
मैं इस चेहरे के बारे में. कुछ ऐसा जो इस चेहरे से बहुत जुड़ा हुआ सा, कुछ इस के अतीत से, कुछ इस के बीते हुए कल से, कौन है आखिर वह? कार्यालय में भी मैं फुरसत में उसी चेहरे के बारे में सोचता रहा, कौन था आखिर वह?
वापसी में भी मैं भीड़ में नजर दौड़ाता रहा, शायद वह चेहरा नजर आ जाए.
ऐसा होता है न अकसर, हम बिना वजह परेशान हो उठते हैं. अचेतन में कुछ ऐसा इतना सक्रिय हो उठता है कि बीता हुआ कुछ धुंधली सी सूरत में मानस पटल पर आनेजाने लगता है. न साफ नजर आता है न पूरी तरह छिपता ही है.
‘‘क्या बात है, आज आप कुछ परेशान से नजर आ रहे हैं. कुछ सोच रहे हैं?’’ पत्नी ने आखिर पूछ ही लिया. उस ने भी पहचान लिया था मेरा भाव. हैरान हूं मैं, कैसे मेरी पत्नी झट से जान जाती है कि मैं किसी सोच में हूं. 28 साल से साथ हैं हम. हजार बार ऐसा हुआ होगा जब मैं ने चाहा होगा कि पत्नी से कुछ छिपा जाऊं मगर आज तक मेरा हर प्रयास असफल रहा.
‘‘आज मुझे एक चेहरा जानापहचाना लगा और ऐसा लगा कि उसे मैं बहुत करीब से जानता हूं और इतना भी आभास है कि जो भी उस चेहरे से जुड़ा है सुखद कदापि नहीं है. यहां तक कि मैं अपनी जानपहचान में भी दूर तक नजर दौड़ा आया हूं वह कहीं भी नजर नहीं आया.’’
‘‘होगा कोई. एक दिन अपनेआप याद आ जाएगा. आप आराम से खाना खाइए,’’ झुंझला कर उत्तर दिया पत्नी ने.
मेरी यह आदत उसे अच्छी नहीं लगती थी सो बड़बड़ाने लगी थी वह, ‘सारे जहां का दर्द मेरे दिल में है.’
‘‘तो क्या तुम्हारे दिल में नहीं है? पड़ोस में कोई गलत काम करता है तो यहां तुम्हारा खून उबलने लगता है. तब मुझे सुनासुना कर मेरा दिमाग खराब करती हो. अब जब मैं सुना रहा…’’
‘‘आप तो हवाई तीर चला रहे हो. जिस की चिंता है उसे जानते भी तो नहीं हो न. कम से कम मैं जिस की बात करती हूं उसे जानती तो हूं.’’
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‘‘मैं उसे जानता हूं, नंदा, यही तो परेशानी है कि याद नहीं आ रहा.’’
मैं बुदबुदा रहा था, ‘आखिर कौन था वह?’
दूसरे दिन, तीसरे दिन और उस के बाद कई दिन मैं उस के बारे में सोचता रहा. लोकल ट्रेन से आतेजाते निरंतर नजर भी दौड़ाता रहा, पर वह चेहरा नजर नहीं आया. धीरेधीरे मैं उसे भूल गया.
सच है न, समय से बड़ा कोई मरहम नहीं है. समय से बड़ा कोई आवरण भी नहीं. समय सब ढक लेता है. समय सब छिपा जाता है. चाहे सदा के लिए छिपा पाए तो भी कुछ समय का भुलावा तो होता ही है.
एक शाम पता चला, पड़ोस में कोई रहने आया है. पत्नी बहुत खुश थी. हमारी दोनों बेटियों के ससुराल चले जाने के बाद उसे अकेलापन बहुत खलता था न. पड़ोस में कोई बस जाएगा ऐसा सोच कर मुझे भी सुरक्षा का सा भाव प्रतीत होने लगा. कभी देरसवेर हो जाए तो मुझे चिंता होती थी. अब बगल के आंगन में होने वाली खटरपटर बड़ी सुखद लगने लगी थी. अभी जानपहचान नहीं थी फिर भी उन का एहसास ही बड़ी गहराई से हमें पुलकित करने लगा था.
‘‘चलो, उन से मिलने चला जाए या फिर उन्हें ही अपने घर पर बुला लें,’’ मैं ने पत्नी से कहा.
‘‘लगता है
वे किसी से
भी मिलना नहीं चाहते. आज
वह लड़की
सब्जी लेने बाहर निकली थी, मैं ने बात करनी चाही थी मगर वह बिना कुछ सुने ही चली गई.’’
‘‘क्यों?’’
पलक झप- काना ही भूल गया मैं. भला ऐसा क्यों? क्या इतने बूढ़े हैं हम जो एक जवान जोड़ा हम से बातें करना भी नहीं चाहता.
‘‘हम इतने बुरे लगते हैं क्या?’’
‘‘पता नहीं,’’ कह कर मुसकरा पड़ी थी नंदा.
नंदा सब्जी उठा कर रसोई में चली गई. अखबार पढ़ने में मन नहीं लगा मेरा सो उठ कर घर के बाहर निकल आया. गली में चक्कर लगाने लगा पर आतेजाते नजर पड़ोसी के बंद दरवाजे पर ही थी.
बहुत ही सुहानी हवा चल रही थी मगर उस के घर के दरवाजेखिड़कियां सब बंद थे. मैं सोचने लगा, क्या वे ठंडी हवा लेना नहीं चाहते? क्या दम नहीं घुटता उन का बंद घर में?
सुबह जब मैं कार्यालय जाने को निकला तो सहसा चौंक गया. पड़ोस के द्वार पर वही खड़ा था. वही सूरत जिसे मैं ने स्टेशन पर भीड़ में उस रोज देखा था. उसे देखते ही मैं पलक झपकाना भूल गया और दिमाग पर जोर डालने लगा, कौन है यह लड़का? कहां देखा है इसे?
मुझ से उस की नजरें मिलीं और वह झट से मुंह फेर कर निकल गया. तब मुझे ऐसा लगा, वह परिवार वास्तव में किसी से मिलना नहीं चाहता. यह लड़का कौन है? मैं कुछ जानता हूं इस के बारे में. अरे, मुझे सहसा सब याद आ गया, यह तो भाईसाहब का दामाद था, था क्या अभी भी है. इतना ध्यान आते ही काटो तो खून नहीं रहा मुझ में.
यह मेरी भतीजी का पति है जिस से उस का रिश्ता निभ नहीं पाया था और वह शादी के 4-5 महीने बाद ही वापस लौट आई थी.
भाई साहब तो यही बताते थे कि लड़के वाले दहेज के लालची थे. काफी लंबीचौड़ी कहानी बन गई थी. बाद में पुलिस काररवाई और दामाद की जेलयात्रा, कितना दुखद था न सब.
मुझे तो यही पता था कि अभी भतीजी का तलाक नहीं हुआ है. भला बिना तलाक वह लड़का दूसरी शादी कैसे कर सकता है? मन में आया वापस घर आ कर पत्नी को सब बता दूं.
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बेचैन हो उठा था मैं. यह समस्या तो मेरे ही घर की थी न, हमारी ही बेटी का जीवन अधर में लटका कर यह लालची पुरुष चैन से जी रहा था.
वापस चला आया मैं. जब नंदा को बताया तो हक्कीबक्की रह गई वह. सोचने लगी, तो क्या यह मानसी का पति है? जेठजी तो घुलघुल कर आधे रह गए हैं बेटी के दुख में और लड़का दूसरा घर बसा कर चैन से जी रहा है.
एक बार तो जी चाहा झट से साथ वाले घर पर जाएं और…मगर फिर सोचा, आखिर उस लड़की का क्या दोष है? कौन जाने उसे कुछ पता भी है या नहीं. पता नहीं यहां इस लड़के ने क्या रंग घोल रखा है. हम भी बेटियों वाले हैं, कैसे किसी की बेटी का घर ताश के पत्ते सा गिरा दें? पहले भाई साहब से ही क्यों न बात कर लें?
उसी शाम भाई साहब से फोन पर बात हुई और पता चला, मानसी का तलाक हो गया है. चलो, एक बात तो साफ हो गई. चैन की सांस ली मैं ने
परंतु वह प्रश्न तो वहीं रहा न, अगर यह लड़का लालची था तो इस लड़की के साथ तो ऐसा नहीं लगता कि बहुत अमीरी में रह रहा हो. उन का सामान तो
हमारे सामने ही छोटे से ट्रक से उतरा था. नईनई गृहस्थी जमाने को बस,
ठीकठाक सामान ही था. क्या पता इस लड़की के पिता से नकद दहेज ले
लिया हो?
पत्नी ने बताया कि लड़की भी बड़ी मासूम, सीधीसादी, प्यारी सी है. तब वह क्या था जब मानसी के साथ दुखद घटा था? सीधासादा सा सामान्य परिवार ही तो है इस लड़के का. हम जैसा सामान्य वर्ग, तो फिर उस कार की मांग का क्या हुआ? भाई साहब तो बता रहे थे कि लड़का कार की मांग कर रहा है. मानसी के बाद अब यहां मुझे तो कोई कार दिखाई नहीं दी.
उथलपुथल मच गई थी मेरे अंतर्मन में. हजारों सवाल नागफनी से मुझे डसने लगे थे. क्यों मानसी का घर उजड़ गया और यह लड़का यहां अपना घर बसा कर जी रहा है? एक जलन का सा भाव पनप रहा था मन में, हमारी बच्ची को सता कर वह सुखी क्यों है?
