कोरोना लव- भाग 2: शादी के बाद क्या दूर हो गए अमन और रचना

मानसी बताने लगी कि उस के 2 बच्चे हैं, ऊपर से बूढ़े सासससुर, घर के काम के साथसाथ उन का भी बराबर ध्यान रखना होता है और औफिस का काम भी करना पड़ता है. पति हैं कि जहां हैं वहीं फंस चुके हैं, आ नहीं सकते. तो उस पर ही घरबाहर सारे कामों की जिम्मेदारी पड़ गई है. उस पर भी कोई तय शिफ्ट नहीं है कि उसे कितने घंटे काम करना पड़ता है. बताने लगी कि कल रात वह 3 बजे सोई, क्योंकि 2 बजे रात तक तो व्हाट्सऐप पर ग्रुप डिस्कशन ही चलता रहा कि कैसे अगर वर्क फ्रौम होम लंबा चला तो, सब को इस की ऐसी प्रैक्टिस करवाई जाए कि सब इस में ढल जाएं.

उस की बातें सुन कर रचना का तो दिमाग ही घूम गया. जानती है वह कि उस के बच्चे कितने शैतान हैं और सासससुर ओल्ड. कैसे बेचारी सब का ध्यान रख पाती होगी? सोच कर ही उसे मानसी पर दया आ गई. लेकिन, इस लौकडाउन में वह उस की कोई मदद भी तो नहीं कर सकती थी. सो, फोन पर ही उसे ढाढ़स बंधाती रहती थी.

‘सच में, कैसी स्थिति हो गई है देश की? न तो हम किसी से मिल सकते हैं,  न किसी को अपने घर बुला सकते हैं और न ही किसी के घर जा सकते हैं. आज इंसान, इंसान से भागने लगा है. लोग एकदूसरे को शंका की दृष्टि से देखने लगे हैं. क्या हो रहा है यह और कब तक चलेगा ऐसा? सरकार कहती रही कि अच्छे दिन आएंगे. क्या ये हैं अच्छे दिन? किसी ने सोचा था कभी कि ऐसे दिन भी आएंगे?’ अपने मन में यह सब सोच कर रचना दुखी हो गई.

रचना ने अपने घर के ही एक कोने में जहां से हवा अच्छी आती थी, टेबल लगा कर औफिस जैसा बना लिया और काम करने लगी. चारा भी क्या था? वैसे, अच्छा आइडिया दिया था मानसी ने उसे. थैंक यू बोला उस ने उसे फोन कर के.

काम करतेकरते जब रचना का मन उकता जाता, तो ब्रेक लेने के लिए थोड़ाबहुत इधरउधर चक्कर लगा आती. नहीं तो अपने घर की छत पर ही कुछ देर टहल लेती. और फिर अपने लिए चाय  बना कर काम करने बैठ जाती. अब रचना का माइंड सैट होने लगा था. लेकिन बौस का दबाव तो था ही, जिस से मन चिड़चिड़ा जाता कभीकभी कि एक तो इस लौकडाउन में भी काम करो और ऊपर से इन्हें कुछ समझ नहीं आता. सबकुछ परफैक्ट और सही समय पर ही चाहिए. यह क्या बात हुई? बारबार फोन कर के चैक करते हैं कि कर्मचारी अपने काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं. कहीं वे अपने घर पर आराम तो नहीं फरमा रहे हैं.

उस दिन बौस से बातें करते हुए रचना को एहसास हुआ कि कोई उसे देख रहा है. ऐसा होता है न? कई बार तो भरी बस या ट्रेन के कोच में भी ऐसी फीलिंग आती है कि कोई हम पर नजरें गड़ाए हुए है.  अकसर हमारा यह एहसास सच साबित होता है. अब ऐसा क्यों होता है, यह तो नहीं पता लेकिन सामने वाली खिड़की पर बैठा वह शख्स लगातार रचना को देखे ही जा रहा था.

जैसे ही रचना की नजर उस पर पड़ी, वह इधरउधर देखने लगा. लेकिन, फिर वही. रचना उसे नहीं जानती. आज पहली बार देख रही है. शायद, अभी वह नया यहां रहने आया होगा, नहीं तो वह उसे जरूर जानती होती. लेकिन वह उसे क्यों देखे जा रहा है? क्या वह इतनी सुंदर है और यंग है? वह बंदा भी कुछ कम स्मार्ट नहीं था. तभी तो रचना की नजर उस पर से हट ही नहीं रही थी. लेकिन, फिर यह सोच कर नजरें फेर लीं उस ने कि वह क्या सोचेगा.

एक दिन फिर दोनों की नजरें आपस में टकरा गईं, तो आगे बढ़ कर रचना ने ही उसे ‘हाय’ कहा. इस से उस बंदे को बात आगे बढ़ाने का ग्रीन सिग्नल मिल गया. अब रोज दोनों की खिड़की से ही ‘हायहैलो’ के साथसाथ थोड़ीबहुत बातें होने लगीं. दोनों कभी देश में बढ़ रहे कोरोना वायरस के बारे में बातें करते, कभी लौकडाउन को ले कर उन की बातें होतीं, तो कभी अपने वर्क फ्रौम होम को ले कर बातें करते. और इस तरह से उन के बीच बातों का सिलसिला चल पड़ता, तो रुकता ही नहीं.

‘‘वैसे, सच कहूं तो औफिस जैसी फीलिंग नहीं आती घर से काम करने में, है न?’’ रचना के पूछने पर वह बंदा कहने लगा, ‘‘हां, सही बात है, लेकिन किया भी क्या जा सकता है?’’

‘‘सही बोल रहे हैं आप, किया भी क्या जा सकता है. लेकिन पता नहीं, यह लौकडाउन कब खत्म होगा. कहीं लंबा चला तो क्या होगा?’’ रचना की बातों पर हंसते हुए वह कहने लगा कि भविष्य में क्या होगा, कौन जानता है? ‘‘वैसे जो हो रहा है सही ही है, जैसे हमारा मिलना’’ जब उस ने मुसकराते हुए यह कहा, तो रचना शरमा कर अपने बाल कान के पीछे करने लगी.

रचना के पूछने पर उस ने अपना नाम शिखर बताया और यह भी कि वह यहां एक कंपनी में काम करता है. अपना नाम बताते हुए रचना कहने लगी कि उस का औफिस उसी तरफ है.

काम के साथसाथ अब दोनों में पर्सनल बातें भी होने लगीं.

शिखर ने बताया कि पहले वह मुंबई में रहता था, मगर अभी कुछ महीने पहले ही तबादला हो कर दिल्ली शिफ्ट हुआ है.

‘‘ओह, और आप की पत्नी भी जौब में हैं?’’ रचना ने पूछा तो शिखर ने कहा, ‘‘नहीं, वह हाउसवाइफ है.’’

‘‘हाउसवाइफ नहीं, होममेकर कहिए शिखरजी, अच्छा लगता है,’’ बोल कर रचना खिलखिला पड़ी.

शिखर उसे देखता ही रह गया. रचना से बातें करते हुए शिखर के चेहरे पर अजीब सी संतुष्टि नजर आती थी. लेकिन वहीं, अपनी पत्नी से बातें करते हुए वह झल्ला पड़ता था.

