मन की आवाज सुन कर ही फिल्म बनाता हूं- सुमन मुखोपाध्याय

सुमन मुखोपाध्याय 20 वर्षों से रंगमच व फिल्मों के निर्माण से जुड़े हुए हैं. हाल ही में उन हुई नाटकों व फिल्मों पर सरकारों के अंकुश, बंगाल की राजनीति, सिविल सोसायटी मूवमैंट, टीएमसी के चलते सिविल सोसायटी मूवमैंट के खात्मे, भाजपा की हार की वजह, कम्यूनिस्ट पार्टी के पतन की वजह, भाजपा ने बंगाल को किस तरह से नुकसान पहुंचाया व उन की फिल्म ‘नजरबंद’ को ले कर ऐक्सक्लूसिव बातचीत के कुछ अंश पेश हैं:

आप के पिता का थिएटर ग्रुप था, आप ने भी थिएटर से शुरुआत की. बंगला थिएटर काफी समृद्ध और लोकप्रिय रहा है. वर्तमान समय में बंगला थिएटर की क्या स्थिति है?

पश्चिम बंगाल में थिएटर, रंगमच के हालात हमेशा अच्छे रहे हैं. पूरे प्रदेश में बंगला रंगमंच हावी रहा है. लेकिन पिछले डेढ़ वर्ष से कोरोना महामारी की वजह से सारे समीकरण गड़बड़ा गए हैं. सबकुछ गड़बड़ चल रहा है. डेढ़ वर्ष से थिएटर बंद है. लेकिन महामारी से पहले कोलकाता के साथ ही पूरे पश्चिम बंगाल में जगहजगह नाटकों के शो चलते रहते थे. पश्चिम बंगाल में कई थिएटर ग्रुप हैं.

मेरी राय में 60-70 व 80 के दशक में पश्चिम बंगाल में साहित्य, थिएटर, संगीत, सिनेमा सब मिला कर जो कल्चरल, सांस्कृतिक माहौल था, वातावरण था, वह वातावरण इलैक्ट्रीफाइंग था. वह कुछ हद तक कम हुआ. सीपीआई शासन का अंतिम प्रहर और लैफ्ट ने शासन किया और फिर तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आते ही सबकुछ गड़बड़ हो गया. कल्चरल डिसकनेक्षन, सांस्कृतिक वियोग हो गया.

क्या आप मानते हैं कि केंद्र या राज्य सरकार के बदलने का प्रभाव संस्कृति, सिनेमा, थिएटर, कला पर पड़ता है?

बहुत ज्यादा पड़ता है. समाज पूरी सांस्कृतिक गतिविधियों, राजनीतिक गतिविधियों का एक हिस्सा है, यह सामाजिक, राजनीतिक आदानप्रदान है, जो संस्कृति को घटित करता है. कोई भी संस्कृति कल्चर अलगाव में विकसित या पनपती नहीं है. संस्कृति, सामाजिक व राजनीतिक वातावरण की उपज है. इसलिए मेरा मानना है कि देश या राज्य में राजनीतिक स्तर पर जो कुछ घटित होता है, उस का जबरदस्त प्रभाव संस्कृति पर पड़ता है.

पहले भी सभी बंगाली कलाकारों में राजनीतिक जागरूकता थी. उत्पल दत्त के नाटकों में ‘स्ट्रीट पौलिटिक्स’ हावी रही, वहीं शोमू मित्रा के नाटकों में कुछ अलग तरह का प्रभाव था. तो सभी जानते कि उन का जुड़ाव सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र से रहा. लेकिन जैसेजैसे लैफ्ट फ्रंट शासन का पतन होता गया, वैसेवैसे बहुत कुछ बदलता गया. फिर तृणमूल सरकार आ गई. अब संस्कृति को ले कर हम लोगों का संघर्ष चल रहा है. इस से हम अभी तक निकल नहीं पाए हैं.

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10-12 वर्षों के अंदर कलाकार व फिल्मकार राजनीति में ज्यादा, कला में कम रुचि रखने लगे हैं?

आप ने एकदम सही कहा. जिस वक्त आप किसी राजनीतिक पार्टी के सदस्य या कार्यकर्ता बनते हैं, आप कला के प्रति ईमानदार नहीं रह सकते क्योंकि राजनीतिक पार्टी के मुखिया चाहेंगे कि आप अपनी कला के माध्यम से उन की पार्टी के ही विचारों को लोगों तक पहुंचाएंगे आप की कलात्मक प्रतिभा से जो कुछ निकले, जबकि कला व कलाकार को हमेशा स्वतंत्र रहना चाहिए और दर्शकों के हित की सोचनी चाहिए.

कलाकारों व फिल्मकारों को चाहिए कि वे हमेशा अपने दर्शकों को ऐसी चीजें परोसें, जिन से दर्शकों में जागरूकत बनी रहे, उन के अंदर एक ‘थौट प्रोसैस’ सोचने की प्रक्रिया सतत चलती रहे. जब भी किसी कलाकार से कोई राजनीतिक दल कुछ करने के लिए कहे, तो कलाकार उसे साफतौर इनकार करते हुए कहे कि वह कलाकार है, कृपया उस पर नियंत्रण न करे.

बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी के शासनकाल में ‘सिविल सोसायटी मूवमैंट’ को खुली छूट थी. लेकिन तृणमूल सरकार के आने के बाद ‘सिविल सोसायटी मूवमैंट’ उसी ढर्रे पर चल पा रहा है?

देखिए जब सिविल सोसायटी मूवमैंट का कोई बड़ा आंदोलन होता है, तो लोग इकट्ठा हो जाते हैं, सड़कों पर उतर आते हैं जब सीएए और एनआरसी के खिलाफ मूवमैंट चला तो पूरा भारत सड़कों पर उतर आया. जब पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में कांड हुआ था, तब आम लोग, मध्यवर्गीय, बुद्धिजीवी, नौकरीपेशा यानी हर क्षेत्र से जुड़े लोग सड़कों पर उतर पड़े थे. मगर ये सभी अपनेअपने क्षेत्र के प्रोफैशनल व नौकरीपेशा हैं, इसलिए ऐसे आंदोलन की स्थिरता को ले कर सवाल उठने स्वाभाविक हैं क्योंकि सभी को अपना काम भी करना है.

आप सिर्फ बंगाल ही नहीं पूरे विश्व में देख लीजिए कि सिविल सोसायटी मूवमैंट का हश्र क्या हुआ. टर्की में क्या हुआ? यहां तक कि ब्लैक जैसे मुद्दे पर अमेरिका में सिविल सोसायटी मूवमैंट का क्या हुआ. इजिप्ट में क्या हुआ? लोग अपने प्रोफैशन को छोड़ कर लंबे समय तक सिविल सोसायटी मूवमैंट को जिंदा नहीं रख पाते. हर सिविल सोसायटी मूवमैंट की स्थिरता के लिए परोक्ष या अपरोक्ष रूप से राजनीतिक यूनिट का जुड़ाव आवश्यक है.

पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने 5 वर्ष के दौरान बंगाल में जो काम किए उन से बंगाल को क्या नुकसान हुआ?

आज की तारीख में आकलन करें तो सारा नुकसान भाजपा से जुड़े लोगों का ही हुआ. आम इंसान का नुकसान नहीं हुआ. हां, इस राजनीतिक हिंसा में कुछ बेगुनाह लोगों की जानें गईं. इस के लिए सभी दोषी हैं. भाजपा ने सोचा था कि गलत बातें कर के, कुछ जुमलेबाजी कर के लोगों को खरीद कर या कुछ बेच कर बंगाल को जीत लेंगे, जोकि नहीं हो पाया.

बंगाल का अपना सांस्कृतिक इतिहास है. बंगाल सदियों से अपने अंदाज में बढ़ता रहा है. आप अचानक आ कर उस की अवहेलना नहीं कर सकते. भाजपा के नेताओं ने जो बातें कहीं, उन से लोगों को एहसास हुआ कि ये लोग हमारी भाषा में बात नहीं करते हैं. ये अपनी मिट्टी के लोग नहीं है. यह बात हर इंसान के दिमाग में मजबूती के साथ पैदा हुई.

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बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी ने 30 सालों तक शासन किया. कम्यूनिस्ट पार्टी सिविल सोसायटी मूवमैंट को भी प्रश्रय दे रही थी. रंगमंच व इप्टा जैसी कई संस्थाओं को प्रश्रय दे रही थी, तो फिर उस का पतन क्यों हो गया?

मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि पश्चिम बंगाल की कम्यूनिस्ट पार्टी और केरला की कम्यूनिस्ट पार्टी में बहुत बड़ा अंतर है. केरला में कम्यूनिस्ट पार्टी शासन में आतीजाती रहती है. मगर पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं था. पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्ट पार्टी 34 वर्ष लगातार शासन में रही. कम्यूनिस्ट पार्टी का आधार एक विचारधारा है.

