हमसफर: भाग 3- पूजा का राहुल से शादी करने का फैसला क्या सही था

शादी के 5 माह बाद अचानक ही राहुल की सेहत तेजी से गिरनी शुरू हो गई. राहुल का वजन कम हो रहा था. उस के चेहरे की जर्दी बढ़ रही थी और यह देख कर घर के लोग परेशान थे.

‘‘राहुल की सेहत लगातार खराब हो रही है बहू, पता नहीं क्या बात है. वह काफी लापरवाह किस्म का इनसान है. तुम ही उसे किसी अच्छे डाक्टर को दिखलाओ,’’ आखिर एक दिन सास शकुंतला ने पूजा को कह ही दिया. उस के कहने के अंदाज से पता चलता था कि वह बेटे की गिरती सेहत को स्त्रीपुरुष के सेक्स संबंधों से जोड़ कर देख रही थीं.

पूजा को इस से हैरानी नहीं हुई थी. वह जानती थी कि राहुल की गिरती सेहत को देख कर लोग ऐसा ही सोच सकते थे. अब किसी को क्या मालूम अधिक सेक्स तो एक तरफ, उन में तो सेक्स संबंध बना भी नहीं था.

अपने सारे मनोभावों को छिपाते हुए पूजा ने सास से कहा, ‘‘आप ठीक कह रही हैं मांजी, मैं कल ही इन्हें किसी अच्छे डाक्टर को दिखलाने ले जाऊंगी.’’

अगले दिन राहुल को साथ ले कर किसी डाक्टर के पास जाने का दिखावा करती हुई पूजा घर से बाहर निकली. किंतु किसी डाक्टर के यहां जाने के बजाय उन्होंने 2-3 घंटे एक मौल में बिताए.

थकावट होने पर उन दोनों ने मौल के रेस्तरां में बैठ कर कोल्ड डिं्रक पी और साथ में हलका सा फास्ट फूड भी लिया.

रेस्तरां में बैठे थकीथकी आंखों से पूजा को देखते हुए राहुल ने कहा, ‘‘हम जो कर रहे हैं क्या वह अपनों के साथ धोखा नहीं?’’

‘‘नहीं, मैं नहीं मानती कि हम किसी को कोई धोखा दे रहे हैं,’’ पूजा ने जवाब दिया.

‘‘एड्स से रोजाना दुनिया में सैकड़ों लोग मरते हैं. अगर मैं भी मर जाऊंगा तो कौन सी अनोखी बात होगी? मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम मेरी बीमारी को छिपा कर क्यों रखना चाहती हो? एकदम से मेरी मौत के सदमे को झेलने से बेहतर होगा कि हकीकत को जान कर मां, बाबूजी, रश्मि और दूसरे लोग मेरी मौत के सदमे को झेलने के लिए खुद को पहले से ही तैयार कर लें.’’ राहुल ने भारी आवाज में कहा.

‘‘मैं भी ऐसा ही चाहूंगी. मगर तुम को एड्स है, मैं ऐसा कभी जाहिर नहीं होने दूंगी. ऐसी दूसरी लाइलाज बीमारियां भी तो हैं जिन से इनसान की मौत यकीनी होती है, जैसे कैंसर. किंतु कैंसर की मौत एड्स से होने वाली मौत से कहीं अधिक सम्मानजनक है. कैंसर डरावना है और एड्स बदनाम. एड्स के बारे में लोगों में अनेक गलतफहमियां हैं. इसलिए कैंसर से तो केवल इनसान मरता है लेकिन एड्स से मरने वाले इनसान के परिवार की उस के साथ ही सामाजिक मौत हो जाती है.

एड्स से मरने वाले इनसान के परिवार को लोग शक और घृणा की नजरों से देखते हुए एक तरह से उस का सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं. मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे बाद तुम्हारे अपनों के साथ कुछ ऐसा हो. एक एड्स संक्रामक व्यक्ति की पत्नी होने के कारण समाज में मेरी क्या स्थिति होगी इस की शायद तुम ठीक से कल्पना भी नहीं कर सकते. हमारे विवाहित जीवन के अंदरूनी सच को दुनिया तो नहीं जानती. मैं एक शापित जीवन बिताऊं, ऐसा तो तुम भी नहीं चाहोगे,’’ राहुल का हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूजा ने कहा.

राहुल की समझ में आने लगा था कि पूजा उस की बीमारी को किन कारणों से छिपा कर रखना चाहती थी. उस की सोच में केवल आज नहीं, आने वाला कल भी था.

जैसेजैसे वक्त करीब आ रहा था राहुल अंदर से टूट रहा था. अपने प्यार से पूजा टूट रहे राहुल को सहारा देने की कोशिश करती.

डाक्टर को दिखलाने की बात कह कर पूजा राहुल को साथ ले कर घर से बाहर जाती. किसी पार्क या रेस्तरां में 2-3 घंटे बिता कर दोनों वापस आ जाते. राहुल एड्स की दवाएं ले रहा था, मगर वे बेअसर हो रही थीं.

ऐसी स्थिति बन रही थी कि पूजा को लग रहा था कि उस को राहुल की बीमारी को ले कर एक और झूठ बोलना ही होगा.

एक रोज मांजी ने पूजा को हाथ से पकड़ अपने पास बिठा लिया और बोलीं, ‘‘राहुल की यह कैसी बीमारी है बहू जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही? तुम जरूर मुझ से कुछ छिपा रही हो. मुझ को किसी धोखे में मत रखो. मैं राहुल की बीमारी का सच जानना चाहती हूं.’’

‘‘मैं आप से कुछ भी छिपाना नहीं चाहती, मांजी, लेकिन सच बड़ा ही निर्मम और कठोर है. आप सुन नहीं सकेंगी. आप के बेटे को कैंसर है,’’ हिम्मत कर के पूजा को जो कहना था उस ने कह दिया.

उस के शब्द जैसे बम बन कर मांजी के सिर पर फूटे. सदमे में अपना माथा पकड़ते हुए वह सोफे पर लुढ़क सी गईं.

उधर सच को छिपाने के लिए पूजा ने जो झूठ बोला उस का चेहरा छिपाए गए सच से कम डरावना नहीं था.

पूजा के द्वारा राहुल की बीमारी को कैंसर बतलाने के बाद घर का सारा माहौल ही गमगीन और मातमी हो गया था.

मांजी, बाबूजी और रश्मि की आंखों में से बहने वाले आंसू जैसे थम नहीं रहे थे. कोई ठीक से खा नहीं रहा था. कैंसर का भी दूसरा नाम मौत ही तो था. जब मौत का पहरा बैठ गया हो तो किसी को चैन कैसे आ सकता था?

अंत शायद बहुत करीब था. राहुल का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि कई बार बाथरूम तक जाने के लिए उसे पूजा के सहारे की जरूरत पड़ती.

पूजा किसी तरह भी कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. हालांकि राहुल की बातें कभीकभी उस को कमजोर करने की कोशिश जरूर करती थीं.

मांजी और बाबूजी बेटे की हालत देख उस को किसी अस्पताल में दाखिल कराने की बातें करते.

लेकिन पूजा इस से मना कर देती.

‘‘इस से कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि कैंसर अपने अंतिम स्टेज में है. अस्पताल में रेडियो थेरैपी से इन की जिंदगी और ज्यादा कष्टपूर्ण हो जाएगी. मैं ऐसा नहीं चाहती,’’ पूजा उन से कहती.

राहुल की अंदर को धंसती निस्तेज आंखें और पीला चेहरा खामोश जबान में बतलाने लगे थे कि उस के जीवन की टिमटिमाती लौ किसी भी घड़ी बुझ सकती थी.

एक रात अचानक राहुल ने पूजा के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए वे शब्द कहे तो पूजा को लगा वह घड़ी कुछ फासले पर ही है.

‘‘शायद मेरा वक्त आ गया है मेरे हमसफर. मेरी जिंदगी के उदास सफर में हमसफर बनने के लिए शुक्रिया. दुनिया और समाज कुछ भी समझे, मगर हम दोनों जानते हैं कि हमारे बीच में पतिपत्नी नहीं, दो इनसानों का रिश्ता है. इसलिए मेरे मरने के बाद कभी अपनेआप को विधवा मत मानना. अपने लिए जो भी विकल्प ठीक लगे उसी को चुनना.’’

राहुल के उक्त शब्द पूजा के मर्म को चीर गए.

बड़ी मुश्किल से उस ने खुद को संभाला था.

राहुल ने पूजा से कमरे की खिड़की खोलने का अनुरोध किया और यह भी कहा कि वह उस के पास बैठी रहे.

खिड़की के बाहर चांद चमक रहा था. रात ढल रही थी.

राहुल की बेचैनी भी लगातार बढ़ रही थी.

पूजा हौसला देने वाले अंदाज से बीचबीच में उस के ललाट पर अपना हाथ फेर देती थी. डाक्टर के बताए अनुसार उस ने राहुल को दवा दी तो उस ने आंखें बंद कर लीं.

बैठेबैठे ही न जाने कब पूजा को कुछ मिनटों के लिए नींद की झपकी आ गई.

झपकी जब टूटी तो सब खत्म हो चुका था. राहुल की खुली आंखें पथरा चुकी थीं.

रिश्तों की डोर: भाग 2- माता-पिता के खिलाफ क्या जतिन की पसंद सही थी

लेखिका- रेनू मंडल

मैं ने मम्मी के गले में बांहें डाल कर कहा, ‘‘ओह, मम्मी, इतनी निराश क्यों होती हो? तुम्हारा लड़का बहुत अक्लमंद है. इस ने स्वाति को ही पसंद कर रखा है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मम्मी चौंक उठीं.

‘‘मतलब यह मम्मी कि स्वाति, राहुल की बूआ की लड़की नहीं है. यह वही लड़की है जिसे जतिन ने पसंद कर रखा है,’’ मैं ने मम्मी को शुरू से अंत तक सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘आप ने और पापा ने तो बिना देखे ही लड़की रिजेक्ट कर दी थी. मेरे पास उसे

आप से मिलवाने का कोई और रास्ता न था.’’

अभी मैं ने अपनी बात पूरी की ही थी कि तभी पापा कमरे में आ गए.

‘‘सुना आप ने, नीलू कह रही है?’’ मम्मी अभी भी मेरी बात से अचंभित थीं.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. इस बारे में हम अब कल बात करेंगे.’’

पापा को शायद सोचने के लिए समय चाहिए था.

अगले दिन तक मैं और जतिन पसोपेश की स्थिति में रहे, पापा के जवाब पर ही हमारी सारी उम्मीदें टिकी थीं. रात को डाइनिंग टेबल पर पापा बोले, ‘‘जतिन, तुम्हें स्वाति पसंद है तो हमें कोई एतराज नहीं है. उसे अपने घर की बहू बना कर हमें भी खुशी होगी, परंतु लड़की वालों से बात करने हम नहीं जाएंगे. उन्हें हमारे घर आना होगा.’’

‘‘यह कोई बड़ी बात नहीं है, पापा. वही लोग आप से बात करने आ जाएंगे.’’

जतिन फोन की तरफ लपका. अवश्य ही वह स्वाति को यह खबर सुनाना चाहता होगा.

रविवार शाम को स्वाति के मम्मीपापा हमारे घर आए. चाय पीते हुए पापा बोले, ‘‘भई, हमें आप की बेटी बहुत पसंद है. हम इस रिश्ते के लिए तैयार हैं. आप सगाई की तारीख निकलवा लें.’’

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‘‘देखिए भाई साहब, खुल कर बात करना अच्छा होता है. आप की कोई डिमांड तो नहीं है?’’ स्वाति की मम्मी ने पूछा.

‘‘डिमांड तो कोई नहीं है. हां, शादी बढि़या होनी चाहिए. यों भी आप लोगों में लड़की के विवाह में नकद रुपया तो चलता ही है.’’ स्वाति के पापा के चेहरे पर उलझन के भाव आए, ‘‘मैं आप का मतलब नहीं समझा.’’

‘‘मैं समझाता हूं. अगर जतिन और स्वाति एकदूसरे को प्रेम न करते तो आप लोग स्वाति के लिए अपनी ही बिरादरी में लड़का ढूंढ़ते. तब क्या आप को उस के विवाह में नकद रुपया नहीं देना पड़ता? जो रुपए आप तब देते, वही रुपए आप हमें अब दे दीजिए.’’

‘‘पापा, यह आप क्या कह रहे हैं?’’ जतिन हैरान सा हो उठा था. उसे पापा से यह उम्मीद नहीं थी. मम्मी ने उस की ओर आंखें तरेर कर देखा, ‘‘जतिन, बड़ों के बीच में तुम मत बोलो.’’

‘‘भाई साहब, आप स्पष्ट बता दें तो अच्छा रहेगा, कितना नकद रुपया आप चाहते हैं,’’ स्वाति के पापा ने पूछा.

‘‘अधिक नहीं, कम से कम 2 लाख तो आप को देना ही चाहिए,’’ पापा और मम्मी एकदूसरे की ओर देख कर मुसकराए.

जतिन का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा था. वह उठ कर अंदर चला गया.

जतिन के जाने के बाद स्वाति के मम्मीपापा भी उठ कर खड़े हो गए, ‘‘भाई साहब, घर में सलाह कर के हम आप को जल्दी ही बताएंगे.’’

उन लोगों के जाने के बाद जतिन चिल्लाया, ‘‘पापा, मैं कभी सोच भी नहीं सकता था, आप लोग इतनी छोटी बात करेंगे.’’

‘‘देखो बेटा, हम ने तुम्हारी बात मान ली. तुम्हारी पसंद की लड़की से तुम्हारा विवाह कर रहे हैं. अब विवाह में क्या होगा और क्या नहीं होगा, यह देखना हमारा काम है, तुम्हारा नहीं.’’

‘‘नहीं पापा, यह ठीक नहीं है. मैं विवाह में दहेज नहीं लूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए.’’

‘‘ठीक है. फिर तुम भी कान खोल कर सुन लो, तुम्हारा स्वाति से विवाह भी नहीं होगा. हम इस रिश्ते से इनकार कर देंगे,’’ पापा भी अब आक्रोशित हो उठे थे.

‘‘विवाह भी होगा और दहेज भी नहीं लिया जाएगा, यह तय है. इस के लिए मुझे चाहे कुछ भी करना पड़े,’’ जतिन एकएक शब्द पर जोर दे कर बोला.

‘‘देखो बर- खुरदार, कान खोल कर सुन लो, यह मेरा घर है. अगर यहां रहना है तो मेरी बात माननी पड़ेगी.’’

‘‘अगर ऐसी बात है, पापा, तो मैं यह घर छोड़ दूंगा,’’ जतिन पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया. मैं हक्काबक्का सी यह सारा तमाशा देखती रह गई. कहां तो मैं समझ रही थी कि जतिन की विवाह की समस्या सुलझ गई और कहां गुत्थी और भी उलझ कर रह गई थी.

अगले दिन दोपहर में मम्मी से बात की तो वह नाराजगी जाहिर करते हुए बोलीं, ‘‘देख नीलू, तू जतिन की तरफदारी मत कर. तेरे पापा शादी के लिए राजी हो गए, क्या यह कम बड़ी बात है. विवाह में हम थोड़ाबहुत दहेज ले लेंगे तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा. हम कोई दुनिया के पहले मांबाप तो हैं नहीं, जो दहेज मांग रहे हैं.’’

‘‘मम्मी, जतिन भी कोई पहला लड़का नहीं है जो इस कुप्रथा का विरोध कर रहा है. सभी पढ़ेलिखे समझदार युवक अब दहेज के विरोध में आवाज उठाते हैं.’’

‘‘हां हां, सारे समाज को बदलने का ठेका तो तुम्हीं लोगों ने ले रखा है न,’’ मम्मी बड़बड़ाती हुई रसोई में चली गईं.

