किसको कहे कोई अपना- भाग 3- सुधा के साथ क्यों नही था उसका परिवार

2 दिनों बाद रक्षाबंधन था. बड़ी हवेली में ही सब आते और यहीं राखी मनाई जाती. वह बेताबी से रक्षाबंधन का इंतजार करने लगी. उसे पूरा भरोसा था सब उसी का साथ देंगे. उस की सेवा और पूरे परिवार के लिए समर्पण किसी से छिपा न था. बेटा अतुल भी आने वाला था. राजेश्वर की प्रेमकहानी उसी दिन सुनाई जाएगी.

रक्षाबंधन वाले दिन सवेरे उठ कर सुधा ने पकवान और खाना बना कर रख दिया. देखतेदेखते सभी आ गए. राखी बांध कर बहनें नेग के लिए सुधा की ओर देखने लगीं. पर सुधा चुप बैठी रही. उस ने देवरानी को भोजन परोसने को कहा तो सब हैरान रह गए. सौसौ मनुहार से खाना खिलाने वाली सुधा को क्या हो गया? खाने के बाद सुधा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘आज सब के सामने अपनी एक समस्या बता रही हूं. कृपया, मुझे आज इस का कोई समाधान बताएं.’’ यह कह कर सुधा ने राजेश्वर की सारी प्रेमकहानी आरंभ से अंत तक सुना दी.

इस बीच न जाने कब राजेश्वर उठ कर बाहर चले गए. कुछ देर कमरे में सन्नाटा पसरा रहा. फिर बड़ी ननद बोली, ‘‘भाभी, इस उम्र में आप को भैया पर यही लांछन लगाने को मिला था.’’ छोटी ननद बोली, ‘‘भैया इतने बड़े ओहदे पर हैं आप तो उन के पद की गरिमा भी भूल गई हैं. आप उन के सामने क्या हैं? उन के मुकाबले में कुछ भी नहीं, फिर भी भैया को आप से कोई शिकायत नहीं है.’’

सुधा ननदों की बातें सुन कर हैरान हो रही थी कि देवर बोला, ‘‘भाभी, मेरे राम जैसे भाई पर इलजाम लगाते शर्म न आई.’’ देवरानी मुंह में पल्लू दिए अपनी हंसी को भरसक दबाने की कोशिश कर रही थी. बस, अतुल ही सिर नीचा किए बैठा था.

अब सुधा का धैर्य जवाब दे गया. वह सोचने लगी, ये वही ननदें, देवर और पति हैं जिन की सेवा में मैं ने खुद को भुला दिया. जिन के लिए मैं ने अपने संगीत, रूपरंग की बलि चढ़ा दी. मेरे अस्तित्व और स्वाभिमान पर इतना बड़ा आघात. अपने गहने, कपड़े, सेवाएं दे कर आज तक इन की मांगें पूरी करती आई हूं.

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सब बहाने से उठ कर जाने लगे तो सुधा तिलमिला उठी, बोली, ‘‘तो सुनिए आप के उसी राम सदृश्य भाई ने मेरे साथ विश्वासघात किया है. आज मैं ने भी उन से तलाक ले कर अलग रहने का फैसला लिया है.’’ सुधा को उम्मीद थी कि सब मुझे मनाने आगे आएंगे.

अभी वह यह सोच ही रही रही थी कि राजेश्वर की आवाज आई, ‘‘आज सब राखी का नेग ले कर नहीं जाएंगे?’’ देखतेदेखते राजेश्वर ने 500 रुपए के नोट की गड्डी निकाली. बहनों के साथ छोटी भाभी को भी रुपए दिए. नेग ले कर सब घर जाने को तैयार हो गए. सुधा मूर्ति की तरह बैठी रही.

जातेजाते ननदें सुधा को गीता का ज्ञान देने लगीं, ‘‘भाभी बुजुर्ग हो गई हो, बेतुकी बातें बोलना छोड़ समझदार बनो.’’ देवर भी कहां पीछे रहने वाले थे, बोले, ‘‘इस उम्र में तलाक ले कर पूरे खानदान का नाम रोशन करोगी क्या?’’ और पत्नी का हाथ पकड़ निकल गए.

अतुल ही खिन्न सा बैठा रहा. सब के जाते ही घर में मरघट सा सन्नाटा पसर गया. अतुल भी घर में आने वाले भयंकर तूफान के अंदेशे से बचने के लिए घर से बाहर निकल गया.

अब सुधा और राजेश्वर दोनों ही सांप और नेवले की तरह एकदूसरे पर आक्रमण करने लगे. सुधा अपनी सेवाओं और घर के लिए की कुरबानियों की दुहाई देती रही तो राजेश्वर उस की पत्नी के रूप में नाकाबिलीयत के किस्से सुनाते रहे.

राजेश्वर ने आखिरकार सोचा, सुधा तलाक की गीदड़ भभकी दे रही है. जाएगी कहां? मायके में एक भाईभाभी रह गए थे. वे भी जायदाद बेच कर विदेश जा बसे. पढ़ाईलिखाई में कुछ खास न तो डिगरी ही है, न 46 की उम्र में कोईर् नौकरी के योग्य है. इसलिए सुधा से मुखातिब हो कर बोले, ‘‘जो जी में आए करो. तुम्हारी योग्यता तो बस किचन तक की है. यह तुम भी जानती हो.’’

सुधा तिलमिला कर बोली, ‘‘मैं ग्रेजुएट हूं, संगीत जानती हूं. तुम ने मेरे स्वाभिमान को ललकारा है और कुरबानियों को नकारा है. अब क्या तुम्हें ऐसे ही छोड़ दूंगी, गुजाराभत्ता भी लूंगी और हवेली में हिस्सा भी. मेरा बेटा है अपने दादा की जायदाद पर उस का भी हक है.’’

यह सुन राजेश्वर सन्न रह गए. पैर पटकते घर से बाहर चले गए. सुधा सिर से पैर तक सुलग रही थी. उस ने अंजू को फोन कर बुलवा लिया. अंजू आ गई तो उस ने सारी बातें कह सुनाईं.

अंजू बोली, ‘‘अच्छी तरह सोचसमझ लो बूआ. एक बार तलाक की अर्जी लग गई, फिर लौटने पर किरकिरी होगी.’’

सुधा बोली, ‘‘सब स्वार्थ से मेरे साथ जुड़े थे. स्वार्थ खत्म होते ही दूर हो गए. तुम अर्जी लगा दो.’’

अतुल घर आ गया था. यह सब जान कर बोला, ‘‘मां, अकेले रह लोगी न? मुझे आप से कोई शिकायत नहीं है. आप के साथ अन्याय तो हुआ है पर मैं पापा को भी नहीं छोड़ूंगा. वैसे भी मम्मी, मैं ने अपनी एक सहपाठिन से विवाह करने का मन बना लिया है. आप दोनों के पास आताजाता रहूंगा. शादी कोर्ट में करूंगा.’’

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अतुल की व्यावहारिकता देख सुधा हैरान रह गई. काश, उस के पास भी ऐसी व्यावहारिक बुद्धि होती तो वह समय रहते संभल जाती और अपनों से न छली जाती.

तलाक की अर्जी पर राजेश्वर ने भी साइन कर दिए. वे गरिमा के साथ सुखमय जीवन के सपने देखने लगे. पहली पेशी पर जज द्वारा कारण पूछे जाने में दोनों ने खुल कर एकदूसरे की कमियों का बखान किया. जज ने समझौते के लिए 6 महीने का समय दिया. सुधा को 40 हजार रुपए गुजारे भत्ते और हवेली के पिछले हिस्से में रहने का अधिकार मिला. बाद में विधिवत म्यूचुअल तलाक हो गया. राजेश्वर गरिमा के फ्लैट में शिफ्ट हो गए.

अब सुधा को अपनेपराए की पहचान हो गई. सेवाभाव, परिवार के लिए त्याग, बलिदान की नाकामी का एहसास अच्छी तरह हो गया. सब से बड़ी सीख सुधा को यह मिली कि इस जीवन में उस ने अपने वजूद को, गुणों को, रूपरंग को दांव पर लगा कर जो फैसले किए वे गलत थे. चाहे जितनी सेवा कर लो, परिवार के लिए कुरबानी दे दो पर अपने वजूद को दरकिनार न करो. अब वह अपनी बाकी जिंदगी को संवारने के लिए कटिबद्ध हो गई. 2 कमरे, 4 लड़कियों को किराए पर दे दिए. रौनक भी रहेगी और कुछ आमदनी भी हो जाएगी. कालेज के रिटायर्ड संगीत सर के घर जा नियमित रियाज करना शुरू कर दिया. कुछ ही समय बाद संगीत सम्मेलनों में अपने गुरुजी के साथ जा कर शिरकत भी करने लगी.

समय का पहिया आगे निकल गया था. एक दिन सुधा एक संगीत प्रोग्राम में जजमैंट करने आ रही थी कि उस की कार लालबत्ती पर रुक गई. कार की खिड़की से बाहर देखने पर सड़कपार किसी डाक्टर के क्लिनिक से राजेश्वर एक युवक का सहारा लिए निकल रहे थे. एकदम कमजोर हो चुके थे. आसपास गरिमा या कोई और नहीं था. तभी हरी बत्ती हो गई. गाड़ी बढ़ गई.

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उसके हिस्से के दुख: भाग 2- क्यों मदद नही करना चाहते थे अंजलि के सास-ससुर

उमा बीच में एकाध बार कोमल और शीतल को अंजलि और विनय से मिलवा लाई थी. उमा अंजलि के कपड़ों का बैग भी ले गई थी. अब अंजलि भी लगातार हौस्पिटल में ही थी. विनय सामान्य दिखने की कोशिश तो करते, पर मन ही मन बहुत चिंतित थे.

