इक घड़ी दीवार की- भाग 1: क्या थी चेष्ठा की कहानी

दोपहर का समय था. सात्वत दिल्ली के रिंग रोड से अपनी कार मोड़ कर बाईं ओर डब्लू.एच.ओ. भवन के नजदीक पहुंचा ही था कि पल भर को उस की नजर उस ओर मुड़ी और उसी पल स्वत: उस का पैर तेजी से ब्रेक पर पड़ा और कार चीत्कार करती हुई रुक गई.

सात्वत झटके से कार का दरवाजा खोल कर उतरा और तेजी से बाईं ओर भागा. वह भवन के आगे शीशे के दरवाजे तक पहुंच चुकी थी. सात्वत इतनी दूर से भी वर्षों बाद उसे देख कर पहचान गया था…शक की कोई गुंजाइश नहीं थी. वह चेष्टा ही थी…वही लंबा, छरहरा बदन, गर्दन तक कटे बाल, वही हलके कदमों वाली चाल. पलभर को ही दिखाई दी, किंतु वही आंखें, वही नाक और होंठ…शर्तिया वही है. वह तेजी से उधर बढ़ना चाहता था कि अचानक खयाल आया, उस की कार बीच रोड पर खड़ी है और सीट पर उस का लैपटाप, मोबाइल और हैंड बैग रखा है.

सात्वत ने फौरन जा कर कार को बाईं ओर लगाया, शीशा चढ़ा कर गाड़ी लौक की फिर दौड़ता हुआ डब्लू.एच.ओ. भवन की ओर गया. जब तक वह गेट के पास पहुंचा चेष्टा ओझल हो चुकी थी. शीशे के द्वार के बाहर वह पल भर रुका तो द्वार अपनेआप खुल गया. वह तेजी से लौबी के अंदर गया और चारों ओर देखने लगा. वह कहीं नहीं थी. शायद वह भवन के अंदर चली गई थी. तब तक एक वरदीधारी उस के पास आया और बोला, ‘‘आप कौन हैं? क्या चाहिए?’’

उसे खामोश पा कर उस ने फिर कहा, ‘‘प्लीज, रिसेप्शन पर जाइए,’’ और एक ओर इशारा किया.

सात्वत ने रिसेप्शन पर जा कर वहां बैठी महिला से इस तरह आने के लिए माफी मांगी फिर बोला, ‘‘मैडम, वह लड़की जो अभीअभी अंदर आई थी, वह किधर गई?’’

महिला ने उसे ऊपर से नीचे तक गौर  से देखा फिर अंगरेजी में पूछा, ‘‘आप को क्या काम है?’’

सात्वत ने कहा, ‘‘मैं उसे जानता हूं, उस से मिलना चाहता हूं, उस से पुरानी जानपहचान है.’’

रिसेप्शन पर बैठी युवती ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘आप बिना पूर्व समय लिए यहां किसी से नहीं मिल सकते.’’

सात्वत ने अनुरोध भरे स्वर में कहा, ‘‘मैडम, मुझे यहां आप के आफिस में किसी से नहीं मिलना है. अभी जो लेडी यहां अंदर आई हैं मैं केवल उन से मिलना चाहता हूं. मैडम, मेरा उन से मिलना बहुत जरूरी है.’’

उस महिला और गार्ड के चेहरों पर हठ और आक्रोश के भाव को देख कर सात्वत समझ गया कि उन से कुछ भी अनुरोध करना बेकार है. वह कोई अनावश्यक सीन नहीं खड़ा करना चाहता था इसलिए ‘आई एम सौरी’ बोल कर बाहर आ गया.

सात्वत धीरेधीरे चलता हुआ, अपनी कार के पास आ गया और गेट खोल कर अंदर बैठ गया. उस ने शीशा नीचे किया और सेल फोन निकाल कर अपने आफिस फोन किया. उस ने अपनी सेक्रेटरी को कहा, ‘‘कुछ जरूरी काम से मुझे आने में देर हो जाएगी…चीफ को खबर कर देना.’’

वह कार में बैठा डब्लू.एच.ओ. बिल्ंिडग की ओर देखता हुआ सोचने लगा कि चेष्टा को तो पूना में होना चाहिए, यहां दिल्ली में क्या कर रही है. हो सकता है, उस के पति का ट्रांसफर हो गया हो. 5 साल पहले, पटना छोड़ने के बाद सात्वत ने पहली बार चेष्टा की झलक देखी. हालांकि बीते 5 साल में वह अपने मन में चेष्टा को हमेशा से देखता आया है.

सात्वत की चेष्टा से मुलाकात पटना में 7 साल पहले हुई थी और उस के बाद ही दोनों गहरे दोस्त हो गए थे और कुछ ही दिनों में दोनों एकदूसरे को चाहने भी लगे थे. हालांकि दोनों के स्टेटस में बहुत अंतर था.

सात्वत छोटी जाति का था और चेष्टा ऊंची जाति की. एक निम्न- मध्यवर्गीय परिवार का सात्वत गांव से पटना पढ़ने आया था. चेष्टा के पिता आई.जी. पुलिस थे और पटना की एक पौश कालोनी में उन का बड़ा भव्य मकान था. चेष्टा की शुरू से ही शिक्षा पटना में हुई थी. फिर भी दोनों में कुछ समानताएं थीं. मसलन, दोनों पढ़ने में तेज थे और दोनों को एथलेटिक का शौक था. दोनों की मुलाकात दौड़ के मैदान में ही हुई थी. चेष्टा 100 और 200 मीटर की दौड़ में चैंपियन थी और सात्वत मिडिल डिस्टेंस दौड़ में हमेशा प्रथम आता था. शाम को दोनों अकसर साइंस कालिज के मैदान में साथसाथ प्रैक्टिस करते थे.

विश्वविद्यालय एथलेटिक प्रति- योगिताओं में दोनों कानपुर, बंगलौर और कोलकाता गए थे. इस दौरान दोनों काफी घनिष्ठ मित्र हो गए थे किंतु सात्वत हकीकत को जानता था. अपने और चेष्टा के बीच के वर्गों की दूरी को वह पहचानता था. उस ने सोचा था, चेष्टा के साथ उस की शादी का एक ही उपाय है कि वह जल्दी से किसी अच्छी नौकरी में लग जाए, पर्याप्त कमाने लगे. हो सकता है तब चेष्टा के पिता जाति को नजर- अंदाज कर विवाह के लिए राजी हो जाएं. इसलिए उस ने और भी मेहनत से पढ़ना शुरू किया. एम.एससी. में टौप करने के बाद ही उस ने अच्छी नौकरी की तलाश शुरू की.

अपने एक प्रोफेसर के सुझाव पर उस ने दिल्ली की एक मल्टीनेशनल फर्म में ईमेल से अपना आवेदन और सी.वी. भेज दिया था. प्रारंभिक वेतन 40 हजार रुपए था. इंटरव्यू के लिए उसे बुलावा आ गया था और जैसेतैसे कर वह दिल्ली पहुंचा था. फर्म के आफिस में इंटरव्यू के लिए अंदर जाने से पहले उसे लगा था कि वह बेकार आया…ये लोग शायद उसे बाहर से ही भगा देंगे.

इंटरव्यू कार्ड दिखाने पर उसे अंदर ले जा कर बैठाया गया. वह चुपचाप, दुबका, सिकुड़ा रिसेप्शन में बैठा रहा. एक चपरासी एक ट्रे में पानी का गिलास ले कर लोगों को पिलाते हुए घूम रहा था पर उसे पानी पीने में भी संकोच महसूस हो रहा था. खैर, उस का नाम पुकारा गया और उसे घोर आश्चर्य हुआ जब 5 मिनट के बाद ही उसे चुन लिया गया. चीफ आफिसर ने उस से कहा था कि वह बाहर लौबी में बैठ कर चाय पीए. उसे 1 घंटे के अंदर ही नियुक्तिपत्र मिल जाएगा. आज ही ज्वाइन कर लो, कल से 1 महीने की ट्रेनिंग शुरू हो जाएगी.

उसे पटना वापस जाने की इजाजत नहीं मिली. फर्म के एक बड़े अधिकारी ने पी.ए. को बुला कर कहा था, ‘‘इन साहब के लिए कंपनी के गेस्ट हाउस में एक कमरा बुक करा दो,’’ उस के बाद उसे कैशियर से 10 हजार का एडवांस दिला कर कहा गया, ‘‘कंपनी की गाड़ी से मार्केट चले जाओ और अपने लिए कुछ कपड़े खरीद लो.’’

सबकुछ इतनी जल्दी और तेजी से हुआ कि उसे कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिला. चंद घंटों में ही सात्वत का जीवन बदल गया. सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक लगातार ट्रेनिंग. आज 5 साल बाद उस का वेतन 2 लाख रुपए प्रतिमाह हो गया है. उस ने अपना फ्लैट खरीद लिया है.

इक घड़ी दीवार की- भाग 4: क्या थी चेष्ठा की कहानी

चेष्टा अचानक चुप हो गई. सात्वत नीचे की ओर देखता हुआ चुपचाप बैठा रहा. उस के बदन में हलका कंपन हो रहा था. उसे लग रहा था मानो सांस लेने में कठिनाई हो रही है और गले से आवाज नहीं निकल रही है. चेष्टा की आवाज सुन कर उस ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘उस ने दूसरी शादी कर ली. न जाने क्या हुआ होगा. मैं ने आंख मूंद कर पेपर्स पर हस्ताक्षर कर दिए. मुझे कुछ भी नहीं चाहिए था, केवल छुटकारा, घिन लगती थी कुछ भी संपर्क रखने में. धीरेधीरे मन लग गया. यहां लोग बहुत सपोर्ट करते हैं. पूरे देश में घूम कर टे्रनिंग और काउंसलिंग करती हूं. यहां रेगुलर काम करती हूं. यह संस्था भी एन.जी.ओ. चलाती है. सरकार और डब्लू.एच.ओ. का सपोर्ट है. यहां एड्स से मरे मांबाप के अनाथ बच्चे रहते हैं. एच.आई.वी. निगेटिव और पाजिटिव दोनों बच्चे. जो पाजिटिव हैं उन के ट्रीटमेंट और रिहैबिलिटेशन का भी प्रोग्राम है. जो निगेटिव हैं, तकदीर वाले, वे कम से कम पहले की तरह फुटपाथ पर तो नहीं हैं.’’

चेष्टा चुप हो गई और खिड़की से बाहर देखने लगी. सात्वत ने उस की ओर देखा तो वह मुसकराई. सात्वत को लगा मानो धूमिल होते कमरे में अचानक रोशनी फैल गई है.

‘‘जानते हो सात्वत, जब हम लोगों ने पहले यहां काम शुरू किया था तो एक हफ्ते के बाद ही सब महल्ले वालों ने हमें घेर लिया और हल्ला करने लगे कि इन बच्चों को यहां से हटाओ. हमारे बच्चों में भी एच.आई.वी. एड्स फैल जाएगा. क्या तुम यह कल्पना कर सकते हो कि दिल्ली में ये सब पढ़ेलिखे, नौकरीपेशा वाले लोग हैं. हमें पुलिस की मदद लेनी पड़ी. फिर हम लोगों ने फेज वाइज सभी महल्ले वालों को बुला कर सेमिनार किया, उन्हें टे्रनिंग दी, लिटरेचर दिया, एड्स के बारे में पूरी तरह से बतलाया. तब वे सहमत हुए कि इन बच्चों से उन के बच्चों को कोई भी खतरा नहीं है. अब तो कुछ लोग मदद भी करने लगे हैं.’’