आगे पढ़ें- कुछ पल को तो हम समझ ही नहीं पाए कि…
लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर
लेखिका- डा. सरस्वती अय्यर
दरवाजे पर तेज बजती घंटी की आवाज से विद्या की तंद्रा भंग हुई कि अरे 4 बज गए. लगता है वृंदा आ गई. विद्या जल्दी से उठ खड़ी हुई.
विद्या की शंका सही थी, दरवाजे पर वृंदा ही थी. विद्या की 17 साल की लाड़ली बेटी वृंदा. दरवाजे से अंदर आ कर अपना बैग रख कर जूते खोलते हुए वह चंचल हो गई, ‘‘अरे अम्मी आज स्टेट लैवल बैडमिंटन में मेरे सामने वाले खिलाड़ी की मैं ने ऐसी छुट्टी की न कि कुछ पूछो मत, मैं ने उसे सीधे सैट में हरा दिया. मेरी कोच बोल रही थीं कि अगर मैं ऐसे ही खेलती रहूंगी तो एक दिन नैशनल लैवल खिलाड़ी बनूंगी और वह दिन दूर नहीं जब बड़ेबड़े अखबारों में, टीवी चैनलों में मेरे फोटो आएंगे.’’
वृंदा की रनिंग कमैंट्री जारी थी. बैग को खोलते हुए उस में से बड़ी सी ट्रौफी निकाल कर वह विद्या से लिपट गई, ‘‘दिस ट्रौफी इज फौर माई डियर मौम,’’ और मौम के हाथ में ट्रौफी थमा कर बोली, ‘‘मम्मी खाना तैयार रखना बस मैं 2 मिनट में हाथमुंह धो कर कपड़े चेंज कर के आती हूं, जोर की भूख लगी है,’’ कहते हुए वह अंदर चली गई.
कार्निश पर ट्रौफी को रखते हुए विद्या की आंखें भर आईं. चुपचाप रसोई में जा कर गरम फुलके सेंक कर प्लेट में रोटीसब्जी रख कर उस ने खाना डाइनिंगटेबल पर रख दिया.
फ्रेश हो कर आई वृंदा ने 5 मिनट में खाना खा लिया और बोली, ‘‘मम्मा मैं 1-2 घंटे सो रही हूं, शाम को कैमिस्ट्री की क्लास है, मुझे जगा देना,’’ कह कर वह सोने चली गई.
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रसोई समेट कर विद्या भी वृंदा के पास लेट गई. सोती हुई मासूम वृंदा के बालों में हाथ फेरते विद्या 18 साल पहले की दुनिया में कब पहुंच गई. उसे पता ही नहीं चला…
सच ऐसी ही तो थी वह भी, इतनी ही खुशमिजाज और खूबसूरत, जिंदगी से भरपूर, होनहार लड़की. घर में वात्सल्यपूर्ण मातापिता और ढेर सारा प्यार करने वाली छोटी 2 बहनें, बाहर कालेज और बैडमिंटन कोर्ट इन सब के बीच हंसतेखेलते हुए उस की जिंदगी गुजर रही थी. इस बीच एक और बहुत अच्छी बात हुई, बैडमिंटन में ढेरों पुरस्कार बटोर चुकी विद्या को रेलवे में स्पोर्ट्स कोटा में नौकरी का औफर मिला. विद्या और उस के घर वालों की खुशी का ठिकाना न रहा. विद्या ने ग्रैजुएशन के बाद रेलवे की नौकरी जौइन कर ली.
मगर इस के बाद उस की जिंदगी इतनी जल्दी और इतनी तेजी से बदलेगी इस का तो उसे आभास भी नहीं था. रेलवे की नौकरी मिलने के कुछ समय बाद ही विद्या की चाची उस के लिए अपने इंजीनियर देवर का रिश्ता ले कर आ गईं. हालांकि शुरू में विद्या ने इतनी जल्दी विवाह करने से इनकार किया पर पिता के समझने पर कि वह लड़कियों में सब से बड़ी है, उस की शादी हो जाएगी तो फिर वे बाकी 2 लड़कियों के लिए भी लड़का देख सकेंगे और फिर लड़के वाले परिचित हैं. लड़का देखाभाला है, अच्छा खानदान है, मना करने का कोई कारण नहीं है वगैरह.
आखिरकार विद्या विवाह के लिए राजी हो गई. पर सच बात तो यह थी कि उस दिन बूआ के साथ आए उस लंबे, सांवले, सजीले नवयुवक अमित को देख कर वह मना ही नहीं कर पाई थी. खुशीखुशी विद्या की शादी संपन्न हुई और वह अपनी ससुराल आ गई.
ससुराल में शादी के बाद शुरू के 6 महीने जैसे पंख लगा कर उड़ गए. विद्या अपने सासससुर की लाड़ली बहू और ननद प्रिया की पक्की सहेली बन चुकी थी. अमित भी उस का खयाल रखता था. बस कमी कुछ थी उस के पास तो समय की. जब विद्या उस की शिकायत करती तो वह सफाई देता, ‘‘क्या करूं विद्या तुम्हें तो पता है मुंबई की लाइफ तो ऐसी ही है. सुबह 8 बजे निकलता हूं तो 10 बजे औफिस पहुंचता हूं, फिर दिनभर साइट में इंस्पैक्शन करना, शाम को मीटिंग और दूसरे प्रोजैक्ट पर डिस्कस करना. 8 बजे निकलता हूं तो घर पहुंचतेपहुंचते 10 बज ही जाते हैं. क्या करें, अब तुम ही बताओ.?’’
विद्या निराश हो जाती. कहती भी क्या? यह कहानी एक उस की ही तो नहीं है, मुंबई में करोड़ों लोगों को इसी तरह रहना पड़ता है. कभीकभी वह सोचती इस से तो किसी छोटे शहर में रहना अच्छा है, कम से कम घर और औफिस नजदीक तो होते. पर कोई बात नहीं अमित की भी तो मजबूरी है वरना कोई आदमी 10-12 घंटे रोज घर से बाहर खुशी से थोड़े ही रहेगा. सोच कर वह अपने मन को मना लेती.
सुबह उठ कर सासूमां के साथ मिल कर खाना बना कर बाकी काम खत्म कर के वह अमित के साथ ही निकलती. उस को स्टेशन में ड्रौप कर के अमित अपनी साइट पर निकल जाता और विद्या लोकल ट्रेन से औफिस आ जाती. शाम को 7 बजतेबजते वह घर पहुंच जाती. थोड़ा आराम कर के, टीवी देखते हुए रात के काम निबटाती. हर शाम को उस के मन में कई बार इच्छा होती कि अन्य लड़कियों की तरह वह भी पति के साथ मुंबई में जुहू बीच में समंदर के किनारे घूमेफिरे, पिक्चर देखे, पर ऐसा कभी नहीं हुआ. रोज अमित को आने में देर होती थी.
उस का इंतजार करते हुए वह दिनभर की भागादौड़ी और काम से थक कर सो जाती. शनिवाररविवार को भी अमित ‘साइट पर जरूरी काम है’ बोल कर निकल जाता और विद्या कभी अपने मायके चली जाती तो कभी सासूमां के साथ बाजार चली जाती. इसी प्रकार विद्या के ससुराल में कुछ और दिन निकल गए.
शादी के सिर्फ 8 महीने ही हुए थे कि अमित को एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में दुबई जाना पड़ा. विद्या भी उस के साथ जाना चाहती थी, पर अमित के साथ औफिस के 2 सहयोगी और थे इसलिए विद्या मन मसोस कर रह गई. हालांकि प्रोजैक्ट 45 दिनों का ही था, पर कुछ न कुछ कारणों से प्रोजैक्ट खत्म होने में देर हो रही थी और प्रोजैक्ट 3 महीनों तक खिंच गया. दुबई में काम करतेकरते अमित की कंपनी को ओमान में एक और प्रोजेक्ट मिला और अमित और 2 महीनों के लिए ओमान चला गया.
इधर विद्या को अमित के बिना जैसे सब कुछ सूना लग रहा था. अमित के जाने के एक ही हफ्ते में वह बीमार पड़ गई. सासूमां जबरदस्ती उसे डाक्टर के पास ले गईं और जब डाक्टर ने चैकअप के बाद बताया कि वह मां बनने वाली है, तो सासससुर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्होंने विद्या के पिता को भी फोन पर यह शुभ सूचना दे दी, पर विद्या खुद यह बात अमित को फोन पर बताना चाहती थी.
रात को जब अमित का दुबई से फोन आया तब खुशी से छलकते हुए विद्या ने उसे बताया कि वे पिता बनने जा रहे हैं. दूसरी तरफ से अमित का झल्लाते हुए कहना कि इतनी जल्दी बच्चे की जरूरत नहीं है. हो सके तो कल जा कर अबौर्शन करा लो. सुन कर वे सकते में आ गई कि क्यों अमित? इस पर अमित ने कहा कि वह अभी बच्चे की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं और उस ने फोन रख दिया.
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रातभर विद्या सो नहीं पाई. सुबह उठ कर उस ने सासू को यह बात बताई, पर सासूजी ने उस पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि अरे कुछ नहीं बेटा अभी तो वह विदेश में है न उस को तुम्हारी चिंता है, इसलिए ऐसा कह रहा है. एक बार यहां आ जाए तो सब ठीक हो जाएगा. तू फिक्र मत कर. हम सब हैं न तेरा खयाल रखने वाले. अबौर्शन वगैरह के बारे में सोचना भी मत और फिर प्यार से उस के बाल सहला दिए.