अमन को औफिस भेज कर, घर के काम जल्दी से निबटा कर, रचना अपनी जगह पर जा कर बैठ जाती, उधर शिखर पहले से ही उस का इंतजार करता रहता और उसे देखते ही खिड़की के पास आ कर खड़ा हो जाता. फिर दोनों बातें करने लगते. लेकिन जैसे ही शिखर को अपनी पत्नी की आवाज सुनाई पड़ती, वह भाग कर अपनी जगह पर बैठ जाता और फिर दोनों इशारोंइशारों में बातें करने लगते. कहीं न कहीं दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे थे. कोरोना के चलते घर में क्वारंटाइन होने की वजह से उन के प्यार की गाड़ी अटक गई थी. लेकिन, उन्होंने इस का भी हल निकाल लिया.

कोरोना लव- भाग 1: शादी के बाद क्या दूर हो गए अमन और रचना

अमन घर में पैर रखने ही जा रहा था कि रचना चीख पड़ी, ‘‘बाहर…बाहर जूता खोलो. अभी मैं ने पूरे घर में झाड़ूपोंछा लगाया है और तुम हो कि जूता पहन कर अंदर घुसे आ रहे हो.’’

‘‘अरे, तो क्या हो गया? रोज तो आता हूं,’’ झल्लाते हुए अमन जूता बाहर ही खोल कर जैसे ही अंदर आने लगा रचना ने फिर उसे टोका, ‘‘नहीं, बैठना नहीं, जाओ पहले बाथरूम और अच्छे से हाथमुंहपैर सब धो कर आओ. और हां, अपना मोबाइल भी सैनिटाइज करना मत भूलना. वरना यहांवहां कहीं भी रख दोगे और फिर पूरे घर में इन्फैक्शन फैलाओगे.’’

रचना की बात पर अमन ने उसे घूर कर देखा. ‘क्या है, घूर तो ऐसे रहे हैं जैसे खा ही जाएंगे. एक तो इस कोरोना की वजह से बाई नहीं आ रही है. सोसाइटी वालों की तरफ से सख्त मनाही है और ऊपर से इन की नवाबी देखो. जैसे मैं इन के बाप की नौकर हूं. यह नहीं होता जरा कि काम में मेरी थोड़ी हैल्प कर दें. नहीं, उलटे काम को और बड़ा कर रख देते हैं. कहीं जूता खोल कर रख देंगे, कहीं भीगा तौलिया फेंक आएंगे. कितनी बार कहा, हाथ धो कर फ्रिज या किचन का कोई सामान छुआ करो. लेकिन नहीं, समझ ही नहीं आता इन्हें. बेवकूफ कहीं के,’ अपने मन में ही भुनभुनाई रचना.

‘‘हूं, बड़ी आई साफसफाई पर  लैक्चर देने वाली. समझती क्या है अपनेआप को? जैसे इस घर की मालकिन यही हो. हां, करूंगा, जैसा मेरा मन होगा करूंगा,’’ अमन भन्नाता हुआ अपने कमरे में घुस गया और दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘वैसे, गलती इन मर्दों की भी नहीं है. गलती है उन मांओं की जो बेटियों को तो सारी शिक्षा, संस्कार दे डालती हैं, पर अपने बेटों को कुछ नहीं सिखातीं, क्योंकि उन्हें तो कोई जरूरत ही नहीं है न सीखने की. बीवी तो मिल ही जाएगी बना कर खिलाने वाली,’’ अमन को भुनभुनाते देख वह चुप नहीं रह पाई और बोल दिया जो मन में आया.

बहुत गुस्सा आ रहा था उसे आज. कहा था अमन से, लौकडाउन की वजह से बाई कुछ दिन काम पर नहीं आएगी, तो वह उस की मदद कर दिया करे काम में, क्योंकि उसे और भी काम होते हैं. ऊपर से अभी औफिस का काम भी उसे घर से करना पड़ रहा है, तो समय नहीं मिल पाता है. लेकिन अमन ने ‘तुम्हारा काम है तुम जानो, मुझ से नहीं होगा’ कह कर बात वहीं खत्म कर दी. तो गुस्सा तो आएगा ही न? क्या वह अकेली रहती है इस घर में जो सारे कामों की जिम्मेदारी उस की ही है? आखिर वह भी तो नौकरी करती है बाहर जा कर. यह बात अमन क्यों नहीं समझता.

खाना खाते समय भी दोनों में घर के काम को ले कर बहस शुरू हो गई. रचना ने सिर्फ इतना कहा कि घर के कुछ सामान लाने थे. अगर वह ले आता तो अच्छा होता. वह गई थी दुकान राशन का सामान लाने, पर वहां बड़ी लंबी लाइन लगी थी इसलिए वापस चली आई.

‘‘तो वापस क्यों आ गईं? क्या जरा देर खड़ी रह कर सामान खरीद नहीं सकती थीं जो बारबार मुझे फोन कर के परेशान कर रही थीं? एक तो मुझे इस लौकडाउन में भी बैंक जाना पड़ रहा है, ऊपर से तुम चाहती हो कि मैं घर के कामों में भी तुम्हारी मदद कर दूं? नहीं हो सकता है,’’ चिढ़ते हुए अमन बोला.

‘‘हां, पता है मुझे, तुम से तो कोई उम्मीद लगाना ही बेकार है. क्या करती मैं, धूप में खड़ीखड़ी पकती रहती? फोन इसलिए कर रही थी कि तुम औफिस से आते हुए घर के सामान लेते आना? लेकिन नहीं, तुम तो फोन भी नहीं उठा रहे थे मेरा. वैसे, एक बात बताओ, अभी तो बैंक में पब्लिक डीलिंग हो नहीं रही है, फिर करते क्या हो जो मेरा एक फोन नहीं उठा सकते या घर का कोई सामान खरीद कर नहीं ला सकते? बोलो न? घरबाहर के सारे कामों की जिम्मेदारी मेरी ही है क्या? तुम्हें कोई मतलब नहीं?’’

‘‘पब्लिक डीलिंग नहीं होती है तो क्या बैंक में काम नहीं होते हैं? और ज्यादा सवाल मत करो मुझ से. जो करना है, जैसे करना है, समझो खुद, समझी? खुद तो आराम से ‘वर्क फ्रौम होम’ कर रही हो. जब मरजी होती है, आराम कर लेती हो, दोस्तों से बातें कर लेती हो और दिखा रही हो कि कितना काम करती हो.’’

अमन की बातें सुन कर रचना दंग रह गई कि कैसा इंसान है यह? जरा भी हमदर्द नहीं है? क्या सोचता है? क्या वह घर में आराम करती रहती है? रचना खामोश ही रही.

अमन फिर बोल पड़ा, ‘‘हां, बोलो न, क्या मुश्किल है, बताओ मुझे? जब मन आए काम करो, जब मन आए आराम कर लो. इतना अच्छा तो है, फिर भी नाकमुंह चढ़ाए रहती हो. सच में, तुम औरतों को तो समझना ही मुश्किल है.’’

अब रचना का पारा और चढ़ गया. अभी वह कुछ बोलती ही कि उस की दोस्त मानसी का फोन आ गया.

‘‘हैलो मानसी, बता, कैसा चल रहा है तेरा? बच्चेवच्चे सब ठीक तो हैं न?’’ लेकिन मानसी बताने लगी कि बहुत मुश्किल हो रही है, घर, बच्चे और औफिस का काम संभालना. क्या करें, कुछ समझ नहीं आ रहा है.

