सही राह: भाग 1- नीरज को अपनी भूल का एहसास क्यों हुआ

उस रविवार की सुबह चाय पीने के बाद नीरज आराम से अखबार पढ़ रहा था. तभी उस की सास मीनाजी ने अचानक उलाहना सा देते हुए कहा, ‘‘अब तुम मेरी बेटी को पहले जितना प्यार नहीं करते हो न दामादजी?’’

‘‘क्या बात करती हैं आप, सासूमां? अरे, मैं अब भी अपनी जान के लिए आसमान से चांदसितारे तोड़ कर ला सकता हूं,’’ अखबार पर से नजरें हटाए बिना ही नीरज ने कहा.

अपने 3 साल के बेटे राहुल को कपड़े पहना रही संगीता ने अपनी मां से उत्सुक लहजे में पूछा, ‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आप?’’

मीनाजी ने गहरी सांस छोड़ने के बाद जवाब दिया, ‘‘बड़ी सीधी सी बात है, मेरी भोली गुडि़या. जब कोई पति दूसरी औरत से इश्क फरमाने लगे तो यह सम  झ लेना चाहिए कि अब वह अपनी पत्नी को पहले की तरह दिल की गहराइयों से नहीं चाहता है.’’

राहुल को कपड़े पहना चुकी संगीता परेशान सी अपनी मां की बगल में आ बैठी. नीरज ने भी गहरी सांस छोड़ कर अखबार एक तरफ सरका दिया. फिर चुपचाप मांबेटी दोनों को उत्सुक अंदाज में देखने लगा.

‘‘यों खामोश रहने से काम नहीं चलेगा, दामादजी. मैं ने तुम्हारे ऊपर आरोप लगाया है. अब तुम अपनी सफाई में कुछ तो कहो,’’ मीनाजी की आंखों में शरारत भरी नाराजगी नजर आ रही थी.

‘‘सासूमां, पतिपत्नी के बीच गलतफहमी पैदा करने वाला ऐसा मजाक करना सही नहीं है. मेरी जिंदगी में कोई दूसरी औरत है, यह सुन कर अगर आप की इस भोलीभाली बेटी का हार्टफेल हो गया तो हम बापबेटे का क्या होगा?’’ नीरज ने मुसकराते हुए शिकायत सी की.

‘‘आप मजाक छोडि़ए और मु  झे यह बताइए कि क्या आप सचमुच किसी दूसरी औरत से इश्क लड़ा रहे हो?’’ संगीता ने पति से तनाव भरे स्वर में पूछा.

‘‘बस, इतना ही भरोसा है तुम्हें मेरे प्यार पर?’’ नीरज फौरन यों दुखी दिखने लगा जैसे उस के दिल को गहरी ठेस लगी हो, ‘‘अपनी मम्मी के मजाकिया स्वभाव को तुम जानती नहीं हो क्या? अरे पगली, वे मजाक कर रही हैं.’’

‘‘मैं मजाक बिलकुल नहीं कर रही हूं, दामादजी,’’ मीनाजी ने अपने मुंह से निकले हर शब्द पर पूरा जोर दिया.

‘‘सासूमां, अब यह मजाक खत्म कर दो वरना संगीता सवाल पूछपूछ कर मेरी जान ले लेगी,’’ नीरज ने हंसते हुए अपनी सास के सामने हाथ जोड़ दिए.

मीनाजी उठ कर इधरउधर घूमते हुए गंभीर लहजे में बोलीं,

‘‘मुझे यहां आए अभी कुछ ही घंटे हुए हैं, लेकिन इतने कम समय में भी मैं ने तुम्हारे अंदर आए बदलाव को पकड़ लिया है, दामादजी. अब तुम्हारी आंखों में संगीता के प्रति चाहत के भाव नजर नहीं आते… बस काम की ही बातें करते हो तुम उस से… इसीलिए मैं मन ही मन यह सोचने पर मजबूर हो गई कि तुम दोनों के बीच पहले हमेशा नजर आने वाली रोमांटिक छेड़छाड़ कब, कहां और क्यों खो गई है?’’

नीरज ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘सासूमां, हमारी शादी को 5 साल हो गए हैं. अब हमारे रोमांटिक छेड़छाड़ करने के दिन बीत चुके हैं.’’

‘‘क्या तुम रितु के साथ भी रोमांटिक छेड़छाड़ नहीं करते हो, दामादजी?’’

‘‘यह रितु कौन है?’’ संगीता और नीरज ने एकसाथ पूछा तो मीनाजी रहस्यमयी अंदाज में मुसकराते हुए नीरज के सामने आ खड़ी हुईं.

कुछ देर खामोश रह कर मीनाजी ने सस्पैंस और बढ़ा दिया. फिर कहानी सुनाने वाले अंदाज में बोलीं, ‘‘चूंकि मैं अपनी लाडली के विवाहित जीवन की खुशियों को ले कर चिंतित हो उठी थी, इसलिए मैं ने कुछ देर पहले तुम्हारे फोन में आए सारे मैसेज तब पढ़ डाले जब तुम बाथरूम में नहाने गए हुए थे.’’

‘‘यह तो बड़ा गलत काम किया है सासूमां, पर सब मैसेज पढ़ लेने के बाद जब कुछ हाथ नहीं लगा तो आप को मायूसी तो बहुत हुई होगी,’’ नीरज ने उन का मजाक उड़ाया.

‘‘मेरे हाथ कुछ लगता भी कैसे, दामादजी? रितु के सारे मैसेज तो वहां से तुम ने हटा रखे थे, लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, मम्मी?’’ संगीता ने उंगलियां मरोड़ते हुए परेशान लहजे में पूछा.

‘‘लेकिन संयोग से उसी वक्त रितु का ताजा मैसेज आ गया. मैं ने उसे पढ़ा और सारा मामला मेरी सम  झ में आ गया. लो, तुम भी पढ़ो अपने पति परमेश्वर के फोन में आए उन की इस रितु डार्लिंग का मैसेज,’’ मीनाजी ने मेज पर रखा नीरज का फोन उठा मैसेज निकालने के बाद संगीता को पकड़ा दिया.

संगीता ने मैसेज ऊंची आवाज में पढ़ा, ‘मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है. मूवी के टिकट वापस कर दो… आई लव यू, रितु.’

मैसेज पढ़ने के बाद संगीता नीरज की तरफ सवालिया नजरों से देखने लगी. उस की शक्ल बता रही थी कि वह किसी भी क्षण नीरज के साथ   झगड़ा शुरू कर सकती है.

मीनाजी ने व्यंग्य भरे स्वर में नीरज से कहा, ‘‘दामादजी, अपनी चोरी पकड़ी जाने पर तुम्हें बहुत हैरान नजर आने का नाटक करते हुए ऊंची आवाज में कहना चाहिए कि संगीता, मैं किसी रितु को नहीं जानता हूं. यह मैसेज किसी और के लिए होगा… गलती से मेरे फोन में आ गया है.’’

‘‘सच भी यही है, संगीता. मैं किसी रितु को नहीं जानता हूं,’’ नीरज ने ऊंचे स्वर में खुद का निर्दोष साबित करने की कोशिश की.

‘‘अगर तुम उसे नहीं जानते हो तो तुम ने उस का फोन नंबर अपने फोन में क्यों सेव कर रखा है, दामादजी?’’ मीनाजी ने भौंहें चढ़ाते हुए पूछा.

उल  झन का शिकार बना नीरज जब जवाब में खामोश रहा तो मीनाजी ने उसे फिर छेड़ा, ‘‘अब ‘मु  झे नहीं पता कि यह नाम और नंबर

कैसे मेरे फोन में आया है’ यह डायलौग तो बोलो, दामादजी.’’

‘‘संगीता, सचमुच मु  झे नहीं मालूम…’’ नीरज सफाई देते हुए   झटके से रुका और फिर मीनाजी की तरफ घूम विनती कर उठा,

‘‘सासूमां, मु  झे यों फंसा कर आप को क्या मिल रहा है? अब संगीता को सच बता कर यह खेल खत्म करो…’’

मन से मन का जोड़

मोती से मिल कर धागा और गंगाजल के कारण जैसे साधारण पात्र भी कीमती हो जाता है, वैसे ही छवि भी मनोज से विवाह कर इतनी मंत्रमुग्ध थी कि अपनी किस्मत पर गर्व करती जैसे सातवें आसमान पर ही थी. उस का नया जीवन आरंभ हो रहा था.

हालांकि अमरोहा के इतने बड़े बंगले और बागबगीचों वाला पीहर छोड़ कर गाजियाबाद आ कर किराए के छोटे से मकान में रहना यों आसान नहीं होता, मगर मनोज और उस के स्नेह की डोर में बंध कर वह सब भूल गई.

मनोज के साथ नई गृहस्थी, नया सामान, सब नयानया, वह हर रोज मगन रहती और अपनी गृहस्थी में कुछ न कुछ प्रयोग या फेरबदल करती. इसी तरह पूरे 2 साल निकल गए.

मगर, कहावत है ना कि ‘सब दिन होत न एक समान‘ तो अब छवि के जीवन में प्यार का प्याला वैसा नहीं छलक रहा था, जैसा 2 साल पहले लबालब रहता था.

यों तो कोई खास दिक्कत नहीं थी, मगर छवि कुछ और पहनना चाहती तो मनोज कुछ और पहनने की जिद करता. यह दुपट्टा ऐसे ओढ़ो, यह कुरता वापस फिटिंग के लिए दे दो वगैरह.

मनोज हर बात में दखलअंदाजी करता था, जो छवि को कभीकभी बहुत ही चुभ जाती थी. बाहर की बातें, बाहर के मामले तो छवि सहन कर लेती थी, मगर यह कप यहां रखो, बरतन ऐसे रखो वगैरह रोकटोक कर के मनोज रसोई तक में टीकाटिप्पणी से बाज नहीं आता था.

परसों तो हद ही हो गई. छवि पूरे एक सप्ताह तक बुखार और सर्दी से जूझ रही थी, मगर मनोज तब भी हर पल कुछ न कुछ बोलने से बाज नहीं आ रहा था. छवि जरा एकांत चाहती थी और खामोश रह कर बीमारी से लड़ रही थी, मगर मनोज हर समय रायमशवरा दे कर उस को इतना पागल कर चुका था कि वह पक गई थी.

तब तो हद पार हो गई, जब वह सहन नहीं कर सकी. हुआ यह था कि अपने फोन पर पसंदीदा पुराने गीत लगा कर जब किसी तरह वह रसोई में जा कर नाश्ता वगैरह तैयार करने लगी और मनोज ने आदतन बोलना शुरू कर दिया, ‘‘छवि, यह नहीं यह वाले बढ़िया गाने सुनो,‘‘ और फिर वह रुका नहीं, ‘‘छवि, यह भिंडी ऐसे काटना, वो बींस वैसे साफ करना, उस लहसुन को ऐसे छीलना,‘‘ बस, अब तो छवि ने तमतमा कर चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘ये लो, यह पकड़ो अपने घर की चाबी. यह रहा पर्स, यह रहे बचत के रुपए और यह रहे 500 रुपए, बस यही ले जा रही हूं… और जा रही हूं,‘‘ कह कर छवि ने बड़बड़ाते हुए बाहर आ कर रिकशा किया और सीधा बस स्टैंड चल दी.

बस तैयार खड़ी थी. छवि को सीट भी मिल गई. वह पूरे रास्ते यही सोचती रही, ‘‘अब इस टोकाटाकी करने वाले मनोज नामक व्यक्ति के पास कभी जाएगी ही नहीं, कभी नहीं.‘‘

महज 4 घंटे में वह पीहर पहुंच गई. वह पीहर, जहां वह पूरे 2 साल में बस एक बार पैर फिराने और दूसरी बार पीहर के इष्ट को पूजने गई थी.

पीहर में पहले तो उस को ऐसे अचानक देख पापामम्मी, चाचाचाची और चचेरे भाईबहन सब चैंक गए, मगर छवि ने बहाना बनाया, ‘‘वहां कोई परिचित अचानक बीमार हो गए हैं. मनोज को वहां जाना है. मुझे पहले से बुखार था, तो मनोज ने कहा कि अमरोहा जा कर आराम करो. बस जल्दी में आना पड़ा, इसलिए केवल यह मिठाई लाई हूं.‘‘

सब लोग खामोश रहे. मां सब समझ गई थीं. वे छवि को नाश्ता करा कर उस की अलमारी की चाबी थमा कर बोलीं, ‘‘जब से तुम गई हो, तुम्हारे पापा हर रोज 100 रुपए तुम्हारे लिए वहां रख देते हैं. यह लो चाबी और वो सब रुपए खुल कर खर्च करो.‘‘

यह सुन कर छवि उछल पड़ी और चाबी ले कर झटपट अपनी अलमारी खोल दी. उस में बहुत सी पोशाकें थीं और कुछ पर्स थे नोटों से भरे हुए.

छवि ने मां से पूछा, ‘‘पापा यहां रुपए क्यों रख रहे थे?‘‘

मां ने हंस कर कहा, ‘‘तुम हमारी सलोनी बिटिया कैसे कुशलता से अपना घर चला रही हो. हम को गर्व है, यह तो तुम्हारे लिए है बेटी.‘‘

‘‘अच्छा, गर्व है मुझ पर,‘‘ कह कर छवि आज सुबह का झगड़ा याद कर के मन ही मन शर्मिंदा होने लगी. उस को लगा कि मां कुछ छानबीन करेंगी, कुछ सवाल तो जरूर ही पूछ लेंगी, मगर उस को प्यार से सहला कर और आराम करो, ऐसा कह कर मां कुछ काम करने चली गईं. वह अलमारी के सामने अकेली रह गई, मगर अभी कुछ जरूरी काम करना था. इसलिए छवि सबकुछ भूल कर तुरंत दुनियादार बन गई. वहां तकरीबन 25,000 रुपए रखे थे. उस ने चट से एक सूची बना कर तैयार कर ली.

छवि फिलहाल तो कुछ खा कर सो गई, मगर शाम को बाजार जा कर उन रुपयों से पीहर में सब के लिए उपहार ले आई. बाजार में उस को अपनी सहेली रमा मिल गई. छवि और उस की गपशप भी हो गई. उस के गांव का बाजार बहुत ही प्यारा था. छोटा ही था, पर वहां सबकुछ मिल गया था.

उपहार एक से बढ़ कर एक थे. सब से उन उपहारों की तारीफ सुन कर कुछ बातें कर के वह उठ गई और फिर छवि ने रसोई में जा कर कुछ टटोला. वहां आलू के परांठे रखे थे. उस ने बडे़ ही चाव से खाए और गहरी नींद में सो गई. नींद में उस को रमा दिखाई दी. रमा से जो बातें हुईं, वे सब वापस सपने में आ गईं. छवि पर इस का गहरा असर हुआ.

सुबह उठ कर छवि वापस लौटने की जिद पर अड़ गई थी. मां समझ गईं कि शायद सब मामला सुलझ गया है. वे कभी भी बच्चों के किसी निर्णय पर टोकाटाकी नहीं करतीं थीं. वे ग्रामीण थीं, मगर बहुत ही सुलझी हुई महिला थीं. छवि को पीहर की मनुहार मान कर कम से कम आज रुकना पड़ा. वह कल तो आई और आज वापस, यह भी कोई बात हुई. सब की मानमनुहार पर छवि बस एक दिन और रुक गई.

उधर, मनोज को इतनी लज्जा आ रही थी कि उस ने ससुराल मे शर्म से फोन तक नहीं किया. मगर वह 2 दिन तक बस तड़पता ही रहा और उस के बाद फोन ले कर कुछ लिखने लगा.

‘‘छवि, पता है, तुम सब से ज्यादा शाम को याद आतीं. दिनभर तो मैं काम करता था, मगर निगोड़ी शाम आते ही पहली मुश्किल शुरू हो जाती थी कि आखिर इस तनहा शाम का क्या किया जाए. तुम नहीं होती थीं, तो एक खाली जगह दिखती थी, कहना चाहिए कि बेचैनी और व्याकुलता से भरी. तब मैं एलबम उठा लेता था, इसे तुम्हारी तसवीरों से, उन मुलाकातों की यादों से, बातों से, तुम्हारी किसी अनोखी जिद और बहस को हूबहू याद करता और जैसेतैसे भर दिया करता था, वरना तो यह दैत्य अकेलापन मुझे निगल ही गया होता.

‘‘तुम होती थीं, तो मेरी शामों में कितनी चहलपहल, उमंग, भागमभाग, तुम्हारी आवाजें, गंध, शीत, बारिश, झगड़े, उमस या ओस सब हुआ करता था, मगर अब तो ढलती हुई शाम हर क्षण कमजोर होती हुई जिंदगी बन रही है कि जितना विस्मय होता है, उस से अधिक बेचैनी.

‘‘तुम्हारे बिना एक शाम न काटी गई मुझ से, जबकि मैं ने कोशिश भरसक की थी. परसों सुबह तुम नाराज हो कर चली गईं. मैं ने सोचा कि वाह, मजा आ गया. अब पूरे 2 साल बाद मैं अपनी सुहानी शाम यारों के साथ गुजार लूंगा. अब पहला काम था उन को फोन कर के कोई अड्डा तय करना. रवि, मोहित और वीर यह तीनों तो सपरिवार फिल्म देखने जा रहे थे. इसलिए तीनों ने मना कर दिया. अब बचा राजू. उसे फोन किया तो पता लगा कि वह अपनी प्रेमिका को समय दे चुका है. इतनी कोफ्त हुई कि आगे कोई कोशिश नहीं की.

