लोकतंत्र और धर्म गुरु

देशभक्ति न नारों से आती है न सिर्फ पूजापाठ हालांकि दोनों को ही जरूरत हर युग में देशभक्ति दर्शाने और उसे अंधभक्ति बनाने में पड़ी है. यूक्रेन में देश भक्ति का मामला कुछ और ही है. यहां न तो राष्ट्रीय व्लादिमीर जेलेंस्की ने नारेबाजी की और न ही धर्माचार्य ने ‘हिंदू खतरे में हैं’ जैसा नारा लगाया. यूक्रेन के निवासियों ने ही नहीं. यूक्रेन से बाहर बसे यूक्रेनियों ने भी यूक्रेन पहुंच कर रूसी हमले का मुकाबला करने का फैसला ले लिया.

लगभग 1, 40,000 जवान बाहर से यूक्रेन पहुंच चुके हैं कि वे देश की रक्षा करने के लिए जान की बाजी लगाएंगे. यूक्रेनी आमतौर पर औरतों, बच्चों और बूढ़ों को देश से बाहर भेज रहे हैं और खुद देश की रक्षा में लग गए हैं. यह नारेबाजी की देन नहीं, यह चर्च की पहल पर नहीं हो रहा. यह तो एक बदमाश को सही सबक सिखाने का कमिटमैंट है.

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यूक्रेनी ही नहीं लगभग 10,000 दूसरी नागरिकता के लोग भी यूक्रेन पहुंच गए हैं जो लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए लडऩे के लिए रूस की भारी भरकम फौज को सबक सिखाने को तैयार हैं. यह रूस यूक्रेन युद्ध वियतनाम, इराक, लीबिया, अफगानिस्तान की लड़ाइयों अपर्ग दिख रहा है. लोकतंत्र प्रेमी सभी देश एक तरफ हैं. भारत, पाकिस्तान, चीन जैसे देशों की मरकलें जो लोकतंत्र अब कोरे वोट तंत्र में बदल चुकी हैं या बदलने की कोशिश कर रही हैं, रूस को खुला या छिपा सपोर्ट दे रही हैं. यह लड़ाई तो आम जनता के हकों की है क्योंकि रूस के व्लादिमीर पुतिन अपने टैंकों से सोवियत यूनियन की तर्ज पर रौंद कर मास्को का साम्राज्य बनाना चाह रहे हैं.

यूक्रेनी और दूसरे देशों के लोकतंत्र के समर्थक युवा रूस के मंसूबों पर पानी फेर देने के चक्कर में अपनी जान की बाजी लगाने को तैयार हैं. देशभक्ति इसे कहते हैं जिस का उद्देश्य सिर्फ कुछ शासकों या धर्मगुरूओं की रक्षा करना न हो. दुनिया में ज्यादातर युद्ध शासकों की सत्ता को फैलाने या बचाने के लिए या फिर किसी धर्म को फैलाने के नाम पर हुए हैं. अब यह पहला बड़ा युद्ध बन रहा है जिस में एक तरफ देश भक्ति और जनशक्ति से लबाबदा युवा. यूक्रेन की परीक्षा लोकतंत्र की परीक्षा है. उम्मीद करें कि जीत युवाओं की हो, तानाशाहों की नहीं.

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मत पहनाओ धर्म की चादर

लताब भारत रत्न लता मंगेशकर हमारे बीच नहीं हैं. मगर उन के संघर्ष की कहानियों के साथ उन का कृतित्व, उन के द्वारा स्वरबद्ध गीत सदैव लोगों के दिलोदिमाग में रहेगा. पिता दीनानाथ मंगेशकर के असामायिक देहांत के चलते महज 13 वर्ष की उम्र में भाई हृदयनाथ, 3 बहनों मीना, आशा व उषा तथा मां सहित पूरे परिवार की जिम्मेदारी कंधों पर आ जाने के बाद लता मंगेशकर अपनी मेहनत, लगन, जिद व सख्त इरादों के बल पर सिर्फ देश ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एक अलग छाप छोड़ गईं.

पिता की याद में पुणे में अस्पताल

लता के पिता दीनानाथ मंगेशकर का निधन पुणे के ससून जनरल अस्पताल में हुआ था. पिता का निधन एक जख्म की तरह लता मंगेशकर के दिल में रहा. इसीलिए जब वे सक्षम हुईं, तो उन्होंने पुणे में सर्वसुविधासंपन्न अस्पताल बनवाया, जहां आज भी गरीबों का इलाज महज 10 रुपए में किया जाता है. इस अस्पताल में कई गायक, संगीतकार, म्यूजीशियन व कलाकार इलाज करा चुके हैं.

इस अस्पताल के निदेशक डा. केलकर कहते हैं, ‘‘लताजी ने बिना कौरपोरेट कल्चर वाले अस्पताल का सपना देखते हुए इस का निर्माण किया था, जहां हर इंसान अपने इलाज के लिए सहजता से पहुंच सके और कम दाम में अपना इलाज करा सके. इस के अलावा एक अस्पताल नागपुर में बनवाया. प्राकृतिक आपदा के वक्त भी मदद के लिए आगे आती थीं.’’

मगर लता मंगेशकर की आवाज ही उन की पहचान बनी. उन की आवाज के दीवाने पूरे विश्व में हैं. 36 भाषाओं में एक हजार से अधिक फिल्मों में उन्होंने 50 हजार से अधिक गाने गाए.

मगर आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो उन के द्वारा स्वरबद्ध गीतों यानी उन के कार्यों की भी समीक्षाएं हो रही हैं. परिणामतया यह बात उभर कर आ रही है कि लता मंगेशकर ने अपनी हिंदुत्ववादी छवि को बरकरार रखने के लिए जिस तरह से भक्तिगीत गाते हुए जाने या अनजाने धर्म का प्रचार किया, वह 21वीं सदी के भारत के लिए उचित नहीं है.

मगर कुछ लोग मानते हैं कि लता मंगेशकर ने अपने कैरियर के शुरुआती दौर में परिवार के आर्थिक हालात को देखते हुए अपने प्रोफैशन यानी गायकी के प्रति ईमानदार रहते हुए उन्हें जिन गीतों को भी गाने का अवसर मिला वे गाए. उस वक्त उन के दिमाग में ‘हिंदूवादी छवि’ बनाने का कोई विचार नहीं था.

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क्यों नहीं बन पाईं शास्त्रीय गायक

लता मंगेशकर के गायन के संबंध में एक मुलाकात के दौरान लता की छोटी बहन मीना ने कहा था, ‘‘मेरा मानना है कि यदि मेरे पिता का निधन इतनी कम उम्र में न हुआ होता, तो लता दीदी एक महान शास्त्रीय गायक होतीं और उन का कैरियर एक अलग मुकाम पर होता. हमारे मातापिता ट्रैडीशनल थे. इसलिए उन्होंने लता दीदी का विवाह जरूर करवाया होता और शायद लता दीदी का अपना परिवार व बच्चे होते.’’

धार्मिक गीत व भजन

1961 में लता मंगेशकर ने फिल्म ‘हम दोनों’ में ‘अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम…’ गीत गाया था. फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में ‘यशोमती मैया से बोले नंदलाला…’ गाया था. फिल्म ‘अमर प्रेम’ में ‘बड़ा नटखट है यह नंदलाला…’ फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में लता दीदी ने ‘एक राधा एक मीरा… एक प्रेम दीवानी एक दर्श दीवानी…’ गाया. ‘मैं नहीं माखन खायो…’, ‘ठुमकठुमक चलत रामचंद्र…’ सहित 100 से अधिक भजन गाए, जिन के चलते उन की हिंदूवादी छवि बनती गई.

मगर लता मंगेशकर ने ये सारे भक्ति गीत

50-60 व 70 के दशक में फिल्मों के लिए ही गाए थे. कभी किसी धार्मिक कार्यक्रम में शिरकत कर कोई भजन या भक्तिगीत नहीं गाया. यह वह दौर था, जब देश में हिंदुत्व की बातें नहीं की जा रही थीं. इतना ही नहीं उस काल में देश में आजादी, आजादी मिलने के बाद देश निर्माण, देश की अनगिनत समस्याओं की ही तरफ लोगों का ज्यादा ध्यान था.

इस वजह से भी उस काल में लता के इन भक्तिगीतों को ले कर चर्चाएं नहीं हुईं. लता दीदी की आवाज के दीवाने लोगों ने जरूर अपने घर के अंदर संपन्न होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों में लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध भजन गाए. लता मंगेशकर के तमाम गीत लोगों के घरों के अंदर संपन्न होने वाले धार्मिक संस्कारों का हिस्सा रहे हैं.

लता मंगेशकर ने ‘श्री राम धुन…’ भी गाई. सोनी म्यूजिक वीडियो ने लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध ‘श्री राम धुन…’ का 1 घंटे से अधिक लंबा वीडियो 2014 में यूट्यूब पर जारी किया था, जिसे लगभग 10 लाख से अधिक व्यूज मिले. जबकि जिस तरह से लोगों की बीच उन की दीवानगी है और जिस तरह से 2014 से हिंदुत्व की बात की जा रही है, ऐसे में उन के इस अलबम को करोड़ों व्यूज मिलने चाहिए थे. मगर लता मंगेशकर के गाए हुए भजन कभी भी वायरल नहीं हुए, जबकि देशभक्ति का कोई भी कार्यक्रम पं. प्रदीप व लता के गीतों के बिना अधूरा ही रहता है.