सात्वत ने अपनी आंखों को मल कर उन पर छाए अंधेरे को कुछ दूर करने की कोशिश की और खिड़की के बाहर देखा, ‘‘यहां स्कूल है? बच्चे पढ़ते हैं? कोई शोर नहीं है.’’

चेष्टा मुसकराई, ‘‘सभी बच्चे क्लास में हैं. इसलिए दिखाई नहीं दिए,’’ फिर उस ने घड़ी की ओर देखा, ‘‘कुछ देर में क्लास खत्म हो जाएगी, तब देखना.’’

‘‘अभी कैसी हो? क्या कोई दवा…’’

‘‘नहीं, अभी तक मेडिसिन, एंटी रेट्रोवायरल थेरैपी की जरूरत नहीं पड़ी. हर 6 महीने पर ब्लड टेस्ट कराना पड़ता है. मेरा सी.डी. फोर काउंट 300-400 के ऊपर ही रहता है. हां, कुछ एहतियात लेने पड़ते हैं. ज्यादा धूप, ज्यादा ठंड में नहीं जा सकती. बरसात में पानी से भीगने से बचना पड़ता है. केयर करनी पड़ती है कि कोई इन्फेक्शन न लगे.’’

चेष्टा चुप हो गई मानो थक गई हो. सात्वत भी सुस्त, थका, आहत, आक्रांत, खिड़की के बाहर देखता रहा. फिर उस ने फुसफुसा कर कहा, ‘‘गलती हो गई… बहुत बड़ी भूल हो गई.’’

चेष्टा ने दर्दभरी सर्द आवाज में कहा, ‘‘भूल हो गई मुझ से. इनसान की एक भूल उस की पूरी जिंदगी को बरबाद कर देती है और कभीकभी तो कई जिंदगियों को बरबाद कर देती है, लेकिन अब मुझे एक ही बात का बहुत अफसोस होता है. अगर पहली पे्रगनेंसी में मेरा समय पर टेस्ट हो जाता तो प्रौपर केयर और इलाज से मुझे एक बच्चा लड़का या लड़की स्वस्थ पैदा होता और फिर मैं उस के सहारे अपनी जिंदगी काट लेती. अब दिन भर काम करने के बाद घर लौटती हूं तो घर सूनासूना लगता है. एक दीवार घड़ी के अलावा मेरा कोई इंतजार नहीं करता.’’

कमरे से उजाला चुपचाप निकल गया था पर खिड़की के बाहर अभी भी हलकी रोशनी थी. चेष्टा सहज होती हुई सामान्य स्वर में बोली, ‘‘जानते हो, सात्वत, ऐसा बहुत हो रहा है. आजकल लड़कों की देर से शादी होती है, उन का तरहतरह का कांटेक्ट होता है. कई एच.आई.वी. पौजिटिव हो जाते हैं. शादी होती है, अपनी पत्नी को इन्फेक्ट करते हैं और अकसर ब्लेम पत्नी पर लगता है. गरीबों में तो और भी है, उन्हें जानकारी भी नहीं है. वे अपने गांव से बाहर बहुत दूर शहर में जा कर नौकरी करते हैं. सालसाल भर घर नहीं आते और जब आते हैं तो एच.आई.वी. के साथ आते हैं और पत्नी को प्रभावित करते हैं.’’

चेष्टा ने अचानक चुप हो कर सात्वत की ओर देखा, ‘‘आई एम सौरी, मैं ही बोलती जा रही हूं. तुम कैसे हो? क्या कर रहे हो? शादी कब हुई? बच्चे…’’

सात्वत उस की बात नहीं सुन पा रहा था. ध्वनि कानों से टकरा तो रही थी पर शब्द नहीं बन रहे थे. दिमाग में शून्य सा जम गया था. उस ने चौंक कर बाहर देखा…बच्चों का हुजूम मैदान में निकल रहा था. उन का समवेत स्वर उमड़ कर अंदर आया, उसे चेतन करता हुआ.

सात्वत ने सिर को झटका दिया, मानो विचारों के घने जाल को तोड़ कर अपनी बंद चेतना को आजाद कर रहा हो. चेष्टा का अंतिम वाक्य उस के मानस पटल पर दस्तक देता रहा. उस ने चेष्टा की ओर देखा, ‘‘शादी? नहीं, कभी सोचा नहीं…केवल एक बार सोचा था…भूल हो गई. उस के बाद किसी से भी…कोई इच्छा नहीं रही.’’

चेष्टा की आंखों में आश्चर्य के साथ गहरी वेदना झलकी, ‘‘अभी तक शादी नहीं की?’’

सात्वत ने कहा, ‘‘नहीं की…तुम… तुम मुझ से शादी करोगी?’’

चेष्टा के पोरपोर झंकृत हो उठे. एक लहर सी पूरे बदन में फैल गई. संवेदनाओं और भावनाओं के घने बादल उमड़ कर आंखों से बह निकले. अंतर से एक आह उभरी. उस ने कंपित हो कर कहा, ‘‘मेरी जिंदगी तो बरबाद हो ही चुकी है. अब तुम्हारी जिंदगी भी बरबाद हो…नहीं.’’

सात्वत ने आगे झुक कर कहा, ‘‘तुम्हारे मना करने पर मेरी जिंदगी अब कभी आबाद नहीं होगी, यह तो तुम जानती हो.’’

चेष्टा ने बुझे स्वर में कहा, ‘‘जानते हो क्या कह रहे हो? मुझे कोई बच्चा नहीं हो सकता.’’

सात्वत ने चेष्टा की ओर सजग दृष्टि से देखा, ‘‘जानता हूं…हम बच्चा गोद लेंगे. वरना मुझे भी एक दीवार की घड़ी के सहारे ही जिंदगी गुजारनी होगी. हां, तुम्हारा साथ मेरी जिंदगी में खुशी ला सकता है.’’

चेष्टा देर तक खामोश रही तो सात्वत उठ कर खड़ा हो गया. उस ने कहा, ‘‘अब तो जा रहा हूं. कल आऊंगा, इसी समय तुम्हारा जवाब सुनने.’’

लुकाछिपी- भाग 2: क्या हो पाई कियारा औक अनमोल की शादी

वरुण सुनते ही कियारा चिढ़ गई और सलोनी पर गुस्सा करती हुई बोली, ‘‘वरुण के साथ गई थी. तू पागल हो गई है क्या? वह शादीशुदा है और तू उस के साथ…’’

‘‘अरे यार कियारा तू ही तो कहती है न खुश होने का अधिकार सब को है और जिस काम को कर के खुशी मिलती है वह काम कर लेना चाहिए. तो मैं तेरा ही रूल तो फौलो कर रही हूं,’’ सलोनी बेपरवाह होती हुई बोली.

‘‘लेकिन मैं यह भी कहती हूं कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिस से किसी को दुख या नुकसान हो, तु झे यह बात याद नहीं,’’ कियारा थोड़ा चिढ़ती हुई बोली.

‘‘वरुण के साथ मेरे मूवी देखने से या उस के साथ डिनर करने से भला किस को दुख होने वाला है या फिर किस को नुकसान होने वाला है और तु झे क्यों बुरा लग रहा है? तेरे तो बहुत चाहने वाले हैं. तू तो जिस के साथ चाहे उस के साथ यह सब कर सकती है, लेकिन तु झे तो यह सब करना नहीं है फिर तू क्यों इतनी दुखी और परेशान हो रही है?’’ सलोनी अपने कंधे ऊंचकाती हुई बोली.

‘‘मैं परेशान इसलिए हूं क्योंकि तू ने मु झ से कहा था तू अपनी भाभी के छोटे भाई अंशु को पसंद करती है और उस से शादी करना चाहती है, फिर तू वरुण के साथ क्यों घूम रही और जरा सोच वरुण की वाइफ को पता चलेगा कि उस का पति उसे छोड़ कर तेरे साथ मूवी देखने और डिनर करने गया था तो उसे कितना दुख होगा और इस का असर उन के वैवाहिक जीवन पर भी पड़ सकता है,’’ कियारा सलोनी को सम झाती हुई बोली.

‘‘अरे यार ऐसा कुछ नहीं होगा. पहली बात तो उस की वाइफ को कभी कुछ पता ही नहीं चलेगा. मैं और वरुण रिलेशनशिप में हैं और हमारे बीच यह सब 6 महीने से चल रहा है. मेरी रूममेट हो कर तु झे कभी पता चला? औफिस में हम सब साथ रहते हैं. औफिस में अब तक किसी को पता चला? नहीं न तो उस की बीवी को कैसे पता चलेगा और कौन सी मु झे वरुण से शादी करनी है. रही बात अंशु की तो वह कभी जान ही नहीं पाएगा कि मैं यहां क्या कर रही हूं क्योंकि मैं तेरी तरह हर किसी से फ्री हो कर बात नहीं करती. मैं एक सीधी सादी कम बोलने वाली लड़की हूं.’’

सलोनी का एक और नया रूप देख कर कियारा हैरान थी. उस ने सलोनी से कुछ नहीं कहा. चुपचाप खाना खाश्स और सो गई. सुबह जब वह उठी तो उस ने देखा सलोनी दोनों के लिए चाय बना रही है. चाय बनाने के बाद दोनों ने साथ में चाय पी, लेकिन कियारा शांत रही. सलोनी चाय पीते वक्त कियारा से बात करने का प्रयास करती रही, लेकिन कियारा ने कुछ नहीं कहा.

उस के बाद वक्त पर तैयार हो कर दोनों औफिस भी आ गए. दोनों के बीच कतई असामानता थी उस के बावजूद कियारा के लिए सलोनी केवल उस की एक रूममेट नहीं उस की सहेली भी थी, जिसे वह अपने दिल की हर बात बताती, भले सलोनी उस से कई बात छिपा जाती थी. कियारा नहीं चाहती थी कि सलोनी कोई भी ऐसा काम करे जो गलत हो.

औफिस आने के बाद दोनों अपनेअपने काम में लग गईं. कियारा अपने काम में व्यस्त थी कि तभी वरुण उस के समीप आ कर बैठ गया. कियारा उसे अनदेखा कर अपने काम में लगी रही.

तभी वरुण बोला, ‘‘तुम अपनेआप को क्या सम झती हो. तुम सलोनी की लाइफ को कंट्रोल करने की कोशिश क्यों कर रही हो? वह मेरे साथ घूमे या फिर जिस के साथ चाहे उस के साथ घूमेंफिरे, तुम कौन होती हो उसे मना करने वाली? तुम खुद तो सब के साथ हंसहंस कर बातें कर सकती हो और वह मेरे साथ कहीं जा भी नहीं सकती… तुम उसे रोकनाटोकना बंद करो वरना…’’

वरुण का इतना कहना था कि कियारा  कंप्यूटर स्क्रीन पर से अपनी नजरें हटाती हुई बोली, ‘‘वरना क्या? क्या कर लोगे तुम? मु झे तुम से कोई लेनादेना नहीं है. सलोनी मेरी फ्रैंड है और उसे सहीगलत बताना मेरा फर्ज है. वह माने या न माने यह उस की मरजी. यह मेरे और उस के बीच की बात है. तुम इन सब में मत पड़ो तो अच्छा होगा वरना तुम मु झे बहुत अच्छी तरह से जानते हो, मैं अभी जोरजोर से चिल्ला कर सब को बता दूंगी कि शादीशुदा हो कर तुम्हारा अफेयर चल रहा है और तुम्हारे घर जा कर तुम्हारी बीवी को तुम्हारे सारे कारनामे बता दूंगी, फिर सोचो तुम्हारी साफसुथरी, सभ्य पुरुष की इमेज का क्या होगा जो तुम ने इस औफिस और अपने घर में बना रखी है.’’

