रोशनी की आड़ में: क्या हुआ था रागिनी की चाची के साथ

पुरानी डायरी के पन्ने पलटते हुए अनुशा को जब रागिनी के गांव  का पता  मिला तो उसे लगा जैसे कोई खजाना हाथ  लग गया है. अनुशा को अतीत में रागिनी के कहे शब्द याद आ गए, ‘मेरे पति को अपने गांव से बड़ा लगाव है. गांव से नाता बना रहे, इस के लिए वह साल में 1-2 बार गांव जरूर जाते हैं.’

यही सोच कर अनुशा खुश थी कि अब वह रागिनी को पत्र लिख सकती है और जब भी उस के पति गांव जाएंगे तो वहां भेजा उस का पत्र उन्हें जरूर मिल जाएगा. रागिनी को कितना आश्चर्य होगा जब वह इस चौंका देने वाली खबर के बारे में जानेगी.

अनुशा के दिमाग में रागिनी की चाची के साथ घटित हुआ वह हादसा तसवीर की भांति घूमने लगा जिसे रागिनी ने कालिज के दिनों में उसे बताया था.

मैं और रागिनी बी.ए. कर रही थीं. दशहरे की छुट्टियां होने वाली थीं. इसलिए ज्यादातर अध्यापिकाएं घर चली गई थीं. उस दिन खाली पीरियड में हम दोनों कालिज कैंपस के लान में बैठी थीं. मैं ने रागिनी से पूछा, ‘आज तो तुम भी व्रत होगी?’

रागिनी ने बड़े रूखेपन से कहा था, ‘नहीं, घर में बस, मुझे छोड़ कर सभी का व्रत है. मेरी तो धर्मकर्म से आस्था ही मर गई है.’

‘क्यों, ऐसा क्या हो गया है?’ मैं ने हंसते हुए पूछा तो रागिनी और भी गंभीर हो उठी और बोली, ‘अनुशा, मेरे यहां एक बड़ी दर्दनाक घटना घट चुकी है जिस की चर्चा भी अब घर में नहीं होती.’

मैं उत्सुकता से रागिनी को एकटक देखे जा रही थी. उस ने कहा, ‘मेरी चाची को तो तुम ने देखा है. वह अपनी मां और छोटी बहन के साथ विंध्याचल गई थीं. चाची की बहन सुशीला अविवाहित थी लेकिन पूजापाठ, धर्मकर्म में उस की बड़ी रुचि थी. वे तीनों कई दिनों तक विंध्याचल में एक पंडे के घर रुकी रहीं. रोज गंगास्नान, पूजन, दर्शन और पंडे के यहां रात्रिनिवास. उन का यही क्रम चल रहा था.

‘एक दिन सुशीला खाना बना रही थी. उसे छोड़ कर चाची और उन की मां पूजा करने मंदिर चली गईं. कुछ देर बाद जब वे लौट कर आईं तो सुशीला को घर में न पा कर उन्होंने पंडे से पूछा तो उस ने बताया कि सुशीला भी खाना बनाने के बाद गंगास्नान को कह कर यहां से चली गई थी.

‘बहुत ढूंढ़ने के बाद भी जब सुशीला का कहीं पता न चला तो उन्होंने घर पर खबर भेजी. घर के पुरुष भी विंध्याचल आ गए. कई दिनों तक वे लोग सुशीला को इधरउधर ढूंढ़ते रहे. पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई लेकिन सुशीला का कहीं पता नहीं चला.

‘चाची की मां का रोरो कर बुरा हाल हो गया था. वह पागलों की तरह हर किसी से सुशीला के बारे में ही पूछती रहतीं. यह पीड़ा वह अधिक दिनों तक नहीं झेल सकीं और कुछ ही महीने बाद उन की मौत हो गई.

‘बेटी के गायब होने से चाची के पिता तो पहले ही टूट चुके थे, पत्नी के मरने के बाद तो एकदम बेसहारा ही हो गए. बीमारी की हालत में मेरे चाचाजी उन्हें गांव से यहां ले आए. कुछ दिन इलाज चला लेकिन अंत में वह भी चल बसे. उसके बाद तो सुशीला मामले का अंत सा हो गया.

‘अब उस घटना की एकमात्र गवाह मेरी चाची ही बची हैं जो सीने में सबकुछ दफन किए बैठी हैं. उन की हंसी जैसे किसी ने छीन ली हो. इसीलिए मुझ पर हमेशा पाबंदियां लगाए रहती हैं. इतने समय जाना है, इतने समय तक आना है, तरहतरह की चेतावनी मुझे देती रहती हैं.

‘मुझे चाची पर बड़ा गुस्सा आता था, उन की टोकाटाकी से परेशान हो कर मैं ने एक दिन चाची को बुरी तरह झिड़क दिया था. तभी चाची ने मुझे यह घटना रोरो कर बताई थी. अनुशा, उसी दिन से मेरा मन धर्मकर्म, पूजापाठ, व्रतउपवास से बुरी तरह उचट गया.

‘उक्त घटना ने मेरे मन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं. मेरी निसंतान चाची, जिस संतान की कामना से गई थीं उन की वह इच्छा आज तक पूरी नहीं हो सकी है. चाची की मां कुंआरी बेटी सुशीला को अच्छा घरवर पाने की जिस कामना के लिए विंध्याचल गई थीं वह पूरी होनी तो दूर, सुशीला बेचारी तो दुनिया से ही ओझल हो गई. अब तुम्हीं बताओ अनुशा, मैं क्या उत्तर दूं अपने मन को?’

रागिनी की बातें सुन कर वास्तव में मैं निरुत्तर और ठगी सी रह गई. रागिनी ने मुझे कसम दी थी कि इस घटना की चर्चा मैं कभी किसी दूसरे से न करूं क्योंकि उस के परिवार की इज्जत, मर्यादा का सवाल था.

बी.ए. के बाद रागिनी की शादी हो गई. उस की ससुराल झांसी के एक गांव में है. शादी के बाद भी हमारा संपर्क बना रहा. उस ने अपने गांव का पता मेरी डायरी में यह कह कर लिख दिया था कि मेरे पति को गांव से बहुत लगाव है. वहां उन का आनाजाना लगा ही रहता है.

कुछ दिनों बाद मेरी भी शादी हो गई. मैं जब भी मायके जाती तो रागिनी का समाचार मिल जाता था. लेकिन बाद में रागिनी के पिता स्कूल से रिटायर होने के बाद अपने पुश्तैनी घर इटावा चले गए और उस के बाद हमारा संपर्क टूट गया.

मैं अपने छोटे बेटे का मुंडन कराने विंध्याचल गई थी. मुझे क्या पता था कि सुशीला की जीवनकथा में अभी एक और नया अध्याय जुड़ने वाला है जिस का सूत्रपात मेरे ही हाथों होगा. तभी से मेरे मन में अजीब सी खलबली मची हुई है. जी करता है किसी तरह रागिनी मिल जाए तो मन का बोझ हलका कर लूं. जाने उस की चाची अब इस दुनिया में हैं भी या नहीं.

अचानक पति की इस आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, ‘‘मैं 5 मिनट से खड़ा तुम्हें देख रहा हूं और तुम इन पुरानी किताबों और डायरी में न जाने क्या तलाश रही हो. मेरा आफिस से आना तक तुम्हें पता नहीं चल सका. अनुशा, यही हाल रहा तो तुम एक दिन मुझे भी भूल जाओगी. अब उस घटना के पीछे क्यों पड़ी हो जिस का पटाक्षेप हो चुका है.’’

‘‘नहीं, सुधीर, रागिनी को सबकुछ बताए बगैर मुझे चैन नहीं मिलेगा, आज उस का पता मुझे मिल गया है. परिस्थितियों ने तुम्हें उस घटना का राजदार तो बना ही दिया है सुधीर, अच्छाखासा किरदार तुम ने भी तो निभाया है. रागिनी को सबकुछ जान कर कितना आश्चर्य होगा. कैसा लगेगा उसे जब दुखों की पीड़ा और खुशियों की हिलोरें उस के मन में एकसाथ तरंगित हो उठेंगी. हो सकता है, उस की चाची भी अभी जीवित हों और सबकुछ जानने के बाद और कुछ नहीं तो उन के मन को एक शांति तो मिलेगी ही.’’

सुधीर बोले, ‘‘मैडम, अब जरा आप इन झंझावातों से बाहर निकलें और चल कर चायनाश्ते की व्यवस्था करें.’’

‘‘ठीक है, मैं नाश्ता बनाती हूं. आप दोनों बच्चों को बाहर से बुला लें.’’

‘‘मम्मी, मेरा होमवर्क अभी पूरा नहीं हुआ है. प्लीज, करा दो न,’’ बड़े भोलेपन से पिंकू ने अनुशा से कहा.

‘‘बेटे, आप लोग आज सारे काम खुदबखुद करो. तुम्हारी मम्मी अपनी पुरानी सहेली को पत्र लिखने जा रही हैं जो शायद सुबह तक ही पूरा हो पाएगा. क्यों अनुशा, सही कह रहा

हूं न?’’

‘‘बेशक, आप सच कह रहे हैं. रागिनी को पत्र लिखे बिना मेरा मन न तो किसी काम में लगेगा, न ही चित्त स्थिर हो सकेगा. संजीदगी भरे पत्र के लिए रात का शांतिपूर्ण माहौल ही अच्छा होता है.’’

अनुशा विचारों में खोई हुई पेन और पैड ले कर रागिनी को पत्र लिखने बैठ गई.

स्नेहमयी रागिनी,

मधुर स्मृति,

इतने लंबे अरसे बाद मेरा पत्र पा कर तुम अचंभित तो होगी ही. साथ ही रोमांचित भी. बात ही कुछ ऐसी है जो अकल्पनीय होते हुए भी सत्य है. अच्छा तो बगैर किसी भूमिका के मैं सीधे मुख्य बात पर आती हूं.

पिछले माह हम अपने छोटे बेटे पिंकू का मुंडन कराने अपने पूरे परिवार के साथ विंध्याचल गए थे. शायद मेरे ये वाक्य तुम्हारे दिमाग में एक पुरानी तसवीर खींच रहे होंगे. सच, मैं उसी से संबंधित घटना तुम्हें लिख रही हूं.

उस दिन सोमवार था. हम वहां रुकना नहीं चाहते थे लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि हमें शीतला पंडे के यहां ठहरना पड़ा.

दूसरे दिन पिंकू का मुंडन हो गया. हम ने सोचा, थोड़ा घूमफिर कर आज ही निकल जाएंगे.

हम एक टैक्सी तय कर उस में बैठ ही रहे थे कि शीतला पंडे का लड़का, जिस का नाम भानु था, मेरे पास आ कर बोला कि मांजी, हमें भी साथ ले चलिए, आप का बड़ा उपकार होगा. और बीचबीच में वह सहमी निगाहों से अपने घर की तरफ भी देख लेता था.

मुझे उस पर बड़ी दया आई. मैं ने सुधीर से उसे भी साथ ले चलने के लिए कहा तो वह बोले कि देख रही हो, इस के घर के सभी लोग मना कर रहे हैं. तुम जानती तो हो नहीं. घर वाले सोच रहे होंगे कि बेटा धंधा छोड़ कर कहीं घूमने न चला जाए. खैर, मेरे कहने पर सुधीर शीतला पंडे से भानु को साथ ले जाने की बात कह आए और वह मान भी गया.

मेरे दोनों बच्चे बहुत खुश थे. वे विंध्याचल के पहाड़ और पत्थर देख कर उछल रहे थे. हम लोग मंदिर पहुंच गए और वहीं बैठ कर नाश्ता करने लगे. बातों के सिलसिले में मैं ने सुधीर से कहा कि ऐसे स्थानों पर पिकनिक मनाना कितना अच्छा लगता है. भौतिक और आध्यात्मिक दोनों का आनंद एकसाथ मिल जाता है.

‘‘भानु, तुम भी खाओ,’’ कह कर मैं ने पहला कौर मुंह में उतारा ही था कि वह जोरजोर से रो पड़ा. अचानक उस का रोना देख हम परेशान हो गए. लेकिन रागिनी, भानु की कहानी तो हर पल रुलाने वाली थी.

भानु रोते हुए कहे जा रहा था कि मांजी, बाबूजी, मुझे इस नरक से निकाल लीजिए. शीतला मेरा बाप नहीं, मेरा काल है जो मुझे खा जाएगा. मैं मरना नहीं चाहता. मुझे अपने साथ ले चलिए, मांजी.

भानु की आंखों में समंदर उमड़ रहा था. उस ने धीमे स्वर में अपनी जो कहानी सुनाई वह तुम्हारे द्वारा बताई कहानी ही थी. भानु तुम्हारी चाची की छोटी बहन सुशीला का बेटा है.

मैं ने भानु को चुप कराया और आगे की बात जल्दी पूरी करने को कहा क्योंकि उस को टैक्सी ड्राइवर का खौफ भयभीत किए जा रहा था. मैं ने सुधीर के कान में यह समस्या बताई तो सुधीर जा कर ड्राइवर से बातें करते हुए उसे कुछ आगे ले गए.

भानु अब थोड़ा आश्वस्त हो कर आंसू पोंछता हुआ कहने लगा कि मेरी मां ने मरने से पहले मुझे अपनी कहानी सुनाई थी जो इस प्रकार है : ‘उस दिन जब मेरी अम्मां और दीदी मंदिर चली गईं तो शीतला मेरे पास आकर बैठ गया और कहने लगा कि सुशीला,क्या बनाया है आज, जरा मुझे भी खिलाओ.

‘मैं थाली में खाना लगाने लगी तो शीतला बोला कि तू तो बड़ी भोली है.  सुशीला, मैं तो ऐसे ही कह रहा था. अच्छा, खाना तो बना ही चुकी है. चल तुझे आज घुमा लाऊं.

अभी अम्मां और दीदी आ जाएं तो साथ ही चलेंगे सब लोग. मैं अपनी बात कह ही रही थी तभी शीतला ने मुझे पकड़ कर कुछ सुंघा दिया था. बस, मुझे सुस्ती छाने लगी.

जब मुझे होश आया तो मैं ने खुद को एक बड़े से पुराने मकान में कैद पाया. वहां शीतला के साथ कुछ लोग और थे जिन की आवाजें ही मुझे सुनाई पड़ती थीं. मेरा कमरा अलग था जिस में शीतला के सिवा और कोई नहीं आता था.’

भानु अपनी मां की कही कहानी को विस्तार से सुना रहा था :

‘एक दिन मैं वहां से भागने का रास्ता तलाश रही थी कि शीतला भांप गया. फिर तो उस का रौद्ररूप देख कर मैं कांप गई. मुझे कई तरह से प्रताडि़त करने के बाद वह बोला कि आगे से ऐसी हरकत की तो ऐसी दुर्गति बनाऊंगा कि तुझे खुद से भी नफरत हो जाएगी.

