वसीयत: भाग 3- भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

‘‘चल उठ… बहुत सोचने लगी है… ऐसे ही सोचती रही तो प्रियांश की परवरिश कैसे करेगी? यह देख (दीदी ने बेल को फिर से कपड़े सुखाने वाले तार पर लपेटते हुए कहा). ले मिल गया सहारा. अब फिर से हरी हो जाएगी यह बेल.’’

‘‘दीदी, काश जिंदगी भी इतनी ही आसान हो सकती…’’

‘‘यदि कोशिश की जाए तो कुछ मुश्किलें तो अब भी कम हो सकती हैं वृंदा…’’ दीदी की आवाज अचानक गंभीर हो गई.

‘‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी दीदी?’’

‘‘वृंदा, अमृत भैया की बेरुखी किसी से छिपी नहीं… आज संकट की इस घड़ी में उन्हें जहां सब से आगे होना चाहिए था, वहीं वे मुंह चुराते घूम रहे हैं. हैरत की बात तो यह है कि

मां भी खामोश हैं… क्या मजबूरी है उन की, मैं नहीं जानती?’’

‘‘दीदी, एक तो बुढ़ापा ऊपर से बिना पति के भला इस से बढ़ कर मजबूरी और क्या हो सकती है. आखिर उन का बुढ़ापा तो भैया की पनाह में ही कटना है न?’’

‘‘इस का मतलब बेटी के एहसासों की कोई कीमत नहीं… आखिर उस के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी बनती है उन की. घर उन का है…

पापा की पैंशन है… कौन सा वे भैया के सहारे जी रही हैं?’’

‘‘दीदी, मां समाज को तो नहीं बदल सकतीं न… जहां आज भी बेटियों की अपेक्षा बेटों के साथ रहने में ही मातापिता का सम्मान कायम माना जाता है.’’

‘‘मेरी छोटी बहन कितनी समझदार हो गई है. चल छोड़ ये सब वृंदा… मैं ने, मृदुला ने और तुम्हारे दोनों जीजाजी ने यह तय किया है कि वे भैया से बात करेंगे. आज समय बदल चुका है. कानून ने भी बेटियों को पिता की पूंजी में बराबर का हक देने की बात को स्वीकार किया है.’’

‘‘पगली, ये रिश्तेनाते, सगेसंबंध होते किसलिए हैं? वक्तबेवक्त सहारे के लिए ही न? जो बुरे वक्त में काम न आए वह भला कैसे अपना वृंदा?’’

आखिर सब ने मिल कर भैया को समझाने का प्रयास किया कि संपत्ति में से वृंदा को कुछ हिस्सा दे दिया जाए, कृष्णा और मृदुला दीदी ने यहां तक कह दिया कि वे अपने लिए कुछ नहीं मांग रहीं, कहे तो लिख कर दे दें. मगर आज वृंदा पर जो विपदा आई है, उस में तुम्हें खुद आगे हो कर यह कदम उठाना था.

मगर भैया नहीं चाहते थे कि पिताजी की जायदाद में से मेरा भी हिस्सा कर दिया जाए. तभी किसी ने उन्हें अकेले में ले जा कर सलाह दी, ‘‘खैर मनाओ, बाकी दोनों बहनें कुछ नहीं मांग रहीं. मान जा वरना कोर्ट की बारी आई तो हो सकता है 4 हिस्से बराबर के करने पड़ें.’’ तब बुझे मन से भैया को यह निर्णय स्वीकार करना पड़ा. भाभी पर तो मानो वज्रपात हो गया.

खैर, पिताजी के मकान का एक हिस्सा मेरे नाम करा दिया गया. मैं विवश न चाहते हुए भी इस बेरुखी भरे माहौल में अपने स्वाभिमान को गिरवी रख मायके आ गई, इस उम्मीद के साथ कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा.

आखिर खून का रिश्ता है… पानी में लकड़ी पड़ भी गई तो पानी भला कहां दूर होने वाला, कुछ नहीं तो अपनों के करीब रहूंगी. मगर यह मेरी भूल थी. यहां तो रिश्तों की परिभाषा ही बदल चुकी थी. कोई अपना न रहा था.

दौलत के हिस्से ने घर के बंटवारे के साथ ही दिल के बीच भी दीवार खींच दी थी. मेरे स्वाभिमान को यह जरा भी गंवारा न था. मगर लाचार थी. कोई और चारा भी तो न था, वहीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ानी शुरू कर दी. पासपड़ोस के लोगों ने इस में मेरी मदद की. बेगानों की मदद से जिंदगी को पटरी पर लाने का प्रयास कर रही थी.

भाभी खुद कभी न बोलतीं. जितना मैं बोलती उस का भी बड़ी बेरुखी से जवाब देतीं. भैया तो मानो आज भी नाराज हैं. मां जो अकसर शाम को लौन में कुरसी डाल कर बैठती थीं, मेरे जाने के बाद कम ही बैठतीं.

शायद बहूबेटी के झंझटों से मुक्त रहना चाहती थीं. मुझे दुख नहीं, बल्कि तरस आता मां पर, लगता मेरे कारण बंट कर रह गई हैं वे

2 आवाजों के बीच. भैया के बच्चे मोंटी और पारुल बड़े थे. अपने और पराए के भेद को जानने लगे थे. अत: कभी मेरी तरफ खेलने न आते. किंतु इन सब चालों से अनजान प्रियांश जब भी उन्हें खेलते देखता उन के साथ हो लेता.

एक दिन जाने कैसे प्रियांश बच्चों के कमरे से खेलतेखेलते एक खिलौना उठा लाया. आखिर बच्चा ही तो था. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रही थी कि भाभी के प्रेम वचन सुनाई दिए, ‘‘घर पर तो हमारे अधिकार जमा ही लिया अब क्या धीरेधीरे घर का सारा सामान भी हड़पने का इरादा है?’’

मैं ने स्थिति को समझते हुए बीच में बोलना उचित नहीं समझा. आखिर बच्चा ही सही गलती प्रियांश की ही थी. फिर आए दिन इस तरह की कोई घटना होने लगी. समय के साथ यह एहसास भी हुआ कि यह सब अनायास नहीं, बल्कि सोचीसमझी साजिश है.

एक दिन शाम के समय भाभी लगभग चीखते हुए आ पहुंचीं, ‘‘तुम यहां कमाई में लगी रहो और तुम्हारा कुलदीपक हमारे यहां बैठा नुकसान करता रहे… ये सब नहीं चलेगा… देखो कितना सुंदर फ्लौवरपौट था. तोड़ दिया न इस उज्जड ने… कितना महंगा था, अब मैं और बरदाश्त नहीं कर सकती.’’

मैं कुछ कहती उस से पहले ही मोंटी बोल पड़ा, ‘‘मगर मम्मी यह तो कल पारूल से टूटा था.’’

‘‘चुप रह शैतान… तुझे पता भी है कुछ?’’

अपना दांव बिखरते देख भाभी बड़बड़ाती हुई अंदर चली गईं. आखिर मोंटी बच्चा ही तो था. अत: बोल गया बच्चे की बोली. चाहती तो बहुत कुछ कह सकती थी, मगर वक्त ने मेरे मुंह पर मजबूरी और एहसानों का ताला जो जड़ दिया था.

खैर, मुझे भाभी के इरादे अच्छी तरह समझ आ गए. रहना तो मैं खुद भी नहीं चाहती थी ऐसे किसी का कृपापात्र बन कर, मगर जीजीजीजाजी ने जो मेरे खातिर इन लोगों से बुराई मोल ली थी उस का मान तो रखना ही था.

अब मैं संभल गई. बच्चों को पढ़ाते वक्त प्रियांश को भी अपने साथ ले कर बैठती. किसी न किसी तरह उसे उलझाए रखती ताकि फिर न झंझट को न्योता दे आए.

 

मगर बच्चे की चपलता को भला कौन बांध सका है. इधर भाभी जोकि फिराक में ही बैठी थीं. पिछले 2 दिनों से मांजी की तबीयत खराब थी. इतना तेज बुखार कि मुझे ट्यूशन की भी छुट्टी करनी पड़ी. मैं उन्हीं की देखभाल में लगी थी कि जाने कब प्रियांश मेरी कैद से निकल भाभी के घर पहुंच गया.

उस का ध्यान तब आया जब उस के जोरजोर से रोने की आवाजें आने लगीं. किसी अनिष्ट की आशंका से मैं जल्द ही उस ओर भागी. मेरा बच्चा पीठ और पैरों को हाथ लगालगा रो रहा था. भाभी ने न जाने किस अपराध के लिए उसे स्केल से इस कदर पीटा कि निशान उभर आए थे पीठ और पैरों पर. कभी पीठ को हाथ लगा कर तड़पता तो कभी पैरों को पकड़ कर.

‘‘क्या कोई इतना भी निष्ठुर हो सकता है?’’ गोदी में लिटा कर उसे हलकेहलके थपकियां देने के अलावा मैं कर भी क्या सकती थी. वह सो गया. उस का मासूम पीड़ा से भरा चेहरा मेरे सामने था.

मस्तिष्क में अनंत सवालों के बादल घुमड़ रहे थे कि कानून की मोटीमोटी किताबों में जाने कितनी धाराएं बनेंगी और बदलेंगी. बेटी को बाप की वसीयत में बराबर की हिस्सेदारी मिली यह खबर अखबारों की सुर्खियों में ही भली लगती हैं. वास्तविकता तो यही है जो उस के साथ घट रही है.

क्या वास्तव में बाप की वसीयत से बेटी का हिस्सा निकालना इतना तकलीफदेह है? इस हकीकत को नकारा नहीं जा सकता कि अगर वह हिस्सा लेती है तो उसे प्यारमुहब्बत की दौलत को खोना होगा, क्योंकि आज बाबुल के मन का आंगन इतना संकुचित हो चुका है कि वहां प्यार या पूंजी में से कोई एक ही समा सकता है. चाहे वह एक बेटी के द्वारा अपनी परेशानियों में उठाया गया कदम ही क्यों न हो?

आज समाज और कानून के भय से उस ने यह हिस्सा भी पा लिया तो क्या? उस के लिए उसे अपनों के अपनत्व की आहुति देनी पड़ेगी, यह उस ने कभी सोचा न था. ऐसा क्यों है कि जिस बेटी को बचपन में बड़े नाजों से पाला जाता है उसी बेटी के ब्याह होते ही उस के प्रति न केवल लोगों का बल्कि उस के जन्मदाताओं के नजरिए में भी परिवर्तन आ जाता है. जब बेटियां अपने मायके की खुशहाली की खातिर अपना तनमनधन सब समर्पित कर सकती हैं तो अपनी मुसीबतों के पलों में उन की ओर उम्मीद भरी आंखों से निहारने पर यह तिरस्कार क्यों?

कर्णफूल: क्यों अपनी ही बहन पर शक करने लगी अलीना

जब मैं अपने कमरे के बाहर निकली तो अन्नामां अम्मी के पास बैठी उन्हें नाश्ता करा रही थीं. वह कहने लगीं, ‘‘मलीहा बेटी, बीबी की तबीयत ठीक नहीं हैं. इन्होंने नाश्ता नहीं किया, बस चाय पी है.’’

मैं जल्दी से अम्मी के कमरे में गई. वह कल से कमजोर लग रही थीं. पेट में दर्द भी बता रही थीं. मैं ने अन्नामां से कहा, ‘‘अम्मी के बाल बना कर उन्हें जल्द से तैयार कर दो, मैं गाड़ी गेट पर लगाती हूं.’’

अम्मी को ले कर हम दोनों अस्पताल पहुंचे. जांच में पता चला कि हार्टअटैक का झटका था. उन का इलाज शुरू हो गया. इस खबर ने जैसे मेरी जान ही निकाल दी थी. लेकिन यदि मैं ही हिम्मत हार जाती तो ये काम कौन संभालता? मैं ने अपने दर्द को छिपा कर खुद को कंट्रोल किया. उस वक्त पापा बहुत याद आए.

वह बहुत मोहब्बत करने वाले, परिवार के प्रति जिम्मेदार व्यक्ति थे. एक एक्सीडेंट में उन का इंतकाल हो गया था. घर में मुझ से बड़़ी बहन अलीना थीं, जिन की शादी हैदराबाद में हुई थी. उन का 3 साल का एक बेटा था. मैं ने उन्हें फोन कर के खबर दे देना जरूरी समझा, ताकि बाद में शिकायत न करें.

मैं आईसीयू में गई, डाक्टरों ने मुझे काफी तसल्ली दी, ‘‘इंजेक्शन दे दिए गए हैं, इलाज चल रहा है, खतरे की कोई बात नहीं है. अभी दवाओं का असर है, सो गई हैं. इन के लिए आराम जरूरी है. इन्हें डिस्टर्ब न करें.’’

मैं ने बाहर आ कर अन्नामां को घर भेज दिया और खुद वेटिंगरूम में जा कर एक कोने में बैठ गई. वेटिंगरूम काफी खाली था. सोफे पर आराम से बैठ कर मैं ने अलीना बाजी को फोन मिलाया. मेरी आवाज सुन कर उन्होंने रूखे अंदाज में सलाम का जवाब दिया.मैं ने अपने गम समेटते हुए आंसू पी कर अम्मी के बारे में बताया तो सुन कर वह परेशान हो गईं. फिर कहा, ‘‘मैं जल्द पहुंचने की कोशिश करती हूं.’’

मुझे तसल्ली का एक शब्द कहे बिना उन्होंने फोन कट कर दिया. मेरे दिल को झटका सा लगा. अलीना मेरी वही बहन थीं, जो मुझे बेइंतहा प्यार करती थीं. मेरी जरा सी उदासी पर दुनिया के जतन कर डालती थीं. इतनी चाहत, इतनी मोहब्बत के बाद इतनी बेरुखी… मेरी आंखें आंसुओं से भर आईं.

पापा की मौत के थोड़े दिनों बाद ही मुझ पर कयामत सी टूट पड़ी थी. पापा ने बहुत देखभाल कर मेरी शादी एक अच्छे खानदान में करवाई थी. शादी हुई भी खूब शानदार थी. बड़े अरमानों से ससुराल गई. मैं ने एमबीए किया था और एक अच्छी कंपनी में जौब कर रही थी. जौब के बारे में शादी के पहले ही बात हो गई थी.

उन्हें मेरे जौब पर कोई ऐतराज नहीं था. ससुराल वाले मिडिल क्लास के थे, उन की 2 बेटियां थीं, जिन की शादी होनी थी. इसलिए नौकरी वाली बहू का अच्छा स्वागत हुआ. मेरी सास अच्छे मिजाज की थीं और मुझ से काफी अच्छा व्यवहार करती थीं.

कभीकभी नादिर की बातों में कौंप्लेक्स झलकता था. आखिर 2-3 महीने के बाद उन का असली रंग खुल कर सामने आ गया. उन के दिल में नएनए शक पनपने लगे. नादिर को लगता कि मैं उस से बेवफाई कर रही हूं. जराजरा सी बात पर नाराज हो जाता, झगड़ना शुरू कर देता.

इसे मैं उस का कौंप्लेक्स समझ कर टालती रहती, निबाहती रही. लेकिन एक दिन तो हद ही हो गई. उस ने मुझे मेरे बौस के साथ एक मीटिंग में जाते देख लिया. शाम को घर लौटी तो हंगामा खड़ा कर दिया. मुझ पर बेवफाई व बदकिरदारी का इलजाम लगा कर गंदेगंदे ताने मारे.

कई लोगों के साथ मेरे ताल्लुक जोड़ दिए. ऐसे वाहियात इलजाम सुन कर मैं गुस्से से पागल हो गई. आखिर मैं ने एक फैसला कर लिया कि यहां की इस बेइज्जती से जुदाई बेहतर है.

मैं ने सख्त लहजे में कहा, ‘‘नादिर, अगर आप का रवैया इतना तौहीन वाला रहा तो फिर मेरा आप के साथ रहना मुश्किल है. आप को अपने लगाए बेहूदा इलजामों की सच्चाई साबित करनी पड़ेगी. एक पाक दामन औरत पर आप ऐसे इलजाम नहीं लगा सकते.’’

