवाब-

ये सभी लक्षण हाइपोथायरोडिज्म यानी थायराइड की कार्यप्रणाली कम हो जाने के कारण दिखाई देते हैं. थायराइड हारमोन के कम स्राव से शरीर की मैटाबौलिक क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं. इस से व्यक्ति थका हुआ महसूस करता है और पाचनतंत्र भी ठीक प्रकार से कार्य नहीं करता है.

वैसे इस का कारण कोई और स्वास्थ्य समस्या भी हो सकती है,  लेकिन यह सब तो जांच कराने के बाद ही पता चलेगा. अगर जांच में हाइपोथायरोडिज्म का पता चलता है तो तुरंत उपचार शुरू कर दें. उपचार में देरी से कोलैस्ट्रौल का स्तर और रक्तदाब बढ़ जाता है, कार्डियोवैस्क्यूलर से संबंधित जटिलताएं हो जाती हैं, प्रजनन क्षमता कम हो जाती है और अवसाद की समस्या हो जाती है.

सवाल-

मैं 2 माह की गर्भवती हूं. मु झे हाइपोथायरोडिज्म है. ऐसे में गर्भावस्था के दौरान किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

जवाब-

गर्भावस्था के दौरान हाइपोथायरोडिज्म होने से मां और बच्चे दोनों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है. यहां तक कि गर्भ में पल रहे बच्चे को भी थायराइड संबंधी समस्याएं होने का खतरा बढ़ जाता है. हाइपोथायरोडिज्म समय से पहले प्रसव और गर्भपात का कारण भी बन सकता है. ऐसे में हाइपोथायरोडिज्म से पीडि़त गर्भवती महिलाओं को अपना खास खयाल रखना चाहिए.

डाक्टर द्वारा सु झाई दवाएं समय पर और उचित मात्रा में लें. संतुलित, पोषक और सुपाच्य भोजन का सेवन करें. कब्ज न होने दें. रोज कम से कम आधा घंटा टहलें. मानसिक शांति के लिए ध्यान करें, संगीत सुनें या अपना कोई और शौक पूरा करें.

-डा. सबिता कुमारी

सीनियर कंसल्टैंट, ओब्स्टट्रिशियन ऐंड गायनेकोलौजिस्ट, एकार्ड सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल, फरीदाबाद

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जानें क्या है सडन कार्डियक अरेस्ट और हार्ट अटैक के बीच अंतर 

दो हृदय विकार मौत का कारण बन सकते हैं, और वे हैं – हार्ट अटैक और कार्डियक अरेस्ट. इन दोनों समस्याओं को लेकर अक्सर भ्रम की स्थिति देखी जाती है और कई बार इन्हें एक ही समस्या मान लिया जाता है. लेकिन ये दो स्वास्थ्य समस्याएं एक-दूसरे से पूरी तरह से कैसे  अलग हैं. बता रहे हैं …डॉ राकेश कुमार जायसवाल – निदेशक और एचओडी कार्डियोलॉजी, फोर्टिस अस्पताल, मोहाली, कार्डिएक साइंसेज. इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजी.

हार्ट अटैक क्या है?

दो कोरोनरी धमनियां – बाई कोरोनरी धमनी, दाईं कोरोनरी धमनी और उसकी सहायक धमनी हृदय को रक्त पहुंचाती हैं. जब इन ब्रांच में से कोई ब्लॉक हो जाती है तो हृदय की मांसपेशियों के लिए रक्त प्रवाह रुक जाता है. इस वजह से हार्ट अटैक होता है. हार्ट जिस हिस्से को ब्लॉक्ड धमनी द्वारा रक्त की आपूर्ति की गई हो और उसे जल्द अनब्लॉक्ड नहीं किया जाए तो उस हिस्से को नुकसान होने लगता है. उपचार नहीं होने पर यह नुकसान बढ़ जाता है.