मम्मीपापा और जतिन के बीच तनाव बढ़ता ही गया. जब जतिन हर तरह से उन्हें समझासमझा कर थक गया और वे नहीं माने तो उस ने अपने लिए किराए पर फ्लैट ले लिया. अपना सामान ले कर घर से जाते हुए उस ने मम्मीपापा के पांव छुए. रुंधे कंठ से वह बोला, ‘‘मैं ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि आप लोगों से इस तरह अलग होना पड़ेगा. हमारे सिद्धांत बेशक अलग हैं किंतु…’’

‘‘बसबस, रहने दे. ये आदर्शवादी बातें अपने पास ही रख और याद रख, मेरी जायदाद में से तुझे एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी. यह मकान भी मैं नीलू के नाम कर दूंगा,’’ पापा क्रोध में चिल्लाए.

‘‘आप की जायदाद की मुझे कोई चाह नहीं, पापा. आप खुशी से सबकुछ दीदी के नाम कर दें,’’ कह कर जतिन चला गया. उस समय मम्मी की आंखें अवश्य भर आई थीं.

10 दिन बाद जतिन और स्वाति का मंदिर में विवाह हो गया. विवाह से पूर्व स्वाति के मांबाप ने जतिन को काफी समझाया कि उन्हें दहेज देने में कोई आपत्ति नहीं है किंतु जतिन टस से मस नहीं हुआ. इस के बाद बेटे और मांबाप के बीच उन्होंने भी ज्यादा बोलना उचित नहीं समझा. विवाह से एक दिन पहले जतिन मम्मीपापा को बुलाने घर पर आया था किंतु उन्होंने जाने से इनकार कर दिया.

हां, मुझे और मेरे पति राहुल के सम्मिलित होने पर उन्होंने कोई एतराज नहीं किया. 3-4 दिन तक जतिन के घर पर रह कर और स्वाति को उस की गृहस्थी में एडजस्ट करवा कर मैं वापस मम्मी के घर लौट आई और राहुल वापस दिल्ली चले गए.

मैं अब अपनी बी.एड. की पढ़ाई में व्यस्त रहने लगी थी. जतिन के विवाह को 4 माह बीतने को आए थे. इस बीच न तो जतिन घर पर आया और न ही मम्मीपापा अपने बेटेबहू से मिलने गए. किंतु कुछ दिनों से मैं एक बात महसूस कर रही थी. मम्मीपापा बहुत खामोश और उदास रहने लगे थे. न तो उन्हें दहेज मिला था और न ही बेटेबहू का साथ. इस बुढ़ापे में अकेले रह जाना अपनेआप में एक बहुत बड़ी त्रासदी थी.

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हमसफर: भाग 2- पूजा का राहुल से शादी करने का फैसला क्या सही था

शादी में बस चंद दिन ही बचे थे तब राहुल ने पूजा को बताया कि वह एच.आई.वी. पोजिटिव है. एड्स से ग्रसित वह धीरेधीरे मौत के करीब जा रहा है. 2 वर्ष पहले एक एक्सीडेंट के बाद इलाज के दौरान डाक्टरों की लापरवाही से उसे संक्रमित खून चढ़ा दिया गया था. पूजा राहुल को आश्वासन देती है कि वह सब असलियत जान कर भी शादी कर उस की हमसफर जरूर बनेगी और साथ ही राहुल से वचन लेती है कि अपनी बीमारी को घरवालों से राज रखेगा. राहुल के यह कहने पर कि बीमारी को लोगों से छिपाना आसान नहीं होगा, तो पूजा का जवाब था कि ‘शादी के बाद वह सब देखना मेरा काम होगा. लोगों को क्या जवाब देना है, यह भी मैं ही देखूंगी.’

एक सप्ताह बाद दोनों की शादी हो जाती है. इस शादी के पीछे का भयानक सच उन दोनों के अलावा शादी में शामिल कोई भी तीसरा नहीं जानता था. अग्नि के फेरे लेते हुए दोनों के मस्तिष्क में बहुत कुछ चल रहा था लेकिन वे चेहरे से एकदम सामान्य दिख रहे थे. अब आगे…

पूजा की डोली ससुराल आई.

ससुराल में आते ही पूजा औरतों

में घिर गई थी. शादी के बाद की रस्में जो पूरी की जानी थीं.

शादी के बाद राहुल और पूजा के पहले इम्तिहान की घड़ी सुहागरात थी.

रस्मों के पूरा होने के बाद हंसी- ठिठोली करती पूजा की ननद रेखा और उस की कुछ सहेलियों ने उन दोनों को सुहागरात वाले कमरे के अंदर धकेल दिया था.

अकेले पड़ते ही दोनों ने एकदूसरे को देखा.

सुहागरात का अर्थ दोनों ही समझते थे मगर उन दोनों को इस बात का भी एहसास था कि वह आम पतिपत्नियों जैसे नहीं थे.

सुहाग सेज पर गुलाब के फूलों की पंखडि़यां बिखरी हुई थीं. इन पंखडि़यों को सुबह तक वैसा ही रहना था, क्योंकि जिस उद्देश्य से उन को सेज पर बिखेरा गया था उस उद्देश्य की पूर्ति उन के लिए वर्जित थी.

‘‘तुम ने मेरे साथ शादी कर के अपने साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है,’’ अपनी कशमकश के बीच खालीखाली उदास नजरों से पूजा को देखते हुए राहुल ने कहा.

‘‘लेकिन मुझ को अपने फैसले पर कोई अफसोस नहीं,’’ पूजा ने कहा.

‘‘क्या इस सुहागरात का हमारे लिए कोई मतलब है?’’

‘‘क्यों नहीं है? क्या एक दंपती के संपूर्ण जीवन का आधार केवल सेक्स ही है? क्या सेक्स के बगैर स्त्रीपुरुष के विवाहित संबंधों का कोई अर्थ नहीं रह जाता? मैं इस को नहीं मानती. सेक्स पतिपत्नी के रिश्ते का एक हिस्सा है. इस के बिना भी रिश्ते को निभाया जा सकता है, क्योंकि सेक्स से ही संपूर्ण रिश्ता नहीं बनता. जैसे शरीर के किसी एक अंग को अलग कर देने से इनसान मर नहीं जाता, उसी तरह पतिपत्नी के रिश्ते में से सेक्स को अलग करने से रिश्ते की मौत भी नहीं होती.

हम दोनों तो सच को जानते हुए ही इस रिश्ते में बंधे हैं. सेक्स संपर्क के बगैर भी हम इस रात को आनंदमय बनाएंगे. यह हम दोनों के लिए ही पहली परीक्षा है और हमें बिना किसी भय और निराशा के इस परीक्षा की अग्नि में से तप कर बाहर निकलना ही होगा.’’

यह कहते हुए शादी के लाल जोड़े में लिपटी हुई पूजा ने एड्स से पीडि़त अपने पति का सिर अपने सीने पर रख लिया. ऐसा करते हुए उस के चेहरे पर जरा सा भी डर और घबराहट न थी. मन को जिस आनंद की अनुभूति हो रही थी वह शरीर के आनंद से कम नहीं थी.

सुहागरात उन दोनों ने एकदूसरे से बहुत सी बातें करते हुए बिता दी. पतिपत्नी के बजाय एक दोस्त की तरह उन को एकदूसरे को अधिक जानने का मौका मिला.

पूजा राहुल के मस्तिष्क को मृत्युभय से मुक्त कर के उस के भीतर एक नया विश्वास जगाने में सफल रही.

सुबह की किरण फूटने से कुछ देर पहले ही दोनों की आंख लग गई.

पूजा की आंख खुली तो सुबह के 8 बज रहे थे. रोशनी काफी फैल चुकी थी. राहुल अभी भी सो रहा था.

पूजा दर्पण के सामने खड़ी हो खुद को निहारने लगी. उस का दुलहन वाला मेकअप वैसे का वैसा ही था. वस्त्रों पर सलवटें भी नहीं आई थीं. कलाइयों में पड़ी कांच की चूडि़यां भी वैसी की वैसी ही थीं.

कमरे के अंदर क्या हुआ था वह उन दोनों के बीच का राज था. मगर सब को ऐसा लगना तो चाहिए कि उन्होंने सुहागरात मनाई थी.

यह सोच कर पूजा ने पहले अपने बंधे हुए जूड़े को खोला और फिर उस को बेतरतीब से दोबारा बांधा. होंठों की लिपस्टिक की गाढ़ी लाल रंगत को फीका करने के लिए इस तरह से उस को साफ किया कि वह थोड़ी सी होंठों के इर्दगिर्द बिखर जाए. अपनी दोनों कलाइयों में पड़ी कांच की कुछ चूडि़यों को अपनी उंगलियों के दबाव से चटख कर तोड़ डाला. ऐसा करते वक्त एक चूड़ी का तीखा कांच उस की कलाई में चुभ भी गया.

पूजा ने टूटी कांच की चूडि़यों के टुकड़ों को बिस्तर पर बिखेर दिया, इतना ही नहीं, बिस्तर पर बिखरी फूलों की पत्तियों को भी उस ने हथेली से मसल डाला.

सब तरह से संतुष्ट होने के बाद पूजा कमरे का बंद दरवाजा खोल कर बाहर निकल आई.

कमरे से बाहर पूजा का सब से पहले सामना अपनी ननद रश्मि से हुआ. रश्मि की आंखों में अर्थभरी शरारत थी जोकि रिश्ते के हिसाब से स्वाभाविक थी.

‘‘गुडमार्निंग, भाभी,’’ रश्मि ने कहा, ‘‘आप की आंखें गुलाबी हो रही हैं, लगता है भैया ने काफी परेशान किया है रात को?’’

ननद रश्मि के ऐसा कहने पर पूजा ने पहले तो लजाने का नाटक किया फिर प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाती हुई बोली, ‘‘चुप, बच्चे इस तरह के सवाल नहीं पूछते.’’

ननद रश्मि के साथ ही पूजा अपने सासससुर के कमरे में पहुंची और अपने सिर को साड़ी के पल्लू से ढकते हुए बारीबारी से उन दोनों के पांव छुए.

पांव छूने पर आशीर्वाद देती हुई पूजा की सास शकुंतला ने उस को अपने सीने से लगा लिया और बोलीं, ‘‘सुहागवती रहो, बहू. जल्दी ही तुम्हारी गोद भरे और मैं पोते की खुशी देखूं.’’

शादी के बाद दिन आगे को सरकने लगे. बीतने वाला हर लम्हा जैसे कीमती था.

राहुल के जीवन की डोर हर बीतते हुए लम्हे के साथ छोटी हो रही थी.

पूजा बीतते हर लम्हे को इतने सुख और खुशियों से भर देना चाहती थी कि आने वाली मौत की आहट राहुल को सुनाई न दे.

शारीरिक सुख के अलावा एक अच्छी पत्नी के रूप में जीवन के सारे सुख पूजा राहुल को देना चाहती थी. वह उस की इतनी सेवा करना चाहती थी कि बाद में किसी बात पर पछताना न पड़े.

पूजा की सेवा और समर्पण के भाव को राहुल खामोशी से देखता और कहता, ‘‘मेरी जिंदगी का सफर ज्यादा लंबा नहीं. इस में हमसफर बनते हुए गलती से भी मुझ से मोह मत कर बैठना, वरना बाद में बड़ी तकलीफ होगी.’’

‘‘मैं जानती हूं कि मैं क्या कर रही हूं और आगे क्या होने वाला है. किंतु इस तरह की बातें कर के मुझ को कमजोर मत बनाओ, राहुल.’’

हमसफर: भाग 1- पूजा का राहुल से शादी करने का फैसला क्या सही था

शादी में बस चंद दिन ही रह गए थे. पिछली बार जब पूजा अपने मंगेतर राहुल से मिली थी तो दोनों में यह तय हुआ था कि शादी के करीब होने से उन को अब मुलाकातों का सिलसिला रोक देना चाहिए. यह दुनियादारी के लिहाज से ठीक भी था.

इस आपसी फैसले को अभी कुछ ही दिन बीते थे कि पूजा के पास राहुल का फोन आ गया. उस ने कहा, ‘‘पूजा, मैं आप से मिलना चाहता हं. कल शाम को 5 बजे मैं लाबेला कौफी हाउस में आप का इंतजार करूंगा. कुछ ऐसी बातें हैं जो शादी से पहले मेरे लिए आप को बतलाना बहुत जरूरी है.’’

‘‘क्या इन बातों को कहने के लिए शादी तक इंतजार नहीं हो सकता?’’

‘‘नहीं, ऐसी बातें शादी से पहले बतला देना जरूरी होता है.’’

मंगेतर के फोन से बेचैन पूजा को अगले दिन के इंतजार में रात भर नींद नहीं आई. आखिर क्या बतलाना चाहता था वह शादी से पहले उस को? अपने किसी अफेयर के बारे में तो नहीं? अगर इस तरह की कोई बात थी तो पहले की इतनी मुलाकातों में राहुल ने उस को क्यों नहीं बतलाई? अब जबकि शादी की तारीख बिलकुल सिर पर आ गई तो इस तरह की बात उस को बतलाने का क्या तुक और मकसद हो सकता था?

पूजा खुद से ही तरहतरह के सवाल लगातार पूछती रही.

दूसरे दिन शाम को राहुल से मिलने के लिए घर से निकलते वक्त पूजा ने सुषमा भाभी को ही इस बारे में बतलाया. ‘लाबेला’ कौफी हाउस में पूजा पहले भी 2-3 बार राहुल के साथ बैठ चुकी थी. अत: उम्मीद के अनुसार राहुल कौफी हाउस में बाईं तरफ वाले कोने की एक मेज पर बैठा उस के आने का इंतजार कर रहा था.

टेबल की तरफ बढ़ती हुई पूजा तनाव और अनिश्चितता से घिर गई. बैठते ही बोली, ‘‘मैं सारी रात सो नहीं सकी. ऐसी क्या बात थी जो आप फोन पर नहीं कह सकते थे? मेरे मन में कई तरह के विचार आते रहे.’’

‘‘किस तरह के विचार?’’ राहुल ने पूछा. वह काफी थकाथका नजर आ रहा था.

‘‘मैं सोचती रही, शायद आप शादी से पहले अपने किसी अफेयर के बारे में मुझ से कुछ कहना चाहते हैं,’’ पूजा ने अपने मन की बात कह दी.

‘‘एक लड़की होने के नाते आप इस से ज्यादा शायद सोच भी नहीं सकतीं.’’

‘‘फिर आप ही बतलाएं वह ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिए आप शादी तक इंतजार नहीं कर सकते थे?’’

‘‘इंतजार में शायद बहुत देर हो जाती.’’

‘‘राहुल, आप की बातें पहेली जैसी क्यों हैं? जो भी आप कहना चाहते हैं खुल कर क्यों नहीं कहते?’’

‘‘अगर इस समय मैं आप से यह कहूं कि मैं आप से शादी नहीं कर सकता तो आप को कैसा लगेगा?’’ राहुल ने कहा.

‘‘मैं समझूंगी कि आप अच्छा मजाक कर लेते हैं.’’

‘‘मैं मजाक कभी नहीं करता,’’ राहुल ने कहा.

उस के शब्दों में छिपी संजीदगी से पूजा जैसे ठिठक सी गई. उसे सारी उम्मीदें और सपने बिखरते हुए लगे.

‘‘शादी से इनकार तो आप पहले दिन भी कर सकते थे, अब जब शादी की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. इस इनकार का मतलब?’’ सदमे की हालत में पूजा ने पूछा.

‘‘शायद अपनी झूठी और खोखली खुशियों की खातिर मैं आप की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता,’’ शून्य में देखते हुए राहुल ने कहा.

‘‘बहुत खूब, आप को लगता है कि शादी के टूटने से मैं आबाद हो जाऊंगी,’’ पूजा ने कहा.

‘‘इनकार के पीछे की सचाई को जानने के बाद शायद आप को ऐसा ही लगे.’’

‘‘कैसी सचाई?’’

‘‘एक ऐसी सचाई जो पिछले 2 महीनों से मेरी अंतरात्मा को कचोट रही है. मैं आप को किसी धोखे में नहीं रखना चाहता. मुझे इस बात की भी परवा नहीं कि सच को जानने के बाद आप मुझ से नफरत करेंगी या हमदर्दी. असलियत यह है पूजा कि मैं एच.आई.वी. पोजिटिव हूं, मुझ को एड्स है. मौत मेरे काफी करीब है,’’ वीरान आंखों से पूजा को देखते हुए राहुल ने शांत स्वर में कहा.