उस की विचारधारा का अपना एक इतिहास है. मगर अगर आप एक सोच प्रक्रिया में ही फंस कर रह जाएंगे, तो विकास नहीं होगा. आप आज किसी भी कम्यूनिस्ट नेता से बात कीजिए, तो वह वही बात करेगा, जो बातें लोग 25 वर्ष पहले किया करते थे. उन की बातों में समसामयिकता का कोई संबंध नजर नहीं आता तो वे समसामयिक लोगों के साथ कैसे जुड़ेंगे? उन्हें यही नहीं पता कि आज का इंसान क्या सोचता है? उन्हें समसामयिक आंदोलन की भी समझ नहीं है.

आज का इंसान किस तरह से सोचता है आज की तारीख में समाज का चलन क्या है? वे अपनी पुरानी ‘आईडियोलौजी’ में ही जकड़े हुए हैं.

‘सिविल सोसायटी मूवमैंट’ से जुड़े होने के चलते रंगकर्मी या फिल्मकार होने पर किस तरह का असर पड़ता है?

जहां तक फर्क या असर का सवाल है, तो पता नहीं. मगर मैं सामाजिक मुद्दों पर बात करने के लिए सदैव तैयार रहता हूं. परिणामवय हमेशा हम पर एक तलवार लटकती रहती है. चुनाव के समय हम कुछ कलाकारों ने एक म्यूजिक वीडियो बनाया था. इस पर एक राजनीतिक दल ने हमें ‘दोगले लोग’ की संज्ञा दी. तो इस तरह के कमैंट आहत करते हैं. अच्छा हुआ कि वह पार्टी सत्ता में नहीं आई अन्यथा हम सभी को ढूढ़-ढूढ़ कर प्रताडि़त करना शुरू करती. मैं कभी डरा नहीं. यदि मैं ने कुछ कहा है, तो उस के परिणाम भुगतने  के लिए हमेशा तैयार रहता हूं.

किसी भी विषय पर फिल्म बनाने का निर्णय आप किस तरह से लेते हैं? आप के अंदर की कोई आवाज होती

है या किसी सामाजिक, राजनीतिक बात को कहने के मकसद से फिल्म बनाते हैं?

मैं हमेशा अपने मन की आवाज सुन कर ही फिल्म बनाने का निर्णय लेता हूं. मैं किसी भी फिल्म को बनाने का निर्णय इस आधार पर कभी नहीं लेता कि यह सोसियो पौलीटिकली महत्त्वपूर्ण है. इस तरह विषय चुनने पर फिल्म की लंबी जिंदगी नहीं होती. समसामयिक विषय से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह होती है कि एक फिल्मकार के तौर पर हम उस में जान किस तरह से डालते हैं.

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Kajal Aggarwal ने कुछ यूं सेलिब्रेट की गोदभराई की रस्म, फोटोज वायरल

साउथ से लेकर बौलीवुड में अपनी एक्टिंग से धमाल मचाने वाली एक्ट्रेस काजल अग्रवाल (Kajal Aggarwal) शादी के बाद से सुर्खियों में हैं. जहां बीते दिनों एक्ट्रेस ट्रोलिंग का शिकार हो गई थीं तो वहीं अब उनकी गोदभराई की फोटोज सोशलमीडिया पर वायरल हो गई हैं. आइए आपको दिखाते हैं एक्ट्रेस काजल अग्रवाल की बेबी शावर (Kajal Aggarwal Baby Shower) की खास फोटोज…

एक्ट्रेस ने गोदभराई की सेलिब्रेट

एक्ट्रेस काजल अग्रवाल जल्द ही मां बनने वाली हैं, जिसके चलते हाल ही में उन्होंने दोस्तों और फैमिली संग बेबी शावर सेरेमनी सेलिब्रेट की. बेबी शौवर की रस्म में काजल अग्रवाल लाल रंग की साड़ी पहने नजर आईं, जिसमें वह बेहद खूबसूरत लग रही थीं. वहीं उनके साथ सेलिब्रेशन में उनके पति गौतम किचलू प्यार लुटाते नजर आए.

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फैंस ने लुटाया प्यार

गोदभराई के मौके पर एक्ट्रेस काजल अग्रवाल अपने पति गौतम किचलू के साथ जमकर फोटोज क्लिक करवाती नजर आईं. वहीं इन फोटोज को देखकर फैंस और सेलेब्स कमेंट्स में जमकर प्यार लुटाते हुए नजर आए. जहां फैंस ने काजल और उनके बच्चे की सलामती की दुआ मांगी तो वहीं उनके गोदभराई लुक की तारीफ करते नजर आए. लाल साड़ी में बेबी बंप फ्लौंट करते हुए काजल अग्रवाल की फोटोज को फैंस बेहद पसंद कर रहे हैं.

ट्रोलिंग का हुई थीं शिकार

बता दें, बीते दिनों प्रैग्नेंसी में वजन बढ़ने के कारण एक्ट्रेस काजल अग्रवाल ट्रोलिंग का शिकार भी हो चुकी हैं. हालांकि वह ट्रोलर्स को एक पोस्ट के जरिए करारा जवाब देते हुए नजर आईं थीं. वहीं इन सबके बीच सेलेब्स ने उनका पूरा सपोर्ट किया था, जिसके चलते फैंस भी उनके साथ आ गए थे.

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Hrithik Roshan की फैमिली फोटो में दिखीं Saba Azad तो फैंस ने पूछा शादी का सवाल

बौलीवुड एक्टर ऋतिक रोशन (Hrithik Roshan) इन दिनों अपनी पर्सनल लाइफ के चलते सुर्खियां बटोर रहे हैं. जहां बीते दिनों सबा आजाद (Saba Azad) के साथ डेटिंग के कारण वह खबरों में हैं तो वहीं अब सबा आजाद के ऋतिक रोशन की फैमिली संग फोटोज वायरल हो रही हैं. आइए आपको बताते हैं पूरी खबर…

फैमिली संग दिखे सबा-ऋतिक

 

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इन दिनों मीडिया में खबरें हैं कि सबा आजाद और एक्टर ऋतिक रोशन एक-दूसरे को डेट कर रहे हैं, जिसे अब वह वेलेंटाइन डे के मौके पर सबके सामने जाहिर करते नजर आए थे. वहीं अब ऋतिक रोशन (Hrithik Roshan) और सबा आजाद (Saba Azad) की एक फोटो सोशलमीडिया पर वायरल हो रही है, जिसमें ये कपल फैमिली के साथ वीकेंड का लुत्फ उठाते नजर आ रहे हैं. दरअसल, फोटो में ऋतिक रोशन अपने बच्चों, बहन और माता-पिता के साथ बैठे दिख रहे हैं. वहीं इसमें सबा आजाद भी साथ नजर आ रही हैं.

 

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फैंस कर रहे हैं ये सवाल  

ऋतिक रोशन और सबा आजाद की फैमिली संग फोटोज वायरल होने के बाद सेलेब्स और फैंस फोटोज पर जमकर कमेंट कर रहे हैं. वहीं सबा आजाद ने भी फोटो पर कमेंट करते हुए लिखा है कि यह उनका सबसे अच्छा संडे था. हालांकि फैंस भी अपने फेवरेट एक्टर की खुशी पर कमेंट करते हुए उनसे सवाल कर रहे हैं कि क्या इस फोटो का मतलब यह माना जाए कि दोनों की शादी पक्की हो गई है? वहीं दोनों की इस जोड़ी का फैंस ने #sabthik हैशटैग दे दिया है.

 

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बता दें, बीते दिनों ऋतिक रोशन की एक्स वाइफ सुजैन खान भी सबा आजाद की तारीफ करती हुईं नजर आईं थीं. जहां उन्होंने सोशलमीडिया पर एक स्टोरी शेयर करके सबा आजाद की तारीफ की थी.

