घर-परिवार के लिए कुरबान नौकरियां

ब्राह्मण स्मार्ट युवक 30 वर्ष, 5 फुट 8 इंच बीटैक (आईआईटी) दिल्ली, एचसीएल में कार्यरत, 10 एलपीए हेतु अच्छे परिवार की सुंदर, लंबी, प्रोफैशनली क्वालिफाइड, गृहकार्य में दक्ष वधू चाहिए. अपना मकान, गाड़ी, पिता क्लास-1 राजपत्रित अधिकारी. संपर्क करें +919810333333.

यह एक राष्ट्रीय हिंदी न्यूजपेपर में शादी के लिए दिया गया विज्ञापन है. शादी हमारे समाज में सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण, धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक कार्य है और ऐसे विज्ञापन हमारे समाज की सचाई को सामने लाते हैं.  कुछ लोग भले ही विज्ञापन में सुंदर, शिक्षित बहू की डिमांड करें, पर असल में वे घर के काम, पोता जनने और कम बोलने वाली बहू ही चाहते हैं. इस विज्ञापन में बहू क्वालिफाइड मांगी गई है पर वह गृहकार्य में भी दक्ष होनी चाहिए तभी बात आगे बढ़ेगी. अरे, जब घरेलू ही चाहिए तो क्वालिफाइड क्यों? क्वालिफाइड होगी तो वह अपना कैरियर दांव पर क्यों लगाए? वैसे तो आजकल नौकरीपेशा बहुओं की ही डिमांड है, पर कुछ लोग आज भी लड़के के लिए बहू ढूंढ़ते हैं तो पहला सवाल यही होता है कि शादी के बाद परिवार या कैरियर किसे ज्यादा वरीयता दोगी? अगर उस लड़की ने कैरियर का चुनाव किया तो सामने बैठे बुजुर्ग मुंह बिचका सकते हैं और अगर परिवार कहा तो समझो सवालों का पहला पड़ाव पार हो गया.

घर में शिक्षित व नौकरीपेशा आ गई और भले ही मियांबीवी मैट्रोसिटी में काम करने लगें,  शादी के 1 या 2 साल बाद ही ससुरालपक्ष से बच्चे की डिमांड होने लगेगी कि अरे बहू 30 के बाद बच्चा होने में दिक्कतें आती हैं. अब पोते का मुंह दिखा ही दो. कहने का मतलब यहां यह है कि 2 से 3 होने के लिए भी परिवार वालों का दबाव रहता है. लो बच्चा तो हो गया, पर अब उसे संभालेगा कौन? बीवी ने 3 महीने की तो मैटरनिटी लीव ली पर बाद में ससुरालपक्ष से कोई नहीं आया उस के पास रुकने. अब बीवी बच्चा संभाले या नौकरी करे? घर में खुशियां तो आईं पर पढ़ीलिखी क्वालिफाइड एमबीए बहू का कैरियर खत्म हो गया. बच्चा पालने की खातिर उसे अपने कैरियर की कुरबानी देनी पड़ी. भारत में विकास के मुद्दे पर बात व बहस जारी है. आंकड़ों के ढेर पर बैठ कर कल्पना करना आसान है कि देश की आर्थिक प्रगति हो रही है. देश हर दिन तरक्की कर रहा है. उद्योग व्यापार और अन्य क्षेत्रों के आंकड़े भविष्य के लिए काफी अच्छे संकेत दे रहे हैं. लेकिन इन तथ्यों के पीछे झांक कर देखें तो पाएंगे कि आर्थिक आजादी और विकास में महिलाओं की भूमिका अब भी वैसी नहीं है जैसी होनी चाहिए थी. इस मामले में देश ने आत्मनिर्भर और आजाद होने के 68 वर्षों में भी ज्यादा प्रगति नहीं की है.

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नैशनल सैंपल सर्वे और्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1999-2000 में करीब 5-6% का इजाफा हुआ. वहीं 2009-10 में 47 फीसदी महिलाएं होममेकर थीं. ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार व बच्चों की देखभाल के लिए अपना कैरियर खत्म कर रही हैं. इस की बड़ी वजह न्यूक्लियर फैमिली का बढ़ता चलन है. न्यूक्लियर फैमिली में एक अन्य सर्वे के मुताबिक करीब 15 से 17 फीसदी महिलाएं सामाजिक व पारिवारिक दबाव में होममेकर रहती हैं. वहीं लगभग 10 फीसदी महिलाएं घरेलू काम इसलिए करती हैं कि वे मेड का खर्च नहीं उठा सकतीं.

बच्चों पर कुरबान कैरियर

2015 के मदर्सडे पर देश भर की महिलाओं पर हुए एक सर्वे में उन के परिवार के लिए कैरियर को त्यागने के मामले सामने आए हैं. एसोचैम के स्पैशल डैवलपमैंट फाउंडेशन द्वारा कराए गए इस सर्वेक्षण में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, लखनऊ, अहमदाबाद, बैंगलुरु, हैदराबाद, इंदौर व जयपुर में 25 से 30 वर्ष की आयुवर्ग की 400 महिलाओं की राय को शामिल किया गया. इस में कुछ ऐसी महिलाएं भी शामिल थीं, जो हाल में ही मां बनी थीं. सर्वेक्षण के दौरान करीब 30 फीसदी महिलाओं ने अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद उस की देखभाल के लिए नौकरी छोड़ी तो 20 फीसदी ने कहा कि बच्चों की परवरिश के लिए उन्होंने नौकरी पूरी तरह से छोड़ने का फैसला किया. बड़ी संख्या में महिलाओं ने कहा कि बच्चों के स्कूल जाने लगने के बाद वे दोबारा कैरियर शुरू करना चाहेंगी.

सताता है भेदभाव का डर

हालांकि कई महिलाएं बच्चा बड़ा होने के बाद अपना कैरियर फिर से संवारना चाहती हैं, लेकिन दोबारा या कहें रीजौइन करने पर उन्हें पुरानी पोजिशन और पुरानी सैलरी पर ही रखा जाता है. कंपनियों में डोंट आस्क और डोंट टेल (कुछ मत पूछो और कुछ मत बताओ) का कल्चर विकसित हो गया है. ऐसे में महिलाएं कुछ भी पूछने से घबराती हैं और अपने पांव पीछे खींच लेती हैं. ब्रिटेन की लौ फर्म क्वालिटी सौलिसिटर ने 100 कामकाजी महिलाओं पर सर्वे किया और पाया कि महिलाओं को अपने मैटरनिटी राइट्स के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती है. यही नहीं उन्हें यह भी डर लगता है कि अगर उन्होंने कंपनी से इस पौलिसी के बारे में कुछ पूछा तो इस से उन का कैरियर प्रभावित हो सकता है. ऐसे में प्रैगनैंट होने पर आधी से ज्यादा महिलाएं इस बारे में अपने बौस को कुछ नहीं बताती हैं. इसी डर के कारण काफी महिलाओं ने नौकरी न करने की बात कही है. एसोचैम सर्वे में महिलाओं ने कहा कि वे नौकरी कर अपने बच्चों के यादगार पलों को मिस करना नहीं चाहतीं, इसलिए घर में ही कोई काम शुरू कर वे काम और बच्चे दोनों के साथ न्याय कर सकेंगी. एसोचैम के सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि न्यूक्लियर परिवार की महिलाओं को अपने बच्चे की परवरिश और कैरियर के बीच संतुलन बनाने में कठिनाई होती है.

