बबूल का पौधा : अवंतिका ने कौनसा चुना था रास्ता

बबूल का पौधा- भाग 1 : अवंतिका ने कौनसा चुना था रास्ता

रात के लगभग 2 बजे अवंतिका पानी पीने के लिए रसोई में गई तो बेटे साहिल के कमरे की खिड़की पर हलकी रोशनी दिखाई दी. रोशनी का कभी कम तो कभी अधिक होना जाहिर कर रहा था कि साहिल अपने मोबाइल पर व्यस्त है. गुस्से में भुनभुनाती अवंतिका ने धड़ाक से कमरे का दरवाजा खोल दिया.

साहिल को मां के आने का पता तक नहीं चला क्योंकि उस ने कान में इयरफोन ठूंस रखे थे और आंखें स्क्रीन की रोशनी में उलझ हुई थीं.

‘‘क्या देख रहे हो इतनी रात गए? सुबह स्कूल नहीं जाना क्या?’’ अवंतिका ने साहिल को झकझरा.

मां को देखते ही वह हड़बड़ा गया, लेकिन उसे मां की यह हरकत जरा भी पसंद नहीं आई.

‘‘यह क्या बदतमीजी है? प्राइवेसी क्या सिर्फ आप लोगों की ही होती है, हमारी नहीं? मैं तो कभी इस तरह से आप के कमरे में नहीं घुसा,’’

साहिल जरा जोर से बोला. बेटे की तीखी प्रतिक्रिया से हालांकि अवंतिका सकते में थी, लेकिन उस ने किसी तरह खुद को संयत किया.

‘‘क्या देख रहे थे मोबाइल पर?’’ अवंतिका ने सख्ती से पूछा.

‘‘वैब सीरीज,’’ साहिल ने जवाब दिया.

अवंतिका ने मोबाइल छीन कर देखा. सीरीज सिक्सटीन प्लस थी.

‘‘बारह की उम्र और वैब सीरीज. अभी तो तुम टीन भी नहीं हुए और इस तरह की सीरीज देखते हो,’’ अवंतिका पर गुस्सा फिर हावी होने लगा.

साहिल ने कुछ नहीं कहा, लेकिन बिना कहे भी उस ने जाहिर कर दिया कि उसे मां की यह दखलंदाजी जरा भी नहीं सुहाई. अवंतिका उसे इसी हालत में छोड़ कर अपने कमरे में आ गई. पानी से भरी आंखें बारबार उसे रोने के लिए मजबूर कर रही थीं, मगर वह उन्हें रोके बैठी थी. रोए भी तो आखिर किस के कंधे पर सिर रख कर.

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कोई एक कंधा थोड़ी नियत किया था उस ने अपनी खातिर. सुकेश का कंधा जरूर कहने को अपना था, लेकिन उस के अरमान थे ही इतने ऊंचे कि उसे कंधा नहीं आसमान चाहिए था.

अवंतिका ने आंखों को तो बहने से रोक लिया, लेकिन मन को बहने से भला कौन रोक सका है. इस बेलगाम घोड़े पर लगाम कोई बिरला ही लगा सकता है. अवंतिका ने भी मन के घोड़े की लगाम खोल दी. घोड़ा सरपट दौड़ता हुआ 15 बरस पीछे जा कर ठहर गया. यहां से अवंतिका को सबकुछ साफसाफ नजर आ रहा था…

अवंतिका को वह सब चाहिए था जो उस की निगाहों में ठहर जाए, फिर कीमत चाहे जो हो. कीमत की परवाह वह भला करती भी क्यों, हर समय कोई न कोई एटीएम सा उस की बगल में खड़ा जो होता था और उस एटीएम की पिन होती थी उस की अदाएं, उस की शोखियां.

जब वह अदा से अपने बाल झटक कर अपनी मनपसंद चीज पर उंगली रखती, तो क्या मजाल कि एटीएम काम न करे.

अवंतिका 24 की उस उम्र में महानगर आई थी जिसे वहां लोग बाली उम्र कहते थे. शादी के बाद छोटे शहर से महानगर में आई इस हसीन लड़की को अपनी खूबसूरती का बखूबी अंदाजा था. इस तरह का अंदाजा अकसर खूबसूरत लड़कियों को स्कूल छोड़तेछोड़ते हो ही जाता है.  कालेज छोड़तेछोड़ते तो यह पूरी तरह से पुख्ता हो जाता है. भंवरे की तरह मंडराते लड़कों का एक मुख्य काम यह भी तो होता है.

अवंतिका ने कालेज करने के बाद डिस्टैंस लर्निंग से एमबीए किया था. एक तो महानगर की ललचाती जिंदगी और दूसरे पति सुकेश के औफिस जाने के बाद काटने को दौड़ता अकेलापन… अवंतिका ने भी नौकरी करने का मानस बनाया. सुकेश ने भी थोड़ी हिचक के बाद अपनी रजामंदी दे दी तो हवा पर सवार अवंतिका अपने लिए काम तलाश करने लगी.

2-4 जगह बायोडाटा भेजने का बाद एक जगह से इंटरव्यू के लिए बुलावा आया. सुकेश के जोर देने पर वह साड़ी पहन कर इंटरव्यू देने के लिए गई. अवंतिका ने महसूस किया कि इंटरव्यू पैनल की दिलचस्पी उस के डौक्यूमैंट्स से अधिक उस की आकर्षक देहयष्टि में थी.

‘साड़ी से कातिल कोई पोशाक नहीं. तरीके से पहनी जाए तो कमबख्त बहुत कमाल लगती है,’ यह खयाल आते ही डाइरैक्टर के साथसाथ अवंतिका की निगाह भी साड़ी से झंकते अपनी कमर के कटाव पर चली गई. वह मुसकरा दी.

न जाने क्यों अवंतिका अपने चयन को ले कर आश्वस्त थी. और हुआ भी वही. अवंतिका का चयन डाइरैक्टर रमन की पर्सनल सैक्रेटरी के रूप में हो गया.

औफिस जौइन करने के लगभग 3 महीने बाद कंपनी की तरफ से उसे रिफ्रैशर कोर्स करने के लिए दिल्ली हैड औफिस भेजा गया. पहली बार घर से बाहर अकेली निकलती अवंतिका घबराई तो जरूर थी, लेकिन अंतत: वह अपना आत्मविश्वास बनाए रखने में कामयाब हुई.

इस कोर्स में कंपनी की अलगअलग शाखाओं से करीब 10 कर्मचारी आए थे. रोज शाम को क्लास के बाद कोई अकेले तो कोई किसी के साथ इधरउधर घूमने निकल जाता.

यह एक सप्ताह का कोर्स था. 5 दिन की ट्रेनिंग के बाद आज छठे दिन परीक्षा थी. अवंतिका सुखद आश्चर्य से भर उठी जब उस ने परीक्षक के रूप में अपने बौस रमन को देखा. 2 घंटे की परीक्षा के बाद पूरा दिन खाली था. अवंतिका की फ्लाइट अगले दिन सुबह की थी. रमन ने उस के सामने आउटिंग का प्रस्ताव रखा जिसे अवंतिका ने एक अवसर की तरह स्वीकार कर लिया.

मौल में घूमतेघूमते अवंतिका ने महसूस किया कि रमन उस की हर इच्छा पूरी करने को तत्पर लग रहा है. पहले तो अवंतिका ने इसे महज एक संयोग समझ, लेकिन फिर मन ही मन अपना वहम दूर करने का निश्चय किया.

टहलतेटहलते दोनों एक साडि़यों के शोरूम के सामने से गुजरे तो अवंतिका जानबूझ कर वहां ठिठक कर खड़ी हो गई. उस ने शरारत से साड़ी लपेट कर खड़ी डमी के कंधे से पल्लू उतारा और अपने कंधे पर डाल लिया. अब इतरा कर रमन की तरफ देखा. रमन ने अपनी अनामिका और अंगूठे को आपस में मिला कर ‘लाजवाब’ का इशारा किया. अवंतिका शरमा गई.

इस के बाद उस ने प्राइज टैग देखा और आश्चर्य से अपनी आंखें चौड़ी कीं. अवंतिका ने साड़ी का पल्लू वापस डमी के कंधे पर डाला और निराश सी वहां से हट गई. इस के बाद वे एक कैफे में चले गए.

अवंतिका अनमनी सी मेन्यू कार्ड पर निगाहों को सैर करवा रही थी और रमन की आंखें उस के चेहरे पर चहलकदमी कर रही थीं.

‘‘तुम और्डर करो, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर रमन कैफे से बाहर निकल गया.

15 मिनट बाद रमन वापस आया. अब तक अवंतिका कौफी और सैंडविच और्डर कर चुकी थी. खापी कर दोनों गैस्ट हाउस चले गए.

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रात लगभग 10 बजे रमन का कौल देख कर अवंतिका को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ.  लेकिन जब उस ने उसे अपने कमरे में आने को कहा तब वह अवश्य चौंकी. ‘इतनी रात गए क्या कारण हो सकता है,’ सोच कर अवंतिका ने अपने टू पीस पर गाउन डाला और बैल्ट कसती हुई रमन के रूम की तरफ चल दी. रमन उसी का इंतजार कर रहा था.

‘‘हां, कहिए हुजूर, कैसे याद फरमाया?’’ अवंतिका ने आंखें नचाईं. एक शाम साथ बिताने के बाद अवंतिका उस से इतना तो खुल ही गई थी कि चुहल कर सके. अब उन के बीच औपचारिक रिश्ता जरा सा पर्सनल हो गया था.

‘‘बस, यों ही. मन किया तुम से बातें करने का,’’ रमन उस के जरा सा नजदीक आया.

‘‘वे तो फोन पर भी हो सकती थीं,’’ अवंतिका उस की सांसें अपनी पीठ पर महसूस कर रही थी. यह पहला अवसर था जब वह सुकेश के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के इतना नजदीक खड़ी थी. वह सिहर कर सिमट गई.

‘‘फोन पर बातें तो हो सकती हैं लेकिन यह नहीं,’’ कहते हुए रमन ने अवंतिका को उस साड़ी में लपेटते हुए अपनी बांहों में कस लिया. साड़ी को देखते ही अवंतिका खुशी से उछलती हुई पलटी और रमन के गले में बांहें डाल दी.

‘‘वाऊ, थैंक्स सर,’’ अवंतिका ने कहा.

‘‘सरवर औफिस में, यहां सिर्फ रमन,’’ कह कर रमन ने दोनों के बीच से पहले साड़ी की और उस के बाद गाउन की दीवार भी हटा दी.

यही वह पल था जिस ने अवंतिका के इस विश्वास को और भी अधिक मजबूत कर दिया था कि हुस्न चाहे तो क्या कुछ हासिल नहीं हो सकता. संसार का कोई सुख नहीं जो उस के चाहने पर कदमों में झक नहीं सकता. दुनिया में ऐसा कोई पुरुष नहीं जो बहकाने पर बहक नहीं सकता.

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Family Story In Hindi: कच्ची गली- भाग 2- खुद को बदलने पर मजबूर हो गई दामिनी

सृष्टि ने उस के जन्मदिन की तैयारी शुरू कर दी. पार्टी पौपर्स, हैप्पी बर्थडे स्ट्रिंग, दिल की शेप के गुब्बारे और मेहमानों की एक लिस्ट. दामिनी के 50वें जन्मदिन को वाकई खास बनाना चाहती थी उस की बेटी. विपिन का भी पूरा सहयोग था. केवल धनदान से ही नहीं, बल्कि श्रमदान से भी विपिन साथ दे रहे थे.

अगली सुबह दामिनी थोड़ी देर से उठी. आज फिर उसे माइग्रेन अटैक आया था. सुबह उठने के साथ ही सिर में दर्द शुरू हो गया था. ऐसे में अकसर उस की इंद्रियां उस का पूरा साथ नहीं निभाती थीं, सो हर काम थोड़ा धीमी गति से होता था.

‘‘क्या हुआ मेरी प्यारी मम्मा को?’’ सृष्टि उस का उतरा चेहरा देख कर पूछने लगी.

‘‘बेटा, फिर वही सिरदर्द,’’ दामिनी अपना माथा सहलाती हुई बोली.

‘‘उफ, आप दवाई ले कर रैस्ट करो. हमारे जाने के बाद कोई काम मत करना.’’

सृष्टि की बात मान कर विपिन और उस के चले जाने के बाद दामिनी दवा खा कर कुछ देर सो गई.

फोन की घनघनाहट से दामिनी की आंख खुली, ‘‘हैलो,’’ टूटी हुई आवाज में वह बोली.

‘‘दामिनी, मैं रजत बोल रहा हूं. मेरे सहकर्मी को अपनी बेटी के दाखिले के सिलसिले में सृष्टि से कुछ पूछना है पर न जाने क्यों उस का सैलफोन स्विचऔफ आ रहा है. जरा उसे बुला कर अपने फोन से बात करवा दो.’’

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‘‘सृष्टि, सृष्टि कालेज से अभी लौटी कहां है. आज तबीयत थोड़ी ढीली लग रही थी, इसलिए आंख लग गई. क्या समय हुआ है?’’

‘‘रात के 8 बज रहे हैं. सृष्टि अभी तक नहीं लौटी,’’ विपिन के स्वर में चिंता के भाव घुलने लगे.

समय सुन कर दामिनी भी हड़बड़ा कर उठ बैठी, ‘‘इतनी देर सृष्टि को कभी नहीं होती. उस पर उस का फोन भी औफ आ रहा है. ऐसा क्या हो गया होगा,’’ कहती हुई दामिनी के पसीने छूट गए.

‘‘क्या तुम उस की सहेलियों के घर जानती हो?’’ विपिन ने पूछा.

‘‘हां, कुछ सहेलियां पास में ही रहती हैं. मैं फौरन जा कर पूछ आती हूं. तुम कहां हो?’’ दामिनी बोली.

‘‘मैं औफिस से घर के लिए चल दिया हूं. सृष्टि के कालेज के रास्ते में हूं. मैं पूरा रास्ता उसे देखता आऊंगा,’’ विपिन काफी घबरा कर बोल रहे थे.

‘‘मैं भी पासपड़ोस, अपने महल्ले व हाईवे तक सृष्टि को देख कर आती हूं,’’ दामिनी ने जल्दबाजी में अपनी चुन्नी उठाई और सड़क की ओर दौड़ पड़ी.

सब से पहले दामिनी ने सृष्टि की सब से पास रहने वाली  सहेली का दरवाजा खटखटाया, तो उस ने बताया, ‘‘आंटी, आज मैं कालेज गई ही नहीं. क्या हुआ, आप इतनी परेशान क्यों हैं?’’

मगर दामिनी के पास उत्तर देने का समय न था. वह भागती हुई दूसरी सहेली के घर पहुंची. फिर  तीसरी. पड़ोस में केवल इतनी ही लड़कियां सृष्टि के कालेज में पढ़ती थीं. कहीं भी सृष्टि की खबर न पा कर दामिनी की चिंता बढ़ती जा रही थी.

‘‘दामिनी अब हाईवे की ओर चलने लगी. तीव्र गति से कदम बढ़ाती दामिनी अब सुबकने लगी कि पता नहीं मेरी बच्ची कहां होगी. इतनी देर कभी नहीं हुई उसे. फोन क्यों स्विचऔफ है. कम से कम एक फोन कर देती. आएगी तो बहुत डांटूंगी. यह भी कोई तरीका हुआ. मन ही मन में बड़बड़ाती अपने आंसुओं को पोंछती हुई दामिनी हाईवे पर चली जा रही थी. कभी दुकान पर बैठे चाय पी रहे लोगों से पूछती तो कभी सड़क पर जा रहे लोगों को अपने फोन पर सृष्टि का फोटो दिखा कर उस के बारे में जानकारी हासिल करने का प्रयास करती.