‘अब मेरे सामने कोई रास्ता नहीं था. मैं ने इसे ही अपनी तकदीर मान लिया और होंठ सी कर चुप रह गई. एक दिन मेरे कहने पर शीतला ने मेरी मांग में सिंदूर भर कर मुझे पत्नी का चोला जरूर पहना दिया. साल भर के अंदर ही तेरा जन्म हुआ. शीतला ने बड़ा जश्न मनाया. खुश तो मैं भी थी कि मेरा भी कोई अपना आ गया. साथ ही मैं कल्पना करने लगी कि मेरा बेटा ही मुझे यहां से मुक्ति दिलाएगा. लेकिन क्या पता था कि यह राक्षस तुझ पर भी जुल्म ढाएगा. गलती मेरी ही है, कभीकभी गुस्से में मेरे मुंह से निकल जाता था कि मेरा बेटा, बड़ा हो कर तुझे बताएगा. बस, तभी से शीतला के मन में भय सा व्याप्त हो गया था.’

भानु ने आगे बताया कि मेरी मां जिस दिन अपनी दुख भरी कहानी बता कर रो रही थी शीतला छिप कर सबकुछ सुन रहा था. वह गुस्से में तमतमाया, गड़ासा ले कर आया और मेरे सामने ही मेरी मां का सिर धड़ से अलग कर दिया. मुझे तरहतरह से समझाया और डराया- धमकाया. मैं भी बेबस, लाचार था. मां के चले जाने से मैं एकदम अकेला पड़ गया था लेकिन मेरे मन में बदले की जो आग लगी थी वह आज तक जल रही है, मांजी.

भानु की कहानी दिल दहला देने वाली थी लेकिन हम कर ही क्या सकते थे. खैर, उस समय उसे दिलासा दे कर हम वापस लौट आए थे.

यद्यपि भानु पर बड़ा तरस आ रहा था. वह आंखों में आंसू लिए मायूसी से हमें देख रहा था. भानु यानी तुम्हारी चाची की बहन सुशीला का बेटा, रागिनी. तुम्हारी बताई वह घटना मेरी आंखों के सामने नग्न सत्य बन कर खड़ी थी, जो मेरी आस्था पर चोट कर रही थी. साथ ही यह पूरे समाज के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर रही है जिस का जवाब हम सभी को मिल कर ढूंढ़ना है. खासकर हम औरतें अपनी मर्यादा पर यह प्रहार कब तक सहती रहेंगी, इस का भी जवाब हमें खुद तलाशना है. धर्म की आड़ में धर्म के ठेकेदार कब तक यह नंगा नाच करते रहेंगे?

ऐसे अनेक सवाल हैं रागिनी, जिन के जवाब हमें ही तलाशने हैं. खैर, अभी तो मैं अपनी मुख्य बात पर आती हूं. हां, तो दूसरे दिन हम अपने घर आ गए. सुधीर से मैं बारबार भानु को छुड़ा लाने की सिफारिश करती रही.

मेरे इस आग्रह पर उन्होंने यहां पुलिस स्टेशन में सूचना भी दर्ज कराई. यहां से विंध्याचल थाने पर संपर्क कर के जांचपड़ताल शुरू हो गई. यहां से पुलिस टीम विंध्याचल गई. दुर्भाग्य से वहां के दरोगा की सांठगांठ भी शीतला से थी जिस से शीतला को पुलिस काररवाई की भनक लग गई थी. लेकिन पुलिस उसे गिरफ्तार करने में सफल हो गई. भानु ने पुलिस के सामने कई रहस्य उजागर किए.

खैर, तुम्हें यह जान कर खुशी होगी कि शीतला को आजीवन कारावास हो गया है और उस की संपत्ति जब्त कर ली गई है. भानु 8वीं तक पढ़ा था सो आजकल वह एक सरकारी दफ्तर में चपरासी है. उस ने अपना घरपरिवार बसा लिया है और अपना अतीत भूल कर वह एक नई जिंदगी जीने का प्रयास कर रहा है. उस का यह कहना कितना सच है कि धर्मस्थलों में एक शीतला नहीं अनेक धूर्त शीतला अभी भी मौजूद हैं जो देवी- देवताओं की आड़ में भोली जनता और महिलाओं का शोषण कर रहे हैं.

मैं सोच सकती हूं कि मेरा पत्र पढ़ कर तुम्हें कैसा लग रहा होगा. पर सबकुछ सत्य है. मिलने पर तुम्हें विस्तार से सारी बातें बताऊंगी. भानु अपनी मां द्वारा दिए नाम से ही अब जाना जाता है.

पत्र का उत्तर फौरन देना. मुझे बेसब्री से इंतजार रहेगा. प्रतीक्षा के साथ…

तुम्हारी अनुशा.’’

कहानी- किरन पांडेय

कद: पत्नी से क्यों नाराज थे शिंदे साहब

कहते हुए शिंदे साहब अपना पसीना पोंछते हुए ‘धप’ से सोफे में धंस गए. गोमा तिरछी नजरों से उन्हें एकटक देखता रहा. ‘लाल मुंह का बंदर… इस के खून में जरूर अंगरेजों का खून मिला होगा, नहीं तो ऐसा लाल भभूका मुंह नहीं हो सकता,’ गोमा सोचते हुए मुसकरा उठा.

शिंदे साहब की नजर गोमा पर पड़ी, तो उस की तिरछी नजर देख कर उन के तनबदन में आग लग गई. वे चिल्लाए, ‘‘अरे कैसा बेशर्म है तू, इतनी मार खा कर भी कोई असर नहीं हुआ?’’

शिंदे साहब को गुस्सा तो बहुत आ रहा था और इच्छा भी हो रही थी कि गोमा का खून कर दें, पर वे ऐसा नहीं कर सकते, यह बात वे दोनों जानते थे.

गोमा शराब पीता था, पर तनख्वाह मिलते ही… और वह भी 2 दिन तक. उस के बाद अगली तनख्वाह के मिलने तक शराब को मुंह नहीं लगाता था. लगाता भी कैसे? पैसे मिलते ही घर में खर्च के लिए कुछ पैसे दे कर एक बार जो पीने के लिए जाता, तो तीसरे दिन होश आने पर खुद को किसी नाले या गटर में पाता. फिर उसे साहब का और खुद का घर याद आता.

शिंदे साहब के घर पहुंचते ही हर महीने मेम साहब से पड़ने वाली नियमित डांट सुनने को मिलती कि पिछले 3 दिन से कहां रहे? यहां काम कौन करेगा? इस तरह शराब में धुत्त रहोगे तो साहब से कह कर पिटवाऊंगी.

मेम साहब मन ही मन भुनभुनाती रहतीं और गोमा चुपचाप अपना काम करता जाता मानो वे किसी और को सुना रही हों. इन के जैसे कितने ही साहब और मेम साहब के लिए गोमा काम कर चुका है. उन लोगों का गुजारा गोमा जैसे लोगों के बिना मुमकिन नहीं है.

अर्दली तो बहुत होते हैं, जिन में से आधे तो केवल भरती और गिनती के नाम पर होते हैं, गोमा जैसे पुराने और मंजे हुए तो बस 2-4 ही होते हैं, जो साहब व मेम साहब की सारी जरूरतें जानते हैं. तभी तो मेम साहब केवल धमकी दे कर रह जाती हैं.

साहब लोगों की बातें नौकर असली या नकली नशे की आड़ में ही तो उजागर कर सकते हैं. वैसे, गोमा की यह आदत भी नहीं थी कि वह साहब लोगों के बारे में इधरउधर चर्चा करे.

गोमा अपने काम से काम रखता था, इसलिए साहब या मेम साहब कैसे हैं या उन के स्वभाव के बारे में ज्यादा सोचता ही नहीं था. पर शिंदे साहब को पहली बार देखते ही उस का मन खराब सा हो गया था. उन की शक्ल से ले कर हर चीज, हर बात बनावटी और बेढंगी लगी थी.

शिंदे साहब का अजीब सा गोराभूरा रंग, कंजी आंखें, मोटे होंठ, भारीभरकम शरीर और बेवजह चिल्लाचिल्ला कर बात करने का तरीका कुछ भी अच्छा नहीं लगा था, इसीलिए उन से सामना न हो, इस बात का वह खयाल रखता था.

पर, उस दिन गोमा ने अपने पूरे होशोहवास में साहब के मुंह पर ऐसी बात कही थी क्योंकि मेम साहब उस से उलझी हुई थीं और जब उस से सहन न हुआ, तो साहब व मेम साहब दोनों को देख कर ही बोला था.

गोमा सोचता है कि इन बड़े लोगों को रोज नियम से शाम को पीनी है, पूरे तामझाम के साथ. एक अर्दली बोतल खोलेगा, दूसरा भुने हुए काजू, पनीर के टुकड़े, नमकीन वगैरह लाता रहेगा.

2-4 अफसर अपनी बीवियों के साथ हर दिन मौजूद रहते थे.

‘‘मैडम, आप थोड़ी सी लीजिए न, फोर कंपनीज सेक.’’

‘‘न बाबा, हम को हमारा सौफ्ट ड्रिंक ही ठीक है. अपनी वाइफ को पिलाओ,’’ बड़े अफसर की बीवी अफसराना अंदाज में कहतीं.

दूसरी तरफ बड़े साहब इन की बीवी से इस तरह चोंच लड़ा रहे होते जैसे सुग्गा अपनी मादा से.

‘‘मोनाजी, आप तो मौडर्न हैं, कम से कम हमारे पैग को तो छू दीजिए,’’ कहतेकहते उन की नजरें मोनाजी के पूरे जिस्म का सफर कर किसी ऐसे उभार पर टिक जातीं, जो उन्हें लुभावना लगता था.

गोमा मन ही मन सोच कर हंसता कि अगर कोई नया आदमी उस कमरे में आ जाए, तो उस के लिए यह पहचानना मुश्किल होगा कि कौन किस की बीवी है. सभी अपने पति को छोड़ दूसरे मर्दों से सटीं, हंसतींखिलखिलातीं, लाड़ लड़ाती मिलेंगीं. फिर मर्दों का तो क्या कहना, सारी बगिया के फूल तो उन के लिए हैं, कोई भी तोड़ लो.

शिंदे साहब गोमा पर जितना ही चिल्लाते या झल्लाते, उतना ही उन्हें हैरान करने में मजा आ रहा था. उस ने भी कोई झूठ थोड़े ही बोला था, ‘‘अपनी बीवी को संभाल नहीं पाते हैं और दुनिया वालों की बातों पर गुर्राते हैं.’’

गोमा ने तो कई बार मेम साहब और साहब के जूनियर रमेश को चोंच लड़ाते और इशारे करते देखा था. जब शिंदे साहब दौरे पर होते, तो उन दोनों की पौबारह रहती थी. एकलौते बेटे को बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करा कर मिसेज शिंदे एकदम आजाद हो गई थीं.

पति के दौरे पर चले जाने के बाद तो मैदान एकदम साफ रहता. पर, एक मुसीबत तो फिर भी सिर पर होती थी. दिनभर रहने वाले अर्दली को भले ही काम न होने का कह कर विदा कर दें, पर रात को पहरे पर रहने वाला गार्ड तो 9 बजे आ धमकता था.

हालांकि रोज शाम को रमेश ‘इधर से जा रहा था, सोचा पूछ लूं कि कोई काम तो नहीं है’ कहते हुए आ जाता था. गार्ड के आते ही वे दोनों ऐसा बरताव करते, मानो चंद मिनट पहले ही मिले हों और रमेश हालचाल पूछ कर चला जाएगा.

मेम साहब बाजार का कुछ काम बता देती थीं. केवल एक चीज के लिए तो कभी भेजती नहीं थीं, लिस्ट बना कर देती थीं. आज भी एक चीज जो वे लाने को कह रही थीं, उस की ऐसी खास जरूरत नहीं थी.

गोमा ने कहा, ‘‘कुछ और चीजों का नाम लिख दीजिए, फिर चला जाऊंगा. एक चीज के पीछे 2 घंटे बरबाद हो जाएंगे.’’

‘‘अरे वाह, तुझे समय की फिक्र कब से होने लगी. जब पी कर 2 दिनों तक बेसुध पड़ा रहता है, तब समय का खयाल नहीं आता,’’ मेम साहब ने मुंह बनाते हुए जिस तरह कहा, गोमा अपनेआप को रोक न पाया और बोला, ‘‘पीते हैं तो अपने पैसे की, बड़े लोगों की तरह मुफ्त की नहीं.’’

‘‘ठीक है भई, तू शराब पी या कहीं पड़ा रहे, बस अब जा,’’ उन की आवाज में एक उतावलापन था, मानो गोमा को वहां से हटाना ही उन का मकसद था.

गोमा भी शब्दों के तीर छोड़ कर अब वहां से भागना ही चाह रहा था, पर मेम साहब के बरताव से मन में उलझन सी हो रही थी. गोमा को ज्यादा सोचना नहीं पड़ा, क्योंकि तभी रमेश की शानदार मोटरसाइकिल बंगले के अहाते में घुसी.

जब भी शिंदे साहब के घर कोई पार्टी होती, तो सारे इंतजाम रमेश को ही करने पड़ते थे. शिंदे साहब के हर आदेश को ‘यस सर’ कहते हुए वह इस तरह पूरा करता, मानो सिर पर अपने बौस के आदेश का बोझ नहीं, बल्कि फूलों का ताज हो.

पार्टी के दिन रमेश और मेम साहब के बीच हंसीमजाक, नैनमटक्का चलता रहता था. गोमा के अलावा और भी 3-4 अर्दली होते थे. पानी की तरह ‘ड्रिंक’ ले जाने, परोसने, स्नैक्स की प्लेटें ले जाने, चारों ओर घुमाघुमा कर सब को देने के लिए इतने नौकर तो चाहिए ही थे.

पार्टी के बीच अचानक शिंदे साहब के बौस के दिमाग में आइडिया का बल्ब जला. शाम की ‘डलनैस’ को दूर करने के लिए कोई मौडर्न ‘गेम’ खेलने का फुतूर.

‘‘अरे शिंदे, क्या पिलापिला कर ही मार डालोगे?’’

‘‘नो सर, आप कहें तो डिनर सर्व हो जाए?’’

‘‘होहो…’’ अट्टहास करते हुए बौस ने कहा, ‘‘तुम हो पूरे बेवकूफ और वही रहोगे. कभी दिल्लीमुंबई की ‘ऐलीट’ लोगों की पार्टी में शामिल होओगे,

तब समझ आएगा पार्टी का असली रंग और मजा.’’