जिंदगी से जुड़े स्ट्रैस और भावनात्मक पसोपेश के साथ ही पारिवारिक और सामाजिक कारणों की वजह से उन्हें नौकरी छोड़ने का फैसला करना पड़ता है. वहीं संयुक्त परिवारों में इस तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. टीवी पर प्रसारित आप ने मैटरीमोनियल साइट का एक विज्ञापन जरूर देखा होगा, जिस में लड़कालड़की एकदूसरे को साइट से पसंद कर शादी कर लेते हैं पर ससुर को बहू का बाहर का काम करने जाना नहीं भाता. वे कह उठते हैं कि हमारे घर की बहुएं काम पर नहीं जातीं. तब उन का बेटा कहता है कि पापा, वह घर चलाने के लिए काम नहीं करती. उसे अच्छा लगता है इसलिए करती है. वैसे यह सिर्फ टीवी में ही नहीं दिखाया जाता. ऐसा कई परिवारों में भी होता है. सासससुर या पति है यह कहता है कि हमारे यहां लड़कियां काम नहीं करतीं. काम वही करती हैं, जिन्हें आर्थिक तंगी होती है. ऐसे में अगर आप के पति आप के फैसले में साथ हों, तो स्ट्रैस अपनेआप दूर हो जाएगा.

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महिलाओं को लेने पड़ते हैं कई ब्रेक

पहला ब्रेक: युवतियां शादी से पहले अपना कैरियर शुरू करती हैं और शादी होने के बाद जरूरी नहीं कि उन की जौब स्मूथली चलेगी ही. कई महिलाओं को जहां पति या ससुराल पक्ष के दबाववश नौकरी को बायबाय कहना पड़ता है, तो वहीं शहर बदलने की वजह से भी कई बार जौब का ब्रेक हो जाता है. दूसरा ब्रेक: सैकंड और बड़ा ब्रेक महिलाएं मां बनने पर लेती हैं. करीब 35 फीसदी महिलाएं दूसरा ब्रेक लेने के बाद दोबारा काम पर नहीं लौटतीं. अगर लौटना भी चाहें तो वे अपने कैरियर में पिछड़ चुकी होती हैं, इसलिए भी वे उस दौरान तालमेल बैठा पाने में असमर्थ पाई जाती हैं.

परिवार, बच्चा महिला की जिम्मेदारी

दरअसल, हमारे समाज में बचपन से ही लड़की को पराया कहा जाता है. फिर थोड़ा बड़ी होने पर उसे बताया जाता है कि शर्म लड़की का गहना होती है इसलिए वह ऊंची आवाज में बात न करे. इस दौरान घर के माहौल के अनुसार उस की डिमांड कम बेटे की ज्यादा पूरी होती है. इस के अलावा लड़की घर से बाहर जाते समय लौटने का टाइम बता कर जाए ताकि उस पर पहरा रखा जा सके. यानी एक लड़की त्याग की देवी बचपन से बन जाती है. पारंपरिक दकियानूसी सोच है कि शादी के बाद बेटी ससुराल डोली में जाती है और वहां से वह अरथी में ही उठती है. बेटी ससुराल में सब का खयाल रखना यह कहने के साथ शादी के वक्त लड़की के घर वाले हाथ जोड़ कर उस के ससुराल वालों से यह कहना नहीं भूलते कि बेटी से कोई गलती हो जाए तो उसे माफ कर देना. लड़की की मां व रिश्तेदार भी लड़की से यह भी कहना नहीं भूलते कि शादी से पहले की लाइफ अलग और शादी के बाद की अलग होती है. इसलिए भी लड़कियां शादी और बच्चों को अपनी ही जिम्मेदारी समझ कर काम करती हैं. लेकिन क्या परिवार और बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी सिर्फ लड़की के कंधों पर डालना सही है?

क्या करें लड़कियां

शादी के बाद अगर युवतियां फुलटाइम काम नहीं कर सकतीं तो वे पार्टटाइम काम का औप्शन चुन सकती हैं. इस के अलावा ट्यूशन व खुद सरकारी नौकरी के लिए कोचिंग ले कर फौर्म भर परीक्षा भी दे सकती हैं. घर से व्यापार करना भी अच्छा औप्शन है. टेलरिंग आदि का काम भी कर सकती हैं.

मास्टर औफ वन

मास्टर औफ वन का कौंसैप्ट अगर लड़कियां पहले से ले कर चलें तो अपना कैरियर वे आगे भी चला सकती हैं, क्योंकि कोई ऐसा कोर्स जिस में उन्होंने स्पैशलाइजेशन किया हो तो आगे उन्हें कोई मात नहीं दे सकता. स्पैशल कोर्स कर के आप गैप के बाद भी उसे पुन: जौइन कर सकती हैं. ऐसे कोर्स का फायदा आप के लंबे गैप को भी भर देगा. आप अपने कैरियर को खत्म होने से रोक पाएंगी.

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चुनाव इतने निरर्थक क्यों हैं

हालांकि 5 विधानसभा चुनावों के बाद सरकारें बन गई है पर क्या इन चुनाव परिणामों के बाद औसत आदमी और विशेषतौर पर औसत औरतों की जिंदगी पर कोई असर पडऩे वाला है. आजकल हर 5 साल में 3 चुनाव होते हैं. केंद्र का, राज्य विधानसभा का, म्यूनिसिप्लैटी का जिला अध्यक्ष का पर हर चुनाव के बाद वादों और नारों के जीवन उसी पुराने ढर्रे पर चलता रहता है.

चुनाव भारत में ही नहीं, लगभग सारी दुनिया में न उत्साह जगाते है, न नई आशा लाते हैं. लगभग सभी देशों में चुनाव अखबारों की सुर्खियों में कुछ माह बने रहते हैं. पर जनता पर कोई असर पडऩा हो, यह नहीं दिखता. शायद ही किसी देश में चुनावों से ऐसी सरकार निकली जिस ने पूरी जनता की कायापलट कर दी हो. भारत में 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी पर 2004 तक लोग खिन्न हो चुके थे कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार आ गई. यानी लोगों को चुनी सरकार का काम पसंद नहीं आया.

2009 में कांग्रेस एक बार फिर आई पर 2014 में उसे रिजैक्ट कर दिया गया. 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आई और आज भी मजबूती से बैठी है पर फिर क्या? क्या कहीं कुछ ऐसा हो रहा है जो पहले नहीं हुआ. कहीं नई सरकार का असर दिख रहा है?

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चुनावों से सरकारें आती जाती रहती हैं या बनी भी रहती हैं पर जनता को कोई लंबाचौड़ा अंतर नहीं दिखता. आखिर क्यों? वह लोकतंत्र किस काम का, वह वोिटग किस काम की, वह हल्लागुल्ला किस काम का जब अंत में वही या उसी तरह के लोग उसी तरह से देश चलाने रहें.

