जंग की कीमत चुकाती है औरत

रूसयूक्रेन युद्ध का मंजर दिल दहलाने वाला है. करीब 2 महीनों से जारी युद्ध की विभीषिका बढ़ती ही जा रही है. यह लड़ाई अब रूस और यूक्रेन के बीच नहीं बल्कि दुनिया की 2 बड़ी ताकतों- रूस और अमेरिका के बीच होती स्पष्ट दिखाई दे रही है. यह लड़ाई तीसरे विश्वयुद्ध का संकेत देती भी नजर आ रही है. इस आशंका ने दुनियाभर की औरतों की चिंता बढ़ा दी है क्योंकि युद्ध कोई भी लड़े, कोई भी जीते, मगर उस का सब से बड़ा खमियाजा तो औरतों को ही भुगतना पड़ता है.

रूस के बारूदी गोलों और मिसाइलों ने यूक्रेन को राख के ढेर में तबदील कर दिया है. लोगों के घर, कारोबार, दुकानें, फैक्टरियां सबकुछ युद्ध की आग में भस्म हो चुका है. युवा अपने देश को बचाने के लिए सेना की मदद कर रहे हैं तो औरतें, बच्चे, बूढ़े अपना सबकुछ खो कर यूक्रेन की सीमाओं की तरफ भाग रहे हैं ताकि दूसरे देश में पहुंच कर अपनी जान बचा सकें.

एक खबर के अनुसार अब तक करीब 70 लाख यूक्रेनी पड़ोसी देशों पोलैंड, माल्डोवा, रोमानिया, स्लोवाकिया और हंगरी में शरण ले चुके हैं. इन शरणार्थियों में औरतों और बच्चों की तादात सब से ज्यादा है. युद्ध की विभीषिका सब से ज्यादा महिलाओं को भुगतनी पड़ती है. युद्ध के मोरचे के अलावा घरेलू मोरचे पर भी.

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सभी संकटों और संघर्षों में महिलाएं और लड़कियां सब से अधिक कीमत चुकाती हैं. म्यांमार, अफगानिस्तान से ले कर साहेल और हैती के बाद अब यूक्रेन का भयानक युद्ध उस सूची में शामिल हो गया है. हर गुजरते दिन के साथ यह महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी, उम्मीदों और भविष्य को बरबाद कर रहा है. यह युद्ध गेहूं और तेल उत्पादक 2 देशों के बीच होने की वजह से दुनियाभर में जरूरी चीजों तक पहुंच को खतरा पैदा कर रहा है और यह महिलाओं और लड़कियों को सब से कठिन तरीके से प्रभावित करेगा.

श्रीलंका में औरतों की दुर्दशा

दुनियाभर में घरपरिवार से ले कर राष्ट्र तक को बनाने और संवारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली औरतें युद्ध, महंगाई और अस्थिरता जैसे हालात में हिंसा और शोषण का सर्वाधिक शिकार होती हैं. युद्ध के हालात से जू झने वाले समाज का रुख प्रगतिशील हो या परंपरागत, आधी आबादी को घाव ही घाव मिलते हैं.

स्त्री होने के नाते उन्हें बर्बरता और अमानवीय स्थितियों का सामना करना पड़ता है. श्रीलंका में गृहयुद्ध के बाद करीब 59 हजार महिलाएं विधवा हो गईं, मगर उन में से अधिकांश यह मानने को तैयार नहीं थीं कि उन के पति मर चुके हैं. इन में से अधिकतर उत्तरी और पूर्वी तमिल आबादी वाले इलाकों में रहती थीं.

वे जानती थीं कि उन के पति मर चुके हैं, फिर भी वे विधवा का जीवन नहीं जीना चाहती थीं क्योंकि उस हालत में उन्हें समाज में बुरी नजरों का सामना करना पड़ता. घर चलाने के लिए मजबूरन सैक्स वर्क के पेशे में जाना पड़ता.

श्रीलंका की हालत आज एक बार फिर बहुत नाजुक दौर से गुजर रही है. बढ़ती महंगाई के चलते तमिल औरतें अपने बच्चों को ले कर पलायन कर रही हैं. वे नाव के जरीए भारत के रामेश्वरम में बने शरणार्थी कैंपों में पहुंच रही हैं. कैंपों में जहां हर दिन खानेपीने और जरूरत के सामान के लिए उन्हें एक युद्ध लड़ना पड़ता है, वहीं उन की अस्मत पर गिद्ध नजरें भी टिकी रहती हैं.

युद्ध में औरत वस्तु मात्र है

किसी भी युद्ध का इतिहास पलट कर देख लें, नुकसान में औरतें ही होती हैं. पति सेना में है, लड़ाई में मारा जाए तो विधवा बन कर समाज के दंश सहने के लिए औरत मजबूर होती है. युद्ध जीतने वाली सेना हारने वाले देश की औरतों को भेड़बकरियों की तरह बांध कर अपने साथ ले जाते है ताकि उन से देह की भूख शांत की जाए, हरम की दासी बनाया जाए या बंधुआ बना कर काम लिया जाए.

भारत में हुए तमाम युद्धों में मारे जाने वाले सैनिकों की औरतें जौहर कर के खुद को आग में भस्म कर लेती थीं ताकि दुश्मन सेना के हाथ पड़ कर अपनी लाज न खोनी पड़े. 2 देशों के बीच युद्ध 2 राष्ट्राध्यक्षों का फैसला या यों कहें कि सनक है, जिस में औरतों और बच्चों की हिफाजत का कोई नियम नहीं बनाया जाता है. वे युद्ध में जीती जाने वाली वस्तुएं सम झी जाती हैं. युद्ध में लड़ाकों को औरतें तोहफे के रूप में मिलती हैं. वे चाहे यौन सुख भोगें या बैलगाड़ी में बैल की तरह जोतें, उन की मरजी. युद्ध की त्रासदी सिर्फ औरतें भोगती हैं.

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत की सेना ने पूर्वी प्रूशिया पर कब्जा कर लिया. घरों से खींचखींच कर जरमन औरतेंबच्चियां बाहर निकाली गईं और एकसाथ दसियों सैनिक उन पर टूट पड़े. सब का एक ही मकसद था- जर्मन गर्व को तोड़ देना. किसी पुरुष के गर्व को तोड़ने का आजमाया हुआ नुसखा है उस की औरत से बलात्कार. रैड आर्मी ने यही किया.

पहले और दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका को जब भी याद किया गया, महिलाओं के साथ हुई बर्बरता का जिक्र जरूर हुआ. दरअसल, युद्ध में शक्ति प्रदर्शन का एक तरीका स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करने की सोच से जुड़ा हुआ है. यही वजह है कि जंग के दौरान ही नहीं, बल्कि युद्ध खत्म होने के बाद भी औरतों के साथ अमानवीय घटनाएं जारी रहती हैं.

मानव तस्करों का सवाल

हमेशा से ही युद्ध ग्रस्त इलाकों में संगठित आपराधिक गिरोह सक्रिय रूप से महिलाओं और बच्चों को अपना शिकार बनाते रहे हैं. युद्ध के हालात में विस्थापन के चलते दूसरे देशों में पनाह लेने वाली ज्यादातर महिलाएं वेश्यावृत्ति, आपराधिक गतिविधियों, मानव तस्करी और गुलामी के जाल में भी फंस जाती हैं. शरणार्थी के रूप में दूसरे देशों में पहुंचने वाली औरतें मानव तस्करों का शिकार बन जाती हैं. औरतों की मजबूरी का फायदा उठा कर उन्हें दुष्कर्म और यौन दासता की अंधेरी सुरंग में हमेशा के लिए धकेल दिया जाता है.

90 के दशक में जब अफगानिस्तान में तालिबान ने सिर उठाया तो इत्र लगा कर घर से निकलने वाली औरतों को गोली मारने का आदेश हो गया. पढ़ाईलिखाई, नौकरी सब छूट गया. ऊंची आवाज में औरतों का बात करना बैन हो गया. कहा गया कि इत्र की खुशबू, खूबसूरत चेहरा और औरत की आवाज मर्द को बहकाती है. औरतें घरों में कैदी बन गईं.