‘‘बस, चैपाटी चला गया, मगर वहां तो तुम्हारे बिना कभी अच्छा लगता ही नहीं था. बोर होता रहा और कुछ फोटोग्राफी कर ली. बाहर कुछ खाया और घर आ गया.

‘‘घर आ कर ऐसा लगा कि घर नहीं है, कोई खंडहर है. बहुत ही भयानक लग रहा था तुम्हारे बिना, पर मेरे अहंकार ने कहा कि कोई बात नहीं, कल सुबह से शाम बहुत मजेदार होने वाली है और बस सोने की कोशिश करता रहा. करवट बदलतेबदलते किसी तरह नींद आ ही गई. सुबह मजे से चाय बनाई, मगर बहुत बेस्वाद सी लगी, फिर अकेले ही घर साफ कर डाला और दफ्तर के लिए तैयार हो गया.

‘‘अब नाश्ता कौन बनाता, बाहर ही सैंडविच खा लिए, तब बहुत याद आई, जब तुम कितने जायकेदार सैंडविच बनाती हो, यह तो बहुत ही रूखे थे.

‘‘मुझे अपने जीवन की फिल्म दिखाई देने लगी किसी चित्रपट जैसी, मगर नायिका के बगैर. मैं बहुत बेचैन हो गया. दफ्तर की मारामारी में मन को थोड़ा सा आराम मिला, मगर पलक झपकते ही शाम हो गई और दफ्तर के बाहर मैदान में हरी घास देख कर तुम्हारी फिर याद आ गई. 1-2 महिला मित्र हैं, उन को फोन लगाया, मगर वे तो अब अपनी ही दुनिया में मगन थीं. कहां तो 4 साल पहले तक वे कितनी लंबीलंबी बातें करती थीं और कहां अब वे मुझे भूल ही गई थीं.

अब क्या करता, फिर से एक उदास शाम को धीरेधीरे से रात में तबदील होता नहीं देख सकता, पर झक मार कर सहता रहा. मन ऐसा बेचैन हो गया था कि खाना तो बहुत दूर की बात पानी तक जहर लग रहा था. शाम के गहरे रंग में तारों को गिन रहा था, मगर तुम को न फोन किया और न तुम्हारा संदेश ही पढ़ा. तुम को जितना भूलना चाहता, तुम उतना ही याद आ रही थीं.

बस, इस तरह से दो शामों को रात कर के अपने ऊपर से गुजर जाने दिया. मेरा अहंकार मुझे कुचल रहा था, पर मैं कुछ समझना ही नहीं चाहता था. तुम हर पल मेरे सामने होतीं और मैं नजरअंदाज करना चाहता, यह भी मेरे अहंकार का विस्तार था.

अब तुम को लेने आ रहा हूं, तुम तैयार रहना, यह सब अपने फोन पर टाइप कर के मनोज ने छवि को भेज दिया. मगर 10 मिनट हो गए, कोई जवाब नहीं आया. 20 मिनट बीततेबीतते मनोज की आंखें ही छलक आईं. वह समझ गया कि अब शायद छवि कभी लौट कर नहीं आने वाली है, तभी दरवाजा खुला. मनोज चैंक गया, ‘‘ओह छवि, उसे पता रहता तो कभी दरवाजा बंद ही नहीं करता.’’

छवि ने हंस कर अपने फोन का स्क्रीन दिखाते हुए कहा, ‘‘वह बारबार यह संदेश पढ़ रही थी.‘‘

संदेश पढ़ कर तुम उड़ कर ही वापस आ गई, ‘‘हां… हां, पंख लगा कर आ गई,’’ यह सुन कर मनोज ने कुछ नहीं कहा. वह बडे़ गिलास में पानी ले आया और छवि को गरमागरम चाय भी बना कर पिला दी.

छवि ने अपने भोलेपन में मनोज को यह बात बता दी कि पीहर के बाजार में सहेली रमा मिली थी. रमा से बात कर के उस का मन बदल गया. वह उसे पूरे 2 साल बाद अचानक ही मिली थी. वह बता रही थी, ‘‘उस के पति सूखे मेवे का बड़ा कारोबार करते हैं. रोज उस को 5,000 रुपए देते हैं कि जहां मरजी हो खर्च करो. घरखर्च अलग देते हैं, पर कोई बात नहीं करते. कभी पूछते तक नहीं कि रसोई कैसे रखूं, कमरा कैसे सजाऊं, क्या पहनूं और क्या नहीं?

‘‘हर समय बस पैसापैसा यही रहता है दिमाग में. मुझे हर महीने पीहर भेज कर अपने कारोबारी दोस्तों के साथ घूमते हैं. मेरे मन की बात, मेरी कोई सलाह, मेरा कोई सपना, उन को इस से कुछ लेनादेना नहीं है. बस, मैं तो चैकीदार हूं, जिस को वे रुपयों से लाद कर रखते हैं.

‘‘सच कहूं, ऐसा लापरवाह जीवनसाथी है कि बहुत उदास रहती हूं, पर किसी तरह मन को मना लेती हूं. मगर यह सपाट जीवन लग रहा है.‘‘

यह सब सुन कर मुझे बारबार मनोज बस आप की याद आने लगी. मन ही मन मैं इतनी बेचैन हो गई कि रात सपने में भी रमा दिखाई दी और वही बातें कहने लगी. मैं समझ गई कि यह मेरी अंतरात्मा का संकेत है. रमा अचानक राह दिखाने को ही मिली, और मैं वापस आ गई.’’

‘‘पर छवि, तुम कम से कम रमा को कोई उचित सलाह तो देतीं. तुम तो सब को अच्छी राय देती हो. जब वह तुम को अपना राज बता रही थी छवि,‘‘ मनोज ने टोका, तो छवि ने कहा, ‘‘हां, हां, मैं ने उस को अपने दोनों फोन नंबर दे दिए हैं और गाजियाबाद आने का आमंत्रण दिया है.

‘‘साथ ही, उसे यह सलाह दी कि रमा, तुम मन ही मन मत घुटती रहो. मुझे लगता है, मातापिता, भाईबहन, पड़ोसन या किसी मित्र को अपना राजदार बना लो. अगर कोई एक भी आप को समझता है, तो अगर वह सलाह नहीं देगा, पर कम से कम सुनेगा तो, तब भी मन हलका हो जाता है. साहित्य से लगाव हो, तो सकारात्मक साहित्य पढ़ो. नई जगहों पर अकेले निकल जाओ, नई जगह को अपनी यादों में बसा कर उन को अपना बना लो.

‘‘आमतौर पर जब भी कभी किसी को ऐसी बेचैनी वाली परिस्थिति का सामना करना पड़ा है, अच्छी किताब और संगीत, वफादार मित्र साबित होते हैं वैसे समय में. और अकेले खूब घूमा करो, पार्क में या मौल में या हरियाली को दोस्त बना लो और यह भी सच है कि सब से बड़ा आनंद तो अपना काम देता है. झोंक देना स्वयं को, काम में. चपाती सेंकना और पकवान बनाना यह सब मन की सारी नकारात्मकता को खत्म करता है.‘‘

‘‘हूं, वाह, वाह, बहुत अच्छी दी सलाह,‘‘ कह कर मनोज ने गरदन हिला दी.

‘‘बहुत शुक्रिया,‘‘ शरारत से कह कर छवि ने मनोज को कुछ पैकेट थमा दिए. उन सब में मनोज के लिए उपहार रखे थे, जो छवि को पीहर से दिए गए थे.

छवि ने रुपयों से भरी अलमारी का पूरा किस्सा भी सुना दिया, तो मनोज ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘तब तो पिता के गौरव की हिफाजत करो. छवि, अब नाराज मत होना. ठीक है.‘‘

छवि ने प्रगट में तो होंठों पर हंसी फैला दी, पर वह मन ही मन कहने लगी, मगर, मुझे तो मजा आ गया, ऐसे लड़ कर जाने में तो बहुत आनंद है. नहीं, अब बिलकुल नहीं, मनोज ने उस के मन की आवाज सुन कर प्रतिक्रिया दी. दोनों खिलखिला कर हंसने लगे.

इस्तीफा: क्या सफलता के लिए सलोनी औफर स्वीकार करेगी

सलोनी की रिस्ट वाच पर जैसे ही नजर पड़ी, ‘उफ… मुझे आज फिर से देर हो गई. कार्यालय में कल नए बौस का आगमन हो रहा है. अत: सारे पैंडिंग काम कल जल्दी औफिस पहुंच कर अपडेट कर लूंगी. अब मुझे जल्दी घर पहुंचना चाहिए. बिटिया गुड्डी और नन्हे अवि के साथ मां परेशान हो रही होंगी. नीरज तो पता नहीं अभी घर लौटे भी हैं या नहीं,’ मन ही मन में सोचविचार करती सलोनी ने अपनी मेज पर रखा कंप्यूटर औफ किया और तेजी से कार्यालय से बाहर निकल आई. लंबेलंबे डग भरते हुए 5 मिनट में बसस्टौप पर आ पहुंची.

चूंकि लोकल ट्रेन अभी आई नहीं थी. अत: वह भी सामने प्रतीक्षारत लगी लाइन में सब से पीछे जा खड़ी हो गई. अचानक उस की नजर अपने से आगे खड़े नवयुवक पर पड़ी. वह गोरे वर्ण का लंबा, गठीला बदन, सुंदर, सुदर्शन, देखने में हंसमुख सजीला नवयुवक, अपनी गरदन घुमा कर उसे ही पहचानने का प्रयास कर रहा था. उस से नजरें मिलते ही सलोनी को भी वह सूरत कुछकुछ जानीपहचानी सी लगी.  सलोनी उस नवयुवक को देख कर पहचानने के उद्देश्य से सोचविचार में गुम थी. कि अचानक दोनों की नजरें आपस में टकराईं तो उस की ओर देख कर वह हौले से मुसकराया. युवक की मुसकान भरी प्रतिक्रिया देख कर उस ने सकपका कर नजरें दूसरी ओर घुमा लीं.

‘‘माफ कीजिए अगर मैं गलत नहीं हूं तो आप का नाम सलोनी है न?’’ युवक ने पहचानने का उपक्रम करते हुए नम्रता के साथ सलोनी से पूछ लिया.

युवक की बात सुन कर सलोनी चौंकते हुए बोली, ‘‘हां मेरा नाम सलोनी है. लेकिन आप मु   झे कैसे जानते हैं? मैं तो आप को नहीं जानती?’’

सलोनी के चेहरे पर अनजान चेहरे को पहचानने के कई रंगभाव उभरे और जल्दी ही विलुप्त हो गए.

‘‘दरअसल, हमारी मुलाकात करीब 19-20 बर्षों बाद हो रही है इसलिए आप मु   झे पहचान नहीं रही हैं.’’

‘‘अच्छा.. लेकिन वह कैसे? कौन हैं आप?’’ सलोनी ने अपने दिमाग पर जोर डालते हुए पूछ लिया.

‘‘लगता है कि आप ने अभी तक इस नाचीज को पहचाना नहीं. हम भूलेबिसरे गीतों

में छिपी कहानी कहीं…’’ युवक ने शायराना अंदाज में मुसकराते हुए यह बात ऐसे कही कि

न चाहते हुए भी सलोनी के चेहरे पर मुसकान खेल गई.

‘‘शायद आप को याद होगा कि कानपुर के संत विवेकानंद माध्यमिक विद्यालय में 9वीं क्लास में एक लड़का कमल आप की कक्षा में साथ में पढ़ता था. लेकिन उस के पिताजी का ट्रांसफर हो गया था, जिस के कारण उसे कानपुर शहर छोड़ कर दूसरे शहर जाना पड़ा था.’’

‘‘अरे हां… वह पढ़ाकू प्रजाति का कविकुल कमल… क्या खूबसूरत कविताएं लिखता था वह… आज भी जेहन में उस की कुछ कविताओं की यादें ताजा हैं,’’ अब जानपहचान पर अभिमत की मुहर लगाते हुए खुले अंदाज में सलोनी खिलखिला कर बोली, ‘‘उस के खूबसूरत पढ़ने वाले अंदाज को सुनने की खातिर कविता लिखवाने को कितनी लड़कियां उस के आगेपीछे चक्कर लगाती रहती थीं पर वह… पढ़ाकू… आसानी से किसी को घास नहीं डालता था.’’

‘‘हूं… बहुत खूब… सही पहचाना आप ने. हां तो मैडम सलोनीजी मैं गुलेगुलजार, खिलता आफताब, खुशमिजाज, दिले बेताब आप का वही नाचीज कमल हूं,’’ कमल ने शब्दों को शायराना अंदाज में ढाल कर अलग अंदाज में अपने परिचय से रूबरू करवाया.

किशोर वय में सलोनी पर दिलोजान से मरमिटने वाले कमल से उस का इस तरह से परिचय होगा ऐसा सलोनी ने कभी नहीं सोचा था. अत: उस के शरीर में करंट मिश्रित मीठी    झुर   झुरी सी दौड़ गई. फिलहाल तो घर पहुंचने में देरी हो जाने की चिंता में घुलते हुए फिर जल्द ही मिलने का वादा करते हुए दोनों ने अपनेअपने घर की राह पकड़ी. अचानक हुए मिलन की इस बेतकल्लुफ आपाधापी में वे दोनों ही एकदूसरे का फोन नंबर लेना भूल गए.

अगले दिन सलोनी कार्यालय पहुंच कर कंप्यूटर औन कर के कार्य सूची को

अपडेट कर रही थी कि तभी चपरासी ने बताया कि बौस कैबिन में आप को बुला रहे हैं.

सलोनी ने फाइल हाथ में पकड़े हुए बौस के कैबिन के पास जा कर पूछा, ‘‘मे आई कम इन सर?’’

‘‘यस कम इन.’’

सलोनी को आवाज कुछ जानीपहचानी सी लगी. लेकिन बौस की कुरसी की पीठ उस की ओर होने के कारण वह बौस का चेहरा नहीं देख सकी. तभी यकायक बिजली की तेजी से बौस ने अपनी कुरसी उस के चेहरे की ओर घुमाई तो अपने सामने मुसकराते हुए खूबसूरत कमल का सुदर्शन चेहरा देख कर वह खुशी से चहक उठी. अचानक तेजी से बदलते घटनाक्रम के कारण खुशी और सरप्राइज दोनों का एहसास उसे एकसाथ हुआ. अत: हकलाहट में उस के मुख से बोल नहीं निकल सके, ‘‘अरे… कमल… सर… आप… बौस…’’

‘‘जी… सलोनीजी… तो कैसा लगा मेरा सरप्राइज डियर…’’ कहते हुए कमल के सुंदर

मुख पर करीने से तराशी हुई बारीक मूंछों की पंक्ति के नीचे पतले सुर्ख होंठों पर प्यारी सी मुसकान खेलने लगी.सलोनी के मुखड़े पर चमकती धूप सी स्वर्णिम मुसकान खिली और जल्दी ही विलीन हो गई. फिलहाल दोनों ने

काम करने को तवज्जो देते हुए कार्य की बारीकियों पर विचारों का आदानप्रदान किया, साथ ही रविवार को दोपहर में लंच साथ करने और मिलने की प्लानिंग भी कर ली.

घर और कार्यालय दोनों स्थानों पर काम के बो   झ तले दबी सलोनी के चिड़चिड़ाते मुखड़े पर अब चमकती मुसकान खेलने लगी थी. इसी कारण घर का वातावरण बहुत खुशनुमा रहने लगा था. सलोनी की सासूमां और नीरज ने भी घर का वातावरण खुशनुमा देख कर सलोनी को थोड़ीबहुत देरसवेर से घर पहुंचने पर टोकाटाकी करना या कुछ कहनासुनना छोड़ दिया.

कमल और सलोनी की मुलाकातें खूब रंग ला रही थीं. खूबसूरत लावण्यमयी सलोनी जब हैंडसम कमल के साथ होती तो उत्साह, उमंग से लबरेज उस की आंखों से खुशियों की फुल   झडि़यां छूटने लगतीं. दोपहर का भोजन अकसर वे साथ ही करते. मस्तीमजाक के बीच रूठना, मनाना और मनपसंद उपहारों का आदानप्रदान भी होने लगा था. देखतेदेखते सालभर बादलों की मानिंद पंख लगा कर उड़ गया.

औफिस में सहकर्मी साथियों के बीच दोनों के नाम की चर्चा अब जोर पकड़ने लगी थी. सलोनी को साथी सहकर्मी घटिया मानसिकता की महिला समझने लगे. 2 बच्चों की मां सलोनी अपने सुखी विवाहित जीवन में खुद आग लगा रही थी. महिला साथी सहकर्मी कनखियों से उसे आता हुआ देख कर एक व्यंग्य भरी मुसकराहट जब उस की ओर फेंकतीं तो सलोनी मन ही मन जलभुन जाती.

साथी सहकर्मियों के द्विअर्थी संवादों से लिपटे जुमले उस के कानों में पिघले शीशे की मानिंद गूंजने लगते. ये सब सहकर्मी साथी बौस के नाराज हो जाने के भय से सलोनी से कुछ नहीं कहते थे. लेकिन उन लोगों की घटिया सोच की दबीदबी मुसकराहट और बातों को ध्यान से सुन कर सलोनी बहुत कुछ सोचनेसमझने लगी थी.