भारत में सब कुछ अच्छा हो रहा है. यह दावा तो बहुत थोड़े से ही कर सकेंगे. चुनाव देश की कार्यप्रणाली को बदलने में पूरी तरह असफल होते जा रहे हैं. घर में एक बच्चा होता है, घर की शक्ल बदल जाती है. शादी हो जाती है, घर व रवैया बदल जाता है. किसी की अकाल मृत्यु होती है, झटका लगता है. कुछ भी पहले की तरह नहीं होता रहता. फिर चुनाव देश की जिंदगी में ऐसा बदलाव क्यों नहीं करते जैसे एक व्यक्ति जिंदगी में बच्चे होना उन की पढ़ाई में सफलता मिलना, नौकरी मिलना, दोस्ती बनने से होती है. चुनाव इतने निरर्थक से क्यों हैं.

लोग लेट देने जा रहे हैं. पिछले चुनावों में 4 विधानसभाओं ने उसी पार्टी को चुना जो पहले थी. तो अब वहां क्या नया होगा? पंजाब में कुछ दिन नई पार्टी का नयापन दिखेगा पर फिर सब कुछ दर्रे पर आ जाएगा. तो क्या चुनाव निरर्थक हो गए हैं?

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पतिपत्नी के बीच खलनायक कौन

शहरी पढ़ीलिखी औरतों को तो अपने अधिकारों की काफी बातें मालूम हैं और इतनी कि वे चाहें तो पति की जिंदगी खराब कर दें. 12 साल पहले हुई शादी को हाईकोर्ट ने दिल्ली के एक युगल का तलाक मंजूर कर दिया क्योंकि पत्नी ने शादी के 2 साल घर से अलग रहने के बाद पति पर झूठा सैक्सुअल हेरेंसमैंट और क्रूएलिटी का मामला पुलिस में दर्ज कराया. हाईकोर्ट का मानना था कि झूठा मुकदमा खुद क्रुएलिटी है.

वैसे असल में पतिपत्नी विवाह में खलनायक कानून है, न पति, न पत्नी. पति और पत्नी तो कू्रूर कानून का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि कानून उन्हें एकदूसरे को परेशान करने को उकसाता है. पति और पत्नी दोनों को बताया जाता है कि कानून के सहारे दूसरे का बैंड बजाना कितना आसान है पर यह नहीं बताया जाता कि इस चक्कर में दोनों पिस जाते हैं.

तलाक के लंबे खिंचते मामलों में आमतौर पर दोनों में से एक इसे अहम की लड़ाई मान लेता है. उसे लगता है कि उस की जिंदगी तो तलाक के बाद बर्बाद होती ही है तो दूसरे को क्यों खुश रहने का मौका दिया जाए. यह परपीडऩ दंड देने समय देने वाला भूल जाता है कि वह खुद पूरे प्रोसेस की जहालत का शिकार बनता है. जो तलाक नहीं देना चाहता उस के भी जूते और सैंडल अदालतों और वकीलों के चक्कर लगातेलगाते घिस जाते हैं और जिंदगी अधर में लटकी रह जाती है.

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एक गलतफहमी औरतों के पाल रखी है कि अगर तलाक मिल जाएगा तो पुरुष तुरंत दूसरी शादी कर लेगा. असलियम यह है कि तलाकशुदा के साथ विवाह करते वालियां कम ही होती हैं. हरेक को डर लगता है. यदि किसी तीसरी की वजह से तलाक हुआ हो तो बात दूसरी वर्ना तलाक लेने के बाद जो जीवन साथी ढूंढने निकलते हैं उन्हें धक्के ज्यादा खाने पड़ते हैं.

अदालतों का वर्तमान खौफ असल में उस भारतीय संस्कृति के नगाड़ों के कारण है जिस में हर पुरानी बात को स्वयं सिद्ध माना जाता है. िहदू मैरिज एक्ट 1956 के बावजूद निचली अदालतें सोचती हैकि तलाक लेना तो पाप है चाहे पतिपत्नी दोनों साथ न रहे सकें और दोनों के अवैध संबंध हो या अलग घरों में रह रहे हो. कुछ उदार जज उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में बैठ कर चाहे व्यावहारिक, नैतिक निर्णय दे दें पर निचली सेशन कोर्ट उन्हें इग्नोर करते हुए पतिपत्नी को तब तक तलाक नहीं देती जब तक दोनों में सहमति न हो. उन का बस चले तो सहमति वाले मामलों में भी अड़चन लगाए. अभी भी सहमति वाली पिटीशन पर फिर सोचने को कह कर जज साल 2 साल निकाल ही देते हैं.

पति को बदनाम कर के पतिपत्नी क्या कभी एक साथ कभी रह सकते हैं? जब यह साफ है तो पति पर क्रूरता का झूठा मुकदमा करने के बावजूद हाईकोर्ट तक मामला 12 साल क्यों लंबा रहा. यदि पत्नी अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई तो और 5-7 साल लग सकते हैं और तलाक मिलेगा तो तब जब दोनों बूढ़े हो जाएंगे. महान हिंदू संस्कृति की रक्षा अवश्य हो जाएगी जो विवाह को 7 जन्मों का साथ मानती है. इस दौरान औरत भी अकेले भाईबहनों के रहम पर रहती है और पुरुष शराब और नशे में डूबा रहता है. शास्त्रों की बात सिर माथे, कानून तो गंगा में.

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हिजाब घूंघट, धर्म की धौंस

कर्नाटक की बुरका बनाम भगवा की लड़ाई ने देश में सांप्रदायिक बवाल पैदा कर दिया है. वहां कालेज में बुरका पहन कर आने वाली मुसलिम लड़कियां भगवाधारियों के निशाने पर हैं. वे उन का अपमान कर रहे हैं, उन को धर्मसूचक गालियां दे रहे हैं और इस तरह सांप्रदायिक भावना भड़का कर धु्रवीकरण के जरीए एक राजनितिक पार्टी को चुनाव में मदद की कोशिश हो रही है.

ये भगवाधारी कभी लड़कियों के जींसटौप पहनने पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं, तो कभी हिजाब पहनने पर. लड़कियां आसान टारगेट हैं. उन पर हमला कर के पूरी कौम को उद्वेलित किया जा सकता है. संदेश दूर तक जाएगा और पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में भाजपा को इस से कुछ फायदा पहुंचेगा.

धर्म बना राजनीतिक हथियार

हालांकि कर्नाटक सरकार ने वहां स्कूलकालेज बंद कर दिए हैं और यह मामला भी कोर्ट में है कि बुरका पहन कर लड़कियों को स्कूलकालेज में आने दिया जाए या नहीं. मगर बीते 8 सालों में धर्म को जिस तरह राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है उस से बुरका, परदा, घूंघट, धार्मिक प्रोपोगंडा कर्मकांड, व्रतत्योहार की वर्जनाएं जिन से औरतें धीरेधीरे उबर रही थीं, फिर उसी अंधकूप में जा गिरी हैं. कौन नहीं जानता कि धर्म ने सब से ज्यादा नुकसान औरत का किया है.

