Family Story: ममा मेरा घर यही है : रिश्ते के नाजुक धागों को क्या पारुल बचा पाई

बेटी पारुल से फोन पर बात खत्म होते ही मेरे मस्तिष्क में अतीत के पन्ने फड़फड़ाने लगे. पति के औफिस से लौटने का समय हो रहा था, इसलिए डिनर भी तैयार करना आवश्यक था. किचन में यंत्रचालित हाथों से खाना बनाने में व्यस्त हो गई. लेकिन दिमाग हाथों का साथ नहीं दे रहा था.

बचपन से ही पारुल स्वतंत्र विचारों वाली, जिद्दी लड़की रही है. एक बार जो सोच लिया, सो सोच लिया. होस्टल में रहते हुए उस ने कभी मुझे अपनी छोटीबड़ी समस्याओं में नहीं उलझाया, उन को मुझे बिना बताए ही स्वयं सुलझा लेती थी. इस के विपरीत, मैं अपने परिचितों को देखती थी कि जबतब उन के बच्चों के फोन आते ही, उन की समस्याओं का समाधान करने के लिए उन के होस्टल पहुंच जाया करते थे.

एक दिन अचानक जब पारुल ने अपना निर्णय सुनाया कि एक लड़का रितेश उसे पसंद करता है और वह भी उस को चाहती है, दोनों विवाह करना चाहते हैं तो मैं सकते में आ गई और सोच में पड़ गई कि जमाना खराब है, किसी ने अपने जाल में उसे फंसा तो नहीं लिया. देखने में सुंदर तो वह है ही, उम्र भी अभी अपरिपक्व है, पूरी 22 वर्ष की तो हुई है अभी. ये सब सोच कर मैं बहुत चिंतित हो गई कि यदि उस ने सही लड़के का चयन नहीं किया होगा और जिद की तो वह पक्की है ही, तो फिर क्या होगा.

कुछ दिनों के सोचविचार के बाद तय हुआ कि रितेश से मिला जाए. पारुल के जन्मदिन पर उस को आमंत्रित किया गया और वह आ भी गया. वह सुदर्शन था, एमबीए की पढ़ाई पूरी कर के किसी नामी कंपनी में सीनियर पोस्ट पर कार्यरत था. पढ़ाई में आरंभ से ही अव्वल रहा. वह हम सब को बहुत भा गया था. केवल विजातीय होने के कारण विरोध करने का कोई औचित्य नहीं लगा. हम ने विवाह की स्वीकृति दे दी. लेकिन रितेश के  मातापिता ने आरंभ में तो रिश्ता करने से साफ इनकार कर दिया था, लेकिन इकलौते बेटे की जिद के कारण उन्हें घुटने टेकने पड़े और विवाह धूमधाम से हो गया. पारुल अनचाही बहू बन कर ससुराल चली गई.

पारुल अपने मधुर स्वभाव के कारण ससुराल में सब की चहेती बन गई. सब के दिल में स्थान बनाने के लिए उसे बहुत संघर्ष करना पड़ा क्योंकि ऐसा करने में उसे रितेश का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ. उस ने पाया कि रितेश का अपने परिवार से तालमेल ही नहीं था. बिना लिहाज के अपने मातापिता को कभी भी कुछ भी बोल देता था. पारुल हैरान होती थी कि कोईर् अपने जन्मदाता से ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता था. उसे समझाने की कोशिश करती तो वह और भड़क जाता था.

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धीरेधीरे उस को एहसास हुआ कि दोष उस में नहीं, उस की परवरिश में है. उस के अपने मातापिता के विपरीत, रितेश के मातापिता उस की भावनाओं की कभी भी कद्र नहीं करते थे. अब इतना बड़ा हो गया था, फिर भी उस की बात को महत्त्व नहीं देते थे, जिस का परिणाम होता था कि वह आक्रोश में कुछ भी बोल देता था. कभीकभी पारुल असमंजस की स्थिति में आ जाती थी कि किस का साथ दे, मातापिता की गलती देखते हुए भी बड़े होने का लिहाज कर के उन को कुछ भी नहीं बोल पाती थी.

एक दिन मांबेटे में विवाद इतना बढ़ गया कि रितेश ने तुरंत अलग घर लेने का निर्णय ले डाला. पारुल ने उसे बहुत समझाया, लेकिन वह अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ. वह क्या करती, मां ने भी अपने अहं के कारण उसे नहीं रोका. वह दोनों के बीच पिस गई. अंत में उसे पतिधर्म निभाना ही पड़ा.

अपने परिवार से अलग होने के बाद तो रितेश और भी मनमाना हो गया. जो लड़का विवाह के पहले कभी अपनी मां से ही नहीं जुड़ा, वह अपनी पत्नी से क्या जुड़ेगा. विवाह जैसे प्यारभरे बंधन के रेशमी धागे उसे लोहे की जंजीरें लगने लगीं. आरंभ से ही होस्टल में स्वच्छंद रहने वाले रितेश को विवाह एक कैद लगने लगा.

एक दिन अचानक रितेश का फोन मेरे पास आया, बोला, ‘अपनी बेटी को समझाओ, बच्ची नहीं है अब…’ इस से पहले कि वह अपनी बात पूरी करे, पारुल ने उस के हाथ से फोन ले लिया और कहा, ‘ममा, आप बिलकुल परेशान मत होना. ऐसे ही इस ने बिना सोचेसमझे आप को फोन घुमा लिया. छोटेमोटे झगड़े तो होते ही रहते हैं.’ लेकिन रितेश को पहली बार इतनी अशिष्टता से बात करते हुए सुन कर मैं सकते में आ गई, सोचने लगी कि उन की अपनी पसंद का विवाह है, फिर क्या समस्या हो सकती है.

एक बार मैं ने और मेरे पति ने मन बनाया कि पारुल के यहां जा कर उस का घर देखा जाए. उस ने कईर् बार बुलाया भी था. विचार आते ही हम दोनों पुणे पहुंच गए. वे दोनों स्टेशन लेने आए थे. सालभर बाद हम उन से मिल रहे थे. मिलते ही मेरी दृष्टि पारुल के चेहरे पर टिक गई. उस का चेहरा पहले से अधिक कांतिमय लग रहा था. सुंदर तो वह पहले से ही थी, अब अधिक लावण्यमयी लग रही थी. मुझे याद आया कि जब रितेश के मातापिता ने विवाह से इनकार कर दिया था तो उस का चेहरा कितना सूखा और निस्तेज लगता था, तब हम कितना घबरा गए थे. आज उस को देख कर बहुतबहुत तसल्ली हुई थी.

10 किलोमीटर की दूरी पर उन का घर था. वहां पहुंच कर मैं ने पाया कि वह 2 बैडरूम का घर था. पारुल ने अपने घर को बहुत व्यवस्थित ढंग से सजा रखा था. घर के रखरखाव में तो उसे बचपन से ही बहुत रुचि थी. यह देख कर बहुत संतोष हुआ कि सासससुर के साथ रहते हुए, रितेश का उन से तालमेल न होने के कारण रातदिन  जो विवाद होते थे, वे समाप्त हो गए हैं और वे दोनों आपस में बहुत प्रसन्न हैं.

लेकिन मेरा यह भ्रम शीघ्र ही टूट गया. अगले दिन ही सुबह मैं ने देखा कि रितेश पारुल को छोटीछोटी बातों में नीचा दिखाने से नहीं चूकता था, चाहे उस के खाने का, कपड़े पहनने का या खाना बनाने का ढंग हो. वह उस के किसी भी कार्यकलाप से खुश नहीं रहता था. बातबात में उसे ताने देता रहता था कि उस को कुछ नहीं आता, वह कुछ नहीं कर सकती.

पारुल चुपचाप सुनती रहती थी. रितेश की उस से इतनी अधिक अपेक्षाएं रहती थीं कि उन को पूरा करना उस के वश की बात नहीं थी. उस के जिन गुणों, उस का मासूम लुक देता चेहरा, उस की नाजुकता, उस की मीठी आवाज, के कारण विवाह से पहले उस पर रीझा था, वे सब उस के लिए बेमानी हो गए थे.

हम दोनों अवाक उस की बेसिरपैर की बातें सुनते थे. मैं मन ही मन सोचती रहती थी कि क्या यही प्रेमविवाह की परिणति होती है. रितेश ने जिस से विवाह करने के लिए एक बार अपने मातापिता का गृह तक त्याग कर दिया था, आज उसी का व्यंग्यबाणों से कलेजा छलनी कर रहा था. दामाद था इसलिए उसे क्या कहते, लेकिन, आखिर कब तक?

एक दिन मेरे सब्र का बांध टूट गया और मैं पारुल से बोली, ‘चल, अभी हमारे साथ वापस चल. हम ने देख लिया और बहुत झेल लिया तुम लोगों का तमाशा.’ मेरे बोलते ही रितेश उठ कर घर से चला गया.

पारुल बोली, ‘ममा, मुझे उस की तो आदत पड़ गई है. मेरा उस को छोड़ कर आप के साथ जाना ठीक है क्या? ऐसी बातें तो होती रहती हैं. देखना थोड़ी देर में वह सबकुछ भूल जाएगा और सामान्य हो जाएगा.’ मैं अपनी बेटी पारुल की बात सुन कर दंग रह गई. इतनी सहनशील तो वह कभी नहीं थी पर आत्मसम्मान भी तो कोई चीज होती है. मैं ने कहा, ‘बेटा, तूने उस के इस बरताव के बारे में हमें कभी कुछ बताया नहीं.’

‘क्या बताती ममा, शादी भी तो मेरी मरजी से हुई थी, आप सुन कर करतीं भी क्या? लेकिन इस में रितेश की भी गलती नहीं है, ममा. आप को पता है उस की मां ने बचपन में ही उसे होस्टल में डाल दिया था. उस ने कभी जाना ही नहीं परिवार क्या होता है और उस का सुख क्या होता है. कभी उस की इच्छाओं को प्राथमिकता दी ही नहीं गई, न ही कभी कोई कार्य करने पर उसे प्रोत्साहन के दो बोल ही सुनने को मिले. इसलिए ही ऐसा है. वह दिल का बुरा नहीं है. आज उस की बदौलत ही इतनी अच्छी जिंदगी जी रही हूं. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आप चिंता न करें.’

लेकिन मुझ पर उस के तर्क का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा था. पारुल ने मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर रितेश को फोन कर के घर आने के लिए कहा. और वह आ भी गया. दोनों ने एक ओर जा कर कोईर् बात की. उस के बाद रितेश हमारे पास आया और बोला, ‘सौरी ममापापा.’ हम दोनों का मन यह सुन कर थोड़ा हलका हुआ. हमारे लौटने का दिन करीब होने पर हम पारुल के सासससुर से मिलने गए. उस की सास ने कहा, ‘मेरी बहू पारुल तो बहुत स्वीट नेचर की है. मुझे उस से कोई शिकायत नहीं है.’ हमें यह सोच कर बहुत संतोष हुआ कि कम से कम उस की सास तो उस से बहुत प्रसन्न रहती है.

एक दिन पारुल ने जब मुझे मेरे नानी बनने का समाचार दे कर हमें चौंका दिया तो हम खुशी से फूले नहीं समाए. उस का कहना था कि उस की डिलीवरी के समय मुझे ही उस के पास रहना होगा, नहीं तो रितेश और अपनी सास के विवादों से उस समय वह परेशान हो जाएगी.

नियत समय पर मैं उस के पास पहुंच गई. उस ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. दोनों ओर के परिवार वालों के साथ रितेश भी बहुत प्रसन्न हुआ. मैं ने मन में सोचा, पारुल के मां बनने के बाद शायद उस का बरताव उस के प्रति बदल जाए, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मैं जब भी पारुल से उस के स्वभाव के बारे में जिक्र करती, उस का कहना होता, ‘ममा, आप उस की अच्छाइयां भी तो देखो, कितना स्वावलंबी और मेहनती है, मेरा कितना खयाल रखता है. थोड़ा जबान का वह कड़वा है, तो होने दो. अब उस की आदत पड़ गई है, जो मुश्किल से ही छूटेगी.’

मैं मां थी, मुझे तो रितेश के रवैये से तकलीफ होनी स्वाभाविक थी. 2 महीने किसी तरह निकाल कर मैं भारी मन से वापस लौट आई.

प्रिशा के जन्म के बाद पारुल ने नौकरी छोड़ दी और उस के लालनपालन में मग्न रहने लगी. लेकिन रितेश उस के इस निर्णय से बहुत क्षुब्ध रहता था. उस का कहना था कि प्रिशा को क्रैच में छोड़ कर भी तो वह नौकरी जारी रख सकती थी. उस के विचारानुसार उस के लिए सुखसुविधाओं के साधन जुटाने मात्र से उन का उस के प्रति कर्तव्यों की पूर्ति हो सकती है.

इस के विपरीत, पारुल सोचती थी कि कोई भी संस्था बच्चे के पालनपोषण में मां का विकल्प हो ही नहीं सकती. वह नहीं चाहती थी कि उस से दूर रहने के कारण वह भी अपने पापा का पर्याय बने. ऐसा कोई आर्थिक कारण भी नहीं था कि उसे मजबूरी में नौकरी करनी पड़े.

पारुल अपनी बेटी प्रिशा की बढ़ती हुई उम्र की एकएक गतिविधि का आनंद उठाना चाहती थी. उस के लालनपालन में वह किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहती थी. उस की तो पूरी दुनिया ही बेटी में सिमट कर आ गई थी. जो भी देखता, उस के पालने के ढंग को देख कर प्रशंसा किए बिना नहीं रहता था. इस का परिणाम बहुत जल्दी प्रिशा की गतिविधियों में झलकने लगा था. प्रिशा अपने हावभाव से सब का मन मोह लेती थी. मुझे भी यह देख कर पारुल पर गर्व होता था. लेकिन रितेश ने तो उस के विरोध में बोलने का जैसे प्रण ले रखा था.

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पारुल की सास तो मेरे सामने उस की प्रशंसा करते हुए नहीं थकती थीं. पोती होने के बाद तो वे अकसर पारुल के पास जाती रहती थीं. अपने बेटे के पारुल के प्रति उग्र स्वभाव से वे भी बहुत दुखी रहती थीं. उन्होंने कई बार पारुल से कहा कि वह उन के साथ आ कर रहे, लेकिन उस ने मना कर दिया. उसे लगा कि रितेश के अकेले की गलती तो है नहीं.

मुझे पारुल पर गुस्सा भी आता था कि आखिर स्वाभिमान भी तो कुछ होता है, पढ़ीलिखी है, अकेले रह कर भी नौकरी कर के प्रिशा को पाल सकती है. पहले वाला जमाना तो है नहीं कि विवश हो कर लड़कियां पति के अत्याचार सहते हुए भी उन के साथ रहें. मैं ने उसे कई बार समझाया, ‘वह सुधरने वाला नहीं है. आदमी दिल का कितना भी अच्छा हो, उसे अपनी जबान पर भी तो कंट्रोल होना चाहिए. तू उस से अलग हो जा, हम तुझे पूरा सहयोग देंगे. मैं रितेश से बात करूं क्या?’ तो उस ने आज जो फोन पर उत्तर दिया, उस ने तो मेरी सोच पर पूर्णविराम लगा दिया था.

‘ममा, शादी का निर्णय मेरा था. आप मेरी चिंता बिलकुल न करें. आगे मेरे भविष्य के लिए मुझे ही सोचने दीजिए. मेरे ही जीवन का प्रश्न नहीं है, मुझे प्रिशा के भविष्य के बारे में भी सोचना है. बच्चे की अच्छी परवरिश के लिए मांबाप दोनों का उस के साथ होना आवश्यक है. फिर रितेश उसे कितना प्यार करता है और उस के पालनपोषण में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ता है.

‘आप जानती हैं, मेरी ससुराल वाले भी मुझे और प्रिशा दोनों को कितना प्यार करते हैं. रितेश से रिश्ता टूटने पर हम दोनों का उन से भी रिश्ता टूट जाएगा. आखिर उन का क्या कुसूर है? प्रिशा को उस के पापा और दादादादी के प्यार से वंचित रखने का मुझे क्या अधिकार है? प्रिशा को थोड़ा बड़ा हो जाने दो. 3 साल की हो गई है. आज के बच्चे पहले की तरह दब्बू नहीं हैं. देखना, वही अपने पापा का सुधार करेगी.

‘शादी एक समझौता है. यह 2 व्यक्तियों का ही नहीं, 2 परिवारों का बंधन है. इस के टूटने से बहुत सारे लोग प्र्रभावित हो सकते हैं. अभी ऐसी स्थिति नहीं है कि मैं रितेश से संबंध तोड़ लूं. आखिर मैं ने उस से प्यार किया है. उस को आदत पड़ गई है छोटीछोटी बातों पर रिऐक्ट करने की, जो, हालांकि, अर्थहीन होती हैं. कभी न कभी उसे समझ आएगी ही, ऐसा मुझे विश्वास है.’

पारुल ने धाराप्रवाह बोल कर मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया. एक बार तो यह लगा कि मैं उस की मां नहीं, वह मेरी मां है. विवाह के बाद कितनी समझदार हो गई है वह. यह तो मैं ने सोचा ही नहीं कभी कि पति से रिश्ता तोड़ने पर पूरे परिवार से संबंध टूट जाते हैं. मुझे अपनी बेटी पर गर्व होने लगा था.