हार्ट अटैक से तुरंत गंभीर लक्षण सामने आ सकते हैं. हालांकि कई बार, हार्ट अटैक से पहले लक्षण दिखने में कई घंटे, दिन या सप्ताह भी लग जाते हैं. कार्डियक अरेस्ट के विपरीत, हार्ट अटैक के दौरान दिल सामान्य रूप से धड़कता रहता है. महिलाओं में हार्ट अटैक के लक्षण पुरुषों से अलग हो सकते हैं.

सडन कार्डियक अरेस्ट क्या है?

सडन कार्डियक अरेस्ट अचानक और बार बार होता है. इसमें दिल में इलेक्ट्रिकल गड़बड़ी की वजह से धड़कन अनियमित हो जाती है. जब दिल की रक्त पम्प करने की क्षमता प्रभावित होती है तो वह मस्तिष्क, फेफड़ों और अन्य अंगों तक रक्त पहुंचाने में सक्षम नहीं रहता है. व्यक्ति कुछ ही सेकंड में होश खो बैठता है और उसकी नाड़ी काम करना बंद कर देती है. यदि ऐसे में व्यक्ति का सही से उपचार न हो पाए तो उसकी कुछ ही मिनटों में मौत हो जाती है.

कौन से कारण हार्ट अटैक को बढ़ावा देते हैं?

हार्ट अटैक के मुख्य कारण हैंः

  1. धूम्रपान करना
  2. शराब पीना
  3. अधिक उम्र
  4. अस्वस्थ खानपान की आदत
  5. आनुवंशिक प्रवृत्ति
  6. खराब कार्यशैली
  7. मोटापा

 कौन से कारण कार्डियक अरेस्ट को बढ़ावा देते हैं?

कार्डियक अरेस्ट को बढ़ावा देने वाले मुख्य कारण हैंः

  1. इलेक्ट्रिक सेल में असंतुलन
  2. कमजोर दिल
  3. हृदय की मांसपेशियों से संबंधित समस्याएं, जैसे कार्डियोमायोपैथी
  4. इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन- शरीर के पोटेशियम स्तर में अचानक कमी या वृद्धि
  5. छाती को अचानक झटका
  6. बेहद तेज या धीमी गति
  7. आनुवंशिक प्रवृत्ति
  8. हार्ट अटैक के बाद, अपर्याप्त रक्त प्रवाह से भी सडन कार्डियक अरेस्ट की समस्या बढ़ सकती है. यह एक ऐसी चिकित्सकीय समस्या है, जिसमें शरीर का प्रवाह और ऑक्सीजन में कमी आ जाती है.

हम ‘हार्ट अटैक’ और ‘कार्डियक अरेस्ट’ शब्दों का इस्तेमाल अब इस भरोसे के साथ कर सकते हैं कि हम इनके बीच मुख्य अंतर को समझ गए हैं. जहां जिंदगी का आनंद उठाना, नए अवसर तलाशना और अमूल्य यादें बनाना महत्वपूर्ण है, वहीं आपको अपने दिल का भी खयाल रखना चाहिए और हार्ट-हेल्दी लाइफस्टाइल को अपनाना चाहिए. लंबी जिंदगी के लिए, इससे निःसंदेह ही हृदय संबंधित रोगों को रोकने में मदद मिलेगी.

पसीने और वजन कम आने से परेशान हो गई हूं, मैं क्या करुं?

सवाल-

मैं 34 वर्षीय घरेलू महिला हूं. मु झे पिछले कई महीनों से पसीना बहुत आ रहा है. बाल भी लगातार  झड़ रहे हैं और वजन भी 9-10 किलोग्राम कम हो गया है. मु झे सम झ में नहीं आ रहा है कि ऐसा क्यों हो रहा है?