बारबार अंजलि से कह रहे थे, ‘‘यार, हमेशा हैल्थ का इतना ध्यान रखा और अब कितने दिनों से हौस्पिटल में पड़े हैं.’’

अंदर से खुद भयभीत अंजलि हौसला बढ़ाती, ‘‘कोई बात नहीं, रिपोर्ट ठीक ही होगी. बस, फिर चलेंगे घर,’’ अंजलि विनय को क्या, जैसे खुद को तसल्ली दे रही थी.

रिपोर्ट क्या आई, विनय और अंजलि के जीवन में दुखों का जैसे एक सैलाब  सा आ गया. क्या करें, क्या होगा. किसी को कुछ समझ नहीं आया. विनय को ब्रेन कैंसर था जो इतना फैल चुका था कि औपरेशन असंभव था और लास्ट स्टेज थी. सब के पैरों तले की जमीन खिसक गई. अंजलि को तो लगा कि एक पल में ही उस की दुनिया बदल गईर् है. डाक्टर के सामने ही फूटफूट कर रो दी वह. विनय अवाक थे. राकेश अंजलि को चुप करवाता हुआ खुद भी रो रहा था.

डाक्टर ने अंजलि से कहा, ‘‘आप आइए, आप से कुछ बातें करनी है.’’

विनय को रूम में छोड़ अंजलि और राकेश डाक्टर के कैबिन में गए.

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डाक्टर ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘आप को अब खुद मानसिक रूप से बहुत मजबूत होना है. सब से दुख की बात है कि विनय के पास सिर्फ 2-3 महीने ही हैं.’’

‘‘क्या?’’ अंजलि रो पड़ी.

राकेश ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘‘कोई इलाज तो होगा? आज साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है… क्या हम उन्हें विदेश ले जाने की कोशिश करें, डाक्टर साहब?’’

‘‘उन्हें अब कहीं भी ले जाने से फायदा नहीं है. लास्ट स्टेज है. कीमो और रैडिएशन ट्राई करते हैं, अगर बौडी को सूट कर गया तो थोड़े दिन और बढ़ जाएंगे और आप को बहुत सारी बातें समझनी होंगी. उन्हें बातबात पर चिड़चिड़ाहट हो सकती है, मूड स्विंग्स होंगे, मैमोरी लौस भी हो सकता है. उन के साथ अचानक ये सब हुआ है, वे मानसिक रूप से बहुत अस्थिर होंगे. आप को बहुत धैर्य रखना होगा.’’

टूटेहारे तीनों 10 दिन बाद घर वापस आ गए. घर के पास ही एक बहुत अच्छा हौस्पिटल था. कीमोथैरेपी और रैडिएशन के लिए रोज जाना था. वहीं जाने में सुविधा थी तो वहां डाक्टर को दिखा कर आगे के लिए इलाज शुरू हो गया. सुबह सब का नाश्ता बना कर बेटियों को स्कूल भेज अंजलि 10 बजे विनय के साथ हौस्पिटल जाती. आने में 1-2 बज जाते. आ कर लंच बनाना, विनय को खिलाना, फिर उन्हें आराम करवाना, पर विनय आराम करना कहां जानते थे. हाईपरएक्टिव इंसान थे.

हमेशा कुछ न कुछ करते ही रहते थे अब तक. अब धीरेधीरे स्टैमिना कम हो रहा था. रैडिएशन के साइड इफैक्ट भी बहुत साफ नजर आते थे. काफी कमजोरी रहने लगी थी. जल्दी थकते थे, घर में भी चलनेफिरने में थकते दिखाई दे रहे थे. कार चलाना तो अब बंद ही हो गया था. हौस्पिटल आनेजाने के लिए एक ड्राइवर को बुलाया जाता था. विनय की गिरती सेहत, भविष्य में आने वाली परेशानियों का डर, घर में अनिष्ट की आशंका हर तरफ दिखाई देने लगी थी.

बहुत कम लोगों को ही विनय की बीमारी का पता था. विनय अब अपने सारे बीमे के पेपर्स, सारे फंड्स खोल कर बैठे रहते, 1-1 चीज अंजलि को समझते कि कैसे क्या करना है. वे यह महसूस कर चुके थे कि किसी भी दिन कुछ हो जाएगा.

अब तक विनय को हर बात, हर काम खुद करने की आदत थी. स्वभाव  से वे काफी पजैसिव और डौमिनेटिंग टाइप के इंसान थे. अब हर बात में अंजलि और बच्चों पर निर्भर होना पड़ रहा था तो उन्हें बातबात पर गुस्सा आने लगा था. कभी भी चिढ़ जाते, बहुत गुस्सा करते. अंजलि को दोहरी तकलीफ होती. एक तरफ असाध्य बीमारी, उस पर विनय का गुस्सा और चिड़चिड़ाहट. कभीकभी उसे सजा सी लगने लगती कि उसे क्यों इतना शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलना पड़ रहा है.

एक महीने में ही उस का चार किलोग्राम वजन कम हो गया था. विनय की जगह वह बीमार लगने लगी थी. रातभर उठ कर विनय को देखती रहती कि ठीक तो हैं. वे जब से बेहोश हुए थे, एक रात भी अंजलि चैन से नहीं सो पाई थी.

एक दिन अंजलि जैसे ही दोपहर में थक कर थोड़ा लेटी, विनय ने कहा, ‘‘अरे, याद आया, एक पेपर का फोटोस्टेट करवाना है.’’

‘‘ठीक है, अभी शाम को करवा लाऊंगी या कोमलशीतल स्कूल से आएंगी तो करवा लाऊंगी, आप को अकेले छोड़ कर नहीं निकलूंगी.’’

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‘‘नहीं, अभी चाहिए, मैं थोड़े पेपर्स ठीक कर रहा हूं.’’

‘‘आप भी आराम कर लो, शाम को ले आऊंगी.’’

विनय बुरी तरह चिढ़ गए, ‘‘अब छोटेछोटे कामों के लिए तुम्हें कितनी बार कहना पड़ता है. मेरी मजबूरी है. तुम्हें पता है न, मेरा हर काम समय पर परफैक्ट रहता है. टालना मेरी आदत नहीं है. अब कितनी बार एक ही काम को कहना पड़ता है.’’

थक कर लेटी अंजलि विजय की चिड़चिड़ पर उठ कर बैठ गई, ‘‘अभी जाना जरूरी है? बारिश भी तेज है.’’

‘‘हां, अभी जरूरी है.’’

अंजलि को गुस्से के मारे रोना आ गया. जब से विनय बेहोश हुए थे, एक मिनट भी अंजलि ने विनय को घर में अकेला नहीं छोड़ा था. इतने में बच्चे आ गए तो वह उन्हें खान दे कर तैयार हो कर तेज बारिश में ही घर से निकल गई. जा कर फोटोस्टेट करवाया, फिर रास्ते में खुद को ही समझने लगी कि विनय छोटेछोटे काम हमें कहते हुए मानसिक तनाव झेलते होंगे, इतनी बड़ी बीमारी के आखिरी दिन हैं… उन्हें कैसा लगता होगा. जब यह महसूस होता होगा कि किसी भी दिन वे नहीं रहेंगे, किस मानसिक यंत्रणा में रहते होंगे. फिर विनय के पक्ष में ही सोचती हुई अपना गुस्सा, झंझलाहट भूलने की कोशिश करने लगी.

अचानक अंजलि की परेशानियां तब और बढ़ गईं जब मुंबई में ही इस समय उस के देवर के पास रहने वाले उस के सासससुर महेश और मालती विनय की बीमारी का पता चलने पर उस के पास रहने आ गए. महेश और मालती कुछ महीने विनय के छोटे भाई विजय के पास रहते थे, कुछ महीने यहां. 86 साल के महेश और 80 साल की मालती दोनों शारीरिक रूप से बेहद खराब स्थिति में थे. दोनों बिना सहारे के उठबैठ भी नहीं पाते थे. बस, अंजलि को बातबात पर टोकने, सारा दिन उस की गलतियां बताने की शक्ति उन में आज भी थी. कभीकभी कुछ बुजुर्ग भी तो अपनी शारीरिकमानसिक अवस्था भूल कर किसी भी उम्र में दुर्व्यवहार करना नहीं छोड़ते.

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उसके हिस्से के दुख: भाग 3- क्यों मदद नही करना चाहते थे अंजलि के सास-ससुर

अब सासससुर की सेवा, बीमार पति की देखभाल, दोनों बेटियों की स्कूल की पढ़ाई, घर के काम, अंजलि टूटटूट कर अंदर ही अंदर बिखर रही थी. वह अपना सारा दुख अपनी अभिन्न सहेली रूपा से ही शेयर कर पाती थी जो उसी सोसायटी में रहती थी. रूपा को अपनी इस सहेली का दुख कम करने का कोई रास्ता नहीं सूक्षता आता था. अंजलि के सासससुर जब से आए थे.

अंजलि ने रूपा से कहा था, ‘‘मैं तुम से अब फोन पर ही बात करूंगी, मांपिताजी को मेरी किसी से भी दोस्ती कभी पसंद नहीं आई है और किसी भी तरह का इन्फैक्शन होने के डर से डाक्टर ने भी अब विनय को किसी से मिलनेजुलने के लिए मना कर दिया है.’’

अंजलि घर का कोई सामान लेने बाहर निकलती तो कभीकभी 10-15 मिनट के लिए रूपा के पास चली जाती थी. उस का घर रास्ते में ही पड़ता था. उस समय वह सिर्फ रूपा के गले लग कर रोती ही रहती. कुछ बात भी नहीं कर पाती. अपनी सहेली के दर्द को समझ रूपा कभी उसे बांहों में भर खूब स्नेहपूर्वक दिलासा देती तो कभीकभी साथ में रो ही देती.