मम्मीपापा ने भी समझाने की कोशिश की, लेकिन वह गुस्से से उफनते हुए बोला, ‘‘मुझे कुछ साबित करने की जरूरत नहीं है, सब जानता हूं मैं. तुम जैसी आवारा औरतों को घर में नहीं रखा जा सकता. मुझे बदचलन औरतों से नफरत है. मैं खुद ऐसी औरत के साथ नहीं रह सकता. मैं तुझे तलाक देता हूं, तलाक…तलाक…तलाक.’’

और कुछ पलों में ही सब कुछ खत्म हो गया. मैं अम्मी के पास आ गई. सुन कर उन पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा. मेरे चरित्र पर चोट पड़ी थी. मुझ पर लांछन लगाए गए थे. मैं ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया. क्योंकि मैं कुसूरवार नहीं थी. यह मेरी इज्जत और अस्मिता की लड़ाई थी.

20-25 दिन की छुट्टी करने के बाद मैं ने जौब पर जाना शुरू कर दिया. मैं संभल तो गई, पर खामोशी व उदासी मेरे साथी बन गए. अम्मी मेरा बेहद खयाल रखती थीं. अलीना आपी भी आ गईं. हर तरह से मुझे ढांढस बंधातीं. वह काफी दिन रुकीं. जिंदगी अपने रूटीन से गुजरने लगी.

अलीना आपी ने इस विपत्ति से निकलने में बड़ी मदद की. मैं काफी हद तक सामान्य हो गई थी. उस दिन छुट्टी थी, अम्मी ने दो पुराने गावतकिए निकाले और कहा, ‘‘ये तकिए काफी सख्त हो गए हैं. इन में नई रुई भर देते हैं.’’

मैं ने पुरानी रुई निकाल कर नीचे डाल दी. फिर मैं ने और अलीना आपी ने रुई तख्त पर रखी. हम दोनों रुई साफ कर रहे थे और तोड़ते भी जा रहे थे. अम्मी उसी वक्त कमरे से आ कर हमारे पास बैठ गईं. उन के हाथ में एक प्यारी सी चांदी की डिबिया थी. अम्मी ने खोल कर दिखाई, उस में बेपनाह खूबसूरत एक जोड़ी जड़ाऊ कर्णफूल थे. उन पर बड़ी खूबसूरती से पन्ना और रूबी जड़े हुए थे. इतनी चमक और महीन कारीगरी थी कि हम देखते रह गए.

आलीना आपी की आंखें कर्णफूलों की तरह जगमगाने लगीं. उन्होंने बेचैनी से पूछा, ‘‘अम्मी ये किसके हैं?’’

अम्मी बताने लगीं, ‘‘बेटा, ये तुम्हारी दादी के हैं, उन्होंने मुझ से खुश हो कर मुझे ये कर्णफूल और माथे का जड़ाऊ झूमर दिया था. माथे का झूमर तो मैं ने अलीना की शादी पर उसे दे दिया था. अब ये कर्णफूल हैं, इन्हें मैं मलीहा को देना चाहती हूं. दादी की यादगार निशानियां तुम दोनों बहनों के पास रहेंगी, ठीक है न.’’

अलीना आपी के चेहरे का रंग एकदम फीका पड़ गया. उन्हें जेवरों का शौक जुनून की हद तक था, खास कर के एंटीक ज्वैलरी की तो जैसे वह दीवानी थीं. वह थोड़े गुस्से से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, आप ने ज्यादती की, खूबसूरत और बेमिसाल चीज आपने मलीहा के लिए रख दी. मैं बड़ी हूं, आप को कर्णफूल मुझे देने चाहिए थे. ये आप ने मेरे साथ ज्यादती की है.’’

अम्मी ने समझाया, ‘‘बेटी, तुम बड़ी हो, इसलिए तुम्हें कुंदन का सेट अलग से दिया था, साथ में दादी का झूमर और सोने का एक सेट भी दिया था. जबकि मलीहा को मैं ने सोने का एक ही सेट दिया था. इस के अलावा एक हैदराबादी मोती का सेट था. उसे मैं ने कर्णफूल भी उस वक्त नहीं दिए थे, अब दे रही हूं. तुम खुद सोच कर बताओ कि क्या गलत किया मैं ने?’’

अलीना आपी अपनी ही बात कहती रहीं. अम्मी के बहुत समझाने पर कहने लगीं,  ‘‘अच्छा, मैं दादी वाला झूमर मलीहा को दे दूंगी, तब आप ये कर्णफूल मुझे दे दीजिएगा. मैं अगली बार आऊंगी तो झूमर ले कर आऊंगी और कर्णफूल ले जाऊंगी.’’

अम्मी ने बेबसी से मेरी तरफ देखा. मेरे सामने अजीब दोराहा था, बहन की मोहब्बत या कर्णफूल. मैं ने दिल की बात मान कर कहा, ‘‘ठीक है आपी, अगली बार झूमर मुझे दे देना और आप ये कर्णफूल ले जाना.’’

अम्मी को यह बात पसंद नहीं आई, पर क्या करतीं, चुप रहीं. अभी ये बातें चल ही रहीं थीं कि घंटी बजी. अम्मी ने जल्दी से कर्णफूल और डिबिया तकिए के नीचे रख दी.

पड़ोस की आंटी कश्मीरी सूट वाले को ले कर आई थीं. सब सूट व शाल वगैरह देखने लगे. हम ने 2-3 सूट लिए. उन के जाने के बाद अम्मी ने कर्णफूल वाली चांदी की डिबिया निकाल कर देते हुए कहा, ‘‘जाओ मलीहा, इसे संभाल कर अलमारी में रख दो.’’

मैं डिबिया रख कर आई. उस के बाद हम ने जल्दीजल्दी तकिए के गिलाफ में रुई भर दी. फिर उन्हें सिल कर तैयार किया और कवर चढ़ा दिए. 3-4 दिनों बाद अलीना आपी चली गईं. जातेजाते वह मुझे याद करा गईं, ‘‘मलीहा, अगली बार मैं कर्णफूल ले कर जाऊंगी, भूलना मत.’’

दिन अपने अंदाज में गुजर रहे थे. चाचाचाची और उन के बच्चे एक शादी में शामिल होने आए. वे लोग 5-6 दिन रहे, घर में खूब रौनक रही. खूब घूमेंफिरे. मेरी चाची अम्मी को कम ही पसंद करती थीं, क्योंकि मेरी अम्मी दादी की चहेली बहू थीं. अपनी खास चीजें भी उन्होंने अम्मी को ही दी थीं. चाची की दोनों बेटियों से मेरी खूब बनती थी, हम ने खूब एंजौय किया.

नादिर की मम्मी 2-3 बार आईं. बहुत माफी मांगी, बहुत कोशिश की कि किसी तरह इस मसले का कोई हल निकल जाए. पर जब आत्मा और चरित्र पर चोट पड़ती है तो औरत बरदाश्त नहीं कर पाती. मैं ने किसी भी तरह के समझौते से साफ इनकार कर दिया.

अलीना बाजी के बेटे की सालगिरह फरवरी में थी. उन्होंने फोन कर के कहा कि वह अपने बेटे अशर की सालगिरह नानी के घर मनाएंगी. मैं और अम्मी बहुत खुश हुए. बडे़ उत्साह से पूरे घर को ब्राइट कलर से पेंट करवाया. कुछ नया फर्नीचर भी लिया. एक हफ्ते बाद अलीना आपी अपने शौहर समर के साथ आ गईं. घर के डेकोरेशन को देख कर वह बहुत खुश हुईं.

सालगिरह के दिन सुबह से ही सब काम शुरू हो गए. दोस्तोंरिश्तेदारों सब को बुलाया. मैं और अम्मी नाश्ते के बाद इंतजाम के बारे में बातें करने लगे. खाना और केक बाहर से आर्डर पर बनवाया था. उसी वक्त अलीना आपी आईं और अम्मी से कहने लगीं, ‘‘अम्मी, ये लीजिए झूमर संभाल कर रख लीजिए और मुझे वे कर्णफूल दे दीजिए. आज मैं अशर की सालगिरह में पहनूंगी.’’

अम्मी ने मुझ से कहा, ‘‘जाओ मलीहा, वह डिबिया निकाल कर ले आओ.’’ मैं ने डिबिया ला कर अम्मी के हाथ पर रख दी. आपी ने बड़ी बेसब्री से डिबिया उठा कर खोली. लेकिन डिबिया खुलते ही वह चीख पड़ीं, ‘‘अम्मी कर्णफूल तो इस में नहीं है.’’

अम्मी ने झपट कर डिबिया उन के हाथ से ले ली. वाकई डिबिया खाली थी. अम्मी एकदम हैरान सी रह गईं. मेरे तो जैसे हाथोंपैरों की जान ही निकल गई. अलीना आपी की आंखों में आंसू आ गए थे. उन्होंने मुझे शक भरी नजरों से देखा तो मुझे लगा कि काश धरती फट जाए और मैं उस में समा जाऊं.

अलीना आपी गुस्से में जा कर अपने कमरे में लेट गईं. मैं ने और अम्मी ने अलमारी का कोनाकोना छान मारा, पर कहीं भी कर्णफूल नहीं मिले. अजब पहेली थी. मैं ने अपने हाथ से डिबिया अलमारी में रखी थी. उस के बाद कभी निकाली भी नहीं थी. फिर कर्णफूल कहां गए?

एक बार ख्याल आया कि कुछ दिनों पहले चाचाचाची आए थे और चाची दादी के जेवरों की वजह से अम्मी से बहुत जलती थीं. क्योंकि सब कीमती चीजें उन्होंने अम्मी को दी थीं. कहीं उन्होंने ही तो मौका देख कर नहीं निकाल लिए कर्णफूल. मैं ने अम्मी से कहा तो वह कहने लगीं, ‘‘मुझे नहीं लगता कि वह ऐसा कर सकती हैं.’’

फिर मेरा ध्यान घर पेंट करने वालों की तरफ गया. उन लोगों ने 3-4 दिन काम किया था. संभव है, भूल से कभी अलमारी खुली रह गई हो और उन्हें हाथ साफ करने का मौका मिल गया हो. अम्मी कहने लगीं, ‘‘नहीं बेटा, बिना देखे बिना सुबूत किसी पर इलजाम लगाना गलत है. जो चीज जानी थी, चली गई. बेवजह किसी पर इलजाम लगा कर गुनहगार क्यों बनें.’’

सालगिरह का दिन बेरंग हो गया. किसी का दिल दिमाग ठिकाने पर नहीं था. अलीना आपी के पति समर भाई ने सिचुएशन संभाली, प्रोग्राम ठीकठाक हो गया. दूसरे दिन अलीना ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. अम्मी ने हर तरह से समझाया, कई तरह की दलीलें दीं, समर भाई ने भी समझाया, पर वह रुकने के लिए तैयार नहीं हुईं. मैं ने उन्हें कसम खा कर यकीन दिलाना चाहा, ‘‘मैं बेकुसूर हूं, कर्णफूल गायब होने के पीछे मेरा कोई हाथ नहीं है.’’

लेकिन उन्हें किसी बात पर यकीन नहीं आया. उन के चेहरे पर छले जाने के भाव साफ देखे जा सकते थे. शाम को वह चली गईं तो पूरे घर में एक बेमन सी उदासी पसर गईं. मेरे दिल पर अजब सा बोझ था. मैं अलीना आपी से शर्मिंदा भी थी कि अपना वादा निभा न सकी.

पिछले 2 सालों में अलीना आपी सिर्फ 2 बार अम्मी से मिलने आईं, वह भी 2-3 दिनों के लिए. आती तो मुझ से तो बात ही नहीं करती थीं. मैं ने बहन के साथ एक अच्छी दोस्त भी खो दी थी. बारबार सफाई देना फिजूल था. खामोशी ही शायद मेरी बेगुनाही की जुबां बन जाए. यह सोच कर मैं ने चुप्पी साध ली. वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है. शायद ये गम भी हलका पड़ जाए.

मामूली सी आहट पर मैं ने सिर उठा कर देखा, नर्स खड़ी थी. वह कहने लगी, ‘‘पेशेंट आप से मिलना चाहती हैं.’’

मैं अतीत की दुनिया से बाहर आ गई. मुंह धो कर मैं अम्मी के पास आईसीयू में पहुंच गई. अम्मी काफी बेहतर थीं. मुझे देख कर उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गईं. वह मुझे समझाने लगीं, ‘‘बेटी, परेशान न हो, इस तरह के उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आते ही रहते हैं. उन का हिम्मत से मुकाबला कर के ही हराया जा सकता है.’’

मैं ने उन्हें हल्का सा नाश्ता कराया. डाक्टरों ने कहा, ‘‘इन की हालत काफी ठीक है. आज रूम में शिफ्ट कर देंगे. 2-4 दिन में छुट्टी दे दी जाएगी. हां, दवाई और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो, जिस से इन्हें स्ट्रेस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना आपी भी आ गईं. मुझ से बस सलामदुआ हुई. वह अम्मी के पास रुकीं. मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद अम्मी भी घर आ गई. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की भरसक कोशिश करते रहे. एक हफ्ता तो अम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया.

मैं ने औफिस जौइन कर लिया. अम्मी के बहुत इसरार पर आपी कुछ दिन रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब अम्मी हलकेफुलके काम कर लेती थीं. अलीना आपी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक थी.उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गाव तकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं. एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’

अन्नामां तकिए उठा लाईं और उन्हें खोलने लगीं. फिर मैं और अन्नामां रुई, तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगीं तो मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गईं. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘‘देखिए अम्मी ये रहे कर्णफूल.’’

आपी ने कर्णफूल उठा लिए और अम्मी के हाथ पर रख दिए. अम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो आपी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

अम्मी सोच में पड़ गईं. फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आया अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रहीं थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख ही रहे थे, तभी घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डिबिया में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डिबिया के बजाय रुई में रख दिए और डिबिया तकिए के पीछे रख दी थी.

‘‘कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शाल वाले के जाने के बाद डिबिया तो मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई  में दब कर रुई के साथ तकिए में भर गए. मलीहा ने तकिए सिले और कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे कि कर्णफूल डिबिया में अलमारी में रखे हैं. जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल है ही नहीं. अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’

अम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक गहरी सांस छोड़ी. अलीना के चेहरे पर फछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उन की आंखें भर आईं. वह दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खडी हो गईं. रुंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या, मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के रेगिस्तान में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं आपी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं से दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

आपी बोलीं, ‘‘अम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटिक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमती एंटिक पीस हैं, मुझे मिलने चाहिए. पर आप ने मलीहा को दे दिए. मुझे लगा कि मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी, ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल का मोह छोड़ती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से आपी से लिपट कर बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से मुझे जो खुशी होगी, वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

अम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ, मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए. रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है, फिर खुद टूट कर बिखर जाते हैं.’’

मैं ने खुलूसे दिल से आपी के कानों में कर्णफूल पहना दिए. सारा माहौल मोहब्बत की खुशबू से महक उठा.???

सीख: क्या मजबूरी थी संदीप के सामने

डोरवैल की आवाज सुनते ही मुझे झंझलाहट हुई. लो फिर आ गया कोई. लेकिन इस समय कौन हो सकता है? शायद प्रैस वाला या फिर दूध वाला होगा.

5-10 मिनट फिर जाएंगे. आज सुबह से ही काम में अनेक व्यवधान पड़ रहे हैं. संदीप को औफिस जाना है. 9 बज कर 5 मिनट हो गए हैं. 25 मिनट में आलू के परांठे, टमाटर की खट्टी चटनी तथा अंकुरित मूंग का सलाद बनाना ज्यादा काम तो नहीं है, लेकिन अगर इसी तरह डोरबैल बजती रही तो मैं शायद ही बना पाऊं. मेरे हाथ आटे में सने थे, इसलिए दरवाजा खोलने में देरी हो गई. डोरबैल एक बार फिर बज उठी. मैं हाथ धो कर दरवाजे के पास पहुंची और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने काम वाली बाई खड़ी थी. मिसेज शर्मा से मैं ने चर्चा की थी. उन्होंने ही उसे भेजा था. मैं उसे थोड़ी देर बैठने को बोल कर अपने काम में लग गई. जल्दीजल्दी संदीप को नाश्ता दिया, संदीप औफिस गए, फिर मैं उस काम वाली बाई की तरफ मुखातिब हुई.

