Romantic Story: सार्थक प्रेम- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

Romantic Story: सार्थक प्रेम- भाग 1- कौन था मृणाल का सच्चा प्यार

 कहानी- मधु शर्मा

जून माह की दोपहर मृणाल घर के बरामदे में बैठी हुई सामने लगे नीम के पेड़ पर पक्षियों को दानापानी रखने के लिए टंगे मिट्टी के बरतन को देख रही थी. उस पर बैठी गिलहरी, छोटीछोटी चिडि़याएं खूब कलरव कर रही थीं. वे कभी दाना चुगतीं तो कभी पानी के बरतन में जा कर उस में खेलतीं. मृणाल यह सब बहुत ध्यान से देख कर मुसकराए जा रही थी.

तभी भीतर से आवाज आई, ‘अंदर आ जाओ, बाहर जलोगी क्या. कितनी गरमी है वहां, लू लग जाएगी.’ और मृणाल धीरे से उठ कर अंदर चली गई. पहले उस ने सोचा बैडरूम में जाए फिर उस का मन हुआ क्यों न चाय बना ली जाए.

वह रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. तभी प्रणय भी अंदर रसोई में आ गया और बोला, ‘‘चाय बना रही हो, पागल हो गई हो क्या? अभी तो 3 ही बजे हैं, कितनी गरमी है, तुम्हारा भी कुछ पता नहीं लगता. मैं सोचता हूं तुम्हारा इलाज साइको वाले से करवा ही लेता हूं.

‘‘पागल हो तुम, वैसे शुरू से ही थीं पर जब से दिल्ली से आई हो, बड़ी अजीबोगरीब हरकतें कर रही हो. मुझे तो अपना भविष्य अधर में लटका दिख रहा है. कैसे इस पागल के साथ पूरा जीवन काटूंगा,’’ बड़े लापरवाह लहजे में कहते हुए प्रणय फ्रिज में से आम निकाल कर काटने लगा.

मृणाल सब सुन रही थी और सिर्फ मुसकरा कर उस से बोली, ‘‘ज्यादा मत बोलो. बताओ, तुम्हारी भी चाय बनाऊं या नहीं?’’

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‘‘हां, ठीक है, आधा कप बना लो.’’ प्रणय ने जवाब दिया और मृणाल की मुसकराहट ठहाकों में बदल गई. इसी बीच उस ने प्रणय को अपनी बांहों में पीछे से पकड़ा और उस के गाल को चूमते हुए बोली, ‘‘इलाज मेरा नहीं, अपना करवाओ. आम के साथ चाय पीओगे क्या?’’

चेहरे पर हलकी मुसकराहट को छिपाने की कोशिश और दिखावटी गुस्से के साथ प्रणय बोला, ‘‘हां, मैं पीता हूं. तुम अभी कुछ दिन नहीं थीं तो यह एक्सपैरिमैंट किया. आम, तरबूज, खरबूजा सब के साथ चाय बहुत अच्छी लगती है. हम तो यों ही यह जंक फूड खा कर अपनी हैल्थ खराब करते हैं. फलों के साथ चाय पियो, देखो कितनी अच्छी लगती है.’’ कह कर वह कटे हुए आम को वापस फ्रिज में रख कर बिस्कुट निकालने लगा.

मृणाल बिना कुछ बोले मुसकराए जा रही थी. दोनों फिर बैठ कर चाय पीने लगे कि दरवाजे की घंटी बजी. मृणाल उठ कर दरवाजा खोलने गई तो देखा गेट के बाहर एम्बुलैंस खड़ी थी और अस्पताल के वार्डबौय ने कौल रजिस्टर्ड हाथ में ले रखा था. मृणाल को देख कर बोला, ‘‘मैडम, डाक्टर साहब हैं क्या? अस्पताल से इमरजैंसी कौल है. एक ऐक्सिडैंट केस आया है.’’ इतने में प्रणय भी अंदर से आ गया.

बार्डबौय ने प्रणय को देख कर कहा, ‘‘सर, इमरजैंसी है. ऐक्सिडैंट केस आया है.’’

‘‘ठीक है, चलता हूं.’’ बोल कर प्रणय अंदर चला आया और मृणाल वहीं उस वार्डबौय से बात करने लगी.

वह बोला, ‘‘क्या है न मैडम, इतनी गरमी है. ऐक्सिडैंट भी बहुत होते हैं. मारपीट के केस भी बहुत आते हैं. डाक्टर साहब को इसलिए बारबार बुलाने आना पड़ता है. वे भी परेशान होते हैं पर क्या करें, हमारी तो ड्यूटी है.’’ इतने में प्रणय कपड़े बदल कर आ गया और एम्बुलैंस में बैठ कर अस्पताल चला गया.

प्रणय पेशे से डाक्टर था. अभी एक साल ही हुआ था उसे इस शहर में ट्रांसफर हुए. मृणाल दरवाजा बंद कर के अंदर बैडरूम में आ कर लेट गई और सोचने लगी, हां, गरमी तो बहुत है पर न जाने क्यों उसे इस का एहसास नहीं हो रहा. शायद अभी 2 दिन पहले उस के मन को शीतलता मिली है, यह उस का असर है कि बाहरी वातावरण का असर उस के शरीर पर नहीं हो रहा. और लेटेलेटे मृणाल खयालों में डूब गई.

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अभी 7 दिन पहले वह अपने कोर्ट के किसी काम से दिल्ली गईर् थी क्योंकि मृणाल पेशे से एडवोकेट थी. प्रणय ने फ्लाइट से ही आनेजाने का टिकट करवा दिया था. और मृणाल उस व्यक्ति के बारे में सोचने लगी जो फ्लाइट में उस की बगल वाली सीट पर बैठा था और लगातार मृणाल की तरफ देख कर मुसकरा रहा था. जब मृणाल उस की तरफ देखती तो वह नजरें चुरा कर झुका लेता या कहीं और देखने लगता. मृणाल को यह सब बहुत असहज लग रहा था. तभी एयर होस्टेस ने आ कर पूछा, ‘सर, आप कुछ लेंगे?’