इस की एक वजह यह भी रही कि लता मंगेशकर की छवि भले ही हिंदूवादी रही हो, मगर लता ने हमेशा पारिश्रमिक राशि को तवज्जो दी. पैसे को ले कर लता ने कभी कोई समझता नहीं किया. मृत्यु से पहले भी उन्हें हर माह रायल्टी से 40 लाख रुपए और 6 करोड़ रुपए वार्षिक की कमाई होती रही है. इसलिए भी हर चीज मुफ्त में पाने की अभिलाषा रखने वाली धार्मिक संस्थाओं या धार्मिक संस्थानों ने लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध गीतों से दूरी बनाए रखी.

जब मो. रफी से हो गया था झगड़ा

सभी को पता है कि 1961 में पहली बार गायकों ने रौयल्टी की मांग की थी. उस वक्त फिल्म ‘माया’ के लिए मो. रफी और लता मंगेशकर एकसाथ गीत ‘तस्वीर तेरे दिल में…’ को रिकौर्ड कर रहे थे. दोनों के बीच रौयल्टी को ले कर बहस छिड़ गई. मो. रफी रौयल्टी की मांग के खिलाफ थे और लता मंगेशकर रायल्टी की मांग करने वालों के साथ थीं.

यह बहस ऐसी हुई कि मो. रफी और लता मंगेशकर ने एकदूसरे के साथ न गाने का प्रण कर लिया. फिर लता मंगेशकर व मो. रफी ने पूरे 4 वर्ष तक न एकसाथ कोई गाना गाया और न ही एकसाथ किसी मंच को साझ किया.

वीर सावरकर की कविताएं

लता मंगेशकर ने वीर सावरकर की ‘सागरा प्राण तलमलल’ व ‘हे हिंदू नृसिंहा प्रभो शिवाजी राजा… हिंदू राष्ट्र को वंदना…’ सहित कई कविताओं को भी अपनी आवाज में गाया. इतना ही नहीं अनुपम खेर द्वारा शेअर किए गए वीडियो के अनुसार 22 दिसंबर, 2021 को ‘आजादी का अमृत महोत्सव कमेटी’ की दूसरी बैठक में लता मंगेशकर ने प्रधानमंत्री का आभार व्यक्त करने के अलावा भगवत गीता का श्लोक ‘यदा यदा ही धर्मस्य… परित्रणय साधू नाम… धर्म संस्थपनाय संभवामि युगे युगे…’ गाया था.

इसाई पृष्ठभूमि का गाया गीत

लता मंगेशकर ने विभिन्न धर्मों के लिए, विभिन्न देवीदेवताओं के सम्मान में भी गाया. स्वर कोकिला लता ने इसाई पृष्ठभूमि के साथ हिंदी में भगवान के लिए गीत गाया था, ‘पिता परमेश्वर, हो धन्यवाद, हो तेरी स्तुति और आराधना, मेरे मसीहा को धन्यवाद, तेरी आराधना में तनमन धन, पवित्र आत्मा को धन्यवाद, करती समर्पण जीवन और मन, पिता परमेश्वर हो धन्यवाद…’’

गुलाम हैदर बने गौड फादर

जब लता 18 वर्ष की थीं, तब संगीतकार गुलाम हैदर ने लता मंगेशकर को सुना और उन्हें फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी से मिलवाया था. लेकिन शशधर मुखर्जी ने यह कह कर लता दीदी से गंवाने से मना कर दिया था कि इन की आवाज काफी पतली है. बाद में गुलाम हैदर ने ‘मास्टरजी’ में गुलाम हैदर ने ही लता से पहली बार पार्श्वगायन करवाया था. इस तरह गुलाम हैदर उन के गौड फादर बन गए थे.

यह एक अलग बात है कि बाद में शशधर मुखर्जी को अपनी गलती का एहसास हुआ और फिर उन्होंने लता मंगेशकर से अपनी ‘जिद्दी’ व ‘अनारकली’ जैसी फिल्मों में गवाया था. बाद में गुलाम हैदर पाकिस्तान चले गए थे, मगर वहां से भी वे फोन पर लता दीदी के संपर्क में बने रहे.

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देशभक्ति

मगर जब एक बार हिंदूवादी छवि बन गई, तब इस से खुद को दूर करने के प्रयास के तहत ही लता ने फिल्म ‘ममता’ में ‘रहे न रहें हम, महका करेंगे…’ फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ में ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते धोते…’ के अलावा तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी में ‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंखू में भर लो पानी…’ गीत गा कर जवाहर लाल नेहरू की आंखों में भी आंसू ला दिए थे. वहीं उन्होंने ‘सारा जहां से अच्छा हिंदुस्तान…’ सहित कई देशभक्ति के गीत भी गाए.

इतना ही नहीं लता मंगेशकर ने अपने पूरे कैरियर में द्विअर्थी गीतों से दूरी बनाए रखी. गीतकारों को कई बार लता मंगेशकर के दबाव में अपने गीत बदलने पड़े. पर अब लता के भजन व गीत बन सकते हैं धर्म प्रचार का साधन. लता मंगेशकर ने अपने जीवन में 100 से अधिक भक्तिगीत व भजन गाए, मगर उन के ये गीत कभी भी धर्मप्रचार का साधन नही बन पाए. लेकिन अब 21वीं सदी में लता मंगेशकर द्वारा स्वरबद्ध गीतों का उपयोग धर्म के प्रचार आदि में नहीं किया जाएगा, इस के दावे नहीं किए जा सकते.

लता का हीरा बेन को लिखा पत्र हुआ वायरल

लता मंगेशकर के देहांत के चंद घंटों के ही अंदर जिस तरह से उन के एक पत्र को सोशल मीडिया पर वायरल किया गया, उस से भी कई तरह के सवाल उठ खड़े हुए हैं. बौलीवुड का एक तबका मान कर चल रहा है कि अब भाजपा लता मंगेशकर की हिंदूवादी छवि व भजनों को भुनाने का प्रयास कर सकती है.

हर इंसान की अपनी व्यक्तिगत जिंदगी व निजी संबंध होते हैं. इन निजी संबंधों के चलते वह कुछ पत्र भी लिखता है. मगर उन पत्रों को किसी खास मकसद के लिए खास अवसर पर प्रचारित करना या सोशल मीडिया पर वायरल करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता. मगर ऐसा हुआ.

यह एक अलग बात है कि राजनेताओं से उन के संबंध रहे हैं. मगर उन को भेजे गए पत्र का वायरल होना कई सवाल पैदा करता है?

अंतिम संस्कार और राजनीति

लता मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर का जन्मस्थल गोवा और कार्यस्थल मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र था, जबकि लता मंगेशकर की जन्मभूमि इंदौर, मध्यप्रदेश व कर्मभूमि मुंबई रही. उन के देहावसान के बाद उन का अंतिम संस्कार मुंबई के शिवाजी पार्क में पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया गया.सभी राजनीतिक दलों के नेता अंतिम संस्कार के वक्त श्रृद्धांजलि देने पहुंचे.

यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (नरेंद्र मोदी को लता दीदी अपना भाई मानती थीं) भी खासतौर पर दिल्ली से मुंबई पहुंचे. मगर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अनुपस्थिति ने विवादों को जन्म दिया. सोशल मीडिया पर अंतिम संस्कार के वक्त मध्य प्रदेश से किसी नुमायंदे के न आने को ले कर काफी कुछ कहा गया. कुछ लोगों ने दबे स्वर यहां तक कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी के चलते शिवराज सिंह चौहान ने दूरी बनाई.

खैर, दूसरे दिन मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लता दीदी की याद में उन के नाम से संगीत अकादमी, संगीत महाविद्यालय, संगीत संग्रहालय और प्रतिमा लगाने तथा हर वर्ष लता दीदी के नाम का ‘लता पुरस्कार’ दिए जाने का ऐलान किया, तो वहीं स्मार्ट सिटी पार्क पहुंच कर लता मंगेशकर की स्मृति में बरगद का पौधा भी लगाया.

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भेदभाव समाज के लिए घातक

स्कूली लड़कियां हों या प्रौढ़ महिलाएं, इसलाम मानने का अर्थ यह नहीं कि आज 21वीं सदी में भी 8वीं सदी के पहनावे पर जोर दिया जाए. भारतीय जनता पार्टी की आपत्ति सिर्फ हिंदूमुसलिम विवाद भड़काने को ले कर है पर असल में हिजाब की अनिवार्यता हर जगह गलत है.

हिजाब अगर सौंदर्य और ड्रैस सैंस का हिस्सा होता तो बात दूसरी थी या इस का हैलमेट की तरह कोई फायदा होता तो माना जा सकता था पर सिर्फ इसलिए कि इसलाम कहता है, उसे पहना जाए और बच्चों पर भी लागू किया जाए, गलत है.

कर्नाटक में सरकारी स्कूलों में हिजाब पहन कर आने पर आपत्ति करना अपनेआप में गलत नहीं है. असल में न तो तिलक की परमीशन होनी चाहिए, न बिंदी की. औरतों को अपना धर्म प्रदर्शित करने की हर कंपलशन का जम कर विरोध होना चाहिए. फ्रांस ने वर्षों से इस हिजाब पर बैन लगा रखा है जो असल में मुसलिम औरतों के लिए एक राहत है क्योंकि उन के कट्टरपंथी घर वाले धर्म के आदेश के हिसाब से उन पर जबरदस्ती नहीं थोप सकते.

कठिनाई यह है कि इस हिजाब का विरोध मुसलिम औरतों की ओर से नहीं हो रहा, उन हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा किया जा रहा है जो हर तरह का बहाना ढूंढ़ कर हिंदूमुसलिम खाई को चौड़ा करना चाहते हैं और हिंदू जनता को भरमाना चाहते हैं कि देखो हम ने मुसलमानों को सीधा कर के रख रखा है वरना ये हावी हो जाते.