उधर विपिन जगहजगह अपनी कार रोक कर सृष्टि को खोजने में प्रयत्नशील थे. घर निकट आता जा रहा था, किंतु सृष्टि का कुछ पता नहीं चल रहा था. विपिन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. कार चलाते हुए अब वे हाईवे पर पहुंच चुके थे. रात काफी हो चुकी थी. गाडि़यां तेज रफ्तार से अपने गंतव्य स्थान को दौड़ी जा रही थीं. कार चलाते हुए विपिन अब घर के निकट पहुंचने लगे लेकिन सृष्टि का कोई अतापता न चला था. विपिन किसी अनिष्ट की आशंका से घबरा रहे थे.

तभी उन्होंने सड़क के किनारे किसी को औंधेमुंह गिरा देखा. तेजी से गाड़ी को साइड में लगाते हुए विपिन उतरे और उस ओर बढ़ चले. वह किसी स्त्री का शरीर था जिस के कपड़े बेतरतीब अवस्था में थे. करीब 10 फर्लांग दूर चुन्नी पड़ी हुई थी. विपिन बेहद घबरा गए कि कहीं यह सृष्टि तो नहीं… आज क्या पहना था सृष्टि ने, यह भी विपिन को नहीं पता क्योंकि सृष्टि उन के औफिस जाने के बाद ही अपने कालेज जाया करती है. लगभग भागते हुए विपिन उस की तरफ बढ़े और कंधे से पकड़ कर उस का चेहरा अपनी ओर मोड़ा.

उस के बाद जो उन्होंने देखा, उन के चेहरे पर विषादपूर्ण भाव उभर आए. पलभर को मानो उन्हें काठ मार गया.

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‘‘यह तो दामिनी है,’’ उन के मुंह से अस्फुट बोल निकले. दामिनी से दूर गिरी उस की चुन्नी, कंधे से सरका हुआ उस का कुरता, खुली हुई सलवार जो उस के घुटनों तक गिरी हुई थी और दुख व तकलीफ में लिपटा उस का चेहरा आदि सबकुछ साफसाफ दर्शा रहा था कि उस के साथ क्या बीत चुका है. जिस अनहोनी की आशंका दोनों मातापिता अपनी नवयौवना बेटी के लिए कर रहे थे, यथार्थ में वही दुर्घटना दामिनी के साथ घट चुकी थी.

‘‘यह क्या हुआ, तुम यहां कैसे, इस हालत में… उठो दामिनी,’’ कहते हुए विपिन सहारा दे कर दामिनी को उठाने लगे.

दामिनी मूर्च्छित सी अवस्था में उठने का प्रयास करने लगी. सृष्टि को ढूंढ़ते हुए वह यहां एक सुनसान कोने में पहुंच गई थी. सृष्टि का नाम पुकारती वह यहांवहां भटक रही थी कि सड़क से गुजरती एक गाड़ी में सवार कुछ लड़कों की गंदी नजर उस पर पड़ गई. अकेली औरत, चिंता में बेहाल, रुकी हुई गाड़ी की ओर बेध्यानी में बढ़ती चली गई और कुछ सशक्त हाथों ने उसे गाड़ी के भीतर घसीट लिया.

फिर इन्हीं सड़कों पर, चलती गाड़ी में उस के साथ वही अपमानजनक, अनहोनी दुर्घटना घट गई जैसी खबरें अखबार में पढ़ते हुए विपिन का मन परेशान हो जाया करता. कौन सोच सकता था कि जवान लड़की की मां को भी वही खतरा है जिस का डर अकसर मातापिता को अपनी युवा बेटियों के लिए लगता है. जमाना सेफ्टी पिन का हो या पैपरस्प्रे का औरतों के लिए सुनसान गलियां हमेशा से खतरा रहीं और आज भी हैं.

‘‘उठो दामिनी, हिम्मत करो. घर चलो,’’ विपिन दामिनी को दिलासा देने लगे.

क्या औरतों के लिए घर की देहरी लांघना सदा ही लक्ष्मणरेखा का प्रश्न रहेगा? किसी भी उम्र की औरत हो, कोई भी शहर हो, कोई भी जमाना हो कब तक औरत की इज्जत के लिए हर गली कच्ची रहेगी? कब तक हर औरत को रेप जैसे अपमानजनक अपराध के बाद ऐसे मुंह छिपाना पड़ेगा मानो वह इस की शिकार नहीं बल्कि असली गुनहगार है? केवल दामिनी नाम रख देने से औरत में शक्ति नहीं आती. वह फिर भी निर्बल, भेद्य, आलोचनीय, अशक्त रहती है. कब होगी वह सुबह जो सच्चा सवेरा लाएगी? कब बिखरेंगी वे किरणें जो सच्चा उजाला फैलाएंगी? दामिनी सुन्न दिलदिमाग लिए, लंगड़ाती हुई, विपिन के कंधे का सहारा लिए अपनी कार में बैठ गई.

‘‘विपिन…’’ कह दामिनी रोने लगी, ‘‘देखो न, यह क्या हो गया,’’ फिर स्वयं को समेटती हुई बोली, ‘‘पुलिस स्टेशन चलो, मुझे एफआईआर लिखवानी है.’’

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विपिन ने गाड़ी को सड़क के एक ओर लगाया और  दामिनी के सिर पर हाथ फेर कर उसे शांत करने लगे, ‘‘जो होना था सो हो गया. अब इन बातों से क्या होगा? इतनी रात को, यहां सुनसान कोने में कौन सी गाड़ी थी, कौन लोग थे, क्या तुम पहचान पाओगी? क्या तुम ने गाड़ी का नंबर देखा? पुलिस सब पूछेगी, तुम से सुबूत मांगेगी. उस पर जब यह खबर समाज में फैल जाएगी तो हमारे परिवार की इज्जत का क्या होगा? सब रिश्तेदार क्या कहेंगे? सृष्टि पर क्या बीतेगी… आगे चल कर उस की शादी के समय… कुछ सोचो दामिनी. भलाई इसी में है कि इस बात को यही खत्म कर दिया जाए. आने वाले कल के बारे में विचार करो.’’

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कोई नहीं: क्या हुआ था रामगोपाल के साथ

लेखक- मधुप चौधरी

दूसरी ओर से दिनेश की घबराहट भरी आवाज आई, ‘‘पापा, आप लोग जल्द चले आइए. बबिता ने शरीर पर मिट्टी का तेल उडे़ल कर आग लगा ली है.’’

‘‘क्या?’’ रामगोपाल को काठ मार गया. शंका और अविश्वास से वह चीख पडे़, ‘‘वह ठीक तो है?’’ और इसी के साथ उन की आंखों के सामने वे घटनाएं उभरने लगीं जिन की वजह से आज यह स्थिति बनी है.

रामगोपाल ने अपनी बेटी बबिता का विवाह 6 साल पहले अपने ही शहर में एक मध्यमवर्गीय परिवार में किया था. उन के समधी गिरधारी लाल भी व्यवसायी थे और मुख्य बाजार में उन की कपडे़ की दुकान थी, जिस पर वह और उन का छोटा बेटा राजेश बैठते थे.

बड़ा बेटा दिनेश एक फर्म में चार्टर्ड एकाउंटेंट था और अच्छी तनख्वाह पाता था. रामगोपाल की बेटी, बबिता भी कामर्स से गे्रजुएट थी अत: दोनों परिवारों में देखसुन कर शादी हुई थी.

रामगोपाल ने अपनी बेटी बबिता का धूमधाम से विवाह किया. 2 बेटों के बीच वही एकमात्र बेटी थी इसलिए अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर दानदहेज भी दिया जबकि समधी गिरधारी लाल की कोई मांग नहीं थी. दिनेश की सिर्फ एक मांग फोरव्हीलर की थी, सो रामगोपाल ने उन की वह मांग भी पूरी कर दी थी.

शादी के कुछ दिनों बाद ही ससुराल में बबिता के आचरण और व्यवहार पर आपत्तियां उठनी शुरू हो गईं. इसे ले कर दोनों परिवारों में तनाव बढ़ने लगा. गिरधारी लाल के परिवार में बबिता समेत कुल 5 लोग थे. गिरधारी लाल, उन की पत्नी सुलोचना, दिनेश और राजेश तथा नई बहू बबिता.

सुलोचना पारंपरिक संस्कारयुक्त और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं. वह सुबह उठतीं, स्नान करतीं और घरेलू कामों में जुट जातीं. वह चाहती थीं कि उन की बहू भी उन्हीं संस्कारों को ग्रहण करे पर बबिता के लिए यह कठिन ही नहीं, दुष्कर काम था. वास्तविकता यह थी कि वह ऐसे संस्कारों को पोंगापंथी और ढोंग समझती थी और इस के खिलाफ थी.

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बबिता आधुनिक विचारों की थी तथा स्वाधीन रहना चाहती थी. रात में देर तक टेलीविजन के कार्यक्रम देखती, तो सुबह साढे़ 9 बजे से पहले उठ नहीं पाती. और जब तक वह उठती थी गिरधारी लाल और राजेश नाश्ता कर के दुकान पर जा चुके होते थे. दिनेश भी या तो आफिस जाने के लिए तैयार हो रहा होता या जा चुका होता.

सास सुलोचना को अपनी बहू के इस आचरण से बहुत तकलीफ होती. शुरू में तो उन्होंने बहू को घर के रीतिरिवाजों को अपनाने के लिए बहुत समझाया, पर बाद में उस की हठवादिता देख कर उस से बोलना ही छोड़ दिया. इस तरह एक घर में रहते हुए भी सासबहू के बीच बोलचाल बंद हो गई.

घर में काम के लिए नौकर थे, खाना नौकरानी बनाती थी. वही जूठे बरतनों को मांजती थी और कपडे़ भी धो देती. बबिता के लिए टेलीविजन देखने और समय बिताने के सिवा कोई दूसरा काम नहीं था. उस की सास सुलोचना कुछ न कुछ करती ही रहती थीं. कोई काम नहीं होने पर पुस्तकें ले कर पढ़ने बैठ जातीं. वह इस स्थिति की अभ्यस्त थीं पर बबिता को यह भार लगने लगा. एक दिन हालात से ऊब कर बबिता अपने मायके फोन मिला कर अपनी मम्मी से बोली, ‘मम्मी, आप ने कहां, कैसे घर में मेरा विवाह कर दिया? यह घर है या जेलखाना? मर्द तो काम पर चले जाते हैं, यहां दिन भर बुढि़या गिद्ध जैसी आंखें गड़ाए मेरी पहरेदारी करती रहती है. न कोई बोलने के लिए है न कुछ करने के लिए. ऐसे में तो मेरा दम घुट जाएगा, मैं खुदकुशी कर लूंगी.’

‘अरे नहीं, ऐसी बातें नहीं बोलते बेटी,’ उस तरफ से बबिता की मम्मी लक्ष्मी ने कहा, ‘यदि तुम्हारी सास तुम से बातें नहीं करती हैं तो अपने पति के आफिस जाने के बाद तुम यहां चली आया करो. दिन भर रह कर शाम को पति के लौटने के समय वापस चली जाना. ससुराल से मायका कौन सा दूर है. बस या टैक्सी से चली आओ. वे लोग कुछ कहेंगे तो हम उन्हें समझा लेंगे.’

यह सुनते ही बबिता की बाछें खिल गईं. उस ने झटपट कपडे़ बदले, पर्स लिया और अपनी सास से कहा, ‘मम्मी का फोन आया था, मैं मायके जा रही हूं. शाम को आ जाऊंगी,’ और सास के कुछ कहने का भी इंतजार नहीं किया, कदम बढ़ाती वह घर से निकल पड़ी.

इस के बाद तो यह उस की रोज की दिनचर्या हो गई. शुरू में दिनेश ने यह सोच कर इस की अनदेखी की कि घर में अकेली बोर होने से बेहतर है वह अपनी मां के घर घूम आया करे पर बाद में मां और पिताजी की टोकाटाकी से उसे भी कोफ्त होने लगी.

एक दिन बबिता ने उसे बताया कि वह गाड़ी चलाना सीखने के लिए ड्राइविंग स्कूल में एडमिशन ले कर आ रही है. उस ने दिनेश को एडमिशन का फार्म भी दिखाया. हुआ यह कि बबिता के बडे़ भाई नंद कुमार ने उस से कहा कि रोजरोज बस या टैक्सी से आनाजाना न कर के वह अपनी कार से आए और इस के लिए ड्राइविंग सीख ले. आखिर पापा ने दहेज में कार किसलिए दी है.

बबिता को यह बात जंच गई. पर दिनेश इस पर आगबबूला हो गया. अपनी नाराजगी और गुस्से को वह रोक भी नहीं पाया और बोल पड़ा, ‘तुम्हारे पापा ने कार मुझे दी है.’

‘हां, पर वह मेरी कार है, मेरे लिए पापा ने दी है.’

दिनेश बबिता का जवाब सुन कर दंग रह गया. उस ने अपने गुस्से पर काबू करते हुए विवाद को तूल न देने के लिए समझौते का रुख अपनाते हुए कहा, ‘ठीक है पर ड्राइविंग सीखने की क्या जरूरत है. गाड़ी पर ड्राइवर तो है?’

‘मुझे किसी ड्राइवर की जरूरत नहीं. मैं खुद चलाना सीखूंगी और मुझे कोई भी रोक नहीं सकेगा. मैं तुम्हारी खरीदी हुई गुलाम नहीं हूं.’

दिनेश ने इस के बाद एक शब्द भी नहीं कहा. बबिता को कुछ कहने के बजाय उस ने अपने पिता को ये बातें बता दीं. गिरधारी लाल ने तुरंत रामगोपाल को फोन मिलाया और उस से बबिता के व्यवहार की शिकायत की तो उधर से उन की समधिन लक्ष्मी का जवाब आया, ‘भाईसाहब, आप के लड़के से बेटी ब्याही है, कोई बेच नहीं दिया है जो उस पर हजार पाबंदियां लगा रखी हैं आप ने. यह मत करो, वह मत करो, पापामम्मी से बातें मत करो, उन के घर मत जाओ, क्या है यह सब? हम ने तो अपने ही शहर में इसीलिए बेटी की शादी की थी कि वह हमारे पास आतीजाती रहेगी, हमारी नजरों के सामने रहेगी.’

‘पर समधिनजी,’ फोन पर गिरधारी लाल ने जोर दे कर अपनी बात कही, ‘यदि आप की बेटी बराबर आप के घर का ही रुख किए रहेगी तो वह अपना घर कब पहचानेगी? संसार का तो यही नियम है कि बेटी जब तक कुंआरी है अपने बाप की, विवाह के बाद वह ससुराल की हो जाती है.’

‘यह पुरानी पोंगापंथी बातें हैं. मैं इसे नहीं मानती. रही बात बबिता की तो वह जब चाहेगी यहां आ सकती है और वह गाड़ी चलाना सीखना चाहती है तो जरूर सीखे. इस से तो आप लोगों के परिवार को ही फायदा होगा.’

गिरधारी लाल ने इस के बाद फोन रख दिया. उन के चेहरे पर चिंता की गहरी रेखा खिंच आई थीं. परिवार वाले चिंतित थे कि इस स्थिति का परिणाम क्या होगा?

