Family Story In Hindi: लाड़ली

‘‘चा  ची, आप को

तो आना ही पड़ेगा… आप ही तो अकेली घर की बुजुर्ग हैं… और बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना शादीब्याह के कार्यक्रम अपूर्ण ही होते हैं,’’ जेठ के बेटेबहू के इस अपनापन से भरे आग्रह को सावित्री टाल न सकी पर अंदर ही अंदर जिस बात से वह डरती थी वही हुआ. न चाहते हुए भी वहां स्वस्तिका से सावित्री

का सामना हो गया. यद्यपि स्वस्तिका सावित्री की रिश्ते में नातिन थी फिर भी वह उस की आंख की किरकिरी बन

गई थी.

आराधना की मौत हुए अभी साल भर भी पूरा नहीं हुआ था पर स्वस्तिका के चेहरे पर अपनी मां की मौत का तनिक भी अफसोस नहीं था बल्कि वह तो अपने पति की बांहों में बांहें डाले हंसती हुई सावित्री के सामने से निकल गई थी. यह देख कर उन का मन बेचैन हो उठा और तबीयत ठीक न होने का बहाना कर वह घर लौट आई थीं.

सावित्री की जल्दबाजी से प्रकाश और विभा को भी घर लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही प्रकाश झल्ला पड़ा, ‘‘मां, तुम भी कमाल करती हो…जब स्वस्तिका से अपना कोई संबंध ही नहीं रहा तो उस के होने न होने से हमें क्या फर्क पड़ता है.’’

विभा ने भी समझाना चाहा, ‘‘मम्मी- जी, कब तक यों स्वयं को कष्ट देंगी आप. जिसे दुखी होना चाहिए वह तो सरेआम हंसतीखिलखिलाती घूमती है…’’

सावित्री बेटेबहू की बातों पर चुप ही रही. क्या कहती? प्रकाश और विभा गलत भी तो नहीं थे.

कपड़े बदल कर वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गईं पर अशांत मन चैन नहीं पा रहा था. बारबार स्वस्तिका के चेहरे में झलकती आराधना की तसवीर आंखों में तैर जाती.

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सहसा सावित्री के विचारों में स्वस्तिका की उम्र वाली आराधना याद हो आई. आराधना भी बिलकुल ऐसी ही मस्तमौला थी पर तुनकमिजाज…जिद्दी ऐसी कि 2-2 दिनों तक भूखी रहती थी पर अपनी बात मनवा के दम लेती.

शेखर कहते भी थे कि बेटी को जरूरत से ज्यादा सिर चढ़ाओगी तो पछताओगी, सावित्री. पर कब ध्यान दिया सावित्री ने उन बातों पर. सावित्री के लाड़प्यार की शह में तो आराधना बिगड़ैल बनती गई.

पिताजी का डर था जो थोड़ीबहुत आराधना की लगाम कस के रखता था, वह भी उन की अचानक मौत के बाद जाता रहा. अब वह सुबह से नाश्ता कर कालिज निकल जाती तो बेलगाम हो कर दिन भर सहेलियों के साथ घूमती रहती.

सावित्री कुछ कहती तो आराधना झल्ला पड़ती. उस का समयअसमय आना- जाना जरूरत से ज्यादा बढ़ता जा रहा था.

प्रकाश भी अब किशोर से जवान हो रहा था. उसे दीदी का देर रात तक घूमनाफिरना और रोज अलगअलग पुरुष मित्रों का घर तक छोड़ने आना अटपटा लगता पर क्या कहता वह? कहता तो छोटे मुंह बड़ी बात होती.

1-2 बारप्रकाश ने मां से कहने की कोशिश भी की पर आराधना ने घुड़क दिया, ‘तुम अपना मन पढ़ाई में लगाओ, मेरी चिंता मत करो. मैं कोई नासमझ नहीं हूं, अपना भलाबुरा अच्छी तरह समझती हूं.’

प्रकाश ने मां की ओर देखा पर वह भी बेटी का समर्थन करते हुए बोलीं, ‘प्रकाश, तुम छोटे हो अभी. आराधना बड़ी हो चुकी है, वह जानती है कि उस के लिए क्या सही है क्या गलत.’

सावित्री ने आराधना को नाराज होने से बचाने के लिए प्रकाश को चुप तो कर दिया पर मन ही मन वह भी आराधना की इन हरकतों से चिंतित थीं. फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि नहीं…मेरी बेटी गलत कदम कभी नहीं उठाएगी.

पर कोरे निराधार विश्वास ज्यादा समय तक कहां टिक पाते हैं? आखिर वही हुआ जिस की आशंका सावित्री को थी.

एक दिन आराधना बदले रूप के साथ घर लौटी. साथ में खड़े व्यक्ति का परिचय कराते हुए बोली, ‘मां, ये हैं डा. मोहन शर्मा.’

आराधना के शरीर पर लाल सुर्ख साड़ी, भरी मांग देख सावित्री को सारा माजरा समझ में आ गया पर घर आए मेहमान के सामने बेटी पर चिल्लाने के बजाय अगले ही पल उलटे कदमों अपने कमरे में आ गईं.

आराधना भी अपनी मां के पीछेपीछे कमरे में आ गई, ‘मां, सुनो तो…’

‘अब क्या सुना रही हो, आराधना?’ सावित्री लगभग रोते हुए बोलीं, ‘तू ने तो एक पल को भी अपनी मां की भावनाओं के बारे में नहीं सोचा. अरे, एक बार कहती तो मुझ से…तेरी खुशी के लिए मैं खुद तैयार हो जाती.’

‘मां, मोहन ने ऐसी जल्दी मचाई कि वक्त ही नहीं मिला.’

आराधना की बात पूरी होने से पहले ही सावित्री के मन को यह बात खटक गई, ‘जल्दी मचाई…क्यों? शादीब्याह के कार्य जल्दबाजी में निबटाने के लिए नहीं होते, आराधना… और यह डा. मोहन कौन है, कहां का है…इस का घरपरिवार, अतापता कुछ जानती भी है तू या नहीं?’

‘मां, डा. मोहन बहुत अच्छे इनसान हैं. बस, मैं तो इतना जानती हूं. मेडिकल कालिज के परिसर में इन का क्वार्टर है, जहां यह अकेले रहते हैं. रही बाकी परिवार की बात तो अब शादी की है तो वह भी पता चल जाएगा. मां, मैं तो एक ही बात जानती हूं, जिस का वर्तमान अच्छा है उस का भविष्य भी अच्छा ही होगा….तुम नाहक चिंता न करो. अब उठो भी, मोहन बैठक में अकेले बैठे हैं.’

यह तो ठीक है कि वर्तमान अच्छा है तो भविष्य भी अच्छा ही होगा है पर इन दोनों का आधार तो अतीत ही होता है न. किसी का पिछला इतिहास जाने बिना इस तरह आंखें मूंद कर विश्वास कर लेना मूर्खता ही तो है. सावित्री चाह कर भी नहीं समझा पाई आराधना को और अब समझाने से लाभ भी क्या था.

सावित्री ने खुद के मन को ही समझा लिया कि चलो, आराधना ने कम से कम ऐरेगैरे से तो विवाह नहीं रचाया. डाक्टर है लड़का. आर्थिक परेशानी की तो बात नहीं रहेगी.

2 वर्ष भी नहीं बीत पाए और एक दिन वही हुआ जिस का डर सावित्री को था. आराधना मोहन द्वारा मार खाने के बाद 6 माह की स्वस्तिका को ले कर मायके आ गई थी.

मोहन पहले से विवाहित, 2 बच्चों का बाप था. आराधना से उस ने विवाह मंदिर में रचाया था जिस का न कोई प्रमाण था न ही कोई प्रत्यक्षदर्शी. बिना पूर्व तलाक के जहां यह विवाह अवैध सिद्ध हो गया वहीं स्वस्तिका का जन्म भी अवैधता की श्रेणी में आ गया.

आज सावित्री को शेखर अक्षरश: सत्य नजर आ रहे थे. उस का अंत:करण स्वयं को धिक्कार उठा, ‘मेरा आवश्यकता से अधिक लाड़, बारबार आराधना की गलतियों पर प्रेमवश परदा डालने का प्रयास, उस की नाजायज जिद का समर्थन वीभत्स रूप में बदल कर ही तो मेरे समक्ष खड़ा हो मुझे मुंह चिढ़ा रहा है.’

आराधना ने नौकरी ढूंढ़ ली. स्वस्तिका को संभालने का जिम्मा अब सावित्री का था.