‘‘जी सर,’’ शिंदे साहब बोले.

‘‘कुछ ‘थ्रिलिंग गेम’ हो जाए,’’ बौस ने कहा.

शिंदे साहब अपने बौस के चेहरे को उजबक की तरह ताकने लगे, कुछ देर पहले जब वे अपनी बीवी से कुछ कहने अंदर जा रहे थे और रमेश के साथ उन की प्रेमलीला देखी, तो उस से वे काफी आहत थे.

‘‘मैडम, अब आप अंदर जाइए, अच्छा नहीं लगता कि आप इस खादिम के साथ यहां रहें,’’ रमेश मेम साहब को चिढ़ाते हुए बोल रहा था.

‘‘यार रमेश, कम से कम अकेले में मुझे मैडम मत कहो,’’ शिंदे साहब की बीवी मचल कर बोलीं.

ऐसा कह कर मेम साहब हाल की तरफ जाने को पलट ही रही थीं कि शिंदे साहब पास ही दिखे.

‘‘क्या बात है डार्लिंग, थकेथके से लग रहे हो? अभी तो पार्टी पूरे शबाब पर भी नहीं आई है,’’ मेम साहब ने शिंदे साहब से पूछा.

शिंदे साहब मन ही मन बोले, ‘तुम तो हो अभी से पूरे शबाब पर,’ फिर रमेश की ओर देख कर रूखी आवाज में बोले, ‘‘गोमा या किसी और को समझा कर आप भी हाल में तशरीफ ले आइए.’’

उन की रूखी आवाज से रमेश को भला क्या फर्क पड़ता. छड़ा, कुंआरा बस मौजमस्ती चल रही है. ज्यादा से ज्यादा उस का तबादला हो जाएगा. वह तो वैसे भी कभी न कभी होना ही है.

‘‘तुम कब से गायब हो, क्या ऐसे अच्छा लगता है कि ‘होस्टेस’ अपने ‘गैस्ट्स’ का खयाल न रखे,’’ अपनी बीवी से कहते हुए शिंदे साहब की दबी आवाज में भी गुस्सा नजर आ रहा था.

‘‘गैस्ट्स के लिए तो सारा तामझाम कर रही हूं डार्लिंग, परेशान मत होइए. तुम्हारे बौस इतने खुश हो जाएंगे कि तुम भी क्या याद करोगे,’’ मेम साहब बोलीं.

उधर बौस के आदेश से थ्रिलिंग गेम ‘वाइफ स्वैपिंग’ की तैयारी में एक खूबसूरत डब्बों में सब की कारों की चाबियां डाल दी गई थीं.

गोमा साहबों और मेम साहबों के तरहतरह के चोंचले, सनकीपन और मूड से उसी तरह वाकिफ था, जिस तरह अपनी हथेली की लकीरों से. उसे किसी भी साहब या मेम साहब के लिए कोई दिली आदर न था और न ही उन से किसी तरह का डर लगता था. उस के कुछ उसूल थे, जिन का पालन वह पूरी ईमानदारी से करता था.

गोमा ने मन ही मन सोचा कि अगर उस की बीवी दूसरे आदमी के साथ इस तरह जाए, तो वह दोबारा उस का मुंह भी नहीं देखे. अगर उस का खुद का रिश्ता दूसरी औरत से हो जाए, तो उस की घरवाली भी उसे यों ही नहीं छोड़ देगी. गोमा के इसी स्वाभिमान ने तो उस के मुंह से वह कहलवाया, जो शिंदे साहब को बरदाश्त नहीं हुआ.

महीने का पहला हफ्ता था और हमेशा की तरह गोमा 3 दिन गायब रह कर चौथे दिन आया था. इस बीच रमेश को ले कर साहब और मेम साहब में तीखी नोकझोंक हुई. जब गोमा सामने आया, तो दोनों का बचाखुचा गुस्सा उसी पर उतरा, वह भी ऐसा उतरा कि बिलकुल बेलगाम.

मेम साहब की जबान फिसलती गई, ‘‘फिर जा कर गिरा नाले में, तू नाले का कीड़ा ही बना रहेगा. किसी दिन यह शराब तुझे और तेरे घर को बरबाद कर देगी.

‘‘देखना, तेरी बीवी एक दिन तुझे छोड़ कर किसी और के साथ घर बसा लेगी. तुम्हारी जात में तो वैसे भी एक को छोड़ कर दूसरे के साथ बैठ जाना बुरा नहीं माना जाता.’’

इतना सुन कर गोमा मेम साहब के ठीक सामने आ गया और बोला, ‘‘हमारी जात? हमारी जात को कितना जानती हैं आप? आप लोगों की ऊंची जात में होती होगी चीजों की तरह लुगाइयों की अदलाबदली. हम लोगों के घर बसाने में एक तमीज होती है. कोठे की बाई की तरह नहीं कि आज इस के साथ, कल उस के साथ और परसों तीसरे के साथ.’’

मेम साहब को तो जैसे सांप सूंघ गया. इसी बात का फायदा उठा कर गोमा फिर शुरू हो गया. लगा जैसे आज उस के मन में जो फोड़ा था, वह पक कर फूट गया और सारा मवाद निकल रहा हो, ‘‘मैं तो महीने में 1-2 दिन ही पीता हूं. केवल इसलिए कि 2-3 दिन तक पैसे की तंगी, घर की चिंता से इतना दूर चला जाऊं कि अपनेआप को मैं खुशकिस्मत समझ सकूं.

‘‘पर, आप बड़े लोग तो रोज महंगी अंगरेजी शराब बहाते हैं अपनी खुशी, अपना फालतू पैसा दिखाने को. मैं तो शराब पी कर भी आप जैसे बड़े लोगों जैसी छोटी हरकत कभी नहीं करता…’’

तब से शिंदे साहब गोमा को पीटे जा रहे हैं, मानो बीवी का सारा गुस्सा उस पर उतार देंगे. उधर गोमा इतनी मार खा कर भी मन ही मन जीत की खुशी महसूस कर रहा था.

लेखक- मंगला रामचंद्रन

अदला बदली: दूसरे को बदलने की इच्छा का क्या होता है परिणाम

मेरे पति राजीव के अच्छे स्वभाव की परिचित और रिश्तेदार सभी खूब तारीफ करते हैं. उन सब का कहना है कि राजीव बड़ी से बड़ी समस्या के सामने भी उलझन, चिढ़, गुस्से और परेशानी का शिकार नहीं बनते. उन की समझदारी और सहनशीलता के सब कायल हैं.

शादी के 3 दिन बाद का एक किस्सा  है. हनीमून मनाने के लिए हम टैक्सी से स्टेशन पहुंचे. हमारे 2 सूटकेस कुली ने उठाए और 5 मिनट में प्लेटफार्म तक पहुंचा कर जब मजदूरी के पूरे 100 रुपए मांगे तो नईनवेली दुलहन होने के बावजूद मैं उस कुली से भिड़ गई.

मेरे शहंशाह पति ने कुछ मिनट तो हमें झगड़ने दिया फिर बड़ी दरियादिली से 100 का नोट उसे पकड़ाते हुए मुझे समझाया, ‘‘यार, अलका, केवल 100 रुपए के लिए अपना मूड खराब न करो. पैसों को हाथ के मैल जितना महत्त्व दोगी तो सुखी रहोगी. ’’

‘‘किसी चालाक आदमी के हाथों लुटने में क्या समझदारी है?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा था.

‘‘उसे चालाक न समझ कर गरीबी से मजबूर एक इनसान समझोगी तो तुम्हारे मन का गुस्सा फौरन उड़नछू हो जाएगा.’’

गाड़ी आ जाने के कारण मैं उस चर्चा को आगे नहीं बढ़ा पाई थी, पर गाड़ी में बैठने के बाद मैं ने उन्हें उस भिखारी का किस्सा जरूर सुना दिया जो कभी बहुत अमीर होता था.

एक स्मार्ट, स्वस्थ भिखारी से प्रभावित हो कर किसी सेठानी ने उसे अच्छा भोजन कराया, नए कपडे़ दिए और अंत में 100 का नोट पकड़ाते हुए बोली, ‘‘तुम शक्लसूरत और व्यवहार से तो अच्छे खानदान के लगते हो, फिर यह भीख मांगने की नौबत कैसे आ गई?’’

‘‘मेमसाहब, जैसे आप ने मुझ पर बिना बात इतना खर्चा किया है, वैसी ही मूर्खता वर्षों तक कर के मैं अमीर से भिखारी बन गया हूं.’’

भिखारी ने उस सेठानी का मजाक सा उड़ाया और 100 का नोट ले कर चलता बना था.

इस किस्से को सुना कर मैं ने उन पर व्यंग्य किया था, पर उन्हें समझाने का मेरा प्रयास पूरी तरह से बेकार गया.

‘‘मेरे पास उड़ाने के लिए दौलत है ही कहां?’’ राजीव बोले, ‘‘मैं तो कहता हूं कि तुम भी पैसों का मोह छोड़ो और जिंदगी का रस पीने की कला सीखो.’’

उसी दिन मुझे एहसास हो गया था कि इस इनसान के साथ जिंदगी गुजारना कभीकभी जी का जंजाल जरूर बना करेगा.

मेरा वह डर सही निकला. कितनी भी बड़ी बात हो जाए, कैसा भी नुकसान हो जाए, उन्हें चिंता और परेशानी छूते तक नहीं. आज की तेजतर्रार दुनिया में लोग उन्हें भोला और सरल इनसान बताते हैं पर मैं उन्हें अव्यावहारिक और असफल इनसान मानती हूं.

‘‘अरे, दुनिया की चालाकियों को समझो. अपने और बच्चों के भविष्य की फिक्र करना शुरू करो. आप की अक्ल काम नहीं करती तो मेरी सलाह पर चलने लगो. अगर यों ही ढीलेढाले इनसान बन कर जीते रहे तो इज्जत, दौलत, शोहरत जैसी बातें हमारे लिए सपना बन कर रह जाएंगी,’’ ऐसी सलाह दे कर मैं हजारों बार अपना गला बैठा चुकी हूं पर राजीव के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

बेटा मोहित अब 7 साल का हो गया है और बेटी नेहा 4 साल की होने वाली है अपने ढीलेढाले पिता की छत्रछाया में ये दोनों भी बिगड़ने लगे हैं. मैं रातदिन चिल्लाती हूं पर मेरी बात न बच्चों के पापा सुनते हैं, न ही बच्चे.

राजीव की शह के कारण घर के खाने को देख कर दोनों बच्चे नाकभौं चढ़ाते हैं क्योंकि उन की चिप्स, चाकलेट और चाऊमीन जैसी बेकार चीजों को खाने की इच्छा पूरी करने के लिए उन के पापा सदा तैयार जो रहते हैं.

‘‘यार, कुछ नहीं होगा उन की सेहत को. दुनिया भर के बच्चे ऐसी ही चीजें खा कर खुश होते हैं. बच्चे मनमसोस कर जिएं, यह ठीक नहीं होगा उन के विकास के लिए,’’ उन की ऐसी दलीलें मेरे तनबदन में आग लगा देती हैं.

‘‘इन चीजों में विटामिन, मिनरल नहीं होते. बच्चे इन्हें खा कर बीमार पड़ जाएंगे. जिंदगी भर कमजोर रहेंगे.’’

‘‘देखो, जीवन देना और उसे चलाना प्रकृति की जिम्मेदारी है. तुम नाहक चिंता मत करो,’’ उन की इस तरह की दलीलें सुन कर मैं खुद पर झुंझला पड़ती.

राजीव को जिंदगी में ऊंचा उठ कर कुछ बनने, कुछ कर दिखाने की चाह बिलकुल नहीं है. अपनी प्राइवेट कंपनी में प्रमोशन के लिए वह जरा भी हाथपैर नहीं मारते.

‘‘बौस को खाने पर बुलाओ, उसे दीवाली पर महंगा उपहार दो, उस की चमचागीरी करो,’’ मेरे यों समझाने का इन पर कोई असर नहीं होता.

समझाने के एक्सपर्ट मेरे पतिदेव उलटा मुझे समझाने लगते हैं, ‘‘मन का संतोष और घर में हंसीखुशी का प्यार भरा माहौल सब से बड़ी पूंजी है. जो मेरे हिस्से में है, वह मुझ से कोई छीन नहीं सकता और लालच मैं करता नहीं.’’

‘‘लेकिन इनसान को तरक्की करने के लिए हाथपैर तो मारते रहना चाहिए.’’

‘‘अरे, इनसान के हाथपैर मारने से कहीं कुछ हासिल होता है. मेरा मानना है कि वक्त से पहले और पुरुषार्थ से ज्यादा कभी किसी को कुछ नहीं मिलता.’’

उन की इस तरह की दलीलों के आगे मेरी एक नहीं चलती. उन की ऐसी सोच के कारण मुझे नहीं लगता कि अपने घर में सुखसुविधा की सारी चीजें देखने का मेरा सपना कभी पूरा होगा जबकि घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों को मैं बड़ी गंभीरता से लेती हूं. हर चीज अपनी जगह रखी हो, साफसफाई पूरी हो, कपडे़ सब साफ और प्रेस किए हों, सब लोग साफसुथरे व स्मार्ट नजर आएं जैसी बातों का मुझे बहुत खयाल रहता है. मैं घर आए मेहमान को नुक्स निकालने या हंसने का कोई मौका नहीं देना चाहती हूं.

अपनी लापरवाही व गलत आदतों के कारण बच्चे व राजीव मुझ से काफी डांट खाते हैं. राजीव की गलत प्रतिक्रिया के कारण मेरा बच्चों को कस कर रखना कमजोर पड़ता जा रहा है.

‘‘यार, क्यों रातदिन साफसफाई का रोना रोती हमारे पीछे पड़ी रहती हो? अरे, घर ‘रिलैक्स’ करने की जगह है. दूसरों की आंखों में सम्मान पाने के चक्कर में हमारा बैंड मत बजाओ, प्लीज.’’

बड़ीबड़ी लच्छेदार बातें कर के राजीव दुनिया वालों से कितनी भी वाहवाही लूट लें, पर मैं उन की डायलागबाजी से बेहद तंग आ चुकी हूं.

‘‘अलका, तुम तेरामेरा बहुत करती हो, जरा सोचो कि हम इस दुनिया में क्या लाए थे और क्या ले जाएंगे? मैं तो कहता हूं कि लोगों से प्यार का संबंध नुकसान उठा कर भी बनाओ. अपने अहं को छोड़ कर जीवनधारा में हंसीखुशी बहना सीखो,’’ राजीव के मुंह से ऐसे संवाद सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं, पर व्यावहारिक जिंदगी में इन के सहारे चलना नामुमकिन है.

