मंदिर जरूरी या रोजगार

देश कब क्या सोचे, क्या चिंता करे, क्या बोले, क्या सुने यह भी अब पौराणिक युग की तरह देश का एक वर्ग जो धर्म की कमाई पर जिंदा ही नहीं मौजमस्ती और शासन कर रहा है तय कर रहा है. देश के सामने जो बेरोजगारी की बड़ी समस्या है. उस पर ध्यान ही नहीं देने दिया जा रहा. धर्मभक्तों के खरीदे या बहकाए गए टीवी चैनल या ङ्क्षप्रट मीडिया बेरोजगारों को दुर्दशा की ङ्क्षचता नहींं कर रहे उन की हताशा को आवाज नहीं दे रहे.

हर साल करोड़ों युवा देश में बेरोजगारों की गिनती में बढ़ रहे हैं पर उन के लायक न नौकरियां है, न काम धंधे. यह गनीमत है कि आज जो युवा पढ़ कर बेरोजगारों की लाइनों में लग रहे हैं, वे अपने मांबाप 2 या ज्यादा से ज्यादा 3 बच्चे में से एक है और मांबाप अपनी आय या बधन से उन्हें पाल सकते हैं. 20-25 साल तक के ही नहीं, 30-35 साल तक के युवाओं को मातापिता घर में बैठा कर खिला सकते हैं क्योंकि इस आयु तक आतेआते इन मांबाप के अपने खर्च कम हो जाते हैं.

पर यह बेरोजगारी आत्मसम्मान और अपना विश्वास पर गहरा असर कर रही है और अपनी हताशा को ढंकने के लिए ये युवा बेरोजगार धर्म का झंडा ले कर खड़े हो जाने लगे हैं. ये भी भक्तों की लंबी फौज में शामिल हो रहे है और भक्ति को देश निर्माण का काम समझ कर खुद को तसल्ली दे रहे हैं कि वे कमा नहीं रहे तो क्या. देश और समाज के लिए कुछ तो कर रहे हैं.

आज अगर विवाह की आयु धीरेधीरे बढ़ रही है और नए बच्चों की जन्म दर तेजी से घट रही है तो बढ़ा कारण यही है कि बेरोजगार युवाओं को विवाह करने से डर लग रहा है कि वे अपना बोझ तो मांबाप पर डाल रहे है बीवी और बच्चों को भी कैसे डालें.

घर समाज में सब एक समान नहीं होते. कुछ युवाओं को अच्छा काम मिल भी रहा है. अर्थव्यवस्था के कुछ सेक्टर काफी काम कर रहे हैं. खेती में अभी तक कोई विशेष मंदी नहीं आई है और इसलिए फूड प्रोसीङ्क्षसग और फूड सप्लाई का काम चल रहा है. रिटेङ्क्षलग और डिलिवरी के काम बड़े हैं. पर ये काम बेहद कम तकनीक के हैं और इन में भविष्य न के बराबर है.

आज का युवा बेरोजगारी या आधीअधूरी सी नौकरी के कारण अपनी कमाई में घर भी नहीं खरीद पा रहा है.

ये समस्या आज की चर्चा में नहीं आने दी जा रही क्योंकि ये धर्म द्वारा संचालित शासन की पोल खोलती हैं. निरर्थक मामलों को लिया जा रहा है और जो उठाए गए फालतू के विषयों पर ताॢकक बना देते हैं क्योंकि चर्या का विषय बेरोजगारी जैसे विषय धर्म, दान दक्षिणा, मंदिर, स्वामियों, यज्ञों, आरतियों, मंदिर कैरीडोरों की ओर मुड जाती है.

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स्मार्टफोन कितने स्मार्ट

पिछले कई सालों से स्मार्ट फोनों ने दुनिया को अपनी गिरफ्त में इस तरह ले लिया है मानो स्मार्टफोन का न होना, सूर्य का सुबह न निकलना हो. पढ़ेलिखे डाक्टर, विचारक, नेता हों या अधपढ़े मजदूर, छात्र, किसान सभी सारे दिन स्मार्टफोन में उलझे रहते हैं. स्मार्टफोन पर तरहतरह की जानकारी उपलब्ध है, गेम्स हैं, पढऩे की सामग्री है, वीडियो हैं, फिल्में हैं. वहीं, स्मार्टफोन बिजली खाते हैं, डेटा खाते हैं और सब से बड़ी बात यह है कि ये आम आदमी का समय खाते हैं.

हाथ में स्मार्टफोन हो तो हर समय क्या टैंप्रेचर है, यह देखा जाता है. सुबह से कितने स्टैप चल लिए, यह देखा जाता है. करीना कपूर और आलिया भट्ट ने आज क्या पहना, यह देखा जाता है. बिल स्मिथ ने औस्कर पुरस्कार के दौरान क्रिस रौक को किस तरह चांटा मारा, यह देखा जाता है. यूक्रेन के नष्ट होते शहर देखे जाते हैं. जिंद की लडक़ी का नाच देखा जाता है. मोदी का भाषण देखा जाता है. वृंदावन का आडंबर देखा जाता हैं. हिंदूमुसलिम विवाद की झलकियों का तमाशा देखा जाता है.

सारा दिन यही सब देखने में गुजर जाता है. इस से मिलता क्या है? बड़ा सा जीरो. जिंदगी सुधारने की कोई बात स्मार्टफोन पर शायद ही देखी जाती हो. यह तो वह झुनझुना है जो हाथ में है, तो बजाते रहो और खुश होते रहो. इसलिए अब लोग फिर डंब फोन पर लौटने लगे हैं. सीधे सिर्फ टैक्सट मैसेज और फोन कौल करने वाले नोकिया के फोन अब सफल लोग फिर तेजी से खरीद रहे हैं क्योंकि इन से उन का समय बच रहा है. हां, उन्हें अपने खास कामों के लिए बैग में आईपैड या कंप्यूटर रखना पड़ता है पर हर समय स्मार्टफोन के नोटिफिकेशन की पुंगपुंग से फुरसत मिल जाती है.

स्मार्टफोन स्मार्ट तो हैं पर जैसे हर स्टैंडअप कौमेडियन के शो में पिछले मजाकों के अलावा कुछ नहीं मिलता वैसे ही स्मार्टफोन का अनचैलेंज भंडार हर यूजर को और अधिक बेवकूफ बनाता है क्योंकि वह दिमाग की मैमोरी में बेकार फैक्ट्स इस कदर ठूंस देता है कि कुछ सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिलता.

स्मार्टफोन से सही इंफौर्मेशन मिल सकती है, यह ऐसा कहना है कि शहर के बाहर बने कूड़े के ढेर में बहुत सी लगभग नई चीजें भी मिल सकती हैं. सवाल है, यह कौन करेगा. आज तो आप ने कुछ जानने के लिए गूगल पर नीदरलैंड टाइप किया नहीं कि कितनी ही साइटों पर नीदरलैंड के विज्ञापन दिखने लगेंगे. आप ने किडनी के बारे में जानने के लिए कुछ टाइप किया नहीं कि आप का स्मार्टफोन डाक्टरों के मैसेजों से भरने लगेगा जो आप की किडनी की रिपेयरिंग सस्ते में करा देने का वादा करेंगे.

स्मार्टफोन आप की गुलामी की निशानी है जिस में फोन की सुविधा और कुछ काम कीर ऐपों के बदले आप हर समय पब्लिसिटी के शिकार बने रहते हैं. स्मार्टफोन नए धर्म की तरह है जो आप को बेवकूफ बनाने के लिए स्वार्थहीन, परिश्रम, बड़ों के आदर जैसे कुछ वाक्य सुनाने के बदले आप से मोटा धन ही नहीं वसूलते, आप को किसी को जान से मारने के लिए उकसा भी देते हैं और अपनी जान देने को तैयार भी कर देते हैं. स्मार्टफोन हाथ में हो, तो आप को रेल की पटरियां क्रौस करते हुए आती ट्रेन की आवाज सुनाई नहीं देती. वहीं, वहां चलाने के दौरान स्मार्टफोन पर बात करना शुरू कर आप किसी को मार भी सकते हैं. यह भी सही है कि आज की मौजूदा स्थिति में स्मार्टफोन हम सब की जरूरत बन चुके हैं और अब इन से छुटकारा पाने का प्रयास करना गहरे काले अंधेरे में रोशनी की लाइन दिखने जैसा है.

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सुसाइड का कारण बनता अकेलापन

आकड़े बताते हैं कि आम घरों को किसी बाहर वाले के हमलावर से हुई किसी अजीज की हत्या से कम और किसी अजीज की आत्महत्या से ज्यादा डरना चाहिए. भारत समेत 113 देशों के आंकड़ों से पता चलता है कि दक्षिणी अमेरिका को छोड़ दें तो लगभग सब जगह सूसाइड ज्यादा जानलेवा हैं बजाए मर्डर के. जापान में प्रति लाख पौपुलेशन में से 1412 लोग आत्महत्या से मरते हैं और दूसरों के हाथों मर्डर से सिर्फ 0.25 परसैंट मर्डर और सूसाइड में 57 गुना का फर्क है.

भारत में हर लाख पर 11.3 सूसाइड हो रहे हैं और 2.2 मई पाकिस्तान जिसे हम आमतौर पर ला एंड  आर्डर में निखट्टू समझते हैं. मर्डर 8.8 प्रति लाख पर सूसाइड 3.8 प्रति लाख. मतलब कि पाकिस्तान का प्रशासन अपराध रोकने में ज्यादा कामयाब है पर लोगों के खुद मरने से नहीं रोक पाता. बांग्लादेश का गुणगान करे रूका नहीं जा पाता कमेटी वहां मर्डर भी कम 4.7 प्रति लाख और सूसाइड भी कम 2.4 प्रति लाख है. इन 3 दक्षिणी एशियाई देशों में भारत सब से निखद है और हल्ला मचाने में नंबर वन.

सब से ज्यादा चौंकाने वाला आंकड़ा अमेरिका का है जहां गन खरीदना आसान है और जहां की हर फिल्म सीरियल या नौवल में हत्या ही मुख्य बात होती है. वहां भई रेट 4.9 प्रति लाख है और सूसाइट रेट 11.7 प्रति लाख. यूरोपीय देशों मं जहां गन आसानी से स्टोरों में नहीं मिलती मर्डर रेट कम है. 1.3 प्रति लाख फ्रांस में, 0.7 प्रति लाख स्पेन में 1.0 प्रति लाख ब्रिटेन में.

अपनी जान देना असल में समाज की पोल खोलता है और मर्डर रेट शासन की. दक्षिणी अमेरिका के वैंजूएला जैसे देश में इस कदर माफिया और गैंगबाजी है कि वहां मर्डर रेट 49.9 प्रति लाख है और जापान में लोग इस कदर डिप्रैशन और लोमीनैस के शिकार है कि सूसाइड रेट 14.2 और साउथ कोरिया में 19.5 प्रति कोर्स है.