आखिरकार विद्या का इंजार खत्म हुआ. करीब 5 महीने बाद ओमान में अमित अपना प्रोजैक्ट खत्म कर के वापस आ रहा था. विद्या ने 2 दिन दफ्तर से छुट्टी ले ली थी. बड़े चाव से उस ने अमित के लिए पावभाजी, पूरनपोली, मसाला भात सबकुछ बनाया था. इतने दिनों बाद घर का खाना उसे खाने को मिलेगा. सोच कर विद्या मन ही मन खुश हो रही थी. बहुत दिनों बाद आज उस ने अमित की पसंद की गुलाबी साड़ी पहनी थी और गुनगुनाते हुए अमित का स्वागत करने के लिए तैयार हो रही थी कि सासूमां ने कमरे में प्रवेश किया.
विद्या के खिले हुए चेहरे को देख कर कुछ सिर झका कर उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा, ‘‘बेटा एअरपोर्ट से अमित का फोन आया है वह सीधे औफिस जा रहा है, घर आएगा तो औफिस पहुंचने में देर हो जाएगी और आज यहां रिपोर्ट करना जरूरी है.’’
विद्या सन्न रह गई. वह आंसुओं को रोक न सकी, ‘‘क्या औफिस का काम मुझ से भी ज्यादा जरूरी है मां?’’
एक बार फिर मांजी ने ही उसे संभाला, बेटा, ऐसी हालत में रो कर अपनी तबीयत खराब मत कर, सुबह से इतना काम कर रही है, चल थोड़ा आराम कर ले.
हालांकि उस वक्त तो विद्या संभल गई पर पूरा दिन उस की सूजी आंखें और दरवाजे पर नजर किसी से छिपाए न छिपी.
रात को 11 बजे अमित घर पहुंचा. विद्या उस का इंतजार कर के निद्रा के आगोश में कब चली गई उसे पता ही नहीं चला. अमित ने सोती हुई विद्या को लापरवाही से देखा और कपड़े बदल कर सोफा पर सो गया.
आगे पढ़ें- विद्या को उस का यह व्यवहार कुछ चुभ गया..
Family Story In Hindi
अखबार पढ़ते हुए विपिन का मुंह आज फिर लटक गया, ‘‘ये रेप की घिनौनी घटनाएं हर रोज की सुर्खियां बनती जा रही हैं.
न जाने कब हमारे देश की बेटियां सुरक्षित होंगी. अखबार के पन्ने पलटो, तो केवल जुर्म और दुखद समाचार ही सामने होते हैं.’’
‘‘अब छोडि़ए भी. समाज है, संसार है, कुछ न कुछ तो होता ही रहेगा,’’ दामिनी ने चाय का कप थमाते हुए कहा.
‘‘तुम समझती नहीं हो. मेरी चिंता केवल समाज के दायरे में नहीं, अपनी देहरी के भीतर भी लांघती है. जब घर में एक नवयौवना बेटी हो तो मातापिता को चिंता रहना स्वाभाविक है. सृष्टि बड़ी हो रही है. हमारी नजरों में भले ही वह बच्ची है और बच्ची ही रहेगी, लेकिन बाहर वालों की नजरों में वह एक वयस्क है. जब कभी मैं उसे छोड़ने उस के कालेज जाता हूं तो आसपास के लोगों की नजरों को देख कर असहज हो उठता हूं. अपनी बेटी के लिए दूसरों की नजरों में अजीब भाव देखना मेरे लिए असहनीय हो जाता है. कभीकभी मन करता है कि इस ओर से आंखें मूंद लूं, किंतु फिर विचार आता है कि शुतुरमुर्ग बनने से स्थिति बदल तो नहीं जाएगी.’’
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‘‘कितना सोचते हैं आप. अरे इन नजरों का सामना तो हर लड़की को करना ही पड़ता है. हमेशा से होता आया है और शायद सदा होता रहेगा. जब मैं पढ़ती थी तब भी गलीमहल्ले और स्कूलकालेज के लड़के फबतियां कसते थे. यहां तक कि पिताजी के कई दोस्त भी गलत नजरों से देखते थे और बहाने से छूने की कोशिश करने से बाज नहीं आते थे. आजकल की लड़कियां काफी मुखर हैं. मुझे बहुत अच्छा लगता है यह देख कर कि लड़कियां अपने खिलाफ हो रहे जुल्मों के प्रति न केवल सजग हैं बल्कि आगे बढ़ कर उन के खिलाफ आवाज भी उठाती हैं. फिर चाहे वे पुलिस में रिपोर्ट करें या सोशल मीडिया पर हंगामा करें.
‘‘यह देख कर मेरा दिल बेहद सुकून पाता है कि आजकल की लड़कियां अपनी इज्जत ढकने में नहीं, बल्कि जुल्म न सहने में विश्वास रखती हैं. हमारा जमाना होता तो किसी भी जुल्म के खिलाफ बात वहीं दफन कर दी जाती. घर के मर्दों को तो पता भी न चलता. मांएं ही चुप रहने की घुट्टी पिला दिया करती.’’
विपिन औफिस चले गए और सृष्टि कालेज. किंतु सुबह हुई बातें दामिनी के मन पर छाई रहीं. आज उसे अपने कालेज के जमाने का वह किस्सा याद हो आया जब बस के लिए उसे काफी दूर तक सुनसान सड़क पर पैदल जाना पड़ता था. नयानया कालेज जाना शुरू किया था, इसलिए उमंग भी नई थी. कुछ सीनियर लड़कियों को लिफ्ट लेते देखा था. दामिनी और उस की सहेलियों को भी यह आइडिया अच्छा लगा. इतनी लंबी सड़क पर भरी दुपहरी की गरमी में पैदल चलने से अच्छा है कि लिफ्ट ले ली जाए.
वैसे भी इस सड़क पर चलने वाले ज्यादातर कार वाले इसी उम्मीद में रहते थे कि कालेज की लड़कियां उन से लिफ्ट ले लेंगी. अमूमन सभी को यह अंदाजा था कि इस सड़क पर लिफ्ट लेनेदेने का कल्चर है. उस दोपहर भी दामिनी और उस की सहेलियां लिफ्ट लेने की उम्मीद में सड़क पर खड़ी थीं. एक गाड़ी आ कर रुकी. दामिनी उस की आगे वाली सीट व उस की 2 सहेलियां पीछे की सीट पर बैठ गईं. चालक को देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह इस गाड़ी का मालिक नहीं, ड्राइवर हो.
तीनों सहेलियां गाड़ी में चुपचाप बैठी थीं कि अचानक ड्राइवर ने अपना उलटा हाथ बढ़ा कर दामिनी के वक्षस्थल को दबोच लिया. कुछ क्षण को दामिनी हतप्रभ होने के कारण कोई प्रतिक्रिया न दे पाई. जैसे ही उसे यह आभास हुआ कि उस के साथ क्या हुआ है, उस ने प्रतिकार करते हुए वह हाथ झटक दिया और ऊंचे सुर में चिल्लाई, ‘‘गाड़ी रोको, रोको गाड़ी अभी के अभी.’’
अजीब वहशी नजरों से वह ड्राइवर दामिनी को घूरने लगा. परंतु पीछे बैठी दोनों लड़कियों के भी चिल्लाने पर उस ने गाड़ी साइड में रोक दी. आननफानन तीनों उतर कर वहां से भागी.
आज का समय होता तो दामिनी यकीनन सोशल मीडिया पर आग लगा देती. जीभर कर शोर मचाती. अपने स्मार्टफोन से संभवतया उस ड्राइवर की तसवीर भी ले चुकी होती. उस की गाड़ी का नंबर भी पुलिस में दर्ज करवाती, सो अलग. ‘इतनी हिम्मत आ गई है आजकल की बच्चियों में. शाबाश है,’ यह सोचती हुई दामिनी घर के काम निबटाने लगी. किंतु आज पुरानी यादें दिमाग पर बादल बन छा रही थीं. इसी धुंध में उसे प्रिया का किस्सा भी याद हो आया.
प्रिया उस की पक्की सहेली थी. एक शाम कालेज से घर लौटते हुए अचानक घिर आई बारिश में जब प्रिया एकाएक फंस गई तो उस ने भी लिफ्ट लेने की सोची. फर्स्ट ईयर की छात्रा में जितनी समझ हो सकती है बस उतनी ही समझ इन लड़कियों में थी. लिफ्ट के लिए रुकी हुई गाड़ी में बैठते समय प्रिया ने यह भी नहीं झांका कि कार के अंदर कौन बैठा है. बारिश से बचने के लिए जल्दी से पीछे की सीट पर बैठ गई. किंतु कार चलते ही उसे महसूस हुआ कि गाड़ी में पहले से 4 लोग बैठे हुए हैं.
प्रिया ने गाड़ी चालक से कहा, ‘‘अंकल, प्लीज मुझे अगले चौराहे पर उतार दीजिएगा. मेरा घर वहां से पास है.’’
‘‘अंकल किसे कह रही हो? हम तो आप के अंकल नहीं हैं,’’ उस के यह कहते ही जब उस के चारों साथी हंसने लगे तब प्रिया को काटो तो खून नहीं. वह बहुत घबरा गई और जोरजोर से रोने लगी. परंतु उन दिनों दुनिया इतनी खराब नहीं थी जितनी उस ने सोची थी. वे भले लोग थे जिन्होंने ऐसा केवल प्रिया को सबक सिखाने के लिए किया था. इस अनुभव से प्रिया को और उस के द्वारा यह सुनाने पर अन्य सभी सहेलियों को चौकन्ना कर दिया था.