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REVIEW: अपराध बोध और बदले की स्तरहीन कथा है ‘मिथ्या’

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः अप्लॉज इंटरटेनमेंट और रोज ऑडियो वीज्युअल प्रोडक्शन

निर्देशकः रोहण सिप्पी

कलाकारः हुमा कुरेशी,अवंतिका दसानी, परमब्रता चटर्जी,रजित कपूर, समीर सोनी,इंद्रनीलसेन गुप्ता, अवंतिका अके्रकर व अन्य

अवधिः लगभग साढ़े तीन घंटे,30 से 37 मिनट के छह एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः जी 5

अंग्रेजी का शब्द है ‘‘प्लेजरिज्म’’ यानी कि साहित्यिक चोरी. साहित्यक चोरी के इल्जाम के साथ शुरू हुई मनोवैज्ञानिक, रोमांचक अपराध कथा वाली वेब सीरीज ‘‘मिथ्या’’ लेकर फिल्मकार रोहण सिप्पी लेकर आए हैं,जो कि 2019 की सफल ब्रिटिश वेब सीरीज ‘‘चीट’’ का स्तरहीन भारतीय करण है.जिसमें साहित्यिक चोरी,झूठ पर टिके रिश्तों, एक लड़की द्वारा अपने पिता से  स्वीकृत होने की लड़ाई के साथ मर्डर मिस्ट्री भी है. यह सीरीज 18 फरवरी से ‘जी 5’ पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानीः

कहानी दार्जलिंग के एक कॉलेज से शुरू होती है,जहां जुही अधिकारी ( हुमा कुरेशी )हिंदी साहित्य की प्रोफेसर हैं.वहीं उनके पति नील अधिकारी (परमब्रता चटर्जी   ) भी प्रोफेसर हैं.नील को अपने एक शोध व किताब के लिए ग्रांट की जरुरत है,जो कि कालेज के ट्स्टी व उद्योगपति राजगुरू(समीर सोनी) के हाथों में हैं.जुही अधिकारी अब ‘एचओडी’बनने वाली हैं.पर जुही हमेशा असमंजस में रहती हैं.वह अक्सर अपनी शादी की अंगूठी उतारकर कहीं भी छोड़ देती हैं.यानी कि वह करना कुछ चाहती हैं,पर कर कुछ और ही बैठती हैं.वह अपनी सेक्स संबंधी इच्छाओं को दबाने का प्रयास करती हैं.वह अक्सर एंजायटी की दवा लेती रहती है.गर्भधारण न कर पाने के चलते वह तनाव से गुज रही हैं.तो वहीं उनके कालेज की छात्रा रिया राजगुरू(अवंतिका दसानी   ) के जीवन में भी तमाम त्रासदियां हैं.जुही अधिकारी निबंध लेखन में एक छात्रा रिया राजगुरू को इस आधार पर फेल कर देती हैं कि रिया ने सत्य और तथ्य विषय पर जो निबंध लिखा है,वह मौलिक नही है.जुही ,रिया पर ‘प्लेजरिज्म’ का आरेाप लगाती है.अकादमिक धोखे की यह कहानी नया रूप लेती है.वैसे रिया कह चुकी होती है कि यह निबंध मौलिक है और उसी ने लिखा है.रिया राजगुरू कालेज के एक ट्स्टी राजगुरू की बेटी है.यहीं से कहानी जुही अधिकारी बनाम रिया राजगुरू हो जाती है.अब रिया अपने शातिर दिमाग से जुही को परेशान करने लगती है.जुही की अनुपस्थिति में रिया जुही के घर जाकर नील अधिकारी से मिलती है और पता चलता है कि उनके प्रिय पालतू कुत्ते की हत्या हो गयी है.इसके बाद कई घटनाक्रम घटित होते हैं.हालात ऐसे होते हैं कि हर बात के लिए जुही,रिया को ही दोष देने लगती है.एपीसोड दर एपीसोड कहानी में नए नए मोड़ आते जाते हैं.धीरे धीरे रिया अधिकारी के जीवन का सच भी सामने आने लगता है.

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लेखन व निर्देशनः

यह 2019 की सफल ब्रिटिश वेब सीरीज ‘‘चीट’’ का भारतीयकरण है,जिसे एडॉप्ट करने में लेखक व निर्देशक दोनो बुरी तरह से असफल रहे हैं.वह इसमें न तो सही ढंग से मोरॉलिटी की ही बात कर पाए और  न ही इंसानी मनोविज्ञान को ही ठीक से उठा सके.वेब सीरीज का क्लायमेक्स बहुत घटिया है.वैसे निर्देशक ने इसके दूसरे भाग को लाने का इशारा सीरीज के अंत में जरुर कर दिया है.

लेखक व निर्देशक इस मूल्यवान कथानक के साथ न्याय करने में असफल रहे हैं.सीरीज की शुरूआत में लगा था कि झूठे रिश्तों, मोरॉलिटी के साथ साथ दो विरोधाभासी चरित्रों जुही अधिकारी और रिया राजगुरू को समझने का प्रयास किया जाएगा, मगर लेखक व निर्देशक दोनों ने इन दोनों चरित्रो को एक जैसा ट्ीटमेंट देकर सारा गुड़ गोबर कर दिया.इतना नही मर्डर मिस्ट्ी को भी अनन फानन में इस तरह निपटाया गया कि जो सार लोगों तक पहुॅचना चाहिए,वह नही पहुॅच सका.

मंुबई महानगर में पले बढ़े और महानगरीय जिंदगी का लुत्फ उठा रहे लेखक व निर्देशक को इस बात का भी अहसास नही है कि किसी महिला को महज साड़ी पहना देने से वह कालेज में साहित्य की प्रोफेसर नही हो जाएगी.‘मिथ्या’ में कालेज में साहित्य की प्रोफेसर जुही,जो कि ‘एचओडी’ बनने का सपना देख रही है,उसे लेखक व निर्देशक ने शराब व सिगरेट फूंकने की लत की शिकार से लेकर विवाहेत्तर संबंधों में लिप्त दिखाया,जो कि दर्शक के गले नही उतरता.क्या देश के हर कालेज का प्रोफेसर ऐसा ही है.इतना ही नही पूरी सीरीज के केंद्र में हिंदी भाषा व हिंदी साहित्य है,मगर कक्षा में जिस तरह की बातचीत होती है,उसे देखकर दर्शक अपना माथ पीट लेता है.कहीं भी माहौल व भाषा की रवानी नही है.

एडीटिंग में भी गड़बडी है.

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अभिनयः

जुही जैसे जटिल और मनोवैज्ञानिक रूप से उलझे हुए किरदार के साथ न्याय करने में हुमा कुरेशी असफल रही हैं.हम अब तक हुमा कुरेशी को एक सशक्त अदाकारा  मानते आए हैं,मगर जुही के किरदार में वह निराया करती हैं.अब यह निर्देशक की अक्षमता है या हुमा कुरेशी की गलती,यह तो वही जाने.मैन्यूप्युलेशन करने में माहिर के रिया के किरदार में नवोदित अदाकारा अवंतिका दसानी,जो कि अभिनेत्री भाग्यश्री की बेटी है, बहुत ज्यादा सफल भले न रही हो,मगर उम्मीद जगाती हैं कि अगर वह मेहनत करे और उन्हे बेहतरीन निर्देशकों का साथ मिले,तो उनकी अभिनय प्रतिभा मे निखार आ सकता है.नील अधिकारी के किरदार में परमब्रता चटर्जी  अपने छोटे से किरदार में भी प्रभाव छोड़ जाते हैं.

अंतिम सफर पर चल दिए Bappi Lahiri

दिल में हो तुम आँखों में तुम…….ये सुरीला गीत शायद सभी जानते है, सत्मेव जयते का ये गीत जिसे बप्पी लहरी ने अपना सुर दिया था. ये गाना उस दौर की सबसे हिट सॉंग थी, जिसे हर प्यार करने वाले जोड़े की होठों पर रहा. बप्पी लहड़ी ने हर तरह के गीत गाये और संगीतबद्ध भी किया, जिसमे हिंदी के अलावा बांग्ला और दक्षिण भारतीय फिल्मों के भी गाने है.

केवल 69 की उम्र में संगीत की दुनिया से चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति है. डिस्को किंग कहे जाने वाले बप्पी लहड़ी ने संगीत में डिस्को संगीत को ऐसे समय में परिचय करवाया जब ये विदेशी संगीत कहलाया करता था. पहले इस संगीत को किसी फिल्म कार ने अधिक महत्व नहीं दिया, लेकिन डिस्को डांसर के गीत और अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती के डांस ने सबको ऐसा दीवाना बनाया कि बप्पी लहरी उस दौर के गायक, म्यूजिक कंपोजर, एक्टर रिकॉर्ड प्रोड्यूसर बन गए और  निर्माता निर्देशक उनके फिल्मों के गीत बप्पी दा से लेने लगे थे. बप्पी लहरी माइकल जैक्सन के डांस और गाना बहुत पसंद था ,जबकि माइकल जैक्सन को बप्पी लहड़ी की डिस्को डांसर सॉंग पसंद थी.

 पॉपसॉंग के रहे शौक़ीन

70-80 के दशक में गाए उनके डिस्को सोंग्स हमेशा सबको याद रहेंगे. आज भी जब पार्टी म्यूजिक की बात होती है, तो सबसे पहले बप्पी दा के गानों की याद आती है. बप्पी दा को संगीत से बहुत प्यार था, इसकी वजह उनका एक संगीतज्ञ परिवार में जन्म लेना और 3 साल की उम्र से संगीत सीखना शुरू कर दिए थे और 11 साल की उम्र में संगीत के कंपोजर भी बन गए थे.उन्होंने हर तरह के गीत गाये और बनाए भी. उनपर कई बार विदेशी धुन को हिंदी गानों में प्रयोग करने पर आरोप लगे, पर वे इसे फ्यूजन संगीत कहते थे, क्योंकि उनका मानना था कि संगीत को हर कोई अपने ढंग से गा सकता है, इसे रोक पाना किसी के वश में नहीं होता.