बहुत तंग और दुखी हो कर कभीकभी मैं सोचती हूं कि भाड़ में जाएं ये तीनों और इन की गलत आदतें. मैं भी अपना खून जलाना बंद कर लापरवाही से जिऊंगी, लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर हूं. देख कर मरी मक्खी निगलना मुझ से कभी नहीं हो सकता. मैं शोर मचातेमचाते एक दिन मर जाऊंगी पर मेरे साहब आखिरी दिन तक मुझे समझाते रहेंगे, पर बदलेंगे रत्ती भर नहीं.

जीवन के अपने सिखाने के ढंग हैं. घटनाएं घटती हैं, परिस्थितियां बदलती हैं और इनसान की आंखों पर पडे़ परदे उठ जाते हैं. हमारी समझ से विकास का शायद यही मुख्य तरीका है.

कुछ दिन पहले मोहित को बुखार हुआ तो उसे दवा दिलाई, पर फायदा नहीं हुआ. अगले दिन उसे उलटियां होने लगीं तो हम उसे चाइल्ड स्पेशलिस्ट के पास ले गए.

‘‘इसे मैनिन्जाइटिस यानी दिमागी बुखार हुआ है. फौरन अच्छे अस्पताल में भरती कराना बेहद जरूरी है,’’ डाक्टर की चेतावनी सुन कर हम दोनों एकदम से घबरा उठे थे.

एक बडे़ अस्पताल के आई.सी.यू. में मोहित को भरती करा दिया. फौरन इलाज शुरू हो जाने के बावजूद उस की हालत बिगड़ती गई. उस पर गहरी बेहोशी छा गई और बुखार भी तेज हो गया.

‘‘आप के बेटे की जान को खतरा है. अभी हम कुछ नहीं कह सकते कि क्या होगा,’’ डाक्टर के इन शब्दों को सुन कर राजीव एकदम से टूट गए.

मैं ने अपने पति को पहली बार सुबकियां ले कर रोते देखा. चेहरा बुरी तरह मुरझा गया और आत्मविश्वास पूरी तरह खो गया.

‘‘मोहित को कुछ नहीं होना चाहिए अलका. उसे किसी भी तरह से बचा लो,’’ यही बात दोहराते हुए वह बारबार आंसू बहाने लगते.

मेरे लिए उन का हौसला बनाए रखना बहुत कठिन हो गया. मोहित की हालत में जब 48 घंटे बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ तो राजीव बातबेबात पर अस्पताल के कर्मचारियों, नर्सों व डाक्टरों से झगड़ने लगे.

‘‘हमारे बेटे की ठीक से देखभाल नहीं कर रहे हैं ये सब,’’ राजीव का पारा थोड़ीथोड़ी देर बाद चढ़ जाता, ‘‘सब बेफिक्री से चाय पीते, गप्पें मारते यों बैठे हैं मानो मेले में आएं हों. एकाध पिटेगा मेरे हाथ से, तो ही इन्हें अक्ल आएगी.’’

राजीव के गुस्से को नियंत्रण में रखने के लिए मुझे उन्हें बारबार समझाना पड़ता.

जब वह उदासी, निराशा और दुख के कुएं में डूबने लगते तो भी उन का मनोबल ऊंचा रखने के लिए मैं उन्हें लेक्चर देती. मैं भी बहुत परेशान व चिंतित थी पर उन के सामने मुझे हिम्मत दिखानी पड़ती.

एक रात अस्पताल की बेंच पर बैठे हुए मुझे अचानक एहसास हुआ कि मोहित की बीमारी में हम दोनों ने भूमिकाएं अदलबदल दी थीं. वह शोर मचाने वाले परेशान इनसान हो गए थे और मैं उन्हें समझाने व लेक्चर देने वाली टीचर बन गई थी.

मैं ये समझ कर बहुत हैरान हुई कि उन दिनों मैं बिलकुल राजीव के सुर में सुर मिला रही थी. मेरा सारा जोर इस बात पर होता कि किसी भी तरह से राजीव का गुस्सा, तनाव, चिढ़, निराशा या उदासी छंट जाए. ’’

4 दिन बाद जा कर मोहित की हालत में कुछ सुधार लगा और वह धीरेधीरे हमें व चीजों को पहचानने लगा था. बुखार भी धीरेधीरे कम हो रहा था.

मोहित के ठीक होने के साथ ही राजीव में उन के पुराने व्यक्तित्व की झलक उभरने लगी.

एक शाम जानबूझ कर मैं ने गुस्सा भरी आवाज में उन से कहा, ‘‘मोहित, ठीक तो हो रहा है पर मैं इस अस्पताल के डाक्टरों व दूसरे स्टाफ से खुश नहीं हूं. ये लोग लापरवाह हैं, बस, लंबाचौड़ा बिल बनाने में माहिर हैं.’’

‘‘यार, अलका, बेकार में गुस्सा मत हो. यह तो देखो कि इन पर काम का कितना जोर है. रही बात खर्चे की तो तुम फिक्र क्यों करती हो? पैसे को हाथ का मैल…’’

उन्हें पुराने सुर में बोलता देख मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी. मेरी प्रतिक्रिया गुस्से और चिढ़ से भरी नहीं है, यह नोट कर के मेरे मन का एक हिस्सा बड़ी सुखद हैरानी महसूस कर रहा था.

मोहित 15 दिन अस्पताल में रह कर घर लौटा तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. जल्दी ही सबकुछ पहले जैसा हो जाने वाला था पर मैं एक माने में बिलकुल बदल चुकी थी. कुछ महत्त्वपूर्ण बातें, जिन्हें मैं बिलकुल नहीं समझती थी, अब मेरी समझ का हिस्सा बन चुकी थीं.

मोहित की बीमारी के शुरुआती दिनों में राजीव ने मेरी और मैं ने राजीव की भूमिका बखूबी निभाई थी. मेरी समझ में आया कि जब जीवनसाथी आदतन शिकायत, नाराजगी, गुस्से जैसे नकारात्मक भावों का शिकार बना रहता हो तो दूसरा प्रतिक्रिया स्वरूप समझाने व लेक्चर देने लगता है.

घरगृहस्थी में संतुलन बनाए रखने के लिए ऐसा होना जरूरी भी है. दोनों एक सुर में बोलें तो यह संतुलन बिगड़ता है.

मोहित की बीमारी के कारण मैं भी बहुत परेशान थी. राजीव को संभालने के चक्कर में मैं उन्हें समझाती थी. और वैसा करते हुए मेरा आंतरिक तनाव, बेचैनी व दुख घटता था. इस तथ्य की खोज व समझ मेरे लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण साबित हुई.

आजकल मैं सचमुच बदल गई हूं और बहुत रिलेक्स व खुश हो कर घर की जिम्मेदारियां निभा रही हूं. राजीव व अपनी भूमिकाओं की अदलाबदली करने में मुझे महारत हासिल होती जा रही है और यह काम मैं बड़े हल्केफुल्के अंदाज में मन ही मन मुसकराते हुए करती हूं.

हर कोई अपने स्वभाव के अनुसार अपनेअपने ढंग से जीना चाहता है. अपने को बदलना ही बहुत कठिन है पर असंभव नहीं लेकिन दूसरे को बदलने की इच्छा से घर का माहौल बिगड़ता है और बदलाव आता भी नहीं अपने इस अनुभव के आधार पर इन बातों को मैं ने मन में बिठा लिया है और अब शोर मचा कर राजीव का लेक्चर सुनने के बजाय मैं प्यार भरे मीठे व्यवहार के बल पर नेहा, मोहित और उन से काम लेने की कला सीख गई हूं.

लेखक- अवनीश शर्मा

एक मोड़ पर: जया की जिंदगी में क्या बदल गया था

दुकान से घर लौटते हुए वह अचानक ही उदास हो उठता है. एक अजीब तरह की वितृष्णा उस के भीतर पैदा होने लगती है. वह सोचने लगता है, घर लौट कर भी क्या करूंगा? वहां कौन है जो मुझे प्यार दे सके, अपनत्व दे सके, मेरी थकान मिटा सके, मेरी चिंताओं का सहभागी बन सके? पत्नी है, मगर उस के पास शिकायतों का कभी न खत्म होने वाला लंबा सिलसिला है. न वह हंसना जानती है न मुसकरा कर पति का स्वागत करना.

वह जब भी दुकान से घर लौटता है, जया का क्रोध से बिफरा और घृणा से विकृत चेहरा ही उसे देखने को मिलता है. जब वह खाने बैठता है तभी जया अपनी शिकायतों का पिटारा खोल कर बैठ जाती है. कभी मां की शिकायतें तो कभी अपने अभावों की. शिकायतें और शिकायतें, खाना तक हराम कर देती है वह. जब वह दुकान से घर लौटता है तब उस के दिल में हमेशा यही हसरत रहती है कि घर लौट कर आराम करे, थकी हुई देह और व्याकुल दिमाग को ताजगी दे, जया मुसकरा कर उस से बातें करे, उस के सुखदुख में हिस्सेदार बने. मगर यह सब सुख जैसे किसी ने उस से छीन लिया है. पूरा घर ही उसे खराब लगता है.

घर के हर शख्स के पास अपनीअपनी शिकायतें हैं, अपनाअपना रोना है. सब जैसे उसी को निचोड़ डालना चाहते हैं. किसी को भी उस की परवा नहीं है. कोई भी यह सोचना नहीं चाहता कि उस की भी कुछ समस्याएं हैं, उस की भी कुछ इच्छाएं हैं. दिनभर दुकान में ग्राहकों से माथापच्ची करतेकरते उस का दिमाग थक जाता है. उसे जिंदगी नीरस लगने लगती है. मगर घर में कोई भी ऐसा नहीं था जो उस की नीरसता को खत्म कर, उस में आने वाले कल के लिए स्फूर्ति भर सके. जया को शिकायत है कि वह मां का पक्ष लेता है, मां को शिकायत है कि वह पत्नी का पिछलग्गू बन गया है. लेकिन वह जानता है कि वह हमेशा सचाई का पक्ष ही लेता है, सचाई का पक्ष ले कर किसी के पक्ष या विपक्ष में कोई निर्णय लेना क्या गलत है? जया या मां क्यों चाहती हैं कि वह उन्हीं का पक्ष ले? वे दोनों उसे समझने की कोशिश क्यों नहीं करतीं? वह समझ नहीं पाता कि ये औरतें क्यों छोटीछोटी बातों के लिए लड़तीझगड़ती रहती हैं, चैन से उसे जीने क्यों नहीं देतीं?

उसे याद है शादी के प्रारंभिक दिनों में सबकुछ ठीकठाक था. जया हमेशा हंसतीमुसकराती रहती थी. घर के कामकाज में भी उसे कितना सुख मिलता था. मां का हाथ बंटाते हुए वह कितना आनंद महसूस करती थी. देवरननदों से वह बड़े स्नेह से पेश आती थी. मगर कुछ समय से उस का स्वभाव कितना बदल गया है. बातबात पर क्रोध से भर जाती है. घर के कामकाज में भी हाथ बंटाना उस ने बंद कर दिया है. मां से सहयोग करने के बजाय हमेशा उस से लड़तीझगड़ती रहती है. किसी के साथ भी जया का सुलूक ठीक नहीं रहा है. समझ नहीं आता कि आखिर जया को अचानक हो क्या गया है…इतनी बदल क्यों गई है? उस के इस प्रकार ईर्ष्यालु और झगड़ालू बन जाने का क्या कारण है? किस ने उस के कान भरे कि इस घर को युद्ध का मैदान बना डाला है?

अब तो स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि जया अलग से घर बसाने के लिए हठ करने लगी है. अपनी मांग मनवाने के लिए वह तमाम तरह के हथियार और हथकंडे इस्तेमाल करने लगी है. वह जब भी खाना खाने बैठता है, उस के साथ आ कर वह बैठ जाती है. लगातार भुनभुनाती, बड़बड़ाती रहती है. कभीकभी रोनेसिसकने भी लगती है. शायद इस सब का एक ही उद्देश्य होता है, वह साफसाफ जतला देना चाहती है कि अब वह मां के साथ नहीं रह सकती, उसे अलग घर चाहिए.

उसे हैरानी है कि आखिर जया एकाएक अलग घर बसाने की जिद क्यों करने लगी है. यहां उसे क्या तकलीफ है? वह सोचती क्यों नहीं कि उन के अलग हो जाने से यह घर कैसे चलेगा? मां का क्या होगा? छोटे भाईबहनों का क्या होगा? कौन उन्हें पढ़ाएगालिखाएगा? कौन उन की शादी करेगा? पिताजी की मौत के बाद इस घर की जिम्मेदारी उसी पर तो है. वही तो सब का अभिभावक है. छोटे भाई अभी इतने समर्थ नहीं हैं कि उन के भरोसे घर छोड़ सके. अभी तो इन सब की जिम्मेदारी भी उस के कंधों पर ही है. वह कैसे अलग हो सकता है? जया को उस ने हमेशा समझाने की कोशिश की है. मगर जया समझना ही नहीं चाहती. जिद्दी बच्चे की तरह अपनी जिद पर अड़ी हुई है. वह चाहता है इस मामले में वह जया की उपेक्षा कर दे. वह उस की बात पर गौर तक करना नहीं चाहता. मगर वह क्या करे, जया उस के सामने बैठ कर रोनेबुड़बुड़ाने लगती है. वह उस का रोनाधोना सुन कर परेशान हो उठता है.

तब उस का मन करता है कि वह खाने की थाली उठा कर फेंक दे. जया को उस की बदतमीजी का मजा चखा दे या घर से कहीं बाहर भाग जाए, फिर कभी लौट कर न आए. आखिर यह घर है या पागलखाना जहां एक पल चैन नहीं?

इच्छा न होते भी वह घर लौट आता है. आखिर जाए भी कहां? जिम्मेदारियों से भाग भी तो नहीं सकता. उसे देखते ही जया मुंह फुला कर अपने कमरे में चली जाती है. अब उस का स्वागत करने का यही तो तरीका बन गया है. वह जानता है कि अब जया अपने कमरे से बाहर नहीं आएगी. इसलिए वह अपनेआप ही बालटी में पानी भरता है. अपनेआप ही कपड़े उठा कर गुसलखाने में चला जाता है. नहा कर वह अपने कमरे में चला जाता है. जया तब भी मुंह फुलाए बैठी रहती है. उसे उबकाई सी आने लगती है. क्या पत्नी इसी को कहते हैं? क्या गृहस्थी का सुख इसी का नाम है. वह जया से खाना लाने के लिए कहता है. वह अनमने मन से ठंडा खाना उठा लाती है. खाना देख कर उसे गुस्सा आने लगता है, फिर भी वह खाने लगता है.