पूजा को ऐसा लगा जैसे उस के सिर पर कोई बम फटा हो. गहरे सदमे की हालत में हक्कीबक्की सी वह राहुल के चेहरे को देखती रह गई. एक खौफ का सर्द एहसास पूजा को अपनी रगों में उतरता महसूस हुआ.

यह देख राहुल के अधरों पर एक फीकी मुसकराहट की रेखा खिंच गई. वह बोला, ‘‘अब मैं ने जब इस बदनाम और जानलेवा बीमारी का जिक्र आप से कर ही दिया है तो इस को ले कर जरूर आप के दिमाग में कुछ सवाल उठ रहे होंगे. सब से बड़ा सवाल तो यही होगा कि मुझ में ऐसी लाइलाज बीमारी आई कहां से? शायद आप को ऐसा लग रहा होगा कि मैं ने गंदी बाजारू औरतों से सेक्स संपर्क कर के इस बीमारी को अपने खून में दाखिल किया है. मगर ऐसा नहीं है. मैं ने कभी भी किसी औरत से सेक्स संपर्क नहीं किया. यह बीमारी तो उस संक्रामक खून का नतीजा है जो 2 वर्ष पहले एक एक्सीडेंट के बाद डाक्टरों की लापरवाही से मुझ को चढ़ा दिया गया था. मौत चुपके से मेरी धमनियों में उतर गई और मुझ को इस का पता भी नहीं चला.

‘‘मैं लगातार मौत के करीब जा रहा हूं, मगर मेरे घर के लोगों को मेरी बीमारी की कोई जानकारी नहीं. इसलिए जो हुआ उस में उन का जरा भी कुसूर नहीं. मैं भी असलियत को भूल कर कुछ समय के लिए स्वार्थी हो गया था मगर मेरी अंतरात्मा लगातार मुझ को कचोटती रही. यह शादी एक धोखे और पाप से ज्यादा कुछ नहीं होगी जो मैं नहीं करूंगा. इस के साथ ही उस एक बात को स्वीकार करने में मुझ को जरा भी हिचक नहीं कि आप को देखने और शादी की बात पक्की होने के बाद अपनी कल्पनाआें में मैं ने संपूर्ण जीवन जी लिया. मरने का शायद मुझे अब बहुत गम नहीं होगा.’’

जैसे ही राहुल ने अपनी बात खत्म की, खामोशी से सब सुन रही पूजा ने कहा, ‘‘आप ने अपनी बात तो कह दी, अपना फैसला भी सुना दिया लेकिन यह कैसे सोच लिया कि आप ने जो फैसला किया है वही मेरा फैसला भी होगा?’’

पूजा के शब्दों से हैरान राहुल खालीखाली नजरों से उस को देखने लगा.

पूजा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया और बोली, ‘‘अगर आप में सच को कहने की हिम्मत है तो मुझ में भी सच का साथ देने की ताकत है. आप की जिंदगी का बाकी जितना भी सफर है उस में मैं आप को अकेला नहीं छोड़ूंगी. यह शादी हर हालत में होगी.’’

‘‘आप भावुकता में ऐसा कह रही हैं. आप को शायद ठीक से मालूम नहीं कि एड्स क्या है? लोग तो एड्स के शिकार व्यक्ति के पास भी नहीं फटकते और आप एक ऐसे व्यक्ति के साथ शादी करना चाहती हैं.’’

‘‘मैं लोगों की तरह गलतफहमियों में नहीं जीती. एड्स किसी इनसान के साथ उठनेबैठने या उस के साथ खानेपीने से तो नहीं होता. शादी के बाद अगर हम पतिपत्नी के बजाय 2 दोस्तों की तरह रहेंगे और उन खास पलों से परहेज करेंगे जिन से इस बीमारी का दूसरे में जाने का अंदेशा होता है तो शादी के बंधन से हमें कोई भी समस्या नहीं होगी.

‘‘जिंदगी कितनी बाकी है? मौत कब आएगी, मेडिकल साइंस और डाक्टर इस की भविष्यवाणी नहीं कर सकते जो मौत कल आनी है उस के लिए आज की जिंदगी की कुर्बानी क्यों करें हम? जितना भी वक्त बचा है उसी में पूरी जिंदगी जीनी होगी अब आप को. मैं उस जिंदगी में आप की हमसफर रहूंगी, यह मेरा फैसला है,’’ राहुल के हाथ को अपने हाथों से दबाते पूजा ने दृढ़ स्वर में कहा.

पूजा के शब्दों से राहुल की उदास और बुझी आंखों में जिंदगी जीने की चमक आ गई.

पूजा ने राहुल के अंदर के विश्वास को बढ़ाने के लिए उस के हाथ को सहलाया ओर बोली, ‘‘जब मैं ने जिंदगी के सफर में आप का हमसफर बनने का फैसला कर लिया है तो एक वचन आप को भी मुझे देना होगा.’’

‘‘कैसा वचन?’’ राहुल ने पूछा.

‘‘जैसे आप ने अब तक अपनी बीमारी को राज रखा है, शादी के बाद भी आप इस को ऐसे ही राज रखेंगे. इस के बारे में कभी भी अपनी जबान पर एक शब्द न लाएंगे.’’

‘‘इस से क्या होगा? मौत जैसेजैसे करीब होगी, बीमारी को लोगों से छिपाना आसान नहीं होगा. उन को कुछ तो जवाब देना ही होगा,’’ राहुल की आवाज में उदासी थी.

‘‘शादी के बाद वह सब देखना मेरा काम होगा. लोगों को क्या जवाब देना है, यह भी मैं ही देखूंगी. मगर आप किसी से कुछ नहीं कहेंगे.’’

‘‘अगर आप की ऐसी जिद है तो मैं वादा करता हूं कि मैं अपनी जबान पर कभी अपनी बीमारी का जिक्र नहीं लाऊंगा. मेरी कोशिश रहेगी कि मेरी बीमारी का राज मेरे साथ ही इस दुनिया से जाए,’’ राहुल ने कहा.

एक सप्ताह बाद दोनों की शादी हो गई. शादी पूरी धूमधाम के साथ हुई. इस शादी के पीछे का भयानक सच उन दोनों के अलावा शादी में शामिल कोई भी तीसरा नहीं जानता था.

अग्नि के इर्दगिर्द शादी के फेरे लेते हुए दोनों के मस्तिष्क में कुछकुछ चल रहा था, मगर उन के चेहरों पर कोई शिकन नहीं थी.

 

कितना झूठा सच: वीरेन नें मां के लिए क्या कहा था

लेखक- आदर्श मलगूरिया

‘बेचारी, जीवन भर दुख ही उठाती रही. अब ऊपर से वैधव्य…’

दुख और संवेदना प्रकट करती सब महिलाएं उठ कर चली गईं. रेवा जड़ सी बैठी रही.

‘‘आप चल कर जरा लेटिए. मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ नीना ने आ कर उसे संभाला. बेजान गुडि़या सी रेवा पलंग पर आ कर लेट गई.

कितना झूठा सत्य? जो जीवन भर सर्पदंश सा उस के एकएक क्षण को विषाक्त करता रहा वही आज समुद्र मंथन से निकले गरल घट सा सहस्र धाराओं में बंट कर उसे व्याकुल कर रहा था, पर वह तो शिव नहीं थी जो इसे पी कर भी जीवित रहती. और वह अब जीना चाहती थी. किस के लिए मरे? किन मधुर क्षणों की थाती सहेजे? सोलह शृंगार कर सामाजिक मर्यादा की चिता पर चढ़ कर सती हो जाए? जीवन भर तो जल ही चुकी थी.

इंद्रधनुषी सपनों के रंग अभी सूखने भी न पाए थे कि वीरेन ने उपेक्षा की स्याही फेंक कर उन्हें बदरंग कर दिया था. फिर भी उस ने सजानेसंवारने का कितना प्रयत्न किया था. आंखकान पर  जबरदस्ती भ्रम की मनों रुई का भार डाल कर अंधीबहरी बन जाना चाहा था, परंतु यह भी क्या सहज था?

पागल सी हो कर मरीचिका के पीछे भागती वह सपनों के रंग समेटती, उन्हें क्रम से लगाती, पर वे बारबार उसे छलावा दे जाते, खंडखंड हो कर बिखर जाते और क्षितिज उतना ही दूर दिखता जितना प्रारंभ में था. भागतेभागते वह हांफ गई थी. शाम के ढलते सूरज की तरह घिसटघिसट कर पहुंचे भी तो कुछ हाथ आने वाला नहीं था. वहां बाकी था केवल एक स्याह अंधेरा.

जीवन की संध्या पर गुल्लू की तोतली बातों, पिंकी की हंसी और नन्हे की शरारतों का सलोना सिंदूरी रंग बिखरा हुआ था. यही एक थाती बच रही थी और आज रिश्तेनाते तथा आसपड़ोस की औरतें समझाने आ धमकी थीं कि इस सिंदूरी आभा पर वह वैधव्य की राख उड़ा कर, सामाजिक नियमों का पालन कर उसे गंदला कर ले.

पिछले महीने तार आया था कि वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है. बेजान कागज का टुकड़ा लिए वह दीवान पर बैठी रह गई थी. नीना ने आ कर पढ़ा.

‘‘फोन कर के इन को बुलवा लूं क्या?’’

वह समझ नहीं पाई कि सास से और क्या कहे.

पत्थर सी बैठी रेवा जैसे नींद से जागी, ‘‘क्यों? क्या जरूरत है? उसे कुछ कामधाम नहीं है क्या?’’

कहतेकहते तार को तोड़मरोड़ कर एक कोने में फेंक दिया. रसोई में जा कर सांभर को छौंक लगाने लगी. अभी पिंकी स्कूल से आ कर चावलसांभर मांगेगी. सवेरे कह गई थी कि मेरे आने तक बना कर रखना.

‘‘नीना, सांभर पाउडर कहां रखा है?’’

सफेद टाइलों के ऊपर लगी लाल सनमाइका के पटों वाली अलमारी में वह मैटल बाक्स के मसालों वाले डब्बे इधरउधर करने लगी.

नीना ने फिर तार के विषय में कुछ नहीं कहा. बिना कहे ही एक स्त्री दूसरी स्त्री के अंतर की व्यथा जान गई थी. कहनेसुनने को कुछ नहीं रहा.

दोपहर को खाना परोसते समय रेवा रोज की तरह गुल्लू को चावल बिखराने को मना कर रही थी. नन्हे कामिक खोले खाना खा रहा था. हाथ के निवाले में चावल, रोटी कुछ है भी या नहीं, यह देखने की उसे फुरसत नहीं थी. रोज की तरह रेवा ने कामिक छीन कर मेज पर फेंका, ‘‘खाते समय पढ़ने की आदत कब छूटेगी? जब मेदा खराब हो जाएगा?’’

आग्रह कर पिंकी की प्लेट में दोबारा चावलसांभर डालने लगी थी रेवा. घर की दिनचर्या में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया था. दोपहर में दादी की बगल में सिमटते गुल्लू ने आग्रह किया था, ‘‘दादीमां, हीरामन तोते की कहानी सुनाओ न.’’

‘‘दोपहर को कहानी नहीं सुनते. रात को सुनाऊंगी. अब घड़ी भर लेटने दे.’’

शाम को जय आया तो घर का वातावरण रोज की तरह सहज था. बच्चे खेलने गए थे. नीना किसी पत्रिका के पन्ने उलट रही थी. मां रसोई में रात के खाने की तैयारी में व्यस्त थी. किसी अनहोनी के घटने का कहीं चिह्न न था.

रात के खाने के बाद ही रेवा ने बात छेड़ी, ‘‘आज कानपुर से तार आया था.’’ बासी अखबार पलटते जय के हाथ रुक गए. उस का सर्वांग जल उठा. बोला कुछ नहीं. केवल आंखों से प्रश्न छलक उठा.

‘‘वीरेन को दिल का दौरा पड़ा है,’’ बिना किसी भावना के ठंडे बरफीले स्वर में रेवा कह गई.

जय चुप था. वह क्या कहे? यह ऐसे व्यक्ति की बीमारी का समाचार था जिस ने उस का व छोटे भाईबहन का बचपन निर्ममता से अभावों की अंधी गलियों में धकेल दिया था. तिरस्कृत मां का असहाय यौवन, दुनिया भर का उपहास और पिता के होते हुए भी पितृविहीन होने का शूल सा चुभता एहसास. सब कुछ उस की आंखों के आगे आ गया.

प्रारंभ में जब बात ढकीछिपी थी तब भी कोईकोई रिश्तेदार या स्कूल का साथी व्यंग्य की पैनी छुरी चुभो देता था, ‘क्यों जय, तुम्हारे पिता ने 2 बीवियां रखी हुई हैं क्या? एक घुमानेफिराने के लिए, दूसरी घर में खाना बनाने के लिए?’

और फिर घिनौने रंग में रंगी तीखी हंसी का फव्वारा. जी में तो आता कि मुंह तोड़ दे कहने वाले का, पर बात सच थी. गुस्सा पी जाना पड़ता. घर आ कर देखता कि मां हर वक्त मूक दीपशिखा सी जलती रहती हैं. पिता घर आने की औपचारिकता सी निभाते थे. स्कूल की फीस, कपडे़, किताबों और पढ़ाई का हालचाल पूछते थे. फीस के लिए चेक काट कर अलमारी में रख देते थे.

पितृत्व यहीं तक सिमट कर रह गया था. घर के खर्चे के लिए मां को महीने का बंधा रुपया देते थे. बस, सब उत्तरदायित्व पूरे हो गए. ये रुपए, चेक जय को अपमान का प्याला लगते

जिसे फिलहाल उतारने के सिवा कोई रास्ता नहीं था. छोटा था तो क्या, सब समझता था.

फिर कैसे उन का व्यवहार एकदम बदल गया. मां को शायद लगा कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया है. पुरानी कड़वाहट भूल कर फिर बौराई गौरैया सी तिनके समेटने लगी थीं, परंतु यह केवल एक छलावा निकला. प्यार के बोलों से युगों से पुरुष स्त्री को भरमाता आया है. भारतीय स्त्री जानबूझ कर इस गर्त में जा गिरती है. मां कहां का अपवाद थीं. जायदाद के कागज कह कर, मां से दूसरे विवाह के लिए स्वीकृति के कागजात पर हस्ताक्षर करवा लिए. बिना पढे़ मां ने हस्ताक्षर कर दिए थे. अंधे विश्वास की दोधारी तलवार तले कट मरीं. अब तो खर्चा, रुपयापैसा भी नहीं मांग सकती थीं.

फिर वह चले गए नए घर में आधुनिका नई पत्नी के साथ, जो उन के साथ पार्टियों में आजा सकती थी. जाते समय दया कर गए कि मकान मां के नाम करवा गए. साल भर का किराया पेशगी भर गए. बाद में दोनों मामा आए. हाथ पटकपटक कर मां पर झुंझलाते रहे, ‘तुम इतनी भोली कैसे बन गईं कि बिना पढे़ हस्ताक्षर कर दिए?’

मां का रोष अपनी मौत स्वयं मर गया था. वहां अंकुरित हो रहा था एक निराला स्वाभिमान.

‘अब जाने भी दो, भैया.’

‘जाने कैसे दूं? हाईकोर्ट तक छीछालेदर करवा देंगे बच्चू की. याद करेंगे.’

‘नहीं. अब यह बात यहीं खत्म करो. कुछ लाभ नहीं,’ मां का स्वर सर्द था.

‘पर बच्चों का खर्चा तो उसे देना ही पडे़गा. उस का परिवार है.’

‘भैया…’ मां चीख पड़ी थीं, ‘बच्चे केवल मेरे हैं अब. किसी की दानदया की भीख पर नहीं पलेंगे. कहीं ऐसा न हो कि दूसरों के सहारे जीना सीख जाएं.’

‘पर रेवा…’ मामा ने समझाना चाहा.

‘जो मेरा था ही नहीं उस के लिए अब कैसी छीनाझपटी?’