अत: कभीकभी उस का मन नीरज और कमल के बीच डांवांडोल हो जाता. उस की

आंखों के सामने उन दोनों के चेहरे आपस में गड्डमड्ड हो जाते. अंतर्द्वंद्व से बाहर निकलने के प्रयास में जब वे उन दोनों के मध्य तुलना करती तो उसे नीरज गृहस्थी का बोझ उठाता एक सांवले रंग का सामान्य कदकाठी का पुरुष नजर आता जो पति के दंभ से भरा हुआ, उबाऊ और अंहकारी पुरुष लगता जिस ने मर्दानगी के रोब में उस के मन की गहराइयों के भीतर धड़कते हुए दिल की खुशियों की कभी परवाह नहीं की. उसे अपने काम और बस काम से प्यार था. उसे स्त्री के मन से अधिक तन के साथ शगल करने की जरूरत थी.

वहीं कमल उस के मन में दबीछिपी अनेक सतहों को पार करता हुआ अब उस के दिल का करार बन गया था. स्वच्छंद प्रकृति का भंवरे सरीखा कमल गुनगुन करता उस के आसपास मंडराता रहता. वह गुलाब के फूल सरीखा हमेशा तरोताजा और खिलाखिला लगता था. अपनी सुंदरता की सारी महक उस की एक मुसकान की खातिर लुटाना चाहता था. उस की मनमोहक बातें सुन कर उस का मन छलकने लगता. उस के रूपसौंदर्य में गढ़ कर ऐसी शायरी सुनाता कि सलोनी का मन निहाल हो कर निसार हो उठता.

वह भी उस के सीने से लिपट कर हंसनारोना चाहती थी. कमल उस की शादीशुदा जिंदगी के बारे में सब जानता था. अत: उस ने दोनों के बीच की मर्यादा रेखा को पार करने के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं की थी. वह तो सलोनी के जीवन के सुखदुख भरे पलों की उल   झनों को सुल   झाते हुए अपनी मनमोहक, लच्छेदार बातों से उसे कुछ पलों के लिए हर्ष और उल्लास से भर, परी लोक जैसे सुखद कल्पना लोक में पहुंचा देता था.

सलोनी को पूरी तरह अपने प्रेम के जाल में फंसा कर अब कमल उस से शारीरिक नजदीकियां बढ़ाने का प्रयास करने लगा. आज उस ने सलोनी के साथ शहर से दूर 3 दिन का टूर का प्रस्ताव रखा था. कमल के टूर के पीछे छिपी शारीरिक सुख प्रस्ताव की भावना जान कर सलोनी जैसे सोते से जागी. आज कमल के दोहरे व्यक्तित्व से उस का सामना हुआ. कमल के सुखद मुसकान भरे सुंदर चेहरे के पीछे छिपी कुत्सित मानसिकता से आज वह बहुत असहज हो उठी थी.

तो क्या कमल की सोच भी अन्य मर्दों जैसी है? कमल को भी उस के साथ से उत्पन्न मानसिक सुख नहीं चाहिए वरन उसे भी उस के शारीरिक संबंध का इस्तेमाल चाहिए? इस

दुनिया में औरत और मर्द का रिश्ता केवल शरीर तक ही सीमित क्यों होता है? एक अच्छा साथी पुरुष महिला मित्र के लिए शरीर की जरूरतों से ऊपर उठ कर, मन की भावनाओं के अनुरूप सामंजस्य क्यों नहीं रख सकता? मन और आत्मा से निसार जब एक स्त्री सच्चे आत्मिक रिश्ते निभाने के लिए समर्पित होती है तो खुदगर्ज मर्द शरीर की भाषा से ऊपर उठ कर आत्मिक भाषा क्यों नहीं सम   झते?

सोचतेसोचते उस का दिमाग सुन्न सा होने लगा. अब इस रिश्ते को बरकरार रखने और आगे बढ़ने से अन्य नजदीकी परिस्थितियों को भी स्वीकार करना पडेगा और शायद तब तक मेरे लिए बहुत देर हो चुकी होगी.

घर पहुंच कर काम निबटाते हुए आज सलोनी का दिलदिमाग अपने नन्हेमुन्ने प्यारे बच्चों के साथ लाड़मनुहार कर के खाना खिलाने से अधिक कमल के हावभाव की सोचों में गुम था. यदि नीरज को सब पता चल गया तो… 2 नावों पर सवारी करने वाले व्यक्ति कभी तैर कर पार नहीं होते वरन डूबना ही उन की नियति होती है. सलोनी तू भी तो 2 नावों पर सवार है. आखिर सचाई से वह कब तक मुंह छिपा सकती है?

मन में निरंतर चलते विचारक्रम से व्यथित बेकल हो कर वह पसीनापसीना हो गई और बाहर बालकनी में निकल कर गहरी लंबी सांसें लेने लगी. तब भी उसे भीतर दिल के पास घुटन महसूस हो रही थी.

कहीं न कहीं उस के संस्कार, उस की सोच फिसलन भरी डगर पर बढ़ते कदमों को फिसलने से रोक रहे थे. अब वैवाहिक जीवन की खंडित मर्यादा के भय से उस का अंतर्मन उसे धिक्कारने लगा था. गृहस्थी की सुखी और शांत नींव का आधार नारी का मर्यादित आचरण माना जाता है. जरा सी ठेस लगते ही बेशकीमती हीरा फिर शोकेस में सजाने के काबिल नहीं रहता. गृहस्थी में नारी या पुरुष दोनों की जीवनचर्या सीमा रेखा के इर्दगिर्द घूमती है. जिम्मेदारियों की अनदेखी कर के, राह से भटकने पर, सीमा रेखा पार करने वालों की जिंदगी में आने वाले भूचाल को फिर कोई नहीं रोक सकता. अत: जो कुछ करना है अभी करना है.

पूरी रात सलोनी का मन उसे रहरह कर कचोटता रहा. सलोनी को अनमनी देख कर नीरज ने उस से परेशान होने का कारण जानना चाहा तो वह फीकी सी हंसी हंस कर बात टाल गई और सोने का उपक्रम करने लगी. लेकिन नींद तो आंखों से कोसों दूर थी. जीवन के उतारचढ़ाव सोचनेविचारने के लिए मजबूर सलोनी खुद से सवालजबाव करने लगी कि…

यह जिंदगी भी हमारे साथ कितना अन्याय करती है- हम हाड़मांस के मानवीय पुतलों के साथ कैसेकैसे भावनात्मक अनोखे खेल खेलती है. काश कमल अब से 10 साल पहले मु   झे मिला होता तो आज नीरज के स्थान पर कमल मेरी जिंदगी में पति के रूप में होता और अब तक जब वह नहीं मिला था तो मैं अपनी जिंदगी सुख से जी रही थी न, फिर इस मोड़ पर अब मु   झे कमल से क्यों मिलाया?

गहरी सोच में गुम होने पर उस के भीतर से आवाजें आने लगतीं कि सलोनी तू कितनी खुदगर्ज है. अपने क्षणिक सुख  के लिए तू कितनी सारी सुखी जिंदगियां दांव पर लगा रही है. मातापिता के नाम पर दाग लगा कर सलोनी क्या तू सुख से रह सकेगी?

कमल के साथ चले जाने के बाद यदि नीरज ने तु   झे अवि और गुड्डी से मिलने का अधिकार नहीं दिया तो क्या तू ममता का गला घोंट कर जी सकेगी? नौकरी पर चले जाने के बाद सासूमां कितने प्यारदुलार से अवि और गुड्डी का पालनपोषण अपनी देखरेख में करती हैं. क्या तू उन की अच्छाइयों को झुठला सकेगी?

अब… बस कर… यही रुक जा सलोनी, चल आज रोक ले अपने बढ़ते कदमों को.

अपने सुखीशांत वैवाहिक जीवन को खुद अपने हाथों से तबाह मत कर. नीरज के बाहरी व्यक्तित्व और काम के बो   झ तले दबे जिम्मेदार पिता के व्यवहार को नकारने के बजाय उस के साथ बिताए गए 10 सालों की अच्छाइयों को याद रख. अपने बच्चों का भविष्य सुखद बनाने के लिए ही तो तुम दोनों दिनरात दोहरी मेहनत करते हो. मानसिक तनाव दूर करने के लिए नीरज को अपनी पत्नी का साथ चाहिए तो इस में भला उस की क्या गलती है? इस से पहले तो तुम ने कभी ऐसा नहीं सोचा था. कमल के बजाय नीरज की जिम्मेदारियों को सकारात्मक दृष्टिकोण से सामने रख कर देख.  तब सारी तसवीर तेरे सामने स्पष्ट होगी और तू सही निर्णय लेने में स्वयं सक्षम होगी. धीरेधीरे आंखों के सामने बीते समय के चित्र उभरने लगे…

जब तू बुखार में बेसुध पड़ी थी तब नीरज ने कैसे रातरात भर जागते रह कर तेरे माथे पर ठंडी पट्टी रख कर तुझे सुखसुकून पहुंचाया था. नीरज ने कितनी बार अपने औफिस से छुट्टी ले कर तेरे ठीक हो जाने तक सारे घर के कामकाज कितनी सुगमता से संभाले. देर हो जाने के कारण कितनी बार तेरे साथ मिल कर रसोईघर में बरतन धुलवाए.

ठंडे दिमाग से एक तरफा निर्णय लेने वाले सोचविचार करने पर कमल के मोहजाल में फंसी सलोनी की आंखों के सामने अब नीरज की सकारात्मक तसवीर स्पष्ट होने लगी थी. मन ही

मन जीवन में आने वाले पलों का निर्णय ले कर आज उस का मन असीम शांति का अनुभव कर रहा था. सुबहसवेरे सुखद भोर का एहसास करते हुए सलोनी मीठी सी अंगड़ाई ले कर उठ खड़ी हुई. शीघ्रता से नहा धो कर उस ने बच्चों और पति का मनपसंद नाश्ता तैयार किया. दोनों बच्चों को उठा कर लाड़दुलार से दूध पिलाया. नन्हा अवि मां के आंचल की गरमाहट पा कर जल्द ही उनींदा हो गया. उस ने उसे मांजी के पास लिटाया और तत्पश्चात मांजी और नीरज को नाश्ता दे कर 2-4 सामान्य बातें करने के बाद वह औफिस के लिए निकल पड़ी.

औफिस में पहुंच कर सलोनी कई दिनों से पैंडिंग पड़ा काम निबटाने लगी. समय के पाबंद कमल के कैबिन में पहुंच जाने के बाद, हाथों में फाइल थामे दमसाधे वह उस के पीछेपीछे बौस के कैबिन में पहुंच गई.

सलोनी को सामने खड़े देख कर कमल ने मुसकराते हुए उस से कल के प्रस्ताव पर विचारविमर्श करने के विषय में पूछा. तुरंत ही फाइल खोल कर सलोनी ने करीने से रखा एक लिफाफा कमल के सामने रखते हुए कहा, ‘‘कमल यह मेरा इस्तीफा है… प्लीज इसे स्वीकार करो… और मु   झे यह नौकरी छोड़ने की इजाजत दे दो.’’

‘‘सलोनी… क्या है ये सब?’’ हैरत से कमल ने पूछा. अचानक अप्रत्याशित स्थिति का सामना करते हुए, हकबकाए कमल का मुंह खुला का खुला रह गया.

ठंडे ठहरे हुए लफ्जों में सलोनी आगे बोली, ‘‘क्या… कुछ नहीं… कमल… यह मेरा इस्तीफा है. मैं इस नौकरी से रिजाइन कर रही हूं…’’

‘‘अगर तुम्हें मेरा प्रस्ताव इतना ही बुरा लग रहा था तो कल ही साफ इंकार कर देती न… मैं ने तुम से जबरदस्ती तो नहीं की थी,’’ कमल के मन की नाराजगी जबां से जाहिर होने लगी. अब कमल का मूड उखड़ने लगा था, ‘‘इस तरह से नौकरी से रिजाइन करने के बारे में तुम सोच भी कैसे सकती हो? अपने घर की आर्थिक स्थिति तुम अच्छी तरह से सम   झती हो.’’

‘‘हां… अब तक तो नहीं सम   झी थी, लेकिन अब बहुत अच्छी तरह से सम   झने लगी हूं और वैसे भी कमल… जिस रास्ते मु   झे जाना ही नहीं तो उस का पता पूछने से हासिल भी क्या होगा. अब यह पक्का तय है कि हम दोनों के रास्ते अलगअलग हैं. हम लोग अब आगे साथ काम नहीं कर सकते.’’

सलोनी का बदला रुख देख कर कमल बात बदलते हुए बोला, ‘‘यार सलोनी, तुम जानती हो न कि मैं तुम्हारी पदोन्नति कर के तुम्हें मैनेजिंग डाइरैक्टर की सीट पर बैठा सकता हूं… सलोनी… थोड़ा सा दिमाग पर जोर डालो और सम   झो कि मैं तुम्हें साथ में क्या

औफर कर रहा हूं… जिंदगी में इस तरह कोरी भावुकता से तरक्की नहीं मिला करती… यहां

हम सभी को कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना भी पड़ता है… इसलिए यदि सुखद भविष्य के लिए तरक्की करनी है, तो कुछ सम   झौते भी करने पड़ेंगे न…’’

‘‘कमल मुझे ऐसी तरक्की नहीं चाहिए जिस की आड़ में मैं खुद की नजरों में गिर जाऊं. ऐसे लिजलिजे सम   झौते मु   झे कदापि स्वीकार नहीं,’’ कहते हुए सलोनी दृढ़ निश्चय के साथ कमल के कैबिन से बाहर निकल आई और मेज से अपना बैग उठा कर सुरक्षित अपने सुखद नीड़ की ओर चल पड़ी.

थैंक्यू दादी: निवी का बचपन कैसा था

कोचिंग से आ कर नवेली बिस्तर पर गुमसुम निढाल सी पड़ गई थी. ‘‘क्या हुआ निवी, मेरी बच्ची, थक गई? तेरा मनपसंद बादाम वाला दूध तैयार है, बस, गरमगरम पी कर सो जा एक घंटे,’’ 65 वर्षीय दादी तिलोतमा ने पोती नवेली को प्यार से उठाया तो गरमगरम आंसू उस के गालों पर ढुलकने लगे.

‘‘कुछ नहीं दादी, मुझे अब पढ़ना नहीं है. मुझ से इतनी पढ़ाई नहीं होगी, मैं पापामम्मी की आशाओं को पूरा नहीं कर सकती दादी. मैं राजीव अंकल की बेटी अंजलि की तरह वह परसैंटेज नहीं ला सकती चाहे लाख कोशिश करूं.’’

‘‘अरे, तो किसी के जैसा लाने की क्या जरूरत है? अपने से ही बेहतर लाने की कोशिश करना, बस.’’

‘‘पर पापामम्मी को कौन समझाए दादी, वे हर वक्त मुझे उस अंजलि का उदाहरण देते रहते हैं. घर आते ही शुरू हो जाती हैं उन की नसीहतें, ‘कोचिंग कैसी रही, सैल्फ स्टडी कितने घंटे की, कोर्स कितना कवर किया, कहां तक तैयारी हुई. आधे घंटे का ब्रेक ले लिया बस, अब पढ़ने बैठ जा. एग्जाम के बाद बड़ा सा ब्रेक ले लेना. देखो, अंजलि कैसे पढ़ती रहती है, मछली की आंख पर ही अभ्यास करती रहती है हर समय.’ वही घिसेपिटे गिनेचुने शब्द बस, इस के अलावा कोई बात नहीं करते,’’ वह दादी की गोद में सिर रख कर रो पड़ी.

तिलोतमा सब जानती थीं. कई बार उन्होंने पहले भी बेटाबहू से इस के लिए कहा था. आज फिर टोक दिया…

‘‘अरे, निवी से तुम सब खाली यही बातें करोगे? एक तो वह पहले ही कोचिंग से थकी हुई आती है, घर में भी बस पढ़ाईपढ़ाई, कुछ और बातें भी तो किया करो ताकि दिमाग फ्रैश हो उस का.’’

‘‘मम्मा, मैं कोचिंग नहीं जाऊंगी अब से,’’ नवेली रोतेरोते बोली.

‘‘ठीक है तेरे लिए घर पर ही ट्यूटर का बंदोबस्त कर देते हैं.

‘‘वैसे भी आनेजाने में तेरा टाइम वेस्ट होता है, ग्रुप में पढ़ाई भी क्या होती होगी. मैं कपूर कोचिंग से बात कर लेता हूं, उन की अच्छी रिपोर्ट है. साइंसमैथ्स के ट्यूटर घर आ जाएंगे.’’

‘‘नहीं पापा, मुझे अपना गिटार का कोर्स कंप्लीट करना है.’’

‘‘कुछ नहीं, एक बार कैरियर सैट हो जाने दो, फिर जो चाहे सीखते रहना. गिटारविटार से कैरियर नहीं बना करते.’’