जो भूल आराधना के साथ की वह स्वस्तिका के साथ नहीं दोहराऊंगी, मन ही मन तय किया था सावित्री ने, पर जैसजैसे स्वस्तिका बड़ी होती जा रही थी आराधना के लाड़प्यार ने उसे बिगाड़ना शुरू कर दिया था. सावित्री कुछ समझाती तो बजाय बात को समझने के आराधना बेटी का पक्ष ले कर अपनी मां से लड़ पड़ती. पिता के प्यार की भरपाई भी आराधना अपनी ओर से कर डालना चाहती थी और इसी प्रयास में वह स्वयं का ही प्रतिरूप तैयार करने की भूल कर बैठी.

आराधना के मामलों में तो सावित्री हरदम प्रकाश की अनसुनी कर दिया करती थी पर अब प्रकाश उन्हें शेखर की तरह ही संजीदा व सही प्रतीत होता.

स्वस्तिका की 10वीं की परीक्षा थी. गणित में कमजोर होने के कारण आराधना एक दिन सतीश नाम के एक ट्यूटर को घर ले आई और बोली, ‘कल से यह स्वस्तिका को गणित पढ़ाने आएगा.’

22 साल का सतीश प्रकाश के मन को खटक गया लेकिन आराधना दीदी के स्वभाव को जानते हुए वह चुप ही रहा.

जब भी सतीश स्वस्तिका को पढ़ाने आता प्रकाश की नजरें उन के क्रियाकलापों का जायजा लेती रहतीं. कान सचेत हो कर उन के बीच हो रही बातचीत पर ही लगे रहते. प्रकाश को भय था कि आराधना दीदी की तरह ही कहीं स्वस्तिका का हश्र न हो.

एक दिन प्रकाश ने स्वस्तिका को सतीश के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा तो उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दिया.

शाम को आराधना के दफ्तर से आते ही स्वस्तिका फफक कर रोने लगी, ‘मम्मी, प्रकाश मामा को समझा दो. हर समय हमारी जासूसी करते हैं. आज जरा सी बात पर सर को धक्का दे कर घर से निकाल दिया.’

‘क्यों प्रकाश? यह किस तरह का बरताव है?’ बिना अपनी लाड़ली की गलती जानेसमझे आराधना अपनी आदत के अनुसार गरज पड़ी.

‘दीदी, वह जरा सी बात क्या है यह अपनी लाड़ली से नहीं पूछोगी?’ प्रकाश भी तमतमा गया.

आराधना ने इसे अहं का विषय बना डाला, ‘ओह, तो अब हम मांबेटी तुम लोगों को भारी पड़ने लगे हैं, लेकिन यह मत भूलो कि कमाती हूं, घर में पैसे भी देती हूं. इसलिए हक से रहती हूं. तुम्हें पसंद नहीं तो हम अलग रह लेंगे, एक मकान लेने की हैसियत है मुझ में.’

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बात बिगड़ती देख सावित्री ने दोनों को समझाना चाहा पर आराधना ठान चुकी थी. हफ्ते भर में नया मकान देख स्वस्तिका को ले कर चली गई. सतीश फिर उसे पढ़ाने आने लगा. न चाहते हुए भी सावित्री व प्रकाश चुप रहे. कहते भी तो सुनता कौन?

उन्हीं दिनों अचानक आराधना का स्वास्थ्य खराब रहने लगा. स्थानीय डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए. मुंबई अथवा दिल्ली के बड़े चिकित्सा संस्थानों में दिखाने के लिए कहा गया. प्रकाश पुराने गिलेशिकवे भुला कर दीदी को मुंबई ले गया. आखिर भाई था वह और उस के सिवा और कोई पुरुष था भी तो नहीं घर में जो आराधना के साथ बड़े शहरों के बड़ेबड़े अस्पतालों में चक्कर काटता.

डाक्टरों ने बताया कि आराधना को कैंसर है जो अंतिम अवस्था तक पहुंच चुका है. जीवन की डोर को केवल 6 माह तक और खींचा जा सकता है. वह भी केवल दवाइयों व इंजेक्शनों के आधार पर.

ऐसे हालात में सावित्री व प्रकाश का आराधना के साथ रहना निहायत जरूरी हो गया था. साथ रहते हुए प्रकाश को स्वस्तिका व सतीश की नाजायज हरकतें पुन: नजर आने लगीं. पर बात का बतंगड़ न बन जाए यह सोच कर वह चुप रहा, केवल मां से ही बात की. मौका देख कर सावित्री ने आराधना को इस बारे में सचेत करना चाहा. इस बार आराधना ने भी हंगामा नहीं मचाया बल्कि स्वस्तिका को बुला कर इस बारे में बात की.

स्वस्तिका शायद अवसर की खोज में ही थी इसलिए साफ शब्दों में उस ने कह दिया कि वह सतीश से प्यार करती है और वह भी उसे चाहता है.

अगले दिन आराधना ने सावित्री व प्रकाश को अपना निर्णय सुना दिया, ‘प्रकाश, तुम पर बड़ी जिम्मेदारी डाल रही हूं. इसी माह स्वस्तिका की शादी सतीश से करनी है. उस के घर वालों से बात कर लो व शादी की तैयारी शुरू कर दो. सुविधा के लिए मैं अपने बैंक खाते को तुम्हारे नाम के साथ संयुक्त कर देती हूं ताकि पैसा निकालने में तुम्हें सुविधा हो. तुम पैसे की चिंता बिलकुल मत करना. मैं चाहती हूं अपने जीतेजी बेटी को ब्याह कर जाऊं.’

शायद यह खुद के विधिविधान से विवाह संस्कार न हो पाने की अधूरी चाह थी जिसे आराधना स्वस्तिका के रूप में देखना चाहती थी.

सब कुछ आराधना की इच्छानुसार हो गया. सतीश के दामाद बनते ही स्वस्तिका ने नए तेवर दिखाना शुरू कर दिए, ‘मम्मी, अब मैं और सतीश तो हैं न तुम्हारी देखभाल करने के लिए….नानी और मामा को वापस अपने घर भेज दो.’

प्रकाश ने सुना तो खुद ही सावित्री को साथ ले कर अपने घर लौट आया. सावित्री घर आ कर बारबार दवाई व इंजेक्शनों के समय पर बेचैन हो जातीं कि पता नहीं स्वस्तिका ठीक समय पर दवाई दे पाती है या नहीं. अभी 2 हफ्ते भी नहीं गुजरे थे कि एक शाम सतीश का फोन आया, ‘नानीजी, जल्दी आ जाइए, मम्मीजी हमें छोड़ कर चली गईं.’

‘क्या?’ सावित्री सुन कर अवाक् रह गईं.

सावित्री को साथ ले कर बदहवास सा प्रकाश आराधना के घर पहुंचा पर तब तक तो सारा खेल खत्म हो चुका था.

सभी अंतिम क्रियाकर्म प्रकाश ने ही पूरा किया. अस्थि कलश के विसर्जन का समय आया तो स्वस्तिका आ गई, ‘मामाजी, पहले उस संयुक्त खाते का हिसाबकिताब साफ कर दीजिए उस के बाद कलश को हाथ लगाइएगा.’

रिश्तेदारों का लिहाज न होता तो स्वस्तिका व सतीश को उन की इस धृष्टता का प्रकाश अच्छा सबक सिखाता पर रिश्तेदारों के सामने कोई तमाशा न हो यह सोच कर अपने क्रोध को किसी तरह दबा लिया और स्वस्तिका की इच्छानुसार कार्य करते हुए अपने सारे कर्तव्य पूरे कर दिए.

सावित्री वापस लौटने वाली थीं. आराधना के कमरे की सफाई करते समय अचानक उन की नजर अलमारी में पड़े दवा के डब्बे पर गई जो स्वस्तिका के विवाह के बाद घर लौटने से पहले प्रकाश ने ला कर रखा था. खोल कर देखा तो सारी दवाइयां व इंजेक्शन उसी तरह पैक ही रखे थे.

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सावित्री का माथा ठनका. तो क्या स्वस्तिका ने पिछले दिनों आराधना को दवाइयां दी ही नहीं? यह सोच कर सावित्री ने स्वस्तिका को आवाज लगाई.

‘क्या है, नानी?’

खुला डब्बा दिखाते हुए सावित्री ने पूछा, ‘स्वस्तिका, तुम ने अपनी मम्मी को दवाइयां नहीं दीं?’