मामा के सामने तो मां स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति बनी रही थीं पर जय जानता था कि कितनी रातों को वह नदी के कच्चे कगार सी टुकड़ाटुकड़ा ढहती रही हैं. कन्या पाठशाला की नौकरी के बाद शाम को ट्यूशन. शनिवार तथा रविवार को मां आसपड़ोस का सिलाई का काम ले आती थीं. फिर एक स्वेटर बुनने की मशीन भी रख ली. परित्यक्ता स्त्री और तिरस्कृत होने न मायके गईं न ससुराल. तिलतिल कर जलती हुई बच्चों को अपने कमजोर डैनों में समेटे रही थीं. जय साक्षी रहा है इस पूरी अग्निपरीक्षा का. सीता तो धरती की गोद में समा कर त्राण पा गई थीं पर मां जीवन भर उस अग्नि में तपती कुंदन होती रहीं. मशीन पर झुकी मां को देख कर जय का शैशव इस दलदल से उन्हें बाहर खींचने को कसमें खाता था. इसी इच्छाशक्ति के कारण वह हर कक्षा में अव्वल आता था. महेश को भी वह पढ़ाता था. शोभा की कापियां खोल कर स्वयं जांचने बैठ जाता था.

मां व बच्चों में एक मूक सा समझौता हो गया था जिस की शर्तें सभी एकएक कर पूरी कर रहे थे. इंटरमीडिएट की परीक्षा में जय ने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया. अखबारों में उस के फोटो छपे, टेलीविजन पर उस का साक्षात्कार हुआ.

उस दिन विद्यालय के बाहर नीली फिएट से पिता उतरे. साथ में ‘वह’ भी थीं हाथों में बड़ा सा उपहार का डब्बा लिए.

‘मुझे तुम पर गर्व है, बेटे.’ भारतीय पिता एक योग्य बेटे का बाप होने की सार्वजनिक घोषणा करने का अवसर हाथ से कैसे जाने देता? जय निर्विकार सा उन्हें देखता रहा, जैसे वह कोई अजनबी हों.

इतने वर्षों में अजनबी तो बन ही गए थे. उपहार वाला हाथ हवा में ही लटका रह गया. जय आगे बढ़ गया. चेहरे पर संतुष्टि की मुसकान थी. आज मां के अपमान का दुख कुछ कम हुआ.

शाम को वह घर भी आ धमके. सब के लिए कपडे़, मिठाई, फलों के टोकरे, क्या कुछ नहीं लाए थे. मशीन पर बैठी मैली धोती पहने मां सकुचा सी गईं. जय ने उन्हें आंखों से आश्वासन दिया. बेटा जब बाप के बराबर कद का हो जाए तो मां को कितना आसरा हो जाता है.

‘कैसे आए?’ जय आज घर में मर्द था. बिना बुलाए इस मेहमान की शक्ल देखना भी उसे सहन नहीं हो रहा था. पराए घर में शानदार सूट पहने, अधेड़ अफसर पिता कितना बौना हो उठा था.

‘तुम्हें बधाई देने.’

‘मिल गई.’

‘अब आगे क्या करने का विचार है?’

जय झल्ला उठा, ‘अभी सोचा नहीं है कुछ.’

‘आई.आई.टी. में कोशिश करो.’

‘देखूंगा.’

शोभा उन्हें पहचानती थी. नमस्ते कर अंदर चली गई. साधारण मेहमान समझ कर हमेशा की तरह चाय बना कर ले आई. साथ में मठरी भी थी. जय ने जलती आंखों से उसे घूरा तो सकपका गई. कहां गलती हो गई.

बिना किसी के कहे ही उन्होंने चाय उठा ली. साथ में मठरी कुतरने लगे, ‘तुम ने बनाई है?’

‘बेटी’ कहतेकहते शायद झिझक गए. तभी लट्टू घुमाता महेश आ पहुंचा. उस से स्कूल और पढ़ाई के विषय में पूछने लगे, ‘तुम मेरे पास रहोगे, बेटा?’ चाय पीतेपीते पूछ बैठे.

‘कोई कहीं नहीं जाएगा. सब यहीं रहेंगे जहां आप उन्हें छोड़ गए थे.’

मां का स्वाभिमान दपदप कर जल रहा था. वह घबरा कर उठ खडे़ हुए. कैसे बूढे़ से लगने लगे. चुपचाप आ कर कार में बैठ गए. ड्राइवर ने कार स्टार्ट की. उन का सारा सामान जय ने खुली खिड़की से कार में रख दिया. फिर हाथ झाड़ने लगा. जैसे कूड़ा- करकट झाड़ रहा हो.

‘अब फिर कष्ट न कीजिएगा.’

यहीं सारे संबंध समाप्त कर जय ने हाथ झाड़ लिए. फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा.

बी.ए. पास करने के बाद उस ने बैंक से ऋण ले कर स्वतंत्र व्यवसाय शुरू किया और अब शहर के सफल व्यापारियों में गिना जाता था. कोठी, कार क्या कमी थी अब. शोभा डाक्टरी के अंतिम वर्ष में आ गई थी. महेश पत्रकारिता में जाने का विचार रखता है. अखबारों व पत्रिकाओं में उस के लेख छपने लगे थे.

और मां? घर में 2 नौकरानियां रखी हुई थीं. कभी उन्हें आदेश देतीं, काम करवातीं, कभी स्वयं गेहूं चुनने बैठ जाती थीं.

शोभा की शादी में नानी ने कितना कहा था, ‘अरे पिता को तो बुलवा लो.’ जय भन्ना उठा था, ‘इतने वर्षों तक उन के बिना काम चलाते आए हैं, आज भी चला लेंगे.’

‘पर कन्यादान कौन करेगा?’

‘मां जो हैं.’

बात यहीं समाप्त हो गई थी.

फिर जय की शादी भी हो गई. पिछली बातें याद कर लोग हंसते, पर धनी व्यवसायी को लड़कियों की क्या कमी थी?

पहली ही रात जय ने नीना को पूरी कहानी सुना दी. साथ ही चेतावनी भी दे दी, ‘कभी इस घर में अलगाव की बात मत करना, हमें मां के दुखों को कम करना है बढ़ाना नहीं.’

गुल्लू, पिंकी और नन्हे के साथ हसंखेल कर मां के पुराने दिनों के घाव भर रहे थे. वीरेन की बदली होती रही थी. आजकल कानपुर में थे. सेवानिवृत्त हो कर वहीं रहने लगे थे.

आज वर्षों के अनछुए विषय की किरणें बिखेरता यह तार आ पहुंचा था, ‘‘दिल का दौरा पड़ा है वीरेन को. हालत गंभीर है.’’

मां बेटे ने एकदूसरे को देखा. जीवन भर दुखों की डोर में बंधे रहे थे. शब्द बेमानी हो उठे. फिर किसी ने न जाने की बात की, न हालचाल पता करने की इच्छा प्रकट की.

रेवा अब विगत की परतों को कुरेदती भी तो सिवा तिरस्कार के कोई स्मृति हाथ न लगती.

आज एक महीने बाद दूसरा तार आ गया. वीरेन की मृत्यु हो गई थी. उसी का समाचार पा कर औरतें रोनेपीटने, सांत्वना देने आई थीं पर नीना ने उन्हें बाहर खदेड़ कर दरवाजा बंद कर दिया.

अब एक बार कानपुर जाना जरूरी हो गया था. बच्चों को शोभा के पास छोड़ कर सभी कार से निकल गए.

वहां कुहराम मचा हुआ था. रेवा शांत थी. जय, नीना व महेश गंभीर थे. वीरेन की दूसरी पत्नी का चीत्कार गूंज रहा था, ‘‘मुझे किस के सहारे छोड़ गए?’’

रोतीबिलखती स्त्री, अस्तव्यस्त कपडे़. यही प्रौढ़ा क्या उन के अभावग्रस्त पितृविहीन शैशव का कारण थी?

उस दिन स्कूल के बाहर भी तो देखा था. आज जैसे सोने का सारा झूठा पानी उतरा हुआ था. बाकी रह गई थी वैधव्य की कालिख और ढलती आयु के अकेलेपन का कुहरा.

‘‘चलिए, बेटा तो आ गया मुखाग्नि देने को,’’ दरअसल, किसी ने जय को देख कर कहा था.

दूसरी शादी से वीरेन को कोई संतान नहीं हुई थी.

‘‘हम केवल अफसोस जाहिर करने आए थे, अब वापस जाएंगे,’’ कह कर जय उठ खड़ा हुआ. रेवा, नीना और महेश भी बाहर आ गए. औपचारिकता पूरी हो चुकी थी.

भरी सभा में जैसे किसी ने बम फेंक दिया. सब सकते में आ गए.

‘‘कलियुग है… घोर कलियुग. धरती रसातल को जाएगी. बेटा, बेटा होने से मुकर गया,’’ बड़ीबूढि़यां जय की मलामत कर रही थीं.

‘‘और मां को तो देखो. नीली साड़ी, चूडि़यां, बिछुए. कौन कहेगा कि यह विधवा है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

‘‘खबरदार, जो मेरी मां को विधवा कहा. इतने वर्षों तक वह किसी की पत्नी नहीं थी. वह आज भी विधवा नहीं है, वह मां है, केवल हमारी मां.’’

खुले आंगन में जैसे कांसे का थाल गिरा और छनाका देर तक गूंजता रहा.

विदेशी बहू: क्या तुषार की मां ने किया स्कारलेट को स्वीकार

तुषार उन दिनों कोलकाता के मैरीन इंजीनियरिंग कालेज के फाइनल ईयर में था. अंतिम वर्ष में जहाज पर प्रैक्टिकल ट्रेनिंग अनिवार्य होती है. उस की ट्रेनिंग एक औयल टैंकर पर थी. यह जहाज हजारों टन तेल ले कर देश की समुद्री सीमा के अंदर ही एक पोर्ट से दूसरे पोर्ट पर जाता है. जहाज पर यह उस का पहला सफर था. तुषार काफी खुश था. वह सपने देख रहा था कि कुछ ही महीनों में उस की पढ़ाई पूरी होने के बाद विदेश जाने वाले जहाज पर वह समुद्र पार जाएगा.

खैर, उस की पढ़ाई और ट्रेनिंग सब पूरी हो गई थी और उसे मैरीन इंजीनियरिंग की डिगरी भी मिल गई थी. तुषार के पिता की मौत हो चुकी थी. उस की मां उस के बड़े भाई कमल के साथ रहती थीं. कमल तुषार से 5 साल बड़ा था. यों तो उस के पिता ने इतनी संपत्ति छोड़ रखी थी कि मां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थीं, फिर भी बुढ़ापे में कुछ गिरते स्वास्थ्य और बेटे से भावनात्मक लगाव के कारण वे कमल के साथ रहती थीं, पर बहू का स्वभाव अच्छा नहीं था. रोजाना सास को खरीखोटी सुनाती रहती थी. तुषार मां से कहता, ‘मैं ऐसी लड़की से शादी करूंगा जो आप को अपनी मां का दर्जा दे.’

एक शिपिंग कंपनी में तुषार को नौकरी मिल गई. शुरू में फिफ्थ इंजीनियर की पोस्ट पर जौइन करना होता है, जो जहाज का सब से जूनियर इंजीनियर होता है. उस की पोस्ंिटग एक नए जहाज पर हुई. वह जहाज जापान से बन कर आया था. जहाज को कोलकाता से कंपनी के हैडक्वार्टर मुंबई ले जाना था. हैडऔफिस ने इस जहाज को मुंबईआस्ट्रेलिया जलमार्ग पर चलाने का फैसला किया था. तुषार की मनोकामना पूरी होने जा रही थी.

आस्ट्रेलिया का सफर, वह भी नए जहाज पर. मेंटिनैंस के लिए ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी थी. खैर, उस का जहाज कोलकाता से मुंबई के लिए रवाना हुआ. यह सफर भी किसी विदेश यात्रा से कम नहीं था, पूरे 5 दिन लग गए. भारत के तीनों सागर बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर पार करते हुए वह मुंबई पहुंचा. भारतीय जलमार्ग पर इन 5 दिनों के सफर में ही उसे अनुभव हुआ कि समुद्री यात्रा कितनी कठिन होती है. जहाज के समुद्री लहरों पर उछलते रहने से कारण उसे अकसर उलटी होती थी.

मुंबई के कार्गो ले कर जहाज कोलंबो पहुंचा. यह तुषार का पहला विदेशी पड़ाव था. कोलंबो से मसाले, चाय आदि ले कर जहाज को सीधे सिडनी जाना था. जब जहाज समुद्र में चल रहा होता, उसे 4-4 घंटे की 2 शिफ्टें रोज करनी होतीं. जब जहाज पोर्ट या लंगर में होता तब 12 घंटे की शिफ्ट होती थी. उस ने अपने सीनियर्स से बात कर सिडनी पोर्ट पर 12 घंटे की डे शिफ्ट सुबह 6 बजे से शाम 6 बजे तक की ड्यूटी रखवा ली थी ताकि वह सिडनी की नाइटलाइफ ऐंजौय कर सके.

इस के बारे में उस ने अपने दोस्तों से जानकारी ले रखी थी. खैर, लहरों पर उछलतेकूदते उस का जहाज सिडनी 12वें दिन पहुंचा. पर पोर्ट पर बर्थ खाली नहीं होने से जहाज को पोर्ट से कुछ दूरी पर लंगर डालना पड़ा. रात का समय था. तुषार डेक पर खड़ा हो कर नजारा देख रहा था. दूर से ही उसे सिडनी शहर की बहुमंजिली इमारतें दिख रही थीं. एक ओर विश्वप्रसिद्ध औपेरा हाउस था तो दूसरी तरफ मशहूर सिडनी हार्बर ब्रिज. उस का मन मचल रहा था कि कब लंगर उठे और जहाज को बर्थ मिले. दूसरे दिन दोपहर तक जहाज को पोर्ट पर एंटर करने की अनुमति मिल गई.

जहाज हार्बर ब्रिज के नीचे से गुजर रहा था और तुषार डेक पर खड़ा हो कर इस दृश्य को देख कर रोमांचित हो रहा था. कुछ ही देर बाद जहाज पोर्ट पर था. इस जहाज को सिडनी में एक सप्ताह रुकना था. अब उसे इंतजार था शाम का. जहाज पर डिनर शाम 6 बजे से मिलने लगता है. तुषार ने जल्दी से डिनर लिया और एक अन्य जहाजी के साथ शहर घूमने निकल पड़ा. एक क्लब में गया. दोनों ने बियर ली. 2 लड़कियां बगल की टेबल पर बैठी बातचीत कर रही थीं. तुषार का वह साथी पहले भी कई बार आस्ट्रेलिया आ चुका था, सो, उसे यहां का आइडिया था. उस ने लड़कियों को ड्रिंक औफर कर अपनी टेबल पर बुलाया.

फिर तो लड़कियों ने जम कर बियर पी. काफी देर तक वे डांस करते रहे. बीचबीच में कुछ देर के लिए टेबल पर आते. कुछ देर बैठ कर बातें करते. और बियर पी लेते. फिर डांसफ्लोर पर लड़की की कमर में बांहें डाल कर थिरकते. तुषार को बहुत मजा आ रहा था. यह उस का पहला मौका था गोरी बाला के साथ डांस करने का. रात 11 बजे वह अपने दोस्त के साथ वापस जहाज पर आ गया.

तुषार ने सिडनी की किंग क्रौस रोड की नाइटलाइफ के बारे में काफी सुन रखा था. दूसरे दिन उस ने किंग क्रौस जाने का फैसला किया, उस के सहकर्मी ने बताया कि वहां जा कर स्ट्रिप टीज का मजा लेना. किंग क्रौस पर नाइट शो क्लब काफी हैं. उस से कहा गया कि उस रोड पर पिंक पैंथर नामक क्लब में अच्छा शो होता है.अगले दिन रात को टैक्सी पकड़ ठीक 8 बजे वह पिंक पैंथर जा पहुंचा. वहां 10 डौलर का टिकट लिया और अंदर डांसिंग रैंप के नजदीक वाली कुरसी पर जा बैठा.