गहरा काला रंग, सामान्य कदकाठी, आंखें काली लेकिन छोटी, मुंह में सुपारीतंबाकू का बीड़ा, माथे पर गहरे लाल रंग का बड़ा सा टीका, कपड़े साधारण लेकिन सलीके से पहने हुए. कुल मिला कर सफाई पसंद लग रही थी. मैं मन ही मन खुश थी कि अगर काम में लग जाएगी तो अपने काम के अलावा सब्जी वगैरह काट दिया करेगी या फिर कभी जरूरत पड़ने पर किचन में भी मदद ले सकूंगी. फूहड़ तरीके से रहने वाली बाइयों से तो किचन का काम कराने का मन ही नहीं करता. फिर मैं किचन का काम निबटाती रही और वह हौल में ही एक कोने में बैठी रही. उस ने शायद मेरे पूरे हौल का निरीक्षण कर डाला था. तभी तो जब मैं किचन से हौल में आई तो वह बोली, ‘‘मैडम, घर तो आप ने बहुत अच्छे से सजाया है.’’

मैं हलके से मुसकराते हुए बोली, ‘‘अच्छा तो अब यह बोलो बाई कि मेरे घर का काम करोगी?’’

‘‘क्यों नहीं मैडम, अपुन का तो काम ही यही है. उसी के वास्ते तो आई हूं मैं. बस तुम काम बता दो.’’

‘‘बरतन, झड़ूपोंछा और कपड़ा.’’

‘‘करूंगी मैडम.’’

‘‘क्या लोगी और किस ‘टाइम’ आओगी यह सब पहले तय हो जाना चाहिए.’’

‘‘लेने का क्या मैडम, जो रेट चल रहा है वह तुम भी दे देना और रही बात टाइम की तो अगर तुम्हें बहुत जल्दी होगी तो सवेरे सब से पहले तुम्हारे घर आ जाऊंगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा होगा. मुझे सुबह जल्दी ही काम चाहिए. 7 बजे आ सकोगी क्या?’’ मैं ने खुश होते हुए पूछा.

‘‘आ जाऊंगी मैडम, बस 1 कप चाय तुम को पिलानी पड़ेगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, चाय का क्या है मैं 2 कप पिला दूंगी. लेकिन काम अच्छा करना पड़ेगा. अगर तुम्हारा काम साफ और सलीके का रहा तो कुछ देने में मैं भी पीछे नहीं रहूंगी.’’

‘‘तुम फिकर मत करो मैडम, मेरे काम में कोई कमी नहीं रहेगी. मैं अगर पैसा लेऊंगी तो काम में क्यों पीछे होऊंगी? पूरी कालोनी में पूछ के देखो मैडम, एक भी शिकायत नहीं मिलेगी. अरे, बंगले वाले तो इंतजार करते हैं कि कब सक्कू बाई मेरे घर लग जाए पर अपुन को जास्ती काम पसंद नहीं. अपुन को तो बस प्रेम की भूख है. तुम्हारा दिल हमारे लिए तो हमारी जान तुम्हारे लिए.’’

‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है बाई.’’

अब तक मैं उस के बातूनी स्वभाव को समझ चुकी थी. कोई और समय होता तो मैं

इतनी बड़बड़ करने की वजह से ही उसे लौटा देती, लेकिन पिछले 15 दिनों से घर में कोई काम वाली बाई नहीं थी, इसलिए मैं चुप रही.

उस के जाने के बाद मैं ने एक नजर पूरे घर पर डाली. सोफे के कुशन नीचे गिरे थे, पेपर दीवान पर बिखरा पड़ा था, सैंट्रल टेबल पर चाय के 2 कप अभी तक रखे थे. कोकिला और संदीप के स्लीपर हौल में इधरउधर उलटीसीधी अवस्था में पड़े थे. मुझे हंसी आई कि इतने बिखरे कमरे को देख कर सक्कू बाई बोल रही थी कि घर तो बड़े अच्छे से सजाया है. एक बार लगा कि शायद सक्कू बाई मेरी हंसी उड़ा रही थी कि मैडम तुम कितनी लापरवाह हो. वैसे बिखरे सामान, मुड़ीतुड़ी चादर, गिरे हुए कुशन मुझे पसंद नहीं है, लेकिन आज सुबह से कोई न कोई ऐसा काम आता गया कि मैं घर को व्यवस्थित करने का समय ही न निकाल पाई. जल्दीजल्दी हौल को ठीक कर मैं अंदर के कमरों में आई. वहां भी फैलाव का वैसा ही आलम. कोकिला की किताबें इधरउधर फैली हुईं, गीला तौलिया बिस्तर पर पड़ा हुआ. कितना समझती हूं कि कम से कम गीला तौलिया तो बाहर डाल दिया करो और अगर बाहर न डाल सको तो दरवाजे पर ही लटका दो, लेकिन बापबेटी दोनों में से किसी को इस की फिक्र नहीं रहती. मैं तो हूं ही बाद में सब समेटने के लिए.

तौलिया बाहर अलगनी पर डाल ड्रैसिंग टेबल की तरफ देखा तो वहां भी क्रीम, पाउडर, कंघी, सब कुछ फैला हुआ. पूरा घर समेटने के बाद अचानक मेरी नजर घड़ी पर गई. बाप रे, 11 बज गए. 1 बजे तक लंच भी तैयार कर लेना है. कोकिला डेढ़ बजे तक स्कूल से आ जाती है. संदीप भी उसी के आसपास दोपहर का भोजन करने घर आ जाते हैं. मैं फुरती से बाकी के काम निबटा लंच की तैयारी में जुट गई.

दूसरे दिन सुबह 7 बजे सक्कू बाई अपने को समय की सख्त पाबंद तथा दी गई जबान को पूरी तत्परता से निभाने वाली एक कर्मठ काम वाली साबित करते हुए आ पहुंची. मुझे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. खुशी इस बात की कि चलो आज से बरतन, कपड़े का काम कम हुआ. आश्चर्य इस बात का कि आज तक मुझे कोई ऐसी काम वाली नहीं मिली थी जो वादे के अनुरूप समय पर आती.

दिन बीतते गए. सक्कू बाई नियमित समय पर आती रही. मुझे बड़ा सुकून मिला. कोकिला तो उस से बहुत हिलमिल गई. सवेरे कोकिला से उस की मुलाकात नहीं होती थी, लेकिन दोपहर को वह कोकिला को कहानी सुनाती, कभीकभी उस के बाल ठीक कर देती. जब मैं कोकिला को पढ़ने के लिए डांटती तो वह ढाल बन कर सामने आ जाती, ‘‘क्या मैडम क्यों इत्ता डांटती हो तुम? अभी उम्र ही क्या है बेबी की. तुम देखना कोकिला बेबी खूब पढ़ेगी, बहुत बड़ी अफसर बनेगी. अभी तो उस को खेलने दो. तुम चौथी कक्षा की बेबी को हर समय पढ़ने को कहती हो.’’

एक दिन मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई तुम नहीं समझती हो. अभी से पढ़ने की आदत नहीं पड़ेगी तो बाद में कुछ नहीं होगा. इतना कंपीटिशन है कि अगर कुछ करना है तो समय के साथ चलना पड़ेगा, नहीं तो बहुत पिछड़ जाएगी.’’

‘‘मेरे को सब समझ में आता है मैडम. तुम अपनी जगह ठीक हो पर मेरे को ये बताओ कि तुम अपने बचपन में खुद कितना पढ़ती थीं? क्या कमी है तुम को, सब सुख तो भोग रही हो न? ऐसे ही कोकिला बेबी भी बहुत सुखी होगी. और मैडम, आगे कितना सुख है कितना दुख है ये नहीं पता. कम से कम उस के बचपन का सुख तो उस से मत छीनो.’’

सक्कू बाई की यह बात मेरे दिल को छू गई. सच तो है. आगे का क्या पता.

अभी तो हंसखेल ले. वैसे भी सक्कू बाई की बातों के आगे चुप ही रह जाना पड़ता था. उसे सम?ाना कठिन था क्योंकि उस की सोच में उस से अधिक सम?ादार कोई क्या होगा. मेरे यह कहते ही कि सक्कू बाई तुम नहीं समझ रही हो. वह तपाक से जवाब देती कि मेरे को सब समझ में आता है मैडम. मैं कोई अनपढ़ नहीं. मेरी समझ पढ़ेलिखे लोगों से आगे है. मैं हार कर चुप हो जाती.

धीरेधीरे सक्कू बाई मेरे परिवार का हिस्सा बनती गई. पहले दिन से ले कर आज तक काम में कोई लापरवाही नहीं, बेवजह कोई छुट्टी नहीं. दूसरे के यहां भले ही न जाए, पर मेरा काम करने जरूर आती. न जाने कैसा लगाव हो गया था उस को मुझ से. जरूरत पड़ने पर मैं भी उस की पूरी मदद करती. धीरेधीरे सक्कू बाई काम वाली की निश्चित सीमा को तोड़ कर मेरे साथ समभाव से बात करने लगी. वह मुझे मेरे सादे ढंग से रहने की वजह से अकसर टोकती, ‘‘क्या मैडम, थोड़ा सा सजसंवर कर रहना चाहिए. मैं तुम्हारे वास्ते रोज गजरा लाती हूं, तुम उसे कोकिला बेबी को लगा देती हो.’’

मैं हंस कर पूछती, ‘‘क्या मैं ऐसे अच्छी नहीं लगती हूं?’’

‘‘वह बात नहीं मैडम, अच्छी तो लगती हो, पर थोड़ा सा मेकअप करने से ज्यादा अच्छी लगोगी. अब तुम्हीं देखो न, मेहरा मेम साब कितना सजती हैं. एकदम हीरोइन के माफिक लगती हैं.’’

‘‘उन के पास समय है सक्कू बाई, वे कर लेती हैं, मुझ से नहीं होता.’’

‘‘समय की बात छोड़ो, वे तो टीवी देखतेदेखते नेलपौलिश लगा लेती हैं बाल बना लेती हैं हाथपैर साफ कर लेती हैं. तुम तो टीवी देखती नहीं. पता नहीं क्या पढ़पढ़ कर समय बरबाद करती हो. टीवी से बहुत मनोरंजन होता है मैडम और फायदा यह कि देखतेदेखते दूसरा काम हो सकता है. किताबों में या फिर तुम्हारे अखबार में क्या है? रोज वही समाचार… उस नेता का उस नेता से मनमुटाव, महंगाई और बढ़ी, पैट्रोल और किरोसिन महंगा. फलां की बीवी फलां के साथ भाग गई. जमीन के लिए भाई ने भाई की हत्या की. रोज वही काहे को पढ़ना? अरे, थोड़ा समय अपने लिए भी निकालना चाहिए.’’

सक्कू बाई रोज मुझे कोई न कोई सीख दे जाती. अब मैं उसे कैसे समझती कि पढ़ने से मुझे सुकून मिलता है, इसलिए पढ़ती हूं.

एक दिन सक्कू बाई काम पर आई तो उस ने अपनी थैली में से मोगरे के 2 गजरे निकाले और बोली, ‘‘लो मैडम, आज मैं तुम्हारे लिए अलग और कोकिला बेबी के लिए अलग गजरा लाई हूं. आज तुम को भी लगाना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है सक्कू बाई, मैं जरूर लगाऊंगी.’’

‘‘मैडम, अगर तुम बुरा न मानो तो आज मैं तुम को अपने हाथों से तैयार कर देती हूं.’’ कुछ संकोच और लज्जा से बोली वह.

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने जैसी क्या बात है. पर क्या करोगी मेरे लिए?’’ मैं ने हंस कर पूछा.

‘‘बस मैडम, तुम देखती रहो,’’ कह कर वह जुट गई. मैं ने भी आज उस का मन रखने का निश्चय कर लिया.

सब से पहले उस ने मेरे हाथ देखे और अपनी बहुमुखी प्रतिभा व्यक्त करते हुए नेलपौलिश लगाना शुरू कर दिया. नेलपौलिश लगाने के बाद खुद ही मुग्ध हो कर मेरे हाथों को देखने लगी ओर बोली, ‘‘देखा मैडम, हाथ कित्ता अच्छा लग रहा है. आज साहबजी आप का हाथ देखते रह जाएंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘सक्कू बाई, साहब का ध्यान माथे की बिंदिया पर तो जाता नहीं, भला वे नाखून क्या देखेंगे? तुम्हारे साहब बहुत सादगी पसंद हैं.’’

मेरे इतना कहने पर वह बोली, ‘‘मैं ऐसा नहीं कहती मैडम कि साहबजी का ध्यान मेकअप पर ही रहता है. अरे, अपने साहबजी तो पूरे देवता हैं. इतने सालों से मैं काम में लगी पर साहबजी जैसा भला मानुस मैं कहीं नहीं देखी. मेरा कहना तो बस इतना था कि सजनासंवरना आदमी को बहुत भाता है. वह दिन भर थक कर घर आए और घर वाली मुचड़ी हुई साड़ी और बिखरे हुए बालों से उस का स्वागत करे तो उस की थकान और बढ़ जाती है. लेकिन यदि घर वाली तैयार हो कर उस के सामने आए तो दिन भर की सारी थकान दूर हो जाती है.’’

मैं अधिक बहस न करते हुए चुप हो कर उस का व्याख्यान सुन रही थी, क्योंकि मुझे मालूम था कि मेरे कुछ कहने पर वह तुरंत बोल देगी कि मैं कोई अनपढ़ नहीं मैडम…

इस बीच उस ने मेरी चूडि़यां बदलीं, कंघी की, गजरा लगाया, अच्छी सी बिंदी लगाई. जब वह पूरी तरह संतुष्ट हो गई तब उस ने मुझे छोड़ा. फिर अपना काम निबटा कर वह घर चली गई. मैं भी अपने कामों में लग गई और यह भूल गई कि आज मैं गजरा वगैरह लगा कर कुछ स्पैशल तैयार हुई हूं.

दरवाजे की घंटी बजी. संदीप आ गए थे. मैं उन से चाय के लिए पूछने गई तो वे बड़े गौर से मु?ो देखने लगे. मैं ने उन से पूछा कि चाय बना कर लाऊं क्या? तो वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘थोड़ी देर यहीं बैठो. आज तो तुम्हारे चेहरे पर इतनी ताजगी झलक रही है कि थकान दूर करने के लिए यही काफी है. इस के सामने चाय की क्या जरूरत?’’ मैं अवाक हो उन्हें देखती रह गई. मुझे लगा कि सक्कू बाई चिढ़ाचिढ़ा कर कह रही है, ‘‘देखा मैडम, मैं कहती थी न कि मैं कोई अनपढ़ नहीं.’’

राजन भैया: आखिर राजन को किस बात का पछतवा हुआ

शीबा आज भैया के व्यवहार में काफी बदलाव महसूस कर रही थी. फिर भी वह यह बात अपने मन में बारबार दोहरा रही थी कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. वह पिछले 4 वर्षों से राजन भैया के साथ एक ही छत के नीचे रहती आई है. राजन एक आदर्श एवं गरिमामय व्यक्तित्व वाला शख्स है. फिर शीबा दिमाग में चल रहे द्वंद्व को  झटक उस खुशनुमा माहौल को याद करने लगी. राजन ने कहा था, ‘‘मां राह देख रही होगीं. रात के 11 बज रहे हैं. चलो घर चलते हैं.’’

शीबा भैया के पीछे हो ली थी. शीबा के साथी उसे छोड़ने गेट तक आए. राजन स्टैंड से अपनी बाइक लेने चला गया. जब तक राजन आता शीबा के साथी उस की जीत की खुशी में बधाई देते रहे. राजन के आते ही शीबा बाइक पर भैया के पीछे बैठ गई. फिर जातेजाते अपने साथियों को देख हाथ हिलाती रही.

फिर शीबा प्रतियोगिता से जुड़ी बातों में खो गई. उसे याद आया कि प्रतियोगिता में भाग लेने आईं बहुत सी लड़कियां तो उसे देख बगलें  झांकने लगी थीं. फिर प्रतियोगिता की घोषणा के बाद तो वह अपनी धड़कनों पर काबू नहीं रख पा रही थी. वह सीधे मेकअप रूम की तरफ भागी थी और आईने में खुद को निहारती रह गई थी.