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यह भेदभाव वाली भावना देश और समाज के लिए घातक है. जब आप हिंदूमुसलिम दीवारें बनाएंगे तो दलित, पिछड़ों की दीवारें भी बनने लगेंगी और यही नहीं ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनियों के बीच भी ऊंचेनीचे गोत्र की दीवारें भी बन जाएंगी. मुंबई शहर की किसी भी हाउसिंग सोसायटी में चले जाएं और लगे नामों की लिस्ट पढ़ने लगें, तो आमतौर पर एक ही जाति के लोगों के नाम दिखेंगे.

प्रेम होते ही मांबाप सब से पहला सवाल यह पूछते हैं कि लड़के या लड़की का धर्म, जाति उपजाति, गोत्र क्या है? वह क्या पढ़ रहा है, क्या कमा रहा है, मांबाप कैसे हैं, व्यवहार कैसा है जैसे सवाल बाद में जातेआते हैं.

हिजाब पहन कर स्कूल या कालेज आने वाली लड़कियों पर एकदम कट्टरपंथी और अलग होने का ठप्पा लग जाएगा. ऐसा ठप्पा हिंदू लड़के भी लगा कर आते हैं जब वे जाति के अनुसार लाल या सफेद टीका लगा कर आते हैं.

लड़कियां आमतौर पर बिंदी ही लगाती हैं, इसलिए अगर हिजाब नहीं पहन रखा तो धार्मिक पहचान का प्रदर्शन नहीं होता. हां, लड़कियां हाथों में 3-4 रंगों से कलेवा बांधे रहती हैं जो स्कूल में भी नहीं चलना चाहिए. आमतौर पर ईसाई लड़कियां क्रौस का लौकेट गले में लटकाए रखती हैं जो हिजाब की तरह धर्म की घोषणा होता है. बच्चों को धार्मिक हथियार बना कर उन्हें कुछ सोचनेसमझने से पहले पाखंड और रस्मोंरिवाजों के जंजाल में उलझा दिया जाता है.

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हिजाब को जीवनभर ढोना एक बोझ है और मुसलिम देशों में तो छोडि़ए, यह पश्चिमी देशों में पहुंची मुसलिम औरतों पर भी उन के परिवार थोप देते हैं. धार्मिक आजादी के नाम पर बहुत सी लड़कियां इसे काम की जगह बाजारों में, थिएटरों में पहला हक समझती हैं. यह आदत नहीं है, जरूरत नहीं है, कोरी हठधर्मी है जो इसलामी कानूनों और रिवाजों को थोपने वालों की देन है. यही लोग पुरुषों को दाढ़ी रखने और खास तरह स्कल कैप पहनने को मजबूर करते हैं और दूर से अलगाव की भावना को पैदा रखते हैं. किसी धर्म ने कभी किसी समाज का कल्याण नहीं किया है. धर्म के नाम पर सिर्फ खून हुआ है, अपनों का भी और विधर्मियों का भी. लड़कियों को स्कूली दिनों में इस विवाद में धकेलना सब से बड़े अफसोस की बात है.

Women’s Day: 75 साल में महिलाओं को धर्म से नहीं मिली आजादी

15 अगस्त को देश की स्वतंत्रता के 75 साल पूरे हो गए हैं. इन 7 दशकों में औरतों के हालात कितने बदले? वे कितनी स्वतंत्र हो पाई हैं? धार्मिक, सामाजिक जंजीरों की जकड़न में वे आज भी बंधी हैं. उन पर पैर की जूती, बदचलन, चरित्रहीन, डायन जैसे विशेषण चस्पा होने बंद नहीं हो रहे. उन की इच्छाओं का कोई मोल नहीं है. कभी कद्र नहीं की गई. आज भेदभाव के विरुद्ध औरतें खड़ी जरूर हैं और वे समाज को चुनौतियां भी दे रही हैं.

7 दशक का समय कोई अधिक नहीं होता. सदियों की बेडि़यां उतार फेंकने में 7 दशक का समय कम ही है. फिर भी इस दौरान स्त्रियां अपनी आजादी के लिए बगावती तेवरों में देखी गईं. सामाजिक रूढिवादी जंजीरों को उतार फेंकने को उद्यत दिखाई दीं और संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए उन का संघर्ष अब भी जारी है. संपूर्ण स्त्री स्वराज के लिए औरतों के अपने घर, परिवार, समाज के विरुद्ध बगावती तेवर रोज देखने को मिल रहे हैं.

एक तरफ औरत की शिक्षा, स्वतंत्रता, समानता एवं अधिकारों के बुनियादी सवाल हैं, तो दूसरी ओर स्त्री को दूसरे दर्जे की वस्तु मानने वाले धार्मिक, सामाजिक विधिविधान, प्रथापरंपराएं, रीतिरिवाज और अंधविश्वास जोरशोर से थोपे जा रहे हैं और एक नहीं अनेक प्रवचनों में ये बातें दोहराई जा रही हैं.

स्त्री नर्क का द्वार

धर्मशास्त्रों में स्त्री को नर्क का द्वार, पाप की गठरी कहा गया है. मनु ने स्त्री जाति को पढ़ने और सुनने से वर्जित कर दिया था. उसे पिता, पति, पुत्र और परिवार पर आश्रित रखा. यह विधान हर धर्म द्वारा रचा गया. घर की चारदीवारी के भीतर परिवार की देखभाल और संतान पैदा करना ही उस का धर्म बताया गया. औरतों को क्या करना है, क्या नहीं स्मृतियों में इस का जिक्र है. सती प्रथा से ले कर मंदिरों में देवदासियों तक की अनगिनत गाथाएं हैं. यह सोच आज भी गहराई तक जड़ें जमाए है. इस के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही कहा जाना धर्म है. स्त्री स्वतंत्रता आज खतरे में है.

औरत हमेशा से धर्म के कारण परतंत्र रही है. उसे सदियों से अपने बारे में फैसले खुद करने का हक नहीं था. धर्म ने औरत को बचपन में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटों के अधीन रहने का आदेश दिया. शिक्षा, नौकरी, प्रेम, विवाह, सैक्स करना पिता, परिवार, समाज और धर्म के पास यह अधिकार रहा है और 7 दशक बाद यह किस तरह बदला यह दिखता ही नहीं है. कानूनों और अदालती आदेशों में यह हर रोज दिखता है.

अब औरतें अपने फैसले खुद करने के लिए आगे बढ़ रही हैं. कहींकहीं वे परिवार, समाज से विद्रोह पर उतारू दिखती हैं.

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आजादी के बाद औरत को कितनी स्वतंत्रता मिली, उसे मापने का कोई पैमाना नहीं है. लेकिन समाजशास्त्रियों से बातचीत के अनुसार देश में लोग अभी भी घर की औरतों को दहलीज से केवल शिक्षा या नौकरी के अलावा बाहर नहीं निकलने देते. लिबरल, पढे़लिखे परिवार हैं, जिन्हें जबरन लड़कियों के प्रेमविवाह, लिव इन रिलेशन को स्वीकार करना पड़ रहा है. लोग बेटी और बहू को नौकरी, व्यवसाय करने देने पर इसलिए सहमत हैं, क्योंकि उन का पैसा पूरा परिवार को मिलता है. फिर भी इन लोगों को समाज के ताने झेलने पड़ते हैं. देश में घूंघट प्रथा, परदा प्रथा का लगभग अंत हो रहा है पर शरीर को ढक कर रखो के उपदेश चारों ओर सुनने को मिल रहे हैं.

आज औरतें शिक्षा, राजनीति, न्याय, सुरक्षा, तकनीक, खेल, फिल्म, व्यवसाय हर क्षेत्र में सफलता का परचम लहरा रही हैं. यह बराबरी संविधान ने दी है. वे आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर हो रही हैं. उन में आत्मविश्वास आ रहा है, पर पुरुषों के मुकाबले अभी वे बहुत पीछे हैं.

इन 70 सालों में औरत को बहुत जद्दोजहद के बाद आधीअधूरी आजादी मिली है. इस की भी उसे कीमत चुकानी पड़ रही है. आजादी के लिए वह जान गंवा रही है. आए दिन बलात्कार, हत्या, आत्महत्या, घर त्यागना आम हो गया है. महिलाओं के प्रति ज्यादातर अपराधों में दकियानूसी सोच होती है.

लगभग स्वतंत्रता के समय दिल्ली के जामा मसजिद, चांदनी चौक  इलाके में अमीर मुसलिम घरों की औरतों को बाहर जाना होता था, तो 4 लोग उन के चारों तरफ परदा कर के चलते थे. अब जाकिर हुसैन कालेज, जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में युवतियां बुरके के बजाय जींसटौप में देखी जा सकती हैं. पर ठीक उसी के पास कम्युनिटी सैंटर में खुले रेस्तराओं में हिजाब और बुरके में लिपटी भी दिखेंगी.

बराबरी का हक

जीन और जींस की आजादी यानी पहननेओढ़ने की आजादी, पढ़नेलिखने की आजादी, घूमनेफिरने की आजादी, सैक्स करने की आजादी जैसे नारे आज हर कहीं सुनाई पड़ रहे हैं पर बराबरी का प्राकृतिक हक स्त्री को भारत में अब तक नहीं मिल पाया है.

दुनिया भर में लड़कियों को शिक्षित होने के हरसंभव प्रयास हुए. अफगानिस्तान में हाल  तक बड़ी संख्या में लड़कियों के स्कूलों को मोर्टरों से उड़ा दिया गया. मलाला यूसुफ जई ने कट्टरपंथियों के खिलाफ जब मोरचा खोला, तो उस पर जानलेवा हमला किया गया. कट्टर समाज आज भी स्त्री की स्वतंत्रता पर शोर मचाने लगता है.