रूपा के पति अनिल व्यस्त इंसान थे. अकसर टूर पर रहते थे. उस का देवर सुनील जो अभी पढ़ ही रहा था, उन के साथ ही रहता था. ऐसे ही एक दिन रूपा ने कहा, ‘‘अंजलि, सारे काम खुद पर मत रखना, तेरी तबीयत भी ठीक नहीं लग रही है, कोई भी काम हो, सुनील को बता दिया कर. कालेज से आ कर वह फ्री ही रहता है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कह कर अंजलि चली गई.

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रूपा फोन पर अंजलि से दिन में एक बार बात जरूर करती थी. अंजलि की  बिल्डिंग में अभी किसी को विजय की बीमारी के बारे में पता नहीं था. स्वभावत: विनय बहुत कम लोगों को पसंद करते थे. उन्होंने हमेशा आसपास रहने वालों से एक दूरी ही बना कर रखी थी. राकेश, उमा से जितना हो सकता था, कर रहे थे. 1 महीने बाद कीमोथेरैपी बंद हो चुकी थी. रैडिएशन थोड़ा बाकी था. कुछ फायदा होता नहीं दिख रहा था. विजय की हालत चिंताजनक थी. उन्हें अब काफी तेज बुखार रहने लगा तो रैडिएशन भी रोकना पड़ा. कमजोरी बढ़ती जा रही थीं.

एक दिन रिपोर्ट्स लानी थी और दवाइयां भी खत्म थीं. जुलाई का महीना था. बारिश बहुत तेज थी. रात के 9 बज रहे थे. अंजलि ने हमेश की तरह होम डिलिवरी के लिए मैडिकल स्टोर फोन किया तो फोन की घंटी बजती रही, किसी ने उठाया नहीं या तो फोन खराब था या मैडिकल स्टोर बंद था. राकेश, उमा भी बाहर थे. कुछ समझ नहीं आया तो अंजलि ने रूपा को फोन कर के यह समस्या बताई.

रूपा ने फौरन कहा, ‘‘दवाई का नाम व्हाट्सऐप पर भेज दे, सुनील दवाई और रिपोर्ट्स सब पहुंचा देगा.’’

अंजलि को बहुत सहारा सा लगा. पहले भी कई बार रूपा के किसी काम से सुनील आताजाता रहा था. वह शरीफ, सभ्य लड़का था पर इस बार आया. विनय की तबीयत पूछी तो विनय ने उसे बहुत रूखे स्वर में जवाब दिया. अंजलि को बहुत बुरा लगा पर कुछ कह नहीं सकती थी. महेश और मालती ने भी सुनील के जाने के बाद बहुत ही मूड खराब कर सुनील के आने के बारे में कमैंट किए तो अंजलि रोंआसी हो गई. क्या करे इन लोगों का, सुनील से तो कोई लेनादेना ही नहीं है. कोई इस समय काम आ गया तो बजाय कृतज्ञ होने के उस के चरित्र पर ही उंगलियां उठने लगीं. क्यों? विनय बीमार है तो वह अब किसी से बात न करें. छोटे भाई जैसे लड़के से भी नहीं? कोई घर आएजाए भी नहीं. पहले भी सुनील घर आया है, विनय ने उसे अच्छी तरह अटैंड भी किया है. अब?

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यह अपमान क्यों? यह रूपा का भी तो अपमान है कि मैं उसे घर आने से  मना करती हूं. उसे. जो हर दुख में मुझे संभाल रही है. यह मेरा भी तो अपमान है. क्या विनय के बीमार होने से अब मेरे चरित्र पर उंगलियां उठाई जाएंगी और वे भी मेरे ही परिवार के द्वारा? क्या अब कोई सद्भाव से मेरी मदद भी करना चाहेगा तो उस का अपमान होगा? रातदिन मैं किस बात की सजा भुगत रही हूं? मैं ने क्या किया है? दिनबदिन तनमन से टूट रही हूं मैं, मेरे पति और मेरे सासससुर के लिए मेरा दर्द समझना इतना मुश्किल है? मैं विजय की स्थिति महसूस कर रातदिन उन की मनोदशा का अंदाजा लगा सकती हूं, बीमार, कर्कश, सासससुर के इशारों पर इस स्थिति में भी नाच सकती हूं, मैं शारीरिक और मानसिक संबल के लिए किसी से कोई आशा क्यों नहीं रख सकती?

बारिश की परेशानी देख कर इस के बाद भी रूपा ने दवाई या कोई काम पूछने सुनील को भेजा तो विनय और सासससुर के चेहरे तन गए, सुनील तो पूछ कर चला गया. पूरा दिन घर में अजीब सा तनाव रहा.

अंजलि हैरान थी कि यह क्या है? क्यों है? मैं कैसे रूपा को सुनील को भेजने के लिए मना करूं? यह कितनी शर्म की बात होगी. मुझे तो कभी भी किसी की भी मदद लेनी पड़ सकती है अब. क्या सब से कट कर अपने में ही हमेशा जी सकता है इंसान?

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सासससुर मुझे हर बात पर ऐसे देखते हैं जैसे मैं ने कोई गुनाह कर दिया हो. विजय का गुस्सा, चिड़चिड़ाहट बढ़ती जा रही है. देवरदेवरानी ने तो मांपिताजी को यहां भेज कर राहत की सांस ली है. 8-10 दिन में एक बार फोन कर पूछ लेते हैं कि कोई काम तो नहीं है? राकेश, उमा को भी विनय ज्यादा पसंद नहीं करते. मैं किसी को अपना दुख बता ही नहीं सकती, बिडंबना से विनय का साथ छूट रहा है. हर पल उन्हें मुझ से दूर करता जा रहा है, रोज सुब यह आंशका रहती है कि आज का दिन ठीक रहेगा या शाम तक कहीं… मेरी हालत तो फांसी का इंतजार कर रहे उस व्यक्ति की सी है जो जानता है गुनाह उस ने किया ही नहीं पर अदालत ने मौत की सजा दे दी. मुझे तो शायद पैरोल पर तभी छोड़ा जाएगा जब विनय… उफ नहीं… नहीं, पर गुनहगार तो तब भी मैं ही मानी जाती रहूंगी, शायद.’’

उसके हिस्से के दुख: भाग 1- क्यों मदद नही करना चाहते थे अंजलि के सास-ससुर

शामके 7 बज रहे थे. विनय ने औफिस से आ कर फ्रैश हो कर पत्नी अंजलि और दोनों बेटियों  कोमल और शीतल के साथ बैठ कर चायनाश्ता किया. आज बीचबीच में विनय कुछ असहज से लग रहे थे.

अंजलि ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘हां, कुछ अनकंफर्टेबल सा हूं, थोड़ी सैर कर के आता हूं.’’

‘‘हां, आप की सारी तबीयत सैर कर के ठीक हो जाती है.’’

‘‘तुम भी चलो न साथ.’’

‘‘नहीं, मुझे डिनर की तैयारी करनी है.’’

‘‘तुम हमेशा बहाने करती रहती हो… तुम्हें डायबिटीज है, डाक्टर ने रोज तुम्हें सैर करने के लिए कहा है और जाता मैं हूं, चलो, साथ में.’’

‘‘अच्छा, कल चलूंगी.’’

‘‘कल भी तुम ने यही कहा था.’’

‘‘कल जरूर चलूंगी,’’ फिटनैस के शौकीन 30 वर्षीय विनय ने स्पोर्ट्स शूज पहने और निकल गए.

बेटियों को होमवर्क करने के लिए कह कर अंजलि किचन में व्यस्त हो गई. काम करते हुए विनय के बारे में ही सोचती रही कि कितना शौक है विनय को फिट रहने का, दोनों समय सैर, टाइम से खानापीना, सोना.

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अंजलि ने कई बार विनय को छेड़ा भी था, ‘‘कितना ध्यान रखते हो अपना, कितना शौक है तुम्हें हैल्दी रहने का… जरा सा जुकाम भी हो जाता है तो भागते हो डाक्टर के पास.’’

‘‘वह इसलिए डियर कि मैं कभी बीमार पड़ना नहीं चाहता, मुझे तुम तीनों की देखभाल भी तो करनी है.’’

वह अपने पर गर्व करने लगती.

विनय सैर से लौटे तो कुछ सुस्त थे. स्वभाव के विपरीत चुपचाप बैठ गए तो अंजलि ने टोका, ‘‘क्या हुआ, आज सैर से फ्रैश नहीं हुए?’’

‘‘नहीं, थोड़ा अनईजी हूं.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पता नहीं, कुछ तो हो रहा है.’’

डिनर करते हुए भी विनय को चुपचाप, गंभीर देख अंजलि ने फिर पूछा, ‘‘विनय, क्या हुआ?’’

अपनी ठोड़ी पर हाथ रखते हुए विनय ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘यहां से ले कर सिर तक बीचबीच में एक ठंडी सी लहर उठ रही है.’’

‘‘अरे, चलो डाक्टर को दिखा लेते हैं,’’ अंजलि ने चिंतित स्वर में कहा. अंजलि विनय के साथ डाक्टर नमन के क्लीनिक के लिए निकल गई. ठाणे की इस ‘हाइलैंड’ सोसायटी के अधिकांश निवासी सोसायटी में स्थित ‘नमन क्लीनिक’ ही जाते थे.

अपना इतना ध्यान रखने के बाद भी विनय को अकसर कुछ न कुछ होता रहता था. विनय दवाइयों की कंपनी में ही काम करते थे तो डाक्टर शर्मा से उन की अच्छी दोस्ती भी थी.

डाक्टर नमन ने कहा, ‘‘ऐसे ही एसिडिटी रहती है न तुम्हें, वही कुछ हो रहा होगा.’’