‘‘ज्यादा चिंता मत कर. चलने दे जैसा चल रहा है. क्या कर सकती है तू. लेकिन बच्चे और अपनी सेहत का ध्यान रख, वह जरूरी है अभी.’’

थोड़ी देर और मानसी से बात कर रचना ने फोन रख दिया. फिर किचन का सारा काम समेट कर अपनी टेबल पर जा कर बैठ गई.

उस दिन जब उस ने मानसी से अपनी समस्या बताई थी कि घर में वह औफिस की तरह काम नहीं कर पा रही है और ऊपर से बौस का प्रैशर बना रहता है हरदम, तब मानसी ने ही उसे सुझाया था कि बैडरूम या डाइनिंग टेबल पर बैठ कर काम करने के बजाय वह अपने घर के किसी कोने को औफिस जैसा बना ले और वहीं बैठ कर काम करे तो सही रहेगा. जब ब्रेक लेने का मन हो तो अपनी सोसाइटी का एक चक्कर लगा आए या पार्क में कुछ देर बैठ जाए. इस से  अच्छा लगेगा क्योंकि वह भी ऐसा ही करती है.

‘‘अरे वाह, क्या आइडिया दिया तू ने मानसी. मैं ऐसा ही करूंगी,’’ कहते हुए चहक पड़ी थी रचना. लेकिन मानसी की स्थिति जान कर दुख भी हुआ.

बिट्टू और उसका दोस्त- भाग 1: क्या यश को अपना पाई मानसी

टैक्सी घर के बाहर रुकी तो मानसी ने चैन की सांस ली. घर को बाहर से निहारते हुए अंदर प्रवेश किया. यह घर उसे बहुत अच्छा लगता है. यह घर मानसी के पापा ने कुछ समय पहले ही खरीदा था. यहां बहुत शांति है.

मानसी ने जोर से आवाज दी, ‘‘बिट्टू,

कहां हो?’’

मानसी को विश्वास था बिट्टू किसी कोने से निकल कर अभी उस से लिपट जाएगा.

1 सप्ताह पहले जब मानसी को बैंक की तरफ से 4 दिन की ट्रेनिंग के लिए दिल्ली जाना था तो बिट्टू ने रोरो कर घर सिर पर  उठा लिया और मानसी के मम्मीपापा के लिए उसे संभालना मुश्किल हो गया था. शुरू में तो उस का मन भी नहीं लगा, लेकिन मम्मी ने जब फोन पर बताया कि बिट्टू को कोई अच्छा दोस्त मिल गया है तो वह बहुत खुश हो गईर् कि कम से कम अब वह आराम से रह लेगा क्योंकि घर के आसपास अधिकतर बंगले खाली थे. बिट्टू अकेला बोर हो जाता था.

बिट्टू, पापा, मम्मी, मानसी सब को आवाज देती अंदर आ रही थी कि तभी मम्मी किचन से निकलीं. बोली, ‘‘अरे मानी, तुम कब आई?’’

‘‘बस आ ही रही हूं. बिट्टू कहां है?’’

उस की मम्मी हंसते हुए बताने लगीं, ‘‘पहले दिन तो उस ने खूब हंगामा किया. फिर

उस की दोस्ती साथ वाले बंगले में रहने आए नए परिवार के बेटे से हो गई, बस, आजकल उसी के साथ रहता है. स्कूल भी उसी के साथ जाता है वह भी बिना जिद किए. बहुत खुश रहने लगा है आजकल.’’

मानसी ने चैन की सांस ली.

उस की मम्मी बोलीं, ‘‘तुम फ्रैश हो कर जरा आराम कर लो… खाने में क्या खाओगी?’’

‘‘मम्मी, जो बिट्टू खाए वही बना लो.’’

‘‘बिट्टू ने तो अपने दोस्त के साथ उसी के घर खा लिया है.’’

‘‘अरे, यह तो असंभव सी बात है मम्मी… उसे तो कहीं खाना अच्छा नहीं लगता है.’’

‘‘पूछो मत, मानी, अपने दोस्त के पीछेपीछे घूमता है जो वह कहता है, खा लेता है.’’

मानसी हंसती हुई फ्रैश होने चली गई. नहा कर लेटी तो बिट्टू के बारे में सोचने लगी. कुदरत को धन्यवाद देते हुए मन ही मन बोली कि बिट्टू को कोई खुशी तो मिली. न चाहते हुए भी उसे सुधांशु का खयाल आ गया. मानसी के पिता ने अपने बिजनैस पार्टनर की बातों में आ कर 18 साल में ही उस की शादी उन के आवारा बेटे सुधांशु से कर दी थी जो एक बहुत ही गलत निर्णय सिद्ध हुआ था.

सुधांशु उन से बिजनैस के बहाने से एक मोटी रकम ले कर शादी के 1 महीने के बाद ही अमेरिका चला गया था. शुरूशुरू में उस ने सुधांशु से संपर्क करने के बहुत प्रयत्न किए, लेकिन उधर से कभी कोईर् जवाब नहीं आया था. फिर धीरेधीरे मानसी ने अपनी पढ़ाई, साथ ही बिट्टू के जन्म के बाद बढ़ती जिम्मेदारी और फिर जौब की व्यस्तता इन सब में उस ने सुधांशु को एक बुरे स्वप्न की तरह भूल जाने का प्रयत्य किया था जिस में वह अब काफी हद तक सफल भी हो चुकी थी. कुछ समय पहले ही वह अपने मम्मीपापा और बिट्टू के साथ यहां नए घर में शिफ्ट हुईर् थी.

वह सो कर उठी तो बाहर बिट्टू बड़े उत्साह से बौलिंग कराता हुआ दौड़ता आ रहा था. उसे देख कर दौड़ कर उस की बांहों में समा गया. 8 साल के बिट्टू में मानसी की जान बसती थी. वह उसे मां के साथसाथ बाप का प्यार देने की भी जीजान से कोशिश करती थी. बिट्टू को लिपटा कर उस ने उस का माथा चूम लिया.

बिट्टू बड़े उत्साह से बताने लगा, ‘‘मम्मी, आप को पता है मैं बहुत अच्छा क्रिकेट खेलने लगा हूं. मैं 3 बार अपने दोस्त को बोल्ड भी कर चुका हूं. मम्मी, मेरा दोस्त बहुत अच्छा है.’’

‘‘कहां है तुम्हारा दोस्त, जिस के लिए तुम अपनी मम्मी को भूल गए हो?’’

उस ने इधरउधर देखते हुए बिट्टू को छेड़ा और सामने ही 28-30 साल के नौजवान को देख कर मानसी हैरान रह गई जो खुद बड़ी

हैरानी से उसे देख रहा था क्योंकि वह खुद एक बच्चे की मां कहीं से नहीं लगती थी. अच्छेखासे जवान लड़के को बिट्टू के इतने अच्छे दोस्त के रूप में देखना मानसी के लिए किसी शौक से कम नहीं था.

फिर जब उस ने ‘हैलो’ कहा तो वह बस सिर हिला कर खड़ी रह गई. बिट्टू बता रहा था, ‘‘मम्मी, ये मेरे दोस्त हैं यश अंकल. बहुत अच्छे हैं, मेरे साथ बहुत खेलते हैं.’’