कियारा का इतना कहना था की वरुण के माथे पर पसीना आ गया और वह चलता बना. कियारा इन 2 सालों में इतना तो जान चुकी थी कि जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है. यहां ज्यादातर लोगों के चेहरे पर मुखौटे होते हैं और मुखौटे के पीछे का असली चेहरा बिलकुल अलग.

वरुण के जाते ही सलोनी आ गई और कियारा से बोली, ‘‘यह वरुण तेरे पास क्यों आया था.’’

कियारा ने सलोनी को घूर कर देखा फिर बोली, ‘‘तेरे लिए. तू ने कल रात हमारे बीच हुई सारी बातें उसे बता जो दीं.’’

सलोनी नजरें चुराती हुई बोली, ‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है. मैं ने तो बस वरुण से इतना कहा कि तुम मु झ से बात नहीं कर रही हो,’’ फिर धीरे से सलोनी बोली, ‘‘कियारा सच बता वरुण तेरे पास क्यो आया था. कहीं तेरा और वरुण का भी…’’ कहते हुए सलोनी रुक गई.

कियारा गुस्से में बोली, ‘‘मैं तु झे कैसे सम झाऊं कि मेरा न वरुण के साथ कोई संबंध है और न ही किसी और के साथ, हां मैं मानती हूं कि मैं सब से हंस कर घुलमिल कर बात करती हूं. इस का अर्थ यह कतई नहीं है कि मेरा किसी के साथ कोई संबंध है.’’

कियारा के ऐसा कहने पर सलोनी वहां से चली गई और कियारा यह सोचने लगी कि आखिर लोगों की मानसिकता इतनी संकीर्ण क्यों है? क्यों हरकोई यह सम झ लेता है कि जो लड़की सभी से फ्रीली बात करती है, हंसती, मुसकराती है वह चालू ही होगी या अवश्य ही उस का किसी न किसी के साथ कोई संबंध होगा ही और जो कम बोलती है सब के सामने छुईमुई बनी रहती है उस का किसी से कोई संबंध हो ही नहीं सकता.

इसी तरह से हर दिन अपने पीछे एक नई कहानी गढ़ते हुए गुजर रही थी. हरकोई बस कियारा को पाना चाहता था, लेकिन कियारा किसी के हाथ नहीं आ रही थी और सलोनी कपड़ों की तरह अपने बौयफ्रैंड बदल रही थी. जब भी कोई कियारा को पाने के अपने मंसूबे में नाकामयाब होता, वह कियारा को ही भलाबुरा कहने लगता और उस में ही कई खोट निकालने लगता बिलकुल वैसे ही जैसे अंगूर को न पा कर लोमड़ी कहती फिरती कि अंगूर खट्टे हैं.

कियारा से संबंध जोड़ने में असफल हुए लड़के व पुरुष सलोनी को आजमाते और सलोनी उसे एक अवसर के रूप में लेती और उस का भरपूर आनंद उठाती. साथ ही साथ सलोनी हरेक के संग सारी हदें लांघने में भी पीछे नहीं रहती. अब कियारा भी सलोनी से कुछ कहना या उसे सम झाना छोड़ चुकी थी, लेकिन दोनों के बीच दोस्ती अब भी बरकरार थी.

अचानक एक दिन औफिस के किसी काम से कियारा को अपने ही विभाग के दूसरे अनुभाग में जाना पड़ा, जहां उस की मुलाकात अनमोल नाम के एक ऐसे शख्स से हुई जिस से मिल कर कियारा को पहली बार लगा कि उस व्यक्ति ने उसे गलत नजरों से नहीं देखा और कियारा अपना दिल उसी पल उसे दे बैठी.

भागीरथ की गंगा: सालों बाद क्या पूरी हुई प्रेम कहानी

सुबह 6 बजे का अलार्म पूरी ईमानदारी से बज कर बंद हो गया. वह एक सपने या थकान पर कोई असर नहीं छोड़ पाया. ठंडी हवाएं चल रही थीं. पक्षी अपने भोजन की तलाश में निकल पड़े थे. तभी मां गंगा के कमरे में घुसते ही बोलीं, ‘‘इसे देखो, 7 बजने को हैं और अभी तक सो रही है. रात को तो बड़ीबड़ी बातें करती है कि मैं अलार्म लगा कर सोती हूं. कल जरूर जल्दी उठ जाऊंगी, मगर रोज सुबह इस की बातें यों ही धरी की धरी रह जाती हैं,’’ मां बड़बड़ाए जा रही थीं.

अचानक मां की नजर गंगा के सोए हुए चेहरे पर पड़ी तो वे सोचने लगीं कि यह भी क्या करे बेचारी, सुबह 9 बजे निकलने के बाद औफिस से आतेआते शाम के 8 बज जाते हैं. कितना काम करती है. फिर गंगा को जगाने

लगी, ‘‘गंगा ओ गंगा, उठ जा, औफिस नहीं जाना क्या तुझे?’’

‘‘हूं… सोने दो न मां,’’ गंगा ने करवट बदलते हुए कहा.

‘‘अरे गंगा बेटा, उठ न. देख 7 बज चुके हैं,’’ मां ने फिर से उठाने का प्रयास किया.

‘‘क्या 7 बज गए?’’ यह कहती हुई वह जल्दी से उठी और आश्चर्य से पूछने लगी, ‘‘उस ने तो सुबह 6 बजे का अलार्म लगाया था?’’

‘‘अब ये सब छोड़ और जा कर तैयार हो ले,’’ मां ने गंगा का बिस्तर समेटते हुए जवाब दिया.

गंगा को आज भी औफिस पहुंचने में देर हो गई थी. सब की नजरों से बच कर वह अपनी डैस्क पर जा पहुंची, मगर सुजाता ने उसे देख ही लिया. 5 मिनट बाद वह उस के सामने आ धमकी. कहानियों से भरे उस पत्र को उस की डैस्क पर पटक कर कहने लगी, ‘‘ये ले, इन 5 लैटर्स के स्कैच बनाने हैं आज तुझे लंच तक. मैम ने मुझ से कहा था कि मैं तुझे बता दूं.’’

‘‘पर यार आधे दिन में 5 स्कैच कैसे कंप्लीट कर पाऊंगी मैं?’’

‘‘यह तेरी सिरदर्दी है, इस में मैं क्या कर सकती हूं और वैसे भी मैम का हुक्म है. इस में मैं क्या कर सकती हूं,’’ कह कर सुजाता अपनी डैस्क पर चली गई.

बचपन से ही अपनी आंखों में पेंटर बनने का सपना लिए गंगा अब जा कर उसे पूरा कर पाई है. जब वह स्कूल में थी, तब कापियों के पीछे के पन्नों पर ड्राइंग किया करती थी, मगर अब एक मैगजीन में हिंदी कहानियों के चित्रांकन का काम करती है. अपनी चेयर को आगे खिसका कर वह आराम से बैठी और बुझे मन से एक पत्र उठा कर पढ़ने लगी. वह जब भी चित्रांकन करती, उस के पहले कहानी को अच्छी तरह पढ़ती थी ताकि पात्रों में जान डाल सके.

2 कहानियां पढ़ने में ही घड़ी ने 1 बजा दिया. जब उस की नजर घड़ी पर पड़ी, तो वह थोड़ी परेशान हो गई. वह सोचने लगी कि अरे, लंच होने में सिर्फ 1 घंटा ही बचा है और अभी तक सिर्फ दो ही कहानियां पूरी हुई हैं. कैसे भी

3 तो पूरी कर ही लेगी और वह फिर से अपने काम पर लग गई. लंच भी हो गया.

उस ने 3 कहानियों का चित्रांकन कर दिया था. वह खाना खाती जा रही थी और सोचती जा रही थी कि बाकी दोनों भी 4 बजे तक पूरा कर देगी साथ ही उस के मन में यह डर था कि कहीं मैम पांचों स्कैच अभी न मांग लें. खाना खा कर गंगा मैम को देखने उन के कैबिन की ओर गई, परंतु उसे मैम नहीं दिखीं.

सुजाता से पूछने पर पता चला कि मैम किसी जरूरी काम से अपने घर गई हैं. इतना सुनते ही उस की जान में जान आई. लंच समाप्त हो गया. गंगा अपनी डैस्क पर जा पहुंची. अगली कहानी छोटी होने की वजह से उस ने जल्द ही निबटा दी. अब आखिरी कहानी बची है, यह सोचते हुए उस ने 5वां पत्र उठाया और पढ़ने लगी, ‘‘भागीरथ,’’ इतना पढ़ते ही उस के मन से काम का बोझ मानो गायब हो गया. वह अपने हाथ की उंगलियों के पोर पत्र पर लिखे नाम पर घुमाने लगी. उस की आंखें, बस नाम पर ही टिकी रहीं. देखते ही देखते वह अतीत में खोने लगी…

तब उस की उम्र 15 साल रही होगी. 9वीं कक्षा में थी. घर से स्कूल जाते हुए वह

इतना खुश हो कर जाती थी जैसे आसमान में उड़़ने जा रही हो. मम्मीपापा की इकलौती बेटी थी वह, सो मुरादें पूरी होना लाजिम था. पढ़ने में होशियार होने के साथसाथ वह क्लास की प्रतिनिधि भी थी. दूसरी ओर भागीरथ था, नाम के एकदम विपरीत, कभी न शांत रहने वाला लड़का. क्लास में शोर होने का कारण और मुख्य जड़ वह ही था. पढ़ाई तो वह नाममात्र का ही करता था. क्या यह वही भागीरथ है. दिल की धड़कन जोरों से धड़कने लगी. तुरंत उस ने पत्र को पलटा और ध्यान से हैंडराइटिंग को देखने लगी. बस, चंद सैकंड में ही उस ने पता लगा लिया कि यह उस की ही हैंडराइटिंग है. वह फिर से अतीत में लौट गई…

सालभर पहले तो गुस्सा आता था उसे, पर न जाने क्यों धीरेधीरे वह गुस्सा कम होने लगा था उस के प्रति. जब भी वह इंटरवल में खाना खा कर उस की कापी ले भागता था. कभी मन करता था कि 2 घूंसे मुंह पर टिका दे, मगर हर बार वह मन मार कर रह जाती थी.

रोज की तरह एक दिन इंटरवल में वह चित्र बना रही थी, तभी क्लास के बाहर से भागता हुआ भागीरथ उस के पास आया. वह समझ गई कि कोई न कोई शरारत कर के भाग आया है तभी उस के पीछे पारस, जो उस की ही क्लास में पढ़ता था, वह भी वहां आ पहुंचा. उस ने लकड़ी वाला डस्टर उठा कर भागीरथ की ओर फेंकना चाहा. उस ने वह डस्टर भागीरथ को निशाना बना कर फेंका. उस ने आव देखा न ताव, भागीरथ को बचाने के लिए अपनी कापी सीधे डस्टर की दिशा में फेंकी, जो डस्टर से जा टकराई. भागीरथ को बचा कर वह पारस को पीटने गई, पर वह भाग गया.

‘‘अरे, आज तूने मुझे बचाया, मुझे….’’ भागीरथ आश्चर्य से बोला.

‘‘हां, तो क्या हो गया?’’ उस ने जवाब दिया.

अचानक भागीरथ मुड़ा और अपने बैग से एक नया विज्ञान का बड़ा रजिस्टर ला कर उसे देते हुए बोला, ‘‘यह ले, आज से तू चित्र इस में बनाना, वैसे भी, मुझे बचाते हुए तेरी कापी बेचारी घायल हो गई है,’’ उस ने रजिस्टर लेने से मना कर दिया.