जवाब-

आप की समस्या को देख कर लग रहा है कि आप को थायराइड से संबंधित समस्या है. थायराइड एक तितली के आकार की छोटी सी ग्लैंड (ग्रंथि) है जो गरदन के निचले हिस्से में होती है. इस से निकलने वाले हारमोन शरीर की मैटाबौलिक क्रियाओं को नियंत्रित करते हैं. बाल  झड़ना, बिना प्रयास के वजन कम होना, पसीना ज्यादा आना हाइपोथायरोडिज्म के प्रमुख लक्षण हैं. हाइपोथायरोडिज्म में थायराइड ग्रंथि जितना शरीर की सामान्य गतिविधियों के लिए हारमोनों का स्राव जरूरी है उस से अधिक मात्रा में स्राव करती है. इसीलिए ये लक्षण दिखाई देते हैं. आप थायराइड फंक्शनिंग टैस्ट कराएं.

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कुछ बीमारियां ऐसी होती हैं जो महिलाओं पर अधिक हावी होती हैं. ‘हाइपरथायरायडिज्म और हाइपोथायरायडिज्म’ थायराइड से जुड़ी 2 बीमारियां हैं.

महिलाओं के जीवन में उन का सामना कई मानसिक, शारीरिक और हारमोनल बदलावों से होता है. हालांकि महिला जीवन के विभिन्न चरणों में हारमोनल बदलाव होना लाजिम है. लेकिन यदि ये बदलाव असामान्य हैं तो कई तरह की बीमारियों का कारण बन सकते हैं. यही कारण है कि महिलाएं थायराइड रोग के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं.

प्रिस्टीन केयर की डाक्टर शालू वर्मा ने महिलाओं में बढ़ती थायराइड की समस्याएं और उन से बचाव के तरीकों के बारे में जानकारी दी है-

थायराइड क्या है

थायराइड गरदन के निचले हिस्से में पाई जाने वाली एक तितलीनुमा ग्रंथि है. यह ग्रंथि ट्राईआयोडोथायरोनिन (टी3) और थायरोक्सिन (टी4) नामक 2 मुख्य हारमोन का स्राव करती है. दोनों ही हार्मोन शरीर की कई गतिविधियों को नियंत्रित करने में अपना विशेष योगदान निभाते हैं.

परंतु जब दो में से किसी भी हार्मोन के उत्पादन की मात्रा में कोई बदलाव आता है तो इस से शरीर में विभिन्न समस्याओं की शुरुआत होती है. हाइपोथायरायडिज्म और हाइपोथायरायडिज्म में अंतर जब थायराइड हार्मोन का उत्पादन जरूरत से अधिक होता है तो उस स्थिति को हाइपरथायरायडिज्म कहते हैं, जबकि थायराइड हार्मोन के कम उत्पादन की स्थिति को हाइपोथायरायडिज्म के नाम से जाना जाता है. दोनों ही परिस्थितियां असामान्य हैं और रोगी को उपचार की आवश्यकता होती है.

महिलाओं में थायराइड, इलाज है न

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

गर्भाशय फाइब्रौयड: समय पर कराएं इलाज

अगर गर्भाशय में किसी भी तरह का  सिस्ट या फाइब्रौयड है तो ऐसी स्थिति में मां बनना संभव नहीं हो पाता. इस के अलावा ओवरी सिंड्रोम, खून की कमी आदि कई ऐसी बीमारियां हैं जो देखने मे तो छोटी लगती हैं पर बच्चा पैदा करने के लिए यही सब समस्याएं बहुत बड़ी बन जाती हैं.

गर्भाशय में विकसित होने वाले गैरकैंसरकारी (बिनाइन) गर्भाशय फाइब्रौयड महिलाओं के बां?ापन के सब से प्रमुख कारणों में से एक है.

गर्भाशय फाइब्रौयड फैलोपियन ट्यूब्स को बाधित कर या निषेचित अंडे को गर्भाशय में प्रत्यारोपित होने से रोक कर प्रजनन क्षमता को बिगाड़ सकता है. गर्भाशय में जगह कम होने के कारण, बड़े फाइब्रौयड्स भ्रूण को पूरी तरह से विकसित होने से रोक सकते हैं.