सूसाइड रेट ज्यादा होने का मतलब है कि कोई जना इतना परेशान अकेला है कि उसे जीने का कोई मकसद नजर नहीं आता. जापान और साउथ कोरिया में पैसे की कमी नहीं है. खाने पीने की कमी नहीं है, गरीबी नहीं है, वहां जीने का मकसद नहीं रह गया. इन दोनों देशों में अकेले वृद्धों की गिनती बढ़ती जा रही है. तलाक ज्यादा हो रहे हैं. बिना शादी किए लोगों की गिनती बढ़ रही है. वहां पुलिस से डर लगता है पर उस से ज्यादा खाली सन्नाटेदार घर से डर लगता है.

भारत में यह स्थिति एक वर्ग विशेष में तेजी से बढ़ रही है. आज बड़ी आयु के युवाओं की गिनती तेजी से बढ़ रही है जो अकेले पड़ गए हैं, जिन के पास पैसे हैं पर कोई हंसने बोलने के लिए नहीं. इस वर्ग के लोगों को घर में घुस कर मारने वाले अपराधी से डर नहीं है. दिनोंदिन कोई न बोलने वाले से डर है.

यह दुर्दशा सिर्फ बूढ़ों की नहीं है जिन्हें अकेले छोड़ कर बच्चे गायब हो गए हैं. यह युवाओं की भी है जिन्हें ब्रेकअप और मांबाप भाईबहन छोड़ गए हैं. घर होने के बावजूद, खाने में कमी न  होने के बावजूद डिप्रेशन होना बड़ी बात नहीं है अगर बात करने के लिए सिर्फ डिलीवरी बौय हो. औन लाइन व्यापार तो बस्ती के नुक्कड़ के मौर्य पौय स्टोर के मालिक से भी नाता तोड़ रहा है. टैक्नोलौजी हरेक पर भारी पड़ रही है क्योंकि बिना ट्यूशन कौंटैक्ट के बहुत कुछ मोबाइल या कंप्यूटर पर किया जा रहा है.

ग्लोबल वाकिंग और रूसी हमले से परेशान दुनिया को इन अकेले सुसाइड करने वालों की फिक्र नहीं है. पुलिस के लिए ये समस्या नहीं है क्योंकि सिर्फ मृत की लाश को ठिकाने के अलावा उन्हें कुछ नहीं करना होता. समाज को चिंता नहीं है क्योंकि ये सुसाइड करने वाले के हैं जो पहले ही समाज से कह चुके हैं, अकेले में छिप गए हैं.

शेयर बाजार एक भूलभुलैया है

आम घरों की बचत को अब जम कर शेयरों में जमा किया जा रहा है और जहां मार्च 2020 में 4.08 करोड़ डीमैट खाते थे, वहीं दिसंबर 2021 में 8.06 करोड़ हो गए. शेयरों में व्यापार करने में डीमैट अकाउंट खोलना जरूरी है और जो कंपनियां यह अकाउंड खोलती है. वे पहले ही दिन बिना कारोबार किए हजारों रुपए झटक लेती है. फिर भी इन अकाउंटों की बढ़ती गिनती जनता की भूख और लालच को दर्शाता है.

अब हर शहर और कस्बे में शेयर दलालों के दफ्तर खुलने लगे है और बैंकों के ना काफी ब्याज से परेशान औरतों ने भी शेयर बाजार में पैसा लगाना शुरू किया है जबकि देश का आर्थिक विकास लगभग रूका हुआ है. जब मैन्मूफैक्चङ्क्षरग बढ़ नहीं रही हो, बेरोजगारी बढ़ रही हो, टैक्स बढ़ रहे हो, मकानों से किराए की आय घट रही हो, तब शेयर बाजार का ऊंचा होना आश्चर्य की बात है.

असल में शेयर बाजार एक सुनियोजित लौटरी बन गया है. कंपनियां जनता का पैसा लूटने का बाकायदा प्लान करती हैं और हर कंपनी कभी अपने शेयरों के दाम घटवाती है, कभी बढ़वाती है. जब घटते हैं तो लोग घबरा कर नुकसान उठा कर शेयर बेच देते हैं और फिर जब बढ़ते है तो लपक कर मंहगे दामों में खरीदने ही होड़ लगा देते हैं. नतीजा यह है कि छोटा निवेशक या तो पैसा खोता है या बहुत थोड़ा कमाता है पर कंपनियों के मालिक, ब्रोकर, एजेंट, बैंक, डीमैट अकाउंट चलाने वाले, क्वालिटी रेङ्क्षटग देने वाली कंपनियां पैसा कमाती हैं.

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शेयर बाजार एक भूलभूलैया है, किसी कंपनी को चलाने के लिए आम जनता द्वारा अपना छोटाछोटा योगदान देने वाला जरिया नहीं है. सरकारों ने इसे आय का अच्छा सोर्स माना है क्योंकि उसे ब्रोकरों से मिलने वाले इंकम टैक्स से भरपूर पैसा मिल रहा है.

शेयर बाजार दशकों से पैसे वालों का एक बहुत आसान तरीका आम लोगों को लूटने का रहा है और अब यह खेल इंटरनेशनल हो गया है और तरहतरह के एक्सपर्ट टीवी प्रोग्रामों में कंपनियों के भविष्य को उसी तरह बताते हैं जैसे पंडित हाथ देख कर सुख की गारंटी करते हैं. जो लोग धर्म भी का हैं वे शेयर बाजार पर ज्यादा भरोसा करते हैं और जो शेयर बाजार पर भरोसा करते हैं, वे साल में 10-12 बार तीर्थ यात्रा पर अवश्य जाते हैं.

यह आय है जो सब को सम्मोहित करती है और शेयर बाजार उसे आय का कोहिनूर का हीरा है जो काम का न हो पर चमकता बहुत है.

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समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा  

जंग महिला उत्पीड़न के खिलाफ :ट्रूकौलर के साथ  समाज में महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा व्यापक रूप में मौजूद है और इस के आंकड़े बेहद चिंताजनक हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं इस के साझेदारों के नए आंकड़ों में यह तथ्य साफ हैं. हर 3 में से 1 महिला, यानि 736 मिलियन

महिलाएं जीवन में कभी न कभी अपने साथी के द्वारा शारीरिक या यौन शोषण अथवा गैर साथी के द्वारा यौन शोषण का शिकार होती हैं- ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं, जिन में पिछले दशक के दौरान कोई बदलाव नहीं आया है.

हालांकि महिलाओं के सशक्तिकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा की बात करें तो हमने इस दिशा में कुछ प्रगति की है, किंतु अभी बहुत काम करना बाकी है. विडम्बना यह है कि आदिकाल से ही इन सभी मुद्दों को समझने के बावजूद महिलाएं सदियों से पितृसत्ता का शिकार हो रही हैं.

यह शोषण आज डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर भी हो रहा है और बड़े पैमाने पर व्याप्त हो चुका है. डिजिटल प्लेटफॉर्म पर महिलाओं के साथ होने वाले इस शोषण को समझने के लिए ट्रुकॉलर ने कई सर्वेक्षण किए हैं. हमारे सर्वेक्षण में चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं: विभिन्न देशों की लाखों महिलाओं को रोज़ाना अनचाहे कॉल्स और मैसेज मिलते हैं. पांच में से चार देशों में (भारत, केन्या, इजिप्ट, ब्राज़ील) हर 9-10 में से 8 महिलाओं को शोषण करने वाले कॉल किए जाते हैं. भारत में, सर्वेक्षण की जाने वाली हर 5 में 1 महिला ने बताया कि उन्हें यौन शोषण करने वाले फोनकॉल या एसएमएस मिलते हैं.

सर्वेक्षण में यह भी बताया गया कि 78 फीसदी महिलाओं को सप्ताह में कम से कम एक बार तथा 9 फीसदी महिलाओं को सप्ताह में 3-4 बार इस तरह के कॉल आते हैं. भारत पहला ऐसा देश है जहां ट्रुकॉलर ने इस तरह का सर्वेक्षण किया है. कंपनी ने अध्ययन किया कि इस तरह के कॉल या मैसेज का महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है.

हाल ही में भारत में, महिलाओं एवं लड़कियों के समर्थन में उठाए गए मुद्दों पर इस तरह के मानदंडों को दूर करने की बात की गई है. इस के लिए हमें सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना होगा जैसे महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाना, लिंग-सवेदी शिक्षा को बढ़ावा देना, समानता के अधिकार में पुरूषों को शामिल करना, हमें एक दायरे से बाहर जा कर इन सभी पहलुओं पर काम करना होगा.

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लिंग भेदभाव ने भारत में महिला सशक्तीकरण को प्रभावित किया है. बड़ी संख्या में संगठन, ब्राण्ड और अधिकारी इस मुद्दे के खिलाफ़ लड़ाई में आगे आए हैं.

ट्रुकॉलर के लिए, यूज़र की सुरक्षा पहली प्राथमिकता है; खासतौर पर महिलाओं की सुरक्षा बहुत अधिक मायने रखती है, क्योंकि देश में ट्रुकॉलर्स के यूज़र्स की आधी संख्या महिलाओं की ही है. महिलाओं को सुरक्षित रखने और उन्हें सशक्त बनाने के उद्देश्य से ट्रुकॉलर ने आम जनता को जागरुक बनाने के लिए कई अभियानों जैसे #TakeTheRightCall और #ItsNotOk का आयोजन भी किया है.

मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए ट्रुकॉलर ने पिछले साल कम्युनिटी बेस्ड पर्सनल सेफ्टी ऐप गार्जियन्स का लॉन्च भी किया था. गार्जियन्स को एंड्रोइड के लिए गूगल प्ले स्टोर से और आईओएस के लिए एप्पल प्ले स्टोर सेvया GetGuardians.com से फ्री डाउनलोड किया जा सकता है. ऐप और इसके सभी फीचर्स हमेशा पूरी तरह से निःशुल्क रहेंगे. यह व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए ट्रुकॉलर की प्रतिबद्धता को दर्शाता हैं

यह देखकर अच्छा लगता है कि आज बड़ी संख्या में महिलाएं खुद इस बदलाव के लिए आगे आ रही हैं. वैसे ज़मीनी हक़ीकत में पूरी तरह से बदलाव नहीं आया है. उदाहरण के लिए भारत में आज भी कई मौकों पर महिलाओं को अपने अधिकार नहीं मिल पाते.