तिलोतमा की पारखी नजरें अच्छी तरह पहचान गई थीं कि पोती नवेली का उस मैथ्स पढ़ाने वाले युवा ट्यूटर अंश डिसिल्वा से संबंध गुरुशिष्य से बढ़ कर दोस्ती के रूप में पनपने लगा है. इस का कारण भी वे अच्छी तरह जानती थीं, बेटे राघव और बहू शीला की अत्यधिक व्यस्तता जो इकलौती संतान नवेली को अकेलेपन की ओर ढकेल रही थी. दोनों को अपने काम से ही फुरसत नहीं होती. शाम को जब दोनों अपनेअपने औफिसों से थक कर आते, थोड़ा फ्रैश हो कर चायकौफी पीते, मां, बच्चे और आपस में कुछ पूछताछ, कुछ हालचाल लिया, फिर वही हिदायतें.

फिर टीवी चैनल बदलबदल कर न्यूज का जायजा लेते. थोड़ा घरबाहर का काम निबटा कर कुछ कल की तैयारी करते और फिर डिनर कर मां और नवेली को गुडनाइट कर के फिर दोनों अपने रूम में चले जाते. उन के लिए तो यह सब ठीक था, लेकिन बच्चे के पास शेयर करने के लिए कितनी ही नई बातें होती हैं, जो सब दादी से नहीं की जा सकतीं. 10 मिनट भी बाहर नहीं जाने देते. न जाने पढ़ाई में कितना हर्ज हो जाएगा बल्कि दोस्त मिलेंगे तो उन से कुछ जानकारी ही मिलेगी. फिर बच्चे को खुद क्याकोई सम?ा नहीं है?  तिलोतमा को यह सब देख कर हैरानी होती.

‘‘क्या करना है बाहर जा कर, सबकुछ तो घर में है, कंप्यूटर है, इंटरनैट है. आखिर 12वीं कक्षा के बोर्ड एग्जाम हैं, पढ़ो, खाओपीओ और सो जाओ, रिलैक्स करना है तो थोड़ी देर टीवी देख लो, म्यूजिक सुन लो. बस, और क्या चाहिए.

‘‘बाहर दोस्त क्या करेंगे, उलटा माइंड डायवर्ट करेंगे, ऐसे कैरियर बनता है क्या?

‘‘सैटरडे या संडे हम आप को बाहर ले ही जाते हैं.

‘‘एक बार कैरियर बन जाए, फिर जितनी चाहे मस्ती करना.’’

‘‘पहले कोचिंग के लिए बाहर ही तो जाती थी, पर उस में तो मुंह लाल कर के थक के आती थी. फिर सैल्फ स्टडी नहीं हो पाती थी, कभी दर्द, कभी बुखार का बहाना कि मु?ो कोचिंग नहीं जाना, आखिर और बच्चे रातदिन पढ़ते नहीं क्या, टौप यों ही करते हैं?

‘‘खैर, हम ने वह भी मान लिया, सब से अच्छे ट्यूशन सैंटर से घर पर ही टौप ट्यूटर का बंदोबस्त कर दिया. अब क्या?

‘‘अभी दोस्त, मोबाइल, गिटार पार्टी सब बंद, लक्ष्य सिर्फ कैरियर…’’

फिर ऐसे में गुमसुम सा पड़ा बच्चा बेचारा अकेलेपन से घबरा कर कोई साथी न ढूंढ़ ले, डिप्रैशन में कुछ उलटापुलटा न करे तो आश्चर्य कैसा. कई बार तिलोतमा ने बहूबेटे का ध्यान इस ओर दिलाने का प्रयास किया था. मगर उन दोनों पर कोई असर नहीं हुआ.

नवेली का गुमसुम सा रहना दादी की तरह अंश को भी खटकता. वह उसे बेहद सीरियस देख कर कोई मजेदार चुटकुला सुना देता. वह हंसती, कुछ देर को खुश हो जाती.

‘‘अधिक स्ट्रैस नहीं लेना, 89 परसैंट मार्क्स थे तुम्हारे. अब इतना भी सीरियस रहने की जरूरत नहीं,’’ वह भी कहता. धीरेधीरे नवेली उस से खुलने लगी थी. वह उस से दिल की बातें भी शेयर करती.

‘‘सर, आप ने वह नैशनल ज्योग्राफिक चैनल पर स्टुपिड साइंस देखा है? बड़ा कमाल का लगता है.’’

‘‘हां, वे हंसीहंसी में विज्ञान का ज्ञान… सही है, पूरे समय कोर्स की बातें नहीं थोड़ा इधरउधर भी दिमाग दौड़ाना चाहिए, इस से वह ऐक्टिव ज्यादा रहता है.’’

‘सही तो कह रहा है अंश,’ तिलोतमा सोच रही थीं.

‘‘सर, डेढ़ घंटा हो गया, बड़ी गरमी है, बाहर आइसक्रीम वाला है, खाएंगे? पर बाहर जाना मना है मु?ो.’’

‘‘कोई नहीं, मैं देख रही हूं न, जा थोड़ी खुली हवा भी जरूरी है,’’ तिलोतमा मुसकराते हुए बोली और दराज से 100 रुपए निकाल कर उसे थमा दिए.

‘‘थैंक्यू दादी,’’ नवेली ने दादी को प्यारी झप्पी दी.

अंश नवेली के साथ सड़क पर निकल आया था. नवेली ने ताजी हवा में हाथ फैला लिए टायटैनिक के अंदाज में.

‘‘वाह सर, कितना अच्छा लगता है बाहर, लोगों की चहलपहल के बीच आना कभीकभी कितनी एनर्जी देता है,’’ आइसक्रीम ले कर वे वहीं खड़े हो गए.

‘‘पता है सर, मुझे म्यूजिकल और डांसिंग शोज बेहद पसंद हैं. काश, मैं भी उन में भाग ले पाती. गिटार भी एक महीने सीखा, कोर्स कंपलीट करना चाहती हूं, पर मम्मीपापा को यह सब बिलकुल भी पसंद नहीं. हमारी जिस में रुचि हो उस में बेहतर काम कर सकते हैं, अधिक खुश रह सकते हैं, है कि नहीं सर?’’

‘‘ये तो है, आज तो हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की संभावना है. जरूरी नहीं कि इंजीनियर, डाक्टर, आईएएस ही बनें. मुझे तो साइंसमैथ्स शुरू से ही पसंद थे.’’

‘‘पता नहीं सर, क्यों पापामम्मी ने रट लगा रखी है. 98 परसैंट मार्क्स लाने के लिए कहते हैं. इस के बिना आजकल कुछ नहीं होता, अगर मेरे अंजलि से कम मार्क्स आए तो उन की नाक कट जाएगी. अंजलि जैसा मेरा दिमाग है ही नहीं, तो मैं क्या करूं. पिछली बार पूरी कोशिश की थी पर…’’ वह रोने को हुई.

दोनों घर के अंदर आ गए. वह बाथरूम में घुस कर खूब रोई. तिलोतमा समझ रही थी कि दोस्त के रूप में अंश को पा कर नवेली के दिल में छिपा दर्द आज फिर बह निकला, जिसे वह दिखाना नहीं चाहती थी. अच्छा है जी हलका हो जाएगा’ यही सोच कर उन्होंने दरवाजा थोड़ी देर को थपथपाना छोड़ दिया.

‘‘नवेली, बाहर आ, सर वेट कर रहे हैं तेरा. 10 मिनट हो गए, आ जल्दी,’’ तिलोतमा दरवाजा पीट रही थीं. वे घबराने लगी थीं, ‘आजकल बच्चे डिप्रैशन में आ कर न जाने क्याक्या कर डालते हैं.’

‘‘जी, पढ़ाई के लिए इतना प्रैशर डालना ठीक नहीं. उस का मन कुछ और करने का है. वह उस में भी तो कैरियर बना सकती है,’’ अंश दादी से बोला.

‘‘मुझे नहीं पढ़ना दादी, मुझ से इतना नहीं पढ़ा जाएगा,’’ वह रोती हुई लाल आंखों से बाहर आ गई.

‘‘अच्छा, चलो, 10 मिनट का और ब्रेक ले लो, मैं तब तक मेल चैक कर लेता हूं,’’ सर ने कहा.

‘‘चल ठीक है, थोड़ी देर और कुछ कर ले, फिर पढ़ लेना. आज का कोर्स पूरा तो करना ही है, सर को भी तो जाना होगा,’’ दादी ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह फिर रोने लगी थी.

‘‘मुझे कुछ नहीं करना दादी.’’

‘‘गिटार बजाएगी?’’ तिलोतमा ने उस के कानों में धीरे से कहा.

‘‘क्या… पर…’’ नवेली के आंसू एकाएक थम गए थे.

‘‘उस कमरे की चाबी मेरे पास है, चल आ, एक धुन बजा कर रख देना और फिर पढ़ाई करना, ठीक है?’’ नवेली ने हां में सिर हिलाया और बच्चे की तरह मुसकरा उठी. ‘‘

अंश बेटा, देख नवेली कितना सुंदर गिटार बजाती है.’’

‘‘जी,’’ वह मोबाइल पर मेल चैक करते हुए बोला.

नवेली ने गिटार हाथों में ले कर चूमा था, कितनी रिक्वैस्ट की थी पापामम्मी से कि गिटार का कोर्स कंपलीट करने दें, पर उन्होंने तो छीन कर इसे एक किनारे कमरे में बंद कर ताला लगा दिया. रोज थोड़ी देर बजा लेती तो क्या जाता. मैं रिलैक्स हो जाती. उस ने कवर हटा कर बड़े प्यार से उसे पोंछा और बाहर आ गई.

गिटार के तारों पर उस की उंगलियां फिसलने लगीं. एक मनमोहक धुन वातावरण में फैलने लगी. वह ऊर्जा से भर उठी. फिर अपने वादे के अनुसार पढ़ने आ बैठी. अंश चला गया, तो दादी ने उसे फिंगर चिप्स के साथ बादाम वाला दूध थमा दिया. नवेली दादी से लिपट गई.

‘‘आप कितनी अच्छी हैं दादी. मेरा मूड कैसे फ्रैश होगा, आप सब जानती हैं. पर मम्मीपापा नहीं जानते. रोज थोड़ी देर ही बजा लेने देते तो मैं फ्रैश हो जाती पढ़ाई के हैंगओवर से…आप मुझे रोज कुछ देर गिटार बजाने देंगी दादी? थोड़ी देर बजा लूं? अभी सर गए हैं.’’

‘‘चल ठीक है, मुझे पहले सुना वो 1950 के गाने की कोई धुन.’’ वह दीवान पर मसनद लगा एक ओर बैठ गई थी. तिलोतमा आंखें मूंद कर मगन हो सुनने लगीं. नवेली की सधी हुई उगलियां तारों पर फिसलने लगीं.

‘‘मना किया था न कि एग्जाम तक गिटार पर हाथ नहीं लगाओगी तुम,’’ शीला के साथ कमरे में आया राघवेंद्र का पारा सातवें आसमान पर था. उस ने नवेली से झटके से गिटार खींचा और जमीन पर मारने ही जा रहा था कि तिलोतमा ने उसे कस कर पकड़ लिया. नवेली अपनी जान से प्यारे गिटार के टूट जाने के डर से जोरों से चीख उठी, ‘‘नहीं…पापा.’’

‘‘क्या कर रहा है, पागल हो गया क्या. अभी तो पढ़ कर उठी थी बेचारी, क्या सारा वक्त यह पढ़ती ही रहेगी?’’ तिलोतमा ने डर से पास आई नवेली को अपनी छाती से चिपका लिया था.

‘‘इसे चाबी कैसे मिल गई?’’

‘‘मैं ने कमरा खोल कर दिया है इसे,’’ नवेली कांप रही थी, चेतनाशून्य हो कर सहसा वह नीचे गिर पड़ी.

‘‘क्या हुआ मेरी बच्ची, उठ…उठ,’’ सभी भाग कर नवेली के पास पहुंच गए थे.

‘‘क्या हुआ नवेली, उठो ड्रामे नहीं…बस.’’

‘‘वह ड्रामा नहीं कर रही राघव, कैसा बाप है तू?’’ तिलोतमा को बेटे पर बेहद गुस्सा आ रहा था, ‘‘बस, अब एक शब्द भी नहीं बोलना, जल्दी पानी…’’ वे घबरा कर कभी नवेली के हाथपैर तो कभी गाल व माथा मले जा रही थीं.

नवेली को बिस्तर पर लिटा दिया गया, उसे होश आ गया था. डाक्टर ने भी कहा, ‘‘सदमा या डर से ऐसा हुआ है, कल तक बिलकुल ठीक हो जाएगी. घबराने की कोई बात नहीं, कोशिश करें ऐसी कोई बात न हो.’’ डाक्टर इंजैक्शन दे कर चला गया लेकिन वह खुली आंखों में निश्चेष्ट मौन पड़ी थी. तिलोतमा का एक हाथ नवेली की हथेली तो दूसरा सिर सहला रहा था. हैरानपरेशान शीलाराघव उस से कुछ बुलवाने की चेष्टा में थे.

‘‘इतनी जोरजबरदस्ती और पढ़ाई का इतना प्रैशर डाल कर तुम लोग कहीं बच्ची को ही न खो दो. मु?ो तो डर है. तुम ने क्या हाल कर डाला निवी का सिर्फ इसलिए की सोसाइटी में तुम्हारी इज्जत बढ़ जाए, कोई रेस हो रही है जैसे, उस में जीत जाओ, भले बच्चे की जान निकल जाए. डिप्रैशन में बच्ची आत्महत्या जैसा कोई गलत कदम उठा ले या फिर भाग ही जाए. उस से दोस्त, मोबाइल, गिटार, उस की इच्छा, समय सबकुछ छीन लिया है, तुम लोग मांबाप हो या दुश्मन.’’ तिलोतमा ने गुस्से में कहा, ‘‘इतनी बड़ी बच्ची है, उसे भी मालूम है कि क्या सही है, क्या गलत, थोड़ी छूट दे कर तो देखो. आज बच्चे खुद भी अपने कैरियर को ले कर सतर्क हैं. उन की भी तो सुनो, जितनी उन्हें नौलेज है हर फील्ड्स की उतनी शायद तुम्हें भी न हो.’’

‘‘मगर…’’

‘‘मगरवगर कुछ नहीं. उसे भाईबहन तो तुम ने दिए नहीं. तुम्हारे पास तो समय ही नहीं है. मुझ बूढ़ी से वह क्याक्या बातें शेयर करेगी भला? बेटी को बेटा मानना तो ठीक है, पर जबरदस्ती ठीक नहीं. उस का लिया सबकुछ उसे लौटा दो. मछली की आंख उसे भी मालूम है, वह कोशिश तो कर ही रही है. इतने पीछे पड़ते हैं क्या. बच्चा ही खुश नहीं तो मैडल ले कर क्या करोगे.

तुम ने भी तो परीक्षाएं पास की हैं. तुम्हारे पापा और मैं तो कभी इतने पीछे नहीं पड़े थे. फिर भी तुम ने परीक्षाएं पास की हैं न? आज कुछ बन गए हो. अपने बच्चे पर विश्वास करना सीखो,’’ तिलोतमा ने देखा नवेली के चेहरे पर अब निश्चिंतता के भाव थे. आंखें बंद कर वह सो गई थी. कितनी मासूम लग रही थी वह. तिलोतमा ने प्यार से उस के माथे को चूमा और चुपचाप बाहर चलने का इशारा किया.

सुबह नवेली की आंखें खुलीं तो वह खुश हो गई, उस का प्यारा गिटार पहले जैसे उस के कमरे में अपनी जगह पर रखा था. उस ने छू कर देखा, बिलकुल सही था, टूटा नहीं था. वह खुशी से उछल पड़ी और उसे बैड पर ले आई, तभी टेबल पर पड़े डब्बे पर उस की निगाह पड़ी, खोल कर देखा, ‘‘ओ, इतना सुंदर नया मोबाइल मेरे लिए.’’

‘‘दादी…मम्मी.. पापा…थैंक्यू लव यू औल…’’ वह खुशी से उछलकूद करती हुई बाहर आई और सामने से उस के लिए दूध का गिलास ले कर आ रहीं तिलोतमा के गले में बाहें डाल कर प्यारी सी पप्पी ली थी ‘‘थैंक्यू दादी.’’

ब्रश कर के नवेली ने दूध पिया और दोगुने उत्साह से पढ़ने बैठ गई.

विटामिन-पी: संजना ने कैसे किया अस्वस्थ ससुरजी को ठीक

संजनाटेबल पर खाना लगा रही थी. आज विशेष व्यंजन बनाए गए थे, ननदरानी मिथिलेश जो आई थी.

‘‘पापा, ले आओ अपनी कटोरी, खाना लग रहा है,’’ मिथिलेश ने अरुणजी से कहा.

‘‘दीदी, पापा अब कटोरी नहीं, कटोरा खाते हैं. खाने से पहले कटोरा भर कर सलाद और खाने के बाद कटोरा भर फ्रूट्स,’’ संजना मुसकराती हुई बोली.

‘‘अरे, यह चमत्कार कैसे हुआ? पापा की उस कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स, विटामिन, प्रोटीन, आयरन, कैल्सियम होता था… कहां, कैसे, गायब हो गए?’’ मिथिलेश ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘बेटा यह चमत्कार संजना बिटिया का है,’’ कहते हुए वे पिछले दिनों में खो गए…

नईनवेली संजना ब्याह कर आई, ऐसे घर में जहां कोई स्त्री न थी. सासूमां का देहांत हो चुका था और ननद का ब्याह. घर में पति और ससुरजी, बस 2 ही प्राणी थे. ससुरजी वैसे ही कम बोलते थे और रिटायरमैंट के बाद तो बस अपनी किताबों में ही सिमट कर रह गए थे.