धर्म ने सब से ज्यादा बेडि़यां औरत के पैरों में डाली हैं. यह बात औरत को खुद सम  झनी होगी और खुद इस से निकलने के तरीके ढूंढ़ने होंगे.

‘‘मुंह क्यों छिपाना? किस से छिपाना? बचपन से जिस पिता की गोद में खेलखेल कर बड़ी हुई, जिस भाई के साथ लाड़प्यार,   झगड़ालड़ाई करती रही, 15 बरस की उम्र पर आ कर उसी पिता और भाई से मुंह छिपाने लगूं? क्यों? क्या उन की नीयत मेरे शरीर पर खराब होगी? मैं अपने पिता और भाई की नीयत पर शक करूं? क्या ऐसा किसी सभ्य घर में होता है?’’ तबस्सुम आरा बुरके के औचित्य के सवाल पर तमक कर बोलीं.

तबस्सुम एक नर्सरी स्कूल टीचर हैं. बुरका नहीं ओढ़तीं. उन की मां ने भी कभी बुरका नहीं ओढ़ा. उन्हें कभी यह बात सम  झ में नहीं आयी कि मुंह छिपाने की जरूरत क्यों है?

वे कहती हैं कि छिपी हुई चीज के प्रति तो आकर्षण और तीव्र हो जाता है. सिद्धार्थ जिन्हें गौतम बुद्ध कहते हैं, वे जब छोटे बालक थे तो किसी पंडित ने उन के पिता से कहा था कि बच्चा बड़ा हो कर या तो राजा बनेगा या संन्यासी हो जाएगा. पिता ने सोचा संन्यासी क्यों हो, इसे तो राजा ही होना चाहिए, तो उन्होंने जवान होते पुत्र सिद्धार्थ का महल सुंदरसुंदर कन्याओं, मदिरा और ऐशोआराम की वस्तुओं से भर दिया.

छोटी उम्र में उस का विवाह भी कर दिया. इतना सब छोटी उम्र में ही देख कर सिद्धार्थ का दिल भर गया और 29 साल की अवस्था में वे सब त्याग कर बुद्ध हो गए. दुनिया को ज्ञान बांटने लगे.

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मर्द की कमजोरी

इस कहानी से साफ है कि देख लो तो जिज्ञासा खत्म हो जाती है, मन स्थिर हो जाता है. अगर सिद्धार्थ के पिता ने सब औरतों के चेहरे ढक दिए होते तो औरतों के प्रति सिद्धार्थ की जिज्ञासा और आकर्षण जीवनभर बना रहता. एक स्त्री का चेहरा देखने के बाद दूसरी स्त्री में उन की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती. दूसरी के बाद तीसरी में और फिर चौथी में. मगर उन के सामने सब के चेहरे खुले हुए थे. लिहाजा जिज्ञासा ही नहीं हुई. अगर हिन्दू समाज और मुसलिम समाज इस छोटी सी बात को सम  झ ले और घूंघट और बुरके की प्रथा को समाप्त कर दे तो देश में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध 50% खुदबखुद कम हो जाएंगे.

औरत का मुंह देखने से अगर मर्द की नीयत खराब होती है तो यह मर्द की कमजोरी है, औरत की नहीं. अगर मर्द कमजोर है तो उसे मजबूत करने की कवायद होनी चाहिए. मर्द अगर अपराधी प्रवृत्ति का है तो उसे ठीक रास्ते पर लाने के उपक्रम होने चाहिए, लेकिन समाज ने उलटे नियम गढ़ रखे हैं. सारी पाबंदियां औरतों की आजादी पर लगा दी हैं और ये बातें उन्हें बचपन से घुट्टी की तरह पिलाई जाती हैं कि मर्द से सबकुछ छिपा कर रखना है.

औरत पर ही क्यों पाबंदियां

घूंघट या हिजाब से लड़कियों का शारीरिक और मानसिक विकास रुकता है. जवान होती हुई लड़की पर इस तरह की पाबंदियां उस को भविष्य में एक कमजोर औरत के रूप में विकसित करती हैं. 15-16 साल की उम्र से हिजाब या परदा करने वाली लड़की न तो कोई खेल खेलती है ना व्यायाम करके अपने शरीर को तंदुरुस्त और ताकतवर बनाती है जैसेकि इस उम्र के अधिकांश लड़के करते हैं. वहीं ऐसी लड़कियां वादविवाद प्रतियोगिताओं से भी दूर अपने में ही सिमटी रहती हैं. लिहाजा आवाज उठाने की ताकत खत्म हो जाती है.

ऐसी महिलाएं भविष्य में अपने साथ होने वाली आपराधिक घटनाओं के खिलाफ भी कभी आवाज नहीं उठा पातीं और हिंसा का शिकार बनती हैं. अपराध खबरों पर नजर डालें तो वही लड़कियां बलात्कार और हिंसा की शिकार ज्यादा होती हैं, जो परदानशीं रहती हैं. चाहे वे हिंदू हो या मुसलमान. औरत को परदे या घूंघट में कैद कर के दुनिया में कहीं भी उस का अपहरण, बलात्कार या हत्या नहीं रोकी जा सकती है. यदि पुरुष में चरित्र दोष है तो वह उस स्त्री पर पहले हमला करेगा जो दबीढकी, सकुचाई सी नजर आएगी. समाज में अपराध और बर्बरता न बढ़े इस के लिए पुरुषों पर पाबंदियां लगाए जाने की जरूरत है न कि स्त्री पर.

1935 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक पुरुष मुसलिम न्यायाधीश ने अपने एक फैसले में कहा था कि बुरका पहनना या न पहनना मुसलिम औरतों का अधिकार है और किसी भी पुरुष को कोई अधिकार नहीं है कि वह उसे धार्मिक कारणों से भी उस की मरजी के खिलाफ बुरका पहनने को बाध्य करे. लेकिन इस प्रगतिशील फैसले के 87 साल बाद भी इस आदिम प्रथा में कोई बदलाव नहीं आया है, उलटे अब यह प्रथा हिंदुत्व और भगवापन के उछाल के साथ क्रियाप्रतिक्रिया नियम के तहत और मजबूत हो रही है.

समर्थन और विरोध

कर्नाटक की घटना के बाद एक बार फिर हिजाब और परदे पर चर्चा गरम है और सोशल मीडिया पर परदे के समर्थन और विरोध में लाखों पोस्ट आ रही हैं.

इन प्रथाओं के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वाली बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन लिखती हैं, ‘‘कोई एक हजार वर्ष पहले किसी एक आदमी द्वारा अपने निजी कारणों से यह निर्णय किया गया था कि औरतें परदा करें और तब से करोड़ों मुसलिम औरतें सारी दुनिया में इसे भुगत रही हैं. अनगिनत पुरानी परंपराएं समय के साथ खत्म हो गईं, लेकिन परदा जारी है. उलटा कुछ समय से इसे पुन: प्रतिष्ठित करने का एक पागलपन चला हुआ है.’’