दिनेश ने भी इस घटना के बाद चुप्पी साध ली थी. सास सुलोचना ने सब से पहले बहू से बोलना बंद किया था, उस के बाद गिरधारी लाल भी बबिता से सामना होने से बचने का प्रयत्न करते. राजेश को भाभी से बातें करने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी. उस की जरूरतें मां, नौकर और नौकरानी से पूरी हो जाती थीं.

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दिनेश और बबिता के बीच सिर्फ कभीकभार औपचारिक शब्दों का संबंध रह गया था. आफिस से छुट्टी के बाद वह ज्यादा समय बाहर ही गुजारता, देर रात में घर लौटता और खाना खा कर सो जाता.

इस बीच बबिता ने गाड़ी चलाना सीख लिया था. वह सुबह ही गाड़ी ले कर मायके चली जाती और रात में देर से लौटती. कभी उस का फोन आता, ‘आज मैं आ नहीं सकूंगी.’ बाद में इस तरह का फोन आना भी बंद हो गया.

कानूनी और सामाजिक तौर पर बबिता गिरधारी लाल के परिवार की सदस्य होने के बावजूद जैसे उस परिवार की ‘कोई नहीं’ रह गई थी. यह एहसास अंदर ही अंदर गिरधारी लाल और उन की पत्नी सुलोचना को खाए जा रहा था कि उन के बेटे का दांपत्य जीवन बबिता के निरंकुश एवं दायित्वहीन आचरण तथा उस के ससुराल वालों की हठवादिता से नष्ट हो रहा है.

आखिर एक दिन दिनेश ने दृढ़ स्वर में बबिता से कहा, ‘हम दोनों विपरीत दिशाओं में चल रहे हैं. इस से बेहतर है तलाक ले कर अलग हो जाएं.’

दिनेश को तलाक लेने की सलाह उस के पिता गिरधारी लाल ने दी थी. वह अपने बेटे के बिखरते वैवाहिक जीवन से दुखी थे. उन्होंने यह सलाह भी दी थी कि यदि बबिता उस के साथ अलग रह कर अपनी अलग गृहस्थी में सुखी रह सकती है तो वह ऐसा ही करे. पर दिनेश को यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं था कि वह अपने मातापिता को छोड़ कर अलग हो जाए.

दिनेश के मुंह से तलाक की बात सुन कर बबिता सन्न रह गई. उसे जैसे इस प्रकार के किसी प्रस्ताव की अपेक्षा नहीं थी. इस में उसे अपना घोर अपमान महसूस हुआ.

मायके आ कर बबिता ने अपने मम्मीपापा और भाइयों को दिनेश का प्रस्ताव सुनाया तो सभी भड़क उठे. रामगोपाल को जहां इस चिंता ने घेर लिया कि इतना अच्छा घरवर देख कर और काफी दानदहेज दे कर बेटी की शादी की, वहां इतनी जल्दी तलाक की नौबत आ गई. समाज और बिरादरी में उन की क्या इज्जत रहेगी? पर लक्ष्मी काफी उत्तेजित थीं. वह चीखचीख कर बारबार एक ही वाक्य बोल रही थीं, ‘उन की ऐसी हिम्मत…उन्हें इस का मजा चखा कर रहूंगी.’

उधर बबिता के भाइयों नंद कुमार और नवल कुमार तथा उन की पत्नियों को दूसरी चिंता ने घेर लिया कि बबिता यदि उन के घर में आ कर रहने लगी तो भविष्य में वह पापामम्मी की संपत्ति में दावेदार हो जाएगी और उसे उस का हिस्सा भी देना पडे़गा. इसलिए दोनों भाइयों ने आपस में सुलह कर बबिता से कहा कि दिनेश ने तलाक की बात कही है तो तुम उसे तलाक के लिए आवेदन करने दो. अपनी तरफ से बिलकुल आवेदन मत करना.

‘भैया, मेरा भी उस घर में दम घुट रहा है,’ बबिता बोली, ‘मैं खुद तलाक लेना चाहती हूं और अपनी मरजी का जीवन जीना चाहती हूं. इस अपमान के बाद तो मैं हरगिज वहां नहीं रह सकती.’

नंद कुमार ने कठोर स्वर में कहा, ‘ऐसी गलती कभी मत करना. तुम खुद तलाक लेने जाओगी तो ससुराल से कुछ भी नहीं मिलेगा. दिनेश तलाक लेना चाहेगा तो उसे तुम्हें गुजाराभत्ता देना पडे़गा.’

‘गुजाराभत्ता की मुझे जरूरत नहीं,’ बबिता बोली, ‘मैं पढ़ीलिखी हूं, कोई नौकरी ढूंढ़ लूंगी और अपना खर्च चला लूंगी पर दोबारा उस घर में वापस नहीं जाऊंगी.’

‘नहीं, अभी तुम्हें वहीं जाना होगा और वहीं रहना भी होगा,’ इस बार नवल कुमार ने कहा.

बबिता ने आश्चर्य से छोटे भाई की ओर देखा. फिर बारीबारी से मम्मीपापा व भाभियों की ओर देख कर अपने स्वर में दृढ़ता लाते हुए वह बोली, ‘दिनेश ने तलाक की बात कह कर मेरा अपमान किया है. इस अपमान के बाद मैं उस घर में किसी कीमत पर वापस नहीं जाऊंगी.’

समझाने के अंदाज में पर कठोर स्वर में नंद कुमार ने कहा, ‘तुम अभी वहीं उसी घर में रहोगी, जब तक  कि तुम्हारे तलाक का फैसला नहीं हो जाता. तुम डरती क्यों हो? सभी तुम्हारे साथ हैं. शादी के बाद से कानूनन वही तुम्हारा घर है. देखता हूं, तुम्हें वहां से कौन निकालता है.’

बडे़ भैया की बातों में छिपी धमकी से आहत बबिता ने अपनी मम्मी की ओर इस उम्मीद से देखा कि वही उस की मदद करें. मम्मी ने बेटी की आंखों में व्याप्त करुणा और दया की याचना को महसूस करते हुए नंद कुमार से कहा, ‘बबिता यहीं रहे तो क्या हर्ज है?’

‘हर्ज है,’ इस बार दोनों भाइयों के साथ उन की पत्नियां भी बोलीं, ‘ब्याही हुई बेटी का घर ससुराल होता है, मायका नहीं. बबिता को अपने पति या ससुराल वालों से कोई हक हासिल करना है तो वहीं रह कर यह काम करे. मायके में रह कर हम लोगों की मुसीबत न बने.’

मां ने सिर नीचे कर लिया तो बबिता ने अपने पापा की ओर देखा. बेटी को अपनी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देख कर उन्हें मुंह खोलना ही पड़ा. उन्होेंने कहा, ‘तुम्हारे भाई लोग ठीक ही कह रहे हैं बबिता. बेटी का विवाह करने के बाद पिता समझता है कि उस ने एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली. पर इस के बाद भी उसे बेटी की चिंता ढोनी पडे़ तो उस के लिए इस से बड़ी दूसरी पीड़ा नहीं हो सकती.’

बबिता पढ़ीलिखी थी. उस में स्वाभिमान था तो अहंकार भी था. उस ने अपने भाइयों और मम्मीपापा की बातों का अर्थ समझ लिया था. इस के पश्चात उस ने किसी से कुछ नहीं कहा. वह उठी और चली गई. उस को जाते हुए किसी ने नहीं रोका.

अचानक फोन की घंटी फिर बजने लगी तो रामगोपालजी चौंके और लपक कर फोन उठा लिया.

दिनेश की घबराहट भरी आवाज थी, ‘‘पापा, आप लोग जल्दी आ जाइए न. बबिता ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल उड़ेल कर आग लगा ली है.’’

रामगोपाल का सिर घूमने लगा. फिर भी उन्होंने फोन पर पूछा, ‘‘कैसे हुआ यह सब? अभी तो कुछ समय पहले ही वह यहां से गई है.’’

‘‘मुझे नहीं मालूम,’’ दिनेश की आवाज आई, ‘‘वह हमेशा की तरह आप के घर से लौट कर अपने कमरे में चली गई थी और उस ने भीतर से दरवाजा बंद कर लिया था. अंदर से धुआं निकलता देख कर हमें संदेह हुआ. दरवाजा तोड़ कर हम अंदर घुसे तो देखा, वह जल रही थी. क्या वहां कुछ हुआ था?’’

इस सवाल का जवाब न दे कर रामगोपाल ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘हम लोग तुरंत आ रहे हैं.’’

लक्ष्मी ने बिस्तर पर लेटेलेटे ही पूछा, ‘‘किस का फोन था?’’

‘‘दिनेश का,’’ रामगोपाल ने घबराहट भरे स्वर में कहा, ‘‘बबिता ने आग लगा ली है.’’

इतना सुनते ही लक्ष्मी की चीख निकल गई. मम्मी की चीख सुन कर नंद कुमार और नवल कुमार भी वहां पहुंच गए.

नंद कुमार ने पूछा, ‘‘क्या हुआ है?’’

रामगोपाल ने जवाब दिया, ‘‘बबिता ने यहां से लौटने के बाद शरीर पर मिट्टी का तेल उड़ेल कर आग लगा ली है, दिनेश का फोन आया था,’’ इतना कह कर रामगोपाल सिर थाम कर बैठ गए, फिर बेटों की तरफ देख कर बोले, ‘‘ससुराल से अपमानित बेटी ने मायके में रहने की इजाजत मांगी थी. तुम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए उसे यहां रहने नहीं दिया. यहां से भी अपमानित होने के बाद उस ने आत्महत्या कर ली.’’

‘‘चुप कीजिए,’’ बडे़ बेटे नंद कुमार ने जोर से अपने पिता को डांटा, ‘‘आप ऐसा बोल कर खुद भी फंसेंगे और साथ में हम सब को भी फंसा देंगे. बबिता ने खुदकुशी नहीं की है, उसे मार डाला गया है. बबिता के ससुराल वालों ने दहेज के खातिर मिट्टी का तेल उडे़ल कर उसे जला डाला है.’’

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रामगोपाल ने आशा की डोर पर झूलते हुए कहा, ‘‘चलो, पहले देख लें, शायद बबिता जीवित हो.’’

‘‘पहले आप थाने चलिए,’’ नंद कुमार ने फैसले के स्वर मेंकहा, ‘‘और तुम भी चलो, मम्मी.’’

रामगोपाल का परिवार जिस समय गिरधारी लाल के मकान के सामने पहुंचा, वहां एक एंबुलेंस और पुलिस की एक गाड़ी खड़ी थी. मकान के सामने लोगों की भीड़ जमा थी. जली हुई बबिता को स्ट्रेचर पर डाल कर बाहर निकाला जा रहा था. गाड़ी रोक कर रामगोपाल, लक्ष्मी, नंद कुमार तथा नवल कुमार नीचे उतरे. सफेद कपडे़ में ढंकी बबिता के चेहरे की एक झलक देखने के लिए रामगोपाल लपके पर नंद कुमार ने उन्हें रोक लिया.

थोड़ी देर बाद ही पुलिस के 4 सिपाही और एक दारोगा गिरधारी लाल, दिनेश, सुलोचना और राजेश को ले कर बाहर निकले. उन चारों के हाथों में हथकडि़यां पड़ी हुई थीं. दिनेश, बबिता को बचाने की कोशिश में थोड़ा जल गया था. रामगोपाल की नजर दामाद पर पड़ी तो जाने क्यों उन की नजर नीची हो गई.

दीवाली : राजीव और उसके परिवार को कौनसी मिली नई खुशियां

‘‘देखो, शालिनी, मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि यदि साल में एक बार तुम से पैसे मांगूं तो तुम मुझ से लड़ाई मत किया करो.’’ ‘‘साल में एक बार? तुम तो एक बार में ही इतना ज्यादा हार जाते हो कि मैं सालभर तक चुकाती रहती हूं.’’

शालिनी की व्यंग्यभरी बात सुन कर राजीव थोड़ा झेंपते हुए बोला, ‘‘अब छोड़ो भी. तुम्हें तो पता है कि मेरी बस यही एक कमजोरी है और तुम्हारी यह कमजोरी है कि इतने सालों में भी मेरी इस कमजोरी को तुम दूर नहीं कर सकीं.’’ राजीव के तर्क को सुन कर शालिनी भौचक्की रह गई. राजीव जब चला गया तो शालिनी सोचने लगी कि उस के जीवन की शुरुआत ही कमजोरी से हुई थी. एमए का पहला साल भी वह पूरा नहीं कर पाई थी कि उस के पिता ने राजीव के साथ उस की शादी की बात तय कर दी. राजीव पढ़ालिखा था और देखने में स्मार्ट भी था.

सब से बड़ी बात यही थी कि उस की 40 हजार रुपए महीने की आमदनी थी. शालिनी ने तब सोचा था कि वह अपने मातापिता से कहे कि वे उसे एमए पूरा कर लेने दें, पर राजीव को देखने के बाद उसे स्वयं ऐसा लगा था कि बाद में शायद ऐसा वर न मिले. बस, वहीं से शायद राजीव के प्रति उस की कमजोरी ने जन्म लिया था. उसे आज लगा कि विवाह के बाद भी वह राजीव की मीठीमीठी बातों व मुसकानों से क्यों हारती रही.

शादी के बाद शालिनी की वह पहली दीवाली थी. सुबहसुबह ही जब राजीव ने उस से कहा कि 10 हजार रुपए निकाल कर लाना तो शालिनी चकित रह गई थी कि कभी भी 1-2 हजार रुपए से ज्यादा की मांग न करने वाले राजीव ने आज इतने रुपए क्यों मांगे. शालिनी ने पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘लाओ यार,’’ राजीव हंस कर बोला था, ‘‘जरूरी काम है. शाम को काम भी बता दूंगा.’’ राजीव की रहस्यपूर्ण मुसकराहट देख कर शालिनी ने समझा था कि वह शायद उस के लिए नई साड़ी लाएगा. शालिनी दिनभर सुंदर कल्पनाएं करती रही. पर जब शाम के 7-8 बजने पर भी राजीव घर नहीं लौटा तो दुश्चिंताओं ने उसे आ घेरा. तरहतरह के बुरे विचार उस के मन में आने लगे, ‘कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई. किसी ने राजीव की बाइक के आगे पटाखे छोड़ कर उसे घायल तो नहीं कर दिया.’

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8 बजने के बाद इस विचार से कि घर की दहलीज सूनी न रहे, उस ने 4 दीए जला दिए. पर उस का मन भयानक कल्पनाओं में ही लगा रहा. पूरी रात आंखों में कट गई पर राजीव नहीं आया. हड़बड़ा कर जब वह सुबह उठी थी तो अच्छी धूप निकल आई थी और उस ने देखा कि दूसरे पलंग पर राजीव सोया पड़ा है. उस के पास पहुंची, पर तुरंत ही पीछे भी हट गई. राजीव की सांसों से शराब की बू आ रही थी. तभी शालिनी को रुपयों का खयाल आया. उस ने राजीव की सभी जेबें टटोल कर देखीं पर सभी खाली थीं.