संजना देखती कि वे रोज खाना खाने से पहले दोनों समय एक कटोरी में खूब सारे टैबलेट्स निकाल लाते. पहले उन्हें खाते फिर अनमने से एकाध रोटी खा कर उठ जाते. रात को भी स्लीपिंग पिल्स खा कर सोते. एक दिन उस ने ससुरजी से पूछ ही लिया, ‘‘पापाजी, आप ये इतने सारे टेबलेट्स क्यों खाते हैं.’’

‘‘बेटा, अब तो जीवन इन पर ही निर्भर है, शरीर में शक्ति और रात की नींद इन के बिना अब संभव नहीं.’’

‘‘उफ पापाजी, आप ने खुद को इन का आदी बना लिया है. कल से आप मेरे हिसाब से चलेंगे. आप को प्रोटीन, विटामिन, आयरन, कैल्सियम सब मिलेगा और रात को नींद भी जम कर आएगी.’’

अगले दिन सुबह अरुणजी अखबार देख रहे थे तभी संजना ने आ कर कहा, ‘‘चलिए पापाजी, थोड़ी देर गार्डन में घूमते हैं, वहां से आ कर चाय पीएंगे.’’

संजना के कहने पर अरुणजी को उस के साथ जाना पड़ा. वहां संजना ने उन्हें हलकाफुलका व्यायाम भी करवाया और साथ ही लाफ थेरैपी दे कर खूब हंसाया.

‘‘यह लीजिए पापाजी, आप का कैल्सियम, चाय इस के बाद मिलेगी,’’ संजना ने दूध का गिलास उन्हें पकड़ाया.

नाश्ते में स्प्राउट्स दे कर कहा, ‘‘यह लीजिए भरपूर प्रोटींस. खाइए पापाजी.’’

लंच के समय अरुणजी दवाइयां निकालने लगे, तो संजना ने हाथ रोक लिया और कहा, ‘‘पापाजी, यह सलाद खाइए, इस में टमाटर, चुकंदर है, आप का आयरन और कैल्सियम. खाना खाने के बाद फू्रट्स खाइए.’’

अरुणजी उस की प्यार भरी मनुहार को टाल नहीं पाए. रात को भोजन भी उन्होंने संजना के हिसाब से ही किया. रात को संजना उन्हें फिर गार्डन में टहलाने ले गई.

‘‘चलिए पापा, अब सो जाइए.’’

अरुणजी की नजरें अपनी स्लीपिंग पिल्स की शीशी तलाशने लगीं.

‘‘लेटिए पापाजी, मैं आप के सिर की मालिश कर देती हूं,’’ कह कर उस ने अरुणजी को बिस्तर पर लिटा दिया और तेल लगा कर हलकेहलके हाथों सिर का मसाज करने लगी. कुछ ही देर में अरुणजी की नींद लग गई.

‘‘संजना, बेटी कल रात तो बहुत ही अच्छी नींद आई.’’

‘‘हां पापाजी, अब रोज ही आप को ऐसी नींद आएगी. अब आप कोई टैबलेट नहीं खाएंगे.’’

‘‘अब क्यों खाऊंगा. अब तो मुझे रामबाण औषधि मिल गई है,’’ अरुणजी गार्डन जाने के लिए तैयार होते हुए बोले.

‘‘थैंक्यू भाभी,’’ अचानक मिथिलेश की आवाज ने अरुणजी की तंद्रा भंग की.

‘‘हां बेटा, थैंक्स तो कहना ही चाहिए संजना बेटी को. इस ने मेरी सारी टैबलेट्स छुड़वा दीं. अब तो बस मैं एक ही टैबलेट खाता हूं,’’ अरुणजी बोले.

‘‘कौन सी?’’ संजना ने चौंक कर पूछा.

‘‘विटामिन-पी यानी भरपूर प्यार और परवाह.’’

छोटी सी भूल: क्या हुआ था जिज्ञासा के साथ

पीएसआई देवांश पाटिल की पुणे में नईनई नियुक्ति हुई थी. अभी पिछले महीने ही एक रेव पार्टी में उन्होंने 269 युवकयुवतियों को पकड़ा था. गणेशोत्सव पर डीजे बजाने की पाबंदी थी. कई प्रतियोगी परीक्षा केंद्रों में वे मार्गदर्शन करते थे. युवा पीएसआई देवांश का वीडियो यूट्यूब पर देखते थे. उन के सैमिनार में युवाओं की भीड़ लग जाती थी. कैरियर के साथसाथ पाटिल के परिवार वाले उन की शादी की तैयारी भी कर रहे थे.

अगले हफ्ते देवांश परिवार के साथ एक जगह लड़की देखने जाने वाले थे. देवांश के हां कहते ही सगाई की रस्म पूरी हो जानी थी. पटवर्धन की बड़ी बेटी जिज्ञासा को पाटिल परिवार ने पसंद किया था. जिज्ञासा 4 साल से पुणे में होस्टल मे रह कर एमबीए की पढ़ाई कर रही थी. पटवर्धन गांव के ही एक कालेज में प्राध्यापक थे. इस तरह से दोनों ही प्रतिष्ठित और संपन्न परिवारों से थे. लड़कालड़की दोनों उच्चशिक्षित होने से एकदूसरे के लिए बेहतर थे, लड़की वालों की तरफ से एक तरह से हां ही थी, सिर्फ देवांश का हामी भरना बाकी था.

देवांश के मामा ही यह रिश्ता खोज कर लाए थे.

‘‘इतनी शिक्षित लड़की किसी अन्य परिचित खानदान में नहीं मिलेगी. जैसा घरपरिवार हमें चाहिए, बिलकुल वैसे ही लोग हैं,’’ मामा ने देवांश की मां को बताया था. जिज्ञासा की भी उन्होंने काफी तारीफ की थी.

बस, तभी से देवांश जिज्ञासा को देखने के लिए बेचैन हुआ जा रहा था.

देखनेदिखाने की रस्म के लिए निर्धारित समय पर पाटिल परिवार पटवर्धन परिवार के घर पहुंच गया. बड़े उत्साह से मेहमानों का स्वागत किया गया. लड़कीदिखाई की रस्म शुरू हुई. जिज्ञासा दुपट्टा संभाले हाथों में चाय की ट्रे लिए हौल में दाखिल हुई, अपने दिल की धड़कनों को थामे देवांश की नजरें ज्यों ही जिज्ञासा पर पड़ीं उस का चेहरा उतर गया. चाय का कप थमाते हुए जिज्ञासा की नजर भी जब देवांश की नजर से टकराई, तो वह भी कांप उठी और घबराहट में अपना चेहरा छिपाने लगी.

दरअसल, पिछले दिनों पुणे की रेव पार्टी में देवांश ने जिन लोगों को पकड़ा था उन में से एक जिज्ञासा भी थी, लेकिन किसी जानेमाने व्यक्ति का फोन आने पर उसे और उस की दोस्त को छोड़ दिया गया था.

‘‘बेटा, हमारी जिज्ञासा पढ़ीलिखी, सर्वगुणसंपन्न है. आप को कुछ पूछना है तो पूछ सकते हो?’’

‘‘अरे पटवर्धन, हमारे सामने ये दोनों क्या बात करेंगे? अकेले में दोनों को बात करने दो,’’ देवांश के मामा ने कहा.

‘‘हां, हां, जरूर. जिज्ञासा, देवांश बाबू को कमरे में ले कर जाओ.’’

जिज्ञासा देवांश के सामने अपनी आंखें नहीं उठा पा रही थी. वह चुपचाप अपने कमरे की तरफ चल पड़ी. वह काफी डरी हुई थी और उसे खुद पर शर्म आ रही थी. उधर देवांश के मन में सवालों की खलबली मची हुई थी, सो वह जिज्ञासा के पीछेपीछे चल पड़ा. जैसे ही देवांश कमरे के अंदर आया, जिज्ञासा ने जल्दी से अंदर से दरवाजा बंद किया और दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

‘‘मुझे ऐसा लगता है कि हमारे बीच बोलने के लिए कुछ खास नहीं है मिस जिज्ञासा. बिना वजह एकदूसरे का समय बरबाद कर के कोई फायदा नहीं है.’’

देवांश जिज्ञासा से क्यों पूछना तो बहुतकुछ चाहता था पर न जाने वह इतना ही बोला. देवांश सोच रहा था कि जिज्ञासा अपनी सफाई में उस से कुछ कहेगी, लेकिन जिज्ञासा सिर नीचे किए चुपचाप खड़ी रही. देवांश से ज्यादा देर तक कमरे में रुका नहीं गया और वह दरवाजा खोल कर बाहर आ गया.

हौल में आते ही देवांश की हां सुनने के लिए सभी लोग आतुर बैठे थे.

‘‘आगे क्या करना है देवांश?’’ देवांश की मां ने पूछा.

‘‘मां, हम घर जा कर बात करेंगे, अभी हमें यहां से चलना चाहिए.’’

‘‘ठीक है, कोई जल्दबाजी नहीं है. शांति से सोचविचार कर निर्णय लें. हमें आप के फोन का इंतजार रहेगा,’’ पटवर्धन ने कहा.

देवांश के जवाब से सभी लोगों को निराशा हुई, उन्हें पूरी उम्मीद थी कि देवांश जिज्ञासा को देखते ही हां कर देगा.

वहां जिज्ञासा देवांश की ना के बाद, उस दिन को कोस रही थी जब उस ने उस रेव पार्टी में जाने की भूल की थी. लेकिन अब यदि देवांश के सामने सारी बात साफ नहीं करती तो जिंदगी की दूसरी भूल करेगी. आखिरकार जिज्ञासा ने स्वयं देवांश से मिलने की योजना बनाई और हिम्मत कर के एक दिन उस के औफिस पुलिस स्टेशन पहुंच गई.

पुलिस स्टेशन में उसे बहुत अटपटा लग रहा था लेकिन देवांश अपने केबिन में कुरसी पर बैठा फाइलें पलटते  नजर आ गया था. जिज्ञासा घबराते हुए उस के सामने जा कर खड़ी हो गई.

देवांश भी एक बारी उसे यों अपने सामने खड़ा देख अचकचा गया.

‘‘मुझे आप से कुछ बात करनी है,’’ जिज्ञासा ने हिम्मत बटोरते हुए कहा.

‘‘बोलो,’’ देवांश ने उसे बैठने का इशारा करते हुए कहा.

जिज्ञासा समझ नहीं पा रही थी कि केबिन में बैठे और लोगों के सामने कैसे बात करे. 2-3 मिनट तक चुपचाप खड़ी रही. देवांश भी कुछ अटपटा सा महसूस कर रहा था.

‘‘हम बाहर बात करें क्या? प्लीज.’’

‘‘ठीक है,’’ देवांश ने भी बाहर जाना मुनासिब समझ.

दोनों बाहर लौन में आ गए.

‘‘आप न जाने मेरे बारे में क्याक्या सोच रहे होंगे, लेकिन यकीन मानिए मैं ने कोई गलत काम नहीं किया है. मैं 4 साल से पुणे में पढ़ाई कर रही हूं. मेरी रूममेट अकसर रेव पार्टी में जाती है. मैं भी जानना चाहती थी कि आखिर इन पार्टियों में होता क्या है? कैसी होती है रेव पार्टी? इसलिए उस दिन उस के साथ चली गई थी, लेकिन उस के पहले तक मैं ने कभी किसी भी तरह की ड्रिंक नहीं की. आप चाहें तो मेरा ब्लड टैस्ट करा सकते हैं.

आप तो पुलिस डिपार्टमैंट में हैं, मेरे बारे में सबकुछ जांच कर सकते हैं. मुझ से गलती हुई है, मैं मानती हूं, लेकिन मैं बुरी लड़की नहीं हूं, इतना ही मुझे कहना था. मेरे परिवार को आप ने इस बारे में कुछ नहीं बताया, इस के लिए मैं आप की बहुत आभारी हूं.’’

जिज्ञासा को उम्मीद थी की देवांश उसे रुकने के लिए कहेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जिज्ञासा भारी मन के साथ घर लौट आई. उस के परिवार वाले उस से देवांश के इनकार का कारण पूछते रहे, लेकिन वह भी अनजान बनी रही. परिवार वालों को इतना अच्छा रिश्ता खो देने का बड़ा अफसोस था.

जिज्ञासा का घर में मन नहीं लग रहा था, इसलिए वह वापस होस्टल लौट गई. एक दिन होस्टल में सारी बातें याद कर सिसकसिसक कर रो रही थी. देवांश उसे एक नजर में भा गया था. अपनी एक भूल के कारण उस ने उसे खो दिया था. उस की यह हालत देख कर उस की दूसरी रूममेट तनया से रहा नहीं गया. उस ने जिज्ञासा से कहा कि वह देवांश से मिल कर पूरी बात साफ करने की कोशिश करेगी.

अगले ही दिन तनया देवांश के औफिस पुलिस स्टेशन गई.

‘‘नमस्कार सर, मैं जिज्ञासा की फ्रैंड हूं. क्या मैं आप से दो मिनट बात कर सकती हूं.’’

‘‘हां, कहिए.’’

‘‘ सर, मैं घुमाफिरा कर बात नहीं करूंगी. बस, इतना पूछना चाहती हूं  कि आप ने जिज्ञासा से शादी के लिए इनकार क्यों किया? मेरा कहना बदतमीजी हो सकता है, लेकिन यह जरूरी है, क्योंकि आप का फैसला गलत है. दोनों परिवार के बड़े लोग यह संबंध जोड़ना चाहते हैं. रही बात जिज्ञासा की रेव पार्टी में जाने की, तो वह उन लड़कियों जैसी नहीं है. हमारी एक रूममेट हर दिन किसी न किसी पार्टी में जाती है. जिज्ञासा एक मध्यवर्गीय परिवार की लड़की है. उस ने यों ही सोचा कि एक बार जा कर देखना चाहिए कि आखिर रेव पार्टी में होता क्या है, जिस के लिए वह आज तक पछता रही है.

‘‘हमारी गलती की वजह से आप ने उस से शादी के लिए ना कर दिया, उस से वह बहुत दुखी है. उस की आंखों से आंसू थम नहीं रहे हैं. वह दिल ही दिल में आप को पसंद करने लगी है. मैं विश्वास के साथ कहती हूं कि एक बहू के रूप में वह आप के परिवार को कभी निराश नहीं करेगी. एक बार फिर से आप ठंडे दिमाग से सोचविचार करें.’’

तनया ने स्पष्ट रूप से अपनी बात कही थी, जो पुलिस स्टेशन में आसपास बैठे सभी लोग सुन रहे थे. तनया के जाने के कुछ समय बाद सीनियर औफिसर देव कुमार देवांश के सामने आ कर बैठ गए. देवांश उन की बहुत इज्जत करता था.

‘‘पूरा मामला क्या है?’’ देव कुमार ने गंभीरता से देवांश से पूछा.

‘‘कुछ नहीं सर,’’ देवांश से कुछ कहते नहीं बना.

‘‘मुझे थोड़ीबहुत जानकारी है. तुम्हारे मांपिता ने मुझ से इस बारे में फोन पर बात की थी. सब से कोई न कोई गलती होती है. इस के अलावा तुम्हारे परिवार ने लड़की के बारे में हर जानकारी ली है. बेवजह तुम मामले को खींच रहे हो. ऐसा मुझे लग रहा है.’’

मेरी बात मानो तो बात की तह तक जाओ. कुछ दिनों पहले वह लड़की तुम से मिलने आई थी, तब मैं ने उसे देखा था. मेरी अनुभवी आंखें कहती हैं कि वह लड़की वाकई शरीफ है. उस से जो कुछ भी हुआ, अनजाने में हुआ.

देव कुमार की बातें सुन देवांश भी अब जिज्ञासा के बारे में एक बार फिर सोचने पर विवश हो गया.

देवांश ने एक बार फिर से जिज्ञासा के बारे में कई लोगों से पूछताछ की, तब जा कर उसे यकीन हुआ कि जिज्ञासा एक संस्कारी लड़की है.

दूसरे दिन वह जिज्ञासा के होस्टल की कैंटीन में जा कर बैठ गया. इत्तफाक की बात थी, जिज्ञासा भी वहीं टेबल पर सिर रख कर बैठी थी. सिर में दर्द होने के कारण वह क्लास अटैंड कर यहां आ गई थी. तनया उसे चाय पीने के लिए फोर्स कर रही थी.

‘‘मुझे नहीं पीनी चाय. मुझे कुछ देर अकेले बैठने दो.’’

देवांश ने देखा, तनया जिज्ञासा के पास से उठ कर किसी और लड़की से बातचीत में मशगूल थी. जिज्ञासा के आसपास कोई नहीं था.

‘‘भाई, 2 चाय देना,’’ कहते हुए देवांश जिज्ञासा की टेबल पर जा कर बैठ गया.

देवांश की आवाज सुन कर जिज्ञासा ने अपना सिर उठाया. वह हैरान रह गई, सकपका कर खड़ी हो गई.

‘‘अरेअरे, खड़ी क्यों हो गई, बैठो. तुम्हीं से बात करने आया हूं.’’