एक गर्वीली मुसकान उस के चेहरे पर अनायास ही आ गई थी. वह मिस यूनिवर्सिटी चुनी गई थी. उस ने पहन रखा था एक कंपनी द्वारा उपहार में मिला लिबास एवं सलीके से बनाया गया अमेरिकन डायमंड जड़ा ताज.

वह आईना देख कर खुद पर ही मुग्ध हुई जा रही थी. अब मां उसे देख कर क्या कहेंगी, वह यह सुनना चाहती थी, इसीलिए वह उसी लिबास में घर की ओर चल पड़ी थी.

शीबा ने अपने सिर पर रखा ताज छू कर देखा तो बाइक कुछ डगमगा गई. वह

राजन से थोड़ी टकराई तो संभल कर बैठ गई.

थोड़ी देर बाद वह एक बार फिर आयोजन के खयालों में खो गई. आयोजन एक मशहूर गारमैंट कंपनी द्वारा करवाया गया था. शीबा वहां का ताम झाम देख कर डर गई थी. वह अनायास ही मुड़ कर भागी थी तो राजन से टकरा गई थी. राजन ने पूछा था, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘नहीं भैया, मु झ से नहीं होगा. मैं प्रतियोगिता में भाग नहीं लूंगी.’’

राजन ने कहा था, ‘‘अरी पगली, इस में घबराना कैसा? कहीं वक्त पर तुम पीछे मुड़ कर न भागो यही सोच कर मैं ने तुम्हें प्रोफैशनल मौडल के पास भेज कर ट्रेनिंग दिलाई थी. तुम अच्छी तरह जानती हो कि किस चरण में कैसा हावभाव व चालढाल होगी.’’

राजन शीबा को सम झा कर अंदर ले आया. हौल का दृश्य तो और उत्साहवर्धक था. मंच और दर्शक दीर्घा के बीच कुछ फासला रखा गया था, जिस में आगे की 2 कतारें निर्णायकों, कंपनी के मुख्य अधिकारियों और शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए थीं. प्रैस वालों के लिए मंच के करीब खास इंतजाम रखा गया था ताकि अच्छाखासा कवरेज मिले. हौल में काफी भीड़ थी. दर्शकों के बीच बैठे थे शीबा के सहपाठी. वे शीबा को देख कर उत्साहित हो गए थे.

शीबा को मेकअप रूम में छोड़ राजन दर्शकों के बीच जा बैठा था. मेकअप रूम में कुछ युवतियां मेकअप करा रही थीं, तो कुछ बैठ कर आयोजकों द्वारा पूछे जाने वाले संभावित प्रश्नों के उपयुक्त जवाबों के विषय में चर्चा कर रही थीं. शीबा ने महसूस किया उन की बातों में दम नहीं है. अपनेआप से इन युवतियों की तुलना करती शीबा अब आत्मविश्वास से भर गई थी.

आयोजन स्थल से 25 कि.मी. दूरी पर शहर के कोने में है राजन का घर, जिस में शीबा और उस की मां पिछले 4 वर्षों से रह रही हैं. शीबा के पिता की मृत्यु के बाद उन के परिवार के लोगों ने शीबा और उस की मां से पीछा छुड़ा लिया था. तब बेसहारा शीबा और उस की मां अपना घर छोड़ राजन के घर आ गई थीं.

 

राजन जब छोटा था. उस के मातापिता की मृत्यु हो गई थी. राजन का

पालनपोषण उस की दादी ने किया था. बूढ़ी दादी से घर का काम नहीं संभलता था इसलिए शीबा की मां ने राजन और उस की दादी की सेवा एवं घर का सारा काम संभाल लिया था. बदले में उन्हें रहने के लिए कमरा मिला था और काम के लिए जो तनख्वाह मिलती थी वह मांबेटी के जीवन निर्वाह के लिए काफी थी. राजन की दादी की मृत्यु के बाद शीबा की मां ही राजन का सहारा बनीं, तो राजन, शीबा और उस की मां का एक परिवार जैसा बन गया था.

शीबा उन दिनों 13 वर्ष की थी. लेकिन वह बहुत दुबलीपतली थी. इसलिए राजन उसे बंदरिया कह कर पुकारा करता था. याद आते ही शीबा

हंस पड़ी. फिर उस को चुहल सू झा तो राजन के कानों के पास मुंह ला कर धीरे से बोली, ‘‘भैया, मैं जीत गई.’’

राजन ने अचानक ब्रेक मारा तो शीबा उस से तेजी से टकराई. राजन ने कुछ कहा तो नहीं, हां सीट का काफी हिस्सा इस बार घेर कर बैठ गया. शीबा बची थोड़ी सी जगह पर सिमट कर बैठ गई.

शीबा फिर अपने खयालों में खो गई. बाइक की रफ्तार से भी तेज शीबा का दिमाग चल रहा था. शीबा को उम्मीद थी कि हमेशा की तरह भैया उस की हंसी उड़ा देंगे या जीत का श्रेय खुद लेते हुए कौलर उठा कर हंस पड़ेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. शीबा ने घड़ी देखी, रात के 12 बज चुके थे. सड़क दूरदूर तक वीरान थी. बाइक बारबार डगमगा जाती, शीबा बारबार भैया से टकरा जाती. ऐसा आज पहली बार हो रहा था. साफसुथरी नई बनी सड़क, उस पर आखिर भैया गाड़ी इस तरह क्यों चला रहे हैं? राजन शीबा के लिए सीट में काफी जगह छोड़ कर बैठा करता था. पर आज…

राजन को याद आया, प्रदर्शन के समय सर्चलाइट की रोशनी जब शीबा पर ला कर फ्रीज की गई थी तब शीबा मुसकरा रही थी. उस के मोतियों जैसे सफेद दांत, पतले अधखुले गुलाबी होंठ और आंखों में चमक थी. उस ने टाइट स्लैक्स व टौप पहना हुआ था. उस पर ढीला निटेड गाउन था. सारे अंग ढके होने के बावजूद शारीरिक बनावट स्पष्ट रूप से  झलक रही थी. उस का ढीलाढाला गाउन बेफिक्री दर्शा रहा था तो टाइट स्लैक्स और टौप ग्लैमर.

राजन ने बाइक का बैक ग्लास इस तरह सैट किया था कि शीबा उसे स्पष्ट नजर आ रही थी. शीबा की नजर उस पर पड़ी तो उस ने देखा कि राजन उसे टकटकी बांधे देख रहा था. शीबा की नजर ग्लास पर देख राजन ने नजरें घुमा लीं. उस की इस हरकत से शीबा को डर लगा.

उस समय शहर में सन्नाटा सा छा गया था. राजन की बाइक के बगल से इक्कादुक्का औटो या टैक्सी यदाकदा गुजर जाते थे. कहींकहीं कुछ कुत्ते भौंक रहे थे. उन की आवाज दूरदूर तक पहुंच कर वातावरण को डरावना बना रही थी. शीबा को याद आया कि प्रतियोगिता से लौटते

हुए अभी तक भैया ने उस से एक भी शब्द नहीं कहा है.

राजन सोच रहा था कि शीबा इतनी खूबसूरत है तो मेरी आंखें पहले क्यों न देख पाईं? शीबा और उस की मां को आश्रय देने की वजह से पड़ोसी जब उसे शक भरी निगाहों से देखते, दोस्त उस पर हंसते और उस पर पगला और सिरफिरा होने का आरोप लगाते तो उस के अंदर का मानव और जिद्दी हो जाता. शीबा को बहन स्वीकारने की इच्छा और बलवती हो जाती. अकसर मां की आंखों में उपजने वाली दुविधा राजन सहन न कर पाता. तब उस की आंखें उन को आश्वासन दिया करतीं. सिर्फ इतना ही नहीं दुनिया में फैली बुराइयों से लड़ने को उस के बाजू फड़क उठते.

 

पर आज यह सौंदर्य प्रतियोगिता का जादू है या रात की वीरानगी का? राजन, राजन न रहा.

वह उसे पागल कहने वाले दोस्तों में से एक बन गया. इतने दिनों से समेटा बल कहां गया? राजन के अंदर कुछ तड़क गया. कितनी मारक शक्ति है कामवासना में कि निर्जन शहर अपराध के लिए सुरक्षित महसूस होने लगा.

राजन के दिलोदिमाग में जैसे तूफान उठने लगा. शीबाशीबा हर ज्वारभाटे के साथ के साथ शीबा. राजन के लिए मानों अब शीबा, शीबा न रही. फैशन शो में वक्ष उघाड़ कर चलने वाली नागिन बन गई. क्या मालूम कौन सा पल उसे डस ले. फिर वह रात और उस का एकांत उसे डरावना सा लगने लगा. एकांत से डर कर ही तो राजन ने शीबा और उस की मां को शरण दी थी. मां और बहन? हांहां… राजन के अंदर जैसे कोई अट्टहास करने लगा. भरी जवानी और मांबहन का साथ.

राजन ने चारों ओर नजरें घुमा कर देखा. दूर रिकशा वाले स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठ कर ताश खेल रहे थे. राजन के अंदर का राक्षस तो हर उठती गिरती सांस के साथ विकराल रूप धारण करता जा रहा था. वह उस का विवेक निगलता जा रहा था.

राजन अकसर मां और बहन से छिप कर रंगीन पत्रिकाओं के पन्ने पलटा करता था. चिकनी नंगी टांगें और आकर्षक देह, सब कुछ तो है शीबा के पास. शीबा से मेरा खून का रिश्ता तो है नहीं. राजन के अंदर कुछ उफनने लगा. शरीर का सारा लहू निर्धारित दिशा की ओर प्रवाहित होने लगा.

 

राजन ने अपनेआप को संभालने के उद्देश्य से चारों ओर देखा. दूरदूर तक फैला

सन्नाटा, सड़क के दोनों ओर नींद के आगोश में ऊंची इमारतें और ठंडी हवा के  झोंके. बाइक के शीशे में राजन ने अपना चेहरा देखा. यह राजन नहीं कोई और था. शीशे में शीबा की हवा में उड़ती जुल्फें ऐसी दिख पड़ीं जैसे किसी नदी में बाढ़ आई हो. उस वेग में एक भाई, एक मुंहबोला बेटा, एक सहृदयी इंसान बहा जा रहा था.

फिल्मों में देखे प्रणय सीन, रंगीन पत्रिकाओं में देखे और पढ़े और दोस्तों द्वारा बताए गए अनुभवों से राजन के अंदर कुछ पा जाने की इच्छा बलवती होती जा रही थी.

राजन जैसे बाइक पर नहीं पशु जैसा पैरों पर चल रहा था. दबे पांव शिकार पर उछल कर दबोच लेने की चाह वाला. उस के मुंह से लार टपकने लगी. आंखों में खूंख्वार इरादे भाई राजन और इस राजन में जमीनआसमान का फर्क दिखा रहे थे. राजन ने निर्णय ले लिया कि शीबा पर मेरा अधिकार है. मैं मांबेटी को सहारा न देता तो अब तक ये इस महानगर में मिट चुकी होतीं. राजन जितना हो सका उतना शीबा से सट कर बैठ गया. उस के अंदर एक योजना काम करने लगी तो उस ने रास्ता बदल लिया.

शीबा ने महसूस किया कि यह रास्ता हमारे घर को नहीं जाता तो वह बहुत डर गई. मन ही मन खुद को कोसने लगी कि आखिर मैं ने इस प्रतियोगिता में भाग ही क्यों लिया? बाइक हवा से बातें कर रही थी. शीबा को कुछ नहीं सू झ रहा था.

शीबा ने आंखें मूंद कर सीट के पीछे की स्टील रौड को कस कर पकड़ लिया ताकि भैया से वह न टकराए. राजन आपा खो चुका था. गाड़ी की रफ्तार और तेज हो गई थी. राजन के दिल की धड़कनें राजन पर ही नहीं सारे माहौल पर हावी हो गई थीं. तेज रफ्तार से चलती बाइक आउट औफ कंट्रोल हो गई तो राजन सड़क पर गिर पड़ा और शीबा उछल गई.

फुटपाथ पर दिन में प्लास्टिक के सामान फैला कर बेचने वाला व्यापारी रात को सारे सामान समेट गठरी बांध उस गठरी के पास ही

सो रहा था. शीबा उस गठरी पर ही जा गिरी. व्यापारी घबरा कर उठ बैठा. राजन सड़क पर औंधा पड़ा हुआ था. बाइक के पीछे का चक्का अभी भी चल रहा था. शीबा को चोट नहीं लगी तो वह खड़ी हो गई.

व्यापारी सारी बातें सम झ, भाग कर गाड़ी बंद कर राजन की ओर लपका. राजन के सिर से खून रिस रहा था और वह बेहोश था. शीबा राजन को इस हाल में देख रो पड़ी और सहायता के लिए गुहार लगाने लगी. व्यापारी ने शीबा को पानी की बोतल ला कर दी. शीबा ने भैया का चेहरा धोया और अपना गाउन फाड़ उस की चोट पर पट्टी बांधी. व्यापारी टैक्सी बुला लाया. शीबा ने बाइक व्यापारी के हवाले कर, भैया को टैक्सी वाले और व्यापारी की सहायता से टैक्सी में लिटाया, ड्राइवर को घर का पता बताया और भैया के पास बैठ गई.

ठंडी हवा के  झोंकों से राजन को होश आ गया तो वह उठ कर बैठ गया. शीबा ने उसे पानी पिलाया, लेकिन वह अभी भी रो रही थी. राजन को अपने अंदर जागा जानवर याद आया तो वह पश्चात्ताप से भर गया पर शीबा को चुप कराने या आश्वस्त करने का साहस न जुटा पाया.

हालांकि रोती हुई शीबा राजन को फिर बच्ची सी नजर आ रही थी फिर भी उस के और शीबा के बीच थोड़ी देर मौन पसरा रहा. राजन ने शीबा की ओर ध्यान से देखा. शीबा के सिर पर ताज न था, उस का गाउन फटा हुआ था और केश बिखर गए थे.

दरअसल, शीबा जब गिरी थी तब उस का ताज टूट गया था. उस का गाउन फटा हुआ इसलिए था, क्योंकि उस ने गाउन फाड़ कर भैया को पट्टी जो बांधी थी. राजन के मन में शीबा के लिए फिर से वात्सल्य जाग उठा. उस ने मन ही मन कसम खाई कि आज के बाद ऐसा कभी नहीं होगा. शीबा मेरी बहन है और इस जन्म में बहन ही रहेगी.

राजन में असीम साहस का संचार हो गया. उस ने शीबा के सिर पर हाथ फेर कर पूछा, ‘‘शीबा, तुम्हारा ताज कहां है और तुम ने अपना गाउन क्यों फाड़ा?’’

शीबा ने उसे कुछ नहीं बताया. उस ने सिर्फ यही कहा, ‘‘भैया आप स्वस्थ हैं, इस से ज्यादा मु झे कुछ नहीं चाहिए.’’

वसीयत: भाग 1- भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

बचपन में मां कहा करती थीं कि बेटियों से डर नहीं लगता उन के साथ क्या होगा उस से डर लगता है. शायद ठीक ही कहती थीं. वृंदा को आज इस कहावत का अर्थ भलीभांति समझ आ गया है. मानो मां उस के भविष्य का लेखा पहचान गई थीं. इसीलिए यह कहावत दोहराती थीं. फिर 1 या 2 नहीं पूरी

3 बेटियां जो उतर आई थीं उन के आंगन में. इसीलिए मां को फिक्र होती कि कैसे होगी तीनों की परवरिश. पहले पढ़ाई फिर ब्याह? सब से छोटी मैं (वृंदा) थी.

मां को चिंतातुर देख पिताजी कहते, ‘‘क्यों बेकार में चिंता से गली जा रही हो. सब अपनीअपनी मेहनत ले कर आई हैं.’’