‘हां, नहीं दीं…तो? क्या गलत किया मैं ने? तकलीफ में थीं वह…और आज नहीं तो 4 माह बाद जाने ही वाली थीं न हमें छोड़ कर…तो अभी चली गईं…क्या फर्क पड़ गया?’

‘बेशरम, मेरी बेटी की जान लेने वाली तू डाइन है…पूरी डाइन.’

पसीने से तरबतर सावित्री हड़बड़ा कर बिस्तर से उठ बैठीं…अतीत की वे यादें आज भी उन्हें बेचैन कर देती हैं. न जाने उस दिन कौनकौन सी गालियां दे कर सावित्री ने हमेशा के लिए स्वस्तिका से रिश्ता तोड़ दिया था. सावित्री का सिर भारी हो गया.

सुना तो यही था कि बेटियां मां का दर्द बांटती हैं फिर स्वस्तिका बेटी हो कर भी अपनी मां के प्रति इतनी कठोर कैसे बन गई. शायद आराधना की शिक्षा में ही कोई कसर रह गई थी…आखिर बेटी अपनी मां से ही तो संस्कार पाती है. नहींनहीं…फिर तो पूरी गलती आराधना की भी नहीं है…गलत तो मैं ही थी…आराधना ने तो वही संस्कार स्वस्तिका को दिए जो मुझ से पाए थे.

काश, मैं ने आराधना को सहेज कर रखा होता तो आज उस की संतान में उस कुटिल व्यक्ति का कलुषित खून न होता जो आज उस का पिता न हो कर भी पिता था. काश, मैं ने आराधना की नाजायज बातों पर प्रेमवश परदा डालने के बजाय उसे ऊंचनीच का ज्ञान कराया होता, उस की हर गलत बात पर किए गए मेरे समर्थन का नतीजा ही तो था जो आराधना स्वभाव से अक्खड़ बन गई थी. आराधना ने भी वही सब स्वस्तिका को दिया जो मैं ने परवरिश में उस की झोली में डाला था.

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जब भी स्वस्तिका से सावित्री का सामना होता वह अपने इन्हीं विचारों के अनसुलझे मकड़जाल में फंस कर रह जाती. अपने लाड़ के अतिरेक से ही तो अपनी लाड़ली को खो चुकी थी वह और शायद लाड़ली की लाड़ली को भी.

Family Story In Hindi: मन्नो बड़ी हो गई है- मां और सास में क्या होता है फर्क

लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव

Family Story In Hindi: मन्नो बड़ी हो गई है- भाग 1

लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव

‘‘भाभी, चाय पी लो,’’ नीचे से केतकी की चीखती आवाज से उस की आंख खुल गई. घड़ी देखी, सिर्फ 7 बजे थे और इतने गुस्सेभरी आवाज.

करण पास ही बेखबर सोया था. वह भी उठते हुए यही बोला, ‘‘अरे, 7 बज गए, उठोउठो. केतकी ने चाय बना ली है.’’

‘‘एक चाय ही तो बनाई है. बाकी घर के सारे काम मैं ही तो अकेले करती हूं.’’

‘‘सुबहसुबह तुम बहस क्यों करने लग जाती हो. तुम्हें उठा रहे हैं तो उठ जाओ,’’ करण उनींदी में बोला और फिर चादर तान कर सो गया.

अंदर तक सुलग गई मैं. जब रात में अपनी इच्छापूर्ति करनी होती है तब नहीं सोचते कि इसे सोने दूं, क्योंकि सुबह इसे उठना है. तब तो कहते हैं, अभी तो हमारी शादी को कुल 2 महीने ही हुए हैं. रात की बात सुबह जगाते समय कभी याद नहीं रहती. रोजाना की तरह नफरत दिल में लिए नाइटी संभाल कर मैं सीधा बाथरूम में घुस गई. बंदिशें इतनी कि बिना नहाएधोए, साफ सूट पहने बिना सास के पास नहीं जा सकती.

जल्दीजल्दी नहाधो कर नीचे पहुंची. सास के पांव छुए. वे ?बजाय आशीर्वाद देने के, घड़ी देखने लगीं. गुस्सा तो इतना आया कि घड़ी उखाड़ कर फेंक दूं या सास की गरदन मरोड़ दूं. शुरूशुरू में मायके में मेरी भाभी जब 8 बजे उठ कर नीचे आती थीं तो कभीकभार मम्मी कह देती थीं, ‘बेटा, थोड़ा जल्दी उठने की आदत डालो.’ इस पर भाभी का खिसियाया चेहरा देख कर, एक दिन मैं बोल पड़ी थी, ‘मम्मी, भाभी को गुस्सा आ रहा है. इन्हें कुछ मत कहो.’ भाभी हड़बड़ा गई थीं. तब मुझे भाभी पर व्यंग्य करने में मजा आया था और अपनी मम्मी की नरमी पर गुस्सा.

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‘‘क्यों भाभी, मम्मी को इस तरह देख रही हो, मानो खा ही जाओगी,’’ मैं केतकी के व्यंग्य पर चौंकी. वह लगातार मेरा चेहरा ही देखे जा रही थी.

अचानक मेरी भाभी मुझ में आ गईं. मेरे शब्द गले में ही अटक गए. भाभी को भी ऐसी ही बेइज्जती महसूस होती रही होगी मेरे व्यंग्यों पर.

‘‘चाय पी लो, केतकी झाड़ू लगा चुकी है,’’ सास का स्वर शुष्क था. साथ ही, केतकी ने ठंडी चाय मेरे हाथ में पकड़ा दी. मैं चाय को तेजी से सुड़क कर उस के पीछे रसोई में लपकी. अगर मैं ऐसा नहीं करती तो सास बोलतीं, ‘देख, कैसे मजे लेले कर पी रही है, ताकि केतकी दोतीन काम और निबटा ले तथा इस महारानी को कोई काम न करना पड़े.’

केतकी परात में आटा छान रही थी. चाय का कप सिंक में रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘दीदी, तुम तैयार हो जाओ. मैं नाश्ता बनाती हूं,’’ मेरे शब्द मुंह से निकलते ही केतकी परात छोड़ कर रसोई से निकल गई, मानो मुझ पर एहसान कर दिया हो. मैं ने चाय पी या नहीं, यह पूछना तो दूर की बात है.

‘शुरू से ही सारा काम थमा दो. आदत पड़ जाएगी,’ ऐसी नसीहतें अकसर रिश्तेदार व पड़ोसिनें दे जाया करतीं. मेरी मम्मी को भी मिली थीं. पर मेरी मम्मी ने कभी अमल नहीं किया था. अगर थोड़ाबहुत अमल किया था, तो मैं ने. पर यहां तो शब्ददरशब्द अमल किया जा रहा है.

जितनी तेजी से मेरा दिमाग अतीत में घूम रहा था उतनी ही तेजी से मेरे हाथ वर्तमान में चल रहे थे. आटा गूंधा, आलू उबाले, चाय बनाई तथा दूध गरम किया. इतने में केतकी नहाधो कर तैयार हो गई थी.

सास बिस्तर पर बैठेबैठे ही चिल्लाने लगी थीं, ‘‘नाश्ता न मिले तो यों ही चले जाओ. देर मत करना. इस के घर में तो सोते रहने का रिवाज होगा. बता दो इस को कि यहां मायके का रिवाज नहीं चलेगा.’’

जल्दीजल्दी दूध गिलासों में डाला. आलू में मसाला डाल कर उन के परांठे बनाने लगी. दूध व परांठे ले कर जैसे ही कमरे में पहुंची, केतकी मुझे देखते ही पर्स उठा कर जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘दीदी, नाश्ता.’’

‘‘देर हो चुकी है.’’

एक तीखी निगाह मुझ पर डाल कर वह तेजी से निकल गई. मेरी निगाह अचानक घड़ी पर पड़ गई. आधा घंटा पहले ही?

‘‘घड़ी क्या देख रही है,’’ सास ने घूरती निगाहों से देखा. मेरा मन घबराने लगा कि अभी करण को पता चलते ही वह सब के सामने मुझ पर बरस पड़ेगा. मैं निकल गई. दूसरे कमरे में महेश खड़ा था. सास की बड़बड़ाहट जारी थी, ‘सुबह तक सोती रहती है. कितनी बार कहा है कि सवा 6 बजे तक नहाधो कर नीचे आ जाया कर. पड़ीपड़ी सोती रहती है महारानियों की तरह.’ सुबहसुबह सास के तीखे व्यंग्यबाणों को सुन कर दिमाग भन्ना गया.