आप ने अक्सर रात में महिलाओं को अकेले यात्रा करते देखा होगा. लेकिन ऐसे मामलों में उन की सुरक्षा पर खतरा मंडराता ही रहता है. ऐसे मामलो में कई बार महिलाओं का पीछा किया जाता है, अजनबी लोग उन पर भद्दी टिप्पणियां करते हैं या उनका यौन शोषण तक किया जा सकता है. यही कारण है कि एक परिवार हमेशा यही चाहता है कि महिला रात के समय घर से बाहर न रहे.

हाल ही में हर व्यक्ति महिला सशक्तीकरण के लिए आवाज़ उठाने लगा है. यह कहना गलत नहीं होगा कि महिला सशक्तीकरण आज के दौर की आवश्यकता बन चुकी है. महिलाओं को उन के अधिकार और उन की आज़ादी मिलनी ही चाहिए. उन की मांगों और ज़रूरतों को पूरा किया जाना चाहिए.

महिलाओं को भी खुल कर आगे आना होगा. अपने साथ होने वाले यौन शोषण के मामलों को दर्ज कराना होगा. फोन कॉल्स के ज़रिए किए जाने वाले शोषण की शिकायत दर्ज करनी होगी. इन सभी मुद्दों का समाधान समय की मांग है.

महिलाओं को इस के लिए प्रेरित करने के प्रयास में ट्रुकॉलर एक अभियान #ItsNotOk – Call it out  की शुरूआत करने जा रहा है, जो उन्हें ऑनलाईन एवं ऑफलाईन शोषण से निपटने में मदद करेगा.

हाल ही में उन्होंने अपने साझेदार साइबर पीस फाउन्डेशन के सहयोग से #TrueCyberSafe का लॉन्च किया था. यह अभियान देश के पांच क्षेत्रों में पंद्रह लाख लोगों को इस बारे में शिक्षित करेगा कि साइबर धोखाधड़ी को कैसे पहचानें और इस से अपने आप को कैसे सुरक्षित रखें. इस तरह के प्रशिक्षण से नागरिकों को सशक्त बनाया जा सकेगा, महिलाओं को उनके सुरक्षा अधिकारों के बारे में जागरुक बनाया जा सकेगा. यह अभियान भारत की हर लड़की को अपने अधिकारों के लिए लड़ने, शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए तैयार करेगा, उन्हें अपने अधिकारों के लिए खुलकर बात करने का आत्मविश्वास देगा.

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ट्रुकॉलर द्वारा पेश किया गया अभियान #ItsNotOk महिलाओं को प्रेरित करेगा किः

o   आगे बढ़कर अपने जीवन की वास्तविक कहानियों को साझा करें और बताएं कि इससे उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा.

o   आम जनता को कॉल्स एवं मैसेज के ज़रिए महिलाओं के साथ होने वाले यौन शोषण के बारे में शिक्षित करें.

o   जागरुकता बढ़ाने के लिए, उम्मीद और आश्वासन के साथ लड़ाई का मजबूत संदेश दें.

ट्रुकॉलर महिलाओं को सुरक्षा का ऐसा प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना चाहता है, जिस पर वे भरोसा कर सकें, जहां वे अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सकें और उन्हें नुकसान पहुंचाने वाली हर संभव स्थिति से निपटने में सक्षम हों.

ट्रुकॉलर अपने इन प्रयासों का जारी रखेगा. संगठन स्थानीय कानून अधिकारियों के साथ काम करने के तरीकों पर भी विचार कर रहा है. साथ ही ऐप का इस्तेमाल करने वाली भारतीय महिलाओं को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है. ताकि हर बार फोन की घंटी बजने पर महिलाओं को डर न लगे. एक ब्राण्ड के रूप में हम उनकी सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार हैं- और इसीलिए इस दिशा में निरंतर प्रयासरत हैं.

मशरूम उगाने के काम पर लोग पागल कहते थे- अनीता देवी

बिहार का नालंदा जिला ऐतिहासिक धरोहरों और उच्च शिक्षा के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में विश्वप्रसिद्ध है. बड़ेबड़े महापुरुषों का नाम इस जिले से जुड़ा है. आजकल इस जिले से जो नाम सब से ज्यादा चर्चा में है, वह है अनीता देवी का. नालंदा जिले के चंडीपुर प्रखंड स्थित अनंतपुर गांव की अनीता देवी कर्मठता और आत्मविश्वास की अनूठी मिसाल हैं. उन्होंने अपने काम की बदौलत न सिर्फ अपनी और अपने परिवार की, बल्कि क्षेत्र की हजारों औरतों की जिंदगी भी बदल दी है.

अनीता देवी आज मशरूम उत्पादन के क्षेत्र में एक बड़ा नाम बन चुकी हैं और इस काम में अभूतपूर्व सफलता अर्जित करने के बाद वे मछली पालन, मधुमक्खी पालन, मुरगी पालन के साथसाथ पारंपारिक खेती भी कर रही हैं.

हताशा ने दी हिम्मत

बात 2010 की है, जब पढ़ीलिखी अनीता देवी के सामने बच्चों को पालने और अच्छी शिक्षा देने का सवाल खड़ा हो गया. उन की ससुराल के लोग खेती करते थे, मगर उस में आमदनी कम थी. सिर्फ खेती से घर और बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना संभव नहीं था. घर में मातापिता, 3 बच्चे, पति और वह स्वयं मिला कर 7 प्राणियों का खर्च था, जो मात्र 3 एकड़ की खेती से पूरा नहीं पड़ता था.

अनीता के पति संजय कुमार को जब उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी शहर में नौकरी नहीं मिली तो हताश हो कर वे गांव लौट आए और घर वालों के साथ खेती करने लगे. मगर अनीता देवी हताश होने वालों में नहीं थीं. वे गृह विज्ञान में स्नातक थीं और चाहती थीं कि उन के तीनों बच्चे भी उच्च शिक्षा पाएं. इसलिए उन्होंने खुद कुछ नया करने की ठान ली.

उन्हीं दिनों उन के जिले में हरनौत कृषि विज्ञान केंद्र पर एक कृषि मेला लगा. पति के साथ वे भी वहां गईं. वहां उन्होंने कृषि वैज्ञानिकों से मशरूम की खेती के विषय में सुना. अनीता को मशरूम की खेती फायदे का सौदा लगी और फिर वैज्ञानिकों से इस पर काफी देर तक सवालजवाब करती रहीं. घर लौटतेलौटते अनीता ने ठान लिया था कि वे मशरूम उगाने का काम करेंगी.

मशरूम उत्पादन के विषय में अनीता ज्यादा से ज्यादा जानकारी इकट्ठा करने लगीं. पति संजय ने उन का हौसला बढ़ाया तो मशरूम उत्पादन की ट्रेनिंग लेने वे उत्तराखंड स्थित पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय गईं और वहां मशरूम उत्पादन से संबंधित हर तकनीक समझ. इस के बाद उन्होंने समस्तीपुर में डा. राजेंद्र प्रसाद कृषि यूनिवर्सिटी से भी मशरूम के बारे में ट्रेनिंग ली.

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शुरू हुआ मशरूम लेडी का सफर

ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने सब से पहले छोटे पैमाने पर आयस्टर मशरूम और उस के बाद बटन मशरूम का उत्पादन शुरू किया. अनीता को इस में लागत भी ज्यादा नहीं लगानी पड़ी क्योंकि उन के खेतों से निकलने वाले कचरे से ही मशरूम पैदा हो रही थी. उन के पति संजय उस की पैकिंग कर के बाजार में बेचने का काम करने लगे. इस से रोज उन को कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी. धीरेधीरे उन्होंने अधिक क्षेत्र में उत्पादन शुरू किया और अधिक मात्रा में मशरूम पैदा होने लगी. तब अनीता ने अपने साथ गांव की कुछ और महिलाओं को भी जोड़ लिया.

अनीता बताती हैं, ‘‘शुरू में मैं अपने पति के साथ सभी किसान मेलों, बिहार दिवस, जिलों के स्थापना दिवस, यूनिवर्सिटी में होने वाले प्रोग्रामों आदि में हिस्सा लेने जाती थी. वहां मैं मशरूम से बने व्यंजन का स्वाद लोगों को चखाती थी और मशरूम के प्रति उन्हें जागरूक करती थी. लोगों को मशरूम का स्वाद बहुत अच्छा लगा. वे मशरूम को नौनवेज समझ कर खाते थे. धीरेधीरे लोग हमारा उत्पाद खरीदने लगे. मंडी में भी यह बहुतायत में बिकने लगी. फिर हम ने बहुत से होटलों से संपर्क किया, जहां हमारा माल जाने लगा. धीरेधीरे छोटा सा धंधा बड़ा आकार लेने लगा. अब मेरे पति रोजाना मंडी में बड़ी मात्रा में मशरूम पहुंचाने लगे हैं.’’

जब आसपास के गांव से भी महिलाएं और पुरुष अनीता के काम को देखने और उस से जुड़ने के लिए आने लगे तो पति की मदद से उन्होंने मशरूम उत्पादन की एक कंपनी बना ली- ‘माधोपुर फार्मर्स प्रोड्यूसर्स कंपनी लिमिटेड.’

मुनाफा भी रोजगार भी

आज इस कंपनी में 5 हजार महिलाएं कार्यरत हैं. 12 साल के अथक परिश्रम के बाद आज इस कंपनी से अनिता को 15 से 20 लाख रुपए साल की आमदनी होने लगी है. वे प्रतिदिन 300 किलोग्राम मशरूम का उत्पादन कर रही हैं.

अनीता देवी कहती हैं, ‘‘जिस समय मैं ने मशरूम उगाने का काम शुरू किया था, तो उस समय गांव के लोग मुझे पागल कहते थे. मगर आज वही लोग मेरे अनुयायी बन गए हैं. आज इस बिजनैस से मेरे परिवार की हालत सुधर गयी है. आज मेरे बच्चे उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं. मेरी बेटी ने पटना यूनिवर्सिटी से एम.कौम. किया है.

‘‘एक बेटा परास्नातक कर रहा है और छोटा बिहार ऐग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी में स्नातक की पढ़ाई कर रहा है. ईमानदारी, कर्मठता और कठोर श्रम की बदौलत लोग मुझे जानते हैं.’’

-नसीम अंसारी कोचर 

‘‘पहले मैं ने 2 मशीनों से काम शुरू किया. अब मेरे पास 10 मशीनें हैं. कपड़ों के और्डर इतने आने लगे कि समय मिलना मुश्किल हो गया…’’

योगिता मिलिंद दांडेकर

‘‘एक महिला को परिवार संभालते हुए काम करना आसान नहीं होता, बहुत सारी समस्याएं आती हैं. मैं काम करना चाहती थी, पर 4 साल के बेटे को देखने वाला कोई नहीं था. मैं ने कालेज के दौरान सिलाई सीख ली थी, लेकिन उसे कैसे व्यवसाय के रूप में बदला जाए, यह समझना मुश्किल था. कोई कहता कि यह काम आसान नहीं है, तो कोई कहता कि यह तुम से नहीं हो पाएगा.