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उन दिनों लड़कियां अपने पर्स में सेफ्टी पिन के गुच्छे रखा करती थीं ताकि जब कोई पुरुष आपत्तिजनक समीपता दिखाए तो वे उसे अपने शरीर से दूर करने में सफल हो सकें. आजकल की तरह पैपरस्प्रे तो मिलता नहीं था. आजकल की तरह कोई सेफ्टी ऐप या जीपीएस भी नहीं था. कितनी सहूलियत हो गई है आजकल लड़कियों को, सोचती हुई दामिनी घर का काम निबटा कर कुछ देर सुस्ताने लगी.
शाम को जब सृष्टि घर लौटी तो दामिनी से प्यार से कहने लगी, ‘‘इस वीकैंड आप का 50वां जन्मदिन है. बहुत स्पैशल. कुछ खास कर के सैलिब्रेट करेंगे. बताओ मम्मा, क्या चाहते हो आप? अपने जन्मदिन पर अपनी विशेष की लंबी लिस्ट बनाओ. मैं और पापा मिल कर पूरा करेंगे.’’
‘‘क्यों याद दिला रही हो कि मैं बूढ़ी हो रही हूं. 50 साल, बाप रे, यह जान कर ही बुढ़ापा दिमाग पर छाने लगा.’’
‘‘कैसी बार्ते करती हो मम्मा? अभी तो मेरी मम्मा यंग ऐंड स्वीट हैं. आप को देख कर कौन कह सकता है कि 50 साल के होने जा रहे हो,’’ सृष्टि उस का हाथ पकड़ते बोली.
‘‘ये सब तो धोखा है जो कौस्मैटिक्स की सहायता से हम औरतें खुद और दूसरों को देख कर खुश होती हैं,’’ दामिनी हंसते हुए कहने लगी.
आगे पढें- अगली सुबह दामिनी थोड़ी देर से उठी….
लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव
इन्हीं कामों के लिए भाभी कभी मेरी तारीफ करतीं तो मैं सोचती कि भाभी अपने को ऊंचा साबित करने की कोशिश कर रही हैं. पर नहीं, भाभी ठीक कहती थीं. यहां पर पानी का गिलास भी सब को बिस्तर पर लेटेलेटे पकड़ाओ. फिर नौकर की तरह खड़े रहो खाली गिलास ले जाने के लिए. अगर एक कप व एक बिस्कुट चाहिए तो नौकरों की तरह ट्रे में हाजिर करो. वरना बेशऊरी का खिताब मिलता है और मायके वालों को गालियां.
करण और सास को चाय व ब्रैड रोल्स दे कर हटी तो महेश आ गया. महेश को चाय दे कर हटी तो केतकी आ गई. वह आते ही सो गई. बिस्तर पर ही उसे चायपानी दिया. केतकी के तो औफिस में एक बौस होगा. यहां तो मेरे 4-4 बौस हैं. किसकिस की सेवा करूं. मैं रात का खाना बनाती, खिलाती रही. इन सब का ताश का दौर चलता रहा. रात साढ़े 10 बजे ठहाकों और खुशी से ताश का दौर रुका तो केतकी ने सास के लिए एक गिलास दूध देने का आदेश दिया और सास ने केतकी को देने का. मुझे किसी ने सुबह भी नहीं पूछा था कि दूध लिया या नहीं.
मेरी तो इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि सवा 10 बजे सब को खाना खिला कर मैं बिस्तर पर सो सकती. सुनने को मिल जाता, ‘देखो तो, जरा भी ढंग नहीं है. मांबाप ने सिखाया नहीं है. हम तो यहां बैठे हैं, यह सोने चली गई.’
बिस्तर पर पहुंचतेपहुंचते 11 बज गए. बिस्तर पर लेटी तो पूरा बदन चीसें मार रहा था. तभी करण बोला, ‘‘जरा पीठ दबा दो. बैठेबैठे मेरी पीठ दुख गई,’’ और करण नंगी पीठ मेरी तरफ कर के सो गया.
मन किया कि करण की पीठ पर एक मुक्का दे मारूं या बोल दूं कि जिस मां का मन बहलाने के लिए पीठ दुखाई है, उसी मां से दबवा भी लेते.
बस, यही एक काम बचा था न मेरे लिए? मन ही मन मोटी सी भद्दी गाली दे दी. दिल भी किया कि तीखा जवाब दे दूं. पर याद आया कि कल मायके जाना है. अगर इस का मुंह सूज गया तो यह अपनी मां के आंचल में छिप जाएगा और मैं अपनी मम्मी का चेहरा देखने को भी तरस जाऊंगी. 15 दिनों से भी ज्यादा हो गए मम्मी को देखे हुए.
‘‘कल मायके ले जाओगे न?’’ मैं ने पीठ दबाते हुए कहा.
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बड़ी देर के बाद करण के मुंह से निकला, ‘‘ठीक है, दोपहर का खाना जल्दी बना लेना. फिर वापस भी आना है.’’
मैं जलभुन गई यह उत्तर सुन कर. सिर्फ 4 घंटे में आनाजाना और मिलना भी. मजबूरी थी, समझौता कर लिया.
घर पहुंची तो जैसे मम्मी इंतजार कर रही थीं.
‘‘क्या बात है? यह तो जैसे हमें भूल ही गई,’’ भाभी ने प्यार से कहा.
‘‘होना भी चाहिए. आखिर वही घर तो इस का अपना है,’’ करण ने अकड़ कर कहा.
मम्मीभाभी के सामने आते ही आंसू आने लगे थे, मगर मैं रोक लगा गई.
‘‘क्या हुआ???,’’ दोनों हैरान रह गईं मेरी सूरत देख कर.
‘‘कुछ भी नहीं,’’ मैं अपनेआप को रोक रही थी. यहां के लोग मेरे चेहरे से मेरे मन के भाव पढ़ लेते हैं, ससुराल वाले क्यों नहीं पढ़ पाते?
सब ने बहुत आवभगत की. करण को बहुत मान दे रहे थे. मुझे लगा कि करण इन के मान के काबिल नहीं है. लेकिन मजबूरी, मैं कह भी नहीं सकती थी. वापस लौटते वक्त भाभीजी ने बताया कि अच्छा हुआ तुम आज आ गईं. कल वे भी 2 दिनों के लिए मायके जा रही हैं. इस पर करण बोला, ‘‘भाभीजी, शादी से पहले आप इतने साल मायके में ही थीं, फिर मायके क्यों जाती हैं बारबार? अब आप इस घर को ही अपना घर समझा करें.’’ भाभी का चेहरा उतर गया. पता नहीं क्यों, भाभी का उतरा चेहरा मेरे दिल में तीर की तरह वार कर गया.
‘‘आप इतने बड़े नहीं हो कि मेरी बड़ी भाभी को सलाह दे सको. ससुराल को अपना घर समझने का यह मतलब तो नहीं कि भाभी की मम्मी, मम्मी नहीं हैं? उन का अपनी मम्मी के पास बैठने का दिल नहीं करता? दिल सिर्फ लड़कों का ही करता है? लड़कों को हम लोगों की तरह अपना सबकुछ एकदम छोड़ना पड़े तो दर्द महसूस हो.’’
इस अप्रत्याशित जवाब से करण का चेहरा फक हो गया. मेरे भीतर जाने कब का सुलगता लावा बाहर आ गया था. खामोशी छा गई. भाभी मेरा चेहरा देखती रह गईं. मम्मी के चेहरे पर पहले हैरानगी, फिर तसल्ली के भाव आ गए.
बाहर आ कर करण स्कूटर स्टार्ट कर चुका था. मैं मम्मी के गले मिली तो लगा, मैं जाने कब से बिछुड़ी हुई हूं. ममता का एहसास होते ही मेरी आंखों से पानी बाहर आ गया.
मम्मी प्यार से बोलीं, ‘‘मन्नो, बड़ी हो गई है न?’’
मुझे लगा, मैं ने वर्षों बाद अपना नाम सुना है.
भाभी ने भी आज पहली बार ममता भरे आलिंगन में मुझे भींच लिया और रो पड़ी थीं. उन के आंसू मेरे दिल को भिगो रहे थे. मेरे भैया और पापा की आंखों में भी प्रशंसा थी. मुझे उन की ममता और प्यार की ताकत मिल गई थी. स्कूटर पर बैठ कर भी अब मैं सिर्फ भाभी और मम्मी के आंसुओं के साथ थी. बच्चों के मुखसे हमारी 5 वर्षीय पोती अरबिया के सिर में जुएं थीं. उस के सिर से उस की मम्मा जुएं निकाल रही थी. पहली जूं निकालते ही उस ने पूछा, ‘‘यह क्या है मम्मा?’’ उस की मम्मा बोलीं, ‘‘जूं है.’’ दूसरी पर भी उस ने वही सवाल किया. उस की मम्मा ने वही जवाब दोहराया, ‘‘जूं है.’’ तीसरी पर जब उस ने पूछा, ‘‘यह क्या है?’’ तो उस की मम्मा बोलीं, ‘‘लीख है.’’
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‘‘लीख क्या होती है?’’ भोलेपन से उस ने अपनी मम्मा से पूछा.
‘‘जूं की बेबी,’’ मम्मा के इस उत्तर पर अरबिया तपाक से पूछ बैठी, ‘‘मम्मा, जूं को बेबी हुई तो उस की मम्मा की डिलीवरी हुई होगी. डिलीवरी हुई तो डाक्टर भी होंगे. तो क्या मेरा सिर अस्पताल है?’’
उस की बात पर हम सब ठहाके मारमार कर हंसने से खुद को नहीं
रोक सके. शब्बीर दाऊद (सर्वश्रेष्ठ)
मेरा 8 वर्षीय बेटा अर्चित काफी बातूनी है. वह जब भी बाथरूम में जाता तो वहां का दरवाजा बहुत अधिक टाइट होने के कारण उस से मुश्किल से ही बंद हो पाता था. ऐसे ही एक दिन एक बार फिर जब वह दरवाजा उस से ठीक से नहीं बंद हुआ तो कहने लगा, ‘‘मैं जब बड़ा हो कर अपना घर बनाऊंगा तो पूरे घर में स्क्रीन टच दरवाजे लगवाऊंगा ताकि वे बिना हाथ लगाए ही खुल जाएं.’’