‘‘भाभी, नाश्ता बना हो तो दे दो,’’ महेश के शांत स्वर से मुझे राहत मिली.

‘‘हांहां, लो न,’’ मैं ने केतकी वाली प्लेट उसे थमा दी.

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‘‘केतकी ने नाश्ता नहीं…’’ मेरी उतरी शक्ल देख उस ने बात पलट दी, ‘‘छोड़ो, एक मिरची वाला परांठा बना दोगी, जल्दी से. पर, मां को मत बताना कि ज्यादा मिरची डाली है,’’ महेश हाथ में प्लेट लिए मुसकराता हुआ सास के पास चला गया.

‘‘अभी लाती हूं,’’ मैं खुश हो गई.

परांठा बना कर ले गई तो सास ने मेरी आहट सुनते ही बड़बड़ाना शुरू कर दिया, ‘देर नहीं हो रही है. जल्दी ठूंस और ठूंस के जा.’

‘‘नाश्ता तो आराम से करने दो, मम्मी. लाओ भाभी, धन्यवाद. बस, और मत बनाना.’’

मैं वापस जाने लगी तो सास के शब्द कानों में पड़े, ‘‘परांठे के लिए धन्यवाद बोल रहा है, पागल है क्या?’’ पर मुसकराते हुए महेश के नम्र शब्दों के आगे मेरे लिए सास के तीखे शब्दों के व्यंग्यबाण निरस्त हो गए थे. क्या घर के बाकी लोग भी ऐसे नहीं हो सकते थे?

मुझे याद है, जब एक दिन भाभी मम्मी को दवा दे कर हटीं तो मम्मी बोली थीं, ‘जाओ, जा कर सो जाओ. तुम थक गईर् होगी,’ मैं ने मम्मी से पूछा था, ‘दवा देने से वे थक कैसे जाती हैं? तुम इस तरह बोल कर भाभी को सिर चढ़ाती हो.’

मेरी नादानी पर मम्मी हंसी थीं. फिर बोलीं, ‘हम बूढ़े लोग तन से थकते हैं और तुम जवान लोग मन से थक जाते हो. प्यार के दो बोल मन नहीं थकने देते. जब तू बड़ी हो जाएगी, तेरी शादी हो जाएगी, तब अपनेआप समझ जाएगी.’ मम्मी की बातों पर मैं चिढ़ जाती थी कि वे मुझे बेवकूफ बना रही हैं.

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Family Story In Hindi: स्वस्थ दृष्टिकोण- क्या हुआ था नंदा के साथ

Family Story In Hindi: स्वस्थ दृष्टिकोण- भाग 1- क्या हुआ था नंदा के साथ

मैं इस चेहरे के बारे में. कुछ ऐसा जो इस चेहरे से बहुत जुड़ा हुआ सा, कुछ इस के अतीत से, कुछ इस के बीते हुए कल से, कौन है आखिर वह? कार्यालय में भी मैं फुरसत में उसी चेहरे के बारे में सोचता रहा, कौन था आखिर वह?

वापसी में भी मैं भीड़ में नजर दौड़ाता रहा, शायद वह चेहरा नजर आ जाए.

ऐसा होता है न अकसर, हम बिना वजह परेशान हो उठते हैं. अचेतन में कुछ ऐसा इतना सक्रिय हो उठता है कि बीता हुआ कुछ धुंधली सी सूरत में मानस पटल पर आनेजाने लगता है. न साफ नजर आता है न पूरी तरह छिपता ही है.

‘‘क्या बात है, आज आप कुछ परेशान से नजर आ रहे हैं. कुछ सोच रहे हैं?’’ पत्नी ने आखिर पूछ ही लिया. उस ने भी पहचान लिया था मेरा भाव. हैरान हूं मैं, कैसे मेरी पत्नी झट से जान जाती है कि मैं किसी सोच में हूं. 28 साल से साथ हैं हम. हजार बार ऐसा हुआ होगा जब मैं ने चाहा होगा कि पत्नी से कुछ छिपा जाऊं मगर आज तक मेरा हर प्रयास असफल रहा.

‘‘आज मुझे एक चेहरा जानापहचाना लगा और ऐसा लगा कि उसे मैं बहुत करीब से जानता हूं और इतना भी आभास है कि जो भी उस चेहरे से जुड़ा है सुखद कदापि नहीं है. यहां तक कि मैं अपनी जानपहचान में भी दूर तक नजर दौड़ा आया हूं वह कहीं भी नजर नहीं आया.’’

‘‘होगा कोई. एक दिन अपनेआप याद आ जाएगा. आप आराम से खाना खाइए,’’ झुंझला कर उत्तर दिया पत्नी ने.

मेरी यह आदत उसे अच्छी नहीं लगती थी सो बड़बड़ाने लगी थी वह, ‘सारे जहां का दर्द मेरे दिल में है.’

‘‘तो क्या तुम्हारे दिल में नहीं है? पड़ोस में कोई गलत काम करता है तो यहां तुम्हारा खून उबलने लगता है. तब मुझे सुनासुना कर मेरा दिमाग खराब करती हो. अब जब मैं सुना रहा…’’

‘‘आप तो हवाई तीर चला रहे हो. जिस की चिंता है उसे जानते भी तो नहीं हो न. कम से कम मैं जिस की बात करती हूं उसे जानती तो हूं.’’

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‘‘मैं उसे जानता हूं, नंदा, यही तो परेशानी है कि याद नहीं आ रहा.’’

मैं बुदबुदा रहा था, ‘आखिर कौन था वह?’

दूसरे दिन, तीसरे दिन और उस के बाद कई दिन मैं उस के बारे में सोचता रहा. लोकल ट्रेन से आतेजाते निरंतर नजर भी दौड़ाता रहा, पर वह चेहरा नजर नहीं आया. धीरेधीरे मैं उसे भूल गया.

सच है न, समय से बड़ा कोई मरहम नहीं है. समय से बड़ा कोई आवरण भी नहीं. समय सब ढक लेता है. समय सब छिपा जाता है. चाहे सदा के लिए छिपा पाए तो भी कुछ समय का भुलावा तो होता ही है.

एक शाम पता चला, पड़ोस में कोई रहने आया है. पत्नी बहुत खुश थी. हमारी दोनों बेटियों के ससुराल चले जाने के बाद उसे अकेलापन बहुत खलता था न. पड़ोस में कोई बस जाएगा ऐसा सोच कर मुझे भी सुरक्षा का सा भाव प्रतीत होने लगा. कभी देरसवेर हो जाए तो मुझे चिंता होती थी. अब बगल के आंगन में होने वाली खटरपटर बड़ी सुखद लगने लगी थी. अभी जानपहचान नहीं थी फिर भी उन का एहसास ही बड़ी गहराई से हमें पुलकित करने लगा था.

‘‘चलो, उन से मिलने चला जाए या फिर उन्हें ही अपने घर पर बुला लें,’’ मैं ने पत्नी से कहा.

‘‘लगता है

वे किसी से

भी मिलना नहीं चाहते. आज

वह लड़की

सब्जी लेने बाहर निकली थी, मैं ने बात करनी चाही थी मगर वह बिना कुछ सुने ही चली गई.’’

‘‘क्यों?’’

पलक झप- काना ही भूल गया मैं. भला ऐसा क्यों? क्या इतने बूढ़े हैं हम जो एक जवान जोड़ा हम से बातें करना भी नहीं चाहता.

‘‘हम इतने बुरे लगते हैं क्या?’’

‘‘पता नहीं,’’ कह कर मुसकरा पड़ी थी नंदा.

नंदा सब्जी उठा कर रसोई में चली गई. अखबार पढ़ने में मन नहीं लगा मेरा सो उठ कर घर के बाहर निकल आया. गली में चक्कर लगाने लगा पर आतेजाते नजर पड़ोसी के बंद दरवाजे पर ही थी.

बहुत ही सुहानी हवा चल रही थी मगर उस के घर के दरवाजेखिड़कियां सब बंद थे. मैं सोचने लगा, क्या वे ठंडी हवा लेना नहीं चाहते? क्या दम नहीं घुटता उन का बंद घर में?

सुबह जब मैं कार्यालय जाने को निकला तो सहसा चौंक गया. पड़ोस के द्वार पर वही खड़ा था. वही सूरत जिसे मैं ने स्टेशन पर भीड़ में उस रोज देखा था. उसे देखते ही मैं पलक झपकाना भूल गया और दिमाग पर जोर डालने लगा, कौन है यह लड़का? कहां देखा है इसे?