उस ने कहा, ‘हां, प्लीज मुझे कौफी दीजिए.’ एयर होस्टेस ने उसे कौफी ला कर दी.

कौफी के कप को उस ने मृणाल की तरफ बढ़ा कर पूछा, ‘मैम, आप कौफी लेंगी?’

मृणाल ने एक अनचाही मुसकराहट को अपने चेहरे पर लाते हुए मना किया, ‘नहीं सर, थैंक्यू. आप लीजिए, प्लीज.’ मृणाल की असहजता कुछ कम हुई और दोनों के बीच थोड़ीबहुत बातें होने लगीं.

वह व्यक्ति मृणाल से बोला, ‘मैम, आप दिल्ली जा रही हैं, आप तो राजस्थान से हैं.’ मृणाल ने उस की तरफ एकटक देखा और कहा, ‘आप कैसे कह सकते हैं?’

उस ने मृणाल की तरफ मुसकराहट के साथ देखा और कहा, ‘मैं तो यह भी कह सकता हूं कि आप उदयपुर से हैं.’

‘नहीं, मैं तो उदयपुर से नहीं हूं,’ मृणाल ने थोड़े सख्त लहजे में कहा.

‘तो क्या आप कभी उदयपुर में नहीं रहीं.’ बड़े गंभीर स्वर में उस व्यक्ति ने मृणाल की ओर देखते हुए कहा.

उस के चेहरे पर यह कहते हुए गंभीर और सौम्य भावों को देख कर मृणाल भी कुछ गंभीर हो गई और पूछने लगी, ‘सर, माफ कीजिए, मैं आप को पहचान नहीं पा रही हूं. हालांकि, जब से हम ने टेकऔफ किया है, मैं देख रही हूं आप लगातार मेरी तरफ देख मुसकराए जा रहे हैं. जैसे मुझे पहचान दिलाने की कोशिश कर रहे हों. सर, प्लीज आप अपने बारे में बताइए, क्या हम पहले मिल चुके हैं, और क्या करते हैं आप?’

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‘नहीं, आप मुझ से पहले कभी नहीं मिली हैं,’ उस ने मृणाल के पहले सवाल का जवाब दिया.

‘तो आप ने कभी मेरे साथ काम किया होगा, या आप मेरे क्लाइंट रहे होंगे. कहीं आप भी तो जुडिशियरी डिपार्टमैंट से तो नहीं हैं?’ मृणाल ने कहा.

‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है,’ उस ने धीरे और गंभीर आवाज में कहा और चुप हो गया. मृणाल उस की तरफ इस उम्मीद से देख रही थी कि शायद वह आगे कुछ और बोलेगा पर वह सिर झुका कर बैठा था.

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Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

Romantic Story: कैसे कैसे मुखौटे-भाग 1- क्या दिशा पहचान पाई अंबर का प्यार?

“अरे, अरे! दिला दीजिये न इसे बैलून. बचपन कहां लौटकर आता है?” वह दो-ढाई वर्षीय एक बच्चे को गुब्बारे के लिए मचलते देख उसकी मां से कह रहा था. गोआ के मीरामर बीच पर बैठी दिशा की ओर पीठ थी उस पुरुष की. उसे देख फिर से अम्बर की याद आ गयी दिशा को. वैसे भूली ही कब थी वह उसे ? अम्बर था ही ऐसा कि यादों से निकल ही नहीं पाता था. सबके दिल की बात समझने वाला, छोटी-छोटी बातों में खुशियां ढूंढने वाला, एक ज़िन्दा-दिल इंसान. दिशा सोच में डूबी हुई थी कि वही बच्चा एक हाथ से अपनी मां का हाथ पकड़े और दूसरे हाथ में बड़ा सा गुब्बारा थामे नन्हे कदमों से दूर तक चक्कर लगाकर फिर से आता हुआ दिखाई दिया. उसके पीछे पीछे वही पुरुष था. ‘अरे, यह तो अम्बर ही है!’ दिशा को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ.
अम्बर भी आश्चर्य चकित हो कुछ पलों के लिए दिशा को देखता ही रह गया. फिर बच्चे की ओर मुस्कुराकर हाथ हिलाने के बाद दिशा के पास आ उल्लासित स्वर में बोल उठा, “दिशा, तुम, यहां?…..अरे, यूं गुपचुप गुमसुम!”
दिशा भी अम्बर को देख अपनी प्रसन्नता पर काबू नहीं रख सकी, “तुमसे इतने सालों बाद यहां पर ही मिलना तय था शायद…. अम्बर, तुम तो अभी भी वैसे ही लग रहे हो जैसे पांच साल पहले कौलेज में लगते थे.”
“लेकिन तुम्हारा वह चुलबुलापन दूर हो गया तुमसे. पहले वाली दिशा यूं सागर किनारे चुपचाप बैठने वाली थोड़े ही थी.” अम्बर बिना किसी औपचारिकता के मन की बात कह उठा.

“यह बच्चा तुम्हारा है क्या ?” बैलून वाले बच्चे की ओर इशारा करते हुए दिशा ने पूछा.
“हा हा हा, इस बच्चे से तो अभी यहीं मुलाकात हो गयी थी.” अम्बर की हंसी छूट गयी. फिर संभलते हुए बोला, “मैं तो अभी सिंगल हूं. मम्मी-पापा को सौंप दी है जिम्मेदारी. वे जब जिसे चुन लेंगे, मैं उसका हाथ थाम लूंगा.”
“कहां हो आजकल? गोआ में जौब है क्या ?” दिशा अम्बर के विषय में सब कुछ जान लेना चाहती थी.
“अरे नहीं, मैं तो यहां एक वर्कशौप अटैंड करने आया हुआ हूं. मैं अभी भी दिल्ली में ही हूं. जब तुम्हारी बीए हुई थी उसी साल मेरी एमए कम्पलीट हो गयी थी और उसके बाद पीएचडी करने कनाडा की डलहौज़ी यूनिवर्सिटी चला गया था. फिर वापिस दिल्ली आ गया. दो साल से ‘सैंटर फौर अटमोसफ़ियरिक साइन्स’ में असिस्टेंट प्रोफेसर की पोस्ट पर हूं. तुम्हारा ससुराल तो इंदौर में है ना? यहां पतिदेव के साथ घूमने आई हो?”