उस की बात सुन कर हम सभी को बड़ी हंसी आई और उस की होशियारी अच्छी भी लगी. मेरी पत्नी नीता गैस्ट्रिक की वजह से कुछ अस्वस्थ व परेशान सी दिख रही थी. पूछने पर बोली, ‘‘गैस निकालने की कोशिश कर रही हूं जिस से पेट हलका हो कर सामान्य सा हो जाए.’’ यह सुन कर मेरा 3 वर्षीय बेटा हर्षित तपाक से बोला, ‘‘सिलैंडर कई दिनों से खाली पड़ा है, तो फिर आप उस में गैस भर दीजिए न.’’
दरअसल, उन दिनों गैस की काफी किल्लत हो रही थी. यह सुन कर हम लोग काफी देर तक हंसते रहे. फिर बाद में उसे समझाया.
लेखक- डा. मनोज श्रीवास्तव
पर नहीं, तब मम्मी ठीक ही कहती थीं. समझ शादी के बाद ही आती है. महेश के प्यारभरे दो शब्द सुन कर मेरे हाथ तेजी से चलने लगते हैं. वरना दिल करता है कि चकलाबेलन नाले में फेंक दूं. 10 मिनट खाना लेट हो जाए तो पेट क्या रोटी हजम करने से मना कर देता है? क्या सास को पता नहीं कि शादी के तुरंत बाद कितना कुछ बदल जाता है. उस में तालमेल बैठाने में वक्त तो चाहिए न. पर क्या बोलूं? बोली, तो कहेंगे कि अभी से जवाब देने लगी है. जातेजाते महेश शाम को ब्रैड रोल्स खाने की फरमाइश कर गया. मुसकरा कर उस का यह आग्रह करना अच्छा लगा था.
‘क्या करण ऐसा नहीं हो सकता?’ मन ही मन सोचते हुए मैं सास को नाश्ता देने गई. वहां पहुंची तो करण जमीन पर बैठे हुए पलंग पर बैठी सास के पांवों पर सिर रखे, अधलेटा बैठा था. देख कर मैं भीतर तक सुलग सी गई.
‘‘नाश्ता…’’ मैं नाश्ते की प्लेट सास के आगे रख कर चुपचाप वापस जाने लगी.
‘‘मैडमजी, एक तो केतकी को समय पर नाश्ता नहीं दिया, ऊपर से मुंह सुजा रखा है. देख कर मुसकराईं भी नहीं,’’ अपनी मां के साथ टेढ़ी नजर से देखते हुए करण ने कहा.
‘‘नहीं तो, ऐसा तो नहीं है. चाय पिएंगे आप?’’ जबरदस्ती मुसकराई थी मैं.
‘‘ले आओ,’’ करण वापस यों ही पड़ गया. मुसकराहट का आवरण ओढ़ना कितना भारी होता है, आज मैं ने महसूस किया. मैं वापस रसोई में आ गई. मुझे बरबस मां की नसीहत याद आने लगी.
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मम्मी ने एक दिन भैया से कहा था कि सुबह की पहली चाय तुम दोनों अपने कमरे में ही मंगा कर पी लिया करो. मम्मी की बात सुन कर मैं झुंझलाई थी कि क्यों ऐसे पाठ उन्हें जबरदस्ती पढ़ाती हो. तब मां ने बताया था कि उठते ही मां के पास लेट जाने या बैठने से पत्नी को ऐसे लगता है कि मानो उस का पति रातभर अपनी पत्नी नहीं, मां के बारे में ही सोचता रहा हो. ऐसी सोच बिस्तर पर ही खत्म कर देनी चाहिए. तभी पत्नी पति की इज्जत कर सकती है. मां तो मां ही है. पत्नी लाख चाहे पर बेटे के दिल से मां की कीमत तो कम होगी नहीं. पर ऐसे में बहू के दिल में सास की इज्जत भी बढ़ती है.
करण को सास के पैरों पर लिपटा देख, मम्मी की बात सही लगने लगी. मुझे यही महसूस हुआ जैसे करण सास से कह रहा हो, ‘मां, बस, एक तुम्हीं मुझे इस से बचा सकती हो.’
करण के साथ जब मैं नाश्ता कर रही थी तो सास बोलीं, ‘‘अच्छी तरह खिला देना, वरना मायके में जा कर कहेगी कि खाने को नहीं पूछते.’’
करण अपनी मां की बातों को सुन कर हंसने लगा और मेरा चेहरा कठोर हो गया. खानापूर्ति कर के मैं पोंछा लगाने उठ गई. सारे कमरों में पोंछा लगा कर आई तो देखा करण सास के साथ ताश खेल रहा है. मैं हैरान रह गई. मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘काम पर नहीं जाना है?’’
‘‘मुझे नहीं पता है?’’ करण गुस्से से देख कर बोला. मैं समझ नहीं पाई कि आखिर मैं ने ऐसा क्या कह दिया था.
‘‘तुम्हें जलन हो रही है, हमें एकसाथ बैठे देख कर?’’
‘‘बेटा, तुम जाओ, यह तो हमें इकट्ठा बैठा नहीं देख सकती,’’ सास ताश फेंक कर बिस्तर पर पसर गईं.
करण ने सास को मनाने के प्रयास में मुझे बहुत डांटा. मैं खामोश ही बनी रही.
उस दिन भैया से भी भाभी ने पूछा था, ‘कहां चले गए थे. शादी में नहीं जाना क्या?’ तब मुझे गुस्सा आ गया था कि भैया मेरे काम से बाजार गए हैं, इसलिए भाभी इस तरह बोली हैं. भैया भी भाभी पर बिगड़े थे. मुझे अच्छा लगा था कि भैया ने मेरी तरफदारी की. कभी यह सोचा भी न था कि भाभी भी तो हम लोगों की तरह ही हैं. उन्हें भी तो बुरा लगता होगा. ऐसा उन्होंने क्या पूछ लिया, जिस का मैं ने बतंगड़ बना दिया था. आज महसूस हो रहा है कि तब मैं कितनी गलत थी.
करण दूसरे कमरे से झांकताझांकता मेरे पीछे स्नानघर में घुस गया.
‘‘तुम्हें बोलना जरूरी था. मम्मी को नाराज कर दिया. चुप नहीं रहा जाता,’’ करण जानबूझ कर चिल्लाने लगा ताकि उस की मां सुन लें. दिल चाहा कि करण का गिरेबान पकड़ कर पूछूं कि मां को खुश करने के लिए मुझे जलील करना जरूरी है क्या?
कुछ भी कह नहीं पाई. चुपचाप आंगन में झाड़ू लगाती रही. आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. करण ने देखा भी, पर एक बार भी नहीं पूछा कि रो क्यों रही हो. कमरे से किसी काम से निकली तो करण को सास के साथ हंसता देख कर मेरा दम घुटने लगा. मैं और परेशान हो गई. उठ कर रसोई में आ दोपहर का खाना बनाने लगी. बारबार मम्मी व भाभी की बातें याद आने लगीं. मम्मी कहती थीं कि जब घर में किसी का मूड ठीक न हो तो फालतू हंसा नहीं करते. नहीं तो उसे लगता है कि हम उस पर हंस रहे हैं. और भाभी, वे तो हमेशा मेरा मूड ठीक करने की कोशिश किया करतीं. तब कभी महसूस ही नहीं हुआ कि इन छोटीछोटी बातों का भी कोई अर्थ होता है.
ये लोग तो मूड बिगाड़ कर कहते हैं कि तुरंत चेहरा हंसता हुआ बना लो. मानो मेरे दिल ही न हो. इन से एक प्रश्न पूछो तो चुभ जाता है. मुझे जलील भी कर दें तो चाहते हैं कि मैं सोचूं भी नहीं. क्या मैं इंसान नहीं? मैं कोई इन का खरीदा हुआ सामान हूं?
दोपहर का खाना बनाया, खिलाया, फिर रसोई संभालतेसंभालते 3 बज गए. तभी ध्यान आया कि महेश को ब्रैड रोल्स देने हैं. सो, ब्रैड रोल्स बनाने की तैयारी शुरू कर दी. आलू उबालने को रख कर कपड़े धोने चली गई. कपड़े धो कर जब वापस आई तो करण व्यंग्य से बोला, ‘‘मैडमजी, कहां घूमने चली गई थीं. पता नहीं कुकर में क्या रख गईं कि गैस बंद करने के लिए मम्मीजी को उठना पड़ा.’’
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हद हो गई. गैस बंद करना भी इन की मां के लिए भारी काम हो गया. और मेरी कोई परवा ही नहीं है. मैं रसोई में ही जमीन पर बैठ कर आलू छीलने लगी. तभी करण आ गया.
‘‘क्या कर रही हो? 2 मिनट मम्मी के पास बैठने का, उन का मन बहलाने का वक्त नहीं है तुम्हारे पास. जब देखो रसोई में ही पड़ी रहती हो.’’
खामोश रहना बेहतर समझ कर मैं खामोश ही रही.
‘‘जवाब नहीं दे सकतीं तुम?’’ करण झुंझलाया था.
‘‘काम खत्म होगा तो आ जाऊंगी,’’ मैं बिना देखे ही बोली.
‘काम का तो बहाना है. हमारी मम्मी ने तो जैसे कभी काम ही न किया हो,’ बड़बड़ाते हुए वह निकल गया.