जया उस के पास ही बैठ जाती है. फिर एकाएक कहती है, ‘‘मैं पूछती हूं, आखिर मुझे कब तक इसी तरह जलना होगा? कब तक मुझे मां की गालियां सुननी होंगी? कब तक देवरननदों के नखरे उठाने पड़ेंगे?’’

रोटी का कौर उस के मुंह में ही अटक जाता है. उस का मन जया के प्रति घोर नफरत से भर जाता है. वह क्रोधभरे स्वर में कहता है, ‘‘आखिर तुम्हें कब अक्ल आएगी, जया? तुम मेरा खून करने पर क्यों तुली हुई हो? कभी थोड़ाबहुत कुछ सोच भी लिया करो. कम से कम खाना तो आराम से खा लेने दिया करो. यदि तुम्हें कोई शिकायत है तो खाना खाने के बाद भी तो कह सकती हो. क्या यह जरूरी है कि जब भी मैं खाने बैठूं, तुम अपनी शिकायतें ले कर बैठ जाओ? प्यार की कोई बात करना तो दूर, हमेशा जलीकटी बातें ही करती रहती हो.’’ हमेशा की तरह जया रोने लगती है, ‘‘हां, मैं तो आप की दुश्मन हूं. आप का खून करना चाहती हूं. मैं तो आप की कुछ लगती ही नहीं हूं.’’

‘‘देखो जया, मैं मां से अलग नहीं हो सकता. इस घर के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं उन से भाग नहीं सकता. तुम्हारे लिए अच्छा यही है कि तुम मां के साथ निभाना सीखो. अलग होने की जिद छोड़ दो.’’

‘‘नहीं,’’ वह रोतेरोते ही कहती है, ‘‘मैं नहीं निभा सकती. मुझ से मां की गालियां नहीं सही जातीं.’’

वह जानता है कि गालीगलौच करने की आदत मां की नहीं है. चूंकि जया अलग होना चाहती है, इसलिए हमेशा मां के खिलाफ बातें बनाती है. उसे समझाना बेकार है. वह समझना ही नहीं चाहती. उस के दिमाग में तो बस एक ही बात बैठी हुई है- अलग होने की. दुखी और परेशान हो कर वह खाना बीच में ही छोड़ कर उठ खड़ा होता है. घर से बाहर आ कर वह सड़कों पर घूमने लगता है. अपने दुख को हलका करने का प्रयास करता है. सोचता रहता है, यही जया कभी उस की मां से कितना स्नेह करती थी. आज उसे किस ने भड़का दिया है? किस ने उसे सलाह दी है अलग हो जाने की? कौन हो सकता है वह धूर्त इंसान? उसे ध्यान आता है जब से सुनयना इस घर में आने लगी है तभी से जया के तेवर भी बदलते जा रहे हैं. सुनयना जया की मौसेरी बहन है. वह अकसर घर में आती है. दोनों बहनें अलग कमरे में बैठी देर तक बातें करती रहती हैं. पता नहीं वे क्याक्या खुसुरफुसुर करती रहती हैं.

सुनयना के पति विनोद को भी वह जानता है. विनोद बीमा विभाग में क्लर्क है. सुनयना और विनोद के बीच हमेशा खटपट रहती है. दोनों के बीच कभी नहीं बनती, किसी न किसी बात पर दोनों झगड़ते रहते हैं. विनोद की आदत लड़नेझगड़ने की नहीं है. मगर सुनयना उसे चैन से जीने नहीं देती. वह बहुत झगड़ालू और ईर्ष्यालु औरत है. तरहतरह के इलजाम लगा कर वह विनोद को लांछित करती रहती है. रोजरोज के इन्हीं झगड़ों से तंग आ कर विनोद अकसर घर नहीं आता. होटल में खाना खा लेता है और कहीं भी जा कर सो जाता है. घर और पत्नी के होते हुए भी वह बेघर इंसान की जिंदगी जी रहा है. विनोद की मां या भाई उसे मना कर वापस घर ले आते हैं, सुनयना के साथ उस का समझौता करा देते हैं. कुछ दिन तो सब ठीकठाक रहता है, मगर थोड़े ही दिनों में सुनयना फिर अपनी असलियत पर उतर आती है और वह फिर घर छोड़ने के लिए विवश हो जाता है. वही सुनयना अब उस के घर को भी तबाह करने पर तुली हुई है. कुछ लोग अत्यंत नीच प्रकृति के होते हैं. वे न तो स्वयं सुखी रहते हैं और न किसी दूसरे को सुखी रहने देना चाहते हैं. दूसरों के घर उजाड़ना उन की आदत हो जाती है. सुनयना भी ऐसी ही औरत है. अपना घर तो वह उजाड़ ही चुकी है, अब इस घर को तबाह करने पर तुली हुई है.

सुनयना से उसे हमेशा ही नफरत रही है. वह उस से कभी बात तक नहीं करता. वह सोचा करता है जो औरत अपने पति के साथ निभा न सकी, जिस ने अपने हाथों से अपना घर बरबाद कर लिया, जो अपने अच्छेभले पति पर लांछन लगाने से बाज नहीं आती, वह किसी दूसरे की हितचिंतक कैसे हो सकती है? जिस का अपना पति होटलों में खाता है, जिस के व्यवहार से दुखी हो कर उस का पति घर भी लौटना नहीं चाहता, ऐसी औरत किसी दूसरे के घर का सुख कैसे बरदाश्त कर सकती है?

सुनयना जब भी इस घर में आती है वह उस की उपेक्षा कर देता है. जया जरूर उस से घंटों बतियाती रहती है. शायद इसीलिए इस घर की रगों में उस जहरीली नागिन का जहर फैलता जा रहा है, इस घर की शांत और सुखी जिंदगी तबाह होती जा रही है. लेकिन सुनयना पर इलजाम लगाने से पूर्व वह पूरी तरह इतमीनान कर लेना चाहता था कि इस स्थिति के लिए वाकई वही जिम्मेदार है. अगर वही इस सब की जड़ में है तो उसे काटना ही होगा. उस की काली करतूत का मजा उसे चखाना ही होगा. इस सांप के फन को यहीं कुचल देना होगा. काफी रात गए तक वह सड़कों पर घूमता रहा. फिर वापस लौट आया इस निर्णय के साथ कि वह सही स्थिति का पता लगा कर रहेगा, असली अपराधी को दंडित कर के रहेगा.

अगले दिन सुबहसुबह ही सुनयना आ धमकी. चेहरे पर झलकती वही कुटिल मुसकान और आंखों में वही कमीनापन. उसे देखते ही वह क्रोध से भर गया. उस ने सोच लिया कि आज फैसला कर के ही रहेगा. सुनयना और जया हमेशा की तरह अलग कमरे में बैठ गईं. दोनों के बीच खुसुरफुसुर होने लगी. वह दरवाजे के पास खड़ा हो कर दोनों की बातें सुनने लगा. सुनयना धीमेधीमे स्वर में कह रही थी, ‘‘तुम तो मूर्ख हो, जया. तुम समझतीं क्यों नहीं? तुम इस घर की बहू हो, कोई लौंडीबांदी तो हो नहीं. तुम्हें क्या पड़ी है कि तुम सास की मिन्नतचिरौरी करती फिरो? तुम क्यों किसी की धौंस सहो? आखिर इस घर में कमाता कौन है? तुम्हारा पति ही तो. फिर तुम्हें देवरननदों के नखरे उठाने की क्या जरूरत है?’’

वह चुपचाप सुनता रहा. सुनयना जया को समझाती रही. जया उसे अपनी सब से बड़ी हितचिंतक समझती थी जबकि वह उसे बरबाद करने पर तुली थी. काफी देर तक वह सुनता रहा. वह अपनेआप को रोक नहीं पाया. दरवाजे की ओट से निकल कर वह भीतर चला गया. उसे इस प्रकार अप्रत्याशित रूप से आया देख कर दोनों बहनें सकपका गईं. मगर सुनयना तुरंत ही संभल गई. वह मुसकरा कर बोली, ‘‘आइए जीजाजी. आप तो कभी हमारे साथ बैठते ही नहीं, हम से कभी बोलते ही नहीं.’’

‘‘आज मैं तुम से बातें करने के लिए ही आया हूं,’’ वह बोला. उस की आवाज में व्यंग्य का पुट था.

सुनयना सकपका सी गई, फिर बोली, ‘‘आप की तबीयत कैसी है?’’

‘‘तुम्हारी मेहरबानी से अच्छा ही हूं,’’ कटु और व्यंग्यभरी आवाज में बोला. लेकिन फिर अपने स्वर को मधुर बना कर पूछा, ‘‘विनोद भाईसाहब के क्या हाल हैं?’’

‘‘ठीक हैं,’’ सुनयना ने जवाब दिया. इस प्रसंग से वह बचना चाहती थी. यह उस का एक कमजोर पहलू जो था.

‘‘सुना है पिछले कई दिनों से वे घर पर नहीं लौटे.’’ सुनयना का चेहरा पीला पड़ गया. भरे बाजार में जैसे उसे किसी ने निर्वस्त्र कर दिया हो. कोई उपयुक्त जवाब उसे नहीं सूझा. फिर भी उस ने कहा, ‘‘यह तो उन की मरजी है, मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘सुना है आजकल खाना भी वे होटल में ही खाते हैं,’’ वह एक के बाद एक सवाल करता गया. सुनयना की असली तसवीर को वह जया के सामने प्रकट कर देना चाहता था ताकि जया पहचान सके कि सुनयना कैसी औरत है. जया सुनयना को अपनी सब से बड़ी हितचिंतक समझती थी. वह उस की बातों में आ कर, उस पर विश्वास कर के अपने घर को तबाह करने पर तुली हुई थी. जया के सामने सुनयना की पोल खोल देना बहुत जरूरी थी. जया बड़ी हैरानी से उसे देख रही थी. उसे आश्चर्य हो रहा था कि आज वह कैसी बातें कर रहा है, सुनयना का अपमान करने पर क्यों तुला हुआ है. सुनयना अपनी सफाई देती हुई बोली, ‘‘अब देखिए न, जीजाजी, उन के लिए घर में क्या जगह नहीं है? घर में खाना नहीं है? लेकिन मुझे बदनाम करने के लिए वे होटलों में रहते हैं.’’

‘‘होटलों में सोनेखाने का न तो विनोद को शौक है और न ही वह तुम्हें बदनाम करना चाहता है. तुम अपनी गलतियों पर परदा क्यों डालना चाहती हो? तुम यह क्यों नहीं स्वीकार करतीं कि तुम्हारे व्यवहार की वजह से ही विनोद यह जिंदगी जीने को

विवश हुआ है? मैं मानता हूं कि वह घर में होगा तो उसे सोने की जगह और खाने को रोटी मिल जाएगी,  मगर घर सिर्फ खाने और सोने के लिए ही नहीं होता. वहां और भी बहुत कुछ होता है. प्यार होता है, मधुर संबंध होते हैं. तुम ने कभी अपने पति को प्यार दिया है,

पत्नीत्व का सुख दिया है? विनोद दफ्तर से लौटता है और तुम मुसकरा कर उस का स्वागत करने के बजाय उसे जलीकटी सुनाने लगती हो. उस पर तरहतरह के लांछन लगाती हो. आखिर कोई कब तक बरदाश्त कर सकता है? वह होटल में नहीं जाएगा तो क्या करेगा?’’ वह क्रोध और आवेश में सुनयना पर बरस पड़ा. सुनयना इस अपमान को बरदाश्त नहीं कर पाई. तिलमिला कर उठ गई, ‘‘जीजाजी, आप मेरा अपमान कर रहे हैं. हमारी घरेलू जिंदगी में दखल दे रहे हैं आप.’’

‘‘मैं मानता हूं कि मैं तुम्हारी घरेलू जिंदगी में दखल दे रहा हूं. मगर तुम्हें भी हमारे घरेलू मामलों में दखल देने का क्या अधिकार है? तुम क्यों हमारे घर की बरबादी पर जश्न मनाना चाहती हो? तुम यहां किसलिए आती हो? इसीलिए न कि तुम जया को हम सब के खिलाफ भड़का सको, इस घर की शांति को भी खत्म कर सको? अपना घर तो तुम ने तबाह कर ही लिया है, अब हमारा घर तबाह करने पर तुली हुई हो.’’ सुनयना इस अपमान को झेल नहीं पाई. क्रोध और आवेश में आ कर वह जाने लगी, ‘‘जया, मैं नहीं जानती थी कि इस घर में मेरा इस प्रकार अपमान होगा.’’ जया ने उसे रोकना चाहा मगर वह उसे मना करते हुए बोला, ‘‘उसे जाने दो, जया, और उस से कह दो कि फिर कभी हमारे घर न आए. हमें ऐसे हितचिंतकों की जरूरत नहीं है.’’ सुनयना चली गई तो जया रोने लगी,  ‘‘यह आज आप को क्या हो गया है? आप ने मेरी बहन का अपमान किया है.’’

उस ने जया को समझाया, ‘‘उसे अपनी बहन मत कहो. जो औरत तुम्हारी बसीबसाई गृहस्थी उजाड़ना चाहती है, तुम्हारे सुखों को जला डालना चाहती है, उसे बहन समझना तुम्हारी बहुत बड़ी भूल है. जानती हो विनोद की क्या हालत है? अपना घर और अपनी पत्नी होते हुए भी वह बेचारा आवारों जैसी जिंदगी जी रहा है. न उस के रहने का कोई ठिकाना है न खाने का. कभी कहीं पड़ा रहता है, कभी कहीं. उस की यह दशा किस ने की है? तुम्हारी इसी प्यारी बहन ने. सुनयना उसे चैन से नहीं जीने देती. उस से हर समय झगड़ती रहती है. वह न खुद शांति से रहती है न दूसरों को रहने देती है. वही सुनयना हर रोज तुम्हें कोई न कोई पाठ पढ़ा जाती है. हर रोज तुम्हें किसी नए षड्यंत्र में उलझा जाती है क्योंकि उसे तुम्हारा सुख बरदाश्त नहीं है. अपनी तरह वह तुम्हें भी उजाड़ डालना चाहती है.

‘‘जया, जरा याद करो पहले हम कितने सुखी थे. तुम भी खुश रहती थी. मां भी खुश थीं. कैसी हंसीखुशी से हमारी जिंदगी बीत रही थी. न तुम्हें किसी से कोई शिकायत थी और न किसी को तुम से. लेकिन आज क्या हालत है? दिनरात तुम क्रोध और घृणा से भरी रहती हो. हर रोज मां से तुम्हारी लड़ाई होती है. तुम्हें किसी से प्यार नहीं रह गया है. मुझ से भी तुम प्यार के बजाय शिकायतें ही करती रहती हो. क्यों? सिर्फ सुनयना की वजह से. वह एक मक्कार और धूर्त औरत है. कुछ लोग ऐसे ही होते हैं जो कभी किसी का सुख बरदाश्त नहीं कर पाते. सुनयना ऐसी ही औरत है.