यहां वह एक बार के टिकट में ही 2-2 घंटे के स्ट्रिप टीज शोज रातभर देख सकता था. इन 2 घंटों में 12 सुंदरियां एकएक कर आ कर अपने कपड़े उतारतीं और कम से कम वस्त्रों में या कभी बिलकुल नग्न हो कर गाने पर ‘पोल डांस’ भी दिखाती थीं. शो के बीच में बार टैंडर लड़कियां आ कर सिगरेट, बियर आदि बेचतीं. वे गले में पट्टे के सहारे एक टे्र में बियर, सिगरेट आदि बेचतीं. एक ने तुषार से पूछा, ‘‘कुछ चाहिए?’’ तो वह बोला, ‘‘एक स्वान लैगर बियर कैन प्लीज.’’ वह बोली, ‘‘आप को 5 मिनट बाद ला कर देती हूं. अभी मेरी ट्रे में नहीं है.’’ इतना बोल कर वह चली गई पर तुषार उसे देखे जा रहा था.

वह लगभग 18 साल की सुंदरी थी. 5 मिनट बाद उस ने बियर ला कर तुषार को दी और पूछा, ‘‘और कुछ?’’ तुषार बोला, ‘‘और कुछ नहीं, बट…’’ ‘‘बट मतलब?’’ ‘‘तुम इस शो के बाद मेरे साथ कुछ समय बिता सकती हो?’’ धीरे से मुसकरा कर वह बोली, ‘‘आप जो समझ रहे हैं, मैं वह लड़की नहीं हूं. हां, आप को उस टाइप की लड़की चाहिए तो यहां और भी हैं. क्या मैं उन में से एक को बोल दूं?’’ ‘‘अरे नहीं, मैं भी वैसा नहीं जो तुम समझ बैठी. बस, 2-3 घंटे टाइमपास, साथ बैठ कर बातें, डिनर और बियर, इस से ज्यादा कुछ नहीं.’’ ‘‘श्योर?’’ लड़की ने पूछा. तुषार बोला, ‘‘हंड्रैड परसैंट श्योर. तो कल संडे है, शाम को मिलो.’’ ‘‘नहीं, छुट्टी के दिन यहां अच्छी कमाई हो जाती है.

50 डौलर से अधिक टिप्स में मिल जाते हैं. मैं भी बस पार्टटाइम 4 घंटे के लिए आती हूं.’’ तुषार ने कहा, ‘‘ओके, मंडे शाम को. डार्लिंग हार्बर के निकट तुंबलोंग पार्क में मिलो. मैं सिर्फ 5 दिन और यहां हूं. कल शाम भी यहां मिलूंगा, तुम अपना नाम तो बताओ.’’ ‘‘मैं, स्कारलेट,’’ लड़की बोली. ‘‘और मैं तुषार.’’ संडे शाम को तुषार फिर पिंक पैंथर में था. इस बार जान कर वह पीछे की सीट पर बैठा ताकि स्कारलेट से आराम से कुछ बातें कर सके. शो चल रहा था, स्कारलेट आ कर बोली, ‘‘आप का स्वान लैगर बियर?’’ तुषार ने बियर की पेमैंट और टिप दी और कहा, ‘‘दो मिनट मेरे पास रुको न.’’ ‘‘आज काफी भीड़ है. कुछ कमा लेने दो. कल शाम 6 बजे तो मिल ही रहे हैं. 4-5 घंटे आराम से बातें करेंगे दोनों.’’

उस दिन तुषार बस 2 घंटे का एक शो देख कर जहाज पर लौट आया. अगले दिन सोमवार शाम को ठीक 6 बजे तुषार और स्कारलेट पार्क में मिले. तुषार ने पूछा, ‘‘वेल स्कारलेट, तुम पिंक पैंथर जैसी जगह में क्यों काम करती हो?’’ ‘‘मैं अनाथ हूं. मेरे मातापिता दोनों की एक दुर्घटना में मौत हो गई थी. कुछ साल मैं अंकल के साथ रही. उन्हीं के यहां रह कर स्कूलिंग कर रही थी. उन का व्यवहार ठीक नहीं था, तो पिछले साल मैं अलग एक गर्ल्स होस्टल में शिफ्ट हो गई. एक और लड़की के साथ रूम शेयर करती हूं. पिंक पैंथर जैसी जगह पर काम करने के लिए कोई डिगरी या अनुभव नहीं चाहिए.

बस, अपनी इच्छाशक्ति मजबूत होनी चाहिए. पार्टटाइम काम करती हूं. स्कूल का फाइनल ईयर है और अब तुम बताओ अपने बारे में.’’ इतना कुछ वह एकसाथ बोल गई. तुषार ने अपना परिचय देते हुए अपने परिवार के बारे में संक्षेप में बताया. फिर उस ने पूछा, ‘‘पिंक पैंथर्स से तुम्हारा खर्च निकल आता है?’’ ‘‘नहीं. कुछ पैसे पिताजी भी छोड़ गए थे. हालांकि उसी की बदौलत पिछले साल तक मेरा काम चला है. कुछ अंकल ने हड़प लिए. वैसे पिंक पैंथर के अलावा सुबह 2 घंटे एक घर में मेड का भी काम करती हूं. दोनों मिला कर काम चल जाता है.’’ तुषार और स्कारलेट दोनों कुछ देर बातें करते रहे. फिर एक इंडियन रैस्टोरैंट में दोनों ने डिनर किया. स्कारलेट ने पहली बार इंडियन खाना खाया था.

उसे यह बहुत अच्छा लगा. तुषार ने पूछा, ‘‘ड्रिंक करती हो?’’ वह बोली, ‘‘सिर्फ बियर. और कुछ नहीं.’’ ‘‘अच्छा संयोग है. मैं भी सिर्फ बियर ही लेता हूं.’’ रैस्टोरैंट से निकल कर उस ने 2 बियर कैन लिए. एक स्कारलेट को दे दिया. दोनों ने अपनीअपनी बियर पी. तब तक रात के 10 बज चुके थे. तुषार ने टैक्सी बुलाईर् और कहा, ‘‘मैं तुम्हें होस्टल छोड़ते हुए जहाज पर चला जाऊंगा.’’ रास्ते में उस ने स्कारलेट से कल का प्रोग्राम पूछा तो वह बोली, ‘‘तुम ने औपेरा हाउस देखा है?’’ ‘‘हां, बाहर से देखा है. वैसे मुझे थिएटर में रुचि नहीं है.’’ ‘‘तो फिर कल तुम्हें हार्बर आईलैंड घुमा लाती हूं.’’ ‘‘मेरी डे शिफ्ट है. अपने मित्र से म्यूचुअल चेंज करने की कोशिश करता हूं. अगर चेंज हो गया तो तुम्हें फोन करूंगा.’’

स्कारलेट को होस्टल छोड़ कर वह पोर्ट चला आया. फिर अपने दोस्त से शिफ्ट म्यूचुअल चेंज कर फटाफट स्कारलेट को खबर दे दी. उस ने तुषार को सर्कुलर के फेरी स्टेशन के टिकट काउंटर पर सुबह 9 बजे मिलने बुलाया. अगले दिन दोनों फेरी पकड़ कर सागर के बीच में आईलैंड गए. वहां शहर की भीड़भाड़ से दूर आईलैंड पर तुषार को काफी अच्छा लगा. वहां से सिडनी शहर, हार्बर ब्रिज, औपेरा हाउस सब दिख रहे थे. दिनभर सैरसपाटे, गपशप करते 4 बजे तक वे वापस आ गए. फेरी स्टेशन पर कौफी सिप करते हुए तुषार बोला, ‘‘मेरा शिप परसों इंडिया के लिए रवाना हो जाएगा.’’ वह बोली, ‘‘ओह, रियली. अभी तो हम ठीक से मिले भी नहीं और इतनी जल्दी जुदाई. विल मिस यू स्वीट गाई.’’ ‘‘आई टू विल मिस यू. खैर, कल कहां मिलोगी?’’ स्कारलेट बोली, ‘‘वहीं पिंक पैंथर में.’’ ‘‘मुझे रोजरोज वहां अच्छा नहीं लगता है. तुम उस नौकरी को छोड़ नहीं सकतीं? मुझे अच्छा नहीं लगता है.’’ ‘‘कोशिश करूंगी, पर तुम्हें क्यों बुरा लगता है. मैं न तो तुम्हारी गर्लफ्रैंड हूं और न ही वाइफ.’’

तुषार बोला, ‘‘पर क्या पता, आगे बन जाओ.’’ ‘‘यू नौटी बौय,’’ कह कर स्कारलेट उस से लिपट गई. दूसरे दिन दोनों थोड़ी देर के लिए उसी क्लब के बाहर मिले. तुषार अंदर नहीं जाना चाहता था. तुषार ने बताया कि कल सुबह 10 बजे उस का शिप भारत रवाना हो रहा है. अगले दिन वह सुबह 9 बजे शिप पर मिलने आई. थोड़ी देर दोनों साथ रहे. तुषार ने अपने पैंट्री से कुछ इंडियन स्नैक्स, बियर कैन्स और चौकलेट्स पहले से मंगवा कर पैक करा रखे थे. उन्हें स्कारलेट को दिया. दोनों ने फोन और ईमेल से कौंटैक्ट में रहने की बात की. स्कारलेट बोली, ‘‘फिर कब मिलोगे?’’ तुषार बोला, ‘‘कुछ कह नहीं सकता. पर अगर इसी शिप पर रहा तो 3-4 महीने बाद फिर आना हो सकता है.’’

इस बार तुषार ने स्कारलेट को गले से लगा लिया. उस ने आंसूभरी आंखों से तुषार को विदा किया. जहाज सिडनी हार्बर छोड़ चुका था. तुषार वापसी में कुछ और देशों के बंदरगाह होते हुए मुंबई पहुंचा. वहां उसे बताया गया कि 3 महीने बाद फिर उसे सिडनी जाना होगा. वह खुश हुआ यह सोच कर कि फिर स्कारलेट से मिल सकेगा. तुषार ने एक हफ्ते की छुट्टी ली. मां से मिलने कोलकाता गया. उस ने अपनी भाभी को स्कारलेट के बारे में बताया और उस की काफी तारीफ की, पर उन्हें उस की नौकरी की बात नहीं बताई. भाभी ने व्यंग्य करते हुए सास से कहा, ‘‘देवरजी, विदेशी बहू ला रहे हैं आप के लिए.’’ मां बोलीं, ‘‘तुषार जिस में खुश, मैं उसी में खुश.’’ तुषार के भैया कमल भी वहीं थे.

वे भी मां की बात से सहमत थे. पर तुषार बोला, ‘‘अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं है. बस, 4-5 दिनों की मुलाकात थी.’’ 3 महीने बाद तुषार का शिप फिर सिडनी पोर्ट पहुंचा. उस ने स्कारलेट को सूचित कर दिया था. उस ने फोन पर पूछा, ‘‘कहां मिलोगी, वहीं पिंक पैंथर में?’’ वह बोली, ‘‘नहीं, एक महीने पहले मैं ने वह नौकरी छोड़ दी है. अब एक ट्रैवल एजेंट के यहां रिसैप्शनिस्ट हूं और उसी होस्टल में रहती हूं पर अब सिंगल रूम में रहती हूं.’’ ‘‘ठीक है, शाम को मिलते हैं.’’ इस बार भी करीब एक हफ्ते तक उसे सिडनी रुकना था. दोनों रोज शाम को 3-4 घंटे साथ बिताते. कभी स्कारलेट ही उस से मिलने शिप पर आ जाती. अब दोनों पहले से ज्यादा करीब आ चुके थे. लगभग डेढ़ साल तक तुषार इसी तरह हर 3-4 महीने बाद स्कारलेट से मिलता. दोनों में अब प्यार हो गया था.

इस बात को दोनों ने स्वीकार भी किया. एक बार जब तुषार स्कारलेट को होस्टल ड्रौप कर पोर्ट लौट रहा था, उस की टैक्सी का ऐक्सिडैंट हो गया. तुषार के दाएं पैर में काफी चोट आई थी. इस के अलावा और भी चोटें आई थीं. पुलिस ने उसे अस्पताल में भरती कर शिप के कैप्टन और भारतीय कौंसुलेट को सूचित कर दिया था. तुषार ने स्कारलेट को भी खबर करवाई. स्कारलेट तुरंत अस्पताल पहुंच गई. तुषार के शिप से भी एक अफसर आया था. उस के दाएं पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर थे. डाक्टर ने बताया कि उस के ठीक होने में लगभग 3 महीने लग सकते हैं.

उस के बाद भी जहाज के इंजनरूम में शायद काम करना उस के लिए सुरक्षित न हो. शिपिंग कंपनी ने तुषार के घर वालों को भी खबर भेज दी. उस की मां बहुत घबराई थी. उस ने बेटे से फोन पर बात की. शिप के अफसर ने उन्हें बताया कि चिंता की बात नहीं. कंपनी उन के बेटे का पूरा इलाज करा रही है. डाक्टर ने बताया कि कम से कम प्लास्टर कटने तक तुषार को अस्पताल में ही रहना पड़ेगा. स्कारलेट अब रोज शाम को तुषार से मिलने आती. विजिटिंग औवर्स तक उस के पास बैठी रहती. वीकैंड में वह 2 बार मिलने आती. अकसर इंडियन रैस्टोरैंट से कुछ देशी खाना भी उस के लिए लाती. अब उन का प्रेम और गहरा हो गया था. बीचबीच में स्कारलेट अपने फोन से ही तुषार की मां उस की बात करा देती.

3 हफ्ते बाद तुषार का प्लास्टर कटा. एक्सरे के बाद डाक्टर ने बताया कि अभी उस की हड्डी ठीक से नहीं जुड़ी है. दोबारा 3 हफ्ते के लिए प्लास्टर बांधना होगा. इसी बीच तुषार की मां ने बताया कि अब वे ओल्डएज होम में रह रही हैं. बहू की रोजरोज खिचखिच से तंग आ कर बेटे ने मां को वहां शिफ्ट कर दिया था. यह जान कर स्कारलेट को भी दुख हुआ. उस ने तो सुन रखा था कि इंडिया में रिश्तों की काफी अहमियत है. तुषार का प्लास्टर कटा. डाक्टर ने कहा कि अब वह घर जा सकता है. पर अगले एक महीने तक थेरैपी लेनी होगी और सावधानी से छड़ी के सहारे चलना होगा.

तुषार ने मां को स्कारलेट के बारे में बताया कि 2 महीने से वही उस की देखभाल कर रही थी. मां ने स्कारलेट को शुभकामनाएं दीं और पूछा कि क्या वह तुषार की जीवनसंगिनी बनेगी. इस पर स्कारलेट ने मां से कहा, ‘‘मुझे तो कभी परिवार के साथ रहने का अवसर ही नहीं मिला है. अगर आप और तुषार चाहें तो मैं आप की छोटी बहू बन कर गर्व महसूस करूंगी.’’ तुषार ने स्कारलेट को गले लगा कर उस के गाल को प्यार से चूम लिया.

इधर शिपिंग कंपनी ने तुषार की पोस्ंिटग कोलकाता के ही एक कारखाने में कर दी. वहां उसे जहाज के कलपुरजों की मेंटिनैंस का काम देखना होगा और मैरीन छात्रों की ट्रेनिंग भी देखनी होगी. तुषार और शिपिंग कंपनी ने मिल कर कौंसुलेट से स्कारलेट के वीसा का प्रबंध किया. दोनों कोलकाता आए. कंपनी ने तुषार के लिए एक फ्लैट का इंतजाम कर दिया था. सब से पहले तुषार और स्कारलेट दोनों ओल्डएज होम जा कर मां को घर ले आए. बंगाली विधि से दोनों की शादी हुई. तुषार की मां अपनी विदेशी बहू से संतुष्ट है.

बेघर: क्या रुचि ने धोखा दिया था मानसी बूआ को

भाभी ने आखिर मेरी बात मान ही ली. जब से मैं उन के पास आई थी यही एक रट लगा रखी थी, ‘भाभी, आप रुचि को मेरे साथ भेज दो न. अर्पिता के होस्टल चले जाने के बाद मुझे अकेलापन बुरी तरह सताने लगा है और फिर रुचि का भी मन वहीं से एम.बी.ए. करने का है, यहां तो उसे प्रवेश मिला नहीं है.’