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Family Story In Hindi: मन्नो बड़ी हो गई है- भाग 2

लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव

पर नहीं, तब मम्मी ठीक ही कहती थीं. समझ शादी के बाद ही आती है. महेश के प्यारभरे दो शब्द सुन कर मेरे हाथ तेजी से चलने लगते हैं. वरना दिल करता है कि चकलाबेलन नाले में फेंक दूं. 10 मिनट खाना लेट हो जाए तो पेट क्या रोटी हजम करने से मना कर देता है? क्या सास को पता नहीं कि शादी के तुरंत बाद कितना कुछ बदल जाता है. उस में तालमेल बैठाने में वक्त तो चाहिए न. पर क्या बोलूं? बोली, तो कहेंगे कि अभी से जवाब देने लगी है. जातेजाते महेश शाम को ब्रैड रोल्स खाने की फरमाइश कर गया. मुसकरा कर उस का यह आग्रह करना अच्छा लगा था.

‘क्या करण ऐसा नहीं हो सकता?’ मन ही मन सोचते हुए मैं सास को नाश्ता देने गई. वहां पहुंची तो करण जमीन पर बैठे हुए पलंग पर बैठी सास के पांवों पर सिर रखे, अधलेटा बैठा था. देख कर मैं भीतर तक सुलग सी गई.

‘‘नाश्ता…’’ मैं नाश्ते की प्लेट सास के आगे रख कर चुपचाप वापस जाने लगी.

‘‘मैडमजी, एक तो केतकी को समय पर नाश्ता नहीं दिया, ऊपर से मुंह सुजा रखा है. देख कर मुसकराईं भी नहीं,’’ अपनी मां के साथ टेढ़ी नजर से देखते हुए करण ने कहा.

‘‘नहीं तो, ऐसा तो नहीं है. चाय पिएंगे आप?’’ जबरदस्ती मुसकराई थी मैं.

‘‘ले आओ,’’ करण वापस यों ही पड़ गया. मुसकराहट का आवरण ओढ़ना कितना भारी होता है, आज मैं ने महसूस किया. मैं वापस रसोई में आ गई. मुझे बरबस मां की नसीहत याद आने लगी.

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मम्मी ने एक दिन भैया से कहा था कि सुबह की पहली चाय तुम दोनों अपने कमरे में ही मंगा कर पी लिया करो. मम्मी की बात सुन कर मैं झुंझलाई थी कि क्यों ऐसे पाठ उन्हें जबरदस्ती पढ़ाती हो. तब मां ने बताया था कि उठते ही मां के पास लेट जाने या बैठने से पत्नी को ऐसे लगता है कि मानो उस का पति रातभर अपनी पत्नी नहीं, मां के बारे में ही सोचता रहा हो. ऐसी सोच बिस्तर पर ही खत्म कर देनी चाहिए. तभी पत्नी पति की इज्जत कर सकती है. मां तो मां ही है. पत्नी लाख चाहे पर बेटे के दिल से मां की कीमत तो कम होगी नहीं. पर ऐसे में बहू के दिल में सास की इज्जत भी बढ़ती है.

करण को सास के पैरों पर लिपटा देख, मम्मी की बात सही लगने लगी. मुझे यही महसूस हुआ जैसे करण सास से कह रहा हो, ‘मां, बस, एक तुम्हीं मुझे इस से बचा सकती हो.’

करण के साथ जब मैं नाश्ता कर रही थी तो सास बोलीं, ‘‘अच्छी तरह खिला देना, वरना मायके में जा कर कहेगी कि खाने को नहीं पूछते.’’

करण अपनी मां की बातों को सुन कर हंसने लगा और मेरा चेहरा कठोर हो गया. खानापूर्ति कर के मैं पोंछा लगाने उठ गई. सारे कमरों में पोंछा लगा कर आई तो देखा करण सास के साथ ताश खेल रहा है. मैं हैरान रह गई. मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘काम पर नहीं जाना है?’’

‘‘मुझे नहीं पता है?’’ करण गुस्से से देख कर बोला. मैं समझ नहीं पाई कि आखिर मैं ने ऐसा क्या कह दिया था.

‘‘तुम्हें जलन हो रही है, हमें एकसाथ बैठे देख कर?’’

‘‘बेटा, तुम जाओ, यह तो हमें इकट्ठा बैठा नहीं देख सकती,’’ सास ताश फेंक कर बिस्तर पर पसर गईं.

करण ने सास को मनाने के प्रयास में मुझे बहुत डांटा. मैं खामोश ही बनी रही.

उस दिन भैया से भी भाभी ने पूछा था, ‘कहां चले गए थे. शादी में नहीं जाना क्या?’ तब मुझे गुस्सा आ गया था कि भैया मेरे काम से बाजार गए हैं, इसलिए भाभी इस तरह बोली हैं. भैया भी भाभी पर बिगड़े थे. मुझे अच्छा लगा था कि भैया ने मेरी तरफदारी की. कभी यह सोचा भी न था कि भाभी भी तो हम लोगों की तरह ही हैं. उन्हें भी तो बुरा लगता होगा. ऐसा उन्होंने क्या पूछ लिया, जिस का मैं ने बतंगड़ बना दिया था. आज महसूस हो रहा है कि तब मैं कितनी गलत थी.

करण दूसरे कमरे से झांकताझांकता मेरे पीछे स्नानघर में घुस गया.

‘‘तुम्हें बोलना जरूरी था. मम्मी को नाराज कर दिया. चुप नहीं रहा जाता,’’ करण जानबूझ कर चिल्लाने लगा ताकि उस की मां सुन लें. दिल चाहा कि करण का गिरेबान पकड़ कर पूछूं कि मां को खुश करने के लिए मुझे जलील करना जरूरी है क्या?

कुछ भी कह नहीं पाई. चुपचाप आंगन में झाड़ू लगाती रही. आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. करण ने देखा भी, पर एक बार भी नहीं पूछा कि रो क्यों रही हो. कमरे से किसी काम से निकली तो करण को सास के साथ हंसता देख कर मेरा दम घुटने लगा. मैं और परेशान हो गई. उठ कर रसोई में आ दोपहर का खाना बनाने लगी. बारबार मम्मी व भाभी की बातें याद आने लगीं. मम्मी कहती थीं कि जब घर में किसी का मूड ठीक न हो तो फालतू हंसा नहीं करते. नहीं तो उसे लगता है कि हम उस पर हंस रहे हैं. और भाभी, वे तो हमेशा मेरा मूड ठीक करने की कोशिश किया करतीं. तब कभी महसूस ही नहीं हुआ कि इन छोटीछोटी बातों का भी कोई अर्थ होता है.

ये लोग तो मूड बिगाड़ कर कहते हैं कि तुरंत चेहरा हंसता हुआ बना लो. मानो मेरे दिल ही न हो. इन से एक प्रश्न पूछो तो चुभ जाता है. मुझे जलील भी कर दें तो चाहते हैं कि मैं सोचूं भी नहीं. क्या मैं इंसान नहीं? मैं कोई इन का खरीदा हुआ सामान हूं?

दोपहर का खाना बनाया, खिलाया, फिर रसोई संभालतेसंभालते 3 बज गए. तभी ध्यान आया कि महेश को ब्रैड रोल्स देने हैं. सो, ब्रैड रोल्स बनाने की तैयारी शुरू कर दी. आलू उबालने को रख कर कपड़े धोने चली गई. कपड़े धो कर जब वापस आई तो करण व्यंग्य से बोला, ‘‘मैडमजी, कहां घूमने चली गई थीं. पता नहीं कुकर में क्या रख गईं कि गैस बंद करने के लिए मम्मीजी को उठना पड़ा.’’

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हद हो गई. गैस बंद करना भी इन की मां के लिए भारी काम हो गया. और मेरी कोई परवा ही नहीं है. मैं रसोई में ही जमीन पर बैठ कर आलू छीलने लगी. तभी करण आ गया.

‘‘क्या कर रही हो? 2 मिनट मम्मी के पास बैठने का, उन का मन बहलाने का वक्त नहीं है तुम्हारे पास. जब देखो रसोई में ही पड़ी रहती हो.’’

खामोश रहना बेहतर समझ कर मैं खामोश ही रही.

‘‘जवाब नहीं दे सकतीं तुम?’’ करण झुंझलाया था.

‘‘काम खत्म होगा तो आ जाऊंगी,’’ मैं बिना देखे ही बोली.

‘काम का तो बहाना है. हमारी मम्मी ने तो जैसे कभी काम ही न किया हो,’ बड़बड़ाते हुए वह निकल गया.

कितना फर्क है मेरी मम्मी और सास में. मेरी मम्मी मुझ से कहती थीं कि भाभी का हाथ बंटा दे, खाना रख दे. बरतन उठा दे. फ्रिज में पानी की बोतल रख दे. सब को दूध पकड़ा दे. साफ बरतन संभाल दे. इन छोटेछोटे कामों से ही भाभी को इतना वक्त मिल जाता कि वे मम्मी के पास बैठ जातीं.

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Family Story: तृप्त मन- राजन ने कैसे बचाया बहन का घर

लेखिका: साधना श्रीवास्तव

पिछले दिनों से थकेहारे घर के सभी सदस्य जैसे घोड़े बेच कर सो रहे थे. राशी की शादी में डौली ने भी खूब इंज्वाय किया लेकिन राजन की पत्नी बन कर नहीं बल्कि उस की मित्र बन कर.

अमेरिका में स्थायी रूप से रह रहे राजन के ताऊ धर्म प्रकाश को जब खबर मिली कि उन के भतीजे राजन ने आई.टी. परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है तो उन्होंने फौरन फोन से अपने छोटे भाई चंद्र प्रकाश को कहा कि वह राजन को अमेरिका भेज दे…यहां प्रौद्योगिकी में प्रशिक्षण के बाद नौकरी का बहुत अच्छा स्कोप है.

चंद्र्र प्रकाश भी तैयार हो गए और बेटे को अमेरिका के लिए पासपोर्ट, वीजा आदि बनवाने में लग गए. लेकिन उन की पत्नी सरोजनी के मन को कुछ बहुत अच्छा नहीं लगा. कुल 2 बच्चे राजन और उस से 5 साल छोटी 8वीं में पढ़ रही राशी. अब बेटा सात समुंदर पार चला जाएगा तो मां को कैसे अच्छा लगेगा. उस ने तो पति से साफ शब्दों में मना भी किया.

चंद्र प्रकाश ने पत्नी को समझाया, ‘‘बच्चे के अच्छे भविष्य के  लिए अमेरिका की शिक्षा बहुत उपयोगी साबित होगी और मांबाप होने के नाते कुछ त्याग हमें भी तो करना ही पड़ेगा. रही बात आंखों से दूर जाने की, तो साल में एक बार तो आएगा न.’’

राशी भी भाई के अमेरिका जाने से दुखी थी. आंखों में आंसू भर कर बोली, ‘‘भैया, तुम इतनी दूर चले जाओगे तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा. मैं रक्षाबंधन के दिन किसे राखी बांधूंगी? नहीं, तुम मत जाओ, भैया,’’ कहने के साथ ही राशी रो पड़ी.

राजन ने बहन को धैर्य बंधाया, ‘‘रोते नहीं राशी. मैं जल्दी आऊंगा और तेरे लिए खूब सारी चीजें अमेरिका से लाऊंगा. रही राखी की बात, तो वह थोड़ा पहले भेज दिया करना…मैं ताऊ की लड़की से बंधवा लूंगा…फिर उस दिन अपनी प्यारीप्यारी बहन से फोन पर बात भी करूंगा.’’

बहरहाल, सब को समझाबुझा कर, खास लोगों से मिल कर राजन निर्धारित समय पर अमेरिका चला गया. वहां उस को ताऊजी के पास अच्छा लगा. परिवार के सभी सदस्यों का बातव्यवहार उस के साथ बिलकुल अपनों जैसा ही था.

मां का पत्र अकसर आ जाता…कभीकभी राशी का पत्र भी उस में रहता. मां तो बारबार यही लिखतीं कि तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगता. घर सब तरफ से सूनासूना लगता है.

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अमेरिका में प्रशिक्षण पूरा होते ही एक कंपनी ने राजन का चयन कर लिया. तो ताऊजी ने खुशीखुशी अपने छोटे भाई चंद्र प्रकाश और सरोजनी को राजन के नौकरी पर लगने की सूचना भेजी. साथ में यह भी बताया कि जल्द ही वह 1 माह का अवकाश ले कर भारत जाएगा.

राजन को अमेरिका में नौकरी मिलने का समाचार सुन कर सरोजनी को तनिक भी अच्छा नहीं लगा. क्या अपने देश में उसे नौकरी नहीं मिलती? क्या हर भारतीय युवक का भविष्य विदेश में ही जा कर संवरता है? राशी भी दुखी हुई. बड़ी उम्मीद लगा रखी थी कि अब भैया के आने के दिन आ रहे हैं.

राजन जिस आफिस में काम करता था उस में इटली की डौली नाम की एक लड़की रिसेप्शनिस्ट के रूप में काम करती थी. डौली शक्लसूरत से बेहद आकर्षक थी. डौली की एक खासियत यह भी थी कि यदि वह पाश्चात्य पहनावे में न हो तो चेहरे से बिलकुल भारतीय लगती थी.

एक ही आफिस में साथसाथ काम करने, आनेजाने पर आपस में बातचीत से राजन और डौली एकदूसरे से काफी प्रभावित हुए. बाद में वे एकदूसरे की चाहत व पसंद बन गए, लेकिन बिना बड़ों की आज्ञा के राजन ऐसा कोई कदम उठाने के पक्ष में नहीं था जिस से उस के व परिवार के सम्मान को ठेस पहुंचे.

डौली के साथ अपनी दोस्ती के बारे में ताऊजी को बताने के साथ ही राजन ने यह भी कहा कि हम एकदूसरे क ो पसंद करते हैं और विवाह भी करना चाहते हैं.

भतीजे की इच्छा को खुशीखुशी स्वीकार करते हुए धर्म प्रकाश ने कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी को सूचित करता हूं और उन से कहूंगा कि शादी की कोई तारीख तय कर लें.’’

चंद्र प्रकाश और सरोजनी को जब राजन के प्रेम और शादी का पता चला तो दोनों को बेटे का यह कदम अखर गया. उन्होंने बड़े भाई से साफ शब्दों में कह दिया कि राजन वहां किसी लड़की से विवाह करने का विचार छोड़ दे, क्योंकि उस के इस तरह विवाह करने से उस की बहन की शादी में अड़ंगा खड़ा हो सकता है. और यदि वह नहीं मानता है तो कम से कम अपनी शादी की खबर भारत में किसी को न दे.

मातापिता की बात से राजन को अपनी गलती का एहसास हुआ. अभी तक उस के दिमाग में यह बात क्यों नहीं आई कि अंतर्जातीय विवाह, वह भी ईसाई लड़की से करने के कारण बहन की शादी में रुकावट आ सकती है.

इस के बाद राजन ने फोन पर कई बार घर पर सब से बात की, उन का हालचाल पूछा लेकिन अपने विवाह से संबंधित कोई बात न तो उस ने छेड़ी और न मातापिता की तरफ से कोई प्रतिक्रिया हुई.

राजन की नौकरी लगे अब 1 साल हो गया था. उस के मन में भारत आने और मातापिता से मिलने की बड़ी इच्छा हो रही थी. वह दफ्तर में 1 माह के अवकाश का आवेदन कर भारत जाने के प्रबंध में लग गया. एअरटिकट मिलते ही राजन ने भारत फोन कर के मां को बताया कि वह फलां तारीख को भारत आ रहा है.

राजन घर पहुंचा तो दबे मन से ही सही पर सब ने उस का स्वागत किया. राजन को कुछ ही सालों में सबकुछ बदलाबदला सा लग रहा था. मां पहले से कुछ कमजोर दिख रही थीं. पिताजी के बाल आधे सफेद हो गए थे और राशी? वह तो कितनी बड़ी लग रही थी. उस के सिर पर हाथ रख कर राजन ने स्नेह से कहा, ‘‘कितनी बड़ी हो गई, राशी तू? तेरे लिए ढेरों चीजें ले आया हूं.’’

राशी कुछ नहीं बोली लेकिन मां ने कहा, ‘‘अब इस के विवाह की चिंता है. जल्दी कहीं बात बन जाती तो कर के हम जिम्मेदारी से मुक्त हो लेते.’’

मां की बात सुन कर राजन को लगा कि मां उस पर कटाक्ष कर रही हैं, फिर भी राजन ने हंस कर राशी से कहा, ‘‘कहीं पसंद किया हो तो बता दे, राशी… पिताजी का ढूंढ़नेभागने का समय बच जाएगा.’’

राशी ने पलट का जवाब दिया, ‘‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं, भैया, जो घर वालों की इच्छा के खिलाफ जा कर विवाह रचा लूं.’’

बहस बढ़ती देख कर मां ने दोनों को रोका और राशी से बोलीं, ‘‘बहस बंद कर और जा भाई के लिये चायनाश्ते का प्रबंध कर.’’

सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने राजन से उस की अमेरिका में की हुई शादी के बारे में कोई बात नहीं की. वे लोग बिलकुल नहीं चाहते थे कि इतने सालों बाद बेटा घर आया है तो कोई तकरार हो. लेकिन राजन ने खुद ही बात छेड़ कर मातापिता को अपने द्वारा लिए निर्णय से अवगत कराते हुए कहा, ‘‘मां, आप कैसे सोचती हैं कि आप लोगों की इजाजत लिए बिना मैं अपनी शादी रचा लेने का साहस कर लेता…इस से तो आप लोगों की प्रतिष्ठा और ममता का अपमान होता. मैं ने निश्चय कर लिया है कि बहन की शादी के बाद ही मैं अपने विवाह के बारे में विचार करूंगा.’’