मुझ से उस की नजरें मिलीं और वह झट से मुंह फेर कर निकल गया. तब मुझे ऐसा लगा, वह परिवार वास्तव में किसी से मिलना नहीं चाहता. यह लड़का कौन है? मैं कुछ जानता हूं इस के बारे में. अरे, मुझे सहसा सब याद आ गया, यह तो भाईसाहब का दामाद था, था क्या अभी भी है. इतना ध्यान आते ही काटो तो खून नहीं रहा मुझ में.

यह मेरी भतीजी का पति है जिस से उस का रिश्ता निभ नहीं पाया था और वह शादी के 4-5 महीने बाद ही वापस लौट आई थी.

भाई साहब तो यही बताते थे कि लड़के वाले दहेज के लालची थे. काफी लंबीचौड़ी कहानी बन गई थी. बाद में पुलिस काररवाई और दामाद की  जेलयात्रा, कितना दुखद था न सब.

मुझे तो यही पता था कि अभी भतीजी का तलाक नहीं हुआ है. भला बिना तलाक वह लड़का दूसरी शादी कैसे कर सकता है? मन में आया वापस घर आ कर पत्नी को सब बता दूं.

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बेचैन हो उठा था मैं. यह समस्या तो मेरे ही घर की थी न, हमारी ही बेटी का जीवन अधर में लटका कर यह लालची पुरुष चैन से जी रहा था.

वापस चला आया मैं. जब नंदा को बताया तो हक्कीबक्की रह गई वह. सोचने लगी, तो क्या यह मानसी का पति है? जेठजी तो घुलघुल कर आधे रह गए हैं बेटी के दुख में और लड़का दूसरा घर बसा कर चैन से जी रहा है.

एक बार तो जी चाहा झट से साथ वाले घर पर जाएं और…मगर फिर सोचा, आखिर उस लड़की का क्या दोष है? कौन जाने उसे कुछ पता भी है या नहीं. पता नहीं यहां इस लड़के ने क्या रंग घोल रखा है. हम भी बेटियों वाले हैं, कैसे किसी की बेटी का घर ताश के पत्ते सा गिरा दें? पहले भाई साहब से ही क्यों न बात कर लें?

उसी शाम भाई साहब से फोन पर बात हुई और पता चला, मानसी का तलाक हो गया है. चलो, एक बात तो साफ हो गई. चैन की सांस ली मैं ने

परंतु वह प्रश्न तो वहीं रहा न, अगर यह लड़का लालची था तो इस लड़की के साथ तो ऐसा नहीं लगता कि बहुत अमीरी में रह रहा हो. उन का सामान तो

हमारे सामने ही छोटे से ट्रक से उतरा था. नईनई गृहस्थी जमाने को बस,

ठीकठाक सामान ही था. क्या पता इस लड़की के पिता से नकद दहेज ले

लिया हो?

पत्नी ने बताया कि लड़की भी बड़ी मासूम, सीधीसादी, प्यारी सी है. तब वह क्या था जब मानसी के साथ दुखद घटा था? सीधासादा सा सामान्य परिवार ही तो है इस लड़के का. हम जैसा सामान्य वर्ग, तो फिर उस कार की मांग का क्या हुआ? भाई साहब तो बता रहे थे कि लड़का कार की मांग कर रहा है. मानसी के बाद अब यहां मुझे तो कोई कार दिखाई नहीं दी.

उथलपुथल मच गई थी मेरे अंतर्मन में. हजारों सवाल नागफनी से मुझे डसने लगे थे. क्यों मानसी का घर उजड़ गया और यह लड़का यहां अपना घर बसा कर जी रहा है? एक जलन का सा भाव पनप रहा था मन में, हमारी बच्ची को सता कर वह सुखी क्यों है?

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Family Story In Hindi: सितारों से आगे- कैसे विद्या की राहों में रोड़ा बना अमित

लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर

   

Family Story In Hindi: सितारों से आगे- भाग 1- कैसे विद्या की राहों में रोड़ा बना अमित

लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर

दरवाजे पर तेज बजती घंटी की आवाज से विद्या की तंद्रा भंग हुई कि अरे 4 बज गए. लगता है वृंदा आ गई. विद्या जल्दी से उठ खड़ी हुई.

विद्या की शंका सही थी, दरवाजे पर वृंदा ही थी. विद्या की 17 साल की लाड़ली बेटी वृंदा. दरवाजे से अंदर आ कर अपना बैग रख कर जूते खोलते हुए वह चंचल हो गई, ‘‘अरे अम्मी आज स्टेट लैवल बैडमिंटन में मेरे सामने वाले खिलाड़ी की मैं ने ऐसी छुट्टी की न कि कुछ पूछो मत, मैं ने उसे सीधे सैट में हरा दिया. मेरी कोच बोल रही थीं कि अगर मैं ऐसे ही खेलती रहूंगी तो एक दिन नैशनल लैवल खिलाड़ी बनूंगी और वह दिन दूर नहीं जब बड़ेबड़े अखबारों में, टीवी चैनलों में मेरे फोटो आएंगे.’’

वृंदा की रनिंग कमैंट्री जारी थी. बैग को खोलते हुए उस में से बड़ी सी ट्रौफी निकाल कर वह विद्या से लिपट गई, ‘‘दिस ट्रौफी इज फौर माई डियर मौम,’’ और मौम के हाथ में ट्रौफी थमा कर बोली, ‘‘मम्मी खाना तैयार रखना बस मैं 2 मिनट में हाथमुंह धो कर कपड़े चेंज कर के आती हूं, जोर की भूख लगी है,’’ कहते हुए वह अंदर चली गई.

कार्निश पर ट्रौफी को रखते हुए विद्या की आंखें भर आईं. चुपचाप रसोई में जा कर गरम फुलके सेंक कर प्लेट में रोटीसब्जी रख कर उस ने खाना डाइनिंगटेबल पर रख दिया.

फ्रेश हो कर आई वृंदा ने 5 मिनट में खाना खा लिया और बोली, ‘‘मम्मा मैं 1-2 घंटे सो रही हूं, शाम को कैमिस्ट्री की क्लास है, मुझे जगा देना,’’ कह कर वह सोने चली गई.

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रसोई समेट कर विद्या भी वृंदा के पास लेट गई. सोती हुई मासूम वृंदा के बालों में हाथ फेरते विद्या 18 साल पहले की दुनिया में कब पहुंच गई. उसे पता ही नहीं चला…

सच ऐसी ही तो थी वह भी, इतनी ही खुशमिजाज और खूबसूरत, जिंदगी से भरपूर, होनहार लड़की. घर में वात्सल्यपूर्ण मातापिता और ढेर सारा प्यार करने वाली छोटी 2 बहनें, बाहर कालेज और बैडमिंटन कोर्ट इन सब के बीच हंसतेखेलते हुए उस की जिंदगी गुजर रही थी. इस बीच एक और बहुत अच्छी बात हुई, बैडमिंटन में ढेरों पुरस्कार बटोर चुकी विद्या को रेलवे में स्पोर्ट्स कोटा में नौकरी का औफर मिला. विद्या और उस के घर वालों की खुशी का ठिकाना न रहा. विद्या ने ग्रैजुएशन के बाद रेलवे की नौकरी जौइन कर ली.

मगर इस के बाद उस की जिंदगी इतनी जल्दी और इतनी तेजी से बदलेगी इस का तो उसे आभास भी नहीं था. रेलवे की नौकरी मिलने के कुछ समय बाद ही विद्या की चाची उस के लिए अपने इंजीनियर देवर का रिश्ता ले कर आ गईं. हालांकि शुरू में विद्या ने इतनी जल्दी विवाह करने से इनकार किया पर पिता के समझने पर कि वह लड़कियों में सब से बड़ी है, उस की शादी हो जाएगी तो फिर वे बाकी 2 लड़कियों के लिए भी लड़का देख सकेंगे और फिर लड़के वाले परिचित हैं. लड़का देखाभाला है, अच्छा खानदान है, मना करने का कोई कारण नहीं है वगैरह.

आखिरकार विद्या विवाह के लिए राजी हो गई. पर सच बात तो यह थी कि उस दिन बूआ के साथ आए उस लंबे, सांवले, सजीले नवयुवक अमित को देख कर वह मना ही नहीं कर पाई थी. खुशीखुशी विद्या की शादी संपन्न हुई और वह अपनी ससुराल आ गई.