डाक्टर नमन से अधिकतर लोगों को यह शिकायत रहती थी कि वे मरीज की परेशानी को अकसर हलके में ही लेते थे. कुछ इस बात से खुश रहते थे तो कुछ शिकायत करते थे. एसिडिटी की दवाई ले कर विनय और अंजलि घर आ गए. फिर रोज की तरह 11 बजे सोने चले गए.

रात को 3 बजे के आसपास अंजलि विनय के बाथरूम जाने की आहट पर जागी. विनय  बाथरूम से आए और वापस बैड पर बैठतेबैठते एक तेज आह के साथ लेटते हुए बेहोश हो गए.

अंजलि हैरान सी उन्हें हिलाती हुई आवाज देने लगी, ‘‘विनय, उठो, क्या हुआ है?’’

विनय की बेहोशी बहुत गहरी थी. वे हिले भी नहीं. अंजलि के हाथपैर फूल गए. उन का फ्लैट तीसरे फ्लोर पर था. उसी बिल्डिंग में ही 10वें फ्लोर पर अंजलि का छोटा भाई राकेश, उस की पत्नी उमा और उन के 2 बच्चे रहते थे. अंजलि के मातापिता थे नहीं, दोनों भाईबहन ने एकदूसरे के आसपास रहने के लिए ही एक बिल्डिंग में घर लिए थे.

अंजलि ने इंटरकौम पर राकेश को तुरंत आने के लिए कहा. राकेश, उमा भागे आए, बहुत कोशिश के बाद भी विनय को होश नहीं आ रहा था. उन्हें बेहोश हुए 30 मिनट हो गए थे. राकेश ने अब फोन कर तुरंत ऐंबुलैंस बुलवाई. उमा को बेटियों की जिम्मेदारी सौंप अंजलि राकेश के साथ विनय को ले कर हौस्पिटल पहुंच गई. उन्हें फौरन एडमिट किया गया. गहरी बेहोशी में विनय को देख अंजलि के हौसले पस्त हो रहे थे, राकेश उसे तसल्ली दे रहा था.

विनय को फौरन आईसीयू में एडमिट कर लिया गया. उन्हें काफी देर बाद होश आया तो वे बिलकुल नौर्मल थे. बात कर रहे थे. पूछ रहे थे कि क्या हुआ. उन्हें अपना बेहोश होना बिलकुल याद नहीं था.

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अगले कई दिन टैस्ट्स का सिलसिला चलता रहा. दवाइयों की ही फीलड में काम करने के कारण विनय की कई डाक्टर्स से अच्छी जानपहचान थी. टैस्ट्स होते रहे, रिपोर्ट्स आती रहीं, सब ठीक लग ही रहा था कि ब्रेन की एमआरआई की रिपोर्ट आई तो बात चिंता की थी. ब्रेन में एक धब्बा सा नजर आ रहा था. विनय के ही कहने पर एमआरआई फिर किया गया. रिपोर्ट वही थी.

अब डाक्टर ने कहा, ‘‘बायोप्सी करनी पड़ेगी.’’

घबराहट के कारण अंजलि के आंसू बह चले, ‘‘बायोप्सी?’’

‘‘हां, जरूरी है,’’ एकदम हलचल सी मच गई.

विनय ने कहा, ‘‘राकेश, में ‘हिंदुजा’ में एक बार दिखा लेता हूं, वहां मेरी अच्छी जानपहचान है और हर तरह से वहीं ठीक रहेगा.’’

राकेश, अंजलि ने भी सहमति में सिर हिलाया.

इस हौस्पिटल में भी विनय को एडमिट हुए 10 दिन हो गए थे. राकेश ने औफिस से छुट्टी ली हुई थी. अंजलि मुश्किल से ही घर चक्कर काट पा रही थी. उमा ही शीतल, कोमल को स्कूल भेजती थी. उन्हें अपने पास ऊपर ही रखती थी. इन दस दिनों ने अंजलि को भी बहुत शारीरिक और मानसिक तनाव दिया था. डायबिटीज के कारण उस की हैल्थ भी काफी प्रभावित हो रही थी. इस समय विनय की चिंता ने उस की हालत खराब कर रखी थी.

‘हिंदुजा’ में डाक्टर्स को दिखा कर विनय एडमिट हो गए. बायोप्सी हुई, ब्रेन जैसे शरीर के महत्त्वपूर्ण भाग के साथ छेड़छाड़ होती सोच कर अंजलि मन ही मन बहुत घबराए चली जा रही थी. आंसू रुकने का नाम नहीं लेते थे. रिपोर्ट आने में 10 दिन लगने वाले थे. विनय को बुखार भी था. बाकी टैस्ट्स भी चल रहे थे.

डाक्टर अमन ने कहा, ‘‘आप लोग सोच लें, डिस्चार्ज हो कर घर जाना है या यहीं रहना है. यहां से आप का घर काफी दूर है. 3 दिन बाद सिर की ड्रैसिंग भी करनी है, बारबार आनेजाने में आप को परेशानी होगी.’’

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विनय के सिर के थोड़े से बाल बायोप्सी के लिए शेव किए गए थे. अभी 3 दिन बाद फिर ड्रैसिंग होनी थी. यही ठीक समझ गया कि फिर आनेजाने से अच्छा है कि एडमिट ही रहा जाए. विनय काफी सुस्त भी थे. उन्हें आनेजाने में स्ट्रैस भी हो सकता था, इसलिए डिस्चार्ज नहीं लिया गया.

आगे पढ़ें- बारबार अंजलि से कह रहे थे…

क्या कूल हैं ये: भाग 1- बेटे- बहू से मिलने पहुंचे समर का कैसा था सफर

आज की युवा पीढ़ी वक्त के साथ चलना जानती है, समस्याओं को परे रख जिंदगी का लुत्फ कैसे उठाते हैं, यह मैं बेटेबहू को देख अभिभूत हो रही थी. हम ने भी उन के साथ कदमताल मिला कर जीने का जो सुख लिया, जबां से क्या बयां करूं.

प्लेन लैंडिंग की घोषणा हुई तो मैं ने भी अपनी बैल्ट चैक कर ली. मुसकरा कर समर की तरफ देखा. वे भी उत्सुकता से बाहर देख रहे थे. मैं भी खिड़की से बाहर नजर गड़ा कर प्लेन लैंडिंग का मजा लेने लगी.

एक महीने के लिए बेटेबहू के पास दुबई आए थे. बच्चों से मिलने की उत्सुकता व दुबई दर्शन दोनों ही उत्तेजनाओं से मनमस्तिष्क प्रफुल्लित हो रहा था. एयरपोर्ट की औपचारिकताओं से निबट कर सामान की ट्रौली ले कर बाहर आए तो रिषभ प्रतीक्षारत खड़ा था. बेटे को देख कर मन खुशी से भर उठा. लगभग 6 महीने बाद उसे देख रहे थे. सामान की ट्रौली छोड़, दोनों जा कर बेटे से लिपट गए.

‘‘इशिता कहां है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह घर में आप के स्वागत की तैयारी कर रही है,’’ रिषभ मुसकरा कर कार का दरवाजा खोलते हुए बोला.

‘‘स्वागत की तैयारी?’’ समर चौंक कर बोले.

‘‘हां पापा, आज शुक्रवार है न, छुट्टी के दिन क्लीनर आता है, तो इशिता सफाई करवा रही है.’’

‘सफाई करवाने का दिन भी फिक्स होता है बच्चों का यहां,’ मैं कार में बैठ कर सोच रही थी, ‘हफ्ते में एक दिन होती है न. अपने देश की तरह थोड़े ही, रोज घिसघिस कर पोंछा लगाती है आशा.’

थोड़ी देर में रिषभ की कार सड़क पर हवा से बातें कर रही थी. सुंदर चमचमाती 6 से 8 लेन की सड़कें, दोनों तरफ नयनाभिराम दृश्य और कार में बजते मेरे मनपसंद गीत… मैं ने आराम से सिर पीछे सीट पर टिका दिया.

‘‘मम्मी, गाने पसंद आए न आप को. सारे पुराने हैं आप की पसंद के,’’ मैं थोड़ा चौंकी कि यह कब कहा मैं ने कि मु झे सिर्फ पुराने गाने ही पसंद हैं. पर बच्चे अंदाजा लगा लेते हैं. मांबाप हैं, तो थोड़ी पुरानी चीजें ही पसंद करेंगे. मैं मन ही मन मुसकराई.

120-130 की स्पीड से दौड़ती कार आधे घंटे में घर पहुंच गई. डिसकवरी गार्डन में फ्लैट था. दुबई जैसे रेगिस्तान के समुद्र में इतनी हरीभरी कालोनी देख कर मन प्रसन्न हो गया. मात्र 5 मंजिल ऊंचे फ्लैट बहुत बड़े एरिया में कई स्ट्रीट में बंटे हुए थे. मैं सोच रही थी कि इतना सामान ऊपर कैसे जाएगा पर बिल्ंिडग के दूसरे रास्ते से आराम से सामान ड्रैग कर अंदर प्रवेश कर गए हम. वहां सीढि़यों के बजाय स्लोप बना हुआ था. किसी भी अच्छी सोसाइटी की ही तरह वहां भी मुख्य दरवाजे पर बिना एंट्री कार्ड को टच करे बिल्ंिडग के अंदर प्रवेश नहीं कर सकते. जैसे ही अंदर प्रवेश किया, अंधेरे कौरिडोर की लाइट्स जगमगाने लगीं. सभीकुछ औटोमैटिक था.

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फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच कर घंटी बजाने पर इशिता जैसे प्रतीक्षारत ही बैठी थी. क्षणभर में ही दरवाजा खुल गया और हम दोनों उस से भी लिपट गए. जान है हमारी इशिता. उस की भोली सूरत व मीठी बातें सुन कर तो जैसे लुत्फ ही आ जाता है जीने का. चमकता साफसुथरा फ्लैट देख कर दिल खुश हो गया. बच्चों की छोटी, प्यारी सी गृहस्थी उन के सुखी दांपत्य जीवन की कहानी बिना कहे भी बयान कर रही थी. प्रेमविवाह किया था दोनों ने.