‘‘अजी, तुम्हें क्या पता जब मैं 4 औरतों के बीच बैठती हूं तो उन का पहला सवाल यही होता है कि कितने बच्चे हैं आप के? जब मैं कहती 4. 1 लड़का और 3 बेटियां तो सुनते ही सब के मुंह इस तरह खुले रह जाते मानो कोई अनचाहा जीव देख लिया हो. फिर उन की टिप्पणियां शुरू हो जातीं…

‘‘आज तो एक बच्चे को पालना ही कितना महंगा है उस पर 4-4 बच्चे. उन में भी 3 बेटियां, बहनजी कितनी टैंशन होती होगी न आप को…’’

‘‘उफ, तो यह टैंशन उन औरतों की हुई है तुम्हें… तुम बैठती ही क्यों हो ऐसी औरतों के बीच? अगर अब कुछ कहें तो कहना कि बहनजी हमारी बेटियां हैं. कैसे पालनी हैं हम देख लेंगे. आप टैंशन न लो.’’

पिताजी बड़े ही मजाकिया तरीके से मां को शांत कर देते. समय को देखते हुए शायद मां की चिंता भी जायज थी. दरअसल, कुल को रोशन करने वाला चिराग तो उन के घर में पहली बार में ही जल गया था, यह तो संयोग कहिए कि उस के बाद कृष्णा, मृदुला और फिर मैं एक के बाद एक

3 बेटियां आती चली गईं. पापा बिजली विभाग में अच्छे पद पर थे, इसलिए आर्थिक परेशानी न थी. मैं घर में सब से छोटी थी, इसलिए सब की लाडली थी. उसी लाड़प्यार ने मुझे कुछकुछ शरारती भी बना दिया था. किसी भी बात को ले कर जिद करना मैं अपना हक समझती. मेरी हर जिद पूरी भी कर दी जाती. यहां तक कि कभी दीदी और भैया की कोई चीज पसंद आती तो झट रोतेरोते मांपापा के पास पहुंच जाती कि मुझे वह दीदी वाला खिलौना चाहिए… वह भैया वाली कार दिलाओ न.

तब मां झंझट टालते हुए दीदीभैया से कहतीं, ‘‘अरे कृष्णा, मृदुला दे दो न बेटा… छोटी है यह. क्यों रुला रहा है अपनी छोटी बहन को… इतनी सी चीज नहीं दे सकता. कैसा भाई है…’’

पापा ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार हम सभी को कौन्वैंट स्कूलों में पढ़ाया. अमृत की व्यवसाय में रुचि थी, इसलिए एमबीए कर के उन्होंने अपना बिजनैस जमा लिया. दोनों बहनों ने भी अच्छी शिक्षा पाई. फिर पापा ने तीनों का विवाह भी अपनी हैसियत के अनुसार अच्छा घर देख कर कर दिया. बीच शहर में लंबाचौड़ा मकान भी बन गया. दोनों बहनें अपनीअपनी ससुराल चली गईं. रह गए घर में मैं, मांपापा और भैयाभाभी. हम बहनें पापा के बहुत करीब थीं. अपने मन की हर बात उन से शेयर करतीं, इसलिए दोनों बेटियों के जाने पर पापा उन्हें बहुत मिस करते. वे कहते कि अब वृंदा का ब्याह आराम से करूंगा… घर में जब तक अमृत के बच्चे भी हो जाएंगे.

एक दिन अचानक हमारी खुशियों पर उस समय ग्रहण लग गया जब एक सड़क हादसे में पापा हमें छोड़ कर चले गए. उन के जाने का सब से अधिक खमियाजा मां के बाद मुझे ही भुगतना पड़ा. सब का घरसंसार बस चुका था. मगर मेरे सपने तो अभी कुंआरे ही थे. अब कौन इतने अरमानों से मुझे डोली में बैठा कर बिदा करेगा? वक्त कैसे पल में करवट बदलता है, यह मैं ने पापा के जाने पर देखा. घर की सब से लाडली बेटी देखते ही देखते बोझ लगने लगी. शायद इसी को चक्रव्यूह कहते हैं. घर में सभी को मेरे ब्याह की चिंता सताने लगी.

चूंकि सारी व्यवस्था पापा ने पहले ही कर रखी थी, इसलिए आर्थिक रूप से कोई परेशानी न सही, मगर कुछ अरमान थे, जिन्हें दौलत के तराजु में नहीं तोला जा सकता. खैर, यहीं आ कर मानसिकता का रहस्य खुलता है कि हम न चाहते हुए भी घटनाओं का उलझना देखते रहते हैं, अनजान दिशा में बढ़ते चले जाते हैं.

व्यापार के सिलसिले में भैया का यहांवहां, आनाजाना लगा रहता था. वहीं उन की मुलाकात वरुण से हुई. भैया को वरुण होनहार, सज्जन और लायक लगे. उन के परिवार में मां के अलावा और कोई न था. इस से अच्छा रिश्ता कोई हो ही नहीं सकता… छोटा परिवार अपने में स्टैबलिश. हर मांबाप ऐसे रिश्ते को झपट कर हथिया लेते हैं. मां ने भी फौरन हां कर दी. मेरी जिम्मेदारी से मुक्ति पा कर मां तो मानो गंगाजी नहा गईं.

वरुण का अपना व्यापार था. उन के भी पिता नहीं थे. परिवार के इकलौते बेटे. मां और वे. कुल मिला कर हम 3 प्राणी थे. किसी प्रकार की कोई परेशानी न थी. अपनी मेहनत और लगन से वरुण ने व्यापार भी अच्छाखासा जमा लिया था. कालीन पर चलतेचलते सफर का अंदाजा ही नहीं हुआ कब 2 साल बीत गए. अब तो प्रियांश भी गोद में आ गया था.

मगर वक्त हर जख्म पर मरहम लगा देता है. पापा की स्मृतियां धीरेधीरे धूमिल होती जा रही थीं. वरुण के प्यार और प्रियांश की परवरिश में मैं ने खुद को पूरी तरह रमा दिया था. सब कुछ ठीक चल रहा था कि कुछ दिनों से वरुण पैरों में दर्द रहने की शिकायत करने लगे.

शुरू में सोचा काम की थकान की वजह से हो रहा होगा. वरुण ने घर बनाने के लिए बैंक से लोन ले रखा था. बस उस की पूर्ति के लिए रातदिन मेहनत करते. कुछ घरेलू उपचार किए, मालिश कराई, मगर दर्द था कि मिटने का नाम ही न लेता. वरुण दिनबदिन कमजोर होते जा रहे थे. न खाने में, न ही सोने में उन की रुचि रही. सारी रात पैरों की पीड़ा से कराहते.

सच, देखी नहीं जाती थी उन की यह तकलीफ. इन 4 महीनों में तोड़ कर रख दिया था इस दर्द ने उन्हें. वजन तेजी से घट रहा था. सिर के बाल तेजी से सफेद होने लगे. नींद पूरी न होने से चिड़चिड़े से हो गए थे. इन 4 महीनों के दर्द ने उन्हें 40 साल का सा लुक दे दिया था.

लौट जाओ सुमित्रा: भाग 2- उसे मुक्ति की चाह थी पर मुक्ति मिलती कहां है

कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के अंदर ही कहीं एक ज्वालामुखी धधक रहा था जिस की तपिश ठंड के वेग को छूने भी नहीं दे रही थी, लेकिन उस की देह को दग्ध रखा हुआ था.

सुमित्रा अपनी बात जारी रखे हुए थी, ‘‘पहले अपनेआप से ही संघर्ष किया जाता है, अपने को मथा जाता है और मैं तो इस हद तक अपने से लड़ी हूं कि टूट कर बिखरने की स्थिति में पहुंच गई हूं. सारे समीकरण ही गलत हैं. विकल्प नहीं था और हारने से पहले ही दिशा पाना चाहती थी, इसीलिए चली आई आप के पास. जब पांव के नीचे की सारी मिट्टी ही गीली पड़ जाए तो पुख्ता जमीन की तलाश अनिवार्य होती है न?’’ इस बार सुमित्रा ने प्रश्न किया था. आखिर क्यों नहीं समझ पा रहे हैं वे उस को?

‘‘ठीक कहती हो तुम, पर मिट्टी कोे ज्यादा गीला करने से पहले अनुमान लगाना तुम्हारा काम था कि कितना पानी चाहिए. फिर तलाश खुदबखुद बेमानी हो जाती है. हर क्रिया की कोई प्रतिक्रिया हो, यह निश्चित है. बस, अब की बार कोशिश करना कि मिट्टी न ज्यादा सख्त होने पाए और न ही ज्यादा नम. यही तो संतुलन है.’’

‘‘बहुत आसान है आप के लिए सब परिभाषित करना. लेकिन याद रहे कि संतुलन 2 पलड़ों से संभव है, एक से नहीं,’’ सुमित्रा के स्वर में तीव्रता थी और कटाक्ष भी. क्यों वे उस के सब्र का इम्तिहान ले रहे हैं.

‘‘ठीक कह रही हो, पर क्या तुम्हारा वाला पलड़ा संतुलित है? तुम्हारी नैराश्यपूर्ण बातें सुन कर लगता है कि तुम स्वयं स्थिर नहीं हो. लड़खड़ाहट तुम्हारे कदमों से दिख रही है, सच है न?’’

जब उत्साह खत्म हो जाता है तो परास्त होने का खयाल ही इंसान को निराश कर देता है. सुमित्रा को लग रहा था कि उस की व्यथा आज चरमसीमा पर पहुंच जाएगी. सभी के जीवन में ऐसे मोड़ आते हैं जब लगता है कि सब चुक गया है. पर संभलना जरूरी होता है, वरना प्रकृति क्रम में व्यवधान पड़ सकता है. टूटनाबिखरना…चक्र चलता रहता है. लेकिन यह सब इसलिए होता है ताकि हम फिर खड़े हो जाएं चुनौतियां का सामना करने के लिए, जुट जाएं जीवनरूपी नैया खेने के लिए.

‘‘कहना जितना सरल है, करना उतना सहज नहीं है,’’ सुमित्रा अड़ गई थी. वह किसी तरह परास्त नहीं होना चाहती थी. उसे लग रहा था कि वह बेकार ही यहां आई. कौन समझ पाया है किसी की पीड़ा.

‘‘मैं सब समझ रहा हूं पर जान लो कि संघर्ष कर के ही हम स्वयं को बिखरने से बचाते हैं. भर लो उल्लास, वही गतिशीलता है.’’

‘‘जब बातबात पर अपमान हो, छल हो, तब कैसी गतिशीलता,’’ आंखें लाल हो उठी थीं क्रोध से पर बेचैनी दिख रही थी.

‘‘मान, अपमान, छल सब बेकार की बातें हैं. इन के चक्कर में पड़ोगी तो हाथ कुछ नहीं आएगा. मन के द्वार खोलो. फिर कुंठा, भय, अज्ञानता सब बह जाएगी. सबकुछ साफ लगने लगेगा. बस, स्वयं को थोड़ा लचीला करना होगा.’’ बोलने वाले के स्वर में एक ओज था और चेहरे पर तेज भी. अनुभव का संकेत दे रहा था उन का हर कथन. बस, इसी जतन में वे लगे थे कि सुमित्रा समझ जाए.

रात का समय उन्हें बाध्य कर रहा था कि वे अपने ध्यान में प्रवेश करें पर सुमित्रा तो वहां से हिलना ही नहीं चाहती थी. चाहते तो उसे जाने के लिए कह सकते थे पर जिस मनोव्यथा से वह गुजर रही थी उस हालत में बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचे उसे जाने देना ठीक नहीं था. भटकता मन भ्रमित हो अपना अच्छाबुरा सोचना छोड़ देता है.

‘‘मैं अपने पति से प्यार नहीं करती,’’ सुमित्रा ने सब से छिपी परत आखिर उघाड़ ही दी. कब तक घुमाफिरा कर वह तर्कों में उलझती और उलझाती रहती.

‘‘यह कैसा भ्रम है सुमित्रा?’’ उन के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी.

‘‘यह कटु सत्य है,’’ उस की वाणी में तटस्थता थी. झिझक खुल जाना ही अहम होता है. फिर डर नहीं रहता.

‘‘कितने वर्ष हो गए हैं विवाह को?’’

‘‘यही कोई 12.’’

‘‘जिस इंसान के साथ तुम 12 वर्षों से रह रही हो, उस से प्यार नहीं करतीं. बात कुछ निरर्थक प्रतीत होती है?’’

‘‘यही सच है. मैं ने अपने पति से एक दिन भी प्यार नहीं किया. वास्तविकता तो यह है कि मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वे मेरे पति हैं. एक पत्नी होेने का स्वामित्व, अधिकार दिया ही कहां मुझे.’’ हर जगह एक तरलता व्याप्त हो गई थी.

‘‘यह क्या कह रही हो, पति का पति होना महसूस न हुआ हो. रिश्ते इतने क्षीण धागे से तो नहीं बंधे होते हैं. परस्परता तो साथ रहतेरहते भी आ जाती है. एहसासों की गंध तो इतनी तीव्र होती है कि मात्र स्पर्श से ही सर्वत्र फैल जाती है. तुम तो 12 वर्षों से साथ जी रही हो, पलपल का सान्निध्य, साहचर्य क्या निकटता नहीं उपजा सका? मुझे यह बात नहीं जंचती,’’ स्वर में रोष के साथ आश्चर्य भी था.

सुमित्रा पर गहरा रोष था कि क्यों न वह प्यार कर सकी और अपने ऊपर ग्लानि. अपनी शिष्या, जो बाल्यावस्था से ही उन की सब से स्नेही शिष्या रही है, को न समझ पाने की ग्लानि. कहां चूक हो गई उन से संस्कारों की धरोहर सौंपने में. उन्हें ज्यादा दुख तो इस बात का था कि अब तक वे उस के भीतर जमे लावे को देख नहीं पाए थे. कैसे गुरु हैं वे, अगर सुमित्रा आज भी गुफाओं के द्वार नहीं खोलती तो कभी भी वे उन अंधेरों को नहीं देख पाते.

‘‘आप को क्या, किसी को भी यह बात अजीब लग सकती है. सुखसंसाधनों से घिरी नारी क्योंकर ऐसा सोच सकती है. यही तो मानसिकता होती है सब की. असल में समृद्धि और ऐश्वर्य ऐसे छलावे हैं कि बाहर से देखने वालों की नजरें उन के भौतिक गुणों को ही देख पाती हैं, गहरे समुद्र में कितनी सीपियां घोंघों में बंद हैं, यह तो सोचना भी उन के लिए असंभव होता है.’’

‘‘मुझे लगता है कि सुमित्रा, तुम परिवार को दार्शनिकता के पलड़े में रख कर तोलती हो, तभी सामंजस्य की स्थिति से अवगत नहीं. सिर्फ कोरी भावुकता, निरे आदर्शों से परिवार नहीं चलता, न ही बनता है.’’

‘‘मैं किन्हीं आदर्शों या भावुकता के साथ घर नहीं चला रही हूं,’’ सुमित्रा भड़क उठी थी, ‘‘आप समझते क्यों नहीं, न जाने क्यों मान बैठे हैं कि मैं ही गलत हूं. जिस घर की आप बात कर रहे हैं, वह मुझे अपना लगता ही कहां है. आप ने उच्चशिक्षा के साथ पल्लू में यही बांधा कि पति का घर ही अपना होता है, लेकिन मैं तो अपनी मरजी से उस की एक ईंट भी इधरउधर नहीं कर सकती.’’

फफक उठी थी वह. रहस्यों को खोलना भी कितना पीड़ादायक होता है, अपनी ही हार को स्वीकार करना. 12 वर्षों से वह जिस तूफान को समेटे हुई थी यह सोच कर कि कभी तो उसे पत्नी होने का स्वामित्व मिलेगा, उसे आज यों बहती हवा के साथ निकल जाने दिया था. उपहास उड़ाएगा सारा संसार इस सत्य को जान कर जिसे उस ने बड़ी कुशलता से आवरणों की असंख्य तहों के नीचे छिपा कर रखा था ताकि कोई उस के घर की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश न करे.

सुमित्रा बोले जा रही थी, ‘‘मैं अपने मन के संवेगों को उन के साथ नहीं बांट सकती. शेयर करना भी कुछ होता है. बहुतकुछ अनकहा रह जाता है जो काई की तरह मेरे हृदय में जमा हुआ है. इतनी फिसलन हो गई है कि अब स्वयं से डरने लगी हूं कि कहीं पग धरते ही गिर न जाऊं.