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“नहीं अम्बर….मैं अब इंदौर में नहीं रहती. तीन सालों से दिल्ली में मम्मी-पापा के साथ रह रही हूं. प्राइवेट बैंक में जौब है. उसी की एक ब्रांच में कुछ प्रौब्लम्स थीं, इसलिए अपनी टीम के साथ आयी हूं यहां. फिर मिलूंगी तो सब बताऊंगी. अभी मुझे गैस्ट हाउस में शाम को चाय के लिए पहुंचना है. सभी कलीग्स वहीं पर होंगे. फिर मिलते हैं.”
दोनों ने एक-दूसरे को अपने मोबाइल नंबर दिए और फ़ोन पर बात करने को कह चल दिए.
गैस्ट हाउस पहुंच दिशा अपने कमरे में जाकर लेट गयी. अचानक तेज़ सिर-दर्द के कारण वह इवनिंग टी में सम्मिलित नहीं हो सकी. एक उदास सी सोच उस पर हावी होने लगी. ज़िंदगी ने कैसे-कैसे रंग दिखाये उसे? कैसा निरर्थक सा था वह एक वर्ष का विवाहित जीवन! विक्रांत का प्यार पाने के लिए क्या-क्या बदलने का प्रयास नहीं किया उसने स्वयं में? लेकिन विक्रांत की चहेती नहीं बन सकी कभी. विक्रांत की पसंद के कपड़े पहनना, उसकी पसंद का खाना कुक से बनवाना और स्वयं भी वही ख़ुशी-ख़ुशी खाना, उसके दोस्तों के आने पर सेवा में कोई कमी न रहने देना. आगे की पढ़ाई और नौकरी का सपना देखना भी छोड़ दिया था उसने. अपनी ओर से जी-जान न्योछावर करने पर भी वह विक्रांत की आंखों की किरकिरी ही बनी रही. इस रिश्ते का अंत तलाक नहीं होता तो क्या होता? दिशा का अपने माता-पिता से बार-बार एक ही सवाल करने को जी चाहता था कि क्या कमी थी अम्बर में? उसकी निम्न जाति खटक रही थी आंखों में तो उच्च जातीय विक्रांत ने कौन सा सुख दे दिया उसे? कितने ख़ुशनुमा थे वे दिन जो अम्बर के साथ बीते थे!

दिशा ने जब बीए में एडमिशन लिया था तो उसके सीनियर अम्बर के चर्चे कौलेज में खूब सुनाई देते थे. वह स्वयं भी उसके आकर्षक, संजीदा व बुद्धिजीवी चरित्र से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. पढ़ाई की बात हो या आम जिंदगी की, अम्बर सबकी मदद को तत्पर रहता था. दिशा को बीए के द्वितीय वर्ष में जब इक्नौमिक्स पढ़ते हुए कुछ गणितीय अवधारणायें समझने में मुश्किल हो रही थी तो अम्बर के पास मदद के लिए चली गयी. अम्बर यद्यपि उस समय जियोग्राफी में एमए कर रहा था, लेकिन अपने बीए में पढ़े ज्ञान के आधार पर उसने दिशा को सब समझा दिया. अपनी कठिनाईयों में अम्बर का साथ उसे संबल देने लगा और सूने दिल में अम्बर के नाम की बयार बहने लगी. इन झोंकों का असर अम्बर के ह्रदय-समुद्र पर भी हुआ और प्यार की तरंगे उसके मन में भी हिलोरें लेने लगीं.

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कौलेज में वे लगभग प्रतिदिन मिलते और अपने विचारों का आदान-प्रदान करते. उन दोनों के स्वभाव में अंतर था, शौक भी काफी अलग थे. फिर भी कुछ न कुछ ऐसा अवश्य था जो दोनों को आपस में जोड़े हुए था. शायद अम्बर का मर्यादित रहकर भी स्त्री-मन की समझ रखना, कभी हिम्मत न हारने की सलाह देते रहना और प्रेम की अहमियत समझना दिशा को उससे बांधे जा रहा था. दिशा की नारी-सुलभ मासूमियत अम्बर के मन को गुदगुदा देती थी. वह अम्बर की बातें सुन अपनी कमियों को तरशाने और स्वयं को बदलने के लिए हमेशा तैयार रहती. इतनी निकटता और जुड़ाव के बावज़ूद भी वे एक-दूसरे से अपने मन की बात कहने का साहस नहीं कर पा रहे थे.
दिल की बात अचानक ही दोनों की ज़ुबान पर तब आ गयी, जब कौलेज की ओर से उन्हें एजुकेशनल ट्रिप पर दक्षिण भारत ले जाया गया. उस दिन अपने-अपने अध्ययन क्षेत्रों में घूमने के बाद सभी विषयों के छात्र व अध्यापक शाम के समय कोवलम बीच पर चले गये. वहां जाकर कुछ लड़के-लड़कियां गप-शप में व्यस्त हो गए तो कुछ एक-दूसरे का हाथ थामे पानी में लहरों के आने-जाने का आनंद लेने लगे. दिशा बालू पर बैठ बड़ी तन्मयता से एक घरौंदा बनाने में मग्न थी. दोस्तों से बातें करते हुए अम्बर दूर से उसे देख रहा था. मन दिशा के पास बैठने को बेचैन था. कुछ देर बाद वह चाय बेचने वाले से दो कप चाय लेकर दिशा के पास चला गया.