ससुराल में शादी के बाद शुरू के 6 महीने जैसे पंख लगा कर उड़ गए. विद्या अपने सासससुर की लाड़ली बहू और ननद प्रिया की पक्की सहेली बन चुकी थी. अमित भी उस का खयाल रखता था. बस कमी कुछ थी उस के पास तो समय की. जब विद्या उस की शिकायत करती तो वह सफाई देता, ‘‘क्या करूं विद्या तुम्हें तो पता है मुंबई की लाइफ तो ऐसी ही है. सुबह 8 बजे निकलता हूं तो 10 बजे औफिस पहुंचता हूं, फिर दिनभर साइट में इंस्पैक्शन करना, शाम को मीटिंग और दूसरे प्रोजैक्ट पर डिस्कस करना. 8 बजे निकलता हूं तो घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज ही जाते हैं. क्या करें, अब तुम ही बताओ.?’’

विद्या निराश हो जाती. कहती भी क्या? यह कहानी एक उस की ही तो नहीं है, मुंबई में करोड़ों लोगों को इसी तरह रहना पड़ता है. कभीकभी वह सोचती इस से तो किसी छोटे शहर में रहना अच्छा है, कम से कम घर और औफिस नजदीक तो होते. पर कोई बात नहीं अमित की भी तो मजबूरी है वरना कोई आदमी 10-12 घंटे रोज घर से बाहर खुशी से थोड़े ही रहेगा. सोच कर वह अपने मन को मना लेती.

सुबह उठ कर सासूमां के साथ मिल कर खाना बना कर बाकी काम खत्म कर के वह अमित के साथ ही निकलती. उस को स्टेशन में ड्रौप कर के अमित अपनी साइट पर निकल जाता और विद्या लोकल ट्रेन से औफिस आ जाती. शाम को 7 बजतेबजते वह घर पहुंच जाती. थोड़ा आराम कर के, टीवी देखते हुए रात के काम निबटाती. हर शाम को उस के मन में कई बार इच्छा होती कि अन्य लड़कियों की तरह वह भी पति के साथ मुंबई में जुहू बीच में समंदर के किनारे घूमेफिरे, पिक्चर देखे, पर ऐसा कभी नहीं हुआ. रोज अमित को आने में देर होती थी.

उस का इंतजार करते हुए वह दिनभर की भागादौड़ी और काम से थक कर सो जाती. शनिवाररविवार को भी अमित ‘साइट पर जरूरी काम है’ बोल कर निकल जाता और विद्या कभी अपने मायके चली जाती तो कभी सासूमां के साथ बाजार चली जाती. इसी प्रकार विद्या के ससुराल में कुछ और दिन निकल गए.

शादी के सिर्फ 8 महीने ही हुए थे कि अमित को एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में दुबई जाना पड़ा. विद्या भी उस के साथ जाना चाहती थी, पर अमित के साथ औफिस के 2 सहयोगी और थे इसलिए विद्या मन मसोस कर रह गई. हालांकि प्रोजैक्ट 45 दिनों का ही था, पर कुछ न कुछ कारणों से प्रोजैक्ट खत्म होने में देर हो रही थी और प्रोजैक्ट 3 महीनों तक खिंच गया. दुबई में काम करतेकरते अमित की कंपनी को ओमान में एक और प्रोजेक्ट मिला और अमित और 2 महीनों के लिए ओमान चला गया.

इधर विद्या को अमित के बिना जैसे सब कुछ सूना लग रहा था. अमित के जाने के एक ही हफ्ते में वह बीमार पड़ गई. सासूमां जबरदस्ती उसे डाक्टर के पास ले गईं और जब डाक्टर ने चैकअप के बाद बताया कि वह मां बनने वाली है, तो सासससुर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्होंने विद्या के पिता को भी फोन पर यह शुभ सूचना दे दी, पर विद्या खुद यह बात अमित को फोन पर बताना चाहती थी.

रात को जब अमित का दुबई से फोन आया तब खुशी से छलकते हुए विद्या ने उसे बताया कि वे पिता बनने जा रहे हैं. दूसरी तरफ से अमित का झल्लाते हुए कहना कि इतनी जल्दी बच्चे की जरूरत नहीं है. हो सके तो कल जा कर अबौर्शन करा लो. सुन कर वे सकते में आ गई कि क्यों अमित? इस पर अमित ने कहा कि वह अभी बच्चे की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं और उस ने फोन रख दिया.

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रातभर विद्या सो नहीं पाई. सुबह उठ कर उस ने सासू को यह बात बताई, पर  सासूजी ने उस पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि अरे कुछ नहीं बेटा अभी तो वह विदेश में है न उस को तुम्हारी चिंता है, इसलिए ऐसा कह रहा है. एक बार यहां आ जाए तो सब ठीक हो जाएगा. तू फिक्र मत कर. हम सब हैं न तेरा खयाल रखने वाले. अबौर्शन वगैरह के बारे में सोचना भी मत और फिर प्यार से उस के बाल सहला दिए.

आखिरकार विद्या का इंजार खत्म हुआ. करीब 5 महीने बाद ओमान में अमित अपना प्रोजैक्ट खत्म कर के वापस आ रहा था. विद्या ने 2 दिन दफ्तर से छुट्टी ले ली थी. बड़े चाव से उस ने अमित के लिए पावभाजी, पूरनपोली, मसाला भात सबकुछ बनाया था. इतने दिनों बाद घर का खाना उसे खाने को मिलेगा. सोच कर विद्या मन ही मन खुश हो रही थी. बहुत दिनों बाद आज उस ने अमित की पसंद की गुलाबी साड़ी पहनी थी और गुनगुनाते हुए अमित का स्वागत करने के लिए तैयार हो रही थी कि सासूमां ने कमरे में प्रवेश किया.

विद्या के खिले हुए चेहरे को देख कर कुछ सिर झका कर उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा, ‘‘बेटा एअरपोर्ट से अमित का फोन आया है वह सीधे औफिस जा रहा है, घर आएगा तो औफिस पहुंचने में देर हो जाएगी और आज यहां रिपोर्ट करना जरूरी है.’’

विद्या सन्न रह गई. वह आंसुओं को रोक न सकी, ‘‘क्या औफिस का काम मुझ से भी ज्यादा जरूरी है मां?’’

एक बार फिर मांजी ने ही उसे संभाला, बेटा, ऐसी हालत में रो कर अपनी तबीयत खराब मत कर, सुबह से इतना काम कर रही है, चल थोड़ा आराम कर ले.

हालांकि उस वक्त तो विद्या संभल गई पर पूरा दिन उस की सूजी आंखें और दरवाजे पर नजर किसी से छिपाए न छिपी.

रात को 11 बजे अमित घर पहुंचा. विद्या उस का इंतजार कर के निद्रा के आगोश में कब चली गई उसे पता ही नहीं चला. अमित ने सोती हुई विद्या को लापरवाही से देखा और कपड़े बदल कर सोफा पर सो गया.

आगे पढ़ें- विद्या को उस का यह व्यवहार कुछ चुभ गया..

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Family Story In Hindi: कच्ची गली- खुद को बदलने पर मजबूर हो गई दामिनी

Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: कच्ची गली- भाग 1- खुद को बदलने पर मजबूर हो गई दामिनी

अखबार पढ़ते हुए विपिन का मुंह आज फिर लटक गया, ‘‘ये रेप की घिनौनी घटनाएं हर रोज की सुर्खियां बनती जा रही हैं.

न जाने कब हमारे देश की बेटियां सुरक्षित होंगी. अखबार के पन्ने पलटो, तो केवल जुर्म और दुखद समाचार ही सामने होते हैं.’’

‘‘अब छोडि़ए भी. समाज है, संसार है, कुछ न कुछ तो होता ही रहेगा,’’ दामिनी ने चाय का कप थमाते हुए कहा.

‘‘तुम समझती नहीं हो. मेरी चिंता केवल समाज के दायरे में नहीं, अपनी देहरी के भीतर भी लांघती है. जब घर में एक नवयौवना बेटी हो तो मातापिता को चिंता रहना स्वाभाविक है. सृष्टि बड़ी हो रही है. हमारी नजरों में भले ही वह बच्ची है और बच्ची ही रहेगी, लेकिन बाहर वालों की नजरों में वह एक वयस्क है. जब कभी मैं उसे छोड़ने उस के कालेज जाता हूं तो आसपास के लोगों की नजरों को देख कर असहज हो उठता हूं. अपनी बेटी के लिए दूसरों की नजरों में अजीब भाव देखना मेरे लिए असहनीय हो जाता है. कभीकभी मन करता है कि इस ओर से आंखें मूंद लूं, किंतु फिर विचार आता है कि शुतुरमुर्ग बनने से स्थिति बदल तो नहीं जाएगी.’’

