Social Story In Hindi: मैं कमजोर नहीं हूं- भाग 1- मां और बेटी ने किसे सिखाया सबक

आज रात भी मैं सो न सकी. आकाश के कहे शब्द शूल की भांति चुभ रहे थे. ‘मम्मी, तुम्हें मुझे मेरे पिता का नाम बताना ही पडेगा वरना…’ वरना क्या? यह सोच कर मैं भय से सिहर उठी.

आकाश मेरा एकमात्र सहारा था. उसे खोने का मतलब जीने का मकसद ही खत्म हो जाना. बड़ी मुश्किलेां से गुजर कर मैं ने खुद को संभाला था, जो आसान न था. एक बार तो जी किया कि खुद को खत्म कर लूं. मेरी जैसी स्त्री को समाज आसानी से जीने नहीं देता. इस के बावजूद जिंदा हूं, तो इस का कारण मेरी जिजीविषा थी.

अनायास मेरा मन अतीत के पन्नों पर अटक गया. तब मैं 14 साल की थी. भले ही यह उम्र कामलोलुपों के लिए वासना का विषय हो परंतु मेरे लिए अब भी हमउम्र लड़कियों के साथ खेलनाकूदना ही जिंदगी था. अपरिपक्व मन क्या जाने पुरुषों की नजरों में छिपे वासना का जहर? मेरे ही पड़ोस का युवक अनुज मेरी हमउम्र सहेली का भाई था. एक दिन उस के घर गई.

उस रोज मेरी सहेली घर पर नहीं थी. घर मे दूसरे लोग भी मौजूद नहीं थे. उस ने मुझे इशारों से अपने कमरे में बुलाया. यह मेरे लिए सामान्य बात थी. जैसे ही उस के कमरे में गई, उस ने मुझे बांहों मे जकड़ लिया. साथ में, मेरे गालेां पर एक चुंबन जड़ दिया. यह सबकुछ अप्रत्याशित था.

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मैं घबरा कर उस की पकड़ से छूटने का प्रयास करने लगी. जैसे ही उस ने अपनी पकड ढीली की, मैं रोने लगी. वह मेरे करीब आ कर बोला, ‘‘तुम मुझे अच्छी लगती हो, आई लव यू.’’ मैं ने अपने आंसू पोंछे. घर आई. इस घटना का जिक्र भयवश किसी से नहीं किया. आज इसी बात का दुख था. काश, इस का जिक्र अपने मांबाप से किया होता तो निश्चय ही वे मेरा मार्गदर्शन करते और मैं एक अभिशापित जीवन जीने से बच जाती. बहरहाल, वह मुझे अच्छा लगने लगा.

उम्र की कशिश थी. मै अकसर किसी न किसी बहाने सहेली के घर जाने लगी. एक दिन वैसा ही एकांत था जब उस ने मेरे शरीर से खेला. मैं न करती रही, मगर वह कहां मानने वाला था. मैं बुरी तरह डरी हुई थी. घर आई. अपने कमरे में जा कर चुपचाप लेट गई. रहरह कर वही दृश्य मेरे सामने नाचता रहा. सुबह नींद खुली तो मां ने मेरी तबीयत का हाल पूछा. तब मैं ने बहाना बना दिया कि मेरे सिर में दर्द हो रहा था. यह सिलसिला कई माह चला.

असलियत तब पता चली जब मेरे अंदर मां बनने के संकेत उभरे. मां को काटो तो खून नहीं. अब करे तो क्या करे. पापा को तो बताना ही पड़ेगा. उस समय घर में जो कुहराम मचेगा, उस का कैसे सामना करेगी. वे रोंआसी हो गईं. उन का दिल बैठने लगा. मुझे कोसने लगीं. उन्होंने मुझे मारापीटा भी. पर उस से क्या होगा? जो होना था वह हो चुका. वही हुआ जिस का डर था.

पापा ने मां को खूब खरीखोटी सुनाई. ‘कैसी मां हो जो जवान होती बेटी पर नजर न रख सकीं?’ वे मेरा गला घोंटने जा रहे थे. मां ने रोका. पापा कैसे थे, कैसे हो गए. कहां मेरे लिए हर वक्त एक पैर खड़े रहते थे. मेरा जरा सा भी दर्द उन से सहा न जाता था.

आज वही पापा मेरी जान लेने पर उतारू हो गए. मैं रोए जा रही थी. उस रोज किसी ने खाना नहीं खाया. सब मेरे भविष्य को ले कर चिंतित थे. ‘इस लडकी ने मुझे कहीं का न छेाडा.’ मैं ने पापा को इतना हताश कभी नहीं देखा.

‘क्यों न इस मामले में अपने भाई से राय ली जाए,’ मां बोलीं.

‘पागल हो गई हो. किसी को कानोंकान खबर नहीं लगनी चाहिए कि तुम्हारी बेटी के साथ ऐसा हुआ है वरना मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहोगी.’ इस का मतलब यही था कि पापा ने अनुज के परिवार वालों के बीच भी इस सवाल को उठाना उचित नहीं समझा. वे जानते थे कि कुछ हासिल नहीं होगा, उलटे, समाज में बदनामी होगी, सो अलग.

‘तब क्या होगा?’

‘जो कुछ करना होगा, हमदोनों आपस में ही सलाहमशवरा कर के करेंगे. कल सुबह सब से पहले किसी महिला डाक्टर से मिलना होगा. फिर जैसा होगा वैसा किया जाएगा.’ मम्मी को पापा की राय उचित लगी.