‘‘मैं सोच भी नहीं सकती थी बिट्टू का दोस्त आप की एज का इंसान होगा. मम्मी ने भी कुछ नहीं बताया था.’’

मानसी की बात पर यश मुसकराया, ‘‘मेरे विचार से दोस्ती में उम्र का कोई बंधन नहीं होता. आप से मिल कर बहुत खुशी हुई, अच्छा मैं चलता हूं, बाय,’’ कह कर वह गेट की तरफ बढ़ गया.

पहले बैंक में बैठे हुए भी मानसी को बिट्टू की चिंता लगी रहती थी और अब वह जब भी फोन करती मम्मी उसे यही बताती कि वह यश के साथ है. कभी यश उस को पढ़ा रहा होता तो कभी खेल रहा होता उस के साथ. मम्मी ने ही बताया था कि यश के पिता कुलकर्णी यहां अकेले ही रहते हैं. यश की मम्मी का कई साल पहले सड़क दुर्घटना में देहांत हो गया था. यश लंदन में पढ़ रहा है. आजकल पिता के पास आया हुआ है.

अपने मम्मीपापा के साथ मानसी भी कई बार पड़ोस में कुलकर्णी अंकल से मिलने जाती. दोनों बापबेटे बहुत ही सरल स्वभाव के हैं. सब में बहुत ही अपनापन बढ़ता जा रहा था.

एक दिन मानसी ने यश की बातों से अंदाजा लगाया कि वह काफी समझदार लड़का है. उस ने सीए किया था. शुरू में उस ने यश को एक लापरवाह सा लड़का समझ, लेकिन कई बार मिलने से उस की राय बदल गई. बिट्टू वह तो यश के पीछेपीछे घूमता. बिट्टू के साथ हंसतेखेलते यश को देख कर मानसी को भी अच्छा लगने लगा. बहुत सालों बाद दिल खुश हो कर मुसकराया था.

सीधीसादी गंभीर सी मानसी भी यश के दिल में उतर चुकी थी. अब अकसर यश भी

जिद कर के मानसी को भी अपने खेल में शामिल कर लेता. दोनों मन ही मन एकदूसरे को पसंद करने लगे. मानसी के जीवन में फिर से रंग बिखरने लगे.

एक दिन मानसी यश और बिट्टू के साथ डिनर के लिए गई. घर लौटने पर बिट्टू तो अंदर भाग गया, पर मानसी गाड़ी के पास कुछ पल रुकी तो यश ने एकदम अपना हाथ उस के कंधे पर रखा तो मानसी के सारे बदन में बिजली सी दौड़ गई. वह हड़बड़ा गई.

बिट्टू और उसका दोस्त- भाग 2: क्या यश को अपना पाई मानसी

यश ने बहुत आशाभरी नजरों से उसे देखते हुए कहा, ‘‘मानसी, बिट्टू और मुझ में एक बात एक सी है. हम दोनों को बचपन में कंपनी देने वाला कोई नहीं था. उस के साथ होने पर मैं अपने बचपन में चला जाता हूं. मुझे उस से दूर मत करना. अपनी और बिट्टू की दुनिया में मुझे भी हमेशा के लिए शामिल कर लो प्लीज.’’

मानसी पसीने से भीग गई. सालों बाद किसी पुरुष ने स्पर्श किया था. दिल तेजी से धड़क उठा. वह तेजी से अपने घर में चली गई.

अगले ही दिन मानसी को एक मीटिंग के लिए बाहर जाना पड़ा. 3 दिन बाद जब वह लौटी तो उसे घर में एक अजीब सा सन्नाटा महसूस हुआ. उस ने ड्राइंगरूम में चुपचाप बैठी अपनी मम्मी को देखा जो उसे बहुत उदास लगी.

मानसी ने परेशान हो कर पूछा, ‘‘मम्मी, आप की तबीयत तो ठीक है? पापा और बिट्टू कहां हैं?’’

‘‘मेरी तबीयत ठीक है, तुम्हारे पापा कुलकर्णी साहब के घर पर हैं.’’

‘‘तुम्हारा टूर कैसा रहा? चलो हाथमुंह धो कर कुछ खापी लो.’’

‘‘मम्मी, बिट्टू कहां है?’’

इतने में मानसी के पापा, यश और उस के पापा सब लोग साथ चले आए. मानसी ने सब को नमस्ते की, फिर बेचैनी से पूछा, ‘‘बिट्टू कहां है?’’

मानसी के पापा ने बहुत ही थके स्वर में कहा, ‘‘कल मैं बाहर गया हुआ था, तुम्हारी मम्मी अकेली थी. सुधांशु आया हुआ है और वह जबरदस्ती बिट्टू को ले गया.’’

यह सुन कर मानसी के दिमाग में जैसे धमाका हुआ, जैसे किसी ने उस का दिल मुट्ठी में दबा लिया हो.

मानसी के पापा की आवाज भर्रा गई, ‘‘वह धोखेबाज आदमी जो शादी के फौरन बाद मेरी बेटी को छोड़ कर चला गया, जिस ने कभी बिट्टू की शक्ल नहीं देखी, अमेरिका में एक अंगरेज लड़की के साथ रहता है, उस के 2 बच्चे भी हैं, मुझे पता चला है बिट्टू के जरीए मेरी इकलौती बेटी के हिस्से की संपत्ति पर कब्जा जमाने आया है. अमेरिका में उस का धोखाधड़ी का व्यवसाय ठप हो चुका है.’’

मानसी का गला सूख गया. एक बोझ सा उसे अपने दिल पर महसूस हुआ.

तभी यश की गंभीर आवाज आई, ‘‘अंकल, धैर्य रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’’

यश के पापा ने भी कहा, ‘‘मेरा दोस्त सैशन जज है, तुम टैंशन मत लो, मैं उस से सलाह करता हूं.’’

मानसी की मम्मी रोते हुए कहने लगीं, ‘‘वह कह रहा था बिट्टू मेरा भी

उतना ही बेटा है जितना मानसी का और वह उस के लिए कोर्ट तक जाएगा.’’

यश ने आंखों ही आंखों में उसे हिम्मत रखने को कहा तो मानसी ने अपनेआप को कुछ मजबूत महसूस किया. बोली, ‘‘तो ठीक है, मैं उस से कोर्ट में बात करने को तैयार हूं. मैं आज ही उस के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट करवाती हूं,’’  और फिर उस ने फोन करने शुरू कर दिए. परिणाम यह  हुआ कि रात को बिट्टू उस के पास था. वह कुछ डराडरा, सहमासहमा सा था. फिर उसे वकील की तरफ से सुधांशु का दिया हुआ नोटिस मिला.

उस ने बैंक से छुट्टी ले थी. वह बहुत परेशान थी. सब से ज्यादा परेशानी उसे बिट्टू के व्यवहार से हो रह थी. वह 2 दिन बाप के पास रह कर आया था और सुधांशु ने पता नहीं उसे क्या मंत्र पढ़ाया कि वह काफी उखड़ाउखड़ा सा था. बातबात पर उस से लड़ रहा था. कह रहा था, ‘‘आप ने मुझे मेरे पापा के बारे में क्यों नहीं बताया? पापा कितने अच्छे लगे मुझे.’’

मानसी कुछ देर सोचती रही, फिर बोली,  ‘‘हम दोनों अलग हो गए थे और तुम्हारे पापा

ने कभी तुम्हारी शक्ल तक  देखने की कोशिश नहीं की.’’