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‘‘कितना सोचते हैं आप. अरे इन नजरों का सामना तो हर लड़की को करना ही पड़ता है. हमेशा से होता आया है और शायद सदा होता रहेगा. जब मैं पढ़ती थी तब भी गलीमहल्ले और स्कूलकालेज के लड़के फबतियां कसते थे. यहां तक कि पिताजी के कई दोस्त भी गलत नजरों से देखते थे और बहाने से छूने की कोशिश करने से बाज नहीं आते थे. आजकल की लड़कियां काफी मुखर हैं. मुझे बहुत अच्छा लगता है यह देख कर कि लड़कियां अपने खिलाफ हो रहे जुल्मों के प्रति न केवल सजग हैं बल्कि आगे बढ़ कर उन के खिलाफ आवाज भी उठाती हैं. फिर चाहे वे पुलिस में रिपोर्ट करें या सोशल मीडिया पर हंगामा करें.

‘‘यह देख कर मेरा दिल बेहद सुकून पाता है कि आजकल की लड़कियां अपनी इज्जत ढकने में नहीं, बल्कि जुल्म न सहने में विश्वास रखती हैं. हमारा जमाना होता तो किसी भी जुल्म के खिलाफ बात वहीं दफन कर दी जाती. घर के मर्दों को तो पता भी न चलता. मांएं ही चुप रहने की घुट्टी पिला दिया करती.’’

विपिन औफिस चले गए और सृष्टि कालेज. किंतु सुबह हुई बातें दामिनी के मन पर छाई रहीं. आज उसे अपने कालेज के जमाने का वह किस्सा याद हो आया जब बस के लिए उसे काफी दूर तक सुनसान सड़क पर पैदल जाना पड़ता था. नयानया कालेज जाना शुरू किया था, इसलिए  उमंग भी नई थी. कुछ सीनियर लड़कियों को लिफ्ट लेते देखा था. दामिनी और उस की सहेलियों को भी यह आइडिया अच्छा लगा. इतनी लंबी सड़क पर भरी दुपहरी की गरमी में पैदल चलने से अच्छा है कि लिफ्ट ले ली जाए.

वैसे भी इस सड़क पर चलने वाले ज्यादातर कार वाले इसी उम्मीद में रहते थे कि कालेज की लड़कियां उन से लिफ्ट ले लेंगी. अमूमन सभी को यह अंदाजा था कि इस सड़क पर लिफ्ट लेनेदेने का कल्चर है. उस दोपहर भी दामिनी और उस की सहेलियां लिफ्ट लेने की उम्मीद में सड़क पर खड़ी थीं. एक गाड़ी आ कर रुकी. दामिनी उस की आगे वाली सीट व उस की 2 सहेलियां पीछे की सीट पर बैठ गईं. चालक को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह इस गाड़ी का मालिक नहीं, ड्राइवर हो.

तीनों सहेलियां गाड़ी में चुपचाप बैठी थीं कि अचानक ड्राइवर ने अपना उलटा हाथ बढ़ा कर दामिनी के वक्षस्थल को दबोच लिया. कुछ क्षण को दामिनी हतप्रभ होने के कारण कोई प्रतिक्रिया न दे पाई. जैसे ही उसे यह आभास हुआ कि उस के साथ क्या हुआ है, उस ने प्रतिकार करते हुए वह हाथ झटक दिया और ऊंचे सुर में चिल्लाई, ‘‘गाड़ी रोको, रोको गाड़ी अभी के अभी.’’

अजीब वहशी नजरों से वह ड्राइवर दामिनी को घूरने लगा. परंतु पीछे बैठी दोनों लड़कियों के भी चिल्लाने पर उस ने गाड़ी साइड में रोक दी. आननफानन तीनों उतर कर वहां से भागी.

आज का समय होता तो दामिनी यकीनन सोशल मीडिया पर आग लगा देती. जीभर कर शोर मचाती. अपने स्मार्टफोन से संभवतया उस ड्राइवर की तसवीर भी ले चुकी होती. उस की गाड़ी का नंबर भी पुलिस में दर्ज करवाती, सो अलग. ‘इतनी हिम्मत आ गई है आजकल की बच्चियों में. शाबाश है,’ यह सोचती हुई दामिनी घर के काम निबटाने लगी. किंतु आज पुरानी यादें दिमाग पर बादल बन छा रही थीं. इसी धुंध में उसे प्रिया का किस्सा भी याद हो आया.

प्रिया उस की पक्की सहेली थी. एक शाम कालेज से घर लौटते हुए अचानक घिर आई बारिश में जब प्रिया एकाएक फंस गई तो उस ने भी लिफ्ट लेने की सोची. फर्स्ट ईयर की छात्रा में जितनी समझ हो सकती है बस उतनी ही समझ इन लड़कियों में थी. लिफ्ट के लिए रुकी हुई गाड़ी में बैठते समय प्रिया ने यह भी नहीं झांका कि कार के अंदर कौन बैठा है. बारिश से बचने के लिए जल्दी से पीछे की सीट पर बैठ गई. किंतु कार चलते ही उसे महसूस हुआ कि गाड़ी में पहले से 4 लोग बैठे हुए हैं.

प्रिया ने गाड़ी चालक से कहा, ‘‘अंकल, प्लीज मुझे अगले चौराहे पर उतार दीजिएगा. मेरा घर वहां से पास है.’’

‘‘अंकल किसे कह रही हो? हम तो आप के अंकल नहीं हैं,’’ उस के यह कहते ही जब उस के चारों साथी हंसने लगे तब प्रिया को काटो तो खून नहीं. वह बहुत घबरा गई और जोरजोर से रोने लगी. परंतु उन दिनों दुनिया इतनी खराब नहीं थी जितनी उस ने सोची थी. वे भले लोग थे जिन्होंने ऐसा केवल प्रिया को सबक सिखाने के लिए किया था. इस अनुभव से प्रिया को और उस के द्वारा यह सुनाने पर अन्य सभी सहेलियों को चौकन्ना कर दिया था.

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उन दिनों लड़कियां अपने पर्स में सेफ्टी पिन के गुच्छे रखा करती थीं ताकि जब कोई पुरुष आपत्तिजनक समीपता दिखाए तो वे उसे अपने शरीर से दूर करने में सफल हो सकें. आजकल की तरह पैपरस्प्रे तो मिलता नहीं था. आजकल की तरह कोई सेफ्टी ऐप या जीपीएस भी नहीं था. कितनी सहूलियत हो गई है आजकल लड़कियों को, सोचती हुई दामिनी घर का काम निबटा कर कुछ देर सुस्ताने लगी.

शाम को जब सृष्टि घर लौटी तो दामिनी से प्यार से कहने लगी, ‘‘इस वीकैंड आप का 50वां जन्मदिन है. बहुत स्पैशल. कुछ खास कर के सैलिब्रेट करेंगे. बताओ मम्मा, क्या चाहते हो आप? अपने जन्मदिन पर अपनी विशेष की लंबी लिस्ट बनाओ. मैं और पापा मिल कर पूरा करेंगे.’’

‘‘क्यों याद दिला रही हो कि मैं बूढ़ी हो रही हूं. 50 साल, बाप रे, यह जान कर ही बुढ़ापा दिमाग पर छाने लगा.’’

‘‘कैसी बार्ते करती हो मम्मा? अभी तो मेरी मम्मा यंग ऐंड स्वीट हैं. आप को देख कर कौन कह सकता है कि 50 साल के होने जा रहे हो,’’ सृष्टि उस का हाथ पकड़ते बोली.

‘‘ये सब तो धोखा है जो कौस्मैटिक्स की सहायता से हम औरतें खुद और दूसरों को देख कर खुश होती हैं,’’ दामिनी हंसते हुए कहने लगी.

आगे पढें- अगली सुबह दामिनी थोड़ी देर से उठी….

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सहारा

“शादी… यानी बरबादी…” सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी थी.

“मां मुझे शादी नहीं करनी है. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी देखभाल करना चाहती हूं,” और फिर सुलेखा ने बड़े प्यार से अपनी मां की ओर देखा.

“नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते,” मां ने स्नेह भरी दृष्टि से अपनी बेटी की ओर देखा.

“मां, मुझे शादी जैसे रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं,.. विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है…

“आप जरा अपनी जिंदगी में देखो… शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है. पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…” कहती हुई वह अचानक रुक सी जाती है और आंसू भरी नेत्रों से अपनी मां की ओर देखती है तो मां दूसरी तरफ मुंह घुमा लेती हैं और अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलती हैं, “अरे छोड़ो इन बातों को. इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते. और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन.

“देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,” और वह अपनी बेटी को गले से लगा कर उस के माथे को चूम लेती है.

मालती अपनी बेटी सुलेखा को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए.

जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था, तब सुलेखा महज 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का ही प्यार दिया था. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं, बल्कि उन की सुखदुख की साथी भी थी.
अपनी टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया था, वह सभी कुछ अपनी बेटी पर ही लुटाया था. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरतों का खयाल रखा था. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, चाहे खुद उन्हें कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

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आज जब वह अपनी बेटी की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया, ताकि उन की बेटी को कोई कष्ट ना हो.

सुलेखा आजाद खयालों की लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद ही आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिश नहीं लगाई.

सुलेखा ने भी अपनी मां को हमेशा ही एक स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह से यह बात जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें झेलना पड़े झेल लेंगी, परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा का शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती बड़े ही भावुक हो कर कहती हैं, “बेटा तू क्यों नहीं समझती? तुझे ले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी. एक ना एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,” और फिर हंसते हुए वे बोलती हैं, “और, तुम्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छुपा हुआ है. कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक ना एक दिन मैं भी इस दुनिया को अलविदा तो कहने वाली ही हूं… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी…” कहते हुए उन का गला भर्रा जाता है.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर के पद पर तैनात है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी हैं, जो 80 या 85 उम्र की हैं.

मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आता है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में बहुत ही खुशहाल जिंदगी जिएगी. यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं था. वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं होगी. तो उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

मालती अपनी जिंदगीभर की सारी जमापूंजी यहां तक कि अपने जेवरजेवरात जो अब तक उन्होंने संभाल कर रखे थे, को भी शादी का खर्चा जुटाने के लिए बेच देती हैं, ताकि बड़े धूमधाम से अपनी बेटी को ससुराल के लिए विदा कर सकें. बेटी के ससुराल वालों को किसी भी बात की कोई परेशानी ना हो, इस बात का पूरापूरा खयाल रखा गया था. आखिर एक ही तो बेटी थी उन की और उसी की खातिर तो वे वर्षों से पाईपाई जमा कर रही थीं.

विदाई के वक्त सुलेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. धुंधली आंखों से उस ने अपनी मां की तरफ और उस घर की ओर देखा, जिस में उस का बचपन बीता था.

“अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो… ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से झिड़कते हुए कहा और उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया गया…

“परंतु आंखें पल्लू में ढक गईं तो मैं देख कैसे पाऊंगी…” उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए हुए अपनी जेठानी को देखा, जो बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने के लिए अपनी नाक तक घूंघट खींच रखी थी.

“तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट रखा जाता है,” यह आवाज उस की सास की थी.

“आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल ना उठाएं…” सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई थी.

“तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,” योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्ला पड़ता है.

ऐसा बरताव देख सुलेखा तिलमिला सी जाती है और गुस्से से योगेंद्र की ओर देखती है.

“अरे, नई बहू दरवाजे पर ही कब तक खड़ी रहेगी? कोई उसे अंदर क्यों नहीं ले आता?” दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था, उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं. वैसे भी उन के कानों ने उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. यमराज तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गए थे, क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखनी थी. अपनी लंबी उम्र और घर की उन्नति के लिए कई बार काशी के बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड पूजाअर्चना करवा चुकी हैं, ताकि चित्रगुप्त का लिखा बदलवाया जा सके, उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उन के छोटे पोते की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो, उसी लड़की से छोटे पोते की शादी कराई जाए. अतः सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा दे दिया गया था और अब उन्हें बेचैनी इस बात से हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए… वरना कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाए.

लेकिन घूंघट के ना होने पर उखड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

“आप मुझ से ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?” सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोलती है.

“तुम्हें तुम्हारे पति से कैसे बात करनी चाहिए, क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया,” घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

“अरे, इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,” सुलेखा की सास ने बेहद ही गुस्से में कहा.

“आप मुझे तमीज मत सिखाइए…” सुलेखा के स्वर भी ऊंचे हो उठे थे.

“पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए… ”

“सुलेखा…” योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ता है.

“चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझे भी आता है,” सुलेखा ने भी ठीक उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा था.

“इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है. पति से जबान लड़ाती है,” सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

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“आप लोगों के संस्कार का क्या…? नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है,” सुलेखा ने भी जोर से चिल्लाते हुए कहा.

“तुम सीमा लांघ रही हो…” योगेंद्र चिल्लाता है.

“और आप लोग भी मुझे मेरी हद न सिखाएं….”

“सुलेखा…” और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ जाता है.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठती है. साथ में उस की आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगती है और आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उमड़ पड़ता है.

अचानक उस के पैर डगमगा जाते हैं और नीचे रखे तांबे के कलश से उस के पैर जा टकराते हैं और वह कलश उछाल खाता हुआ सीधा दादी सास के सिर से जा टकराता है और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर ही एक ओर लुढ़क जाती हैं.

सभी तरफ कोहराम मच जाता है.

लोग चर्चा करते हुए कहते हैं, “देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के… गुस्से में दादी सास को ही कलश चला कर दे मारी… अरे हाय… हाय, अब तो ऊपर वाला ही रक्षा करे…

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झुका हुआ था और गले से तुलसी की माला नीचे लटकी हुई जमीन को छू रही थी.

यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें मानो क्षणभर के लिए जैसे रुक सी गईं…

“अरे हाय, ये क्या कर दिया तुम ने,” सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई बेतहाशा दादी सास की ओर दौड़ पड़ती है.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा, उस के होठों पर लाल गहरे रंग की लिपिस्टिक लगी हुई थी और साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आखों पर नीले रंग के आईशैडो भी लगा रखे थे और गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहन रखा था. उन का यह बनावसिंगार उन के अति सिंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा जाती है और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस के पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है…

“कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,” योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही थी.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी होता है. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह जाती है. उस की आंखों से छलछल आंसू बहने लगते हैं. वह मन ही मन सोचने लगती है कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है, उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है. जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया है, जितनी कुंठित विचारधारा इन सबों की है, वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी. उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इन सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे सब से ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी, तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी, अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि, जिस सुंदर चित्र को उस ने संजोया था, वह अब एक झटके में ही टूटताबिखरता नजर आ रहा था.

सभी तरफ कोहराम मचा हुआ था. लोग फिर से वही चर्चा करने लगते हैं कि देखो तो जरा नई बहू के तेवर. गुस्से में अपनी दादी सास को ही कलश चला कर दे मारी…

तभी कोई डाक्टर को बुला लाता है. आधे घंटे के निरीक्षण के बाद डाक्टर बताते हैं, “चिंता की कोई बात नहीं. सभी कुछ ठीकठाक है. मैं ने दवा दे दी है. जल्द ही इन्हें होश आ जाएगा…”

खैर, उन की पूजापाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि के प्रभाव से भी दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

“अरे, अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,” सास ने बड़े ही गुस्से में आवाज लगाई.

“नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,” सुलेखा ने बड़ी ही दृढ़ता से कहा.

“क्या कहा…? कैसी कुलक्षणी है यह…? अब और कोई कसर रह गई है क्या…?” सास ने गुस्से से गरजते हुए कहा.

“अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो, अंदर चलो…” योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

“नहीं, मै अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकूंगी,” कहते हुए सुलेखा एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपने हाथ को छुड़ा लेती है.

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“जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया. जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई, अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,” कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल कर अपनी मां के घर की ओर चल देती है.

सुलेखा मन ही मन सोचती जाती है, ‘जिस रिश्ते में सम्मान नहीं, उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी? जो परंपरा एक औरत को खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे. जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करें और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो, वैसे रिश्ते से तो अकेले की ही जिंदगी बेहतर है.

‘मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के. उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है. सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है. अब मैं उन का सहारा बनूंगी…”

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