सरोजनी और चंद्र प्रकाश को बेटे की बात से बड़ी राहत मिली. उन्हें ऐसा लगा जैसे सिर पर लदा कोई बहुत बड़ा बोझ हट गया हो.

1 माह भारत में रह कर राजन अमेरिका वापस आ गया और पहले की तरह जीवन में भागदौड़ फिर शुरू हो गई. देखते ही देखते डेढ़ वर्ष कैसे गुजर गया पता ही न चला. एक दिन मां का फोन आया कि राशी की शादी तय हो गई है. लड़के का परिवार बेहद संभ्रांत है. विवाह की तारीख तय नहीं हुई है…जैसे ही तय होगी. मैं दोबारा तुझे सूचित करूंगी. तुम कम से कम 15 दिन पहले भारत जरूर आ जाना…सारा प्रबंध तुम्हें ही करना है.

शादी की तारीख का पता चलते ही राजन भारत आने की तैयारी में लग गया. राजन ने पहले ही डौली को अपनी परिवारिक समस्याओं से अवगत करा दिया था. डौली ने भी सोचा कि जब राजन के परिवार की समस्या हल हो जाएगी तभी वह विवाह बंधन में बंधेगी.

अब जब राशी की शादी तय होने की सूचना डौली को मिली तो उस ने राजन के साथ जा कर अपनी पसंद का मेकअप का सामान, कई सुंदर साडि़यां और कुछ स्वर्णाभूषण राशी के लिए खरीदे. डौली की इच्छा थी कि वह भी भारत जाए…राशी की शादी देखे. राजन ने उस की इस इच्छा को सहज भाव से मान भी लिया.

विवाह तय होने के बाद से ही सरोजनी को बेटी के बातव्यवहार में बदलाव सा महसूस होने लगा था. हमेशा खुश रहने वाली राशी अब चुपचाप व खोईखोई सी लगती थी. शादी की बात चलते ही वह नाकभौं सिकोड़ कर चली जाती तो सरोजनी ने इसे लड़कियों का स्वाभाविक संकोच मान लिया.

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राशी सगाई की रस्म के लिए भी बड़ी मुश्किल से तैयार हुई थी, जबकि इस रस्म के समय जिस ने भी राशी और विशाल को एकसाथ देखा, भूरिभूरि प्रशंसा की.

गोद भराई की रस्म के दूसरे दिन सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने राजन को सूचना भेज दी और उस के आने की प्रतीक्षा के साथसाथ विवाह की छिटपुट तैयारी में भी लग गए.

इधर बराबर राशी को परेशान और चिंतित देख कर सरोजनी ने उस से पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटी, आजकल तुम बहुत परेशान सी दिखती हो…तबीयत तो ठीक है?’’

मां की बात सुन कर राशी चाैंक सी गई…जैसे उस की कोई चोरी पकड़ ली गई हो, फिर भी अपने को संयत कर सहज आवाज में बोली, ‘‘नहीं, मां…कोई ऐसी बात नहीं है. बस, आजकल सिर में हलकाहलका दर्द बना रहता है…’’

‘‘तो चलो, किसी डाक्टर को दिखा कर दवा ले आते हैं,’’ मां बोली थीं, ‘‘अधिक दिनों तक सिरदर्द का बना रहना ठीक नहीं है.’’

‘‘नहीं, मां…इतना तेज दर्द नहीं है कि डाक्टर के यहां जाने या दवा लेने की जरूरत पडे़…अपनेआप ठीक हो जाएगा,’’ राशी ने मां की बात को टालते हुए कहा.

यद्यपि कई बार राशी के मन में आया कि वह अपनी समस्या से मां को अवगत करा दे, लेकिन तभी दूसरी तरफ मन विरोध भी जाहिर करता, ‘तुम्हारा सोचना तो ठीक है लेकिन यह निश्चित है कि उस के बाद तुम्हारी आकांक्षा पूर्ण न हो सकेगी,’ और मन के इस दोहरे तर्क पर राशी जहां की तहां थम जाती.

विवाह के  कुल 15 दिन शेष बचे थे. उस दिन शाम तक राजन को भी आना था. राशी को लगा कि राजन के आने से पहले उसे अपना काम कर लेना चाहिए अन्यथा भैया के आ जाने पर रुकावट पड़ सकती है. भयग्रस्त मन से ही पर दूसरे दिन दोपहर तक अपना काम पूरा कर लेने का प्रबंध राशी ने कर लिया था.

कोर्ट मैरिज के लिए उस दिन साढे़ 10 बजे के आसपास पूरे इंतजाम के साथ राशी और अरशद  अपने दोस्तों के साथ कोर्ट में पहुंचे पर संयोग कुछ ऐसा बना कि उस दिन अदालत में हड़ताल हो गई और हड़ताल कब तक चलेगी यह भी पता न चल सका. राशी निराश हो कर घर लौट आई और दुखी मन से अपने कमरे में जा कर औंधे मुंह पलंग पर पड़ गई.

राजन की फ्लाइट 9 बजे ही आ गई थी पर वह डौली का इंतजाम करने में लग गया. सब से पहले तो उस ने डौली को एक अच्छे से होटल में ठहराया क्योंकि उस ने पहले ही सोच रखा था कि डौली के भारत आने की खबर वह राशी की शादी से पहले किसी को नहीं देगा. उस के रहने और  सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध कर राजन घर आया.

बंगले के दरवाजे के अंदर अभी वह अपना सामान रखवा ही रहा था कि राशी की सहेली ताहिरा आ गई. ताहिरा ने उसे पहचान कर आदाब किया फिर घबराई आवाज में बोली, ‘‘भाईजान, आप से कुछ जरूरी बात करनी है,’’ और इसी के साथ राजन को खींच कर आड़ में ले गई तथा बिना किसी भूमिका के उस ने वह सब राजन को बता दिया, जिसे अब तक राशी घर वालों से छिपाती आ रही थी. ताहिरा ने राजन को बताया कि मेरी सहेली होने के नाते राशी अकसर मेरे घर आती रहती थी. मेरे बडे़ भाई अरशद, जो डाक्टर हैं, से राशी का प्रेम काफी दिनों से चल रहा था…यह बात तो मुझे पता थी. लेकिन वे दोनों शादी करने पर आ जाएंगे…यह मुझे आज ही पता चला है जब दोनों कोर्ट से निराश हो कर लौटे हैं.

थोड़ा सा रुक कर ताहिरा ने साफ कहा, ‘‘यकीन मानिए भाई साहब, उन दोनों के शादी करने की बात का पता मुझे अभी चला है. अत: आप सभी को बता कर आगाह करना मैं ने अपना कर्तव्य समझा है. इतना अच्छा दूल्हा और इतने हौसले से किया जा रहा सारा इंतजाम, अगर आज उन की शादी कोर्ट में हो गई होती तो सब मटियामेट हो जाता. यह तो अच्छा हुआ कि अदालत में हड़ताल हो गई. आप सब बदनामी से अपने को बचा लें यही सोच कर मैं इस समय आप को सूचित करने आई हूं. अब आप को ही सब कुछ संभालना होगा, राजन भाई. हां, इतना जरूर ध्यान रखिएगा कि मेरा कहीं नाम न आए.’’

इतना बताने के बाद ताहिरा जिस तेजी के साथ आई थी उसी तेजी के साथ वापस चली गई.

ताहिरा से मिली सूचना से राजन को जैसे काठ मार गया. वह सोचने लगा कि आज यदि सचमुच वह सब हो गया होता जो ताहिरा ने बताया है तो मांपिताजी की क्या हालत होती. शायद उन्हें संभाल पाना मुश्किल हो जाता. शायद दोनों आत्मसम्मान के लिए आत्महत्या भी कर लेते पर शुक्र है कि यह अनहोनी होने से पहले ही टल गई. अब मैं राशी को समझा लूंगा, इस विश्वास के साथ राजन ने घर के अंदर प्रवेश किया.

सरोजनी और चंद्र प्रकाश ने मुसकरा कर बेटे का स्वागत किया. मां ने अधिकार के साथ सहेजा, ‘‘बेटा, आ गया तू, अब सबकुछ तुझे ही संभालना है.’’

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‘‘हां…हां…मां. अब आप लोग निश्ंिचत रहिए, मैं सब संभाल लूंगा. पर मां, राशी कहां है…दिखाई नहीं पड़ रही.’’ राजन ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए पूछा.

‘‘अपने कमरे में होगी…आवाज दूं?’’

‘‘रहने दो, मां,’’ राजन बोला, ‘‘बहुत दिन से उस का कान नहीं उमेठा है,’’ कहते हुए राजन राशी के कमरे में पहुंचा. भाई को आया देख कर चेहरे पर बनावटी हंसी बिखेरती राशी उठ खड़ी हुई.

राजन ने गर्मजोशी के साथ पूछा, ‘‘ठीक है, राशी? अच्छा बता, तू ने हमारे होने वाले जीजाजी से इस दौरान बात की थी या नहीं?’’

राजन यह कहते हुए वहीं राशी के करीब बैठ गया. अनेक प्रकार की इधरउधर की बातें करने के बाद उस ने राशी से पूछा, ‘‘सच बताना राशी, यह शादी तेरी पसंद की तो है?’’

राशी चाैंकी…राजन भैया ऐसा क्यों पूछ रहे हैं… क्या उन्हें मेरे बारे में कुछ पता चल गया है? राशी सावधानी से अपने को सहज बनाती हुई धीमी आवाज में बोली, ‘‘हां, भैया, पसंद है…लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘मुझ से झूठ मत बोल, राशी. यदि यह शादी तुझे पसंद है तो तू आज दोपहर में कहां गई थी?’’ राजन की आवाज में तल्खी थी.

राशी को तो मानो काटो तो खून नहीं…जरूर भैया को सब बातों की जानकारी हो गई है…लेकिन वह कुछ बोली नहीं. राजन ने फिर कहा, ‘‘खुद सोच कर देख राशी कि मुसलमान लड़के से शादी…’’

भाई की बात को बीच में काट कर राशी व्यंग्यात्मक आवाज में बोली, ‘‘भैया, क्या आप ने ईसाई लड़की से शादी नहीं की, जो आप मुझे सबक दे रहे हैं?’’

‘‘तुझे मेरे बारे में गलत पता है राशी. मैं ने शादी नहीं की है. मां ने शायद तुझे बताया नहीं. तुम्हारी शादी में कोई रुकावट खड़ी न हो इस के लिए मैं ने अपनी मनचाही शादी रोक दी. और अब तुम्हारे विवाह के बाद भी जो कुछ करूंगा मांपिताजी की आज्ञा व इच्छा के अनुसार ही करूंगा,’’ इतना कह कर राजन चुप हो गया और फिर नाश्ता करने व घर में काम देखने के लिए चला गया.

राशी को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि राजन भैया ने अभी तक विवाह नहीं किया सिर्फ उस के लिए, लेकिन मां ने तो उस से कभी इस बारे में कोई जिक्र ही नहीं किया. वह अपने बड़े भाई से कहे शब्दों की आत्मग्लानि से छटपटाने लगी.

रात में राजन फिर उसे समझाने उस के कमरे में आया तो राशी ने सबसे पहले अपने दिन के व्यवहार के लिए भाई से माफी मांगी फिर दुखी मन से भारी आवाज में बोली, ‘‘भैया, मैं और अरशद एकदूसरे को बहुत चाहते हैं…इस हालत  में तुम्हीं बताओ, शादी न करने  की बात कैसे मेरी समझ में आए.’’

‘‘तेरी बात अपनी जगह ठीक  है, राशी. लेकिन ऐसा कदम उठाते समय तुझे यह ध्यान नहीं आया कि मम्मीपापा को तेरे इस कदम से कितना बड़ा सदमा पहुंचेगा?’’

‘‘भैया,’’ आंसू भरी नजरों से भर्राए स्वर में राशी बोली, ‘‘मुझे सबकुछ पता था और मैं इस बारे में सोचती भी थी पर पता नहीं अरशद को देखने के बाद मुझे क्या हो गया कि मैं प्यार भी कर बैठी और घर से विद्रोह करने पर उतारू हो गई…’’

राशी की बात बीच में ही काटते हुए राजन बोला, ‘‘होता है, राशी…प्यार में ऐसा ही सबकुछ होता है. पर देख मेरी बहना, अभी समय है.. मांपिताजी को इतना बड़ा सदमा न दे कि वे झेल ही न पाएं. अपने मन पर तू नियंत्रण रख कर डाक्टर अरशद को भुलाने की कोशिश कर जो सपना मांपिताजी ने तुझे तेरी शादी को ले कर देखा है उसे पूरा होने दे…बहन, इसी में इस परिवार व हम सब की भलाई है,’’ इतना कहतेकहते राजन की आंखें भी भर आईं.

‘‘एक बात और है राशी,’’ राजन बहन के प्रति आशान्वित हो कर बोला, ‘‘जैसे सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो वह भूला नहीं कहलाता, बस, यही कहावत मुझे प्यारी बहन पर भी लागू हो जाए. मेरी बस, तुझ से यही उम्मीद है. यह भी तुझे ध्यान में रखना होगा राशी कि यह राज की बात हमेशा राज ही बनी रहे.’’

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राशी ने स्वीकृति में गरदन हिला दी, जैसे भाई की बात उस की समझ में अच्छी तरह से आ गई है. अभी तक राशी ने इतनी गहराई से बिलकुल नहीं सोचा था…सचमुच मां इतना बड़ा सदमा शायद ही झेल पातीं और इस के आगे राशी कुछ न सोच सकी. और अगले ही पल भाई की गोद में आंसुओं से तर चेहरा छिपा लिया.

राजन ने भी झुक कर तृप्तमन से बहन का सिर चूम लिया. राजन को लगा कि वह समय से आ गया… तो सबकुछ ठीक हो गया, यदि 1-2 दिन की भी देरी हो जाती तो सबकुछ बिगड़ कर कोई बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा.

Family Story In Hindi: स्वस्थ दृष्टिकोण- भाग 3- क्या हुआ था नंदा के साथ

सारी की सारी कहानी का अंत यह हुआ कि चंदन काफी समय जेल में रहा था, उस की नौकरी छूट गई थी सो अलग. वे लोग तलाक ही नहीं देते थे. न जीते थे न जीने ही देते थे.

‘‘आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं, मुझे तब भी दाल में कुछ काला लगता था जब मानसी वापस आ गई थी. इस चंदन को अगर मानसी की हत्या करनी होती तो वह उस की गरदन काटता न कि जरा सी नस काट कर छोड़ देता ताकि वह जिंदा रह कर सब को बताए कि सच क्या है. बेटी का मसला था न, मैं क्या कहती, मगर यह सत्य है कि लड़की वालों को सदा सहानुभूति मिलती है और लड़का इसी बात का अपराधी बन जाता है कि उस ने सात फेरे ले लिए थे, बस,’’ नंदा बोली तो बस, बोलती ही चली गई, ‘‘बड़ी वाली बेटी घंटाघंटा अपनी ससुराल से हर रोज फोन करती थी तो क्या जरूरी था कि मानसी भी हर रोेज घंटाघंटा मां से बातें करती? हमारी भी तो बेटियां हैं न, हम क्या रोज उन से बातें करते हैं?’’

‘‘फोन मात्र सुविधा के लिए होते हैं ताकि समय पर जरूरी बात की जाए, गपशप लगाएंगे तो क्या फोन का बिल नहीं आएगा? हमारी ही बहू अगर हर रोज अपनी मां से फोन पर गपशप करेगी तो क्या हजारों रुपए बिल देते हुए हम चीखेंगे नहीं? आखिर इतनी क्या बातें होती हैं जो मानसी मां से करना चाहती थी?’’

‘‘ससुराल भेज दिया है बेटी को तो उसे वहां बसने का मौका भी देना चाहिए. ससुराल में घटने वाली जराजरा सी बातें अगर मायके में बताई जाएं तो वे मिठास कम खटास ज्यादा पैदा करती हैं. मुझे तब भी लगता था कि कहीं कुछ गलत हुआ है. अब तो संयोगिता ने भी कुछ बताना चाहा है न, सच कुछ और होगा, आप देख लेना.’’

‘‘घर की बहू शादी के एक महीने बाद ही सहायता के लिए महिला संघ में पहुंच जाए तो क्या ससुराल वाले डर कर उसे अलग नहीं कर देंगे. बेटा क्या पत्नी को स्नेह दे पाएगा जब उस के सिर पर हर पल पुलिस और महिला संघ की तलवार लटकती रहेगी? कोई भी रिश्ता डर से नहीं प्यार से पनपता है. चंदन और मानसी में प्यार कब पनपा होगा जो उन की निभ पाती?’’

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मैं चुपचाप सुनता रहा. यह सच है कि हमारी बेटियां अपनेअपने घर में खुश हैं. 15-20 दिन बाद वह हमें फोन कर के हमारा हालचाल पूछ लेती हैं, जराजरा सी बात न वह हमें फोन पर बताती हैं और न ही हम. अनुशासन तो जीवन में हर कदम पर होना चाहिए न. सीमित आय वाला हजारों रुपए का बिल कैसे चुका पाएगा. व्यर्थ क्लेश तो होगा ही न.

जल्दी ही हम दोनों चंदन से मिलने जा पहुंचे. दूल्हा बने कभी मानसी की बगल में बैठे देखा था उसे और अब ऐसा लग रहा था जैसे पूरे जीवन का संत्रास एकसाथ ही सह कर थकाहारा एक इनसान हमारे सामने खड़ा है.