दुबई का समय भारतीय समय से  डेढ़ घंटा पीछे है. इसलिए अभी  वहां पर दो ही बज रहे थे. बैडरूम में जा कर, सामान इधरउधर रख कर आराम से बिस्तर पर पसर गए.

‘‘ममा, खाना लगा दूं?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘खा लेंगे अभी,’’ मैं ने इशिता को पास खींच लिया.

शुक्रवार और शनिवार दुबई में छुट्टी होती है. इसलिए बच्चे आराम वाले मूड में थे. ‘‘पापा, खाना खा कर थोड़ा रैस्ट कर लीजिए. फिर बाहर चलते हैं,’’ रिषभ बोला.

शाम को हम चारों बाहर गए. चारों तरफ जगमगाती रोशनी में नहाया दुबई, समतल सड़कों पर फिसलती कारें और मेरा मनपसंद संगीत…कार में बैठने का लुत्फ आ जाता है.

‘‘रिषभ, आज तेरी कार में बैठी हूं. याद है न, जब मैं ड्राइव करती थी और तू बैठता था,’’ मैं रिषभ को छेड़ते हुए बोली.

‘‘हां ममा, याद है, बहुत बैठा हूं आप की बगल में. आजकल तो काफी कहानियां छप रही हैं आप की. मेरी रौयल्टी तो अब तक खूब जमा हो गई होगी,’’ रिषभ बचपन वाला लाड़ लड़ाता हुआ बोला.

‘‘हां, हां, इस बार तेरी पूरी रौयल्टी दे कर जाऊंगी,’’ मैं हंसते हुए बोली. रिषभ जब छोटा था तो मेरी हर कहानी के छपने पर 20 रुपए लेता था. उस के बचपन की वह मधुर सी याद जेहन को पुलकित कर गई. आज कितना बड़ा हो गया रिषभ. तब मैं उसे संभालती थी, अब वह हमें संभालने वाला हो गया.

‘‘रिषभ, तु झे याद है, तू मु झे बचपन में मेरे जन्मदिन पर अपनी पौकेटमनी से पेपर और पेन ला कर दिया करता था लिखने के लिए. मु झे तेरी वह आदत अंदर तक छू जाती थी.’’

‘‘हां, याद है. पता नहीं कैसे सोच लेता था उस समय ऐसा कि आप लिखती हैं तो पेपरपेन से ही खुश होंगी,’’ रिषभ ड्राइव करते हुए पुरानी यादों में लौटते हुए बोला.

‘‘और अब बड़े हो कर तू ने ममा को लैपटौप ला कर दे दिया,’’ समर ठहाका मारते हुए बोले.

इशिता भी हंस पड़ी. रिषभ ने हंसते हुए कार धीमी की. हम अपने गंतव्य तक पहुंच गए थे. घूमघाम कर रात पता नहीं कितने बजे तक घर पहुंचे. हमें समय भी पता नहीं चल रहा था. खाने में भी काफी कुछ खा चुके थे, इसलिए डिनर करने का किसी का मन नहीं था. रोशनी से दमकते दुबई ने तो जैसे दिनरात का फर्क ही भुला दिया था.

घर पहुंच कर, चेंज कर मैं लौबी में आ गई. तीनों बैठे थे. मैं बोली, ‘‘खूब थक गए हैं, चाय पीते हैं. इशिता, तू पिएगी?’’

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‘‘ममा, चाय?’’ इशिता चौंक कर अपनी बड़ीबड़ी आंखें  झपकती मेरी तरफ देख कर आश्चर्य से बोली. अब चौंकने की बारी मेरी थी, कुछ गलत बात तो नहीं कह दी.

‘‘अच्छा, अगर आप का पीने का मन है तो मैं बना देती हूं,’’ इशिता उठ कर रसोई की तरफ जाते हुए बोली.

‘‘ममा, पता भी है, क्या टाइम हो रहा है, रात का डेढ़ बज रहा है. और भारत में इस समय 3 बज रहे होंगे. चाय पियोगे आप इस समय,’’ रिषभ हंसता हुआ बोला.

मैं ने घबरा कर मोबाइल देखा. घड़ी तो भारतीय समय बता रही थी. पर मोबाइल दोनों समय बता रहा था. ‘‘ओह, मु झे तो यहां की चकाचौंध भरी रोशनी में दिनरात का फर्क ही नहीं पता चल पा रहा.’’

तीनों को मुसकराते देख, मैं उन्हें घूरती हुई बैडरूम की तरफ भाग गई. इतने घंटे की नींद कम हो गई थी मेरी. सुबह मेरी नींद भारतीय समय के अनुसार खुल गई. लेकिन दुबई का समय डेढ़ घंटा पीछे होने की वजह से बच्चे तो गहन निद्रा में थे. समर भी अलटपलट कर फिर सो रहे थे. दिल कर रहा था खूब खटरपटर कर सब को जगा दूं. पर, मन मसोस कर सोई रही.

खाना बनाने के लिए कुक आता था. विदेशों में वैसे तो काम करने वालों की सुविधा भारत जैसी नहीं रहती, पर दुबई में इतनी दिक्कत नहीं है. वहां पर एशियन देशों से गए कामगार घर में काम करने के लिए मिल जाते हैं. वहां की मूल आबादी तो 12-13 प्रतिशत ही है, बाकी आबादी तो यहां पर दूसरे देशों से आए हुए लोगों की ही है. यहां पर घरों में काम करने वाले स्त्रीपुरुष, अधिकतर हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, बंगलादेशी और श्रीलंका के ही होते हैं. कई अन्य देशों की महिलाएं बच्चों की नैनी के रूप में यहां पर अपनी सेवाएं देती हैं.

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अपने देशों में कुछ भी उपद्रव मचाएं पर यहां सब बहुत ही नियमसंयम से रहते हैं. टूटीफूटी इंग्लिश बोलतेबोलते अच्छी इंग्लिश बोलना सीख जाते हैं. घर में काम करने वाले भी इंग्लिश बोलते हैं पर अपनी भाषा भी बोलते हैं. जो बहुत सालों से रह रहे हैं, वे कोईकोई तो अरबी बोलना भी सीख जाते हैं.

‘‘ममा, यह पूरण है,’’ शाम को बेटे ने कुक से मिलवाया, ‘‘वैसे तो यह हमारे औफिस से आने के बाद आता है पर आजकल जल्दी आ कर खाना बना देगा ताकि औफिस से आ कर हम बाहर जा सकें.’’

क्या कूल हैं ये: भाग 2- बेटे- बहू से मिलने पहुंचे समर का कैसा था सफर

40-45 उम्र का अच्छाखासा आदमी लग रहा था. पहले ही दिन पूरा इतिहास जान लिया मैं ने उस का… भारत में कहां का रहने वाला है, परिवार में 2 बड़े बच्चे हैं और कौनकौन है, वगैरहवगैरह.

बेटा हतप्रभ, ‘‘ममा, इतने वक्त में हमें नहीं पता यह कहां का है और आप ने इतनी जल्दी इस की 7 पुश्तें खंगाल डालीं.’’

‘‘ममा लेखिका जो हैं,’’ समर ने चुटकी ली.

मैं दोनों की चुटकियों को अनसुना कर पूरण को खाना बनाते देख रही थी. ‘‘ऐसे क्या बना रहे हो तुम. ऐसे कोई सब्जी बनती है?’’ कुकिंग का बेहद शौक है मु झे. जैसातैसा नहीं खा सकती. इसलिए कामवालों का बनाया खाना पसंद नहीं आता. भारत में आशा के अलावा आउट हाउस में एक परिवार रहता है. इसलिए आशा और सविता के रहतेकाम करने की जरूरत भले ही न पड़े, पर खाना बनाना मेरा प्रिय शगल था. वह मैं किसी पर नहीं छोड़ती हूं.

‘‘तुम ने गैस बंद क्यों कर दी? अभी तो सब्जी भुनी भी नहीं है, पूरण. ऐसा ही खाना खिलाते हो बच्चों को?’’

‘‘अरे ममा, चलो,’’ बेटा मु झे हंस कर खींचते हुए बोला, ‘‘आप को पूरण का बनाया खाना पसंद नहीं आएगा तो बाहर से और्डर कर दूंगा, यहां भारतीय खाना जितना अच्छा और फ्रैश मिलता है, उतना तो भारत में भी नहीं मिलता.’’

मजबूरी में मैं बेटे के साथ आ गई. लेकिन दिल कर रहा था, अभी के अभी इसे पूरी कुकिंग सिखा दूं कि ऐसा खाना खाते हैं मेरे बच्चे.

लेकिन पूरण का बनाया खाना 4-5 दिनों तक खाने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि शुक्रवार और शनिवार 2 दिन छुट्टी के थे और उस के बाद भी बच्चों ने कुछ दिनों की छुट्टी ले ली थी. घर से एक बार निकले हम चारों, रात एकडेढ़ बजे से पहले घर नहीं आ पाते थे.

जैसे उम्र का और रिश्ते का अंतर ही नहीं रह गया था चारों में. कितनी शिकायतें हैं आज के समय में इस नई पीढ़ी से सब को. पर इस कूल जनरेशन के रंग में रंग जाओ, तो लगता है जैसे अपनी उम्र से कई साल पीछे लौट गए. कुछ भी याद नहीं रह रहा था. उन्हीं के जैसी बातें, मस्ती, कहकहे और ताकत भी… पता नहीं कहां से आ गई थी. न बच्चे सोच रहे थे कि वे हमें सुबह 11 बजे से रात 11 बजे तक चला रहे हैं और न हम सोच रहे थे. न समय का ध्यान था और न डेट याद रह रही थी.