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अगली सुबह दोनों लेडी डाक्टर के पास गए. लेडी डाक्टर ने गर्भपात करने से साफ मना कर दिया, बोली, ’समय काफी निकल चुका है, जान का खतरा है.’ हर तरीके से पापा ने डाक्टर से मिन्नतें कीं. मगर वे टस से मस न हुईं. भरेकदमों से दोनो वापस लौट आए. अब एक ही रास्ता था या तो मुझे मार डाला जाए या फिर कहीं दूर चले जाएं और इस बच्चे को जन्म दे कर छोड़ दिया जाए. मां के साथ नागपुर से मैं मुंबई आ कर एक फ्लैट ले कर किराए पर रहने लगी. मुंबई इसलिए ठीक लगा क्योंकि यहां कोई किसी के बारे में जानने की कोशिश नहीं करता. 9 महीने बाद मैं एक बच्चे की मां बनी. इस से पहले कि मैं उस की शक्ल देखूं, मां ने पहले से ही एक परिचित, जो निसंतान थी, को दे कर छुटटी पा ली. बाद में पापा ने भी अपना तबादला मुंबई करवा लिया. मैं ने अपनी पढ़ाईलिखाई फिर से शुरू कर दी. इस के बावजूद मेरी आंखों से मेरे अतीत का दुस्वप्न कभी नहीं गया. जब भी सामने आता तो बेचैन हो उठती. 24 साल की हुई, तो मां ने मेरी शादी कर दी इस नसीहत के साथ कि मैं कभी भी अपने बीते हुए कल की चर्चा नहीं करूंगी. यह मेरे ऊपर तलवार की तरह थी. हर वक्त मैं इस बात को ले कर सजग रहती कि कहीं मेरे पति को पता न चल जाए. पता चल गया, तो क्या होगा? यह सोचती तो भय की एक सिरहन मेरे जिस्म पर तैर जाती. स्त्री की जिंदगी दांतों के बीच जीभ की तरह होती है. यही काम पुरुष करता, तो न समाज उसे कुछ कहता न ही उसे कोई अपराधबोध होता. उलटे, वह अपनी मर्दानगी का बखान करता. ऐसा ही हुआ होगा जिस ने मेरे जिस्म से खेला. आज निश्चय ही वह शादीब्याह कर के एक शरीफ इंसान का लबादा ओढ़े समाज का सम्मानित आदमी बन कर घूम रहा होगा जबकि मैं हर वक्त भय के साए में लिपटी एक अंधेरे भविष्य की कल्पना के साथ. इसे विडंबना ही कहेंगे जो हमारे समाज के दोहरे मापदंड का विद्रूप चेहरा है. 6 महीने बामुश्किल गुजरे होंगे जब मेरे पति ने मेरे चरित्र पर सवाल उठा कर तलाक का फरमान सुना दिया. ऐसा क्या देखा और सुना, जो उसे मेरा चरित्र संदिग्ध लगा.

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सहेली का दर्द: कामिनी से मिलने साक्षी क्यों अचानक घर लौट गई?

सहेली का दर्द: भाग 1- कामिनी से मिलने साक्षी क्यों अचानक घर लौट गई?

ट्रेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचने वाली थी. साक्षी सामान संभाल रही थी. उस ने अपने बालों में कंघी की और अपने पति सौरभ से बोली, ‘‘आप भी अपने बाल सही कर लें. यह अपने कुरते पर क्या लगा लिया आप ने? जरा भी खयाल नहीं रखते खुद का.’’

‘‘अरे यार, रात को डिनर किया था न. लगता है कुछ गिर गया.’’

तीखे नैननक्श, सांवले रंग की साक्षी मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखती थी. पति सौरभ सरकारी विभाग में बाबू था. शादी को 15 साल होने जा रहे थे. दोनों का 1 बेटा करीब 13 साल का था. लेकिन इस वक्त उन के साथ नहीं था.

साक्षी जब पढ़ती थी तब कसबे में एक ही सरकारी गर्ल्स कालेज था. उस में ही मध्यवर्गीय और उच्चवर्ग के घरों की लड़कियां स्कूल से आगे की पढ़ाई पूरी करती थीं. कसबे के करोड़पति व्यापारी की बेटी कामिनी भी साक्षी की कक्षा में थी. वह चाहती तो यह थी कि शहर में जा कर किसी बड़े नामी कालेज में दाखिला ले, लेकिन उसे इस बात की इजाजत नहीं मिली.

साक्षी और कामिनी ने सरकारी कालेज में ही बीए किया. दोनों में इतनी गहरी मित्रता थी कि दोनों की सुबहशाम साथ ही गुजरती थीं. साथसाथ पलीबढ़ी हुई दोनों सहेलियां मित्रता की एक मिसाल थीं. बीए के बाद दोनों की शादी के रिश्ते आने लगे. कामिनी की शादी हो गई. शादी के बाद वह दिल्ली में अपनी ससुराल चली गई.

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इधर साक्षी के परिजनों के पास शादी में खर्च को ज्यादा कुछ नहीं था. उस की शादी में कुछ दिक्कतें आईं. 1 साल बाद साक्षी की शादी भी कामिनी की ससुराल के कसबे में ही हो गई. दोनों सहेलियां शादी के बाद बिछुड़ गईं. साक्षी को इतना तो पता था कि कामिनी दिल्ली में है, लेकिन पताठिकाना क्या है, यह उसे नहीं पता था. वह अपने सरकारी बाबू पति सौरभ के साथ जीवन व्यतीत कर रही थी. छोटा सा कसबा ऊपर से पति एक मामूली बाबू. सुबह से शाम, शाम से रात हो जाती. सब कुछ नीरस सा लगता साक्षी को. वह सोचती यह भी कोई जिंदगी है, कुछ भी नया नहीं. उसे रहरह कर कामिनी की याद आती. सोचती कामिनी दिल्ली में है, कितने मजे में रहती होगी.