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Romantic Story: कैसा यह प्यार है

लेखिका- प्रेमलता यदु 

Romantic Story: कैसा यह प्यार है -भाग 1

लेखिका- प्रेमलता यदु 

आज कक्षा 12वीं की बोर्ड परीक्षा का अंतिम पेपर था. मैं ने सारे पेपर बहुत अच्छे सौल्व किए. और तो और, मेरा फिजिक्स का पेपर भी उम्मीद से ज्यादा ही अच्छा रहा जिसे ले कर मैं वर्षभर परेशान रही, कभी समझ ही न पाई कि आखिर फिजिक्स में इतने सारे थ्योरम क्यों हैं. आज सफलतापूर्वक मेरी परीक्षा समाप्त हो गई जिस का मुझे बेसब्री से इंतजार था परंतु एग्जाम हौल से बाहर निकलते ही मेरा मन बेचैन हो उठा क्योंकि आज स्कूल में हमारा आख़री दिन था.

अब हम सभी संगीसाथी छूट जाएंगे, यह सोच कर ही हृदय की व्याकुलता बढ़ गई. क‌ई वर्षो का साथ एक क्षण में छूट जाएगा. सभी फ्रैंड अपनेअपने सपनों को पूरा करने अलगअलग दिशाओं में बंट जाएंगे. लेकिन, यह तो होना ही था. हर किसी को अपने जीवन में कुछ बनना था, एक मुकाम हासिल करना था. लेकिन मेरा सपना…मेरा सपना तो कुछ और ही था.

मैं बचपन से दादी की परियों वाली कहानियां सुनती आई थी जिन में परीलोक से सफेद घोड़े पर सवार सपनों का एक राजकुमार आता है जो राजकुमारी को अपने संग परियों के देश ले जाता है. मैं भी, बस, एक ऐसे ही राजकुमार को अपने नयनों में बसाए बैठी थी.

एक आम लड़की की भांति मैं खुली आंखों से यह सपना देखा करती, यही सोचा करती कि ग्रेजुएशन कंपलीट होते ही मेरे सपनों का राजकुमार आएगा, जिस के संग ब्याह रचा कर मैं एक हैप्पी मैरिड लाइफ़ गुजारूंगी.

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हम सभी फ्रैंड्स जुदा होने वाले थे. सभी एकदूसरे के गले लग रहे थे, टच में रहने का वादा कर रहे थे, स्लैम बुक में अपने फेवरेट हीरो, हीरोइन, फेवरेट डिशेस से ले कर अपने फास्ट और क्लोज फ्रैंड का नाम लिख रहे थे. मैं भी लिख रही थी और अपनी क्लोज फ्रेंड रूही के स्लैम बुक पर उस का नाम लिखते ही मैं रो पड़ी और वह भी अपना नाम देख मुझ से लिपट गई. फिर न जाने कितनी देर हम यों ही एकदूसरे से गले लग कर रोते रहे. फिर धीरे से रूही ने मेरे कानों में कहा- “आई होप, तेरे सपनों का राजकुमार तुझे जल्दी मिले.”

उस का इतना कहना था कि मुझे हंसी आ गई और फिर हम दोनों रोतेरोते हंस पड़े.

आज रात की ही ट्रेन से रूही अपने घर लौट रही थी क्योंकि वह होस्टलर थी और अब आगे की पढ़ाई रूही अपने ही शहर से करने वाली थी. हम कब मिलेंगे, इस बात का हमें कोई इल्म नहीं था. इसलिए रूही ने मुझ से वादा लिया कि जब भी मुझे मेरे ख्वाबों का शहजादा मिल जाएगा, मैं सब से पहले उसे ही इन्फौर्म करूंगी.

उस रोज़ हम ने सारा दिन साथ बिताया. स्कूल के सामने लगे चाट के ठेले पर हम ने मेरी पसंदीदा कटोरी चाट खाई, फिर रूही की मनपसंद तीखी वाली भेलपूरी, जिसे खाते ही कानों से धुआं और आंखों से पानी निकलने लगता लेकिन हमें तो भेल यही अच्छी लगती. उस के बाद आया पानीपूरी का नंबर और हम दोनों ने जीभर कर कभी खट्टी, कभी तीखी, कभी मीठी, कभी पुदीने वाली तो कभी दही वाली सभी प्रकार की पानीपूरियों का पूरापूरा लुत्फ़ उठाया.

घर जाने से पूर्व हम अपने स्कूल से लगे चर्च पर चले ग‌ए जहां हम अकसर जाया करते थे. वहां चर्च के भीतर जा कर मैं हमेशा की तरह रूही का नाम पुकारने लगी और उस का नाम इको होने लगा. साउंड का इस प्रकार इको होना मेरे मन को प्रफुल्लित करता और रूही को परेशान, वह बारबार मुझे ऐसा करने से रोकती और मैं उस का नाम दोहराती. जब भी हम चर्च आते, ऐसा ही करते और आज भी वही कर रहे थे. थोड़ी देर ऐसा करने के पश्चात हम घुटने टेक प्रेयर की मुद्रा में बैठ ग‌ए. एकदूसरे के लिए प्रण लिया कि सदा हमारी दोस्ती यों ही बरकरार रहे. फिर चर्च कंपाउंड में आ हम मदर मरियम के बुत को देखते रहे. मदर मरियम की गोद में यीशु को देख कर हम दोनों मंत्रमुग्ध हो गए.

चर्च से निकलने के बाद सामने ही बर्फ के गोले वाला दिख गया लेकिन तब तक हमारे पास पैसे खत्म हो चुके थे. रूही के पास केवल एक रुपए ही शेष बचा था, सो उस ने एक बर्फ का कालाखट्टा गोले का चुस्की ले लिया और हम दोनों ने मिल कर उस चुस्की का आनंद लिया. शाम होने वाली थी, मुझे घर लौटना था और रूही को होस्टल, एक बार फिर हम दोनों ने एकदूजे को गले लगा लिया और फिर हमारी आंखें नम हो गईं.

भारीमन से मैं घर लौटी तो मैं ने देखा, मेरा छोटा भाई जय अपना बैग पैक कर रहा है और अम्मा मिठाइयां बना रही है. तभी अम्मा मुझे देखते ही बरस पड़ी- “पीहू, तू अभी आ रही, मैं ने तुझ से कहा था न, एग्जाम खत्म होते ही सीधे घर आना लेकिन तुझे सुनना कहां है. ज़रूर तू अपनी उस बेस्ट फ्रैंड रूही के साथ घूम रही होगी. अच्छा अब जल्दीजल्दी मुंहहाथ धो कर किचन में आ के मेरा हाथ बंटा, कल मुंहअंधियारे ही हमें गांव निकलना है.”