दरअसल, औरत को राजनीति या पुरुषों ने नहीं रोका. आजादी के बाद सरकारों ने उन्हें बराबरी का हक दिलाने के लिए कई योजनाएं लागू कीं. पुरुषों ने ही नए कानून बनाए, कानूनों में संशोधन किए. स्वतंत्रता के बाद कानून में स्त्री को हक मिले हैं. उसे शिक्षा, रोजगार, संपत्ति का अधिकार, प्रेमविवाह जैसे मामलों में समानता का कागजों पर हक है. सती प्रथा उन्मूलन, विधवा विवाह, पंचायती राज के 73वें संविधान संशोधन में औरतों को एकतिहाई आरक्षण, पिता की संपत्ति में बराबरी का हक, अंतर्जातीय, अंतधार्मिक विवाह का अधिकार जैसे कई कानूनों के जरीए स्त्री को बराबरी के अधिकार दिए गए. बदलते कानूनों से महिलाओं का सशक्तीकरण हुआ है.

स्वतंत्रता पर अंकुश

औरतों पर बंदिशें धर्म ने थोपीं. समाज के ठेकेदारों की सहायता से उन की स्वतंत्रता पर तरहतरह के अंकुश लगाए. उन के लिए नियमकायदे गढे़. उन की स्वतंत्रता का विरोध किया. उन पर आचारसंहिता लागू की, फतवे जारी किए. अग्निपरीक्षाएं ली गईं.

कहीं लव जेहाद, खाप पंचायतों के फैसले, वैलेंटाइन डे का विरोध, प्रेमविवाह का विरोध, डायन बता कर हमले समाज की देन हैं. औरतें समाज को चुनौती दे रही हैं. सरकारें इन सब बातों से औरतों को बचाने की कोशिश करती हैं.

पर औरत को अपनी अभिव्यक्ति की, अपनी स्वतंत्रता की कीमत चुकानी पड़ रही है. मनमरजी के कपड़े पहनना, रात को घूमना, सैक्स की चाहत रखना, प्रेम करना ये बातें समाज को चुनौती देने वाली हैं इसलिए इन पर हमले किए जाते हैं.

आज स्त्री के लिए अपनी देह की आजादी का सवाल सब से ऊपर है. उस की देह पर पुरुष का अवैध कब्जा है. वह अपने ही शरीर का, अंगों का खुद की मरजी से इस्तेमाल नहीं कर पा रही है. उस पर अधिकार पुरुष का ही है. पुरुष 2-2, 3-3 औरतों के साथ संबंध रख सकता है पर औरत को परपुरुष से दोस्ती रखने की मनाही है. यहां पवित्रता की बात आ जाती है, चरित्र का सवाल उठ जाता है, इज्जत चली जाने, नाक कटने की नौबत उठ खड़ी होती है. आज ज्यादातर अपराधों की जड़ में स्त्री की आजादी का संघर्ष निहित है. भंवरी कांड, निर्भया मामला औरत का स्वतंत्रता की ओर बढ़ते कदम को रोकने का प्रयास था. औरतें आज घर से बाहर निकल रही हैं, तो इस तरह के अपराध उन्हें रोकने के लिए सामने आ रहे हैं. स्त्रियों की स्वतंत्रता से समाज के ठेकेदारों को अपनी सत्ता हिलती दिख रही है.

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आजकल अखबारों में रोज 5-7 विज्ञापन युवा लड़कियों के गायब होने, अपहरण होने के छप रहे हैं. ये वे युवतियां होती हैं, जिन्हें परिवार, समाज से अपने निर्णय खुद करने की स्वतंत्रता हासिल नहीं हो पाती, इसलिए इन्हें प्रेम, शादी, शिक्षा, रोजगार जैसी आजादी पाने के लिए घर से बगावत करनी पड़ रही है.

स्वतंत्रता का असर इतना है कि अब औरत की सिसकियां ही नहीं, दहाड़ें भी सुनाई पड़ती हैं. पिछले 30 सालों में औरतें घर से निकलना शुरू हुई हैं. आज दफ्तरों में औरतों की तादाद पुरुषों के लगभग बराबर नजर आने लगी है. शाम को औफिसों की छुट्टी के बाद सड़कों पर, बसों, टे्रेनों, मैट्रो, कारों में चारों ओर औरतें बड़ी संख्या में दिखाई दे रही हैं.

उन के लिए आज अलग स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय बन गए हैं. उन्हें पुरुषों के साथ भी पढ़नेलिखने की आजादी मिल रही है.

औरतों ने जो स्वतंत्रता पाई है वह संघर्ष से, जिद्द से, बिना किसी की परवाह किए. नौकरीपेशा औरतें औफिसों में पुरुष साथी के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. घर आ कर भी फोन पर कलीग से, बौस से लंबी बातें कर रही हैं. वे अपने पुरुष मित्र के साथ हाथ में हाथ लिए सड़कों, पार्कों, होटलों, रेस्तराओं, पबों, बारों, मौलों, सिनेमाहालों में जा रही हैं. निश्चित तौर पर वे सैक्स भी कर रही हैं.

कई औरतें खुल कर समाज से बगावत पर उतर आई हैं. वे बराबरी का झंडा बुलंद कर रही हैं. समाज को खतरा इन्हीं औरतों से लगता है, इसलिए समाज के ठेकेदार कभी ड्रैस कोड के नियम थोपने की बात करते हैं, तो कभी मंदिरों में प्रवेश से इनकार करते हैं. हालांकि मंदिरों में जाने से औरतों की दशा नहीं सुधर जाएगी. इस से फायदा उलटा धर्म के धंधेबाजों को होगा.

अब औरत प्रेम निवेदन करने की पहल कर रही है, सैक्स रिक्वैस्ट करने में भी उसे कोई हिचक नहीं है. समाज ऐसी औरतों से डरता है, जो उस पर थोपे गए नियमकायदों से हट कर स्वेच्छाचारी बन रही हैं.

पर औरत के पैरों में अभी भी धार्मिक, सामाजिक बेडि़यां पड़ी हैं. इन बेडि़यों को तोड़ने का औरत प्रयास करती दिख रही है. केरल में सबरीमाला, महाराष्ट्र में शनि शिगणापुर और मुंबई में हाजी अली दरगाह में महिलाएं प्रवेश की जद्दोजहद कर रही हैं.

यहां भी औरतों को समाज रोक रहा है, संविधान नहीं. संविधान तो उसे बराबरी का अधिकार देने की वकालत कर रहा है. इन मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने रोक को गलत बताया है. उन्हें बराबरी का हक है.

लेकिन औरत को जो बराबरी मिल रही है वह प्राकृतिक नहीं है. उसे कोई बड़ा पद दिया जाता है, तो एहसान जताया जाता है. जबप्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बनाया तो खूब गीत गाए कि देखो हम ने एक महिला को इस बड़े पद पर बैठाया है. महिला को राज्यपाल, राजदूत, जज, पायलट बनाया तो हम ने बहुत एहसान जता कर दुनिया को बताया. इस में बताने की जरूरत क्यों पड़ती है? स्त्री क्या कुछ नहीं बन सकती?

लड़की जब पैदा होती है, तो कुदरती लक्षणों को अपने अंदर ले कर आती है. उसे स्वतंत्रता का प्राकृतिक हक मिला होता है. सांस लेने, हंसने, रोने, चारों तरफ देखने, दूध पीने जैसे प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं. धीरेधीरे वह बड़ी होती जाती है, तो उस से प्राकृतिक अधिकार छीन लिए जाते हैं. उस के प्रकृतिप्रदत्त अधिकारों पर परिवार, समाज का गैरकानूनी अधिग्रहण शुरू हो जाता है. उस पर धार्मिक, सामाजिक बंदिशों की बेडि़यां डाल दी जाती हैं. उसे कृत्रिम आवरण ओढ़ा दिया जाता है.  ऊपरी आडंबर थोप दिए जाते हैं. ऐसे आचारविधान बनाए गए जिन से स्त्री पर पुरुष का एकाधिकार बना रहे और स्वेच्छा से उस की पराधीनता स्वीकार कर लें.

हिंदू धर्म ने स्त्री और दलित को समाज में एक ही श्रेणी में रखा है. दोनों के साथ सदियों से भेदभाव किया गया. दलित रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया गया तो खूब प्रचारित किया गया कि घासफूस की झोपड़ी में रहने वाले दलित को हम ने 360 आलीशान कमरों वाले राष्ट्रपति भवन में पहुंचा दिया, लेकिन आप ने इन्हें क्यों सदियों तक दबा कर रखा? ऊपर नहीं उठने दिया उस की सफाई कोई नही दे रहा.

आज औरत को जो आजादी मिल रही है वह संविधान की वजह से मिल रही है पर धर्म की सड़ीगली मान्यताओं, पीछे की ओर ले जाने वाली परंपराओं और प्रगति में बाधक रीतिरिवाजों को जिंदा रखने वाला समाज औरत की स्वतंत्रता को रोक रहा है. दुख इस बात का है कि औरतें धर्म, संस्कृति की दुहाई दे कर अपनी आजादी को खुद बाधित करने में आगे हैं. अपनी दशा को वे भाग्य, नियति, पूर्व जन्म का दोष मान कर परतंत्रता की कोठरी में कैद रही हैं. आजादी के लिए उन्हें धर्म की बेडि़यों को उतार फेंकना होगा.

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सस्ती बिजली गरीबों का हक है

विधानसभा चुनावों में बिजली के दाम बड़ी चर्चा में रहे हैं. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का 200 यूनिट तक मुक्त बिजली देने का प्रयोग इतना सफल हुआ है कि पंजाब को तो छोडि़ए जहां अरविंद केजरीवाल की पार्टी सत्ता की मजबूत दावेदार है, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में भी भारतीय जनता पार्टी 10 मार्च के बाद फिर सत्ता में आने पर बिजली सस्ती करने को मजबूर हो गई है.