‘‘पतिपत्नी का रिश्ता क्या ऐसा होता है जिस में भावनाओं को दबा कर रखना पड़ता है. मैं थक गई हूं. मेरा मन थक गया है. सब शून्य है, फिर कहां से जन्म लेगा प्यार का जज्बा?’’ सुमित्रा बेकाबू हो गई थी.

‘‘ऐसा भी तो हो सकता है कि वह तुम्हें बुद्धिजीवी मानने के कारण छोटीछोटी बातों से दूर रखना चाहता हो. तुम्हें ऊंचा मानता हो और तुम नाहक रिश्तों में काई जमा कर जी रही हो. तुम्हारे अध्ययन, तुम्हारे सार्थक विचारों से अभिभूत हो कर वह तुम्हारी इज्जत करता है और तुम ने नाहक ही थोथे अहं को पाल रखा है.’’ स्वर इतना संयमित था कि एकबारगी तो वह भी हिल गई. तटस्थता जबतब सहमा देती है.

लौट जाओ सुमित्रा: भाग 1- उसे मुक्ति की चाह थी पर मुक्ति मिलती कहां है

‘‘मैं मुक्ति चाहती हूं.’’

‘‘किस से?’’

‘‘सब से.’’

‘‘मनुष्यों से, अपने परिवेश से या भौतिक वस्तुओं से?’’

‘‘अपने परिवेश से, उस में रहने वाले लोगों से.’’

‘‘यानी सुखसुविधाएं नहीं छोड़ना चाहती, केवल लोगों का त्याग करना चाहती हो. इस के पीछे तुम्हारा क्या कोई खास मकसद है?’’

‘‘मैं उन्हें त्यागना नहीं चाहती. न इसे छोड़ना कह सकते हैं. केवल मुक्ति चाहती हूं ताकि छू सकूं, उन्मुक्त आकाश को.’’

‘‘इस के लिए किसी का त्याग करना आवश्यक नहीं है, साथ रहतेरहते भी खुली हवा को भीतर समेटा जा सकता है. कौन रोकता है तुम्हें आकाश छूने से. शायद तुम्हारी सोच में ही जंग लग गया है या तुम मुक्ति की परिभाषा से अपरिचित हो.’’

‘‘नहीं, यह सच नहीं है. उन्मुक्त आकाश को छूने के लिए अपने ही पैरों की जरूरत होती है, किसी सहारे या बैसाखी की नहीं. इसलिए मुझे मुक्ति चाहिए. संबंधों की तटस्थता या घुटन नहीं.’’

‘‘यह तो पलायन होगा.’’

‘‘हां, हो भी सकता है, और नहीं भी.’’

‘‘यानी?’’

‘‘मुक्ति मार्ग भी तो है, दिशा भी तो है. फिर पलायन कैसा?’’ निस्पृहता का गुंजन उस की आवाज में निहित था.

‘‘फिर घरपरिवार, पति, बच्चे, समाज का क्या होगा, उन के प्रति क्या तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है?’’

‘‘जिम्मेदारी अशक्त व बेसहारों की होती है. वे सक्षम हैं, अपनी जरूरतें स्वयं पूरी कर सकते हैं.’’

‘‘क्या तुम्हें उन की जरूरत नहीं?’’

‘‘कभी महसूस होती थी, पर अब नहीं. सब अपनाअपना जीवन जीना चाहते थे. कोई अतिक्रमण, न व्यवधान अपेक्षित है. फिर निरर्थक ही क्यों अपनी उपस्थिति को ले कर जीऊं.’’

‘‘निरर्थकता कैसी, जगह स्थापित करनी पड़ती है, अपनी उपस्थिति का बोध कराना पड़ता है, वही तो संबल होती है. पलायन करने से क्या निरर्थकता का बोध कम हो जाएगा? नहीं, बल्कि और बढ़ेगा ही. पीछे भागने के बजाय अपने को पुख्ता कर सब में आत्मविश्वास बांटो, फिर देखना तुम कैसे महत्त्वपूर्ण हो जाओगी.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होता. यह मात्र स्वयं को छलने का प्रयास है. अपने ही अस्तित्व का बोध कराने के लिए अगर संघर्ष करना पड़े तो उस की क्या महत्ता रह जाएगी.’’

‘‘यह छल नहीं है, बल्कि तुम्हारे भीतर का कोई भटकाव है वरना जीवन के प्रति इतनी घोर निराशा संभव नहीं है. क्या पाना चाहती हो?’’ प्रश्नकर्ता विचलित मन को भांप गया था. विचलित मन में ही ऐसे निरर्थक, दिशाहीन भावों का वास होता है. उफनती लहरें ही उद्वेग का प्रतीक होती हैं. जब तक इन में कोई कंकड़ न फेंके या तूफान न आए, वे शांत बनी रहती हैं.

‘‘मैं ने कहा न, मुझे मुक्ति चाहिए अपनेआप से.’’

‘‘वह तो मृत्यु पर ही संभव है.’’

‘‘फिर?’’

प्रश्नदरप्रश्न, वरना समाधान कैसे संभव होगा. भीतर तक टटोलना हो तो शब्दों से भेदना अनिवार्य होता है. संवादहीनता की स्थिति जड़ बना देती है, भटकाव बढ़ता जाता है. मन के भीतरबाहर न जाने कितनी गुफाएं होती हैं, सब के अंधेरे चीर कर वहां तक रोशनी पहुंचाना तो संभव नहीं. लेकिन जब निश्चित कर लिया है कि दिशाभ्रमित इंसान को राह सुझानी है तो फिर पीछे क्या हटना.

‘‘यानी एक अंतहीन दौड़ पर निकलना चाहती हो? रुकोगी कहां, कुछ निश्चित किया है?’’

‘‘दौड़ कैसी, यह तो विराम होगा. उस के लिए कुछ भी निश्चित करना अनिवार्य नहीं है.’’

‘‘नहीं, तुम भ्रमित हो, अपने को तोड़मरोड़ कर अपनी जिम्मेदारियों से भाग कर तुम विराम की घोषणा कर रही हो? दौड़ तो इस के बाद ही यात्रा है- दिशाहीन, उद्देश्यहीन दौड़. घरपरिवार, समाज, नातेरिश्तों को तोड़ कर आखिर किस की खातिर जीना चाहती हो? अपनी?’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, अपने से मोह कतई नहीं है. मैं तो मर जाना चाहती हूं.’’

‘‘यानी फिर पलायन? डर कर, घबरा कर भागना ही पलायन है. मुक्ति तो उद्देश्यों की पूर्ति से मिलती है. पहले अपने मन को शांत व नियंत्रित करो.’’

‘‘लेकिन?’’

विस्मित है वह कैसे समझाए कि मन के उद्वेग तो कब के कुचले पड़े हैं. मन को नियंत्रित करतेकरते ही तो घबरा गई है वह. कुचली हुई भावनाएं सिर उठाने लगी हैं, तभी तो वह परेशान है. चली जाना चाहती है सारी उलझनों से बच कर. जब पाने की राह अवरुद्ध हो तो खोने की राह तलाशने में कैसी झिझक.

‘‘उत्तर तुम्हें स्वयं ही ढूंढ़ना होगा. खुद को इस तरह समेटने का अर्थ है स्वयं को आत्मकेंद्रित करना.’’

‘‘उत्तर मिलता तो यों नैराश्य न आ जकड़ती. जड़ता सहभागिता न होने लगती. अपने को झिंझोड़ कर थक गई हूं.’’ स्वर भीग गया था जैसे बड़े जतन से संभाला रुदन बहने को आतुर है.

कब तक कोई बांध सकता है संवेगों को. ज्वालामुखी तक फट जाता है, तब मानवीय संवेदना तो उस के सामने बहुत क्षीण है. वह तो जरा से दुख से ही भरभरा कर ढहने लगती है.

‘‘लौट जाओ सुमित्रा. जाओ और खोजो उस उत्तर को वह तुम्हारे भीतर ही मिलेगा लेकिन अपने अंतर्द्वद्वों से लड़ना होगा. अपने मनोभावों से तुम्हें संघर्ष करना होगा. उस के लिए अपने परिवेश में लौटना अत्यंत आवश्यक है. सब से जुड़ कर ही तलाश संभव है, एकांत में तुम किस जिजीविषा को शांत करने निकली हो?’’

धीरेधीरे शाम होने लगी थी. हवा के झोंके सुखद एहसास से भर रहे थे. पक्षी भी अपने घोंसलों में लौटने को तैयार थे. बीतता हर पल अपने साथ सब को घरों में लौटा रहा था. संध्या की बेला भी अजीब है. पहरेदार की तरह आ खड़ी होती है सब को भीतर खदड़ने के लिए. कोई चतुराई दिखा उसे धोखा देने का प्रयत्न करता है तो वह रात को बिखरा देती है. अंधेरे से भला किसे डर नहीं लगता. सारे प्रपंच धरे रह जाते हैं और हर ओर सन्नाटा फैल जाता है. भयानक खामोशी के आगे सारी चहलपहल ध्वस्त हो जाती है.

लेकिन सुमित्रा क्यों नहीं लौट पा रही है? क्या उसे सन्नाटे से भय नहीं लगता या उस के भीतर और गहरा सन्नाटा है जो व्याप्त खामोशी को चोट देने को आकुल है, तभी तो शायद वह निकली है उस अनदेखी, अनजानी मुक्ति की तलाश में जिस का ओरछोर स्वयं उसे मालूम नहीं है.

घोर पीड़ा का उद्भव सदा एक रहस्य ही रहा है. अनुभूति तो स्पष्ट होती है क्योंकि वह भीतरबाहर सब जगह बजती रहती है किसी दुखद आवाज की तरह, किंतु उस के अंकुर के फूटने का आभास तभी हो सकता है जब हम सतर्क हों. पीड़ा सामान्य स्थिति की द्योतक नहीं है, वही तो है जो सारी विमुखता प्रियजनों से विमुखता, अपने कर्मकर्तव्यों से विमुखता, की उत्तरदायी है.

‘‘मैं लौटना नहीं चाहती. अगर ऐसा होता तो निकलती ही क्यों. मैं ने बहुत चाहा कि अपने भीतर के कोलाहल को हृदय के कपाटों से बंद कर दूं पर शायद कमजोर थी, इसलिए ऐसा न कर सकी. तभी तो फट पड़ा है कोलाहल. अब कैसे शांत करूं उसे? कोई रास्ता नहीं दिखा, तभी तो भागी चली आई मुक्ति की तलाश में.’’

‘‘पलायन कौन से कोलाहल को शांत कर सकता है, बल्कि और हलचल ही मचा देता है. कोरी शून्यता है जो तुम्हें लगता है कि भर जाएगी. रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी? इस पूर्णता की प्राप्ति के लिए तुम कहां भागोगी? कोई दिशा निर्धारित की है क्या तुम ने?’’

‘‘मुझे कुछ सुझाई नहीं दे रहा है. अगर रोशनी की हलकी सी कौंध भी देख पाती तो यों आप के पास दौड़ी चली नहीं आती उत्तर पाने, समाधान ढूंढ़ने.’’

सुमित्रा की कातरता बढ़ती ही जा रही थी और रात की नीरवता भी.

संध्या तक जो हवा कोमल लग रही थी वही अब कंपकंपाने लगी थी. फरवरी की शामें चाहे गुनगुनी हों पर रातें अभी भी ठंडी थीं. रात का मौन और नींदों में प्रवेश होने के बाद बंद कपाटों से उत्पन्न सन्नाटा लीलने को आतुर था. कभीकभी कोलाहल से त्रस्त हो इंसान सिर्फ सन्नाटे की अपेक्षा करता है, उसे ढूंढ़ने के लिए स्थान खोजता है और कभी वही सन्नाटा उसे खंजर से भी अधिक नुकीला महसूस होता है. तब वही आतुर निगाहों से अपने आसपास किसी को देखने की चाह करने लगता है.

सुमित्रा क्या इन दोनों ही स्थितियों से परे है या फिर वह अनजान बन रही है ताकि किसी तरह कमजोर या लक्ष्यहीन न महसूस करे. तभी अपने आसपास के वातावरण के प्रति कितनी तटस्थ लग रही है. इसीलिए तो मात्र एक साड़ी में लिपटे होने पर भी ठंड उसे कंपा नहीं रही थी.

सही राह: भाग 3- नीरज को अपनी भूल का एहसास क्यों हुआ

मां की छाती से लगने के बजाय संगीता ने अपनी मां को नाराजगी भरे अंदाज में घूरते हुए पूछा, ‘‘मु  झे यह बताओ कि तुम इन पर गुस्सा हो रही हो या मेरी कमियां मु  झे गिनाए जा रही हो?’’

‘‘मैं तो तुम दोनों के नासम  झी भरे व्यवहार से दुखी हूं. मु  झे तो तेरी घरगृहस्थी टूट कर बिखरती दिखाई दे रही है, मेरी बच्ची. तलाकशुदा औरत की हमारे समाज में बहुत दुर्गति होती…’’

‘‘अब बस करो, मां,’’ संगीता चीख उठी.

मीनाजी के ऊपर उस के चिल्लाने का कोई असर नहीं हुआ. वे नीरज और संगीता दोनों के खिलाफ अपना गुस्सा और नाराजगी जाहिर करती ही जा रही थीं.

‘‘मां, अब मेरी जान बख्श दो. मैं कल सुबह… नहीं आज शाम से ही घूमना और व्यायाम करना शुरू कर दूंगी. मेरी तरफ से तुम्हें अब यह शिकायत नहीं रहेगी,’’ अपनी मां को यों संतुष्ट कर खामोश करने का यही एक रास्ता संगीता की सम  झ में आया था.

‘‘मैं संगीता को धोखा देने की बात सपने में भी कभी नहीं सोचूंगा, सासूमां. आप हमें कुछ वक्त दें और हम दोनों आप को अपने आपसी संबंध हर तरह से बेहतर कर के दिखाएंगे,’’ नीरज ने भी जब यह आश्वासन मीनाजी को दिया तो वे शांत होती नजर आने लगीं.

मीनाजी कुछ देर को आराम करने दूसरे कमरे में चली गईं तो संगीता ने अपने मन की उल  झन नीरज के सामने व्यक्त की, ‘‘मु  झे तो मां का व्यवहार आज बिलकुल सम  झ नहीं आया है. इस रितु का कोई संदेश आज तक मेरी पकड़ में क्यों नहीं आया है?’’

‘‘क्योंकि रितु का मेरी जिंदगी में कोई वजूद है ही नहीं, स्वीटहार्ट. क्या तुम ने मु  झे कभी किसी दूसरी औरत पर लाइन मारते पकड़ा है?’’ संगीता के मन से शक दूर करने का ऐसा मौका पा कर नीरज ने जोशीले अंदाज में दलील दी.

‘‘नहीं, पर फिर यह सवाल उठता है कि आज मां ने सारा बखेड़ा क्यों खड़ा

किया है? वे बेवकूफ या पागल नहीं हैं.’’

‘‘किसी न किसी दिन वे असली बात हमें बताएंगी ही, जानेमन. फिलहाल तुम मेरी वफा पर अविश्वास करने का बीज अपने मन में बिलकुल न पनपने देगा.’’

‘‘मैं क्या बहुत बेडौल लगती हूं?’’ संगीता ने चिंतित लहजे में अचानक पूछा.

‘‘मु  झे तो नहीं लगती हो पर कुछ वजन तो तुम्हें कम कर ही लेना चाहिए, जानेमन.’’

‘‘मां ठीक ही कह रही थीं. हमारी विवाहित जिंदगी में रोमांस सचमुच बहुत कम हो गया है. मुझे इस बारे में कुछ करना है.’’

‘‘मु  झे भी.’’

‘‘लेकिन किसी रितु के चक्कर में फंस कर नहीं.’’

‘‘कभी नहीं,’’ नीरज ने आगे बढ़ कर संगीता का माथा चूम लिया.

‘‘पता नहीं मां ने आज रितुरितु का शोर क्यों मचाया. वे मु  झे सीधेसीधे भी तो सारी बात सम  झा सकती थीं,’’ संगीता के माथे पर फिर से उल  झन दर्शाने वाले बल पड़ गए.