‘‘अरे ले ले, पहले भी तो मैं तुझे कई बार परेशान कर चुका हूं, पर अब से नहीं करूंगा.’’

जब उस ने ज्यादा जोर दिया तो गंगा ने रजिस्टर ले लिया, जो आज भी उस के पास रखा है.

ऐसे ही एक दिन जब उसे स्कूल में

बुखार आ गया था, तो भागीरथ तुरंत टीचर के पास गया और उसे घर ले जाने की अनुमति मांग लाया.

टीचर के हामी भरते ही वह उस का बैग उठा कर घर तक छोड़ने गया. वहीं

शाम को वह उस का हाल जानने उस के घर फिर चला आया. उस की इतनी परवाह करता है वह, यह देख कर उस का उस से लगाव बढ़ गया, साथ ही वह यह भी समझ गई कि कहीं न कहीं वह भी उसे पसंद करता था. पर पिछले 10 सालों में वह एक बार भी उस से नहीं मिला. दिल्ली जैसे बड़े शहर में न जाने कहां खो गया.

इस की एक कापी कर के मेरे कैबिन में भिजवाओ जल्दी सुजाता, अचला मैम की आवाज कानों में पड़ने से उस की तंद्रा टूटी.

मैम आ गईर् थीं. अपने कैबिन में जातेजाते मैम ने उसे देखा और पूछ बैठीं, ‘‘हां, वे पांचों कहानियों के स्कैचेज तैयार कर लिए तुम ने?’’

‘‘बस 1 बाकी है, मैम,’’ उस ने चेयर से उठते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड, वह भी जल्दी से तैयार कर के मेरे पास भिजवा देना, ओके.’’

‘‘ओके मैम,’’ कह कर गंगा चेयर पर बैठी और फटाफट भागीरथ की लिखी कहानी पढ़ने लगी. 10 मिनट पढ़ने के बाद जल्दी से उस ने स्कैच बनाया और मैम को दे आई. औफिस का टाइम भी लगभग पूरा हो चला था. शाम 6 बजे औफिस से निकल कर गंगा बस का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में बस भी आ गई. वह बस में चढ़ी, इधरउधर नजर घुमाई तो देखा कि बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी, गिनेचुने लोग ही थे. कंडक्टर से टिकट ले कर वह खिड़की वाली सीट पर जा बैठी और बाहर की ओर दुकानों को निहारने लगी. अचानक बस अगले स्टौप पर रुकी, फिर चल पड़ी.

बस के इंजन के नीचे दबी कंडक्टर की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘करोल बाग एक,’’ पीछे से किसी ने जवाब दिया.

‘‘लगभग 1 घंटा तो लगेगा,’’ सोच कर वह पर्स से मोबाइल और इयरफोन निकालने लगी कि अचानक कोई आ कर उस की बगल में बैठ गया. उसे देखने के लिए उस ने अपनी गरदन घुमाई, तो बस देखती ही रह गई.

वह खुशी से चिल्लाती हुई बोली, ‘‘भागीरथ तुम?’’

भागीरथ ने घबरा कर उस की ओर देखा, ‘‘अरे गंगा, इतने सालों बाद… कैसी हो?’’ और वह सवाल पर सवाल करने लगा.

‘‘मैं अच्छी हूं, तुम कैसे हो?’’ गंगा ने जवाब दे कर प्रश्न किया. उसे इतनी खुशी हो रही थी कि वह सोचने लगी कि अब यह बस

2 घंटे भी ले ले, तो भी कोई बात नहीं.

‘‘मैं ठीक हूं और बताओ? क्या करती हो आजकल?’’

‘‘वही जो स्कूल के इंटरवल में करती थी.’’

‘‘अच्छा, वह चित्रों की दुनिया?’’

‘‘हां, चित्रों की दुनिया ही मेरा सपना और मैं ने अपना वही सपना अब पूरा कर लिया है.’’

‘‘सपना, कौन सा? अच्छी स्कैचिंग

करने का.’’

‘‘हां, स्कैचिंग करतेकरते मैं 1 दिन अलंकार मैगजीन में इंटरव्यू दे आई थी. बस उन्होंने रख लिया मुझे.’’

‘‘बधाई हो, कोई तो सफल हुआ.’’

‘‘और तुम क्या करते हो? जौब लगी

या नहीं?’’

‘‘जौब तो नहीं लगी हां, एक प्राइवेट कंपनी में जाता हूं.’’

तभी भागीरथ को कुछ याद आया,

‘‘1 मिनट, क्या बताया तुम ने? अभी, कौन सी मैगजीन?’’

‘‘अलंकार मैगजीन,’’ गंगा ने बताया.

‘‘अरे, उस में तो…’’

गंगा उस की बात बीच में ही काटती हुई बोली, ‘‘कहानी भेजी थी और संयोग से वह कहानी मैं आज ही पढ़ कर आई हूं. स्कैच बनाने के साथसाथ.’’

‘‘पर तुम्हें कैसे पता चला कि वह

कहानी मैं ने ही भेजी थी? नाम तो कइयों के मिलते हैं.’’

‘‘सिंपल, तुम्हारी हैंडराइटिंग से.’’

‘‘तो क्या तुम्हें मेरी हैंडराइटिंग भी याद है अब तक?’’

‘‘हां भागीरथ.’’

‘‘ओह, फिर तो अब तुम पूरा दिन चित्र बनाती होगी और कोई डिस्टर्ब भी न करता होगा मेरी तरह, है न?’’

‘‘हां वह तो है.’’

‘‘देख ले सब जानता हूं न मैं?’’

‘‘लेकिन तुम एक बात नहीं जानते भागीरथ.’’

‘‘कौन सी बात?’’

बारबार मुझे स्कूल की बातें याद आ रही थी. मैं ने सोचा कि बता देती हूं क्या पता फिर कुदरत ऐसा मौका दे या न दे, यह सोच कर गंगा बोल पड़ी, ‘‘भागीरथ मैं तुम्हें पसंद

करती हूं.’’

‘‘क्या…’’ भागीरथ ऐसे चौंका जैसे उसे कुछ पता ही न हो.

‘‘तब से जब हम स्कूल में पढ़ते थे और मैं यह भी जानती हूं कि तुम भी मुझे पसंद करते हो, करते हो न?’’

भागीरथ ने शरमाते हुए हां में अपनी गरदन हिलाई. तभी बस एक स्टौप पर रुकी. खामोश हो कर वे एकदूसरे को देखने लगे.

‘‘तेरी शादी नहीं हुई अभी तक?’’ भागीरथ ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं और तुम्हारी?’’

‘‘नहीं.’’

न जाने क्यों मेरा मन भर आया और मैं ने बोलना बंद कर दिया.

‘‘क्या हुआ गंगा तुम चुप क्यों हो गईं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ गंगा ने कहा.

‘‘बस चलती जा रही थी, लेकिन दोनों चुप बैठे थे. एकदूसरे के लिए,

स्कूल के समय की दोस्ती, जो एक परवाह थी एकदूसरे के लिए एक लंबा समय तय करती गई दोनों की जिंदगी में.’’

‘‘भागीरथ आज तुम इतने सालों बाद मिले हो… कितना इंतजार किया,’’ गंगा ने कहा.

इतना सुनते ही भागीरथ का गला भर आया, ‘‘हां,’’ इतना ही बोला और फिर दोनों एक ही झटके में चुप हो गए.

क्या कहें एकदूसरे से. कुछ देर खामोशी छाई रही. भागीरथ ने गंगा का हाथ पकड़ कर कस कर दबाया. कहा, ‘‘पता है प्यार का रंग कहीं न कहीं मौजूद रहता है हमेशा.’’

‘‘मतलब,’’ गंगा ने पूछा.

‘‘मतलब यह कि हम साथ नहीं थे, फिर भी तुम्हारे चित्र और मेरे शब्द एकदूसरे से मिल ही गए,’’ भागीरथ ने प्यार से कहा.

‘‘मुझे पता नहीं था कि भागीरथ तुम इतने समझदार भी हो सकते हो.’’

तभी कंडक्टर की आवाज सुनाई दी, ‘‘पंजाबी बाग.’’

‘‘ओके भागीरथ, मेरा स्टौप आ गया है. अब मैं चलती हूं.’’

‘‘नहीं, बहुत जल्दी भागीरथ अपनी गंगा को लेने आएगा क्योंकि भागीरथ की गंगा के बिना कोई पहचान नहीं होती.’’

वह बस से उतरने लगी. हाथ भागीरथ के हाथ में था. भागीरथ ने धीरे से हाथ छोड़ दिया. वह बस से उतरी और जब तक आखों से ओझल न हो गए, तब तक दोनों एकदूसरे को देखते रहे क्योंकि भागीरथ की तपस्या पूरी हो गई. उसे उस की गंगा मिल गई थी.

इक घड़ी दीवार की- भाग 2: क्या थी चेष्ठा की कहानी

नौकरी मिलने के दूसरे दिन ही उस ने चेष्टा को घर पर फोन किया था, लेकिन फोन चपरासी ने उठाया और उस ने फोन पर चेष्टा को नहीं बुलाया. इस के बाद यह सिलसिला कई बार चला. अंत में तंग आ कर उस ने कहा था कि चेष्टा को कह देना सात्वत का फोन आया था. यहां दिल्ली में नौकरी मिल गई है और मौका मिलते ही पटना आऊंगा.

1 महीने बाद उसे बंगलौर ब्रांच आफिस में भेज दिया गया. वहां कंपनी का ब्रांच आफिस था. वहां नए आफिस और उस के काम के लिए उसे सुबह से रात तक लगातार काम करना पड़ा था. 1 साल बाद ही उस का वेतन 60 हजार रुपए प्रतिमाह हो गया और उसे एडवांस ट्रेनिंग के लिए अमेरिका जाना पड़ा. वहां से लौट कर वह दिल्ली आया तो वह पहली बार 10 दिन की छुट्टी ले कर पटना पहुंचा. पटना पहुंचते ही वह सब से पहले कालिज गया. सोचा था, पहले चेष्टा से मिलेगा फिर उस के मांबाप से. किंतु कालिज में उस की मुलाकात चेष्टा से नहीं हो सकी.

चेष्टा की सहेलियों से उस ने चेष्टा के बारे में पूछा था तो वे आश्चर्य से उसे यों देखने लगीं मानो चेष्टा को जानती ही नहीं हैं. जब उस ने कई बार जोर दे कर कहा कि चेष्टा कहां है, वह उस से अभी मिलना चाहता है तो चेष्टा की एक सहेली ने कहा कि वह यहां नहीं है और करीब 9 महीने पहले उस की शादी भी हो गई.

फिर चेष्टा की सहेलियों की मिली- जुली बातों से उसे पता चला था कि उस के पिता ने बहुत जल्दी, एक हफ्ते के अंदर चेष्टा की शादी कर दी थी. बड़ा अच्छा लड़का मिल गया था, आफिसर है, पूना में पोस्टेड है, हैंडसम है.

सात्वत को यह जान कर लगा मानो किसी अदृश्य हाथों ने उसे धक्का दे दिया हो. वह अचानक मुड़ कर तेजी से होटल गया और सामान पैक कर के पहली फ्लाइट पकड़ कर दिल्ली वापस चला आया था.

सात्वत का दिल्ली से चेष्टा के घर बारबार फोन आने के कारण ही चेष्टा के मांबाप ने उस की शादी इतनी जल्दी कर दी थी. लड़के के पिता भी आई.जी. थे और दिल्ली में पोस्टेड थे. उन्होंने चेष्टा के पिता के साथ ही आई.पी.एस. की ट्रेनिंग की थी. दिल्ली में एक मीटिंग में दोनों की मुलाकात हुई. बातचीत हुई और वहीं शादी तय हो गई. अगले महीने ही चेष्टा की शादी हो गई और वह पति के साथ पूना चली गई. मांबाप ने कहा, बाकी पढ़ाई वहीं पूना में कर लेगी.