‘‘मैं दुविधा में थी. पति मिलिंद दांडेकर से पूछने पर उन्होंने सलाह दी कि मैं अपने मन की सुन कर काम शुरू करूं. अत: मैं ने अपने मन की बात सुनी और काम पर लग गई. मैं खुश हूं कि उस दिन का मेरा निर्णय सही रहा और आज मैं यहां तक पहुंच गई,’’ यह कहना है अलीबाग के पास पेजारी गांव की महिला उद्यमी योगिता मिलिंद दांडेकर का, जो 2 बच्चों तन्मय और रिम्सी की मां भी हैं.

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शुरू करना था मुश्किल

योगिता कहती हैं, ‘‘मैं पहले सर्विस करती थी, लेकिन एक दिन मुझे लगा कि मैं काम के साथ बच्चे नहीं संभाल पा रही हूं. मेरा लड़का 4 साल का था और उसे संभालने वाला कोई नहीं था. यह अच्छी बात थी कि कालेज के दौरान मैं ने टेलरिंग और ब्यूटिशियन का कोर्स कर लिया था. आर्ट वर्क भी मुझे आता था, इसलिए सोचा घर बैठ कर ही कुछ काम करूं क्योंकि परिवार को कुछ आमदनी की जरूरत है. मेरे पति मुंबई की जेट्टी में काम करते है. मैं अपने कपड़े हमेशा खुद ही सिलती थी.

‘‘एक दिन मेरी एक जानपहचान की महिला ने मेरा ब्लाउज देख कर सिलाई शुरू करने का सुझव दिया. उस दिन मैं ने निश्चय किया और सब से पहले टेलरिंग का काम शुरू किया. इस से आसपास के औरतों से मेरी जानपहचान बढ़ने लगी. जो भी मेरे पास आती, मैं उस का फोन नंबर सेव किया. फिर कुछ नया सिलने पर उन्हें व्हाट्सऐप पर भेज देती थी. इस से कई महिलाएं मुझे सिलने देने के लिए कपडे़ देने लगीं. पहले मैं ने घर में दुकान ली. फिर जब कमाई बढ़ी तो बाहर एक दुकान ले ली.’’

योगिता का टेलरिंग का काम 2009 से पूरी तरह से शुरू हो चुका था. वे कहती हैं, ‘‘इस से मेरी दुनिया पूरी तरह बदल गई. अपने काम में मैं ने उन महिलाओं को जोड़ा, जिन की काम करने की इच्छा थी. कई महिलाएं आगे आईं. जिसे जो काम करना आता था उसे मैं ने वही काम करने दिया. मसलन, साड़ी फाल, बीडिंग, हुक, बटन लगाना, तुरपाई करना आदि. इस से सभी महिलाएं कुछ आमदनी करने लगीं. ये महिलाएं अपने खाली समय में मेरे पास आती थीं. कुछ को टेलरिंग पसंद थी, तो उन्हें मैं ने सिलाई सिखाई, जिस से वे कपड़े भी सिलने लगीं.

‘‘औरतों को देख कर लड़कियां भी मेरे पास सिलाई सीखने के लिए आने लगीं. इस से वे भी मेरे साथ जुड़ती चली गईं और एक बड़ी टीम बन गई. मुझे कभी अपने कपड़ों की विज्ञापन देने की जरूरत नहीं पड़ी. शुरुआत मेरी एक डिजाइनर ब्लाउज से हुई, जिसे देख महिलाओं ने खुद की ब्लाउज सिलवाने को दिए. इस से मुझे बहुत पौपुलैरिटी मिली क्योंकि हर ब्लाउज की डिजाइन अलग थी और शादी में आने वाले सभी लोगों ने मेरे सिले ब्लाउजों की तारीफ की. इस से मुझे और काम मिलने लगा.

और काम ने पकड़ी रफ्तार

योगिता आगे कहती हैं, ‘‘पहले मैं ने 2 मशीनों से काम शुरू किया. अब मेरे पास 10 मशीनें हैं. कपड़ों के और्डर इतने आने लगे कि समय मिलना मुश्किल हो गया. 1 महीने तक का काम पैंडिंग होने लगा. इस दौरान मुझे पता चला कि मेरे गांव के डिस्ट्रिक्ट इंडस्ट्री सैंटर बैंक से व्यवसाय के लिए लोन मिलता है, लेकिन उस के लिए व्यवसाय की एक ट्रेनिंग लेनी पड़ती है, जहां व्यवसाय को बढ़ाना, खुद के मार्केटिंग स्किल को विकसित करने आदि की ट्रेनिंग दी जाती है. मैं ने ट्रेनिंग ली, जिस से मेरे काम में तेजी आ गई. मैं ने लोन भी अपनी बलबूते पर लिया था.’’

आत्मनिर्भर होना जरूरी

योगिता का कहना है, ‘‘सिलाई के अलावा मैं ने रोटी बनाने का भी काम शुरू किया है क्योंकि मैं ने देखा है कि हर होटल और रेस्तरां में गेहूं के आटे की रोटियां, चावल की रोटियां, काले या रैड चावल की रोटियों की सप्लाई की जाती है. यह अच्छा व्यवसाय है. मैं ने रोटियों का कम मूल्य रखा, जिस से मेरा सामान जल्दी बिक जाता. मैं ने क्वालिटी पर अधिक ध्यान दिया.

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मैं ने लोन से एक रोटी मेकर खरीदी है, जो 1 घंटे में 150 रोटियां बना सकता है. मैं पास के होटलों और रेस्तराओं में सप्लाई करती हूं. इसे करने का उद्देश्य मेरे साथ काम कर रही महिलाओं को थोडा अधिक वेतन देना है.

इस के अलावा कोविड-19 में मैं ने कोविड पीडि़तों के लिए हर संभव सहायता की है, जिस में डाक्टर से ले कर खानपान सभी पर मैं ने ध्यान दिया है. आज कई परिवार ऐसे भी हैं, जिन के कमाने वाले ही कोविड की भेंट चढ़ गए. इसलिए हर महिला को कमाना जरूरी है ताकि वह किसी भी आपदा से निकल सके. आज महिलाओं का भी वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर होना आवश्यक है.

Single Woman: हिम्मत से लिखी खुद की दास्तां

जयपुर की अंजलि, अरुणा और मंजू हो या फिर बीते जमाने की सीता, कुंती, मरियम… पुराने जमाने से ले कर आधुनिक जमाने के इस लंबे सफर में अकेली औरत ने हमेशा संघर्ष, शक्ति और दमदख का ऐसा परिचय दिया है कि अकेले दम पर अगली जैनरेशन तक तैयार कर दी.

कवि रवींद्रनाथ टैगौर की रचना ‘एकला चालो रे…’ लगता है जैसे इन्हीं महिलाओं के साहस को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए लिखी गई हो. गीत की अगली पंक्तियों में है कि यदि आप की पुकार पर भी कोई नहीं आता है, तो आप अकेली ही चलें.

बहुत सी महिलाओं ने कभी भी नहीं चाहा था कि सिंगल पेरैंटिंग की जिम्मेदारी उन पर पड़े, लेकिन जब हालात ने उन्हें इस राह पर ला खड़ा किया तो उन्होंने पूरी हिम्मत और लगन से बच्चों की परिवरिश का जिम्मा उठाया बच्चों को एहसास कराए बिना कि उन्होंने जिस कश्ती को तैराया है, वह अनगिनत हिचकोलों से गुजरी है.

आत्मविश्वास है सब से बड़ी पूंजी

शादी के 11 साल में ही डिवोर्स का दंश झेल मंदबुद्धि एक युवती ने बच्चों के लिए काम करना शुरू किया. वह कहती है, ‘‘मैं आज में जीती हूं, हर दिन मेरे लिए नया होता है. अलग होने का फैसला काफी दर्दभरा था, लेकिन कई चीजें होती हैं जो ज्यादा लंबी नहीं चल सकतीं.’’

डिवोर्स के बाद उस ने ग्रैजुएशन किया. टीचिंग की, लौ किया. आत्मविश्वास में कभी कमी नहीं आने दी. दृढ़ रही और लोगों की बातों को कभी दिल से नहीं लगाया. अपने बच्चे के लिए किसी की यहां तक कि अपने पेरैंट्स तक की मदद नहीं ली और न उस के पिता से कोई लालनपालन का क्लेम लिया. उसे लगा कि  उस से बढ़ कर दूसरे लोग कहीं ज्यादा दुखी हैं. अपने लिए तो सभी जीते हैं, उस ने दूसरों के लिए जीना सीखा.

औरत को कभी अपनेआप को कमजोर नहीं समझना चाहिए. खुद में आत्मविश्वास है तो आगे बढ़ने से आप को कोई नहीं रोक सकता. किसी से कोई उम्मीद नहीं रखें क्योंकि जब उम्मीदें टूटती हैं तो दर्द ज्यादा होता है. जहां तक समाज के नजरिए की बात है, तो मुश्किल पलों में हमदर्दी दिखाने वाले खूब लोग होते हैं, लेकिन आप का संबल रीना दत्त, अमृता सिंह जैसे कई नाम हैं, जो मां के साहस और क्षमता के प्रतीक हैं.

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एकल अभिभावक की जिम्मेदारी

आमिर खान और सैफ अली जब अन्यत्र गए तो बच्चों की परवरिश का बीड़ा मां ने उठाया. आमिर ने जहां डेढ़ दशक से भी ज्यादा पुराना दांपत्य खत्म किया, वहीं सैफ  अली ने 1 दशक पुराने दांपत्य से किनारा कर लिया. रीना दत्त बेटे जुनैद और आयशा को ले कर ससम्मान अलग हो गई. उधर अमृता सिंह सारा और इब्राहिम को बड़ा करने में जुट गई.

रीना हो या अमृता, दोनों की ओर से कभी कोई बयानबाजी नहीं हुई, जबकि सक्रिय मीडिया हमेशा ऐसे बयानों की तलाश में फन फैलाए रखता है. ये औरतें काबिल ए तारीफ हैं क्योंकि ये झकी और गिड़गिड़ाई नहीं. सम्मान बरकरार रखते हुए बच्चों के लालनपालन में जुटी रहीं.

एक और अभिनेत्री है सुष्मिता सेन. बिटिया गोद ले कर उन्होंने एक नई परंपरा रची है. उन्होंने बता दिया कि स्त्री ममता से सराबोर है, इस के लिए उसे शादी का सार्टिफिकेट नहीं चाहिए.