कितना फर्क है मेरी मम्मी और सास में. मेरी मम्मी मुझ से कहती थीं कि भाभी का हाथ बंटा दे, खाना रख दे. बरतन उठा दे. फ्रिज में पानी की बोतल रख दे. सब को दूध पकड़ा दे. साफ बरतन संभाल दे. इन छोटेछोटे कामों से ही भाभी को इतना वक्त मिल जाता कि वे मम्मी के पास बैठ जातीं.
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सारी की सारी कहानी का अंत यह हुआ कि चंदन काफी समय जेल में रहा था, उस की नौकरी छूट गई थी सो अलग. वे लोग तलाक ही नहीं देते थे. न जीते थे न जीने ही देते थे.
‘‘आप बुरा न मानें तो एक बात कहूं, मुझे तब भी दाल में कुछ काला लगता था जब मानसी वापस आ गई थी. इस चंदन को अगर मानसी की हत्या करनी होती तो वह उस की गरदन काटता न कि जरा सी नस काट कर छोड़ देता ताकि वह जिंदा रह कर सब को बताए कि सच क्या है. बेटी का मसला था न, मैं क्या कहती, मगर यह सत्य है कि लड़की वालों को सदा सहानुभूति मिलती है और लड़का इसी बात का अपराधी बन जाता है कि उस ने सात फेरे ले लिए थे, बस,’’ नंदा बोली तो बस, बोलती ही चली गई, ‘‘बड़ी वाली बेटी घंटाघंटा अपनी ससुराल से हर रोज फोन करती थी तो क्या जरूरी था कि मानसी भी हर रोेज घंटाघंटा मां से बातें करती? हमारी भी तो बेटियां हैं न, हम क्या रोज उन से बातें करते हैं?’’
‘‘फोन मात्र सुविधा के लिए होते हैं ताकि समय पर जरूरी बात की जाए, गपशप लगाएंगे तो क्या फोन का बिल नहीं आएगा? हमारी ही बहू अगर हर रोज अपनी मां से फोन पर गपशप करेगी तो क्या हजारों रुपए बिल देते हुए हम चीखेंगे नहीं? आखिर इतनी क्या बातें होती हैं जो मानसी मां से करना चाहती थी?’’
‘‘ससुराल भेज दिया है बेटी को तो उसे वहां बसने का मौका भी देना चाहिए. ससुराल में घटने वाली जराजरा सी बातें अगर मायके में बताई जाएं तो वे मिठास कम खटास ज्यादा पैदा करती हैं. मुझे तब भी लगता था कि कहीं कुछ गलत हुआ है. अब तो संयोगिता ने भी कुछ बताना चाहा है न, सच कुछ और होगा, आप देख लेना.’’
‘‘घर की बहू शादी के एक महीने बाद ही सहायता के लिए महिला संघ में पहुंच जाए तो क्या ससुराल वाले डर कर उसे अलग नहीं कर देंगे. बेटा क्या पत्नी को स्नेह दे पाएगा जब उस के सिर पर हर पल पुलिस और महिला संघ की तलवार लटकती रहेगी? कोई भी रिश्ता डर से नहीं प्यार से पनपता है. चंदन और मानसी में प्यार कब पनपा होगा जो उन की निभ पाती?’’
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मैं चुपचाप सुनता रहा. यह सच है कि हमारी बेटियां अपनेअपने घर में खुश हैं. 15-20 दिन बाद वह हमें फोन कर के हमारा हालचाल पूछ लेती हैं, जराजरा सी बात न वह हमें फोन पर बताती हैं और न ही हम. अनुशासन तो जीवन में हर कदम पर होना चाहिए न. सीमित आय वाला हजारों रुपए का बिल कैसे चुका पाएगा. व्यर्थ क्लेश तो होगा ही न.
जल्दी ही हम दोनों चंदन से मिलने जा पहुंचे. दूल्हा बने कभी मानसी की बगल में बैठे देखा था उसे और अब ऐसा लग रहा था जैसे पूरे जीवन का संत्रास एकसाथ ही सह कर थकाहारा एक इनसान हमारे सामने खड़ा है.
चंदन ने हमारे पैर छू कर प्रणाम किया. मैं सोचने लगा, क्या अब भी हमारा कोई ऐसा अधिकार बचा है?
‘‘जीते रहो,’’ स्वत: निकल गया मेरे होंठों से.
कुछ पल हम आमनेसामने बैठे रहे. बात कैसे शुरू की जाए. मैं ने ही चंदन को पास बुला लिया, ‘‘यहां आ कर मेरे पास बैठो, चंदन. आओ बेटा.’’
एक पुरुष बच्चों की तरह कैसे रो पड़ता है मैं ने पहली बार देखा था. मेरे घुटनों पर सिर रख कर वह ऐसी दर्द भरी चीखों से रोया कि नंदा भी घबरा उठी. संयोगिता ने ही लपक कर उसे संभाला, ‘‘आप चाचाजी से सब कह दीजिए, चंदन. रोइए मत, आप इसी तरह रोते रहेंगे तो बात कैसे कर पाएंगे? मैं चाची को ले कर दूसरे कमरे में चली जाती हूं. आप चाचाजी से बात कीजिए. रोइए मत, चंदन.’’
तब सहसा मैं ने ही चंदन को संभाला और इशारे से नंदा को संयोगिता के साथ जाने का इशारा किया. तब एक संतोष भाव उभर आया था संयोगिता के चेहरे पर मानो मेरे इशारे से एक डूबते को तिनके का सहारा मिला हो. संयोगिता भरी आंखों से मेरा आभार जताती हुई नंदा के साथ चली गई.
हम दोनों अकेले रह गए. कुछ समय लग गया चंदन को सामान्य होने में. फिर धीरे से चंदन ने ही कहा, ‘‘मेरा जीवन इस कदर बरबाद हो जाएगा मैं ने कभी सोचा भी न था.’’
‘‘यह सब क्यों और कैसे हो गया, मुझे सचसच बताओ, चंदन. किस का कितना दोष था, समझाओ मुझे. क्या मानसी निभा नहीं पाई या…?’’
‘‘सब से बड़ा दोष तो मेरा ही था, चाचाजी. मुझे तो पता नहीं था कि मेरे शरीर में कोई कमी है. मेरा शरीर मेरा साथ नहीं दे पाएगा मैं नहीं जानता था.’’
यह सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. चंदन कुछ देर चुप रहा फिर बोला, ‘‘यह सचाई मुझे स्वीकार करनी चाहिए थी न. जो मेरे बस में नहीं था मुझे उसे अपनी कमी मान कर मानसी को आजाद कर देना चाहिए था. मैं अपनी कमजोरी स्वीकार ही नहीं कर पाया.
‘‘हर बीमारी का इलाज है. ठंडे दिमाग से हल निकालता तो हो सकता था सब ठीक हो जाता. मानसी को सचाई से अवगत कराता तो हो सकता था वह मेरा साथ देती, मेरा मानसम्मान संभाल कर रखती. मगर मैं तो अपनी कुंठा, अपनी हताशा मानसी पर उतारता रहा. उस ने निभाने की कोशिश की थी मगर मैं ने ही कोई रास्ता नहीं छोड़ा था.
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‘‘मानसी जराजरा सी बात अपने मायके में बताती. मैं चिढ़ कर फोन ही काट देता. मैं ने मानसी की हत्या करने की कोशिश नहीं की थी. मानसी ने खुद ही तंग आ कर अपनी नसें काट ली थीं.
‘‘यह भी सच है कि मानसी अपनी बड़ी बहन की अमीर ससुराल से हमारी तुलना करती थी कि दीदी दिन में 2-2 बार मम्मी को फोन करती हैं इसलिए वह भी करेगी. पहली बार में ही जब लंबाचौड़ा बिल आ गया तो पिताजी ने साफसाफ मना कर दिया, जिस पर मानसी ने काफी बावेला मचाया.
‘‘हमारे घर में अनुशासन था जिस में बंधना मानसी को गंवारा नहीं था. हमारी नपीतुली आमदनी पर जब मानसी ने ताना कसा तो मैं ने भी कह दिया था कि लोग तो दामाद को 10-10 लाख देते हैं, इतना ही खुला हाथ है तो अपनी मां से मांग लो.
‘‘बस, इसी बात को मुद्दा बना कर मानसी के परिवार ने महिला संघ में शिकायत कर दी कि मैं दहेज की मांग कर रहा हूं. मैं ने घबरा कर मानसी को उस के पूरे दानदहेज के साथ अलग कर दिया. मैं नहीं चाहता था कि मेरे मातापिता पर कोई आंच आए.
‘‘हालात बिगड़ते ही चले गए, चाचाजी. सब मेरे हाथ से निकलता चला गया. मेरा दोष था, मैं मानता हूं. मैं ने सब का हित सोचा, अपने मांबाप का हित सोचा, अपनी कमजोरी छिपा कर सोचा कि अपना हित कर रहा हूं लेकिन बेचारी मानसी का हित नहीं सोचा. उसे कुछ नहीं दिया. मेरे जीवन से वह रोतीबिलखती ही चली गई.
‘‘मैं अपनी भूल मानता हूं लेकिन यह सच नहीं है कि मैं ने मानसी की हत्या का प्रयास किया था. मैं ने दहेज की मांग कभी नहीं की थी, चाचाजी. मैं ने मानसी को अपनी समस्या नहीं बताई, यह सच है लेकिन यह सच नहीं है कि मैं मानसी को पागल प्रमाणित करना चाहता था.