‘‘मैं…मैं…वो,’’ जिज्ञासा को समझ नहीं आया कि क्या कहे.

‘‘जिज्ञासा, मैं स्पष्ट बात करता हूं. तुम से झूठ नहीं कहूंगा, तुम्हारी भोली सूरत, गहरी आंखें मुझे पहली नजर में भा गई थीं. लेकिन क्या करता, वह रेव पार्टी…

‘‘खैर, छोड़ो अब इस बात को. अब जो मैं तुम से बात कहने जा रहा हूं उसे ध्यान से सुनो.

‘‘पहली बात कि मैं एक पुलिस अफसर हूं, इसलिए रोने वाली लड़की मेरी पत्नी नहीं हो सकती है. दूसरी बात, मुझे दोनों वक्त घर का बना खाना चाहिए. ऐसे में कभी भी टिफिन बनाना पड़ सकता है. तीसरी बात, मुझे अपनी पत्नी साड़ी में पसंद है. चौथी बात, वह मेरे मांपिता का मन कभी नहीं दुखाएगी. 5वीं बात, मेरे जीवन में देशसेवा पहले है, इस के बाद परिवार. क्या तुम्हें यह सबकुछ स्वीकार्य है?’’

खुशी के कारण जिज्ञासा को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या बोले. वह शरमा गई और मन ही मन मुसकराने लगी. उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि देवांश उस से यह सब कह रहा है.

‘‘मैं तुम्हारे घर रविवार को सगाई करने आ रहा हूं,’’ चाय पी कर मुसकराते हुए देवांश जिज्ञासा के करीब आया. उस की आंखों में झंकते हुए बोला, ‘‘तुम ने मुझे अभी तक नहीं बताया, मैं तुम्हें पसंद तो हूं न.’’ जिज्ञासा देवांश की शरारती नजरों को समझ गई और शरमा कर देवांश की बांहों में उस ने अपना चेहरा छिपा लिया.

इसमें गलत क्या है : क्या रमा बड़ी बहन को समझा पाई

मेरी छोटी बहन रमा मुझे समझा रही है और मुझे वह अपनी सब से बड़ी दुश्मन लग रही है. यह समझती क्यों नहीं कि मैं अपने बच्चे से कितना प्यार करती हूं.

‘‘मोह उतना ही करना चाहिए जितना सब्जी में नमक. जिस तरह सादी रोटी बेस्वाद लगती है, खाई नहीं जाती उसी तरह मोह के बिना संसार अच्छा नहीं लगता. अगर मोह न होता तो शायद कोई मां अपनी संतान को पाल नहीं पाती. गंदगी, गीले में पड़ा बच्चा मां को क्या किसी तरह का घिनौना एहसास देता है? धोपोंछ कर मां उसे छाती से लगा लेती है कि नहीं. तब जब बच्चा कुछ कर नहीं सकता, न बोल पाता है और न ही कुछ समझा सकता है.

‘‘तुम्हारे मोह की तरह थोड़े न, जब बच्चा अपने परिवार को पालने लायक हो गया है और तुम उस की थाली में एकएक रोटी का हिसाब रख रही हो, तो मुझे कई बार ऐसा भी लगता है जैसे बच्चे का बड़ा होना तुम्हें सुहाया ही नहीं. तुम को अच्छा नहीं लगता जब सुहास अपनेआप पानी ले कर पी लेता है या फ्रिज खोल कर कुछ निकालने लगता है. तुम भागीभागी आती हो, ‘क्या चाहिए बच्चे, मुझे बता तो?’

‘‘क्यों बताए वह तुम्हें? क्या उसे पानी ले कर पीना नहीं आता या बिना तुम्हारी मदद के फल खाना नहीं आएगा? तुम्हें तो उसे यह कहना चाहिए कि वह एक गिलास पानी तुम्हें भी पिला दे और सेब निकाल कर काटे. मौसी आई हैं, उन्हें भी खिलाए और खुद भी खाए. क्या हो जाएगा अगर वह स्वयं कुछ कर लेगा, क्या उसे अपना काम करना आना नहीं चाहिए? तुम क्यों चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा अपाहिज बन कर जिए? जराजरा सी बात के लिए तुम्हारा मुंह देखे? क्यों तुम्हारा मन दुखी होता है जब बच्चा खुद से कुछ करता है? उस की पत्नी करती है तो भी तुम नहीं चाहतीं कि वह करे.’’

‘‘तो क्या हमारे बच्चे बिना प्यार के पल गए? रातरात भर जाग कर हम ने क्या बच्चों की सेवा नहीं की? वह सेवा उस पल की जरूरत थी इस पल की नहीं. प्यार को प्यार ही रहने दो, अपने गले की फांसी मत बना लो, जिस का दूसरा सिरा बच्चे के गले में पड़ा है. इधर तुम्हारा फंदा कसता है उधर तुम्हारे बच्चे का भी दम घुटता है.’’

‘‘सुहास ने तुम से कुछ कहा है क्या? क्या उसे मेरा प्यार सुहाता नहीं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं, दीदी, वह ऐसा क्यों कहेगा. तुम बात को समझना तो चाहती नहीं हो, इधरउधर के पचड़े में पड़ने लगती हो. उस ने कुछ नहीं कहा. मैं जो देख रही हूं उसी आधार पर कह रही हूं. कल तुम भावना से किस बात पर उलझ रही थीं, याद है तुम्हें?’’

‘‘मैं कब उलझी? उस ने तेरे आने पर इतनी मेहनत से कितना सारा खाना बनाया. कम से कम एक बार मुझ से पूछ तो लेती कि क्या बनाना है.’’

‘‘क्यों पूछ लेती? क्या जराजरा सी बात तुम से पूछना जरूरी है? अरे, वही

4-5 दालें हैं और वही 4-6 मौसम की सब्जियां. यह सब्जी न बनी, वह बन गई, दाल में टमाटर का तड़का न लगाया, प्याज और जीरे का लगा लिया. भिंडी लंबी न काटी गोल काट ली. मेज पर नई शक्ल की सब्जी आई तो तुम ने झट से नाकभौं सिकोड़ लीं कि भिंडी की जगह परवल क्यों नहीं बनाए. गुलाबी डिनर सैट क्यों निकाला, सफेद क्यों नहीं. और तो और, मेजपोश और टेबल मैट्स पर भी तुम ने उसे टोका, मेरे ही सामने. कम से कम मेरा तो लिहाज करतीं. वह बच्ची नहीं है जिसे तुम ने इतना सब बिना वजह सुनाया.

‘‘सच तो यह है, इतनी सुंदर सजी मेज देख कर तुम से बरदाश्त ही नहीं हुआ. तुम से सहा ही नहीं गया कि तुम्हारे सामने किसी ने इतना अच्छा खाना सजा दिया. तुम्हें तो प्रकृति का शुक्रगुजार होना चाहिए कि बैठेबिठाए इतना अच्छा खाना मिल जाता है. क्या सारी उम्र काम करकर के तुम थक नहीं गईं? अभी भी हड्डियों में इतना दम है क्या, जो सब कर पाओ? एक तरफ तो कहती हो तुम से काम नहीं होता, दूसरी तरफ किसी का किया तुम से सहा नहीं जाता. आखिर चाहती क्या हो तुम?

‘‘तुम तो अपनी ही दुश्मन आप बन रही हो. क्या कमी है तुम्हारे घर में? आज्ञाकारी बेटा है, समझदार बहू है. कितनी कुशलता से सारा घर संभाल रही है. तुम्हारे नातेरिश्तेदारों का भी पूरा खयाल रखती है न. कल सारा दिन वह मेरे ही आगेपीछे डोलती रही. ‘मौसी यह, मौसी वह,’ मैं ने उसे एक पल के लिए भी आराम करते नहीं देखा और तुम ने रात मेज पर उस की सारे दिन की खुशी पर पानी फेर दिया, सिर्फ यह कह कर कि…’’

चुप हो गई रमा लेकिन भन्नाती रही देर तक. कुछ बड़बड़ भी करती रही. थोड़ी देर बाद रमा फिर बोलने लगी, ‘‘तुम क्यों बच्चों की जरूरत बन कर जीना चाहती हो? ठाट से क्यों नहीं रहती हो. यह घर तुम्हारा है और तुम मालकिन हो. बच्चों से थोड़ी सी दूरी रखना सीखो. बेटा बाहर से आया है तो जाने दो न उस की पत्नी को पानी ले कर. चायनाश्ता कराने दो. यह उस की गृहस्थी है. उसी को उस में रमने दो. बहू को तरहतरह के व्यंजन बनाने का शौक है तो करने दो उसे तजरबे, तुम बैठी बस खाओ. पसंद न भी आए तो भी तारीफ करो,’’ कह कर रमा ने मेरा हाथ पकड़ा.

‘‘सब गुड़गोबर कर दे तो भी तारीफ करूं,’’ हाथ खींच लिया था मैं ने.

‘‘जब वह खुद खाएगी तब क्या उसे पता नहीं चलेगा कि गुड़ का गोबर हुआ है या नहीं. अच्छा नहीं बनेगा तो अपनेआप सुधारेगी न. यह उस के पति का घर है और इस घर में एक कोना उसे ऐसा जरूर मिलना चाहिए जहां वह खुल कर जी सके, मनचाहा कर सके.’’

‘‘क्या मनचाहा करने दूं, लगाम खींच कर नहीं रखूंगी तो मेरी क्या औकात रह जाएगी घर में. अपनी मरजी ही करती रहेगी तो मेरे हाथ में क्या रहेगा?’’

‘‘अपने हाथ में क्या चाहिए तुम्हें, जरा समझाओ? बच्चों का खानापीना या ओढ़नाबिछाना? भावना पढ़ीलिखी, समझदार लड़की है. घर संभालती है, तुम्हारी देखभाल करती है. तुम जिस तरह बातबात पर तुनकती हो उस पर भी वह कुछ कहती नहीं. क्या सब तुम्हारे अधिकार में नहीं है? कैसा अधिकार चाहिए तुम्हें, समझाओ न?

‘‘तुम्हारी उम्र 55 साल हो गई. तुम ने इतने साल यह घर अपनी मरजी से संभाला. किसी ने रोका तो नहीं न. अब बहू आई है तो उसे भी अपनी मरजी करने दो न. और ऐसी क्या मरजी करती है वह? अगर घर को नए तरीके से सजा लेगी तो तुम्हारा अधिकार छिन जाएगा? सोफा इधर नहीं, उधर कर लेगी, नीले परदे न लगाए लाल लगा लेगी, कुशन सूती नहीं रेशमी ले आएगी, तो क्या? तुम से तो कुछ मांगेगी नहीं न?

‘‘इसी से तुम्हें लगता है तुम्हारा अधिकार हाथ से निकल गया. कस कर अपने बेटे को ही पकड़ रही हो…उस का खानापीना, उस का कुछ भी करना… अपनी ममता को इतना तंग और संकुचित मत होने दो, दीदी, कि बेटे का दम ही घुट जाए. तुम तो दोनों की मां हो न. इतनी तंगदिल मत बनो कि बच्चे तुम्हारी ममता का पिंजरा तोड़ कर उड़ जाएं. बहू तुम्हारी प्रतिद्वंद्वी नहीं है. तुम्हारी बच्ची है. बड़ी हो तुम. बड़ों की तरह व्यवहार करो. तुम तो बहू के साथ किसी स्पर्धा में लग रही हो. जैसे दौड़दौड़ कर मुकाबला कर रही हो कि देखो, भला कौन जीतता है, तुम या मैं.

‘‘बातबात में उसे कोसो मत वरना अपना हाथ खींच लेगी वह. अपना चाहा भी नहीं करेगी. तुम से होगा नहीं. अच्छाभला घर बिगड़ जाएगा. फिर मत कहना, बहू घर नहीं देखती. वह नौकरानी तो है नहीं जो मात्र तुम्हारा हुक्म बजाती रहेगी. यह उस का भी घर है. तुम्हीं बताओ, अगर उसे अपना घर इस घर में न मिला तो क्या कहीं और अपना घर ढूंढ़ने का प्रयास नहीं करेगी वह? संभल जाओ, दीदी…’’

रमा शुरू से दोटूक ही बात करती आई है. मैं जानती हूं वह गलत नहीं कह रही मगर मैं अपने मन का क्या करूं. घर के चप्पेचप्पे पर, हर चीज पर मेरी ही छाप रही है आज तक. मेरी ही पसंद रही है घर के हर कोने पर. कौन सी चादर, कौन सा कालीन, कौन सा मेजपोश, कौन सा डिनर सैट, कौन सी दालसब्जी, कौन सा मीठा…मेरा घर, मैं ने कभी किसी के साथ इसे बांटा नहीं. यहां तक कि कोने में पड़ी मेज पर पड़ा महंगा ‘बाऊल’ भी जरा सा अपनी जगह से हिलता है तो मुझे पता चल जाता है. ऐसी परिस्थिति में एक जीताजागता इंसान मेरी हर चीज पर अपना ही रंग चढ़ा दे, तो मैं कैसे सहूं?

‘‘भावना का घर कहां है, दीदी, जरा मुझे समझाओ? तुम्हें जब मां ने ब्याह कर विदा किया था तब यही समझाया था न कि तुम्हारी ससुराल ही तुम्हारा घर है. मायका पराया घर और ससुराल अपना. इस घर को तुम ने भी मन से अपनाया और अपने ही रंग में रंग भी लिया. तुम्हारी सास तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकती थीं. तुम गुणी थीं और तुम्हारे गुणों का पूरापूरा मानसम्मान भी किया गया. सच पूछो तो गुणों का मान किया जाए तभी तो गुण गुण हुए न. तुम्हारी सास ने तुम्हारी हर कला का आदर किया तभी तो तुम कलावंती, गुणवंती हुईं.

वे ही तुम्हारी कीमत न जानतीं तो तुम्हारा हर गुण क्या कचरे के ढेर में नहीं समा जाता? तुम्हें घर दिया गया तभी तो तुम घरवाली हुई थीं. अब तुम भी अपनी बहू को उस का घर दो ताकि वह भी अपने गुणों से घर को सजा सके.’’

रमा मुझे उस रात समझाती रही और उस के बाद जाने कितने साल समझाती रही. मैं समझ नहीं पाई. मैं समझना भी नहीं चाहती. शायद, मुझे प्रकृति ने ऐसा ही बनाया है कि अपने सिवा मुझे कोई भी पसंद नहीं. अपने सिवा मुझे न किसी की खुशी से कुछ लेनादेना है और न ही किसी के मानसम्मान से. पता नहीं क्यों हूं मैं ऐसी. पराया खून अपना ही नहीं पाती और यह शाश्वत सत्य है कि बहू का खून होता ही पराया है.

आज रमा फिर से आई है. लगभग 9 साल बाद. उस की खोजी नजरों से कुछ भी छिपा नहीं. भावना ने चायनाश्ता परोसा, खाना भी परोसा मगर पहले जैसा कुछ नहीं लगा रमा को. भावना अनमनी सी रही.

‘‘रात खाने में क्या बनाना है?’’ भावना बोली, ‘‘अभी बता दीजिए. शाम को मुझे किट्टी पार्टी में जाना है देर हो जाएगी. इसलिए अभी तैयारी कर लेती हूं.’’

‘‘आज किट्टी रहने दो. रमा क्या सोचेगी,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप तो हैं ही, मेरी क्या जरूरत है. समय पर खाना मिल जाएगा.’’

बदतमीज भी लगी मुझे भावना इस बार. पिछली बार रमा से जिस तरह घुलमिल गई थी, इस बार वैसा कुछ नहीं लगा. अच्छा ही है. मैं चाहती भी नहीं कि मेरे रिश्तेदारों से भावना कोई मेलजोल रखे.

मेरा सारा घर गंदगी से भरा है. ड्राइंगरूम गंदा, रसोई गंदी, आंगन गंदा. यहां तक कि मेरा कमरा भी गंदा. तकियों में से सीलन की बदबू आ रही है. मैं ने भावना से कहा था, उस ने बदले नहीं. शर्म आ रही है मुझे रमा से. कहां बिठाऊं इसे. हर तरफ तो जाले लटक रहे हैं. मेज पर मिट्टी है. कल की बरसात का पानी भी बरामदे में भरा है और भावना को घर से भागने की पड़ी है.

‘‘घर वही है मगर घर में जैसे खुशियां नहीं बसतीं. पेट भरना ही प्रश्न नहीं होता. पेट से हो कर दिल तक जाने वाला रास्ता कहीं नजर नहीं आता, दीदी. मैं ने समझाया था न, अपनेआप को बदलो,’’ आखिरकार कह ही दिया रमा ने.

‘‘तो क्या जाले, मिट्टी साफ करना मेरा काम है?’’

‘‘ये जाले तुम ने खुद लगाए हैं, दीदी. उस का मन ही मर चुका है, उस की इच्छा ही नहीं होती होगी अब. यह घर उस का थोड़े ही है जिस में वह अपनी जानमारी करे. सच पूछो तो उस का घर कहीं नहीं है. बेटा तुम से बंधा कहीं जा नहीं सकता और अपना घर तुम ने बहू को कभी दिया नहीं.

‘‘मैं ने समझाया था न, एक दिन तुम्हारा घर बिगड़ जाएगा. आज तुम से होता नहीं और वह अपना चाहा भी नहीं करती. मनमन की बात है न. तुम अपने मन का करती रहीं, वह अपने मन का करती रही. यही तो होना था, दीदी. मुझे यही डर था और यही हो रहा है. मैं ने समझाया था न.’’