‘तो क्या किसी ने राजीव को शराब पिला कर उस के रुपए छीन लिए?’ उस ने सोचा. पर न जाने कितनी देर फिर वह वहीं खड़ीखड़ी शंकाओं के समाधान को ढूंढ़ती रही थी और आखिर में यह सोच कर कि उठेंगे तब पूछ लूंगी, वह काम में लग गई थी. दोपहर बाद जब राजीव जागा तो चाय देते समय शालिनी ने पूछा, ‘‘कहां थे रातभर? डर के मारे मेरे प्राण ही सूख गए थे. तुम हो कि कुछ बताते भी नहीं. क्या तुम ने शराब पीनी भी शुरू कर दी? वे रुपए कहां गए जो तुम किसी खास काम के लिए ले गए थे?’’

शालिनी ने सोचा था कि राजीव झेंपेगा, शरमाएगा, पर उसे धोखा ही हुआ. शालिनी की बात सुन कर राजीव मुसकराते हुए बोला, ‘‘धीरेधीरे, एकएक सवाल पूछो, भई. मैं कोई साड़ी खरीदने थोड़े ही गया था.’’ ‘‘क्या?’’ शालिनी चौंक कर बोली थी.

‘‘चौंक क्यों रही हो? हर साल हम एक दीवाली के दिन ही तो बिगड़ते हैं.’’ ‘‘तो तुम जुआ खेल कर आ रहे हो? 10 हजार रुपए तुम जुए में हार गए?’’ वह दुखी होते हुए बोली थी.

तब राजीव ने उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा था, ‘‘अरे यार, सालभर में एक ही बार तो रुपया खर्च करता हूं. तुम तो साल में 5-6 हजार रुपयों की 4-5 साड़ीयां खरीद लेती हो.’’ शालिनी ने सोचा कि थोड़ी  ढील दे कर भी वह राजीव को ठीक कर लेगी, पर यही उस की दूसरी कमजोरी साबित हुई.

पहले 10 हजार रुपए पर ही खत्म हो जाने वाली बात 20 हजार रुपए तक पहुंच गई, जिसे चुकाने के लिए अगली दीवाली आ गई थी. पिछली बार तो उस ने छिपा कर बच्चों के लिए 10 हजार रुपए रखे थे, पर राजीव उन्हीं को ले कर चल दिया. जब राजीव रुपए ले कर जाने लगा तो शालिनी ने उसे टोकते हुए कहा था, ‘कम से कम बच्चों के लिए ही इन रुपयों को छोड़ दो,’ पर राजीव ने उस की एक न मानी.

उसी दिन शालिनी ने सोच लिया था कि अगली दीवाली पर इस मामले को वह निबटा कर ही रहेगी.

शाम को 5 बजे राजीव लौटा. बच्चों ने उसे खाली हाथ देखा तो निराश हो गए, पर बोले कुछ नहीं. शालिनी ने उन्हें बता दिया था कि पटाखे उन्हें किसी भी हालत में दीए जलने से पहले मिल जाएंगे. राजीव ने पहले कुछ देर तक इधरउधर की बातें कीं, फिर शालिनी से पूछा, ‘‘क्यों, हमारी मां के घर से आए हुए पटाखे यों ही पड़े हैं न?’’

शालिनी ने कहा, ‘‘पड़े थे, हैं नहीं.’’ ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मैं ने कामवाली के बच्चों को दे दिए.’’ ‘‘पर क्यों?’’

‘‘उस के आदमी ने उस से रुपए छीन लिए थे.’’ राजीव ने कुछ सोचा, फिर बोला, ‘‘ओहो, तो यह बात है. घुमाफिरा कर मेरी बात पर उंगली रखी जा रही है.’’

‘‘देखो, राजीव, मैं ने आज तक कभी ऊंची आवाज में तुम्हारा विरोध नहीं किया. तुम्हें खुद ही मालूम है कि तुम्हारी आदतें क्याक्या गजब ढा सकती हैं.’’ शालिनी की बात सुन कर राजीव झुंझला कर बोला, ‘‘ठीक है, ठीक है. मुझे सब पता है. अभी तुम्हारा बिगड़ा ही क्या है? तुम्हें किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ा है न?’’

शालिनी ने कहा, ‘‘यही तो डर है. कल कहीं मुझे कामवाली की तरह किसी और के सामने हाथ न फैलाना पड़े.’’ ऐसा कह कर शालिनी ने शायद राजीव की कमजोर रग पर हाथ रख दिया था. वह बोला, ‘‘बकवास बंद करो. पता भी है क्या बोल रही हो? जरा से रुपयों के लिए इतनी कड़वी बातें कह रही हो.’’ ‘‘जरा से रुपए? तुम्हें पता है कि साल में एक बार शराब पी कर बेहोशी में तुम हजारों खो कर आते हो. तुम्हें तो बच्चों की खुशियां छीन कर दांव पर लगाने में जरा भी हिचक नहीं होती. हमेशा कहते हो कि साल में एक बार ही तुम्हारे लिए दीवाली आती है. कभी सोचा है कि मेरे और बच्चों के लिए भी दीवाली एक बार ही आती है? कभी मनाई है कोई दीवाली तुम ने हमारे साथ?’’ शालिनी के मुंह से कभी ऐसी बातें न सुनने वाला राजीव पहले तो हक्काबक्का खड़ा रहा. फिर बिगड़ कर बोला, ‘‘अगर तुम मुझे रुपए न देने के इरादे पर पक्की हो तो मैं भी अपने मन की करने जा रहा हूं.’’ और जब तक शालिनी राजीव से कुछ कहती, वह पहले ही मोटरसाइकिल निकालने चला गया.

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शालिनी सोचने लगी कि इन 11 सालों में भी वह नहीं समझ पाई कि हमेशा मीठे स्वरों में बोलने वाला राजीव इस तरह एक दिन में बदल सकता है. ‘कहीं राजीव दीवाली के दिन दोस्तों के सामने बेइज्जती हो जाने के डर से तो नहीं खेलता. लगता है अब कोई दूसरा ही तरीका अपनाना पड़ेगा,’ शालिनी ने तय किया.

उधर मोटरसाइकिल निकालने जाता हुआ राजीव सोच रहा था, ‘वह क्या करे? पटाखे ला कर देगा तो उस की नाक कट जाएगी. शालिनी रुपए भी नहीं देगी, उसे इस का पता था. अचानक उसे अपने मित्र अक्षय की याद आई. क्यों न उस से रुपए लिए जाएं.’ वह मोटरसाइकिल बाहर निकाल लाया. तभी ‘‘कहीं जा रहे हैं क्या?’’ की आवाज सुन कर राजीव चौंका. उस ने देखा, सामने से अक्षय की पत्नी रमा और उस के दोनों बच्चे आ रहे हैं.

‘‘भाभी, तुम? आज के दिन कैसे बाहर निकल आईं?’’ उस ने मन ही मन खीझते हुए कहा. ‘‘पहले अंदर तो बुलाओ, सब बताती हूं,’’ अक्षय की पत्नी ने कहा.

‘‘हां, हां, अंदर आओ न. अरे इंदु, प्रमोद, देखो तो कौन आया है,’’ मोटरसाइकिल खड़ी करते हुए राजीव बोला. इंदु, प्रमोद भागेभागे बाहर आए. शालिनी भी आवाज सुन कर बाहर आ गई, ‘‘रमा भाभी, तुम, भैया कहां हैं?’’

‘‘बताती हूं. पहले यह बताओ कि क्या तुम लोग एक दिन के लिए मेरे बच्चों को अपने घर में रख सकते हो?’’ शालिनी ने तुरंत कहा, ‘‘क्यों नहीं. पर बात क्या है?’’

रमा ने उदास स्वर में कहा, ‘‘बात यह है शालिनी कि तुम्हारे भैया अस्पताल में हैं. परसों उन का ऐक्सिडैंट हो गया था. दोनों टांगों में इतनी चोटें आई हैं कि 2 महीने तक उठ कर खड़े नहीं हो सकेंगे. और सोचो, आज दीवाली है.’’

राजीव ने घबरा कर कहा, ‘‘इतनी बड़ी बात हो गई और आप ने हमें बताया तक नहीं?’’ रमा ने कहा, ‘‘तुम्हें तो पता ही है कि मेरे जेठजेठानी यहां आए हुए हैं. अब ये अस्पताल में पड़ेपड़े कह रहे हैं कि पहले ही मालूम होता तो उन्हें बुलाता ही नहीं. कहते हैं तुम लोग जा कर घर में रोशनी करो. मेरा तो क्या, किसी का भी मन इस बात को नहीं मान रहा.’’

राजीव और शालिनी दोनों ही जब चुपचाप खड़े रहे तो रमा ही फिर बोली, ‘‘अब मैं ने और उन के भैया ने कहा कि हमारा मन नहीं है तो वे कहने लगे, ‘‘मैं क्या मर गया हूं जो घर में रोशनी नहीं करोगी? आखिर थोड़ी सी चोटें ही तो हैं. बच्चों के लिए तो तुम्हें करना ही पड़ेगा.’’

‘‘मैं सोचती रही कि क्या करूं. तुम लोगों का खयाल आया तो बच्चों को यहां ले आई. तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’’ इंदु, जो रमा की बातें ध्यान से सुन रही थी, राजीव से बोली, ‘‘पापा, आप राकेश, पिंकी के लिए भी पटाखे लाएंगे न?’’

राजीव चौंक कर बोला, ‘‘हां, हां. जरूर लाऊंगा.’’ राजीव ने कह तो दिया था, पर उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. वह इसी उधेड़बुन में था कि शालिनी अंदर से रुपए ला कर उस के हाथों में रखती हुए बोली, ‘‘जल्दी लौटिएगा.’’ तभी इंदु बोली, ‘‘पापा, आप को अपने दोस्त के घर जाना है न.’’

‘दोस्त के घर,’ राजीव ने चौंक कर इंदु की ओर देखा, ‘‘हां पापा, मां कह रही थीं कि आप के एक दोस्त के हाथ और पैर टूट गए हैं, वहीं आप उन के लिए दीवाली मनाने जाते हैं.’’ राजीव को समझ में नहीं आया कि क्या कहे. उस ने शालिनी को देखा तो वह मुसकरा रही है.

मोटरसाइकिल चलाते हुए राजीव का मन यही कह रहा था कि वह चुपचाप अपनी मित्रमंडली में चला जाए, पर तभी उसे अक्षय की बातें याद आ जातीं. राजीव सोचने लगा कि एक अक्षय है जो अस्पताल में रह कर भी बच्चों की दीवाली की खुशियों को ले कर चिंतित है और एक मैं हूं जो बच्चों को दीवाली मनाने से रोक रहा हूं. शालिनी भी जाने क्या सोचती होगी मेरे बारे में? उस ने बच्चों से उन के पिता की गलती छिपाने के लिए कितनी अच्छी कहानी गढ़ कर सुना रखी है. मोटरसाइकिल का हौर्न सुन कर सब बच्चे भाग कर बाहर आए तो देखा आतिशबाजियां और मिठाई लिए राजीव खड़ा है.

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प्रमोद कहने लगा, ‘‘इंदु, इतनी सारी आतिशबाजियां छोड़ेगा कौन?’’ ‘‘ये हम और तुम्हारी मां छोड़ेंगे,’’ राजीव ने कहा और दरवाजे पर आ खड़ी हुई शालिनी को देखा जो जवाब में मुसकरा रही थी.

शालिनी ने शरारत से पूछा, ‘‘रुपए दूं, अभी तो रात बाकी है?’’ राजीव ने जब कहा, ‘‘सचमुच दोगी?’’ तो शालिनी डर गई. तभी राजीव शालिनी को अपने निकट खींचते हुए बोला, ‘‘मैं कह रहा था कि रुपए दोगी तो बढि़या सा एक खाता तुम्हारे नाम से किसी बैंक में खुलवा दूंगा.’’

आईना- भाग 3 : रिश्तों में संतुलन ना बनाना क्या शोभा की एक बढ़ी गलती थी

चाय बनाने में चारू के हाथ कांप रहे थे. वह डर रही थी तो मैं ने उस का हौसला बढ़ाने के लिए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ कमी होगी तो हम पूरी कर लेंगे. तुम बनाओ तो सही. बनाओ, शाबाश.’’

मेरे इस अभियान में पति भी मेरे साथ हो गए थे. उन्हें विश्वास था कि चारू अच्छी हो जाएगी. शाम को घर आए तो पता चला कि 15 दिन की छुट््टी पर हैं. पूछा तो हंसने लगे, ‘‘क्या करता, आज शोभा का फोन आया था. कहती थी 2 दिन के लिए यहां आना चाहती है. उसे मैं ने टाल दिया. मैं ने कह दिया कि कल से बनारस जा रहे हैं हम, मिल नहीं पाएंगे. इसलिए क्षमा करें.’’

‘‘अच्छा? यह तो मैं ने सोचा ही न था,’’ पति की समझदारी पर भरोसा था मुझे.

‘‘अब चारू के बहाने मैं भी घर पर रह कर आराम करूंगा. चारू नएनए पकवान बनाएगी, है न बिटिया.’’

‘‘मेरी खातिर आप को कितना झूठ बोलना पड़ रहा है.’’

15 दिन कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला. सब बदल गया, मानो हमें बेटी मिल गई हो. सुबह नाश्ते से ले कर रात खाने तक सब चारू ही करती रही. मेरे कितने काम रुके पड़े थे जो मैं गरदन में दर्द की वजह से टालती जा रही थी. चारू ने निबटा दिए थे. घर की सब अलमारियां करीने से सजा दीं और बेकार सामान अलग करवा दिया.

घर की साजसज्जा का भी चारू को शौक है. फैब्रिक पेंट और आयल पेंट से हमारा अतिथि कक्ष अलग ही तरह का लगने लगा. नई सोच और नई ऊर्जा पर मेरी थक चुकी उंगलियां संतुष्ट एवं प्रसन्न थीं. काश, ऐसी ही बहू मुझे भी मिल जाए. क्या दीदी को ऐसा नहीं लगता? फिर सोचती हूं उस की उंगलियां थकी ही कब थीं जो बहू में सहारा खोजतीं. उस ने तो आज तक सदा अभिनय किया और दांवपेच खेल कर अपना काम चलाया है. मेरी बनाई पाक कला पर बड़ी सहजता से अपना नाम चिपकाना, बनीबनाई चीज और पराई मेहनत का सारा श्रेय खुद ले जाना दीदी का सदा का शौक रहा है. भला इस में मेहनत कैसी जो वह थक जाती और बहू का सहारा उसे मीठा लगता.

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अनुराग का फोन अकसर आता रहता. चारू उस से बात करने से भी कतराती. पूछने पर बताने लगी, ‘‘बहुत परेशान किया है मुझे अनुराग ने भी. कम से कम इन्हें तो मेरा साथ देना चाहिए. मेरा मन नहीं है बात करने का.’’

एक दिन चारू बोली, ‘‘मौसी, मैं अपने मायके पापा के पास भाग जाना चाहती थी लेकिन डरती हूं कि पापा को मेरी हालत देख कर धक्का लगेगा. उन्हें भी तो दुखी नहीं करना चाहती.’’

‘‘इस घर को अपने पापा का ही घर समझो, मैं हूं न,’’ भावविह्वल हो कर मेरे पति बोले थे. बरसों से मन में बेटी की साध थी. चारू से इन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. दोनों किसी भी विषय पर अच्छी खासी चर्चा कर बैठते.

‘‘बहुत समझदार और बड़ी सूझबूझ वाली है चारू, इसीलिए तुम्हारी बहन के गले में कांटे की तरह फंस गई. यह तो होना ही था. भला शोभा जैसी औरत इसे कैसे बरदाश्त करती?’’ मेरे पति बोले.