यह सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ी और “जी अम्मा, अभी आती हूं” कह फौरन हाथमुंह धो किचन में आ अम्मा का हाथ बंटाने लगी. हर साल स्कूल की परीक्षाएं समाप्त होते एवं गरमी की छुट्टियां लगते ही हम दादी के पास गांव बलिया चले जाते. वहां चाचा का परिवार दादी के साथ रहता था. चाचा के 2 बच्चे हैं. हमारी बूआ भी अपने दोनों बच्चों के संग वहीं गांव आ जातीं. पूरा परिवार इकट्ठा होता.

सुबहसवेरे गांव के लिए निकलना है इस कल्पना मात्र से ही मन रोमांचित हो उठा और मैं सारी रात करवटें बदलते हुए सुबह होने का इंतजार करने लगी. गांव में बिताए सुनहरे लमहों को स्मरण कर आज भी वही आनंद की अनुभूति हो रही थी.

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हर साल गरमी की छुट्टियों में हम सभी बच्चे गांव में पूरा दिन धमाचौकड़ी मचाते, कभी भरी दोपहरी में बेर तोड़ने निकल जाते तो कभी किसी आम के बागीचे में घुस कर कच्चेपक्के, खट्टेमीठे, छोटेबड़े जो भी हमारे पहुंच के भीतर होता सब तोड़ लेते. कभीकभी तो पेड़ पर भी चढ़ जाते. और तो और. कच्चे रास्तों पर जानबूझ कर धूल उड़ाते हुए ऐसे चलते जैसे कोई पराक्रमी कार्य कर रहे हों.

खेतों की मेड़ों पर बनी पगडंडियों में अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा बैलेंस करते हुए गिरने से बचने का प्रयत्न करते और एकदूसरे से आगे निकल जाने की होड़ होती. मैं हमेशा सब से आगे निकल जाती. जिस दिन हम घर से बाहर नहीं जा पाते, उस रोज़ तो पूरा दिन छत पर पतंगबाजी में बीतता. दिन चाहे जैसे भी बीते लेकिन रात होते ही हम सभी बच्चे दादी को घेर कर बैठ जाते और उन से राजकुमारी, राजकुमार और परियों की कहानियां अवश्य सुनते. इन्हीं सब बातों को याद करते हुए न जाने मैं कब निद्रा की आगोश में चली गई.

खटरपटर की आवाज़ से नींद खुली तो देखा अम्मा, बाबूजी और जय सब जाग गए है. तभी अम्मा ने पुकार लगाई- “पीहू, जल्दी उठो. औटोरिकशा बस आने ही वाला है. जैसे ही मेरे कानों में यह वाक्य पड़ा, मैं फटाफट उठ कर तैयार हो गई. थोड़ी ही देर में कालोनी के चौक से औटो रिकशा भी आ गया. रिकशा चल पड़ा.

भोर की ठंडीठंडी सुहावनी पुरवा फिज़ा को खुशगवार बना रही थी. सूर्य उदय और चंद्रमा का बादलों में धीरेधीरे छिपने का यह वक्त व दो वेलाओ के संगम का यह दृश्य बड़ा ही अलौकिक और मनभावन प्रतीत हो रहा था. सिंदूरी रंग लिए हुए आसमां आकर्षक लग रहा था. कुदरत की यह चित्रकारी अद्भुत, अद्वितीय है, इस बात का एहसास मुझे इसी क्षण हुआ.

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टेसू के फीके लाल अंगार: क्या था सिमरन के अतीत की यादों का सच

टेसू के फीके लाल अंगार- भाग 1 : क्या था सिमरन के अतीत की यादों का सच

लेखक- शोभा बंसल

सिमरन के पांव आज जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस के होमस्टे को 15 दिन के लिए बुक जो कर लिया गया था.

वैसे तो यह उत्साह उस में हमेशा से ही बना रहता है, क्योंकि पुडुचेरी में सिम्मी होमस्टे अपनेपन और पंजाबियत के लिए जो प्रसिद्ध है.

चंडीगढ़ से कोई डाक्टर राजीव यहां कौंफ्रेंस पर आ रहे थे और वह कुछ दिन यहां पर अपनी पत्नी के साथ रहने वाले थे, सो होमस्टे में स्पेशल तैयारियां चल रही थीं.

वैसे भी सिमरन का चंडीगढ़ से पुराना नाता रहा है, तो उस का उत्साह देखते ही बनता था. वजह, इस चंडीगढ़ से कितनी खट्टीमीठी यादें जुड़ी हैं. अतीत के पन्ने फड़फड़ा उठे.

पंजाब के नाभा की रहने वाली सिमरन कभी अपने दारजी और बेबे की आंखों का तारा थी. सिमरन, मतलब जिसे इज्जत से याद किया जाए. पर उस ने तो ऐसा कारनामा किया है कि शायद पीढ़ियों तक कोई भी उस के खानदान में सिमरन का नाम भूल कर भी नहीं लेगा. उस का तो जीतेजी उस की यादों के साथ और उस के नाम के साथ शायद पिंडदान कर दिया गया था. उस ने लंबी सांस खींचते सोचा, क्यों कट्टरपंथी होते हैं परिवार वाले?

सिमरन के स्कूल पास करने के बाद उस के मातापिता ने बड़े अरमानों और नसीहतों के साथ उसे आगे की पढ़ाई के लिए चंडीगढ़ भेज दिया.

खुलेखुले माहौल ने भोलीभाली सिमरन को अलग ही दुनिया में ला पटका. यह तो पहला पड़ाव था. पता नहीं ऐसे कितने ही पड़ाव उसे अभी देखने थे.