फाइब्रौयड प्लैसेंटा के फटने के जोखिम को बढ़ा सकता है क्योंकि प्लैसेंटा फाइब्रौयड द्वारा अवरुद्ध हो जाता है और गर्भाशय की दीवार से अलग हो जाता है, जिस की वजह से भ्रूण को औक्सीजन और पोषक तत्त्व कम मात्रा में मिलते हैं. इस से समय से पहले जन्म या गर्भपात की संभावना काफी बढ़ जाती है.

गर्भाशय फाइब्रौयड्स गर्भाशय की मांसपेशियों के ऊतकों के बिनाइन (गैरकैंसरकारी) ट्यूमर हैं. उन्हें मायोमा या लेयोमायोमा के रूप में भी जाना जाता है. फाइब्रौयड तब बनते हैं जब गर्भाशय की दीवार में एकल पेशी कोशिका कई गुना बढ़ जाती है और एक गैरकैंसरयुक्त ट्यूमर में बदल जाती है.

फाइब्रौयड छोटे दाने के आकार से ले कर बड़े आकार का हो सकता है, जो गर्भाशय को विकृत और बड़ा करता है. फाइब्रौयड का स्थान, आकार और संख्या निर्धारित करती है कि क्या वे लक्षण पैदा करेंगे या इलाज कराने की जरूरत है.

गर्भाशय फाइब्रौयड उन के स्थान के आधार पर वर्गीकृत किए जाते हैं. इन्हें 3 बड़ी श्रेणियों में विभाजित किया गया है:

सबसेरोसल फाइब्रौयड:

यह गर्भाशय की दीवार के बाहरी हिस्से में विकसित होता है. इस तरह के फाइब्रौयड ट्यूमर बाहरी हिस्से में विकसित हो सकते हैं और आकार में बढ़ सकते हैं. सबसेरोसल फाइब्रौयड ट्यूमर आसपास के अंगों पर दबाव बढ़ाने लगता है, जिस की वजह से पेडू (पैल्विक) का दर्द शुरुआती लक्षण के रूप में सामने आता है.

इंट्राम्यूरल फाइब्रौयड:

इंट्राम्यूरल फाइब्रौयड गर्भाशय की दीवार के अंदर विकसित होता है और वहां बढ़ता है. जब इंट्राम्यूरल फाइब्रौयड का आकार बढ़ता है तो उस की वजह से गर्भाशय का आकार सामान्य से ज्यादा हो जाता है. जैसेजैसे फाइब्रौयड का आकार बढ़ता है, उस की वजह से माहवारी में रक्तस्राव ज्यादा होता है, पेडू में दर्द और बारबार पेशाब जाने की समस्या हो जाती है.

सबम्यूकोसल फाइब्रौयड:

यह फाइब्रौयड गर्भाशयगुहा की परत के ठीक नीचे बनता है. बड़े आकार के सबम्यूकोसल फाइब्रौयड्स गर्भाशयगुहा के आकार को बढ़ा सकते हैं और फेलोपियन ट्यूब्स को अवरुद्ध कर सकते हैं, जिस की वजह से प्रजनन में समस्याएं होने लगती हैं. इस से जुड़े लक्षणों में शामिल हैं, माहवारी में अत्यधिक मात्रा में रक्तस्राव और लंबे समय तक माहवारी आना.

कैसे पहचान करें

पेडू की जांच, लैब टैस्ट और इमेजिंग टैस्ट के जरीए गर्भाशय फाइब्रौयड्स का पता लगाया जाता है. इमेजिंग टैस्ट का इस्तेमाल गर्भाशय की असामान्यताओं का पता लगाने के लिए किया जाता है. इस में पेट का अल्ट्रासाउंड, योनि का अल्ट्रासाउंड और हिस्टेरोस्कोपी शामिल होती है. हिस्टेरोस्कोपी के दौरान हिस्टेरोस्कोप नाम की एक छोटी हलकी दूरबीन को सर्विक्स के जरीए गर्भाशय में डाला जाता है.