फिर जब अफगानिस्तान की गलियों में अमेरिकी बूटों की गूंज सुनाई देने लगी तो औरतें फिर आजाद हुईं. वे इत्र लगाने लगीं, खुल कर हंसनेबोलने लगीं, पढ़ाई और नौकरी करने लगीं. मगर अगस्त, 2021 में तालिबान ने फिर अफगानिस्तान को अपने कब्जे में ले लिया और फिर औरतों को तहखानों में छिपाया और बुरकों से ढक दिया गया. यानी हुकूमत बदलने का पहला असर औरत पर होता है. सब से पहले उस की आजादी छीन कर उस को नोचा, डराया और मारा जाता है.

हर युद्ध में औरत को रौंदा गया

चाहे रूस हो, ब्रिटेन हो, चीन हो या पाकिस्तान- हर जंग में मिट्टी के बाद जिसे सब से ज्यादा रौंदा गया, वह है औरत. वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिकों के दिल बहलाव के लिए एक पूरी की पूरी सैक्स इंडस्ट्री खड़ी हो गई. कांच के सदृश्य चमकती त्वचा वाली वियतनामी युवतियों के सामने विकल्प था- या तो वे अपनी देह उन के हवाले करें या कुचली और मारी जाएं.

इस दौरान हजारों कम उम्र लड़कियों को हारमोन के इंजैक्शन दिए गए ताकि उन का भराभरा शरीर अमेरिकी सैनिकों को ‘एट होम’ महसूस कराए. इस पूरी जंग के दौरान सीलन की गंध वाले वियतनामी बारों में सुबह से ले कर रात तक उकताए सैनिक आते, जिन के साथ कोई न कोई वियतनामी औरत होती थी.

लड़ाई खत्म हुई. अमेरिकी सेना लौट गई, लेकिन इस के कुछ ही महीनों के भीतर 50 हजार से भी ज्यादा बच्चे इस दुनिया में आए. ये वियतनामीअमेरिकी मूल के थे, जिन्हें कहा गया- बुई दोय यानी जीवन की गंदगी. इन बच्चों की आंसू भरी मोटी आंखें देख मांओं का कलेजा फटता था, बच्चों को गले लगाने के लिए नहीं, बल्कि उन बलात्कारों को याद कर के, जिन की वजह से वे इन बच्चों की मांएं बनीं. इन औरतों और बच्चों के लिए वियतनामी समाज में कोई जगह नहीं थी. ये सिर्फ नफरत के पात्र थे, जबकि इन की कोई गलती नहीं थी.

1919 से लगभग ढाई साल चले आयरिश वार की कहानी भी औरतों के साथ हुई कू्ररताओं का बयान है. जहां खुद ब्यूरो औफ मिलिटरी हिस्ट्री ने माना था कि इस पूरे दौर में औरतों पर बर्बरता हुई. सैनिकों ने रेप और हत्या से अलग बर्बरता का नया तरीका इख्तियार किया था. वे दुश्मन औरत के बाल छील देते. सिर ढकने की मनाही थी. सिर मुंडाए चलती औरत गुलामी का इश्तिहार होती थीं.

राह चलते कितनी ही बार उन के शरीर को दबोचा जाता, अश्लील ठहाके लगते, खुलेआम उन से सामूहिक बलात्कार होते और अकसर अपने बच्चों के लिए खाना खरीदने निकली मजबूर औरतें घर नहीं लौट पाती थीं. उन के आदमी लेबर कैंपों में बंधुआ थे और छोटे बच्चे घर पर इंतजार करते हुए- उन मां और दीदी का जो कभी लौटी नहीं.

मुक्ति का रास्ता क्या है

पितृसत्तात्मक समाज का विध्वंस ही नारी मुक्ति और सुरक्षा का एकमात्र रास्ता है. जब औरत और पुरुष दोनों को समान बुद्धि प्रकृति ने प्रदान की है, तो उस का समान उपयोग होना चाहिए. उसे हर क्षेत्र में समान अवसर मिलना चाहिए. शिक्षा, व्यवसाय, नौकरी, सेना, युद्ध, राजनीति इन सभी क्षेत्रों में उन्हें न केवल बराबरी पर आना होगा बल्कि पुरुषों से आगे भी निकलना होगा. तभी वे उन के खूंखार पंजों से बच पाएंगी जो उन की बोटीबोटी नोच लेने को आतुर रहते हैं.

युद्ध पुरुष वर्चस्व की मानसिकता पर आधारित कृत्य है. यह विध्वंस को बढ़ावा देता है, साथ ही सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टि से पुरुष तंत्र को मजबूत भी बनाता है. युद्ध का सब से नकारात्मक एवं विचारणीय पक्ष यह है कि यहां स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है. युद्ध के दौरान औरत एक वस्तु हो जाती है, जिसे एक पक्ष हार जाता है और दूसरा जीत कर ले जाता है और उस से बलात्कार करता है और दासी बना कर रखता है.

औरत वस्तु क्यों

महाभारत काल से आज तक औरत वस्तु ही बनी हुई है. युधिष्ठिर चौसर की बिसात पर द्रौपदी को हार जाता है और दुर्योधन भरी सभा में उस से बलात्कार पर उतारू हो जाता है. यही द्रौपदी अगर पत्नी या रानी होने के साथ उस पद पर बैठी होती, जहां निर्णय लिए जाते हैं तो न चौसर की बिसात बिछती, न मुकाबला होता और न ही औरत को नंगा करने की कोशिश होती.

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ के दावेदार अपनी खुद में  झांक कर देखें और बताएं कि क्या औरत को देवी बनाने का असल मकसद उसे उस के व्यक्तित्व से वंचित करने और बेडि़यों में जकड़ने का षड्यंत्र नहीं है? सामाजिकराजनीतिक सत्ता तंत्र में स्त्री व्यक्तित्व की बराबर की हिस्सेदारी एक सहज स्वाभाविक अधिकार से होनी चाहिए न कि किसी कृपा के रूप में.

कहने का मतलब यह है कि औरत को राजनीति के उन ऊंचे पदों तक अपनी बुद्धि और शिक्षा के बल पर पहुंचना है, जहां से उस की मुक्ति संभव है. बड़ेबड़े देशों की सब से ऊंची और निर्णायक कुरसी पर अगर औरत बैठी होगी तो विश्व के देशों के बीच होने वाले युद्ध भी समाप्त हो जाएंगे. एक औरत कभी भी अपनी संतान को युद्ध में नहीं  झोंकना चाहती. एक शासक के लिए प्रजा उस की संतान ही है, ऐसे में शासक का स्त्री होना विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त करेगा. मगर विडंबना से राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को स्वीकारने के बावजूद तमाम देशों में अब भी राजनीतिक जीवन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों की अपेक्षा काफी कम है.

तमाम प्रकार के रोजगारों एवं पेशों में भी महिलाओं की संख्या पुरुषों के बराबर नहीं है. अब भी समान कार्यों के लिए समान वेतन को लागू नहीं गया है. शिक्षा और व्यवसाय में उन की पुरुषों से कोई बराबरी नहीं है. शादी के बाद उन्हें ही अपना घर छोड़ कर दूसरे के घर की नौकरानी बनने के लिए मजबूर होना पड़ता है. उच्च शिक्षा पा कर भी वे दूसरे के घर का  झाड़ूबरतन करती हैं. उस के बच्चे पैदा करती हैं और उन्हें पालने में अपनी जान सुखाती हैं. उस पर भी ताने और मार खाती हैं. वे आवाज भी नहीं उठा पाती हैं क्योंकि वह उन का अपना घर नहीं है.

सामाजिक तानेबाने में यदि थोड़ा सा परिवर्तन हो जाए और शादी के बाद स्त्री के बजाय पुरुष को अपना घर छोड़ कर स्त्री के घर पर रहना पड़े तो स्त्री की दशा तुरंत बदल जाएगी. सारी चीजें पलट जाएंगी. अपने घर में औरत के पास निर्णय लेने की ताकत और आजादी होगी और यही आजादी उस की अपनी आजादी को सुनिश्चित करेगी.