बिजली को सस्ता या मुफ्त करना घरों के लिए एक वरदान है क्योंकि बिजली अब धूप और हक की तरह की हवा है. अमीर तो इसे सह लेते हैं पर गरीब घरों के लिए भी बत्ती, पंखा, टीवी, वाटर पंप और फ्रिज आवश्यकता है. क्योंकि आज बाहर का वातावरण इतना खराब, जहरीला और शोर से भरा है कि सुकून तो बंद कमरों में ही मिलता है. समाज की प्रगति आज घरों को जेलोंं में बदल चुकी है. मकान 5–10 मंजिला हो गए हैं. पानी का प्रेशर इतना नहीं होता कि ऊंचे तक चढ़ सके. खुले में सोने के लायक छत है ही नहीं. इस पर भी बिजली मंहगी हो और हर समय बिल न दे पाने की तलवार सिर पर लटकती रहे तो यह बेहद तनाव की बात है.

जहां पैसे की किल्लत है, वहां एक बत्ती, एक पंखा और एक फ्रिज लायक बिजली मिलती रहे तो ङ्क्षजदगी चल सकती है. इस बिजली का बिल कितने का आता है, अगर उसे जमा करना हो तो उतना ही खर्च बिजली कंपनी का हो जाएगा.

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बड़े घरों में एसी, 20-25 लाइटें जले, यह उन की आय पर निर्भर है. वे इस सस्ती बिजली की कीमत नहीं दे रहे क्योंकि 50 से 200 यूनिट तक बिजली इस्तेमाल करने वाले यदि बिजली ले तो भी उन के घर के पास तार गुजरेगा ही, खंबे खड़े होंगे ही. ज्यादा खर्च तो बिजली के वितरण का है, बनाने का नहीं.

अमीर यह न सोचें कि सस्ती बिजली उन की जेबे काट रही हैं, उल्टे गरीबों को मिली बिजली अमीरों को निरंतर बिना रूकावट बिजली मिलती रहेगी की गारंटी है. पहले जब बिजली मंहगी थी, अक्सर घंटों गायब रहती थी. शोर मचाने वालों की कोई सुनता नहीं था. अब ये मुक्त बिजली पाने वाले तुरंत धरना प्रदर्शन देना शुरू कर देंगे, जो काम अमीर नहीं कर सकते.

विधानसभा चुनावों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और कुछ तीर मार सके या नहीं, उस ने बिजली को चुनावी इश्यू बना कर यह गारंटी सरकारों से दिलवा दी कि बिजली मिलेगी और पैट्रोल व डीजल की तरह उस के दाम हर 24 घंटे में नहीं बढ़ेंगे.

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भारी पड़ रही गौपूजा

आवारा पशुओं को ले कर उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बहुत रोष है. उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाकों में दूध के लिए लोग भैंस ज्यादा पालते हैं पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाय पाली जाती है क्योंकि वहां अभी भी बैंलगाड़ी भी चलती है जिस के लिए बैल चाहिए होते हैं. जब से ङ्क्षहदू धर्म के नाम पर बेकार गायों को और बैलों को मारना और काटना बंद हो गया है तब से राज्यभर में सांड, गाय और बछड़े घुट्टे घूम रहे हैं और किसानों के खेतों में घुस रहे हैं. गौपूजा इस तरह भारी पड़ेगी, यह ग्वालों को नहीं मालूम था.

गाय का प्रकोप शहरों में भी कम नहीं है. हर गली सडक़ पर गायों के झुंड दिख जाएंगे जिन के गोवर और पंजाब से चारों और गंद फैली रहती है. कितनी ही दुर्घटनाएं से गायों से गाडिय़ों के टकराने से होती हैं. कोई भी गृहिणी घर के बाहर 2 पेड़ नहीं लगा सकती क्योंकि न जाने कब आवारा गाय आ कर खा जाए.

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गाय को देवी का रूप इसलिए माना गया है कि ग्रहस्थ की यह ऐसी संपत्ति थी जिसे दान में पुरोहित कोर्ई भी धार्मिक रस्म कराने के बाद आराम से ले जाता था. गाय दुधारी ही दी जाती थी और पुरोहित तब तक रखता जब तक दूध देती थी. भक्त कभी यह नहीं पूछते कि गौदान में मिली गाएं आखिर पुरोहितों के घरों में क्यों नहीं है. आम लोगों को कहा जाता है कि गौमाता की सेवा अपनी माता की तरह करो पर भई अपनी माता का दान तो नहीं किया जाता.

अब एक पार्टी जो गौमाता और राम मंदिर के नाम पर जीत कर आई पशोटीम में है कि इस समस्या के हल ब्या करों. नरेंद्र मोदी जी 10 मार्च, 2022 के बाद हल बताएंगे पर उन के वायदों थे क्या? तब तक हर किसान और हर शहरी गोबर और पेशाब को भी सहता रहे और खेतों में सडक़ों पर उन को सहता रहे.

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जब कोरोना ने छीन लिया पति

लेखक व लेखिका -शैलेंद्र सिंह, भारत भूषण श्रीवास्तव, सोमा घोष, नसीम अंसारी कोचर, पारुल भटनागर 

कोरोना महामारी की पहली लहर इतनी भयावह नहीं थी, मगर दूसरी लहर ने देशभर में लाखों परिवारों को पूरी तरह उजाड़ दिया. कई परिवार ऐसे हैं, जहां जवान औरतों ने अपने पति खो दिए हैं. कई महिलाएं 30-40 साल की उम्र की हैं, जिन के छोटे छोटे मासूम बच्चे हैं. कई ऐसी हैं जो आर्थिक रूप से पूरी तरह पति पर निर्भर थीं.

पति की मौत के बाद उन के सामने अपने बच्चों के लालनपालन की समस्या खड़ी हो गई है. आर्थिक जरूरतें और अनिश्चित भविष्य उन्हें डरा रहा है. बच्चों के कारण दूसरी शादी का फैसला भी आसान नहीं है.

गृहशोभा के रिपोर्टर्स की टीम ने ऐसी अनेक महिलाओं के दुखों और परेशानियों को जानने की कोशिश की:

पति के नाम को जिंदा रखना चाहती हैं ऐश्वर्या लखीमपुर खीरी जिले के गोला की रहने वाली ऐश्वर्या पांडेय की शादी 2009 में हुई थी. उन के पति पीयूष बैंक में कार्यरत थे. ऐश्वर्या एमबीए के बाद जौब करने लगी थी, मगर शादी के बाद ससुराल की जिम्मेदारियों और बेटे पार्थ के जन्म के कारण जौब छोड़नी पड़ी.

ऐश्वर्या और पीयूष बेटे पार्थ के भविष्य को ले कर सुनहरे सपने देख रहे थे. मगर काल के क्रूर चक्र को कुछ और ही मंजूर था.

11 मई, 2021 को पीयूष कोरोना की चपेट में आ गए. बैंक स्टाफ और अस्पताल के लोगों ने ऐश्वर्या का साथ दिया. अस्पताल में पीयूष का औक्सीजन लैवल घटने पर उन्हें आईसीयू में शिफ्ट किया गया. 8 जून को उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

मगर उन का कोविड टैस्ट लगातार पौजिटिव ही आ रहा था. 9 जून को उन का पल्स रेट फिर बिगड़ने लगा तो उन्हें फिर से आईसीयू में ले जाया गया, मगर 10 जून की सुबह ऐश्वर्या के जीवन में अंधेरा बन कर आई यानी पीयूष इस दुनिया से हमेशा के लिए दूर चले गए. ऐश्वर्या डिप्रैशन में चली गई.

ऐश्वर्या कहती है, ‘‘मेरे लिए सब से अधिक महत्त्वपूर्ण बेटे को संभालना था. मैं ने यह सोच कर हिम्मत बांधी कि अगर मुझे कुछ हो गया होता तो पीयूष कैसे बेटे को संभाल रहे होते? इस सोच ने मुझे हिम्मत दी. बेटे को ले कर मैं लखनऊ लौटी. उस का स्कूल में एडमिशन कराया. घर वालों ने सहयोग किया. अभी भी मैं पूरी तरह से उस दुख से उबर नहीं पाई हूं.

पहले घर किराए का था अब जिंदगी

दिल्ली में रहने वाली कंचन माथुर अपने पति शिशिर माथुर के साथ बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंच चुकी थीं. उम्र के 55 साल पूरे हो गए थे. पति भी 58 के थे. 2 बेटियां थीं, जिन की शादियां हो चुकी थीं. घर में अब ये 2 ही बचे थे. शुरू से ही कंचन और उन के पति शिशिर किराए के मकान में रहे. अपना घर नहीं खरीदा. वजह थी 2 बेटियां. शिशिर सोचते थे कि बेटियां शादी कर के अपनेअपने घर चली जाएंगी तो अपना घर ले कर क्या करना.

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कोरोना की दूसरी लहर ने शिशिर को जकड़ लिया. 2 हफ्ते होम क्वारंटाइन रहे. बड़ी बेटी, जो दिल्ली में ही ब्याही थी, उस ने देखभाल के लिए अपने बड़े लड़के को भेज दिया. मगर शिशिर का बुखार नहीं उतर रहा था. उन्हें डायबिटीज भी थी. एक शाम जब शिशिर का औक्सीजन लैवल 86 हो गया तो बेटीदामाद घबरा कर औक्सीजन सिलैंडर लेने के लिए गए, मगर कहीं नहीं मिला और न ही किसी अस्पताल में बैड खाली मिला.

दूसरे दिन नोएडा के एक अस्पताल में जगह मिली. मगर 4 दिन के इलाज के बाद ही शिशिर चल बसे. उन के दोनों फेफड़े संक्रमण के कारण नष्ट हो चुके थे. अस्पताल से ही उन का शव अस्पताल के कर्मचारियों के द्वारा श्मशान ले जाया गया और उन्होंने ही उन का क्रियाकर्म किया. घर के किसी सदस्य ने अंतिम समय में उन्हें नहीं देखा.