‘‘मुझे समझने की कोशिश करो, जया. मेरी जिम्मेदारियों को समझने की कोशिश करो. सुनयना की बातों से हट कर सोचने की कोशिश करो. इस घर को उजाड़ने के बजाय बसाने की कोशिश करो.’’ जया भौचक्की सी रह गईं. उसे लगा  जैसे उस के दिमाग के परदे खुलने शुरू हो गए हैं. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह पति के कंधे पर सिर रख कर आत्मग्लानि व आत्मसमर्पण से सिसकने लगी. आज कितने दिनों बाद वह घर में सुख महसूस कर रहा था.

सुकून: क्यों सोहा की शादी नहीं करवाना चाहते थे उसके माता-पिता

सुधाकरऔर सविता की शादी के 7 साल बाद सोहा का जन्म हुआ था. पतिपत्नी के साथ पूरे परिवार की खुशी की सीमा न रही थी. शानदार दावत का आयोजन कर दूरदूर के रिश्तेदारों को आमंत्रित किया गया था.

सोहा के 3 साल की होने पर उसे स्कूल में दाखिल करवा दिया. एक दिन सविता को बेटी के पैर पर व्हाइट स्पौट्स से दिखे. रात में सविता ने पति को बताया तो अगले दिन सोहा को डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने ल्यूकोडर्मा कनफर्म किया. जान कर पतिपत्नी को गहरा आघात लगा. इकलौती बेटी और यह मर्ज, जो ठीक होने का नाम नहीं लेता.

डाक्टर ने बताया, ‘‘ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण व्हाइट स्पौट्स हो जाते हैं. कभीकभी कोई दवा भी रीएक्शन कर जाती है. आप अधिक परेशान न हों. अब ऐसी दवा उपलब्ध है जिस के सेवन से ये बढ़ नहीं पाते और कभीकभी तो ठीक भी हो जाते हैं.’’

डाक्टर की बात सुन कर सुधाकर और सविता ने थोड़ी राहत की सांस ली. फिर स्किन स्पैशलिस्ट की देखरेख में सोहा का इलाज शुरू हो गया.

यौवन की दहलीज पर पांव रखते ही सोहा गुलाब के फूल सी खिल उठी. उस के सरल व्यक्तित्व और सौंदर्य में बेहिसाब आकर्षण था. मगर उस के पैरों के व्हाइट स्पौट्स ज्यों के त्यों थे. हां, दवा लेने के कारण वे बढ़े नहीं थे. सोहा को अपने इस मर्ज की कोई चिंता नहीं थी.

सविता और सुधाकर ने कभी इस बीमारी का जिक्र अथवा चिंता उस के समक्ष प्रकट नहीं की. अत: सोहा ने भी कभी इसे मर्ज नहीं समझा.

पढ़ाई पूरी करने के बाद फैशन डिजाइनर की ट्रेनिंग के लिए उस का चयन हो गया. वह कुशाग्रबुद्धि थी. अत: फैशन डिजाइनर का कोर्स पूर्ण होते ही उसे कैंपस से जौब मिल गई. बेटी की योग्यता पर मातापिता को गर्व की अनुभूति हुई.

सोहा को जौब करतेकरते 2 साल बीत गए. अब सविता को उस की शादी की चिंता होने लगी. सर्वगुणसंपन्न होने पर भी बेटी में एक भारी कमी के कारण पतिपत्नी की कहीं बात चलाने की हिम्मत नहीं पड़ती. दोनों जानते थे कि उस की योग्यता और खूबसूरती के आधार पर बात तुरंत बन जाएगी, लेकिन फिर उस की कमी आड़े आ जाएगी, सोच कर उन का मर्म आहत होता.

यद्यपि सुधाकर और सविता को पता था कि शरीर की सीमित जगहों पर हुए ल्यूकोडर्मा के दागों को छिपाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी कराई जा सकती है, लेकिन पतिपत्नी 2 कारणों से इस के लिए सहमत नहीं थे. पहला यह कि वे अपनी प्यारी बेटी सोहा को इस तरह की कोई शारीरिक तकलीफ नहीं देना चाहते थे और दूसरा यह कि इस रोग को सोहा की नजरों में कुछ विशेष अड़चन अथवा शारीरिक विकृति नहीं समझने देना चाहते थे. इसी कारण सोहा अपने को हर तरह से नौर्मल ही समझती.

दोनों पतिपत्नी को पूरा विश्वास था कि उन की बेटी को अच्छा वर और घर मिल जाएगा. इसी विश्वास पर सुधाकर ने औनलाइन सोहा की शादी का विज्ञापन डाला.

कुछ दिनों के बाद यूएसए से डाक्टर अर्पित का ईमेल आया, साथ में उन का फोटो भी. उन्होंने अपना पूरा परिचय देते हुए लिखा था, ‘‘मैं डा. अर्पित स्किन स्पैशलिस्ट हूं. बैचलर हूं और स्वयं के लिए आप का प्रस्ताव पसंद है. आप ने अपनी बेटी में जिस कमी का वर्णन किया है, वह मेरे लिए कोई माने नहीं रखती है. मैं आप को पूर्ण विश्वास दिलाना चाहता हूं कि हमारी तरफ से आप को या आप की बेटी को कभी किसी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा.

‘‘यदि आप को भी हमारा रिश्ता मंजूर हो तो आप लोग बैंगलुरु जा कर मेरे मातापिता से बात कर सकते हैं. बात पक्की होने पर मैं विवाह के लिए इंडिया आ जाऊंगा.’’

अर्पित का मैसेज सुधाकर और सविता को सुखद प्रतीत हुआ. सोहा से भी बात की. उसे भी अर्पित की जौब और फोटो पसंद आया. मातापिता के कहने पर उस ने अर्पित से बात भी की. सब कुछ ठीक लगा.

बैंगलुरु जा कर सुधाकर ने अर्पित के परिवार वालों से बातचीत की. बिना किसी नानुकुर के शादी पक्की हो गई. 1 माह का अवकाश ले कर अर्पित इंडिया आ गया. धूमधाम के साथ सोहा और अर्पित परिणयसूत्र में बंध गए. विवाहोपरांत कुछ दिन मायके और ससुराल में रह कर वह अर्पित के साथ यूएसए चली गई.

सबकुछ अच्छा होने पर भी सुधाकर और सविता को बेटी के शुभ भविष्य के प्रति मन में कुछ खटक रहा था.

यूएसए पहुंच कर सोहा रोज ही मां से फोन पर बातें करती. अपना,

अर्पित का और दिनभर कैसे व्यतीत हुआ, पूरा हाल बताती. अर्पित के अच्छे स्वभाव की प्रशंसा भी करती.

सविता को अच्छा लगता. वे पूछना चाहतीं कि उस के पैरों के बारे में कुछ बात तो नहीं होती, लेकिन पूछ नहीं पाती, क्योंकि अभी तक कभी उस से व्यक्तिगत रूप से इस पर बात कर के उस का ध्यान इस तरफ नहीं खींचा था ताकि बेटी को कष्ट की अनुभूति न हो.

सोहा ने भी कभी इस बाबत मां से कोई बात नहीं की, इस विषय में मां से कुछ कहना उसे कोई जरूरी बात नहीं लगती थी. बस इसी तरह समय सरकता रहा.

स्वयं स्किन स्पैशलिस्ट डाक्टर होने के कारण अर्पित को ल्यूकोडर्मा के बारे में पूरी जानकारी थी. वे इस से परिचित थे कि यह बीमारी आनुवंशिक होती है और न ही छूत से. अपितु शरीर में ब्लड में कुछ खराबी होने के कारण हो जाती है. एक लिमिट में रहने तक प्लास्टिक सर्जरी से छिपाया जा सकता है. उन्होंने सोहा के साथ भी वही किया. कुछ अन्य डाक्टरों से सलाहमशवरा कर के उन्होंने बारीबारी से सोहा के दोनों पैर प्लास्टिक सर्जरी द्वारा ठीक कर दिए.

कुछ समय और बीता तो सोहा को पता चला कि उस के पांव भारी हैं. उस ने अर्पित को इस शुभ समाचार से अवगत कराया.

अर्पित ने अपनी खुशी व्यक्त करते हुए उसे बांहों में भर लिया, ‘‘मां को भी इस शुभ समाचार से अवगत कराओ,’’ अर्पित ने कहा.

‘‘हां, जरूर,’’ सोहा ने मुसकराते हुए कहा.

दूसरे दिन सोहा ने फोन पर मां को बताया. सविता और सुधाकर को अपार हर्ष की

अनुभूति हुई. उन्हें विश्वास हो गया कि उन की बेटी का दांपत्य जीवन सुखद है.

दोनों पतिपत्नी ने शीघ्र यूएसए जाने की तैयारी भी कर ली. सोहा और अर्पित के पास मैसेज भी भेज दिया. यथासमय बेटीदामाद उन्हें रिसीव करने पहुंच गए. काफी दिनों बाद सोहा को देख कर सविता ने उसे गले से लगा लिया. घर आ कर विस्तृत रूप से बातचीत हुई.

सोहा के पैरों को सही रूप में देख कर सुधाकर और सविता को असीम खुशी हुई.

शिकायत करती हुई सविता ने सोहा से कहा, ‘‘अपने पैरों के बारे में तुम ने मुझे नहीं बताया?’’

‘‘हां मां, यह कोई ऐसी विशेष बात तो थी नहीं, जो तुम्हें बताती,’’ सोहा ने लापरवाही से कहा.

सविता के मन ने स्वीकार लिया कि बेटी की जिस बीमारी को ले कर वे लोग 24-25 सालों तक तनाव में रहे वह अर्पित के लिए कोई विशेष बात नहीं रही. ‘योग्य दामाद के साथ बेटी का दांपत्य जीवन और भविष्य उज्ज्वल रहेगा,’ सोच सविता को भारी सुकून मिला.

New Year Special: मुसकुराता नववर्ष- क्या हुआ था कावेरी के साथ

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New Year Special: हैप्पी न्यू ईयर- निया को ले कर माधवी की सोच उस रात क्यों बदल गई

निया औफिस के लिए तैयार हो रही थी. माधवी वैसे तो ड्राइंगरूम में पेपर पढ़ रही थीं पर उन का पूरा ध्यान अपनी बहू निया की ओर ही था. लंबी, सुडौल देहयष्टि, कंधों तक कटे बाल, अच्छे पद पर कार्यरत अत्याधुनिक निया उन के बेटे विवेक की पसंद थी. माधवी को भी इस प्रेमविवाह में आपत्ति करने का कोई कारण नहीं मिला था. इतनी समझ तो वे भी रखती हैं कि इकलौते योग्य बेटे ने यों ही कोई लड़की पसंद नहीं की होगी. उन्होंने मूक सहमति दे दी थी पर पता नहीं क्यों उन्हें निया से दिल से एक दूरी महसूस होती थी. वे स्वयं उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में अकेली रहती थीं. पति श्याम सालों पहले साथ छोड़ गए थे.

विवेक की नौकरी मुंबई में थी. उस ने जब भी साथ रहने के लिए कहा था, माधवी ने यह कह कर टाल दिया था, ‘‘सारा जीवन यहीं तो बिताया है, पासपड़ोस है, संगीसाथी हैं. वहां

मुंबई में शायद मेरा मन न लगे. तुम दोनों तो औफिस में रहोगे दिन भर. अभी ऐसे ही चलने दो, जरूरत हुई तो तुम्हारे पास ही आऊंगी. और कौन है मेरा.’’

साल में एकाध बार वे मुंबई आ जाती हैं पर यहां उन का मन सचमुच नहीं लगता. दोनों दिन भर औफिस रहते, घर पर भी लैपटौप या फोन पर व्यस्त दिखते. साथ बैठ कर बातें करने का समय दोनों के पास अकसर नहीं होता. ऊपर से निया का मायका भी मुंबई में ही था. कभी वह मायके चली जाती तो घर उन्हें और भी खाली लगता.

नया साल आने वाला था. इस बार वे मुंबई आई हुई थीं. निया ने भी फोन पर कहा था, ‘‘यहां आना ही आप के लिए ठीक होगा. मेरठ की ठंड से भी आप बच जाएंगी.’’

निया से उन के संबंध कटु तो बिलकुल भी नहीं थे पर निया उन से बहुत कम बात करती थी. माधवी को लगता था कि शायद विवेक उन्हें जबरदस्ती मुंबई बुला लेता है और निया को शायद उन का आना पसंद न हो. निया की सोच बहुत आधुनिक थी.

‘‘पतिपत्नी दोनों कामकाजी हों तो घरबाहर दोनों के काम दोनों मिल कर ही संभालते हैं,’’ यह माधवी ने निया के मुंह से सुना था तो उस की स्पष्टवादिता पर बड़ी हैरान हुई थीं.

निया को वे मन ही मन खूब जांचतीपरखती और उस की बातों पर मन ही मन हैरान सी रह जातीं. सोचतीं, अजीब मुंहफट लड़की है. आधुनिकता और आत्मनिर्भरता ने इन लड़कियों का दिमाग खराब कर दिया है.

कल ही कह रही थी, ‘‘विवेक, मैं बहुत थक गई हूं. तुम ही सब का खाना लगा लो.’’

उन्हें तो थकेहारे बेटे पर तरस ही आ गया. फौरन कहा, ‘‘अरे, तुम दोनों आराम से फ्रैश हो लो. मैं खाना लगा लूंगी. श्यामा सब बना कर तो रख ही गई है. बस, लगाना ही तो है,’’ और फिर उन्होंने सब का खाना टेबल पर लगाया.

पिछले संडे को सुबह उठते ही कह रही थी, ‘‘विवेक, आज पूरा दिन रैस्ट का मूड है, श्यामा के हाथ के खाने का मूड नहीं है. नाश्ता बाहर से ले आओ और लंच भी और्डर कर देना.’’

माधवी ने पूछ लिया, ‘‘निया, मैं बना दूं कुछ?’’

निया ने हमेशा की तरह संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘नहीं मां, आप रैस्ट कीजिए.’’

मुझ से तो पता नहीं क्यों इतना कम बोलती है यह लड़की. अभी 2 साल ही तो हुए हैं विवाह को. सासबहू वाला कोई झगड़ा भी कभी नहीं हुआ, फिर इतनी गंभीर क्यों रहती है. ऐसा भी क्या सोचसमझ कर बात करना, माधवी अपनी सोच के दायरे में उलझी सी रहतीं.