स्लाइन इंजैक्शन के बाद गर्भाशयगुहा फैल जाएगी, जिस से स्त्रीरोग विशेषज्ञा गर्भाशय की दीवारों और फैलोपियन ट्यूब्स के मुख की जांच कर पाती हैं. कुछ मामलों में एमआरआई की भी जरूरत पड़ सकती है.

अंडे खाने से पहले जान लें ये फायदे और नुकसान

एक अंडे में प्रोटीन, कैल्शियम व ओमेगा-3 फैटी एसिड होता है. ‘संडे हो या मंडे रोज खाए अंडे’ ये लाईन आपको जरूर याद होंगी. अंडा ताकत बढ़ाने का अच्छा स्रोत माना जाता है. वो सभी पोषक तत्व जो अंडे में होते हैं, वे सभी हमारे शरीर के लिए बेहद जरूरी होते हैं.

प्रोटीन से शरीर की मांसपेशियां मजबूत होती हैं और ओमेगा 3 फैटी एसिड से, शरीर में कोलेस्ट्राल का निर्माण होता है. इसके अलावा कैल्शियम से दांत व हड्डियां मजबूत होती हैं. अगर आप अपने वजन को लेकर चिंता में हैं तो हम आपको ये बात बता देना चाहते हैं कि हमेशा वजन बढ़ने को लेकर चिंतित रहने वाले लोगों को अंडे खाना चाहिए क्येंकि इसमें जरा भी फैट नहीं होता है.

कई लोग अंडा खाने की सलाह देते हैं तो कई लोग अंडे से परहेज रखने के लिए कहते हैं. इसके कारण तो अनेक हैं. हम आपको बताते हैं कि अंडा खाने से क्या-क्या फायदे होते हैं और क्यों कुछ लोग अंडा न खाने की सलाह देते हैं.

क्या हैं नुकसान अंडे खाने से

1. किसी अच्छी दुकान से ही अंडे खरीदने चाहिए, क्योंकि खाने संबंधी कई रोग साफ सफाई की कमी की वजह से आसानी से हो जाते हैं.
2. अंडे को उबालकर या पकाकर ही खाना चाहिए. हमेशा कच्चा अंडा खाने से बचना चाहिए. इसके अलावा अधपक्के अंडे से साल्मोनेला का खतरा भी रहता है, जिससे फूड प्वांजनिंग हो सकती है. अंडे को ठीक से नहीं पकाने के कारण सूजन, उल्टी व पेट की अन्य समस्याएं हो सकती हैं.
3. अंडे का सेवन ज्यादा करने से आपको कैंसर हो जाने का डर रहता है. कई हैल्थ एक्सपर्टस के मुताबिक हफ्ते में तीन से ज्यादा अंडे खाने से प्रोस्टेट कैंसर होने का खतरा कई फीसदी तक बढ़ जाता है.
4. जिन लोगों को पहले ही हाई ब्लड प्रेशर, डाइबिटीज़ या फिर हृदय संबंधी रोगों की शिकायत है, उन्हें अंडे का पीला वाला हिस्सा हरगिज नहीं खाना चाहिए. अंडे के इस भाग में बहुत ज्यादा मात्रा में कोलोस्ट्रोल होता है, जो हृदय के लिए नुकसानदेह होता है.
5. अधिक अंडे खाने से लकवा, पैरों में दर्द और मोटापे की समस्या भी हो सकती है.

अंडे खाने के फायदे
1. अंडा खाने से आपकी बॉडी हमेशा एक्टिव और ताकतवर बना रहता है. अंडा खाने से शरीर को जरूरी अमीनो एसिड मिलता है, जो आपके शरीर के आपका स्टैमिना को बढ़ाने में मदद करता है.
2. बालों को मजबूत बनाने के लिए आवश्यक विटामिन ए अंडे में पाया जाता है, जो आपके  बालों को मजबूत बनाने के साथ साथ, आंखों की रोशनी को भी बढ़ाता है.
3. इसके अलावा अंडे में फोलिक एसिड व विटामिन बी 12 भी पाया जाता है. यह महिलाओं को स्तन कैंसर से बचाता है. अंडे में मिलने वाला विटामिन बी 12 आपके दिमाग को अधिक तेज़ बनाने का काम औऱ साथ ही आपकी याददाश्त या स्मरण शक्ति को बढ़ाने का भी काम करता है.
4. जो महिलाएं गर्भवती हैं, उन्हें अपने खाने में अंडे को जरूर शामिल करना चाहिए यह भ्रूण के विकसित में मदद करता है.