मानसी कभी सोच भी नहीं सकती थी कि उसे जीवन में कभी अपने बेटे के कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा.

बिट्टू उलझन भरी नजरों से उसे देखता रहा फिर कहने लगा, ‘‘जब आप ने घर बदल लिया तो हमें कहां ढूंढ़ते?’’

उस समय छोटा सा बिट्टू मानसी को नौजवान लग रहा था. लगा सुधांशु ने उस की खूब ब्रेनवाशिंग कर दी है.

मानसी मानसिक रूप से बहुत थक गई थी. सुधांशु ने बिट्टू को लेने के लिए उस पर केस कर दिया था और अदालत से केस के दौरान हफ्ते में 2-3 बार बिट्टू से 2-3 घंटे बात करने की अनुमति भी ले ली थी.

उस दिन के बाद सुबह यश से उस का पहली बार आमनासामना हुआ. वह स्वयं ही उस से बच रही थी. यश आया और मानसी की मम्मी आशा के कहने पर उस के साथ नाश्ता करने बैठ गया. उस ने मुसकराते हुए मानसी का हाथ थपथपा दिया और इतना ही कहा, ‘‘मैं हर मुश्किल में तुम्हारे साथ हूं.’’

मानसी की आंखें भर आईं तो यश ने उस के सिर पर प्यार से हाथ रख दिया, हिम्मत रखो मानी, हम मिल कर इस समस्या का समाधान निकाल लेंगे.’’

उसी समय बिट्टू उठ कर आ गया और यश उसे गोद में बैठा कर प्यार से बातें करने लगा. बिट्टू यश से बातें करता हुआ काफी खुश दिखने लगा, तो मानसी को थोड़ा चैन आया.

अदालत में मुकदमा शुरू हो गया. वह संतुष्ट थी. उस ने बहुत होशियार वकील किया. उस दिन वह पापा के बजाय यश के साथ वकील से मिलने आई, लेकिन वहां अपने वकील के साथ सुधांशु को देख कर बुरी तरह चौंकी.

सुधांशु भी उसे यश के साथ देख कर चौंक गया और धमकी दी, ‘‘इस भूल में मत रहना कि मैं बिट्टू को छोड़ जाऊंगा.’’ उस की आवाज बहुत सख्त थी और त्योरियां चढ़ी हुई थीं.

‘‘मैं जरूर बिट्टू को आप के हवाले कर देती यदि मुझे अनुमान न होता कि 9 साल बाद आप के दिल में उस के लिए प्यार क्यों जागा है. बिट्टू के माध्यम से आप मेरी या पापा की संपत्ति में से कुछ भी पाने में सफल नहीं हो पाएंगे.’’

‘‘जो मेरे बेटे का हक है वह तो मैं हासिल कर के ही रहूंगा.’’

यश से रहा नहीं गया तो बोलो, ‘‘आप को जो भी कहना है कोर्ट में कहना,’’ फिर वह मानसी से बोला, ‘‘चलो, मानी, अपना समय मत खराब करो.’’

सुधांशु आगबबूला हो गया, ‘‘मैं अदालत को बताऊंगा कि मुझे उस घर में मेरे बच्चे का चरित्र बिगड़ने का डर है. जो मां अपने जवान होते बच्चे के सामने रंगरलियां मनाती फिरती हो, मैं उस के पास अपने बेटे को नहीं छोड़ सकता.’’

मानसी का चेहरा अपमान से लाल पड़ गया.

कसक- भाग 3: क्या प्रीति अलग दुनिया बसा पाई

मैं तो जैसे सलीब पर टंग गया. एक रात प्रीति को समझतेसमझते मैं थक गया. वह बराबर मम्मी पापा के लिए अनापशनाप कहे जा रही थी, उन्हें अपमानित कर रही थी. यह सब बरदाश्त के बाहर हो गया था.

वह अपना तकिया उठा कर बाहर जाने लगी और बोली, ‘‘तुम्हारे मम्मीपापा माई फुट.’’

उस की इस बदतमीजी से खीज कर स्वत: ही मेरा हाथ उस पर उठ गया. मैं ने उस से कहा, ‘‘सौरी बोलो प्रीति.’’

उस ने कहा, ‘‘किस बात के लिए बोलूं? तुम सौरी बोलो, तुम ने हाथ उठाया है.’’

उस ने माफी नहीं मांगी उलटी जोरजोर से चिल्लाने लगी. यहां से जाने का बहाना मिल गया था उसे. बस फिर क्या था, उस ने अपना सूटकेस उतारा और उस में अपना सामान पैक कर दिल्ली अपने पीहर चली गई. हां, वह दिल्ली की रहने वाली थी. ऐसा लगा जैसे वह किसी मौके की तलाश में ही थी.

मुझे खुद पर ग्लानी हो आई कि यह क्या कर दिया मैं ने. उसे मनातेमनाते ही उसे खो दिया. मैं ने उसे बहुत रोकना चाहा. अनजाने में घबरा कर कि कहीं उसे खो न दूं, मैं ने माफी भी मांगी, लेकिन फिर उस ने एक न सुनी. लगा उसे बहुत अभिमान हो गया था शायद. उस घमंड ने उसे

न झकने दिया न ही उस ने अपनी गलती की माफी मांगी.

तभी मेरे मन ने मुझे धिक्कारा कि गलती कर के भी माफी न मांगे और मांबाप का

सम्मान न कर सके, ऐसा खोखला व्यक्तित्व है उस का, जिस के पीछे तू दीवाना हो रहा है.

जाने दे उसे. चली जाने दे. उसी दिन खत्म हो गया. वह रिश्ता शोर सुन कर मम्मीपापा बाहर आ गए थे.

मम्मी पागलों की तरह ‘बहूबहू’ पुकारती रहीं. कभी मेरी तरफ हाथ पसारतीं तो कभी दरवाजे की तरफ उसे रोक लेने को दौड़तीं.

उस ने फिर किसी की नहीं सुनी न पीछे मुड़कर ही देखा.

पापा शांत अपनी कुरसी पर बैठे हुए यह तमाशा देखते रहे. कुछ नहीं बोले. उन के चेहरे पर एक अजीब सा दर्द साफ दिखाई दे रहा था. चुप न रहते तो क्या करते? और फिर इस तरह से सूने दिनों की शुरुआत हो गई और यह सूनेपन का सिलसिला जिंदगीभर चलता ही रहा. कभी न खत्म होने वाला सिलसिला.

एक घर 3 कोनों में बंट गया- मैं, पापा और मम्मी. खाने की टेबल पर कभीकभी साथ हो लेते. वे दोनों कभी साथ बैठते, बतियाते और जी हलका कर लेते, परंतु मेरे कोने का अंधेरा, मेरे मन की कसक बढ़ती ही गई. कुछ दिन बाद वे लोग भी चले गए.

इतने बड़े बंगले में समय गुजारना बहुत मुश्किल था. हर कोने में प्रीति की यादें बसी थीं. समय काटे नहीं कटता था. अकेले रहते हुए सूनापन मन में ऐसा रम गया था कि कोई जोर से बोलता तो मैं चौंक जाता. औफिस भी जाता था, सभी काम होते थे, लेकिन कहीं भी मन नहीं लगता था. किसी से हंसीमजाक करना बिलकुल न सुहाता था.