दोनों की शादी को कई बरस गुजर गए. कामिनी का अतापता नहीं था, क्योंकि उस के पिता ने अपना कारोबार कसबे से समेट कर दिल्ली में शुरू कर लिया था. कसबे से आनाजाना छूटा तो कामिनी भी दिल्ली की हो कर रह गई.

शादी के 14 साल बाद शहर से एक दिन कामिनी के पिता किसी काम से कसबे में आए, तो साक्षी से भी मिले. वे साक्षी को भी अपनी बेटी की ही तरह मानते थे. साक्षी ने उन से कामिनी का मोबाइल नंबर लिया. साक्षी ने कामिनी से बातें कीं. जब भी टाइम मिलता दोनों मोबाइल पर बातें करतीं.

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कामिनी ने साक्षी को दिल्ली आने का निमंत्रण दिया. साक्षी कई दिनों तक टालती रही. आखिर एक दिन उस ने अपने पति सौरभ को दिल्ली ले चलने को राजी कर लिया.

कामिनी के निमंत्रण पर ही साक्षी अपने पति के साथ दिल्ली जा रही थी. कामिनी ने कहा था कि वह उसे लेने रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाएगी. साक्षी पहली बार दिल्ली जा रही थी. वह बहुत खुश थी. उस की उम्मीदों को पंख लग रहे थे. दिल्ली जिस का अभी तक नाम सुना था, उसे देखेगी. सब से बड़ी बात कामिनी से 15 साल बाद मिलेगी. बहुत सारी बातें करेगी. उस ने सुना था खूब धनदौलत, ठाटबाट हैं कामिनी के ससुराल में. उस का पति वैभव भी काफी हैंडसम और तहजीब वाला इनसान है.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पहुंच चुकी थी. साक्षी जैसे ही गेट पर पहुंची सामने कामिनी खड़ी नजर आई. दोनों की नजरें जैसे ही मिलीं होंठों पर मुसकान तैर गई. साक्षी को तो यों लगा जैसे जीवन में बाहर आ गई हो. कामिनी को देख कालियों की तरह उस का रोमरोम खिल उठा. कामिनी तो वैसे के वैसी थी, बल्कि उस का रंगरूप और निखर गया था. जींस और टौप पहने थी. उम्र पर तो जैसे ब्रेक ही लगा लिया था उस ने. वह आज भी कालेज बाला सी लग रही थी.

दिल्ली की सड़कों पर कामिनी की कार दौड़ रही थी, जिसे वह खुद ड्राइव  कर रही थी. बराबर में साक्षी बैठी थी और पीछे वाली सीट पर साक्षी का पति सौरभ.

‘‘जीजू क्यों नहीं आए तेरे साथ? अकेली क्यों चली आई?’’ साक्षी ने कामिनी के कंधे पर हाथ मारते हुए पूछा.

‘‘अरे यार, यह दिल्ली है. यहां सब अपनेअपने हिस्से की लाइफ जीते हैं,’’ कामिनी ने आंखें तरेरते हुए जवाब दिया.

‘‘क्या जीजू से बनती नहीं तेरी?’’ साक्षी ने सवाल किया.

‘‘अरे, नहीं यार. ऐसी कोई बात नहीं है. दरअसल, वैभव रात को देर से आते हैं. आने के बाद भी कंप्यूटर पर काम निबटाते हैं, तो सुबह जल्दी नहीं उठ पाते,’’ कामिनी ने कहा.

‘‘अच्छा… यह तो बड़ी दिक्कत है भई.’’

‘‘दिक्कत क्या है साक्षी? अब तो रूटीन लाइफ हो गई है,’’ कामिनी ने कहा.

दोनों की बातचीत में रेलवे स्टेशन और घर के बीच का रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला. कामिनी का घर, घर नहीं एक महल था. कई लग्जरी गाडि़यां खड़ी थीं. घर के बाहर गार्ड, माली अपने काम में लगे थे. जैसे ही गाड़ी रुकी, गार्ड ने बड़ा सा दरवाजा खोला. कामिनी कार को सीधा कोठी के अंदर ले गई. कार जैसे ही रुकी, 2 नौकर दौड़ कर पास आए. यह सब देख साक्षी को कामिनी से एक पल के लिए ईर्ष्या हुई कि क्या ठाट हैं यार इस के.

‘‘गाड़ी का सामान निकालो और गैस्ट हाउस में ले जाओ,’’ कामिनी ने नौकरों को आदेश दिया.

‘‘आओ साक्षी, जीजू प्लीज, आप भी आइए,’’ कामिनी ने कहा.

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साक्षी और सौरभ देखते रह गए. उन्होंने इधरउधर नजरें दौड़ाईं. सब कुछ व्यवस्थित नजर आया. सौरभ ने साक्षी को कुहनी मारी और इशारों में कहा कि देखा क्या ठाट हैं, उन्हें लगा वे किसी फिल्मी सैट पर आ गए हैं. अब तक इस तरह का बंगला, गाडि़यां  फिल्मों में ही देखी थीं इन्होंने.