लग रहा था जैसे चारों दोस्त होस्टल में रह रहे हैं. और सब से बढ़ कर तो घर में मुश्किल से 3-4 साल पहले आई हमारी प्यारी बहू इशिता, उस के साथ महसूस ही नहीं हो रहा था कि वह कभी हम से जुदा भी थी. घूमने जाते तो वह कभी एक बड़ा कप आइसक्रीम ला कर सब को बारीबारी से खिलाती रहती तो कभी कोल्डडिं्रक ला कर सब को पिलाती. वह जूठे तक का परहेज न करती हमारे साथ. उसे देख कर लगता जैसे यहीं जन्म लिया हो उस ने. उस के आचरण से उस के संस्कार भी साफ दिखाई देते और महसूस करा देते कि जब मातापिता तबीयत से बेटी का पालनपोषण करते हैं तो बेटियां भी ऐसे ही प्यार से  2 घरों को जोड़ देती हैं.

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छुट्टियां खत्म हो गई थीं और अब कल से बच्चों को औफिस जाना था, इसलिए आज जल्दी वापस आ गए थे. डिनर और्डर कर रहा था रिषभ, मैं बीच में बोल पड़ी, ‘‘चपाती और्डर करने की जरूरत नहीं, रिषभ, मैं बना लूंगी.’’

‘‘क्यों बना लेंगी, ममा. कोई जरूरत नहीं बनाने की,’’ इशिता बोली.

‘‘इसलिए, क्योंकि चपाती तो घरवाली ही अच्छी होती है,’’ मैं किचन की तरफ जाते हुए बोली और बच्चों की बात अनसुना कर चपाती बनाने लगी. डिनर आ गया था. इशिता ने टेबल पर लगा दिया. बच्चे टेबल पर बैठ गए थे और समर वौशरूम में. मैं ने चपाती बना कर बच्चों को दी और फिर गरम चपाती समर की प्लेट में भी रख दी. समर इतनी देर में भी बाहर नहीं आए. मैं तबतक दूसरी गरम चपाती बना कर ले आई थी. समर की प्लेट की चपाती अपनी प्लेट में रख कर मैं ने दूसरी गरम चपाती समर की प्लेट में डाल दी. तब तक समर भी आ गए.

‘‘ये क्या, ममा?’’ रिषभ आश्चर्य से मेरे क्रियाकलाप देखते हुए बोला, ‘‘ऐसा क्यों किया आप ने?’’

‘‘वह वाली थोड़ी ठंडी हो गई थी न,’’ मैं व्यस्त भाव से बोली. रिषभ आश्चर्यचकित हो बोला, ‘‘ठंडी हो गई थी, सिर्फ 2 मिनट में? पापा, वैसे काफी बिगड़ी आदतें हैं आप की.’’ और फिर अर्थपूर्ण मुसकराहट से वह इशिता को देख कर हंसने लगा.

समर खिसिया कर खाना खाने लगे, ‘‘असल में घर में सविता गरमगरम चपाती बना कर लाती है न, तो आदत पड़ गई.’’

पर मेरा मन बल्लियां उछलने को कर रहा था. जो बात वर्षों नहीं बोल पाई थी उस बात को रिषभ ने क्या मजे से कह दिया था. आज के पति कितने कूल हैं. उन्हें फर्क नहीं पड़ता. वे सबकुछ प्लेट में किचन से एकसाथ डाल कर खा लेते हैं. प्लेट न मिलने पर पेपर प्लेट में भी खा लेते हैं. प्रौपर डिनर, लंच न मिले तो बर्गर, मैगी या औमलेटब्रैड से भी पेट भर लेते हैं. ‘सब ठीक है’ के अंदाज में मजे से जीते हैं. खूब कमाते हैं और खूब खर्च करते हैं. पतिपत्नी दोस्तों जैसे रहते हैं. मिलजुल कर कोई भी काम कर लेते हैं.

एक हमारा जमाना था कि मायके तक जाना मुश्किल था. नौकरी करना तो और भी मुश्किल था. ‘खाना कौन बनाएगा?’ जैसी एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या थी पतियों की, जिस से पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन था बीवियों का. नाश्ते, लंच, डिनर में बाकायदा पूरी टेबल सजती थी. पत्नी का टैलेंट गया बक्से में और आधी जिंदगी किचन में. मैं मन ही मन हंसहंस कर लोटपोट हुई जा रही थी.

बच्चों को बड़ों से कुछ सीखना चाहिए. पर मेरी सम झ से तो आज के समय में पापाओं को अपने बेटों से सही तरीके से पति बनना सीखना चाहिए. समर बहुत गंभीरता से खाना खा रहे थे और इशिता व रिषभ आंखोंआंखों ही में चुहलबाजी में मस्त थे. मैं मन ही मन इस प्यारी जोड़ी का प्यार देख आनंद से सराबोर हो रही थी.

दूसरे दिन दोनों बच्चे औफिस चले गए. जब इशिता जाने लगी तो मैं उसे लिफ्ट तक जाते देखती रही. बेटी नहीं है मेरी और मैं घर से किसी लड़की को पहली बार यों चुस्तदुरुस्त, स्मार्ट ड्रैस में औफिस जाते देख हुलसिक हो रही थी. इन बच्चियों का साथ दो, सपोर्ट दो, उड़ने दो इन्हें खुले गगन में. इन के पंख मत नोचो. बहुतकुछ कर सकती हैं ये. आज परिवार भी तो कितने छोटे हो गए हैं. किचन में 4 रोटियां बनाना ही तो जीवन में सबकुछ नहीं है.

सही कहता है रिषभ, ‘ममा, आज के समय में अगर बीवी घर पर रहेगी तो घर थोड़ा और ज्यादा सुंदर व व्यवस्थित हो जाएगा. लेकिन यह सब एक लड़की के सपने टूटने की कीमत पर ही होगा न,’ कितनी सम झ है उसे. कितनी बड़ी बात कह गया. दोनों मिल कर फटाफट कई काम कर डालते हैं, एकदूसरे की मुंडी से मुंडी मिला कर कई प्रोग्राम बना डालते हैं और ढेर सारी शौपिंग करने में भी हाथ नहीं हिचकिचाते उन के.

ठीक तो है, पतिपत्नी में आपसी सम झ होनी चाहिए. चाहे फिर पत्नी बाहर काम करे या घर में रहे. सोचती हुई मैं किचन की अलमारियां खोलखोल कर देखने लगी. ‘आज सारी की सारी ठीक कर डालूंगी,’ मैं बड़बड़ाई.

‘‘क्या?’’ समर पास से गुजरे, ‘‘जो ठीक करना है, बाद में करना. पहले कुछ भूख शांत कर दो.’’

‘‘क्या कहा?’’ मैं ने त्योरियां चढ़ा लीं.

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‘‘नहींनहीं, पेट की भई. तुम तो हर समय गलत ही सम झ जाती हो.’’ मेरी चढ़ी त्योरियां देख, समर भाग खड़े हुए.

लंच से निबट कर मैं अपने अभियान में जुट गई. एकएक कर सारी अलमारियां व्यवस्थित कर डालीं. फालतू सामान बाहर कर दिया. इन्हीं कामों में शाम हो गई. तब तक रिषभ औफिस से आ गया. मैं किचन में फैले समान के अंबार के बीच बैठी थी.

‘‘यह क्या, ममा, बहुत शौक है आप को काम करने का. यहां भी शुरू हो गईं.’’

‘‘नहीं, देख रही थी कुछ सामान डबल है. कुछ 3-4 डब्बों में रखा है पीछे. शायद, तुम्हें पता नहीं है, वही सब ठीक किया. कुछ खराब भी हो गया, इसलिए बाहर निकाल दिया. अब कुछ खाएगा तू?’’

‘‘नहीं, वह सब मैं खुद कर लूंगा. आप और पापा के लिए भी कुछ बना देता हूं,’’ कह कर रिषभ ने फ्रीजर से कुछ स्नैक्स निकाल कर ओवन में गरम कर के, उन में अपनी कुछ कलाकारी दिखा कर, प्लेट में सजा कर टेबल पर रख दिया. तब तक सबकुछ समेट कर मैं भी आ गई.

तभी घंटी बज गई. इशिता आ गई थी. मैं ने दरवाजा खोला और इशिता को दोनों बांहों में समेट लिया. ‘‘आ गई मेरी गुडि़या.’’ समर ने भी लपेट लिया उसे. इशिता  झूठीमूठी गुमानभरी नजरें रिषभ पर डालती हुई बोली, ‘‘आप को भी किया था ऐसा प्यार? मु झे देखो, कितना प्यार करते हैं ममापापा.’’

‘‘इधर आओ,’’ रिषभ भी हंसता हुआ उसे खींच कर ले गया और अलमारियां दिखाता हुआ बोला, ‘‘जब मैं आया तो ममा यह सब कर रही थीं. मु झे प्यार कहां से करतीं.’’

दोनों ऐसी चुहल कर रहे थे कि हृदय हर्षित हो गया. इशिता बैग एक तरफ रख कर कोल्ड कौफी बना लाई और हम चारों बैठ कर खानेपीने लगे. मैं सोच रही थी कि कितने मजे से लेते हैं ये युवा जिंदगी को. औफिस से आए हैं दोनों, मैं कुछ बना कर देती, उलटा उन्हीं का बनाया हुआ खा रहे हैं. जब हम इस उम्र में थे तो पति लोग औफिस से ऐसे आते थे जैसे पहाड़ तोड़ कर आए हों. ये दोनों ऐसे आए हैं जैसे बैडमिंटन खेल कर आए हों.