अपनी किताब ‘औरत के हक में’ तस्लीमा नसरीन लिखती हैं, ‘‘नारी को स्वावलंबी होना चाहिए, मजबूत होना चाहिए, व्यक्तित्व प्रधान होना चाहिए. मैं स्त्री के मन मुग्धकारी शरीर के उत्तेजक प्रदर्शन कर के वाहवाही लेने के पक्ष में नहीं हूं. मैं चाहती हूं स्त्री अपने रूप से नहीं, गुण के बल पर प्रतिष्ठित हो. कट्टरपंथियों का नजरिया बिलकुल भिन्न है. वे स्त्री को उजाले में आने ही नहीं देते. वे स्त्री को मनुष्य के रूप में स्वीकृति ही नहीं देते.’’

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बंद हो महिलाओं का उत्पीड़न

स्वयंसेवी कार्यकर्ता नाइश हसन कहती हैं, ‘‘बुरका पुरुषों की बनाई चीज है जो अपनी सत्ता कायम रखने के लिए उस ने औरतों पर थोपी है. इस के जरीए वे औरतों की मोबैलिटी को कंट्रोल कर पाते हैं.’’

वहीं मशहूर अदाकारा शबाना आजमी का कहना है, ‘‘कुरान बुरका पहनने के बारे में कुछ नहीं कहती.’’

सोशल मीडिया पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी कहा है, ‘‘यह फैसला करना महिलाओं का अधिकार है कि उन्हें क्या पहनना है और क्या नहीं. पहनावे को ले कर महिलाओं का उत्पीड़न बंद होना चाहिए. चाहे वह बिकिनी हो, घूंघट हो, जींस हो या हिजाब हो, यह फैसला करने का अधिकार महिलाओं का है कि उन्हें क्या पहनना है. इस अधिकार की गारंटी भारतीय संविधान ने दी है. महिलाओं का उत्पीड़न बंद करो.’’

परदे पर बहस सदियों से जारी है. जरूरत इस बात की है कि इसलाम में जिस परदे की बात कही गई है उसे ठीक से सम  झा जाए. इसलाम ‘नजर के परदे’ की बात कहता है और यह परदा मर्द एवं औरत दोनों पर लागू होता है.

समाजसेवी नाइश हसन कहती हैं, ‘‘परदा एक अलग चीज है और बुरका एक अलग. कुरान में कहीं ऐसा नहीं कहा गया है कि औरत अपने हाथ, पैर या चेहरा ढके. इसलाम ने औरत को आदमी से ज्यादा आजादी दी है. औरत किस तरह का लिबास पहने यह उस की अपनी मरजी पर निर्भर है. बुरका पुरुषों की बनाई चीज है जो अपनी सत्ता कायम रखने के लिए पुरुषों द्वारा औरतों पर थोपी गई है.

‘‘इस के जरीए वे औरतों की ‘मोबैलिटी’ को कंट्रोल कर पाते हैं. कुरान में जिस परदे की बात है वह है ‘नजर का परदा’ अर्थात हम एकदूसरे से व्यवहार करते समय किस तरह से पेश हों. इसलिए आप देखेंगे की बुरके का चलन सब मुसलिम मुल्कों में नहीं है. अगर सऊदी अरब की बात की जाए तो एक गरम रेतीला इलाका होने के कारण वहां मर्द और औरत दोनों ही पूरे शरीर को ढकने वाले लंबेचौड़े लिबास पहनते हैं. उन की नकल करने की जरूरत हमें नहीं है क्योंकि यहां का मौसम सऊदी अरब के मौसम से अलग है.’

स्पष्ट है कि बलात्कार या छेड़छाड़ से बचने का उपाय परदा या बुरका नहीं है. जरूरत इस बात की है कि औरत को बंधनमुक्त कर के संकट के समय अपना बचाव करने के तरीके सिखाए जाएं और औरत को निशाना बनाने वाले मर्दों, भगवाधारियों, बलात्कारियों के लिए कानून और सजा को सख्त किया जाए.

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कौमार्थ शह देता है धर्म

लेखिका -पूजा यादव

वर्जिनिटी या कौमार्थ न आज कोई अजूबा है न पहले कभी था. पश्चिमी देशों में नई पत्नी को अपनी वर्जिनटी साबित करने के लिए पहली रात को खून से सनी चादर तक दिखानी होती थी. इस का अर्थ यही है कि अधिकतर लड़कियां शादी तक वर्जिन नहीं रहती थीं. ऐसा कोई नियम लड़कों पर लगा नहीं था. पहले लड़की का फ्यूचर अच्छे पति पर टिका था. आज चाहे लड़का हो या लड़की घर से बाहर रह कर पढ़ने या नौकरी करने को मजबूर हैं.

आज बच्चे 1 या 2 ही होते हैं और जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा है. 10वीं कक्षा के बाद मुश्किल से ही घर में रह पाते हैं. बेहतर से बेहतरीन की तलाश में बड़े शहरों का या जहां मनचाहा कोर्स मिले वहां का रुख कर लेते हैं और शादी करने की किसी को कोई जल्दी नहीं होती.

युवा पीढ़ी शादी के बंधन से तो बचना चाहती है, लेकिन शरीर की किसी भी जरूरत को पूरा करने से हिचकती नहीं है. जरूरतें उम्र के साथसाथ जाग ही जाती हैं. स्वतंत्र वातावरण में वैसे भी कोई नियंत्रित नहीं कर सकता है. लड़कों को तो इस मामले में हमेशा से ही छूट रही है. उन पर तो कोई जल्दी और आसानी से उंगली भी नहीं उठाता पर अब लड़कियों के भी आत्मनिर्भर होने से उन पर भी जल्दी शादी का दबाव नहीं रहा.

बदल गई है जीवनशैली

लड़केलड़कियों का एकसाथ रहना एक सामान्य बात ही नहीं जरूरत भी हो गई है. बहुत बार 3-4 कमरों के सैट में 2-3 लड़कियों और 2-3 लड़कों के साथसाथ रहने में भी कोई बुराई नहीं है. कुछ साल साथ रह कर अपनी सुविधानुसार सही समय पर शादी के बारे में सोचें तो बहुत ही अच्छी बात है. लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब कुछ समय साथ रहने के बाद दोनों के विचार नहीं मिलते और अलग हो जाते हैं.

कमी न तो लड़कों को लड़कियों की है और न लड़कियों को लड़कों की. कोई दूसरा साथी मिल जाता है और फिर वही सब. अब शहरों के कामकाजी और सफल युवाओं का यह रहनसहन ही बन गया है.

यह बात भी है कि 27-28 की आयु आतेआते घर वाले चाहते हैं कि अब लड़के की शादी हो जानी चाहिए और फिर शुरू होती है एक अदद सीधी, घरेलू, कमउम्र ऐसी लड़की की खोज जिसे जमाने की हवा ने टच तक न किया हो यानी एकदम वर्जिन.

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बदलनी होगी सोच

एक लड़का अपनी 29-30 साल की उम्र तक न जाने कितनी लड़कियों के साथ सैक्स कर चुका हो उस के बाद शादी के लिए अनछुई कली की ख्वाहिश रखता है. यह हवाई बात है. अब वह समय है जब लड़कों को भी अपनी सोच बदलनी होगी क्योंकि जितना अधिकार लड़कों को है उतना ही अधिकार लड़कियों को भी है अपनी जिंदगी को अपनी तरह से गुजारने का.