‘‘देखो, मानसी,’’ भाभी ने गंभीर हो कर कहा था, ‘‘वैसे रुचि को साथ ले जाने में कोई हर्ज नहीं है पर याद रखना यह अपनी बड़ी बहन शुचि की तरह सीधी, शांत नहीं है. रुचि की अभी चंचल प्रकृति बनी हुई है, महाविद्यालय में लड़कों के साथ पढ़ना…’’

मानसी ने उन की बात बीच में ही काट कर कहा, ‘‘ओफो, भाभी, तुम भी किस जमाने की बातें ले कर बैठ गईं. अरे, लड़कियां पढ़ेंगी, आगे बढ़ेंगी तभी तो सब के साथ मिल कर काम करेंगी. अब मैं नहीं इतने सालों से बैंक में काम कर रही हूं.’’

भाभी निरुत्तर हो गई थीं और रुचि सुनते ही चहक पड़ी थी, ‘‘बूआ, मुझे अपने साथ ले चलो न. वहां मुझे आसानी से कालिज में प्रवेश मिल जाएगा. और फिर आप के यहां मेरी पढ़ाई भी ढंग से हो जाएगी…’’

रुचि ने उसी दिन अपना सामान बांध लिया था और हम लोग दूसरे दिन चल दिए थे.

मेरे पति हर्ष को भी रुचि का आना अच्छा लगा था.

‘‘चलो मनु,’’ वह बोले थे, ‘‘अब तुम्हें अकेलापन नहीं खलेगा.’’

‘‘आजकल मेरे बैंक का काम काफी बढ़ गया है…’’ मैं अभी इतना ही कह पाई थी कि हर्ष बात को बीच में काट कर बोले थे, ‘‘और कुछ काम तुम ने जानबूझ कर ओढ़ लिए हैं. पैसा जोड़ना है, मकान जो बन रहा है…’’

मैं कुछ और कहती कि तभी रुचि आ गई और बोली, ‘‘बूआ, मैं ने टेलीफोन पर सब पता कर लिया है. बस, कल कालिज जा कर फार्म भरना है. कोई दिक्कत नहीं आएगी एडमिशन में. फूफाजी आप चलेंगे न मेरे साथ कालिज, बूआ तो 9 बजे ही बैंक चली जाती हैं.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. चलो, अब इसी खुशी में चाय पिलाओ,’’ हर्ष ने उस की पीठ ठोकते हुए कहा था.

रुचि दूसरे ही क्षण उछलती हुई किचन में दौड़ गई थी.

‘‘इतनी बड़ी हो गई पर बच्ची की तरह कूदती रहती है,’’ मुझे भी हंसी आ गई थी.

चाय के साथ बड़े करीने से रुचि बिस्कुट, नमकीन और मठरी की प्लेटें सजा कर लाई थी. उस की सुघड़ता से मैं और हर्ष दोनों ही प्रभावित हुए थे.

‘‘वाह, मजा आ गया,’’ चाय का पहला घूंट लेते ही हर्ष ने कहा, ‘‘चलो रुचि, तुम पहली परीक्षा में तो पास हो गई.’’

दूसरे दिन हर्ष के साथ स्कूटर पर जा कर रुचि अपना प्रवेशफार्म भर आई थी. मैं सोच रही थी कि शुरू में यहां रुचि  को अकेलापन लगेगा. कालिज से आ कर दिन भर घर में अकेली रहेगी. मैं और हर्ष दोनों ही देर से घर लौट पाते हैं पर रुचि ने अपनी ज्ंिदादिली और दोस्ताना लहजे से आसपास कई घरों में दोस्ती कर ली थी.

‘‘बूआ, आप तो जानती ही नहीं कि आप के साथ वाली कल्पना आंटी कितनी अच्छी हैं. आज मुझे बुला कर उन्होंने डोसे खिलाए. मैं डोसे बनाना सीख भी आई हूं.’’

फिर एक दिन रुचि ने कहा, ‘‘बूआ, आज तो मजा आ गया. पीछे वाली लेन में मुझे अपने कालिज के 2 दोस्त मिल गए, रंजना और उस का भाई रितेश. कल से मैं भी उन के साथ पास के क्लब में बैडमिंटन खेलने जाया करूंगी.’’

हर्ष को अजीब लगा था. वह बोले थे, ‘‘देखो, पराई लड़की है और तुम इस की जिम्मेदारी ले कर आई हो. ठीक से पता करो कि किस से दोस्ती कर रही है.’’

हर्ष की इस संकीर्ण मानसिकता पर मुझे रोष आ गया था.

‘‘तुम भी कभीकभी पता नहीं किस सदी की बातें करने लगते हो. अरे, इतनी बड़ी लड़की है, अपना भलाबुरा तो समझती ही होगी. अब हर समय तो हम उस की चौकसी नहीं कर सकते हैं.’’

हर्ष चुप रह गए थे.

आजकल हर्ष के आफिस में भी काम बढ़ गया था. मैं बैंक से सीधे घर न आ कर वहां चली जाती थी जहां मकान बन रहा था. ठेकेदार को निर्देश देना, काम देखना फिर घर आतेआते काफी देर हो जाती थी. मैं सोच रही थी कि मकान पूरा होते ही गृहप्रवेश कर लेंगे. बेटी भी छुट्टियों में आने वाली थी, फिर भैया, भाभी भी इस मौके पर आ जाएंगे. पर मकान का काम ही ऐसा था कि जल्दी खत्म होने के बजाय और बढ़ता ही जा रहा था.

रुचि ने घर का काम संभाल रखा था, इसलिए मुझे कुछ सुविधा हो गई थी. हर्ष के लिए चायनाश्ता बनाना, लंच तैयार करना सब आजकल रुचि के ही जिम्मे था. वैसे नौकरानी मदद के लिए थी फिर भी काम तो बढ़ ही गया था. घर आते ही रुचि मेरे लिए चायनाश्ता ले आती. घर भी साफसुथरा व्यवस्थित दिखता तो मुझे और खुशी होती.

‘‘बेटे, यहां आ कर तुम्हारा काम तो बढ़ गया है पर ध्यान रखना कि पढ़ाई में रुकावट न आने पाए.’’

‘‘कैसी बातें करती हो बूआ, कालिज से आ कर खूब समय मिल जाता है पढ़ाई के लिए, फिर लीलाबाई तो दिन भर रहती ही है, उस से काम कराती रहती हूं,’’ रुचि उत्साह से बताती.

इस बार कई सप्ताह की भागदौड़ के बाद मुझे इतवार की छुट्टी मिली थी. मैं मन ही मन सोच रही थी कि इस इतवार को दिन भर सब के साथ गपशप करूंगी, खूब आराम करूंगी, पर रुचि ने तो सुबहसुबह ही घोषणा कर दी थी, ‘‘बूआ, आज हम सब लोग फिल्म देखने चलेंगे. मैं एडवांस टिकट के लिए बोल दूं.’’

‘‘फिल्म…न बाबा, आज इतने दिनों के बाद तो घर पर रहने को मिला है और आज भी कहीं चल दें.’’

‘‘बूआ, आप भी हद करती हैं. इतने दिन हो गए मैं ने आज तक इस शहर में कुछ भी नहीं देखा.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है,’’ मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारे इतने दोस्त हैं, जिन के बारे में तुम बताया करती हो, उन के साथ जा कर फिल्म देख आओ.’’

मेरे इस प्रस्ताव पर रुचि चिढ़ गई थी अत: उस का मन रखने के लिए मैं ने हर्ष से कहा, ‘‘देखो, आप इसे कहीं घुमा लाओ, मैं तो आज घर पर ही रह कर आराम करूंगी.’’

‘‘अच्छा, तो मैं अब इस के साथ फिल्म देखने जाऊं.’’

‘‘अरे बाबा, फिल्म न सही और कहीं घूम आना, अर्पिता के साथ भी तो तुम जाते थे न.’’

हर्ष और रुचि के जाने के बाद मैं ने घर थोड़ा ठीकठाक किया फिर देर तक नहाती रही. खाना तो नौकरानी आज सुबह ही बना कर रख गई थी. सोचा बाहर का लौन संभाल दूं पर बाहर आते ही रंजना दिख गई थी.

‘‘आंटी, रुचि आजकल कालिज नहीं आ रही है,’’ मुझे देखते ही उस ने पूछा था.

सुनते ही मेरा माथा ठनका. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘कालिज तो वह रोज जाती है.’’

‘‘नहीं आंटी, परसों टेस्ट था, वह भी नहीं दिया उस ने.’’

मैं कुछ समझ नहीं पाई थी. अंदर आ कर मुझे खुद पर ही झुंझलाहट हुई कि मैं भी कैसी पागल हूं. लड़की को यहां पढ़ाने लाई थी और उसे घर के कामों में लगा दिया. अब इस से घर का काम नहीं करवाना है और कल ही इस के कालिज जा कर इस की पढ़ाई के बारे में पता करूंगी.

‘‘मेम साहब, कपड़े.’’

धोबी की आवाज पर मेरा ध्यान टूटा. कपड़े देने लगी तो ध्यान आया कि जेबें देख लूं. कई बार हर्ष का पर्स जेब में ही रह जाता है. कमीज उठाई तो रुचि की जीन्स हाथ में आ गई. कुछ खरखराहट सी हुई. अरे, ये तो दवाई की गोलियां हैं, पर रुचि को क्या हुआ?

रैपर देखते ही मेरे हाथ से पैकेट छूट गया था, गर्भ निरोधक गोलियां… रुचि की जेब में…

मेरा तो दिमाग ही चकरा गया था. जैसेतैसे कपड़े दिए फिर आ कर पलंग पर पसर गई थी.

कालिज के अपने सहपाठियों के किस्से तो बड़े चाव से सुनाती रहती थी और मैं व हर्ष हंसहंस कर उस की बातों का मजा लेते थे पर यह सब…मुझे पहले ही चेक करना था. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गई तो भैयाभाभी को मैं क्या मुंह दिखाऊंगी.

मन में उठते तूफान को शांत करने के लिए मैं ने फैसला लिया कि कल ही इस के कालिज जा कर पता करूंगी कि इस की दोस्ती किन लोगों से है. हर्ष से भी बात करनी होगी कि लड़की को थोड़े अनुशासन में रखना है, यह अर्पिता की तरह सीधीसादी नहीं है.

हर्ष और रुचि देर से लौटे थे. दोनों सुनाते रहे कि कहांकहां घूमे, क्याक्या खाया.

‘‘ठीक है, अब सो जाओ, रात काफी हो गई है.’’

मैं ने सोचा कि रुचि को बिना बताए ही कल इस के कालिज जाऊंगी और हर्ष को आफिस से ही साथ ले लूंगी, तभी बात होगी.

सुबह रोज की तरह 8 बजे ही निकलना था पर आज आफिस में जरा भी मन नहीं लगा. लंच के बाद हर्ष को आफिस से ले कर रुचि के कालिज जाऊंगी, यही विचार था पर बाद में ध्यान आया कि पर्स तो घर पर ही रह गया है और आज ठेकेदार को कुछ पेमेंट भी करनी है. ठीक है, पहले घर ही चलती हूं.

घर पहुंची तो कोई आहट नहीं, सोचा, क्या रुचि कालिज से नहीं आई पर अपना बेडरूम अंदर से बंद देख कर मेरे दिमाग में हजारों कीड़े एकसाथ कुलबुलाने लगे. फिर खिड़की की ओर से जो कुछ देखा उसे देख कर तो मैं गश खातेखाते बची थी.

हर्ष और रुचि को पलंग पर उस मुद्रा में देख कर एक बार तो मन हुआ कि जोर से चीख पड़ूं पर पता नहीं वह कौन सी शक्ति थी जिस ने मुझे रोक दिया था. मन में उठा, नहीं, पहले मुझे इस लड़की को ही संभालना होगा. इसे वापस इस के घर भेजना होगा. मैं इसे अब और यहां नहीं सह पाऊंगी.

मैं लड़खड़ाते कदमों से पास के टेलीफोन बूथ पर पहुंची. फोन लगाया तो भाभी ने ही फोन उठाया था.

बिना किसी भूमिका के मैं ने कहा, ‘‘भाभी रुचि का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है, और तो और बुरी सोहबत में भी पड़ गई है.’’

‘‘देखो मनु, मैं ने तो पहले ही कहा था कि लड़की का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, तुम्हारी ही जिद थी, पर ऐसा करो उसे वापस भेज दो. तुम तो वैसे ही व्यस्त रहती हो, कहां ध्यान दे पाओगी और इस का मन होगा तो यहीं कोई कोर्स कर लेगी…’’

भाभी कुछ और भी कहना चाह रही थीं पर मैं ने ही फोन रख दिया. देर तक पास के एक रेस्तरां में वैसे ही बैठी रही.

हर्ष यह सब करेंगे मेरे विश्वास से परे था पर सबकुछ मेरी आंखों ने देखा थीं. ठीक है, पिछले कई दिनों से मैं घर पर ध्यान नहीं दे पाई, अपनी नौकरी और मकान के चक्कर में उलझी रही, रात को इतना थक जाती थी कि नींद के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था, पर इस का दुष्परिणाम सामने आएगा, इस की तो सपने में भी मैं ने कल्पना नहीं की थी.

कुछ भी हो रुचि को तो वापस भेजना ही होगा. घंटे भर के बाद मैं घर पहुंची तो हर्ष जा चुके थे. रुचि टेलीविजन देख रही थी. मुझे देखते ही चौंकी.

‘‘बूआ, आप इस समय, क्या तबीयत खराब है? पानी लाऊं?’’

मन तो हुआ कि खींच कर एक थप्पड़ मारूं पर किसी तरह अपने को शांत रखा.

‘‘रुचि, आफिस में भैया का फोन आया था, भाभी सीढि़यों से गिर गई हैं, चोट काफी आई है, तुम्हें इसी समय बुलाया है, मैं भी 2-4 दिन बाद जाऊंगी.’’

‘‘क्या हुआ मम्मी को?’’

रुचि घबरा गई थी.

‘‘वह तो तुम्हें वहां जा कर ही पता लगेगा पर अभी चलो, डीलक्स बस मिल जाएगी. मैं तुम्हें छोड़ देती हूं, थोड़ाबहुत सामान ले लो.’’

आधे घंटे के अंदर मैं ने पास के बस स्टैंड से रुचि को बस में बैठा दिया था.

भाभी को फोन किया कि रुचि जा रही है. हो सके तो मुझे माफ कर देना क्योंकि मैं ने उस से आप की बीमारी का झूठा बहाना बनाया है.

‘‘कैसी बातें कर रही है. ठीक है, अब मैं सब संभाल लूंगी, तू च्ंिता मत कर. और हां, नए फ्लैट का क्या हुआ? कब है गृहप्रवेश?’’ भाभी पूछ रही थीं और मैं चुप थी.

क्या कहती उन से, कौन सा घर, कैसा गृहप्रवेश. यहां तो मेरा बरसों का बसाया नीड़ ही मेरे सामने उजड़ गया थीं. तिनके इधरउधर उड़ रहे थे और मैं बेबस अपने ही घर से ‘बेघर’ होती जा रही थी.

पगली: आखिर क्यूं महिमा अपने पति पर शक करती थी

बेला फिर महकी: क्या रीना को माफ कर पाई वह

मधु दीदी अपनत्व लुटा कर और मेरे दिलोदिमाग में भूचाल पैदा कर चली गई थीं. कितने अपनेपन से उन्होंने मेरी दुखती रग पर हाथ रखा था.

‘‘सच बेला, तुम्हारी तो तकदीर ही कुछ ऐसी है कि हर रिश्ता तुम्हें इस्तेमाल करने के लिए ही बना है. तुम ब्याह कर आईं तो भाई साहब तुम्हें मांपिताजी की सेवा में सौंप कर निश्ंिचत हो गए. इतने बरसों में हम ने कभी तुम्हें उन के साथ घूमनेफिरने या पिक्चर जाते नहीं देखा.