15 दिन बाद अनुराग आया और उस के सभी प्रश्नों के उत्तर उस के सामने थे. मेरे घर की नई साजसज्जा, दीवार पर टंगी खूबसूरत पेंटिंग, सोफों पर पड़े सुंदर कुशन, मेज पर सजा स्वादिष्ठ नाश्ता, सब चारू का ही तो कियाधरा था.

‘‘पता चला, मैं क्यों कहती थी कि चारू को मेरे पास छोड़ जा. कुछ नहीं किया मैं ने, सिर्फ उसे मनचाहा करने की आजादी दी है. पिछले 15 दिन से मैं ने पलट कर भी नहीं देखा कि वह क्या कर रही है. जो लड़की मेरा घर सजासंवार सकती है, क्या अपने घर में निपट गंवार होगी? क्या एक कप चाय भी वह तुम्हें नहीं पिला पाती होगी? अपनी मां का इलाज कराओ अनुराग, चारू तो अच्छीभली है. जाओ, जा कर मिलो उस से, अंदर है वह.’’

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शाम तक अनुराग हमारे ही साथ रहा. घर जाने का समय आया तो हम दोनों का भी मन डूबने लगा. अपने मौसा की छाती से लग कर चारू फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘नहीं बिटिया, रोना नहीं. तुम्हारा अपना घर तो वही है न. अब तुम्हें उसी को सजानासंवारना है. जब भी याद आए, मत सोचना तुम्हारे पापा का घर दूर है. नहीं तो एक फोन ही घुमा देना, हम अपनी बच्ची से मिलने आ जाएंगे.’’

हाथ में पकड़ी सुंदर टाप्स की डब्बी इन्होंने चारू को थमा दी.

‘‘पापा के घर से बिटिया खाली हाथ नहीं न जाती. जाओ बच्ची, फलो- फूलो, खुश रहो.’’

दोनों चले गए. हम उदास भी थे और संतुष्ट भी. पूरी रात अपने कदम का निकलने वाला नतीजा कैसा होगा, सोचते रहे. सुबहसुबह इन्होंने शोभा दीदी के घर फोन किया.

‘‘दीदी, हम बनारस से लौट आए हैं. आप आइए न, कुछ दिन हमारे पास,’’ और कुछ देर इधरउधर की बात करने के बाद हंसते हुए फोन रख दिया.

‘‘सुनो, अब तुम्हारी बहन परेशान हैं. क्या उन्हें भी बुला लें. कह रही हैं, चारू अनुराग के साथ कुछ दिनों के लिए टूर पर गई थी और अब लौटी है तो मेमसाहब के रंगढंग ही बदले हुए हैं. कह रही हैं कि अपना और अनुराग का नाश्ता वह खुद ही बनाएंगी.’’

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हैरान रह गई मैं, ‘‘तो क्या बहू की चुगली दीदी आप से कर रही हैं. उन्हें शर्म है कि नहीं?’’

मेरे पति खिलखिला कर हंस पडे़ थे. हमारा प्रयोग सफल रहा था. चारू संभल गई थी. अब भोगने की बारी दीदी की थी. कभी न कभी तो उसे अपना बोया काटना ही पड़ता न, सो उस का समय शुरू होता है अब.

अब अकसर ऐसा होता है, दीदी आती हैं और घंटों चारू के उसी अभिनय को कोसती रहती हैं जिस के सहारे दीदी ने खुद अपनी उम्र गुजारी है. कौन कहे दीदी से कि उसे आईना दिखाया जा रहा है, यह उसी पेड़ का कड़वा फल है जिस का बीज उस ने हमेशा बोया है. कभी सोचती हूं कि दीदी को समझाऊं लेकिन जानती हूं वह समझेंगी नहीं.

भूल जाता है मनुष्य अपने ओछे कर्म को. अपने संताप का कारण कभीकभी वह स्वयं ही होता है. जरा सा संतुलन अगर रिश्तों में शोभा भी बना लेने का प्रयास करती तो न वह कल औरों को दुखी करती और न ही आज स्वयं परेशान होती.

बीमार थीं क्या: नीलू क्यों हो गई डिप्रेशन की शिकार

‘‘क्याबात है मुन्नी, पीलीपीली सी क्यों लग रही हो? बीमार थीं क्या?’’ भाभी की मां ने बड़े स्नेह से सिर पर हाथ रख कर

मेरा हालचाल पूछा तो मन भीग सा गया. कोई आप के स्वास्थ्य की इतनी चिंता करे तो अच्छा लगता ही है.

‘‘अपने खानेपीने का खयाल रखा करो बेटा. औरत घर की धुरी होती है. वही अगर बीमार पड़ जाए तो पूरा घर अस्तव्यस्त हो जाता है.’’

‘‘जी, आंटीजी, तबीयत थोड़ी ठीक नहीं थी. पहले वायरल हो गया था. उस के बाद खांसी ने जकड़ लिया. आप सुनाइए, कैसा चल रहा है? घर में सब ठीक हैं न?’’

उन के जाने पर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच मेरा चेहरा पीलापीला लग रहा है? अभी तो मैं भाई की शादी के लिए सजीसंवरी हूं. भारी मेकअप करने और गहनों से लदीफंदी मैं इन्हें पीली क्यों लगी? क्या मेकअप ने भी मेरा पीला रंग नहीं छिपाया?

मुझे चिंता ने घेर लिया कि कितना तो खयाल रखती हूं मैं अपनी सेहत का. फिर भी हर साल बीमार हो जाती हूं. पिछले साल भी टाइफाइड होने पर बेहद कमजोर हो गई थी. पूरे 4 महीने लग गए थे मुझे अपनेआप और घर को संभालने में. राजीव कितनी छुट्टियां लेते. हार कर उन की मां और मेरी मां को हमारा घर संभालना पड़ा था. दोनों बारीबारी से आती थीं. तब से अपना विशेष खयाल रखती हूं, क्योंकि पहले ही मैं ससुराल और मायके वालों को परेशान कर चुकी हूं.

भाभी की मां फिर मेरे पास आ कर बोलीं, ‘‘देखो बेटा, सुबहसुबह उठ कर सैर करने जाया करो. रात को 5-6 बादाम भिगो दिया करो.

सुबह छील कर शहद और अदरक के साथ लिया करो.’’

न जाने वे क्याक्या बोलती रहीं. इस का मतलब मैं अभी तक बीमार हूं. क्या राजीव मुझ से झूठ बोलते हैं? मेरे खून की जांच तो वे कराते रहते हैं. वे तो कहते हैं कि अब मेरी तबीयत पूरी तरह ठीक है. शरीर में सारे तत्त्व पूरे हैं. फिर मैं स्वयं भी कोई कमजोरी महसूस नहीं करती. भाई की शादी की तैयारी में भी मैं ने भागभाग कर सारे काम किए हैं और अभीअभी बरात के लिए तैयार हो कर आई हूं. मुझे किसी ने बताया क्यों नहीं कि मैं इतनी बीमार लग रही हूं.

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तभी कोई आ गया और भाभी की मां उन से बातें करने में व्यस्त हो गईं. मैं अनमनी सी भारी कदमों से एक बार फिर भीतर वाले कमरे में चली गई. राजीव ने क्या झूठ बोला मेरे साथ? वे तो कहते थे अब हम अपना परिवार बढ़ाने के बारे में सोच सकते हैं. उस के लिए मेरी सेहत अब पूरी तरह उपयुक्त है, तो क्या राजीव ने झूठ कहा मुझ से कि मैं स्वस्थ हूं? क्या सभी

मुझ से छिपा रहे हैं मेरी बिगड़ी हालत? भैयाभाभी भी, मां भी और विजय भैया भी?

मैं स्वयं को आईने में निहारने लगी कि बीमार तो नहीं लग रही हूं मैं.

एक ही तो बहन हूं मैं अपने भाइयों की. लाडप्यार से पली. सभी सिरआंखों पर लेते हैं मुझे. मैं बीमार हूं किसी ने बताया क्यों नहीं मुझे? क्या सभी ने एकदूसरे को यह समझा रखा है कि जो भी मुझ से मिले बस यही कहे कि मैं बहुत सुंदर लग रही हूं?

अभी बाहर कार से जब मैं निकली तब दिल्ली वाले मौसाजी मिल गए. मुझे देख कर कितने खुश हुए थे, ‘‘अरे वाह, आज तो हमारी बच्ची बहुत सुंदर लग रही है… जीती रहो.’’

अगर मैं बीमार लग रही होती तो क्या मौसाजी बताते नहीं? राजीव तो बारबार तारीफ करते ही हैं मेरी परंतु उन पर अब क्या भरोसा करूं. सवाल यह नहीं है मैं कैसी लग रही हूं, सवाल यह है कि क्या मैं अब भी बीमार ही हूं?

‘‘नीलू, जरा इधर आना तो,’’ भीतर आतेआते दूल्हा बने विजय भैया बोले, ‘‘जरा सूईधागे से सेहरा पगड़ी के साथ ही सी दो… बारबार उतर रहा है. अरे वाह, कितनी सुंदर लग रही है आज मेरी गुडि़या,’’ कुछ पलों को विजय भैया अपना सेहरा संभालना भूल से गए.

मैं शीशे के सामने चुपचाप खड़ी थी. भाई के शब्दों पर आंखें भर आईं मेरी.

‘अरे, क्या हुआ है तुझे नीलू… चुपचाप सी क्यों है?’’

भैया ने पास आ कर सिर पर हाथ रखा.

‘‘क्या मैं अभी भी बीमार लगती हूं विजय भैया?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं तो. किस ने कहा तुम बीमार हो? जब थीं तब थीं अब तो ठीक हो. क्या तुम्हें स्वयं पता नहीं चलता? भागदौड़ कर सारे काम कर रही हो… क्या बीमार महसूस करती हो?’’

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मैं चुपचाप सूईधागा ला कर भैया का सेहरा पगड़ी के साथ सीने लगी. तभी वहां राजीव और विजय भैया के मित्र आ गए.

‘‘यह भाभी की मां की बुरी आदत है विजय कि जिस पर भी प्यार आ रहा है उसी की सेहत खराब करती जा रही हैं… बाहर मुझे मिलीं तो कहने लगीं मैं बहुत बीमार लग रहा हूं… रंग पीला पड़ गया है… हटो जरा सामने से मैं देखूं तो कहां से पीलानीला लग रहा हूं मैं,’’ कह विजय भैया को एक तरफ कर राजीव भी शीशे में स्वयं को गौर से देखने लगे. फिर बोले, ‘‘यार, अच्छाभला तो हूं मैं. पिछले ही महीने मैं ने अपने सारे कपड़े खुलवाए हैं. अगर कमजोर होता तो सब से पहले कपड़े ही ढीले पड़ते हैं न?’’

कुछ देर और आईने में खुद को देख कर राजीव बोले, ‘‘आज तो मैं ने भी खास मेकअप किया है भई… घर का दामाद हूं मैं… अच्छीखासी पौलिश की है चेहरे पर. फिर भी मेरा रंग पीला लग रहा है. बता न विजय क्या सचुमच मैं बीमार लग रहा हूं?’’

क्षण भर को विजय भैया ने मेरा हाथ रोक दिया. मैं भी तनिक चौंकी राजीव के शब्दों पर. हम तीनों की नजरें मिलीं और फिर मिलीजुली हंसी कमरे में गूंज गई.

‘‘लगता है तुम दोनों से ही उन्हें खास प्यार है… क्या करें वे भी. तुम उन की बेटी ननद हो… सुना होगा न तुम बीमार थीं बस उसी को लक्ष्य किया होगा… मुझे भी जब मिलती हैं यही कहती हैं क्या बात है विजय बीमार हो क्या? तबीयत तो ठीक है न बड़े कमजोर लग रहे हो.’’

हंसी में उड़ गया सारा तनाव. वास्तव में कुछ लोगों का प्यार करने का यही ढंग होता है. वे आप के दुश्मन नहीं होते. बस एक तरीका होता है प्यार जताने का जबकि आप की सेहत से भी उन का कोई लेनादेना नहीं होता. वे तो मात्र अपने स्नेह और अपनत्व का प्रदर्शन करते हैं. यह अलग बात है मुझ जैसे बीमारी से उठ कर बड़ी मेहनत कर के स्वस्थ होते इंसान पर इस का विपरीत प्रभाव पड़ता है. मैं बीमार थी अब मैं स्वस्थ होना चाहती हूं. अगर वे मुझ से यही कह देतीं कि वाह नीलू, अब तुम अच्छी लग रही हो. अब कमजोर भी नहीं लग रही तो शायद मेरा उत्साह बढ़ जाता और भाई की शादी की चहलपहल में भी मैं अवसाद से न घिरती.

प्यार इस तरह क्यों व्यक्त किया जाए कि जिस से प्यार किया जा रहा हो उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़े और वह राजीव और मेरी तरह पागल होने लगे. आज के व्यस्त जीवन में जीवन जीवन ही कहां रह गया है. मशीन की तरह काम करते हैं हम पतिपत्नी… हंसने के लिए भी समय नहीं. खुश हैं कि नहीं यह भी पता नहीं चलता. मानों हंसना भी एक मशीनी क्रिया है. हंस दिए तो हंस दिए. न तो न सही.

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आज दिल से सजधज कर भाई की बरात के लिए तैयार हुई तो उन के प्यार ने सब फीका कर दिया. प्यार प्यार कहां रहा वह तो गाली बन गया. भई, अच्छेभले इंसान से अगर इस तरह प्यार किया जाएगा तो उस पर मुझ जैसे इंसान वाला ही प्रभाव पड़ेगा न.

बरात चल पड़ी. खासी गर्मजोशी थी हम सब में. लड़की वालों के घर पहुंचे. जयमाला की रस्म होने लगी. दुलहन से मिलने लगे सब.

‘‘क्या बात है बेटा, बड़ी कमजोर लग रही हो, तबीयत ठीक नहीं थी क्या?’’ यह सुनाई दिया.

मुड़ कर देखा, भाभी की मां दुलहन से प्यार से पूछ रही थीं. राजीव और विजय मेरी तरफ देख मुसकराने लगे, मगर दुलहन के चेहरे पर वही भाव जो कुछ समय पहले मेरे और राजीव के चेहरे पर थे

मुक्ति का बंधन: अभ्रा क्या बंधनों से मुक्त हो पाई?

लेखक- दीपान्विता राय बनर्जी

मुखरित मौन: मानसी को क्या समझाना चाहती थी सुजाता

अवनी आखिर परिमल की हो गई. विदाई का समय आ गया. मम्मीपापा अपनी इकलौती, लाड़ली, नाजों पली गुडि़या सी बेटी को विदा कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. बेटी तो आती रहेगी विवाह के बाद भी, पर बेटी पर यह अधिकारबोध शायद तब न रहेगा.

यह एक प्राचीन मान्यता है. अधिकार तो बेटे पर विवाह के बाद बेटी से भी कम हो जाता है, पर बोध कम नहीं होता शायद. उसी सूत्र को पकड़ कर बेटी के मातापिता की आंखें विदाई के समय आज भी भीग जाती हैं. हृदय आज भी तड़प उठता है, इस आशंका से कि बेटी ससुराल में दुख पाएगी या सुख. हालांकि, आज के समय में यह पता नहीं रहता कि वास्तव में दुख कौन पा सकता है, बेटी या ससुराल वाले. अरमान किस के चूरचूर हो सकते हैं दोनों में से, उम्मीदें किस की ध्वस्त हो सकती हैं.