रमा के चेहरे पर पीड़ा है और मैं यही सोच कर परेशान हूं कि मैं ने गलती कहां की है. अपना घर ही तो कस कर पकड़ा है. आखिर इस में गलत क्या है?

पांव पड़ी जंजीर

सुबह दाढ़ी बनाते समय अचानक  बिजली चली गई. नीरज ने जोर  से आवाज दे कर कहा, ‘‘रितु, बिजली चली गई, जरा मोमबत्ती ले कर आना.’’

‘‘मैं मुन्ने का दूध गरम कर रही हूं,’’ रितु ने कहा, ‘‘एक मिनट में आती हूं.’’

तब तक नीरज आधी दाढ़ी बनाए ही भागे चले आए और गुस्से से बोले, ‘‘कई दिनों से देख रहा हूं कि तुम मेरी बातों को सुन कर भी अनसुनी कर देती हो.’’

खैर, उस समय तो रितु ने नीरज को मोमबत्ती दे दी थी लेकिन नाश्ता परोसते समय वह उस से बोली, ‘‘आप तो ऐसे न थे. बातबात पर गुस्सा करने लग जाते हो. मेरी मजबूरी भी तो समझो. सुबह से ले कर देर रात तक घर और बाहर के कामों में चरखी की तरह लगी रहती हूं. रात होतेहोते तो मेरी कमर ही टूट जाती है.’’

‘‘मैं क्या करूं अब,’’ नीरज ठंडी सांस लेते हुए बोले, ‘‘समय पर आफिस नहीं पहुंचो तो बड़े साहब की डांट सुनो.’’

फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘लगता है, इस बार इनवर्टर लेना ही पड़ेगा.’’

‘‘इनवर्टर,’’ रितु ने मुंह बना कर कहा, ‘‘पता भी है कि उस की कीमत कितनी है. कम से कम 7-8 हजार रुपए तो चाहिए ही. कोई लोन मिल रहा है क्या?’’

‘‘लोन की बात कर क्यों मेरा मजाक उड़ा रही हो. तुम्हें तो पता ही है कि पिछला लोन पूरा करने में ही मेरे पसीने छूट गए थे. मैं तो सोच रहा था कि तुम अपने पापा से बात कर लो….उधार ही तो मांग रहा हूं.’’

‘‘क्याक्या उधार मांगूं?’’ रितु तल्ख हो गई, ‘‘गैस, टेलीफोन, सोफा, दीवान और भी न जाने क्याक्या. सब उधार के नाम पर ही तो आया है. अब और यह सबकुछ मुझ से नहीं होगा.’’

‘‘क्यों, क्या मुझ में उधार चुकाने की सामर्थ्य नहीं है?’’ नीरज बोेले, ‘‘इतने ताने मत दो. आखिर, जो हुआ उस में कहीं न कहीं तो तुम्हारी भी सहमति थी.

‘‘मेरी सहमति,’’ रितु फैल गई, ‘‘मैं जिस प्रकार तुम्हें निभा रही हूं मैं ही जानती हूं.’’

‘‘तो ठीक है, निभाओ अब, कह क्यों रही हो,’’ नीरज गुस्से से उठते हुए बोले.

‘‘मैं तो निभा ही रही हूं. इतना ही गरूर था तो बसाबसाया घर क्यों छोड़ कर आ गए. तब तो बड़ी शान से कहते थे कि मैं अपना अलग घर ले कर रहूंगा. कोई मोहताज तो नहीं किसी का. और अब…मैं पापा से कुछ नहीं मांगूंगी,’’ रितु गुस्से से कहती गई.

‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई तुम से कुछ कह कर,’’ नीरज कोट पहनते हुए बोले, ‘‘अब तक यह घर चला ही रहा हूं, आगे भी चलाऊंगा. कोई भूखे तो नहीं मर रहे.’’

आज सुबहसुबह ही मूड खराब हो गया. अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी का यही हश्र होता है. आएदिन किसी न किसी बात पर हमारी अनबन रहती है और फिर न समाप्त होने वाला समझौता. आज स्कूल जाने का रहासहा मूड भी जाता रहा सो गुमसुम सी पड़ी रही. मन में छिपी परतों से बीते पल चलचित्र की तरह एकएक कर सामने आने लगे.

अपना नया नियुक्तिपत्र ले कर आफिस में प्रवेश किया तो मैं पूरी तरह घबराई हुई थी. इतना बड़ा आफिस. सभी लोग चलतेफिरते रोबोट की तरह अपने में व्यस्त. एक कोने में मुझे खड़ा देख कर एक स्मार्ट से लड़के ने पूछा, ‘आप को किस से मिलना है?’

बिना कुछ बोले मैं ने अपना नियुक्तिपत्र उस की ओर बढ़ाया था.

‘ओह, तो आप को इस दफ्तर में आज ज्वाइन करना है,’ कहते हुए वह लड़का मुझे एक केबिन में ले गया और एक कुरसी पर बैठाते हुए बोला, ‘आप यहां बैठिए, मेहताजी आप के बौस हैं. वह आएंगे तो आप के काम और बैठने की व्यवस्था करेंगे.’

मैं इंतजार करने लगी. थोड़ी देर बाद वह लड़का फिर आया और कहने लगा, ‘सौरी, मैडम, मेहताजी आज थोड़ी देर में आएंगे. आप चाहें तो नीचे रिसेप्शन पर इंतजार कर सकती हैं. कुछ चाय वगैरह लेंगी?’

मुझे इस समय चाय की सख्त जरूरत थी किंतु औपचारिकतावश मना कर दिया.

‘आर यू श्योर,’ उस ने चेहरे पर मुसकराहट बिखेर कर पूछा तो इस बार मैं मना न कर सकी.

‘अच्छा, मैं अभी भिजवाता हूं,’ फिर अपना परिचय देते हुए बोला, ‘मेरा नाम नीरज है और मैं सामने के हाल में उस तरफ बैठता हूं. यहां सेल्स एग्जीक्यूटिव हूं.’

नीरज मुझे बेहद सहायक और मधुर से लगे. बस, फिर तो क्रम ही बन गया. हर रोज सुबह नीरज मुझ से मिलने आ जाते या कभी मैं ही चली जाती. इस तरह सुबह की गुडमार्निंग कब और कहां अनौपचारिक ‘हाय’ में बदल गई पता ही न चला.

नीरज का मधुर स्वभाव मुझे अपनी ओर अनायास ही खींचता चला गया. अंतत: इस खिंचाव ने प्रगति मैदान जा कर ही दम लिया. हम दोनों प्राय: इसी मैदान में आते और हाथों में हाथ डाले शकुंतलम थिएटर की फिल्में देखते.

एक दिन मैं ने नीरज से कहा, ‘अब बहुत हो चुकी डेटिंग, नीरज. अब शादी के लिए गंभीर हो जाओ. कहीं किसी ने यों ही देख लिया तो आफत आ जाएगी. आफिस का स्टाफ तो पहले से ही शक करता है.’

‘गंभीर क्या हो जाऊं,’ वह मेरी लटों को संभालते हुए बोले, ‘यही तो दिन हैं घूमने के. फिर ये कभी हाथ नहीं आएंगे. पर तुम शादी के लिए इतनी उत्सुक क्यों हो रही हो? क्या रात में नींद नहीं आती? इतना कह कर नीरज ने मेरा हाथ जोर से दबा दिया. उन का स्पर्श मुझे अभिभूत कर गया. लजा कर रह गई थी मैं. थोड़ी देर के लिए सपनों की दुनिया में चली गई थी. समय का आभास होते ही मैं ने पूछा, ‘क्या सोचा तुम ने?’

‘मुझे क्या सोचना है,’ नीरज थोड़ा चिंतित हो कर बोले, ‘मैं तो तुम्हारे साथ ही शादी करूंगा, पर…’

‘पर क्या?’ उन के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए मैं ने पूछा.

‘मां को मनाने में थोड़ा समय लगेगा. दरअसल, उन्होंने एकदम सीधीसादी सलवारकमीज वाली धार्मिक लड़की की कल्पना की है, जो हमारे घर के पास रह रही है. किंतु वह लड़की मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती.’

‘फिर क्या होगा?’ मैं ने गंभीर होते हुए पूछा.

‘होगा वही जो मैं चाहूंगा. आखिर रखना तो मुझे है न. तुम चिंता न करो. समय देख कर किसी दिन मां से बात करूंगा, पर डरता हूं, कहीं वे मना न कर दें.’

एक दिन शाम को नीरज अपनी मां से मिलवाने के लिए मुझे ले गए. मेरी नानुकुर नीरज के सामने ज्यादा न चल सकी. कहने लगे, ‘मां को अपनी पसंद भी बता दूं क्योंकि सीधा कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती है. तुम्हें मेरे साथ देख कर शायद बातचीत का कोई रास्ता निकल आए.’

नीरज ने थोड़े शब्दों में मेरा परिचय दिया. मां की अनुभवी नजरों से कुछ भी छिपा न रह सका.

नीरज की जिद और इच्छा को देखते हुए मां ने बेमन से शादी के लिए हां तो कह दी किंतु जिस तरह दुलहन को इस घर में आना चाहिए था वह सारी रस्में फीकी पड़ गईं. मेरी सारी सजने- संवरने की आशाएं धरी की धरी रह गईं. मां ने कोई खास उत्सुकता नहीं दिखाई क्योंकि शादी उन की मरजी के खिलाफ जो हुई थी.

कुछ दिन तो हंसीखेल में बीत गए पर हमारा देर रात तक घूमना और बाहर खा कर आना ज्यादा दिन तक न चल सका. मां ने एक दिन नाश्ते पर कह दिया कि हम से देर रात तक इंतजार नहीं किया जाता. समय पर घर आ जाया करो. फिर घर की तरफ बहू को थोड़ा ध्यान देना चाहिए.

इस पर नीरज तुनक कर बोले, ‘मां, इस के लिए तो सारी उम्र पड़ी है. हम दूसरी चाबी ले कर चले जाया करेंगे आप सो जाया करो, क्योंकि पार्टी में दोस्तों के साथ देर तो हो ही जाती है.’

मेरे मन में न जाने क्यों शांत स्वभाव वाले मां और बाबूजी के प्रति सहानुभूति उभर आई. बोली, ‘मां ठीक कहती हैं, नीरज. हम समय पर घर आ जाएंगे. अपनी पार्टियां अब हम वीकेंड्स में रख लेंगे.’

मांजी के व्यवहार में आई सख्ती को मैं कम करना चाहती थी. इस के लिए अपनी एक हफ्ते की छुट्टी और बढ़ा ली ताकि मांजी के व्यवहार को समझ सकूं.

एक दिन नीरज शाम को मुसकराते हुए आए और कहने लगे, ‘रितु, सब लोग तुम्हें बहुत याद करते हैं. देखना चाहते हैं कि तुम शादी के बाद कैसी लगती हो.’

मैं खिलखिला कर हंस पड़ी. मुझे आफिस का एकएक चेहरा याद आने लगा. मैं ने कहा, ‘ठीक है, कुछ दिनों की ही तो बात है. अगले सोमवार से तो आफिस जा ही रही हूं?’

‘‘मांजी पास में बैठी चाय पी रही थीं. बड़े शांत स्वर में बोलीं, ‘बेटा, हमारे घरों में शादी के बाद नौकरी करने की रीति नहीं है. बहू को बहू की तरह ही रहना चाहिए, यही अच्छा लगता है. आगे जैसा तुम को ठीक लगे, करो.’

मां का यह स्वर मुझे भीतर तक हिला कर रख गया था. उन के यह बोल अनुभव जन्य थे. जोर से डांटडपट कर कहतीं तो शायद मैं प्रतिकार भी करती. मुझे मां का इस तरह कहना अच्छा भी लगा और उन का सामीप्य पाने का रास्ता भी.

नीरज फट से बोल पड़े थे, ‘मां, आजकल दोनों मिल कर कमाएं तभी तो घर ठीक से चलता है. फिर यह तो अकेली यहां बोर हो जाएगी.’

‘क्यों? क्या कमी है यहां जो दोनों को काम करने की आवश्यकता पड़ रही है. भरापूरा घर है. तेरे बाबूजी भी अच्छा कमाते हैं. सबकुछ ठीक चल रहा है. हम कौन सा तुम से कुछ मांग रहे हैं,’ मांजी का स्वर तेज हो गया, ‘फिर भी तू बहू से काम करवाना चाहता है तो तेरी मरजी.’

मैं खामोश ही रही. पर इस तरह नीरज का बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा था. भीतर जा कर मैं ने नीरज से कहा, ‘नौकरी मुझे करनी है. मांजी को अच्छा नहीं लगता तो मैं नहीं जाऊंगी. बस.’

‘नहीं, तुम नौकरी करने जरूर जाओगी. मैं ने जो कह दिया सो कह दिया,’ नीरज ने कठोर स्वर में कहा.

मन के झंझावात में मैं अंतत: कोई निर्णय नहीं ले पाई. मैं ने हार कर मां से पूछा, ‘मैं क्या करूं, मां?’

‘जो नीरज कहता है वही कर,’ मां ने सीधासपाट सा उत्तर दिया.

उस दिन काम पर तो चली गई किंतु मां के मूक आचरण से एहसास हो गया था कि उन को यह सब ठीक नहीं लगा.

मैं, मां और बाबूजी को खुश करने के लिए हरसंभव प्रयास करती रही. नीरज को भी समझाया कि यह सब उन को ठीक नहीं लगता पर उन के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया. क्या पता था कि ऊपर से इतने मृदुभाषी और हंसमुख इनसान अंदर से इतने अस्वाभाविक और सख्त हो सकते हैं.

इस प्रपंच से जल्दी ही मुझे मुक्ति मिल गई. मेरा पांव भारी हो गया और आफिस न जाने का बहाना मिल गया. इस में मां ने मेरी तरफदारी की तो अच्छा लगा.

मुन्ना के होने के बाद तो मांबाबूजी के स्वभाव में पहले से कहीं ज्यादा बदलाव आ गया. आफिस के साथियों ने पार्टी की जिद पकड़ ली तो मैं ने नीरज को कहा कि पार्टी घर पर ही रख लेते हैं. किसी होटल या रेस्तरां में पार्टी करेंगे तो बहुत महंगा पड़ेगा. फिर मां और बाबूजी को भी अच्छा लगेगा. नीरज भी बजट को देखते हुए कुछ नहीं बोले.

सारा दिन मैं घर संवारने में लगी रही. मां को घर में आ रहे इस बदलाव से अच्छा लगने लगा था. सारे सामान का आर्डर पास ही के रेस्तरां में दे दिया था.

‘मांजी कहां हैं,’ मेरी एक आफिस की सहेली ने पूछ लिया. मैं मां को बुलाने उन के कमरे में गई तो मां हंस कर बोलीं, ‘मैं वहां जा कर क्या करूंगी. बच्चों की पार्टी है, तुम लोग मौजमस्ती करो.’

‘नहीं, मां, आप वहां जरूर चलो. बस, मिल कर आ जाना…अच्छा लगता है,’ मैं ने स्नेहवश मां को कहा तो मेरा दिल रखने के लिए उन्होंने कह दिया, ‘अच्छा, तुम चलो, मैं तैयार हो कर आती हूं.’

मैं मुन्ने को ले कर ड्राइंगरूम में आ गई. मांबाबूजी अभी ड्रांइगरूम में आए ही थे कि दरवाजे की घंटी बजी. बाबूजी दरवाजे की तरफ जाने लगे तो मैं ने नीरज को इशारा किया.

‘बाबूजी, आप बैठिए. मैं जा रहा हूं. बाजार से खाना मंगवाया है, वही होगा.’

‘अरे, कोई बात नहीं,’ बाबूजी बोले.

‘नहीं, बाबूजी,’ नीरज थोड़ी तेज आवाज में बोले, ‘इसे हाथ न लगाना. इस में चिकन है. बाजार से दोस्तों के लिए मंगवाया है.’

‘नानवैज?’

मां और बाबूजी बिना किसी से मिले चुपचाप अपने कमरे में चले गए. मैं नीरज के साथ उन के पीछेपीछे कमरे तक गई तो देखा, मांजी माथा पकड़ कर एक तरफ पसर कर बैठी कह रही थीं, ‘अब यही दिन देखना रह गया था. जिस घर में अंडा, प्याज और लहसुन तक नहीं आया चिकन आ रहा है.’

‘मां, हम लोग तो खाते नहीं. बस, दोस्तों के लिए मंगवाया था. मैं ने घर पर तो नहीं बनवाया,’ नीरज ने सफाई देते हुए कहा.

मेरा चेहरा पीला पड़ गया था.

‘तुम लोग भी खा लो, रोका किस ने है…मैं क्या जानती नहीं कि तुम लोग बाहर जा कर क्या खाते हो…और अब यह घर पर भी….’ मां सुबक पड़ीं, ‘मेरा सारा घर अपवित्र कर दिया तू ने. मैं अब इस घर में एक पल भी नहीं रहूंगी.’

‘नहीं, मां, तुम क्यों जाती हो, हम ही चले जाते हैं. हमारी तो सारी खुशियां ही छीनी जा रही हैं. मैं ही अलग घर ले कर रह लेता हूं, कहते हुए नीरज बाहर चले गए.