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बने यूथ आइकोन

हिंदी सिनेमा में डिस्को सॉंग लाने की वजह उन्होंने बताया था कि वर्ष 1979 में वे पहली बार अमेरिका गये और वहां जॉन ट्रावोल्टा का सैटरडे नाईट में जाने का मौका मिला और उससे वे प्रभावित होकर इंडिया में डिस्को सॉंग को लाना चाहते थे और इसे वे मिठुन चक्रवर्ती की फिल्म डिस्को डांसर से कर पाए. उन्होंने कहा था कि अगर मिठुन चक्रवर्ती मेरे सॉंग पर इतना अच्छा परफॉर्म नहीं करते तो मिठुन चक्रवर्ती और मैं लाइम लाइट में नहीं आ पाते. उन दोनों का चोली दामन का रिश्ता था. उन्होंने किशोर कुमार, उषा उथुप, आशा भोसले, सुस्माश्रेष्ठ आदि सभी ने उनके गीत गाये है.

प्रिय थे वाद्ययंत्र

बप्पीलहड़ी बहुत शांत, हंसमुख और विनम्र स्वभाव के थे, पहली बार जुहू के बंगलो पर इंटरव्यू करते वक्त उन्होंने मुझे बुलाकर परिचय पूछा, गृहशोभा में काम करती हूं सुनकर बहुत खुश हुए और कहने लगे, ये तो बहुत ही अच्छी और पुरानी पत्रिका है, मैंने इसके बारें में सुना है. फिर उनसे पूछे गए हर प्रश्नों के उत्तर उन्होंने बहुत ही संजीदगी से दिया था. उन्हें हिंदी गानों के साथ-साथ अग्रेजी संगीत भी बहुत प्रिय था. उन्हें हर साज बजाना आता था, जिसमें तबला पियानो, गिटार, सेक्सोफोन आदि प्रमुख थे. इस बारें में उनका कहना था कि जब तक आप संगीत के साथ हर वाद्ययंत्र नहीं सीखते, तब तक संगीत अधुरा होता है. किसी गीत का आभूषण हमेशा वाद्य यंत्र ही होता है.

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दिया संगीत 5 पीढ़ियों को

देखा जाय, तो बप्पी लहड़ी  ने 5 पीढ़ियों के अभिनेताओं के लिए संगीत और आवाज दिया है. देव आनंद, सुनील दत्त से लेकर संजय दत्त, अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन, जितेंद्र, धर्मेंद्र, सनी देओल के अलावा रणवीर सिंह वरुण धवन के लिए भी गाने गा चुके थे. उन्होंने सन् 2020 में बागी-3 और शुभ मंगल ज्यादा सावधान जैसी फिल्मों के लिए भी गाने गाए थे. उनके संगीत में एक रिद्म था, जिसे सुनने पर यूथ से लेकर व्यस्क सभी झूम उठते है.बप्पी दा को सोने से बहुत प्यार था,ये उनका स्टाइल स्टेटमेंट था, जो उन्हें दूसरों से अलग करती थी.इसके अलावा उन्होंने किसी गीत के सफल होने पर कुछ न कुछ सोने की पहनते थे, फिर चाहे वह गले का हार हो या अंगूठी. इन गहनों से उन्हें अच्छी संगीत बनाने की प्रेरणा मिलती थी.1986 में बप्पी दा ने 33 फिल्मों के 180 गाने रिकॉर्ड किए थे. उनकी इस उपलब्धि ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड’ रिकार्ड में दर्ज किया गया. आज पूरा विश्व बप्पी लहड़ी के चले जाने का शोक मना रहा है, पर उनके संगीत हमेशा उनके चाहने वालों के दिलों में रहेगी.

Valentine’s Day को जानें कैसे मनाते है Gehraiyaan एक्टर सिद्धांत चतुर्वेदी

अगर आपने किसी चीज के लिए जी जान से मेहनत की है, तो उसका फल अवश्य मिलेगा और मैंने इसमें कोई कमी नहीं की और आज यहाँ पर पहुंचा हूँ, जहाँ मुझे दीपिका पादुकोण जैसी बड़ी अभिनेत्री के साथ काम करने का मौका मिला, कहते है 28 वर्षीय अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी. दरअसल सिद्धांत एक शांत स्वभाव के व्यक्ति है, इसलिए जब कभी उन्हें रिजेक्शन मिलता है, तो वे अपने मन को खुद ही शांत कर सोचते है कि ये फिल्म उनके लिए नहीं बनी है. वे युवा पीढ़ी से भी कहते है कि उन्होंने जो सपना देखा है, वह पूरा तभी हो सकता है, जब व्यक्ति अच्छी तरह सोचकर कदम बढाएं.

पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया में जन्मे और 5 साल की उम्र में परिवार के साथ मुंबई आयें. मुंबई आकर चार्टेड एकाउंट की पढाई करते हुए ही फिल्म में उतरने की कोशिश करते रहे. इसमें देर भले हुई हो,पर उनके मन मुताबिक फिल्में मिली. उनके पिता एक चार्टर्ड एकाउंटेंट है और उनकी मां एक गृहिणी. सीए की पढाई के दौरान एक सिद्धांत को एक प्रतियोगिता में जाने का अवसर मिला और वे ‘फ्रेश फेस 2012’ का ख़िताब जीता. इसके बाद उन्होंने कुछ विज्ञापन, मॉडलिंग असाइनमेंट और फोटोशूट किए. सही काम न मिलने की वजह से सिद्धांत मुंबई में अभिनेता और लेखक के रूप में एक थिएटर ग्रुप में शामिल हो गए. थिएटर ग्रुप में एक नाटक के दौरान, उन्हें फिल्म निर्देशक लव रंजन ने नोटिस किया और उन्हें टीवी शो ‘लाइफ सही है ‘ मिली. टीवी के बाद उन्हें फिल्म भी मिली, पर उन्हें सफलता गलीबॉय से मिली. साधारण कदकाठी और घुंघराले बाल होने की वजह से उन्हें बहुत रिजेक्शन सहना पड़ा. ‘गहराइयाँ’ फिल्म रिलीज़ हो चुकी है, जिसमें उन्होंने काफी इंटेंस भूमिका निभाई है. उनसे उनकी जर्नी के बारें में बात हुई आइये जाने कुछ बातें.

सवाल – दीपिका पादुकोण के साथ इंटेंस भूमिका निभाने का अनुभव कैसा था, रिलेशनशिप में आये उतार-चढ़ाव को कैसे देखते है?

जवाब– निर्देशक शकुन बत्रा से जब मैं स्क्रिप्ट के लिए मिला, तो मेरी उम्र 24 थी, जबकि उन्हें एक 30 साल का मेच्योर व्यक्ति चाहिए. उन्होंने मुझे नहीं लिया और मुझे ये फिल्म करनी थी. एक दिन मैं इशान खट्टर के साथ एक रेस्तरां में गया, वहां मेरी बात शकुन बत्रा से हुई. उन्होंने मेरी एक्टिंग गलीबॉय में देखी थी, जहाँ मैंने रणवीर सिंह की मेंटर की भूमिका निभाई थी. उन्होंने समय लिया और दो दिन बाद उन्होंने मुझे बताया कि जेन की मेरी भूमिका ट्रांसफॉर्म किया जा सकता है और उन्होंने मुझे इस फिल्म के लिए चुना.

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मैंने रोमांटिक फिल्में बचपन से देखी है और लगा था कि ऐसी ही कुछ शाहरुख़ खान की फिल्में जैसी रोमांटिक सीन्स होगी, क्योंकि इससे पहले मैंने इस तरह के रिश्तो के बारें में कभी सुना नहीं था. शाहरुख़ खान मेरे पसंदीदा हीरों है और मैं भी ट्रू लव ऑन स्क्रीन करना चाहता था. इस फिल्म में दीपिका पादुकोण और धर्मा प्रोडक्शन जैसी लोग जुड़े है, इसलिए इसमें मेरा सपना कुछ हद तक पूरा हो सकता है. मैं बाहर से आया हूँ और काफी दिनों तक ऑडिशन दे रहा हूँ, पर कोई अच्छा काम नहीं मिल रहा है. इसमें दीपिका पादुकोण भी है, जिस पर मेरा क्रश पहले से रहा है. मौका अच्छा है, हाँ कहने के बाद भी मैं इस भूमिका को निभाने में डर रहा था, क्योंकि मेरे हिसाब से प्यार जन्मों-जन्मों वाला होता है. जिसे आज सभी ओल्ड स्कूल थॉट कहते है. इस भूमिका के लिए मुझे कम्फर्ट जोन से बाहर निकलना पड़ा. दीपिका से मिलने पर कैसे क्या करूँ, कैसे बैठू समझ नहीं आ रहा था,क्योंकि स्क्रिप्ट के अनुसार काफी इंटेंस सीन्स थे. एक से दो हफ्ते मुझे सामान्य होने में लगे थे, लेकिन दीपिका की सहयोग से ऐसा जल्दी हो पाया, क्योंकि वह बहुत साधारण स्वभाव की है और मुझे इस फिल्म को करने में काफी सहयोग दिया है. वर्कशॉप करने के बाद मैं नार्मल हो पाया, पर शुरू मैं काफी घबराया हुआ था.