चंदन ने हमारे पैर छू कर प्रणाम किया. मैं सोचने लगा, क्या अब भी हमारा कोई ऐसा अधिकार बचा है?

‘‘जीते रहो,’’ स्वत: निकल गया मेरे होंठों से.

कुछ पल हम आमनेसामने बैठे रहे. बात कैसे शुरू की जाए. मैं ने ही चंदन को पास बुला लिया, ‘‘यहां आ कर मेरे पास बैठो, चंदन. आओ बेटा.’’

एक पुरुष बच्चों की तरह कैसे रो पड़ता है मैं ने पहली बार देखा था. मेरे घुटनों पर सिर रख कर वह ऐसी दर्द भरी चीखों से रोया कि नंदा भी घबरा उठी. संयोगिता ने ही लपक कर उसे संभाला, ‘‘आप चाचाजी से सब कह दीजिए, चंदन. रोइए मत, आप इसी तरह रोते रहेंगे तो बात कैसे कर पाएंगे? मैं चाची को ले कर दूसरे कमरे में चली जाती हूं. आप चाचाजी से बात कीजिए. रोइए मत, चंदन.’’

तब सहसा मैं ने ही चंदन को संभाला और इशारे से नंदा को संयोगिता के साथ जाने का इशारा किया. तब एक संतोष भाव उभर आया था संयोगिता के चेहरे पर मानो मेरे इशारे से एक डूबते को तिनके का सहारा मिला हो. संयोगिता भरी आंखों से मेरा आभार जताती हुई नंदा के साथ चली गई.

हम दोनों अकेले रह गए. कुछ समय लग गया चंदन को सामान्य होने में. फिर धीरे से चंदन ने ही कहा, ‘‘मेरा जीवन इस कदर बरबाद हो जाएगा मैं ने कभी सोचा भी न था.’’

‘‘यह सब क्यों और कैसे हो गया, मुझे सचसच बताओ, चंदन. किस का कितना दोष था, समझाओ मुझे. क्या मानसी निभा नहीं पाई या…?’’

‘‘सब से बड़ा दोष तो मेरा ही था, चाचाजी. मुझे तो पता नहीं था कि मेरे शरीर में कोई कमी है. मेरा शरीर मेरा साथ नहीं दे पाएगा मैं नहीं जानता था.’’

यह सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. चंदन कुछ देर चुप रहा फिर बोला, ‘‘यह सचाई मुझे स्वीकार करनी चाहिए थी न. जो मेरे बस में नहीं था मुझे उसे अपनी कमी मान कर मानसी को आजाद कर देना चाहिए था. मैं अपनी कमजोरी स्वीकार ही नहीं कर पाया.

‘‘हर बीमारी का इलाज है. ठंडे दिमाग से हल निकालता तो हो सकता था सब ठीक हो जाता. मानसी को सचाई से अवगत कराता तो हो सकता था वह मेरा साथ देती, मेरा मानसम्मान संभाल कर रखती. मगर मैं तो अपनी कुंठा, अपनी हताशा मानसी पर उतारता रहा. उस ने निभाने की कोशिश की थी मगर मैं ने ही कोई रास्ता नहीं छोड़ा था.

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‘‘मानसी जराजरा सी बात अपने मायके में बताती. मैं चिढ़ कर फोन ही काट देता. मैं ने मानसी की हत्या करने की कोशिश नहीं की थी. मानसी ने खुद ही तंग आ कर अपनी नसें काट ली थीं.

‘‘यह भी सच है कि मानसी अपनी बड़ी बहन की अमीर ससुराल से हमारी तुलना करती थी कि दीदी दिन में 2-2 बार मम्मी को फोन करती हैं इसलिए वह भी करेगी. पहली बार में ही जब लंबाचौड़ा बिल आ गया तो पिताजी ने साफसाफ मना कर दिया, जिस पर मानसी ने काफी बावेला मचाया.

‘‘हमारे घर में अनुशासन था जिस में बंधना मानसी को गंवारा नहीं था. हमारी नपीतुली आमदनी पर जब मानसी ने ताना कसा तो मैं ने भी कह दिया था कि लोग तो दामाद को 10-10 लाख देते हैं, इतना ही खुला हाथ है तो अपनी मां से मांग लो.

‘‘बस, इसी बात को मुद्दा बना कर मानसी के परिवार ने महिला संघ में शिकायत कर दी कि मैं दहेज की मांग कर रहा हूं. मैं ने घबरा कर मानसी को उस के पूरे दानदहेज के साथ अलग कर दिया. मैं नहीं चाहता था कि मेरे मातापिता पर कोई आंच आए.

‘‘हालात बिगड़ते ही चले गए, चाचाजी. सब मेरे हाथ से निकलता चला गया. मेरा दोष था, मैं मानता हूं. मैं ने सब का हित सोचा, अपने मांबाप का हित सोचा, अपनी कमजोरी छिपा कर सोचा कि अपना हित कर रहा हूं लेकिन बेचारी मानसी का हित नहीं सोचा. उसे कुछ नहीं दिया. मेरे जीवन से वह रोतीबिलखती ही चली गई.

‘‘मैं अपनी भूल मानता हूं लेकिन यह सच नहीं है कि मैं ने मानसी की हत्या का प्रयास किया था. मैं ने दहेज की मांग कभी नहीं की थी, चाचाजी. मैं ने मानसी को अपनी समस्या नहीं बताई, यह सच है लेकिन यह सच नहीं है कि मैं मानसी को पागल प्रमाणित करना चाहता था.

‘‘अखबारों में मुझ पर जोजो आरोप छपे वे सच नहीं हैं. सच तो सामने आया ही नहीं. जो अन्याय मैं ने कभी किया ही नहीं उस की सजा मैं ने क्यों पाई? इतना अपमान और इतनी बदनामी होगी मैं ने नहीं सोचा था.

‘‘मानसी के साथ एक सुखी गृहस्थी का सपना था मेरा. नहीं सोचा था, 2 दिन बाद ही मेरा घर जंग का मैदान बन जाएगा. मानसी का सहज सामीप्य ही असहनीय हो जाएगा.

‘‘मैं मानसी से दूर रहने के बहाने ढूंढ़ने लगा था. अपनी नपुंसकता को मानसी से अवगत कराता तो शायद वह मुझे सहारा देती. अपने मांबाप को भी कुछ बता पाता तो हो सकता था वही मुझे कोई रास्ता दिखाते. अपने ही खोल में घुटघुट कर मैं ने अपने साथसाथ मानसी का भी जीना हराम कर दिया था. मेरी वजह

से मानसी का जीवन बरबाद हो गया. मुझे अपनी कमी का एहसास होता तो मैं कभी शादी नहीं करता. सच का सामना करता तो शायद कोई आसान रास्ता निकल आता.

‘‘मेरी हताशा हर रोज कोई नई समस्या खड़ी करती और मानसी का मुझ से झगड़ा हो जाता. असहाय मानसी करती भी तो क्या?

‘‘चाचाजी, 4 साल बीत गए उस घटना को, मेरी सांस घुटती  है वह सब याद कर के. हम ने मानसी का जीवन तबाह किया है.’’

मैं भारी मन से सबकुछ सुनता रहा. आखिर कहता भी क्या.

‘‘मैं आज भी मानसी को भुला नहीं पाया हूं, चाचाजी,’’ चंदन ने आगे कहना जारी रखा, ‘‘मैं मानसी के लिए परेशान हूं््. मैं उस से सिर्फ एक बार मिलना चाहता हूं.

‘‘आज इतना सब भोगने के बाद सच का सामना करने की हिम्मत है मुझ में. चाचाजी, आप मुझे सिर्फ एक बार मानसी से मिला दें.

‘‘संयोगिता से जब शादी की तब क्या उसे पूरी सचाई बताई थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी, संयोगिता मेरे एक दोस्त की बहन है. मेरी सचाई जान गई थी. दोस्त की पत्नी ने सब बताया था इसे. मेरा दोस्त ही मुझे डाक्टर के पास ले गया था. मैं मानता हूं, मुझ से ही गलती हुई थी. जो कदम मैं ने इतनी बड़ी सजा भोगने के बाद उठाया वह तभी उठा लेता तो इतनी बड़ी घटना न होती.’’

‘‘अब मानसी से मिल कर दबी राख क्यों कुरेदना चाहते हो? जो हो गया उसे सपना समझ कर भूलने का प्रयास करो. क्या संयोगिता का दिल भी दुखाना चाहते हो, जिस ने जीवन का सब से बड़ा जुआ खेला तुम्हारा हाथ पकड़ कर? तुम्हारा मन हलका हो जाए, मैं इसीलिए चला आया हूं, मगर अब अगर संयोगिता का मन दुखाओगे तो एक और भूल करोगे,’’ कहते हुए मेरी नजर बाहर की बंद खिड़कियों पर पड़ी. मैं ने उठ कर सारे पट खोल दिए. ताजा हवा अंदर चली आई. मैं फिर बोला, ‘‘घुटघुट कर मत जिओ, चंदन, खुल कर जिओ और अपना जीवन सरल बनाना सीखो. संयोगिता, जो तुम्हें संयोग ने दी है, अब उसी को सहेजो. जो नहीं रहा उस का दुख मत करो, समझेन.’’

शांत हो चुका था चंदन. उस का कंधा थपक कर मैं बाहर चला आया.

बाहर नंदा मेरा ही इंतजार कर रही थी.

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घर आ कर मैं देर तक सामान्य नहीं हो पाया. सोचने लगा, क्या दोष था चंदन का? अपनी सामयिक नपुंसकता को सहज स्वीकार नहीं कर पाया, क्या यही दोष था इस का? हम में से कितने ऐसे पुरुष हैं जो अपनी नपुंसकता को सहज स्वीकार कर कोई स्वस्थ दृष्टिकोण अपना पाते हैं? लड़की वाले अकसर अपनी हालत यह प्रमाणित कर के ज्यादा दयनीय बना लेते हैं कि उन्हीं के साथ ज्यादा अन्याय हुआ है. मानसी भी तो सचाई अपनी मां को बता सकती थी. वह चंदन पर हत्या करने का आरोप लगा कर इतना बड़ा बखेड़ा तो खड़ा न करती. यह सच है कि चंदन से प्यार मिलता तो मानसी सब सह जाती लेकिन चंदन से मिली थी मात्र हताशा, मानसिक यातना, जिस का प्रतिकार मानसी ने भी इस तरह किया. दोनों में से किसी का भी तो भला नहीं हुआ न.

‘‘क्या सोच रहे हैं आप?’’ नंदा ने पूछा.

‘‘बस, इतना ही कि हमारा भी कोई बेटा होता तो…’’

‘‘एकाएक बेटा क्यों सूझा आप को?’’

‘‘बेटा नहीं सूझा, एक जरूरत सूझी है. क्या बेटे की शादी से पहले उस का पूरा मेडिकल चेकअप जरूरी नहीं है? जन्मपत्री की जगह रक्त मिलाना चाहिए. तुम क्या सोचती हो. मेरा बेटा होता तो उस की पूरी जांच कराए बिना कभी शादी न कराता.

‘‘यह संकोच की बात नहीं एक जरूरत होनी चाहिए. मानसी का जीवन अधर में न लटकता अगर चंदन के मांबाप ने यह स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया होता.’’

चुप थी नंदा. इस का मतलब वह मेरे शब्दों से सहमत थी. संयोगिता ने इसे शायद सारा सच बताया होगा न.

ठंडी सांस ली नंदा ने. मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में भी पीड़ा थी. बस, यही सोच कर कि जो हो गया उसे समय पर संभाल लिया जाता तो जो सब हो गया वह कभी न होता.

Family Story: किराए की कोख – सुनीता ने कैसे दी ममता को खुशी

पूरे महल्ले में सब से खराब माली हालत महेंद्र की ही थी. इस शहर से कोसों दूर एक गांव से 2 साल पहले ही महेंद्र अपनी बीवी सुनीता और 2 बच्चों के साथ इस जगह आ कर बसा था. वह गरीबी दूर करने के लिए गांव से शहर आया था, लेकिन यहां तो उन का खानापीना भी ठीक से नहीं हो पाता था.

महेंद्र एक फैक्टरी में काम करता था और सुनीता घर पर रह कर बच्चों की देखभाल करती थी. बड़ा बेटा 5 साल से ऊपर का हो गया था, लेकिन अभी स्कूल जाना शुरू नहीं हो पाया था.

सुनीता काफी सोचती थी कि बच्चे को किसी अगलबगल के छोटे स्कूल में पढ़ने भेजने लगे, लेकिन चाह कर भी न भेज सकती थी. जिस महल्ले में सुनीता रहती थी, उस महल्ले में सब मजदूर और कामगार लोग ही रहते थे. ठीक बगल के मकान में रहने वाली एक औरत के साथ सुनीता का उठनाबैठना था.

जब उस को सुनीता की मजबूरी पता लगी, तो उस ने सुनीता को खुद भी काम करने की सलाह दे डाली. उस ने एक घर में उस के लिए काम भी ढूंढ़ दिया.

सुनीता ने जब यह बात महेंद्र को बताई, तो वह थोड़ा हिचकिचाया, लेकिन सुनीता का सोचना ठीक था, इसलिए वह कुछ कह नहीं सका. सुनीता उस औरत द्वारा बताए गए घर में काम करने जाने लगी. वह काफी बड़ा घर था. घर में केवल 2 लोग ममता और रमन पतिपत्नी ही थे, जो किसी बड़ी कंपनी में काम करते थे.

दोनों का स्वभाव सुनीता के प्रति बहुत नरम था. ममता तो आएदिन सुनीता को तनख्वाह के अलावा भी कुछ न कुछ चीजें देती ही रहती थी. रमन और ममता के पास किसी चीज की कोई कमी नहीं थी, लेकिन घर में एक भी बच्चा नहीं था.

रविवार के दिन ममता और रमन छुट्टी पर थे. काम खत्म कर सुनीता जाने को हुई, तो ममता ने उसे बुला कर अपने पास बिठा लिया. वह सुनीता से उस के परिवार के बारे में पूछती रही. सुनीता को ममता की बातों में बड़ा अपनापन लगा, तो वह अचानक ही उस से पूछ बैठी, ‘‘जीजी, आप के कोई बच्चा नहीं हुआ क्या?’’

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ममता ने मुसकरा कर सुनीता की तरफ देखा और धीरे से बोली, ‘‘नहीं, लेकिन तुम यह क्यों पूछ रही हो?’’ सुनीता ने ममता की आवाज को भांप लिया था. वह बोली, ‘‘बस जीजी, ऐसे ही पूछ रही थी. घर में कोई बच्चा न हो, तो अच्छा नहीं लगता न. शायद आप को ऐसा महसूस होता हो.’’

ममता की आंखें उसी पर टिक गई थीं. वह भी शायद इस बात को शिद्दत से महसूस कर रही थी.

ममता बोली, ‘‘तुम सही कहती हो सुनीता. मैं भी इस बात को ले कर चिंता में रहती हूं, लेकिन कर भी क्या सकती हूं? मैं मां नहीं बन सकती, ऐसा डाक्टर कहते हैं…’’

यह कहतेकहते ममता का गला भर्रा गया था. सुनीता भी आगे कुछ कहने की हिम्मत न कर सकी थी. उस के पास शायद इस बात का कोई हल नहीं था.

ममता और रमन शादी से पहले एक ही कंपनी में काम करते थे, जहां दोनों में मुहब्बत हुई और उस के बाद दोनों ने शादी कर ली. कई साल तक दोनों ने बच्चा पैदा नहीं होने दिया, लेकिन बाद में ममता मां बनने के काबिल ही न रही. इस बात को ले कर दोनों परेशान थे.

सुनीता को ममता के घर काम करते हुए काफी दिन हो गए थे. ममता का मन जब भी होता, वह सुनीता को अपने पास बिठा कर बातें कर लेती थी. पर अब सुनीता ममता से बच्चा न होने या होने को ले कर कोई बात नहीं करती थी. दिन ऐसे ही गुजर रहे थे. एक दिन ममता ने सुनीता को आवाज दी और उसे साथ ले कर अपने कमरे में पहुंच गई. उस ने सुनीता को अपने पास ही बिठा लिया.

सुनीता अपनी मालकिन ममता के बराबर में बैठने से हिचकती थी, लेकिन ममता ने उसे हाथ पकड़ कर जबरदस्ती बिठा ही लिया.

ममता ने सुनीता का हाथ अपने हाथ में लिया और बोली, ‘‘सुनीता, तुम से एक काम आ पड़ा है, अगर तुम कर सको तो कहूं?’’

ममता के लिए सुनीता के दिल में बहुत इज्जत थी, भला वह उस के किसी काम के लिए क्यों मना कर देती. वह बोली, ‘‘जीजी, कैसी बात करती हो? आप कहो तो सही, न करूं तो कहना.’’

ममता ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, ‘‘सुनीता, डाक्टर कहता है कि मैं मां तो बन सकती हूं, लेकिन इस के लिए मुझे किसी दूसरी औरत का सहारा लेना पड़ेगा… अगर तुम चाहो, तो इस काम में मेरी मदद कर सकती हो.’’

ममता की बात सुन कर सुनीता का मुंह खुला का खुला रह गया. उस को यकीन न होता था कि ममता उस से इतने बड़े व्यभिचार के बारे में कह सकती है.

सुनीता साफ मना करते हुए बोली, ‘‘जीजी, मैं बेशक गरीब हूं, लेकिन अपने पति के होते किसी मर्द की परछाईं तक को न छुऊंगी. आप इस काम के लिए किसी और को देख लो.’’