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औरतों और बच्चों को तो बख्शो

भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने एक नैशनल लैंड मोनेटाइजेशन कौरपोरेशन बनाई है जिस का काम होगा देशभर में फैली केंद्र सरकार की जमीन का हिसाब रखना और उसे बेच देना. सरकार आजकल जनता से पैसे इकट्ठे करने में लगी है और पिछले कानूनों के बल पर कौडि़यों में पिछली सरकारों की खरीदी जमीन को अब महंगे दाम पर बेचना चाह रही है. यह पक्का है कि अब जो जमीन बिकेगी उस में घने कंक्रीट के जंगल उगेंगे और उन में से ज्यादातर शहरों, कसबों में होंगे.

सरकारी जमीन फालतू नहीं पड़ी रहे, यह सोचना वाजिब है पर उस की जगह कंक्रीट के ऊंचे मकान, दफ्तर या फैक्टरियां आ जाएं, यह गलत होगा. आज सभी शहर भीड़भाड़ व प्रदूषण से कराह रहे हैं और सरकार इस में धुएं देने वाली मशीनें लगाने की योजना बना रही है. जो लोग शहरों, कसबों में रहते हैं उन्हें राहत देने की जगह ये कदम आफत देंगे.

अच्छा तो यह होगा कि इस सारी जमीन पर पेड़ उगा कर उन्हें छोटेबड़े जंगलों में बदल दिया जाए. सरकार जंगलों का रखरखाव नहीं कर पा रही है और न ही खेती की जमीन का आज के भाव से मुआवजा दे कर वहां जंगल उगा पा रही है. इसलिए जो जमीन उस के पास है चाहे 100-200 मीटर हो या लाख 2 लाख मीटर हो वहां बने बाग और जंगल बेहद सुकून देंगे.

अब शहरीकरण तो देश का होना ही है और जमीन का बढ़ता भाव देख कर लोगों को दड़बों में रहना पड़ेगा. उन्हें उन बागों व जंगलों में सांस लेने की जगह मिल जाए तो यह सुकून वाली बात होगी. इन छोटेबड़े जंगलों से पौल्यूशन निकलेगा नहीं, खत्म होगा.

अब यह देश की औरतों पर निर्भर है कि वे इस मुद्दे को कितना समझें और कितना लैंड मोनेटाइजेशन का अर्थ समझें. आज तो यह समझ लें कि सरकारी दफ्तर के आगेपीछे खाली जगह उन्हें सांस देती है, बिक जाने के बाद इंचइंच जगह पर कुछ बहुमंजिला बन जाएगा जो गला घोंट जहर उगलेगा. आदमियों को अब फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें बच्चे नहीं पालने होते, उन के खेलने की जगह नहीं ढूंढ़नी होती. सरकार लैंड मोनेटाइजेशन नहीं कर रही, लैंडपौइजनेशन कर रही है जिस का सीधा शिकार औरतें और बच्चे होंगे.

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पिता पुत्र के लिए अपनी जान देता है या पुत्र की जान ली जाती है ताकि पिता की जान बच जाए. हाल ही में पुलिस ने एक व्यक्ति को पकड़ा जिस ने खजाना मिलने की आशा में तांत्रिक के कहने पर अपने 16 वर्षीय पुत्र की बलि चढ़ा दी. मामला उरैयर, तमिलनाडु का 2014 का है और इस मामले में मां सौतेली थी.

पौराणिक कथाओं में भी पुत्रों को मारने, बलि चढ़ाने के किस्से अकसर आते हैं. भीम के हिडिंबा से हुए पुत्र घटोत्कच को कर्ण द्वारा एक स्ट्रैटेजी के अनुसार विशेष अस्त्र से मारने दिया गया क्योंकि वह अस्त्र वरना अर्जुन के विरुद्ध इस्तेमाल होता.

अंगरेजी में लिखी लेखिका अनुजा रामचंदन की महाभारत पर आधारित पुस्तक ‘अर्जुन’ में इस कहानी का पूरा वर्णन है. इंद्र ने कर्ण को वह अजेय ‘शक्ति’ अस्त्र दिया था और कर्ण ने उसे अर्जुन के विरुद्ध प्रयोग करने का निश्चय किया था परंतु उस अस्त्र का घटोत्कच पर प्रयोग जानबूझ कर युद्ध कौशल के अंतर्गत करवा दिया गया.

भीम के पुत्र की मृत्यु कितनी ही आवश्यक हो, यह जो संदेश देती है वह परेशान करने वाला है. युद्ध जीतने के लिए इस प्रकार की नीति को किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता. युद्ध में मौत होती है पर बड़े हमेशा छोटों की रक्षा करते हैं.

महाभारत की ये कथाएं मिथक नहीं हैं, इन्हें कौमिक्स, प्रवचनों, टीवी धारावाहियों के जरीए लोगों तक रोजाना पहुंचाया जाता है और अवचेतना में बैठा दिया जाता है कि अपने स्वार्थ के लिए रिश्तेदारों का सफाया करना अनुचित नहीं है. तमिलनाडु के इस पिता के मन में भी ऐसा ही होगा.

महान संस्कृति का गुणगान करने वाले भूल जाते हैं कि हिंदू धर्मग्रंथों में ही नहीं हर धर्म के ग्रंथों की कथाओं में अनैतिकता के प्रसंग भरे हैं और लोग उन का उपयोग अपने गलत कामों को धर्म सम्मत सिद्ध करने के लिए करते हैं. जब भी कोई प्रभावशाली व्यक्ति जैसे कोई राजा, कोई सेठ, कोई अमीर जजमान अपने किए गलत काम के लिए धर्म के किसी दुकानदार से प्रश्न करता है तो इस तरह की कोई कथा सुन कर उसे बता दिया जाता है कि यह तो धर्म सिद्ध है.

अनैतिक कामों को बढ़ावा देने में धर्म का योगदान कम नहीं है और मानव की भूख को धर्म ने ही गलत तरीके से उकसाया है जिस की वजह से मंगोल राजा चंगेज खान, तैमूर लंग और एडोल्फ हिटलर जैसे आक्रांता हुए. आज व्लादिमीर पुतिन जिस तरह से यूक्रेन में अपने और्थोडोक्स चर्च की सलाह पर अत्याचार होने दे रहे हैं, वैसा ही भारत में न जाने कहांकहां हो रहा है और औरतों व निचलों को खासतौर पर पाप का जन्म से भागी मान कर उन से भेदभाव किए जाते हैं और फिर घटोत्कच की जैसी कथाएं सुना कर आपत्ति करने वालों के मुंह बंद कर दिए जाते हैं.

केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कथन ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ को दिल्ली उच्च न्यायालय ने हंसी में कही बात कह कर हलके में लिया है तो वैसा ही जैसा इस पूरे प्रसंग में पांडवों के सलाहकार कृष्ण का व्यवहार है जिसे अनुजा रामचंद्रन की किताब में पढ़ा जा सकता है.

अपनी रक्षा या अपने लिए धन के लिए अपनों की बलि भी देनी पड़े तो हंसने की बात नहीं है. देश में हर सरकार विरोधी गद्दार नहीं है, हर नागरिक अपना है. अपनों को गोली मारने की बात की कही जाए और उच्च न्यायालय उसे लाइट मूड वाली बात कह दे, समझ नहीं आता.

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बबलू , डैनी, बिठ्ठल, डोडो, हेनमत, हिरेन आदि किसी व्यक्ति का नाम हो सकता है, पर हमारे आसपास रहने वाले जानवर को भी घर की सदस्य की तरह ही नाम से बुलाया जाता है और वे अपने नाम से ही सब समझते है कि उन्हें बुलाया जा रहा है, ये बेजुबान अपने पालनकर्ता से केवल प्यार और थोडा भोजन मांगते है, लेकिन एक समय तक इनको अपने पास रखने, उनसे जरुरत के काम करवाने और लाड़-प्यार करने वाले व्यक्ति ही इन्हें अधिक उम्र या बीमार होने पर रास्ते पर भूखो मरने के लिए छोड़ देते है. कई बार तो इन्हें लोग बेच भी देते है. राजस्थान के जैसलमेर में जाते हुए रास्ते में जानवरों की काफी हड्डियाँ रास्ते के दोनों ओर देखने को मिलती है.इन जानवरों को कभी किसान हल चलाने या फिर दूध देने के लिए पालते है, लेकिन उम्र होने पर इन्हें रास्ते में छोड़ देते है और रेगिस्तान में ये जानवर खाने की तलाश में रास्ते पर भूखों मरने के लिए बाध्य होते है, ऐसे ही कुछ लावारिस जानवरों की तलाश में रहते है,एनजीओ ‘एनिमल राहतसंस्था’की वेटेरनरी डॉ.नरेश चन्द्र उप्रेती, जिन्होंने आज तक हजारों की संख्या में जानवरों को इलाज देकर अपनी शेल्टर होम में अच्छी तरह से रखा है. इसी कड़ी में उन्होंने दो घोड़ो का नाम अलिया और रणवीर दिया है, ताकि लोगों का ध्यान इन बेजुबानों पर पड़े.