जब जीवनशैली में परिवर्तन आ ही गया है तो इसे वर्जिन और प्योर के दायरे से बाहर निकल कर खुले दिल से स्वीकार करने का साहस भी दिखाया जाने लगा है पर फिर भी वर्जिनिटी का भूत बहुतों के सिर पर सवार रहता है.

शादी से पहले किस की जिंदगी में क्या हुआ यह माने नहीं रखता, बल्कि शादी के बाद एकदूसरे के प्रति प्यार, विश्वास, सहयोग और समर्पण ही शादी को सफलता के मुकाम तक ले जाता है, इसलिए जहां जिंदगी में इतने बदलाव आए हैं वहीं लड़कों को अपनी मानसिकता में भी बदलाव लाना होगा कि वर्जिन जैसा कोई शब्द न आज है और न कभी था. इसलिए इस बात को जितनी जल्दी समझ लें जीवन उतनी ही जल्दी आसान होगा.

दोषी कौन

समाज और धर्म ने अपनी सारी मेहनत लड़कियों पर ही झोंक दी उन्हें संस्कार देने में गऊ बनाने में. आज लड़कियां प्रतिस्पर्धा के हर क्षेत्र में लड़कों से 4 कदम आगे हैं. लेकिन कुछ लड़के आज भी वही बरसों पुरानी मानसिकता

से ग्रस्त हैं. आज भी उसी पत्नी के सपने देखते हैं जो दूध के गिलास के साथ उन का स्वागत करे और घर के साथसाथ बाहर भी उन के कंधे से कंधा मिलाए.

इस में उन धार्मिक कथाओं का बहुत असर है जिन में सैक्स संबंधों में एकतरफा नियंत्रण के गुण जम कर गए जाते हैं. हिंदू पौराणिक कहानियां हों अथवा नाटक की या किसी और धर्म की, ऐसे नियमों से भरी हैं जिन में शादी से पहले संबंध बने. इन में अधिकांश में लड़की को दोषी ठहराया गया और दोषी पुरुष को छोड़ दिया गया.

जरूरी नहीं वर्जिन होना

इस के अवशेष आज भी हमारे दिमाग पर बैठे हैं. बहुत से तलाक के मामलों में लड़के विवाहपूर्ण संबंधों का इतिहास सोच कर बैठ जाते हैं, जबकि आधुनिक कानून ज्यादा उदार है और प्रावधान है कि जब तक कोई लड़की किसी दूसरे से संबंध बनाए न रख रही है, उस का पति तलाक का हक नहीं रखता. विवाह की शर्तों में आज के कानून में वर्जिन होना भी जरूरी नहीं है. अत: वर्जिनिटी को दिमाग से निकाल दें. ये ज्यादातर चोंचले ऊंची जातियों के हैं जो अपनी शुद्धतों का ढोल पीटने के लिए औरतों पर अत्याचार उसी तरह करते रहे हैं जैसे समाज के पिछड़े वर्गों के लिए.

वक्त के साथ वर्जिन लड़कियां लड़कों की कल्पना में ही रह जाएंगी क्योंकि सचाई यह है कि आज नहीं तो कल यह शब्द शब्दकोष से गायब हो ही जाना है, इसलिए खुद को इस सचाई से रूबरू रखना और समय अनुसार स्वयं को ढाल लेना ही सरल जीवन का गुरुमंत्र है.

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नारों से काम नहीं चलता

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ‘लडक़ी हूं लडक़ी शक्ति हूं’ और 40 प्रतिशत सीटों पर औरतों को खड़ा करने का कांग्रेस का महिलाओं को पौवर देने का एक्सपैरियमैंट बुरी तरफ फेल हुआ. कांग्रेस को 2.3′ वोट मिले जबकि वोटरों में औरतों ने आदमियों से ज्यादा वोट दिए. नतीजा बताता है कि सिर्फ मरों से काम नहीं चलता. जमीन पर कुछ करने से काम चलता है और न कांग्रेस के शीर्ष नेता प्रियंका गांधी और राहुल गांधी और न ही उन के ठाठबाठी दूसरे नेताओं के बस के जमीनी थपेड़े की आदत हैं.

औरतों को सरकार से चाहत भी शिकायत नहीं है, ऐसा नहीं है पर उन्हें भरोसा नहीं है कि कांग्रेस औरतों और लड़कियों के लिए लडऩे का मूड बना कर रख रही है. मेराथन कराने में कुछ ज्यादा नहीं होता. यह तो खेल भर है. औरतों को तो जरूरत है किसी ध्यान रखने वाले की जो उन संकरी मैली बदबूदार गलियों में जा सके जहां औरतों को रोज हजार आफतें सहनी पड़ती है.

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जो दल जीत रहे हैं उन की खासियत यही है कि नारों के साथसाथ वे अपनी बात कोनेकोने में पहुंचाते हैं. उन के कार्यकर्ता कर्मठ हैं और पीढिय़ों से घर बैठे खाने के आदी नहीं हैं. लड़कियों की मुसीबतें आज भी हजार हैं. कहने को उन्हें पढऩे की औपरच्यूनिटी मिल रही है पर असल में यह आधीअधूरी है. केवल बहुत ऊंचे पैसे वालों के घरों की लड़कियों के छोड़ दें तो बाकि के पास आज भी सैनेटरी पैड के लिए पैसे जुटाने तक में दिक्कत होती है. ‘लडक़ी हूं लड़ सकती हूं’ का नारा तो तब कामयाब होगा जब यह लड़ाई विधानसभा की सीटों के लिए नहीं घर में बराबरी का दर्जा पाने, सही हवा, सही आजादी के लिए हो.

कांग्रेस के पास अपना मैसेज ले जाने वालों की फौज है अब. भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता हर मंदिर के सामने बैठा है, एक नहीं दसियों हैं. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता भी है जो अपनी जमीनों की देखभाल के लिए लाठियां लिए खड़े हैं. कांग्रेस लड़कियों का नाम ले कर लड़ी और उस ने लड़कियों को हरवा दिया. उस ने तो इस इशू को ही खत्म कर दिया.

लड़कियों के लिए किसी को कुछ करना चाहिए. भाजपा का तो सिद्धांत पौराणिक ग्रंथों से आता है और समाजवादियों का गांवों के रीतिरिवाजों से. दोनों ये लड़कियों की कोई जगह नहीं. रही कसर कांग्रेस ने मामले उठा कर उसे लेकर कर पूरी कर दी.

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कोचिंग का धंधा

यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई पढ़ रहे 2000 भारतीय छात्रों ने चीन का किस्सा दोहराया जहां 2000 से ज्यादा भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे और कोविड के कारण उन्हें निकाल कर लाना पड़ा था. यूक्रेन में तो भारतीय छात्र मरतेमरते बचे हैं क्योंकि रूसी हमलों में किस की जान जाती, कोई नहीं कह सकता. मेडिकल की पढ़ाई करने की तलब आज भारतीय छात्रों में इतनी है कि भारत की 8000 सीटों के बाद से कहीं भी कैसी भी पढ़ाई करने चल देते थे. शातिर लोगों ने मेडिकल कालेजों में दाखिला दिलाने का छलावा कर के लूटने का पक्का धंधा भी बना लिया है.