सात्वत हर साल गांव जाता रहा लेकिन केवल 2-3 दिन के लिए. वह पटना स्टेशन से ही सीधे गांव चला जाता था. उस ने आज तक दोस्त के यहां छोड़ा सामान नहीं लिया. दोस्त का फोन आया तो कह दिया कि किसी को दे देना, उसे जरूरत नहीं है.

गांव में सात्वत ने नया घर बनवा दिया. पिता को हमेशा रुपए भेजता रहा है. लेकिन उस के मांबाप जब भी उस की शादी की बात करते तो वह टाल जाता था जबकि उस के मांबाप, रिश्तेदार, सभी आश्चर्य करते किंतु वह हमेशा इस बारे में खामोश रहता. शुरू में सात्वत ने सोचा था कि जीवन की नैसर्गिक प्रक्रिया के तहत अतीत की यादें धूमिल हो कर लुप्त हो जाएंगी और शारीरिक जरूरतों के कारण वह एक नई राह पर चल सकेगा किंतु यादों के निशानों की गहराई समय के साथ बढ़ती ही गई. वह कभी भी उन बेडि़यों को तोड़ कर बाहर नहीं निकल सका. कोई भी देह आकर्षण उसे अपनी ओर खींच नहीं सका.

कार में बैठेबैठे यादों के साए में वह सुषुप्त सा हो गया था. अचानक पूर्ण चेतन होते हुए उस ने आंखें खोलीं और लंबी सांस ली. यहां क्यों बैठा है, इंतजार में, अब मिल कर क्या हासिल होगा? फिर भी वह बैठा ही रहा, इंतजार करता हुआ, बंधा हुआ.

सात्वत ने चौंक कर देखा, चेष्टा सामने फुटपाथ पर तेजी से आई.टी.ओ. चौराहे की ओर चली जा रही है. वही चाल, मानो जमीन के ऊपर हवा में चल रही है. कब डब्लू.एच.ओ. भवन से निकली, कब आगे निकल गई, उसे पता ही नहीं चला. उस ने झट से गाड़ी स्टार्ट की फिर विचार की बिजली कौंधी, ‘यदि वह आई.टी.ओ. के पास रोड पार कर के चली गई तो वह उस तक कभी भी नहीं पहुंच सकेगा. वह दरवाजा खोल कर बाहर निकला. उस ने जल्दी से गाड़ी लौक की और आतंकित हो कर उस के पीछे चेष्टा, चेष्टा की आवाज लगाते दौड़ा.

वह बिना रुके, बिना पीछे देखे तेजी  से आगे चलती गई.

‘‘रुको, चेष्टा रुको, मैं हूं सात्वत.’’

एक पल के लिए चेष्टा के कदम थोड़ा हिचके, सात्वत को ऐसा लगा…फिर उसी गति से बढ़ने लगे. सात्वत तेजी से दौड़ा कि तभी सामने ट्रैफिक गुजरने लगा. दाहिनी ओर का सिग्नल हो गया था. सात्वत उस से बेखबर उस के पार निकलना ही चाहता था कि सामने सड़क पार करते एक टेंपो से टकराया और उछल कर गिरा. टेंपो ब्रेक लगा कर रुक गया.

‘‘अंधा है क्या, पागल है क्या? गाड़ी के नीचे आ जाता, बत्ती नहीं देखता, पागल है?’’ टेंपो चालक ने घुड़का.

वह दर्द से कराहते, लंगड़ाते हुए उठा, ‘‘सौरी, सौरी,’’ कहते हुए फुटपाथ की ओर बढ़ा, तब तक एक नारी के कोमल हाथ ने उस की बांह पकड़ कर सहारा दिया और फुटपाथ के कोने पर ले जा कर बैठा दिया.

सात्वत ने दर्द से धुंधली हुई दृष्टि से देखा कि चेष्टा उस की ओर आंसू भरी आंखों से देख रही थी, ‘‘पागल हो क्या? सीरियस एक्सिडेंट हो जाता तो?’’

सात्वत केवल उस की ओर देखता रहा. दुनिया सिमट गई और कुछ भी दिखाई नहीं दिया, न सुनाई दिया. बस, आंखों से 2 बूंदें ढुलक गईं.

चेष्टा कुछ पल अभिभूत सी उस की ओर झुकी रही फिर चौंक कर चेतन हुई. सात्वत का फुलपैंट घुटने के नीचे थोड़ा फट गया था और घुटने से रक्त बह रहा था. सात्वत ने चेष्टा की नजरों का पीछा करते हुए उधर देखा फिर जेब से रुमाल निकाला. चेष्टा ने उस के हाथ से झट से रुमाल ले लिया और उस के जख्म पर कस कर बांधते हुए बोली, ‘‘गाड़ी के नीचे आ जाते तो?’’

सात्वत ने नीचे देखते हुए फुसफुसा कर कहा, ‘‘सौरी, क्या करता? तुम रुक नहीं रही थीं…तुम मेरी आवाज सुन कर भी क्यों नहीं रुक रही थीं?’’

चेष्टा ने एक पल को उस की ओर देखा और बोली, ‘‘मैं रुकना नहीं चाहती थी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पहले उठो, चलो, ड्रेसिंग करवा लो.’’

‘‘मैं ठीक हूं, कोई खास चोट नहीं है,’’ सात्वत उठ कर खड़ा हो गया.

अगलबगल लोग उन दोनों की ओर घूर रहे थे.

चेष्टा ने कहा, ‘‘चलो, यहां से चलें.’’

सात्वत ने पीछे की ओर इशारा किया और बोला, ‘‘उधर मेरी कार है.’’

दोनों उस ओर बढ़े. सात्वत जल्दी से चलना चाह रहा था लेकिन वह लंगड़ा रहा था. अपनी कार के पास आ कर इशारा कर के सात्वत रुका तो चेष्टा ने उस की ओर अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम ड्राइव नहीं कर सकोगे. लाओ, चाबी मुझे दो.’’

लुकाछिपी- भाग 1: क्या हो पाई कियारा औक अनमोल की शादी

कियारा के गेट पर पांव रखते ही वाचमैन से ले कर औफिस के हर शख्स तक की आंखें चौड़ी हो जातीं. उस के अद्वितीय सौंदर्य व आकर्षक व्यक्तित्व के आगे किसी का जोर नहीं चलता. बिना डोर के सभी कियारा की ओर स्वत: खिंचे चले आते. हरकोई बस इसी प्रयास में लगा रहता कि वह कियारा को किसी भी प्रकार से आकर्षित कर ले या किसी भी बहाने से कियारा उस से बात कर ले, लेकिन कियारा अपनी ही धुन में मस्त रहती, उसे अपने हुस्न का अंदाजा था. उस से यह बात भी छिपी नहीं थी कि पूरा औफिस उस पर लट्टू है. वह हाई हील्स पहन कर इस अदा से बल खा कर चलती कि उसे देख केवल लड़कों या पुरुषों के ही दिल नहीं बल्कि लड़कियों और महिलाओं के भी दिल डोल जाते.

देश की राजधानी दिल्ली में पलीबढ़ी कियारा खुली और स्वत्रंत विचारधारा की लड़की थी जिस की वजह से कई बार लोग उसे गलत भी सम झ लेते और उस के खुलेपन का मतलब आमंत्रण सम झ लेते. उस की यही स्वच्छंदता और उस का बेबाकपन कई बार उस के लिए आफत भी बन जाता.

पिछले 2 सालों से कियारा बैंगलुरु की मल्टीनैशनल कंपनी में बतौर असिस्टैंट मार्केटिंग मैनेजर के पद पर कार्यरत थी. वह अपने घर से दूर यहां अपनी कलीग और रूममेट सलोनी के साथ रहती थी, सलोनी नागपुर से थी. वह अपने नाम के अनुरूप देखने में सांवली थी. कियारा और सलोनी दोनों एकदूसरे के विरोधाभास थे.

कियारा जितनी चंचल, शोख, बातूनी और दिल की साफ थी, सलोनी उतनी ही शांत, गंभीर और कम बोलने वाली, लेकिन काफी चालाक और मौकापरस्त थी. यह बात कियारा उस के साथ रहते हुए जान चुकी थी, लेकिन औफिस कलीग्स और उन के परिचित इस बात से अनभिज्ञ थे.

अकसर ऐसा देखा गया है जो महिला या लड़की अपने विचारों को बिना किसी हिचकिचाहट, निडर और बेबाक तौर पर बगैर किसी लागलपेट के कहती है लोग उसे खुली तिजोरी सम झ कर उस पर हाथ साफ करने की मंशा रखते हैं. यही हाल यहां भी था. हरकोई बस कियारा को फांसने में लगा रहता.

कियारा के चाहने वालों की लंबी लिस्ट थी इस बात से सलोनी अंदर ही अंदर कियारा से चिढ़ती भी थी. कभीकभी मजाक में उस से कह भी देती कि इस औफिस में क्या पूरे शहर के लड़के तो बस तु झ पर ही मरते हैं, एकाध हमारे लिए भी तो छोड़ दे.

कियारा जानती थी कि सलोनी यह बात मजाक में नहीं कह कर रही है, यह उस के अंदर का दर्द है जिसे वह मजाक का जामा पहनाए हुए है, इसलिए कियारा खिलखिला का हंसती हुई कहती कि मेरी जान तू किसी को भी दबोच ले, मु झे कोई फर्क नहीं पड़ता और मैं ने कौन सा किसी को पकड़ रखा है. मेरा दिल तो अब तक किसी पर आया ही नहीं है, हां. यह अलग बात है कि यहां हरेक का दिल मु झ पर ही अटका हुआ है.

जब भी कियारा ये सारी बातें सलोनी से कहती, वह एक और बात उस से जरूर कहती कि जब भी मु झे किसी से प्यार हो जाएगा या जिस किसी पर भी मेरा दिल आ जाएगा, मैं शादी उसी से करूंगी.

कियारा के इस बात पर सलोनी हंसने लगती और कियारा से कहती कि देख यार मेरा मानना है प्यार, महब्बत, इश्क, घूमनाफिरना यहां तक किसी के साथ फिजिकल रिलेशन रखने में भी कोई बुराई नहीं है, लेकिन शादी हमेशा वहीं करना चाहिए जहां हमारे मम्मीपापा चाहते हैं. इस से समाज में हमारी मानप्रतिष्ठा भी बनी रहती है और जीवन में मजे भी हो जाते हैं.

सलोनी का यह विचार उस के दोहरे चरित्र को दर्शाता था. एक ओर जहां सलोनी जिंदगी के मजे खुल कर लेना चाहती थी वहीं दूसरी ओर संस्कारी होने का टैग भी अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती.

दोनों अपनेअपने सिद्धांतों और नियमों के अनुसार जी रहे थे. दोनों के विचारों में टकराव होने के बावजूद दोनों साथसाथ रहते, मूवी जाते, पार्टी करते और वीकैंड को खूब मजा भी करते. कियारा कहती मेरा तो बस यह सोचना है कि हर वह काम करो जिस में खुशी मिलती है. बस इस बात का ध्यान रखो कि हमारी खुशी से किसी को दुख न पहुंचे और किसी का भी नुकसान न हो.