ममता हैरत से बोली, ‘‘अरे बावली, तुम से पराया मर्द छूने को कौन कहता है… यह सब वैसा नहीं है, जैसा तुम सोच रही हो. इस में सिर्फ लेडी डाक्टर के अलावा तुम्हें कोई नहीं छुएगा. यह समझो कि तुम सिर्फ अपनी कोख में बच्चे को पालोगी, जबकि सबकुछ मैं और मेरे पति करेंगे.’’

सुनीता की समझ में कुछ न आया था. सोचा कि भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई आदमी औरत को छुए भी नहीं और वह मां बन जाए.

सुनीता को हैरान देख कर ममता बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रही हो सुनीता? तुम चाहो तो मैं सीधे डाक्टर से भी बात करा सकती हूं. जब तुम पूरी तरह संतुष्ट हो जाओ, तब ही तैयार होना.’’

सुनीता हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘जीजी, मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं… अगर मैं तैयार हो भी जाऊं, तो मेरे पति इस बात के लिए नहीं मानेंगे.’’

ममता हार नहीं मानना चाहती थी. आखिर उस के मन में न जाने कब से मां बनने की चाहत पल रही थी. वह बोली, ‘‘तुम इस बात की चिंता बिलकुल मत करो. मैं खुद घर आ कर तुम्हारे पति से बात करूंगी और इस काम के लिए तुम्हें इतना पैसा दूंगी कि तुम 2 साल भी काम करोगी, तब भी कमा नहीं पाओगी.’’ सुनीता यह सब तो नहीं चाहती थी, लेकिन ममता से मना करने का मन भी नहीं हो रहा था.

काम से लौटने के बाद सुनीता ने अपने पति से सारी बात कह दी. महेंद्र इस बात को सिरे से खारिज करता हुआ बोला, ‘‘नहीं, कोई जरूरत नहीं है इन लोगों की बातों में आने की. कल से काम पर भी मत जाना ऐसे लोगों के यहां. ये अमीर लोग होते ही ऐसे हैं.

‘‘मैं तो पहले ही तुम्हें मना करने वाला था, लेकिन तुम ने जिद की तो कुछ न कह सका.’’

सुनीता को ऐसा नहीं लगता था कि ममता दूसरे अमीर लोगों की तरह है. वह उस के स्वभाव को पहले भी परख चुकी थी. वह बोली, ‘‘नहीं, मैं यह बात नहीं मान सकती. ऐसी मालकिन मिलना आज के समय में बहुत मुश्किल काम है. आप उन को सब लोगों की लाइन में खड़ा मत करो.’’ महेंद्र कुछ कहता, उस से पहले ही कमरे के दरवाजे पर किसी के आने की आहट हुई, फिर दरवाजा बजाया गया.

सुनीता को ममता के आने का एहसास था. उस ने झट से उठ कर दरवाजा खोला, तो देखा कि सामने ममता खड़ी थी.

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सुनीता के हाथपैर फूल गए, खुशी के मारे मुंह से बात न निकली, वह अभी पागलों की तरह ममता को देख ही रही थी कि ममता मुसकराते हुए बोल पड़ी, ‘‘अंदर नहीं बुलाओगी सुनीता?’’ सुनीता तो जैसे नींद से जागी थी.

वह हड़बड़ा कर बोली, ‘‘हांहां जीजी, आओ…’’ यह कहते हुए वह दरवाजे से एक तरफ हटी और महेंद्र से बोली, ‘‘देखोजी, अपने घर आज कौन आया है… ये जीजी हैं, जिन के घर पर मैं काम करने जाती हूं.’’

महेंद्र ने ममता को पहले कभी देखा तो नहीं था, लेकिन अमीर पहनावे और शक्लसूरत को देख कर उसे समझते देर न लगी. उस ने ममता से दुआसलाम की और उठ कर बाहर चल दिया.

ममता ने उसे जाते देखा, तो बोल पड़ी, ‘‘भैया, आप कहां चल दिए? क्या मेरा आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

महेंद्र यह बात सुन कर हड़बड़ा गया. वह बोला, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं तो इसलिए जा रहा था कि आप दोनों आराम से बात कर सको.’’

ममता हंसते हुए बोली, ‘‘लेकिन भैया, मैं तो आप से ही बात करने आई हूं. आप भी हमारे साथ बैठो न.’’

महेंद्र न चाहते हुए भी बैठ गया. ममता का इतना मीठा लहजा देख वह उस का मुरीद हो गया था. उस के दिमाग में अमीरों को ले कर जो सोच थी, वह जाती रही.

सुनीता सामने खड़ी ममता को वहीं बिछी एक चारपाई पर बैठने का इशारा करते हुए बोली, ‘‘जीजी, मेरे घर में तो आप को बिठाने के लिए ठीक जगह भी नहीं, आप को आज इस चारपाई पर ही बैठना पड़ेगा.’’

ममता मुसकराते हुए बोली, ‘‘सुनीता, प्यार और आदर से बड़ा कोई सम्मान नहीं होता, फिर क्या चारपाई और क्या बैड. आज तो मैं तुम्हारे साथ जमीन पर ही बैठूंगी.’’

इतना कह कर ममता जमीन पर पड़ी एक टाट की बोरी पर ही बैठ गई.

सुनीता ने लाख कहा, लेकिन ममता चारपाई पर न बैठी. हार मान कर सुनीता और महेंद्र भी जमीन पर ही बैठ गए. सुनीता ने नजर तिरछी कर महेंद्र को देखा, फिर इशारों में बोली, ‘‘देख लो, तुम कहते थे कि हर अमीर एकजैसा होता है. अब देख लिया.’’

महेंद्र से आदमी पहचानने में गलती हुई थी. तभी ममता अचानक बोल पड़ी, ‘‘सुनीता, क्या तुम मुझे चाय नहीं पिलाओगी अपने घर की?’’

सुनीता के साथसाथ महेंद्र भी खुश हो गया. एक करोड़पति औरत गरीब के घर आ कर जमीन पर बैठ चाय पिलाने की गुजारिश कर रही थी.

सुनीता तो यह सोच कर चाय न बनाती थी कि ममता उस के घर की चाय पीना नहीं चाहेंगी. जब खुद ममता ने कहा, तो वह खुशी से पागल हो उठी, महेंद्र और सुनीता की इस वक्त ऐसी हालत थी कि ममता इन दोनों से इन की जान भी मांग लेती, तो भी ये लोग मना न करते.

चाय बनी, तो सब लोग चाय पीने लगे. इतने में सुनीता का छोटा बेटा जाग गया. ममता ने उसे देखा तो खुशी से गोद में उठा लिया और उस से बातें करने में मशगूल हो गई.

महेंद्र और सुनीता यह सब देख कर बावले हुए जा रहे थे. उन्हें ममता में एक अमीर औरत की जगह अपने घर की कोई औरत नजर आ रही थी.

थोड़ी देर बाद ममता ने बच्चे को सुनीता के हाथों में दे दिया और महेंद्र की तरफ देख कर बोली, ‘‘भैया, मैं कुछ बात करने आई थी आप से. वैसे, सुनीता ने आप को सबकुछ बता दिया होगा.

‘‘भैया, मैं आप को यकीन दिलाती हूं कि सुनीता को सिर्फ लेडी डाक्टर के अलावा कोई और नहीं छुएगा. यह इस तरह होगा, जैसे कोयल अपने अंडे कौए के घोंसले में रख देती है और बच्चे अंडों से निकल कर फिर से कोयल के हो जाते हैं, अगर आप…’’

महेंद्र ममता की बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़ा, ‘‘बहनजी, आप जैसा ठीक समझें वैसा करें. जब सुनीता को आप अपना समझती हैं, तो फिर मुझे किसी बात से कोई डर नहीं. इस का बुरा थोड़े ही न सोचेंगी आप.’’

ममता खुशी से उछल पड़ी. सुनीता महेंद्र को मुंह फाड़े देखे जा रही थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि महेंद्र इतनी जल्दी हां कह सकता है. लेकिन महेंद्र तो इस वक्त किसी और ही फिजा में घूम रहा था. कोई करोड़पति औरत उस के घर आ कर झोली फैला कर उस से कुछ मांग रही थी, फिर भला वह कैसे मना कर देता.

ममता हाथ जोड़ कर महेंद्र से बोली, ‘‘भैया, मैं आप का यह एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगी,’’ यह कहते हुए ममता ने अपने मिनी बैग से नोटों की एक बड़ी सी गड्डी निकाल कर सुनीता के हाथों में पकड़ा दी और बोली, ‘‘सुनीता, ये पैसे रख लो. अभी और दूंगी. जो इस वक्त मेरे पास थे, वे मैं ले आई.’’

सुनीता ने हाथ में पकड़े नोटों की तरफ देखा और फिर महेंद्र की तरफ देखा. महेंद्र पहले से ही सुनीता के हाथ में रखे नोटों को देख रहा था.

आज से पहले इन दोनों ने कभी इतने रुपए नहीं देखे थे, लेकिन महेंद्र कम से कम ममता से रुपए नहीं लेना चाहता था, वह बोला, ‘‘बहनजी, ये रुपए हम लोग नहीं ले सकते. जब आप हमें इतना मानती हैं, तो ये रुपए किस बात के लिए?’’

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ममता ने सधा हुआ जवाब दिया, ‘‘नहीं भैया, ये तो आप को लेने ही पड़ेंगे. भला कोई और यह काम करता, तो वह भी तो रुपए लेता, फिर आप को क्यों न दूं?

‘‘और ये रुपए दे कर मैं कोई एहसान थोड़े ही न कर रही हूं.’’

इस के बाद ममता वहां से चली गई. महेंद्र ने ममता के जाने के बाद रुपए गिने. पूरे एक लाख रुपए थे. महेंद्र और सुनीता दोनों ही आज ममता के अच्छे बरताव से बहुत खुश थे. ऊपर से वे एक लाख रुपए भी दे गईं. ये इतने रुपए थे कि 2 साल तक दोनों काम करते, तो भी इतना पैसा जोड़ न पाते.

दोनों के अंदर आज एक नया जोश था. अब न किसी बात से एतराज था और न किसी बात पर कोई सवाल.

जल्द ही सुनीता को ममता ने डाक्टर के पास ले जा कर सारा काम निबटवा दिया. वह सुनीता के साथ उस के पति महेंद्र को भी ले गई थी, जिस से उस के मन में कोई शक न रहे.

ममता ने अब सुनीता से घर का काम कराना बंद कर दिया था. घर के काम के लिए उस ने एक दूसरी औरत को रख लिया था. सुनीता को खाने के लिए ममता ने मेवा से ले कर हर जरूरी चीज अपने पैसों से ला कर दे दी थी. साथ ही, एक लाख रुपए और भी नकद दे दिए थे.

ममता नियमित रूप से सुनीता को देखने भी आती थी. उस ने महेंद्र और सुनीता से उस के घर चल कर रहने के लिए भी कहा था, लेकिन महेंद्र ने वहां रहने के बजाय अपने घर में ही रहना ठीक समझा.

जिस समय सुनीता अपने पेट में बच्चे को महसूस करने लगी थी, तब से न जाने क्यों उसे वह अपना लगने लगा था. वह उसे सबकुछ जानते हुए भी अपना मान बैठी थी.

जब बच्चा होने को था, तब एक हफ्ता पहले ही सुनीता को अस्पताल में भरती करा दिया गया था. जिस दिन बच्चा हुआ, उस दिन तो ममता सुनीता को छोड़ कर कहीं गई ही न थी. सुनीता को बेटा हुआ था.

ममता ने सुनीता को खुशी से चूम लिया था. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. लेकिन सुनीता को मन में अजीब सा लग रहा था. उस का मन उस बच्चे को अपना मान रहा था.

अस्पताल से निकलने के बाद ममता ने सुनीता को कुछ दिन अपने पास भी रखा था. उस के बाद उस ने सुनीता को और 50 हजार रुपए भी दिए. सुनीता अपने घर आ गई, लेकिन उस का मन न लगता था. जो बच्चा उस ने अपनी कोख में 9 महीने रखा, आज वह किसी और का हो चुका था. पैसा तो मिला था, लेकिन बच्चा चला गया था.

सुनीता का मन होता था कि बच्चा फिर से उस के पास आ जाए, लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता था. उस की कोख किसी और के बच्चे के लिए किराए पर जो थी.

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Family Story In Hindi: स्वस्थ दृष्टिकोण- भाग 2- क्या हुआ था नंदा के साथ

ऐसे ही 2-3 दिन बीत गए. हम समझ नहीं पा रहे थे कि सचाई कैसे जानें.

दरवाजे की घंटी बजी और हम पतिपत्नी हक्के- बक्के रह गए. सामने वही लड़की खड़ी थी. हमारी नन्ही पड़ोसिन जो अब मानसी के तलाकशुदा पति की पत्नी है.

कुछ पल को तो हम समझ ही नहीं पाए कि हम क्या कहें और क्या नहीं. स्वर निकला ही नहीं. वह भी चुपचाप हमारे सामने इस तरह खड़ी थी जैसे कोई अपराध कर के आई हो और अब दया चाहती हो.

‘‘आओ…, आओ बेटी, आओ न…’’ मैं बोला.

पता नहीं क्यों स्नेह सा उमड़ आया उस के प्रति. कई बार होता है न, कोई इनसान बड़ा प्यारा लगता है, निर्दोष लगता है.

‘‘आओ बच्ची, आ जाओ न,’’ कहते हुए मैं ने पत्नी को इशारा किया कि वह उसे हाथ पकड़ कर अंदर बुला ले.

इस से पहले कि मेरी पत्नी उसे पुकारती, वह स्वयं ही अंदर चली आई.

‘‘आप…आप से मुझे कुछ बात करनी है,’’ वह डरीडरी सी बोली.

बहुत कुछ था उस के इतने से वाक्य में. बिना कहे ही वह बहुत कुछ कह गई थी. समझ गया था मैं कि वह अवश्य अपने पति के ही विषय में कुछ साफ करना चाहती होगी.

पत्नी चुपचाप उसे देखती रही. हमारे पास भला क्या शब्द होते बात शुरू करने के लिए.

‘‘आप लोग…आप लोगों की वजह से चंदन बहुत परेशान हैं. बहुत मेहनत से मैं ने उन्हें ठीक किया था. मगर जब से उन्होंने आप को देखा है वह फिर से वही हो गए हैं, पहले जैसे बीमार और परेशान.’’

‘‘लेकिन हम ने उस से क्या कहा है? बात भी नहीं हुई हमारी तो. वह मुझे पहचान गया होगा. बेटी, अब जब तुम ने बात शुरू कर ही दी है तो जाहिर है सब जानती होगी. हमारी बच्ची का क्या दोष था जरा समझाओ हमें? चंदन ने उसे दरबदर कर दिया, आखिर क्यों?’’

‘‘दरबदर सिर्फ मानसी ही तो नहीं हुई न, चंदन भी तो 4 साल से दरबदर हो रहे हैं. यह तो संयोग था न जिस ने मानसी और चंदन दोनों को दरबदर…’’

‘‘क्या कार का लालच संयोग ने किया था? हर रोज नई मांग क्या संयोग करता था?’’

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‘‘यह तो कहानी है जो मानसी के मातापिता ने सब को सुनाई थी. चंदन के घर पर तो सबकुछ था. उन्हें कार का क्या करना था? आज भी वह सब छोड़छाड़ कर अपने घर से इतनी दूर यहां राजस्थान में चले आए हैं सिर्फ इसलिए कि उन्हें मात्र चैन चाहिए. यहां भी आप मिल गए. आप मानसी के चाचा हैं न, जब से आप को देखा है उन का खानापीना छूट गया है. सब याद करकर के वह फिर से पहले जैसे हो गए हैं,’’ कहती हुई रोने लगी वह लड़की, ‘‘एक टूटे हुए इनसान पर मैं ने बहुत मेहनत की थी कि वह जीवन की ओर लौट आए. मेरा जीवन अब चंदन के साथ जुड़ा है. वह आप से मिल कर सारी सचाई बताना चाहते हैं. आखिर, कोई तो समझे उन्हें. कोई तो कहे कि वह निर्दोष हैं.

‘‘कार की मांग भला वह क्या करते जो अपने जीवन से ही निराश हो चुके थे. आजकल दहेज मांगने का आरोप लगा देना तो फैशन बन गया है. पतिपत्नी में जरा अलगाव हो जाए, समाज के रखवाले झट से दहेज विरोधी नारे लगाने लगते हैं. ऐसा कुछ नहीं था जिस का इतना प्रचार किया गया था.’’

‘‘तुम्हारा मतलब…मानसी झूठ बोलती है? उस ने चंदन के साथ जानबूझ कर निभाना नहीं चाहा? इतने महीने वह तो इसी आस पर साथ रही थी न कि शायद एक दिन चंदन सुधर जाएगा,’’ नंदा ने चीख कर कहा. तब उस बच्ची का रोना जरा सा थम गया.

‘‘वह बिगड़े ही कब थे जो सुधर जाते? मैं आप से कह रही हूं न, सचाई वह नहीं है जो आप समझते हैं. दहेज का लालच वहां था ही नहीं, वहां तो कुछ और ही समस्या थी.’’

‘‘क्या समस्या थी? तुम्हीं बताओ.’’

‘‘आप चंदन से मिल लीजिए, अपनी समस्या वह स्वयं ही समझाएंगे आप को.’’

‘‘मैं क्यों जाऊं उस के पास?’’