हालांकि पता है मुझे कि दोनों पर नौकरियों का तनाव हावी रहता है. पर आजकल के युवा इन तनावों को भूल कर मनोरंजन करना भी खूब जानते हैं. रिश्तेदारों व पड़ोसियों के तानों में उल झ कर, उन की परवाह कर और तनाव नहीं पालना चाहता आज का युवा वर्ग. बस, शायद इसीलिए बदनाम रहता है. जो इन के रंग में रंग गया वह जिंदगी का लुत्फ उठा लेता है. वरना, रुकने का नाम तो जिंदगी नहीं.

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क्या कूल हैं ये: भाग 3- बेटे- बहू से मिलने पहुंचे समर का कैसा था सफर

चारों तैयार हो कर फिर घर से बाहर चले गए. पूरण को आने से मना कर दिया. लेकिन अगले दिन पूरण फिर 4 बजे ही हाजिर था.

‘‘सब्जीदाल बता दीजिए क्या बनानी है,’’ वह बोला. मैं उसे सबकुछ दे कर, चाय बनाने के लिए कह कर टीवी पर न्यूज सुनने लगी. पूरण ने दोनों को चाय ला कर दी. बरतन भी पूरण ही धोता था. चाय खत्म करते हुए मैं सोच रही थी कि आज तो इसे इत्मीनान से कुछ सिखा ही दूंगी. बच्चे भी नहीं हैं, पर जब तक किचन में आई, पूरण की सब्जी कट कर बन भी चुकी थी.

‘‘माताजी, देखिए, आज कितनी बढि़या तोरी की सब्जी बनाई है मैं ने,’’ पूरण उस हरीपानी वाली बिना टमाटर की तोरी की सब्जी में करछी चलाता हुआ बोला. उस भयानक सब्जी से भी अधिक मेरा ध्यान उस के बोलने पर चला गया, ‘माताजी.’ मैं माताजी सुन कर बुरी तरह चौंक गई. क्या मैं माताजी जैसी दिखने लगी हूं? सासूमां की याद आ गई. उन्हें जानपहचान वाले माताजी कह देते थे. पर मैं? अभी तक तो भारत में किसी ने मु झे माताजी कहने की हिमाकत नहीं की थी. महिलाएं तो आंटी बोलने से ही जलभुन जाती हैं और मु झे यहां दुबई में माताजी?

भाग कर शीशे में देखा, हर एंगल से खुद को. अभी तो ठीकठाक सी ही हूं. सीनियर सिटिजन भी नहीं हुई अभी. टिकट में कन्सैशन भी नहीं मिलता है मु झे अभी तो. और इस आदमी की ऐसी जुर्रत. दिल किया खड़ेखड़े निकाल दूं. किचन में वापस आई.

‘‘माताजी,’’ पूरण खीसें निपोरता दोबारा बोला.

‘‘हां बोलो, भाई,’’ कुढ़ कर, हथियार डालते मैं मन ही मन बोली, ‘तुम्हारा माताजी तो मैं पचा लूंगी, पर तुम्हें निकाल कर अपने बच्चों को कष्ट नहीं दे सकती, खुश रहो तुम.’

इसी बीच दीवाली आ गई. 15 लोगों की मित्रमंडली जमा हो रही थी घर पर. हमारे समय में तो इतनों के खाने का मतलब सुबह से तैयारी. पर बच्चे कितने मस्त थे. उन के पास तो इतने बरतन भी नहीं थे. कुछ थोड़ाबहुत घर में तैयारी की. बाकी खाना बाहर से और्डर हुआ. पेपर प्लेट, डिस्पोजेबल गिलास, चम्मच वगैरह कुछ कम थे. दोनों को ही लाने के लिए कह दिया और हो गई मजेदार हंगामे वाली पार्टी.

पार्टी शुरू हुई तो हम बैडरूम में बैठ गए पर बच्चों ने खींच लिया हमें भी. कुछ बच्चे सौफ्टडिं्रक ले रहे थे तो अधिकतर हार्डडिं्रक. इशिता और रिषभ डिं्रक नहीं करते, लेकिन मित्रमंडली के साथ पूरी मस्ती करते हैं बिना पिए ही. साथ में हंसतेखिलखिलाते, लोटपोट होते देख लगता ही नहीं है कि यह सब पी कर हो रहा है या बिन पिए. छोटीछोटी डै्रसेज पहनने वाली लड़कियां आज दीवाली पर स्टाइलिश साड़ी या दूसरे भारतीय परिधान पहने हुए थीं. इतनी मस्ती तो हम ने भारत में न की थी दीवाली पर.

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क्या कूल जनरेशन है. जो समस्याएं हमारे जीवन में थीं, वे तो इन के लिए समस्याएं ही नहीं हैं. दुबई में मेरी स्कूल, कालेज की फ्रैंड सुरभि रहती है. एक दिन वह पूरा दिन मेरे पास बिता गई और एक दिन मु झे उस के पास जाना था, उस के साथ सारा प्रोग्राम फिक्स कर मैं ने डाइनिंग टेबल पर ऐलान कर दिया, ‘‘कल सुरभि के घर जा रही हूं. पूरा दिन बिताने.’’

‘‘किस के साथ?’’ पति महोदय आश्चर्य से बोले.

‘‘अरे ममा, कल क्यों बनाया प्रोग्राम. मैं छोड़ देता आप को किसी दिन. कल तो बहुत बिजी हूं,’’ रिषभ बोला.

‘‘तु झे परेशान होने ही जरूरत नहीं. मैं तो नीचे से टैक्सी ले लूंगी. दुबई तो कितना सेफ है. यहीं जेएलटी में ही तो रहती है वह,’’ मैं इत्मीनान से बोली.

‘‘हांहां, सब को अपने जैसा सम झा है न,’’ समर बड़बड़ाते हुए बोले, ‘‘तुम इतनी सीधीशरीफ हो, अक्ल तो है नहीं तुम में, कोई भी बेवकूफ बना देगा, यहां दुबई में भी.’’

‘‘हां ममा, टैक्सी से तो मैं भी आप को अकेले नहीं जाने दे सकता,’’ रिषभ भी फैसला सुनाता हुआ बोला.

पर पति की बात ने तो भूचाल ला दिया था दिमाग में. शब्द तारीफ में नहीं कहे गए थे. अंदर की लेखिका ने कई पन्ने रंग डाले महिला सशक्तीकरण के पक्ष में. मैं ने सब पर अपनी निगाहें घुमाईं. तीनों मेरे बारे में फैसला कर आराम से खाना खा रहे थे.

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‘‘हां, यह तो है कि बीवियों को 25 में भी, अक्ल नहीं होती और 50 में भी पर पता नहीं पतियों को कैसे 25 में भी अक्ल आ जाती है और 50 में तो होती ही है.’’ बुदबुदाते हुए मैं लंबी सांस खींच कर, रोटी का टुकड़ा मुंह में डाल, गुस्से में जोरजोर से चबाने लगी. तीनों अचानक चौंक कर मेरी तरफ देखने लगे. पति भी अपनी भावुक मिजाज की हरदम प्रसन्नचित्त बीवी का ऐसा करारा जवाब सुन कर हतप्रभ थे और दोनों बच्चे अब तक सबकुछ सम झ कर हंसहंस कर बेहाल हुए जा रहे थे. न चाहते हुए भी समर को भी उन की हंसी में शामिल होना पड़ा और उन सब को हंसता देख मैं भी मुसकराने लगी.

‘‘डोंट वरी ममा. कल जल्दी तैयार हो जाना. मैं छोड़ दूंगा आप को,’’ रिषभ हंसता हुआ बोला.

‘‘हां, कल चली जाओ, तुम,’’ समर भी खाना खत्म कर उठते हुए बोले.

‘‘कोई जरूरत नहीं. बात तो गई मेरी सुरभि से. वह मु झे लेने आएगी 11 बजे.’’

‘‘तो आप हमारा इम्तिहान ले रही थीं,’’ इशिता भी मासूमियत से कुनमुनाई.

‘‘और क्या,’’ मैं ठहाका मारते हुए बोली, ‘‘देखना चाहती थी कि मेरे बंदीगृह की दीवारें और कितनी मजबूत हुई हैं, कितने पहरेदार पैदा हो गए हैं मेरे.’’

‘‘अरे नहीं, ममा,’’ रिषभ लाड़ से मु झ से लिपटता हुआ बोला, ‘‘बहुत प्यार करते हैं आप से, इसलिए फिक्र करते हैं आप की. आप को पता नहीं, कितने इंपौर्टेंट हो आप हमारे लिए. कल लेने मैं आ जाऊंगा आप को. जब आने का मन हो, तब फोन कर देना. तभी निकलूंगा औफिस से.’’

‘‘मु झे मालूम है, बेटा,’’ मैं स्नेह से उस की बांह व चेहरा सहलाते हुए बोली.

ऐसे ही हंसतेहंसाते एक महीना कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. दुबई का वीजा या तो एक महीने का बनता है या 3 महीने का. यदि एक महीने से एक हफ्ता भी ऊपर रहना है तो फिर वीजा

3 महीने का ही बनाना पड़ता है. आने का समय हो गया. कितना कुछ भर दिया था इशिता और रिषभ ने. अटैचियां निर्धारित वजन से ज्यादा हो रही थीं. उस पर भी अच्छाखासा हंगामा हो रहा था कि क्या रखें और क्या छोड़ें. दुबई के एयरपोर्ट पर साथ में आया कोई भी, सामान के चैकइन काउंटर तक छोड़ने जा सकता है. रिषभ ने सामान चैकइन करवा दिया. अब हमें अंदर सिक्योरिटी को पार करना था. बच्चों को यहीं पर अलविदा कहना था.