अब कालेज उस के लिए पढ़ाई के साथ आजादी और मौजमस्ती का अड्डा भी था. तब लड़कियों का इज्जत व मान भी था. अगर रैगिंग और छेड़छाड़ होती भी थी तो हेल्दी तरीके से. आज की तरह अनहेल्दी एटमोस्फेयर न था.

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अकसर जब उस की खूबसूरती पर लड़के फब्ती कसते तो ऊपर से तो वह बेपरवाह रहती, पर अंदर ही अंदर उसे अपने रूप पर फख्र महसूस होता.

एक दिन जब वह अपने रूममेट स्नेहा के साथ लाल फुलकारी दुपट्टा पहन कालेज पहुंची, तो अचानक
‘लाल छड़ी मैदान में खड़ी…’
का कोरस बज उठा.

गुस्से में उस ने जो पलट कर देखा तो सब शरारती लड़के सीटियां मारने लगे. तभी एक सीनियर ने सब को हाथ के इशारे से रोका. उस हरी आंखों वाले नौजवान ने आगे बढ़ कर डायलौग मारा, “कुड़िए तेरी मंगनी हो गई, तो फिर चाय पार्टी दे.”

यह सुन सिमरन के गाल शर्म से लाल हो उठे और उस ने फुलकारी से अपना मुंह ढक लिया.

यह देख उस सीनियर ने बड़ी अदा से फिल्मी अंदाज में गाना शुरू कर दिया, “रुख से जरा नकाब हटा दो मेरे हुजूर, जलवा फिर एक बार दिखा दो मेरे हुजूर…”

सिमरन ने गुस्से में पैर पटक कर जो जाना चाहा, तो उस ने सिमरन के पैरों में झुक कर अदा से बैठते हुए नया तराना शुरू किया, “अभी ना जाओ छोड़ कर, के दिल अभी भरा नहीं…”

और कुछ सीनियर लड़केलड़कियां स्नेहा, सिमरन और उस हरी आंखों वाले सीनियर के चारों तरफ घेरा डाल इस छेड़छाड़ का मजा लेने लगे और मिल कर गाने लगे, “कहां चल दिए इधर तो आओ हमारे दिल को यूं ना तड़पाओ.”

तभी किसी ने कहा, “पैट्रिक, भागो. प्रिंसिपल सर इधर ही आ रहे हैं.”

ऐसा सुनते ही सारे सीनियर खिसक लिए.

उस हरी आंखों वाले पैट्रिक की शरारत अकसर सिमरन के जेहन में आ कर उसे गुदगुदा जाती.

फिर एक दिन वह रिकशे में बैठ कर सैक्टर 17 जा रही थी, तभी एक मोटरसाइकिल उस की बगल से गुजरी और हेलमेट पहने किसी नौजवान ने फब्ती कसी, “अगर चुन्नी लेने का इतना ही शौक है तो ढंग से लिया करो. नहीं तो किसी दिन गले में फांसी का फंदा बन जाएगी…”

जब तक वह कुछ रिएक्ट करती और अपनी चुन्नी संभालती, तब तक उस के गले से चुन्नी फिसल कर रिकशे के पहिए में फंस गई.

यह सब इतनी जल्दी और अचानक हुआ कि उस की चीख निकल गई. लोग जब तक इकट्ठे होते, तब तक पैट्रिक ने अपना हेलमेट उतार उस की चुन्नी को पहिए से अलग किया और रिकशे वाले को पैसे दे रफादफा होने को कहा. फिर आंखें तरेर कर सिमरन को अपने साथ मोटरसाइकिल पर बैठा होस्टल वापस ले आया.

सिमरन को याद हो आया,
“बेबे सही कहती थी, चुन्नी जमीन को छूनी नहीं चाहिए. चुड़ैल चिमट जाती हैं.”

शायद उस की चुन्नी के सहारे इश्क चुड़ैल उस से चिपट चुकी थी.

वह तो बस पैट्रिक की हरी आंखों में डूबने को उतावली थी. जितना वह पैट्रिक को पाने की, छूने की कोशिश करती, उतना ही वह पता नहीं क्यों परेशान हो जाता और शादी से पहले ऐसे संबंधों को गलत बताता. वह उस के इस व्यवहार पर वारीवारी हो जाती.

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आज वह महसूस कर रही है कि सच में कुछ इनसान अंदर और बाहर से कितने अलग होते हैं. पता नहीं, कब गिरगिट की तरह रंग बदल ले. वक्त भी तो गिरगिट की तरह रंग बदलता है.

उन दिनों धीरेधीरे उन दोनों के बीच दोस्ती परवान चढ़ने लगी. अब पढ़ाई के साथ सिमरन और पैट्रिक कल्चर क्लब के एक्टिव मेंबर बन चुके थे.

उस की रूममेट स्नेहा ने उसे कई बार पैट्रिक के साथ ज्यादा नजदीकियां न बढ़ाने का इशारा भी किया. पर उसे उस की ईर्ष्या समझ सिमरन ने अनसुना कर दिया, क्योंकि सिमरन पर तो जैसे पैट्रिक की हरी आंखों का सम्मोहन छाया था. उस में आए बदलाव को उस की बेबे ने भी महसूस किया और उस की शादी के लिए दारजी पर दबाव डालना शुरू कर दिया.

इधर समय ने करवट ली. उन के कालेज के इंटर कालेज फेस्टिवल में उन दोनों का ‘हीररांझा’ नाटक देख एक प्रोड्यूसर ने उन्हें अपनी अगली पिक्चर में नायकनायिका बनाने का औफर दिया और अपना विजिटिंग कार्ड थमा दिया.

अब वे दोनों इस विजिटिंग कार्ड के पंखों पर सवार हो यथार्थ की दुनिया से सपनों की दुनिया में विचरने लगे.
इधर दोनों के फाइनल्स हुए, उधर सिमरन की शादी कपूरथला की जानीमानी अमीर पार्टी से पक्की हो गई.

पैट्रिक को भी केरल वापस आ कर चाय बागान संभालने का हुक्ममनामा मिला. दोनों के ही नायकनायिका बन दुनिया के दिलों पर राज करने के सपने चकनाचूर हो गए.
न तो सिमरन पक्की गृहस्थन बनना चाहती थी और न ही पैट्रिक चाय बागान का मालिक – एक ठेठ व्यापारी.