सवाल–क्या इस फिल्म से क्या आपको स्टार की उपाधि मिल पाएगी?

जवाब– जब में 19 साल में हीरो बनना था. फिर मुझे लगा कि आप जो बनना चाहते है उसपर फोकस करें, स्टार बनना किसी के हाथ में नहीं होता. अगर आप स्टार किड है तो प्रोडूसर उसे स्टार बना देते है. आउटसाइडर को स्टार बनाने वाली जनता होती है. मुझे दर्शकों ने बहुत प्यार दिया है, पर इतना जरुर है कि अब मैं महंगे कपडे पहनने लगा हूँ. मेरे पेरेंट्स, पडोसी को लगता है कि मैं स्टार हूँ, पर मेरे दोस्त कुछ अतरंगी ड्रेस पहनने पर मेरा बहुत मजाक उड़ाते है. मैं इस सब चीजो के बारें में नहीं सोचता, क्योंकि इससे मेरा काम सही नहीं हो पाता. एक्शन और कट के बीच में मैं अपना दिमाग नहीं लगता. मेरा काम बारीकी से क्राफ्ट को देखना और कुछ नया लेकर आना है. अपना एक नया मार्ग बनाना है.

सवाल–आप अपनी जर्नी को कैसे देखते है? कॉलेज में आप वेलेंटाइन डेज को कैसे मनाते थे?

जवाब– मैं अपनी जर्नी से बहुत संतुष्ट हूँ. मेरी जर्नी की सफलता का पूरा श्रेय मेरे माता-पिता को जाता है. कॉलेज में मुझे वेलेंटाइन डे मनाने का समय नहीं मिलता था, क्योंकि सुबह कॉलेज से निकलने के बाद चार्टेड एकाउंट की क्लास कर केवल दो से तीन घंटे के लिए दोस्तों के साथ थिएटर देखता और प्रैक्टिस करता था. रात को फिर सीए की पढाई करना पड़ता था. थिएटर की बात मेरे पेरेंट्स को पता नहीं था, ऐसे में वेलेंटाइन डे को मनाने का समय नहीं मिलता था और मेरे आसपास लड़कियां कम मंडराती थी, क्योंकि मैं साधारण दिखने वाला लड़का था. इसके अलावा मेरे पिता का कहना था कि कुछ भी करने से पहले अपने कैरियर में स्टेब्लिटी लाओं, इसके बाद जो भी करना चाहो कर सकते हो, क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री में अनिश्चितता बहुत है और वहां तुम्हारे कोई चाचा या ताऊ बैठे नहीं है, जो तुम्हे आसानी से काम दे देंगे.

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पिता की बात सही थी,ग्रेजुएशन के बाद मैंने सीए की प्रवेश परीक्षा को भी क्लियर किया, उसकी पढाई भी शुरू कर दी. उस दौरान थिएटर में भी मुझे कई अवार्ड मिलने लगे थे. मुझे समझना मुश्किल हो रहा था कि मैं क्या करूँ? मुझे जॉब भी मिल गया,पूरा दिन काम करने के बाद थिएटर नहीं कर पा रहा था. मुझसे थिएटर छूटता जा रहा था. काम से आने पर पिता देखते थे कि मैं अपने काम से खुश नहीं हूँ. इसके अलावा मैं और मेरे पिता हर फ्राइडे एक नई फिल्म देखते थे. मेरी हालत देखकर उन्होंने एकदिन कहा कि सीए की फाइनल कभी भी दे सकते हो इसलिए अब ऑडिशन देना शुरू करो, लेकिन मै किसी को जानता नहीं था इसलिए थिएटर के दोस्तों के साथ ऑडिशन देता रहा. काम किसी एड में भी नहीं मिला, क्योंकि मेरा चेहरा किसी हीरो की तरह नहीं है . मेरे कर्ली बाल है, आँखे छोटी है. रिजेक्शन के बाद दुखी होकर घर आने पर पिता दिलासा देते थे. फिर मैंने सीए की अंतिम परीक्षा दी, लेकिन क्लियर नहीं कर पाया. अब मैंने जी जान से ऑडिशन देने लगा और पहला शो टीवी का मिला और आज यहाँ पहुंचा हूँ. मैं संघर्ष के दर्द को समझता हूँ.

सवाल – आपके रिलेशनशिप में सबसे अधिक नजदीक किसके रहे?

जवाब – सबसे अधिक नजदीक मैं अपने पिता के रहा हूँ,उन्होंने हर परिस्थिति में मेरा साथ दिया है और सही रास्ता बताया.

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रेटिंगः दो स्टार

निर्माताः धर्मा प्रोडक्शंस,वायकाम 18 और जोउस्का फिल्मस

निर्देशनः शकुन बत्रा

लेखनःआयशा देवित्रे , सुमित रॉय , यश सहाय और शकुन बत्रा

कलाकारः दीपिका पादुकोण,अनन्या पांडे,सिद्धांत चतुर्वेदी,धैर्य करवा ,नसिरूद्दीन शाह व अन्य.

अवधिः दो घंटे 28 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः अमजान प्राइम वीडियो

शहरों में रह रही अंग्रेजीदां युवा वर्ग जिस तरह से अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए रिश्तें के हर मापदंड को दरकिनार करती जा रही है,वह जिस तरह बचपन की दोस्ती,प्यार के रिश्ते व संबंधों को पैसे व महत्वाकांक्षा की तराजू पर तौलने लगी है,उसी का चित्रण करने वाली,अति बोल्ड दृश्यों की भरमार व अति धीमी गति वाली फिल्म ‘‘गहराइयां’’ लेकर फिल्मकार शकुन बत्रा आए हैं,जो कि ग्यारह फरवरी से अमेजान प्राइम पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में दो चचेरी बहने आलिशा(दीपिका पादुकोण ) और टिया(अनन्या पांडे ) हैं. इनके पिता सगे भाई व व्यापार में भागीदार थे. इनका अलीबाग में भी बंगला है. मगर जब टिया व आलिशा छोटी थीं,तभी कुछ रिश्तें में आयी एक जटिलता के चलते आलिशा के पिता(नसिरूद्दीन शाह) सब कुछ छोड़कर पूरे परिवार के साथ नाशिक रहने चले गए थे तथा वह की आलिशा मां को दोषी मानते रहे. अंततः घुटघुटकर जिंदगी जीने की बजाय एक दिन आलिशा की मां ने खुदकुशी कर ली थी. इसका आलिशा के मनमस्तिक पर गहरा असर पड़ा. बादा में टिया पढ़ाई करने अमरीका चली जाती है. जहां उसकी मुलकात अतिमहत्वाकांक्षी जेन से होती है और दोनो रिश्ते में बंध जाते हैं. इधर महत्वाकांक्षी आलिशा योगा शिक्षक है और अपने प्रेमी करण के साथ मुंबई में रहती है. उसकी तमन्ना अपना योगा का ऐप शुरू करने का है. करण एक एड एजंसी की नौकरी छोड़कर किताब लिख रहा है. उस पर लेखक बनने का भूत सवार है.

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फिल्म वहां से शुरू होती है, जब अलीशा खन्ना खुद को जीवन में एक चैराहे पर पाती हैं. उसे लग रहा है कि उसका छह वर्ष का करण के साथ लंबा रिश्ता नीरस हो गया है. उसके करियर में काफी बाधाएं आयीं और अब उसने इस वास्तविकता को अपरिवर्तनीय मान लिया है. तभी उसकी चचेरी बहन बहन टिया अपने मंगेतर जेन के साथ मंुबई वापस आती है और आलीशा व करण को अपने साथ अलीबाग चलने के लिए कहती हैं. यहीं से इन चारों के बीच के रिश्ते में काफी उथल पुथल मचने लगती है. अतीत के घटनाक्रम भी सामने आते हैं. रिश्तों का बांध टूटता है. आलीशा व जेन के बीच एक रिश्ता विकसित होता है,जिसका दुःखद अंत सामने आता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं.  दो वर्ष के अंतराल के बाद आलिशा व टिया पुनः मंुबई में तब मिलते हैं,जब करण,अनिका से सगाई कर रहा होता है.

लेखन व निर्देशनः

पूरे छह वर्ष बाद फिल्म सर्जक शकुन बत्रा ने फिल्म ‘‘गहराइयां’’ से वापसी की है. लेकिन कहानी में कुछ भी नया नही है. सब कुछ वही बौलीवुड फिल्मो की घिसी पिटी व हवा हवाई बातें.  जी हॉ! अति धीमी गति से आगे बढ़ने वाली इस फिल्म में मनोरंजन व रोमांच का घोर है. फिल्मकार ने रिश्तों में बनावटी जटिलता,बनावटी प्यार,बनावटी बेवफाई के साथ ही अविश्वसनीय घटनाक्रमों का मुरब्बा परोसा है. नकली-बनावटी किरदार, दिखावे की यॉट से लेकर फाइव स्टार होटल, महंगी शराब, चिकने बाथटब, गद्देदार बिस्तर, करोड़ों-करोड़ की हाई-फाई बातें फिल्म को उठाने की बजाय गहराईयों में डुबाने का ही काम करती हैं. लेखक व निर्देशक ने दर्शकों को मूर्ख बनाने का ही काम किया है. इसीलिए कहानी मुंबई व अलीबाग में चलती है. सभी जानते हैं कि मुंबई में किसी भी इंसान को मूर्ख कहने के लिए कहा जाता है-‘अलीबाग से आया है क्या?’