सुबह नाश्ते पर बैठते ही नीरज ने कहा, ‘मां, कल रात के लिए मैं माफी मांगता हूं किंतु मैं ने अलग रहने का फैसला ले लिया है.’

‘नीरज,’ मैं चौंक कर बोली, ‘आप क्या कह रहे हो, आप को पता भी है.’

‘तुम बीच में मत बोलो, रितु,’ वह एकाएक उत्तेजित और असंयत हो उठे. मैं सहम गई. वह बोलते रहे, ‘अच्छा कमाताखाता हूं, अलग रह सकता हूं… अब यही एक रास्ता रह गया है. आप को हमारे देर से आने में परेशानी होती है. यह करो वह न करो, कितने समझौते करने पड़ रहे हैं. मेरा अपना कोई जीवन ही नहीं रहा.’

‘ठीक है, बेटा, जैसा तुम को अच्छा लगे, करो. हम ने तो अपना जीवन जैसेतैसे काट दिया. किंतु इस घर के नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता. मन के संस्कार हमें संयत रखते हैं. खेद है, तुम में ठीक से वह संस्कार नहीं पड़ सके. तुम चाहते हो कि तुम्हारे मिलनेजुलने वाले यहां आएं, हुड़दंग मचाएं, खुल कर शराब पीएं और जुआ खेलें…इस घर को मौजमस्ती का अड्डा बनाएं…’ बाबूजी पहली बार तेज आवाज में अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. कहतेकहते बाबूजी की आंखें भर आईं.

मेरे बहुत समझाने के बाद भी नीरज ने अलग घर ले कर ही दम लिया. 2-3 महीने तो घर को व्यवस्थित करने में लग गए पर जब घर का बजट हिलने लगा तो पास के एक स्कूल में मुझे भी नौकरी करनी पड़ी. मुन्ने की आया और के्रच के खर्चे बढ़ गए. असुविधाएं, अभाव और आधीअधूरी आशाओं के सामने प्यार ने दम तोड़ दिया. कभी सोचा भी न था कि मुझ पर दुनिया की जिम्मेदारियां पड़ेंगी. मुन्ने के किसी बात पर मचलते ही मैं अतीत से वर्तमान में आ गई.

एक दिन सुबह कपड़े धोतेधोते पानी आना बंद हो गया. मैं ने उठ कर नीरज से कहा कि सामने के हैंडपंप से पानी ला दो.

‘‘सौरी, यह मुझ से नहीं होगा,’’ उन्होंने साफ मना कर दिया.

‘‘तो फिर वाशिंग मशीन ला दो, कुछ काम तो आसान हो जाएगा,’’ मैं ने उठते हुए कहा.

‘‘मैं कहां से ला दूं,’’ बड़बड़ाते हुए नीरज बोले, ‘‘तुम भी तो कमाती हो. खुद ही खरीद लो.’’

‘‘मेरी तनख्वाह क्या तुम से छिपी है. सबकुछ तो तुम्हारे सामने है. जितना कमाती हूं उस का आधा तो क्रेच और आया में चला जाता है. आनेजाने और खुद का खर्च निकाल कर बड़ी मुश्किल से हजार भी नहीं बच पाता.’’

‘‘कमाल है,’’ नीरज नरम होते हुए बोले, ‘‘तो फिर यह सब पहले मां के घर पर कैसे चलता था.’’

‘‘वहां काम करने वाली आया थी. बाबूजी का सहारा था. कोई किराया भी नहीं देना पड़ता था और उन सब से ऊपर मांजी की सुलझी हुई नजर. वह घर जो सुचारु रूप से चल रहा था उस के पीछे सार्थक श्रम और निस्वार्थ समर्पण था. पर यह सब तुम्हारी समझ में नहीं आएगा क्योंकि सहज से प्राप्त हुई वस्तु का कोई मोल नहीं होता,’’ मैं ने झट से बालटी उठाई और पानी लेने चली गई.

पानी ले कर वापस आई तो नीरज वहीं गुमसुम बैठे थे. उन के चेहरे के बदलते रंग को देखते हुए मैं ने कहा, ‘‘क्या सोचने लगे.’’

‘‘चलो, मां से मिल आते हैं,’’ उन की आंखें नम हो गईं.

अभावों में पलीबढ़ी जिंदगी ने वे सारे सुख भुला दिए जिन के लिए नीरज ने घर छोड़ा था. चिकनआमलेट तो छोड़ उन का दोस्तों के साथ आनाजाना भी कम होता गया. मांजी कभीकभी मिलने चली आतीं और शाम तक लौट जातीं. बस, बंटी हुई जिंदगी जी रही थी मैं.

एक दिन बाबूजी का फोन आया. बोले, ‘‘2 दिन के लिए लंदन वाले चाचा आए हैं. खाना रखा है तुम्हारी मां ने….ठीक समय से पहुंच जाना.’’

‘‘ठीक है, बाबूजी, मैं पूरी कोशिश करूंगी,’’ मैं ने औपचारिकतावश कह दिया.

‘‘कोशिश,’’ वे थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘क्यों, कहीं जाना है क्या?’’

‘‘नहीं, बाबूजी,’’ मैं सुबक पड़ी. मेरे सारे शब्द बर्फ बन कर गले में अटक गए. मैं ने आंसू पोंछ कर कहा, ‘‘हफ्ते भर से इन की तबीयत ठीक नहीं है. दस्त और उलटियां लगी हुई हैं. डाक्टर की दवा से भी आराम नहीं आया.’’

‘‘अरे, तो हमें फोन क्यों नहीं किया?’’

‘‘मना किया था इन्होंने,’’ मैं बोली.

‘‘नालायक,’’ बाबूजी भारीभरकम आवाज में बोले, ‘‘चिंता न करो, मैं अभी आता हूं.’’

थोड़ी देर में मां और बाबूजी भी पहुंच गए. नीरज एक तरफ सिमट कर पड़े हुए थे. मां को देखते ही उन की रुलाई फूट पड़ी. बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अरे, किसी से कहलवा दिया होता. देख तो क्या हालत बना रखी है. थोड़ा सा भी उलटासीधा खा लेता है तो हजम नहीं होता.’’

बाबूजी भी पास ही बैठे रहे. मैं चाय बना कर ले आई.

मांजी बोलीं, ‘‘चल, घर चल, अब बहुत हो चुका. अब तेरी एक न सुनूंगी. परीक्षा की घडि़यां तो जीवन में आती ही रहती हैं. चंचल मन इधरउधर भटक ही जाता है. कोई इस तरह मां को छोड़ कर भी चला आता है क्या. चल, बहुत मनमानी कर ली.’’

वात्सल्यमयी मां के स्वर सुन कर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मांजी मेरी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए बोलीं, ‘‘इस तरह की जिद बहू करती तो समझ में आता. उस ने तो स्वयं को घर के वातावरण के अनुसार ढाल लिया था पर तुझ से तो ऐसी उम्मीद ही नहीं थी. तुझ से तो मेरी बहू ही अच्छी है.’’

‘‘मां, मुझे माफ कर दो,’’ नीरज रो पड़े. उन का रोना मां और बाबूजी दोनों को रुला गया.

‘‘मैं ने दवाई के लिए नीरज को सहारा दे कर उठाया तो बड़े ही आत्मविश्वास से बोले, ‘‘अब इस की जरूरत नहीं पड़ेगी. मां आ गई हैं, अब मैं जल्दी ही अच्छा हो जाऊंगा.’’

मैं मुन्ने को उठा कर सामान समेटने में लग गई.

थोड़ा दूर थोड़ा पास : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे

बड़े दिनों के बाद मेरा लुधियाना जाना हुआ था. कोई बीस बरस बाद. लुधियाना मेरा मायका है. माता-पिता तो कब के गुजर गये, बस छोटे भाई का परिवार ही रहता है हमारे पुश्तैनी घर में. सन् बहत्तर में जब मेरी शादी हुई थी, तब के लुधियाना और अब के लुधियाना में बहुत फर्क आ गया है. शहर से लगे जहां खेत-खलिहान और कच्चे मकान हुआ करते थे, वहां भी अब कंक्रीट के जंगल उग आये हैं. शहर पहले से ज्यादा चमक-दमक वाला मगर शोर-शराबे से भर गया है.

जब तक मेरे बच्चे छोेटे थे, कहीं आना-जाना ही मुश्किल था. शादी के कुछ सालों बाद तक तो काफी आती-जाती रही, फिर मां-पिता जी के गुजरने के बाद जाना करीब-करीब बंद ही हो गया. बच्चों की परवरिश और उनके स्कूल-कॉलेज के चक्कर में कभी फुर्सत ही नहीं मिली. फिर बच्चे जवान हुए तो उनके शादी-ब्याह और नौकरी की चिंता में लगी रही. अब बच्चे सेटेल हो गये हैं. पति भी रिटायर हो चुके हैं, तो अब फुर्सत ही फुर्सत है. भरा-पूरा घर है. काम-काज के लिए तीन-तीन नौकर हैं. बेटे की शादी हो गयी है. प्यारी सी बहू पूरे दिन घर में चहकती रहती है.

बहुत दिन से सोच रही थी कि जीवन ने अब जो थोड़ी फुर्सत दी है तो क्यों न भाई के घर कुछ रोज रह आऊं. कितना लंबा वक्त गुजर गया अपने मायके गये हुए. मैंने अपने मायके का जिक्र बहू से किया तो वह भी साथ चलने को मचल उठी. अपनी बहू के साथ मेरी बड़ी पटती है. हम सास-बहू कम, दोस्त ज्यादा हैं. हंसमुख, बातूनी और हर तरह से ख्याल रखने वाली लड़की है मेरी बहू निक्की. सच तो यह है कि जिस दिन से निक्की हमारी बहू बन कर इस घर में आयी है, मुझे लगता है मेरी बेटी लाडो ही वापस आ गयी है. लाडो की शादी कनाडा के एक व्यवसायी के साथ हुई है, इसलिए उसका आना भी बहुत कम हो गया है. लेकिन उसकी कमी निक्की ने पूरी कर दी है. बहुत भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे ऐसी बहू मिली. सच तो यह है कि मैं उसे कभी बहू के रूप में देखती ही नहीं, वह तो मेरी बेटी है, बेटी.

मैंने अपने बेटे और पति से लुधियाना जाने की बात कही तो उन्होंने खुशी-खुशी रजामंदी दे दी. फोन करके भाई को बताया तो वह उछल ही पड़ा. बोला, ‘मैं लेने आ जाऊं?’ मैं हंसी, बोली, ‘अरे, अभी तेरी बहन इतनी बूढ़ी नहीं हुई कि दिल्ली से लुधियाना न आ पाए. तू चिन्ता न कर. निक्की साथ आ रही है. हम आराम से पहुंच जाएंगे.’

कितना अच्छा लग रहा था इतने सालों बाद अपने मायके आकर. यहां मेरा बचपन गुजरा. इस घर के आंगन में जवान हुई, ब्याही गयी. सबकुछ चलचित्र सा आंखों के सामने से गुजरने लगा. निक्की के ससुरजी इसी आंगन में आये थे मुझे ब्याहने के लिए. दरवाजे पर घोड़ी से उतरने को तैयार नहीं थे, तब छोटा ही अपने कंघे पर उठाकर भीतर लाया था. इसी घर के दरवाजे से मां ने रोते-कलपते भारी मन से मुझे उनके साथ विदा किया था.

शाम को मैंने सोचा कि चलो कुछ पड़ोसियों की खबर ले आऊं. पता नहीं अब कौन बचा है, कौन नहीं. चार गली छोड़ कर मेरी बचपन की सहेगी कुलवंत कौर का घर भी है. उसे भी देख आऊं. मैंने निक्की को ढूंढा तो देखा कि वह रसोई में अपनी ममिया सास के साथ कोई पंजाबी डिश बनाने में जुटी है. मैं अकेले ही निकल पड़ी.

कुलवंत कौर सुंदर और तेज-तर्रार पंजाबन थी. शादी के बाद वह कभी ससुराल नहीं गयी, उलटा उसका पति ही घर जमाई बन कर आ गया था. दो बेटे हुए. बड़ा तो जवान होते ही लंदन चला गया और फिर वहीं किसी अंग्रेजन से शादी करके बस गया था. छोटा बेटा कुलवंत के साथ रहता था, पर भाई से सुना कि वह भी पांच साल पहले गुजर गया. पति पहले ही गुज़र चुके थे. अब उसके घर में बस दो प्राणी ही बचे हैं एक कुलवंत और दूसरी उसकी जवान विधवा बहू.

कुलवंत शुरू से ही बड़े अक्खड़ और तेज स्वभाव की थी. सब पर हावी रहती थी. लड़ने में उस्ताद. पता नहीं बहू के साथ उसका कैसा व्यवहार होगा. उसकी पटरी बस मेरे साथ ही खाती थी, वह भी इसलिए कि मैं उससे थोड़ा दबती थी. वह बोलती थी और मैं सुनती थी. यह तमाम बातें सोचते-सोचते मैं उसके घर पहुंच गयी. उसकी बहू ने दरवाजा खोला. आंगन में पलंग पर बैठी कुलवंत पर नजर पड़ी तो मैं हैरान ही रह गयी. मेरी ही उम्र की कुलवंत कितनी ज्यादा बूढ़ी दिखने लगी है.

बातचीत शुरू हुई. पता चला कि ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, अर्थराइटिस, अपच और न जाने क्या क्या बीमारियां उसे घेरे हुए हैं. मोटा थुलथुल शरीर ऐसा कि खाट से उठना मुश्किल. उसके पति को गुजरे बीस साल हो गये, पांच साल पहले छोटा बेटा एक्सीडेंट में चल बसा. उसके बाद से कुलवंत अपनी बहू के साथ ही रह रही है. नाते-रिश्तेदार अब झाँकने भी नहीं आते. कुलवंत की तेज़-तर्रारी को देखते हुए पहले भी कौन आता था?

सफेद कुरते-शलवार में उसकी बहू का चेहरा देखकर मेरा दिल तड़प उठा. चाय की ट्रे हमारे सामने रखकर वह अंदर गयी तो फिर नहीं लौटी. मैं कुलवंत से काफी देर तक बातें करती रही. ज्यादातर तो वह अपनी बीमारियों का रोना ही रोती रही. फिर बोली, ‘तुम आयी तो अच्छा लगा. यहां तो अब कोई मुझसे बात करने वाला भी नहीं है. खामोश घर काटने को दौड़ता है. मौत भी नहीं आ रही.’

मैं हंस कर बोली, ‘क्यों, इतनी प्यारी बहू तो है, उससे बोला-बतियाया करो.’ कुलवंत एक फीकी सी मुस्कान देकर चुप्प लगा गयी. मैं इंतजार करती रही कि उसकी बहू बाहर आये तो उससे भी कुछ बातें कर लूं. बेचारी, जवानी में सुहाग उजड़ गया. कैसा दुख लिख दिया भगवान ने इसके भाग्य में. लेकिन काफी इंतजार के बाद भी जब वह न आयी तो मैं ही उठ कर अंदर रसोई में गयी. देखा पीढ़े पर बैठी चुपचाप सब्जी काट रही थी. मैं वहीं बैठ गयी दूसरे पीढ़े पर. वह मुस्कुरायी. मैंने हंस कर कहा, ‘सास के साथ बैठा करो, उनका अकेले दिल घबराता है.’

वह भी फीकी सी हंसी हंसी, फिर धीरे से बोली, ‘उन्होंने जब कभी अपने पास बिठाया ही नहीं, तो अब क्या बैठूं आंटीजी. मैं अपनी मां का घर छोड़ कर आयी थी, सोचा था यहां इनसे मां का प्यार मिलेगा, मगर इनसे तो बस दुत्कार ही मिली. हमेशा नफरत ही करती रहीं मुझसे. कभी प्यार के दो बोल नहीं बोले. मेरे हर काम में नुक्स निकालती रहीं.

जब तक ये जिन्दा रहे मेरी शिकायतें ही करती रहीं उनसे. न मेरे ससुर को चैन से जीने दिया और न मेरे पति को. मैं जब से इस घर में आयी इनके ताने ही सुने. उनके गुजरने के बाद उलाहना देती रहीं कि मैंने इनका बेटा छीन लिया. अरे, मेरा भी तो सुहाग उजड़ गया. आंटी जी, आपसे क्या छुपाना, ये मेरे पति का दिमाग खाती थीं हमेशा. तभी एक दिन गुस्से में घर से निकला और उसका एक्सीडेंट हो गया. यही जिम्मेदार हैं उसकी मौत की. इन्होंने कभी दूसरे की पीड़ा-परेशानी न समझी, दूसरे की खामोशी न समझी. अब अगर शिकायत करें कि आज कोई उनसे बोलता नहीं, तो उन्हें भी अच्छी तरह पता है कि इसमें गलती किसकी है.’

कुलवंत कौर की बहू की बातें सुनकर मेरे मुंह पर ताला पड़ गया. इसके बाद मैं उसे कोई नसीहत न दे सकी. सच ही तो कहा था उसने. कुलवंत कौर आज अगर यह शिकायत करे कि वह अकेली है और कोई उससे बोलता नहीं, तो इसकी जिम्मेदार वह खुद है. उसने जीवन भर जैसा बोया है, अब बुढ़ापे में वही तो काटेगी…

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