तभी जैसे उस की तंद्रा को तोड़ते नीचे रिसेप्शन से मैसेज मिला कि मिस्टर और मिसेज राजीव पहुंच गए हैं. अपने को एक बार शीशे में निहार सिमरन नीचे भागी.

होमस्टे का स्टाफ अतिथियों के लिए फ्रेश ड्रिंक्स और आरती का थाल ले कर स्वागत की पूरी तैयारी के साथ खड़ा था. पहला इंप्रेशन अगर अच्छा रहा तो खुदबखुद उस के होमस्टे की पब्लिसिटी हो जाएगी.

यह सोच कर सिमरन के होठों पर स्मित मुसकान आ गई. पर, जैसे ही उस ने राजीव दंपती को देखा तो लगा मानो पैरों तले जमीन निकल गई हो और उस के होठों पर आई मुसकान मानो वहीं जम गई. उस के सामने तो उस की कालेज के जमाने की रूममेट स्नेहा अपने पति डाक्टर राजीव के साथ खड़ी थी.

इधर स्नेहा भी सिमरन को यों यहां पुडुचेरी में होमस्टे की मालकिन देख ठगी सी रह गई. यह तो पैट्रिक के साथ मुंबई भाग गई थी. फिर यहां कैसे…?

इधर सिमरन ने भी वक्त की नब्ज देख गर्मजोशी से स्नेहा का हाथ पकड़ा और उस के गले लग गई.

डाक्टर राजीव ने स्नेहा की तरफ सवालिया निगाहों से देखा, तो उस ने इशारे से सब बाद में बताने को कहा. शायद वो यह नहीं देख पाए कि उस का इशारा करना सिमरन की निगाह से नहीं छुप पाया था.

एकबारगी तो सिमरन के चेहरे का रंग उड़ गया. कहीं उस का अतीत उस के सुखद और शांत वर्तमान और भविष्य पर हावी हो कर उथलपुथल न कर दे. फिर जब डाक्टर राजीव रिसेप्शन पर पेपर वर्क पूरा कर रहे थे, तो सिमरन ने स्नेहा का हाथ दबाते हुए उस के कान में कहा, “डा. राजीव को मेरे बारे में कुछ भी बताने से पहले मेरे से मिल लेना, प्लीज.”

उस दिन डा. राजीव की पुडुचेरी के एक आश्रम में कौंफ्रेंस थी, तो स्नेहा पुरानी सखी सिमरन से मिलबैठ बातें करने का बहाना बना वहीं होमस्टे में रुक गई. क्योंकि सिमरन का अतीत जानने की उस को भी उत्सुकता थी.

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उधर पुडुचेरी के सूर्यास्त की लालिमा सदैव ही सिमरन को उदास और एकाकी करती आई है. आज वह अपने कमरे में बैठ चाह कर भी अपनी इस अवसाद भरी सोच से बाहर नहीं निकल पा रही थी.

स्नेहा ने उसे अतीत के गहरे अंधेरे कुएं में जो धकेल दिया था. तभी स्नेहा ने हौले से दरवाजा थपथाया. अपने व्यथित मन को सहेज सिमरन ने प्रोफेशनल होस्ट और दोस्त की इमेज पहन ली.

स्नेहा ने कमरे में इधरउधर झांकते हुए पूछा, “पैट्रिक कहां है?”

सिमरन ने फीकी मुसकान के साथ कहा कि वह यहां अपनी बेटी के साथ अकेली ही रहती है और यह होमस्टे उस का ही है.

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आईना- भाग 1 : रिश्तों में संतुलन ना बनाना क्या शोभा की एक बढ़ी गलती थी

आंखें फाड़फाड़ कर मैं उस का चेहरा देखती रह गई. शोभा के मुंह से ऐसी बातें कितनी विचित्र और बेतुकी सी लग रही हैं, मैं सोचने लगी. जिस औरत ने पूरी उम्र दिखावा किया, अभिनय किया, किसी भी भाव में गहराई नहीं दर्शा पाई उसी को आज गहराई दरकार क्यों कर हुई? यह वही शोभा है जो बिना किसी स्वार्थ के किसी को नमस्कार तक नहीं करती थी.

‘‘देखो न, अभी उस दिन सोमेश मेरे लिए शाल लाए तो वह इतनी तारीफ करने लगी कि क्या बताऊं…पापा इतनी सुंदर शाल लाए, पापा की पसंद कितनी कमाल की है. पापा यह…पापा वह,’’ शोभा अपनी बहू चारू के बारे में कह रही थी, ‘‘सोमेश खुश हुए और कहने लगे कि शोभा, तुम यह शाल चारू को ही दे दो. मैं ने कहा कि इस में देनेलेने वाली भी क्या बात है. मिलबांट कर पहन लेगी. लेकिन सोमेश माने ही नहीं कहने लगे, दे दो.

‘‘मेरा मन देने को नहीं था. लेकिन सोमेश के बारबार कहने पर मैं उसे देने गई तो चारू कहने लगी, ‘मम्मी, मुझे नहीं चाहिए, यह शेड मुझ पर थोड़े न जंचेगा, आप पर ज्यादा जंचेगा.’

‘‘मैं उस की बातें सुन कर हैरान रह गई. सोमेश को खुश करने के लिए इतनी तारीफ कर दी कि वह भी इतराते फिरे.’’

भला तारीफ करने का अर्थ यह तो नहीं होता कि आप को वह चीज चाहिए ही. मुझे याद है, शोभा स्वयं जो चीज हासिल करना चाहती थी उस की दिल खोल कर तारीफ किया करती थी और फिर आशा किया करती थी कि हम अपनेआप ही वह चीज उसे दे दें.

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हम 3 भाई बहन हैं. सब से छोटा भाई, शोभा सब से बड़ी और बीच में मैं. मुझे सदा प्रिय वस्तु का त्याग करना पड़ता था. मैं छोटी बहन बन कर अपनी इच्छा मारती रही पर शोभा ने कभी बड़ी बहन बन कर त्याग करने का पाठ न पढ़ा.