फिल्म हिंदी भाषा में है,मगर ठेठ हिंदी भाषी दर्शकों के सिर के उपर से यह गुजरती है. क्योंकि मोबाइल से आदान प्रदान किए जाने वाले संदेशों के अलावा काफी संवाद अंग्रेजी भाषा में हैं. लेखक व निर्देशक यह कैसे भूल जाते हैं कि उनका असली दर्शक आज भी हिंदी भाषी ही है,जो कि अच्छी बौलीवुड फिल्मों के अभाव में हिंदी में डब की गयी दक्षिण भारत की अच्छी मनोरंजक फिल्में देखता हुआ पाया जाता है. वैसे शकुन बत्रा से यह उम्मीद करना कि वह भारतीयों और हिंदी भाषियों के लिए कहानी लिखेंगे या फिल्म बनाएंगे,बेमानी है. क्योंकि उन्हें तो हिंदी भाषी पत्रकारों से बात करना भी गवारा नही होता. वह तो चाहते हैं कि पत्रकार उनसे वही बात करे,जो वह चाहते हैं.

माना कि लेखक व निर्देशक ने फिल्म में इस बात का सटीक चित्रण किया है कि वर्तमान समय में शहरी मध्यमवर्गीय अंग्रेजीदां युवा पीढ़ी किस तरह अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के साथ-साथ पैसा कमाने के लिए रिश्तांे का दुरुपयोग करती है. आज की युवा पीढ़ी अपनी महत्वाकांक्षा व स्वार्थपूर्ति के लिए प्यार के रिश्ते को भी कपड़े की तरह बदलती है,इसका भी चित्रण बहुत ही उपरी सतह पर किया गया है. क्या वर्तमान शहरी मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी महज बिना किसी रोक-टोक के शारीरिक संबंधों @इंटीमसी में यकीन करती हैं? रिश्तों की जटिलता को लेकर फिल्मकार एक परिपक्व व गंभीर फिल्म लेकर आए हैं,मगर इसमें कहीं भी परिपक्वता नजर नही आती.  शकुन बत्रा यह भी भूल गए कि उन्होेने फिल्म हिंदी में हिंदी भाषियों  के लिए बनाया है. फिल्म का क्लामेक्स भी काफी गड़बड़ है. फिल्मसर्जक ने सेक्सी बोल्ड दृश्यों को परोसने में कोई कंजूसी नही दिखायी. शायद सही वजह है कि फिल्म का प्रचार भी इस तरह किया गया, जैसे कि ‘कामसूत्र’ का विज्ञापन किया जा रहा हो. वास्तव में शकुन बत्रा ने एडल्ट फिल्म बना डाली,मगर उनके अंदर इस तरह के विषय व परिपक्वता का घोर अभाव है.

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इंसान का अतीत किस तरह उसका पीछा करता है, इसका कुछ हद तक सही चित्रण है. फिल्म में एक जगह अंग्रेजी में नसिरूद्दीन शाह का संवाद है- ‘‘अतीत से भागने की जरुरत नहीं,उसे स्वीकार करो. ’

इस फिल्म में दो चरित्र विभाजित परिवार यानी कि डिस्फंक्ंशनल परिवार से हैं. मगर फिल्मकार इस बात को सही ढंग से रेखांकित करने में असफल रहे है कि माता पिता के बीच के संबंधो व डिस्फंक्शनल परिवार के बच्चांे पर  कैसा असर पड़ता है.

निर्देशक ‘शकुन बत्रा ने इसफिल्म के माध्यम से इस बात की ओर भी इशारा किया है कि भले ही 21वीं सदी की युवा पीढ़ी रिश्तों में किसी भी तरह के मापदंडों में यकीन न करती हो,मगर वह रिश्ते में स्थायित्व व भरोसे की तलाश में भटकती रहती है.

अभिनयः

‘गहराइयां’की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी अनन्या पंाडे ही हैं. अनन्या पंाडे को अभी अपने अभिनय में निखार लाने के लए काफी मेहनत करने की जरुरत है. उनके चेहरे पर एक्सप्रेशन भाव नजर ही नही आते. आलीशा के किरदार के माध्यम से इंसानी मन की द्विविधा व असमंजसता  को काफी बेहतर तरीके से दीपिका पादुकोण ने अपने अभिनय से उकेरा है. आलीशा के दिमाग मे बचपन की घटना के चलते बनी ग्रंथी,आलीशा के चरित्र की जटिलता,उसके मनोभावों,रिश्तें में भरोसेे की तलाश आदि को दीपिका पादुकोण ने अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. मगर फिल्मों का चयन करते समय दीपिका को सावधान रहने की जरुरत है. ‘गहराइयां’ जैसी फिल्म को उनका बेहतरीन अभिनय भी दर्शक नही दिला सकता. अनन्या पांडे के बाद महत्वाकांक्षी जेन के किरदार में सिद्धांत चतुर्वेदी भी कमेजार कड़ी हं. उनका अभिनय निराश ही करता है. वह अपने हाव भाव या बौडी लैंगवेज या अभिनय से दर्शक को आकर्षित करने में विफल रहे हैं. धैर्य करवा व नसिरूददीन शाह के हिस्से करने को कुछ खास आया ही नही.

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आखिर किस बात से नाराज हैं Mithun Chakraborty, पढ़ें खबर 

मिथुन चक्रवर्ती की वेब सीरीज बेस्टसेलर आने वाली है, जो अमेजन प्राइम विडियो पर रिलीज होने वाली है. यह सीरीज सायकोलॉजिकल थ्रिलर सस्पेंस और ड्रामा का सही मिश्रण है. इसमें मिठुन की लुक बहुत अलग है कई सालों बाद उन्हें देखकर पता लगाना मुश्किल हो रहा था, लेकिन उनका भारी-भरकम आवाज से पहचानना आसान हो गया. इस सीरीज से मिथुन चक्रवर्ती ओटीटी की दुनिया मेंपहली बार कदम रखने वाले है. इस मौके पर मिथुन कहते है किवेब सीरीज बेस्टसेलर में मेरी लोकेश प्रमाणिक की भूमिका बहुत अलग लगी, जिसके उसके तमाम दिलचस्प व्यवहार दिखाया गया है और मैंने ऐसी भूमिका पहली बार की है.

मिथुन चक्रवर्ती अपनी भूमिका को ओटीटी पर डेब्यू कहलाना पसंद नहीं करते. उनके हिसाब से सभी लोग मुझे डेब्यू के बारें में अनुभव की बात पूछते है, जबकि मैंने सालों से हर माध्यम में अभिनय किया है. डेब्यू उन कलाकारों के लिए कहना सही है, जिसने पहली बार एक्टिंग के क्षेत्र में अभिनय किया हो. माध्यम अभिनय के क्षेत्र में कोई माइने नहीं रखती. मैंने आज तक करीब 370 फिल्में की है, जिसमें 200 सफल फिल्में थी और 150 फ्लॉप फिल्में थी. सफल फिल्म होने पर कलाकार के पास फिल्मों की झड़ी लग जाती है, जबकि फिल्में फ्लॉप होने पर सभी आपको भूल जाते है. फिल्मे बॉक्स ऑफिस पर सफल हो या असफल मैंने हर सीन को हमेशा मेहनत से किया है. ओटीटी में इतनी देर से आने की वजह सही फिल्मों की कहानी का न मिलना है, जिस भी किरदार को सुनने के बाद मुझे उसे करने की उत्सुकता न मिले, तो मैं काम नहीं करता.

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पुराने दिनों को याद करते हुए मिथुन कहते है कि मैंने फिल्म ‘मृगया’ से फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था. मुझे फिल्मों और डांस का शौक था, पर अभिनय मिलेगा,या नहीं. ये पता नहीं था. काम मिले पैसे भी मिलते गए. आज मैं थोडा बैक सीट पर हूँ और मौका मिलते ही अच्छी कहानियों पर कूद पड़ता हूँ. मेरे समय में फिल्मों की कहानी बहुत अलग होती थी,पर आज दर्शकों की पसंद बदल चुकी है. वे रियल कहानी को अधिक पसंद कर रहे है. मेरे समय में हीरो पेड़ के आसपास घूमते हुए हिरोइन के लिए गाना गाते थे, फिर विलेन, मारपीट और हीरो की जीत ऐसी ही कहानियों को दर्शक पसंद करते थे. इसके अलावा एक अच्छी डायलोग आने पर दर्शक तालियाँ बजाया करते थे. अब वो जमाना नहीं रहा. इसलिए फिल्में भी वैसी ही बन रही है.