उस दिन भी क्लब में बैठा था. सभी ऐंजौय कर रहे थे. तभी किसी ने कहा, ‘‘यार विक्रम तूने मोहित को देखा?’’

उस ने हाथ का इशारा कर के कहा, ‘‘वहां उस कोने वाली टेबल पर. वह आजकल बहुत पीने लगा है. तुम तो पहले भी मिले हो. जानते हो न उसे.’’

‘‘हां बिलकुल अच्छी तरह से जानता हूं. बहुत हंसमुख हुआ करता था.’’

यह सुरेंद्र ही था जो विक्रम को मेरे बारे में बता रहा था. विक्रम इसी महीने यहां

ट्रांसफर हो कर आया था.

‘‘अब वह पहले वाला मोहित नहीं रहा…

न वह हंसता है न ही मजाक करता है,’’

सुरेंद्र बोला.

विक्रम ने अचंभित हो कर पूछा, ‘‘ऐसा क्या हो गया भाई?’’

उस ने विक्रम को बताया, ‘‘धोखा दे गई इस की पत्नी इसे. शायद किसी के साथ भाग गई. तभी से यह देवदास बना फिरता है.’’

मन हुआ जा कर उस का गला पकड़ लूं या जबान खींच लूं उस की पर यह सोच कर कि गलत भी तो नहीं कह रहा वह मैं चुपचाप वहां से उठ कर चला आया.

ऐसे जुमले अकसर महफिलों में, पार्टियों में मेरे बारे में सुनाई देने लगे थे. शुरू में बुरा लगता था, लेकिन धीरेधीरे यह सब सुनने की आदत सी हो गई.

एक दिन पापा का फोन आया. कहने लगे, ‘‘यहां आ जाओ कोई बात करनी है,’’ बहुत दिनों बाद उन्होंने मौन तोड़ा था और संयत हो कर मुझे अपना फैसला सुनाया, जिसे सुन कर मैं स्तब्ध

रह गया.

मुझे उसे तलाक के लिए स्वयं को तैयार करने में काफी समय लग गया. असल में उम्मीद लगाए बैठा था कि प्रीति एक न एक दिन जरूर लौट आएगी. वह भी मुझ से ज्यादा दिन अलग नहीं रह पाएगी, लेकिन मैं प्रति दिन उस का इंतजार करता ही रह गया. उसे नहीं आना था तो वह नहीं आई.

कोर्टकचहरियों के चक्कर इंसान को तोड़ कर रख देते हैं, यह मैं ने तभी जाना था. सम्मन आते थे, तारीखें पड़ती थीं, जिरह होती थी. वकीलों के वाकजाल से भला कौन बच सकता. कोर्ट में झठेसच्चे आरोप और उन्हें सिद्ध करने

के प्रयास.

इस सारी प्रक्रिया के दौरान मानसिक तनाव

के बीच में धीमी गति से गुजरता हुआ

जीवन… ऐसी कितनी ही भयानक रातें मुझे गुजारनी पड़ीं. एक रात वह भी थी जिस दिन प्रीति घर छोड़ कर गई थी. वह अमावस की

रात से भी ज्यादा काली रात थी. बाहर तो घना अंधेरा था, ही लेकिन मन के अंदर भी तूफान उठ रहा था.

हर बार चीखने का मन करता था.

मन यह पूछना चाहता था कि प्रीति मैं ने क्या बिगाड़ा था तुम्हारा जो तुम ने मेरे साथ धोखा किया? मैं ने तो तुम्हें पलकों पर बैठाया था, जी जान से प्यार किया था. मेरे प्यार में क्या कमी रह गई थी? तुम मुझ से कहती तो सही.’’

सोचता हूं कि अंतत: फैसला होगा ही और वह इस विवाह बंधन से मुक्त हो जाएगी. वह तो निर्मोही है, धोखेबाज है, न जाने किस मिट्टी की बनी है. लेकिन मैं ने तो उस से प्यार किया था, किया है और शायद जीवनपर्यंत करता रहूंगा. मैं आज भी स्वयं को इस तलाक के लिए राजी नहीं कर पाया जो परिवार और समाज चाहता था, वह उस ने हमारे बीच करवा दिया.

मगर मैं ने उसे दिल से नहीं माना. यह कैसा प्रेम संबंध था? यह कैसा विवाह संबंध था, जिसे मैं ने माना? लेकिन उस ने नहीं माना. यह कसक सदा मेरे मन में रहेगी कि क्यों प्रीति तुम ने ऐसा क्यों किया?’’

कसक- भाग 2: क्या प्रीति अलग दुनिया बसा पाई

शुरूशुरू  में वह क्लब में डांस करने में हिचकिचाती थी. उस समय मैं ने ही उसे बहुत संबल दिया. मेरे प्रोत्साहित करने पर धीरेधीरे वह खुलने लगी और जल्द ही वह पार्टी में आकर्षण का केंद्र बनती चली गई. तब मुझे बुरा नहीं लगा था.

मैं अपने सहकर्मियों के बीच गर्व महसूस करने लगा था, यह सोच कर कि सब की बीवियों में मेरी बीवी ही इतनी सुंदर और आकर्षक है.

अब सोचता हू कि शायद मैं ने वहीं गलती कर दी. यदि मैं उसे वहीं रोक देता, मैं उसे वहीं समझ जाता, तो शायद इतनी बात नहीं बढ़ती. परंतु नहीं मुझे बाद में समझ आया कि प्रीति बंध कर रहने वाली इंसान नहीं थी, वह तो स्वतंत्र आकाश में उड़ान भरने वाला परिंदा थी. उस ने घर की परिधि में रहना नहीं सीखा था. यहां आ कर उसे उड़ने के लिए खुला आसमान मिल गया था.

उसे सजनासंवरना, मौजमस्ती करना, सैरसपाटे, होटलों में खाना और शौपिंग करना बहुत पसंद था. शुरूशुरू में उस के मोह में यह सब मुझे भी गलत नहीं लगता था. लेकिन हर बात की जब अति हो जाती है तब वही बात बुरी लगने लगती है.

यहां आए अभी कुछ दिन ही हुए थे. एक दिन उस ने कहा, ‘‘जानू हम शादी के बाद कहीं हनीमून पर नहीं गए.’’

‘‘चलो न कहीं चलते हैं,’’ मैं भी उसे मना नहीं कर सका, ‘‘तुम बताओ कहां चलना है.’’

‘‘जहां तुम कहो, चलते हैं,’’ और उस के कहने पर हम दोनों ने कश्मीर का ट्रिप प्लान किया.

फिरदौस ने सच ही कहा है कि कश्मीर धरती का स्वर्ग है. यह वहां जा कर ही जाना. हरीभरी वादियां, कलकल बहती नदियां, बर्फ से ढके पर्वत मन मोह लेते. श्रीनगर में डलझल, शिकारे और गुलमर्ग, सोनमर्ग के बर्फीले पहाड़, फूलों से लदे बगीचे, देवदार के ऊंचेऊंचे वृक्ष आदि सभी कुछ बहुत ही मनमोहक. वह उन नजारों में खो कर रह गई. जगहजगह घूमना, फोटो खिंचाना उस का शौक था.