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उसका सच: क्यों दोस्त को नहीं समझ पाया हरि

लेखिका- अरुणा सव्वरवाल

उसका सच- भाग 1 : क्यों दोस्त को नहीं समझ पाया हरि

उस के बारे में सुन कर धक्का तो लगा, किंतु आश्चर्य नहीं हुआ. कोसता रहा खुद को कि क्यों नहीं लिया गंभीरता से उस की बातों को मैं ने?

बीता वक्त धीरेधीरे मनमस्तिष्क पर उभरने लगा था…

लगभग 6 दशक से अधिक की पहचान थी उस से. पहली कक्षा से पढ़ते रहे थे साथसाथ. दावे से कह सकता हूं कि उस के दांत साफ करने से ले कर रात को गरम प्याला दूध पीने की आदत से परिचित था. उस की सोच, उस के सपने, उस के मुख से निकलने वाला अगला शब्द तक बता सकता था मैं.

पिछली कई मुलाकातों से ऐसा लगा, शायद मैं उसे उतना नहीं जानता था जितना सोचता था. हम दोनों ने एक कालेज से इंजीनियरिंग की. समय ने दोनों को न्यूयौर्क में ला पटका. धीरेधीरे मकान भी दोनों ने न्यूयौर्क के क्वींज इलाके में ले लिए. रिटायर होने के बाद धर्मवीर 10-12 मील दूर लौंग आईलैंड के इलाके में चला गया. तब से कुछ आयु की सीमाओं और कुछ फासले के कारण हमारा मिलनाजुलना कम होता गया.

पिछले 2 वर्षों में जब भी वह मुझ से मिला, उस में पहले जैसी ऊर्जा न थी. चेहरा उस का बुझाबुझा, बासे सलाद के पत्तों की तरह. उस की आंखों में जगमगाते दीये के स्थान पर बिन तेल के बुझती बाती सी दिखाई दी, जैसे जीने की ललक ही खो दी हो. उसे जतलाने की हिम्मत नहीं पड़ी. किंतु मैं बहुत चिंतित था.

एक दिन मैं ने उस के यहां अचानक जा धमकने की सोची. घंटी बजाई, दरवाजा पूरा खोलने से पहले ही उस ने दरवाजा मेरे मुंह पर दे मारा. मैं ने अड़ंगी डालते कहा, ‘अरे यार, क्या बदतमीजी है. रिवर्स गियर में जा रहे हो क्या? लोग तो अंदर बुलाते हैं. गले मिल कर स्वागत करते हैं. चायपानी पिलाते हैं और तुम एकदम विपरीत. सठियाये अमेरिकी बन गए लगते हो. अपना चैकअप करवाओ. ये लक्षण ठीक नहीं. देख, अभी शिकायत करता हूं,’ इतना कह कर मैं ‘भाभीभाभी’ चिल्लाने लगा.

‘क्यों बेकार में चिल्ला रहा है, तेरी भाभी घर पर नहीं है.’

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‘चलो मजाक छोड़ता हूं. यह बताओ, हवाइयां क्यों उड़ी हैं? चेहरा देखा है आईने में? ऐसे दिखते हो जैसे अभीअभी तुम ने कोई डरावना सपना देख लिया हो. तुम्हारा ऐसा व्यवहार? समझ से बाहर है.’

‘बस, यार. शर्मिंदा मत करो.’

‘ठीक है. उगल डालो जल्दी से जो मन में है वरना बदहजमी हो जाएगी.’

‘कोई बात हो तो बताऊं?’ इतना कहते ही उस की आंखें भर आईं.

‘धर्मवीर, कभी ध्यान से देखा है खुद को, कितना दुबला हो गया है?’

‘दुबला नहीं, कमजोर कहो, कमजोर? कमजोर हो गया हूं.’

‘यार, कमजोर तो तू कभी नहीं था.’

‘अब हो गया हूं. कायर, गीदड़ बन गया हूं.’

‘किसी चक्करवक्कर में तो नहीं पड़ गया?’ मैं ने मजाक में कहा.

‘दिमाग तो ठीक है तेरा? तू भी वही धुन गुनगुनाने लगा. आजकल तो यह हाल है, झूठ और सच की परिभाषाएं बदल चुकी हैं. अज्ञानी ज्ञान सिखा रहा है. कौवा राग सुना रहा है. झूठों का बोलबाला है. कुकर्म खुद करते हैं, उंगली शरीफों पर उठाते हैं. तू तो जानता है, मेरा जमीर, मेरे कर्तव्य, मेरे उसूल कितने प्रिय हैं मुझे,’ इतना कहते ही उस के चेहरे पर उदासी छा गई.

‘हां, अगर ऐसी बात है तो चल, कहीं बाहर चल कर बात करते हैं.’

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धर्मवीर ने पत्नी के नाम एक नोट लिखा, चाबी जेब में डाली और दोनों बाहर चल पड़े. सर्दी का मौसम शुरू हो चुका था. न्यूयौर्क की सड़कों पर कहींकहीं बर्फ के टुकड़े दिखाई दे रहे थे. सर्द हवाएं चल रही थीं. दोनों कौफीहाउस में जा कर बैठ गए और 2 कौफी मंगवाईं.

‘धर्मवीर, अब बताओ तुम ने दरवाजा क्यों बंद किया?’