दोनों यों ही अपनेअपने तरीके से जीवन का आनंद उठा रहे थे कि एक रोज लंच ब्रेक में सलोनी ने कियारा से कहा, ‘‘यार मु झे तु झ से हैल्प चाहिए, क्या तू मेरी हैल्प कर पाएगी?’’

कियारा ने बिना सोचे ही कह दिया, ‘‘तू बोल न एनी थिंग फौर यू.’’

कियारा के ऐसा कहने पर सलोनी ने उसे गले लगा लिया और बोली, ‘‘यार… आज मैं औफिस में सैकंड हाफ नहीं रहूंगी, मैं ने किसी से कुछ भी नहीं कहा है. अगर कोई कुछ पूछे तो तू संभाल लेना.’’

कियारा को कुछ सम झ नहीं आ रहा था कि आखिर बात क्या है. उस ने आश्चर्य से कहा, ‘‘लेकिन तू जा कहां रही है. हाफ डे ऐप्लिकेशन तो दे कर जा.’’

कागज का एक पन्ना कियारा के हाथों में थमाती हुई सलोनी बोली, ‘‘यह ले ऐप्लिकेशन अब मैं जाऊं?’’

‘‘लेकिन तू जा कहां रही है यह तो बता?’’ कियारा ने सलोनी से दोबारा कहा.

तब कियारा की दोनों हथेलियों को दबाती हुई सलोनी बोली, ‘‘वह मैं तु झे रूम पर आने के बाद बताऊंगी,’’ ऐसा कहती हुई तेजी से सलोनी वहां से निकल गई.

कियारा लंच ब्रेक के बाद अपने काम में लग गई. करीब 1 घंटे के बाद औफिस की एक कलीग ने कियारा से पूछा, ‘‘अरे कियारा सलोनी काफी देर से दिखाई नहीं दे रही है वह है कहां?’’

कियारा को कुछ सम झ नहीं आया कि वह  क्या कहे तो उस ने कह दिया, ‘‘उस की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही थी, इसलिए घर चली गई.’’

बात आईगई हो गई. शाम को जब औफिस से कियारा रूम पर लौटी तब तक सलोनी नहीं आई थी. कियारा ने सलोनी को फोन किया, लेकिन उस का नंबर स्विच्ड औफ आ रहा था. कियारा ने हाथमुंह धो कर अपने लिए चाय बनाई और फिर चाय पीने के बाद थोड़ा आराम कर खाना बनाने में जुट गई. इस बीच वह हर थोड़ी देर के अंतराल में सलोनी को फोन करती रही. लेकिन हर बार सलोनी का फोन स्विच्ड औफ ही आ रहा था.

खाना बनाने के बाद कियारा सलोनी के इंतजार में गैलरी में जा खड़ी हुई. उस ने खाना भी नहीं खाया. रात के 11 बज रहे थे. तभी एक बाइक फ्लैट के सामने आ कर रुकी. रात के अंधेरे और स्ट्रीट लाइट की धीमी रोशनी में कियारा को कुछ साफ दिखाई नहीं दिया. बस वह इतना देख पाई कि उस बाइक से सलोनी उतरी.

सलोनी के रूम पर आते ही कियारा ने उस से कहा, ‘‘कहां चली गई थी… इतना देर कैसे हो गई?’’

सलोनी के चेहरे पर खुशी  झलक रही थी. उस ने कियारा के कांधों पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘चिल… यार मैं वरूण के साथ मूवी देखने गई थी और फिर वहां से वह मु झे डिनर पर ले गया इसलिए देर हो गई.’’

संयोगिता पुराण: संगीता को किसका था इंतजार- भाग 2

‘‘आंटी, आप को संगीता और संयोगिता में कौन सा नाम अधिक पसंद है?’’ एक दिन अचानक वह हमारी संरक्षक मेरी मम्मी से पूछ बैठी तो लगा कमरे की हवा थम सी गई है. मुंह की ओर खाना ले जाते हुए हमारे हाथों पर बे्रक लग गया.

दोनों ही नाम अच्छे हैं. पर तू क्यों पूछ रही है?’’ मम्मी ने उस की बात पर ध्यान दिए बिना पूछा.

‘‘मुझे तो संगीता बिलकुल पसंद नहीं है. संयोगिता की तो बात ही कुछ और है. कितना रोमांटिक नाम है,’’ कह संगीता ने गहरी सांस ली.

‘‘लो भला… नाम में क्या रखा है… किसी भी नाम से गुलाब तो गुलाब ही कहलाएगा,’’ मम्मी को शेक्सपियर याद आ गया था.

‘‘हां, पर कमल को गुलाब कहने पर भी वह तो कमल ही रहेगा न?’’ संगीता ने तर्क दिया.

‘‘बात तो पते की कह रही है मेरी बेटी. शेक्सपियर से भी अधिक बुद्धिमान है मेरी संगीता. ऐसे ही कोई बोर्ड में टौप नहीं कर लेता,’’ मम्मी निहाल हो उठी थीं. पर हम सब की जान पर बन आई थी.

‘‘फिर शुरू हो गया तेरा संयोगिता पुराण?’’ मम्मी के कक्ष से बाहर जाते ही हम तीनों उस पर टूट पड़े.

‘‘अरे वाह, तुम लोग हो कौन इस तरह की बातें करने वाले? अब क्या संयोगिता का नाम लेना भी गुनाह हो गया,’’ संगीता रोंआसी हो उठी.

‘‘वही समझ ले. हमारे मातापिता को इस काल्पनिक परीकथा की भनक भी पड़ गई तो शीघ्र ही यहां से हम सब का बोरियाबिस्तर बंध जाएगा और हम सब को प्राइवेट परीक्षा देनी पड़ेगी,’’ मैं संगीता पर बरस पड़ी.

‘‘वही तो,’’ नीरजा ने मेरी हां में हां मिलाई.

‘‘समझ में नहीं आ रहा है कि तुम लोग मेरी मित्र हो या शत्रु? मेरी छोटी सी खुशी भी तुम लोगों से सहन नहीं होती. मैं ने ऐसा क्या कर दिया है कि तुम सब को अपना बिस्तर बंध जाने की चिंता सताने लगी है. मैं ने भी तय कर लिया है कि तुम लोगों से कुछ नहीं कहूंगी,’’ संगीता ने अपना मुंह फुला लिया.

हम सब ने चैन की सांस ली. संगीता कुछ नहीं कहेगी तो संयोगिता का भूत भी शीघ्र ही उस के सिर से उतर जाएगा. कुछ ही देर में वह सामान्य हो गई. उसे मनाने के लिए हमें अधिक मनुहार नहीं करनी पड़ी. पर संगीतासंयोगिता के बीच संघर्ष चलता रहा. हम सब भी अब उस की बातों को उपहास समझ कर टालने लगे थे.

यों दिवास्वप्न तो हम सब देखते थे. सब के मन में अपने सपनों के राजकुमार की धुंधली ही सही पर एक काल्पनिक छवि थी अवश्य. पर संगीता सब से अधिक मुखर थी और अपने मन की बात डंके की चोट पर कहने में विश्वास रखती थी. पर परीक्षा पास आते ही वह इस तरह पढ़ाई में डूब जाती थी कि हम सब दंग रह जाते थे. बी.एससी. औनर्स के अंतिम वर्ष में वह पूरे विश्वविद्यालय में तीसरे स्थान पर आई जबकि हम सब पूरे मनोयोग से पढ़ाई करने पर भी मैरिट लिस्ट में कहीं नहीं थे.

‘‘देखा, कुछ सीखो संगीता से,’’ हर बार अपने परिवार के सम्मान में चार चांद लगा देती है,’’ मेरी मम्मी ने हमें थोड़ा और परिश्रम करने की सलाह दी तो नीरजा मुंह फुला कर बैठ गई.

‘‘अब तुझे क्या हुआ?’’ मैं ने उसे शांत करना चाहा.

‘‘होने को रह भी क्या गया है? सुना नहीं आंटी क्या कह रही थीं? अब मेरी समझ में भी कुछ आ रहा है,’’ वह गंभीर स्वर में बोली.

‘‘क्या समझ में आ रहा है तुम्हें?’’

‘‘यही कि अपनी काल्पनिक प्रेम कहानी सुना कर संगीता हमारा ध्यान बंटा देती है और स्वयं डट कर पढ़ाई कर बाजी मार ले जाती है. यह सब उस की चाल है हम से आगे निकलने की… आगे से हम उस की एक नहीं सुनेंगे. स्वयं को बड़ा तीसमारखां समझती है,’’ नीरजा बहुत क्रोध में थी.

‘‘यह तू नहीं, तेरी ईर्ष्या बोल रही है,’’ हम सब ने किसी प्रकार उसे शांत किया.

अब हम सब अपनी स्नातकोत्तर पढ़ाई में व्यस्त हो गए थे. गाहेबगाहे संगीता संयोगिता को याद कर लेती थी. मैं और सपना उस की बातों को मजाक समझ कर टाल देते पर नीरजा आगबबूला हो उठती.

एक दिन अचानक संगीता दनदनाती हुई आई. अपना बैग एक ओर फेंका और कुरसी पर पालथी लगा कर बैठ गई. उस के हावभाव देख कर लगा कि वह कुछ कहने के लिए आतुर है. नीरजा ने इशारे में ही पूछ लिया कि माजरा क्या है? उस ने आंखों ही आंखों में समझा दिया कि मेरी मम्मी की मौजूदगी में वह अपने मन की बात नहीं कह सकती.

अब तो हमारी उत्सुकता की सीमा न रही. मेरी मम्मी उस की अभिभावक ही नहीं, बल्कि अच्छी मित्र भी थीं. जिस बात को वह अपनी मम्मी से नहीं कह पाती थी उसे मेरी मम्मी से बेधड़क कह देती थी. फिर आज यह कौन सी गुप्त बात थी जो वह मेरी मम्मी के सामने कहने से हिचक रही थी.

मम्मी हम सब को नाश्ता करा कर पास के पार्क में घूमने चली गईं. वहां उन्होंने अपनी मित्रमंडली बना ली थी. वे वहां घूमफिर कर सब्जी खरीद कर घर लौटती थीं. उन के जाते मैं और सपना लपक कर संगीता के पास पहुंचे. नीरजा दूर बैठी सब देख रही थी पर उस के हावभाव से साफ था कि उस के कान हमारी ओर ही लगे हुए हैं.

‘‘क्या हुआ? ऐसी कौन सी बात है जो तू मम्मी के सामने नहीं कह सकती थी?’’ हम ने एक स्वर में पूछा.

‘‘दिल थाम कर बैठो. आज तो कमाल हो गया. साक्षात पृथ्वीराज मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया. मुझे तो अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ.’’

‘‘क्या? पृथ्वीराज? कौन सा पृथ्वीराज?’’ न चाहते हुए भी हम सब की हंसी छूट गई.

‘‘संयोगिता का पृथ्वीराज. इस में इतना खीखी करने की क्या बात है. तुम सब मेरी घनिष्ठ सहेलियां हैं पर काश तुम मेरी भावनाएं समझ पातीं. पर नहीं तुम्हें तो बस मेरी कमियां नजर आती हैं. पर मैं चुप नहीं रहूंगी. आज तुम्हें मेरी बात ध्यान से सुननी पड़ेगी. आज पहली बार जब साक्षात पृथ्वीराज मेरे सामने आ खड़ा हुआ तो न जाने कितनी देर तक मैं मूर्ति सी खड़ी रही. ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व है उस का कि देखने वाले के होश उड़ा दे. मुझे तो लगा मानों संयोगिता का पृथ्वीराज इतिहास के पन्नों से बाहर आ गया. बस एक ही अंतर था…’’

‘‘वह क्या? नीरजा ने उसे बीच में टोक दिया.’’