माधवी को मुंबई आए 10 दिन हो रहे थे. निया नए साल पर सब दोस्तों को घर पर बुला कर पार्टी करने के मूड में थी. विवेक भी खूब उत्साहित था. पर अगले ही पल क्या हो जाए, किसे पता होता है. शाम को अचानक बाथरूम में माधवी का पैर फिसला तो वे चीख पड़ीं. विवेक और निया भागे आए. दर्द की अधिकता से माधवी के आंसू बह निकले थे. उन्हें फौरन हौस्पिटल ले जाया गया. पैर में फ्रैक्चर हो गया था. प्लास्टर चढ़ाया गया.

माधवी को इस बेबसी में रोना आ रहा था. घर आ कर भी 2-3 दिन सो न सकीं. बड़ी बेचैन थीं. डाक्टर को घर पर ही बुलाया गया. उन का ब्लडप्रैशर हाई था, पूर्ण आराम और दवा के लिए निर्देश दे डाक्टर चला गया. विवेक उन्हें आराम करने के लिए कह लैपटौप पर व्यस्त हो गया. माधवी को इस तकलीफ में जीने की आदत डालने में कुछ दिन लग गए. पहले निया के मना करने पर भी कुछ न कुछ इधरउधर करते हुए अपना समय बिता लेती थीं, अब तो अकेलापन और बढ़ता लग रहा था.

एक संडे को वे चुपचाप अपने रूम में लेटी थीं. अचानक उन का मन हुआ कि वाकर की सहायता से ड्राइंगरूम तक जा कर देखें. यह टू बैडरूम फ्लैट था. वे बड़ी हिम्मत से वाकर के सहारे अपने रूम से बाहर निकलीं तो उन्हें बच्चों के रूम से निया का तेज स्वर सुनाई दिया. उन का दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं था. न चाहते हुए भी उन्होंने निया की बात पर ध्यान दिया.

निया तेज स्वर में कह रही थी, ‘‘मां तुम्हारी है, तुम्हें सोचना चाहिए.’’

माधवी को तेज झटका लगा, मन आहत हुआ कि इस का मतलब मेरा अंदाजा सही था कि निया को मेरा यहां आना पसंद नहीं. अब? इतना स्वाभिमान तो मुझ में भी है कि बेटेबहू के घर अवांछित सी नहीं रहूंगी. फिर फैसला कर लिया कि जल्द ही वापस चली जाएगी. अकेली रह लेंगी पर यहां नहीं आएंगी. इसलिए निया इतनी गंभीर रहती है.

उन की आंखों से मजबूरी और अपमान से आंसू बहने लगे. चुपचाप अपने रूम में आ कर लेट गईं. थोड़ी देर बाद निया उन के लिए शाम की चाय ले कर आई तो उन्होंने उस के चेहरे पर नजर भी नहीं डाली.

निया ने कहा, ‘‘मां, उठिए, चाय लाई हूं.’’

‘‘ले लूंगी, तुम रख दो.’’

निया चाय रख कर चली गई. माधवी का दिल भर आया, कोई उन से पूछने वाला भी नहीं कि वे क्यों उदास, दुखी हैं. थोड़ी देर में उन्होंने ठंडी होती चाय पी ली और विवेक को आवाज दी. विवेक आ कर गंभीर मुद्रा में बैठ गया. उन्हें बेटे पर बड़ा तरस आया. सोचा,पिसते हैं बेटे मां और पत्नी के बीच.बेटा भी क्या करे. नहीं वह बेटे की गृहस्थी में तनाव का कारण नहीं बनेगी, सोच माधवी बोलीं, ‘‘विवेक प्लास्टर कटते ही मेरा टिकट करवा देना.’’

विवेक चौंका, ‘‘क्या हुआ, मां?’’

‘‘बस, जाने का मन कर रहा है.’’

‘‘ठीक हो जाओ, चली जाना. अभी तो टाइम लगेगा,’’ कह कर विवेक चला गया.

ठंडी सांस भर कर माधवी अपने विचारों में डूबतीउतरती रहीं. 27 दिसंबर की शाम को तीनों साथ ही डिनर कर रहे थे. माधवी ने यों ही पूछ लिया, ‘‘बेटा, तुम्हारी न्यू ईयर पार्टी का क्या हुआ?’’

‘‘निया ने कैंसिल कर दी, मां.’’

‘‘क्यों? तुम लोग तो इतने खुश थे?’’

‘‘बस, निया ने मना कर दिया.’’

‘‘पर क्यों, बेटा?’’

‘‘सब आएंगे, शोरशराबा होगा, आप डिस्टर्ब होंगी, आप को आराम की जरूरत है.’’ निया ने जवाब दिया.

‘‘अरे नहीं, मुझे तो अच्छा लगेगा, घर में रौनक होगी, बहुत बोर हो रही हूं मैं तो, तुम लोग आराम से नए साल का स्वागत करो, मजा आएगा.’’

निया बहुत हैरान हुई, ‘‘सच? मां? आप डिस्टर्ब नहीं होंगी?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं.’’

निया ने मुसकरा कर थैंक्स मां कहा तो माधवी को अच्छा लगा.

फिर कहा, ‘‘बस, मेरे जाने का टिकट भी करवा दो अब.’’

निया ने कहा, ‘‘नहीं, अभी तो आप की फिजियोथेरैपी भी होगी कुछ दिन.’’

माधवी उफ, कह कर चुप हो गईं. प्रत्यक्षतया तो सब सामान्य था पर माधवी अनमनी थीं. अब माधवी से दिन नहीं कट रहे थे. कभीकभी बेबस, बेचैन सी हो जातीं. मन रहा था अब. बहू उन्हें रखना नहीं चाहती, बेटा मजबूर है, यह बात दिल को कचोटती रहती थी.

31 दिसंबर की पार्टी की तैयारी में निया व्यस्त हो गई. विवेक भी हर बात, हर काम में यथासंभव साथ दे रहा था. दोनों के करीब 15 दोस्त आने वाले थे. बैठेबैठे जितना संभव था माधवी भी हाथ बंटा रही थीं. खाने की कुछ चीजें बना ली थीं, कुछ और्डर कर दी थीं. दोपहर तक सारी तैयारी के बाद लंच कर के माधवी थोड़ी देर अपने रूम में आ कर लेट गईं. अभी 3 बजे थे. 20 मिनट के लिए उन की आंख भी लग गई. उठी तो चाय की इच्छा हुई. पर फिर सोचा कि बेटाबहू आराम कर रहे होंगे, वे थक गए होंगे. अत: वह खुद ही चाय बना लेंगी.

अपने वाकर के साथ वे धीरे से उठीं तो बेटेबहू के कमरे से तेज आवाजें सुन कर ठिठक गईं, वे सुनने की कोशिश करने लगीं कि क्या फिर मेरी उपस्थिति को ले कर दोनों में झगड़ा हो रहा है? रात को तो पार्टी है और अब यह झगड़ा, वह भी उस के कारण? आंसू बह निकले.

निया की आवाज बहुत स्पष्ट थी, ‘‘मां को कहने दो, तुम कैसे मां को वापस भेजने के लिए तैयार हो? मां इतनी शांत, स्नेहिल हैं, उन से किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? वे दिन भर अकेली रहती हैं, उन का मन नहीं लगता होगा. तभी उस दिन अपना टिकट करवाने के लिए कहा होगा. मैं ने अपने औफिस में बात कर ली है. जब तक उन का प्लास्टर नहीं उतरता मैं वर्क फ्रौम होम कर रही हूं. बहुत ही जरूरी होगा किसी दिन तब चली जाऊंगी. तुम बेटे हो कर भी उन्हें भेजने की बात कैसे मान जाते हो? और कौन है उन का? वे अब कहीं नहीं जाएंगी, यहीं रहेंगी हमारे साथ.’’

मन में उठे भावों के उतारचढ़ाव से वाकर पकड़े माधवी के तो हाथ ही कांप गए, चुपचाप आ कर अपने बैड पर धम्म से बैठ गईं कि वह क्या सोच रही थी और सच क्या था.

वह कितना गलत सोच रही थी. क्या उस ने अपने मन के दायरे इतने सीमित कर लिए थे कि निया के गंभीर स्वभाव, उस की आधुनिकता को ही जांचनेपरखने में लगी रही. उस के मन की गहराई तक तो वह पहुंच ही नहीं पाई.

उफ, उस दिन भी तो निया यही कह रही थी कि मां तुम्हारी है, तुम्हें सोचना चाहिए.

सच ही तो है कि कई बार आंखें जो देखती हैं, कान जो सुनते हैं वही सच नहीं होता. वह तो निया के कम बोलने, गंभीर स्वभाव को अपनी उपेक्षा समझती रही पर यह तो निया का स्वभाव है, क्या बुराई है इस में?

उस के दिल में तो उस के लिए इतना अपनापन और प्यार है, आज निया जैसी बहू पा कर तो वह धन्य हो गई. आंखों से अब कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था, सब कुछ धुंधला सा गया था. खुशी और संतोष के आंसू जो भरे थे आंखों में.

तभी निया चाय ले कर अंदर आ गई. माधवी को विचारमग्न देखा, पूछा, ‘‘क्या सोच रही हैं, मां?’’

माधवी को कुछ समझ नहीं आया तो ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कहते हुए मुसकरा कर अपनी बांहें फैला दीं.

कुछ न समझते हुए भी उन की बांहों में समाते हुए कहा, ‘‘यह क्या मां, अभी से?’’

माधवी खुल कर हंस दीं, ‘‘हां, अचानक अपने दिल में अभी से नववर्ष का उल्लास, उत्साह अनुभव कर रही हूं.’’

नए साल का स्वागत नई उमंग से करने के लिए माधवी अब पूरी तरह से तैयार थीं. निया के सिर पर अपना स्नेहभरा हाथ फिरा कर मुसकराते हुए चाय का आनंद लेने लगीं.

रिश्तों की डोर: भाग 1- माता-पिता के खिलाफ क्या जतिन की पसंद सही थी

लेखिका- रेनू मंडल

खाना खातेखाते जतिन के हाथ रुक गए. बराबर वाले कमरे से मम्मी की आवाज आ रही थी, ‘‘क्या इसी दिन के लिए मैं ने इसे पालपोस कर बड़ा किया था कि एक दिन यह मुझे खून के आंसू रुलाएगा.’’

‘‘साहबजादे बड़े हो गए हैं न, इसलिए अपनी जिंदगी के फैसले स्वयं करेंगे. मांबाप की अब भला क्या जरूरत है?’’ यह पापा की आवाज थी.

जतिन ने हाथ में पकड़ा रोटी का कौर वापस प्लेट में रख दिया और पानी पी कर उठ गया.

‘‘क्या बात है, जतिन, खाना क्यों छोड़ दिया? और मम्मीपापा सुबहसुबह नाराज क्यों हो रहे हैं?’’ मैं ने चाय का कप टेबल पर रखा और जतिन के समीप चेयर पर बैठ गई. जतिन ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप अपना ब्रीफकेस उठाया और बैंक चल दिया. मैं हैरानी से उसे जाता देखती रही.

2 दिन पहले ही मैं अपनी ससुराल से मायके बी.एड. करने के लिए आई थी. जिस क्षण मैं ने घर की देहरी पर पांव रखा था उसी क्षण घर में पसरे तनाव को महसूस कर लिया था. यद्यपि हमेशा की भांति मम्मीपापा ने गले लगा कर मेरे माथे को चूमा था किंतु उन के माथे पर परेशानी की लकीरें मैं ने साफ महसूस की थीं.

उस समय तो घर पहुंचने के उत्साह में मैं ने इस बात को अनदेखा कर दिया था किंतु शाम होतेहोते जब जतिन घर आया तो उस का चेहरा देख कर मुझे लगा, मेरा अंदेशा गलत नहीं था. अवश्य ही घर में किसी बात को ले कर तनाव था. फिर आज सुबह की घटना, जतिन का भूखे आफिस जाना और मम्मीपापा का उसे कोसते रहना, ये सब बातें मेरे संदेह की पुष्टि कर रही थीं.

जतिन के जाते ही मैं मम्मी के पास गई और पूछा, ‘‘क्या बात है, मम्मी, उधर जतिन बिना खाना खाए बैंक चला गया और इधर आप को और पापा को गुस्सा आ रहा है. आखिर बात क्या है? कोई मुझे कुछ बताता क्यों नहीं?’’

‘‘अब तुम्हें क्या बताऊं? इस लड़के ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा. तुम्हारे पापा ने इस के रिश्ते के लिए एक जगह बात चलाई है. लड़की और उस का परिवार दोनों अच्छे हैं. कल मैं ने इसे लड़की की फोटो दिखानी चाही तो बोला, ‘मैं ने अपने लिए लड़की ढूंढ़ रखी है.’ फोटो तक देखने से इनकार कर दिया. अब तुम्हीं बताओ, मुझे और तुम्हारे पापा को गुस्सा आएगा या नहीं?’’

मम्मी की बात पर मैं सहजता से मुसकरा दी, ‘‘इस में गुस्से वाली कौन सी बात है, मम्मी. अब जमाना बदल चुका है. अकसर लड़केलड़कियां अपने जीवनसाथी स्वयं चुन लेते हैं. जतिन ने भी ऐसा कर लिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई.’’

‘‘बेकार की बातें मत कर, नीलू. समझा दे उसे. उस का विवाह वहीं होगा जहां हम चाहेंगे.’’

मैं ने एक गहरी सांस ली और अपने कमरे में आ गई.

शाम को जतिन के बैंक से वापस लौटने पर मैं ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘क्या मैं अब इतनी पराई हो गई हूं कि तुम अब अपने मन की बात भी मुझ से नहीं कह सकते हो?’’

‘‘सच कहूं, दीदी, अभी रास्ते में यही सोचता आ रहा था कि आज तुम से सारी बात कहूंगा,’’ जतिन बोला.

‘‘अच्छा, अब बता कौन है वह लड़की जिसे तू पसंद करता है,’’ मैं ने उस के लिए चाय का कप टेबल पर रखा और उस के समीप बैठ गई.

‘‘दीदी, उस का नाम स्वाति है. मेरे साथ बैंक में काम करती है. बहुत अच्छी लड़की है पर मम्मीपापा ने उसे बिना देखे अस्वीकृत कर दिया.’’

‘‘जतिन, मम्मीपापा की बात का बुरा मत मानो. वे दोनों पुराने खयालों के हैं. हम दोनों मिल कर उन्हें मनाने का प्रयत्न करेंगे. अच्छा, पहले यह बताओ, मुझे स्वाति से कब मिलवा रहे हो?’’

‘‘दीदी, कल रविवार है. शाम 5 बजे स्वाति को मैं क्वालिटी रेस्तरां में बुला लेता हूं. वहीं पर मिल लेना.’’