‘हरि मित्तर, बात ही कुछ ऐसी है, न तो तुम्हें समझा सकूंगा और न ही तुम समझ पाओगे. तुम्हारे आने से पहले ‘वह’ आई थी. उस की झलक पाते ही बर्फ सा जम गया था मैं. बस, दे मारा दरवाजा उस के मुंह पर. ऐसी बेरुखी? इतनी बदतमीजी? क्यों की मैं ने? यह मेरी सोच से भी बाहर है. शर्मिंदा हूं अपनी इस हरकत पर, कभी माफ नहीं कर सकूंगा स्वयं को?

‘छीछीछी, नफरत हो रही है खुद से? सोचता हूं अगर मैं उस की जगह होता तो मुझे कैसा लगता? उस क्षण बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो गई थी कि पूछा तक नहीं कि क्या काम है? क्या चाहिए? क्यों आई हो? हो सकता है पत्नी से कोई जरूरी काम हो? जीवन के इस पड़ाव में इतनी गुस्ताखी? क्या उम्र के साथसाथ नादानियां भी बढ़ती जाती हैं? सोच की शक्ति कम हो जाती है क्या? यह दोष बुढ़ापे पर भी नहीं मढ़ सकता. शेष इंद्रियां तो अक्षत (सहीसलामत) हैं. शायद भीरु हो गया हूं. चूहा बन गया हूं. बदतमीजी एक नहीं, दो बार हुई थी. 2 मिनट बाद ‘वह’ फिर अपनी सहेली को साथ ले कर आई. हाथ में कुछ किताबें थीं. लगता था सहेली कार में बैठी थी. मैं ने फिर वही किया. दरवाजा पूरा खोलने से पहले ही उस के मुंह पर दे मारा. बचपन से सीखा है अतिथियों का सम्मान करना. अभी बड़बड़ा ही रहा था कि फिर घंटी बजी. मैं दरवाजे तक गया. दुविधा में था. हाथ कुंडी तक गया, दरवाजा खोलते ही बंद करने ही वाला था कि तुम ने अड़ंगी डाल दी.’

‘यार यह ‘वह’ ‘वह’ ही करता रहेगा या कुछ बताएगा भी कि यह ‘वह’ शै है क्या?’

‘छोड़ यार, बेवजह किसी औरत का नाम लेना मैं ठीक नहीं समझता. जब हम क्वींज छोड़ कर लौंग आइलैंड में आए, सभी पड़ोसियों ने धीरेधीरे ‘कुकीज’ आदि से अपनाअपना परिचय दिया. उन में एक पड़ोसन ‘वह’ भी थी. थोड़े ही समय में उस का सरल निश्छल व्यवहार देख कर तुम्हारी भाभी की उस से दोस्ती हो गई. उन पतिपत्नी का हमारे यहां आनाजाना शुरू हो गया. निशा से यह बरदाश्त नहीं हुआ.’

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‘यह निशा कौन है?’

‘दरअसल तुम्हारी भाभी की बचपन की सहेली है. उसी के कारण हम लौंग आइलैंड आए थे. जिस का बूटा सा कद, कसरत करने वाले गेंद की गोलाई सा शरीर और अल्पबुद्धि एवं उद्देश्य, सब के ध्यान का केंद्र बने रहना. जैसे सोने पे सुहागा. रानी मधुमक्खी निशा कैसे बरदाश्त कर सकती थी अपने राज्य क्षेत्र में किसी और का आगमन? उसे अपने क्षेत्र में खतरा लगने लगा. उस ने तुम्हारी भाभी के मस्तिष्क में शंकारूपी विष के डंक मारने शुरू कर दिए. वह विष इतना फैला कि नासूर बन गया.’

‘धर्मवीर, एक मिनट, फोन आ रहा है,’ कह कर मैं फोन सुनने लगा :

‘हां, बोलो मेमसाहब?’

‘जी, कहां रह गए. शाम को विवेक साहब के पास जाना है.’

‘ठीक है, तुम तैयार रहना. मैं 1 घंटे में पहुंच जाऊंगा.’ कह कर मैं फिर से मित्र से मुखातिब हुआ- ‘धर्मवीर, जाना पड़ेगा, हाईकमान का आदेश हुआ है. यह मोबाइल फोन भी जासूस से कम नहीं.’

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Romantic Story: सार्थक प्रेम- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

Romantic Story: सार्थक प्रेम- भाग 1- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

 कहानी- मधु शर्मा

जून माह की दोपहर मृणाल घर के बरामदे में बैठी हुई सामने लगे नीम के पेड़ पर पक्षियों को दानापानी रखने के लिए टंगे मिट्टी के बरतन को देख रही थी. उस पर बैठी गिलहरी, छोटीछोटी चिडि़याएं खूब कलरव कर रही थीं. वे कभी दाना चुगतीं तो कभी पानी के बरतन में जा कर उस में खेलतीं. मृणाल यह सब बहुत ध्यान से देख कर मुसकराए जा रही थी.

तभी भीतर से आवाज आई, ‘अंदर आ जाओ, बाहर जलोगी क्या. कितनी गरमी है वहां, लू लग जाएगी.’ और मृणाल धीरे से उठ कर अंदर चली गई. पहले उस ने सोचा बैडरूम में जाए फिर उस का मन हुआ क्यों न चाय बना ली जाए.

वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. तभी प्रणय भी अंदर रसोई में आ गया और बोला, ‘‘चाय बना रही हो, पागल हो गई हो क्या? अभी तो 3 ही बजे हैं, कितनी गरमी है, तुम्हारा भी कुछ पता नहीं लगता. मैं सोचता हूं तुम्हारा इलाज साइको वाले से करवा ही लेता हूं.