जयपुर भी ऐसी अनेक महिलाओं का साक्षी है, जो अपने बूते पर एकल अभिभावक की जिम्मेदारी निबाह रही हैं. पुराने जमाने की पूरी दास्तां भी एक ही स्याही से लिखी हुई मालूम होती है.

सीता ने अंत तक अपना आत्मसम्मान व स्वाभिमान नहीं खोया हालांकि आज उन्हें राम की मात्र पत्नी के तौर पर जाना जाता है. वाल्मीकि रामायण को पढ़ने पर ही सीता का व्यक्तित्व सामने आ जाता है पर रामचरित्रमानस में तुलसीदास ने उन्हें वह स्थान नहीं दिया.

बूआओंमौसियों से अलग

‘‘मैं औरत के लिए बनाई गई सदियों पुरानी छवि में भरोसा नहीं करती. मैं आज की उस औरत की प्रतिनिधि हूं, जो अपने विकल्प खुद चुनती है, जो अपनी पसंद के रास्तों का चुनाव करने के लिए खुद को स्वतंत्र मानती है. अपनी तरह रह पाने की आजादी मुझे भाती है. मैं खुश हूं और यदि लोग इस बारे में अलग सोचते हैं, तो मुझे परवाह नहीं,’’ यह कहना है जयपुर में विज्ञापन एजेंसी में काम करने वाली एक कर्मठ प्रोडक्शन डिजाइनर का. 46 साल की इस महिला ने अविवाहित रहने का फैसला किया है.

ऐसा फैसला करने वालों का एक ऐसा जहान है, जहां अकेले रहने को एकाकी नहीं माना जाता. जहां के बाशिंदे समाज से कट कर, अपने अकेलेपन पर आंसू नहीं बहाते, बल्कि समाज से पूरा भावनात्मक, व्यावहारिक लगाव रखते हुए अपने चुने विकल्प का आनंद लेते हैं. ये सभी शिक्षित, समझदार और संवेदनशील भी हैं. बस, अकेले रहना चाहते हैं. ये पुराने जमाने की अविवाहित बूआओं, मौसियों से अलग हैं. इन के अकेले रहने के गहरे माने हैं.

इन के पास दोस्तों की एक पूरी ब्रिगेड है, रिश्ते भी हैं, लेकिन और लोगों से ये अलग हैं. इन के लिए जो बातें माने रखती हैं, मसलन- आत्मसम्मान, विश्वास और सृजनात्मकता, उन का इन के रिश्तों से कोई तअल्लुक  नहीं है.

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मुश्किलें तो हैं

एक सवाल अब भी वहीं है कि अकेले रहने वाले क्या पारिवारिक जिम्मेदारियों से बचने के लिए यह रास्ता चुनते हैं? लेकिन यह रास्ता चुनना आसान नहीं है. जो इसे चुनते हैं उन से पूछिए. महज जिम्मेदारियां ही नहीं, आमतौर पर अकेली महिलाओं को बिना सोचेसमझे पथभ्रष्ट, जिद्दी, रहस्यमयी जैसी उपाधियों से नवाज दिया जाता है. पुरुषों की दुनिया में अकेले रहती औरत के नैतिक व्यक्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगाना सहज हो जाता है. इस से बड़ी अजीबोगरीब स्थितियां भी जन्म लेती हैं.

प्रियांशी जो 49 साल की एक सामाजिक सलाहकार हैं, का कहना है- अकेली युवती के लिए नए शहर में मकान की तलाश करना एक बड़ी मुश्किल होती है. उसे अपनी आयु से ले कर खानपान की आदतों, आय तथा मिलनेजुलने वालों तक का हिसाबकिताब देना पड़ता है, तब भी अविश्वास की तलवार तो लटकी ही रहती है. अकेली युवती के रहनसहन, उस के तौरतरीकों, मित्रों, यहां तक कि उस के विचारों तक पर उंगली उठाना हर इंसान अपना अधिकार समझता है. यह मान लेना तो सब से आसान है कि अकेली युवती अनुशासित जिंदगी तो क्या जीती होगी? सारा दिन बाहर घूमती होती, घर पर खाना थोड़े ही बनाती होगी वगैरहवगैरह. शादी जैसे पारिवारिक समागम में उसे बड़ीबूढि़यों द्वारा ‘बेचारी’ कह कर बुलाया जाता है. उसे अधूरा माना जाता है.

जयपुर की रहने वाली पल्लवी का कहना है, ‘‘मैं दूसरों से अलग रहने या कट जाने के लिए अकेली नहीं रहती. पर ऐसा होता है कि कई बार मैं अपने आसपास किसी को नहीं चाहती. शादीशुदा लोगों के जीवन में भी ऐसे लमहे तो आते ही होंगे.’’

42 साल की सिया पेशे से मुर्तीकार है और अकसर विदेशी दौरों पर रहती है. जब देश में होती है, तो फुरसत के लमहे मातापिता के साथ बिताती है. वह कहती है, ‘‘मुझे घूमने का शौक है. काम ने मुझे इस का मौका दिया है. किसी एक जगह पर रुक जाने वाली जिंदगी मैं जी ही नहीं सकती. महज रस्म के लिए शादी करने वाली बात कभी दिमाग में आई ही नहीं.’’

44 साल की सुषमा जोकि मार्केटिंग कंसल्टैंट है और अकेले रह कर खुश भी है, का मानना है, ‘‘शादीशुदा जिंदगी के सारे पहलुओं पर गौर करने के बाद मैं ने अकेले रहने का फैसला किया था क्योंकि मेरी अहमियतें कुछ और थीं. अपने कैरियर पर ध्यान देने का समय शायद नहीं मिल पाता. मैं उन औरतों के बिलकुल भी खिलाफ नहीं हूं जो एक सफल पत्नी व मां बनने की आकांक्षा रखती है.’’

‘‘ऐसा नहीं है कि आप दुनिया से कट जाते हैं और आप के पास कोई रिश्ता नहीं बचता निभाने के लिए. आप को मां बनने के लिए किसी पुरुष की मदद की भी जरूरत नहीं है,’’ यह कहना है 43 साल की अंजू का, जिस ने 8 माह पहले ही 2 साल की श्रेया को गोद लिया है. अंजू 2 लोगों के नए परिवार में काफी खुश है.

मानसिकता में बदलाव

लोगों की मानसिकता में बदलाव आ रहा है और इस का श्रेय जाता है- स्त्री शिक्षा और समाज में आज जो इन का जगह बनी है, उस को. आज कम से कम शहरी क्षेत्रों में स्त्री का अलग रहना उस की मजबूरी नहीं, बल्कि मरजी समझ जाने लगा है. अब लोगों को यह समझने में आसानी होती है कि  फलां लड़की ने शादी इसलिए नहीं कि होगी क्योंकि वह घर और दफ्तर साथ में नहीं संभाल सकती थी.

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अकेले हम तो क्या गम

कोई अकेले अपनी जिंदगी बिता रही है, इस का एक कारण यह है कि वह अपनी पहचान नहीं खोना चाहती. अकेले जिंदगी का सफर तय करने वाली महिलाओं की बढ़ती संख्या का एक बड़ा कारण है उन्हें अपने मित्रों और परिवार वालों का भरपूर प्यार, सहयोग और सम्मान मिलना.

बहुतों ने तो सिंगल लाइफ के अलावा दूसरी लाइफ  के बारे में सोचा तक नहीं. उन्हें कभी

ऐसा महसूस भी नहीं हुआ कि वे अकेली हैं. उन के दोस्तों और परिवार वालों ने हमेशा उन्हें सपोर्ट किया और हर मौके को उन्होंने उन के साथ ऐंजौय किया.

अगर अकेली हैं तो गर्व से कहें ‘‘मैं अकेली हूं, इस का मुझे कोई दुखतकलीफ नहीं है. मैं मानती हूं कि शादी करना मेरी पहचान नहीं है. मैं इस से कहीं ज्यादा अपनी आजादी और रुचियों को अहमियत देती हूं.’’

शहरी आबोहवा और तेजी से आए लाइफस्टाइल में बदलाव ने भी सिंगल वूमन कंसैप्ट को आगे बढ़ाया है. आज लोगों के जीने का तरीका बदल गया है. आज अकेली रहने वाली महिला हो या पुरुष वास्तव में अकेले नहीं हैं. वे एकदूसरे के घर जाते, गपशप करते हैं. यही वजह है कि उन्हें शादी करने और गृहस्थी बसाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती.

महिलाओं का शोषण

बेटे पैदा करने का दबाव औरतों पर कितना ज्यादा होता है इस का नमूना दिल्ली के एक गांव में मिला जिस में एक मां ने अपनी 2 माह की बेटी की गला घोंट कर हत्या कर दी और फिर उसे कुछ नहीं सुझा तो एक खराब ओवन में छिपा कर बच्ची के चोरी होने का ड्रामा करने लगी. इस औरत के पहले ही एक बेटा था और आमतौर पर औरतें एक बेटे के बाद और बेटी से खुश ही होती हैं.

हमारा समाज चाहे कुछ पढ़लिख गया हो पर धार्मिक कहानियों का दबाव आज भी इतना ज्यादा है कि हर पैदा हुई लडक़ी एक बोझ ही लगती है. हमारे यहां पौराणिक कहानियों में बेटियों को इतना अधिक कोसा जाता है कि हर गर्भवती बेटे की कल्पना करने लगती है. रामसीता की कहानी में राम तो सजा बने पर सीमा के साथ हमेशा भेदभाव होता रहा. महाभारत काल की कहानी में कुंती हो या द्रौपदी या हिडिवा सब को वे काम करने पड़े थे जो बहुत सुखदायी नहीं थे.

ये कहानियां अब हमारी शिक्षा का अंग बनने लगी हैं. औरतों को त्याग की देवी का रूप कहकह कर उन का जम कर शोषण किया जाता है और वे जीवन भर रोती कलपति रहती हैं. कांग्रेसी शासन में बने कानूनों में औरतों को हक मिले पर उन का भी खमियाजा औरतों को भुगतना पड़ता है क्योंकि हर हक भोगने के लिए पुलिस और अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और भाई या पिता को उस के साथ जाना पड़ता है तो वे उस दिन को कोसते हैं जब बेटी पैदा हुई थी. हर औरत के अवचेतन मन में इन पौराणिक कहानियों और औरतों के व्रतों, त्यौहारों से यही सोच बैठी है कि वे कमतर हैं और उन्हें ही अपने सुखों का बलिदान करना है.

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रोचक बात है कि लगभग सारे सभ्य समाज में, जहां धर्म का बोलवाला है, औरतें एक न एक अत्याचार की शिकार रहती हैं. पश्चिमी अमीर देशों में भी औरतों की स्थिति पुरुषों के मुकाबले कमजोर है और बराबर की योग्यता के बावजूद वे खास बिलिंग की शिकार रहती हैं और एक स्वर के बाद उन की पदोन्नति रूक जाती है. जब पूरे विश्व में पुरुषों का बोलबाला हो तो क्या आश्चर्य कि दिल्ली के चिराग दिल्ली गांव की नई मां को बेटे के जन्म पर अपना दोष दिखना लगा हो और गलती को सुधारने के लिए उसे मार ही डाला हो.