नोएडा पुलिस ने एक गिरोह को पकड़ा जिस के फर्जी काउंसिङ्क्षलग कर के फर्जी एडमिशन ले कर दे कर 30-30 लाख तक लोगों से वसूल कर लिए. ग्रेटर नोएडा के शारदा विश्वविद्यालय और आगरा के सरोजिनी नगर मेडिकल कालेज में दाखिले के झूठे डौक्यूमेंट देकर लूटा गया.

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इसमें बड़ी गलती छात्रों और उन के मांबाप की जो हर समय यह सोचते हैं कि दलाल उन का काम कर देंगे. इस देश में लोगों को बेइमानी पर इतना विश्वास है कि वे सोचते हैं कि इस देश में सक काम पैसा फेंक कर हो सकता है. एक जने का काम चल जाए तो सौै लोग उसे अकेला रास्ता मान लेते हैं. हाल तो यहां तक है कि अगर कोई मैरिट से भी सीट पाता है तो सगेसंबंधी सोचते हैं कि यह तो दलालों के मार्फत खरीदी सीट है. झूठ पर भरोसा करने वाली जनता धर्म के नाम पर लूटे जाने पर इतनी लूटने को तैयार बैठी रहती है कि मेडिकल सीट के लिए कुछ भी दे देने को तैयार रहती है.

जो धाव यूक्रेन या वुहान ने दिखाया इस तरह के घाव यहीं भारत में रोज किए जाते हैं और लोग पट्टी बांध कर उसे छिपा कर बैठ जाते हैं. लूटे गए लोग कम ही शिकायत करते हैं क्योंकि पुलिस पहला सवाल करती है कि लूटेरों को देने का पैसा कहां से आया. इस का जवाब ज्यादातर के पास नहीं होता और इसलिए वे चुप रह जाते हैं.

कोचिंग के धंधे के साथ फर्जी एडमिशन का धंधा भी बहुत चल रहा है और अब तो शानदार औफिसों से चलता है.

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शहरीकरण और औरतें

भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने एक नेशनल लैंड मोनेटाइजेशन कौरपोरेशन बनाई है जिस काम होगा देश भर में फैली केंद्र सरकार की जमीनों का हिसाब रखना और उन्हें बेच देना सरकार आजकल जनता से पैसे इकट्ठे करने में लगी है और पिछले कानूनों के बल पर कौढिय़ां में पिछली सरकारों की खरीदी जमीन को अब मंहगे दाम पर बेचना चाह रही है. यह पक्का है कि अब जो जमीनें बिकेंगी उन में घने कंक्रीट के जंगल उगेंगे और इन में से ज्यादातर शहरों, कस्बों में होंगे.

सरकारी जमीन फालतू पड़ी रहे, यह सोचना वाजिब है पर उस की जगह कंक्रीट के ऊंचे मकान, दफ्तर या फैक्ट्रियां आ जाएं, यह गलत होगा. आज सभी शहर भीड़भाड़ व प्रदूषण से कराह रहे हैं और सरकार इस में धूएं देने वाली मशीनें लगाने की योजना बना रही है. जो लोग शहरों कस्बों में रहते हैं उन्हें राहत देने की जगह, ये कदम आफत देंगे.

अच्छा तो यह रहेगा कि इन सब जमीनों पर पेड उगा कर इन्हें छोटेबड़े जंगलों में बदल दिया जाए. सरकार जंगलों का रखरखाव नहीं कर पा रही है और न ही खेती की जमीन आज के भाव से मुआवजा देकर वहां जंगल मार्ग उगा पा रही है. इसलिए जो जमीन उस के पास है चाहे 100-200 मीटर हो या लाख दो लाख मीटर, वहां बने बाग बेहद सुकून देंगे.

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अब शहरीकरण तो देश का होना ही है और कंक्रीट और जमीन का बढ़ता भाव देख कर लोगों को दड़बों में रहना पड़ेगा. उन्हें वहीं सांस लेने की जगह मिल जाए तो यह सुकून वाली बात होगी. इन छोटे बड़े जंगलों से पोल्यूशन निकलेगा नहीं, खत्म होगा.

यह भाव देश की औरतों पर निर्भर है कि वे इस मुद्दे को कितना समझें और कितना लैंड मोनेटाइजेशन का अर्थ समझें. आज तो यह समझ लें कि सरकारी दफ्तर के आगे पीछे खाली जगह उन्हें सांस देती है, बिक जाने के बाद गलाघोंट जहर उगलेगी. आदमियों को अब फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें बच्चे नहीं पालने होते, उन के खेलने की जगह नहीं ढूंढ़ती होती. सरकार लैंड मोनेटाइजेशन नहीं कर रही, लैंडपाइजनेशन कर रही है जिस का सीधा शिकार औरतें और बच्चे होंगे.

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कभी गरीबों की भी सुनो

शहरों को सुंदर बनाने में भी अब राजनीतिक दलों की रुचि होने लगी है. लखनऊ में गोमती के किनारे रिवर फ्रंट को ले कर अखिलेश यादव अपनी पीठ थपथपाते हैं तो नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में साबरमती के रिवर फ्रंट को ले कर. नरेंद्र मोदी आजकल अपना बहुत समय दिल्ली के राजपथ के दोनों ओर सैंट्रल विस्टा और नया संसद भवन बनवाने में बिता रहे हैं और उन की रुचि राममंदिर में फिलहाल न के बराबर है जिस पर वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कब्जा है.

शहरी आबादी निरंतर बढ़ रही है और आमतौर पर सिर्फ बहुत महंगे इलाकों को छोड़ कर शहरों में रहने वाले खुली हवा व हरियाली को तरस रहे हैं. ऐसे में यह जरूरी है कि राज्य सरकार व नगर निकाय अपने बजट का बड़ा हिस्सा आम जनता के लिए बड़ेबड़े बाग बनवाने व आसपास के खुले इलाकों को विकसित करने में खर्च करें. आजकल सरकारी 20-30 मंजिले सचिवालयों और कार्यालयों, अदालतों को बनवाने की जो होड़ लगी है वह असल में जनता पर शासकों का भय दर्शाने के लिए है.

जहां बाग और रिवर फ्रंट में आम आदमी और उस का परिवार राहत महसूस करता है, वहीं विशाल अदालत भवन, पुलिस मुख्यालय या दूसरी सरकारी इमारतें उस का दम घोंटती हैं. राजपथ के दोनों ओर पिछले 70 सालों से हराभरा मैदान एक राहत देने वाला स्थान रहा है, जहां दिल्ली की घनी बस्तियों वाले कभीकभार आ कर चैन महसूस करते थे. धीरेधीरे कर के इसे जनता से छीन कर सरकारी कब्जे में लिया जा रहा है. सी हैक्सागन पहले ही सैनिक स्मारक की तरह विकसित कर दिया गया है और उस में आम जनता नहीं जा सकती, केवल जनता के प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी ही जा सकते हैं.