‘‘पागल हो तुम, वैसे शुरू से ही थीं पर जब से दिल्ली से आई हो, बड़ी अजीबोगरीब हरकतें कर रही हो. मुझे तो अपना भविष्य अधर में लटका दिख रहा है. कैसे इस पागल के साथ पूरा जीवन काटूंगा,’’ बड़े लापरवाह लहजे में कहते हुए प्रणय फ्रिज में से आम निकाल कर काटने लगा.

मृणाल सब सुन रही थी और सिर्फ मुसकरा कर उस से बोली, ‘‘ज्यादा मत बोलो. बताओ, तुम्हारी भी चाय बनाऊं या नहीं?’’

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‘‘हां, ठीक है, आधा कप बना लो.’’ प्रणय ने जवाब दिया और मृणाल की मुसकराहट ठहाकों में बदल गई. इसी बीच उस ने प्रणय को अपनी बांहों में पीछे से पकड़ा और उस के गाल को चूमते हुए बोली, ‘‘इलाज मेरा नहीं, अपना करवाओ. आम के साथ चाय पीओगे क्या?’’

चेहरे पर हलकी मुसकराहट को छिपाने की कोशिश और दिखावटी गुस्से के साथ प्रणय बोला, ‘‘हां, मैं पीता हूं. तुम अभी कुछ दिन नहीं थीं तो यह एक्सपैरिमैंट किया. आम, तरबूज, खरबूजा सब के साथ चाय बहुत अच्छी लगती है. हम तो यों ही यह जंक फूड खा कर अपनी हैल्थ खराब करते हैं. फलों के साथ चाय पियो, देखो कितनी अच्छी लगती है.’’ कह कर वह कटे हुए आम को वापस फ्रिज में रख कर बिस्कुट निकालने लगा.

मृणाल बिना कुछ बोले मुसकराए जा रही थी. दोनों फिर बैठ कर चाय पीने लगे कि दरवाजे की घंटी बजी. मृणाल उठ कर दरवाजा खोलने गई तो देखा गेट के बाहर एम्बुलैंस खड़ी थी और अस्पताल के वार्डबौय ने कौल रजिस्टर्ड हाथ में ले रखा था. मृणाल को देख कर बोला, ‘‘मैडम, डाक्टर साहब हैं क्या? अस्पताल से इमरजैंसी कौल है. एक ऐक्सिडैंट केस आया है.’’ इतने में प्रणय भी अंदर से आ गया.

बार्डबौय ने प्रणय को देख कर कहा, ‘‘सर, इमरजैंसी है. ऐक्सिडैंट केस आया है.’’

‘‘ठीक है, चलता हूं.’’ बोल कर प्रणय अंदर चला आया और मृणाल वहीं उस वार्डबौय से बात करने लगी.

वह बोला, ‘‘क्या है न मैडम, इतनी गरमी है. ऐक्सिडैंट भी बहुत होते हैं. मारपीट के केस भी बहुत आते हैं. डाक्टर साहब को इसलिए बारबार बुलाने आना पड़ता है. वे भी परेशान होते हैं पर क्या करें, हमारी तो ड्यूटी है.’’ इतने में प्रणय कपड़े बदल कर आ गया और एम्बुलैंस में बैठ कर अस्पताल चला गया.

प्रणय पेशे से डाक्टर था. अभी एक साल ही हुआ था उसे इस शहर में ट्रांसफर हुए. मृणाल दरवाजा बंद कर के अंदर बैडरूम में आ कर लेट गई और सोचने लगी, हां, गरमी तो बहुत है पर न जाने क्यों उसे इस का एहसास नहीं हो रहा. शायद अभी 2 दिन पहले उस के मन को शीतलता मिली है, यह उस का असर है कि बाहरी वातावरण का असर उस के शरीर पर नहीं हो रहा. और लेटेलेटे मृणाल खयालों में डूब गई.

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अभी 7 दिन पहले वह अपने कोर्ट के किसी काम से दिल्ली गईर् थी क्योंकि मृणाल पेशे से एडवोकेट थी. प्रणय ने फ्लाइट से ही आनेजाने का टिकट करवा दिया था. और मृणाल उस व्यक्ति के बारे में सोचने लगी जो फ्लाइट में उस की बगल वाली सीट पर बैठा था और लगातार मृणाल की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. जब मृणाल उस की तरफ देखती तो वह नजरें चुरा कर झुका लेता या कहीं और देखने लगता. मृणाल को यह सब बहुत असहज लग रहा था. तभी एयर होस्टेस ने आ कर पूछा, ‘सर, आप कुछ लेंगे?’

उस ने कहा, ‘हां, प्लीज मुझे कौफी दीजिए.’ एयर होस्टेस ने उसे कौफी ला कर दी.

कौफी के कप को उस ने मृणाल की तरफ बढ़ा कर पूछा, ‘मैम, आप कौफी लेंगी?’

मृणाल ने एक अनचाही मुसकराहट को अपने चेहरे पर लाते हुए मना किया, ‘नहीं सर, थैंक्यू. आप लीजिए, प्लीज.’ मृणाल की असहजता कुछ कम हुई और दोनों के बीच थोड़ीबहुत बातें होने लगीं.

वह व्यक्ति मृणाल से बोला, ‘मैम, आप दिल्ली जा रही हैं, आप तो राजस्थान से हैं.’ मृणाल ने उस की तरफ एकटक देखा और कहा, ‘आप कैसे कह सकते हैं?’