‘‘यही कि वह घोड़े पर नहीं बाइक पर आया था.’’

‘‘उफ, कितने दुख की बात है. पर अब तू क्या करेगी? तेरा इतिहास में अमर होने का सपना तो अधूरा ही रह जाएगा,’’ नीरजा हंसी.

‘‘तुम लोग चिंता न करो. मैं अपना कोई भी सपना अधूरा नहीं रहने दूंगी,’’ संगीता बड़ी अदा से बोली.

‘‘पर है कौन यह पृथ्वीराज और यह संगीता को कहां मिल गया? अरे, कोई समझाओ इसे क्यों ओखली में सिर डालने पर तुली है यह. खुद तो मरेगी ही हमें भी मरवाएगी,’’ नीरजा बडे़ ही नाटकीय स्वर में बोली.

‘‘तुम समझती क्या हो स्वयं को? जब देखो तब उलटासीधा बोलती रहती हो. मैं कुछ बोलती नहीं हूं, तो तुम स्वयं को तीसमारखां समझ बैठी हो? पर मैं क्या समझती नहीं कि तुम सदा मुझे नीचा दिखाने का प्रयास करती रहती हो,’’ पहली बार हम ने संगीता को नीरजा पर बरसते देखा वरना तो सदा उस की बात को चुपचाप सुन लेती थी.

‘‘लो मुझे क्या पड़ी है? तुम्हारे मामलों में टांग अड़ाने का कोई शौक नहीं है मुझे,’’ नीरजा भी उतनी ही कड़वाहट से बोली.

‘‘नीरजा की बातों पर न जा तू… हमें बता कौन है यह पृथ्वीराज और तुझे कहां मिला?’’ मैं ने बात संभालनी चाही.

‘‘हमारी क्विज टीम का सदस्य है. एम.बी.ए. कर रहा है. बड़ा स्मार्ट है. प्रश्न पूछने से पहले ही उत्तर दे देता था. मैं तो तुम्हें बताना ही भूल गई. हमारे शहर की 8 टीमों में से केवल हमारी टीम ही अगले राउंड में पहुंची है. यह संभव हुआ केवल पृथ्वीराज के कारण.’’

‘‘बुद्धिमान तो तू भी कम नहीं है. तूने क्यों नहीं दिए प्रश्नों के उत्तर? हम लड़कियों की तो नाक ही कटवा दी तूने,’’ सपना बोली.

‘‘मैं तो पृथ्वीराज का नाम सुनते ही होश खो बैठी. लगा जैसे 7वें आसमान पर पहुंच कर हवा में उड़ रही हूं. उस के बाद तो न प्रश्न समझ में आए न उन के उत्तर.’’

‘‘इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वरना तो हम भी आदमी थे काम के,’’ नीरजा अपने विशेष अंदाज में बोली.

‘‘और इश्क भी एकतरफा. इसे तो यह भी पता नहीं कि यह पृथ्वीराज नाम का प्राणी इस के बारे में सोचता क्या है,’’ सपना खिलखिला कर हंसी.

‘‘जी नहीं, वह मेरे बारे में सब जानता है. मुझे देखते ही बोला कि उस ने मेरा फोटो कालेज पत्रिका में देखा था. विश्वविद्यालय में तीसरे स्थान पर आने का कुछ तो लाभ मिला. आज पहली बार प्रथम न आ पाने का दुख हुआ. काश, थोड़ा और परिश्रम किया होता मैं ने. पर कोई बात नहीं इस बार मैं नहीं चूकने वाली,’’ संगीता बड़ी अदा से बोली.

‘‘और क्या कहा पृथ्वीराज ने?’’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘‘उस ने कहा कि रूप और गुण का ऐसा संगम उस ने पहले कहीं नहीं देखा. आज पहली बार किसी ने मेरे सौंदर्य की प्रशंसा की,’’ वह अपने स्थान से उठ कर नाचने लगी.

‘‘यह तो गई काम से,’’ नीरजा व्यंग्य से मुसकराई.

तब तक मम्मी भी सैर कर के लौट आई थीं. अत: पृथ्वीराज की बात को वहीं विराम देना पड़ा.

उस के बाद तो कालेज से लौटते ही हमें संगीतापृथ्वीराज की प्रेम कहानी से रोज दोचार होना पड़ता.

औनलाइन फ्रैंड: रिया ने कौनसी बेवकूफी की थी

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दिल वर्सेस दौलत- भाग 2: क्या पूरा हुआ लाली और अबीर का प्यार

अगले दिन लाली के मातापिता ने बेटी को सामने बैठा उस से अबीर के रिश्ते को ले कर अपने खयालात शेयर किए.

लाली के पिता ने लाली से कहा, ‘सब से पहले तो तुम मु झे यह बताओ, अबीर के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’

‘पापा, वह एक सीधासादा, बेहद सैंटीमैंटल और सुल झा हुआ लड़का लगा मु झे. यह निश्चित मानिए, वह कभी दुख नहीं देगा मु झे. मेरी हर बात मानता है. बेहद केयरिंग है. दादागीरी, ईगो, गुस्से जैसी कोई नैगेटिव बात मु झे उस में नजर नहीं आई. मु झे यकीन है, उस के साथ हंसीखुशी जिंदगी बीत जाएगी. सो, मु झे इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं.’

तभी लाली की मां बोल पड़ीं, ‘लेकिन, मु झे औब्जेक्शन है.’

‘यह क्या कह रही हैं मम्मा? हम दोनों अपने रिश्ते में बहुत आगे बढ़ चुके हैं. अब मैं इस रिश्ते से अपने कदम वापस नहीं खींच सकती. आखिर बात क्या है? आप ने ही तो कहा था, मु झे अपना लाइफपार्टनर चुनने की पूरीपूरी आजादी होगी. फिर, अब आप यह क्या कह रही हैं?’

‘लाली, मैं तुम्हारी मां हूं. तुम्हारा भला ही सोचूंगी. मेरे खयाल से तुम्हें यह शादी कतई नहीं करनी चाहिए.’

‘मौम, सीधेसीधे मुद्दे पर आएं, पहेलियां न बु झाएं.’

‘तो सुनो, एक तो उन का स्टेटस, स्टैंडर्ड हम से बहुत कमतर है. पैसे की बहुत खींचातानी लगी मु झे उन के घर में. क्यों जी, आप ने देखा नहीं, शाम को दादी ने अबीर से कहा, एसी बंद कर दे. सुबह से चल रहा है. आज तो सुबह से मीटर भाग रहा होगा. तौबा उन के यहां तो एसी चलाने पर भी रोकटोक है.

‘फिर दूसरी बात, मु झे अबीर की दादी बहुत डौमिनेटिंग लगीं. बातबात पर अपनी बहू पर रोब जमा रही थीं. अबीर की मां बेचारी चुपचाप मुंह सीए हुए उन के हुक्म की तामील में जुटी हुई थी. दादी मेरे सामने ही बहू से फुसफुसाने लगी थीं, बहू मीठे में गाजर का हलवा ही बना लेती. नाहक इतनी महंगी दुकान से इतना महंगी मूंग की दाल का हलवा और काजू की बर्फी मंगवाई. शायद कल हमारे सामने हमें इंप्रैस करने के लिए ही इतनी वैराइटी का खानापीना परोसा था. मु झे नहीं लगता यह उन का असली चेहरा है.’

‘अरे मां, आप भी न, राई का पहाड़ बना देती हैं. ऐसा कुछ नहीं है. खातेपीते लोग हैं. अबीर के पापा ऐसे कोई गएगुजरे भी नहीं. क्लास वन सरकारी अफसर हैं. हां, हम जैसे पैसेवाले नहीं हैं. इस से क्या फर्क पड़ता है?’

‘लेकिन मैं सोच रही हूं अगर अबीर भी दादी की तरह हुआ तो क्या तू खर्चे को ले कर उस की तरफ से किसी भी तरह की टोकाटाकी सह पाएगी? खुद कमाएगी नहीं, खर्चे के लिए अबीर का मुंह देखेगी. याद रख लड़की, बच्चे अपने बड़ेबुजुर्गों से ही आदतें विरासत में पाते हैं. अबीर ने भी अगर तेरे खर्चे पर बंदिशें लगाईं तो क्या करेगी? सोच जरा.’

‘अरे मां, क्या फुजूल की हाइपोथेटिकल बातें कर रही हैं? क्यों लगाएगा वह मु झ पर इतनी बंदिशें? इतना बढि़या पैकेज है उस का. फिर अबीर मु झे अपनी दादी के बारे में बताता रहता है. कहता है, वे बहुत स्नेही हैं. पहली बार जब वे लोग हमारे घर आए थे, दादी ने मु झे कितनी गर्माहट से अपने सीने से चिपकाया था. मेरे हाथों को चूमा था.’

‘तो लाली बेटा, तुम ने पूरापूरा मन बना लिया है कि तुम अबीर से ही शादी करना चाहती हो. सोच लो बेटा, तुम्हारी मम्मा की बातों में भी वजन है. ये पूरी तरह से गलत नहीं. उन के और हमारे घर के रहनसहन में मु झे भी बहुत अंतर लगा. तुम कैसे ऐडजस्ट करोगी?’’ पापा ने कहा था.

‘अरे पापा, मैं सब ऐडजस्ट कर लूंगी. जिंदगी तो मु झे अबीर के साथ काटनी है न. और वह बेहद अच्छा व जैनुइन लड़का है. कोई नशा नहीं है उस में. मैं ने सोच लिया है, मैं अबीर से ही शादी करूंगी.’

‘लाली बेटा, यह क्या कह रही हो? मैं ने दुनिया देखी है. तुम तो अभी बच्ची हो. यह सीने से चिपकाना, आशीष देना, चुम्माचाटी थोड़े दिनों के शादी से पहले के चोंचले हैं. बाद में तो, बस, उन की रोकटोक, हेकड़ी और बंधन रह जाएंगे. फिर रोती झींकती मत आना मेरे पास कि आज सास ने यह कह दिया और दादी सास ने यह कह दिया.

‘और एक बात जो मु झे खाए जा रही है वह है उन का टू बैडरूम का दड़बेनुमा फ्लैट. हर बार त्योहार के मौके पर तु झे ससुराल तो जाना ही पड़ेगा. एक बैडरूम में अबीर के पेरैंट्स रहते हैं, दूसरे में उस की दादी. फिर तू कहां रहेगी? तेरे हिस्से में ड्राइंगरूम ही आएगा? न न न, शादी के बाद मेरी नईनवेली लाडो को अपना अलग एक कमरा भी नसीब न हो, यह मु झे बिलकुल बरदाश्त नहीं होगा.

‘सम झा कर बेटा, हमारे सामने यह खानदान एक चिंदी खानदान है. कदमकदम पर तु झे इस वजह से बहू के तौर पर बहुत स्ट्रगल करनी पड़ेगी. न न, कोई और लड़का देखते हैं तेरे लिए. गलती कर दी हम ने, तु झे अबीर से मिलाने से पहले हमें उन का घरबार देख कर आना चाहिए था. खैर, अभी भी देर नहीं हुई है. मेरी बिट्टो के लिए लड़कों की कोई कमी है क्या?’

‘अरे मम्मा, आप मेरी बात नहीं सम झ रहीं हैं. इन कुछ दिनों में मैं अबीर को पसंद करने लगी हूं. उसे अब मैं अपनी जिंदगी में वह जगह दे चुकी हूं जो किसी और को दे पाना मेरी लिए नामुमकिन होगा. अब मैं अबीर के बिना नहीं रह सकती. मैं उस से इमोशनली अटैच्ड हो गई हूं.’