अनजाने जराजरा मन मारती मैं इतनी परिपक्व होती गई कि मुझे उसी में सुख मिलने लगा. कुछ नया आता घर में तो मैं पुलकित न होती, पता होता था अगर अच्छी चीज हुई तो किसी भी दशा में नहीं मिलेगी.

‘‘एक ही बहू है मेरी,’’ शोभा कहती, ‘‘क्याक्या सोचती थी मैं. मगर इस के तो रंग ही न्यारे हैं. कोई भी चीज दो, इसे पसंद ही नहीं आती. एक तरफ सरका देगी और कहेगी नहीं चाहिए.’’

शोभा मेरी बड़ी बहन है. रक्त का रिश्ता है हम दोनों में मगर सत्य यह है कि जितना स्वार्थ और दोगलापन शोभा में है उस के रहते वह अपनी बहू से कितना अपनापन सहेज पाई होगी मैं सहज ही अंदाजा लगा सकती हूं.

चारू कैसी है और उसे कैसी चीजें पसंद आती हैं यह भी मैं जानती हूं. मैं जब पहली बार चारू से मिली थी तभी बड़ा सुखद सा लगा था उस का व्यवहार. बड़े अपनेपन से वह मुझ से बतियाती रही थी.

‘‘चारू, शादी में पहना हुआ तुम्हारा वह हार और बुंदे बहुत सुंदर थे. कौन से सुनार से लिए थे?’’

‘‘अरे नहीं, मौसीजी, वे तो नकली थे. चांदी पर सोने का पानी चढ़े. मेरे पापा बहुत डरते हैं न, कहते थे कि शादी में भीड़भाड़ में गहने खो जाने का डर होता है. आप को पसंद आया तो मैं ला दूंगी.’’

कहतीकहती सहसा चारू चुप हो गई थी. मेरे साथ बैठी शोभा की आंखों को पढ़तीपढ़ती सकपका सी गई थी चारू. बेचारी कुशल अभिनेत्री तो थी नहीं जो झट से चेहरे पर आए भाव बदल लेती. झुंझलाहट के भाव तैर आए थे चेहरे पर, उस से कहां भूल हुई है जो सास घूर रही है. मौसी अपनी ही तो हैं. उन से खुल कर बात करने में भला कैसा संकोच.

‘‘जाओ चारू, उधर तुम्हारे पापा बुला रहे हैं. जरा पूछना, उन्हें क्या चाहिए?’’ यह कहते हुए शोभा ने चारू को मेरे पास से उठा दिया था. बुरा लगा था चारू को.

चारू के उठ कर जाने के बाद शोभा बोली, ‘‘मेरी दी हुई सारी साडि़यां और सारे गहने चारू मेरे कमरे में रख गई है. कहती है कि बहुत महंगी हैं और इतनी महंगी साडि़यां वह नहीं पहनेगी. अपनी मां की ही सस्ती साडि़यां उसे पसंद हैं. सारे गहने उतार दिए हैं. कहती है, उसे गहनों से ही एलर्जी है.’’

शोभा सुनाती रही. मैं क्या कहती. एक पढ़ीलिखी और समझदार बहू को उस ने फूहड़ और नासमझ प्रमाणित कर दिया था. नाश्ता बनाने का प्रयास करती तो शोभा सब के सामने बड़े व्यंग्य से कहती, ‘‘नहीं, नहीं बेटा, तुम्हें हमारे ढंग का खाना बनाना नहीं आएगा.’’

‘‘हर घर का अपनाअपना ढंग होता है, मम्मी. आप अपना ढंग बताइए, मैं उसी ढंग से बनाती हूं,’’ चारू शालीनता से उत्तर देती.

‘‘नहीं बेटा, समझा करो. तुम्हारे पापा  और अनुराग मेरे ही हाथ का खाना पसंद करते हैं.’’

अपने चारों तरफ शोभा ने जाने कैसी दीवार खड़ी कर रखी थी जिसे चारू ने पहले तो भेदने का प्रयास किया और जब नहीं भेद पाई तो पूरी तरह उसे सिरे से ही नकार दिया.

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‘‘कोई भी काम नहीं करती. न खाना बनाती है न नाश्ता. यहां तक कि सजतीसंवरती भी नहीं है. अनुराग शाम को थकाहारा आता है, सुबह जैसी छोड़ कर जाता है वैसी ही शाम को पाता है. मेरे हिस्से में ऐसी ही बहू मिलने को थी,’’ शोभा कहती.

‘‘कल चारू को मेरे पास भेजना. मैं बात करूंगी.’’

‘‘तुम क्या बात करोगी, रहने दो.’’

‘‘किसी भी समस्या का हल बात किए बिना तो नहीं निकलेगा न.’’

शोभा ने साफ शब्दों में मना कर दिया. वह यह भी तो नहीं चाहती थी कि उस की बहू किसी से बात करे. मैं जानती हूं, चारू शोभा के व्यवहार की वजह से ही ऐसी हो गई है.

‘‘बस भी कीजिए, मम्मी. मुझे भी पता है कहां कैसी बात करनी चाहिए. आप के साथ दम घुटता है मेरा. क्या एक कप चाय बनाना भी मुझे आप से सीखना पड़ेगा. हद होती है हर चीज की.’’

चारू एक बार हमसब के सामने ही बौखला कर शोभा पर चीख उठी थी. उस के बाद घर में अच्छाखासा तांडव हुआ था. जीजाजी और शोभा ने जो रोनाधोना शुरू किया कि उसी रात चारू अवसाद में चली गई थी.

अनुराग भी हतप्रभ रह गया था कि उस की मां चारू को कितना प्यार करती हैं. यहां तक कि चाय भी उसे नहीं बनाने देतीं. नाश्ता तक मां ही बनाती हैं. बचपन से मां के रंग में रचाबसा अनुराग पत्नी की बात समझता भी तो कैसे.

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