विदाई के बाद भरीआंखों से अवनी कार में बैठी सड़क पर पीछे छूटती वस्तुओं को देख रही थी. इन वस्तुओं की तरह ही जीवन का एक अध्याय भी पीछे छूट गया था और कल से एक नया अध्याय जुड़ने वाला था जिंदगी की किताब में. जिसे उसे पढ़ना था. लेकिन पता नहीं अध्याय कितना सरल या कठिन हो.

‘मम्मी, मैं परिमल को पसंद करती हूं और उसी से शादी करूंगी,’ घर में उठती रिश्ते की बातों से घबरा कर अवनी ने कुछ घबरातेलरजते शब्दों में मां को सचाई से अवगत कराया.

‘परिमल? पर बेटा वह गैरबिरादरी का लड़का, पूरी तरह शाकाहारी व नौकरीपेशा परिवार है उन का.’

‘उस से क्या फर्क पड़ता है, मम्मी?’

‘लेकिन परिमल की नौकरी भी वहीं पर है. तुझे हमेशा ससुराल में ही रहना पड़ेगा, यह सोचा तूने?’

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‘तो क्या हुआ? आप अपने जानने वाले व्यावसायिक घरों में भी मेरा विवाह करोगे तो क्या साथ में नहीं रहना पड़ेगा? वहां भी रह लूंगी. है ही कौन घर पर, मातापिता ही तो हैं. बहन की शादी तो पहले ही हो चुकी है.’

‘व्यावसायिक घर में तेरी शादी होगी तो रुपएपैसे की कमी न होगी. कई समस्याओं का समाधान आर्थिक मजबूती कर देती है,’ मानसी शंका जाहिर करती हुई बोली.

‘ओहो मम्मी, इतना मत सोचो. अकसर हम जितना सोचते हैं, उतना कुछ होता नहीं है. मैं और परिमल दोनों की अच्छी नौकरियां हैं. मुझे खुद पर पूरा भरोसा है. निबट लूंगी सब बातों से. आप तो बस, पापा को मनाओ, क्योंकि मैं परिमल के अलावा किसी दूसरे से विवाह नहीं करूंगी.’

अवनी के तर्कवितर्क से मानसी निरुत्तर हो गई थी. आजकल के बच्चे कुछ कहें तो मातापिता के होंठों पर हां के सिवा कुछ नहीं होना चाहिए. यही आधुनिक जीवनशैली व विचारधारा का पहला दस्तूर है. अवनी के मातापिता ने भी सहर्ष हां बोल दी. दोनों पक्षों की सफल वार्त्ता के बाद अवनी व परिमल विवाह सूत्र में बंध गए थे.

बरात विदा होने से पहले ही बरातियों की एक कार अपने गंतव्य की तरफ चल दी थी, जिन में परिमल की मम्मी भी थीं ताकि वे जल्दी पहुंच कर बहू के स्वागत की तैयारियां कर सकें. बरात देहरादून से वापस दिल्ली जा रही थी.

बरात जब घर पहुंची तो नईनवेली बहू के स्वागत में सब के पलकपांवड़े बिछ गए. द्वारचार की थोड़ीबहुत रस्मों के बाद गृहप्रवेश हो गया. पंडितजी भी अपनी दक्षिणा पा कर दुम दबा कर भागे और घर पर इंतजार करते बैंड वाले भी अपना कर्तव्य पालन कर भाग खड़े हुए. बरात के दिल्ली पहुंचतेपहुंचते रात के 8 बज गए थे. खाना तैयार था. अधिकांश बराती तो रास्ते से ही इधरउधर हो लिए थे. करीबी रिश्तेदार, जिन्होंने घर तक आने की जरूरत महसूस की थी, भी खाना खा कर जाने को उद्यत हो गए. परिमल की मां सुजाता ने सब को भेंट वगैरह दे कर रुखसत कर दिया.

घर में अब सुजाता, सरस, बेटीदामाद व दूल्हादुलहन रह गए थे. दामाद की नौकरी तो दूसरे शहर में थी, पर घर स्थानीय था. इसलिए बेटीदामाद भी अपने घर चले गए.

‘‘परिमल, तुम ने भी होटल में कमरा बुक किया हुआ है, तुम भी निकल जाओ. तुम्हारे दोस्त तुम्हें छोड़ देंगे और ड्राइवर तुम्हारे दोस्तों को घर छोड़ता हुआ चला जाएगा. काफी देर हो रही है, आराम करो,’’ सरस बोले.

परिमल बहुत थका हुआ था. इतने थके हुए थे दोनों कि उन का होटल जाने का भी मन नहीं हो रहा था, ‘‘यहीं सो जाते हैं, पापा. मेरा कमरा खाली ही तो है. घर में तो कोई मेहमान भी नहीं है.’’

सुजाता चौंक गईं. मन ही मन सोचा, ‘नई बहू क्या सोचेगी.’ ‘‘नहींनहीं, तुम्हारा कमरा तो बहुत अस्तव्यस्त है. आज तो होटल चले जाओ. कल सबकुछ व्यवस्थित कर दूंगी,’’ सुजाता बोलीं.

परिमल दुविधा में सोफे पर बैठा ही रहा और साथ में अवनी भी. थकान के मारे आंखें मुंद रही थीं. मायके की बात होती तो सारा तामझाम उतार कर, शौर्ट्स और टीशर्ट पहन कर, फुल एसी पंखा खोल कर चित्त सो जाती, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं कर सकती थी. इसलिए चुप बैठी रही.

‘‘जाओ परिमल, ड्राइवर इंतजार कर रहा है.’’

‘‘चलो अवनी,’’ थकेमांदे अवनी व परिमल, थके शरीर को धकेल कर कार में बैठ गए. अवनी का दिल कर रहा था पीछे सिर टिकाए और सो जाए.

शादी से पहले उस के पापा ने उस की मम्मी से कहा था कि अवनी व परिमल का दिल्ली से देहरादून की फ्लाइट का टिकट करवा देते हैं. रोड की 7-8 घंटे की जर्नी इन्हें थका देगी. लेकिन भारतीय संस्कार आड़े आ गए. इसलिए मानसी बोलीं, ‘शादी के बाद अवनी उन की बहू है. वे उसे ट्रेन से ले जाएं, कार से ले जाएं, बैलगाड़ी से ले जाएं या फिर फ्लाइट से, हमें बोलने का कोई हक नहीं.’

सुन कर अवनी मन ही मन मुसकरा दी थी, ‘वाह भई, भारतीय परंपरा… सड़क  मार्ग से यात्रा करने में मेरी तबीयत खराब होती है, इसलिए मुझे उलटी की दवाई खा कर जाना पड़ेगा. लेकिन बेटी को चाहे कितनी भी ऊंची शिक्षा दे दो और वह कितने ही बड़े पद पर कार्यरत क्यों न हो, एक ही रात में उस के मालिकों की अदलाबदली कैसे हो जाती है? उस पर अधिकार कैसे बदल जाते हैं? उस की खुद की भी कोई मरजी है? खुद की भी कोई तकलीफ है? खुद का भी कोई निर्णय है? इस विषय में कोई भी जानना नहीं चाह रहा.’

लेकिन उस की शादी होने जा रही थी. वह बमुश्किल एक महीने की छुट्टी ले पाई थी. 20 दिन विवाह से पहले और 10 दिन बाद के. लेकिन उन 10 दिनों की भी कशमकश थी. उसे ससुराल में शादी के बाद की कुछ जरूरी रस्मों में भी शामिल होना था और हनीमून ट्रिप पर भी जाना था. बहुत टाइट शैड्यूल था. शादी से पहले की छुट्टियां भी जरूरी थीं. उसे शादी की तैयारियों के लिए भी समय नहीं मिल पाया था. ऐसा लग रहा था,

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शादी भी औफिस के जरूरी कार्यों की तरह ही निबट रही है. शायद वे दोनों एक महीने के किसी प्रोजैक्ट को पूरा करने आए हैं. ऊपर से मम्मी के उपदेश सुनतेसुनते वह तंग आ गई थी. ‘बहू को ऐसा नहीं करना चाहिए, बहू को वैसा नहीं करना चाहिए, ऐसे रहना, वैसे रहना, चिल्ला कर बात नहीं करना, सुबह उठना, औफिस से आ कर थोड़ी देर सासससुर के पास बैठना, किचन में जितनी बन पाए मदद जरूर करना…’

एक दिन सुनतेसुनते वह भन्ना गई, ‘मम्मी, जब भैया की शादी हुई थी, तब भैया को भी यही सब समझाया था? स्त्रीपुरुष की समानता का जमाना है. भाभी भी नौकरी करती हैं. भैया को भी सबकुछ वही करना चाहिए, जो भाभी करती हैं. मसलन, उन के मातापिता, भाईबहन, रिश्तेदारों से अच्छे संबंध रखना, किचन में मदद करना, भाभी से ऊंचे स्वर में बात न करना, औफिस से आ कर हफ्ते में भाभी के मम्मीपापा से 2-3 बार बात करना और सुबह उठ कर भाभी के साथ मिलजुल कर काम करना आदि…लड़की को ही यह सब क्यों सिखाया जाता है?’

उस के बाद मम्मी के निर्देश कुछ बंद हुए थे. अवनी को मन ही मन मम्मी पर दया आ गई. गलती मम्मी की नहीं, मम्मी की पीढ़ी की है जो नईपुरानी पीढ़ी के बीच झूल रही है. उच्च शिक्षित है लेकिन अधिकतर आत्मनिर्भर नहीं रही. इसलिए कई तरह के अधिकारों से वंचित भी रही. उच्च शिक्षा के कारण गलतसही भले ही समझी हो, नए विचारों को अपनाने का माद्दा भले ही रखती हो, लेकिन गलत को गलत बोलती नहीं है. नए विचारों को अपने आचरण में लाने की हिम्मत नहीं करती.

यहां तक कि मम्मी की पीढ़ी की आत्मनिर्भर महिलाएं भी नईपुरानी विचारधारा के बीच झूलती, नईपुरानी परंपराओं के बीच पिसती रहती हैं. फुल होममेकर्स की शायद आखिरी पीढ़ी है, जो अब समाप्त होने की कगार पर है.

कार होटल पहुंच गई और अवनी व परिमल को कमरे तक पहुंचा कर परिमल के दोस्त चले गए. रात के 12 बज रहे थे. कमरे में पहुंच कर दोनों ने चैन की सांस ली.

2 प्रेमी पिछले 4 सालों से इस रात का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. लेकिन थके शरीर नींद की आगोश में जाना चाहते थे. दोनों इतने थके थे कि बात करने के मूड में भी नहीं थे. शादी की 3 दिनों तक चली परंपरावादी प्रक्रिया ने उन्हें बुरी तरह थका दिया था. ऊपर से देहरादूनदिल्ली का भीड़ के कारण 8-9 घंटे का सफर. दोनों उलटेसीधे कपड़े बदल कर औंधेमुंह सो गए.

सुबह देहरादून व दिल्ली के दोनों घरों में सभी देर से उठे. लेकिन 10 बजतेबजते सभी उठ गए. बेटी को विदा कर बेटी की मां आज भी चैन से कहां रह पाती है, चाहे वह लड़के को बचपन से ही क्यों न जानती हो. 12 बज गए मानसी से रहा न गया. उन्होंने अवनी को फोन मिला दिया. गहरी नींद के सागर में गोते लगा रही अवनी, फोन की घंटी सुन कर बमुश्किल जगी. परिमल भी झुंझला गया. स्क्रीन पर मम्मी का नाम देख कर मोबाइल औन कर कानों से लगा लिया.

‘‘कैसी है मेरी अनी?’’

‘‘सो रही है, मरी नहीं है,’’ अवनी झुंझला कर बोली, ‘‘इतनी सुबह क्यों फोन किया?’’ मम्मी को बुरा तो लगा पर बोली, ‘‘सुबह कहां है, 12 बज रहे हैं, कैसी है?’’

‘‘अरे कैसी है मतलब…कल 12 बजे तो आई हूं देहरादून से. आज 12 बजे तक क्या हो जाएगा मुझे. हमेशा ही तो आती हूं नौकरी पर छुट्टियों के बाद, तब तो आप फोन नहीं करतीं. आज ऐसी क्या खास बात हो गई? कल मैसेज कर तो दिया था पहुंचने का.’’

मानसी निरुत्तर हो, चुप हो गई. ‘‘अभी मैं सो रही हूं, फोन रखो आप. जब उठ जाऊंगी तो खुद ही मिला दूंगी,’’ कह कर अवनी ने फोन रख दिया.

मानसी की आंखें भर आईं. आज की पीढ़ी की बहू की तटस्थता तो दुख देती ही है, पर बेटी की तटस्थता तो दिल चीर कर रख देती है. यह असंवेदनहीन मशीनी पीढ़ी तो किसी से प्यार करना जैसे जानती ही नहीं. जब मां को ऐसे जवाब दे रही है तो सास को कैसे जवाब देगी.

मानसी एक शिक्षित गृहिणी थी और सास सुजाता एक उच्चशिक्षित कामकाजी महिला. वे केंद्रीय विद्यालय में विज्ञान की अध्यापिका थीं. सुबह पौने 8 बजे घर से निकलतीं और साढ़े 4 बजे तक घर पहुंचतीं. सरस रिटायर हो चुके थे. लेकिन सुजाता के रिटायरमैंट में अभी 3 साल बाकी थे. सुजाता आधुनिक जमाने की उच्चशिक्षित सास थीं. कभी कार, कभी स्कूटी चला कर स्कूल जातीं, लैपटौप पर उंगलियां चलातीं. और जब किचन में हर तरह का खाना बनातीं, कामवाली के न आने पर बरतन धोतीं, झाड़ूपोंछा करतीं तो उन के ये सब गुण पता भी न चलते. सरस एक पीढ़ी पहले के पति, पत्नी के कामकाजी होने के बावजूद, गृहकार्य में मदद करने में अपनी हेठी समझते और पत्नी से सबकुछ हाथ में मिल जाने की उम्मीद करते.

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सुजाता सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी व्यस्त थीं. नौकरी की व्यस्तता के कारण उन का ध्यान दूसरी कई फालतू बातों की तरफ नहीं जाने पाता था. दूसरा, सोचने का आयाम बहुत बड़ा था. कई बातें उन की सोच में रुकती ही नहीं थीं. इधर से शुरू हो कर उधर गुजर जाती थीं.

2 बज गए थे. लंच का समय हो गया था. बच्चे अभी होटल से नहीं आए थे. सरस ने एकदो बार फोन करने की पेशकश की, पर सुजाता ने सख्ती से मना कर दिया कि उन्हें फोन कर के डिस्टर्ब करना गलत है.

‘‘तुम्हें भूख लग रही है, सरस, तो हम खाना खा लेते हैं.’’

‘‘बच्चों का इंतजार कर लेते हैं.’’

‘‘बच्चे तो अब यहीं रहेंगे. थोड़ी देर और देखते हैं, फिर खा लेते हैं. न उन्हें बांधो, न खुद बंधो. वे आएंगे तो उन के साथ कुछ मीठा खा लेंगे.’’