5. आपको बता दें कि अंडे का सफेद वाला हिस्सा, जिसे अंडे की जर्दी कहते हैं, उसमें विटामिन डी होता है, जोकि हड्डियों को मजबूत बनाता है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता यानि कि इम्युनिटी को भी बढ़ाता है.

कोई भी चीज़ अगर सही मात्रा में खायी गई, तो वह नुकसानदेह नहीं होती है. ज्यादा मात्रा में खा लेने से वही चीज़ आपके लिए हानिकारक साबित हो सकती है. अच्छा होगा कि आप जो भी खाएं एक सही मात्रा में खाए. कोई भी चीज ना ज्यादा खाऐं और ना ही कम खाऐं.

इन बीमारियों से बचाए मां का दूध

बच्चे के सही विकास के लिए जन्म के बाद घंटे भर के अंदर उसे मां का दूध पिलाना शुरू कर देना चाहिए. मां का दूध ढेर सारी खासीयतों से भरा होता है. इसका मुकाबला किसी अन्य दूध से नहीं हो सकता है. यह मुफ्त मिलता है, आसानी से उपलब्ध है और सुविधाजनक भी. मां जब गर्भधारण करती है तब से ले कर प्रसव होने तक उस में ढेरों बदलाव आते हैं और ये शारीरिक तथा भावनात्मक दोनों होते हैं.

जब बच्चा पैदा हो जाता है तो उसे दूध पिलाने के चरण की शुरुआत होती है. कुछ शुरुआती सप्ताह में यह संभवतया सब से चुनौतीपूर्ण चरण होता है. दूध पिलाने के इस चरण को अकसर गर्भावस्था की चौथी तिमाही कहा जाता है. इस अवधि में स्थापित होना बहुत आसान है, बशर्ते बच्चे और मां की त्वचा का संपर्क जल्दी से जल्दी हो जाए.

आदर्श पोषण

नवजातों के लिए सिर्फ स्तनपान आदर्श पोषण है और यह जीवन के शुरू के 6 महीने के सर्वश्रेष्ठ विकास के लिए पर्याप्त है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार नवजात को शुरू के 6 महीने तक सिर्फ मां का दूध ही पिलाया जाना चाहिए. इस के बाद कम से कम 2 साल तक मां का दूध पिलाते रहना चाहिए. तभी बच्चे का स्वस्थ विकास होता है और उसकी प्रतिरक्षा प्रणाली स्वस्थ रहती है.

रोट्टेरडैम, नीदरलैंड स्थित इरैसमस मैडिकल सैंटर में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि जन्म के बाद 6 महीने तक सिर्फ मां का दूध पीने वाले बच्चों के बचपन में दमा जैसे लक्षण का विकास होने का जोखिम कम रहता है. इस अनुसंधान के तहत 5 हजार बच्चों का परीक्षण किया गया है, जिस से पता चला कि जो बच्चे मां का दूध पीए बगैर बड़े हो जाते हैं उन्हें शुरू के 4 वर्षों तक सांस फूलने, सूखी खांसी और लगातार बलगम निकलने की शिकायत रहती है (कभी भी मां का दूध नहीं

पीने वाले बच्चों में इस जोखिम की आशंका 1.5 गुना) और घर्रघर्र की आवाज (कभी भी मां का दूध नहीं पीने वाले बच्चों में इस जोखिम की आशंका 1.4 गुना) होती है.