गहरा धक्का

इस बात का सब से ज्यादा धक्का उन की पत्नी कंचन को लगा है. पति के अचानक चले जाने से वे बिलकुल बेसहारा हो गई हैं. बड़ी बेटी किसी तरह अपने ससुराल वालों को राजी कर के उन्हें अपने साथ ले तो गई है, मगर अजनबी लोगों के बीच कंचन की वैसी देखभाल नहीं हो पा रही है जैसी उन के पति के रहते अपने घर में होती थी.

उन के दामाद ने उन का किराए का घर खाली कर दिया है. सारा सामान बेच दिया. बैंक में जो पैसा था वह अपने अकाउंट में ट्रांसफर करवा लिया.

घर का सामान बिकते देख कंचन के दिल पर जो गुजरी उस दर्द को कोई और नहीं समझ सकता है. पति की जोड़ी गई 1-1 चीज उन की आंखों के सामने कबाड़ में बेच दी गई. पहले घर किराए का था, मगर घर में रहने वाला अपना था, पर अब उन की पूरी जिंदगी किराए की हो गई है.

फिट इंसान के साथ ऐसा होगा सोचा न था

37 वर्षीय रेशमा राजेश पाटिल और उन के 12 वर्षीय बेटे रितेश राजेश पाटिल की जिंदगी कोरोना ने वीरान कर दी. कोविड की दूसरी लहर में मां ने अपना पति और बेटे ने अपने पिता को खो दिया है.

मुंबई के नजदीक अलीबाग के रहने वाले 42 वर्षीय तंदुरुस्त राजेश पाटिल सरकारी दफ्तर में काम करते थे. कोरोना की दूसरी लहर ने राजेश के बुजुर्ग पिता को कोरोना हो गया. राजेश पिता को रोजाना खाना पहुंचाने अस्पताल जाने लगा. एक दिन उसे भी बुखार हो गया. टैस्ट करवाने पर वह भी कोरोना पौजिटिव पाया गया. राजेश तुरंत होम क्वारंटाइन में चला गया. उस की पत्नी रेशमा ने अपने बेटे को मामा के पास मायके भेज दिया.

रेशमा अपने आंसू पोछती हुई कहती हैं, ‘‘होम क्वारंटाइन में राजेश डाक्टर से पूछ कर दवा ले रहे थे. लेकिन एक दिन उन्हें सांस लेने में ज्यादा दिक्कत होने लगी तो मैं तुरंत उन्हें सिविल अस्पताल ले गई. डाक्टर ने जांच की और बताया कि उन का औक्सीजन लैवल 97 है, इसलिए उन्हें यहां भरती नहीं कर सकते. तब मैं उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई. वहां जांच करने पर पता चला कि उन्हें निमोनिया हो गया है. डाक्टर ने एक इंजैक्शन शुरू करने की बात कही, जो 40 हजार रुपए का था. मैं ने पैसा अरेंज किया और इंजैक्शन ला कर दिए. मगर इंजैक्शन का उन पर कोई असर नहीं हुआ और 20 दिन अस्पताल में रहने के बाद उन का देहांत हो गया.

‘‘अभी रेशमा किराए के मकान में रहती हैं. उन्हें पति की पैंशन नहीं मिल सकती है क्योंकि उन्होंने 2009 में सरकारी नौकरी जौइन की थी. कुछ पैसे उन्हें राज्य सरकार और संस्था की तरफ से जरूर मिले हैं. बाल संगोपन संस्था के अंतर्गत उन्हें राज्य सरकार की तरफ से 50 हजार रुपए की रकम फौर्म भरने के 4 दिन बाद मिल गई. इस के अलावा बाल संगोपन संस्था के द्वारा बेटे की पढ़ाई के लिए प्रति माह 11 सौ रुपए और मुफ्त में थोड़ा राशन मिल जाता है, जिस से गुजारा हो रहा है. लेकिन आगे उन्हें खुद अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

रेशमा कहती हैं, ‘‘मैं ने पति के औफिस में नौकरी के लिए अर्जी दी है, लेकिन मेरे लायक कोई पद खाली होने पर ही मुझे नौकरी मिलेगी. गांव में पढ़ाई अच्छी न होने की वजह से मुझे बेटे की शिक्षा के लिए अलीबाग में ही रहना है. मेरे ससुराल में मेरे सासससुर भी हैं.’’

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जैसे जिंदगी से रोशनी चली गई

भोपाल के गांधी मैडिकल कालेज में टैक्नीशियन पद पर कार्यरत रवींद्र श्रीवास्तव की पत्नी रश्मि शहर के सरकारी स्कूल बाल विद्या मंदिर में प्राध्यापिका थीं. 18 साल पहले दोनों

की शादी हुई थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि गत 9 मई को कोरोना रश्मि को अपने साथ ले गया.

‘‘मुझे अभी तक यकीन नहीं होता कि रश्मि अब नहीं रही,’’ रवींद्र कहते हैं, ‘‘औफिस से घर लौटता हूं तो लगता है वह मेरा चाय पर इंतजार कर रही है. सच को स्वीकारने की बहुत कोशिश करता हूं, लेकिन उस की याद किसी न किसी बहाने आ ही जाती है.

रश्मि के जाने के बाद रवींद्र का सूनापन अब शायद ही कभी भर पाए. 17 साल का बेटा ऋषि भी अकसर उदास रहता है. रवींद्र पूरी तरह टूट गए हैं, मगर बेटे के लिए जैसेतैसे खुद को संभाले हुए हैं.

परिवार के लिए कमाना है

‘‘27 अप्रैल, 2021 को मेरे पति विकास ने कोविड की दूसरी लहर में अपनी जान गवां दी. मैं और मेरे दोनों बच्चे इस दुनिया में अकेले रह गए…’’ कहती हुई 40 वर्षीय नयना विकास की आवाज भारी हो गई.

नैना के पति विकास छत्तीसगढ़ के जिले के रायगढ़ के अंतर्गत सासवाने गांव में नयना और 2 बच्चों के साथ रहते थे. उन का बिल्डिंग मैटीरियल सप्लाई करने का व्यवसाय था, जिसे अब नयना संभाल रही हैं. मददगार प्रवृत्ति के विकास कोविड-19 के दूसरी लहर के दौरान लोगों की मदद कर रहे थे. उन्हें कुछ हो जाएगा, इस बारे में उन्होंने सोचा नहीं था.

नयना कहती हैं, ‘‘एक दिन उन्हें बुखार आया पर उन्होंने बताया नहीं. बुखार के साथ ही काम करते रहे. वे 100 से 150 लोगों को खाना खिलाते थे, जिसे मैं खुद बनाती थी. जो भी पैसा उन्हें अपने व्यवसाय से मिलता था, उन्हें जरूरतमंदों के लिए खर्च कर देते थे. 14 अप्रैल से उन्हें बुखार था. 19 अप्रैल को राशन बांटने के उद्देश्य से उन्होंने गांव के सरपंच के साथ मीटिंग रखी थी. मीटिंग खत्म होते ही वे घर आ गए. बुखार तेज था. मैं उन्हें सिविल अस्पताल ले गई, जहां टैस्ट करवाने पर रिपोर्ट पौजिटिव आई. मगर वहां अस्पताल में कोई बैड नहीं मिला. फिर मैं ने उन्हें प्राइवेट अस्पताल में ले गई जहां उन की मौत हो गई.

नयना के 2 बच्चे हैं. बेटी 8वीं कक्षा में और बेटा 5वीं कक्षा में पढ़ रहा है. दुख से उबरने के बाद नयना ने पति का व्यवसाय संभाल लिया है. काम में थोड़ी मुश्किलें भी हैं क्योंकि वे पहले इस काम से जुड़ी नहीं थीं. पति का बैंक खाता बिलकुल खाली है और किसी प्रकार का हैल्थ इंश्योरैंस भी नहीं है. नयना पर काफी कर्ज हो गया है.

पति की मृत्यु के बाद बाल संगोपन संस्था की तरफ से नयना को 50 हजार रुपए तथा राज्य सरकार की तरफ से बच्चों को पढ़ाई का खर्च मिल रहा है. लेकिन आगे नयना को ही परिवार की गाड़ी खींचनी है बिलकुल अकेले.

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बच्चों की परवरिश में कोई कमी नहीं आने दूंगी -विना दुब

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में कुहराम मचा रखा है. लाखों परिवारों ने इस में अपने लोगों को खो दिया है. किसी ने बेटा, किसी ने पति, किसी ने पिता तो किसी ने पत्नी, बहन, बेटी या मां को खो दिया है. कुछ बच्चे तो ऐसे हैं जिन्होंने इस महामारी में अपने मातापिता दोनों को ही खो दिया है.

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की विना दुबे ने कोरोना की दूसरी लहर में अपने पति को खो दिया. उन के दर्द को शब्दों में बयां करना मुश्किल है, लेकिन विना ने हिम्मत नहीं हारी. दर्द से उबर कर जीवन को फिर वापस पटरी पर ले आई हैं और बच्चों का पालनपोषण कर रही हैं.

विना नहीं चाहतीं कि उन के बच्चों को कोई कमी हो या उन की पढ़ाई और कैरियर में किसी प्रकार की रुकावट पैदा हो. विना ने गृहशोभा से अपनी आपबीती साझ की:

जब आप को पता चला कि कोरोना से आप के पति की मृत्यु हो गई है तो उस समय आप को क्या लग रहा था?