‘‘सासससुर की सेवा और बच्चों की परवरिश से उबरीं तो अब अफसर बहू के बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी तुम पर आ पड़ी है. शुक्र है कि बहू बोलती मीठा है. हां, जब सारी जिम्मेदारी सास पर डाल कर नौकरी के नाम पर तफरी की जा रही हो, तो व्यवहार तो मीठा रखना ही पड़ेगा. चलो, अच्छा है कि तुम उस की मिठास पर लट्टू हो कर उस के बच्चों को जीजान से पालती रहो वरना सारी असलियत सामने आ जाएगी.’’

मधु दीदी के इस अपनेपन ने जैसे सारे रिश्तों के अपनत्व की कलई खोल दी. सासससुर और रमेश बाबू के रूखे व्यवहार को सहने की तो जैसे आदत सी पड़ गई थी. उसे मैं ने अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था. बहू के लिए प्यार का परदा मधु दीदी ने हटा कर मुझे निराश ही कर दिया था.

बेला नाम मेरे पिताजी ने कितने अरमानों से रखा था. मेरे जन्म के बाद ही आंगन में पिताजी ने बेला का एक छोटा पौधा रोप दिया था. बेला को झाड़ बन कर फूलों से लद कर महकते और मेरी किलकारी को लरजती मुसकराहट में बदलते कहां वक्त लगा था. पिताजी ने बेला को अपने आंगन में ही महकने दिया और मुझे रमेश बाबू के आंगन को महकाने के लिए डोली में बिठा कर विदा कर दिया. मेरे पति रमेश बाबू ने मेरे कोमल जज्बात को कभी महत्त्व नहीं दिया. स्त्री के सामने प्रेम प्रदर्शन कर उसे सिर पर चढ़ाना उन्हें अपनी मर्दानगी के खिलाफ लगता था.

पिछवाड़े के बगीचे में पेड़ोें और झाडि़यों पर लिपटी अमरबेल को दिखला कर पति ने यह जतला दिया था कि उन की जिंदगी में मेरी हैसियत इस अमरबेल से अधिक कुछ नहीं है. जड़, पत्र और पुष्पविहीन पीली सी बदरंग अमरबेल… अनचाही बगिया में छाई रहती है, जिसे काटछांट कर जितना पीछा छुड़ाना चाहो वह उतनी ही अपनी लता फैला देती है.

मेरी ससुराल में सबकुछ स्वार्थ के रिश्तों पर कायम था. उस पर भी हर पल मुझे यह एहसास कराया जाता कि मैं निपट घरेलू महिला अमरबेल की तरह आश्रित और अनपेक्षित हूं. तब विरोध और विद्रोह बहुओं का अधिकार कहां था. पति से तिरस्कृत पत्नी सासससुर की लाड़ली भी नहीं बन पाती है. मैं ने सहमे हुए इस नए नाम अमरबेल  को चुपचाप स्वीकार कर लिया और बेला की महक न जाने कहां गुम होती गई. मैं और बगिया की अमरबेल बिन चाहत और जरूरत के अपनीअपनी उम्र आगे बढ़ाते रहे.

ऐसी नीरस जिंदगी के बाद बहू का अपनापन बुझे मन पर प्यार की फुहार बन कर आया. पोतेपोती की मासूम शरारतों और उन के साथ बढ़ी व्यस्तता में मन की टीस कहीं गहरे दबने लगी थी. यह टीस न चाहते हुए भी जानेअनजाने उभर आती थी, जब मैं अपने बेटे मयंक और बहू रीना में आपसी सामंजस्य और अधिक से अधिक समय साथ गुजारने की चाहत देखती. मयंक ने रीना का आफिस दूर होने से उसे आनेजाने में होने वाली परेशानी से बचने के लिए कार चलाना सिखाया और एक नई कार उसे जन्मदिन पर उपहार में दे दी.

इस समय भी मेरे पति मुझे ताना मारने से नहीं चूके कि अगर पत्नी लायक और समझबूझ में समान स्तर की हो तो इतना ध्यान रखा जाना लाजमी है. इस तरह जिंदगी भर मुझे दिए गए तिरस्कार का कारण बता दिया था उन्होंने और बरसों से घुटती, जीती मैं तब भी मौन रह गई थी. मैं बेला से अमरबेल जो बन चुकी थी.

लेकिन आज मधु दीदी ने जब मेरे और रीना के ममता भरे रिश्ते में मुझे स्वार्थ के दर्शन कराए तो मेरा कुंठित मन विद्रोह के लिए बेचैन हो उठा. बहू को लगातार मिल रही सुविधाएं और सम्मान व्यर्थ नजर आ रहा था. अब तक जाने- अनजाने हुई लापरवाही और गलतियां, जिन्हें मैं रीना की नादानी मान कर नजरअंदाज कर रही थी, आज वे सारी गलतियां मेरी पुरातन परंपराओं और संकुचित सोच को, जानबूझ कर मेरे सम्मान को ठेस पहुंचाने की कोशिश जान पड़ रही थीं.

गुस्से और अपमान से मेरे कान लाल थे और बढ़ी हुई धड़कन जैसे सारे बंधन तोड़ शरीर को कंपा रही थी. कल तक बहू से मिल रहा प्यार मुझे आत्मसंतोष दे रहा था, लेकिन आज मधु दीदी ने मेरे संतोष में आग लगा दी थी. बहू का सारा प्यार स्वार्थ के तराजू में तौल कर अपवित्र कर दिया था. अगर मैं गृहस्थी की साजसंवार, बच्चों का होमवर्क, स्कूल से वापस आने पर उन की देखभाल को दरकिनार कर सत्संग और पूजा में मन लगाऊं  तो आत्मशांति तो मिलेगी ही, बहू का व्यवहार बदलने से असलियत भी सामने आ जाएगी.

सोचा, क्यों न कुछ दिन के लिए अपनी बेटी रोजी के यहां चली जाऊं? जरा मेरे जाने के बाद यह महारानी भी जाने कि मेरे बिना वह अपनी अफसरी कैसे कायम रख सकती है, लेकिन वहां जाना क्या अच्छा लगेगा? नौकरीशुदा रोजी भी तो अपने सासससुर के साथ भरे परिवार में रहती है. उसे नौकरी करने के लिए प्रेरित भी तो मैं ने ही किया था, जिस से वह मेरी तरह प्रताडि़त हो कर नहीं सम्मान की जिंदगी जी सके.

बहुत कशमकश के बाद मैं ने हालात से लड़ने का फै सला लिया, ‘नहीं, मैं यहीं रह कर अपने लिए जीऊंगी. सारे दिन रीना और बच्चों की दिनचर्या के मुताबिक चक्करघिन्नी बनने के बजाय अब आदेशात्मक रवैया अपनाऊंगी. भला हो मधु दीदी का, जो उन्होंने मुझे समय रहते चौकन्ना कर दिया.’

हमेशा हंसतीमुसकराती रीना जो वक्तबेवक्त गलबहियां डाल कर मांमां की रट लगाए रहती है, आज मुझे खलनायिका लग रही थी. कुश और नीति के स्कूल से आने पर उन के कपड़े बदलवाने और खाना खिलाने में मन नहीं लग रहा था. दोनों बच्चे दादी को अनमना देख कर चुपचाप खाना खा कर टीवी देखने लगे थे.

बेचैनी अपनी चरम सीमा पर थी. बच्चों के पास जा कर टीवी देख कर मन बहलाने का प्रयास भी बेकार गया. सिर भारी हो रहा था. शाम होते ही बच्चे पार्क में खेलने और रमेश  बाबू अपने मित्रों के साथ टहलने चले गए. रसोई में जा कर रात के खाने की व्यवस्था देखने का मन आज कतई नहीं हो रहा था. परिवार की जिम्मेदारियों में सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद आज मैं खुद को शोषित मान रही थी.

शाम का अंधेरा गहराने लगा था. बाहर बहू की कार का हार्न सुनाई दिया. मन गुस्से से और भर गया. रीना को पता है कि रामू अपने गांव गया है और बच्चे पार्क में होंगे तो हार्न बजाने पर क्या मैं गेट खोलने जाऊंगी? और फिर सामने बालकनी में खड़ी मधु दीदी ने अगर मुझे गेट खोलते देख लिया तो व्यंग्य से ऐसे मुसकराएंगी मानो कह रही हों कि अच्छी तरह करो अफसर बहू की चाकरी.

मैं रुकी रही कि दोबारा हार्न की आवाज आई. मैं गुस्से में उठी कि बहू को इतनी जोर से झिड़कूंगी कि मधु दीदी भी सामने के घर में सुन लें कि मैं भी सास का रौब रखती हूं.

मैं बाहर पहुंची तो रीना तुरंत कार से उतर कर गेट खोलने लगी, ‘‘अरे, मां, आप क्यों आईं. मैं तो भूल ही गई थी कि आज रामू घर में नहीं है,’’ उस की मीठी बोली में मैं सारा आक्रोश भूल गई.

‘‘ओफ, मां, आप कैसी अव्यवस्थित सी घूम रही हैं?  आप की तबीयत तो ठीक है न?’’ कहते हुए रीना ने मेरा माथा छू कर देखा, ‘‘लगता है आप ने दिन में जरा भी आराम नहीं किया. आप जल्दी से तैयार हो जाइए. रोजी दीदी और जीजाजी भी आने वाले हैं.’’

मैं फिर उस के जादू में बंधी कपड़े बदल बाल संवार कर आ गई. जल्दी ही रीना भी फ्रेश हो कर आ गई.

‘‘हां, अब लग रही हैं न आप बर्थडे गर्ल. हैप्पी बर्थ डे, मां,’’ कहते हुए बड़ा सा गुलदस्ता मेरे हाथों में दे कर रीना ने मेरे चरण स्पर्श किए.

‘तुम्हें कैसे पता चला’ वाले आश्चर्य मिश्रित भाव को ले कर जब मैं ने उसे गले लगाया तो उस ने बताया कि पापा के पेंशन के पेपर्स में आप की जन्मतिथि पढ़ी थी. मयंक भी आज आफिस से जल्दी घर आएंगे और हां, आज आप की और मेरी रसोई से छुट्टी है, क्योंकि हम सब आप का जन्मदिन मनाने होटल जा रहे हैं.’’

मैं मधु दीदी के बहकावे में आ कर अपनी संकीर्ण मनोदशा से खुद ही शर्मिंदा होने लगी. अब तक देखीसुनी बुरी सासुओं की कुंठा आज मुझ पर भी हावी हो गई थी. मुझे लगा कि पति, सासससुर से मिले अपमान को हर नारी की कहानी मान चुपचाप स्वीकार किया और निरपराध बहू को मात्र पड़ोसन के बहकावे में आ कर स्वार्थ का पुतला मान लिया. बरसों से अपने जन्मदिन को साधारण दिनों की तरह गुजारती आज बहू की बदौलत ही खुशियों के साथ मना पाऊंगी. पति के रूप में रमेश बाबू तो इन औपचारिकताओें के महत्त्व को कभी समझे ही नहीं.

‘‘मां, आओ, आप को अच्छी तरह तैयार कर दूं. बच्चों के पार्क से आते ही फिर उन्हें भी तैयार करना होगा,’’ यह कह कर बहू ने एक नई कोसा की साड़ी मुझे दी और बोली, ‘‘कैसी लगी साड़ी, मां?’’

‘‘तुम मेरी पसंद को कितनी अच्छी तरह समझती हो,’’ बस, इतना ही कह पाई मैं.

साड़ी पहन कर जब मैं उस के पास आई तो रीना ने बेला का एक बड़ा सा गजरा मेरे जूड़े पर सजा दिया तो मैं ने रीना को अपने सीने से लगा लिया.

आंखों में आए आंसुओं से मैं अपने दिन भर दिल में भरे जहर को निकाल देना चाहती हूं. मेरी प्यारी रीना और जूडे़ में बंधे बेला के गजरे की भीनीभीनी महक ने आज बरसों बाद यह एहसास करा दिया कि मैं अमरबेल नहीं, बेला हूं.

कुछ ऐसे बंधन होते हैं: क्यों थी प्रेरणा को रवीश की जरुरत

‘‘दोस्तीवह इमारत है जो विश्वास की नींव पर खड़ी होती है… यह नदी के किनारों को जोड़ने वाला वह पुल है, जिस में यह माने नहीं रखता कि किनारे स्त्री है या पुरुष,’’ व्हाट्सऐप पर आया मैसेज प्रेरणा ने जरा ऊंचे स्वर में पति सोमेश को सुनाते हुए पढ़ा.

‘‘एक स्त्री और पुरुष आपस में कभी दोस्त नहीं हो सकते… यह सिर्फ और सिर्फ अपनी वासना को शराफत का खोल पहनाने की गंदी मानसिकता से ज्यादा कुछ नहीं…’’ सुनते ही हमेशा की तरह सोमेश उस दिन भी बिदक गया.

प्रेरणा का मुंह उतर गया. उस ने फोन चार्जर में लगाया और बाथरूम की तरफ बढ़ गई.

प्रेरणा और सोमेश की शादी को 5 वर्ष होने को आए थे. देह के फासले जरूर उन के बीच पहली रात को ही खत्म हो गए थे, लेकिन दिलों के बीच की दूरी आज तक तय नहीं हो सकी थी. यों तो दोनों के बीच खास मतभेद नहीं थे, लेकिन स्त्रीपुरुष के बीच संबंधों को ले कर सोमेश के खयालात आज भी सामंती युग वाले ही थे. जब भी प्रेरणा स्त्रीपुरुष के बीच खालिस दोस्ती की पैरवी करती, सोमेश इसी तरह भड़क जाता था.

दोनों अलगअलग मल्टीनैशनल कंपनी में काम करते थे. सुबह का वक्त दोनों के

लिए ही भागमभाग वाला होता था और शाम को घर लौटने में अकसर दोनों को ही रात हो जाती थी. सप्ताहांत पर जरूर उन्हें कुछ लमहे फुरसत के मिलते, लेकिन वे भी सप्ताहभर के छूटे हुए कामों की भेंट चढ़ जाते. ऐसे में सोमेश को तो कोई खास परेशानी नहीं होती थी, क्योंकि वह तो शुरू से ही अंतर्मुखी स्वभाव का रहा है, लेकिन मनमीत के अभाव में प्रेरणा अपने मन की गुत्थियों को सुलझाने के लिए तड़प उठती थी.

प्रेरणा को हमेशा एक ऐसे पुरुष मित्र की तलाश थी जो दिल के बेहद करीब हो… जिस से हर राज शेयर किया जा सके… हर मुश्किल वक्त में सलाह ली जा सके… जिस के साथ बिंदास खिलखिलाया जा सके और दुख की घड़ी में जिस के कंधे पर सिर टिका कर रोया भी जा सके.

ऐसे दोस्त की कल्पना जब प्रेरणा सोमेश के साथ साझा करती थी, तो वह आगबबूला हो उठता था.

‘‘पति है न… सुखदुख में साथ निभाने के लिए… फिर अलग से पुरुष की क्या जरूरत हो सकती है और फिर मित्र भी हो तो कोई स्त्री क्यों नहीं? मां या बहन से अच्छी कोई सहेली नहीं हो सकती?’’ कह कर सोमेश उसे चुप करा दिया करता.

‘‘पति कभी दोस्त नहीं हो सकता, क्योंकि उस के प्रेम में अधिकार की भावना होती है… पत्नी को ले कर स्वामित्व का भाव होता है… और स्त्री उस में तो स्वाभाविक ईर्ष्या होती ही है… फिर चाहे बहन ही क्यों न हो… रही बात मां की तो उन की बातें तो हमेशा नैतिकता का जामा पहने होती हैं… वे दिल की नहीं दिमाग की बातें करती हैं… मुझे ऐसा मित्र चाहिए जिस के साथ बंधन में भी आजादी का एहसास हो…’’

प्रेरणा लाख कोशिश कर के भी सोमेश को समझा नहीं सकती थी कि किसी भी महिला के लिए पुरुष मित्र शारीरिक नहीं, बल्कि भावनात्मक जरूरत है.