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दिल तो भावनाओं के ज्वर से उमड़घुमड़ रहा था. पर अपने आंसू सरलता से दिखाने की आदत नहीं है मेरी. इसलिए हंसतेमुसकराते बच्चों से विदा ले रहे थे हम. बच्चे अपनी जगह पर खड़े हाथ हिला रहे थे. और मैं पीछे मुड़मुड़ कर उन की भुवनमोहिनी जोड़ी को मन ही मन अनंत शुभकामनाएं दे रही थी. लेकिन अंदर जाते ही आंखें बरसने लगीं.

मन उदास हो रहा था. पर सोच रही थी बच्चों ने इतने दिन याद न रहने दिया अपनी उम्र को. अपने रंग में रंग दिया हमें. इस युवा पीढ़ी के साथ जिस ने कदमताल कर दिया, उस ने इन का सुख पा लिया. वरना यदि अपने अडि़यल रवैए और अडि़यल विचारों पर अड़ी रहेगी पुरानी पीढ़ी तो यह पीढ़ी इतनी तेज दौड़ रही है कि फासला बढ़ते देर नहीं लगेगी. यह पीढ़ी उन्हीं के लिए कदम धीरे करेगी, जो इन के साथ दौड़ने की कोशिश करेंगे.

यही सब सोचतेसोचते समर और मैं सिक्योरिटी पार कर डिपार्चर लाउंज की तरफ चल दिए.

Family Story In Hindi: मन्नो बड़ी हो गई है- मां और सास में क्या होता है फर्क

लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव

Family Story In Hindi: मन्नो बड़ी हो गई है- भाग 1

लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव

‘‘भाभी, चाय पी लो,’’ नीचे से केतकी की चीखती आवाज से उस की आंख खुल गई. घड़ी देखी, सिर्फ 7 बजे थे और इतने गुस्सेभरी आवाज.

करण पास ही बेखबर सोया था. वह भी उठते हुए यही बोला, ‘‘अरे, 7 बज गए, उठोउठो. केतकी ने चाय बना ली है.’’

‘‘एक चाय ही तो बनाई है. बाकी घर के सारे काम मैं ही तो अकेले करती हूं.’’

‘‘सुबहसुबह तुम बहस क्यों करने लग जाती हो. तुम्हें उठा रहे हैं तो उठ जाओ,’’ करण उनींदी में बोला और फिर चादर तान कर सो गया.

अंदर तक सुलग गई मैं. जब रात में अपनी इच्छापूर्ति करनी होती है तब नहीं सोचते कि इसे सोने दूं, क्योंकि सुबह इसे उठना है. तब तो कहते हैं, अभी तो हमारी शादी को कुल 2 महीने ही हुए हैं. रात की बात सुबह जगाते समय कभी याद नहीं रहती. रोजाना की तरह नफरत दिल में लिए नाइटी संभाल कर मैं सीधा बाथरूम में घुस गई. बंदिशें इतनी कि बिना नहाएधोए, साफ सूट पहने बिना सास के पास नहीं जा सकती.

जल्दीजल्दी नहाधो कर नीचे पहुंची. सास के पांव छुए. वे ?बजाय आशीर्वाद देने के, घड़ी देखने लगीं. गुस्सा तो इतना आया कि घड़ी उखाड़ कर फेंक दूं या सास की गरदन मरोड़ दूं. शुरूशुरू में मायके में मेरी भाभी जब 8 बजे उठ कर नीचे आती थीं तो कभीकभार मम्मी कह देती थीं, ‘बेटा, थोड़ा जल्दी उठने की आदत डालो.’ इस पर भाभी का खिसियाया चेहरा देख कर, एक दिन मैं बोल पड़ी थी, ‘मम्मी, भाभी को गुस्सा आ रहा है. इन्हें कुछ मत कहो.’ भाभी हड़बड़ा गई थीं. तब मुझे भाभी पर व्यंग्य करने में मजा आया था और अपनी मम्मी की नरमी पर गुस्सा.

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‘‘क्यों भाभी, मम्मी को इस तरह देख रही हो, मानो खा ही जाओगी,’’ मैं केतकी के व्यंग्य पर चौंकी. वह लगातार मेरा चेहरा ही देखे जा रही थी.

अचानक मेरी भाभी मुझ में आ गईं. मेरे शब्द गले में ही अटक गए. भाभी को भी ऐसी ही बेइज्जती महसूस होती रही होगी मेरे व्यंग्यों पर.

‘‘चाय पी लो, केतकी झाड़ू लगा चुकी है,’’ सास का स्वर शुष्क था. साथ ही, केतकी ने ठंडी चाय मेरे हाथ में पकड़ा दी. मैं चाय को तेजी से सुड़क कर उस के पीछे रसोई में लपकी. अगर मैं ऐसा नहीं करती तो सास बोलतीं, ‘देख, कैसे मजे लेले कर पी रही है, ताकि केतकी दोतीन काम और निबटा ले तथा इस महारानी को कोई काम न करना पड़े.’

केतकी परात में आटा छान रही थी. चाय का कप सिंक में रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘दीदी, तुम तैयार हो जाओ. मैं नाश्ता बनाती हूं,’’ मेरे शब्द मुंह से निकलते ही केतकी परात छोड़ कर रसोई से निकल गई, मानो मुझ पर एहसान कर दिया हो. मैं ने चाय पी या नहीं, यह पूछना तो दूर की बात है.

‘शुरू से ही सारा काम थमा दो. आदत पड़ जाएगी,’ ऐसी नसीहतें अकसर रिश्तेदार व पड़ोसिनें दे जाया करतीं. मेरी मम्मी को भी मिली थीं. पर मेरी मम्मी ने कभी अमल नहीं किया था. अगर थोड़ाबहुत अमल किया था, तो मैं ने. पर यहां तो शब्ददरशब्द अमल किया जा रहा है.

जितनी तेजी से मेरा दिमाग अतीत में घूम रहा था उतनी ही तेजी से मेरे हाथ वर्तमान में चल रहे थे. आटा गूंधा, आलू उबाले, चाय बनाई तथा दूध गरम किया. इतने में केतकी नहाधो कर तैयार हो गई थी.

सास बिस्तर पर बैठेबैठे ही चिल्लाने लगी थीं, ‘‘नाश्ता न मिले तो यों ही चले जाओ. देर मत करना. इस के घर में तो सोते रहने का रिवाज होगा. बता दो इस को कि यहां मायके का रिवाज नहीं चलेगा.’’

जल्दीजल्दी दूध गिलासों में डाला. आलू में मसाला डाल कर उन के परांठे बनाने लगी. दूध व परांठे ले कर जैसे ही कमरे में पहुंची, केतकी मुझे देखते ही पर्स उठा कर जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘दीदी, नाश्ता.’’

‘‘देर हो चुकी है.’’

एक तीखी निगाह मुझ पर डाल कर वह तेजी से निकल गई. मेरी निगाह अचानक घड़ी पर पड़ गई. आधा घंटा पहले ही?

‘‘घड़ी क्या देख रही है,’’ सास ने घूरती निगाहों से देखा. मेरा मन घबराने लगा कि अभी करण को पता चलते ही वह सब के सामने मुझ पर बरस पड़ेगा. मैं निकल गई. दूसरे कमरे में महेश खड़ा था. सास की बड़बड़ाहट जारी थी, ‘सुबह तक सोती रहती है. कितनी बार कहा है कि सवा 6 बजे तक नहाधो कर नीचे आ जाया कर. पड़ीपड़ी सोती रहती है महारानियों की तरह.’ सुबहसुबह सास के तीखे व्यंग्यबाणों को सुन कर दिमाग भन्ना गया.

‘‘भाभी, नाश्ता बना हो तो दे दो,’’ महेश के शांत स्वर से मुझे राहत मिली.

‘‘हांहां, लो न,’’ मैं ने केतकी वाली प्लेट उसे थमा दी.

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‘‘केतकी ने नाश्ता नहीं…’’ मेरी उतरी शक्ल देख उस ने बात पलट दी, ‘‘छोड़ो, एक मिरची वाला परांठा बना दोगी, जल्दी से. पर, मां को मत बताना कि ज्यादा मिरची डाली है,’’ महेश हाथ में प्लेट लिए मुसकराता हुआ सास के पास चला गया.

‘‘अभी लाती हूं,’’ मैं खुश हो गई.

परांठा बना कर ले गई तो सास ने मेरी आहट सुनते ही बड़बड़ाना शुरू कर दिया, ‘देर नहीं हो रही है. जल्दी ठूंस और ठूंस के जा.’

‘‘नाश्ता तो आराम से करने दो, मम्मी. लाओ भाभी, धन्यवाद. बस, और मत बनाना.’’

मैं वापस जाने लगी तो सास के शब्द कानों में पड़े, ‘‘परांठे के लिए धन्यवाद बोल रहा है, पागल है क्या?’’ पर मुसकराते हुए महेश के नम्र शब्दों के आगे मेरे लिए सास के तीखे शब्दों के व्यंग्यबाण निरस्त हो गए थे. क्या घर के बाकी लोग भी ऐसे नहीं हो सकते थे?

मुझे याद है, जब एक दिन भाभी मम्मी को दवा दे कर हटीं तो मम्मी बोली थीं, ‘जाओ, जा कर सो जाओ. तुम थक गईर् होगी,’ मैं ने मम्मी से पूछा था, ‘दवा देने से वे थक कैसे जाती हैं? तुम इस तरह बोल कर भाभी को सिर चढ़ाती हो.’

मेरी नादानी पर मम्मी हंसी थीं. फिर बोलीं, ‘हम बूढ़े लोग तन से थकते हैं और तुम जवान लोग मन से थक जाते हो. प्यार के दो बोल मन नहीं थकने देते. जब तू बड़ी हो जाएगी, तेरी शादी हो जाएगी, तब अपनेआप समझ जाएगी.’ मम्मी की बातों पर मैं चिढ़ जाती थी कि वे मुझे बेवकूफ बना रही हैं.

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