मैं ने भी उसे बहुत घुमाया, ढेरों तोहफे दिए, जी भर कर प्यार किया. उस के प्रेम में डूबा हुआ था मैं.

तभी फिर अचानक मुझे उस के व्यवहार पर संदेह होने लगा. मैं जब भी औफिस से घर लौट कर आता तो वह कभीकभी घर पर नहीं मिलती थी. पूछने पर बहाने बना देती थी. धीरेधीरे वह मुझे इग्नोर करने लगी. फिर कई बार उसे किसी और के साथ हाथ में हाथ डाले हंसतेबतियाते देख संदेह गहराने लगा था.

जब मैं उस से पूछता कि वह कौन था तो जवाब में कहती कि तुम बेकार ही शक करते हो. वह तो मेरा दोस्त था.

इस बात से मैं क्षुब्ध रहने लगा. वह मुझे धोखा दे रही थी. मैं उस के प्रेम में इतना पागल था कि उस के द्वारा दिए जा रहे धोखे को धोखा मानने को तैयार ही नहीं था. मेरा प्यार मुझ से दूर होता जा रहा था. उस के व्यवहार में, मैं बदलाव महसूस कर रहा था. ऐसा लगता कि वह मुझ से बोर हो चुकी है और अब कोई दूसरा तलाश रही है.

कई बार मन करता कि पूंछूं कि प्रीति मेरे प्यार में क्या कमी रह गई थी? तुम किस बात का मुझ से बदला ले रही हो? अब मुझ से पहले जैसा प्यार नहीं रहा तुम्हें. आखिर क्यों?

उस की तरफ से किसी भी क्यों का कोई जवाब नहीं था. मेरा मन बहुत दुखी था और सांत्वना देने वाला कोई नहीं था.

कई बार घर में अकेले बैठे सोचता रहता था कि मुझ से कहां गनती हो गई? क्या प्रीति को चुनने में मुझ से कोई भूल हुई? कभीकभी बहुत गुस्सा भी आता. आखिर मैं एक मर्द हूं, प्रीति का मुझे अनदेखा करना, उस का बेगानापन, पराए लोगों के साथ उस का घूमना, कईकई घंटे घर से गायब रहना अब सहन नहीं हो रहा था. मेरा दिल टूट चुका था. फिर भी मैं ने सब्र किया यह सोच कर कि सब ठीक हो जाए.

एक रात क्लब में पार्टी थी. उस समय प्रीति बहुत खूबसूरसूत लग रही थी. थोड़ी देर

में मैं ने देखा वह अपने होश में नहीं थी. उस ने शायद ज्यादा पी ली थी. यह मैं ने पहली बार देखा, उस के हाथ में सिगरेट भी थी और वह अफसरों के बीच में बेतरह पश्चिमी संगीत पर नाच रही थी. मेरी सहनशक्ति जवाब दे चुकी थी.

मैं ने उस के पास जा कर कहा, ‘‘प्रीति चलो घर चलते हैं.’’

उस ने मेरा हाथ झटक दिया. मैं ने फिर कोशिश की, परंतु नाकामयाब रहा. मैं वहां कोई तमाशा नहीं करना चाहता था, पर जब पानी सिर से ऊपर निकलने लगा तब अंत में मैं उसे घसीटता हुआ घर ले आया.

उसी दिन से वह मुझ से नाराज रहने लगी क्योंकि पार्टी में मैं ने उस का अपमान जो कर दिया था. घर आते ही वह मुझ पर बरस पड़ी, ‘‘तुम होते कौन हो मुझे रोकने वाले? हर किसी को अपना जीवन अपने तरीके से जीने का हक है. तुम मुझ से यह हक नहीं छीन सकते.’’

यहां कोई फिल्म का दृश्य नहीं फिल्माया जा रहा था, यहां हकीकत में मेरी जिंदगी पर बन आई थी. स्थिति मेरे हाथ से निकलती जा रही थी.

इसी बीच मम्मीपापा का फोन आया, ‘‘बहुत दिन हो गये तुम लोगों से मिले. बड़ी याद आ रही है, सो हम कल आ रहे हैं.’’

सुन कर मुझेे बेहद खुशी हुई. मैं ने उन के आने की खबर जब प्रीति को सुनाई तो उस ने कोई खुशी जाहिर नहीं की. उस के माथे की त्योरियां चढ़ गईं क्योंकि उस की स्वतंत्रता में खलल पड़ने वाला था. यह वही प्रीति थी जो अपने सासससुर का बहुत आदर करती थी और वे भी उसे बेहद चाहते थे. उस का ऐसा मन देख कर मुझे बहुत दुख पहुंचा.

मैं ने उसे बहुत समझया, ‘‘वे तो कुछ ही दिनों के लिए आ रहे हैं. तुम उन से प्यार से मिलोगी तो उन्हें अच्छा लगेगा.’’

मगर वह नहीं मानी. उस ने न उन से निभाया न ही उन का मानसम्मान किया. मैं ने सोचा था कि मम्मी आ कर उसे समझ लेंगी और पापा के सामने शर्म से प्रीति भी सही राह पर आ जाएगी, परंतु उस का व्यवहार देख कर मुझे बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ी.

मम्मी उसे हर तरह से समझने की कोशिश कर रही थीं. विवाह के बंधन, पतिपत्नी के

बीच के अटूट संबंध, समाज का डर, रिश्तेनाते उसे कुछ न बांध सका. मम्मी उसे व्रत, तीजत्योहार, रीतिरिवाज समझने के प्रयत्न करतीं, तो वह उलटीसीधी बातें कर के उन का अपमान करती, तर्कवितर्क करती. मम्मी ने भी हथियार डाल दिए.

दिनप्रतिदिन झगड़े बढ़ते चले गए. सासससुर उसे बोझ लग रहे थे. इस स्थिति में जीना दूभर हो गया था. मेरे गले में जैसे फंदा सा कसता जा रहा था. मम्मीपापा से मेरी हालत देखी नहीं जा रही थी. उन का प्रीति के साथ रहना भी मुश्किल हो रहा था और वे मुझे इस हालत में छोड़ कर भी जाना नहीं चाहते थे.

कसक- भाग 1: क्या प्रीति अलग दुनिया बसा पाई

‘‘मैंअपनी कार से जैसे ही घर के आंगन में घुसा मेरी नजर बोगनवेलिया पर पड़ी. सच कितना मनमोहक रंग था. उस का खिलाखिला सा चटक रानी कलर, कितना खूबसूरसूत लग रहा था. फिर एक ठंडी हवा का झंका प्रीति की याद दिला गया…

लाख कोशिश करने पर भी उसे भुला पाना आसान नहीं. उस ने बौटनी विषय (वनस्पति शास्त्र) में एमएससी की थी. तभी तो उसे पेड़पौधों का बहुत ज्ञान था. हर पौधे के बारे में वह बताती रहती थी कि आरुकेरिया लगाना हो तो जोड़े में लगाना चाहिए.

लेकिन एक पौधा ही उस का बहुत महंगा आता था. मैं ने कहा था कि यदि शौक पूरा करना है तो एक ही ला कर लगा लो. उस ने सामने लान में कई रंगों के गुलाब ला कर लगा ये थे जो उस घर में आज भी उस की शोभा बढ़ा रहे थे. उस के बाद उस ने बहुत ही खूबसूरसूत और दुलर्भ पौधे मंगवा कर लगवा ये जिन के बारे में मैं जानता भी नहीं था.