‘‘यह बात मेरी भी सम  झ में नहीं आ रही है,’’ नीरज ने लापरवाह लहजे में जवाब दिया.

‘‘खैर, सासूमां हम दोनों को जो सम  झाना चाह रही थीं वह हमारी सम  झ में आ गया है. हम अपने संबंधों में सुधार लाएंगे.’’

‘‘श्योर,’’ कह संगीता नीरज के गले लग गई.

लेकिन नीरज को मन ही मन अंदाजा हो गया था कि उस की सास ने सारा बवाल मचाने को रितु नाम की उस की काल्पनिक प्रेमिका क्यों पैदा की थी.

पिछले रविवार को वह अपनी ससुराल गया था. वहां उस ने अपनी साली कविता के साथ हंसीमजाक करते हुए अचानक उस का हाथ चूम लिया था.

कविता के साथ उस के संबंध हमेशा से ही बहुत मधुर रहे थे, लेकिन पिछले कुछ समय से वह उसे बहुत ज्यादा हसीन और आकर्षक लगने लगी थी. उसे ले कर उस का मन रंगीन, रोमांटिक सपने देखने लगा था.

नीरज को लगा था कि हमेशा उस के साथ खुल कर हंसनेबोलने वाली कविता भी उसे चाहने लगी है. तभी उस ने उस का हाथ चूमने का दुस्साहस किया था.

लेकिन उस की चुलबुली साली उस के साथ गलत तरह के संबंध बनाने की इच्छुक नहीं है, इस का एहसास उसे अब हो गया था. कविता ने सारी बात अपनी मां से कह दी होगी, यह वह अब सम  झ सकता था.

उस की सासूमां ने उसे सही राह दिखाने के लिए उस की काल्पनिक प्रेमिका रितु को पैदा किया था. घर में जबरदस्त हलचल मचा कर उन्होंने उसे परेशान करने के साथसाथ अपनी बेटी को भी बहुत सी महत्त्वपूर्ण बातें लगे हाथ सम  झा दी थीं.

कविता के हाथ को चूमने की हरकत उस की सासूमां को अब पता है, यह विचार नीरज को मन ही मन बहुत परेशान व शर्मिंदा कर रहा था.

मैं कविता से माफी मांगूंगा, ऐसा फैसला मन ही मन कर नीरज ने कुछ राहत महसूस की. संगीता को कुछ न बताने के लिए उस ने अपनी सम  झदार सासूमां को भी मन ही मन धन्यवाद कहा.

‘आई लव यू,’ कह संगीता के माथे को एक बार ओर प्यार से चूमते हुए अपनी जीवनसंगिनी के साथ प्यार की जड़ें मजबूत करने का पक्का इरादा मन में कर लिया.

सही राह: भाग 2- नीरज को अपनी भूल का एहसास क्यों हुआ

नीरज को फिर   झटके से खामोश होना पड़ा, क्योंकि गुस्से से भरी संगीता उठ कर शयनकक्ष की तरफ चल पड़ी थी.

‘‘तुम कहां जा रही हो?’’ नीरज के इस सवाल का उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘वह फिल्म के टिकट ढूंढ़ने गई है, दामादजी. कहां रखा है तुम ने उन्हें? अपने पर्स

में या ब्रीफकेस में?’’ मीनाजी ने शरारती लहजे में पूछा.

नीरज  झल्ला उठा, बोला, ‘‘टिकट वहीं होंगे जहां उन्हें आप ने रखा होगा,

सासूमां. कम से कम मु  झे तो बता दो कि मु  झे फंसाने वाला यह सारा नाटक आप किसलिए…’’

‘‘मैं कोई नाटक नहीं कर रही हूं, दामादजी. अपनी बेटी की विवाहित जिंदगी की खुशियों और सुरक्षा को कौन मां सुनिश्चित नहीं करना चाहेगी? मैं तुम से पूछती हूं कि तुम मेरी बेटी को क्यों धोखा दे रहे हो?’’

‘‘पर सासूमां, मैं सचमुच किसी रितु को नहीं जानता…’’ नीरज को फिर   झटके से खामोश होना पड़ा, क्योंकि बहुत गुस्से में नजर आ रही संगीता हाथ में फिल्म के 2 टिकट लिए ड्राइंगरूम में लौट आई थी.

‘‘अब तो सच बोल ही डालो, दामादजी. गलतियां इंसान से ही होती हैं, पर तुम अगर दिल से माफी मांगोगे तो संगीता तुम्हें जरूर माफ कर देगी,’’ मीनाजी के इस डायलौग को सुन नीरज का मन किया कि वह अपने बाल नोच डाले.

‘‘तुम्हारी मम्मी न जाने किस बात का बदला मु  झ से ले रही हैं, जानेमन…’’

‘‘मु  झे जानेमन मत कहो,’’ संगीता इतनी जोर से चिल्लाई कि नीरज चौंक पड़ा.

‘‘सासूमां, प्लीज मु  झे अपनी बेटी के कहर से बचाओ,’’ नीरज ने फिर मीनाजी के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘तुम जो मेरी बेटी को धोखा दे रहे हो, वह बहुत गलत बात है, दामादजी. तुम्हारे साथ मेरे संबंध हमेशा बहुत अच्छे रहे हैं. मैं तुम्हें अपना बेटा ही मानती हूं, लेकिन इस मामले में मैं असलियत छिपा कर तुम्हारा साथ बिलकुल नहीं दूंगी,’’ मीनाजी भी अचानक नीरज से खफा नजर आने लगी थीं.

‘‘नीरज, तुम इसी वक्त मु  झे सचाई बता दो, वरना मैं कभी न लौट कर आने के लिए मायके जा रही हूं.’’

संगीता की इस धमकी को सुन नीरज के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी. बोला, ‘‘तुम पागल हो गई हो क्या? क्या मैं ने आज तक कभी

तुम्हें इस तरह की शिकायत का मौका दिया है? मेरी जिंदगी में तुम्हारे अलावा कोई दूसरी औरत नहीं है.’’

संगीता रोने लगी तो मीनाजी ने उसे अपनी छाती से लगा कर प्यार करना शुरू कर दिया. साथ ही वे नीरज को गुस्से से घूर भी रही थीं.

‘‘मैं अभी इस रितु से तुम्हारी बात करा कर सारा मामला साफ करा देता हूं,’’ कह कर नीरज ने तुरंत अपने फोन से रितु का नंबर मिलाया.

रितु का फोन स्विच औफ मिला तो उस की आंखों में परेशानी के भाव बढ़ते चले गए.

‘‘मर्दों की जात पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता है, मेरी गुडि़या. तू बेकार आंसू बहा रही है. बेटी, अब तो तू ऐसे बेवफा इंसान के साथ जिंदगी गुजारने की आदत डाल ले,’’ मीनाजी ने अपनी बेटी को यों सम  झाना शुरू किया तो नीरज की आंखें गुस्से से लाल हो उठीं.

‘‘अगर ये मु  झे धोखा दे रहे होंगे तो मैं इस घर में नहीं रहूंगी, मम्मी,’’ संगीता ने सुबकते हुए अपना फैसला सुना दिया.

‘‘अगर तू तलाक लेने का फैसला करती है तो मैं तेरा साथ दूंगी, मेरी बच्ची.’’

‘‘तुम्हें यह कैसी उलटी पट्टी पढ़ा रही हैं तुम्हारी मम्मी? कोई भी सम  झदार मां बिना कोई छानबीन किए अपनी बेटी को तलाक लेने की सलाह कैसे दे सकती है, संगीता?’’ नीरज के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि मीनाजी की भड़काऊ बातों से उस के दिल को जबरदस्त धक्का लगा है.

‘‘मेरी बेटी को मेरे खिलाफ भड़काने की कोशिश बेकार जाएगी, दामादजी,’’ मीनाजी गुस्से से भर उठीं, ‘‘तुम्हारी बेवफाई ने इस वक्त तुम्हें कठघरे में खड़ा किया हुआ है, मु  झे नहीं. क्यों धोखा दे रहे हो तुम मेरी बेटी को? क्या शिकायत है तुम्हें इस से?’’

‘‘मु  झे कोई शिकायत नहीं है तुम से, संगीता. तुम अपनी मम्मी के भड़काने में मत आओ, प्लीज,’’ अपनी सास से उल  झने के बजाय नीरज ने अपनी पत्नी को सम  झषना बेहतर सम  झा.

‘‘अगर तुम्हें इस से कोई शिकायत नहीं है तो फिर इस रितु के साथ इश्क क्यों फरमा रहे हो? अरे, क्या यह तुम्हारी घरगृहस्थी को ढंग से नहीं संभाल रही है?’’

‘‘बिलकुल संभाल रही है और मैं ने कभी कोई शिकायत…’’

‘‘यह हो सकता है कि अब राहुल की देखभाल के चक्कर में उल  झे रहने के कारण यह तुम्हारे लिए ज्यादा वक्त न निकाल पाती हो पर क्या ऐसा होना स्वाभाविक नहीं है?’’

‘‘मैं ने यह कभी नहीं कहा कि इसे राहुल की देखभाल पर कम ध्यान देना चाहिए.’’

‘‘क्या यह रितु बहुत सुंदर है?’’ नीरज के जवाब को अनसुना कर मीनाजी ने

आक्रामक लहजे में अगला सवाल पूछ डाला.

‘‘मु  झे क्या पता? मैं जब उसे जानता

ही नहीं…’’

‘‘अब इतना ज्यादा सीधा दिखने की कोशिश भी मत करो. क्या वह कुंआरी है?’’

‘‘यह मैं कैसे बता…’’

‘‘वह जरूर कुंआरी होगी. लेकिन मैं एक सवाल पूछती हूं तुम से, दामादजी. भला 1 बच्चे की मां बन चुकी संगीता का रंगरूप किसी कुंआरी लड़की जैसा कैसे हो सकता है? तुम इस की तुलना उस कुंआरी रितु के साथ कर इसे धोखा कैसे दे सकते हो?’’

‘‘मैं ने कब की तुलना?’’ नीरज ने गुस्से से पूछा.

‘‘अरे, बच्चे को जन्म देने के बाद औरत का फिगर खराब हो ही जाता है. संगीता भी मोटी हो गई है, लेकिन उस का चेहरा तो पहले जैसा सुंदर है या नहीं?’’

‘‘मुझे उस के मोटा हो जाने से कोई शिकायत नहीं…’’

‘‘तुम्हें कोई शिकायत इसलिए नहीं है, क्योंकि तुम इस रितु के साथ मौजमस्ती कर रहे हो. तुम्हें पिता बनने का सुख दिया है मेरी बेटी ने और तुम बदले में उसे धोखा दे रहे हो. इस रितु के पीछे लार टपकाते घूम रहे हो छि:…’’

‘‘मैं किसी के पीछे लार टपकाते…’’

‘‘मुझ से  झूठ मत बोलो. यह तो तुम से

हुआ नहीं कि संगीता को फिट और आकर्षक बनाने के लिए उस के साथ रोज घूमने जाओ.

उसे जिम जाने के लिए प्रेरित करो. डाइटिंग

करने के लिए उस का हौसला बढ़ाओ. लेकिन तुम ने…’’

‘‘मैं ने हजारों बार संगीत को यह सलाह दी होगी, सासूमां, लेकिन मैं इसे कोई धोखा…’’

‘‘इस के साथ तुम्हारा रूखा व्यवहार बताता है कि तुम इसे धोखा दे रहे हो, दामादजी. तुम ने क्यों इस की सारी सेवाओं को भुला दिया? इस के बेडौल शरीर के अंदर धड़कता प्यार करने वाला दिल तुम्हें दिखना क्यों बंद हो गया है?’’ बहुत भावुक हो जाने से मीनाजी का गला रुंध गया.

‘‘अब मैं आप को कैसे विश्वास दिलाऊं कि संगीता को मैं अभी भी बहुत प्यार करता हूं और मेरी जिंदगी में कोई दूसरी औरत नहीं है,’’ नीरज बहुत परेशान नजर आने लगा.

‘‘इस मैसेज और इन टिकटों को देख कर हम कैसे तुम पर विश्वास करें? खुद भटकने के बजाय अगर तुम मेरी इस कमअक्ल बेटी को प्यार से सम  झाते तो क्या यह तुम्हारे साथ बिताने के लिए ज्यादा वक्त न निकालने लगती? तुम इस का हौसला बढ़ाते तो क्या यह आज यों मोटी भैंस सी नजर आने के बजाय पतली और आकर्षक न दिख रही होती? इस जवान, कुंआरी और खूबसूरत रितु के साथ चक्कर चलाने से पहले तुम्हें इस बेवकूफ को यों बेडौल हो जाने व मां और पत्नी की जिम्मेदारियों के बीच संतुलन न बैठाने के खतरे बड़े धैर्य के साथ सम  झाने चाहिए थे या नहीं?’’

‘‘ऐसा कुछ सम  झाने की कोशिश मैं ने की…’’

‘‘तुम ने सही ढंग से सम  झाने की कोशिश करने के बजाय इसे धोखा दिया है, दामादजी. लेकिन तुम मेरी एक चेतावनी कान खोल कर सुन लो. अगर तुम ने फौरन इस रितु से अपना चक्कर हमेशा के लिए खत्म नहीं किया तो मेरी बेटी तुम्हारे साथ रहने के बजाय तलाकशुदा स्त्री होने का ठप्पा अपने माथे पर लगवाना ज्यादा पसंद करेगी… उसे राहुल को बिना पिता के पालना मंजूर होगा… वह दुनिया की नजरों में दया और हंसी का पात्र बनना स्वीकार कर लेगी पर तुम जैसे धोखेबाज के साथ बिलकुल नहीं रहेगी,’’ ऐसी धमकियां देने के बाद गुस्से से भरी मीनाजी ने अपनी बेटी को छाती से लगाने के लिए अपने हाथ फैला दिए.

नींव: अंजु ने ऐसा क्या किया कि संजीव खुश हो गया?

उसदिन करीब 8 साल के बाद मानसी को एक हेयर सैलून से बाहर आते देखा तो आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. कालेज के दिनों में वह कभी मेरी बहुत अच्छी दोस्त हुआ करती थी. फिर वह एमबीए करने मुंबई चली गई और हमारे बीच संपर्क कम होतेहोते समाप्त हो गया था.

मैं मुसकराता उस के सामने पहुंचा तो उस ने भी मुझे फौरन पहचान लिया. हम ने बड़े अपनेपन के साथ हाथ मिलाया और हंसतेमुसकराते एकदूसरे के बारे में जानकारी का आदानप्रदान करने लगे.

‘‘तुम यहां दिल्ली में कैसे नजर आ रही हो?’’

‘‘मेरे पति को यहां नई जौब मिली है.’’

‘‘क्या पति को घर छोड़ कर केश कटवाने आई हो?’’

‘‘नहीं भई. वे मुझे यहां छोड़ कर किसी दोस्त से मिलने गए हैं. बस, अब लेने आते ही होंगे. तुम बताओ जिंदगी कैसी गुजर रही है?’’

‘‘ठीकठीक सी गुजर रही है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी क्या करती है?’’

‘‘अंजु नौकरी करती है.’’

‘‘तुम तो कहा करते थे कि पत्नी को सिर्फ घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां संभालनी चाहिए. फिर अंजु को नौकरी कैसे करा रहे हो?’’ उस ने हंसते हुए पूछा.

‘‘मैं तो अभी भी यही चाहता हूं कि अंजु घर में रहे पर आज की महंगाई में डबल इनकम का होना जरूरी है.’’

‘‘बच्चे कितने बडे़ हो रहे हैं?’’

‘‘हमारा 1 बेटा है समीर, जो पिछले महीने 6 साल का हुआ है.’’

‘‘उस के लिए भाई या बहन अभी तक क्यों नहीं लाए हो?’’

‘‘अरे, दूसरे बच्चे की बात ही मत छेड़ो. आजकल 1 बच्चे को ही ढंग से पालना आसान नहीं है. तुम अपने बारे में बताओ.’’