सुजाता के जोर देने पर थोड़ी देर

बाद सुजाता व सरस ने खाना खा लिया. बच्चे 4 बजे के करीब आए. वे सो कर ही 2 बजे उठे थे. अब कुछ फ्रैश लग रहे थे. उन के आने से घर में चहलपहल हो गई. सरस और सुजाता को लगा बिना मौसम बहार आ गई हो. सुजाता ने उन का कमरा व्यवस्थित कर दिया था. बच्चों का भी होटल जाने का कोई मूड नहीं था. परिमल भी अपने ही कमरे में रहना चाहता था. इसलिए वे अपनी अटैचियां साथ ले कर आ गए थे. थोड़ी देर घर में रौनक कर, खाना खा कर बच्चे फिर अपने कमरे में समा गए.

अवनी अपनी मम्मी को फोन करना फिर भूल गई. बेचैनी में मानसी का दिन नहीं कट रहा था. दोबारा फोन मिलाने पर अवनी की सुबह की डांट याद आ रही थी. इसलिए थकहार कर समधिन सुजाता को फोन मिला दिया. थकी हुई सुजाता भी लंच के बाद नींद के सागर में गोते लगा रही थीं. घंटी की आवाज से बमुश्किल आंखें खोल कर मोबाइल पर नजरें गड़ाईं. समधिन मानसी का नाम देख कर हड़बड़ा कर उठ कर बैठ गईं.

‘‘हैलो,’’ वे आवाज को संयत कर नींद की खुमारी से बाहर खींचती हुई बोलीं.

‘‘हैलो, सुजाताजी, लगता है आप को डिस्टर्ब कर दिया. दरअसल, अवनी ने फोन करने को कहा था, पर अभी तक नहीं किया.’’

‘‘ओह, अवनी अपने कमरे में है. बच्चे 4 बजे आए होटल से. खाना खा कर कमरे में चले गए हैं. फोन करना भूल गई होगी शायद. जब बाहर आएगी तो मैं याद दिला दूंगी.’’

‘‘हां, जी,’’ बेटी की सुबह की डांट से क्षुब्ध मानसी सुजाता से भी संभल कर व धीमी आवाज में बात कर रही थी. सुजाता का हृदय द्रवित हो गया. बेटी की मां ऐसी ही होती है.

‘‘बेटी की याद आ रही है?’’ वे स्नेह से बोलीं.

‘‘हां, आ तो रही है,’’ मानसी की आवाज भावनाओं के दबाव से नम हो गई, ‘‘पर ये आजकल के बच्चे, मातापिता की भावनाओं को समझते कहां हैं,’’ सुबह की घटना से व्यथित मानसी बोल पड़ी.

‘‘नहींनहीं, ऐसी बात नहीं. दरअसल, बच्चों के जीवन में उलझने के लिए बहुतकुछ है. और मातापिता के जीवन में सिर्फ बच्चे, इसलिए ऐसा लगता है. अवनी बहुत प्यारी बच्ची है. लेकिन अभी नईनई शादी है न, इसलिए आप चिंता मत कीजिए. वह आप की लाड़ली बेटी है तो हमारे घर की भी संजीवनी है. बाहर आएगी तो मैं बात करने के लिए कह दूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर मानसी ने फोन रख दिया. सुजाता की नींद तो मानसी के फोन से उड़ गई थी. सरस भी आवाज से उठ गए थे. इसलिए वह उठ कर मुंहहाथ धो कर चाय बना कर ले आई.

बच्चे दूसरे दिन हनीमून पर निकल गए. वापस आए तो कुछ दिन अवनी के घर देहरादून चले गए. इस बीच, सुजाता की छुट्टियां खत्म हो गईं. बच्चे वापस आए तो उन की भी छुट्टियां खत्म हो गई थीं. दोनों के औफिस शुरू हो गए और दोनों अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. वैसे तो सुजाता बहुत ही आधुनिक विचारों की कामकाजी सास थीं पर वे इस नई पीढ़ी को नवविवाहित जीवन की शुरुआत करते बड़े आश्चर्य व कुतूहल से देख रही थीं. इन बच्चों की दिनचर्या में उन के मोबाइल व लैपटौप के अलावा किसी के लिए भी जगह नहीं थी.

उन के औफिस संबंधी अधिकतर काम तो मोबाइल से ही निबटते थे. बाकी बचे लैपटौप से. सुबह 8, साढ़े 8 बजे के निकले बच्चे रात के साढ़े 8 बजे के बाद ही घर में घुसते. उन की दिनचर्या में अपने नवविवाहित साथी के लिए ही जगह नहीं थी, फिर सासससुर की कौन कहे. ‘‘इन्हें प्यार करने के लिए फुरसत कैसे मिली होगी?’’ सुजाता अकसर सरस से परिहास करतीं, ‘‘लगता है प्यार भी मोबाइल पर ही निबटा लिया होगा औफिस के जरूरी कार्यों की तरह.’’

मानसी बेटी से बात करने के लिए तरस जाती. पहले सिर्फ उस की नौकरी थी, इसलिए थोड़ीबहुत बात हो जाती थी. पर अब उस की दिनचर्या का थोड़ाबहुत हिस्सेदार परिमल भी हो गया था.

‘‘सासससुर के साथ भी थोड़ाबहुत बैठती है छुट्टी के दिन? कभी किचन का रुख भी कर लिया कर. अब तेरी शादी हो गई है. तेरे सासससुर अच्छे हैं पर थोड़ीबहुत उम्मीद तो वे भी करते होंगे,’’  एक दिन फोन पर बात करते हुए मानसी बोली.

‘‘उफ, मम्मी, फिर शुरू हो गए आप के उपदेश. अरे, जब मैं किसी से बदलने की उम्मीद नहीं करती, जो जैसा है वैसा ही रह रहा है, तो मुझ से बदलने की उम्मीद कैसे कर सकता है कोई. शादी मेरे लिए ही सजा क्यों है. यह मत पहनो, वह मत करो. मन हो न हो, सब से बातचीत करो. जल्दी उठो. रिश्तेदार आएं तो उन्हें खुश करो,’’ अवनी झल्ला कर बोली.

कमरे के बाहर से गुजरती सुजाता के कानों में अवनी की ये बातें पड़ गईं. सुजाता बहुत ही खुले विचारों की महिला थीं. हर बात का सकारात्मक पहलू देखना व विश्लेषणात्मक तरीके से सोचना उन की आदत थी.

पारंपरिक सास के कवच से बाहर आ कर एक स्त्री के नजरिए से वे सोचने लगीं, ‘आखिर गलत क्या कह रही है अवनी. शादी सजा क्यों बन जाती है किसी लड़की के लिए. लड़के के लिए शादी न कल सजा थी न आज, पर लड़की के लिए…वे खुद भी कामकाजी रही हैं. अंदरबाहर की जिम्मेदारियों में बुरी तरह पिसी हैं. पति ने भी इतना साथ नहीं दिया. कितने ही क्षण ऐसे आए जब नौकरी बचाना भी मुश्किल हो गया था. कामकाजी होते हुए भी उन से एक संपूर्ण गृहिणी वाली उम्मीद की गई.’

ऐसे विचार कई बार उन के हृदय को भी आंदोलित करते थे. पर गलत को गलत कहने की उच्चशिक्षित होते हुए यहां तक कि आर्थिकरूप से आत्मनिर्भर होते हुए भी उन की पीढ़ी ने हिमाकत नहीं की. उन्हें लग रहा था जैसे उन की पीढ़ी का मौन अब अवनी की पीढ़ी की लड़कियों के मुंह से मुखरित हो रहा है. अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की दिनचर्या अपने हिसाब से शुरू होती है और अपने हिसाब से खत्म होती है. यह देख कर उन्हें अच्छा भी लगता. अवनी की पीढ़ी की लड़की का जीवन पतिरूपी पुरुष के जीवन के खिलने व सफल होने के लिए आधार मात्र नहीं है बल्कि दोनों ही बराबर के स्तंभ थे. एक भी कम या ज्यादा नहीं. वे अपने बेटे को अवनी से ज्यादा बदलते हुए देख रही थीं शादी के बाद.

वह पहले से जल्दी उठता. दोनों भागदौड़ कर तैयार होते. बैडरूम ठीक करते. अपनेअपने कपड़े प्रैस करते, उन्हें अलमारियों में लगाते. नाश्ते के लिए एक टोस्ट सेंकता तो दूसरा कोल्ड कौफी बनाता. एक कौर्नफ्लैक्स बाउल में डालता तो दूसरा दूध गिलास में. एक औमलेट बनाता तो दूसरा टोस्ट पर बटर लगाता. सुजाता खुद कामकाजी थीं. इसलिए उन की बहुत अधिक मदद नहीं कर सकती थीं. बस, घर की व्यवस्था उन्हें ठीकठाक मिल रही थी. राशनपानी, सब्जी कब कहां से आएगा, कामवाली कब काम करेगी, खाना कब बनेगा, इस का सिरदर्द न होना भी बहुत बड़ी मदद थी. इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर मदद को ले कर वे चुप ही रहती थीं.

लेकिन परिमल को हर कदम पर अवनी का साथ व स्वतंत्रता देते देख, सुजाता को अपना जीवन व्यर्थ जाया जाने जैसा लगता. वे खुद तो कभी नौकरी व घर के बीच पूरी ही नहीं पड़ीं. ऊपर से सारे रिश्तेनाते. अवनी को तो रिश्तेनाते निभाने की कोई फिक्र ही नहीं थी. यहां तक तो उस की न तो सोच जाती न ही समय था. उस पर भी अब परिवार छोटे. एक टाइम की चाय भी नहीं पिलानी है. और फिर व्हाट्सऐप…चाय की प्याली भी गुडमौर्निंग के साथ व्हाट्सऐप पर भेज दो, और जरूरत पड़ने पर बर्थडे केक भी, यह सब सोच कर सुजाता मन ही मन मुसकराईं.

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अवनी की पीढ़ी की लड़कियों ने जैसे एक युद्ध छेड़ रखा है. वर्षों से आ रही नारी की पारंपरिक छवि के विरुद्ध सुजाता सोचतीं, भले ही कितना कोस लो आजकल की लड़कियों को, सच तो यह है कि सही मानो में वे अपना जीवन जी रही हैं. मुखरित हो चुकी हैं, यह पीढ़ी ऐसा ही जीवन शायद उन की पीढ़ी या उन से पहले और उन से पहले की भी पीढ़ी की लड़कियों ने चाहा होगा पर कायदे और रीतिरिवाजों में बंध कर रह गईं. पुरुषों के बराबर समानता स्त्रियों को किसी ने नहीं दी. लेकिन यह पीढ़ी अपना वह अधिकार छीन कर ले रही है.

फिर विकास तो अपने साथ कुछ विनाश तो ले कर आता ही है. गेहूं के साथ घुन तो पिस ही जाता है. अवनी और परिमल दोनों आजकल अत्यधिक व्यस्त थे. रात में भी देर से लौट रहे थे. वर्कलोड बहुत था. दोनों के रिव्यू होने वाले थे. घर आ कर दोनों जैसातैसा खा कर दोचार बातें कर के औंधेमुंह सो जाते. छुट्टी के दिन भी दोनों लैपटौप पर आंखें गड़ाए रहते.

मानसी की बेचैनी सीमा पार कर रही थी. उस में सुजाता जैसा धैर्य नहीं था. न ही वह सुजाता की तरह व्यस्त थी. इसलिए नई पीढ़ी की अपनी बहू के क्रियाकलापों को भी सहजता से नहीं ले पाती और अपनी भड़ास निकालने के लिए बेटी के कान भी उपलब्ध नहीं थे. मां के दुखदर्द सुनना अवनी की पीढ़ी की लड़कियों की न आदत है न फुरसत. पर बेटी से मोह कम कर बहू से मोह बढ़ाना मानसी जैसी महिलाओं को भी नहीं आता.

यदि अवनी ससुराल में न रह कर कहीं अलग रह रही होती तो मानसी अब तक आ धमकती. पर नएनए समधियाने में जा कर रहने में पुराने संस्कार थोड़े आड़े आ ही जाते थे. बेटी तो 2-4 बातें कर के फोन रख देती पर जबतब सुजाता से बात कर वह अपनी भड़ास निकाल लेती.

उन का इस कदर पुत्रीमोह देख कर सुजाता को अजीब तरह का अपराधबोध सालने लगता. जैसे उन की बेटी को उन से अलग कर के उन्होंने कोई गुनाह कर दिया हो. उन्हें कभी मानसी की फोन पर कही अजीबोगरीब बातों से चिड़चिड़ाहट होती तो कभी खुद भी एक बेटी की मां होने के नाते द्रवित हो जातीं.

बेटी से प्यार तो सुजाता को भी बहुत था. पर उस की व्यस्तता उन्हें प्यार जताने तक का समय नहीं देती, मोह की कौन कहे. पर मानसी की हालत देख कर उन्हें लगता कि सच ही कहते हैं, ‘खाली दिमाग शैतान का घर.’ हर इंसान को कहीं न कहीं व्यस्त रहना चाहिए. नौकरी ही जरूरी नहीं है और भी कई तरीके हैं व्यस्त रहने के. उस का दिल करता किसी दिन इतमीनान से समझाए मानसी को कि बच्चों से मोह अब कुछ कम करे और खुद की जिंदगी से प्यार करे.

अभी 55-56 वर्ष की उम्र होगी उन की. बहुत कुछ है जिंदगी में करने के लिए अभी. हर समय बेटीबेटी कर के, उस के मोह में फंस कर, वह खुद की भी जिंदगी बोझ बना रही है और बेटी की जिंदगी में भी उलझन पैदा कर रही है. अवनी की पीढ़ी

की लड़कियों की जिंदगी व्यस्तताभरी है. इस पीढ़ी को कहां फुरसत है कि वह मातापिता, सासससुर के भावनात्मक पक्ष को अंदर तक महसूस करे. लेकिन समझा न पाती, रिश्ता ही ऐसा था.

इसी बीच, कंपनी ने अवनी को 15 दिन की ट्रेनिंग के लिए चेन्नई भेज दिया. अवनी जाने की तैयारी करने लगी. घर में किसी के मन में दूसरा विचार ही न आया. एक आत्मनिर्भर लड़की को औफिस के काम से जाना है, तो बस जाना है. लेकिन अवनी की मम्मी बेचैन हो गई.

‘‘कैसे रहेगी तू वहां अकेली इतने दिन. कभी अकेली रही नहीं तू. दिल्ली में भी तू अपनी फ्रैंड के साथ रहती थी,’’ मानसी कह रही थी. सुजाता को भी मोबाइल की आवाज सुनाई दे रही थी.

‘‘अकेले का क्या मतलब मम्मी. नौकरी में तो यह सब चलता रहता है. कंपनी मुझे भेज रही है. आप हर समय चिंता में क्यों डूबी रहती हैं. ऐसा करो आप और पापा कुछ दिनों के लिए कहीं घूम आओ या ऐसा करो गरीब बच्चों को इकट्ठा कर के आप पढ़ाना शुरू कर दो,’’ अवनी भन्नाती हुई बोली. अवनी की बात सुन कर सुजाता की हंसी छूटने को हुई.

‘‘तू हर समय बात टाल देती है. मैं तुझे अकेले नहीं जाने दे सकती. मैं चलती हूं तेरे साथ.’’

‘‘आफ्फो मम्मी, आप का वश चले तो मुझे वाशरूम भी अकेले न जाने दो. मेरी शादी हो गई है अब. जब यहां किसी को एतराज नहीं तो आप क्यों परेशान हो रही हैं. मेरे साथ जाने की कोई जरूरत नहीं.’’

‘‘मां की चिंता तू क्या जाने. जब मां बनेगी तब समझेगी,’’ मानसी की आवाज भर्रा गई.