‘‘अखबारों में मुझ पर जोजो आरोप छपे वे सच नहीं हैं. सच तो सामने आया ही नहीं. जो अन्याय मैं ने कभी किया ही नहीं उस की सजा मैं ने क्यों पाई? इतना अपमान और इतनी बदनामी होगी मैं ने नहीं सोचा था.
‘‘मानसी के साथ एक सुखी गृहस्थी का सपना था मेरा. नहीं सोचा था, 2 दिन बाद ही मेरा घर जंग का मैदान बन जाएगा. मानसी का सहज सामीप्य ही असहनीय हो जाएगा.
‘‘मैं मानसी से दूर रहने के बहाने ढूंढ़ने लगा था. अपनी नपुंसकता को मानसी से अवगत कराता तो शायद वह मुझे सहारा देती. अपने मांबाप को भी कुछ बता पाता तो हो सकता था वही मुझे कोई रास्ता दिखाते. अपने ही खोल में घुटघुट कर मैं ने अपने साथसाथ मानसी का भी जीना हराम कर दिया था. मेरी वजह
से मानसी का जीवन बरबाद हो गया. मुझे अपनी कमी का एहसास होता तो मैं कभी शादी नहीं करता. सच का सामना करता तो शायद कोई आसान रास्ता निकल आता.
‘‘मेरी हताशा हर रोज कोई नई समस्या खड़ी करती और मानसी का मुझ से झगड़ा हो जाता. असहाय मानसी करती भी तो क्या?
‘‘चाचाजी, 4 साल बीत गए उस घटना को, मेरी सांस घुटती है वह सब याद कर के. हम ने मानसी का जीवन तबाह किया है.’’
मैं भारी मन से सबकुछ सुनता रहा. आखिर कहता भी क्या.
‘‘मैं आज भी मानसी को भुला नहीं पाया हूं, चाचाजी,’’ चंदन ने आगे कहना जारी रखा, ‘‘मैं मानसी के लिए परेशान हूं््. मैं उस से सिर्फ एक बार मिलना चाहता हूं.
‘‘आज इतना सब भोगने के बाद सच का सामना करने की हिम्मत है मुझ में. चाचाजी, आप मुझे सिर्फ एक बार मानसी से मिला दें.
‘‘संयोगिता से जब शादी की तब क्या उसे पूरी सचाई बताई थी?’’ मैं ने पूछा.
‘‘जी, संयोगिता मेरे एक दोस्त की बहन है. मेरी सचाई जान गई थी. दोस्त की पत्नी ने सब बताया था इसे. मेरा दोस्त ही मुझे डाक्टर के पास ले गया था. मैं मानता हूं, मुझ से ही गलती हुई थी. जो कदम मैं ने इतनी बड़ी सजा भोगने के बाद उठाया वह तभी उठा लेता तो इतनी बड़ी घटना न होती.’’
‘‘अब मानसी से मिल कर दबी राख क्यों कुरेदना चाहते हो? जो हो गया उसे सपना समझ कर भूलने का प्रयास करो. क्या संयोगिता का दिल भी दुखाना चाहते हो, जिस ने जीवन का सब से बड़ा जुआ खेला तुम्हारा हाथ पकड़ कर? तुम्हारा मन हलका हो जाए, मैं इसीलिए चला आया हूं, मगर अब अगर संयोगिता का मन दुखाओगे तो एक और भूल करोगे,’’ कहते हुए मेरी नजर बाहर की बंद खिड़कियों पर पड़ी. मैं ने उठ कर सारे पट खोल दिए. ताजा हवा अंदर चली आई. मैं फिर बोला, ‘‘घुटघुट कर मत जिओ, चंदन, खुल कर जिओ और अपना जीवन सरल बनाना सीखो. संयोगिता, जो तुम्हें संयोग ने दी है, अब उसी को सहेजो. जो नहीं रहा उस का दुख मत करो, समझेन.’’
शांत हो चुका था चंदन. उस का कंधा थपक कर मैं बाहर चला आया.
बाहर नंदा मेरा ही इंतजार कर रही थी.
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घर आ कर मैं देर तक सामान्य नहीं हो पाया. सोचने लगा, क्या दोष था चंदन का? अपनी सामयिक नपुंसकता को सहज स्वीकार नहीं कर पाया, क्या यही दोष था इस का? हम में से कितने ऐसे पुरुष हैं जो अपनी नपुंसकता को सहज स्वीकार कर कोई स्वस्थ दृष्टिकोण अपना पाते हैं? लड़की वाले अकसर अपनी हालत यह प्रमाणित कर के ज्यादा दयनीय बना लेते हैं कि उन्हीं के साथ ज्यादा अन्याय हुआ है. मानसी भी तो सचाई अपनी मां को बता सकती थी. वह चंदन पर हत्या करने का आरोप लगा कर इतना बड़ा बखेड़ा तो खड़ा न करती. यह सच है कि चंदन से प्यार मिलता तो मानसी सब सह जाती लेकिन चंदन से मिली थी मात्र हताशा, मानसिक यातना, जिस का प्रतिकार मानसी ने भी इस तरह किया. दोनों में से किसी का भी तो भला नहीं हुआ न.
‘‘क्या सोच रहे हैं आप?’’ नंदा ने पूछा.
‘‘बस, इतना ही कि हमारा भी कोई बेटा होता तो…’’
‘‘एकाएक बेटा क्यों सूझा आप को?’’
‘‘बेटा नहीं सूझा, एक जरूरत सूझी है. क्या बेटे की शादी से पहले उस का पूरा मेडिकल चेकअप जरूरी नहीं है? जन्मपत्री की जगह रक्त मिलाना चाहिए. तुम क्या सोचती हो. मेरा बेटा होता तो उस की पूरी जांच कराए बिना कभी शादी न कराता.
‘‘यह संकोच की बात नहीं एक जरूरत होनी चाहिए. मानसी का जीवन अधर में न लटकता अगर चंदन के मांबाप ने यह स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया होता.’’
चुप थी नंदा. इस का मतलब वह मेरे शब्दों से सहमत थी. संयोगिता ने इसे शायद सारा सच बताया होगा न.
ठंडी सांस ली नंदा ने. मेरी तरफ देखा. उस की आंखों में भी पीड़ा थी. बस, यही सोच कर कि जो हो गया उसे समय पर संभाल लिया जाता तो जो सब हो गया वह कभी न होता.
ऐसे ही 2-3 दिन बीत गए. हम समझ नहीं पा रहे थे कि सचाई कैसे जानें.
दरवाजे की घंटी बजी और हम पतिपत्नी हक्के- बक्के रह गए. सामने वही लड़की खड़ी थी. हमारी नन्ही पड़ोसिन जो अब मानसी के तलाकशुदा पति की पत्नी है.
कुछ पल को तो हम समझ ही नहीं पाए कि हम क्या कहें और क्या नहीं. स्वर निकला ही नहीं. वह भी चुपचाप हमारे सामने इस तरह खड़ी थी जैसे कोई अपराध कर के आई हो और अब दया चाहती हो.
‘‘आओ…, आओ बेटी, आओ न…’’ मैं बोला.
पता नहीं क्यों स्नेह सा उमड़ आया उस के प्रति. कई बार होता है न, कोई इनसान बड़ा प्यारा लगता है, निर्दोष लगता है.
‘‘आओ बच्ची, आ जाओ न,’’ कहते हुए मैं ने पत्नी को इशारा किया कि वह उसे हाथ पकड़ कर अंदर बुला ले.
इस से पहले कि मेरी पत्नी उसे पुकारती, वह स्वयं ही अंदर चली आई.
‘‘आप…आप से मुझे कुछ बात करनी है,’’ वह डरीडरी सी बोली.
बहुत कुछ था उस के इतने से वाक्य में. बिना कहे ही वह बहुत कुछ कह गई थी. समझ गया था मैं कि वह अवश्य अपने पति के ही विषय में कुछ साफ करना चाहती होगी.
पत्नी चुपचाप उसे देखती रही. हमारे पास भला क्या शब्द होते बात शुरू करने के लिए.
‘‘आप लोग…आप लोगों की वजह से चंदन बहुत परेशान हैं. बहुत मेहनत से मैं ने उन्हें ठीक किया था. मगर जब से उन्होंने आप को देखा है वह फिर से वही हो गए हैं, पहले जैसे बीमार और परेशान.’’
‘‘लेकिन हम ने उस से क्या कहा है? बात भी नहीं हुई हमारी तो. वह मुझे पहचान गया होगा. बेटी, अब जब तुम ने बात शुरू कर ही दी है तो जाहिर है सब जानती होगी. हमारी बच्ची का क्या दोष था जरा समझाओ हमें? चंदन ने उसे दरबदर कर दिया, आखिर क्यों?’’
‘‘दरबदर सिर्फ मानसी ही तो नहीं हुई न, चंदन भी तो 4 साल से दरबदर हो रहे हैं. यह तो संयोग था न जिस ने मानसी और चंदन दोनों को दरबदर…’’
‘‘क्या कार का लालच संयोग ने किया था? हर रोज नई मांग क्या संयोग करता था?’’
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‘‘यह तो कहानी है जो मानसी के मातापिता ने सब को सुनाई थी. चंदन के घर पर तो सबकुछ था. उन्हें कार का क्या करना था? आज भी वह सब छोड़छाड़ कर अपने घर से इतनी दूर यहां राजस्थान में चले आए हैं सिर्फ इसलिए कि उन्हें मात्र चैन चाहिए. यहां भी आप मिल गए. आप मानसी के चाचा हैं न, जब से आप को देखा है उन का खानापीना छूट गया है. सब याद करकर के वह फिर से पहले जैसे हो गए हैं,’’ कहती हुई रोने लगी वह लड़की, ‘‘एक टूटे हुए इनसान पर मैं ने बहुत मेहनत की थी कि वह जीवन की ओर लौट आए. मेरा जीवन अब चंदन के साथ जुड़ा है. वह आप से मिल कर सारी सचाई बताना चाहते हैं. आखिर, कोई तो समझे उन्हें. कोई तो कहे कि वह निर्दोष हैं.