मेरे पति अखिल कुमार दुबे मेरे लिए मेरे आदर्श, मेरे मार्गदर्शक, मेरे सबकुछ थे. लेकिन जब मुझे पता चला कि 6 दिन हौस्पिटल में इलाज करवाने के बाद भी वे नहीं रहे, तो मुझे एक पल को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वे हमें छोड़ कर चले गए हैं. लेकिन हकीकत यही थी कि वे अब नहीं रहे. मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि आगे अब जिंदगी कैसे गुजारूंगी, क्या करूंगी, बच्चों का, खुद का जीवनयापन कैसे करूंगी? मेरे कदमों के नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गई हो. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सामने ढेरों परेशानियां थीं. लेकिन बच्चों की खातिर मैं ने पति के जाने के दुख को अपने अंदर छिपा कर उन के लिए आगे बढ़ने का निर्णय लिया.

किस तरह का संघर्ष करना पड़ा?

एक तो पति के जाने का गम और दूसरा आर्थिक तंगी. उस समय खुद को कैसे स्ट्रौंग बनाऊं, यही मेरे लिए सब से बड़ा संघर्ष था. 2 बच्चों की परवरिश, ऐजुकेशन की जिम्मेदारी अकेले मेरे कंधों पर आ गई है. भले ही मैं पहले से वर्किंग हूं, लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए सिंगल हैंड से काम नहीं चलता बल्कि मातापिता दोनों का कमाना बहुत जरूरी है. मगर मैं अकेली रह गई हूं. ऐसे में मैं इस संघर्ष के सामने हिम्मत तो नहीं हारूंगी क्योंकि मेरे बच्चों के भविष्य का सवाल जो है.

आप कैसे अपने परिवार का जीवनयापन कर रही हैं?

मैं बीए पास वर्किंग वूमन हूं. मुझे अपने बच्चों की हर जरूरत को पूरा करना है, इसलिए कोई भी काम करना पड़े, मैं पीछे नहीं हटूंगी. जौब के कारण बच्चे उपेक्षित न हों, इस बात का भी मैं पूरा ध्यान रखती हूं. उन के साथ वक्त गुजारती हूं, उन की प्रोब्लम सुनती हूं, पढ़ाई में उन्हें पूरा सहयोग देती हूं क्योंकि अब मैं ही उन की मां और पिता दोनों हूं.

पति के न रहने पर समाज व रिश्तेदारों का क्या योगदान रहा?

समाज का तो कुछ नहीं कह सकती क्योंकि वो दौर ही ऐसा था जब सभी एकदूसरे से दूरी बनाए हुए थे. सब अपनों को बचाने के लिए, अपनेअपने बारे में सोच रहे थे. लेकिन ऐसे वक्त में मेरे जेठ अमित दुबे और जेठानी रीना दुबे ने तनमनधन हर तरह से सहयोग दिया. समाजसेविका नीतूजी की मैं दिल से आभारी हूं. उन्होंने जो बन पड़ा वह हमारे लिए किया. मेरे भाई मेरी हिम्मत बन कर खड़े हुए हैं, जिस के कारण मुझे आगे बढ़ने का हौसला मिला है.

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हादसे के बाद जीवन के लिए सीख?

मैं सभी से यही कहना चाहूंगी कि जीवन में कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता. कब हंसतीखेलती जिंदगी में सन्नाटा छा जाए, किसी को नहीं मालूम. इसलिए परिवार में जब तक संभव हो सके पति पत्नी मिल कर काम करें. चाहे आप ज्यादा शिक्षित न भी हों तो भी जो भी आप में करने की योग्यता है, जैसे कुकिंग, बुनाई आदि तो उसे कर के न सिर्फ खुद सैल्फ डिपेंडैंट बनें, बल्कि उस से होने वाली आय को भविष्य के लिए जोड़ कर रखें ताकि कभी भी मुसीबत आने पर आप अपने परिवार की हिम्मत बन कर कठिन परिस्थितियों से लड़ पाने में सक्षम हों. फुजूलखर्ची छोड़ कर सेविंग करने की आदत को बढ़ाएं, साथ ही कभी भी हिम्मत न हारें.

यह तो गहरी साजिश है

चुनाव निकट आते ही देशभर में हिंदूमुसलिम, हिंदूमुसलिम की आवाजें सुनाई देने लगती हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में जो बात सब से ज्यादा बोली गई है वह यह है कि मुसलिम मतदाता किस और वोट देंगी, उन के वोट भारतीय जनता पार्टी को तो नहीं जाएंगे पर क्या कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में बंट जाएंगे? राजनीति के यह सवाल असल में पूरे समाज को 2 हिस्सों में बांटने लगे हैं और  भारत की मुसलिम औरतों के विकास, उन की शिक्षा, सोच, अंधविश्वासों पर गहरा असर पड़ रहा है.

पहले 3 तलाक के बहाने औरतों को मोहरा बनाया गया, यूनिकौम सिविल कोड यानि 4 तक शादियां करने की इजाजत, बुर्का और अब हिजाब को ले कर औरतों को केंद्र में रख कर हिंदू नेता अपनी वोटे इक्ट्ठी कर रहे हैं. मुसलिम नेता नाम की चीज तो यहां है ही नहीं पर जो भी लंबी दाड़ी वाले हैं वे इस विभाजन करने वाली राजनीति में अपना लंबी दूर तक चलने वाले मोटा मुनाफा देखते है और इस आग को सुलगते रहने देते रहना चाहते हैं.

औरतों को इस तरह के विवादों से ज्यादा फर्क पड़ता है क्योंकि आबादी के आधे हिस्से को अपने ही लोगों से बचाने वाले विरोध आम चर्चा से हट जाते हैं. आम हिंदू पिछड़ी व दलित औरतों की तरह आम मुसलिम औरतों को आज भी देश भर में केवल घर चलाने के लिए मुफ्त की नौकरानी समझ कर रखा जा रहा है और एक तरफ देश को इस कर्मठ हो सकने वाली आबादी की उत्पादकता का लाभ नहीं मिल रहा, दूसरी ओर ये अपने परिवारों, धार्मिक गुरुओं, रीतिरिवाजों के जंजालों में फंसी रह कर अपनी पर्सनैलिटी को लगभग शून्य कर रही है.

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मुसलिम महिलाएं जहां फैसले लेने वाली होनी चाहिए वहां उन्हें हिजाब पहना कर नुमाइश बना दिया गया है और दूसरों से अलगथलग रख कर एक बेमतलब के विवाद में फंस गई हैं. वे इस तरह उलझ गर्ई हैं कि उन के लिए निकलना मुश्किल होता जा रहा है. उन्हें हिजाब पहनने में कोई मजा आ रहा हो, यह कहना कठिन है पर जब कोई आपत्ति करे तो उन्हें लगता है कि उन के हकों पर हमला हो रहा हैं.

जहां मुसलिम महिलाओं को नौकरियों में बराबर के हक, संपत्ति में बराबर के हक, काजी मौलवी से छूटने के हक, नागरिकता कानून के पैने पंजों में दबते हकों के लिए लडऩा चाहिए उन्हें हिजाब को पहनने के हक में उलझा दिया गया है. इस में मुसलिम धार्मिक नेताओं की जीत साफ है जो औरतों की आजादी को एक बार फिर धकेलने में सफल हो रहे हैं जिस का जीताजागता उदाहरण अफगानिस्तान है जहां औरतों ने अपने बेटों को लडऩे मरने के लिए खुशीखुशी बलिदान किया, अब उन्हीं लोगों के अत्याचारों से दब रही हैं.

चुनावों में उन की बात उठा कर देश की राजनीतिक पार्टियां अपनेअपने लड्डू भून रही हैं पर कढ़ाई तो वे औरतें ही हैं जिनको तपन हो रही है. माल जो बन रहा है वह औरतों को नहीं मिलेगा.

उत्तर प्रदेश का कोई दल मुसलिम तो छोडि़ए हिंदू पिछड़ी व दलित औरतों के साथ ही नहीं खड़ा है. उन्हें मालूम है कि औरतें तो अभी तक गाय हैं, उन्हें तिलक लगाओ या हिजाब पहनाओ दूध देंगी और कहना मानेंगी वर्ना सडक़ों पर फेंकी जा सकती हैं.

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यहां कट्टरता की फसल न उगाई जाए

1 जनवरी वैसे तो नए साल की शुरूआत होती है और बच्चोंबड़ों सब के लिए खुशी मनाने का एक मौका होता है, इस 1 जनवरी, 2022 को कर्नाटक के एक डीयूनिवर्सिटी कालेज में मुसलिम लड़कियों का हिजाब पहन कर आना और प्रिंसीपल सद्र गौड़ा का उन को क्लास अटैंड करने से रोकने से शुरू हुआ. डाडिपी के इस कालेज में हिंदूमुसलिम कट्टरपंथियों दोनों ने तुरंत धर्म का पैट्रोल फेंकना शुरू कर दिया. मुसलिम लड़कियों ने हिजाब पहनने की धार्मिक आजादी का हक बताया तो बदले में हिंदू कट्टरपंथियों ने अपने पिट्ठओं को भगवा स्कार्फ पहनने को उक्सा दिया.

यह आज धीरेधीरे नहीं तुरंत फैलने लगी. दोनों धर्मों के लोग अपनी जिद पर अड़ गए. स्कूल कालेज प्रिंसीपल कहते थक गए कि स्कूलकालेजों को धर्म का युद्ध क्षेत्र न बनाओ पर धर्मों के ठेकेदार कब इन बातों को समझते हैं. एक ही क्लास में 2 टुकड़े होने लगे. कुछ हिजाब पहनने लगीं, कुछ भगवा स्कार्फ और कुछ खुले सिर. तीनों वर्ग एकदूसरे को दोष देने लगे हैं और जो थोड़ी बहुत दोस्तियां थीं वे सब धर्म के बुल्डोजरों से कुचल दी गई.