उस ने मृणाल की तरफ मुसकराहट के साथ देखा और कहा, ‘मैं तो यह भी कह सकता हूं कि आप उदयपुर से हैं.’

‘नहीं, मैं तो उदयपुर से नहीं हूं,’ मृणाल ने थोड़े सख्त लहजे में कहा.

‘तो क्या आप कभी उदयपुर में नहीं रहीं.’ बड़े गंभीर स्वर में उस व्यक्ति ने मृणाल की ओर देखते हुए कहा.

उस के चेहरे पर यह कहते हुए गंभीर और सौम्य भावों को देख कर मृणाल भी कुछ गंभीर हो गई और पूछने लगी, ‘सर, माफ कीजिए, मैं आप को पहचान नहीं पा रही हूं. हालांकि, जब से हम ने टेकऔफ किया है, मैं देख रही हूं आप लगातार मेरी तरफ देख मुसकराए जा रहे हैं. जैसे मुझे पहचान दिलाने की कोशिश कर रहे हों. सर, प्लीज आप अपने बारे में बताइए, क्या हम पहले मिल चुके हैं, और क्या करते हैं आप?’

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‘नहीं, आप मुझ से पहले कभी नहीं मिली हैं,’ उस ने मृणाल के पहले सवाल का जवाब दिया.

‘तो आप ने कभी मेरे साथ काम किया होगा, या आप मेरे क्लाइंट रहे होंगे. कहीं आप भी तो जुडिशियरी डिपार्टमैंट से तो नहीं हैं?’ मृणाल ने कहा.

‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है,’ उस ने धीरे और गंभीर आवाज में कहा और चुप हो गया. मृणाल उस की तरफ इस उम्मीद से देख रही थी कि शायद वह आगे कुछ और बोलेगा पर वह सिर झुका कर बैठा था.

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Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे-भाग 1- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

“अरे, अरे! दिला दीजिये न इसे बैलून. बचपन कहां लौटकर आता है?” वह दो-ढाई वर्षीय एक बच्चे को गुब्बारे के लिए मचलते देख उसकी मां से कह रहा था. गोआ के मीरामर बीच पर बैठी दिशा की ओर पीठ थी उस पुरुष की. उसे देख फिर से अम्बर की याद आ गयी दिशा को. वैसे भूली ही कब थी वह उसे ? अम्बर था ही ऐसा कि यादों से निकल ही नहीं पाता था. सबके दिल की बात समझने वाला, छोटी-छोटी बातों में खुशियां ढूंढने वाला, एक ज़िन्दा-दिल इंसान. दिशा सोच में डूबी हुई थी कि वही बच्चा एक हाथ से अपनी मां का हाथ पकड़े और दूसरे हाथ में बड़ा सा गुब्बारा थामे नन्हे कदमों से दूर तक चक्कर लगाकर फिर से आता हुआ दिखाई दिया. उसके पीछे पीछे वही पुरुष था. ‘अरे, यह तो अम्बर ही है!’ दिशा को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ.
अम्बर भी आश्चर्य चकित हो कुछ पलों के लिए दिशा को देखता ही रह गया. फिर बच्चे की ओर मुस्कुराकर हाथ हिलाने के बाद दिशा के पास आ उल्लासित स्वर में बोल उठा, “दिशा, तुम, यहां?…..अरे, यूं गुपचुप गुमसुम!”
दिशा भी अम्बर को देख अपनी प्रसन्नता पर काबू नहीं रख सकी, “तुमसे इतने सालों बाद यहां पर ही मिलना तय था शायद…. अम्बर, तुम तो अभी भी वैसे ही लग रहे हो जैसे पांच साल पहले कौलेज में लगते थे.”
“लेकिन तुम्हारा वह चुलबुलापन दूर हो गया तुमसे. पहले वाली दिशा यूं सागर किनारे चुपचाप बैठने वाली थोड़े ही थी.” अम्बर बिना किसी औपचारिकता के मन की बात कह उठा.

“यह बच्चा तुम्हारा है क्या ?” बैलून वाले बच्चे की ओर इशारा करते हुए दिशा ने पूछा.
“हा हा हा, इस बच्चे से तो अभी यहीं मुलाकात हो गयी थी.” अम्बर की हंसी छूट गयी. फिर संभलते हुए बोला, “मैं तो अभी सिंगल हूं. मम्मी-पापा को सौंप दी है जिम्मेदारी. वे जब जिसे चुन लेंगे, मैं उसका हाथ थाम लूंगा.”
“कहां हो आजकल? गोआ में जौब है क्या ?” दिशा अम्बर के विषय में सब कुछ जान लेना चाहती थी.
“अरे नहीं, मैं तो यहां एक वर्कशौप अटैंड करने आया हुआ हूं. मैं अभी भी दिल्ली में ही हूं. जब तुम्हारी बीए हुई थी उसी साल मेरी एमए कम्पलीट हो गयी थी और उसके बाद पीएचडी करने कनाडा की डलहौज़ी यूनिवर्सिटी चला गया था. फिर वापिस दिल्ली आ गया. दो साल से ‘सैंटर फौर अटमोसफ़ियरिक साइन्स’ में असिस्टेंट प्रोफेसर की पोस्ट पर हूं. तुम्हारा ससुराल तो इंदौर में है ना? यहां पतिदेव के साथ घूमने आई हो?”