जागरूकता है बढ़ाना

इस अनोखे गिफ्ट को पॉवर कपल अलिया और रणवीर को देने की वजह के बारें में पूछने पर डॉ. नरेश कहते है कि इस तरह के गिफ्ट से लोगों में जागरूकता बढ़ेगी.संस्था एनिमल राहत के बारें में डॉ. कहते है कि 2003 में बोझा ढोने वाले पशु जिसमें शुगर फैक्ट्री में शुगरकेन को ढोने वाल,  ईट भट्टी में ईट को ढोने वाले और तांगा स्टैंड में तांगा को खीचने वाले घोड़े, आदि सभी की जानवरों का मूल्य तब तक है, जब तक वह काम करता है. इसके बाद उसका ध्यान नहीं रखा जाता. इसलिए मैंने सांगली में पहले संस्था की स्थापना की, इसके बाद शोलापुर, सातारा, कोल्हापुर आदि जगहों पर किया है. इसके अलावा बुलंदशहर में एक सेंचुअरी साल 2020 में स्थापित किया है. ये दो घोड़े सांगली के बेलंकी नामक सेंचुअरीमें है, यहाँ करीब 197 जानवर है. गधा, घोडा बैल, कुत्ते मुर्गी आदि कई जानवर है.

मिली प्रेरणा

हालाँकि इस संस्था को शुरू करने वाली ब्रिटिश अमेरिकन एनिमल एक्टिविस्ट इंग्रिड न्यूकिर्ड थी, जिसने बैलों के साथ हुए क्रूरता को देखा था, क्योंकि महाराष्ट्र के सांगली में चीनी की कई मिल है, जिसमें बैलों पर करीब 3 से 4 टन बोझा डाला जाता है. उनके गले मेंफोड़े बन जाते है, उनके पाँव में लंगड़ापन होने पर भी उनसे काम करवाते रहते है. चोट लगने पर भी बैलों को काम करवाते है, चोट की वजह से बैल बाहर न चले जाय ये सोचकर बड़े-बड़े कील और फिरकियाँ लगा देते है. इससे बैल की गर्दन में कील चुभेगा, जिससे खून निकलता है, फिर भी वह बेजुबान काम करता रहता है. साल 2011 से मैं इसमें लगा हुआ हूँ और अब बैल की जगह ट्रेक्टर से समान ढोया जाता है.

दया भाव रखें जानवरों के प्रति

डॉ. का कहना है कि घोड़े जिनका नाम अलिया रखा वह फीमेल है, उसका प्रयोग शादी-ब्याह में होता था. घोड़ों को कभी भी शोर पसंद नहीं होता, क्योंकि शादी में पटाखों की आवाज, म्यूजिक का जोर से बजना आदि चरों तरफ शोर होता रहता है, ऐसे में घोड़े को बहुत परेशानी होती है. घोड़ी बिदक न जाय इसके लिए वे मुंह में स्पाइक यानि कील जैसी लगाम लगाते है. मैंने महसूस किया जिसकी जुबान है वह एन्जॉय कर रहा है और बेजुबान उसे सह रहा है. लोगों के मन में ऐसे जानवरों पर दया भाव रखने की जरुरत है.

दिया ट्रिब्यूट

डॉ. कहते है कि आलिया और रणवीर कपूर ने शादी में घोड़ी का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि उनके परिवार में पूजा भट्ट, अलिया भट्ट, सोनी राजदान एनिमल लवर है. पिछले दिनों पूजा भट्ट ने एक मुर्गी को बचाकर यहाँ लायी थी, क्योंकि कोई इसे जादू-टोना में प्रयोगकर  रहा था. इसलिए मैंने ये नाम इन घोड़ों को देकर उन कपलएक ट्रिब्यूट दिया, ताकि लोग शादी-ब्याह में जानवरों का प्रयोग न करें. इसके अलावा विक्टोरिया टूरिस्ट कैरिज में घोड़े का प्रचलन मुंबई में था, जिसे बंद कर दिया गया है, घोडा रणवीर के पैरों के जॉइंट्स में सूजन आई हुई थी. पूरे शरीर में चोट और हड्डी-हड्डी यानि एक कंकाल की तरह दिख रहा था. काँटे वाली लगाम और ब्लिंकर्स के प्रयोग से घोड़ों को बहुत तकलीफ होती है. घोड़े को काबू करने के लिए वे मुहँ में लोहे की कांटेदार लगाम लगाते है, जिससे कई बार उनके जीभ में जख्म हो जाता है और वे ठीक तरह से खा नहीं पाते.इसके अलावा इन रास्तों पर उन्हें चलने में मुश्किल न हो, नाल उनके खुर में लगाईं जाती है. दोनों घोड़े को मुंबई से मैंने उद्धार किये है. इनका पता पुलिस के द्वारा मिला और मैंने इन्हें अडॉप्ट किया. इस नाम की वजह से पूरे देश से लोगों ने रेकॉगनाइज किया. जानवरों पर क्रूरता न करें, इस सन्देश को लोगों को जागरूक बनाने के लिए किया है.

 

डॉक्टर नरेश आगे कहते है कि सांगली और कोल्हापुर की ईंट की 18 भट्टी से मैंने गधों को हटाकर ट्रैक्टर का प्रयोग करना सिखाया है. इसमें मुश्किल ये भी आती है कि गधों को रखने वाले लोगों की आय ख़त्म हो जाती है,इसलिए पहले उनके हौसले को बढ़ाकर फिर इस काम को बंद किया, ताकि वे दूसरे किसी काम में लग जाय, करीब 200 से ऊपर गधों को उटी के पास के सेंचुअरी में शिफ्ट किया गया है. चीनी मिल के भी 5 बैल मालिको के 10 बैल मेरे पास रिटायर होकर आये है,इस तरह 26 चीनी मिल के 50 हज़ार बैलों की जगह ट्रेक्टर ने ले लिया है.

अधिक शेल्टर होम की जरुरत

बाहर घूमने वाले जानवरों को सही तरह से रखने की कोई अच्छी जगह नहीं होती, क्या ऐसे पशुओं के लिए अच्छी जगह न होने की वजह के बारें में पूछने पर डॉ.नरेश कहते है कि मनुष्य ने इन जानवरों को अपनी सुविधा के लिए प्रयोग किया है, इनका केयर करना उनकी जिम्मेदारी होती है. सबसे जरुरी है कम पशुओं की ब्रीडिंग करना, जिससे पशुओं की संख्या न बढे. स्ट्रीट डॉग को भी कोर्ट ने स्टरलाईज और वैक्सीनेशन कर छोड़ देने की बात कही है, ताकि वे अच्छी तरह जी सकें. इसी तरह लगातार पशुओं के साथ हुए क्रूरता को रोकने का विकल्प ढूँढना है.