‘‘मां, अगर इतनी चिंता करती हैं तो मुझे मां ही नहीं बनना. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. मैं फोन औफ कर रही हूं. मुझे औफिस का जरूरी काम खत्म करना है.’’

‘‘अच्छा, फोन औफ मत कर. जरा मम्मी से बात करा अपनी.’’

अवनी ने फोन सुजाता को पकड़ा दिया. आज मानसी की बातें सुन कर सुजाता का दिल किया कि बुरा ही मान जाए मानसी पर वे अब चुप नहीं रहेंगी, अपनी बात बोल कर रहेंगी. वे फोन पर बात करतेकरते अपने कमरे में आ कर बैठ गईं.

‘‘देख रही हैं आप. कैसे रहेगी वहां अकेली. मुझे भी मना कर रही है. आप परिमल से कहिए न कि छुट्टी ले कर उस के साथ जाए.’’ उस की बेसिरपैर की बात पर झुंझलाहट हो गई सुजाता को.

‘‘परिमल के पास इतनी छुट्टी कहां है मानसीजी. और फिर यह तो शुरुआत है. जैसेजैसे नौकरी में समय होता जाएगा, ऐसे मौके तो आते रहेंगे. आप चिंता क्यों कर रही हैं. आप ने उच्च शिक्षा दी है बेटी को तो कुछ अच्छा करने के लिए ही न. घर बैठने के लिए तो नहीं. समझदार व आत्मविश्वासी लड़कियां हैं आजकल की. इतनी चिंता करनी छोड़ दीजिए आप भी.’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं आप. कैसे छोड़ दूं चिंता. आप नहीं करतीं अपनी बेटी की चिंता?’’

‘‘मैं चिंता करती हूं मानसीजी, पर अपनी चिंता बच्चों पर लादती नहीं हूं.’’ सुजाता का दिल किया, अगला वाक्य बोले, ‘और न बेटी की सास को जबतब कुछ ऐसावैसा बोल कर परेशान करती हूं,’ पर स्वर को संभाल कर बोलीं, ‘‘बच्चों की अपनी जिंदगी है. यदि बच्चे अपनी जिंदगी में खुश हैं तो बस मातापिता को चाहिए कि दर्शक बन कर उन की खुशी को निहारें और खुद को व्यस्त रखें. आज की पीढ़ी बहुत व्यस्त है, इन की तुलना अपनी पीढ़ी से मत कीजिए. इस का मतलब यह नहीं कि बच्चों को हम से प्यार नहीं, पर उन की दिनचर्या ही ऐसी है कि कई छोटीछोटी खुशियों के लिए उन के पास समय ही नहीं है या कहना चाहिए खुशियों के मापदंड ही बदल गए हैं उन की जिंदगी के.’’

मानसी एकाएक रो पड़ी फोन पर. सुजाता का दिल पसीज गया. लेकिन सोचा, आखिर बेटी से मोह भंग तो होना ही चाहिए मानसी का.

‘‘मानसीजी, क्यों दिल छोटा कर रही हैं. अवनी आप की बेटी है और जिंदगीभर आप की बेटी रहेगी. लेकिन एक बच्ची आप के पास भी है. उसे भी अवनी के नजरिए से देखेंगी तो वह भी उतनी ही अपनी लगेगी. प्यार कीजिए बच्चों से, पर अपना प्यार, अपना रिश्ता लाद कर उन की जिंदगी नियंत्रित मत कीजिए. बल्कि, अपनी जिंदगी खुशी से जीने के तरीके ढूंढि़ए. अभी हमारी ऐसी उम्र नहीं हुई है. खूबसूरत उम्र है यह तो. सब जिम्मेदारियों से अब जा कर फारिग हुए हैं. अपने छूटे हुए शौक पूरे कीजिए. अब वे दिन लद गए कि बच्चों की शादी की और बुढ़ापा आ गया. अब तो समय आया है एक नई शुरुआत करने का.’’

मानसी चुप हो गई. सुजाता को समझ नहीं आ रहा था कि मानसी उन की बात कितनी समझी, कितनी नहीं. उसे अच्छा लगा या बुरा. ‘‘आप सुन रही हैं न,’’ वे धीरे से बोलीं.

‘‘हूं…’’

‘‘मैं आप का दिल नहीं दुखाना चाहती, बल्कि बड़ी बहन की तरह आप का साथ देना चाहती हूं. अवनी खुश है अपनी जिंदगी में. व्यस्त है अपनी नौकरी में. आप के पास कम आ पाती है, कम बात कर पाती है तो क्या आप सोचती हैं कि वह हमारे पास रहती है, तो हमारी बहुत बातें हो जाती हैं. आप दूर हैं, फिर भी फोन पर बात कर लेती हैं, लेकिन मैं तो जब उसे अपने सामने थका हुआ देखती हूं तो खुद ही बातों में उलझाने का मन नहीं करता. छुट्टी के दिन बच्चे काफी देर से सो कर उठते हैं. फिर उन के हफ्ते में करने वाले कई काम होते हैं. शाम को थोड़ाबहुत इधरउधर घूमने या मूवी देखने चले जाते हैं.

‘‘यदि इस तरह से हम हर समय अपनी खुशियों के लिए बच्चों का मुंह देखते रहेंगे तो हमारी खुशियां रेत की तरह फिसल जाएंगी मुट्ठी से और हथेली में कुछ भी न बचेगा. इसीलिए कहा इतना कुछ. अगर मेरी बात का बुरा लगा हो तो क्षमा चाहती हूं.’’

‘‘नहींनहीं, आप की बात का बुरा नहीं लगा मुझे. बल्कि आप की बात पर सोच रही हूं. बहुत सही कह रही हैं. अवनी भी जबतब कुछ ऐसा ही समझाती है मगर झल्ला कर. मैं भी कोई नई राह ढूंढ़ती हूं. आप नौकरी में व्यस्त हैं, इसीलिए जिंदगी को सही तरीके से समझ पा रही हैं शायद.’’

‘‘नौकरी के अलावा भी बहुत से रास्ते हैं जिंदगी में व्यस्त रहने के. मैं भी रिटायरमैंट के बाद कोई नया रास्ता ढूंढ़ूंगी. आप भी सोच कर ढूंढि़ए और ढूंढ़ कर सोचिए,’’ कह कर सुजाता हंस दी.

‘‘हां जी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं. कब जा रही है अवनी?’’

‘‘परसों सुबह की फ्लाइट से.’’

‘‘ठीक है. कल रात उसे ‘गुड विशेज’ का मैसेज कर दूंगी,’’ कह कर मानसी खिलखिला कर हंस पड़ी और साथ ही सुजाता भी.

बबूल का पौधा- भाग 2 : अवंतिका ने कौनसा चुना था रास्ता

धीरेधीरे अवंतिका रमन की सैक्रेटरी कम और उस की पर्सनल अधिक होने लगी. कहीं आग लगे तो धुआं उठना स्वाभाविक है. अवंतिका और रमन को ले कर भी औफिस में थोड़ीबहुत गौसिप हुई, लेकिन आजकल किसे इतनी फुरसत है कि किसी के फटे में टांग अड़ाए. वैसे भी हमाम में सभी नंगे होते हैं.

लगभग 2 साल बाद रमन का ट्रांसफर हो गया. जातेजाते वह अंतिम उपहार के रूप में उसे वेतनवृद्धि दे गया. रमन के बाद अमन डाइरैक्टर के पद पर आए. कुछ दिन की औपचारिकता के बाद अब अवंतिका अमन की पर्सनल होने लगी.

धीरेधीरे अवंतिका के घर में सुखसुविधाएं जुटने लगीं, लेकिन मियां गालिब  की, ‘‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,’’ की तरह अवंतिका की ख्वाहिशों की सूची आम लड़कियों से जरा लंबी थी. इस जन्म में तो खुद उस की और सुकेश की तनख्वाह से उन का पूरा होना संभव नहीं था.

अब यह भी तो संभव नहीं न कि बची हुई इच्छाएं पूरी करने के लिए किसी और जन्म का इंतजार किया जाए. सबकुछ विचार कर आखिर अवंतिका ने तय किया कि इच्छाएं तो इसी जन्म में पूरी करनी हैं, तरीका चाहे जो हो.

आजकल अवंतिका की निगाहें टीवी पर आने अपनी वाले हीरे के आभूषणों वाले विज्ञापनों पर अटक जाती है.

‘हीरा नहीं पहना तो क्या पहना,’ अपनी खाली उंगली को देख कर वह ठंडी सांस भर कर रह जाती.

‘समय कम है अवंतिका. 28 की होने को हो, 35 तक ढल जाओगी. जो कुछ हासिल करना है, इसी दरमियां करना है. फिर यह रूप, यह हुस्न रहे न रहे,’ अवंतिका अपनी सचाई से वाकिफ थी. वह जानती थी कि अदाओं के खेल की उम्र अधिक नहीं होती, लेकिन कमबख्त ख्वाहिशों की उम्र बहुत लंबी होती है. ये तो सांसें छूटने के साथ ही छूटती हैं.

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‘क्या करूं, अमन सर ने तो पिछले दिनों ही उसे सोने के इयररिंग्स दिलाए थे. इतनी जल्दी हीरे की अंगूठी मुश्किल है. सुकेश से कहने का कोई मतलब भी नहीं. तो क्या किया जाए? कैसे अमन सर को शीशे में उतारा जाए,’ अवंतिका दिनरात इसी उधेड़बुन में थी कि अचानक अमन के ट्रांसफर और्डर आ गए. अवंतिका खुशी से झम उठी. अब आलोक उस के नए बौस थे.

‘हीरा तो नए बौस से ही लिया जाएगा,’ सोच कर उम्मीद की किरण से उस की आंखें चमक उठीं, लेकिन आलोक को प्रत्यक्ष देखने के बाद उस की यह चमक फक्क पड़ गई.

दरअसल, आलोक उस के पहले वाले दोनों बौस से अधिक जवान था. लगभग 40 के आसपास. उम्र का कम फासला ही अवंतिका की चिंता का कारण था क्योंकि इस उम्र में लगभग हरेक पुरुष अपने बैडरूम में संतुष्ट ही रहता है.

‘कौन जाने मुझ में दिलचस्पी लेगा भी या नहीं,’ आलोक को देख कर अवंतिका के होंठ सिकुड़ गए.

तभी विचार कौंधा कि वह औरत ही क्या जो किसी पुरुष में खुद के लिए दिलचस्पी  पैदा ना कर सके और यह विचार आते ही अवंतिका ने आलोक को एक प्रोजैक्ट के रूप में देखना शुरू कर दिया.

‘लक्ष्य हासिल हो या न हो, लेकिन खेल तो मजेदार जरूर होने वाला है,’ सोच स्टाफ के अन्य कर्मचारियों के साथ मुसकराती हुई खड़ी अवंतिका ने आगे बढ़ कर अपना परिचय दिया. वह यह देख कर कुछ निराश हुई कि आलोक ने उसे ठीक से देखा तक नहीं, लेकिन अवंतिका हार मानने वालों में से नहीं थी. वह हर बाजी जीतना जानती थी. हुस्न, जवानी, अदाएं और शोखियां उस के हथियार थे.

पर्सनल सैक्रेटरी थी तो बहुत से पर्सनल काम जैसे बौस के लिए कौफी बनाना, लंच और्डर करना आदि भी अवंतिका ने खुद पर ले रखे थे. आलोक के लिए भी वह ये सब अपनी ड्यूटी समझ कर कर रही थी.

बैंगल बौक्स में रखी चूडि़यां आखिर कब तक न खनकतीं. आलोक भी धीरेधीरे उस से  खुलने लगा. बातों ही बातों में अवंतिका ने जान लिया कि एक ऐक्सिडैंट के बाद से आलोक की पत्नी के कमर से नीचे के अंग काम नहीं करते. पिछले लगभग 5 वर्षों से उस का सारा दैनिक काम भी एक नर्स की मदद से ही हो रहा है. अवंतिका उस के प्रति सहानुभूति से भर गई.

कभीकभार वह उस से मिलने आलोक के घर भी जाने लगी. इस से आलोक के साथ उस के रिश्ते में थोड़ी नजदीकियां बढ़ीं. इसी दौरान एक रोज उसे आलोक के शायराना शौक के बारे में पता चला. डायरी देखी तो सचमुच कुछ उम्दा गजलें लिखी हुई थीं.

अवंतिका उस से गीतों, गजलों और कविताओं के बारे में अधिक से अधिक बात करने लगी. लंच भी वह उस के साथ उस के चैंबर में ही करने लगी. खाना खाते समय अकसर अवंतिका अपने मोबाइल पर धीमी आवाज में गजलें चला देती. कभीकभी कुछ गुनगुना भी देती. आलोक भी उस का साथ देने लगा. अवंतिका ने उस के शौक की शमा को फिर से रोशन कर दिया. बात शौक की हो तो कौन व्यक्ति भला पिघल न जाएगा.

‘‘सर प्लीज, कुछ लाइनें मुझ पर भी लिखिए न,’’ एक रोज अवंतिका ने प्यार से जिद की.

आलोक केवल मुसकरा कर रह गया.

सप्ताहभर बाद ही आलोक को पास के गांव में एक किसान कैंप  अटैंड करने की सूचना मिली. अवंतिका को भी साथ जाना था. दोनों औफिस की गाड़ी से अलसुबह ही निकल गए. अवंतिका घर से सैंडविच बना कर लाई थी. गाड़ी में बैठेबैठे ही दोनों ने नाश्ता किया. फिर एक ढाबे पर रुक कर चाय पी. 2 घंटे के सफर में दोनों के बीच बहुत सी इधरउधर की और कुछ व्यक्तिगत बातें भी हुईं. कच्ची सड़क पर गाड़ी के हिचकोले उन्हें और भी अधिक पास आने का अवसर दे रहे थे. अवंतिका ने महसूस किया कि आलोक की पहले झटके पर टकराने वाली ?िझक हर झटके के साथ लगातार कम होती जा रही है.

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‘मैन विल बी मैन,’ एक विज्ञापन का खयाल आते ही अवंतिका मुसकरा दी.

कैंप बहुत सफल रहा. हैड औफिस से मिली बधाई के मेल ने आलोक के उत्साह को कई गुना बढ़ा दिया. वापसी तक दोनों काफी कुछ अनौपचारिक हो चुके थे. खुशनुमा मूड में आलोक ने अपनी एक पुरानी लिखी गजल तरन्नुम में सुनाई तो अवंतिका दाद दिए बिना नहीं रह सकी.

‘‘मैं ने भी आप से कुछ पंक्तियां लिखने का आग्रह किया था. कब लिखोगे?’’ कहते हुए उस ने धीरे से अपना सिर आलोक के कंधे की तरफ झका दिया.

उस के समर्पित स्पर्श से आलोक किसी मूर्ति की भांति स्थिर रह गया.

‘‘अगली बार,’’ किसी तरह बोल पाया.

यह अगली बार जल्द ही आ गई. विभाग के सालाना जलसे में भाग लेने के लिए दोनों को सपरिवार गोवा जाने का निमंत्रण था. आलोक

की पत्नी का जाना तो नामुमकिन था ही, अवंतिका ने भी औपचारिक रूप से सुकेश को साथ चलने के लिए कहा, लेकिन उस ने औफिस में काम अधिक होने का कह कर असमर्थता जता दी तो अवंतिका ने भी अधिक जिद नहीं की.

उस की आंखों में एक बार फिर हीरे की अंगूठी नाचने लगी.

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