अध्ययन में इस बात का भी उल्लेख है कि शुरू के 4 महीने तक जिन बच्चों को फौर्मूला दूध पिलाया जाता है और अन्य विकल्प दिए जाते हैं उन में सिर्फ मां का दूध पीने वाले बच्चों की तुलना में इन लक्षणों के विकसित होने की आशंका ज्यादा रहती है. इसलिए सांस संबंधी समस्याओं से शिशुओं की मौत रोकने का सब से आसान और सस्ता विकल्प है स्तनपान. सिर्फ मां का दूध पीने वाले बच्चों की शुरू के 6 महीने तक मौत की आशंका अन्य बच्चों की तुलना में 14 गुना कम होती है. देखा गया है कि स्तनपान कराने से सांस संबंधी गंभीर समस्या के कारण बच्चे की मौत की आशंका बहुत कम हो जाती है, जबकि बच्चों की मौत के कारणों में यह प्रमुख है.

नवजात को रखे स्वस्थ

एक मां के रूप में स्तनपान कराना बहुत ही अच्छा अनुभव है, क्योंकि मांएं अपने बच्चे का अच्छा भविष्य सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं. प्रसव के घंटे भर के अंदर स्तनपान शुरू कर के एक मां अपने बच्चे को कोलस्ट्रम पिलाती है, जो बच्चे की स्वास्थ्य की समस्याओं को दुरुस्त रखने के लिहाज से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. यह प्रसव के पहली बार निकलने वाला गाढ़ा, पीला तरल होता है, जिस के कई फायदे होते हैं. यह बच्चे की प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मजबूत करता है.

मां का दूध बच्चे में ऐंटीबौडीज पहुंचाने का भी काम करता है और इस के जरीए मां से बच्चे में बीमारियों से लड़ने की ताकत पहुंचती है. यह हर तरह के संक्रमण और ऐलर्जी से बच्चे की रक्षा करता है. मां का दूध बच्चे के लिए संपूर्ण आहार है. अगर बच्चा स्तनपान से वंचित रहता है, तो इस बात की आशंका बढ़ जाती है कि वह किसी संक्रमण का शिकार हो जाएगा. इन में कान का संक्रमण, सांस की समस्या, ऐक्जिमा, सीने में संक्रमण, मोटापा, पेट का संक्रमण और बचपन में डायबिटीज शामिल है.

मां का दूध बच्चों के लिए खासतौर से तैयार होता है. इस में शामिल तत्त्व जरूरत और समय के अनुसार बदलते रहते हैं. इस से बच्चे का सही विकास होता है. इसलिए नए जमाने की मांओं को समझना चाहिए कि स्तनपान कितना महत्त्वपूर्ण है. उन्हें इसे बच्चे के विकास और प्रगति के लिए सब से बड़ा सहायक मानना चाहिए. कायदे से 6 महीने तक के बच्चे को स्तनपान के दौरान और कुछ देने की जरूरत नहीं होती है. अगर आप ऐसा कर सकें तो बच्चे को कई बीमारियों से बचा सकेंगी.

मां के लिए श्रेयस्कर

माताओं का स्तनपान से गर्भावस्था के दौरान बढ़ा हुआ वजन काफी हद तक कम हो जाता है. गर्भाशय अपने स्थान पर जा पहुंचता है और पोस्टपार्टम डिस्चार्ज कम होता है, यानी रक्त की कमी नहीं रहती. इस के अलावा दूध पिलाने से प्रतिदिन 500 कैलोरीज बर्न हो जाती हैं, यानी मां आराम से 500 कैलोरीज खर्च कर सकती है. स्तनपान स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम माना गया है. स्तनपान कराने वाली मां को गर्भाशय, ओवरीज और ब्रैस्ट कैंसर की संभावना भी बहुत कम हो जाती है. गठिया जैसे रोग की आशंका भी स्तनपान करवाने वाली महिलाओं में बहुत कम होती है. जबकि वे महिलाएं जो अपना दूध शिशु को नहीं पिलातीं उन्हें अकसर बड़ी उम्र में जा कर इस का शिकार होना पड़ता है.

डा. प्रिया शशांक

प्रसव विशेषज्ञा, संस्थापक वात्सल्यम

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