बदलना है सोच

सोच को भी बदलने की जरुरत है और आज भी इंडिया को लोग डेवेलोपिंग कंट्रीकहते है. उदहरण स्वरुप डॉ, बताते है कि सांगली से बेलगाँव की तरफ चिन्चनी की यात्रा, उसमें मुंबई से शिक्षित लोग आकर एक जोड़ी बैल खरीदकर 100 से 150 किलोमीटर मन्नत मांगने के लिए साल में एक बार देवी की इस मंदिर में जाते है,काम होने पर उन्हें बेच देते है. बैलों की कमी होने पर बैल के साथ घोड़े को भी जोड़ दिया जाता है. इसके अलावा बैलों की रेस होती है, जिसमें कई बार बैलों की पैर गिरने से टूट जाती है, इन जानवरों को ठीक करने के लिए,उन दिनों मेरा कैंप लगता है, ये भी क्रूरता है. जलिकट्टू खेल में भी बैलों को बिना आघात किये ये खेल नहीं हो सकता. लोग मानते है कि ये एक ट्रेडिशन है. ट्रेडिशन उतनी ही हद तक रखे, जिससे कोई आहत न हो. इसे बदलने का समय अब आ चुका है.

करें सही देख-रेख

एक अद्भुत घटना के बारें में डॉ. नरेश कहते है कि शोलापुर में एक ढेढ़ साल के बैल के नाक में रस्सी बाँध दिया, बैल बड़ा हो गया, लेकिन उसकी रस्सी छोटी हो गयी. इसकी वजह से नाक पूरा कट गया और 4 इंच गहरा घाव हो गया था. उसके ऊपर मक्खियाँ लग रही थी, बैल बड़ा होने की वजह से कोई सामने भी नहीं गया. हमारे लोगों ने चलती बाइक पर सवार होकर उसे दूर से बेहोश किया. फिर मैंने उसका इलाज किया और ठीक होने पर अपने शेल्टर होम में ले आया. स्वीटी और सुनील भी ऐसे ही दो मेल और फीमेल डॉग है, जिसे कोई मेरे शेल्टर होम के बाहर छोड़ गया था. मैंने उन्हें पाला और एडोप्ट कराने की कोशिश की, पर कोई नहीं मिला, अब वे मेरे साथ ही रहते है.

बच्चे हमारे भविष्य

इसके अलावा छोटे बच्चों जिनकी उम्र 7 से 12 साल तक होती है, उनके स्कूलों में एजुकेशन ऑफिसर समय-समय पर कार्यक्रम करते है. उनमे जानवरों के प्रति बच्चों में संवेदनशीलता लाई जाती है, क्योंकि वे ही हमारे भविष्य है. इसलिए कई बार आहत या भूखे-प्यासे पशु को बच्चों के पास लाया जाता है. वे उनके लिए आवाज उठाते है, उन्हें खाना-पीना देते है. आगे वह लोगों की जानवरों के प्रति क्रूरता को ख़त्म करना चाहते है और शादी -ब्याह में लोगों की मौज-मस्ती के लिए घोड़ी का प्रयोग करना बंद करें, क्योंकि गाना, बैंड, शोरगुल से क्योंकि कई बार घोड़ी का हार्ट अटैक हो जाता है. जानवरों को प्यार दें, दुत्कार नहीं.

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नकल से काम नहीं चलेगा

हिंदी का मुंबई सिनेमा जिसे बौलीवुड कहा जाता है अब दक्षिण की फिल्मों से डरा हुआ लगता है क्योंकि एक के बाद एक कई दक्षिण में बनी और हिंदी में सिर्फ डब हुई फिल्में सफल हुई हैं. पहले दक्षिण की सफल फिल्मों की उत्तर भारतीय सितारों के साथ नए सिरे से बनाया जाता था पर अब केवल साउंड ट्रैक और कुछ एडििटग से बढिय़ा काम चल रहा है. अल्लू अर्जुन की  ‘पुष्पा : द राइज’,  ‘आरआरआर’,  ‘बहुबली : द बिगिनग’,  ‘साहू,’  ‘बहुबली-2’ ने अच्छा पैसा हिंदी में कमाया और इस दौरान बौलीवुड की फिल्में बुरी तरह पिटी.

असल में एक कारण है कि हिंदी फिल्म निर्माताओं की जो पीढ़ी आज बौलीवुड पर कब्जा किए हुए है वह अनपढ़ है, जी हां, अनपढ़. अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से रेव पाॢटयों और रैिसग कोर्स में घूमने वाले बच्चे अब एडल्ट हो गए हैं और एक्टर प्रोड्यूसर पिता से फिल्म बिजनैस तो संभाल लिया पर वह जमीनी हकीकत नहीं पाई जिस में वे पलेबड़े थे और जिस जमीन में वे कणकण के वाकिफ थे. आज के युवा निर्माता पार्टी गो भर और विदेशों में रहने वाले हो गए हैं और भारत की जनता का दर्द और समस्याएं जरा भी नहीं समझते.

दक्षिण में जाति और वर्ग का भेद नहीं है, ऐसा नहीं है पर फिर भी वहां ज्यादातर फिल्म निर्माता पिछड़ी जातियों के दर्द को खुद झेल चुके हैं या समझ सकते हैं वे अंधभक्त जरूर हैं क्योंकि वे भी लौजिक, फैक्ट और एनेलिसिस की जगह पूजापाठ में भरोसा करते हैं पर रिएलिटी जानते और समझते हैं.

मुंबई के ऊचे मकानों में रहने वाले नीचे की झोपड़ी बस्तियां देखते हैं पर उन पर वे गुस्सा नहीं होते हैं कि शहर को क्यों घेरे हुए हैं, उन की सामाजिक, आॢथक व धाॢमक सोच के बारे में एबीसी ने जानते हैं और न जानना चाहते हैं. उन के लिए वे ग्राहक हैं पर कंगाल ग्राहक. उन के असल ग्राहक वे हैं जो एजि कमरों में ओमीटी पर फिल्में देखते हैं या विदेश में रह कर भारतीय संस्कृति पर हाउिलग अपने हो या शिएटर में करते हैं.

मुंबई की सिनेमा संस्कृति ने मल्टीप्लैक्स बना कर फिल्मों को आम आदमी से दूर कर दिया है, ….भी व्यायाम हो गई, उस आडियंस के सबजैक्ट भी. दक्षिणी फिल्मों में जंगल भी हैं. गरीबी भी है, गरीबों के प्रति वौयलैंस भी, क्लास डिस्क्रीमिनेशन भी है, गरीब की अमीर पर जीत भी हैं.

हां यह बात दूसरी है कि जैसे रामानंद सागर और ताराचंद बडज़ात्य ने वैश्य होते हुए भी खूब पौराणिक धर्म का प्रचार फिल्मों से किया था, वैसे ही दक्षिणी निर्माता बैक्वर्ड होते हुए भी कट्टर हिंदू धर्म के एजेंट हैं पर पूरे भक्त नहीं है क्योंकि वे उस जमात के हैं उन परिवारों के हैं, जिन्होंने अपने पर होते अत्याचार देखे हैं. हिंदी फिल्मों में यह युग 1950-60 में था जब एक लाभ धाॢमक फिल्में बन रही थीं तो दूसरी ओर विशुद्ध कम्युनिस्ट विचारधारा वाली जिनमें औरतों को भी बराबर का दिखाया गया जैसे ‘मदर इंडिया’ या  ‘अछूत कन्या’ में गिया गया. बौलीवुड अब यह मूल बात भूल गया है.

हिंदी वाले दक्षिणी भारतीय फिल्में इसलिए लपक रहे हैं क्योंकि उन में अपना दुखदर्द दिखता है चाहे भव्य सैटों के पीछे छिपा हो और लाउड वौयस और रंगबिरंगे कपड़ों के पीछे हिंदी फिल्म वाले अपने को सुधार पाएंगे, इस में संदेह है. अब सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भी दक्षिण हावी होने लगा क्योंकि उसे गाय और राम की नहीं बराबरी और कमाई की िचता है जो दक्षिण की फिल्मों में भी दिखती है.

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तो व्यापार कई गुना उन्नति करेगा

व्यापार में अब पत्नी को आर्थिक भागीदार बनाना जरूरी होता जा रहा है. जब से भाइयों, बहनों और चचेरे भाइयों की कमी होने लगी है, छोटा व्यापार हो या विशाल, घर के लोगों के बीच काम रखने के लिए बच्चों से पहले पत्नी को भागीदार, पार्टनर, सुप्त मालिक, शेयर होल्डर, डाइरैक्टर बनाना पड़ रहा है. पहले संयुक्त परिवार होते थे और बापबेटे, भाई काफी होते थे व्यापार को चलाने के लिए कंपनी या पार्टनरशिप कंपनी बनाने के लिए.