अब इस औरत को सजा देने की जगह मानसिक रोगी अस्पताल में कुछ दिन रखा जाना चाहिए. वह अपराधी है पर उस के अपहरण पर उसे जेल भेजा गया तो उस के पति और बेटे का जीवन दुश्वार हो जाएगा. पति न तो दूसरी शादी कर सकता है, न घर अकेले चला सकता है.

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जानें पहली Trans Queen India की ट्रासजेंडर नव्या सिंह के संघर्ष की कहानी

गलत वक्त किसी के जीवन में न आये, जो मेरे साथ हुआ, मेरा जन्म तो एक लड़के के शरीर में हुआ,लेकिन मेरी सोच, मेरी चाल-चलन सब लड़कियों जैसी थी, ये गलती मेरी नहीं थी, जिसे परिवार और समाज सहारा देने के बजाय घर से बेसहारा निकाल देते है, ऐसी ही भावनात्मक बातों को कहती हुई स्वर भारी हो गयी, भारत की ट्रांसजेंडर महिला,नव्या सिंह, जो भारत की पहली ट्रांसजेंडर महिला ‘ट्रांस क्वीन इंडिया’ की ख़िताब जीती है और अब वह ट्रांसक्वीन इंडिया की ब्रांड एम्बेसेडर है.

शुरू में नव्या के पिता सुरजीत सिंह, नव्या को लड़की नहीं मानते थे, वे बहुत एग्रेसिव थे, वे इसे भ्रम समझते थे, पर उनकी माँ परमजीत कौर को समझ में आ रहा था, लेकिन वह इसे कह नहीं पाती थी. नव्या कथक और बॉलीवुड डांसर भी है, जिसका प्रयोग उन्होंने मुंबई आकर किया.

काफी संघर्ष के बाद वह बॉलीवुड की एक डांसर, मॉडलिंग और अभिनेत्री बनी है और ट्रांसजेंडर समाज को मुख्य धारा में जोड़ने की कोशिश कर रही है. वह एक हंमुख और विनय स्वभाव की है और हर कठिन घड़ी को जीना सीख किया है. दिव्या को गृहशोभा की ब्यूटी कॉलम पढना पसंद है, जिसमें अच्छी टिप्स ब्यूटी के लिए होती है. उसे गर्व है कि उसकी इंटरव्यू इतनी बड़ी पत्रिका में जा रही है.

उनसे बात हुई, आइये जाने उनके संघर्ष की कहानी उनकी जुबानी.

सवाल – आपकी जर्नी कैसे शुरू हुई?

जवाब – मैं बिहार के कटिहार जिले के गांव लक्ष्मीपुर काढ़ागोला की हूं. मैं सरदार परिवार की सबसे बड़ी लड़की हूं. पिछले 11 साल से मैं मुंबई में रह रही हूं. मैं एक ट्रांसजेंडर महिला हूं. मेरा जन्म एक गलत शरीर में हुआ था, मैं एक लड़के के शरीर में पैदा हुई और बहुत जल्दी मुझे पता चल गया था कि मेरा जन्म गलत हुआ है. 11 साल की उम्र में मुझे समझ में आ गया था की मेरी बनावट भाइयों से अलग है, मेरे भाई क्रिकेट खेलना पसंद करते थे, पर मुझे मेरी माँ का साथ अच्छा लगता था. मेरी माँ भी कुछ हद तक समझती थी. मैं गांव में पैदा हुई थी और वहां पुरुष प्रधान समाज था, औरतों को बोलने का अधिकार नहीं था. मेरे दादा कभी उस गांव के सरपंच हुआ करते थे. बचपन नार्मल ही गुजरा, लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी,लोग प्यार न देकर मजाक उड़ाते थे. बाद में मुझे पता चला कि लोग मेरे हाव-भाव को देखकर मजाक उड़ाते है. करीब तीन साल तक मैंने ऐसे गुजारा फिर मुझे इससे आगे बढ़ने की इच्छा पैदा हुई.

सवाल – सेक्स चेंज करवाना कितना मुश्किल था?

जवाब – जब मैं 18 साल की थी , तो माता-पिता ने मुंबई मासी के पास भेज दिया, ताकि मैं मुंबई की चकाचौध को देखकर खुद को सम्हाल लूँ , लेकिन मुझे मुंबई की हर बात अच्छी लगी. मेरी मासी मेरी समस्या को समझ रही थी, मुझे लेकर एक एनजीओ में गयी जहाँ मेरा लिंग परिवर्तन हुआ. डॉक्टर ने भी मासी को सलाह दिया कि मैं सेक्स के बदलने के बाद आसानी से जी सकती हूं. 18 साल की उम्र से ही मेरा परिचय एक लड़की के रूप में हुआ. मासी ने मेरी दायित्व लेकर सब कुछ किया.

मैं शुरू में पिता के साथ मुंबई आई थी, वे बहुत एग्रेसिव थे वे नहीं मानते थे कि मैं एक लड़की हूं, उन्हें मैं बेटा ही लगती थी. डॉक्टर के साथ काउन्सलिंग करवाने के बाद पिता समझे और मुझे अपना लिए.

सवाल – मुंबई जैसे शहर में पैसों का इंतजाम कैसे किया?

जवाब – मुश्किल थी, क्योंकि मेरा परिवार वित्तीय रूप से मजबूत नहीं था. इसलिए मुझे ही सबकुछ करना पड़ा. मुझे डांस आती थी,तो कही पर भी डांस करने से पैसे मिलते थे. इसके अलावा मैं ट्रांसजेंडर कम्युनिटी की मेंबर बन गयी. वहां मुझे ट्रांस एक्टिविस्ट, ट्रांस जेंडर महिला अबिना एहर ने काफी मदद की. वह दिल्ली में रहती है और पहले मुझे ट्रांस जेंडर लोगों से मिलने में डर लगता था, लेकिन जब मेरी जर्नी ऐसी हो गयी, फिर मेरा डर कम हो गया, क्योंकि ये भी इंसान है. अबिना ने जिंदगी जीने का रास्ता बताया, जो मेरे लिए काफी मददगार रही. इसके बाद मैंने कुछ एन जी ओ और इवेंट्स में काम करने लगी. 2016-17 में मैंने दो बड़ी मैगज़ीन के कवर पर आ गयी, उन्होंने मेरी जर्नी को लिखा और मेरी जिंदगी उस मोड़ से बदल गयी.

सवाल – ट्रांसजेंडर को लोग अपना नहीं पाते, इस बारें में आपकी सोच क्या है?

जवाब – असल में ट्रांसजेंडर को लोग इंसान नहीं दूसरे ग्रह की प्राणी समझते है. समाज का हिस्सा नहीं मानते, कई बार मैं कही जाने पर लोग मुझसे दूरियां बना लेते थे. बात करना नहीं चाहते थे. मुझे बहुत दुःख होता था, क्योंकि मैं भी किसी महिला के कोख से ही पैदा हुई हूं. अब नहीं लगता, सभी ने स्वीकार कर लिया है. इसकी वजह शिक्षा की कमी लगती है. आज भी कई ट्रांसजेंडर पढ़े-लिखे नहीं है. उन्हें हक के बारें में पता नहीं होता. ट्रांस जेंडर के अस्पताल जाने पर डॉक्टर उसकी जांच करना नहीं चाहते, उन्हें लगता है कि ये इंसान एचआईवी+ होगा या सेक्स वर्कर या कुछ गलत काम करने वाले ही होंगे. ट्रांस जेंडर को लेकर ये सब चीजें दुखद है. आज ट्रांस जेंडर लोग बड़े- बड़े काम कर रहे है. इसके अलावा मुझे बुलिंग, छेड़छाड़, मजाक का बहुत सामना करना पड़ता था. आज लोग थोड़े बदले है, रेस्पेक्ट मिलता है. मैंने बीकॉम की पढाई की है.

सवाल – फिल्मों में आने की इच्छा कैसे हुई?

जवाब – मुझे बचपन से फिल्मे और धारावाहिकों को देखने का शौक था. उनकी भूमिका को देखकर मैं भी आईने के आगे एक्ट करती रहती थी. ब्रेक मुझे सावधान इंडिया में साल 2017 में मिला था. मैंने ऑडिशन दिया और चुन ली गई. मैंने उसमे मोना की भूमिका निभाई है. इससे मुझे बहुत पहचान मिली, क्योंकि वह भूमिका ट्रांसजेंडर की बहुत दमदार थी. इसके बाद मुझे काम मिलता गया.

सवाल – ब्यूटी पेजेंट में कैसे जाना हुआ?

जवाब – ब्यूटी पेजेंट भी साल 2017 में ही हुआ था. मैं टॉप फाइव में गयी और अब इसकी ब्रांड अम्बेसेडर हूं. यहाँ जाने के लिए मेरे एक दोस्त ने बताया था कि इंडिया में पहली बार ट्रांस जेंडर के लिए ब्यूटी पेजेंट हो रहा है. मुझे मौका मिला और मैंने उसे सफल बनाई.

सवाल – अभी आप क्या कर रही है?

जवाब – अभी मेरा एक म्यूजिक एल्बम रिलीज होने वाला है. इसके अलावा एक बायोपिक भी ओटीटी पर रिलीज़ हो चुकी है. आगे कई और प्रोजेक्ट चल रहे है.

सवाल – फिल्मों में अधिकतर हीरों ट्रांस जेंडर की भूमिका निभाते है,इस बारें में आपकी सोच क्या है?