‘‘मैं तो कोई जौब नहीं करती हूं. पति सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. 3 साल अहमदाबाद में रहे. अब यहां दिल्ली की एक कंपनी में जौब शुरू करने के कारण 2 महीने पहले यहां आए हैं. अभी तक मन नहीं लग रहा था पर अब तुम मिल गए हो तो अकेलेपन का एहसास कम हो ही जाएगा. कब मिलवा रहे हो अंजु और समीर से, संजीव?’’

‘‘बहुत जल्दी मिलने का कार्यक्रम बना लेते हैं. तुम ने अपने बच्चों के बारे में तो कुछ बताया नहीं,’’ मैं ने जानबूझ कर विषय बदल दिया.

‘‘मेरी 2 बेटियां हैं – श्वेता और शिखा. श्वेता स्कूल जाती है और शिखा अभी 2 साल की है.’’

‘‘बहुत अच्छा मैंटेन किया हुआ है तुम ने खुद को. कोई देख कर कह नहीं सकता कि तुम 2 बेटियों की मम्मी हो.’’

‘‘थैंकयू, मैं नियम से डांस करती हूं. कोई टैंशन नहीं है, इसलिए स्वास्थ्य ठीक चल रहा है,’’ मेरे मुंह से अपनी प्रशंसा सुन वह खुश हो कर बोली, ‘‘वैसे तुम भी बहुत जंच रहे हो. तुम्हें देख कर कोई भी कह सकता है कि तुम ने जिंदगी में अच्छी तरक्की की है.’’

‘‘थैंकयू, ये शायद तुम्हारे पति ही हमारी तरफ आ रहे हैं,’’ अपनी तरफ एक ऊंचे कद व आकर्षक व्यक्तित्व वाले पुरुष को आते देख कर मैं ने कहा.

आत्मविश्वास से भरा वह व्यक्ति मानसी का पति रोहित ही निकला. उस ने रोहित से मेरा परिचय कालेज के बहुत अच्छे दोस्त के रूप में कराया.

रोहित ने बड़ी गर्मजोशी के साथ मुझ से हाथ मिलाया. फिर हम दोनों एकदूसरे के काम के विषय में बातें करने लगे.

मानसी अब चुप रह कर हमारी बातें सुन रही थी.

करीब 15 मिनट बातें करने के बाद रोहित ने विदा लेने को अपना हाथ आगे बढ़ा दिया और बोला, ‘‘संजीव, तुम्हें अपनी वाइफ और बेटे के साथ हमारे घर बहुत जल्दी आना ही है. मानसी को अपने शहर में बोर मत होने देना.’’

‘‘हम बहुत जल्दी मिलते हैं,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘अपना मोबाइल नंबर तो दो, नहीं तो एकदूसरे के संपर्क में कैसे रहेेंगे?’’ मानसी को याद आया तो हम ने एकदूसरे के मोबाइल नंबर ले लिया.

वे दोनों अपनी कार में बैठे और हाथ हिलाते हुए मेरी आंखों से ओझल हो गए.

मैं ने डिपार्टमैंटल स्टोर से घर का सामान खरीदा और अपनी 2 साल पुरानी कार से घर आ गया.

‘‘आप कहां अटक गए थे? मुझे मशीन लगानी थी पर बिना वाशिंग पाउडर के कैसे लगाती?’’ अंजु मुझे देखते ही नाराज हो उठी.

‘‘मशीन अब लगा लो. खाना देर से खा लेंगे,’’ मैं ने उसे शांत करने के लिए धीमी आवाज में जवाब दिया.

‘‘कितनी आसानी से कह दिया कि मशीन अब लगा लो. मैं नहा चुकी हूं और समीर को तो सही वक्त पर खाना चाहिए ही न. अब खाना बनाऊं या मशीन लगाऊं?’’ उस का गुस्सा कम नहीं हुआ था.

‘‘इतनी गुस्सा क्यों हो रही हो? तुम मशीन लगा लो, आज लंच करने बाहर चलते हैं.’’

‘‘अपना पेट खराब करने के लिए मुझे बाहर का खाना नहीं खाना है. आप यह बताओ कि अटक कहां गए थे?’’

‘‘अटका कहीं नहीं. ऐसे ही विंडो शौपिंग करते हुए समय का अंदाजा नहीं रहा,’’ न जाने क्यों उसे मानसी और रोहित से हुई मुलाकात के बारे में उस समय कुछ बताने को मेरा मन नहीं किया.

अंजु ड्राइंगरूम में समीर द्वारा फैलाई चीजें उठाने के काम में लग गई. अब उस का ध्यान मेरी तरफ न होने के कारण मैं उसे ध्यान से देख सकता था.

कितना फर्क था मानसी और अंजु के व्यक्तित्व में. शादी होने के समय वह आकर्षक फिगर की मालकिन होती थी, पर अब उस का शरीर काफी भारी हो चुका था. चेहरे पर तनाव की रेखाएं साफ पढ़ी जा सकती थीं. उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. समीर के होने के समय से उसे पेट और कमर दर्द ने एक बार घेरा तो अब तक छुटकारा नहीं मिला है.

अंजु की मानसी से तुलना करते हुए मेरा मन अजीब सी खिन्नता महसूस कर रहा था. रोहित और हमारे आर्थिक स्तर में खास अंतर नहीं था. पर हमारी पत्नियों के व्यक्तित्व कितने विपरीत थे.

मेरा चेहरा सारा दिन मुरझाया सा रहा. रात में भी ढंग से नींद नहीं आई. मानसी का रंगरूप आंखों के सामने आते ही बगल में लेटी अंजु से अजीब सी चिढ़ हो रही थी.

किसी से अपनी हालत की तुलना कर के दिमाग खराब करने का कोई फायदा नहीं होता है. खुद को बारबार ऐसा समझाने के बाद ही मैं ढंग से सो पाया था. मेरे पास मानसी का 2 दिन बाद ही औफिस में लंच के समय फोन आ गया.

‘‘अपने घर का पता बताओ. हम आज रात को अंजु और समीर से मिलने आ रहे हैं,’’ उस की यह बात सुन कर मैं बहुत बेचैन हो उठा.

‘‘आज मत आओ. अंजु को अपने भाई के यहां जाना है,’’ मैं ने झूठ बोल कर उन के आने को टाल दिया.

‘‘चलो, उन से मिलने फिर किसी और दिन आ जाएंगे पर तुम अपना पता तो लिखवा ही दो.’’

मैं उसे घर बुलाना नहीं चाहता था पर मजबूरन उसे अपना पता लिखवाना पड़ा. मैं ने उस से ज्यादा बातें नहीं कीं. कहीं मन ही मन मैं ने यह फैसला कर लिया कि मैं उन के साथ ज्यादा घुलनेमिलने से बचूंगा.

फिर मैं शनिवार की शाम को औफिस से घर पहुंचा तो वे दोनों मुझे ड्राइंगरूम में बैठे मिले. अंजु उन से बातें कर रही थी. मानसी के सामने वह बहुत साधारण सी नजर आ रही है, ऐसी तुलना करते ही मेरा मन उखड़ सा गया.

तभी मैं एकदम चुपचुप सा हो गया. मेरे मुकाबले अंजु उन दोनों से वार्त्तालाप करने की जिम्मेदारी कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से निभा रही थी.

मानसी ने अचानक मुझ से पूछ ही लिया, ‘‘इतने उदास क्यों दिख रहे हो, संजीव?’’

‘‘सिर में दर्द हो रहा है. आज औफिस में काम कुछ ज्यादा ही था,’’ मुझे यों झूठ बोलना पड़ा तो मेरा मन और बुझाबुझा सा हो गया.

रोहित ने मेरे बेटे समीर से बहुत अच्छी दोस्ती कर ली थी. मानसी अंजु के साथ खूब खुल कर हंसबोल रही थी. बस मैं ही खुद को उन के बीच अलगथलग सा महसूस कर रहा था.

उन दोनों को रोहित के किसी मित्र के घर भी जाना था, इसलिए वे ज्यादा देर नहीं बैठे और हमें जल्दी अपने घर आगामी रविवार को आने का निमंत्रण देने के बाद चले गए.

उन के जाने के बाद मैं बहुत चिड़चिड़ा हो गया. मैं ने उन से ज्यादा तअल्लुकात न रखने का फैसला करने में ज्यादा वक्त नहीं लिया.

‘‘ये अच्छे लोग हैं. दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा है,’’ अंजु के मुंह से उन दोनों की तारीफ में निकले इन शब्दों को सुन कर मैं अपनी चिढ़ व नाराजगी को नियंत्रण में नहीं रख सका.

‘‘यार, इन लोगों की बात मुझ से मत करो. ये बनावटी लोग हैं. इन की सतही चमकदमक से प्रभावित न होओ. ऐसे लोगों के साथ मित्रता बढ़ा कर सिर्फ दुख और परेशानियां ही हासिल होती हैं,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘क्या कालेज के दिनों में आप मानसी के बहुत अच्छे दोस्त नहीं थे?’’ मुझे यों अचानक उत्तेजित होता देख कर वह हैरान नजर आ रही थी.

‘‘मानसी मेरे एक अच्छे दोस्त नवीन की प्रेमिका थी. इस कारण मुझे उसे सहन करना पड़ता था. जब मानसी का उस के साथ चक्कर खत्म हो गया, तब मैं ने उस के साथ बोलना बिलकुल खत्म कर दिया था. वह न तब मुझे पसंद थी और न आज.’’

‘‘मुझे तो दोनों अच्छे इंसान लगे हैं. क्या अगले संडे हम उन के घर नहीं जाएंगे?’’

‘‘नहीं जाएंगे और अब कोई और बात करो. हमें नहीं रखना है इन के साथ ज्यादा संबंध,’’ रूखे से अंदाज में उसे टोक कर मैं ने मानसी और रोहित के बारे में चर्चा खत्म कर दी.

अंजु ने फिर उन दोनों के बारे में कोई बात नहीं की. सच तो यह है कि वह मुझे ज्यादा खुश नजर आ रही थी. उस ने बड़े प्यार से मुझे खाना खिलाया और सोने से पहले सिर की मालिश भी की.

अगले दिन अंजु ने मुझे सुबह उठा कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘उठिए, सरकार. आज से हम दोनों रोज नियमित रूप से घूमने जाया करेंगे.’’

‘‘यार, तुम्हें जाना हो तो जाओ पर मुझे सोने दो,’’ मैं ने फिर से रजाई में घुसने की कोशिश की.

‘‘नहीं जनाब, ऐसे नहीं चलेगा. अगर आप मेरा साथ नहीं देगे तो मैं और मोटी हो जाऊंगी. क्या आप मुझे मानसी की तरह सुंदर और स्मार्ट बनता नहीं देखना चाहते हो?’’

अंजु की बात सुन कर मैं उठ बैठा और फिर बोला, ‘‘तुम उस के जैसा नकली पीतल नहीं, बल्कि खरा सोना हो. बेकार में उस के साथ अपनी तुलना कर के टैंशन में मत आओ.’’

अंजु ने अपनी बांहों का हार मेरे गले में डाल कर कहा, ‘‘टैंशन में मैं नहीं, बल्कि आप नजर आ रहे हो.’’

‘‘मैं टैंशन में नहीं हूं,’’ मैं ने उस से नजरें चुराते हुए जवाब दिया.

‘‘मैं आप के हर मूड को पहचानती हूं, जनाब. मुझ से कुछ भी छिपाने की कोशिश बेकार जाएगी.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘मतलब यह कि मेरी मानसिक सुखशांति की खातिर आप की झूठ बोलने की आदत बहुत पुरानी है.’’

‘‘तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है. मैं ने कब तुम से झूठ बोला है?’’

अंजु ने हलकेफुलके अंदाज में जवाब दिया, ‘‘मैं बताती हूं. जब हमारे पास कार नहीं थी तो आप कार की कितनी बुराई करते थे. कार के पुरजे महंगे आते हैं, सर्विसिंग महंगी होती है, पैट्रोल का खर्चा बहुत बढ़ जाता है, मुझे ड्राइव करना अच्छा नहीं लगता और भी न जाने आप क्याक्या कहते थे.’’

‘‘तुम कहना क्या चाह रही हो?’’

‘‘पहले एक और बात सुनो और फिर मैं आप के सवाल का जवाब दूंगी.

जब समीर के ऐडमिशन का समय आया तो आप महंगे पब्लिक स्कूलों के कितने नुक्स गिनाते थे. वहां पढ़ने वाले अमीर मांबाप के बच्चे छोटी उम्र में बिगड़ जाते हैं, बच्चे को अच्छे संस्कार घर में मिलते हैं स्कूल में नहीं, जैसी दलीलें दे कर आप ने मेरे मन को शांत और खुश रखने की सदा कोशिश की थी.’’

‘‘मैं जो कहता था वह गलत नहीं था.’’

‘‘मैं यह नहीं कह रही हूं कि आप गलत कहते थे.’’

‘‘मैं वही कह रही हूं, जो मैं ने शुरू में कहा था. मेरे मन की सुखशांति के लिए आप दलीलें गढ़ सकते हो, लेकिन ऐसे मौकों पर आप की जबान जो कहती है वह आप की आंखों के भावों से जाहिर नहीं होता है.’’

‘‘तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं.’’

‘‘देखिए, जब आप कार की बुराई करते थे तब हम कार नहीं खरीद सकते थे. लेकिन जब कार घर में आई तो आप कितने खुश हुए थे.

फिर जब समीर को अच्छे स्कूल में ऐडमिशन मिल गया तो भी आप की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था.’’

‘‘अब यह भी समझा दो कि तुम ये पुरानी बातें आज क्यों उठा रही हो?’’

‘‘क्योंकि आज भी आप की जबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और. आज भी मेरे मन के सुकून की खातिर आप मानसी जैसी सुंदर, स्मार्ट महिला की बुराई कर रहे हो. लेकिन कल रात मैं ने देखा था कि जब भी आप सहज हो कर उस से बातें करते थे तो आप की आंखें खुशी से चमक उठती थीं.’’

‘‘सचाई यह भी है कि मानसी के मुकाबले मैं मोटी और अनाकर्षक लगती हूं. तभी अपनी पुरानी आदत के अनुरूप आप ने अपना सुर बदल लिया है. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘लेकिन आप मुझे हीनभावना का शिकार बनने से बचाने के लिए न मानसी की बुराई करो और न ही उन के साथ परिचय गहरा करने से कतराओ. कार और समीर के ऐडमिशन का संबंध हमारी माली हालत से था पर यह मामला भिन्न है. मैं भली प्रकार समझती हूं कि अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने का प्रयास मुझे ही करना होगा. तभी मैं ने अपने में बदलाव लाने की कमर कस ली है.

‘‘आप बनावटी व्यवहार से मुझे झूठी तसल्ली दे कर मेरे मन की सुखशांति बनाए रखने की चिंता छोड़ दो. आप के सहज अंदाज में खुश रहने से ही हमारे बीच प्यार की नींव मजबूत होगी.

‘‘आप के सहयोग से मैं अपने लक्ष्य को बहुत जल्दी पा लूंगी. इसीलिए मेरी प्रार्थना है कि कुछ देर और सोने का लालच त्याग कर मेरे साथ घूमने चलिए.’’

‘‘यार, तुम तो बहुत समझदार हो,’’ मैं ने दिल से उस की प्रशंसा की.

‘‘और प्यारी भी तो कहो,’’ अंजु इतरा उठी.

‘‘बहुतबहुत प्यारी भी हो… मेरे दिल की रानी हो.’’

‘‘थैंकयू. अगले संडे हम मानसी के घर चलेंगे न?’’

‘‘श्योर.’’

‘‘और अभी मेरे साथ पार्क में घूमने चल रहे हो न?’’

‘‘जरूर चल रहा हूं पर वैसे इस वक्त मैं तुम्हारे साथ कहीं और होना चाहता हूं,’’ मेरी आवाज नशीली हो उठी.

‘‘कहां?’’

‘‘इस रजाई की गरमाहट में.’’

‘‘अभी सारा दिन पड़ा है. पहले पार्क चलो,’’ मेरी आंखों में प्यार से झांकते हुए अंजु का चेहरा लाजशर्म से लाल हो उठा तो वह मेरी नजरों में संसार की सब से खूबसूरत औरत बन गई थी.

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