‘‘तो क्या मैं उन्हें भेज दूं आप के पास? देखिए, आज की तारीख में आप अगर उन की बात सुन लेंगे तो उस से मानसी का तो कुछ नहीं बदलेगा लेकिन मेरा जीवन अवश्य बच जाएगा. मैं आप की बेटी जैसी हूं. आप एक बार उन के मुंह से सच जान लें तो उन का भी मन हलका हो जाएगा.’’

‘‘वह सच तुम्हीं क्यों नहीं बता देतीं?’’

‘‘मैं…मैं आप से कैसे कह दूं वह सब. मेरी और आप की गरिमा ऐसी अनुमति नहीं देती,’’ धीरे से होंठ खोले उस ने. आंखें झुका ली थीं.

नंदा कभी मुझे देखती और कभी उसे. मेरे सोच का प्रवाह एकाएक रुक गया कि आखिर ऐसा क्या है जिस से गरिमा का हनन होने वाला है? मेरी बेटी की उम्र की बच्ची है यह, इस का चेहरा परेशानी से ओतप्रोत है. आज की तारीख में जब मानसी का तलाक हो चुका है, उस का कुछ भी बननेबिगड़ने वाला नहीं है, मैं क्यों किसी पचड़े में पड़ूं? क्यों राख टटोलूं जब जानता हूं कि सब स्वाहा हो चुका है.

अपने मन को मना नहीं पा रहा था मैं. इस चंदन की वजह से मेरे भाई

का बुढ़ापा दुखदायी हो गया, जवान बेटी न विधवा हुई न सधवा रही. वक्त की मार तो कोई भी रोतेहंसते सह ले लेकिन मानसी ने तो एक मनुष्य की मार

सही थी.

‘‘कृपया आप ही बताइए मैं क्या करूं? मैं सारे संसार के आगे गुहार नहीं लगा रही, सिर्फ आप के सामने विनती कर रही हूं क्योंकि मानसी आप की भतीजी है. इत्तिफाकन जो घट गया वह आप से भी जुड़ा है.’’

‘‘तुम जाओ, मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता.’’

‘‘चंदन कुछ कर बैठे तो मेरा तो घर ही उजड़ जाएगा.’’

‘‘जब हमारी ही बच्ची का घर उजड़ गया तो चंदन के घर से मुझे क्या लेनादेना?’’

‘‘चंदन समाप्त हो जाएंगे तो उन का नहीं मेरा जीवन बरबाद…’’

‘‘तुम उस की इतनी वकालत कर रही हो, कहीं मानसी की बरबादी

का कारण तुम्हीं तो नहीं हो? इस जानवर का साथ देने का भला क्या

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मतलब है?’’

‘‘चंदन जानवर नहीं हैं, चाचाजी. आप सच नहीं जानते इसीलिए कुछ समझना नहीं चाहते.’’

‘‘अब सच जान कर हमारा कुछ भी बदलने वाला नहीं है.’’

‘‘वह तो मैं पहले ही विनती कर चुकी हूं न. जो बीत गया वह बदल नहीं सकता. लेकिन मेरा घर तो बच जाएगा न. बचाखुचा कुछ अगर मेरी झोली में प्रकृति ने डाल ही दिया है तो क्या इंसानियत के नाते…’’

‘‘हम आएंगे तुम्हारे घर पर,’’ नंदा बीच में ही बोल पड़ी.

मुझे ऐसी ही उम्मीद थी नंदा से. कहीं कुछ अनचाहा घट रहा हो और नंदा चुप रह जाए, भला कैसे मुमकिन था. जहां बस न चले वहां अपना दिल जलाती है और जहां पूरी तरह अपना वश हो वहां भला पीछे कैसे रह जाती.

‘‘तुम जाओ, नाम क्या है तुम्हारा?’’

‘‘संयोगिता,’’ नाम बताते हुए हर्षातिरेक में वह बच्ची पुन: रो पड़ी थी.

‘‘मैं तुम्हारे घर आऊंगी. तुम्हारे चाचा भी आएंगे. तुम जाओ, चंदन को संभालो,’’ पत्नी ने उसे यकीन दिलाया.

उसे भेज कर चुपचाप बैठ गई नंदा. मैं अनमना सा था. सच है, जब मानसी का रिश्ता हुआ भैया बहुत तारीफ करते थे. चंदन बहुत पसंद आया था उन्हें. सगाई होने के 4-5 महीने बाद ही शादी हुई थी. इस दौरान मानसी और चंदन मिलते भी थे. फोन भी करते थे. सब ठीक था, पर शादी के बाद ही ऐसा क्या हो गया? अच्छे इनसान 2-4 दिन में ही जानवर कैसे बन गए?

भाभी भी पहले तारीफ ही करती रही थीं फिर अचानक कहने लगीं कि चंदन तो शादी वाले दिन से ही उन्हें पसंद नहीं आया था. जो इतने दिन सही था वह अचानक गलत कैसे हो गया. हम भी हैरान थे.

तब मेरी दोनों बेटियां अविवाहित थीं. मानसी की दुखद अवस्था से हम पतिपत्नी परेशान हो गए थे कि कैसे हम अपनी बच्चियों की शादी करेंगे? इनसान की पहचान करना कितना मुश्किल है, कैसे अच्छा रिश्ता ढूंढ़ पाएंगे उन के लिए? ठीक चलतेचलते कब कोई क्यों गलत हो जाता है पता ही नहीं चलता.

‘मैं ने तो मानसी से शादी के हफ्ते बाद ही कह दिया था, वापस आ जा, लड़कों की कमी नहीं है. तेरी यहां नहीं निभने वाली…’ एक बार भाभी ने सारी बात सुनातेसुनाते कहा था, ‘फोन तक तो करने नहीं देते थे, ससुराल वाले. बड़ी वाली हमें घंटाघंटा फोन करती रहती है, यह तो बस 5 मिनट बाद ही कहने लगती थी, बस, मम्मी, अब रखती हूं. फोन पर ज्यादा बातें करना ससुरजी को पसंद नहीं है.’

मानसी शिला सी बैठी रहती थी. एक दिन मैं ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ रखा तो मेरे गले से लिपट कर रो पड़ी थी, ‘पता नहीं क्यों सब बिखरता ही चला गया, चाचाजी. मैं ने निभाने की बहुत कोशिश की थी.’

‘तो फिर चूक कहां हो गई, मानसी?’

‘उन्हें मेरा कुछ भी पसंद नहीं आया. अनपढ़ गंवार बना दिया मुझे. सब से कहते थे. मैं पागल हूं. लड़की वाले तो दहेज में 10-10 लाख देते हैं, तुम्हारे घर वालों ने तो बस 2-4 लाख ही लगा कर तुम्हारा निबटारा कर दिया.’

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हैरानपरेशान था मैं तब. मैं भी तब अपनी बच्चियों के लिए रिश्तों की तलाश में था. सोचता था, मैं तो शायद इतना भी न लगा पाऊं. क्या मेरी बेटियां भी इसी तरह वापस लौट आएंगी? क्या होगा उन का?

‘देखो भैया, उन लोगों ने इस की नस काट कर इसे मार डालने की कोशिश की है. यह देखो भैया,’ भाभी ने मानसी की कलाई मेरे सामने फैला कर कहा था. यह देखसुन कर काटो तो खून नहीं रहा था मुझ में. जिस मानसी को भैयाभाभी ने इतने लाड़प्यार से पाला था उसी की हत्या का प्रयास किया गया था, और भाभी आगे बोलती गई थीं, ‘उन्होंने तो इसे शादी के महीने भर बाद ही अलग कर दिया था.

‘जब से हम ने महिला संघ में उन की शिकायत की थी तभी से वे लोग इसे अलग रखते थे. चंदन तो इस के पास भी नहीं आता था. वहीं अपनी मां के पास रहता था. राशनपानी, रुपयापैसा सब मैं ही पहुंचा कर आती थी. इस के बाद तो मुझे फोन करने के लिए पास में 10 रुपए भी नहीं होते थे.’

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Family Story In Hindi: सितारों से आगे- भाग 4- कैसे विद्या की राहों में रोड़ा बना अमित

लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर

 अवसर मिलते ही उन्होंने विजय से विद्या के साथ शादी की बात की. विजय ने धैर्यपूर्वक उन की बातें सुनीं, फिर एक गहरी सांस ले कर बड़ी ही शांति से जवाब दिया, ‘‘मां किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले अच्छी तरह से सोचविचार कर लो. मैं पहले ही गलत निर्णय ले कर पछता चुका हूं. अब तुम जैसा ठीक समझे. तुम्हारी हर बात मुझे स्वीकार है पर एक बार विद्या के मन की भी थाह ले लो. अगर उसे कोई विरोध नहीं है तो मेरी तरफ से भी समझे हां ही है.’’

बेटे की तरफ से हरी झंडी मिलते ही लक्ष्मी देवी विद्या के मातापिता से मिलीं. लक्ष्मी देवी का प्रस्ताव सुन कर उन की खुशी से आंखें भर आईं. उन की सहमति पा कर लक्ष्मी देवी का उत्साह दोगुना हो गया. अब वे देर नहीं करना चाहती थीं. शाम को विद्या के मातापिता को विद्या और वृंदा सहित घर आने का निमंत्रण दे कर वे बाजार की ओर निकल पड़ीं. टैलीफोन पर विजय को इस सहमति की सूचना देना वे न भूलीं.

मगर विजय एक बार जीवन में धोखा खा चुके थे. इस बार वे जल्दीबाजी नहीं करना चाहते थे. वे विद्या से मिल कर इस बारे में बात करना चाहते थे. कुछ भी निर्णय लेने से पहले विद्या से मिलना जरूरी था. कुछ सोच कर उन्होंने अपने सैक्रेटरी को बुलाया. उसे कुछ निर्देश दे कर वे बाहर निकले और विद्या को मोबाइल पर फोन किया, पर उस का फोन औफ था. उन्होंने विद्या के औफिस नंबर पर फोन किया तो पता चला कि आज विद्या का टूरनामैंट है. आज वे शिवाजी इंडोर स्टेडियम में हैं.

विजय कार ले कर स्टेडियम जा पहुंचे और दर्शकों की पंक्ति में बैठ गए. इंटरस्टेट बैडमिंटन का महिला फाइनल एकल मैच चल रहा था. विद्या की सर्विस चल रही थी. कोर्ट पर आत्मविश्वास से लबरेज विद्या की चुस्तीफुरती देखने लायक थी. उस के हर शौट पर तालियां बज रही थीं.

अपनी प्रतिद्वंद्वी को सीधे सैटों में पराजित कर के जब विजेता का कप ले कर वह स्टेज से उतरी तो विद्या के समर्थकों ने उसे कंधों पर उठा लिया. विजय के लिए विद्या का यह रूप नया था. प्रभावित तो वे उस से थे ही, अब उस के प्रशंसक भी बन चुके थे. जल्दी से स्टेडियम के बाहर जा कर फूलों की दुकान से उन्होंने एक बुके लिया और विद्या को देने वे जब मेन गेट पर पहुंचे तो देखा वहां भारी भीड़ खड़ी थी.

लोग अपने प्रिय खिलाडि़यों से मिलना चाहते थे. 1-1 कर के खिलाड़ी निकल रहे थे, मगर उन में विद्या कहीं नहीं दिख रही थी. परेशान हो कर विजय ने आसपास खोजा तो देखा, दूर अपना बैग ले कर थकीहारी विद्या स्टेडियम के छोटे वाले गेट से लगभग दौड़ती हुई सी निकल रही थी.

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विजय को याद आया कल ही शाम विद्या ने उसे बताया था कि बेटी के स्कूल में पेरैंट्सटीचर मीटिंग है और आज 2 बजे उसे स्कूल जाना है. विजय का मन विद्या के लिए करुणा से भर आया. सच औरत के कितने रूप होते हैं और इन अलगअलग रूपों को जीते हुए वह अपनेआप को इस कदर व्यस्त रखती है कि वह स्वयं अपनेआप को भुला देती है. क्या उस को उस के हिस्से की खुशियां पाने का हक नहीं है? जरूर है और यह हक उस को मैं दूंगा. अब विद्या और वृंदा को मैं सहारा दूंगा. सोचतेसोचते उन की कार कब विद्या के पास पहुंची वे समझ ही न सके.

कार का दरवाजा खोल कर हाथ में गुलदस्ता ले कर वे विद्या के सामने पहुंच गए, ‘‘क्या मैं स्टेट लैवल चैंपियन विद्याजी को अपनी छोटी सी कार में लिफ्ट दे सकता हूं?’’ विद्या के हाथों में बुके देते हुए विजय मुसकराते हुए बोले.

सामने विजय को देख कर विद्या पहले तो चौंक गई, फिर उस के चेहरे पर एक शर्मीली मुसकराहट आ गई. विजय से बुके ले कर विद्या कार में बैठ गई. अब उस की थकान काफूर हो चुकी थी. कार सीधे वृंदा के स्कूल के बाहर रुकी.

विद्या सुखद आश्चर्य से भर उठी, ‘‘आप को कैसे मालूम है कि मुझे यहां आना था?’’

मुसकराते हुए विजय बोले, ‘‘अरे हम अंतर्यामी जो ठहरे. अब जाइए जल्दी से वरना मीटिंग के लिए देर हो जाएगी. मैं यहीं आप का इंतजार करता हूं. पर जरा जल्दी कीजिएगा क्योंकि मैं ने तय किया है कि आज मैं बैडमिंटन चैंपियन विद्याजी के साथ ही लंच करूंगा वरना भूखा रहूंगा.’’

विद्या हंस पड़ी, ‘‘बस 10 मिनट में आई,’’ बोल कर वह स्कूल के अंदर चली गई.

मीटिंग में 10 के बजाय 20 मिनट लग गए. मीटिंग के बाद और 3 पीरियड थे, इसलिए वृंदा को छुट्टी नहीं मिली. उसे कक्षा में छोड़ कर विद्या स्कूल के बाहर आई. देखा, कार में एक बढि़या सा किशोर कुमार का गाना बज रहा था और विजय साहब आंखें बंद कर गुनगुनाते हुए गाने का मजा ले रहे थे. विद्या कार का दरवाजा खोल कर सीट पर बैठ गई और कार का हौर्न बताया.

विजय चौंक कर उठ बैठे और पास में मुसकराती विद्या को देख कर उस की शरारत समझ गए. मंदमंद मुसकरा कर गाड़ी स्टार्ट की और सीधे होटल पहुंच कर ही गाड़ी रुकी. इतने बड़े फाइवस्टार होटल में विद्या पहली बार आई थी. अपने सादे कपड़ों की ओर जब उस का ध्यान गया तो वह संकोच से भर उठी. होटल के दरवाजे पर विद्या को सकुचाते हुए देख उस की मनोदशा को विजय समझ गए. उन्होंने विद्या का हाथ मजबूती से थामा और रेस्तरां की तरफ बढ़ गए.

भूख दोनों को ही जोर से लगी थी. खाने का और्डर दे कर वेटर को जल्दी खाना  लाने को बोल कर विजय विद्या को देख कर मुसकरा उठे. बिना कुछ बोले उसे कुछ देर देखते रहे.

उन्हें इस प्रकार देखते पा कर विद्या और भी असहज हो गई. खैर, तब तक खाना आ गया. विद्या ने राहत की सांस ली. दोनों ने शांति से बिना कुछ बोले खाना खाया.

आइसक्रीम का और्डर दे कर विजय ने विद्या से पूछा, ‘‘जानती हो मैं तुम्हें आज यहां ले कर क्यों आया हूं?’’

विद्या ने इनकार में सिर हिलाया तो विजय बोले, ‘‘तो सुनिए मैडम, आज शाम को मेरी मां हमारी शादी की तारीख पक्की करने वाली है और उस के पहले मैं तुम्हारी हां सुनना चाहता हूं,’’ विजय ने बड़े ही सीधेसादे शब्दों में बिना किसी भूमिका के कहा.

‘‘क्या?’’ विद्या भौकचक्की रह गई. एक पल को तो विजय की बात सुन कर विद्या को विश्वास ही नहीं हुआ. फिर बोली, ‘‘पर विजयजी ऐसा कैसे हो सकता है? आप जानते हैं न कि मैं एक बच्ची की मां हूं?’’

‘‘हां मैं जानता हूं और उस प्यारी सी बच्ची को मैं अपनाना चाहता हूं. उसे अपना नाम देना चाहता हूं. इस केअलावा मुझे इनकार करने का और कोई कारण है आप के पास?’’

विजय के इस सवाल का विद्या के पास कोई जवाब नहीं था और उन के प्रस्ताव को मना करने के लिए उस के पास कोई ठोस कारण भी नहीं था. पर सबकुछ इतना अचानक हो रहा था कि वह कुछ कह भी नहीं पा रही थी.

तभी कुछ आगे झक कर मुसकराते हुए विजय धीरे से फुसफुसाए, ‘‘तो मैं यह रिश्ता पक्का समझं?’’

विद्या ने शरमाते हुए हां में सिर हिला दिया. विजय ने अपना हाथ उस के हाथ पर रख दिया.

इस के बाद तो जैसे चट मंगनी और पट ब्याह. बड़ी ही सादगी से दोनों के परिवारजनों के सामने विवाह समारोह संपन्न हो गया और विद्या विजय की पत्नी बन कर उन के घर आ गई. सब से ज्यादा आश्चर्य तो विद्या को वृंदा के व्यवहार से हुआ. वृंदा ने बड़ी ही समझदारी का परिचय देते हुए विजय को पिता के रूप में स्वीकार कर लिया और विजय तो उस की हर इच्छा पूरी करने के लिए जैसे हर पल तैयार रहते थे. दोनों को देख कर कोई कह नहीं सकता था कि इन का रिश्ता कुछ ही दिनों पहले का है. विद्या को तो जैसे भरोसा ही नहीं हो रहा था.