अगले दिन 5 बजे मैं और जतिन क्वालिटी रेस्तरां पहुंचे. जब तक जतिन कौफी का आर्डर करता, एक गोरी- चिट्टी सुंदर सी लड़की हमारे करीब आ कर खड़ी हो गई. जतिन ने हमारा परस्पर परिचय कराया. स्वाति ने तुरंत झुक कर मेरे पांव छू लिए. कौफी पीते हुए मैं उस के परिवार से संबंधित हलकेफुलके प्रश्न पूछती रही जिन का वह सहज उत्तर देती रही.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम जानती ही होगी, मम्मीपापा तुम्हारे और जतिन के विवाह के लिए राजी नहीं हैं. ऐसे में जतिन, तुम्हें छोड़ कर उन की पसंद की लड़की से विवाह कर ले तो तुम क्या करोगी?’’

‘‘दीदी, यह तुम क्या…’’ जतिन ने मुझे टोकना चाहा किंतु मैं ने उसे खामोश रहने का संकेत किया और अपना प्रश्न दोहरा दिया.

स्वाति के चेहरे पर मुझे पीड़ा के भाव दिखाई दिए. वह धीमे स्वर में बोली, ‘‘मैं भला क्या कर सकती हूं?’’

‘‘कहीं आत्महत्या जैसा मूर्खतापूर्ण कदम तो नहीं उठाओगी?’’

‘‘नहीं दीदी, मैं इतनी कमजोर नहीं हूं. जिंदगी में संघर्ष करना अच्छी तरह जानती हूं. आत्महत्या कायरों का काम है. ऐसा कर के अपने मांबाप और भाई को जीतेजी नहीं मार सकती.’’

स्वाति का जवाब सुन कर मुझे अच्छा लगा. प्यार से उस के सिर पर हाथ फेर कर मैं बोली, ‘‘मुझे अपने भाई की पसंद पर गर्व है. मैं तुम दोनों को मिलाने का पूरा प्रयास करूंगी.’’

कौफी पी कर हम लोग उठ खड़े हुए. रास्ते में जतिन बोला, ‘‘दीदी, स्वाति आप को कैसी लगी?’’

‘‘बहुत सुंदर, बहुत समझदार. तुम्हारी शादी उसी से होनी चाहिए.’’

मेरा जवाब सुन कर जतिन के मन को कुछ राहत अवश्य मिली.

एक दिन मैं कालिज से वापस लौटी, तो स्वाति मेरे साथ थी. मम्मी से उसे मिलवाते हुए मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, यह स्वाति है. राहुल की बूआ की लड़की. पिछले माह इस की हमारे शहर में नौकरी लगी है.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे मातापिता कहां पर हैं?’’

‘‘मम्मीपापा तो दिल्ली में हैं. मैं यहां होस्टल में रहती हूं,’’ मेरे सिखाए हुए जवाब स्वाति ने मम्मी के आगे दोहरा दिए.

‘‘इसे अपना ही घर समझना. जब भी मन करे, आ जाना,’’ मम्मी ने चलते हुए स्वाति से कहा. उस के बाद स्वाति का हमारे घर आनाजाना शुरू हो गया. मम्मी से उस की खूब पटने लगी थी. 2-4 दिन भी वह नहीं आती तो मम्मी उस के बारे में पूछपूछ कर मुझे परेशान कर देती थीं.

एक दिन लंच टाइम में स्वाति घर पर आई. मैं उस समय कालिज गई हुई थी. ज्यों ही वह गेट खोल कर अंदर घुसी उसे सीढि़यों पर से मम्मी के चीखने की आवाज सुनाई दी. वह तेजी से उस ओर लपकीं. देखा, मम्मी सीढि़यां उतरते हुए फिसल गई थीं. स्वाति ने उन्हें सहारा दे कर उठाया. मम्मी के बाएं हाथ में चोट आई थी. हाथ हिलाने में भी तकलीफ हो रही थी. स्वाति ने तुरंत टैक्सी की और उन्हें डाक्टर के पास ले गई. एक्सरे लेने के बाद डाक्टर ने हाथ पर कच्चा प्लास्टर चढ़ा दिया. शाम को हम सब मम्मी का हाथ देख घबरा गए.

सारी बात बता कर मम्मी बोलीं, ‘‘स्वाति बहुत अच्छी लड़की है. उस ने जिस जिम्मेदारी के साथ मेरी देखभाल की, मुझे विश्वास है, वह घर बहुत भाग्यशाली होगा जहां वह बहू बन कर जाएगी.’’

मैं ने जतिन की तरफ मुसकरा कर देखा, बोली, ‘‘मम्मी, क्यों न हम अपने ही घर को भाग्यशाली बना डालें.’’

‘‘अरे, मेरे बस में होता तो कब का बना चुकी होती, परंतु इसे भी तो अक्ल आए न. पता नहीं कौन सी लड़की पसंद किए बैठा है,’’ मम्मी ने जतिन की तरफ गुस्से से देखा.

आगे पढ़ें- मैं ने अपनी बात पूरी की ही थी कि…

रिश्तों की डोर: भाग 3- माता-पिता के खिलाफ क्या जतिन की पसंद सही थी

लेखिका- रेनू मंडल

एक शाम पापा के मित्र सुरेश अंकल आए. बातों ही बातों में वह पापा से बोले, ‘‘एक बात मुझे समझ नहीं आई. आप ने जब जतिन और स्वाति को विवाह की इजाजत दे दी थी तो फिर जतिन घर से अलग क्यों हुआ और क्यों उस ने स्वयं मंदिर में शादी कर ली?’’

‘‘अब तुम्हें क्या बताऊं? छोटीछोटी बातों में हमारे विचार मेल नहीं खा रहे थे किंतु इस का मतलब यह तो नहीं कि घर से अलग हो जाओ और स्वयं शादी रचा डालो. पालपोस कर क्या इसी दिन के लिए बड़ा किया था?’’ दबी जबान में पापा बोले.

‘‘यार, अब जमाना बहुत बदल गया है. आज की युवा पीढ़ी इन सब बातों को कहां सोचती है? मांबाप के प्रति भी उन का कुछ फर्ज है, ऐसी भावनाओं से कोसों दूर वे अपने स्वार्थ में लिप्त हैं.’’

अंकल के जाते ही मम्मी भड़क उठीं, ‘‘दोस्त के आगे बेटे को क्यों कोस रहे थे? अपनी बात भी तो उन्हें बताते कि मैं ही दहेज मांग रहा था. तुम्हारे पैसे के लालच के कारण ही जवान बेटे को घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. मेरी क्याक्या इच्छाएं थीं बेटे की शादी को ले कर किंतु सब तुम्हारे लालच की आग में भस्म हो गईं.’’

मम्मी रोने लगीं. पापा उन के आंसुओें की परवा न करते हुए चिल्लाए, ‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं अकेला ही पैसे की इच्छा कर रहा था. क्या तुम इस काम में मेरे साथ नहीं थीं? आज बड़ी दूध की धुली बन रही हो. इतनी ही पाकसाफ थीं तो उस समय मुझ से क्यों नहीं कहा कि दहेज मत मांगो. नीलू, तू ही बता, क्या तेरी मम्मी दहेज लेना नहीं चाहती थीं?’’

पापा ने मुझे अपने पक्ष में करना चाहा किंतु मम्मी भी पीछे रहने वाली नहीं थीं. वह भी बिना एक पल

गंवाए बोलीं, ‘‘नीलू, तू सच कहना, ज्यादा इच्छा किस की थी, तेरे पापा की या मेरी?’’

‘‘ओह, मम्मीपापा, आप दोनों चुप रहो,’’ मैं खीज उठी, ‘‘जो बीत गया उस की लकीर पीटने से क्या फायदा? बीता वक्त तो हाथ आ नहीं सकता. हां, आने वाला वक्त हमारे हाथ में है. उसे अवश्य संवार सकते हैं,’’ बिगड़ी बात मनाने का एक सूत्र उन के हाथ में दे कर मैं कमरे से बाहर चली आई. अभी मुझे ढेरों काम करने थे. 2 दिन बाद मम्मीपापा और मुझे रमा मौसी की लड़की की शादी में जयपुर जाना था.

जयपुर पहुंचने पर रमा मौसी से आराम से बैठ कर बात करने का वक्त ही नहीं मिला. अगले दिन शादी थी और वह काम करने में व्यस्त थीं. मुझे लगा, व्यस्त होने के साथसाथ वह तनावग्रस्त भी थीं. शाम के समय बड़े मामाजी से मौसीमौसा की परेशानी का कारण पूछा तो वह बोले, ‘‘अरे, तुम लोगों को नहीं पता रमा की परेशानी का कारण. लड़के वालों ने दहेज में कार मांगी है. अब तुम लोग तो जानते ही हो, रमा के पति सुरेशजी रिटायर हो चुके हैं. कार के लिए रुपयों का इंतजाम करना कितना कठिन काम था. लड़की की शादी

क्या की, कर्जे के नीचे दब गए रमा और जीजाजी.’’

मामीजी बोलीं, ‘‘मैं ने तो रमा दीदी से कहा था कि ऐसे लालची लोगों से रिश्ता मत जोड़ो. अरे, जिस ने अपनी लड़की दे दी उस ने सबकुछ दे दिया किंतु रमा दीदी नहीं मानीं. उन्हें डर था, कहीं अच्छा रिश्ता जल्दी मिले न मिले. दरअसल, लड़की वालों की कमजोरी की वजह से ही लड़के वाले ज्यादा सिर चढ़ते हैं.’’

मामामामी की बातें सुन कर मम्मीपापा के चेहरे का रंग उड़ गया. मम्मी धीरे से हांहूं कर के रह गईं. मैं मन ही मन उन की मनोस्थिति का अंदाजा लगा रही थी. क्या बीत रही होगी उन के मन पर. थोड़ी देर पहले तक दोनों रमा मौसी को ले कर कितने चिंतित थे किंतु अब उन की परेशानी का कारण जान कर दोनों के मुंह पर ताला लग गया था.

जयपुर से वापस लौट कर मम्मीपापा और भी व्यथित रहने लगे. मन ही मन दोनों प्रायश्चित की अग्नि में जल रहे थे. अब हर दूसरे दिन मम्मी मुझ से पूछ बैठतीं, ‘‘नीलू, जतिन के घर गई थी क्या?’’ मेरे हां कहने पर उत्सुकता से बेटेबहू के बारे में पूछतीं. मैं जानती थी, मम्मी और पापा के मन में इन दिनों क्या चल रहा था. दोनों अजीब सी कशमकश में फंसे हुए थे. एक तरफ बेटेबहू की ममता तो दूसरी तरफ उन का अहं.

एक दिन मैं कालिज से लौटी तो देखा, मम्मीपापा चाय पी रहे थे. मैं ने उन्हें बताया, ‘‘आज मैं जतिन के घर गई थी. स्वाति को 2 दिन से बुखार है.’’

‘‘अरे, तो उस की देखभाल कौन कर रहा होगा? वह तो पहले ही कमजोर है,’’ मम्मी को चिंता होने लगी.

पापा बोले, ‘‘ऐसा करो जतिन

की मां, खाना बना लो, नीलू वहां दे आएगी.’’

मैं कुछ पल सोचती रही फिर बोली, ‘‘मम्मी, सच कहिए, क्या आप दोनों का मन नहीं करता जतिन और स्वाति को देखने का?’’

‘‘मन तो बहुत करता है. अकसर रातों को नींद खुल जाती है. उस समय कितनी छटपटाहट होती है, क्या बताऊं. तुम्हारे पापा से कुछ कहती हूं तो उन की आंखें पहले ही भर आती हैं. कहते हैं, मांबाप तो अपने घर को बसाते हैं और हम ने बसेबसाए घर के टुकड़े कर दिए.’’

‘‘आप चाहें मम्मी तो इन टुकड़ों को पुन: जोड़ सकती हैं. इस घर को फिर से बसा सकती हैं.’’

‘‘जतिन कभी हमें याद करता है, नीलू,’’ पापा के चेहरे पर गहन पीड़ा के भाव उभर आए थे.

‘‘आप को अपनी ममता पर भरोसा नहीं है मम्मीपापा. जब आप उसे नहीं भूले तो वह आप को कैसे भूल सकता है? आप दोनों मेरा कहा मानिए, यह अत्यंत उपयुक्त अवसर है जतिन और स्वाति के पास जाने का. इस समय आप का बड़प्पन भी बना रहेगा और आप की इच्छा भी पूरी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक है जतिन की मां, हम चलते हैं अपने बेटेबहू के पास.’’

हम तीनों जतिन के घर पहुंचे. हमें यों अचानक आया देख जतिन और स्वाति हक्केबक्के रह गए. स्वाति ने तुरंत उठ कर मम्मीपापा के पांव छू लिए. स्नेह से दोनों के सिर पर हाथ फेर कर मम्मी बोलीं, ‘‘हमें माफ कर दो बच्चो. हम अपनी गलती पर बहुत शर्मिंदा हैं.

‘‘ऐसा मत कहिए मम्मी, क्षमा मांगने का अधिकार सिर्फ बच्चों का होता है,’’ मम्मीपापा को देख कर जतिन का चेहरा खुशी से चमक उठा था. उस ने आदर से उन्हें बैठाया. मैं ने जल्दी से सब के लिए चाय बना ली. चाय पीते हुए पापा बोले, ‘‘बच्चो, पिछली बातें भुला कर क्या तुम दोनों अब अपने घर चलने के लिए तैयार हो?’’

‘‘पापा, परिस्थितिवश मैं आप से अलग भले ही रहने लगा परंतु दूर कभी नहीं हुआ. आप जब कहेंगे, हम आ जाएंगे.’’

मम्मीपापा के पछतावे के बारे में मैं ने जतिन और स्वाति को पहले ही बता रखा था इसलिए वे दोनों अपने को मानसिक रूप से इस सब के लिए तैयार कर चुके थे.

‘‘फिर देर किस बात की है? आज ही तुम दोनों हमारे साथ चलो. सामान बाद में आता रहेगा. स्वाति बीमार है. वहां पर इस की भलीभांति देखभाल होगी.’’

‘‘और मुझे छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ेगी. आप लोग तो जानते ही हैं, मुझ पर छुट्टियों की हमेशा कमी रहती है,’’ जतिन की इस बात पर स्वाति ने उस की ओर आंखें तरेर कर देखा फिर हंस पड़ी.

मैं सोच रही थी, जीवन में सुख और दुख धूपछांव के समान आते रहते हैं. जहां दिलों में प्यार होता है वहां रिश्तों की डोर इतनी आसानी से नहीं टूटती.

बेऔलाद: क्यों पेरेंट्स से नफरत करने लगी थी नायरा

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