मगर यह पत्नी को आर्थिक सहयोगी बनाना अब टेढ़ा मामला होता जा रहा है. मैक्स हैल्थकेयर के मालिक अनलजीत सिंह ने अपनी पत्नी को 24.75% शेयर होल्डर बना दिया पर बाद में उस का किसी और औरत से अफेयर चलने लगा. अब वह 75% शेयर होल्डिंग के बल पर कंपनी की संपत्ति को अपनी प्रेमिका को ट्रांसफर करने लगा है और यह आरोप उस की पत्नी नीलू सिंह ने अदालत में लगाया है.

घर में पार्टनर के साथ पत्नी जब बिजनैस पार्टनर भी हो तो जहां व्यापार कई गुना उन्नति कर सकता है और पत्नी अपने और बच्चों के लिए हर तरह की मेहनत करने को तैयार हो जाती है और पति के बढ़ते काम के घंटों पर कुढ़मुढ़ाती नहीं, वहीं घरेलू विवाद चल कर दफ्तर में पहुंच जाते हैं और व्यापार के मतभेद घर की डाइनिंगटेबल पर सज भी जाते हैं.

नीलू सिंह ने अदालत का दरवाजा खटखटाया ताकि अनलजीत सिंह पर रोक लगाई जा सके और वह सारा पैसा प्रेमिका को न दे सके. पर सवाल यह भी खड़ा होता है कि ऐसी पत्नी कहां पैर में काटती थी कि पति 2015 से साउथ अफ्रीका में प्रेमिका के साथ ही समय बिताना ज्यादा अच्छा समझने लगा था?

पत्नी के काम में भागीदार बनाने में जो कमिटमैंट चाहिए होती है वह हमेशा रहे यह जरूरी नहीं. कई बार पति पत्नी को किसी भी तरह की छूट नहीं देता और छोटे अदने से मैनेजर से भी कम समझता है, तो कई बार उस पर कमाई करने का बोझ डाल कर इधरउधर समय बरबाद करने लगता है. यह भी खलता है.

अगर पति या पत्नी के काम की जगह किसी और से संबंध बनने लगें तो यह बात तुरंत पता चल जाती है और मनमुटाव होना शुरू हो जाता है. शादी के समय अर्दांगिनी बने रहने के सारे वादे व्यापार की कठोर उबड़खाबड़ जमीन पर हवा हो जाते हैं. पतिपत्नी घर में भी दुश्मन बनने लगते हैं और व्यापार में भी. घर भी ठप्प, व्यापार, कामकाज भी ठप्प.

पहले व्यापारों पर ताले संयुक्त परिवार में भाइयों, चाचाओं, तायों को ले कर लगते थे, अब पतिपत्नी विवाद पर लगने लगे हैं. जो भी पार्टनर मजबूत हो या जिस के पास कोई और सहारा हो, मतलबी या दिल पर छाया, हर कदम आसान रहता है पर आमतौर पर पति और पत्नी दोनों अकेले रह जाते हैं और दोनों के अपने घर वाले संबंधी भी बेवफा हो जाते हैं.

व्यापार में पत्नी को साझेदार बनाना जोखिम वाला काम है पर आज का व्यापार इतना कौंप्लिकेटेड है कि इस के बिना काम भी नहीं चलता.

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जनसंख्या कानून और महिलाएं

सरकार ने जापान और चीन से सबक लेते हुए जनसंख्या नियंत्रण कानून को अब निरर्थक मान लिया है. कुछ भारतीय जनता पार्टी सरकारों ने कानून पास किए हैं जो 2 से ज्यादा बच्चे होने पर बहुत सी सुविधाएं छीनते हैं और एक तरह से उस तीसरे बच्चे को अपराधी मान लेते हैं जिस ने न अपनी इच्छा से जन्म लिया, व कुछ गलत किया.

भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों में कूटकूट कर भर दिया गया है कि मुसलमानों को 4 शादियों की छूट है और वे दर्जनों बच्चे पैदा करते हैं. यह बात तर्क की नहीं अंधेपन की है, उन बेवकूफों की जो 2+2 करना नहीं जानते. उन से पूछो कि अगर एक मुसलिम मर्द की 4 बीवियां हैं तो क्या वहां 4 गुने औरतें भी हैं तो उन का खत्म नहीं और होगा. जैसे ले चलो चावड़ी बाजार हजूम दिख जाएगा.

भारतीय जनता पार्टी के अंधभक्त वैसे भी तर्क का उत्तर उसी तरह देते हैं जैसे रामदेव पैट्रोल के दामों के सवाल पर भडक़ते हैं. एक पत्रकार ने पूछा कि आप ने तो 35 रुपए लीटर पैट्रोल दिलाने को कहा था, कहां है वह. तो उस ने जवाब दिया कि तू ठेकेदार है क्या सवाल पूछने का.

तर्क का उत्तर तथ्य से देना न पौराणिक परंपरा न आज है और इसलिए आश्चर्य है कि अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के कानूनों पर बिना टिप्पणी किए केंद्र सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण कानून से पल्ला झाड़ लिया.

जनसंख्या कानून की आज कोई आवश्यकता नहीं रह गई क्योंकि कामकाजी औरतें खुद एक या दो से ज्यादा बच्चे नहीं चाहतीं और कानूनी या गैरकानूनी गर्भपात तक करा आती है. अगर गर्भनिरोधक …..और गुलाम हो जाएं तो शायद अब एक बच्चा भी पैदा न हो. क्योंकि 35-40 की आयु से पहले कोई औरत बच्चा चाहती ही नहीं हैं चाहे बाद में डाक्टरों को इलाज और आईवीएच की सुविधा का लाखों खर्च करती फिरे.

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पर्यटन का मतलब तीर्थ नहीं

निरंतर धर्म प्रचार का नतीजा यह है कि देशभर में हिंदू रिलिजयर्स टूरिज्म तेजी से बढ़ रहा है  और चारधाम, काशी कौरीडोर, तिरुपति, वैष्णो देवी के साथ छोटेछोटे देवीदेवताओं के आगे भी भीड़ बढ़ रही हैं. झारखंड के देवधर व ट्रौली की दुर्घटना ऐसी ही एक भीड़ का मामला है जिस में रोपवे ट्रौली का इतिहास तो जम कर हुआ पर भक्तों की लगातार ताता लगा रहने के कारण उस की मरम्मत का काम पूरा नहीं हो सका और अप्रैल में रोपवे की रोप टूटने की वजह से कई की मौत हो गई.

धर्म प्रचार की वजह से पर्यटन का मतलब तीर्थ हो गया है. हिंदू भक्तों के प्रवचनों, पंड़ों, टेलीविजन वे भक्ति चैनलों ही नहीं न्यूज चैनलों पर भी बारबार कहा जा रहा कि फलां देवी की बड़ी आस्थता है, फलां बहुत महान है, फलां जगह जाने से सारे काम सिद्ध हो जाते हैं, फलां दानपुण्य या उपवास करने से व्यापार में मंदी या घर का क्लेश दूर हो जाता है.

औरतों को खासतौर पर निशाना बनाया जा रहा है और अच्छी पढ़ीलिखी औरतों को भी या तो पकवान बनाने के लिए रसोई में धकेला जा रहा है या फिर वर्तमान व भविष्य सुधारने के लिए घर के या बाहर के पूजा घर में हर तीर्थ स्थल पर जहां पहले सन्नाटा रहता था आज हजारों की भीड़ उमडऩे लगी है क्योंकि सरकारी और गैरसरकारी प्रचार इतना जम कर  के है कि आम व्यक्ति सोचता है कि जब सब कर रहे हैं तो वह भी कर ले.