‘‘कार की मांग भला वह क्या करते जो अपने जीवन से ही निराश हो चुके थे. आजकल दहेज मांगने का आरोप लगा देना तो फैशन बन गया है. पतिपत्नी में जरा अलगाव हो जाए, समाज के रखवाले झट से दहेज विरोधी नारे लगाने लगते हैं. ऐसा कुछ नहीं था जिस का इतना प्रचार किया गया था.’’
‘‘तुम्हारा मतलब…मानसी झूठ बोलती है? उस ने चंदन के साथ जानबूझ कर निभाना नहीं चाहा? इतने महीने वह तो इसी आस पर साथ रही थी न कि शायद एक दिन चंदन सुधर जाएगा,’’ नंदा ने चीख कर कहा. तब उस बच्ची का रोना जरा सा थम गया.
‘‘वह बिगड़े ही कब थे जो सुधर जाते? मैं आप से कह रही हूं न, सचाई वह नहीं है जो आप समझते हैं. दहेज का लालच वहां था ही नहीं, वहां तो कुछ और ही समस्या थी.’’
‘‘क्या समस्या थी? तुम्हीं बताओ.’’
‘‘आप चंदन से मिल लीजिए, अपनी समस्या वह स्वयं ही समझाएंगे आप को.’’
‘‘मैं क्यों जाऊं उस के पास?’’
‘‘तो क्या मैं उन्हें भेज दूं आप के पास? देखिए, आज की तारीख में आप अगर उन की बात सुन लेंगे तो उस से मानसी का तो कुछ नहीं बदलेगा लेकिन मेरा जीवन अवश्य बच जाएगा. मैं आप की बेटी जैसी हूं. आप एक बार उन के मुंह से सच जान लें तो उन का भी मन हलका हो जाएगा.’’
‘‘वह सच तुम्हीं क्यों नहीं बता देतीं?’’
‘‘मैं…मैं आप से कैसे कह दूं वह सब. मेरी और आप की गरिमा ऐसी अनुमति नहीं देती,’’ धीरे से होंठ खोले उस ने. आंखें झुका ली थीं.
नंदा कभी मुझे देखती और कभी उसे. मेरे सोच का प्रवाह एकाएक रुक गया कि आखिर ऐसा क्या है जिस से गरिमा का हनन होने वाला है? मेरी बेटी की उम्र की बच्ची है यह, इस का चेहरा परेशानी से ओतप्रोत है. आज की तारीख में जब मानसी का तलाक हो चुका है, उस का कुछ भी बननेबिगड़ने वाला नहीं है, मैं क्यों किसी पचड़े में पड़ूं? क्यों राख टटोलूं जब जानता हूं कि सब स्वाहा हो चुका है.
अपने मन को मना नहीं पा रहा था मैं. इस चंदन की वजह से मेरे भाई
का बुढ़ापा दुखदायी हो गया, जवान बेटी न विधवा हुई न सधवा रही. वक्त की मार तो कोई भी रोतेहंसते सह ले लेकिन मानसी ने तो एक मनुष्य की मार
सही थी.
‘‘कृपया आप ही बताइए मैं क्या करूं? मैं सारे संसार के आगे गुहार नहीं लगा रही, सिर्फ आप के सामने विनती कर रही हूं क्योंकि मानसी आप की भतीजी है. इत्तिफाकन जो घट गया वह आप से भी जुड़ा है.’’
‘‘तुम जाओ, मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता.’’
‘‘चंदन कुछ कर बैठे तो मेरा तो घर ही उजड़ जाएगा.’’
‘‘जब हमारी ही बच्ची का घर उजड़ गया तो चंदन के घर से मुझे क्या लेनादेना?’’
‘‘चंदन समाप्त हो जाएंगे तो उन का नहीं मेरा जीवन बरबाद…’’
‘‘तुम उस की इतनी वकालत कर रही हो, कहीं मानसी की बरबादी
का कारण तुम्हीं तो नहीं हो? इस जानवर का साथ देने का भला क्या
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मतलब है?’’
‘‘चंदन जानवर नहीं हैं, चाचाजी. आप सच नहीं जानते इसीलिए कुछ समझना नहीं चाहते.’’
‘‘अब सच जान कर हमारा कुछ भी बदलने वाला नहीं है.’’
‘‘वह तो मैं पहले ही विनती कर चुकी हूं न. जो बीत गया वह बदल नहीं सकता. लेकिन मेरा घर तो बच जाएगा न. बचाखुचा कुछ अगर मेरी झोली में प्रकृति ने डाल ही दिया है तो क्या इंसानियत के नाते…’’
‘‘हम आएंगे तुम्हारे घर पर,’’ नंदा बीच में ही बोल पड़ी.
मुझे ऐसी ही उम्मीद थी नंदा से. कहीं कुछ अनचाहा घट रहा हो और नंदा चुप रह जाए, भला कैसे मुमकिन था. जहां बस न चले वहां अपना दिल जलाती है और जहां पूरी तरह अपना वश हो वहां भला पीछे कैसे रह जाती.
‘‘तुम जाओ, नाम क्या है तुम्हारा?’’
‘‘संयोगिता,’’ नाम बताते हुए हर्षातिरेक में वह बच्ची पुन: रो पड़ी थी.
‘‘मैं तुम्हारे घर आऊंगी. तुम्हारे चाचा भी आएंगे. तुम जाओ, चंदन को संभालो,’’ पत्नी ने उसे यकीन दिलाया.
उसे भेज कर चुपचाप बैठ गई नंदा. मैं अनमना सा था. सच है, जब मानसी का रिश्ता हुआ भैया बहुत तारीफ करते थे. चंदन बहुत पसंद आया था उन्हें. सगाई होने के 4-5 महीने बाद ही शादी हुई थी. इस दौरान मानसी और चंदन मिलते भी थे. फोन भी करते थे. सब ठीक था, पर शादी के बाद ही ऐसा क्या हो गया? अच्छे इनसान 2-4 दिन में ही जानवर कैसे बन गए?
भाभी भी पहले तारीफ ही करती रही थीं फिर अचानक कहने लगीं कि चंदन तो शादी वाले दिन से ही उन्हें पसंद नहीं आया था. जो इतने दिन सही था वह अचानक गलत कैसे हो गया. हम भी हैरान थे.
तब मेरी दोनों बेटियां अविवाहित थीं. मानसी की दुखद अवस्था से हम पतिपत्नी परेशान हो गए थे कि कैसे हम अपनी बच्चियों की शादी करेंगे? इनसान की पहचान करना कितना मुश्किल है, कैसे अच्छा रिश्ता ढूंढ़ पाएंगे उन के लिए? ठीक चलतेचलते कब कोई क्यों गलत हो जाता है पता ही नहीं चलता.
‘मैं ने तो मानसी से शादी के हफ्ते बाद ही कह दिया था, वापस आ जा, लड़कों की कमी नहीं है. तेरी यहां नहीं निभने वाली…’ एक बार भाभी ने सारी बात सुनातेसुनाते कहा था, ‘फोन तक तो करने नहीं देते थे, ससुराल वाले. बड़ी वाली हमें घंटाघंटा फोन करती रहती है, यह तो बस 5 मिनट बाद ही कहने लगती थी, बस, मम्मी, अब रखती हूं. फोन पर ज्यादा बातें करना ससुरजी को पसंद नहीं है.’
मानसी शिला सी बैठी रहती थी. एक दिन मैं ने स्नेह से उस के सिर पर हाथ रखा तो मेरे गले से लिपट कर रो पड़ी थी, ‘पता नहीं क्यों सब बिखरता ही चला गया, चाचाजी. मैं ने निभाने की बहुत कोशिश की थी.’
‘तो फिर चूक कहां हो गई, मानसी?’
‘उन्हें मेरा कुछ भी पसंद नहीं आया. अनपढ़ गंवार बना दिया मुझे. सब से कहते थे. मैं पागल हूं. लड़की वाले तो दहेज में 10-10 लाख देते हैं, तुम्हारे घर वालों ने तो बस 2-4 लाख ही लगा कर तुम्हारा निबटारा कर दिया.’
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हैरानपरेशान था मैं तब. मैं भी तब अपनी बच्चियों के लिए रिश्तों की तलाश में था. सोचता था, मैं तो शायद इतना भी न लगा पाऊं. क्या मेरी बेटियां भी इसी तरह वापस लौट आएंगी? क्या होगा उन का?
‘देखो भैया, उन लोगों ने इस की नस काट कर इसे मार डालने की कोशिश की है. यह देखो भैया,’ भाभी ने मानसी की कलाई मेरे सामने फैला कर कहा था. यह देखसुन कर काटो तो खून नहीं रहा था मुझ में. जिस मानसी को भैयाभाभी ने इतने लाड़प्यार से पाला था उसी की हत्या का प्रयास किया गया था, और भाभी आगे बोलती गई थीं, ‘उन्होंने तो इसे शादी के महीने भर बाद ही अलग कर दिया था.
‘जब से हम ने महिला संघ में उन की शिकायत की थी तभी से वे लोग इसे अलग रखते थे. चंदन तो इस के पास भी नहीं आता था. वहीं अपनी मां के पास रहता था. राशनपानी, रुपयापैसा सब मैं ही पहुंचा कर आती थी. इस के बाद तो मुझे फोन करने के लिए पास में 10 रुपए भी नहीं होते थे.’
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