मिथुन चक्रवर्ती आगे कहते हैं कि “मेरा इससे बेहतर काम इसके अलावा नहीं हो सकता था. मुझे निर्देशक मुकुल अभ्यंकर पर गहरा भरोसा है और मेरा मानना है कि एक बेहद मनोरंजक थ्रिलर डेवलप करने की दिशा में उन्होंने बड़ा सराहनीय काम किया है. बेस्टसेलर यकीनन दुनिया भर के सस्पेंस व थ्रिलर प्रशंसकों को पसंद आएगी.

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Rocket Boys REVIEW: डॉ. होमी जहांगीर भाभा और डॉ. विक्रम साराभाई की दिलचस्प कहानी

रेटिंगः साढ़े 3 स्टार

निर्माताः रौय कपूर फिल्मस और एम्मेय इंटरटेनमेंट

लेखक व निर्देशकः अभय पन्नू

कलाकारः जिम सर्भ,इश्वाक सिंह , रेजिना कसांड्रा , सबा आजाद , दिब्येंदु भट्टाचार्य , रजित कपूर , नमित दास,अर्जुन राधाकृष्णन व अन्य. . .

अवधिः लगभग सवा छह घंटे ,40 से 54 मिनट के आठ एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

भारत महान देश है. मगर इसे महान बनाने में किसी भी तरह के जुमलों की बजाय हजारों व लाखों युवकों के जुनून का योगदान है.  इन्ही में से दो महान वैज्ञानिक भारतीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के जनक डॉ.  होमी जहांगीर भाभा और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की संकल्पना करने वाले डॉ.  विक्रम साराभाई को श्रृद्धांजली के तौर पर लेखक व निर्देशक अभय पन्नू आठ भागों की वेब सीरीज ‘‘रॉकेट ब्वॉयज’’ लेकर आए हैं. इस सीरीज में 1940 से लेकर स्वतंत्र भारत के शुरुआती वर्षों का संघर्ष, वैज्ञानिकों पर राजनीतिक दबाव, सपने और आधुनिक तरक्की की बुनियाद की भी कहानी है. जो कि ओटीटी प्लेटफार्म ‘सोनी लिव’ पर चार फरवरी से प्रसारित हो रही है.

कहानी:

वेब सीरीज की कहानी 1962 में चीन के हाथों भारत की सैन्य पराजय के बाद शुरू होती है, जब होमी भाभा (जिम सर्भ) तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.  जवाहर लाल नेहरू (रजित कपूर) से परमाणु बम बनाने की बात करते हैं. होमी,पं. नेहरू को भाई कहकर ही बुलाते हैं. होमी भाभा का तर्क है कि परमाणु बम नरसंहार के लिए नही बल्कि शांति बनाए रखने के लिए जरुरी है. क्योंकि चीन भविष्य में हमलावर नही होगा,यह मानना गलत होगा. पं.  नेहरू असमंजस में हैं.  होमी भाभा के मित्र और कभी उनके छात्र रहे विक्रम साराभाई (इश्वाक सिंह) परमाणु बम बनाए जाने का खुला विरोध करते हैं. क्योंकि पूरा विश्व दूसरे विश्व युद्ध में अमरीका द्वारा जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराए परमाणु बमों से हुई तबाही देख चुका है. होमी और विक्रम के इस टकराव के साथ कहानी अतीत यानी कि 1940 में चली जाती है. जहां लंदन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय में विक्रम साराभाई ने बैलून से रॉकेट बनाया था. वहीं पर होमी भाभा भी हैं. मगर अचानक द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होते ही वह दोनों भारत वापस आ जाते हैं.

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अपने पिता अंबालाल के प्रयासों के चलते विक्रम को कलकत्ता के साइंस कालेज में प्रवेश मिल जाता है,जहंा होमी भाभा कलकत्ता के एक साइंस कॉलेज में प्रोफेसर हैं. यहीं पर वैज्ञानिक सी वी रमन कालेज के मुखिया हैं. होमी परमाणु विज्ञान में दिलचस्पी रखते हैं, वहीं विक्रम का सपना देश का पहला रॉकेट बनाने का है. यहीं दोनो दोस्त बन जाते हैं. जबकि कई मुद्दों पर उनके विचारों में मतभेद है. 1942 में महात्मा गांधी के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन से प्रभावित होकर होमी और विक्रम कॉलेज के एक समारोह में अंग्रेज अफसर बेनेट के आगमन पर यह दोनों अंग्रेजों का यूनियन जैक उतार कर स्वराज का तिरंगा लहरा देते हैं. यहां से दोनो की तकलीफें बढ़ जाती हैं. कालेज को सरकार से मिल रही रकम को बरकार रखने के लिए होमी भाभा स्वतः नौकरी छोड़ कर मुंबई में जेआरडी टाटा के साथ मिलकर‘‘टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च’’ की शुरूआत करते हैं. उधर विक्रम साराभाई पढ़ाई के साथ-साथ कपड़ा मिल मालिक अपने पिता अंबालाल के कारोबार में हाथ बंटाने लगते हैं.  वह कपड़ा मिलों को आधुनिक बनाना चाहते हैं.  ऐसे में उनका रॉकेट बनाने का सपना पीछे चला जाता है. इसी के साथ होमी की परवाना इरानी  और विक्रम साराभाई की मृणालिनी संग रोमांस की कहानी भी चलती है. विक्रम डांसर मृणालिनी (रेजिना कैसेंड्रा) से प्रेम विवाह कर लेते हैं. पर वकील परवाना ईरानी उर्फ पीप्सी (सबा आजाद) से होमी की मोहब्बत अधूरी रहती है.

फिर यह कहानी इन दोनो वैज्ञानिको की दिमागी उलझनों,उनके सपनों को साकार करने के रास्तें में आने वाली देशी व विदेशी रूकावटों, विदेशों द्वारा होमी व विक्रम की गतिविधियों के पीछे जासूसों को लगाना,निजी जिंदगी के उतार-चढ़ावों और भावनात्मक उथल-पुथल की रोमांचक कहानी सामने आती है. इस कहानी में एपीजे अब्दुल कलाम (अर्जुन राधाकृष्णन) भी हिस्सा बन कर आते हैं.

लेखन व निर्देशनः

फिल्मकार ने बहुत ही महत्वपूर्ण अध्याय को लोगों के सामने रखने का प्रयास किया है. मगर इसकी गति बहुत धीमी होने के साथ ही हर एपीसोड काफी लंबे हैं. दूसरी बात यह एपीसोड उन्हें ही पसंद आएंगे जिनकी रूचि विज्ञान अथवा देश के अंतरिक्ष और परमाणु इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं. उन युवकों को भी यह वेब सीरीज पसंद आ सकती है,जो  डॉ.  होमी जहांगीर भाभा और डॉ.  विक्रम अंबालाल साराभाई की जिंदगी के बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं. लेखक ने विज्ञान की कई बातों को जिस अंदाज में पेश किया है,वह हर इंसान के सिर के उपर से जाने वाला है. विक्रम व होमी के जीवन के रोमांस को बहुत कम तवज्जो दी गसी है. इनकी पारिवारिक जिंदगी को भी महज छुआ गया है. अमरीका द्वारा होमी की जासूसी कराए जाने की कहानी से थोड़ा रोमांच पैदा होता है,पर इस घटनाक्रम को सही अंदाज में चित्रित करने में निर्देशक असफल रहे हैं. इसकी कमजोर कड़ी यह है कि इसके लगभग आधे संवाद अंग्रेजी में हैं. ऐसे में भला हिंदी भाषी दर्शक के लिए इससे दूरी बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. मनोरंजन का मसला भी नहीं है. इस सीरीज की दूसरी कमजोर कड़ी यह है कि फिल्मकार ने जिस तरह कहानी शुरू की है,उसे देखकर पहले दर्शक को लगता है कि यह कहानी विश्व का नक्शा बदलने के दौर, युवकों के जुनून,रॉकेट या एटॉमिक रिएक्टर बनाने या भारत निर्माण की बजाय इश्क की है. फिल्मकार ने इस ओर भी इशारा किया है कि देश को सबसे बड़ा खतरा विदेशी ताकतों से नही बल्कि देश के भीतर छिपे गद्दारों से है.

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होमी भाभा के कट्टर विरोधी व वैज्ञानिक रजा मेहदी की कहानी को धार्मिक एंगल देना गलत है. रजा मेहदी के किरदार को सही परिप्रेक्ष्य के साथ नही उठाया गया. जहंा बात विज्ञान की हो, वैज्ञानिकों के बीच प्रतिद्धंदिता संभव है,मगर इसमें सिया सुन्नी व मोहर्ररम का अंश बेवजह जोड़ा गया है.  स्वतंत्र भारत के शिल्पी कहे जाने वाले देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के किरदार को  फिल्मकार ने जान बूझकर, किसी खास वग्र को खुश करने के मकसद से कमजोर और संशयग्रस्त दिखाने की कोशिश की है.  इस विषय पर यदि देश में एक नई बहस छिड़ जाए,तो गलत नही होगा.