ईसाई प्रचारक संडे को काम नहीं करने देते ताकि लोग चर्च में आ कर पादरी का भाषण सुनते जाए और चलते समय दान देते जाएं. अमेरिका आज अगर पिछडऩे लगा है, वहां कालागोरा, अमीरगरीब भेद बढ़ रहा है और चीन कोरिया जैसे देश वहां की अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर रहे हैं तो इसीलिए कि पादरियों का प्रचारतंत्र पिछले दशकों में तेज हुआ. रूस में भी कम्युनिज्म के बाद बढ़ा और आज रूस यूक्रेन युद्ध के पीदे और्थोडोक्स चर्च है जिस की शिकार हजारों रूसी औरतें हो रही हैं जिन के पति या बेटे मरे और अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो गई.

अफगानिस्तान में इस्लामी प्रचारतंत्र का बोझा औरतें ही ढो रही है. श्रीलंका में बौद्धिसहली बनाम हिंदू तमिल झगड़े से पहले तो गृहयुद्ध हुआ फिर अब आर्थिक धमाका. ये सब धर्म प्रचार का नुकसान है जो हमारी औरतें भी झेल रही हैं.

नवरात्रों में खास खाना ही खाना बनाना होगा होगा यह औरतों के लिए आफत है. पंडोपुजारियों ने तो फतवा जारी कर दिया पर 9 दिन तक चिकन में बेमतलब का खाना बनाना धर्म का रसोई में घुसना वैसा ही है जैसे छुट्टी में किसी देवीदेवता के दर्शन करने के लिए लंबी लाइन में लगना और मीलो पैदल चलना.

यह कहना कि यह एडवेंचर है, काम से अलग है, हिंदू संस्कृति बनाए रखने का जतन है तब माना जाता जब अंत में चढ़ावा न होता. हर रिलीजिमर्स टूरिज्म का अंत चढ़ावे से होता है जो औरतें अपने घरेलू बजट स काट कर देती है.

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जिद और जनून ने दिलाया मुकाम: रेणु भाटिया

‘‘मैं ने दिल्ली प्रैस के लिए मौडलिंग की है…’’ जब हरियाणा महिला आयोग की नई अध्यक्षा बनी रेणु भाटिया ने इतना कहा तो मैं खुश हो उठा. कुछकुछ वैसा ही सुकून भी मिला जैसा रेणु भाटिया को अपने गृहराज्य कश्मीर के बारे में सोच और सुन कर मिलता होगा. पर 10वीं क्लास करते हुए ही हरियाणा के फरीदाबाद में ब्याही गई रेणु भाटिया का अब तक का सफर आसान भी नहीं रहा है क्योंकि उन्होंने अपने बचपन में ही मातापिता को खो दिया था.

फिल्म ‘वक्त’ और वह  हादसा

बात तब की है जब हिंदी की सुपरहिट फिल्म ‘वक्त’ ने खूबसूरत कश्मीर के सिनेमाघरों पर पहले दिन दस्तक दी थी. उस फिल्म में सुनील दत्त ने एक बड़ी गाड़ी चलाई थी, जो रेणु भाटिया के पिता की थी. पूरा परिवार इस बात से खुश था और सिनेमाघर में जा कर अपनी उस कार को बड़ी स्क्रीन पर देखना चाहता था.

ऐसा हुआ भी और जब परिवार फिल्म देख कर घर लौटा तो फिल्म ‘वक्त’ का एक खास सीन असलियत में इस परिवार पर कहर बरपा गया. जैसे फिल्म में जलजला आने पर बलराज साहनी का हंसताखेलता परिवार बिखर जाता है, कुछ वैसा ही रेणु भाटिया के घर पर भी हुआ. घर की छत गिरी और उन के मातापिता उस टूटे आशियाने में घायल हो कर हमेशा के लिए खामोश हो गए.

उस समय रेणु भटिया तीसरी क्लास में पढ़ती थीं. इस हादसे के बाद उन का लालनपालन ताऊजी ने किया और 10वीं क्लास का इम्तिहान देतेदेते उन की शादी फरीदाबाद के ओमप्रकाश भाटिया से हो गई. पर रेणु भाटिया की सोच थी कि किसी महिला का शादी कर लेना और फिर बच्चे पैदा करना ही मकसद नहीं होना चाहिए. वे अपना एक अलग मुकाम बनाना चाहती थीं, जिस में उन के पति और सास ने भरपूर सहयोग दिया खासकर उन की सास शांति देवी ने.

दिल्ली प्रैस, दूरदर्शन और मौडलिंग

रेणु भाटिया ने बताया, ‘‘एक पत्रकार के जरीए मुझे दिल्ली प्रैस के बारे में पता चला और वहां बतौर मौडल मेरे कुछ फोटो खींचे गए, जिन्हें दिल्ली प्रैस की पत्रिकाओं में इस्तेमाल किया गया. सच कहूं तो उस से पहले मुझे पता ही नहीं था कि मौडलिंग किस बला का नाम है.

‘‘इस के बाद मैं ने शौकिया मौडलिंग शुरू कर दी, पर इसे कैरियर नहीं बनाया. हां, मैं बचपन में जब दूरदर्शन देखती थी, तो न्यूज रीडर सलमा सुलतान की बहुत बड़ी फैन थी. मैं भी उन की तरह न्यूज रीडर बनना चाहती थी. पर ऐसा करने के लिए ग्रैजुएट होना जरूरी था. जब घर पर इस बारे में चर्चा की तो मेरे पति ने कहा कि दिक्कत क्या है, तुम आगे पढ़ाई करो.

‘‘फिर तो मुझ में जोश जाग गया और आगे की पढ़ाई मेरठ से पूरी की. इस के बाद मैं दूरदर्शन गई जहां सलमा सुलतानजी के अलावा कुछ और लोगों ने मेरा इंटरव्यू लिया, पर मैं रिजैक्ट हो गई, क्योंकि टैलीविजन के लिहाज से मैं खूबसूरत नहीं थी. पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी और दोबारा 6 महीने बाद इंटरव्यू दिया और सलैक्ट हो गई. उस समय कोई और चैनल नहीं था, तो मैं मशहूर भी हो गई थी. तब मैं ने हरियाणा सरकार के लिए 30-40 डौक्यूमैंटरी फिल्में भी बनाई थीं.’’

राजनीति और बेनजीर भुट्टो

1994 में भारतीय जनता पार्टी ने रेणु भाटिया से संपर्क किया और नए बन रहे फरीदाबाद नगर निगम का चुनाव लड़ने का औफर दिया.

इस सिलसिले में रेणु भाटिया ने बताया, ‘‘चूंकि मैं उस समय मीडिया जगत में काफी मशहूर हो गई थी, तो मुझे लगा कि वह साड़ी बांधना, चूड़ी पहनना, बिंदी लगाना मेरे बस की बात नहीं है, तो मैं ने उस समय चुनाव नहीं लड़ा.

‘‘मगर जब 2000 में दोबारा चुनाव आया, तो मैं ने चुनाव लड़ने का मन बनाया और सब से ज्यादा वोटों से जीती. फिर 2005 में केवल एक महिला मेरे खिलाफ खड़ी हुई थीं, जिन की जमानत जब्त हुई थी. मैं फरीदाबाद की डिप्टी मेयर भी बनी थी.’’

रेणु भाटिया ने ‘भारतीय बेनजीर भुट्टो’ होने का गौरव भी हासिल किया है. इस रोचक किस्से के बारे में उन्होंने बताया, ‘‘यह वह समय था जब दूरदर्शन पर ‘तमस’ आया था और उसे ले कर कुछ राजनीतिक कंट्रोवर्सी भी हो गई थी. उसी समय किसी प्रोड्यूसर ने मेरे साथ एक फिल्म बनानी शुरू की थी, जिस में राजीव गांधी और बेनजीर भुट्टो का पुराना रिश्ता दिखाया जाना था. वे शायद कुछ ऐसा जाहिर करना चाहते थे कि अगर उन दोनों का रिश्ता हो जाता तो भारत के हालात कुछ और होते.

‘‘पर वह प्रोजैक्ट पूरा नहीं हुआ और इस बाद को शायद 2 दशक बीत गए. फिर अचानक मुझे एक दिन ‘अमर उजाला’ से फोन आया और कहा कि वे लोग अभी मुझ से मिलना चाहते हैं. उस समय मुझे बुखार था और मैं ने उन्हें अगले दिन आने को कहा. पर वे बोले कि आप पहले टीवी देखिए. मैं ने टीवी खोला तो खबरों में बेनजीर भुट्टो की हत्या का मामला दिखाया जा रहा था. तब अमर उजाला वालों ने कहा कि पाकिस्तान की बेनजीर की हत्या हुई है, हिंदुस्तान में एक बेनजीर अब भी है.