वह कहती थी, ‘‘युक्लिपटिस तो घर में कभी भूल कर भी मत लगा न… उस की जड़ें जमीन का सारा पानी सोख जाती हैं और उसे देखने के लिए गरदन पूरी ऊपर करनी पड़ती है,’’ और वह अपनी गरदन पूरी ऊपर कर के बताती.

प्रीति की उस अदा पर हंसी आ जाती थी. मैं मन ही मन सोचता कि कब तक उसे याद कर के पलपल मरता रहूंगा? मुझे उसे भूल जाना चाहिए. मगर दूसरे ही पल मन ही मन सोचता कि उसे भूल जाना इतना आसान नहीं है.

घर में घुसने से पहले ही मन उदास हो  गया. घर के बाहर जो मेरी नेम प्लेट लगी थी, वह भी उसी ने बनवाई थी और उसे देख कर कहा था कि वाह मोहित सिंहजी आप तो बड़े रोबदार लग रहे हो.

उस दिन रविवार था. किताबों की अलमारी साफ किए बहुत समय हो गया था. सो मैं ने यह निश्चय किया कि बहादुर को कह दूंगा, उसे जब समय मिलेगा, वह अपने हिसाब से इस की सफाई कर देगा. लेकिन बहादुर इस की सफाई करे उस के पहले कुछ बेकार किताबों  को रद्दी में निकालने के लिए उन्हें एक बार देख लेना चाहिए, यह सोच कर मैं ने किताबों की अलमारी खोली और किताबें निकालने लगा.

2 पुरानी किताबों के बीच में से एक खूबसूरत सा कार्ड निकला, जिस पर लिखा था ‘मोहित वैड्स प्रीति.’ यह कार्ड भी उस ने ही पसंद किया था. कहने लगी थी कि अगर तुम्हें भी पसंद हो तो इस में हम लाल रंग की जगह हलका गुलाबी और सुनहरी रंग करवा दें.

आज भी वह शादी का कार्ड ज्यों का त्यों था और मुंह चिड़ा रहा था कि तुम जो इतना अपनी मुहब्बत का दम  भरते थे, उस का क्या हुआ.

सच, वह प्रेम विवाह था या पारंपरिक विवाह, कोई कह नहीं सकता था. मैं ने प्रीति को देखा, वह मुझे इतनी पसंद आ गई कि यह चाहत प्रेम में कब बदल गई पता ही नहीं चला. फिर भी यह कहना गलत होगा कि यह प्रेम विवाह था. मैं ने घर वालों की रजामंदी से सभी रिश्तेदारों के बीच हिंदू संस्कारों को पूरा करते हुए पारंपरिक तरीके से यह विवाह किया था.

प्रीति दुलहन के रूप में घर आई. इतनी खूबसूरसूत बहू पा कर सभी खुश थे. प्रीति को जैसे कुदरत ने स्वयं अपने हाथों से बनाया हो. जो भी उसे देखता मुग्ध हुए बिना नहीं रहता था. बोलती तो जैसे वातावरण में मधुर संगीत बज उठता, चलती तो जैसेजैसे धरतीआसमान मंत्रमुग्ध हो देखने लगते. रूप ऐसा कि हाथ रख दो तो मैली हो जाए. गुणों की खान थी वह. ऊपर से सुरुचिपूर्ण रहनसहन उस की सुदरता में चार चांद लगा देता था.

वह कालेज में व्याख्या के पद पर 2 साल से कार्यरत थी. मुझे तो लगता था जैसे मुझे मनमांगी मुराद मिल गई हो. शादी से पहले मैं ने न जाने कितनी लड़कियां देखी थीं, परंतु हर बार यह कह कर टाल दिया कि इसे देख कर मन के शिवालय में घंटी नहीं बजी. जब प्रीति को देखा तो मेरे मनमंदिर में मधुर घंटियां बज उठी थी. कितनी लड़कियों की तसवीरें देखी, लेकिन कोई मन के अलबम में फिर नहीं हुई, लेकिन प्रीति मन में ऐसी बसी कि फिर किसी लड़की की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा.

मुझे आज भी याद है वह शादी का दिन, उस के साथ बीते वे मधुर क्षण, कितनी कोमल, कितनी प्यारी, कितनी अच्छी थी प्रीति. शादी के कुछ महीने मुहब्बत की बातें करते, घूमतेघूमते पलक झपकते ही निकल गए. उन दिनों प्रीति के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता था. मैं ही नहीं सारे घर वाले खासकर के मम्मीपापा भी उस की तारीफ करते नहीं थकते थे. ऐसा कुछ विशेष था उस में जो हर किसी को दीवाना बना देता था.

मुझे भी मेरे सभी दोस्त छेड़ते थे कहते कि देखो इस ने तो भाभी पर मोहित हो कर अपना नाम सार्थक कर लिया.

शादी के बाद मुश्किल से 6 महीने बीते होंगे कि मेरी पोस्टिंग देहरादून हो गई. मैं प्रीति को ले कर देहरादून आ गया. उस ने अपनी नौकरी से कुछ दिनों की छुट्टी ले ली. मैं ने तब भी बहुत समझया था, ‘‘मेरी तो जगहजगह पोस्टिंग होती रहेगी? तुम छुट्टी कब तक लेती रहोगी. यह नौकरी छोड़ दो और आराम से मेरे साथ चल कर रहो.’’

मगर उस समय वह मेरी बात टाल गई. बात आईगई हो गई और हम वहां पहुंच गए. वहां मुझे बंगला मिल गया. हम दोनों ने अपने घर को मनचाहे रूप में सजाया. कई प्लान बनाए. ऐसे करेंगे, वैसे करेंगे, यह होगा, वह होगा और न जाने क्याक्या सोचते रहते थे. हंसतेखिलखिलाते, हाथों में हाथ डाले जीवन के वे सुहाने पल पंख लगा कर उड़ गए.

उस समय मैं अपनेआप को दुनिया का सब से खुशहाल इंसान समझने लगा था. यहां आने के बाद मैं उसे अपने से दूर भेजना नहीं चाहता था. मैं चाहता था वह सदा मेरी बांहों के घेरे में रहे. हर पल मेरे घर को महकाती रहे. तो इस में मैं ने क्या गलत चाहा था.

हर पति अपनी पत्नी को इसी तरह चाहता है. मैं ने उस से कहा भी था कि मेरी इतनी अच्छी नौकरी है, सब सुखसुविधाएं हैं, तुम अपनी नौकरी से इस्तीफा दे कर यहीं रहो या यहां के कालेज में जौब कर लो.

मुझे लगा वह मान गई. फिर मैं निश्चिंत हो गया. मैं तो यही सोचता था कि लड़कियां तभी नौकरी करती हैं जब वे जीवनयापन के लिए मजबूर हो जाती हैं.

प्रीति ने मुझ से झठ बोला. उस ने नौकरी से इस्तीफा नहीं दिया बल्कि अपनी छुट्टियां बढ़ा ली थीं. मुझे लगता था कि वह मेरे साथ खुश है. उस ने यहां आ कर जाना कि यहां जिंदगी कितनी अलग है. यहां एक औफिस क्लब था, जिस का मैं भी सदस्य था. वहां पार्टियां होती रहती थीं. उसे पार्टियों में जाना अच्छा लगता था.

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