इन्हीं दिनों रवीश ने प्रेरणा की जिंदगी में दस्तक दी. मार्केटिंग विभाग में ट्रेनी के रूप में जौइन करने वाला रवीश दिखने में जितना आकर्षक था व्यवहार में भी उतना ही शालीन और हंसमुख था. उसे देख प्रेरणा को लगता जैसे वह अपने आधे संवाद तो अपनी आंखों और मुसकराहट से ही कर लेता है.

धीरेधीरे रवीश पूरे औफिस का चहेता बन गया था और फिर कब वह प्रेरणा के दिल के बंद दरवाजे पर दस्तक देने लगा था खुद प्रेरणा भी कहां जान पाई थी. हां, रवीश की इस हिमाकत पर उसे आश्चर्य अवश्य हुआ था. सोमेश के स्वभाव से भलीभांति परिचित प्रेरणा ने रवीश के लिए अपने दिल का दरवाजा कस कर बंद कर लिया था, लेकिन रवीश कोई फूल नहीं था जिसे रोका जा सके… वह तो खुशबू था और खुशबू कभी रोकने से रुकी है भला?

और फिर शुरुआत हुई स्त्रीपुरुष के बीच उस खालिस दोस्ती के रिश्ते की जिसे जीने

के लिए प्रेरणा ने न जाने कितनी बार अपने मन को मारा था… जिस के कोमल एहसास को महसूस करने के लिए न जाने कितनी ही बार सोमेश के तानों से अपनेआप को छलनी किया था…

प्रेरणा अपने जीवन की किताब के अनछुए पन्ने को पढ़ने लगी. कितना सुंदर था यह बंद पन्ना… इंद्रधनुषी रंगों में ढला… खुशबुओं से तरबतर… पंखों से हलका… सूर्य की किरण सा सुनहरा… बर्फ सा शीतल… और मिस्री सा मीठा… रवीश का साथ जैसे पिता का वात्सल्य… मां की ममता… भाई सा प्रेम… बहन सा स्नेह और प्रेमी सा नाज उठाने वाला… प्रेम का हर रूप उस में समाया था… नहीं था तो बस एकाधिकार का भाव… आधिपत्य की भावना…

प्रेरणा रवीश की आदी होने लगी थी. उस से बात किए बिना तो उस के दिन की शुरुआत ही नहीं होती थी. हर काम में रवीश की सलाह प्रेरणा के लिए जरूरी हो जाती थी. वह रवीश के साथ फिल्मों से ले कर खेल… सामाजिक से ले कर राजनीति और व्यक्तिगत से ले कर सार्वजनिक तक हर विषय पर खुल कर बात करती थी.

उन के बीच स्त्री और पुरुष होने का भेद कहीं दिखाई नहीं देता था. अब वे मात्र 2 इंसान थे जो एक पवित्र रिश्ते को जी रहे थे. जब दोनों फोन पर होते थे तो मिनट कब घंटों में बदल जाते थे दोनों को ही खबर नहीं होती थी. सोशल मीडिया पर भी दोनों के बीच संदेशों का आदानप्रदान अनवरत होता था. लेकिन दोनों ही अपनीअपनी मर्यादा में बंधे होते थे. उन की बातचीत या संदेशों में अश्लीलता का अंशमात्र भी नहीं होता था.

बेशक यह मित्रता पूरी तरह 2 इंसानों के बीच थी, लेकिन सोमेश का स्वभाव भला प्रेरणा कैसे भूल सकती थी. कहा जाता है कि सभ्य कहलाने के लिए व्यक्ति अपनी आदतें बदल सकता है, मगर अपने मूल स्वभाव को बदलना उस के लिए संभव नहीं. सोमेश के बारे में सोचते ही रवीश की दोस्ती को खोने का डर प्रेरणा को सताने लगता था. इसीलिए वह अब तक रवीश के साथ अपनी दोस्ती को सोमेश से छिपाए हुए थी.

रात देर तक लैपटौप पर काम निबटाती प्रेरणा की आंख सुबह देर से खुली. फटाफट चायनाश्ता और दोनों का टिफिन पैक कर के वह भागती सी बाथरूम में घुस गई. फिर किसी तरह 2 ब्रैड पीस चाय के साथ निगल कर अपना पर्स संभालने लगी.

‘‘उफ, कहीं देर न हो जाए…’’ हड़बड़ाती प्रेरणा सोमेश को बाय कहती हुए घर से निकल गई.

सोमेश आज थोड़ी देर से औफिस जाने वाला था, इसलिए आराम से नाश्ता कर रहा था.

मोड़ पर ही औटो मिल गया तो प्रेरणा ने राहत की सांस ली. फिर बोली, ‘‘भैया, जरा तेज चलाओ न… मेरी ट्रेन न मिस हो जाए… मेरा प्रेजैंटेशन है… अगर टाइम पर औफिस न पहुंची तो बौस बहुत नाराज होंगे…’’

पता नहीं प्रेरणा औटो वाले से कह रही थी

या अपनेआप से, लेकिन उस की

बड़बड़ाहट सुन कर औटो वाले ने स्पीड जरा बढ़ा दी. मैट्रो स्टेशन पहुंचते ही उसे ट्रेन मिल गई और उस में सीट भी.

तसल्ली से बैठते ही प्रेरणा को रवीश की याद आ गई. उस ने मुसकराते हुए मोबाइल निकालने के लिए पर्स में हाथ डाला. पूरा पर्स खंगाल लिया, मगर मोबाइल हाथ में नहीं आया. अपनी तसल्ली के लिए उस ने एक बार फिर से पर्स को अच्छी तरह खंगाला, मगर मोबाइल उस में होता तो उसे मिलता न…

‘उफ, यह क्या हो गया… मोबाइल तो चार्जर में लगा हुआ ही छोड़ आई… इतनी बड़ी भूल मैं कैसे कर सकती हूं?’ सोच प्रेरणा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं…

‘अब क्या करूं? यदि सोमेश ने उत्सुकतावश मेरा फोन चैक कर लिया तो? रवीश के मैसेज पढ़ लिए तो? तो… तो… क्या? यह तो मानव स्वभाव है कि हर छिपी हुई चीज उसे आकर्षित करती है… सोमेश भी अवश्य उस का मोबाइल चैक करेगा… काश, उस ने अपने मोबाइल की स्क्रीन को अनलौक करने का पैटर्न सोमेश से साझा न किया होता…’

‘क्या करूं… क्या वापस जा कर अपना फोन ले कर आऊं? लेकिन अब तक तो उस ने फोन देख ही लिया होगा… यदि उस ने रवीश के मैसेज पढ़ लिए होंगे तो वह उस का सामना कैसे कर पाएगी…’

प्रेरणा कुछ भी तय नहीं कर पा रही थी. हार कर उस ने आने वाली स्थिति को वक्त के हवाले कर दिया और खुद को उस का सामना करने के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी.

‘रवीश भी टूर पर गया है. वह अवश्य उसे फोन करेगा… बस, फटाफट औफिस पहुंच कर उसे मोबाइल भूलने की सूचना दे दूं ताकि वह कौल न करे…’ प्रेरणा का दिमाग बिजली की सी तेज गति से दौड़ रहा था.

‘अब जो भी होगा देखा जाएगा… यदि उस की निजता का सम्मान करते हुए सोमेश ने उस का मोबाइल चैक नहीं किया होगा तब तो कोई फिक्र ही नहीं और यदि उस ने मोबाइल चैक कर भी लिया और रवीश को ले कर सवालजवाब किए तो उसे हिम्मत दिखानी होगी… वह रवीश के साथ अपनी दोस्ती कुबूल कर लेगी, परिणाम चाहे जो हो. लेकिन रवीश का साथ नहीं छोड़ेगी…’ प्रेरणा ने मन ही मन निश्चय कर लिया था. अब वह काफी हलका महसूस कर रही थी.

लाख हिम्मत बनाए रखने के बावजूद घर में पसरे अंधेरे ने प्रेरणा के हौसला पस्त कर दिया. आखिर वही हुआ जिस का डर था.

‘‘कब से चल रहा है ये सब… उस दो टके के इंसान की हिम्मत कैसे हुई तुम्हें इस तरह के व्यक्तिगत मैसेज भेजने की… जरूर तुम ने ही उसे बढ़ावा दिया होगा… जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो दूसरे को दोष कैसे दिया जा सकता है…’’ सोमेश के स्वर में क्षोभ, नफरत, गुस्से और निराशा के मिलेजुले भाव थे.

‘‘हमारे बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं है जिस पर तुम उंगली उठा रहे हो… रवीश मेरा दोस्त है… अंतरंग मित्र… लेकिन छोड़ो… दोस्ती के माने तुम नहीं समझोगे…’’ प्रेरणा ने बहस को विराम देने की मंशा से कहा.

लेकिन इतना बड़ा मुद्दा इतनी आसानी से कहां सुलझ सकता है. प्रेरणा की स्वीकारोक्ति ने आग में घी का काम किया. सोमेश के पुरुषोचित अहम को ठेस लगी. वह लगातार जहर उगलता रहा और प्रेरणा उसे अपने भीतर उतारती रही. दोनों के बीच एक शून्य पसर गया. उस रात खाना नहीं बना.

इस घटना के बाद हालांकि सोमेश ने उस से अपने व्यवहार के लिए माफी मांग ली थी, लेकिन प्रेरणा ने खुद को खुद में समेट लिया. वह जितनी देर घर में सोमेश के साथ रहती, एक मशीन की तरह अपने सारे काम निबटाती… खानापीना हो या पहननाओढ़ना, घूमनाफिरना हो या किसी से मिलनाजुलना… यहां तक कि बिस्तर में भी वह न अपनी कोई इच्छा जाहिर करती और न ही किसी बात पर प्रतिवाद करती. बस, चुपचाप अपने हिस्से के कर्तव्य निभाती रहती.

हर सुबह वह घर से औफिस के लिए इस तरह निकलती मानो कोई पंछी कैद से छूट कर खुले आकाश में आया हो… और शाम को घर वापस लौटते ही फिर से कछुए की तरह अपनेआप में सिमट जाती.

सोमेश के साथ रिश्ते में ठंडापन आने से प्रेरणा के मन की घुटन और भी अधिक बढ़ने लगी थी. उस के अंदर ऐसा बहुत कुछ उमड़ताघुमड़ता रहता था जिसे अभिव्यक्ति की चाह होती… उसे बहुत बेचैनी होती थी जब वह ये सब रवीश के साथ बांटना चाहती और रवीश उपलब्ध नहीं होता.

वह रवीश की मजबूरी समझती थी… आखिर उस की अपनी जिंदगी… अपनी

प्राथमिकताएं हैं… लेकिन दिल का क्या करे? उसे तो हर समय एक साथी चाहिए जो बिना किसी शर्त के उसे उपलब्ध हो… कई बार सोमेश की तरफ भी हाथ बढ़े, लेकिन हर बार स्वाभिमान पांवों में बेडि़यां डाल देता. रवीश और सोमेश के बीच झूलती प्रेरणा की निराशा अवसाद में बदलती जा रही थी.

देर रात तक जागती प्रेरणा आज सुबह उठी तो सिर में भारीपन था. उठने की कोशिश में गिर पड़ी. सोमेश लपक कर पास आया, लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर रुक गया. पे्ररणा ने फिर से उठने की कोशिश की, लेकिन इस बार भी कामयाब नहीं हुई तो उस ने निरीहता से सोमेश की तरफ देखा. सोमेश ने बिना एक पल गंवाए उसे बांहों में थाम लिया.

‘अरे, तुम्हें तो तेज बुखार है,’ सोमेश की फिक्र उसे अच्छी लगी.

‘काश, इस वक्त रवीश मेरे पास होता,’ सोच प्रेरणा ने आह भरी. अब तक सोमेश उस के लिए उस की मनपसंद गरमगरम अदरक वाली चाय बना लाया था. प्रेरणा ने कृतज्ञता से उस की ओर देखा.  सोमेश ने फोन कर डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने उसे आवश्यक दवा और आराम करने की सलाह दी.

सोमेश ने प्रेरणा के औफिस फोन कर उस के लिए 1 सप्ताह की छुट्टी मांग ली और खुद भी औफिस से छुट्टी ले ली. सोमेश प्रेरणा का एक छोटे बच्चे की तरह खयाल रख रहा था. लेकिन प्रेरणा को रहरह कर रवीश की अनुपस्थिति अखर रही थी… उस का ध्यान बारबार अपने मोबाइल की तरफ जा रहा था. उसे रवीश के फोन का इंतजार था.

फिर सोचने लगी कि शायद रवीश सोच रहा हो कि सोमेश उस के पास है, इसलिए फोन नहीं कर रहा… लेकिन व्हाट्सऐप पर मैसेज तो कर ही सकता है…

प्रेरणा बारबार मोबाइल चैक करती और हर बार उस की निराशा कुछ और बढ़ जाती… दोपहर होतेहोते उसे रवीश की बुजदिली पर गुस्सा आने लगा कि क्या उन का रिश्ता इतना कमजोर है? जब हमारा रिश्ता पाकसाफ है तो फिर यह डर कैसा? ऐसे रिश्ते का क्या फायदा जो जरूरत पड़ने पर साथ न निभा सके? तो क्या उन का रिश्ता सिर्फ सतही था? उस में कोई गहराई नहीं थी? क्या यह सिर्फ टाइमपास था? प्रेरणा ऐसे अनेक प्रश्नों के जाल में उलझ कर कसमसा उठी.

फिर अचानक उस के सोचने की दिशा बदल गई कि सोमेश जब साथ होता है तो वह कितने आत्मविश्वास से भरी होती हूं जबकि रवीश के साथ खालिस दोस्ती का रिश्ता होते हुए भी एक अनजाना डर मन को घेरे रहता है कि कहीं कोई देख न ले… किसकिस को सफाई देती रहेगी… सोमेश उस की हर जरूरत के समय साथ खड़ा रहता जबकि रवीश चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर पाता… आखिर सामाजिक मजबूरियां भी एक तरह का बंधन ही तो हैं…

फिर प्रेरणा अनजाने ही दोनों के साथ अपने रिश्ते की तुलना करने लगी. हर बार उसे सोमेश का पलड़ा ही भारी लगा.

अब सोचने लगी कि सैक्स और साथ के अलावा भी विवाह में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता. रवीश उस की मानसिक जरूरत है, लेकिन उस के साथ उस के रिश्ते को सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकती तो क्या वह रवीश से रिश्ता खत्म कर ले? क्या अपने मन की हत्या कर दे? फिर जीएगी कैसे?

प्रेरणा का मानसिक द्वंद्व खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

तभी सोमेश कमरे में आया. पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है अब? सूप बना कर लाया

हूं… गरमगरम पी लो. तुम्हें अच्छा लगेगा,’’ और फिर उसे सहारा दे कर उठाया.

प्रेरणा ने गौर से उस की आंखों में देखा. कहीं कोई छलकपट या दिखावा नहीं था… खुद के लिए परवाह और प्यार देख कर वह पुलक उठी. लेकिन इस परवाह के पीछे से अब भी स्वामित्व का भाव झलक रहा था.

‘मुझे स्वीकार है तुम्हारा प्रेम… रवीश से उतना ही रिश्ता रखूंगी जितना हम दोनों के बीच की झिर्री को भरने के लिए पर्याप्त हो… हमारा रिश्ता शाश्वत सत्य है, लेकिन हरेक रिश्ता जरूरी होता है… दोस्ती का भी… इस रिश्ते में तुम्हारे अधिकारों का अतिक्रमण कभी नहीं होगा, यह मेरा वादा है तुम से… तुम भी मुझे समझने की कोशिश करोगे न,’ मन ही मन निश्चय करते हुए प्रेरणा ने सोमेश के कंधे पर सिर टिका लिया.

‘‘मैं ने शायद प्रेम के बंधन जरा ज्यादा ही कस लिए थे… तुम घुटने लगी थी… मैं अपने पाश को ढीला करता हूं… मुझे माफ कर सकोगी न…’’ कह सोमेश ने उसे बांहों में कस लिया.

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