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नरेंद्र मोदी अपने लिए विशाल मकान और संसद भवन बनवा रहे हैं. सैंट्रल विस्टा आम जनता के लिए खुला रहेगा, इस में संदेह है. इस के विपरीत दिल्ली सरकार, जिस के पास आधेअधूरे हक हैं, कई जगह सड़कों को सुंदर कर रही है और यमुना के किनारे को विकसित करना चाह रही है पर केंद्र सरकार की एजेंसी, दिल्ली विकास प्राधिकरण, उस जमीन पर कुंडली मारे बैठी है. इस का श्रेय अरविंद केजरीवाल को न चला जाए, केवल इसलिए वह वहां कुछ नहीं होने दे रही. ऐसा ही कुछ हर राज्य, हर शहर में हो रहा है.

बढ़ती शहरी आबादी को जो ठंडी हवा चाहिए वह मौलिक अधिकार होने के साथसाथ उस की आवश्यकता भी है. शहरी आबादी अपने अधिकांश घंटे बंद दफ्तरों, कारखानों या घरों में बिताती है और उसे सप्ताह में मुश्किल से 3-4 घंटे मिलते हैं जब कहीं राहत की सांस ले सके. साफ हवा और पार्क वगैरह को विकसित करने को अब शासन का अहम हिस्सा मानना चाहिए. पेड़, बाग, झरने, खेलकूद के लिए स्थान, साफसुंदर सड़कें, पटरियां आज हिंदूमुसलिम विवादों, चीनपाकिस्तान, राममंदिर, काशी कौरिडोर, चारधाम यात्रा से ज्यादा महत्त्व की हैं. समाजवादी पार्टी और मायावती का चुनावों में गोमती रिवर फ्रंट का मुद्दा उठाना एक अच्छा संकेत है. यह अयोध्या के घाटों से कहीं ज्यादा जरूरी है जहां पंडों की बरात जमा हो जाएगी और भिखारियों का जमावड़ा हो जाएगा.

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कमजोर को गुलाम बना दिया जाता है

रूस के व्लादिमीर पुतिन ने छोटे से देश यूक्रेन पर बुरी तरह कहर ढा दिया है और लगभग 15 लाख लोग तो अभी यूके्रन से भाग कर पड़ोसी देशों में पहुंच गए हैं, रूस की न मानने की सजा हजारों घरों को बमों से तोडक़र, परिवारों को नष्ट कर के औरतों और बच्चों को दी जा रही है और पूरा विश्व स्तब्ध है कि वह क्या करें. अमेरिका और यूरोप अपनी ओर से जो कर सकते थे वे कर रहे हैं पर एटमबमों से लैस रूस पर हमला करना एक और बड़ा जोखिम है.

यूक्रेन की मुसीबत की वजह है कि यूक्रेनियों ने एक की गुंडई को सहने से इंकार कर दिया. हजारों सालों से यह होता रहा है कि अपने बच्चों, घरवालों और अपनी जान बचाने के लिए लोग अपनी आजादी को कुरबान करते रहे हैं. इस कुरबानी का कोई लंबाचौड़ा फायदा नहीं होता क्योंकि इस के बाद कमजोर को गुलाम बना दिया जाता है और वह मरे से भी बुरी हालत में जीता है.

यूक्रेन का अंत कैसा भी हो, यूक्रेनी लड़ाकू चाहे मारे जाएं पर यूक्रेन की औरतों की कुरबानी, अपने बेटों और पतियों को लड़ते को भेजने को राजी होना और खुद अपना बसाबसाया घर छोडक़र कहीं विदेश में बस जाना असल में पूरी दुनिया को कर्जदार बना रहा है. वे औरतें असल में भीषण अधिकारों की पहली पहरेदार साबित हो रही है.

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अगर ये औरतें अपने बेटों और पतियों के सामने खड़ी हो कर उन्हें सरेंडर करने को कहतीं तो उन की जान बच जाती पर पूरी दुनिया में रूसी पैने फैलने लगते. जो यूक्रेन में हो रहा है, वही पड़ोसी भोलटोवा, एस्टोनिया, लटाविया, लिशूनिया में होता. रूसी मंसूबे तब तक नहीं रखते जब तक पश्चिमी देश एटमी युद्ध तक के लिए तैयार नहीं हो जाते. यूके्रन की औरतों ने अपनी दृढ़ता से एक संदेश दिया है कि जुल्म का हिम्मत से मुकाबला करना होता है, भीख मांग कर.

भारत में सैंकड़ों सालों से मुट्ठी भर लोग बहुसंख्यक शूद्रों और दलितों पर सदियों से भक्ति, पिछले जन्मों के कर्मों के फल के नाम पर राज करते आ रहे हैं. संविधान के बावजूद, आरक्षण के बावजूद ऊंचे घरों की औरतों और निचले घरों की औरतों में एक साथ विभाजन दिख रहा है. निचले घरों की औरतों, बेटियों को जब मर्जी रेप कर दिया जाता, वेश्याघरों में भेज दिया जाता है, कमरतोड़ मेहनत करने को मजबूर करा जाता है क्योंकि वे औरतें अपने बेटों और पतियों को यूक्रेनी औरतों की तरह अपनी जमीन, अपनी सरकार, अपने हकों के लिए लडऩे को नहीं भेजती.

जब तक यूक्रेन विशाल सोवियत संघ का हिस्सा था, मास्को ने यूक्रेन में ही एटमिक स्टेशन बना रखे थे. यहीं लक्ष्य बम जमा हो ताकि अगर कुछ हो तो यूक्रेनी ही मरें, बाकि रूस के लोग नहीं. अब यूक्रेनी जनता इस मनमानी को फिर से दोहरा देने को तैयार नहीं है. वह एक मास्को की कठपुतली को अपने राष्ट्रपति की तरह देखने को तैयार नहीं चाहे इस की कोई कीमत देनी न पड़े.

यूक्रेनी औरतें आज जो बलिदान कर रही है जिस में अपनों को खोना भी है, अपनी मेहनत से जुटाई गृहस्थी को रूसी हमलों में नष्ट होते देखना भी है, उस का फायदा आने वाली पीढिय़ों को मिलेगा. यूक्रेनी औरतों की इज्जत दुनियाभर में बढ़ जाएगी. उन्हें कष्ट भोगने की आदत होगी तो वे और कर्मठ बन जाएंगी.

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जहां भी औरतों ने यह बलिदान नहीं दिया वहां उन्हें सदियों तक गुलामी सहनी पड़ी है. मुसलिम देशों में औरतों को आज भी आजादी नहीं है क्योंकि वे उसी समय की सुरक्षा के चक्कर में अपने हकों को कुर्बान करती है, हकों के लिए कुर्बानी नहीं देती. अफगानिस्तान में औरतों ने बेटों और पतियों को लडऩे जाने दिया पर गलत हक के लिए, अपने परिवार की सुरक्षा के लिए नहीं. इसलिए तालिबानी सरकार बनते ही सब से पहला जुल्म औरतों पर शुरू हुआ. यूक्रेन की औरतों का निशाना एक विदेशी सरकार अपने लोकतांत्रिक हकों के लिए है और चाहे फिलहाल यूक्रेन पर रूसी कब्जा हो जाए, यह इलाका रूस के लिए हमेशा सिरदर्द बना रहेगा.

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