बच्चों को धर्म की शिक्षा दिलवाना हर धर्म का पहला काम है. बच्चों को तो खेल चाहिए होता है और वे ईद हो या दीवाली मौजमस्ती चाहते हैं और बढिय़ा खाना मांगते है फिर चाहे उन से कैसी एिक्टग करा लो, कैसी ही पोशाक उन्हें पहना दो. यह फंफूद धीरेधीरे दिमाग में बैठ जाती है और सब कुछ दूषित कर देती है. जो दिन हंसतेखेलने, खिलखिलाने, दोस्तियां बनाने के, पढऩे के, साथसाथ टै्रिकगों और पिकनिकों पर जाने के होते हैं, वे दिन अब धार्मिक एजेंडों को पूरा करने में लग गए हैं.

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लड़कियों को वैसे ही पढऩे की आजादी नहीं है. तालिबानी आफगानिस्तान में लड़कियों के स्कूल अभी तक नहीं खुले हैं. हां यह बात दूसरी कि तालिबानी नेता अपनी बेटियों को पाकिस्तान के प्राईवेट  मदरसों में जहां धार्मिक व आधुनिक शिक्षा दोनों मिल रही है या कातर, दुबई, आबूधाबी भेजने लगे हैं जबकि आम लड़कियां अपने को सिर से पैर तक ढके बंद कमरों में रहने को मजबूर हैं.

यह तालिबानी सोच भारत में भी एक्सपोर्ट हो गई अफसोस है. मुसलिम लड़कियों को किसी भी हालत में हिजाब पहन कर स्कूलकालेज में आने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. न ही माथे पर तिलक, या टीका, गले में क्रौस का लाकेट, हाथों में धार्मिक अंगूठियां अलग होनी चाहिए. स्कूलकालेज धर्म की कट्टर सोच के भूसे और गोबर को निकालने के लिए है, वह खेत नहीं जहां कट्टरता की फसल उगाई जाए. धार्मिक स्वतंत्रता का अगर कोई अधिकार है तो वहां तक है जहां उस का किसी तरह से विरोध नहीं हो रहा है, स्कूल और कालेज की बाउंड्री के अंदर केवल तर्क, तथ्य और सच की स्वतंत्रता का अधिकार, झूठों पर आधारित धर्मों का नहीं.

लड़कियों के वर्तमान और भविष्य के साथ खिलवाड़ करने का हक न मुसलिम हिजाब को है, न भगवा स्कार्फ को.

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सोशल मीडिया Etiquette का पालन करें कुछ इस तरह

सोशल मीडिया की भूमिका और महत्व को आज शायद ही कम करके आंका या अनदेखा किया जा सकता है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हर कोई सोशल मीडिआ प्लेटफार्म के ज़रिये अपनी बहुत अच्छी इमेज सामने रखना चाहता है और इमेज कॉन्शीयसनेस के दौर में हर कोई इस बात का भी ध्यान रखना चाहता है की वो किस तरह खुद के ओपिनियन सोशल मीडिया के ज़रिये रखते हैं और या फिर खुद को प्रेजेंट करते हैं. आये दिन हमें ऐसे भी किस्से देखने को मिलते हैं जब किसी पुरुष द्वारा सोशल मीडिया पर किसी महिला फ्रेंड की लुक्स या फिर व्यक्तित्व पर जाने अनजाने में की गयी टिप्पड़ी या तो किसी अप्रिय घटनाक्रम और या फिर अलग ही प्रतिस्पर्धा को पैदा कर देती हैं और या फिर एक विचित्र स्थिति उत्पन्न कर देते हैं.

सावधानियाऔर एटिकेट्स का ध्यान

इसके अतिरिक्त कई और ऐसी सावधानिया हैं और एटिकेट्स हैं जिनका ध्यान हमें रख कर कई बार हम अपने सोशल मीडिया पर किए गए व्यवहार और तालमेल से भी अपनी छवि खराब कर लेते हैं. हम जो भी छवि अपनी बनाते हैं, उसका असर हमारे आत्मसम्मान पर भी पड़ता है. सोशल मीडिया खासकर जेंडर बुलिंग पर धमकाना आज के दौर में आम बात हो गई है और सोशल मीडिया पर व्यक्त भावनाओं का मजाक सिर्फ इमोजी के जरिए ही उड़ाया जा सकता है. सोशल मीडिया पर की गयी शरारते, अनुचित व्यवहार, अवांछित टैगिंग, कमेंट्स, हैकिंग आदि के मामले भी सामने आ रहे हैं, जेंडर बुलिंग एक ऐसी समस्या है जो एक महिला के लिए ही नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी परेशान करने वाली है.

इसलिए कुछ सोशल मीडिया शिष्टाचार का पालन करके अपने आप को व्यक्त करना बहुत महत्वपूर्ण है जिसे हर आदमी को सोशल मीडिया पर पालन करना चाहिए, मूल बातें सभी को पता हैं, फिर भी कई पुरुष उनका पालन नहीं करते हैं और अनजाने में उन्हें अनदेखा कर देते हैं.

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सोशल मीडिया शिष्टाचार –

श्री विमल और प्रीति डागा से – प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और युवा कोच ऐसे ही महत्वपूर्ण टिप्स आपसे शेयर कर रहे हैं- जो सोशल मीडिया पर आपके छवि को निखारने में आपकी मदद करेंगे.

खास टिप्स

सोशल मीडिया पर महिलाओं के पर्सनल स्पेस का सम्मान करें, यह जरूरी नहीं है कि अगर किसी महिला ने आपकी फ्रेंड रिक्वेस्ट को स्वीकार कर लिया है, तो आप किसी भी समय और समय पर उन्हें मैसेज करना शुरू कर दें, या उन्हें स्टॉक करना शुरू कर दें. गोपनीयता के उल्लंघन से बचें.

यदि आपको भेजे गए संदेश का कोई उत्तर नहीं मिलता है, तो आप संदेश की प्रतीक्षा करें और फिर दुबारा से संदेश न भेजें, थोड़े को बहुत समझे और वहा से खुद का ध्यान हटा दें.

किसी को भी कॉल करने या मीटिंग के लिए समय का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी होता है , और सोशल मीडिआ पर भी यह रूल अप्लाई होता है , समय का ध्यान रखें, जहा तक मुमकीन हो देर रात तक फेसबुक कॉल आदि न करें. हां यदि आपका सोशल मीडिया फ्रेंड बहुत खास है या आपका सम्बन्ध बहुत अटूट है वहा यह नियम अप्प्लाई नहीं होता है. कहा जाता है कि इज्जत दोगे तो इज्जत मिलेगी, सोशल मीडिया पर भी वैसा ही व्यवहार करो.

आपका लहजा न केवल फोन पर, बल्कि आपकी भाषा से भी पता चलता है, चाहे वह ट्विटर हो या फेसबुक अपनी भाषा और शब्दों के साथ विनम्र और चयनात्मक रहें.

अपनी प्रोफाइल पिक्चर को ओरिजिनल ही रखें, और अपनी जानकारी भी ओरिजिनल के रूप में दर्ज करें, कई बार पुरुष अपनी प्रोफाइल पिक्स पोस्ट करने के बजाय बॉलीवुड स्टार्स या उनकी पसंदीदा हस्तियों की तस्वीरें लगाते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि आप अपने बारे में सब कुछ वैसे ही साझा करें जैसे वह है, लेकिन वास्तविक बनें और अपने बारे में सही जानकारी दर्ज करें.

किसी के साथ जहा तक हो सोशल मीडिआ पर सार्वजनिक टूर पर चैट न करें, चाहे वह पेशेवर हो या व्यक्तिगत, सार्वजनिक.

जब तक आप नहीं जानते, आपको अनावश्यक संदेश भेजने और टिप्पणियों को इंडेंट करने से बचना चाहिए, या सिर्फ इसलिए कि आपके संदेश का उत्तर नहीं दिया गया था, खराब टिप्पणी नहीं करनी चाहिए.

किसी को टैग करने से पहले सोचें, हो सकता है कि कई लोग आपको सीधे तौर पर बाधित न करें लेकिन टैग किया जाना हर किसी को पसंद नहीं होता है, बेहतर है की टैगिंग से पहले आप मैसेज कर के टैग करने की परमिशन ले लें.

जहां तक संभव हो, शराब पीते समय अपनी बहुत सारी व्यक्तिगत तस्वीरें, पार्टी की तस्वीरें और अपनी तस्वीरें पोस्ट करने से बचें.

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जहां तक संभव हो सोशल मीडिया पर वाद-विवाद से बचें, आप अपने विचार रख सकते हैं लेकिन जानबूझ कर किसी से वाद-विवाद में न पड़ें, जरूरी नहीं कि आप उनसे हर विवाद को जीत लें, भले ही वाद-विवाद का मंच किसी के साथ आ जाए, तो पूरी शालीनता से अपनी बात और दूसरे व्यक्ति की बात के साथ तर्क से बाहर निकलें और अपनी बात समझाएं और उसका सम्मान करें.

अपनी भाषा के साथ-साथ सोशल मीडिया पर अपने व्याकरण का ध्यान रखें, हमेशा वर्तनी और व्याकरण की जांच करें.

अगर कोई आपकी पोस्ट पर टिप्पणी या ट्वीट करता है, तो बातचीत शुरू करने के लिए धन्यवाद कहना न भूलें, सोशल मीडिया पर किसी को भी नजरअंदाज करना पसंद नहीं है.

कुछ लोग सोशल मीडिया पर बहुत लंबे कमेंट करते हैं या लंबी पोस्ट डालते हैं, उन्हें भी ऐसी लंबी पोस्ट या कमेंट पढ़ना पसंद नहीं है, कोशिश करें कि आपकी पोस्ट सटीक हो और आप कम समय में अपनी बात कह सकें.

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