जवाब – मैंने बीच में इसे लेकर आवाज उठाई थी, बहुत सारे फिल्म निर्देशक को कहा था कि अगर पुरुष, ट्रांसजेंडर की भूमिका निभाएंगे तो ट्रांसजेंडर महिला किसकी भूमिका निभाएगी? शक्ति धारावाहिक में कुछ किन्नर है, लेकिन लीड एक महिला कर रही है. मेरा उन सभी से कहना है कि अभिनेत्री रुबीना दिलैक अगर किन्नर की भूमिका निभाती है तो मुझे रुबीना दिलैक की भूमिका दिया जाय. बानी कपूर अगर एक ट्रांसजेंडर की भूमिका निभाती है तो बानी कपूर की भूमिका में अगर मैं फिट हुई, तो वह मुझे मिलनी चाहिए. एलजीबीटी फिल्मों में भी एक पुरुष ने ट्रांसजेंडर की भूमिका निभाई है. मैं पुरुष नहीं, ट्रांस जेंडर हूं तो मुझे मेरी भूमिका देने से लोग क्यों कतराते है. इसका अर्थ यह है कि आप साबित करना चाहते है कि ट्रांसजेंडर पुरुष होते है. मेरी इस आवाज पर लोगों ने कहा कि ट्रांसजेंडर अच्छा काम नहीं कर सकते. मेरा उनसे पूछना है कि उन्होंने किसी को अवसर दिया क्या?मौका मिलेगा तब वे अच्छा काम करेंगे. मौका ही नहीं दिया गया, फिर कैसे कह सकते है कि ट्रांसजेंडर को अभिनय करना नहीं आता. अलिया भट्ट, बानी कपूर जैसे सभी अभिनेत्रियाँ कोई भी अपनी माँ के पेट से अभिनय सीखकर पैदा नहीं हुई है. उन्हें भी मेहनत करनी पड़ती होगी, रीटेक लेने पड़ते होंगे. मैं शांत बैठने और डरने वाली नहीं हूं,ये हक की लड़ाई है, जिससे हर ट्रांसजेंडर को न्याय मिलेगा. हम सभी समाज का हिस्सा है. फिल्मों में निर्माता, निर्देशक और कहानीकार हम सभी पर फिल्में बनाकर पैसा बटोरते है, ऐसे में हमें ही कास्ट कीजिये. अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी में अक्षय कुमार ट्रांसजेंडर बने, जिसकी परफोर्मेंस बहुत ख़राब थी. आदमी जैसे ट्रांसजेंडर नहीं दिखते. मैं चाहती हूं कि ऐसे कलाकार सबकी प्रेरणास्रोत बने. पता नहीं किस तरह का माफिया गैंग है. राजपाल यादव एक फिल्म में ट्रांसजेंडर बने है, मुझे गुस्सा आया, क्योंकि ये लोग पैसे के नाम पर कुछ भी करते है. बॉलीवुड हमारे पर फिल्में बनाता, बेचता और पैसे कमाता है, लेकिन हमें फिल्मों में लेने से डरता है.

अभी नव्या अपने परिवार के साथ मुंबई में रहती है और सेक्स चेंज की वजह से हार्मोन की दवा लेनी पड़ती है, उन्हें मूड स्विंग्स भी होता है. समय मिलने पर मैडिटेशन, गाने सुनना, और फिल्में देखती है.

जबरन यौन संबंध पति का विशेषाधिकार नहीं

विवाह बाद पत्नी से जबरन सैक्स करने को बलात्कार कहा जाने वाला कानून बनाए जाने के खिलाफ जो बातें कही जा रही हैं वे सब धार्मिक नजरिए से कही जा रही हैं. इन का मकसद यह कहना है कि चूंकि हिंदू धर्म में विवाह एक पवित्र बंधन है, इसलिए वैवाहिक बलात्कार जैसी किसी बात के लिए यहां कोई जगह नहीं. जब से विवाहितों के बीच बलात्कार को ले कर चर्चा शुरू हुई तब से यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि रोजमर्रा की इस बहुत ही सहज, सरल व सामान्य बात को ले कर इतना शोर मचाने का कोई औचित्य नहीं है.

कभी न कभी हर महिला अपने सुख के लिए नहीं, मात्र पति की यौन संतुष्टि के लिए बिस्तर पर बिछती है. शादी को ले कर उस ने जो सपना बुना होता है वह चूरचूर हो जाता है. कई नवविवाहित युवतियों का पहली रात का अनुभव बड़ा दर्दनाक होता है. इतना कि सैक्स उन के लिए आनंद का नहीं, बल्कि डर का विषय बन कर रह जाता है. कुछ इस डर को रोज झेलती हैं और फिर यह उन की आदत में शुमार हो जाता है.

दरअसल, इस तरह का मामला तब तकलीफदेह हो जाता है जब किसी महिला के पति का संभोग हिंसक यौन हमले का रूप ले लेता है और वह महिला महज यौन सामग्री के रूप में तबदील हो जाती है. वह असहाय हो जाती है. तब जाहिर है, आपसी परिचय और भरोसे की नींव हिल जाती है. कुछ मामलों में वजूद का आपसी टकराव ही ऐसे संबंध की सचाई बन कर रह जाता है. कुछ ज्यादा ही सोचता है. एक लड़की का बदन किस हद तक खुला रहना शोभनीय या अशोभनीय है या फिर किसी बच्ची के लड़की से युवती बनने के रास्ते में कौन से शारीरिक संबंध सामाजिक रूप से स्वीकृत हैं, इस सब के बारे में सामाजिक व धार्मिक फतवे जारी किए जाते हैं. जबकि इसी समाज में चाचा, मामा और यहां तक कि पिता और भाइयों द्वारा भी लड़कियां बलात्कार की शिकार हो रही हैं. तो क्या यह भी धर्म और संस्कृति का हिस्सा है? बहरहाल, अब एक और सांस्कृतिकसामाजिक फतवे को सरकारी स्वीकृति दिलाने की कोशिश की जा रही है और यह स्वीकृति है वैवाहिक संबंध में बलात्कार को ले कर. कहा जा रहा है कि धर्म के अनुसार हुए विवाह में बलात्कार की गुंजाइश नहीं है.

गौरतलब है कि निर्भया कांड के बाद वर्मा कमीशन द्वारा वैवाहिक बलात्कार को बलात्काररोधी कानून में शामिल करने की सिफारिश से हड़कंप मच गया. मोदी सरकार में मंत्री रहे हरिभाई पारथीभाई चौधरी ने साफसाफ शब्दों में कहा है कि वैवाहिक रिश्ते में बलात्कार जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती. इस के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ किया कि विधि आयोग ने बलात्कार संबंधी कानून में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की सूची में शामिल नहीं किया है और न ही सरकार ऐसा करने की सोच रही है.

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अंदेशा यह है कि इस से परिवारों के टूटने का खतरा बढ़ जाएगा. इस खतरे को टालने के लिए हमारा समाज पत्नियों की बलि लेने को तैयार है. तर्क यह भी कि भारतीय समाज में केवल विवाहित यौन संबंध को ही सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है और इस पर पत्नी और पति दोनों का ही समान अधिकार है. अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा भी तो भारत की धार्मिक संस्कृति का हिस्सा है. लेकिन ऐसा होता कहां है? ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यौन संबंध बनाने में पत्नी की इच्छा न होने की स्थिति में क्या ऐसा करने का अधिकार अकेले पति को मिल जाता है? जबरन संबंध बनाने का अधिकार अकेले पति  का कैसे हो सकता है? पति द्वारा जबरन यौन संबंध बनाने को आखिर क्यों बलात्कार नहीं माना जाना चाहिए?

आइए, जानें कि भारतीय कानून इस बारे में क्या कहता है. कोलकाता हाई कोर्ट के वकील भास्कर वैश्य का कहना है कि भारतीय कानून के तहत पति को केवल 2 तरह के मामलों में बलात्कारी कहा जा सकता है- पहला अगर पत्नी की उम्र 15 साल से कम हो और पति उस के साथ जबरन यौन संबंध बनाए तो कानून की नजर में यह बलात्कार है और दूसरा, पतिपत्नी के बीच तलाक का मामला चल रहा हो, कानूनी तौर पर पतिपत्नी के बीच विच्छेद यानी सैपरेशन चल रहा हो और पति पत्नी की रजामंदी के बगैर जबरन यौन संबंध बनाता है तो इसे भारतीय कानून में बलात्कार कहा गया है. इस के लिए सजा का प्रावधान भी है. हालांकि इन दोनों ही मामलों में पति को जो सजा सुनाई जा सकती है वह बलात्कार के लिए तय की गई सजा की तुलना में कम ही होती है.

विवाह की पवित्रता पर सवाल

सुनने में यह भी बड़ा अजीब लगता है कि विवाहित महिला कानून यौन संबंध के लिए पति को अपनी सहमति देने को बाध्य है यानी पत्नी यौन संबंध के लिए पति को मना नहीं कर सकती. कुल मिला कर यहां यही मानसिकता काम करती है कि चूंकि हमारे यहां विवाह को पवित्र रिश्ते की मान्यता प्राप्त है और इस का निहितार्थ संतान पैदा करना है, इसलिए पतिपत्नी के बीच यौन संबंध बलात्कार की सीमा से बाहर की चीज है. तब तो इस का अर्थ यही निकलता है कि यौन संबंध बनाने की पति की इच्छा के आगे पत्नी की अनिच्छा या उस की असहमति कानून की नजर में गौण है.

ऐसे में यह कहावत याद आती है कि मैरिज इज ए लीगल प्रौस्टिट्यूशन यानी पत्नी का शरीर रिस्पौंस करे या न करे पति के स्पर्श में प्रेम की छुअन का उसे एहसास मिले या न मिले पति की जैविक भूख ही सब से बड़ी चीज है. यह बात दीगर है कि जब प्रेमपूर्ण स्पर्श पर पति की जैविक भूख हावी हो जाती है तब यह स्थिति किसी भी पत्नी के लिए किसी अपमान से कम नहीं होती. जाहिर है, सभी विवाह पवित्र नहीं होते. हमारे समाज में बहुत सारी ऐसी महिलाएं हैं, जिन के मन में कभी न कभी यह सवाल उठाता है कि क्या वाकई सैक्स पत्नियों के लिए भी सुख का सबब हो सकता है? जिन के भी मन में यह सवाल आया, उन के लिए शादी कतई पवित्र रिश्ता नहीं हो सकता. रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी अपने एक अधूरे उपन्यास ‘योगायोग’ में वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठाया है. उन्होंने उपन्यास की नायिका कुमुदिनी के जरीए यही बताने की कोशिश की है कि सभी विवाह पवित्र नहीं होते. शादी के बाद पति मधुसूदन के साथ बिताई गई रात के बाद कुमुदिनी ने आखिर अपनी करीबी बुजुर्ग महिला से पूछ ही लिया कि क्या सभी पत्नियां अपने पति को प्यार करती हैं?

गौरतलब है कि यह उपन्यास 1927 में लिखा गया था. जाहिर है, वैवाहिक बलात्कार इस से पहले एक सामाजिक समस्या रही होगी और नारीवादी रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस समस्या को अपने इस उपन्यास में बड़ी शिद्दत से उठाया है.