सच है सितारों से आगे जहां और भी है. विजय के कहने पर उस ने 6 माह की लंबी छुट्टी ली थी. अब वह इस सुनहरे समय को अपने हाथों से नहीं निकलने देना चाहती थी. इस के हर पल, हर घड़ी को वह यादगार बना देना चाहती थी. खैर, हंसतेखेलते 5 माह निकल गए. विजय औफिस जातेजाते वृंदा को स्कूल छोड़ कर चले गए थे. सुबह के कामों को निबटा कर बालकनी में बैठ कर दैनिक अखबार पढ़ते हुए विद्या कौफी की चुसकियां ले रही थी. यह उस की रोज की दिनचर्या थी.

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ट्रिंगट्रिंग फोन की आवाज सुन कर विद्या उठी. विजय फोन पर थे. बोले कि विद्या मैं अपनी एक जरूरी फाइल घर पर भूल गया हूं. देखो अलमारी के पास की टेबल की दराज में हरे रंग की जो फाइल है, उसे निकाल कर रखो. मैं अपने एक आदमी को भेज रहा हूं, उसे दे देना. 12 बजे एक मीटिंग है. शाम को मिलते हैं. बाद में फोन करता हूं और विजय ने फोन रख दिया. विद्या ने फाइल निकाल कर सामने टेबल रख दी और अखबार में डूब गई.

कुछ देर बाद दरवाजे की घंटी बज उठी. विद्या ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने विजय के दफ्तर से आया आदमी खड़ा था. उस ने विद्या को नमस्कार किया. विद्या ने उस के अभिवादन का जवाब देते हुए फाइल दे दी.

फाइल ले कर जातेजाते वह आदमी रुका, ‘‘मैडम आप ने मुझे पहचाना नहीं क्या?’’

‘‘नहीं,’’ कहते हुए विद्या ने उस अधेड़ से आदमी को पहचानाने की कोशिश की. अचानक उसे झटका लगा. उफ, इस आदमी की शक्ल को वह कैसे भूल सकती है? सामने अमित खड़ा था. खिचड़ी बाल, सफेद दाढ़ी, मोटा चश्मा, साधारण सी शर्ट पहने हुए यह आदमी पहले के स्मार्ट, हैंडसम, आत्मविश्वासी अमित से कितना अलग है. विद्या जैसे कहीं खो सी गई.

अमित ने आगे कहा, ‘‘विद्या मैं तो तुम्हें विजय सर की शादी के रिसैप्शन में ही पहचान गया था. पर तुम से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. मैं ने तुम्हारे साथ अच्छा नहीं किया, शायद इसलिए कुदरत ने मुझे मेरे कर्मों की सजा दी. तुम्हारे जाने के बाद परिवार में और औफिस में मेरे और शबनम के रिश्ते के बारे में सभी लोग जान गए थे. मैं चाहता था जल्दी से तुम से तलाक ले कर अपने और शबनम के रिश्ते को नाम दे दूं, पर तब तक हमारी काफी बदनामी हो चुकी थी. शबनम भी मेरे मांपिता की उस के प्रति नफरत को समझ चुकी थी. वह जानती थी कि मेरी मां उसे कभी माफ नहीं करेंगी.

‘‘इन सब से बचना ही उस ने बेहतर समझ और एक दिन किसी को बताए बिना दिल्ली हैड औफिस अपना ट्रांसफर करवा लिया और अपने पिता के साथ दिल्ली चली गई. तुम्हें कंप्रोमाइज में पैसा देना था तो जमापूंजी भी खर्च हो गई थी. शबनम उस से भी नाराज थी. मांबाबूजी ने मुझ से बात तक करना बंद कर दिया और अपनी पोती से मिलने की आस लिए दोनों एक के बाद एक इस दुनिया से चले गए.

तब से मैं अकेला ही रहता हूं. दिमागी हालत खराब हो जाने के कारण कंपनी में इंजीनियरिंग का काम ठीक से नहीं कर पाया, इस कारण मुझे औफिस से निकाल दिया गया. अब मैं विजय सर की कंपनी में क्लर्क हूं. मुझे माफ कर दो विद्या, शायद यही मेरे किए की सजा है. मैं अपने ही कर्मों का फल भुगत रहा हूं,’’ अमित लगातार बोलते जा रहा था.

विद्या जैसे सपने से जागी, सामने सिर झकाए खड़े विजय को उपेक्षा से देखते हुए पूरे आत्मविश्वास से कहा, ‘‘आप गड़े मुरदे उखाड़ना बंद कीजिए. अब मैं पुरानी विद्या नहीं, आपकी कंपनी के मैनेजर विजय कुमार की पत्नी हूं और याद रखिए यह आप से मेरी आखिरी मुलाकात है. मैं नहीं चाहती भूल कर भी आप की जबां पर अब कभी भी मेरा नाम आए और उस के बाद आप मेरे घर आने की जुर्रत भी न करें. यही आप के लिए और आप की नौकरी के लिए अच्छा रहेगा,’’ और विद्या ने उस के सामने ही दरवाजा जोर से बंद कर दिया.

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नहीं, अब बहुत हो गया. अब वह कमजोर नहीं पड़ेगी. विजय की दी हुई इस दूसरी जिंदगी के बीच अपने अतीत की काली परछाईं को कभी नहीं आने देगी.

विद्या का चेहरा दृढ़ निश्चय से चमक रहा था और क्यों न हो ऐसा? अब उस के सारे दुख और तकलीफें छंट चुकी थीं और सुनहरी धूप उस के स्वागत में बांहें पसारे तैयार खड़ी थी.

Family Story In Hindi: सितारों से आगे- भाग 3- कैसे विद्या की राहों में रोड़ा बना अमित

लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर

 मगर विद्या सोई नहीं थी. अमित के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार और अपमान से उस का दिल रो रहा था. पर वह समझ चुकी थी कि अब कुछ नहीं होने वाला है, उसे जल्दी कोई निर्णय लेना ही होगा. जो आदमी अपनी पत्नी के प्यार और समर्पण को नहीं समझ पाया, उस के मन में अपने अनदेखेअनजन्मे बच्चे के लिए मोह कहां से जागेगा, ऐसे निर्मोही के साथ जीवन बिताने का क्या मतलब? विद्या ने एक पल की भी देर न की. उस ने अपने पिता को फोन किया. उन्हें सारी स्थिति समझई और तुरंत वहां आ कर उसे ले जाने को कहा. मां और पिताजी के आने तक वह अपना सामान पैक चुकी थी.

अचानक समधीसमधन को आया देख कर विद्या के सासससुर घबरा गए. तभी सामने से बड़े ही बेफिक्र अंदाज में अमित ने कमरे में प्रवेश किया. सब को देख कर वह सकपका कर वहीं खड़ा हो गया. विद्या खुद को काबू में न रख सकी. अमित के सामने जा कर उसे एक थप्पड़ जड़ दिया.

इस से पहले कि वह कुछ समझता विद्या के पिता ने कड़े शब्दों में अपने समधी से कहा, ‘‘गलती सिर्फ आप के बेटे की ही नहीं है, अपने बेटे की सारी करतूतें जानते हुए भी आप ने मेरी लड़की से उस की शादी करवाई. अब भी मैं आप को एक मौका देता हूं. अगर आप का बेटा अपनी भूल मान कर एक हफ्ते में मेरी बेटी को लेने आता है तो ठीक है वरना 10 दिनों में तलाक का नोटिस आप को मिल जाएंगा और मुआवजे की मांग की लिस्ट,’’ और वे विद्या का सूटकेस ले कर बाहर निकल गए.

विद्या ने मां का हाथ पकड़ कर घर से निकलते समय पलट कर देखा, सासससुर सिर झकाए खड़े थे. पर अमित के चेहरे पर पछतावे का कोई चिंह्न नहीं था, जबकि राहत के भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे.

विद्या बुरी तरह टूट चुकी थी, पर मन में कहीं भीतर एक आशा छिपी हुईर् थी, शायद कभी अमित को अपनी गलती का एहसास हो और अपनी पत्नी के पास वह लौट आए. पर यह आस की डोर भी उस दिन टूट गई, जब अमित की और से ही तलाक के कागजात डाक से आए. विद्या की रहीसही आशा भी खत्म हो गई. उस के सारे सपने चूरचूर हो चुके थे.

विद्या रातदिन सोचती पर समझ नहीं पाती थी. ऐसा कैसे हो गया और इस सब में उस की क्या गलती थी? उस के पिता ने उस के औफिस में लंबी छुट्टी की अर्जी भेज दी थी. मांपिताजी और दोनों बहनें उस को बहलाने का हरसंभव प्रयास करतीं, पर विद्या एकदम गुमसुम सी हो चुकी थी. 9वें महीने एक सुंदर सी बिटिया के जन्म होने के बाद भी विद्या खुश न हो सकी. फिर उस के दिल में एक आस जागी. शायद अमित बच्ची को देखने आएं और उस का सलोना मुखड़ा देख कर उन का मन बदल जाए. मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.

विद्या ने औफिस जौइन कर लिया. घर में उस की बहनें उस की बच्ची वृंदा का खयाल रखतीं और वह अपनेआप को औफिस के कामों में उलझए रखती. रात को वृंदा को हंसताखेलता देख कर अपने गम को भूलने का प्रयास करती, जो प्राय: निष्फल ही रहता था. तलाक के बाद कंप्रोमाइज में कुछ पैसा भी मिल गया. औफिस में सहकर्मियों के जोर देने पर एक बार फिर उस ने बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया. बस अब सुबह औफिस, दोपहर को टूरनामैंट और रात को वृंदा के साथ खेलना, उस का होमवर्क कराना आदि. वह अब पूरी तरह व्यस्त हो चली थी.

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मुंबईर् की तेज रफ्तार और भीड़भाड़ की जिंदगी में उसे पलभर का अवकाश नहीं मिलता था. वृंदा अब 12 साल की हो गई थी. विद्या की बहनें विवाह कर के ससुराल जा चुकी थीं. अब विद्या ही अपने वृद्ध मातापिता का सहारा थी और वे दोनों ही विद्या का. बहरहाल, वृंदा जरूर सब की लाड़ली थी और विद्या की तो जिंदगी ही जैसे वृंदा पर शुरू होती थी और उसी पर ही खत्म होती थी. ऐसे ही 3-4 साल गुजर गए.

उस दिन विद्या रोज की भांति शाम को 7 बजे दफ्तर से घर लौट रही थी. अगस्त का महीना था. मुंबई की बारिश अपने पूरे शबाब पर थी. ऐसे में तो स्टेशन से घर तक का सफर भी आसान नहीं था. दूरदूर तक कोई औटो नहीं दिख रहा था. बसें खचाखच भरी हुई थी. विद्या छाता खोल कर ठाणे स्टेशन से पैदल ही घर के लिए निकल पड़ी. अचानक बिजली कड़की और विद्या के मुंह से चीख सी निकल गई.

तभी उस के पास एक कार आ कर रुकी. कार के शीशे को नीचे कर के एक सभ्य से दिखने वाले व्यक्ति ने उसे पुकारा, ‘‘आइए मैं आप को आप के घर छोड़ देता हूं. घबराइए नहीं, मैं आप की बिल्डिंग में ही ग्राउंड फ्लोर पर रहता हूं और आप के पिताजी मुझे अच्छी तरह से पहचानते हैं.’’

विद्या ने गौर से उस अनजान युवक को देखा. हालांकि मन में ?िझक तो थी पर और कोईर् चारा भी नहीं था. मन मसोस कर अपना छाता बंद कर के विद्या कार के पिछले दरवाजे को खोल कर बैठ गई. रास्ते में दोनों की कोई बात नहीं हुई. बिल्डिंग आने पर युवक को धन्यवाद दे कर वृंदा कार से उतर गई. युवक ने मुसकरा करा कहा कि इस में धन्यवाद की कोई बात नहीं, आप का पड़ोसी होने के नाते यह तो मेरा फर्ज था. वैसे मेरा नाम विजय है, अच्छा नमस्ते.

घर पहुंच कर विद्या ने चैन की सांस ली. वृंदा अपने होमवर्क में और नानानानी अपना प्रिय सीरियल देखने में व्यस्त थे. चाय बना कर पिताजी को देते हुए विद्या ने उन्हें विजय के बारे में बताया.

पिताजी खुश हो गए, ‘‘अच्छा विजय. भई वह तो बहुत अच्छा लड़का है. अभी कल ही तो उस की मां गांव से आई हैं. मैं ने उसे इस रविवार को मां को खाने पर ले कर आने को कहा है.’’

विद्या कुछ कहती उस के पहले ही वृंदा की आवाज आई, ‘‘मां मेरी प्रोजैक्ट बनाने में मदद करो न,’’ और बात आईगई हो गई.

अगले दिन शनिवार की छुट्टी थी. विद्या पिताजी की दवाइयां लेने मैडिकल शौप गई. देखा वहां विजय अपनी माताजी के साथ दवाइयां ले रहे थे. विद्या ने उन्हें नमस्कार किया और दोनों में बातचीत शुरू हो गई. बातों ही बातों में विजय ने उस को बताया कि वे बहुत परेशान हैं क्योंकि माताजी को वायरल फीवर है और विजय को औफिस के जरूरी काम से दिल्ली जाना है.

विद्या ने विजय को दिलासा दिया कि आप चिंता मत करिए कल से मेरी 3 दिनों की छुट्टी है. मैं माताजी का खयाल रखूंगी. आप निश्चिंत हो कर जाइए. सुन कर विजय प्रसन्न हो गए. कहा कि थैंक्यू विद्याजी. मांजी के चेहरे पर भी राहत के भाव आ गए. विद्या उन्हें नमस्ते कर के घर आ गई.

विजय के दौरे पर जाने के बाद विद्या उन की माताजी को अपने घर ले आई. समय पर दवाइयां, भोजन और आराम पा कर उन का बुखार उतर गया. वे एक भद्र और मिलनसार महिला थीं. बहुत जल्दी वे घर के लोगों से हिलमिल गईं विशेषकर वृंदा तो अपनी चुलबुली बातों से उन की आंखों का तारा बन गई.

3 दिन बहुत जल्दी बीत गए और जब विजय दौरे से आए तो अपनी मां को स्वस्थ और हंसतेमुसकराते देख कर कृतज्ञता से उन्होंने हाथ जोड़ दिए और मांजी ने वृंदा को सीने से लगा कर उसे ढेरों आशीर्वाद दे कर विदा ली. इन तीन दिनों में विजय की मां लक्ष्मी देवी, विद्या की मां से उस की पूरी कहानी सुन चुकी थीं.

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इधर विजय की जिंदगी भी खुशियों से भरी नहीं थी. आईआईटी मुंबई से इंजीनियरिंग कर के उन्होंने लंदन की बड़ी फर्म जौइन की थी. कुछ दिनों तक वहां काम करते हुए औफिस की ही एक अंगरेज सहकर्मी जूलिया उन्हें बेहद भा गई और उन्होंने उस के समक्ष विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया. जूलिया भी उन्हें पसंद करने लगी थी. उस ने तुरंत हां कह दी. मां ने बेमन से ही सही सहमति दे दी थी.

दोनों ने खुशीखुशी शादी की. थोड़े दिन तो सबकुछ ठीक रहा पर फिर दोनों के बीच के मतभेद उभर कर सामने आने लगे. जूलिया एक आजाद खयाल लड़की थी. परिवार, बच्चे जैसी बातों में उस की कोई रुचि नहीं थी. वह खाओपिओ और मौज करो सिद्धांत की हिमायती थी. विजय ने जूलिया को बहुत समझया पर जूलिया घर के बंधन में रहना स्वीकार नहीं कर पाई. अंत में विजय से तलाक  ले कर अपने ही देश के राबर्ट के साथ रहने चली गई.

विजय इस पूरे वाकेआ के दौरान बेहद टूट गए थे. इधर मुंबई में पिताजी के जाने के बाद मां भी अकेली हो गई थीं. आखिरकार मां के समझने पर लंदन छोड़ कर एक प्राइवेट फर्म में प्रोडक्शन मैनेजर बन कर विजय मुंबई आ गए. बीते दिनों की कड़वी यादों को भुलाने के लिए उन्होंने अपनेआप को काम में पूरी तरह डुबो दिया और इस कोशिश में कुछ हद तक वे संभल भी गए थे.

विद्या की जिंदगी और उस की हिम्मत व आत्मविश्वास को देख कर विजय की मां बेहद प्रभावित हुईं और फिर उस की सादगी और अपनत्व का परिचय तो उन्हें 3 दिनों में मिल ही चुका था. वृंदा से भी वे पूरी तरह से घुलमिल गई थीं. एक बार फिर उन की आंखों में अपने बेटे की शादी का सपना सजने लगा.

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Family Story In Hindi: सितारों से आगे- भाग 2- कैसे विद्या की राहों में रोड़ा बना अमित

लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर

 अगला दिन रविवार था. सुबह विद्या की नींद देर से खुली, घड़ी की ओर देखा, तो बड़बडाई कि अरे 9 बज गए. किसी ने मुझे उठाया तक नहीं. लगभग दौड़ते हुए कमरे से बाहर आई तो देखा बाहर गार्डन में मां, पिताजी और अमित बैठ कर गंभीरतापूर्वक किसी विषय में बातचीत कर रहे थे. ड्राइंगरूम में फोन की घंटी बज रही थी. विद्या ने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘अमित हैं?’’

‘‘नहीं वे बाहर गार्डन में हैं. मैं विद्या बोल रही हूं, आप कौन?’’ विद्या ने पूछा.

सवाल के जवाब में फिर सवाल पूछा गया, ‘‘आप उस की कौन हैं?’’

‘‘मैं उन की पत्नी हूं,’’ विद्या ने जवाब दिया.

यह सुनते ही फोन कट गया.

‘कौन हो सकती है और उस ने फोन क्यों काटा?’ सोचते हुए विद्या बाथरूम में चली गई. जल्दी से फ्रैश हो कर किचन में जा कर 4 कप कौफी बना कर वह गार्डन में सब के लिए कौफी ले कर आई. उसे देखते ही तीनों शांत हो गए. गुडमौर्निंग कहते हुए विद्या ने मुसकराते हुए सब को कौफी दी और बैठते हुए अमित से पूछा, ‘‘आप का प्रोजैक्ट कैसा रहा? गए थे डेढ़ माह के लिए और लगा दिए 5 महीने,’’ कहते हुए उस ने अमित को शिकायतभरी नजरों से देखा.

मगर अमित ने कोई जवाब नहीं दिया. उड़तीउड़ती नजर उस पर डालते हुए चाय की चुसकियां लेता रहा.

विद्या को उस का यह व्यवहार कुछ चुभ गया पर वह स्वयं को संभालते हुए बोली, ‘‘अरे अमितजी आप का अभी एक फोन आया था, किसी महिला का था, पर जब मैं ने अपना नाम बताया तो पता नहीं क्यों उस ने जल्दी से फोन रख दिया.’’

‘‘अरे छोड़ो यार किसी बैंक वगैरह की क्रैडिट कार्ड बेचने वाली सेल्स गर्ल होगी,’’ कह कर अमित ने बात पलट दी.

विद्या कहना चाहती थी कि फोन करने वाली महिला का अनौपचारिक ढंग किसी क्रैडिट कार्ड वाली का नहीं हो सकता है, पर सब के सामने वह यह बात कह नहीं पाई. एक शक का कीड़ा कहीं अंदर कुलबुलाया जरूर था, पर उस समय बात आईगई हो गई.

अमित विदेश से सब के लिए ढेर सारे तोहफे लाया था. सब उसी में मगन थे, प्रिया भी आई थी, भाई से मिलने. पर इन सब के बीच विद्या को कहीं न कहीं लगता रहा कि अमित उस से अकेले में मिलने और बात करने में कतरा रहा है. खैर, दोपहर में खाना खा कर और भैया के लाए तोहफे ले कर प्रिया अपने घर चली गई. मां और पिताजी भी अपने कमरे में जा कर सो गए. रसोई वगैरह समेट कर विद्या जब अपने कमरे में पहुंची तो अमित गाड़ी की चाबी हाथ में ले कर कमरे से बाहर निकल रहा था.

‘‘अरे आप कहां जा रहे हैं?’’

विद्या के पूछने पर वह बोला कि थोड़ा दोस्तों से मिल कर आता हूं और वह बाहर निकल गया.

‘‘मुझ से मिलना नहीं आप को, मुझ से कुछ बातें नहीं करना आप को.’’

मगर विद्या की बातें सुनने के लिए अमित वहां कहां था. विद्या अपने आंसुओं पर काबू न पा सकी, जा कर कमरे में लेट गई.

लगातार बजती फोन की घंटी सुन कर विद्या उठी. एक बार फिर सुबह वाली आवाज थी, ‘‘अमित हैं क्या घर पर?’’

नहीं वे बाहर गए हैं. आप कौन?’’ विद्या ने पूछा.

मगर जवाब में, ‘‘अच्छा निकल गया क्या वह? चलो ठीक है ओके,’’ कह कर फोन रख दिया गया.

विद्या का संदेह और गहरा गया. शाम को इस बारे में अमित से बात करूंगी, उस ने तय कर लिया. पर ऐसा हो न सका. रात को 12 बजे अमित घर पहुंचा, तब तक विद्या सो चुकी थी. सुबह उस को भी औफिस जाना था. अगले दिन जल्दी उठ कर घर के काम आदि से फ्री हो कर वह औफिस के लिए निकल गई.

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आज अमित को 10 बजे किसी साइट इंस्पैक्शन के लिए जाना था. इसलिए वह आराम से सो रहा था. विद्या ने उसे जगाना उचित और सासूमां से कह कर वह औटो से चली गई.

विद्या औफिस पहुंच तो गई, पर उस का काम में मन नहीं लगा. एक तो घर पर काम की थकान, ऊपर से 2 दिनों से अमित की उपेक्षा से उस को बेतरह मानसिक कष्ट पहुंचा था. दोपहर होतेहोते उस को जबरदस्त सिर में दर्द होने लगा, बेचैनी होने लगी, चक्कर जैसे आने लगे. वह तुरंत छुट्टी ले कर घर आ गई.

काश, उस दिन घर न आई होती और उस ने वह सबकुछ आंखों से न देखा होता तथा कानों ने सुना न होता, तो क्या उस की जिंदगी आज कुछ और होती? नहीं, ऐसा कभी न कभी तो होना ही था. विद्या की आंखों से न चाहते हुए भी आंसू बह निकले. वृंदा को चादर ओढ़ा कर विद्या उठ खड़ी हुई. वृंदा ने उस के आंसू देख लिए तो हजार सवाल पूंछे और उन के जवाब देना उस के लिए बहुत मुश्किल होगा. अपने कमरे में आ कर विद्या लेट गई. एक बार फिर पुरानी यादें उसे घेरने लगीं और जैसे यादों की कडि़यां एक के बाद एक जुड़ती गईं…

उस दिन दोपहर के लगभग 2 बजे थे जब विद्या घर पहुंची. यह समय सासससुर के सोने का होता था, इसलिए उस ने डुप्लिकेट चाबी से घर का दरवाजा खोला और अपने कमरे की ओर जाने लगी कि अचानक सासूजी के कमरे से आती आवाजों ने उस का ध्यान खींचा. उन में से एक तेज आवाज अमित की थी. कमरे का दरवाला खुला था, पर परदे गिरे हुए थे.

भीतर से अमित की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी. गुस्से से भरे लगभग चिल्लाते हुए अमित कह रहा था, ‘‘मां अब तुम मुझ पर जबरदस्ती नहीं कर सकतीं. मैं ने तुम से पहले ही कहा था, मैं शबनम को नहीं छोड़ सकता पर तुम नहीं मानीं यह कह कर कि इस से प्रिया की शादी पर असर पड़ेगा. जोर डाल कर तुम ने उस विद्या को मेरे पल्ले बांध दिया.

‘‘यह तो अच्छा हुआ कि दुबई प्रोजैक्ट में शबनम मेरे साथ थी वरना मैं तो पागल हो जाता. मां प्लीज अब तो प्रिया भी सैटल हो चुकी है, अब विद्या से मेरा तलाक होना जरूरी है. शबनम मुझे शादी के लिए परेशान कर रही है. मैं अब और इंतजार नहीं कर सकता. तुम जल्दी से विद्या के मांबाप से बात करो और उन से कहो कि मुझे आजाद कर दें.’’

इस के पहले विद्या कुछ संभल पाती कि उसे ससुरजी की गरजती हुई आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘मैं ने सोचा था कि शादी के बाद तुम सुधर जाओगे, मगर नहीं. तुम्हारे इश्क का भूत अभी तक नहीं उतरा. अरे अब तो तुम बाप बनने जा रहे हो, भूल जाओ पुरानी बातें.’’

विद्या को माजरा कुछ समझे कि उसे सास की मनुहार भरी आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘अरे बेटा, इतनी सुंदर, सुघड़ बहू, साथ में सरकारी नौकरी और क्या चाहिए तुझे?’’

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‘‘अरे मां नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी सुंदर बहू और उस की नौकरी. मुझे इस प्रौब्लम से जल्दी छुट्टी दिलाओ वरना मैं ने कुवैत में जौब के लिए बात की हुई है. इस बार जाऊंगा तो 15-20 साल नहीं आऊंगा, फिर रहना आराम से अपनी बहू के साथ,’’ यह अमित की विफरती हुई आवाज थी.

विद्या सकते में थी. अब सबकुछ उस के सामने स्पष्ट हो चुका था. उस की आंखों के आगे जैसे अंधेरा सा छा रहा था. उस के पैर लड़खड़ा गए, जबान सूख गई. वह दरवाजे का सहारा लेते हुए वही जमीन पर बैठ गई.

आवाज सुन कर सासूमां लगभग दौड़ती हुई बाहर आईं. विद्या की स्थिति देख कर उन को समझते देर न लगी कि वह सबकुछ सुन चुकी है. उन्होंने तुरंत उसे उठाया, भीतर ले जा कर बिस्तर पर लिटाया. जल्दी से जा कर वे उस के लिए चाय बना कर लाईं. उन्होंने रोती हुई विद्या को बैठा कर प्यार से उस का सिर सहलाया और जबरदस्ती चाय पिलाई.

ससुरजी चिंता से कमरे से अंदरबाहर हो रहे थे. अमित मौका देख कर अपनी बाइक उठा कर जा चुका था. उसे विद्या की कोई परवाह नहीं थी. सास विद्या को समझ रही थी, ‘‘रोओ नहीं बेटे अपनी तबीयत संभालो सब ठीक हो जाएगा.’’

थोड़ी देर बाद जब उन्हें लगा कि रोतेरोते विद्या सो गई है तो वे अपने कमरे में चली गईं.

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आईना- भाग 1 : रिश्तों में संतुलन ना बनाना क्या शोभा की एक बढ़ी गलती थी

आंखें फाड़फाड़ कर मैं उस का चेहरा देखती रह गई. शोभा के मुंह से ऐसी बातें कितनी विचित्र और बेतुकी सी लग रही हैं, मैं सोचने लगी. जिस औरत ने पूरी उम्र दिखावा किया, अभिनय किया, किसी भी भाव में गहराई नहीं दर्शा पाई उसी को आज गहराई दरकार क्यों कर हुई? यह वही शोभा है जो बिना किसी स्वार्थ के किसी को नमस्कार तक नहीं करती थी.

‘‘देखो न, अभी उस दिन सोमेश मेरे लिए शाल लाए तो वह इतनी तारीफ करने लगी कि क्या बताऊं…पापा इतनी सुंदर शाल लाए, पापा की पसंद कितनी कमाल की है. पापा यह…पापा वह,’’ शोभा अपनी बहू चारू के बारे में कह रही थी, ‘‘सोमेश खुश हुए और कहने लगे कि शोभा, तुम यह शाल चारू को ही दे दो. मैं ने कहा कि इस में देनेलेने वाली भी क्या बात है. मिलबांट कर पहन लेगी. लेकिन सोमेश माने ही नहीं कहने लगे, दे दो.

‘‘मेरा मन देने को नहीं था. लेकिन सोमेश के बारबार कहने पर मैं उसे देने गई तो चारू कहने लगी, ‘मम्मी, मुझे नहीं चाहिए, यह शेड मुझ पर थोड़े न जंचेगा, आप पर ज्यादा जंचेगा.’

‘‘मैं उस की बातें सुन कर हैरान रह गई. सोमेश को खुश करने के लिए इतनी तारीफ कर दी कि वह भी इतराते फिरे.’’

भला तारीफ करने का अर्थ यह तो नहीं होता कि आप को वह चीज चाहिए ही. मुझे याद है, शोभा स्वयं जो चीज हासिल करना चाहती थी उस की दिल खोल कर तारीफ किया करती थी और फिर आशा किया करती थी कि हम अपनेआप ही वह चीज उसे दे दें.

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हम 3 भाई बहन हैं. सब से छोटा भाई, शोभा सब से बड़ी और बीच में मैं. मुझे सदा प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता था. मैं छोटी बहन बन कर अपनी इच्छा मारती रही पर शोभा ने कभी बड़ी बहन बन कर त्याग करने का पाठ न पढ़ा.

अनजाने जराजरा मन मारती मैं इतनी परिपक्व होती गई कि मुझे उसी में सुख मिलने लगा. कुछ नया आता घर में तो मैं पुलकित न होती, पता होता था अगर अच्छी चीज हुई तो किसी भी दशा में नहीं मिलेगी.

‘‘एक ही बहू है मेरी,’’ शोभा कहती, ‘‘क्याक्या सोचती थी मैं. मगर इस के तो रंग ही न्यारे हैं. कोई भी चीज दो, इसे पसंद ही नहीं आती. एक तरफ सरका देगी और कहेगी नहीं चाहिए.’’

शोभा मेरी बड़ी बहन है. रक्त का रिश्ता है हम दोनों में मगर सत्य यह है कि जितना स्वार्थ और दोगलापन शोभा में है उस के रहते वह अपनी बहू से कितना अपनापन सहेज पाई होगी मैं सहज ही अंदाजा लगा सकती हूं.

चारू कैसी है और उसे कैसी चीजें पसंद आती हैं यह भी मैं जानती हूं. मैं जब पहली बार चारू से मिली थी तभी बड़ा सुखद सा लगा था उस का व्यवहार. बड़े अपनेपन से वह मुझ से बतियाती रही थी.

‘‘चारू, शादी में पहना हुआ तुम्हारा वह हार और बुंदे बहुत सुंदर थे. कौन से सुनार से लिए थे?’’

‘‘अरे नहीं, मौसीजी, वे तो नकली थे. चांदी पर सोने का पानी चढ़े. मेरे पापा बहुत डरते हैं न, कहते थे कि शादी में भीड़भाड़ में गहने खो जाने का डर होता है. आप को पसंद आया तो मैं ला दूंगी.’’

कहतीकहती सहसा चारू चुप हो गई थी. मेरे साथ बैठी शोभा की आंखों को पढ़तीपढ़ती सकपका सी गई थी चारू. बेचारी कुशल अभिनेत्री तो थी नहीं जो झट से चेहरे पर आए भाव बदल लेती. झुंझलाहट के भाव तैर आए थे चेहरे पर, उस से कहां भूल हुई है जो सास घूर रही है. मौसी अपनी ही तो हैं. उन से खुल कर बात करने में भला कैसा संकोच.

‘‘जाओ चारू, उधर तुम्हारे पापा बुला रहे हैं. जरा पूछना, उन्हें क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए शोभा ने चारू को मेरे पास से उठा दिया था. बुरा लगा था चारू को.

चारू के उठ कर जाने के बाद शोभा बोली, ‘‘मेरी दी हुई सारी साडि़यां और सारे गहने चारू मेरे कमरे में रख गई है. कहती है कि बहुत महंगी हैं और इतनी महंगी साडि़यां वह नहीं पहनेगी. अपनी मां की ही सस्ती साडि़यां उसे पसंद हैं. सारे गहने उतार दिए हैं. कहती है, उसे गहनों से ही एलर्जी है.’’

शोभा सुनाती रही. मैं क्या कहती. एक पढ़ीलिखी और समझदार बहू को उस ने फूहड़ और नासमझ प्रमाणित कर दिया था. नाश्ता बनाने का प्रयास करती तो शोभा सब के सामने बड़े व्यंग्य से कहती, ‘‘नहीं, नहीं बेटा, तुम्हें हमारे ढंग का खाना बनाना नहीं आएगा.’’

‘‘हर घर का अपनाअपना ढंग होता है, मम्मी. आप अपना ढंग बताइए, मैं उसी ढंग से बनाती हूं,’’ चारू शालीनता से उत्तर देती.

‘‘नहीं बेटा, समझा करो. तुम्हारे पापा  और अनुराग मेरे ही हाथ का खाना पसंद करते हैं.’’

अपने चारों तरफ शोभा ने जाने कैसी दीवार खड़ी कर रखी थी जिसे चारू ने पहले तो भेदने का प्रयास किया और जब नहीं भेद पाई तो पूरी तरह उसे सिरे से ही नकार दिया.

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‘‘कोई भी काम नहीं करती. न खाना बनाती है न नाश्ता. यहां तक कि सजतीसंवरती भी नहीं है. अनुराग शाम को थकाहारा आता है, सुबह जैसी छोड़ कर जाता है वैसी ही शाम को पाता है. मेरे हिस्से में ऐसी ही बहू मिलने को थी,’’ शोभा कहती.

‘‘कल चारू को मेरे पास भेजना. मैं बात करूंगी.’’

‘‘तुम क्या बात करोगी, रहने दो.’’

‘‘किसी भी समस्या का हल बात किए बिना तो नहीं निकलेगा न.’’

शोभा ने साफ शब्दों में मना कर दिया. वह यह भी तो नहीं चाहती थी कि उस की बहू किसी से बात करे. मैं जानती हूं, चारू शोभा के व्यवहार की वजह से ही ऐसी हो गई है.

‘‘बस भी कीजिए, मम्मी. मुझे भी पता है कहां कैसी बात करनी चाहिए. आप के साथ दम घुटता है मेरा. क्या एक कप चाय बनाना भी मुझे आप से सीखना पड़ेगा. हद होती है हर चीज की.’’

चारू एक बार हमसब के सामने ही बौखला कर शोभा पर चीख उठी थी. उस के बाद घर में अच्छाखासा तांडव हुआ था. जीजाजी और शोभा ने जो रोनाधोना शुरू किया कि उसी रात चारू अवसाद में चली गई थी.

अनुराग भी हतप्रभ रह गया था कि उस की मां चारू को कितना प्यार करती हैं. यहां तक कि चाय भी उसे नहीं बनाने देतीं. नाश्ता तक मां ही बनाती हैं. बचपन से मां के रंग में रचाबसा अनुराग पत्नी की बात समझता भी तो कैसे.

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