‘यह क्या नासम झी की बातें कर रही है, लाली? तू तो मेरी इतनी सम झदार बेटी है. मु झे तु झ से यह उम्मीद न थी. जिंदगी में सक्सैसफुल होने के लिए प्रैक्टिकल बनना पड़ता है. कोरी भावनाओं से जिंदगी नहीं चला करती, बेटा. बात सम झ. इमोशंस में बह कर आज अगर तू ने यह शादी कर ली तो भविष्य में बहुत दुख पाएगी. तु झे खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारने दूंगी. मैं ने बहुत सोचा इस बारे में, लेकिन इस रिश्ते के लिए मेरा मन हरगिज नहीं मान रहा.’

‘मम्मा, यह आप क्या कह रही हैं? मैं अब इस रिश्ते में पीछे नहीं मुड़ सकती. मैं अबीर के साथ पूरी जिंदगी बिताने का वादा कर चुकी हूं. उस से प्यार करने लगी हूं. पापा, आप चुप क्यों बैठे हैं? सम झाएं न मां को. फिर मैं पक्का डिसाइड कर चुकी हूं कि मु झे अबीर से ही शादी करनी है.’

‘अरे भई, क्यों जिद कर रही हो जब यह कह रही है कि इसे अबीर से ही शादी करनी है तो क्यों बेबात अड़ंगा लगा रही हो? अबीर के साथ जिंदगी इसे बितानी है या तुम्हें?’ लाली के पिता ने कहा.

‘आप तो चुप ही रहिए इस मामले में. आप को तो दुनियादारी की सम झ है नहीं. चले हैं बेटी की हिमायत करने. मैं अच्छी तरह से सोच चुकी हूं. उस घर में शादी कर मेरी बेटी कोई सुख नहीं पाएगी. सास और ददिया सास के राज में 2 दिन में ही टेसू बहाते आ जाएगी. जाइए, आप के औफिस का टाइम हो गया. मु झे हैंडल कर लेने दीजिए यह मसला.’

इस के साथ लाली की मां ने पति को वहां से जबरन उठने के लिए विवश कर दिया और फिर बेटी से बोलीं, ‘यह क्या बेवकूफी है, लाली? यह तेरा प्यार पप्पी लव से ज्यादा और कुछ नहीं. अगर तू ने मेरी बात नहीं मानी तो सच कह रही हूं, मैं तु झ से सारे रिश्ते तोड़ लूंगी. न मैं तेरी मां, न तू मेरी बेटी. जिंदगीभर तेरी शक्ल नहीं देखूंगी. सम झ लेना, मैं तेरे लिए मर गई.’ यह कह कर लाली की मां अतीव क्रोध में पांव पटकते हुए कमरे से बाहर चली गईं.

जीवन की मुसकान- भाग 3: क्या थी रश्मि की कहानी

और उसी समय रश्मि को लगा, जैसे उस से कोई भारी भूल हो गई है. आगंतुक को देखे बिना बेढंगेपन से बोलने के बाद और आगंतुक को देख लेने के पश्चात उस के चेहरे पर अजीब सा परिवर्तन आ गया. उस की माथे की सलवटें विलीन हो गईं और उस का रौद्र रूप परिवर्तित हो कर असमंजस की स्थिति में पहुंच गया. वह आगंतुक को निहारती ही रह गई. उस की क्रुद्ध आंखें सहज हो कर आगंतुक पर जा टिकीं. वह सूरज था, उस का भाई. उस का परिवार भी इस शहर में ही रहता था. उस की शादी इसी शहर में हो गई थी, जिस परिवार के लोगों से यदाकदा वह मिल सकती थी. सच तो यह था कि परिवार के यहां होने से ही उस की हिम्मत कुछकुछ बाकी थी, नहीं तो सुंदरम के दैनिक कार्यक्रम से तो वह पूरी तरह टूट ही चुकी होती.

परिवार के किसी भी सदस्य से मिल कर उसे बेहद शांति और प्रसन्नता महसूस होती थी. किंतु इस समय ऐसी कोई बात नहीं थी कि भाई को देख कर वह प्रसन्न होती. समय आधी रात का जो था.

जैसे किसी को आशंकाओं के बादल कड़क कर भयभीत कर दें, ऐसी स्थिति से घिरी रश्मि शीघ्रता से बोल उठी, ‘‘सूरज, तुम! इतनी रात गए?’’

‘‘दीदी, दीपू की हालत बहुत खराब है. जीजाजी कहां हैं? उन से कहिए, जल्दी चलें,’’ सूरज ने डरे हुए स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ दीपू को?’’ रश्मि ने अपने छोटे भाई के बारे में पूछा. एकाएक उस की घबराहट बढ़ गई.

‘‘यह तो जीजाजी ही देख कर बता सकेंगे. दीदी, उन्हें जल्दी चलने को कहिए,’’ सूरज बोला, ‘‘समय बताने का भी नहीं है.’’ एकाएक रश्मि लड़खड़ा गई. कड़ाके की सर्दी में भी उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठीं. पूरा शरीर जैसे मूर्च्छित अवस्था में पहुंच गया. उस के आगे अपने भाई दीपू का चेहरा घूमने लगा, प्याराप्यारा, भोलाभाला सा वह मासूम चेहरा.

एकाएक उस ने अपने को संयत किया और पूरी शक्ति से बोलने का प्रयास करती हुई वह कह उठी, ‘‘सुनिए, कहां हैं आप? जल्दी तैयार होइए. आप ने सुना, दीपू की हालत गंभीर है. चलिए न, जल्दी कीजिए.’’

‘‘हां, हमें तुरंत चलना चाहिए,’’ सुंदरम, जो पहले से तैयार था, बोला.

कुछ ही देर बाद तीव्र गति से दौड़ रहे, सुंदरम और सूरज के स्कूटरों ने तुरंत उन्हें उन के लक्ष्य तक पहुंचा दिया. स्कूटर रोक कर सुंदरम ने तुरंत अपना बैग संभाला और शीघ्रता से अंदर की तरफ दौड़ा. पीछे से रश्मि को जो लगभग पूरे रास्ते मूर्च्छित सी सुंदरम के पीछे बैठी रही थी, सूरज ने सहारा दिया और कमरे में ले आया. सुंदरम पूरी तन्मयता से दीपू को देखने में जुट गया. यद्यपि उस के माथे पर भी पसीने की बूंदें झलक आई थीं, लेकिन उसे इस की परवा न थी. उस के हाथ सधे हुए और आंखें जौहरी बन कर अपने मरीज को जांच रही थीं. उस का दिमाग केवल अपने मरीज के बारे मेें ही विचारशील था. उसे दीपू के अलावा आसपास की किसी चीज का बोध न था.

जब तक सुंदरम दीपू को देखता रहा, रश्मि, उस की मां, बहनभाई व पिताजी सभी आशंकित से खड़े रहे. सब के सब सांस रोके सुंदरम के चेहरे के उतारचढ़ाव को देख रहे थे, जो पूरी तन्मयता से जांच कर रहा था.

दीपू को इंजैक्शन लगा कर एकाएक सुंदरम के चेहरे के हावभाव में परिवर्तन हो आया. मंदमंद मुसकराते हुए उस ने कहा, ‘‘कोई खतरा नहीं.’’ सब की सांस में सांस आई. वे निश्चिंत हो कर सुंदरम को देखने लगे. सभी के मुंह से एकदम निकला, ‘‘शुक्र है, हम तो घबरा गए थे.’’

वातावरण को अत्यंत शीतलता प्रदान करते हुए सुंदरम ने आगे कहा, ‘‘दीपू को सर्दी लग गई है. उस की सांस सर्दी के कारण ही रुकने लगी थी. मैं ने इंजैक्शन दे दिया है. अब कोई खतरा नहीं है. किंतु…’’ रुक कर उस ने कहा, ‘‘अगर हम देर से पहुंचते तो खतरा बढ़ सकता था.’’

रश्मि दौड़ कर एकाएक सुंदरम से आवेश में लिपट गई, ‘‘सुंदरम, तुम कितने अच्छे हो. तुम ने मेरे भाई को बचा लिया, सुंदरम.’’ और सुंदरम ने मुसकरा कर उसे अपने से अलग किया जो सब के सामने ही उस से लिपट गई थी. होश में आने पर रश्मि भी कुछ झेंप गई. अगले दिन फिर रात को कौलबैल घनघनाई. रश्मि को न जाने क्यों इस बार न कोई क्रोध आया न कोई खीझ.

उस ने चुपचाप उठ कर किवाड़ खोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘डाक्टर साहब घर पर हैं? मेरे भाई की हालत बहुत खराब है. जरा उन्हें बुला दीजिए,’’ वैसा ही धीमा और भयभीत स्वर, जैसा सूरज का था. रश्मि को एकाएक लगा, जैसे आज फिर उस का भाई बीमार है जिस के लिए सुंदरम का जाना जरूरी है. तो क्या वह आज भी सुंदरम को रोकेगी?

उसे लगा कि जिस तरह कल मेरा पूरा परिवार भयभीत था, तरहतरह की मनौतियां मन ही मन मना रहा था, सुंदरम के जल्दी पहुंच जाने की इच्छा में बेसब्री से समय बिता रहा था, उसी तरह आज भी एक पूरे परिवार की हालत है. अगर सुंदरम नहीं गया तो एक पूरे परिवार की खुशियां मिट जाएंगी. नहीं, वह अपने सुख के लिए किसी पूरे परिवार को दुख के गर्त में नहीं धकेल सकती, कदापि नहीं. उस के आगे सुंदरम की वह मुसकान खिंच गई जो कल दीपू को बचाने के बाद उस के चेहरे पर आई थी. कितनी गहरी थी वह मुसकान, कैसा संतोष, गौरव भरा था उस मुसकान में. उसे लगा कि जीवन की मुसकान तो किसी को बचा लेने मेें ही है. सच्चा जीवन वही है जो किसी को जीवन दे सके, किसी की रक्षा कर सके. वह इस मुसकान को सुंदरम से छीनने का कभी कोई प्रयास नहीं करेगी. वह अपनी जिंदगी इस तरह बनाएगी जिस से सुंदरम को रोके नहीं और अनगिनत चेहरे नवीन जीवन पा कर झिलमिला उठें. वह अपने पति की राह अब कभी नहीें रोकेगी.

रश्मि बोली, ‘‘सुनिए, जल्दी जाइए, किसी मरीज की हालत चिंताजनक है. जल्दी जाइए न, देरी न जाने क्या कर जाए?’’

‘‘अरे भई, जा रहा हूं. अपना बैग तो लेने दो,’’ सुंदरम ने बाहर निकलते हुए कहा, ‘‘कैसी अजीब हो तुम भी.’’

उस के जाने के बाद रश्मि ने टेप रिकौर्डर चालू कर दिया. आवाजें गूंजने लगीं. ‘रश्मि, आज की रात कितनी मधुर है, कितनी इच्छा होती है, यह रात लंबी, बहुत लंबी हो जाए. कभी खत्म ही न हो.’ ‘रश्मि, मैं तुम्हें बेहद चाहता हूं. सच, रश्मि, तुम से अलग हो कर भी ऐसा लगता है जैसे तुम मेरे करीब हो और तुम्हारे पास होने का एहसास मुझे जल्दी काम करने की प्रेरणा देता रहता है.’ रश्मि को लगा, सुंदरम उस के पास ही बैठा बोलता जा रहा है और वह मंत्रमुग्ध सी सुनती जा रही है. उस ने एकाएक जोर से अविनाश को सीने से लगा कर चिपटा लिया.

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