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“नहीं अम्बर….मैं अब इंदौर में नहीं रहती. तीन सालों से दिल्ली में मम्मी-पापा के साथ रह रही हूं. प्राइवेट बैंक में जौब है. उसी की एक ब्रांच में कुछ प्रौब्लम्स थीं, इसलिए अपनी टीम के साथ आयी हूं यहां. फिर मिलूंगी तो सब बताऊंगी. अभी मुझे गैस्ट हाउस में शाम को चाय के लिए पहुंचना है. सभी कलीग्स वहीं पर होंगे. फिर मिलते हैं.”
दोनों ने एक-दूसरे को अपने मोबाइल नंबर दिए और फ़ोन पर बात करने को कह चल दिए.
गैस्ट हाउस पहुंच दिशा अपने कमरे में जाकर लेट गयी. अचानक तेज़ सिर-दर्द के कारण वह इवनिंग टी में सम्मिलित नहीं हो सकी. एक उदास सी सोच उस पर हावी होने लगी. ज़िंदगी ने कैसे-कैसे रंग दिखाये उसे? कैसा निरर्थक सा था वह एक वर्ष का विवाहित जीवन! विक्रांत का प्यार पाने के लिए क्या-क्या बदलने का प्रयास नहीं किया उसने स्वयं में? लेकिन विक्रांत की चहेती नहीं बन सकी कभी. विक्रांत की पसंद के कपड़े पहनना, उसकी पसंद का खाना कुक से बनवाना और स्वयं भी वही ख़ुशी-ख़ुशी खाना, उसके दोस्तों के आने पर सेवा में कोई कमी न रहने देना. आगे की पढ़ाई और नौकरी का सपना देखना भी छोड़ दिया था उसने. अपनी ओर से जी-जान न्योछावर करने पर भी वह विक्रांत की आंखों की किरकिरी ही बनी रही. इस रिश्ते का अंत तलाक नहीं होता तो क्या होता? दिशा का अपने माता-पिता से बार-बार एक ही सवाल करने को जी चाहता था कि क्या कमी थी अम्बर में? उसकी निम्न जाति खटक रही थी आंखों में तो उच्च जातीय विक्रांत ने कौन सा सुख दे दिया उसे? कितने ख़ुशनुमा थे वे दिन जो अम्बर के साथ बीते थे!

दिशा ने जब बीए में एडमिशन लिया था तो उसके सीनियर अम्बर के चर्चे कौलेज में खूब सुनाई देते थे. वह स्वयं भी उसके आकर्षक, संजीदा व बुद्धिजीवी चरित्र से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. पढ़ाई की बात हो या आम जिंदगी की, अम्बर सबकी मदद को तत्पर रहता था. दिशा को बीए के द्वितीय वर्ष में जब इक्नौमिक्स पढ़ते हुए कुछ गणितीय अवधारणायें समझने में मुश्किल हो रही थी तो अम्बर के पास मदद के लिए चली गयी. अम्बर यद्यपि उस समय जियोग्राफी में एमए कर रहा था, लेकिन अपने बीए में पढ़े ज्ञान के आधार पर उसने दिशा को सब समझा दिया. अपनी कठिनाईयों में अम्बर का साथ उसे संबल देने लगा और सूने दिल में अम्बर के नाम की बयार बहने लगी. इन झोंकों का असर अम्बर के ह्रदय-समुद्र पर भी हुआ और प्यार की तरंगे उसके मन में भी हिलोरें लेने लगीं.

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कौलेज में वे लगभग प्रतिदिन मिलते और अपने विचारों का आदान-प्रदान करते. उन दोनों के स्वभाव में अंतर था, शौक भी काफी अलग थे. फिर भी कुछ न कुछ ऐसा अवश्य था जो दोनों को आपस में जोड़े हुए था. शायद अम्बर का मर्यादित रहकर भी स्त्री-मन की समझ रखना, कभी हिम्मत न हारने की सलाह देते रहना और प्रेम की अहमियत समझना दिशा को उससे बांधे जा रहा था. दिशा की नारी-सुलभ मासूमियत अम्बर के मन को गुदगुदा देती थी. वह अम्बर की बातें सुन अपनी कमियों को तरशाने और स्वयं को बदलने के लिए हमेशा तैयार रहती. इतनी निकटता और जुड़ाव के बावज़ूद भी वे एक-दूसरे से अपने मन की बात कहने का साहस नहीं कर पा रहे थे.
दिल की बात अचानक ही दोनों की ज़ुबान पर तब आ गयी, जब कौलेज की ओर से उन्हें एजुकेशनल ट्रिप पर दक्षिण भारत ले जाया गया. उस दिन अपने-अपने अध्ययन क्षेत्रों में घूमने के बाद सभी विषयों के छात्र व अध्यापक शाम के समय कोवलम बीच पर चले गये. वहां जाकर कुछ लड़के-लड़कियां गप-शप में व्यस्त हो गए तो कुछ एक-दूसरे का हाथ थामे पानी में लहरों के आने-जाने का आनंद लेने लगे. दिशा बालू पर बैठ बड़ी तन्मयता से एक घरौंदा बनाने में मग्न थी. दोस्तों से बातें करते हुए अम्बर दूर से उसे देख रहा था. मन दिशा के पास बैठने को बेचैन था. कुछ देर बाद वह चाय बेचने वाले से दो कप चाय लेकर दिशा के पास चला गया.

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Romantic Story: कैसा यह प्यार है

लेखिका- प्रेमलता यदु 

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