वैसे यह वेब सीरीज देखकर लोगों की समझ में एक बात जरुर आएगी कि देश में बीते 70 साल में कुछ नहीं हुआ,ऐसा कहने का अर्थ लाखों युवकों के जुनून,लगन,देश के प्रति समर्पण,प्रेम को झुठलाने व मेहनतको झुठलाना ही है.

अभिनयः

जिम सर्भ निजी जीवन में पारसी होने के साथ ही अति उत्कृष् ट अभिनेता हैं. उन्होने होमी भाभा को परदे पर अपने अभिनय से जीवंतता प्रदान की है. जिम सर्भ अपने अभिनय के अनूठे अंदाज के चलते याद रह जाते हैं. ईश्वाक सिंह भी अपनी प्रतिभा से लोगों को अपना बनाते जा रहे हैं. इश्वाक सिंह ने जिस तरह बहुत ही सहजता से सधे हुए अंदाज में परदे पर विक्रम साराभाई का किरदार निभाया है,उससे दर्शक मान लेता है कि विक्रम साराभाई ऐसे ही रहे होंगे. यदि यह कहा जाए कि इश्वाक सिंह की सादगी मोहने वाली है,तो गलत नही होगा. मृणालिनी के किरदार में रेजिना कैसेंड्रा और पीप्सी के किरदार में सबा आजाद अपने किरदारों में जमी हैं,मगर इनके हिस्से करने को बहुत ज्यादा नही आया.  होमी के प्रतिद्वंद्वी रजा मेहदी के किरदार में दिव्येंदु भट्टाचार्य जब भी परदे पर आते हैं. वह अपनी छाप छोड़ जाते हैं. अमरीकी जासूस व पत्रकार के किरदार में नमित दास की प्रतिभा को जाया किया गया है. उनके जैसे प्रतिभाशाली कलाकार का इस वेब सीरीज में अति छोटे किरदार से जुड़ना भी समझ से परे हैं.

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Lata Mangeshkar अलविदा: मेरी आवाज ही पहचान है

मेरी आवाज ही पहचान है…..ये आवाज आज हर हिन्दुस्तानी के दिल में हमेशा मौजूद रहेगी. सुरीली और सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर आज हमारे बीच नहीं रहीं, उन्होंने अपनी आखिरी सांस 92 वर्ष की उम्र में ली. बीते कई दिनों से वह बीमार चल रही थी और उनका इलाज अस्पताल में जारी था. उनके सुरों की गूंज सदियों तक धरा पर गुंजायमान रहेगी. स्वर कोकिला की जीवन यात्रा के बारें में लिख पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं, क्योंकि उन्होंने संगीत जगत में एक अविस्मरणीय योगदान दिया है.

लता मंगेशकर ने अपनी मीठी आवाज से कई दशकों तक ना सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व को अपना दीवाना बनाया. उन्होंने न जाने कितने कलाकारों को संगीत की दुनिया में आगे बढ़ने के की प्रेरित किया. उन्हें भारत में स्वर कोकिला के नाम से भी जाना जाता है, उनको लोग प्यार से लता दीदी भी कहते थे.

उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से  लेकर फ़िल्म फेयर, पद्म भूषण, पद्म विभूषण समेत कई बड़े अवार्ड मिल चुके है. साल 2001 में लाता मंगेशकर को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया.92 साल की लता जी ने 36 भाषाओं में 50 हजार गाने गाए, जो किसी के लिए एक रिकॉर्ड है. करीब 1000 से ज्यादा फिल्मों में उन्होंने अपनी आवाज दी. 1960 से 2000 तक दौर था, जब लता की आवाज के बिना फिल्में अधूरी मानी जाती थीं. 2000 के बाद से उन्होंने फिल्मों में गाना कम कर दिया था.

लता जी जितनी विनम्र और सुरीली थी, उतनी ही स्वाभिमानी भी थी. किसी भी गलत बात को वह सहती नहीं थी. उन्होंने उसके विरुद्ध हमेशा अपनी आवाज उठाई, जिसमें संगीत के क्षेत्र में रोयल्टी की बात हो या संगीतकारों का सम्मान, उन्होंने मजबूती से अपनी बात रखी, जिसके परिणामस्वरूप उनकी बात फिल्म इंडस्ट्री ने मानी, उनके इस विद्रोह का ही नतीजा है कि आज गायकों को भी सम्मान मिल रहा है. 6 दशक पहले किए गए इस कार्य के लिए देश के सभी Playback Singers उनके आभारी है. ये सच है कि अगर उन्होंने आवाज ना उठाई होती, तो शायद किसी और ने इस पर ध्यान भी नहीं दिया होता.

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आज लता मंगेशकर ने दुनिया को अलविदा कह दिया. फिल्मी दुनिया ही नहीं, पूरे देश में उनके लिए शोक है. उन्होंने भले ही ‘प्लेबैक सिंगिंग’ काफी समय से छोड़ दी हो, पर उनकी लोकप्रियतामें कमी नहीं आई. सोशल मीडिया में लता जी खासी सक्रिय रहती थीं. वो बड़ी विनम्रता से अपने समकालीन कलाकारों की पुण्यतिथि या जन्मदिन पर उन्हें याद करती थीं. कई नए कलाकारों को जन्मदिन पर बधाई देती थी. वह क्रिकेट की शौकीन थी, इसलिए कई बार क्रिकेट के खेल को लेकर ट्वीट करती थीं. तमाम त्योहारों पर शुभकामनाएं देना वह कभी भूलती नहीं थी. लता मंगेशकर ने दुनिया छोड़ दी, लेकिन आज सभी सिंगर्स अपने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उन्हें याद कर रहे है,

कुमार सानु

कुमार सानु कहते है कि लता दीदी का चले जाना संगीत जगत में सबके लिए एक गहरा धक्का है, उनके गीत आगे चार पुरखों तक लोग सुनते रहेंगे. उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है. उनका योगदान फिल्म इंडस्ट्री के लिए बहुत बड़ी है. केवल हमारा देश ही नहीं पूरे विश्व के लोग उनके मधुर आवाज के दीवाने है. वह पूरे महाराष्ट्र की गौरव है. संगीत के ज़रिये उन्होंने पूरे विश्व में हमारे देश को ऊँचा स्थान दिलवाया है. उनके बारें में कुछ भी कहते हुए मुझे बहुत दुःख हो रहा है. मैं यह सोच नहीं पा रहा हूँ कि वह अब नहीं रही, लेकिन उनकी यादें हमेशा मेरे दिल में रहेगी.

मधुश्री

प्ले बैक सिंगर मधुश्री आँखों में आंसू लिए कहती है कि सुरकोकिला लता जी अब इस दुनिया में नहीं रही. संगीत की देवी हम सभी को छोड़कर चली गयी है. उनकी कमी संगीत जगत में हमेशा महसूस की जायेगी.

कैलाश खेर

पार्श्व गायक कैलाश खेर कहते है कि सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के बारें में जितना भी कहूँ कम ही रहेगा,उनके व्यक्तिव से हर किसी को सीख लेनी चाहिए. मैं उनसे हमेशा प्रभावित रहा हूँ.

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अभिजीत सावंत

प्ले बैक सिंगरअभिजित सावंत कहते है कि लता जी से मैं 2-3 बार मिला हूँ. करीब 10 साल पहले एक बार मैं एक रेस्तरां में मिला था.वहां वह अपनी परिवार के साथ आई हुई थी. मैं भी फॅमिली के साथ डिनर करने गया था.मैने उनसे मिलने गया, तो वह बहुत ही सिंपल और प्यारी लगी थी. मैं एक नया गायक और जूनियर लड़का होने के बावजूद बहुत ही खूबसूरत तरीके से मिली. उनकी खास बात यह है कि उनकी आँखों में हमेशा एक पॉजिटिव भाव रहती थी. मैं बहुत आश्चर्य में पड़ गया था कि इतनी बड़ी सक्शियत होने के बावजूद उनमें प्यार और हम्बल से मुझसे मिली थी, जैसा अधिकतर नहीं होता. किसी भी काम में वह शिद्दत से लग जाती थी. मैंने कई बार उनके साथ परफॉर्म भी किया है जब वह परफॉर्म करती थी और एक गाना हजारों लोगों के बीच गाने पर भी वह किसी को निर्देश नहीं देती थी. वह एक सिंसियर आर्टिस्ट की तरह इमानदारी के साथ नए आर्टिस्ट के साथ गाती थी. उनमे एक आनेस्टी थी काम में, उम्र में, ओहदे में बड़े होने पर भी उन्हें हमेशा कुछ अलग सीखने की आदत थी. उम्र होने के बावजूद भी लता जीहम जैसे नए कलाकार के साथ बहुत अच्छा व्यवहार करती थी. उस उम्र में भी उनमे एक अनोखी समझ थी, जिससे मुझे एक बड़ी सीख मिली है.

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