वैवाहिक बलात्कार और राजनेता

वैवाहिक बलात्कार पर यूनाइटेड नेशंस पौप्यूलेशन फंड का एक आंकड़ा कहता है कि भारत में विवाहित महिलाओं की कुल आबादी की तीनचौथाई यानी 75% महिलाएं अपने वैवाहिक जीवन में अकसर बलात्कार का शिकार होती हैं. मजेदार तथ्य यह है कि आज भी वैवाहिक बलात्कार के आंकड़े पूरी तरह से उपलब्ध नहीं हैं. अगर इस से संबंधित आंकड़े उपलब्ध होते तो समस्या की गंभीरता का अंदाजा लगाना और भी सहज होता, कभीकभार ही कोई मामला दर्ज होता है. विश्व के ज्यादातर देशों में वैवाहिक बलात्कार की गिनती दंडनीय अपराधों में होती है. यूनाइटेड नेशंस पौप्यूलेशन फंड के इस आंकड़े के आधार पर ही डीएमके सांसद कनीमोझी ने भी बलात्कार विरोधी कानून में बदलाव की मांग की थी. इसी मांग के जवाब में मोदी सरकार में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री हरिभाई पारथी ने बयान दिया कि वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा भारतीय संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, मूल्यबोध और धार्मिक आस्था के अनुरूप नहीं है. जाहिर है, 16 दिसंबर, 2013 को दिल्ली में निर्भया कांड की जांच के लिए गठित किए गए वर्मा कमीशन की रिपोर्ट की हरिभाई पारथी ने अनदेखी कर के बयान दिया था. गौरतलब है कि वर्मा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को भी बलात्कार विरोधी कानून में शामिल करने की सिफारिश की थी. हालांकि हमारा बलात्कार संबंधी कानून तो यही कहता है कि यौन संबंध बनाने में महिला की सहमति न हो तो उस की गिनती बलात्कार में होगी. लेकिन पति द्वारा बलात्कार को इस से जोड़ कर देखने में सरकार को भी गुरेज है.

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शादी एकतरफा यौन संबंध की छूट नहीं

इस विषय पर आम चर्चा के दौरान मध्य कोलकाता में एक डाकघर में कार्यरत संचिता चक्रवर्ती बड़ी ही बेबाकी के साथ कहती हैं कि कानून की बात दरकिनार कर दें. जहां तक यौन संबंध में महिला की सहमति का सवाल है तो उस का निश्चित तौर पर अपना महत्त्व है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. विवाह का प्रमाणपत्र इस महत्त्व को कतई कम नहीं कर सकता. यौन संबंध में पतिपत्नी दोनों अगर बराबर के साझेदार हों तो वह सुख दोनों के लिए अवर्णनीय होगा. विवाह बंधन जबरन यौन संबंध का लाइसैंस किसी भी कीमत पर नहीं हो सकता.

संचिता कहती हैं कि मोदी सरकार में मंत्री के बयान की बात करें तो उस से तो यही लगता है कि उन के हिसाब से भारतीय संस्कृति में पत्नी की सहमति के बगैर यौन संबंध बनाने की पति को छूट है. भारत में विभिन्न संस्कृतियों के लोगों का वास है. तथाकथित भारतीय संस्कृति में विवाहित महिला पुरुष की बांदी है, भोग की वस्तु है. इसीलिए वैवाहिक बलात्कार उन की तथाकथित भारतीय संस्कृति में लागू नहीं होता. अमेरिका के शिकागो में एक अस्पताल में कार्यरत भारतीय मूल की सुष्मिता साहा का कहना है कि इस विषय को गंभीरता से लिया जाना चाहिए और वैवाहिक बलात्कार पर सख्त कानून होना ही चाहिए. आज भारत में जिस संस्कृति की दुहाई दी जा रही है, वही स्थिति कभी ब्रिटेन या न्यूयौर्क में थी. पर अब वहां वैवाहिक बलात्कार के बढ़ते मामलों को देखते हुए कड़े कानून बनाए गए हैं. फिर भारत में यह क्यों नहीं संभव हो सकता?

सुष्मिता कहती हैं, ‘‘जबरन यौन संबंध पति का विशेषाधिकार उसी तरह नहीं हो सकता, जिस तरह विवाह का प्रमाणपत्र यौन हिंसा की छूट नहीं देता. इसलिए वैवाहिक बलात्कार भी दरअसल दूसरे बलात्कार की ही तरह यौन हिंसा का ही एक मामला है, ऐसा न्यूयौर्क के अपील कोर्ट ने अपने बयान में कहा था. लेकिन अगर एक पत्नी के नजरिए से देखें तो वैवाहिक बलात्कार अन्य बलात्कार से इस माने में अलग है कि यहां यौन हिंसा को महिला का सब से करीबी व्यक्ति अंजाम देता है. यही बात किसी पत्नी को जीवन भर के लिए झकझोर देती है.

विवाह और यौन स्वायत्तता

भारतीय संस्कृति में पारंपरिक विवाह के तहत लड़कालड़की की पारिवारिकसामाजिक हैसियत को देखपरख कर वैवाहिक रिश्ते तय होते हैं. ऐसे रिश्ते में जाहिर है परस्पर प्रेम व मित्रता शुरुआत में नहीं होती है. हालांकि कुछ समय के बाद पतिपत्नी के बीच प्रेम का रिश्ता बन जाता है. पर ऐसे ज्यादातर विवाह एकतरफा यौन स्वायत्तता का मामला ही होते हैं. मोदी सरकार के मंत्री ने जिस भारतीय संस्कृति की बात की है उस में नारीजीवन की इसी सार्थकता का प्रचार सदियों से किया जाता रहा है और इस संस्कृति में औरत पुरुष के खानदान के लिए बच्चे पैदा करने का जरीया और पुरुष के लिए यौन उत्तेजना पैदा करने की खुराक मान ली गई है.हमारी परंपरा में लड़कियां अपने मातापिता को खुल कर सब कुछ कहां बता पाती हैं? खासतौर पर नई शादी का ‘लव बाइट’ आगे चल कर पति का ‘वायलैंट बाइट’ बन जाए तो शादी के नाम पर लड़की अकसर अपने भीतर ही भीतर घुट कर रह जाती है. माना ऐसा हर किसी के साथ नहीं होता है.

2013 में दिल्ली में पारंपरिक विवाह के बाद नवविवाहित जोड़ा हनीमून के लिए बैंकौक पहुंचा. हनीमून के दौरान लड़की के साथ उस के पति पुनीत ने क्रूरता की तमाम हदें पार कर के बलात्कार किया. लौट कर लड़की ने पुलिस में शिकायत दर्ज की. पुलिस ने दीनदयाल अस्पताल में लड़की की जांच करवाई तो बलात्कार की पुष्टि हुई. इस के बाद भारतीय दंड विधान की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दायर किया. साफ है कि वैवाहिक बलात्कार पर हमारा कानून एकदम से खामोश भी नहीं है. इस के लिए भी हमारे यहां प्रावधान है. भारतीय दंड विधान की घरेलू हिंसा की धारा 498ए के तहत शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न और क्रूरता के लिए सजा का प्रावधान है. इसी धारा के तहत वैवाहिक बलात्कार का निदान महिलाएं ढूंढ़ सकती हैं.

अन्य देशों की स्थिति

चूंकि विकास और सभ्यता एक निरंतर प्रक्रिया है, इसीलिए दुनिया के बहुत सारे देशों में वैवाहिक बलात्कार के लिए कोई कानून नहीं था. लेकिन विमन लिबरेशन ने महिलाओं को अपने अधिकार के लिए आवाज बुलंद करना सिखाया. लंबी लड़ाई के बाद सफलता भी मिली. दोयमदर्जे की स्थिति में बदलाव आया. कहा जाता है कि आज दुनिया के 80 देशों में वैवाहिक बलात्कार के लिए कानूनी प्रावधान हैं. बहरहाल, दुनिया में वैवाहिक बलात्कार को ले कर चर्चा ने तब पूरा जोर पकड़ा जब 1990 में डायना रसेल की एक किताब ‘रेप इन मैरिज’ प्रकाशित हुई. इस किताब में डायना रसेल ने समाज को अगाह करने की कोशिश की है कि वैवाहिक जीवन में बलात्कार को पति के विशेषाधिकार के रूप में देखा जाना पत्नी के लिए न केवल अपमानजनक है, बल्कि महिलाओं के लिए एक बड़ा खतरा भी है.

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2012 में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की आयुक्त भारतीय मूल की नवी पिल्लई ने कहा कि जब तक महिलाओं को उन के शरीर और मन पर पूरा अधिकार नहीं मिल जाता, जब तक पुरुष और महिला के बीच गैरबराबरी की खाई को पाटा नहीं जा सकता. महिला अधिकारों का उल्लंघन ज्यादातर उस के यौन संबंध और गर्भधारण से जुड़ा हुआ होता है. ये दोनों ही महिलाओं का निजी मामला है. कब, कैसे और किस के साथ वह यौन संबंध बनाए या कब, कैसे और किस से वह बच्चा पैदा करे, यह पूरी तरह से महिलाओं का अधिकार होना चाहिए. यह अधिकार हासिल कर के ही कोई महिला सम्मानित जीवन जी सकती है. 1991 में ब्रिटेन की संसद में वैवाहिक संबंध में बलात्कार का मामला उठाया गया था, जो आर बनाम आर के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है. ब्रिटेन संसद के हाउस औफ लौर्ड्स में कहा गया कि चूंकि शादी के बाद पति और पत्नी दोनों समानरूप से जिम्मेदारियों का वहन करते हैं, इसलिए पति अगर पत्नी की सहमति के बिना यौन संबंध बनाता है तो अपराधी करार दिया जा सकता है. इस से पहले 1736 में ब्रिटेन की अदालत के न्यायाधीश हेल ने एक मामले की सुनवाई के बाद फैसला सुनाया था कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी पति से यौन संबंध बनाने को बाध्य है. उस की शारीरिक स्थिति कैसी है या यौन संबंध बनाने के दौरान वह क्या और कैसा महसूस कर रही है, इन बातों के इसलिए कोई माने नहीं हैं, क्योंकि शादी का अर्थ ही यौन संबंध के लिए मौन सहमति है. हेल के इस फैसले को ब्रिटेन में 1949 से पहले कभी किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा. लेकिन 1949 में एक पति को पहली बार पत्नी के साथ बलात्कार का दोषी ठहराया गया.

ब्रिटेन के अलावा यूरोप के कई देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध है. अमेरिका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीकी देशों में भी इस के लिए कानून बना कर इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है. नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने भी पत्नी की रजामंदी के बगैर संभोग को बलात्कार करार दिया है. कोर्ट ने अपनी इस घोषणा का आधार हिंदू धर्म को ही बताते हुए कहा है कि हिंदू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ को ही महत्त्व दिया गया है. इसलिए यौन संबंध बनाने में पति पत्नी की मरजी की अनदेखी नहीं कर सकता. अब जब गरीब राष्ट्र नेपाल घोषित रूप से भी हिंदू राष्ट्र है, वैवाहिक बलात्कार के लिए महिलाओं के पक्ष में कानून बना सकता है तो भारत में क्या दिक्कत है?

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