‘‘फिर वे बोले लोग कि हम आप के घर आ रहे हैं, आप सफेद सूट में बेनजीर के लुक में तैयार रहिए. हम आप का फोटो लेना चाहते हैं. अगले दिन अमर उजाला के कवर पेज की हैडलाइन थी कि एक बेनजीर हिंदुस्तान में भी है.

‘‘3-4 दिन के बाद स्टार न्यूज वालों ने मुझे ले कर बेनजीर भुट्टो पर 40 मिनट की फिल्म बनाने की पेशकश की और उस की शूटिंग भी वे पाकिस्तान के लाहौर में करना चाहते थे, पर कागजी कार्यवाही में किसी ने हमें चेताया कि असली बेनजीर मार दी गईं, नकली भी मार देंगे, तो हम ने अरावली की पहाडि़यों के आसपास ही सारी शूटिंग पूरी की.’’

महिला आयोग और बड़ी जिम्मेदारी

अब जब रेणु भाटिया हरियाणा महिला आयोग की अध्यक्षा बनी हैं और उन्हें नई जिम्मेदारी दी गई है, तो उन से उम्मीदें भी काफी बढ़ गई हैं.

जब देश में महिला पुलिस थाने हैं, तो महिला आयोग जैसी संस्था की जरूरत ही क्या है? इस सवाल पर उन्होंने कहा, ‘‘मेरा मानना है कि जब हम सब लोग अपने फर्ज को समझेंगे तो हक हमें अपनेआप मिलेंगे. सच कहूं तो मैं निजी तौर पर महिला आरक्षण के खिलाफ हूं क्योंकि जो महिला खुद में सक्षम है उसे आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है. महिला आयोग की जरूरत यहीं पर खास हो जाती है क्योंकि वह महिलाओं को और मजबूत बनाने की दिशा में काम करता है.

‘‘अमूमन आम लोगों के दिमाग में थाने का एक हौआ बना हुआ है कि वहां तो ‘एसएचओ साहब’ मिलेंगे जिस की कोई समस्या होती है, वह पहले से डरा होता है. लेकिन अगर आप को कानून की थोड़ीबहुत जानकारी है, आप बेखौफ हैं तो मुझे लगता है कि आप अपनी बात आसानी से कह सकते हैं.

‘‘महिला आयोग महिलाओं को मजबूत बनाने की प्रेरणा देता है और चूंकि महिला आयोग में महिला ही आप की फरियाद सुनती है तो थाने में किसी मर्द के सामने अपनी बात कहने से ज्यादा महिला आयोग को बताना आसान होता है.

‘‘वैसे महिला थाने भी इसी बात को ध्यान में रख कर खोले गए हैं, जहां पीडि़ताएं अपनी बात रखती भी हैं. महिला आयोग इन से सुप्रीम होता है जहां फैसले भी कराए जाते हैं और वह थानों पर निगरानी रखने का काम भी करता है.

‘‘जब आप किसी पीडि़ता को इंसाफ दिलवाते हैं, तो बहुत संतुष्टि मिलती है. हम ने दूसरे राज्यों से जबरदस्ती लाई गई महिलाओं को छुड़ा कर उन्हें वापस घर भेजा तो बड़ा सुकून मिला. एनआरआई बेटियों को इंसाफ दिलाने में बड़ी राहत मिलती है क्योंकि उन के केस बड़े पेचीदा होते हैं.

‘‘यहां मैं एक और बात कहूंगी कि महिलाओं को अपनी बात दमदार तरीके से रखनी चाहिए, फिर चाहे वे कोई भी भाषा बोलती हों. मेरा मानना है कि भले ही आप किसी वंचित परिवार से हैं और हिंदी मीडियम से पढ़ी हैं तो भी अपने को कमतर न समझें.

‘‘हाल ही में मैं ने पंजाब यूनिवर्सिटी में कानून का एक सैशन अटैंड किया था, जिस में पंजाब की एक महिला वकील ने अपनी दलील पंजाबी और हिंदी भाषा में पेश की थी और सब से बेहतर तरीके से पेश की थी.

‘‘याद रखिए किसी महिला की तरक्की में सब से बड़ी बाधा उस की खुद की कमजोरी होती है. उसे अपने पर आए कष्टों को लांघना सीखना होगा. महिला आयोग इसी बात की सीख महिलाओं को देता है. हम स्कूलकालेज में वर्कशौप चलाते हैं, लड़कियों को साइबर क्राइम के प्रति जागरूक करते हैं.

‘‘आखिर में एक बात जरूर कहूंगी कि मैं अपने युवा समय में एथलीट रही हूं तो लड़कियों और महिलाओं से भी यही उम्मीद करना चाहूंगी कि वे किसी खिलाड़ी की तरह कसरत और खेल को अपने जीवन में थोड़ी जगह जरूर दें क्योंकि ये दोनों हमें जिंदगी की दूसरी जिम्मेदारियों से तालमेल करना सिखाते हैं.’’

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जरूरत देश को सुधारने की है

जब भी कोई भारतीय मूल का जब पश्चिमी देशों में किसी ऊंची पोस्ट पर पहुंचता है, हमारा मीडिया जोरशोर से नगाड़ बजाता है मानो भारत ने कोई कमाल कर दिया सपूत पैदा कर के. असल में विदेशों में भारतीय मूल के लोगों को भारत से कोई खास प्रेम नहीं होता. वे भारतीय खाना खाते हों, कभीकभार भारतीय पोशाक पहन लेते हों, कोई भारतीय त्यौहार मना लेते हों वर्ना इन का प्रेम तो अपने नए देश के प्रति ही रहता है और गंदे, गर्म, बदबूदार, गरीब देश से उन का प्यार सिर्फ तीर्थों से रहता है. यह जरूर मानने वाली बात है कि भारतीय नेता तो नहीं पर धर्म बेचने वाले लगातार इन के संपर्क में रहते हैं और पौराणिक विधि से दान दक्षिणा झटक ले आते हैं.

ब्रिटेन के वित्तमंत्री रिथी सुचक की चर्चा होती रहती है पर उस का प्रेम कहां है यह उस का 1 लाख पौंड विचस्टर कालेज को दान देने से साफ है जहां वह पढ़ा था. रिथी के मातापिता ने उसे अमीरों के स्कूलों में भेजा था जहां अब फीस लगभग 50 लाख रुपए सालाना है.

यह क्या जताता है. यही कि इन भारतीय मूल के लोगों को अपनी जन्मभूमि से कोई प्रेम नहीं है. वे इंग्लैंड में पैदा हुए, वहीं पले और वहीं की सोच है. स्किन कलर से कोई फर्क नहीं पड़ता. धर्म का असर भी सिर्फ रिचुअल पूरे करने में होता है क्योंकि गोरे उन्हें खुशीखुशी ईसाई भी नहीं बनाते. हिंदू कट्टरों की तरह ईसाई कट्टरों की भी कमी नहीं है क्योंकि हिंदू मंदिरों की तरह ईसाई चर्चों के पास भी अथाह पैसा है और धर्म के नाम पर पैसा वसूलना एक आसान काम है. भगवा कपड़े पहन कर मनमाने काम कर के आलीशान मकानों में रहना भारत में भी संभम है, ब्रिटेन में भी, अमेरिका में भी. रिथी का इन अंधविश्वासों का कितना साया है पता नहीं भारत प्रेम न के बराबर है, यह साफ है. उसी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री प्रीति पटेल भी इसी गिनती में आती है और अमेरिका की कमला हैरिस व निक्की हैली भी.

अपने भारतीय होने की श्रेष्ठता का ढिंढ़ोरा ज्यादा न पीटें जरूरत तो देश को सुधारने की है ताकि चीन जापान की तरह लोग अपनेआप आदर दें पर यहां तो हम सब कुछ मंदिर के नाम पर नष्ट करने में  लगे हैं.

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